घडी-घड़ी गिन, घड़ी देखते काट रहा हूँ जीवन के दिन क्या सांसों को ढोते-ढोते ही बीतेंगे जीवन के दिन? सोते जगते, स्वप्न देखते रातें तो कट भी जाती हैं, पर यों कैसे, कब तक, पूरे होंगे मेरे जीवन के दिन?
कुछ तो हो, हो दुर्घटना ही मेरे इस नीरस जीवन में। और न हो तो लगे आग ही इस निर्जन बाँसी के बन में। ऊब गया हूँ सोते-सोते, जागें मुझे जगाने लपटें, गाज़ गिरे, पर जगे चेतना प्राणहीन इस मन-पाहन में !
हाहाकार कर उठे आत्मा, हो ऐसा आघात अचानक। वाणी हो चिर-मूक, कहीं से उठे एक चीत्कार भयानक। वेध कर्णयुग बधिर बना दे उन्हें चौंक आँखें फट जाएँ उठे एक बालोकआलोक झुलसता (रवि ज्यों नभ मे) वह दृग-तारक।
कुछ न हुआ! भूगर्भ न फूटा। हाय न पूरी हुई कामना। आँखों का अब भी दीवारों से होता है रोज़ सामना। कल की तरह आज भी बीता, कल भी रीता ही बीतेगा, बिना जले ही राख हो गई धुनी रूई-सी अचिर कल्पना ।
- नरेन्द्र शर्मा
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