ये घर है दर्द का घर, परदे हटा के देखो, ग़म हैं हँसी के अंदर, परदे हटा के देखो।
लहरों के झाग ही तो, परदे बने हुए हैं, गहरा बहुत समंदर, परदे हटा के देखो।
चिड़ियों का चहचहाना, पत्तों का सरसराना, सुनने की चीज़ हैं पर, परदे हटा के देखो।
नभ में उषा की रंगत, सूरज का मुस्कुराना ये ख़ुशगवार मंज़र, परदे हटा के देखो।
अपराध और सियासत का इस भरी सभा में, होता हुआ स्वयंवर, परदे हटा के देखो।
इस ओर है धुआं सा, उस ओर है कुहासा, किरणों की डोर बनकर, परदे हटा के देखो।
ऐ चक्रधर ये माना, हैं ख़ामियां सभी में, कुछ तो मिलेगा बेहतर, परदे हटा के देखो।
- अशोक चक्रधर
[सोची-समझी, प्रतिभा प्रतिष्ठान, नई दिल्ली] |