कवि कलम का धर्म निभा कलम छोड़ या सच बतला।
जिनको भूख, गरीबी खाती लंबी सड़क ना सके डरा गीत उन्हीं का हमें सुना। कवि कलम का धर्म निभा कलम छोड़ या सच बतला।
खाते रोटी देखा सबको कुछ को रोटी जाती खा कलम उन्हीं को देख चला। कवि कलम का धर्म निभा कलम छोड़ या सच बतला।
घटता देख धरा पर क्या-क्या काँप रहा है अंबर देखो सहम गई है धरती माँ। कवि कलम का धर्म निभा कलम छोड़ या सच बतला।
दुनिया सुनती तुझको सारी कवि नहीं है तू दरबारी आज तू अपने मन की गा। कवि कलम का धर्म निभा कलम छोड़ या सच बतला।
-रोहित कुमार ‘हैप्पी' न्यूज़ीलैंड |