हिंदी चिरकाल से ऐसी भाषा रही है जिसने मात्र विदेशी होने के कारण किसी शब्द का बहिष्कार नहीं किया। - राजेंद्रप्रसाद।
डिप्टी कलक्टरी (कथा-कहानी)    Print this  
Author:अमरकांत | Amarkant

शकलदीप बाबू कहीं एक घंटे बाद वापस लौटे। घर में प्रवेश करने के पूर्व उन्होंने ओसारे के कमरे में झाँका, कोई भी मुवक्किल नहीं था और मुहर्रिर साहब भी गायब थे। वह भीतर चले गए और अपने कमरे के सामने ओसारे में खड़े होकर बंदर की भाँति आँखे मलका-मलकाकर उन्होंने रसोईघर की ओर देखा। उनकी पत्नी जमुना, चौके के पास पीढ़े पर बैठी होंठ-पर-होंठ दबाए मुँह फुलाए तरकारी काट रही थी। वह मंद-मंद मुस्कराते हुए अपनी पत्नी के पास चले गए। उनके मुख पर असाधारण संतोष, विश्वास एवं उत्साह का भाव अंकित था। एक घंटे पूर्व ऐसी बात नही थी।

बात इस प्रकार आरंभ हुई। शकलदीप बाबू सबेरे दातौन-कुल्ला करने के बाद अपने कमरे में बैठे ही थे कि जमुना ने एक तश्तरी में दो जलेबियाँ नाश्ते के लिए सामने रख दीं। वह बिना कुछ बोले जलपान करने लगे। जमुना पहले तो एक-आध मिनट चुप रही। फिर पति के मुख की ओर उड़ती नजर से देखने के बाद उसने बात छेड़ी, 'दो-तीन दिन से बबुआ बहुत उदास रहते हैं।'

'क्या?' सिर उठाकर शकलदीप बाबू ने पूछा और उनकी भौंहे तन गईं। जमुना ने व्यर्थ में मुस्कराते हुए कहा, 'कल बोले, इस साल डिप्टी-कलक्टरी की बहुत-सी जगहें हैं, पर बाबूजी से कहते डर लगता है। कह रहे थे, दो-चार दिन में फीस भेजने की तारीख बीत जाएगी।'

शकलदीप बाबू का बड़ा लड़का नारायण, घर में बबुआ के नाम से ही पुकारा जाता था। उम्र उसकी लगभग 24 वर्ष की थी। पिछले तीन-चार साल से बहुत-सी परीक्षाओं में बैठने, एम.एल.ए. लोगों के दरवाजों के चक्कर लगाने तथा और भी उल्टे-सीधे फन इस्तेमाल करने के बावजूद उसको अब तक कोई नौकरी नहीं मिल सकी थी। दो बार डिप्टी-कलक्टरी के इम्तहान में भी वह बैठ चुका था, पर दुर्भाग्य! अब एक अवसर उसे और मिलना था, जिसको वह छोड़ना न चाहता था, और उसे विश्वास था कि चूँकि जगहें काफी हैं और वह अबकी जी-जान से परिश्रम करेगा, इसलिए बहुत संभव है कि वह ले लिया जाए।

शकलदीप बाबू मुख्तार थे। लेकिन इधर डेढ़-दो साल से मुख्तारी की गाड़ी उनके चलाए न चलती थी। बुढ़ौती के कारण अब उनकी आवाज में न वह तड़प रह गई थी, न शरीर में वह ताकत और न चाल में वह अकड़, इसलिए मुवक्किल उनके यहाँ कम ही पहुँचते। कुछ तो आकर भी भड़क जाते। इस हालत में वह राम का नाम लेकर कचहरी जाते, अक्सर कुछ पा जाते, जिससे दोनों जून चौका-चूल्हा चल जाता।

जमुना की बात सुनकर वह एकदम बिगड़ गए। क्रोध से उनका मुँह विकृत हो गया और वह सिर को झटकते हुए, कटाह कुकुर की तरह बोले, 'तो मैं क्या करूँ? मैं तो हैरान-परेशान हो गया हूँ। तुम लोग मेरी जान लेने पर तुले हुए हो। साफ-साफ सुन लो, मैं तीन बार कहता हूँ, मुझसे नहीं होगा, मुझसे नहीं होगा, मुझसे नहीं होगा।'

जमुना कुछ न बोली, क्योंकि वह जानती थी कि पति का क्रोध करना स्वाभाविक है।

शकलदीप बाबू एक-दो क्षण चुप रहे, फिर दाएँ हाथ को ऊपर-नीचे नचाते हुए बोले, 'फिर इसकी गारंटी ही क्या है कि इस दफे बाबू साहब ले ही लिए जाएँगे? मामूली ए.जी. ऑफिस की क्लर्की में तो पूछे नहीं गए, डिप्टी-कलक्टरी में कौन पूछेगा? आप में क्या खूबी है, साहब कि आप डिप्टी-कलक्टर हो ही जाएँगे? थर्ड क्लास बी.ए. आप हैं, चौबीसों घंटे मटरगश्ती आप करते हैं, दिन-रात सिगरेट आप फूँकते हैं। आप में कौन-से सुर्खाब के पर लगे हैं? बड़े-बड़े बह गए, गदहा पूछे कितना पानी! फिर करम-करम की बात होती है। भाई, समझ लो, तुम्हारे करम में नौकरी लिखी ही नहीं। अरे हाँ, अगर सभी कुकुर काशी ही सेवेंगे तो हँडिया कौन चाटेगा? डिप्टी-कलक्टरी, डिप्टी-कलक्टरी! सच पूछो, तो डिप्टी-कलक्टरी नाम से मुझे घृणा हो गई है!' और होंठ बिचक गए।

जमुना ने अब मृदु स्वर में उनके कथन का प्रतिवाद किया, 'ऐसी कुभाषा मुँह से नहीं निकालनी चाहिए। हमारे लड़के में दोष ही कौन-सा है? लाखों में एक है। सब्र की सौ धार, मेरा तो दिल कहता है इस बार बबुआ जरूर ले लिए जाएँगे। फिर पहली भूख-प्यास का लड़का है, माँ-बाप का सुख तो जानता ही नहीं। इतना भी नहीं होगा, तो उसका दिल टूट जाएगा। यों ही न मालूम क्यों हमेशा उदास रहता है, ठीक से खाता-पीता नहीं, ठीक से बोलता नहीं, पहले की तरह गाता-गुनगुनाता नहीं। न मालूम मेरे लाड़ले को क्या हो गया है।' अंत में उसका गला भर आया और वह दूसरी ओर मुँह करके आँखों में आए आँसुओं को रोकने का प्रयास करने लगी।

जमुना को रोते हुए देखकर शकलदीप बाबू आपे से बाहर हो गए। क्रोध तथा व्यंग्य से मुँह चिढ़ाते हुए बोले, 'लड़का है तो लेकर चाटो! सारी खुराफात की जड़ तुम ही हो, और कोई नहीं! तुम मुझे जिंदा रहने देना नहीं चाहतीं, जिस दिन मेरी जान निकलेगी, तुम्हारी छाती ठंडी होगी!' वह हाँफने लगे। उन्होंने जमुना पर निर्दयतापूर्वक ऐसा जबरदस्त आरोप किया था, जिसे वह सह न सकी। रोती हुई बोली, 'अच्छी बात है, अगर मैं सारी खुराफात की जड़ हूँ तो मैं कमीनी की बच्ची, जो आज से कोई बात...' रुलाई के मारे वह आगे न बोल सकी और तेजी से कमरे से बाहर निकल गई।

शकलदीप बाबू कुछ नहीं बोले, बल्कि वहीं बैठे रहे। मुँह उनका तना हुआ था और गर्दन टेढ़ी हो गई थी। एक-आध मिनट तक उसी तरह बैठे रहने के पश्चात वह जमीन पर पड़े अखबार के एक फटे-पुराने टुकड़े को उठाकर इस तल्लीनता से पढ़ने लगे, जैसे कुछ भी न हुआ हो।

लगभग पंद्रह-बीस मिनट तक वह उसी तरह पढ़ते रहे। फिर अचानक उठ खड़े हुए। उन्होंने लुंगी की तरह लिपटी धोती को खोलकर ठीक से पहन लिया और ऊपर से अपना पारसी कोट डाल लिया, जो कुछ मैला हो गया था और जिसमें दो चिप्पियाँ लगी थीं, और पुराना पंप शू पहन, हाथ में छड़ी ले, एक-दो बार खाँसकर बाहर निकल गए।

पति की बात से जमुना के हृदय को गहरा आघात पहुँचा था। शकलदीप बाबू को बाहर जाते हुए उसने देखा, पर वह कुछ नहीं बोली। वह मुँह फुलाए चुपचाप घर के अटरम-सटरम काम करती रही। और एक घंटे बाद भी जब शकलदीप बाबू बाहर से लौट उसके पास आकर खड़े हुए, तब भी वह कुछ न बोली, चुपचाप तरकारी काटती रही।

शकलदीप बाबू ने खाँसकर कहा, 'सुनती हो, यह डेढ़ सौ रुपए रख लो। करीब सौ रुपए बबुआ की फीस में लगेंगे और पचास रुपए अलग रख देना, कोई और काम आ पड़े।'

जमुना ने हाथ बढ़ाकर रुपए तो अवश्य ले लिए, पर अब भी कुछ नहीं बोली।

लेकिन शकलदीप बाबू अत्यधिक प्रसन्न थे और उन्होंने उत्साहपूर्ण आवाज में कहा, 'सौ रुपए बबुआ को दे देना, आज ही फीस भेज दें। होंगे, जरूर होंगे, बबुआ डिप्टी-कलक्टर अवश्य होंगे। कोई कारण ही नहीं कि वह न लिए जाएँ। लड़के के जेहन में कोई खराबी थोड़े है। राम-राम...! नहीं, चिंता की कोई बात नहीं। नारायण जी इस बार भगवान की कृपा से डिप्टी-कलक्टर अवश्य होंगे।'

जमुना अब भी चुप रही और रुपयों को ट्रंक में रखने के लिए उठकर अपने कमरे में चली गई।

शकलदीप बाबू अपने कमरे की ओर लौट पड़े। पर कुछ दूर जाकर फिर घूम पड़े और जिस कमरे में जमुना गई थी, उसके दरवाजे के सामने आकर खड़े हो गए और जमुना को ट्रंक में रुपए बंद करते हुए देखते रहे। फिर बोले, 'गलती किसी की नहीं। सारा दोष तो मेरा है। देखो न, मैं बाप होकर कहता हूँ कि लड़का नाकाबिल है! नहीं, नहीं, सारी खुराफात की जड़ मैं ही हूँ, और कोई नहीं।'

एक-दो क्षण वह खड़े रहे, लेकिन तब भी जमुना ने कोई उत्तर नहीं दिया तो कमरे में जाकर वह अपने कपड़े उतारने लगे।

नारायण ने उसी दिन डिप्टी-कलक्टरी की फीस तथा फार्म भेज दिए।

दूसरे दिन आदत के खिलाफ प्रातःकाल ही शकलदीप बाबू की नींद उचट गई। वह हड़बड़ाकर आँखें मलते हुए उठ खड़े हुए और बाहर ओसारे में आकर चारों ओर देखने लगे। घर के सभी लोग निद्रा में निमग्न थे। सोए हुए लोगों की साँसों की आवाज और मच्छरों की भनभन सुनाई दे रही थी। चारों ओर अँधेरा था। लेकिन बाहर के कमरे से धीमी रोशनी आ रही थी। शकलदीप बाबू चौंक पड़े और पैरों को दबाए कमरे की ओर बढ़े।

उनकी उम्र पचास के ऊपर होगी। वह गोरे, नाटे और दुबले-पतले थे। उनके मुख पर अनगिनत रेखाओं का जाल बुना था और उनकी बाँहों तथा गर्दन पर चमड़े झूल रहे थे।

दरवाजे के पास पहुँचकर, उन्होंने पंजे के बल खड़े हो, होंठ दबाकर कमरे के अंदर झाँका। उनका लड़का नारायण मेज पर रखी लालटेन के सामने सिर झुकाए ध्यानपूर्वक कुछ पढ़ रहा था। शकलदीप बाबू कुछ देर तक आँखों को साश्चर्य फैलाकर अपने लड़के को देखते रहे, जैसे किसी आनंददायी रहस्य का उन्होंने अचानक पता लगा लिया हो। फिर वह चुपचाप धीरे-से पीछे हट गए और वहीं खड़े होकर जरा मुस्कराए और फिर दबे पाँव धीरे-धीरे वापस लौटे और अपने कमरे के सामने ओसारे के किनारे खड़े होकर आसमान को उत्सुकतापूर्वक निहारने लगे।

उनकी आदत छह, साढ़े छह बजे से पहले उठने की नहीं थी। लेकिन आज उठ गए थे, तो मन अप्रसन्न नहीं हुआ। आसमान में तारे अब भी चटक दिखाई दे रहे थे, और बाहर के पेड़ों को हिलाती हुई और खपड़े को स्पर्श करके आँगन में न मालूम किस दिशा से आती जाती हवा उनको आनंदित एवं उत्साहित कर रही थी। वह पुनः मुस्करा पड़े और उन्होंने धीरे-से फुसफुसाया, 'चलो, अच्छा ही है।'

और अचानक उनमें न मालूम कहाँ का उत्साह आ गया। उन्होंने उसी समय ही दातौन करना शुरू कर दिया। इन कार्यों से निबटने के बाद भी अँधेरा ही रहा, तो बाल्टी में पानी भरा और उसे गुसलखाने में ले जाकर स्नान करने लगे। स्नान से निवृत्त होकर जब वह बाहर निकले, तो उनके शरीर में एक अपूर्व ताजगी तथा मन में एक अवर्णनीय उत्साह था।

यद्यपि उन्होंने अपने सभी कार्य चुपचाप करने की कोशिश की थी, तो भी देह दुर्बल होने के कारण कुछ खटपट हो गई, जिसके परिणामस्वरूप उनकी पत्नी की नींद खुल गई। जमुना को तो पहले चोर-वोर का संदेह हुआ, लेकिन उसने झटपट आकर जब देखा, तो आश्चर्यचकित हो गई। शकलदीप बाबू आँगन में खड़े-खड़े आकाश को निहार रहे थे।

जमुना ने चिंतातुर स्वर में कहा, 'इतनी जल्दी स्नान की जरूरत क्या थी? इतना सबेरे तो कभी भी नहीं उठा जाया जाता था? कुछ हो-हवा गया, तो?'

शकलदीप बाबू झेंप गए। झूठी हँसी हँसते हुए बोले, 'धीरे-धीरे बोलो, भाई, बबुआ पढ़ रहे हैं।'

जमुना बिगड़ गई, 'धीरे-धीरे क्यों बोलूँ, इसी लच्छन से परसाल बीमार पड़ जाया गया था।'

शकलदीप बाबू को आशंका हुई कि इस तरह बातचीत करने से तकरार बढ़ जाएगा, शोर-शराबा होगा, इसलिए उन्होंने पत्नी की बात का कोई उत्तर नहीं दिया। वह पीछे घूम पड़े और अपने कमरे में आकर लालटेन जलाकर चुपचाप रामायण का पाठ करने लगे।

पूजा समाप्त करके जब वह उठे, तो उजाला हो गया था। वह कमरे से बाहर निकल आए। घर के बड़े लोग तो जाग गए थे, पर बच्चे अभी तक सोए थे। जमुना भंडार-घर में कुछ खटर-पटर कर रही थी। शकलदीप बाबू ताड़ गए और वह भंडार-घर के दरवाजे के सामने खड़े हो गए और कमर पर दोनों हाथ रखकर कुतूहल के साथ अपनी पत्नी को कुंडे में से चावल निकालते हुए देखते रहे।

कुछ देर बाद उन्होंने प्रश्न किया, 'नारायण की अम्मा, आजकल तुम्हारा पूजा-पाठ नहीं होता क्या?' और झेंपकर वह मुस्कराए।

शकलदीप बाबू इसके पूर्व सदा राधास्वामियों पर बिगड़ते थे और मौका-बेमौका उनकी कड़ी आलोचना भी करते थे। इसको लेकर औरतों में कभी-कभी रोना-पीटना तक भी हो जाता था। इसलिए आज भी जब शकलदीप बाबू ने पूजा-पाठ की बात की, तो जमुना ने समझा कि वह व्यंग्य कर रहे हैं। उसने भी प्रत्युत्तर दिया, 'हम लोगों को पूजा-पाठ से क्या मतलब? हमको तो नरक में ही जाना है। जिनको सरग जाना हो, वह करें!'

'लो बिगड़ गईं,' शकलदीप बाबू मंद-मंद मुस्कराते हुए झट-से बोले, 'अरे, मैं मजाक थोड़े कर रहा था! मैं बड़ी गलती पर था, राधास्वामी तो बड़े प्रभावशाली देवता हैं।'

जमुना को राधास्वामी को देवता कहना बहुत बुरा लगा और वह तिनककर बोली, 'राधास्वामी को देवता कहते हैं? वह तो परमपिता परमेसर हैं, उनका लोक सबसे ऊपर है, उसके नीचे ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश के लोक आते हैं।'

'ठीक है, ठीक है, लेकिन कुछ पूजा-पाठ भी करोगी? सुनते हैं सच्चे मन से राधास्वामी की पूजा करने से सभी मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं।' शकलदीप बाबू उत्तर देकर काँपते होंठों में मुस्कराने लगे।

जमुना ने पुनः भुल-सुधार किया, 'इसमें दिखाना थोड़े होता है; मन में नाम ले लिया जाता है। सभी मनोरथ बन जाते हैं और मरने के बाद आत्मा परमपिता में मिल जाती है। फिर चौरासी नहीं भुगतना पड़ता।'

शकलदीप बाबू ने सोत्साह कहा, 'ठीक है, बहुत अच्छी बात है। जरा और सबेरे उठकर नाम ले लिया करो। सुबह नहाने से तबीयत दिन-भर साफ रहती है। कल से तुम भी शुरू कर दो। मैं तो अभागा था कि मेरी आँखें आज तक बंद रही। खैर, कोई बात नहीं, अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है, कल से तुम भी सवेरे चार बजे उठ जाना।'

उनको भय हुआ कि जमुना कहीं उनके प्रस्ताव का विरोध न करे, इसलिए इतना कहने के बाद वह पीछे घूमकर खिसक गए। लेकिन अचानक कुछ याद करके वह लौट पड़े। पास आकर उन्होंने पत्नी से मुस्कराते हुए पूछा, 'बबुआ के लिए नाश्ते का इंतजाम क्या करोगी?'

'जो रोज होता है, वही होगा, और क्या होगा?' उदासीनतापूर्वक जमुना ने उत्तर दिया।

'ठीक है, लेकिन आज हलवा क्यों नहीं बना लेतीं? घर का बना सामान अच्छा होता है। और कुछ मेवे मँगा लो।'

'हलवे के लिए घी नहीं है। फिर इतने पैसे कहाँ हैं?' जमुना ने मजबूरी जाहिर की।

'पचास रुपए तो बचे हैं न, उसमें से खर्च करो। अन्न-जल का शरीर, लड़के को ठीक से खाने-पीने का न मिलेगा, तो वह इम्तहान क्या देगा? रुपए की चिंता मत करो, मैं अभी जिंदा हूँ!' इतना कहकर शकलदीप बाबू ठहाका लगाकर हँस पड़े। वहाँ से हटने के पूर्व वह पत्नी को यह भी हिदायत देते गए, 'एक बात और करो। तुम लड़के लोगों से डाँटकर कह देना कि वे बाहर के कमरे में जाकर बाजार न लगाएँ, नहीं तो मार पड़ेगी। हाँ, पढ़ने में बाधा पहुँचेगी। दूसरी बात यह कि बबुआ से कह देना, वह बाहर के कमरे में बैठकर इत्मीनान से पढ़ें, मैं बाहर सहन में बैठ लूँगा।'

शकलदीप बाबू सबेरे एक-डेढ़ घंटे बाहर के कमरे में बैठते थे। वहाँ वह मुवक्किलों के आने की प्रतीक्षा करते और उन्हें समझाते-बुझाते।

और वह उस दिन सचमुच ही मकान के बाहर पीपल के पेड़ के नीचे, जहाँ पर्याप्त छाया रहती थी, एक मेज और कुर्सियाँ लगाकर बैठ गए। जान-पहचान के लोग वहाँ से गुजरे, तो उन्हें वहाँ बैठे देखकर आश्चर्य हुआ। जब सड़क से गुजरते हुए बब्बनलाल पेशकार ने उनसे पूछा कि 'भाई साहब, आज क्या बात है?' तो उन्होंने जोर से चिल्लाकर कहा कि 'भीतर बड़ी गर्मी है।' और उन्होंने जोकर की तरह मुँह बना दिया और अंत में ठहाका मारकर हँस पड़े, जैसे कोई बहुत बड़ा मजाक कर दिया हो।

शाम को जहाँ रोज वह पहले ही कचहरी से आ जाते थे, उस दिन देर से लौटे। उन्होंने पत्नी के हाथ में चार रुपए तो दिए ही, साथ ही दो सेब तथा कैंची सिगरेट के पाँच पैकेट भी बढ़ा दिए।

'सिगरेट क्या होगी?' जमुना ने साश्चर्य पूछा।

'तुम्हारे लिए है,' शकलदीप बाबू ने धीरे-से कहा और दूसरी ओर देखकर मुस्कराने लगे, लेकिन उनका चेहरा शर्म से कुछ तमतमा गया।

जमुना ने माथे पर की साड़ी को नीचे खींचते हुए कहा, 'कभी सिगरेट पी भी है कि आज ही पीऊँगी। इस उम्र में मजाक करते लाज नहीं आती?'

शकलदीप बाबू कुछ बोले नहीं और थोड़ा मुस्कराकर इधर-उधर देखने लगे। फिर गंभीर होकर उन्होंने दूसरी ओर देखते हुए धीरे-से कहा, 'बबुआ को दे देना,' और वह तुरंत वहाँ से चलते बने।

जमुना भौंचक होकर कुछ देर उनको देखती रही, क्योंकि आज के पूर्व तो वह यही देखती आ रही थी कि नारायण के धूम्रपान के वह सख्त खिलाफ रहे हैं और इसको लेकर कई बार लड़के को डाँट-डपट चुके हैं। उसकी समझ में कुछ न आया, तो वह यह कहकर मुस्करा पड़ी कि बुद्धि सठिया गई है। नारायण दिन-भर पढ़ने-लिखने के बाद टहलने गया हुआ था। शकलदीप बाबू जल्दी से कपड़े बदलकर हाथ में झाड़ू ले बाहर के कमरे में जा पहुँचे। उन्होंने धीरे-धीरे कमरे को अच्छी तरह झाड़ा-बुहारा, इसके बाद नारायण की मेज को साफ किया तथा मेजपोश को जोर-जोर से कई बार झाड़-फटककर सफाई के साथ उस पर बिछा दिया। अंत में नारायण की चारपाई पर पड़े बिछौने को खोलकर उसमें की एक-एक चीज को झाड़-फटकारकर यत्नपूर्वक बिछाने लगे।

इतने में जमुना ने आकर देखा, तो मृदु स्वर में कहा, 'कचहरी से आने पर यही काम रह गया है क्या? बिछौना रोज बिछ ही जाता है और कमरे की महरिन सफाई कर ही देती है।'

'अच्छा, ठीक है। मैं अपनी तबीयत से कर रहा हूँ, कोई जबरदस्ती थोड़ी है।' शकलदीप बाबू के मुख पर हल्के झेंप का भाव अंकित हो गया था और वह अपनी पत्नी की ओर न देखते हुए ऐसी आवाज में बोले, जैसे उन्होंने अचानक यह कार्य आरंभ कर दिया था - 'और जब इतना कर ही लिया है, तो बीच में छोड़ने से क्या लाभ, पूरा ही कर लें।' कचहरी से आने के बाद रोज का उनका नियम यह था कि वह कुछ नाश्ता-पानी करके चारपाई पर लेट जाते थे। उनको अक्सर नींद आ जाती थी और वह लगभग आठ बजे तक सोते रहते थे। यदि नींद न भी आती, तो भी वह इसी तरह चुपचाप पड़े रहते थे।

'नाश्ता तैयार है,' यह कहकर जमुना वहाँ से चली गई।

शकलदीप बाबू कमरे को चमाचम करने, बिछौने लगाने तथा कुर्सियों को तरतीब से सजाने के पश्चात आँगन में आकर खड़े हो गए और बेमतलब ठनककर हँसते हुए बोले, 'अपना काम सदा अपने हाथ से करना चाहिए, नौकरों का क्या ठिकाना?'

लेकिन उनकी बात पर संभवतः किसी ने ध्यान नहीं दिया और न उसका उत्तर ही।

धीरे-धीरे दिन बीतते गए और नारायण कठिन परिश्रम करता रहा। कुछ दिनों से शकलदीप बाबू सायंकाल घर से लगभग एक मील की दूरी पर स्थित शिवजी के एक मंदिर में भी जाने लगे थे। वह बहुत चलता मंदिर था और उसमें भक्तजनों की बहुत भीड़ होती थी। कचहरी से आने के बाद वह नारायण के कमरे को झाड़ते-बुहारते, उसका बिछौना लगाते, मेज-कुर्सियाँ सजाते और अंत में नाश्ता करके मंदिर के लिए रवाना हो जाते। मंदिर में एक-डेढ़ घंटे तक रहते और लगभग दस बजे घर आते। एक दिन जब वह मंदिर से लौटे, तो साढ़े दस बज गए थे। उन्होंने दबे पाँव ओसारे में पाँव रखा और अपनी आदत के अनुसार कुछ देर तक मुस्कराते हुए झाँक-झाँककर कोठरी में नारायण को पढ़ते हुए देखते रहे। फिर भीतर जा अपने कमरे में छड़ी रखकर, नल पर हाथ-पैर धोकर, भोजन के लिए चौके में जाकर बैठ गए।

पत्नी ने खाना परोस दिया। शकलदीप बाबू ने मुँह में कौर चुभलाते हुए पूछा, 'बबुआ को मेवे दे दिए थे?'

वह आज सायंकाल जब कचहरी से लौटे थे, तो मेवे लेते आए थे। उन्होंने मेवे को पत्नी के हवाले करते हुए कहा था कि इसे सिर्फ नारायण को ही देना, और किसी को नहीं।

जमुना को झपकी आ रही थी, लेकिन उसने पति की बात सुन ली, चौंककर बोली, 'कहाँ? मेवा ट्रंक में रख दिया था, सोचा था, बबुआ घूमकर आएँगे तो चुपके से दे दूँगी। पर लड़के तो दानव-दूत बने हुए हैं, ओना-कोना, अँतरा-सँतरा, सभी जगह पहुँच जाते हैं। टुनटुन ने कहीं से देख लिया और उसने सारा-का सारा खा डाला।'

टुनटुन शकलदीप बाबू का सबसे छोटा बारह वर्ष का अत्यंत ही नटखट लड़का था।

'क्यों?' शकलदीप बाबू चिल्ला पड़े। उनका मुँह खुल गया था और उनकी जीभ पर रोटी का एक छोटा टुकड़ा दृष्टिगोचर हो रहा था। जमुना कुछ न बोली। अब शकलदीप बाबू ने गुस्से में पत्नी को मुँह चिढ़ाते हुए कहा, 'खा गया, खा गया! तुम क्यों न खा गई! तुम लोगों के खाने के लिए ही लाता हूँ न? हूँ! खा गया!'

जमुना भी तिनक उठी, 'तो क्या हो गया? कभी मेवा-मिश्री, फल-मूल तो उनको मिलता नहीं, बेचारे खुद्दी-चुन्नी जो कुछ मिलता है, उसी पर सब्र बाँधे रहते हैं। अपने हाथ से खरीदकर कभी कुछ दिया भी तो नहीं गया। लड़का ही तो है, मन चल गया, खा लिया। फिर मैंने उसे बहुत मारा भी, अब उसकी जान तो नहीं ले लूँगी।'

'अच्छा तो खाओ तुम और तुम्हारे लड़के! खूब मजे में खाओ! ऐसे खाने पर लानत है!' वह गुस्से से थर-थर काँपते हुए चिल्ला पड़े और फिर चौके से उठकर कमरे में चले गए।

जमुना भय, अपमान और गुस्से से रोने लगी। उसने भी भोजन नहीं किया और वहाँ से उठकर चारपाई पर मुँह ढँककर पड़ रही। लेकिन दूसरे दिन प्रातःकाल भी शकलदीप बाबू का गुस्सा ठंडा न हुआ और उन्होंने नहाने-धोने तथा पूजा-पाठ करने के बाद सबसे पहला काम यह किया कि जब टुनटुन जागा, तो उन्होंने उसको अपने पास बुलाया और उससे पूछा कि उसने मेवा क्यों खाया? जब उसको कोई उत्तर न सूझा और वह भक्कू बनकर अपने पिता की ओर देखने लगा, तो शकलदीप बाबू ने उसे कई तमाचे जड़ दिए।

डिप्टी-कलक्टरी की परीक्षा इलाहाबाद में होनेवाली थी और वहाँ रवाना होने के दिन आ गए। इस बीच नारायण ने इतना अधिक परिश्रम किया कि सभी आश्चर्यचकित थे। वह अट्ठारह-उन्नीस घंटे तक पढ़ता। उसकी पढ़ाई में कोई बाधा उपस्थित नहीं होने पाती, बस उसे पढ़ना था। उसका कमरा साफ मिलता, उसका बिछौना बिछा मिलता, दोनों जून गाँव के शुद्ध घी के साथ दाल-भात,रोटी, तरकारी मिलती। शरीर की शक्ति तथा दिमाग की ताजगी को बनाए रखने के लिए नाश्ते में सबेरे हलवा-दूध तथा शाम को मेवे या फल। और तो और, लड़के की तबीयत न उचटे, इसलिए सिगरेट की भी समुचित व्यवस्था थी। जब सिगरेट के पैकेट खत्म होते, तो जमुना उसके पास चार-पाँच पैकेट और रख आती।

जिस दिन नारायण को इलाहाबाद जाना था, शकलदीप बाबू की छुट्टी थी और वे सबेरे ही घूमने निकल गए। वह कुछ देर तक कंपनी गार्डन में घूमते रहे, फिर वहाँ तबीयत न लगी, तो नदी के किनारे पहुँच गए। वहाँ भी मन न लगा, तो अपने परम मित्र कैलाश बिहारी मुख्तार के यहाँ चले गए। वहाँ बहुत देर तक गप-सड़ाका करते रहे, और जब गाड़ी का समय निकट आया, तो जल्दी-जल्दी घर आए।

गाड़ी नौ बजे खुलती थी। जमुना तथा नारायण की पत्नी निर्मला ने सबेरे ही उठकर जल्दी-जल्दी खाना बना लिया था। नारायण ने खाना खाया और सबको प्रणाम कर स्टेशन को चल पड़ा। शकलदीप बाबू भी स्टेशन गए। नारायण को विदा करने के लिए उसके चार-पाँच मित्र भी स्टेशन पर पहुँचे थे। जब तक गाड़ी नहीं आई थी, नारायण प्लेटफार्म पर उन मित्रों से बातें करता रहा। शकलदीप बाबू अलग खड़े इधर-उधर इस तरह देखते रहे, जैसे नारायण से उनका कोई परिचय न हो। और जब गाड़ी आई और नारायण अपने पिता तथा मित्रों के सहयोग से गाड़ी में पूरे सामान के साथ चढ़ गया, तो शकलदीप बाबू वहाँ से धीरे-से खिसक गए और व्हीलर के बुकस्टाल पर जा खड़े हुए। बुकस्टाल का आदमी जान-पहचान का था, उसने नमस्कार करके पूछा, 'कहिए, मुख्तार साहब, आज कैसे आना हुआ?'

शकलदीप बाबू ने संतोषपूर्वक मुस्कराते हुए उत्तर दिया, 'लड़का इलाहाबाद जा रहा है, डिप्टी-कलक्टरी का इम्तहान देने। शाम तक पहुँच जाएगा। ड्योढ़े दर्जे के पास जो डिब्बा है न, उसी में है। नीचे जो चार-पाँच लड़के खड़े हैं, वे उसके मित्र है। सोचा, भाई हम लोग बूढ़े ठहरे, लड़के इम्तहान-विम्तहान की बात कर रहे होंगे, क्या समझेंगे, इसलिए इधर चला आया।' उनकी आँखे हास्य से संकुचित हो गईं।

वहाँ वह थोड़ी देर तक रहे। इसके बाद जाकर घड़ी में समय देखा, कुछ देर तक तारघर के बाहर तार बाबू को खटर-पटर करते हुए निहारा और फिर वहाँ से हटकर रेलगाड़ियों के आने-जाने का टाइम-टेबुल पढ़ने लगे। लेकिन उनका ध्यान संभवतः गाड़ी की ओर ही था, क्योंकि जब ट्रेन खुलने की घंटी बजी, तो वहाँ से भागकर नारायण के मित्रों के पीछे आ खड़े हुए।

नारायण ने जब उनको देखा, तो उसने झटपट नीचे उतरकर पैर छुए। 'खुश रहो, बेटा, भगवान तुम्हारी मनोकामना पूरी करे!' उन्होंने लड़के से बुदबुदाकर कहा और दूसरी ओर देखने लगे।

नारायण बैठ गया और अब गाड़ी खुलने ही वाली थी। अचानक शकलदीप बाबू का दाहिना हाथ अपने कोट की जेब में गया। उन्होंने जेब से कोई चीज लगभग बाहर निकाल ली, और वह कुछ आगे भी बढ़े, लेकिन फिर न मालूम क्या सोचकर रुक गए। उनका चेहरा तमतमा-सा गया और जल्दीबाजी में वह इधर-उधर देखने लगे। गाड़ी सीटी देकर खुल गई तो शकलदीप बाबू चौंक उठे। उन्होंने जेब से वह चीज निकालकर मुट्ठी में बाँध ली और उसे नारायण को देने के लिए दौड़ पड़े। वह दुर्बल तथा बूढ़े आदमी थे, इसलिए उनसे तेज क्या दौड़ा जाता, वह पैरों में फुर्ती लाने के लिए अपने हाथों को इस तरह भाँज रहे थे, जैसे कोई रोगी, मरियल लड़का अपने साथियों के बीच खेल-कूद के दौरान कोई हल्की-फुल्की शरारत करने के बाद तेजी से दौड़ने के लिए गर्दन को झुकाकर हाथों को चक्र की भाँति घुमाता है। उनके पैर थप-थप की आवाज के साथ प्लेटफार्म पर गिर रहे थे, और उनकी हरकतों का उनके मुख पर कोई विशेष प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं हो रहा था, बस यही मालूम होता कि वह कुछ परेशान हैं। प्लेटफार्म पर एकत्रित लोगों का ध्यान उनकी ओर आकर्षित हो गया। कुछ लोगों ने मौज में आकर जोर से ललकारा, कुछ ने किलकारियाँ मारीं और कुछ लोगों ने दौड़ के प्रति उनकी तटस्थ मुद्रा को देखकर बेतहाशा हँसना आरंभ किया। लेकिन यह उनका सौभाग्य ही था कि गाड़ी अभी खुली ही थी और स्पीड में नहीं आई थी। परिणामस्वरूप उनका हास्यजनक प्रयास सफल हुआ और उन्होंने डिब्बे के सामने पहुँचकर उत्सुक तथा चिंतित मुद्रा में डिब्बे से सिर निकालकर झाँकते हुए नारायण के हाथ में एक पुड़िया देते हुए कहा, 'बेटा, इसे श्रद्धा के साथ खा लेना, भगवान शंकर का प्रसाद है।'

पुड़िया में कुछ बताशे थे, जो उन्होंने कल शाम को शिवजी को चढ़ाए थे और जिसे पता नहीं क्यों, नारायण को देना भूल गए थे। नारायण के मित्र कुतूहल से मुस्कराते हुए उनकी ओर देख रहे थे, और जब वह पास आ गए, तो एक ने पूछा, 'बाबू जी, क्या बात थी, हमसे कह देते।' शकलदीप बाबू यह कहकर कि, 'कोई बात नहीं, कुछ रुपए थे, सोचा, मैं ही दे दूँ, तेजी से आगे बढ़ गए।'

परीक्षा समाप्त होने के बाद नारायण घर वापस आ गया। उसने सचमुच पर्चे बहुत अच्छे किए थे और उसने घरवालों से साफ-साफ कह दिया कि यदि कोई बेईमानी न हुई, तो वह इंटरव्यू में अवश्य बुलाया जाएगा। घरवालों की बात तो दूसरी थी, लेकिन जब मुहल्ले और शहर के लोगों ने यह बात सुनी, तो उन्होंने विश्वास नहीं किया। लोग व्यंग्य में कहने लगे, हर साल तो यही कहते हैं बच्चू! वह कोई दूसरे होते हैं, जो इंटरव्यू में बुलाए जाते हैं!

लेकिन बात नारायण ने झूठ नहीं कही थी, क्योंकि एक दिन उसके पास सूचना आई कि उसको इलाहाबाद में प्रादेशिक लोक सेवा आयोग के समक्ष इंटरव्यू के लिए उपस्थित होना है। यह समाचार बिजली की तरह सारे शहर में फैल गया। बहुत साल बाद इस शहर से कोई लड़का डिप्टी-कलक्टरी के इंटरव्यू के लिए बुलाया गया था। लोगों में आश्चर्य का ठिकाना न रहा।

सायंकाल कचहरी से आने पर शकलदीप बाबू सीधे आँगन में जा खड़े हो गए और जोर से ठठाकर हँस पड़े। फिर कमरे में जाकर कपड़े उतारने लगे। शकलदीप बाबू ने कोट को खूँटी पर टाँगते हुए लपककर आती हुई जमुना से कहा, 'अब करो न राज! हमेशा शोर मचाए रहती थी कि यह नहीं है, वह नहीं है! यह मामूली बात नहीं है कि बबुआ इंटरव्यू में बुलाए गए हैं, आया ही समझो!'

'जब आ जाएँ, तभी न,' जमुना ने कंजूसी से मुस्कराते हुए कहा। शकलदीप बाबू थोड़ा हँसते हुए बोल, 'तुमको अब भी संदेह है? लो, मैं कहता हूँ कि बबुआ जरूर आएँगे, जरूर आएँगे! नहीं आए, तो मैं अपनी मूँछ मुड़वा दूँगा। और कोई कहे या न कहे, मैं तो इस बात को पहले से ही जानता हूँ। अरे, मैं ही क्यों, सारा शहर यही कहता है। अंबिका बाबू वकील मुझे बधाई देते हुए बोले, 'इंटरव्यू में बुलाए जाने का मतलब यह है कि अगर इंटरव्यू थोड़ा भी अच्छा हो गया, तो चुनाव निश्चित है।' मेरी नाक में दम था, जो भी सुनता, बधाई देने चला आता।'

'मुहल्ले के लड़के मुझे भी आकर बधाई दे गए हैं। जानकी, कमल और गौरी तो अभी-अभी गए हैं। जमुना ने स्वप्निल आँखों से अपने पति को देखते हुए सूचना दी।'

'तो तुम्हारी कोई मामूली हस्ती है! अरे, तुम डिप्टी-कलक्टर की माँ हो न, जी!' इतना कहकर शकलदीप बाबू ठहाका मारकर हँस पड़े। जमुना कुछ नहीं बोली, बल्कि उसने मुस्की काटकर साड़ी का पल्ला सिर के आगे थोड़ा और खींचकर मुँह टेढ़ा कर लिया। शकलदीप बाबू ने जूते निकालकर चारपाई पर बैठते हुए धीरे-से कहा, 'अरे भाई, हमको-तुमको क्या लेना है, एक कोने में पड़कर रामनाम जपा करेंगे। लेकिन मैं तो अभी यह सोच रहा हूँ कि कुछ साल तक और मुख्तारी करूँगा। नहीं, यही ठीक रहेगा।' उन्होंने गाल फुलाकर एक-दो बार मूँछ पर ताव दिए।

जमुना ने इसका प्रतिवाद किया, 'लड़का मानेगा थोड़े, खींच ले जाएगा। हमेशा यह देखकर उसकी छाती फटती रहती है कि बाबू जी इतनी मेहनत करते हैं और वह कुछ भी मदद नहीं करता।'

'कुछ कह रहा था क्या?' शकलदीप बाबू ने धीरे-से पूछा और पत्नी की ओर न देखकर दरवाजे के बाहर मुँह बनाकर देखने लगे।

जमुना ने आश्वासन दिया, 'मैं जानती नहीं क्या? उसका चेहरा बताता है। बाप को इतना काम करते देखकर उसको कुछ अच्छा थोड़े लगता है!' अंत में उसने नाक सुड़क लिए।

नारायण पंद्रह दिन बाद इंटरव्यू देने गया। और उसने इंटरव्यू भी काफी अच्छा किया। वह घर वापस आया, तो उसके हृदय में अत्यधिक उत्साह था, और जब उसने यह बताया कि जहाँ और लड़कों का पंद्रह-बीस मिनट तक ही इंटरव्यू हुआ, उसका पूरे पचास मिनट तक इंटरव्यू होता रहा और उसने सभी प्रश्नों का संतोषजनक उत्तर दिए, तो अब यह सभी ने मान लिया कि नारायण का लिया जाना निश्चित है।

दूसरे दिन कचहरी में फिर वकीलों और मुख्तारों ने शकलदीप बाबू को बधाइयाँ दीं और विश्वास प्रकट किया कि नारायण अवश्य चुन लिया जाएगा। शकलदीप बाबू मुस्कराकर धन्यवाद देते और लगे हाथों नारायण के व्यक्तिगत जीवन की एक-दो बातें भी सुना देते और अंत में सिर को आगे बढ़ाकर फुसफुसाहट में दिल का राज प्रकट करते, 'आपसे कहता हूँ, पहले मेरे मन में शंका थी, शंका क्या सोलहों आने शंका थी, लेकिन आप लोगों की दुआ से अब वह दूर हो गई है।'

जब वह घर लौटे, तो नारायण, गौरी और कमल दरवाजे के सामने खड़े बातें कर रहे थे। नारायण इंटरव्यू के संबंध में ही कुछ बता रहा था। वह अपने पिता जी को आता देखकर धीरे-धीरे बोलने लगा। शकलदीप बाबू चुपचाप वहाँ से गुजर गए, लेकिन दो-तीन गज ही आगे गए होंगे कि गौरी कि आवाज उनको सुनाई पड़ी, 'अरे तुम्हारा हो गया, अब तुम मौज करो!' इतना सुनते की शकलदीप बाबू घूम पड़े और लड़कों के पास आकर उन्होंने पूछा, 'क्या?' उनकी आँखें संकुचित हो गई थीं और उनकी मुद्रा ऐसी हो गई थी, जैसे किसी महफिल में जबरदस्ती घुस आए हों।

लड़के एक-दूसरे को देखकर शिष्टतापूर्वक होंठों में मुस्कराए। फिर गौरी ने अपने कथन को स्पष्ट किया, 'मैं कह रहा था नारायण से, बाबू जी, कि उनका चुना जाना निश्चित है।'

शकलदीप बाबू ने सड़क से गुजरती हुई एक मोटर को गौर से देखने के बाद धीरे-धीरे कहा, 'हाँ, देखिए न, जहाँ एक-से-एक धुरंधर लड़के पहुँचते हैं, सबसे तो बीस मिनट ही इंटरव्यू होता है, पर इनसे पूरे पचास मिनट! अगर नहीं लेना होता, तो पचास मिनट तक तंग करने की क्या जरूरत थी, पाँच-दस मिनट पूछताछ करके...'

गौरी ने सिर हिलाकर उनके कथन का समर्थन किया और कमल ने कहा, 'पहले का जमाना होता, तो कहा भी नहीं जा सकता, लेकिन अब तो बेईमानी-बेईमानी उतनी नहीं होती होगी।'

शकलदीप बाबू ने आँखें संकुचित करके हल्की-फुल्की आवाज में पूछा, 'बेईमानी नहीं होती न?'

'हाँ, अब उतनी नहीं होती। पहले बात दूसरी थी। वह जमाना अब लद गया।' गौरी ने उत्तर दिया।

शकलदीप बाबू अचानक अपनी आवा

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