गोटिया और लूसी के दादाजी का नाम मस्त राम है। नाम के अनुरूप वह हमेशा मस्त ही रहते हैं। व्यर्थ की चिंताओं को पाल कर रखना उनकी आदतों में शुमार नहीं है ।अगर भूले भटके कोई चिंता आ ही गई तो उसे वह सांप की केंचुली की तरह उतार फेंकते हैं। चिंता भी अकसर उनसे दूर ही रहती है। वह जानती है कि यह मस्त राम नाम प्राणी उसे अपने पास टिकने नहीं देगा ।इसलिए उसके पास जाने से क्या लाभ ।और वह दूसरे ठिकाने तलाशने निकल जाती है।
मस्तराम की मस्ती का राज है, नन्हें-मुन्ने बच्चे। अधिकाँश समय वह बच्चों के साथ बिताते हैं , उनके साथ खेलते हैं और मस्ताते रहते हैं। यूँ कहें कि नन्हे-मुन्ने उनके खिलौने हैं। मस्त राम पचहत्तर के होने को हैं, पर उनके चेहरे पर नूर अभी भी बाकी है। बच्चों के साथ लूडो, चाइनीज़ चेकर अष्टा चंगा और अट्ठू तो खेलते ही हैं, हाथ में बल्ला लेकर क्रिकेट भी खेल लेते हैं। उनके मस्त स्वभाव के कारण घर के बच्चों के साथ-साथ मोहल्ले के लोग भी उन्हें दद्दू कहने लगे हैं। कुछ लिखने-पढ़ने के भी शौकीन हैं, इसलिए सुबह चाय की चुस्कियों के साथ अखबार भी पीते रहते हैं । यदि इसी बीच नन्हे-मुन्ने आ धमके तो समझो अखबार भी पानी मांगने लगता है पीने के लिए। "दो में दो जोड़े तो बच्चो कैसे हो जाते हैं चार, मुझे फटाफट दे दो उत्तर या फिर हो पिटने तैयार।"
इस तरह की पहेलियाँ चल पड़ती हैं। मज़ा तो तब आता है कि जब उनके द्वारा पूछे गए सवालों के जबाव उनके पास भी नहीं होते। बच्चे हँसते हैं, "आपको भी नहीं मालूम दद्दू तो पूछते ही क्यों हैं ?" इसका जबाव सीधा सा होता है उनका। "दुनियां में बहुत सी चीजें हैं जो सबको नहीं मालूम। आकाश में तारे कितने हैं मालूम है क्या? समुद्र में कितने लीटर पानी है बताओ? नहीं मालूम न। तो मुझे भी नहीं मालूम।" इतना कहकर जोरों से हँस देते हैं। "पर बेटे हम मालूम जरूर करेंगे कि आसमान में तारे, कुल कितने हैं, सागर में कितना पानी है। चलते रहो जब तक मंजिल न मिल जाए। यही तो जीवन है।" बच्चे हाँ में हाँ मिला देते हैं।
दद्दू को आजकल एक बीमारी हो गई है, "सर्वाइकल" लगातार पढ़ते रहते हैं, लिखते रहते हैं तो यह तो होना ही थी। कम्प्यूटर पर घंटों बैठकर लिखना इस बीमारी को आमंत्रण देना है। जब आमंत्रित कर ही लिया है तो फिर क्या, मुड़े सिर पर ओलों की मार तो झेलना ही पड़ेगी न। कवितायें भेजना फिर कहाँ छपीं हैं, इसकी तलाश जेम्स बांड 007 बन कर करना, उनके लिए एक महान कार्य है। डॉक्टर ने उन्हें गले में एक पट्टा लगाने की सलाह दी है और सख्त आदेश दिया है कि मोटे तकिया नाम की वस्तु से दूर रहें। बिल्कुल पतला तकिया उपयोग करें। सोते समय गरदन ऊंची न रहे। तख़्त या दीवान पर सोने की सलाह दी है, जिस पर रुई वाला गद्दा हो। बिना तकिया के सोने को भी मना किया है। दद्दू ने दो सौ ग्राम रुई वाला तकिया बनवाया है। और बाकायदा नारियल पुष्प चढ़ाकर उसका नामकरण संस्कार किया है। उस तकिये का नाम रखा गया है।, "पिद्दू।" अब वह दद्दू का पिद्दू कहलाता है। यही पिद्दू वह अपने सिर के नीचे सोते समय रखते हैं। बाहर के कमरे के दीवान पर यही तकिया सोने के पहले बिस्तर के साथ ही सज जाता है। यदि पिद्दू जगह पर नहीं मिला तो दद्दू का पारा चढ़ जाता है।" मेरा पिद्दू कहाँ गया, लूसी.. मेरा पिद्दू तो ले आओ। अगर लूसी ने नहीं सुना तो गोटिया को आवाज़ लगते हैं। अरे! क्या सुनाई नहीं देता कब से चिल्ला रहा हूँ "... परन्तु इसी बीच उनका पिद्दू जगह पर बिराजमान हो जाता है। पिद्दू भी दद्दू की तरह रंगीन मिजाज है। जिस रंग की चादर बिछती पिद्दूजी भी उसी रंग में रंगे होते हैं। पिद्दूजी के ढेर सारे कवर हैं जितने रंग के चादर उतने रंग के खोल। पतला-सा पिद्दू आजकल चर्चा का विषय है। पड़ोसी भी जानने लगे हैं दद्दू जिस पतले तकिये को सिरहाने रखते हैं, वह पिद्दू कहलाता है। लूसी और गोटिया को दद्दू ने यह जुम्मेवारी सौंपी है कि उनके सोने के पहले पिद्दू हाज़िर कर दी जाए।
लूसी और गोटिया घर के ऊपरवाली मंजिल पर अपने पापा और मम्मी के साथ ही सोते हैं। दद्दू का कमरा नीचे है। यहीं पर उनके लिखने-पढ़ने का सामान रहता है। पुस्तकों से भरी अलमारी कागज, कलम और एक छोटा-सा कम्प्यूटर भी दाल भात में मूसर चंद की तरह बिराजमान है। दद्दू पढ़ते-पढ़ते या कहानी कविता लिखते-लिखते ही बिस्तर पर सो जाते है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि पिद्दू उनका साथ छोड़ देता है। या असावधानीवश वह छोटी सी जान बिस्तरों में कहीं दबी रह जाती है अथवा बच्चे तकिया-तकिया के खेल में उसे ऊपर ले भागते हैं और वहीं छोड़ देते हैं। दद्दू को गुस्सा तो बहुत आता है परन्तु उन्होंने किताबों में पढ़ा है कि गुस्सा करना ठीक नहीं, सो करना चाहते हुए भी चुप रहते हैं, किताबें न झूठी पड़ जाएंगी। चादर मोड़कर तकिया बना लेते हैं। पर दूसरे दिन सब की खबर लेते हैं। प्रेम से लूसी के कान पकड़कर ऐंठ देते हैं या गोटिया को हलकी चपत गाल में मार देते है। दोनों बच्चे अब महसूस करने लगे हैं कि दद्दू का पिद्दू उनके सोते समय बिस्तर में रखना अनिवार्य है। बिना पिद्दू के दद्दू को बहुत कष्ट होता है।
उस दिन लूसी की रात को दो बजे नींद खुली तो उसने पाया कि पिद्दू तो उसके बिस्तर में ही एक तरफ पड़ा है। आज ही उसे पिद्दू पर से डाँट पड़ी थी। "उफ़ दद्दू, आज फिर बिना पिद्दू के ही सोये होंगे, वह आज ही तो बता रहे थे कि उन्हें तभी नींद ठीक आती है जब उन का पिद्दू उनके सिरहाने हो।" वह धीरे से बड़बड़ाई। वह उठकर बैठ गई। गोटिया से अम्मा ने कहा तो था कि पिद्दू नीचे पहुंचा देना। शायद वह भूल गया। "कितना लापरवाह है यह गोटिया। मैं भी तो भूल गई , दादाजी ने कितनी बार समझाया है, दिन भर कुछ भी करो परन्तु शाम को पिद्दू जगह पर होना चाहिए। दादाजी बेचारे करवट बदल रहे होंगे।" सोचते-सोचते वह उठी पिद्दू उठाया और दरवाजा खोलकर नीचे ऊतर गई। कड़क, खून जमा देने वाली ठण्ड थी। वह कांपती-कांपती नीचे बरामदे में पहुँच गई। दद्दू की परेशानी वाली सोच ने उसकी ठण्ड को कम कर दिया था। नीचे हाल का दरवाजा बंद था। पहले हाल का दरवाजा खुले तो दद्दू के कमरे तक पहुंचे। एक बार दरवाजे पर हलकी सी थाप दी। भीतर से कोई जबाव नहीं आया। डोर बेल बजाकर वह घर के लोगों को परेशान नहीं करना चाहती थी। यही सोचकर हलकी थाप देकर ही दरवाजा खुलवाने का प्रयास कर रही थी। दो, तीन क्या बल्कि चार, पांच बार दरवाजा पीट चुकी थी परन्तु कोई जबाव नहीं मिल रहा था। सोचा, जाकर चुपचाप सो जाए परन्तु बेचारे दद्दू! बिना पिद्दू के कैसे करवटें बदल रहे होंगे। नहीं, नहीं पिद्दू देकर ही जाएगी। 'इधर दद्दू को कुछ हलचल दरवाजे पर प्रतीत तो हो रही थी परन्तु नींद की खुमारी और यह सोच कि इतनी रात गए कौन होगा, उन्होंने ध्यान नहीं दिया। एक बार फिर थपकी दी लूसी ने। कौन? कौन है बाहर? दद्दू का स्वर सुनाई दिया लूसी को। "मैं...मैं.. दद्दू लू सी .......।"
"लूसी इतनी रात गए!" दद्दू ने दरवाजा खोल दिया।
"दद्दू आपका पि ददु...दु ....... ।" वह ठण्ड से काँप रही थी, मुंह से बोल भी ठीक से नहीं निकल पा रहे थे।"
"इतनी रात में, ऐसी ठण्ड में! तुमसे किसने कहा था पिद्दू लाने को?
"दद्दू रात को हम भूल गए थे न, आपको नीद नहीं..........। आपने कहा था कि बिना पिद्दू के नींद नहीं आती।"
"अरे पगली ये थोड़ी कहा था कि इतनी रात को....."
"जा ऊपर जा सो जा ।" दद्दू ने पिद्दू उसके हाथ से खींच लिया था।
उनको दिन में बच्चों द्वारा बोले गए शब्द कि .. "कर दूँ तकिया गरम कि इतना, कोई नहीं छू सकता है। किन्तु हाय क्या करूँ हमारा, पेट जोर से दुखता है।" स्मरण हो आये।
बच्चे ऐसा ही गाकर तो दिन में ऊपर खेल रहे थे। और वह नीचे अपने कमरे से ही उनकी कविता का आनंद ले रहे थे। और वह आनंद लूसी का प्यार देखकर दुगना हो गया था।
उन्हें लगा कि तकिया बहुत गरम हो गया है और उन्होंने उसे अपने सिरहाने रख लिया, जो उन्हें गरमी का अहसास करा रहा था।
--प्रभुदयाल श्रीवास्तव ई-मेल: pdayal_shrivastava@yahoo.com |