कहा जाता है, ‘परिवर्तन सृष्टि का नियम है।‘ परिवर्तन और अनित्यता को समझ लेना ही ज्ञान प्राप्त करना है। जीवन में जन्म से लेकर मृत्यु तक क्या हम परिवर्तन का ही मार्ग तय करते हैं? या कहें कि हम एक नियत प्रवृत्ति के साक्षी बनते हैं कि इस संसार में सब कुछ नश्वर और क्षणभंगुर है। जो पैदा हुआ, वह मरता भी है। एक बालक युवा होता है, प्रौढ़ होता है, फिर वृद्ध जीवन जीकर मृत्यु को प्राप्त होता है। यही जीवन है।
यह सिद्धांत केवल प्राणियों पर ही नहीं किसी भी देश और सभ्यता पर भी लागू होता है। इतिहास साक्षी है कि कई उत्कृष्ट सभ्यताएँ समय के गर्भ में गर्त हो चुकी हैं और कई नई सभ्यताओं ने अपनी नयी उड़ान भरी। यह प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है।
तिरुवल्लुवर कहते हैं, "बुद्धिमत्ता यही है कि बदलते विश्व की बदलती शैलियों की लय में निरंतर चलते रहें।"
भारत कभी सोने की चिड़िया कहलाता था, प्राचीन भारत शिक्षा का केंद्र था। हमारे राष्ट्र में तक्षशिला, नालंदा व औदंतपुरी जैसे विश्वविद्यालय रहे हैं लेकिन बाद में भारत ने कठिन समय भी झेला। भारत लंबे समय तक पराधीन रहा। जब देश आजाद हुआ तो भारत की स्थिति बहुत कमजोर थी। देश ने बँटवारे का दंश झेला और अर्थव्यवस्था अस्थिर थी।
बहुत कम लोग जानते हैं कि अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स /AIIMS) कैसे बना था! 1952 में भारत आर्थिक संकट में था। भारत सरकार के पास पैसा नहीं था। उस समय इसकी फंडिंग न्यूज़ीलैंड के माध्यम से हुई। उस समय भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और स्वास्थ्य मंत्री राजकुमारी अमृतकौर के प्रयासों से एम्स का निर्माण संभव हो पाया। न्यूज़ीलैंड की सरकार ने उस समय एक मिलियन पाउंड की आर्थिक सहायता दी थी। उस समय यह रुपयों में एक करोड़ 33 लाख रुपए हुए थे। उस समय इसका नाम All India Institute Of Medical Sciences के स्थान पर The All India Medical Institute उल्लिखित है।
4 अप्रैल 1952 को इसकी आधारशिला न्यूज़ीलैंड के उद्योग और व्यापार मंत्री जे. टी वॉट्स ने रखी थी। दिल्ली का एम्स 1956 में बनकर तैयार हो गया। भारत उस समय आर्थिक संकट से गुजर रहा था। देश के पास पैसा नहीं था, उस समय एम्स की फंडिंग न्यूज़ीलैंड के माध्यम से हुई।
आज देश फिर से उत्कर्ष की ओर अग्रसर है। विदेश में बसे भारतीयों को लंबे समय तक हेय समझा जाता रहा लेकिन आज विदेश में बसे भारतीयों ने वैश्विक क्षितिज पर स्वर्णाक्ष्ररों में अपनी सफलता का इतिहास लिखा है। कभी कहा जाता था कि ब्रिटिश साम्राज्य का सूरज कभी नहीं ढलता। इतना विस्तृत साम्राज्य था लेकिन आज वह बात नहीं। समय ने करवट बदली तो ब्रिटेन का साम्राज्य और उनका वर्चस्व भी बदल गया। आज विश्व भर में भारतीय बसे हैं और कहा जा सकता है कि भारतीयों का सूरज कभी नहीं ढलता।
'सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास' की अवधारणा विदेश नीति के प्रसंग में भी उतनी ही महत्वपूर्ण है, जितना देश के आंतरिक संदर्भ में। पिछले कुछ वर्षों में भारत कूटनीतिक स्तर पर विश्व में सर्वाधिक शक्तिशाली देशों में से एक माना जाने लगा है।
आज वैश्विक स्तर पर भारत की साख बढ़ी है। भारत ने 1 दिसंबर 2022 से आधिकारिक तौर पर जी-20 की अध्यक्षता संभाल ली है। अतः 18वाँ जी-20 शिखर सम्मेलन भारत में होगा। जी-20 दुनिया की 20 सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाले सदस्यों का समूह हैं, जो विकास संबंधी योजनाओं का खाका तैयार करता है। इसमें 19 देश तथा यूरोपीय संघ सम्मिलित है। G20 की अध्यक्षता भारत के लिए काफी महत्वपूर्ण है। इसकी अध्यक्षता संभालते ही भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि यह समय भारत की आध्यात्मिक परंपरा से प्रोत्साहित होने का है, जो वैश्विक चुनौतियों के समाधान के लिए मिलकर काम करने की वकालत करता है।
भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत विश्व की सबसे पुरानी सभ्यताओं में से एक है, जो विभिन्न धर्मों, परंपराओं और रीति-रिवाजों का एक अनूठा संगम है। भारत में अनेक वर्षों के दौरान अनेक प्रकार के कला, वास्तुकला, चित्रकला, संगीत, नृत्य, पर्वों और रीति-रिवाजों का विकास हुआ है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ इस बार जी-20 के प्रतीक चिह्न का आदर्श वाक्य हैं और प्रतीक में हिंदी का उपयोग किया जाना ‘राजभाषा हिंदी’ के प्रति सम्मान की भावना को प्रदर्शित करता है।
न्यूज़ीलैंड न तो जी-20 का सदस्य है और न ही अतिथि देशों में सम्मिलित है तथापि न्यूज़ीलैंड का इस बार इससे एक संबंध अवश्य है। न्यूज़ीलैंड में भारत के भूतपूर्व उच्चायुक्त ‘श्री मुक्तेश परदेशी’ जी-20 के कार्यकारी प्रमुख बनकर भारत में पदासीन हुए हैं। इस प्रकार परोक्ष रूप से न्यूज़ीलैंड भी इस बार जी-20 से जुड़ा हुआ है।
भविष्य में भारत अनेक नए प्रतिमान स्थापित करेगा और विश्व में इसकी छवि और सुदृढ़ होगी। ऐसा विश्वास है।
-रोहित कुमार ‘हैप्पी’
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