हिंदी चिरकाल से ऐसी भाषा रही है जिसने मात्र विदेशी होने के कारण किसी शब्द का बहिष्कार नहीं किया। - राजेंद्रप्रसाद।
प्रो. राजेश कुमार के दोहे (काव्य)    Print this  
Author:प्रो. राजेश कुमार

नव पल्लव इठलात हैं हर्ष न हिये समात।
हिल-डुल न्यौता देत हैं मौसम की क्या बात॥

पात पात सब झरि गए जर्जर लगता ठूँठ।
नव कोंपल मुस्काय कै जीवन देती रूख॥

कोहरे ने सब लील कै सब अदृश्य कर दीन।
प्रेम किरण बरसाय कै कर दो रोशन दीन॥

जी-जी करती रहत है जी की करती नाहिं
जी में क्या है कहै नहिं डरपत है जी मांहि॥

कहती अब तक थे कहाँ नहीं किया क्यों ख़्याल।
दुनिया के जंजाल में डँसते मग के व्याल॥

बातें करती है बहुत बात बात में बात।
दोनों के ही हाथ के काम पड़े बढ़ि जात॥

बंधन के रिश्ते जहाँ स्वारथ के संबंध।
मन होता है बावरा खोल नेह के बंध॥

भाग रहे सब होड़ मैं जीवन जाता छोड़।
जाने क्या है दिख रहा कैसी अंधी दौड़॥

जल्दी जल्दी भाग मत ठहर ज़रा दम लेव।
समय चाहती शै हरेक समय देय सुख देव।

ग़लती तैं ना डर मनुज ग़लती गले लगाय।
रचना का आधार यहै अरु विकास की राह॥

आँखें सबके होत हैं नज़र रहि दुर्लभ्भ।
नयनन बंद कर देख लै दिख जाएगा सब्ब॥

मत छोड़ै अपनी जगह झट ले लेगा कोइ।
नहिं हाथ कुछ रहैगा मलते रहना दोइ॥

नहीं काम कोई लघु नहीं श्रम कोई व्यर्थ।
जीवन के जंजाल में ढूँढ़ रहे कुछ अर्थ॥

दाँत दिखाय जनि हँसै मुँह खोले नहीं बोल।
स्त्री जोनी जन्म लै करती सब कंट्रोल॥

संवेदन के जनन तैं रहो कोस दस दूर।
दूजै की कछु नहीं सुनत अपनौ मत मंज़ूर॥

बस छपास की आस मैं हैं कविवर बेहाल।
खेद सहित जो पच गए पत्रिका लिए निकाल॥

दाढ़ी ऐसी राखिये तिनके लेव दुराय।
मन की बात छिपाय लै भव्य रूप दर्शाय॥

ऐसी शॉपिंग कीजिए ख़ुशियाँ ले लो मोल।
जीवन का दुख दूर हो प्यार बढ़ै अनमोल॥

-प्रो. राजेश कुमार

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