हिंदी समस्त आर्यावर्त की भाषा है। - शारदाचरण मित्र।
ज़रा सा क़तरा कहीं आज गर उभरता है | ग़ज़ल (काव्य)    Print this  
Author:वसीम बरेलवी | Waseem Barelvi

ज़रा सा क़तरा कहीं आज गर उभरता है
समन्दरों ही के लहजे में बात करता है

ख़ुली छतों के दिये कब के बुझ गये होते
कोई तो है जो हवाओं के पर कतरता है

शराफ़तों की यहाँ कोई अहमियत ही नहीं
किसी का कुछ न बिगाड़ो तो कौन डरता है

ज़मीं की कैसी विक़ालत हो फिर नहीं चलती
जब आसमां से कोई फ़ैसला उतरता है

तुम आ गये हो तो फिर चाँदनी सी बातें हों
ज़मीं पे चाँद कहाँ रोज़ रोज़ उतरता है

- वसीम बरेलवी

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