हिंदी चिरकाल से ऐसी भाषा रही है जिसने मात्र विदेशी होने के कारण किसी शब्द का बहिष्कार नहीं किया। - राजेंद्रप्रसाद।
आज तुम्हारा जन्मदिवस (काव्य)    Print this  
Author:नामवर सिंह | Namvar Singh

आज तुम्हारा जन्मदिवस, यूँ ही यह संध्या
भी चली गई, किंतु अभागा मैं न जा सका
समुख तुम्हारे और नदी तट भटका-भटका
कभी देखता हाथ कभी लेखनी अबन्ध्या।

पार हाट, शायद मेला; रंग-रंग गुब्बारे।
उठते लघु-लघु हाथ, सीटियाँ; शिशु सजे-धजे
मचल रहे... सोचूँ कि अचानक दूर छह बजे।
पथ, इमली में भरा व्योम, आ बैठे तारे

'सेवा उपवन', पुष्पमित्र गंधवह आ लगा
मस्तक कंकड़ भरा किसी ने ज्यों हिला दिया।
हर सुंदर को देख सोचता क्यों मिला हिया
यदि उससे वंचित रह जाता तुम्हीं-सा सगा।

क्षमा मत करो वत्स, आ गया दिन ही ऐसा
आँख खोलती कलियाँ भी कहती हैं पैसा।

- नामवर सिंह

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