आज तुम्हारा जन्मदिवस, यूँ ही यह संध्या भी चली गई, किंतु अभागा मैं न जा सका समुख तुम्हारे और नदी तट भटका-भटका कभी देखता हाथ कभी लेखनी अबन्ध्या।
पार हाट, शायद मेला; रंग-रंग गुब्बारे। उठते लघु-लघु हाथ, सीटियाँ; शिशु सजे-धजे मचल रहे... सोचूँ कि अचानक दूर छह बजे। पथ, इमली में भरा व्योम, आ बैठे तारे
'सेवा उपवन', पुष्पमित्र गंधवह आ लगा मस्तक कंकड़ भरा किसी ने ज्यों हिला दिया। हर सुंदर को देख सोचता क्यों मिला हिया यदि उससे वंचित रह जाता तुम्हीं-सा सगा।
क्षमा मत करो वत्स, आ गया दिन ही ऐसा आँख खोलती कलियाँ भी कहती हैं पैसा।
- नामवर सिंह |