काबायान एक गरीब आदमी था। उसकी जीविका 'रोज़ कुंवा खोदो, रोज़ पानी पीओ' वाले ढर्रे पर चल रही थी। दुनिया के तमाम लोगों की तरह वह भी अमीर होने का सपना देखता था।
एक बार काबायान और उसकी पत्नी पवित्र गेदे पर्वत पर गए ताकि अपना कुछ समय ईश्वर की उपासना, ध्यान और साधना में व्यतीत कर सकें। काबायान के मन में कहीं दबी-छुपी ये इच्छा भी थी की हो सकता है, ईश्वर उसकी पूजा- आराधना से प्रसन्न हो जाएँ और उसकी गरीबी सदा के लिए दूर हो जाए।
एक दिन जब वह ध्यान लगाये बैठा था तब सचमुच ईश्वर प्रकट हो गए और बोले, 'काबायान, मै तुमसे प्रसन्न हूँ। कोई भी दो वरदान मांग लो। अच्छा रहेगा यदि कुछ भी मांगने से पहले तुम अपनी पत्नी से विचार-विमर्श कर लो।' इतना कहकर भगवान् अंतर्ध्यान हो गए।
काबायान और उसकी पत्नी के बीच इस बात पर काफी बहस हुई कि आखिर क्या माँगा जाए। काबायान कहता खजाना मांग लूं तो पत्नी कहती कि नहीं सदा पैदावार देने वाला धान का खेत मांग लो। काबायान कहता, हीरे-जवाहरात मांग लूं तो पत्नी कहती कि नहीं सदा मछलियों से भरा रहने वाला तालाब मांग लो।
कुल मिलाकर ये कि वे किसी भी बात पर एक मत नहीं हो सके। इस बहसबाजी से झुंझलाकर काबायान ने कहा, 'मै तो चाहता हूँ कि ईश्वर तुम्हे बन्दर बना दे।'
काबायान के कहने की देर थी कि उसकी पत्नी बन्दर बन गई। ये देखकर काबायान घबरा गया और बोला, 'हे ईश्वर! ये क्या हो गया, मै ये नहीं चाहता था। इसे पहले जैसा कर दो।'
उसकी ये इच्छा भी तुरंत पूरी हो गई लेकिन उसका दो वरदान मांगने का मौका व्यर्थ चला गया।
काबायान और उसकी पत्नी गेदे पर्वत से वापस लौट आये। उन्हें कभी रोटियों के लाले नहीं पड़े, लेकिन वे कभी अमीर भी ना बन सके।
जीवन में एक ही अवसर बार-बार नहीं मिलता और अवसर मिलने पर उसका सही उपयोग ना करना केवल पछतावा ही छोड़ जाता है।
अनुवाद : प्रीता व्यास ईमेल: Preeta Vyas vyas_preeta@yahoo.com.au
[पश्चिम जावा की लोक-कथा]
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