नगर का नाम नहीं बताता। जिनकी चर्चा कर रहा हूँ, वे हिंदी के बड़े प्रसिद्ध लेखक और समालोचक। शरीर सम्पति काफी क्षीण। रूप कभी आकर्षक न रहा होगा। जब का जिक्र है, तब वे 40 पार कर चुके थे। बिन ब्याहे थे।
एक दिन पार्क में बड़े अनमने बैठे थे। एक मित्र आये। पूछा," क्यों, कैसे अनमने बैठे हो?"
"भई, मुझे छेड़ो मत। " तुनककर वे बोले। "आखिर कुछ बताओ भी तो। ऐसा क्या दुःख का पहाड़ टूट गया। "वे बोले," नहीं मानते तो सुनो। मैं हिंदी का लेखक - 20 -22 साल की मेरे साधना। छायावादी कविता को लोग ख़ाक नहीं समझते थे - मैंने उन्हें छायावाद समझाया। एक प्रकार से छायावादी - रथ का सारथी मैं ही हूँ। आठ पुस्तकें हैं मेरी। हिन्दुस्तान वासियों को लाज शर्म होती, तो मुझे अभी तक ऑनरेरी डॉक्टरेट दे दी होती।" वे रुके। फिर गहरी सांस छोड़कर बोले, "और मेरा यह हाल है ? मेरे प्रति ये अन्याय है। मेरी ऐसी अवहेलना?"
मित्र समझे कि इनका कहीं किसी सम्मेलन में अपमान हो गया है। समझाते हुए बोले, "अरे भाई, हिन्दीवाले बहुत देर से आदमी की साधना को मान्यता देते हैं।" वे बोले, "नही, हिन्दीवालों से मुझे शिकायत नहीं है। यह लिफाफा देखो। किसका पता लिखा है इस पर ?"
मित्र बोले, "इस पर किसी यूनिवर्सिटी के लड़के का पता लिखा है।"
"जानते हो इसमें क्या है? इसमें प्रेम पत्र है। जिस लड़की ने लिखा है, उसे मैं साल भर से हिंदी पढ़ा रहा हूँ। और वह प्रेम पत्र मुझे देकर कहती है - सर, इसे लेटरबॉक्स में छोड़ते आइये।"
-हरिशंकर परसाई |