कभी कभी यूं भी हमने अपने जी को बहलाया है जिन बातों को खुद नहीं समझे औरों को समझाया है
मीरो ग़ालिब के शेरों ने किसका साथ निभाया है सस्ते गीतों को लिख लिखकर हमने घर बनवाया है
हमसे पूछो इज़्जत वालों की इज़्जत का हाल कभी हमने भी इक शहर में रहकर थोड़ा नाम कमाया है
उसको भूले मुद्दत गुज़री लेकिन आज न जाने क्यों आंगन में हंसते बच्चों को बेकारण धमकाया है
उस बस्ती से छूटकर यूं तो हर चेहरे को याद किया जिससे थोड़ी सी अनबन थी वो अक्सर याद आया है
कोई मिला तो हाथ मिलाया, कहीं गए तो बात की घर से बाहर जब भी निकले दिन भर बोझ उठाया है
--निदा फाज़ली
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