किसी समय हिंदी पत्रकारिता आदर्श और नैतिक मूल्यों से बंधी हुई थी। पत्रकारिता को व्यवसाय नहीं, ‘धर्म' समझा जाता था। कभी इस देश में महावीर प्रसाद द्विवेदी, गणेशशंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी, महात्मा गांधी, प्रेमचंद और बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन' जैसे लोग पत्रकारिता से जुड़े हुए थे। प्रभाष जोशी सरीखे पत्रकार तो अभी हाल ही तक पत्रकारिता का धर्म निभाते रहे हैं। कई पत्रकारों के सम्मान में कवियों ने यहाँ तक लिखा है--
जिए जब तक लिखे ख़बरनामे चल दिए हाथ में कलम थामे
क़लम की ताकत को दुनिया जानती और मानती आयी है। अकबर इलाहाबादी ने लिखा--
खींचो न कमानों को, न तलवार निकालो जब तोप मुक़ाबिल हो तो अख़बार निकालो
इतनी शक्ति थी कलम की, पत्रकारिता की।
समय ने करवट ली। आज अधिकतर लोग कहते हैं 'पत्रकारिता' एक 'हथियार' है, जब इसे हथियार समझ लिया जाए तो फिर यह काम भी वैसा ही करेगी। पत्रकारिता 'हथियार' है या 'औजार'? तय आपको करना है।
आपातकाल के दौर की पत्रकारिता के बारे में एक बार आडवाणी जी ने कहा था 'उनसे झुकने को कहा गया, वे तो रेंगने लगे।‘ आज तो बिना आपातकाल के ही पत्रकार साष्टांग दंडवत मुद्रा में दिखाई पड़ते हैं!
अब अखबार यानी मीडिया की जो स्थिति है, उसे राहत इंदौरी का यह शेर ब्यान करता है--
सबकी पगड़ी को हवाओं में उछाला जाए सोचता हूँ कोई अख़बार निकाला जाए
अकबर इलाहाबादी और राहत इंदौरी की शायरी पर ध्यान देंगे तो ‘पत्रकारिता' का सम्पूर्ण विश्लेषण हो जाता है और अचानक राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त मुखरित हो जाते हैं।
"हम कौन थे, क्या हो गए हैं और क्या होंगे अभी, आओ विचारें आज मिलकर ये समस्याएँ सभी।"
यह प्रश्न आज भी हमारे सामने मुँह बाए खड़ा है, 'हम कौन थे, क्या हो गए, और क्या होंगे अभी!'
-रोहित कुमार 'हैप्पी' |