साहित्य की उन्नति के लिए सभाओं और पुस्तकालयों की अत्यंत आवश्यकता है। - महामहो. पं. सकलनारायण शर्मा।
इक अनजाने देश में (काव्य)    Print this  
Author:विजय कुमार सिंह | ऑस्ट्रेलिया

इक अनजाने देश में जब भी, मैं चुप हो रह जाता हूँ,
अपना मन उल्लास से भरने, देश तुझे ही गाता हूँ|
शुभ्र हिमालय सर हो मेरा,
सीना बन जाता विंध्याचल|
नीलगिरी घुटने बन जाते,
पैर तले तब नीला सागर|
दाएँ में कच्छ को भर लेता, बाएँ मिजो भर जाता हूँ,
अपना मन उल्लास से भरने,देश तुझे ही गाता हूँ|
श्वासों में तब तेरा समीरण,
धमनी में तेरा ही नद्जल|
आँखों में आकाश हो तेरा,
कानों में गाती फिर कोयल|
रोम मेरे पादप जाते, वन बन कर सज जाता हूँ,
अपना मन उल्लास से भरने, देश तुझे ही गाता हूँ|
स्मृति में मैं सब भर लेता,
तेरी थाती महिमा गौरव|
संत तपस्वी त्यागी ज्ञानी,
जिनसे जग में तेरा सौरभ|
मैं अपने मन श्रद्धा भरकर, हरपल शीश नवाता हूँ,
अपना मन उल्लास से भरने,देश तुझे ही गाता हूँ|

-विजय कुमार सिंह
 ऑस्ट्रेलिया

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