भाभी की तबीयत खराब है। रमेश आधा सेर अंगूर लाया है। भाभी की लड़की शीला सामने बैठी है, कोई चार बरस की होगी। अंगूर देखते ही लपकी और खाने शुरू करें दिए। रमेश ने झड़पकर कहा--"अरे, सब तू ही खा जाएगी या उनके लिए भी कुछ छोड़ेगी? भाभी, तुम भी देख रही हो, यह नहीं कि हटा लो। "
भाभी ने कहा-–“खाने दो।"
"दस्त आने लगेंगे, वरना खाने को कौन मना करता है।” – रमेश चुप हो गया।
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आज से सोलह बरस पहले की बात है, शायद इससे भी कुछ ज्यादा दिन बीत चुके हों। उस समय रमेश आठ-नौ साल का था। शैतानी उसकी नस-नस में भरी हुई थी। रमेश के पिता उसे बहुत प्यार करते थे; मगर घर-भर रमेश से नाराज रहता था। घरवाले बाबूजी का लाड़-प्यार देखकर कहते--"लड़के को इतना सिर पर चढ़ाना ठीक नहीं।
एक दिन का जिक्र है। बाबूजी के सिर में दर्द था। अकसर उनकी तबीयत खराब हो जाती थी। उनके लिए रमेश के चाचा अंगूर लाया करते थे। आज भी अंगूर लाए और बाबूजी के सिरहाने रखकर चले गए।
रमेश छत पर खेल रहा था। उसने चाचा को अंगूर लाते हुए देखा। फट छत पर से उतरा और अपने बाप के कमरे में पहुँच गया। बाबूजी के मुँह में एक अंगूर डालता और खुद दो-चार साफ कर जाता। यही हरकत जारी थी कि रमेश ने देखा, चाचा सामने खड़े हैं। उन्होंने आव देखा न ताव, रमेश को कान पकड़कर कमरे से बाहर निकाल दिया। बाबूजी की आँखे बन्द थीं, उन्हें खबर भी न हुई। रात को जब रमेश उनके साथ सोया, तो रो-रोकर उसने सारा हाल सुनाया।
बाबूजी ने दिलासा देते हुए कहा-– “रो नहीं, कल मैं तेरे लिए इतने अंगूर ला दूँगा कि तू खा भी न सकेगा।"
एक हफ्ते के बाद।
वही सिर दर्द और वही अंगूर। चाचा ने रमेश को बुलाकर कहा-- "ले, पेट भरकर खा ले। बाप के हलक से न निकाल।
थोड़ी देर तो रमेश सब्र किए रहा। फिर जी न माना। बाप के कमरे में पहुँच गया। उसे देखते ही बाबूजी ने कहा--"अंगूर खाएगा?"
रमेश ने चाचा के डर से कहा--"नहीं।" लेकिन बाबूजी ने उसे खिला ही दिये।
चाचा कमरे में किसी काम से आये। उन्होंने यह देखा, तो जल गये और कहने लगे-– “अभी-अभी ऊपर से खाकर आया है, पेट नहीं भरा? भैया, इतना लाड़-प्यार अच्छा नहीं।"
बाबूजी ने कोई उत्तर नहीं दिया। बुरा उन्हें जरूर लगा था, वरना क्यों कहते-–“रमेश, कल बाजार में तुम्हें खूब अंगूर खिलायेंगे।"
फिर वही सिर दर्द और वही अंगूर--
इस बार चाचा सामने बैठ गए और बाबूजी को खुद अंगूर खिलाने लगे। लेकिन उनके जाते ही रमेश कमरे में पहुँच गया। बाबूजी बड़ी मुश्किल से कराहते हुए उठे, आलमारी के ऊपर से अंगूर उतारे और रमेश को दिये। रमेश खुशी-खुशी बाहर खाता हुआ चला आया। रमेश की चचेरी बहन नीला ने देख लिया। पकड़कर चाची के सामने ले गई और बोली--"न जाने किससे अंगूर माँग लाया है और खा रहा है।"
“क्यों बे, कहाँ से माँग लाया है? इतना खाने को मिलता है, फिर भी दूसरों से माँगता फिरता है। नीला, इसे इसके बाप के पास ले जा। उन्हें भी तो मालूम हो कि यह कैसा बेहया लड़का है!" –चाची ने गुस्से में भरकर कहा।
बाबूजी ने कहा--"माँगकर नहीं लाया है। मैंने दिये हैं। रमेश, यहाँ बैठकर खा लो।"
"रमेश, तेरी जबान को उस वख्त क्या लकवा मार गया था, जो मुँह से एक शब्द भी न निकाला।" डाँटते हुए नीला ने कहा।
कई दिन और बीते।
बाबूजी के सिर में फिर दर्द है। रमेश बगल में लेटा हुआ धीरे-धीरे उनका सिर दबा रहा है। इतने में उसकी पुकार हुई। ·
चाचा ने उसे सामने बैठाते हुए कहा--"खबरदार, जो यहाँ से हिला भी, वरना टॉंग तोड़ दूँगा। जब तू अपने बाप का ही सगा नहीं, तो और किसका होगा? जा, नीला, भैया को अपने सामने अंगूर खिला कर आना।"
चाची बोली--"न मालूम जेठजी इसे इतना प्यार क्यों करते हैं, न सूरत, न शक्ल ऐसा तो अभागा है कि जब पेट में आया, तो नौकरी छूट गई।"
रमेश सामने बैठा है। दिल में सोच रहा है, कैसे भाग निकलें? चाचा को कोई बुलाने आ जाए, या किसी काम से चले जाएँ। इतने में नौकर ने आकर कहा--"घडी वाले का आदमी आया है।" चाचा उठकर चले लेकिन रमेश को भी साथ लेते गए। चाची घडी वाले से बातें करने लगे। वे झुककर घड़ी देखने लगे। बस, यह मौका बहुत था, रमेश चुपके से नौ दो ग्यारह हो गया।
बाबूजी लेटे थे, नीला उन्हें अंगूर खिला रही थी। आते ही रमेश भी खाने लगा। यहाँ उसे किसका डर था? बाबूजी के सामने कौन उसे एक अंगुली भी लगा सकता है? यहाँ तो रमेश का राज्य है।
थोड़ी देर बाद चाचा भी आ पहुँचे। आँखें लालकर बोले--"क्यों बे शैतान, जरा-सी देर में तू भाग आया। चल यहाँ से।" रमेश ने यह सुनकर अपनी आँखे बन्द कर लीं, मानो उसने कुछ सुना ही नहीं।
बाबूजी ने कहा--"खा नहीं रहा है। सिर्फ लेटा है, लेटा रहने दो। अभी बच्चा है, कुछ समझता नहीं।"
चाचा चले गए। उस वक्त भी रमेश के मुँह में कई अंगूर भरे हुए थे।
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शीला सामने बैठी है। जल्दी-जल्दी अंगूर खा रही है। डरती है कि कहीं रमेश छीन न ले। रमेश से उसने कहा--"और लाओगे न!”
-कमल कुमार शर्मा
[1939 में प्रकाशित]