उलझे धागों को सुलझाना मुश्किल है नफरतवाली आग बुझाना मुश्किल है
जिनकी बुनियादें खुदग़र्ज़ी पर होंगी ऐसे रिश्तों का चल पाना मुश्किल है
बेहतर है कि खुद को ही तब्दील करें सारी दुनिया को समझाना मुश्किल है
जिनके दिल में कद्र नहीं इनसानों की उनकी जानिब हाथ बढ़ाना मुश्किल है
रखकर जान हथेली पर चलना होगा आसानी से कुछ भी पाना मुश्किल है
दाँवपेंच से हम अनजाने हैं बेशक हम सब को यूँ ही बहकाना मुश्किल है
उड़ना रोज परिंदे की है मजबूरी घर बैठे परिवार चलाना मुश्किल है
क़ातिल की नज़रों से हम महफूज़ कहाँ सुबहो-शाम टहलने जाना मुश्किल है
तंग नजरिये में बदलाब करो वर्ना कल क्या होगा ये बतलाना मुश्किल है
- डॉ. शम्भुनाथ तिवारी एसोशिएट प्रोफेसर हिंदी विभाग, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, अलीगढ़(भारत) संपर्क-09457436464 ई-मेल: sn.tiwari09@gmail.com
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