कौन-सी बात कहाँ, कैसे कही जाती है ये सलीक़ा हो तो हर बात सुनी जाती है
जैसा चाहा था तुझे, देख न पाए दुनिया दिल में बस एक ये हसरत ही रही जाती है
एक बिगड़ी हुई औलाद भला क्या जाने कैसे माँ-बाप के होंठों से हँसी जाती है
कर्ज़ का बोझ उठाए हुए चलने का अज़ाब जैसे सर पर कोई दीवार गिरी जाती है
अपनी पहचान मिटा देना हो जैसे सब कुछ जो नदी है वो समंदर से मिली जाती है
पूछना है तो ग़ज़ल वालों से पूछो जाकर कैसे हर बात सलीक़े से कही जाती है
- वसीम बरेलवी |