कुण्डलिया
मोती बन जीवन जियो, या बन जाओ सीप। जीवन उसका ही भला, जो जीता बन दीप।। जो जीता बन दीप, जगत को जगमग करता। मोती सी मुस्कान, सभी के मन मे भरता। ‘ठकुरेला’ कविराय, गुणों की पूजा होती।। बनो गुणों की खान, फूल, दीपक या मोती।।
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चलते चलते एक दिन, तट पर लगती नाव। मिल जाता है सब उसे, हो जिसके मन चाव।। हो जिसके मन चाव, कोशिशें सफल करातीं। लगे रहो अविराम, सभी निधि दौड़ी आतीं। ‘ठकुरेला’ कविराय, आलसी निज कर मलते। पा लेते गंतव्य, सुधीजन चलते चलते।।
- त्रिलोक सिंह ठकुरेला [ आनन्द मंजरी, 2019, राजस्थानी ग्रन्थागार, राजस्थान] |