रघुनाथ प् प् प्रसाद त् त् त्रिवेदी - या रुग्नात् पर्शाद तिर्वेदी - यह क्या?
क्या करें, दुविधा में जान हैं। एक ओर तो हिंदी का यह गौरवपूर्ण दावा है कि इसमें जैसा बोला जाता है वैसा लिखा जाता है और जैसा लिखा जाता है वैसा ही बोला जाता है। दूसरी ओर हिंदी के कर्णधारों का अविगत शिष्टाचार है कि जैसे धर्मोपदेशक कहते हैं कि हमारे कहने पर चलो, वैसे ही जैसे हिंदी के आचार्य लिखें वैसे लिखो, जैसे वे बोलें वैसे मत लिखो, शिष्टाचार भी कैसा? हिंदी साहित्य-सम्मेलन के सभापति अपने व्याकरणकषायति कंठ से कहें 'पर्षोत्तमदास' और 'हर्किसन्लाल' और उनके पिट्ठू छापें ऐसी तरह कि पढ़ा जाए - 'पुरुषोत्तमदास अ दास अ' और 'हरि कृष्णलाल अ'! अजी जाने भी दो, बड़े-बड़े बह गए और गधा कहे कितना पानी! कहानी कहने चले हो, या दिल के फफोले फोड़ने?
अच्छा, जो हुकुम। हम लाला जी के नौकर हैं, बैंगनों के थोड़े ही हैं। रघुनाथप्रसाद त्रिवेदी अब के इंटरमीडिएट परीक्षा में बैठा है। उसके पिता दारसूरी के पहाड़ के रहनेवाले और आगरे के बुझातिया बैंक के मैनेजर हैं। बैंक के दफ्तर के पीछे चौक मे उनका तथा उनकी स्त्री का बारहमासिया मकान है। बाबू बड़े सीधे, अपने सिद्धांतों के पक्के और खरे आदमी हैं जैसे पुराने ढंग के होते हैं। बैंक के स्वामी इन पर इतना भरोसा करते है कि कभी छुट्टी नहीं देते और बाबू काम के इतने पक्के हैं कि छुट्टी माँगते नहीं। न बाबू वैसे कट्टर सनातनी हैं कि बिना मुँह धोए ही तिलक लगा कर स्टेशन पर दरभंगा महराज के स्वागत को जाएँ और न ऐसे समाजी ही हैं कि खँजड़ी ले कर 'तोड़ पोपगढ़ लंका का' करने दौड़ें। उसूलों के पक्के हैं।
हाँ, उसूलों के पक्के हैं। सुबह का एक प्याला चाय पीते हैं तो ऐसा कि जेठ में भी नही छोड़ते और माघ में भी एक के दो नहीं करते। उर्द की दाल खाते हैं, क्या मजाल की बुखार में भी मूँग की दाल का एक दाना खा जाएँ। आजकल के एम.ए., बी.ए. पासवालों को हँसते हैं कि शेक्सपीयर और बेकन चाट जाने पर भी वे दफ्तर के काम की अंगरेजी-चिट्टी नहीं लिख सकते। अपने जमाने के साथियों को सराहते हैं जो शेक्सपीयर के दो-तीन नाटक न पढ़ कर सारे नाटक पढ़ते थे, डिक्शनरी से अंगरेजी शब्दों के लैटिन धातु याद करते थे। अपने गुरु बाबू प्रकाश बिहारी मुखर्जी की प्रशंसा रोज करते थे कि उन्होंने 'लायब्रेरी इम्तहान' पास किया था। ऐसा कोई दिन ही बीतता होगा (निगोशिएबल इन्सट्रूमेंट ऐक्ट के अनुसार होने वाली तातीलों को मत गिनिए) कि जब उनके 'लायब्रेरी इम्तहान' का उपाख्यान नए बी.ए. हेडक्लर्क को उसके मन और बुद्धि की उन्नति के लिए उपदेश की तरह नहीं सुनाया जाता हो। लाट साहब ने मुकर्जी बाबू को बंगाल-लायब्रेरी में जा कर खड़ा कर दिया। राजा हरिश्चंद्र के यज्ञ में बलि के खूँटे में बँधे हुए शुन:शेप की तरह बाबू आलमारियों की ओर देखने लगे। लाट साहब मनचाहे जैसी आलमारियों से मनचाहे जैसी किताब निकाल कर मनचाहे जहाँ से पूछने लगे। सब अलमारियाँ खुल गईं, सब किताबें चुक गईं, लाट साहब की बाँह दुख गई, पर बाबू कहते-कहते नहीं थके; लाट साहब ने आने हाथ से बाबू को एक घड़ी दी और कहा कि मैं अंगरेजी-विद्या का छिलका ही भर जानता हूँ, तुम उसकी गिरी खा चुके हो। यह कथा पुराण की तरह रोज कही जाती थी।
इन उसूल-धन बाबू जी का एक उसूल यह भी था कि लड़के का विवाह छोटी उमर में नहीं करेंगे। इनकी जाति में पाँच-पाँच वर्ष की कन्याओं के पिता लड़केवालों के लिए वैसे मुँह बाए रहते हैं जैसे पुष्कर की झील में मगरमच्छ नहानेवालों के लिए; और वे कभी-कभी दरवाजे पर धरना दे कर आ बैठते थे कि हमारी लड़की लीजिए, नहीं तो हम आपके द्वार पर प्राण दे देंगे। उसूलों के पक्के बाबू जी इनके भय से देश ही नहीं जाते थे और वे कन्या-पिता-रूपी मगरमच्छ अपनी पहाड़ी गोह को छोड़ कर आगरे आ कर बाबू जी की निद्रा को भंग करते थे। रघुनाथ की माता को सास बनने का बड़ा चाव था। जहाँ वह कुछ कहना आरंभ करती कि बाबू जी बैंक की लेजर-बुक खोल कर बैठ जाते या लकड़ी उठा कर घूमने चले देते। बहस करके स्त्रियों से आज तक कोई नहीं जीता, पर मष्ट मार कर जीत सकता है।
बाबू के पड़ोस में एक विवाह हुआ था। उस घर की मालकिन लाहना बाँटती हुई रघुनाथ की माँ के पास आई। रघुनाथ की माँ ने नई बहू को असीस दी और स्वयं मिठाई रखने तथा बहू की गोद में भरने के लिए कुछ मेवा लाने भीतर गई। इधर मुहल्ले की वृद्धा ने कहा - 'पंद्रह बरस हो गए लाहना लेते-लेते। आज तक एक बतासा भी इनके यहाँ से नहीं मिला।' दूसरी वृद्धा, जो तीन बड़ी और दो छोटी पतोहू की सेवा से इतनी सुखी थी कि रोज मृत्यु को बुलाया करती थी, बोली, 'बड़े भागों से बेटों को ब्याह होता है।'
तीसरी ने नाक की झुलनी हिला कर कहा - 'अपना खाने-पहनने का लोभ कोई छोड़े तब तो बेटे की बहू लावे। बहू के आते ही खाने-पहनने में कमी जो हो जाती है।' चौथी ने कहा - 'ऐसे कमाने-खाने जो आग लगे। यों तो कुत्ते भी अपना पेट भर लेते हैं। कमाई सफल करने का यही तो मौका होता है। इसके पति ने चारों बेटों के विवाह में मकान और जमीन गिरवी रख दिए थे और कम-से-कम अपने जीवन भर के लिए कंगाली का कंबल ओढ़ लिया था।'
अवश्य ही ये सब बातें रघुनाथ की माँ को सुनाने के लिए कही गई थीं। रघुनाथ की माँ भी जानती थी कि ये मुझे सुनाने को कही जा रही हैं। परंतु उसके आते ही मुहल्ले की एक और ही स्त्री की निंदा चल पड़ी और रघुनाथ की माँ यह जान कर भी कि उस स्त्री के पास जाते ही मेरी भी ऐसी ही निंदा की जाएगी, हँसते-हँसते उसकी बातों में सम्मति देने लग गई। पतोहुओं से सुखिनी बुढ़िया ने एक हलके से अनुदात्त से कहा - 'अब तू रघुनाथ का ब्याह इस साल तो करोगी ?' 'उसके चाचा जानें, गहने तो बनवा रहें' - रघुनाथ की माँ ने भी वैसे ही हलके उदात्त से उत्तर दिया। उसके अनुदात्त को यह समझ गई और इसके उदात्त को वे सब। स्वर का विचार हिंदुस्तान के मर्दों की भाषा में भले ही न रहा हो, स्त्रियों की भाषा में उससे अब भी कई अर्थ प्रकाश किए जाते हैं।
'मैं तुम्हें सलाह देती हूँ कि जल्दी रघुनाथ का ब्याह कर लो। कलयुग के दिन हैं, लड़का बोर्डिंग में रहता है, बिगड़ जाएगा। आगे तुम्हारी मर्जी, क्यों बहन सच है न? तू क्यों नहीं बोलती ?'
'मैं क्या कहूँ, मेरे रघुनाथ-सा बेटा होता तो अब तक पोता खिलाती।' यों और दो-चार बातें करके यह स्त्रीदल चला गया और गृहिणी के हृदय-समुद्र को कई विचारों की लहरों से दलकता हुआ छोड़ गया।
सायंकाल भोजन करते समय बाबू बोले, 'इन गर्मियों में रघुनाथ का ब्याह कर देंगे।'
स्त्री ने पहले ही लेजर और छड़ी छिपा कर ठान ली थी कि आज बाबू जी को दबाऊँगी कि पड़ोसियों की बोलियाँ नहीं सही जातीं। अचानक रंग पहले चढ़ गया। पूछने लगी - 'हें आज यह कैसे सूझी?'
'दारसूरी से भैया की चिट्ठी आई है। बहुत कुछ बातें लिखी हैं। कहा है कि तुम तो परदेशी हो गए। यहाँ चार महीने बाद वृहस्पति सिंहस्त हो जाएगा; फिर डेढ़-दो वर्ष तक ब्याह नहीं होंगे। इसलिए छोटी-छोटी बच्चियों के ब्याह हो रहे हैं, बृहस्पति के सिंह के पेट में पहुँचने के पहले कोई चार-पाँच वर्ष की लड़की नही बचेगी। फिर जब बृहस्पति कहीं शेर की दाढ़ में से जीता-जागता निकल आया तो न बराबर का घर मिलेगा, न जोड़ की लड़की। तुम्हें क्या है, गाँव में बदनाम तो हम हो रहे हैं। मैंने अभी दो-तीन घर रोक रखे हैं। तुम जानो, अब के मेरा कहना न मानोगे तो मैं तुमसे जन्म-भर बोलने का नहीं।'
'भैया ठीक तो कहते हैं।'
'मैं भी मानता हूँ कि अब लड़के को उन्नीसवाँ वर्ष है। अब के इंटरमीडिएट पास हो जाएगा। अब हमारी नहीं चलेगी, देवर-भौजाई जैसा नचाएँगे, वैसा ही नाचना पड़ेगा। अब तक मेरी चली, यही बहुत हुआ।'
'भैया की कहो, मेरा कहना तो पाँच वर्ष से मान रहे हो।'
'अच्छा अब जिदो मत। मैंने दो महीने की छुट्टी ली है। छुट्टी मिलते ही देश चलते हैं। बच्चा को लिख दिया है कि इम्तहान देकर सीधा घर चला आ। दस-पंद्रह दिन में आ जाएगा। तब तक हम घर भी ठीक कर लें औ दिन भी। अब तुम आगरे बहु को ले कर आओगी।'
स्त्री ने सोचा, बताशेवाली बुढ़िया का उलाहना तो मिटेगा।
2
'बा'छा मेरे हाल में आपका क्या जी लगेगा? गरीबों का क्या हाल? रब रोटी देता है, दिन-भर मेहनत करता हूँ, रात पड़े रहता हूँ। बा'छा, तुम जैसे साईं लोकों की बरकत से मैं हज कर आया, ख्वाजा का उर्स देख आया, तीन बेले नमाज पढ़ लेता हूँ, और मुझे क्या चाहिए? बा'छा, मेरा काम टट्टू चलाना नहीं है। अब तो इस मोती की कमाई खाता हूँ, कभी सवार ले जाता हूँ, कभी लादा, ढाई मण कणक पा लेता हूँ, तो दो पौली बच जाती है। रब की मरजी, मेरा अपना घर था; सिंहों के वक्त की माफी जमीन थी, नाते पड़ोसियों में मेरा नाम था। मैं धामपुर के नवाब का खाना बनाता था और मेरे घर में से उसके जनाने में पकाती थी। एक रात को मैं खाना बना-खिला के अपनी मँजडी पर सोया था कि मेरे मौला ने मुझे आवाज दी - 'लाही, लाही, हज कर आ।' मैं आँखें मल कर खड़ा हो गया, पर कुछ दिखा नहीं। फिर सोने लगा कि फिर वही आवाज आई कि 'लाही, तू मेरी पुकार नहीं सुनता? जा हज कर आ।' मैं समझा, मेरा मौला मुझे बुलाता है। फिर आवाज आई - 'लाही, चल पड़; मैं तेरे नाल हूँ, मैं तेरा बेड़ा पार करूँगा।' मुझसे रहा नहीं गया। मैंने अपना कंबल उठाया और आधी रात को चल पड़ा। बा'छा, मैं रातों चला, दिनों चला, भीख माँग कर चलते-चलते बंबई पहूँचा। वहाँ मेरे पल्ले टका नहीं था, पर एक हिंदू भाई ने मुझे टिकट ले लिया। काफले के साथ मैं जहाज पर चढ़ गया। वहीं मुझे छ: महीने लगे। पूरी हज की। जब लौटा तो रास्ते में जहाज भटक गया। एक चट्टान पानी के नीचे थी, उससे टकरा गया। उसके पीछे की दोनों लालटेन ऊपर आ गईं और वे हमे शैतान की-सी आँख दिखाई देने लगीं। सबने समझा मर जाएँगे, पानी में गोर बनेगी। कप्तान ने छोटी किश्तियाँ खोलीं और उनमें हाजियों को बिठा कर छोड़ दिया। मर्द का बच्चा आप अपनी जगह से नही टला, जहाज के नाल डूब गया। अँधेरे में कुछ सूझता नहीं था। सबेरा होते ही हमने देखा कि, दो कश्तियाँ बह रही हैं और जहाज है, न दूसरी कश्तियाँ। पता ही नहीं, हम कहाँ से किधर जा रहे थे। लहरें हमारी कश्तियों को उछालती, नचाती, डुबाती, झकझोरती थीं। जो लहमा बीतता था, हम खैर मनाते थे। पर मेरे मालिक ने करम किया। मेरे अल्लाह ने, मेरे मौला ने जैसे उस रात को कहा था, मेरा बेड़ा पर किया। तीन दिन, तीन रात हम हम बेपते रहे - चौथे दिन माल के जहाज ने हमको उठा लिया और छठे दिन कराची में हमने दुआ की नमाज पढ़ी। पीछे सुना की तीन सौ हाजी मर गए।
'वहाँ से मैं ख्वाजा की जियारत को चला, अजमेर शरीफ में दरगाह का दीदार पाया। इस तरह बा'छा, साढ़े सात महीने पीछे मैं घर आया। आ कर घर देखता हूँ कि सब पटरा हो गया है। नवाब जब सबेरे उठा तो उसने नाश्ता माँगा। नौकरों ने कहा कि इलाही का पता नहीं। बस, वह जल गया। उसने मेरा घर फुँकवा दिया, मेरी जमीन अपनी रखवाल के भाई को दे दी और मेरी बीबी को लौंडी बना कर कैद कर लिया। मैं उसका क्या ले गया था, अपना कंबल ले गया था। और पिछले तीन महीने की तलब अपनी पेटी में उसके बावर्चीखाने में रख गया था। भला, मेरा मौला बुलावे और मैं न जाऊँ? पर उसको जो एक घंटा देर से खाना मिला, इससे बढ़ कर और गुनाह क्या होता?
'इसके पंद्रहवें दिन जनाने में एक सोने की अंगूठी खो गई। नवाब ने मेरी घरवाली पर शक किया। उसने पूछा तो वह बोली कि मेरा कौन-सा घर और घरवाला बैठा है कि उसके पास अँगूठी ले जाऊँगी। मैं तो यहीं रहती हूँ। सीधी बात थी, पर उसने सुनी नहीं गई। जला-भुना तो था ही, बेंत ले कर लगा मारने। बा'छा, मैं क्या कहूँ, मौला मेरा गुनाह बख्शे, और पाँच बरस हो गए हैं। पर जब मैं घरवाली की पीठ पर पचासों दागों की गुच्छियाँ देखता हूँ, तो यही पछतावा रहता है कि रब ने उस सूर का (तोबा! तोबा!) गला घोंटने को यहाँ क्यों रखा। मारते-मारते जब मेरी घरवाली बेहोश हो गई तब डर कर उसे गाँव के बाहर फिकवा दिया। तीसरे दिन वह वहाँ से घिसटती-घिसटती चल कर अपने भाई के यहाँ पहुँची।'
रघुनाथ ने रुँधे गले से कहा, 'तुमने फरयाद नहीं की ?'
'कचहरियाँ गरीबों के लिए नहीं हैं, बा'छा, वे तो सेठों के लिए हैं। गरीबों की फरयाद सुननेवाला सुनता है। उसने पंद्रह दिन में सुन कर हुकुम भी दे दिया। मेरी औरत को मारते-मारते उस पाजी के हाथ की अँगुली में बेंत की एक सली चुभ गई थी। वही पक गई। लहू में जहर हो गया। पंद्रहवें दिन मर गया। हज से आ कर मैंने सारा हाल सुना। अपने जेल घर को देखा और अपने परदादे की सिंहों की माफी जमीन को भी देखा। चला आया। मसजिद में जा कर रोया। मेरे मौला ने मुझे हुकुम दिया, 'लाही, मैं तेरे नाल हूँ, अपनी जोय को धीरज दे।' मैं साले के यहाँ पहुँचा। उसने पच्चीस रुपए दिए, मैं टट्टू मोल ले कर पहाड़ चला आया और यहाँ रब का नाम लेता हूँ और आप जैसे साईं लोगों की बंदगी करता हूँ। रब का नाम बड़ा है।'
रघुनाथ इम्तहान दे कर रेल से घराठनी तक आया। वहाँ तीस मील पहाड़ी रास्ता था। दूरी पर चूने के-से ढेर चमकते दिखने लगे, जो कभी न पिघलनेवाली बर्फ के पहाड़ थे। रास्ता साँप की तरह चक्कर खाता था। मालूम होता की एक घाटी पूरी हो गई है, पर ज्योंही मोड़ पर आते, त्योंही उसकी जड़ में एक और आधी मील का चक्कर निकल पड़ता। एक ओर ऊँचा पहाड़, दूसरी ओर ढाई फुट गहरी खड्ड। और किराये के टट्टुओं की लत की सड़क सड़क के छोर पर चलें जिससे सवार की एक टाँग तो खड्ड पर ही लटकी रहे। आगे वैसा ही रास्ता, वैसी ही खड्ड, सामने वैसे ही कोने पर चलनेवाले टट्टू। जब धूप बढ़ी और जी न लगा तो मोती के स्वामी इलाही से रघुनाथ ने उसका इम्तहान पूछा। उसने जो सीधी और विश्वास से भरी, दु:ख की धाराओं से भीगी हुई कथा कही, उससे कुछ मार्ग कट गया। कितने गरीबों का इतिहास ऐसी चित्र-घटनाओं की धूपछाया से भरा हुआ है। पर हम लोग प्रकृति के इन सच्चे चित्रों को न देख कर उपन्यासों की मृगतृष्णा में चमत्कार ढूँढ़ते हैं।
धूप चढ़ गई थी कि वे एक ग्राम में पहुँचे। गाँव के बाहर सड़क के सहारे एक कुआँ था और उसी के पास एक पेड़ के नीचे इलाही ने स्वयं और अपने मोती के लिए विश्राम करने का प्रस्ताव किया। 'घोड़े को न्हारी दे कर और पानी-वानी पी कर धूप ढलते ही चल देंगे और बात-की-बात में आपको घर पहुँचा देंगे।' रघुनाथ को भी टाँगें सीधी करने में कोई उज्र न था। खाने की इच्छा बिल्कुल न थी। हाँ, पानी की प्यास लग रही थी। रघुनाथ अपने बक्स में से एक लोटा-डोर निकाल कर कुएँ की तरफ चला।
3
कुएँ पर देखा कि छह-सात स्त्रियाँ पानी भरने और भर कर ले जाने की कई दशाओं में हैं। गाँवों में परदा नहीं होता। वहाँ सब पुरुष सब स्त्रियों से और सब स्त्रियाँ सब पुरुषों से निडर हो कर बातें कर लेती हैं। और शहरों के लंबे घूँघटों के नीचे जितना पाप होता है, उसका दसवाँ हिस्सा भी गाँवों में नहीं होता। इसी से तो कहावत में बाप ने बेटे को उपदेश दिया है कि घूँघटवाली से बचना। अनजाना पुरुष किसी भी स्त्री से 'बहन' कह कर बात कर लेता है और स्त्री बाजार में जा कर किसी भी पुरुष से 'भाई' कह कर बोल लेती है। यही वाचिकसंधि दिन-भर के व्यवहारों में 'पासपोर्ट' का काम कर देती है। हँसी-ठट्ठा भी होता है, पर कोई दुर्भाव नहीं खड़ा होता। राजपूताने के गाँवों में स्त्री ऊँट पर बैठी निकल जाती है ओर खेतों के लोग 'मामी जी, मामी जी' चिल्लाया करते हैं। न उनका अर्थ उस शब्द से बढ़ कर कुछ होता है और न वह चिढ़ती है। एक गाँव में बरात जीमने बैठी। उस समय स्त्रियाँ समधियों को गाली गाती हैं। पर गालियाँ न गाई जाती देख नागरिक-सुधारक बराती को बड़ा हर्ष हुआ। वह ग्राम के एक वृद्ध से कह बैठा, 'बड़ी खुशी की बात है कि आपके यहाँ इतनी तरक्की हो गई है।' बुड्ढा बोला, 'हाँ साहब, तरक्की हो रही है। पहले गालियों में कहा जाता था फलाने की फलानी के साथ और अमुक की अमुक के साथ। लोग-लुगाई सुनते थे, हँसते थे। अब घर-घर में वे ही बातें सच्ची हो रही हैं। अब गालियाँ गाई जाती हैं तो चोरों की दाढ़ी में तिनका निकलते हैं। तभी तो आंदोलन होते हैं कि गालियाँ बंद करो, क्योंकि वे चुभती हैं।'
रघुनाथ यदि चाहता तो किसी भी पानी भरनेवाली से पीने को पानी माँग लेता। परंतु उसने अब तक अपनी माता को छोड़ कर किसी स्त्री से कभी बात नहीं की थी। स्त्रियों के सामने बात करने को उसका मुँह खुल न सका। पिता की कठोर शिक्षा से बालकपन से ही उसे वह स्वभाव पड़ गया था कि दो वर्ष प्रयाग में स्वतंत्र रह कर भी वह अपने चरित्र को, केवल पुरुषों के समाज में बैठ कर, पवित्र रख सका था। जो कोने में बैठ कर उपन्यास पढ़ा करते हैं, उनकी अपेक्षा खुले मैदान में खेलनेवालों के विचार अधिक पवित्र रहते हैं। इसीलिए फुटबाल और हॉकी के खिलाड़ी रघुनाथ को कभी स्त्री-विषयक कल्पना ही नहीं होती थी; वह मानवीय सृष्टि में अपनी माता को छोड़ कर और स्त्रियों के होने या न होने से अनभिज्ञ था। विवाह उसकी दृष्टि में एक आवश्यक किंतु दुर्ज्ञेय बंधन था जिसमें सब मनुष्य फसते हैं और पिता के आज्ञानुसार वह विवाह के लिए घर उसी रुचि से आ रहा था जिससे कि कोई पहले-पहल थियेटर देखने जाता है। कुएँ पर इतनी स्त्रियों को इकट्ठा देख कर वह सहम गया, उसके ललाट पर पसीना आ गया और उसका बस चलता तो वह बिना पानी पिए ही लौट जाता। अस्तु, चुपचाप डोर-लोटा ले कर एक कोने पर जा खड़ा हुआ और डोर खोल कर फाँसा देने लगा।
प्रयाग के बोर्डिग की टोटियों की कृपा से, जन्म-भर कभी कुएँ से पानी नहीं खीचा था न लोटे में फाँसा लगाया था। ऐसी अवस्था में उसने सारी डोर कुएँ पर बखेर दी और उसकी जो छोर लोटे से बाँधी, वह कभी तो लोटे को एक सौ बीस अंश के कोण पर लटकाती और कभी उत्तर पर। डोर के बट जब खुलते हैं तब वह बहुत पेच खाती है। इन पेचों में रघुनाथ की बाँहें भी उलझ गईं। सिर नीचे किए ज्योंही वह डोर को सुलझाता था, त्योंही वह उलझती जाती थी। उसे पता नहीं था कि गाँव की स्त्रियों के लिए वह अद्भुत कौतुक नयनोत्सव हो रहा था।
धीरे-धीरे टीका-टिप्पणी आरंभ हो गई। एक ने हँस कर कहा, 'पटवारी है, पैमाइश की जरीब फैलाता है।'
दूसरी बोली, 'ना, बाजीगर है, हाथ-पाँव बाँध कर पानी में कूद पढ़ेगा और फिर सूखा निकल आएगा।'
तीसरी बोली, 'क्यों लल्ला, घरवालों से लड़ कर आए हो?'
चौथी ने कहा, 'क्या कुएँ में दवाई डालोगे? इस गाँव में तो बीमारी नहीं है।'
इतने में एक लड़की बोली, 'काहे की दवाई और कहाँ का पटवारी? अनाड़ी है, लोटे में फाँसा देना नही आता। भाई, मेरे घड़े को मत कुएँ में डाल देना, तुमने तो सारी मेंड़ ही रोक ली!' यों कह कर वह सामने आ कर अपना घड़ा उठा कर ले गई।
पहली ने पूछा, 'भाई तुम क्या करोगे?'
लड़की बात काट कर बोल उठी, 'कुएँ को बाँधेंगे।'
पहली - 'अरे! बोल तो।'
लड़की - 'माँ ने सिखाया नहीं।'
संकोच, प्यास, लज्जा और घबराहट से रघुनाथ का गला रुक रहा था; उसने खाँस कर कंठ साफ करना चाहा। लड़की ने भी वैसी ही आवाज की। इस पर पहली स्त्री बढ़ कर आगे आई और डोर उठा कर कहने लगी, 'क्या चाहते हो? बोलते क्यों नहीं?'
लड़की - 'फारसी बोलेंगे।'
रघुनाथ ने शर्म से कुछ आँखें ऊँची कीं, कुछ मुँह फेर कर कुएँ से कहा, 'मुझे पानी पीना है - लोटे से निकाल रहा... निकाल लूँगा।'
लड़की - 'परसों तक।'
स्त्री बोली, 'तो हम पानी पिला दें। ला भागवंती, गगरी उठा ला। इनको पानी पिला दें।'
लड़की गगरी उठा लाई और बोली, 'ले मामी के पालतू, पानी पी ले, शरमा मत, तेरी बहू से नहीं कहूँगी।'
इस पर सारी स्त्रियाँ खिलखिला कर हँस पड़ीं। रघुनाथ के चेहरे पर लाली दौड़ गई और उसने यह दिखाना चाहा कि मुझे कोई देख नहीं रहा है, यद्यपि दस-बारह स्त्रियाँ उसके भौचक्केपन को देख रही थीं। सृष्टि के आदि से कोई अपनी झेंप छिपाने को समर्थ न हुआ, न होगा। रघुनाथ उलटा झेंप गया।
'नहीं, नहीं, मैं आप ही...'
लड़की - कुएँ में कूद के।'
इस पर एक और हँसी का फौवा्रा फूट पड़ा।
रघुनाथ ने कुछ आँखें उठा कर लड़की की ओर देखा। कोई चौदह-पंद्रह बरस की लड़की, शहर की छोकरियों की तरह पीली और दुबली नहीं, हृष्ट-पुष्ट और प्रसन्नमुख। आँखों के डेले काले, कोए सफेद नहीं, कुछ मटिया नीले और पिघलते हुए। यह जान पड़ता था कि डेले अभी पिघल कर बह जाएँगे। आँखों के चौतरंग हँसी, ओठों पर हँसी और सारे शरीर पर नीरोग स्वास्थ्य की हँसी। रघुनाथ की आँखें और नीली हो गईं।
स्त्री ने फिर कहा, 'पानी पी लो जी, लड़की खड़ी है।'
रघुनाथ ने हाथ धोए। एक हाथ मुँह के आगे लगाया, लड़की गगरी से पानी पिलाने लगी। जब रघुनाथ आधा पी चुका था तब उसने श्वास लेते-लेते आँखें ऊँची कीं। उस समय लड़की ने ऐसा मुँह बनाया कि ठि:-ठि: करके रघुनाथ हँस पड़ा, उसकी नाक में पानी चढ़ गया और सारी आस्तीन भीग गई। लड़की चुप।
रघुनाथ को खाँसते, डगमगाते देख वह स्त्री आगे चली आई और गगरी छीनती हुई लड़की को झिड़क कर बोली, 'तुझे रात दिन-दिन ऊतपन ही सूझता है। इन्हें गलसूँड चला गया। ऐसी हँसी भी किस काम की। लो, मैं पानी पिलाती हूँ।'
लड़की - 'दूध पिला दो, बहुत देर हुई, आँसू भी पोंछ दो।'
सच्चे ही रघुनाथ के आँसू आ गए थे। उसने स्त्री से जल ले कर मुँह धोया और पानी पिया। धीरे से कहा, 'बस जी, बस,।'
लड़की - 'अब के आप निकाल लेंगे।'
रघुनाथ को मुँह पोंछते देख कर स्त्री ने पूछा, 'कहाँ रहते हो?'
'आगरे।'
'इधर कहाँ जाओगे?'
लड़की - (बीच ही में) 'शिकारपुर! वहाँ ऐसों का गुरद्वारा है।' स्त्रियाँ खिलखिला उठीं।
रघुनाथ ने अपने गाँव का नाम बताया। मैं पहले कभी इधर आया नहीं, कितनी दूर है, कब तक पहुँच जाऊँगा?' अब भी वह सिर उठा कर बात नहीं कर रहा था।
लड़की - 'यही पंद्रह-बीस दिन में, तीन-चार सौ कोस तो होगा।'
स्त्री - 'छि:, दो-ढाई भर है, अभी घंटे भर में पहुँच जाते हो।'
'रास्ता सीधा ही है न?'
लड़की - 'नहीं तो बाएँ हाथ को मुड़ कर चीड़ के पेड़ के नीचे दाहिने हाथ को मुड़ने के पीछे सातवें पत्थर पर फिर बाएँ मुड़ जाना, आगे सीधे जा कर कहीं न मुड़ना; सबसे आगे एक गीदड़ की गुफा है, सबसे उत्तर को बाड़ उलाँघ कर चले जाना।'
स्त्री - 'छोकरी, तू बहुत सिर चढ़ गई है, चिकर-चिकर करती ही जाती है! नहीं जी, एक ही रास्ता है; सामने नदी आवेगी, परले पार बाएँ हाथ को गाँव है।'
लड़की - 'नदी में भी यों ही फाँसा लगा कर पानी निकालना।'
स्त्री उसकी बात अनसुनी करके बोली, 'क्या उस गाँव में डाकबाबू हो कर आए हो?'
रघुनाथ - 'नहीं मैं तो प्रयाग में पढ़ता हूँ।'
लड़की - 'ओ हो, पिराग जी में पढ़ते हैं! कुएँ से पानी निकालना पढ़ते होंगे?'
स्त्री - 'चुप कर, ज्यादा बक-बक काम की नहीं; क्या तू इसीलिए मेरे यहाँ आई है?'
इस पर महिला-मंडल फिर हँस पड़ा। रघुनाथ ने घबरा कर इलाही की ओर देखा तो वह मजे में पेड़ के नीचे चिलम पी रहा था। इस समय रघुनाथ को हाजी इलाही से ईर्ष्या होने लगी। उसने सोचा कि हज से लौटते समय समुद्र में खतरे कम हैं, और कुएँ पर अधिक।
लड़की - 'क्यों जी, पिराग जी में अक्कल भी बिकती है?'
रघुनाथ ने मुँह फेर लिया।
स्त्री - 'तो गाँव में क्या करने जाते हो?'
लड़की - 'कमाने-खाने।'
स्त्री - 'तेरी कैंची नहीं बंद होती! यह लड़की तो पागल हो जाएगी।'
रघुनाथ - 'मैं वहाँ के बाबू शोभराम जी का लड़का हूँ।'
स्त्री - 'अच्छा, अच्छा तो क्या तुम्हारा ही ब्याह है?'
रघुनाथ ने सिर नीचा कर लिया।
लड़की - 'मामी, मामी, मुझे भी अपने नए पालतू के ब्याह में ले चलना। बड़ा ब्याहने चली है। यह घोड़ी है और वह जो चिलम पी रहा है नाना बनेगा। वाह जी, वाह, ऐसे बुद्ध के आगे भी कोई लहँगा पसारेगा!'
स्त्री लड़की की ओर झपटी। लड़की गगरी उठा कर चलती बनी। स्त्री उसके पीछे दस कदम गई थी कि स्त्री-महामंडल एक अट्टहास से गूँज उठा।
रघुनाथ इलाही के पास लौट आया। पीछे मुड़ कर देखने की उसकी हिम्मत न हुई। उसके गले में भस्म का-सा स्वाद आ रहा थ। जीवन-भर में यही उसका स्त्रियों से पहला परिचय हुआ। उसकी आत्मलज्जा इतनी तेज थी कि वह समझ गया कि मैं इनके सामने बन गया हूँ। जीवन में ऐसी स्त्रियों से आधा संसार भरा रहेगा और ऐसी ही किसी से विवाह होगा। तुलसीदास ने ठीक ही कहा है कि 'तुलसी गाय बजाय के दियो काठ में पाँव। 'स्त्रियों की टोली के वाक्य उसे गड़ रहे थे और सब वाक्यों के दु:स्वप्न के ऊपर उस पिघलती हुई आँखों वाली कन्या का चित्र मँडरा रहा था।
बड़े ही उदास चित्त से रघुनाथ घर पहुँचा।
गाँव पहुँचने के तीसरे दिन रघुनाथ सबेरा होते ही घूमने को निकला। पहाड़ी जमीन, जहाँ रास्ता देखने में कोस भर जँचे और चाहे उसमें दस मील का चक्कर काट लो; बिना पानी सींचे हुए हरे मखमल के गलीचे से ढकी हुई जमीन, उस पर जंगली गुलदाऊदी की पीली टिमकियाँ और वसंत के फूल, आलूबोखारे और पहाड़ी करौंदे की रज से भरे हुए छोटे-छोटे रंगीले फूल, जो पेड़ का पत्ता भी नहीं दिखने दें, क्षितिज पर लटके हुए बादलों की-सी बरफीले पहाड़ों की चोटियाँ, जिन्हें देखते आँखें अपने-आप बड़ी हो जातीं ओर जिनकी हवा की साँस लेने से छाती बढ़ती हुई जान पड़ती; नदी से निकली हुई छोटी-छोटी असंख्य नहरें जो साँप के-से चक्कर खा-खा कर फिर प्रधान नदी की पथरीली तलेटी में जा मिलतीं - ये सब दृश्य प्रयाग के ईंटों के घर और कीचड़ की सड़कों से बिल्कुल निराले थे। चलते-चलते रघुनाथ का मन नहीं भरा और घाटी के उतार-चढ़ाव की गिनती न करके वह नदी की चक्करों की सीध में हो लिया। एक ओर आम के पेड़ थे जो बौरों और कैरियों से लदे हुए थे, उनके सामने धान के खेत थे जिनमें से पानी किलचिल-किलचिल करता हुआ टिघल रहा था। कहीं उसे कँटीली बाड़ों के बीच में हो कर जाना पड़ता था और कहीं छोटे-छोटे झरने, जो नदी में जा मिले थे, लाँघने पड़ते थे। इन प्रकृतिक दृश्यों का आनंद लेता हुआ हमारा चरित्रनायक नदी की ओर बढ़ा।
इस समय वहाँ कोई न था। रघुनाथ ने एक अकृत्रिम घाट - चौड़ी शिला - पर खड़े हो कर नदी की शोभा देखी और सोचा कि हजामत बना कर नहा-धो कर घर चलें। नई सभ्यता के प्रभाव से सेफ्टीरेजर और साबुन की टिकिया सफरी कोट की जेब में थी ही, ऊपर की पॉकेटबुक से एक आईना भी निकालना पड़ा। रघुनाथ उसी शिला-फलक पर बैठ गया और अपने मुख रूपी आकाश पर छाए हुए कोमल बादलों को मिटाने के लिए अमेरिका के इस जेबी बज्र को चलाने लगा।
कवियों को सोचने का समय पाखाने में मिलता है और युवाओं को स्वयं हजामत करने में। यदि नाई होता तो संसार के समाचारों से वही मगज चाट जाता। इसकी वैज्ञानिक युक्ति मुझे एक थियासोफिस्ट ने बताई थी। वह बहुत से तर्क और कुतर्कों में सिद्ध कर रहा था कि पुरानी चालों में सूक्ष्म वैज्ञानिक रहस्य भरे पड़े हैं। यहाँ तक कि माता बच्चे के सिर में नजर से बचाने के लिए जो काजल का टीका लगा देती है अथवा दूध पिलाए पीछे बच्चे को धूल की चुटकी चटा देती है - इसका भी वह बिजली के विज्ञान से समाधान कर रहा था। उसने कहा की हजामत बनाते या बनवाते समय रोम खुल जाने से मस्तिष्क तक के स्नायु-तारों की बिजली हिल जाती है और वहाँ विचारशक्ति की खुजलाहट पहँच जाती है। अस्तु।
रघुनाथ की खुजलाहट का आरंभ यों हुआ कि वह नदी सहस्रों वर्षो से यों ही बह रही है और यों ही बहती जाएगी। किनारे के पहाड़ों ने, ऊपर के आकाश ने और नीचे की मिट्टी ने उसको यों ही देखा है और यों ही वे उसे देखते जाएँगे। यही क्या, नदी का प्रत्येक परमाणु अपने आने वाले परमाणु की पीठ को और पीछे वाले परमाणु के सामने देखता जाता है। अथवा, क्या पहाड़ को या तलेटी की नदी की खबर है? क्या नदी के कारण परमाणु को दूसरे की खबर है? मैं यहाँ बैठा हूँ, इन परमाणुओं को, इस पत्थरों को, इन बादलों को मेरी क्या खबर है? इस समय आगे-पीछे, नीचे-ऊपर, कौन मेरी परवाह करता है? मनुष्य अपने घमंड में त्रिलोकी का राजा बना फिरे, उसे अपने आत्मविश्वास के सिवा पूछता ही कौन है? इस समय मेरा यह क्षोर बनाना किसके लिए ध्यान देने योग्य है? किसे पड़ी है कि मेरी लीलाओं पर ध्यान रक्खे।
इसी विचार की तार में ज्योंही उसने सिर उठाया त्योंही देखा कि कम-से-कम एक व्यक्ति को तो उसकी लीलाएँ ध्यान देने योग्य हो रही थीं जो उनका अनुकरण करती थी। रघुनाथ क्या देखता है कि वही पानी पिलानेवाली लड़की सामने एक दूसरी शिला पर बैठी हुई है और उसकी नकल कर रही है।
उस दिन की हँसी की लज्जा रघुनाथ के जी से नहीं हटी थी। वह लज्जा और संकोच के मारे यही आशा करता था कि फिर कभी वह लड़की मुझे न दिखाई पड़े और अपनी ठठोलियों से मुझे तंग न करे। अब, जिस समय वह यह सोच रहा था कि मुझे कोई न देख रहा है, वही लड़की उसके हजामत बनाने की नकल कर रही है। उसने हाथ में एक तिनका ले रखा है। जब रघुनाथ उस्तरा चलाता है तब वह तिनका चलाती है। जग रघुनाथ हाथ खींचता है तब वह तिनका रोक लेती है।
रघुनाथ ने मुँह दूसरी और किया। उसने भी वैसा ही किया। रघुनाथ ने दाहिना घुटना उठा कर अपना आसन बदला। वहाँ भी ऐसा ही हुआ। रघुनाथ ने बाईं हथेली धरती पर टेक कर अँगड़ाई ली। लड़की ने भी वही मुद्रा की। ये प्रयोग रघुनाथ ने यह निश्चय करने के लिए ही किए थे कि यह लड़की क्या वास्तव में मेरा मखौल कर रही है। उसने हल्का-सा खँखारा उधर से सुना। अब संदेह नहीं रह गया।
ऐसे अवसर पर बुद्धिमान लोग जो करना चाहते हैं, वही रघुनाथ ने किया। अर्थात वह मुँह बदल कर अपना काम करता गया और उसने विचार किया कि मैं उधर न देखूँगा। इस विचार का वही परिणाम हुआ जो ऐसे विचारों का होता है अर्थात दो ही मिनट में रघुनाथ ने अपने को उसी ओर देखते हुए पाया। अब लड़की ने भी अपना आसन बदल लिया था। रघुनाथ ने कई बार विचार किया कि मैं उधर न देखूँगा, पर वह फिर उधर ही देखने लगा। आँखें, जो मानो अभी पानी हो कर बह जाएँगी, सफेद हल्का सा नीला कोआ, जिसमें एक प्रकार की चंचलता, हँसी और घृणा तैर रही थी।
यह लड़की यों पिंड न छोड़ेगी। मैंने इसका क्या बिगाड़ा है ? इससे पूछूँ तो फिर वैसे बताएगी? पर खैर, आज तो अकेली यही है। इसकी चोटों पर साधुवाद करने के लिए महिला-मंडल तो नहीं है। यह सोच कर रघुनाथ ने जोर से खँखारा। वही जवाब मिला। उसने हाथ बढ़ा कर अँगड़ाई ली। वहाँ भी अंग तोड़े गए। रघुनाथ ने एक पत्थर उठा कर नदी में फेंका, उधर ढेला फेंका गया और खलब करके पानी में बोला।
वह बिना वचनों की छेड़ रघुनाथ से सही न गई। उसने एक छोटी-सी कंकरी उठा कर लड़की की शिला पर मारी। जवाब में वैसे ही एक कंकरी रघुनाथ की शिला में आ बजी। रघुनाथ ने दूसरी कंकरी उठा कर फेंकी जो लड़की के समीप जा पड़ी। इस पर एक कंकरी आ कर रघुनाथ की पॉकेट-बुक के आईने पर पट से बोली और उसे फोड़ गई। रघुनाथ कुछ चिढ़ गया, उसकी हिम्मत कुछ बढ़ गई, अबके उसने जो कंकरी मारी कि वह लड़की के हाथ पर जा लगी।
इस पर लड़की ने हाथ को झट |