हम तौ एक एक करि जांनां। दोइ कहैं तिनहीं कौं दोजग जिन नाहिंन पहिचांनां ।। एकै पवन एक ही पानीं एकै जोति समांनां। एकै खाक गढ़े सब भांडै़ एकै कोंहरा सांनां।। जैसे बाढ़ी काष्ट ही काटै अगिनि न काटै कोई। सब घटि अंतरि तूँही व्यापक धरै सरूपै सोई।। माया देखि के जगत लुभांनां काहे रे नर गरबांनां। निरभै भया कछू नहिं ब्यापै कहै कबीर दिवांनां।।
- कबीर
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संतो देखत जग बौराना। साँच कहौं तो मारन धावै, झूठे जग पतियाना।। नेमी देखा धरमी देखा, प्रात करै असनाना। आतम मारि पखानहि पूजै, उनमें कछु नहिं ज्ञाना।। बहुतक देखा पीर औलिया, पढ़ै कितेब कुराना। कै मुरीद तदबीर बतावैं, उनमें उहै जो ज्ञाना।। आसन मारि डिंभ धरि बैठे, मन में बहुत गुमाना। पीपर पाथर पूजन लागे, तीरथ गर्व भुलाना।। टोपी पहिरे माला पहिरे, छाप तिलक अनुमाना। साखी सब्दहि गावत भूले, आतम खबरि न जाना। हिन्दू कहै मोहि राम पियारा, तुर्क कहै रहिमाना। आपस में दोउ लरि लरि मूए, मर्म न काहू जाना।। घर घर मन्तर देत फिरत हैं, महिमा के अभिमाना। गुरु के सहित सिख्य सब बूड़े, अंत काल पछिताना। कहै कबीर सुनो हो संतो, ई सब भर्म भुलाना। केतिक कहौं कहा नहिं मानै, सहजै सहज समाना ।।
- कबीर
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