जो चटटानों से न टकराए वो कब झरना बनता है, उलझते टकराते इन राहों में ये झरना हरपल छनता है।
दुस्सह थपेड़ों को सहकर बाधाएँ पार जो करता है, वही जीवन के अभिनव पथ पर लक्ष्य-शिखर को पाता है।
कठिन डगर की आग में तपकर कर्म हथौड़ों से सधता है, दिन-रात कसौटी पर हो खरा वो स्वर्ण समान ही बनता है।
- रमेश पोखरियाल 'निशंक' [सृजन के बीज]
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