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कथा-कहानी
अंतरजाल पर हिंदी कहानियां व हिंदी साहित्य निशुल्क पढ़ें। कथा-कहानी के अंतर्गत यहां आप हिंदी कहानियां, कथाएं, लोक-कथाएं व लघु-कथाएं पढ़ पाएंगे। पढ़िए मुंशी प्रेमचंद,रबीन्द्रनाथ टैगोर, भीष्म साहनी, मोहन राकेश, चंद्रधर शर्मा गुलेरी, फणीश्वरनाथ रेणु, सुदर्शन, कमलेश्वर, विष्णु प्रभाकर, कृष्णा सोबती, यशपाल, अज्ञेय, निराला, महादेवी वर्मा व लियो टोल्स्टोय की कहानियां।Article Under This Catagory
जीवन-संध्या - लीलावती मुंशी |
दिन का पिछला पहर झुक रहा था। सूर्य की उग्र किरणों की गर्मी नरम पड़ने लगी थी, रास्ता चलने वालों की छायाएँ लंबी होती जा रही थीं। |
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छोटा-सा लड़का - श्रद्धांजलि हजगैबी-बिहारी | Shradhanjali Hajgaybee-Beeharry |
शून्यता में झाँकती, पथराई आँखें, प्रश्नों को सुलझाने में लगी थीं । सन्नाटा इतना कि दिल को कचोट लेती। हल्की-सी गर्म हवा बह रही थी। ऐसे ही बीती थी वो शाम, घर के पीछे वाले बरामदे में बैठे हुए, मैं और भाई। और दोनों चुप... मानो कोई जीव है ही नहीं। |
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अंगूर - कमल कुमार शर्मा |
भाभी की तबीयत खराब है। रमेश आधा सेर अंगूर लाया है। भाभी की लड़की शीला सामने बैठी है, कोई चार बरस की होगी। अंगूर देखते ही लपकी और खाने शुरू करें दिए। रमेश ने झड़पकर कहा--"अरे, सब तू ही खा जाएगी या उनके लिए भी कुछ छोड़ेगी? भाभी, तुम भी देख रही हो, यह नहीं कि हटा लो। " |
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फूलों की सेज - भगवानचन्द्र 'विनोद' |
किसी नगर मे एक राजा राज था। उसकी एक रानी थी। रानी को कपड़े और गहनों का बड़ा शौक था। कभी सोने का करनफूल चाहिए तो कभी हीरे का हार, कभी मोतियों की माला चाहिए तो कभी कुछ। कपड़ों की तो बात ही निराली थी। भागलपुरी तसर और ढाके की मलमल के बिना उसे चैन नही पड़ता था। सोने के लिए फूलो की सेज। फूल भी कैसे? खिले नही, अधखिली कलियाँ, जो रात मे धीरे-धीरे खिलें। नौकर कलियाँ चुन-चुनकर लाते, दासियाँ सेज सजाती। एक दिन संयोग से अधखिली कलियों के साथ कुछ खिली कलियाँ भी आ गईं। अब तो रानी की बेचैनी का ठिकाना नहीं रहा। उनकी पंखुड़ियाँ रानी के शरीर मे चुभने लगी। नींद गायब हो गई। दीपकदेव अपना उजाला फैला रहे थे। रानी की यह दशा देखकर उनसे न रहा गया। बोले, "रानी, अगर कभी मकान बनाते समय राजाओं को तसले भर-भरकर गिलावा और चूना देने की नौबत आ जाए तो तुम्हें कैसा लगेगा? क्या तसलों का ढोना इन कलियों से भी ज्यादा अखरेगा?" |
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अक्ल का कमाल - राजेन्द्र मोहन शास्त्री एवं मृदुला शर्मा |
एक बार एक सिपाही रिटायर होने के बाद अपने घर लौट रहा था। वर्षों घर से दूर नौकरी करने के बाद भी उसकी जेब खाली थी। उसका मन बड़ा उदास था। पिछले काफी अरसे से उसने अपने घरवालों की कोई खैर-खबर नहीं ली थी। वह तो यह भी नहीं जानता था कि उसके घर में कोई जिन्दा भी है कि नहीं। चलते-चलते वह एक गाँव में पहुँचा। तब तक रात हो चुकी थी। वह काफी थक गया था और उसे भूख भी जोर की लगी थी, अतः उसने एक घर का दरवाजा खटखटाया। |
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दो लघुकथाएँ - संदीप तोमर |
ज़ख्मी |
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वेडिंग ऐनिवर्सरी - शिवानी खन्ना |
“यार मोना समझा करो बॉस को क्या बोलूँ कि मेरी वेडिंग ऐनिवर्सरी है इसलिए टूर पर नहीं जा सकता!" सौरभ की आवाज़ थी। |
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वसुधा की जीवन रेखा - गीता चौबे गूँज |
"अरे! सुना तुमने? वसुधा वेंटिलेटर पर है।"--मंगल के मुख से यह सुनकर शनि हतप्रभ था। |
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मौसी - भुवनेश्वर |
मानव-जीवन के विकास में एक स्थल ऐसा आता है, जब वह परिवर्तन पर भी विजय पा लेता है। जब हमारे जीवन का उत्थान या पतन, न हमारे लिए कुछ विशेषता रखता है, न दूसरों के लिए कुछ कुतूहल। जब हम केवल जीवित के लिए ही जीवित रहते हैं और वह मौत आती है; पर नहीं आती। |
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ऊँचाइयाँ - हंसा दीप |
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इंग्लिश रोज़ - अरुणा सब्बरवाल |
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हँसो, जल्दी हँसो - कल्पना मनोरमा |
एहसास की स्याही से कहानी लिखे तो ठीक, वरना कथ्य को चेज़ करते रहना टाइफाइड के लक्षणों जैसा लगने लगता है। कभी-कभी प्रकाशित आकांक्षाएँ मन जाग्रत करने में चूक जाती हैं और धुँधले निष्कर्ष सहायक सिद्ध हो जाते हैं। शनिवार ऑफिस से लौटकर, जल्दी सोने और सुबह देर से उठने का मन था। बिस्तर पर पहुँचने तक ख़याल साथ रहा। जब ऑंखें मूँदीं तो नींद हवा हो गयी। विचारों की पोटली खुलकर, मन के आँगन में बिखर गयी। मैं उठकर कमरे में घूमने लगी। |
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