स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, रसों से जो सना था ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्थर, कंकड़ों, को एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है है अंधेरी रात पर दीपक जलाना कब मना है।
बादलों के अश्रु से धोया गया नभनील नीलम का बनाया था गया मधुपात्र मनमोहक, मनोरम प्रथम ऊषा की किरण की लालिमासी लाल मदिरा थी उसी में चमचमाती नव घनों में चंचला सम वह अगर टूटा मिलाकर हाथ की दोनों हथेली एक निर्मल स्रोत से तृष्णा बुझाना कब मना है है अंधेरी रात पर दीपक जलाना कब मना है।
क्या घड़ी थी, एक भी चिंता नहीं थी पास आई कालिमा तो दूर, छाया भी पलक पर थी न छाई आँख से मस्ती झपकती, बात से मस्ती टपकती थी हँसी ऐसी जिसे सुन बादलों ने शर्म खाई वह गई तो ले गई उल्लास के आधार, माना पर अथिरता पर समय की मुस्कुराना कब मना है है अंधेरी रात पर दीपक जलाना कब मना है।
हाय वे उन्माद के झोंके कि जिनमें राग जागा वैभवों से फेर आँखें गान का वरदान माँगा एक अंतर से ध्वनित हों दूसरे में जो निरंतर भर दिया अंबरअवनि को मत्तता के गीत गा गा अंत उनका हो गया तो मन बहलने के लिये ही ले अधूरी पंक्ति कोई गुनगुनाना कब मना है है अंधेरी रात पर दीपक जलाना कब मना है।
हाय वे साथी कि चुंबक लौहसे जो पास आए पास क्या आये, हृदय के बीच ही गोया समाये दिन कटे ऐसे कि कोई तार वीणा के मिलाकर एक मीठा और प्यारा जिंदगी का गीत गाए वे गये तो सोच कर यह लौटने वाले नहीं वे खोज मन का मीत कोई लौ लगाना कब मना है है अंधेरी रात पर दीपक जलाना कब मना है।
क्या हवाएं थी कि उजड़ा प्यार का वह आशियाना कुछ न आया काम तेरे शोर करना, गुल मचाना नाश की उन शक्तियों के साथ चलता ज़ोर किसका किंतु ऐ निर्माण के प्रतिनिधि, तुझे होगा बताना जो बसे हैं वे उजड़ते हैं प्रकृति के जड़ नियम से पर किसी उजड़े हुए को फिर बसाना कब मना है है अंधेरी रात पर दीपक जलाना कब मना है।
- हरिवंश राय बच्चन |