साहित्य की उन्नति के लिए सभाओं और पुस्तकालयों की अत्यंत आवश्यकता है। - महामहो. पं. सकलनारायण शर्मा।
अकेला चल | रबीन्द्रनाथ टैगोर की कविता (काव्य)    Print this  
Author:रबीन्द्रनाथ टैगोर | Rabindranath Tagore

अनसुनी करके तेरी बात, न दे जो कोई तेरा साथ
तो तुही कसकर अपनी कमर अकेला बढ़ चल आगे रे।
अरे ओ पथिक अभागे रे।

अकेला चल, अकेला चल, अकेला ही चल आगे रे॥
देखकर तुझे मिलन की बेर, सभी जो लें अपने मुख फेर
न दो बातें भी कोई करे, सभय हो तेरे आगे रे,
अरे ओ पथिक अभागे रे।

तो अकेला ही तू जी खोल सुरीले मन मुरली के बोल
अकेला गा--अकेला सुन, अरे ओ पथिक अभागे रे
अकेला ही चल आगे रे॥

जायं जो तुझे अकेला छोड़, न देखें मुड़ कर तेरी ओर,
बोझ ले सिर पर जब बढ़ चले गहन पथ में तू आगे रे
अरे ओ पथिक अभागे रे।

तो तुही पथ के कण्टक क्रूर, अकेला कर भय संशय दूर,
पैर के छालों से कर चूर--अरे ओ पथिक अभागे रे,
अकेला हो चल आगे रे।

और सुन तेरी करुण पुकार, अँधेरी पावस निशि में, द्वार
न खोले ही, न दिखावें दीप, न कोई भी जो जागे रे
अरे ओ पथिक अभागे रे।

तो तुही वज्रानल में हाल जलाकर अपना उर-कंकाल
अकेला जलता रह चिरकाल अरे ओ पथिक अभागे रे
अकेला ही चल आगे रे
अकेला चल, अकेला चल, अकेला ही चल आगे रे।

-रबीन्द्रनाथ टैगोर
[भावानुवाद : रघुवंशलाल गुप्त]

*रवीन्द्रनाथ के 'एकला चल; गान का भावानुवाद

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