कलम इतनी घिसो, पुर तेज़, उस पर धार आ जाए करो हमला, कि शायद होश में, सरकार आ जाए
खबर माना नहीं अच्छी, मगर इसमें बुरा क्या है कि जूते पोंछने के काम ही अखबार आ जाए
दिखाओ ख्वाब जन्नत के, मगर इतना न बहकाओ कहीं ऐसा न हो, वो बेच कर घर बार आ जाए
जिसे हर बज़्म ने तहसीन से महरूम रक्खा है हमारी बज़्म में या रब, वही फनकार आ जाए
मज़ा छुट्टी का दोनों ओर से आधा हुआ जानो अगर इतवार के दिन ही कोई त्योहार आ जाए
इसी उम्मीद से हर रोज़ खुलता है कुतुबखाना दवा को ढूंढता, शायद, कोई बीमार आ जाए
अभी पर्दा गिराने में ज़रा सी देर बाकी है ये मुमकिन है कहानी में नया किरदार आ जाए
- संध्या नायर, ऑस्ट्रेलिया |