जिस देश को अपनी भाषा और अपने साहित्य के गौरव का अनुभव नहीं है, वह उन्नत नहीं हो सकता। - देशरत्न डॉ. राजेन्द्रप्रसाद।

मैं हार गया हूं

 (काव्य) 
Print this  
रचनाकार:

 भगवतीचरण वर्मा

निःसीम नापने चले, मुबारक हो तुम को;
पर दोस्त नाप लो तुम पहले अपनी सीमा।
ऐसा कोई उल्लास आज तक नहीं दिखा,
जो पड़ न गया हो यहां थकावट से धीमा।
अक्षय हो ऐसी आयु किसी को कहां मिली?
अव्यय हो ऐसी सांस किसी ने कब पाई?
मैं हार गया हूं खोज-खोजकर वह समर्थ,
जो नाप सका हो अपने दिल की गहराई।
आवाज नापने वाले, तुम सच-सच कह दो,
क्या नाप सके हो तुम धरती की मौन व्यथा?
जो हरित शस्य, निर्मल जल से भी मिट न सकी,
वह भूख-प्यास की लिखी रक्त से करुणा कथा।
ऐसी कब कोई चाह आह जो बन न गई?
ऐसा प्रकाश है कहां तिमिर में खो न गया?
मैं हार गया हूं खोज-खोजकर वह चेतन,
जो चलते-चलते बीच राह में सो न गया।
है ज्ञान समर्थ, महान--नहीं इनकार मुझे,
कल्पना-पंख पर लक्ष्यहीन लड़ने वाले।
पर देखो, मस्तक पर अभाव, असफलता के
हैं घिरे हुए दुर्भेद्य मेघ काले-वाले।
है प्रेम सत्य, भावना सत्य, अस्तित्व सत्य;
पर तुम में है भय, शंका का अविवेक भरा।
तुम अन्तरिक्ष की सुन्दरता पर मुग्ध-विसुध
तुम ने कुरूप कर डाली है रसवती धरा।

- भगवतीचरण वर्मा

Back
 
Post Comment
 
 

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश