चाहता था आ बसे माँ भी यहाँ, इस शहर में।
पर माँ चाहती थी आए गाँव भी थोड़ा साथ में जो न शहर को मंजूर था न मुझे ही।
न आ सका गाँव न आ सकी माँ ही शहर में।
और गाँव मैं क्या करता जाकर!
पर देखता हूँ कुछ गाँव तो आज भी ज़रूर है देह के किसी भीतरी भाग में इधर उधर छिटका, थोड़ा थोड़ा चिपका।
माँ आती बिना किए घोषणा तो थोड़ा बहुत ही सही गाँव तो आता ही न शहर में।
पर कैसे आता वह खुला खुला दालान, आंगन जहाँ बैठ चारपाई पर माँ बतियाती है भीत के उस ओर खड़ी चाची से, बहुओं से। करवाती है मालिश पड़ोस की रामवती से। सुस्ता लेती हैं जहाँ धूप का सबसे खूबसूरत रूप ओढ़कर किसी लोक गीत की ओट में।
आने को तो कहाँ आ पाती हैं वे चर्चाएँ भी जिनमें आज भी मौजूद हैं खेत, पैर, कुएँ और धान्ने। बावजूद कट जाने के कॉलोनियाँ खड़ी हैं जो कतार में अगले चुनाव की नियमित होने को।
और वे तमाम पेड़ भी जिनके पास आज भी इतिहास है अपनी छायाओं के।
- दिविक रमेश |