जिस देश को अपनी भाषा और अपने साहित्य के गौरव का अनुभव नहीं है, वह उन्नत नहीं हो सकता। - देशरत्न डॉ. राजेन्द्रप्रसाद।
जन्मदिन मुबारक (कथा-कहानी)    Print this  
Author:अलका सिन्हा

बगल के कमरे से उठती हुई दबी-दबी हँसी की आवाज उसके कमरे से टकरा रही है। ये हँसी है या चूड़ियों की खनक! पता नहीं, शायद दोनों ही आवाजें हैं। इन आवाजों के सिवा है भी क्या उसकी दुनिया में! एक अंधेरा उसके चारों ओर गहराने लगा है। अंधेरा जितना गहरा होता जाता है, आवाज उतनी तेज होने लगती है, चिरपरिचित अंधेरा... अदृश्य आवाजें...। वह करवट बदलता है...बगल के पलंग से मां की चूड़ियाँ खनकती हैं, शायद माँ ने भी करवट बदली है। कितना साफ फर्क है, माँ की औेर भव्या की चूड़ियों की खनक में। अंधेरे में भी फर्क छुप नहीं पाता... चूड़ियों की छुन-छुन की आवाज ट्रेन की छुक-छुक की आवाज में बदलने लगती है और वह जा पहुंचता है उस मोड़ पर, जहां अपनी जिंदगी के अंधेरों से उसकी पहली मुलाकात हुई थी।

रेल के वातानुकूलित डिब्बे में कुछ ठंड-सी लगने लगी थी।

“कहां तक पहुंचे हम?” उसने छोटे भाई से पूछा था।

“पहुंचने ही वाले हैं गोरी के गांव! मेरा मतलब है, स्टेशन लगने ही वाला है, भैया।”

विवेक की आवाज में उल्लास था, कुछ चुहल भी। एक ही आवाज में कितने शेड्स... वह हर शेड को आसानी से पहचान लेता है, इतनी सुगमता से शायद ही कोई और पहचानता हो। उसके चेहरे पर हल्की-सी मुस्कराहट आ बैठी थी। दरअसल वह अपने लिए लड़की देखने जो जा रहा था। विवेक की हड़बड़ी में छुपी चुहल को वह खूब समझ रहा था। हालांकि लड़की देखने जैसी कोई बात नहीं थी, रिश्ता तो तय ही था। लड़की पढ़ी-लिखी और संभ्रांत खानदान से थी। लड़की के पिता ने उसकी माँ को भरोसा दिलाया था कि भव्या हर तरह से ज्ञान के लिए उपयुक्त है और वह हर कदम पर ज्ञान का सहयोग कर सकेगी। इतना काफी था। यह मां का ही आग्रह था कि विवाह से पूर्व दोनों एक-दूसरे को देख लें, थोड़ा जान-समझ लें।

ज्ञान फिर करवट बदलता है। नींद नहीं आ रही। बारिश की सोंधी गंध खिड़की के रास्ते उसके कमरे में दाखिल हो रही है। दबे पांव उठकर वह खिड़की के करीब जा पहुंचता है। पता नहीं, रात कितनी गुजर गई और कितनी बाकी है, वैसे भी उसके लिए रात और दिन क्या फर्क रखता है। वह खिड़की की सलाखों पर सिर टिकाकर खड़ा हो जाता है। रिमझिम-रिमझिम का संगीत बजाती बारिश हो रही है। इच्छा होती है, वह दरवाजा खोलकर बाहर निकल जाए, बरसात में भीगे, मालकोस में गाए। उसकी दुनिया का स्थाई राग... रात के गहन अंधकार में गाया जाने वाला करुण राग - मालकोस।

टिहु-टिहु-टिहु... कोई पंछी सुबह होने का ऐलान कर दूर उड़ गया है। यानी कुछ देर में दिन पूरा खुल जाएगा। चिड़ियों के कोरस में, पेड़ों के पत्ते सुर मिलाएंगे, वातावरण में संगीत गूंजने लगेगा... रे... ग... ध... नी... का कोमल स्पर्श उसे भला लगता है। राग भैरवी, भोर के प्रथम पहर में गाया जाने वाला राग, उसके भीतर मलहम का अहसास भरता है।

मन काफी कुछ संयत हो चुका है। वह आकर बिस्तर पर लेट जाता है ताकि मां जगे तो सभी कुछ सामान्य-सा लगे।

फिर चूड़ियाँ खनकी हैं। भव्या मेज पर चाय रख गई है। वह उठकर मेज के पास पहुंचता है और कुर्सी खिसकाकर बैठ जाता है। रात की बारिश से मौसम कुछ ठंडा हो चला है। चाय की पहली चुस्की ही ऊर्जा का संचार करती है। वह मेज पर हाथ घुमाता है, मेज खाली है... अरे, यहां मेरी किताबें रखी थीं। आश्चर्य, आज तक उसका कभी कोई सामान इधर से उधर नहीं हुआ। वह पूरा हाथ घुमाता है, हाथ का सामना किसी से नहीं होता। मेज पूरी तरह खाली है।

''भव्या,'' माँ आवाज लगाती है, ''ज्ञान की किताबें कहां रख दीं बेटा?''

''मैंने समेट कर शेल्फ पर रख दी हैं, अभी निकाल देती हूं,'' कहती हुई वह मेज के करीब जा पहुंचती है, ''कौन-सी किताब दूं, भइया?''

''कोई नहीं।'' उसकी आवाज सपाट है या फिर स्वर के आरोह को रोककर जबरन सपाट कर दिया है उसने, ''मेरी किताबें जैसी थीं, वैसी ही रहने दी जाएं,'' वह माँ से कहता है। भव्या बुझे मन से किताबें ला कर वहीं मेज पर रख देती है। ज्ञान किताबों को फिर फैलाकर रख लेता है।

''समेटी हुई किताबें तुझे अच्छी नहीं लगतीं?'' माँ पूछती है।

''नहीं।'' वह पूरी दृढ़ता से कहता है।

वह जानता है, इस बिखराव में ही उसकी पहचान है। उसे मालूम है, उसने कहां, क्या रखा है। वह किसी पर आश्रित तो नहीं है।

चाय का स्वाद कसैला हो आया है। वह चाय का कप पीछे सरका देता है मगर तब तक यह कसैलापन उसके भीतर उतर जाता है।

“हर बात के लिए यह भव्या पर आश्रित रहेगा...” शब्द भेदी बाण की तरह, भव्या की माँ के ये शब्द उसे आज तक बींध रहे हैं। 

उसने साफ-साफ सुना था, भव्या की माँ ने कहा था, ''खूबसूरत परी-सी अपनी बेटी को मैं कैसे उस व्यक्ति को सौंप दूं जो भव्या को इतना तक नहीं बता सकता है कि आज वह लाल रंग पहने या नीला। उल्टे, हर बात के लिए वही भव्या पर आश्रित रहेगा...''  

''अपनी सोच बदलो भव्या की माँ। लड़का हर तरह से समर्थ है, उसका इस तरह बहिष्कार मत करो, उसे अपनी दुनिया में शामिल करो,'' भव्या के पिता ने समझाया था, ''मैंने भव्या को ऐसी तालीम दी है कि वह ज्ञान का सहयोग कर सकेगी।'' मगर भव्या की मां अपनी जिद पर अड़ी थीं, ''आपके सिद्धांतों की खातिर मैं अपनी बेटी की कुरबानी नहीं दे सकती।''

ज्ञान ने सुना था और भीतर तक दरक गया था। वह अक्षम है, आश्रित है, भव्या का उससे ब्याह, भव्या की कुरबानी है। नहीं, यह कुरबानी उसे नहीं मंजूर। उसने विवेक को आवाज दी, ''सुन, भव्या कैसी दिखती है?''

''बहुत सुन्दर, नाजुक, छुई-मुई...रूई के फाहे-सी...एकदम परी जैसी।''

विवेक के उत्साह ने भव्या का जो खाका खींचा उससे वह इतना तो समझ ही गया था कि खूबसूरती का रंग बेहद नर्म और नाजुक होता है। वह सोफे पर बैठा अपनी हथेलियां छू रहा था, कितनी खुरदरी हैं...नहीं, ये कतई सुन्दर नहीं, फिर उसका हाथ अपने ही शरीर पर रेंगने लगा। पीठ पर, बांह में बालों का खुरदरापन। नहीं, वह जरा भी सुन्दर नहीं। हाँ, वह जिस सोफे पर बैठा था उसका रंग खूबसूरत था - रूई के फाहे-सा नर्म और कोमल, बिल्कुल भव्या की तरह...।

घर लौटने तक उसने निर्णय ले लिया था, ''भव्या बहुत सुन्दर है, मैं उसे विवेक के लिए पसंद कर आया हूं।''

“उसे आपके लिए देखा था, भैया।” विवेक ने टोक कर कहा।

“पहले बड़े बेटे की शादी होनी चाहिए…” माँ ने जोर दिया मगर ज्ञान ने सभी को चुप करा दिया, ''मैं घर का बड़ा हूं और ये मेरा फैसला है।''

आखिर शादी हो गई और भव्या बड़े के बदले छोटे भाई की पत्नी के रूप में उस घर का अभिन्न अंग बन गई।

सभी खुश थे, भव्या की माँ, भव्या खुद और विवेक भी। संतुष्ट तो ज्ञान भी था, मगर अनजाने ही एक कसक, उसके भीतर जगह बनाती जा रही थी, एक अजनबी अहसास अपनी जड़ें गहराता जा रहा था कि उसके भीतर की दुनिया रंगों से अनजान थी और रंगों का यह अभाव उसके जीवन का खालीपन बनता जा रहा था।

हैरत की बात यह थी कि रंगों से उसका अपरिचय, उसकी अब तक की जिंदगी को बेमानी बनाता जा रहा था। अब से पहले जैसे किसी सोची-समझी नीति के तहत घर में कभी किसी ने अपनी बात में रंगों का जिक्र तक न किया था। उसने जाना ही नहीं था कि ऐसा भी कुछ है, जिससे उसकी जिंदगी पूरी तरह अछूती है, मगर अब रह-रह कर उसकी अंधेरी दुनिया में रंगों के समीकरण बनते और जिंदगी से उसका संवाद छिन्न-भिन्न कर देते।

उस दिन सुबह से ही पूरा परिवार दीवाली की साफ-सफाई में लगा था। आखिर, विवेक के विवाह के बाद का पहला त्योहार था। रंगाई-पुताई कराने की बात हो रही थी। पुताई तो पहले भी कई बार हुई थी, मगर इस बार रंगाई होनी थी। भव्या हर कमरे के लिए कलात्मकता के साथ रंग बता रही थी, ''कमरे के सामने की दीवार पर कत्थई रंग किया जाए, तो ये दीवार चौड़ी दिखाई देगी, डाइनिंग टेबल की सामने वाली दीवार पर लेमन येलो रहे तो खिड़की के बाहर की हरियाली का कंट्रास्ट उभर कर आएगा।''

ज्ञान की जिंदगी का कंट्रास्ट पूरी तरह उभर चुका था, अब तक क्यों उसे अनभिज्ञ रखा गया रंगों की इस दुनिया से, वह पूछना चाहता था, मगर किससे? कैसे? सभी उससे बेखबर थे। इस कलात्मक कार्य में भव्या की विशेषज्ञता देखने लायक थी, जबकि ज्ञान की जिंदगी का एक-एक हर्फ रंगों की मुखबिरी कर रहा था। उसने दीवारों को छू-छू कर देखा, बार-बार, कई बार...। दीवारें कुछ चिकनी हो आई थीं, हथेली फिसलकर नीचे आ खिसकती थी। ऐसा लगभग हर दीवार के साथ था, फिर कौन-सी दीवार कत्थई और कौन-सी लेमन येलो! स्पर्श से परे ये कैसी अभिव्यक्ति थी, जिसकी भाषा के अर्थ वह खोल नहीं पा रहा था।

दीवाली की रात, भव्य सजावट, आतिशबाजियों की धूम...मगर वह कहां था। अचानक ऐसा क्या आ घटा था कि उसका अब तक का जोड़ा-अर्जा, सब एक बड़े शून्य में तब्दील हो गया था।

पूरे घर में एक हँसी खनकती रहती थी। वह हँसी, जो उसने स्वयं अपने भाई को समर्पित कर दी थी। आज वही हंसी उसे जहर भरे बाण की तरह चुभती थी। तो क्या उसने ऐसा करके गलत किया था? कोलकाता जाते समय माँ ने उसे एहसास दिलाया था कि वह बहुत अहम काम पर जा रहा है।

“तुम कोई सामान देखने नहीं जा रहे बेटा, इस घर की कुलवधू देखने जा रहे हो। वह लड़की इस परिवार के संस्कारों को अगली पीढ़ी में ले जाएगी। इस लिहाज से परखने की कोशिश करना कि हमारे वंश की शाखाएं आने वाली पीढ़ियों के रूप में पुष्पित-पल्लवित होती रहें...”

माँ की हिदायतों ने उसे जिम्मेदारी के भाव से भर दिया था। उसने माँ के हर शब्द पर भव्या और उसके परिवार को खरा पाया। उसके घर के संस्कार, उसके पिता के सिद्धांत ज्ञान के परिवार और परंपराओं से मेल खाते थे। भव्या की मां की व्यावहारिकता को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता था। यह सच है कि भव्या की मां के शब्दों से वह आहत हुआ था। क्या सिर्फ इसलिए उसे भव्या की उपस्थिति को नकार देना चाहिए था? इस व्यावहारिकता के कारण उसे अपनी जिंदगी के अधूरेपन का एहसास हुआ था, इसलिए उसे इस संबंध को ना कर देना चाहिए? क्या सिर्फ इसलिए कि अधूरेपन की यह जानकारी उसे आहत करती थी, इस तथ्य को ठुकराया जा सकता था? या फिर, जिंदगी भर एक खूबसूरत भ्रम को जिए जाने के बदले कड़वे ही सही मगर वास्तविकता का वरण किया जाना अधिक सही था? उसके सिद्धांत तो ऐसा ही मानते थे। तो क्या उसे भव्या के इस बलिदान के लिए हामी भर देनी चाहिए? उस रात भी वह करवट बदलता रहा और उन सवालों पर विचार करता रहा जो उसे छलनी किए जा रहे थे।

आखिर, उसने भव्या को पत्नी न सही मगर परिवार की कुलवधु के रूप में स्वीकार किया, इस घर की धुरी के रूप में स्थापित किया| ऐसा करके उसने गलत क्या किया? वह खुद अपने लिए अजनबी हो चला था।

''आकाश की तरफ देखो विवेक,'' भव्या की आवाज बाहर बालकनी से आ रही थी, ''कैसा लाल हो गया है!''

''पहले भी सूरज ढलता था, उगता था, फूल खिलते थे, पर उनमें ये रंग न थे।'' विवेक भव्या के बहुत करीब था, आवाज में फुसफुसाहट थी, ''तुम चित्रकार हो भव्या, तुमने ही इनमें रंग भरे हैं।''

टुकड़ों-टुकड़ों में कोई किताब ज्ञान के सामने खुलती जा रही थी, कई सारे छेद एक साथ गड्ड-मड्ड हो गए थे। वह उस लुई ब्रेल की तलाश में था जो छूने और सुनने से आगे का अध्याय उसे बता पाता।

भव्या बीमार थी शायद। शायद इसलिए कि माँ की चिन्ता में भी अजब-सा उत्साह था। वह विवेक को बराबर हिदायतें देती रहती, बड़ी खुशी से उसके लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के व्यंजन बनाती, शौक से खिलाती। कैसे इसने पूरे घर पर कब्जा कर लिया है, ज्ञान मन-ही-मन सोचता। अब तक मां की सारी चिन्ता के हकदार वे दोनों भाई ही रहे थे, मगर अब उसकी किसी को परवाह नहीं थी। विवेक भी मां की तरह हर समय भव्या-भव्या ही पुकारता रहता।

आश्चर्य तो इस बात का था कि एक भव्या ही थी जिसे उसका ख्याल रहता। वह उसका कमरा साफ कर देती, पढ़ने की किताबें करीने से लगा देती, मगर उसे भव्या की यह दखलंदाजी कतई बर्दाश्त नहीं होती और वह खुश होने के बजाय असहज हो जाता। भव्या को निर्दोष मानते हुए भी वह उसके साथ अपेक्षित व्यवहार नहीं कर पाता। बाहरी संतुलन और चुप्पी के बावजूद, भीतर एक दावानल धधकता रहता, जिसका कभी भी विस्फोट हो सकता था| भव्या की हर बात जैसे उसे उसकी कमी का अहसास कराती थी। वह उसकी किसी भी बात से उखड़ जाता था, हालांकि वह कुछ स्पष्ट नहीं कहता, मगर मन-ही-मन वह एक हीन भावना से भर उठता|

''जन्मदिन मुबारक हो भइया'', भव्या की आवाज और पीछे-पीछे विवेक और माँ का स्वर।

''मेरा जन्मदिन? पहले तो कभी किसी ने नहीं बताया?''

''भव्या है ना, खुशी मनाने का मौका ढूंढ़ कर निकाल लेती है'', विवेक ने ज्ञान को हाथ मिलाकर बधाई दी।

“तो मेरा जन्मदिन खुशी की बात है।” वह मन-ही-मन तौलता है, “एक अंधेरी-बेरंग दुनिया में आने की खुशी, अपंग-आश्रित होकर जीने की खुशी…”

मगर इससे पहले कि वह कुछ कहता या पूछता, भव्या ने नर्म-नाजुक-सा एक तोहफा उसके हाथों में थमा दिया। नर्म, यानी खूबसूरत, उसके खुरदरे हाथ यानी बदसूरत। ये कैसा मेल है! उसे जैसे बिजली का झटका लगता है, वह धीरे से उसे पलंग पर छोड़ देता है।

''एक बार छू कर तो देख, कितने सुन्दर रंगों के फूल काढ़े हैं भव्या ने,'' माँ ने लाड़ से कहा।

माँ अपना सारा लाड़-प्यार भव्या के नाम कर चुकी है और वह बेदखल हो गया है इस अकूत विरासत से। वह फूट पड़ना चाहता है, वह विद्रोह करना चाहता है, वह खारिज कर देना चाहता है, भव्या की समूची उपस्थिति को...पर क्यों? वह उस घर का बड़ा है, भव्या जिस घर की कुलवधू है। वह खुद को समझाना चाहता है कि उसकी कमी के लिए भव्या तो जिम्मेदार नहीं! … और कि उसने ही भव्या को इस घर में यह दर्जा दिलाया है… उसे भी भव्या को यह मान देना चाहिए|

वह भरपूर कोशिश करता है कि वह भव्या की आत्मीयता को अपनी हीनता से जोड़ने के बदले उसे सहज भाव में स्वीकार करे। किंतु उस तोहफे को छूने से वह इस कदर भयभीत है जैसे रेशमी धागों में कढ़ा हर फूल विषैले नाग-सा फन काढ़े बैठा है, जो छूते ही उसे काट लेगा और वह धराशायी हो जाएगा।

उधर माँ थी कि उससे भव्या की कलाकारी पर उसकी प्रतिक्रिया सुनने को उत्सुक थी। मन पर संयम रखते हुए उसने धीरे-से उन फूलों को टटोला और वह सचमुच ही झटका खा गया। रंग-बिरंगे फूलों की जिस दुनिया से उसने खुद को निष्कासित जाना था, वह तो उसकी अपनी दुनिया थी। अलग-अलग उभार के साथ हाथों से संवाद करती चिर-परिचित लिपि... उसकी जिंदगी के ग्रह-नक्षत्र... हर्ष-विषाद की अभिव्यक्ति... इन डॉट्स ने ही तो उसके जीवन के अंधेरों को उजालों से भरा था। तो क्या उभरे हुए डॉट्स की ये लिपि खूबसूरत है...? रंगीन है...?? मां ने अभी तो कहा कि कितने सुन्दर रंगों के फूल काढ़े हैं भव्या ने। तो क्या उसकी जिंदगी खूबसूरत रंगीन फूलों से सजी है...? विह्वल होकर ज्ञान ने पूरे तकिए पर हाथ घुमाया -- 'जन्मदिन मुबारक' डॉट्स की लिपि में उस पर लिखा था। नहीं, ये कैसे संभव है! उसने दुबारा हाथ घुमाया।

''ठीक लिखा है ना भइया!'' भव्या चहक रही थी।

''तुम ब्रेल कैसे जानती हो?''

''मैंने स्कूल में सीखी थी।''

''मगर क्यों?''

''जिस तरह और स्टूडेन्ट्स ने अतिरिक्त भाषा के रूप में फ्रेंच सीखी, जापानी सीखी, मैंने ब्रेल को चुना।''

भव्या इतरा रही थी, गोया वह कह रही हो, ''ब्रेल तुम्हारी जागीर है क्या?''

ज्ञान परास्त हो गया। आज पहली बार वह महसूस कर रहा है कि वे आँखें जिनसे वह कभी कुछ देख नहीं सका, वे शर्म से झुक गई हैं... भव्या भी औरों की तरह जर्मन, फ्रेंच या जापानी जैसी कोई दूसरी व्यावसायिक भाषा सीख सकती थी, ब्रेल सीखना तो उसके लिए कोई विवशता नहीं थी|

उसका अंतर्मन उसे झकझोर रहा था कि क्यों उसने अपने और भव्या के बीच एक ऐसी विभाजक रेखा खींच दी कि वह पारिवारिक संबंधों की सहज आत्मीयता का सुख भी नहीं उठा पाया? क्या इसलिए कि उसकी खातिर मां और भाई अब तक उसके अंधेरेपन के साथ चलते रहे? स्पर्श की टटोलती शब्दावली में जीते रहे? रंगों से विरक्त बने रहे ताकि उसे अपनी रिक्तता का एहसास न होने पाए? जबकि इसके विपरीत भव्या उसके अभाव को पूरने की कोशिश में लगी रही। खुद को अँधेरे में रखने के बदले, उसे उजाले भरी सामान्य दुनिया का हिस्सा बनाती रही| आज पहली बार वह अपने चेहरे पर जड़ी निस्पंद आंखों में तरंग महसूस कर रहा है। वह अनुभव कर रहा है कि उनमें कोई गीला रंग उतर आया है। आज वह साफ देख पा रहा है कि भव्या उसकी किताबों की रैक के सामने खड़ी पूछ रही है, ''कौन-सी किताब लाऊं भइया?''

उसे साफ सुनाई दे रहा है भव्या के पिता का स्वर, ''मैंने भव्या को ऐसी तालीम दी है कि वह ज्ञान का सहयोग कर सकेगी।''

वह परास्त हो गया है भव्या की तालीम के आगे, भव्या के पिता के सिद्धांतों के आगे...। आश्चर्य कि वह अपनी हार से अभिभूत है। वह इस हार का जश्न मनाना चाहता है।

''बहू, जरा मेरे बुक शेल्फ से मैरी नॉरटन की किताब लाना तो।''

भव्या को स्नेह भरा आदेश देकर उसने उसे अपनी दुनिया में आमंत्रित किया और स्वयं शाही ठाठ के साथ उस बूटीदार तकिए पर सिर टिकाकर उसके लौट आने की प्रतीक्षा करने लगा।

-अलका सिन्हा

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