आज मेरे आँसुओं में, याद किस की मुसकराई?
शिशिर ऋतु की धूप-सा सखि, खिल न पाया मिट गया सुख, और फिर काली घटा-सा, छा गया मन-प्राण पर दुख, फिर न आशा भूलकर भी, उस अमा में मुसकराई! आज मेरे आँसुओं में, याद किस की मुसकराई?
हाँ कभी जीवन-गगन में, थे खिले दो-चार तारे, टिमटिमाकर, बादलों में, मिट चुके पर आज सारे, और धुँधियाली गहन गम्भीर चारों ओर छाई! आज मेरे आँसुओं में, याद किस की मुसकराई?
पर किसी परिचित पथिक के, थरथराते गान का स्वर, उन अपरिचित-से पथों में, गूँजता रहता निरन्तर, सुधि जहाँ जाकर हजारों बार असफल लौट आई! आज मेरे आँसुओं में, याद किस की मुसकराई?
- उपेन्द्रनाथ अश्क
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