स्वारथ के सब ही सगे, बिन स्वारथ कोउ नाहिं । जैसे पंछी सरस तरु, निरस भये उड़ि जाहिं ।। १ ।।
मान होत है गुनन तें, गुन बिन मान न होइ । सुक सारी राखै सबै, काग न राखै कोइ ।। २ ।।
मूरख गुन समझै नहीं, तौ न गुनी में चूक । कहा भयो दिन को बिभो, देखै जो न उलूक ।। ३ ।।
विद्या-धन उद्यम बिना, कही जु पावै कौन । बिना डुलाए ना मिलें, ज्यों पंखे की पौन ।। ४ ।।
भले बुरे सब एकसों, जौ लो बोलत नाहिं । जान परत है काक पिक, ऋतु बसन्त के माहिं ।। ५ ।।
मधुर बचन तें जात मिट,'उत्तम जन अभिमान । तनिक सीत जल सों मिटे, जैसे दूध उफान ।। ६ ।।
सरसुति के भंडार की, बड़ी अपूरब बात । ज्यों खरचै त्यों-त्यों बढ़ै, बिन खरचै घटि जात ।। ७ ।।
सबै सहाय की सबल के, को उन निबल सहाय । पवन जगावत आग को, दीपहि देत बुझाय ।। ८ ।।
- वृन्द
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