मन न भए दस-बीस
ऊधौ मन न भए दस-बीस। एक हुतो सो गयो स्याम संग को अवराधै ईस॥
इंद्री सिथिल भई केसव बिनु ज्यों देही बिनु सीस। आसा लागि रहत तन स्वासा जीवहिं कोटि बरीस॥
तुम तौ सखा स्याम सुंदर के सकल जोग के ईस। सूर हमारैं नंदनंदन बिनु और नहीं जगदीस॥
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मन माने की बात
ऊधौ मन माने की बात। दाख छुहारा छांडि अमृत फल विषकीरा विष खात॥
ज्यौं चकोर को देइ कपूर कोउ तजि अंगार अघात। मधुप करत घर कोरि काठ मैं बंधत कमल के पात॥
ज्यौं पतंग हित जानि आपनौ दीपक सौं लपटात। सूरदास जाकौ मन जासौं सोई ताहि सुहात॥ |