भारत की परंपरागत राष्ट्रभाषा हिंदी है। - नलिनविलोचन शर्मा।
भूख | कहानी (कथा-कहानी)    Print this  
Author:चित्रा मुद्गल

आहट सुन लक्ष्मा ने सूप से गरदन ऊपर उठाई। सावित्री अक्का झोंपड़ी के किवाड़ों से लगी भीतर झांकती दिखी। सूप फटकारना छोड़कर वह उठ खड़ी हुई, ‘‘आ, अंदर कू आ, अक्का।'' उसने साग्रह सावित्री को भीतर बुलाया। फिर झोंपड़ी के एक कोने से टिकी झिरझिरी चटाई कनस्तर के करीब बिछाते हुए उस पर बैठने का आग्रह करती स्वयं सूप के निकट पसर गई।

सावित्री ने सूप में पड़ी ज्वार को अँजुरी में भरकर गौर से देखा, ‘‘राशन से लिया?''

‘‘कारड किदर मेरा!''

‘‘नईं?'' सावित्री को विश्वास नहीं हुआ।

‘‘नईं।''

‘‘अब्बी बना ले।''

‘‘मुश्किल न पन।''

‘‘कइसा? अरे, टरमपरेरी बनता न। अपना मुकादम है न परमेश्वरन्, उसका पास जाना। कागद पर नाम-वाम लिख के देने को होता। पिच्छू झोंपड़ी तेरा किसका? गनेसी का न! उसको बोलना कि वो पन तेरे को कागद पे लिख के देने का कि तू उसका भड़ोतरी...ताबड़तोड़ बनेगा तेरा कारड।''

उसने पास ही चीकट गुदड़ी पर पड़े कुनमुनाए छोटू को हाथ लंबा कर थपकी देते हुए गहरा निःश्वास भरा-‘‘जाएगी।''

‘‘जाएगी नईं, कलीच जाना!'' सावित्री ने सयानों-सी ताकीद की। फिर सूप में पड़ी गुलाबी ज्वार की ओर संकेत कर बोली, ‘‘ये दो बीस किल्लो खरीदा न! कारड पे एक साठ मिलता।''

छोटू फिर कुनमुनाया। पर अबकी थपकियाने के बावजूद चौंककर रोने लगा। उसने गोद में लेकर स्तन उसके मुंह में दे दिया। कुछ क्षण चुकरने के बाद बच्चा स्तन छोड़ बिरझाया-सा चीखने लगा-‘‘क्या होना, आताच नई।'' उसने असहाय दृष्टि सावित्री पर डाली।

‘‘कांची दे।''

‘‘वोईच देती पन...''

‘‘मैं भेजती एक वाटी तांदुल। सावित्री उसका आशय समझ उठ खड़ी हुई, ‘‘तेरा बड़ा किदर? और मझला किस्तू?''

‘‘खेलते होएंगे किदर।''

उसने मनुहारपूर्वक सावित्री की बांहें पकड़कर बैठाते हुए कहा, ‘‘थोड़ा देर बइठ न अक्का, मैं इसको भाकरी देती।'' कुछ सोचती-सी सावित्री बैठ गई। वह उठकर ज्वार की रोटी एक सूखा टुकड़ा ले आई और छोटू के मुंह में मींस-मींसकर डालने लगी। छोटू मजे से मुंह चलाने लगा।

‘‘कालोनी गई होती?''

सावित्री ने पूछा तो प्रत्युतर में लक्ष्मा का चेहरा उतर आया।

‘‘दरवाजा किदर खोलते फिलाटवाले, एक-दो ने खोला तो पिच्छू पूछी मैं कि भांडी-कटका के वास्ते बाई मंगता तो बोलने को लगे कि किदर रेती? किदर से आई? तेरा पेचानेवाली कोई बाई आजू-बाजू में काम करती क्या? करती तो उसको साथ ले के आना। हम तुमको पेचानते नईं, कैसा रक्खेगा। और पूछा, ये गोदी का बच्चा किसका पास रक्खेगी जब काम कू आएगी? मैं बोली, बाकी दोनों बच्चा पन मेरा छोटा-छोटा। संभालने कू घर में कोई नई। साथेच रक्खेगी। तो दरवाजा वो मेरा मूंपेच बंद कर दिए।'' लक्ष्मा का गला भर्रा आया। ‘सुबुर कर, सुबुर कर, काम मिलेगा। किदर-न-किदर मिलेगा। मैं पता लगाती। कोई अपना पेचानवाली बाई मिलेगी तो पूछेगी उसको। ये फिलाटवाले चोरी-वोरी से बोत डरते! कालोनी में काम करती क्या वो!'' सावित्री ने कंधे थपका उसे ढ़ाढ़स बंधाया। उसका चेहरा घुमाकर आंसू पोंछे। अपना उदाहरण देकर भर आए मन से हिम्मत बंधाने लगी कि तनिक सोचे, उसके तो फिर तीन-तीन औलादें हैं। वह अकेली किसका मुंह देखकर जिंदा रहे? मुलुक में, समुद्र तट पर बसे उसके पूरे कुटुंब को अचानक एक दोपहर उन्मादी तूफान लील गया था और घर में दीया जलाने वाला भी कोई नहीं बचा।

‘‘मैं मरी क्या सबके साथ? देख!''

अपना दुःख तसल्ली नहीं देता। दूसरों का दुःख जरूर साहस पिरो देता है। यह सोचकर सावित्री ने अपनी पीड़ा की गांठ खुरज दी। लक्ष्मा ने विहल होकर अक्का की हथेली भींच ली।

‘‘कल मेरा दुकान पर आना। सेठ बोत हरामी हय, पन मैं हाथ-पांव जोड़ेगी तेरे को रखने के वास्ते। अउर हां, बड़े को ताबड़तोड़ भेजना तांदुल के वास्ते।''

उसने स्वीकृति में सिर हिला दिया।

सावित्री झोंपड़े से बाहर आई तो लक्ष्मा की दयनीय स्थिति से मन चिंतित हो आया। मजे में गृहस्थी कट रही थी। ऐसी पनवती लगी कि सब उजड़ गया। मरद मिस्त्री था। तीस रुपया दिहाड़ी लेता। एक सुबू पच्चीस माले उंची इमारत में काम शुरू किया ही था कि बंधे बांसों के सहारे फल्ली पर टिके पांव बालकनी पर पलस्तर चढ़ाते फिसल गए। पंद्रहवें माले से जो पके कटहल-सा चुआ तो ‘आह' भी नहीं भर पाया गुंडप्पा। सेठ खडूस था। साबित कर दिया कि मिस्त्री बाटली चढ़ाए हुए था। अलबता रात को जरूर वह बोतल चढ़ा के सोया था, पर सुबू एकदम होश में काम पर गया। मुँह से दारू की बास नहीं गई तो और बात। हजार रुपया लक्ष्मा को टिका के टरका दिया हरामी ने।

सबने बोला ठेकेदार सेठ को, मगर उसने लक्ष्मा को काम पर नहीं रखा। बोला, इसका तो पेट फूला है। बैठ के मजूरी लेगी। बैठ के मजूरी देने को उसके पास पैसा नहीं। मिस्त्री मरा तो वह पेट से थी। सातवां महीना चढ़ा हुआ था।

बुरा वक्त। एक काम, दस मजूर। काम मिले भी तो कैसे? ऊपर से मुसीबत का रोना एक से एक बेईमान ओढ़कर निकलते। किसी के पास कोई असली जरूरतमंद पहुंचे भी तो कोई विश्वास कैसे करे?

छोटे को कमर पर लादे लक्ष्मा बनिए की दुकान के सामने जा खड़ी हुई। सावित्री की नजर उस पर पड़ी तो वह काम से हाथ खींच, बनिए के पास पहुंची और लक्ष्मा की मुसीबतों का रोना रोकर उस पर दया करने की सिफारिश करने लगी। लेकिन बनिए के डपटने पर कि जाओ, जाकर अपना काम देखो-वह विवश-सी एक बड़े से झारे से अनाज चालने बैठ गई। उसकी बगल में चादरनुमा टाट पर पंजाबी गेहूं की ढेरियां लगी हुई थीं। पहले सेठ से उसके मेहनताने का करार गोनी पीछे दो रुपया था। फिर सेठ को लगा कि इस सौदे में उसका नुकसान यूं है कि नौकर गोनियां जल्दी-जल्दी निपटाने की मंशा से बीनने-चुनने में मक्कारी बरतते और उसके फ्लैटवाले ग्राहक अनाज में कंकड़-पत्थर निकलने पर उससे प्रायः झिक-झिक पर उतर आते हैं कि उनकी दुकान पर जिस मुताबिक दाम लिए जाते हैं, सामान उतना साफ-सुथरा नहीं मिलता। सेठ ने फिर दिन के हिसाब से मजूरी तय कर दी। अब स्थिति बेहतर है। दोनों नौकरानियां और नौकर मन लगा के काम कर रहे हैं। सेठ ने ग्राहकों से फुरसत पाई तो लक्ष्मा की ओर मुखातिब हुआ। उससे पूछा कि वह पहले कहां काम करती थी। उसके बताने पर कि जब मिस्त्री पति जिंदा था तो वह भी उसके साथ बेगारी करती थी, ईंट-गारे के तसले ढोती थी और पिछले डेढ़ साल से वह बाकायदा किसी काम पर नहीं है, सेठ ने उसे संदिग्ध नजरों से देखा और एक भौंह टेढ़ी कर सवाल किया कि क्या उसके यही एक बच्चा है जो गोदी में है? लक्ष्मा ने यह बताने पर कि इसके अलावा उसके दो बच्चे और हैं, सेठ ने उन बच्चों की उम्र जाननी चाही। उसने बेझिझक बता दिया कि बड़ावाला छह का है और मझला चार का।

सेठ ने छूटते ही उसे टका-सा जवाब दिया, ‘‘कइया रक्खेगा तुमेरा को? बड़ा बच्चावाली औरत को पड़वड़ता नई। पीछे एक बच्चेवाली औरत को रक्खा होता, उसने इतना घोटाला किया कि क्या बोलूं। वो काम पर बइठती नईं कि उसका एक-न-एक बच्चा मिलने को आताच रैता। पता नईं कैसा होशियारी से वो दो-दो, चार-चार किलो अनाज गायब कर देती कि मेरा मगज फिर जाता। पूछने पर शेंडी लगाती-सेठ, कचरा बोत निकला।'' फिर थोड़ा उठकर अर्थपूर्ण ढ़ंग से उसके चेहरे को टटोलते हुए बेशर्मी से मुस्कराया और बोला, ‘‘काम पर रखने को सकता पन गारंटी के वास्ते कोई दागिना-बीगिना डिपोजिट रखो। कारण कि गोनी पीछे किलो-डेढ़ किलो कचरा निकलता है। उससे जास्ती कचरा निकलेगा तो डिपोजिट में से कीमत कट जाएगा। मंजूर तो बोलो?''

क्या बोले? टेंट में दागिना होता तो आज उसकी दुकान पर उससे मजूरी मांगने आती? छेनी-हथौड़ी न खरीद लेती और गली-गली हांक लगाती घूमती कि ‘टांकी लगवा लो, टांकी!' कोई नहीं जानता कि छेनी-हथौड़ी हाथ में आते ही सिलबट्टे पर उसके हाथ किस मुस्तैदी से थिरकने लगते हैं। छोटू कमरे पे लदा उसकी पकड़ से नीचे खिसकता महसूस हुआ। संभली और मुड़कर बिना सावित्री अक्का की ओर देखे चल दी। उनकी ओर देख सकने का साहस जुटा नहीं पाई। सावित्री अक्का को जरूर लगा होगा कि सेठ ने उसको इंकार नहीं किया, बल्कि जैसे उसे ही झोंटा पकड़ नौकरी पर से बाहर कर दिया। जो औरत अनाज के कचरे में से उसके बच्चों के लिए घुघुरी बनाने के लिए अन्न के दाने चुनकर लाती है, उसके कलेजे की लाचारगी और पीड़ा निश्चित ही उसकी छाती पर धंसी अवमानना की कीलों से कम गहरी और छरछराहट पैदा करती हुई न होगी। लेकिन जानती है, यही औरत दीया-बाती के समय अनाज की गोनियों के मुंह पर तागे दे जब झोंपड़ी में लौटेगी तो उसे हिम्मत न हारने की घुट्टी पिलाने उसकी खोली पर जरूर आएगी।

झोंपड़ी पर पहुंची तो दोनों बच्चों को घर से नदारद पा, क्षुब्ध मन की हताशा गुस्से, खीझ और चिड़चिड़ाहट में बदल गई। उलटे पांव उन्हें गली में खोजने लपकी। वे सड़क के किनारे गटर में धंसे हमजोलियों के साथ मछलियां पकड़ते दिखाई दिए। उन्हें लगभग घसीटते हुए खोली में लाई और लादी पर पटक मोंगरी से पीटने लगी, मानो वह बच्चों की देह नहीं, बल्कि उस मोटे सेठ की थुलथुल देह हो, जिसने उन्हीं के चलते नौकरी पर रखने से इंकार कर दिया। जान बचाने को बिलबिलाते, छटपटाते, मुरगों की भांति प्राण छूटते ही बेहरकत हुए वे बच्चे लादी पर सिसकते औंधे पड़े रहे; जैसे भयभीत हों कि उठकर बैठते ही अम्मा उन्हें फिर रेतने लगेगी। उन्हें निश्चेष्ट पड़ा देख वह ग्लानि और क्षोभ से विगलित हो भुभुआकर रो पड़ी। क्या करे? कैसे जिए? कैसे इन्हें जिलाए?

पिछले महीने जब उसका मन बहुत विचलित हो उठा, उसने तय कर लिया कि वह सावित्री अक्का से चिरौरी करेगी कि उसे कुछ पैसे किराये-भाड़े के लिए उधार दे दे। वह बच्चों समेत गांव चली जाएगी। ससुराल में गुजर संभव नहीं। मायके में बड़े भाई हैं। उन्हीं के पास रहकर खेतों में मजूरी कर लेगी। मगर सावित्री अक्का ने उसे दीन-दुनिया समझाई कि जो वह सोच रही है, अब गांवों में संभव नहीं। गांवों की हालत तो यहां से भी बदतर है। मजूरी, वह भी दो पाव चावल पर। यहां तो फिर भी गनीमत है। देर-सबेर कुछ-न-कुछ जुगाड़ हो जाएगा। यूं छिटपिट कुछ-न-कुछ वह कर ही रही। फिर भाई भी बाल-बच्चेवाला है। महीने-दो-महीने की बात हो तो सभी रिश्तेदारी निबाहेंगे। लेकिन जब उन्हें अनुमान हो जाएगा कि वह सपरिवार हमेशा के लिए रोटी तोड़ने उनकी छाती पर आ बैठी है तो पलक झपकते माया-ममता खुले कपूर-सी छू हो जाएगी। उसे सावित्री अक्का की बात व्यावहारिक लगी।

अपने बारे में भी खूब सोचा तो पाया कि गांव जाने की इच्छा स्वयं उसकी भी नहीं; किंतु पता नहीं क्यों जब भी वह टूटने-हारने लगती, स्वयं को गांव के भरोसे ही भुलावा देने की कोशिश करती कि ऐसा नहीं है कि इस दुनिया-जहान में उसका अपना कहने लायक कोई नहीं। उसने पाया कि मुलुक के भरम ने कई दफे उसे ताकत दी है और समेटे रखा है। निकट जाने से यह भरम टूट सकता है और वह इस भरम को टूटने देकर बिखरना और अनाथ होना नहीं चाहती।

बच्चे लादी पर सुबकते-सुबकते ही सो गए। छोटू को भी गुदड़ी पर थमकाकर वह उठ खड़ी हुई कि जब तक वे सो रहे हैं, वह भाकरी थाप ले। जैसे ही उठेंगे, भूख-भूख चिल्लाएंगे।

दोपहर के बाद मुकादम अंजैया के पास जाएगी। एक तो राशन कारड के बारे में पूछेगी कि क्या वाकई उसका कारड बन सकता है? दूसरे उसने हाइवे पर बन रही सड़क के ठेकेदार से उसकी मजूरी के बारे में बातचीत करने का जो आश्वासन दे रखा है, उसका क्या हुआ? यह भी खयाल आया कि पड़ोस की भैयानी उसे अपने खल-बट्टे सहित एक किलो हल्दी कूटने को दे गई थी, जिसकी कुटाई वह खर्च के लिए उससे पहले ही ले चुकी है। उसे भी निपटाना होगा। खैर, भाकरी से निपटकर ओटले पर बैठ के कूट देगी। भीतर धमक से सोते बच्चे जग जाएंगे।

मुकादम के यहां से उत्साहित और प्रसन्न मन लौटी।

दोनों काम हो गए। कारड के लिए वह गनेसी से लिखवाकर दे आई कि वह उसकी भाड़ोतरी है और उसका कहीं भी कोई कारड नहीं। मुकादम ने यह भी कहा कि उसने ठेकेदार से उसके काम की भी बात कर ली है। कल सुबह वह उसे ठेकेदार से मिलवा देगा। सात रुपये रोज मिलेंगे। सड़क पर पत्थर कूटने होंगे। जब डामर पड़ने लगेगा तब काम खत्म हो जाएगा। फिर यह उसकी मेहनत और स्वभाव पर निर्भर करता है कि वह ठेकेदार के अगले काम में मजूरी पाती है या नहीं। अगर पा गई तो जहां भी ठेका होगा, वह भी अन्य मजदूरों की टोली के साथ वहीं अपना डेरा बनाकर निश्चिंत हो, रह सकेगी। किराये-भाड़े का भी झंझट नहीं। खैर, यह आगे की बात है।

उसने निश्चय किया कि वह तीनों बच्चों को संग ही ले जाया करेगी। अन्य मजदूरिनों के बच्चे भी तो साथ आते होंगे। यहां उसके सामने ही नहीं टिकते हरामी तो पीछे कैसे घर बैठेंगे? आंखों के सामने रहेंगे तो तसल्ली रहेगी। साथ रखने की जरूरत भी होगी। छोटू को जहां भी बैठाएगी, कोई देखभाल करने वाला भी तो चाहिए होगा। खाना वह सुबू ही बनाकर पोटली में बांध लिया करेगी। गली में मुड़ने लगी तो एकाएक खयाल आया कि टेंट में जो एक रुपया सहेजा हुआ है, उसमें से दोनों बच्चों के लिए दस-दस पैसेवाली मीठी गोली लिए चले और चार आने की चाय की पत्ती। बड़े से चार आने का दुध भी मंगा लेगी। गुड़ थोड़ा-सा रक्खा ही हुआ है। सावित्री अक्का को ‘चा' के लिए लिवा लाएगी। चिंता कैसी! कल से मजूरी उसे मिलने ही लगेगी। कितना अरसा हो गया है छह-सात रुपल्ली-इकट्ठा देखे हुए।

घर पहुंची तो बच्चे हमेशा की तरह नदारद मिले। मगर आज उन पर गुस्सा नहीं आया; सोचा, बेचारे घर में बंधे भी तो कैसे? कोई उन्हें बैठाने वाला तो हो।

सिगड़ी सुलगाकर कनस्तर से कुल जमा तीन मुट्ठी आटा झाड़कर मांड़ने बैठ गई। एक-दो भाकरी ज्यादा ही बना लेगी-एक लोई से दो। सावित्री अक्का को भी खा लेने के लिए जबरन बैठा लेगी। मगर अगले ही पल मन ‘घुप्प' से बुझ गया। दावत देने की सोच तो रही, खिलाएगी काहे से? उनकी दाढ़ें भी कमजोर हैं। सूखी भाकरी चबाने में भी दिक्कत होगी। देखेगी। कोई उपाय सोचेगी। बना तो लेती ही हूँ, अपने मन की उमंग को कैसे और कहां दबाए? और इस निर्धन उमंग की साक्षी सावित्री अक्का से बढ़कर और कौन हो सकता है? अचानक याद आया। फोकट में हैरान हो रही। ‘चा' के वास्ते थोड़ा-सा गुड़ रखा हुआ है। एक डली पानी में भिगो चटनी सरखी बना लेगी। काम निपटाकर, बच्चों को ढूंढ़-ढांढ़कर पकड़ लाई। उन्हें मीठी गोली देकर, छोटे को खिलाने की ताकीद कर सावित्री अक्का के झोंपड़े की ओर चल दी। वह बस पहुंची ही थी कि उसने अक्का को अपनी झोंपड़ी की कुंडी खोलते हुए पाया।

‘‘आ लक्ष्मा, आ।'' सावित्री अक्का ने तनिक बुझे हुए स्वर में उसे भीतर बुलाया। उसके कुछ बोलने से पहले ही कहने लगी सफाई देते हुए, ‘‘मेरे को भोत दुख हुआ, सेठ ने तेरे को काम के वास्ते ना बोला न!''

‘‘अक्का, मैं...'' वह उन्हें सुबह के वाकये पर खिन्न न होने देने के आशय से तुरंत खुशखबरी सुना देने को उतावली हो आई। अक्का अपनी ही धुन में डूबी हुई उसके उत्साह को अधैर्य के अर्थ में लेकर धैर्य बंधाती-सी बोलीं, ‘देख, तू घबरा नईं! एक अऊर भी रास्ता हय। मेरे को कलाबाई बोली कि एक औरत हय, वो छोटे बच्चे को गोद लेती हय, संभालती हय। शाम कू बच्चा परत देती। साथ में पइसा भी देती। मेरे को बात जमा। बच्चे का वास्ते तेरे को काम नईं मिलता न। फिर काम करने को सकेगी। मैं सुबूच उसको अपने झोंपड़े पर बुलाई। कलाबाई साथ लेके आएगी। उसको ले के मैं ताबड़तोड़ तेरा पास आएगी। बच्चे को वो औरत भोत अच्छे से रखती। कलाबाई को मालूम!''

वह कुछ भी समझ नहीं पाई, सावित्री अक्का का क्या मतलब है? कौन-सी ऐसी अच्छी औरत है, जो बच्चे को अक्खा दिन अपने पास रखेगी, संभालेगी और शाम को उसे लौटाएगी तो साथ पैसे भी देगी! पर इस वक्त उसने सावित्री अक्का को अधिक छेड़ना उपयुक्त नहीं समझा। सुबह उसे लेकर वे झोंपड़े पर आएंगी ही, तभी असलियत स्वयं पता चल जाएगी।

उनको ढिबरी जलाते हुए देखकर वह उठकर उनके निकट आ खड़ी हुई और उतावली-भरे स्वर में बोली, ‘‘अक्का, घर कू चल न। तेरे वास्ते मैं चा करेगी, खाना पन तू बच्चा लोगों के साथेच खाना। भाकरी करके आई मैं अऊर गुड़ का चटनी पन।''

सावित्री अबूझ-सी उसकी ओर मुड़ी।

‘‘हां, अक्का, मुकादम बोला कि वो मेरा कारड पन बनाएगा और कल से मेरे को काम पर भी जाना।''

‘‘अइयो!'' सावित्री अक्का की आंखों में हुलसा विस्मय छलछला आया।

उसने एक सांस में सारी बात उन्हें सुना डाली और पाया कि खुशी से अक्का की आंखों में गीली चमक पैदा हो आई है।

रास्ता कट नहीं रहा। वैसे भी सांताक्रुज हाइवे कोई नजदीक नहीं। उसकी झोंपड़पट्टी से कोई डेढ़ कोस से कम नहीं होगा। लेकिन यह दूरी जाते वक्त फर्लांग-भर भी नहीं लगी थी और अब वापसी में सुरसा का मुँह हो रही है।

ठेकेदार ने कहा था, जिस मजदूरिन को वह काम छोड़ गया समझा था और जो पिछले हफ्ते-भर से बिना किसी सूचना के लापता थी, आज सुबह अचानक मजूरी पर लौट आई। उसकी जगह पर उसने मुकादम से कह रखा था कि वह उसे कोई मजूर दे दे। अब जब वह लौट आई है तो बदले में किसी और को काम पर रखना मुमकिन नहीं। हां, हफ्ते-डेढ़-हफ्ते बाद उसकी मरजी हो तो चक्कर मार ले। कंतू शायद छुट्टी पर जाए। इधर उसकी मां को लकवा मार गया है।

समझ गई कि आग-लगे पेट की सूखी अंतड़ियां निकालकर ठेकेदार के सामने रख दे, फिर भी कोई गुंजाइश पैदा होने से रही।

स्वयं मुकादम का चेहरा उतर गया। दुःख स्वर में बोला, ‘‘घबरा नईं, लक्ष्मा! मैं दूसरा जागा पन कोसिस करेगा।''

सभी उसके लिए सोच रहे हैं कि किसी उपाय से दो जून रूखे-सूखे का ही जुगाड़ हो जाए, मगर उसकी ही किस्मत फूटी है तो कुछ कैसे जुटे?

सुबह कितने ताव से सावित्री अक्का से ऐंठ गई थी कि अक्का ने उसकी मदद की खातिर इतना कमीना रास्ता कैसे सोचा? क्यों ले आई उस बदजात औरत को उसके पास? सुनकर अक्का ने बगैर चिढ़े हुए उत्तर दिया कि वह उसकी दुश्मन नहीं, न बच्चों की। मगर बच्चों का दाने-दाने को तरसना उससे झेला नहीं जाता। क्या वह नहीं जानती कि वह रात-दिन दौड़-धूप के बावजूद-कांजी तक तो चार दाने भात के साथ उन्हें पिला नहीं पाती! कुछ दिनों तक यही हाल रहा तो सोचे कि बच्चों की क्या गति होगी! उन्हें भी कलाबाई के मुंह से पहले-पहल यह प्रस्ताव सुनकर अचरज हुआ था कि कोई अपने कलेजे के टुकड़ों को भीख मांगने वाली औरत को किराये पर कैसे दे सकता है? ऐसी गलीज हरकत से तो डूब मरना अच्छा। इसी उधेड़बुन के चलते सच्चाई जानते हुए भी उसने कल शाम को लक्ष्मा को वास्तविकता नहीं बताई। पूरी रात करवटें बदलते सोचती रही थी कि उचित-अनुचित क्या है? आखिर यही लगा कि जैसी कठिन परीक्षा की घड़ी लक्ष्मा की चल रही उसमें अधिक सोच-विचार की गुंजाइश नहीं। हां, कल अगर उसे कोई मिल जाता है और वह अपने बच्चों को आराम से पाल-पोस सकती है तो अपना बच्चा उससे वापस लेने में कौन-सी दिक्कत?

‘‘जरा ठंडे दिमाग से सोच, लक्ष्मा! भीख तो वह मांगेगी, छोटू से थोड़ी ही मंगवाएगी। बच्चा तो सिर्फ उसकी गोदी में रहेगा।'' ‘‘इसमें कोई गलत नईं।'' कलाबाई ने उसका संकोच तोड़ना चाहा।

वह अवाक्-सी सबके तर्क सुनती रही। साथ आई औरत ने अतिरिक्त उत्साह प्रदर्शित करते हुए अपनी बगल में लटके चीकट थैले में से एक लुभावनी प्लास्टिक की दूध की बोतल निकालकर उसे दिखाई और कहा कि वह बड़े बच्चों को नहीं, गोदीवाले की ही किराये पर लेती है। उसकी देख-रेख की पूरी जिम्मेवारी उठाती है। चूंकि छोटे बच्चे के दूध, बिस्कुट आदि पर ज्यादा खर्च आता है, इसलिए उसी हिसाब से उसका किराया कम हो जाता है। किराया वह दो रुपये मात्र देगी, जिसे वह हर शाम बिना नागा थमा दिया करेगी। बच्चे कि किस्मत से अगर कमाई ज्यादा होने लगेगी तो वह उसका किराया भी बढ़ा देगी। बच्चों की कमी नहीं उसे-एक ढूंढो, हजार मिलते हैं, पर कलाबाई ने उसकी विशेष सिफारिश की तो वह लक्ष्मा से मिलने चली आई। अगर उसे सौदा नहीं पड़वड़ता तो वांदा नई। मगर उसे जलील क्यों कर रही? उसे क्या पता कि भीख मांगना कितना कठिन काम है और इस काम में उसे कितनी जिल्लतें उठानी पड़ती हैं? विरार से चर्चगेट, चर्चगेट से विरार...घंटों डिब्बे-डिब्बे, खड़े-खड़े यात्रा करनी पड़ती है। सवारी-सवारी गिड़गिड़ाना पड़ता है। बच्चे को उठाए-उठाए बाजू दुख जाते हैं। उसका हगना-मूतना धोते रहो...

वह आपे से बाहर हो उठी। उसने लगभग धक्का लेते हुए उस औरत को झोंपड़े से बाहर खदेड़ दिया और भरसक शिष्ट हो सावित्री अक्का से बोली कि वे अब उस पर मेहरबानी करें और उसे उसके हाल पर छोड़ दें। वैसे आज से वह मजूरी को जा ही रही है। सब संभल जाएगा। लेकिन...बंधी हुई उम्मीद कुछ ही घंटों में दम तोड़ बैठी। यह कैसी अंतहीन परीक्षा है! थक गई है, बहुत। अब और नहीं चल सकती। हताश मन में एक भयानक विचार ने आहिस्ता से सिर उठाया। तीनों बच्चे साथ हैं। जिंदा भी मुर्दा समान। क्यों न तीनों सहित सड़क के उस पार समंदर में पांव दे दे? टंटा खतम!

उफ्! यह क्या सोच रही है? उसने अपने को बुरी तरह झिड़का। धिक्कारा कि इन मासूमों का भला क्या दोष? क्यों उन्हें मार डालना चाहती है? इसलिए न कि वे मुट्ठी-भर भात के मोहताज हैं...हफ्ते-भर की ही तो बात है। ठेकेदार ने फिर बुलाया है। भगवान् करे, कंतू की लकवा-पिटी मां ठीक न हो...फिर मुकादम ने भी आस बंधाई है। समय एक-सा नहीं रहता, बदलता है। उसका भी बदल सकता है। आखिर इतने दिन किसी-न-किसी तरह कटे ही। लेकिन किस तरह से कटे! सुबह कटी तो दोपहर भारी हो गई...दोपहर कटी तो रात! बच्चों समेत मरने की क्या पहली बार सोची है? एक रात जब पेट में पानी उड़ेलकर भी बच्चों से भूख सहन नहीं हुई तो बिरझाई-सी तीनों को घसीटती करीमन चाली के पिछवाड़े, अंधेरे में डूबी बावड़ी पर छलांग लगाने नहीं जा खड़ी हुई थी... और उस दोपहर भी तो अपनी हड़ियल देह से तीनों को चिपकाए पिघलते कोलतार वाले हाइवे पर पहुंची ही थी प्रण करके कि जैसे ही दैत्याकार ट्रक या दो मालेवाली बस आती दिखाई देगी, वह बच्चों समेत झपटकर सामने हो जाएगी...

ऐसे मरें या वैसे, मरेंगे जरूर एक दिन। और वह भी हत्या ही होगी और वह हत्यारिन! सुलगती पेट की आंतों को उनकी खुराक न देकर, उन्हें तरसा-तरसाकर मारना हत्या नहीं?

जिस आस के छोर को मुट्ठी में भींचे वह अपने को ढाढ़स बंधा रही है, अगर उसी कंतू की मां एक रोज ठीक हो उठ खड़ी हुई तो क्या ठेकेदार उसे मजूरी पर रखेगा? नहीं, हरगिज नहीं। आज की तरह ही उसे टरका देगा। कितना गिड़गिड़ाई थी वह मुकादम के सामने ही कि जहां इतने मजूर खपे हुए हैं, एक उसे भी रख ले-भले आधी मजूरी पर सही।

मगर ठेकेदार ने बेअसर होकर टका-सा जवाब पकड़ा दिया-‘‘वो पन भोत मुश्किल है। वैसे नई बात नईं। आधे से भी जास्ती मजूर इधर आधी दिहाड़ी पे काम करते। पूरी, दिहाड़ी कौन देता? टिरेनिंग में सरकार देती?''

लगा कि चिलचिलाती धूप में वह जिस कुटती-पिसती सड़क को अपने पीछे छोड़ आई है, वह पीछे कहां छूटी है? सड़क की छाती उसके सीने से चिपकी उसके संग चली आई है और पत्थरों से लदे ट्रक लगातार वहां खाली हो रहे हैं और सैकड़ों हथौडे एक साथ ‘ठक्क' ‘ठक्क' उसकी छाती कूट रहे...

सहसा बिजली-सा एक विचार दिमाग में तड़का। बच्चे बच सकते हैं। उपाय है-अगर वह छोटू को उस भिखमंगी औरत को किराये पर उठा दे तो? छोटू का पेट भरेगा-ही-भरेगा, दो रुपये जो उपर से मिला करेंगे। उसमें किल्लो-भर मोटा चावल आ जाएगा। बड़े और मझले के पेट में भी दाने पड़ जाएंगे। फिर कौन उसे हमेशा के लिए किराये पर उठाएगी! कुछ ही दिन की तो बात है। ठेकेदार ने मजूरी नहीं भी दी तो देर-सबेर कहीं-न-कहीं जुगाड़ लग ही जाएगा। मजूरी मिलते ही वह ताबड़तोड़ छोटू को उस औरत के चंगुल से छुड़ा लेगी। किसी को पता भी नहीं चलेगा। सावित्री अक्का की बात अलहदा है। वे तो उसकी ढके-फटे की साथिन हैं ही।

संध्या को अक्का से जाकर कह देगी कि उसे उस औरत की बात मंजूर है। संध्या को ही क्यों, अभी ही क्यों नहीं? यहां से सीधा सावित्री अक्का की दुकान पर ही न चली जाए? कहीं ऐसा न हो कि वह औरत अपने धंधे के लिए कोई दुसरा बच्चा तय कर ले। अभी मिल लेगी तो सावित्री अक्का कलाबाई के हाथों फौरन उसके पास खबर भिजवा देंगी कि उसे बच्चा देने में कोई एतराज नहीं... छोटू पेट में आया तो उसका सपना था कि उसके होने पर वह मिस्त्री से जिद्द कर फिलाटवालों जैसी रंग-बिरंगी दूध की बोतल खरीदेगी। भले उसकी छातियों से बालटियों दूध उतरे...

वह सिगड़ी पर से गीला भात उतारकर सूखी बोमबिल (सूखी मछली) का सालन छौंकने जा रही है; लेकिन उचाट मन हाथों का साथ नहीं दे रहा।

अंधेरा गाढ़ा हो रहा। मगर अब तक छोटू को लेकर जग्गूबाई खोली नहीं लौटी। छोटू को धंधे पर ले जाते उसे तीसरा महीना पूरा होने को आया, पर कभी लौटने में इतनी देर नहीं हुई। अंधेरा घिरने से पहले वह छोटू को उसके हवाले कर जाती है और बिना नागा दो रुपये के चिल्लर हथेली पर रख देती है। मन अनेक अनहोनियों में घुमड़ रहा। कहीं भीड़-भड़क्के में चढ़ते-उतरते धक्का न खा गई हो? बिना टिकस के तो नहीं फिरती-घूमती कि पकड़ी गई हो और जेहल में बंद हो? फिर? कुछ सूझ नहीं रहा कि क्या करे! रहती कहां है, यह भी तो उसे ठीक से पता नहीं कि वहीं चक्कर मारकर खोज-खबर ले ले। कहीं वह सीधे अपनी खोली पर तो नहीं चली गई? हालांकि बगैर छोटू को उसके हवाले किए वह सीधे अपनी खोली नहीं जाएगी। कभी गई नहीं। लेकिन जाने को जा भी सकती है! उस जैसी सिरफिरी मां कोई होगी! जिसको अपने कलेजे का टुकड़ा सौंपा उसका-ठिकाना नहीं रखना चाहिए? माना कि सौदा सावित्री अक्का ने पटाया, लेकिन खुद उसकी जिम्मेदारी नहीं बनती...सावित्री अक्का को खबर कर दे?

सालन पर ढक्कन देकर उठने को ही थी कि झोंपड़ी के दरवाजे पर किसी के नंगे पैरों की आहट सुनाई दी और दूसरे ही पल लस्त-पस्त जग्गूबाई सोते हुए छोटू को गोदी में उठाए भीतर दाखिल होती दिखी। उसकी जान में जान आई। कुछ पूछने से पहले ही जग्गूबाई ने छोटू को उसकी गोदी में उतारते हुए आंखों को नचाकर संकेत किया कि पहले बच्चे को वह चटाई पर थपका दे, बड़ी मुश्किल से सोया है। बहुत बोमड़ी मारता!

छोटू को लेते हुए उससे सबुर नहीं हुआ-‘‘कुच्छ लफड़े-बिफड़े में फंसी क्या?''

उसकी नादानी पर जग्गूबाई फिक् से हँस दी-‘‘मेरे को लगा कि तू येइच सोच के घबराती होएगी। मैं धाई-धाई में फास्ट टिरेन में चढ़ी...पिच्छू वो खार किदर रुकने की? बोरीवली उतरी कि ताबड़तोड़ सिलो टिरेन पकड़ी, अऊर अब्बी इधर पोंची। ले, फटाफट तेरा हिसाब ले।'' उसने टेंट खोलकर दो रुपये की चिल्लर गिनी और उसकी ओर बढ़ा दी। फिर अल्मुनियम का पिचका कटोरा औंधा कर दिखाती हुई ठेना मारती-सी बोली, ‘‘जरा पन धंधा नईं हुआ, पर तेरे को जो ठेराया वो देनाच न।''

लक्ष्मा ने निःशब्द चिल्लर की ढेरी बनाई और धोती किनारी में जतनपूर्वक लपेटकर टेंट में खोंस ली। धंधा हुआ कि नहीं, भला इससे उसको क्या लेना-देना! वह ज्यादा-कम के टंटे में पड़ती ही नहीं...

इधर जग्गूबाई छोटू को लेने झोंपड़े में घुसती नहीं कि उसके जाते ही वह बड़े और मझले को सामने ही खेलते रहने की धमकी देकर घर से बाहर हो लेती। जहां भी जो बताता, पता लगाने पहुंच जाती कि क्या उसके लायक कोई काम वहां निकल सकता है। कल सुबह ठेकेदार के पास मुकादम को लेकर फिर चक्कर मार आई है...कंतू की मां ठीक नहीं है, फिर भी वह छुट्टी पर नहीं जा रहा।

सालन की फदकन से पतीली का ढक्कन भक्क-भक्क कर रहा है। आंचल से ढक्कन खींचकर देखा तो सुगंध से अंदाजा हो गया कि बोमबिल पक गई। उसे बच्चों का खयाल हो आया। बेचारे संध्या से ही भूख-भूख की रट लगाए, सिर पर कूदम-कूद मचाए हुए थे। मझले किस्तू ने आकर कई बार पूछा, ‘छोटू धंधे पर से नईं आया? आएगा तो पिच्छू भाकरी देगी?' किसी प्रकार उन्हें बहला-फुसलाकर बाहर भेज दिया था। करती क्या, छोटू की चिंता किसी काम में रमने ही नहीं दे रही थी। खैर, अब तो छोटू घर आ गया और खाना भी पक गया। उठी और बच्चों को बुलाने के लिए बाहर लपकी।

अभी उसने झोंपड़े से बाहर पांव दिया ही था कि अचानक छोटू चिहुँककर जाग गया और चीखें मार-मारकर रोने लगा, जैसे किसी ने उसे सोते में चिकोटी भर ली हो और वह पीड़ा से बिलबिलाकर चीख पड़ा हो। वह पलटकर घबराई हुई-सी उसकी ओर दौड़ी। उसे गोदी में उठाकर पुचकारा, दुलराया। फिर कटोरी-चम्मच उसके सामने रख टनटनाकर बहलाया कि कुछ देर किसी भी प्रकार छोटू बहल जाए और कटोरी-चम्मच के संग खेले तो वह बड़े और मझले को लिवा लाए। मगर उसने पाया कि छोटू किसी तरह चुप होने को तैयार नहीं है। शंका हुई-कीड़े-वीड़े ने तो कहीं नहीं काट खाया? चौकन्नी नजर से उसने लादी टोही। उसे कुछ नहीं दिखा।

खीझकर वह उसे ज्यों-का-त्यों छोड़कर बाहर हो गई। इधर छोटू बहुत चीं-चीं करने लगा है। उसे लगता है कि दिन-भर जग्गूबाई की गोदी चढ़े रहने और घर से बाहर रहने के कारण छोटू को घुमक्कड़ी की बुरी लत हो गई। यही वजह है कि घर में घुसते ही वह लगातार मिमियाता रहता है और चाहता है कि कोई-न-कोई उसे गोदी में उठाए ही रहे।

दिन-भर की मगजमारी के बाद बचता है बूता कि छोटू की गोदी में टांगे डोले? जिद्द की आदत छुटानी होगी। बड़े और किस्तू को लेकर घर में घुसी तो छोटू को पूर्ववत् चिंचियाते पाया। अबकी उसने ध्यान ही नहीं दिया। किस्तू उसे गोदी में उठाने लपका तो उसे भी डपट दिया, ‘‘पड़ा रहने दे!''

छोटू को अनदेखा करते हुए बड़े और किस्तू के लिए भात और बोमबिल परोसकर थाली उनके सामने सरकाई कि तभी दृस्टि उनके चीकट हाथ-पांव पर गई। खीझती हुई उठी और उन्हें लगभग घसीटते हुए मोरी के निकट ले जाकर भुनभुनाती, हाथ-पांव धुलाने लगी। सुबू बावड़ी से पानी खींच भरपूर दोनों को नहला-धुलाकर छोड़ गई थी। कैसे गटर में लोटे सुअर सरीखे थाण हो रहे! पल्ले से बड़े का मुंह पोंछ ही रही थी कि अचानक पलटी थाली की झन्नाहट सुन मुड़कर देखा, पाया कि बैंया-बैंया निकट जाकर छोटू ने झपट्टा मारकर भात की थाली लादी पर उलट दी। वह क्रोध से बावली हो उठी। ‘ताड़' ‘ताड़' उसने लपककर छोटू को थप्पड़ जड़ दिए-‘‘तेरे को दूध होना, बिस्कुट होना...अक्खा दिन पेट-भर खाना होना...पन घर में आ के हर रोज बोमाबोम करना। येई वास्ते च तू वैसा का वैसाच बोमबिल सरखा हरामखोर! सत्यानाश किया न इतना भात!''

छोटू मार खाकर आंखें उलट बैठा। उसके सींक-से हाथ-पांव तकली में बंटते सूत-से ऐंठने लगे। वह घबरा गई। यह क्या हो गया अचानक छोटू को? हाथ-भर की गूहुंई काया नीली पड़ रही। कभी तो ऐसा नहीं हुआ उसे। कई पहली बार पिटाई की उसकी? कई दफे भिन्नाकर उसने छोटू को उठाकर पटक तक दिया है...और घंटे-खांड़ सुबकियां खींच-खींचकर छोटू औंधा गया। उसे रुआंस छूटने लगी। हाथ-पांव मल-मलकर देह गरमाने की कोशिश की कि वह होश में आए, पर उसने महसूस किया, उसकी पसीजती हथेलियों की आंच सोखने के बावजूद छोटू की देह निरंतर ठंडी ही पड़ती जा रही है। नीले पड़ रहे होठों के बाएं कोने पर अचानक सफेद बज्जे से फूटने लगे। अकड़ी देह छटपट करने लगी। भड़भड़ाकर उसने छोटू को गोदी में उठा झकझोरा।

अचानक उसे याद आया-रामदेव भैयानी के इकलौते बेटे बचुवा को सांसें बांध लेने की बीमारी

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