यह संदेह निर्मूल है कि हिंदीवाले उर्दू का नाश चाहते हैं। - राजेन्द्र प्रसाद। 

सबके अपने-अपने ग़म (काव्य)    Print this  
Author:रेखा राजवंशी | ऑस्ट्रेलिया

सबके अपने-अपने ग़म
कुछ के ज़्यादा, कुछ के कम

दिल पे ऐसी गुज़री है
आँख भरीं, पलकें हैं नम

अब के भी तुम न आए
बीत गए कितने मौसम

तारा कोई टूटा है
फिर से है चश्मे पुरनम

कोई तो बादल बरसे
बन जाए दर्दे मरहम

कुछ ऐसी भी बात करो
मिल जाए लुत्फ़-ए-पैहम

दिल की दिल से राह बने
कुछ ऐसा भी हो आलम

- रेखा राजवंशी
  ऑस्ट्रेलिया

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