रीता कौशल के उपन्यास ‘अरुणिमा’ के अंश
उपन्यास: अरुणिमा लेखिका: रीता कौशल प्रकाशक: प्रभात प्रकाशन
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अध्याय 15 से...
हर चीज में छोटा बड़ा, अनावश्यक वर्गीकरण! कैसी संस्कृति है यह? जहाँ विज्ञान पढ़ने वाले उच्च श्रेणी के माने जाते हैं, आर्ट्स पढ़ने वाले उनसे हेय। जब उसके अपने बच्चे होंगे तो वह कभी उनके साथ ऐसा नहीं करेगी। जो पढ़ना चाहें पढ़ने देगी, करना चाहें करने देगी। ये संस्कृति नहीं, मानसिक रोग है -किसी ने हिंदी में स्नातकोत्तर किया है तो वह ऐवई समझा जाता है और अंग्रेजी में किया है तो वह लाट साहब माना जाता है। फिर चाहे वह तृतीय श्रेणी लेकर जैसे-तैसे पास हो पाया हो। हिंदुस्तान से अंग्रेज चले गये, अंग्रेजियत छोड़ गये। हिंदुस्तान आजाद हो गया किंतु हिंदुस्तानियों की सोच ब्रिटेन में गिरवी पड़ी है। भारतीयों ने पश्चिम से वह सीखा जो नहीं सीखना चाहिये था। वह नहीं सीखा जो पाश्चात्य संस्कृति में सचमुच अनुकरणीय है।
क्या गलत था अगर व मीडिया के क्षेत्र में जाना चाहती थी। टीवी एंकर, न्यूज रीडर बनना चाहती थी। हिंदी साहित्य में उच्च शिक्षा लेना चाहती थी। क्या मिला किसी को उस पर विज्ञान के विषय थोप कर? उसे डॉक्टर बनाने की व्यर्थ कोशिश में एक अधकचरा असफल व्यक्तित्व तैयार हो गया। ऐसे ही डॉक्टर तो पेट में कैंची-तौलिया भूलते हैं। जरुर उन्हें इस व्यवसाय में माता-पिता द्वारा जबरदस्ती भेजा जाता होगा । जिंदगी का ये अध्याय ऐसा नहीं है जिसे वह बार-बार खोल कर पढ़े। पूरी ताकत से अपनी याददाश्त के सबसे निचले तले में दबा कर रखती है वह इस अध्याय को। आज निराली नाम की आँधी में अटक ये अध्याय स्वत ही फड़फड़ा उठा। जबरदस्ती विज्ञान विषय दिलाने से और अतिरिक्त ट्युशन लगाने से कोई डॉक्टर बन सकता है क्या? और धीरे-धीरे उन अवांछित थोपे विषयों के बोझ तले उसका व्यक्तित्व ध्वस्त हो गया। इस हद तक ध्वस्त कि उसे खुद की क्षमताओं पर ही नहीं अपने होने पर भी शक रहने लगा।
जीवन के स्वर्णिम साल जो कि रचनात्मक रूप से विशेष हो सकते थे, बायोलॉजी से जूझने में व्यर्थ हो गये। क्या हासिल किया मेंढक और केंचुये के उत्सर्जन तंत्र को रट कर। उसे क्या उनके लिये डायपर या हाजमोला बनाने की फैक्ट्री खोलनी थी? जो दिन-दिन भर बैठ कर वह जानवरों के पाचन तंत्र और उत्सर्जन तंत्र का रट्टा लगाती रही थी!
ट्रेन रुकी बुकिट बटोक आ गया था। रिया झटके के साथ वर्तमान में लौट आयी। रिया के चेहरे की अजब इबारत पढ़ अर्णव भी चुप बना रहा था। बुकिट बटोक एम॰आर॰टी॰से उनके ब्लॉक तक का पैदल रास्ता मात्र सात मिनट का था। धीमें कदमों से इसे तय करते, दोनों अपनी-अपनी सोच में गुम बने रहे।
अध्याय 36 से...
बरसात की झड़ी लगी थी। अरुणिमा मुनमुन को स्कूल छोड़ कर वापस आ रही थी। बिजली रह-रह कर तड़क रही थी। लगता था अब गिरी तब गिरी। अरुणिमा हाल ही में फ्लू से उबरी थी। बरसात में भीगने से कहीं फिर से बीमार न पड़ जाऊँ, ये सोच कर वह एम॰आर॰टी॰ पर शेड में खड़ी हो बारिश की झड़ी के कम होने का इंतजार करने लगी।
वह पत्थर की एक बैंच पर बैठ कर एम॰आर॰टी॰ के बगल से जाती सड़क पर से गुजरते वाहनों को देख समय काटने की कोशिश कर रही थी। इस बैंच की सामने की दिशा में एम॰आर॰टी॰ से जुड़े हुए टैक्सी स्टैंड पर बड़ा सा साइनेज लगा था। जिस पर स्पष्ट शब्दों में चारों आधिकारिक भाषाओं में लिखा था, ‘सीट बेल्ट न बाँधने पर सौ डॉलर का फाइन’। टैक्सी स्टैंड के ठीक सामने सड़क पर एक मेटाडोर में बांग्ला देशी व भारतीय मजदूर ट्रांसपोर्ट किये जा रहे थे। ऐसे दृश्य यहाँ बिल्कुल दुर्लभ नहीं थे। ओपन मेटाडोर में बैठे इन मजदूरों के चेहरे देख बरबस ही कट्टी खाने को ले जाये जाते मवेशियों का संस्मरण हो आता था।
इनके बैठने के लिये तो वाहन में पर्याप्त सीट भी नहीं होती थीं, फिर सीट बेल्ट का होना तो विलासिता थी। एक क्षण को भी उन्हें उनकी औकात भूलने नहीं दी जाती थी। हर कदम पर उन्हें जताया जाता था कि वो गरीब देशों से आये मामूली सी तनखा पर काम करने वाले मजदूर हैं, वास्तविक सिंगापोरियंस नहीं। ये उन कामों को करने के लिये आते हैं जिन्हें करने में स्थानीय नागरिक अपनी हेठी समझते हैं। भुक्तभोगी ही समझ सकता है कि गुलाम प्रथा आज भी अपने बदले स्वरूप में यत्र-तत्र-सर्वत्र मौजूद है। सीट बेल्ट न बाँधने पर पेनल्टी का प्रावधान तो कीमती जान की हिफाजत के लिये है। कीड़े-मकोड़ों के लिये तो कफन भी जरूरी नहीं होता।
एम॰आर॰टी॰ के दूसरे छोर की तरफ स्थित डॉग पार्लर से दो चाइनीज युवतियाँ मैंडरिन में कुछ 'चिंगचांग... चिंगचांग' करती चली आ रही थीं। पहली ने एक झब्बेदार सफेद रंग की पामेरियन डॉगी (कुतिया नहीं कह सकते क्योंकि वह तो गाली जैसा होता है) को गोद में बड़ी नजाकत से उठा रखा था डॉगी के सिर के सामने के शैम्पू से धुले लंबे-रेशमी-चमकीले बाल दोनों कानों के ऊपर बड़े सलीके से लाल तितली की आकृति वाली हेयर क्लिप से बँधे हुए थे। उसके छोटे से तन पर गुलाबी रंग की झालरदार डॉगी ड्रेस शोभायमान थी।
दूसरी युवती ने अपनी एक बालिश्त की डॉगी को अपने बड़े से हैंडबेग में बिठा रखा था। वह डॉगी हैंडबेग से बाहर थूथनी निकाले अपनी किस्मत पर इतरा रही थी। अरुणिमा के पास से गुजरते हुए मालकिन व डॉगी ने कुछ ऐसे मुँह बनाये जैसे जता रही हों, 'इंसानों की ही नहीं जानवरों की भी किस्मत होती है और किसने दुनिया के किस हिस्से में जन्म लिया इससे भी निर्धारित होती है।’
‘स्वर्ग-नरक सब यहीं पर है।' अरुणिमा के मस्तिष्क में आज एक बार फिर ये कटु सत्य अपनी कड़वाहट उलीच रहा था। रोकने के लाख जतन के बाद भी उसकी आँखों से आँसू लुढ़क गये। जाने-पहचाने आफ्टर शेव की महक और अपने कंधे पर किसी का स्पर्श महसूस कर उसने झट से खुद को सँभाल लिया।
[अरुणिमा] |