अपनी छत को उनके महलों की मीनारें निगल गयीं धूप हमारे हिस्से की ऊँची दीवारें निगल गयीं
अपने पाँवों के छालों के नीचे हैं ज़ख्मी फुटपाथ शानदार सड़कों को उनकी चौड़ी कारें निगल गयीं
क़त्ल हुए अरमान हमारे जुल्म के वहशी हाथों से अपने सब अधिकारों को उनकी तलवारें निगल गयीं
किस पर करें भरोसा आखिर किस पर हम लाएँ ईमान जब हमको अपनी ही चुनी हुई सरकारें निगल गयीं
फूल देखते हैं नफरत से कलियां हँसी उड़ाती हैं शिकवा नहीं खिज़ाओं से कुछ हमें बहारें निगल गयीं
लोगों का पागलपन देखो तूफां को देते हैं दोष जब कश्ती को ऐन किनारे पर पतवारें निगल गयीं
-विजय कुमार सिंघल |