एक बार एक सिपाही रिटायर होने के बाद अपने घर लौट रहा था। वर्षों घर से दूर नौकरी करने के बाद भी उसकी जेब खाली थी। उसका मन बड़ा उदास था। पिछले काफी अरसे से उसने अपने घरवालों की कोई खैर-खबर नहीं ली थी। वह तो यह भी नहीं जानता था कि उसके घर में कोई जिन्दा भी है कि नहीं। चलते-चलते वह एक गाँव में पहुँचा। तब तक रात हो चुकी थी। वह काफी थक गया था और उसे भूख भी जोर की लगी थी, अतः उसने एक घर का दरवाजा खटखटाया।
उस घर में एक बुढ़िया रहती थी। दरवाजा खोल बुढ़िया ने सिपाही को घूरकर देखा और बोली "कौन हो तुम...?"
"मैं एक सिपाही हूँ। रिटायर होकर अपने घर लौट रहा हूँ। मुझे बहुत दूर जाना है। कुछ देर आराम करना चाहता हूँ।"
"आओ, अन्दर आ जाओ..."
सिपाही बुढ़िया के साथ मकान में दाखिल हो गया।
सिपाही की उम्मीद थी कि बुढ़िया उसे कुछ खिलाएगी-पिलाएगी लेकिन बुढ़िया बड़ी कंजूस थी। उसने तो एक गिलास पानी तक नहीं पूछा।
कुछ देर बाद सिपाही ने ही बुढ़िया से पूछा--"कुछ खाने को मिलेगा, अम्मा?"
"अरे बेटा, मैंने तो खुद ही कल से कुछ नहीं खाया है," यह कहकर बुढ़िया ने सिपाही को टाल दिया। सिपाही चुप हो गया।
तभी उसे बेंच के नीचे एक बिना मूठ की कुल्हाड़ी पड़ी दिखाई दी। यह कुल्हाड़ी उठाता हुआ बोला "चलो, इस कुल्हाड़ी का ही दलिया बना लेते हैं। बुढ़िया उसका मुँह ताकने लगी कि कहीं यह सिपाही पागल तो नहीं है, अतः उसने उसे रोकते हुए कहा "अरे, कुल्हाड़ी का भी कहीं दलिया बनता है?"
"क्यों नहीं? जरा मुझे एक बर्तन तो दो, फिर देखना कि कुल्हाड़ी का मजेदार दलिया कैसे बनता है। एक बार बनाकर खाया था, आज तक मुँह में स्वाद है।"
बुढ़िया के लिए तो यह हैरानी की बात थी, वह फौरन ही एक बर्तन ले आई। सिपाही ने कुल्हाड़ी को खूब धो-पोंछकर बर्तन में रखा और कुछ पानी डालकर चूल्हे पर चढ़ा दिया।
अचम्भे से बुढ़िया की आँखें मानो बाहर को निकली जा रही थीं। सिपाही एक कलछी लेकर बर्तन में चलाने लगा। फिर उसने थोड़ा-सा पानी कलछी से निकालकर चखा।
"बहुत जल्दी तैयार हो जाएगा।" वह बोला, "मगर क्या करूँ, मेरे पास नमक तो है ही नहीं। नमक बगैर दलिये का क्या स्वाद आएगा।" बुढ़िया उस अद्भुत दलिये का स्वाद चखने के लिए बेचैन हो रही थी, "मेरे पास है थोड़ा-सा नमक।" वह उठकर गई और नमक ले आई।
सिपाही ने नमक डालकर फिर चखा।
"थोड़ा-सा अधकुटा गेहूँ होता तो मजा ही आ जाता," उसने फिर कहा।
बुढ़िया कुठियार में गई और दलिये से भरी एक थैली निकाल लाई और बोली, "लो, जितनी जरूरत हो डाल लो। दलिया कम नहीं पड़ना चाहिए।"
सिपाही ने दलिया बर्तन में डाल दिया और उसे चलाता रहा। अन्त में उसने उसे फिर चखा। बुढ़िया टकटकी बाँधे उसे देख रही थी।
"अहा, बड़ा स्वादिष्ट बना है।" सिपाही बोला, "बस, जरा-सा मक्खन और होता तो फिर क्या कहने थे।"
बुढ़िया थोड़ा-सा मक्खन भी ले आई। सिपाही ने दलिये में मक्खन भी डाल दिया।
"अब एक चमचा ले आओ अम्मा, दलिया तैयार है...।"
बुढ़िया चम्मच ले आई तो दोनों ने दलिया खाना शुरू कर दिया। बुढ़िया खाती जाती और तारीफ करती जाती।
"भई वाह! कुल्हाड़ी का दलिया इतना मजेदार बनता है, यह तो मैंने कभी सोचा ही न था!"
सिपाही मन-ही-मन हँसता हुआ दलिया खा रहा था। उसने बातों के जाल में बुढ़िया को उलझाकर आखिरकार अपने खाने का इन्तजाम कर ही लिया था। इसे कहते हैं अक्ल का कमाल।
-राजेन्द्र मोहन शास्त्री, मृदुला शर्मा
[रूस की लोक-कथाएँ]