जंगल-जंगल ढूँढ रहा है मृग अपनी कस्तूरी को कितना मुश्किल है तय करना खुद से खुद की दूरी को
इसको भावशून्यता कहिये चाहे कहिये निर्बलता नाम कोई भी दे सकते हैं आप मेरी मजदूरी को
सम्बंधों के वो सारे पुल क्या जाने कब टूट गए जो अकसर कम कर देते थे मन से मन की दूरी को
दोष कोई सिर पर मढ़ देंगे झूठे किस्से गढ़ लेंगे कब तक लोग पचा पाएँगे मेरी इस मशहूरी को
हम बंधुआ मजदूर समय के हाल हमारा मत पूछो जनम-जनम से तरस रहे हैं हम' अपनी मजदूरी को
हमने भी बाजार में अपना खून-पसीना एक किया रिश्वत क्यों कहते हो यारो थोड़ी-सी दस्तूरी को
-विजय कुमार सिंघल
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हिंदी ग़ज़लकार विजय कुमार सिंघल की ग़ज़ल [Ghazal by Vijay Kumar Singhal]
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