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भविष्य की हिंदी व हिंदी का भविष्य - संपादक

आजकल भारत में 'भविष्य की हिंदी व हिंदी का भविष्य' को लेकर बहुत सी परिचर्चाएं, गोष्ठियों व कार्यशालाओं का आयोजन किया जा रहा है।

अपनी भाषा को लेकर जो गर्व, जो उत्साह होना चाहिए उसकी हम भारतीयों में बहुत कमी है। हम हिंदी के ऩाम पर भाषणबाजी तो खूब करते हैं पर उतना श्रम और कर्म नहीं करते। हिंदी की सरकारी दावत तो खूब उड़ाई जाती है पर शिरोधार्य तो अँग्रेजी ही है।

हमारा नेता, हमारा लेखक और बुद्धिजीवी-वर्ग हिंदी की दुहाई तो बहुत देता है परन्तु अपने कुल-दीपकों को अँग्रेजी स्कूलों और विदेशों में ही शिक्षा दिलवाना चाहता है। 'हाथी के दांत, खाने के और दिखाने के और।'

हमें अँग्रेजी बोलने, पढ़ने-लिखने और अँग्रेजियत दिखाने में अपना बड़प्पन दिखाई देता है किंतु सच तो यह है कि यह हमारी मानसिक हीनता ही है।

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने स्वदेश-प्रेम, स्वभाषा और स्व-संस्कृति की गरिमा पर जोर देते हुए कहा है-

निज भाषा उन्नति अहै; सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।
अँग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रविन।
पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।।

अँग्रेजी पढ़िए, जितनी और अधिक भाषाएं सीख सकें सीखें किंतु अपनी भाषा को हीन करके या बिसराने की कीमत पर कदापि नहीं।


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मंज़िलों की खोज में तुमको जो चलता सा लगा  - संजय ग्रोवर

मंज़िलों की खोज में तुमको जो चलता सा लगा
मुझको तो वो ज़िन्दगी भर घर बदलता सा लगा

धूप आयी तो हवा का दम निकलता सा लगा
और सूरज भी हवा को देख जलता सा लगा

झूठ जबसे चाँदनी बन भीड़ को भरमा गया
सच का सूरज झूठ के पाँवों पे चलता सा लगा

मेरे ख्वाबों पर ज़मीनी सच की बिजली जब गिरी
आसमानी बर्क क़ा भी दिल दहलता सा लगा

चन्द क़तरे ठन्डे क़ागज़ के बदन को तब दिए
खून जब अपनी रगों में कुछ उबलता सा लगा

- संजय ग्रोवर


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वो मेरा ही काम करेंगे
जब मुझको बदनाम करेंगे

अपने ऐब छुपाने को वो
मेरे क़िस्से आम करेंगे

क्यों अपने सर तोहमत लूं मैं
वो होगा जो राम करेंगे

दीवारों पर खून छिड़क कर
हाक़िम अपना नाम करेंगे

हैं जिनके किरदार अधूरे
दूने अपने दाम करेंगे

अपनी नींदें पूरी करके
मेरी नींद हराम करेंगे

जिस दिन मेरी प्यास मरेगी
मेरे हवाले जाम करेंगे

कल कर लेंगे कल कर लेंगे
यूँ हम उम्र तमाम करेंगे

सोच-सोच कर उम्र बिता दी
कोई अच्छा काम करेंगे

कोई अच्छा काम करेंगे
खुदको फिर बदनाम करे

- संजय ग्रोवर

 


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स्वतंत्रता दिवस - रोहित कुमार 'हैप्पी'

महानगर का एक उच्च-मध्यम वर्गीय परिवार।

'अरी महरी, कल तुम सारा दिन हमारे यहां काम कर लेना। मुझे कल 'इंडिपेंडस डे' के कई कार्यक्रमों में जाना है।

"पर...मेमसाब!"

"पर..क्या?

"मेमसाब, मुझे भी कल बच्चों के साथ स्वतंत्रता दिवस देखने उनके स्कूल जाना है। मैं तो कल की छुट्टी मांगने वाली थी।"

"अरे, ऐसे कैसे हो सकता है। कल तो तुम्हारा आना जरुरी है। मैंने कई जगह स्पीच देनी है। कल तो तुम्हें आना ही पड़ेगा वरना फिर तुम आना ही मत। मैं किसी और महरी का प्रबंध कर लूंगी।"

महरी बेबसी में 'हामी' भर चल दी। 'मेमसाब का 'इंडिपेंडस डे' जरुरी है हमारे 'स्वतंत्रता दिवस' का क्या है!'

मेहरी का दिल हुआ नौकरी छोड़ कर आज खुद को स्वतंत्र कर ले परन्तु उसके बिन बाप के बच्चे, बूढ़े सास-ससुर और घर का गुजारा कैसे चलेगा!

मजबूरियों ने फिर उसके गले में गुलामी का फंदा कस दिया था। अगले दिन 15 अगस्त को वह समय से पहले ही मालकिन के घर आ पहुंची थी। बच्चों को समझा दिया था कि स्वतंत्रता दिवस अगले साल जरुर देखेंगे।

मेमसाब भाषण दे रही थी, 'बच्चे हमारे देश का भविष्य हैं। आज हमारे देश की स्वतंत्रता की साठवीं वर्षगांठ है। इस अवसर पर मैं आप सभी को शुभ-कामनाएं देती हूं। आज़ादी हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।'

महरी बर्तन साफ करते-करते केबल टी वी पर अपनी मेमसाब का भाषण सुन रही थी।

- रोहित कुमार 'हैप्पी'


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वापसी  - उषा प्रियंवदा

गजाधर बाबू ने कमरे में जमा सामान पर एक नज़र दौड़ाई - दो बक्स, डोलची, बाल्टी। ''यह डिब्बा कैसा है, गनेशी?'' उन्होंने पूछा। गनेशी बिस्तर बाँधता हुआ, कुछ गर्व, कुछ दु:ख, कुछ लज्जा से बोला, ''घरवाली ने साथ में कुछ बेसन के लड्डू रख दिए हैं। कहा, बाबूजी को पसन्द थे, अब कहाँ हम गरीब लोग आपकी कुछ खातिर कर पाएँगे।'' घर जाने की खुशी में भी गजाधर बाबू ने एक विषाद का अनुभव किया जैसे एक परिचित, स्नेह, आदरमय, सहज संसार से उनका नाता टूट रहा था।

''कभी-कभी हम लोगों की भी खबर लेते रहिएगा।'' गनेशी बिस्तर में रस्सी बाँधता हुआ बोला।

''कभी कुछ ज़रूरत हो तो लिखना गनेशी, इस अगहन तक बिटिया की शादी कर दो।''

गनेशी ने अंगोछे के छोर से आँखे पोछी, ''अब आप लोग सहारा न देंगे, तो कौन देगा। आप यहाँ रहते तो शादी में कुछ हौसला रहता।''

गजाधर बाबू चलने को तैयार बैठे थे। रेलवे क्वार्टर का वह कमरा जिसमें उन्होंने कितने वर्ष बिताए थे, उनका सामान हट जाने से कुरूप और नग्न लग रहा था। आँगन में रोपे पौधे भी जान-पहचान के लोग ले गए थे और जगह-जगह मिट्टी बिखरी हुई थी। पर पत्नी, बाल-बच्चों के साथ रहने की कल्पना में यह बिछोह एक दुर्बल लहर की तरह उठ कर विलीन हो गया।

गजाधर बाबू खुश थे¸ पैंतीस साल की नौकरी के बाद वह रिटायर हो कर जा रहे थे। इन वर्षों में अधिकांश समय उन्होंने अकेले रह कर काटा था। उन अकेले क्षणों में उन्होंने इसी समय की कल्पना की थी¸ जब वह अपने परिवार के साथ रह सकेंगे। इसी आशा के सहारे वह अपने अभाव का बोझ ढो रहे थे। संसार की दृष्टि से उनका जीवन सफल कहा जा सकता था। उन्होंने शहर में एक मकान बनवा लिया था¸ बड़े लड़के अमर और लडकी कान्ति की शादियाँ कर दी थीं¸ दो बच्चे ऊँची कक्षाओं में पढ़ रहे थे। गजाधर बाबू नौकरी के कारण प्राय: छोटे स्टेशनों पर रहे, और उनके बच्चे तथा पत्नी शहर में¸ जिससे पढ़ाई में बाधा न हो। गजाधर बाबू स्वभाव से बहुत स्नेही व्यक्ति थे और स्नेह के आकांक्षी भी। जब परिवार साथ था¸ डयूटी से लौट कर बच्चों से हँसते-बोलते, पत्नी से कुछ मनोविनोद करते। उन सबके चले जाने से उनके जीवन में गहन सूनापन भर उठा। खाली क्षणों में उनसे घर में टिका न जाता। कवि प्रकृति के न होने पर भी उन्हें पत्नी की स्नेहपूर्ण बातें याद आती रहतीं। दोपहर में गर्मी होने पर भी, दो बजे तक आग जलाए रहती और उनके स्टेशन से वापस आने पर गर्म-गर्म रोटियाँ सेकती, उनके खा चुकने और मना करने पर भी थोड़ा-सा कुछ और थाली में परोस देती और बड़े प्यार से आग्रह करती। जब वह थके-हारे बाहर से आते¸ तो उनकी आहट पा वह रसोई के द्वार पर निकल आती, और उनकी सलज्ज आँखें मुस्करा उठतीं। गजाधर बाबू को तब हर छोटी बात भी याद आती और उदास हो उठते ...... अब कितने वर्षों बाद वह अवसर आया था जब वह फिर उसी स्नेह और आदर के मध्य रहने जा रहे थे।

टोपी उतार कर गजाधर बाबू ने चारपाई पर रख दी¸ जूते खोल कर नीचे खिसका दिए¸ अन्दर से रह-रह कर कहकहों की आवाज़ आ रही थी¸ इतवार का दिन था और उनके सब बच्चे इकट्ठे होकर नाश्ता कर रहे थे। गजाधर बाबू के सूखे होठों पर स्निग्ध मुस्कान आ गई। उसी तरह मुस्काते हुए, वह बिना खाँसे हुए अन्दर चले गए। उन्होंने देखा कि नरेन्द्र कमर पर हाथ रखे शायद रात की फिल्म में देखे गए किसी नृत्य की नकल कर रहा था, और बसन्ती हँस-हँस कर दुहरी हो रही थी। अमर की बहू को अपने तन-बदन¸ आँचल या घूंघट का कोई होश न था और वह उन्मुक्त रूप से हँस रही थी। गजाधर बाबू को देखते ही नरेंद्र धप से बैठ गया और चाय का प्याला उठा कर मुँह से लगा लिया। बहू को होश आया और उसने झट से माथा ढँक लिया¸ केवल बसन्ती का शरीर रह-रह कर हँसी दबाने के प्रयत्न में हिलता रहा।

गजाधर बाबू ने मुसकुराते हुए उन लोगों को देखा। फिर कहा¸ "क्यों नरेन्द्र¸ क्या नकल हो रही थी? "

"कुछ नहीं, बाबूजी।" नरेन्द्र ने सिटपिटा कर कहा। गजाधर बाबू ने चाहा था कि वह भी इस मनोविनोद में भाग लेते¸ पर उनके आते ही जैसे सब कुण्ठित हो चुप हो गए¸ इससे उनके मन में थोड़ी-सी खिन्नता उपज आई।

बैठते हुए बोले¸ "बसन्ती¸ चाय मुझे भी देना। तुम्हारी अम्मा की पूजा अभी चल रही है क्या?"

बसन्ती ने माँ की कोठरी की ओर देखा¸ अभी आती ही होंगी, और प्याले में उनके लिए चाय छानने लगी। बहू चुपचाप पहले ही चली गई थी¸ अब नरेन्द्र भी चाय का आखिरी घूँट पी कर उठ खड़ा हुआ। केवल बसन्ती, पिता के लिहाज में¸ चौके में बैठी माँ की राह देखने लगी। गजाधर बाबू ने एक घूँट चाय पी¸ फिर कहा¸ "बेटी - चाय तो फीकी है।"

"लाइए¸ चीनी और डाल दूँ।" बसन्ती बोली।

"रहने दो¸ तुम्हारी अम्मा जब आएगी¸ तभी पी लूँगा।"

थोड़ी देर में उनकी पत्नी हाथ में अर्घ्य का लोटा लिए निकली और अशुद्ध स्तुति कहते हुए तुलसी में डाल दिया। उन्हें देखते ही बसन्ती भी उठ गई। पत्नी ने आकर गजाधर बाबू को देखा और कहा¸ "अरे, आप अकेले बैंठें हैं। ये सब कहाँ गए?" गजाधर बाबू के मन में फाँस-सी कसक उठी¸ "अपने-अपने काम में लग गए हैं - आखिर बच्चे ही हैं।"

पत्नी आकर चौके में बैठ गई। उन्होंने नाक-भौं चढ़ाकर चारों ओर जूठे बर्तनों को देखा। फिर कहा¸ "सारे जूठे बर्तन पड़े हैं। इस घर में धरम-करम कुछ नहीं। पूजा करके सीधे चौके में घुसो।" फिर उन्होंने नौकर को पुकारा¸ जब उत्तर न मिला तो एक बार और उच्च स्वर में पुकारा, फिर पति की ओर देखकर बोली¸ "बहू ने भेजा होगा बाज़ार।" और एक लम्बी साँस ले कर चुप हो रहीं।

गजाधर बाबू बैठ कर चाय और नाश्ते का इन्तजार करते रहे। उन्हें अचानक ही गनेशी की याद आ गई। रोज सुबह¸ पॅसेंजर आने से पहले यह गरम-गरम पूरियां और जलेबियां और चाय लाकर रख देता था। चाय भी कितनी बढ़िया¸ कांच के गिलास में उपर तक भरी लबालब¸ पूरे ढ़ाई चम्मच चीनी और गाढ़ी मलाई। पैसेंजर भले ही रानीपुर लेट पहुँचे¸ गनेशी ने चाय पहुँचाने में कभी देर नहीं की। क्या मज़ाल कि कभी उससे कुछ कहना पड़े।
पत्नी का शिकायत भरा स्वर सुन उनके विचारों में व्याघात पहुँचा। वह कह रही थी¸ "सारा दिन इसी खिच-खिच में निकल जाता है। इस गृहस्थी का धन्धा पीटते-पीटते उम्र बीत गई। कोई जरा हाथ भी नहीं बटाता।" ......

 
 
अशफ़ाक उल्ला खाँ की शायरी  - अशफ़ाक उल्ला खाँ

अशफ़ाक उल्ला खाँ भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के प्रमुख क्रान्तिकारियों में से एक थे। वे पं रामप्रसाद बिस्मिल के विशेष स्नेहपात्र थे। राम प्रसाद बिस्मिल की भाँति अशफाक उल्ला खाँ भी शायरी करते थे।  उन्होंने काकोरी काण्ड में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। ब्रिटिश शासन ने उनके ऊपर अभियोग चलाया और 19 दिसम्बर सन् 1927 को उन्हें फैजाबाद जेल में फाँसी पर लटका दिया गया। उनका उर्दू तखल्लुस/उपनाम 'हसरत' था। उर्दू के अतिरिक्त वे हिन्दी व अँग्रेजी में आलेख व कवितायें करते थे।  भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के इतिहास में बिस्मिल और अशफाक की भूमिका निर्विवाद रूप से हिन्दू-मुस्लिम एकता का बेजोड़ उदाहरण है।  देश पर शहीद हुए इस शहीद की यह रचना:   

 

बुज़दिलों को सदा मौत से डरते देखा।
गो कि सौ बार रोज़ ही उन्हें मरते देखा।।

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सावित्रीबाई फुले : भारत की पहली शिक्षिका - भारत-दर्शन संकलन

भारत की पहली शिक्षिका और समाज सुधारक सावित्रीबाई फुले (Savitribai Phule) ने 19वीं शताब्दी में महिलाओं को पुरुषों के सामान अधिकार दिलाने की बात उठाई थी। सावित्रीबाई फुले ने समाज में महिलाओं के अधिकारों के अलावा कन्या शिशु हत्याओं को रोकने का भी अभियान चलाया। उन्होंने नवजात कन्या शिशु की सुरक्षा के लिए आश्रम खोला। उन्होंने स्वयं शिक्षा ग्रहण की, फिर कुरीतियों को दूर करने में लग गईं। देश की कन्याओं के लिए शिक्षा के द्वार खोले। सावित्रीबाई फुले ने लड़कियों को शिक्षा दिलाने के लिए समाज की परवाह किए बिना अपने संघर्ष जारी रखा और इसमें सफलता पाई।

सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जनवरी, 1831 महाराष्ट्र के सतारा जिले के नायगांव में हुआ था। उनके पिता का नाम खन्दोजी नेवसे और माता का नाम लक्ष्मी था। सावित्रीबाई फुले भारत की पहली महिला शिक्षिका, समाज सुधारिका एवं मराठी कवयित्री थीं। सावित्रीबाई फुले के पति ज्योतिराव गोविंदराव फुले समाजित कार्यकर्ता थे। इन्होंने अपने पति ज्योतिराव गोविंदराव फुले के साथ मिलकर 19वीं सदी में लड़कियों (स्त्रियों) के अधिकारों, शिक्षा छुआछूत, सतीप्रथा, बाल-विवाह तथा विधवा-विवाह जैसी कुरीतियां और समाज में फैले अंधविश्वास के विरुद्ध संघर्ष किया।

सावित्रीबाई फुले का विवाह केवल नौ वर्ष की आयु में ज्योतिराव गोविंदराव फुले (ज्योतिबा फुले) से हुआ था। सावित्रीबाई फुले का जब विवाह हुआ, उस समय उनकी कोई स्कूली शिक्षा नहीं हुई थी। सावित्रीबाई फुले पढ़ने की बहुत इच्छुक थी लेकिन उनके माता-पिता उनकी यह इच्छा पूरी न कर पाए। विवाह के उपरांत जब उनके पति ज्योतिबा फुले को उनकी पढ़ाई में रुचि की जानकारी मिली तो उन्होंने सावित्रीबाई को पढ़ने के लिए प्रेरित किया। सावित्रीबाई फुले के पिता रूढ़िवादिता और समाज के डर से ज्योतिबा फुले की पढ़ाई करने से अप्रसन्न थे। लेकिन सावित्रीबाई के पति ने उन्हें पूरा सहयोग और भरपूर समर्थन दिया। ज्योतिबा फुले ने सावित्रीबाई फुले का दाखिला एक विद्यालय में करवा दिया। सावित्रीबाई फुले को अपनी पढ़ाई पूरी करने के साथ-साथ सामाजिक विराध का भी सामना करना पड़ा।

सावित्रीबाई फुले ने शिक्षा पूरी करने के बाद महिलाओं को शिक्षित करने और उनका सामाजिक उत्थान करने का बीड़ा उठाया। उन्होंने महिलाओं की शिक्षा के लिए अपने पति के साथ मिलकर 1848 में पुणे में बालिका विद्यालय की स्थापना की। इस विद्यालय में उस समय केवल नौ लड़कियों लड़कियाँ भर्ती हुईं थी। सावित्रीबाई फुले इस स्कूल की प्रधानाध्यापिका बनीं। इसके पश्चात सावित्रीबाई फुले ने 1852 में अछूत बालिकाओं के लिए एक विद्यालय की स्थापना की।

सावित्रीबाई फुले का 10 मार्च, 1897 को प्लेग होने से आपका निधन हो गया था। सावित्रीबाई फुले प्लेग महामारी में प्लेग के मरीजो की सेवा करती रहीं और इसी दौरान इन्हें भी प्लेग का संक्रमण हो गया।

[भारत-दर्शन संकलन] 


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उलझन | लघु-कथा - रोहित कुमार 'हैप्पी'

‘ए फॉर एप्पल, बी फॉर बैट' एक देसी बच्चा अँग्रेजी पढ़ रहा था। यह पढ़ाई अपने देश भारत में पढ़ाई जा रही थी।

‘ए फार अर्जुन - बी फार बलराम' एक भारतीय संस्था में एक भारतीय बच्चे को विदेश में अँग्रेजी पढ़ाई जा रही थी।

अपने देश में विदेशी ढंग से और विदेश में देसी ढंग से। अपने देश में, ‘ए फॉर अर्जुन, बी फॉर बलराम' क्यों नहीं होता? मैं उलझन में पड़ गया।

मैं सोचने लगा अगर अँग्रेजी हमारी जरूरत ही है तो ‘ए फॉर अर्जुन - बी फॉर बलराम' ही क्यों न पढ़ा जाए?

- रोहित कुमार 'हैप्पी'
संपादक, भारत-दर्शन ......

 
 
ऐसे थे शरत बाबू  - भारत-दर्शन संकलन

बात उस समय की है जब सुप्रसिद्ध बांग्ला लेखक शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने लेखन अभी आरम्भ ही किया था। उन दिनो कई बार प्रकाशनार्थ भेजी गई उनकी रचनाएं पत्र-पत्रिकाओं द्वारा लौटा दी जाती थीं या प्रकाशित होने पर भी उन्हें दूसरे लेखकों की तुलना में कम पारिश्रमिक मिलता था। इसी संकोच के कारण कई बार तो वह कहानी लिख कर प्रकाशनार्थ कहीं नहीं भेजते थे।

एक बार उन्होंने अपनी रचना 'स्वामी' शीर्षक उस समय की चर्चित पत्रिका 'नारायणा' में प्रकाशनार्थ भेजी। पत्रिका के संपादकों को यह रचना इतनी पसंद आई कि दूसरे ही दिन वह पत्रिका के प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित कर दी गई। उस समय 'नारायणा' में प्रकाशित एक कहानी या लेख का पारिश्रमिक कम से कम पचास रुपये हुआ करता था लेकिन कई बार रचना की उत्कृष्टता और लेखक की प्रतिष्ठा को देखते हुए अधिक पारिश्रमिक भी दे दिया जाता था। इसका निर्णय संपादक-मंडल करता था।

शरतचंद्र की इस रचना के बारे में संपादक मंडल कोई निर्णय नहीं ले सका कि कितना पारिश्रमिक दिया जाए और यह तय हुआ कि इसका निर्णय शरतचंद्र जी स्वयं करें। दो दिनों के पश्चात् शरतचंद्र के पास पत्रिका के कार्यालय से एक कर्मचारी आया और उन्हें प्रधान संपादक का एक पत्र सौंपा। पत्र के साथ एक हस्ताक्षरित, बिना राशि भरा चेक भी था। पत्र में लिखा था, 'हस्ताक्षर करके खाली चेक आप को भेज रहा हूं। एक महान लेखक की इस महान रचना के लिए मुझे बड़ी से बड़ी रकम लिखने में भी संकोच हो रहा है इसलिए कृपा करके खाली चेक में स्वंय ही अपना पारिश्रमिक डाल लें। मैं आप का आभारी रहूंगा।'

शरतचंद ने पत्र पढ़ा, फिर केवल 75 रुपये राशि भरकर प्रधान संपादक को पत्र लिखा, 'मान्यवर, आप ने मुझे जो सम्मान दिया है, उसका कोई मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। आप का यह पत्र मेरे लिए बेशकीमती है। यही मेरा सम्मान है।'

उनका पत्र पढ़कर संपादक बेहद प्रभावित हुए। इसके बाद शरतचंद्र की कई महत्वपूर्ण रचनाएं प्रकाशित हुईं और उन्हें अपार लोकप्रियता मिली।

[भारत-दर्शन संकलन]

 


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मामी निशा | बाल-कविता  -  रामनरेश त्रिपाठी

चंदा मामा गए कचहरी, घर में रहा न कोई,
मामी निशा अकेली घर में कब तक रहती सोई!

चली घूमने साथ न लेकर कोई सखी-सहेली,
देखी उसने सजी-सजाई सुंदर एक हवेली!

आगे सुंदर, पीछे सुंदर, सुंदर दाएँ-बाएँ,
नीचे सुंदर, ऊपर सुंदर, सुंदर सभी दिशाएँ!

देख हवेली की सुंदरता फूली नहीं समाई,
आओ नाचें उसके जी में यह तरंग उठ आई!

पहले वह सागर पर नाची, फिर नाची जंगल में,
नदियों पर नालों पर नाची, पेड़ों के झुरमुट में!

फिर पहाड़ पर चढ़ चुपके से वह चोटी पर नाची,
चोटी से उस बड़े महल की छत पर जाकर नाची!

वह थी ऐसी मस्त हो रही आगे क्या गति होती,
टूट न जाता हार कहीं जो बिखर न जाते मोती!

टूट गया नौलखा हार जब, मामी रानी रोती,
वहीं खड़ी रह गई छोड़कर यों ही बिखरे मोती!

पाकर हाल दूसरे ही दिन चंदा मामा आए,
कुछ शरमा कर खड़ी हो गई मामी मुँह लटकाए!

चंदा मामा बहुत भले हैं, बोले-'क्यों है रोती',
दीवा लेकर घर से निकले चले बीनने मोती!

- रामनरेश त्रिपाठी

 


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राष्ट्रीय गान - रबींद्रनाथ टैगोर

राष्ट्र-गान (National Anthem) संवैधानिक तौर पर मान्य होता है और इसे संवैधानिक विशेषाधिकार प्राप्त होते हैं। रबींद्रनाथ टैगोर द्वारा रचित, 'जन-गण-मन' हमारे देश भारत का राष्ट्र-गान है। किसी भी देश में राष्ट्र-गान का गाया जाना अनिवार्य हो सकता है और उसके असम्मान या अवहेलना पर दंड का विधान भी हो सकता है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार यदि कोई व्यक्ति राष्ट्र गान के अवसर पर इसमें सम्मिलित न होकर, केवल आदरपूर्वक मौन खड़ा रहता है तो उसे अवहेलना नहीं कहा जा सकता। भारत में धर्म इत्यादि के आधार पर लोगों को ऐसी छूट दी गई है।


जन-गण-मन अधिनायक जय हे......

 
 
एक हमारा देश - गिरीश पंकज

रह-तरह के रंग-रूप हैं,
तरह-तरह के वेश ।......

 
 
गांधी कविता कोश  - भारत-दर्शन

गांधी कविता कोश - यह गांधी जी की 150वीं जयंती के अवसर पर गांधी जी पर लिखी कविताओं का कोश है। यहाँ यथासंभव सभी प्रमुख साहित्यकारों की गांधी जी पर लिखी गयी रचनाएँ संकलित की जाएंगी। 

यह पृष्ठ गांधी काव्य को समर्पित है। 


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मालवीय जी - रोहित कुमार 'हैप्पी'

महामना मालवीय जी को एक विद्वान ने कहा-- "महाराज!  आप मुझे 100 गालियां देकर देख ले,  मुझे क्रोध नहीं आएगा।"

इस पर मालवीय जी ने मुस्कुराते हुए कहा--"पंडित जी!  आपके क्रोध की परीक्षा होने से पहले ही मेरी जबान तो गंदी हो ही जाएगी।  मैं ऐसा क्यों करूं?" 

प्रस्तुति: रोहित कुमार 'हैप्पी'

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"किसी पर कीचड़ मत उछालिए, हो सकता है आपका निशाना चूक जाए पर आपके हाथ तो सन ही जाएंगे।"
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जितना कम सामान रहेगा - गोपालदास ‘नीरज’

जितना कम सामान रहेगा
उतना सफ़र आसान रहेगा

जितनी भारी गठरी होगी......

 
 
बतूता का जूता  - सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

इब्न बतूता पहन के जूता
निकल पड़े तूफान में......

 
 
रोहित कुमार 'हैप्पी' की ग़ज़लें  - रोहित कुमार 'हैप्पी'

एक ऐसी भी घड़ी आती है
जिस्म से रूह बिछुड़ जाती है

अब यहाँ कैसे रोशनी होती......

 
 
भारत के प्रधानमंत्री का राष्ट्र के नाम संबोधन - 24 मार्च 2020 - भारत-दर्शन समाचार

24 मार्च 2020 
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प्रहलाद - होलिका की कथा | होली पौराणिक कथाएं - भारत दर्शन संकलन

होली को लेकर हिरण्यकश्यप और उसकी बहन होलिका की कथा अत्यधिक प्रचलित है।

प्राचीन काल में अत्याचारी राक्षसराज हिरण्यकश्यप ने तपस्या करके ब्रह्मा से वरदान पा लिया कि संसार का कोई भी जीव-जन्तु, देवी-देवता, राक्षस या मनुष्य उसे न मार सके। न ही वह रात में मरे, न दिन में, न पृथ्वी पर, न आकाश में, न घर में, न बाहर। यहां तक कि कोई शस्त्र भी उसे न मार पाए।

ऐसा वरदान पाकर वह अत्यंत निरंकुश बन बैठा। हिरण्यकश्यप के यहां प्रहलाद जैसा परमात्मा में अटूट विश्वास करने वाला भक्त पुत्र पैदा हुआ। प्रह्लाद भगवान विष्णु का परम भक्त था और उस पर भगवान विष्णु की कृपा-दृष्टि थी।

हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को आदेश दिया कि वह उसके अतिरिक्त किसी अन्य की स्तुति न करे। प्रह्लाद के न मानने पर हिरण्यकश्यप उसे जान से मारने पर उतारू हो गया। उसने प्रह्लाद को मारने के अनेक उपाय किए लेकिन व प्रभु-कृपा से बचता रहा।

हिरण्यकश्यप की बहन होलिका को अग्नि से बचने का वरदान था। उसको वरदान में एक ऐसी चादर मिली हुई थी जो आग में नहीं जलती थी। हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन होलिका की सहायता से प्रहलाद को आग में जलाकर मारने की योजना बनाई।

होलिका बालक प्रहलाद को गोद में उठा जलाकर मारने के उद्देश्य से वरदान वाली चादर ओढ़ धूं-धू करती आग में जा बैठी। प्रभु-कृपा से वह चादर वायु के वेग से उड़कर बालक प्रह्लाद पर जा पड़ी और चादर न होने पर होलिका जल कर वहीं भस्म हो गई। इस प्रकार प्रह्लाद को मारने के प्रयास में होलिका की मृत्यु हो गई।

तभी से होली का त्योहार मनाया जाने लगा।

तत्पश्चात् हिरण्यकश्यप को मारने के लिए भगवान विष्णु नरंसिंह अवतार में खंभे से निकल कर गोधूली समय (सुबह और शाम के समय का संधिकाल) में दरवाजे की चौखट पर बैठकर अत्याचारी हिरण्यकश्यप को मार डाला।

तभी से होली का त्योहार मनाया जाने लगा।

संकलन-भारत-दर्शन

 


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राष्ट्रीय गीत | National Song - बंकिम चन्द्र चटर्जी

वंदे मातरम्, वंदे मातरम्!
सुजलाम्, सुफलाम्, मलयज शीतलाम्,......

 
 
देश पर मिटने वाले शहीदों की याद में - संपादक, भारत-दर्शन

स्वतंत्रता-दिवस के अवसर पर आप सभी को शुभ-कामनाएं।

सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के यज्ञ का आरम्भ किया महर्षि दयानन्द सरस्वती ने और इस यज्ञ को पहली आहुति दी मंगल पांडे ने। देखते ही देखते यह यज्ञ चारों ओर फैल गया। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, तात्यां टोपे और नाना राव जैसे योद्धाओं ने इस स्वतंत्रता के यज्ञ में अपने रक्त की आहुति दी। दूसरे चरण में 'सरफरोशी की तमन्ना' लिए रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक, चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह, राजगुरू, सुखदेव आदि देश के लिए शहीद हो गए। तिलक ने 'स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है' का उदघोष किया व सुभाष चन्द्र बोस ने 'तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा' का मँत्र दिया।

अहिंसा और असहयोग का अस्त्र लेकर महात्मा गाँधी और गुलामी की बेड़ियां तोड़ने को तत्पर लौह पुरूष सरदार पटेल ने अपने प्रयास तेज कर दिए। 90 वर्षो की लम्बी संर्घष यात्रा के बाद 15 अगस्त 1947 को भारत को स्वतंत्रता देवी का वरदान मिल सका।

15 अगस्त भारत का स्वतंत्रता दिवस है। आजादी हमें स्वत: नहीं मिल गई थी अपितु एक लम्बे संर्घष और हजारों-लाखों लोगों के बलिदान के पश्चात ही भारत आजाद हो पाया था। देश पर मर-मिटने वाले हजारों शहीदो में से कुछ के संस्मरण इस अँक में प्रकाशित किए जा रहे हैं। हमें विश्वास है पाठकों को स्वतंत्रता -दिवस विशेषांक की सामग्री पठनीय लगेगी। शुभ-कामनाएं!

 


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हिंदी मत-अभिमत - भारत-दर्शन संकलन

हिंदी भाषा पर विद्वानों के मत-अभिमत।


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हिन्दी दिवस - खाक बनारसी

अपने को आता है
बस इसमें ही रस......

 
 
ऑलिवर हेलविग से साक्षात्कार - रोहित कुमार 'हैप्पी'

ओसीआर (ऑपटिक्ल करेक्टर रिकोग्निशन) एक ऐसी तकनीक है जिसमें किसी इमेज़ में से टैक्स्ट को पहचान कर उसे सम्पादन योग्य टैक्स्ट में परिवर्तित किया जा सकता है। ओसीआर मुद्रित हिन्दी सामग्री के डिजिटलीकरण के लिये एक महत्वपूर्ण औज़ार है। हिन्दी में सही परिणाम देने वाला केवल हिन्दी ओसीआर नामक एक ही औज़ार उपलब्ध है और यह भी कम आश्चर्यचकित करने वाला नहीं कि इसे एक हिंदी प्रेमी जर्मन ने विकसित किया है।

18.11.1971 को जन्मे डा ऑलिवर हेलविग संस्कृत के एक विद्वान हैं। आपने "योगकारा बौद्ध धर्म में चमत्कार" पर 1998 में मास्टर की थीसिस की और 2002 में "संस्कृत और कंप्यूटर" पर शोध प्रबंध किया।

1998 के पश्चात बर्लिन विश्वविद्यालय में एक व्याख्याता के रूप में नियमित रूप से गतिविधियों में सम्मिलित हैं। आप निम्नलिखित विषयों पर नियमित व्याख्यान देते हैं:

  • आयुर्वेदिक साहित्य का परिचय
  • योग साहित्य
  • हिंदू धर्म परिचय


आप एक जर्मन हैं तथापि आपने देवनागरी और संस्कृत का ओसीआर सॉफ्टवेयर तैयार किया है! इसके बारे में बताएँ कि इसकी आवश्यकता कैसे पड़ी और इसकी शुरुआत कैसे हुई?

मैं एक संस्कृत का विद्वान हूँ और मैंने संस्कृत स्कूल में पढ़नी Dr Oliver Hellwig Dr Oliver Hellwig who produced Hindi OCRwho produced Hindi OCRआरम्भ की थी। यह काफी समय पहले की बात है। उसके बाद जब मैं पीएचडी कर रहा था और मुझे अपनी थीसीस लिखनी थी उसके लिए मुझे बहुत संस्कृत शोध करना था और संस्कृत लिखनी भी थी। इस काम में बहुत समय लग रहा था। अंतत: मुझे एक संस्कृत ओसीआर की आवश्यकता महसूस हुई। यही से इस ओसीआर की कहानी आरंभ होती है। सो आप कह सकते है कि इसका शुरुआत मेरे निजी कार्य हेतु हुई क्योंकि मुझे संस्कृत में अपनी थीसीस लिखनी थी।

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सर्वश्रेष्ठ हिंदी कहानियाँ - भारत-दर्शन संकलन

पिछले कुछ वर्षों में भारत-दर्शन में प्रकाशित हिंदी की कुछ कालजयी कहानियाँ यहाँ सूचीबद्ध की गई हैं ताकि इन लोकप्रिय कहानियों का आप सब आनंद उठा सकें:

 

[ सर्वश्रेष्ठ हिंदी कहानियाँ | कालजयी हिन्दी साहित्य | Hindi Story ]

Hindi Story by Sudershan, Guleri, Premchand, Rabindranath Tagore, Janendra, Yashpal, Manto and Usha Priyamvada.

 


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वामनावतार रक्षाबंधन पौराणिक कथा  - भारत-दर्शन संकलन

एक सौ 100 यज्ञ पूर्ण कर लेने पर दानवेन्द्र राजा बलि के मन में स्वर्ग का प्राप्ति की इच्छा बलवती हो गई तो का सिंहासन डोलने लगा। इन्द्र आदि देवताओं ने भगवान विष्णु से रक्षा की प्रार्थना की। भगवान ने वामन अवतार लेकर ब्राह्मण का वेष धारण कर लिया और राजा बलि से भिक्षा मांगने पहुँच गए। उन्होंने बलि से तीन पग भूमि भिक्षा में मांग ली।

बलि के गु्रु शुक्रदेव ने ब्राह्मण रुप धारण किए हुए विष्णु को पहचान लिया और बलि को इस बारे में सावधान कर दिया किंतु दानवेन्द्र राजा बलि अपने वचन से न फिरे और तीन पग भूमि दान कर दी।

वामन रूप में भगवान ने एक पग में स्वर्ग और दूसरे पग में पृथ्वी को नाप लिया। तीसरा पैर कहाँ रखें? बलि के सामने संकट उत्पन्न हो गया। यदि वह अपना वचन नहीं निभाता तो अधर्म होता। आखिरकार उसने अपना सिर भगवान के आगे कर दिया और कहा तीसरा पग आप मेरे सिर पर रख दीजिए। वामन भगवान ने वैसा ही किया। पैर रखते ही वह रसातल लोक में पहुँच गया।

जब बलि रसातल में चला गया तब बलि ने अपनी भक्ति के बल से भगवान को रात-दिन अपने सामने रहने का वचन ले लिया और भगवान विष्णु को उनका द्वारपाल बनना पड़ा। भगवान के रसातल निवास से परेशान लक्ष्मी जी ने सोचा कि यदि स्वामी रसातल में द्वारपाल बन कर निवास करेंगे तो बैकुंठ लोक का क्या होगा? इस समस्या के समाधान के लिए लक्ष्मी जी को नारद जी ने एक उपाय सुझाया। लक्ष्मी जी ने राजा बलि के पास जाकर उसे रक्षाबन्धन बांधकर अपना भाई बनाया और उपहार स्वरुप अपने पति भगवान विष्णु को अपने साथ ले आयीं। उस दिन श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि थी यथा रक्षा-बंधन मनाया जाने लगा।

 


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आज़ादी - हफ़ीज़ जालंधरी

शेरों को आज़ादी है, आज़ादी के पाबंद रहें,
जिसको चाहें चीरें-फाड़ें, खाएं-पीएं आनंद रहें।

साँपों को आज़ादी है, हर बसते घर में बसने की,......

 
 
रोचक विडियो व ऑडियो देखें - भारत-दर्शन संकलन

यहाँ आप पाएंगे ताजा विडियो, ऑडियो व रोचक सामग्री! चाहे वह स्वतंत्रता दिवस विडियो वेबकॉस्ट हो, गणतंत्र-दिवस वेबकॉस्ट हो या कोई अन्य विडियो।


स्वतंत्रता दिवस विडियो वेबकॉस्ट 2013

 

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आज हिन्दी बोलो, हिन्दी दिवस है  - सुदर्शन वशिष्ठ

हमारी राजभाषा हिन्दी है। उत्तर भारत में हिन्दी पट्टी है जहां कई राज्यों की राजभाषा हिन्दी है। भारत के संविधान में इन राज्यों को ''क'' श्रेणी में रखा गया है। संविधानिक रूप से हिन्दी को राष्ट्रभाषा नहीं, राजभाषा कहा गया है। 14 सितम्बर 1949 को हिन्दी को संघ के संविधान में राजभाषा का दर्जा दिया गया और संविधान में बाकायदा इस की व्याख्या की गई। राजभाषा के रूप में हिन्दी की विजय मात्र एक मत से ही हुई थी, ऐसा कहा जाता है। 'क' श्रेणी में हिमाचल, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार तथा सभी संघ शासित राज्य आते हैं। इस क्षेत्र को ही हिन्दी पट्टी कहा जाता है।

हिन्दी को संघ की भाषा तो माना किन्तु साथ-साथ अँग्रेज़ी के प्रयोग की भी अनुमति दी गई जिसे बार-बार बढ़ाया जाता रहा जिसके कारण अँग्रेज़ी का वर्चस्व बराबर बना रहा।

पहले साहित्य में एक ''हिन्दी सेवी'' जमात होती थी। बहुत से साहित्यकार या हिन्दी के अध्यापक अपने को हिन्दी सेवी कहा करते थे। हिन्दी के लिए संसद के बाहर धरना देते थे। एक प्रेमी ने तो संसद में छलाँग भी लगा दी थी। अब हिन्दी लेखक अपने को हिन्दी प्रेमी नहीं कहते। अँग्रेज़ी स्कूलों की बहुतायत है, जहां हिन्दी प्रेमियों के बच्चों को स्कूल में हिन्दी बोलने पर केनिंग की सज़ा होती है।

हिन्दी के राजभाषा बनने पर हिन्दी में एम. ए. किए 'हिन्दी सेवियों' की भी पूछ बढ़ी। कोयला से ले कर रेल मन्त्रालय तक हिन्दी अधिकारियों के पद सर्जित हुये। बैंकों में तो अच्छे ग्रेड में हिन्दी अधिकारी लगे। ऐसा भी समय आ गया था कि हिन्दी-विषय केवल लड़कियां ही लेती थीं। समय बदला और प्राईवेट कोचिंग अकेडेमियों में रतन, प्रभाकर पढ़ाने वाले हिन्दी अधिकारी लगने लगे। 'हिन्दी' के साथ 'अधिकारी' शब्द लगा तो आदर सूचक था। वेतन और ग्रेड भी आकर्षक था। यहां हिन्दी सही मायनों में रोटी रोजी के साथ जुड़ी।

संसदीय राजभाषा समिति के साथ लगभग सभी मन्त्रालयों और बैंकों में 'राजभाषा समितियां' बनीं। ये समितियां गर्मियों में पहाड़ों पर 'निरीक्षण' हेतु दौरे पर आने लगीं। राजनेताओं के साथ

कभी-कभी कोई लेखक या कवि भी इस का सदस्य बनने का सौभाग्य पा लेता। बैंकों की ऐसी समितियों के तो ठाठ ही अलग होते हैं।

राजभाषा के उत्थान के लिए कुछ ऐसी संस्थाएं बनीं जो साल में एक बार 'अखिल भारतीय राजभाषा सेमिनार' कर के यश और धन कमाने लगीं। कुछ संस्थाएं तो आज तक चली हुई हैं और हिन्दी को पंचसितारा होटल तक ले जाने का दावा करती हैं। ये संस्थाएं निगम बोर्डो और बैंकों से उनके खर्चे पर और भारी फीस ले कर पंचसितारा होटलों में सेमिनार करवा रही हैं। केन्द्र और राज्य सरकारों से हिन्दी के नाम पर विज्ञापन और सुविधाएं अलग लेती हैं। ऐसी एक संस्था के आयोजन में जाने का अवसर मिला। आयोजन आरम्भ होने से पहले अर्धसरकारी संस्थानों, कम्पनियों के प्रतिनिधि सपत्नीक होटल के कमरों से 'डेलीगेट' का बैच लगाए उतर रहे थे और नीचे आते ही रिशेप्शन पर टूरिस्ट प्वांइंटों की जानकारी ले रहे थे।

किसी भी भाषा को राजभाषा बनाना सरकार की इच्छा शक्ति पर निर्भर करता है। मुगल काल में उर्दू-फारसी का चलन सरकार ने किया। आज भी गांव देहात के अनपढ़ बुजुर्ग सत्तर प्रतिशत उर्दू के शब्दों का प्रयोग जाने अनजाने में करते हैं। इसी तरह ब्रिटिश शासन ने अँग्रेज़ी को थोपा। आज भी ठेठ ग्रामीण महिलाएं कहती हैं, "आज मेरा मूड ठीक नहीं है या मैं बोर हो रही हूं।''

हिमाचल प्रदेश में ''हिमाचल प्रदेश अधिनियम,1975'' पारित हुआ जिसके अनुसार प्रदेश की राजभाषा नागरी लिपि में हिन्दी घोषित की गई।

इसी तरह की इच्छाशक्ति का परिचय दिया था हिमाचल प्रदेश के तत्कालीन मुख्य मन्त्री शान्ताकुमार ने। उन्होंने सरकार से आदेश करवा दिये कि 26 जनवरी 1978 से सरकार का सारा कामकाज हिन्दी में होगा। इस आश्य की अधिसूचना 12 दिसम्बर 1977 का जारी की गई जिसमें मेडिकल कॉलेज, विधि विभाग और तकनीकी विभाग के अधीन औद्योगिक प्रशिक्षण को छोड़ कर सारा कामकाज हिन्दी में करने के आदेश थे। इस पर बहुत हाय-तौबा मची, हिन्दी टंकण यन्त्र न होने, हिन्दी स्टेनो-टाईपिस्ट न होने जैसे कई बहाने भी लगाए गये। किन्तु सरकार की इच्छा शक्ति थी तो हिन्दीकरण लागू हुआ। उस समय इसे हिन्दी में ''स्विच ओवर'' कहा गया था। उस समय जो मुख्य सचिव थे, वे हिन्दी में हस्ताक्षर तक नहीं कर सकते थे। सब वाधाओं के बावजूद भी 'स्विच ओवर' हुआ। हिन्दी टंकण, आशुलिपि का प्रशिक्षण सरकारी स्तर पर दिया गया। अँग्रेज़ी टंकण मशीनों की खरीद, अँग्रेज़ी टाईपिस्टों, आशुलिपिकों की नियुक्ति पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगाया गया। जहां मुख्य मन्त्री जाते, रातों-रात सड़कों के मील पत्थर, सर्किट हाउसों के कमरे 'कक्षों' में बदल जाते। कोई भी अधिकारी मुख्य-मन्त्री को अँग्रेज़ी में फाईल प्रस्तुत नहीं कर सकता था। ऐसे में कई तरह के मजाक भी बने कि यदि कुछ अनुमोदित करवाना है तो हिन्दी में नोटिंग लिखो, सचिवों को हिन्दी पढ़नी आती नहीं, जो मर्जी हिन्दी में लिख डालो, अनुमोदित हो जाएगा।

हिन्दी लागू होने पर जिला भाषा अधिकारियों के भाव बढ़ गए थे। अँग्रेज़ी शब्दों के पर्याय जाने के लिए भाषा अधिकारी ही मूल स्रोत थे। एक बार जनजातीय जिले लाहुल स्पिति कु मुख्यालय केलंग में एस.डी.एम. के पास जाना हुआ तो एक अधिकारी एक परिपत्र हाथ में लिए आए जिसमें लिखा था, इस विषय में 'अधोहस्ताक्षरी' से बात करें। वे परेशान थे। कहने लगे, 'यह अधोहस्ताक्षरी पता नहीं कौन है। मैं डी.सी., ए.डी.एम. सबसे मिल आया, अब आप से मिलने आया हूं।'' आप अब अधोवस्त्र पहन कर अधोहस्ताक्षरी से मिलिए नहीं तो अधोगति को प्राप्त हो जाएंगे... एस.डी.एम. ने मजाक किया। ऐसे ही कुछ मजाक रेल को लोहपथगामिनी कह, आरम्भ में किए गए।

इसके बाद कई उतार चढ़ाव आते रहे। कभी हिन्दी का प्रयोग बढ़ा, कभी घटा। हिन्दीकरण का मुख्य उद्देश्य जनता का काम जनता की भाषा में होने से है। प्रशासन की भाषा एक अलग तरह की भाषा होती है जो सीधे सीधे अपने विषय पर बात करती है। उसमें साहित्यिक या क्लिष्ट भाषा की अपेक्षा नहीं रहती। अत: सरकार में सरल और सम्प्रेष्णीय भाषा पर बल देने की आवश्यकता रहती है। सरल भाषा को प्राय: अनुवाद की भाषा कठिन बनाती है। अनुवाद की भाषा हमेशा क्लिष्ट रहती है। इसीलिए क़ानूनी नियमों, अधिनियमों की हिन्दी समझ में नहीं आती। जनता से बात करने के लिए सरल सुबोध जनता की भाषा प्रयोग में लानी चाहिए। एक बार हिन्दी दिवस पर मुख्य अतिथि को भाषण का मसौदा भेजा गया। अपनी व्यस्तता के कारण वे भाषण पहले पढ़ नहीं पाएं। कार्यक्रम के दौरान ही उन्होंने भाषण पर नजर डाली तो उसमें ऐसे-ऐसे शब्द लिखे थे जिनको पढ़ना और उच्चारण करना बहुत कठिन था। वे विभागाध्यक्ष पर बहुत गुस्साए और फुसफसाए कि यह क्या लिखा है, कौन पढ़ेगा इसे। यह तो अँग्रेज़ी से भी कठिन है। खैर उन्होने खुद से भाषण दिया जो बहुत सटीक और संदेश देने वाला था। अंत में उन्होंने कहा, ''विभाग वालों ने भी मुझे बड़ी मेहनत से कुछ लिख कर दिया है इसे मैं न पढ़ते हुए ज्यों का त्यों प्रैस को देता हूं।''

मैंने स्वयं तीस वर्ष तक 'हिदी-हिन्दी' का खेल खेला है। बार बार हिन्दी की बैठकें आने पर एक पुस्तिका तैयार की गई थी जिसमें हिन्दी में जो जो हुआ उस का इतिहास क्रमबद्ध तरीक़े से लिखा गया। महापुरूषों की कुछ उक्तियां भी डाली गईं। यह पुस्तिका हर बैठक में और हर कार्यक्रम में एक कुंजी की तरह काम आती थी। वैसे ही कार्यालयों में जो एक बार भाषण तैयार किया जाता है, अगले वर्ष उसी को फायल से निकाल कर सन् बदल आगे कर दिया जाता है। जब किसी 'अँग्रेज़ी नोईंग' सचिव के पास हिन्दी में नोट ले जाओ तो वह कहता, ''यह क्या लिख दिया यार, अँग्रेज़ी में लिखा करो ताकि कुछ समझ में भी आए। अब कौन पढ़ेगा इसे, तुम्हीं पढ़ कर सुनाओ... अच्छा लाओ, कुछ उलटा सीधा तो नहीं लिखा है न। कहां साईन करना है? ''इतना विश्वास तो रहता ही था अधिकारियों पर कि चाहे हिन्दी में लिखा है पर ठीक ही लिखा होगा।

भारत सरकार के स्तर पर यूं तो कई शब्दावलियां निकाली गईं हैं। राजभाषा आयोग, विधि आयोग,वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग आदि द्वारा शब्दकोष पर शब्दकोष निकाले गए हैं किन्तु पूरे देश में शब्दों का मानकीकरण अभी नहीं हुआ। ''राज्य'' को मध्यप्रदेश में ''शासन'' कहा जाता है। 'लोक निर्माण विभाग'' को कहीं ''सार्वजनिक निर्माण विभाग'' कहा जाता है; फ़ाइल को कहीं मिसिल, कहीं नस्ति कहा जाता है। सिविल अस्पताल को कहीं असैनिक, कहीं नागरिक अस्पताल लिखा जाता है। यानि यह शब्दावली राज्य दर राज्य तो भिन्न है ही, एक प्रदेश में भी कई रूपांतर प्रचलित हैं। सर्किट हाउस को कहीं विश्राम गृह, कहीं परिधि गृह लिखा जाता है।

हिन्दी के प्रचार के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि उर्दू-फारसी, अँग्रेज़ी तथा स्थानीय भाषाओं के शब्दों को ज्यों का त्यों अपना लिया जाए और सरल से सरल आम बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया जाए। कुरता, पाजामा दरवाजा, खिड़की, कलम, दवात, स्कूल, अस्पताल, इंस्पेक्टर, बोर्ड, वारंट, डिग्री आदि ऐसे शब्द हैं जो आज एक ग्रामीण भी बोलता और समझता है। प्रचलन प्रयोग से फैलता है। आरम्भ में सचिवालय, मन्त्रालय, अभियन्ता, टंकक, अनुभाग, प्रशासन, आबंटन, अधीक्षक, निरीक्षक, सर्वेक्षक, परिचर, नियन्त्रक आदि शब्द अजीब लगते थे। आज इन्हें सभी प्रयोग करते हैं।

एक बार आरम्भ में एक संस्कृत महाविद्यालय में संस्कृत दिवस मनाने गए तो वहां कोई नहीं जानता था कि संस्कृत दिवस भी कोई दिवस होता है। अब तो आलम यह है कि हर दिन कोई न कोई दिवस है। कभी बाल दिवस है, कभी वृद्ध दिवस; कभी दिल दिवस है तो कभी आँख दिवस; कभी सास दिवस है तो कभी बहु दिवस। यह दिवस अब विश्व स्तर पर मनाए जाते हैं। तो हिन्दी दिवस मनाने में क्या हर्ज है। कम से कम हिन्दी वालों को तो यह दिवस जोश से मनाना चाहिए। भाषा का विकास व्यवसाय से जुड़ा है। हिन्दी यदि रोटी भी देने लगी है तो इसे धूम से मनाइए।


"अभिनंदन"......

 
 
म्याऊँ-म्याऊँ  - श्रीप्रसाद

म्याऊँ म्याऊँ म्याऊँ
क्या खाऊँ, क्या खाऊँ

चूहे बड़े चतुर हैं......

 
 
हिन्दी - गौरी शंकर वैद्य ‘विनम्र’

भारत माता के अन्तस की
निर्मल वाणी हिन्दी है।......

 
 
असेम्बली में बम | आज़ादी के तराने - अज्ञात

(8 अप्रैल, सन् 1929 को असेम्बली में बम फैंकने पर लिखी यह अज्ञात रचनाकार की रचना)

डरे न कुछ भी जहां की चला-चली से हम,
गिरा के भागे भी न बम असेंबली से हम।

उड़ाए फिरता था हमको खयाले-मुस्तकबिल (भविष्य का विचार)......

 
 
मक़सद | कविता - राजगोपाल सिंह

23 मार्च 1931 की रात भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की 'देश-भक्ति' को अपराध की संज्ञा देकर फाँसी पर लटका दिया गया। कहा जाता है कि मृत्युदंड के लिए 24 मार्च की सुबह तय की गई थी लेकिन किसी बड़े जनाक्रोश की आशंका से डरी हुई अँग्रेज़ सरकार ने 23 मार्च की रात्रि को ही इन क्रांति-वीरों की जीवनलीला समाप्त कर दी। रात के अँधेरे में ही सतलुज के किनारे इनका अंतिम संस्कार भी कर दिया गया।

24 मार्च को जब यह समाचार भारतवासियों को मिला तो लोगों की भीड़ वहां पहुंच गई, जहां इन शहीदों की पवित्र राख और कुछ अस्थियाँ पड़ी थीं, फिर आरंभ हुआ अँग्रेज़ साम्राज्य को उखाड़ फैंकने का संकल्प'।

भगत सिंह को फाँसी दे देने भर से भगत सिंह की आवाज बंद न होकर और बुलंद हो गई क्योंकि अब हर युवा के मन में भगत सिंह जैसा बनने की इच्छा पैदा हो गई थी। कवि राजगोपाल सिंह के शब्दों में:

उनका मक़सद था
आवाज़ को दबाना......

 
 
मक़सद | कविता - राजगोपाल सिंह

23 मार्च 1931 की रात भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की 'देश-भक्ति' को अपराध की संज्ञा देकर फाँसी पर लटका दिया गया। कहा जाता है कि मृत्युदंड के लिए 24 मार्च की सुबह तय की गई थी लेकिन किसी बड़े जनाक्रोश की आशंका से डरी हुई अँग्रेज़ सरकार ने 23 मार्च की रात्रि को ही इन क्रांति-वीरों की जीवनलीला समाप्त कर दी। रात के अँधेरे में ही सतलुज के किनारे इनका अंतिम संस्कार भी कर दिया गया।

24 मार्च को जब यह समाचार भारतवासियों को मिला तो लोगों की भीड़ वहां पहुंच गई, जहां इन शहीदों की पवित्र राख और कुछ अस्थियाँ पड़ी थीं, फिर आरंभ हुआ अँग्रेज़ साम्राज्य को उखाड़ फैंकने का संकल्प'।

भगत सिंह को फाँसी दे देने भर से भगत सिंह की आवाज बंद न होकर और बुलंद हो गई क्योंकि अब हर युवा के मन में भगत सिंह जैसा बनने की इच्छा पैदा हो गई थी। कवि राजगोपाल सिंह के शब्दों में:

उनका मक़सद था
आवाज़ को दबाना......

 
 
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का आहवान - तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा - भारत-दर्शन संकलन

जब भारत स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत था और नेताजी आज़ाद हिंद फ़ौज के लिए सक्रिय थे तब आज़ाद हिंद फ़ौज में भरती होने आए सभी युवक-युवतियों को संबोधित करते हुए नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने कहा, "तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा।"

'हम अपना खून देने को तैयार हैं, सभा में बैठे हज़ारों लोग हामी भरते हुए प्रतिज्ञा-पत्र पर हस्ताक्षर करने उमड़ पड़े।

नेताजी ने उन्हें रोकते हुए कहा, "इस प्रतिज्ञा-पत्र पर साधारण स्याही से हस्ताक्षर नहीं करने हैं। वही आगे बढ़े जिसकी रगो में सच्चा भारतीय खून बहता हो, जिन्हें अपने प्राणों का मोह न हो, और जो आज़ादी के लिए अपना सर्वस्व त्यागने को तैयार हो़ं।"

नेताजी की बात सुनकर सबसे पहले सत्रह भारतीय युवतियां आगे आईं और अपनी कमर पर लटकी छुरियां निकाल कर, झट से अपनी उंगलियों पर छुरियां चलाकर अपने रक्त से प्रतिज्ञा-पत्र पर हस्ताक्षर करने लगीं। महिलाओं के लिए रानी झांसी रेजिमेंट का गठन किया गया जिसकी कैप्टन बनी लक्ष्मी सहगल।

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Tum Mujhe Khoon Do, Main Tumhe Azadi Dunga - Netaji Subhash Chandra Bose

 


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करवा चौथ की पौराणिक कथाएँ - भारत-दर्शन संकलन

Karva Chauth Ki Katahyein

‘करवा चौथ' के व्रत से तो हर भारतीय स्त्री अच्छी तरह से परिचित हैं। यह व्रत महिलाओं के लिए ‘चूड़ियों का त्योहार' नाम से भी प्रसिद्ध है।

करवा चौथ का व्रत, अन्य सभी व्रतों से कठिन माना गया है। महिलाएँ यह व्रत पति-पत्नी के सौहार्दपूर्ण मधुर संबंधों के साथ-साथ पति की दीर्घायु की कामना के उद्देश्य से करती हैं। करवा रूपी वस्तु (कुल्हड़) इस व्रत में सास-ससुर को दान देने या आपस में बदलने का रिवाज है।

कार्तिक माह की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को करवा चौथ का व्रत किया जाता हैं। विवाहित महिलाएँ पति की सुख, संपन्नता की कामना के लिए गणेश, शिव-पार्वती की पूजा-अर्चना करती हैं। सूर्य उदय से पहले तड़के 'सरघी' (कुछ पसंद की वस्तु) खाकर सारा दिन बगैर जल ग्रहण किए उपवास रखती हैं एवं ईश्वर कथा-भजन का श्रवण करते हुए सारा दिन व्यतीत करती हैं।पुराण की कथा के अनुसार व्रत का फल तभी हैं जब व्रत करने वाली महिला भूलवश भी झूठ, कपट, निंदा एवं अभिमानवश कोई शब्द न कहे। सुहागिन महिलाओं को चाहिए कि इस पर्व पर सुहाग-जोड़ा पहने, शिव द्वारा पार्वती को सुनाई गई कथा पढ़ें या सुने तथा रात्रि में चाँद निकलने पर चंद्रमा को अर्घ्य देकर ब्राह्मणों को दान दें एवं आशीर्वाद ले, तभी व्रत का फल है।

करवा-चौथ की विभिन्न कथाएँ प्रचलित हैं जिनमें अर्जुन-द्रौपदी की कथा, करवा धोबिन की कथा व वीरवती की कथाएँ प्रमुख हैं।


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माँ  - जगदीश व्योम

माँ कबीर की साखी जैसी
तुलसी की चौपाई-सी......

 
 
अश़आर - मुन्नवर राना

माँ | मुन्नवर राना के अश़आर


लबों पर उसके कभी बददुआ नहीं होती,......

 
 
हिंदी को आपका साथ चाहिए पर... - रोहित कुमार 'हैप्पी' | Rohit Kumar Happy

हर वर्ष हम 14 सितंबर को देश-विदेश में हिंदी-दिवस व हिंदी पखवाड़ा जैसे समारोहों का आयोजन करते हैं। निःसंदेह ऐसे आयोजनों के लिए निःस्वार्थ भाव की परम आवश्यकता है। हिंदी को भाषणबाजों और स्वयंभू नेताओं की नहीं बल्कि सिपाहियों की जरूरत है।

इस संदर्भ में कबीर जैसे अलबेले संत कवि का यह कथन 'जो घर फूँके आपणा सो चले हमारे साथ' अपने निजी स्वार्थ छोड़ कर निःस्वार्थी बनने की प्रेरणा देता है।

आप स्वयं से प्रश्न करे कि वास्तव में आप अपनी भाषा के लिए क्या कर रहे हैं? हम हिंदी की दुहाई तो बहुत देते हैं पर हिंदी को जीते नहीं! जरा विचार करें कि जब कभी भी कहीं हस्ताक्षर करने की आवश्यकता आन पड़ी तो आपने कितनी बार हिंदी में हस्ताक्षर किए हैं?

हिंदी को कबीर, प्रेमचंद और निराला चाहिए। भाषण, नारों और प्रस्ताव पारित करने भर से 'हिंदी' का कोई हित नहीं हुआ और न होगा।

 


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यदि मैं तानाशाह होता  - महात्मा गांधी

यदि मैं तानाशाह होता........

  • तो आज ही विदेशी भाषा में शिक्षा का दिया जाना बंद कर देता।
  • सारे अध्यापकों को स्वदेशी भाषाएँ अपनाने को मजबूर कर देता।
  • जो आनाकानी करते, उन्हें बर्ख़ास्त कर देता।
  • मैं पाठ्य पुस्तकों के तैयार किए जाने का इन्तजार न करता।

          साभार - यंग इंडिया (हिंदी आंदोलन)

 

 


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हिंदी और राष्ट्रीय एकता - सुभाषचन्द्र बोस

यह काम बड़ा दूरदर्शितापूर्ण है और इसका परिणाम बहुत दूर आगे चल कर निकलेगा। प्रांतीय ईर्ष्या-द्वेश को दूर करने में जितनी सहायता हमें हिंदी-प्रचार से मिलेगी, उतनी दूसरी किसी चीज़ से नहीं मिल सकती। अपनी प्रांतीय भाषाओं की भरपूर उन्नति कीजिए। उसमें कोई बाधा नहीं डालना चाहता और न हम किसी की बाधा को सहन ही कर सकते हैं; पर सारे प्रांतो की सार्वजनिक भाषा का पद हिंदी या हिंदुस्तानी ही को मिला। नेहरू-रिपोर्ट में भी इसी की सिफारिश की गई है। यदि हम लोगों ने तन मन से प्रयत्न किया, तो वह दिन दूर नहीं है, जब भारत स्वाधीन होगा और उसकी राष्ट्रभाषा होगी हिंदी।

देश की एकता के लिए एक भाषा का होना जितना आवश्यक है, उससे अधिक आवश्यक है देश भर के लोगों में देश के प्रति विशुद्ध प्रेम तथा अपनापन होना। अगर आज हिंदी भाषा मान ली गई है, तो इसलिए नहीं कि वह किसी प्रांत विशेष की भाषा है, बल्कि इसलिए कि वह अपनी सरलता, व्यापकता तथा क्षमता के कारण सारे देश की भाषा हो सकती है और सारे देश के लोग उसे अपना सकते हैं.....

[हिंदी आंदोलन]

 


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स्वामी विवेकानंद का विश्व धर्म सम्मेलन संबोधन - भारत-दर्शन संकलन

स्वामी विवेकानंद ने 11 सितंबर 1893 को शिकागो (अमेरिका) में हुए विश्व धर्म सम्मेलन में एक बेहद चर्चित भाषण दिया था। विवेकानंद का जब भी जि़क्र आता है उनके इस भाषण की चर्चा जरूर होती है। पढ़ें विवेकानंद का यह भाषण...

 

अमेरिका के बहनो और भाइयो,
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पत्थर के आँसू - ब्रहमदेव

जब हवा में कुछ मंथर गति आ जाती है वह कुछ ठंडी हो चलती है तो उस ठंडी-ठंडी हवा में बिना दाएँ-बाएँ देखे चहचहाते पक्षी उत्साहपूर्वक अपने बसेरे की ओर उड़ान भरते हैं।

और जब किसी क्षुद्र नदी के किनारे के खेतों में धूल उड़ाते हुए पशु मस्तानी चाल से घँटी बजाते अपने घरों की ओर लौट पड़ते हैं उस समय बग़ल में फ़ाइलों का पुलिन्दा दबाए, हाथ में सब्जी का थैला लिए, लड़खड़ाते क़दमों के सहारे, अपने झुके कंधों पर दुखते हुए सिर को जैसे-तैसे लादे एक व्यक्ति तंग बाज़ारों में से घर की ओर जा रहा होता है।

'अरे एक बात तो भूल ही गई,' क़लम ने फिर कहा। 'उन्होंने पत्र के अंत में हम सब को भी याद किया था।'

'अरे कैसे?' सब ने आश्चर्य से पूछा।

'उन्होंने लिखा कि काश मैं पेपरवेट होता, मेज़-कुर्सी की तरह फ़र्नीचर होता तो आज यह दिन न देखना पड़ता। चाहें जो होता पर मैं इनसान न होता।'

'ओह, तभी तो मुझे उठा कर अपने गालों से सहला रहे थे।' पत्थर के पेपरवेट की ठस्स आवाज़ गीली हो उठी, उसके आँसू झिलमिला उठे।

अधपकी झब्बेदार बेतरतीब मूँछें, चेहरे पर कुछ रेखाएँ-जिन की गहराइयों में न जाने कितने अरमान, आशाएँ और अतृप्त साधें सदा के लिए दफ़न हैं और जिन्हें संसार के सबसे क्रूर कलाकार चिन्ता ने अपने कठोर हाथों से बनाया है। घिसा हुआ कोट जो कि दो साल पहले बड़ी लड़की की शादी पर बनवाया था, पहने और अपनी सूखी टाँगों पर अति प्रयोग के कारण पायजामा बन चुकी पतलून से ढँके कठपुतली की तरह निर्जीव चाल से चला जा रहा यह व्यक्ति मानव समाज का सब से दयनीय प्राणी दफ़्तर का बाबू है। नाम छोटा बाबू - क्योंकि बड़े साहब के बाद इन्हीं का नंबर है, पर काम है बड़े साहब से भी अधिक। दफ़्तर बंद हो गया है, घर जा रहे हैं। इन के बाद दफ़्तर में क्या होता है- शायद इन्हें पता नहीं। शायद इन जैसे जो अन्य लाखों बाबू हैं, उन्हें भी पता नहीं।

दफ़्तर बंद हो गया, चौकीदार सब दरवाजे पर ताले टटोल कर देख चुका था। धूप लाजवंती वधू की तरह सिमट कर क्षितिज के पीछे जा छिपी। अंधकार चोर की तरह चुपके-से दफ़्तर के कमरों में से गुज़रता हुआ सड़क, मैदान और खेतों पर पाले की तरह छा गया। छोटे बाबू के कमरे में घुप्प अँधेरा और सन्नाटा था। जान पड़ता था जैसे बरसों से इस कमरे में कोई नहीं आया। तभी इस सन्नाटे में किसी की क्षीण-सी आह सुनाई दी - दबी हुई ठंडी साँस भी उस के साथ मिली थी... 'कौन है यह?' बड़े साहब की कुर्सी ने सहानुभूति पूर्ण स्वर में पूछा। दफ़्तर बंद होने के बाद कमरे के शासन में वह कठोरता नहीं थी जो मीठी-मीठी पॉलिश की हुई बातें करने वाले बड़े साहब में थी।

'यह मैं हूँ ।' छोटे बाबू की मेज़ पर रखी क़लम ने पतली आवाज़ में कहा। कमरे के अन्य सदस्य बड़े साहब की कुर्सी, दवात, पेपरवेट, रद्दी की टोकरी आदि पर बच्चों का-सा स्नेह रखते थे क्योंकि यह अभी नई ही आई थी। इस के स्थान पर जो पुरानी कलम थी उस की आकस्मिक मृत्यु एक एक्सीडेंट में हो गई थी।

'यह मैं हूँ, छोटे बाबू की कलम ने फिर कहा, जिसे सुन कमरे के सदस्यगण चिन्तित हो उठे। परिवार में आई नव-वधू के मुख पर आह क्यों? अभी तो उस के खेलने-खाने के दिन हैं!'

'क्या बात है, किस बात का दुख है?' बड़े साहब की कुर्सी ने फिर पूछा।

'कुछ नहीं, कुछ नहीं, यूँ ही मुख से आवाज़ निकल गई थी।' छोटे बाबू की क़लम ने हँसने का बहाना करते हुए कहा। 'नहीं जी, कुछ बात ज़रूर है। आज जब से दफ़्तर बंद हुआ है तभी से मैं तुम्हें बेचैन देख रहा हूँ। क्या बात है बोलो?' छोटे बाबू की दवात ने ज़रा रौब जमाते हुए खोखली आवाज़ में कहा। इस रौब का असर हुआ, कमसिन क़लम सहमी हुई बोली, 'बड़ी भयानक बात है जीजी, पर आज नहीं बताऊँगी, कल बताऊँगी।'

'अजी मियाँ, हटाओ भी, किस चक्कर में पड़े हो?' अचानक ही कोई भारी ठस्स आवाज़ बोली, 'यहाँ हम अपने ही चक्कर में पड़े हैं। खुदा की कसम आज दोपहर से इतना गुस्सा आ रह है इस मरदूद बड़े साहब पर कि कुछ पूछो मत। बेचारे छोटे बाबू को इतना डाँटा कि उन का मुँह उतर गया। अगर मैं होता न छोटे बाबू की जगह तो सब साहबी एक ही झापड़ में निकाल देता।' कमरे में अंधकार स्वयं इधर-उधर भटक रहा था, दिखाई कहाँ से देता। हाँ, आवाज़ से मालूम होता था कि छोटे बाबू की मेज़ पर रखे पेपरवेट महाशय बोल रहे हैं।

छोटे बाबू से इस कमरे के सब निवासियों की सहानुभूति थी, बड़े साहब की हरकत पर सब को असंतोष था, पर अभी तक प्रकट किसी ने नहीं किया था। पेपरवेट की बात सुन कर सब ने अपना-अपना असंतोष प्रकट करना आरंभ कर दिया। कमरे में शोर होने लगा। सभी अपनी-अपनी हाँक रहे थे। ख़ूब गुलगपाड़ा मचा हुआ था। तभी सहसा दरवाजे. पर टँगे पर्दे की सरसराती हुई आवाज़ आई, 'दुश्मन!' और सब एकदम चुप हो गए मानो किसी ने बड़बड़ाता रेडियो एकदम बंद कर दिया हो। बाहर बरामदे में चौकीदार खटखट करता गुज़र गया। कमरे में फिर से बड़े साहब की आलोचना होने लगी। तभी खटखटाती हुई आवाज़ में टाइपराइटर ने कहा, 'भई ग़लती तो असल में मेरी थी, छोटे बाबू ने तो अपनी तरफ़ से ठीक ही टाइप किया था। क्या बताऊँ जब से इस पक्के फ़र्श पर गिर कर चोट लगी है, मुझ से ठीक से काम नहीं होता। दर्द बहुत होता है। मुझे अफ़सोस है कि मेरे कारण बेचारे छोटे बाबू को अपमानित होना पड़ा।'

बड़े साहब की मेज़ के नीचे कुछ झन-झन की अवाज़ हुई, बड़े साहब की मेज़ ने जोर से चिल्ला कर कहा, 'ठहरो, माँजी कुछ कर रही हैं।'

रद्दी की टोकरी इस कमरे के निवासियों में सब से बूढ़ी थी। दफ़्तर पहले किसी और स्थान पर था परन्तु जब यह नया भवन बना तब यही एक थीं जो वहाँ से बच कर यहाँ आ गई थी। इस के साथ के कई साथी गंदे नाले के रमणीय तट पर बसे कबाड़ी आश्रम में अब भगवत भजन में शेष जीवन बिता रहे हैं। कमरे के अन्य निवासी इन्हें बड़ी श्रद्धा की दृष्टि से देखते थे और माँजी कह कर पुकारते थे। माँजी अब बहुत वृद्ध हो गई थीं। अब और तब का सवाल था। आवाज़ भी काफ़ी मद्धम पड़ गई थी। वह छनछनाती आवाज़ में बोली, 'क्या बताऊँ। उस दिन मुझ से ग़लती हो गई, वरना बड़े साहब तो बँधे-बँधे फिरते।'

'वह जो उस दिन सरकारी सर्कुलर आया था, वह बड़े साहब ने जल्दी में भूल से मेरे हवाले कर दिया। चपरासी जब रद्दी को बाहर जमादार के डोल में डालने लगा तो वह सर्कुलर मैंने अपनी गोद में बच्चे की तरह छिपा लिया। अगले दिन जब उसके बारे में सारे दफ़्तर में कोहराम मचा तो मैंने निकाल कर दे दिया। जो कहीं उस दिन वह काग़ज मैं जाने देती तो बड़े साहब को भी पता चल जाता कि साहबी कितनी महँगी है। भैया, जो बुड्ढे कर देते हैं, वह आजकल की छोकरियाँ क्या करेंगी? इन्हें तो अपनी सिंगार-पटार से ही फुरसत नहीं। कोई चीज़ कहीं पड़ी है, कोई कहीं, किसी बात का ध्यान ही नहीं। बस मैं सँभालूँ। जिन्हें सब दुत्कारते हैं उन्हें मैं सँभालती हूँ। अपनी गोद में उनको जगह देती हूँ, जिन्हें दुनिया किसी काम का नहीं कहती। इस पर नाम मेरा रखा है- रद्दी की टोकरी। खैर, इसका मुझे मलाल नहीं क्योंकि इतनी उम्र तक दुनिया देखी है। यह देखा है कि जिस का भला करो उसी से बुराई मिलती है। पर छोड़ो इन बातों को। अब हमें क्या लेना-देना है? उमर ही कितनी रह गई है? खाट से चिपकी बुढ़िया हूँ अब गई तब गई की बात है और फिर......!' न जाने यह बुढ़िया-पुराण कब तक चलता यदि मुर्गे की बाँग भिनसार की ठंडी हवा की अँगुली पकड़े रोशनदान के रास्ते से कमरे में न घुस जाती।

आज दफ़्तर खुलते ही जो बेचैनी नज़र आई वह इस दफ़्तर के लिए नई थी। बेचारा दफ़्तर परेशान था, उसे समझ नहीं आ रहा था कि आज इन सब को क्या हो गया है? बड़े साहब से ले कर चपरासी तक सब बेचैन, उदास घबराए-से क्यों हैं? उसे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। आख़िर हारकर उस ने आँगन में खड़े आम के पुराने पेड़ से पूछा। शायद उसे कुछ पता हो-पर वह इन नए छोकरों की अजीब बातों से परेशान था। उसने भी अपना सिर खुजलाया जिस का मतलब था कि इस बेचैनी का कारण उसे भी पता नहीं। किस से पूछा जाए? शायद फ़ाटक को पता हो, पर तभी आँगन से कुछ बातचीत की आवाज़ें आने लगीं... 'पर आख़िर छोटे बाबू ने आत्महत्या की क्यों?' कोई पूछ रहा था।

'अच्छा तो यह बात थी, बहुत बुरा हुआ।' दफ़्तर ने सोचा और बात-बात में यह खबर दीवारों, दरवाज़ों, चिकों, पर्दों से होती हुई दफ़्तर में चारों ओर फैल गई। छोटे बाबू की आकस्मिक और करूणाजनक मृत्यु के कारण शोक छाया हुआ था। प्रत्येक व्यक्ति अपनी समझ के अनुसार उनकी आत्महत्या का कारण बता रहा था। बड़े साहब कह रहे थे, 'अगर ऐसी बात थी तो उन्होंने मुझे कहा क्यों नहीं? मैं उनकी तनख्वाह ज़रूर बढ़ा देता।' सुनने वाले एक वही ठेकेदार साहब थे जो अपने किसी ठेके के सिलसिले में दफ़्तर में आए थे। बोले, 'साहब यह रूपए-पैसे की तंगी बुरी चीज़ है, पर उन्होंने तो किसी से कुछ कहा ही नहीं, मुझे ही कह देते तो दो-चार हज़ार का इंतजाम तो मैं ही कर देता।'

'कहो भाई, क्या ख़बर लाए?' बड़े साहब ने फ़ाटक में से आते हुए एक आदमी से पूछा। 'बहुत बुरा हाल है, बेचारी छोटे बाबू की वाइफ़ ने तो रो-रो कर बुरा हाल कर रखा है, घर में जमा पूँजी भी नहीं है जो क्रिया-कर्म का प्रबंध किया जाए। यह चूड़ियाँ दी हैं, बेचने के लिए!' उस आदमी ने कहा।

'अजी, अब रोने-धोने से क्या होता है? उम्र भर तो छोटे बाबू के कान खाती रही- यह ला दो, वह ला दो और सच तो यह है...' पास खड़े एक अन्य व्यक्ति ने कहा, पर बीच में ही आने वाले व्यक्ति ने टोका।

'पता नहीं साहब, वह तो मुझसे कह रही थीं कि इतने सीधे आदमी थे कि ख़ुद ही सब सामान ला दिया करते थे, मुझे कुछ कहने की ज़रूरत ही नहीं होती थी। खैर, जो भी हो अब बेचारी का दुख नहीं देखा जाता, आज दफ़्तर तो बंद ही रहेगा, हम सब को वहीं जाना चाहिए।'

दफ़्तर बंद हो गया, बड़े साहब कार में बैठ कर घर चले गए। ठेकेदार भी कुछ आवश्यक कार्य के लिए उन के साथ ही गया। बड़े साहब जाते हुए चपरासियों और चौकीदारों को सख्त ताक़ीद कर गए कि छोटे बाबू के घर वे ज़रूर जाएँ। चपरासियों ने कमरों में ताले लगाए और छोटे बाबू के घर की ओर चल पड़े। दफ़्तर में फिर एक बार शोकपूर्ण सन्नाटा छा गया।

'बहुत ही बुरा हुआ', सब से पहले छोटे बाबू की कुर्सी ने दुख से रूँधे गले से कहा।

'यह और भी बुरा हुआ कि उन्होंने अपनी मदद के लिए किसी से कुछ कहा भी नहीं।' इस पर कमरे के सब छोटे-बड़े सदस्य छोटे बाबू के प्रति अपना शोक प्रकट करने लगे।

'यह जो कहा जा रहा है कि उन्होंने किसी से मदद नहीं माँगी, यह ग़लत है।' छोटे बाबू की क़लम ने दवात से कहा, 'कल जो बात मैं कहते-कहते रूक गई थी, वह यही थी।'

'अरे भई, कुछ सुनते भी हो?' दवात ने ऊँची आवाज़ में कमरे वालों को बातें करने से रोका, 'ज़रा सुनो तो यह क़लम क्या कह रही है? हाँ जी, अब कहो असली बात क्या है?'

सब चुप हो गए, पर अब कमसिन क़लम शर्माने लगी। दवात ने ढाढ़स बँधाया कि सब अपने ही हैं, शर्माने की क्या बात है, तुम बेखटके कहो।

क़लम ने धीरे स्वर में कहना आरंभ किया, 'यह बात ग़लत है कि छोटे बाबू ने किसी से मदद नहीं माँगी।
उन्होंने बड़े साहब से तनख्वाह बढाने के लिए कितनी ही बार कहा था पर बड़े साहब ने हर बार उन के काम में ज़बरदस्ती कोई न कोई कमी निकाल कर इस बात को टाल दिया। कल जब वे घर से दफ़्तर आए थे तो आप सब ने देखा होगा कि उनका चेहरा उतरा हुआ था। बात यह थी कि उनकी पत्नी ने उन्हें काफी खरी-खोटी सुनाई थी कि वे वक्त पर कोई चीज़ ला कर नहीं देते। मुझे भी कोई ज़ेवर-पत्ता बनवा के नहीं दिया , इत्यादि। इसी सब झगड़े में देर हो गई, उधर आते ही बड़े साहब ने डाँट सुना दी, फिर दोपहर को भी जो बुरी डाँट उन पर पड़ी थी वह तो आप सबने सुनी ही है। इधर उन पर क़र्ज भी काफ़ी हो गया था। तक़ाजा दिनों-दिन सख्त होता जा रहा था। पत्नी की फ़रमाइश, लंबे-चौड़े परिवार का ख़र्च, साहूकारों के तक़ादे। यह सब इस छोटी-सी तनख्वाह में कैसे पूरे हो पाते? उन का दिल तो पहले ही टूट गया था, पर कल पत्नी की फटकार और बड़े साहब की डाँट ने उस टूटे हुए दिल को पीस डाला। वह निराश हो गए और सब से अधिक धक्का इस बात से लगा कि जब उन्होंने अपनों के आगे गिड़गिड़ा कर मदद के लिए हाथ पसारा तो उन्होंने साफ़ इनकार कर दिया।'

'पर तुम्हें यह सब पता कैसे लगा?' बड़े साहब की कुर्सी ने आगे खिसकते हुए पूछा।

'बात यह हुई कि कल शाम दफ़्तर बंद होने से पहले ये सब बातें उन्होंने एक पत्र में लिखीं, पर न जाने फिर क्या सोच कर वह पत्र फाड़ कर फेंक दिया। मैंने तो सब लिखी ही थीं, इसलिए मुझे बातें याद रहीं।'

'जी तो चाहता है कि इनसान की गरदन रेत दूँ।' चाकू ने तीखी आवाज़ में कहा। उस पर क्रोध की धार लगी हुई थी।

'अरे एक बात तो भूल ही गई,' क़लम ने फिर कहा। 'उन्होंने पत्र के अंत में हम सब को भी याद किया था।'......

 
 
हमने कोशिश करके देखी | ग़ज़ल - रोहित कुमार 'हैप्पी'

हमने कोशिश करके देखी पत्थर को पिघलाने की
पत्थर कभी नहीं पिघले अब मानी बात जमाने की।

हमने कोशिश करके देखी दुश्मन यार बनाने की......

 
 
जब धनुष सँभाला है | ग़ज़ल - उदयभानु 'हंस'

हमने अपने हाथों में जब धनुष सँभाला है,
बाँध कर के सागर को रास्ता निकाला है।

हर दुखी की सेवा ही है मेरे लिए पूजा, ......

 
 
महात्मा गांधी -शांति के नायक - नरेन्द्र देव

2 अक्‍टूबर का दिन कृतज्ञ राष्‍ट्र के लिए राष्‍ट्रपिता की शिक्षाओं को स्मरण करने का एक और अवसर उपलब्‍ध कराता है। भारतीय राजनीतिक परिदृश्‍य में मोहन दास कर्मचंद गांधी का आगमन ख़ुशी प्रकट करने के साथ-साथ हज़ारों भारतीयों को आकर्षित करने का पर्याप्‍त कारण उपलब्‍ध कराता है तथा इसके साथ उनके जीवन-दर्शन के बारे में भी ख़ुशी प्रकट करने का प्रमुख कारण है, जो बाद में गाँधी दर्शन के नाम से पुकारा गया। यह और भी आश्‍चर्यजनक बात है कि गाँधी जी के व्‍यक्तित्‍व ने उनके लाखों देशवासियों के दिल में जगह बनाई और बाद के दौर में दुनियाभर में असंख्‍य लोग उनकी विचारधारा की तरफ आकर्षित हुए।
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जन-गण-मन साकार करो - छेदीसिंह

हे बापू, इस भारत के तुम,
एक मात्र ही नाथ रहे,
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अनमोल वचन  - महात्मा गाँधी

यहाँ महात्मा गाँधी के कुछ अनमोल वचन संकलित किए गए हैं:

 

  • अधभूखे राष्ट्र के पास न कोई धर्म, न कोई कला और न ही कोई संगठन हो सकता है।
  • निःशस्त्र अहिंसा की शक्ति किसी भी परिस्थिति में सशस्त्र शक्ति से सर्वश्रेष्ठ होगी।
  • जब भी मैं सूर्यास्त की अद्भुत लालिमा और चंद्रमा के सौंदर्य को निहारता हूँ तो मेरा हृदय सृजनकर्ता के प्रति श्रद्धा से भर उठता है।
  • क्रूरता का उत्तर क्रूरता से देने का अर्थ अपने नैतिक व बौद्धिक पतन को स्वीकार करना है।
  • एकमात्र वस्तु जो हमें पशु से भिन्न करती है - वह है सही और गलत के मध्य भेद करने की क्षमता जो हम सभी में समान रूप से विद्यमान है।
  • आपकी समस्त विद्वत्ता, आपका शेक्सपियर और वर्ड्सवर्थ का संपूर्ण अध्ययन निरर्थक है यदि आप अपने चरित्र का निर्माण व विचारों क्रियाओं में सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाते।
  • स्वच्छता, पवित्रता और आत्म-सम्मान से जीने के लिए धन की आवश्यकता नहीं होती।
  • निर्मल चरित्र एवं आत्मिक पवित्रता वाला व्यक्तित्व सहजता से लोगों का विश्वास अर्जित करता है और स्वतः अपने आस पास के वातावरण को शुद्ध कर देता है।
  • सुखद जीवन का भेद त्याग पर आधारित है। त्याग ही जीवन है।
  • उफनते तूफ़ान को मात देना है तो अधिक जोखिम उठाते हुए हमें पूरी शक्ति के साथ आगे बढ़ना होगा।
  • रोम का पतन उसका विनाश होने से बहुत पहले ही हो चुका था।
  • गुलाब को उपदेश देने की आवश्यकता नहीं होती। वह तो केवल अपनी ख़ुशबू बिखेरता है। उसकी ख़ुशबू ही उसका संदेश है।
  • मेरे विचारानुसार गीता का उद्देश्य आत्म-ज्ञान की प्राप्ति का सर्वोत्तम मार्ग बताना है।
  • मैं यह अनुभव करता हूं कि गीता हमें यह सिखाती है कि हम जिसका पालन अपने दैनिक जीवन में नहीं करते हैं, उसे धर्म नहीं कहा जा सकता है।
  • संपूर्ण विश्व का इतिहास उन व्यक्तियों के उदाहरणों से भरा पडा है जो अपने आत्म-विश्वास, साहस तथा दृढता की शक्ति से नेतृत्व के शिखर पर पहुँचे हैं।
  • हमारा जीवन सत्य का एक लंबा अनुसंधान है और इसकी पूर्णता के लिए आत्मा की शांति आवश्यक है।
  • किसी भी स्वाभिमानी व्यक्ति के लिए सोने की बेडियां, लोहे की बेडियों से कम कठोर नहीं होगी। चुभन धातु में नहीं वरन् बेडियों में होती है।
  • नारी को अबला कहना अपमानजनक है। यह पुरुषों का नारी के प्रति अन्याय है।
  • यदि आपको अपने उद्देश्य और साधन तथा ईश्वर में आस्था है तो सूर्य की तपिश भी शीतलता प्रदान करेगी।
  • अपनी भूलों को स्वीकारना उस झाडू के समान है जो गंदगी को साफ कर उस स्थान को पहले से अधिक स्वच्छ कर देती है।
  • बुद्ध ने अपने समस्त भौतिक सुखों का त्याग किया क्योंकि वे संपूर्ण विश्व के साथ यह ख़ुशी बाँटना चाहते थे जो मात्र सत्य की खोज में कष्ट भोगने तथा बलिदान देने वालों को ही प्राप्त होती है।
  • जब कोई युवक विवाह के लिए दहेज की शर्त रखता है तब वह न केवल अपनी शिक्षा और अपने देश को बदनाम करता है बल्कि स्त्री जाति का भी अपमान करता है।
  • आधुनिक सभ्यता ने हमें रात को दिन में और सुनहरी ख़ामोशी को पीतल के कोलाहल और शोरगुल में परिवर्तित करना सिखाया है।
  • स्वतंत्रता एक जन्म की भांति है। जब तक हम पूर्णतः स्वतंत्र नहीं हो जाते तब तक हम परतंत्र ही रहेंगे ।

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देखो बापू | कविता - पूनम शुक्ला

देखो बापू
कितनी हिंसा है......

 
 
पांच पर्वों का प्रतीक है दीवाली - भारत-दर्शन संकलन

त्योहार या उत्सव हमारे सुख और हर्षोल्लास के प्रतीक है जो परिस्थिति के अनुसार अपने रंग-रुप और आकार में भिन्न होते हैं। त्योहार मनाने के विधि-विधान भी भिन्न हो सकते है किंतु इनका अभिप्राय आनंद प्राप्ति या किसी विशिष्ट आस्था का संरक्षण होता है। सभी त्योहारों से कोई न कोई पौराणिक कथा अवश्य जुड़ी हुई है और इन कथाओं का संबंध तर्क से न होकर अधिकतर आस्था से होता है। यह भी कहा जा सकता है कि पौराणिक कथाएं प्रतीकात्मक होती हैं।

कार्तिक मास की अमावस्या के दिन दीवाली का त्योहार मनाया जाता है। दीवाली को दीपावली भी कहा जाता है। दीवाली एक त्योहार भर न होकर, त्योहारों की एक श्रृंखला है। इस पर्व के साथ पांच पर्वों जुड़े हुए हैं। सभी पर्वों के साथ दंत-कथाएं जुड़ी हुई हैं। दीवाली का त्योहार दिवाली से दो दिन पूर्व आरम्भ होकर दो दिन पश्चात समाप्त होता है।

दीवाली का शुभारंभ कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष त्रयोदशी के दिन से होता है। इसे धनतेरस कहा जाता है। इस दिन आरोग्य के देवता धन्वंतरि की आराधना की जाती है। इस दिन नए-नए बर्तन, आभूषण इत्यादि खरीदने का रिवाज है। इस दिन घी के दीये जलाकर देवी लक्ष्मी का आहवान किया जाता है।

दूसरे दिन चतुर्दशी को नरक-चौदस मनाया जाता है। इसे छोटी दीवाली भी कहा जाता है। इस दिन एक पुराने दीपक में सरसों का तेल व पाँच अन्न के दाने डाल कर इसे घर की नाली ओर जलाकर रखा जाता है। यह दीपक यम दीपक कहलाता है।

एक अन्य दंत-कथा के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण ने इसी दिन नरकासुर राक्षस का वध कर उसके कारागार से 16,000 कन्याओं को मुक्त कराया था।

तीसरे दिन अमावस्या को दीवाली का त्योहार पूरे भारतवर्ष के अतिरिक्त विश्वभर में बसे भारतीय हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं। इस दिन देवी लक्ष्मी व गणेश की पूजा की जाती है। यह भिन्न-भिन्न स्थानों पर विभिन्न तरीकों से मनाया जाता है।

दिवाली के पश्चात अन्नकूट मनाया जाता है। यह दीवाली की श्रृंखला में चौथा उत्सव होता है। लोग इस दिन विभिन्न प्रकार के व्यंजन बनाकर गोवर्धन की पूजा करते हैं।

शुक्ल द्वितीया को भाई-दूज या भैयादूज का त्योहार मनाया जाता है। मान्यता है कि यदि इस दिन भाई और बहन यमुना में स्नान करें तो यमराज निकट नहीं फटकता।

दीवाली भारत में बसे कई समुदायों में भिन्न कारणों से प्रचलित है। दीपक जलाने की प्रथा के पीछे अलग-अलग कारण या कहानियाँ हैं।

राम भक्तों के अनुसार दिवाली वाले दिन अयोध्या के राजा राम लंका के अत्याचारी राजा रावण का वध कर के अयोध्या लौटे थे। उनके लौटने कि खुशी यह पर्व मनाया जाने लगा।

कृष्ण भक्तों की मान्यता है कि इस दिन भगवान श्री कृण्ण ने अत्याचारी राजा नरकासुर का वध किया था। इस नृशंस राक्षस के वध से जनता में अपार हर्ष फैल गया और लोगों ने प्रसन्नतापूर्वक घी के दीये जलाए।

एक पौराणिक कथा के अनुसार विंष्णु ने नरसिंह रुप धारणकर हिरण्यकश्यप का वध किया था तथा इसी दिन समुद्रमंथन के पश्चात देवी लक्ष्मी व भगवान धन्वंतरि प्रकट हुए।

जैन मतावलंबियों के अनुसार चौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी का निर्वाण दिवस भी दीपावली को ही हुआ था।

बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध के अनुयायियों ने 2500 वर्ष पूर्व गौतम बुद्ध के स्वागत में लाखों दीप जला कर दीपावली मनाई थी। दीपावली मनाने के कारण कुछ भी रहे हों परंतु यह निश्चित है कि यह वस्तुत: दीपोत्सव है।

सिक्खों के लिए भी दिवाली महत्वपूर्ण है क्योंकि इसी दिन अमृतसर में स्वर्ण मन्दिर का शिलान्यास हुआ था और दिवाली ही के दिन सिक्खों के छ्टे गुरु हरगोबिन्द सिंह जी को कारागार से रिहा किया गया था।

नेपालियों के लिए यह त्योहार इसलिए महान है क्योंकि इस दिन से नेपाल संवत में नया वर्ष आरम्भ होता है।

[भारत-दर्शन]


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अहोई अष्टमी  - भारत-दर्शन संकलन

कार्तिक कृष्णा अष्टमी को यह व्रत किया जाता है। यह व्रत वे ही स्त्रियाँ करती हैं जिनके सन्तान होती है। स्त्रियाँ दिनभर व्रत रखती हैं। सांयकाल को दीवार पर आठ कोष्ठक की पुतली लिखी जाती है। उसी के पास सेई और सेई के बच्चों के चित्र भी बनाए जाते हैं।

यह होई गेरु आदि के द्वारा दीवार पर बनाई जाती है अथवा किसी मोटे वस्त्र पर होई काढकर पूजा के समय उसे दीवार पर टांग दिया जाता है।

धरती पर चौक पूर कर कलश स्थापित किया जाता है। कलश के पूजन के बाद दीवार पर बनी अष्टमी का पूजन किया जाता है। दूध-भात का भोग लगाकर कथा कही जाती है। उत्तर भारत में अहोईमाता का स्वरूप वहां की स्थानीय परंपरा के अनुसार बनाया जाता है। सम्पन्न घर की महिलाएं चांदी की होई बनवाती हैं। जमीन पर गोबर से लीपकर कलश की स्थापना होती है। अहोईमाता की पूजा करके उन्हें दूध-चावल का भोग लगाया जाता है।

माताएं अहोई अष्टमी के व्रत में दिन भर उपवास रखती हैं और सायंकाल तारे देखने के पश्चात् होई का पूजन किया जाता है।


अहोई व्रत विधि-विधान

अहोई व्रत के दिन प्रात: उठकर स्नान करें और पूजा पाठ करके अपनी संतान की दीर्घायु एवं सुखमय जीवन हेतु कामना करते हुए, 'मैं अहोई माता का व्रत कर रही हूं, ऐसा संकल्प करें। अहोई माता मेरी संतान को दीर्घायु, स्वस्थ एवं सुखी रखे। अनहोनी को होनी बनाने वाली माता देवी पार्वती हैं इसलिए माता पर्वती की पूजा करें। अहोई माता की पूजा के लिए गेरू से दीवार पर अहोई माता का चित्र बनाएं और साथ ही सेह और उसके सात पुत्रों का चित्र बनाएं। संध्या काल में इन चित्रों की पूजा करें। अहोई पूजा में एक अन्य विधान यह भी है कि चांदी की अहोई बनाई जाती है जिसे सेह या स्याहु कहते हैं। इस सेह की पूजा रोली, अक्षत, दूध व भात से की जाती है। पूजा चाहे आप जिस विधि से करें लेकिन दोनों में ही पूजा के लिए एक कलश में जल भर कर रख लें। पूजा के बाद अहोई माता की कथा सुने और सुनाएं।

पूजा के पश्चात सासु-मां के पैर छूएं और उनका आशीर्वाद प्राप्त करें। इसके पश्चात व्रती अन्न जल ग्रहण करें।

 

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साहूकार और सेह | अहोई अष्टमी व्रत कथा - भारत-दर्शन संकलन

अहोई अष्टमी व्रत कथा-1

प्राचीन काल में किसी नगर में एक साहूकार रहता था। उसके सात लड़के थे। दीपावली से पहले साहूकार की स्त्री घर की लीपापोती हेतु मिट्टी लेने खदान में गई और कुदाल से मिट्टी खोदने लगी। दैवयोग से उसी जगह एक सेह की मांद थी। सहसा उस स्त्री के हाथ से कुदाल बच्चे को लग गई जिससे सेह का बच्चा तत्काल मर गया। अपने हाथ से हुई हत्या को लेकर साहूकार की पत्नी को बहुत दुख हुआ परन्तु अब क्या हो सकता था! वह शोकाकुल पश्चाताप करती हुई अपने घर लौट आई। 

कुछ दिनों बाद उसका बेटे का निधन हो गया। फिर अकस्मात् दूसरा, तीसरा और इस प्रकार वर्ष भर में उसके सभी बेटे मर गए। महिला अत्यंत व्यथित रहने लगी। एक दिन उसने अपने आस-पड़ोस की महिलाओं को विलाप करते हुए बताया कि उसने जानबूझ कर कभी कोई पाप नहीं किया। हाँ, एक बार खदान में मिट्टी खोदते हुए अंजाने में उसके हाथों एक सेह के बच्चे की हत्या अवश्य हुई है और तत्पश्चात उसके सातों बेटों की मृत्यु हो गई। 

यह सुनकर पास-पड़ोस की वृद्ध औरतों ने साहूकार की पत्नी को दिलासा देते हुए कहा कि यह बात बताकर तुमने जो पश्चाताप किया है उससे तुम्हारा आधा पाप नष्ट हो गया है। तुम उसी अष्टमी को भगवती माता की शरण लेकर सेह और सेह के बच्चों का चित्र बनाकर उनकी अराधना करो और क्षमा-याचना करो। ईश्वर की कृपा से तुम्हारा पाप धुल जाएगा। साहूकार की पत्नी ने वृद्ध महिलाओं की बात मानकर कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को उपवास व पूजा-याचना की। वह हर वर्ष नियमित रूप से ऐसा करने लगी। तत्पश्चात् उसे सात पुत्र रत्नों की प्राप्ती हुई। तभी से अहोई व्रत की परम्परा प्रचलित हो गई।
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धन्वन्तरि - धनतेरस की पौराणिक कथा - भारत-दर्शन संकलन

धार्मिक व पौराणिक मान्यता है साथ सागर मंथन के समय भगवान धन्वन्तरि अमृत कलश के साथ अवतरित हुए थे। उनके कलश लेकर प्रकट होने की घटना के प्रतीक स्वरूप ही बर्तन खरीदने की परम्परा का प्रचलन हुआ। पौराणिक मान्यता है कि इस दिन धन (चल या अचल संपत्ति) खरीदने से उसमें 13 गुणा वृद्धि होती है। धन तेरस के दिन ग्रामीण धनिये के बीज भी खरीदते हैं।

दीवाली के बाद इन बीजों को वे अपने खेतों में बो देते हैं।

देश के कुछ ग्रामीण इलाकों में इस दिन लोग अपने पशुओं की पूजा करते हैं। इसके पीछे वजह यह है कि पशुओं को वे अपनी आजीविका चलाने का सबसे महत्वपूर्ण साधन मानते हैं।

 


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दीवाली - रामचंद्र का बनवास काटकर अयोध्या लौटना  - भारत-दर्शन संकलन

रामायण के अनुसार दीवाली वाले दिन अयोध्या के राजकुमार राम अपने पिता दशरथ की आज्ञा से 14 वर्ष का वनवास काटकर तथा लंकानरेश रावण का वध कर पत्नी सीता, अनुज लक्ष्मण तथा भक्त हनुमान के साथ अयोध्या लौटे थे। उनके स्वागत में पूरी अयोध्या नगरी दीपों से जगमगा उठी। उसी समय से दीवाली पर दीये जलाकर, पटाखे बजाकर तथा मिठाई बांटकर दीवाली का पर्व मनाने की परम्परा आरंभ हुई।


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हमने अपने हाथों में | ग़ज़ल -  उदयभानु हंस

हमने अपने हाथों में जब धनुष सँभाला है,
बाँध कर के सागर को रास्ता निकाला है।

हर दुखी की सेवा ही है मेरे लिए पूजा,......

 
 
महीनों का नामकरण कैसे हुआ? - भारत-दर्शन संकलन

महीने के नामों से तो हम सब परिचित हैं लेकिन क्या आप जानते हैं कि महीनों का नामकरण कैसे हुआ? आइए, महीनों के नामकरण व इनकी पृष्ठभूमि को जानें।
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करूणा और दुख के कवि ग़ालिब - फ़िरोज़ बख़्त अहमद

रंजिश ही सही ग़म को भुलाने के लिए आज!
करूणा और दुख के कवि ग़ालिब

Ghalib

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हिंदी साहित्य में स्त्री आत्मकथा लेखन विधा का विकास  - भारत-दर्शन संकलन

हिंदी में अन्य गद्य विधाओं की भाँति आत्मकथा विधा का आगमन भी पश्चिम से हुआ। बाद में यह हिंदी साहित्य में प्रमुख विधा बन गई। नामवर सिंह ने अपने एक व्याख्यान में कहा था कि ‘अपना लेने पर कोई चीज परायी नहीं रह जाती, बल्कि अपनी हो जाती है।' हिंदी आत्मकथाकारों ने भी इस विधा को आत्मसात कर लिया और आत्मकथा हिंदी की एक विधा के रूप में विकसित हुई।

हिंदी साहित्य में बनारसीदास जैन कृत ‘अर्द्धकथानक' को हिंदी की पहली आत्मकथा माना जाता है। इसकी रचना 1641 में हुई थी। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इसे निर्विवाद रूप से हिंदी साहित्य में आत्मकथा की विधा की पहली किताब मानते हुए इसका महत्व स्वीकार किया है।

बनारसीदास जैन की अ'र्द्ध कथानक' (ब्रजभाषा पद्य, 1641) के अतिरिक दयानन्‍द सरस्वती कृत जीवनचरित्र (1860), भारतेन्दु हरिश्चंद्र कृत 'कुछ आप बीती, कुछ जग बीती' हिंदी की प्रारांभिक आत्मकथाएँ हैं।

उपर्युक्त सभी आत्मकथाएँ पुरुषों द्वारा लिखी गईं हैं। हिंदी में 17वीं शताब्दी से आरंभ हुई इस विधा में सबसे पहले लिखी गई महिला आत्मकथा का साक्ष्य 20वीं सदी में मिलता है।

हिंदी की पहली स्त्री आत्मकथा लेखिका जानकी देवी बजाज हैं। जिनकी आत्मकथा का नाम ‘मेरी जीवन-यात्रा' है, जो 1956 में प्रकाशित हुई।  1956 में जानकी देवी की इस आत्मकथा की प्रस्तावना आचार्य विनोबा भावे ने लिखी थी। इसके बाद कई महत्वपूर्ण महिला आत्मकथाएं आईं। इनमें अमृता प्रीतम, प्रतिभा अग्रवाल, कुसुम अंसल, कृष्णा अग्निहोत्री आदि के बाद स्त्री आत्मकथा लेखन व्यापक रूप से सामने आया। हिंदी साहित्य में कुछ महत्वपूर्ण स्त्रीआत्मकथाओं की कालक्रमानुसार सूची निम्नलिखित है-

जानकी देवी बजाज की 'मेरी जीवन-यात्रा' (1956)
अमृता प्रीतम की 'रसीदी टिकट' (1976); 'अक्षरों के साये' (1997)......

 
 
ऐसे में मनाएं बोलो कैसे गणतंत्र? - योगेन्द्र मौदगिल

रचते हैं रोज नये-नये षड्यंत्र,
नेताऒं को भाता नहीं शारदे का मंत्र,......

 
 
हमारा गणतंत्र - रोहित कुमार 'हैप्पी'

आज प्रजा की करता यहाँ पूछ कहाँ तंत्र है?
राजनीति धर्महीन मात्र एक षड्यंत्र है!

ग़ैरों की नहीं अपनों की पर ग़ुलामी जारी है,......

 
 
नया वर्ष  - शास्त्री नित्यगोपाल कटारे

नया वर्ष कुछ ऐसा हो पिछले बरस न जैसा हो
घी में उँगली मुँह में शक्कर पास पर्स में पैसा हो ।......

 
 
उत्प्रवासी - मोहन राणा

महाद्वीप एक से दूसरे तक ले जाते अपनी भाषा
दुनिया और किसी अज्ञात के बीच एक घर साथ......

 
 
भारतीय | कविता - जोगिन्द्र सिंह कंवल

लम्बे सफर में हम भारतीयों को
कभी पत्थर
कभी मिले बबूल......

 
 
लोक कथाएं  - भारत-दर्शन संकलन

भारत के विभिन्न राज्यों में प्रचलित लोक-कथाओं (Folk Tales) के अतिरिक्त विश्व लोक-कथाऔं का संकलन। हमारा प्रयास है कि सम्पूर्ण भारत के प्रत्येक राज्य की लोक कथाएं व कहानियां अपने पाठकों को उपलब्ध करवाएं व इसके अतिरिक्त अन्य देशों की पठनीय लोक-कथाएं भी प्रकाशित करें।


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फाग खेलन बरसाने आये हैं, नटवर नंद किशोर - घासीराम | Ghasiram

घेर लई सब गली रंगीली, छाय रही छबि छटा छबीली,
जिन ढोल मृदंग बजाये हैं बंसी की घनघोर। फाग खेलन...॥१॥

जुर मिल के सब सखियाँ आई, उमड घटा अंबर में छाई,......

 
 
सुवर्णकंकणधारी बूढ़ा बाघ और मुसाफिर की कहानी - नारायण पंडित

एक समय दक्षिण दिशा में एक वृद्ध बाघ स्नान करके कुशों को हाथ में लिए हुए कह रहा था- हे हो मार्ग के चलने वाले पथिकों ! मेरे हाथ में रखे हुए इस सुवर्ण के कड्कण (कड़ा) को ले लो, इसे सुनकर लालच के वशीभूत होकर किसी बटोही ने (मन में) विचारा -- ऐसी वस्तु, (सुवर्ण कड्क) भाग्य से उपलब्ध होती है। परंतु इसे लेने के लिये, बाघ के पास जाना उचित नहीं, क्योंकि इसमें प्राणों का संदेह है।

अनिष्ट स्थान बाघ इत्यादि से सुवर्ण, कड्क सदृश अभीष्ट वस्तु के लाभ की संभावना होते हुए भी कल्याण होना न नहीं आता, क्योंकि जिस अमृत में जहर का संपर्क है, वह अमृत भी मौत का कारण है, न कि अमरता का।

किंतु धन पैदा करने की सभी क्रियाओं में संदेह की संभावना रहती ही है।

कोई भी व्यक्ति संदेहपूर्ण कार्य में बिना पग बढ़ाये कल्याण के दर्शन में असमर्थ ही रहता है। हाँ, फिर संदहपूर्ण कार्य करने पर यदि वह जीता रहता है, तो कल्याण का दर्शन करता है।

इस कारण से सर्वप्रथम मैं इसके वाक्य के तथ्य सत्य, अतथ्य असत्य का परीक्षण करता हूँ। वह उच्चस्वर में बोलता है - कहाँ है तुम्हारा कंगन ? बाघ हाथ फैला कर दिखाता है। पथिक बोला मारने वाले तुम में कैसे विश्वास हो ?

मुझे इतना भी लोभ नहीं है, जिससे मैं अपने हाथ में रखे हुए सुवर्ण कंगन को जिस किसी रास्ता चलता अपरिचित व्यक्ति को दे देना चाहता हूँ। परंतु बाघ मनुष्य का भक्षक है, इस लोकापवाद को हटाया नहीं जा सकता।

अंधपरंपरा पर चलने वाला लोक धर्म के विषय में गोवध करने वाले ब्राह्मण को जैसे प्रमाण मानता है, वैसे उपदेश देनेवाली कुट्ठिनी को प्रमाणता से स्वीकार नहीं करता। अर्थात संसार कुट्ठिनी के वाक्य को धर्म के विषय में प्रमाण नहीं मानता।

हे युधिष्ठिर ! जिस प्रकार मरुप्रदेश में वृष्टि सफल होती है, जिस प्रकार भूख से पीड़ित को भोजन देना सफल होता है, उसी तरह दरिद्र को दिया गया दान सफल होता है।

प्राणा यथात्मनोभीष्टा भूतानामपि ते तथा।
आत्मौपम्येन भूतानां दयां कुर्वन्ति साधवः।

प्राण जैसे अपने लिए प्रिय हैं, उसी तरह अन्य प्राणियों को भी अपने प्राण प्रिय होंगे। इस कारण से सज्जन जीवनमात्र पर दया करते हैं।

निषेध में तथा दान में, सुख अथवा दु:ख में, प्रिय एवं अप्रिय में सज्जन पुरुष अपनी तुलना से अनुभव करता है, अर्थात मुझे किसी ने कुछ दिया तो हर्ष होता है, यदि अनादर किया तो दुख होता है। इस तरह मैं भी किसी को कुछ दूँगा तो हर्ष होगा, निषेध कर्रूँगा तो दुख होगा।

मातृवत्परदारेषु, परद्रव्येषु लोष्टवत्।......

 
 
लघु-कथा संग्रह 2014 - कथाकार

लघु-कथा संग्रह


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काव्य संकलन - भारत-दर्शन

कविता संकलन


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छोटे से बड़ा -  शिव 'मृदुल'

जब मैं
छोटा था......

 
 
नेताओं पर हास्य कविताएं | हास्य संग्रह - भारत-दर्शन संकलन

नेताओं पर हास्य कविताएं -हास्य संग्रह।


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साईं बाबा के नाम एक चिट्ठी - गिरिराज किशोर

बाबा, पांय लागी। जब सत्य साईं बाबा के बारे में कोई कहता था कि वह शिरडी के बाबा के अवतार हैं, तो मुझे यकीन नहीं होता था। उसका कारण था। सच्चाई कुछ भी हो। जो कुछ सुना था, उससे जो चित्र मन ही मन बने थे, उनमें और सत्य साईं बाबा के बीच की कोई निस्बत बैठती ही नहीं थी। बाबा, तुम मुझे एक अलमस्त फकीर लगते थे। थे भी। हाँ, अगर कोई कहता, पाँच सौ साल पहले जन्मे कबीर से तुम्हारा रिश्ता था, तो मैं तुरन्त मान लेता। न मैंने तुम्हें देखा, ना बाबा कबीर को। उनका भी खड्डी चलाते जुलाहे के रूप में चित्र देखा और तुम्हारी भी भिक्षा पात्र लिए तस्वीर देखी। तुम भी सुना मुसलमान थे, कबीर भी। वह निर्गुनिया थे, तुम सगुनिया होकर भी निर्गुनिया ही ज़्यादा लगे। तुम्हारा यह सूत्र वाक्य कि सबका मालिक एक है, मुझे हमेशा कबीर का पद वाक्य याद दिलाता था, मोको कहाँ ढूँढ़े रे बन्दे, मैं तो तेरे पास में।
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हिंदी ही क्यों? - भारत-दर्शन संकलन

यहाँ "हिंदी ही क्यों ?" विषय पर विभिन्न विद्वानों के मत प्रस्तुत किए जा रहे हैं। हिंदी और अँग्रेज़ी का संघर्ष आज का नहीं परंतु यह समस्या आज भी उतनी ही ज्वलंत है जितनी स्वतंत्रता से पूर्व थी।


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हिंदी हम सबकी परिभाषा - डा० लक्ष्मीमल्ल सिंघवी

कोटि-कोटि कंठों की भाषा,
जनगण की मुखरित अभिलाषा,......

 
 
यदि मैं तानाशाह होता ! - बालकृष्ण राव

यदि मैं तानाशाह होता तो विदेशी माध्यम द्वारा शिक्षा तुरंत बंद कर देता, जो अध्यापक इस परिवर्तन के लिए तैयार न होते उन्हें बर्ख़ास्त कर देता, पाठ्य पुस्तकों के तैयार किए जाने का  इंतजार न करता ।' पिछले प्राय: एक पखवारे भर प्रयागनिवासी महात्मा गांधी के इन शब्दों को अपने नगर के अनेक स्थानों पर चिपके पोस्टरों पर लिखे देखते रहे हैं । उत्तर प्रदेश-शासन द्वारा जो 'भाषा विधेयक' विधानमंडल में प्रस्तुत हुआ था उसे ही इसका श्रेय दिया जाना चाहिए कि हम लोगों ने राष्ट्रपिता के इन शब्दों को याद करने-कराने की कोशिश की।

शासन के इस प्रयास से जो चेतना जागृत हुई, स्वभाषा के अपमान की जो तीव्र प्रतिक्रिया हमारे मन में हुई, उसके फलस्वरूप ऐसा जान पड़ने लगा कि 'स्वदेशी आंदोलन' की तरह 'स्वभाषा आंदोलन' भी चल निकलेगा । प्रयाग ने इस स्वतःस्फूर्त अभियान में प्रदेश का नेतृत्व किया । एक सार्वजनिक सभा में विधेयक का विरोध किया गया, निश्चय किया गया कि विरोध को सक्रिय, सुसंघटित संघर्ष का रूप देने के लिए योजना-बद्ध कार्य किया जाए । एक 'हिंदी संघर्ष समिति' स्थापित हुई जिसके तत्वावधान में एक व्यावहारिक कार्यक्रम बना । निश्चित हुआ कि सितंबर 8 से एक 'विधेयक विरोधी सप्ताह' मनाया जाए जिसकी पूर्णाहुति हिंदी दिवस ( सितंबर 14 ) को एक सार्वजनिक सभा के रूप में हो । आंदोलन की एक विवरणिका  प्रकाशित हो, नगर के विभिन्न क्षेत्रों में सभाएँ की जाएँ, एक सबल संघात जनसमूह के मन और मस्तिष्क पर पड़े । शासन ने विधान परिषद में अपने विधेयक को प्रस्तुत करने के पहले ही विचार बदल दिया । इसका श्रेय किसी एक व्यक्ति या वर्ग को देना ग़लत है : शासन का यह मत-परिवर्तन मूलत: सद्विवेक के सहसा जाग उठने का परिणाम था या संभाव्य जनविरोध की कल्पना का, यह कौन जाने । पर यह अस्वाभाविक नहीं था कि हिंदी वालों ने विधेयक की विभीषिका का हट जाना अपने अभियान की सफलता का प्रमाण माना ।

विधेयक के रद्द होने - या रद्द होना निश्चित हो जाने-- के बाद 'विधेयक विरोधी सप्ताह' मनाने की जरूरत नहीं रही । यह सहज स्वाभाविक जान पड़ता यदि 'संघर्ष समिति' एक औपचारिक बैठक कर के शासन को बधाई देती और अपनी कार्यसिद्धि पर प्रसन्न होकर 'खेल खत्म' का नोटिस लटका कर, दरवाज़े बंद कर देती । पर उसने किया कुछ और ही । उसने बधाई का संदेश तो मुख्य मंत्री के पास भेजा पर साथ ही यह भी निश्चय किया कि न अपना नाम बदलेगी न काम । विधेयक के विरोध में न सही, पर 'संघर्ष' जारी रखने की आवश्यकता अब भी थी-इस कारण समिति ने अपने कार्यक्रम को प्राय: पूर्ववत ही रखने का निश्चय किया । इसके अनुसार सप्ताह भर स्थान-स्थान पर सभाएँ हुई, पोस्टर चिपकाये गए, लेख लिखे-लिखवाये गए, हर  प्रकार से एक व्यापक, जीवंत 'हिंदी आदोलन' के अस्तित्व का बोध कराने के लिए उसके उपयुक्त वातावरण बनाने की चेष्टा की गयी । 'हिंदी दिवस' के दिन एक सार्वजनिक सभा श्री अमृतलाल नागर की अध्यक्षता में हुई जिसमें उपस्थित लोगों ने एक सामूहिक प्रतिज्ञा की कि हिंदी को उसका पद पूर्णरूपेण जब तक नहीं मिलेगा तब तक संघर्ष करते रहेंगे । सितंबर ८ से १४ तक (जिसे
'हिंदी सप्ताह' का नाम दिया गया था) जैसी सक्रियता परिलक्षित हुई थी यदि वैसी ही भविष्य में भी होती रही तो निश्चयपूर्वक एक ऐसी प्रेरक शक्ति उत्पन्न हो जाएगी जो जनभाषा को उसके अपेक्षित पद पर प्रतिष्ठित कराने में सफल होगी । हिदी का प्रश्न केवल लेखकों' और बुद्धिजीवियों का प्रश्न नहीं है, सामान्य जनता का प्रश्न है । विधेयक के विरोध में उठे आदोलन का वास्तविक मूल्य और महत्व यही है कि वह 'लेखकों और बुद्धिजीवियों की बेचैनी' बन कर नहीं रह गया । सच्ची बात तो यह है कि आरंभ से ही उसका रूप एक व्यापक जन आदोलन का ही रहा; जो  लेखक और बुद्धिजीवी इसमें सक्रिय सहायक हुए वे भी लेखक और बुद्धिजीवी होने के कारण नहीं बल्कि इस कारण कि हिंदी के आंदोलन को सामान्य हिंदीभाषी जनता का आंदोलन मान सके, सबके साथ कंधे से कंधा मिला कर काम करने के लिए तैयार हो सके, लेखक और बुद्धिजीवी  होने के नाते अपने को एक विशिष्ट वर्ग के रूप में अलग रखने के मोहजाल से मुक्त हो सके । प्रयाग के आंदोलन में जिस प्रकार मुक्त रूप से राजनीतिक कार्यकर्ता, लेखक, व्यवसायी, वकील, क्लर्क और अन्य अनेक वर्ग एक-दूसरे के स्वर में स्वर मिला कर हिंदी की बात कह सके, अपने अनेक  पारस्परिक मतभेदों को भुला और दबा कर जिस प्रकार हिंदी के प्रश्न पर एकमत हो सके, वह  सचमुच स्तुत्य है । जो प्रयाग में संभव हो सका वह निश्चय ही अन्यत्र भी हो सकता है-और यदि हिंदी को अंग्रेज़ी का स्थान सचमुच लेना है तो हो कर ही रहेगा ।

प्रयाग के 'हिंदी सप्ताह' की अवधि में हुई अनेक सभओं और गोष्ठियों में से एक विशेष रूप से उल्लेखनीय है । सितंबर 12 को उत्तर प्रदेश के लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष श्री राधा- कृष्ण के सभापतित्व में एक महत्वपूर्ण विचार-गोष्ठी हुई जिसमें ज्ञान-विज्ञान के अनेक क्षेत्रों में हिंदी को माध्यम के रूप में अपनाने के प्रश्न पर अधिकारी विद्वानों ने अपने मत प्रकट किए । भाग  लेने वालों में विश्वविद्यालय के भौतिक विज्ञान तथा राजनीति शास्त्र और स्थानीय इंजीनियरिंग तथा मेडिकल कालेजों के प्राध्यापक और उच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता थे । इस बात पर सभी एकमत थे कि विज्ञान अथवा औद्योगिकी के किसी भी क्षेत्र में हिंदी को शिक्षा का माध्यम बनाने में ऐसी कोई भी दिक्कत नहीं है जो आसानी से दूर न की जा सके । सभी ने कहा कि पारिभाषिक शब्दों के समुचित पर्याय हिंदी में हों या न हों, हिंदी को वैज्ञानिक और औद्योगिक शिक्षा का माध्यम तुरंत बनाया जा सकता है--बशर्ते कि कोई सचमुच बनाना चाहे । लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष ने अपने विस्तृत अनुभव के आधार पर कहा कि ''सारे प्रयत्नों के बावजूद देश में अंग्रेज़ी का स्तर बराबर गिरता ही जा रहा है, और गिरता ही जाएगा । हम जितनी जल्दी इस बात को समझ और मान लें कि आगे बढ़ने के लिए हिंदी के सिवा कोई रास्ता नहीं है, उतना ही देश के लिए कल्याणकर होगा ।'' और शायद इन शब्दों से भी अधिक महत्वपूर्ण उनका यह कथन था कि ''स्वतंत्रता के पूर्व अंग्रेज़ी पर जितना बल कभी नहीं दिया गया था, उसके प्रचार- प्रसार-उन्नयन की जितनी कोशिश कभी नहीं की गयी थी, उससे कहीं अधिक स्वतंत्रता के बाद से की जाने लगी है ।" सबसे बड़े हिंदी-भाषी प्रदेश के लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष के ये शब्द-सो भी स्वतंत्रता-प्राप्ति के 17 और हिंदी को राजभाषा बनाने के संकल्प के 14 वर्ष बाद - और उधर , सुदूर नेपथ्य से आती हुई महात्मा गांधी की आवाज़: ''यदि मैं तानाशाह होता तो... '' ।

 

यह निश्चय ही दुख की बात है कि देश के कर्णधार अब तक यही न समझ पाए कि अंग्रेज़ी के महत्व को घटाना हमारे लिए इस समय एक अनिवार्य आवश्यकता है-क्योंकि अभी हमें स्वतंत्र हुए इतने दिन नहीं हुए कि अंग्रेज़ी के प्रति हमारी दृष्टि वैसी ही स्वस्थ, संतुलित और स्पष्ट हो सके जैसी अन्य विदेशी भाषाओं के प्रति सहज ही हो सकती है । माना कि अंग्रेज़ी आज संसार में प्राय: सर्वाधिक उपयोगी भाषा हो गयी है, पर इसका न यह अर्थ है कि प्रत्येक भारतीय के लिए अंग्रेजी जानना जरूरी है और न यही कि प्रत्येक अंग्रेज़ी जानने वाले भारतीय को अपने सामान्य, दैनंदिन जीवन में अंग्रेज़ी का उपयोग करना चाहिए । अंग्रेज़ी की अनिवार्य शिक्षा, अंग्रेज़ी के अध्ययन के लिए लोगों को प्रोत्साहित करने के प्रयत्न, प्रशासकीय कार्य में अंग्रेज़ी का उपयोग--इन में से किस चीज़ की इस कारण जरूरत है कि अंग्रेज़ी एक महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय भाषा हे?

इस प्रश्न का उत्तर कौन दे? जब तक देश के भाग्य-विधायक यह नहीं समझ जाते कि अंग्रेज़ी की गुलामी के विष को राष्ट्र के शरीर से पूरी तरह निकाले बिना पूर्ण स्वास्थ्य-लाभ संभव नहीं है, कि बना पूर्ण स्वास्थ्य-लाभ के स्वस्थ, संतुलित, अनाविल दृष्टि उपलभ्य नहीं हो सकती, और बिना स्वस्थ दृष्टि पाये हम कभी अपने लक्ष्य या मार्ग को भली भाँति देख न सकेंगे-- जब तक हमारे शासक यह न समझ जाएंगे तब तक यह आशा करना व्यर्थ है कि संविधान की राजभाषा-संबंधी धारा सचमुच मान्य होगी । शायद महात्मा गांधी के मन में कहीं यह आशंका छिपी थी कि देश स्वतंत्र भी हो जाए तो भी शायद राष्ट्रीय स्वाभिमान सच्चे अर्थ में जाग्रत न हो पाए । तभी तो उन्होंने अंग्रेज़ी को हटाने के लिए निरंकुश तानाशाह की शक्ति आवश्यक समझी--अन्यथा ''यदि मैं तानाशाह होता'' की जगह कहते: ''यदि भारत स्वतंत्र हो जाता तो... '' ।   

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गरीब आदमी - वनफूल

दोपहर की चिलचिलाती हुई धूप की उत्कट उपेक्षा करते हुए राघव सरकार शान से माथा ऊंचा किए हुए जल्दी-जल्दी पांव बढ़ाते हुए सड़क पर चले जा रहे थे। खद्दर की पोशाक, पैर में चप्पलें अवश्य थीं, पर हाथ में छाता नहीं; हालांकि वे चप्पलें भी ऐसी थीं और उनमें निकली हुई अनगिनत कीलों से उनके दो पांव इस तरह छिल गए थे कि उनकी उपमा शरशय्या पर लेटे हुए भीष्म पितामह से करना भी राघव सरकार के पांवों का अपमान होता, किन्तु शान से माथा ऊंचा किए हुए राघव सरकार को इसकी परवाह नहीं थी । वे पांव बढ़ाते हुए चले जा रहे थे। उन्होंने अपने चरित्र को बहुत दृढ़ बनाया था, सिद्धांतों पर आधारित मर्यादाशील उनका जीवन था, और इसीलिए हमेशा से राघव सरकार का माथा ऊंचा रहा, कभी झुका नहीं। उन्होंने कभी किसी की कृपा की आकांक्षा नहीं की, कभी किसी दूसरे के कन्धे के सहारे नहीं खड़े हुए, जहां तक हो सका दूसरों की भलाई की, और कभी अपनी कोई प्रार्थना लेकर किसी के दरवाजे नहीं गए। अपना माथा कभी झुकने ने पाए, यही उनकी जीवनव्यापी साधना रही है।

ठुन-चुन करता हुआ, रिक्शे के हत्थे पर घंटी पटकता हुआ एक पैदल रिक्शेवाला उनके पीछे लग गया। "रिक्शा चाहिए बाबू, रिक्शा!"

राघव सरकार ने मुंह घुमाकर उसकी ओर देखा। एक कंकाल-शेष आदमी उनकी ओर आशाभरी निगाह से देख रहा था। जिसमें बिल्कुल इन्सानियत नहीं होती वही दूसरे इन्सान के कन्धे पर चढ़कर चल सकता है यह राघव सरकार की निश्चित धारणा थी । वे कभी अपनी जिन्दगी में किसी भी पालकी या रिक्शा पर नहीं चढ़े थे। इसको वे भयानक अन्याय मानते थे। खद्दर की आस्तीन से माथे का पसीना पोंछते हुए बोले-- "नहीं भाई, रिक्शा नहीं चाहिए।" और तेजी से फिर चल दिए।

ठुन-ठुन करता हुआ, घंटी बजाता हुआ रिक्शावाला पीछे-पीछे आने लगा। सहसा राघव सरकार ने मन में सोचा, बेचारे की रोजी कमाने का तो यही एक उपाय है। राघव सरकार पढे-लिखे, अध्ययनशील व्यक्ति थे, अतः पूंजीवाद, दरिद्रनारायण, बोल्शेबिज्म, श्रम-विभाजन, गांवों की दुर्दशा, फैक्ट्री सिस्टम, जमींदारी, सभी एक क्षण में उनके मस्तिष्क में कौंध गए। उन्होंने फिर एक बार पीछे घूमकर देखा। ओहो! सचमुच यह आदमी भूखा है, उदास है, गरीब है। बेहद तरस आया उन्हें!

घंटी बजाते हुए रिक्शेवाले ने कहा-- "चलिए न बाबू! पहुंचा देंगे। कहां जाइएगा?"

अच्छा, शिवतल्ला तक चलने का कै पैसा लोगे?"

"छः पैसा!" "अच्छा आओ !" और फिर राघव सरकार चलने लगे!

"आइए, बैठिए न बाबू !"

"तुम चले आओ।" राघव सरकार और तेज चलने लगे। रिक्शेवाला पीछे दौड़ने लगा। और बीच-बीच में दोनों में केवल यही वाक्य विनिमय होता रहा--

"आइए, बैठिए न बाबू !"

"तुम चले आओ !" शिवतल्ला पहुंचकर राघव सरकार जेब से छ: पैसा निकालकर बोले-- "ये लो!"

"लेकिन आप चढे कहां?''

"मैं रिक्शा पर चढ़ता नहीं हूँ !"

"क्यों?" रिक्शा पर चढ़ना पाप है।"

"ओः! तो आप पहले बता देते !"

रिक्शेवाले के मुंह पर एक बेरुखी, एक अवज्ञा छलकने लगी। वह पसीना पोंछकर फिर आगे चलने लगा।

"पैसे तो लेते जाओ ।"

"मैं गरीब आदमी हूँ, रिक्शा चलाता है, किसी से भीख नहीं मांगता!"

ठुन-ठुन घंटी बजाते-बजाते वह पथ की भीड़-भाड़ में अदृश्य हो गया।

- श्री वनफूल
(धर्मवीर भारती द्वारा बंगला से अनुवादित)......

 
 
साखियाँ - कबीर

जाति न पूछो साध की, पूछ लीजिए ज्ञान।
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान ।।1।।......

 
 
राष्ट्रपति श्री राम नाथ कोविन्द का संबोधन - भारत-दर्शन समाचार

भारत के राष्ट्रपति श्री राम नाथ कोविन्द का 71वें गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्र के नाम सन्देश

राष्ट्रपति, श्री राम नाथ कोविन्द का 71वें गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्र के नाम सन्देश

मेरे प्यारे देशवासियो,

71वें गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर, मैं देश और विदेश में बसे, भारत के सभी लोगों को, हार्दिक शुभकामनाएं देता हूं।
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jpg ग्राफ़िक परीक्षण और विश्लेषण - रोहित कुमार हैप्पी

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ग्राफ़िक -1

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ग्राफ़िक - 2

Subhash Chandra Bose

 

 

ग्राफ़िक - 3

Hindi Image Testing

 


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इस दुनिया के रंग निराले - रोहित कुमार हैप्पी

इस दुनिया के रंग निराले
मुँह के मीठे दिल के काले।

यूं तो हरदम हाथ मिलावें......

 
 
भारत व ऑस्ट्रेलिया पर गूगल डूडल - रोहित कुमार हैप्पी

26 जनवरी पर भारत व ऑस्ट्रेलिया पर गूगल डूडल

26 जनवरी 2019: आज गूगल ने अपना डूडल भारत व आस्ट्रेलिया को समर्पित किया है। भारत का आज गणतंत्र-दिवस है व ऑस्ट्रेलिया का राष्ट्रीय-दिवस है।

Republic Day of India 2019 - Google Doodle


इस राष्ट्रीय पर्व को समर्पित करते हुए ‘डूडल' में देश की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहरों के साथ ही जैविक विविधता को दर्शाया है। भारतीय गणतंत्र-दिवस को समर्पित इस डूडल में राष्ट्रपति भवन के सामने विविध रंगों से सुसज्जित गूगल लिखा हुआ है। हर अक्षर सांकेतिक रूप से एक कहानी कहता लगता है। गूगल का पहला अक्षर ‘जी' हरे रंग में है जिसे गोल्फ लिंक पर दिखाया गया है, ‘एल' कुतुब मीनार को दिखाता है, चौथे अक्षर ‘जी' को हाथी की सूंड की आकृति दी गई है जिसके नीचे राष्ट्रीय पक्षी मोर बना है।

यह डूडल अतिथि कलाकार ‘रेशमदेव आर' की कलाकृति है।

 

ऑस्ट्रेलिया के राष्ट्रीय दिवस पर आधारित डूडल

ऑस्ट्रेलिया के 'राष्ट्रीय दिवस' पर आज (26 जनवरी 2016) का गूगल डूडल पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया के Fitzgerald River National Park की प्राकृतिक सुंदरता को समर्पित है। इस राष्ट्रीय उद्यान में पौधों की 1,800 से अधिक प्रजातियां पाई जाती हैं जो विश्व में कहीं और उपलब्ध नहीं हैं। यहाँ 184 पक्षियों की प्रजातियाँ, 41 सरीसृप प्रजातियाँ, 12 मेंढक प्रजातियों के अतिरिक्त अनेक वन्य जीव पाए जाते हैं। इस डूडले में ‘हनी पोसम' (honey possum) को विशेष रूप से दर्शाया गया है।

Google Doodle 2019 on Australia Day

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बीरबल की पहेलियाँ - भारत-दर्शन संकलन

बीरबल के नाम से भी कुछ पहेलियाँ  प्रसिद्ध है।

1

कर बोलै कर ही सुने, स्रवन सुनै नहि ताहि ।
कहे पहेली बीरबल, सुनिये अकबर साहि ॥

उत्तर: नाड़ी।

 

2

मारो तो वह जी उठे, बिन मारे मर जाय। ......

 
 
मुकरी  - अमीर ख़ुसरो

पडी थी मैं अचानक चढ आयो।
जब उतरयो पसीनो आयो।।......

 
 
खुसरो की बूझ पहेली - भारत-दर्शन संकलन

बूझ पहेली (अंतर्लापिका)

यह वो पहेलियाँ हैं जिनका उत्तर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप में पहेली में दिया होता है यानि जो पहेलियाँ पहले से ही बूझी गई हों।

(क)
गोल मटोल और छोटा-मोटा, हर दम वह तो जमीं पर लोटा।......

 
 
रसोई घर - भारत-दर्शन संकलन

रसोई घर


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रोटी  - भारत-दर्शन

रोटी बनाने के तीन भारतीय तरीके प्रचलित हैं - गूंथे आटे को चकले पर बेलकर, दोनों हाथों की हथेलियों से पीटते हुए फैलाकर, और हाथों में पानी लगाते हुए बढ़ाकर । इन्हें क्रमश: हाथ पाथी, थेली रोटी और पानी पाथी कहा जाता है।

आटे की लोई को चकले पर बेलने से पहले चकले को चुपड़ लेना चाहिए लेकिन अधिकतर गृहणियां आटे का पलेथन लेकर ही राटी बनाती है। पलेथन ज्यादा नहीं लेना चाहिए और बेलकर रोटी बनाने वाला आटा न ज्यादा पतला हो न ज्यादा कढ़ा । कढ़ा हो तो उसमें और पानी डालें और यदि अधिक कढ़ा हो तो उसमें और आटा मिलाएं ।

फिर तवे पर दोनों और से रोटी सेकें । पहले समय में रोटी को एक ओर से थोड़ा कम सिका छोड़ देते थे और उसे फिर अंगारों पर सेका जाता था। गैस व बिजली के चूल्हे पर भी ऐसा किया जा सकता है।

भारत के विभिन्न प्रांतों में रोटी के भिन्न-भिन्न प्रचिलत हैं जैसे फुल्का, चपाती इत्यादि।

सामान्यत: रोटी गेहूं के आटे से बनाई जाती है और सामान्य तौर पर भारतीय रसोई-घर में दिन में प्रतिदिन दो-तीन बार रोटी बनाई जाती है। गेहूं के आटे की रोटी के अतिरिक्त जौ की रोटी, मिस्सी रोटी, मकई की रोटी, चने की रोटी, बाजरे की रोटी, उड़द की रोटी, ज्वार की रोटी, गेहूं और मूंग की रोटी, सतनजे की रोटी भी बनाई जाती है।

यह तो हुई कितने प्रकार के आटे की रोटी बनती है लेकिन सादी रोटी के अतिरिक्त भरवां रोटी भी अत्यधिक लोकप्रिय हैं। जैसे कचौरी में तरह-तरह की चीज़ें भरी जाती हैं, उसी प्रकार रोटी में भी कई तरह की चीज़ें भरी जाती हैं। चना, मूंग, उड़द, मेथी, आलू, गोभी, मूली, प्याज, पनीर इत्यादि भरकर भरमा रोटी बनाई जाती है। कई बार घर में रात की बची सब्जी, दाल, चावल या खिचड़ी को भी गृहणियों बड़ी कुशलता से आटे में गूंथ कर अपनी पाक-कला का लोहा मनवा लेती हैं । रात में बचे चावलों में प्याज, हरीमिर्च, हरा धनिया काटकर भरवां परांठे पौष्टिक व स्वादिष्ट होते हैं जिन्हें नाश्ते में परोसा जा सकता है। आप इसमें मौसम और उपलब्धता के अनुसार बारीक कटी हरी पत्तियाँ जैसे कि पालक, मेथी, बथुआ, हरी धनिया, पुदीना, हरी प्याज इत्यादि भी मिला सकते हैं ।

 


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दावत की अदावत  - अन्नपूर्णानंद वर्मा

यह मैंने आज ही जाना कि जिस सड़क पर एक फुट धूल की परत चढ़ी हो, वह फिर भी पक्की सड़क कहला सकती है। पर मेरे दोस्त झूठ तो बोलेंगे नहीं। उन्होंने कहा था कि पक्की सड़क है, साइकिल उठाना, आराम से चले आना।

धूल भी ऐसी-वैसी नहीं। मैदे की तरह बारीक होने के कारण उड़ने में हवा से बाजी मारती थी। मेरी नाक को तो उसने बाप का घर समझ लिया था। जितनी धूल इस समय मेरे बालों में और कपड़ों पर जमा हो गई थी, उतनी से ब्रह्मा नाम का कुम्हार मेरे ही जैसा एक और मिट्टी का पुतला गढ़ देता।

पाँच मील का रास्ता मेरे लिए सहारा रेगिस्तान हो गया। मेरी साइकिल पग-पग पर धूल में फँसकर खुद भी धूल में मिल जाना चाहती थी। मैंने इतनी धूल फांक ली थी कि अपने फेफड़ों को इस समय बाहर निकालकर रख देता तो देखने वाले समझते कि सीमेंट के बोरे हैं।
खैर, किसी तरह वह सड़क खत्म हुई और मैं एक लंबी पगडंडी तय करके उस बाग के फाटक पर पहुँचा, जिसमें आज मेरी मित्र-मंडली के सुबह से ही आकर टिकी थी।

फाटक पर खड़े होकर मैंने अपने को झाडा-झटकारा। जरूरत थी फावड़े की पर मैंने हाथ हे से अपने शरीर की धूल हटाई।

मैं बिलकुल लस्त हो गया था। धूल की वैतरणी पार करने के बाद यह बाग स्वर्ग-सा प्रतीत हो रहा था। हृदय धीरे-धीरे आनंद की पेंग मारने लगा। बारह बज गए थे, मित्रों ने रसोई तैयार कर ली होगी, मेरा इंतज़ार कर रहे होंगे। पता नहीं बाटियों को लोगों ने घी में तर कर रखा है या नहीं। मैंने कह तो दिया था।

बाग में मैं दाखिल हुआ। बीच में एक बारहदरी थी। चांडाल-चौकड़ी वहीं जमी होगी। मैं उसी तरफ बढ़ा। मन में सोचता जा रहा था कि एक बार पहुंचते ही सबको खूब लताड़ूंगा कि दावत देने की आखिर यह कौन-सी जगह थी। शहर से इतनी दूर और ऐसी खराब सड़क!......

 
 
वेब ग्राफ़िक्स परीक्षण | Web Image Testing - रोहित कुमार हैप्पी

इन पृष्ठों पर हम वेब पर उपयोग की जाने वाली विभिन्न प्रकार की ग्राफ़िक्स का विश्लेषण व परीक्षण करेंगे।

वेब पर उपयोग की जाने वाली common image formats जैसे jpg, png और jpg progressive का विश्लेषण करेंगे।

इसके लिए हम तीन वेब पृष्ठों बनायेंगे और प्रत्येक में तीन-तीन jpg, png और jpg progressive का उपयोग करेंगे।

इसके बाद हम प्रत्येक पृष्ठ का परीक्षण व विश्लेषण करेंगे कि optimise की लिहाज से उनके क्या परिणाम निकलते हैं।

 


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ब्लू-माउंटेन | ऑस्ट्रेलियन किंवदंती  - रोहित कुमार 'हैप्पी'

सिडनी (ऑस्ट्रेलिया) में अपने प्राकृतिक सौंदर्य से सभी को अभिभूत कर देने वाली 'बलू माउंटेनस' (Blue Mountains) के बारे में कहा जाता है कि कभी वे जीती-जागती तीन सुंदर युवतियां हुआ करती थीं ।

Blue Mountains Australia - The Aboriginal dream-time legend has it that three sisters, 'Meehni', 'Wimlah' and Gunnedoo' lived in the Jamison Valley as members of the Katoomba tribe.

ब्लू-माउंटेनस के बारे में ऑस्ट्रेलिया के आदिवासियों में यह कथा प्रचलित है किबहुत पहले काटुंबा कबीलें में तीन बहनें थी जिनका नाम था - मिहीनी, विम्लाह और गुनेडो। ये तीनों बहने जैमिसन घाटी में अपने जनजातीय कबीले 'काटुंबा' के साथ रहती थीं
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शहीद पर लिखो - ज्ञानवती सक्सेना

तुम ग़ज़ल लिखो कि गीत प्रीतिकर लिखो
एक पंक्ति तो कभी शहीद पर लिखो ।......

 
 
आज़ाद हिंद फौज के कौमी तराने | संकलन - भारत-दर्शन संकलन

आज़ाद हिंद फौज के क़ौमी तरानों का संकलन।

आजाद हिंद फौज की रानी झांसी ब्रिगेड का निरीक्षण करते हुए नेताजी सुभाष

अधिकतर क़ौमी गीत आज़ाद हिंद फौज के सैनिकों ने लिखे है और सभी को संगीत आज़ाद हिंद फौज के कप्तान रामसिंह ने दिया था। आज नेताजी को याद करते हुए उन्हीं के मनपसंद गीतों का संकलन आप सभी को भेंट!


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दो कवितायें - दिव्यदीप सिंह

चलो बहुत हुआ अँधेरा सबेर देखते है
जितनी भी है ख़ुशी उसमें कुबेर देखते है। ......

 
 
यहाँ कुछ रहा हो | ग़ज़ल - शमशेर बहादुर सिंह

यहाँ कुछ रहा हो तो हम मुँह दिखाएँ
उन्हों ने बुलाया है क्या ले के जाएँ

कुछ आपस में जैसे बदल सी गई है......

 
 
चोर और राजा - लक्ष्मीनिवास बिडला

किसी जमाने में एक चोर था। वह बड़ा ही चतुर था। लोगों का कहना था कि वह आदमी की आंखों का काजल तक उड़ा सकता था। एक दिन उस चोर ने सोचा कि जबतक वह राजधानी में नहीं जाएगा और अपना करतब नहीं दिखाएगी, तब तक चोरों के बीच उसकी धाक नहीं जमेगी। यह सोचकर वह राजधानी की ओर रवाना हुआ और वहां पहुंचकर उसने यह देखने के लिए नगर का चक्कर लगाया कि कहां क्या कर सकता है।

उसने तय कि राजा के महल से अपना काम शुरू करेगा। राजा ने रात दिन महल की रखवाली के लिए बहुतसे सिपाही तैनात कर रखे थे। बिना पकड़े गये परिन्दा भी महल में नहीं घुस सकता था। महल में एक बहुत बड़ी घड़ी लगी थी, जो दिन रात का समय बताने के लिए घंटे बजाती रहती थी।

चोर ने लोहे की कुछ कीलें इकट्ठी कीं ओर जब रात को घड़ी ने बारह बजाये तो घंटे की हर आवाज के साथ वह महल की दीवार में एक-एक कील ठोकता गया। इस तरह बिना शोर किये उसने दीवार में बारह कीलें लगा दीं, फिर उन्हें पकड पकडकर वह ऊपर चढ़ गया और महल में दाखिल हो गया। इसके बाद वह खजाने में गया और वहां से बहुत से हीरे चुरा लाया।

अगले दिन जब चोरी का पता लगा तो मंत्रियों ने राजा को इसकी खबर दी। राजा बडा हैरान और नाराज हुआ। उसने मंत्रियों को आज्ञा दी कि शहर की सड़कों पर गश्त करने के लिए सिपाहियों की संख्या दूनी कर दी जाये और अगर रात के समय किसी को भी घूमते हुए पाया जाये तो उसे चोर समझकर गिरफ्तार कर लिया जाये।

जिस समय दरबार में यह ऐलान हो रहा था, एक नागरिक के भेष में चोर मौजूद था। उसे सारी योजना की एक बात का पता चल गया। उसे फौरन यह भी मालूम हो गया कि कौन से छब्बीस सिपाही शहर में गश्त के लिए चुने गये हैं। वह सफाई से घर गया और साधु का बाना धारण करके उन छब्बीसों सिपाहियों की बीवियों से जाकर मिला। उनमें से हरेक इस बात के लिए उत्सुक थी कि उसकी पति ही चोर को पकडे ओर राजा से इनाम ले।

एक-एक करके चोर उन सबके पास गया ओर उनके हाथ देख देखकर बताया कि वह रात उसके लिए बडी शुभ है। उसके पति की पोशाक में चोर उसके घर आयेगा; लेकिन, देखो, चोर की अपने घर के अंदर मत आने देना, नहीं तो वह तुम्हें दबा लेगा। घर के सारे दरवाजे बंद कर लेना और भले ही वह पति की आवाज में बोलता सुनाई दे, उसके ऊपर जलता कोयला फेंकना। इसका नतीजा यह होगा कि चोर पकड में आ जायेगा।

सारी स्त्रियां रात को चोर के आगमन के लिए तैयार हो गईं। अपने पतियों को उन्होंने इसकी जानकारी नहीं दी। इस बीच पति अपनी गश्त पर चले गये और सवेरे चार बजे तक पहरा देते रहे। हालांकि अभी अंधेरा था, लेकिन उन्हें उस समय तक इधर उधर कोई भी दिखाई नहीं दिया तो उन्होंने सोचा कि उस रात को चोर नहीं आयेगा, यह सोचकर उन्होंने अपने घर चले जाने का फैसला किया। ज्योंही वे घर पहुंचे, स्त्रियों को संदेह हुआ और उन्होंने चोर की बताई कार्रवाई शुरू कर दी।

फल वह हुआ कि सिपाही जल गये ओर बडी मुश्किल से अपनी स्त्रियों को विश्वास दिला पाये कि वे ही उनके असली पति हैं और उनके लिए दरवाजा खोल दिया जाये। सारे पतियों के जल जाने के कारण उन्हें अस्पताल ले जाया गया। दूसरे दिन राजा दरबार में आया तो उसे सारा हाल सुनाया गया। सुनकर राजा बहुत चिंतित हुआ और उसने कोतवाल को आदेश दिया कि वह स्वयं जाकर चोर पकड़े।

उस रात कोतवाल ने तैयार होकर शहर का पहरा देना शुरू किया। जब वह एक गली में जा रहा रहा था, चोर ने उसे देख कर कहा, "मैं चोर हूं।″ कोतवाल समझा कि कोई मजाक कर रहा है। उसने कहा, ″मजाक छाड़ो ओर अगर तुम चोर हो तो मेरे साथ आओ। मैं तुम्हें काठ में डाल दूंगा।″ चोर बोला, ″ठीक है। इससे मेरा क्या बिगड़ेगा!″ और वह कोतवाल के साथ काठ डालने की जगह पर पहुंचा।

वहां जाकर चोर ने कहा, ″कोतवाल साहब, इस काठ को आप इस्तेमाल कैसे किया करते हैं, मेहरबानी करके मुझे समझा दीजिए।″ कोतवाल ने कहा, तुम्हारा क्या भरोसा! मैं तुम्हें बताऊं और तुम भाग जाओ तो ?″ चोर बोला, ″आपके बिना कहे मैंने अपने को आपके हवाले कर दिया है। मैं भाग क्यों जाऊंगा?″ कोतवाल उसे यह दिखाने के लिए राजी हो गया कि काठ कैसे डाला जाता है। ज्यों ही उसने अपने हाथ-पैर उसमें डाले कि चोर ने झट चाबी घुमाकर काठ का ताला बंद कर दिया और कोतवाल को राम-राम करके चल दिया।

जाड़े की रात थी। दिन निकलते-निकलते कोतवाल मारे सर्दी के अधमरा हो गया। सवेरे जब सिपाही बाहर आने लगे तो उन्होंने देखा कि कोतवाल काठ में फंसे पड़े हैं। उन्होंने उनको उसमें से निकाला और अस्पताल ले गये।

अगले दिन जब दरबार लगा तो राजा को रात का सारा किस्सा सुनाया गया। राजा इतना हैरान हुआ कि उसने उस रात चोर की निगरानी स्वयं करने का निश्चय किया। चोर उस समय दरबार में मौजूद था और सारी बातों को सुन रहा था। रात होने पर उसने साधु का भेष बनाया और नगर के सिरे पर एक पेड़ के नीचे धूनी जलाकर बैठ गया।

राजा ने गश्त शुरू की और दो बार साधु के सामने से गुजरा। तीसरी बार जब वह उधर आया तो उसने साधु से पूछा कि, ″क्या इधर से किसी अजनबी आदमी को जाते उसने देखा है?″ साधु ने जवाब दिया कि "वह तो अपने ध्यान में लगा था, अगर उसके पास से कोई निकला भी होगा तो उसे पता नहीं। यदि आप चाहें तो मेरे पास बैठ जाइए और देखते रहिए कि कोई आता-जाता है या नहीं।″ यह सुनकर राजा के दिमाग में एक बात आई और उसने फौरन तय किया कि साधु उसकी पोशाक पहनकर शहर का चक्कर लगाये और वह साधु के कपड़े पहनकर वहां चोर की तलाश में बैठे।

आपस में काफी बहस-मुबाहिसे और दो-तीन बार इनकार करने के बाद आखिर चोर राजा की बात मानने को राजी हो गया ओर उन्होंने आपस में कपड़े बदल लिये। चोर तत्काल राजा के घोड़े पर सवार होकर महल में पहुंचा और राजा के सोने के कमरे में जाकर आराम से सो गया, बेचारा राजा साधु बना चोर को पकड़ने के लिए इंतजार करता रहा। सवेरे के कोई चार बजने आये। राजा ने देखा कि न तो साधु लौटा और कोई आदमी या चोर उस रास्ते से गुजरा, तो उसने महल में लौट जाने का निश्चय किया; लेकिन जब वह महल के फाटक पर पहुंचा तो संतरियों ने सोचा, राजा तो पहले ही आ चुका है, हो न हो यह चोर है, जो राजा बनकर महल में घुसना चाहता है। उन्होंने राजा को पकड़ लिया और काल कोठरी में डाल दिया। राजा ने शोर मचाया, पर किसी ने भी उसकी बात न सुनी।

दिन का उजाला होने पर काल कोठरी का पहरा देने वाले संतरी ने राजा का चेहरा पहचान लिया ओर मारे डर के थरथर कांपने लगा। वह राजा के पैरों पर गिर पड़ा। राजा ने सारे सिपाहियों को बुलाया और महल में गया। उधर चोर, जो रात भर राजा के रुप में महल में सोया था, सूरज की पहली किरण फूटते ही, राजा की पोशाक में और उसी के घोड़े पर रफूचक्कर हो गया।

अगले दिन जब राजा अपने दरबार में पहुंचा तो बहुत ही हताश था। उसने ऐलान किया कि अगर चोर उसके सामने उपस्थित हो जायेगा तो उसे माफ कर दिया जायेगा और उसके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जायेगी, बल्कि उसकी चतुराई के लिए उसे इनाम भी मिलेगा। चोर वहां मौजूद था ही, फौरन राजा के सामने आ गया ओर बोला, "महाराज, मैं ही वह अपराधी हूं।″ इसके सबूत में उसने राजा के महल से जो कुछ चुराया था, वह सब सामने रख दिया, साथ ही राजा की पोशाक और उसका घोड़ा भी। राजा ने उसे गांव इनाम में दिये और वादा कराया कि वह आगे चोरी करना छोड़ देगा। इसके बाद से चोर खूब आनन्द से रहने लगा।

 

साभार - भारतीय लोकथाएं
सस्ता साहित्य मण्डल प्रकाशन

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पिछले अंक - भारत-दर्शन संकलन

पिछले अंक की कड़ियां


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विश्वनाथ प्रताप सिंह की दो क्षणिकाएँ  - विश्वनाथ प्रतापसिंह

लिफाफा

पैगाम तुम्हारा
और पता उनका ......

 
 
कबीर किंवंदतियां - भारत-दर्शन संकलन

कबीर का जीवन

नीरु जुलाहा काशी नगरी में रहता था। एक दिन नीरु अपना गवना लेने के लिए, ससुराल गया। नीरु अपनी पत्नी नीमा को लेकर आ रहा था। रास्ते में नीमा को प्यास लगी। वे लोग पानी पीने के लिए लहर तालाब पर एक अति सुंदर बालक को हाथ-पाँव हिलाते देखा। उसने बालक को अपनी गोद में उठा लिया और अपने पति नीरु के लौट आई। फिर सारा वृतांत कह सुनाया।

"नीरु नाम जुलाहा, गमन लिये घर जाय।......

 
 
सूर्यभानु गुप्त की तीन त्रिपदियाँ  - सूर्यभानु गुप्त

( 1)
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अमिता शर्मा की क्षणिकाएं  - अमिता शर्मा

कवि

कवि तुम
कुम्हार हो क्या?......

 
 
विश्व शान्ति की शिक्षा: भगवान बुद्ध के सन्दर्भ में - डॉ. मनुप्रताप

बौद्ध धर्म के विषय में प्रायः एक भ्रांति लोगों के मन में यह रहती है कि यह मात्र एक धर्म है जो हमें हिन्दू धर्म के विपरीत आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान करता है। जबकि वास्तविकता यह है कि बौद्ध धर्म शैक्षिक मानव जीव के सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, आर्थिक एवं राजनैतिक क्षेत्रों में लोक कल्याण की दीक्षा देता है। बौद्ध धर्म विश्व के सभी धर्मों में अपना अद्वितीय स्थान रखता है। इस धर्म ने मानव लोक कल्याण की भावना को जन्म दिया और शान्ति का उपदेश देकर सबसे पहले पंचशील के विषय में अवगत कराया। लोगों को समता-करुणा-प्यार के साथ रहना सिखाया। बौद्ध धर्म सुखमय जीवन बिताने का मार्ग प्रशस्त करता है।
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संत गुरु कबीर एवं संत गुरु रैदास: वैचारिक अंतः संबंध - मनीषा

वैदिक युग से आज तक चली आ रही भारतीय वर्णाश्रम व्यवस्था ने मानव जाति के साथ बहुत अन्याय किया है। छोटे बड़े के नाम पर अलग­अलग सिद्धाँत बनाए गए जिनका कि अभी तक पालन किया जाता रहा है। और इन सिद्धाँतों के कारण सवर्ण और अवर्ण लोगों के बीच की सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक खाई इतनी गहरी हो गई कि उसे कम कर पाना अत्यंत कठिन हो गया है। कठोर कानून बनाने के बावजूद आज भी निम्न जातियों के साथ बुरा बर्ताव किया जा रहा है। इसके कारण न जाने कितने दंगे हुए, कितने लोगों को आज भी मन्दिर प्रवेश की अनुमति नहीं है।


भक्तिकालीन कवियों ने इस अमानवीय व्यवस्था के खिलाफ़ सबसे पहले आवाज़ बुलन्द की। राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक दृष्टि से निस्तेज मध्ययुग को स्वर्ण युग बनाने का श्रेय निस्संदेह भक्तिकालीन संत कवियों और मुख्य रूप से उनकी लोकचेतना को जाता है । संतकाव्य ईश्वर के नाम पर जातिगत और धार्मिक भेदभाव के विरूद्व बिगुल है। इनकी कविता ‘वसुधैव कुटुम्बकम' के सिद्वाँत पर आधारित है। वर्णाश्रम के विरोधी रामभक्त कवि रामानंद ने अपने शिष्यों के माध्यम से रामभक्ति का प्रचार­-प्रसार किया। भले ही रामानंद रामभक्त थे किंतु उनके शिष्यों में सगुण­निर्गुण उपासक दोनों थे। कबीर और रैदास उनके बारह शिष्यों में प्रमुख माने जाते हैं। कबीर और रैदास उदात्त मानवतावादी प्राणधारा के उन कवियों में से थे जिन्होंने मध्यकालीन युग में गरीब और हताश लोगों को अपनी बानी से प्रोत्साहित कर उनका मार्गदर्शन किया। वर्णभेद, जातिभेद एवं सांप्रदायिकता का विरोध और निर्गुण की उपासना आदि कुछ ऐसी समानताएँ है जो हमें कबीर और रैदास दोनों में ही देखने को मिलती हैं। दोनों की पैदाइश काशी की थी और जाति से एक चमार तो दूसरा जुलाहा था। स्वयं जातिगत भेदभाव से पीड़ित होने के बावजूद दोनों ही कवियों ने छाती ठोंककर अपनी जाति का उल्लेख अपनी बानियों में किया।

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योग-दिवस पर प्रधानमंत्री मोदी का वक्तव्य  - भारत-दर्शन संकलन

देशभर में और विश्‍वभर में योग से जुड़े हुए सभी महानुभाव,


आज कभी किसी ने सोचा होगा कि ये राजपथ भी योगपथ बन सकता है। UNO के द्वारा आज अंतर्राष्‍ट्रीय योग दिवस का आरम्‍भ हो रहा है। लेकिन मैं मानता हूं आज 21 जून से अंतर्राष्‍ट्रीय योग दिवस से न सिर्फ एक दिवस मनाने का प्रारम्‍भ हो रहा है लेकिन शांति, सद्भावना इस ऊंचाइयों को प्राप्‍त करने के लिए, मानव मन को Training करने के लिए एक नए युग का आरम्‍भ हो रहा है। कभी-कभार बहुत-सी चीजों के प्रति अज्ञानतावश कुछ विकृतियां आ जाती हैं। सदियों से ये परम्‍परा चली है, कालक्रम में बहुत सी बातें उसमें जुड़ी हैं।

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प्रेमचंद के बारे में तथ्य और आलेख - भारत-दर्शन संकलन

प्रेमचंद के बारे में तथ्य और आलेखों का संकलन।


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धनपतराय से मुंशी प्रेमचंद तक का सफ़र - धनपतराय से मुंशी प्रेमचंद तक का सफ़र

मुंशी प्रेमचंद का वास्तविक नाम 'धनपत राय' था।

आपके तीन बहने थीं। उनमें दो तो मर गईं, तीसरी बहुत दिनों तक जीवित रही। उस बहन से आप 8 वर्ष छोटे थे। तीन लड़कियों की पीठ पर होने से आप तेतर कहलाये।

पिता ने 'धनपतराय' नाम दिया था तो चाचा प्यार से 'नवाबराय' बुलाते थे।

सरकार से बचने लिए नवाबराय से बने प्रेमचंद 

आप 'उर्दू' से हिन्दी' लेखन में आए। आप 'नवाबराय' नाम से उर्दू में लिखते थे। उनकी 'सोज़े वतन' (1909, ज़माना प्रेस, कानपुर) कहानी-संग्रह की सभी प्रतियाँ तत्कालीन अंग्रेजी सरकार ने ज़ब्त कर ली थीं। सरकार के कोपभाजक बनने से बचाने के लिए उर्दू अखबार "ज़माना" के संपादक मुंशी दयानरायण निगम ने नबाव राय के स्थान पर आपको 'प्रेमचंद' नाम से लिखना सुझाया। यह नाम आपको इतना पसंद आया कि 'नबाव राय' के स्थान पर आप 'प्रेमचंद' हो गए। अब आप 'प्रेमचंद' के नाम से लिखने लगे।

Munshi Dayanarayan Nigam who given 'Premchand' name to Dhanpatrai

छायाचित्र: धनपतराय को 'प्रेमचंद' नाम देने वाले "ज़माना"
के संपादक मुंशी दयानरायण निगम

'प्रेमचंद और उनका युग' में डॉ रामविलास शर्मा लिखते हैं, "प्रेमचन्द का नवाबराय नाम किस तरह छिना था, यह उल्लेख किया जा चुका है, लेकिन अपनी मुसीबतों पर हँसते हुए उन्होंने 'नवाब' को निरर्थक ठहराया और 'प्रेम' की ठंडक और सन्तोष का अकाट्य तर्क पेश किया।"

 

प्रेमचंद का उत्तर

एक बार सुदर्शन जी ने प्रेमचंद से पूछा -"आपने नवाबराय नाम क्यों छोड़ दिया?"

"नवाब वह होता है जिसके पास कोई मुल्क हो। हमारे पास मुल्क कहाँ?"

"बे-मुल्क नवाब भी होते हैं।"

"यह कहानी का नाम हो जाए तो बुरा नहीं, मगर अपने लिए यह घमंडपूर्ण है। चार पैसे पास नहीं और नाम नवाबराय। इस नवाबी से प्रेम भला; जिसमें ठण्डक भी है, संतोष भी।"

[हंस, मई 1937]

 

प्रेमचंद 'मुंशी प्रेमचंद' कैसे बने?

प्रेमचंद ने अपने नाम के आगे 'मुंशी' शब्द का प्रयोग स्वयं कभी नहीं किया।

'मुंशी' शब्द वास्तव में 'हंस' के संयुक्त संपादक कन्हैयालाल मुंशी के साथ लगता था। दोनों संपादको का नाम हंस पर 'मुंशी, प्रेमचंद' के रूप में प्रकाशित होता था। अतं: मुंशी और प्रेमचंद दो अलग व्यक्ति थे लेकिन कई बार ऐसा भी हुआ कि प्रेस में 'कोमा' भूलवश न छपने से नाम 'मुंशी प्रेमचंद' छप जाता था और कालांतर में लोगों ने इसे एक नाम ओर एक व्यक्ति समझ लिया यथा प्रेमचंद 'मुंशी प्रेमचंद' नाम से लोकप्रिय हुए।

प्रस्तुति: रोहित कुमार 'हैप्पी' 

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प्रेमचंद : आलेख व निबंध संकलन - भारत-दर्शन संकलन

यहाँ प्रेमचंद पर लिखे गए विभिन्न संकलनों व निबंधों को संग्रहीत किया जा रहा है।


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प्रेमचंद : घर में - शिवरानी देवी प्रेमचन्द

प्रेमचन्द की पत्नी शिवरानी द्वारा लिखी, 'प्रेमचंद : घर में' पुस्तक में शिवरानी ने प्रेमचन्द के बचपन का उल्लेख किया है। यहाँ उसी अंश को प्रकाशित किया जा रहा है।

बचपन

प्रेमचन्द का जन्म बनारस से चार मील दूर लमही गांव में सावन बदी 10, संवत् 1937 (31 जुलाई, सन् 1880) शनिवार को हुआ था। पिता का नाम अजायबराय था, माता का नाम आनन्दी देवी। आप कायस्थ दूसरे श्रीवास्तव थे। आपके तीन बहने थीं। उनमें दो तो मर गईं, तीसरी बहुत दिनों तक जीवित रही। उस बहन से आप 8 वर्ष छोटे थे। तीन लड़कियों की पीठ पर होने से आप तेतर कहलाते थे। माता हमेशा की मरीज़ थीं। आपके दो नाम और थे-पिता का रखा हुआ नाम धनपतराय, चाचा का रखा हुआ नाम मुंशी नवाबराय। माता-पिता दोनों को संग्रहणी की बीमारी थी। पैदा होने के दो-तीन साल बाद आपको जिला बांदा जाना पड़ा।

आपकी पढ़ाई पांचवें वर्ष में शुरू हुई। पहले मौलवी साहब से उर्दू पढ़ते थे। उन मौलवी साहब के दरवाजे पर सब लड़कों के साथ पढ़ने जाते थे। आप पढ़ने में बहुत तेज थे। लड़कपन में आप बहुत दुर्बल थे। आपकी विनोदप्रियता का परिचय लड़कपन से ही मिलता है। एक बार की बात है-कई लड़के मिलकर नाई नाई का खेल खेल रहे थे। आपने एक लड़के की हजामत बनाते हुए बांस की कमानी से उसका कान ही काट लिया। उस लड़के की मां झल्लाई हुई आपकी मां से उलाहना देने आई। आपने जैसे ही उसकी आवाज सुनी, खिड़की के पास दबक गये। मां ने दबकते हुए देख लिया था, पकड़कर चार झापड़ दिये।

मां-‘उस लड़के के कान तूने क्यों काटे?'

‘मैंने उसके कान नहीं काटे, बल्कि बाल बनाए हैं।'

‘उसके कान से तो खून बह रहा है और तू कह रहा है कि मैंने बाल बनाये हैं।'

‘सभी तो इस तरह खेल रहे थे।'

‘अब ऐसा न खेलना।'

‘अब कभी न खेलूंगा।'

एक और घटना है। चाचा ने सन बेचा और उसके रुपये लाकर उन्होंने ताक पर रख दिये। आपने अपने चचेरे भाई से सलाह की, जो उम्र में आपसे बड़े थे। दोनों ने मिलकर एक रुपया ले लिया। आप रुपया उठा तो लाये; मगर उसे खर्च करना नहीं आता था। चचेरे भाई ने उस रुपये को भुनाकर बारह आने मौलवी साहब की फीस दी। और बाकी चार आनों में से अमरूद, रेवड़ी वगैरह लेकर दोनों भाइयों ने खायी।

चाचा साहब ढूंढ़ते हुए वहां पहुंचे और बोले-‘तुम लोग रुपया चुरा लाये हो ?''

आपके चचेरे भाई ने कहा-‘हां एक रुपया भैया लाये हैं।'

चाचा साहब गरजे-‘वह रुपया कहां है ?'

‘मौलवी साहब को फीस दी है।'

चाचा साहब दोनों लड़कों को लेकर मौलवी साहब के पास पहुंचे और बोले-‘इन लड़कों ने आपको पैसे दिये हैं ?'

‘हां, बारह आने दिए हैं।

‘उन्हें मुझे दीजिए।'

चाचा साहब ने फिर उनसे पूछा-‘चार आने कहां हैं ?'

‘उसका अमरूद लिया।'

इस बात का उल्लेख करते हुए उन्होंने अपने बचपन के बारे में खुद सुनाया था-चाचा अपने लड़के को पीटते हुए घर लाये। मेरी शक्ल अजीब हो गई थी। मैं डरता-डरता घर आया। मां एक लड़के को पिटता देखकर मुझे भी पीटने लगीं। चाची ने दौड़कर मुझे छुड़ाया। मुझे ही क्यों छुड़ाया, अपने बच्चे को क्यों नहीं छुड़ाया, मैं नहीं जान सका। शायद मेरी दुर्बलतावश उन्हें दया आ गई हो।

अंधेरा के पुल का चमरौधा जूता मैंने बहुत दिनों तक पहना है। जब तक मेरे पिताजी जीवित रहे तब तक उन्होंने मेरे लिए बारह आने से ज्यादा का जूता कभी नहीं खरीदा, और चार आने गज़ से ज्यादा का कपड़ा कभी नहीं खरीदा। मैं सम्मिलित परिवार में था, इसलिए मैं अपने को अलग नहीं समझता था। मैं अपने चचेरे भाइयों को मिलाकर पांच भाई था। जब मुझसे कोई पूछता तो मैं यही बतलाता कि हम पांच भाई हैं। मैं गुल्ली-डण्डा बहुत खेलता था।

जब मैं आठ साल का था, तभी मेरी मां बीमार पड़ीं। छः महीने तक वे बीमार रहीं। मैं उनके सिरहाने बैठा पंखा झलता था। मेरे चेचेरे, जो मुझसे बड़े थे, दवा के प्रबन्ध में रहते थे। मेरी बहन ससुराल में थी। उनका गौना हो गया था। मां के सिरहाने एक बोतल शक्कर से भरी रहती थी। मां के सो जाने पर मैं उसे खा लेता था। मां के मरने के आठ-दस रोज पहले मेरी बहन आई। घर से मेरी दादी भी आ गईं। जब मेरी मां मरने लगीं तो मेरा, मेरी बहन का तथा बड़े भाई का हाथ मेरे पिता के हाथ में देकर बोलीं-‘ये तीनों बच्चे तुम्हारे हैं।'

बहन, पिता तथा बड़े भाई सभी रो रहे थे। पर मैं कुछ भी न समझ रहा था। मां के मरने के कुछ दिन बाद बहन अपने घर चली गई। दादी, भैया और पिताजी रह गये। दो-तीन महीने बाद दादी भी बीमार होकर लमही चली आईं। मैं और भैया रह गए। भैया दूध में शक्कर डालकर मुझे खूब खिलाते थे; पर मां का वह प्यार कहां ! मैं एकांत में बैठकर खूब रोता था।

पांच-छः महीनों के बाद मेरे पिता भी बीमार पड़े। वे लमही आये। मैं भी आया। मेरा काम मौलवी साहब के यहां पढ़ना, गुल्ली-डण्डा खेलना, ईख तोड़कर चूसना और मटर की फली तोड़कर खाना-चलने लगा।

पिताजी जब बहन के यहां जाते तो अपने साथ मुझे अवश्य ले जाते। मैं अपनी दादी से कहानियां खूब सुनता। दादी और भैया में झगड़ा भी हो जाता। मैं दादी से अपनी तरफ मुंह करने को कहता, भैया अपनी तरफ। दादी मुझे अधिक मानती थीं।

फिर मेरे पिता की बदली जीमनपुर हुई। वहां पिताजी के साथ मैं, और दादी गये। भैया इंदौर गये।

कुछ दिनों बाद चाची आईं। यह शादी दादी को अच्छी नहीं लगी। चाची के साथ उनके भाई विजयबहादुर भी आये। चाची आते ही मालकिन बनीं। चाची विजयबहादुर को बहुत मानती थीं, मुझे कम। पिता जी डाकखाने से जो भी चीज खाने के लिए लाते, चाची की इच्छा रहती कि वे उन्हें खुद खायें। वे उनकी लाई हुई चीजों को पिता के सामने रखतीं तो पिताजी बोलते-मैं ये चीज़ें बच्चों के लिए लाता हूं। जब चाची न मानतीं तो पिता जी झल्लाकर बाहर चले जाते।

'किसी तरह एक साल बीता। बहन अपने घर गई। दादी भी घर आईं और मर गईं।'

'पिताजी ने जो मकान ले रखा था, उसका किराया डेढ़ रुपए था। निहायत गन्दा मकान था। उसी के दरवाज़े पर एक कोठरी थी, वही मुझे सोने के लिए मिली। मैं विनोद के लिए बगल में एक तमाखूवाले के मकान चला जाया करता। मेरी उम्र उस समय 12 साल की थी।'

साभार - प्रेमचन्द घर में [1944]
सरस्वती प्रेस, बनारस

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मुंशी प्रेमचंद का घटनाक्रम - रोहित कुमार 'हैप्पी'

मूल नाम : धनपत राय
घर का नाम: नवाब राय ......

 
 
अनूदित काव्य - भारत-दर्शन संकलन

अनूदित काव्य


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अमिता शर्मा की दो क्षणिकाएं  - अमिता शर्मा

सांप

मीठा बनकर
जब भी कोई डसता है......

 
 
पंद्रह अगस्त, स्वतंत्रता दिवस पर कविताएं  - भारत-दर्शन संकलन

26 जनवरी, 15 अगस्त

किसकी है जनवरी,
किसका अगस्त है?......

 
 
प्रेमचंद की लघु -कथा रचनाएं - बलराम अग्रवाल

कई वर्ष पूर्व डॉ. कमल किशोर गोयनका ने एक बातचीत के दौरान मुझसे कहा था कि प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य खोजते हुए उन्हें उनकी 25-30 लघुकथाएं भी प्राप्त हुई हैं और वे शीघ्र ही उन्हें पुस्तकाकार प्रकाशित करेंगे । हम, लघुकथा से जुड़े, लोगों के लिए यह बड़ी उत्साहवर्धक सूचना थी । इस बहाने कथा की लघ्वाकारीय प्रस्तुति के बारे में प्रेमचंद की तकनीक को जानने समझने में अवश्य ही मदद मिलती । हालांकि प्रेमचंद को उपन्यास-सम्राट माना जाता है, परन्तु वे कहानी-सम्राट नहीं थे-यह नहीं कहा जा सकता ।

सच पूछा जाए तो वे बाह्य एवं अंत: जगत के एक सक्षम दृष्टा व प्रस्तोता हैं । मन की परतों को खोलने और उन्हें पाठक के सामने सहज रुप में प्रस्तुत कर देने की कला में वे प्रवीण हैं । दुर्भाग्य ही कहा जाना चाहिए कि डॉ. गोयनका से उनकी उक्त पुस्तक के बारे में उसके बाद कोई बात नहीं हो पाई । पता नहीं वह अब तक आ भी पाई है या नहीं । बहरहाल, प्रेमचन्द जयन्ती के अवसर पर यहां उनकी समस्त लघु कथा-रचनाएं प्रस्तुत हैं । आकार की दृष्टि से इनको हम दो भागों में विभक्त कर सकते हैं:
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देश भक्ति कविताएं - भारत-दर्शन संकलन

देश-भक्ति कविताएं

यहां देश-प्रेम, देश-भक्ति व राष्ट्रीय काव्य संग्रहित किया गया है।


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चंद्रधर शर्मा 'गुलेरी' के बारे में क्या आप जानते हैं? - रोहित कुमार 'हैप्पी'

7 जुलाई को हिंदी साहित्य को 'उसने कहा था' जैसी कालजयी कहानी देने वाले पं. श्रीचंद्रधर शर्मा 'गुलेरी' की जयंती है। गुलेरी की केवल तीन कहानियाँ ही प्रसिद्ध है जिनमें 'उसने कहा था' के अतिरिक्त 'सुखमय जीवन' व 'बुद्धू का कांटा' सम्मिलित हैं। गुलेरी के निबंध भी प्रसिद्ध हैं लेकिन गुलेरी ने कई लघु-कथाएं और कविताएं भी लिखी हैं जिससे अधिकतर पाठक अनभिज्ञ हैं। पिछले कुछ दशकों में गुलेरी का अधिकतर साहित्य प्रकाश में आ चुका है लेकिन यह कहना गलत न होगा कि अभी भी उनकी बहुत सी रचनाएं अप्राप्य हैं। यहाँ गुलेरी जी के पौत्र डॉ विद्याधर गुलेरी, गुलेरी के एक अन्य संबंधी डॉ पीयूष गुलेरी व डॉ मनोहरलाल के शोध व अथक प्रयासों से शेष अधिकांश गुलेरी-साहित्य हमारे सामने है।

जैनेन्द्र ने एक बार गुलेरी के विषय में कहा था, "पं० चंद्रधर शर्मा गुलेरी विलक्षण विद्वान थे। उनकी प्रतिभा बहुमुखी थी। उनमें गज़ब की ज़िंदादिली थी। और, उनकी शैली भी अनोखी थी। गुलेरी जी न केवल विद्वत्ता में अपने समकालीन साहित्यकारों से ऊँचे ठहरते थे, अपितु एक दृष्टि से वह प्रेमचंद से भी ऊँचे साहित्यकार हैं। प्रेमचंद ने समसामयिक स्थितियों का चित्रण तो बहुत बढ़िया किया है, पर व्यक्ति-मानस के चितेरे के रूप में गुलेरी का जोड़ नहीं है।"

Guleri ji - Did you know about it?

गुलेरीजी के बारे में कुछ तथ्य:

  • गुलेरीजी अपनी केवल एक कहानी, 'उसने कहा था' के दम पर हिंदी साहित्य के नक्षत्र बन गए।
  • गुलेरीजी ने केवल तीन कहानियां नहीं लिखी थी बल्कि 1900 से 1922 तक प्रचुर साहित्य सृजन किया तथा अनेक हिंदी लेखकों का मार्गदर्शन भी किया।
  • गुलेरीजी पहले कवि तत्पश्चात् निबंधकार व कथाकार हैं। आपकी ब्रज कविताओं का रचनाकाल जनवरी, 1902 है।
  • आप नौ-दस वर्ष की आयु में मातृभाषा की भांति संस्कृत में धाराप्रवाह वार्तालाप करते थे। दस वर्ष की आयु में बालक गुलेरी ने संस्कृत में भाषण देकर 'भारत धर्म महामण्डल' को अचंभित कर दिया था।
  • गुलेरीजी ने केवल उनतालीस वर्ष, दो महीने और पांच दिन का जीवन पाया। वे 7 जुलाई 1883 को जन्में और 12 सितम्बर 1922 को आपका देहांत हो गया।
  • गुलेरीजी ने चंद्रधर, चंद्रधर शर्मा तथा चंद्रधर शर्मा 'गुलेरी' के अतिरिक्त भी कई अन्य नामों से लेखन किया जिनमें 'चिट्ठीवाला, एक चिट्ठीवाला, अनाम, कण्ठा, शब्द कौस्तुभ का कण्ठा, एक ब्राह्मण, समलोचक, प्रतिनिधि, बी०ए०, स्पष्टवक्ता, जिमक्कड़, विवेचक, ललन, घरघूमनदादा इत्यादि सम्मिलित हैं।
  • 'ॐ नमों शिवाय:' गुलेरी का प्रिय मंत्र था।
  • आपने अनेक कविताएं, निबंध, लघु-कथाएं लिखी हैं और इसके अतिरिक्त अनुवाद भी किए।

 

प्रस्तुति: रोहित कुमार 'हैप्पी'


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ऐसे थे चन्द्रशेखर आज़ाद - भारत-दर्शन संकलन

एक बार भगतसिंह ने बातचीत करते-करते मज़ाक में चन्द्रशेखर आज़ाद से कहा, "पंडित जी, हम क्रान्तिकारियों के जीवन-मरण का कोई ठिकाना नहीं, अत: आप अपने घर का पता दे दें ताकि यदि आपको कुछ हो जाए तो आपके परिवार की कुछ सहायता की जा सके।"

चन्द्रशेखर सकते में आ गए और बोले, "पार्टी का कार्यकर्ता मैं हूँ, मेरा परिवार नहीं। उनसे तुम्हें क्या मतलब? दूसरी बात -उन्हें तुम्हारी मदद की जरूरत नहीं है और न ही मुझे जीवनी लिखवानी है। हम लोग नि:स्वार्थभाव से देश की सेवा में जुटे हैं, इसके एवज़ में न धन चाहिए और न ही ख्याति।"

 


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डॉ.ए.पी.जे.अब्दुल कलाम - भारत-दर्शन संकलन

डॉ० कलाम का जन्म 15 अक्तूबर, 1931 को एक मध्यमवर्गीय तमिल परिवार में रामेश्वर (तमिलनाडु ) में हुआ था। डॉ० कलाम के पिता जैनुलाबदीन की कोई बहुत अच्छी औपचारिक शिक्षा नहीं हुई थी। वे आर्थिक रूप से सामान्य परंतु बुद्धिमान व उदार थे। इनके पिताजी एक स्थानीय ठेकेदार के साथ मिलकर लकड़ी की नौकाएँ बनाने का काम करते थे जो हिन्दू तीर्थयात्रियों को रामेश्वरम् से धनुषकोटि ले जाती थीं। इनकी माँ, आशियम्मा उनके जीवन की आदर्श थीं। डॉ० कलाम का पूरा नाम ‘अवुल पकीर जैनुलाबदीन अब्दुल कलाम' है। डॉ० कलाम ने भौतिकी और अंतरिक्ष विज्ञान की पढ़ाई की।

अपनी सादगी व युवाओं के प्रेरणास्रोत पूर्व राष्ट्रपति डॉ० कलाम (डॉ.ए.पी.जे.अब्दुल कलाम) अब हमारे बीच नहीं हैं।

27, जुलाई, 2015 की सांय 83 वर्षीय डॉ. कलाम का इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट, शिलांग में निधन हो गया। वे वहाँ 'पृथ्‍वी को रहने लायक कैसे बेहतर बनाया जाए' विषय पर अपना वक्तव्य दे रहे थे। उन्‍होंने अभी बोलना आरंभ ही किया था कि ह्रदय आघात के कारण वे बेहोश हो गए। उन्हें बेथनी अस्पताल में भर्ती कराया गया लेकिन शाम 7.45 बजे अस्पताल के डायरेक्टर डॉ. जॉन ने डॉ. कलाम के दिवंगत होने की सूचना दी। डॉ. जॉन के अनुसार 7 बजे उन्हें अस्पताल के आईसीयू में भर्ती कराया गया था।

छात्रों और युवाओं में डॉ० कलाम बहुत प्रसिद्ध थे। ज्ञान बांटने वाले इस महामानव का निधन भी छात्रों के बीच ही हुआ। डॉ कलाम अपनी अंतिम सांस तक सक्रिय रहे। डॉ कलाम इस समय शिलांग के दौरे पर थे और आईआईएम के छात्रों को संबोधित कर रहे थे।

राष्ट्रपति के पद पर रहते हुए डॉ० कलाम को उनके द्वारा किये श्रेष्ठ कार्यों के कारण ही 'जनसाधारण का राष्ट्रपति' कहा जाता है।

'हमारे पथ प्रदर्शक' भारत के ग्याहरवें राष्ट्रपति और 'मिसाइल मैन' के नाम से प्रसिद्ध 'ए.पी.जे. अब्दुल कलाम' की चर्चित पुस्तक है और इसके अतिरिक्त 'विंग्स ऑफ़ फायर', 'इंडिया 2020- ए विज़न फ़ॉर द न्यू मिलेनियम', 'माई जर्नी' तथा 'इग्नाटिड माइंड्स- अनलीशिंग द पॉवर विदिन इंडिया' उनके द्वारा लिखी गई अन्य प्रसिद्ध पुस्तकें हैं। बहुत कम लोग यह जानते हैं कि वे अपनी पुस्तकों से हुई आमदनी (रॉयल्टी) का अधिकांश हिस्सा स्वयंसेवी संस्थाओं को सहायतार्थ में दे देते हैं। मदर टेरेसा द्वारा स्थापित 'सिस्टर्स ऑव चैरिटी' उनमें से एक है। पुरस्कारों के साथ मिली नकद राशियां भी वे परोपकार के कार्यों के लिए अलग रखते थे।


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आज़ादी से पहले के गीत - भारत-दर्शन संकलन

आज़ादी से पहले के गीतों का संकलन।


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धरती बोल उठी - रांगेय राघव

चला जो आजादी का यह
नहीं लौटेगा मुक्त प्रवाह,......

 
 
एवरेस्ट विजेता सर एडमंड हिलेरी की यादें - रोहित कुमार 'हैप्पी'

सर एडमंड हिलेरी को स्मरण करते हुए उनसे संबंधित सामग्री यहाँ प्रकाशित की जा रही है।


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एवरेस्ट पर पहला कदम किसका? - रोहित कुमार 'हैप्पी'

बहुत बरसों तक यह चर्चा-परिचर्चा चलती रही है कि एवरेस्ट की चोटी पर पहला क़दम किसका था?

 

अटलबिहारी वाजपेयी की एक कविता है 'पहचान' शायद उस कविता में भी इसी प्रसंग पर प्रश्न किया गया है:

 

"हिमालय की चोटी पर पहुंच,
एवरेस्ट-विजय की पताका फहरा,......

 
 
सर हिलेरी का हिमालय प्रेम - रोहित कुमार 'हैप्पी'

श्री आलोक मेहता उन दिनों 'आउटलुक' सप्ताहिक के संपादक थे। उनका मेरा परिचय 'वायस ऑव अमेरिका' हिंदी के माध्यम से था। आउटलुक साप्ताहिक ने जनवरी 2007 को हिमालय पर केंद्रित 'विशेषांक' निकालने की योजना बनायी थी। मुझे श्री मेहता का फोन आया कि क्या मैं आउटलुक के लिए सर एडमंड हिलेरी का साक्षात्कार कर सकता हूँ?

शेरपा तेनज़िंग नोर्गे के साथ 1953 में एवरेस्ट पर विजय प्राप्त करने वाले न्यूज़ीलैंड निवासी एडमंड हिलेरी का कदम 8850 मीटर ऊँचे एवरेस्ट पर किसी मानव का पहला कदम माना जाता है।

सर हिलेरी उन दिनों अस्वस्थ थे।  मैंने उन्हें फोन किया तो उनकी पत्नी 'लेडी जून' ने कहा कि वे स्वस्थ नहीं हैं और उन्हें बोलने में थोड़ी कठिनाई होती है।

मेरे यह बताने पर कि यह अंक हिमालय पर केंद्रित है और सर हिलेरी की उसमें उपस्थिति अत्यावश्यक है। उन्होंने मुझे कहा - कुमार, मैं वायदा तो नहीं करती पर मैं आपका संदेश तुरंत उनको पहुंचा देती हूँ और आपको फोन करती हूँ।"

सामान्यतया सर हिलेरी कई समारोहों में उपस्थित रहते थे लेकिन इन दिनों वे कम ही दिखाई देते थे, इसलिए मुझे उनकी 'हामी' की आशा कम ही थी।

अभी मैं सोच ही रहा था कि फोन की घंटी बजी। फोन उठाया तो लेडी हिलेरी ने सूचना दी कि उन्होंने साक्षात्कार के लिए 'हाँ' कह दी है।

ऐसा था हिलेरी का हिमालय प्रेम कि अस्वस्थ होते हुए भी वे हिमालय पर बातचीत के लिए राजी हो गए। 

हिमालय जैसे ऊँचे हिलेरी यद्यपि उम्र के इस पड़ाव पर शिथिल हो गए थे तथापि उनके चेहरे का तेज, उनकी विनम्रता और उनकी सादगी आज भी उन्हें 'माउंट एवरेस्ट' की ऊँचाई पर रखे हुए थी।

सफेद पैंट, हल्की नीली कमीज पहने हुए सर हिलेरी अपनी बैठक जहाँ हिमालय के अनेक चित्रों के अतिरिक्त बहुत से नेपाली शेरपाओं के छायाचित्र भी थे में बैठे हुए थे। हिलेरी और उनकी बगल में टंगे हिमालय के चित्र में कुछ समानता तो थी। मैं दोनों को ध्यान से देखता हूँ तो उनकी सफेद पैंट धरातल, हल्की नीली कमीज मानो नीले पहाड़ और उनका सादगी भरा, गर्विला गौरवर्ण चेहरा मानों हिमालय की हिमशिखा 'एवरेस्ट' दिखाई पड़ते थे।  उनके स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए मैंने उन्हें बीच में बातचीत को विराम देकर, विश्राम करने के लिए पूछा तो उन्होंने मुसकुराकर बातचीत करते रहने को कहा।

फिर हम बहुत देर तक बातचीत करते रहे।

[भारत-दर्शन संकलन]


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हिन्दी : देवनागरी में या रोमन में ? - ओम विकास

मग्र विकास के लिए हिन्दी : देवनागरी में या रोमन में ?

अतीत-वर्तमान-भविष्य का ज्ञान सेतु लेखन पद्धति से संभव हुआ। उत्तरोत्तर प्रयोग और परिष्कार से भाषा का मान्य स्वरूप उद्भूत हुआ । वाणी और लेखन की सुसंगत एकरूपता के लिए पाणिनि जैसे मनीषियों ने लिपि का नियमबद्ध निर्धारण किया । लिपि वाणी का दर्पण है । धुंधला दर्पण तो धुंधला बिम्ब। दर्पण की संरचना पर निर्भर करता है कि बिम्ब की स्पष्टता किस कोटि की होगी ।

संस्कृत से उद्भूत भारतीय भाषाओं की लिपियों में क्रम-साम्य है । देवनागरी वर्णमाला में दो-तीन विशिष्ट ध्वनियों के लिए लिपि चिह्न गढ़ कर परिवर्धित देवनागरी वर्णमाला में भारतीय लिपियों के बीच वर्ण प्रति वर्ण स्थापन से लिप्यंतरण आसान है। हिन्दी जनभाषा के रूप में पिछले एक हज़ार वर्ष से विकसित होने लगी । देवनागरी में लिखी गई । देवनागरी को नागरी भी कहा जाता है । हिन्दी और देवनागरी के प्रचार प्रसार के लिए नागरी प्रचारिणी सभा, और भारतीय भाषाओं के बीच संपर्क लिपि नागरी के प्रयोग संवर्धन के लिए नागरी लिपि परिषद् का गठन हुआ ।

भारत की मूल संस्कृति में सहिष्णुता और समावेशन की प्रधानता रही है । विदेशी आक्रमक आए, फारसी को राजभाषा बनाया । लेकिन जन भाषा हिन्दवी जीवित रही। चतुर अंग्रेज़ व्यापारियों ने सहिष्णु भारत को ब्रिटिश उपनिवेश बना लिया, अंग्रज़ी राजभाषा बनी । जनभाषा हिन्दी ने पराधीनता के आक्रोश को जन आन्दोलन में बदल दिया । 1947 में भारत स्वतंत्र हुआ । भारतीय संविधान के अनुच्छेद 343 के अनुसार देवनागरी लिपि में हिन्दी को राजभाषा बनाया गया । लेकिन स्वीकारिता अभी तक पूरी नहीं । भारत और इंडिया का द्वंद कचोटता है ।

कभी कभार देश के ही विद्वान घाव पर नमक छिड़ते रहते हैं । जनभाषा हिन्दी को देवनागरी के बजाय रोमन में लिखने की वकालत करते हैं । 20 मार्च 2010 के हिन्दुस्तान में "क्षितिज पर खड़ी रोमन हिन्दी" सम्पादकीय छपा । हिन्दी की लिपि पर विवाद छिड़ा । 20 फरवरी 2013 को BBC विश्व सेवा पर बहस छिड़ी - Could a new Phonetic Alphabet promote world peace ? IPA की बात हुई । वैज्ञानिक देवनागरी वर्णमाला की बात दबी रह गई ।

8 जनवरी 2015 को दैनिक भास्कर में चेतन भगत का लेख छपा - "भाषा बचाओ, रोमन हिन्दी अपनाओ" । 11 जनवरी 2015 को Times of India चेतन भगत का अंग्रज़ी में लेख छपा - "Scripting Change: Bhasha bachao, Roman Hindi apanao". दोनों लेखों का एक ही आशय । हिन्दी विमर्श पर चेतन भगत को जमकर कोसा गया ।

मैंने परिस्थिति, काल, कारण आदि पक्षों पर विचार किया । चेतन भगत आई. आई. टी. दिल्ली से मेकेनीकल इंजीनियरिंग का स्नातक और आई. आई. एम. अहमदाबाद से प्रबन्धन स्नातक है, ख्याति प्राप्त लेखक है, चिंतक है, हिन्दी प्रेमी है। चेतन ने चेताया है कि हिन्दी जगत राजनीतिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण कर रण नीति बनाने में असमर्थ रहा है । संख्या में संस्थाएं, संस्थान हिन्दी जगत में बहुतेरे और बहुसुरे । जनसामान्य में, युवा वर्ग में हताशा है, निराशा है, और अस्तित्व के लिए नए मार्ग की तलाश है । चेतन भगत ने इसी मानसिकता को अभिव्यक्ति दी है ।

देवनागरी लिपि में लिखी हिन्दी स्वतंत्र भारत की राजभाषा बनी । 67 साल में कार्यान्वयन में हिन्दी की स्वीकारिता अभी तक पूरी नहीं । राज प्रशासन में प्रयोग नगण्य है । प्रति वर्ष सितम्बर में हिन्दी पखवाड़े मनाने की रस्में होती आ रही हैं । न्यायालयों में अंग्रेज़ी ही मान्य है, जो मात्र 5 - 7 प्रतिशत जनसंख्या को ही समझ आती है । गूंगा न्याय, बहरी जनता । सिविल सेवाओं में प्रतिभा की खोज अंगेज़ी के माध्यम से है । सूचना प्रौद्योगिकी के विकास को सरकारी स्वीकृति / मान्यता मिलने में अति विलम्ब होता है । INSCRIPT की-बोर्ड का मानक ले-आउट 1983 में घोषित हुआ । स्टाफ सलेक्शन बोर्ड ने इसे 30 वर्ष बाद 2013 में टंकण परीक्षाओं के लिए मान्यता दी । INSCRIPT द्विलिपिक रोमन-देवनागरी की-बोर्ड TVS कम्पनी ने 1983 में बनाया, लेकिन किसी सरकारी विभाग ने नहीं खरीदा । आज भी कार्यालयों में द्विलिपिक रोमन-देवनागरी की-बोर्ड नहीं मिलेंगे । भारत सरकार के इलेक्ट्रोनिकी विभाग ने जुलाई 1983 में ISSCII-83 मानक 8-बिट कोड प्रकाशित किया । इसका संशोधित संस्करण अगस्त 1988 में ISCII (Indian Script Code for Information Interchange) मानक कोड प्रकाशित किया। इसी को भारतीय मानक ब्यूरो (BIS) ने 1991 में ISCII मानक IS13194:1991 प्रकाशित किया ।

इसमें रोमन के लिए ASCII है, और भारतीय भाषाओं के बीच लिप्यंतरण का प्रावधान था । इसके आधार पर ही वेब आधारित यूनीकोड में भारतीय भाषा लिपियों को स्थान मिला । अद्यतन यूनीकोड 7.0 देवनागरी के कोड में परिवर्धित देवनागरी को कोदित किया गया है । दक्षिण भारत की कुछ भाषाओं की विशिष्ट ध्वनियों के संकेत वर्णमाला में क्रमानुसार जोड़े गए हैं । संदर्भ - www.unicode.org/PDF/U0900.pdf

 

Hindi Unicode Keyboard


आज भी उत्तर भारत में किसी तकनीकी कॉलेज / संस्थान में कम्प्यूटर विज्ञान और सूचना प्रौद्योगिकी के स्नातक कोर पाठ्यक्रम में यूनीकोड, UTF-8, UTF-16 और भारतीय भाषा संसाधन शामिल नहीं हैं । इंटरनेट एक्सप्लोरर, क्रोम, फायरफोक्स आदि वेब ब्राउज़र पर देवनागरी के यूनीकोड समर्थित फोंट 2-3 से अधिक रोमन की भाँति नहीं मिलते । यूटिलिटीज़ नहीं मिलती । भारत का कोई वेब ब्राउज़र प्रचलन में नहीं है । आज भी एक मोबाइल फोन से दूसरे फोन को SMS सन्देश कई मित्रों को अनर्थ चिह्नों में गार्वेज़ मिलता है । इसलिए मजबूरी में संदेश रोमन में भेजते हैं । यह सच है कि प्रौद्योगिक सम्भावनाएं बहुत हैं, लेकिन सभी डिवाइस / उपकरणों पर प्रयोग-सरल सार्वजनिक उपलब्धता का अभाव है । प्रौद्योगिक कम्पेटिबिलिटी सुनिश्चित करना सरकार का दायित्व है ।

2013 में हिन्दी के भाषाविदों की समिति की सिफारिश के आधार पर सरकार ने वैज्ञानिक देवनागरी लिपि का नया अवैज्ञानिक मानक सार्वजनिक चर्चा के बिना घोषित किया । उदाहरण के लिए एक ध्वनि "द्वि' अक्षर को 'द्' और 'वि' की दो ध्वनि इकाइयों में बांटने से छात्रों के उच्चारण भ्रष्ट हो रहे हैं । कम्प्यूटर से स्पीच पहचान में भी सहायक नहीं ।

सभी प्रौद्योगिक उपकरणों में रोमन जैसा प्रयोग-सरल विकल्प देवनागरी में क्यों नहीं ? हिन्दी जगत और सरकार के बीच संवाद का अभाव प्रतीत होता है ।

भूमंडलीकरण की ज्वाला ने जनभाषा हिन्दी को दूर दूर तक झुलसा दिया है। नौकरी के लिए कम्यूनिकेशन स्किल अंग्रेज़ी में सिखाई जाती हैं । समाज में नौकरी दिलाने में हिन्दी को हेय और अंगेज़ी को श्रेय माना जाने लगा है । यह सामाजिक मजबूरी है । मनोवैज्ञानिक स्तर पर विचार करें तो भारत में 65 प्रतिशत जनसंख्या वाले युवा वर्ग को बढ़ने की चाह है, लेकिन जनभाषा हिन्दी में गुणवत्तापूर्ण तकनीकी शिक्षा, प्रशिक्षण और नौकरी के अवसर क्षीण अथवा न मिलने के कारण रोमन के प्रयोग के लिए आकर्षण है ।

हिन्दी जगत ने इस विकराल समस्या के समाधान के लिए क्या रणनीति बनाई है ?

रोमन हिन्दी के पक्षधर नीति निपुण विद्वानों से निवेदन है कि वे भारत की संस्कृति, परम्परागत ज्ञान भंडार, प्रायोगिक साक्षरता, विशाल युवा शक्ति, रचनात्मकता, नवाचार सम्भावनाओं आदि पर विचार कर ऐसे तर्क संगत सुझाव दें जिससे भारत कौशल सम्पन्न बने, विकास तेजी से हो, बहुआयामी हो । कतिपय विचारणीय तथ्य इस प्रकार हैं -

1. भारत की जनसंख्या 126 करोड़ है । जबकि विकसित देश जपान की 12.6 करोड़ है, जर्मनी की 8.2 करोड़ है, फ्रांस की 6.4 करोड़ है, साउथ कोरिया की 4.9 करोड़ है । इन देशों का विकास अंग्रेज़ी में नहीं अपितु उनकी अपनी जनभाषाओं क्रमश: जापानी, जर्मन, फ्रेंच, कोरियन के माध्यम से हुआ ।

2. भारत की लगभग 50% जनसंख्या देवनागरी में लिखती पढ़ती है; अन्य 10% लोग देवनागरी में लिखे को पढ़ समझ लेते हैं । इस प्रकार 60% लोग अर्थात् करीब 75.5 करोड़ भारतीय देवनागरी प्रयोग में सहज हैं । जबकि लगभग 10% भारतीय रोमन में पढ़ सकते हैं ।

3. पठन-पाठन शब्द स्तर पर सरल , सहज और तेजी से होता है । शब्द इकाई के रूप में प्रचलित लिपि में सुगम ग्राह्य होता है । इस प्रकार रोमन में हिन्दी कठिन होगी, श्रमसाध्य होगी, और हिन्दी भाषा से विकर्षण का कारण होगी । युवा वर्ग ऐसी हिन्दी को छोड़ कर अंग्रेज़ी को अपनाने में श्रम करेगा ।

4. संगीत, कला, आयुर्वेद, ज्योतिष, कृषि विज्ञान, आध्यात्म आदि परंपरागत ज्ञान देवनागरी में विपुल मात्रा में है । करोड़ों पृष्ठों के रोमनीकरण और मुद्रण के लिए कई लाख करोड़ रुपए की 10-20 वर्षीय योजना बनानी होगी । कोई भी लोक तांत्रिक सरकार ऐसी अनुपयोगी योजना के लिए धन आबंटन नहीं करेगी । ऐसी स्थिति में भारत के बहुसंख्य अपने ही अमूल्य ज्ञान-विज्ञान से वंचित रहेंगे । करुण क्रन्दन से विकास रुकेगा, अशांति बढ़ेगी, सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से हिन्दी भाषी दयनीयतर हालत में होंगे ।

5. वैज्ञानिक लिपि देवनागरी में स्वर, व्यंजन अलग हैं, क्रम में हैं । इसका लिपि व्याकरण है, जिससे लेखन में एकरूपता सुनिश्चित होती है । व्यंजन स्वर हीन है, एक या अधिक व्यंजनों के योग और स्वर के संयोग से अक्षर बनता है जो इन वर्णों का ध्वन्यात्मक यौगिक है, मिश्रण नहीं है ।

6. रोमन लिपि ध्वन्यात्मक नहीं है । हिन्दी के साथ अंग्रेज़ी के भी शब्द हो सकते हैं । अंग्रेज़ी-हिन्दी के शब्दों को अलग-अलग ढ़ंग से उच्चारण करना पड़ेगा । ऐसी खिचड़ी प्रस्तुति से न तो लेखक को और न ही पाठक को सहजता का अनुभव होगा । सहजता और एकरूपता के बिना संप्रेषणीयता बहुत कम होगी। परिणाम होगा हिन्दी से विकर्षण, और युवा वर्ग अंग्रेज़ी सीखने के लिए पसीना बहाएगा ।

7. रोमन हिन्दी में लिखने के लिए कोई एक मानक लिप्यंतरण तालिका अर्थात् ट्रांसलिटरेशन टेबल नहीं है । अपनी-अपनी ढ़ापली अपना-अपना राग । सदियों से प्रयुक्त शब्द ऋतु, प्रण, पृथ्वी, उत्कृष्ट, लक्ष्मी, विशेष, सोSहम्, रावण, आदि का उच्चारण भ्रष्ट होगा । ये शब्द विलुप्त हो जावेंगे ।

8. हिन्दी के अतिरिक्त मराठी, मैथिली, संथाली, डोगरी, सिन्धी, संस्कृत आदि कई भाषाओं में साहित्य सृजन देवनागरी में हुआ है और हो रहा है । रोमनीकरण से सर्जना ठहर जाएगी, समाज मूक बनने लगेगा । विकास क्रम का तिरोभाव होगा ।

9. किसी भी भाषा की उच्चारण में शुद्धता और एकरूपता वांछनीय है । अंग्रेज़ी, फ्रेंच, जर्मन आदि भाषाओं के प्रारंभिक पाठों को देवनागरी में उच्चरित कराने से विद्यार्थियों को आसानी होगी । देवनागरी के आधार पर IPA (भारतीय संस्करण) बनाया जा सकता है ।

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छोटा बड़ा - प्रेमनारायण टंडन

एक विशाल वृक्ष की छाया से हटकर मैं खड़ा था और मेरे हाथ में एक सुंदर, छोटा आईना था ।

मैं यह देखकर चकित रह गया कि वह विशाल वृक्ष उस छोटे आईने में एक अंगुल के बराबर भी नहीं था।

X X X
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वह पुरुष ! - एलबर्ट आइन्सटीन

गांधीजी अपनी जनता के ऐसे नेता थे, जिसे किसी बाह्य सत्ता की सहायता प्राप्त नहीं थी। वे एक ऐसे राजनीतिज्ञ थे, जिसकी सफलता न चालाकी पर आधारित थी और न किसी शिल्पिक उपायों के ज्ञान पर, बल्कि मात्र उनके व्यक्तित्व की दूसरों को कायल कर देने की शक्ति पर ही आधारित थी। वे एक ऐसे विजयी योद्धा थे, जिसने बल-प्रयोग का सदा उपहास किया। वे बुद्धिमान, नम्र, दृढ़-सकल्पी और अडिग निश्चय के व्यक्ति थे। उन्होने अपनी सारी ताकत अपने देशवासियो को उठाने और उनकी दशा सुधारने में लगा दी। वे एक ऐसे व्यक्ति थे जिसने यूरोप की पाशविकता का सामना सामान्य मानवी यत्न के साथ किया और इस प्रकार सदा के लिए सबसे ऊँचे उठ गए। ।

आने वाली पीढिया शायद मुश्किल से ही यह विश्वास कर सकेगी कि गांधीजी जैसा हाड़-मास का पुतला कभी इस धरती पर हुआ होगा।

[गाँधी श्रद्धांजलि ग्रन्थ]

 


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विश्व हिंदी सम्मेलन - रोहित कुमार

विश्व हिंदी सम्मेलन का इतिहास व पृष्ठभूमि - विश्व हिंदी सम्मेलन की संकल्पना राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा द्वारा 1973 में की गई थी। संकल्पना के फलस्वरूप, राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के तत्वावधान में प्रथम विश्व हिंदी सम्मेलन 10-12 जनवरी 1975 को नागपुर, भारत में आयोजित किया गया था। अभी तक ग्यारह सम्मेलन सम्पन्न हो चुके हैं। ग्यारहवाँ विश्व हिंदी सम्मेलन 2018 में मॉरीशस में आयोजित हुआ था और आगामी बारहवाँ विश्व हिंदी सम्मेलन फीजी में प्रस्तावित है। 

विश्व हिंदी सम्मेलनों के प्रमुख लक्ष्य हिंदी भाषा का प्रचार एवं प्रसार करना व इसे विश्व भाषा के रूप में स्थापित करना है।

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विश्व हिंदी सम्मेलन - इतिहास व पृष्ठभूमि - भारत-दर्शन संकलन

विश्व हिंदी सम्मेलन की संकल्पना राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा द्वारा 1973 में की गई थी। संकल्पना के फलस्वरूप, राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के तत्वावधान में प्रथम विश्व हिंदी सम्मेलन 10-12 जनवरी 1975 को नागपुर, भारत में आयोजित किया गया था।

सम्मेलन का उद्देश्य इस विषय पर विचार विमर्श करना था कि तत्कालीन वैश्विक परिस्थिति में हिंदी किस प्रकार सेवा का साधन बन सकती है, 'महात्मा गाँधी जी की सेवा भावना से अनुप्राणित हिंदी संयुक्त राष्ट्र संघ में प्रवेश पाकर विश्व भाषा के रूप में समस्त मानव जाति की सेवा की ओर अग्रसर हो। साथ ही यह किस प्रकार भारतीय संस्कृति का मूलमंत्र 'वसुधैव कुटुंबकम' विश्व के समक्ष प्रस्तुत करके 'एक विश्व एक मानव परिवार' की भावना का संचार करे।'

सम्मेलन के आयोजकों को विनोबा भावे जी का शुभाशीर्वाद तथा केंद्र सरकार के साथ-साथ महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, आंध्र प्रदेश, गुजरात आदि राज्य सरकारों का समर्थन प्राप्त हुआ। नागपुर विश्वविद्यालय के प्रांगण में 'विश्व हिंदी नगर' का निर्माण किया गया। तुलसी, मीरा, सूर, कबीर, नामदेव और रैदास के नाम से अनेक प्रवेश द्वार बनाए गए। प्रतिनिधियों और अतिथियों के आवास का नाम 'विश्व संगम', मित्र निकेतन' 'विद्या विहार' और 'पत्रकार निवास' रखा गया। भोजनालयों के नाम भी 'अन्नपूर्णा', 'आकाश गंगा' आदि रखे गए।

सम्मेलन में काका साहेब कालेलकर ने हिंदी भाषा के सेवा धर्म को रेखांकित करते हुए कहा कि 'हम सबका धर्म सेवा धर्म है और हिंदी इस सेवा का माध्यम है..... हमने हिंदी के माध्यम से आज़ादी से पहले और आज़ाद होने के बाद भी समूचे राष्ट्र की सेवा की है और अब इसी हिंदी के माध्यम से विश्व की, सारी मानवता की सेवा करने की ओर अग्रसर हो रहे हैं।'

हिंदी भाषा की अंतर्निहित शक्ति से प्रेरित हो हमारे देश के नेताओं ने इसे अहिंसा और सत्याग्रह पर आधारित स्वतंत्रता संग्राम के दौरान संवाद की भाषा बनाया। यह दिशा राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने निर्धारित की, जिसका अनुपालन पूरे देश ने किया। स्वतंत्रता संग्राम में अपना सर्वस्व समर्पित करने वाले अधिकांश सेनानी हिंदीतर प्रदेशों से तथा अन्य भाषा-भाषी थे। इन सभी ने देश को एक सूत्र में बांधने के लिए संपर्क भाषा के रूप में हिंदी के सामर्थ्य और शक्ति को पहचाना और उसका भरपूर उपयोग किया। हिंदी को भावनात्मक धरातल से उठाकर ठोस एवं व्यापक स्वरूप प्रदान करने के उद्देश्य से और यह रेखांकित करने के उद्देश्य से कि हिंदी केवल साहित्य की हीभाषा नहीं बल्कि आधुनिक ज्ञान-विज्ञान को अंगीकार करके अग्रसर होने में एक सक्षम भाषा है, विश्व हिंदी सम्मेलनों की संकल्पना की गई।

एक अन्य उद्देश्य इसे व्यापकता प्रदान करना था न कि केवल भावनात्मक स्तर तक सीमित करना। इस संकल्पना को 1975 में नागपुर में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन में मूर्तरूप दिया गया।

तब से लेकर हिंदी की यह सदानीरा अपनी वैश्विक यात्रा में अनेक भाषाई कुंभों की साक्षी रहते हुए अपने अगले, यानि दसवें पड़ाव की ओर निकल पड़ी है। दसवाँ विश्व हिंदी सम्मेलन 10-12 सितंबर 2015 को भोपाल, मध्य प्रदेश, भारत में आयोजित किया जा रहा है।

  • प्रथम विश्व हिंदी सम्मेलन (10-12 जनवरी, 1975), भारत
  • द्वितीय विश्व हिंदी सम्मेलन(28-30 अगस्त, 1976), मॉरीशस
  • तृतीय विश्व हिंदी सम्मेलन (28-30 अक्टूबर, 1983), भारत
  • चतुर्थ विश्व हिंदी सम्मेलन (02-04 दिसम्बर, 1993), मॉरीशस
  • पांचवाँ विश्व हिंदी सम्मेलन (04-08 अप्रैल, 1996), ट्रिनिडाड एवं टोबेगो
  • छठा विश्व हिंदी सम्मेलन (14-18 सितंबर, 1999), यू. के.
  • सातवाँ विश्व हिंदी सम्मेलन (06-09 जून, 2003), सूरीनाम
  • आठवाँ विश्व हिंदी सम्मेलन (13-15 जुलाई, 2007), अमरीका,
  • नौवाँ विश्व हिंदी सम्मेलन (22-24 सितंबर, 2012), दक्षिण अफ्रीका
  • दसवां विश्व हिंदी सम्मेलन (10-12 सितंबर 2015) भोपाल, मध्य प्रदेश, भारत
  • ग्यारहवाँ विश्व हिंदी सम्मेलन (18-20 अगस्त 2018) मॉरीशस
  • बारहवाँ विश्व हिंदी सम्मेलन फीजी में प्रस्तावित है। अतिरिक्त जानकारी अभी उपलब्ध नहीं। 

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सिद्धार्थ मल्होत्रा न्यूजीलैंड पर्यटन के भारतीय दूत  - भारत-दर्शन समाचार

बॉलीवुड के नवोदित अभिनेता सिद्धार्थ मल्होत्रा को 'न्यूजीलैंड पर्यटन' (Tourism New Zealand) का भारतीय दूत नियुक्त किया गया है। वर्ष 2012 में प्रदर्शित फिल्म ‘स्टूडेंट ऑफ द ईयर' से बॉलीवुड में अपने अभिनय-जीवन की शुरूआत करने वाले ‘ब्रदर्स' के 30 वर्षीय अभिनेता सिद्धार्थ मल्होत्रा ‘टूरिज्म न्यूजीलैंड' के पहले भारतीय दूत हैं।

Sidharath Malhotra Having Selfy

11 अक्टूबर को न्यूज़ीलैंड में पहुंचे बॉलीवुड के सुपर स्टार और 'ब्रदर्स' के अभिनेता 'सिद्धार्थ मल्होत्रा' अगले दस दिनों तक भारत में न्यूज़ीलैंड के पर्यटन राजदूत के रूप में यहाँ यात्रा करेंगे।

अपनी यात्रा के दौरान सिद्धार्थ न्यूजीलैंड के उत्तरी और दक्षिणी दोनों द्वीपों के ऑकलैंड, वेलिंगटन, क्वीन्सटाउन और नॉर्थलैंड नगरों में जाएंगे।

सिद्धार्थ भारत में बहुत लोकप्रिय हैं जहाँ सोशल मीडिया में उनके ४.३ मिलियन से भी अधिक प्रशंसक हैं। उनकी नई फिल्म, 'ब्रदर' अभी पिछले महीने निकली है और वे इस समय दो और फिल्मों पर काम कर रहे हैं।

पर्यटन दूत के तौर पर सिद्धार्थ न्यूजीलैंड की संस्कृति को जानने, समझने और यहाँ के अनुभव के लिए दस दिनों की यात्रा पर हैं।

आइए, आपको उनकी यात्रा का साझीदार बनाएं! देखें सिद्धार्थ क्या कर रहे हैं न्यूज़ीलैंड में!

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नई उड़ान - सोहेल खान

उड़ते हुए मुझे बहुत दूर जाना है
पंखो में न जोर, ना ही सहारा है।

ये भी क्या कम था जो.........

 
 
बुद्धिमान वन हंस -  राजकुमारी श्रीवास्तव

एक वन में एक बहुत बड़ा सघन वृक्ष था। वृक्ष में बड़ी-बड़ी डालियां और शाखाएं थी। पत्ते भी लंबे-लंबे और हरे-हरे थे। छाया बड़ी घनी होती थी। कभी भी धूप नहीं आती थी।

वृक्ष के ऊपर कई हंसों ने अपने घोंसले बना रखे थे। हंस घोसलों में सुख से जीवन व्यतीत करते थे। यूं तो सभी हंस साधारण थे, पर उनमें एक बड़ा बुद्धिमान और अनुभवी था। वह जो भी बात कहता था, सोच समझकर कहता था। उसकी कही हुई बात सच निकलती थी।

एक दिन बुद्धिमान हंस ने वृक्ष की जड़ में से एक लता निकलती हुई देखी। उसने अन्य हंसों को भी वह लता दिखायी। दूसरे हंसों ने लता को देख कर कहा, "तो क्या हुआ? वृक्ष की जड़ से लता निकल रही है, तो निकलने दो। हमें उस लता से क्या लेना-देना है?" 

बुद्धिमान हंस बोला, "ऐसी बात नहीं है। हमारा इस लता से बहुत गहरा संबंध है, क्योंकि यह लता उसी वृक्ष की जड़ से निकल रही है, जिस पर हम सब रहते हैं।

वन-हंसों ने कहा, "तुम्हारी बात हमारी समझ में नहीं आ रही है। साफ-साफ कहो, क्या कहना चाहते हो?" 

बुद्धिमान हंस बोला, "आज यह लता बहुत छोटी-सी है, धीरे-धीरे यह बढ़कर बड़ी हो जाएगी। एक दिन आएगा जब यह वृक्ष से लिपट जाएगी और मोटी हो जाएगी। जब यह मोटी हो जाएगी तो कोई भी शत्रु इसके सहारे नीचे से चढ़ सकता है और ऊपर पहुंचकर हम सबको हानि पहुंचा सकता है।

बुद्धिमान हंस की बात सुनकर सभी वन-हंस हँस पड़े और बोले, "तुम तो शेखचिल्ली की-सी बात कर रहे हो। अरे, यह लता अभी छोटी सी है। किसे पता है, बढ़ेगी भी या नहीं?" 

बुद्धिमान हंस बोला, "हां, अभी छोटी सी तो है, पर जिस चीज से हानि होने की संभावना हो, उसे पहले ही नष्ट कर देना चाहिए। इसलिए इस लता को अभी बढ़ने नहीं देना चाहिए। इसे नष्ट करना चाहिए। यह बढ़ेगी तो हम सबके दुख का कारण बनेगी। बुद्धिमान हंस ने दूसरे हंसों को बहुत समझाया पर उन्होंने उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया। उन्होंने कहा, "लता जब बढ़ेगी तो देखा जाएगा। अभी कुछ करने की क्या आवश्यकता है?" बुद्धिमान हंस मौन रह गया। 

लता धीरे-धीरे बढ़ने लगी। वह वृक्ष से लिपट गई। धीरे-धीरे मोटी भी हो गई। इतनी मोटी कि कोई भी आदमी नीचे से उसके सहारे ऊपर चढ़ सकता था। एक दिन सवेरा होने पर सभी हंस भोजन की तलाश में उड़ कर चले गए। घोसले खाली हो गए। हंसों के चले जाने पर वृक्ष के नीचे एक शिकारी पहुंचा। उसने वृक्ष पर हंसो के घोंसलों को देखकर सोचा, "इन हंसों को सरलता से जाल में फसाया जा सकता है। कल सवेरे जाल लेकर आऊंगा, वृक्ष पर चढ़कर जाल फैला दूंगा। हंस अपने आप ही जाल में फंस जाएंगे। 

दूसरे दिन शिकारी जाल लेकर आ पहुंचा। हंस भोजन की तलाश में जा चुके थे। शिकारी ने मोटी लता के सहारे ऊपर चढ़कर घोसलों के ऊपर जाल बिछा दिया। वह जाल बिछाकर अपने घर चला गया। शाम को जब हंस लौटे तो सभी अपने घोसलों में जाने के लिए आतुर हो रहे थे, पर जब घोसलों में जाने लगे तो बेचारे जाल में फंसकर फड़फड़ाने लगे।

जाल में फंसे हुए हंस रोकर कहने लगे, "हाय-हाय, अब क्या करें? जाल से निकले तो किस तरह? शिकारी आएगा और हम सब को जाल में ले जाएगा। हम सब मारे जाएंगे। हंसों का रोना सुनकर बुद्धिमान हंस उनके पास गया। बोला, "अगर तुम लोगों ने मेरी बात मान कर लता को नष्ट कर दिया होता, तो आज तुम सब इस जाल में ना फंसते। शिकारी ने मोटी लता के सहारे ही वृक्ष के ऊपर चढ़कर घोसलों पर जाल बिछाया था।" 

हँस आंसू बहाते हुए बोले, "भाई, जो हो गया, वह हो गया। अब तो कोई ऐसा उपाय करो, जिससे हम सब मरने से बच जाएं। बुद्धिमान हंस सोच कर बोला, "एक उपाय से तुम सब बच सकते हो। जब शिकारी आए तो तुम सब मुर्दे के समान पड़ जाओ। शिकारी तुम्हें मरा हुआ समझकर जाल से बाहर निकालकर फेंक देगा। जब तक वह आखिरी हंस को भी जाल से बाहर निकालकर फेंक ना दे, तुम सब को धरती पर मुर्दे की तरह पढ़ा रहना है।" 

दूसरे हंसों को बुद्धिमान हंस की बात पसंद आई। उन्होंने कहा, "ठीक है, शिकारी के आने पर हम ऐसा ही करेंगे। दूसरे दिन जब शिकारी आया तो हंसों ने उसे देखते ही मुर्दे की तरह व्यवहार किया। शिकारी ने पेड़ पर चढ़कर जाल के पास जाकर देखा, तो सभी हंस मुर्दे की तरह पड़े हुए थे। शिकारी हंसों को मरा हुआ देखकर बड़ा दुखी हुआ। वह जाल से एक-एक हंस को निकाल कर जमीन पर फेंकने लगा। जब तक उसने आखरी हंस को जाल से निकाल कर जमीन पर नहीं फेंक दिया तब तक सभी हंस मुर्दे की तरह जमीन पर पड़े रहे। 

आखिरी हंस के जमीन पर फेंक दिए जाने के तुरंत बाद ही वे सब के सब पंख फड़फड़ाते हुए आकाश में उड़ान भर गए। शिकारी को बड़ा आश्चर्य हुआ। वह आँखें फाड़े आकाश में उड़ते हुए हंसों की ओर देखने लगा। इस तरह बुद्धिमान और अनुभवी हंस की बात मानने से सभी हंसों की जान बच गई। 

कहानी से शिक्षा : 
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अच्छा कौन -  चितरंजन 'भारती'

एक ट्रेन में चार यात्री यात्रा कर रहे थे । उनमें एक बंगाली, एक तमिल, एक एंग्लो-इंडियन तथा एक हिंदी भाषी था । वे लोग अपनी- अपनी भाषा पर बात कर रहे थे ।

बंगाली महोदय बोले, '' बांग्ला सबसे मीठी भाषा है । इसने भारतीय साहित्य को अत्यंत उच्चकोटि के साहित्य से समृद्ध किया है । ''

तमिल- भाषी महोदय बोले, ''तमिल भाषा बहुत प्राचीन है । इसका साहित्य बहुत
उच्चकोटि का है । इसका प्रादुभाव तब हुआ था, जब आर्य-भाषा निम्न स्तर में थी ।''

एंग्लो-इंडियन महोदय भला कैसे चुप रहते, वह बोले, ''अंग्रेज़ी सबसे अच्छी, सबसे......

 
 
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Download Hindi Story - भारत-दर्शन संकलन

हिंदी कहानियां डाऊनलोड करें - Download Hindi Stories
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नव वर्ष कविता संकलन - भारत-दर्शन संकलन

नव वर्ष कविता संकलन - नये वर्ष पर लिखी विभिन्न कवियों की रचनाएं। 

'नव वर्ष' सोहनलाल द्विवेदी की कविता, 'नव वर्ष' और 'साथी, नया वर्ष आया है' हरिवंश राय बच्चन की कविताएं, 'नया साल' और  'नववर्ष' भवानी प्रसाद मिश्र की कविताएं, 'नया साल आए' दुष्यंत कुमार की कविता, 'नये साल का पृष्ठ' शिवशंकर वशिष्ठ की कविता, 'एक बरस बीत गया' अटल बिहारी वाजपेयी की कविता, 'वर्ष नया' अजित कुमार की कविता, 'शुभकामनाएँ' कुमार विकल की कविता, 'नया वर्ष ' डॉ० राणा प्रताप गन्नौरी राणा की रचना, 'काश! नए वर्ष में' हलीम 'आईना' की कविता, 'नववर्ष पर..' अमिता शर्मा की कविता, 'नये बरस में कोई बात नयी 'रोहित कुमार 'हैप्पी' की रचना।


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छोटी कविताएं - मदन डागा

अकाल

आओ दोस्त,
धन्धा करे......

 
 
अक्कड़-बक्कड़ - मदन डागा

अक्कड़-बक्कड़ बम्बे बो
भाग्य भरोसे तू मत सो।

अपना तो है ऐसा नेता......

 
 
चॉकलेट स्वाद से सौंदर्य तक - प्रीता व्यास

चॉकलेट का नाम आता है तो बच्चा हो या बड़ा एक मीठा सा स्वाद उसके मुँह में तैर जाता है। शायद ही कोई हो जिसे चॉकलेट पसंद न हो। चॉकलेट तो चॉकलेट है, चाहे किसी भी रूप में हो- सादा हो या नट्स के साथ, ठोस हो या पेय के रूप में। लेकिन चॉकलेट के सफ़र की हदें इन रसीली सरहदों के आगे हैं। अब चॉकलेट का नाम आने से केवल स्वाद तक बात नहीं रह जाती बल्कि एक और भी तस्वीर उभरती है जिसके सरोकार सौन्दर्य से हैं। अमूमन सौन्दर्य की बात हो तो तरह-तरह के उबटन जहन में उतर आते हैं। क्या कोई सोच सकता है कि ये उबटन चॉकलेट का हो सकता है? हल्दी- चन्दन के उबटन वाले दिन लद गए, अब तो चेहरे को चमकता है चॉकलेट का उबटन।


मैंने भी जब पहले सुना तो यकीं नहीं हुआ लेकिन वाकई एेसा है। इंडोनेशिया की राजधानी जकार्ता शहर में बड़ी सफलता के साथ चल रहा है ये अनोखा चॉकलेट स्पा। बाद में मुझे पता चला कि इसकी शुरुआत का श्रेय जाता है ब्राजील को। ये अपनी तरह का बिलकुल नया प्रयोग है जो फिलहाल दुनिया के कुछ ही देशों तक सीमित है। ना सिर्फ चेहरे पर
चॉकलेट का 'फेस पैक' लगाया जाता है बल्कि सारे शरीर पर इसका उबटन किया जाता है। कुनकुनी तरल चॉकलेट से भरे स्पा में घंटे भर रहना बिलकुल अनोखा अनुभव है। यहाँ तक कि सर की मालिश के लिए भी चॉकलेट क्रीम का उपयोग किया जाता है सौन्दर्य के इस अनोखे नए सफ़र पर भूरी, सफ़ेद, काली और डार्क चॉकलेट सभी की जाती हैं। जकार्ता शहर में चॉकलेट स्पा की नौ शाखाएँ हैं। यूँ तो हर उम्र के ग्राहक इसे अपना रहे हैं लेकिन नई पीढी में इसका क्रेज़ खास तौर से नज़र आता है। थिरेपिस्ट एडम योगी का कहना है कि चॉकलेट को उसकी सुगंध (जो तनाव भगाने का काम करती है) और उसके एंटी ओक्सिडेंट गुणों के कारण चुना गया है। चॉकलेट में विटामिन A और E होते हैं जो त्वचा को कोमलता देते हैं। एक बार डेढ़ घंटा चॉकलेट से भरे स्पा में बिताने के बाद पूरे शरीर से इसकी महक लगभग हफ्ते भर आती रहती है। इसकी यह भी खासियत है कि ये हर तरह की त्वचा के लिए उपयुक्त है।

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क्या बन सकेगा भारत एक सुपर- पावर ? - प्रीता व्यास

भारत में मई 2014 के चुनावों के बाद जब नरेंद्र मोदी प्रधानमन्त्री बने तो कुछ एक शिकायती सुर थे लेकिन एक बड़ा तबका था देश में जिसने पूरे जोश में, ना जाने कितनी आशाओं और उम्मीदों को नए प्रधानमंत्री से जोड़ दिया था। सिर्फ देश में ही नहीं, विदेशों में भी जहाँ-जहाँ भारतीय थे मोदी को लेकर एक नई उम्मीद उन सबने जताई। मोदी जैसे एक नाम नहीं था, एक जादू था जो सर चढ़ कर बोल रहा था। वक़्त बीतने के साथ जादू ख़त्म तो नहीं हुआ फीका सा ज़रूर कहा जा सकता है।


भारतीय राजनीति की आपसी खींच-तान छोड़ दें तो एक सपना है जिसे सारे आप्रवासी भारतीय पूरा होते देखना चाहते हैं और वो है भारत को एक सुपर- पावर के रूप में उभरते देखने का सपना।

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चेतक की वीरता - श्याम नारायण पाण्डेय

रण बीच चौकड़ी भर-भर कर,
चेतक बन गया निराला था।......

 
 
भारतीय गणतंत्र का इतिहास - भारत-दर्शन संकलन

प्रत्येक वर्ष 26 जनवरी को भारत का गणतंत्र-दिवस मनाया जाता है। इस दिन से अनेक महत्‍वपूर्ण स्‍मृतियां जुड़ी हुई है। 26 जनवरी 1930 को लाहौर में पंडित जवाहर लाल नेहरु ने तिरंगे को फहराया था और स्‍वतंत्र भारतीय राष्‍ट्रीय कांग्रेस की स्‍थापना की घोषणा थी।

२६ जनवरी
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गणतंत्र की ऐतिहासिक कहानी - भारत-दर्शन संकलन

भारत 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्र हुआ तथा 26 जनवरी 1950 को इसका संविधान प्रभावी हुआ। इस संविधान के अनुसार भारत देश एक लोकतांत्रिक, संप्रभु तथा गणतंत्र देश घोषित किया गया।

26 जनवरी 1950 को देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ने 21 तोपों की सलामी के साथ झंडावंदन कर भारत को पूर्ण गणतंत्र घोषित किया। यह ऐतिहासिक क्षणों में गिना जाने वाला समय था। इसके बाद से हर वर्ष इस दिन को गणतंत्र दिवस के रूप में मनाया जाता है तथा इस दिन देशभर में राष्ट्रीय अवकाश रहता है।

हमारा संविधान देश के नागरिकों को लोकतांत्रिक पद्धति से अपनी सरकार चुनने की शक्ति देता है। संविधान लागू होने के बाद डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ने वर्तमान संसद भवन के दरबार हॉल में राष्ट्रपति की शपथ ली थी और इसके बाद पांच मील लंबे परेड समारोह के बाद इरविन स्टेडियम में उन्होंने राष्ट्रीय ध्वज फहराया था।

एक ब्रिटिश उप निवेश से एक सम्‍प्रभुतापूर्ण, धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक राष्‍ट्र के रूप में भारत का निर्माण एक ऐतिहासिक घटना थी। 1930 में भारतीय गणतंत्र एक सपने के रूप में संकल्पित किया गया और 1950 में यह साकार हुआ।

 


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झाँसी की रानी - श्यामनारायण प्रसाद

लेकर स्वतन्त्रता के ध्वज को
निर्भय फहरानेवाली थी । ......

 
 
कैसे बने रामचंद्र द्विवेदी कवि प्रदीप? - रोहित कुमार 'हैप्पी'

संयोगवश रामचंद्र द्विवेदी (कवि प्रदीप) को एक कवि सम्मेलन में जाने का अवसर मिला जिसके लिए उन्हें बंबई आना पड़ा। वहाँ पर उनका परिचय बांबे टॉकीज़ में नौकरी करने वाले एक व्यक्ति से हुआ। वह  रामचंद्र द्विवेदी के कविता पाठ से प्रभावित हुआ तो उसने इस बारे में हिमांशु राय को बताया। उसके बाद हिमांशु राय ने आपको बुलावा भेजा।  वह इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने 200 रुपये प्रतिमाह की नौकरी दे दी। कवि प्रदीप ने यह बात स्वयं बीबीसी के एक साक्षात्कार में बताई थी।

हिमांशु राय का ही सुझाव था कि रामचंद्र द्विवेदी अपना नाम बदल लें।  उन्होंने कहा कि यह रेलगाड़ी जैसा लंबा नाम ठीक नहीं है, तभी से रामचंद्र द्विवेदी ने अपना नाम प्रदीप रख लिया।

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स्वामी दयानन्द सरस्वती का जीवन परिचय - भारत-दर्शन संकलन

स्वामी दयानन्द सरस्वती

 

स्वामी दयानन्द सरस्वती का जन्म गुजरात के भूतपूर्व मोरवी राज्य के टकारा गाँव में 12 फरवरी 1824 (फाल्गुन बदि दशमी संवत् 1881) को हुआ था।  मूल नक्षत्र में जन्म लेने के कारण आपका नाम मूलशंकर रखा गया।  आपके पिता का नाम अम्बाशंकर था। आप बड़े मेधावी और होनहार थे।  मूलशंकर बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा के धनी थे।  दो वर्ष की आयु में ही आपने गायत्री मंत्र का शुद्ध उच्चारण करना सीख लिया था। घर में पूजा-पाठ और शिव-भक्ति का वातावरण होने के कारण भगवान् शिव के प्रति बचपन से ही आपके मन में गहरी श्रद्धा उत्पन्न हो गयी। अत: बाल्यकाल में आप शंकर के भक्त थे।  कुछ बड़ा होने पर पिता ने घर पर ही शिक्षा देनी शुरू कर दी।  मूलशंकर को धर्मशास्त्र की शिक्षा दी गयी। उसके बाद मूलशंकर की इच्छा संस्कृत पढने की हुई। चौदह वर्ष की आयु तक मूलशंकर ने सम्पूर्ण संस्कृत व्याकरण, `सामवेद' और 'यजुर्वेद' का अध्ययन कर लिया था। ब्रह्मचर्यकाल में ही आप भारतोद्धार का व्रत लेकर घर से निकल पड़े।

 

मथुरा के स्वामी विरजानंद इनके गुरू थे।  शिक्षा प्राप्त कर गुरु की आज्ञा से धर्म सुधार हेतु ‘पाखण्ड खण्डिनी पताका' फहराई।

 

चौदह वर्ष की अवस्था में मूर्तिपूजा के प्रति इनके मन में विद्रोह हुआ और इक्कीस वर्ष की आयु में घर से निकल पड़े।  घर त्यागने के पश्चात 18 वर्ष तक इन्होंने सन्यासी का जीवन बिताया। इन्होंने बहुत से स्थानों में भ्रमण करते हुए कतिपय आचार्यों से शिक्षा प्राप्त की।

 

धर्म सुधार हेतु अग्रणी रहे दयानंद सरस्वती ने 1875 में मुंबई में आर्य समाज की स्थापना की थी।  वेदों का प्रचार करने के लिए उन्होंने पूरे देश का दौरा करके पंडित और विद्वानों को वेदों की महत्ता के बारे में समझाया।  स्वामी जी ने धर्म परिवर्तन कर चुके लोगों को पुन: हिंदू बनने की प्रेरणा देकर शुद्धि आंदोलन चलाया।  1886 में लाहौर में स्वामी दयानंद के अनुयायी लाला हंसराज ने दयानंद एंग्लो वैदिक कॉलेज की स्थापना की थी।  हिन्दू समाज को इससे नई चेतना मिली और अनेक संस्कारगत कुरीतियों से छुटकारा मिला।  स्वामी जी एकेश्वरवाद में विश्वास करते थे।  उन्होंने जातिवाद और बाल-विवाह का विरोध किया और नारी शिक्षा तथा विधवा विवाह को प्रोत्साहित किया।  उनका कहना था कि किसी भी अहिन्दू को हिन्दू धर्म में लिया जा सकता है।  इससे हिंदुओं का धर्म परिवर्तन रूक गया।

 

समाज सुधारक होने के साथ ही दयानंद सरस्वती जी ने अंग्रेजों के खिलाफ भी कई अभियान चलाए।  "भारत, भारतीयों का है' यह अँग्रेजों के अत्याचारी शासन से तंग आ चुके भारत में कहने का साहस भी सिर्फ दयानंद में ही था।  उन्होंने अपने प्रवचनों के माध्यम से भारतवासियों को राष्ट्रीयता का उपदेश दिया और भारतीयों को देश पर मर मिटने के लिए प्रेरित करते रहे।

 

अँग्रेजी सरकार स्वामी दयानंद से बुरी तरह तिलमिला गयी थी। स्वामीजी से छुटकारा पाने के लिए, उन्हें समाप्त करने के लिए तरह-तरह के षड्यंत्र रचे जाने लगे।  स्वामी जी का 1883 को दीपावली के दिन संध्या के समय देहांत हो गया।  स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपने विचारों के प्रचार के लिए हिन्दी भाषा को अपनाया।  उनकी सभी रचनाएं और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ ‘सत्यार्थ प्रकाश' मूल रूप में हिन्दी भाषा में लिखा गया।  आज भी उनके अनुयायी देश में शिक्षा आदि का महत्त्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं।

 


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स्वामी दयानंद की हिंदी हस्तलिपि - रोहित कुमार 'हैप्पी'

स्वामी दयानन्द की हस्तलिपि में ४ मार्च १८७९ को पंडित श्यामजीकृष्ण वर्म्मा को लिखा हुआ पत्र

स्वामी दयानन्द सरस्वती की हिंदी हस्तलिपि

स्वामी जी के उपरोक्त मूल पत्र को बिना संपादित किए यहाँ दिया जा रहा है:

पंडित श्यामजीकृष्ण वर्म्मा आनन्दित रहो तुम्हारा ता० २६ फरवरी का लिखा पत्र आया सब हाल विदित हुआ मैं बहुत शोक इस बात में करता हूं कि हमारे प्रिय बन्धु वर्ग पाताल देश निवासी लोगों को मुंबई में आ के मिल नहीं सकता क्योंकि हरद्वार में चैत्र की समाप्ति पर्यन्त ठहरने का नोटिस फाल्गुन झुकी ६ गुरुवार से दे चुका हूँ ।। और यहाँ इस बात की प्रसिद्धी भी कर चुका हूं अब इस बात को अन्यथा नहीं कर सकता ।। जब वे इस देश में लाहौर आदि के समाजों को देखने को आवेंगे तब यहां वा कहीं अत्यन्त प्रेम के साथ उन से मिलूंगा और बातचितें भी यथोचित होगी उन से मेरा आशीर्वाद कह के कुशल क्षेम प्रेम से पूँछना ।। और जो तुम ने समाज के विषय में लिखा कि न आओगे तो यहां का आर्य्यसमाज तूट जायगा क्या तुम ने समाज हरिचन्द्र चिन्तामणि के ही भरोसे किया था और जो मेरे आने जाने पर ही समाज की स्थिति है तो मैं अकेला कहां २ आ जा सकता हूं जो समाज में अयोग्य प्रधान हो उस को छुड़ा कर दूसरा नियत कर के समाज का काम ठीक २ चलाना चाहिए । कल यहां से चल के मुन्शी समर्थदान वेदभाष्य के काम पर नियत हो के मुंबई को आते हैं तुम से मिलेंगे छापे वालों और कागज वालों से ठीक २ नियम करा देना और बाबू हरिचन्द्र चिन्तामणि से भी सब पुस्तक पत्रे दिला देंना सब हिसाब किताब करा के शीघ्र खुलासा करा देना और इन को मकान आदि का क्लेश कुछ भी कभी न होने पावे। - दयानन्द सरस्वती

[उपरोक्त पत्र में कुछ भाषायी त्रुटियां हैं लेकिन सनद रहे कि स्वामी जी मूलत: गुजराती भाषी थे फिर भी उन्होंने हिंदी को अपनाया था।]

स्वामी दयानंद ने एक राष्ट्र भाषा का प्रश्न उठाया और स्वयं गुजराती भाषी होते हुए भी उन्होंने इस हेतु आर्यभाषा (हिंदी) को ही इस पद के योग्य मानअ।  स्वामीजी ने अपने भाषण, लेखन, शास्त्रार्थ एवं उपदेश आदि हिंदी में देने आरंभ किये जिससे हिंदी भाषा का प्रचार आरंभ हुआ और सबसे बढ़कर जनसाधारण के समझने के लिए हिंदी भाषा में वेदों का भाष्य किया। आपने प्रत्येक आर्यसमाजी के लिए हिंदी भाषा जानना प्राय: अनिवार्य कर दिया था।
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हिंदी की पहली कहानी - रोहित कुमार 'हैप्पी'

क्या आप जानते हैं कि हिंदी की पहली कहानी कौनसी थी? हिंदी में कहानी की यात्रा किस शताब्दी से आरंभ हुई?

हिंदी की पहली कहानी कौनसी है, यह आज भी चर्चा का विषय है।  विभिन्न कहानियाँ 'पहली कहानी' होने की दावेदार रही हैं। आज भी इसपर चर्चा-परिचर्चा होती है।  सयैद इंशाअल्लाह खाँ की 'रानी केतकी की कहानी', राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद की लिखी 'राजा भोज का सपना' किशोरीलाल गोस्वामी की 'इंदुमती', माधवराव स्प्रे की 'एक टोकरी भर मिट्टी', आचार्य रामचंद्र शुक्ल की 'ग्यारह वर्ष का समय' व बंग महिला की ''दुलाई वाली' अनेक कहानियाँ हैं जिन्हें अनेक विद्वानों ने अपना पक्ष रखते हुए हिंदी की सर्वप्रथम कहानी कहा है।

इस प्रश्न का उत्तर तो जटिल है परंतु हमारा प्रयास है कि इन सभी कहानियों को 'भारत-दर्शन' में प्रकाशित किया जाए। यहाँ इसी प्रयास का आरंभ करते हुए इन्हीं में से कुछ कहानियाँ प्रकाशित की हैं। पाठकों को रोचक व पठनीय लगेंगी, ऐसा हमारा विश्वास है।


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इस वेब साइट से उपहार भेजना होगा आसान - भारत-दर्शन संकलन

गुडगाँव (भारत): किसी भी अवसर पर उपहार (गिफ्ट) भेजने का सर्वाधिक सरल व सुलभ रास्ता है india-gift.in

 

इस साइट के माध्यम से आप भारत में कहीं भी उपहार भेज सकते हैं। भारत की नवीनतम गिफ्टिंग साईट पर हर प्रकार के विशिष्ट उपहार उपलब्ध हैं।

Online Gifts for India


इस वर्ष 8 मई 2016 को 'मदर्स डे' है।  यह दिन एक माँ के वर्षो के दिए गए प्यार और त्याग के प्रति आभार व्यक्त करने के लिए मनाया जाता है। माँ को उपहार देने के लिए भी आप इस साइट का उपयोग कर सकते हैं।

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परम्परा - रोहित कुमार 'हैप्पी'

महाविद्यालय का एक अध्ययन-कक्ष।

महाविद्यालय में नई लगी 29-30 वर्षीय एक प्रवक्ता अपना वक्तव्य दे रही है। कक्षा में कुछ लड़के लैक्चरर को देखते हुए, एक-दूसरे को देख भद्दे से संकेत करते हुए मुसकराते हैं।

'गुरु-शिष्य' की पवित्र 'प्राचीन परम्परा' कलयुगी शिष्यों से आहत हो सुबक उठती है।

- रोहित कुमार 'हैप्पी'


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कलियुग का एकलव्य - रोहित कुमार 'हैप्पी'

'नमस्ते, मास्टरजी!' गली से निकलती उस लड़की को देख एक मनचले ने फबती कसी। लड़की बेचारी आँखे नीचे किए तेज़ क़दमों से वहाँ से निकल गई।

वह लड़की स्थानीय विद्यालय के एक अध्यापक की बेटी थी। 'मास्टजी, नमस्ते' का संबोधन करने वाला यह 'कलियुग का एकलव्य' भी उसी विद्यालय का छात्र था।

- रोहित कुमार 'हैप्पी'

 


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नीति के दोहे - कबीर, तुलसी व रहीम

कबीर के नीति दोहे
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मलूकदास के दोहे - मलूकदास

भेष फकीरी जे करें, मन नहिं आवै हाथ ।
दिल फकीर जे हो रहे, साहेब तिनके साथ ॥

 

जो तेरे घर प्रेम है, तो कहि कहि न सुनाव । ......

 
 
मेरी चीन यात्रा - सुरेश अग्रवाल

13 नवम्बर 2015 की तिथि मेरे जीवन की एक यादगार घटना के तौर पर सदैव के लिये अंकित होकर रह गयी है। जी हाँ, इसी दिन चाइना रेड़ियो इण्टरनेशनल के आमंत्रण पर मुझे चीन जाने का सुअवसर प्राप्त हुआ था। चार दशक से लगातार सीआरआई हिन्दी से जुड़ा होने के कारण चीन के बारे में यूँ तो मुझे बहुत सी बातों की जानकारी थी, फिर भी एक नया देश और उसकी आब-ओ-हवा को देखने, जानने की गहन उत्कण्ठा मन में बनी थी। साथ में थीं कुछ भ्रान्तियाँ भी। चीन जाने से पूर्व उसकी जो तस्वीर ज़हन में उभर रही थी और जो मिथक मन में पल रहे थे, वहां पहुँचने के बाद उन सभी का अवसान घटित हो गया।

Suresh Agrawal at Radio China International

जहाँ एक ओर चीन देखने की उत्कट इच्छा थी, तो वहीं दूसरी ओर वहां की भाषा और खान-पान की समस्या मन में अनेक प्रश्न खड़े कर रही थी। अन्ततः साढ़े पांच घण्टे की उड़ान के बाद विमान शंघाई के पुडोंग अन्तरराष्ट्रीय हवाई अड्डे Suresh Agrawal at Radio China Internationalपहुंचा, जहाँ से उड़ान बदल कर मुझे पेइचिंग जाना था। सुरक्षा जाँच आदि की औपचारिकताएं पूरी होने के बाद स्थानीय समयानुसार दोपहर बाद 2.25 बजे उड़ान में सवार होकर पेइचिंग पहुंचा तो शाम के चार बज चुके थे और काफी सर्दी महसूस होने लगी थी। अब जो बात मैं आपसे साझा करना चाहता हूँ, वह पेइचिंग में कदम रखते ही मेरी चीन यात्रा का ऐसा अनुभव है, जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता। नई दिल्ली से उड़ान भरते समय मैंने लगेज के तौर पर जो ट्रॉली-बैग ज़मा कराया था, किसी ग़लतफ़हमी के चलते वह शंघाई से पेइचिंग हेतु बदली गई उड़ान में नहीं रखा गया और पेइचिंग पहुँचने पर जब मुझे मेरा सामान नहीं मिला, तो मैं कितना हैरान-परेशान था, बयान करना मुश्किल है। मुझे कुछ भी नहीं सूझ रहा था कि क्या किया जाये। तभी मन में ख्याल आया कि क्यों न हिन्दी विभाग के किसी सहयोगी को फ़ोन किया जाये। मैंने एयरपोर्ट पर एक संभ्रान्त चीनी महिला से एक फ़ोन कॉल मिलाने का आग्रह किया, तो वह तुरन्त सहमत हो गयी और मैंने हिन्दी विभाग के सहयोगी को पूरा माज़रा कह सुनाया। सहयोगी ने बतलाया कि श्याओ थांग जी बाहर आपका इन्तज़ार कर रही हैं, आप तुरन्त उन से मिल लीजिये। प्रश्न उठता है कि यदि वह संभ्रान्त चीनी महिला सहयोग न करतीं तो न जाने मुझे और कितना परेशान होना पड़ता ! मैं ने तो उन भद्र महिला का शुक्रिया भर अदा किया और वह मुस्कुरा कर चल दीं। मैंने उनके चेहरे पर अहसान नहीं, संतोष का भाव देखा।

Suresh Agrawal at Radio China International

तनाव के इन क्षणों में एयरपोर्ट पर मुझे जो सहयोग मिला, उसे भी शब्दों में व्यक्त करना मेरे लिये सम्भव नहीं और चीन Suresh Agrawal at Radio China Internationalके प्रति मन में समायी पहली भ्रान्ति यहीं टूट गयी। मैं प्रशंसा करना चाहूँगा एयरपोर्ट कर्मचारियों और अधिकारियों की, जो कि भाषा कठिनाई के बावज़ूद मेरी बात पर पूरा ध्यान दे रहे थे और जिन्होंने मेरी शिकायत पर तुरन्त शंघाई एयरपोर्ट से सम्पर्क स्थापित कर मेरा सामान वहां सुरक्षित होने की पुष्टि की। यहाँ मैं इतना स्पष्ट ज़रूर करना चाहूँगा कि यदि इस काम में चाइना रेड़ियो की ओर से मुझे एयरपोर्ट लेने पहुंचीं मैडम श्याओ थांग जी मदद न करतीं, तो शायद ही मुझे मेरा खोया सामान मिल पाता ! एयरपोर्ट अधिकारी पूरा सहयोग कर रहे थे, परन्तु चीनी भाषा न आने के कारण मैं उन्हें अपनी बात सही ढ़ंग से नहीं समझा पा रहा था, इसलिये बात आगे नहीं बढ़ पा रही थी। श्याओ थांग जी ने पूरी बात समझायी, तो समस्या सुलझ गयी और मैं ख़ुशी-ख़ुशी उनके साथ अपने होटल की ओर चल दिया। यहाँ पहुँच कर मैंने यह भी अनुभव किया कि चीन में केवल अंग्रेज़ी भाषा से काम नहीं चलाया जा सकता और चीनी लोग अपनी भाषा से बहुत प्यार करते हैं।

इसी तरह एक अन्य वाकये ने भी मुझे बहुत प्रभावित किया। होटल पहुँचने के बाद रात को सीआरआई हिन्दी विभाग के दो साथी मुझ से मिलने वहां आये। हम होटल के लाउंज में कहीं एक जगह बैठ कर इत्मीनान से बातचीत करना चाहते थे। मैंने देखा कि तीन लोगों के बैठने के एक सोफ़े पर एक बुजुर्ग महिला बैठी हैं और बाकी सोफ़े दो लोगों के बैठने के लिये उपयुक्त हैं। हम बैठने के लिये इधर-उधर उपयुक्त स्थान की तलाश कर रहे थे, कि बुजुर्ग चीनी महिला हमारी बात समझ गयीं और उन्होंने हमारे लिये वह सोफ़ा छोड़ दिया। शिष्टाचार की ऐसी मिसाल शायद ही कहीं और देखने को मिले !

चीन जाने से पूर्व मेरे मन में एक भ्रम यह था कि वहां विदेशियों को घूर-घूर कर देखा जाता होगा, मेरी यह धारणा भी मिथ्या साबित हुई। वास्तव में, चीनी लोग विदेशियों के साथ अधिक मित्रवत होते हैं। यदि आप किसी राह चलते व्यक्ति से भी कुछ पूछना चाहते हैं, तो वह न केवल आपकी बात सुनता है, अपितु उसके समाधान की कोशिश भी करता है। स्वच्छता तो जैसे उनके स्वाभाव में समायी है।

चीन एक बहुत ही सुन्दर देश है और प्रकृति की सभी छटाएं वहां विद्यमान हैं और वहां के लोग भी अतिथि परायण हैं। अपनी चीन यात्रा के दौरान मुझे एक ही चीज़ की कुछ परेशानी महसूस हुई, वह थी खानपान की। विशुद्ध शाकाहारी होने के कारण मुझे हर चीज़ पूछ कर खानी होती थी। मेरी राय में यदि चीन के प्रमुख पर्यटन स्थलों पर शुद्ध शाकाहारी भोजन की सहज सुलभता हो, तो भारतीय पर्यटक यूरोप और अमेरिका से ज़्यादा चीन जाना पसन्द करेंगे। ।

- सुरेश अग्रवाल, केसिंगा (ओड़िशा)


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हिन्दी के बिना हमारा कार्य नहीं चल सकता - भारत-दर्शन संकलन

अंग्रेजी के विषय में लोगों की जो कुछ भी भावना हो, पर मैं यह दावे के साथ कह सकता हूँ कि हिन्दी के बिना हमारा कार्य नहीं चल सकता । हिन्दी की पुस्तकें लिख कर और हिन्दी बोल कर भारत के अधिकाँश भाग को निश्चय ही लाभ हो सकता है। यदि हम देश में बंगला और अंग्रेजी जाननेवालों की संख्या का पता चलाएँ, तो हमें साफ प्रकट हो जाएगा कि वह कितनी न्यून है। जो सज्जन हिन्दी भाषा द्वारा भारत में एकता पैदा करना चाहते हैं, वे निश्चय ही भारतबन्धु हैं । हम सब को संगठित हो कर इस ध्येय की प्राप्ति के लिए प्रयास करना चाहिए । भले ही इस को पाने में अधिक समय लगे, परन्तु हमें सफलता अवश्य मिलेगी ।

- बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय
[ राष्ट्रभाषा का इतिहास ]

 

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राकेश पांडेय की कवितायें - राकेश पांडेय

दिल्ली में सावन

दिल्ली में सावन गाने वालो,
मेघ मल्हार की टेक लगाने वालों,......

 
 
'ओम जय जगदीश हरे' आरती के रचियता - भारत-दर्शन संकलन

देश-विदेश में बसे करोड़ो लोग प्रतिदिन जिस आरती से अपने ईश्वर का स्मरण करते हैं, उस आरती के रचियता थे पं० श्रद्धा राम फिल्लौरी ।
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महाशिवरात्रि की कथा - भारत-दर्शन संकलन

एक बार पार्वती ने भगवान शिवशंकर से पूछा, 'ऐसा कौन सा श्रेष्ठ तथा सरल व्रत-पूजन है, जिससे मृत्यु लोक के प्राणी आपकी कृपा सहज ही प्राप्त कर लें?'

उत्तर में शिवजी ने पार्वती को 'शिवरात्रि' के व्रत का विधान बताकर यह कथा सुनाई- 'एक गाँव में एक शिकारी रहता था। पशुओं की हत्या करके वह अपने कुटुम्ब को पालता था। वह एक साहूकार का ऋणी था, लेकिन उसका ऋण समय पर न चुका सका। क्रोधवश साहूकार ने शिकारी को शिवमठ में बंदी बना लिया। संयोग से उस दिन शिवरात्रि थी।
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दो ग़ज़लें  - सुनीता काम्बोज

1)

ये नफ़रत का असर कब तक रहेगा
है सहमा सा नगर कब तक रहेगा

हक़ीकत जान जाएगा तुम्हारी......

 
 
उड़ान - राज हंस गुप्ता

ऊँचे नील गगन के वासी, अनजाने पहन पाहुन मधुमासी,
बादल के संग जाने वाले,......

 
 
भविष्य कहीं गया  - कुसुम दादसेना

था एक जोड़ा, किया था उन्होने प्रेम विवाह 
पर उनकी जिंदगी हो गई तबाह......

 
 
तीन कविताएं - संतोष कुमार “गौतम”

डरे हुए लोग

डरे हुए लोग
हर रोज जीते हैं......

 
 
तीन कवितायें - प्रदीप मिश्र

हमारे समय का फ़लसफ़ा


इकट्ठे हुए थे सारे जीव एक ज़गह......

 
 
ग़ज़ल - अमन का फ़रमान  - अफरंग

अमन का और मोहब्बत का ना तू फ़रमान बन पाया,
तू दुनिया में बना क्या-क्या; ना एक इंसान बन पाया|

मज़हब कोई सिखाए ना, जो नफ़रत क़ैद है तुझमें,......

 
 
दो ग़ज़लें  - डॉ भावना

पर्वत पिघल गया तो पानी को आन क्यूँ है?
गुमसुम नदी के भीतर ऐसा उफान क्यूँ है?

अमृत के बदले जिसको केवल गरल मिला हो......

 
 
ग़ज़ल  - शुकदेव पटनायक 'सदा'

प्यासी धरा और खेत पर मैं गीत लिक्खूंगा
अब सत्य के संकेत पर मैं गीत लिक्खूंगा

मिटकर भी दिल से मिट न पाएगा मेरा लिक्खा ......

 
 
ग़ज़ल  - गौरव सक्सेना

हलक में अब साँस भी फंसने लगी है
चोट कोई फिर कहीं रिसने लगी है।

उजड़ते ख्वाबों की जो इक दास्ताँ है......

 
 
दो ग़ज़लें  - अंकित

अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं​;​
रुख हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं​;​......

 
 
दो ग़ज़लें  - अजय अज्ञात

पिता के दक्ष हाथों ने मुझे साँचे में ढाला है
मुझे कुलदीप बन घर में सदा करना उजाला है

मेरे नखरे उठाये हैं बड़े नाज़ों से पाला है......

 
 
ग़ज़ल  - शशिकान्त मिश्रा

क्यों भूल गए हमको रिश्ता तो पुराना था,
एक ये भी ज़माना है, एक वो भी ज़माना था!

रंगीन फिजायें थी, और शोक अदाएं थी,......

 
 
समय - हर्षवर्धन व्यास

समय समय पर समय समझकर समय काटना होता है
समय के आगे समय के पीछे कभी भागना होता है ......

 
 
काश हम जंगल में रहते - रवि रंजन गोस्वामी

काश कि हम जंगल में रहते
पेड़ों पर झटपट चढ़ जाते ......

 
 
तुम्हें याद है ? - यतेन्द्र कुमार

तुम्हें याद है ? नाम लिखा था तुमने मेरा नदी किनारे,
एक साँझ अपनी उँगली से भीगे हुए रेत के ऊपर : ......

 
 
विश्व-बोध - गौरीशङ्कर मिश्र ‘द्विजेन्द्र'

रचे क्या तूने वेद-पुराण,
नीति, दर्शन, ज्योतिष, विज्ञान, ......

 
 
फूलों का गीत  - निरंकार देव

 

हम फूलों ने सीखा खिलना
हँसना और हँसाना,......

 
 
सरल पुकार - प्रशांत अग्रवाल

ऐ मालिक हम तेरे बच्चे
रहें हमेशा दिल के सच्चे......

 
 
वर्तमान परिदृश्य में हिन्दी - डॉ. सचिन कुमार

वर्तमान परिदृश्य में हिन्दी समूचे विश्व के आकर्षण का केन्द्र बनती जा रही है। विश्व के लगभग 140 प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में हिन्दी का पठन-पाठन होना एक शुभ संकेत है। आज बाजार में अपना पाँव पसारे कई टी0वी0 चैनलों को लगने लगा है कि हमें अगर भारत में लोकप्रियता अर्जित करनी है और पैसा कमाना है तो यह हिन्दी के बिना संभव नहीं। डिस्कवरी, नेशनल ज्योग्राफिकल चैनल एवं बच्चों के लोकप्रिय चैनल पोगो को अन्ततः अपने प्रसारण का हिन्दी में अनुवाद प्रस्तुत करना ही पड़ा।

आज का युग सूचना-क्रान्ति का युग है, जहाँ ज्ञान-विज्ञान का निरन्तर विकास होता जा रहा है। परस्पर सम्पर्क क्षेत्र भी बढ़ता जा रहा है, अतः ऐसी स्थिति में वह भाषा सर्वप्रिय और सर्वोपयोगी मानी जा सकती है जो अन्तर्राष्ट्रीय सभी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके। भाषा के प्रायः दो रूप माने जाते हैं - सामान्य अभिव्यक्तिपरक रूप तथा प्रगतिपरक अभिव्यक्ति रूप। जिसमें से प्रगतिपरक भाषा का सीधा सम्बन्ध ज्ञान-विज्ञान, तकनीक के क्षेत्र से रहता है और ज्यों-ज्यों विकास के चरण बढ़ते जाते हैं इस प्रकार की भाषा की उपयोगिता भी बढ़ती जाती है। यह तथ्य भी ध्यान मंे रखना आवश्यक है कि तकनीकी भाषा साहित्यिक भाषा से अलग करके नहीं देखी जा सकती। उसका तकनीकी क्षेत्र में प्रयोग उसके मूल संरचनात्मक स्वरूप को वैसा ही बनाये रखता है, मात्र उसके प्रयोगजनक प्रकार्य का स्तर, क्षेत्र बढ़ जाता है, अतः इसको विशेष भाषा भी मान लिया जाता है। उसका यह विशेषीकृत रूप ही उसे वैज्ञानिक और तकनीकी भाषा का अभिधान ग्रहण करने के योग्य बनाता है। एक सामान्य शब्द है-बाजार। इसका विशेष प्रयोग है- ‘विश्व बाजार', ‘दाल बाजार' ,'काला बाजार' आदि। इसी प्रकार ‘निजी' और ‘सार्वजनिक' शब्द भी प्रयुक्त हैं - ‘निजी क्षेत्र' ,‘सार्वजनिक क्षेत्र'।

अतः यह सर्वमान्य तथ्य है कि भूमण्डलीकरण के दौर में तब तक कोई भाषा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अपने को प्र्रस्थापित नहीं कर पाती है, जब तक वह भाषा अपनी प्रामाणिकता, अपनी शुद्धता एवं अपनी वैज्ञानिकता सिद्ध नहीं कर देती।
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दास्तान- ए- मोहब्बत - कुँवर राज "कविराज"

हम उनकी गली से गुजरे,
उन्होंने हमें देखा, वो मुस्कुराने लगे|......

 
 
हिंदी हाइकु  - भारत-दर्शन संकलन

हाइकु पांच, सात और पांच की तीन पंक्तियों में लिखी जाने वाली सत्रह-अक्षरी जापानी काव्य आधारित विधा है। यहाँ हिंदी हाइकु संकलित किए गए हैं।

 


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दोहा संग्रह - गीता प्रेस

दोहा-संग्रह
चार वेद षट शास्त्र में, बात मिली हैं दोय ।......

 
 
हमारे अनोखे साथी - प्रशांत अग्रवाल

मोटू हाथी देह विशाल
मन मोहे मस्तानी चाल

जो लड़ता हो जाता ढेर......

 
 
राखी  - नज़ीर अकबराबादी

चली आती है अब तो हर कहीं बाज़ार की राखी
सुनहरी सब्ज़ रेशम ज़र्द और गुलनार की राखी......

 
 
चाँद निकला - सत्यनारायण पंवार

जंगल में लहराते हरे पेड़ लगे हुए
चांद निकला रोशनी फैलाने के लिए......

 
 
तीन कवितायें - डॉ.प्रमोद सोनवानी

पर्यावरण बचाना है

 

धरा को स्वर्ग बनाना है,
पर्यावरण बचाना है ।......

 
 
हिंदी को आपका साथ चाहिए पर... - रोहित कुमार हैप्पी

हर वर्ष हम 14 सितंबर को देश-विदेश में हिंदी-दिवस व हिंदी पखवाड़ा जैसे समारोहों का आयोजन करते हैं। निःसंदेह ऐसे आयोजनों के लिए निःस्वार्थ भाव की परम आवश्यकता है। हिंदी को भाषणबाजों और स्वयंभू नेताओं की नहीं बल्कि सिपाहियों की जरूरत है।
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अँग्रेज़ी प्राणन से प्यारी। - बरसाने लाल चतुर्वेदी

अँग्रेज़ी प्राणन से प्यारी।
चले गए अँग्रेज़ छोड़ि याहि, हमने है मस्तक पे धारी।......

 
 
खिचड़ी भाषा - भारत-दर्शन संकलन

एक बार एक विद्यार्थी ने पंडित नेहरू से 'आटोग्राफ ' मांगा । पंडित जी ने अंग्रेजी में हस्ताक्षर करके उसे पुस्तिका लौटा दी । फिर विद्यार्थी ने पुस्तिका पर एक शुभकामना संदेश लिखने के लिए प्रार्थना की तो चाचा नेहरू ने वह भी पूरीकर दी ।

 

अंत में विद्यार्थी ने अनुरोध किया, 'कृपया इस पर तारीख भी डाल दें,' जिस के जवाब में पंडित नेहरू ने वैसा ही करके पुस्तिका लौटा दी ।

 

जब विद्यार्थी ने पुस्तिका देखी तो उस पर आटोग्राफ 'अंग्रेजी' में, शुभकामना संदेश 'हिंदी' में और तारीख 'उर्दू'
में डाली हुई थी ।

 

विद्यार्थी को आश्चर्यचकित देख, पंडित नेहरू ने समझाया, "तुमने पहले 'आटोग्राफ' मांगा जो अंग्रेजी शब्द है, शुभकामना हिंदी शब्द है अत: वो वाक्य हिंदी तें लिखा। तारीख 'उर्दू' शब्द है इसलिए उर्दू में लिखा। देखो बेटा, खिचड़ी भाषा बोलोगे तो उत्तर भी वैसा ही पाओगे।''

[ भारत-दर्शन संकलन ]

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कुछ लिखोगे  - मिताली खोड़ियार

कुछ लिखोगे
तुमने कहा था न कुछ लिखोगे ......

 
 
ठण्डी का बिगुल - सुशील कुमार वर्मा

शंख बजे ज्यों ही ठण्डी के,
मौसम ने यूं पलटा खाया,......

 
 
नया सबेरा - बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष

नए साल का, नया सबेरा,
जब, अम्बर से धरती पर उतरे,......

 
 
अनूदित कहानियाँ - भारत-दर्शन संकलन

श्रेष्ट विश्व साहित्य से अनूदित कहानियाँ।


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यारो उम्र गुज़ार दी | ग़ज़ल - शांती स्वरूप मिश्र

यारो उम्र गुज़ार दी, अब समझने को बचा क्या है
सब कुछ तो कह चुके, अब कहने को बचा क्या है

कोई समझेगा भला क्या इस शहर की करामातें,......

 
 
बदला हुआ मौसम  - रोहित कुमार 'हैप्पी'

अचानक हिंदी पर गोष्ठियां, सम्मेलन व तरह-तरह के समारोह आयोजित होने लगे थे।  हिंदी नारे बुलंदियो पर थे। सरकारी संगठनो से साठ-गांठ के ताबड़तोड़ प्रयास भी जोरों पर थे।

इन दिनों 'अंग्रेज़ी' भी 'हिंदी' बोलने लगी थी। मौसम बदला-बदला महसूस हो रहा था। कुछ बरसों में ऐसा मौसम तब आता है जब 'विश्व हिंदी' सम्मेलन आने वाला होता है।

- रोहित कुमार 'हैप्पी'


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अहमद फ़राज़ की दो ग़ज़लें  - अहमद फ़राज़

नज़र की धूप में साये घुले हैं शब की तरह
मैं कब उदास नहीं था मगर न अब की तरह

फिर आज *शह्रे-तमन्ना की रहगुज़ारों से......

 
 
गिरिधर कविराय की कुंडलिया - गिरिधर कविराय

गुन के गाहक सहस नर, बिनु गुन लहै न कोय
जैसे कागा कोकिला, शब्द सुनै सब कोय......

 
 
सबको लड़ने ही पड़े : दोहे  - ज़हीर कुरैशी

बहुत बुरों के बीच से, करना पड़ा चुनाव ।
अच्छे लोगों का हुआ, इतना अधिक अभाव ।।

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अभी ज़मीर में... | ग़ज़ल - जावेद अख़्तर

अभी ज़मीर में थोड़ी सी जान बाक़ी है
अभी हमारा कोई इम्तिहान बाक़ी है

 

हमारे घर को तो उजड़े हुए ज़माना हुआ ......

 
 
डॉ गोविंदप्पा वेंकटस्वामी - रोहित कुमार 'हैप्पी'

जीवन परिचय 

डॉ गोविंदप्पा वेंकटस्वामी (Dr Govindappa Venkataswamy) को स्नेह से लोग "डॉ वी" के नाम से पुकारते हैं। डॉ गोविंदप्पा वेंकटस्वामी ने लाखों लोगों की शल्य चिकित्सा की हैं और लाखों को आँखों की रोशनी दी है।

पद्मश्री डॉ गोविंदप्पा वेंकटस्वामी का जन्म 1 अक्तूबर 1918 को तमिलनाडु के किसान परिवार में हुआ था। 7 जुलाई 2006 को मदुरई, तमिलनाडु में आपका देहांत हो गया।

आपने चेन्नई में स्टेनली मेडिकल कॉलेज से अपनी मेडिकल डिग्री प्राप्त की और Dr Govindappa Venkataswamyभारतीय सेना की मेडिकल कोर में शामिल हो गए। इसी समय आपको रूमेटोइड गठिया (rheumatoid arthritis) बीमारी ने आ घेरा व आप शल्य चिकित्सा करने में असमर्थ होने पर आपने नेत्र विज्ञान का अध्ययन आरंभ किया। आप अपने गठिया वाले हाथों के लिए विशेष रूप से निर्मित यंत्रों का उपयोग करने लगे। इन उपकरणों की सहायता से आप एक दिन में 100 मोतियाबिंद की सर्जरी करने में सक्षम हुए। देखते-देखते आप भारत में मोतियाबिंद के लिए सर्वाधिक सफल सर्जन के रूप में विख्यात हो गए। आपने लगभग 25 वर्षों तक आँखों की सर्जरी करने का सराहनीय कार्य किया।

डॉ गोविंदप्पा वेंकटस्वामी 'अरविंद आँखों के अस्पताल' (Aravind Eye Hospitals) के संस्थापक हैं और इसके अध्यक्ष थे। वर्तमान में 5 अरविंद आँखों के अस्पतालों में 3600 बिस्तर हैं जिनमें हर वर्ष दो लाख से भी अधिक शल्य चिकित्सा होती हैं। यहाँ आने वाले मरीजों मे से 70% को निशुल्क या बहुत कम खर्चे पर आँखों के इलाज़ की सुविधा उपलब्ध करवाई जाती है।

1 अक्टूबर 2018 को पद्मश्री डॉ गोविंदप्पा के जन्मदिवस (Dr Govindappa Venkataswamy) के अवसर पर गूगल ने भी डूडल (Google Doodle) बनाकर उन्हें याद किया।

- रोहित कुमार 'हैप्पी'


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मोहन खेल रहे है होरी - शिवदीन राम

मोहन खेल रहे हैं होरी ।
गुवाल बाल संग रंग अनेकों, धन्य धन्य यह होरी ।।......

 
 
हास्य कथा-कहानी-व्यंग संकलन - भारत-दर्शन संकलन

हास्य कथा-कहानी-व्यंग संकलन - यहाँ हिंदी की प्रतिनिधि हास्य-व्यंग की कथा-कहानियों को संकलित करने का प्रयास किया जा रहा है। आइए, हिंदी साहित्य की कुछ हास्य-व्यंग कथा-कहानियों का आस्वादन करें।


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हास्य कथा कहानी संकलन - भारत-दर्शन संकलन

हास्य कथा-कहानी-व्यंग संकलन - यहाँ हिंदी की प्रतिनिधि हास्य-व्यंग की कथा-कहानियों को संकलित करने का प्रयास किया जा रहा है। आइए, हिंदी साहित्य की कुछ हास्य-व्यंग कथा-कहानियों का आस्वादन करें।


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माँ पर हाइकु - अभिषेक जैन

मैया का आया
वृद्धाश्रम से खत......

 
 
शहीर जलाली की दो ग़ज़लें  - शहीर जलाली

तन बेचते हैं, कभी मन बेचते हैं
दुल्हन बेचते हैं कभी बहन बेचते हैं

बदल कर सैंकड़ों लिबास सौदागर......

 
 
कभी घर में नहीं... - बसंत कुमार शर्मा

कभी घर में नहीं मिलता, कभी बाहर नहीं मिलता
यहाँ पर अब बुजुर्गों को, कहीं आदर नहीं मिलता......

 
 
कैसा विकास - प्रभाकर माचवे

यह कैसा विकास
चारों और उगी है केवल......

 
 
जन्म-दिन - वंदना भारद्वाज

वो हर बरस आता है
और... ......

 
 
विंग कमांडर अभिनंदन वर्तमान - रोहित कुमार ‘हैप्पी'

विंग कमांडर अभिनंदन वर्तमान (Wg Cdr V Abhinandan) 38 वर्षीय भारतीय वायुसेना के पायलट हैं। आपका जन्म-दिवस 21 जून को होता है।

विंग कमांडर अभिनंदन वर्तमान (Wg Cdr V Abhinandan)


आपका पूरा नाम 'अभिनंदन वर्तमान' ( Abhinandan Varthaman) है। हिन्दी में आपका नाम, 'अभिनंदन वर्तमान' बोला जाता जबकि दक्षिण भारत में आपका नाम, 'अभिनंदन वर्थमान' बोला जाएगा। दक्षिण भारत में 'त' को 'थ' बोला जाता है जैसे 'हिंदुस्तान' को 'हिंदुस्थान' कहा जाता है।

कई समाचार पत्र-पत्रिकाओं में आपका नाम 'अभिनंदन वर्धमान' प्रकाशित किया गया है।

 

पारिवारिक पृष्ठभूमि

आपके दादा भी भारतीय वायुसेना में थे। उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध में भाग लिया था। आपके पिता का नाम एस वर्तमान (S Varthaman) भारतीय वायुसेना में एयरमार्शल थे। आपकी पत्नी सेवानिवृत्त स्क्वाड्रनलीडर तन्वी मारवाह ने भी भारतीय वायुसेना में 15 वर्षों तक सेवाएँ दी हैं।

विंग कमांडर अभिनंदन व उनकी पत्नी तन्वी मारवाह बचपन के साथी हैं। दोनों पांचवीं कक्षा से एक-दूसरे से परिचित थे। दोनों ने कॉलेज में माइक्रोबायोलॉजी की डिग्री भी एकसाथ ली थी। विंग कमांडर अभिनंदन वर्धमान एक पुत्र के पिता हैं।

आपका भाई भी वायुसेना में अपनी सेवाएँ दे रहा है। अभिनंदन की तीन पीढ़ियाँ भारत की सेना से जुड़ी हुई हैं।

 

शिक्षा

अभिनंदन ने अपनी 10वीं कक्षा तक की प्रारम्भिक शिक्षा केंद्रीय विद्यालय बेंगलुरु से प्राप्त की।

उच्च शिक्षा दिल्ली में पूरी की है। उस समय उनके पिता भी भारतीय वायुसेना में थे और दिल्ली में ही भारतीय वायुसेना में पदस्थ थे, इसलिए पूरा परिवार यहीं रहा करता था। अभिनंदन खड़कवासला स्थित राष्ट्रीय रक्षा अकादमी के छात्र रहे हैं।

अभिनंदन को मिग -21 विमान बहुत प्रिय है और वह इस विमान के बहुत बड़े प्रशंसक हैं।

विंग कमांडर अभिनंदन वर्तमान (Wg Cdr V Abhinandan) को उनके लड़ाकू विमान के क्षतिग्रस्त होने पर 27 फरवरी 2019 को पाकिस्तानी सेना ने अपनी हिरासत में ले लिया था। दो दिनों से अधिक पाकिस्तानी हिरासत में रखने के बाद ‘पाकिस्तान' ने ‘जिनेवा संधि' (Geneva Convention) के अंतर्गत विंग कमांडर अभिनंदन वर्तमान को 1 मार्च 2019 को छोड़ दिया गया।

 

घर लौटने पर

वायुसेना ने विंग कमांडर अभिनंदन वर्तमान की वापसी पर प्रसन्नता व्यक्त की और बताया कि भारत पहुंचते ही अभिनंदन ने कहा, 'अपने देश आकर बहुत अच्छा लग रहा है।'

विंग कमांडर अभिनंदन वर्तमान के घर लौटने पर सम्पूर्ण देश ने उनका हार्दिक स्वागत किया। पूरा देश उन्हें एक ‘जाँबाज' सिपाही के रूप में देख रहा है। कोई उनकी तुलना हनुमान से कर रहा है तो कोई उन्हें ‘वायुवीर' कह कर अलंकृत कर रहा है। उनके सकुशल घर लौटने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री राजनाथ सिंह, रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण, कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी सहित अनेक नेताओं ने प्रसन्नता जताई है।

मेजर जनरल (डॉ.) गगनदीप बक्शी (सेवानिवृत) ने विंग कमांडर अभिनंदन वर्तमान की घर वापसी पर प्रसन्नता व्यक्त की है और साथ ही आतंकवाद के समाधान पर यह संदेश भी दिया, "देश में एक वर्ग ऐसा है जो शांति में नोबल पुरस्कार पाने की होड़ में लगा हुआ है। इसी वजह से वह आतंकियों के सफाए को भी मानवाधिकार हनन करार देता है।

एंटी टेरोरिस्ट फ्रंट के संस्थापक बिट्टा ने विंग कमांडर अभिनंदन वर्तमान को ‘ज़िंदा शहीद' की संज्ञा दी है। उन्होंने कहा है कि अभिनंदन ने एक मिसाल कायम कि है और वे पूरे देश के लिए, विशेषत: नयी पीढ़ी के लिए एक प्रेरणा-स्रोत हैं। बिट्टा 1993 में युवक कांग्रेस के अध्यक्ष थे औऱ उनके दफ्तर के बाहर एक कार में आरडीएक्स (RDX) बम रख दिया गया था। जैसे ही बिट्टा बाहर आए, रिमोट कंट्रोल से आतंकवादियों ने विस्फोट कर दिया। इस हमले में बिट्टा सहित 25 लोग बुरी तरह घायल हो गए थे और 9 लोगों की मौत हो गई थी। इस घटना के बाद से बिट्टा को ‘जिंदा शहीद' कहा जाने लगा और उन्होंने आतंकवादियों के विरुद्ध देश में आवाज़ उठायी। बिट्टा आतंकवाद के कट्टर विरोधी हैं। वे देश में शहीदों के बच्चों को मुफ्त पढ़ाने के लिए प्रयासरत हैं।

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हो हो होली - होलिका नन्द

हो हो होली
कैसी होली आई, धूल है खूब उड़ाई ; ......

 
 
सुनिए तो - आंकड़े बोलते हैं - रोहित कुमार हैप्पी

इन पृष्ठों में उन तथ्यों को उपलब्ध करवाया जाएगा जो जनहित में हैं और अन्यत्र सरल सुलभ नहीं।


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घोषणा पत्र | Manifesto - रोहित कुमार हैप्पी

घोषणा-पत्र - Manifesto 2019

आप इन घोषणा पत्रों को डाउनलोड करने के लिए right click करें और save link as दबाएं: 

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का 2019 आम चुनावों के लिए घोषणा-पत्र (Download Congress Manifesto 2019 Hindi)

Manifesto 2019 - English  (Download Congress Manifesto 2019 English)

 

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा)

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का 2019 आम चुनावों के लिए घोषणा-पत्र - अभी उपलब्ध नहीं 

 

 

घोषणा-पत्र -  Manifesto 2014

आप इन घोषणा पत्रों को डाउनलोड करने के लिए right click करें और save link as दबाएं: 

 

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का 2014 आम चुनावों के लिए घोषणा-पत्र (Available in English Only - Download Congress Manifesto 2014 English )

 

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा)

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का 2014 आम चुनावों के लिए घोषणा-पत्र (BJP Manifesto 2014 Hindi Download)

BJP Manifesto 2014  - English  (BJP Manifesto 2014 English Download)


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पिता के दिल में माँ - अमलेन्दु अस्थाना

उस दिन बहुत उदास थी माँ,
चापाकल के चबूतरे पर चुपचाप बैठी रही,......

 
 
हिन्दी-हत्या - अरुण जैमिनी

सरकारी कार्यालय में
नौकरी मांगने पहुँचा
तो अधिकारी ने पूछा-
"क्या किया है?"

मैंने कहा- "एम.ए."

वो बोला- "किस में?"

मैंने गर्व से कहा- "हिन्दी में।"

उसने नाक सिकोंड़ी
"अच्छा... हिन्दी में एम.ए. हो!
बड़े बेशर्म हो
अभी तक ज़िन्दा हो!
तुमसे तो
वो स्कूल का लड़का ही अच्छा था
जो ज़रा-सी हिन्दी बोलने के कारण
इतना अपमानित हुआ
कि उसने आत्म-हत्या कर ली,
अरे!
इस देश के बारे में कुछ सोचो
नौकरी मांगने आए हो,
जाओ भैया!
कहीं कुआँ या खाई खोजो।"

मैंने कहा-
"हिन्दुस्तान में रहते
हिन्दी का विरोध
हिन्दी के प्रति
इतना प्रतिशोध?"

वो बोला-
"यह हिन्दुस्तान नहीं
इंडिया है,
और हिन्दी
सुहागिन भारत के माथे की
उजड़ी हुई बिन्दिया है।
तुम्हारे ये हिन्दी के ठेकेदार
हर वर्ष
हिन्दी-दिवस तो मनाते हैं
पर रोज़ होती हिन्दी-हत्या को
जल्दी भूल जाते हैं।"

--अरुण जैमिनी


......
 
 
बे-कायदा - माया मृग

जब भी मैं
जागने की ......

 
 
छाप तिलक सब छीनी - अमीर खुसरो

अपनी छवि बनाइ के जो मैं पी के पास गई,
जब छवि देखी पीहू की तो अपनी भूल गई।......

 
 
सृजन-सिपाही - श्रवण राही

लेखनी में रक्त की भर सुर्ख स्याही
काल-पथ पर भी सृजन के हम सिपाही, ......

 
 
त्रासदी  - रोहित कुमार ‘हैप्पी'

वायु सेना के इस पायलट ने कुछ ऐसा कर दिखाया कि सारा देश उसकी जय-जयकार कर उठा। लगभग 60 घंटे शत्रुओं की हिरासत में रहने के बाद भी वह जीवित अपने वतन लौट आया था। उसने दुश्मन की हिरासत में अपना मुंह नहीं खोला। अपने नाम व बैच के सिवाए उसने कुछ नहीं बताया था।

60 घंटे परायी धरती पर रहने के बाद, अपने वतन की मिट्टी पर पाँव रखते ही, उसे जो महसूस हुआ उसको वह शब्दों में ब्यान नहीं कर सकता।

बाहर हजारों की संख्या में लोग उसका नाम ‘ज़िन्दाबाद' कर रहे थे। उसके फौलादी सीने में भी भावुकता ने धीरे से अपनी जगह बना ली थी।

‘इतना प्यार, इतना सम्मान!' पलभर के लिए उसकी पीड़ा, उसकी थकान भी मुसकुरा दी थी।

कोई उसे ‘ज़िंदा शहीद' बता रहा था तो कुछ सैनिक टीवी पर उसके लिए ‘सर्वोच्च सैनिक सम्मान' की सिफ़ारिश कर रहे थे।

पूरा देश उसके साथ था। वह देश का नायक बन चुका था। अपनी सीमा पर पाँव रखते ही उच्च अधिकारी उसे लेने आए थे। प्रधानमंत्री और अन्य नेताओं के बधाई-संदेश मिले थे। उसे सीधा वायु सेना के ‘हेड क्वार्टर' ले जाया गया था।

उसका परिवार उससे मिलने के लिए पहले ही देहली पहुँच चुका था।

‘वेलकम बैक, माइ सन!' उसके सेवानिवृत्त सैनिक पिता ने उसका स्वागत किया। माँ ने भरी आँखों के आँसुओं को रोकते हुए उसकी पीठ पर हाथ फेर कर दूसरी और मुंह कर लिया। उसे डर था कि कहीं वह फूट ना पड़े।

सैनिक को अपनी पत्नी और बच्चों से मिलकर अपने जीवन का रंग इंद्रधनुषी लगने लगा। पीड़ा, संताप और परायी धरती का ग्रहण उतर चुका था। अब वह अपने परिवार के साथ था और अपनी माँ की गोद में सिर रख सकता था।

"वी हैव टु गो सर!" एक सैनिक अधिकारी ने अचानक आकर व्यवधान डाल दिया।

"कहाँ? व्हेयर?" उसकी पत्नी और माँ ने एक साथ पूछा।

"दे हैव टु परफ़ोर्म सम फ़ोरमलिटिज़।" सेवानिवृत सैनिक पिता ने संतोष से कहा।

अब पिछले कई सप्ताहों से वह वायुसेना के हॉस्टल में है। उसे अपनी सरकार, अधिकारियों और जांच एजेंसियों के बीच रहकर उन्हें हर विवरण देकर संतुष्ट करना है।

"सो, विंग कमांडर...!"

Investigating

पूछे जा रहे प्रश्नों का सिलसिला थम ही नहीं रहा। ऐसी आशंका जताई जा रही है कि अब उसे ‘लड़ाकू विमान' उड़ाने की इजाजत नहीं होगी और शायद उसे सेवामुक्त भी कर दिया जाए!

वायुसेना के हॉस्टल के बाहर अब भी कुछ युवा नारे लगा रहे हैं -

‘विंग कमांडर...जिंदाबाद!'

उसके मन-मस्तिष्क में कुछ चल रहा है, ‘60 घंटों की इस यातना के बाद उसकी यह त्रासदी कभी ख़त्म होगी?'

- रोहित कुमार ‘हैप्पी'


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विद्यासागर की सीख  - रोहित कुमार 'हैप्पी'

एक बार एक युवक ईश्वरचंद्र विद्यासागर से मिलने आया। वह रेलगाड़ी से स्टेशन पहुंचा था। उसके पास एक सूटकेस था। स्टेशन पर कोई कुली न था। वह स्वयं सामान उठाना नहीं चाहता था। साहब लोग अक्सर अपना सामान स्वयं उठाने में अपमानित अनुभव करते थे। उसे बहुत गुस्सा आ रहा था।

"पता नहीं कैसा स्टेशन है?" वह गुस्से में बुदबुदाया।

उसी गाड़ी से एक अन्य व्यक्ति भी उतरा था। वह साधारण पोशाक में था। उसने आधी बाजू का कुर्ता, धोती और चप्पलें पहन राखी थी। वह आदमी उस परेशान युवक के पास आया और बोला, "क्या आपको कोई मदद चाहिए?"

युवक ने बताया कि उसे कोई कुली नहीं मिल रहा।

उसकी समस्या जानकार सामान्य-से दिखने वाले आदमी ने युवक का सूटकेस उठाकर चलने का प्रस्ताव किया। वह आदमी उस युवक का सामान स्टेशन से बाहर ले आया। युवक ने जब कुछ पैसे देने चाहे तो उसने बड़ी शालीनता से मना कर दिया। स्टेशन के बाहर कुछ बैलगाडियाँ खड़ी थीं। युवक बैलगाड़ी में प्रसन्नचित्त बैठ गया और अपने गंतव्य की ओर चल दिया।

अगली सुबह वह युवक ईश्वरचंद्र विद्यासागर के घर पहुंचा। घर के बाहर जो आदमी खड़ा था, यह वही आदमी था जिसने कल रात उसका सामान उठाया था। युवक ने पूछा, "क्या विद्यासागर जी यहीं रहते हैं?"

उस आदमी ने कहा, "जी हाँ, आइए अंदर बैठिए।"

युवक ने पूछा, "विद्यासागर जी कहाँ हैं?"

उस आदमी ने उत्तर दिया, "जी कहिए क्या काम है.. मैं ही ईश्वरचंद विद्यासागर हूँ।"

युवक यह सुनकर सन्न रह गया। उसने ईश्वरचंद्र जी से क्षमा मांगी। बोला,"कल मुझसे भूल हुई। अब मैं समझ गया कि कोई कम छोटा-बड़ा नहीं होता। अपना काम स्वयं करना चाहिए।"

विद्यासागर सहजता से मुस्कुरा दिए।

ईश्वरचंद विद्यासागर ने बिना कुछ बोले युवक को जीवनभर के लिए स्वावलंबन की सीख दे दी थी।

प्रस्तुति: रोहित कुमार 'हैप्पी'
[भारत-दर्शन संकलन]

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मैं जग को पहचान न पाया - भगवद्दत्त 'शिशु'

मैं जग को पहचान न पाया।

जो मैंने समझा था अपना,
था क्या वह ममता का सपना ?......

 
 
हिंदी की पहली लघुकथा - रोहित कुमार 'हैप्पी'

क्या आप जानते हैं कि हिंदी की पहली लघुकथा कौनसी है?

हिंदी की पहली लघुकथा कौनसी है, इस विषय में हमारे विद्वान् एकमत नहीं। हाँ, बहुमत की बात करें तो अधिकतर का मत है कि माधवराव सप्रे की 'टोकरी भर मिट्टी' जोकि 'छत्तीसगढ़ मित्र' पत्रिका में 1901 में प्रकाशित हुई थी, पहली लघुकथा कही जा सकती है।

निःसंदेह इस विषय में माधवराव सप्रे की 'टोकरी भर मिट्टी' को बहुमत प्राप्त है लेकिन इसपर चर्चा और शोध अभी जारी है। क्योंकि अभी तक 'लघुकथा' विधा के शिल्प, आकार-प्रकार और परिभाषा को लेकर चर्चा-परिचर्चा जारी है यथा किसी भी प्रकार की संभावनाओं से इनकार नहीं किया जा सकता।

जिस प्रकार विभिन्न हिन्दी कहानियाँ 'पहली कहानी' होने की दावेदार रही हैं, उसी प्रकार विभिन्न 'लघुकथाएं' भी 'पहली लघुकथा' होने की दौड़ में सम्मिलित हैं। आज भी इसपर चर्चा-परिचर्चा होती है। निम्नलिखित लघुकथाएं 'पहली लघुकथा होने की दावेदार रही हैं:

  • अंगहीन धनी (परिहासिनी, 1876) -  भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
  • अद्भुत संवाद (परिहासिनी, 1876) - भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
  • बिल्ली और बुखार (प्रामाणिकता अप्राप्य) - माखनलाल चतुर्वेदी
  • एक टोकरी भर मिट्टी (छत्तीसगढ़ मित्र, 1901) - माधवराव सप्रे
  • विमाता (सरस्वती, 1915) छबीलेलाल गोस्वामी
  • झलमला (सरस्वती, 1916) पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी
  • बूढ़ा व्यापारी (1919) आचार्य जगदीश चन्द्र मिश्र
  • प्रसाद (प्रतिध्वनि, 1926) जयशंकर प्रसाद
  • गूदड़ साईं (प्रतिध्वनि, 1926) जयशंकर प्रसाद
  • गुदड़ी में लाल (प्रतिध्वनि, 1926) जयशंकर प्रसाद
  • पत्थर की पुकार (प्रतिध्वनि, 1926) जयशंकर प्रसाद
  • उस पार का योगी (प्रतिध्वनि, 1926) जयशंकर प्रसाद
  • करुणा की विजय (प्रतिध्वनि, 1926) जयशंकर प्रसाद
  • खण्डहर की लिपि (प्रतिध्वनि, 1926) जयशंकर प्रसाद
  • कलावती की शिक्षा (प्रतिध्वनि, 1926) जयशंकर प्रसाद
  • चक्रवर्ती का स्तम्भ (प्रतिध्वनि, 1926) जयशंकर प्रसाद
  • बाबाजी का भोग (प्रेम प्रतिमा, 1926) प्रेमचंद

'हिंदी की पहली लघुकथा कौनसी है?' इस प्रश्न का उत्तर तो जटिल है परंतु हमारा प्रयास है कि इन सभी लघुकथाओं को 'भारत-दर्शन' में प्रकाशित किया जाए। यहाँ इसी प्रयास के अंतर्गत इन्हीं में से कुछ लघुकथाएं यहाँ प्रकाशित की हैं। पाठकों को रोचक व पठनीय लगेंगी, ऐसा हमारा विश्वास है।

प्रस्तुति: रोहित कुमार 'हैप्पी' 


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प्रेमचंद पर कविताएं  - रोहित कुमार हैप्पी

Prem Chand Par Kavitayen

प्रेमचंद को उपन्यास सम्राट और कथा सम्राट कहा जाता है।  प्रेमचंद विराट व्यक्तित्त्व के मालिक थे।  अनेक  कवियों ने प्रेमचंद पर कविताएं रची हैं।  नज़ीर बनारसी प्रेमचंद की याद में कहते हैं:

"बनके टूटे दिलों की सदा प्रेमचन्द।
 देश से कर गये है वफा प्रेमचन्द।......

 
 
प्रेमचन्द | नज़्म - नज़ीर बनारसी

बनके टूटे दिलों की सदा प्रेमचन्द।
देश से कर गये है वफा प्रेमचन्द।......

 
 
बहुधा पूछे जाने वाले प्रश्न | FAQ - भारत-दर्शन

हिंदी एफ.ए.क्यू (FAQ)

 

क्या यह सच है कि भारत-दर्शन इंटरनेट पर विश्व की सबसे पहली हिंदी साहित्यिक पत्रिका थी? 

न्यूज़ीलैंड से प्रकाशित 'भारत-दर्शन' इंटरनेट पर न केवल पहली हिंदी साहित्यिक पत्रिका थी बल्कि यह इंटरनेट पर विश्व का पहला हिंदी प्रकाशन था। इसके बाद जागरण और वेब दुनिया आए। जागरण इंटरनेट पर हिंदी का पहला समाचारपत्र था और वेब दुनिया पहला हिंदी वेब पोर्टल लेकिन ये सभी भारत-दर्शन के बाद प्रकाशित हुए।

भारत-दर्शन कब से प्रकाशित हो रही है?
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हिंदी दिवस बारम्बार पूछे जाने वाले प्रश्न | Hindi Diwas FAQ - रोहित कुमार 'हैप्पी'

हिंदी दिवस बारम्बार पूछे जाने वाले प्रश्न  (Hindi Diwas FAQ)

 

हिंदी दिवस कब मनाया जाता है?

हिंदी दिवस हर वर्ष 14 सितम्बर को मनाया जाता है।


हिंदी दिवस 14 सितंबर को क्यों मनाया जाता है?

क्योंकि 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने एक मत से निर्णय लिया कि हिंदी ही भारत की राजभाषा होगी।

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न्यूज़ीलैंड हिंदी पत्रकारिता -बहुधा पूछे जाने वाले प्रश्न | NZ Hindi Journalism FAQ  - रोहित कुमार 'हैप्पी'

न्यूज़ीलैंड हिंदी पत्रकारिता - बहुधा पूछे जाने वाले प्रश्न | NZ Hindi Journalism FAQ

 

न्यूज़ीलैंड में भारतीय पत्रकारिता का आरंभ कब हुआ?

यूँ तो न्यूज़ीलैंड में अनेक पत्र-पत्रिकाएँ समय-समय पर प्रकाशित होती रही हैं, न्यूज़ीलैंड में सबसे पहला प्रकाशित पत्र था 'आर्योदय'। इसके संपादक थे - श्री जे के नातली, उप संपादक थे - श्री पी वी पटेल व प्रकाशक थे -श्री रणछोड़ के पटेल। भारतीयों का यह पहला प्रकाशन एक गुजराती मासिक पत्र था। यह 1921 में प्रकाशित हुआ था परन्तु यह जल्दी ही बंद हो गया।   


न्यूज़ीलैंड में हिंदी पत्रकारिता का आरंभ कब हुआ?

न्यूज़ीलैंड की भारतीय पत्रकारिता में हिंदी का अध्याय 1996 में 'भारत-दर्शन' पत्रिका के प्रकाशन से आरम्भ हुआ। इसके संपादक और प्रकाशक 'रोहित कुमार हैप्पी' हैं। यह पत्रिका बाद में इंटरनेट पर विश्व के पहले हिंदी प्रकाशन के रूप में प्रतिष्ठित हुई।

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रचनाएँ सबमिट करना - भारत-दर्शन

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गुरु महिमा दोहे - भारत-दर्शन संकलन

गुरू महिमा पर दोहे

 

कबीर गुरु को ईश्वर से भी ऊंचा स्थान देते हैं, कबीर कहते है: 

(1)

गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, का के लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपणे, गोबिंद दियो मिलाय॥

(2)

गुरु कीजिए जानि के, पानी पीजै छानि ।......

 
 
भारत में शिक्षक दिवस | Teachers' Day in India - रोहित कुमार 'हैप्पी'

भारत में शिक्षक दिवस (Teachers' Day in India )   


भारत में शिक्षक दिवस (Teachers' Day in India) कब मनाया जाता है?

भारत में शिक्षक दिवस 5 सितम्बर को मनाया जाता है।

भारत में शिक्षक दिवस 5 सितंबर को ही क्यों मनाया जाता है?......

 
 
व्यौहार राजेन्द्र सिंहा  - भारत-दर्शन

व्यौहार राजेन्द्र सिंह / सिंहा (Beohar Rajendra Simha) का जन्म 14 सितंबर, 1900 को जबलपुर में हुआ था। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित करवाने के लिए काका कालेलकर, मैथिलीशरण गुप्त, हजारी प्रसाद द्विवेदी, सेठ गोविन्द दास के साथ व्यौहार राजेन्द्र सिंह ने काफी प्रयास किए। इसके चलते उन्होंने दक्षिण भारत की कई यात्राएं भी कीं। व्यौहार राजेन्द्र सिंह हिंदी साहित्य सम्मलेन के अध्यक्ष रहे। आपने अमेरिका में आयोजित विश्व सर्वधर्म सम्मलेन में भारत का प्रतिनिधित्व किया जहां सर्वधर्म सभा में हिंदी में ही भाषण दिया जिसकी बहुत प्रशंसा हुई। संस्कृत, बांग्ला, मराठी, गुजराती, मलयालम, उर्दू, अंग्रेज़ी आदि पर आपका अच्छा अधिकार था।

2 मार्च, 1988 को आपका निधन हो गया।

 

हिंदी दिवस का इतिहास और पृष्ठभूमि 

हर वर्ष 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाया जाता है। 14 सितंबर, 1949 को संविधान सभा ने एक मत से यह निर्णय लिया कि हिंदी ही भारत की राजभाषा होगी। इस निर्णय के महत्व को प्रतिपादित करने और हिंदी को हर क्षेत्र में प्रसारित करने के लिए 1953 से भारत में 14 सितंबर को हर वर्ष हिंदी दिवस मनाया जाता है। हिंदी को यह दर्जा इतना आसानी से नहीं मिल गया। इसके लिए लंबी लड़ाई चली थी, जिसमें व्यौहार राजेंद्र सिंह ने अहम भूमिका निभाई थी। अंतत: व्यौहार राजेंद्र सिंह के 50वें जन्मदिवस अर्थात 14 सितंबर, 1949 को हिंदी को भारत की राजभाषा का दर्जा मिला।

[भारत-दर्शन]


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एनी बेसेंट की संस्था का प्रतिज्ञा-पत्र - भारत-दर्शन संकलन

एनी बेसेंट ने अपने जीवन के 40 वर्ष भारत के सर्वांगीण विकास में लगा दिए। बाल विवाह, जातीय व्यवस्था, विधवा-जीवन जैसी कुरीतियों को दूर करने के लिए एनी बेसेंट ने 'ब्रदर्स ऑव सर्विस' नामक संस्था बनाई। इस संस्था की सदस्यता पाने के लिए जो प्रतिज्ञा-पत्र भरकर हस्ताक्षर करना होता था, उसके नियम ये थे:

- मैं जाति-पाति पर आधारित छुआछूत नहीं करुंगा।
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बापू के नाम पत्र - पुष्पा भारद्वाज वुड

Letter to Bapu - Hindi Article published in Bharat-Darshan

प्रिय बापू जी

अगर मन में अपने देशवासियों से मिलने का मन करे तो ऊपर से ही देख कर मन बहला लेना। उससे भी मन न बहले तो एक-दो से सोशल मीडिया पर सम्पर्क बना लेना, मन बहल जायेगा।

अगर भूले से नीचे उतर आए तो आत्मा को बहुत कष्ट होगा आपकी।

आपकी 150वीं वर्षगांठ मनाने के उत्साह में हम भूल ही गए कि आपको तो इस दिखावे से वैसे भी कोई लगाव नहीं था। फिर भी अपने दिल की तसल्ली के लिए हम खूब धूम-धाम से उत्सव मना रहे हैं।

आप देश को जहां छोड़ कर गए थे, वहां से तो वह काफी आगे बढ़ चुका है।

बापू जी, हमने बहुत तरक्की कर ली है - धन, सम्पदा और दिखावे की हमारे पास कोई कमी नहीं है। हम आगे बढ़ते जा रहे हैं दिन पर दिन। धीरे-धीरे पीछे छोड़ते जा रहे हैं अपने मूल्यों को, अपने सिद्धान्तों को और अहिंसा को, जबकि आज उसकी सबसे ज्यादा जरूरत होने के बावजूद न जाने क्यों उसे गले लगाने में झिझक-सी हो रही है कुछ देशवासियों को।

आपका इस भुलावे में रहना ही अच्छा है कि आपके देशवासी आपकी धरोहर की भलीभांति देखभाल कर रहे हैं क्योंकि भुलावे में जो सुख है वह सत्यता का सामना करने में कहां!

आपके इस जन्मदिन पर इतना ही काफी है। अगले वर्ष फिर मुलाकात होगी।  हम फिर कुछ वायदे करेगे, एक-दूसरे से फिर होड़ लगायेंगे आपके प्रति अपनी भक्ति दिखाने की, पर अन्दर से कुछ बदल पायेंगे इसकी कोई गारंटी मैं अभी नहीं दे सकती।

फिर मिलेंगे आपके अगले जन्मदिन पर लम्बे-चौड़े भाषणों, फूलों की मालाओं, कुछ सच्चे और कुछ झूठे वायदों के साथ।

आपकी,

विश्वशांति की प्रतीक्षा में
एक भारतीय नारी

 

- डॉ पुष्पा भारद्वाज वुड, न्यूज़ीलैंड


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झिलमिल आई है दीवाली - भारत-दर्शन संकलन

जन-जन ने हैं दीप जलाए
लाखों और हजारों ही ......

 
 
प्रहलाद - होलिका की कथा | पौराणिक कथाएं - भारत-दर्शन

होली को लेकर हिरण्यकश्यप और उसकी बहन होलिका की कथा अत्यधिक प्रचलित है।

प्राचीन काल में अत्याचारी राक्षसराज हिरण्यकश्यप ने तपस्या करके ब्रह्मा से वरदान पा लिया कि संसार का कोई भी जीव-जन्तु, देवी-देवता, राक्षस या मनुष्य उसे न मार सके। न ही वह रात में मरे, न दिन में, न पृथ्वी पर, न आकाश में, न घर में, न बाहर। यहां तक कि कोई शस्त्र भी उसे न मार पाए।

ऐसा वरदान पाकर वह अत्यंत निरंकुश बन बैठा। हिरण्यकश्यप के यहां प्रहलाद जैसा परमात्मा में अटूट विश्वास करने वाला भक्त पुत्र पैदा हुआ। प्रह्लाद भगवान विष्णु का परम भक्त था और उस पर भगवान विष्णु की कृपा-दृष्टि थी।

हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को आदेश दिया कि वह उसके अतिरिक्त किसी अन्य की स्तुति न करे। प्रह्लाद के न मानने पर हिरण्यकश्यप उसे जान से मारने पर उतारू हो गया। उसने प्रह्लाद को मारने के अनेक उपाय किए लेकिन व प्रभु-कृपा से बचता रहा।

हिरण्यकश्यप की बहन होलिका को अग्नि से बचने का वरदान था। उसको वरदान में एक ऐसी चादर मिली हुई थी जो आग में नहीं जलती थी। हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन होलिका की सहायता से प्रहलाद को आग में जलाकर मारने की योजना बनाई।

होलिका बालक प्रहलाद को गोद में उठा जलाकर मारने के उद्देश्य से वरदान वाली चादर ओढ़ धूं-धू करती आग में जा बैठी। प्रभु-कृपा से वह चादर वायु के वेग से उड़कर बालक प्रह्लाद पर जा पड़ी और चादर न होने पर होलिका जल कर वहीं भस्म हो गई। इस प्रकार प्रह्लाद को मारने के प्रयास में होलिका की मृत्यु हो गई।

तभी से होली का त्योहार मनाया जाने लगा।

तत्पश्चात् हिरण्यकश्यप को मारने के लिए भगवान विष्णु नरंसिंह अवतार में खंभे से निकल कर गोधूली समय (सुबह और शाम के समय का संधिकाल) में दरवाजे की चौखट पर बैठकर अत्याचारी हिरण्यकश्यप को मार डाला।

तभी से होली का त्योहार मनाया जाने लगा।

संकलन-भारत-दर्शन


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दही-बड़ा - श्रीप्रसाद

सारे चूहों ने मिल-जुलकर
एक बनाया दही-बड़ा। ......

 
 
टुकड़े-टुकड़े दिन बीता - मीनाकुमारी

Meenakumari

टुकड़े-टुकड़े दिन बीता,
धज्जी-धज्जी रात मिली।......

 
 
भारत की पहली महिला डॉक्टर आनंदी गोपाल जोशी - भारत-दर्शन

डॉ आनंदी गोपाल जोशी (31 मार्च 1865 - 26 फ़रवरी, 1887) उस दौर में डॉक्टर बनीं जब समाज की सोच महिला शिक्षा को लेकर व्यापक नहीं थी। उनका जन्म 31 मार्च 1865 को महाराष्ट्र में हुआ था। आनंदी को उस दौर के महिला शिक्षा विरोध का सामना भी करना पड़ा।


सिर्फ 9 साल की उम्र में शादी

आनंदी जब महज 9 साल की थीं, तब उनकी शादी एक ऐसे व्यक्ति से करा दी गई जो आयु में उनसे तीन गुना यानी करीब 27 साल था। जब वह 14 वर्ष की हुईं तो उन्होंने एक बेटे को जन्म दिया। बच्चे की कुछ ही समय बाद मृत्यु हो गई। बाद में पता चला कि बच्चा कमजोर था और उसको पूरी चिकित्सीय सहता नहीं मिल पाई थी।

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कोरोना वायरस : कोविड-19 सूचना, आंकड़े और उपकरण | COVID-19  - भारत-दर्शन

भारत-दर्शन द्वारा उपलब्ध कोरोना वायरस - कोविड-19 आंकड़े व समाचार

न्यूज़ीलैंड के कोरोना वायरस - कोविड-19 आंकड़े व मानचित्र 

कोविड इंडिया 


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कोरोना वायरस - भारत-दर्शन समाचार

कोरोनावायरस महामारी : वैश्विक प्रकोप पर नज़र

आधिकारिक गणना के अनुसार, कोरोनोवायरस महामारी (coronavirus pandemic) 1.1 मिलियन से अधिक लोगों को बीमार कर चुकी है। शनिवार दोपहर तक, कम से कम 62,000 लोग मारे गए हैं, और कम से कम 175 देशों में वायरस का पता चला है, जैसा कि ये नक्शे दिखाते हैं।

इस समय कोरोना का प्रकोप स्वास्थ्य से संबन्धित एक गंभीर सार्वजनिक विषय है, ज्यादातर लोग जो कोरोनोवायरस से पीड़ित हैं, वे गंभीर रूप से बीमार जान नहीं पड़ते और केवल कुछ लोगों को ही गहन देखभाल की आवश्यकता होती है। वृद्ध और अस्वस्थ लोग, जैसे हृदय या फेफड़ों की बीमारी, उच्च जोखिम में हैं।

 

कोरोना वायरस की वर्तमान परिस्थितियाँ

कोरोनोवायरस महामारी पूरे यूरोप में जारी है, इस समय चीन के बाहर चीन की तुलना में अधिक मामले दर्ज किए गए हैं। सनद रहे कि यह महामारी चीन से आरंभ होकर पूरे विश्व में फैल चुकी है। माना जाता है कि मध्य चीन में 11 मिलियन लोगों के शहर वुहान में समुद्री भोजन और पोल्ट्री बाजार में इसका प्रकोप शुरू हो गया है। प्रकोप के सटीक आयामों को जानना मुश्किल है। सभी संक्रमित लोगों का परीक्षण और उपचार नहीं हो पाया। सिंगापुर जैसे कुछ देशों में अन्य की तुलना में अधिक सक्रिय परीक्षण और रोकथाम के प्रयास हुए हैं।


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बहादुर कुत्ता  - देवदत्त द्विवेदी

[अमरीका के एक रेड इंडियन की कहानी]
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पत्थर के आँसू  - ब्रह्मदेव

जब हवा में कुछ मंथर गति आ जाती है वह कुछ ठंडी हो चलती है तो उस ठंडी-ठंडी हवा में बिना दाएँ-बाएँ देखे चहचहाते पक्षी उत्साहपूर्वक अपने बसेरे की ओर उड़ान भरते हैं। और जब किसी क्षुद्र नदी के किनारे के खेतों में धूल उड़ाते हुए पशु मस्तानी चाल से घँटी बजाते अपने घरों की ओर लौट पड़ते हैं उस समय बग़ल में फ़ाइलों का पुलिन्दा दबाए, हाथ में सब्जी. का थैला लिए, लड़खड़ाते क़दमों के सहारे, अपने झुके कंधों पर दुखते हुए सिर को जैसे-तैसे लादे एक व्यक्ति तंग बाज़ारों में से घर की ओर जा रहा होता है।

'अरे एक बात तो भूल ही गई,' क़लम ने फिर कहा। ‘उन्होंने पत्र के अंत में हम सब को भी याद किया था।'
'अरे कैसे?' सब ने आश्चर्य से पूछा।

‘उन्होंने लिखा कि काश मैं पेपरवेट होता, मेज़-कुर्सी की तरह फ़र्नीचर होता तो आज यह दिन न देखना पड़ता। चाहें जो होता पर मैं इनसान न होता।'

‘ओह, तभी तो मुझे उठा कर अपने गालों से सहला रहे थे।' पत्थर के पेपरवेट की ठस्स आवाज़ गीली हो उठी, उसके आँसू झिलमिला उठे।

अधपकी झब्बेदार बेतरतीब मूँछें, चेहरे पर कुछ रेखाएँ-जिन की गहराइयों में न जाने कितने अरमान, आशाएँ और अतृप्त साधें सदा के लिए दफ़न हैं और जिन्हें संसार के सबसे क्रूर कलाकार चिन्ता ने अपने कठोर हाथों से बनाया है। घिसा हुआ कोट जो कि दो साल पहले बड़ी लड़की की शादी पर बनवाया था, पहने और अपनी सूखी टाँगों पर अति प्रयोग के कारण पायजामा बन चुकी पतलून से ढँके कठपुतली की तरह निर्जीव चाल से चला जा रहा यह व्यक्ति मानव समाज का सब से दयनीय प्राणी दफ़्तर का बाबू है। नाम छोटा बाबू - क्योंकि बड़े साहब के बाद इन्हीं का नंबर है, पर काम है बड़े साहब से भी अधिक। दफ़्तर बंद हो गया है, घर जा रहे हैं। इन के बाद दफ़्तर में क्या होता है- शायद इन्हें पता नहीं। शायद इन जैसे जो अन्य लाखों बाबू हैं, उन्हें भी पता नहीं।

दफ़्तर बंद हो गया, चौकीदार सब दरवाजे पर ताले टटोल कर देख चुका था। धूप लाजवंती वधू की तरह सिमट कर क्षितिज के पीछे जा छिपी। अंधकार चोर की तरह चुपके-से दफ़्तर के कमरों में से गुज़रता हुआ सड़क, मैदान और खेतों पर पाले की तरह छा गया। छोटे बाबू के कमरे में घुप्प अँधेरा और सन्नाटा था। जान पड़ता था जैसे बरसों से इस कमरे में कोई नहीं आया। तभी इस सन्नाटे में किसी की क्षीण-सी आह सुनाई दी - दबी हुई ठंडी साँस भी उस के साथ मिली थी... ‘कौन है यह?' बड़े साहब की कुर्सी ने सहानुभूति पूर्ण स्वर में पूछा। दफ़्तर बंद होने के बाद कमरे के शासन में वह कठोरता नहीं थी जो मीठी-मीठी पॉलिश की हुई बातें करने वाले बड़े साहब में थी।

‘यह मैं हूँ ।' छोटे बाबू की मेज़ पर रखी क़लम ने पतली आवाज़ में कहा। कमरे के अन्य सदस्य बड़े साहब की कुर्सी, दवात, पेपरवेट, रद्दी की टोकरी आदि पर बच्चों का-सा स्नेह रखते थे क्योंकि यह अभी नई ही आई थी। इस के स्थान पर जो पुरानी कलम थी उस की आकस्मिक मृत्यु एक एक्सीडेंट में हो गई थी।

‘यह मैं हूँ, छोटे बाबू की कलम ने फिर कहा, जिसे सुन कमरे के सदस्यगण चिन्तित हो उठे। परिवार में आई नव-वधू के मुख पर आह क्यों? अभी तो उस के खेलने-खाने के दिन हैं!'

‘क्या बात है, किस बात का दुख है?' बड़े साहब की कुर्सी ने फिर पूछा।

‘कुछ नहीं, कुछ नहीं, यूँ ही मुख से आवाज़ निकल गई थी।' छोटे बाबू की क़लम ने हँसने का बहाना करते हुए कहा। ‘नहीं जी, कुछ बात ज़रूर है। आज जब से दफ़्तर बंद हुआ है तभी से मैं तुम्हें बेचैन देख रहा हूँ। क्या बात है बोलो?' छोटे बाबू की दवात ने ज़रा रौब जमाते हुए खोखली आवाज़ में कहा। इस रौब का असर हुआ, कमसिन क़लम सहमी हुई बोली, ‘बड़ी भयानक बात है जीजी, पर आज नहीं बताऊँगी, कल बताऊँगी।'

‘अजी मियाँ, हटाओ भी, किस चक्कर में पड़े हो?' अचानक ही कोई भारी ठस्स आवाज़ बोली, ‘यहाँ हम अपने ही चक्कर में पड़े हैं। खुदा की कसम आज दोपहर से इतना गुस्सा आ रह है इस मरदूद बड़े साहब पर कि कुछ पूछो मत। बेचारे छोटे बाबू को इतना डाँटा कि उन का मुँह उतर गया। अगर मैं होता न छोटे बाबू की जगह तो सब साहबी एक ही झापड़ में निकाल देता।' कमरे में अंधकार स्वयं इधर-उधर भटक रहा था, दिखाई कहाँ से देता। हाँ, आवाज़ से मालूम होता था कि छोटे बाबू की मेज़ पर रखे पेपरवेट महाशय बोल रहे हैं।

छोटे बाबू से इस कमरे के सब निवासियों की सहानुभूति थी, बड़े साहब की हरकत पर सब को असंतोष था, पर अभी तक प्रकट किसी ने नहीं किया था। पेपरवेट की बात सुन कर सब ने अपना-अपना असंतोष प्रकट करना आरंभ कर दिया। कमरे में शोर होने लगा। सभी अपनी-अपनी हाँक रहे थे। ख़ूब गुलगपाड़ा मचा हुआ था। तभी सहसा दरवाजे. पर टँगे पर्दे की सरसराती हुई आवाज़ आई, ‘दुश्मन!' और सब एकदम चुप हो गए मानो किसी ने बड़बड़ाता रेडियो एकदम बंद कर दिया हो। बाहर बरामदे में चौकीदार खटखट करता गुज़र गया। कमरे में फिर से बड़े साहब की आलोचना होने लगी। तभी खटखटाती हुई आवाज़ में टाइपराइटर ने कहा, ‘भई ग़लती तो असल में मेरी थी, छोटे बाबू ने तो अपनी तरफ़ से ठीक ही टाइप किया था। क्या बताऊँ जब से इस पक्के फ़र्श पर गिर कर चोट लगी है, मुझ से ठीक से काम नहीं होता। दर्द बहुत होता है। मुझे अफ़सोस है कि मेरे कारण बेचारे छोटे बाबू को अपमानित होना पड़ा।'

बड़े साहब की मेज़ के नीचे कुछ झन-झन की अवाज़ हुई, बड़े साहब की मेज़ ने जोर से चिल्ला कर कहा, ‘ठहरो, माँजी कुछ कर रही हैं।'

रद्दी की टोकरी इस कमरे के निवासियों में सब से बूढ़ी थी। दफ़्तर पहले किसी और स्थान पर था परन्तु जब यह नया भवन बना तब यही एक थीं जो वहाँ से बच कर यहाँ आ गई थी। इस के साथ के कई साथी गंदे नाले के रमणीय तट पर बसे कबाड़ी आश्रम में अब भगवत भजन में शेष जीवन बिता रहे हैं। कमरे के अन्य निवासी इन्हें बड़ी श्रद्धा की दृष्टि से देखते थे और माँजी कह कर पुकारते थे। माँजी अब बहुत वृद्ध हो गई थीं। अब और तब का सवाल था। आवाज़ भी काफ़ी मद्धम पड़ गई थी। वह छनछनाती आवाज़ में बोली, ‘क्या बताऊँ। उस दिन मुझ से ग़लती हो गई, वरना बड़े साहब तो बँधे-बँधे फिरते।'

‘वह जो उस दिन सरकारी सर्कुलर आया था, वह बड़े साहब ने जल्दी में भूल से मेरे हवाले कर दिया। चपरासी जब रद्दी को बाहर जमादार के डोल में डालने लगा तो वह सर्कुलर मैंने अपनी गोद में बच्चे की तरह छिपा लिया। अगले दिन जब उसके बारे में सारे दफ़्तर में कोहराम मचा तो मैंने निकाल कर दे दिया। जो कहीं उस दिन वह काग़ज मैं जाने देती तो बड़े साहब को भी पता चल जाता कि साहबी कितनी महँगी है। भैया, जो बुड्ढे कर देते हैं, वह आजकल की छोकरियाँ क्या करेंगी? इन्हें तो अपनी सिंगार-पटार से ही फुरसत नहीं। कोई चीज़ कहीं पड़ी है, कोई कहीं, किसी बात का ध्यान ही नहीं। बस मैं सँभालूँ। जिन्हें सब दुत्कारते हैं उन्हें मैं सँभालती हूँ। अपनी गोद में उनको जगह देती हूँ, जिन्हें दुनिया किसी काम का नहीं कहती। इस पर नाम मेरा रखा है- रद्दी की टोकरी। खैर, इसका मुझे मलाल नहीं क्योंकि इतनी उम्र तक दुनिया देखी है। यह देखा है कि जिस का भला करो उसी से बुराई मिलती है। पर छोड़ो इन बातों को। अब हमें क्या लेना-देना है? उमर ही कितनी रह गई है? खाट से चिपकी बुढ़िया हूँ अब गई तब गई की बात है और फिर......!' न जाने यह बुढ़िया-पुराण कब तक चलता यदि मुर्गे की बाँग भिनसार की ठंडी हवा की अँगुली पकड़े रोशनदान के रास्ते से कमरे में न घुस जाती।

आज दफ़्तर खुलते ही जो बेचैनी नज़र आई वह इस दफ़्तर के लिए नई थी। बेचारा दफ़्तर परेशान था, उसे समझ नहीं आ रहा था कि आज इन सब को क्या हो गया है? बड़े साहब से ले कर चपरासी तक सब बेचैन, उदास घबराए-से क्यों हैं? उसे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। आख़िर हारकर उस ने आँगन में खड़े आम के पुराने पेड़ से पूछा। शायद उसे कुछ पता हो-पर वह इन नए छोकरों की अजीब बातों से परेशान था। उसने भी अपना सिर खुजलाया जिस का मतलब था कि इस बेचैनी का कारण उसे भी पता नहीं। किस से पूछा जाए? शायद फ़ाटक को पता हो, पर तभी आँगन से कुछ बातचीत की आवाज़ें आने लगीं... 'पर आख़िर छोटे बाबू ने आत्महत्या की क्यों?' कोई पूछ रहा था।......

 
 
रोचक दोहे  - विकल

यह दोहे अत्यंत पठनीय व रोचक हैं चूंकि यह असाधारण दोहे हैं जिनमें न केवल लोकोक्तियाँ तथा मुहावरे प्रयोग किए गए हैं बल्कि उनका अर्थ भी दोहे में सम्मिलित है।

एक समय में जब 'विकल' करते हों दो काम ।
दुविधा में दोऊ गये, माया मिली न राम ।।

यत्न किये बिन वस्तु क्या ? मन चाही मिल जाय ।......

 
 
चीन की दीवार - फ्रैंज काफ्का

उत्तर के अंतिम मोड़ पर चीन की दीवार का निर्माण पूरा हो गया था। दक्षिण-पूर्व और दक्षिण-पश्चिरम की दीवारों के दोनों भाग यहीं आकर मिल गए थे। टुकड़ों में निर्माण का यह सिद्धान्त- छोटे स्तमरों पर पूर्वी और पश्चिंमी दोनों ही श्रम-सेनाओं द्वारा अपनाया गया था। यह इस प्रकार किया गया थाः करीब बीस मजदूरों का एक समूह बनाकर एक निश्चि्त लम्बाहई की दीवार बनाने का काम दे दिया जाता है, जैसे पाँच सौ गज लम्बीव दीवार। इसी प्रकार एक दूसरे समूह को इतनी ही लम्बादई पर काम में लगा दिया जाता जिनका काम पहिले समूह के किए काम के अंत में आकर समाप्तज हो जाता था। लेकिन दोनों दीवारों के मिलने के बाद उनसे उस स्थाोन से आगे काम नहीं कराया जाता था, जैसे मान लो हजार गज दीवार जहाँ पूरी हुई, वहाँ से नहीं वरन्‌ मजदूरों के इन दोनों समूहों को पास के किसी दूसरे इलाके में दीवार बनाने लगा दिया जाता था। स्वारभाविक है इस प्रकार दीवार के बीच में बड़े-बड़े हिस्सेि बनने से छूटते गए, जिन्हें बाद में छोटे-छोटे टुकड़ों में बनाया जाता रहा, यहाँ तक कि दीवार के निर्माण की सरकारी घोषणा के बाद भी इन खाली स्थाानों पर दीवार बनती रही थी। सच तो यह है कि कुछ लोगों की राय में तो बहुत से ऐसे भागों को कभी पूरा ही नहीं किया गया।

यह एक ऐसा सच था जो दीवार के निर्माण के साथ ही किंवदंती के रूप में प्रचलित हो गया और जिसे कभी भी जाँचा-परखा नहीं गया था। कम से कम किसी एक व्युक्तिा के द्वारा जिसने अपनी आँखों से पूरी दीवार को देखा हो, दीवार इतनी लम्बी जो थी।

सामान्यज सोच के अनुसार तो कोई भी यही कहता कि अधिक सुविधाजनक तो एक छोर से दीवार का बनाया जाना ही होता अथवा दो भागों में बाँटकर लगातार बनाना ही बेहतर होता। अंततः सच तो यही था और यही उद्देश्या पूरी दुनिया को बतलाया गया था कि इसके निर्माण का उद्देश्यह उत्तर के निवासियों से रक्षा करना है। लेकिन ऐसी दीवार भला रक्षा कैसे कर सकती थी यदि उसका निर्माण पूरा न किया जाए। ऐसी दीवार न केवल रक्षा करने में असमर्थ होगी वरन्‌ यह तो लगातार ख़तरे का कारण भी बनी रहेगी। दीवार के ये बड़े-बडे़ हिस्सेम जिन्हेंल मरुस्थकल में बनाकर छोड़ दिया गया था, इन्हेंट खानाबदोशों द्वारा बार-बार गिरा दिया जाता था। विशेषकर इसलिए क्योंबकि ये आदिवासी जातियाँ इन दीवारों को लेकर सशंकित थीं। और वे अपने कैम्पष तेजी से बदलते रहते थे, टिड्डियों की तरह, इसीलिए दीवार के निर्माण के बारे में उन्हेंह अधिक जानकारी थी, कम से कम हम दीवार निर्माताओं से तो कहीं अधिक,

बहरहाल और किसी तरीके से दीवार का निर्माण सम्भसव था ही नहीं, इस निर्णय को समझने के लिए पहिले कुछ बातों पर आप ज़रा ग़ौर कर लें - दीवार को आने वाली सदियों तक रक्षा करनी थी, इसीलिए निर्माण में पूरी सावधानी अपरिहार्य थी, अतः पिछली सदियों के पुरखों के निर्माण कार्य के अनुभवों के उपयोग के साथ निर्माताओं में उत्तरदायित्व का भाव प्राथमिक आवश्यअकताओं में था। यह सच था कि दीवार बनाने के लिए अनपढ़-नासमझ मजदूरों के रूप में आदमियों, औरतों और बच्चों को रोजनदारी पर रख लिया गया था। लेकिन चार दिनों के लिए आए मजदूरों के ऊपर एक जानकार की आवश्ययकता थी, जो निर्माण कार्य में प्रवीणता रखता हो, ऐसा व्य क्तिर जो पूरे दिल से काम करने और कराने में सिद्ध-हस्ता हो। और जितना बड़ा कार्य उतनी बड़ी जिम्मेनदारी। साथ ही ऐसे व्य्क्तिीयों की आवश्यककता थी जो निर्माण कार्य में पूरा दिन और पूरा दिल लगाकर काम कर सकें, यही नहीं ऐसे लोगों की आवश्योकता बड़ी संख्याज में थी।

लेकिन दीवार निर्माण का यह कार्य बिना सोच-विचार के आरम्भआ नहीं किया गया था। पहले पत्थार के रखे जाने के बहुत पहले स्थाकपत्यय कला, विशेषकर भवन-निर्माण कला को पूरे चीन के विशाल भू-भाग में सर्वोत्तम ज्ञान की शाखा के रूप में चारों ओर घोषित कर दिया गया था, क्योंाकि देश को दीवारों से घेरा जाना आवश्यंक हो गया था, इसके साथ ही अन्या कलाओं के उसी अंग या शाखा विशेष की पूछ-परख थी, जिसमें इसी विषय से सम्बं्धित संदर्भ दिए गए थे। मुझे अच्छीे तरह याद है कि हम बच्चे जो ठीक से अभी सधे पंजों पर खड़ा होना भी नहीं जानते थे, हम अपने शिक्षक के बगीचे में खड़े थे- जहाँ हमें गोल पत्थखरों से दीवार जैसा कुछ बनाने का आदेश दिया गया था और तभी शिक्षक अपने चोगे को कसकर बाँध पूरी ताकत से दीवार से टकराया था। स्वाीभाविक है दीवार गिर गई थी और उसने हमें हमारे घटिया काम के लिए इतने जोर से डाँटा था कि हम सभी जोर-जोर से रोते चारों दिशाओं में अपने-अपने माँ-बाप के पास भाग गए थे। एक बेहद सामान्य- घटना किन्तुे महत्त्वपूर्ण क्यों कि यह अपने समय की आत्माा की परिचायक थी।

मैं सौभाग्ययशाली था कि जिस समय दीवार निर्माण का कार्य शुरू हुआ। उस समय मैं बीस वर्षों का था और मैंने निम्न स्तररीय स्कूयल की अंतिम परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी। मैंने जानबूझकर सौभाग्यंशाली कहा है, क्योंयकि मुझसे पहले बहुसंख्यी लोगों ने संस्कृचति की उच्चातम डिग्रियाँ उत्तीर्ण कर ली थीं, जो उन्हेंो प्राप्तु हो भी गई थीं, लेकिन साल-दर-साल उन्हेंू अपने ज्ञान के बदले में कोई काम ही नहीं मिला था। परिणामस्वंरूप वे किसी तरह अपनी ज़िंदगी काट रहे थे, जबकि उनके सिरों के अंदर महत्त्वपूर्ण और सुंदर स्थाअपत्या सम्ब न्धीं योजनाएँ थीं और इसके बावजूद वे निराशा की गर्त्त में डूब गए थे। किन्तुन उनमें से जिन कुछ लोगों को सुपरवाइजर के रूप में काम मिला, भले ही वह उनके ज्ञान की तुलना में निम्नु स्तसर का था, फिर भी वे अपने काम के प्रति पूर्ण समर्पित थे। वहाँ ऐसे राजगीर भी थे जिन्हों ने बहुत सोचा-विचारा था और जिन्हों ने विचार-मंथन करना अभी भी बन्दर नहीं किया था, कम से कम दीवार के निर्माण को लेकर। ऐसे लोग जिन्हों्ने पहला पत्थ र नींव में सरकाने के साथ स्व्यं को ही दीवार का अभिन्नत अंग स्वीगकार लिया था। राजगीरों का यह वर्ग स्वानभाविक है तीव्र इच्छाद रखता था कि वह अपना कार्य पूरी निष्ठाा और ईमानदारी के साथ पूरी शिद्दत के साथ करे। यही नहीं वे पूरी दीवार के सम्पूार्ण रूप से उपयुक्तथ होने के लिए बेताब और बेचैन थे। दैनिक मजदूरों में धैर्य का अभाव था, क्यों कि वे मात्र अपने दैनिक वेतन पर ही ध्याान रखते थे। उच्चध श्रेणी के सुपरवाइजरों के साथ बीच के सुपरवाइजर भी निर्माण के बहुरूपी विकास को केन्द्र में रख अपने विश्वाइस को दृढ़ और उच्चास्तार पर रखा करते थे। किन्तु् अपने सहायक सुपरवाइजरों को प्रोत्सारहित करने के लिए जो उनके बौद्धिक स्तरर से पर्याप्तर नीचे थे, और जो इसे बेहद साधारण काम मानते थे, उनके लिए दूसरे रास्तेी निकालना आवश्य‍क था। जैसे उदाहरण के लिए कोई यह आशा नहीं करता था कि वे एक पत्थकर पर दूसरा पत्थ‍र महीनों तक या साल-दर-साल रखते चले जाएँगे- एक पर्वतों से भरे जनशून्यद स्थानन में, अपने घरों से हजारों मील दूर रहते हुए, साथ ही इस निराशा के साथ कि यह कठोर श्रम का परिणाम उनके लम्बेत जीवन में भी पूरा होने वाला तो है नहीं।

यह सोच उन्हेंी निराशा की खाई में पटक देती- फलस्वीरूप स्वाूभाविक है वे अपना काम लगन से करना बन्द‍ कर देते। इस वास्त‍विकता पर मन्थान के उपरान्ता ही टुकड़ों में निर्माण की योजना बनाई गई थी। पाँच सौ गज लम्बी‍ दीवार करीबन पाँच वर्षों में पूरी होने का अनुमान था और इन वर्षों में सुपरवाइजरों की पूरी तरह शक्तिब और ऊर्जा समाप्तम हो चुकी होगी, यहाँ तक कि वे स्वीयं पर विश्वामस करना भी भूल चुके होंगे, यही क्योंक, उनका तो दीवार और दुनिया पर से ही विश्वादस खण्डिशत हो चुका होगा। इसीलिए जब वे हजार गज दीवार के निर्माण के समाप्तर होने के उत्सिव के जोश से भरे, अपने निर्माण पर गर्व कर रहे होते थे, तभी उन्हेंउ दूर, बहुत दूर भेज दिया जाता था। रास्तेी में उन्हेंण यहाँ-वहाँ बनती दीवार, पूरी हो चुकी दीवार दिखती, वे उच्चााधिकारियों के मकानों के पास से निकलते थे जहाँ उन्हें सम्माानपूर्वक पदक भेंट किए जाते थे। देश के विशाल भू-भाग से मजदूरों की नई सेना उत्सामह से जयकारा करती देखती जाती थी, जंगलों को काटकर दीवारों के सहारे के लिए पेड़ों को खड़ा करना देखती, पहाड़ों की चट्टानों को तोड़कर दीवार के लिए पत्थेर निकलते देखती, पवित्र स्थालों में दीवार की पूर्णता हेतु की जाती प्रार्थनाओं को सुनती, और उत्साखह से भरती आगे बढ़ती चली जाती थी। ये सभी दृश्यप मिलकर उनकी अधीरता को शान्तत करने में सहयोग देते थे।

अपने घरों में कुछ दिनों का आराम, जहाँ वे कुछ दिनों के लिए रुकते थे, उनमें नई ऊर्जा से भर देता था। जिस विश्वासस के साथ उनकी कार्य रिपोर्टों को सुना जाता था, जिस भरोसे के साथ सीधे-सादे शान्ति्प्रिय किसान उनसे दीवार पूर्ण होने की सूचना से आश्वभस्तिस व्यदक्त‍ करते थे, इससे उनकी आत्म विश्वाईस की गाँठ सख़्भत हो जाती थी। शाश्वरत्‌ आशावादी बच्चोंस की तरह वे अपने घरों को अलविदा कहते थे, उनके अन्दँर एक बार फिर देश की दीवार के निर्माण में जुट जाने की उत्कहट अभिलाषा जाग्रत हो जाती थी। छुट्टियाँ समाप्त् होने के पहले ही वे निकल पड़ने को आतुर हो उठते थे और उन्हें विदा करने आधा गाँव उनके साथ बहुत दूर तक केवल उनके उत्साहह को देख चलता जाता था। बैनर्स और स्काूर्फ हिलाते लोगों के समूह उन्हेंत सभी सड़कों पर मिलते थे। यह सब देख उन्हें यह अहसास पहिली बार होता था कि उनका देश कितना महान, सम्पसन्नर और सुन्दनर था। प्रत्येबक देशवासी उनका भाई था, जिसके लिए वह दीवार बना रहा था, सुरक्षा की दीवार और प्रतिदान में वह आजीवन आभारी रहेगा, अपनी हर वस्तुज के लिए जो उसके पास थी। एकता! एकता! कन्धेप से सटा कन्धाि, भाइयों का घेरा, रक्त़ संचार, जो मात्र एक देह में सीमित नहीं है, वरन्‌ प्रेम से बहता और लौटता हुआ असीम चीन की सीमाओं से।

इस तरह खण्डोंम में निर्माण की यह व्यरवस्थाक सम्भतव हुई, लेकिन इसके अतिरिक्तह कुछ और कारण भी थे। इतनी देर तक इसी प्रश्नन पर रुके रहना व्यभर्थ भी नहीं है, यह वास्तरव में इस दीवार के निर्माण में एक महत्त्वपूर्ण प्रश्ना है। भले ही सरसरी तौर पर यह इतना महत्त्वपूर्ण न दिखता हो। यदि मुझे यह बात बतलानी है और उस काल की सोच और भावनाओं को समझने योग्यर बनानी है, तो इस प्रश्नक पर बिना गम्भीीरता से चर्चा किए यह सम्भंव ही नहीं होगा, हालांकि अधिक गहराई तक जाना मेरे वश में है नहीं।

सबसे पहली बात तो यह कि उन दिनों बेबल की मीनार के निर्माण की तुलना में कमजोर निर्माण के बारे में सोचा ही नहीं जाता था। हालाँकि जहाँ तक दैविक सहमति या अनुमति का प्रश्नर है और जहाँ तक मनुष्यों की सोच का प्रश्न है, वह कार्य से अधिक असंगत नहीं हो सकता, यह मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंचकि निर्माण के शुरुआती दौर में एक स्कॉ लर ने एक पुस्तयक लिखी थी, जिसमें उसने विस्ताकर से दोनों निर्माण की तुलना की थी। पुस्तकक में उसने यह सिद्ध करने की कोशिश की थी कि बेबल की मीनार अपने उद्देश्यस में असफल उन कारणों से नहीं हुई थी, जो दुनिया भर में बतलाए जा रहे थे अथवा स्वीसकृत तर्कों में से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण का तो कभी पता ही नहीं चला था। उसके तर्क और सबूत न केवल लिखित परिपत्रों या रिपोर्टों पर ही आधारित थे। उसके अनुसार वह स्वकयं उस स्था न का निरीक्षण भी कर आया था और इसके बाद निष्कअर्ष निकाला था कि मीनार इसलिए अपने उद्देश्य में असफल हुई और उसे असफल होना ही था- कारण था उसकी नींव। इस परिप्रेक्ष्यस में हमारा समय उस प्राचीन काल से पर्याप्तथ श्रेष्ठा है। हमारे यहाँ प्रायः हर पढ़ा-लिखा व्याक्तिर हमारे समय में व्याहवसायिक रूप से राजगीर है और नींव रखने में प्रवीण है। हालाँकि वह स्का़लर मात्र यही सिद्ध नहीं करना चाहता था, क्योंवकि उसकी राय में महान दीवार मानव इतिहास में एकमात्र गवाह होगी, साथ ही नई बेबल की मीनार की सुरक्षित नींव भी रखेगी। इसलिए सबसे पहले दीवार और फिर मीनार। उस ज़माने में यह पुस्तंक प्रत्येदक हाथ में हुआ करती थी, लेकिन मैं स्वीबकार करता हूँ कि मैं आज भी यह समझ नहीं पाया हूँ कि आखिर उसने मीनार के बारे में सोचा क्योंल था। भला दीवार जो आधा गोला तक नहीं बनाती, बमुश्किनल चौथाई या आधा गोला, यह किसी मीनार की नींव कैसे बनेगी। इसका तात्पतर्य यह है कि इसे आध्याथत्मिोक अर्थ में ही स्वीरकारा गया होगा। लेकिन यदि यही सच था तो फिर दीवार बनाने की भला आवश्यमकता ही क्यार थी, जो पूरी तरह से साकार थी, हजारों-लाखों लोगों की ज़िन्दिगी भर की मजदूरी, खून-पसीना की साकार परिणति? साथ ही पुस्तीक में वर्णित योजनाओं, धुँधली-धुँधली अस्पहष्टा-सी मीनार की योजनाओं द्वारा विस्ता्र से बतलाया गया था कि जनता की शक्तिु और ऊर्जा को इस महान कार्य में कैसे लगाया जाएगा?

उस युग में लोगों के पास इस सम्बान्धश में एक से एक विचित्र विचार थे- स्का-लर की पुस्तगक तो एक उदाहरण मात्र है- शायद इसीलिए ताकि बहुसंख्यर लोग मिलकर पूरी शक्तिग से जहाँ तक सम्भतव हो, इस एक उद्देश्यह की पूर्ति में जुट जाएं। मानवीय स्ववभाव अनिवार्यतः परिवर्तनशील है। धूल की तरह अस्थिइर जो विरोध कत्तई बर्दाश्ति नहीं करता। यदि वह अपने को बाँध भी लेता है तो तुरन्तक ही पागलों की तरह उसे खोलने में जुट जाता है। जब तक वह सब कुछ को चीर-फाड़ न डाले। चाहे वह दीवार हो या कोई बन्धअन, यहाँ तक कि स्व यं को भी।

सम्भनव है ये सारे विरोधी विचार जो दीवार के निर्माण के विरोध में खड़े हो गए थे, हाई कमाण्डध के मन भी रहे होंगे, जब उन्होंरने खण्डं निर्माण का निश्चाय किया था। मैं यहाँ पर्याप्त‍ बड़ी संख्यां की ओर से बोल रहा हूँ, वे वास्तरव में उन्हेंा जानते ही नही हैं। जब हमने हाई कमाण्डे द्वारा पारित आदेशों को जाँचा-परखा तो पाया कि बिना हाई कमाण्ड के न तो हमारा पुस्तडकें पढ़ना और ना ही हमारी मानवीय बुद्धि ही पर्याप्ता होती, जो हम अपने छोटे-छोटे प्रयासों से सम्पूनर्ण कार्य के लिए करते रहे हैं। कमाण्डड आफिस में- वह कहाँ था और वहाँ कौन बैठता था, जिससे भी मैंने प्रश्नए किया वे इस सम्ब न्ध‍ में कुछ भी नहीं जानते थे और न ही अब जानते हैं- उस आफिस में यह निश्चि त तौर पर कहा जा सकता है कि मनुष्योंह का प्रत्येसक विचार और इच्छा्एँ वहाँ चक्क र लगाती रहती थीं और उनके सभी मानवीय उद्देश्य और पूर्णताएँ प्रत्युऔत्त र में वहाँ उपस्थि त थीं। साथ ही वहाँ की खिड़कियों से दैवीय दुनिया के वैभव की परछाइयाँ नेताओं के हाथों में पड़ा करती थीं जब वे अपनी योजनाओं पर चर्चा किया करते थे।

और इसीलिए भ्रष्टानचार से परे रहने वालों को यह जानना चाहिए कि नेतृत्वक यदि गम्भीीरता से कामना करता तो वह इन बाधाओं के पार भी जा सकता था, जो लगातार निर्माण के विरोध में था, अतः शेष बचता है मात्र यह निष्कथर्ष कि नेतृत्वा ने जानबूझकर खण्डम-निर्माण का चुनाव किया था। लेकिन खण्डथ निर्माण मात्र पालियों (शिफ्टोंथ) में होना अनुपयुक्ते था। अतः निष्क र्ष यह निकलता है कि नेतृत्वर कुछ अनुपयुक्त की ही इच्छाो करता था- आश्च।र्यजनक निष्कचर्ष है न! यह सच है और एक दृष्टिपकोण से इस पर बहुत कुछ कहा जा सकता है। आज तो इस विषय पर आराम से बिना किसी चिन्ता के कोई भी चर्चा कर सकता है। उन दिनों अधिकांश लोग और उनमें से भी श्रेष्ठक मस्तिकष्कोंा के स्वायमियों के पास भी एक गुप्तर रहस्य मय कथन था, जिसके अनुसार हाई कमाण्डु के आदेश को अपनी पूरी क्षमता से पूर्ण करने की कोशिश करो। लेकिन मात्र एक निश्चिकत बिन्दुप तक- इसके बाद उस बारे में सोच-विचार पूरी तरह बन्दे कर दो। एक सूक्तिक व समझदारी भरी सूक्तित, जिसके विषय में विस्ताेर से एक नीतिकथा में दर्शाया गया है, जिसे लोग प्रायः उद्धृत कर दिया करते थे, आगे ध्यातन देने से बचो, लेकिन इसलिए नहीं कि वह हानिप्रद हो सकता है, क्योंतकि यह भी अन्त तः निश्चिोत नहीं है कि वह हानिप्रद वास्तहव में है ही।

क्याि हानिप्रद है और क्या नहीं का प्रश्न् से कोई सम्बसन्धन ही नहीं है, इसलिए बेहतर होगा कि बसन्ता ऋतु में नदी के विषय में सोचो। वह फैलती-बढ़ती जाती है, जब तक वह शक्तिबशाली नहीं हो जाती और धरती का पालन-पोषण करती है अपने तटों का दूर-दूर तक, लेकिन अपनी दिशा को कभी नहीं भूलती और उसी पर चलती रहती है, जब तक वह समुद्र से मिल नहीं जाती, जहाँ उसका खुले हृदय से स्वाीगत किया जाता है। क्यों कि वह एक उपयुक्तद सहयोगी है- इसलिए कुछ दूर तक तो हाई कमाण्डव के निर्देशों का पालन और ध्याकन रखना आवश्याक है, लेकिन उसके बाद नदी अपने किनारे तोड़ देती है, उसका आकार विलुप्तो हो जाता है, उसकी धारा की गति को धीमा कर देती है। अपनी नियति की चिन्ताउ न कर धरती के ऊपर ही अपने स्वियं के छोटे-छोटे समुद्रों का निर्माण कर लेती है, खेतों को नुकसान पहुँचाती है और इतना सब करने के बावजूद अपने नए रूपाकार को अधिक समय तक बनाए नहीं रख पाती और अपने पुराने तटों के बीच बहने को उसे तैयार होना पड़ता है। गर्मियों में बहुत से स्थकलों पर उसे सूखना भी पड़ता है। स्वााभाविक है वह मौसम भी आता ही है- इसीलिए अधिक दूरी तक हाई कमाण्डत के निर्देशों और नियमों पर तुम्हेंव चिंतन-मनन करने की आवश्यलकता ही नहीं है।

अब यह जो लोककथा है इसका प्रभाव दीवार निर्माण पर अधिक मात्रा में रहा होगा, किन्तुज मेरे वर्तमान आलेख के लिए तो यह केवल सीमित सन्देर्भ ही रखती है। मेरी जाँच-पड़ताल और खोज तो विशुद्ध रूप से ऐतिहासिक है, बहुत दिनों से कोई बिजली न तो लपलपाती है, न ही कौंधती ही है, क्योंसकि गरजने वाले बादल कहीं नहीं हैं, और इसलिए मैं इस प्रखण्डर निर्माण की व्य,वस्थान की व्याेख्याक करना चाहता हूँ, जो वहाँ से बहुत आगे जाती है। जिस पर उस समय के लोग सन्तुसष्टा हो जाया करते थे। मेरी वैचारिक क्षमता पर्याप्तो सीमित है, किन्तुष जिस लम्बेा-चौड़े विशाल भू-भाग पर मुझे चलना है वह असीम है। यह महान दीवार किससे रक्षा के लिए बनाई गई थी? उत्त।र के निवासियों के विरुद्ध! अब मैं तो चीन के दक्षिण-पूर्व का हूँ। उत्त।र का कोई भी व्यसक्तिर हमारे लिए ख़तरनाक नहीं बन सकता। हम पुरानी पुस्तेकों में पढ़ते हैं, उन क्रूरताओं के बारे में जो उन्होंनने अपनी प्रकृति के चलते की थीं, जिन्हेंं शान्तत पेड़ों के नीचे बैठ पढ़ते हुए हम लम्बीउ साँसें लेते हैं। कलाकारों द्वारा किए गए उनके यथार्थ चित्रण हमें बतलाते हैं इन शैतान चेहरों के खुले मुँह से झाँकते बड़े-बड़े नुकीले दाँत, उनकी अधखुली आँखें जो पहिले से ही शिकार को अपने जबड़ों में फँसा निगलने को तैयार हैं। जब भी हमारे बच्चेि शैतानी करते हैं, हम उन्हेंो ये चित्र दिखलाते हैं और एक नज़र पड़ते ही वे रोते हुए हमारी बाँहों में समा जाते हैं। बस, इसके अतिरिक्तत हम उत्तेरवासियों के विषय में कुछ भी नहीं जानते। हमने उन्हें देखा नहीं है और यदि हम गाँवों में रहे आते हैं तो उन्हेंो कभी देखेंगे भी नहीं, भले ही वे अपने जंगली घोड़ों को तेजी से दौड़ाते सीधे क्योंउ न हमारी ओर आवें। तब भी नहीं, हमारा देश बहुत विशाल है और उन्हेंे हमारे पास तक पहुँचने नहीं देगा, उनकी मंजिल ख़ाली हवा में ही ग़ायब हो जाएगी।

यदि यह सच है तो फिर भला हमने अपना घर क्योंल छोड़ा, झरनों को उनके पुलों के साथ, अपनी माताओं और पिताओं, अपनी सुबकती पत्निरयों, अपने बच्चोंक को जिन्हें हमारी आवश्यहकता है। हम दूर बसे शहरों में ट्रेनिंग के लिए क्योंक जाते हैं, जबकि हमारी कल्पयना हमें वहाँ से भी बहुत दूर वहाँ ले जाती है जहाँ दीवार है। क्योंह? हाई कमाण्ड के लिए प्रश्नह। हमारे नेता हमारे स्वहभाव से अच्छीं तरह परिचित हैं। भले ही वे विशाल समस्यारओं को ले चिंतित हों, हमारे बारे में वे जानते हैं, हमारी छोटी-छोटी आकांक्षाओं को। वे हमें अपनी छोटी-छोटी झोंपड़ियों में बैठा देखते हैं, हमारी सन्या् प्रार्थनाओं से सहमत-असहमत होते देखते रहते हैं, जिसे घर का बुर्जुग परिवार के बीच दोहराता बैठा रहता है। यदि मुझे अपने इस प्रकार के विचार प्रकट करने की अनुमति है तो मैं यही कहूँगा कि मेरी राय में हाई कमाण्ड प्राचीन काल से अस्तिेत्व में है, वह यों ही बुला नहीं लिया गया है, जल्दीा से इकट्ठी की गई मेंडरीन; चीनी भाषा हो जो किसी के सपने पर चर्चा के लिए बुलाई हो, और उतनी ही जल्दी से उसे बर्खास्तह कर दिया जाता है, ताकि उसी शाम लोगों को ढोल बजाकर बिस्तऔरों से उठा दिया जाता है। निर्णय के अनुसार निर्धारित काम करने के लिए, भले ही वह कुछ भी क्योंा न हो, वह एक पुच्छरल तारा ही हो, जो ईश्विर के सम्मावन में निकला हो। जिसने मालिकों का एक दिन पहले ही महत्त्वपूर्ण कार्य किया हो और दूसरे ही दिन किसी अन्धेेरे कोने में धक्केन और लाठियाँ मार-मारकर ढकेल दिया गया हो। वह भी पुच्छलल तारे के अंतिम भाग के लुप्त होने के पहले भले ही बहुत दूर क्योंय न हो। मैं विश्वाोस करता हूँ कि हाई कमाण्डम का अस्तिपत्वथ अनन्तल काल से है और उसी तरह से उनका दीवार बनाने का निर्णय भी। अब यह तो उनका अज्ञान ही है कि उत्तररवासी समझते हैं उनके कारण दीवार बनाई जा रही है। अनजान ईमानदार सम्राट जिसने कल्पसना की कि उसने निर्माण का आदेश दिया था। हम दीवार निर्माण में व्यनस्तस राजगीर अच्छी तरह जानते हैं कि ऐसा कुछ है नहीं, इसके साथ ही हम अपनी जुबान भी हमेशा बन्द् रखते हैं।

दीवार के बनते समय से आज तक मैंने स्व‍यं को जातियों के तुलनात्म क इतिहास के एकमात्र काम में व्यमस्त‍ रखा है- कुछ प्रश्न ऐसे हैं जिन्हेंह कोई चाहे तो उसकी हड्डियों की मज्जा तक पहुँच सकता है, जैसे वे हैं, ठीक इसी विधि से और मैंने खोज लिया है कि हम चीनियों में कुछ लोक और कुछ राजनैतिक संस्थाजएँ हैं, जो अपनी विशिष्टमताओं में स्पीष्टछ हैं, और कुछ अन्यए दुरूहता में विशिष्टि हैं। इन विचित्रताओं के कारणों को जानने की तीव्र इच्छाछ, विशेषकर बाद में हुई। घटनाएँ मुझे सदैव चिढ़ाती रही हैं और अभी भी चिढ़ाती हैं और दीवार निर्माण भी इसी समस्याक का अंग है।

हमारे यहाँ सर्वाधिक दुरूह संस्थाम आप जानते हैं साम्राज्यू ही है। पीकिंग की राजकीय कोर्ट में स्वावभाविक है इस विषय में पर्याप्त स्पाष्टयता मिलती है, हालाँकि वह भी यथार्थ से कुछ अधिक ही भ्रामक है। साथ ही हाईस्कूतल के राजनैतिक-विधि एवं विधि के शिक्षक यह मानते हैं कि वे इस विषय के ज्ञाता हैं और उनमें इतनी सामर्थ्यप है कि वे उस ज्ञान को अपने छात्रों को देने में भी समर्थ हैं। जितना अधिक कोई समाज नीचे स्तवर के स्कूनलों में जाता है, वहाँ स्वा भाविक रूप से ऐसे शिक्षक और छात्र मिलते हैं, जिनको अपने ज्ञान पर सन्देलह बिल्कुमल भी नहीं होता है और एक सतही दिखावटी-सी संस्कृति क्रमशः आकाश की ऊँचाई तक जाती दिखती है। जो कुछ नियमों के चारों ओर घूमती है, जिन्हेंि लोगों के मस्तितष्कों में सदियों से ढूँढ़ा जाता रहा है। नियम या आदेश, अपने अजर-अमर सत्यं, जिसमें से कुछ भी कम नहीं हुआ है, लेकिन वे शाश्वयत रूप से सदैव सन्दे हों के कोहरे में अदृश्य, रहे हैं।

किन्तुम यह साम्राज्यह का प्रश्नं ही तो है जो मेरी राय में सामान्य जनता से जिसका उत्ततर पूछा जाना चाहिए, क्योंहकि वे ही तो हैं जो साम्राज्यन के अन्तिजम आसरा हैं। यहाँ, मैं स्वी‍कार करता हूँ कि मैं केवल अपने जन्म‍ स्थाीन के विषय में ही ईमानदारी से कह सकता हूँ। प्राकृतिक देवता और उनके कर्मकाण्डह जो पूरे वर्ष को सुन्दारता और प्याीरे परिवर्तनों से भरे रखते हैं, इसके अतिरिक्तह यदि हमारे चिन्त न का कोई विषय होता है तो वे सम्राट ही हैं। लेकिन वर्तमान सम्राट के प्रति नहीं, या फिर हम वर्तमान के बारे मं विचार करते यदि हमें पता होता कि वे कौन हैं, या उनके सम्बान्धय में कुछ तथ्यों से परिचित होते, सच यही है कि उत्सुमकता ही है, जिसमें हम सदैव व्यमस्त् रहते हैं- हम हर सम्भिव प्रयास करते हैं। इस विषय में जानकारियों और सूचनाएँ प्राप्तव करने की, चाहे वे तीर्थयात्रियों से ही क्यों न मिलें, क्योंरकि उन्हों ने लम्बेर-चौड़े इलाके की यात्रा की होती है, या फिर पास या दूर के गाँवों से, या नाविकों से, क्यों कि उन्हों ने न केवल हमारे झरनों को पार किया होता है वरन्‌ पवित्र नदियों को भी। ढेर सारी सूचनाएँ और समाचार एक व्यपक्तिह को मिलते हैं यह सच है, लेकिन कुछ भी निश्चिचत तथ्यम एकत्र नहीं कर पाता।

हमारा देश इतना विशाल है कि कोई भी पौराणिक कथा उसकी विशालता के साथ न्याभय नहीं कर सकती। स्वकर्ग (आकाश) उसे नाप नहीं सकता और पीकिंग तो उसमें मात्र एक बिन्दुर ही है, और सम्राट का महल बिन्दुल से भी छोटा। दूसरी ओर जहाँ तक सम्राट का प्रश्नर है वह दुनिया के सभी धार्मिक राजनैतिक वर्गों में सर्वाधिक शक्ति।शाली हैं, यह मैं स्वी्कारता हूँ। लेकिन वर्तमान सम्राट हमारे- आपके जैसा एक व्यैक्तिा है, जो पलंग पर हमारी तरह ही लेटता है, जो हो सकता है विशाल हो या फिर यह भी सम्भा्वना है कि वह सकरा और छोटा हो। हमारी ही तरह वह कभी-कभार स्वसयं को खींचता है और जब वह थक जाता है तो सुन्दँर तराशे मुँह से जम्हाीई भी लेता है। लेकिन इस सबका हमें भला पता कैसे चलेगा-हजारों मील दूर दक्षिण में तिब्ब त की पर्वत श्रृंखलाओं की सीमाओं के पास? और इसके साथ ही जो भी ज्वा्र-भाटे वहाँ उठते हैं यदि वे हमारे पास तक पहुँचते भी हैं, तो बहुत देर से पहुँचते हैं और हम तक पहुँचने के पहले ही लुप्ते प्रायः हो चुके होते हैं। सम्राट सदैव बुद्धिमान किन्तुै फिर भी अस्प ष्टु से दरबारियों और कुलीनों से घिरे रहते हैं- नौकरों व मित्रों के वेश में विद्वेष और शत्रुता-जो साम्राज्यत की शक्तिर पर विरोधी दबाव बनाते हैं और लगातार सम्राट को पदच्यु त करने के लिए विषाक्त बाण चलाते रहते हैं। साम्राज्य अमर है, किन्तुष सम्राट स्व यं लड़खड़ाता है और सिंहासन से उतार दिया जाता है। हाँ, सच यही है कि साम्राज्यन अन्त तः डूब जाते हैं और अपनी मौत की बड़बड़ाहट में अन्तिरम साँसें लेते हैं। इन संघर्षों और पीड़ाओं से जनता कभी परिचित नहीं होती। हारे-थके आगन्तुंकों की तरह, शहर में आने वाले अजनबियों की तरह, किसी भीड़ भरी सड़क के किनारे खड़े हो, साथ लाए खाने को चबाते खड़े रहते हैं, जबकि उसी इलाके के सामने बहुत-बहुत दूर शहर के बीच के चौराहे पर उनके शासक को फाँसी दी जा रही होती है।

एक नीति कथा है जो इस पूरी स्थिसति को बहुत अच्छीच तरह समझाती हैः सम्राट ने, इस कथा के अनुसार, एक सन्दे‍श तुम्हाचरे पास भेजा, एक सीधे-सादे नागरिक के पास, साम्राज्यु के सूरज ने अपने विशाल देश के बहुत दूर, बेहद दूर स्थिकत महत्त्वहीन छाया के पास, सम्राट ने अपनी मृत्युेशय्या से केवल आपके पास सन्देधश भेजा। उसने सन्देसशवाहक को आदेश दिया कि वह उसके पलंग के पास घुटनों के बल बैठ जाए, और तब उसने फुसफुसाकर सन्देआश बतलाया। फिर उसने ज़ोर देकर सन्दे शवाहक से कहा कि जो भी सन्देफश उसने अभी बतलाया है, वह उसके कानों में दोहराए। सुनने के बाद उसने सिर हिलाकर यह निश्चिउत किया कि सन्दे श सही है। आपने देखा न कि अपनी मृत्युो के अनगिनत दर्शकों के बीच- जहाँ सभी बाधा डालने वाली दीवारों और अवरोधकों को गिरा दिया गया था और ऊँची-चौड़ी सीढ़ियों पर साम्राजय के सभी राजकुमार एक घेरा बनाए खड़े थे- इन सबके सामने उसने अपना सन्दे्श सुना दिया। सन्देुशवाहक तुरन्त अपनी यात्रा पर निकल पड़ा, एक तन्दुेरुस्ता, न थकने वाला आदमी- अब अपने दाहिने हाथ को आगे बढ़ाता, फिर बाएँ को, इस प्रकार भीड़ की चीरता वह अपनी राह पर चलता गया। जहाँ भी उसे विरोध का सामना करना पड़ा, उसने तुरन्त अपने सीने की ओर इशारा कर दिया, जहाँ सूर्य का चिन्हक चमक रहा था। तुरन्त ही उसके लिए रास्ताअ आसान कर दिया जाता था, जो अन्यि किसी के लिए नहीं होता। लेकिन जनसंख्याह इतनी अधिक है कि उनकी संख्याी का कहीं कोई अन्त ही नहीं है। यदि वह खुले खेतों-मैदानों में पहुँच जाता तो वह कितनी तेजी से उड़ता हुआ-सा चलता और निस्सोन्देदह बहुत जल्दीं आप अपने दरवाजों पर उसकी मुट्ठियों की आवाज़ सुनते। लेकिन ऐसा होता नहीं है- उसकी शक्तिव बहुत जल्दीि ही क्षीण होने लगती है, लेकिन वह महल के आन्त रिक हिस्से के गलियारों में किसी तरह रास्ताो बनाता चलता जाता है, जिसके अन्तव में वह कभी भी पहुँच ही नहीं पाएगा और यदि वह सफल हो भी जाता है, तो भी कुछ होने वाला नहीं है। उसे सीढ़ियों के बीच में लड़-झगड़कर रास्ताो बनाना होगा और यदि वह सफल हो भी जाता है, तो भी कुछ फायदा होने वाला नहीं है। अभी दरबारों को पार करना है उसे, दरबारों के बाद दूसरा बाहरी महल और फिर एक बार सीढ़याँ और दरबार और फिर आगे एक और महल और इस तरह हज़ारों वर्षों तक यही अनथक क्रम और यदि अन्तएतः वह बाहरी दरवाजों को तोड़कर निकल पाने में समर्थ होता है- लेकिन नहीं, यह कभी नहीं होगा- साम्राज्यक की राजधानी उसके सामने होगी, दुनिया का केन्द्रफ, अपने कूड़े-करकट से फटने की हद तक भरा। यहाँ से लड़-झगड़कर कोई भी रास्ता- बनाकर जा ही नहीं सकता, यहाँ तक कि मृतक का शोक सन्देधश लेकर भी। इसलिए बेहतर यही है कि तुम सूरज ढलते और शाम के उतरते समय खिड़की के पास बैठो और स्व यं उसका सपना देख लो।

तो इन परिस्थि तियों में, इतनी निराशाओं के बीच आशा को जीवित रख हमारी जनता सम्राट का सम्मारन करती है। वे यह भी नहीं जानते कि कौन सम्राट राज्य कर रहा है, यही नहीं उनके मन में राजवंश को लेकर भी सन्देवह होते हैं। स्कूजलों में पर्याप्तर विस्ताअर से राजवंशों और उनके उच्चांधिकारियों के बारे में विस्तािर से तारीखों सहित पढ़ाया जाता है, लेकिन इस सम्बोन्धय में सर्वकालिक अनिश्चिसतता चली आ रही है कि श्रेष्ठततम विद्वत्‌जन भी इसके भ्रमजाल में फँस जाते हैं। पता नहीं कब के मर-खप चुके सम्राटों को हमारे गाँव में राजगद्दी पर बैठा दिया जाता है और एक जो मात्र गीतों में ही जीवित है, अभी कुछ दिन पहिले उसकी घोषणाओं को पूजा स्थकल पर पढ़ा गया है। युद्ध जो प्राचीन इतिहास में दफन हैं, हमारे लिए हाल-फिलहाल ही हुए हैं और किसी का भी पड़ोसी चमकते-दमकते चेहरे के साथ उसके समाचार को आए-दिन सुनाते देखा जा सकता है। सम्राटों की रानियाँ, जिन्हें चतुर-चालाक दरबारी, राजसी रीति-रिवाजों द्वारा पथभ्रष्टी प्रायः ही कर लिया करते हैं, जो महत्वााकाँक्षाओं से मुटियाती दैहिक कामनाओं में असंयमित और घोर लालची होने के साथ अपनी घृणित आदतों में मगन रही आती हैं। वे अपने समय में जितनी गहराई में दफन हैं, उनके कार्यों को उतने ही गहरे रंगों से रंगा जाता है और दर्द भरी लम्बीं-सी आह के साथ हमारे गाँव वाले अन्तयतः सुनते हैं कि कैसे हजारों वर्षों पहिले एक साम्राज्ञी ने अकाल के दिनों में अपने ही पति का रक्त्पान किया था।

आप समझे न, कि हमारी जनता अपने विगत सम्राटों के साथ कैसा व्यकवहार करती है, क
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साहित्य - प्रताप नारायण मिश्र

जहाँ न हित-उपदेश कुछ, सो कैसा साहित्य?
हो प्रकाश से रहित तो, कौन कहे आदित्य?

- प्रताप नारायण मिश्र [24 सितम्बर, 1856 - 6 जुलाई, 1894]......

 
 
जब फ़िराक़ नेहरू से ख़फ़ा हो गए  - रोहित कुमार हैप्पी

एक बार 1948 में, जवाहरलाल नेहरू ने 'फ़िराक़' को 'आनंद भवन' में एक बैठक के लिए आमंत्रित किया था। वहाँ पहुंचने पर जब रिसेप्शनिस्ट ने उनका नाम पूछकर, बैठने को कहा तो फ़िराक़ विचलित हो गए। यह वही घर था, जहाँ वह चार साल जवाहरलाल के साथ रहे थे। अब जब जवाहरलाल प्रधानमंत्री थे तो उन्हें इंतजार करना होगा? फिराक ने रघुपति सहाय के रूप में अपना नाम दिया, जिसे रिसेप्शनिस्ट ने कागज की एक पर्ची पर 'आर. सहाय' के रूप में लिखा और उसे अंदर भेज दिया। फिराक लगभग पंद्रह मिनट ( या कुछ ज्यादा) बेसब्री से इंतजार करते रहे और फिर नाराज हो गए। वह रिसेप्शनिस्ट पर लगभग चिल्लाए, 'मैं यहां इंतजार करने नहीं आया हूँ। मैं यहाँ जवाहरलाल के निमंत्रण पर आया हूँ। मुझे आज तक इस घर में प्रवेश करने से किसी ने कभी नहीं रोका। अब क्यों? ठीक है, उन्हें बताएं कि मैं 8/4 बैंक रोड पर रहता हूँ, और बाहर की ओर चल दिए।

नेहरू उनकी आवाज पहचानते ही जल्दी से बाहर आए और बोले, 'रघुपति, तुम यहाँ क्यों खड़े हो? तुम्हें घर पता है। तुम्हें सीधे अंदर आना चाहिए था।' यह कहकर नेहरू ने उन्हें गर्मजोशी से गले से लगा लिया। जब फिराक ने उन्हें बताया कि 'घंटे पहले' रिसेप्शनिस्ट ने उनके नाम की पर्ची अंदर भेजी थी, तो नेहरू ने जवाब दिया, 'भाई, तीस साल से मैं तुम्हें रघुपति के रूप में जानता हूँ। यह आर. सहाय कौन हो गया? इसके बाद नेहरू उन्हें अंदर ले गए और लगभग एक घंटे तक बैठक हुई। पहले तो, फ़िराक़ नेहरू के स्नेह से अभिभूत रहे और उन्होंने उन दिनों को याद किया, जब वे साथ रहते थे। लेकिन जल्द ही फ़िराक़ चुप्प हो गए। नेहरू ने चुप्पी तोड़ी और पूछा,'तुम इतने गुस्से में क्यों हो?'

फ़िराक़ ने मुस्कुरा कर जवाब दिया--

तुम मुखातिब भी हो, करीब भी
तुमको देखें कि तुमसे बात करें

प्रस्तुति : रोहित कुमार 'हैप्पी'

[Source : Firaq Gorakhpuri: The Poet of Pain & Ecstasy by Ajai Mansingh]

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वारिस शाह से - अमृता प्रीतम

आज वारिस शाह से कहती हूँ
अपनी कब्र में से बोलो......

 
 
गधे से सीख  - लोक साहित्य

एक शाम की बात है। मुल्ला नसरुद्दीन अपने घर की छत पर चढ़े और चारों ओर का नज़ारा देखा। उनको लगा कि इतनी ख़ूबसूरत शाम है, तो क्यों न अपने गधे को भी छत पर ले आया जाए। इन नज़ारों का लुत्फ़ बेचारा गधा भी ले ले।

मुल्ला ने गधे को सीढ़ी पर चढाने की कोशिश की और बड़ी मुश्किल से वे उसे चढ़ा पाए। जब गधा ऊपर पहुंचा तो मुल्ला ने देखा कि वो तो अपनी जगह पर अड़ा है। शाम की ख़ूबसूरती से बेनियाज़ खड़ा है। मुल्ला को ये देखकर मायूसी हुई। अब वो गधे को नीचे ले जाने के लिए ज़ोर लगाने लगे। गधा नीचे नहीं उतरा तो मुल्ला खुद नीचे आ गए। थोड़ी देर बाद मुल्ला ने छत से अजीबो ग़रीब आवाज़ें सुनीं। ऊपर गए तो देखा कि गधा अपनी दुलत्तियों से कच्ची छत को तोड़ने की कोशिश कर रहा है। मुल्ला ने फिर उसे नीचे उतारने की कोशिश की मगर गधे ने दुलत्ती मार कर मुल्ला को ही छत से नीचे गिरा दिया और थोड़ी देर बाद गधा टूटी हुई छत से खुद भी नीचे आ गिरा।

मुल्ला ने कहा कि आज इस वाकए से मैने तीन सबक सीखे। पहला, गधे को कभी ऊंची जगह नहीं ले जाना चाहिए वरना गधा उस ऊंचे मुकाम को बरबाद कर देता है। दूसरे, जो इंसान उसे ऊपर ले जाता है उसे भी नुकसान पहुंचाता है और तीसरा कि अंत में गधा ख़ुद भी नीचे आ गिरता है। बहुत देर ऊपर नहीं टिक पाता।

[ भारत-दर्शन संकलन]


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रजकुसुम कहानी संग्रह की समीक्षाएं  - डॉ. मधु भारद्वाज एवं नरेश गुलाटी

Rita Kaushal Ke Kahani Sangrah Ki Samiksha

समीक्षा : रजकुसुम (कहानी संग्रह)
समीक्षक : डॉ. मधु भारद्वाज......

 
 
न्याय  - रोहित कुमार 'हैप्पी'

एक खरगोश भेड़िये से तंग था। उसे किसी ने सलाह दी कि जंगल के 'प्रधान जी' से मिले।

भोला-भाला खरगोश 'प्रधान जी' से मिला। उसने 'प्रधान जी' को मदद की गुहार लगाई। उसकी भोली-भाली सूरत देखकर शेर को बड़ी दया आयी। 'इसकी मुलायम-मुलायम त्वचा कितनी स्वादिष्ट होगी!' दया सिसक उठी और-----!

- रोहित कुमार 'हैप्पी'


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माओरी लोक कथाएँ - रोहित कुमार 'हैप्पी

किसी भी देश की लोककथाएँ उस देश की संस्कृति, सभ्यता और परम्परा का जानने-समझने का सबसे सशक्त माध्यम है। न्यूज़ीलैंड की माओरी लोककथाएँ बहुत रोचक हैं। इन्हीं में से कुछ हमने समय-समय पर 'भारत-दर्शन' में प्रकाशित की हैं। इनके अतिरिक्त न्यूज़ीलैंड की लेखिका प्रीता व्यास की एक माओरी लोककथाओं की पुस्तक, 'पहाड़ों का झगड़ा' प्रकाशित हो चुकी है।
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माओई और सूरज - रोहित कुमार ‘हैप्पी'

बहुत पहले सूरज आसमान में बड़ी तीव्रता से विचरण करता था। उस समय दिन छोटे और रातें बहुत लंबी होती थीं।

लोग इससे अप्रसन्न थे। उन्हें न शिकार करने के लिए पर्याप्त समय मिलता, न मछली पकड़ने को और न ही वे अन्य वांछित काम कर पाते थे। हर कोई चाहता था कि दिन लंबा हो लेकिन किसी के पास इस समस्या का हल नहीं था।

एक युवक जिसका नाम माओई था, ने लोगों को शिकायत करते हुए सुना। उसने इसपर ध्यान नहीं दिया। उसने सोचा, "अगर दिन लंबे हुए तो उसे और अधिक मेहनत करनी पड़ेगी।"

एक दिन माओई ने अपनी पत्नी से आग जलाकर खाना बनाने को कहा। उसकी पत्नी आग जलाकर खाना बनाने लगी। खाना पकने से पहले ही सूरज अस्त हो गया। माओई ने जैसे-तैसे अंधेरे में ही खाना खाया।

"सूरज बहुत जल्दी अस्त हो जाता है।" माओई अप्रसन्न था। उसने अपने चारों भाइयों को बुलाया।

"सूरज की गति धीमी करने के लिए तुम्हें मेरी मदद करनी चाहिए।"

"माओई के भाई उस पर हँसे। "यह असंभव है," उन्होंने कहा, "सूरज बहुत तप्त है।"

माओई ने अपने भाइयों से कहा, "मेरे पास एक योजना है। हम हरी सन की मजबूत रस्सियों बनाएँगे और हम पूरब में उदय होते सूरज को पकड़ लेंगे।" माओई और उसके भाइयों ने सन काटकर रस्सियां बना लीं।

रस्सियों तैयार कर, माओई और उसके भाई पूरब में उस स्थान की खोज में चल दिए जहां से हर रोज सूरज उदय होता था। माओई व उसके भाइयों ने रस्सियाँ उठा लीं और माओई ने अपना मायावी अस्त्र साथ ले लिया। उन्होंने दर रात को कूच किया ताकि सूरज उन्हें देख न पाए।

अंत में वे उस अंधियारे स्थान पर जा पहुंचे जहां एक बड़े काले छिद्र के भीतर सूर्य निद्रामग्न था। उन्होंने छेद पर रस्सियाँ बिछा दीं। वे वहीं छिपकर सूरज के निकलने की प्रतीक्षा करने लगे।"
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मिठाईवाली बात  - अब्दुलरहमान ‘रहमान'

मेरे दादा जी हे भाई,
ले देते हैं नहीं मिठाई।
आता है हलवाई जब जब,
उसे भगा देते हैं तब तब॥

कहते हैं मत खाओ प्यारे,
गिर जाएंगे दांत तुम्हारे॥
कीड़े मुँह में पड़ जाएंगे,
सारे जबड़े सड़ जाएंगे॥

एक रोज़ वे अपना ऐनक,
गए छोड़कर जब बाहर तक।
फिर तो मैंने मौका पाया,
जल्दी जाकर उसे छिपाया॥

लौट वहाँ से जब वे आए,
उसे न पाया तो घबराए।
बोले जल्दी मुझे बुलाकर,
दे दो भैया चश्मा लाकर॥

मैंने कहा मिठाई लूँगा,
तब मैं दादा चश्मा दूंगा।
फिर तो लेदी मुझे मिठाई,
बड़े मज़े से मैंने खाई॥

-अब्दुलरहमान ‘रहमान'
  [बाल-सखा, 1934]

 


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छोटी कथा-कहानी - भारत-दर्शन संकलन

इस संकलन के अंतर्गत हम छोटी कथा-कहानियाँ संकलित कर रहे हैं।  


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समाधान - भारत-दर्शन संकलन

एक बूढा व्यक्ति था। उसकी दो बेटियां थीं। उनमें से एक का विवाह एक कुम्हार से हुआ और दूसरी का एक किसान के साथ।

एक बार पिता अपनी दोनों पुत्रियों से मिलने गया। पहली बेटी से हालचाल पूछा तो उसने कहा कि इस बार हमने बहुत परिश्रम किया है और बहुत सामान बनाया है। बस यदि वर्षा न आए तो हमारा कारोबार खूब चलेगा।

बेटी ने पिता से आग्रह किया कि वो भी प्रार्थना करे कि बारिश न हो।

फिर पिता दूसरी बेटी से मिला जिसका पति किसान था। उससे हालचाल पूछा तो उसने कहा कि इस बार बहुत परिश्रम किया है और बहुत फसल उगाई है परन्तु वर्षा नहीं हुई है। यदि अच्छी बरसात हो जाए तो खूब फसल होगी। उसने पिता से आग्रह किया कि वो प्रार्थना करे कि खूब बारिश हो।

एक बेटी का आग्रह था कि पिता वर्षा न होने की प्रार्थना करे और दूसरी का इसके विपरीत कि बरसात न हो। पिता बडी उलझन में पड गया। एक के लिए प्रार्थना करे तो दूसरी का नुक्सान। समाधान क्या हो ?

पिता ने बहुत सोचा और पुनः अपनी पुत्रियों से मिला। उसने बडी बेटी को समझाया कि यदि इस बार वर्षा नहीं हुई तो तुम अपने लाभ का आधा हिस्सा अपनी छोटी बहन को देना। और छोटी बेटी को मिलकर समझाया कि यदि इस बार खूब वर्षा हुई तो तुम अपने लाभ का आधा हिस्सा अपनी बडी बहन को देना।

[Aspirational Hindi Story]
[भारत-दर्शन संकलन]


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दो ग़ज़लें  - विनीता तिवारी

बसर ज़िंदगी यूँ किये जा रहे हैं
न सपने न अपने, जिये जा रहे हैं

मेरे पास दौलत न दुनिया है यारों......

 
 
भजन संकलन - भारत-दर्शन संकलन

इस पृष्ठ पर भजन संकलित किए जा रहे हैं।

भारतीय संगीत के मुख्य रूप से तीन भेद हैं-- शास्त्रीय संगीत, सुगम संगीत और लोक संगीत। भजन सुगम संगीत की एक शैली है। इसका आधार शास्त्रीय संगीत या लोक संगीत हो सकता है। मूल रूप से यह किसी देवी या देवता को स्मरण करते हुए उसकी प्रशंसा में गाया जाने वाला गीत है। स्तुति, स्तोत्र और स्तवन का लोकरूप भी भजन ही है।

 


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हमन है इश्क मस्ताना - कबीर

हमन है इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या
रहें आजाद या जग में, हमन दुनिया से यारी क्या

जो बिछड़े हैं पियारे से, भटकते दर-ब-दर फिरते......

 
 
बरखा बहार - भव्य सेठ

देखो भाई बरखा बहार
लेकर आई बूंदों की फुहार......

 
 
अद्भुत दोहा - भारत-दर्शन संकलन

इस दोहे में एक ही अक्षर ‘न’ का प्रयोग किया गया है।

नोनी नोनी नौनि नै, नोने नोनै नैन।
नाना नन ना नाननै, ननु नूनै नूने न॥

इस एक ही दोहे के कई संस्करण हैं, जैसे–

नोनी नोनी नौनि नै, नोनै नोनै नैन।......

 
 
तो हरे भरे बने रहिए न... - प्रो. बीना शर्मा

कहावत है, 'पेड़ सूखा तो परिंदों ने ठिकाना बदला।' जो उजाड़ हो जाते हैं, जो खाली हो जाते हैं, जिनके पास दूसरे को देने के लिए कुछ नहीं बचता, जो भाव शून्य होते हैं, लोग उनसे धीरे..धीरे किनारा कर लेते हैं। जिनमें देश और संस्था प्रेम तो छोड़ो, किसी के लिए भी कोई प्रेम भाव शेष नहीं रहता, उन जैसों के लिए ही लिखा गया होगा--

जो भरा नहीं है भावों से,
बहती जिसमें रस-धार नहीं।......

 
 
अनूठा लाल मोर | तेनाली  - भारत-दर्शन

विजयनगर के महाराज कृष्णदेव राय को अनूठी और दुर्लभ वस्तुओं का शौक था। महाराज ऐसी वस्तुएँ पाकर प्रसन्न होते और बदले में ढेर सारी राशि इनाम में देते थे। दरबारियों में राजा को भेंट करने की होड़ लगी रहती थी।

राजा का एक मंत्री बहुत लालची था। उसे अचानक एक ख़ुराफ़ाती विचार आया। उसने जंगल से एक मोर पकड़वाकर एक कुशल चित्रकार से उसे लाल रंग में रंगवा लिया। इस लाल मोर को देखकर कोई कह नहीं सकता था कि यह इसका स्वाभाविक रंग-रूप नहीं है।

लाल मोर को लेकर मंत्री कृष्णदेव राय के दरबार में पहुँचा। राजा को प्रणाम कर, मोर राजा को दिखाते हुए वह बोला-"महाराज! यह दुर्लभ मोर मुझे मध्य भारत के घने जंगलों में मिला है। मैं यह लाल मोर आपको भेंट करना चाहता हूँ। यह आपके दुर्लभ संग्रह की शोभा बढ़ाएगा। कृपया मेरी भेंट स्वीकार करें।"

महाराज लाल मोर पाकर बहुत प्रसन्न हुए। ऐसा अनूठा मोर राजा ने न पहले कभी देखा था और न सुना था। महाराज प्रसन्नता से बोले-"मैं तुम्हारी इस भेंट से बहुत खुश हूँ। तुम्हें इसे पाने में कितना खर्च आया?"

मंत्री ने सिर झुकाकर कहा-"पच्चीस हजार सोने की मुहरें।"

"जाओ शाही खजाने से ले लो।"

दरबार में तेनालीराम चुपचाप सब सुन रहा था। उसे दरबारी पर विश्वास नहीं हुआ। उसने बहाने से मोर को समीप से देखा। उसे उसमें रंग की गंध आई, पर तेनाली उस समय कुछ नहीं बोला।

बाद में उसने शहर के श्रेष्ठ चित्रकारों से सम्पर्क किया। उनमें से एक ने यह स्वीकार कर लिया कि मंत्री के कहने पर उसी ने मोर को लाल रंगा है। तेनालीराम ने उससे चार और मोर लाल रंग के रँगवाए और कुछ दिनों बाद उन मोरों और चित्रकार के साथ दरबार में उपस्थित हुआ।

तेनालीराम ने कहा-"महाराज, मैं आपके लिए लाल रंग के चार मोर लाया हूँ।"

"अरे, वाह! जाओ, ख़ज़ाने से एक लाख मोहरें ले लो।" राजा ने प्रसन्नचित्त आज्ञा दी।

"...पर मुझसे तो चित्रकार ने चारों मोरों को रंगवाने के लिए केवल पचास हजार सोने की मोहरें ली हैं।"

"क्या, ये मोर सचमुच के लाल नहीं हैं?" महाराज असमंजस में पड़ गए।

राजा ने तेनाली की पूरी बात सुनी तो उन्हें पूरा माजरा समझ आ गया कि मोर वास्तव में लाल नहीं हैं। यह तो चित्रकार का कमाल है। उनके मंत्री ने इनाम के लालच में उनसे छल किया।

"मंत्री को उसके छल के लिए कारावास में डाल दो।" यह कहते हुए महाराज ने उस मंत्री को दंड दिया। इनाम की राशि भी जब्त कर ली गई और वापस खज़ाने में डाल दी गई।

राजा ने चित्रकार को उसकी कला के लिए पुरस्कृत किया। दरबार में तेनाली की सूझबूझ की प्रशंसा की गई और उन्हें सम्मानित किया गया।

[भारत-दर्शन]


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स्वाधीनता दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्रपति का राष्ट्र के नाम संदेश - भारत-दर्शन समाचार

भारत की माननीया राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मु का 76वें स्वाधीनता दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्र के नाम संदेश

मेरे प्यारे देशवासियो,

नमस्कार!

छिहत्तरवें स्वाधीनता दिवस की पूर्व संध्या पर देश-विदेश में रहने वाले सभी भारतीयों को मैं हार्दिक बधाई देती हूं। इस गौरवपूर्ण अवसर पर आपको संबोधित करते हुए मुझे बहुत खुशी हो रही है। एक स्वाधीन देश के रूप में भारत 75 साल पूरे कर रहा है। 14 अगस्त के दिन को विभाजन-विभीषिका स्मृति-दिवस के रूप में मनाया जा रहा है। इस स्मृति दिवस को मनाने का उद्देश्य सामाजिक सद्भाव, मानव सशक्तीकरण और एकता को बढ़ावा देना है। 15 अगस्त 1947 के दिन हमने औपनिवेशिक शासन की बेड़ियों को काट दिया था। उस दिन हमने अपनी नियति को नया स्वरूप देने का निर्णय लिया था। उस शुभ-दिवस की वर्षगांठ मनाते हुए हम लोग सभी स्वाधीनता सेनानियों को सादर नमन करते हैं। उन्होंने अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया ताकि हम सब एक स्वाधीन भारत में सांस ले सकें।

भारत की आजादी हमारे साथ-साथ विश्व में लोकतंत्र के हर समर्थक के लिए उत्सव का विषय है। जब भारत स्वाधीन हुआ तो अनेक अंतरराष्ट्रीय नेताओं और विचारकों ने हमारी लोकतान्त्रिक शासन प्रणाली की सफलता के विषय में आशंका व्यक्त की थी। उनकी इस आशंका के कई कारण भी थे। उन दिनों लोकतंत्र आर्थिक रूप से उन्नत राष्ट्रों तक ही सीमित था। विदेशी शासकों ने वर्षों तक भारत का शोषण किया था। इस कारण भारत के लोग गरीबी और अशिक्षा से जूझ रहे थे। लेकिन भारतवासियों ने उन लोगों की आशंकाओं को गलत साबित कर दिया। भारत की मिट्टी में लोकतंत्र की जड़ें लगातार गहरी और मजबूत होती गईं।

अधिकांश लोकतान्त्रिक देशों में वोट देने का अधिकार प्राप्त करने के लिए महिलाओं को लंबे समय तक संघर्ष करना पड़ा था। लेकिन हमारे गणतंत्र की शुरुआत से ही भारत ने सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार को अपनाया। इस प्रकार आधुनिक भारत के निर्माताओं ने प्रत्येक वयस्क नागरिक को राष्ट्र-निर्माण की सामूहिक प्रक्रिया में भाग लेने का अवसर प्रदान किया। भारत को यह श्रेय जाता है कि उसने विश्व समुदाय को लोकतंत्र की वास्तविक क्षमता से परिचित कराया।

मैं मानती हूं कि भारत की यह उपलब्धि केवल संयोग नहीं थी। सभ्यता के आरंभ में ही भारत-भूमि के संतों और महात्माओं ने सभी प्राणियों की समानता व एकता पर आधारित जीवन-दृष्टि विकसित कर ली थी। महात्मा गांधी जैसे महानायकों के नेतृत्व में हुए स्वाधीनता संग्राम के दौरान हमारे प्राचीन जीवन-मूल्यों को आधुनिक युग में फिर से स्थापित किया गया। इसी कारण से हमारे लोकतंत्र में भारतीयता के तत्व दिखाई देते हैं। गांधीजी सत्ता के विकेंद्रीकरण और जन-साधारण को अधिकार-सम्पन्न बनाने के पक्षधर थे।

पिछले 75 सप्ताह से हमारे देश में स्वाधीनता संग्राम के महान आदर्शों का स्मरण किया जा रहा है। ‘आज़ादी का अमृत महोत्सव’ मार्च 2021 में दांडी यात्रा की स्मृति को फिर से जीवंत रूप देकर शुरू किया गया। उस युगांतरकारी आंदोलन ने हमारे संघर्ष को विश्व-पटल पर स्थापित किया। उसे सम्मान देकर हमारे इस महोत्सव की शुरुआत की गई। यह महोत्सव भारत की जनता को समर्पित है। देशवासियों द्वारा हासिल की गई सफलता के आधार पर ‘आत्मनिर्भर भारत’ के निर्माण का संकल्प भी इस उत्सव का हिस्सा है। हर आयु वर्ग के नागरिक पूरे देश में आयोजित इस महोत्सव के कार्यक्रमों में उत्साहपूर्वक भाग ले रहे हैं। यह भव्य महोत्सव अब ‘हर घर तिरंगा अभियान’ के साथ आगे बढ़ रहा है। आज देश के कोने-कोने में हमारा तिरंगा शान से लहरा रहा है। स्वाधीनता आंदोलन के आदर्शों के प्रति इतने व्यापक स्तर पर लोगों में जागरूकता को देखकर हमारे स्वाधीनता सेनानी अवश्य प्रफुल्लित हुए होते।

हमारा गौरवशाली स्वाधीनता संग्राम इस विशाल भारत-भूमि में बहादुरी के साथ संचालित होता रहा। अनेक महान स्वाधीनता सेनानियों ने वीरता के उदाहरण प्रस्तुत किए और राष्ट्र-जागरण की मशाल अगली पीढ़ी को सौंपी। अनेक वीर योद्धाओं तथा उनके संघर्षों विशेषकर किसानों और आदिवासी समुदाय के वीरों का योगदान एक लंबे समय तक सामूहिक स्मृति से बाहर रहा। पिछले वर्ष से हर 15 नवंबर को ‘जन-जातीय गौरव दिवस’ के रूप में मनाने का सरकार का निर्णय स्वागत-योग्य है। हमारे जन-जातीय महानायक केवल स्थानीय या क्षेत्रीय प्रतीक नहीं हैं बल्कि वे पूरे देश के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं।

प्यारे देशवासियो,

एक राष्ट्र के लिए, विशेष रूप से भारत जैसे प्राचीन देश के लंबे इतिहास में, 75 वर्ष का समय बहुत छोटा प्रतीत होता है। लेकिन व्यक्तिगत स्तर पर यह काल-खंड एक जीवन-यात्रा जैसा है। हमारे वरिष्ठ नागरिकों ने अपने जीवनकाल में अद्भुत परिवर्तन देखे हैं। वे गवाह हैं कि कैसे आजादी के बाद सभी पीढ़ियों ने कड़ी मेहनत की, विशाल चुनौतियों का सामना किया और स्वयं अपने भाग्य-विधाता बने। इस दौर में हमने जो कुछ सीखा है वह सब उपयोगी साबित होगा क्योंकि हम राष्ट्र की यात्रा में एक ऐतिहासिक पड़ाव की ओर आगे बढ़ रहे हैं। हम सब 2047 में स्वाधीनता के शताब्दी-उत्सव तक की 25 वर्ष की अवधि यानि भारत के अमृत-काल में प्रवेश कर रहे हैं।

हमारा संकल्प है कि वर्ष 2047 तक हम अपने स्वाधीनता सेनानियों के सपनों को पूरी तरह साकार कर लेंगे। इसी काल-खंड में हम बाबासाहब भीमराव आम्बेडकर के नेतृत्व में संविधान का निर्माण करने वाली विभूतियों के vision को साकार कर चुके होंगे। एक आत्मनिर्भर भारत के निर्माण में हम पहले से ही तत्पर हैं। वह एक ऐसा भारत होगा जो अपनी संभावनाओं को साकार कर चुका होगा।

दुनिया ने हाल के वर्षों में एक नए भारत को उभरते हुए देखा है, खासकर COVID-19 के प्रकोप के बाद। इस महामारी का सामना हमने जिस तरह किया है उसकी सर्वत्र सराहना की गई है। हमने देश में ही निर्मित वैक्सीन के साथ मानव इतिहास का सबसे बड़ा टीकाकरण अभियान शुरू किया। पिछले महीने हमने दो सौ करोड़ वैक्सीन कवरेज का आंकड़ा पार कर लिया है। इस महामारी का सामना करने में हमारी उपलब्धियां विश्व के अनेक विकसित देशों से अधिक रही हैं। इस प्रशंसनीय उपलब्धि के लिए हम अपने वैज्ञानिकों, डॉक्टरों, नर्सों, पैरामेडिक्स और टीकाकरण से जुड़े कर्मचारियों के आभारी हैं। इस आपदा में कोरोना योद्धाओं द्वारा किया गया योगदान विशेष रूप से प्रशंसनीय है।

कोरोना महामारी ने पूरे विश्व में मानव-जीवन और अर्थ-व्यवस्थाओं पर कठोर प्रहार किया है। जब दुनिया इस गंभीर संकट के आर्थिक परिणामों से जूझ रही थी तब भारत ने स्वयं को संभाला और अब पुनः तीव्र गति से आगे बढ़ने लगा है। इस समय भारत दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ रही प्रमुख अर्थ-व्यवस्थाओं में से एक है। भारत के start-up eco-system का विश्व में ऊंचा स्थान है। हमारे देश में start-ups की सफलता, विशेषकर unicorns की बढ़ती हुई संख्या, हमारी औद्योगिक प्रगति का शानदार उदाहरण है। विश्व में चल रही आर्थिक कठिनाई के विपरीत, भारत की अर्थ-व्यवस्था को तेजी से आगे बढ़ाने का श्रेय सरकार तथा नीति-निर्माताओं को जाता है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान physical और digital infrastructure के विकास में अभूतपूर्व प्रगति हुई है। प्रधानमंत्री गति-शक्ति योजना के द्वारा connectivity को बेहतर बनाया जा रहा है। परिवहन के जल, थल, वायु आदि पर आधारित सभी माध्यमों को भली-भांति एक दूसरे के साथ जोड़कर पूरे देश में आवागमन को सुगम बनाया जा रहा है। प्रगति के प्रति हमारे देश में दिखाई दे रहे उत्साह का श्रेय कड़ी मेहनत करने वाले हमारे किसान व मजदूर भाई-बहनों को भी जाता है। साथ ही व्यवसाय की सूझ-बूझ से समृद्धि का सृजन करने वाले हमारे उद्यमियों को भी जाता है। सबसे अधिक खुशी की बात यह है कि देश का आर्थिक विकास और अधिक समावेशी होता जा रहा है तथा क्षेत्रीय विषमताएं भी कम हो रही हैं।

लेकिन यह तो केवल शुरुआत ही है। दूरगामी परिणामों वाले सुधारों और नीतियों द्वारा इन परिवर्तनों की आधार-भूमि पहले से ही तैयार की जा रही थी। उदाहरण के लिए ‘Digital India’ अभियान द्वारा ज्ञान पर आधारित अर्थ-व्यवस्था की आधारशिला स्थापित की जा रही है। ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति’ का उद्देश्य भावी पीढ़ी को औद्योगिक क्रांति के अगले चरण के लिए तैयार करना तथा उन्हें हमारी विरासत के साथ फिर से जोड़ना भी है।

आर्थिक प्रगति से देशवासियों का जीवन और भी सुगम होता जा रहा है। आर्थिक सुधारों के साथ-साथ जन-कल्याण के नए कदम भी उठाए जा रहे हैं। ‘प्रधानमंत्री आवास योजना’ की सहायता से गरीब के पास स्वयं का घर होना अब एक सपना नहीं रह गया है बल्कि सच्चाई का रूप ले चुका है। इसी तरह ‘जल जीवन मिशन’ के अंतर्गत ‘हर घर जल’ योजना पर कार्य चल रहा है।

इन उपायों का और इसी तरह के अन्य प्रयासों का उद्देश्य सभी को, विशेषकर गरीबों को, बुनियादी सुविधाएं प्रदान करना है। भारत में आज संवेदनशीलता व करुणा के जीवन-मूल्यों को प्रमुखता दी जा रही है। इन जीवन-मूल्यों का मुख्य उद्देश्य हमारे वंचित, जरूरतमंद तथा समाज के हाशिये पर रहने वाले लोगों के कल्याण हेतु कार्य करना है। हमारे राष्ट्रीय मूल्यों को, नागरिकों के मूल कर्तव्यों के रूप में, भारत के संविधान में समाहित किया गया है। देश के प्रत्येक नागरिक से मेरा अनुरोध है कि वे अपने मूल कर्तव्यों के बारे में जानें, उनका पालन करें, जिससे हमारा राष्ट्र नई ऊंचाइयों को छू सके।

प्यारे देशवासियो,

आज देश में स्वास्थ्य, शिक्षा और अर्थ-व्यवस्था तथा इनके साथ जुड़े अन्य क्षेत्रों में जो अच्छे बदलाव दिखाई दे रहे हैं उनके मूल में सुशासन पर विशेष बल दिए जाने की प्रमुख भूमिका है। जब ‘राष्ट्र सर्वोपरि’ की भावना से कार्य किया जाता है तो उसका प्रभाव प्रत्येक निर्णय एवं कार्य-क्षेत्र में दिखाई देता है। यह बदलाव विश्व समुदाय में भारत की प्रतिष्ठा में भी दिखाई दे रहा है।

भारत के नए आत्म-विश्वास का स्रोत देश के युवा, किसान और सबसे बढ़कर देश की महिलाएं हैं। अब देश में स्त्री-पुरुष के आधार पर असमानता कम हो रही है। महिलाएं अनेक रूढ़ियों और बाधाओं को पार करते हुए आगे बढ़ रही हैं। सामाजिक और राजनीतिक प्रक्रियाओं में उनकी बढ़ती भागीदारी निर्णायक साबित होगी। आज हमारी पंचायती राज संस्थाओं में निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों की संख्या चौदह लाख से कहीं अधिक है।

हमारे देश की बहुत सी उम्मीदें हमारी बेटियों पर टिकी हुई हैं। समुचित अवसर मिलने पर वे शानदार सफलता हासिल कर सकती हैं। अनेक बेटियों ने हाल ही में सम्पन्न हुए राष्ट्रमंडल खेलों में देश का गौरव बढ़ाया है। हमारे खिलाड़ी अन्य अंतर-राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में भी देश को गौरवान्वित कर रहे हैं। हमारे बहुत से विजेता समाज के वंचित वर्गों में से आते हैं। हमारी बेटियां fighter-pilot से लेकर space scientist होने तक हर क्षेत्र में अपना परचम लहरा रही हैं।

प्यारे देशवासियो,

जब हम स्वाधीनता दिवस मनाते हैं तो वास्तव में हम अपनी ‘भारतीयता’ का उत्सव मनाते हैं। हमारा भारत अनेक विविधताओं से भरा देश है। परंतु इस विविधता के साथ ही हम सभी में कुछ न कुछ ऐसा है जो एक समान है। यही समानता हम सभी देशवासियों को एक सूत्र में पिरोती है तथा ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ की भावना के साथ आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है।

भारत अपने पहाड़ों, नदियों, झीलों और वनों तथा उन क्षेत्रों में रहने वाले जीव-जंतुओं के कारण भी अत्यंत आकर्षक है। आज जब हमारे पर्यावरण के सम्मुख नई-नई चुनौतियां आ रही हैं तब हमें भारत की सुंदरता से जुड़ी हर चीज का दृढ़तापूर्वक संरक्षण करना चाहिए। जल, मिट्टी और जैविक विविधता का संरक्षण हमारी भावी पीढ़ियों के प्रति हमारा कर्तव्य है। प्रकृति की देखभाल माँ की तरह करना हमारी भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग रहा है। हम भारतवासी अपनी पारंपरिक जीवन-शैली से पूरी दुनिया को सही राह दिखा सकते हैं। योग एवं आयुर्वेद विश्व-समुदाय को भारत का अमूल्य उपहार है जिसकी लोकप्रियता पूरी दुनिया में निरंतर बढ़ रही है।

प्यारे देशवासियो,

हमारे पास जो कुछ भी है वह हमारी मातृभूमि का दिया हुआ है। इसलिए हमें अपने देश की सुरक्षा, प्रगति और समृद्धि के लिए अपना सब कुछ अर्पण कर देने का संकल्प लेना चाहिए। हमारे अस्तित्व की सार्थकता एक महान भारत के निर्माण में ही दिखाई देगी। कन्नड़ा भाषा के माध्यम से भारतीय साहित्य को समृद्ध करने वाले महान राष्ट्रवादी कवि ‘कुवेम्पु’ ने कहा है:

नानु अलिवे, नीनु अलिवे
नम्मा एलु-बुगल मेले......

 
 
विश्व हिंदी सम्मेलन समाचार - भारत-दर्शन समाचार
विश्व हिंदी सम्मेलन समाचार के अंतर्गत यहाँ आपको 15-17 फरवरी 2023 को फिजी में आयोजित होने वाले विश्व हिंदी सम्मेलन के समाचार और जानकारियाँ उपलब्ध करवाई जाएंगी। 
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कलश का उत्तर - भारत-दर्शन संकलन

पानी से भरा कलश सजा हुआ था। उस पर चित्रकारी भी की गई थी। कलश पर एक कटोरी रखी थी, जिससे उसे ढक कर रखा गया था। कटोरी ने कलश से कहा-"भाई कलश। तुम बड़े उदार हो। तुम सदा दूसरों को देते ही रहते हो। कोई भी खाली बरतन आए, तुम उससे अपना जल उड़ेल देते हो। किसी को खाली नहीं जाने देते।"

कलश ने कहा-"हाँ, यह तो मेरा कर्तव्य है। मैं अपने पास आने वाले हर पात्र को भर देता हूँ। मेरे अंतस् का सब कुछ दूसरों के लिए है।"

कटोरी बोली-"लेकिन आप कभी मुझे नहीं भरते। मैं तो हमेशा आपके सिर पर मौजूद रहती हूँ।"

घट बोला-"इसमें मेरा क्या दोष। तुम्हारे अभिमानी स्वभाव का है। तुम मान-अभिमान की चाहे के साथ सदा मेरे सिर पर चढ़ी रहती हो, जबकि अन्य पात्र मेरे समक्ष आकर झुक जाते हैं। अपनी पात्रता प्रमाणित करते हैं। तुम भी अभिमान छोड़ो, विनम्र बनो, मैं तुम्हें भी भर दूँगा।"

वस्तुतः पूर्णत्व नम्रता एवं पात्रता के विकास से ही प्राप्त होता है। कोई भी अनुदान बिना सौजन्य के नहीं मिलता। अभिमान ही सबसे बड़ी बाधा है।

[भारत-दर्शन संकलन]


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विश्व हिन्दी दिवस | 10 जनवरी  - रोहित कुमार हैप्पी

भारत के पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 2006 में 10 जनवरी को प्रति वर्ष विश्व हिन्दी दिवस के रूप मनाए जाने की घोषणा की थी।

10 जनवरी ही क्यों?

प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन 10 जनवरी, 1975 को नागपुर में आयोजित हुआ था। इसका उद्देश्य विश्व में हिन्दी प्रचारित- प्रसारित करने के उद्देश्य से विश्व हिन्दी सम्मेलन का आयोजन आरंभ किया गया था। अत: 10 जनवरी का दिन ही विश्व हिन्दी दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया गया।

विश्व हिन्दी दिवस का उद्देश्य विश्व में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए वातावरण निर्मित करना, हिन्दी के प्रति अनुराग पैदा करना, हिन्दी की दशा के लिए जागरूकता पैदा करना तथा हिन्दी को विश्व भाषा के रूप में प्रस्तुत करना है।

विदेशों में भारतीय उच्चायोग एवं दूतावास विश्व हिन्दी दिवस पर विशेष आयोजन करते हैं। सभी सरकारी कार्यालयों में विभिन्न विषयों पर हिन्दी के लिए अनूठे कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं।

सनद रहे
विश्व हिन्दी दिवस एवं हिन्दी-दिवस भिन्न हैं ......

 
 
रत्नावली के दोहे - रत्नावली

नारि सोइ बड़भागिनी, जाके पीतम पास।
लषि लषि चष सीतल करै, हीतल लहै हुलास ॥ १ ॥

असन बसन भूषन भवन, पिय बिन कछु न सुहाय। ......

 
 
बीरबल का सवैया - बीरबल

जब दाँत न थे तब दूध दियो अब दाँत भये कहा अन्न न दैहै।
जीव बसें जल में थल में, तिनकी सुधि लेइ सो तेरी हूँ लैहै। ......

 
 
12वाँ विश्व हिंदी सम्मेलन फिजी में - भारत-दर्शन समाचार

12वाँ विश्व हिंदी सम्मेलन भारत के विदेश मंत्रालय द्वारा फिजी सरकार के सहयोग से 15 से 17 फरवरी, 2023 तक नांदी (फिजी) में आयोजित किया जा रहा है। सम्मेलन का आयोजन स्थल देनाराऊ आइलैंड कन्वेंशन सेंटर, नांदी, फिजी है। सम्मेलन स्थल पर हिंदी भाषा के विकास से संबंधित कई प्रदर्शनियाँ लगाई जाएंगी। सम्मेलन के दौरान शाम को भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद, नई दिल्ली द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रम और कवि सम्मेलन का आयोजन किया जाएगा।

दैनिक सम्मेलन-समाचार पत्र (सम्मेलन-समाचार), सम्मेलन-स्मारिका और शैक्षिक सत्रों में हुई चर्चाओं और सुझावों के आधार पर एक सम्मेलन रिपोर्ट भी प्रकाशित की जाएगी। भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद द्वारा “गगनांचल” का विशेष अंक निकाला जाएगा जो सम्मेलन को समर्पित होगा। परंपरा के अनुरूप सम्मेलन के दौरान भारत एवं अन्य देशों के हिंदी विद्वानों को हिंदी के क्षेत्र में उनके विशेष योगदान के लिए “विश्व हिंदी सम्मान” से सम्मानित किया जाएगा। 12वें विश्व हिंदी सम्मेलन को फिजी में आयोजित करने का निर्णय मॉरीशस में आयोजित 11वें विश्व हिंदी सम्मेलन में लिया गया था।

अधिक जानकारी के लिए विश्व हिन्दी सम्मेलन की वेब साइट ( https://vishwahindisammelan.gov.in) देखें।

पृष्ठ भूमि

पहला विश्व हिंदी सम्मेलन 1975 में नागपुर, भारत में आयोजित किया गया था। तब से, विश्व के अलग-अलग भागों में, ऐसे 11 सम्मेलनों का आयोजन किया जा चुका है। अभी तक पूर्व में आयोजित 11 सम्मेलनों के ब्यौरे इस प्रकार हैं:

विश्व हिंदी सम्मेलन की संकल्पना राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा द्वारा 1973 में की गई थी। संकल्पना के परिणाम स्वरूप, राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के तत्वावधान में प्रथम विश्व हिंदी सम्मेलन 10-12 जनवरी 1975 को नागपुर, भारत में आयोजित किया गया था।

सम्मेलन का उद्देश्य इस विषय पर विचार विमर्श करना था कि तत्कालीन वैश्विक परिस्थिति में हिंदी को किस प्रकार सेवा का साधन बनाया जाए। 'महात्मा गाँधी जी की सेवा भावना से अनुप्राणित हिंदी संयुक्त राष्ट्र संघ में प्रवेश पाकर विश्व भाषा के रूप में समस्त मानव जाति की सेवा की ओर अग्रसर हो। साथ ही यह किस प्रकार भारतीय संस्कृति का मूलमंत्र 'वसुधैव कुटुंबकम' विश्व के समक्ष प्रस्तुत करके 'एक विश्व, एक मानव परिवार' की भावना का संचार हो।'

सम्मेलन के आयोजकों को विनोबा भावे जी का आशीर्वाद तथा केंद्र सरकार के साथ-साथ महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, आंध्र प्रदेश, गुजरात आदि राज्य सरकारों का समर्थन प्राप्त हुआ। नागपुर विश्वविद्यालय के प्रांगण में 'विश्व हिंदी नगर' का निर्माण किया गया। तुलसी, मीरा, सूर, कबीर, नामदेव और रैदास के नाम से अनेक प्रवेश द्वार बनाए गए। प्रतिनिधियों और अतिथियों के आवास का नाम 'विश्व संगम', मित्र निकेतन' 'विद्या विहार' और 'पत्रकार निवास' रखा गया। भोजनालयों के नाम भी 'अन्नपूर्णा', 'आकाश गंगा' आदि रखे गए।

सम्मेलन में काका साहेब कालेलकर ने हिंदी भाषा के सेवा धर्म को रेखांकित करते हुए कहा कि 'हम सबका धर्म सेवा धर्म है और हिंदी इस सेवा का माध्यम है..... हमने हिंदी के माध्यम से आज़ादी से पहले और आज़ाद होने के बाद भी समूचे राष्ट्र की सेवा की है और अब इसी हिंदी के माध्यम से विश्व की, सारी मानवता की सेवा करने की ओर अग्रसर हो रहे हैं।'

हिंदी को भावनात्मक धरातल से उठाकर ठोस एवं व्यापक स्वरूप प्रदान करने के उद्देश्य से और यह रेखांकित करने के उद्देश्य से कि हिंदी केवल साहित्य की हीभाषा नहीं बल्कि आधुनिक ज्ञान-विज्ञान को अंगीकार करके अग्रसर होने में एक सक्षम भाषा है, विश्व हिंदी सम्मेलनों की संकल्पना की गई।

एक अन्य उद्देश्य हिन्दी को व्यापकता प्रदान करना था न कि केवल भावनात्मक स्तर तक सीमित करना। इस संकल्पना को 1975 में नागपुर में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन में मूर्तरूप प्रदान किया गया।

अभी तक भारत और मॉरीशस विश्व हिंदी सम्मेलन को तीन-तीन बार आयोजित कर चुके हैं। निम्न तालिका में संपूर्ण जानकारी उपलब्ध करवाई गई है:

प्रथम विश्व हिंदी सम्मेलन (10-12 जनवरी, 1975), भारत
द्वितीय विश्व हिंदी सम्मेलन(28-30 अगस्त, 1976), मॉरीशस......

 
 
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टेस्ट 99 - test

उस अमराई में सावन के लगते ही झूला पड़ जाता और विजयादशमी तक पड़ा रहता। शाम-सुबह तो बालक-बालिकाएँ और रात में अधिकतर युवतियाँ उस झूले की शोभा बढ़ातीं। यह उन दिनों की बात है जब सत्याग्रह आन्दोलन अपने पूर्ण विकास पर था। सारे भारतवर्ष में समराग्नि धधक रही थी। दमन का चक्र अपने पूर्ण वेग से चल रहा था। अखबारों में लाठी- चार्ज, गोली-काण्ड, गिरफ्तारी और सजा की धूम के अतिरिक्त और कुछ रहता ही न था। इस गांव में भी सरकार के दमन का चक्र चल चुका था। कांग्रेस के सभापति और मंत्री पकड़ कर जेल में बन्द कर दिए गए थे ।

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हिन्दी की पाँच शीर्षस्थ कहानियाँ - विभिन्न कहानीकार

यहाँ हिन्दी की पाँच शीर्षस्थ कहानियों के सारांश और कहानी के लिंक दिए गए हैं।  इनमें चंद्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी, ‘उसने कहा था’, सुदर्शन की कहानी, ‘हार की जीत’, प्रेमचंद की कहानी, ‘दो बैलों की कथा’, जैनेन्द्र कुमार की कहानी, ‘पाजेब’ एवं रबीन्द्रनाथ टैगोर की कहानी, ‘काबुलीवाला' सम्मिलित हैं। 

 

उसने कहा था

कहानी "उसने कहा था" चंद्रधर शर्मा गुलेरी की अमर कहानी है। यह प्रेम, वफादारी और बलिदान की एक मार्मिक कथा है। यह कहानी हमें यह सिखाती है कि वायदे और कर्तव्य का महत्व कितना होता है और इसे निभाने के लिए किसी भी हद तक जाना चाहिए। इस कहानी के मुख्य पात्र लहना सिंह हैं, जो एक साहसी और वफादार सैनिक हैं। लहना सिंह का चरित्र हमें सच्ची निष्ठा और साहस का परिचय देता है, जो हर पाठक को गहराई से प्रभावित करता है।

‘उसने कहा था’ युद्ध की पृष्ठभूमि में लेखक ने जीवन–सूत्र को बनाए रखने वाले आधार प्रेम की नई परिभाषा दी है। लहनासिंह और सूबेदारनी के बीच कहानी में कहीं कोई प्रेम सूत्र स्पष्ट लक्षित नहीं होता, फिर भी आपसी समझ इतनी मजबूत है कि 25 वर्ष बाद भी सूबेदारनी, लहना को अधिकार से एक काम सौंपती है कि उसे उसके पति व बेटे के प्राणों की रक्षा करनी होगी। लहना भी उसकी बात पूरे मन से स्वीकारता है और अपने प्राण देकर उनके प्राणों की रक्षा करता है। वह अपने कहे को अन्तिम साँस तक निभाता है।

अतः स्पष्ट है लेखक ने इस कहानी के माध्यम से कई नए पहलू सामने रखे हैं। कथा–शिल्प एवं भाषा की दृष्टि से इस कहानी में फ्लैशबैक शैली का अनूठा प्रयोग कर लेखक ने कहानी की रोचकता को दोगुना कर दिया है।

चंद्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी, ‘उसने कहा था पढ़ें।

 

हार की जीत

(एक) माँ को अपने बेटे, साहूकार को अपने देनदार और किसान को अपने लहलहाते खेत देखकर जो आनंद आता है, वही आनंद बाबा भारती को अपना घोड़ा देखकर आता था। भगवत-भजन से जो समय बचता, वह घोड़े को अर्पण हो जाता। वह घोड़ा बड़ा सुंदर था, बड़ा बलवान। हार की जीत कहानी सुदर्शन की प्रसिद्ध कहानी है। कहानी बताती है कि जीवन में किसी भी चीज को पाने के लिए सामने वाले का विश्वास नहीं तोड़ना चाहिए| जीवन में किसी को भी धोखा नहीं देना चाहिए। 'हार की जीत' कहानी का उद्देश्य यह बतलाना है कि यदि स्वार्थ की चिन्ता नं करके परहित या मानव-कल्याण के भाव से आचरण किया जाए, तो दुष्ट व्यक्ति में भी मानवता की भावना उत्पन्न हो सकती है।

सुदर्शन की कहानी, ‘हार की जीत’ पढ़ें।

 

दो बैलों की कथा

इस कहानी के माध्यम से प्रेमचंद ने बताया है कि जानवरों में भी संवेदनाएँ होती हैं और वे अपने मालिक से वफादारी और प्रेम की उम्मीद रखते हैं। हीरा और मोती की कहानी हमें यह भी सिखाती है कि जानवरों के साथ अच्छा व्यवहार करना चाहिए और उनकी भावनाओं का सम्मान करना चाहिए।

कहानी सरल भाषा में लिखी गई है लेकिन उसमें गहरी संवेदनाएँ और संदेश छिपे हुए हैं, जो पाठकों को सोचने पर मजबूर कर देते हैं।

प्रेमचंद की कहानी, ‘दो बैलों की कथा’ पढ़ें।

 

पाजेब

जैनेन्द्र कुमार की कहानी पाजेब बाल मनोविज्ञान पर आधारित है। उन्होंने इसे आत्मकथा शैली में लिखा है, जिसमें चित्रित घटनाएँ गौण अथवा प्रासंगिक है। कहानी में बालकों की छोटी-छोटी अभिलाषाएँ, उनके बाल सुलभ काम, क्षण में मित्रता और शत्रुता का व्यवहार, खिलौने और आभूषणों के प्रति आकर्षण और लगाव इत्यादि बाल सुलभ प्रवृत्तियां दृष्टिगोचक हैं। कहानी की मूल संवेदना बच्चों के प्रति स्नेहपूर्ण तथा कोमलता का व्यवहार करने का संदेश हैं।

जैनेन्द्र कुमार की कहानी, ‘पाजेब’ पढ़ें।

 

काबुलीवाला

"काबुलीवाला" रबीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा लिखी गई एक मार्मिक कहानी है, जो मानवता, प्रेम और सामाजिक संबंधों की गहराई को दर्शाती है। कहानी की शुरुआत लेखक (जो खुद एक चरित्र के रूप में प्रस्तुत हैं) की पाँच वर्षीय बेटी मिनी से होती है। मिनी एक बहुत ही चंचल और बातूनी बच्ची है। मिनी की मुलाकात काबुलीवाला से होती है, जो एक अफगानी मेवों की फेरीवाला है। काबुलीवाला का असली नाम रहमत है, लेकिन मिनी उसे काबुलीवाला ही बुलाती है।

"काबुलीवाला" कहानी प्रेम, मानवीय संबंधों और भावनाओं की गहराई को दर्शाती है। यह कहानी हमें सिखाती है कि मानवता और भावनाएँ सीमाओं और संस्कृतियों से परे होती हैं। काबुलीवाला और मिनी के बीच का संबंध दर्शाता है कि सच्ची मित्रता और प्रेम उम्र, जाति, और राष्ट्रीयता के भेदभाव से मुक्त होते हैं। कहानी हमें यह भी सिखाती है कि समय के साथ सब कुछ बदल सकता है, लेकिन सच्चे भावनात्मक संबंध हमेशा जीवित रहते हैं।

रबीन्द्रनाथ टैगोर कहानी, ‘काबुलीवाला’ पढ़ें।


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सन्दीप तोमर से सुमन युगल की बातचीत - सुमन युगल

'लेखकों को नई ऊर्जा के साथ नए प्रतिमान स्थापित करने की अवश्यकता है।'---सन्दीप तोमर

[ सन्दीप तोमर देश की राजधानी दिल्ली में रहकर साहित्य सेवा कर रहे हैं, मूल रूप से वे उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के एक गाँव-गंगधाड़ी से ताल्लुक रखते हैं। लम्बे समय से लेखन से जुडे रहे हैं, साहित्य की विभिन्न विधाओं पर अध्ययन और लेखन उन्हें विशिष्ट पहचान देता है। लघुकथा, कहानी, उपन्यास, कविता, नज़्म, संस्मरण इत्यादि विधाओं पर उन्होंने अपनी कलम चलाई है। वर्तमान में हिन्दी उपन्यासों से उन्होंने साहित्य में एक अलग पहचान बनायी है, हाल ही में सन्दीप तोमर जी से शिक्षिका और कवयित्री सुमन युगल की लेखन पर विस्तृत बातचीत हुई जिसमें श्री तोमर जी ने बेबाकी से अपनी ईमानदार राय रखी है। प्रस्तुत है उनके साथ हुई बातचीत के अंश। ]

सन्दीप जी, आप हमारे शहर यानी मुज़फ़्फ़रनगर में जन्मे, पले-बढ़े और महानगर को अपनी कर्म-स्थली बनाया, जानना चाहती हूँ इसके पीछे कोई खास योजना थी या...?

मेरे बचपन से लेकर उच्च शिक्षा तक की मेरे शहर की यादें मेरे जहन में हैं, यहाँ तक कि मेरे ईमेल पते में भी मेरे गाँव का नाम दर्ज है। मुझे मेरा शहर बहुत प्रिय है, जिसकी भूमि सृजन की भूमि है भले ही वह सृजन खेती से हो या कलम से। इस भूमि ने कितने ही कलमवीरों को जन्म दिया है, इसकी खुशबू को कैसे भुलाया जा सकता है? जहाँ तक सवाल महानगर को कर्मस्थली बनाने का है- शारीरिक दायरे के चलते मुझे महसूस हुआ कि कनेक्टिविटी के चलते मेरे लिए राजधानी दिल्ली अधिक उपयुक्त स्थान है, अतः खतौली में सरकारी नौकरी मिल जाने के बावजूद मैंने महानगर का रुख किया। हाँ, यहाँ आकर समझ आया कि साहित्य के लिहाज से भी मेरे लिए यह महानगरीय जीवन अधिक आसान है । 

महानगरीय जीवन शैली और ग्राम्य-जीवन शैली दोनों को आपने करीब से देखा, साहित्य रचते हुए इसका लाभ मिला?

मेरे पहले उपन्यास “थ्री गर्लफ़्रेंड्स” का नायक इन्हीं दो संस्कृतियों, या कहूँ कि जीवन शैली की ही उपज है, कितनी ही लघुकथाओं, कहानियों में दो अलग-अलग संस्कृतियों का द्वंद्व आप देख सकते हैं। एक कहानी “ताई” जिसे सेंटपीटर्सन से निकलने वाली पत्रिका सेतु ने छापा था, उसमें भी गाँव और शहर दोनों के जीवन का अंतर स्पष्ट रूप से उपस्थित है। 

आप एक शिक्षक है अच्छे कथाकारों में आपकी गणना की जाती है, आपने कहानी, लघुकथा, उपन्यास, संस्मरण और काव्य सब कुछ लिखा, इन सब पर कुछ सवाल हों तो आप क्या कहेंगे?

अक्सर सुनता हूँ, 'सुंदर स्त्रियों से गुफ्तुगू/वार्तालाप करने का नाम ग़ज़ल है', उसी तर्ज़ पर मेरी नजर में लघुकथा प्रेयसी संग बैठ किसी प्रसंग की गुफ्तगू का नाम है। लघुकथा के साथ यह महत्त्वपूर्ण एवं अनिर्वाय है कि जब कोई रचना कथा-विकास के छोटे कलेवर में वांछित परिणति को सिद्ध करने तक पहुँचने में पूर्ण-रूपेण सक्षम हो तो उसे अनावश्यक विस्तार देने की कोई गुजाइश/आश्वयकता नहीं होती। कहानी में इससे अधिक विस्तार सम्भव है लेकिन कहानी में फिर भी संक्षिप्तता होती है, एकपन होता है--एक घटना, जीवन का एक पक्ष, संवेदना का एक बिन्दु, एक भाव, एक उद्देश्य इसकी विशेषता है, इसमें मेरी समझ से समाधान का विशेष महत्व नहीं होना चाहिए। हाँ, इतना अवश्य है कि कहानी अपने अभीष्ट तक पहुँचे। उपन्यास में एक पूरी गाथा, एक या उससे अधिक जीवन को समेटा जा सकता है। 

सामान्यत: किसी भी साहित्यिक आंदोलन का सूत्रपात निश्चित रूप से योजनाबद्ध न होकर सहज तथा स्वाभाविक होता है। ऐतिहासिक संदर्भ में विशिष्ट व्यक्तियों तथा विशिष्ट परिस्थितियों के फलस्वरूप ही कोई प्रवृत्ति साहित्य में परिलक्षित होती है। सशक्त होने पर यही प्रवृत्ति धीरे-धीरे एक धारा का रूप ले लेती है, तब जाकर उस धारा का नामकरण होता है। इस प्रकार लेखन की एक नई विधा अस्तित्व में आती है। तो कहानी के साथ ये आन्दोलन बहुत पहले शुरू हुआ, तुलनात्मक रूप से लघुकथा बहुत बाद में अस्तित्व में आई। उपन्यास भले ही पश्चिम की देन माना जाता हो लेकिन हमारे यहाँ महाकाव्य के रूप में यह पहले से विद्यमान रहा।

तोमर साहब आपकी कहानियों में अमूमन चित्रकारी/चित्रकार का जिक्र रहता है। ऐसा लगता है आप चित्रकारी से कहीं गहरे जुड़े हैं या फिर मात्र कल्पना?

बचपन में मैं चित्रकारी से बहुत डरता था, स्कूल के काम भी बड़े भैया या दीदी से करवाता था, बदले में वे मुझसे कहीं अधिक श्रम करवा लेते थे, लेकिन एक घटना ने मुझे चित्रकारी के निकट ला खड़ा किया। असल में हुआ यूँ कि 1998 में जब चलती बस से गिरने के कारण लिम्ब-फ्रेक्चर हुआ तो एक साल बिस्तर पर रहना पड़ा, तब एक मित्र (आप प्रथम प्रेमिका भी कह सकते हैं) के लिए स्केच बनाए, उसे स्केच बनाकर भेजता तो वह खुश होती, लेकिन अफसोस है कि वे स्केच उसने न कभी लौटाए, न ही सम्भाल कर रखें। उसके बाद कुछ स्केच काफी समय बाद बनाएँ जिनमें से कुछ मेरे पास हैं।

मेरा मानना है कि कोई किसी भी कला का व्यक्ति हो, वह चित्रों से अवश्य ही लगाव रखेगा, अब देखिये न जो कहानी या कथा हम लिखते हैं वह सब स्वयं में एक रेखाचित्र ही तो होता है, जिसमें हम नए-नए रंगों से उसे आकर्षक और मोहक बनाते हैं।

अभी आपने प्रथम प्रेमिका का जिक्र किया, आप का जीवन प्रेम के मामले में काफी चर्चित रहा है--प्रेम के विषय में आपके क्या विचार हैं? कैसे परिभाषित करेंगे?

प्रेम पर बहुत कुछ लिखा गया, कभी इसे शाश्वत कहा गया तो कभी इसे निष्काम कहा गया। कभी कहा गया कि प्रेम तो अंधी लालसा  है। प्रेम अगर एक अंधी लालसा है तो हमें इस भ्रम में क्यों रहना चाहिए कि प्रेम हमें अनिवार्यतया उदात्त ही बनाएगा। प्रेम बहुधा आत्मा के पोषण का ईंधन भी होता है। ‘मुझे अमुक से प्रेम है।' यह वाक्य बहुधा किसी की व्याप्ति/प्राप्ति  का साधन भी हो सकता है। मैं तो कहता हूँ कि प्रेम में जानने का भाव अधिक जुड़ा है, बिना जाने प्रेम सम्भव ही नहीं है। सच्चा प्रेम उसी व्यक्ति में हो सकता है जिसने अपने आत्म को पूर्ण रूप से जान लिया है। लोग कहते हैं कि जहाँ प्रेम है, वहाँ श्रद्धा है, मुझे लगता है जहाँ श्रद्धा है वहाँ भक्ति तो हो सकती है, प्रेम नहीं हो सकता। 

विज्ञान की भाषा में एड्रिनलीन के स्राव के कारण हुआ एक रासायनिक परिवर्तन भी इसे कहा जा सकता है, कुछ लोग इसे दिमाग में होने वाला एक केमिकल लोचा तक कह देते हैं। कुछ को लगता है कि प्रेम एक आदत है किसी के साथ रहने की, किसी के करीब होने की। इतना अवश्य कहूँगा कि प्रेम को किसी परिभाषा में नहीं बांधा जा सकता। प्रेम स्वयं से होता है, निमित्त कोई भी हो सकता है।

कहा जाता है--साहित्य समाज का दर्पण है, इस दृष्टि से मौजूदा साहित्य कसौटी पर कितना खरा उतरता है?

साहित्य और समाज को लेकर दो मत हैं, एक--दर्पण सिद्धांत, दूसरा--प्रतिबिम्बन। मैं दूसरे सिद्धांत का पक्षधर हूँ, मेरे विचार से साहित्य समाज का दर्पण न होकर प्रतिबिंब होता है, इसे वैज्ञानिक नियम से समझना होगा, दर्पण तो खुद रचनाकार है, साहित्य वह है जो पाठक देख रहा है, यानी प्रतिबिंब। जो समाज में घट रहा है वही तो साहित्य के रूप मे सामने है। लेकिन अगर आपकी बात को आशय के रूप में लेकर प्रश्न पर बात की जाये तो कहना होगा कि आज साहित्य समाज को दिशा देने की बजाय लेखकों की आत्ममुग्धता, खेमेबाजी, दलगत राजनीति, लेखकों का राजनीतिक संरक्षण इत्यादि के चलते अपना उद्देश्य खो चुका है। लेखकों को नई ऊर्जा के साथ नए प्रतिमान स्थापित करने की अवश्यकता है। 

आपने अभी बात की राजनीतिक संरक्षण की, ये सच है कि लेखन या यूँ कहें कि साहित्य भी राजनीति से अछूता नहीं है, आप खुद विभिन्न राजनीतिक विचारधाराओं की समझ रखते हैं, देश के मौजूदा हालातों के विषय में कुछ कहना चाहेंगे?

इस प्रश्न के जवाब को मैं दो भागों में बाँटकर रखना चाहता हूँ--पहला ये कि लेखक किसी एक विचारधारा या पंथ का नहीं होता, वह न वामपंथी होता है, न ही दक्षिणपंथी ही। व वह संघी है, न ही कांग्रेसी या कोई अन्य। लेखक की स्वयं की एक दृष्टि होती है। लेखक को चाहिए कि वह गलत का विरोध करे, न कि स्वयं को किसी एक विचारधारा में बांध ले।  लेखक की नजर में सब रहता है, उसकी दृष्टि से क्या कुछ छिपा रह सकता है। उसका कर्तव्य बनता है कि वह बिना किसी के प्रभाव या लालच में आए तठस्थ होकर लिखे। 

दूसरा--मेरी नज़र में देश आज राजनीतिक रूप से बुरे दौर से गुजर रहा है, व्यक्तिगत जीवन में सत्ता का इतना हस्तक्षेप न देखा है, न ही सुना था। किसी के पहनावे, खानपान, विवाह के फैसले, तलाक, लिव इन के चलन इत्यादि के फैसले अगर सत्ता को करने होंगे तो शिक्षा, स्वास्थ्य या रोजगार इत्यादि का दायित्व किसका होगा? सत्ता का दायित्व जनता की बेहतरी से जुड़ा होना चाहिए न कि सेंसरिंग से। आर्थिक मोर्चों पर भी हम सरकारों की विफलताओं से परिचित हैं, मुद्रा का गिरना जारी है, महँगाई चरम पर है, स्वास्थ्य सुविधाओं का हाल हमने हाल ही में देखा है। सरकारों के पास एक रेडीमेड जवाब है- जनसंख्या वृद्धि, मैं कहता हूँ जनसंख्या एक बड़ा संसाधन है, यकीन न हो तो कम जनसंख्या वाले देशो के आँकड़े उठाकर देखे जा सकते हैं, जरूरत है--समुचित नीति और समुचित उपयोग की, जिस मामले में हम बुरी तरह असफल हैं, और अफसोस के साथ के साथ कहना पड़ेगा कि वर्तमान दौर कुछ लम्बा चलेगा।      

राजनीति के बारे में आपकी व्यक्तिगत राय क्या है? यदि आपको राजनीति में आने का मौका मिले तो किस तरह के बदलाव करना चाहेंगे? 

अगर राजनीति पर मेरी राय पूछोगे तो मैं कहूँगा कि अभी हम पूरे विश्व के मुक़ाबले बहुत पीछे चल रहे हैं, अगर हमें पर्फेक्ट डेमोक्रेसी की ओर बढ़ना है तो हमें भारतीय राजनीति में बड़े परिवर्तन करने की जरूरत है। विश्व इतिहास बताता है कि पूंजीवाद समस्याओं को बढ़ाता है कम नहीं करता, देश के जो वतर्मान हालात हैं, जो वैश्विक परिदृश्य में हमारी स्थिति है, वह भले ही हंगर इंडेक्स हो या भ्रष्टाचार, समाधान समाजवाद ही है। नेहरू जिस लोकतान्त्रिक समाजवाद की बात करते थे, हमें उसे ग्रहण करना ही होगा, समाधान उसमें ही है।

रही बात मेरे राजनीति में आने की या मेरे सरोकार की तो ये स्पष्ट है कि हर व्यक्ति के राजनीतिक सरोकार होते हैं, मेरे भी है, अगर मैं एक्टिव राजनीति में हूँगा तो मैं शिक्षा, स्वास्थ्य और जीविका पर काम करना पसंद करूँगा क्योंकि मुझे लगता है कि ये अब बुनियादी जरूरतें हैं। अभी जो माहौल बना है जिसमें लोगों को निजीकरण में समाधान दिखाई देता है असल में वे किसी मुगालते में जी रहे हैं, निजीकरण कभी भी कल्याणकारी राज्य में विकल्प नहीं हो सकता। कल्याणकारी राज्य का ये दायित्व है कि वह अपने नागरिकों को शिक्षा, स्वस्थ्य और  संतुलित आहार उपलब्ध कराये। और ये सब समाजवादी व्यवस्था में ही सम्भव है। किसी भी समाज में शिक्षित जन का होना लोकतन्त्र की मजबूती है, ध्यान रहे हमने पर्फेक्ट डेमोक्रेसी की तरफ बढ़ना है।

...तो ये माना जाये कि शिक्षा व्यवस्था को दुरुस्त किए बिना समतामूलक समाज की स्थापना एक दिवास्वपन है, फिर हम ये जानना चाहेंगे कि आधुनिक शिक्षा पद्धति के बारे में आपकी क्या राय है?

हमारी शिक्षा पद्धति की समस्या ये है कि हम आज भी मैकाले के समय में जी रहे हैं, जहाँ शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ शासन चलाने के लिए सस्ते क्लर्क तैयार करना था, अफसोस है कि हम राजनीतिक आज़ादी के इतने सालों बाद भी अपनी शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन ही करते रहे, जो हमारे सरोकार हैं या जो हमारे समाज की अवश्यकताएँ हैं, उनके हिसाब से हमने अपनी शिक्षा व्यवस्था को दुरुस्त करने का प्रयास ही नहीं किया। अगर आप मेरे विचार जानना चाहेंगे तो मैं कहूँगा कि हमें गाँधीजी की बुनयादी शिक्षा की ओर लौटना होगा। अवश्यकता इस बात की है कि हमें अपनी शिक्षा व्यवस्था को व्यावसायिक शिक्षा पर केन्द्रित करना होगा, आत्मनिर्भर भारत बनाने के लिए व्यावसायिक शिक्षा को सुदृढ़ करने की आवश्यकता है। स्कूली शिक्षा में अनिवार्य रूप से व्यावसायिक पाठ्यक्रम को लागू किया जाये। नई शिक्षा नीति-1986 में दिये गए प्रावधानों को अगर पूरा कर लिया जाए तो अन्य किसी सुधार की गुंजाइश ही न रहे। स्कूली पाठ्यक्रम ऐसा हो कि पूर्वाहन में सैद्धांतिक विषयों की पढ़ाई कराई जाये और अपराह्न में प्रायोगिक ज्ञान दिया जाएँ। स्कूल में वर्कशॉप हों जहाँ व्यावसायिक शिक्षा का समुचित प्रबंध हो, जिसमें रोज़मर्रा के जीवन से जुड़े काम व सामान का बनना, मरम्मत इत्यादि की शिक्षा दी जाये,छात्रों द्वारा तैयार किए गए माल के लिए सरकार बाज़ार उपलब्ध कराए, अधिक से अधिक को-ओपरेटिव स्टोर खोले जाएँ ,जहाँ सरकार छात्रों के सामान को महंगे दामों पर खरीदकर उन्हें रियायती मूल्य पर बेचने का समुचित प्रबंध करे। छात्रों को स्किल्ड करने के बाद एक प्रमाणपत्र जारी किया जाये कि वह अपने काम की दक्षता प्राप्त कर चुका है। यह भी सुनिश्चित हो कि दक्षता प्रमाण-पत्र के बिना किसी भी प्लम्बर, इलेक्ट्रिशियन, इत्यादि को निजी काम या अनुबंधित काम करने की अनुमति न हो। 
  
सन्दीप जी आप मूलतः एक साहित्यिक व्यक्ति हैं लेकिन आपके राजनीतिक और शिक्षा पर विचार भविष्य के लिए आशान्वित करते हैं, हम पुनः साहित्य की ओर लौटते हुए पूछना चाहेंगे- आपकी छवि एक यथार्थवादी लेखक की है, साहित्य में अतियथार्थवाद क्या पाठक को निराश तो नहीं कर रहा ?

सुमन जी, मैं आपकी बात से पूर्णतः सहमत हूँ, कोरा यथार्थ या अतियथार्थ कहीं न कहीं मौलिक लेखन को तो अवरुद्ध करता ही है साथ ही फैंटेसी और कल्पनाशीलता न होने के चलते सर्जना विलुप्त होती जाती है। पाठक हमेशा नयापन खोजता है, जिसके अभाव में एक  नैराश्य की स्थिति उत्पन्न होती है। वर्तमान में साहित्य के साथ ये समस्या है कि अब आधिक्य में लिखा जा रहा है और गुणात्मकता ने गुणवत्ता को लीलने का काम किया है, लोग लिख रहें हैं, लगातार लिख रहे हैं, चिंतन-मनन का स्कोप ख़त्म कर दिया है, सिर्फ इसलिए लिखा जा रहा है क्योंकि लिखना है, छपना है, तो ये जो लिखने और छपने की चाह है ये साहित्य का नुक्सान अधिक कर रही है। जब तक पाठक को केंद्र में रखकर लेखन नहीं होगा ये स्थिति अधिक विकट होगी। 

सुनने में आता है कि वर्तमान में चाहे वह नारीवादी लेखन हो या दलित लेखन या फिर मुख्याधारा का लेखन, आजकल अधिक विवादित लेखन हो रहा है, जहाँ विविधता को देखना भी ख्वाब की तरह है, ऐसे में आपका लेखन विविधता से भरा है, कैसे आप खुद को विवादों से अलग रख पाते हैं?

देखिये “साहित्य जगत में एक स्लोगन चलता है रातोंरात प्रसिद्धि पानी है तो विवादास्पद विषयों पर लिखें, आधा काम रचना, बचा हुआ काम आलोचक कर देंगे।“ अभी नारीवाद के नाम पर जो लेखन हो रहा है अगर अपवाद को छोड़ दें तो वह मात्र खुद को विवादित करके चर्चा में बनाए रखने का उपक्रम मात्र है, हाँ, ममता कालिया, दीप्ति गुप्ता, सुधा अरोरा, उषाकिरण खान, डॉ सूर्यबाला सरीखी लेखिकाओं का लेखन हमें आश्वस्त भी करता है,  इन्होने बिना किस हो-हल्ले के महिलाओं की पीड़ा को लेखन का हिस्सा बनाकर हमेशा अपनी ओर ध्यान आकृष्ट किया है। स्वयं की बात करूँ तो कहूँगा कि नारी-वेदना बेडरुम से बाहर भी उतनी ही पीड़ादायक है, जितनी बेडरूम के अन्दर। प्रेम और उसके नाम पर होने वाले उपक्रम मेरी रचनाओं का हिस्सा बनते हैं क्योंकि मैंने समाज में बहुत बारीकी से इन सब का सूक्ष्म विश्लेषण किया है। मेरे लिए प्रसिद्धि लेखन से अधिक महत्वपूर्ण नहीं है, लेखन आत्माभिव्यक्ति और अंतर्वेदना के प्रस्फुटन के लिए नितांत आवश्यक है। यही वजह है कि मैं विविधता में विश्वास करता हूँ। 

नवोदित लेखकों के लिए क्या संदेश देना चाहते हैं? 

देखिये, पढना यानी अध्ययन साहित्य और उसकी विभिन्न विधाओं के अंगोपांग को समझने के लिए जरुरी है, लेकिन देखने में आता है कि अधिक पढ़ने से कुछ नवलेखकों का स्वयं का लेखन भी प्रभावित होने लगता है, कुछ नवरचनाकार किसी लेखक से इतने प्रभावित होते हैं कि उनकी शैली को ही अपनाने लगते हैं। जरुरी है कि नयी पीढ़ी के लेखक खेमेबाजी से दूर रहें, खुद के लिखे को बार-बार पढ़ें, और खुद के लेखन को खारिज करने से परहेज न करें। एक शब्द लिखने से पूर्व कम से कम सौ शब्द अवश्य पढ़ें। सतत लेखन अवश्य ही शिखर तक ले जाएगा।

-सुमन युगल (सुमन सिंह चंदेल)
 ई-मेल : chandelsuman143@gmail.com

*लेखिका शिक्षिका हैं और स्वतंत्र लेखन करती हैं। इनकी रचनाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं। 


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78वें स्वतन्त्रता दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्रपति का संदेश  - राष्ट्रपति सचिवालय

भारत की राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मु का 78वें स्वतन्त्रता दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्र के नाम संदेश

भारत की राष्ट्रपति, श्रीमती द्रौपदी मुर्मु का 78वें स्वतन्त्रता दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्र के नाम संदेश

मेरे प्यारे देशवासियो,

मैं आप सभी को स्वतन्त्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं देती हूं।

सभी देशवासी 78वें स्वतन्त्रता दिवस का उत्सव मनाने की तैयारी कर रहे हैं, यह देखकर मुझे बहुत खुशी हो रही है। स्वाधीनता दिवस के अवसर पर लहराते हुए तिरंगे को देखना - चाहे वह लाल किले पर हो, राज्यों की राजधानियों में हो या हमारे आस-पास हो - हमारे हृदय को उत्साह से भर देता है। यह उत्सव, 140 करोड़ से अधिक देशवासियों के साथ अपने इस महान देश का हिस्सा होने की हमारी खुशी को अभिव्यक्त करता है। जिस तरह हम अपने परिवार के साथ विभिन्न त्योहार मनाते हैं, उसी तरह हम अपने स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस को भी अपने उस परिवार के साथ मनाते हैं जिसके सदस्य हमारे सभी देशवासी हैं।

पंद्रह अगस्त के दिन, देश-विदेश में सभी भारतीय, ध्वजारोहण समारोहों में भाग लेते हैं, देशभक्ति के गीत गाते हैं और मिठाइयां बांटते हैं। बच्चे सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भाग लेते हैं। जब हम बच्चों को अपने महान राष्ट्र तथा भारतीय होने के गौरव के बारे में बातें करते हुए सुनते हैं तो उनके उद्गारों में हमें महान स्वतंत्रता सेनानियों की भावनाओं की प्रतिध्वनि सुनाई देती है। हमें यह अनुभव होता है कि हम उस परंपरा का हिस्सा हैं जो स्वाधीनता सेनानियों के सपनों और उन भावी पीढ़ियों की आकांक्षाओं को एक कड़ी में पिरोती है जो आने वाले वर्षों में हमारे राष्ट्र को अपना सम्पूर्ण गौरव पुनः प्राप्त करते हुए देखेंगी।

इतिहास की इस श्रृंखला की एक कड़ी होने का बोध हमारे अंदर विनम्रता का संचार करता है। यह बोध हमें उन दिनों की याद दिलाता है जब हमारा देश, विदेशी शासन के अधीन था। राष्ट्र-भक्ति और वीरता से ओत-प्रोत देश-प्रेमियों ने अनेक जोखिम उठाए और सर्वोच्च बलिदान दिए। हम उनकी पावन स्मृति को नमन करते हैं। उनके अथक प्रयासों के बल पर भारत की आत्मा सदियों की नींद से जाग उठी। अंतर-धारा के रूप में सदैव विद्यमान रही हमारी विभिन्न परंपराओं और मूल्यों को, पीढ़ी-दर-पीढ़ी हमारे महान स्वाधीनता सेनानियों ने नई अभिव्यक्ति प्रदान की। मार्गदर्शक-नक्षत्र की तरह, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने स्वाधीनता संग्राम की विभिन्न परंपराओं और उनकी विविध अभिव्यक्तियों को एकजुट किया।

साथ ही, सरदार पटेल, नेताजी सुभाष चंद्र बोस और बाबासाहब आंबेडकर तथा भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद जैसे अनेक महान जन-नायक भी सक्रिय थे। यह एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन था, जिसमें सभी समुदायों ने भाग लिया। आदिवासियों में तिलका मांझी, बिरसा मुंडा, लक्ष्मण नायक और फूलो-झानो जैसे कई अन्य लोग थे, जिनके बलिदान की अब सराहना हो रही है। हमने भगवान बिरसा मुंडा की जयंती को जनजातीय गौरव दिवस के रूप में मनाना शुरू किया है। अगले वर्ष उनकी 150वीं जयंती का उत्सव राष्ट्रीय पुनर्जागरण में उनके योगदान को और अधिक गहराई से सम्मान देने का अवसर होगा।

मेरे प्यारे देशवासियो,

आज, 14 अगस्त को, हमारा देश विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस मना रहा है। यह विभाजन की भयावहता को याद करने का दिन है। जब हमारे महान राष्ट्र का विभाजन हुआ, तब लाखों लोगों को मजबूरन पलायन करना पड़ा। लाखों लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी। स्वतंत्रता दिवस मनाने से एक दिन पहले, हम उस अभूतपूर्व मानवीय त्रासदी को याद करते हैं और उन परिवारों के साथ एक-जुट होकर खड़े होते हैं जो छिन्न-भिन्न कर दिए गए थे।

हम अपने संविधान की 75वीं वर्षगांठ मना रहे हैं। हमारे नव-स्वाधीन राष्ट्र की यात्रा में गंभीर बाधाएं आई हैं। न्याय, समानता, स्वतंत्रता और बंधुता के संवैधानिक आदर्शों पर दृढ़ रहते हुए, हम इस अभियान के साथ आगे बढ़ रहे हैं कि भारत, विश्व-पटल पर अपना गौरवशाली स्थान पुनः प्राप्त करे।

इस वर्ष, हमारे देश में आम चुनाव हुए। कुल मतदाताओं की संख्या लगभग 97 करोड़ थी, जो एक ऐतिहासिक कीर्तिमान है। मानव समुदाय, इतिहास की सबसे बड़ी चुनाव प्रक्रिया का साक्षी बना। इस तरह के विशाल आयोजन के सुचारु और त्रुटि-रहित संचालन के लिए भारत का निर्वाचन आयोग बधाई के योग्य है। मैं उन सभी कर्मचारियों और सुरक्षाकर्मियों का आभार व्यक्त करती हूं जिन्होंने भीषण गर्मी का सामना करते हुए, मतदाताओं की मदद की। इतनी बड़ी संख्या में लोगों द्वारा मताधिकार का प्रयोग करना वस्तुतः लोकतंत्र की विचारधारा का प्रबल समर्थन है। भारत द्वारा सफलतापूर्वक चुनाव आयोजित करने से पूरे विश्व में लोकतांत्रिक शक्तियों को ताकत मिलती है।

मेरे प्यारे देशवासियो,

वर्ष 2021 से वर्ष 2024 के बीच 8 प्रतिशत की औसत वार्षिक वृद्धि दर हासिल करके, भारत सबसे तेज गति से बढ़ने वाली बड़ी अर्थ-व्यवस्थाओं में शामिल है। इससे न केवल देशवासियों के हाथों में अधिक पैसा आया है, बल्कि गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों की संख्या में भी भारी कमी आई है। जो लोग अभी भी गरीबी से पीड़ित हैं, उनकी सहायता करने के साथ-साथ उन्हें गरीबी से बाहर निकालने के लिए भी सभी प्रयास किए जा रहे हैं। उदाहरण के लिए, कोविड-19 के शुरुआती चरण में आरंभ की गई पीएम गरीब कल्याण अन्न योजना के तहत लगभग 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन दिया जा रहा है, जो यह भी सुनिश्चित करता है कि जो लोग हाल ही में गरीबी से बाहर आए हैं, उन्हें पुनः गरीबी में जाने से रोका जा सके।

यह हम सभी के लिए गर्व की बात है कि भारत दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है, और हम शीघ्र ही विश्व की तीन शीर्षस्थ अर्थ-व्यवस्थाओं में स्थान प्राप्त करने के लिए तैयार हैं। यह सफलता किसानों और श्रमिकों की अथक मेहनत, नीति-निर्माताओं और उद्यमियों की दूरगामी सोच तथा देश के दूरदर्शी नेतृत्व के बल पर ही संभव हो सकी है।

हमारे अन्नदाता किसानों ने उम्मीदों से बेहतर कृषि उत्पादन सुनिश्चित किया है। ऐसा करके, उन्होंने भारत को कृषि-क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने और हमारे देशवासियों को भोजन उपलब्ध कराने में अमूल्य योगदान दिया है। हाल के वर्षों में इन्फ्रास्ट्रक्चर को काफी बढ़ावा मिला है। सुविचारित योजनाओं एवं प्रभावी कार्यान्वयन ने सड़कों और राजमार्गों, रेलवे और बंदरगाहों का जाल बिछाने में मदद की है। भावी प्रौद्योगिकी की अद्भुत क्षमता को ध्यान में रखते हुए, सरकार ने Semi-conductor और Artificial Intelligence जैसे कई क्षेत्रों को बढ़ावा देने पर विशेष बल दिया है, साथ ही Start-ups के लिए एक आदर्श eco-system भी बनाया है जिससे उनके विकास को गति मिलेगी। इससे, निवेशकों में भारत के प्रति आकर्षण और अधिक बढ़ गया है। बढ़ती हुई पारदर्शिता के साथ, बैंकिंग और वित्तीय क्षेत्रों की कार्य-कुशलता में वृद्धि हुई है। इन सभी बदलावों ने अगले दौर के आर्थिक सुधारों और आर्थिक विकास के लिए मंच तैयार कर दिया है जहां से भारत विकसित देशों की श्रेणी में शामिल हो जाएगा।

तेज गति से हो रही न्याय-परक प्रगति के बल पर वैश्विक परिदृश्य में भारत का कद ऊंचा हुआ है। जी-20 की अपनी अध्यक्षता के सफलतापूर्वक सम्पन्न होने के बाद, भारत ने Global South को मुखर अभिव्यक्ति देने वाले देश के रूप में अपनी भूमिका को मजबूत बनाया है। भारत अपनी प्रभावशाली स्थिति का उपयोग विश्व शांति और समृद्धि के विस्तार हेतु करना चाहता है।

मेरे प्यारे देशवासियो,

हमें संविधान निर्माता डॉक्टर बी.आर. आंबेडकर के शब्दों को भी सदैव याद रखना चाहिए। उन्होंने ठीक ही कहा था, और मैं उन्हें उद्धृत करती हूं, ‘हमें अपने राजनीतिक लोकतंत्र को सामाजिक लोकतंत्र भी बनाना चाहिए। राजनीतिक लोकतंत्र तब तक नहीं टिक सकता जब तक कि उसके आधार में सामाजिक लोकतंत्र न हो।’

राजनीतिक लोकतंत्र की निरंतर प्रगति से सामाजिक लोकतंत्र को मजबूत करने की दिशा में की गई प्रगति की पुष्टि होती है। समावेशी भावना, हमारे सामाजिक जीवन के हर पहलू में दिखाई देती है। अपनी विविधताओं और बहुलताओं के साथ, हम एक राष्ट्र के रूप में, एकजुट होकर, एक साथ, आगे बढ़ रहे हैं। समावेश के साधन के रूप में, affirmative action को मजबूत किया जाना चाहिए। मैं दृढ़ता के साथ यह मानती हूं कि भारत जैसे विशाल देश में, कथित सामाजिक स्तरों के आधार पर कलह को बढ़ावा देने वाली प्रवृत्तियों को खारिज करना होगा।

सामाजिक न्याय सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता है। सरकार ने अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और समाज के अन्य हाशिए के वर्गों के कल्याण के लिए अनेक अभूतपूर्व कदम उठाए हैं। उदाहरण के लिए, प्रधानमंत्री सामाजिक उत्थान एवं रोजगार आधारित जनकल्याण, यानी पीएम-सूरज का उद्देश्य हाशिए पर के लोगों को सीधे वित्तीय सहायता प्रदान करना है। प्रधानमंत्री जनजाति आदिवासी न्याय महा-अभियान यानी पीएम-जनमन ने एक जन अभियान का रूप ले लिया है। इसके तहत, विशेष रूप से कमज़ोर जनजातीय समूहों, यानी पीवीटीजी की सामाजिक-आर्थिक स्थितियों में सुधार के लिए निर्णायक कदम उठाए जा रहे हैं। National Action for Mechanized Sanitation Eco-system यानी नमस्ते योजना के तहत यह सुनिश्चित किया जाएगा कि किसी भी सफाई कर्मचारी को सीवर और सेप्टिक टैंक की सफाई के जोखिम-भरे काम को हाथों से नहीं करना पड़ेगा।

'न्याय' शब्द के सबसे व्यापक अर्थ में अनेक सामाजिक आयाम समाहित हैं। उनमें से दो आयामों पर मैं विशेष रूप से जोर देना चाहूंगी। वे आयाम हैं - स्त्री-पुरुष के बीच न्यायपूर्ण समानता तथा Climate Justice.

हमारे समाज में महिलाओं को केवल समानता का ही नहीं, बल्कि समानता से भी ऊपर का दर्जा दिया जाता है। हालांकि, उन्हें परंपरागत पूर्वाग्रहों का कष्ट भी झेलना पड़ा है। लेकिन, मुझे यह जानकर खुशी होती है कि सरकार ने महिला कल्याण और महिला सशक्तीकरण को समान महत्व दिया है। पिछले दशक में इस उद्देश्य के लिए बजट प्रावधान में तीन गुना से अधिक की वृद्धि हुई है। श्रम बल में उनकी भागीदारी बढ़ी है। इस संदर्भ में, जन्म के समय बेटियों के अनुपात में हुए उल्लेखनीय सुधार को सबसे उत्साहजनक विकास कहा जा सकता है। महिलाओं को केंद्र में रखते हुए सरकार द्वारा अनेक विशेष योजनाएं भी लागू की गई हैं। नारी शक्ति वंदन अधिनियम का उद्देश्य महिलाओं का वास्तविक सशक्तीकरण सुनिश्चित करना है।

जलवायु परिवर्तन एक यथार्थ का रूप ले चुका है। विकासशील देशों के लिए अपने आर्थिक प्रतिमानों को बदलना और भी अधिक चुनौतीपूर्ण है। फिर भी, हमने उस दिशा में आशा से अधिक प्रगति की है। Global warming के सबसे गंभीर कुप्रभावों से पृथ्वी को बचाने के लिए मानव समुदाय द्वारा किए जा रहे संघर्ष में अग्रणी भूमिका निभाने पर भारत को गर्व है। मैं आप सभी से अनुरोध करती हूं कि आप अपनी जीवनशैली में छोटे-छोटे किन्तु प्रभावी बदलाव करें तथा जलवायु परिवर्तन की चुनौती का सामना करने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दें।

न्याय के संदर्भ में, मैं यह भी उल्लेख करना चाहती हूं कि इस वर्ष जुलाई से भारतीय न्याय संहिता को लागू करने में, हमने औपनिवेशिक युग के एक और अवशेष को हटा दिया है। नई संहिता का उद्देश्य, केवल दंड देने की बजाय, अपराध-पीड़ितों के लिए न्याय सुनिश्चित करना है। मैं इस बदलाव को स्वाधीनता सेनानियों के प्रति श्रद्धांजलि के रूप में देखती हूं।

मेरे प्यारे देशवासियो,

आज के युवा हमारी स्वतंत्रता की शताब्दी तक के ‘अमृत काल’ को यानी आज से लगभग एक चौथाई सदी के कालखंड को स्वरूप प्रदान करेंगे। उनकी ऊर्जा और उत्साह के बल पर ही हमारा देश नई ऊंचाइयों तक पहुंचेगा। युवाओं के मनो-मस्तिष्क को विकसित करना तथा परंपरा एवं समकालीन ज्ञान के सर्वश्रेष्ठ आयामों को ग्रहण करने वाली नई मानसिकता का निर्माण करना हमारी प्राथमिकता है। इस संदर्भ में, वर्ष 2020 से लागू की गई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के परिणाम सामने आ रहे हैं।

युवा प्रतिभा का समुचित उपयोग करने के लिए, सरकार ने कौशल, रोजगार तथा अन्य अवसरों को सुलभ बनाने के लिए पहल की है। रोजगार और कौशल के लिए प्रधानमंत्री की पांच योजनाओं के माध्यम से पांच वर्षों में चार करोड़ दस लाख युवाओं को लाभ मिलेगा। सरकार की एक नई पहल से पांच वर्षों में एक करोड़ युवा अग्रणी कंपनियों में Internship करेंगे। ये सभी कदम, विकसित भारत के निर्माण में आधारभूत योगदान देंगे।

भारत में, हम विज्ञान और प्रौद्योगिकी को ज्ञान की खोज के साथ-साथ मानवीयता-पूर्ण प्रगति के साधन के रूप में देखते हैं। उदाहरण के लिए, digital applications के क्षेत्र में हमारी उपलब्धियों का उपयोग अन्य देशों में template के रूप में किया जा रहा है। हाल के वर्षों में, भारत ने अंतरिक्ष अनुसंधान के क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति की है। आप सभी के साथ, मैं भी अगले साल होने वाले गगनयान मिशन के शुभारंभ की उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रही हूं। इस मिशन के तहत, भारत के पहले मानव अंतरिक्ष यान में, भारतीय अंतरिक्ष टीम को, अंतरिक्ष में ले जाया जाएगा।

खेल जगत भी एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें हमारे देश ने पिछले दशक में बहुत प्रगति की है। सरकार ने खेल के बुनियादी ढांचे के विकास को समुचित प्राथमिकता दी है और इसके परिणाम सामने आ रहे हैं। हाल ही में संपन्न पेरिस ओलंपिक खेलों में भारतीय दल ने अपना उत्कृष्ट प्रयास किया। मैं खिलाड़ियों की निष्ठा और परिश्रम की सराहना करती हूं। उन्होंने युवाओं में प्रेरणा का संचार किया है। क्रिकेट में भारत ने टी-20 विश्व कप जीता, जिससे बड़ी संख्या में क्रिकेट-प्रेमी आनंदित हुए। शतरंज में विलक्षण प्रतिभा वाले युवा खिलाड़ियों ने देश को गौरवान्वित किया है। इसे शतरंज में भारतीय युग का आरंभ माना जा रहा है। बैडमिंटन, टेनिस और अन्य खेलों में हमारे युवा खिलाड़ी विश्व मंच पर अपनी पहचान बना रहे हैं। उनकी उपलब्धियों ने अगली पीढ़ी को भी प्रेरित किया है।

मेरे प्यारे देशवासियो,

पूरा देश स्वतंत्रता दिवस मनाने के लिए तत्पर है। इस उल्लासपूर्ण अवसर पर मैं आप सब को एक बार फिर बधाई देती हूं। मैं सेनाओं के उन बहादुर जवानों को विशेष बधाई देती हूं जो अपनी जान का जोखिम उठाते हुए भी हमारी स्वतन्त्रता की रक्षा करते हैं। मैं पुलिस और सुरक्षा बलों के कर्मियों को बधाई देती हूं जो पूरे देश में सतर्कता बनाए रखते हैं। मैं न्यायपालिका और सिविल सेवाओं के सदस्यों के साथ-साथ विदेशों में नियुक्त हमारे दूतावासों के कर्मियों को भी अपनी शुभकामनाएं देती हूं। हमारे प्रवासी समुदाय को भी मेरी शुभकामनाएं! आप सब हमारे परिवार का हिस्सा हैं, आपने अपनी उपलब्धियों से हमें गौरवान्वित किया है। आप सब विदेशों में भारत की संस्कृति और विरासत का गर्व के साथ प्रतिनिधित्व करते हैं।

एक बार फिर, मेरी ओर से सभी को स्वाधीनता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं!

धन्यवाद!

जय हिंद!

जय भारत!


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हाउ डेयर यू? - दिलीप कुमार

उस्ताद किस्सागो जनाब कृश्न चन्दर साहब की कालजयी रचना “एक गधे की आत्मकथा” में एक इंसान जैसा सोचने वाला गधा कई दिनों तक एक गधी के साथ घास चरने का शगल करता रहा था। जब गधे को हद इम्कान इस बात की तस्दीक हो गई कि गधी भी मुझमें रुचि रखती है और यह गधी तो जीवन संगिनी बनाई जा सकती है। गधे को वह गधी देसी गधियों से इतर लगी तो उसने गधी से इजहारे दिल किया कि “तुम मेरी शरीके हयात बनोगी।" 

गधी ने तो नफासत से सिर्फ़ “हिस्स” कहते हुए सलीके से इंकार कर दिया था मगर ये बात गधी की माँ को बेहद नागवार गुजरी कि एक देसी गधा (जो भले ही पंडित नेहरू के बंगले तक हो आया हो और खुद को बुद्धिजीवी गधा समझता हो) और जिसकी परवरिश खालिस देसी गधामय माहौल में हुई हो। वह उनकी एरिस्ट्रोकेट बेटी को सामने से आकर प्रपोज करने की हिमाकत कैसे कर सकता है। भले ही तब सीनियर गधी ने देसी गालियां न दी हों पर उस बुद्धिजीवी गधे को प्रणय निवेदन पर इतना लताड़ा था कि बुद्धिजीवी गधे ने इजहार ए इश्क से तौबा कर ली थी।

इश्क से लतियाया हुआ आदमी आगे सलीके के काम चुन लेता है। सो उस बुद्धिजीवी गधे ने शराबबन्दी के उस दौर में शराब बेचने जैसे उम्दा काम को चुन लिया था।

मगर उस्ताद साहब के जमाने से अब तक गंगा में बहुत पानी बह चुका है और इश्क करने के तौर-तरीके भी काफी बदल चुके हैं। ऐसी बात नहीं है कि अब पढ़े-लिखे और बुद्धिजीवी टाइप के गधे नहीं होते। अब तो इफरात में बुद्धिजीवी गधे विचरते पाये जाते हैं सोशल मीडिया की चारागाह में। ये और बात है कि अब इजहार-ए-इश्क के रास्ते में मम्मियां आम तौर पर आड़े नहीं आतीं।

“वक्त पड़ने पर गधे को भी बाप बनाना पड़ता है” तथा “दिल आया गधी पर तो परी क्या चीज है" जैसे सांत्वना वाली मिसालें पहले से मौजूद थीं जो इंसान को मौके-बे-मौके खुद को गधा तसलीम करने में मदद फरहाम किया करती हैं। उस्ताद साहब कृश्न चंदर के रचे किस्सों में भी देसी गधा अफसाने के अंजाम तक आते-आते गधा से “डंकी सर” बन ही जाता है।
 
वैसे ही अब मनुष्यों को भी लताड़ने के लिए गधा नहीं अपितु “वैसाखनन्दन” जैसे नामों की उपमा दी जाती है। एक बात की अक्सर नजीर दी जाती है कि “चोर-चोरी से जाए मगर हेरा-फेरी से न जाये।” उसी तरह मनुष्यों में कितनी भी वीरता का बखान करने वाली शेरों जैसी शेरता, लोमड़ी जैसे दिमाग के लिये लोमड़ता की उपमा दी जाती रही हो। सो इसी तरह गधेपन के लिए वैसाख नंदिता जैसी नजीर देने पर तवज्जो दी जानी चाहिये।

भले ही मैंने तालीमयाफ़्ता और लिखने पढ़ने से राब्ता रखने के बरक्स खुद को बुद्धिजीवी माना हो मगर बचपन से ही मेरे माता-पिता मुझे धड़ल्ले से गधा कहकर पुकारा करते थे। मेरी पत्नी ने न सिर्फ अपनी सास से उसका बेटा और गहने लिए बल्कि उनसे परिवार में दी जाने वाली कुछ उपमाएं भी ले ली थीं।

मेरे लेखक होने का लिहाज करते हुए उसने मेरी माँ के तर्ज पर गधा तो नहीं मगर कभी-कभार वैसाखनन्दन उर्फ बीयन कहना जारी रखा था। वैसे भी मैं वैसाख जैसे महत्वपूर्ण मास में पैदा हुआ था फिर भी मेरी ज़िंदगी में ढेर सारा गधापन भरा हुआ था। बिना ऊपरी कमाई वाले महकमे में दिन भर दफ्तर में गधों की तरह काम करता था और शाम को थक कर चूर हो जाता था। उसके बाद  किसी तिरस्कृत पशु की तरह खर्राटे लेकर सोता था। पत्नी और बच्चे मुझसे खार खाये रहते थे कि एक तो मैं एक्स्ट्रा कमाई उन्हें नहीं दे पाता था, दूसरे काम से थक जाता था तो उन्हें मेला, मॉल्स, होटल वगैरह नहीं ले जा पाता था। वो सब मुझसे खफा भी रहते थे। पत्नी तो कायदे से मुझसे खफ़ा और निस्पृह रहा करती थी। उसके हिसाब से उसके जीवन के सारे दुखों का कारण मैं ही हूँ। बिजली जाने से लेकर और सब्जी में नमक ज्यादा हो जाने तक सारे गुनाह मेरे बरक्स थे। मुझ पर कुढ़ते रहने के बावजूद वह मोहल्ले के व्हाट्सएप ग्रुप, फेसबुक आदि में उलझी रहा करती थी। इससे उसके जीवन का ताप एवं संताप नियंत्रित रहा करता था।

दफ़्तर में कमाऊ पटल नहीं तो तवज्जो नहीं और घर मे ऊपरी कमाई नहीं तो तवज्जो नहीं। सो कुछ कुछ खास बचता नहीं था अपनी इज्जत अफजाई करने का साधन। हिंदी का आम लेखक बेचारा दीन-दुनिया से ठुकराया हुआ बंदा होता है। सो अपनी चलाने के लिए उसने फ़ेसबुक की कायदे से पनाह ली।

फ़ेसबुक के अनंत आभासी अंतरिक्ष पर विचरण करते हुए काफी तजबीज के बाद एक कवियत्री मिलीं। कवयित्रियां तो पहले भी बहुत मिली और बिछड़ी थीं मुझसे पर इनकी बात ही अहलदा थी। मैंने उनकी पांच इंच की फोटो के साथ चेंपी गई डेढ़ इंच की कविता की तारीफ कर दी। तुरन्त ही उनकी फ्रेंड रिक्वेस्ट आई। मैं तो निहाल हो उठा। मैंने फ्रेंड रिक्वेस्ट को प्रेम रिक्वेस्ट मानते हुए स्वीकार किया और बल्लियों उछलते हुए अपने दिल का नजराना लेकर उनके मैसेंजर में पहुंचा और अपनी खुशी को न छिपाते हुए कहा--“आपका शुक्रगुजार हूँ कि आपने फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजी। मैं आपको फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजने को सोच ही रहा था कि आपने पहले ही फ्रेंड रिक्वेस्ट भेज दी। काफी रौशन ख्याल की और माडर्न हैं आप।”

“ऐसी बात नहीं है। मैं अपने फॉलोवर्स को ऐड कर लिया करती हूं” उधर से टका सा जवाब आया। 

“सिर मुड़ाते ही ओले” मैं मन मसोस कर रह गया। “हाय-हाय” मेरी आशनाई की इब्तिदा में ही काम तमाम होने के अंजाम नजर आ गए।  मैंने अपनी हरकतों पर सर धुना, कोसा और खुद को फटकारते हुए अहद ली कि अब किसी सुंदरी के रूपजाल में नहीं फसूंगा भले ही आभासी दुनिया की ही क्यों न हो। ये और बात थी कि वास्तविक रूप से मिलने वाली किसी सुंदरी तो क्या बदसूरत महिला ने भी मुझे कभी घास नहीं डाली थी।

मेरे जैसा मरियल एवं पिलपिला आदमी रियल में तो किसी सुंदरी को आकर्षित करने में विफल रहा था। वर्चुअल में जरूर किसी को रिझाने का प्रयत्न कर सकता था। मेरे जीवन में तिरिया का साथ ही बदा न होता अगर कुछ पुश्तैनी माल-असबाब का सहारा न होता। शहर में वालिद साहब की तिमंजिला कोठी और गांव की जमीन बेचकर घूस देकर लगवाई गई सरकारी मुलाजमत के बरक्स मेरा विवाह तो हो गया था। गो कि बाल बच्चेदार था पर दिल में कहीं ये अजीम हसरत टीसती रहती थी कि मैं भी किसी को पसन्द करके इजहार ए दिल करूँ।

फिर वो मेरी लाजवंती मेरे इसरार पर शर्माए, मुस्काये और चंद रोज बाद आकर मुझसे कहे-–“मैं आपकी बेहद इंप्रेसिव पर्सनालिटी से बहुत प्रभावित हूँ। आपके लेखन और रौशन ख्याली से मेरे दिल का कमरा कमरा रौशन है। अब तक कहाँ थे आप मेरे सरताज। उम्र के इस मोड़ पर हम मिले हैं रियल में हम इश्क नहीं कर सकते मगर वर्चुअल में प्रेम की पींगे तो बढ़ा ही सकते हैं।” ये सब सोचता तो मेरे मन में गुदगुदी और जिस्म में सनसनी होने लगती थी।

मैं ऐसे ही किसी दिलफ़रेब मौके की तलाश में मुद्दतों से वर्चुअल दुनिया में अपनी किस्मत को आजमा रहा था।

उस कमलनयनी कवियत्री ने भले ही मुझे अपना फालोवर बनाकर फ़ेसबुक पर ऐड किया था मगर अब मैं उसका दोस्त था और दोस्ती का अगला कदम क्या होता है! ये सोच कर ही मन में गुदगुदी होने लगती थी।

उनकी हर  फ़ेसबुक हर पोस्ट पर मैं टैग होता था। यदि उनके पोस्ट पर आने पर मुझे कुछ देर हो जाये तो मैसेंजर में मेसेज देती थीं। कभी-कभी उनकी कविताओं पर मैसेंजर पर बात भी होती थी। फिर मैसेंजर काल पर करीब-करीब रोज बात होने लगी। हमारे सम्बंध बेहद प्रगाढ़ होते गए। एक दिन मैंने उस सम्मोहक कवियत्री से उसका व्हाट्सअप नम्बर मांगा। तो उसने मैसेंजर काल पर बताया--“मेरे हसबैंड ने मुझे कसम दी है कि सोशल मीडिया पर किसी से अपना नम्बर शेयर नहीं करूँ। मैं वह कसम तोड़ नहीं सकती। मगर आप भी मेरे बेहद करीबी मित्र अब हो गए हैं इसलिए आप मुझे मैसेंजर पर ही काल कर लिया कीजिये, अब मैसेंजर, व्हाट्सअप में कोई फर्क नहीं रहा। हम इसी पर बात कर लिया करेंगे।”

उस मोहिनी स्त्री का विकल्प मुझे बढ़िया लगा। फिर हम मैसेंजर पर आडियो/वीडियो कॉल भी करने लगे। हम दोनों एक दूसरे को बहुत हद तक जान चुके थे। मुझे लगा यही वक्त है। लोहा गर्म है, हथौड़े से प्रहार करना चाहिये। ऐसे ही एक दिन मैसेंजर पर वीडियो कॉल करते हुए मैंने अपनी हसरत उजागर करते हुए कहा--“आई लव यू।”

उसने पहले हैरानी से फिर गुस्से से मुझे देखा और फिर दांत किटकिटाते हुए बोली-–“अबे बिल्कुल बेवकूफ है क्या तू। मैं शादीशुदा और दो बच्चों की माँ हूँ और तू तीन बच्चों का बाप। नाशपीटे, नाश हो तेरा। ऐसा कहने की तेरी हिम्मत कैसे हुई। गधा कहीं का। यू ब्लडी डंकी हाउ डेयर यू!" ये कहकर उसने मुझे वीडियो कॉल पर सैंडिल दिखाते हुए ब्लाक कर दिया।
 
मैं फ़ेसबुक डीएक्टिवेट कर, घर के पीछे के मैदान में घूमने आया हूँ। मैदान में बहुत से गधे विचरण करते हुए घास चर रहे हैं। गधा चराने वाले के मोबाइल पर अताउल्लाह खान का गाना बज रहा है--उसमें एक शेर यूँ नश्र हुआ--
“नजरें मिली और प्यार कर गया, 
पूछा जो मैंने उससे इंकार कर गया।”

गीत के बोल अच्छे हैं मगर मेरा मन उसमें रम नहीं रहा है। सामने मैदान में घास चर रहे गधों को देख रहा हूँ मगर मेरे जेहन में उस मनमोहिनी कवियत्री की बातें गूँज रही हैं--“यू डंकी, हाउ डेयर यू!”

-दिलीप कुमार


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अंडमान-निकोबार के साहित्य-सेवी व्यास मणि त्रिपाठी  - डॉ शिबन कृष्ण रैणा

अंडमान-निकोबार की राजधानी पोर्ट-ब्लेयर की आबादी लगभग डेढ़ लाख है। साफ-सुन्दर शहर है और हर तरह की आधुनिकतम सुविधाएँ उपलब्ध हैं। कुछेक वर्ष पूर्व इन्टरनेट की सुविधा यहाँ आ जाने से यह अलग-थलग पड़ा द्वीप मेनलैंड से जुड़ गया है। पर्यटन स्थल होने के कारण होटलों और विश्राम गृहओं की बहुतायत है। लगभग हर प्रदेश और जाति-धर्म के लोग यहाँ प्रेमभाव से रहते हैं। बंगला-भाषियों की संख्या कुछ ज़्यादा बताई जाती है।

हिंदी भाषा हर कोई समझता है और हिंदी के साइनबोर्ड यत्रतत्र देखने को मिल जाते हैं।

आज कुछ ऐसा योग बना कि यहाँ पोर्ट ब्लेयर के सरकारी जवाहरलाल नेहरू कॉलेज के हिंदी विभाग के अध्यक्ष डा व्यासमणि त्रिपाठीजी से मुलाक़ात हुई। वे मुझे पहले से जानते थे और जैसे ही उन्हें यह ज्ञात हुआ कि मैं इन दिनों पोर्ट ब्लेयर में हूँ तो समय निकल कर मुझ से मिलने आए। कृष्ण-भक्त कवि "परमनंद" पर लिखी और साहित्य अकादमी, दिल्ली से हाल ही में प्रकाशित अपनी पुस्तक की एक प्रति मुझे भेंट की।

त्रिपाठीजी की साहित्य-सेवाएं खूब हैं। इनकी कविता, कहानी, निवन्ध, आलोचना, लोक-कथा आदि की 34 पुस्तकें प्रकाशित ही चुकी हैं। जिनमें साहित्य अकादेमी, नयी दिल्ली द्वारा प्रकाशित “जगन्नाथ दास 'रत्नाकर'”, “नन्ददास”, “अण्डमान का हिन्दी साहित्य” और “अण्डमान तथा निकोबार की लोक कथाएँ” तथा प्रकाशन विभाग, नयी दिल्ली से प्रकाशित “भारतीय स्वाधीनता-संग्राम और अण्डमान” विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

सम्मान भी इन्हें खूब मिले हैं। यथा: दसवें विश्व हिन्दी सम्मेलन में 'विश्व हिन्दी सम्मान।' मध्य प्रदेश साहित्य अकादेमी का 'आचार्य रामचन्द्र शुक्ल आलोचना' पुरस्कार। उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का "रामविलास शर्मा सर्जना' पुरस्कार। हिन्दुस्तानी एकेडेमी, प्रयागराज का 'महावीर प्रसाद द्विवेदी आलोचना' पुरस्कार। विद्या वाचस्पति और विद्यावारिधि की मानद उपाधियों सहित अन्य दर्जनों पुरस्कार एवं सम्मान इन्हें प्राप्त हैं।

इतने सारे मान-सम्मानों से समादृत होते हुए भी त्रिपाठीजी सादगी और विनम्रता के धनी हैं। चिरंजीवी रहें, यही कामना है।

-डॉ० शिबन कृष्ण रैणा
 ई-मेल : skraina123@gmail.com,


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छंद गणक  - भारत-दर्शन

यहाँ विभिन्न गणकों के लिंक दिए गए हैं जिन्हें Meter भी कहा जाता है। इनका उपयोग काव्य के मात्रिक छंदों में मात्रा गिनने और वर्णिक वृत छंद में वर्णों की गणना हेतु किया जाता है। इनके अतिरिक्त जापानी काव्य पर आधारित हाइकु, तांका, सेदोका और चौका में अक्षर गणना के लिए किया जाता है।

आप यहाँ विभिन्न गणकों का उपयोग कर सकते हैं। इनका उपयोग करने के लिए आप निम्नलिखित लिंक पर क्लिक करें और उस पन्ने पर दिए गए निर्देशों का पालन करें--

हाइकु गणक  -- तांका गणक -- सेदोका गणक -- चौका गणक 


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कुण्डलिया दिवस  - भारत-दर्शन

त्रिलोक सिंह ठकुरेला साहित्य जगत का परिचित नाम है। उन्होंने लुप्तप्रायः कुण्डलिया छंद के लिए विशेष उद्यम किया है। उन्हीं की प्रेरणा से कुछ साहित्यकार 19 नवंबर को कुण्डलिया दिवस का आयोजन कर रहे हैं। 

ठकुरेला जी ने बताया, "19 नवंबर को कुछ ई-पत्रिकाओं के कुण्डलिया दिवस परिशिष्ट प्रकाशित होंगे। कुण्डलियाकार हैशटैग (# कुण्डलिया_दिवस) के साथ फेसबुक पर अपनी कुण्डलियाँ पोस्ट करेंगे। इस सम्बन्ध में कुण्डलिया गोष्ठी, कुण्डलिया परिचर्चा आदि आयोजित किये जा सकते हैं।" 

इसके विधान के बारे में राम औतार 'पंकज' लिखते हैं--

"कुण्डलिया साहित्य में, छन्दों का सिरताज। 
निश्चित मात्रा पंक्ति में, सर्जन इसका राज॥ 
सर्जन इसका राज, भाव उठते जो दिल में। 
पहला दोहा छन्द, तैल संचित ज्यों तिल में॥ 
'पंकज रोला बन्द, कथ्य की खोले पुड़िया। 
प्रथम शब्द से अन्त, छन्द उत्तम कुण्डलिया॥" 

कुंडलिया दोहा और रोला के संयोग से बना छंद है। इस छंद के 6 चरण होते हैं तथा प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ होती है। इसे यूँ भी कह सकते हैं कि कुंडलिया के पहले दो चरण दोहा तथा शेष चार चरण रोला से बने होते है यानी 13-11, 13-11, 11-13, 11-13, 11-13, 11-13 का क्रम होता है। इस छंद में प्रथम और अंतिम शब्द या शब्द समूह समान हों तो उन्हें उत्तम माना जाता है।

गिरिधर कविराय का नाम कुंडलिया छंद के लिए बहुत प्रसिद्ध है। संत गंगादास, बाबा दीनदयाल गिरि, राय देवीप्रसाद पूर्ण, कवि ध्रुवदास जैसे अनेक रचनाकारों का नाम कुंडलिया छंद के साथ जुड़ा हुआ है। कुण्डलिया दिवस के संदर्भ में भारत-दर्शन कुछ चयनित कुण्डलिया प्रकाशित कर रहा है। 

गिरिधर कविराय की कुण्डलिया

गुन के गाहक सहस नर, बिन गुन लहै न कोय। 
जैसे कागा- कोकिला, शब्द सुनै सब कोय॥ 
शब्द सुनै सब कोय, कोकिला सबै सुहावन। 
दोऊ को इक रंग, काग सब भये अलावा॥ 
कह गिरिधर कविराय, सुनौ हो ठाकुर मन के। 
बिन गुण लहै न कोय, सहस नर गाहक गुन के॥ 
[गिरिधर कविराय]

साईं बैर न कीजिये, गुरु, पंडित, कवि, यार। 
बेटा, बनता, पँवरिया, यज्ञ-करावनहार॥ 
यज्ञ- करावनहार, राज मंत्री जो होई। 
विप्र, पड़ौसी, वैद्य, आपकी तपै रसोई॥ 
कह गिरिधर कविराय, जुगनते यह चलि आई। 
इन तेरह सौं तरह, दिये बनि आवै साईं॥ 
[गिरिधर कविराय]

बिना विचारे जो करै, सो पाछै पछताय। 
काम बिहारी आपनो, जग में होत हॅंसाय॥ 
जग में होत हॅंसाय, चित्त में चैन न आवै। 
खान-पान सनमान, राग रँग मनहि न भावै॥ 
कह गिरिधर कविराय, दु:ख कछु करते न टारे। 
खटकत है जिय मांहि, कियो जो बिना विचारे॥
[गिरिधर कविराय]

बीती ताहि बिसारि दे, आगे की सुधि लेइ। 
जो बनि आवै सहज में, ताही में चित देइ॥  
ताही में चित देइ, बात जोई बनि आवै। 
दुर्जन हॅंसे न कोय, चित्त में खता न पावै॥
कह गिरिधर कविराय, यहै करु मन परतीती। 
आगे की सुधि लेइ, समझ बीती सो बीती॥ 
[गिरिधर कविराय]

लाठी में गुण बहुत हैं, सदा राखिए संग। 
गहिरि नदी, नारा जहाँ, तहाँ बचावै अंग॥ 
तहाँ बचावै अंग, झपटि कुत्ता को मारै। 
दुश्मन दावागीर, होय तिनहूं  को झारै॥ 
कह गिरिधर कविराय, सुनो हो धर के पानी। 
सब हथियारन छोड़ि, हाथ में लीजै लाठी॥
[गिरिधर कविराय]

दीनदयाल गिरि की कुण्डलिया

सोई देस विचार कै, चलिये पथी सुवेत। 
जाके जस आनन्द की, कविवर उपमा देत॥ 
कविवर उपमा देत, रङ्क भूपति सम जामें। 
आवागवन न होय, रहै मुद मङ्गल तामें॥
बरनै दीनदयाल, जहां दुख सोक न होई। 
ए हो पथी प्रबीन, देस को जैयो सोई॥
[दीनदयाल गिरि]

आछी भाति सुधारि कै, खेत किसान बिजोय। 
नत पीछे पछतायगो, समै गयो जब खोय॥
समै गयो जब खोय, नहीं फिर खेती ह्वैहै। 
लैहै हाकिम पोत, कहा तब ताको दैहै॥
बरनै दीनदयाल, चाल तजि तू अब पाछी। 
सोउ न सालि सभालि, बिहंगन तें विधि आछी॥
[दीनदयाल गिरि]

 

राय देवीप्रसाद ‘पूर्ण’ की कुण्डलिया

देशी प्यारे भाइयो। हे भारत-संतान!
अपनी माता-भूमि का, है कुछ तुमको ध्यान?
है कुछ तुमको ध्यान! दशा है उसकी कैसी?
शोभा देती नहीं, किसी को निद्रा ऐसी॥ 
वाजिब है हे मित्र! तुम्हें भी दूरंदेशी। 
सुन लो चारों ओर, मचा है शोर ‘स्वदेशी’॥  
[राय देवीप्रसाद ‘पूर्ण’]

थाली हो जो सामने, भोजन से संपन्न। 
बिना हिलाए हाथ के, जाय न मुख में अन्न॥ 
जाय न मुख में अन्न, बिना पुरुषार्थ न कुछ हो। 
बिना तजे कुछ स्वार्थ, सिद्ध परमार्थ न कुछ हो॥ 
बरसो, गरजो नहीं, धीर की यही प्रणाली। 
करो देश का कार्य, छोड़कर परसी थाली॥  
[राय देवीप्रसाद ‘पूर्ण’]

दायक सब आनंद का, सदा सहायक बन्धु। 
धन भारत का क्या हुआ, हे करुणा के सिंध॥
हे करुणा के सिंधु, पुनः सो संपति दीजै। 
देकर निधि सुखमूल, सुखी भारत को कीजै॥ 
भरिए भारत भवन, भूरिधन त्रिभुवन-नायक!
सकल अमंगलहरण, शरणवर मंगलदायक॥
[राय देवीप्रसाद ‘पूर्ण’]

धन के होते सब मिले, बल विद्या भरपूर।
धन से होते हैं सकल, जग के संकट चूर॥ 
जग के संकट चूर, यथा कोल्हू में घानी। 
धन है जन का प्राण, वृक्ष को जैसे पानी॥ 
हे त्रिभुवन के धनी, परमधन निर्धन जन के। 
है भारत अति दीन, लीन दुख में बिन धन के॥ 
[राय देवीप्रसाद ‘पूर्ण’]

 

त्रिलोक सिंह ठकुरेला की कुण्डलिया

रत्नाकर सबके लिये, होता एक समान।
बुद्धिमान मोती चुने, सीप चुने नादान॥
सीप चुने नादान, अज्ञ मूंगे पर मरता।
जिसकी जैसी चाह, इकट्ठा वैसा करता॥
‘ठकुरेला’ कविराय, सभी खुश इच्छित पाकर।
हैं मनुष्य के भेद, एक सा है रत्नाकर॥
[त्रिलोक सिंह ठकुरेला]

थोथी बातों से कभी, जीते गये न युद्ध।
कथनी पर कम ध्यान दे, करनी करते बुद्ध॥
करनी करते बुद्ध, नया इतिहास रचाते।
करते नित नव खोज, अमर जग में हो जाते॥
‘ठकुरेला’ कविराय, सिखाती सारी पोथी।
ज्यों ऊसर में बीज, वृथा हैं बातें थोथी॥ 
[त्रिलोक सिंह ठकुरेला]

तिनका तिनका जोड़कर, बन जाता है नीड़।
अगर मिले नेतृत्व तो, ताकत बनती भीड़॥
ताकत बनती भीड़, नये इतिहास रचाती।
जग को दिया प्रकाश, मिले जब दीपक-बाती॥
‘ठकुरेला’ कविराय, ध्येय सुन्दर हो जिनका।
रचते श्रेष्ठ विधान, मिले सोना या तिनका॥ 
[त्रिलोक सिंह ठकुरेला]

मोती बन जीवन जियो, या बन जाओ सीप।
जीवन उसका ही भला, जो जीता बन दीप॥
जो जीता बन दीप, जगत को जगमग करता।
मोती सी मुस्कान, सभी के मन मे भरता॥
‘ठकुरेला’ कविराय, गुणों की पूजा होती।
बनो गुणों की खान, फूल, दीपक या मोती॥
[त्रिलोक सिंह ठकुरेला]

जीवन जीना है कला, जो जाता पहचान।
विकट परिस्थिति भी उसे, लगती है आसान॥
लगती है आसान, नहीं दुख से घबराता।
ढूंढ़े मार्ग अनेक, और बढ़ता ही जाता॥
‘ठकुरेला’ कविराय, नहीं होता विचलित मन।
सुख-दुख, छाया-धूप, सहज बन जाता जीवन॥ 
[त्रिलोक सिंह ठकुरेला]

बोता खुद ही आदमी, सुख या दुख के बीज।
मान और अपमान का, लटकाता ताबीज॥
लटकाता ताबीज, बहुत कुछ अपने कर में।
स्वर्ग नर्क निर्माण, स्वयं कर लेता घर में॥
‘ठकुरेला’ कविराय, न सब कुछ यूं ही होता।
बोता स्वयं बबूल, आम भी खुद ही बोता॥
[त्रिलोक सिंह ठकुरेला]

हँसना सेहत के लिये, अति हितकारी, मीत।
कभी न करें मुकाबला, मधु, मेवा, नवनीत॥
मधु, मेवा, नवनीत, दूध, दधि, कुछ भी खायें।
अवसर हो उपयुक्त, साथियो, हँसें, हँसायें॥
‘ठकुरेला’ कविराय, पास हँसमुख के बसना।
रखो समय का ध्यान, कभी असमय मत हँसना॥ 
[त्रिलोक सिंह ठकुरेला]

 

लक्ष्मीशंकर वाजपेयी की कुण्डलिया

अपराधी बेखौफ हैं, जनता है बेहाल। 
न्याय निर्भया को मिले, आठ लगाए साल॥ 
आठ लगाए साल, रोज़ नुचती है बेटी। 
मुँह पर ओढ़े मास्क, मौन मानवता बैठी॥ 
लुटी सभ्यता रोज, स्वर्ग से देखें गांधी। 
करें लुटेरे मौज, खुले घूमें अपराधी॥  
[लक्ष्मीशंकर वाजपेयी] 

बीती जाए ज़िंदगी, जीना रही सिखाय। 
सारे दुख को भूल के, तनिक दियो मुस्का॥ 
तनिक दियो मुस्काय, मधुर सब बोलो बानी।  
खुशबू दो बिखराय, गढ़ो इक नई कहानी॥  
दुख में भी जो हँसे, तो जानो जंग जीती। 
जी लो पल पल आज, उमरिया जाये बीती॥ 
[लक्ष्मीशंकर वाजपेयी] 


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हिन्दी साहित्यकारों की जीवनियाँ - भारत-दर्शन

हिन्दी साहित्यकारों की जीवनियाँ

हिंदी कवि 

कबीरदास - तुलसीदास - सूरदास -रहीम - रसखान - मीरां बाई


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कबीर दास का संक्षिप्त जीवन परिचय - भारत-दर्शन

Kabir Ki Jivani

संत कबीरदास का संक्षिप्त जीवन परिचय

पूरा नाम :   संत कबीरदास
जन्म :   सन् 1398 (अनुमानित)
जन्म भूमि :  काशी
निधन : सन् 1518 (अनुमानित)
निधन स्थल :  मगहर, उत्तर प्रदेश
माता-पिता : नीरु और नीमा
पत्नी : लोई
संतान : कमाल (पुत्र), कमाली (पुत्री)
कर्म भूमि : काशी, बनारस
मुख्य रचनाएँ :  साखी, सबद और रमैनी

कबीरदास की विस्तृत जीवनी और रचनाएँ पढ़ें। 


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पर्यावरण पर दोहे  - शकुंतला अग्रवाल 'शकुन' 

तरुवर हैं सहमे हुए,पंछी सभी उदास।
दाँव लगी है जिन्दगी, दुश्मन बना विकास॥

नदिया सागर से कहे,मत तकना अब बाट।
मेघ हुए हैं बेवफा, सूख गए हैं घाट॥

कुंजों से झरती रही, कनक सुनहरी धूप।
धरणी ने भी धर लिया, तभी दुल्हन का रूप॥

फुनगी पर ठहरी प्रभा,पिला रही है जाम।
ठुमक-ठुमक ठुमके पवन,महके आठों याम॥

बंजारन-सी धूप अब,रही चिकोटी काट।
बतियाती अब फुनगियाँ,रोशन है सब घाट॥

जल विहीन सरिता हुई, निर्जन सारे घाट।
मेघ बसो किस देश में,हर पल जोऊँ बाट॥

नदी हुई अब बेवफा, कौन मिटाए प्यास।
सागर आहें भर रहा, रूठ गया मधुमास॥

मंजर महके आम्र पर,कोयल छेड़े राग।
दहका टेसू कर रहा, प्रकृति खेलती फाग॥

 चलकर मस्त समीर जब,गाती मंगलाचार।
सरसित होकर तब धरा,खूब लुटाती प्यार॥

तरुवर-तरुवर से कहे, चलती आरी देख।
प्रभु ने दुख में ही लिखी,अपनी किस्मत  रेख॥

फुनगी चूमी ओस ने,नाचे डाल विभोर।
तरुवर इतराने लगा, देख सुहानी भोर॥

महक गई है यामिनी,पाकर शशि का प्यार।
महुआ महका संग में,महका हरसिंगार॥

किश्ती लहरों से कहे,ले मत अधिक उछाल।
टूटेंगे तटबन्ध तो, लेगा कौन  सम्भाल॥

यामा घूँघट काढ़ कर,जाती प्रीतम-देश।
भानु करे अठखेलियाँ,पहन सुनहरा वेश॥

दम-दम दमके दामिनी,सघन घटा के बीच।
झम-झम बरसे मेघ भी,अपना प्रेम उलीच॥

हौले-हौले ढल गया, जब दिनकर का तेज।
विधु,तारों को यामिनी,देती पाती भेज॥

शीतल-मंद-समीर से, प्रमुदित है मधुमास।
वसुधा होकर बावरी,खूब रचाती रास॥

होकर व्याकुल प्यास से बैठा पथिक उदास।
दूर तलक होता नहीं,पानी का अनुभास॥

एक झलक पा सूर्य की, घूँघट खोले रात।
नटखट किरणें कर गई,दीवाना हर पात॥

पवन नशीली हो गई, मिल ऋतुपति के संग।
टेसू पर यौवन चढ़ा,महुआ आम मलंग॥

नील-गगन रोने लगा,बंजर वसुधा देख।
मेघों ने पल में लिखे, प्रेम -भरे आलेख॥

मेघों को जब-जब मिला, वसुधा का संदेश 
नीलाम्बर पर छा गए,धर कजरारा वेश॥

लेकर कुमकुम थाल जब,प्राची आई द्वार।
धरती ले आगोश में,चूमे बारम्बार॥

ऋतुपति की पदचाप सुन,हर्षित है हर शाख।
खिलकर प्रेम-पलाश ने,किया वैर का नाश॥

देखो सावन ने किया,जग में खूब धमाल।
चुल्हा पानी पी गया, कैसे पकती दाल॥

पतझड़ बैठा पाल पर,छीन विटप के पात।
दिखलाता मधुमास ही,पतझड़ को औकात॥

पुष्प प्रभाती गा रहे, भ्रमर करे मनुहार।
आया देख बसंत अब, बाँट रहे सब प्यार॥

पर्वत,सरिता अरु धरा,करते रोज गुहार।
रौंदो मत अब तो हमें, होता दर्द अपार॥

जब-जब मेघ उँड़ेलते,घट भर-भर मृदु-रंग।
केशर-क्यारी -सा खिले,वसुधा का हर-अंग॥

आँख दिखाने जब लगी,सकल जगत को शीत।
भास्कर जी भी सो गए , ओढ़ रजाई मीत॥

बंजर धरती कर रही,हमसे यही सवाल।
बोलो मेरा क्यों किया, विधवा जैसा हाल॥

वृक्षों से जीवन मिले,मिलती शितल -छाँव।
धन-दौलत की भूख पर,इन्हें लगा मत दाँव॥

धरती मेघों से करे, गुपचुप-गुपचुप बात।
पलभर में होने लगी, नेह भरी बरसात॥

नयन मिलाकर फाग से, महक रहा कचनार।
खुशियों के टेसू खिले, आई मस्त-बहार॥

छ्लकाता है माघ जब,घट भर-भर कर प्यार।
खिल उठती है फुनगियाँ, छू कर प्रेम-तुषार॥

देख कुहासा व्योम में,सूरज दादा आज।
ओढ़ रजाई सो गए,रख सिरहाने ताज॥

पंख पसारे शीत ने,पकड़ माघ का हाथ।
तब से मंजर मौत का,देख रहा फुटपाथ॥

सागर सरि की चाह में,लेता तट को चूम।
असमय लहरों में तभी,मच जाती है धूम॥

प्राणवायु देते हमें,विटप धरा की शान।
मनुज चलाता आरियाँ,यह कैसा प्रतिदान॥

-शकुंतला अग्रवाल 'शकुन' 
 भीलवाड़ा राजस्थान
 ई-मेल : shakuntalaagrwal3@gmail.com


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सुभाष चन्द्र बोस का हिंदी प्रेम  - भारत-दर्शन संकलन

सुभाषबाबू हिन्दी पढ़ लिख सकते थे, बोल सकते थे, पर वह इसमें बराबर हिचकते और कमी महसूस करते थे। वह चाहते थे कि हिन्दी में वह हिन्दी भाषी लोगों की तरह ही सब काम कर सकें। एक दिन उन्होंने अपने उदगार प्रकट करते हुए कहा, "यदि देश में जनता के साथ राजनीति करनी है, तो उसका माध्यम हिन्दी ही हो सकती है। बंगाल के बाहर मैं जनता में जाऊं तो किस भाषा में बोलूं। इसलिए काँग्रेस का सभापति बनकर मैं हिन्दी खूब अच्छी तरह न जानू तो काम नहीं चलेगा। मुझे एक मास्टर दीजिए, जो मेरे साथ रहे और मेरा हिन्दी का सारा काम कर दे। इसके साथ ही जब मैं चाहूं और मुझे समय मिले तब मैं उससे हिन्दी सीखता रहूँ।"

श्री जगदीशनारायण तिवारी को, जो मूक काँग्रेस कर्मी थे और हिन्दी के अच्छे शिक्षक थे, सुभाषबाबू के साथ रखा गया। हरिपुरा काँग्रेस में तथा सभापति के दौरे के समय वह बराबर सुभाषबाबू के साथ रहे। सुभाषबाबू ने बड़ी लगन से हिन्दी सीखी और वह सचमुच बहुत अच्छी हिन्दी लिखने, पढ़ने और बोलने लगे।

'आजाद हिंद फौज' का काम और सुभाषबाबू के वक्तव्य प्राय: हिन्दी में होते थे। सुभाषबाबू भविष्यद्रष्टा थे, जानते थे कि जिस देश की अपनी राष्ट्रभाषा नहीं होती, वह खड़ा नहीं रह सकता।


साभार - बड़ों की बड़ी बातें, सस्ता साहित्य मंडल प्रकाशन

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माँ कह एक कहानी - मैथिलीशरण गुप्त

"माँ कह एक कहानी।"
बेटा समझ लिया क्या तूने मुझको अपनी नानी?"......

 
 
वह अनोखा भाई  - भारत-दर्शन संकलन

हिंदी कवयित्री, 'महादेवी वर्मा' व 'निराला' का भाई-बहन का स्नेह भी सर्वविदित है। निराला महादेवी के मुँहबोले भाई थे व रक्षाबंधन कभी न भूलते थे।


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कृष्ण-पूतना की कथा | होली पौराणिक कथाएं  - संकलन-भारत-दर्शन

एक आकाशवाणी हुई कि कंस को मारने वाला गोकुल में जन्म ले चुका है। अत: कंस ने इस दिन गोकुल में जन्म लेने वाले हर शिशु की हत्या कर देने का आदेश दे दिया। इसी आकाशवाणी से भयभीत कंस ने अपने भांजे कृष्ण को भी मारने की योजना बनाई और इसके लिए पूतना नामक राक्षसी का सहारा लिया।

पूतना मनचाहा रूप धारण कर सकती थी। उसने सुंदर रूप धारण कर अनेक शिशुओं को अपना विषाक्त स्तनपान करा मौत के घाट उतार दिया। फिर वह बाल कृष्ण के पास जा पहुंची किंतु कृष्ण उसकी सच्चाई को जानते थे और उन्होंने पूतना का वध कर दिया।

यह फाल्गुन पूर्णिमा का दिन था अतः पूतनावध के उपलक्ष में होली मनाई जाने लगी।

संकलन-भारत-दर्शन

 


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भजन - रोहित कुमार 'हैप्पी'

पथ से भटक गया था राम
नादानी में हुआ ये काम

छोड़ गए सब संगी साथी......

 
 
अर्जुन का संदेह - सुब्रह्मण्य भारती

हस्तिनापुर मैं गुरु द्रोणाचार्य के पास पांडुपुत्र और दुर्योधन आदि विद्या अध्ययन कर रहे थे, तब की बात है। एक दिन संध्याकालीन बेला में वे लोग शुद्ध वायु का सेवन कर रहे थे तभी अर्जुन ने कर्ण से प्रश्न किया, "हे कर्ण! बताओ, युद्ध श्रैष्ठ है या शांति?"
(यह महाभारत की एक उपकथा है। प्रामाणिक है। कपोल-कल्पित नहीं।)

कर्ण ने कहा, ''शाति ही श्रेष्ठ है।"

अर्जुन ने पूछा, "ऐसा क्यों? क्या कारण है? ''

कर्ण बताने लगा, "हे अर्जुन! युद्ध हो तो मैं तुमसे लडूंगा। तुम्हें कष्ट होगा। मैं तो दयालु हूँ । तुम्हारा कष्ट मुझसे सहा न जाएगा। दोनों को दुखी होना पड़ेगा। इसलिए शांति ही श्रेष्ठ है।''

"हे कर्ण! मैंने यह प्रश्न अपने दोनों के संदर्भ में नहीं पूछा। सामान्य रूप से पूछा था कि युद्ध अच्छा है या शांति?" अर्जुन ने कहा ।

''सार्वजनिक बातों में मुझे कोई रुचि नहीं," कर्ण ने कहा।

अर्जुन ने मन ही मन निश्चय कर लिया कि इस व्यक्ति को मार डालना है। अर्जुन ने गुरु द्रौणाचार्य से इसी प्रश्न को दुहराया ।

द्रोणाचार्य बोले, "युद्ध ही अच्छा है।"

पार्थ ने पूछा, "कैसे?"

द्रोणाचार्य ने कहा, "हे विजया! युद्ध में धन की प्राप्ति होगी, कीर्ति मिलेगी । नहीं तो वीरगति मिलेगी। शांति में तो यह सब कुछ अनिश्चित है।"

बाद में अर्जुन भीष्म पितामह से मिला । उनसे पूछा, "पितामह! युद्ध अच्छा है या शांति?"

इस पर गंगापुत्र ने बताया, "वत्स अर्जुन! शांति ही श्रेष्ट है । युद्ध से क्षत्रिय कुल की बढ़ाई और शाति से संसार को महत्ता प्राप्त होगी।"

अर्जुन बोना, "आपका कहना न्यायसंगत नहीं लगता ।'' पितामह बोले, "वत्स! पहले कारण बताओ, बाद में अपना निश्चय सुनाओ।"

"पितामह ! शांति में कर्ण श्रेष्ठ और मैं निकृष्ट हूँ । युद्ध हो तो सचाई प्रकट हो जायेगी।"

इस पर पितामह भीष्म ने कहा, "वत्स! धर्म हमेशा उन्नत रहेगा । युद्ध हो या शांति, विजय धर्म की ही होगी । इसलिए मन से क्रोधादि को दूर करके शांति की कामना करो। समस्त मानव तुम्हारे भ्रातृतुल्य हैं । मानव को परस्पर प्रेम से रहना चाहिए । प्रेम ही तारकमंत्र है । त्रिकाल की बात बताता हूँ । प्रेम ही तारक है।'' पितामह के नयनों से दो अश्रु-बिंदु ढुलक पड़े।

कुछ दिनों के उपरांत वेदब्यास मुनि हस्तिनापुर आये। अर्जुन ने उनके पास जाकर अपना प्रश्न दुहराया। मुनि ने कहा, ''दोनों ही अच्छे हैं। समय के अनुरूप इन्हें अपनाना है।"

कई वर्षो के उपरांत वनवास के समय दुर्योधन के पास दूत भेजने के पहले अर्जुन ने कृष्ण से पूछा, "हे कृष्ण! बताआ, युद्ध अच्छा है या शांति?''

कृष्ण ने कहा, "अब तो शांति ही भली लगती है। इसीलिए शांति का दूत बनकर मैं हस्तिनापुर जा रहा हूँ । ''

-- सुब्रह्मण्य भारती [1882 -1921 ]......

 
 
इन्द्र और महारानी शची | भविष्य पुराण  - भारत-दर्शन संकलन

भविष्य पुराण की एक कथा के अनुसार  एक बार देवता और दैत्यों  (दानवों ) में बारह वर्षों तक युद्ध हुआ परन्तु देवता विजयी नहीं हुए। इंद्र हार के भय से दु:खी होकर  देवगुरु बृहस्पति के पास विमर्श हेतु गए। गुरु बृहस्पति के सुझाव पर इंद्र की पत्नी महारानी शची ने श्रावण शुक्ल पूर्णिमा के दिन विधि-विधान से व्रत  करके रक्षासूत्र   तैयार किए और  स्वास्तिवाचन के साथ ब्राह्मण की उपस्थिति में  इंद्राणी ने वह सूत्र  इंद्र की  दाहिनी कलाई में बांधा  जिसके फलस्वरुप इन्द्र सहित समस्त देवताओं की दानवों पर विजय हुई।
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अर्जुन और द्रौपदी | करवा चौथ - भारत-दर्शन संकलन

भगवती पार्वती द्वारा पति की दीर्घायु एवं सुख-संपत्ति की कामना हेतु कोई उत्तम विधि पूछने पर भगवान शिव ने पार्वती से करवा चौथ का व्रत रखने के लिए जो कथा सुनाई, वह इस प्रकार थी -

एक समय की बात हैं। पांडव पुत्र अर्जुन नीलगिरि पर्वत पर गया हुआ था। किन्ही कारणों से वहाँ वह रुक गया। उसके बात पांडवों पर गहन संकट आ गया। द्रौपदी बहुत चिंतामग्न हुई। उसने भगवान कृष्ण का ध्यान किया। भगवान कृष्ण ने उसे दर्शन दिए और बोले- हे द्रौपदी, तुम्हारी चिंता एवं संकट का कारण में जानता हूँ, इसलिए तुम्हें एक उपाय बताता हैं। कार्तिक कृष्ण चतुर्थी आने वाली है, उस दिन तुम करवा चौथ का व्रत करना। शिव, गणेश एवं पार्वती की उपासना करना, सब ठीक हो जाएगा। द्रौपदी ने वैसा ही किया। उसे शीघ्र पति के दर्शन हुए और उसकी चिंता दूर हुई।
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असेम्बली हॉल में फेंका गया पर्चा  - हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातांत्रिक सेना

(8 अप्रैल, सन् 1929 को असेम्बली में बम फैंकने के बाद भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त द्वारा बाँटे गए अँग्रेज़ी परचे का हिंदी अनुवाद)


'हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातांत्रिक सेना'

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गणतंत्र-दिवस 2013 | Republic Day Celebrations 26th January 2013 - भारत-दर्शन संकलन

गणतंत्र-दिवस 2013 का वेबकॉस्ट देखें (Watch Republic Day Celebrations 26th January 2013)


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नाग और चीटियां - विष्णु शर्मा

एक घने जंगल में एक बड़ा-सा नाग रहता था। वह चिड़ियों के अंडे, मेढ़क तथा छिपकलियों जैसे छोटे-छोटे जीव-जंतुओं को खाकर अपना पेट भरता था। रातभर वह अपने भोजन की तलाश में रहता और दिन निकलने पर अपने बिल में जाकर सो रहता। धीरे-धीरे वह मोटा होता गया। वह इतना मोटा हो गया कि बिल के अंदर-बाहर आना-जाना भी दूभर हो गया।

आखिरकार, उसने बिल को छोड़कर एक विशाल पेड़ के नीचे रहने की सोची लेकिन वहीं पेड़ की जड़ में चींटियों की बांबी थी और उनके साथ रहना नाग के लिए असंभव था। सो, वह नाग उन चींटियों की बांबी के निकट जाकर बोला, ‘‘मैं सर्पराज नाग हूँ, इस जंगल का राजा। मैं तुम चींटियों को आदेश देता हूं कि यह जगह छोड़कर चले जाओ।''

वहां और भी जानवर थे, जो उस भयानक सांप को देखकर डर गए और जान बचाने के लिए इधर-उधर भागने लगे लेकिन चींटियों ने नाग की इस धमकी पर कोई ध्यान न दिया।

वे पहले की तरह अपने काम-काज में जुटी रहीं। नाग ने यह देखा तो उसके क्रोध की सीमा न रही।

वह गुस्से में भरकर बांबी के निकट जा पहुँचा। यह देख हजारों चींटियाँ उस बांबी से निकल, नाग से लिपटकर उसे काटने लगीं। उनके डंकों से परेशान नाग बिलबिलाने लगा। उसकी पीड़ा असहनीय हो चली थी और शरीर पर घाव होने लगे। नाग ने चींटियों को हटाने की बहुत कोशिश की लेकिन असफल रहा। कुछ ही देर में उसने वहीं तड़प-तड़प कर जान दे दी।

शिक्षा- बुद्धि से कार्य करने पर शक्तिशाली शत्रु को भी ध्वस्त किया जा सकता है।


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मुझको अपने बीते कल में | ग़ज़ल - रोहित कुमार 'हैप्पी'

मुझको अपने बीते कल में, कोई दिलचस्पी नहीं
मैं जहाँ रहता था अब वो, घर नहीं बस्ती नहीं

सबके माथे पर शिकन, सबपर उदासी छाई है
अब किसी चेहरे पे दिखता, नूर औ’ मस्ती नहीं।

ना कोई अपना बना, हम भी किसी के कब बने  
इस जगह में जैसे अपनी, कुछ भी तो हस्ती नहीं

तुझसा जो भी हो गया, बस  भीड़ में ही खो गया 
शख्सियत ‘रोहित’ हमारी इतनी भी सस्ती  नहीं।

- रोहित कुमार 'हैप्पी'

 


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रावण वध | दशहरा की पौराणिक कथा - भारत-दर्शन संकलन

रामचंद्रजी के बनवास काल के उपरांत लंका नरेश रावण रामचंद्रजी की पत्नी सीता का अपहरण कर लंका ले जाता है। भगवान श्री राम अपनी पत्नी सीता को रावण के बंधन से मुक्त कराने हेतु भाई लक्ष्मण, भक्त हनुमान एवं वानरों की सेना के साथ मिलकर रावण के साथ युद्ध किया।

युद्ध के दौरान श्री रामजी नौ दिनों तक युद्ध की देवी मां दुर्गा की पूजा करते हैं तथा दसवें अर्थात दशमी के दिन रावण का वध करते हैं। अंतत: सीता को बंधन से मुक्त कराते हैं।

 

 


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सेठ सेठानी की कथा - भारत-दर्शन संकलन

अहोई अष्टमी कथा-2

बहुत समय पहले झाँसी के निकट एक नगर में चन्द्रभान नामक साहूकार रहता था। उसकी पत्नी चन्द्रिका बहुत सुंदर, सर्वगुण सम्पन्न, सती साध्वी, शिलवन्त चरित्रवान तथा बुद्धिमान थी। उसके कई पुत्र-पुत्रियां थी परंतु वे सभी बाल अवस्था में ही परलोक सिधार चुके थे। दोनो पति-पत्नी संतान न रह जाने से व्यथित रहते थे। वे दोनों प्रतिदिन मन में सोचते कि हमारे मर जाने के बाद इस अपार धन-संपदा को कौन संभालेगा! एकबार उन दोनों ने निश्चय किया कि वनवास लेकर शेष जीवन प्रभु-भक्ति में व्यतीत करें। इस प्रकार वे दोनों अपना घर-बार त्यागकर वनों की ओर चल दिए। रास्ते में जब थक जाते तो रुक कर थोड़ा विश्राम कर लेते और फिर चल पड़ते। इस प्रकार धीरे-धीरे वे बद्रिका आश्रम के निकट शीतल कुण्ड जा पहुंचे। वहां पहुंचकर दोनों ने निराहार रह कर प्राण त्यागने का निश्चय कर लिया। इस प्रकार निराहार व निर्जल रहते हुए उन्हें सात दिन हो गए तो आकाशवाणी हुई कि तुम दोनों प्राणी अपने प्राण मत त्यागो। यह सब दुख तुम्हें तुम्हारे पूर्व पापों के कारण भोगना पड़ा है। यदि तुम्हारी पत्नी कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष में आने वाली अहोई अष्टमी को अहोई माता का व्रत और पूजन करे तो अहोई देवी प्रसन्न होकर साक्षात दर्शन देगी। तुम उससे दीर्घायु पुत्रों का वरदान मांग लेना। व्रत के दिन तुम राधाकुण्ड में स्नान करना।

चन्द्रिका ने आकाशवाणी के बताए अनुसार विधि-विधान से अहोई अष्टमी को अहोई माता का व्रत और पूजा-अर्चना की और तत्पश्चात राधाकुण्ड में स्नान किया। जब वे स्नान इत्यादि के बाद घर पहुँचे तो उस दम्पत्ति को अहोई माता ने साक्षात दर्शन देकर वर मांगने को कहा। साहूकार दम्पत्ति ने हाथ जोड़कर कहा, "हमारे बच्चे कम आयु में ही प्रलोक सिधार जाते है। आप हमें बच्चों की दीर्घायु का वरदान दें।

"तथास्तु!" कहकर अहोई माता अंतर्ध्यान हो गई।

कुछ समय के बाद साहूकार दम्पत्ति को दीर्घायु पुत्रों की प्राप्ति हुई और वे सुख पूर्वक अपना गृहस्थ जीवन व्यतीत करने लगे।

[भारत-दर्शन]


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लक्ष्मी माता की कथा | धनतेरस की पौराणिक कथा - भारत-दर्शन संकलन

पौराणिक मान्यता है कि माँ लक्ष्मी को विष्णु जी का श्राप था कि उन्हें 13 वर्षों तक किसान के घर में रहना होगा। श्राप के दौरान किसान का घर धनसंपदा से भर गया। श्रापमुक्ति के उपरांत जब विष्णुजी लक्ष्मी को लेने आए तब किसान ने उन्हें रोकना चाहा। लक्ष्मीजी ने कहा कल त्रयोदशी है तुम साफ-सफाई करना, दीप जलाना और मेरा आह्वान करना। किसान ने ऐसा ही किया और लक्ष्मी की कृपा प्राप्त की । तभी से लक्ष्मी पूजन की प्रथा का प्रचलन आरंभ हुआ।


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दीवाली - राजा बलि की कथा - भारत-दर्शन संकलन

पुरातन युग में दैत्यों के राजा बलि ने अपने जीवन में दान देने का वचन लिया था। कोई याचक उससे जो वस्तु माँगता राजा उसे वह वस्तु देता था। उसके राज्य में जीव-हिंसा, मद्यपान, वेश्यागमन, चोरी और विश्वासघात उन पाँच महापातकों का अभाव था।

चहुँओर दया, दान अहिंसा, सत्य और ब्रह्मचर्य का बोलबाला था। आलस्य, मलिनता, रोग और निर्धनता उसके राज्य से कोसों दूर थीं। लोग पारस्परिक स्नेह के साथ रहते थे। द्वेष और असूया को रोकने का भरसक प्रयास किया जाता था। अतः इतने अच्छे राज्य का रक्षण करने के लिए भगवान विष्णु ने भी राजा बलि का द्वारपाल बनना स्वीकार कर लिया था। उन्होंने राजा की धर्मनिष्ठा स्मृति को बनाए रखने के लिए तीन दिन अहोरात्रि महोत्सव का निश्चय किया था। यही महोत्सव आज दीपमालिका के नाम से प्रसिद्ध है।

 


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मेरी कविता - कमला प्रसाद मिश्र

मैं अपनी कविता जब पढ़ता उर में उठने लगती पीड़ा
मेरे सुप्त हृदय को जैसे स्मृतियों ने है सहसा चीरा

उर में उठती एक वेदना......

 
 
श्यामा श्याम सलोनी सूरत को सिंगार बसंती है - घासीराम | Ghasiram

श्यामा श्याम सलोनी सूरत को सिंगार बसंती है।
सिंगार बसंती है ...हो सिंगार बसंती है।

मोर मुकुट की लटक बसंती, चन्द्र कला की चटक बसंती,......

 
 
कबूतर, काग, कछुआ, मृग और चूहे की कहानी - नारायण पंडित

गोदावरी के तीर पर एक बड़ा सैमर का पेड़ है। वहाँ अनेक दिशाओं के देशों से आकर रात में पक्षी बसेरा करते हैं। एक दिन जब थोड़ी रात रह गई ओर भगवान कुमुदिनी के नायक चंद्रमा ने अस्ताचल की चोटी की शरण ली तब लघुपतनक नामक काग जगा और सामने से यमराज के समान एक बहेलिए को आते हुए देखा, उसको देखकर सोचने लगा, कि आज प्रातःकाल ही बुरे का मुख देखा है। मैं नहीं जानता हूँ कि क्या बुराई दिखावेगा।

शोकस्थानसहस्राणि भयस्थानशतानि च।
दिवसे दिवसे मूढमाविशन्ति न पण्डितम।।

सहस्रों शोक की और सैकड़ों भय की बातें मूर्ख पुरुष को दिन पर दिन दुख देती है, और पण्डित को नहीं।

फिर उस व्याध ने चावलों की कनकी को बिखेर कर जाल फैलाया और खदु वहाँ छुप कर बैठ गया। उसी समय में परिवार सहित आकाश में उड़ते हुए चित्रग्रीव नामक कबूतरों के राजा ने चावलों की कनकी को देखा, फिर कपोतराज चावल के लोभी कबूतरों से बोला-- इस निर्जन वन में चावल की कनकी कहाँ से आई ? पहले इसका निश्चय करो। मैं इसको कल्याणकारी नहीं देखता हूँ। अवश्य इन चावलों की कनकी के लोभ से हमारी बुरी गति हो सकती है।

सुजीर्णमन्नं सुविचक्षणः सुतः,......

 
 
आम आदमी - ब्रजभूषण भट्ट

आज
आम आदमी......

 
 
अनुपम भाषा है हिन्दी - श्रीनिवास

अनुपम भाषा है हिन्दी
बढती आशा है हिन्दी !

स्वर की सुविधा है हिन्दी......

 
 
कौआ और लोमड़ी - अज्ञात

एक बार एक कौए को एक रोटी मिली। लोमड़ी ने सोचा क्यों न मैं इस कौए को मूर्ख बनाकर रोटी ले लूँ।

लोमड़ी बोली - कौए भाई तुम इतना अच्छा गाते हो! मुझे भी एक गाना सुनाओ।

कौए ने जैसे ही गाने के लिए मुँह खोला, रोटी नीचे गिर गई।

लोमड़ी रोटी लेकर चली गई।

 


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कर्मवीर मिस्टर गाँधी - पांडेय लोचन प्रसाद शर्मा

शत शत बाधा-विघ्नों से भी वीर-हृदय कब रुकता है।
नीच नरों के सम्मुख आर्य-वीर-मस्तक कब झुकता है॥ ......

 
 
पद - सूरदास

मैया, कबहि बढ़ैगी चोटी?
किती बार मोहि दूध पियत भई, यह अजहूँ है छोटी।......

 
 
नये जमाने की मुकरी  - भारतेन्दु हरिश्चंद्र

सब गुरुजन को बुरो बतावै ।
अपनी खिचड़ी अलग पकावै ।।......

 
 
कुम्भ - समुद्र मंथन की कहानी  - भारत-दर्शन संकलन

कश्यप ऋषि का विवाह दक्ष प्रजापति की पुत्रियों दिति और अदिति के साथ हुआ था। अदिति से देवों की उत्पत्ति हुई तथा दिति से दैत्य पैदा हुए। एक ही पिता की सन्तान होने के कारण दोनों ने एक बार संकल्प लिया कि वे समुद्र में छिपी हुई बहुत-सी विभूतियों एवं संपत्ति को प्राप्तकर उसका उपभोग करें। इस प्रकार समुद्र मंथन एक मात्र उपाय था।

समुद्र मंथनोपरान्त चौदह रत्न प्राप्त हुए जिनमें से एक अमृत कलश भी था। इस अमृतकलश को प्राप्त करने के लिए देवताओं और दैत्यों के बीच युद्ध छिड़ गया, क्योंकि उसे पीकर दोनों अमरत्व की प्राप्ति करना चाह रहे थे। स्थिति बिगड़ते देख देवराज इंद्र ने अपने पुत्र जयंत को संकेत किया और जयंत अमृत कलश लेकर भाग चला। इस पर दैत्यों ने उसका पीछा किया। पीछा करने पर देवताओं और दैत्यों के बीच बारह दिनों तक भयंकर संघर्ष हुआ।

संघर्ष के दौरान अमृत कुम्भ को सुरक्षित रखने में वृहस्पति, सूर्य और चंद्रमा ने बड़ी सहायता की। वृहस्पति ने दैत्यों के हाथों में जाने से कुम्भ को बचाया। सूर्य ने कुम्भ की फूटने से रक्षा की और चंद्रमा ने अमृत छलकने नहीं दिया। फिर भी, संग्राम के दौरान मची उथल-पुथल से अमृत कुम्भ से चार बूंदें छलक ही गईं। ये चार स्थानों पर गिरीं। इनमें से एक गंगा तट हरिद्वार में, दूसरी त्रिवेणी संगम प्रयागराज में, तीसरी क्षिप्रा तट उज्जैन में और चौथी गोदावरी तट नासिक में। इस प्रकार इन चार स्थानों पर अमृत-प्राप्ति की कामना से कुम्भ पर्व मनाया जाने लगा।

[भारत-दर्शन संकलन]


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png ग्राफ़िक परीक्षण और विश्लेषण - रोहित कुमार हैप्पी

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ग्राफ़िक -1

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ग्राफ़िक - 2

Subhash Chandra Bose

 

 

ग्राफ़िक - 3

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दूर खिड़की पास दिल्ली - मोहन राणा

भाग रहा हूँ पर दूरियाँ बढ़ती चली जाती हैं
6900 किलोमीटर दूर ही रह गई......

 
 
बुआजी की आंखें - भागीरथ कानोडिया

प्रद्युम्नसिंह नाम का एक राजा था। उसके पास एक हंस था। राजा उसे मोती चुगाया करता और बहुत लाड़-प्यार से उसका पालन किया करता। वह हंस नित्य प्रति सायंकाल राजा के महल से उड़कर कभी किसी दिशा में और कभी किसी दिशा में थोड़ा चक्कर काट आया करता।
 ......

 
 
लोहड़ी का ऐतिहासिक संदर्भ - रोहित कुमार 'हैप्पी'

किसी समय में सुंदरी एवं मुंदरी नाम की दो अनाथ लड़कियां थीं जिनको उनका चाचा विधिवत शादी न करके एक राजा को भेंट कर देना चाहता था। उसी समय में दुल्ला भट्टी नाम का एक नामी डाकू हुआ है। उसने दोनों लड़कियों, 'सुंदरी एवं मुंदरी' को जालिमों से छुड़ा कर उन की शादियां कीं। इस मुसीबत की घडी में दुल्ला भट्टी ने लड़कियों की मदद की और लडके वालों को मना कर एक जंगल में आग जला कर सुंदरी और मुंदरी का विवाह करवाया। दुल्ले ने खुद ही उन दोनों का कन्यादान किया। कहते हैं दुल्ले ने शगुन के रूप में उनको शक्कर दी थी।

जल्दी-जल्दी में शादी की धूमधाम का इंतजाम भी न हो सका सो दुल्ले ने उन लड़कियों की झोली में एक सेर शक्कर डालकर ही उनको विदा कर दिया। भावार्थ यह है कि डाकू हो कर भी दुल्ला भट्टी ने निर्धन लड़कियों के लिए पिता की भूमिका निभाई।

लोहड़ी - कबीर का संदर्भ
यह भी कहा जाता है कि संत कबीर की पत्नी लोई की याद में यह पर्व मनाया जाता है इसीलिए इसे लोई भी कहा जाता है।

- रोहित कुमार 'हैप्पी'

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प्रेमचंद के पत्र - बनारसीदास चतुर्वेदी

प्रेमचंद की आकांक्षाओं को प्रकट करते दो पत्र:

"मेरी आकांक्षाएं कुछ नहीं है। इस समय तो सबसे बड़ी आकांक्षा यही है कि हम स्वराज्य संग्राम में विजयी हों। धन या यश की लालसा मुझे नहीं रही। खानेभर को मिल ही जाता है। मोटर और बंगले की मुझे अभिलाषा नहीं। हाँ, यह जरूर चाहता हूँ कि दो चार उच्चकोटि की पुस्तकें लिखूं, पर उनका उद्देश्य भी स्वराज्य-विजय ही है। मुझे अपने दोनों लड़कों के विषय में कोई बड़ी लालसा नहीं है। यही चाहता हूं कि वह ईमानदार, सच्चे और पक्के इरादे के हों। विलासी, धनी, खुशामदी सन्तान से मुझे घृणा है। मैं शान्ति से बैठना भी नहीं चाहता। साहित्य और स्वदेश के लिए कुछ-न-कुछ करते रहना चाहता हूँ। हाँ, रोटी-दाल और तोला भर घी और मामूली कपड़े सुलभ होते रहें।"

[प्रेमचन्दजी के 3-6-30 के पत्र से]


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माँ | चंद्रशेखर की कविता  - चंद्रशेखर आज़ाद

माँ हम विदा हो जाते हैं, हम विजय केतु फहराने आज
तेरी बलिवेदी पर चढ़कर माँ निज शीश कटाने आज।

मलिन वेष ये आँसू कैसे, कंपित होता है क्यों गात? ......

 
 
फिर उठा तलवार - रांगेय राघव

एक नंगा वृद्ध
जिसका नाम लेकर मुक्त ......

 
 
डॉ० कलाम का पसंदीदा गीत  - रोहित कुमार 'हैप्पी'

'हम होंगे कामयाब' डॉ० कलाम का पसंदीदा गीत था। वे अक्सर संकट की घड़ियों में गुनगुनाया करते थे:

"होंगे कामयाब'
हम होंगे कामयाब,......

 
 
हिन्दी गान  - महेश श्रीवास्तव

भाषा संस्कृति प्राण देश के
इनके रहते राष्ट्र रहेगा।......

 
 
पानी और पुल - महीप सिंह

गाड़ी ने लाहौर का स्टेशन छोड़ा तो एकबारगी मेरा मन काँप उठा। अब हम लोग उस ओर जा रहे थे जहाँ चौदह साल पहले आग लगी थी। जिसमें लाखों जल गये थे, और लाखों पर जलने के निशान आज तक बने हुए थे। मुझे लगा हमारी गाड़ी किसी गहरी, लम्बी अन्धकारमय गुफा में घुस रही है। और हम अपना सब-कुछ इस अन्धकार को सौंप दे रहे हैं।


हम सब लगभग तीन सौ यात्री थे। स्त्रियों और बच्चों की भी संख्या काफी थी। लाहौर में हमने सभी गुरुद्वारों के दर्शन किये। वहाँ हमें जैसा स्वागत मिला,उससे आगे अब पंजासाहिब की यात्रा में किसी प्रकार का अनिष्ट घट सकता है, ऐसी सम्भावना तो नहीं थी, परन्तु मनुष्य के अन्दर का पशु कब जागकर सभी सम्भावनाओं को डकार जाएगा, कौन जानता है?

......

 
 
सुनो बात ॠषि की  - भारतेन्द्र नाथ

दयानन्द आनन्द दाता, ॠषि था,
सुधा-सार सबको पिलाता ॠषि था ।......

 
 
गीत और गीतिका  - सुनीता काम्बोज

गीत


यही बेरंग जीवन में हमेशा रंग भरती हैं......

 
 
मृत्युंजय - डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

आतंकवादियों से लड़ते समय शहीद हुए सैनिक के शव का जैसे ही गाँव के पास पहुँचने का सन्देश मिला, तो पूरे परिवार के सब्र का बाँध टूट गया। उसकी माँ और पत्नी कर क्रंदन हृदय विदारक था।

जब से उसकी शहादत का पता चला था, उसी समय से उसकी पत्नी उसकी तस्वीर को लेकर केवल रो ही रही थी। अपनी उस तस्वीर पर शहीद सैनिक ने अपने ही हाथ से लिखा था - 'मैं' ।

उस विलाप में एक दूसरी महिला बिलखती हुई बोली, "इतनी सी उम्र में देश पर कुरबान हो गया, अभी तो ज़िन्दगी देखी ही कितनी थी..."

एक अन्य महिला ने उसकी पत्नी को देखते हुए कहा, "कोई बेटा भी नहीं है, किस आसरे से जियेगी ये?"

उसी समय उस शहीद सैनिक की बेटी वहां आई, और अपनी माँ का चेहरा अपने दोनों में हाथों में ले लिया। आंसूओं से भरी थकी हुई आँखों से माँ ने अपनी बेटी को देखा तो आँखें नहीं हटा पायी।

उसकी बेटी एक सैनिक की वेशभूषा में थी, ठीक उसी तरह जिस तरह शहीद सैनिक रहता था। उसकी बेटी ने रूंधे गले से कहा, "माँ, पापा देश के लिए शहीद हुए हैं... मुझे गर्व है उन पर... लेकिन जिन लोगों ने उनको... पापा जैसी बनकर मैं उनसे बदला लूंगी..."

कहते-कहते बेटी की आँखें लाल होने लगीं थी। उसने माँ के हाथ में रखी तस्वीर को एक सैनिक की तरह जोश के साथ सैल्यूट किया, वहीं पास रखी सिन्दूर की डिबिया उठाई, उसमें से सिन्दूर निकाल कर अपनी अंगुली पर लिया, और तस्वीर में लिखे ‘मैं' के आगे लिख दिया - ‘हूँ'।

डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
सहायक आचार्य (कंप्यूटर विज्ञान)......

 
 
अकबरी लोटा - अन्नपूर्णानंद वर्मा

लाला झाऊलाल को खाने-पीने की कमी नहीं थी। काशी के ठठेरी बाजार में मकान था। नीचे की दुकानों से 100 रुपया मासिक के करीब किराया उतर आता था। कच्‍चे-बच्‍चे अभी थे नहीं, सिर्फ दो प्राणी का खर्च था। अच्‍छा खाते थे, अच्‍छा पहनते थे। पर ढाई सौ रुपए तो एक साथ कभी आंख सेंकने के लिए भी न मिलते थे।

इसलिए जब उनकी पत्‍नी ने एक दिन यकायक ढाई सौ रुपए की मांग पेश की तब उनका जी एक बार जोर से सनसनाया और फिर बैठ गया। जान पड़ा कि कोई बुल्‍ला है जो बिलाने जा रहा है। उनकी यह दशा देखकर उनकी पत्‍नी ने कहा, 'डरिए मत, आप देने में असमर्थ हों तो मैं अपने भाई से मांग लूं।'

लाला झाऊलाल इस मीठी मार से तिलमिला उठे। उन्‍होंने किंचित रोष के साथ कहा, 'अजी हटो! ढाई सौ रुपए के लिए भाई से भीख मांगोगी? मुझसे ले लेना।'

'लेकिन मुझे इसी जिंदगी में चाहिए।'

'अजी इसी सप्‍ताह में ले लेना।'

'सप्‍ताह से आपका तात्‍पर्य सात दिन से है या सात वर्ष से?'

लाल झाऊलाल ने रोब के साथ खड़े होते हुए कहा, 'आज से सातवें दिन मुझसे ढाई सौ रुपए ले लेना।'

'मर्द की एक बात!'

'हां, जी हां! मर्द की एक बात!'

लेकिन जब चार दिन ज्यों-त्‍यों में यों ही बीत गए और रुपयों का कोई प्रबंध न हो सका तब उन्‍हें चिंता होने लगी। प्रश्‍न अपनी प्रतिष्‍ठा का था, अपने ही घर में अपनी साख का था। देने का पक्‍का वादा करके अब अगर न दे सके तो अपने मन में वह क्‍या सोचेगी? उसकी नजरों में उनका क्‍या मूल्‍य रह जाएगा? अपनी वाहवाही की सैकड़ों गाथाएं उसे सुना चुके थे। अब जो एक काम पड़ा तो चारों खाने चित हो रहे? यह पहली ही बार उसने मुंह खोलकर कुछ रुपयों का सवाल किया था। इस समय अगर वे दुम दबाकर निकल भागते हैं तो फिर उसे क्‍या मुंह दिखाएंगे? मर्द की एक बात- यह उसका फिकरा उनके कानों में गूंज-गूंजकर फिर गूंज उठता था।

खैर, एक दिन और बीता। पाचवें दिन घबराकर उन्‍होंने पं. बिलवासी मिश्र को अपनी विपदा सुनाई। संयोग कुछ ऐसा बिगड़ा था कि बिलवासी जी भी उस समय बिलकुल खुक्‍ख थे। उन्‍होंने कहा कि मेरे पास हैं तो नहीं पर मैं कहीं से मांग-जांचकर लाने की कोशिश करूंगा, और अगर मिल गया तो कल शाम को तुमसे मकान पर मिलूंगा।

यह शाम आज थी। हफ्ते का अंतिम दिन। कल ढाई सौ रुपया या तो गिन देना है या सारी हेकड़ी से हाथ धोना है। यह सच है कि कल रुपया न पाने पर उनकी स्‍त्री डामल-फांसी न कर देगी - केवल जरा-सा हंस देगी। पर वह कैसी हंसी होगी! इस हंसी की कल्‍पना मात्र से लाला झाऊलाल की अंतरात्‍मा में मरोड़ पैदा हो जाता था।

अभी पं. बिलवासी मिश्र भी नहीं आए। आज ही शाम को उनके आने की बात थी। उन्‍हीं का भरोसा था। यदि न आए तो? या कहीं रुपए का प्रबंध वे न कर सके तो?

इसी उधेड़-बुन में पड़े हुए लाल झाऊलाल धुर छत पर टहल रहे थे। कुछ प्‍यास मालूम पड़ी। उन्‍होंने नौकर को आवाज दी। नौकर नहीं था। खुद उनकी पत्‍नी पानी लेकर आई। आप जानते ही हैं कि हिंदू समाज में स्त्रियों की कैसी शोचनीय अवस्‍था है! पति नालायक को प्‍यास लगती है तो स्‍त्री बेचारी को पानी लेकर हाजिर होना पड़ता है।

वे पानी तो जरूर लाईं पर गिलास लाना भूल गई थीं। केवल लोटे में पानी लिए हुए वे प्रकट हुईं। फिर लोटा भी संयोग से वह जो अपनी बेढंगी सूरत के कारण लाला झाऊलाल को सदा नापसंद था। था तो नया, साल ही दो साल का बना, पर कुछ ऐसी गढ़न उस लोटे की थी कि जैसे उसका बाप डमरू और मां चिलमची रही हो।

लाला झाऊलाल ने लोटा ले लिया, वे कुछ बोले नहीं, अपनी पत्‍नी का वे अदब मानते थे। मानना ही चाहिए। इसी को सभ्‍यता कहते हैं। जो पति अपनी पत्‍नी की पत्‍नी नहीं हुआ वह पति कैसा! फिर उन्‍होंने यह भी सोचा होगा कि लोटे में पानी हो तो तब भी गनीमत है - अभी अगर चूं कर देता हूं तो बालटी में जब भोजन मिलेगा तब क्‍या करना बाकी रह जाएगा।

लाला झाऊलाल अपना गुस्‍सा पीकर पानी पीने लगे। उस समय वे छत की मुंडेर के पास खड़े थे। जिन बुजुर्गों ने पानी पीने के संबंध में यह नियम बनाए थे कि खड़े-खड़े पानी न पियो, उन्‍होंने पता नहीं कभी यह भी नियम बनाया था या नहीं कि छत की मुंडेर के पास खड़े होकर पानी न पियो। जान पड़ता है इस महत्‍वपूर्ण विषय पर उन लोगों ने कुछ नहीं कहा है।

इसलिए लाला झाऊलाल ने कोई बुराई नहीं की और वे छत की मुंडेर के पास खड़े होकर पानी पीने लगे। पर मुश्किल से दो-एक घूंट वे पी पाए होंगे कि न जाने कैसे उनका हाथ हिल उठा और लोटा हाथ से छूट पड़ा।

लोटे ने न दाहिने देखा न बाएं, वह नीचे गली की ओर चल पड़ा। अपने वेग में उल्‍का को लजाता हुआ वह आंखों से ओझल हो गया। किसी जमाने में न्‍यूटन नाम के किसी खुराफाती ने पृथ्‍वी की आकर्षण शक्ति नाम की एक चीज ईजाद की थी। कहना न होगा कि यह सारी शक्ति इस लोटे के पक्ष में थी।

लाला झाऊलाल को काटो तो बदन में खून नहीं। ठठेरी बाजार ऐसी चलती हुई गली में, ऊंचे तिमंजिले से, भरे हुए लोटे का गिरना हंसी खेल नहीं है। यह लोटा न जाने किस अधिकारी के खोपड़े पर काशी-वास का संदेश लेकर पहुंचेगा। कुछ हुआ भी ऐसा ही। गली में जोर का हल्‍ला उठा। लाला झाऊलाल जब तक दौड़कर नीचे उतरे तब तक भारी भीड़ उनके आंगन में घुस आई।

लाला झाऊलाल ने देखा कि इस भीड़ में प्रधान पात्र एक अंग्रेज है जो नखशिख से भीगा हुआ है और जो अपने एक पैर को हाथ से सहलाता हुआ दूसरे पर नाच रहा है। उसी के पास उस अपराधी लोटे को देखकर लाला झाऊलाल जी ने फौरन दो और दो जोड़कर स्थिति को समझ लिया। पूरा विवरण तो उन्‍हें पीछे प्राप्‍त हुआ।

हुआ यह कि गली में गिरने से पूर्व लोटा एक दुकान के सायबान से टकरा गया। वहां टकराकर उस दुकान पर खड़े उस अंग्रेज को उसने सांगोपांग स्‍नान कराया और फिर उसी के बूट पर जा गिरा।

उस अंग्रेज को जब मालूम हुआ कि लाला झाऊलाल ही उस लोटे के मालिक हैं तब उसने केवल एक काम किया। अपने मुंह को उसने खोलकर खुला छोड़ दिया। लाला झाऊलाल को आज ही यह मालूम हुआ कि अंग्रेजी भाषा में गालियों का ऐसा प्रकांड कोश है।

इसी समय पं. बिलवासी मिश्र भीड़ को चीरते हुए आंगन में आते दिखाई पड़े। उन्‍होंने आते ही पहला काम यह किया कि एक कुर्सी आंगन में रखकर उन्‍होंने साहब से कहा, 'आपके पैर में शायद कुछ चोट आ गई है। आप आराम से कुर्सी पर बैठ जाइए।' दूसरा एक जरूरी काम य‍ह किया कि जितने आदमी आंगन में घुस आए थे सबको निकाल बाहर किया।

साहब बिलवासी जी को धन्‍यवाद देते हुए बैठे और लाला झाऊलाल की ओर इशारा करके बोले, 'आप इस शख्‍स को जानते हैं?'

'बिल्‍कुल नहीं और मैं ऐसे आदमी को जानना भी नहीं चाहता जो निरीह राह-चलतों पर लोटे से वार करे।'

'मेरी समझ में He is dangerous lunatic।'

(यानी, यह एक खतरनाक पागल है)

'नहीं, मेरी समझ में He is a dangerous criminal।'

(नहीं, यह एक खतरनाक मुजरिम है।)

परमात्‍मा ने लाला झाऊलाल की आंखों को इस समय कहीं देखने के साथ खाने की भी शक्ति दी होती तो यह निश्‍चय है कि अब तक बिलवासी जी को वे अपनी आंखों से खा चुके होते। वे कुछ समझ नहीं पाते थे कि बिलवासी जी को इस समय हो क्‍या गया है।

साहब ने बिलवासी जी से पूछा, 'तो अब क्‍या करना चाहिए?'

'पुलिस में इस मामले की रिपोर्ट कर दीजिए, जिससे यह आदमी फौरन हिरासत में ले लिया जाए।'

'पुलिस स्‍टेशन है कहां?'

'पास ही है, चलिए मैं बता दूं।'

'चलिए।'

'अभी चला। आपकी इजाजत हो तो पहले मैं इस लोटे को इस आदमी से खरीद लूं। क्‍यों जी! बेचोगे? मैं पचास रुपए तक इसका दाम दे सकता हूं।'

लाला झाऊलाल तो चुप रहे पर साहब ने पूछा, 'इस रद्दी से लोटे का आप पचास रुपए दाम क्‍यों दे रहे हैं?'

'आप इस लोटे को रद्दी-सा बताते हैं? आश्‍चर्य है! मैं तो आपको एक विज्ञ और सुशिक्षित आदमी समझता था।'

'आखिर बात क्‍या है, कुछ बताइए भी?'

'यह जनाब! एक ऐतिहासिक लोटा जान पड़ता है। मुझे पूरा विश्‍वास है कि यह वह प्रसिद्ध अकबरी लोटा है, जिसकी तलाश में संसार भर के म्‍यूजियम परेशान हैं।'

'यह बात?'

'जी हां जनाब! सोलहवीं शताब्‍दी की बात है। बादशाह हुमायूं शेरशाह से हारकर भागा था और सिंध के रेगिस्‍तान में मारा-मारा फिर रहा था। एक अवसर पर प्‍यास से उसकी जान निकल रही थी। उस समय एक ब्राह्मण ने इसी लोटे से पानी पिलाकर उसकी जान बचाई थी। हुमायूं के बाद जब अकबर दिल्‍लीश्‍वर हुआ तब उसने उस ब्राह्मण का पता लगाकर उससे इस लोटे को ले लिया और इसके बदले में उसे इसी प्रकार के दस सोने के लोटे प्रदान किए। यह लोटा सम्राट अकबर को बहुत प्‍यारा था। इसी से इसका नाम अकबरी लोटा पड़ा, वह बराबर इसी से वजू करता था। सन 57 तक इसके शाही घराने में ही रहने का पता है पर इसके बाद लापता हो गया। कलकत्ते के म्‍यूजियम में इसका प्‍लास्‍टर का मॉडेल रखा हुआ है। पता नहीं यह लोटा इस आदमी के पास कैसे आया। म्‍यूजियम वालों को पता चले तो फैंसी दाम देकर खरीद ले जाएं।'

इस विवरण को सुनते-सुनते साहब की आंखों पर लोभ और आश्‍चर्य का ऐसा प्रभाव पड़ा कि वे कौड़ी के आकार से बढ़कर पकौड़ी के आकार के हो गए। उसने बिलवासी जी से पूछा, 'तो आप इस लोटे को लेकर क्‍या करिएगा?'

'मुझे पुरानी और ऐतिहासिक चीजों का संग्रह करने का शौक है।'

'मुझे भी पुरानी और ऐतिहासिक चीजों का संग्रह करने का शौक है। जिस समय यह लोटा मेरे ऊपर गिरा उस समय मैं यही कर रहा था। उस दुकान पर से पीतल की कुछ पुरानी मूर्तियां खरीद रहा था।'

'जो कुछ हो लोटा तो मैं ही खरीदूंगा।'

'वाह, आप कैसे खरीदेंगे? मैं खरीदूंगा। मेरा हक है।'

'हक है?'

'जरूर हक है। यह बताइए कि उस लोटे के पानी से आपने स्‍नान किया या मैंने?'

'आपने।'

'वह आपके पैर पर गिरा या मेरे?'

'आपके।'

'अंगूठा उसने आपका भुरता किया या मेरा?'

'आपका।'

'इसलिए उसे खरीदने का हक मेरा है।'

'यह सब झोल है। दाम लगाइए, जो अधिक दाम दे वह ले जाए।'

'यही सही। आप उसका पचास रुपया दे रहे थे, मैं सौ देता हूं।'

'मैं डेढ़ सौ देता हूं।'

'मैं दो सौ देता हूं।'

'अजी मैं ढाई सौ देता हूं।' यह कहकर बिलवासी जी ने ढाई सौ के नोट लाला झाऊलाल के आगे फेंक दिए।

साहब को भी अब ताव आ गया। उसने कहा, 'आप ढाई सौ देते हैं तो मैं पांच सौ देता हूं। अब चलिए?'

बिलवासी जी अफसोस के साथ अपने रुपए उठाने लगे, मानो अपनी आशाओं की लाश उठा रहे हों। साहब की ओर देखकर उन्‍होंने कहा, 'लोटा आपका हुआ, ले जाइए! मेरे पास ढाई सौ से अधिक हैं नहीं।'

यह सुनना था कि साहब के चेहरे पर प्रसन्‍नता की कूंची फिर गई। उसने झपटकर लोटा उठा लिया और बोला, 'अब मैं हंसता हुआ अपने देश लौटूंगा। मेजर डगलस की डींग सुनते-सुनते मेरे कान पक गए थे।'

'मेजर डगलस कौन हैं?'

'मेजर डगलस मेरे पड़ोसी हैं। पुरानी चीजों का संग्रह करने में मेरी उनकी होड़ रहती है। गत वर्ष वे हिंदुस्‍तान आए थे और यहां से जहांगी‍री अंडा ले गए थे।'

'जहांगीरी अंडा?'

'जी हां जहांगीरी अंडा। मेजर डगलस ने समझ रखा था कि हिंदुस्‍तान से वे ही ऐसी चीजें ले जा सकते हैं।'

'पर जहांगीरी अंडा है क्‍या?'

'आप जानते होंगे कि एक कबूतर ने नूरजहां से जहांगीर का प्रेम कराया था। जहांगीर के पूछने पर कि मेरा एक कबूतर तुमने कैसे उड़ जाने दिया, नूरजहां ने उसके दूसरे कबूतर को भी उड़ाकर बताया था कि ऐसे। उसके इस भोलेपन पर जहांगीर सौ जान से निछावर हो गया; उसी क्षण से उसने अपने को नूरजहां के हाथ बेच दिया। पर कबूतर का एहसान वह नहीं भूला। उसके एक अंडे को उसने बड़े जतन से रख छोड़ा। एक बिल्‍लौर की हांड़ी में वह उसके सामने टंगा रहता था। बाद में वही अंडा जहांगीरी अंडा के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उसी को मेजर डगलस ने परसाल दिल्‍ली में एक मुसलमान सज्‍जन से तीन सौ रुपए में खरीदा।'

'यह बात?'

'हां, पर अब वे मेरे आगे दूर की नहीं ले जा सकते। मेरा अकबरी लोटा उनके जहांगीरी अंडे से भी एक पुश्‍त पुराना है।'

साहब ने लाला झाऊलाल को पांच सौ रुपए देकर अपनी राह ली। लाला झाऊलाल का चेहरा इस समय देखते बनता था। जान पड़ता था कि मुंह पर छ: दिन की बढ़ी हुई दाढ़ी के एक-एक बाल मारे प्रसन्‍नता के लहरा रहे हैं। उन्‍होंने पूछा, बिलवासी जी! आप मेरे लिए ढाई सौ रुपया घर से लेकर चले थे? पर आपको मिला कहां से? आप के पास तो थे नहीं।'

'इस भेद को मेरे सिवा ईश्‍वर ही जानता है। आप उसी से पूछ लीजिए। मैं नहीं बताऊंगा।'

'पर आप चले कहां? अभी मुझे आपसे काम है, दो घंटे तक।'

'दो घंटे तक?'

'हां और क्‍या! अभी मैं आपकी पीठ ठोंककर शाबाशी दूंगा; एक घंटा इसमें लगेगा। फिर गले लगाकर धन्‍यवाद दूंगा, एक घंटा इसमें भी लग जाएगा।'

'अच्‍छा पहले अपने पांच सौ रुपए गिनकर सहेज लीजिए।'

रुपया अगर अपना हो तो उसे सहेजना एक ऐसा सुखद और सम्‍मोहक कार्य है कि मनुष्‍य उस समय सहज में ही तन्‍मयता प्राप्‍त कर लेता है। लाला झाऊलाल ने अपना कार्य समाप्‍त करके ऊपर देखा। पर बिलवासी जी इस बीच अंतर्धान हो गए थे।

वे लंबे डग भरते हुए गली में चले जा रहे थे।

उस दिन रात्रि में बिलवासी जी को देर तक नींद नहीं आई। वे चादर लपेटे चारपाई पर पड़े रहे। एक बजे वे उठे। धीरे-से, बहुत धीरे-से, अपनी सोई हुई पत्‍नी के गले से उन्‍होंने सोने की वह सिकड़ी निकाली जिसमें एक ताली बंधी हुई थी। फिर उसके कमरे में जाकर उन्‍होंने उस ताली से संदूक खोला। उसमें ढाई सौ के नोट ज्‍यों-के-ज्‍यों रखकर उन्‍होंने उसे बंद कर दिया। फिर दबे पांव लौटकर ताली को उन्‍होंने पूर्ववत अपनी पत्‍नी के गले में डाल दिया। इसके बाद उन्‍होंने हंसकर अंगड़ाई ली, अंगड़ाई लेकर लेट रहे । दूसरे दिन सुबह आठ बजे तक सोते रहे।


......
 
 
स्वर्ग की खोज | तेनालीराम  - भारत-दर्शन

महाराज कृष्णदेव राय के सबसे प्रिय थे तेनालीराम, वे उनकी बुद्धिमता से प्रभावित थे। इसी कारण दरबार के कुछ लोग तेनालीराम से ईर्ष्या भी करते थे। महाराज कृष्णदेव राय यह विश्वास करते थे कि संसार-ब्रह्मांड की सबसे उत्तम और मनमोहक जगह स्वर्ग है। एक बार अचानक महाराज को स्वर्ग देखने की इच्छा हुई, उन्होंने दरबार में उपस्थित मंत्रियों से पूछा, “बताइए स्वर्ग कहां है?”

सभी मंत्रीगण सोच में पड़ जाते हैं, यह देखते हुए तेनालीराम महाराज को स्वर्ग का पता बताने का वचन देते हैं और इस काम के लिए दस हजार सोने के सिक्के और दो माह का समय मांगते हैं।

महाराज कृष्णदेव राय तेनालीराम को सोने के सिक्के और दो महीने का समय दे देते हैं और शर्त रखते हैं कि यदि तेनालीराम ऐसा न कर सके तो उन्हें कठोर दंड दिया जाएगा। अन्य दरबारी इस बात से मन ही मन बहुत खुश होते हैं कि तेनालीराम स्वर्ग नहीं खोज पाएगा और सज़ा भुगतेगा।

दो महीने बीतने पर, महाराज कृष्णदेव राय तेनालीराम को दरबार में बुलवाते हैं और स्वर्ग के बारे में पूछते हैं। तेनालीराम कहते हैं कि उन्होंने स्वर्ग ढूंढ लिया है और वे कल सुबह स्वर्ग देखने के लिए प्रस्थान करेंगे।

अगले दिन तेनालीराम, महाराज और उनके खास मंत्रीगणों को एक सुंदर स्थान पर ले जाते हैं, वहां खूब हरियाली, ख़ूबसूरत फूल, चहचहाते पक्षी और वातावरण को शुद्ध करने वाले पेड़ पौधे होते हैं। वहां का सौंदर्य देख महाराज बहुत खुश होते हैं, पर उनके अन्य मंत्री गणस्वर्ग देखने की बात महाराज कृष्णदेव राय को याद दिलाते हैं।

महाराज कृष्णदेव राय भी तेनालीराम से कहते हैं कि भले ही ये जगह बेहद सुन्दर है, लेकिन बात तो स्वर्ग को खोजने की हुई थी। तेनालीराम कहते हैं कि जब हमारी पृथ्वी पर अलौकिक सौन्दर्य, फल, फूल, पेड़, पौधे, पशु, पक्षी है, फिर स्वर्ग भी यहीं है, कहीं और स्वर्ग की कामना क्यों? जबकि स्वर्ग जैसी कोई जगह है भी, इसका कोई प्रमाण नहीं है।

महाराज कृष्णदेव राय को चतुर तेनालीराम की बात समझ आ जाती है और वो उनकी खूब तारीफ़ भी करते हैं लेकिन कई मंत्री ईर्ष्या के मारे महाराज को दस हज़ार सोने के सिक्कों की याद दिलाते हैं। तब महाराज तेनालीराम से पूछते हैं कि उन्होंने उन सिक्को का क्या किया?

तेनालीराम कहते हैं कि आपने जो दस हजार सोने के सिक्के दिये थे, उनसे मैंने इस जगह से उत्तम पौधे और उच्च कोटी के बीज खरीदे हैं, जिनको हम अपने राज्य विजयनगर की जमीन में बोयेंगे, ताकि हमारा राज्य भी इस सुंदर स्थान की तरह आकर्षक और उपजाऊ बन जाए।

महाराज इस बात से और भी प्रसन्न हो जाते हैं और तेनालीराम को ढेरों इनाम देते हैं। अब तो ईर्ष्या करने वाले मंत्री मुँह लटकाए रह जाते हैं।

[भारत-दर्शन संकलन]


......
 
 
शर्त - एन्तॉन चेखव

शरद की उस गहन अंधेरी रात में एक वृद्ध साहूकार महाजन अपने अध्ययनकक्ष में चहलकदमी कर रहा था। उसे याद आ रही थी 15 वर्ष पहले की शरद पूर्णिमा की वह रात जब उसने एक दावत दी थी। उस पार्टी में कई विद्वान व्यक्ति आए हुए थे और बड़ी रोचक बातचीत चल रही थी। अन्य विषयों के बीच बात मृत्यु-दंड पर आ गई। मेहमानों में कई विद्वान व्यक्ति तथा पत्रकार भी थे जो मृत्युदंड के विरोध में थे और मानते थे कि यह प्रथा समाप्त हो जानी चाहिये क्योंकि वह सभ्य समाज के लिये अशोभनीय तथा अनैतिक है। उनमें कुछ लोगों का कहना था कि मृत्युदंड के स्थान पर आजीवन कारावास की सजा पर्याप्त होनी चाहिये।

गृहस्वामी ने कहा ''मैं इस से असहमत हूं। वैसे न तो मुझे मृत्युदंड का ही अनुभव है और न ही मैं आजीवन कैद के बारे में ही कुछ जानता हूं। पर मेरे विचार में मृत्युदंड आजीवन कारावास से अधिक नैतिक तथा मानवीय है। फंसी से तो अभियुक्त की तत्काल मृत्यु हो जाती है पर आजन्म कारावास तो धीरे धीरे मृत्यु तक ले जाता है। अब बतलाइये किसको अधिक दयालू और मानवीय कहा जायेगा?जो कुछ ही पलों में ही जीवन समाप्त कर दे या धीरे धीरे तरसा तरसा कर मारे ?''

एक अतिथि बोला '' दोनो ही अनैतिक हैं क्योंकि ध्येय तो दोनो का एक ही है जीवन को समाप्त कर देना और सरकार परमेंश्वर तो है नहीं। उसको यह अधिकार नहीं होना चाहिये कि जिसे वह ले तो ले पर वापिस न कर सके।''

वहीं उन अतिथियों में एक पच्चीस वर्षीय युवा वकील भी था। उसकी राय पूछे जाने पर वह कहने लगा '' मृंत्यदंड या आजीवन कारावास दोनो ही अनैतिक हैं। किन्तु यदि मुझे दोनो में से एक को चुनने का अवसर मिले तो मैं तो आजन्म कारावास ही को चाहूंगा। न जीने से तो किसी तरह का जीवन हो उसे ही मैं बेहतर समझूंगा।''

इस पर काफी जोशीली बहस छिड ग़ई। वह साहूकार महाजन जो कि गृहस्वामी था और उस समय जवान था और अत्यंत अधीर प्रकृति का था एकदम क्रोधित हो गया। ऊसने अपने हाथ की मुठ्ठी को जोर से मेज़ पर पटका और चिल्ला कर कहने लगा '' तुम झूंठ बोल रहे हो। मैं शर्त लगा कर कह सकता हूं कि तुम इस प्रकार काराग्रह में पांच साल भी नहीं रह सकोगे।''

इस पर युवा वकील बोला '' यदि तुम शर्त लगते हो तो मैं भी शर्तिया कहता हूं कि पांच तो क्या मैं पन्दरह साल रह कर दिखला सकता हूं। बोलो क्या शर्त है?''

'' पंद्रह साल। मुझे मंजूर है। मैं दो करोड़ रूपये दांव पर लगाता हूं।''

'' बात पक्की हुई। तुम दो करोड़ रूपये लगा रहे हो और मैं पंदरह साल की अपनी स्वतंत्रता को दांव पर रख रहा हूं। अब तुम मुकर नहीं सकते।'' युवा वकील ने कहा।

इस प्रकार यह बेहूदी ऊट-पटांग शर्त लग गई। उस साहूकार के पास उस समय कितने करोड़ रूपये थे जिनके बल पर वह घमंड में फूला नहीं समाता था। वह काफी बिगड़ा हुआ और सनकी किस्म का आदमी था। खाना खाते समय वह उस युवा वकील से मजाक में कहने लगा '' अरे अभी भी समय है चेत जाओ। मेरे लिये तो दो करोड़ रूपये कुछ भी नहीं हैं। पर तुम्हारे लिये अपने जीवन के तीन या चार सबसे कीमती वर्ष खोना बहुत बड़ी चीज है। मै तीन या चार साल इस लिये कह रहा हूं कि मुझे पूरा विश्वास है कि इससे अधिक तुम रह ही नहीं पाओगे। यह भी मत भूलो कि स्वेच्छा तथा बंधन में बड़ा अंतर है। जब यह विचार तुम्हारे मन में आयेगा कि तुम जब चाहो मुक्ति पा सकते हो तो वह तुम्हारे जेल के जीवन को पूरी तरह जहन्नुम बना देगा। मुझे तो तुम पर बड़ा तरस आ रहा है।''

और आज वह साहूकार उन पिछले दिनों की बात सोच रहा था। उसने अपने आप से पूछा ''मैंने क्यों ऐसी शर्त लगाई थी? उससे किसका लाभ हुआ? उस वकील ने तो अपने जीवन के 15 महत्वपूर्ण वर्ष नष्ट कर दिये और मैंने अपने दो करोड़ रूपये फेंक दिये। क्या इससे लोग यह मान जायेंगे कि मृत्युदंड से आजीवन कारागार बेहतर है या नहीं? यह सब बकवास है। मेरे अन्दर तो यह एक अमीर आदमी की सनक थी और उस वकील के लिये वह अमीर होने की एक मदांध लालसा।

उसे यह भी याद आया कि उस पार्टी के बाद यह तय हुआ था कि वह वकील अपने कारावास के दिन सख्त निगरानी तथा सतर्कता के अंदर उस साहूकार के बगीचे वाले खंड में रखा जाएगा। यह भी तय हो गया था कि जब तक वह इस कारागार में है वह किसी से भी नहीं मिल सकेगा न किसी से बात ही कर पायेगा। उसे कोई अखबार भी नहीं मिलेंगे और न ही किसी के पत्र मिल सकेंगे। हां उसको एक वाद्य यंत्र दिया जा सकता है। पढ़ने के लिये उसे पुस्तकें मिल जाएंगी और वह पत्र भी लिख सकेगा। शराब पी सकता है और धूम्रपान भी कर सकता है। यह मान लिया गया कि बाहर की दुनिया से संपर्क के लिये वह केवल वहां बनी हुई खिड़की में से चुपचाप अपने लिखित नोट भेज सकेगा। हर आवश्यकता की चीज ज़ैसे पुस्तकें संगीत शराब इत्यादि वह जितनी चाहे उसी खिड़की में से ले सकता है। एग्रीमेंट में हर छोटी से छोटी बात को ध्यान में रखा गया था। इस कारण वह कारावास एकदम काल-कोठरी के समान हो गई थी और उसमें उस वकील को 14 नवंबर 1870 के 12 बजे रात से 14 नवंबर 1885 की रात को बारह बजे तक पूरे पंद्रह साल रहना था। उसमें किसी भी प्रकार की भी खामी होने से चाहे वह दो मिनट की भी हो साहूकार दो करोड़ रूपये देने के दायित्व से मुक्त कर दिया जायेगा।

इस कारावास के पहले साल में ज़हां तक उसके लिखे पर्चों से पता लगा उसने अकेलापन तथा ऊब महसूस की। रात दिन उसके कक्ष से पियानो की आवाजें आती थी। उसने शराब तथा तम्बाकू त्याग दिये और लिखा कि ये वस्तुएं उसकी वासनाओं को जागृत करती हैं और ये इच्छाएं तथा वासनाएं ही तो एक बन्दी की मुख्य शत्रु हैं। अकेले बढ़िया शराब पीने में भी कोई मजा नहीं। सिगरेट से कमरे में धुआं फैल जाता है और वहां का वातावरण दूषित हो जाता है। पहले वर्ष में उसने हलकी-फुलकी किताबें पढीं ज़िनमें अधिकतर सुखान्तक, क़ामोत्तेजक, अपराध - संबंधी या इसी तरह के उपन्यास थे।

दूसरे वर्ष में पियानो बजना बंद हो गया और बंदी ने अधिकतर उत्कृष्ट तथा शास्त्रीय साहित्य में रूचि ली। पांचवे वर्ष में फिर संगीत सुना जाने लगा तथा शराब की भी मांग आई। खिड़की से झांक कर देखा गया कि वह अधिकतर खाने पीने तथा सोने में ही अपना समय बिताता रहा। अक्सर वह जंभाइयें लेते हुए देखा गया और कभी कभी अपने आप से गुस्से में बोलता रहता। पढ़ना भी उसका बहुत कम हो गया था। कभी कभी रात्रि में लिखने बैठ जाता और बहुत देर तक लिखता रहता और सुबह को वह सब लिखा हुआ फाड़ क़र फेंक देता। कई बार उसको रोते हुए भी देखा गया था।

औेर छटे साल के अंत में उसने भाषा साहित्य दर्शर्नशास्त्र तथा इतिहास में रूचि लेना आरंभ कर दिया। वह बड़ी तेजी से पढता रहा और यहां तक कि साहूकार को उसकी पुस्तकों की मांग को पूरा करना कठिन हो गया। चार वषों में उसकी मांग पर कम से कम छ सौ पुस्तकें पहुंचाई गईं। इसी मांग के दौरान उसने साहूकार को लिखा '' मेरे प्रिय जेलर, मैं यह पत्र छ: भाषाओं में लिख रहा हूं। इसको विविध विशेषज्ञों को दिखला कर उनकी राय लीजिये और यदि इसमें एक भी गलती न हो तो अपने उद्यान में बन्दूक चला दीजियेगा जिससे मुझे यह ज्ञात हो जाये कि मेरी मेहनत बेकार नहीं गई है। विभिन्न देशों और कालों के प्रतिभाशाली जिज्ञासु अपनी अपनी भावनाओं को विभिन्न भाषाओं में लिख गये हैं। पर उन सब में वही ज्योति जगमगाती है। काश! आप मेरे इस दिव्य आनन्द को जैसा कि मुझे इस समय मिल रहा है समझ सकें। कैदी की इच्छा पूरी की गई और साहूकार के आदेश पर उसके उद्यान में दो गोलियां दागी गईं।

दस साल के बाद वह बंदी अपनी मेज़ क़े सामने जड अवस्था में बैठा-बैठा केवल बाइबिल का न्यू टेस्टामेंट पढता रहता। साहूकार को यह बड़ा अजीब लगा कि जब उसने चार सालों में 600 पांडित्यपूर्ण पुस्तकों को पढ क़र उन पर पूरी तरह कुशलता प्राप्त कर ली थी तो कैसे वह पूरे एक साल तक न्यू टेस्टामेंट ही पढता रहा है जोकि छोटी सी पुस्तक है। उसमें उसने क्या देखा? न्यू टेस्टामेंट के बाद उसने धर्मो का इतिहास तथा ब्रह्म-विद्या पढ़ना शुरू किया।

अपने कारावास के अंतिम दो सालों में उसने असाधारण रूप से जो कुछ भी उसकी समझ में आया अंधाधुंध पढा। पहले तो उसने प्राकृतिक विज्ञान में ध्यान लगाया। उसके बाद बायरन तथा शेक्सपीयर को पढा। फिर उसके पास से रसायन शास्त्र तथा चिकित्सा शास्त्र की मांग आई। एक उपन्यास और फिलोसोफी तथा थियोलोजी पर विवेचना भी उसकी मांगों में थी। ऐसा लग रहा था जैसे वह किसी सागर में बहता जा रहा है और उसके चारों ओर किसी भग्नावशेष के टुकडे बिखरे पड़े हैं और उनको वह अपने जीवन की रक्षा के लिये एक के बाद एक चुनता जा रहा है।

साहूकार यह सब याद करता जा रहा था और सोच रहा था कि ''कल वह दिन भी आ रहा है जब इकरारनामे के मुताबिक कैदी को उसकी मुक्ति मिल जायेगी और मुझे दो करोड़ रूपये देने पड़ ज़ाएंगे। और अगर मुझको यह सब देना पड़ेगा तब मैं तो कंगाल हो जाऊंगा।''

पंद्रह वर्ष पहले जब यह शर्त लगाई गई थी तब तो इस साहूकार के पास बेहिसाब दौलत थी। पर वह सब धन तो उसने सट्टे और जुए में गंवा दिया। जिस लत को वह छोड़ ही नहीं सका और उसका सारा कारोबार नष्ट हो गया है। अपने धन के मद में चूर वह घमंडी साहूकार अब साधारण श्रेणी में आ गया है जो कि छोटे से छोटे घाटे को भी बर्दाश्त नहीं कर सकता और घबरा जाता है।

अपने सिर को पकड़ क़र वह सोचने लगा '' मैंने क्या बेवकूफी की थी उस समय? और वह बेवेकूफ वकील जेल में मरा भी तो नहीं। वह तो केवल चालीस वर्ष का ही है और अब वह मुझसे पाई-पाई निकलवा लेगा और मेरे उस धन पर ऐश करेगा शादी करके मजे लूटेगा सट्टा खेलेगा और मैं उसके सामने भिखारी बन कर उसके ताने सुनता रहूंगा कि 'मुझे यह सुख तुमने ही दिया है और उसके लिये मैं तुम्हारा आभारी हूं। मैं तुम्हारी क्या मदद कर सकता हूं?' नहीं! इसको मैं कैसे सह सकूंगा? इस जिल्लत से छुटकारा पाने के लिये कैदी को मरना ही होगा।''

घड़ी में तीन बजाये थे। साहूकार जागा हुआ सुन रहा था। बाकी घर के सब लोग सो रहे थे। सारा वातावरण सूनसान था सिवाय पेडों की सांय-सांय की आवाज क़े। बिना कोई आवाज किये उसने अपनी तिजोरी में से वह चाभी निकाली जिससे उस कैदी का कमरा पंद्रह साल पहले बन्द किया गया था। उसके बाद वह अपना ओवरकोट पहन कर अपने घर से बाहर निकला। बगीचे में बड़ी ठंड थी और बाहर घटाटोप अंधकार था। बारिश भी हो रही थी। तेजी से हवा में पेड़ झूम रहे थे। कुछ भी दिखलाई नहीं पड़ रहा था और वह टटोलते टतोलते बंदीग्रह तक पहुंचा। वहां उसने चौकीदार को दो आवाज लगाईं पर कोई उत्तर नहीं मिला। ऐसा लगता है कि चौकीदार खराब मौसम के कारण कहीं छिपा बैठा होगा।

साहूकार ने सोचा कि ''यदि मुझ में अपने इरादे को पूरा करना है तो हिम्मत से काम लेना होगा। इस सारे मामले में सुबह तो चौकीदार पर ही जायेगा।''

अंधेरे में उसने सीढ़ियों को ढूंढा और फिर बगीचे के हाल में घुस गया। उसके बाद वह एक गलियारे में से होकर बंदी के द्वार तक पहुंचा और वहां जाकर अपनी माचिस जलाई। उसने देखा कि ताले पर लगी हुई सील ठीक तरह सुरक्षित है। माचिस बुझ जाने के बाद उसने कांपते और घबराते हुए खिड़की में झांका और देखा कि बंदी के कक्ष में एक मोमबत्ती जल रही है जिससे हलकी रोशनी है। बंदी अपनी मेज़ क़े सामने बैठा था और उसकी पीठ उसके हाथ तथा बाल दिखलाई पड़ रहे थे। वहां उसके पास की कुरसी तथा चारपाई पर पुस्तकें बिखरी पड़ी थीं।

पांच मिनट बीत गये और इस बीच में बंदी एक बार भी नहीं हिला डुला। 15 वर्ष के कारावास ने उसे बिना हिले डुले बैठा रहना सिखा दिया था। साहूकार ने खिड़की पर खट-खट आवाज क़ी पर फिर भी कैदी ने कोई हरकत नहीं की। तब उस साहूकार ने बड़ी सतर्कता से उसके दरवाजे क़ी सील तोडी और ताले में अपनी चाभी डाली। ताले में जंग़ लगा हुआ था पर कुछ जोर लगाने पर वह खुल गया। साहूकार सोच रहा था कि इस के बाद तो वह बंदी चौंक कर उठेगा। पर सब कुछ वैसे ही शांत रहा। तब कुछ देर रूक कर वह कमरे में घुसा।

उसने देखा कि कुरसी पर मेज़ क़े सामने जो मानवाकृति बैठी है वह केवल एक ढांचा मात्र ही है जो खाल से ढकी हुई है। उसके बाल औरतों जैसे लंबे हैं और मुख पर लंबी दाढ़ी है। उसके हाथ जिन से वह अपने सिर को सहारा दिये बैठा है कंकाल की तरह है जिसे देख कर भी डर लगता है। सारे बाल चांदी की तरह सफेद हो चुके हैं। उसे देख कर किसी को विश्वास ही नहीं हो सकता था कि वह केवल चालीस वर्ष का है। उसके सामने मेज़ पर एक कागज पडा हुआ था जिस पर कुछ लिखा भी था।

साहूकार सोचने लगा ''बेचारा सो रहा है। शायद वह अपने सपनों में उन करोड़ों रूपयों को देख रहा है जो कि उसे मुझ से मिलेंगे। पर मैं समझता हूं कि इसको मैं बिस्तर पर फेंक कर तकिये से दबा दूंगा तो उसकी सांस रूक जायेगी। फिर कोई भी यह पता नहीं लगा सकेगा कि उसकी मौत कैसे हुई। सब इसे प्राकृतिक मृत्यु ही समझेंगे। लेकिन इससे पहले मैं यह तो देख लूं कि इस कागज में उसने क्या लिखा है?''

यह सोच कर साहूकार ने मेज़ पर से वह कागज उठाया और पढ़ने लगा। '' कल रात को 12 बजे मुझे मेरी मुक्ति मिल जायेगी तथा सब लोगों से मिल पाने का अधिकार भी मिल जायेगा। लेकिन यह कमरा छोड़ने और सूर्य देवता के दर्शन करने से पहले मैं समझता हूं कि आप सबके लिये अपने विचार लिपिबद्ध कर दूं। परमेश्वर जो मुझे देख रहा है उसको साक्षी करके और अपने अंतकरण से मैं यह कह रहा हूं कि अपनी यह मुक्ति अपना यह जीवन, स्वास्थ्य तथा अन्य सब कुछ जिसे संसार में वरदान कहा जाता है इन सब से मुझे विरक्ति हो गई है।
इन 15 वर्षों में मैंने इस सांसारिक जीवन का गहन अध्ययन किया है। यह तो सत्य है कि न तो मैंने पृथ्वी या उस पर रहने वालो को देखा है पर उनकी लिखी पुस्तकों से मैंने सुगन्धित सुरा का पान किया है मधुर संगीत का स्वाद लिया है और जंगलो में हिरनों तथा जंगली जानवरों का शिकार किया है। रमणियों से प्यार किया है। और ऐसी रमणियां जो कि अलौकिक बादलों में कवियों की कल्पना में रहती हैं। रात में प्रतिभाशाली व्यक्ति मेरे पास आकर तरह तरह की कहानियां सुनाते थे जिनको सुन कर मैं मदमस्त हो जाता था। वे पुस्तकें मुझे पहाड़ों की उँचाइये तक ले जाती थीं और मैं माउन्ट ब्लैंक तथा माउन्ट एवेरेस्ट तक की सैर कर आता था। वहां से सूर्योदय तथा सूर्यास्त के दर्शन कर लेता था। महासागर तथा पहाड़ों की चोटियों में मैं विचर सकता था। मैं देख पाता था कि किस प्रकार आकाश में बिजली चमक कर बादलों को फाड़ देती है। मैंने हरे भरे जंगल तथा खेतों को नदियों झीलों तथा शहरो को देखा। जलपरियों को गाते हुए सुना। एक सुन्दर दानव को अपने पास आते हुए देखा। यह पुस्तकें मुझे अथाह अगाध सीमा तक ले जातीं और अनेक चमत्कार दिखलातीं। शहर जलते और भस्म होते देखे। नये-नये धर्मों के प्रचारकों को सुना और कितने देशों पर विजय प्राप्त की।

इन पुस्तकों से मुझे बहुत ज्ञान मिला। मानव की अटल विचारधारा जो कि सदियों में संचित हुई है मेरे मस्तिष्क में एक ग्रंथी बन गई है और अब मैं जानता हूं कि आप सब लोगों से मैं अधिक चतुर हूं। फिर भी इन पुस्तकों को तुच्छ समझता हूं और यह जान कर कि संसार का सारा ज्ञान तथा वरदान व्यर्थ है मैं उनकी उपेक्षा करता हूं। यहां हर चीज मृग-मरीचिका के समान क्षण भंगुर है काल्पनिक है। आप लोग इस सौन्दर्य तथा अथाह भंडार पर गर्व कर सकते हैं पर मृत्यु के गाल में पड़ क़र इस संसार से सब उसी तरह चले जाएंगे जैसे कि अपने बिलों में रहते हुए चूहे चले जाते हैं। तुम्हारा सारा इतिहास और मानव का सारा ज्ञान पृथ्वी के गर्त में समा जायेगा। मेरे विचार से तुम सब मदांध हो रहे हो और सच को झूठ और बदसूरती को सौन्दर्य समझ रहे हो। तुमने पृथ्वी के सुखों के लिये स्वर्ग को गिरवी रख दिया है या उसे बेच दिया है। इस लिये उन सब सुखों के त्याग के लिये मैंने तय कर लिया है कि अपने कारावास की समाप्ति से पांच मिनट पहले ही निकल जाऊंगा और आजीवन सन्यास ले लूंगा जिससे कि साहूकार अपना धन अपने पास रख सके।

साहूकार ने उस पत्र को पढ़ने के बाद वहीं मेज़ पर रख दिया और उस अद्भुत व्यक्ति के सर को चूम कर रोने लगा। फिर वहां से चला गया। उसे अपने ऊपर इतनी ग्लानि हो रही थी जैसी पहले कभी भी नहीं हुई। अपने कमरे में आकर वह बिस्तर पर लेट गया पर उसे अपने हृदय में मलाल के कारण न तो बहुत देर तक नींद ही आई और न ही उसके आंसू रुके।

अगले दिन प्रातः बेचारा चौकीदार भागता हुआ आया और उसने बतलाया कि वह बंदी खिड़की में से कूद कर फाटक के बाहर चला गया। अफवाहों से बचने के लिये साहूकार ने बंदी के कक्ष में जाकर मेज़ पर पड़े उस सन्यास वाले कागज क़ो उठा लिया और अपनी तिजोरी में सदा के लिये बंद कर दिया।

- एन्तॉन चेखव......

 
 
कृष्ण-पूतना की कथा | होली की पौराणिक कथाएं - भारत-दर्शन

एक आकाशवाणी हुई कि कंस को मारने वाला गोकुल में जन्म ले चुका है। अत: कंस ने इस दिन गोकुल में जन्म लेने वाले हर शिशु की हत्या कर देने का आदेश दे दिया। इसी आकाशवाणी से भयभीत कंस ने अपने भांजे कृष्ण को भी मारने की योजना बनाई और इसके लिए पूतना नामक राक्षसी का सहारा लिया।

पूतना मनचाहा रूप धारण कर सकती थी। उसने सुंदर रूप धारण कर अनेक शिशुओं को अपना विषाक्त स्तनपान करा मौत के घाट उतार दिया। फिर वह बाल कृष्ण के पास जा पहुंची किंतु कृष्ण उसकी सच्चाई को जानते थे और उन्होंने पूतना का वध कर दिया।

यह फाल्गुन पूर्णिमा का दिन था अतः पूतनावध के उपलक्ष में होली मनाई जाने लगी।

[संकलन-भारत-दर्शन]

 


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कोरोनावायरस कैसे फैलता है - भारत-दर्शन

कोरोनावायरस कैसे फैलता है?

इस विषय में विशेषज्ञों की समझ अभी सीमित है, लेकिन चार कारक हैं जो इसके फैलने में सबसे अधिक संभावना पैदा करते हैं व भूमिका निभाते हैं:

- आप संक्रमित के कितने करीब जाते हैं
- आप कितने समय से व्यक्ति के संपर्क में हैं......

 
 
डॉ मदनलाल ‘मधु' जी से बातचीत - सुनीता पाहुजा

डॉ मदनलाल ‘मधु' जी से सुनीता पाहुजा की बातचीत।
(10 अप्रैल 2014)

डॉ मदनलाल ‘मधु' का नाम केवल हिंदी जगत ही नहीं अपितु समग्र भारत और रूस में जाना है। आप प्रख्यात कवि और नाटककार होने के साथ-साथ संपादक और अनुवादक भी रहे हैं। रूस में इतने लम्बे समय से रह रहे सबसे पहले भारतीय हैं। वर्ष 1991 में भारत में पद्मश्री से, 1999 में पुस्कीन सम्मान और 2001 में रूस के सर्वोच्च नागरिक सम्मान मैत्रयीपदक (Friendship Order) से नवाज़ा जाना और भारत और रूस के लोगों से समान रूप से मिली लोकप्रियता उनके द्वारा किए गए कार्य की महत्ता के प्रत्यक्ष साक्ष्य हैं। प्रो. विजय कुमार मल्होत्रा जी के माध्यम से डॉ मधु जी और उनकी पत्नी श्रीमती तान्या जी से एक मुलाकात का सुअवसर प्राप्त हुआ। प्रस्तुत है उनसे हुई बातचीत के कुछ प्रमुख अंश।

आपका जन्म और स्नातक तक की शिक्षा फिरोज़पुर, पंजाब में हुई और एम.ए. आपने लाहौर से किया। उसके बाद...आपने पढ़ाना शुरु किया?

लाहौर से एम.ए. करने के बाद मैंने शिमला में और जी.एन.एम कॉलेज, अम्बाला कैंट में पढ़ाया, आर.एस.डी कॉलेज, फिरोज़पुर, मेरा जन्मशहर, जो आजकल बॉर्डर पर है, जहाँ से मैंने ग्रेडुएशन की थी ऑनर्स के साथ, 1-2 साल वहाँ भी पढ़ाया, कुल मिलाकर लगभग 10 साल तक पढ़ाया।

रूस जाने का सबब कैसे बना?

हमारे दोनों देशों के जब संबंध बढ़ने लगे थे, वर्ष 1955 में, और उस समय पं. जवाहरलाल नेहरू पहली बार मॉस्को आए थे, साथ में युवा इंदिरा भी थीं। मॉस्को और दूसरे कई शहरों में भी बड़े पैमाने पर उनका भव्य स्वागत हुआ। और इसी साल रूस के नेता ख्रुश्चेव (Khrushchev) और बुल्गॉनिन (Bulganin) भी भारत यात्रा पर आए। तब दोनों देशों के संबंध बनने लगे थे। यह वो ज़माना था जब शीत युद्ध चल रहा था, पाकिस्तान तो पश्चिम के साथ चला गया और फौजी ब्लॉक का सदस्य बन गया था पर भारत की नीति तो तट्स्थ रहने की थी, इस तटस्थता ने एक बहुत महत्त्वपूर्ण आंदोलन, गुट निरपेक्ष आंदोलन का रूप ले लिया था, जिसमें दुनिया के लगभग सौ से अधिक देश शामिल हो गए थे। जवाहरलाल नेहरू, मिस्र के नासिर और युगोस्लाविया के टीटो, ये तीन बड़े नेता इसमें शामिल थे और पंडित जी का बहुत महत्व था।  सोवियत संघ चाहता था कि उन्हें मौका मिले ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को अपनी ओर लाने का, उन्हें हमारी ज़रूरत थी एक तटस्थ देश के रूप में, और हमें ज़रूरत थी उनकी क्योंकि हमें देश को आगे बढ़ाना था और अमरीका और पश्चिमी देश भारत का साथ नहीं दे रहे थे। तो पं. नेहरू ने सोवियत संघ की ओर हाथ बढ़ाया और उन्होंने भी हमें सहायता देने का वायदा किया तो इस तरह परस्पर संबंध बढ़े। कश्मीर की समस्या के संदर्भ में उस समय रूस ने कहा था कि हम हिमालय के उस पार बैठे हैं आपको जब भी ज़रूरत पड़ेगी हम मदद करेंगे। उस समय भारत में कोई उद्योग, इस्पात आदि के कारखाने तो थे नहीं और भारत को विकास की आवश्यकता थी, तो उन्होंने कहा कि वे इसमें जहाँ तक हो सकेगा हमारी मदद करेंगे और उस समय सोवियत संघ के साथ मिलकर भारत ने भिलाई का कारखाना और अन्य कई कारखाने, कोई सौ से अधिक उद्यम लगाए। दोनों देशों में नज़दीकियाँ बढ़ने लगीं और तभी 1955 में यह समझौता किया गया कि दोनों देशों के बीच सांस्कृतिक क्षेत्र में भी संबंध बढ़ने चाहिए।  तभी यह भी तय हुआ कि भारतीय भाषाओं के साहित्य का रूसी भाषा में और सोवियत संघ की अन्य भाषाओं में और इसी तरह उनके साहित्य का हमारी भाषाओं में अनुवाद और संपादन किया जाए ताकि लोगों को दोनों देशों के बीच जो सांस्कृतिक पुल है उसका पता लग सके। तब भारत के विदेश मंत्रालय से इस संबंध में एक सर्कुलर आया। मैं उस समय अम्बाला कैंट में पढ़ा रहा था और वहाँ के प्रिंसिपल मुझसे अपार स्नेह करते थे। उन्होंने मुझसे कहा कि में वह फार्म ज़रूर भरूँ। उनके आग्रह को मैं ठुकरा न सका। छह महीने बाद अचानक विदेश मंत्रालय से पत्र आया जिसमें मुझे साक्षात्कार के लिए दिल्ली बुलाया गया था। जब मैं दिल्ली आया तो उस शाम वहाँ मेरी मुलाकात भीष्म साहनी से हुई, उन्हें भी साक्षात्कार के लिए बुलाया गया था। वे मेरे अच्छे दोस्त थे, हमने अम्बाला कैंट कॉलेज में एकसाथ पढ़ाया भी था और लेखक होने के नाते भी हम बहुत नज़दीक थे विचारों की दृष्टि से, वो कहानीकार थे और मैं एक उभरता हुआ युवा कवि था। रेडियो से भी मेरा संबंध था। 10 साल पढ़ाने के साथ-साथ मैंने 3 साल जालंधर रेडियो स्टेशन पर हिंदी परामर्शदाता और लेखक के रूप में नाट्क और रूपक लिखे। दिन में मैं वहाँ काम करता था और शाम को कक्षाएँ भी लेता था।  3 साल का वहाँ का मेरा अच्छा अनुभव था।......

 
 
अगर तुम राधा होते श्याम - काजी नज़रुल इस्लाम

अगर तुम राधा होते श्याम।
मेरी तरह बस आठों पहर तुम,......

 
 
मुल्ला नसरुद्दीन और बादशाह  - भारत-दर्शन संकलन

एक दिन बादशाह ने मुल्ला नसरुद्दीन से कहा, "आज सुबह मैंने अपनी सूरत आईने में देखी। मैं वाकई बदसूरत हूँ। अब कभी आईने में अपना चेहरा नहीं देखूंगा।" 

मुल्ला नसरुद्दीन तुरंत बोले, "आप तो अपनी सूरत एक दिन देखकर ही घबरा गए। मुझे तो दिन-रात देखनी पड़ती है। सोचिए, मेरा क्या हाल होता होगा!"

[मुल्ला नसरुद्दीन के किस्से]

 


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माओइ और विशाल मछली  - रोहित कुमार ‘हैप्पी'

[ न्यूज़ीलैंड की लोक कथा ]

माओरी लोक कथाओं में माओइ को अर्ध-देवता के रूप में जाना जाता है। उसे कई चमत्कारिक शक्तियाँ प्राप्त थीं।

माओइ जब छोटा था तो उसका एकमात्र सपना था कि वह भी अपने बड़े भाइयों के साथ मछली पकड़ने जाए। जब भी उसके भाई मछली पकड़ने के बाद घर लौटते तो उसका एक ही प्रश्न होता, "क्या मैं अगली बार आपके साथ मछली पकड़ने आ सकता हूँ?"

माओइ के भाई हमेशा बहाना करते, "नहीं, तुम हमारे साथ मछली पकड़ने के लिए जाने के लिए अभी बहुत छोटे हो। हमें अपनी नौका में मछलियाँ रखने के लिए बहुत सी जगह की जरूरत रहती है।"

माओइ प्रतिवाद करता, "मैं केवल थोड़ी-सी जगह ही लूंगा, और मैं आपको बिलकुल परेशान नहीं करूंगा, मैं वादा करता हूं।"

सबसे बड़ा भाई जवाब देता, "तुम इतने पतले हो कि हम तुम्हें मछलियों का चारा समझ कर गलती से शायद बाहर फेंक दें और तब मछलियां तुम्हें खा जाएंगी।"

माओइ गुस्सा हो जाता। "मैं उन्हें सिखाऊंगा", वह खुद से कहता,"मैं साबित करूंगा कि मैं कितना कुशल हूँ!"

माओइ ने अपने मन में स्वयं को एक महान मछुआरा साबित करने की एक योजना बनाई। एक रात जब माओइ अकेला था तो उसने सन (Flax) से एक मजबूत मछली पकड़ने की डोरी (लाइन) बुननी शुरू कर दी। वह डोरी बुनते-बुनते अपने कबीले का पारंपरिक मंत्र पढ़ता जा रहा था। उसके कबीले में यह धारणा थी कि यदि डोरी बुनते समय इस मंत्र का उच्चारण किया जाए तो 'लाइन' खूब मजबूत हो जाती है।

जब उसकी बुनती समाप्त हुई तो माओइ ने अपनी नानी के जबड़े की जादुई अस्थि को इसमें चुपके से सुरक्षित बांध लिया।
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अबू बिन आदम और देवदूत | अनूदित कविता - जेम्स हेनरी ली हंट

एक रात अबू बिन आदम, घोर स्वप्न में जाग पड़े।
देखा जब कमरे को अपने, हुए महाशय चकित बड़े॥

शुभ्र चन्द्रिका की आभा से, सारा कमरा व्याप्त हुआ। 
चमक-दमक कमरे की मानों, खिला कमल है प्राप्त हुआ॥ 
एक ओर को एक फरिश्ता, लिखता था कुछ अपने आप।
स्वर्ण सरीखे रंग की पुस्तक, लेकर बैठा था चुपचाप॥ 

अधिक शान्ति ने बिन आदम को, पूर्ण साहसी बना दिया। 
"लिखता है तू यह क्या भाई" बिन आदम ने प्रश्न किया—
दिया दूत ने उत्तर झट से, "लिखता हूँ मैं उनके नाम—
रखते हैं जो प्रेम ईश से, है यह प्रतिदिन मेरा काम"॥ 

अबू ने तब फिर से पूछा, क्या मेरा भी नाम लिखा? 
उत्तर में—ना' सुनकर उनको, मात्र एक अवलम्ब दिखा। 
विनय सहित अति प्रेम-भाव से, बिन आदम फिर से बोले--
“करते हों जो प्यार नरों से", उसी जगह मुझको लिखले॥ 

लिख कर उनका नाम दूत फिर, झटपट अन्तर्धान हुआ। 
विमल ज्योति से अगली निशि में, दूत पुनः अवतीर्ण हुआ॥ 
लगा दिखाने नाम अबू को, जिन पर प्रभु का प्यार हुआ। 
सर्व प्रथम था नाम अबू का, पढ़ कर अति आनन्द हुआ।

- जेम्स हेनरी ली हंट
[Abou Ben Adhem by James Henry Leigh Hunt]
छंदानुवाद : गणेशप्रसाद सिंघई


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गिरिधर की कुण्डलिया - गिरिधर कविराय

गुन के गाहक सहस नर, बिन गुन लहै न कोय।
जैसे कागा कोकिला, शब्द सुनै सब कोय॥
शब्द सुनै सब कोय, कोकिला सबै सहावन।
दोऊ को इक रंग, काग सब भए अपावन॥
कह गिरिधर कविराय, सुनो हो ठाकुर मन के।
बिन गुन लहै न कोय, सहस नर ग्राहक गुन के॥

बीती ताहि विसार दे, आगे की सुधि लेइ।
जो बनि आवै सहज में, ताही में चित्त देइ॥
ताही में चित्त देइ, बात जोई बनि आवै।
दुर्जन हँसे न कोइ, चित्त में खता न पावै॥
कह गिरिधर कविराय, यहै करु मन-परतीती।
आगे की सुख समुझि, हो बीती सो बीती॥

बिना बिचारे जो करै, सो पाछे पछिताय।
काम बिगारै आपनो, जग में होत हँसाय॥
जग में होत हँसाय, चित्त में चैन न पावै।
खान-पान सनमान, राग-रंग मनहिं न भावै॥
कह गिरिधर कविराय, दुःख कछु टरत न टारे।
खटकत है जिय माँहि, कियो जो बिना बिचारे।

लाठी में हैं गुण बहुत, सदा रखिये संग।
गहरि नदी, नाली जहाँ, तहाँ बचावै अंग।।
तहाँ बचावै अंग, झपटि कुत्ता कहँ मारे।
दुश्मन दावागीर होय, तिनहूँ को झारै।।
कह गिरिधर कविराय, सुनो हे दूर के बाठी।
सब हथियार छाँडि, हाथ महँ लीजै लाठी।।

कमरी थोरे दाम की,बहुतै आवै काम।
खासा मलमल वाफ्ता, उनकर राखै मान॥
उनकर राखै मान, बँद जहँ आड़े आवै।
बकुचा बाँधे मोट, राति को झारि बिछावै॥
कह गिरिधर कविराय, मिलत है थोरे दमरी।
सब दिन राखै साथ, बड़ी मर्यादा कमरी॥

साईँ सब संसार में, मतलब का व्यवहार।
जब लग पैसा गाँठ में, तब लग ताको यार॥
तब लग ताको यार, यार संग ही संग डोले।
पैसा रहे न पास, यार मुख से नहिं बोले॥
कह 'गिरिधर कविराय' जगत यहि लेखा भाई।
करत बेगरजी प्रीति, यार बिरला कोई साँई॥

रहिए लटपट काटि दिन, बरु घामे माँ सोय।
छाँह न बाकी बैठिये, जो तरु पतरो होय॥
जो तरु पतरो होय, एक दिन धोखा देहैं।
जा दिन बहै बयारि, टूटि तब जर से जैहैं॥
कह गिरिधर कविराय छाँह मोटे की गहिए।
पाती सब झरि जायँ, तऊ छाया में रहिए॥

पानी बाढ़ै नाव में, घर में बाढ़े दाम।
दोऊ हाथ उलीचिए, यही सयानो काम॥
यही सयानो काम, राम को सुमिरन कीजै।
पर-स्वारथ के काज, शीश आगे धर दीजै॥
कह गिरिधर कविराय, बड़ेन की याही बानी।
चलिए चाल सुचाल, राखिए अपना पानी॥

राजा के दरबार में, जैये समया पाय।
साँई तहाँ न बैठिये, जहँ कोउ देय उठाय॥
जहँ कोउ देय उठाय, बोल अनबोले रहिए।
हँसिये नहीं हहाय, बात पूछे ते कहिए॥
कह गिरिधर कविराय समय सों कीजै काजा।
अति आतुर नहिं होय, बहुरि अनखैहैं राजा॥

सोना लावन पिव गये, सूना करि गये देश। 
सोना मिले न पिव मिले, रूपा ह्वैगे केश॥ 
रूपा ह्वैगे केश, रोय रँग रूप गवाँवा। 
सेजन को विश्राम, पिया बिन कबहुँ न पावा॥ 
कह गिरिधर कबिराय लोन बिन सबै अलोना। 
बहुरि पिया घर आव कहा करिहौं लै सोना॥ 

- गिरिधर कविराय


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12वें विश्व हिंदी सम्मेलन हेतु पंजीकरण आरंभ  - भारत-दर्शन समाचार

6 दिसंबर 2022 (भारत): 15-17 फरवरी, 2023 को फिजी में आयोजित होने वाले विश्व हिंदी सम्मेलन के लिए पंजीकरण आरंभ हो गया है। आप निम्न वेबसाइट पर अपना पंजीकरण कर सकते हैं:  
https://vishwahindisammelan.gov.in/registration

विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने अपने आधिकारिक ट्विटर पर यह जानकारी दी है। 

 

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सूखे तिनके | गद्य काव्य - प्रेम नारायण टंडन

समुद्र के किनारे कुछ हरे-भरे छोटे पौधे लगे थे। उन्हीं के पास कुछ सूखे तिनके पड़े थे।

लहर का एक झोंका आया। हरे पौधों को नहलाकर उसने उनका रूप निखार दिया; पर सूखे पौधों को साथ बहा ले चला।

हरे-भरे पौधों ने यह दृश्य देखा तो खुशी और गर्व से झूमने लगे; तिनकों की परवशता पर उन्हें जोर की हँसी आयी। उस हँसी से सूखे तिनके खीझे नहीं। उन्होंने धैर्य से उत्तर दिया - हम डूबते का सहारा बनने जा रहे हैं।

-प्रेम नारायण टंडन


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दीवाली | लघु-कथा - रोहित कुमार 'हैप्पी'

पखवाड़े बाद दीवाली थी, सारा शहर दीवाली के स्वागत में रोशनी से झिलमिला रहा था। कहीं चीनी मिट्‌टी के बर्तन बिक रहे थे तो कहीं मिठाई की दुकानों से आने वाली मन-भावन सुगंध लालायित कर रही थी।

उसका दिल दुकानों में घुसने को कर रहा था और मस्तिष्क तंग जेब के यथार्थ का बोध करवा रहा था। 'दिल की छोड़, दिमाग की सुन' उसको किसी बुज़ुर्ग का दिया मंत्र अच्छी तरह याद था। दीवाली मनाने को जो-जो जरूरी सामान चाहिए, उसे याद था। 'रंग-बिरंगे काग़ज़ की लैसें, एक लक्ष्मी की तस्वीर, थोड़ी-सी मिठाई और पूजा का सामान!'

किसी दुकान में दाख़िल होने से पहले उसने जेब में हाथ डाल कर पचास के नोट को टटोल कर निश्चित कर लिया था कि उसकी जेब में नोट है। फिर एक के बाद एक सामान खरीदता रहा, सब कुछ बजट में हो गया था। सैंतालीस रुपये में सब कुछ ले लिया था उसने। वो प्रसन्नचित्त घर की ओर चल दिया पर अचानक रास्ते में बैठे एक बूढ़े कुम्हार को देख उसे याद आया कि वो 'दीये' खरीदने तो भूल ही गया था।

'दीये क्या भाव हैं बाबा?'

'तीन रुपए के छह।'

उसने जेब में हाथ डाल सिक्कों को टटोला।'

'कुछ पैसे दे दो बाबू जी, सुबह से कुछ नहीं खाया......' एक बच्चे ने हाथ फैलाते हुए अपनी नीरस आँखें उसपर जमा दी।

सिक्के जेब से हाथ में आ चुके थे।

'कितने दीये दूं, साब?'

'...मैं फिर आऊँगा' कहते हुए उसने दोनों सिक्के बच्चे की हथेली पर धर दिए और आगे बढ़ गया।

जब दिल सच कहता है तो वो दिमाग की क़तई नहीं सुनता। 'दिल की कब सुननी चाहिए' उसे संस्कारों से मिला था।

बच्चा प्रसन्नता से खिलखिला उठा, उसे लगा जैसे एक साथ हज़ारों दीये जगमगा उठे हों। फिर कोई स्वरचित गीत गुनगुनाते हुए वो अपने घर की राह हो लिया। वो एक लेखक था! अगले पखवाड़े आने वाली दीवाली दुनिया के लिए थी, लोग घी के दीये जलाएंगे। लेखक ने बच्चे को मुसकान देकर पखवाड़े पहले आज ही दीवाली का आनन्द महसूस कर लिया था।

- रोहित कुमार 'हैप्पी'


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शिव पार्वती कथा | होली पौराणिक कथाएं - संकलन-भारत-दर्शन

एक अन्य पौराणिक कथा शिव और पार्वती से संबद्ध है। हिमालय पुत्री पार्वती चाहती थीं कि उनका विवाह भगवान शिव से हो जाए पर शिवजी अपनी तपस्या में लीन थे। कामदेव पार्वती की सहायता को आए व उन्होंने अपना पुष्प बाण चलाया। भगवान शिव की तपस्या भंग हो गयी। शिव को बड़ा क्रोध आया और उन्होंने अपनी तीसरी आँख खोल दी। उनके क्रोध की ज्वाला में कामदेव का भस्म हो गए। तदुपरांत शिवजी ने पार्वती को देखा और पार्वती की आराधना सफल हुई। शिवजी ने उन्हें अपनी अर्धांगिनी के रूप में स्वीकार कर लिया।

इस प्रकार इस कथा के आधार पर होली की अग्नि में वासनात्मक आकर्षण को प्रतीकात्मक रूप से जला कर सच्चे प्रेम की विजय का उत्सव मनाया जाता है।

 

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महाभारत संबंधी कथा  - भारत-दर्शन संकलन

महाभारत काल में द्रौपदी द्वारा श्री कृष्ण को तथा कुन्ती द्वारा अभिमन्यु को राखी बांधने के वृत्तांत मिलते हैं।
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हँसते-हँसते फाँसी पर झूल गई यह देशभक्त तिकड़ी | 23 मार्च 1931  - भारत-दर्शन संकलन

अमर शहीद भगतसिंह का जन्म- 27 सितंबर, 1907 को बंगा, लायलपुर, पंजाब (अब पाकिस्तान में) हुआ था व 23 मार्च, 1931 को इन्हें दो अन्य साथियों सुखदेव व राजगुरू के साथ फांसी दे दी गई। भगतसिंह का नाम भारत के सवतंत्रता संग्राम में अविस्मरणीय है। भगतसिंह देश के लिये जीये और देश ही के लिए शहीद भी हो गए।

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24 अगस्त, 1908 को पुणे ज़िले के खेड़ गाँव (जिसका नाम अब 'राजगुरु नगर' हो गया है) में पैदा हुए 'शहीद राजगुरु' का पूरा नाम 'शिवराम हरि राजगुरु' था। आपके पिता का नाम 'श्री हरि नारायण' और माता का नाम 'पार्वती बाई' था। भगत सिंह और सुखदेव के साथ ही राजगुरु को भी 23 मार्च 1931 को फांसी दी गई थी।

राजगुरु 'स्वराज मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है और मैं उसे हासिल करके रहूंगा' का उद्घोष करने वाले लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के विचारों से अत्यधिक प्रभावित थे।

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सुखदेव का जन्म 15 मई, 1907, पंजाब में हुआ था। 23 मार्च, 1931 को सेंट्रल जेल, लाहौर में भगतसिंह व राजगुरू के साथ इन्हें भी फांसी दे दी गई। सुखदेव का नाम भारत के अमर क्रांतिकारियों और शहीदों में गिना जाता है। आपने अल्पायु में ही देश के लिए जान कुर्बान कर दी। सुखदेव का पूरा नाम 'सुखदेव थापर' था। इनका नाम भगत सिंह और राजगुरु के साथ जोड़ा जाता है और इन तीनों की तिकड़ी भारत के इतिहास में सदैव याद रखी जाएगी। तीनों देशभक्त क्रांतिकारी आपस में अच्छे मित्र थे और देश की स्वतंत्रता के लिए अपना सर्वत्र न्यौछावर कर देने वालों में से थे।

23 मार्च, 1931 को भारत के इन तीनों वीर नौजवानों को एक साथ फ़ाँसी दी गई 23 मार्च को 'शहीदी-दिवस के रुप में याद किया जाता है।


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खुद ही बनाया | ग़ज़ल - रोहित कुमार 'हैप्पी'

खुद ही बनाया औ' बिगाड़ा तकदीरों को
मैं मानता नहीं हाथ की लकीरों को।

महलों में रहें या कभी हों बेघर......

 
 
सीता का हरण होगा | सीता का हरण होगा | उदयभानु 'हंस' की ग़ज़ल - उदयभानु 'हंस'

कब तक यूं बहारों में पतझड़ का चलन होगा?
कलियों की चिता होगी, फूलों का हवन होगा ।

हर धर्म की रामायण युग-युग से ये कहती है, ......

 
 
राजा हेम की कथा | धनतेरस की पौराणिक कथा - भारत-दर्शन संकलन

धनतेरस की शाम घर के बाहर मुख्य द्वार पर और आंगन में दीप जलाने की भी प्रथा है। एक दंत कथा के अनुसार किसी समय हेम नामक एक राजा थे। दैव कृपा से उन्हें एक पुत्र रत्‍‌न की प्राप्ति हुई। ज्योंतिषियों ने जब बालक की कुण्डली बनाई तो बताया कि बालक का विवाह जिस दिन होगा उसके ठीक चार दिन के बाद वह मृत्यु हो जाएगी।

राजा इस बात को जानकर बहुत दुखी हए और राजकुमार को ऐसी जगह पर भेज दिया जहां किसी स्त्री की परछाई भी न पड़े। दैवयोग से एक दिन एक राजकुमारी उधर से गुजरी और दोनों एक दूसरे को देखकर मोहित हो गए और उन्होंने गन्धर्व विवाह कर लिया।

विवाह के पश्चात विधि का विधान सामने आया और विवाह के चार दिन बाद यमदूत उस राजकुमार के प्राण लेने आ पहुंचे। जब यमदूत राजकुमार प्राण ले जा रहे थे उस वक्त नवविवाहिता उसकी पत्‍‌नी का विलाप सुनकर उनका हृदय भी द्रवित हो उठा परंतु विधि के अनुसार उन्हें अपना कार्य करना पड़ा। यमराज को जब यमदूत यह कह रहे थे उसी वक्त उनमें से एक ने यमदेवता से विनती की हे यमराज क्या कोई ऐसा उपाय नहीं है जिससे मनुष्य अकाल मृत्यु के लेख से मुक्त हो जाए।

यम देवता ने कहा कि जो प्राणी धनतेरस की शाम यम के नाम पर दक्षिण दिशा में दीया जलाकर रखता है उसकी अकाल मृत्यु नहीं होती है। इस मान्यता के अनुसार धनतेरस की शाम लोग आँगन मे यम देवता के नाम पर दीप जलाकर रखते हैं। इस दिन लोग यम देवता के नाम पर व्रत भी रखते हैं।


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ताजमहल - कमला प्रसाद मिश्र

उमड़ा करती है शक्ति, वहीं दिल में है भीषण दाह जहाँ
है वहीं बसा सौन्दर्य सदा सुन्दरता की है चाह जहाँ ......

 
 
मृग, काग और धूर्त गीदड़ की कहानी  - नारायण पंडित

मगध देश में चंपकवती नामक एक महान अरण्य था, उसमें बहुत दिनों में मृग और कौवा बड़े स्नेह से रहते थे। किसी गीदड़ ने उस मृग को हट्ठा- कट्ठा और अपनी इच्छा से इधर- उधर घूमता हुआ देखा, इसको देख कर गीदड़ सोचने लगा -- अरे, कैसे इस सुंदर (मीठा) माँस खाऊँ ? जो हो, पहले इसे विश्वास उत्पन्न कराऊँ। यह विचार कर उसके पास जाकर बोला -- हे मित्र, तुम कुशल हो ? मृग ने कहा "तू कौन है ?' वह बोला -- मैं क्षुद्रबुद्धि नामक गीदड़ हूँ। इस वन में बंधुहीन मरे के समान रहता हूँ, और सब प्रकार से तुम्हारा सेवक बन कर रहूँगा। मृग ने कहा -- ऐसा ही हो, अर्थात रहा कर। इसके अनंतर किरणों की मालासे भगवान सूर्य के अस्त हो जाने पर वे दोनों मृग के घर को गये और वहाँ चंपा के वृक्ष की डाल पर मृग का परम मित्र सुबुद्धि नामक कौवा रहता था। कौए ने इन दोनों को देखकर कहा -- मित्र, यह चितकवरा दूसरा कौन है ? मृग ने कहा -- यह गीदड़ है। हमारे साथ मित्रता करने की इच्छा से आया है। कौवा बोला -- मित्र, अनायास आए हुए के साथ मित्रता नहीं करनी चाहिये।

 

अज्ञातकुलशीलस्य वासो देयो न कस्यचित्।
मार्जारस्य हि दोषेण हतो गृध्रो जरद्रवः।।

 

कहा भी गया है कि -- जिसका कुल और स्वभाव नहीं जाना है, उसको घर में कभी न ठहराना चाहिए, क्योंकि बिलाव के अपराध में एक बूढ़ा गिद्ध मारा गया।

 

यह सुनकर सियार झुंझलाकर बोला-- मृग से पहले ही मिलने के दिन तुम्हारी भी तो कुल और स्वभाव नहीं जाना गया था। फिर कैसे तुम्हारे साथ इसकी गाढ़ी मित्रता हो गई।

 

यत्र विद्वज्जनो नास्ति श्रलाघ्यस्तत्राल्पधीरपि।......

 
 
स्वतंत्रता दिवस 2012 | Independence Day 2012 - भारत-दर्शन संकलन

स्वतंत्रता दिवस 2012 का वेबकॉस्ट देखें (Watch Independence Day 2012)

 


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हिंदी भाषा ही सर्वत्र प्रचलित है - श्री केशवचन्द्र सेन

यदि एक भाषा के न होने के कारण भारत में एकता नहीं होती है, तो और चारा ही क्या है? तब सारे भारतवर्ष में एक ही भाषा का व्यवहार करना ही एकमात्र उपाय है । अभी कितनी ही भाषाएँ भारत में प्रचलित हैं । उनमें हिन्दी भाषा ही सर्वत्र प्रचलित है । इसी हिन्दी को भारत वर्ष की एक मात्र भाषा स्वीकार कर लिया जाए, तो सहज ही में यह एकता सम्पन्न हो सकती है । किन्तु राज्य की सहायता के बिना यह कभी भी संभव नहीं है । अभी अंग्रेज हमारे राजा हैं, वे इस प्रस्ताव से सहमत होंगे, ऐसा विश्वास नहीं होता । भारतवासियों के बीच फिर फूट नहीं रहेगी वे परस्पर एक हृदय हो जायेंगे, आदि सोच कर शायद अंग्रेजों के मन में भय होगा । उनका खयाल है कि भारतीयों में फूट न होने पर ब्रिटिश साम्राज्य भी स्थिर नहीं रह सकेगा ।

- श्री केशवचन्द्र सेन


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एक भाव आह्लाद हो ! - डॉ० इंद्रराज बैद 'अधीर'

थकी-हारी, मनमारी, सरकारी राज भाषा है,
बड़ी दीन, पराधीन बिचारी स्वराज भाषा है ।......

 
 
अहोई माता की आरती  - भारत-दर्शन संकलन

अहोई माता की आरती

जय अहोई माता, जय अहोई माता!
तुमको निसदिन ध्यावत हर विष्णु विधाता। टेक।। ......

 
 
जैसा सवाल वैसा जवाब - भारत-दर्शन संकलन

बादशाह अकबर अपने मंत्री बीरबल को बहुत पसंद करता था। बीरबल की बुद्धि के आगे बड़े-बड़ों की भी कुछ नहीं चल पाती थी। इसी कारण कुछ दरबारी बीरबल से जलते थे। वे बीरबल को मुसीबत में फँसाने के तरीके सोचते रहते थे।

अकबर के एक खास दरबारी ख्वाजा सरा को अपनी विद्या और बुद्धि पर बहुत अभिमान था। बीरबल को तो वे अपने सामने निरा बालक और मूर्ख समझते थे। लेकिन अपने ही मानने से तो कुछ होता नहीं! दरबार में बीरबल की ही तूती बोलती और ख्वाजा साहब की बात ऐसी लगती थी जैसे नक्कारखाने में तूती की आवाज़। ख्वाजा साहब की चलती तो वे बीरबल को हिंदुस्तान से निकलवा देते लेकिन निकलवाते कैसे!

एक दिन ख्वाजा ने बीरबल को मूर्ख साबित करने के लिए बहतु सोचे -विचार कर कुछ मुश्किल प्रश्न सोच लिए। उन्हें विश्वास था कि बादशाह के उन प्रश्नों को सुनकर बीरबल के छक्के छूट जाएँगे और वह लाख कोशिश करके भी संतोषजनक उत्तर नहीं दे पाएगा। फिर बादशाह मान लेगा कि ख्वाजा सरा के आगे बीरबल कुछ नहीं है।

ख्वाजा साहब अचकन-पगड़ी पहनकर दाढ़ी सहलाते हुए अकबर के पास पहुँचे और सिर झुकाकर बोले, "बीरबल बड़ा बुद्धिमान बनता है। आप भी उसकी लंबी-चौड़ी बातों के धोखे में आ जाते हैं। मैं चाहता हूँ कि आप मेरे तीन सवालों के जवाब पूछकर उसके दिमाग की गहराई नाप लें। उस नकली अक्ल-बहादुर की कलई खुल जाएगी।

ख्वाजा के अनुरोध करने पर अकबर ने बीरबल को बुलाया और उनसे कहा, "बीरबल! परम ज्ञानी ख्वाजा साहब तुमसे तीन प्रश्न पूछना चाहते हैं। क्या तुम उनके उत्तर दे सकोगे?"

बीरबल बोले, "जहाँपनाह! ज़रूर दूँगा। खुशी से पूछें।"

ख्वाजा साहब ने अपने तीनों सवाल लिखकर बादशाह को दे दिए।

अकबर ने बीरबल से ख्वाजा का पहला प्रश्न पूछा, "संसार का केंद्र
कहाँ है?"

बीरबल ने तुरंत ज़मीन पर अपनी छड़ी गाड़कर उत्तर दिया, "यही स्थान चारों ओर से दुनिया के बीचों-बीच पड़ता है। यदि ख्वाजा साहब को विश्वास न हो तो वे फ़ीते से सारी दुनिया को नापकर दिखा दें कि मेरी बात गलत है।"

अकबर ने दूसरा प्रश्न किया, "आकाश में कितने तारे हैं?"

बीरबल ने एक भेड़ मँगवाकर कहा, "इस भेड़ के शरीर में जितने बाल हैं, उतने ही तारे आसमान में हैं। ख्वाजा साहब को इसमें संदेह हो तो वे बालों को......

 
 
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महर्षि दुर्वासा देवराज इंद्र की कथा  - भारत-दर्शन संकलन

अपने क्रोध के लिए विख्यात महर्षि दुर्वासा ने किसी बात पर प्रसन्न होकर देवराज इंद्र को एक दिव्य माला प्रदान की। अपने घमण्ड में चूर होकर इन्द्र ने उस माला को ऐरावत हाथी के मस्तक पर रख दिया। ऐरावत ने माला लेकर उसे पैरों तले रौंद डाला। यह देखकर महर्षि दुर्वासा ने इसे अपना अपमान समझा और क्रोध में आकर इन्द्र को शाप दे दिया।

दुर्वासा के शाप से सारे संसार में हाहाकार मच गया। रक्षा के लिए देवताओं और दैत्यों ने मिलकर समुद्र मंथन किया, जिसमें से अमृत कुम्भ निकला, किन्तु यह नागलोक में था। अतः इसे लेने के लिए पक्षिराज गरूड़ को जाना पड़ा। नागलोक से अमृत घट लेकर गरूड़ को वापस आते समय हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक इन चार स्थानों पर कुम्भ को रखना पड़ा और इसी कारण ये चार स्थान हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक कुम्भस्थल के नाम से विख्यात हो गये।

[भारत-दर्शन संकलन]


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अपने देशवासियों के नाम - बजरंग वर्मा

आओ,

हम सब अब

हिंदुस्तानी ही रह जाएं ।

 

पहले एक साथ चलकर समंदर में,

अपनी अपनी जातियाँ धो आएं,

और,

तोड़ दें अपने अपने प्राँतों की सीमाएं

जिससे

बंगाली, गुजराती, मराठी, मद्रासी आदि

हमारी सारी संज्ञाएं मिट जाएं

और

हम सब केवल हिंदुस्तानी ही रह जाएं ।

 

हममें हिंदू, मुस्लिम, सिख, इसाई भी अब

कोई न रहे ।

हममें हर आदमी अपना धर्म

अब बस एक ही कहे।

बस एक ही मंदिर हो हमारा

-यह देश,

चाहो तो उसे

मस्जिद कहो, गिरजा या गुरुद्वारा,

जिसकी रक्षा में हम जिए और मर जाएं ।

आओ हम सब केवल हिंदुस्तानी ही रह जाएं ।

पहले एक साथ चलकर समंदर में,

अपनी अपनी जातियाँ धो आएं।

-बजरंग वर्मा

 

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चंद्रशेखर आज़ाद का राखी प्रसंग - भारत-दर्शन संकलन

बात उन दिनों की है जब क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत थे और फिरंगी उनके पीछे लगे थे।

फिरंगियों से बचने के लिए शरण लेने हेतु आजाद एक तूफानी रात को एक घर में जा पहुंचे जहां एक विधवा अपनी बेटी के साथ रहती थी। हट्टे-कट्टे आजाद को डाकू समझ कर पहले तो वृद्धा ने शरण देने से इनकार कर दिया लेकिन जब आजाद ने अपना परिचय दिया तो उसने उन्हें ससम्मान अपने घर में शरण दे दी। बातचीत से आजाद को आभास हुआ कि गरीबी के कारण विधवा की बेटी की शादी में कठिनाई आ रही है। आजाद महिला को कहा, 'मेरे सिर पर पांच हजार रुपए का इनाम है, आप फिरंगियों को मेरी सूचना देकर मेरी गिरफ़्तारी पर पांच हजार रुपए का इनाम पा सकती हैं जिससे आप अपनी बेटी का विवाह सम्पन्न करवा सकती हैं।

यह सुन विधवा रो पड़ी व कहा- "भैया! तुम देश की आजादी हेतु अपनी जान हथेली पर रखे घूमते हो और न जाने कितनी बहू-बेटियों की इज्जत तुम्हारे भरोसे है। मैं ऐसा हरगिज नहीं कर सकती।" यह कहते हुए उसने एक रक्षा-सूत्र आजाद के हाथों में बाँध कर देश-सेवा का वचन लिया। सुबह जब विधवा की आँखें खुली तो आजाद जा चुके थे और तकिए के नीचे 5000 रूपये पड़े थे। उसके साथ एक पर्ची पर लिखा था- "अपनी प्यारी बहन हेतु एक छोटी सी भेंट- आजाद।"

[भारत-दर्शन संकलन]

 


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मैं ज्ञान का दीपक जलाए रखूंगा  - रोहित कुमार 'हैप्पी'

डॉ कलाम बहुमुखी प्रतिभा के स्वामी थे। उन्होंने कविता भी की है:

"अचानक एक फूल मेरे सिर पर गिरा
और बोला -......

 
 
दूरदर्शिता | सुभाष चन्द्र बोस  - सुखबीर

भारत की आज़ादी के लिए ‘आज़ाद हिन्द फौज' का संगठन बहुत अच्छा बन गया था और वह बड़े हौसले से काम कर रही थी। अकस्मात एक दिन साम्प्रदायिक विद्वेष भड़क उठा। हिन्दुओं का कहना था कि रसोई में गाय का मांस नहीं बनेगा। दूसरी ओर मुसलमानों का आग्रह था कि सूअर का मांस नहीं बनेगा।

दोनों की अपनी-अपनी भावना थी, अपने-अपने तर्क थे। कोई भी पक्ष झुकने को तैयार नहीं था।

विवाद ने उग्र रुप धारण कर लिया। समझौता असंभव हो गया तो बात नेताजी तक पहुंची।

नेताजी ने दोनों पक्षों की बात बड़े ध्यान से सुनी। उनकी भावना को गहराई से समझा और अगले दिन निर्णय देने को कहा। चूंकि वह आज़ाद हिन्द फौज के शीर्ष स्थान पर थे, अत: उनका निर्णय अंतिम था।

अगला दिन आया। नेताजी का निर्णय जानने के लिए लोगों की उत्सुकता चरम सीमा पर थी।

नेताजी ने जो निर्णय दिया, उसकी स्वप्न में भी किसी ने कल्पना नहीं की थी। उन्होंने कहा, "आगे से हमारे मैस में न गाय का मांस पकेगा, न सूअर का।"

नेताजी की दूरदर्शिता से एक बहुत बड़ा संकट टल गया और दोनों पक्ष संतुष्ट हो गये।

- सुखबीर

[साभार - बड़ों की बड़ी बातें, सस्ता साहित्य मंडल]

 


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गणतंत्र दिवस आयोजन - भारत-दर्शन संकलन

हर वर्ष गणतंत्र दिवस पूरे देश में बड़े उत्‍साह के साथ मनाया जाता है। राजधानी नई दिल्‍ली में राष्‍ट्र‍पति भवन के समीप रायसीना पहाड़ी से राजपथ पर गुजरते हुए इंडिया गेट तक और बाद में ऐतिहासिक लाल किले तक भव्य परेड का आयोजन किया जाता है।

यह आयोजन भारत के प्रधानमंत्री द्वारा इंडिया गेट पर अमर जवान ज्‍योति पर पुष्‍प अर्पित करने के साथ आरंभ होता है, जो उन सभी सैनिकों की स्‍मृति में है जिन्‍होंने देश के लिए अपने जीवन कुर्बान कर दिए। इसके शीघ्र बाद 21 तोपों की सलामी दी जाती है, राष्‍ट्रपति महोदय द्वारा राष्‍ट्रीय ध्‍वज फहराया जाता है और राष्‍ट्रीय गान होता है। इस प्रकार परेड आरंभ होती है।

महामहिम राष्‍ट्रपति के साथ एक उल्‍लेखनीय विदेशी राष्‍ट्र प्रमुख आते हैं, जिन्‍हें आयोजन के मुख्‍य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया जाता है।

राष्‍ट्रपति महोदय के सामने से खुली जीपों में वीर सैनिक गुजरते हैं। भारत के राष्‍ट्रपति, जो भारतीय सशस्‍त्र बल, के मुख्‍य कमांडर हैं, विशाल परेड की सलामी लेते हैं। भारतीय सेना द्वारा इसके नवीनतम हथियारों और बलों का प्रदर्शन किया जाता है जैसे टैंक, मिसाइल, राडार आदि।

इसके शीघ्र बाद राष्‍ट्रपति द्वारा सशस्‍त्र सेना के सैनिकों को बहादुरी के पुरस्‍कार और मेडल दिए जाते हैं जिन्‍होंने अपने क्षेत्र में अभूतपूर्व साहस दिखाया और ऐसे नागरिकों को भी सम्‍मानित किया जाता है जिन्‍होंने विभिन्‍न परिस्थितियों में वीरता के अलग-अलग कारनामे किए।

इसके बाद सशस्‍त्र सेना के हेलिकॉप्‍टर दर्शकों पर गुलाब की पंखुडियों की बारिश करते हुए फ्लाई पास्‍ट करते हैं।

सेना की परेड के बाद रंगारंग सांस्‍कृतिक परेड होती है। विभिन्‍न राज्‍यों से आई झांकियों के रूप में भारत की समृद्ध सांस्‍कृतिक विरासत को दर्शाया जाता है। प्रत्‍येक राज्‍य अपने अनोखे त्‍यौहारों, ऐतिहासिक स्‍थलों और कला का प्रदर्शन करते है। यह प्रदर्शनी भारत की संस्‍कृति की विविधता और समृद्धि को एक त्‍यौहार का रंग देती है।

विभिन्‍न सरकारी विभागों और भारत सरकार के मंत्रालयों की झांकियां भी राष्‍ट्र की प्र‍गति में अपने योगदान प्रस्‍तुत करती है। इस परेड का सबसे खुशनुमा हिस्‍सा तब आता है जब बच्‍चे, जिन्‍हें राष्‍ट्रीय वीरता पुरस्‍कार हाथियों पर बैठकर सामने आते हैं। पूरे देश के स्‍कूली बच्‍चे परेड में अलग-अलग लोक नृत्‍य और देश भक्ति की धुनों पर गीत प्रस्‍तुत करते हैं।

परेड में कुशल मोटर साइकिल सवार, जो सशस्‍त्र सेना कार्मिक होते हैं, अपने प्रदर्शन करते हैं। परेड का सर्वाधिक प्रतीक्षित भाग फ्लाई पास्‍ट है जो भारतीय वायु सेना द्वारा किया जाता है। फ्लाई पास्‍ट परेड का अंतिम पड़ाव है, जब भारतीय वायु सेना के लड़ाकू विमान राष्‍ट्रपति का अभिवादन करते हुए मंच पर से गुजरते हैं।

जीवन्‍त वेबकास्‍ट (बाहरी वेबसाइट जो एक नई विंडों में खुलती हैं) के जरिए गणतंत्र दिवस की परेड उन लाखों व्‍यक्तियों को उपलब्‍ध कराई जाती है जो इंटरनेट पर परेड देखना चाहते हैं। यह आयोजन होने के बाद भी इसके कुछ खास हिस्‍से "मांग पर वीडियो उपलब्‍ध" पर मौजूद होते हैं।

राज्‍यों में होने वाले आयोजन अपेक्षाकृत छोटे स्‍तर पर होते हैं और ये सभी राज्‍यों की राजधानियों में आयोजित किए जाते हैं। यहां राज्य के राज्‍यपाल तिरंगा झंडा फहराते हैं। समान प्रकार के आयोजन जिला मुख्‍यालय, उप संभाग, तालुकों और पंचायतों में भी किए जाते हैं।
प्रधानमंत्री की रैली

गणतंत्र दिवस का आयोजन कुल मिलाकर तीन दिनों का होता है और 27 जनवरी को इंडिया गेट पर इस आयोजन के बाद प्रधानमंत्री की रैली में एनसीसी केडेट्स द्वारा विभिन्‍न चौंका देने वाले प्रदर्शन और ड्रिल किए जाते हैं।......

 
 
कबूतर का घोंसला - अजीत मधुकर

कबूतर के अतिरिक प्रत्येक पक्षी का घोंसला होता है, जिसको वास्तव में घोंसला कहा जा सकता है । किन्तु कबूतर का घोंसला हमेशा बेढंगे तरीके से बना होता है, जिसमें से कभी भी अंडे गिर सकते हैं।

परन्तु इसका कारण क्या है?

इसकी एक रोचक कहानी है।

बहुत पुराने समय की बात है। उस समय कबूतर अपना घोंसला नहीं बनाया करता था । समय आने पर उसकी साथिन ज़मीन पर धीरे से सटकर अंडे दे देती थी ।

एक दिन एक चालाक लोमड़ी अाँख बचाकर सारे अंडे खा गयी। कबूतर और कबूतरी का दिल टूक-टूक हो गया। कबूतर आकाश में उड़ाने भरता, झाड़ियों की कोमल टहनियों पर बैठकर निश्वास लेता । वह सिसक-सिसककर कहता, छह अंडे थे, अब एक भी नहीं बचा । लोमड़ी मेरे सब अंडों की चुराकर ले गयी ।

कई दिनों तक कबूतर इस घटना पर शोक मनाता रहा । अन्त में उसने घोंसला बनाने का फ़ैसला किया। उसने कुछ तिनके इकट्ठे किये। तिनके इकट्टे करने पर उसे महसूस हुआ कि वह यह तो जानता ही नहीं कि घोंसला कैसे बनाया जाता है। आख़िर उसने घोंसला बनाना सीखने के लिए सारे जंगल के पंछियों को आमन्त्रित किया।

पंछी इकट्ठा हो उसका घोंसला बनाने और उसे सिखाने लगे । परन्तु अभी पंछियों ने कुछ तिनके ही जमाये थे कि कबूतर ने उनको रोक दिया । कहा-मुझे पता है कि घोंसला किस तरह बनाया जाता है । वह जोर से चिल्लाया--मैं अपने-आप बना सकता हूँ।


कोई स्वयं अपना काम कर सकता है, तो अन्य कोई अपने को कष्ट दे ? पंछी तिनके पटककर उड़ गये ।

कबूतर ने एक तिनका एक टहनी पर रखा, दूसरा दूसरी टहनी पर, इस तरह दरख़्त की हर शाख पर उसने कोशिश की, कई बार कोशिश की, परन्तु वह घोंसला न बना सका ।

तो अब क्या किया जाये ?

उसने फिर सब पंछियों को बुलाया और घोंसला बनाना सिखा देने की मिन्नत की । वह-सब उड़कर आ पहुँचे और उन्होंने अपना काम शुरू कर दिया। लेकिन ज्योंही उन्होंने मिलकर घोंसले का आधा हिस्सा पूरा किया कि कबूतर फिर चिल्ला उठा-मैं जानता हूँ, यह कैसे बनता है। मैं खुद बना सकता हूँ।

-अच्छा, तुम खुद बना सकते हो, तो बना लो। हमें नाहक क्यों परेशान करते हो ? पंछिओं ने कहा और वहाँ से उड़ गये ।

कबूतर अपने काम में जुट गया। उसने एक तिनका इधर रखा, एक उधर । परन्तु उससे कुछ भी बन ही न पा रहा था | उसने पंछियों को तीसरी बार बुलाया, परन्तु इस बार वे नहीं आये ।

जो यह सोचता-समझता हो कि वह सब-कुछ समझता है, तो उसको कुछ सिखाने से क्या लाभ !

यही कारण है कि कबूतर का घोंसला आज तक बेढंगे तरीके से बना चला आ रहा है।

प्रेषक: अजीत मधुकर

 

 

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आदमी की वंदना करो - डॉ नथमल झँवर

सब प्रसन्न हों, ना कोई भी उदास हो आशावादी हों, ना कोई भी निराश हो
देश हित जिए, मरें भी देश के लिए ये तम न हो कहीं भी, सूर्य सा प्रकाश हो......

 
 
माँ - शैलेन्द्र कुमार दुबे


"माँ, हम दोनों ने फैसला कर लिया है कि हमारा बच्चा किसी और की कोख से पैदा होगा ।"

"क्या कह रही हो, पागल तो नहीं हो गई? तुम्हारा बच्चा किसी और की कोख से ?"

"माँ, हम किराये की कोख का इंतज़ाम कर रहे हैं।"

"...पर लोग क्या कहेंगे?"

"लोगों को कह दूँगी, कि 'आय एम अनकेपेबल।' और माँ, अगर सब कुछ ठीक रहा तो मैं इस बर्ष डायरेक्टर बन जाऊँगी, फिर सोचो कितना पैसा कमाऊँगी। और उसको सब कुछ दूँगी।"

"अभी बच्चे को पेट में रहने का समय तो दे नहीं पा रही, बाद का किसने क्या देखा है ?" माँ ने झल्लाते हुए कहा।

- शैलेन्द्र कुमार दुबे, केन्या ......

 
 
गिरगिट - एन्तॉन चेखव

पुलिस का दारोगा ओचुमेलोव अपना नया ओवरकोट पहने, हाथ में एक बण्डल दबाए बाजार के चौक से गुज़र रहा है। लाल बालों वाला एक सिपाही हाथ में टोकरी लिये उसके पीछे-पीछे लपका हुआ चला आ रहा है। टोकरी ऊपर तक बेरों से भरी हुई थी जिसे उन्होंने तुरंत जब्त कर लिया। चारों ओर ख़ामोशी...चौक में एक भी आदमी नहीं...दुकानों व सरायों के भूखे जबड़ों की तरह खुले हुए दरवाज़े ईश्वर की सृष्टि को उदासी भरी निगाहों से ताक रहे हैं। यहाँ तक कि कोई भिखारी भी आसपास दिखायी नहीं देता है।

"अच्छा! तो तू काटेगा?   क्यों बे शैतान कहीं का!" ओचुमेलोव के कानों में सहसा यह आवाज़ पड़ी, "पकड़ लो, छोकरो! जाने न पाये! अब तो काटना क़ानूनी मना है! पकड़ लो! आ...आह!"

एक कुत्ते के पिपयाने की आवाज़ सुनायी दी। ओचुमेलोव ने उधर नज़र दौड़ायी जिधर से आवाज़ आयी थी।  उसने देखा कि व्यापारी पिचूगिन की लकड़ी की टाल में से एक कुत्ता तीन टाँगों पर भागता हुआ चला आ रहा है।  कलफदार छपी हुई कमीज़ पहने, बास्कट के बटन खोले एक आदमी उसका पीछा कर रहा है जिसका बदन आगे की ओर झुका हुआ है।वह कुत्ते के पीछे लपकता है और उसे पकड़ने की कोशिश में गिरते-गिरते भी कुत्ते की पिछली टाँग पकड़ लेता है। कुत्ते की कीं-कीं और वही चीख़ - "जाने न पाये!" दोबारा सुनायी देती है। ऊँघते हुए लोग गरदनें दुकनों से बाहर निकल कर देखने लगते हैं, और देखते-देखते एक भीड़ टाल के पास जमा हो जाती है मानो ज़मीन फाड़ कर निकल आयी हो।

"हुजूर! मालूम पड़ता है कि कुछ झगड़ा-फसाद है!" सिपाही बोला।

ओचुमेलोव बायीं ओर मुड़ता है और भीड़ की तरफ़ चल देता है। वह देखता है कि टाल के फाटक पर वही आदमी खड़ा है, जिसकी वास्कट के बटन नदारद हैं। वह अपना दाहिना हाथ ऊपर उठाये भीड़ को अपनी लहूलुहान उँगली दिखा रहा है। उसके नशीले चेहरे पर साफ़ लिखा लगता है, "तुझे मैंने सस्ते में न छोड़ा, साले!" और उसकी उँगली भी जीत का झण्डा लगती है। ओचुमेलोव इस व्यक्ति को पहचान लेता है। वह सुनार ख्रूकिन है। भीड़ के बीचोंबीच अगली टाँगें पसारे, अपराधी - एक सफ़ेद ग्रेहाउँड पिल्ला, दुबका पड़ा, ऊपर से नीचे तक काँप रहा है। उसका मुँह नकीला है और पीठ पर पीला दाग है। उसकी आँसू भरी आँखों में मुसीबत और डर की छाप है।

"क्‍या हंगामा मचा रखा है यहाँ?" ओचुमेलोव कन्धों से भीड़ को चीरते हुए सवाल करता है, "तुम उँगली क्यों ऊपर उठाये हो? कौन चिल्ला रहा था?"

"हुजूर! मैं चुपचाप अपनी राह जा रहा था," ख्रूकिन अपने मुँह पर हाथ रख कर खाँसते हुए कहता है। मित्री मित्रिच से मुझे लकड़ी के बारे में कुछ काम था। एकाएक, मालूम नहीं क्यों, इस कमबख्त ने मेरी उँगली में काट लिया...हुजूर माफ़ करें, पर मैं कामकाजी आदमी ठहरा...और फिर हमारा काम भी बड़ा पेचीदा है। एक हफ्ते तक शायद मेरी यह उँगली काम के लायक न हो पायेगी। मुझे हरजाना दिलवा दीजिये। और, हुजूर, यह तो कानून में कहीं नहीं लिखा है कि ये मुए जानवर काटते रहें और हम चुपचाप बरदाश्त करते रहें...अगर हम सभी ऐसे ही काटने लगें, तब तो जीना दूभर हो जाये..."

"हुँह...अच्छा..." ओचुमेलोव गला साफ़ करके, त्योरियाँ चढ़ाते हुए कहता है, "ठीक है...अच्छा, यह कुत्ता है किसका? मैं इस बात को यहीं नहीं छोड़ुंगा! यों कुत्तों को छुट्टा छोड़ने का मजा चखा दूँगा! लोग कानून के मुताबिक नहीं चलते, उनके साथ अब सख्ती से पेश आना पड़ेगा! ऐसा जुरमाना ठोकूंगा कि दिमाग़ ठीक हो जायेगा बदमाश को! फ़ौरन समझ जायेगा कि कुत्तों और हर तरह के ढोर-डंगर को ऐसे छुट्टा छोड़ देने का क्या मतलब है! मैं ठीक कर दूँगा, उसे! येल्दीरिन! सिपाही को सम्बोधित कर दारोगा चिल्लाता है, पता लगाओ कि यह कुत्ता है किसका, और रिपोर्ट तैयार करो! कुत्ते को फ़ौरन मरवा दो! यह शायद पागल होगा...मैं पूछता हूँ यह कुत्ता है किसका?"

"यह शायद जनरल झिगालोव का हो!" भीड़ में से कोई कहता है। "जनरल झिगालोव का? हुँह...येल्दीरिन, जरा मेरा कोट तो उतारना...ओफ, बड़ी गर्मी है...मालूम पड़ता है कि बारिश होगी। अच्छा, एक बात मेरी समझ में नहीं आती कि इसने तुम्हें काटा कैसे?" ओचुमेलोव ख्रूकिन की ओर मुड़ता है। "यह तुम्हारी उँगली तक पहुँचा कैसे? यह ठहरा जरा सा जानवर और तुम पूरे लहीम-शहीम आदमी। किसी कील-वील से उँगली छील ली होगी और सोचा होगा कि कुत्ते के सिर मढ़ कर हरजाना वसूल कर लो। मैं ख़ूब समझता हूँ! तुम्हारे जैसे बदमाशों की तो मैं नस-नस पहचानता हूँ!"

"इसने उसके मुँह पर जलती हुई सिगरेट लगा दी, हुजूर! बस, यूँ ही मज़ाक़ में। और यह कुत्ता बेवक़ूफ़ तो है नहीं, उसने काट लिया। ओछा आदमी है यह हुजूर!"

"अबे! काने! झूठ क्यों बोलता है? जब तूने देखा नहीं, तो झूठ उड़ाता क्यों है? और सरकार तो ख़ुद समझदार हैं। सरकार ख़ुद जानते हैं कि कौन झूठा है और कौन सच्चा। और अगर मैं झूठा हूँ, तो अदालत से फैसला करा लो। कानून में लिखा है...अब हम सब बराबर हैं, ख़ुद मेरा भाई पुलिस में है...बताये देता हूँ...हाँ..."

"बन्द करो यह बकवास!"

"नहीं, यह जनरल साहब का नहीं है," सिपाही गंभीरतापूर्वक कहता है "उनके पास ऐसा कोई कुत्ता है ही नहीं, उनके तो सभी कुत्ते शिकारी पोण्टर हैं।

"तुम्हें ठीक मालूम है?"

"जी, सरकार।"

"मैं भी जानता हूँ। जनरल साहब के सब कुत्ते अच्छी नस्ल के हैं, एक से एक कीमती कुत्ता है उनके पास। और यह! यह भी कोई कुत्तों जैसा कुत्ता है, देखो न! बिल्कुल मरियल खारिश्ती है। कौन रखेगा ऐसा कुत्ता? तुम लोगों का दिमाग़ तो खराब नहीं हुआ? अगर ऐसा कुत्ता मास्को या पीटर्सबर्ग में दिखायी दे, तो जानते हो क्या हो? कानून की परवाह किये बिना एक मिनट में उसकी छुट्टी कर दी जाये! ख्रूकिन! तुम्हें चोट लगी है और तुम इस मामले को यूँ ही मत टालो...इन लोगों को मजा चखाना चाहिए! ऐसे काम नहीं चलेगा।"

"लेकिन मुमकिन है, जनरल साहब का ही हो..." कुछ अपने आपसे सिपाही फिर कहता है, "इसके माथे पर तो लिखा नहीं है। जनरल साहब के अहाते में मैंने कल बिल्कुल ऐसा ही कुत्ता देखा था।"

"हाँ, हाँ, जनरल साहब का ही तो है!" भीड़ में से किसी की आवाज़ आती है।

"हुँह...येल्दीरिन, जरा मुझे कोट तो पहना दो...हवा चल पड़ी है, मुझे सरदी लग रही है...कुत्ते को जनरल साहब के यहाँ ले जाओ और वहाँ मालूम करो। कह देना कि इसे सड़क पर देख कर मैंने वापस भिजवाया है...और हाँ, देखो, यह भी कह देना कि इसे सड़क पर न निकलने दिया करें...मालूम नहीं कितना कीमती कुत्ता हो और अगर हर बदमाश इसके मुँह में सिगरेट घुसेड़ता रहा, तो कुत्ता तबाह हो जायेगा। कुत्ता बहुत नाजुक जानवर होता है...और तू हाथ नीचा कर, गधा कहीं का! अपनी गन्दी उँगली क्यों दिखा रहा है? सारा कुसूर तेरा ही है...

"यह जनरल साहब का बावर्ची आ रहा है, उससे पूछ लिया जाये। ए प्रोखोर! इधर तो आना भाई! इस कुत्ते को देखना, तुम्हारे यहाँ का तो नहीं है?"

"अमाँ वाह! हमारे यहाँ कभी भी ऐसे कुत्ते नहीं थे!"

"इसमें पूछने की क्या बात थी? बेकार वक्त खराब करना है," ओचुमेलोव कहता है, "आवारा कुत्ता है। यहाँ खड़े-खड़े इसके बारे में बात करना समय बरबाद करना है। कह दिया न आवारा है, तो बस आवारा ही है। मार डालो और काम ख़त्म!"

"हमारा तो नहीं है," प्रोखोर फिर आगे कहता है, "पर यह जनरल साहब के भाई साहब का कुत्ता है। उनको यह नस्ल पसन्द है..."

"क्‍या? जनरल साहब के भाई साहब आये हैं? व्लीदीमिर इवानिच?" अचम्भे से ओचुमेलोव बोल उठता है, उसका चेहरा आह्लाद से चमक उठता है। "जरा सोचो तो! मुझे मालूम भी नहीं! अभी ठहरेंगे क्या?"

"हाँ..."

"जरा सोचो, वह अपने भाई से मिलने आये हैं...और मुझे मालूम भी नहीं कि वह आये हैं। तो यह उनका कुत्ता है? बड़ी ख़ुशी की बात है। इसे ले जाओ...कुत्ता अच्छा...और कितना तेज़़ है...इसकी उँगली पर झपट पड़ा! हा-हा-हा...बस-बस, अब काँप मत। गुर्र-गुर्र...शैतान गुस्से में है...कितना बढ़िया पिल्ला है..."

प्रोखोर कुत्ते को बुलाता है और उसे अपने साथ ले कर टाल से चल देता है। भीड़ ख्रूकिन पर हसने लगती है।

"मैं तुझे ठीक कर दूँगा," ओचुमेलोव उसे धमकाता है और अपना ओवरकोट लपेटता हुआ बाजार के चौक के बीच अपने रास्ते चल देता है।

(1884)

- एन्तॉन चेखव
[‘गिरगिट' (A Chameleon) कहानी का अनुवाद। ]

एन्तॉन पेवलोविच चेखोव ( 1860 - 1904 ) ने मास्को विश्वविद्यालय से चिकित्सा शास्त्र में डिग्री प्राप्त की। आरंभ में चेखोव ने हास्य-लेख लेखन किया व शीघ्र ही वह संसार का एक अत्यंत सफल लघुकथा लेखक बन गया।

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जीवन-संध्या  - लीलावती मुंशी

दिन का पिछला पहर झुक रहा था। सूर्य की उग्र किरणों की गर्मी नरम पड़ने लगी थी, रास्ता चलने वालों की छायाएँ लंबी होती जा रही थीं।

सामने एक पहाड़ धूप में थोड़ा-सा चमक रहा था और थोड़ा-सा बदली की छाया में अंधकारग्रस्त था। रास्ते के दोनों ओर खेत थे, पर एक में भी अनाज का पौधा न उगा था । सामने रास्ते पर थोड़े-थोड़े अंतर पर वृक्ष आते थे; पर मुसाफिर की थकान उनसे पूरी तरह उतरती न थी।

इसी मार्ग से वृद्ध, थके हुए कृष्ण आगे-आगे चले जा रहे थे। गंतव्य स्थान का उन्होंने निश्चय नहीं किया था। जहां पृथ्वी रहने की जगह दे दे और जहां उनको कोई पहचानता न हो, दुनिया के किसी ऐसे कोने को वे खोज रहे थे ।

इनके पैर थक गए थे। इनका वृद्ध शरीर झुकने लगा था। इनकी आंखें तेज विहीन हो गई थी। वस्त्र मैले और अस्त-व्यस्त थे।

यादवों के युद्ध के उपरांत, समस्त स्वजनों के संहार के बाद कृष्ण अपने लिए दुनिया का एक कोना खोजने निकले थे। अब तक भारत में इन्हें एक भी कोना ऐसा न दिखाई दिया था, जहां इन्हें कोई पहचानता न हो। इनके पूर्व पराक्रमों को सारी दुनिया जानती थी। कोई ऐसा मनुष्य न था, जो इन्हें देखकर कांप न जाता हो। कोई ऐसा मनुष्य न था, जो इन्हें देख कर भाग जाने के लिए तत्पर ना हो जाता हो।

कोई इनको देखता कि तुरंत पूतना-वध से लगाकर इनके अमानुषी-दैवी चालें उसकी आंखों के सामने आ जाती और उनमें से किसी में कहीं वह न फंस जाए, इस डर से दूर भागता। कोई इनके जरासंध, भीष्म, शिशुपाल और दूसरे अनेक वधों में दैत्य-छल और क्रूरता के दर्शन करता और इनके मार्ग से दूर रहने में सावधानी रखता। सुंदर स्त्रियों या बालिकाओं के पतियों और पिताओं को इन्हें देखते ही इनका स्त्री पराक्रम याद आ जाता, और इस भी से कि कहीं इनकी बालिकाओं अथवा स्त्रियों को भी यह पागल न कर डालें, जहां से यह निकलते, वहां के लोग अपनी स्त्रियों को घर के सबसे भीतरी भाग में, जहां उनकी मोहक नेत्र न पड़ सकें, छिपा कर रखते। पंडित वाद-विवाद में परास्त होने के भय से भागते। राजा राज्य चले जाने के भय से भागते। साधारण जन-समाज कुछ समझ में न आने वाले भय के कारण दूर रहता। छोटे बालक भी इस विचित्र वृद्ध पुरुष की आंखें तथा दृष्टि देखकर दूर से ही भाग जाना पसंद करते।

हारे-थके श्रीकृष्ण आगे-आगे अपना रास्ता नापे जा रहे थे। महाभारत के युद्ध को जीतने वाले, अर्जुन के सखा और सारथी, कंस का संहार करने वाले, कालिया मर्दन करने वाले, अनेक व्यक्तियों के काल तथा अनेक ऋषि-मुनियों की आराधना के पात्र, गोपियों के प्रिय श्रीकृष्ण आज असहाय दशा में विश्राम-स्थान की खोज में इधर-उधर मारे-मारे फिर रहे थे।

इनका कोई मित्र नहीं बचा था। इनका कोई स्वजन नहीं बचा था। महाभारत आदि अनेक छोटे-बड़े युद्ध में तथा अंत में यादवस्थली में सब समाप्त हो गए थे । रह गए केवल वे अकेले भक्ति-विहीन, मित्र-विहीन, सोलह हज़ार और आठ पत्नियों से विहीन। जिनके एक-एक बोल पर कभी मानवों और देवों का समस्त विश्व निछावर रहता था, आज उनमें से एक भी उनका साथ देने वाला नहीं था।

तेज धूप में चलते-चलते गर्मी और भूख से कृष्ण के प्राण आकुल हो रहे थे। सामने एक झोपड़ी में एक ग्वालिन गाय दूह रही थी। सारे जीवन में स्त्रियों ने कृष्ण का आदर-सत्कार सबसे अधिक किया था। कृष्ण ने उसी आशा में झोपड़ी की ओर पैर बढ़ाए ।

कृष्ण को आते हुए देखकर ग्वालिन चौंक कर खड़ी हो गई। कृष्ण इस प्रदेश में भ्रमण कर रहे हैं, यह बात तो कब की उसके कानों में पहुंच गई थी। इस वृद्ध, मैले, थके-हारे मनुष्य के हाथ में से गोकुल की गोपियों को जीतने वाली शक्ति जा चुकी थी । इन्होंने संकोच भरे स्वर में पूछा, "ग्वालिन, दहीं दोगी?"

ग्वालिन की 'ना' कहने की हिम्मत नहीं हुई। पत्तों पर थर-थर कांपता हुआ ताजे दूध का घड़ा उसने उठाया; पर वह हाथ से छूटकर गिर पड़ा । ग्वालिन बिना कुछ कहे-सुने घर में से दहीं की दूसरी मटकी ले आई और वह कृष्ण की अंजलि में उडेलने लगी। बहुत दिनों के भूखे कृष्ण ने एक ही बार में अंजली से मुंह लगाकर सारी मटकी पी डाली। इनके निष्क्रिय होते हुए शरीर में शक्ति का संचार होने लगा। कृतज्ञता की एक गंभीर दृष्टि इन्होंने ग्वालिन पर डाली ग्वालिन की आंखों में अब भी भय के चिह्न थे।

कृष्ण को जीवन में पहली बार अपने आप पर तिरस्कार का अनुभव हुआ। इसलिए नहीं कि किसी नारी की मित्रता के योग्य वह नहीं रह गए थे, बल्कि इसलिए कि कोई भी नारी अब अपने को उनकी मित्रता के योग्य नहीं समझती थी । सब इनको देखकर डरतीं और भाग जातीं थी। हजारों स्त्री-पुरुषों के साथ रहने वाले श्रीकृष्ण ऐसा भयंकर एकांत किस प्रकार सहन कर सकते थे? मानव के उद्धार के लिए इन्होंने अवतार लिया, मानवता की सेवा में अपनी शक्तियां समर्पित की तथा जीवन भर मानवता की रक्षा के लिए युद्ध लड़े । और, आज इस सवा सौ वर्ष की वृद्धावस्था में एक झोपड़ी भी इन्हें आश्रय देने के लिए न थी! एक भी आदमी इनके साथ बात करने के लिए न था! "हे परमात्मा! इस जीवन की तुम्हीं अंतिम शरण हो।" कृष्ण ने विदीर्ण अंतर से प्रार्थना की।

संध्या की छाया प्रतिपल लंबी होती जा रही थी। ग्वालिन का मौन आभार मानकर श्रीकृष्ण ने जंगल की राह ली। इन्हें पूर्व जन्म की स्मृतियां एक के बाद एक सताने लगी। दुनिया की दृष्टि में इन्होंने सबसे विजयी जीवन व्यतीत किया था। राज्य खोए और लिए तथा दान किए। शत्रुओं का संहार किया, मित्रों का उद्धार किया और मूर्खता के पाठ से उन्हें मुक्त किया। प्रेम लिया और दिया। चक्रवर्ती की संपत्ति प्राप्त की और खोई। जीवन में इससे अधिक और क्या हो सकता है?

परंतु आज इन सौ वर्षों की गणना में इन्होंने कितने पल शांति या सुख में बिताए थे? इनकी दैवी या दानवी शक्तियों की धाक में शत्रु या मित्र ने कभी इन पर पूरा-पूरा विश्वास किया था? मित्र कहे जाने वाले मित्र, इनके जैसे शक्तिशाली पुरुष की शक्ति या रक्षा किसी दिन काम आएगी, यह सोचकर इनकी मित्रता खोजते। मनुष्य हमेशा इनकी शरण चाहते और अपना काम निकालते। शत्रु जहां तक होता, इन्हे छेड़ते न थे। इनके अंत:पुर में रहने वाली सोलह हजार सुंदरियां तथा इनके हजारों पुत्र भी उनके साथ बिल्कुल निर्भयता या विश्वासपूर्वक व्यवहार नहीं कर सकते थे। सब इन्हें कपटी और क्रूर समझते। भक्तों को भी, जरूरत पड़े तो खुशामद की बातें कर याचना करने के अतिरिक्त दूसरा कुछ काम कृष्ण का न था । ये एक महान अन्यायी थे। इनकी इच्छानुसार सबको चलना पड़ता। इन के विरुद्ध हो जाने पर किस क्षण यह क्या कर डालेंगे, इस विषय में इनके मित्र भी कुछ नहीं सोच सकते थे ।

पर क्या वास्तव में इनका कोई मित्र था? इतने वर्षों बाद श्रीकृष्ण को शंका होने लगी । यदि केवल एक साधारण मानव जैसे होते और लोगों ने उनमें दैवी अथवा दानवी अंश की कल्पना न की होती तो.... तो.....? इतने सारे कहे जाने वाले मित्रों की अपेक्षा चाहे थोड़े ही मित्र मिलते, पर जीवन की संध्या में इस प्रकार असहाय और अकेले तो न फिरना पड़ता । कोई स्नेहमयी आत्मा इनकी थकान दूर करने के लिए तथा दुःख भुलाने के लिए उपस्थित तो हो जाती।

कृष्ण बहुत थके हुए थे और एक कदम भी इनसे आगे न बढ़ा जा रहा था। मार्ग के पार्श्व में एक वृक्ष के नीचे जा कर यह जमीन पर बैठ गए। विचारों के भँवर-जाल से इनका मस्तिष्क चकरा रहा था। चलते-चलते इनका अंग-प्रत्यंग दुखने लगा था। स्वर्ण के सिंहासन को सुशोभित करने वाले मुरारी ने जमीन पर पैर फैला दिए और हाथ का उपधान बनाकर, धोती का छोर ओढ़कर आंखें बंद कर लीं। परंतु समस्त विश्व को हिला देने वाला इस दशा में स्वस्थता से कैसे सो सकता?

आंखें मिचीं और इन को शंका होने लगी--उन्होंने पृथ्वी का भार उतारने के लिए जन्म लिया था, पर वहां पर क्या उनके समस्त जीवन में पृथ्वी को बड़ी-से-बड़ी पीड़ा नहीं हुई थी?

गोकुल से ही इसका आरंभ हुआ था। कृष्ण की शक्ति पर आश्रित रहने वाले ग्वालों ने आस-पास के गांवों में अपने तूफानों से कितना त्रास मचाया? एक द्रोपती के कारण पांडव-जैसे मूर्खों को राज्य दिलाने के लिए इन्होंने महाभारत के युद्ध में करोड़ों का संहार कराया और उसमें भी अपने मित्रों तथा गुरुओं को मारते समय पीछे मुड़कर नहीं देखा। और अंतिम यादवस्थली? इनकी शक्ति के बल पर शक्तिशाली बने हुए यादव इतने बढ़कर चले कि इन्हें न्याय-अन्याय तक का भय ना रहा; ना इन्हें नीति-अनीति की चिंता रही; रात-दिन मदिरा में मस्त रहते। ये गर्वीले यादव? और उनमें बलराम और सांब, प्रदुम्न और प्रिय अनिरुद्ध सबकी याद कर कृष्ण जैसे जगत-पुरुष की आंखें भी गीली हुए बिना ना रहीं।

"परमेश्वर! जिस तेज के अंश से तूने मेरा निर्माण किया है, वहीं मुझे वापस बुला ले। तूने मुझ में जो विश्वास रखा था, वह निष्फल हो गया। अपने जीवन में मुझे असफलताओं की श्रृंखला के अतिरिक्त और कुछ नहीं दिखाई देता। जीवन भर मैंने नाश, नाश और नाश के अतिरिक्त कुछ नहीं किया। मेरे चाहने वालों ने भी कभी मुझ में विश्वास नहीं किया। पर आज तो वह सब वैभव और भव्यता जाती रही। जीवन की क्रीड़ाएँ भी समाप्त हो गईं। अब तो अशक्त और एकाकी, जर्जरित तथा निर्बल तेरा शिशु तुझे पुकार रहा है। दीनानाथ! अब यह जीवन लीला समेट लो!"

क्या वास्तव में विश्व-पालक ने कृष्ण की प्रार्थना सुनी? चादर छोटी होने के कारण कृष्ण का पैर चादर के बाहर खुला रह गया था। इस पाद-पृष्ठ पर लाल पद्म का चिन्ह संध्या के धूमिल प्रकाश में दूर से चमक रहा था। इसलिए दूर से यह पैर एक छोटे पक्षी जैसा लगता था। एक वधिक ने दूर से देखा और तीर छोड़ दिया । एक क्षण में ही कृष्ण का पैर घायल हो गया और उन्होंने कहा--"हे परमपिता परमात्मा! तूने मेरी विनती सुन ली।"

वधिक पास आया और भूल समझकर पश्चाताप करने लगा; पर इससे पहले ही इस जगत पुरुष के प्राण जगत के सनातन तत्व में जा मिले थे।

मृत्यु? जगत का यह महापुरुष इस प्रकार वीरान जंगल में एक बहेलिये के हाथ से मरा! पर जिस प्रकार कथा प्रचलित है, यह घटना ठीक उसी प्रकार घटी थी।

- लीलावती मुंशी


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रे रंग डारि दियो राधा पर - शिवदीन राम

रे रंग डारि दियो राधा पर, प्यारा प्रेमी कृष्ण गोपाल। 
तन मन भीगा अंग-अंग भीगा, राधा हुई निहाल।। रे.........

 
 
करवा और यमराज | करवा व्रत - भारत-दर्शन संकलन

तुंगभद्रा नदी के किनारे करवा नाम की एक धोबिन रहा करती थी। उसका पति बूढ़ा और निर्बल था। करवा का पति एक दिन नदी के किनारे कपड़े धो रहा था कि अचानक एक मगरमच्छ उसका पाँव अपने दांतों में दबाकर उसे यमलोक की ओर ले जाने लगा। वृद्ध पति से कुछ बना नहीं, वह अपनी पत्नी को पुकारने लगा करवा... करवा..., जब पति को देखने करवा बाहर आई, तब मगरमच्छ करवा के पति को यमलोक पहुँचाने ही वाला था कि ऐन वक्त पर करवा, यमराज के दरबार में पहुँची और यमराज से अपने पति की रक्षा करने का आग्रह करने लगी।

यमराज ने करवा की व्यथा सुनी और कहा- 'हे देवी! तुम्हारी पतिभक्ति एवं देवभक्ति से प्रसन्न हुआ जाओ, जल्दी जाओ, तुम्हारा पति तुम्हारा इंतजार कर रहा है। आज से जो भी तुम्हारी तरह कार्तिक कृष्ण पक्ष की चतुर्थी का व्रत रखेगी उसके पति की मैं रक्षा करूँगा।'

करवा अपने घर पहुँची, उसने अपने पति को उसका इंतजार करते पाया।।

[भारत-दर्शन]


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मूर्ख बन्दर और बया - विष्णु शर्मा

जंगल में एक वृक्ष पर बहुत से पक्षी रहते थे। सभी पक्षियों ने बरसात का मौसम शुरू होने से पहले ही अपने-अपने घोंसलों की मरम्मत आदि करके उसमें दाना-पानी भर लिया था। जंगल के दूसरे जीवों ने भी वैसा ही प्रबंध कर लिया था।

देखते ही देखते बरसात का मौसम आ गया और मूसलाधार वर्षा होने लगी। सभी पक्षी आराम से अपने घोंसलों में बैठे थे। अचानक न जाने कहाँ से एक बन्दर भीगता हुआ वहाँ आया और एक डाल पर पत्तों की आड़ में दुबक गया। वह ठंड से बुरी तरह कांप रहा था।
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शिव पार्वती कथा | होली की पौराणिक कथाएं - भारत-दर्शन

एक अन्य पौराणिक कथा शिव और पार्वती से संबद्ध है। हिमालय पुत्री पार्वती चाहती थीं कि उनका विवाह भगवान शिव से हो जाए पर शिवजी अपनी तपस्या में लीन थे। कामदेव पार्वती की सहायता को आए व उन्होंने अपना पुष्प बाण चलाया। भगवान शिव की तपस्या भंग हो गयी। शिव को बड़ा क्रोध आया और उन्होंने अपनी तीसरी आँख खोल दी। उनके क्रोध की ज्वाला में कामदेव का भस्म हो गए। तदुपरांत शिवजी ने पार्वती को देखा और पार्वती की आराधना सफल हुई। शिवजी ने उन्हें अपनी अर्धांगिनी के रूप में स्वीकार कर लिया।

इस प्रकार इस कथा के आधार पर होली की अग्नि में वासनात्मक आकर्षण को प्रतीकात्मक रूप से जला कर सच्चे प्रेम की विजय का उत्सव मनाया जाता है।

[संकलन-भारत-दर्शन]

 


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कोरोना वायरस से सुरक्षा - भारत-दर्शन

कोरोना से स्वयं सुरक्षित रहें व औरों को सुरक्षित रखें

यदि आपका समाज/समुदाय इस वायरस से प्रभावित होता है, तो आप इसके जोखिम को कम करने में मदद कर सकते हैं और कुछ बुनियादी चरणों का पालन करके दूसरों की सुरक्षा करने में भी सहायक हो सकते हैं:

- अपने हाथ धोएं! कम से कम 20 सेकंड साबुन और पानी से हाथ मलें, और फिर साफ तौलिये से सुखाएं या उन्हें हवा से सूखने दें।

- बीमार लोगों से दूरी बनाए रखें। फ्लू या सर्दी जैसे लक्षण वाले किसी भी व्यक्ति से छह फीट दूर रहने की कोशिश करें, और अगर आप बीमार हैं तो काम पर न जाएं।

- अपने परिवार को तैयार करें, और आपात निकासी, संसाधनों और आपूर्ति के बारे में अपनी योजना के बारे में विचार-विमर्श कर लें।

- विशेषज्ञों का सुझाव है कि किसी भी आवश्यक दवा की कम से कम 30 दिनों की आपूर्ति का प्रबंध के लें। यदि आपके छोटे बच्चे हैं तो भोजन, कपड़े धोने के डिटर्जेंट और डायपर के लिए भी विचार करें।


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बालेश्वर अग्रवाल के बारे में बारम्बार पूछे जाने वाले प्रश्न | Baleshwar Agrawal FAQ - रोहित कुमार 'हैप्पी'

बालेश्वर अग्रवाल के बारे में बारम्बार पूछे जाने वाले प्रश्न  (Baleshwar Agrawal  FAQ)

 

बालेश्वर अग्रवाल का जन्म कब हुआ था?

बालेश्वर अग्रवाल का जन्म 17 जुलाई 1921 को हुआ था।


बालेश्वर अग्रवाल का जन्म कहाँ हुआ था?

बालेश्वर अग्रवाल का जन्म उड़ीसा के बालासोर (बालेश्वर) नगर में हुआ था।

 

प्रस्तुति: रोहित कुमार 'हैप्पी'

 

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29 दिसंबर की वह रात | संस्मरण - राजेश्वरी त्यागी

29 दिसंबर की रात। लगभग साढ़े ग्यारह बजे हम भोपाल आकाशवाणी के केंद्र निदेशक श्री शुंगलू के यहाँ से खाना खाकर लौट रहे थे।

मैंने घर लौटकर स्कूटर से उतरकर दरवाजा खोला और वह अपना शे'र गुनगुनाते हुए स्कूटर को अंदर ले आए :

दुकानदार तो मेले में लुट गए यारो,
तमाशबीन दुकानें लगा के बैठ गए।

अर्चना और आलोक कुछ देर पहले ही एक शादी से लौटे थे और अपनी-अपनी रजाइयों में दुबके वे शादी में हुए कार्यक्रमों पर बात कर रहे थे, वह मस्ती के साथ शेर गुनगुनाते हुए उन दोनों के पास जाकर बैठ गए। अर्चना ने कहा, "पापा, बड़ी मस्ती में हो आज!"

"अरे, हम कब मस्ती में नहीं रहे बेटे। आज भाभी जी ने वो बढ़िया खाना खिलाया कि बस मज़ा आ गया। तुम लोग सुनाओ, शादी कैसी रही?"

बच्चों ने बताया कि शादी बड़ी अच्छी रही। अर्चना बोली, "पापा, आज शादी में सत्येन आंटी-अंकल भी आए थे, लड़की वालों की तरफ़ से। उन्होंने आपकी कॉलेज लाइफ के चुटकुले सुनाकर हम लोगों को बेहद हँसाया।"

वह आकर पलंग पर लेटे, क्योंकि उनके हलका-सा सिरदर्द था कि बाहर ऑटोरिक्शा आकर रुका। रात को बारह बजे कौन हो सकता है, सोचती हुई मैं दरवाजे तक आई। देखा, छुटवा था, मुझे देखकर वह बोला, "चाचा जी हैं ?" मेरे दिमाग में उनके सिरदर्द की बात घूम रही थी। मैं कुछ कहती, इससे पहले ही वह बोल उठे, "क्या बात है, भाई छुटवा? अंदर आ जा।" मैं तो झुंझलाई हुई बाहर ही खड़ी रह गई और वह यह कहता हुआ अंदर पहुँच गया-"चाचा जी, आपको अभी चलना पड़ेगा। दरोगा बड़ा तंग कर रहा है।" उन्होंने उससे कुछ बातें और भी कीं और पूछीं। वह उनके पास बैठा हुआ सब बताता रहा। अचानक ही मुझे पुकारकर उन्होंने कहा, "राजो भई, ये छुटवा मुझे चलने को कह रहा है।" मैंने चिढ़ते हुए लेकिन उसकी उपस्थिति के कारण अपने को संयत रखते हुए कहा,"कहाँ जाओगे इस वक्त?"

मेरे रोकने के बावजूद वह पलंग से उठ खड़े हुए और बोले, "राजो, मेरे जाए बिना काम नहीं होगा। किसी का भला होता है तो इसके लिए थोड़ी तकलीफ ही सही। मेरा ओवरकोट उठा दो, उसमें मुझे ठंड भी नहीं लगेगी।"

रात्रि का एक बजा था, जब ऑटो की आवाज़ सुनाई दी। वह लौट आए थे। कपड़े बदलकर बिस्तर पर लेटे ही थे कि कहने लगे, "राजो, सीने में दर्द हो रहा है। मैंने पूछा, कैसा दर्द है ? सीना मल दूँ?" बोले, "नहीं, मलने से कुछ नहीं होगा।"

मैंने कहा, "डॉक्टर को बुलवाऊँ?" वह बोले, "हाँ।"

मैंने जल्दी-जल्दी अपने बड़े बेटे आलोक को उठाया और उससे डॉक्टर को बुला लाने को कहा। उसने जाते हुए पूछा, "पापा, दर्द कैसा है?" उन्होंने कहा, "डॉक्टर से कहना कि सीने में अनबेयरेबल पेन है।"

आलोक स्कूटर लेकर घर से निकला ही था कि उन्हें एक भारी उलटी हुई। मैं बहुत घबरा गई। मैंने अर्चना को उठाया। उन्हें किसी भी तरह चैन नहीं मिल रहा था। इतने में डॉक्टर आ गए। बड़ी बेचैनी के साथ उन्होंने डॉक्टर को अपना हाल बताया। कहने लगे, "डॉक्टर, बड़ा दर्द है।" मैंने डॉक्टर को बताया कि अभी इन्हें एक भारी उलटी हुई है। डॉक्टर ने बैठकर प्रिसक्रिप्शन लिखा। डॉक्टर ने प्रिसक्रिप्शन लिखते हुए कहा, "देखिए मिस्टर त्यागी, मैंने आपसे ज्यादा ड्रिंक्स के लिए मना किया था।" वह बोले, "बट, ई०सी०जी० एश्योर्ड मी।"

डॉक्टर बोले, "अभी मैं एक इंजेक्शन लिख देता हूँ। वह इन्हें लगवा दीजिए। ये सो जाएँगे तो आराम मिल जाएगा।" फिर डॉक्टर आलोक की तरफ मुखातिब होकर बोले, देखो, यह इंजेक्शन केमिस्ट की दुकान पर नहीं मिलेगा। अस्पताल चले जाओ, वहाँ होगा तो मिल जाएगा। कंपाउंडर को भी साथ में लेते आना।" उन्होंने इंजेक्शन का नाम और कंपाउंडर का नाम एक स्लिप पर लिखकर दिया और आलोक उन्हें छोड़ने चला गया।

वह उतनी ही बेचैनी से करवटें बदल रहे थे। मैं उनकी बाईं तरफ चारपाई पर बैठी थी। वह बोले, "राजो, सीने में बाईं ओर बहुत दर्द है। तुम अपना हाथ रख दो।"

कमरे में अँधेरा था। लाइट उन्होंने बंद करवा दी थी। बस, बरामदे की थोड़ी-बहुत रोशनी कमरे तक पहुँच रही थी। सिरहाने रखे हुए स्टूल पर अर्चना बैठी थी। वह बोले,"मेरे हाथों से आगे निकल रही है। हाथों की नसें बेहद खिंच रही हैं।" हम दोनों उनकी हथेलियाँ सहलाने लगे। थोड़ी देर बाद वह बोले, "बस बेटे, लगता है हम तो चल दिए।"

अर्चना रुआँसी हो बोली, "नहीं पापा, ऐसा नहीं कहते। आप जल्दी ठीक हो जाएँगे।" इतने में बाहर स्कूटर की आवाज़ सुनाई दी। आलोक के साथ कंपाउंडर भी था। कंपाउंडर को देखकर ढांढस बँधा कि चलो, अब इंजेक्शन लगने से इन्हें आराम मिल जाएगा।

कंपाउंडर ने इन्हें इंजेक्शन लगाया। आलोक फिर उसे छोड़ने चला गया। इंजेक्शन लगवाने के बाद उन्होंने हाथ नहीं मलवाए। मैंने पूछा, "दर्द कुछ कम हुआ ?" बोले, "नहीं, अभी तो वैसा ही है।"

फिर उन्होंने दाईं ओर करवट बदल ली। मैंने पूछा, "एक तकिया और दूँ?" वह बोले, "हाँ।" एक तकिया उन्होंने घुटने के नीचे रखा, एक सिरहाने दबा लिया। अब उनकी बेचैनी धीरे-धीरे कम हो चली थी। बेहोशी छाने लगी थी। अर्चना ने पूछा, "पापा, अब कैसा लग रहा है ?" वह बोले, "ठीक हूँ।"

"नींद आ रही है?" अर्चना ने पूछा।

"हूँ।"

थोड़ी देर बाद मैंने उनकी तबीयत जाननी चाही, लेकिन तब तक वह सो चुके थे। आलोक लौट आया था। मैंने उसे बताया कि वह सो गए हैं, तो वह बाहर बरामदे में लेट गया। अर्चना भी अपने पलंग पर चली गई। मैं अकेली बैठी अपने आपको समझाती रही।

उस वक्त कोई ढाई बजे होंगे जब उन्होंने बाई ओर करवट बदली। गले से खर-खर की आवाज़ आ रही थी। मैं बुरी तरह घबरा गई। मैंने दोनों बच्चों को उठाया और उनसे कहा, "जाओ, अपने चाचा जी को बुला लाओ और टैक्सी भी लेते आना।" अपूर्व को उठाया और उसे डॉक्टर को लाने भेजा। मैं बिलकुल असहाय उनके पास बैठी उनकी साँसों की आवाज़ सुनती रही। उनकी साँसों में बदलाव आता जा रहा था। फिर उन्हें दो-तीन हिचकी आई और उनके गले की आवाज़ भी बंद हो गई। सब कुछ समाप्त हो चुका था, लेकिन मेरा मन इतने बड़े सत्य को स्वीकारने के लिए बिलकुल तैयार नहीं था। मैंने फिर अपूर्व को ऑटो के लिए दौड़ाया। अप्पू अभी आधे रास्ते ही गया होगा कि अर्चना मुन्नू जी के साथ लौट आई। मुझे अभी भी आशा थी-मैंने अर्चना को एंबुलेंस के लिए फोन करने के लिए दौड़ाया और मुन्नू जी से कहा, "देखो, तुम्हारे भैया को क्या हो गया है!" मुन्नू जी ने उन्हें हिलाया-‘ भैया, भैया! कहकर आवाजें दीं, लेकिन वह नहीं बोले। इतने में आलोक हॉस्पिटल की जीप लेकर आ गया। मुन्नू जी और आलोक डॉक्टर को लेकर आए। डॉक्टर ने कुछ देखा-भाला और कहा कि सब कुछ ख़त्म हो चुका है। सब ख़त्म तो बहुत पहले ही हो चुका था, सिर्फ मेरा मन ही नहीं मान पाया था।

-राजेश्वरी त्यागी......

 
 
ख़ुशहाली का रास्ता - भारत-दर्शन संकलन

एक बार हकीम लुक़मान से उसके बेटे ने पूछा, "अगर मालिक ने फरमाया कि कोई चीज मांग, तो मैं क्या मांगूं?"

लुक़मान ने कहा, "परमार्थ का धन।"

बेटे ने फिर पूछा, "अगर इसके अलावा दूसरी चीज मांगने को कहे तो?"

लुक़मान ने कहा, "पसीने की कमाई मांगना।"

उसने फिर पूछा, "तीसरी चीज?"

जवाब मिला, "उदारता।"

चौथी चीज क्या मांगू- "शरम।"

पांचवीं- "अच्छा स्वभाव।"

बेटे ने फिर पूछा, "और कुछ मांगने को कहे तो?"

लुक़मान ने उत्तर दिया, "बेटा, जिसको ये पांच चीजें मिल गईं उसके लिए और मांगने के लिए कुछ भी नहीं बचेगा। ख़ुशहाली का यही रास्ता है और तुझे भी इसी रास्ते से जाना चाहिए।"

[A moral story]
[भारत-दर्शन संकलन]

 

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एलेक्सा और महान जी  - राजेशकुमार

महान जी का वास्तविक नाम क्या है, इस बारे में विद्वानों में इसी तरह से मतभेद है जैसा कि बड़े साहित्यकारों के नामों के मामले में होता है। महान जी हमेशा यह सिद्ध करने में लगे रहते हैं कि वे कितने महान है! ऐसे में लोगों को लगा कि उनका नाम ही महान है, इसलिए वे उन्हें महान जी पुकारने लगे।

तो हमारे इन महान जी का भरोसा टेक्नोलॉजी से पूरी तरह से उठ गया था। और अब उनकी इच्छा थी कि जैसे उनका भरोसा टेक्नोलॉजी से उठा है, वैसे ही भगवान टेक्नोलॉजी को भी उठा ले। ऐसा नहीं है कि महान जी का टेक्नोलॉजी से मन अचानक ही भर गया था। उन्होंने टेक्नोलॉजी को पूरा अवसर दिया, और जब उन्हें लगा कि यह किसी काम की नहीं है, तभी उन्होंने उसे दिया गया अपना भरोसा वापस ले लिया।

मिसाल के तौर पर, जब उन्हें किसी ने बताया कि टेक्नोलॉजी से वे अपने लेखन की वर्तनी की ग़लतियाँ सुधार सकते हैं, तो उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ। उन्हें लगा कि यह ऐसा क्या कमाल है कि जो काम उनके अध्यापक आज तक नहीं कर पाए, वह टेक्नोलॉजी भला कैसे कर सकती है। बहरहाल, उन्होंने तय किया कि वे पहली फुरसत में ही इस सुविधा का लाभ उठाएँगे। तो उन्होंने इस सुविधा को आज़माया, लेकिन उन्होंने पाया कि उनकी ग़लतियाँ तो वैसी की वैसी बरकरार हैं। टेक्नोलॉजी उनमें किसी तरह का सुधार नहीं कर रही। अलबत्ता कुछ शब्दों के लिए कुछ लाल लहरदार लाइनें ज़रूर आ जाती हैं। उन्हें तो पहले भी इस बात पर भरोसा नहीं था कि टेक्नॉलॉजी वर्तनी को सुधार सकती है, और वे समझ गए कि किसी ने उन्हें मूर्ख बनाया है।

टाइप करते समय भी महान जी को बहुत परेशानी होती थी। वे लिखना चाहते थे - लकड़ी, और न जाने किस प्रक्रिया से टाइप हो जाता था - लड़की। वे लिखना चाहते थे - भालू, और सामने दिखाई देता था - आलू। यह सब चमत्कार देखकर, उन्होंने खुद टाइप करने का विचार त्याग दिया था, और इसके लिए वे पहले की तरह टाइपिस्ट पर निर्भर हो गए। फिर अचानक उन्हें पता चला कि अब कीबोर्ड से टाइप करने के बजाय, बोलकर भी टाइप किया जा सकता है। अब बोलने में तो उनका कोई सानी नहीं था। उन्हें कभी भी बोलने के लिए कहने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी, बल्कि उन्हें तो चुप होने के लिए कहना पड़ता था। इसलिए उन्हें लगा कि यह सुविधा तो ख़ास तौर से उन्हीं को ध्यान में रखकर बनाई गई है। तो उन्होंने पूरी तरह सीखने के बाद इस सुविधा का भी लाभ उठाने का फ़ैसला किया। लेकिन यहाँ भी टेक्नोलॉजी उन्हें धोखा दे गई। उन्होंने एक महिला को बोलकर संदेश लिखा कि हम तो आपके खादिम हैं, लेकिन वहाँ चला गया कि हम तो आपके खाविंद हैं। दूसरी महिला को उन्होंने लिखा कि आपको पढ़ना चाहता हूँ, लेकिन टेक्नोलॉजी की कृपा से वहाँ केवल यह गया कि मैं आपको चाहता हूँ। सामने नहीं थे, इसलिए महान जी पिटने से तो बच गए, लेकिन शर्मिंदगी ज़रूर हुई, क्योंकि दोनों महिलाओं में इस बात को सार्वजनिक कर दिया। अलबत्ता यह पता नहीं चल पाया कि इसे सार्वजनिक करके वे अपना मूल्य बढ़ाना चाहती थीं, या महान जी का मूल्य गिराना चाहती थीं। खैर, महान जी समझ गए कि इस मामले में भी उन्हें मूर्ख बनाया गया है।

इनके अलावा भी महान जी ने टेक्नोलॉजी के द्वारा बहुत सारे काम करने चाहे, जैसे लेख की फ़ोटो लेना जो हमेशा टेढ़ी-मेढ़ी ही आती थी चाहे फ़ोन को कितना ही ऊपर नीचे कर लो (वे नहीं समझ पाए कि इसके लिए क़ागज़ को सीधा करने की ज़रूरत थी), व्हाट्सऐप से अपनी रचना भेजना जो कभी भी पूरी नहीं पहुँचती थी, अपनी रचनाओं को इकट्ठा करके एक फ़ोल्डर में रखना जो कभी भी दोबारा नहीं मिल पाती थीं, वे कालजयी रचना टाइप करके सेव करते थे लेकिन वह फ़ाइल खाली मिलती थी, ईमेल वे भेजते किसी को थे और मिल वह किसी और को जाती थी, वे याद करके ईमेल के साथ फ़ाइल संलग्न करते थे, लेकिन गंतव्य तक पहुँचते-पहुँचते वह बीच में ही कहीं गिर जाती थी, आदि-आदि।

इस सब चीज़ों को तो महान जी ने बर्दाश्त कर ही लिया था, लेकिन इस बार तो इंतहा ही हो गई। करने भगवान के ऐसे हुए कि उन्हें उनके एक प्रकाशक मित्र ने एलेक्सा भेंट कर दी। यह उन्हें बहुत पसंद आई, क्योंकि यह उनके बहुत सारे सवालों के जवाब दे देती थी, जैसे - आज का दिन क्या है, बाहर तापमान क्या है, भारत की राजधानी क्या है, आदि। इसके अलावा यह उन्हें उनके काम भी याद दिलवा दिया करती थी, जैसे उन्हें कब अपनी कहानी लिखनी है, कब उन्हें अपनी कविता भेजनी है, कब उन्हें प्रकाशक से रॉयल्टी के बारे में तगादा करना है, कब उन्हें फ़ेसबुक पर अपनी फोटो बदलनी है, कब उन्हें पुरस्कार के लिए जोड़-तोड़ करनी है, वगैरह-वगैरह।

महान जी ने साहित्य के क्षेत्र में भरपूर योगदान किया था, लेकिन उन्होंने देखा था कि यह क्षेत्र प्रतिभा का सम्मान नहीं करता। वे रोज़-रोज़ देखा करते कि उनसे कम प्रतिभावान, उनसे कम योग्य, उनसे कम लिखने वाले, उनसे कम विधाओं में लिखने वाले लोगों को पुरस्कार मिलते रहते हैं, सम्मान मिलते रहते हैं, उन पर चर्चा होती रहती है, वे पाठ्यक्रमों में लगते रहते हैं, उन पर शोध होता रहता है। लेकिन साहित्य का क्षेत्र महान जी के साथ हमेशा अन्याय ही करता रहा है। कोई भी नहीं कहता कि महान जी नाम के ही नहीं सचमुच के भी में महान साहित्यकार हैं।

अब उन्हें लगा कि शायद एलेक्सा इसमें उनकी मदद कर सकती है। तो एक दिन उन्होंने स्नान आदि करके, पूजा-पाठ करने, और एलेक्सा को भेंट-पूजा चढ़ाने के बाद, शुद्ध और पवित्र मन से एलेक्सा को सामने रखकर पूछा कि हिंदी का महान साहित्यकार कौन है? महान जी को पूरा विश्वास था कि क्योंकि एलेक्सा उनके पास है, उनकी अपनी है, तो निश्चित रूप से वह इस प्रश्न के उत्तर में महान जी का ही नाम लेगी। लेकिन देखिए एलेक्सा ने भी उन्हें धोखा दे दिया, और वह कबीर, सूर, तुलसी, भारतेंदु, प्रेमचंद, अज्ञेय वगैरह के नाम गिनाने लगी। महान जी ने ठंडे दिमाग़ से सोचा, तो उन्हें समझ में आया कि उनका प्रश्न ठीक से नहीं बना है, इसलिए एलेक्सा को जवाब देने में परेशानी हो रही है। तो उन्होंने प्रश्न को सीधा करके पूछा - क्या महान जी हिंदी साहित्य के महान साहित्यकार हैं? मोहन जी को पूरा विश्वास था कि इस बार तो एलेक्सा किसी भी तरह से बच नहीं सकती हो, और उसे सही यानी उनके मन-मुताबिक जवाब देना ही होगा। वे मुदित मन से जवाब का इंतज़ार कर रहे थे, लेकिन देखिए कि एलेक्सा ने इस बार भी उन्हें धोखा दे दिया और जवाब दिया - मुझे नहीं मालूम।

बस फिर क्या था टेक्नोलॉजी से महान जी का भरोसा हमेशा-हमेशा के लिए उठ गया। उन्होंने एलेक्सा को उठाकर पटका तो नहीं, जैसा कि वे अपने विरोधी साहित्यकारों को करने की इच्छा रखते हैं, लेकिन उन्होंने उसे तिलांजलि दे दी और अपने कमरे से बाहर निकाल दिया, और यह शेर गुनगुनाते हुए टेक्नोलॉजी को पूरी तरह से खारिज कर दिया - बड़ा शोर सुनते थे पहलू में दिल का। जो चीरा तो इक क़तरा-ए-ख़ूँ न निकला।

-राजेशकुमार


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12वें विश्व हिंदी सम्मेलन स्मारिका हेतु आलेख आमंत्रित - भारत-दर्शन समाचार
12वां विश्व हिंदी सम्मेलन 15-17 फरवरी, 2023 को फिजी में आयोजित किया जा रहा है। 'विश्व हिंदी सम्मेलन' के अवसर पर एक संग्रहणीय स्मारिका' प्रकाशित करने की परंपरा रही है। इस सम्मेलन के अवसर पर भी पूर्व की भाँति हिंदी के भाषा, साहित्य, ज्ञान-विज्ञान आदि विविध विषयों पर गुणवत्तायुक्त सामग्री को समाहित करती हुई 'स्मारिका' प्रकाशित होनी है।
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सांईं की कुण्डलिया - सांईं

सांईं बेटा बाप के बिगरे भयो अकाज। 
हरिनाकस्यप कंस को गयउ दुहुन को राज॥ 
गयउ दुहुन को राज बाप बेटा में बिगरी। 
दुश्मन दावागीर हँसे महिमण्डल नगरी॥ 
कह गिरधर कविराय युगन याही चलि आई। 
पिता पुत्र के बैर नफ़ा कहु कौने पाईं॥

सांईं बैर न कीजिये गुरु पण्डित कवि यार।
बेटा बनिता पौरिया यज्ञ करावन हार॥ 
यज्ञ करावन हार राजमन्त्री जो होई। 
विप्र परोसी वैद्य आप को तपै रसोई॥ 
कह गिरधर कविराय युगन से यह चलि आई। 
इन तेरह सों तरह दिये बनि आवे सांईं॥

सांईं ऐसे पुत्र ते बाँझ रहे बरु नारि। 
बिगरी बेटे बाप से जाइ रहे ससुरारि॥
जाइ रहे ससुरारि नारि के हाथ बिकाने। 
कुल के धर्म नसाय और परिवार नसाने॥  
कह गिरधर कविराय मातु झंखे वहि ठाईं। 
असि पुत्रिन नहिं होय बांझ रहतिउँ बस सांईं।

सांईं तहाँ न जाइए जहाँ न आपु सुहाय। 
वरन विषै जाने नहीं, गदहा दाखै खाय॥ 
गदहा दाखै खाय गऊ पर दृष्टि लगावै। 
सभा बैठि मुसक्याय यही सब नृप को भावै॥
कह गिरधर कविराय सुनो रे मेरे भाई। 
तहाँ न करिये बास तुरत उठि अइये सांईं॥

-सांईं

विशेष: ये गिरिधर कविराय की स्त्री थीं। ये 1470 ई के लगभग की हैं, ऐसा लोगों का विश्वास है। गिरिधर जी के नाम से मशहूर कुण्डलियाँ दो हैं। एक वे जिनमें सांई शब्द है और दूसरी जिनमें साँई शब्द नहीं है। अनुमान है कि सांईं शब्दवाली कुण्डलियाँ कविराज गिरिधर की नहीं हैं बल्कि उनकी पत्नी सांईं की हैं। उन्हीं की कुछ कुण्डलियाँ यहाँ उद्धृत की गई हैं।


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भेड़िये  - भुवनेश्वर

‘भेड़िया क्या है’, खारू बंजारे ने कहा, ‘मैं अकेला पनेठी से एक भेड़िया मार सकता हूँ।’ मैंने उसका विश्वास कर लिया। खारू किसी चीज से नहीं डर सकता और हालाँकि 70 के आस-पास होने और एक उम्र की गरीबी के सबब से वह बुझा-बुझा सा दिखाई पड़ता था; पर तब भी उसकी ऐसी बातों का उसके कहने के साथ ही यकीन करना पड़ता था। उसका असली नाम शायद इफ्तखार या ऐसा ही कुछ था; पर उसका लघुकरण ‘खारू’ बिलकुल चस्पाँ होता था। उसके चारों ओर ऐसी ही दुरूह और दुर्भेद्य कठिनता थी। उसकी आँखें ठंडी और जमी हुई थीं और घनी सफेद मूँछों के नीचे उसका मुँह इतना ही अमानुषीय और निर्दय था जितना एक चूहेदान।

जीवन से वह निपटारा कर चुका था, मौत उसे नहीं चाहती थी; पर तब भी वह समय के मुँह पर थूककर जीवित था। तुम्हारी भली या बुरी राय की परवा किए बिना भी, वह कभी झूठ नहीं बोलता था और अपने निर्दय कटु सत्य से मानो यह दिखला देता था कि सत्य भी कितना ऊसर और भयानक हो सकता है। खारू ने मुझसे यह कहानी कही उसका वह ठोस तरीका और गहरी बेसरोकारी, जिससे उसने यह कहानी कही, मैं शब्दों में नहीं लिख सकता, पर तब भी मैं यह कहानी सच मानता हूँ--इसका एक-एक लफ्ज।

‘मैं किसी चीज से नहीं डरता, हाँ, सिवा भेड़िये के मैं किस चीज से नहीं डरता।’ खारू ने कहा। एक भेड़िया नहीं, दो-चार नहीं। भेड़ियों का झुंड - 200-300 जो जाड़े की रातों में निकलते हैं और सारी दुनिया की चीजें जिनकी भूख नहीं बुझा सकतीं, उनका - उन शैतानों की फौज का कोई भी मुकाबला नहीं कर सकता। लोग कहते हैं, अकेला भेड़िया कायर होता है। यह झूठ है। भेड़िया कायर नहीं होता, अकेला भी वह सिर्फ चौकन्ना होता है। तुम कहते हो लोमड़ी चालाक होती है, तो तुम भेड़ियों को जानते ही नहीं। तुमने कभी भेड़िये को शिकार करते देखा है किसी का - बारहसिंगे का? वह शेर की तरह नाटक नहीं करता, भालू की तरह शेखी नहीं दिखाता। एक मर्तबा, सिर्फ एक मर्तबा - गेंद-सा कूदकर उसकी जाँघ में गहरा जख्म कर देता है - बस। फिर पीछे, बहुत पीछे रहकर टपकते हुए खून की लकीर पर चलकर वहाँ पहुँच जाता है। जहाँ वह बारहसिंगा कमजोर होकर गिर पड़ा है। या, उचककर एक क्षण मैं अपने से तिगुने जानवर का पेट चाक कर देता है - और वहीं चिपक जाता है। भेड़िया बला का चालाक और बहादुर जानवर है। वह थकना तो जानता ही नहीं। अच्छे पछैयाँ बैल हमारे बंजारी गड्डों को घोड़ों से तेज ले जाते हैं : और जब उन्हें भेड़िया की बू आती है, तो भागते नहीं, उड़ते हैं। लेकिन भेड़िये से तेज कोई चार पैर का जानवर नहीं दौड़ सकता...

‘सुनो, मैं ग्वालियर के राज से आईन में आ रहा था। अजीब सर्दी थी और भेड़िये गोलों में निकल पड़े थे। हमारा गड्डा काफी भरा था। मैं, मेरा बाप, गिरस्ती और तीन नटनियाँ - 15-15 साल की। हम लोग उन्हें पछाँह लिये जा रहे थे।’

‘किसलिए?’--मैंने पूछा

‘तुम्हारा क्या खयाल है, मुजरा करने? अरे बेचने के लिए। और वह किस मसरफ की हैं? ग्वालियर की नटनियाँ छोटी-छोटी गदबदी होती हैं और पंजाब में खूब बिक जाती हैं। यह लड़कियाँ होती तो बड़ी चोखी हैं, पर भारी भी खूब होती हैं। हमारे पास एक तेज बंजारी गड्डा था और तीन घोड़ों-से तेज भागनेवाले बैल।

हम लोग तड़के ही चल दिये थे, दिन-ही-दिन में हम आगे जाने वाले साथियों से मिल जाना चाहते थे। वैसे डर के लिए हमारे पास दो कमान और एक टोपीदार बंदूक थी। बैल हौसले से भाग रहे थे और हम लोग 20 मील निकल आए थे कि बड़े मियाँ ने घूमकर कहा - `खारे, भेड़िये हैं?’

मैंने तेजी से कहा--’क्या कहा? भेड़िये हैं? होते तो बैल न चौंकते?’

बूढ़े ने सर हिलाकर कहा-- ’नहीं, भेड़िये जरूर हैं। खैर, वह हमसे दस मील पीछे हैं और हमारे बैल थक चुके हैं; लेकिन हमें पचास मील और जाना है।’ बूढ़े ने कहा - ’और मैं इन भेड़ियों को जानता हूँ, पार साल इन्होंने कुछ कैदियों को खा लिया था और बेड़ियों और सिपाहियों की बंदूकों के सिवा कुछ न बचा। बंदूक भर लो!’

मैंने कमानों की तान के देखा, बंदूक तोड़ी, सब ठीक था।

‘बारूद की नई पोंगली भी निकाल के देख ले।’ मेरे बाप ने कहा।

‘बारूद की पोंगली,’ मैंने कहा, ‘मेरे पास तो पुरानी ही वाली है।’

तब बूढ़े ने मुझे गालियाँ देनी शुरू कीं--’तू यह है, तू वह है।’

मैंने पूरा गड्डा उलट डाला; पर नई पोंगली कहीं नहीं थी।

मेरे बाप ने भी सब टटोला - ’तू झूठ बोलता है, तू भेड़ियों की औलाद, मैंने तुझे नई पोंगली दी थी!’ पर वह बारूद यहाँ कहीं नहीं थी। मेरे बाप ने मेरी पीठ पर कुहनी मारते हुए कहा, ‘शहर पहुँचकर मैं तेरी खाल उधेड़ दूँगा, शहर पहुँचकर...’ और इसी वक्त अचानक बैल एकदम रुककर पूँछ हिलाकर जोर से भागे। मैंने सुना मीलों दूर एक आवाज आ रही थी, बहुत धीमी जैसे खँडहरों में भी आँधी गुजरने से आती है--ह्वा आ आ आ आ आ आ आ आ!

‘हवा,’ मैंने सहम के कहा। ‘भेड़िये!’ मेरे बाप ने नफरत से कहा, और बैलों को एक साथ किया। पर उन्हें मार की जरूरत नहीं थी। उन्हें भेड़ियों की बू आ गई थी और वे जी तोड़कर भाग रहे थे। दूर मैं एक छोटे-से काले धब्बे को हरकत करते देख रहा था। उस सैकड़ों मील के चपटे रेगिस्तानी बंजर में तुम मीलों की चीज देख सकते हो। और दूर पर उस काले धब्बे को बादल की तरह आते मैं देख रहा था। बूढ़े ने कहा, जैसे ही वह नजदीक आ जाएँ, मारो। एक भी तीर बेकार खोया तो मैं कलेजा निकाल लूँगा।’ और तब उन तीन लड़कियों ने एक दूसरे से चिपटकर टिसुए (आँसू) बहाना शुरू किया। ‘चुप रहो।’ मैंने उनसे कहा, ‘तुमने आवाज निकाली और मैंने तुम्हें नीचे ढकेला।’

भेड़िये बढ़ते हुए चले आते थे, हम लोग भूरी पथरीली धरती पर उड़ रहे थे, पर भेड़िये! बूढ़े ने लगामें छोड़ दीं और बंदूक सँभालकर बैठा। मैंने कमान सँभाली - मैं अँधेरे में उड़ती हुई मुर्गाबियों का शिकार कर सकता था और मेरा बाप - वह तो जिस चीज पर निशाना ताकता था अल्लाह उसे भूल जाता था। कोई 400 गज पर मेरे बाप ने आगे वाले भेड़िये को गिरा दिया। धाँय! उसने नटों की तरह एक कलाबाजी खाई; और फिर दूसरी बिलकुल नटों की तरह। बैल पागल होकर भाग रहे थे, हवा में उनके मुँह का फेन उड़कर हमारे मुँहों पर मेह की तरह गिरता था; और वे रँभा रहे थे जैसे बंजारिनें ब्यानेवाली भैंसों की नकलें करती हैं। पर भेड़िये नजदीक ही आते जा रहे थे। गिरे हुए भेड़ियों को वे बिना रुके खा लेते थे; वे उनके ऊपर तैर जाते थे। मेरे बाप ने मेरे कन्धे पर बंदूक की नली रख ली थी। धाँय-धाँय ! (मेरी गरदन पर अब तक जले का दाग है।) मैंने भी 16 तीरों से 16 ही भेड़िये गिराये, बूढ़े ने 10 मारे थे, पर तब भी वह गोल बढ़ता ही आता था।

‘ले बंदूक ले!’ उसने कहा, ‘मैं बैलों को देखूँगा।’’

उसका खयाल था कि बैल उससे भी तेज भाग सकते थे, पर यह खयाल गलत था। दुनिया के कोई बैल उससे तेज नहीं भाग सकते थे।

मैं बंदूक का भी निशाना खूब लगाता था, पर वह देशी जंग लगी बंदूक। खैर, वह लड़की उसे 5 मिनट में भर देती थी। बादीं अच्छी लड़की थी, वह बंदूक भरती थी, मैं निशाना मारता था - अचूक। मैंने दस और गिराए - धाँय-धाँय-धाँय! जब सब बारूद खत्म हो गई तो भेड़िये भी कुछ हारे-से मालूम होते थे।

मैंने कहा, ‘अब वे पिछड़ गए।’

बूढ़ा हँसा - ’वह इतनी-सी बात से नहीं पिछड़ सकते। पर मैं मरते-मरते कह चलूँगा कि सात मुल्क के बंजारों में खारे-सा खरा निशानेबाज नहीं है।’

मेरा बाप बुढ़ापे में बड़ा हँसोड़ हो गया था।

हाँ, तो भड़िये कुछ पीछे रह गए थे। उन्हें कुछ खाने को मिल गया था। ‘सप-सप-चट’ बैलों पर कोड़ा बोल रहा था कि पाँच मिनट बाद ही उन्होंने फिर हमारा पीछा शुरू किया। वे हमसे 200 गज पर रह गए होंगे और बढ़ते ही आते थे। मेरे बाप ने कहा, ‘सामान निकालकर फेंको, गड्डा हल्का करो।’

‘एकबारगी ठोकर खाकर गड्डा चरकराकर चला। पूरे बंजारों में यह गड्डा अफसर था, और सब सामान फेंककर हमने उसे फूल-सा हल्का कर दिया था, और कुछ देर तो हम भेड़िये से दूर निकलते मालूम हुए, पर तुरन्त ही वे फिर वापस आ गए।

बड़े मियाँ ने कहा, ‘अब तो, एक बैल खोल दो।’

‘क्या?’ मैंने कहा, ‘दो बैल गड्डा खींच ले जाएँगे?’

उसने कहा, ‘अच्छा, तब एक नटनिया फेंक दो।’ मैंने उन तीन में से मोटी को ही उठाया और गड्डे के बाहर झुलाकर फेंक दिया। हा! ग्वालियर की नटनिया, उसे दाँत लगा दो तो वह भी भेड़ियों का मुकाबला कर ले! पहले तो वह भागी, पर यह जानकर कि भागना बेकार है, घूमकर खड़ी हो गयी और सामनेवाले भेड़िये की टाँगें पकड़ लीं। पर इससे भी क्या फायदा था। एकदम वह नजर से ओझल हो गयी। जैसे किसी कुएँ में गिर पड़ी हो। गड्डा हल्का होकर और आगे बढ़ा, पर भेड़िये फिर लौट आए।

‘दूसरी फेंको’, बड़े मियाँ ने कहा। पर अब की मैंने कहा, ‘आखिर क्या हम लोग सैर करने के लिए मारे-मारे फिरते हैं, एक बैल न खोल दो।’

मैंने एक बैल खोल दिया। वह पीठ पर पूँछ रखकर चिंघाड़ता हुआ भागा और गोल उसके पीछे मुड़ गया।

मेरे बाप की आँखों में आँसू भर आए। ‘बड़ा असील बैल था, बड़ा असील बैल था...,’ वह बुदबुदा रहा था।

‘हम बच तो गए’, मैंने कहा। पर तभी, ह्वा आ आ आ आ आ आ! गोल वापस आ गया था। ‘आज कयामत का दिन है’, मैंने कहा और बैलों को इतना भगाया कि मेरी हथेली में खून छलछला आया।

पर भेड़िये पानी की तरह बढ़ते चले आ रहे थे और हमारे बैल मरके गिरना ही चाहते थे। ‘दूसरी लड़की भी फेंको!’ मेरे बाप ने चीखकर कहा।

इन दोनों में बादीं भारी थी और कुछ सोचकर काँपते हाथों वह अपनी चाँदी की नथनी उतारने लगी थी और मैंने शायद बताया नहीं, मुझे वह कुछ अच्छी भी लगती थी।

इसलिए मैंने दूसरी से कहा, ‘तू निकल!’ पर उसको तो जैसे फालिज मार गया था। मैंने उसे गिरा दिया और वह जैसे गिरी थी, वैसे ही पड़ी रही। गड्डा और हल्का हो गया और तेज दौड़ने लगा। पर पाँच ही मील में भेड़िये फिर वापस आ गए। बड़े मियाँ ने गहरी साँस ली, माथा पीट लिया - हम क्या करें, भीख माँग के खाना बंजारों का दीन है, हम रईस बनने चले थे...

मैंने बादीं की तरफ देखा, उसने मेरी तरफ। मैंने कहा, ‘तुम खुद कूद पड़ोगी कि मैं तुम्हें धकेल दूँ?’ उसने चाँदी की नथ उतारकर मुझे दे दी और बाँहों से आँखें बन्द किए कूद पड़ी। गड्डा बिलकुल हवा-सा उड़ने लगा। वह पूरे बंजारों में गड्डों का अफसर था।

पर हमारे बैल बेहद थक गए और बस्ती तक पहुँचने के लिए अब भी 30 मील बाकी थे। मैं बंदूक के कुन्दे से उन्हें मार रहा था; पर भेड़िये फिर लौट आए थे।

मेरे बाप के मुँह से पसीना टपकने लगा - ’लाओ, दूसरा भी बैल खोल दें।’

मैंने कहा, ‘यह मौत के मुँह में जाना है। हम लोग दोनों मारे जाएँगे, हमें या तुम्हें किसी को तो बचना चाहिए।’

‘तुम ठीक कहते हो।’ उसने कहा, ‘मैं बूढ़ा आदमी हूँ। मेरी जिन्‍दगी खत्म हो गई। मैं कूद पड़ूँगा।’

मैंने कहा, ‘हिरास मत होना। मैं जिन्दा रहा तो एक-एक भेड़िये को काट डालूँगा।’

‘तू मेरा असील बेटा है! मेरे बाप ने कहा और मेरे दोनों गाल चूम लिये। उसने अपने दोनों हाथों में बड़ी-बड़ी छुरियाँ ले लीं और गले में मजबूती से कपड़ा लपेट लिया।

‘रुको,’ उसने कहा - ’मैं नए जूते पहने हूँ, मैं इन्हें दस साल पहनता; पर देखो, तुम इन्हें मत पहनना, मरे हुए आदमियों के जूते नहीं पहने जाते, तुम इन्हें बेच देना।’

उसने जूते खींचकर गड्डे पर फेंक दिए और भेड़ियों के बीचोबीच कूद पड़ा। मैंने पीछे घूमकर नहीं देखा, लेकिन थोड़ी देर मैं उसे चिल्लाते सुनता रहा - यह ले! यह ले! भेड़िये की औलाद! भेड़िये की औलाद! और फिर चट-चट! चट-चट! मैं ही किसी तरह भेड़ियों से बच गया।

खारू ने मेरे डरे हुए चेहरे की तरफ देखा, जोर से हँसा और फिर खखारकर बहुत-सा जमीन पर थूक दिया।

‘मैंने दूसरे ही साल उनमें से साठ भेड़िये और मारे।’ खारू ने फिर हँसकर कहा। पर उसके साथ ही उसकी आँखों में एक अनहोनी कठिनता आ गयी, और वह भूखा, नंगा उठकर सीधा खड़ा हो गया।

-भुवनेश्वर प्रसाद श्रीवास्तव

*भुवनेश्वर की यह कहानी हंस के अप्रैल,1938 के अंक में प्रकाशित हुई थी।


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गजानन  - स्कंद पुराण

एक समय जब माता पार्वती मानसरोवर में स्नान कर रही थी तब उन्होंने स्नान स्थल पर कोई आ न सके इस हेतु अपनी माया से गणेश को जन्म देकर 'बाल गणेश' को पहरा देने के लिए नियुक्त कर दिया।
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नीतिवान सन्यासी - पंचतंत्र

एक जंगल में हिरण्यक नामक चूहा तथा लघुपतनक नाम का कौवा रहता था। दोनों में प्रगाढ़ मित्रता थी। लघुपतनक हिरण्यक के लिए हर दिन खानें के लिए लाता था । अपने उपकारों से उसने हिरण्यक को ॠणी बना लिया था । एक बार हिरण्यक ने लघुपनक से दुखी मन से कहा-- इस प्रदेश में अकाल पड़ गया है। लोगों ने पक्षियों को फँसाने के लिए अपने छतों पर जाल डाल दिया है। मैं किसी तरह बच पाया हूँ। अतः मैंने इस प्रदेश को छोड़ने का निश्चय किया है।

लघुपनक ने बताया-- दक्षिण दिशा में दुर्गम वन है, जहाँ एक विशाल सरोवर है। वहाँ मेरा एक अत्यंत घनिष्ट मित्र रहाता है। उसका नाम मंथरक कछुआ है। उससे मुझे मछलियों के टुकड़े मिल जाया करेंगे।

हिरण्यक ने विनती की कि वह भी लघुपतनक के साथ वहीं जाकर रहना चाहता है। लघुपतनक ने उसे समझाने की कोशिश की कि उसे अपनी जन्मभूमि व सुखद आवास को नहीं छोड़ना चाहिए। इस पर हिरण्यक ने कहा कि ऐसा करने का कारण वह बाद में बताएगा।

दोनों मित्रों ने साथ जाने का निश्चय किया। हिरण्यक लघुपतनक के पीठ पर बैठकर उस सरोवर की ओर प्रस्थान कर गया। निश्चित स्थान पर पहुँचकर कौवे ने चूहे को अपनी पीठ पर से उतारा तथा तालाब के किनारे खड़े होकर अपने मित्र मंथरक को पुकारने लगा।

मंथरक तत्काल जल से निकला। दोनों एक- दूसरे से मिलकर प्रसन्नचित थे। इसी बीच हिरण्यक भी आ पहुँचा। लघुपनक ने मंथरक से हिरण्यक का परिचय कराया तथा उसके गुणों की प्रशंसा भी की।

मंथरक ने भी हिरण्यक से उसके जन्मस्थान से वैराग्य का कारण जानना चाहा। दोनों के आग्रह को सुनकर हिरण्यक अपनी व्यथा कथा सुनाने लगा।

नगर के बाहर स्थित शिव मंदिर में ताम्रचूड़ नामक एक सन्यासी रहता था। वह नगर में भिक्षा माँगकर सुखपूर्वक अपना जीवन व्यतीत कर रहा था। खाने- पीने से बचे अन्न- धान्य को वह प्रत्येक दिन एक भिक्षा पात्र में डालकर रात्रि में खूँटी पर लटकाकर सो जाया करता था। सुबह- सुबह उसे मंदिर के बाहर बैठे भिखारियों में बाँट देता था। इस सब बातों की सूचना हिरण्यक को भी मिली। उसे यह भी पता चला कि ये स्वादिष्ट सामग्री ऊँचाई पर होने के कारण अन्य चूहों को दिक्कत होती है।

हिरण्यक ने बताया कि अपने साथी की बात सुनकर एक रात मैं वहाँ आया तथा खूँटी पर लटकी हाँडी पर छलांग लगा दिया तथा हाँडी को नीचे गिरा दिया तथा साथियों के साथ स्वादिष्ट भोजन का आनंद लिया। अब यह हमारा हर रात का नियम सा बन गया।

परेशान होकर सन्यासी एक फटे बांस का डंडा लेकर आया। डंडे की आवाज से हमलोग डर जाते थे, लेन उसके सो जाते ही पुनः हंडिया साफ कर देते थे।

एक बार सन्यासी का मित्र वृहतस्फिक तीर्थाटन के उपरांत उससे मिलने आया। रात में सोते समय वृहतस्फिक ने ताम्रचूड़ को अपने तीर्थ का विवरण सुनाने लगा। इस दौरान भी ताम्रचूड़ फटे बाँस का डंडा बजाता रहा, जिससे वृहतास्फिक को बुरा लगा। तब ताम्रचूड़ ने उसे डंडा बजाने की असली वजह बताई।

वृहतस्फिक ने जिज्ञासा दिखाते हुए पूछा-- चूहे का बिल कहाँ है ? ताम्रचूड़ ने अनभिज्ञता दर्शायी लेकिन यह स्पष्ट था कि जरुर ही यह बिल किसी खजाने पर है। धन की गरमी के कारण ही यह चूहा उतना अधिक ऊँचाई तक कूद सकता है। वृहतास्फिक ने एक कुदाल मँगवाया तथा निश्चित होकर रात में दोनों सो गए।

हिरण्यक ने सुनाना जारी रखा। प्रातःकाल वृहतास्फिक अपने मित्र के साथ हमारे पदचिन्हों का अनुसरण करते हुए हमारे बिल तक आ ही पहूँचे। किसी तरह मैंने अपनी जान बचा ली, परंतु अंदर छिपे कोष को निकाल लिया। कोष के लूट जाने से मेरा उत्साह शिथिल हो गया। इसके बाद मैंने उस खूँट तक पहुँचने की कई बार कोशिश की, लेकिन वह असफल रही।

मैंने धन को पुनः प्राप्त करने की कई कोशिश की, लेकिन कड़ी निगरानी के कारण मुझे वापस नहीं मिल पाया। इस कारण मेरे परिजन भी मुझसे कन्नी काटने लगे थे। इस प्रकार मैं दरिद्रता तथा अपमान की जिंदगी जी रहा था।

एक बार मैंने पुनः संकल्प लिया। किसी तरह तकिये के नीचे रखे धन को ला रहा था कि वह दुष्ट संन्यासी की निद्रा भंग हो गयी। उसने डंडे से मेरे ऊपर भयंकर प्रहार किया। मैं किसी तरह जीवित बच पाया। जान तो बच गयी, लेकिन परिवार के लोगों के साथ रहना सम्मानजनक नहीं लगा। और इसीलिए मैं अपने मित्र लघुपतनक के साथ यहाँ चला आया।

हिरण्यक की आप बीती सुनकर मंथरक ने कहा-- मित्र नि:संदेह लघुपतनक आपका सच्चा व हितैषी मित्र है। संकट काल में साथ निभानेवाला ही सच्चा मित्र होता है। समृद्धि में तो सभी मित्र होते हैं।

धीरे-धीरे हिरण्यक भी अपने धन की क्षति को भूल गया तथा सुखपूर्वक जीवन यापन करने लगा।

 


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नया मकान | लघु-कथा - रोहित कुमार 'हैप्पी'

कई साल किराए पर रहने के बाद आखिर उसने नया मकान खरीद ही लिया था।

'चलो आज ईश्वर की कृपा से घर भी बन गया।' माँ ने प्रसन्नता जाहिर की।

सबके बड़े-बड़े कमरे थे। माँ का कमरा भी काफी बड़ा था।

'हाँ, इस कोने में मैं अपना मन्दिर बनाऊँगी।' माँ ने कमरे के एक कोने की ओर इशारा करते हुए कहा।

बीवी अपनी विशाल और अति सुंदर रसोई देख कर खुश थी।

कुछ दिन बाद पति-पत्नी को लगा की रसोई पकाने से रसोई खराब हुई जाती है और पूजा करने के कारण माँ वाले कमरे की छत काली पड़ी जा रही है।

समस्या का हल निकाला गया - क्यों ना रसोई गैरेज में ही पकाई जाए और माँ का मंदिर भी वहीं बना दिया जाए।

रसोई गैरेज में पकने लगी और मंदिर भी माँ की इच्छा के विरूद्ध गैरेज में स्थापित कर दिया गया।

अब रसोई साफ-सुथरी थी और माँ का कमरा भी मंदिर बाहर लगाने से और बड़ा लगने लगा था।

बड़े घर में आने पर माँ को बेटे-बहू का दिल छोटा-छोटा दिखने लगा था।

- रोहित कुमार 'हैप्पी'
संपादक, भारत-दर्शन

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लालची कुत्ता | Greedy Dog - पंचतंत्र

एक बार एक कुत्ते को कई दिनो तक कुछ खाने को न मिला, बेचारे को बहुत जोर से भूख लगी थी। तभी किसी ने उसे एक रोटी दे दी, कुत्ता जब खाने लगा तो उसने देखा दूसरे कुते भी उस से रोटी छीनना चाहते हैं। इसलिए मुँह में रोटी दबाए, वह किसी सुरक्षित स्थान को खोजने के लिए वहां से भाग खड़ा हुआ। थोड़ी दूरी पर उसे एक लकड़ी का पुल दिखाई दिया। कुते ने सोचा चलो दूसरी तरफ़ जा कर आराम से रोटी खाता हूँ।

कुता डरते-डरते उस संकरे पुल से दूसरी तरफ़ जाने के लिये चल पडा। तभी उस की नजर पानी मे पडी तो देखता है कि एक कुता पूरी रोटी मुँह मे दबाये नीचे पानी मे खडा है। उसे नहीं पता था कि वह अपनी ही परछाई को दूसरा कुता समझ रहा था।

कुते ने सोचा मैं यह रोटी भी इस से छीन लूं तो भरपेट खा लूं और वो रोटी छिनने के लिए पानी मे्ं दिखाई देने वाले उस कुते पर भोंका कि उसके मुंह खोलते ही उसकी रोटी पानी में जा गिरी और बह गई। फिर तो उसे भूखे पेट ही सोना पड़ा।

शिक्षा - लालच बुरी बला है।

 


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ख़ूनी हस्ताक्षर - गोपाल प्रसाद व्यास

वह ख़ून कहो किस मतलब का, जिसमें उबाल का नाम नहीं
वह ख़ून कहो किस मतलब का, आ सके देश के काम नहीं......

 
 
रक्षा बंधन का ऐतिहासिक प्रसंग  - भारत-दर्शन संकलन

राजपूत जब लड़ाई पर जाते थे तब महिलाएं उनको माथे पर कुमकुम तिलक लगाने के साथ-साथ हाथ में रेशमी धागा भी बाँधती थी। इस विश्वास के साथ कि यह धागा उन्हें विजयश्री के साथ वापस ले आएगा।

राखी के साथ एक और ऐतिहासिक प्रसंग जुड़ा हुआ है। मुग़ल काल के दौर में जब मुग़ल बादशाह हुमायूँ चितौड़ पर आक्रमण करने बढ़ा तो राणा सांगा की विधवा कर्मवती ने हुमायूँ को राखी भेजकर रक्षा वचन ले लिया। हुमायूँ ने इसे स्वीकार करके चितौड़ पर आक्रमण का ख़्याल दिल से निकाल दिया और कालांतर में मुसलमान होते हुए भी राखी की लाज निभाने के लिए चितौड़ की रक्षा हेतु बहादुरशाह के विरूद्ध मेवाड़ की ओर से लड़ते हुए कर्मवती और मेवाड़ राज्य की रक्षा की।

सुभद्राकुमारी चौहान ने शायद इसी का उल्लेख अपनी कविता, 'राखी' में किया है:

मैंने पढ़ा, शत्रुओं को भी
जब-जब राखी भिजवाई......

 
 
असेम्बली हॉल प्रसंग - हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातांत्रिक सेना

(8 अप्रैल, सन् 1929 को भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त द्वारा असेम्बली में बम फैंका गया था)


भारत की राजधानी देहली में सेन्ट्रल असेम्बली का अधिवेशन चल रहा था, पब्लिक सेफ्टी बिल पेश हुआ, बहस हुई, वोट लिए गए। एकाएक भवन में एक धमाका हुआ और धुआँ छा गया। बड़े-बड़े अधिकारी भागते दिखाई दिए, सभा-भवन सूना हो गया। आधे घंटे बाद पुलिस सदल पहुँची और दो नवयुवक जो गैलरी में खड़े थे बम फैंकने के अपराध में गिरफ्तार कर लिए गए। भारत-माता के यह दो सपूत थे - भगतसिंह और बटुकेश्वरदत्त।

गिरफ़्तारी के बाद सरकार की ओर से कहा गया कि यह दोनों नवयुवक न केवल असेम्बली बम कांड के अभियुक्त हैं बल्कि लाहौर सांडर्स हत्याकांड के भी अभियुक्त हैं। सीधे और भोले दिखाई देने वाले यह युवक खूनी और हत्यारे हैं। जनता को इनसे कोई सहानुभूति नहीं होनी चाहिए।

जनता ने उत्तर में कहा-

'बी. के. दत्त ज़िदाबाद' ......

 
 
हाथ में हाथ मेरे | ग़ज़ल - रोहित कुमार 'हैप्पी'

हाथ में हाथ मेरे थमा तो जरा
हम कदम हमको अपना बना तो जरा

रँग दुनिया का तुझको समझ आएगा......

 
 
दीवाली - लक्ष्मी गणेश पूजन - भारत-दर्शन संकलन

वैसे तो प्राय: लक्ष्मी पूजन के साथ विष्णु की पूजा होती है लेकिन दीवाली को लक्ष्मी और गणेश की पूजा का विधान है। इस विशेष पूजन का क्या कारण है? इस बारे में एक कथा प्रचलित है।

एक बार एक राजा ने प्रसन्न होकर एक लकड़हारे को एक चंदन का वन (चंदन की लकड़ी का जंगल) उपहार स्वरूप दिया।

लकड़हारा ठहरा साधारण मनुष्य! वह चंदन की महत्ता और मूल्य से अनभिज्ञ था। वह जंगल से चंदन की लकड़ियां लाकर उन्हें जलाकर भोजन बनाने के लिये प्रयोग करने लगा।

राजा को अपने अपने गुप्तचरों से यह बात पता चली तो उसकी समझ में आया कि संसाधन का उपयोग करने हेतु भी बुद्धि (ज्ञान) व ज्ञान आवश्यक है।

यही कारण है कि लक्ष्मी जी (धन की प्रतीक देवी) और श्री गणेश जी (ज्ञान के प्रतीक देव) की एक साथ पूजा की जाती है ताकि व्यक्ति को धन के साथ साथ उसे प्रयोग करने की ज्ञान भी प्राप्त हो।

 


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मेरे दुख की कोई दवा न करो  | ग़ज़ल - सुदर्शन फ़ाकिर

मेरे दुख की कोई दवा न करो 
मुझ को मुझ से अभी जुदा न करो 

नाख़ुदा को ख़ुदा कहा है तो फिर ......

 
 
हिंदी भाषा की समृद्धता  - भारतेन्दु हरिशचन्द्र

यदि हिन्दी अदालती भाषा हो जाए, तो सम्मन पढ़वाने, के लिए दो-चार आने कौन देगा, और साधारण-सी अर्जी लिखवाने के) लिए कोई रुपया-आठ आने क्यों देगा । तब पढ़ने वालों को यह अवसर कहाँ मिलेगा कि गवाही के सम्मन को गिरफ्तारी का वारंट बता दें ।

सभी सभ्य देशों की अदालतों में उनके नागरिकों की बोली और लिपि का प्रयोग किया जाता है ।

- भारतेन्दु हरिशचन्द्र

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परीक्षा - प्रेमचंद

जब रियासत देवगढ़ के दीवान सरदार सुजानसिंह बूढ़े हुए तो परमात्मा की याद आई। जा कर महाराज से विनय की कि दीनबंधु! दास ने श्रीमान् की सेवा चालीस साल तक की, अब मेरी अवस्था भी ढल गई, राज-काज संभालने की शक्ति नहीं रही। कहीं भूल-चूक हो जाए तो बुढ़ापे में दाग लगे। सारी ज़िंदगी की नेकनामी मिट्टी में मिल जाए।

राजा साहब अपने अनुभवशील नीतिकुशल दीवान का बड़ा आदर करते थे। बहुत समझाया, लेकिन जब दीवान साहब ने न माना, तो हार कर उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली, पर शर्त यह लगा दी कि रियासत के लिए नया दीवान आप ही को खोजना पड़ेगा।

दूसरे दिन देश के प्रसिद्ध पत्रों में यह विज्ञापन निकला कि देवगढ़ के लिए एक सुयोग्य दीवान की जरूरत है। जो सज्जन अपने को इस पद के योग्य समझें वे वर्तमान सरकार सुजानसिंह की सेवा में उपस्थित हों। यह जरूरी नहीं है कि वे ग्रेजुएट हों, मगर हृष्ट-पुष्ट होना आवश्यक है, मंदाग्नि के मरीज़ को यहाँ तक कष्ट उठाने की कोई जरूरत नहीं। एक महीने तक उम्मीदवारों के रहन-सहन, आचार-विचार की देखभाल की जाएगी। विद्या का कम, परन्तु कर्तव्य का अधिक विचार किया जाएगा। जो महाशय इस परीक्षा में पूरे उतरेंगे, वे इस उच्च पद पर सुशोभित होंगे।

इस विज्ञापन ने सारे मुल्क में तहलका मचा दिया। ऐसा ऊँचा पद और किसी प्रकार की क़ैद नहीं? केवल नसीब का खेल है। सैकड़ों आदमी अपना-अपना भाग्य परखने के लिए चल खड़े हुए। देवगढ़ में नये-नये और रंग-बिरंगे मनुष्य दिखायी देने लगे। प्रत्येक रेलगाड़ी से उम्मीदवारों का एक मेला-सा उतरता। कोई पंजाब से चला आता था, कोई मद्रास से, कोई नई फैशन का प्रेमी, कोई पुरानी सादगी पर मिटा हुआ। पंडितों और मौलवियों को भी अपने-अपने भाग्य की परीक्षा करने का अवसर मिला। बेचारे सनद के नाम रोया करते थे, यहाँ उसकी कोई जरूरत नहीं थी। रंगीन एमामे, चोगे और नाना प्रकार के अंगरखे और कंटोप देवगढ़ में अपनी सज-धज दिखाने लगे। लेकिन सबसे विशेष संख्या ग्रेजुएटों की थी, क्योंकि सनद की क़ैद न होने पर भी सनद से परदा तो ढका रहता है।

सरदार सुजानसिंह ने इन महानुभावों के आदर-सत्कार का बड़ा अच्छा प्रबंध कर दिया था। लोग अपने-अपने कमरों में बैठे हुए रोजेदार मुसलमानों की तरह महीने के दिन गिना करते थे। हर एक मनुष्य अपने जीवन को अपनी बुद्धि के अनुसार अच्छे रूप में दिखाने की कोशिश करता था। मिस्टर अ नौ बजे दिन तक सोया करते थे, आजकल वे बगीचे में टहलते हुए ऊषा का दर्शन करते थे। मि. ब को हुक्का पीने की लत थी, आजकल बहुत रात गये किवाड़ बन्द करके अँधेरे में सिंगार पीते थे। मि. द स और ज से उनके घरों पर नौकरों की नाक में दम था, लेकिन ये सज्जन आजकल 'आप' और 'जनाब' के बगैर नौकरों से बातचीत नहीं करते थे। महाशय क नास्तिक थे, हक्सले के उपासक, मगर आजकल उनकी धर्मनिष्ठा देख कर मन्दिर के पुजारी को पदच्युत हो जाने की शंका लगी रहती थी ! मि. ल को किताब से घृणा थी, परन्तु आजकल वे बड़े-बड़े ग्रन्थ देखने-पढ़ने में डूबे रहते थे। जिससे बात कीजिए, वह नम्रता और सदाचार का देवता बना मालूम देता था। शर्मा जी घड़ी रात से ही वेद-मंत्रा पढ़ने में लगते थे और मौलवी साहब को नमाज और तलावत के सिवा और कोई काम न था। लोग समझते थे कि एक महीने का झंझट है, किसी तरह काट लें, कहीं कार्य सिद्ध हो गया तो कौन पूछता है लेकिन मनुष्यों का वह बूढ़ा जौहरी आड़ में बैठा हुआ देख रहा था कि इन बगुलों में हंस कहाँ छिपा हुआ है।

एक दिन नये फैशनवालों को सूझी कि आपस में हाकी का खेल हो जाए। यह प्रस्ताव हाकी के मँजे हुए खिलाड़ियों ने पेश किया। यह भी तो आखिर एक विद्या है। इसे क्यों छिपा रखें। संभव है, कुछ हाथों की सफाई ही काम कर जाए। चलिए तय हो गया, फील्ड बन गई, खेल शुरू हो गया और गेंद किसी दफ्तर के अप्रेंटिस की तरह ठोकरें खाने लगा।

रियासत देवगढ़ में यह खेल बिलकुल निराली बात थी। पढ़े-लिखे भलेमानुस लोग शतरंज और ताश जैसे गंभीर खेल खेलते थे। दौड़-कूद के खेल बच्चों के खेल समझे जाते थे।

खेल बड़े उत्साह से जारी था। धावे के लोग जब गेंद को ले कर तेजी से उड़ते तो ऐसा जान पड़ता था कि कोई लहर बढ़ती चली आती है। लेकिन दूसरी ओर के खिलाड़ी इस बढ़ती हुई लहर को इस तरह रोक लेते थे कि मानो लोहे की दीवार है।

संध्या तक यही धूमधाम रही। लोग पसीने से तर हो गये। खून की गर्मी आँख और चेहरे से झलक रही थी। हाँफते-हाँफते बेदम हो गये, लेकिन हार-जीत का निर्णय न हो सका।

अँधेरा हो गया था। इस मैदान से जरा दूर हट कर एक नाला था। उस पर कोई पुल न था। पथिकों को नाले में से चल कर आना पड़ता था। खेल अभी बन्द ही हुआ था और खिलाड़ी लोग बैठे दम ले रहे थे कि एक किसान अनाज से भरी हुई गाड़ी लिये हुए उस नाले में आया लेकिन कुछ तो नाले में कीचड़ था और कुछ उसकी चढ़ाई इतनी ऊँची थी कि गाड़ी ऊपर न चढ़ सकती थी। वह कभी बैलों को ललकारता, कभी पहियों को हाथ से ढकेलता लेकिन बोझ अधिक था और बैल कमजोर। गाड़ी ऊपर को न चढ़ती और चढ़ती भी तो कुछ दूर चढ़कर फिर खिसक कर नीचे पहुँच जाती। किसान बार-बार जोर लगाता और बार-बार झुँझला कर बैलों को मारता, लेकिन गाड़ी उभरने का नाम न लेती। बेचारा इधर-उधर निराश हो कर ताकता मगर वहाँ कोई सहायक नजर न आता। गाड़ी को अकेले छोड़कर कहीं जा भी नहीं सकता। बड़ी आपत्ति में फँसा हुआ था। इसी बीच में खिलाड़ी हाथों में डंडे लिये घूमते-घामते उधर से निकले। किसान ने उनकी तरफ सहमी हुई आँखों से देखा, परंतु किसी से मदद माँगने का साहस न हुआ। खिलाड़ियों ने भी उसको देखा मगर बन्द आँखों से, जिनमें सहानुभूति न थी। उनमें स्वार्थ था, मद था, मगर उदारता और वात्सल्य का नाम भी न था लेकिन उसी समूह में एक ऐसा मनुष्य था जिसके हृदय में दया थी और साहस था। आज हाकी खेलते हुए उसके पैरों में चोट लग गई थी। लँगड़ाता हुआ धीरे-धीरे चला आता था। अकस्मात् उसकी निगाह गाड़ी पर पड़ी। ठिठक गया। उसे किसान की सूरत देखते ही सब बातें ज्ञात हो गयीं। डंडा एक किनारे रख दिया। कोट उतार डाला और किसान के पास जा कर बोला मैं तुम्हारी गाड़ी निकाल दूँ ?

किसान ने देखा एक गठे हुए बदन का लम्बा आदमी सामने खड़ा है। झुक कर बोला- हुजूर, मैं आपसे कैसे कहूँ? युवक ने कहा मालूम होता है, तुम यहाँ बड़ी देर से फँसे हो। अच्छा, तुम गाड़ी पर जा कर बैलों को साधो, मैं पहियों को ढकेलता हूँ, अभी गाड़ी ऊपर चढ़ जाती है।

किसान गाड़ी पर जा बैठा। युवक ने पहिये को जोर लगा कर उकसाया। कीचड़ बहुत ज्यादा था। वह घुटने तक जमीन में गड़ गया, लेकिन हिम्मत न हारी। उसने फिर जोर किया, उधर किसान ने बैलों को ललकारा। बैलों को सहारा मिला, हिम्मत बंध गई, उन्होंने कंधे झुका कर एक बार जोर किया तो गाड़ी नाले के ऊपर थी।

किसान युवक के सामने हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया। बोला- महाराज, आपने आज मुझे उबार लिया, नहीं तो सारी रात मुझे यहाँ बैठना पड़ता।

युवक ने हँस कर कहा- अब मुझे कुछ इनाम देते हो? किसान ने गम्भीर भाव से कहा नारायण चाहेंगे तो दीवानी आपको ही मिलेगी।

युवक ने किसान की तरफ गौर से देखा। उसके मन में एक संदेह हुआ, क्या यह सुजानसिंह तो नहीं हैं ? आवाज़ मिलती है, चेहरा-मोहरा भी वही। किसान ने भी उसकी ओर तीव्र दृष्टि से देखा। शायद उसके दिल के संदेह को भांप गया। मुस्करा कर बोला- गहरे पानी में पैठने से ही मोती मिलता है।

निदान महीना पूरा हुआ। चुनाव का दिन आ पहुँचा। उम्मीदवार लोग प्रातःकाल ही से अपनी किस्मतों का फ़ैसला सुनने के लिए उत्सुक थे। दिन काटना पहाड़ हो गया। प्रत्येक के चेहरे पर आशा और निराशा के रंग आते थे। नहीं मालूम, आज किसके नसीब जागेंगे! न जाने किस पर लक्ष्मी की कृपादृष्टि होगी।

संध्या समय राजा साहब का दरबार सजाया गया। शहर के रईस और धनाढ्य लोग, राज्य के कर्मचारी और दरबारी तथा दीवानी के उम्मीदवारों का समूह, सब रंग-बिरंगी सज-धज बनाये दरबार में आ विराजे ! उम्मीदवारों के कलेजे धड़क रहे थे।

जब सरदार सुजानसिंह ने खड़े हो कर कहा- मेरे दीवानी के उम्मीदवार महाशयो! मैंने आप लोगों को जो कष्ट दिया है, उसके लिए मुझे क्षमा कीजिए। इस पद के लिए ऐसे पुरुष की आवश्यकता थी जिसके हृदय में दया हो और साथ-साथ आत्मबल। हृदय वह जो उदार हो, आत्मबल वह जो आपत्ति का वीरता के साथ सामना करे और इस रियासत के सौभाग्य से हमें ऐसा पुरुष मिल गया। ऐसे गुणवाले संसार में कम हैं और जो हैं, वे कीर्ति और मान के शिखर पर बैठे हुए हैं, उन तक हमारी पहुँच नहीं। मैं रियासत के पंडित जानकीनाथ-सा दीवान पाने पर बधाई देता हूँ।

रियासत के कर्मचारियों और रईसों ने जानकीनाथ की तरफ देखा। उम्मीदवार दल की आँखें उधर उठीं, मगर उन आँखों में सत्कार था, इन आँखों में ईर्ष्या।

सरदार साहब ने फिर फरमाया- आप लोगों को यह स्वीकार करने में कोई आपत्ति न होगी कि जो पुरुष स्वयं ज़ख़्मी होकर भी एक गरीब किसान की भरी हुई गाड़ी को दलदल से निकाल कर नाले के ऊपर चढ़ा दे उसके हृदय में साहस, आत्मबल और उदारता का वास है। ऐसा आदमी गरीबों को कभी न सतावेगा। उसका संकल्प दृढ़ है जो उसके चित्त को स्थिर रखेगा। वह चाहे धोखा खा जाये, परन्तु दया और धर्म से कभी न हटेगा।

- मुंशी प्रेमचंद

 


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प्रजापति कश्यप की दो पत्नियों की कथा  - भारत-दर्शन संकलन

एक बार प्रजापति कश्यप की दो पत्नियों विनता और कद्रू के बीच इस बात पर विवाद हो गया कि सूर्य के अश्व काले हैं या सफेद।

विवाद बढ़ने पर दोनों के बीच तय हुआ कि जो पराजित होगी वह दासी बनेगी। रानी कद्रू ने अपने पुत्र नागराज वासुकि की सहायता से अश्वों के श्वेत रंग को काला कर दिया, जिससे विनता की हार हुई। अंततः विनता ने कद्रू से प्रार्थना की कि वह उसे दासीत्व से मुक्त कर दें। कडू ने पुनः शर्त रखी कि यदि वे नागलोक में रखे अमृत घट को उसे लाकर दे दे तो दासीत्व से मुक्त हो सकती है। विनता ने अपने पुत्र गरूड़ को इस कार्य में लगा दिया। गरूड़ जब अमृत घट लेकर आ रहे थे तो रास्ते में इंद्र ने उन पर आक्रमण कर दिया। संघर्ष के कारण घट से अमृत की कुछ बूंदें छलककर चार अलग-अलग स्थान पर गिरीं और उन्हीं स्थानों पर कुम्भ पर्व होने लगा।

[भारत-दर्शन संकलन]


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लोहड़ी लोक-गीत - रोहित कुमार 'हैप्पी'

लोहड़ी पर अनेक लोक-गीतों के गायन का प्रचलन है।

'सुंदर-मुंदरिए, तेरा की विचारा - दुल्ला भट्टी वाला...' शायद सबसे लोकप्रिय गीत है जो इस अवसर पर गाया जाता है। पूरा गीत इस प्रकार है:

'सुंदर मुंदरिए - हो तेरा कौन विचारा-हो
दुल्ला भट्टी वाला-हो......

 
 
और नाम पड़ गया आज़ाद  - भारत-दर्शन संकलन

चन्द्रशेखर बचपन से ही महात्मा गांधी से प्रभावित थे। वे बचपन से स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लेने लगे थे - गांधीजी के 'असहयोग आंदोलन' के दौरान उन्होंने विदेशी सामानों का बहिष्कार किया।  इसी असहयोग आंदोलन के दौरान उन्हें पहली बार पंद्रह वर्ष की आयु आंदोलनकारी के रूप में पकड़ लिया गया और जब मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत किया गया।  उसका नाम पूछा गया तो  उन्होंने कहा "आजाद"।

"तुम्हारे पिता का क्या नाम है?"
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पर्वतराज पर भीड़ से आहत - सर एडमंड हिलेरी - रोहित कुमार 'हैप्पी'

2007 में जब सर एडमंड हिलेरी 87 वर्ष के हो गए थे, तब 'आउटलुक' साप्ताहिक के लिए रोहित कुमार 'हैप्पी' ने उनका साक्षात्कार लिया था। 20 जुलाई को हिलेरी की जयंती है। इस मौके पर हिलेरी से लिए साक्षात्कार के अंश...

सर एडमंड हिलेरी 87 वर्ष के हो गए हैं, पर उनका हौसला हिमालय और विश्व की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट की तरह बुलंद है। शेरपा तेनजिंग नोर्गे के साथ 1953 में 8848 मीटर ऊंचे एवरेस्ट पर विजय प्राप्त करने वाले पहले इंसान न्यूजीलैंड निवासी हिलेरी पर्वतारोहण में सारी दुनिया के हीरो हैं मगर स्वयं को साधारण ही मानते हैं और यह भी मानते हैं कि उन्होंने एवरेस्ट को फतह करके कोई बड़ा कारनामा नहीं किया। हिलेरी से हुई बातचीत...

माउंट एवरेस्ट पर विजय रोमाचंक रही होगी? हिमालय को पराजित कर आप क्या सोच रहे हैं?
एवरेस्ट से पहले मैं न्यूजीलैंड में कई जगह पर्वतारोहण कर चुका था, मगर हिमालय अनुपम था। शेरपा तेनजिंग नोर्गे मुझसे अधिक रोमांचित थे। शेरपा ने मुझे बधाई दी। मैंने तेनजिंग की तस्वीरें खींचीं, मगर अपनी तस्वीर लेना जैसे भूल गया। ......

 
 
डॉ कलाम का शायराना केश-विन्यास - रोहित कुमार 'हैप्पी'

डॉ कलाम के राष्ट्रपति बनने पर इनके केशों की भी काफी चर्चा रही। आपका शायराना केश-विन्यास (हेयर स्टाइल) चर्चा में रहा।

कई लोगों ने पत्र लिखकर इन्हें अपने बालों को अलग ढ़ंग से कटवाने की राय व सुझाव दे डाले।

डॉ० कलाम का उत्तर था, उनके बाल जैसे पहले थे राष्ट्रपति होने पर भी वैसे ही रहेंगे। और उनका केश-विन्यास वही रहा।

-रोहित कुमार 'हैप्पी'


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अथ हिन्दी कथा - भारत-दर्शन संकलन

अथ हिंदी कथा

अथ हिन्दी कथा एक अविस्मरणीय प्रस्तुति रही। हिंदी भाषा पर आधारित इस प्रस्तुति साहित्य के साथ-साथ संगीत और नाट्य का कलात्मक मिश्रण था। यह प्रस्तुति प्रसिद्ध कोरियोग्राफर मैत्रेयी पहाड़ी के निर्देशन में 200 कलाकारों के अथक परिश्रम से संभव हो पाई। इसका लेखन उषा छाबड़ा व कास्ट्युम डिजाइनर मुमताज खान ने किया था।

बोलियों ने अपनी कथा कही तो समय चक्र के द्वारा हिन्दी के विकास में राम-कृष्ण, बुद्ध व मीरा से लेकर अमीर खुसरो, विद्यापति, जायसी, सूर, तुलसी, कबीर और जयशंकर प्रसाद समेत तमाम हिन्दी साधकों को याद किया गया। भारतीय संस्कृति ओर सभ्यता के अनमोल क्षण आंखों के सामने जीवंत हो उठे। कथक, बधाई, मालवी मटकी, भरतनाट्यम, छाऊ और कल्लारि पट्टू ने इस कथा का अनूठा शृंगार किया।

दसवें विश्व हिंदी सम्मेलन में 58 मिनट की यह संगीतमय नृत्य-नाटिका एक विशेष प्रस्तुति थी। भाषा और साहित्यकारों पर आधारित हिंदी के विकास व समृद्धि की यह कथा अनुपम थी।


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पहले अभिवादन कौन करे? - रोहित कुमार 'हैप्पी'

एक बार जापानी सैन्य अधिकारियों ने नेताजी से कहा कि जापानी सेना आज़ाद हिन्द सेना से अधिक होशियार है, इसलिए जब भी आज़ाद हिंद सेना के सैनिक अपने सम-कक्ष (समान दरज़े) जापानी अधिकारियों से मिलें तो वे पहले अभिवादन करें।
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गणतंत्र की पृष्ठभूमि - भारत-दर्शन संकलन

भारतीय राष्‍ट्रीय कांग्रेस का लाहौर सत्र

गणतंत्र राष्‍ट्र के बीज 31 दिसंबर 1929 की मध्‍य रात्रि में भारतीय राष्‍ट्रीय कांग्रेस के लाहौर सत्र में बोए गए थे। यह सत्र पंडित जवाहर लाल नेहरु की अध्‍यक्षता में आयोजि‍त किया गया था। उस बैठक में उपस्थित लोगों ने 26 जनवरी को "स्‍वतंत्रता दिवस" के रूप में अंकित करने की शपथ ली थी ताकि ब्रिटिश राज से पूर्ण स्‍वतंत्रता के सपने को साकार किया जा सके। लाहौर सत्र में नागरिक अवज्ञा आंदोलन का मार्ग प्रशस्‍त किया गया। यह निर्णय लिया गया कि 26 जनवरी 1930 को पूर्ण स्‍वराज दिवस के रूप में मनाया जाएगा। पूरे भारत से अनेक भारतीय राजनैतिक दलों और भारतीय क्रांतिकारियों ने सम्‍मान और गर्व सहित इस दिन को मनाने के प्रति एकता दर्शाई।

भारतीय संविधान सभा की बैठकें

भारतीय संविधान सभा की पहली बैठक 9 दिसंबर 1946 को की गई, जिसका गठन भारतीय नेताओं और ब्रिटिश कैबिनेट मिशन के बीच हुई बातचीत के परिणाम स्‍वरूप किया गया था। इस सभा का उद्देश्‍य भारत को एक संविधान प्रदान करना था जो दीर्घ अवधि प्रयोजन पूरे करेगा और इसलिए प्रस्‍तावित संविधान के विभिन्‍न पक्षों पर गहराई से अनुसंधान करने के लिए अनेक समितियों की नियुक्ति की गई। सिफारिशों पर चर्चा, वादविवाद किया गया और भारतीय संविधान पर अंतिम रूप देने से पहले कई बार संशोधित किया गया तथा 3 वर्ष बाद 26 नवंबर 1949 को आधिकारिक रूप से अपनाया गया।

संविधान प्रभावी हुआ

जबकि भारत 15 अगस्‍त 1947 को एक स्‍वतंत्र राष्‍ट्र बना, इसने स्‍वतंत्रता की सच्‍ची भावना का आनन्‍द 26 जनवरी 1950 को उठाया जब भारतीय संविधान प्रभावी हुआ। इस संविधान से भारत के नागरिकों को अपनी सरकार चुनकर स्‍वयं अपना शासन चलाने का अधिकार मिला। डॉ. राजेन्‍द्र प्रसाद ने गवर्नमेंट हाउस के दरबार हाल में भारत के प्रथम राष्‍ट्रपति के रूप में शपथ ली और इसके बाद राष्‍ट्रपति का काफिला 5 मील की दूरी पर स्थित इर्विन स्‍टेडियम पहुंचा जहां उन्‍होंने राष्‍ट्रीय ध्‍वज फहराया। तब से ही इस ऐतिहासिक दिवस, 26 जनवरी को पूरे देश में एक त्‍यौहार की तरह और राष्‍ट्रीय भावना के साथ मनाया जाता है। इस दिन का अपना अलग महत्‍व है जब भारतीय संविधान को अपनाया गया था। इस गणतंत्र दिवस पर महान भारतीय संविधान को पढ़कर देखें जो उदार लोकतंत्र का परिचायक है, जो इसके भण्‍डार में निहित है।

 


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दो लघु-कथाएँ  - डॉ. पूरन सिंह

मेकअप

मिसेज वालिया कहीं भी जाएं मेकअप करवाने मेरे ही ब्यूटी पार्लर में आती हैं । उस दिन भी आई थीं । गाड़ी भी अच्छी तरह से पार्क नहीं की उन्होंने और लगभग हांफ सी रही थीं । वे सफेद साड़ी, सफेद चूड़ियां, सफेद ही चप्पल पहनी थीं।

'प्लीज ..प्लीज आज बहुत जल्दी में हूं । जितनी जल्दी हो मुझे तैयार कर दे ... मेरी बहन । एक जगह जाना है ।' उनकी हड़बड़ाहट अपने चरम पर थी ।

'कहां जाना है दीदी ?'

'अरे क्या बताऊं तुझे .. वो मेरी छोटी बहिन है ना ... अरे वही लवली! उसका ना...देवर.... उसका देवर एक एक्सीडेट में ........ । उसकी डैडबॉडी घर आ गई है । अफसोस करने के लिए जाना है ... बहुत हल्का सा... आई मीन लाइट .. बस लाइट सा कर दे....! अरे जल्दी कर दे ना मेेरी मां! लेकिन ध्यान रहे .....जल्दी करने में मेकअप खराब नहीं लगना चाहिए.... ध्यान रखना मेकअप साड़ी ब्लाउज और चूड़ियों से मैच करे.....तू समझ रही है ना ?'

मिसेज वालिया की जल्दी को देखते हुए, मैं मेकअप करने में जुट गई थी ।

- डॉ. पूरन सिंह

 

(२)

अनशन

अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार के विरोध में अनशन जारी था । वे और उनकी कम्पनी लोकपाल बिल लाने के लिए सरकार पर दबाव बनाने के लिए जमीन आसमान एक किए दे रहे थे। मुझे उनकी बात ठीक लगी इसीलिए मैं उनसे मिलना चाहता था । विशाल भीड़ में उन तक पहुंचना मुश्किल था । उनके समर्थक ब्लैक कैट कमांडो की तरह उनके आस-पास मंडरा रहे थे । अब ऐसे में उनसे कैसे मिला जाए ! मैं सोच रहा था। तभी मेरे दिमाग में एक आइडिया बिलबिलाया था, ‘अरे भैया, अन्ना जी के चरण स्पर्श करना चाहता था ।' उनके बहुत पास खडे़ उनके ही सुरक्षा गार्ड से मैंने हाथ जोड़ते हुए विनय की थी ।

'उनसे नहीं मिल सकते ।' तीर के समान जबाव था उसका ।

'कुछ भी करो यार...मुझे उस महान आत्मा के चरण स्पर्श करवा दो ।' मैं कहां मानने वाला था ।

'अच्छा ठीक है....इधर आओ ।' उसने एक आंख दबाते हुए मुझसे कहा था । मैं उसके बताए हुए स्थान की ओर उससे मिलने पहुंच गया था ।

'मिले बिना मानोगे नहीं ।' वह बोला था ।

'यार .........।'

'तो दो सौ रूपए ढीले करो ।' उसने दो अंगुलियां नचाते हुए कहा था । मैने दो सौ रूपए उसे थमा दिए थे ।

और कुछ ही पलों में, मैं भ्रष्टाचार के विरोध में युद्ध लड़ रहे महाबली अन्ना जी के चरणों में अपना सिर रखे उन्हें वंदन कर रहा था ।

- डॉ. पूरन सिंह
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सियार का बदला - ओमप्रकाश क्षत्रिय "प्रकाश"

एक बार की बात है। एक जंगल में एक सियार रहता था। वह भूख से परेशान हो कर गांव में पहुंचा। उस ने वहां दड़बे में एक मुर्गी देखी। उसे मुंह में दबा कर भाग लिया और एक पेड़ की छाया में जाकर उसे खाने लगा।

वहीं पेड़ पर क्रौ कौआ बैठा हुआ था। उसे देख कर क्रौ के मुंह में पानी आ गया, "ओह । ताजी मुर्गी । चलो बचीखुची हमें भी खाने को मिलेगी," सोचते हुए क्रौ 'कांव-कांव' करने लगा।


उस की आवाज सुन कर बहुत सारे कौवे आ गए। फिर सभी कांवकांव करने लगे। उन की 'कॉव-कांव' सुन कर उधर से गुजर रहा एक ग्रामीण रुक गया। 'जरूर वहां कुछ है', सोचकर वह पेड़ के नीचे आया, जहां सियार आराम से ताजी मुर्गी मार कर खा रहा था।

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वीरवती की कथा  - भारत-दर्शन संकलन

प्राचीन समय में इंद्रप्रस्थ नामक एक शहर में वेद शर्मा नाम का एक ब्राह्मण रहता था। उसके सात पुत्र व एक पुत्री थी। पुत्री का नाम वीरवती था। वीरवती का इंद्रप्रस्थ वासी ब्राह्मण देव शर्मा के साथ विवाह हुआ। वीरवती को उसके भाई और भाभियाँ बहुत प्यार करती थीं। शादी के पहले वर्ष करवा चौथ के व्रत पर वह अपने मायके आई। नियमानुसार अपनी भाभियों के साथ 'करवा चौथ' का व्रत रखा। वीरवती की भाभियों ने करवा चौथ का व्रत पूर्ण विधि-विधान से निर्जल रहकर किया, मगर वीरवती सारे दिन की भूख-प्यास सहन न कर पाने से निढाल हो गई।

जब भाइयों को पता लगा कि उनकी प्रिय बहन वीरवती का भूख-प्यास से बुरा हाल हैं और अभी चंद्रमा के कहीं दर्शन नहीं हुए थे और बिना चंद्र दर्शन एवं अर्घ्य दिए वीरवती कुछ ग्रहण नहीं करेगी, इस पर भाइयों से वीरवती की हालत देखी नहीं गई। सांझ का धुंधलका चारों तरफ हो गया था। भाइयों ने योजना बनाई और काफी दूर जाकर बहुत-सी आग जलाई उसके आगे एक कपड़ा तानकर नकली चंद्रमा का आकार बनाकर वीरवती को दिखा दिया। वीरवती को कुछ पता नहीं था, अतः उसने उसी आग को चंद्रमा समझ लिया और अर्घ्य देकर अपना व्रत सम्पन्न कर लिया। व्रत के इस प्रकार खंडित होने से उसी वर्ष उसका पति सख्त बीमार पड़ गया। घर का सारा पैसा इलाज में चला गया और बीमारी ठीक नहीं हुई। घर का अन्न-धन खाली हो गया। पूरा वर्ष व्यतीत होने को आया करवा चौथ का व्रत निकट ही था। एक दिन इंद्रलोक की इंद्राणी ने वीरवती को स्वप्न में दर्शन दिए और उसके करवा चौथ के व्रत के खंडित होने का वृत्तांत सुनाया।

इंद्राणी ने कहा- वीरवती! इस बार तू यह व्रत पूरे विधि-विधान से रखना तेरा पति अवश्य ठीक हो जाएगा। घर में पहले की तरह धन-धान्य होगा। वीरवती ने वैसा ही किया और उसके प्रताप से उसका पति ठीक हो गया।

इच्छित वर घर की कामना हेतु इस व्रत को कुंवारी कन्याएँ भी करती हैं। वे गौरी माँ की पूजा-अर्चना करती हैं। चाँद को अर्घ्य देकर व्रत खोलना सुहागिनों के लिए है जबकि कन्याएँ तारा देखकर ही भोजन कर सकती हैं।

[भारत-दर्शन]


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एक टोकरी भर मिट्टी - माधवराव सप्रे

किसी श्रीमान् जमींदार के महल के पास एक गरीब अनाथ विधवा की झोंपड़ी थी। जमींदार साहब को अपने महल का हाता उस झोंपड़ी तक बढा़ने की इच्‍छा हुई, विधवा से बहुतेरा कहा कि अपनी झोंपड़ी हटा ले, पर वह तो कई जमाने से वहीं बसी थी; उसका प्रिय पति और इकलौता पुत्र भी उसी झोंपड़ी में मर गया था। पतोहू भी एक पाँच बरस की कन्‍या को छोड़कर चल बसी थी। अब यही उसकी पोती इस वृद्धाकाल में एकमात्र आधार थी। जब उसे अपनी पूर्वस्थिति की याद आ जाती तो मारे दु:ख के फूट-फूट रोने लगती थी। और जबसे उसने अपने श्रीमान् पड़ोसी की इच्‍छा का हाल सुना, तब से वह मृतप्राय हो गई थी। उस झोंपड़ी में उसका मन लग गया था कि बिना मरे वहाँ से वह निकलना नहीं चाहती थी। श्रीमान् के सब प्रयत्‍न निष्‍फल हुए, तब वे अपनी जमींदारी चाल चलने लगे। बाल की खाल निकालने वाले वकीलों की थैली गरम कर उन्‍होंने अदालत से झोंपड़ी पर अपना कब्‍जा करा लिया और विधवा को वहाँ से निकाल दिया। बिचारी अनाथ तो थी ही, पास-पड़ोस में कहीं जाकर रहने लगी।

एक दिन श्रीमान् उस झोंपड़ी के आसपास टहल रहे थे और लोगों को काम बतला रहे थे कि वह विधवा हाथ में एक टोकरी लेकर वहाँ पहुँची। श्रीमान् ने उसको देखते ही अपने नौकरों से कहा कि उसे यहाँ से हटा दो। पर वह गिड़गिड़ाकर बोली, ''महाराज, अब तो यह झोंपड़ी तुम्‍हारी ही हो गई है। मैं उसे लेने नहीं आई हूँ। महाराज क्षमा करें तो एक विनती है।'' जमींदार साहब के सिर हिलाने पर उसने कहा, ''जब से यह झोंपड़ी छूटी है, तब से मेरी पोती ने खाना-पीना छोड़ दिया है। मैंने बहुत-कुछ समझाया पर वह एक नहीं मानती। यही कहा करती है कि अपने घर चल। वहीं रोटी खाऊँगी। अब मैंने यह सोचा कि इस झोंपड़ी में से एक टोकरी-भर मिट्टी लेकर उसी का चूल्‍हा बनाकर रोटी पकाऊँगी। इससे भरोसा है कि वह रोटी खाने लगेगी। महाराज कृपा करके आज्ञा दीजिए तो इस टोकरी में मिट्टी ले आऊँ!'' श्रीमान् ने आज्ञा दे दी।

विधवा झोंपड़ी के भीतर गई। वहाँ जाते ही उसे पुरानी बातों का स्‍मरण हुआ और उसकी आँखों से आँसू की धारा बहने लगी। अपने आंतरिक दु:ख को किसी तरह सँभालकर उसने अपनी टोकरी मिट्टी से भर ली और हाथ से उठाकर बाहर ले आई। फिर हाथ जोड़कर श्रीमान् से प्रार्थना करने लगी, ''महाराज, कृपा करके इस टोकरी को जरा हाथ लगाइए जिससे कि मैं उसे अपने सिर पर धर लूँ।'' जमींदार साहब पहले तो बहुत नाराज हुए। पर जब वह बार-बार हाथ जोड़ने लगी और पैरों पर गिरने लगी तो उनके मन में कुछ दया आ गई। किसी नौकर से न कहकर आप ही स्‍वयं टोकरी उठाने आगे बढ़े। ज्‍योंही टोकरी को हाथ लगाकर ऊपर उठाने लगे त्‍योंही देखा कि यह काम उनकी शक्ति के बाहर है। फिर तो उन्‍होंने अपनी सब ताकत लगाकर टोकरी को उठाना चाहा, पर जिस स्‍थान पर टोकरी रखी थी, वहाँ से वह एक हाथ भी ऊँची न हुई। वह लज्जित होकर कहने लगे, ''नहीं, यह टोकरी हमसे न उठाई जाएगी।''

यह सुनकर विधवा ने कहा, ''महाराज, नाराज न हों, आपसे एक टोकरी-भर मिट्टी नहीं उठाई जाती और इस झोंपड़ी में तो हजारों टोकरियाँ मिट्टी पड़़ी है। उसका भार आप जन्‍म-भर क्‍योंकर उठा सकेंगे? आप ही इस बात पर विचार कीजिए।"

जमींदार साहब धन-मद से गर्वित हो अपना कर्तव्‍य भूल गए थे पर विधवा के उपर्युक्‍त वचन सुनते ही उनकी आँखें खुल गयीं। कृतकर्म का पश्‍चाताप कर उन्‍होंने विधवा से क्षमा माँगी और उसकी झोंपड़ी वापिस दे दी।

माधवराव सप्रे [1901]

*इस रचना को हिन्दी की पहली लघुकथा का श्रेय प्राप्त है।


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प्रेमचंद  - गुलज़ार

'प्रेमचंद की सोहबत तो अच्छी लगती है
लेकिन उनकी सोहबत में तकलीफ़ बहुत है...

मुंशी जी आप ने कितने दर्द दिए हैं......

 
 
ढुंढा राक्षसी की कथा | होली की पौराणिक कथाएं - भारत-दर्शन

इस कथा के अनुसार भगवान श्रीराम के पूर्वजों के राज्य में एक माली नामक राक्षस की बेटी ढुंढा राक्षसी थी। इस राक्षसी ने भगवान शिव को प्रसन्न के करके तंत्र विद्या का ज्ञान प्राप्त कर लिया था। उसे ऐसा वर प्राप्त था जिससे उसके शरीर पर किसी भी देवता या दानव के शस्त्रास्त्र का कोई मारक प्रभाव नहीं होता था। इस प्रकार भयमुक्त ढुंढा प्रत्येक ग्राम और नगर के बालकों को पीड़ा पहुंचाने लगी।

अपनी विद्या से वह अदृश्य होकर बच्चों को कष्ट पहुंचाती। तंत्र विद्या से यह बच्चों को बीमार भी कर देती थी।

भगवान शिव ने वर देते समय यह युक्ति रख छोड़ी कि जहां बच्चों का शोरगुल, हुड़दंग और हो हल्ला होगा वहां ढुंढा असफल रहेगी।

तत्पश्चात होली के अवसर पर बच्चों ने मस्ती व हुड़दंग करनी आरम्भ कर दिया।

[संकलन-भारत-दर्शन]

 


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ऑक्टोपस  - रोहित कुमार ‘हैप्पी'

माओरी समाज की पौराणिक कहानी के मुताबिक न्यूजीलैंड, जिसे माओरी लोग आओटियारोआ कहते हैं। इसकी तलाश कुपे नाम के एक मछुआरे ने रंगातिरा नाम के एक जनजातीय मुखिया के साथ मिलकर की थी। ये लोग टापू के रहने वाले थे। कुपे के मछली मारने के ठिकानों पर ऑक्टोपस हमला कर रहे थे। वो मछलियों को फंसाने के लिए डाला गया चोगा खा जाते थे।

मछुआरों को शंका हुई कि ये ऑक्टोपस दूसरी जनजाति के मुखिया मुतुरांगी के हैं।

कुपे ने मुतुरांगी से कहा कि वह अपने पालतू ऑक्टोपस को उसका मछलियों को फांसने वाला चोगा खाने से रोके। मुतुरांगी ने ऐसा करने से इनकार कर दिया, इसपर क्रोधित कुपे ने उस ऑक्टोपस को मार डालने की शपथ ले ली। वो अपना घर-बार छोड़कर ऑक्टोपस की खोज में निकल पड़ा। प्रशांत महासागर में ऑक्टोपस की तलाश के दौरान ही कुपे न्यूजीलैंड के द्वीपों पर जा पहुंचा। वहां कुपे और रंगातिरा उतरे और अपनी नाव पर खानपान की चीजें रखीं। इसके बाद ऑक्टोपस से कुपे और रंगातिरा की भयंकर समुद्री युद्ध हुआ।

माओरी लोक साहित्य के अनुसार ये लड़ाई आज की कुक जलसंधि पर हुई थी। आख़िरकार कुपे ने मुतुरांगी के पालतू ऑक्टोपस को मारने में कामयाबी हासिल कर ही ली। इस जीत के बाद कुपे ने न्यूजीलैड के उत्तरी द्वीप का चक्कर लगाया और कई ठिकाने का नामकरण किया। कुपे ने शपथ ली कि वह अपनी तलाश की हुई इस नई जमीन पर दोबारा कदम नहीं रखेगा। इस लोक कथा के अनुसार न्यूजीलैंड पर कदम रखने वाला पहला व्यक्ति कुपे था।


भावानुवाद : रोहित कुमार 'हैप्पी'......

 
 
सच्चा कलावान्  - कृष्णगोपाल माथुर

टॉल्स्टॉय का एक मित्र चित्रकार था नाम था गे। गे ने ईसा से मिलते जुलते चित्र बनाने शुरू किए। उस समय टॉल्स्टॉय ने जो उपदेश उसे दिया, वह ध्यान देने लायक़ है ।

टॉल्स्टॉय ने कहा-''सच्चा कलावान् वही हो सकता है, जिसके हृदय में किसी उपकारक विषय का ज्ञान और चरित्र लबालब भरा हो, और फिर वह बाहर निकलने के लिये ज़ोर मार रहा हो; अर्थात् उस विषय की अपनी जानकारी लोगों को बताने के लिये प्रबल इच्छा उसके हृदय में ज़ोर मार रही हो, जिसको काम में लाना उसको याद हो, फिर चाहे वह लेखक हो, चित्रकार हो, या कोई भी कला का आश्रय लेनेवाला हो। जुदी-जुदी कलाओं के बाहरी रूप जुदे-जुदे होते हैं, पर सबकी जड़ तो एक ही प्रकार की होती है।''

-कृष्णगोपाल माथुर
[आदर्श घटनाओं का संग्रह]

 

 

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दुनिया मतलब की - द्यानतराय

दुनिया मतलब की गरजी, अब मोहे जान पडी ।।टेक।।
हरे वृक्ष पै पछी बैठा, रटता नाम हरी।......

 
 
नशा - मन्नू भण्डारी

"सत्यानाश हो उस हरामी के पिल्ले का, जिसने ऐसी जान लेवा चीज बनाई!" ...खाली बोतल को हिला हिलाकर शंकर इस तरह जोर-जोर से चिल्ला रहा था, जिससे कि रसोई में काम करती हुई उसकी पत्नी सुन ले। "घर का घर तबाह हो जाए, आदमी की जिन्दगी तबाह हो जाये; पर यह जालिम तरस नहीं खाती! कैसा मूर्ख होता है आदमी भी, यह समझता है वह इसे पी रहा है; पर असल में यह आदमी को पीती है, आदमी की जान को, आदमी के खून को पीती है उसके ईमान को पीती है, हाँ-हाँ!" यों ही बकता-बहकता, खाली बोतल की मुग्दर घुमाता हुआ शंकर रसोई के दरवाजे पर पहुँच गया, "देखा, यह खाली हो गई?" और बोतल को उलटी करते हुए बोला, "एक दम खाली! अब मैं चाहता हूँ कि मैं इसे भरूँ और पिऊँ और यह कम्बख्त चाहती है कि यह मेरे पेट में भर जाये और मुझे पिये! ...पियें... दोनों खूब पियें!"

आनन्दी सिर झुकाये हुए जौ की मोटी-मोटी रोटियाँ सेक रही थी। वह सब सुनती है, पर बोली नहीं। क्या बोले? बोलने को उसके पास कुछ है भी नहीं, कभी भी तो कुछ नहीं रहा। वाणी कुन्द हुए वर्षों हो गए। वह जानती है, शंकर को कल पीने को नहीं मिला, वह बहुत कष्ट पा रहा है। परसों उसने बहुत चाहा था कि किसी तरह कुछ पीस डाले, पर उठा ही नहीं गया। सारा बदन जैसे जुड़ गया था। इस गठिया ने उसे अपाहिज बना दिया है। कल सारे दिन शंकर बका था, आनन्दी पर दो-तीन लातें भी पड़ी थीं; पर वह पैसा न दे सकी।

कल रात तो तूने बड़ी देर तक पीसा था, आनन्दी। पिसाई नहीं मिली क्या?" बिना पिये शायद शंकर को सारी रात नींद नहीं आई, तभी तो मालूम है कि उसने सारी रात पीसा। पर पिसाई, कैसे दे-दे वह पिसाई? ग्रानन्दो का मन बहा बोझिल हो आया, एक हूक-सी उठी मन में। हथेलियों के छाले पीड़ा उठे।  ...पर शंकर को फिर नींद नहीं आएगी। ये जौ की रोटियाँ जो उसने बनाई हैं, वह खायेगा नहीं। सारी दोपहर, सारी रात बकेगा, तड़पेगा, उसे मारेगा। आनन्दी उठी, तांबे की कटोरी में से कुछ पैसे लाकर उसने शंकर के हाथ में रख दिये।

"तेरी जैसी सती नार का भगवान जरूर भला करेगा, आनन्दी! तेरा बेटा भी एक दिन लौट आएगा, जरूर, जरूर लौट आयेगा। ऐसी औरत के साथ तो भगवान् भी दुश्मनी नहीं निभा सकता!"

शंकर चला गया तो अपनी हथेलियाँ देखने लगी--छालों से भरी हुई हथेलियों। टप-टप आँसू टपकने लगे आँखों से। उसके छालों पर हमेशा आँसुओं का ही तो मरहम लगा है।

"हे मगवान, मुझे मौत आ जाये! कोई मुझे यहां से ले जाये!" एक घुटी-घुटी सी आह और उससे भी ज्यादा घुटी-घुटी आवाज!

 

X X X

 

"सुनती है, आनन्दी, तेरे बेटे की चि‌ट्ठी आई है! अरे, वह जीता जागता है, बड़ा आदमी हो गया है!" हाथ में चि‌ट्ठी लिये दौड़ता-सा शंकर आनन्दी के पास आया। "देख-देख, किशनू की चि‌ट्ठी आई है! उसने कपड़े की दुकान कर ली है। ...ले, देख, देख!"

अवाक्-सी आनन्दी शंकर का मुंह देखती रह गई। शंकर के हाथ में बोतल नहीं, कागज था। गोबर से सने हाथ आनन्दी ने एक बार आगे बढ़ाए फिर वापस खींच लिये। कहीं पैसे लेने के लिए शंकर उसके साथ मजाक तो नहीं कर रहा है? उसकी आँखों में कुछ ऐसा बाव उभर आया, मानो कह रही हो, ऐसा क्रूर मजाक मत करो मेरे साथ! तुम्हें पैसे चाहिए तो यों ही माँग लो।

"बुद्ध-जैसी क्या देख रही है? देख, अपने बेटे की लिखाई पहचानती है या नहीं?" और पत्र को उसने आनन्दी की आँखों से सटा दिया, "तेरे नाम लिखी है--अपनी माँ के नाम। मुझसे तो वह आज भी गुस्सा है। हरामी कहीं का!"

गाली आनन्दी के सीने में जा लगी।

"सुन, क्या लिखा है," और शंकर जोर-जोर से पत्र पढ़कर सुनाने लगा।

"कपड़े की दूकान जम गई तो शादी भी कर ली! ...एक छोटा-सा पक्का मकान भी बना लिया। ...अब तुझे मैं अपने ही साथ रखूँगा, यह सब मैंने तेरे ही लिए किया है, माँ। ...मैं तुझे लेने आ रहा हूँ।"

आनन्दी को लगा, जैसे यह सब शंकर पढ़ नहीं रहा; किशन बोल रहा है। किशन की आवाज वह कभी भूल सकती है भला? उसकी आँखों के सामने किशनू का आँसू-भरा चेहरा उभर आया।

"अरे, कल तेरा बेटा आ रहा है--बारह साल बाद। राम चौदह साल बाद आये थे तो अयोध्या वालों ने दीवाली मनाई थी। तू भी दीवाली मना, तेरा राम आ रहा है न! ...आज तो दो रुपये माँगू तो भी कम हैं। सच कहता है जो परसों से एक बूंद भी गले के नीचे गई हो तो! और अब क्या बात है? तेरे बेटे के मकान है, कपडे की दूकान है!" कहकर शंकर ने सामने रखी गोबर की ढेरी पर कसकर लात मारी। दूर-दूर तक गोबर छिटक गया। "तू अब उपले नहीं थापेगी, समझी? कुछ नहीं करेगी। चल, दो रुपये दे, निकाल।"

आनन्दी ने चुपचाप हाथ धोये। दो रुपये दिए। दो रात उसने सिलाई की थी, और दिन में उपले थापे थे, सूत काता था, तब जाकर अढ़ाई-रुपये मिले थे। आठ आने का धान लाई थी, बाकी रुपये...।

रुपए हाथ आते ही शंकर ने जल्दी-जल्दी सिर पर साफा लपेटा और चलने लगा। आनन्दी ने धीरे से कहा, "चि‌ट्ठी तो देते जाओ।"

"ले ये चिट्ठी। अरे, मैं कोई झूठ थोड़े ही बोल रहा हूँ? कल तेरा बेटा आ रहा है। जा किसी से पढ़वा ले। सत्यानासी बुलाए बिना नहीं मानी। बदजात कहीं की!" और लम्बे-लम्वे डग भरता वह बाहर निकल गया।

कल किशनू आ रहा है, सचमुच ही किशनू आ रहा है। और जैसे इतनी देर बाद उसे पहली बार बोध हुआ कि उसके जीवन में क्या कुछ घट गया? बारह साल बाद उसका बेटा आ रहा है... एकाएक चबूतरे पर बैठकर ही आनन्दी फूट-फूट कर रो पड़ी। ऊपर से सदा ही शान्त रहने वाला पर्वत के भीतर का ज्वालामुखी जब फूटता है तो कोई भी शक्ति उस आवेश को रोक नहीं पाती। बारह साल बाद वह कल अपने किशनू को देखेगी! उसका बेटा उसका खोया हुआ बेटा वापस आ रहा है! ...शंकर आज के दिन भी शराब पीने गया। क्यों नहीं वह सारे मुहल्ले में दौड़ता फिरा? क्यों नहीं उसने घर-घर जाकर खबर दी कि किशनू या रहा है? क्यों नहीं उसके पास बैठकर उसने बात की कि किशनू के आने की तैयारी में क्या-क्या किया जाए? ...तैयारी? उसकी आँखों के सामने ताँबे की खाली कटोरी घूम गई। शंकर के प्रति तीखी घृणा और विरक्ति से उसका मन भर गया।

वह उठी। अपने घर के चारों ओर उसने नजर डाली। कितना बदल गया है उसका घर इन बारह सालों में! कच्ची दोवारों में मोटी-मोटी दरारें पड़ गई हैं, आंगन में जहाँ-तहाँ से गोबर की मोटी-मोटी पपड़ियाँ उतर गयी हैं; उसने आजकल लीपना पोतना भी छोड़ ही दिया था। इतना समय ही कहाँ रहता था उसके पास। फिर किसके लिए लीपे-पोते? किशनू क्या कहेगा यह घर देखकर? लेकिन एक दिन में अब वह कर भी क्या सकती है?

साँझ आयी और चारों ओर धुंधलका छा गया तो मूँज की ढीली-ढाली खटिया आंगन में डालकर वह लेट गयी।

दीया बाट, बहु खाट!' थककर बड़ी रात गए वह सोने जाती तो उसकी सास उसे ताना सुनाया करती थी। आज तो सचमुच ही वह दिया जलाते ही खाट पर आ लेटी थी। आज वह रोटी नहीं बनाएगी। सवेरे उसने रोटी नहीं खायी थी, उससे खायी ही नहीं गयी। शंकर आकर वही रोटी खा लेगा। पीकर आता है तो उसे गर्म रोटी चाहिए, न मिलने पर वह गुस्से में मार भी बैठता है। फिर भी आनन्दी नहीं उठी। आज और मार ले, कल तो फिर उसका बेटा आ जाएगा। फिर देखे, कोई तो उसके हाथ लगा के! किशनू ने सारी चि‌ट्ठी माँ के लिए ही लिखी है। अपने कक्का के लिए कुछ भी नहीं लिखा। कुछ भी हो, कम-से-कम चिट्ठी में तो कुछ लिख देता। आखिर बाप है। पर वह जानती है कि किशनू कितना जिद्दी है कितना गुस्सैल है। तभी तो भाग गया। फिर भी बाप के लिए एक अजीब-सी करुणा बसके मन में उभर आयी।

शंकर अभी तक नहीं लौटा। पता नहीं, कब लौटेगा। आज के दिन न पीता तो क्या हो जाता?

सामने मिट्टी के पक्के चबूतरे पर नजर गई। सीमेंट के गमले में सूखी मरियल-सी तुलसी की चार-पांच टहनियाँ इधर-उधर सिर झुकाये दिखायी दे रही थीं, आठ-दस पीले मुरझाये पत्ते हवा में लटक रहे थे, पत्तों पर धूल की परत जमी हुई थी। आनन्दी आजकल तुलसी पर दीया नहीं जलाती। जिस दिन किशनू भागा था, उस दिन से उसने कभी दीया नहीं जलाया। कौन-सी कामना बाकी रह गई थी, जिसके लिए वह दीया जलाती? पर इस समय मन हुआ कि एक दीया जलाकर रख दे। आनन्दी ने उठकर पहले तुलसी में पानी दिया, फिर दीया जलाकर रख दिया।

 प्रकाश का एक वृत रह-रहकर काँपने लगा। अनेक स्मृतियाँ कांपने लगीं--अनेक चित्र काँपने लगे।

...दस साल की आनन्दी जेवरों से लदी-फदी इस घर की पुत्र-वधू बनकर आई थी। उसकी सास ने उससे चबूतरे पर दीया जलवाया था और कहा था कि अपने सुहाग की मनौती मांग लेना, बहू, रोज इस पर दीया जलाना घर की यह तुलसी कलप-तरु है।

सुहाग का वह तब अर्थ भी नहीं जानती थी; फिर मी उसने अपने सुहाग की कुशल की कामना की थी, रोज दीया जलाने का संकल्प किया था।

बहू का नयापन दो ही दिन में उतर गया था और उसे पता लग गया था कि इस घर, इन जेवरों और गायों-भैसों के बीच जो कुछ है वह बहुत ही कष्टकर है। उसे पल-पल में रोना आने लगा। ...माँ, कक्का, दद्दा आदि याद आते, वह छिप-छिपकर बिसूरती। सास देख लेती तो ऐसी नोंचती कि माँस निकल आता। किसी काम में कसर रह जाती तो सास ऐसे लतियाती कि वह औंधे मुंह गिरकर तड़पड़ाने लगती। ...उसकी बोली बन्द हो गयी, बस, आँसू बहते रहते और आँसू बहाते-बहाते एक दिन उसे एक नया ज्ञान हुआ कि यह सास उसके जीवन की कर्णधार नहीं-- शंकर उसके जीवन का कर्णधार है। और तब वह उस दिन की राह में समय काटने लगी जब उसका असली कर्णधार उसका भार संभालेगा। वह दिन तो जल्दी ही आ गया; पर कर्णधार भार संभालने के बजाय भार बन गया--ऐसा भार, जिसे ढोने के लिए उसे अपने कन्धे बड़े कमजोर लगे।

शंकर घर का इकलौता लड़का था। पिता थे नहीं, माँ के पास बेटे के अवगुण देखने वाली आँखें नहीं थी। उसे सही रास्ते पर लगाने वाला कोई अंकुश नहीं था। उसे पीने की जो लत पड़ी तो घर का धन ही नहीं गया, आनन्दी की किस्मत और बच्चों का भविष्य भी चला गया। माँ के मरने के बाद शंकर बिल्कुल लल्ला ही हो गया। दो बच्चे बीमारी में तड़पकर मर गये। बच्चे चले गये, खेत-खलिहान चले गये, गाय-भैसें चली गयीं। रह गए शंकर और किशनू। किशनू को छाती से लगाए-लगाए वह काम करती । न हाथ रुकते, न आँसू शंकर या तो पीता या नशे में उत्पात मचाता। वह मार खाती, किशनू मार खाता।

चौदह साल का किशनू एक दिन तैश में आ गया और बाप पर झपट पड़ा: "कक्का! तुमने माँ को हाथ लगाया तो मैं तुम्हारा खून पी जाऊँगा। मैं सच कहता हूँ, तुम्हारा खून पी जाऊंगा!" और वह बाप से जूझ गया।

"मैं तेरे हाथ जोड़ती हैं, किशनू, तू हट जा। तुझे मेरे सिर की सौगन्ध है जो तू कक्का पर हाथ उठाये। तू हट जा, किशनू, हट जा।"

और किशनू हटा तो ऐसा हटा कि बारह साल तक मुंह नहीं दिखाया।

नन्दी शकर के पैरों पर गिर-गिरकर रोयी, लोटी "मेरे बेटे को ढुँढवा दो। मैं उसे लेकर कहीं चली जाऊँगी। उसके बिना मुझसे जिन्दा नहीं रहा जाएगा। मैं तुम्हें जिन्दगी भर पीने दूंगी, अपना हाड़ गला-गलाकर पीने को दूंगी। तुम मेरे किशनू को ढूंढ़ दो!"

पर न शंकर ने किशनू को ढूंढ़ा, न आनन्दी मरी। हां, हाड़ गला गलाकर वह पिलाती रही और शंकर पीता रहा।

 

X X X

 

"माँ, मेरा बटुआ रख लेना जरा," बटुआ थमाकर, धोती कन्धे पर डाल किशनू नहाने चला गया।

आनन्दी का मन हुआा था, कह दे; मेरे पास बटुआ मत रख किशनू नहीं तो... पर उससे कुछ भी नहीं कहा गया था।

किशनू घर से अभी निकला भी नहीं था कि शंकर सामने खड़ा था: "निकाल रुपये। तू सोचती है, सारी कमाई तू अकेली ही हड़प लेगी। बेटे का पैसा अकेले-अकेले न पचेगा, वह मेरा भी बेटा है, निकाल।"

काँपते हाथ से आनन्दी ने दो रुपये निकालकर दे दिए। अन्दर कितने रुपए हैं, उसने झांककर भी नहीं देखा। वह किशनू से कह देगी कि उसी ने रुपए निकाले हैं, उसे जरूरत थी। लेकिन शंकर को क्या कभी समझ नहीं आएगी? वह पीकर आएगा, वैसे ही बकेगा-झकेगा। क्या सोचेगा किशनू? अभी तक किशनू ने नहीं पूछा था कि कक्का अब भी पीते हैं या छोड़ दी।

क्या पूछे, पीने वालों की सूरत ही बता देती है! पर क्या आज ही वह सब नाटक फिर होना था? क्यों उसने रुपए दिए? उसे अपने पर ही क्रोध आने लगा। मना कर देती तो क्या कर लेता? अब उसे डर ही किस बात का है? उसका कमाऊ बेटा उसे लेने आ गया है। वह अपने को ही कोसने लगी--उसे रुपए नहीं देने थे। क्यों दे दिए उसने रुपए?

किशनू खा-पीकर गाँव में लोगों से मिलने निकला, तो बोला, "मां जरा बटुआा देना।" काँपते हाथ से आनन्दी ने बटुआ पकड़ा दिया। दो रुपए की बात गले में आकर अटक गई। बिना देखे ही बटुना जेब में रख, किशनू निकल गया। आनन्दी उसे देखती रही लम्बा-चौड़ा जवान! ...कल पड़ी-पड़ी यह सोच रही थी कि बेटे को अपनी दुःख-गाथा सुनाएगी...इतने दिनों का अपना बोझ हलका करेगी।

पर बेटे के सामने तो उसको जीभ ही जैसे तालू को सट गई। यह किशनू अब बारह साल पहले वाला किशनू नहीं रह गया था। वह सोच रही थी कि पहले की तरह ही वह उसकी गोद में सो जाएगा और वह एक-एक करके बताएगी कि उसने कितना कुछ सहा। लेकिन...।

"सत्यानास हो उस हरामी के पिल्ले का, जिसने ऐसी जानलेवा चीज बनाई।" नशे में धुत लडखडाता शंकर घुसा तो किशनू अवाक्-सा उसका मुंह ही देखता रह गया। उसकी आँखों में खून उतर आया। उसने आनन्दी की ओर देखा। आनन्दी की अपराधी नजरें झुक गई। "क्या-क्या लाड लड़ रहा है माँ से? ...अरे, अरे अपने बाप को भी तो कुछ दे! ...जो कुछ देना है इधर दे, इधर। मैं तेरा बाप हूँ, साले!" लड़खड़ाता हुआ शंकर भीतर चला गया।

"यह पैसा कहाँ से लाते हैं?"

आनन्दी चुप।

"मैं पूछता हूँ, यह पैसा कहाँ से लाते हैं?"

आनन्दी की आँखों से टप-टप आँसू बहने लगे।

"तू देती है? तू पीने को देती है? क्यों? क्यों देती है तू उसे पैसा? तू अपने पैरों में कुल्हाड़ी मार रही है, माँ?"

सिसकियां, दबी-दबी, घुटी-घुटी सिसकियाँ।

"मैं सोच रहा था कि पैसा नहीं रहा होगा तो कक्का रास्ते पर आ गया होगा। पर अभी भी वही हाल है। पिछले 12 सालों में यों ही तू इस निख‌ट्टू को पिला रही है न?"

"मुझे यहाँ से ले चल, किशनू... यहाँ से ले चल। मैं अब एक दिन भी इस घर में रहना नहीं चाहती। मैंने बहुत सहा है, अब और नहीं सहा जाता, मुझे यहां से ले चल आज ही।" आनन्दी फूट-फूटकर रोने लगी।

किशनू ने कमीज की बाहों से ही आँखें पोंछते हुए कहा--"आज ही तुझे ले चलूँगा माँ, आज ही। सोचा तो था कि कक्का को भी ले चलूँगा, पर अब नहीं। यह ले जाने लायक ही नहीं है।"

"कौन साला जाता है तेरे साथ? निकल जा तू मेरे घर से। दोनों निकल जाओ। कोई बेटा-बेटी नहीं है मेरा। कोई औरत-वोरत नहीं है मेरी। जाओ सब जाओ।" खटिया पर बैठा-बैठा शंकर अनाप-शनाप बक रहा था।

आनन्दी सारे दिन रोयी। इसने अपने फटे-पुराने कपड़ों की गठरी बाँध ली। रो-रोकर सबसे मिल आई। उसका बेटा उसे लेने आ गया। वह जा रही है, अब कभी इस घर में नहीं आएगी। पिछले चालीस साल उसने इसमें काटे हैं, इस घर को और घरवाले को अपना खून पिलाया है। रो-रोकर उसने कामना की है कि हे भगवान्, किसी तरह मेरा बेटा लौटा दे अपने बेटे को लेकर मैं कहीं चली जाऊँ।...

आज वह दिन आ गया। फिर भी आनन्दी रो ही रही है। शाम को शंकर आया तो नशे में धुत। कपड़े की बंधी गठरी को लात से एक ओर उछालता हुआ बोला--"मैं एक-एक का खून पी जाऊँगा।... देखें कौन माई का लाल ले जाता है मेरी जोरू को।" और उसने आनन्दी को बडी बेरहमी से पीटना शुरू कर दिया। एक भरपूर लात पेट में पड़ी तो आनन्दी को गश-सा आ गया। कराहकर इतना ही वह कह सकी--"बचा, बेटे किशनू, बचा।" 

किशनू के नथुने फड़क रहे थे और आँखों के डोरे सुर्ख हो उठे थे। एक धक्के में उसने शंकर को दूर पटक दिया और आनन्दी को खाट पर डालता हुआ बोला--"और दे पैसे! ...मेहनत-मजदूरी कर और पिला इस सांड को!"

किशनू आनन्दी पर ही बरसने लगा। दर्द से कराहती हुई आनन्दी कह रही थी--"मुझे यहां से ले चल किशनू।"

निकलने की बेला आई तो रुलाई का आवेग सँभल नहीं रहा था। आस-पास की सभी औरतें विदा करने आई थीं।

"ले जा भइया, अपनी माँ को, बड़े-बड़े दुःख सहे हैं बेचारी ने।"

"अरे किशनू, इस गाय को ले जा शंकर कसाई के घर से। कसाई भी अच्छा जो एक दिन ही मारकर छुट्टी कर देता है। इससे तो..।" चलने से पहले झिझकते-झिझकते आनन्दी ने कहा--"बेटा, दस रुपए हों तो दे, मानकी की माँ के चुकाने हैं।"

"हाँ-हाँ ले," दस का एक नोट किशनू ने माँ के हाथ में थमा दिया।

सबकी नजरें बचाकर आनन्दी उस नोट को ताम्बे की कटोरी में डाल आई। फिर घबराते दिल से आकर सबके बीच में मिल गई। रात के धुंधलके में आनन्दी किशनू के साथ इक्के पर बैठकर चली। धूल उड़ाता इक्का आगे बढ़ गया। घर पीछे छूट गया। पता नहीं, कहाँ बैठकर वह पी रहा होगा।

 

X X X

 

शहर में बना छोटा-सा, साफ-सुथरा, पक्का मकान। आनन्दी की छोटी से-छोटी आज्ञा को पूरी करने में सदा तत्पर बेटे-बहू। इससे बड़े सुख की कल्पना वह नहीं कर सकती थी।

दूकान से आते ही किशनू पास आकर पूछता--"क्या खबर है?"

"अच्छी हूँ, बेटा।"

"कुछ भी चाहिए तो माँग लेना। मन ऊबे तो पड़ोसियों के यहां चली जाया करो।"

किशनू खाता तो माँ को पास बिठा लेता। बहू गर्म-गर्म फुलकियाँ उतार कर देती जाती। घी महक़ता रहता। दो तरकारियां, दाल, चटनी ...और अनायास ही आनन्दी की आँखों में न जाने ऐसा क्या पड़ जाता कि पानी ही पानी बहने लगता? वह बार-बार आँखें पोंछती, पर एक चित्र था कि मिटता नहीं धुंधला नहीं होता, उभर-उभर कर आता रसोई के अंधेरे कोने में अधजली, अधपकी सूखी रोटियां, न घी न तरकारी, पानी के छूटे के सहारे जैसे-तैसे निगलता हुआ शंकर...

"देखो अम्मा, एक और रोटी नहीं लेते। एकदम करारी करके लाई हूँ। यह भी कोई खाना हुआ भला?" बहू ठुनक कर शिकायत करती।

करारी और गर्म रोटी का कितना शौक है शंकर को। ठण्डी रोटी देखकर वह आनन्दी को मार बैठता था।

"कितना तो खा लिया, तुम तो हद कर देती हो। देखो माँ, तुम्हारी इस बहू ने कितना मोटा कर दिया है मुझे।"

"कहाँ हो रहा है मोटा? जवानी में ऐसा शरीर नहीं रहेगा तो बुढ़ापे में क्या करेगा? सारा दिन काम करके आता है, खिलाएगी नहीं? कौन औरत होगी जो अपने सुहाग का खयाल न रखती होगी? अपने आदमी का..." बाकी बातें गले में ही अटक जातीं।

"आज यह क्या हो रहा है, माँ?"

"कुछ नहीं यों ही जरा सिलाई लेकर बैठ गई।" सिटपिटाते हुए आनन्दी ने कहा।

"तुम बहू से करवा लिया करो, तुम्हारी बहू सिलाई जानती है।"

"मेरी सिलाई नहीं है, बेटा, पड़ोसियों की ले आई हूँ। सारे दिन खाली बैठे-बैठे ऊब जाती हूँ न, इसी से।"

"ओ-हो! यह बात है? भले लोग हैं, चली जाया करो उधर।"

"दिन में चली जाती हूँ।"

आते-जाते किशनू पूछता ही रहता--माँ, कुछ चाहिए तो नहीं?

माँ, तुम कभी घूमने-फिरने भी चली जाया करो। ...माँ तुम्हारा मन तो लग जाता है न?

बहू दिन में दस चक्कर लगाती--अम्मा जी यह खा लीजिए।

"अम्मा, आज क्या तरकारी बनाऊँ? ...लाओ, अम्मा तुम्हारे सिर में तेल डाल दूँ।"

आजकल आनन्दी सारा दिन सिलाई करती है। पडोसियों के घर में शादी है, ढेर सारी सिलाई ले आई है। बहू सोचती, चलो अच्छा है, अम्मा का मन लगा रहता है। अम्मा ने बड़ी लगन से बहू से क्रोशिये की बेल बनाना सीखा। आनन्दी की लीची जैसी खिचमिची आँखें और महीन धागे का फन्दा--आँखों पर जोर पडता है, पर वह छोड़ती नहीं।

रात में देर तक आँखें गड़ाए हुए क्रोशिया चलाते देख एक दिन किशनू बोला--"माँ छोटी-मोटी सिलाई कर दिया करो। तुम तो बेगार ही लेकर बैठ गई पडोसियों की। अब क्या तुम्हारी आँखें ऐसी हैं जो यह सब काम करो?"

तो आनन्दी ने उठाकर रख दिया और बत्ती बुझाकर सो गई।

लेकिन आधी रात के करीब जब सब सो गए तो वह फिर उठी दरवाजा बन्द किया और बत्ती जलाकर बुनने बैठ गई। अंगुलियां उसकी जकड़ रही थीं, पर वह बुनती रही। धीरे-धीरे फन्दे में से फन्दा निकलता रहा। दूसरे दिन आनन्दी को मामूली-सी हरारत हो गई। आनन्दी बुखार में भी बराबर काम करने की आदी थी पर किशनू और बहू ने उसे सुला दिया। किशनू नाराज भी हुआ, "इस तरह सिलाई-बुनाई करने की क्या जरूरत थी भला? बैठे बिठाए बुखार बुला लिया।"

"मैं तो अच्छी हैं, तुम लोगों ने जबरदस्ती मुझे बीमार बना दिया।"

"अच्छा-अच्छा तुम बिस्तरे से मत उठो। देखो माँ को उठने मत देना। आऊंगा तो दवा लेता आऊँगा।"

देवी-देवता जैसे हैं उसके बेटे-बहू। कितना खयाल रखते हैं उसका। जाने कौन-सा पुण्य किया था उसने, जो उसका बुढ़ापा सुधर गया? एक ठण्डी साँस उसके कलेजे से निकल गई--संतोष की या विषाद की, वह स्वयं नहीं समझ पाई।

किशनू दवाई लेकर लौटा तो आनन्दी तकिए के सहारे बैठी अपनी जकडी हुई उंगलियों को देख रही थी। जब तक हाथ चलते रहे, कुछ पता नहीं लगा था, पर अब तो जरा-सा हिलाने में भी दर्द होता है। किशनू को देखते ही उसने हाथ चादर के नीचे ढँक लिए।

"क्या खबर है माँ, कैसा है बुखार?" और आनन्दी के पास बैठकर उसने उसका हाथ खींचकर बाहर निकाला।

आनन्दी दर्द को पी गई।

"बुखार तो इस समय नहीं लगता।" पत्नी को पुकारते हुए किशनू बोला--"अरे सुनती हो, जरा एक गिलास पानी लाना। अम्मा को दवाई बेनी है।" और फिर जेब से पुड़िया और शीशी निकालने लगा। तभी पड़ोसियों का दस साल का लडका हाथ में कागज का एक छोटा-सा टुकड़ा लिए हुए घुसा।

"नानी जी, अम्मा ने यह रसीद भेजी है और कहा है कि देख लीजिए, पूरे बीस रुपए भेज दिए हैं।" रटे हुए वाक्य की तरह वह बोला और कागज उसने आनन्दी की ओर बढ़ा दिया।

"रसीद? बीस रुपए?" आश्चर्य से किशन ने कहा और आनन्दी के उठे हुए हाथ को पीछे छोड़कर उसने लड़‌के के हाथ से रसीद ले ली। वह बीस रुपए के मनीआर्डर की रसीद ही थी। मनीआर्डर शंकर के पास भेजा गया था। किशनू ने आनन्दी की ओर देखा।

लडका लौट रहा था; पर जैसे उसे फिर कुछ याद आ गया हो, वह फिर मुड़ा--"अम्मा ने कहा है, आपका सारा हिसाब साफ हो गया है नानी जी।" और वह दौड़ गया।

आनन्दी की अपराधी नजरें एक क्षण को किशनू से मिलीं और फिर नीचे को झुक गई।

"ऐसा ही था तो तू मुझसे कह देती, माँ। रात-दिन जुतकर सिलाई-बुनाई करने की क्या जरूरत थी?" आनन्दी की आँखों से टप्-टप् आँसू बह रहे थे।

 -मन्नू भण्डारी

['यही सच है' से]


......
 
 
पागल की डायरी - लू शुन

दो भाई थे। उनके नाम नहीं बताऊँगा। मेरे स्कूल के दिनों के साथी थे। दोनों से ही अच्छा मेल-जोल था। परंतु कई वर्ष तक मेल-मुलाक़ात न हो सकी और संपर्क टूट गया। कुछ महीने पहले सुना कि उनमें से एक बहुत बीमार है। मैं अपने गाँव लौट रहा था, सोचा रास्ते में उन लोगों के यहाँ भी होता चलूँ। उनके घर गया तो एक ही भाई से मुलाकात हुई। उसने बताया कि छोटा भाई बीमार था।मित्र ने कहा, “तुम्हारे दिल में कितना स्नेह है। हम लोगों का ख़याल कर इतनी दूर से मिलने के लिए आए हो। अब छोटे भाई की तबीयत ठीक है। उसे सरकारी नौकरी मिल गई है, वहीं गया है।” बड़े भाई ने हँसते-हँसते दो मोटी-मोटी जिल्दों में लिखी डायरी मुझे दिखाई और बोला कि अगर कोई इस डायरी को पढ़ ले तो भाई की बीमारी का रहस्य समझ जाएगा और अपने पुराने दोस्त को दिखा देने में हर्ज़ भी क्या है। मैं डायरी ले आया और उसे पढ़ डाला। समझ गया कि बेचारा नौजवान अजीब आतंक और मानसिक यंत्रणा से पीड़ित था। लिखावट बहुत उलझी-उलझी और असंबद्ध थी। कुछ बेसिरपैर के आरोप भी थे। पृष्ठों पर तारीखें नहीं थीं। जगह-जगह स्याही के रंग और लिखावट के अंतर से अनुमान हो सकता था कि ये जब-तब आगे-पीछे लिखी गई चीज़ें होंगी। कुछ बातें संबद्ध भी जान पड़ती थीं और समझ में आ जाती थीं। चिकित्सा विज्ञान में ख़ोज की दृष्टि से उपयोगी हो सकने वाले कुछ पृष्ठों को मैंने नकल कर लिया। डायरी की एक भी बेतुकी बात को मैंने बदला नहीं, बस नाम बदल दिए हैं। हालाँकि दूर देहात के उन लोगों को जानता भी कौन है। शीर्षक स्वयं लेखक का ही दिया हुआ है। यह दिमाग़ ठिकाने आ जाने पर ही दिया होगा। मैंने उसे नहीं बदला।1आज रात चाँद ख़ूब उजला है।

तीस वर्ष हो गए, चाँद को नहीं देख पाया। इसलिए आज इस चाँदनी में मन में उत्साह उमड़ता जा रहा है। आज अनुभव कर रहा हूँ कि बीते तीस वर्ष अंधकार में ही बिता दिए; परंतु अब बहुत चौकस रहना होगा। अवश्य कोई बात है। वरना चाओ परिवार का कुत्ता भला दो बार मेरी ओर क्यों घूरता?

हाँ, समझता हूँ, मेरी आशंका अकारण नहीं है।2आज अंधेरी रात है। चाँद का कहीं पता नहीं। लक्षण शुभ नहीं हैं। आज सुबह बाहर गया तो बहुत सावधान था। चाओ साहब ने मेरी ओर ऐसे देखा, मानो मुझे देखकर डर गए हों, मानो मेरा ख़ून करना चाहते हों। सात-आठ दूसरे लोग भी थे। एक-दूसरे से फुसफुसाकर मेरी बात कर रहे थे और मेरी नज़र से बचने की कोशिश कर रहे थे। जितने लोग मिले, सबका वही हाल था। उनमें जो सबसे डरावना था, मुझे देखते ही दाँत निकालकर हँसने लगा। मैं सिर से पाँव तक काँप पड़ा। समझ गया, इन लोगों ने सब तैयारी कर ली है।मैं डरा नहीं, अपनी राह चलता गया। कुछ बच्चे आगे-आगे जा रहे थे। वे भी मेरी ही बात कर रहे थे। उनकी नज़रें चाओ साहब की ही तरह थीं और चेहरे डर से ज़र्द पड़ गए थे। सोच रहा था, मैंने इन लड़कों का क्या बिगाड़ा है? ये “क्यों, क्या बात है?” क्यों मुझसे ख़फ़ा हैं? रहा नहीं गया तो मैं पुकार बैठा, मगर तब वे सब भाग गए।कुछ समझ नहीं पाता कि चाओ साहब से मेरा क्या झगड़ा है? राह चलते लोगों का मैंने कब क्या बिगाड़ा है? बस, इतना याद है कि बीस वर्ष पहले कू च्यू साहब की वर्षों पुरानी बही पर मेरा पाँव पड़ गया था और कू साहब बहुत नाराज़ हो गए थे। पर कू का चाओ से क्या मतलब? एक-दूसरे को पहचानते भी नहीं। हो सकता है, चाओ ने इसके बारे में किसी से सुन लिया हो और मुझसे उसका बदला लेने की ठान ली हो। वह राह चलते लोगों को मेरे विरुद्ध भड़काते रहते हैं; पर इन बच्चों को इस सबसे क्या मतलब? ये लोग तो तब पैदा भी नहीं हुए थे। ये लोग मुझे ऐसे घूर-घूर कर क्यों देखते हैं? मानो डरे हुए हों, मेरा ख़ून कर देने की घात में हों। बहुत घबराहट होती है, क्या करूँ? अजब परेशानी है।मैं समझता हूँ इन लोगों ने यह सब ज़रूर अपने माँ-बाप से सीख लिया होगा!3रात में नींद नहीं आती। बिना अच्छी तरह सोचे-विचारे कोई भी बात समझ में नहीं आ सकती।इन लोगों को देखो—कई लोगों को मजिस्ट्रेट कठघरे में बंद करवा चुका है; बहुत से लोग आसपास के अमीर-उमरावों से मार खा चुके हैं; बहुतों की बीवियों को सरकारी अमले के लोग छीन ले गए हैं; कइयों के माँ-बाप साहूकारों से परेशान होकर गले में फाँसी लगाकर आत्महत्या कर चुके हैं। पर इन सब बातों को याद करके भी इन लोगों की आँखों में कभी इतना ख़ून नहीं उतरा होगा, इन्हें कभी इतना ग़ुस्सा नहीं आया होगा, जितना कि कल देखने में आया।उस औरत को क्या कहूँ? कल गली में अपने लड़के को पीट-पीटकर चीख़ रही थी, “बदमाश कहीं का! तेरी चमड़ी उधेड़ दूँगी! तेरी बोटी-बोटी काट डालूँगी! तूने मेरा कलेजा जला दिया!” वह बार-बार मेरी तरफ़ देखने लगती थी। मैं काँप उठा, बड़ी घबराहट हुई। क्रूर चेहरे, लंबे-लंबे दाँतों वाले लोग हँसने लगे। बुजुर्ग छन झट आगे बढ़ आया और मुझे पकड़कर घर ले आया।छन मुझे घर लिवा लाया। सब लोग ऐसे बन गए मानो पहचानते ही न हों। मैंने उनकी आँखें पहचानीं। उनकी नज़रों में भी वही गली के लोगों वाली बात थी। मैं अध्ययन-कक्ष में आ गया तो उन्होंने झट दरवाज़ा बंद कर दिया और साँकल लगा दी, जैसे मुर्ग़ी या बत्तख़ को दरबे में बंद कर दिया गया हो। मैं और भी परेशान हो गया।कुछ दिन पहले की बात है। शिशु-भेड़िया गाँव से हमारा एक असामी फसल के चौपट होने की ख़बर देने आया था। उसने मेरे बड़े भाई को बताया कि गाँव के सब लोगों ने मिलकर देहात के एक बदनाम दिलेर गुंडे को घेर लिया और मार-मारकर उसका काम तमाम कर दिया। कुछ लोगों ने उसका सीना फाड़कर दिल और कलेजा निकाल लिया, उन्हें तेल में तला और बांटकर खा गए कि उनका भी  हौसला बढ़ जाए। मुझसे रहा नहीं गया और मैं बोल पड़ा। भैया और असामी दोनों मुझे घूरने लगे। बिलकुल ऐसे ही घूर रहे थे, जैसे आज सड़क पर लोगों की नज़रें।यह सब सोचकर एड़ी से चोटी तक सारा बदन सिहर उठता है।ये लोग आदमखोर हैं, ये मुझे भी खा सकते हैं।याद आया, वह औरत कह रही थी, “तेरी बोटी-बोटी काट डालूँगी!” क्रूर चेहरों पर लंबे दाँत निकाले लोग हँस रहे थे, और उस असामी ने जो कहानी सुनाई...ये सब गुप्त संकेत हैं। इन लोगों की बातों में कितना विष भरा है। इनकी हँसी खंजर की धार की तरह काटती है। इनके ये लंबे-लंबे सफ़ेद दाँत आदमियों के हाड़-माँस चबा-चबा कर चमक गए हैं। ये सब आदमखोर हैं।

मैं जानता हूँ, यद्यपि मैं कोई बुरा आदमी नहीं, पर जब से कू साहब की बही पर मेरा पाँव पड़ा है, लोग मेरे पीछे पड़ गए हैं। इन लोगों के मन में ऐसी गांठ पड़ गई है कि मैं कुछ कर ही नहीं सकता। ये लोग किसी से एक बार बिगड़ जाते हैं तो उसे बदमाश समझ लेते हैं। ख़ूब याद है, बड़े भाई मुझे निबंध लिखना सिखाया करते थे। कोई आदमी कितना ही भला रहा हो, यदि मैं उसके दोष दिखा देता तो उन्हें बहुत पसंद आता था। साथ ही यदि मैं किसी के दोषों पर पर्दा डाल देता तो कह बैठते, “बहुत ख़ूब! यह तुम्हारी नई सूझ है।” इन लोगों के मन की थाह कैसे पा सकता हूँ—ख़ासकर जब ये लोग किसी को खा जाने की बात सोच रहे हों।बहुत गहराई से विचार किए बिना कुछ समझ पाना कठिन है। याद पड़ता कि आदिम लोग प्राय: नर-माँस खाते थे, पर बिलकुल ठीक याद नहीं पड़ रहा। इस विषय में इतिहास की पुस्तकों में भी ख़ोज करने का यत्न किया, कहीं क्रमबद्ध इतिहास नहीं मिला। “सद्गुण और सदाचार” यही शब्द सभी पृष्ठों पर मिलते हैं। नींद किसी तरह नहीं आ रही थी, इसलिए बहुत ध्यान से आधी रात तक पढ़ता रहा। जहाँ-तहाँ वास्तविक अभिप्राय समझ में आने लगा। सारी किताब में सब जगह जगह एक ही बात थी, “मनुष्य को खा जाओ”। पुस्तक में लिखी ये सारी बातें, उस असामी की सारी बातें, मेरी ओर कैसे घूर रही हैं, गूढ़ मुस्कुराहट से!मैं भी तो मनुष्य हूँ और ये लोग मुझे खा जाना चाहते हैं।4सुबह कुछ देर से चुपचाप बैठा था। न खाना लेकर कमरे में आया—एक कटोरे में सब्ज़ी थी, दूसरे में भाप से पकाई हुई मछली। मछली की आँखें पथराई हुई सफ़ेद थीं, मुँह खुला हुआ था, जैसे कोई भूखा आदमखोर मुँह खोले हुए हो। मैं खाने लगा, ग्रास निगलता जा रहा था। नहीं मालूम मछली खा रहा या नर-माँस। सब उगल डाला।मैंने छन से कहा, “छन दादा, भैया से कहो इस कोठरी में मेरा दम घुटा जा रहा है, ज़रा आँगन में टहलूँगा।” छन चुपचाप चला गया। तुरंत ही लौटकर आया और उसने दरवाज़ा खोल दिया।मैं कोठरी में ही बैठा रहा, उठा नहीं। सोच रहा था, ये लोग अब क्या करेंगे? यह तो जानता था कि मुझे हाथ से निकल नहीं जाने देंगे। इतना तो निश्चित था। भैया आहिस्ता-आहिस्ता क़दम रखते एक बुजुर्ग को साथ लिए आ पहुँचे। बुड्ढे की ख़ून की प्यासी आँखों में कटार की-सी चमक थी। वह मुझसे आँख नहीं मिलाना चाहता था कि कहीं मैं ताड़ न लूँ, इसलिए गर्दन झुकाए था। चश्मे के भीतर से कनखियों से मेरी ओर देख लेता था।

“आज तो तुम्हारी तबीयत बहुत अच्छी लग रही है।” भैया बोले।मैंने हामी भरी।

“तुम्हें दिखाने के लिए ही हो साहब को बुलवाया है।” भैया ने कहा।

“बहुत अच्छा,” मैंने कहा, पर समझ गया कि यह बुड्ढा असल में एक जल्लाद है, जो हकीम बनकर आया है! मेरी नब्ज़ देखने के बहाने वह मुझे टटोलकर माँस का अनुमान लगा रहा था। इस सेवा के लिए उसे भी मेरे माँस का हिस्सा पाने की आशा थी। इस पर भी मैं डरा नहीं। मैं आदमखोर नहीं हूँ, पर उन लोगों से अधिक साहस मुझमें है। मैंने अपनी दोनों कलाइयाँ आगे बढ़ा दीं, यह सोचकर कि देखूँ क्या करता है? बुड्ढा चौकी पर बैठ गया, आँखें मूँदे मेरी नब्ज़ देखता रहा। कुछ देर सोच में मौन रहा, फिर अपनी धूर्त आँखें खोलकर बोला, “अपने विचारों को भटकने मत दो, फ़िक्र बिलकुल मत करो। कुछ दिनों तक पूरा आराम करो। चैन से रहो, तुम्हारी सेहत बिलकुल ठीक हो जाएगी।”अपने विचारों को भटकने मत दो! बिलकुल फ़िक्र मत करो! कुछ दिन पूरा आराम करो! चैन से रहो! हाँ, जब मैं ख़ूब मोटा हो जाऊँगा तो इन्हें ख़ूब माँस मिलेगा, पर मुझे इससे क्या मिलेगा? यह क्या सेहत का ठीक होना है? यह इन सब आदमखोरों का नर-माँस के लिए लालच और साथ ही भलमनसाहत का दिखावा है। कायरता के कारण ये लोग तुरंत कार्यवाही करने का साहस नहीं कर पाते—यह देखकर हँसी के मारे पेट में बल पड़ने लगते हैं। मेरी हँसी रुक न सकी और मैं ठहाका लगाकर हँस पड़ा। ख़ूब मज़ा आया। मैं जानता था इस हँसी में निर्भीकता और सत्यनिष्ठा छिपी है। भैया और बूढ़े हकीम के चेहरे पीले पड़ गए। वे लोग मेरी निर्भीकता और सत्यनिष्ठा देखकर डर गए।मैं निडर हूँ, साहसी हूँ, इसीलिए तो वे लोग मुझे खा जाने के लिए और अधिक आतुर है, ताकि मेरा दमदार कलेजा खाकर उनका हौसला और बढ़ सके। बूढ़ा हकीम उठकर चल दिया। जाते-जाते भैया के कान में कहता गया, “इसे अभी खाना है!” भैया ने सिर झुकाकर हामी भर ली। अब समझ में आया! विकट रहस्य खुल गया। मन को धक्का तो लगा, पर यह तो होना ही था। मुझे मालूम ही था—मेरा अपना ही भाई मुझे खा डालने के षड्यंत्र में शामिल है!यह आदमखोर मेरा अपना ही बड़ा भाई है!मैं एक आदमखोर का छोटा भाई हूँ!मुझे दूसरे लोग खा जाएँगे, लेकिन फिर भी मैं एक आदमखोर का छोटा भाई हूँ!5कुछ दिनों से दूसरी ही बात मन में आ रही है—हो सकता है हकीम के वेष में बूढ़ा जल्लाद न हो, हकीम ही हो; अगर ऐसा भी है तो भी वह आदमखोर तो है ही। वैद्यों के पुरखे ली शी-चन की जड़ी-बूटियों की पोथी में साफ़ लिखा है कि नर-माँस को उबालकर खाया जा सकता है; सो वह वैद्य आदमखोर नहीं तो क्या है?बड़े भाई का क्या कहना, वे तो आदमखोर हैं ही। जब मुझे पढ़ाते थे तो अपने मुँह से कहते थे, “लोग अपने बेटों को एक दूसरे से बदलकर उन्हें खा जाते हैं” और एक बार एक बदमाश के लिए उन्होंने कहा था कि उसे मार डालने से ही क्या होगा, “उसका गोश्त खा डालें और उसकी खाल को बिछावन बना लें!’’ तब मेरी उम्र कच्ची थी। सुनकर दिल देर तक धड़कता रहा। जब शिशु-भेड़िया गाँव के असामी ने एक बदमाश का कलेजा निकालकर खा जाने की बात कही थी, तब भी भैया को कुछ बुरा नहीं लगा था। सुनकर चुपचाप सिर हिलाते रहे थे, जैसे ठीक ही हुआ हो। मुझसे छिपा क्या है, वे तो पहले की ही तरह खूँखार हैं। चूँकि “बेटों को एक-दूसरे से बदलकर उन्हें खा जाना” संभव है, तो फिर हर चीज़ को बदला जा सकता है, हर किसी को खाया जा सकता है। उन दिनों भैया जब ऐसी बातें समझाते थे तो मैं सुन लेता था, सोचता नहीं था। पर अब ख़ूब समझ में आता है कि ऐसी बातें कहते समय उनके मुँह में नर-माँस का स्वाद भर आता होगा और उनका मन मनुष्य को खाने के लिए व्याकुल हो उठता होगा।6घना अंधेरा है। जान नहीं पड़ता रात है या दिन। चाओ परिवार का कुत्ता फिर भौंक रहा है। बब्बरशेर की तरह खूँखार, खरहे की तरह कातर, लोमड़ी की तरह धूर्त।

मैं उन लोगों को ख़ूब जानता हूँ। किसी को एकदम मार डालने को ये तैयार नहीं है। ऐसा कर सकने का साहस इन लोगों में नहीं है।

परिणाम के भय से इनकी जान निकलती है, इसलिए ये लोग षड्यंत्र रचकर जाल बिछा रहे हैं, मुझे आत्महत्या कर लेने के लिए विवश कर रहे हैं। कुछ दिनों से गली के पुरुषों और स्त्रियों का बरताव देख रहा हूँ और बड़े भाई का रंग-ढंग भी देख रहा हूँ। मैं सब समझता हूँ। ये लोग तो चाहते हैं कि कोई घर की धन्नी से फँदा लगाकर इनके लिए मर जाए। क़त्ल के लिए कोई इन पर उँगली न उठा सके और ये लोग जी भरकर खाएँ। ये लोग इसी बात की कल्पना करके ख़ुशी से फूले नहीं समा रहे। चाहे कोई आदमी चिंता और संकट से सूख-सूख कर आत्महत्या कर ले और उसके शरीर में रक्त-माँस कुछ भी न रहे, ये लोग उसे भी खाने के लिए लालायित रहते हैं।ये लोग केवल मुरदार गोश्त खाते हैं! याद आता है, एक घिनौने जानवर के बारे में पढ़ा है। उसकी आँखें बड़ी डरावनी होती हैं। हाँ, उसे लकड़बग्घा कहते हैं। लकड़बग्घा अक्सर मुरदार गोश्त खाता है। मोटी से मोटी हड्डी दांतों में चबाकर निगल जाता है। ख़याल आते ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। लकड़बग्घे की जाति भेड़िये से मिलती है और भेड़िया कुत्ते की जाति का होता है। उस दिन चाओ परिवार का कुत्ता बार-बार मेरी ओर देख रहा था। मालूम होता था वह कुत्ता भी षड्यंत्र में शामिल है। बूढ़ा हकीम नजरें झुकाए था, पर मैं तो ताड़ गया!सबसे अधिक दुख तो मुझे अपने बड़े भाई के लिए है। वह भी तो आदमी है, उसे डर क्यों नहीं लगता। मुझे खा डालने के लिए वह भी दूसरों के साथ क्यों मिल गया है! शायद जो होता चला आया है उसे करते जाने में लोग अपराध और दोष नहीं समझते। या मेरा भाई जानता है कि यह अपराध है, पाप है, पर उसने पाप करने के लिए अपना दिल पत्थर-सा बना लिया है?सबसे पहले मैं इसी आदमखोर का भण्डाफोड़ करूँगा। सबसे पहले इसी को पाप से रोकूँगा।

8वास्तव में तो यह तर्क बहुत पहले ही मान लिया जाना चाहिए था...अचानक कोई भीतर आ गया। यही बीस-एक वर्ष का नौजवान होगा। चेहरा उसका ठीक-ठीक नहीं देख सका। उस पर मुस्कुराहट खेल रही थी। लेकिन जब उसने गर्दन झुकाकर मेरा अभिवादन किया तो उसकी मुस्कान बनावटी-सी लगी। मैंने पूछ ही लिया, “बताओ नर-माँस खाना उचित है?”वह मुस्कुराता रहा और बोला, “क्या कहीं अकाल पड़ा है, नर-माँस कोई क्यों खाएगा?”मैं भाँप गया, यह भी उन्हीं के दल का था। मैंने साहस किया और फिर कहा—
“मेरी बात का उत्तर दो!”

“आख़िर इस प्रश्न का मतलब क्या है? ...क्या मज़ाक कर रहे हो? ...कितना सुहावना मौसम है!”

“हाँ मौसम अच्छा है, चाँदनी ख़ूब उजली है। पर तुम मेरी बात का जवाब दो, क्या यह उचित है?”वह कुछ परेशान हो गया और बोला —“नहीं।”

“नहीं, तो फिर लोग ऐसा क्यों करते हैं?”

“तुम्हारा मतलब क्या है?”

“मेरा मतलब? शिशु-भेड़िया गाँव में लोग नर-माँस खा रहे हैं। तुम पोथियाँ-ग्रंथ उठाकर देख लो। सब जगह यही लिखा है, ताज़ा लाल-लाल अक्षरों में।”वह गुमसुम रह गया। उसका चेहरा पीला पड़ गया। मेरी ओर घूरकर बोला, “होगा, सदा से ही होता आया है।

“सदा से होता आया है, क्या इसीलिए उचित है?”

“मैं इस बहस में नहीं पड़ना चाहता। तुम्हें भी इन फिजूल के झगड़ों में नहीं पड़ना चाहिए। ऐसी बातें नहीं करनी चाहिए।”मैं झट से उछल पड़ा, आँखें फाड़कर इधर-उधर देखने लगा। वह आदमी ग़ायब हो गया था। मैं पसीना-पसीना हो रहा था। नौजवान की उम्र मेरे भाई से बहुत कम थी, मगर वह भी उन लोगों के साथ था। अपने माँ-बाप से सब सीख लिया है उसने, भगवान जाने, अपने बेटे को भी सिखा चुका होगा! तभी तो ये ज़रा-ज़रा से छोकरे मुझे यों घूर-घूर कर देखते हैं।9दूसरों को खा लेने का लालच, परन्तु स्वयं आहार बन जाने का भय। सबको दूसरों पर संदेह है, सब दूसरों से आशंकित हैं।..यदि इस परस्पर भय से लोगों को मुक्ति मिल सके तो वे निश्शंक होकर काम कर सकते हैं, घूम-फिर सकते हैं, खा-पी सकते हैं, चैन की नींद सो सकते हैं। बस, मन से वह एक विचार निकाल देने की ज़रूरत है। परंतु लोग यह कर नहीं पाते और बाप-बेटे, पति-पत्नी, भाई-भाई, मित्र, गुरु-शिष्य, एक दूसरे के जानी दुश्मन और यहाँ तक कि अपरिचित भी एक-दूसरे को खा जाने के षड्यंत्र में शामिल हैं, दूसरों को भी इसमें घसीट रहे हैं और इस चक्कर से निकल जाने को कोई तैयार नहीं।10आज सुबह बड़े भैया से मिलने गया। वे ड्योढ़ी के सामने खड़े आकाश की ओर ताक रहे थे। मैं उनके पीछे दरवाज़े और उनके बीच खड़ा हो गया। बहुत ही विनय से बोला—
“हाँ, कहो क्या है?” उन्होंने तुरंत मेरी ओर घूमकर सिर हिलाते हुए इजाज़त दी।

“बात कुछ ख़ास नहीं है, पर कह नहीं पा रहा हूँ। भैया, आदिम अवस्था में तो शायद सभी लोग थोड़ा-बहुत नर-माँस खा लेते होंगे। जब लोगों का जीवन बदला, उनके विचार बदले, तो उन्होंने नर-माँस त्याग दिया। वे लोग अपना जीवन सुधारना चाहते थे। इसलिए वे सभ्य बन गए, उनमें मानवता आ गई। परंतु कुछ लोग अब भी खाए जा रहे हैं—मगरमच्छों की तरह। कहते हैं जीवों का विकास होता है, एक जीव से दूसरा जीव बन जाता है। कुछ जीव विकास करके मछली बन गए हैं, पक्षी बन गए हैं, बंदर बन गए हैं। ऐसे ही आदमी भी बन गया है। परंतु कुछ जीवों में विकास की इच्छा नहीं होती। उनका विकास नहीं होता, वे सुधरते ही नहीं, रेंगने वाले जानवर ही बने रहते हैं। नर-माँस खाने वाले असभ्य लोग नर-माँस न खाने वाले मनुष्यों की तुलना में कितना नीचे और लज्जित अनुभव करते होंगे। बंदर की तुलना में रेंगने वाले जानवर नीचे हैं, परंतु नर-माँस न खाने वाले सभ्य लोगों की तुलना में नर-माँस खाने वाले लोग उनसे भी नीचे हैं।

“पुराने समय में ई या ने अपने बेटे को उबालकर च्ये और चओ के सामने परोस दिया था। यह एक पुरानी कहानी है। इससे पहले भी जिस दिन से फान कू ने आकाश और पृथ्वी बनाए हैं, ई या के बेटे के ज़माने से श्वी शी-लिन के ज़माने तक मनुष्य एक दूसरे को खाते रहे हैं। श्वी शी-लिन के ज़माने से शिशु-भेड़िया गाँव में पकड़े गए आदमी के जमाने तक यही होता रहा है। पिछले साल शहर में एक अपराधी की गर्दन काट दी गई थी। ख़ून बहता देखकर तपेदिक के एक मरीज़ ने उसके ख़ून में रोटी डुबोकर खा ली थी।

“ये लोग मुझे खा जाना चाहते हैं। इन सब लोगों को अकेले रोक पाना तुम्हारे बस का नहीं; पर तुम उनमें क्यों मिल गए हो? ये लोग आदमखोर ठहरे, जो न कर डालें! ये मुझे खा डालेंगे, उसके बाद तुम्हारी भी बारी आएगी। फिर ये लोग आपस में भी एक-दूसरे को नहीं छोड़ेंगे। भैया, अगर तुम लोग आज ही यह रास्ता छोड़ दो, तो सबको चैन मिल जाएगा। माना, बहुत-बहुत पुराने समय से ऐसा ही होता चला आया है, आदमी आदमी को खाता आया है। पर अब, ख़ासकर इस समय तो हम लोग आपस में एक-दूसरे पर दया कर सकते हैं और कह सकते हैं कि ऐसा नहीं होगा! भैया मुझे विश्वास है कि तुम ऐसा कहोगे। अभी उस दिन वह असामी लगान घटा देने के लिए कह रहा था। तब भी तुमने कह दिया था, ऐसा नहीं हो सकता।”भैया पहले तो बेपरवाही दिखाने को मुस्कुराते रहे, फिर उनकी आँखों में ख़ून उतर आया। जब मैंने उनका भंडाफोड़ कर दिया तो उनका चेहरा पीला पड़ गया। ड्योढ़ी के बाहर कई लोग जमा थे। चाओ साहब भी अपना कुत्ता लिए खड़े थे सब लोग गर्दनें बढ़ा-बढ़ा कर बड़ी उत्सुकता से भीतर झाँक रहे थे। मैं उनके चेहरे नहीं देख पा रहा था। लगता था कई लोग कपड़े से चेहरा छिपाए हैं। कुछ के चेहरे ज़र्द और डरावने लग रहे थे, कुछ अपनी हँसी दबाए थे। मैं जानता था वे सब आदमखोर हैं, आपस में मिले हुए हैं। पर उनमें आपस में भी एका और मेल कहाँ था। कुछ का ख़याल था कि आदमखोरी सदा से होती आई है और यह कोई बुरी बात नहीं। कुछ मानते थे कि यह अत्याचार है, पर अपना लालच दबा नहीं पाते थे। चाहते थे कि उनका भेद न खुले, इसलिए मेरी बात सुनी तो उन्हें ग़ुस्सा आ गया। पर अपने ग़ुस्से को क़ाबू कर वे होंठ दबाए मुस्कुराते रहे।भैया एक़दम ताव में आ गए और ज़ोर से चिल्ला उठे—
“चलो यहाँ से, भाग जाओ सब लोग! किसी का दिमाग़ ख़राब हो गया है और तुम उसका तमाशा देखने आए हो!”मैं उन लोगों की चाल भाँपने लगा था। ये लोग अपनी राह से टलने वाले नहीं, इन लोगों ने पूरा षड्यंत्र रच लिया है। सबने मिलकर मुझे पागल समझ लिया है। ये लोग मुझे ख़त्म कर देंगे तो कोई कुछ कहेगा भी नहीं। सब यही समझेंगे कि पगला था, उसे निबटा दिया। ठीक किया। जब शिशु-भेड़िया गाँव के असामी ने एक बदमाश को मारकर खा जाने की बात कही थी, तब भी किसी ने कुछ नहीं कहा था। तब भी इन लोगों ने यही चाल चली थी। यह इन लोगों की एक पुरानी चाल है।छन भी भीतर चला आया। वह भी बहुत गरम हो रहा था, पर वे लोग मेरा मुँह बंद नहीं कर सके। मैं बोले बिना नहीं माना—

“यह ठीक नहीं है, ऐसा मत करो। तुम्हें अपना मन बदलना होगा,” मैंने कहा, “समझ लो, यह अन्याय नहीं चल सकेगा। भविष्य में दुनिया में आदमखोरी नहीं चल सकेगी।”

“अगर आदमखोरी नहीं छोड़ोगे तो तुम सब ख़त्म हो जाओगे, एक-दूसरे को खा जाओगे। तुम्हारे घरों में चाहे जितनी संतानें पैदा हों, सभ्य लोग तुम्हें समाप्त कर देंगे। जैसे शिकारी जंगल में भेड़ियों को समाप्त कर देते हैं, जैसे लोग साँपों को ख़त्म कर देते हैं।”छन दादा ने सब लोगों को भगा दिया। भैया चले गए थे। छन ने मुझे कमरे में जाने को कहा। कमरे में घुप अंधेरा था। सिर के ऊपर छत की धनियाँ और कड़ियाँ थिरकती जान पड़ रही थीं। उनका आकार बढ़ता जा रहा था। कुछ पल ऐसे भी खड़खड़ाहट होती रही, फिर छत मुझ पर आ गिरी।छत के बोझ के नीचे हिल सकना संभव नहीं था। वे लोग तो चाहते ही थे कि मैं मर जाऊँ। मैं जानता था कि यह बोझ महज़ ख़याली ही है। इसलिए हिम्मत बाँधी, कंधा लगाया और बाहर निकल आया। मैं पसीना-पसीना हो रहा था, परंतु फिर भी बोले बिना न रह सका—

“तुम्हें तुरंत बदलना होगा! अपना मन बदलना होगा! याद रखो, भविष्य में दुनिया में आदमखोरी नहीं चल सकेगी...”11कोठरी का दरवाज़ा बंद रहता है। कभी धूप नहीं दिखाई देती। रोज़ाना दो बार खाना मिल जाता है।मैंने खाना खाने को चापस्टिकें उठाईं तो भैया का ख़याल आ गया, अपनी छोटी बहन की मृत्यु की घटना याद आ गई। वह भैया की ही करतूत थी। तब मेरी बहन केवल पाँच ही वर्ष की थी। कितनी प्यारी और निरीह थी वह! याद आती है तो चेहरा आँखों के सामने घूम जाता है। माँ रो-रो कर बेहाल हो रही थीं।भैया माँ को सांत्वना देकर समझा रहे थे, कारण शायद यह था कि स्वयं ही बेचारी को खा गए थे, इसलिए माँ को इस तरह रोते देखकर उन्हें शर्म आ रही थी। अगर उनमें शर्म होती...भैया मेरी बहन को खा गए थे! नहीं मालूम माँ यह भेद जान सकी थीं या नहीं।मेरा तो ख़याल है कि माँ सब जानती थीं, पर जब माँ रो रही थीं तो उन्होंने साफ़-साफ़ कुछ भी नहीं कहा था। शायद यह सोचकर चुप रही थीं कि कहने की बात नहीं थी। एक घटना और याद है। तब मेरी उम्र चार या पाँच वर्ष रही होगी। मैं आँगन में छाँह में बैठा हुआ था। भैया ने कहा था—एक सपूत का कर्तव्य है कि अपने माता-पिता के बीमार होने पर उनकी औषधि के लिए यदि ज़रूरत हो तो अपने शरीर का माँस भी काटकर और उबालकर प्रस्तुत कर दे। माँ उनकी बात सुनकर समर्थन में चुप रह गई थीं, उन्होंने कोई विरोध नहीं किया था। अगर नर-माँस का एक टुकड़ा खाया जा सकता है, तो पूरे आदमी को भी खाया जा सकता है। और जब माँ के शोक और रुदन की याद आती है तो कलेजा टुकड़े-टुकड़े होने लगता है। कितने निराले ढंग हैं इन लोगों के!12उसे याद करते ही, सोचते ही, रोंगटे खड़े हो जाते हैं। सिर चकरा जाता है। आख़िर यह बात समझ में आई कि उम्रभर से ऐसे लोगों के बीच रह रहा हूँ जो चार हज़ार वर्ष से नर-माँस का आहार करते आ रहे हैं। बड़े भैया ने अभी घर सँभाला ही था कि कुछ दिन बाद छोटी बहन की मृत्यु हो गई। इन्होंने उसके माँस का उपयोग किया ही होगा, पुलाव में या दूसरी तरह। बेखबरी में हम लोग भी खा गए होंगे।संभव है, अनजाने में मैंने अपनी बहन के माँस के कई टुकड़े खा लिए हों, और अब मेरी बारी आई है।...मैं भले ही बेख़बर रहा हूँ, मेरे पुरखे चार हज़ार वर्ष से आदमखोर रहे हैं। मेरे जैसा आदमी किसी सभ्य, वास्तविक मानव को अपना मुँह कैसे दिखा सकता है?13संभव है नई पीढ़ी के छोटे बच्चों ने अभी नर-माँस न खाया हो।इन बच्चों को तो बचा लें!

-लू शुन

[विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ (खण्ड-2), संपादक : ममता कालिया, लोकभारती प्रकाशन 2005]


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चतुर खरगोश  - पंचतंत्र

एक बड़े से जंगल में शेर रहता था। शेर बहुत गुस्सैल था। सभी जानवर उससे बहुत डरते थे। वह सभी जानवरों को परेशान करता था। वह आए दिन जंगलों में पशु-पक्षियों का शिकार करता था। शेर की इन हरकतों से सभी जानवर चिंतित थे।

एक दिन जंगल के सभी जानवरों ने एक सम्‍मेलन रखा। जानवरों ने सोचा शेर की इस रोज-रोज की परेशानी से तो अच्छा हो कि  हम खुद ही शेर को भोजन देते रहें। इससे वह हमें परेशान नहीं करेगा और खुश रहेगा।

सभी जानवरों ने एकसाथ शेर के सामने अपनी बात रखी। इससे शेर बहुत खुश हुआ। उसके बाद शेर ने शिकार करना बंद क‍र दिया।

एक दिन शेर को बहुत जोरों से भूख लग रही थी। एक चतुर खरगोश शेर का खाना लाते-लाते रास्‍ते में ही रुक गया। फिर थोड़ी देर बाद खरगोश शेर के सामने गया। शेर ने दहाड़ते हुए खरगोश से पूछा इतनी देर से क्‍यों आए? और मेरा खाना कहां है?

चतुर खरगोश बोला, शेरजी रास्‍ते में ही मुझे दूसरे शेर ने रोक लिया और आपका खाना भी खा गया। शेर बोला इस जंगल का राजा तो मैं हूँ, यह दूसरा शेर कहाँ से आ गया।

खरगोश ने कहा, चलो शेरजी मैं आपको बताता हूँ, वो कहाँ है। शेर खरगोश के साथ जंगल की तरफ गया। चतुर खरगोश शेर को बहुत दूर ले गया। खरगोश शेर को कुएं के पास ले गया और बोला शेरजी इसी के अंदर रहता है वह शेर।

शेर ने जैसी ही कुएं में देखा और दहाड़ लगाई। उसे उसी की परछाई दिख रही थी। वह समझा दूसरा शेर भी उसे ललकार रहा है। उसने कुएं में छलांग लगा दी। इस प्रकार जंगल के अन्य जानवरों को उससे मुक्ति मिली और खरगोश की सबने खूब सराहना की।

[भारत-दर्शन संकलन]


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ऐसा क्यों? | लघु-कथा - रोहित कुमार 'हैप्पी'

'अरे आज रविवार है, हरे रामा-कृष्णा टेम्पल चलें।' पैंट-शर्ट, टाई, सुंदर जूते पहन सब तैयार हो चल दिए। 

मंदिर पहुँचे तो ज्यादातर भारतीय पाश्चात्य रंग में रंगे हुए प्रतीत हुए। पैंट-शर्ट, टाई, क़ुछ के सिर पर अँग्रेजी हैट! ...और हरे रामा-कृष्णा मंदिर के यूरोपियन लोग भगवें कपड़ों, धोती-कमीज, पैरों में खडाऊं, गले में जणेऊ, हाथ में माला और सिर पर चोटी रखे हुए दिखाई दिए। लगा, जैसे दोनों ने कपड़े बदल लिए हों! भारतीयों ने यूरोपियन और यूरोपियन लोगो ने हिन्दोस्तानी! पर मुश्किल थी तो समझने में कि हिन्दू कौन है?

मंदिर के हाल में प्रवेश किया- बैठने लगे तो एक यूरोपियन ने कहा, 'हरे रामा, हरे कृष्णा, कैसे हो?' मैनें जवाब दिया, 'अच्छा हूँ, शुक्रिया!' मैनें बैठते हुए बगल वाले भारतीय से कहा, 'नमस्कार, कैसे हो?' जवाब मिला, 'गुड थैंक्स! हाऊ आर यू?' मेरे चेहरे पर मुस्कान फैल गई। सोचता हूँ, जहाँ यूरोपियन लोग हमारे धर्म का अनुसरण कर रहे हैं वहाँ हम हिन्दोस्तानी खुद को अँग्रेजी स्टाईल साबित करने में गर्व महसूस करते हैं। पर.. ऐसा क्यों?

- रोहित कुमार 'हैप्पी'
  संपादक, भारत-दर्शन, न्यूज़ीलैंड

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यह दिया बुझे नहीं - गोपाल सिंह ‘नेपाली’

घोर अंधकार हो, चल रही बयार हो
आज द्वार-द्वार पर, यह दिया बुझे नहीं......

 
 
रक्षा बंधन - चंद्रशेखर आज़ाद का प्रसंग  - भारत-दर्शन संकलन

बात उन दिनों की है जब क्रांतिकारी चंद्रशेखर आज़ाद स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत थे और फ़िरंगी उनके पीछे लगे थे।
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भगतसिंह की पसंदीदा शायरी  - भारत-दर्शन संकलन

उसे यह फ़िक्र है हरदम नया तर्ज़े-ज़फा क्या है,
हमे यह शौक़ है देखें सितम की इन्तहा क्या है।

दहर से क्यों खफ़ा रहें, चर्ख़ का क्यों गिला करें,......

 
 
ढुंढा राक्षसी की कथा  - भारत-दर्शन

इस कथा के अनुसार भगवान श्रीराम के पूर्वजों के राज्य में एक माली नामक राक्षस की बेटी ढुंढा राक्षसी थी। इस राक्षसी ने भगवान शिव को प्रसन्न के करके तंत्र विद्या का ज्ञान प्राप्त कर लिया था। उसे ऐसा वर प्राप्त था जिससे उसके शरीर पर किसी भी देवता या दानव के शस्त्रास्त्र का कोई मारक प्रभाव नहीं होता था। इस प्रकार भयमुक्त ढुंढा प्रत्येक ग्राम और नगर के बालकों को पीड़ा पहुंचाने लगी।

अपनी विद्या से वह अदृश्य होकर बच्चों को कष्ट पहुंचाती। तंत्र विद्या से यह बच्चों को बीमार भी कर देती थी।

भगवान शिव ने वर देते समय यह युक्ति रख छोड़ी कि जहां बच्चों का शोरगुल, हुड़दंग और हो हल्ला होगा वहां ढुंढा असफल रहेगी।

तत्पश्चात होली के अवसर पर बच्चों ने मस्ती व हुड़दंग करनी आरम्भ कर दिया।

 


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आप के एहसान नीचे | ग़ज़ल - रोहित कुमार 'हैप्पी'

आप के एहसान नीचे दब मरें क्या?
आदमी से हम तुम्हें अब रब कहें क्या?

हाँ, जो दुनिया कर रही है, कर रही है......

 
 
महिषासुर वध | दशहरा की पौराणिक कथा - भारत-दर्शन संकलन

देवी दुर्गा ने विजय दशमी (दशहरा) के दिन महिषासुर जिसे भैंस असुर के नाम से भी जाना जाता है, का वध किया था।

पौराणिक कथाओं के अनुसार महिसासुर के एकाग्र ध्यान से बाध्य होकर देवताओं ने उसे अजय होने का वरदान दे दिया। महिसासुर को वरदान देने के बाद देवताओं में भय व्याप्त हो गया कि वह अब अपनी शक्ति का दुरपयोग करेगा। प्रत्याशित प्रतिफल स्वरूप सर्व शक्तिमान भैंस असुर महिषासुर ने नरक का द्वार स्वर्ग के द्वार तक खींच दिया और उसके इस विशाल साम्राज्य को देख देवता विस्मय की स्थिति में आ गए।

महिसासुर के इस दुस्साहस से क्रोधित होकर देवताओं ने देवी दुर्गा की रचना की। मान्यता है कि देवी दुर्गा के निर्माण में सारे देवताओं का एक समान बल लगाया गया था। महिषासुर का नाश करने के लिए सभी देवताओं ने अपने अपने अस्त्र देवी दुर्गा को दिए थे और देवताओं के सम्मिलित प्रयास से देवी दुर्गा और बलवान हो गईं और महिषासुर का वध करने में सक्षम रही।

 

 


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दीवाली - देवी लक्ष्मी कथा  - भारत-दर्शन संकलन

एक अन्य लोक कथा के अनुसार देवी लक्ष्मी इस रात अपनी बहन दरिद्रा के साथ भू-लोक की सैर पर आती हैं। मान्यता है कि जिस घर में साफ-सफाई और स्वच्छता हो, वहां मां लक्ष्मी अपने कदम रखती हैं और जिस घर में ऐसा नहीं होता वहां दरिद्रा अपना डेरा जमा लेती है।

एक और बात ध्यान देने योग्य है कि देवी सीता जो लक्ष्मी की अवतार मानी जाती हैं, वह भी भगवान श्री राम के साथ इसी दिन बनवास से लौट कर आई थी इसलिए भी इस दिन घर की साफ सफाई करके देवी लक्ष्मी का स्वागत व पूजन किया जाता है।

 


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क्षणिकाएँ  - कोमल मेहंदीरत्ता

विडंबना


इक अदना-सा मोबाइल ......

 
 
अरी भागो री भागो री गोरी भागो - भारत दर्शन संकलन

अरी भागो री भागो री गोरी भागो,
रंग लायो नन्द को लाल।......

 
 
हिन्दी, भारत की सामान्य भाषा - लोकमान्य तिलक

राष्ट्रभाषा की आवश्यकता अब सर्वत्र समझी जाने लगी है । राष्ट्र के संगठन के लिये आज ऐसी भाषा की आवश्यकता है, जिसे सर्वत्र समझा जा सके । लोगों में अपने विचारों का अच्छी तरह प्रचार करने के लिये भगवान बुद्ध ने भी एक भाषा को प्रधानता देकर कार्य किया था । हिन्दी भाषा राष्ट्र भाषा बन सकती है । राष्ट्र भाषा सर्वसाधारण के लिये जरूर होनी चाहिए । मनुष्य-हृदय एक दूसरे से विचार-विनिमय करना चाहता है; इसलिये राष्ट्र भाषा की बहुत जरूरत है । विद्यालयों में हिन्दी की पुस्तकों का प्रचार होना चाहिये । इस प्रकार यह कुछ ही वर्षों में राष्ट्र भापा बन सकती है ।

मेरी समझ में हिन्दी भारत की सामान्य भाषा होनी चाहिये--यानी समस्त हिन्दुस्तान में बोली जाने वाली भाषा होनी चाहिये । निःसन्देह हिन्दी दूसरे कार्यों के लिये प्रान्तीय भाषाओं की जगह तो ले ही नहीं सकती । सब प्रान्तीय कार्यों के लिये प्रान्तीय भाषाएँ ही पहले की तरह काम में आती रहेगी । प्रान्तीय शिक्षा और साहित्य का विकास प्रान्तीय भाषाऔं के द्वारा ही होगा; लेकिन एक प्रान्त दूसरे प्रान्त से मिले, तो पारस्परिक विचार विनिमय का माध्यम हिन्दी ही होनी चाहिये; क्योंकि हिन्दी अब भी अधिकांश प्रान्तों में समझ ली जाती है और बोलने तथा
चिट्ठी लिखने लायक हिन्दी थोड़े ही समय में सीख ली जाती है । इस विषय में कोई प्रान्तीय भाषा हिन्दी का स्थान नहीं ले सकती ।

- लोकमान्य तिलक......

 
 
हिन्दी भारत की भाषा - श्रीमती रेवती

भाषा हो या हो राजनीति अब और गुलामी सहय नहीं,
बलिदानों का अपमान सहन करना कोई औदार्य नहीं ।......

 
 
डार्लिंग - एन्तॉन चेखव

रूसी कथाकार एन्तॉन चेखव का जन्म 1860 में हुआ। उनके पूर्वज बंधुआ कृषक थे। चेखव ने अपनी रचनाओं में निर्धन किसानों के संघर्ष और जिजीविषा का गहन और मार्मिक वर्णन किया। चेखव ने चिकित्सा विज्ञान की शिक्षा प्राप्त कर डॉक्टर का पेशा अपनाया। वे स्वयं बीमार रहते थे किंतु उन्होंने जीवन भर रोगियों की सेवा की। उनकी कालजयी कहानियों में आम आदमी के प्रति करुणा तो झलकती ही है, रोगियों के प्रति भी मानवीय दृष्टिकोण उभरता है। चेखव बड़ी सादगी से कथा कहने में सिध्दहस्त हैं। एन्तॉन चेखव ने कुछ बहुत अच्छे नाटक भी लिखें जिनमें 'द चेरी ऑर्चड' व 'अंकल वान्या' विश्वप्रसिध्द हैं।

गर्मी के दिन थे। ओलेन्का अपने मकान के पिछले दरवाजे पर बैठी थी। यद्यपि उसे मक्खियां बहुत सता रही थीं, फिर भी यह सोचकर कि शाम बहुत जल्दी ही आने वाली है, वह बड़ी प्रसन्न हो रही थी। पूर्व की ओर घने, काले बादल इकट्ठे हो रहे थे।

कुकीन, जो ओलेन्का के मकान में ही एक किराये का कमरा लेकर रहता था, बाहर खड़ा आकाश की ओर देख रहा था। वह ''ट्रिवोली नाटक कम्पनी'' का मैनेजर था।

''ऊंह, रोज-रोज पानी, रोज-रोज पानी! नाक में दम हो गया।'' कुकीन अपने ही आप कह रहा था- ''रोज कम्पनी का नुकसान होता है।'' फिर ओलेन्का की ओर मुड़ कर बोला, ''मेरी जिंदगी कितनी बुरी है! बिना खाये-पिये रात भर परिश्रम करता हूं, ताकि नाटक में जरा-सी गलती न निकले। सोचते-सोचते मर जाता हूं, पर जानती हो फल क्या होता है? इतने ऊंचे दर्जे की चीख को कोई भी नहीं समझ पाता। जनता बेवकूफी की बातों को, दौड़-धूप को बहुत पसंद करती है। और फिर मौसम का यह हाल है! देखो न रोज शाम को पानी बरसने लगता है। मई के दस तारीख से पानी शुरू हुआ, और सारे जून भर रहा। जो पहले आते भी थे, वे अब इस पानी के मारे नहीं आते। कुछ भी नहीं मिलता, अभिनेताओं को देने के लिये रुपया कहां से लाऊं, कुछ भी समझ में नहीं आता।'

दूसरे दिन शाम को ठीक समय पर आकाश में फिर बादल इकट्ठे होने लगे। कुकीन लापरवाही से हंस कर बोला- ''ऊंह, जाने भी दो! चाहे मुझे और मेरी कंपनी को डुबा दे, पर मुझे कुछ भी फिक्र नहीं है। जाने दो, अगर इस जीवन में मैं अभागा ही रहूंगा, तो रहूं। यदि सब अभिनेता मिल कर मेरे ऊपर मुकदमा चला दें तो कितना अच्छा हो। हो...हा...हा-!''

तीसरे दिन फिर वही पानी! बेचारे कुकीन का हृदय रो रहा था।

ओलेन्का ने चुपचाप बहुत ध्यान से कुकीन की बातें सुनीं। कभी-कभी उसकी आंखों से दो बूंद आंसू भी टपक पड़ते थे। ओलेन्का को कुकीन से बहुत सहानुभूति थी। कुकीन एक नाटा, पीला और लंबे बालों वाला आदमी था। उसकी आवाज बहुत पतली और तेज थी।

ओलेन्का अभी तक किसी न किसी को प्यार करती आई है। वह अपने बुङ्ढे बीमार बाप को प्यार कर चुकी है, जो हमेशा अंधेरे कमरे में, आराम कुरसी पर लेट कर, लम्बी सांसें लिया करता था। वह अपनी चाची को प्यार कर चुकी है, जो साल भर में एक या दो बार ब्रिआत्सका से ओलेन्का को देखने आया करती थी। हां, उसके पहले उसने अपनी शिक्षक को प्यार किया था और अब वह कुकीन से प्रेम करती थी।

ओलेन्का चुप्पी और दयालु थी। उसके दुबले शरीर और पीले, पर कुस्कराहट भरे चेहरे को देख कर, लोग हंस कर कह देते, हां- ''कोई वैसी बुरी तो नहीं है।'' औरतें बातचीत करते-करते उसे ''डार्लिंग'' कह कर सम्बोधित किया करती थीं।

उसका यह मकान, जो उसकी पैतृक सम्पत्ति थी और जिसमें वह बचपन से ही रह रही थी, 'ट्रिबोली नाटक कम्पनी' के पास, 'जिप्सी रोड' पर था। वह सुबह से शाम तक 'ट्रिबोली' के गाने सुना करती थी, साथ ही साथ कुकीन का गुस्से से चिल्लाना भी सुन सकती थी। यह सब सुन कर उसका कोमल हृदय पिघल जाता, वह रात-भर सो न सकती। जब एक पहर रात गये कुकीन घर लौटता, तो वह मुस्करा कर उसका स्वागत करती और उसका दिल खुश करने की चेष्टा करती। अंत में, उनकी शादी हो गई। दोनों प्रसन्न थे। पर... ठीक शादी के दिन शाम को जोरों की वर्षा हुई और कुकीन के चेहरे से निराशा और ऊब के चिन्ह न मिटे।

उनके दिन अच्छी तरह बीत रहे थे। कम्पनी का हिसाब रखना, थियेटर हाल का निरीक्षण और तनख्वाह बांटना, अब आरेलेन्का का काम था। अब जब वह अपनी सहेलियों से मिलती तो अपने थियेटर की ही चर्चा किया करती। वह कहा करती कि थियेटर दुनिया की सब से मुख्य, सबसे महान् और सब से आवश्यक चीज है और कहती थी कि सच्चा आनन्द और सच्ची शिक्षा थियेटर के सिवा और कहीं नहीं मिल सकते।

''पर क्या तुम समझती हो कि जनता में यह समझने की शक्ति है?'' वह पूछा करती, ''जनता तो बेवकूफी की बातों और दौड़-धूप को बहुत पसंद करती है।'' कल के खेल में जगह सब खाली थी। कल मैंने और कुकीन ने बहुत अच्छा खेल चुन कर दिया था, इसीलिये। अगर हम लोग कोई रद्दी बेवकूफी का खेल देते तो हॉल में तिल भर भी जगह न बाकी रहती। कल हम लोग ''.....'' दिखलाने वाले हैं। अवश्य आना, अच्छा?''

वह रिहर्सल की देख-भाल करती, अभिनेताओं की गलतियां सुधारती, गायकों को ठीक करती; और जब किसी पत्र में उस नाटक की बुराई निकलती, तो वह घंटों रोती और उस पत्र के सम्पादक से बहस कर उसे गलत प्रमाणित करने के लिए दौड़ी जाती।

थियेटर के अभिनेता उसे चाहते थे, और ''डार्लिंग'' कहा करते थे। वह उनकी चिंताओं से स्वयं भी चिंतित थी और आवश्यकता पड़ने पर उन्हें कर्ज भी दे देती थी।

जाड़ों के दिन भी अच्छी तरह निकल गये। ओलेन्का बहुत प्रसन्न थी, और कुछ-कुछ मोटी भी हो रही थी, पर कुकीन दिन पर दिन दुबला और चिड़चिड़ा होता जा रहा था। रात-दिन वह कम्पनी के नुकसान की शिकायत किया करता था, यद्यपि जाड़ों में उसे नुकसान नहीं हुआ था। रात को उसे बड़े जोरों की खांसी उठती, तो ओलेन्का तरह-तरह की दवायें दे कर उसके कष्ट को दूर करने की चेष्टा करती।

कुछ दिनों बाद, थोड़े दिनों के लिये वह अपनी कम्पनी के साथ मास्को चला गया। उसके चले जाने पर ओलेन्का बहुत दु:खी रहने लगी। खिड़की पर बैठ कर, रात भर वह आकाश की ओर देखा करती। कुकीन ने लिखा कि किसी कारणवश वह 'ईस्टर' त्यौहार के पहले घर न लौट सकेगा। उसके खत केवल ट्रिबोली के समाचारों से भरे रहते।

'ईस्टर' के सोमवार के पहले एक दिन रात को न जाने किसने किवाड़ खटखटाये। रसोइया नींद से उठ कर, गिरते-पड़ते दरवाजा खोलने गया।

''तार है, जल्द दरवाजा खोलो!'' किसी ने बड़े रुखे स्वर में कहा।

ओलेन्का को उसके पहले कुकीन का एक तार मिल चुका था। पर न जाने क्यों इस बार उसका हृदय किसी अनिष्ट की आशंका से कांप रहा था। कांपते हुये हाथों से उसने तार खोला।

''कुकीन की आज अचानक मृत्यु हो गई। आदेश की प्रतीक्षा है। अंतिम संस्कार मंगल को,'' तार में यही खबर थी! तार पर ''ऑपरा'' कंपनी के मैनेजर का हस्ताक्षर था।

ओलेन्का फूट-फूट कर रो रही थी! अहा, बेचारी...!

कुकीन मास्को में मंगलवार को दफनाया गया। बुधवार को ओलेन्का घर वापस आ गई। आते ही वह पलंग पर गिर पड़ी और इतनी जोर से रोने लगी कि सड़क पर चलने वाले तक उसका रोना सुन सकते थे। उसके पड़ोसी उसके घर के सामने से निकलते तो कहते, ''बेचारी 'डार्लिंग', कितना रो रही है!''

तीन महीने पश्चात एक दिन ओलेन्का कहीं जा रही थी। उसके बगल में एक आदमी जा रहा था। वह लकड़ी के कारखाने का मैनेजर था। देखने से वह अमीर आदमी मालूम होता था। उसका नाम वेसिली था।

''ओलेन्का, बड़े दु:ख की बात है,'' वह धीरे-धीरे कह रहा था, ''यदि कोई मर जाय तो ईश्वर की इच्छा समझ कर चुप रह जाना चाहिये। अच्छा जाता हूं। नमस्कार।'' और वह चला गया।

उसके बाद से ओलेन्का सदैव उसी का ध्यान करने लगी। एक दिन वेसिली की एक रिश्तेदार ओलेन्का से मिलने आई। ओलेन्का ने उसकी बड़ी खातिरदारी की। उस बुढ़िया ने वेसिली की तारीफ में ही सारा समय बिता दिया। उसके बाद, एक दिन वेसिली स्वयं भी ओलेन्का से मिलने आया। वह केवल दस मिनट ठहरा। पर इस दस मिनट की बातचीत ने ओलेन्का पर बहुत प्रभाव डाला।

कुछ दिनों बाद, उस बुढ़िया की सलाह से दोनों की शादी हो गयी थी। खाने तक कारखाने में रहता, फिर बाहर चला जाता। उसके जाने के बाद, ओलेन्का उसका स्थान ग्रहण करती। कारखाने का हिसाब रखना, नौकरों को तनख्वाह बांटना अब उसका काम था।

अब वह अपनी सखियों से लकड़ी के व्यापार और कारखाने के ही विषय में बातें किया करती थी, ''लकड़ी का दाम बीस रुपये सैकड़ा बढ़ रहा है'', वह बड़े दु:ख से कहा करती, ''पहले मैं और वेसिली जंगल से लकड़ी मंगा लेते थे। पर अब बेचारे वेसिली को हर साल मालगेव शहर में जाना पड़ता है। उस पर चुंगी अलग से।'' अब उसके लिये संसार की सबसे मुख्य, सब से महान और सबसे आवश्यक चीज लकड़ी थी। वेसिली की राय और उसकी राय एक थी। वेसिली को खेल तमाशे से नफरत थी, अतएव उसने भी तमाशों में जाना छोड़ दिया।

अगर उसकी सखियां पूछतीं कि, ''तुम घर के बाहर क्यों नहीं निकलती? थियेटर क्यों नहीं देखती?'' तो वह गर्व से कहती, ''मुझे और वेसिली को थियेटर में वक्त खराब करना पसन्द नहीं। थियेटर जाना बिल्कुल मूर्खता है।''

एक दिन ओलेन्का और वेसिली गिरजे से लौट रहे थे। ओलेन्का ने कहा, ''ईश्वर को बहुत धन्यवाद, हम लोगों का समय ठीक से कट रहा है। ईश्वर से यही प्रार्थना है कि सब मेरी और वेसिली की तरह सुख से रहें।''

जब एक दिन वेसिली लकड़ी खरीदने मालगेव चला गया, तो वह पागल-सी हो गई। रोते-रोते वह सारी रात बिता देती। दिन भर पागल-सी रहती, कभी-कभी स्मिरनॉव, जो मकान में किराये के कमरे में रहता था, उसे देखने जाया करता था। वह पशुओं का डॉक्टर था। वह ओलेन्का को अपने जीवन की घटनायें सुनाया करता या ताश खेला करता। उसकी शादी हो चुकी थी, और एक लड़का भी था, पर अब उसने अपनी स्त्री को छोड़ दिया था और अपने लड़के के लिये चालीस रुपया हर महीने भेजा करता था। वह कहा करता था कि ''उसकी पत्नी बड़ी धोखेबाज थी, इसीलिये उसे अलग होना पड़ा।'' ओलेन्का को उससे बड़ी सहानुभूति थी। ''ईश्वर तुम्हें खुश रक्खे,'' ओलेन्का वापस जाते हुए स्मिरनॉव से कहा करती थी, ''तुमने बहुत कष्ट उठाया। मेरा समय कट गया। किन शब्दों में तुम्हें धन्यवाद दूं?'' जब स्मिरनॉव और उनकी पत्नी की दोस्ती करा देने के लिये, तरह-तरह के उपाय सोचा करती।

वेसिली के लौट आने पर, एक दिन ओलेन्का ने उसे स्मिरनॉव की दु:ख-पूर्ण कहानी सुनाई। छ: साल तक ओलेन्का और वेसिली के दिन बड़े आनन्द से कटे। एक दिन जाड़ों में वेसिली, किसी आवश्यक काम से, नंगे सिर ही बाहर चला गया। लौट कर आया तो जुकाम हो गया था, और दूसरे ही दिन उसे पलंग पकड़ना पड़ा। शहर के सबसे अच्छे डॉक्टर ने उसकी दवा की। पर चार महीने की बीमारी के बाद, एक दिन वह मर गया। ओलेन्का फिर विधवा हो गई!
बेचारी ओलेन्का दिन रात रोती रहती थी। वह केवल काले कपड़े पहनती और गिरजा के सिवाय कहीं भी न जाती। एक संन्यासिनी की तरह वह अपने दिन काट रही थी। वेसिली की मृत्यु के छ: महीने बाद उसके शरीर से काले कपड़े उतरे। अब रोज सवेरे वह अपने रसोइये के साथ बाजार जाया करती थी।

घर में वह क्या किया करती थी, यह केवल अंदाज से लोग जान सकते थे। वे लोग कई बार ओलेन्का और स्मिरनॉव को बाग में बैठ कर चाय पीते और बातें करते देख चुके थे, इसी से वे अन्दाज लगाने की चेष्टा किया करते थे। एक दिन पशुओं के डॉक्टर स्मिरनॉव ने कहा, ''तुम्हारे शहर में अच्छा इंतजाम नहीं है, लोग बहुत बीमार पड़ते हैं। जानवरों की भी देख-भाल ठीक तरह से नहीं होती।''

अब वह स्मिरनॉव की बातें दुहराया करती और प्रत्येक चीज के बारे में जो उसकी राय होती, वही ओलेन्का की भी। यदि ओलेन्का के स्थान पर कोई दूसरी स्त्री होती तो अभी तक सब की घृणा का पात्र बन गई होती, पर ओलेन्का के विषय में कोई भी ऐसा नहीं सोचता था। उसकी सखियां अब भी उसे डार्ल्ािंग कहती थी और उससे सहानुभूति रखती थीं। स्मिरनॉव अपने मित्रों और अफसरों को यह नहीं बतलाना चाहता था कि उससे और ओलेन्का से मित्रता है, पर ओलेन्का के लिये किसी बात को गुप्त रखना असम्भव था। जब डॉक्टर के अफसर या दोस्त उससे मिलने आते, तो उनके लिये चाय बनाती, और तरह-तरह की बीमारियों के विषय में बातें किया करती। वह स्मिरनॉव के विषय में बातें किया करती। यह स्मिरनॉव के लिये असह्य था। उनके जाने के बाद, वह ओलेन्का का हाथ पकड़ कर गुस्से से कहता, ''मैंने तुमसे कहा था कि तुम उन विषयों के बारे में बातें न किया करो, जिन्हें तुम नहीं समझतीं। याद है या भूल गई? जब हम लोग बातें करते हैं, तो तुम बीच में क्यों बोलती हो? मैं यह नहीं सह सकता। क्या तुम अपनी जीभ को वश में नहीं कर सकती?''

ओलेन्का डर कर उसकी ओर देखती, और दु:खित होकर पूछती, ''फिर मैं किसके बारे में बातें किया करूं, स्मिरनॉव?'' फिर वह रोते-रोते उससे क्षमा मांगती। और फिर दोनों खुश हो जाते।

ओलेन्का स्मिरनॉव के साथ बहुत दिनों तक नहीं रह सकी। स्मिरनॉव की बदली हो गई, और उसे बहुत दूर जाना पड़ा। ओलेन्का फिर अकेली थी। अब वह बिल्कुल अकेली थी। उसका पिता बहुत दिन पहले मर चुका था। वह दिन पर दिन दुबली होती जा रही थी। अब लोग उसे देख कर भी बिना कुछ कहे चले जाते। ओलेन्का शाम को सीढ़ियों पर बैठ कर ट्रिवोली के गाने सुना करती थी। पर अब उन गानों से उसे कुछ मतलब नहीं था।

वह अब भी लकड़ी के कारखाने को देखती पर उसे देखकर न वह दु:खी होती न सुखी। खाना मानों उसे जबर्दस्ती खाना पड़ता था। सब से दु:ख की बात तो यह थी, कि अब वह किसी भी चीज के बारे में राय नहीं देती थी। कुकीन, वेसिली और पशुओं के डॉक्टर के साथ रहने के समय बिना सोचे अपनी राय दे देना उसके लिये कुछ भी मुश्किल नहीं था। अब वह सब कुछ देखती, पर अपनी राय नहीं दे सकती थी।

धीरे-धीरे सब ओर परिवर्तन हो गया। ''जिप्सी रोड'' अब एक बड़ा रास्ता बन गया है और ट्रिबोली और लकड़ी के कारखाने के स्थान पर अब बहुत से बड़े-बड़े मकान बन गये हैं। ओलेन्का बूढ़ी हो चली है, उसका घर भी कहीं-कहीं टूट गया है।

अब ओलेन्का की रसोइया मार्वा जो कहती, वही वह मान लेती।

जुलाई में एक दिन, किसी ने दरवाजा खटखटाया। ओलेन्का स्वयं ही दरवाजा खोलने गई। दरवाजे पर अचानक स्मिरनॉव को देखकर वह आश्चर्य में डूब गई। पुरानी बातें एक-एक करके, उसे याद आने लगीं। अब वह अपने को न रोक सकी। दोनों हाथों से मुंह ढंक कर रोने लगी। उसे यह पता ही न चला कि वह कैसे चाय पीने बैठ गई। वह बहुत कुछ कहना चाह रही थी पर मुंह से एक शब्द भी नहीं निकल रहा था। अंत में बड़े कष्ट से वह बोली, ''तुम अचानक आ गये?''

मैंने नौकरी छोड़ दी है। स्मिरनॉव ने कहा, ''और अब मैं अपनी गृहस्थी यहीं बसाना चाहता हूं। मेरे लड़के की उम्र अब स्कूल जाने लायक हो गई है। उसे स्कूल भी भेजना है और हां, तुम तो जानती न होगी, मेरी स्त्री से मेरी सुलह हो गई है।''

''तब वह कहां है?'' ओलेन्का ने बहुत उत्सुकतापूर्वक पूछा।

''वह और लड़का दोनों अभी होटल में हैं। अभी मुझे घर खोजना है।''

''हे भगवान! तुम इतनी तकलीफ क्यों करोगे! मेरा घर क्यों नहीं ले लेते? क्या यह घर तुम्हें पसन्द नहीं? अरे नहीं? डरो मत, मैं एक पैसा भी किराया नहीं लूंगी। मेरे लिये एक कोना काफी होगा, बाकी सब तुम ले लो। देखो न, काफी बड़ा मकान है। मेरे लिये इससे बढ़कर सौभाग्य की बात और क्या हो सकती है?'' कहते-कहते वह फिर रो पड़ी।

दूसरे दिन तड़के उठ कर ओलेन्का ने घर की सफाई शुरू कर दी। घर की पुताई होने लगी। ओलेन्का बड़ी उमंग से चारों ओर घूम कर देख-भाल कर रही थी। थोड़ी देर में स्मिरनॉव, उसकी पत्नी और लड़का भी आ गये। स्मिरनॉव की पत्नी एक लम्बी और दुबली स्त्री थी। स्मिरनॉव का लड़का साशा, अपनी उम्र के हिसाब से बहुत नाटा था। वह बड़ा बातूनी और शरारती था।

''मौसी यही तुम्हारी बिल्ली है?'' उसने बड़े कुतूहल से पूछा, ''अच्छा मौसी, यह हमें दे दोगी? अम्मां चूहों से बड़ा डरती है।'' कहकर वह बड़े जोरों से हंसने लगा।

ओलेन्का को साशा बहुत पसन्द आया। उसने उसे अपने हाथ से चाय पिलाई और फिर घुमाने ले गई।

शाम को साशा अपना सबक याद करने बैठा। ओलेन्का भी उसके पास जाकर बैठ गई और धीरे से बोली, ''बेटा तुम बड़े होशियार हो, बहुत सुन्दर...'' साशा ओलेन्का की बात की कुछ भी परवाह न कर, अपनी ही धुन में कह रहा था, ''द्वीप पृथ्वी के उस टुकड़े को कहते हैं, जो चारों ओर पानी से घिरा रहता है।'' ओलेन्का ने भी कहा, ''द्वीप पृथ्वी के उस टुकड़े को कहते हैं...'' रात को खाने के समय वह साशा के मां-बाप से कहा कहती कि साशा को बहुत मेहनत करनी पड़ती है। रोज भूगोल रटना पड़ता है।

साशा अब स्कूल जाने लगा। उसकी मां एक बार खेरकाव में अपनी बहिन को देखने गई, फिर वहां रह गई। बाप सारे दिन, सारी शाम, घर के बाहर रहता। रात को नौ-दस बजे लौट कर आता। अतएव ओलेन्का ही साशा को रखती थी। रोज सवेरे वह साशा के कमरे में जाती, उसे जगाने में उसे बड़ा दु:ख होता, पर उसे विवश होकर जगाना ही पड़ता था। उसे जगा कर वह धीरे-धीरे कहती, ''उठो बेटा। स्कूल का समय हो गया।'' साशा कुछ नाराजगी से उठता, मुंह-हाथ धोकर कपड़े बदलता और फिर चाय पीने बैठ जाता। ओलेन्का धीरे से डरते-डरते कहती, ''बेटा, तुमने कहानी ठीक तरह से याद नहीं की।'' साशा नाराज होकर कहता, ''ऊंह, तुम यहां से जाओ।'' ओलेन्का उसकी ओर ऐसी देखती मानों वह किसी लम्बी यात्रा पर जा रहा हो, फिर धीरे-धीरे चली जाती। जब वह स्कूल जाने लगता तो वह थोड़ी दूर तक उसके पीछे-पीछे जाती। साशा को यह पसन्द नहीं था कि इतनी लम्बी अधेड़ औरत उसके पीछे-पीछे जाय। क्योंकि यदि उसका कोई साथी ओलेन्का को उसके पीछे-पीछे आते देख लेता, तो उसे सब लड़कों के सामने बहुत बनाता। वह ओलेन्का से कहता, ''मौसी, तुम घर चली जाओ, मैं अकेले जा सकता हूं।''

साशा को पहुंचा कर वह धीरे-धीरे घर लौटती। रास्ते में यदि कोई मिलता और हाल-चाल पूछता, तो वह कहती, ''स्कूल के मास्टर बड़े खराब होते हैं। बेचारे छोटे-छोटे बच्चों से बहुत मेहनत कराते हैं।''

साशा के स्कूल से लौटने पर वह उसे चाय पिलाती, और घुमाने ले जाती। रात को खाना खा चुकने पर उसे सुला कर तब वह सोती।

एक दिन वह साशा को सुलाकर स्वयं सोने जा रही थी कि किसी ने दरवाजा खटखटाया। ओलेन्का अब तार से बहुत डरने लगी थी, क्योंकि इसी तरह रात को कुकीन की मृत्यु का समाचार मिला था। इतने ही में उसने सुना-तार है, दरवाजा खोलो। उसने कांपते हुए हाथों से तार पर दस्तखत किया। तार खेरकोव से आया था। ओलेन्का ने पढ़ा-''साशा की मां चाहती है कि साशा उसके पास खेरकोव चला आवे।''

- एन्तॉन चेखव

[संसार की श्रेष्ठ कहानियां, भाग-2, संपादन-हेमेन्द्र कुमार]

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पागल हाथी  - प्रेमचन्द

मोती राजा साहब की खास सवारी का हाथी। यों तो वह बहुत सीधा और समझदार था, पर कभी-कभी उसका मिजाज गर्म हो जाता था और वह आपे में न रहता था। उस हालत में उसे किसी बात की सुधि न रहती थी, महावत का दबाव भी न मानता था। एक बार इसी पागलपन में उसने अपने महावत को मार डाला। राजा साहब ने वह खबर सुनी तो उन्हें बहुत क्रोध आया। मोती की पदवी छिन गयी। राजा साहब की सवारी से निकाल दिया गया। कुलियों की तरह उसे लकड़ियां ढोनी पड़तीं, पत्थर लादने पड़ते और शाम को वह पीपल के नीचे मोटी जंजीरों से बांध दिया जाता। रातिब बंद हो गया। उसके सामने सूखी टहनियां डाल दी जाती थीं और उन्हीं को चबाकर वह भूख की आग बुझाता। जब वह अपनी इस दशा को अपनी पहली दशा से मिलाता तो वह बहुत चंचल हो जाता। वह सोचता, कहां मैं राजा का सबसे प्यारा हाथी था और कहां आज मामूली मजदूर हूं। यह सोचकर जोर-जोर से चिंघाड़ता और उछलता। आखिर एक दिन उसे इतना जोश आया कि उसने लोहे की जंजीरें तोड़ डालीं और जंगल की तरफ भागा।

थोड़ी ही दूर पर एक नदी थी। मोती पहले उस नदी में जाकर खूब नहाया। तब वहां से जंगल की ओर चला। इधर राजा साहब के आदमी उसे पकड़ने के लिए दौड़े, मगर मारे डर के कोई उसके पास जा न सका। जंगल का जानवर जंगल ही में चला गया।

जंगल में पहुंचकर अपने साथियों को ढूंढ़ने लगा। वह कुछ दूर और आगे बढ़ा तो हाथियों ने जब उसके गले में रस्सी और पांव में टूटी जंजीर देखी तो उससे मुंह फेर लिया। उसकी बात तक न पूछी। उनका शायद मतलब था कि तुम गुलाम तो थे ही, अब नमकहराम गुलाम हो, तुम्हारी जगह इस जंगल में नहीं है। जब तक वे आंखों से ओझल न हो गये, मोती वहीं खड़ा ताकता रहा। फिर न जाने क्या सोचकर वहां से भागता हुआ महल की ओर चला।

वह रास्ते ही में था कि उसने देखा कि राजा साहब शिकारियों के साथ घोड़े पर चले आ रहे हैं। वह फौरन एक बड़ी चट्टान की आड़ में छिप गया। धूप तेज थी, राजा साहब जरा दम लेने को घोड़े से उतरे। अचानक मोती आड़ से निकल पड़ा और गरजता हुआ राजा साहब की ओर दौड़ा। राजा साहब घबराकर भागे और एक छोटी झोंपड़ी में घुस गये। जरा देर बाद मोती भी पहुंचा। उसने राजा साहब को अंदर घुसते देख लिया था। पहले तो उसने अपनी सूंड़ से ऊपर का छप्पर गिरा दिया, फिर उसे पैरों से रौंदकर चूर-चूर कर डाला।

भीतर राजा साहब का मारे डर के बुरा हाल था। जान बचने की कोई आशा न थी।

आखिर कुछ न सूझी तो वह जान पर खेलकर पीछे दीवार पर चढ़ गये, और दूसरी तरफ कूद कर भाग निकले। मोती द्वार पर खड़ा छप्पर रौंद रहा था और सोच रहा था कि दीवार कैसे गिराऊं? आखिर उसने धक्का देकर दीवार गिरा दी। मिट्टी की दीवार पागल हाथी का धक्का क्या सहती? मगर जब राजा साहब भीतर न मिले तो उसने बाकी दीवारें भी गिरा दीं और जंगल की तरफ चला गया।

घर लौटकर राजा साहब ने ढिंढोरा पिटवा दिया कि जो आदमी मोती को जीता पकड़कर लायेगा, उसे एक हजार रुपया इनाम दिया जायेगा। कई आदमी इनाम के लालच में उसे पकड़ने के लिए जंगल गये। मगर उनमें से एक भी न लौटा। मोती के महावत के एक लड़का था। उसका नाम था मुरली। अभी वह कुल आठ-नौ बरस का था, इसलिए राजा साहब दया करके उसे और उसकी मां को खाने-पहनने के लिए कुछ खर्च दिया करते थे। मुरली था तो बालक पर हिम्मत का धनी था, कमर बांधकर मोती को पकड़ लाने के लिए तैयार हो गया। मगर मां ने बहुतेरा समझाया, और लोगों ने भी मना किया, मगर उसने किसी की एक न सुनी और जंगल की ओर चल दिया। जंगल में गौर से इधर-उधर देखने लगा। आखिर उसने देखा कि मोती सिर झुकाये उसी पेड़ की ओर चला आ रहा है। उसकी चाल से ऐसा मालूम होता था कि उसका मिजाज ठंडा हो गया है। ज्यों ही मोती उस पेड़ के नीचे आया, उसने पेड़ के ऊपर से पुचकारा, "मोती!"

मोती इस आवाज को पहचानता था। वहीं रुक गया और सिर उठाकर ऊपर की ओर देखने लगा। मुरली को देखकर पहचान गया। यह वही मुरली था, जिसे वह अपनी सूंड़ से उठाकर अपने मस्तक पर बिठा लेता था! "मैंने ही इसके बाप को मार डाला है," यह सोचकर उसे बालक पर दया आयी। खुश होकर सूंड़ हिलाने लगा। मुरली उसके मन के भाव को पहचान गया। वह पेड़ से नीचे उतरा और उसकी सूंड़ को थपकियां देने लगा। फिर उसे बैठने का इशारा किया। मोती बैठा नहीं, मुरली को अपनी सूंड़ से उठाकर पहले ही की तरह अपने मस्तक पर बिठा लिया और राजमहल की ओर चला। मुरली जब मोती को लिए हुए राजमहल के द्वार पर पहुंचा तो सबने दांतों उंगली दबाई। फिर भी किसी की हिम्मत न होती थी कि मोती के पास जाये। मुरली ने चिल्लाकर कहा, "डरो मत, मोती बिल्कुल सीधा हो गया है, अब वह किसी से न बोलेगा।" राजा साहब भी डरते-डरते मोती के सामने आये। उन्हें कितना अचंभा हुआ कि वही पागल मोती अब गाय की तरह सीधा हो गया है। उन्होंने मुरली को एक हजार रुपया इनाम तो दिया ही, उसे अपना खास महावत बना लिया, और मोती फिर राजा साहब का सबसे प्यारा हाथी बन गया।  

-प्रेमचंद 


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पद - रैदास

अब कैसे छूटै राम नाम रट लागी।
प्रभु जी, तुम चंदन हम पानी, जाकी अँग-अँग बास समानी।......

 
 
ज्ञान पहेलियां - मुकेश नादान 'निरूपमा'

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होली कविताएं | संकलन - भारत-दर्शन

होली की कविताओं का संकलन।


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रंग की वो फुहार दे होली - गोविंद कुमार

रंग की वो फुहार दे होली
सबको खुशियाँ अपार दे होली......

 
 
आज की होली  - ललितकुमारसिंह 'नटवर'

अजी! आज होली है आओ सभी।
रंगो ख़ुद भी, सब को रंगाओ सभी॥

बिना रँग में बोरे, किसी को न छोड़ो;......

 
 
अपने अलावा भी | कविता - मोहन राणा

ना लिखे भी ना सोचे भी
ना चीख पुकार के भी......

 
 
प्रेमचंद के संस्मरण - भारत-दर्शन संकलन

एक बार बनारसीदास चतुर्वेदी ने प्रेमचन्द को मज़ाक में पत्र लिखकर शिवरानी (प्रेमचंद की पत्नी) को कलाई घड़ी दिलने की सिफ़ारिश की। चतुर्वेदी ने पत्र में लिखा -

"आप श्रीमती शिवरानी देवीजी को एक रिस्टवाच क्यों नहीं खरीद देते?"

इसका उत्तर देते हुए प्रेमचंद ने लिखा -

".....रही उनकी रिसचटवाच की बात, सो जब कभी कोई उद्योगी पत्रकार उनकी रचनाओं के लिए परिश्रमिक देना प्रारम्भ करेगा तो, वे खुद अपने लिए रिस्टवाच खरीद लेंगी या शायद कोई उन्हें एक रिस्टवाच भेंट ही कर दे!"

यह पत्राचार अंग्रेजी मे हुआ था। मूल उत्तर के अंश निम्न हैं:

[As to her wrist watch, well, when some enterprising journalist begins to pay her for her contributions she will manage for herself or may be someone may present her with one!"]

स्वर्गीय प्रेमचंद/संस्मरण - बनारसीदास चतुर्वेदी
भारतीय ज्ञानपीठ, काशी

 

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प्रधानमंत्री का उद्घाटन भाषण - भारत-दर्शन संकलन

दुनिया के कोने-कोने से आए हुए सभी हिंदी-प्रेमी भाईयों और बहनों, 
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पूर्व राष्‍ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी का संदेश - भारत-दर्शन समाचार

लोहड़ी, मकर संक्राति और पोंगल की पूर्व संध्‍या पर राष्‍ट्रपति ने शुभकामनाएं दीं

लोहड़ी, मकर संक्राति और पोंगल की पूर्व संध्‍या पर राष्‍ट्रपति ने शुभकामनाएं दीं

राष्‍ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी ने लोहड़ी, मकर संक्राति और पोंगल की पूर्व संध्‍या पर देशवासियों को बधाई दी है। ये त्‍योहार क्रमश: 13, 14 और 15 जनवरी को मनाए जाएंगे।

अपने संदेश में राष्‍ट्रपति ने कहा है, ‘लोहड़ी, मकर संक्राति और पोंगल के शुभ अवसर पर मैं देशवासियों को हार्दिक बधाई देता हूं और उनकी सफलता, सुख और समृद्धि की कामना करता हूं।

चलिए, हम फसलों के इन त्‍योहारों को उमंग और उत्‍साह के साथ मनाएं और सभी लोगों के बीच प्रेम और समझ को बढ़ावा दें। ये त्‍योहार भारत के विभिन्‍न क्षेत्रों और समुदायों को आपसी प्रेम व भाईचारे में बांधे और हमें देश की एकता और प्रगति के लिए काम करने को प्रेरित करें।'

[ यह संदेश उस समय का है जब श्री मुखर्जी राष्ट्रपति थे। ]

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President's greetings on the eve of Lohri, Makar Sankranti and Pongal

The President of India, Shri Pranab Mukherjee has greeted his fellow countrymen on the eve of festivals of Lohri, Makar Sankranti and Pongal, which fall on January 13th, 14th and 15th respectively.

In his message the President has said, "On the auspicious occasion of Lohri, Makar Sankranti and Pongal, I extend warm greetings to my fellow citizens and wish them success, happiness and prosperity.

Let us celebrate these harvest festivals with gaiety and fervour, promoting love and understanding amongst all. May these events bind the communities and regions of India in fraternal love and inspire us to work for the unity and progress of our country."

[Published in 2016]


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अधिकार - भारत-दर्शन संकलन

सुभाष स्वाभाविक तौर पर नेतृत्व का कौशल रखते थे। लोगों को उनके नेतृत्व पर विश्वास था। वे पढ़ाई में अव्वल थे और भारत व भारतीयों के प्रति कोई पक्षपात करे तो वे सहन नहीं कर सकते थे।
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भारत का राष्ट्र-गान - भारत-दर्शन संकलन

राष्ट्र-गान (National Anthem) संवैधानिक तौर पर मान्य होता है और इसे संवैधानिक विशेषाधिकार प्राप्त होते हैं। रबींद्रनाथ टैगोर द्वारा रचित, 'जन-गण-मन' हमारे देश भारत का राष्ट्र-गान है। किसी भी देश में राष्ट्र-गान का गाया जाना अनिवार्य हो सकता है और उसके असम्मान या अवहेलना पर दंड का विधान भी हो सकता है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार यदि कोई व्यक्ति राष्ट्र गान के अवसर पर इसमें सम्मिलित न होकर, केवल आदरपूर्वक मौन खड़ा रहता है तो उसे अवहेलना नहीं कहा जा सकता। भारत में धर्म इत्यादि के आधार पर लोगों को ऐसी छूट दी गई है।


जन-गण-मन अधिनायक जय हे......

 
 
सब समान - विक्रम कुमार जैन

एकबार की बात है। सूरज, हवा, पानी और किसान के बीच अचानक तनातनी हो गई। बात बड़ी नहीं थी, छोटी-सी थी कि उनमें बड़ा कौन् है ? सूरज ने अपने को बड़ा बताया तो हवा ने अपने को, पानी और किसान भी पीछे न रहे। उन्होंने अपने बड़े होने का दावा किया। आखिर तिल का ताड़ बन गया। खूब बहस करने पर भी जब वे किसी नतीजे पर न पहुंचे तो चारों ने तय किया कि वे कल से कोई काम नहीं करेंगे। देखें, किसके बिना दुनिया का काम रुकता है।

पशु-पक्षियों को जब यह मालूम हुआ तो वे दौड़े आये। उन्होंने उनके मेल का रास्ता खोजने का प्रयत्न किया, पर उन्हें सफलता नहीं मिली।
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एक बैठे-ठाले की प्रार्थना  - पं० बदरीनाथ भट्ट

लीडरी मुझे दिला दो राम,
चले जिससे मेरा भी काम। ......

 
 
प्रभाव - नरेन्द्र कोहली

एक व्‍यक्ति बहुत श्रद्धापूर्वक नित्‍यप्रति भगवद्गीता पढ़ा करता था। उसके पोते ने अपने दादा के आचरण को देख कर निर्णय किया कि वह भी प्रतिदिन गीता पढ़ेगा। काफी समय तक धैर्यपूर्वक गीता पढ़ने के पश्‍चात् एक दिन वह एक शिकायत लेकर अपने दादा के पास आया। बोला, ''मैं प्रतिदिन गीता पढ़ता हूं; किंतु न तो मुझे कुछ समझ में आता है और न ही उसमें से मुझे कुछ स्‍मरण रहता है। तो फिर गीता पढ़ने का क्‍या लाभ ?''

दादा के हाथ में वह टोकरी थी, जिसमें कोयले उठाए जाते थे। उन्‍होंने वह टोकरी अपने पोते को पकड़ा दी और कहा, ''जाओ, इस टोकरी में नदी से जल ले आओ।''

पोता जा कर नदी से जल ले आया; किंतु नदी से घर तक आते-आते सारा पानी बह गया। टोकरी खाली की खाली थी।

दादा ने कहा, ''तुम ने आने में देर कर दी। अब जाओ और पानी भर कर जल्‍दी लौटो।''

पोता गया और टोकरी में पानी भर कर भागता-भागता घर आया। किंतु कितनी भी जल्‍दी करने पर घर तक आते-आते टोकरी का सारा पानी बह गया; और टोकरी खाली हो गई।

पोते ने कहा, ''दादा जी। कोई लाभ नहीं है। टोकरी में पानी नहीं भरा जा सकता।''

दादा हंसे, ''ठीक कहते हो, टोकरी में पानी संचित नहीं किया जा सकता। किंतु टोकरी का रूप-रंग देखो। उसमें पानी भरने से कोई अंतर आया है ?''

पोते ने टोकरी देखी; कोयलों के संपर्क से वह काली हो गई थी। किंतु दो ही बार पानी लाने से उसके भीतर-बाहर से कालिमा धुल गई थी; और वह साफ-सुथरी हो गई थी ।

''गीता तुम्‍हारी समझ में आए न आए, स्‍मरण रहे, न रहे; किंतु जो प्रभाव जल का टोकरी पर हुआ है, वही प्रभाव गीता का तुम्‍हारे मन पर होता है।''

- नरेन्द्र कोहली

[साभार - नरेन्द्र कोहली, गीता परिक्रमा दूसरा खंड की भूमिका से]

 


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पृथ्वीराज चौहान का होली से संबंधित प्रश्न | होली की पौराणिक कथाएं - भारत-दर्शन

एक समय राजा पृथ्वीराज चौहान ने अपने दरबार के राज-कवि चन्द से कहा कि हम लोगों में जो होली के त्योहार का प्रचार है, वह क्या है? हम सभ्य आर्य लोगों में ऐसे अनार्य महोत्सव का प्रचार क्योंकर हुआ कि आबाल-वृद्ध सभी उस दिन पागल-से होकर वीभत्स-रूप धारण करते तथा अनर्गल और कुत्सित वचनों को निर्लज्जता-पूर्वक उच्चारण करते है । यह सुनकर कवि बोला- ''राजन्! इस महोत्सव की उत्पत्ति का विधान होली की पूजा-विधि में पाया जाता है । फाल्गुन मास की पूर्णिमा में होली का पूजन कहा गया है । उसमें लकड़ी और घास-फूस का बड़ा भारी ढेर लगाकर वेद-मंत्रो से विस्तार के साथ होलिका-दहन किया जाता है । इसी दिन हर महीने की पूर्णिमा के हिसाब से इष्टि ( छोटा-सा यज्ञ) भी होता है । इस कारण भद्रा रहित समय मे होलिका-दहन होकर इष्टि यज्ञ भी हो जाता है । पूजन के बाद होली की भस्म शरीर पर लगाई जाती है ।

होली के लिये प्रदोष अर्थात् सायंकाल-व्यापनी पूर्णिमा लेनी चाहिये और उसी रात्रि में भद्रा-रहित समय में होली प्रज्वलित करनी चाहिये । फाल्गुण की पूर्णिमा के दिन जो मनुष्य चित्त को एकाग्र करके हिंडोले में झूलते हुए श्रीगोविन्द पुरुषोत्तम का दर्शन करता है, वह निश्चय ही बैकुण्ठ में जाता है । यह दोलोत्सव होली होने के दूसरे दिन होता है । यदि पूर्णिमा की पिछली रात्रि मे होली जलाई जाए, तो यह उत्सव प्रतिपदा को होता है और इसी दिन अबीर गुलाल की फाग होती है । उपर्युक्त कारणों के अतिरिक्त इस फाल्गुणी पूर्णिमा के दिन चतुर्दश मनुओं में से एक मनु का भी जन्म है । इस कारण यह मन्वादी तिथि भी है । अत: उसके उपलक्ष्य में भी उत्सव मनाया जाता है । कितने ही शास्त्रकारों ने तो संवत् के आरम्भ एवं बसंतागमन के निमित्त जो यज्ञ किया जाता है, और जिसके द्वारा अग्नि के अधिदेव-स्वरूप का पूजन होता है, वही पूजन इस होलिका का माना है इसी कारण कोई-कोई होलिका-दहन को संवत् के आरम्भ में अग्रि-स्वरूप परमात्मा का पूजन मानते हैं ।

भविष्य-पुराण में नारदजी ने राजा युधिष्ठिर से होली के सम्बन्ध में जो कथा कही है, वह उक्त ग्रन्थ-कथा के अनुसार इस प्रकार है -

नारदजी बोले- हे नराधिप! फाल्गुण की पूर्णिमा को सब मनुष्यों के लिये अभय-दान देना चाहिये, जिससे प्रजा के लोग निश्शंक होकर हँसे और क्रीड़ा करें । डंडे और लाठी को लेकर वाल शूर-वीरों की तरह गाँव से बाहर जाकर होली के लिए लकड़ों और कंडों का संचय करें । उसमें विधिवत् हवन किया जाए। वह पापात्मा राक्षसी अट्टहास, किलकिलाहट और मन्त्रोच्चारण से नष्ट हो जाती है । इस व्रत की व्याख्या से हिरण्यकश्यपु की भगिनो और प्रह्लाद की फुआ, जो प्रहलाद को लेकर अग्नि मे बैठी थी, प्रतिवर्ष होलिका नाम से आज तक जलाई जाती है ।

हे राजन्! पुराणान्तर में ऐसी भी व्याख्या है कि ढुंढला नामक राक्षसी ने शिव-पार्वती का तप करके यह वरदान पाया था कि जिस किसी बालक को वह पाए, खाती जाए। परन्तु वरदान देते समय शिवजी ने यह युक्ति रख दी थी कि जो बालक वीभत्स आचरण एवं राक्षसी वृत्ति में निर्लज्जता-पूर्वक फिरते हुए पाए जाएंगे, उनको तू न खा सकेगी । अत: उस राक्षसी से बचने के लिये बालक नाना प्रकार के वीभत्स और निर्लज्ज स्वांग वनाते और अंट-संट बकते हैं ।

हे राजन्! इस हवन से सम्पूर्ण अनिष्टों का नाश होता है और यही होलिका-उत्सव है । होली को ज्वाला की तीन परिक्रमा करके फिर हास-परिहास करना चाहिए । ''

कवि चंद की कही हुई इस कथा को सुनकर राजा पृथ्वीराज बहुत प्रसन्न हुए ।

[साभार - हिंदुओं के व्रत और त्योहार]


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वांगानुई नदी की कहानी  - रोहित कुमार ‘हैप्पी'

[ न्यूज़ीलैंड की लोक कथा ]

न्यूजीलैंड से नदियों को बचाने की एक नई राह निकली है। यह मानव इतिहास पहली बार हुआ है कि एक नदी को इंसान के समान ही अधिकार दे दिए गए हों। न्यूजीलैंड का माओरी समुदाय ने इसके लिए लगभग डेढ़ सदी तक संघर्ष को किया। वे इस नदी को अपना पूर्वज मानते हैं। इस नदी पर उनकी आस्था अगाध है।

वांगानुई न्यूजीलैंड की तीसरी सबसे बड़ी नदी है। इसकी कुल लंबाई 290 किलोमीटर है। इसे नागरिकों की तरह अधिकार मिलने का मतलब यह है कि अब कोई भी इस नदी को प्रदूषित नहीं कर सकता। यहां तक कि कोई इस नदी को गाली भी नहीं दे सकता।यदि कोई ऐसा करता है तो इसका मतलब होगा कि वह माओरी समुदाय को नुकसान पहुंचा रहा है और उसके विरुद्ध संबंधित कानून के अंतर्गत मामला दर्ज किया जा सकता है।

 

भावानुवाद : रोहित कुमार 'हैप्पी'
न्यूज़ीलैंड

 

 


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अजब हैरान हूँ भगवन् - अज्ञात

अजब हैरान हूँ भगवन्, तुम्हें क्योकर रिझाऊं मैं।
कोई वस्तू नहीं ऐसी, जिसे सेवा में लाऊं मैं॥

करूँ किस तरह आवाहन, कि तुम मौजूद हरजा। ......

 
 
आदमी आदमी को क्‍या देगा | ग़ज़ल - सुदर्शन फ़ाकिर

आदमी आदमी को क्‍या देगा
जो भी देगा वही ख़ुदा देगा

मेरा कातिल ही मेरा मुनिसफ़ है......

 
 
महाकवि की पुरस्कार वापसी  - राजेशकुमार

महाकवि चर्चा में रहते हैं, मतलब जिसमें भी रहते हैं, उसे भी चर्चा कहते हैं। वे अपने खुद के लिए और अपनी रचनाओं के लिए खुद ही बहुचर्चित, लोकप्रिय, सुपरिचित, विख्यात, अतिसक्रिय, जैसे शब्दों का खुल्लम-खुल्ला इस्तेमाल करते रहते हैं, और इस दृष्टि से उन्हें आत्मनिर्भर ही कहा जाएगा, और क्या? 

महाकवि ने इन दिनों फिर से खुद को चर्चा में स्थापित कर लिया है, क्योंकि उन्होंने घोषणा की है कि वे पुरस्कार वापस कर रहे हैं। 

इस बात को लेकर लोगों के मन में तरह-तरह के सवाल है, जो उन तक पहुँच रहे हैं, लेकिन वे फिलहाल उनका जवाब देना मुनासिब नहीं समझ रहे, और कह रहे हैं कि उचित समय पर उचित जवाब देंगे। 

मसलन लोग पूछ रहे हैं कि क्या वे पुरस्कार इसलिए वापस कर रहे हैं, जो कि वे सरकार के किसी काम से नाखुश हैं और अपना विरोध प्रदर्शित दर्ज करवाना चाहते हैं? 

या लोगों के मन में यह सवाल है कि क्या वे टुकड़े-टुकड़े गैंग, या अर्बन नक्सल, जा आतंकवादी, क्या राष्ट्र-विरोधी समूहों में शामिल हो गए हैं या उनके साथ उन्होंने हमदर्दी पैदा कर ली है और इसलिए वे पुरस्कार लौटा रहे हैं? 

या लोग जानना चाहते हैं कि क्या उन्हें लगता है कि वे इस पुरस्कार के योग्य नहीं है, क्योंकि उन्होंने ऐसा कोई काम नहीं किया है कि उन्हें यह पुरस्कार दिया जाए? 

लोगों के मन में यह भी सवाल है कि क्या उन्हें लगता है कि यह पुरस्कार उनके कद के हिसाब से निचले दर्जे का है और इसलिए वे इसे स्वीकार नहीं करना चाहते?

या क्या वे यह कहना चाहते हैं कि उनकी बजाय यह पुरस्कार दूसरे महाकवि को मिलना चाहिए, जो उनसे बेहतर और अधिक काम कर रहे हैं? 

क्या वे यह पुरस्कार इसलिए नहीं लेना चाहते, क्योंकि पुरस्कार की राशि कम है या पुरस्कार देने वाले अधिक राशि पर हस्ताक्षर करवाकर कम राशि देते हैं? 

क्या वे यह पुरस्कार इसलिए वापस कर रहे हैं कि वे सैद्धांतिक कारणों से पुरस्कार देने वाली संस्था के कामकाज का समर्थन नहीं करते? 

यह क्या वे यह पुरस्कार अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता के कारण लौटा रहे हैं?

क्या वे यह पुरस्कार इसलिए लौटा रहे हैं कि उन्हें लगता है कि अब उनको बहुत से पुरस्कार मिल चुके हैं, और वे आगे पुरस्कार नहीं लेना चाहते, और चाहते हैं कि नई पीढ़ी को पुरस्कार दिए जाएँ?
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ठंडक - महीप सिंह

जैसे से ही उस विशाल भवन का कुछ भाग दिखाई दिया, जीवन ने कहा, 'देखो, वह है...पूरा एयरकंडीशंड है।' फिर वह स्वयं ही संकुचित-सा हुआ, सत्या एयरकंडीशंड का मतलब क्या समझेगी। वह समझाने लगा, 'देखो, अभी कितनी गर्मी है। वहाँ पहुँचोगी, तो ऐसा लगेगा. जैसे किसी ठंडे पहाड़ पर आ गई हो।' परंतु वह फिर संकुचित हुआ, सत्या ठंडा पहाड़ भी क्या समझेगी। क्या वह कभी वहां गई है? और वह खुद भी कहां गया है। उसने भी तो केवल सुना ही है कि पहाड़ ठंडे होते हैं। अमीर लोग गर्मियों में पहाड़ पर चले जाते हैं।

उसने फिर समझाया, 'देखो, इसमें ऐसी मशीन लगी है, जिससे सारा मकान ठंडा हो जाता है।' फिर उसने एक नजर सत्या के कपड़ों की ओर डाली। पतली-सी सत्या के पतले-से शरीर पर पतली-सी साड़ी थी, पतला सा ब्लाउज था। वह बोला, 'तुमको हाल में ठंड लगने लगेगी, देखना।'

उसे लगा, यदि हाल में सत्या को सचमुच ठंड लगने लगे तो वह बड़ा खुश हो। इससे एयरकंडीशन के संबंध में बताई हुई बात पुष्ट हो जाएगी।

सत्या उसके साथ बढ़ी चली जा रही थी। उसे लग रहा था, वह चल नहीं रही है, कोई हिलोर है जो उसे अपने-आप बढ़ाए लिए जा रही है। दो महीने हुए, अपने छोटे-से नगर से वह इस महानगरी में आ गई थी। ससुर के साथ घूँघट में कब वह गाड़ी से उतरी, कब टैक्सी में बैठी और कब अपनी खोली में पहुँच गई, उसे अच्छी तरह याद नहीं। अपने कानों में पड़े कोलाहल से वह जान गई थी कि वह शहर में आ गई है। पर शहर ऐसा होता है। हाँ, शहर ऐसा ही होता है। सभी तो इसे शहर कहते हैं। तभी उसके कस्बे का हर आदमी वहाँ भाग आना चाहता है।

वे सिनेमा-हाल के निकट पहुँच गए। एयरकंडीशनिंग की भीनी-भी खुशबू उस तक पहुंचने लगी थी। जीवन के चेहरे पर गर्व की खुशी दौड़ गई। बोला 'देखा, कैसे ठंडी-ठंडी खुशबू आ रही है।'

सिनेमा-हाल के बाहर बड़ी भीड़ थी। अभी पहला शो समाप्त नहीं हुआ था। रंग-बिरंगी साड़ियों, पैंटों और टाइयों की चहल-पहल सत्या को मेले जैसी लग रही थी। वह मेला ही याद कर सकती है। मेला उसने कई बार देखा है। वहाँ भी कुछ ऐसी ही चहल-पहल होती। पर कितना अंतर है दोनों मेलों में! एक में वह हलकी-फुलकी डोंगी-सी उतराती चली जाती है, दूसरे में भारी पत्थर की तरह बैठती जा रही है।

जीवन ने नजर इधर-उधर दौड़ाई। पता नहीं शो समाप्त होने में अभी कितनी देर है, पर बाहर की यह रंगीन चहल-पहल भी तो किसी शो से कम नहीं। लोग गुटों में बँधे हुए हैं, हँस रहे हैं, बातें कर रहे हैं, कुछ खा-पी रहे हैं। इस वातावरण में वह भी अपने-आपको किसी चीज से वंचित नहीं पाता। सत्या सहित उसका भी अपना एक गुट है। लोगों को आपस में बातचीत करते देख वह भी सत्या से कुछ बातचीत करने लगता है। लोगों को हँसता देख वह हँस पड़ता है। वह और सत्या एक ही पैकेट से निकालकर बेफर खा रहे हैं। चारों और फैली हुई फिजा में वह अपने-आपको कितना हल्का महसूस कर रहा है।

सिनेमा-हाल के बाहर रखे हुए हाउस फुल के बोर्ड की ओर इशारा करते हुए जीवन ने सत्या से कहा, 'भीड़ काफी है। देखो, अब एक भी टिकट नहीं बचा। कितने लोग बेचारे निराश लौटे जा रहे हैं।' फिर उसने अपनी पैंट की जेब में पड़े पर्स को अनुभव किया, उसमें पड़े दो टिकटों को अनुभव किया और एक गहरे संतोष की लहर उसके सारे शरीर में दौड़ गई।

'सुनो,' सत्या बोली, 'वह सामने एक लड़का खड़ा है... देख रहे हो न...?' जीवन ने उधर देखा, 'कौन लड़का ...?'

'अरे वो, जो गंदी-सी बुश्शर्ट पहने है। लंबा-सा।' जीवन फिर भी कुछ नहीं समझा, क्योंकि उस ओर गंदी बुश्शर्ट की कमी थी, न लंबों की, परंतु यदि वह उसे देख भी ले तो क्या? बोला, 'आखिर बात क्या है?'

'वो अर्जुन है।'

'अर्जुन...? कौन अर्जुन...?'

'अर्जुन को नहीं जानते?' सत्या खीझती हुई बोली, 'अपनी गली के मोड़ पर वो सिंधी नहीं रहते, मनसुखानी, उनका लड़का।'

जीवन खीझ उठा। उसकी गली में बहुत से सिंधी रहते हैं और उनके बहुत लड़के हैं-अर्जुन, भीम, नकुल, सहदेव। पर क्या वह सबकी खोज खबर रखता है? बोला, 'उसका लड़का? पर हमें इससे क्या?'

सत्या ने उसे ऐसे आश्चर्य से देखा जैसे वह दिन को रात कह रहा हो, 'तुम्हें मालूम नहीं, वह कई दिन से अपने घर से लापता है? इसकी माँ बेचारी रो-रोकर अंधी हुई जा रही है।'

जीवन ने फिर उस ओर देखा। गंदी बुश्शर्ट वाला चौदह-पंद्रह साल का लंबा लड़का अब उसकी नजर में आ गया था।

'सुनो,' सत्या बोली, 'जरा बुलाओ तो उसे।'

जीवन को यह कहना कुछ अजीब-सा लगा, फिर भी उसने सी... सी करके उसे बुलाया। वह पास आ गया। जीवन ने सत्या की ओर देखा और सत्या ने जीवन की ओर, फिर दोनों ने उस लड़के की ओर देखा। सत्या ने आँखों से ही इशारा किया, 'पूछो।'

जीवन को कुढ़न हुई, 'क्या पूछें भला...?' सत्या ने जीवन की आकृति निरपेक्ष देखी, तो उस लड़के की ओर उन्मुख हुई, 'तुम्हारा क्या नाम है?... तुम्हारा नाम अर्जुन है न...?'

दोनों प्रश्न एक साथ सुनकर जैसे उस लड़के की सिट्टी मारी गई। वह कुछ क्षण टुकर-टुकर दोनों को देखता रहा, फिर धीरे से बोला, 'नहीं, मेरा नाम तो किशन है।'

उत्तर सुनकर सत्या को लगा, जैसे भरे बाजार में किसी ने उसका पल्लू खींच लिया है और जीवन को लगा, जैसे सचमुच सत्या का पल्लू ही खिंच गया है। दोनों हक्के-बक्के से खड़े कभी एक-दूसरे को और कभी उस लड़के को देखते रहे। वह फिर उसकी ओर उन्मुख हुई, 'तुम्हारा नाम अर्जुन नहीं है...? तुम कुर्ला में नहीं रहते हो?' इस बार उस लड़के के मुँह से 'नहीं, नहीं' निकला। वह चुपचाप खड़ा रहा। सत्या को बल मिला, 'तुम तीन दिन से अपने घर से भागे हुए नहीं हो?'

लड़का चुप रहा। पर जीवन के लिए यह सब असह्य हो गया था। खीझकर बोला, 'इससे तुम्हें क्या लेना-देना है, सत्या? ख़ामख़्वाह बेकार की झंझट ले बैठी हो। यह अर्जुन है या किशन, हमें इससे क्या मतलब है?'

'तुम्हें मालूम है, जब से यह लापता है, इसके घर की क्या हालत है?' सत्या के चेहरे पर अजीब-सी तमतमाहट आ गई थी।

जीवन घबरा-सा गया। जैसे उसे कुछ सूझा नहीं कि वह क्या कहे। इतने में वह लड़का मुड़ा और चल पड़ा। पर सत्या ने झट से उसका हाथ पकड़ लिया और बोली, 'तुम्हें शर्म नहीं आती, बिना खबर दिए तीन दिन से घर से गायब हो। तुम्हारी माँ रो-रोकर अंधी हुई जा रही है। तुम्हारा बाप तुम्हें ढूंढ़ता हुआ मारा-मारा फिर रहा है और और तुम सिनेमा देखने आए हो...। बेशरम...!'

जीवन खीझा और भौंचक्का-सा सत्या को देख रहा था। यह उसे क्या हो गया है? और सत्या की तमतमाहट ऊर्ध्वमुखी होकर जब विगलित हो रही थी। उसका गला रुंध गया था और नेत्र भर आए थे। उसके होंठ काँप रहे थे। उस लड़के की बांह पकड़ते हुए उसके हाथ में अजीब-सी थरथराहट हो रही थी। और लड़का सत्या के सम्मुख भेड़ बना खड़ा था-न उसके मुँह से कुछ निकल रहा था, न किसी प्रकार का प्रतिरोध करने की वह चेष्टा कर रहा था।

जीवन को बड़ी बेचैनी महसूस हुई जब उसने देखा चारों ओर खड़े लोगों का ध्यान भी उधर आकर्षित हो गया है। तमाशबीन उसके चारों ओर इकट्ठे होने लगे थे। वह धीरे से बोला, 'अच्छा, इसे छोड़ो तो।'

सत्या ने हाथ ढीला कर दिया। लड़का मुड़कर बिना कुछ बोले चला गया था। जीवन ने देखा, लोग सामने के दरवाजे से अंदर जा रहे हैं। बोला, 'चलो, पहला शो छूट गया।' सत्या ने एक बार उधर देखा, जिस तरफ वह लड़का गया था, फिर वह चल दी। अंदर घुसते ही। एग्रकंडीशनिंग की ठंडक ने जीवन को अभिभूत कर दिया। उसने मुस्कराकर सत्या की ओर देखा, परंतु उसके चेहरे पर छाई तप्तता वैसी ही बनी थी। जीवन को लगा, जैसे उसके समग्र आनंद को किसी चीज ने खंडित कर दिया है। कितनी साध थी उसे, सत्या को यह राजमहल जैसा सिनेमा हाल दिखाने की! पर बीच में यह काँटा कहाँ से चुभ गया? उसने फिर कोशिश की, 'सत्या, बिलकुल राजमहल जैसा लगता है न?  देखो, ज़मीन पर बिछे गलीचे कैसे मुलायम हैं। पैर धँसते चले जाते हैं।'

सत्या ने नीचे की ओर देखा, फिर जीवन की ओर। उसकी आँखों में उसकी बात का समर्थन तो था, पर वह उल्लास नहीं था, जो जीवन देखना चाहता था।

जीवन का उत्साह मंद पड़ गया। वह पता नहीं कितनी चीजें दिखाना चाहता था--चारों ओर दीवारों पर लगे आदमकद शीशे, छत से लटकते फानूस, पर वह दिखाए किसे? सत्या तो वहाँ थी ही नहीं।

वे हाल के अंदर अपनी सीटों पर जाकर बैठ गए। सामने लगा कीमती मखमल का परदा धीरे-धीरे दोनों और खिसक गया। पीछे सफेद परदा दिखाई दिया। हाल में बत्तियाँ बुझ गई। सफेद परदे पर विज्ञापन दौड़ने लगे। फिर न्यूजरील शुरू हुई। जीवन को सत्या की धीमी आवाज सुनाई दी, 'सुनो, यह अर्जुन अपने घर से भाग क्यों गया?"

जीवन को लगा, जैसे किसी ने उसे कचोट लिया। तुनककर बोला, 'वह मुझे बताकर तो भागा नहीं। मुझे क्या मालूम?'

'तुम तो बेकार नाराज हो रहे हो। मैं पूछती हूँ आखिर ये लड़के अपने घर से भाग क्यों जाते हैं?'

जीवन और तुनका, 'अच्छा, पिक्चर देख लेने दो। घर चलकर मैं इसी विषय पर रिसर्च शुरू करूंगा।'

सत्या चुप हो गई।

पिक्चर शुरू हो गई। जीवन इस पिक्चर का पूरा आनंद लेना चाहता था। वह सत्या को उस पिक्चर में काम करने वाले हर पात्र का नाम और उसके गुण बताना चाहता था। वह दुःख के स्थलों पर संवेदना प्रकट करना चाहता था। वह हँसी के स्थानों पर जी भरकर हँसना चाहता था। परंतु यह क्या हो गया है। जीवन के आनंद की शीतल जल धारा जैसे किसी तप्त रेगिस्तान में खो गई।

जाने कितनी देर दोनों गुमसुम पिक्चर देखते रहे। उसे सत्या की धीमी आवाज फिर सुनाई दी, 'सुनो, अर्जुन की माँ ने तीन दिन से अन्न का दाना मुंह में नहीं डाला।'

जीवन ने उस अंधेरे में ही घूरकर सत्या की ओर देखा। उसने अन्न का दाना मुँह में नहीं डाला तो वह क्या करे? क्या उसने उसके लड़के को घर से भगा दिया है? और सत्या भी बस विचित्र है। इतनी देर से उसी का रोना लिए बैठी है।

वह कुछ नहीं बोला। आधा घंटा गुजर गया। सत्या की बुदबुदाहट उसे फिर सुनाई दी, 'सुनो, हम लोगों ने गलती की। उसे छोड़ना नहीं चाहिए था। उसके बाप ने तीन दिन से अपनी दुकान नहीं खोली। उसके छोटे भाई-बहन स्कूल नहीं गए। माँ तो हमेशा रोती रहती है। हम उसे पकड़कर घर ले जाते। पिक्चर का क्या काम है? पिक्चर फिर कभी देख लेते।'

जीवन को लगा, सत्या ने उसके सिर के बाल नोच लिए है। वह क्रोध में उबल पड़ा। दाँत पीसता और आवाज दबाता हुआ बोला, 'तुम बकबक किए ही जाओगी या चुप भी बैठोगी? उस लड़के के घरवालों के साथ इतनी हमदर्दी है, तो मेरे साथ इतनी दुश्मनी क्यों कर रही हो? सारी पिक्चर का मजा किरकिरा करके रख दिया। पगली कहीं की! अब ज्यादा बकबक की तो मैं हाल छोड़कर चला जाऊँगा।'

सत्या सुन्न हो गई। पिक्चर चलती रही, परंतु वह स्थिर थी। इंटरवल हुआ। पिक्चर फिर शुरू हुई, परंतु वह स्थिर ही रही, न हिली, न डुली, न कोई बात की।

दूसरे दिन सुबह जीवन उठा, तो सत्या चाय का प्याला सामने रखती हुई बोली, 'सुनो, देखो सुबह-सुबह नाराज मत होना। अब इतना तो करो कि अर्जुन के पिता को बता आओ कि वह हमें कल सिनेमा में मिला था। बेचारों की कुछ चिंता तो दूर हो।'

परंतु जीवन के मुँह में कल का कसैलापन पूरी तरह बाकी था। वह सख्ती से बोला, 'मुझे क्या गरज पड़ी है। मैंने क्या दुनिया का ठेका ले रखा है? तुम्हें बड़ी हमदर्दी है तो जाओ, रोकता कौन है?'

सत्या चुप होकर बिस्तर सँभालने लगी। इतने में दरवाजे पर खटखट हुई। सत्या ने दरवाजा खोला। जीवन ने अंदर बैठे-बैठे ही सुना, कोई स्त्री कह रही थी, 'बहन, तुम्हारी बड़ी मेहरबानी! अर्जुन रात को ही घर आ गया था। तुम उसे सिनेमा में मिली थी न। तुमने उसे खूब डाँटा था न...। बस, वह सीधा घर आ गया। बहन, तुम्हारी बहुत मेहरबानी। तुमने मेरे बेटे को मिलाया, मेरा दिल ठंडा कर दिया।'

-महीप सिंह


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लेखक | लघु-कथा - रोहित कुमार 'हैप्पी'

जेबकतरे ने उसकी जेब काटी तो लगा था कि काफी माल हाथ लगा है, भारी जान पड़ती थी।

देखा तो सब के सब कागज़ निकले।

काग़ज़ों पर नजर डाली तो तीन कविताएं, एक कहानी और दो लघु-कथाएं थीं। नोट एक भी न था।

जेबकतरे को लेखक की जेब काटने का पछतावा हो रहा था।

- रोहित कुमार 'हैप्पी'
संपादक, भारत-दर्शन, न्यूज़ीलैंड

 

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दो घड़े  - सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

एक घड़ा मिट्टी का बना था, दूसरा पीतल का। दोनों नदी के किनारे रखे थे। इसी समय नदी में बाढ़ आ गई, बहाव में दोनों घड़े बहते चले। बहुत समय मिट्टी के घड़े ने अपने को पीतलवाले से काफी फासले पर रखना चाहा।

पीतलवाले घड़े ने कहा, ''तुम डरो नहीं दोस्त, मैं तुम्हें धक्के न लगाऊँगा।''

मिट्टीवाले ने जवाब दिया, ''तुम जान-बूझकर मुझे धक्के न लगाओगे, सही है; मगर बहाव की वजह से हम दोनों जरूर टकराएंगे। अगर ऐसा हुआ तो तुम्हारे बचाने पर भी मैं तुम्हारे धक्कों से न बच सकूँगा और मेरे टुकड़े-टुकड़े हो जाएंगे। इसलिए अच्छा है कि हम दोनों अलग-अलग रहें।''

शिक्षा - जिससे तुम्हारा नुकसान हो रहा हो, उससे अलग ही रहना अच्छा है, चाहे वह उस समय के लिए तुम्हारा दोस्त भी क्यों न हो।

- सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

[निराला की सीखभरी कहानियां]

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यदि आप इन कहानियों को अपने किसी प्रकार के प्रकाशन (वेब साइट, ब्लॉग या पत्र-पत्रिका) में प्रकाशित करना चाहें तो कृपया 'भारत-दर्शन' का उल्लेख अवश्य करें।

 


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माँ हम विदा हो जाते हैं - अमर क्रांतिकारी चंद्रशेखर आज़ाद

माँ हम विदा हो जाते हैं, हम विजय केतु फहराने आज
तेरी बलिवेदी पर चढ़कर माँ निज शीश कटाने आज।

मलिन वेष ये आँसू कैसे, कंपित होता है क्यों गात? ......

 
 
झूठ के साए में | ग़ज़ल - रोहित कुमार 'हैप्पी'

झूठ के साए में सच पलते नहीं
हम किसी क़ातिल से हैं डरते नहीं......

 
 
बुद्धिमान हंस - पंचतंत्र

एक विशाल वृक्ष था। उसपर बहुत से हंस रहते थे। उनमें एक वृद्ध बुद्धिमान और दूरदर्शी हंस था। उसका सभी हंस आदर करते थे। एक दिन उस वृद्ध हंस ने वृक्ष की जड के निकट एक बेल देखी। बेल उस वृक्ष के तने से लिपटना शुरू कर चुकी थी। इस बेल को देखकर वृद्ध हंस ने कहा, देखो, बेल को नष्ट कर दो। एक दिन यह बेल हम सभी के लिए संकट बन सकती है।

एक युवा हंस ने हँसते हंसते हुए प्रश्न किया, ‘‘यह छोटी-सी बेल हम सभी के लिए कैसे कष्टदायी सिद्ध हो सकती है?’’

वृद्ध ने समझाया-‘‘धीरे-धीरे यह पेड़ के तने से ऊपर की ओर चढ़ती आएगी, और यह वृक्ष के ऊपर तक आने के लिए एक सीढ़ी जैसी बन जाएगी। कोई भी आखेटक इसके सहारे चढ़कर, हम तक पहुंच जाएगा और हम सभी मारे जाएंगे।’’

युवा हंस को विश्वास नहीं हो रहा था। अन्य हंसों ने भी ‘एक छोटी सी बेल के सीढी बन जाने' की बात को गंभीरता से नहीं लिया।

समय बीतता गया। बेल धीरे-धीरे बड़ी होती गई। एक दिन जब सभी हंस दाना चुगने बाहर गए हुए थे, तब एक आखेटक उधर आया। पेड़ के ऊपर तक जाती लता से सीढ़ी का काम ले, वह वरिष पर ऊपर चढ़ आया और जाल बिछाकर चला गया। सांयकाल को हंसों के लौटने पर सभी हंस शिकारी के बिछाए जाल में बुरी तरह फँस गए। तब सभी को अपनी अज्ञान का भान हुआ लेकिन अब देर हो चुकी थी।

एक हंस ने वृद्ध हंस से गुहार लगाई, ‘‘हमें क्षमा करें, हम सबसे चूक हो गई, इस संकट से निकलने का सुझाव भी आप ही बताएं।’’

सभी हंसों द्वारा चूक स्वीकारने पर वृद्ध हंस ने उन्हें उपाय बताया, ‘‘मेरी बात ध्यान से सुनो। सुबह जब आखेटक आएगा, तब सभी मृतावास्था में पडे रहना, आखेटक तुम्हें मृत समझकर जाल से निकाल कर धरती पर रखता जाएगा। जैसे ही वह अंतिम हंस को नीचे रखेगा, मैं सीटी बजाऊंगा। मेरी सीटी सुनते ही सब उड जाना।’’

प्रात: काल आखेटक आया। सभी हंसो ने वैसा ही किया, जैसा वृद्ध हंस ने समझाया था, आखेटक हंसों को मृत समझकर धरती पर रखता गया। जैसे ही उसने अंतिम हंस को ज़मीन पर रखा, वृद्ध हंस ने सीटी बाजा दी और सभी हंस उड गए। आखेटक आश्चर्यचकित देखता रह गया। 

सभी हंसों ने वृद्ध हंस की बुद्धिमता की सराहन की। आज उसी के कारण सभी हंसों के जीवन रक्षा हो पाई थी।

[भारत-दर्शन संकलन]


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दीवाली - साधु की कथा - भारत-दर्शन संकलन

एक बार एक साधु को राजसी सुख भोगने की इच्छा हुई। अपनी इच्छा की पूर्ति हेतु उसने लक्ष्मी की कठोर तपस्या की। कठोर तपस्या के फलस्वरूप लक्ष्मी ने उस साधु को राज सुख भोगने का वरदान दे दिया। वरदान प्राप्त कर साधु राजा के दरबार में पहुंचा और राजा के पास जाकर राजा का राज मुकुट नीचे गिरा दिया। यह देख राजा क्रोध से कांपने लगा। किन्तु उसी क्षण उस राजमुकुट से एक सर्प निकल कर बाहर चला गया। यह देखकर राजा का क्रोध समाप्त हो गया और प्रसन्नता से उसने साधु को अपना मंत्री बनाने का प्रस्ताव रखा।

साधु ने राजा का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और वह मंत्री बना दिया गया। कुछ दिन बाद उस साधु ने राजमहल में जाकर सबको बाहर निकल जान का आदेश दिया। चूंकि सभी लोग उस साधु के के चमत्कार को देख चुके थे, अत: उसके कहने पर सभी लोग राजमहल से बाहर आ गए तो राजमहल स्वत: गिरकर ध्वस्त हो गया। इस घटना के बाद तो सम्पूर्ण राज्य व्यवस्था का कार्य उस साधु द्वारा होने लगा। अपने बढ़ते प्रभाव को देखकर साधु को अभिमान हो गया और वह अपने को सर्वेसर्वा समझने लगा। अपने अभिमानवश एक दिन साधु ने राजमहल के सामने स्थित गणेश की मूर्ति को वहां से हटवा दिया, क्योंकि उसकी दृष्टि में यह मूर्ति राजमहल के सौदर्य को बिगाड़ रही थी। अभिमानवश एक दिन साधु ने राजा से कहा कि उसके कुर्ते में सांप है अत: वह कुर्ता उतार दें। राजा ने पूर्व घटनाओं के आधार पर भरे दरबार में अपना कुर्ता उतार दिया किन्तु उसमें से सांप नहीं निकला। फलस्वरूप राजा बहुत नाराज हुआ और उसने साधु को मंत्री पद से हटाकर जेल में डाल दिया। इस घटना से साधु बहुत दुखी हुआ और उसने पुन: लक्ष्मी की तपस्या की।

लक्ष्मी ने साधु को स्वप्न में बताया कि उसने गणेश की मूर्ति को हटाकर गणेश को नाराज कर दिया है। इसलिए उस पर यह विपत्ति आई है क्योंकि गणेश के नाराज होने से उसकी बुद्धि नष्ट हो गई तथा धन या लक्ष्मी के लिए बुद्धि आवश्यक है, अत: जब तुम्हारे पास बुद्धि नहीं रही तो लक्ष्मीजी भी चली गई। जब साधु ने स्वप्न में यह बात जानी तो उसे अपने किए पर बहुत पश्चाताप हुआ।

साधु को अपनी गलती का अहसास हो गया और उसने पश्चाताप किया तो अगले ही दिन राजा ने भी स्वत: जेल में जाकर साधु से अपनी गलती के लिए क्षमा मांगी और उसे जेल से मुक्त कर पुन: मंत्री बना दिया।

मंत्री बनने पर साधु ने पुन: गणेश की मूर्ति को पूर्ववत स्थापित करवाया, साथ ही साथ लक्ष्मी की भी मूर्ति स्थापित की और सर्व साधारण को यह बताया कि सुखपूर्वक रहने के लिए ज्ञान एवं समृद्धि दोनों जरूरी हैं। इसलिए लक्ष्मी एवं गणेश दोनों का पूजन एक साथ करना चाहिए। तभी से लक्ष्मी के साथ गणेश पूजन की परम्परा आरम्भ हो गई।


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घर | कविता - मोहन राणा

धरती कर सकती है मिटा सकती है भूख सबकी
पर तृप्त नहीं पाती लालसा एक इन्सान की कभी

कभी मैं देखता इस ओर कभी उस पर जैसे कुछ भी नहीं......

 
 
कल कहाँ थे कन्हाई  - भारत दर्शन संकलन

कल कहाँ थे कन्हाई हमें रात नींद न आई
आओ -आओ कन्हाई न बातें बनाओ......

 
 
दोहे - रहीम

रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय।
टूटे से फिर ना मिले, मिले गाँठ परि जाय।।......

 
 
कुँअर बेचैन की ग़ज़लें  - कुँअर बेचैन

दो चार बार हम जो कभी हँस-हँसा लिए
सारे जहाँ ने हाथ में पत्थर उठा लिए

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मेज़बान | लघु-कथा - खलील जिब्रान

"कभी हमारे घर को भी पवित्र करो।" करूणा से भीगे स्वर में भेड़िये ने भोली-भाली भेड़ से कहा।

"मैं ज़रूर आती बशर्ते तुम्हारे घर का मतलब तुम्हारा पेट न होता।" भेड़ ने नम्रता पूर्वक जवाब दिया।

- खलील जिब्रान

 


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मैंने जाने गीत बिरह के - आनन्द विश्वास

मैंने जाने गीत बिरह के, मधुमासों की आस नहीं है,
कदम-कदम पर मिली विवशता, साँसों में विश्वास नहीं है।......

 
 
रोचक प्रश्नोत्तरी  - सुदेश शर्मा
  • सबसे पुरानी वस्तु क्या है ?

ईश्वर- क्योंकि वह संसार से पहले का है ।
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ज़माना रिश्वत का - यादराम शर्मा

है पैसे का जोर, ज़माना रिश्वत का
चर्चा चारों ओर, ज़माना रिश्वत का......

 
 
एक आने के दो समोसे | कहानी - आनन्द विश्वास

बात उन दिनों की है जब एक आने के दो समोसे आते थे और एक रुपये का सोलह सेर गुड़। अठन्नी-चवन्नी का जमाना था तब। प्राइमरी स्कूल के बच्चे पेन-पेन्सिल से कागज पर नही, बल्कि नैज़े या सरकण्डे की बनी कलम से खड़िया की सफेद स्याही से, लकड़ी के तख्ते की बनी हुई पट्टी पर लिखा करते थे।

वो भी क्या दिन थे जब पट्टी को घुट्टे से घिस-घिस कर चिकना किया जाता था। उस लिखने में मजा ही कुछ और था। पट्टी की एक तरफ एक से सौ तक की गिनती और दूसरी तरफ दो से दस तक के पहाड़े लिख कर मास्टर जी को दिखा कर, उसे पानी से धो दिया जाता था। और फिर पट्टी की मुठिया को पकड़ कर हवा में जोर-जोर से हिला-हिला कर सुखाया जाता था। और साथ ही साथ गाने का आनन्द भी तो उतना ही अच्छा लगता था जब क्लास के सभी बच्चे गाना गाते थे और गाना गा-गा कर पट्टी सुखाते थे। सब को याद था ये गाना..

सुख-सुख पट्टी, चन्दन घुट्टी।
राजा आये, महल बनाया।......

 
 
क़दम-क़दम बढ़ाये जा | अभियान गीत - वंशीधर शुक्ल

क़दम-क़दम बढ़ाये जा
खुशी के गीत गाये जा......

 
 
रक्षा बंधन साहित्यिक संदर्भ - भारत-दर्शन संकलन

अनेक साहित्यिक ग्रंथों में रक्षाबंधन के पर्व का विस्तृत वर्णन मिलता है। हरिकृष्ण प्रेमी के ऐतिहासिक नाटक, 'रक्षाबंधन' का 98वाँ संस्करण प्रकाशित हो चुका है। मराठी में शिंदे साम्राज्य के विषय में लिखते हुए रामराव सुभानराव बर्गे ने भी एक नाटक लिखा है जिसका शीर्षक है 'राखी उर्फ रक्षाबंधन'।

हिंदी कवयित्री, 'महादेवी वर्मा' व 'निराला' का भाई-बहन का स्नेह भी सर्वविदित है। निराला महादेवी के मुंहबोले भाई थे व रक्षाबंधन कभी न भुलते थे।

 

वह अनोखा भाई
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पृथ्वीराज चौहान का होली से संबंधित प्रश्न  - भारत-दर्शन संकलन

एक समय राजा पृथ्वीराज चौहान ने अपने दरबार के राज-कवि चन्द से कहा कि हम लोगों में जो होली के त्योहार का प्रचार है, वह क्या है? हम सभ्य आर्य लोगों में ऐसे अनार्य महोत्सव का प्रचार क्योंकर हुआ कि आबाल-वृद्ध सभी उस दिन पागल-से होकर वीभत्स-रूप धारण करते तथा अनर्गल और कुत्सित वचनों को निर्लज्जता-पूर्वक उच्चारण करते है । यह सुनकर कवि बोला- ''राजन्! इस महोत्सव की उत्पत्ति का विधान होली की पूजा-विधि में पाया जाता है । फाल्गुन मास की पूर्णिमा में होली का पूजन कहा गया है । उसमें लकड़ी और घास-फूस का बड़ा भारी ढेर लगाकर वेद-मंत्रो से विस्तार के साथ होलिका-दहन किया जाता है । इसी दिन हर महीने की पूर्णिमा के हिसाब से इष्टि ( छोटा-सा यज्ञ) भी होता है । इस कारण भद्रा रहित समय मे होलिका-दहन होकर इष्टि यज्ञ भी हो जाता है । पूजन के बाद होली की भस्म शरीर पर लगाई जाती है ।

होली के लिये प्रदोष अर्थात् सायंकाल-व्यापनी पूर्णिमा लेनी चाहिये और उसी रात्रि में भद्रा-रहित समय में होली प्रज्वलित करनी चाहिये । फाल्गुण की पूर्णिमा के दिन जो मनुष्य चित्त को एकाग्र करके हिंडोले में झूलते हुए श्रीगोविन्द पुरुषोत्तम का दर्शन करता है, वह निश्चय ही बैकुण्ठ में जाता है । यह दोलोत्सव होली होने के दूसरे दिन होता है । यदि पूर्णिमा की पिछली रात्रि मे होली जलाई जाए, तो यह उत्सव प्रतिपदा को होता है और इसी दिन अबीर गुलाल की फाग होती है । उपर्युक्त कारणों के अतिरिक्त इस फाल्गुणी पूर्णिमा के दिन चतुर्दश मनुओं में से एक मनु का भी जन्म है । इस कारण यह मन्वादी तिथि भी है । अत: उसके उपलक्ष्य में भी उत्सव मनाया जाता है । कितने ही शास्त्रकारों ने तो संवत् के आरम्भ एवं बसंतागमन के निमित्त जो यज्ञ किया जाता है, और जिसके द्वारा अग्नि के अधिदेव-स्वरूप का पूजन होता है, वही पूजन इस होलिका का माना है इसी कारण कोई-कोई होलिका-दहन को संवत् के आरम्भ में अग्रि-स्वरूप परमात्मा का पूजन मानते हैं ।

भविष्य-पुराण में नारदजी ने राजा युधिष्ठिर से होली के सम्बन्ध में जो कथा कही है, वह उक्त ग्रन्थ-कथा के अनुसार इस प्रकार है -

नारदजी बोले- हे नराधिप! फाल्गुण की पूर्णिमा को सब मनुष्यों के लिये अभय-दान देना चाहिये, जिससे प्रजा के लोग निश्शंक होकर हँसे और क्रीड़ा करें । डंडे और लाठी को लेकर वाल शूर-वीरों की तरह गाँव से बाहर जाकर होली के लिए लकड़ों और कंडों का संचय करें । उसमें विधिवत् हवन किया जाए। वह पापात्मा राक्षसी अट्टहास, किलकिलाहट और मन्त्रोच्चारण से नष्ट हो जाती है । इस व्रत की व्याख्या से हिरण्यकश्यपु की भगिनो और प्रह्लाद की फुआ, जो प्रहलाद को लेकर अग्नि मे बैठी थी, प्रतिवर्ष होलिका नाम से आज तक जलाई जाती है ।

हे राजन्! पुराणान्तर में ऐसी भी व्याख्या है कि ढुंढला नामक राक्षसी ने शिव-पार्वती का तप करके यह वरदान पाया था कि जिस किसी बालक को वह पाए, खाती जाए। परन्तु वरदान देते समय शिवजी ने यह युक्ति रख दी थी कि जो बालक वीभत्स आचरण एवं राक्षसी वृत्ति में निर्लज्जता-पूर्वक फिरते हुए पाए जाएंगे, उनको तू न खा सकेगी । अत: उस राक्षसी से बचने के लिये बालक नाना प्रकार के वीभत्स और निर्लज्ज स्वांग वनाते और अंट-संट बकते हैं ।

हे राजन्! इस हवन से सम्पूर्ण अनिष्टों का नाश होता है और यही होलिका-उत्सव है । होली को ज्वाला की तीन परिक्रमा करके फिर हास-परिहास करना चाहिए । ''

कवि चंद की कही हुई इस कथा को सुनकर राजा पृथ्वीराज बहुत प्रसन्न हुए ।

[साभार - हिंदुओं के व्रत और त्योहार]


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प्रेमचंद की विचार यात्रा - शैलेंद्र चौहान

प्रेमचंद ने सन 1936 में अपने लेख ‘महाजनी सभ्यता' में लिखा है कि ‘मनुष्य समाज दो भागों में बँट गया है । बड़ा हिस्सा तो मरने और खपने वालों का है, और बहुत ही छोटा हिस्सा उन लोगों का था जो अपनी शक्ति और प्रभाव से बड़े समुदाय को बस में किए हुए हैं । इन्हें इस बड़े भाग के साथ किसी तरह की हमदर्दी नहीं, जरा भी रू -रियायत नहीं। उसका अस्तित्व केवल इसलिए है कि अपने मालिकों के लिए पसीना बहाए, खून गिराए और चुपचाप इस दुनिया से विदा हो जाए।' इस उद्धरण से यह स्पष्ट है कि प्रेमचंद की मूल सामाजिक चिंताएँ क्या थीं ।

वह भली-भाँति समझ गये थे कि एक बड़े वर्ग यानी बहुजन समाज की बदहाली के जिम्मेदार, उन पर शासन करने वाले, उनका शोषण करने वाले, कुछ थोड़े से पूँजीपति, जमींदार, व्यवसायी ही नहीं थे, बल्कि अंग्रेजी हुकूमत में शामिल (सेवक/ नौकर) उच्चवर्णीय निम्न-मध्यवर्ग /मध्यवर्ग भी उतना ही दोषी था। किसान, मजदूर, दलित वर्ग न केवल शोषित और ख़स्ताहाल था बल्कि नितांत असहाय और नियति का दास बना हुआ जी रहा था। दोनों वर्गों की इतनी साफ-साफ पहचान प्रेमचंद से पहले हिन्दी साहित्य में किसी ने भी नहीं की थी। एक ओर साम्राज्यवादी अंग्रेजी शिकंजा था तो दूसरी ओर सामंतवादी शोषण की पराकाष्ठा थी। एक तरफ अंग्रेजों के आधिपत्य से देश को मुक्तत कराने के लिए आंदोलन था, दूसरी ओर जमींदारों और पूँजीपतियों के विरोध में कोई विरोध मुखर रूप नहीं ले पा रहा था। अधिकांश मध्यवर्ग अंग्रेजी शासन का समर्थक था क्योंकि उसे वहाँ सुख-सुविधाएँ, कुछ अधिकार और मिथ्या अहंकार प्रदर्शन से आत्म गौरव का अनुभव होता था।

प्रेमचंद ने अपने एक लेख में (असहयोग आंदोलन और गाँधीजी के प्रभाव में) सन 1921 में ‘स्वराज की पोषक और विरोधी व्यवस्थाओं' के तहत लिखा था कि ‘शिक्षित समुदाय सदैव शासन का आश्रित रहता है। उसी के हाथों शासन कार्य का संपादन होता है। अतएव उसका स्वार्थ इसी में है कि शासन सुदृढ़ रहे और वह स्वयं शासन के स्वेच्छाचार (दमन, निरंकुशता और अराजकता) में भाग लेता रहे। इतिहास में ऐसी घटनाओं की भी कमी नहीं है जब शिक्षित वर्ग ने राष्ट्र और देश को अपने स्वार्थ पर बलिदान दे दिया है। यह समुदाय विभीषणों और भगवान दासों से भरा हुआ है। प्रत्येक जाति का उद्धार सदैव कृषक या श्रमजीवियों द्वारा हुआ है।' यह निष्कर्ष आज भी पूरी तरह प्रासंगिक है। प्रेमचन्द ने ‘ज़माना' में 1919 में एक लेख लिखा था जिसमें कहा था कि इस देश में 90 प्रतिशत किसान हैं, और किसान सभा नहीं है। 1925 मे किसान सभा बनी। सामान्यत: यह माना जाता है कि मध्य वर्ग की किसी भी आंदोलन, क्रांति और विद्रोह में महत्वपूर्ण भूमिका रहती है।

मध्यवर्ग का एक हिस्सा शासन का पैरोकार और दूसरा हिस्सा आंदोलनों की आवश्यकता का हिमायती होता है। यह दूसरा हिस्सा वैचारिक परिस्थितियों का निर्माण करने में तो अपनी भूमिका का निर्वाह करता है पर आंदोलन की शुरुआत की जिम्मेदारी से वह सदैव बचता रहता है। वह आंदोलन के उग्र और सर्वव्यापी होने पर ही उसमें सक्रिय हिस्सेदारी करता है। भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान इस वर्ग की उदासीनता से तो प्रेमचंद क्षुब्ध थे ही, साथ ही समाज में व्याप्त अंधविश्वास, प्रपंच, सामंती शोषण, वर्ग और वर्ण भेद के वीभत्स और कुत्सित रूप के प्रति भी इस वर्ग की उदासीनता एवं तटस्थता से भी वह नाखुश थे। प्रेमचंद का जन्म पराधीन भारत की पृष्ठभूमि में हुआ था जहाँ स्वयं उनको तथा उनके परिवार को अर्थाभाव की विकट स्थितियों से गुजरने के लिए विवश होना पड़ा था। वहीं धार्मिक और सामाजिक रूढ़िग्रस्तता ने जनमानस को विचारशून्य बना रखा था (यहाँ विचारशून्यता से तात्पर्य शोषण और असमानता की परिस्थियों के प्रति विरोध न करने से है)। इसी असहायता, यथास्थिति और असमानता की जनव्याप्ति की प्रतिक्रिया स्वरूप प्रेमचंद की विचारशील प्रकृति को इस व्यवस्था के विरोध की प्रेरणा प्राप्त हुई।

‘किसानों की बदहाल जिंदगी में बदलाव से ही मुल्क की सूरत बदलेगी। उनका आकलन है कि अंग्रेजी राज्य में गरीबों, मजदूरों और किसानों की दशा जितनी खराब है और होती जा रही है, उतना समाज के किसी अंग की नहीं। राष्ट्रीयता या स्वराज्य उनके लिए विशाल किसान जागरण का स्वप्न है, जिसके जरिये भेदभाव और शोषण से मुक्त समाज बनेगा।' उन्हीं के शब्दों में- हम जिस राष्ट्रीयता का स्वप्न देख रहे हैं, उसमें तो वर्णों की गंध तक नहीं होगी। वह हमारे श्रमिकों और किसानों का साम्राज्य होगा। प्रेमचंद ने अच्छी तरह समझ लिया था भारत में सबसे खराब हालत कृषकों और श्रमिकों की ही है। एक ओर ज़मींदारी शोषण है तो दूसरी ओर पूँजीपति, उद्योगपति हैं, बीच में सूदख़ोर महाजन हैं।

लेकिन यदि यहीं तक उन्होंने अपनी समझदारी का विकास किया होता तो शायद उनकी समझ और दृष्टि भारतीय समाज के चितेरे के रूप में अधूरी ही रहती। उन्होंने भारतीय जन-जीवन में सदियों से व्याप्त अमानवीय जाति प्रथा की ओर भी पूरा ध्यान दिया। इसलिए उनकी अनेक कहानियाँ वर्णव्यवस्था के अमानुषिक कार्यव्यापार का बड़ी स्पष्टता से खुलासा करती हैं। ठाकुर का कुआँ, सद्गपति, सवा सेर गेहूँ, गुल्ली डन्डा, कफन उनकी ऐसी प्रतिनिधि कहानियाँ हैं, इस सामाजिक विसंगति को पूरी ईमानदारी से उजागर करती हैं। ‘ठाकुर का कुआँ' में जोखू चमार को ज्वर का ताप अवश कर देता है।

वहीं चमार टोले में जो कुआँ है उसमें कोई जानवर गिर कर मर गया है। उस कुएँ का पानी पीना किसी तरह निरापद नहीं है। अत: पीने के लिए स्वच्छ पानी की आवश्यकता है। अब साफ पानी सिर्फ ठाकुर के कुएँ से ही मिल सकता है, लेकिन चमार वहाँ नहीं जा सकते। वर्णधर्म के अनुसार वे अश्पृश्य तो थे ही उनकी छाया तक अपवित्र मानी जाती थी। अत: जोखू की पत्नी को रात के अंधेरे में चुपके से पानी ले आने का दुस्साहस सँजोना पड़ता है। पर ठाकुर की आवाज मात्र से ही वह भयभीत हो जाती है और अपना बरतन कुएँ में ही छोड़ कर भाग खड़ी होती है। घर लौटकर देखती है कि जोखू वही गंदा पानी पी रहा है। एक तरफ घोर अमानुषिकता है तो दूसरी तरफ त्रासद निस्सहायता है। ऐसा जोखू के निर्धन होने के कारण नहीं वरना अछूत होने के कारण है क्योंकि एक निर्धन सवर्ण को उस ठाकुर के कुएँ से पानी भरने से वंचित तो नहीं ही किया जा सकता था और चाहे जितना अत्याचार या शोषण उसका किया जाता रहा हो।

‘सद्‍गति' कहानी में दुखी यों तो चमार जाति का है पर अपनी बेटी के ब्याह का शुभ मुहूर्त वह पंडित से निकलवाने पहुँच जाता है। बावजूद भूखे पेट होने के वह पंडित के आदेशानुसार श्रम करता है और अंतत: लकड़ी चीरता हुआ मर जाता है। उसकी लाश के साथ पंडित परिवार का व्यवहार क्रूरता की चरम स्थिति वाला होता है। वह उसे घिसटवा कर फिंकवा देता है। ‘सवा सेर गेहूँ' में पंडित सूदखोर है। शंकर आजन्म उस पंडित का सूद नहीं चुका पाता। ‘कफन' के घीसू और माधव भी दलित हैं और व्यवस्था के दुचक्र ने उन्हें जिस मोड़ पर पहुँचा दिया है वह भी अमानवीय ही है। ‘गुल्ली डन्डा' का गया भी अपनी स्थिति से बाहर निकल पाने में असमर्थ होता है।

‘गोदान' का होरी, महतो है और राय साहब, पंडित दातादीन और महाजन के शोषण का शिकार होता है। होरी के मर जाने पर गोदान के बहाने पंडित दातादीन होरी की पत्नी धनिया की जमा पूँजी ‘सवा रुपये' भी हड़प लेता है। यहाँ हम स्पष्ट रूप से देखते हैं कि एक ओर प्रेमचंद की कहानियों में अद्वितीय ‘पूस की रात', 'पंच परमेश्वर', ‘बड़े भाई साहब', ‘नमक का दरोगा' जैसी कहानियाँ हैं एवं ‘निर्मला', प्रेमाश्रम', ‘कायाकल्प' और ‘गबन' जैसे सामाजिक कुरीतियों और नारी शोषण पर आधारित उपन्यास हैं। वहीं ‘गोदान' में उनकी वर्णचेतना, वर्गचेतना तक विस्तृत होती है। ‘गबन' उपन्यास के अविस्मरणीय चरित्र देवीदीन खटीक, जिसके दो बेटे स्वाधीनता आंदोलन में शहीद हुए थे, को आनेवाले राज्य के शासक वर्ग और उसके हाकिम-हुक्कामों के बारे में तगड़ा संशय है- ‘अरे, तुम क्या देश का उद्धार करोगे । पहले अपना उद्धार कर लो, गरीबों को लूट कर विलायत का घर भरना तुम्हारा काम है... सच बताओ, तब तुम सुराज का नाम लेते हो, उसका कौन-सा रूप तुम्हारी आंखों के सामने आता है ? तुम भी बड़ी-बड़ी तलब लोगे, तुम भी अंगरेजों की तरह बंगलों में रहोगे, पहाड़ों की हवा खाओगे, अंगरेजी ठाठ बनाये घूमोगे । इस सुराज से देश का क्या कल्याण होगा ? तुम्हारी और तुम्हारे भाई-बंदों की जिंदगी भले आराम और ठाठ से गुजरे, पर देश का तो कोई भला न होगा... तुम दिन में पाँच बेर खाना चाहते हो और वह भी बढ़िया माल । गरीब किसान को एक जून सूखा चबेना भी नहीं मिलता । उसी का रक्त चूस कर तो सरकार तुम्हें हुद्दे देती है. तुम्हारा ध्यान कभी उनकी ओर जाता है ? अभी तुम्हारा राज नहीं है, तब तो तुम भोग-विलास पर इतना मरते हो, जब तुम्हारा राज हो जायेगा, तब तो गरीबों को पीस कर पी जाओगे ।'

सन 1933 में संयुक्त प्रान्त के गर्वनर मालकम हेली ने कहा था कि- ‘जहाँ तक भारत की मनोवृत्ति का हमें परिचय है, यह कहना युक्तिसंगत है कि वह आज से 50 वर्ष बाद भी अपने लिये कोई ऐसी व्यवस्था नहीं बना पाएगा, जो स्पष्ट रूप से बहुमत के लिये जवाबदेह हो।' प्रेमचन्द ने इसका कड़ा प्रतिवाद किया और लिखा कि- ‘जिनका सारा जीवन ही भारत की राष्ट्रीय आकांक्षाओं का दमन करते गुज़रा है, उनका यह कथन उचित नहीं प्रतीत होता।' प्रेमचंद के बाद जिन लोगों ने साहित्या को सामाजिक सरोकारों और प्रगतिशील मूल्यों के साथ आगे बढ़ाने का काम किया, उनके साथ प्रेमचंद की दी हुई विरासत और परंपरा ही काम कर रही थी। बाद की तमाम पीढ़ियों, जिसमें यशपाल से लेकर मुक्तिबोध तक शामिल हैं, को प्रेमचंद के रचना-कर्म ने दिशा प्रदान की।

- शैलेंद्र चौहान
संपर्क : 34/242, सेक्टर -3, प्रताप नगर, जयपुर - 302033 (राजस्थान)

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आज़ाद के अमर-वचन - भारत-दर्शन संकलन

"जिस राष्ट्र ने चरित्र खोया उसने सब कुछ खोया।"

-चंद्रशेखर आज़ाद

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"मैं जीवन की अंतिम सांस तक देश के लिए शत्रु से लड़ता रहूंगा।"

-चंद्रशेखर आज़ाद

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"गिरफ़्तार होकर अदालत में हाथ बांध बंदरिया का नाच मुझे नहीं नाचना है। आठ गोली पिस्तौल में हैं और आठ का दूसरा मैगजीन है। पन्द्रह दुश्मन पर चलाऊंगा और सोलहवीं यहाँ!" और आज़ाद अपनी पिस्तौल की नली अपनी कनपटी पर छुआ देते।
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कलाम ने कहा था - भारत-दर्शन संकलन

यहाँ पूर्व राष्ट्रपति डॉ० कलाम के अनमोल वचन संकलित किए गए हैं:

  • चलो हम अपना आज कुर्बान करते हैं जिससे हमारे बच्चों को बेहतर कल मिले।
  • इक्कीसवीं सदी में पूँजी या श्रम के बजाए ज्ञान प्राथमिक उत्पादन संसाधन है।
  • भगवान उसी की मदद करता है जो कड़ी मेहनत करते हैं। यह सिद्धान्त स्पष्ट होना चाहिए।
  • छात्रों को प्रश्न जरूर पूछना चाहिए. यह छात्र का सर्वोत्तम गुण है।
  • सपने सच हों इसके लिए सपने देखना जरूरी है।
  • अगर एक देश को भ्रष्टाचार मुक्त होना है तो मैं यह महसूस करता हूं कि हमारे समाज में तीन ऐसे लोग हैं जो ऐसा कर सकते हैं.. ये हैं पिता, माता और शिक्षक।
  • महान सपने देखने वालों के सपने हमेशा श्रेष्ठ होते हैं।
  • मनुष्य को मुश्किलों का सामना करना जरूरी है क्योंकि सफलता के लिए यह जरूरी है।
  • राष्ट्र किसी व्यक्ति, संगठन और दल की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण है।
  • जब हम बाधाओं का सामना करते हैं तो हम पाते हैं कि हमारे भीतर साहस और लचीलापन मौजूद है जिसकी हमें स्वयं जानकारी नहीं थी और यह तभी सामने आता है जब हम असफल होते हैं। जरूरत है कि हम इन्हें तलाशें और जीवन में सफल बनें।
  • युवाओं के लिए कलाम का विशेष संदेशः अलग ढंग से सोचने का साहस करो, आविष्कार का साहस करो, अज्ञात पथ पर चलने का साहस करो, असंभव को खोजने का साहस करो और समस्याओं को जीतो और सफल बनो.. ये वो महान गुण हैं जिनकी दिशा में तुम अवश्य काम करो।
  • जीवन के इतिहास में परचा भी खुद बनाना होता है, उत्तर भी खुद लिखने होते हैं। और यहाँ तक कि उन्हें जाँचना भी खुद होता है।
  • हमें हार नहीं माननी चाहिए और समस्याओं को हम पर हावी नहीं होने देना चाहिए।

 

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वि हि स में सुषमा स्वराज का संबोधन - भारत-दर्शन संकलन

सितम्बर 10, 2015

भारत के माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्‍द्र मोदीजी, मध्‍य प्रदेश के यशस्‍वी मुख्‍यमंत्री भाई शिवराज सिंह चौहानजी, मध्‍य प्रदेश के राज्‍यपाल आदरणीय श्री राम नरेश यादवजी, पश्चिम बंगाल के राज्‍यपाल आदरणीय श्री केशरीनाथ त्रिपाठीजी, गोआ की राज्‍यपाल आदरणीया बहन मृदुला सिन्‍हाजी, झारखण्‍ड के मुख्‍यमंत्री भाई रघुवर दासजी, केन्‍द्रीय मंत्रिमण्‍डल में मेरे दो वरिष्‍ठ सहयोगी भाई रविशंकर प्रसादजी और डॉ0 हषवर्द्धनजी, मॉरीशस से विशेष रूप से पधारी वहॉं की शिक्षा मंत्री बहन लीला देवी दुक्‍खनजी, हमारे गृह राज्‍य मंत्री श्री किरण रिजीजू जी और मेरे अपने राज्‍य के और मेरे अपने विभाग के राज्‍यमंत्री जनरल वी.के. सिंह जी, हमारे सम्‍मेलन की प्रबन्‍ध समिति के उपाध्‍यक्ष कुशल संगठक और अनुभवी आयोजक श्री अनिल माधव दवे जी, और मेरे अपने विभाग के सचिव श्री अनिल वर्माजी, इस सभागार में उपस्थित विद्वत्‍जन और हिन्‍दी प्रेमी बहनों और भाइयों, सबसे पहले तो मैं हृदय से प्रधानमंत्री जी का आभार व्‍यक्‍त करना चाहूँगी जिन्‍होंने यह सम्‍मेलन भोपाल में करने की सहमति दी और स्‍वयं पधारकर इसका शुभारम्‍भ करने की स्‍वीकृति दी।
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रानी केतकी की कहानी  - सैयद इंशा अल्ला खां

यह वह कहानी है कि जिसमें हिंदी छुट।
और न किसी बोली का मेल है न पुट॥

 

सिर झुकाकर नाक रगडता हूं उस अपने बनानेवाले के सामने जिसने हम सब को बनाया और बात में वह कर दिखाया कि जिसका भेद किसी ने न पाया। आतियां जातियां जो साँ सें हैं, उसके बिन ध्यान यह सब फाँ से हैं। यह कल का पुतला जो अपने उस खिलाडी की सुध रक्खे तो खटाई में क्यों पडे और कडवा कसैला क्यों हो। उस फल की मिठाई चक्खे जो बडे से बडे अगलों ने चक्खी है। देखने को दो आँखें दीं ओर सुनने को दो कान। नाक भी सब में ऊँची कर दी मरतों को जी दान।। मिट्टी के बसान को इतनी सकत कहाँ जो अपने कुम्हार के करतब कुछ ताड सके। सच हे, जो बनाया हुआ हो, सो अपने बनाने वाले को क्या सराहे और क्या कहें। यों जिसका जी चाहे, पडा बके। सिर से लगा पांव तक जितने रोंगटे हैं, जो सबके सब बोल उठें और सराहा करें और उतने बरसों उसी ध्यान में रहें जितनी सारी नदियों में रेत और फूल फलियां खेत में हैं, तो भी कुछ न हो सके, कराहा करें। इस सिर झुकाने के साथ ही दिन रात जपता हूं उस अपने दाता के भेजे हुए प्यारे को जिसके लिए यों कहा है- जो तू न होता तो मैं कुछ न बनाता; और उसका चचेरा भाई जिसका ब्याह उसके घर हुआ, उसकी सुरत मुझे लगी रहती है। मैं फूला अपने आप में नहीं समाता, और जितने उनके लडके वाले हैं, उन्हीं को मेरे जी में चाह है। और कोई कुछ हो, मुझे नहीं भाता। मुझको उम्र घराने छूट किसी चोर ठग से क्या पडी! जीते और मरते आसरा उन्हीं सभों का और उनके घराने का रखता हूं तीसों घडी। डौल डाल एक अनोखी बात का एक दिन बैठे-बैठे यह बात अपने ध्यान में चढी कि कोई कहानी ऐसी कहिए कि जिसमें हिंदणी छुट और किसी बोली का पुट न मिले, तब जाके मेरा जी फूल की कली के रूप में खिले। बाहर की बोली और गँवारी कुछ उसके बीच में न हो। अपने मिलने वालों में से एक कोई पढे-लिखे, पुराने-धुराने, डाँग, बूढे धाग यह खटराग लाए। सिर हिलाकर, मुंह थुथाकर, नाक भी चढाकर आंखें फिराकर लगे कहने - यह बात होते दिखाई नहीं देती। हिंदणीपन भी निकले और भाखापन भी न हो। बस जैसे भले लोग अच्छे आपस में बोलते चालते हैं, ज्यों का त्यों वही सब डौल रहे और छाँह किसी की न हो, यह नहीं होने का। मैंने उनकी ठंडी साँस का टहोका खाकर झुंझलाकर कहा - मैं कुछ ऐसा बढ-बोला नहीं जो राई को परबत कर दिखाऊं, जो मुझ से न हो सकता तो यह बात मुँह से क्यों निकलता? जिस ढब से होता, इस बखेडे को टालता। इस कहानी का कहने वाला यहाँ आपको जताता है और जैसा कुछ उसे लोग पुकारते हैं, कह सुनाता है। दहना हाथ मुँह फेरकर आपको जताता हूँ, जो मेरे दाता ने चाहा तो यह ताव-भाव, राव-चाव और कूंद-फाँद, लपट झपट दिखाऊँ जो देखते ही आपके ध्यान का घोडा, जो बिजली से भी बहुत चंचल अल्हडपन में है, हिरन के रूप में अपनी चौकडी भूल जाए। टुक घोडे पर चढ के अपने आता हूं मैं। करतब जो कुछ है, कर दिखाता हूं मैं॥ उस चाहने वाले ने जो चाहा तो अभी। कहता जो कुछ हूं। कर दिखाता हूं मैं॥ अब आप कान रख के, आँखें मिला के, सन्मुख होके टुक इधर देखिए, किस ढंग से बढ चलता हूं और अपने फूल के पंखडी जैसे होंठों से किस-किस रूप के फूल उगलता हूँ। कहानी के जीवन का उभार और बोलचाल की दुलहिन का सिंगार किसी देश में किसी राजा के घर एक बेटा था। उसे उसके माँ-बाप और सब घर के लोग कुंवर उदैभान करके पुकारते थे। सचमुच उसके जीवन की जोत में सूरज की एक स्त्रोत आ मिली थी। उसका अच्छापन और भला लगना कुछ ऐसा न था जो किसी के लिखने और कहने में आ सके। पंद्रह बरस भरके उसने सोलहवें में पाँव रक्खा था। कुछ यों ही सीमसें भीनती चली थीं। पर किसी बात के सोच का घर-घाट न पाया था और चाह की नदी का पाट उसने देखा न था। एक दिन हरियाली देखने को अपने घोडे पर चढ के अठखेल और अल्हड पन के साथ देखता भालता चला जाता था। इतने में जो एक हिरनी उसके सामने आई, तो उसका जी लोट पोट हुआ। उस हिरनी के पीछे सब छोड छाडकर घोडा फेंका। कोई घोडा उसको पा सकता था? जब सूरज छिप गया और हिरनी आँखों से ओझल हुई, तब तो कुंवर उदैभान भूखा, प्यासा, उनींदा, जै भाइयाँ, अँगडाइयाँ लेता, हक्का बक्का होके लगा आसरा ढूंढने। इतने में कुछ एक अमराइयां देख पडी, तो उधर चल निकला; तो देखता है वो चालीस-पचास रंडियां एक से एकजोबन में अगली झूला डाले पडी झूल रही हैं और सावन गातियां हैं। ज्यों ही उन्होंने उसको देखा - तू कौन? तू कौन? की चिंघाड सी पड गई। उन सभी में एक के साथ उसकी आँख लग गई।

 

कोई कहती थी यह उचक्का है। कोई कहती थी एक पक्का है। वही झूले वाली लाल जोडा पहने हुए, जिसको सब रानी केतकी कहते थीं, उसके भी जी में उसकी चाह ने घर किया। पर कहने-सुनने की बहुत सी नांह-नूह की और कहा - इस लग चलने को भला क्या कहते हैं! हक न धक, जो तुम झट से टहक पडे। यह न जाना, यह रंडियां अपने झूल रही हैं। अजी तुम तो इस रूप के साथ इस रव बेधडक चले आए हो, ठंडे ठंडे चले जाओ। तब कुंवर ने मसोस के मलीला खाके कहा - इतनी रुखाइयां न कीजिए। मैं सारे दिन का थका हुआ एक पेड की छांह में ओसका बचाव करके पडा रहूंगा। बडे तडके धुंधलके में उठकर जिधर को मुंह पडेगा चला जाऊंगा। कुछ किसी का लेता देता नहीं। एक हिरनी के पीछे सब लोगों को छोड छाड कर घोडा फेंका था। कोई घोडा उसको पा सकता था? जब तलक उजाला रहा उसके ध्यान में था। जब अंधेरा छा गया और जी बहुत घबरा गया, इन अमराइयों का आसरा ढूंढ कर यहां चला आया हूं। कुछ रोकटोक तो इतनी न थी जो माथा ठनक जाता और रुका रहता। सिर उठाए हां पता चला आया। क्या जानता था - वहां पदिमिनियां पडी झूलती पेंगे चढा रही हैं। पर यों बढी थी, बरसों मैं भी झूल करूंगा। यह बात सुनकर वह जो लाल जोडे वाली सबकी सिरधरी थी, उसने कहा - हाँ जी, बोलियां ठोलियां न मारो और इनको कह दो जहां जी चाहे, अपने पडे रहें, ओर जो कुछ खानेको मांगें, इन्हें पहुंचा दो। घर आए को आज तक किसी ने मार नहीं डाला। इनके मुंहका डौल, गाल तमतमाए और होंठ पपडाए, और घोडे का हांफना, ओर जी का कांपना और ठंडी सांसें भरना, और निढाल हो गिरे पडना इनको सच्चा करता है। बात बनाई हुई और सचौटी की कोई छिपती नहीं। पर हमारे इनके बीच कुछ ओट कपडे लत्ते की कर दो। इतना आसरा पाके सबसे परे जो कोने में पांच सात पौदे थे, उनकी छांव में कुंवर उदैभान ने अपना बिछौना किया और कुछ सिरहाने धरकर चाहता था कि सो रहें, पर नींद कोई चाहत की लगावट में आती थी? पडा पडा अपने जी से बातें कर रहा था। जब रात सांय-सांय बोलने लगी और साथ वालियां सब सो रहीं, रानी केतकी ने अपनी सहेली मदनबान को जगाकर यों कहा - अरी ओ! तूने कुछ सुना है? मेरा जी उस पर आ गया है; और किसी डौल से थम नहीं सकता। तू सब मेरे भेदों को जानती है। अब होनी जो हो सो हो; सिर रहता रहे, जाता जाय। मैं उसके पास जाती हूं। तू मेरे साथ चल। पर तेरे पांवों पडती हूं कोई सुनने न पाए। अरी यह मेरा जोडा मेरे और उसके बनाने वाले ने मिला दिया। मैं इसी जी में इस अमराइयों में आई थी। रानी केतकी मदनबान का हाथ पकडे हुए वहां आन पहुंची, जहां कुंवर उदैभान लेटे हुए कुछ-कुछ सोच में बड-बडा रहे थे। मदनबान आगे बढके कहने लगी - तुम्हें अकेला जानकर रानी जी आप आई हैं। कुंवर उदैभान यह सुनकर उठ बैठे और यह कहा - क्यों न हो, जी को जी से मिलाप है? कुंवर और रानी दोनों चुपचाप बैठे; पर मदनबान दोनों को गुदगुदा रही थी। होते होते रानी का वह पता खुला कि राजा जगतपरकास की बेटी है और उनकी मां रानी कामलता कहलाती है। उनको उनके मां बाप ने कह दिया है - एक महीने अमराइयों में जाकर झूल आया करो। आज वहीं दिन था; सो तुमसे मुठभेड हो गई। बहुत महाराजों के कुंवरों से बातें आई, पर किसी पर इनका ध्यान न चढा। तुम्हारे धन भाग जो तुम्हारे पास सबसे छुपके, मैं जो उनके लडकपन की गोइयां हूं। मुझे अपने साथ लेके आई है। अब तुम अपनी बीती कहानी कहो - तुम किस देस के कौन हो। उन्होंने कहा - मेरा बाप राजा सूरजभान और मां रानी लक्ष्मीबास हैं। आपस में जो गठजोड हो जाय तो कुछ अनोखी, अचरज और अचंभे की बात नहीं। यों ही आगे से होता चला आया है। जैसा मुँह वैसा थप्पड। जोड तोड टटोल लेते हैं। दोनों महाराजों को यह चितचाही बात अच्छी लगेगी, पर हम तुम दोनों के जी का गठजोड चाहिए। इसी में मदनबान बोल उठी - सो तो हुआ। अपनी अपनी अंगूठियां हेरफेर कर लो और आपस में लिखौती लिख दो। फिर कुछ हिचर-मिचर न रहे। कुंवर उदैभान ने अपनी अंगूठी रानी केतकी को पहना दी और रानी ने भी अपनी अंगूठी कुंवर की उंगली में डाल दी और एक धीमी सी चुटकी भी ले ली। इसमें मदनबाल बोली जो सच पूछा तो इतनी भी बहुत हुई। मेरे सिर चोट है। इतना बढ चलना अच्छा नहीं। अब उठ चलो और इनको सोने दो; और रोएं तो पडे रोने दो। बातचीत तो ठीक हो चुकी। पिछले पहर से रानी तो अपनी सहेलियों को लेके जिधर से आई थी, उधर को चली गई और कुंवर उदैभान अपने घोडे की पीठ लगाकर अपने लोगों से मिलके अपने घर पहुँचे।

 

कुंवर ने चुपके से यह कहला भेजा - अब मेरा कलेजा टुकडे-टुकडे हुए जाता है। दोनों महाराजाओं को आपस में लडने दो। किसी डौल से जो हो सके, तो मुझे अपने पास बुला लो। हम तुम मिलके किसी और देस निकल चलें; होनी हो सो हो, सिर रहता रहे, जाता जाय। एक मालिन, जिसको फूलकली कर सब पुकारते थे, उसने उस कुंवर की चिट्ठी किसी फूल की पंखडी में लपेट लपेट कर रानी केतकी तक पहुंचा दी। रानी ने उस चिट्ठी को अपनी आंखों से लगाया और मालिन को एक थाल भरके मोती दिए; और उस चिट्ठी की पीठ पर अपने मुंह की पीक से यह लिखा -ऐ मेरे जी के ग्राहक, जो तू मुझे बोटी बोटी कर चील-कौवों को दे डाले, तो भी मेरी आंखों चैन और कलेजे सुख हो। पर यह बात भाग चलने की अच्छी नहीं।

 

इसमें एक बाप-दादे के चिट लग जाती है; अब जब तक मां बाप जैसा कुछ होता चला आता है उसी डोल से बेटे-बेटी को किसी पर पटक न मारें और सिर से किसी के चेपक न दें, तब तक यह एक जो तो क्या, जो करोड जी जाते रहें तो कोई बात हैं रुचती नहीं। यह चिट्ठी जो बिस भरी कुंवर तक जा पहुंची, उस पर कई एक थाल सोने के हीरे, मोती, पुखराज के खचाखच भरे हुए निछावर करके लुटा देता है। और जितनी उसे बेचैनी थी, उससे चौगुनी पचगुनी हो जाती है और उस चिट्ठी को अपने उस गोरे डंड पर बांध लेता है। आना जोगी महेंदर गिर का कैलास पहाड पर से और कुंवर उदैभान और उसके मां-बाप को हिरनी हिरन कर डालना जगतपरकास अपने गुरू को जो कैलाश पहाड पर रहता था, लिख भेजता है- कुछ हमारी सहाय कीजिए। महाकठिन बिपताभार हम पर आ पडी है। राजा सूरजभान को अब यहां तक वाव बॅ हक ने लिया है, जो उन्होंने हम से महाराजों से डौल किया है। सराहना जोगी जी के स्थान का कैलास पहाड जो एक डौल चाँदी का है, उस पर राजा जगतपरकास का गुरू, जिसको महेंदर गिर सब इंदरलोक के लाग कहते थे, ध्यान ज्ञान में कोई 90 लाख अतीतों के साथ ठाकुर के भजन में दिन रात लगा रहता था। सोना, रूपा, तां बे, रॉगे का बनाना तो क्या और गुटका मुंह में लेकर उड ना परे रहे, उसको और बातें इस इस ढब की ध्यान में थीं जो कहने सुनने से बाहर हैं। मेंह सोने रूपे का बरसा देना और जिस रूप में चाहना हो जाना, सब कुछ उसके आगे खेल था। गाने बजाने में महादेव जी छूट सब उसके आगे कान पकडते थे। सरस्वती जिसकी सब लोग कहते थे, उनने भी कुछ कुछ गुनगुनाना उसी से सीखा था। उसके सामने छ: राग छत्तीस रागिनियां आठ पहर रूप बंदियों का सा धरे हुए उसकी सेवा में सदा हाथ जोडे खडी रहती थीं। और वहां अतीतों को गिर कहकर पुकारते थे-भैरोगिर, विभासगिर, हिंडोलगिर, मेघनाथ, केदारनाथ, दीपकसेन, जोतिसरूप सारंगरूप। और अतीतिनें उस ढब से कहलाती थीं-गुजरी, टोडी, असावरी, गौरी, मालसिरी, बिलावली। जब चाहता, अधर में सिधासन पर बैठकर उडाए फिरता था और नब्बे लाख अतीत गुटके अपने मुंह में लिए, गेरूए वस्तर पहने, जटा बिखेरे उसके साथ होते थे। जिस घडी रानी केतकी के बाप की चिट्ठी एक बगला उसके घर पहुंचा देता है, गुरु महेंदर गिर एक चिग्घाड मारकर दल बादलों को ढलका देता है। बघंबर पर बैठे भभूत अपने मुंह से मल कुछ कुछ पढंत करता हुआ बाण घोडे भी पीठ लगा और सब अतीत मृगछालों पर बैठे हुए गुटके मुंह में लिए हुए बोल उठे - गोरख जागा और मुंछदर जागाऔर मुंछदर भागा। एक आंख की झपक में वहां आ पहुंचता है जहां दोनों महाराजों में लडाई हो रही थी। पहले तो एक काली आंधी आई; फिर ओले बरसे; फिर टिड्डी आई। किसी को अपनी सुध न रही। राजा सूरजभान के जितने हाथी घोडे और जितने लोग और भीडभाड थी, कुछ न समझा कि क्या किधर गई और उन्हें कौन उठा ले गया। राजा जगत परकास के लोगों पर और रानी केतकी के लोगों पर क्योडे की बूंदों की नन्हीं-नन्हीं फुहार सी पडने लगी। जब यह सब कुछ हो चुका, तो गुरुजी ने अतीतियों से कहा - उदैभान, सूरजभान, लछमीबास इन तीनों को हिरनी हिरन बना के किसी बन में छोड दो; और जो उनके साथी हों, उन सभों को तोड फोड दो। जैसा गुरुजी ने कहा, झटपट वही किया। विपत का मारा कुंवर उदैभान और उसका बाप वह राजा सूरजभान और उनकी मां लछमीबास हिरन हिरनी बन गए। हरी घास कई बरस तक चरते रहे; और उस भीड भाड का तो कुछ थल बेडा न मिला, किधर गए और कहां थे बस यहां की यहीं रहने दो। फिर सुनो। अब रानी केतकी के बाप महाराजा जगतपरकास की सुनिए। उनके घर का घर गुरु जी के पांव पर गिरा और सबने सिर झुकाकर कहा - महाराज, यह आपने बडा काम किया। हम सबको रख लिया। जो आप न पहुंचते तो क्या रहा था। सबने मर मिटने की ठान ली थी।

 

महाराज ने कहा - भभूत तो क्या, मुझे अपना जी भी उससे प्यारा नहीं। मुझे उसके एक पहर के बहल जाने पर एक जी तो क्या जो करोर जी हों तो दे डालें। रानी केतकी को डिबिया में से थोडा सा भभूत दिया। कई दिन तलक भी आंख मिचौवल अपने माँ-बाप के सामने सहेलियों के साथ खेलती सबको हँसाती रही, जो सौ सौ थाल मोतियों के निछावर हुआ किए, क्या कहूँ, एक चुहल थी जो कहिए तो करोडों पोथियों में ज्यों की त्यों न आ सके। रानी केतकी का चाहत से बेकल होना और मदन बान का साथ देने से नहीं करना। एक रात रानी केतकी उसी ध्यान में मदनबान से यों बोल उठी-अब मैं निगोडी लाज से कुट करती हूँ, तू मेरा साथ दे। मदनबान ने कहा-क्यों कर? रानी केतकी ने वह भभूत का लेना उसे बताया और यह सुनाया यह सब आँख-मिचौवल के झाई झप्पे मैंने इसी दिन के लिये कर रखे थे। मदनबान बोली-मेरा कलेजा थरथराने लगा। अरी यह माना जो तुम अपनी आँखों में उस भभूत का अंजन कर लोगी और मेरे भी लगा दोगी तो हमें तुम्हें कोई न देखेगा। और हम तुम सबको देखेंगी। पर ऐसी हम कहाँ जी चली हैं। जो बिन साथ, जोबन लिए, बन-बन में पडी भटका करें और हिरनों की सींगों पर दोनों हाथ डालकर लटका करें, और जिसके लिए यह सब कुछ है, सो वह कहाँ? और होय तो क्या जाने जो यह रानी केतकी है और यह मदनबान निगोडी नोची खसोटी उजडी उनकी सहेली है। चूल्हे और भाड में जाय यह चाहत जिसके लिए आपकी माँ-बाप को राज-पाट सुख नींद लाज छोड कर नदियों के कछारों में फिरना पडे, सो भी बेडौल। जो वह अपने रूप में होते तो भला थोडा बहुत आसरा था। ना जी यह तो हमसे न हो सकेगा। जो महाराज जगतपरकास और महारानी कामलता का हम जान-बूझकर घर उजाडें और इनकी जो इकलौती लाडली बेटी है, उसको भगा ले जायें और जहाँ तहाँ उसे भटकावें और बनासपत्ति खिलावें और अपने घोडें को हिलावें। जब तुम्हारे और उसके माँ बाप में लडाई हो रही थी और उनने उस मालिन के हाथ तुम्हें लिख भेजा था जो मुझे अपने पास बुला लो, महाराजों को आपस में लडने दो, जो होनी हो सो हो; हम तुम मिलके किसी देश को निकल चलें; उस दिन समझीं। तब तो वह ताव भाव दिखाया। अब जो वह कुँवर उदैभान और उसके माँ-बाप तीनों जी हिरनी हिरन बन गए। क्या जाने किधर होंगे। उनके ध्यान पर इतनी कर बैठिए जो किसी ने तुम्हारे घराने में न की, अच्छी नहीं। इस बात पर पानी डाल दो; नहीं तो बहुत पछताओगी और अपना किया पाओगी। मुझसे कुछ न हो सकेगा। तुम्हारी जो कुछ अच्छी बात होती, तो मेरे मुँह से जीते जी न निकलता। पर यह बात मेरे पेट में नहीं पच सकती। तुम अभी अल्हड हो। तुमने अभी कुछ देखा नहीं। जो ऐसी बात पर सचमुच ढलाव देखूँगी तो तुम्हारे बाप से कहकर यह भभूत जो बह गया निगोडा भूत मुछंदर का पूत अवधूत दे गया है, हाथ मुरकवाकर छिनवा लूँगी। रानी केतकी ने यह रूखाइयाँ मदनबान की सुन हँ सकर टाल दिया और कहा-जिसका जी हाथ में न हो, उसे ऐसी लाखों सूझती है; पर कहने और करने में बहुत सा फेर है। भला यह कोई अँधेर है जो माँ बाप, रावपाट, लाज छोड कर हिरन के पीछे दौडती करछालें मारती फिरूँ। पर अरी ते तो बडी बावली चिडिया है जो यह बात सच जानी और मुझसे लडने लगी। रानी केतकी का भभूत लगाकर बाहर निकल जाना और सब छोटे बडों का तिलमिलाना दस पन्द्रह दिन पीछे एक दिन रानी केतकी बिन कहे मदनबान के वह भभूत आँखों में लगा के घर से बाहर निकल गई। कुछ कहने में आता नहीं, जो मां-बाप पर हुई। सबने यह बात ठहराई, गुरूजी ने कुछ समझकर रानी केतकी को अपने पास बुला लिया होगा। महाराज जगतपरकास और महारानी कामलता राजपाट उस वियोग में छोड छाड के पहाड की चोटी पर जा बैठे और किसी को अपने आँखों में से राज थामने को छोड गए। बहुत दिनों पीछे एक दिन महारानी ने महाराज जगतपरकास से कहा-रानी केतकी का कुछ भेद जानती होगी तो मदनबान जानती होगी। उसे बुलाकर तो पूँछो। महाराज ने उसे बुलाकर पूछा तो मदनबान ने सब बातें खोलियाँ। रानी केतकी के माँ बाप ने कहा-अरी मदनबान, जो तू भी उसके साथ होती तो हमारा जी भरता। अब तो वह तुझे ले जाये तो कुछ हचर पचर न कीजियो, उसको साथ ही लीजियो। जितना भभूत है, तू अपने पास रख। हम कहाँ इस राख को चूल्हें में डालेंगे। गुरूजी ने तो दोनों राज का खोज खोया-कुँवर उदैभान और उसके माँ-बाप दोनों अलग हो रहे। जगतपरकास और कामलता को यों तलपट किया। भभूत न होत तो ये बातें काहे को सामने आती। मदनबान भी उनके ढूँढने को निकली। अंजन लगाए हुए रानी केतकी रानी केतकी कहती हुई पडी फिरती थी।

......

 
 
विनोद कुमार दवे के हाइकु - विनोद कुमार दवे

1.
जिंदगी चाक......

 
 
मैं सम्पादक - रामशरण शर्मा

मैं--सम्पादक!

जी हाँ, मैं भी 'भूतपूर्व सम्पादक! हूँ ! यह तो ठीक है कि मेरे अख़बार का एक ही अंक निकला था....। लीजिए, तमाम बात बतलाए ही देता हूँ

मेरे एक दोस्त थे; नाम--समझ लीजिए 'शूशू बाबू'। आप समझ गए होंगे, कि नाम असली नहीं है।

हाँ, तो एक दिन में क़लम-काग़ज़ लिए झक मार रहा था, कि आ पहुँचे। मैंने देखते ही काग़ज़ खिसका दिया ।

शूशू बाबू में एक विशेषता थी। वह सदा नई से नई स्कीम बना कर लाते थे रुपया कमाने की; बिल्कुल पक्की स्कीम! सो उस दिन भी वह आकर दन से मेज़ पर बैठ गए।

मैंने कहा--“भई, मेज़...।”

"ऊँह”-- उन्होंने कई बार मेज़ को चरचरा कर कहा-- जाने भी दो। अगर तुम मेरी बात मानो, तो हज़ार रुपए की मेज़ पर बैठ सकते हो!

“मेज़ पर बैठ सकता हूँ !”

“यानी मेज़ तुम्हारे आगे आ सकती है!” मैं सब बात चुपचाप सुनता गया लाचारी थी। स्कीम थी एक अख़बार निकालने की!

शूशू ने कहा--“यह क्या दुनिया-भर के लिए तुम लिखा करते हो! मज़ा तो तब है, जब लोग तुम्हारे लिए लिखें!”

मुझे ध्यान आया उन छोटी-छोटी छुपी स्लिपों का, जिन्हें बिलकुल बेतकल्लुफ़ी से सम्पादक लोग मेरे लेखों के साथ लगा कर वापिस भेज देते थे। किसी में वह अपनी असमर्थता पर
अफ़सोस ज़ाहिर करते थे, ओर किसी में जगह की कमी का रोना रोते थे। समझ में नहीं आता कि ऐसे नालायक़ लोग-- जिन्हें इस प्रकार की चिट्ठियाँ छाप कर रखनी पड़ें--क्यों ......

 
 
जीवन का एक सुखी दिन  - श्रीलाल शुक्ल

जीवन का एक सुखी दिन लगभग पैंतालीस साल पुरानी रचना है। उस दिन के सुखों में एक ऐसा ही सुख है जिसमें बस कंडक्टर एक रुपए का नोट लेकर पूरी की पूरी रेजगारी वापस कर देता है और टिकट की पुश्त पर ‘इकन्नी' का बकाया नहीं लिखता। जाहिर है कि यह रचना उन दिनों की है जब ‘इकन्नी' भी आदान-प्रदान में एक महत्वपूर्ण सिक्के की भूमिका निभाती थी।

संपादक महोदय ने मुझसे प्रत्याशा की है कि पुनःप्रकाशन के लिए अपनी किसी श्रेष्ठ रचना का चयन कर दूं। मेरी श्रेष्ठ रचनाएं बहुत कम हैं और जो होंगी भी उन पर भरोसा नहीं है। उन्हें दूसरे लोग ही जानते होंगे, मैं उतना विश्वासपूर्वक नहीं। फिर भी, यह रचना चुनने के कुछ कारण हैं। एक तो यही कि यह लंबी नहीं है और पाठक के लिए इसे पढ़ते हुए अधिक समय नष्ट नहीं करना पड़ेगा। दूसरा कारण यह है कि यह रचना मुझे पसंद है। मेरी अपेक्षाकृत कम खराब रचनाओं में से है। तीसरी बात यह है कि अनजाने ही सहज उक्तियों के सहारे सीधी-सादी भाषा में एक मध्यमवर्गीय व्यक्ति का इसमें जो चरित्र उभरता है वह दिखावट, दम्भ, अपने को अनावश्यक रूप से चतुर मानने की प्रवृत्ति और जीवन की छोटी-छोटी झुंझलाहटों को भुलाकर शहीद बनने की टिपिकल स्थिति है जो मध्यवर्गीय चरित्र की अपनी विशेषता है। यह भी लक्ष्य किए जाने योग्य है कि यह रचना भारत एक बाजारवाद के विकास के बहुत पहले की है और मध्यवर्गीय चरित्र के प्रति जो संकेत दिए गए हैं वही आज अपने विराट स्वरूप में विकसित हो रहे हैं।

रचना का अंत एक स्वल्प बुद्धिजीवी की उस अपरिहार्य परिस्थिति से होता है जिसका कि नाम पागलपन है। फर्क यह है कि यहां हमारा मुख्य पात्र खुद पलायन नहीं करता बल्कि उस उत्सवभाव का आनंद उठाता है कि उसके दूसरे मित्र अगले दिन उसे अकेला छोड़कर पिकनिक पर जाने वाले हैं।

यह तो सरसरी तौर पर मेरी अपनी प्रतिक्रियाएं हैं। पाठक अगर चाहें तो इस रचना में इस तरह की कई और बहुत सी खूबियां खोज सकते हैं। और, अंत में यह निष्कर्ष तो स्पष्ट है ही कि इन सब छोटी-छोटी कृपाओं के लिए ईश्वर को धन्यवाद - गॉड मे बी थैंक फॉर स्माल मर्सीज़।

सवेरे नहा-धोकर मैंने लांड्री से धुलकर आई हुई कमीज और पतलून पहनने को निकाली और ताज्जुब के साथ देखा, उनका कोई भी बटन टूटा नहीं है। तभी एक कोने में रखे हुए जूतों पर निगाह पड़ी, पुरानी आदत के मुताबिक आज के दिन नौकर ने उन पर काली पॉलिश लालवाले ब्रुश से नहीं की थी। जूते पर सही ब्रुश का प्रयोग हुआ था। मन-ही-मन मैंने कहा, यह मेरे जीवन का एक सुखी दिन होगा।

कॉलेज जाने के लिए बस पर चढ़ा और एक रुपए का नोट कंडक्टर के हाथ में दे दिया। जितनी रेजगारी मिलनी थी, उसने वह पूरी-की-पूरी वापस कर दी। टिकट की पुश्त पर इकन्नी का प्रोनोट नहीं लिखा। सीट पर मेरी बगल में कोई महिला नहीं बैठी थी, इसलिए फिल्मी रोमांस की कमज़ोरी से फुर्सत पाकर मैं आराम से पैर फैलाकर बैठ गया। मेरे पड़ोस में एक साहब आज का अखबार पढ़ रहे थे। मुझे उसकी ओर ताकता हुआ पाकर उन्होंने उपरवाला पन्ना मेरी ओर बढ़ा दिया। अखबार में मैंने देखा, न उस दिन किसी विदेशी ने हिन्दुस्तान को तरक्की की सनद दी थी, न प्रधानमंत्री की कोई स्पीच ही आई थी। अब मैं इत्मीनान से बिना ऊबे हुए अखबार पढ़ने लगा।

रेलवे-क्रॉसिंग पर रेलवे के प्वाइंटमैन ने बस को आता हुआ देखकर भी फाटक खुला रहने दिया। बस बिना रुके हुए ऐसी आसानी से फाटक पार कर गई मानो ऐसा रोज ही हुआ करता हो। कॉलेज के पास बस के रुकते ही मैं बिना किसी को धकेले, बिना किसी के घुटनों से टकराए, बिना ‘थैंक्यू' और ‘सॉरी' कहे नीचे उतर आया। स्टैंड पर एक चाटवाला मुझे मिला तो जरूर, पर उसने न तो मेरी ओर देखा ही और न मुझे पुसलाने वाली आवाज़ में गरमागरम चाट की आवाज़ ही लगाई।

दिनभर कॉलेज में बड़ा सुख रहा। लड़कों को यूरोप-यात्रा पर एक सीधा-सादा लेख पढ़ाया। दूसरे दर्जे में सदाचार की महिमा समझाई। न तो उन्हें कोई प्रेम-गीत ही पढ़ाना पड़ा, न किसी हास्य-व्यंग्यपूर्ण उक्ति का अर्थ समझाना पड़ा। खाली घंटे में मेरी कोई भी छात्रा अपनी किसी भाव-प्रधान कहानी या कविता में संशोधन कराने नहीं आई। किसी चापलूस छात्रों ने मेरी किसी असफल रचना की प्रशंसा नहीं की। किसी लेक्चरार ने विद्यार्थियों के सामने मुझे ‘अमां यार' कहकर नहीं पुकारा। मेरे एक प्रतिद्वंद्वी लेक्चरार के कमरे में कुछ विद्यार्थी क्रांति के नारे लगाते बाहर निकल आए। स्टापफ-रूम में प्रिंसिपल के बारे में खूब गंदे-गंदे किस्से, बिना अपनी ओर से कुछ कहे ही, फोकट में सुनने को मिल गए।

शाम को घर वापस आने के पहले एक मित्र एक बड़े रेस्तरां में चाय पिलाने ले गए, पर बातें उन्होंने मुझे ही करने दीं। खुद ज्यादातर चुप रहे। रेस्तरां के सामने रिक्शेवाले को पैसे देने के लिए मैंने अपनी जेबें टटोलीं, मेरी जेब से दस रुपए का नोट निकला, पर मित्र की जेब से पहले ही एक अठन्नी निकल आई। रेस्तरां के भीतर भी मुझे कोई उलझन नहीं हुई। वेटर का हुलिया बड़े लंबे-चौड़े रोबदार बुजुर्ग का न था। वह दुबला-पतला था और नौसिखिया-सा दिखता था। पड़ोस की मेजों पर न कुछ मसखरे नौजवान थे, न फैशनेबल लड़कियां थीं, न हंसी के ठहाके थे, न कोई मुझे घूर रहा था, न कोई मेरे बारे में कानाफूसी कर रहा था। रेस्तरां में भीड़ न थी पर इतने लोग थे कि काउंटर के पीछे से मैनेजर सिर्फ हमीं को नहीं, औरों को भी देख रहा था। हमारे चलने के पहले पास की मेज पर दो गंभीर चेहरे वाले आदमी आ गए और जब मैंने आपसी बातचीत में ‘एक्ज़िस्टेंशिएलिज्म' का अनावश्यक जिक्र किया, तब उन लोगों ने निगाह उठाकर मेरी ओर देखा था। रेस्तरां के बाहर आने पर मेरा एक परिचित बीमा-एजेंट सड़क के दूसरी ओर जाता हुआ दीख पड़ा, पर उसने मुझे देखा नहीं। इसके बाद अचानक ही मुझे तीन परिचित आदमी मिल गए। उन्होंने नमस्कार किया और उसका जवाब पाया। मेरे मित्र को कोई परिचित आदमी नहीं मिला।

घर वापस आकर मैंने श्रीमती जी से सिनेमा चलने का प्रस्ताव किया पर उन्होंने क्षमा मांगी और कहा कि उन्हें लेडीज़ क्लब जाना है। इसलिए मैं पूर्व निश्चय के अनुसार अपने एक मित्र के साथ सिनेमा देखने चला गया। सिनेमा का टिकट खिड़की पर ही मिला और असली कीमत पर मिला। पंखे के नीचे सीट मिल गई। सिनेमा शुरू होने के पहले साबुन, तेल और वनस्पति घी के विज्ञापनवाली फिल्में नहीं दिखाई गईं। पास की सीट से किसी ने सिगरेट के धुएं की फूंक मेरे मुंह पर नहीं मारी। पीछे बैठनेवालों में किसी ने अपने पैर मेरी सीट पर नहीं टेके। अंधेरे में किसी ने मेरा अंगूठा नहीं कुचला। हीरो की मुसीबत पर किसी पड़ोसी ने सिसकारी नहीं भरी। हिंदी की फिल्म थी, फिर भी वह अठारह रील पूरी करने के पहले ही खत्म हो गई। सिनेमा से बाहर आने पर कई रिक्शेवालों ने मिलकर मुझ पर हमला नहीं किया। रिक्शा करने पर मजबूर हुए बिना ही मैं पैदल वापस लौट आया। रात में सुनसान सड़क पर मेरे पैदल चलने पर भी कोई साइकिलवाला मुझसे नहीं टकराया, किसी मोटरवाले ने मुझे गाली नहीं दी, किसी पुलिसवाले ने मेरा चालान नहीं किया।

घर आकर खाना खाने बैठा तो उस वक़्त रुपए की कमी पर कोई घरेलू बातचीत नहीं हुई। नौकर पर गुस्सा नहीं आया। बातचीत के दौरान मैं श्रीमतीजी से साहित्य-चर्चा करता रहा, यानी अपने साथ के साहित्यकारों को कोसता रहा। वे दिलचस्पी से मेरी बातें सुनती रहीं और मेरे टुच्चेपन को नहीं भांप पाईं।

घर के चारों ओर शांति थी। किसी भी कमरे में बिना मतलब बल्ब नहीं जल रहा था, न बिना वजह किसी नल का पानी बह रहा था, न दरवाज़े पर कोई मेहमान पुकार रहा था, न रसोईघर में किसी प्लेट के टूटने की आवाज़ हो रही थी, न रेडियो पर कोई कवि सम्मेलन आ रहा था, न पड़ोस में लाउडस्पीकर लगाकर कीर्तन हो रहा था। और सबसे बड़ी बात यह कि कल आनेवाला दिन इतवार था, उस दिन मेरे सभी उत्साही मित्र शहर से कहीं दूर, पिकनिक पर चले जाने वाले थे।

[ मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएं, ज्ञान भारती प्रकाशन, दिल्ली]


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दायित्व - आनन्द

एक नौका जल में विहार कर रही थी। अकस्मात् आकाश में मेघ घिर आये और घनघोर वर्षा होने लगी। वायु-प्रकोप ने तूफान को भीषण कर दिया। यात्री घबराकर हाहाकार करने लगे और नाविक भी भयभीत हो गया। नाविक ने नौका को तट पर लाने के लिए जी-जान से परिश्रम करना प्रारम्भ कर दिया। वह अपने मजबूत हाथों से नाव को खेता ही रहा, जब तक कि वह बिल्कुल थक ही न गया। किंतु थकने पर भी वह नाव को कैसे छोड़ दे? वह अपने थके शरीर से भी नौका को पार करने में जुट गया।

धीरे-धीरे नौका में जल भरने लगा और यात्रियों के द्वारा पानी को निकालने का प्रयत्न करने पर भी उसमें जल भरता ही गया। नौका धीरे-धीरे भारी होने लगी, पर नाविक साहसपूर्वक जुटा ही रहा। अंत में उसे निराशा ने घेर लिया। अभी किनारा काफी दूर था और नौका जल में डूबने लगी। नाविक ने हाथ से पतवार फेंक दी, और सिर पकड़कर बैठ गया। कुछ ही क्षणों में मौका डूब गयी। सभी यात्री प्राणों से हाथ धो बैठे। यमराज के पार्षद आये और नाविक को नरक के द्वार पर ले गये। नाविक ने पूछा, "कृपा करके मेरा अपराध तो बताओ कि मुझे नरक की ओर क्यों घसीटा जा रहा है?'

पार्षदों ने उत्तर दिया, "नाविक, तुम पर मौका के यात्रियों को डुबाने का पाप लगा है।"

नाविक चकित होकर बोला, "यह तो कोई न्याय नहीं है। मैंने तो भरसक प्रयत्न किया कि यात्रियों की रक्षा हो सके।"

पार्षदों ने उत्तर दिया, "यह ठीक है कि तुमने परिश्रम किया, किंतु तुमने अंत में नौका चलाना छोड़ दिया था। तुम्हारा कर्तव्य था कि अंतिम स्वास तक नौका को खेते रहते। नौका के यात्रियों की जिम्मेदारी तुम पर थी। तुम पर उनकी हत्या का दोष लगा है।" □

-आनन्द
[भारतीय लोक -कथाएं, सस्ता साहित्य मण्डल प्रकाशन]

 

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भारत भूमि - तुलसीदास

भलि भारत भूमि भले कुल जन्मु समाजु सरीरु भलो लहि कै।
करषा तजि कै परुषा बरषा हिम मारुत धाम सदा सहि कै॥......

 
 
पत्ता परिवर्तन  - डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

वह ताश की एक गड्डी हाथ में लिए घर के अंदर चुपचाप बैठा था कि बाहर दरवाज़े पर दस्तक हुई। उसने दरवाज़ा खोला तो देखा कि बाहर कुर्ता-पजामाधारी ताश का एक जाना-पहचाना पत्ता फड़फड़ा रहा था। उस ताश के पत्ते के पीछे बहुत सारे इंसान तख्ते लिए खड़े थे। उन तख्तों पर लिखा था, "यही है आपका इक्का, जो आपको हर खेल जितवाएगा।"

पत्ता परिवर्तन - लघुकथा

वह जानता था कि यह पत्ता इक्का नहीं है। वह खीज गया, फिर भी पत्ते से उसने संयत स्वर में पूछा, "कल तक तो तुम अपनी गड्डी छोड़ गद्दी पर बैठे थे, आज इस खुली सड़क में फड़फड़ा क्यों रहे हो?"

पत्ते ने लहराते हुए उत्तर दिया, "मेरे प्रिय भाई! चुनावी हवा बड़ी तेज़ चल रही है...। आप तो अपने हो, अपना खेल खेलते समय ताश की गड्डी में से आप मुझे ही सबके सामने फेंकना।"

वह खुश हो उठा, आखिर लगभग पाँच सालों बाद वह दर्शक से फिर खिलाड़ी बना था। उसने उस पत्ते के रंग और समूह को गौर से निहारा और अपनी ताश की गड्डी में से उसी रंग और समूह के राजा को निकाल कर पूछा, "तुम्हारा राजा यही है क्या?"

पत्ते ने स्नेहपूर्वक उत्तर दिया, "हाँ प्रिय भाई।"

अब उसने आशंकित स्वर में प्रश्न किया, "लेकिन कुछ दिनों बाद यह राजा भी कहीं पिछले राजाओं की तरह बदल कर जोकर तो नहीं बन जाएगा?"

यह सुनते ही पत्ते के पीछे खड़े इंसान उस राजा की जय-जय कार के नारे लगाने लगे और वह पत्ता उड़ कर दूसरे दरवाज़े पर चला गया।

वह निराश हो गया। दरवाज़ा बंद कर उसने अपने हाथ में सहेजी हुई ताश की पूरी गड्डी को अपने घर के अंदर उछाल दिया।

और आश्चर्य! आसमान में उड़ रहे वे सारे पत्ते जोकर वाले पत्ते में बदलने लगे।

-- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

 


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प्रसाद  - जयशंकर प्रसाद

मधुप अभी किसलय-शय्या पर, मकरन्द-मदिरा पान किये सो रहे थे। सुन्दरी के मुख-मण्डल पर प्रस्वेद बिन्दु के समान फूलों के ओस अभी सूखने न पाये थे। अरुण की स्वर्ण-किरणों ने उन्हें गरमी न पहुँचायी थी। फूल कुछ खिल चुके थे! परन्तु थे अर्ध-विकसित। ऐसे सौरभपूर्ण सुमन सवेरे ही जाकर उपवन से चुन लिये थे। पर्ण-पुट का उन्हें पवित्र वेष्ठन देकर अञ्चल में छिपाये हुए सरला देव-मन्दिर में पहुँची। घण्टा अपने दम्भ का घोर नाद कर रहा था। चन्दन और केसर की चहल-पहल हो रही थी। अगुरु-धूप-गन्ध से तोरण और प्राचीर परिपूर्ण था। स्थान-स्थान पर स्वर्ण-शृंगार और रजत के नैवेद्य-पात्र, बड़ी-बड़ी आरतियाँ, फूल-चंगेर सजाये हुए धरे थे। देव-प्रतिमा रत्न-आभूषणों से लदी हुई थी।

सरला ने भीड़ में घुस कर उसका दर्शन किया और देखा कि वहाँ मल्लिका की माला, पारिजात के हार, मालती की मालिका, और भी अनेक प्रकार के सौरभित सुमन देव-प्रतिमा के पदतल में विकीर्ण हैं। शतदल लोट रहे हैं और कला की अभिव्यक्तिपूर्ण देव-प्रतिमा के ओष्ठाधार में रत्न की ज्योति के साथ बिजली-सी मुसक्यान-रेखा खेल रही थी, जैसे उन फूलों का उपहास कर रही हो। सरला को यही विदित हुआ कि फूलों की यहाँ गिनती नहीं, पूछ नहीं। सरला अपने पाणि-पल्लव में पर्णपुट लिये कोने में खड़ी हो गयी।

भक्तवृन्द अपने नैवेद्य, उपहार देवता को अर्पण करते थे, रत्न-खण्ड, स्वर्ण-मुद्राएँ देवता के चरणों में गिरती थीं। पुजारी भक्तों को फल-फूलों का प्रसाद देते थे। वे प्रसन्न होकर जाते थे। सरला से न रहा गया। उसने अपने अर्ध-विकसित फूलों का पर्ण-पुट खोला भी नहीं। बड़ी लज्जा से, जिसमें कोई देखे नहीं, ज्यों-का-त्यों, फेंक दिया; परन्तु वह गिरा ठीक देवता के चरणों पर। पुजारी ने सब की आँख बचा कर रख लिया। सरला फिर कोने में जाकर खड़ी हो गयी। देर तक दर्शकों का आना, दर्शन करना, घण्टे का बजाना, फूलों का रौंद, चन्दन-केसर की कीच और रत्न-स्वर्ण की क्रीड़ा होती रही। सरला चुपचाप खड़ी देखती रही।

शयन आरती का समय हुआ। दर्शक बाहर हो गये। रत्न-जटित स्वर्ण आरती लेकर पुजारी ने आरती आरम्भ करने के पहले देव-प्रतिमा के पास के फूल हटाये। रत्न-आभूषण उतारे, उपहार के स्वर्ण-रत्न बटोरे। मूर्ति नग्न और विरल-शृंगार थी। अकस्मात् पुजारी का ध्यान उस पर्ण-पुट की ओर गया। उसने खोल कर उन थोड़े-से अर्ध-विकसित कुसुमों को, जो अवहेलना से सूखा ही चाहते थे, भगवान् के नग्न शरीर पर यथावकाश सजा दिया। कई जन्म का अतृत्प शिल्पी ही जैसे पुजारी होकर आया है। मूर्ति की पूर्णता का उद्योग कर रहा है। शिल्पी की शेष कला की पूर्ति हो गयी। पुजारी विशेष भावापन्न होकर आरती करने लगा। सरला को देखकर भी किसी ने न देखा, न पूछा कि 'तुम इस समय मन्दिर में क्यों हो?'

आरती हो रही थी, बाहर का घण्टा बज रहा था। सरला मन में सोच रही थी, मैं दो-चार फूल-पत्ते ही लेकर आयी। परन्तु चढ़ाने का, अर्पण करने का हृदय में गौरव था। दान की सो भी किसे! भगवान को! मन में उत्साह था। परन्तु हाय! 'प्रसाद' की आशा ने, शुभ कामना के बदले की लिप्सा ने मुझे छोटा बनाकर अभी तक रोक रक्खा। सब दर्शक चले गये, मैं खड़ी हूँ, किस लिए। अपने उन्हीं अर्पण किये हुए दो-चार फूल लौटा लेने के लिए, ''तो चलूँ।''

अकस्मात् आरती बन्द हुई। सरला ने जाने के लिए आशा का उत्सर्ग करके एक बार देव-प्रतिमा की ओर देखा। देखा कि उसके फूल भगवान के अंग पर सुशोभित हैं। वह ठिठक गयी। पुजारी ने सहसा घूम कर देखा और कहा,-''अरे तुम! अभी यहीं हो, तुम्हें प्रसाद नहीं मिला, लो।'' जान में या अनजान में, पुजारी ने भगवान् की एकावली सरला के नत गले में डाल दी! प्रतिमा प्रसन्न होकर हँस पड़ी।

- जयशंकर प्रसाद [प्रतिध्वनि, 1926]


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आग का आविष्कारक  - रोहित कुमार ‘हैप्पी'

[ न्यूज़ीलैंड की लोक कथा ]

बहुत पहले की बात है। उस समय लोगों को आग जलाना नहीं आता था। यह माउइ था जिसने मनुष्य जाति को आग जलाने का उपाय बताया था।

माउइ ने निश्चय किया कि वह धरती के भीतर जाकर आग का पता लगाएगा। पृथ्वी में एक सूराख करके वह भीतर घुसा और अग्नि की माँ माफुइक से मिला। उसने उससे एक चिनगारी मांगी। अग्नि की माँ ने अपनी अंगुलियों के जलते नख में से एक नख उसे दे दिया।

माउइ उस नख को लेकर जब कुछ दूर चला गया तो उसने सोचा, यह तो आग है। उसने आग उत्पन्न करने की विधि तो बताई ही नहीं। यह सोचते ही उसने आग को नदी में फेंक दिया। वह लौटकर फिर अग्नि की माँ के पास गया और चिनगारी ली। इस प्रकार वह नौ बार आग लाया और नदी में फेंकता गया। दसवीं बार जब वह गया तो अग्नि की माँ बहुत ही क्रोधित हुईं। उसने अपनी अंगुली का दसवां नख उस पर फेंका।

जंगल के वृक्ष, घास इत्यादि जलने लगे। जब आग बहुत भयंकर हो गई तो माउइ ने वर्षा के लिए प्रार्थना की। शीघ्र ही वर्षा होने लगी जिससे आग बुझ गई। अग्नि को बुझते देखकर उसकी माँ ने कुछ चिनगारियों को वृक्षों में छिपा दिया। तभी से वृक्षों में आग छिपी हुई है। और इस प्रकार बाद में मनुष्य जान गया है कि किस प्रकार दो लकड़ियों को आपस में रगड़ने से आग उत्पन्न हो जाती है।

भावानुवाद : रोहित कुमार 'हैप्पी'
न्यूज़ीलैंड

 

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जब चंदा पाकर नेता जी रो पड़े | ऐतिहासिक लघुकथा - रोहित कुमार 'हैप्पी'

नेताजी से सिंगापुर की सार्वजनिक सभाओं में अनेक भाषण दिए। उसी समय की एक घटना है। भाषण देने के बाद नेताजी ने चंदे का अनुरोध किया। हज़ारों लोग चंदा देने के लिए आगे आए। नेताजी को चंदा देने के लिए एक लंबी पंक्ति बन गई। हर व्यक्ति अपने बारी आने पर मंच पर जाता और नेताजी के चरणों में अपनी सामर्थ्यानुसार भेंट चढ़ाकर, चले जाता।

बहुत बड़ी-बड़ी रकमें भेंट की जा रही थी। सहसा, एक मज़दूर महिला अपना चंदा देने के लिए मंच पर चढ़ी। उसकी आँखों से आँसू बह रहे थे और तन ढ़कने को बदन पर पूरे कपड़े भी न थे। सभी हतप्रभ उसे देख रहे थे। उसने नेताजी को तीन रूपये भेंट करते हुए कहा,"मेरी यह भेंट स्वीकार कीजिए। मेरे पास जो कुछ भी है, वह आपको भेंट कर रही हूँ!"

नेताजी संकोच कर रहे थे। वे सोच रहे थे कि यदि उसकी सारी पूंजी स्वीकार कर लेंगे तो उसका क्या होगा! वे दुविधा में थे लेकिन स्वीकार न करेंगे तो उसके दिल पर क्या बितेगी! नेताजी की आँखों से आँसू निकलकर उनके गालों पर लुढ़क पड़े। सहसा, नेताजी ने हाथ आगे बढ़ा वह भेंट स्वीकार कर ली।

नेताजी ने बाद में अपने साथियों का बताया,"मेरे लिए यह तीन रूपये करोड़पतियों के लाखों रूपयों से कहीं अधिक कीमती हैं।"

प्रस्तुति: रोहित कुमार 'हैप्पी'


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साधना | गद्य काव्य - वियोगी हरि

अब वे हँसते हुए फूल कहाँ! अपने रूप और यौवन को प्रेम की भट्टी पर गलाकर न जाने कहाँ चले गये। अब तो यह इत्र है। इसी में उनकी तपस्या का सिद्धरस है। इसी के सौरभ में अब उनकी पुण्यस्मृति
का प्रमाण है। विलासियो! इसी इत्र को सूँघ-सूँघकर अब उन खिले फूलों की याद किया करो।

अब मेंहदी के वे हरे लहलहे पत्ते कहाँ! अपने रूप और यौवन को प्रेम की शिला पर पिसाकर न जाने कहाँ चले गये। अब तो यह लाली है। इसी में उनकी साधना का सिद्धरस है। इसी लाली में अब उनकी पुण्यस्मृति का प्रमाण है। विलासियो ! इसी लाली को अपने तलुओं और हथेलियों पर देख देख कर अब उन हरे लहलहे पत्तों की याद किया करो।

अब सीप के वे अनबेधे दाने कहाँ! अपने सरस हृदय को प्रेम के शूल से छिदाकर न जाने उन्होंने क्या किया। अब तो उन घायलों की यह माला है। इसी में उनकी भावना का सिद्ध रस है। इसी सुषमा में अब उनकी पुण्यस्मृति का प्रमाण है। विलासियो ! इसी माला को अपने कण्ठ से लगाकर अब उन अनबेधे दानों की याद किया करो।

-वियोगी हरि

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बूट पॉलिश - बसवराज कट्टीमनी

'पॉलिश बूट पॉलिश ...

रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड, सिनेमा थिएटर, नाटक-गृह, होटल, चाय की दुकान आदि के पास आपने मेरी यह आवाज सुनी है। आपको ऊबा देने वाली मेरी यह आवाज परिचित होगी। आप चाहे अपनी नवोढ़ा के साथ उपवन में हँसते-हँसते बातचीत करते बैठे हों, दैनिक अखबार पढ़ते रेलगाड़ी की प्रतीक्षा में चाहे बैठे रहें, टिकट खरीदने चाहे क्यू में खड़े हों, जल्दी-जल्दी ट्रेन से चाहे उतर आते हों, भूख के मारे खाने के लिए चाहे दौड़ते जाते रहे हों, मैं यह सब कुछ नहीं देखता। मेरा उद्देश्य एक ही है बूट पॉलिश मेरा लक्ष्य एक ही है एक आने की कमाई।

मेरी आवाज कानों में पड़ते ही आप अपना मुँह उस ओर घुमाते हैं, भौंहें चढ़ाते हैं, नजर तेज करते हैं। उस नज़र-तीर की मार से मैं डरने वाला नहीं हूँ। उसका मैं आदी हो गया हूँ। आपकी कड़ी आवाज से मना करने पर भी मैं बिना हिचकिचाए नीचे बैठकर बूटों की ओर हाथ बढ़ाता हूँ, फिर बिलकुल अदब से कहता हूँ, 'ज्यादा नहीं हुजूर, एक ही आना सिर्फ अच्छा पॉलिश करता हूँ । आईने की तरह जगमगा देता हूँ।' फिर अपने बगल में लटकने वाली थैली नीचे रखकर उसमें से ब्रुश, पॉलिश की डिबिया निकालकर तैयार हो जाता हूँ। ऐसे मौके पर किसी को भी 'पॉलिश करा लें' लगे बिना नहीं रहेगा । 'एक आना तो, कौन-सी बड़ी रकम देनी है?' सोचकर 'अच्छा' कहकर अपने जूते खोलकर देते हैं। वहीं बैठकर मैं अपना काम शुरू कर देता हूँ। पहले उन पर लगी धूल 'को पोंछना, फिर पॉलिश करना। ब्रुश को दाहिने हाथ में, जूते को बाएँ हाथ में लेकर जोर से रगड़ना । तब आपको मेरे हाथ की दौड़ की रफ़्तार देखते खड़े रहने में एक तरह का मजा आयगा । जूते पर ब्रुश रगड़ता हुआ मेरा हाथ कैसे दौड़ता है! किसी कलाकार को उसे देखकर सिर नीचे झुकाना होगा। यह कला यों ही करगत होती है? उसके लिए भी अनुभव चाहिए महाशय, अनुभव इस विद्या के भीतर के सारे रहस्य मालूम रहने चाहिए।

मेरा कुम्हलाया मुँह, गन्दे कपड़े देखकर, मेरी उम्र का अनुमान करके, न कहियेगा, 'इसे क्या बड़ा अनुभव है!' अपनी उम्र के पाँचवें वर्ष से अब तक दस बरस बूट पॉलिश के बिना मेरा दूसरा काम ही नही रहा है। बूट पॉलिश माने मैं, माने बूट पॉलिश। यहाँ तक कि मै अपने उद्योग में घुल-मिल गया हूँ। मेरे लिए इसे छोड़कर दूसरी दुनिया ही नही है। बूट पॉलिश की दुनिया मेरी दुनिया है । उसे छोड़कर मेरे लिए कोई चारा ही नही।

आपको आश्चर्य होता होगा? अचरज करने की जरूरत नही हुजूर। उसका कोई कारण नही है। इस संसार में अपना मैं ही हूँ। माता-पिता का मुँह मैने नहीं देखा। मै नही जानता मेरी माँ कौन है, मेरे पिता कौन है? जब मैने होश सँभाला, मुझे एक भिखमंगाा पाल रहा था। मेरे जैसे दस-बारह अनाथ बच्चे भी उसके साथ थे। नगर के बाहर एक धर्मशाला मे हम सभी रहते थे। सभी लड़कों का काम एक ही था : बूट पॉलिश। सुबह से लेकर शाम तक जो कुछ कमाते थे वह उसके पास देते थे । वह हम सबको खाना खिलाता था। उसका नाम भी मैं नही जानता। बेचारा, बूढ़ा, खाँसी की बीमारी से जर्जरित होकर हमेशा बिस्तर पर पड़ा रहता था। उसी हालत मे वह उठता, धर्मशाला के एक कोने मे रहे पत्थर के चूल्हे पर चावल पकाता, दोपहर को हमारे लौटने तक खाना तैयार रखता था । हम सबको अपने पुत्रो की तरह मानकर प्यार से खिलाता था। हम सब उसे 'दादा' कहकर पुकारते थे। एक दिन वह इस दुनिया से चल बसा। हम फिर अनाथ हो गए। हमारा समूह तितर-बितर हो गया। हम सबने अपने पैरों पर आप खड़े होकर जीना सीखा।

एक दिन की बात है। वह दिन अब भी याद है । मेरा जी अच्छा नही था । शरीर गर्म हुआ था। 'आज काम पर मत जाना बेटा, आराम से सो जाओ !' कहकर दादा ने मुझे एक बोरे पर सुलाया था। मै एक बोरा ओढ़कर बुखार से भारी हुई आँखें मूंदकर सोया था। मेरे बगल मे बैठ, मेरे माथे पर हाथ फेरते हुए बूढा दादा कह रहा था- 'बुखार से तुम यहाँ पड़े हो। तुम्हारी माँ अब कहाँ है? कितना सुख पाती होगी ? कौन जाने?..."

वही पहली बार थी कि मुझे मालूम हुआ कि मेरी माँ जी रही है । जैसे सबकी एक माँ होती है वैसे मेरी भी एक माँ जरूर होगी, इतना ही मैं जानता था। लेकिन मैने समझा था कि मेरे जन्मते ही वह मर गई होगी, मेरे पिता भी मर गए होगे। लेकिन मेरी माँ नही मरी थी, जीवित है, सुख से दिन बिता रही है, यह जानते ही मेरा हृदय घोर आवाज से पुकारने लगा। माँ मेरी माँ मुझे उससे मिलना ही चाहिए। उसकी गोद में मुँह छिपाकर सोना चाहिए। 'कहाँ है मेरी माँ दादा?' मैने पूछा।

बूढ़ा मेरे सिर के बालों में उँगलियाँ फिराता हुआ, सान्त्वना के स्वर मे बोला, 'कहाँ है किसको मालूम? वह है, इतना तो सच है।'

'तुमने उसको देखा था क्या दादा?"

'नहीं बेटा। देखा होता तो तुम यहाँ क्यों रहते इस हालत में? कुछ-न-कुछ व्यवस्था होती।'

बूढ़े ने न जाने और क्या-क्या कहा वह सब मैं नहीं समझ सका। मेरी माँ अभी कुमारी ही थी, तब कहते हैं किसी ने उसको बिगाड़ा । फलस्वरूप मैं पैदा हुआ। कहते हैं कि वह समाज से डरकर मुझ शिशु को हनुमान के मन्दिर में रखकर चली गई। वह सब किसी गाँव में हुई घटना। मन्दिर के पास रहने वाले इस दादा ने मुझे देख, तरस खाकर पाला-पोसा । तब उसके पास दो बूढ़े भिक्षुक दम्पति थे। उन्होंने मुझे अपने बेटे की तरह देखा। उस भिखारिन का स्तन पान करके ही मैं बड़ा हुआ। कुछ दिनों के बाद वह भी मर गई।

मैंने पूछा- 'मेरी माँ मुझे वैसे क्यों छोड़ गई दादा?'

'वह सब तुम नहीं समझ सकते बेटा। बड़ों के घर में कभी-कभी ऐसा हुआ करता है। वह सब तुम मत सोचो। चुपचाप सो जाओ बेटा। तुमको ज्यादा बुखार चढ़ा है।'

'वह मेरी माँ अब भी जिन्दा होगी दादा?"

'जरूर होगी। किसी और से शादी करके सुख से रहती होगी।'

'मेरी याद उसको होगी दाद ?"

'जरूर होनी चाहिए। उस दिन समाज के डर से इस तरह तुमको छोड़कर जाना पड़ा। लेकिन माँ का कलेजा तरसे बिना रहेगा बेटा? आज भी वह तुम्हारी याद करती होगी । तुम्हारे लिए रोती होगी।'

दादा की बातों से मेरा दुःख उमड़ आया था। कभी न देखी हुई उस माँ की याद करके बिलख-बिलख रोया था। 'मेरी माँ "दादा, मेरी माँ को देखना चाहिए। कुछ भी करो, मेरी माँ की तलाश करो।' इस तरह कहकर गिड़गिड़ाया था।

उस दिन से मुझ पर अपनी माँ को देखने की सनक सवार थी। बूट पॉलिश करते यहाँ-वहाँ घूमता, तब किसी स्त्री का आँचल दिखाई पड़ता तो उस स्त्री का चेहरा आतुरता से देखता रहता। नन्हें-मुन्ने बालकों को गोद में उठाकर रेलगाड़ी में चढ़ने वाली सुहागिनों को जब कभी देखता तब मेरा हृदय भर आता। उनमें कोई मेरी माँ तो नहीं होगी, इस आशा से उनकी ओर टकटकी लगाकर खड़ा देखता रहता। रेशम की साड़ी पहनकर खूब सज-धजकर सिनेमा जाने वाली स्त्रियों को देखता तो लगता कि उनमें कोई मेरी माँ जरूर हो सकती है।

एक दिन इस तरह नाटक-गृह के दरवाजे पर जब खड़ा था तब मध्यम आयु के पति-पत्नी मोटरकार से उतरे। लगता था कि वे बहुत अमीर हैं। दरवाजे के कोने में खड़े होकर आशाभरी दृष्टि से उस स्त्री को देख रहा था। उसकी नज़र भी अचानक मेरी ओर फिरी लगा कि वह किसी को खोज रही है। मेरा दिल धड़कने लगा। वह मुझे देख रही है। गौर वर्ण के उस सुन्दर गोल-गोल भरे चेहरे पर कैसी ममता बड़ी-बड़ी उन सुन्दर आँखों में कितना प्यार कभी खोये हुए अपने बच्चे को देखते ही खींचकर उसको उठा लेने वाली माँ की तरह ही वह मेरी ओर ताक रही है। आनन्द से मेरा सारा शरीर पुलकित हुआ हो, आखिर मिल गई मेरी माँ प्रभु ने कृपा की। मेरी माँ को मुझे लौटा दिया। माँ मेरी माँ हाय! कितने दिनों से तुम्हारी प्रतीक्षा में था तुम्हारी गोद में बैठकर तुम्हारे आँचल में सिर छिपा लेने के लिए उत्कण्ठित रहता माँ!

मैं वह अपना गन्दा कपड़ा, कुम्हलाया चेहरा, स्नान के बिना गन्दा हुआ शरीर, गन्दे बदबूदार बाल, ये सब तब भूल गया था। मैं इस होश में नहीं था कि मैं एक बूट पॉलिश करने वाला लड़का हूँ। प्यार की अद्भुत माया में मैं यह लोक ही भूल गया था और एक दूसरे सपने के लोक में जैसे विचरण करता था। कातरता से दोनों हाथ आगे पसारकर माँ को गले लगाने के लिए आगे बढ़ा।

वह एक मिनट जहाँ थी वहीं खड़ी रही। उसने मुझे कौतूहल से, करुणा से भी गौर से देखकर अपनी थैली में से एक रुपया निकालकर मेरे हाथ में दिया। पास में खड़ा उसका पति 'नाटक का समय हो गया' कहकर गड़बड़ी कर रहा था। वह मेरी ओर एक बार फिर करुणा से देखकर एक उसाँस छोड़कर धीरे से चली गई।

मैं स्वप्नलोक से जैसे धप्प करके गिर गया। मेरे दिल पर कड़ी चोट लगी थी। माता को दिखाकर, अत्यन्त आशा से प्रतीक्षा करने लगकर- अब क्या मिल गई सोच ही रहा था— इतने में उसे मुझसे दूर हटाकर विधि ने मेरा उपहास किया था। उस दिन मुझे लगा था कि यह जीवन बेकार है, यह जीवन नहीं चाहिए। उस स्त्री ने जो रुपया दिया था उसे नाले में – गटर में फेंककर चाय की दुकान के चबूतरे पर रोता लेटा था। 'सबकी एक माँ होती है, मेरी भी है, किन्तु मैं उसे देख नहीं सकता, उसके साथ नहीं रह सकता। हाय मैं कराह रहा था।

एक दूर की आशा बँधी थी कि नाटक समाप्त होने के बाद घर जाते समय वह मुझ पर तरस खाकर मुझे पहचान कर घर ले जायगी। उस रात को तीन बजे तक दरवाजे पर प्रतीक्षा में खड़ा रहा, लेकिन उसने मेरी ओर आँख उठाकर भी नहीं देखा। पति के हाथ में हाथ डालकर हँसते-हँसते आकर वह तैयार खड़ी मोटर में बैठकर चली गई ।

उस रात को मुझे नीद ही नहीं आई, आने की सम्भावना भी नहीं थी। आँसू बहता हुआ पागल की तरह नगर की गली-गली का चक्कर काट रहा था। घूम घूमकर जब थकावट आई, तब रेलवे स्टेशन पर जाकर एक कोने में सो गया।

अब भी वह सनक मुझसे दूर नहीं हुई है। मैं जब कभी मध्यम आयु की महिला को देखता हूँ तब सोचता हूँ कि वह मेरी माँ तो नहीं है। यों सोचकर रोया करता हूँ माँ के होने पर भी वह मेरे नसीब में नहीं है। उसको याद करके रोने से कोई लाभ नहीं। मैं उसको देख नहीं सकता। वह भी मुझे देख नहीं सकती। मुझे देखने पर भी वह मुझे नहीं पहचान सकेगी कि मैं उसका पुत्र हूँ। मैंने अब तक हजारों महिलाओं को देखा है, उनमें एक शायद मेरी माँ होगी क्या ! लेकिन यह कैसे जानूं कि फलानी मेरी माँ है?

समझ गए न? मेरा कोई नहीं है इस संसार में मैं यह भी नहीं जानता कि मेरा नाम क्या है। मुझे बुलाने वाले 'ऐ बूट पॉलिश' कहकर ही पुकारते हैं। मेरा वही नाम रूढ़ हो गया है। सचमुच के अनाथ का कोई नाम कोई भी हो, उसमें क्या रखा है? माँ है, तो भी नहीं के बराबर नहीं जानता पिता कौन है? सब हो सकते हैं, मगर इस विचित्र लोक में मैं अनाथ हूँ। मुझे जिसने पैदा किया वह यह बात मानने के लिए तैयार नहीं इस लोक में मुझे जनने वाली माँ भी वह बात नहीं मान सकती इस लोक में मैं, मेरे-जैसे अनाथ हमारा जीवन, बहुत विचित्र जीवन कुत्तों का जीवन तो एक तरह से अच्छा है, हमारा तो उससे भी गया गुजरा है। पिल्ले तो अपने माँ-बाप के साथ रहते हैं। हमें तो वह भी नसीब नहीं। किस पाप के लिए हमें यह सजा? वह पाप भी क्या है जो हमने किया? हमारा जीना किसके लिए? तो भी हम जी रहे हैं। जीने के लिए यह लूट पॉलिश। इसीलिए वह मेरा सर्वस्व है। उसे छोड़ दिया जाय तो मेरा कुछ भी नहीं है। मेरी कोई आशा नहीं है, न कोई आकांक्षा।

'बूट पॉलिश बूट पॉलिश सिर्फ़ एक आना सर ज्यादा नहीं। पॉलिश... बूट पॉलिश!"

[कन्नड कहानी]


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लालची कुत्ता - पंचतंत्र

एक बार एक कुत्ते को कई दिनो तक कुछ खाने को न मिला, बेचारे को बहुत जोर से भूख लगी थी। तभी किसी ने उसे एक रोटी दे दी, कुत्ता जब खाने लगा तो उसने देखा दूसरे कुते भी उस से रोटी छीनना चाहते हैं। इसलिए मुँह में रोटी दबाए, वह किसी सुरक्षित स्थान को खोजने के लिए वहां से भाग खड़ा हुआ। थोड़ी दूरी पर उसे एक लकड़ी का पुल दिखाई दिया। कुते ने सोचा चलो दूसरी तरफ़ जा कर आराम से रोटी खाता हूँ।

कुता डरते-डरते उस संकरे पुल से दूसरी तरफ़ जाने के लिये चल पडा। तभी उस की नजर पानी मे पडी तो देखता है कि एक कुता पूरी रोटी मुँह मे दबाये नीचे पानी मे खडा है। उसे नहीं पता था कि वह अपनी ही परछाई को दूसरा कुता समझ रहा था।

कुते ने सोचा मैं यह रोटी भी इस से छीन लूं तो भरपेट खा लूं। और वो रोटी छीनने के लिए पानी मे्ं दिखाई देने वाले उस कुते पर भोंका कि उसके मुंह खोलते ही उसकी रोटी पानी में जा गिरी और बह गई। फिर तो उसे भूखे पेट ही सोना पड़ा।

शिक्षा - लालच बुरी बला है।

 


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ऐसे थे चन्द्रशेखर आज़ाद - इतिहास के पन्ने

एक बार भगतसिंह ने बातचीत करते हुए चन्द्रशेखर आज़ाद से कहा, 'पंडित जी, हम क्रान्तिकारियों के जीवन-मरण का कोई ठिकाना नहीं, अत: आप अपने घर का पता दे दें ताकि यदि आपको कुछ हो जाए तो आपके परिवार की कुछ सहायता की जा सके।'

चन्द्रशेखर सकते में आ गए और कहने लगे, 'पार्टी का कार्यकर्ता मैं हूँ, मेरा परिवार नहीं। उनसे तुम्हें क्या मतलब? दूसरी बात -उन्हें तुम्हारी मदद की जरूरत नहीं है और न ही मुझे जीवनी लिखवानी है। हम लोग नि:स्वार्थभाव से देश की सेवा में जुटे हैं, इसके एवज़ में न धन चाहिए और न ही ख्याति।

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दूसरी दुनिया का आदमी | लघुकथा - रोहित कुमार 'हैप्पी'

वो शक्ल सूरत से कैसा था, बताने में असमर्थ हूँ। पर हाँ, उसके हाव-भावों से ये पूर्णतया स्पष्ट था कि वो काफी उदास और चिंतित था।

मैंने इंसानियत के नाते पूछ लिया क्या बात है? बहुत उदास दिखाई देते हो। कुछ मदद चाहिए क्या?

'हाँ, मैं उसके लिए काफी चिंतित हूँ। जाने उसपर क्या बीती होगी...जाने कैसी होगी...' उसने एक लम्बी ठँडी आह भरते हुए कहा।

'वो..वो कौन?'

'वो जिससे मेरी शादी होने वाली थी। वो मुझसे बहुत प्यार करती थी और मैं भी उसे जी-जान से चाहता था।' वो अपनी कहानी सुनाए चला जा रहा था और मैं भी उसकी प्रेम कहानी में दिलचस्पी ले रहा था।

'फिर क्या हुआ?' मैं उसकी कहानी आगे सुनने को उत्सुक था।

'फिर क्या..उसके घर वाले नहीं माने। ---लेकिन हम एक-दूसरे के बिना नहीं रह सकते थे। एक दिन सुना कि उसके घर वालों ने जबरन उसकी शादी कहीं और तय कर दी।'

'फिर?'

'मैंने उसे मिलने की बहुत कोशिशें की पर.....'

'पर क्या.....' मैंने पूछा।

'पर मैं उसे मिल नहीं सका,' उसने गहरी साँस छोड़ते हुए कहा, 'और मैंने आत्म-हत्या कर ली।'

'...आत्म-हत्या....पर तुम तो....'

'अब मैं जीवित व्यक्ति नहीं हूँ।'

'क् क्या..मेरी उत्सुकता डर में बदल गई थी।

'डरो मत, मैं तुम्हें कोई नुकसान नहीं पहुँचाऊंगा। बस तुम मेरी थोड़ी-सी सहायता कर दो।'

'हाँ कहो' मैंने राहत की साँस ली।

'मैं उससे बहुत प्यार करता हूँ, उसकी चाहत ही मुझे इस रूप में भी यहाँ खींच लाई है। मैं सिर्फ जानना चाहता हूँ कि वो ठीक तो है! कहीं मेरे मरने की खबर सुनकर उसने भी ....और मेरे माँ-बाप... क्या तुम मेरी मदद करोगे?'

''अरे आज इतनी देर तक सो रहा है! उठ चाय-नाश्ता तैयार है।'' रसोई घर से माँ के तीखे स्वर ने मेरी नींद खोल दी।

'ओह, आया माँ!' मुझे उस दूसरी दुनिया के उस प्राणी से अपनी बातचीत अधूरी रह जाने का खेद था। काश! माँ ने 5-10 मिनट बाद आवाज लगाई होती तो कम से कम उसे इतना तो बता देता कि - 'हे भाई, बेवजह परेशान हो रहे हो। यहाँ सब कुशल ही होंगे। तुम्हारे माँ-बाप भी ठीक-ठाक होंगे। और तुम्हारी वो... वो भी तुम्हें भूल चुकी होगी। जानते नहीं, शादी के बाद स्त्री का एक तरह से पुनर्जन्म होता है और वैसे भी हम धरती के लोग मरे हुओं को याद करना अपशकुन मानते हैं। ---और भूल से भी कहीं अपने घर या उसके घर ना जा पहुँच जाना। तुम जिनके लिए इतने उदास और चिंतित हो, वो 'भूत-भूत' चिल्लाएंगे तुम्हें देखकर, और दूर भागेंगे तुमसे।'

'अरे भइये, इस धरती के लोग यहीं के लोगों से प्यार निभा लें तो काफी है! तुम तो बहुत दूर जा चुके हो।' पर मुझे खेद है कि यह सब मैं उसे नहीं बता पाया।

- रोहित कुमार 'हैप्पी'
  संपादक, भारत-दर्शन, न्यूज़ीलैंड

 


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छोटी-सी हमारी नदी  - रवींद्रनाथ ठाकुर

छोटी-सी हमारी नदी टेढ़ी-मेढ़ी धार,
गर्मियों में घुटने भर भिगो कर जाते पार।......

 
 
हार की जीत - सुदर्शन

माँ को अपने बेटे और किसान को अपने लहलहाते खेत देखकर जो आनंद आता है, वही आनंद बाबा भारती को अपना घोड़ा देखकर आता था। भगवद्-भजन से जो समय बचता, वह घोड़े को अर्पण हो जाता। वह घोड़ा बड़ा सुंदर था, बड़ा बलवान। उसके जोड़ का घोड़ा सारे इलाके में न था। बाबा भारती उसे 'सुल्तान' कह कर पुकारते, अपने हाथ से खरहरा करते, खुद दाना खिलाते और देख-देखकर प्रसन्न होते थे। उन्होंने रूपया, माल, असबाब, ज़मीन आदि अपना सब-कुछ छोड़ दिया था, यहाँ तक कि उन्हें नगर के जीवन से भी घृणा थी। अब गाँव से बाहर एक छोटे-से मन्दिर में रहते और भगवान का भजन करते थे। "मैं सुलतान के बिना नहीं रह सकूँगा", उन्हें ऐसी भ्रान्ति सी हो गई थी। वे उसकी चाल पर लट्टू थे। कहते, "ऐसे चलता है जैसे मोर घटा को देखकर नाच रहा हो।" जब तक संध्या समय सुलतान पर चढ़कर आठ-दस मील का चक्कर न लगा लेते, उन्हें चैन न आता।

खड़गसिंह उस इलाके का प्रसिद्ध डाकू था। लोग उसका नाम सुनकर काँपते थे। होते-होते सुल्तान की कीर्ति उसके कानों तक भी पहुँची। उसका हृदय उसे देखने के लिए अधीर हो उठा। वह एक दिन दोपहर के समय बाबा भारती के पास पहुँचा और नमस्कार करके बैठ गया। बाबा भारती ने पूछा, "खडगसिंह, क्या हाल है?"

खडगसिंह ने सिर झुकाकर उत्तर दिया, "आपकी दया है।"

"कहो, इधर कैसे आ गए?"

"सुलतान की चाह खींच लाई।"

"विचित्र जानवर है। देखोगे तो प्रसन्न हो जाओगे।"

"मैंने भी बड़ी प्रशंसा सुनी है।"

"उसकी चाल तुम्हारा मन मोह लेगी!"

"कहते हैं देखने में भी बहुत सुँदर है।"

"क्या कहना! जो उसे एक बार देख लेता है, उसके हृदय पर उसकी छवि अंकित हो जाती है।"

"बहुत दिनों से अभिलाषा थी, आज उपस्थित हो सका हूँ।"

बाबा भारती और खड़गसिंह अस्तबल में पहुँचे। बाबा ने घोड़ा दिखाया घमंड से, खड़गसिंह ने देखा आश्चर्य से। उसने सैंकड़ो घोड़े देखे थे, परन्तु ऐसा बाँका घोड़ा उसकी आँखों से कभी न गुजरा था। सोचने लगा, भाग्य की बात है। ऐसा घोड़ा खड़गसिंह के पास होना चाहिए था। इस साधु को ऐसी चीज़ों से क्या लाभ? कुछ देर तक आश्चर्य से चुपचाप खड़ा रहा। इसके पश्चात् उसके हृदय में हलचल होने लगी। बालकों की-सी अधीरता से बोला, "परंतु बाबाजी, इसकी चाल न देखी तो क्या?"

दूसरे के मुख से सुनने के लिए उनका हृदय अधीर हो गया। घोड़े को खोलकर बाहर गए। घोड़ा वायु-वेग से उडने लगा। उसकी चाल को देखकर खड़गसिंह के हृदय पर साँप लोट गया। वह डाकू था और जो वस्तु उसे पसंद आ जाए उस पर वह अपना अधिकार समझता था। उसके पास बाहुबल था और आदमी भी। जाते-जाते उसने कहा, "बाबाजी, मैं यह घोड़ा आपके पास न रहने दूँगा।"

बाबा भारती डर गए। अब उन्हें रात को नींद न आती। सारी रात अस्तबल की रखवाली में कटने लगी। प्रति क्षण खड़गसिंह का भय लगा रहता, परंतु कई मास बीत गए और वह न आया। यहाँ तक कि बाबा भारती कुछ असावधान हो गए और इस भय को स्वप्न के भय की नाईं मिथ्या समझने लगे। संध्या का समय था। बाबा भारती सुल्तान की पीठ पर सवार होकर घूमने जा रहे थे। इस समय उनकी आँखों में चमक थी, मुख पर प्रसन्नता। कभी घोड़े के शरीर को देखते, कभी उसके रंग को और मन में फूले न समाते थे। सहसा एक ओर से आवाज़ आई, "ओ बाबा, इस कंगले की सुनते जाना।"

आवाज़ में करूणा थी। बाबा ने घोड़े को रोक लिया। देखा, एक अपाहिज वृक्ष की छाया में पड़ा कराह रहा है। बोले, "क्यों तुम्हें क्या कष्ट है?"

अपाहिज ने हाथ जोड़कर कहा, "बाबा, मैं दुखियारा हूँ। मुझ पर दया करो। रामावाला यहाँ से तीन मील है, मुझे वहाँ जाना है। घोड़े पर चढ़ा लो, परमात्मा भला करेगा।"

"वहाँ तुम्हारा कौन है?"

"दुगार्दत्त वैद्य का नाम आपने सुना होगा। मैं उनका सौतेला भाई हूँ।"

बाबा भारती ने घोड़े से उतरकर अपाहिज को घोड़े पर सवार किया और स्वयं उसकी लगाम पकड़कर धीरे-धीरे चलने लगे। सहसा उन्हें एक झटका-सा लगा और लगाम हाथ से छूट गई। उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा, जब उन्होंने देखा कि अपाहिज घोड़े की पीठ पर तनकर बैठा है और घोड़े को दौड़ाए लिए जा रहा है। उनके मुख से भय, विस्मय और निराशा से मिली हुई चीख निकल गई। वह अपाहिज डाकू खड़गसिंह था।बाबा भारती कुछ देर तक चुप रहे और कुछ समय पश्चात् कुछ निश्चय करके पूरे बल से चिल्लाकर बोले, "ज़रा ठहर जाओ।"

खड़गसिंह ने यह आवाज़ सुनकर घोड़ा रोक लिया और उसकी गरदन पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा, "बाबाजी, यह घोड़ा अब न दूँगा।"

"परंतु एक बात सुनते जाओ।" खड़गसिंह ठहर गया।

बाबा भारती ने निकट जाकर उसकी ओर ऐसी आँखों से देखा जैसे बकरा कसाई की ओर देखता है और कहा, "यह घोड़ा तुम्हारा हो चुका है। मैं तुमसे इसे वापस करने के लिए न कहूँगा। परंतु खड़गसिंह, केवल एक प्रार्थना करता हूँ। इसे अस्वीकार न करना, नहीं तो मेरा दिल टूट जाएगा।"

"बाबाजी, आज्ञा कीजिए। मैं आपका दास हूँ, केवल घोड़ा न दूँगा।"

"अब घोड़े का नाम न लो। मैं तुमसे इस विषय में कुछ न कहूँगा। मेरी प्रार्थना केवल यह है कि इस घटना को किसी के सामने प्रकट न करना।"

खड़गसिंह का मुँह आश्चर्य से खुला रह गया। उसका विचार था कि उसे घोड़े को लेकर यहाँ से भागना पड़ेगा, परंतु बाबा भारती ने स्वयं उसे कहा कि इस घटना को किसी के सामने प्रकट न करना। इससे क्या प्रयोजन सिद्ध हो सकता है? खड़गसिंह ने बहुत सोचा, बहुत सिर मारा, परंतु कुछ समझ न सका। हारकर उसने अपनी आँखें बाबा भारती के मुख पर गड़ा दीं और पूछा, "बाबाजी इसमें आपको क्या डर है?"

सुनकर बाबा भारती ने उत्तर दिया, "लोगों को यदि इस घटना का पता चला तो वे दीन-दुखियों पर विश्वास न करेंगे।" यह कहते-कहते उन्होंने सुल्तान की ओर से इस तरह मुँह मोड़ लिया जैसे उनका उससे कभी कोई संबंध ही नहीं रहा हो।

बाबा भारती चले गए। परंतु उनके शब्द खड़गसिंह के कानों में उसी प्रकार गूँज रहे थे। सोचता था, कैसे ऊँचे विचार हैं, कैसा पवित्र भाव है! उन्हें इस घोड़े से प्रेम था, इसे देखकर उनका मुख फूल की नाईं खिल जाता था। कहते थे, "इसके बिना मैं रह न सकूँगा।" इसकी रखवाली में वे कई रात सोए नहीं। भजन-भक्ति न कर रखवाली करते रहे। परंतु आज उनके मुख पर दुख की रेखा तक दिखाई न पड़ती थी। उन्हें केवल यह ख्याल था कि कहीं लोग दीन-दुखियों पर विश्वास करना न छोड़ दे। ऐसा मनुष्य, मनुष्य नहीं देवता है।

रात्रि के अंधकार में खड़गसिंह बाबा भारती के मंदिर पहुँचा। चारों ओर सन्नाटा था। आकाश में तारे टिमटिमा रहे थे। थोड़ी दूर पर गाँवों के कुत्ते भौंक रहे थे। मंदिर के अंदर कोई शब्द सुनाई न देता था। खड़गसिंह सुल्तान की बाग पकड़े हुए था। वह धीरे-धीरे अस्तबल के फाटक पर पहुँचा। फाटक खुला पड़ा था। किसी समय वहाँ बाबा भारती स्वयं लाठी लेकर पहरा देते थे, परंतु आज उन्हें किसी चोरी, किसी डाके का भय न था। खड़गसिंह ने आगे बढ़कर सुलतान को उसके स्थान पर बाँध दिया और बाहर निकलकर सावधानी से फाटक बंद कर दिया। इस समय उसकी आँखों में नेकी के आँसू थे। रात्रि का तीसरा पहर बीत चुका था। चौथा पहर आरंभ होते ही बाबा भारती ने अपनी कुटिया से बाहर निकल ठंडे जल से स्नान किया। उसके पश्चात्, इस प्रकार जैसे कोई स्वप्न में चल रहा हो, उनके पाँव अस्तबल की ओर बढ़े। परंतु फाटक पर पहुँचकर उनको अपनी भूल प्रतीत हुई। साथ ही घोर निराशा ने पाँव को मन-मन भर का भारी बना दिया। वे वहीं रूक गए। घोड़े ने अपने स्वामी के पाँवों की चाप को पहचान लिया और ज़ोर से हिनहिनाया। अब बाबा भारती आश्चर्य और प्रसन्नता से दौड़ते हुए अंदर घुसे और अपने प्यारे घोड़े के गले से लिपटकर इस प्रकार रोने लगे मानो कोई पिता बहुत दिन से बिछड़े हुए पुत्र से मिल रहा हो। बार-बार उसकी पीठपर हाथ फेरते, बार-बार उसके मुँह पर थपकियाँ देते। फिर वे संतोष से बोले, "अब कोई दीन-दुखियों से मुँह न मोड़ेगा।"

- सुदर्शन


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राजा भोज का सपना - राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद

वह कौन-सा मनुष्‍य है जिसने महा प्रतापी राजा भोज महाराज का नाम न सुना हो। उसकी महिमा और कीर्ति तो सारे जगत में व्‍याप रही है और बड़े-बड़े महिपाल उसका नाम सुनते ही कांप उठते थे और बड़े-बड़े भूपति उसके पांव पर अपना सिर नवाते। सेना उसकी समुद्र की तरंगों का नमूना और खजाना उसका सोने-चांदी और रत्‍नों की खान से भी दूना। उसके दान ने राजा करण को लोगों के जी से भुलाया और उसके न्‍याय ने विक्रम को भी लजाया। कोई उसके राजभर में भूखा न सोता और न कोर्ड उघाड़ा रहने पाता। जो सत्तू मांगने आता उसे मोतीचूर मिलता और जो गजी चाहता उसे मलमल दिया जाता। पैसे की जगह लोगों को अशरफियां बांटता और मेह की तरह भिखारियों पर मोती बरसाता। एक-एक श्‍लोक के लिए ब्राह्मणों को लाख-लाख रुपया उठा देता और एक-एक दिन में लाख-लाख गौ दान करता, सवा लाख ब्राह्मणों को षट्-रस भोजन कराके तब आप खाने को बैठता। तीर्थयात्रा-स्‍नान-दान और व्रत-उपवास में सदा तत्‍पर रहता। बड़े-बड़े चांद्रायण किये थे और बड़े-बड़े जंगल-पहाड़ छांन डाले थे। एक दिन शरद ऋतु में संध्‍या के समय सुदंर फुलवाड़ी के बीच स्‍वच्‍छ पानी के कुंड के तीर जिसमें कुमुद और कमलों के बीच जल-पक्षी कलोलें कर रहे थे, रत्‍नजटित सिंहासन पर कोमल तकिये के सहारे से स्‍वस्‍थ-चित्त बैठा हुआ महलों की सुनहरी कलसियां लगी हुई संगमरमर की गुम्जियों के पीछे से उदय होता हुआ पूर्णिमा का चांद देख रहा था और निर्जन एकांत होने के कारण मन ही मन में सोचता कि अहो! मैंने अपने कुल को ऐसा प्रकाश किया जैसे सूर्य से इन कमलों का विकास होता है, क्‍या मनुष्‍य और क्‍या जीव-जंतु मैंने अपना सारा जन्‍म इन्‍हीं के भला करने में गंवाया और व्रत-उपवास करते-करते अपने फूल से शरीर को कांटा बनाया। जितना मैंने दान दिया उतना तो कभी किसी के ध्‍यान में भी न आया होगा, जिन-जिन तीर्थों की मैंने यात्रा की वहां कभी पंछी ने पर भी न मारा होगा, मुझसे बढ़कर इब इस संसार में और कौन पुण्‍यात्‍मा है और आगे भी कौन हुआ होगा। जो मैं ही कृतकार्य नहीं तो फिर कौन हो सकता है? मुझे अपने ईश्‍वर पर दावा है, वह मुझे अवश्‍य अच्‍छी गति देगा। ऐसा कैसे हो सकता है कि मुझे भी कुछ दोष लगे। इसी अर्से में चोबदार पुकारा चौधरी इंद्रत्त निगाह रूबरू श्री महाराज सलामत। भोज ने आंख उठाई, दीवान ने साष्‍टांग दंडवत् की फिर सम्‍मुख आ हाथ जोड़ यों निवेदन किया, पृथ्‍वीनाथ, वह कूंएं सड़क पर, जिनके वास्‍ते आपने हुक्‍म दिया था, बनकर तैयार हो गए और आम के बाग भी सब जगह लग गए। जो पानी पीता है, आपको असीस देता और जो उन पेड़ों की छाया में विश्राम करता है, आपकी बढ़ती दौलत मनाता है। राजा अति प्रसन्‍न हुआ और कहा कि सुन, मेरी अमलदारी भर में जहां-जहां सड़क है, कोस-कोस पर कूंए खुदवा के सदवर्त बैठा दे और दुतरफा पेड़ भी जल्‍द लगवा दे। इसी अर्से में दानाध्‍यक्ष ने आकर आशीर्वाद दिया और निवेदन किया कि घर्मावतार, वह जो पांच हजार ब्राह्मण हर साल जाडों में रजाई पाते हैं सो डेवढ़ी पर हाजिर हैं। राजा ने कहा, अब पांच के बदले पचास हजार को मिला करे और रजाई की जगह शाल-दुशाला दिया जावे दानाध्‍यक्ष दुशालों के लाने के वास्‍ते तोशेखाने में गया। इमारत के दारोगा ने आकर मुजरा किया और खबर दी कि महाराज, वह बड़ा मंदिर जिसके जल्‍द बना देने के वास्‍ते सरकार से हुक्‍म हुआ है आज उसकी नेव खुद गई, पत्‍थर गढ़े जाते हैं और लुहार लोहा भी तैयार कर रहे हैं। महाराज ने तिउरियां बदलकर उस दारोगा को खूब घुरका और कहा कि मूर्ख, वहां पत्‍थर और लोहे का क्‍या काम है ! बिल्‍कुल मंदिर संगमरमर और संगमूसा से बनाया जावे और लोहे बदल उसमें सब जगह सोना काम में आवे जिसमें भगवान भी उसे देखकर प्रसन्‍न हो जावे मेरा नाम इस संसार में अतुल कीर्ति पावे। यह सुनकर सारा दरबार पुकार उठा कि धन्‍य महाराज, धन्‍य, क्‍यों न हो, जब ऐसे हो तब तो ऐसे हो, आपने इस कलिकाल को सत्‍ययुग बना दिया मानो धर्म का उद्धार करने को इस जगत में अवतार लिया। आज आपसे बढ़कर और दूसरा कौन ईश्‍वर का प्‍यारा है। हमने तो पहले से ही आपको साक्षात धर्मराज विचारा है। व्‍यास जी ने कथा आरंभ की, भजन-कीर्तन होने लगा। चांद सिर पर चढ़ आया, घड़ियाली ने निवेदन किया कि महाराज रात आधी के निकट पहुंची। राजा की आंखों में नींद छा रही थी, व्‍यास जो कथा कहते थे पर राजा को ऊंघ आती थी। उठकर रनवास में गया, जड़ाऊ पलंग और फूलों की सेज पर सोई रानियां पैर दाबने लगीं राजा की आंख झपक गयी तो स्‍वप्‍न में क्‍या देखता है कि वह बड़ा संगमरमर का मंदिर बनकर बिल्‍कुल तैयार हो गया। जहां कहीं उस पर नक्‍काशी का काम किया है तो बारीकी और सफाई में हाथी दांत को भी मात कर दिया है, जहां कहीं पच्‍चीकारी का हुनर दिखलाया है तो जवाहिरों को पत्‍थरों में जड़कर तसवीर का नमूना बना दिया है, कहीं लालों के गुल्‍लालों पर नीलम की बुलबुलें बैठी हैं और ओस की जगह हीरों के लोलक लटकाए हैं, कहीं पुखराजों की डंडियों से पन्‍ने के पत्‍ते निकालकर मोतियों के भुटटे लगाए हैं, सोने की चोबों पर कमखाब के शामियाने और उनके नीचे बिल्‍लौर के हौजों में गुलाब और केवड़े के फुहारे छूट रहे हैं, मनों धूप जल रहा है, सैंकड़ों कपूर के दीपक बल रहे हैं। राजा देखते ही मारे घमंड के फूलकर मशक बन गया। कभी नीचे, कभी ऊपर, कभी दहने, कभी बायें निगाह करता और मन में सोचता कि क्‍या अब इतने पर भी मुझे कोई स्‍वर्ग में से रोकेगा या पवित्र पुण्‍यात्‍मा न कहेगा? मुझे अपने कर्मों का भरोसा है, दूसरे किसी से क्‍या काम पड़ेगा। इसी अर्से में वह राजा उस सपने के मंदिर में खड़ा-खड़ा क्‍या देखता है कि एक जोत-सी उसके सामने आसमान से उतरी चली आती है, उसका प्रकाश तो हजारों सूर्य से भी अधिक है परंतु जैसे सूरज को बादल घेर लेता है इस प्रकार उसने मुंह पर घूंघट डाल लिया है नहीं तो राजा की आंखें कब उस पर ठहर सकती थीं वरन् इस घूंघट पर भी मारे चकाचौंध के झपकी चली जाती थीं। राजा उसे देखते ही कांप उठा और लड़खड़ाती-सी जुबान से बोला कि हे महाराज, आप कौन हैं और मेरे पास किस प्रयोजन से आये हैं। उस दैवी पुरुष ने बादल की गरज के समान गंभीर उत्‍तर दिया कि मैं सत्‍य हूं, मैं अंधों की आखें खोलता हूं, मैं उनके आगे से धोखे की पट्टी हटाता हूं, मैं मृगतृष्‍णा के भटके हुओं का भ्रम मिटाता हूं और सपने के भूले हुओं को नींद से जगाता हूं, हे भोज, यदि कुछ हिम्‍मत रखता है तो आ, हमारे साथ आ और हमारे तेज के प्रभास से मनुष्‍यों के मन के मंदिरों का भेद ले, इस समय हम तेरे ही मन को जांच रहे हैं। राजा के जी पर एक अजब दहशत-सी छा गई। नीची निगाहें करके गर्दन खुजाने लगा। सत्‍य बोला, भोज, तू डरता है, तुझे अपने मन का हाल जानने में भी भय लगता है। भोज ने कहा कि नहीं इस बात से तो नहीं डरता क्‍योंकि जिसने अपने तईं नहीं जाना उसने फिर क्‍या जाना सिवाय इसके मैं तो आप चाहता हूं कि कोई मेरे मन की थाह लेवे और अच्‍छी तरह से जांचे। मारे व्रत और उपवासों के मैंने अपना फूल सा शरीर कांटा बनाया, ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा देते-देते सारा खजाना खाली कर डाला, कोई तीर्थ बाकी न रखा, कोई नदी या तालाब नहाने से न छोड़ा। ऐसा कोई आदमी नहीं है जिसकी निगाह में मैं पवित्र पुण्‍यात्‍मा न ठहरूं। सत्‍य बोला, ठीक, पर भोज, यह तो बतला कि तू ईश्‍वर की निगाह में क्‍या है। क्‍या हवा में बिना धूप तृसरेणु कभी दिखलायी देते हैं? पर सूरज की किरण पड़ते ही कैसे अनगिनत चमकने लग जाते हैं, क्‍या कपड़े से छाने हुए मैले पानी में किसी को कीड़े मालूम पड़ते हैं पर जब खुर्दबीन शीशे को लगाकर देखो तो एक-एक बूंद में हजारों ही जीव सूझने लग जाते हैं। बस जो तू उस बात के जानने से जिसे अवश्‍य जानना चाहिए डरता नहीं तो आ, मेरे साथ आ, मैं तेरी आंखें खोलूंगा। निदान सत्‍य यह कहके राजा को मंदिर के उस बड़े ऊंचे दरवाजे पर चढ़ा ले गया कि जहां से सारा बाग दिखलाई देता था और फिर उससे यों कहने लगा कि भोज, मैं अभी तेरे पापकर्मों का कुछ भी चर्चा नहीं करता क्‍योंकि तूने अपने तईं निरा निष्‍पाप समझ रखा है पर यह तो बतला कि तूने पुण्‍यकर्म कौन-कौन से किये हैं कि जिनसे सर्व शक्तिमान जगदीश्‍वर संतुष्‍ट होगा। राजा यह सुनके अत्‍यंत प्रसन्‍न हुआ, यह तो मानो उसके मन की बात थी। पुण्‍यकर्म के नाम से उसके चित्‍त को कमल सा खिला दिया। उसे निश्‍चय था कि पाप तो मैंने चाहे किया हो चाहे न किया हो पर पुण्‍य मैंने इतना किया कि भारी से भारी पाप भी उसके पासंग में न ठहरेगा। राजा को वहां उस समय सपने में तीन पेड़ बड़े ऊंचे-ऊंचे अपनी आंख के सामने दिखायी दिये, फलों से इतने लदे हुए कि मारे बोझ के उनकी टहनियां धरती तक झुक गयी थीं। राजा उन्‍हें देखते ही हरा हो गया और बोला कि सत्‍य, यह ईश्‍वर की भक्ति और जीवों की दया अर्थात् ईश्‍वर और मनुष्‍य दोनों की प्रीति के पेड़ हैं। देख फलों के बोझ से धरती पर नपे जाते हैं। यह तीनों मेरे ही लगाये हैं। पहिले में तो यह सब लाल-लाल फल मेरे दान से लगे हैं। और दूसरे में वह पीले मेरे न्‍यास से और तीसरे में यह सब सफेद फल मेरे तप का प्रभाव दिखलाते हैं। मानो उस समय चारों ओर से यह ध्‍वनि राजा के कान में चली आती थी कि धन्‍य हो महाराज, धन्‍य हो, आज तुम सा पुण्‍यात्‍मा दूसरा कोई नहीं। तुम साक्षात धर्म के अवतार हो। इस लोक में भी तुमने बड़ा पद पाया है और उस लोक में भी तुम्‍हें इससे अधिक मिलेगा। तुम मनुष्‍य और ईश्‍वर दोनों की आंखों में निर्दोष और निष्‍पाप हो। सूर्य के मंडल में लोग कलंक बतलाते हैं पर तुम पर एक छींटा भी नहीं लगाते। सत्‍य बोला कि भोज, जब मैं इन पेड़ों के पास से आया था जिन्‍हें तू ईश्‍वर की भक्ति और जीवों की दया के बतलाता है तब तो उनमें फल-फूल कुछ भी नहीं था, निरे ठूंठ से खड़े थे, यह लाल, पीले और सफेद फल कहां से आ गये ! यह सचमुच उन पेड़ों में फल लगे हैं या तुझे फुसलाने और खुश करने को किसी ने उनकी टहनियों से लटका दिये हैं? चल उन पेड़ों के पास चलकर देखें तो सही मेरी समझ में तो यह लाल-लाल फल जिन्‍हें तू अपने दान के प्रभाव से लगे बतलाता है, यश और कीर्ति फैलाने की चाह अर्थात् प्रशंसा पाने की इच्‍छा ने इस पेड़ में लगाए हैं। निदान जो हो, सत्‍य ने उस पेड़ को छूने को हाथ बढ़ाया। राजा सपने में क्‍या देखता है कि वह सारे फल जैसे आसमान से ओले गिरते हैं, एक आन की आन में धरती पर गिर पड़े। धरती सारी लाल हो गयी। पेड़ों पर सिवाय पत्‍तों के और कुछ न रहा। सत्‍य ने कहा कि राजा, जैसे कोई किसी चीज को मोम से चिपकाता है उसी तरह तूने अपने भुलाने को, प्रशंसा पाने की इच्‍छा से यह फल इस पेड़ पर लगा दिये थे, सत्‍य के तेज से वहां मोम गल गया, पेड ठूंठ का ठूंठ रह गया। जो कुछ तूने दिया और किया सब दुनिया के दिखलाने और मनुष्‍यों से प्रशंसा पाने के लिये। केवल ईश्‍वर की भक्ति और जीवों की दया से तो कुछ भी नहीं दिया। यदि कुछ दिया हो या किया हो तो तू ही क्‍यों नहीं बतलाता। मूर्ख इसी के भरोसे पर तू फूला हुआ स्‍वर्ग में जाने को तैयार हुआ था ! भोज ने एक ठंडी सांस ली। उसने तो औरों को भूला समझा था पर वह सबसे अधिक भूला हुआ निकला। सत्‍य से उस पेड़ की तरफ हाथ बढ़ाया जो सोने की तरह चमकते पीले-पीले फलों से लदा हुआ था। सत्‍य का हाथ पास पहुंचते ही इसका भी वही हाल हो गया जो पहले का हुआ था। सत्‍य बोला कि राजा, इस पेड़ में ये फल तूने अपने भुलाने को। स्‍वर्ग को यथार्थ सिद्ध करने की इच्‍छा से लगा लिये थे। कहने वाले ने ठीक कहा है कि मनुष्‍य-मनुष्‍य के कर्मों से उसके मन की भावना का विचार करता है और ईश्‍वर मनुष्‍य के मन की भावना के अनुसार उसके कर्मों का हिसाब लेता है। तू अच्‍छी तरह जानता है कि यही न्याय तेरे राज्‍य की जड़ है। जो न्‍याय न करे तो फिर वह राज्‍य तेरे हाथ में क्‍योंकर रह सके। जिस राज्‍य में न्‍याय नहीं वह तो वे नींव का घर है, बुढि़या के दांतों की तरह हिलता है, अब गिरा तब गिरा। मूर्ख, तू ही क्‍यों नहीं बतलाता कि यह तेरा न्‍याय स्‍वार्थ सिद्ध करने और सांसारिक सुख पाने की इच्‍छा से है अथवा ईश्‍वर की, भक्ति और जीवों की दया से। भोज की पेशानी पर पसीना हो आया, आंखें नीची कर लीं जवाब कुछ न बन पड़ा। तीसरे पेड़ की पारी आयी। सत्‍य का हाथ लगते ही उसकी भी वही हालत हुई। राजा अत्‍यंत लज्जित हुआ। सत्‍य ने कहा कि मूर्ख, यह तेरे तप के फल कदापि नहीं इनको तो इस पेड़ पर तेरे अहंकार ने लगा रखा था। वह कौन सा व्रत वा तीर्थयात्रा है जो तूने निहंकार केवल ईश्‍वर की भक्ति और जीवों की दया से किया हो ! तूने यह तप इसी वास्‍ते किया कि जिसमें तू अपने तईं औरों से अच्‍छा और बढ़ के विचारे। ऐसे ही तप पर गोबर-गनेश, तू स्‍वर्ग मिलने की उमेद रखता है पर यह तो बतला कि मंदिर की उन मुंडेरों पर वे जानवर से क्‍या दिखलायी देते हैं? कैसे सुंदर और प्‍यारे मालूम होते हैं ! पर तो उनके पन्‍ने के हैं और गर्दन फीरोजे की, दुम में सारे किस्‍म के जवाहिर जड़ दिये हैं। राजा के जी में घमंड की चिड़िया ने फिर फुरफुरी ली मानो बुझते हुए दिये की तरह जगमगा उठा। जल्‍दी से जवाब दिया कि हे सत्‍य, यह जो कुछ तू मंदिर की मुंडेरों पर देखता है मेरे संध्‍या-वंदन का प्रभाव है। मैंने जो रातों जाग-जागकर और माथा रगड़ते-रगड़ते इस मंदिर की देहली को घिसाकर ईश्‍वर की स्‍तुति-वंदना और विनती प्रार्थना की है वही अब चिडियों की तरह पंख फैलाकर आकाश को जाती है मानों ईश्‍वर के सामने पहुंचकर अब मुझे स्‍वर्ग का राजा बनाती हैं। सत्‍य ने कहा कि राजा, दीनबंधु करुणासागर श्री जगन्‍नाथ जगदीश्‍वर अपने भक्‍तों की विनती सदा सुनता रहता है और जो मनुष्‍य शुद्ध हृदय और निष्‍कपट होकर नम्रता और श्रद्धा के साथ अपने दुष्‍कर्मों का पश्‍चाताप अथवा उनके क्षमा होने का टुक भी निवेदन करता है वह उसका निवेदन उसी दम सूर्य-चांद को बेधकर पार हो जाता है। फिर क्‍या कारण कि यह सब आप अब तक मंदिर की मुडेर ही पर बैठे रहे। आ चल देखें तो सही हम लोगों के पास जाने पर आकाश तो उड़ जाते हैं या उसी जगह पर परकट-कबूतरों की तरह फड़फड़ाया करते हैं। भोज डरा लेकिन सत्‍य का साथ न छोड़ा। ज‍ब मुंडेर पर पहुंचा तो क्‍या देखता है कि वह सारे जानवर जो दूर से ऐसे सुदंर दिखायी देते थे, मरे हुए पड़े हैं, पंख नुचे-खुचे और बहुतों बिल्‍कुल सड़े हुए यहां तक कि मारे बदबू के राजा का सिर भिन्‍ना उठा। दो एक में जिनमें कुछ दम बाकी था जो उड़ने का इरादा भी किया तो उनके पंख पारे की तरह भारी हो गये और उन्‍हें उसी ठौर दबा रक्‍खा, तड़फा जरूर किये पर उड़ने जरा भी न दिया। सत्‍य बोला, भोज, बस यही तरे पुण्‍यकर्म हैं। इन्‍हीं स्‍तुति-वंदना और विनती-प्रार्थना के भरोसे पर तू स्‍वर्ग में जाना चाहता है! सूरत तो इनकी बहुत अच्‍छी है पर जान बिल्‍कुल नहीं। तूने जो कुछ किया केवल लोगों के दिखलाने को, जी से कुछ भी नहीं। जो तू एक बार भी जी से पुकारा होता कि दीनबंधु दीनानाथ दीन-हितकारी, मुझ पापी महा अपराधी डूबते हुए को बचा और कृपा-दृष्टि कर तो वह तेरी पुकार तीर की तरह तारों से पास पहुंची होती। राजा ने सिर नीचा कर लिया, उत्‍तर कुछ न बन आया। सत्‍य ने कहा कि भोज, अब आ फिर इस मंदिर के अंदर चलें और वहां तेरे मन के मंदिर को जांचे। यद्यपि मनुष्‍य के मन के मंदिर में ऐसे-ऐसे अंधेरे तहखाने और तलघर पड़े हुए हैं कि उनको सिवाय सर्वदर्शी घट-घट अंतर्यामी सकल जगत-स्‍वामी और कोई भी नहीं देख अथवा जांच सकता तो भी तेरा परिश्रम व्‍यर्थ न जावेगा। राजा उस सत्‍य के पीछे खिंचा-खिंचा फिर मंदिर के अंदर घुसा पर अब तू उसका हाल ही कुछ से कुछ हो गया। सचमुच सपने का खेल सा दिखायी दिया चांदी की सारी चमक जाती रही, सोने की बिल्‍कुल दमक उड़ गई, दोनों में लौ की तरह मोर्चा लगा हुआ और जहां-तहां से मुलम्‍मा उड़ गया था, भीतर ईंट पत्‍थर कैसा दिखलायी देता था, जवाहिरों की जगह केवल काले-काले दाग रह गये थे और संगमरमर की चट्टानों में हाथ-हाथ भर गहरे गढ्ढे पड़ गये। राजा यह देखकर भैंचक-सा रह गया। औसान जाते रहे, हक्‍का-बक्‍का बन गया धीमी आवाज से पूछा कि यह टिड्डी दल की तरह इतने दाग इस मंदिर में कहां से आये? जिधर मैं निगाह उठाता हूं सिवाय काले-काले दागों के और कुछ भी नहीं दिखलायी देता, ऐसा तो छीपी छींट भी नहीं छापेगा और न शीतला बिगड़ा किसी का चेहरा देख पड़ेगा। सत्‍य बोला कि राजा, ये दाग जो तुझे मंदिर में दिखलायी देते हैं वे दुर्वचन हैं जो दिन-रात तेरे मुख से निकला किये हैं। याद तो कर तूने क्रोध में आकर कैसी कड़ी-कड़ी बातें लोगों को सुनायी हैं। क्‍या खेल में और क्‍या आना अथवा दूसरे का चित्त प्रसन्‍न करने को, क्‍या रुपया बचाने अथवा अधिक लाभ पाने को और दूसरे का देश अपने हाथ में लाने अथवा किसी बराबर वाले से अपना मतलब निकालने और दुश्‍मनों को नीचा दिखलाने को कितना झूठ बोला है! अपने ऐब छिपाने और दूसरों की आंखों में अच्‍छा मालूम होने अथवा झूठी तारीफ पाने के लिए कैसी-कैसी शेखियां हांकी हैं! अपने को औरों से अच्‍छा, औरों को अपने से बुरा दिखलाने को कहां तक बातें बनायी हैं तो अब कुछ भी याद नहीं रहा, बिल्‍कुल एकबारगी भूल गया पर वहां वह तेरे मुंह से निकलते ही बही में दर्ज हुआ। तू इन दागों को गिनने में असमर्थ है पर उस घटघट निवासी अनंत अविनाशी को एक-एक बात जो तेरे मुंह से निकली है याद हैं और याद रहेंगी। उसके निकट भूत और भविष्‍य दोनों वर्तमान सा है। भोज ने सिर न उठाया पर उस दबी जुबान से इतना मुंह से और निकाला कि दाग पर ये हाथ-हाथ भर गढ़े क्‍योंकर पड़ गये, सोने-चांदी में मोर्चा लग कर ये ईंट पत्‍थर कहां से दिखलायी देने लगे! सत्‍य ने कहा कि राजा, क्‍या तूने कभी किसी को कोई लगती हुई बात नहीं कही अथवा बोली-ठोली नहीं मारी? अरे नादान, यह बोली-ठोली तो गोली से अधिक काम कर जाती है। तू तो इन गढ़ों ही को देखकर रोता है पर तेरे ताने तो बहुतों की छातियों से पार हो गये। जब अहंकार का मोर्चा लगा तो फिर यह दिखलावे का मुलम्‍मा कब तक ठहर सकता है, स्‍वार्थ और अश्रद्धा का ईंट-पत्‍थर प्रकट हो आया। राजा को इस अर्से में चिमगादड़ों ने बहुत तंग कर रखा था, मारे बू के सिर फटा जाता था, भनगे और पतंगों से सारा मकान भर गया था। राजा को बीच-बीच में पंख वाले सांप और बिच्‍छू भी दिखलायी देते थे। राजा घबराकर चिल्‍ला उठा कि यह मैं किस आफत में पड़ा! इन कमबख्‍तों को यहां किसने आने दिया? सत्‍य बोला, राजा, सिवाय तेरे इनको यहां कौन आने देगा! तू ही तो इन सबको लाया है। यह सब तेरे काम की बुरी वासना है। तूने समझा था कि जैसे समुद्र में लहरें उठा और मिटा करती हैं उसी तरह मनुष्‍य के मन में भी संकल्‍प की मौज उठकर मिट जाती है। पर रे मूढ़, याद रख कि आदमी के चित्त में ऐसा सोच-विचार कोई नहीं आता तो जगतकर्ता प्राणदाता परमेश्‍वर के साम्‍हने प्रतयक्ष नहीं हो जाता। यह चमगादड़ और भनगे और सांप-बिच्‍छू और कीड़े-मकोड़े जो तुझे दिखलाई देते हैं, संकल्‍प-विकल्‍प हैं जो दिन-रात तेरे अंत:करण में उठा किये और उन्‍हीं चमगादड़ और भनगे और सांप-बिच्‍छू और कीड़े-मकोड़ों की तरह तेरे हृदय के प्रकाश में उड़ते रहे। क्या कभी तेरे जी में किसी राजा की ओर से कुछ द्वेष नहीं रहा था? उसके मुल्‍क-माल पर लोभ नहीं आया था? अपनी बड़ाई का अभिमान नहीं हुआ या दूसरे की सुंदर स्‍त्री देखकर उस पर दिल न चला। राजा ने एक बड़ी लंबी ठंडी सांस ली और अत्‍यंत निराश होके वह बात कही कि इस संसार में ऐसा कोई मनुष्‍य नहीं है जो कह सके कि मेरा हृदय शुद्ध और मन में कुछ भी पाप नहीं। इस संसार में निष्‍पाप रहना बड़ा कठिन है। जो पुण्‍य करना चाहते हैं उनमें भी पाप निकल आता है। इस संसार में पाप से रहित कोई भी नहीं। ईश्‍वर के साम्‍हने पवित्र पुण्‍यात्‍मा कोई भी नहीं। सारा मंदिर वरन सारी धरती, आकाश गूंज उठा, कोई भी नहीं, कोई भी नहीं। सत्‍य ने जो आंख उठाकर उस मंदिर की एक दीवार की तरफ देखा तो वह उसी संगमर्मर से आयना बन गया। राजा से कहा कि अब टुक इस आइने का भी तमाशा देख और जो कर्तव्‍य कर्मों के न करने से तुझे पाप लगे हैं उनका भी हिसाब ले। राजा उस आइने में क्‍या देखता है, जिस प्रकार बरसात की बढ़ी हुई किसी नदी के जल के प्रवाह में बहे जाते हैं उस प्रकार अनगिनत सूरतें एक ओर से निकलती और दूसरी ओर अलोप होती चली जाती हैं। कभी तो राजा को वे सब भूखे और नंगे आइने में दिखलायी देते जिन्‍हें राजा खाने-पहरने को दे सकता था पर न देकर दान का रुपया उन्‍हीं हट्टे-कट्टे मोटे-मुसटंड खाते-पीते हुओं को देता रहा जो उसकी खुशामद करते थे या किसी की सिफारिश ले आते थे या उसके कारदारों को घूंस देकर मिला लेते थे या सवारी के समय मांगते-मांगते और शोर-गुल मचाते-मचाते उसे तंग कर डालते थे या दरबार में आकर उसे लज्‍जा के भंवर में गिरा देते थे या झूठा छापा-तिलक लगाकर उसे मकूर के जाल में फंसा लेते थे या जन्‍मपत्र में भले-बुरे ग्रह बतला कर कुछ धमकी भी दिखला देते थे या सुंदर कवित्त और श्‍लोक पढ़कर उसके चित्त को लुभाते थे, कभी वे दीन-दुखी दिखलाई देते जिन पर राजा के कारदार जुल्‍म किया करते थे और उसने कुछ भी उसकी तहकीकात और उपाय न की, कभी उन बीमारों को देखता जिनका चंगा करा देना राजा के इख्तियार में था, कभी वे व्‍यथा के जले और विपत्ति के मारे दिखलाई देते जिनका जी राज के दो बात कहने से ठंडा और संतुष्‍ट हो सकता था, कभी अपने लड़के और लड़कियों को देखता जिन्‍हें वह पढ़ा-लिखा कर अच्‍छी-अच्‍छी बातें सिखा कर बड़े-बड़े पापों से बचा सकता था, कभी उन गांव और इलाकों को देखता जिनमें कूप तालाब खुदवाने और किसानों को मदद देने और उन्‍हें खेती-बारी की नई-नई तरकीबें बतलाने से हजारों गरीबों का भला कर सकता था, उन टूटे हुए पुल और रास्‍तों को देखता जिन्‍हें दुरुस्‍त करने से वह लाखों मुसाफिरों को आराम पहुंच सकता था। राजा से अधिक देखा न जा सका। थोड़ी ही देर में घबरा कर हाथों से अपनी आंखों को ढाप लिया। वह अपने घमंड में उन सब कामों को तो सदा याद रखता था और उनका चर्चा किया करता जिन्‍हें वह अपनी समझ में पुण्‍य के निमित्त किए हुए समझा था पर उन कर्तव्‍य कामों का कभी टुक सोच न किया जिन्‍हें अपनी उन्‍मत्तता से अचेत होकर छोड़ दिया था। सत्‍य बोली, राजा, अभी से क्‍यों घबरा गया, आ इधर आ, इस दूसरे आइने में मैं तुझे अब उन पापों को दिखलाता हूं जो तूने अपनी उमर में किए हैं। राजा ने हाथ जोड़े और पुकारा कि इस महाराज, बस कीजिए, जो कुछ देखा उसी में मैं तो मिट्टी हो गया, कुछ भी बाकी न रहा, अब आगे क्षमा कीजिए। पर यह तो बतलाइये कि आपने यहां आकर मेरे शर्बत में क्‍यों जहर घोला और पकी-पकाई खीर में सांप का विष उगला और आपने मेरे आनंद को इस मंदिर में आके नाश में मिलाया जिसे मैंने सर्वशक्तिमान् भगवान् के अर्पण किया है, चाहे जैसा वह बुरा और अशुद्ध क्‍यों न हो पर मैंने तो उसी के निमित्त बनाया है। सत्‍य ने कहा, ठीक पर यह तो बतला कि भगवान इस मंदिर में बैठा है? यदि तूने भगवान को इस मंदिर में बैठाया होता तो फिर वह अशुद्ध क्‍यों रहता। जरा आंख उठाकर उस मूर्ति को तो देख जिसे तू जन्‍म-भर पूजता रहा है। राजा ने आंख उठाई तो क्‍या देखता है कि वहां उस बड़ी ऊंची वेदी पर उसी की मूर्ति पत्‍थर की गढ़ी हुई रखी है और अभिमान की पगड़ी बांधे हुए है। सत्‍य ने कहा कि मूर्ख, तूने जो काम किए केवल अपनी प्रतिष्‍ठा के लिए। इसी प्रतिष्‍ठा प्राप्‍त होने की सदा तेरी भावना रही और इसी प्रतिष्‍ठा के लिये तूने अपनी आप पूजा की। रे मूर्ख, सकल जगत्स्‍वामी घटघट अंतर्यामी क्‍या ऐसे मन रूपी मंदिर में भी अपना सिंहासन बिछने देता है तो अभिमान और प्रतिष्‍ठा-प्राप्ति की इच्‍छा इत्‍यादि से भरा है। ये तो उसकी जली पड़ने योग्‍य हैं। सत्‍य का इतना कहना था कि सारी पृथ्‍वी एकबारगी कांप उठी मानो उसी दम टुकड़ा-टुकड़ा होना चाहती थी। आकाश में ऐसा शब्‍द हुआ कि जैसा प्रलय काल का मेघ गरजा। मंदिर की दीवार चारों ओर से अड़अड़ा गिर पड़ी मानों उस पापी राजा को दबा लेना चाहती थी और उस अहंकार की मूर्ति पर ऐसी एक बिजली गिरी कि वह धरती पर औधें मुंह आ पड़ी। 'त्राहि त्राहि मां, मैं डूबा' कहके भोज जो चिल्‍लाया, आंख उसकी खुल गई और सपना बना हो गया। इस अर्से में रात बीत कर आस्‍मान के किनारों पर लाली दौड़ हुई थी। चिड़िया चहचहा रही थी। एक ओर से शीतल मंद सुगंध पवन चली थी दूसरी ओर से बीन और मृदंग की ध्‍वनि। बंदीजन राजा का जस गाने हर्कारे हर तरफ काम को दौड़े, कमल खिले, कुमुद कुम्‍हालाये। राजा पलंग से पर जीभारी, माथ थामें हुए। न हवा अच्‍छी लगती थी न गाने बजाने की सुध-बुध थी। उठते ही पहले यह हुक्‍म दिया कि इस नगर में जो अच्‍छे पंडित हों जल्‍द उसको मेरे पास लाओ, मैंने एक सपना देखा है कि जिसके आगे अब या सारा राग सपना मालूम होता है। उस सपने के स्‍मरण से ही मेरे रोंगटे खड़े हुए होते हैं। राजा के मुख से हुक्‍म निकलने की देर थी, चोपदार ने तीन पंडितों को उस समय वशिष्‍ठ, याज्ञवलक्‍य और बृहस्‍पति के समान प्रख्‍यात थे, बात-की-बात में राजा के सामने ला खड़ा किया। राजा का मुंह पीला पड़ गया था। माथे पर पसीना हो आया था, पूछा कि वह कौन-सा उपाय है जिससे यह पापी मनुष्‍य ईश्‍वर के कोप से छुटकारा पावे। उनमें से एक बड़े बूढ़े पंडित ने आशीर्वाद देकर निवेदन किया कि धर्मराज धर्मावतार, यह भय तो आपके शत्रुओं को होना चाहिए, आपसे पवित्र पुण्‍यात्‍मा के जी में ऐसा संदेह क्‍यों उत्‍पन्‍न हुआ? आप अपने पुण्‍य के प्रभाव का जामा पहन के बे-खटके परमेश्‍वर के साम्‍हने जाइए, न तो वह कहीं से फटा-फटा है और न किसी जगह से मैला-कुचैला हुआ है। राजा क्रोध करके बोला कि अस अधिक अपनी वाणी को परिश्रम न दीजिए और इसी दम अपने घर की राह लीजिए। क्‍या आप फिर उस पर्दे को डालना चाहते हैं जो सत्‍य ने मेरे साम्‍हने से हटाया और बुद्धि की आंखों को बंद करना चाहते हैं जिन्‍हें सत्‍य ने खोला! उस पवित्र परमात्‍मा के साम्‍हने अन्‍याय कभी नहीं ठहर सकता। मेरे पुण्‍य का जामा उसके आगे निरा चीथड़ा है। यदि वह मेरे कामनों पर निगाह करेगा तो नाश हो जाऊंगा, मेरा कहीं पता भी न लगेगा। इसी में दूसरा पंडित बोल उठा कि महाराज, परब्रह्म परमात्‍मा जो आनंद-स्‍वरूप है, उसकी दया के सागर का कब किसी ने वारापार पाया है! वह क्‍या हमारे इन छोटे-छोटे कामों पर निगाह किया करता है! एक कृपा-दृष्टि से सारा बेड़ा पार लगा देता है। राजा ने आंखें दिखला के कहा कि महाराज, आप भी अपने घर को सिधारिये, आपने ईश्‍वर को ऐसा अन्‍यायी ठहरा दिया कि वह किसी पापी को सजा नहीं देता है, सब धान बाईस पसेरी तोलता है मानो हरभोंगपुर का राज करता है। इसी संसार में क्‍यों नहीं देख लेते, जो आम बोता है वह आम खाता है और जो बबूल लगाता है वह कांटे चुनता है, तो क्‍या उस लोक में जो जैसा करेगा सर्वदर्शी घटघट अंतर्यामी से उसका बदला वैसा ही न पावेगा? सारी सृष्टि पुकारे कहती है और हमारा अंत:करण भी इस बात पर गवाही देता है कि ईश्‍वर अन्‍याय नहीं करेगा। जो जैसा करेगा वैसा ही उससे उसका बदला पावेगा। अब तीसरा पंडित आगे बढ़ा यों जुबान खोली कि महाराजाधिराज, परमेश्‍वर के यहां से हम लोगों को वैसा ही बदला मिलेगा कि जैसा हम लोग काम करते हैं, इसमें कुछ भी संदेह नहीं। आप यथार्थ फरमाते हैं परमेश्‍वर अन्‍याय कभी नहीं करेगा पर यह इतने प्रायश्चित्त और होम और यज्ञ और जप-तप तीर्थयात्रा किस लिए बनाए गए हैं? यह इसीलिए हैं कि जिसमें परमेश्‍वर हम लोगों का अपराध क्षमा करे और वैकुंठ में अपने पास रहने को ठौर देवे। राजा ने कहा, देवताजी, कल तो मैं आपकी सब बात मान सकता था लेकिन अब तो मुझे इन कामों में भी ऐसा कोई नहीं दिखलाई देता जिसके करने से यह पापी मनुष्‍य पवित्र पुण्‍यात्‍मा हो जावे। वह कौन-सा जप-तप, तीर्थयात्रा, होम-यज्ञ और प्रायशिचत है जिसके करने से हृदय शुद्ध हो और अभिमान न आ जावे। आदमी को फुसला लेना तो सहज है पर उस घटघट के अंतर्यामी को कोई क्‍योंकर फुसलावे! जब मनुष्‍य का मन ही पाप से भरा हुआ है तो फिर उससे पुण्‍यकर्म कोई कहां बन आवे। पहल आप उस स्‍वप्‍न को सुनिये जो रात को देखा है तब फिर पीछे वह उपाय बतलाइये जिससे पापी मनुष्‍य ईश्‍वर के कोप से छुटकारा पाता है।

 

निदान राजा ने जो कुछ रात को स्‍वप्‍न में देखा था सब जौं का जौं उस पंडित को कह सुनाया। पंडित जी तो सुनते ही आवाक् हो गये, सिर झुका लिया। राजा ने निराश होकर चाहा कि तुषानल में जल मरे पर एक परदेसी आदमी-सा जो उन पंडितों के साथ बिना बुलाये घुस आया था सोचता-विचारता उठ खड़ा हुआ और धीरे से यों निवेदन किया कि महाराज, हम लोगों का कर्ता ऐसा दीनबंधु कृपासिंधु है कि अपने मिलने की राह पाने की सच्‍चे जी से मदद मांगिये। हे पाठकजनो, क्या तुम भी भोज की तरह ढूंढ़ते हो और भगवान् से उसके मिलने की प्रार्थना करते हो? भगवान् तुम्‍हे शीघ्र ऐसी बुद्धि दे और अपनी राह पर चलावे, यही हमारा अत:करण से आशीर्वाद है। जिन ढूंढ़ा तिन पाइया गहरे पानी पैठ।

(1905)

 

- राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद

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राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद का जन्म काशी में 1823 में हुआ। आप काशी में शिक्षा-अधिकारी रहे। आप उर्दू और संस्कृत मिश्रित हिंदी भाषा का उपयोग करते थे। 23 मई 1895 को आपका निधन हो गया।

 


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मात | लघु-कथा - अमिता शर्मा

 

"इतनी उखड़ी हुई क्यों हो?"


उसका चेहरा इतना उदास कभी न था।

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पर्यावरण पर हाइकु  - लाल बिहारी लाल

1)
संकट भारी......

 
 
टैटू कैसे शुरू हुए? - रोहित कुमार ‘हैप्पी'

[ न्यूज़ीलैंड की लोक कथा ]

माओरी लोक-साहित्य में टैटू के धरती पर आने की एक रोचक कहानी है। ‘मोको’ अर्थात माओरी टैटू के बारे में एक माओरी किंवदंती है। यह एक प्राचीन प्रेम कहानी है।  सदियों पहले की बात है।  एक युवा माओरी योद्धा था, जिसका नाम मात्ताओरा (Mataora) था। उसकी पत्नी निवारिका एक अत्यंत सुंदर माओरी युवती थी। वह रारोहेंगा (Rarohenga) से थी। रारोहेंगा इस धरती से दूर पाताल में आत्माओं का देश था। माओरी मान्यता है कि व्यक्ति के देहांत के बाद आत्माएँ पाताल में चली जाती हैं।

एक बार मात्ताओरा का अपनी पत्नी निवारिका से झगड़ा हो गया।  मात्ताओरा ने गुस्से में निवारिका पर हाथ उठाया।  निवारिका ने अपने मायके और अपने देश में कभी पारिवारिक हिंसा नहीं देखी थी। वह बहुत क्षुब्ध हुई और वह मात्ताओरा से नाराज होकर चुपचाप अपने मायके चली गई। मात्ताओरा अपनी पत्नी के वियोग में बहुत दुखी हुआ। उसे बहुत पश्चाताप था। उसने निवारिका को मनाकर वापिस लाने की ठान ली।  उसने अपने चेहरे को और आकर्षक बनाने के लिए अपना चेहरा गोद लिया ताकि उसे देखकर निवारिका खुश हो जाए और वापिस लौट आए। 

वह निवारिका के पीछे उसके देश ‘रारोहेंगा’ पहुँच गया।  रारोहेंगा’ में गोदने का प्रचलन था और वहाँ के कलाकार उत्कृष्ट गोदना जानते थे। वहाँ जब लोगों ने उसका चेहरा देखा तो उन्हें यह बहुत निम्न-स्तरीय गोदना लगा। वह वहाँ उपहास का विषय बन गया लेकिन उसे तो केवल अपनी पत्नी की चिंता थी। उसपर लोगों के व्यंग्य-बाणों का कोई असर न हुआ। मात्ताओरा ने निवारिका और उसके परिवार से क्षमा याचना की और प्रण किया कि वह भविष्य में कभी ऐसा व्यवहार नहीं करेगा। निवारिका और उसके परिवार ने उसे क्षमा कर दिया।  

मात्ताओरा ने अपने ससुर ‘उएतोंगा’ (Uetonga) से गोदने की कला ‘ता मोको’ (tāmoko या tā moko) सिखाने का अनुरोध किया। ‘ता मोको’ विशिष्ट पारंपरिक माओरी गोदने को कहा जाता है। उएतोंगा ने उसका अनुरोध स्वीकार कर लिया और इस प्रकार मात्ताओरा ने गोदने की कला सीखी । निवारिका ने कढ़ाई-बुनाई सीखी। जब वे दोनों वापिस धरती पर लौटे तो उन्होंने गोदना (मोको यानी माओरी टैटू) और कढ़ाई-बुनाई अपने देश के और लोगों को सिखाई। इस प्रकार ये कलाएं धरती प्रचलित और विकसित हुईं। 

-रोहित कुमार 'हैप्पी'
 न्यूज़ीलैंड

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एक पत्र- अनाम के नाम - संजय भारद्वाज

[ ब्लू व्हेल के बाद ‘हाईस्कूल गेम' अपनी हिंसक वृत्ति को लेकर चर्चा में है। कुछ माह पहले इसी गेम की लत के शिकार एक नाबालिग ने गेम खेलने से टोकने पर अपनी माँ और बहन की नृशंस हत्या कर दी थी। उस घटना के बाद लेखक, 'संजय भारद्वाज' की प्रतिक्रिया, उस नाबालिग को लिखे एक पत्र के रूप में कागज़ पर उतरी। ]

प्रिय अनाम..,

अपने से छोटे को यही संबोधन लिखने के अभ्यास के चलते लिखा गया ‘प्रिय'..पर नहीं तुम्हें ‘प्रिय' नहीं लिख पाऊँगा। घृणित, नराधम, बर्बर जैसे शब्दों का भी प्रयोग नहीं कर पाऊँगा क्योंकि मेरे माता-पिता ने मुझे कटुता और घृणा के संस्कार नहीं दिये। वैसे एक बात बताना बेटा...!!! ..., हाँ बेटा कह सकता हूँ क्योंकि बेटा श्रवणकुमार भी हो सकता है और तुम्हारे जैसा दिग्भ्रमित क्रूरकर्मा भी।....और मैंने देखा कि तुम्हारी कल्पनातीत नृशंसता के बाद भी टीवी पर तुम्हारा पिता, तुम्हें ‘मेरा बेटा' कह कर ही संबोधित कर रहा था। ...सो एक बात बताना बेटा, कटुता और घृणा के संस्कार तो तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें भी नहीं दिये थे, हिंसा के तो बिलकुल ही नहीं। फिर ऐसा क्या भर गया था तुम्हारे भीतर जो तुमने अपनी ही माँ और बहन को काल के विकराल जबड़े में डाल दिया!...उफ़!

जानते हो, आज सुबह अपनी सोसायटी के कुछ बच्चों को अपने-अपने क्रिकेट बैट की तुलना करते देखा। एक बच्चा बेहतर बैट खरीदवाने के लिए अपनी माँ से उलझ रहा था। माँ उसे आश्वासन दे रही थी कि उसे अच्छा, ठोस, मज़बूत और चौड़ा बैट खरीदवा देगी। अपनी माँ की हत्या करते समय तुम्हारे हाथ में जो बैट था, वह भी ठोस, मज़बूत और चौड़ा ही था न बेटा!...याद करो, बैट माँ ने ही दिलवाया था न बेटा!

माँ के आश्वासन के बाद उलझता यह बच्चा भी खुश हो गया। मैं सोच रहा था, कौन जाने उसके मस्तिष्क में तुम रोल मॉडेल की तरह बस जाओ। कहीं वह भी अभी से अपनी माँ के माथे की चौड़ाई और बैट की चौड़ाई की तुलना कर रहा हो। बैट इतना चौड़ा तो होना ही चाहिए कि एक ही बार में माँ का काम तमाम।...सही कह रहा हूँ न बेटा!

माँ ने शायद तुम्हें ‘हाईस्कूल गेम' खेलने से रोका था। उन्हें डर था कि इस हिंसक खेल से तुम्हारे दिलो-दिमाग में हिंसा भर सकती है। तुम कहीं किसी पर अकारण वार न कर दो। गलती से, उन्माद में किसी की हत्या न कर बैठो।...माँ का डर सही साबित हुआ न बेटा!

जानकारी मिली है कि रोकने पर भी तुम्हारे ‘हिंसक गेम' खेलते रहने पर चिंतित माँ ने तुम्हें एक-दो तमाचे जड़ दिये थे। तुम्हारी पीढ़ी, हमारे मुकाबले अधिक गतिशील है। हमने मुहावरा पढ़ा था, ‘ईंट का जवाब, पत्थर से दो' पर तुमने तो चिंता का जवाब चिता से दे दिया दिया। इतनी गति भी ठीक नहीं होती बेटा!

... और माँ ही क्यों..? वह नन्ही परी जो जन्म से तुम्हें राखी बाँधती आई, जिसने तुम्हें हमेशा रक्षक की भूमिका में देखा, जो संकट में तुम्हारी ओट को सबसे सुरक्षित स्थान समझती रही, ओट में ले जाकर उसकी ही अँतड़ियाँ तुमने बाहर निकाल दीं...बेटा!

खास बात बताऊँ, मरकर भी दोनों के मन में तुम्हारे लिए कोई दुर्भावना नहीं होगी। उनकी आत्मा चाहेंगी कि मेरे बेटे, मेरे भाई को दंड न हो, वह निर्दोष छूट जाए। सब कुछ लुट जाने के बाद तुम्हारा पिता भी तो यही चाहता है बेटा!

एक बात बताओ, खून से लथपथ माँ और बहन के पेट में कैंची और पिज्जा काटने का चाकू घोंपकर उनका मरना ‘कन्फर्म' करते समय एक बार भी मन में यह विचार नहीं उठा कि इसी पेट में नौ महीने तुम पले थे बेटा!

तुम्हें जानकारी नहीं होगी इसलिए बता देता हूँ। मादा बिच्छू जब संतान को जन्म देती है तो उसके शरीर में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं होती जिससे बच्चा बाहर आ सके। प्रकृतिगत इस व्यवस्था को जानते हुए भी मादा बिच्छू माँ बनने का फैसला लेती है। प्रसव-वेदना के चरम पर मादा बिच्छू का पेट फट जाता है। बच्चे का जन्म होता है और माँ मर जाती है।...बिच्छू समझते हो न बेटा!

बहुत भयानक दंश होता है बिच्छू का। पंद्रह वर्ष बच्चे को बड़ा करने के बाद उसीके हाथों अपना पेट फड़वाने से बेहतर है कि आनेवाले समय में स्त्री अपना पेट फाड़कर ही बच्चे को जन्म देने लगे। संतान का आगमन, माँ का गमन! ठीक कह रहा हूँ न बेटा!

ये बात अलग है कि तब संतानें पल नहीं पायेंगी। उन्हें अपने रक्त-माँस का दूध कर पयपान कौन करवायेगा? अपनी गोद में घंटों थपकाकर सुलायेगा कौन? खानपान, पसंद-नापसंद का ध्यान रखेगा कौन? ऐसे में तो माँ के चल बसने के कुछ समय बाद संतान भी चल बसेगी। न बाँस, न बाँसुरी, न सृष्टि का मूल, न सृष्टि का फूल! यही चाहते हो न तुम बेटा!

यही चाहते हो न तुम कि सृष्टि ही थम जाये। माँ न हो, बहन न हो, बेटी न हो, कोई जीव पैदा ही न हो। लौट जायें हम शून्य की ओर!...एक बात कान खोलकर सुन लो, अपवाद से परंपराएँ नहीं डिगतीं। निरी आँख से न दिखनेवाले सूक्ष्म जंतुओं से लेकर मनुष्य और विशालकाय हाथी तक में माँ और बच्चे की स्नेह नाल समान होती है। तुम्हारे कुत्सित अपवाद से अवसाद तो है पर सब कुछ समाप्त नहीं है।

...सुनो बेटा! अपनी माँ और बहन को खो देने का दुख अनुभव कर रहे हो न! ‘नेवर एंडिंग' मिस कर रहे हो न। एक रास्ता है। उनकी ममता और स्नेह को मन में संजोकर तुम पार्थिव रूप से न सही परोक्ष रूप से माँ और बहन को अपने साथ अनुभव कर सकते हो। तुम्हारा जीवन सुधर जाये तो वे मरकर भी जी उठेंगी।

सद्मार्ग से आगे का जीवन जीने का संकल्प लेकर अपनी माँ और बहन को पुनर्जीवित कर सकते हो।.....करोगे न बेटा..!!

-संजय भारद्वाज
अध्यक्ष-हिंदी आंदोलन परिवार......

 
 
चार मित्र | लोक-कथा - मुरलीधर जगताप

बहुत दिन पहले की बात है। एक छोटा-सा नगर था, पर उसमें रहने वाले लोग बड़े दिल वाले थे। ऐसे न्यारे नगर में चार मित्र रहते थे। वे छोटी उमर के थे, पर चारों में बड़ा मेल था। उनमें एक राजकुमार, दूसरा राजा के मंत्री का पुत्र, तीसरा साहूकार का लड़का और चौथा एक किसान का बेटा था। चारों साथ-साथ खाते-पीते और खेलते-घूमते थे।

एक दिन किसान ने अपने पुत्र से कहा, "देखो बेटा, तुम्हारे तीनों साथी धनवान हैं और हम गरीब हैं। भला धरती और आसमान का क्या मेल !"

लड़का बोला, "नहीं पिताजी, मैं उनका साथ नहीं छोड़ सकता। बेशक यह घर छोड़ सकता हूं।"

बाप यह सुनकर आग-बबूला हो गया और लड़के को तुरंत घर छोड़ चले जाने को कहा। लड़के ने भी राम की भांति अपने पिता की आज्ञा शिरोधार्य कर ली और सीधा अपने मित्रों के पास जा पहुंचा। उन्हें सारी बात बताई। सबने तय किया कि हम भी अपना-अपना घर छोड़कर साथ रहेंगे। इसके बाद सबने अपने घर और गांव से विदा ले ली और वन की ओर चल पड़े।

धीरे-धीरे सूरज पश्चिम के समुन्दर में डूबता गया और धरती पर अंधेरा छाने लगा। चारों वन से गुजर रहे थे। काली रात थी। वन में तरह-तरह की आवाजें सुनकर सब डरने लगे। उनके पेट में भूख के मारे चूहे दौड़ रहे थे। किसान के पुत्र ने देखा, एक पेड़ के नीचे बहुत-से जुगनू चमक रहे हैं। वह अपने साथियों को वहां ले गया और उन्हें पेड़ के नीचे सोने के लिए कहा। तीनों को थका-मांदा देखकर उसका दिल भर गया। बोला, "तुम लोगों ने मेरी खातिर नाहक यह मुसीबत मोल ली।"

सबने उसे धीरज बंधाया और कहा, "नहीं-नहीं, यह कैसे हो सकता है कि हमारा एक साथी भूखा-प्यासा भटकता रहे और हम अपने-अपने घरों में मौज उड़ायें। जीयेंगे तो साथ-साथ, मरेंगे तो साथ-साथ।"

थोड़ी देर बाद वे तीनों सो गये, पर किसान के लड़के की आंख में नींद कहां! उसने भगवान से प्रार्थना की, "हे भगवान! अगर तू सचमुच कहीं है तो मेरी पुकार सुनकर आ जा और मेरी मदद कर।"

उसकी पुकार सुनकर भगवान एक बूढ़े के रूप में वहां आ गये। लड़के से कहा, "मांग ले, जो कुछ मांगना है। यह देख, इस थैली में हीरे-जवाहरात भरे हैं।"

लड़के ने कहा, "नहीं, मुझे हीरे नहीं चाहिए। मेरे मित्र भूखे हैं। उन्हें कुछ खाने को दे दो।"

भगवान ने कहा, "मैं तुम्हें भेद की एक बात बताता हूं। वह जो सामने पेड़ है न....आम का, उस पर चार आम लगे हैं-एक पूरा पका हुआ, दूसरा उससे कुछ कम पका हुआ, तीसरा उससे कम पका हुआ और चौथा कच्चा।"

"इसमें भेद की कौन-सी बात ?" लड़के ने पूछा।

भगवान ने कहा, "ये चारों आम तुम लोग खाओ। तुममें से जो पहला आम खायगा, वह राजा बन जाएगा। दूसरा आम खाने वाला राजा का मंत्री बन जाएगा। जो तीसरा आम खाएगा, उसके मुंह से हीरे निकलेंगे और चौथा आम खानेवाले को उमर कैद की सजा भोगनी पड़ेगी।" इतना कहकर बूढ़ा आंख से ओझल हो गया।

तड़के जब सब उठे तो किसान के पुत्र ने कहा, "सब मुंह धो लो।" फिर उसने कच्चा आम अपने लिए रख लिया और बाकी आम उनको खाने के लिए दे दिये।

सबने आम खा लिये। पेट को कुछ आराम पहुंचा तो सब वहां से चल पड़े। रास्ते में एक कुआं दिखाई दिया। काफी देर तक चलते रहने से सबको फिर से भूख-प्यास लग आई। इसलिए वे पानी पीने लगे। राजकुमार ने मुंह धोने के इरादे से पानी पिया और फिर थूक दिया तो उसके मुंह से तीन हीरे निकल आये। उसे हीरे की परख थी। उसने चुपचाप हीरे अपनी जेब में रख लिए।

दूसरे दिन सुबह एक राजधानी में पहुंचने के बाद उसने एक हीरा निकालकर मंत्री के पुत्र को दिया और खाने के लिए कुछ ले आने को कहा।

वह हीरा लेकर बाजार पहुंचा तो क्या देखता है कि रास्ते में बहुत-से लोग जमा हो गये हैं। कन्धे-से-कन्धा ठिल रहा है। गाजे-बाजे के साथ एक हाथी आ रहा है। उसने एक आदमी से पूछा, "क्यों भाई, यह शोर कैसा है ?"

"अरे, तुम्हें नहीं मालूम ?" उस आदमी ने विस्मय से कहा।

"नहीं तो।"

"यहां का राजा बिना संतान के मर गया है। राज के लिए राजा चाहिए। इसलिए इस हाथी को रास्ते में छोड़ा गया है। वही राजा चुनेगा।"

"सो कैसे ?"

"हाथी की सूंड में वह फल-माला देख रहे हो न ?"

"हां-हां।"

"हाथी जिसके गले में यह माला डालेगा, वही हमारा राजा बन जाएगा। देखो, वह हाथी इसी ओर आ रहा है। एक तरफ हट जाओ।"

लड़का रास्ते के एक ओर हटकर खड़ा हो गया। हाथी ने उसके पास आकर अचानक उसी के गले में माला डाल दी। इसी प्रकार मंत्री का पुत्र राजा बन गया। उसने पूरा पका हुआ आम जो खाया था। वह राजवैभव में अपने सभी मित्रों को भूल गया।

बहुत समय बीतने पर भी वह नहीं लौटा, यह देखकर राजकुमार ने दूसरा हीरा निकाला और साहूकार के पुत्र को देकर कुछ लाने को कहा। वह हीरा लेकर बाजार पहुंचा। राज्य को राजा मिल गया था, पर मंत्री के अभाव की पूर्ति करनी थी, इसलिए हाथी को माला देकर दुबारा भेजा गया। किस्मत की बात ! अब हाथी ने एक दुकान के पास खड़े साहूकार के पुत्र को ही माला पहनाई। वह मंत्री बन गया और वह भी दोस्तों को भूल गया।

इधर राजकुमार और किसान के लड़के का भूख के मारे बुरा हाल हो रहा था। अब क्या करें ? फिर किसान के पुत्र ने कहा, "अब मैं ही खाने की कोई चीज ले आता हूं।"

राजकुमार ने बचा हुआ तीसरा हीरा उसे सौंप दिया। वह एक दुकान में गया। खाने की चीजें लेकर उसने अपने पास वाला हीरा दुकानदार की हथेली पर रख दिया। फटेहाल लड़के के पास कीमती हीरा देखकर दुकानदार को शक हुआ कि हो न हो, इस लड़के ने जरूर ही यह हीरा राजमहल से चुराया होगा। उसने तुरंत सिपाहियों को बुलाया। सिपाही आये। उन्होंने किसान के लड़के की एक न सुनी और उसे बंदी बना लिया। दूसरे दिन उसे उम्र कैद की सजा सुनाई गई। यह प्रताप था उसी कच्चे आम का।

बेचारा राजकुमार मारे चिंता के परेशान था। वह सोचने लगा, यह बड़ा विचित्र नगर है। मेरा एक भी मित्र वापस नहीं आया। ऐसे नगर में न रहना ही अच्छा। वह दौड़ता हुआ वहां से निकला और दूसरे गांव के पास पहुंचा। रास्ते में उसे एक किसान मिला, जो सिर पर रोटी की पोटली रखे अपने घर लौट रहा था। किसान ने उसे अपने साथ ले लिया और भोजन के लिए अपने घर ले गया।

किसान के घर पहुंचने के बाद राजकुमार ने देखा कि किसान की हालत बड़ी खराब है। किसान ने उसका बहुत आदर-सत्कार किया और कहा, "मैं गांव का मुखिया था। रोज तीन करोड़ लोगों को दान देता था पर अब कौड़ी-कौड़ी के लिए मोहताज हूं।"

राजकुमार बड़ा भूखा था, उसने जो रूखी-सूखी रोटी मिली, वह खा ली। दूसरे दिन सुबह उठने के बाद जब उसने मुंह धोया तो फिर मुंह से तीन हीरे निकले। वे हीरे उसने किसान को दे दिए। किसान फिर धनवान बन गया और उसने तीन करोड़ का दान फिर से आरम्भ कर दिया। राजकुमार वहीं रहने लगा और किसान भी उससे पुत्रवत् प्रेम करने लगा।

किसान के खेत में काम करने वाली एक औरत से यह सुख नहीं देखा गया। उसने एक वेश्या को सारी बात सुनाकर कहा, "उस लड़के को भगाकर ले आओ तो तुम्हें इतना धन मिलेगा कि जिन्दगी भर चैन की बंसी बजाती रहोगी।" अब वेश्या ने एक किसान-औरत का रूप धर लिया और किसान के घर जाकर कहा, "मैं इसकी मां हूं। यह दुलारा मेरी आंखों का तारा है। मैं इसके बिना कैसे जी सकूंगी ? इसे मेरे साथ भेज दो।" किसान को उसकी बात जंच गई। राजकुमार भी भुलावे में आकर उसके पीछे-पीछे चल दिया।

घर आने पर वेश्या ने राजकुमार को खूब शराब पिलाई। उसने सोचा, लड़का उल्टी करेगा तो बहुत-से हीरे एक साथ निकल आएंगे। उसकी इच्छा के अनुसार लड़के को उल्टी हो गई। लेकिन हीरा एक भी नहीं निकला। क्रोधित होकर उसने राजकुमार को बहुत पीटा और उसे किसान के मकान के पीछे एक गडढे में डाल दिया।

राजकुमार बेहोश हो गया था। होश में आने पर उसने सोचा, अब किसान के घर जाना ठीक नहीं होगा, इसलिए उसने बदन पर राख मल ली और संन्यासी बनकर वहां से चल दिया।

रास्ते में उसे सोने की एक रस्सी पड़ी हुई दिखाई दी। जैसे ही उसने रस्सी उठाई, वह अचानक सुनहरे रंग का तोता बन गया। तभी आकाशवाणी हुई, "एक राजकुमारी ने प्रण किया है कि वह सुनहरे तोते के साथ ही ब्याह करेगी।"

अब तोता मुक्त रूप से आसमान में उड़ता हुआ देश-देश की सैर करने लगा। होते-होते एक दिन वह उसी राजमहल के पास पहुंचा, जहां की राजकुमारी दिन-रात सुनहरे तोते की राह देख रही थी और दिन-ब-दिन दुबली होती जा रही थी। उसने राजा से कहा, "मैं इस सुनहरे तोते के साथ ही ब्याह करूंगी।" राजा को बड़ा दु:ख हुआ कि ऐसी सुन्दर राजकुमारी एक तोते के साथ ब्याह करेगी! पर उसकी एक न चली। आखिर सुनहरे तोते के साथ राजकुमारी का ब्याह हो गया। ब्याह होते ही तोता सुन्दर राजकुमार बन गया। यह देखकर राजा खुशी से झूम उठा। उसने अपनी पुत्री को अपार सम्पत्ति, नौकर-चाकर, घोड़े और हाथी भेंट-स्वरूप दिये। आधा राज्य भी दे दिया।

नये राजा-रानी अपने घर जाने निकले। राजा पहले गांव के मुखिया किसान से मिलने गया, जो फिर गरीब बन गया था। राजा ने उसे काफी संपत्ति दी, जिससे उसका तीन करोड़ का दान-कार्य फिर से चालू हो गया।

अब राजकुमार को अपने मित्रों की याद आई। उसने पड़ोस के राज्य की राजधानी पर हमला करने की घोषणा की, पर लड़ाई आरंभ होने से पहले ही उस राज्य का राजा अपने सरदारों-मुसाहिबों सहित राजकुमार से मिलने आया। उसने अपना राज्य राजकुमार के हवाले करने की तैयारी बताई। राजा की आवाज से राजकुमार ने उसे पहचान लिया और उससे कहा, "क्यों मित्र, तुमने मुझे पहचाना नहीं?" दोनों ने एक-दूसरे को पहचना तो दोनों की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। अब दोनों ने मिलकर अपने साथी, किसान के पुत्र को खोजना आरम्भ किया। जब सब कैदियों को रिहा किया गया तो उनमें किसान का लड़का मिल गया। राजकुमार को यह बात खलने लगी कि उसकी खातिर मित्र को कारावास भुगतना पड़ा। राजकुमार ने उसका आलिंगन किया और अपना परिचय दिया। किसान का लड़का खुशी से उछल पड़ा। सब फिर से इकट्ठे हो गए।

इसके बाद सबने अपनी-अपनी सम्पत्ति एकत्र की और उसके चार बराबर हिस्से किए। सबको एक-एक हिस्सा दे दिया गया। सब अपने गांव वापस आ गये। माता-पिता से मिले। गांव भर में खुशी की लहर दौड़ गई। सबके दिन सुख से बीतने लगे।

- मुरलीधर जगताप

 


......
 
 
खेत में तपसी खड़ा है - भैयालाल व्यास

खेत में तपसी खड़ा है।
हाथ की ठेठे बतातीं,......

 
 
तुम हो महान  - तारा पांडेय

तुम हो महान!
तुम परम पूज्य, तुम गुण - निधान ! ......

 
 
एक गाँव ऐसा भी… - डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

हमारा गाँव बहुत बड़ा है। दस हजार की आबादी है। सड़क, बिजली, पानी सब कुछ है। मंदिर-मस्जिद और पुस्तकालय भी है। लोगों को मंदिर-मस्जिद और मोबाइल से फुर्सत नहीं मिलती इसलिए पुस्तकालय पर ताला पड़ा रहता है। सरकारी अस्पताल है, किंतु वहाँ जाने वालों को बड़ी हीन दृष्टि से देखा जाता है। सच कहें तो अस्पताल खुद भी हीन स्थिति में है। डाक्साहब शहर से कभी आते नहीं इसलिए गाँव के सारे मरीज शहर जाते हैं। कहने को तो गाँव में सह-शिक्षा वाला सरकारी स्कूल भी है, लेकिन वहाँ विद्यार्थी नहीं दिखाई देते। जहाँ सरपंच की भैंस और मास्साब की तनख्वाह, दोनों बंधी-बंधाई है। भैंस दूध देती है, मास्साब शिक्षा व्यवस्था को दूह लेते हैं। बाकी विद्यार्थियों का क्या है, उनके लिए हैं ना भोले गांव की छाती पर गाढ़ दिया गया ‘अलां-फलां कान्वेन्ट’ स्कूल। सारे बच्चों की वैचारिक नस्ल वहाँ बदली जा रही है। बच्चे वहाँ पढ़कर अपने माँ-बाप को गंवारू समझना सीख रहे हैं और वहीं माँ-बाप जमीन बेचकर मोटी फीस भरते हुए अपने बच्चों को समझदार होना मान रहे हैं। कमाल की उलटबासी है। गाँव में हाथ से ज्यादा फोन हैं, पैरों से ज्यादा चहलकदमी। दरअसल, गाँव स्मार्ट हो चला है। 

इसी गाँव में एक बस अड्डा है। एक इसलिए कि एक ही बस आती है। चूंकि यहाँ सभी लोगों के पास अपने-अपने वाहन हैं, सो इस बस सेवा का लाभ वे ही ले पाते हैं जो वाहन-सुख से वंचित हैं। इसलिए अड्डे पर ज्यादा भीड़ दिखाई नहीं देती। ऐसे दीन-हीन जगहों पर कृतार्थियों की गिद्ध नजर हमेशा रहती है। एक दिन इसी नजर के चलते बस अड्डे से बस गायब हो गई और शेष रह गया सिर्फ अड्डा। अड्डे पर चाय की टपरी, बैठने के लिए आलीशान चबूतरे और गोपनीय बातें करने के लिए मधुशाला और धूम्रपान केंद्र खोल दिए गए। मधुशाला और धूम्रपान केंद्र के चलते लोगों को पैसा देकर बुलाने की जरूरत नहीं पड़ती। वे खुद अपनी जमापूंजी लुटाने यहाँ आ जाते हैं। ऐसी बिना बुलाई भीड़ को देखकर किस अवसरवादी की जबान न लपलपाएगी! ऐसे ही एक दिन कृतार्थियों के मुखिया ने अपने दर्शन दिए। वहाँ आने वाले लोगों के लिए मधुपान और धूम्रपान की सुविधा मुफ्त कर दी। मुफ्त मिले तो जहर पीने वालों की भी दुनिया में कमी नहीं। इस अवसर को भुनाने के लिए कृतार्थी के मुखिया ने अपनी मीठी-मीठी बातों से लोगों को फांसना शुरु किया। लोग मछली की तरह कांटे में फंसते चले गए। बहुत जल्द कृतार्थियों के मुखिया बहुत बड़े नेता बनकर उभरे। चुनाव हुआ और भारी मतों से गाँव के मुखिया बन बैठे। अब वे भोजन कम खाते हैं और जमीन ज्यादा। कहते हैं, ऐसा करने से ही उनका पाचन तंत्र बना रहता है। गाँव के लोग उनकी तारीफ के पुल बाँधते और कहते कि यह है बड़ा आदमी। कहते हैं, जब किसी का मुफ्त में प्रचार-प्रसार होने लगे तो समझ जाओ कि वह आदमी बहुत जल्द बुलंदियों पर होगा। छोटी मछलियों को खाकर बड़ी मछली बनने का खेल केवल तालाब में ही नहीं, जमीन पर भी बदस्तूर जारी है।

-डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 
  मो. नं. 73 8657 8657  ......

 
 
तीन हाइकु - पवन कुमार जैन

कोरोना भी है
रोटी के लिए कुछ......

 
 
मेरे हिस्से का पूरा आसमान - डॉ. कुमारी स्मिता

मैं जब भी अपनी बालकनी से झाँक कर ऊपर का आसमान देखने की कोशिश करती हूँ और वह पूरा नहीं दिखता, तो बालपन का भरा-पूरा संसार आज के अधूरेपन पर जरा रुष्ट सा हो जाता है।और, याद आता है हमारे घर की वह छत! वह विस्तृत छत! जिसका विस्तार सीने में धड़कते दिल जैसा ही था। जहाँ से हमारा पूरा संसार दिखाई देता था। आज भी वही यादें हमें संपन्न बनाए हुए हैं।वरना, हमें गरीबी और अमीरी का फर्क समझ में ही नहीं आता।

वह छत जिस पर गर्मी की बेशकीमती शाम और रात बड़े इत्मीनान से ठंडी हवाएँ खाते हुई बितती थी। सर्दियों में पूरी की पूरी दोपहर धूप में बिताई जाती थी। जहाँ हम खाने-पीने से, गप्पे मारने,पढ़ने और सोने तक का काम किया करते थे। जीवन के अनमोल पल थे वे ! उन्मुक्त मन से और बिल्कुल बेफिक्री से, उन्मुक्त गगन के नीचे का हमारा पूरा संसार! बालपन से लेकर किशोरावस्था तक के सपनों की उड़ान भरते हम! बस वहाँ लेटे-लेटे ही उड़ते थे। पंछियों को देखकर उड़ते। हाँ,उड़तें ही तो थे, उस अनंत नील गगन में ! उस निस्सिम आकाश में! और हमारे साथ में उड़ती हमारी कोमल भावनाएं, हमारे आधे-अधूरे स्वप्न। हमारी हजारों खट्टी-मीठी बातों का सिलसिला, जैसे इंद्रधनुष बना देता था, उस खुले आसमान पर। मन के धागों से बंधे अरमान की पतंगें, कई बार उस छत पर उड़ाए हमने! खासकर तब, जब किशोरावस्था की कच्ची-पक्की ख्वाहिशें और भविष्य हमारी मुट्ठी में बंद थे। हमारा मन पतंग की तरह ही उड़कर कहीं से कहीं पहुँच जाता था।

आज भी मेरे मन के आसमान पर उस छत की सुबह और शाम का चित्र रेखांकित है। जहाँ चिड़ियों की चहचहाहट भोर का अभिनंदन करती थी। जहाँ सूरज की लालिमा आने के पहले ही संदेश दे देती थी। उस उगते सूरज का पूरा का पूरा प्रतिबिंब हमारे अंतर्मन में समाया हुआ है। हमारे छत के सामने दिखने वाले उस तालाब में पूरा का पूरा सूरज उतर आता था। जहाँ जीवनदायिनी जल स्थिर चित्त होकर सूरज के लिए अपना आँचल फैलाये प्रतिक्षा करती। जब सूरज की लालिमा उस तालाब में छिटकती तो पूरा का पूरा संसार स्वर्णिम दिखता था। वह दिव्य दृष्य सम्मोहित किए बिना नहीं रहती। सूरज से फूटती किरणें स्वर्णरेखाओं सी जान पड़ती थी। जिसके छू लेने मात्र से बेजान धरती की कोख में खुशियों के अंकुर फूटते।

वहीं शाम को पश्चिम का डूबता सूरज देदीप्यमानता की पराकाष्ठा को पार कर गोधूलि बेला में अपने घर विश्राम के लिए जाने लगता था। जैसे, हमारी तरह थक कर वह भी अपनी माँ के ममत्व में लिपटकर सोने चला गया हो। और, यह वादा करके जाता था कि रात बिताकर सुबह तरोताजा होकर फिर अपने नियत समय पर जरूर वापस आ जाएगा।

कई बार गर्मी की रातों में जब हम छत पर सोते, तो छत के ऊपर का आसमान बिल्कुल साफ दिखाई देता था। चाँद और टिमटिमाते तारे दिखाई देते थे। चाँद और तारे हमें बता देते थे कि अंदाजन वक्त क्या हो रहा होगा? सुबह का ध्रुव तारा हमें बता देता था कि वक्त क्या हुआ होगा? उस समय ब्रह्म मुहूर्त का महत्व बहुत अच्छी तरह समझाया गया था हमें।। सुबह कभी पढ़ने का समय बताती, तो कभी माँ के लिए पूजा के फूल लाने का समय बता देती थी। दिन में सूरज की दिशा और दशा कभी दोस्तों के साथ खुले मैदान में जाकर बैडमिंटन और कबड्डी खेलने का समय बताती थी, तो कभी लुकाछिपी करने का। उसी खुली छत पर खड़ा एंटीना दूरदर्शन पर रामायण और महाभारत की कथा बताता तो कभी रंगोली के मधुर-मधुर गीतों की रंगमाला बिखेरता। पर कुछ ना कुछ हमें बताता जरूर!

वह खालीपन जो आज कभी-कभी चुभता है, उसके लिए तो हमारे पास वक्त ही नहीं बचता था। फुर्सत के व्यस्ततम दिन थे वो!

हम इतने व्यस्त होते थे, कि कभी गीली मिट्टी से घरौंदे बनाते, कभी चाचा चौधरी वाली कॉमिक्स या चंपक पढ़ते नजर आते। कभी चटाई डालकर छत पर सो जाते थे। आज उन्हीं फुर्सत के क्षणों में जब हमें उबन होने लगती है, तो हम मॉल की खरीद बिक्री में व्यर्थ का समय बिता लेते हैं। यह सिर्फ एक तुलनात्मक दृष्टिकोण नहीं, यह पूरा का पूरा जीवन था।

जहाँ आज बालकनी की स्टैंड पर सूखते कपड़े बड़े मायूस से दिखाई देते हैं। वहीं कभी-कभी मुझे लगता है कि, हमारे छत की तार पर टंगे कपड़े बड़े आत्मसम्मान के साथ लहराते थे। बड़े ही शानो-शौकत से हवा में फरफराते हुए सूखते थे।

उसी खुली छत से दिखते थे, नीम और नींबू के पेड़। और चारो तरफ की हरियाली। उस हरी-भरी नीम के पेड़ के ऊपर दिखता था घोंसला। दिखती थी, चिड़िया अपने चूज़ों को खिलाते हुए। हमारे जैसे वात्सल्य के भूखे चूज़े और ममता बरसाती उनकी माता! कभी-कभी अपने बच्चों को उड़ान भरने की ताकत देती। उनके पंखों में जान भरती। उन्हें सबक सिखाती थी गिरने और संभलने का। बिल्कुल हमारे ही माता-पिता की तरह ही जीवन का पाठ पढ़ाते पंछी! उन्मुक्त गगन में उड़ते पंछियों की तरह ही हमारा मन भी लहराता था। पपीहे की आवाज ऋतु बता देती थी, तो बुलबुलो का चहचहाना जीवन के होने का संदेश देती थी। कभी-कभी कौये की काँव-काँव की आवाज मेहमान के आने का सूचना भी दे देती थी। भोले मन को हर बात सच्ची और अच्छी लगती थी। कानों में गूंजते हुए पंछियों के स्वर हृदय में उतर आते थे।

उस छत से कई बार जुगनू भी देखे हमने। जो शायद, वक्त के साथ कहीं-कहीं कैद हो गए या बिल्कुल विलुप्त हो गए या फिर महानगर के चकाचौंध में उनकी रोशनी कहीं खो गई है। जो अमावस की रात में बड़े अद्भुत दिखते थे। ऐसा लगता था जैसे आसमान के हजारों तारे उतर कर जमीन पर पेड़ों और बाँसों की झुरमुट में समा गए हैं । गजब के थे वे आसमानी जमीन के तारे!
उमरते-घुमरते बादलों के कई रंग, कड़कती बिजली की चमक, ठंडी हवाएँ, आँधी,तूफान,वर्षा सब उसी छत पर तो देखें हमने। जीवन के इंद्रधनुषी रंग दिखते थे उस आसमान पर। उस, इंद्रधनुष का हरा, नीला और गुलाबी रंग मुझे बहुत भाता था। हर रंग की अपनी खूबसूरती और हर रंग का अपना ही महत्व था। तभी तो, हर रंग को जिया हमने। जिसमें भरपूर जीवन था।

कभी पानी पर छपाक से दौड़ना और कभी बारिश की बूंदों से खुद को गीला करना, तो कभी बड़े ध्यान से झींगुर और मेंढक की आवाज सुनना। आज भी भींग जाता है मन, कल की उन बूंदों से। जो हमारे यादों की सतह गीली कर देती है। वो रिमझिम फुहारें बारिश की! सीढ़ी पर बैठकर उन बूंदों की लड़ी को निहारते हुए, उसकी ठंडक को बर्षों महसूस किया था हमने ! जो बस, बारिश के साथ ही आती थी। वो हल्की ठंडी हवाओं का झोंका था। जो, हमारे चेहरे को छुकर ऐसे गुजरती मानो जैसे हमारे गालों को सहलाती हो। उस मधुर पल और उस गुलाबी हुए गालों की लालिमा को महसूस कर अब भी हमारा सौंदर्य निखर जाता है। कहाँ ला पाते हैं आज के आज के उत्कृष्ट से उत्कृष्ट सौंदर्य प्रसाधन वह रौनक और नूर हमारे चेहरे पर!

प्रकृति का वह तरल उपहार लावण्यता और सौम्यता भर देता था हमारे चेहरे पर! कागज के फूलों की तरह संवेदनहीनता का शृंगार अब भी नहीं भाता हमें!

मुझे कई बार लगता है जैसा व्यक्ति का मन होता है,उसकी आँखें और उसका चेहरा भी बिल्कुल वैसा ही हो जाता है। हृदय की मासूमियत कहीं ना कहीं चेहरे और आँखों में बस जाती थी।......

 
 
एक मिट्टी दो रंग - ओ. हेनरी

एक ही मकान के ऊपर-नीचे की कोठरियों में श्रीमती फिंक और श्रीमती केसिडी रहती थीं। साथ रहने से उन दोनों में दोस्ती हो गयी थी। एक दिन श्रीमती फिंक जब अपनी सहेली श्रीमती केसिडी के पास पहुँचीं, तो उस समय वह शृंगार कर रही थीं। शृंगार के बाद गर्व प्रदर्शन करते हुए श्रीमती केसिडी ने पूछा-- क्यों, मैं अच्छी लग रही हूँ न आज ?

श्रीमती फिंक ने देखा, सहेली की मूँदी आँखों के चारों ओर हरे, किंतु हल्के निशान थे, नीचला ओंठ फट गया था, जहाँ से अब भी आहिस्ता-आहिस्ता खून बह रहा था और उनकी सुराहीनुमा गर्दन पर भी नाखून से नोचे जाने के निशान मौजूद थे। उसी क्षण श्रीमती फिंक बोलीं-नहीं, मेरे पति महोदय ऐसा कभी नहीं कर सकते ! इतना सुनते ही श्रीमती केसिडी बोलीं--नहीं के क्या मानी? मैं तो इस विचार की हूँ कि हर पत्नी को अपने पति से हफ्ते में एक बार जरूर मार खानी चाहिए, क्योंकि दाम्पत्य प्रेम की कसौटी यही है। मुझे मेरे पति जेक ने अभी कल ही पीटा है और इस हफ्ते भर उम्मीद है कि वह मुझे अपनी पुतलियों पर उठाये रखेगा और पाउडर, क्रीम तथा स्नो की कौन कहे, वह मुझे सिनेमा ले जाएगा और मनपसंद कपड़ों से लाद देगा।

-- चाहे कुछ भी हो जाए, श्रीमती फिंक बोलीं--मगर मेरे पति कभी मुझपर हाथ नहीं उठायेंगे, इसलिए कि वह बड़े नेक हैं।

-- सच तो यह है कि तुम मुझसे ईर्ष्या कर रही हो,-- श्रीमती केसिडी व्यंग-सने शब्दों में बोलीं-- असल में तुम्हारा पति बूढ़ा जो ठहरा। उसे अखबार और साहित्य-अध्ययन से छुट्टी मिले, तब तो प्यार करे? अरी, सच्ची बात क्यों छुपाती है?

-- तुम ठीक कहती हो, लेकिन यह कभी संभव नहीं कि वह मुझे पीटेंगे।

इतना सुनते ही श्रीमती केसिडी खिलखिलाकर हँस पड़ीं। फिर श्रीमती फिंक को अपनी कालर के नीचे का वह घाव दिखाया, जो भरा नहीं था। घाव देखते ही श्रीमती फिंक का चेहरा सफेद हो गया और फिर ईर्ष्या की रेखाएँ उभर आयीं। वह बोलीं- अच्छा, बताओ, चोट तुम्हें लगती है या नहीं?

--लगती है, श्रीमती केसिडी खुशी बिखेरती हुई-- बोलीं-- लेकिन जब भी जेक मुझे दोनों हाथों से पीटता है, तो इसकी क्या कीमत अदा करता है जानती हो? उसके एक हाथ में होते हैं बहुमूल्य रेशमी कपड़े और दूसरे में मन लुभानेवाले शृंगार के सामन। कहो, कैसी रही कीमत?

-- लेकिन क्यों पीटता है वह तुझे? - श्रीमती फिंक उत्सुक होकर पूछने लगीं।

-- कैसी पगली है तू? यह भी नहीं मालूम तुझे ? वह बार से जब चढ़ाकर आता है, तभी ऐसी हरकत करता है।

- मगर उसके ऐसा करने का कोई कारण तो होगा अवश्य ?

- इसलिए कि मैं उसकी रखेल हूँ। जब वह खूब पीये होता है, तो उस समय हाथ उठाने के लिए मेरे सिवा और दूसरी औरत कहाँ से मिलती? और मुझे जब भी किसी चीज की जरूरत महसूस होती है, मैं वैसी हरकत कर बैठती हूँ कि वह मुझपर हाथ उठा दे। यही कल रात में हुआ। रेशमी कपड़े की मुझे जरूरत थी और आज देखना कि वह मेरे लिए रेशमी कपड़े लेकर आता है या नहीं? चाहो तो बाजी लगा सकती हो। न हो, रही आइसक्रीम की ही बाजी, क्यों?

श्रीमती फिंक थोड़ी देर के लिए विचार में डूब गयीं। बाद में फिर उतरे स्वर में बोलीं-- वह मुझे नहीं पीटता। इसी कारण न तो कभी उसके साथ सिनेमा ही देख पाती हूँ और न सैर को ही साथ ले जाता है मुझे कभी। जो चीज़ माँगती हूँ, तुरंत लाकर दे देता है। सचमुच, इसमें लुत्फ कतई नहीं।

इतना सुनना था कि श्रीमती फिंक की कमर से श्रीमती केसिडी जा लिपटीं, फिर कहने लगीं तुम बड़ी अभागिन हो। जेक सा पति सबको कैसे मिलेगा? सभी स्त्रियाँ वैसा पति पाने लगें, तो उनके विवाह आनन्दमय न हो जाएँ?

हर दुखिया यही चाहती है कि उसका पति उसे मारे-पीटेऔर इच्छित वस्तुएँ दे, जैसे, चुम्बन, चाकलेट,टाफी, आदि।

तभी दरवाजा खुला और मिस्टर जेक ने हाथ में एक सुन्दर बंडल लिए हुए प्रवेश किया। श्रीमती केसिडी उन्हें देखते ही श्रानन्द-विभोर होकर लिपट गयीं।

हाथ का बंडल मिस्टर जेक ने टेबुल पर रखा, फिर केसिडी को अपने अंक में भरते हुए कहा-- यह रहे सिनेमा के टिकट !.... ओह, श्रीमती फिंक? नमस्ते! माफ कीजिएगा, मैंने आपको देखा नहीं। हाँ, मिस्टर मार्टिन अच्छे तो हैं?

-- मजे में हैं, श्रीमती फिंक बोलीं-- अब मैं चलती हूँ, क्योंकि मार्टिन के लंच का समय हो गया है।— और दरवाजे तक बिदा देने के लिए आयी मिसेज केसिडी से उन्होंने फिर कहा मैं तुम्हारे उपाय को कल काम में लाकर देखती हूँ।

और श्रीमती फिंक जब अपने कमरे में पहुँची, तो उनका कलेजा बिना किसी कारण के फटा जा रहा था। सच तो यह है कि औरत जाति को आँसू बहाने के लिए कोई ख़ास कारण ढूँढ़ने की जरूरत कभी नहीं पड़ती। वह सोचने लगीं, मेरा मार्टिन केसिडी के पति मिस्टर जेक से किसी भी चीज में उन्नीस नहीं। वह भले ही मुझे नहीं पीटता, मगर मेरी चिंता कम नहीं करता। वह कभी नहीं लड़ता। घर पहुँचा, चुपचाप खाना खा लिया और जुट गया अध्ययन में हलाँकि वह नेक इन्सान है, मगर उसे कहाँ मालूम कि पत्नी किस चीज़ की भूखी है ?.... और वह डूब गयीं विचारों में।

मिस्टर मार्टिन ठीक सात बजे आए। श्रीमती फिंक खाना परोसकर लायीं और पूछने लगीं--खाना अच्छा बना है न?

--मिस्टर मार्टिन हँसने लगे और खाना खाकर अपने अध्ययन कक्ष में चले गए।

दूसरा दिन इतवार था। श्रीमती फिंक सुबह ही अपनी सहेली श्रीमती केसिडी के पास जा पहुँचीं। श्रीमती केसिडी रेशमी कपड़ों में सोलह वर्षीया बालिका के सदृश लग रही थीं। खुशी से आँखें चमक रही थीं और मुस्कान ओंठों पर खेल रही थी। दम्पति इतवार के दिन का प्रोग्राम बना रहे थे। श्रीमती फिंक के मन में उन्हें देखते ही ईर्ष्या की एक लहर मचल उठी। वह वापस अपने कमरे में चली आयीं और फुसफुसाने लगीं, कितने सुखी हैं वे! कैसा आनन्दमय दाम्पत्य प्रेम है! ऐसा मालूम पड़ता है, मानो सुख का ख़जाना केसिडी पा गयी हो। इसके मानी क्या हुए? यही न कि अन्य पति भी अपनी पत्नी की मरम्मत में कसर नहीं रखते और ऐसा हर परिवार आनन्द के सागर में नहाता रहता है। ठीक है, मैं उसे दिखा दूँगी !

हफ्ते भर का कपड़ा बाल्टी में साफ करने के लिए रखा हुआ था। मार्टिन बेचारे अपने अध्ययन कक्ष में साहित्य पढ़ने में लीन थे। उन्हें देख श्रीमती पिंक ने अपने-आपसे कहा, मुझे अगर वह नहीं पीटेगा, तो मैं कोई ऐसी तरकीब करूँगी कि उसे बाध्य होकर मुझपर अपना पुरुषार्थ लादना पड़े।

और मिस्टर मार्टिन थे कि रसोई घर से मीठी-मीठी पकवानों की आरही सुगंध का मजा चखते हुए साहित्यिक संसार में भटक रहे थे। पत्नी को पीटने की कल्पना उनके मन में स्वप्न में भी नहीं आ सकती थी।

और तभी ऊपरी मंजिल से श्रीमती केसिडी के हँसने की आवाज आयी। श्रीमती फिक कपड़ा धोने की तैयारी कर रही थीं। उन्हें लगा, जैसे उनपर व्यंग कसा गया है। और इस विचार के उठते ही श्रीमती फिंक आपे से बाहर होकर अपने पति के कमरे में जा पहुँचीं। बोलीं-- हुह: ! मैं कोई घोबन हूँ, जो इन सारे कपड़ों को मैं ही धोऊँ? एक मैं हूँ कि कपड़ा पीटते-पीटते परेशान हुईं जा रही हूँ और एक तुम हो कि बेफिक्र बैठे सिगरेट धूक रहे हो ! काहिल कहीं के! तुम इन्सान हो या हैवान?

पत्नी द्वारा अचानक किये गये इन तीव्र प्रहारों से मार्टिन को बड़ा अचंभा हुआ। हाथ के अखबार को एक और सरका वह चुपचाप पत्नी को देखने लगे।

उन्हें यों चुप्पी साधे देख श्रीमती फिंक मन-ही-मन सोचने लगीं, क्या इतने तीखे व्यंग को भी यह पी जाएगा! क्या पीटे जाने के लिए यही कदम काफी नहीं है?

मार्टिन जब इतने पर भी एक बुत की तरह बन रहे, तो श्रीमती कि उन्हें एक घूसा भी जमा बैठीं।

मार्टिन के आश्चर्य की सीमा न रही। वह तत्क्षण खड़े हो गये। श्रीमती फिंक ने आव देखा न ताव और धर दबायी पति की गर्दन, फिर मार खाने की आशा में, उनकी आँखें आप ही बन्द हो गयीं।

उस समय ऊपर की मंजिल पर श्रीमती केसिडी शृंगार में लगी थीं। उन्होंने सुना कि नीचे कोई झगड़ रहा है। जेक आश्चर्यचकित होकर बोले-- मार्टिन और उनकी पत्नी के बीच झगड़ा तो नहीं हुआ कभी। अच्छा, मैं नीचे चलकर देखता हूँ कि बात आख़िर क्या है?

श्रीमती केसिडी की आँखों में एक ज्योति चमक उठी। वह बोलीं-- ठहरो, मैं खुद देख आती हूँ जाकर कि बात क्या है आखिर?

श्रीमती केसिडी दौड़ती हुई जीने उतर गयीं। श्रीमती फिंक उन्हें देखते ही उनसे लिपट गयीं।

-- मार्टिन ने पीटा है न ? –-श्रीमती केसिडी ने प्रसन्नता जाहिर करते हुए पूछा।

श्रीमती फिंक चुप। उन्हें रो देने की इच्छा हो रही थी। दूसरे क्षण वह सचमुच फूट-फूटकर रोने लगीं। श्रीमती फिंक के सिर पर प्यार से हाथ फेरती हुई श्रीमती केसिडी ने पूछा--अरी, बोलती क्यों नहीं। उन्होंने तुझे पीटा है या नहीं? -- फिर स्वयं उनके शरीर को गौर से देखा, तो कहीं भी मार के निशान नज़र नहीं आये। श्रीमती फिक की आँखों में मगर जो झड़ी लगी थी, वह बन्द नहीं हो पा रही थी और चेहरे पर सफ़ेदी पुत गयी थी।

बाद में श्रीमती फिंक श्रीमती केसिडी के उभरे उरोजों पर अपना सिर टेक हिचकियाँ लेती हुई कहने लगीं-- नहीं-नहीं, दरवाजा अभी मत खोलो! तुझे कसम है मेरी, किसी से मत कहना यह सब! मार्टिन ने मुझे नहीं मारा, उल्टे वहाँ नल पर हफ्ते भर का कपड़ा स्वयं धो रहा है।

[ A Harlem Tragedy by O. Henry - अंग्रेजी से अनु० देवेन्द्र बिसुनपुरी ]


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रूप | गद्य काव्य - वियोगी हरि

वह उठती हुई एक सुन्दर ज्वाला है। दूर से देख भर ले; उसे छूने का दुःसाहस मत कर। सन्तप्त नेत्रों को ठंडा करले, कोई रोकता नहीं। पर, मूर्ख! उसके स्पर्श से अपने शीतल अंगों को कहीं जला न बैठना।

वह इठलाता हुआ एक प्रमत्त सागर है। अपनी अधीर आँखों को उसकी गर्वीली हिलोरों पर दूर ही से नवा भरले; उसके निःस्नेह अंक का आलिंगन करने आगे मत बढ़। तू ही बता, तुझे अपने भोले-भाले रसिक नेत्रों की मीठी मुस्कराहट पसन्द है, या तूफ़ानी समुद्र का भयंकर अट्टहास?

वह खिला हुआ एक पङ्किल पद्म है। अपने नयन-मुकुरों में उस विकसित सरोज की केवल छाया ही पड़ने दे, चयन-चेष्टा न कर। अधीर भावुक! तू ही बता, नीरस दृष्टि को उसकी सरसता में विभोर कर लेना कल्याण-कर है, अथवा उसे तोड़ कर अपने अमल अंग पर कीचड़ का अंगराग कर बैठना?

सारांश यह कि, वह उपास्य तो है, पर अस्पृश्य है।

-वियोगी हरि
[गद्य-काव्य]

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पागल | लघु-कथा - रोहित कुमार 'हैप्पी'

शहर में सब जानते थे कि वो पागल है। जब-तब भाषण देने लगता, किसी पुलिस वाले को देख लेता तो कहने लगता, 'ये ख़ाकी वर्दी में लूटेरे हैं। ये रक्षक नहीं भक्षक हैं। गरीब जनता को लूटते हैं। सरकार ने इन्हें लूटने का लाइसेंस दे रखा है। ये लूटेरे पकड़ेंगे, चोर पकड़ेंगे...., ये तो खुद चोर हैं, लूटेरे हैं ये!

किसी अमीर को देखता तो कहने लगता, 'ये लाला चोर है, ग़रीबों का खून चूसता है। खून पी-पी कर पेट मोटा हो रहा है स्साले का!' ...और लाला के चमचे उसे दो-चार जड़ देते।

आज शहर में नेता जी आये हुए थे, भाषण चल रहा था। अचानक एक ओर कुछ गड़बड़ी देखी तो मैं भी उधर हो लिया। उधर पागल बोले जा रहा था, "ये नेता झूठा है, ये नेता चोर है। कोई मत देना वोट इसे। ये धोखेबाज़ और फ़रेबी है। पैसे से वोट ख़रीदता है। कहाँ से आया इसके पास इतना पैसा? गरीब को रोटी, कपड़ा और मकान का मसला है और इसे कुर्सी का।"

लोग हँस रहे थे व उसकी मसख़री कर रहे थे। ...और वो बोले जा रहा था "ये सब चोर हैं, सब नेता चोर हैं। कोई भी हो सब पार्टिएं चोर हैं, बस नाम बदलते हैं पर धंधा एक है। छोटा चोर एम. एल. ए. बड़ा लुटेरा मंत्री, और उससे बड़ा डाकू मुख्यमंत्री। ये मुख्यमंत्री बनेगा, मारो साले को-- ये डाकू है।"

मारो-मारो कहता हाथ में पत्थर लिए, हाथ लहराता वह पागल नेता जी की ओर बढ़ चला।

'बेचारा पागल है।' कहते हुए कुछ पुलिस वाले उसे घसीट कर पंडाल से बाहर कर रहे थे।

'कोई पागल है...!' कुछ लोग सहानुभूति जताते हुए खुसरफुसर कर रहे थे। जब लोग उसे 'पागल-पागल' कह रहे थे, वह भी सुन रहा था। अचानक वह लोगों को गालियां देने लगा, "सालो... पागल मैं नहीं तुम हो जिन्हें ये नेता हर बार पागल व बेवक़ूफ़ बनाते हैं।"

पागल कहा जाने वाला वह आदमी सब कुछ सच तो कह रहा था।

उधर नेता जी भाषण दे रहे थे, 'मैं आपके कस्बे की सड़कें पक्की करवा दूंगा। रोज़गार का प्रबंध करूंगा व इस कस्बे में महाविद्यालय खुलवा दूंगा। मैं......'

उधर नेता जी का भाषण जारी था और जनता नेता जी के भाषण पर तालियाँ बजा रही थी।

- रोहित कुमार 'हैप्पी'
  संपादक, भारत-दर्शन, न्यूज़ीलैंड

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बंटवारा नहीं होगा - जयप्रकाश भारती

दो भाई थे । अचानक एक दिन पिता चल बसे । भाइयों में बंटवारे की बात चली-''यह तू ले, वह मैं लूं, वह मैं लूंगा, यह तू ले ले ।'' आए दिन दोनों बैठे सूची बनाते, पर ऐसी सूची न बना सके, जो दोनों को ठीक लगे । जैसे-तैसे बंटवारे का मामला सुलझने लगा, तो एक खरल पर आकर उलझ गया । ''पिता जी अपने लिए इस खरल में दवाइयां घुटवाते थे । उसे तो मैं ही अपने पास रखूंगा ।'' बड़े ने कहा । छोटा तुनककर बोला-''यह तो कभी हो नहीं सकता । दवाइयां घोट-घोटकर तो उन्हें मैं ही देता था । उनकी निशानी के तौर पर मैं इसे रखूंगा ।''

बात बढ़ गयी और सारा किया-धरा चौपट । अब पंचों से फैसला कराना तय हुआ । पंच चुने गए । उन्होंने सबसे पहले दोनों को घर से बाहर निकाला और दो ताले द्वार पर डाल दिये । तय हुआ-बंटवारा दो दिन बाद करेंगे । दोनों में से अब कोई भाई अकेला भीतर नहीं जा सकता था । पर हमारे समाज में वे भी तो है, जो द्वार से घर में नहीं घुसते । रात हुई, चोर दीवार लांघकर भीतर घुसे और सारा माल समेटकर गायब हो गये ।

दो दिन बाद घर खोला गया । अब बांटने को धन बचा ही नहीं था । दोनों भाई खड़े-खड़े हाथ मल रहे थे । एक कोने में पड़ा खरल उन्हें चिल्ला रहा था ।

दोनों भाइयों ने पंचों के हाथ जोड़े । कहा-'' अब बंटवारा नहीं होगा । हम साथ-साथ ही रहेंगे ।''

खरल के झगड़े ने धन गंवा दिया । मेल से रहना और प्रेम बांटना ही सुखी जीवन बिताने का सूत्र है ।

- जयप्रकाश भारती

 


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रामप्रसाद बिस्मिल का अंतिम पत्र  - इतिहास के पन्ने

शहीद होने से एक दिन पूर्व रामप्रसाद बिस्मिल ने अपने एक मित्र को निम्न पत्र लिखा -

"19 तारीख को जो कुछ होगा मैं उसके लिए सहर्ष तैयार हूँ।
आत्मा अमर है जो मनुष्य की तरह वस्त्र धारण किया करती है।"

यदि देश के हित मरना पड़े, मुझको सहस्रो बार भी।......

 
 
सड़क यहीं रहती है | शेखचिल्ली के कारनामें - भारत-दर्शन संकलन

एक दिन शेखचिल्ली कुछ लड़कों के साथ, अपने कस्बे के बाहर एक पुलिया पर बैठा था। तभी एक सज्जन शहर से आए और लड़कों से पूछने लगे, "क्यों भाई, शेख साहब के घर को कौन-सी सड़क गई है ?"

शेखचिल्ली के पिता को सब ‘शेख साहब' कहते थे । उस गाँव में वैसे तो बहुत से शेख थे, परंतु ‘शेख साहब' चिल्ली के अब्बाजान ही कहलाते थे । वह व्यक्ति उन्हीं के बारे में पूछ रहा था। वह शेख साहब के घर जाना चाहता था ।

परन्तु उसने पूछा था कि शेख साहब के घर कौन-सा रास्ता जाता है। शेखचिल्ली को मजाक सूझा । उसने कहा, "क्या आप यह पूछ रहे हैं कि शेख साहब के घर कौन-सा रास्ता जाता है ?"

"‘हाँ-हाँ, बिल्कुल !" उस व्यक्ति ने जवाब दिया ।

इससे पहले कि कोई लड़का बोले, शेखचिल्ली बोल पड़ा, "इन तीनों में से कोई भी रास्ता नहीं जाता ।"

"‘तो कौन-सा रास्ता जाता है ?"

"‘कोई नहीं ।'"

"क्या कहते हो बेटे?' शेख साहब का यही गाँव है न ? वह इसी गाँव में रहते हैं न ?"

"हाँ, रहते तो इसी गाँव में हैं ।"

"‘मैं यही तो पूछ रहा हूँ कि कौन-सा रास्ता उनके घर तक जाएगा "

"साहब, घर तक तो आप जाएंगे ।" शेखचिल्ली ने उत्तर दिया, "यह सड़क और रास्ते यहीं रहते हैं और यहीं पड़े रहेंगे । ये कहीं नहीं जाते। ये बेचारे तो चल ही नहीं सकते। इसीलिए मैंने कहा था कि ये रास्ते, ये सड़कें कहीं नहीं जाती । यहीं पर रहती हैं । मैं शेख साहब का बेटा चिल्ली हूँ । मैं वह रास्ता बताता हूँ, जिस पर चलकर आप घर तक पहुँच जाएंगे ।"

"अरे बेटा चिल्ली !" वह आदमी प्रसन्न होकर बोला, "तू तो वाकई बड़ा समझदार और बुद्धिमान हो गया है । तू छोटा-सा था जब मैं गाँव आया था । मैंने गोद में खिलाया है तुझे । चल बेटा, घर चल मेरे साथ । तेरे अब्बा शेख साहब मेरे लँगोटिया यार हैं । और मैं तेरे रिश्ते की बात करने आया हूँ । मेरी बेटी तेरे लायक़ है । तुम दोनों की जोड़ी अच्छी रहेगी । अब तो मैं तुम दोनों की सगाई करके ही जाऊँगा ।"

शेखचिल्ली उस सज्जन के साथ हो लिया और अपने घर ले गया । कहते हैं, आगे चलकर यही सज्जन शेखचिल्ली के ससुर बने ।

 


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दीवाली की महत्ता  - भारत-दर्शन संकलन

श्री रामचन्द्र के चौदह वर्ष का बनवास काटकर इसी दिन अयोध्या लौटने के अतिरिक्त भी कई अन्य दंतकथाएं इस त्योहार के साथ जुड़ी हुई हैं।

धर्मराज युधिष्ठर के राजसूर्य यज्ञ की समाप्ति भी इसी दिन हुई थी।

आर्य समाज के प्रवर्तक स्वामी दयानन्द सरस्वती का निर्वाण भी इसी दिन हुआ था।

जैनियों के चौबीसवें तीर्थकर महावीर स्वामी को भी इसी दिन निर्वाण प्राप्त हुआ था। इसलिए इस त्योहार का अत्याधिक महत्व है।

 


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नाच रहा जंगल में मोर | बाल कविता - पुरुषोत्तम तिवारी

हरा सुनहरा नीला काला रंग बिरंगे बूटे वाला
चमक रहा है कितना चमचम इसका सुन्दर पंख निराला ......

 
 
मेरी मातृ भाषा हिंदी  - सुनीता बहल

मेरी मातृ भाषा है हिंदी,
जिसके माथे पर सुशोभित है बिंदी।  ......

 
 
नौकरी | लघु-कथा  - रंजीत सिंह

रोज की तरह दफ़्तर जाते समय जब मैं मालरोड पहुंचा तो लोगों की भारी भीड़ देख ठिठक गया। नजदीक जा कर देखा तो एक सिपाही और कुछ व्यक्ति खून से लथपथ हुए एक व्यक्ति को हाथों पैरों से उठा कर एक तरफ कर रहे थे।

"ये तो खत्म हो गया लगता है ।" एक बूढ़ी औरत कह रही थी।

"सिर पर गहरी चोट लगी है शायद। कसूर इसका ही था, मैंने खुद देखा है, भला-चंगा जा रहा था, बस भी तेज नहीं थी, इसने अपनी साइकिल अचानक बस की ओर घुमा दी थी।" पास खड़ा एक और व्यक्ति बोला।

"अरे यार ये तो दीवान है, अपने दफ़्तर का फोरमैन, इसने तो परसों रिटायर होना था, यह तो बहुत बुरा हुआ। अभी तो इसके लडक़े भी कुंवारे हैं ।" पास में खड़े मेरे दोस्त के मुंह से दीवान का नाम सुन कर मैं जैसे सुन्न हो गया।

मुझे याद आया, अभी परसों शाम तो ये घर आया था, अपने बेटे की नौकरी की बात कर रहा था। मैंने उसे बताया था कि डिपार्टमैंट की तरफ से लडक़े को देने का कोटा खत्म कर दिया गया है। बस मौत हो जाने की सूरत में ही एक बच्चे को नौकरी मिल सकती है।

मेरी बात सुन कर वो उठा और चला गया था। उसके चेहरे की उस अन्जानी सी खुशी का राज मुझे अब समझ आ रहा था।

- रंजीत सिंह

 


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हिन्‍दू या मुस्लिम के | ग़ज़ल  - अदम गोंडवी

हिन्‍दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िए
अपनी कुरसी के लिए जज्‍बात को मत छेड़िए

हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है......

 
 
सिंह को जीवित करने वाले  - विष्णु शर्मा

किसी शहर में चार मित्र रहते थे। वे हमेशा एक साथ रहते थे। उनमें से तीन बहुत ज्ञानी थे। चौथा दोस्त इतना ज्ञानी नहीं था फिर भी वह दुनियादारी की बातें बहुत अच्छी तरह जानता था।
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शतरंज का जादू - गुणाकर मुले

‘शतरंज के खेल के नियमों को आप न भी जानते हों तो कम से कम इतना तो सभी जानते हैं कि शतरंज चौरस पटल पर खेला जाता है । इस पटल पर ६४ छोटे-छोटे चौकोण होते हैं।

प्राचीन काल में पर्सिया में शिरम नाम का एक बादशाह था। शतरंज की अनेकानेक चालों को देखकर यह खेल उसे बेहद पसंद आया। शतरंज के खेल का आविष्कर्ता उसी के राज्य का एक वृद्ध फ़क़ीर है, यह जानकर बादशाह को खुशी हुई। उस फकीर को इनाम देने के लिये दरबार में बुलाया गया:

"तुम्हारी इस अदभुत खोज के लिये मैं तुम्हें इनाम देना चाहता हूं । माँगो, जो चाहे माँगो," बादशाह ने कहा।

फ़क़ीर - उसका नाम सेसा था - चतुर था। उसने बादशाह से अपना इनाम माँगा - "हुजूर, इस पटल में ६४ घर हैं। पहले घर के लिये आप मुझे गेहूं का केवल एक दाना दें, दूसरे घर के लिये दो दाने, तीसरे घर के लिये ४ दाने, चौथे घर के लिये ८ दाने और ....।  इस प्रकार ६४ घरों के साथ मेरा इनाम पूरा हो जाएगा।"

"बस इतना ही ?" बादशाह कुछ चिढ गया,"खैर, कल सुबह तक तुम्‍हें तुम्‍हारा इनाम मिल जाएगा। "

सेसा मुस्कराता हुआ दरबार से लौट आया और अपने इनाम की प्रतीक्षा करने लगा।

बादशाह ने अपने दरबार के एक गणित-पंडित को हिसाब करके गणना करने का हुक्म दिया। पंडित ने हिसाब लगाया ... १+ २+ ४+ ८+ १६+ ३२+ ६४+ १२८... (६४ घरों तक ) अर्थात १८,४४६,७४४,०७३,७०९,५५१,६१५ गेहूं के दाने। गेहूं के इतने दाने बादशाह के राज्य में तो क्या संपूर्ण पृथ्वी पर भी नहीं थे। बादशाह को अपनी हार स्वीकार कर लेनी पड़ी।

[ गणित की पहेलियां - गुणाकर मुले ]


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आवरण - डा. श्याम नारायण कुंदन

ऋतु या ऋतम्भरा, हाँ यहीं नाम है उसका। एक लम्बे समय के बाद संतोष बाबू इस नाम को लेकर काफी जद्दोजहद से गुजर रहे थे। अपने स्मृति के गह्वर में झाँक-झाँक कर वे इस नाम को एक शरीर प्रदान करने की कोशिश कर रहे थे। लम्बा कद, साँवला रंग, चौड़ा ललाट, बड़ी-बड़ी आँखें। यही कुल जमा पूँजी बची थी संतोष बाबू के स्मृति के खजाने में ऋतु या ऋतम्भरा के लिए। और यह भी कि वह कॉलेज में उनकी जूनियर थी। बहुत कम बोलती थी। वह भी किन्हीं खास लोगों से ही। संतोष बाबू उन्हीं खास लोगों में से एक थे।

उन्हें याद है वह कभी-कभी दबे जबान से उन्हें भैया कहकर बुलाती थी पर वहाँ जहाँ संतोष बाबू किसी के साथ होते। जब वे अकेले होते तो वह कुछ भी नहीं कहती, सिर्फ चूप रहती। तब तक जब तक कि संतोष बाबू उसे टोक नहीं देते। उन्हें यह बात भी अच्छी तरह याद है कि गंगा के घाटों पर वे बिना एक दूसरे से कुछ कहे बहते हुए पानी की धार को एकटक निहारा करते थे। पर यह संयोग ही था कि एम.ए. करने के बाद वह कॉलेज छोड़कर चली गयी। उसके कुछ दिन बाद उन्होंने सुना कि उसकी शादी हो गई थी।

इलाहाबाद से चलकर वाराणसी तक जाने वाली काशी प्रयाग पैंसेजर ट्रेन के एक डिब्बे में बैठे संतोष बाबू सोच रहे थे।

अगले स्टेशन पर उतरने वाले यात्रियों से पूरा का पूरा डिब्बा शोर-शराबे से भरा हुआ था। बाहर जमीन भाग रही थी। खेत और पेड़ पौधे नाच रहे थे। मानों वे सभी वृत बनाने पर उतारू हों। यह सब कुछ आँखों का भ्रम है। इस बात को संतोष बाबू भली-भाँति जानते थे पर वे उस क्षणिक परन्तु वास्तविक भ्रम कि उपस्थिति को किसी भी तरह से नजर अन्दाज करने के पक्ष में कदापि नहीं थे। उनका मानना था कि संसार मे कुछ भी भ्रम या वास्तविक नहीं है। एक कोण से जो भ्रम है वही दूसरे कोण से वास्तविक।

संतोष बाबू इलाहाबाद में हिन्दी के प्रोफेसर थे। भरा-पूरा परिवार था उनका वहाँ पर उन्हें बनारस से विशेष लगाव था। इसलिए उनका बनारस हमेशा आना-जाना लगा रहता था।

उन्हें ऋतम्भरा का ठिकाना खोजने में कोई कठिनाई नहीं हुई। स्टेशन पर उतरने के महज आधे घण्टे के भीतर ही वे ऋतम्भरा के मकान के सामने खड़े थे। मकान बड़ा नहीं था पर उसे किसी भी तरह छोटा भी नहीं कहा जा सकता था।

संतोष बाबू चाहते तो एक झटके में आगे बढ़कर दरवाजे पर लगी कॉलबेल बजा सकते थे पर पता नहीं क्यों उनका हाथ साथ नहीं दे रहा था। जैसे ही वे कॉलबेल बजाने के लिए अपना हाथ उठाते कुछ सोचकर रूक जाते।

"ऋतम्भरा ऐसी होगी.... वैसी होगी........नहीं-नहीं वह ठीक वैसी तो कदापि नहीं होगी जैसे दस साल पहले दीखती थी। समय के साथ उसमें भी परिवर्तन अवश्य हुआ होगा। रह गई बात उसके विचारों में परिवर्तन की तो उसमें भी शक की कोई गुंजाइश नहीं होनी चाहिए" संतोष बाबू के अन्दर द्वन्द चल रहा था।

रह-रहकर संतोष बाबू के आँखों के सामने दस पहले वाली ऋतु आ खड़ी होती और फिर गायब हो जाती। धीर, गंभीर, सांवली, छुई-मुई सी ऋतु।

"अरे यह क्या पागलपन है?" संतोष बाबू ने अपने सिर को झटका। फिर अपने अर्धगंजे हो चुके सिर पर हाथ फेरा। अपने खादी के कुर्ते और पाजामें को संतुलित किया और आगे बढ़कर कॉलबेल को बजा दिया।

दरवाजा खुला तो सामने ऋतु ही खड़ी थी। बिल्कुल हूबहू ऋतु। फर्क सिर्फ इतना था कि पहले कि भाँति उसने सलवार-कमीज नहीं बल्कि साड़ी पहन रखा था।

पहले तो ऋतु फटी आँखों से संतोष बाबू को देखती रही। मानों वे कोइ अजनबी हों। भूल-भटकर उसके दरवाजे पर आ गए हों। उसे विश्वास ही नही हो रहा था कि उसके सामने जो व्यक्ति खड़ा है वह संतोष बाबू ही हैं। वही संतोष जिसकी एक झलक पाने के लिए कॉलेज के दिनों में लड़कियाँ तरसा करती थी। उनके नजदीक आने के लिए बहाने बनाया करती थी। वही संतोष.......? हाँ वही तो हैं पर दीख कैसे रहे हैं वे? उनके बालों को क्या हुआ? और कपड़े......छी ! ये कैसे पुराने-धुराने कपड़े पहन रखे हैं ? कहीं यह संतोष बाबू का कोई बहूरूपिया तो नहीं है? पर यह कैसे हो सकता है? वही शक्ल, वही सूरत। वही बड़ी-बड़ी आँखें....वही सब कुछ।


"ऋतु क्या देख रही हो? पहचाना नहीं क्या? मैं संतोष।"

"ओह संतोष जी।" ऋतु को अपनी गलती का एहसास हुआ और दौड़कर संतोष बाबू के गले लग गयी। जैसे वर्षो का बांध टूट गया और ऋतम्भरा की आँखों से आँसूओं की धारा बह निकली। संतोष बाबू पत्थर की तरह बुत बने खड़े थे। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि वे क्या करें। क्या कहें।

मकान एक छोटे से आहाते के अन्दर बना था। इर्द-गिर्द विभिन्न प्रकार के फूलों के गाँछ भी लगे थे। उनमें से एक गाँछ पर संतोष बाबू की नजर जाकर टिक गई।

"संतोष जी क्या देख रहे हैं?" ऋतु ने संतोष बाबू को टोका।

"कुछ नहीं, मैं इन फूलों को देख रहा था।" संतोष बाबू ने अपने मन की बात को छिपाया।

"हँ....हँ....हँ....हँ...हँ।" ऋतु खिलखिलाकर हँसी।

संतोष बाबू ऋतु को खिलखिलाकर हँसते हुए देखने लगे। इससे पहले उन्होंने ऋतु को इस तरह हँसते हुए कभी नहीं देखा था।

"आप भी न संतोष बाबू ........।" अभी तक आप को झूठ भी बोलना नहीं आया पर मैं सब समझती हूँ। आप फूलों को नहीं बल्कि फूलों के उन काँटो को देख रहे थे जो उन्हें चारों ओर से घेर रखे हैं। सोच रहे थे कि इनके रहते तो इनके पास ब्रह्मा भी नहीं फटक सकते आदमी की क्या बिसात।"

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नैराश्य गीत | हास्य कविता - कवि चोंच

कार लेकर क्या करूँगा?
तंग उनकी है गली वह, साइकिल भी जा न पाती ।......

 
 
शुभ सुख चैन की बरखा बरसे | क़ौमी तराना - भारत-दर्शन संकलन

शुभ सुख चैन की बरखा बरसे
भारत भाग्य है जागा......

 
 
नक्शानवीस | कविता - मोहन राणा

पंक्तियों के बीच अनुपस्थित हो
तुम एक ख़ामोश पहचान......

 
 
हिंदी हमारे जीवन मूल्यों, संस्कृति एवं संस्कारों की सच्ची संवाहक एवं संप्रेषक - राजनाथ सिंह

एक भाषा के रूप में हिंदी न सिर्फ भारत की पहचान है बल्कि यह भाषा हमारे जीवन मूल्यों, संस्कृति एवं संस्कारों की सच्ची संवाहक, संप्रेषक और परिचायक भी है। जब विश्व के 177 देशों की मान्यता के साथ 21 जून को विश्व योग दिवस के रूप में अपनाया जा सकता है तो हिंदी भाषा को भी संयुक्त राष्ट्र संघ की अधिकृत भाषाओं की सूची में शामिल क्यों नहीं किया जा सकता जबकि इसके लिए तो सिर्फ 127 देशों के समर्थन की ही आवश्यकता है। यह बात केंद्रीय गृह मंत्री श्री राजनाथ सिंह ने आज भोपाल में दसवें विश्व हिंदी सम्मेलन के समापन के अवसर पर कही।

समापन समारोह - दसवां विश्व हिंदी सम्मेलन

तीन दिवसीय विश्व हिंदी सम्मेलन के समापन समारोह को संबोधित करते हुए श्री राजनाथ सिंह ने कहा कि हिंदी सभी भारतीय भाषाओं की बड़ी बहन होने के नाते उनके उपयोगी और प्रचलित शब्दों को अपने में समाहित करके सही मायनों में भारत की संपर्क भाषा होने की भूमिका निभा रही है। हिंदी भाषा वैश्विक पटल पर भी तकनीक और डिजिटलाइजेशन के क्षेत्र में विस्तार और बड़े बाजार की अनंत संभावनाएं समेटे हुए है। हिंदी के इसी महत्व को देखते हुए तकनीकी कंपनियां इस भाषा को बढ़ावा देने की कोशिश कर रही हैं। उन्होंने कहा कि गूगल के आंकड़ों के मुताबिक आज इंटरनेट पर सबसे ज्यादा मौलिक विषय वस्तु (कंटेंट) हिंदी भाषा में रचे जा रहे हैं।  श्री राजनाथ सिंह ने उद्योग जगत से आग्रह किया कि वे अपने उत्पादों के नाम सहित अन्य विवरण हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं में लिखने के बारे में विचार करें। श्री सिंह ने कहा कि बहुत सरल, सहज और सुगम भाषा होने के साथ हिंदी विश्व की संभवतः सबसे वैज्ञानिक भाषा है जिसे इस देश के हर प्रांत के साथ दुनिया भर में भली प्रकार समझने, बोलने और चाहने वाले लोग बहुत बड़ी संख्या में मौजूद हैं।

गृहमंत्री ने कहा कि विश्व हिंदी सम्मलेन के दौरान विभिन्न सत्रों में प्रशासन, विधि और न्याय, संचार व तकनीक, पत्रकारिता, बाल साहित्य सहित अन्य विषयों पर चर्चाओं के बाद प्रस्तुत की गईं अनुशंसाओं और अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए सरकार गंभीरता से प्रयास करेगी।

 


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प्रथम राष्ट्रपति का संदेश - भारत-दर्शन संकलन

गणतंत्र के गठन पर भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद का देशवासियों को संदेश:

Dr Rajendra Prasad

"हमें स्‍वयं को आज के दिन एक शांतिपूर्ण किंतु एक ऐसे सपने को साकार करने के प्रति पुन: समर्पित करना चाहिए, जिसने हमारे राष्‍ट्र पिता और स्‍वतंत्रता संग्राम के अनेक नेताओं और सैनिकों को अपने देश में एक वर्गहीन, सहकारी, मुक्‍त और प्रसन्‍नचित्त समाज की स्‍थापना के सपने को साकार करने की प्रेरणा दी। हमें इस दिन यह याद रखना चाहिए कि आज का दिन आनन्‍द मनाने की तुलना में समर्पण का दिन है - श्रमिकों और कामगारों परिश्रमियों और विचारकों को पूरी तरह से स्‍वतंत्र, प्रसन्‍न और सांस्‍कृतिक बनाने के भव्‍य कार्य के प्रति समर्पण करने का दिन है।"

 

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इन्दुमती - किशोरीलाल गोस्वामी

इन्दुमती अपने बूढ़े पिता के साथ विन्ध्याचल के घने जंगल में रहती थी। जब से उसके पिता वहाँ पर कुटी बनाकर रहने लगे, तब से वह बराबर उन्हीं के साथ रही; न जंगल के बाहर निकली, न किसी दूसरे का मुँह देख सकी। उसकी अवस्था चार-पाँच वर्ष की थी जबकि उसकी माता का परलोकवास हुआ और जब उसके पिता उसे लेकर वनवासी हुए। जब से वह समझने योग्य हुई तब से नाना प्रकार के वनैले पशु-पक्षियों, वृक्षावलियों और गंगा की धारा के अतिरिक्त यह नहीं जानती थी कि संसार वा संसारी सुख क्या है और उसमें कैसे-कैसे विचित्र पदार्थ भरे पड़े हैं। फूलों को बीन-बीन कर माला बनाना, हरिणों के संग कलोल करना, दिन-भर वन-वन घूमना और पक्षियों का गाना सुनना; बस यही उसका काम था। वह यह भी नहीं जानती थी कि मेरे बूढ़े पिता के अतिरिक्त और भी कोई मनुष्य संसार में है।

एक दिन वह नदी में अपनी परछाईं देखकर बड़ी मोहित हुई, पर जब उसने जाना कि यह मेरी परछाईं है, तब बहुत लज्जित हुई, यहाँ तक कि उस दिन से फिर कभी उसने नदी में अपना मुख नहीं निहारा।

गरमी की ऋतु-दोपहर का समय-जबकि उसके पिता अपनी कुटी में बैठे हुए गीता की पुस्तक देख रहे थे, वह नदी किनारे पेड़ों की ठण्डी छाया में घूमती, फूलों को तोड़-तोड़ नदी में बहाती हुई कुछ दूर निकल गई थी, कि एकाएक चौंककर खड़ी हुई। उसने एक ऐसी वस्तु देखी, जिसका उसे स्वप्न में भी ध्यान न था और जिसके देखने से उसके आश्चर्य का कोई ठिकाना न रहा। उसने क्या देखा कि एक बहुत ही सुंदर बीस-बाईस वर्ष का युवक नदी के किनारे पेड़ की छाया में घास पर पड़ा सो रहा है। इन्दुमती ने आज तक बूढ़े पिता को छोड़ किसी दूसरे मनुष्य की सूरत तक नहीं देखी थी। वह अभी तक यही सोचे हुई थी कि यदि संसार में और भी मनुष्य होंगे तो वे भी मेरे पिता की भाँति ही होंगे और उनकी भी दाढ़ी-मूँछें पकी हुई होंगी। उसने जब अच्छी तरह आँखें फाड़-फाड़कर उस परम सुंदर युवक को देखा तो अपने मन में निश्चय किया कि 'मनुष्य तो ऐसा होता नहीं, हो-न-हो यह कोई देवता होंगे क्योंकि मेरे पिता जब देवताओं की कहानी सुनाते हैं तो उनके ऐसे ही रूप-रंग बतलाते हैं।' यह सोचकर वह मन में कुछ डरी और कुछ दूर पेड़ की ओट में खड़ी हो टकटकी बाँध उस युवक को देखने लगी। मारे डर के युवक के पास तक न गयी और उसकी सुंदरता से मोहित हो कुटी की ओर भी अपना पैर न बढ़ा सकी। यों ही घण्टों बीत गये, पर इन्दुमती को न जान पड़ा कि मैं कितनी देर से खड़ी-खड़ी इसे निहार रही हूँ। बहुत देर पीछे वह अपना जी कड़ा करके वृक्ष की ओट से निकल युवक के आगे बढ़ी। दो ही चार डग चली होगी कि एकाएक युवक की नींद खुल गयी और उसने अपने सामने एक परम सुंदरी देवी-मूर्ति को देखा, जिसके देखने से उसके आश्चर्य की सीमा न रही। मन-ही-मन सोचने लगा - 'इस भयानक घनघोर जंगल में ऐसी मनमोहिनी परम सुंदरी स्त्री कहाँ से आयी? ऐसा रूप-रंग तो बड़े-बड़े राजाओं के रनिवास में भी दुर्लभ है, सो इस वन में कहाँ से आया? या तो मैं स्वप्न में स्वर्ग की सैर करता होऊँगा, या किसी देवकन्या या वनदेवी ने मुझे छलने के लिए दर्शन दिया होगा।' यही सब सोच-विचार करता हुआ वह भी पड़ा-पड़ा इन्दुमती की ओर निहार ने लगा। दोनों की रह-रहकर आँखें चार हो जातीं, जिससे अचरज के अतिरिक्त और कोई भाव नहीं झलकता था। यों ही परस्पर देखाभाली होते-होते एकाएक इन्दुमती के मन में किसी अपूर्व भाव का उदय हो आया, जिससे वह इतनी लज्जित हुई कि उसकी आँखें नीची और मुख लाल हो गया। वह भागना चाहती थी। चट युवक उठकर उसके सामने खड़ा हो गया और कहने लगा, 'हे सुंदरी, तुम देवकन्या हो या वनदेवी हो? चाहे कोई हो, पर कृपा कर तुमने दर्शन दिया है तो जरा-सी दया करो, ठहरो, मेरी बातें सुनो, घबराओ मत। यदि तुम मनुष्य की लड़की हो तो डरो मत। क्षत्रिय लोग स्त्रियों की रक्षा करने के सिवा बुराई नहीं करते। सुनो, यदि तुम सचमुच वन देवी हो तो कृपा कर मुझे इस वन से निकलने का सीधा मार्ग बता दो। मैं विपत्ति का मारा तीन दिन से इस वन में भटक रहा हूँ, पर निकलने का मार्ग नहीं पाता। और जो तुम मेरी ही भाँति मनुष्य जाति की हो तो मैं तुम्हारा 'अतिथि हूँ', मुझे केवल आज भर के लिए टिकने की जगह दो। और अधिक मैं कुछ नहीं चाहता।'

युवक की बातें सुनकर इन्दुमती ने मन में सोचा कि 'तो क्या ये देवता नहीं है? हम लोगों ही की भाँति मनुष्य हैं? हो सकता है, क्योंकि जो ये देवता होते तो ऐसी मीठी-मीठी बातें बनाकर अतिथि क्यों बनते। देवताओं को कमी किस बात की है, और वे क्या नहीं जानते जो हमसे वन का मार्ग पूछते। तो यह मनुष्य ही होंगे, पर क्या मनुष्य इतने सुंदर होते और ऐसी मीठी बातें करते हैं? अहा! एक दिन मैं जल में अपनी सुंदरता देखकर ऐसी मोहित हुई थी, किंतु इनकी सुंदरता के आगे तो मेरा रूप-रंग निरा पानी है।' इस तरह सोचते-विचारते उसने अपना सिर ऊँचा किया और देखा कि युवक अपनी बात का उत्तर पाने के लिए सामने एकटक लगा खड़ा है। यह देख वह बहुत ही अधीनताई और मधुर स्वर से बोली कि 'मैं अपने बूढ़े पिता के साथ इस घने जंगल के भीतर एक छोटी-सी कुटी में, जो एक सुहावनी पहाड़ी की चोटी पर बनी हुई है, रहती हूँ, यदि तुम मेरे अतिथि होना चाहते हो तो मेरी कुटी पर चलो, जो कुछ मुझसे बनेगा, कंदमूल, फल-फूल और जल से तुम्हारी सेवा करूँगी। मेरे पिता भी तुम्हें देखकर बहुत प्रसन्न होंगे।' इतना कहकर वह युवक को अपने साथ ले पहाड़ी पगडण्डी से होती हुई अपनी कुटी की ओर बढ़ी।

उसने जो युवक से कहा था कि 'मेरे पिता भी तुम्हें देखकर बहुत प्रसन्न होंगे' सो केवल अपने स्वभाव के अनुसार ही कहा था, क्योंकि वह यही जानती थी कि ऐसी सुंदर मूर्ति को देख मेरे पिता भी मेरी भाँति आनंदित होंगे, परंतु कुटी के पास पहुँचते ही उसका सब सोचा-विचारा हवा हो गया, उसके सुख का सपना जाता रहा और वह जिस बात को ध्यान में भी नहीं ला सकती थी वही आगे आयी। अर्थात वह बुड्ढ़ा अपनी लड़की को पराये पुरुष के साथ आती हुई देखकर मारे क्रोध के आग हो गया और अपनी कुटी से निकल युवक के आगे खड़ा हो यों कहने लगा, 'अरे दुष्ट! तू कौन है? क्या तुझे अपने प्राणों का मोह नहीं है जो तू बेधड़क मेरी कन्या से बोला और मेरी कुटी पर चला आया? तू जानता नहीं कि जो मनुष्य मेरी आज्ञा के बिना इस वन में पैर रखता है उसका सिर काटा जाता है? अच्छा, ठहर, अब तुझे भी प्राणदण्ड दिया जाएगा।' इतना कह वह क्रोध से युवक की ओर घूरने लगा। बिचारी इन्दुमती की विचित्र दशा थी, उसने आज तक अपने पिता की ऐसी भयानक मूर्ति नहीं देखी थी। वह अपने पिता का ऐसा अनूठा क्रोध देख पहले तो डरी, फिर अपने ही लिए युवा बटोही बिचारे का प्राण जाते देख जी कड़ा कर बुड्ढ़े के पैरों पर गिर पड़ी और रो-रो, गिड़गिड़ा-गिड़गिड़ाकर युवक के प्राण की भिक्षा माँगने लगी, और अपने पिता को अच्छी तरह समझा दिया कि, 'इसमें युवक का कोई दोष नहीं है, उसे मैं ही कुटी पर ले आयी हूँ। यदि इसमें कोई अपराध हुआ तो उसका दण्ड मुझे मिलना चाहिए। ' कन्या की ऐसी अनोखी विनती सुनकर बुड्ढ़ा कुछ ठण्डा हुआ और युवक की ओर देखकर बोला कि 'सुनो जी, इस अज्ञान लड़की की विनती से मैंने तुम्हारा प्राण छोड़ दिया, परंतु तुम यहाँ से जाने न पाओगे। कैदी की तरह जन्म-भर तुम्हें यहाँ रहकर हमारी गुलामी करनी पड़ेगी, और जो भागने का मंसूबा बाँधोगे तो तुरंत मारे जाओगे।' इतना कहकर जोर से बूढ़े ने सीटी बजायी, जिसकी आवाज दूर-दूर तक वन में गूँजने लगी और देखते-देखते बीस-पच्चीस आदमी हट्टे-कट्टे यमदूत की सूरत, हाथ में ढाल-तलवार लिए बुड्ढे के सामने आ खड़े हुए। उन्हें देखकर उसने कहा, 'सुनो वीरो, इस युवक को (अँगुली से दिखाकर) आज से मैंने अपना बँधुवा बनाया है। तुम लोग इस पर ताक लगाए रखना, जिससे यह भागने न पावे और इसकी तलवार ले लो। बस जाओ।' इतना सुनते ही वे सब के सब युवक से तलवार छीन, सिर झुकाकर चले गए पर इस नए तमाशे को देख इन्दुमती के होश-हवास उड़ गए। जबसे उसने होश सँभाला तब से आज तक बुढ्ढे को छोड़ किसी दूसरे मनुष्य की सूरत तक नहीं देखी थी, पर आज एकाएक इतने आदमियों को अपने पिता के पास देख वह बहुत ही सकपकाई पर डर के मारे कुछ बोली नहीं। बुड्ढे ने युवक की ओर आँख उठाकर कहा, 'देखों अब, तुम मेरे बँधुवे हुए, अब से जो-जो मैं कहूँगा तुम्हें करना पड़ेगा। उनमें पहिला काम तुम्हें यह दिया जाता है कि तुम इस सूखे पेड़ को (दिखलाकर) काट-काटकर लकड़ी को कुटी के भीत ररखो। ध्यान रखो, यदि जरा भी मेरी आज्ञा टाली तो समझ लेना कि तुम्हारे धड़ पर विधाता ने सिर बनाया ही नहीं और इन्दुमती! तू भी कान खोलकर सुनले। इस युवक के साथ यदि किसी तरह की भी बातचीत करेगी तो तेरी भी वही देशा होगी।' इतना कहकर बुड्ढा कुटी के भीतर चला गया और फिर उसी गीता की पुस्तक को ले पढ़ने लगा।

बुड्ढे का विचित्र रंग-ढंग देखकर हमारे युवक के हृदय में कैसे-कैसे भावों की तरंगें उठी होंगी, इसे हम लिखने में असमर्थ हैं। पर हाँ इतना तो उसने अवश्य निश्चय किया होगा कि 'यदि सचमुच यह सुंदरी इस बुड्ढे की लड़की हो तो विधाता ने पत्थर से नवनीत पैदा किया है।'

निदान विचारा युवक अपने भाग्य पर भरोसा रखकर कुल्हाड़ा हाथ में ले पेड़ काटने लगा और इन्दुमती पास ही खड़ी-खड़ी टकटकी लगाए उसे देखने लगी। दो ही चार बार के टाँगा चलाने से युवक के अंग-अंग से पसीने की बूँदें टपकने लगीं और वह इतने जोर से साँस लेने लगा जिससे जान पड़ता था कि यदि यों ही घण्टे-दो घण्टे यह टाँगा चलावेगा तो अपनी जान से हाथ धो बैठेगा। उसकी ऐसी दशा देखकर इन्दुमती ने उसके लिए फल और जल ला, आँखों में आँसू भरकर कहा, 'सुनो जी, ठहर जाओ, देखो यह फल और जल मैं लायी हूँ, इसे खा लो, जरा ठण्डे हो लो, फिर काटना; छोड़ो, मान जाओ।' युवक ने उसकी प्रेम भरी बातों को सुन कर कहा, 'सुंदरी, मैं सच कहता हूँ कि तुम्हारा मुँह देखने से मुझे इस परिश्रम का कष्ट जरा भी नहीं व्यापता, यदि तुम यों ही मेरे सामने खड़ी रही तो मैं बिना अन्न-जल किये सारे संसार के पेड़ काटकर रख दूँ और सुनो तो सही, अपने पिता की बातें याद करो, क्यों नाहक मेरे लिए अपने प्राण संकट में डालती हो? यदि वे सुन लेंगे तो क्या होगा? और मैं जो सुस्ताने लगूँगा तो लकड़ी कौन काटेगा? जब वे देखेंगे कि पेड़ नहीं कटा तो कैसे उपद्रव करेंगे! इसलिए हे सुशीले! मुझे मेरे भाग्य पर छोड़ दो।'

युवक की ऐसी करुणा-भरी बातें सुनकर इन्दुमती की आँखों से आँसू बहने लगे। उसने बरजोरी युवक के हाथ से कुठार ले लिया और कहा, 'भाई चाहे कुछ भी हो, पर जरा तो ठहर जाओ, मेरे कहने से मेरे लाए हुए फल खाकर जरा दम ले लो, तब तक तुम्हारे बदले मैं लकड़ी काटती हूँ। ' युवक ने बहुत समझाया पर वह न मानी और अपने सुकुमार हाथों से कुठार उठा कर पेड़ पर मारने लगी। युवक ने जल्दी-जल्दी उसके बहुत कहने से कई एक फल खाकर दो घूँट जल पिया इतने ही में हाथ में नंगी तलवार लिए बुड्ढा कुटी से निकलकर युवक से बोला -

'क्यों रे नीच! तेरी इतनी बड़ी सामर्थ्य कि आप तो बैठा-बैठा सुस्ता रहा है और मेरी लड़की से पेड़ कटवाता है? रह, अभी तेरा सिर काटता हूँ।' फिर इन्दुमती की ओर घूमकर बोला, 'क्यों री ढीठ, तैंने मेरे मना करने पर भी इस दुष्ट से बातचीत की! रह जा, तेरा भी वध करता हूँ।'

बुड्ढे की बातें सुन युवक उसके पैरों पर गिर पड़ा और कहने लगा, 'महाशय, इस बिचारी का कोई अपराध नहीं है, इसे छोड़ दीजिए, जो कुछ दण्ड देना है वह मुझे दीजिए।'

इन्दुमती भी उसके पैर पर गिरकर कहने लगी, 'नहीं, नहीं, इसका कोई दोष नहीं है, मैंने बरजोरी इससे कुठार ले ली थी, इसलिए हे पिता! अपराधिनी मैं हूँ, मुझे दण्ड दीजिए, इन्हें छोड़ दीजिए।'

उन दोनों की ऐसी बातें सुनकर बुड्ढे ने कहा, 'अच्छा, आज तो मैं तुम दोनों को छोड़े देता हूँ, पर देखो फिर मेरी बातों का ध्यान ना रखोगे तो मारे जाओगे।' इतना कह बुड्ढा कुटी में चला गया और वे दोनों एक-दूसरे का मुँह देखने लगे। इन्दुमती बोली कि 'घबराओ मत, मेरे रहते तुम्हारा बाल भी बाँका न होगा।' और युवक ने कहा, 'प्यारी, क्यों व्यर्थ मेरे लिए कष्ट सहती हो? जाओ, कुटी में जाओ।' पर इन्दुमती उसके मुँह की ओर उदास हो देखने लगी और वह कुठार उठाकर पेड़ काटने लगा। इतने ही में फिर बाहर आकर बुड्ढा बोला, 'ओ छोकरे! सन्ध्या भई, अब रहने दे। पर देख, कल दिन-भर में जो सारा पेड़ न काट डाला तो देखियो मैं क्या करता हूँ। और सुनती है, री इन्दुमती! इसे कुटी में ले जाकर सड़े-गले फल खाने को और गँदला पानी पीने को दे। परंतु सावधान! मुख से एक अक्षर भी न निकलने पावे। और सुन बे लड़के!

खबरदार, जो इससे कुछ भी बातचीत की तो जीता न छोडूँगा।' यह कहकर बुड्ढा पहाड़ी पगडण्डी से गंगा तट की ओर उतरने लगा और उसके जाने पर इन्दुमती मुसकाकर युवा का हाथ थाम्हे हुई कुटी के भीतर गई और वहाँ जाकर उसने पिता की आज्ञा को मेट कर सड़े-गले फल और गँदले पानी के बदल अच्छे-अच्छे मीठे फल और सुंदर साफ पानी युवक को दिया। और युवक के बहुत आग्रह करने पर दोनों ने साथ फलाहार किया। फिर दोनों बुड्ढे के आने में देर समझ बाहर चाँदनी में एक साथ ही चट्टान पर बैठकर बातें करने लगे।

आधी रात जा चुकी थी, वन में चारों ओर भयानक बनैले जंतुओं के गरजने की ध्वनि फेल रही थी। चार आदमी हाथ में तलवार और बरछा लिए कुटी के चारों ओर पहरा दे रहे थे। कुटी से थोड़ी ही दूर पर एक ढालुआँ चोटी पर दस-बारह आदमी बातें कर रहे थे। चलिए पाठक! देखिए ये लोग क्या बातें करते हैं। आहा! यह देखिए! इन्दुमती का पिता एक चटाई पर बैठा है और सामने दस-बारह आदमी हाथ बाँधे जमीन पर बैठे हैं। बड़ी देर सन्नाटा रहा, फिर बूढ़े ने कहा -

'सुनो भाइयो! इतने दिनों पीछे परमेश्वर ने हमारा मनोरथ पूरा किया। जो बात एक प्रकार से अनहोनी थी सो आपसे आप हो गई। यह परमेश्वर ने ही किया; नहीं तो बिचारी इन्दुमती का बेड़ा पार कैसे लगा। देखो, जिस युवक की रखवाली के लिए आज तीसरे पहर मैंने तुम लोगों से कहा था, वह अजयगढ़ का राजकुमार, या यों कहो कि अब राजा है। इसका नाम चंद्रशेखर है। इसके पिता राजशेखर को उसी बेईमान काफिर इब्राहिम लोदी ने दिल्ली में बुला, विश्वासघात कर मार डाला था; तब से यह लड़का इब्राहिम की घात में लगा था। अभी थोड़े दिन हुए जो बाबर से इब्राहिम की लड़ाई हुई है, उसमें चंद्रशेखर ने भेष बदल और इब्राहिम की सेना में घुसकर उसे मार डाला। यह बात कहीं एक सेनापति ने देख ली और उसने चंद्रशेखर का पीछा किया। निदान यह भागा और कई दिन पीछे उसे द्वन्द्व युद्व में मार अपने घोड़े को गँवा, राह भूलकर अपने राज्य की ओर न जाकर इस ओर आया और कल मेरी कन्या का अतिथि बना। आज उसने यह सब ब्योरा जलपान करते-करते इन्दुमती से कहा, जिसे मैंने आड़ में खड़े होकर सब सुना। वे दोनों एक-दूसरे को जी से चाहने लगे हैं। तो इस बात के अतिरिक्त और क्या कहा जाय कि परमेश्वर ही ने इन्दुमती का जोड़ा भेज दिया है और साथ ही उस दयामय ने मेरी भी प्रतिज्ञा पूरी की।' 'इतना सुनकर सभी ने जय ध्वनि के साथ हर्ष प्रकट किया और बूढ़ा फिर कहने लगा - 'मेरी इन्दुमती सोलह वर्ष की हुई, अब उसे कुँआरी रखना किसी तरह उचित नहीं है और ऐसी अवस्था में जबकि मेरी प्रतिज्ञा भी पूरी हुई और इन्दुमती के योग्य सुपात्र वर भी मिला। उसने इन्दुमती से प्रतिज्ञा की है कि 'प्यारी, मैं तुम्हें प्राण से बढ़कर चाहूँगा और दूसरा विवाह भी न करूँगा, जिससे तुम्हें सौत की आग में न जलना पड़े।' भाइयो! देखो स्त्री के लिए इससे बढ़कर कौन बात सुख देनेवाली है! मैंने जो चंद्रशेखर को देखकर इतना क्रोध प्रकट किया था उसका आशय यही था कि यदि दोनों में सच्चा प्रीति का अंकुर जमेगा तो दोनों का ब्याह कर दूँगा, और जो ऐसा न हुआ तो युवक आप डर के मारे भाग जाएगा। परंतु यहाँ तो परमेश्वर को इन्दुमती का भाग्य खोलना था और ऐसा ही हुआ। बस, कल ही मैं दोनों का ब्याह करके हिमालय चला जाऊँगा और तुम लोग वर-कन्या को उनके घर पहुँचाकर अपने-अपने घर जाना। बारह वर्ष तक जो तुम लोगों ने तन-मन-धन से मेरी सेवकाई की इसका ऋण सदा मेरे सिर पर रहेगा और जगदीश्वर इसके बदले में तुम लोगों के साथ भलाई करेगा।' इतना कहकर बुड्ढा उठ खड़ा हुआ और वे लोग भी उठे। बुड्ढा कुटी की ओर घूमा और वे लोग पहाड़ी के नीचे उतर गए।

अहा! प्रेम!! तू धन्य है !!! जिस इन्दुमती ने आज तक देवता की भाँति अपने पिता की सेवा की, और भूलकर भी कभी आज्ञा न टाली, आज वह प्रेम के फंदे में फँसकर उसका उलटा वर्ताव करती है। वृद्ध ने लौटकर क्या देखा कि दोनों कुटी के पिछवाड़े चाँदनी में बैठे बातें कर रहे हैं। यह देख वह प्रसन्न हुआ और कुटी में जाकर सो रहा। पर हमारे दोनों नए प्रेमियों ने बातों ही में रात बिता दी। सवेरा होते ही युवक कुठार ले लकड़ी काटने लगा और इन्दुमती सारा काम छोड़कर खड़ी-खड़ी उसके मुख की ओर देखने लगी। थोड़ी ही देर में युवक के सारे शरीर से पसीना टपकने लगा और चेहरा लाल हो आया। इतने में वृद्ध ने आकर गरजकर कहा, 'ओ लड़के! बस, पेड़ पीछे काटियो, पहिले जो लकड़ियाँ काटी हैं, उन्हें उठाकर कुटी के पिछवाड़े ढेर लगा दे।' इतना कहकर बुड्ढा चला गया और युवक लकड़ी उठा-उठा कर कुटी के पीछे ढेर लगाने लगा। उसका इतना परिश्रम इन्दुमती से न देखा गया और बड़े प्रेम से वह उसका हाथ थामकर बोली, 'प्यारे, ठहरो, बस करो, बाकी लकडियाँ मैं रख आती हूँ। हाय, तुम्हारा परिश्रम देखकर मेरी छाती फटी जाती है। प्यारे, तुम राजकुमार होकर आज लकड़ी काटते हो, ठहरो, तुम सुस्तालो।'

युवक ने मुस्कराकर कहा, 'प्यारी, सावधान, ऐसा भूलकर भी न करना। अपने पिता का क्रोध याद करो। अब की उन्होंने तुम्हें लकड़ी उठाते या हमसे बोलते देख लिया तो सर्वनाश हो जाएगा।'

इतना सुनकर इन्दुमती की आँखों में आँसू भर आए। वह बोली, 'प्यारे, मेरे पिता का तो बहुत अच्छा स्वभाव था, सो तुम्हें देखते ही एकदम से ऐसा बदल क्यों गया? वह तो ऐसे नहीं थे, अब उन्हें क्या हो गया? आज तक मैंने उन्हें कभी क्रोध करते नहीं देखा था। खैर, जो होय, पर तुम ठहरो, दम ले लो, तब तक मैं इन लकड़ियों को फेंक देती हूँ।'

युवक ने कहा, 'प्यारी, क्या राक्षस हूँ कि अपनी आँखों के सामने तुम्हें लकड़ी ढोने दूँगा? हटो, ऐसा नहीं होगा। सच जानो तुम्हें देखने से मुझे कुछ भी कष्ट नहीं जान पड़ता।'

इन्दुमती ने उदास होकर कहा, 'हाय प्यारे, तुम्हारे दुःख देखकर मेरे हृदय में ऐसी वेदना होती है कि क्या कहूँ, जो तुम इसे जानते तो ऐसा न कहते।'

पीछे लता-मण्डप में खड़े-खड़े वृद्ध ने दोनों की बातें सुनकर बड़ा सुख माना, पर अंतिम परीक्षा करने के अभिप्राय में नंगी तलवार ले सामने आ, गरजकर कहा, 'इन्दुमती, कल से आज तक तैंने मेरी सब बातों का उलट बर्ताव किया। फल और जल की बात याद कर, और तू फिर इससे बात करती है? देख अब तेरा सिर काटता हूँ।' कहकर ज्यों ही वह इन्दुमती की ओर बढ़ा कि चट युवक उसके पाँव पकड़कर कहने लगा, 'आप अपने क्रोध को दूर करने के लिए मुझे मारिए, सब दोष मेरा है, मैं दण्ड के योग्य हूँ। यह सब तरह निरपराधिनी है। मेरा सिर आपके पैरों पर है, काट लीजिए; पर मेरे सामने एक निरपराध लड़की के प्राण न लीजिए।'

वृद्ध ज्यों ही अपनी तलवार युवक की गर्दन पर रखना चाहता था कि इन्दुमती पागल की तरह उसके चरणों पर गिर बिलख-बिलखकर रोने और कहने लगी - 'पिता, पिता, जो मारना ही है तो पहले मेरा सिर काट लो तो फिर पीछे जो जी में आवे सो करना।'

इतना सुन बुड्ढे ने तलवार दूर फेंक दी और दोनों को उठा गले लगाकर कहा, 'बेटी इन्दुमती! धीरज, धर और प्रिय वत्स! चंद्रशेखर! खेद दूर करो। मैंने केवल तुम दोनों के प्रेम की परीक्षा लेने के लिए सब प्रकार का क्रोध का भाव दिखलाया था। यदि तुम दोनों का सच्चा प्रेम न होता तो क्यों एक-दूसरे के लिए जान पर खेलकर क्षमा चाहते, और सुनो, मैंने छिपकर तुम्हारी सब बातें सुनी हैं। तुमसे बढ़कर संसार में दूसरा कौन राजकुमार है जो इन्दुमती के वर बनने योग्य होगा। सुनो, देवगढ़ मेरे पुरखाओं की राजधानी थी। जबकि इन्दुमती चार वर्ष की थी, पापी इब्राहिम ने मेरे नगर को घेर यह कहलाया कि 'या तो अपनी स्त्री (इन्दुमती की माँ) को भेज दो या जंग करो।' यह सुनकर मेरी आँखों में खून उतर आया और उसके दूत को मैंने निकलवा दिया। फिर क्या पूछना था! सारा नगर यवन हत्यारों के हाथ से शमशान हो गया। मेरी स्त्री ने आत्महत्या की और मैं उस यवन-कुल-कलंक से बदला लेने की इच्छा से चार वर्ष की अबोध लड़की को ले इस जंगल में आकर रहने लगा। मेरे कृतज्ञ सरदारों में से पचास आदमियों ने सर्वस्व त्यागकर मेरा साथ दिया और आज तक मेरे साथ हैं। उन्हीं लोगों में से कई आदमियों को तुमने कल देखा था। बेटा चंद्रशेखर! बारह वर्ष हो गए पर ऐसी सावधानी से मैंने इस लड़की का लालन-पालन किया और इसे पढ़ाया-लिखाया कि जिसका सुख तुम्हें आप आगे चलकर इसकी सुशीलता से जान पड़ेगा। और देखो, मैंने इसे ऐसे पहरे में रखा कि कल के सिवा और कभी इसने मुझे छोड़कर किसी दूसरे मनुष्य की सूरत न देखी। मैंने राजस्थान के सब राजाओं से सहायता माँगी और यह कहलाया कि जो कोई दुष्ट इब्राहिम का सिर काट लावेगा उसे अपनी लड़की ब्याह दूँगा। पर हा! किसी ने मेरी बात न सुनी और सभी मुझे पागल समझकर हँसने लगे। अंत में मैंने दुःखी होकर प्रतिज्ञा की कि जो कोई इब्राहिम को मारेगा उसीसे इन्दुमती ब्याही जाएगी, नहीं तो यह जन्म भर कुँआरी ही रहेगी। सो परमेश्वर ने तुम्हारे हृदय में बैठकर मेरी प्रतिज्ञा पूरी की। अब इन्दुमती तुम्हारी हुई। और आज मैं बड़े भारी बोझ को उतारकर आजन्म के लिए हलका हो गया।'

इतना कह बुड्ढे ने सीटी बजायी और देखते-देखते पचास जवान हथियारों से सजे, घोड़ों पर सवार आ खडे हुए। उनके साथ एक सजा हुआ घोड़ा चंद्रशेखर के लिए और एक सुंदर पालकी इन्दुमती के लिए थी। इसी समय बुड्ढे ने दोनों का विवाह कर उन वीरों के साथ विदा किया और आप हिमालय की ओर चला गया।

अहा! जो इन्दुमती इतने दिनों तक वन-विहंगिनी थी, वह आज घर के पिंजरे में बंद होने चली। परमेश्वर की महिमा का कौन पार पा सकता है!

-किशोरीलाल गोस्वामी [सरस्वती, 1900]

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किशोरीलाल गोस्वामी का जन्म 1865 में काशी में हुआ था। आपने कहानी व नाटक विधाओं में साहित्य-सृजन किया। 1932 में आपका निधन हो गया। यूं तो 'हिंदी की पहली कहानी कौनसी थी' के विषय पर मतभेद है किंतु बहुत से विद्वान इन्दुमती को हिंदी की पहली कहानी स्वीकारते हैं।

 

 


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व्यथा - अमिता शर्मा

आज ताई को कई दिनों के बाद पार्क में देखा तो मैंने दूर से आवाज दी, "ताई राम-राम!"


"राम-राम, बेटा। जीते रहो!"

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माँ पर कुछ हाइकु  - राजीव गोयल

1)

फिर से लौटा
अम्मा का बचपन......

 
 
ते ताही और बरसात - प्रीता व्यास 

बहुत पुरानी बात है। दादी की दादी की दादी से भी बहुत-बहुत पहले की। सफेद बादलों के देश में एक बार खूब बारिश हुई, खूब।  इतनी की सब जल-थल हो गया । एक गांव  (Kainga)  था जिसमें बसने वालों ने कहना शुरू कर दिया कि यह बारिश ते ताही ही लेकर आई है। ते ताही ने अपने जादू से सारी धरती को डुबो देने जितनी बारिश करवाई है। 

ते ताही गांव में रहने वाला एक युवक था जिसके बारे में गांव के लोग कहते थे कि वह जादू जानता है। भारी बारिश से परेशान गांव वालों ने तय किया कि ते ताही को गांव से दूर कहीं छोड़ दिया जाए ताकि बारिश रुक जाए और बगीचों में फिर हरियाली छा उठे, खेती संभव हो सके।

गांव के कुछ लोग एक नाव पर ते ताही को बिठाकर दूर समंदर में निकल पड़े।  खेते-खेते वे एक अन्य निर्जन द्वीप पर जा पहुंचे। उन्होंने ते ताही को वहां उतार दिया और वापस लौट पड़े।

ते ताही ने जब जाना कि उसे अकेला छोड़ दिया गया है तो उसने सीटी बजाकर व्हेलों को तट के पास बुलाया और उनकी पीठ पर सवार होकर अपने गांव लौट आया।  व्हेल  तेज़  तैरती है सो वह उस नौका से पहले पहुंच गया जो उसे छोड़ने गई थी। जब नाव वापस पहुंची तो उस पर सवार लोगों ने देखा कि ते ताही तो वहां मौजूद है। उन्हें लगा कि उन्होंने ते ताही के साथ गलत किया। सब ने तय किया कि ते ताही को गांव से नहीं निकाला जाएगा, वह साथ ही रहेगा।

इसके बाद से ते ताही पूरी उम्र अपने गांव में ही रहा।  जब वह बूढ़ा हो गया तो उसने एक दिन अपने आप को एक तानिफा  (Taniwha - दैत्य )  में बदल लिया और अपने मित्र व्हेल मछलियों के पास रहने चला गया ।

-प्रीता व्यास 
[पहाड़ों का झगड़ा, (माओरी लोक कथाएं) राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत]

 

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रोना और मरामा - रोहित कुमार हैप्पी

बहुत समय पहले की बात है।  ‘आओटियारोआ’ में एक महिला थी जिसका नाम था ‘रोना’। रोना अपने पति के साथ रहती थी। उनका परंपरागत विवाह हुआ था। यह शादी उनके दादा दादी और कबीले के मुखियाओं ने तय की थी। ताउमू विवाह काफी आम थे और अकसर अपनी नस्ल को सुरक्षित या अपने कबीले की बेहतरी के लिए किए जाते थे। अधिकतर ऐसे विवाह सफल और सुखमय रहते थे लेकिन रोना और उसका पति इसका अपवाद ही थे। उनके बीच शायद कुछ भी एक सा नहीं था।  वैसे भी उनके बीच तो शादी के पहले दिन से ही समस्याएँ पैदा हो गईं थीं। शादी वाले दिन ही बाढ़ आ गई और जिस ‘मराए’ (माओरी पवित्र-स्थल) में उनकी शादी हुई, उसमें भी पानी आ गया। रोना के सभी रिश्तेदारों को ‘मराए’ के बाहर छप्पर में सोना पड़ा।  ‘रोना’ को लगा, उसके परिवार और संबंधियों का अपमान हुआ है। बस इसी बात को लेकर ‘रोना’ और उसके पति के बीच पहला तर्क-वितर्क शुरू हुआ।  दुर्भाग्य से, इस दंपति के लिए, यह नारकीय वैवाहिक जीवन की शुरुआत थी। 

रोना का अपने पति से अकसर झगड़ा होता रहता था।  एक रात घर में पानी खत्म हो गया और ‘पानी भरने’ को लेकर दोनों के बीच खूब तूफान मचा। रोना के पति ने पूरा घर सिर पर उठा लिया। 

“आप तो कुछ करता नहीं! बस बैठे-बिठाए, इसे सब कुछ चाहिए।“ रोना कुढ़ती-कलपती पानी लेने चल दी। रास्ते में वह अपने पति को कोसती जा रही थी। ऊपर आसमान में चाँद उसे देख रहा था और उसकी सब बातें सुन रहा था। 

आसमान में बादल भी छाए हुए थे। बादल जब मरामा यानी चाँद के सामने से गुजरे तो एक पल को अंधेरा छा गया। “हे ईश्वर!” रोना को घुप्प अंधेरे में ठोकर लगी और वह गिरते-गिरते बची। रोना तो पहले ही घर से लड़कर आई थी। बस अब उसका गुस्सा ‘चाँद’ पर फूट पड़ा। चाँद की रोशनी लुप्त न होती तो रोना भला क्यों ठोकर खाती?  “यह चाँद भी निकम्मा है। पता नहीं इसकी रोशनी को भी अभी ग्रहण लगना था!” 
 
मरामा यानी चाँद ने रोना से कहा, "सावधान, अपनी जुबान पर लगाम दो।  कहीं यह भला-बुरा कहना तुम्हें भारी न पड़ जाए।“  
रोना तो पहले से ही गुस्से में थी। मरामा की बातों ने आग में जैसे घी डाल दिया। मरामा न रुकी। चाँद को कोसती ही रही। 
मरामा इससे अधिक अपमान न सह पाया।  बस, झट से चंद्र लोक से धरती पर आ पहुंचा।  रोना अब भी न रुकी तो मरामा उसे उठाकर बलपूर्वक अपने साथ चंद्र लोक ले गया।  
 
उधर, रोना का पति अपनी पत्नी को खोजता घूमता रहा लेकिन वह उसे कैसे खोज पाता? ‘रोना’ धरती पर हो तो मिले! वह तो चन्द्र लोक पहुँच चुकी थी।  
अब वह ‘रोना’ को याद कर-करके विलाप करता रहा। उसे ‘रोना’ के साथ किए अपने दुर्व्यवहार का पछतावा था। ‘अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत।‘ 

उधर, ‘रोना’ को धरती से गुस्से में अपने साथ ले आने के बाद भी ‘मरामा’ ने अपने लोक में ‘रोना’ का खूब स्वागत किया।  उसके साथ बहुत अच्छा व्यवहार किया। रोना प्रसन्न थी। यूं ही समय बीतने लगा अब तो ‘रोना’ को आए काफी समय हो गया था। वे दोनों आपस में काफी घुल-मिल गए थे।
  
एक दिन ‘मरामा’ ने ‘रोना’ से पूछा, “क्या तुम धरती पर लौटना चाहोगी?”  यह प्रश्न सुनकर ‘रोना’ को एहसास हुआ कि वह मरामा से प्यार करने लगी है। वह उसे बताती है कि वह उसके साथ खुश है और अब यहीं रहना चाहती है। 

‘रोना’ के स्नेह भरे बोलों ने ‘मरामा’ के दिल को छू लिया। उसने प्रसन्न होकर ‘रोना’ को एक सुंदर परिधान भेंट किया और रोना को ‘ज्वार का नियंत्रण’ भी दे दिया। तभी से रोना ‘ज्वारभाटा’ की नियंत्रक है। चमकीले चाँद पर जो एक छाया दिखाई देती है, वह कुछ और नहीं ‘रोना’ का वहीं सुंदर परिधान है, जो मरामा ने उसे भेंट किया था। 

-रोहित कुमार हैप्पी

[ न्यूज़ीलैंड की माओरी लोक-कथा, प्रशांत की लोक-कथाएँ, केंद्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा, भारत ]

टिप्पणी : यह कहानी एक से अधिक रूपों में प्रचलित है। 


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डाक मुन्शी | कहानी - फकीरमोहन सेनापति

हरि सिंह सरकारी सेवा में जब से नियुक्त हुए तब से लेकर आज तक वे देहात के छोटे-बड़े सभी पोस्ट ऑफिसों में जाकर वहाँ के कार्य को परख चुके हैं। आज दस साल हो गए हैं, वे कटक सदर पोस्ट ऑफिस में कार्य कर रहे हैं। उत्तम कार्य के लिए उन्नति भी हुई है। इस समय वे प्रधान पोस्ट पिअन है और नौ रुपया मासिक वेतन है। कटक शहर में हर एक वस्तु खरीदने पर मिलती है। जरा-सी आग के लिए यदि दिवासलाई न खरीदें तो काम नहीं चलेगा। कतरब्यौंत से चलने पर भी मासिक पाँच रुपए से कम में गुजारा नहीं होता। मासिक चार रुपए घर न भेजें तो काम नहीं चल सकता। घर में पत्नी और आठ साल का लड़का गोपाल है। देहाती जगह, किसी तरह कतरब्यौंत से चार रुपए में गुजारा हो ही जाता है। उसमें से एक पैसा भी कम हो तो चलना मुश्किल है। गोपाल अपर प्राइमरी स्कूल में पढ़ता है। स्कूल फीस मासिक दो आना है। फीस के अलावा आज पुस्तक तो कल स्लेट, कागज आदि चीजें खरीदने में खर्च करना पड़ता है। इस प्रकार के ऊपरी खर्च बढ़ जाने पर उस मास में बहुत कष्ट होता है। बूढ़े को कभी-कभी उपवास भी करना पड़ता है। लक्ष्य होता है "मैं उपवास भले ही करूं लेकिन गोपाल पढ़े।"

पोस्टमास्टर ने सर्विस बुक देखकर एक रोज कहा—'हरि सिंह तुम्हारी उमर पचपन वय की हो गई है। अब पेन्शन लेनी होगी। नौकरी अब नहीं कर पाओगे। हरि सिंह के सिर पर मानो वज्रपात हो गया। क्या करें, घर संसार कैसे चलेगा?  घर संसार को छोड़ो, गोपाल की पढ़ाई कैसे चलेगी? गोपाल के जन्म ही से सिंह जी ने मन में बहुत ही उच्च इच्छा पाल रखी है। 'गोपाल देहात के सब पोस्ट आफिस में पोस्टमास्टर बनेगा।' पर थोड़े से अंग्रेजी ज्ञान के बिना इतनी बड़ी नौकरी मिलनी मुश्किल है। देहात में अंग्रेजी पढ़ाई की सुविधा नहीं है। सो कटक लाकर अंग्रेजी पढ़ाना होगा। नौकरी के चले जाने पर इतनी बड़ी आशा बिखर जाएगी। इन्हीं बातों को सोच-सोचकर काँटा हो गए। कभी-कभी रात भर नींद नहीं आती। इन्हीं बातों को सोचते-सोचते उनींदे रात बीत जाती है।

सिंह जी पर पोस्टमास्टर की काफ़ी मेहरबानी है। उनके यहाँ नौकर के होते हुए भी सिंह जी आफिस का काम निपटाकर शाम को बाबू के यहाँ दो-चार काम कर ही देते हैं। शाम के समय आरामकुर्सी पर बैठकर जब बाबू अँग्रेजी अखबार पढ़ने लगते है उस समय सिंह जी मीठी कड़वी चिलम सुलगा देता है किसी को मालूम नहीं। एक शाम सिंह ने बढ़िया चिलम भर कर बड़े यत्न से चिलम को फूंका। इंजन की चिमनी के समान बाबू के मुख से धुआँ भकभक निकलने लगा। बाबू को कुछ झपकी-सी आने लगी। सिंह समझ गया, यही ठीक समय है। सिंह बाबू के पैर के नीचे लंबायमान हो हाथ जोड़कर शक्ति से, विनय से, धीरे, मधुर स्वर में उसने अपना हाल बताया, 'गोपाल को लेकर मन में जो उच्च आशा पाले हुए था उसे भी कहना नहीं भूला। बाबू उसी प्रकार आंखें मूंदे हुए धीरे गंभीर स्वर में बोले, 'एक दरखास्त लिखकर लाओ' । बाबू में इतना साहस था, कारण पोस्टल इन्सपेक्टर या सुपरिटेंडेंट आदि आने पर उन्हीं के यहां रहते थे। उच्च पदस्थ हाकिमों की सन्तुष्टि के लिए खान-पान आदि जैसा आयोजन होना चाहिए। उसमें उनसे कभी भूल नहीं होती। उस रात पोस्टमास्टर बाबू 'हरि सिंह, हरि सिंह,' कहकर बार-बार पुकारते। हरि सिंह पुराना आदमी है। कई हाकिम हुकमा का राज देख चुका है। किसका कैसा मिजाज है, कौन किससे खुश है, सब यह जानता है। उस समय आधी रात तक हरि सिंह को बाबू के यहाँ रहना पड़ता है। कारण उड़ीसा की गंदी आबहवा के कारण यदि कोई हाकिम हुकूम हठात् पीड़ित हो उलटी करते तो हरि सिंह सोड़ा, कागजी नींबू आदि सामयिक वस्तुएँ हाजिर कर उनको सम्हाल लिया करता। बाबुओं के आराम से सोने पर ही आधी रात को घर पहुंच अपने लिए खाना पकाता। अतएव एक प्रकार से सिंह जी ऊपर के हाकिमों से परिचित हैं।

हरि सिंह की दरखास्त पर बाबू ने बढ़िया सिफारिश लिखकर सदर भेज दिया, कुछ ही दिनों के बाद काम करने की अवधि का आदेश मिल गया। सिंह बहुत ही खुश हुआ और इस खुशखबरी को गाँव लिखकर भेज दिया। वर्तमान को ही सर्वस्व समझने वाले लोग उपस्थित सुख या दुख से मुग्ध हो जाते हैं। भविष्य में विधाता ने आगे उनके लिए कौनसा विधान रच रखा है उस ओर एकबार भी वे देखना नहीं चाहते। सिंह का इतना बड़ा आंनद पानी के बुलबुले के समान फट गया। घर से चिट्ठी मिली, गोपाल की माँ को सन्निपात हो गया है, बचने की आशा नहीं है। सिंह ने चि‌ट्ठी पोस्टमास्टर बाबू को दिखाई। बाबू बड़े ही दयालु थे तो उसी समय छु‌ट्टी मंजूर हो गई। सिंह आतुरता के साथ दौड़े, घर पहुंच कर जो दृश्य उन्होंने देखा उससे आंखों की ज्योति छिन गई। सारा संसार अन्धकारमय लगा। बूड़ी की अवस्था मृतप्राय थी। स्वामी को क्षीण नजरों से गौर से देखा, दोनों हाथ थोड़ा उठाकर प्रणाम किया और स्वामी की चरण रज पाने के लिए इशारा किया। मानों सिंह की चरण रज के लिए ही वह मार्ग तकती बैठी थी। सब शेष हो गया। सिंह का पैतृक निवास समाप्त हो गया। घर के दो-चार असबाब बेचकर गोपाल के साथ वह कटक  आ गया।

गोपाल माइनर में पढ़ता है। सिंह पेन्शन पा चुका है। वर्तमान बहुत ही कष्टकर और अचल अवस्था है। घर में जो दो-चार लोटा काँसा आदि बर्तन थे उसी को बेचकर गुजारा कर रहे हैं। नौकरी करते समय दो-चार आना करके सेविंग्स बैंक में रखा था। उसे भी गोपाल के माइनर की पढ़ाई में अर्पण कर दिया है। सिंह की प्रबल आशा है गोपाल के पास होने पर सब कष्ट मिट जाएँगे। गोपाल भी कई बार भरोसा देते हुए कह चुका है—'पिता जी मांग-उधार करके मुझे पढ़ाइए, नौकरी करने पर मैं सब चुका दूंगा।'

हरि सिंह की आर्त प्रार्थना दीनबंधु भगवान ने भी सुन ली। गोपाल माइनर पास हो गया। सिंह के आंनद की सीमा न रही। वही पुराने पोस्टमास्टर बाबू है, उन्हीं से सिंह ने बहुत निवेदन किया। ऊपर के हाकिमों का भी कुछ अनुग्रह था। 20 रु० महीना के वेतन पर गोपाल देहात मक्रामपुर के पोस्ट ऑफिस में सब-पोस्टमास्टर नियुक्त हो गया। वर्तमान सदर पोस्ट ऑफिस में चार महीने काम सीख कर फिर देहात जाएगा।

हरि सिंह के आनंद की सीमा नहीं रही। हमेशा प्रभु के प्रति सिर झुका कर कहता 'धन्य प्रभु तुम्हारी करुणा, तुमने मुझ दुःखी की गुहार सुन ली। जिस दिन नौकरी की खबर सुनी उस रात बूढ़ा सिंह बहुत रोया। हाय, आज बूढ़ी होती तो कितनी खुश होती। गोपाल ने हाकिम की नौकरी पाई है, आज तो वह आनंद में लोट-पोट हो जाती। हाय! अभागिन के भाग्य में देखना बदा नहीं था। जो हो, गोपाल तो हाकिम हो गया। प्रभु गोपाल की रक्षा करें।

गोपाल ने पहले माह की तनखाह पाते ही बूढ़े के हाथ में रख दी। बूढ़े के आंनद की कौन कहे, जमीन पर पाँव नहीं पड़ते थे। लड़का हाकिम है, इतना सारा रुपया माह के भीतर ले आया। बूढ़ा चार-पाँच बार गिनकर रुपयों को कमर में खोंस कर सो गया। दूसरे दिन सुबह होते ही झटपट बाजार की ओर दौड़ा। जूता, कुरता कपड़ा आदि जरूरी चीजें खरीद लाया। गोपाल हाकिम हो गया है, क्या ऐसे वैसे कपड़े पहनेगा? वेश देखकर भीख मिलती है। पद के समान पोशाक की जरूरत होती है।
गोपाल ऑफिस में चार-पाँच बाबुओं के साथ बैठकर अँग्रेजी में लिखता है। हमेशा बाबुओं से कारबार रहता है। लोग बुलाते हैं, 'डाक मुन्शी बाबू' वैसे नाम है गोपालचंद्र सिंह। घर पहुंच कर देखता कि बूढ़ा धूल-धूसर कपड़ा पहन कर काम में लगा है। 'गोपाल कैसे दो कौर अच्छा खाए, गोपाल नहा-धोकर गया है, गीले कपड़े सूखे नहीं है, बिचारा। लड़का काम करते-करते व्यस्त हो गया होगा' आदि बातों से बूढ़ा चिंतित रहता। पहले बूढ़ा समय-समय पर हरि नाम भजन करता था। कुछ धर्म-कर्म भी करता था। अब गोपाल बाबू के लिए सब कुछ भूल बैठा है। हम समझते हैं शायद हरि भी बूढ़े के इस काम को देखकर नाराज हो गए हैं। 

उन्होंने धमकाकर बूढ़े से कहा- अरे निर्बोध, यह क्या है रे, अच्छा बाद में समझेंगे।

इस बीच गोपाल बाबू के हाव-भाव में कुछ परिवर्तन नजर आने लगा है। अब पिता को देखते ही अकारण नाराज होते हैं। यह मूर्ख है, अंग्रेजी जानता नहीं है। मजदूर-सा मैले कपड़े पहनता है। इसे पिता कहकर बुलाऊंगा? लोग क्या कहेंगे? उस दिन कई स्त्रियां शमीज पोशाक आदि पहन कर खड़ी थीं, बूढ़ा नंगे बदन उनके सामने से निकल गया। छीः छीः, कितनी लज्जा की बात है। इसे घर से निकाले बिना इज्जत बचाना मुश्किल है।

एक रोज डाक मुंशी बाबू पिता से बोले- 'तुमने मेरा कोई उपकार नहीं किया है इच्छा हो तो घर में रहो अन्यथा घर छोड़कर चले जाओ। और हाँ, जब बाबू लोग हमारे यहां आएँ, तुम घर से निकलना मत।'

गोपाल की बात सुनकर बूढ़े की कनपटी साँय-सांय करने लगी। चुप होकर बैठ गया। किससे कहे, लड़के की बात है। यह ऐसे स्थान का भाव है, जिसको न देखते बनता है. न दिखाते बनता है। जिसको मन की बातें कहता, वह तो गुजर गई। सहसा बूढ़ी की याद आई। हेर-सा रोया । उसने चारों ओर देखा, कोई आस-भरोसा नहीं। बूढ़ा दुःख के समय बूढ़ी की याद करता है, सुख के समय भी याद करता है। मुंह पोंछा। कहीं गोपाल का अनिष्ट न हो जाए, इस भय से रोना बंद कर दिया।

गोपाल बाबू को कल सुबह देहात के क्षेत्र में जाना है। यह बूढ़े को नहीं बतलाया है। सुबह उठकर, अवज्ञा भाव दिखाते हुए बोले—'ए बाबा ! मैं देहात जा रहा हूँ, तुम सारा सामान लेकर आना। थोड़ी-सी तो चीजें हैं। खबरदार जो मजदूर लगाए, मजदूर लगाओगे तो तुम जानोगे। मैं पैसे नहीं दूंगा।' बाबू पोशाक पहने, कंधे पर छाता लटकाए, छड़ी घुमाते-घुमाते चले गए। बूढ़ा क्या करता, सारी चीजों को बटोर एक गठरी बनाई और गठरी सिर पर लादी। शरीर में ताकत नहीं थी, चलना मुश्किल हो रहा था। बीच-बीच में आँखों से पानी बहता, दस जगह उठ-बैठकर अंत में बूढ़ा शाम को मक्रामपुर पहुँचा। देर होने पर बाबू ने गाली गलौज की। बूढ़ा चुप बैठकर थकावट मिटा रहा था।

बाबू शाम-सबेरे आफिस जाते। बूढ़ा मुख बंद किए घर के धंधों में लगा रहता। बाप बेटा, दोनों को एक जगह बैठकर हँसी-खुशी से बातें करते कभी किसी ने नहीं देखा। डाक मुंशी देहात के एक हाकिम है। कितने आदमी आकर प्रणाम कर जाते हैं। बूढ़ा मूर्ख है, यह क्या जानता है जो उससे बातें करे?

बूढ़े के शरीर में देहात का पानी सुहाया नहीं, बुखार होने लगा। खूं, खूं खाँसी भी होने लगी। रात को खाँसी थोड़ा बढ़ जाती। बाबू सोते के लिए परेशान होने लगे। चपरासी को आदेश दिया—'इस बूढ़े को लेकर केतकी वाड़ में फेंक आओ।' चपरासी बेचारा मूर्ख है, अंग्रेजी नहीं जानता। उसका देशी हृदय है। वह सोचने लगा यह क्या? बूढ़े रोगी को केतकी बाड़ में सुला दूँ? एक दिन की तो बात है। बूढ़े को बहुत जोर का बुखार है। तीन दिन से कुछ भी नहीं खाया। अंधेरी आधी रात, ठंड लगकर बूड़े की खांसी और भी बढ़ गई। बाबू बहुत ही नाराज हुए। बूढ़े की छाती पर दो अंग्रेजी मुक्के मारे और बिछावन उठाकर बाहर फेंक दिया। बूढ़ा गाँव चला गया।

पास रहने वाले भले आदमियों से सुनने में आया है, गोपाल बाबू उस दिन से बड़े खुश हैं। बूढ़े ने गाँव पहुँच कर अपनी दो एकड़ जमीन को हिस्से में लगा दिया। घर बैठकर धान पा जाता है। पेन्शन के रुपयों से कपड़ा-लत्ता, नून-तेल का काम चल जाता है। खाँसी शुरु होने पर बूढ़े ने थोड़ी-थोड़ी अफ़ीम खानी शुरू कर दी है। सारा खर्च पूरा पड़ जाता है। बुढ़ा बरामदे में बैठकर हरिनाम भजन करता है। अब बाप-बेटे दोनों खुश हैं।

-फकीरमोहन सेनापति

हिन्दी अनुवाद : बिनीता पाठक
[भारतीय कहानी, केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय, 1976]


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शहीद अशफ़ाक की कलम से | शायरी - अशफ़ाक उल्ला खाँ

अशफ़ाक उल्ला खाँ भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के प्रमुख क्रान्तिकारियों में से एक थे। वे पं रामप्रसाद बिस्मिल के विशेष स्नेहपात्र थे। राम प्रसाद बिस्मिल की भाँति अशफाक उल्ला खाँ भी शायरी करते थे। उन्होंने काकोरी काण्ड में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। ब्रिटिश शासन ने उनके ऊपर अभियोग चलाया और 19 दिसम्बर सन् 1927 को उन्हें फैजाबाद जेल में फाँसी पर लटका दिया गया। उनका उर्दू तखल्लुस/उपनाम 'हसरत' था। उर्दू के अतिरिक्त वे हिन्दी व अँग्रेजी में आलेख व कवितायें करते थे। भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के इतिहास में बिस्मिल और अशफाक की भूमिका निर्विवाद रूप से हिन्दू-मुस्लिम एकता का बेजोड़ उदाहरण है। देश पर शहीद हुए इस शहीद की यह रचना:

कस ली है कमर अब तो, कुछ करके दिखाएँगे,
आज़ाद ही हो लेंगे, या सर ही कटा देंगे।

हटने के नहीं पीछे, डर कर कभी जुल्मों से,......

 
 
सुभाष चन्द्र बोस के अनमोल वचन  - भारत-दर्शन संकलन

 

तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा!

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राष्ट्रवाद मानव जाति के उच्चतम आदर्शों सत्यम् , शिवम्, सुन्दरम् से प्रेरित है।

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याद रखिए सबसे बड़ा अपराध अन्याय सहना और गलत के साथ समझौता करना है

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इतिहास में कभी भी विचार-विमर्श से कोई वास्तविक परिवर्तन हासिल नहीं हुआ है।

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एक सैनिक के रूप में आपको हमेशा तीन आदर्शों को संजोना और उन पर जीना होगा - सच्चाई, कर्तव्य और बलिदान। जो सिपाही हमेशा अपने देश के प्रति वफादार रहता है, जो हमेशा अपना जीवन बलिदान करने को तैयार रहता है, वो अजेय है। अगर तुम भी अजेय बनना चाहते हो तो इन तीन आदर्शों को अपने ह्रदय में समाहित कर लो।

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एक सच्चे सैनिक को सैन्य और आध्यात्मिक दोनों ही प्रशिक्षण की ज़रुरत होती है।

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प्रांतीय ईर्ष्या-द्वेष दूर करने में जितनी सहायता हिन्दी प्रचार से मिलेगी, दूसरी किसी चीज से नहीं।

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आज हमारे अन्दर बस एक ही इच्छा होनी चाहिए, मरने की इच्छा ताकि भारत जी सके! एक शहीद की मौत मरने की इच्छा ताकि स्वतंत्रता का मार्ग शहीदों के खून से प्रशस्त हो सके

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Quotes by Netaji Subhash Chandra Bose
सुभाष चन्द्र बोस के अनमोल वचन

 

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चल गई | शेखचिल्ली के किस्से  - भारत-दर्शन संकलन

एक दिन शेखचिल्ली बाजार में यह कहता हुआ भागने लगा, "चल गई, चल गई!'

उन दिनों शहर में शिया-सुन्नियों में तनाव था और झगड़े की आशंका थी।
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इश्तिहार | लघु-कथा - रोहित कुमार 'हैप्पी'

"मेरा बहुत सा क़ीमती सामान जिसमें शांति, सद्‌भाव, राष्ट्र-प्रेम, ईमानदारी, सदाचार आदि शामिल हैं - कहीं गुम गया है। जिस किसी सज्जन को यह सामान मिले, कृपया मुझ तक पहुँचाने का कष्ट करे।

आपका अपना,
भारत बनाम हिंदोस्तान "

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- रोहित कुमार 'हैप्पी'......

 
 
अपना एक देस | कविता - मोहन राणा

लोगों ने वहाँ बस याद किया भूलना ही
था ना अपना एक देस बुलाया नहीं फिर,......

 
 
दस हाइकु - अशोक कुमार ढोरिया

1.
नेक इरादे......

 
 
इच्छा | लघु-कथा  - रंजीत सिंह

हूँ...., आज माँ ने फिर से बैंगन की सब्जी बना कर डिब्बे में डाल दी। मुझे माँ पर गुस्सा आ रहा था । कितनी बार कहा है कि मुझे ये सब्जी पसंद नहीं, मत बनाया करो।

कालेज की कैंटीन में अपना टिफिन खोलते हुए, मैं यही सोच रहा था कि तभी मेरी नजर सामने सडक़ के पार पड़ी।

एक बूढ़ा व्यक्ति कूड़े के ढेर से कुछ निकाल कर खाता हुआ दिखाई दिया। मेरी नजरें खुद-ब- खुद झुक गई, मुझे अपनी सब्जी अब बिल्कुल भी बुरी नहीं लग रही थी।

- रंजीत सिंह

 


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दो गौरैया - भीष्म साहनी

घर में हम तीन ही व्यक्ति रहते हैं-माँ, पिताजी और मैं। पर पिताजी कहते हैं कि यह घर सराय बना हुआ है। हम तो जैसे यहाँ मेहमान हैं, घर के मालिक तो कोई दूसरे ही हैं।
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राजनैतिक होली - डॉ एम.एल.गुप्ता आदित्य


चुनावों के चटक रंगों सा, छाया हुआ खुमार ।

रंग अलग है ढंग अलग है, होली का इस बार ।।

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हम देहली-देहली जाएँगे  - मुमताज हुसैन

हम देहली-देहली जाएँगे
हम अपना हिंद बनाएँगे......

 
 
रंग की वो फुहार दे होली - गोविंद कुमार

रंग की वो फुहार दे होली
सबको खुशियाँ अपार दे होली......

 
 
दो लघु-कथाएँ - बृजेश नीरज

बंदर

आज़ादी के समय देश में हर तरफ दंगे फैले हुए थे। गांधी जी बहुत दुखी थे। उनके दुख के दो कारण थे - एक दंगे, दूसरा उनके तीनों बंदर खो गए थे। बहुत तलाश किया लेकिन वे तीन न जाने कहां गायब हो गए थे।
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जैसा राम वैसी सीता | कहानी - सपना मांगलिक

आज फिर स्कूल जाते वक्त बिन्दिया दिखाई पड गयी । ना जाने क्यों यह विन्दिया जब तब मेरे सामने आ ही जाती है । शायद 'लॉ ऑफ़ रिवर्स इफेक्ट' मनुष्यों पर कुछ ज्यादा लागू होता है जिस आदमी से हम कन्नी काटना चाहते हैं या जिसे देखने मात्र से मन ख़राब हो जाता है वही अकसर आपके सामने आकर खड़ा हो जाता है । हालाँकि बिंदिया ने कभी मेरे साथ कुछ गलत नहीं किया है बल्कि सामने पड़ते ही हमेशा नमस्ते मास्टरजी कहकर मेरा अभिवादन ही करती है । फिर भी उसकी दिलफेंक अदा, द्विअर्थी बातें और पुरुषों के साथ उन्मुक्त हास परिहास नारीत्व की गरिमा के अनुरूप कतई नहीं कहा जा सकता । मोहल्ले के लोग उसे चरित्रहीन ही समझते थे और वही विचार मेरा भी था । हालांकि मेरे अन्दर का शिक्षक और दार्शनिक मानव को उसूलों और रिवाजों की कसौटी पर मापने के लिए मुझे धिक्कारता था मगर दिमाग की प्रोग्रामिंग तो बचपन से डाले गए संस्कारों से हो गयी थी । जैसे कम्प्यूटर को प्रोग्राम किया जाता है वह वैसे ही निर्देशों का पालन करता है ठीक उसी प्रकार मानव मस्तिष्क है ।


प्राचीनकाल में की गयी जात-पात, धर्म-अधर्म, चरित्र-दुश्चरित्र की प्रोग्रामिंग के हिसाब से ही आज तक सोचता आ रहा है क्योंकि अभी तक इस प्रोग्रामिंग को ना ही किसी ने ख़ारिज किया है और ना ही बदलने या अपडेट करने की कोशिश भी की है।खैर मुद्दे पर आते हैं, बिन्दिया के सामने आते ही मेरा मुंह यूँ बनता जैसे कुनैन की गोली जीभ पर चिपक गयी हो और उसे गले में धकेलना मुश्किल हो रहा हो । बिंदिया के प्रति मेरी सोच और व्यवहार यथावत था और कुछ हद तक मेरी इस वितृष्णा से वह भी परिचित थी । तभी तो मेरे सामने उसके वैसे बोलचाल और रंगढंग नहीं होते जैसे दूसरे मर्दों के सामने होते थे । मगर इन दिनों उसका पूर्व से ज्यादा मुझे इज्जत देना और आँखों ही आँखों में कुछ कहने का प्रयास सिवाय त्रियाचरित्र के कुछ और नहीं लग रहा था । उसकी स्वच्छन्दता के किस्से आस पास के नौजवानों के मुंह से सुनने को मिल जाते थे उसे यह लोग छमिया, बिल्लो, द्रौपदी इत्यादि नामों से अलंकृत किया करते थे । बिंदिया भी उनके द्विअर्थी मजाकों का जवाब उतने ही उत्साह से दिया करती थी । कुछ लोग बिंदिया पर तरस भी खाते क्योंकि बचपन से ही बदनसीबी और उसका चोली दामन का साथ रहा है । उसका हवलदार बाप दूसरी औरत कर लाया और बिल्लो और उसकी गर्भवती माँ को बेसहारा छोड़ दूसरी के साथ रहने लगा, सात साल की बिंदिया की पढ़ाई छूट गयी और माँ और नवजात भाई की जिम्मेदारी उसने घर के मर्द की भांति संभाल ली कभी घरों में बर्तन झाड़ू करके तो कभी शादियों-पार्टियों में प्लेट सर्व करके । बिंदिया ने खुद मेहनत मजदूरी की मगर भाई को पढ़ा लिखाकर अच्छी जिन्दगी जीने योग्य बनाया । समय पर भाई ने अपनी प्रेमिका से शादी भी कर ली, एक बार भी उसे अपनी बड़ी बहन के हाथ पीले करने का विचार नहीं आया जो उसे पढ़ाने-लिखाने की वजह से अधेडावस्था में पहुँच चुकी थी । नववधू को कुआंरी बड़ी ननद फूटी आँख नहीं सुहाती ऊपर से मोहल्ले में बिंदिया के बारे में उडती खबरें, समझदार भाई अलग घर लेकर रहने लगा, पोता-पोती के मोह में कुछ वर्ष बाद माँ भी पुत्र के घर चली गयी । कुछ दिन बिंदिया को किसी ने घर से बाहर निकलते हुए नहीं देखा वह वहीं घर में बंद पड़ी अकेली सुलगती रही, सिसकती रही मगर जब वह घर से निकली तो एक अलग ही नया सा रूप लेकर जिसे देखकर मोहल्ले वाले स्तब्ध रह गए । कुछ बड़ी बूढ़ी दबी जबान में कहती "आम जब पूरी तरह से पके नहीं तब ही तोड़ लिया जाए तो ठीक नहीं तो आप ही टूटकर गिर जावे है।"

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अभिमन्यु | क्षणिका - रमाशंकर सिंह

जब जब लड़ा अभिमन्यु
हर बार वही हारा है......

 
 
प्रेमचंद की सर्वोत्तम 15 रचनाएं - रोहित कुमार 'हैप्पी'

मुंशी प्रेमचंद को उनके समकालीन पत्रकार बनारसीदास चतुर्वेदी ने 1930 में उनकी प्रिय रचनाओं के बारे में प्रश्न किया, "आपकी सर्वोत्तम पन्द्रह गल्पें कौनसी हैं?"

प्रेमचंद ने उत्तर दिया, "इस प्रश्न का जवाद देना कठिन है। २०० से ऊपर गल्पों में कहाँ से चुनूँ, लेकिन स्मृति से काम लेकर लिखता हूँ -

बड़े घर की बेटी
रानी सारधा......

 
 
नकल | पंचतंत्र - विष्णु शर्मा

एक पहाड़ की ऊंची चोटी पर एक बाज रहता था। पहाड़ की तराई में बरगद के पेड़ पर एक कौआ अपना घोंसला बनाकर रहता था। वह बड़ा चालाक और धूर्त था। उसका प्रयासरहता कि बिना परिश्रम किए खाने को मिल जाए। पेड़ के आसपास खोह में खरगोश रहते थे। जब भी खरगोश बाहर आते तो बाज ऊंची उड़ान भरते और एकाध खरगोश को उठाकर ले जाते।


एक दिन कौए ने सोचा, ‘वैसे तो ये चालाक खरगोश मेरे हाथ आएंगे नहीं, अगर इनका नर्म मांस खाना है तो मुझे भी बाज की तरह करना होगा। एकाएक झपट्टा मारकर पकड़ लूंगा।'

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दुर्लभ पांडुलिपियां - भारत-दर्शन संकलन

विश्व हिंदी सम्मेलन के अंतर्गत 'कल, आज और कल' प्रदर्शनी में 400 वर्ष पुरानी दुर्लभ पांडुलिपियां भी प्रदर्शित की गईं। इन पांडुलिपियों में 18 ग्रंथ सम्मिलित थे जिनमें श्रीमद्भगवद गीता मुख्य थी। श्रीमद्भगवद गीता की पांडुलिपि के 415 में से 24 पृष्ठ सोने के पानी से लिखे गए हैं। प्राकृतिक रंगों और सोने के पानी से छह दुर्लभ चित्र भी पांडुलिपि में उकेरे गए हैं।

इनमें पंचमुखी हनुमान और श्रीकृष्ण का विराट रूप सम्मिलित है। विश्व हिंदी सम्मेलन की प्रदर्शनी में 400 साल पुरानी दुर्लभ पांडुलिपि  हिंदी विवि के संस्कृत विभाग में पदस्थ डॉ. शीतांशु त्रिपाठी ने सम्मेलन के लिए विशेष तौर से पांडुलिपियों का चयन किया था। डॉ. त्रिपाठी ने बताया कि कार्बन डेटिंग से यह पता लगाया गया है कि पांडुलिपियां कितनी पुरानी हैं। अनका कहना है कि ये पांडुलिपियां 350से  400 वर्ष पुरानी हैं। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने भी इन पांडुलिपियों में विशेष रूचि दिखाई। उन्होंने संग्रहकर्ता डॉ. त्रिपाठी से बातचीत की व इसके बारे में जानकारी ली।

यहां साढ़े पांच सौ वर्ष पुरानी पांडुलिपि भी उपलब्ध है। यहां प्रदर्शित पांडुलिपियां किसी संस्था या संगठन ने नहीं, बल्कि डा. शशितांशु त्रिपाठी के परिवार की धरोहर है। उनके परिवार में इन पांडुलिपियों को पीढ़ियों से सहेज कर रखा गया है। उनके पास सबसे पुरानी पांडुलिपि महाकवि कालीदास की रघुवंशम् महाकाव्य की है। यह पांडुलिपि संवत् 1552 (1498) की है। इसके अलावा भी यहां विभिन्न ग्रंथों की पांडुलिपियां प्रदर्शित की गई।

सबसे अधिक आकर्षण सोने की स्याही से लिखी गई श्रीमद्भगवद गीता का रहा। इसमें रंगों का अद्भुत समावेश है। सोने की स्याही के साथ अन्य रंगों से जहां श्लोक लिखे गए हैं, वहीं विविध नायकों की तस्वीरें भी बनाई गई हैं।  इस श्रीमद्भगवद गीता में सोने की स्याही के साथ ही प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल किया गया है। इसके चित्रों में मुगल एवं राजस्थान की कला के मिश्रण का समावेश नजर आता है।


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गणतंत्र दिवस 2016 की पूर्व संध्या पर भारत के राष्ट्रपति, श्री प्रणब मुखर्जी का राष्ट्र के नाम संदेश - भारत-दर्शन संकलन

गणतंत्र दिवस 2016 की पूर्व संध्या पर भारत के राष्ट्रपति, श्री प्रणब मुखर्जी का राष्ट्र के नाम संदेश

President of India addressing the nation on eve on 67th Republic Day 2016


मेरे प्यारे देशवासियो,

हमारे राष्ट्र के सड़सठवें गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर, मैं भारत और विदेशों में बसे आप सभी को हार्दिक बधाई देता हूं। मैं, हमारी सशस्त्र सेनाओं, अर्ध-सैनिक बलों तथा आंतरिक सुरक्षा बल के सदस्यों को अपनी विशेष बधाई देता हूं। मैं उन वीर सैनिकों के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं जिन्होंने भारत की क्षेत्रीय अखंडता की रक्षा करने और विधि शासन को कायम रखने के लिए अपना जीवन बलिदान कर दिया।

प्यारे देशवासियो,

2. छब्बीस जनवरी 1950 को हमारे गणतंत्र का जन्म हुआ। इस दिन हमने स्वयं को भारत का संविधान दिया। इस दिन उन नेताओं की असाधारण पीढ़ी का वीरतापूर्ण संघर्ष पराकाष्ठा पर पहुंचा था जिन्होंने दुनिया के सबसे विशाल लोकतंत्र की स्थापना के लिए उपनिवेशवाद पर विजय प्राप्त की। उन्होंने राष्ट्रीय एकता, जो हमें यहां तक लेकर आई है, के निर्माण के लिए भारत की विस्मयकारी अनेकता को सूत्रबद्ध कर दिया। उनके द्वारा स्थापित स्थायी लोकतांत्रिक संस्थाओं ने हमें प्रगति के पथ पर अग्रसर रहने की सौगात दी है। आज भारत एक उदीयमान शक्ति है, एक ऐसा देश है जो विज्ञान, प्रौद्योगिकी, नवान्वेषण और स्टार्ट-अप में विश्व अग्रणी के रूप में तेजी से उभर रहा है और जिसकी आर्थिक सफलता विश्व के लिए एक कौतूहल है।

प्यारे देशवासियो,

3. वर्ष 2015 चुनौतियों का वर्ष रहा है। इस दौरान विश्व अर्थव्यवस्था में मंदी रही। वस्तु बाजारों पर असमंजस छाया रहा। संस्थागत कार्रवाई में अनिश्चितता आई। ऐसे कठिन माहौल में किसी भी राष्ट्र के लिए तरक्की करना आसान नहीं हो सकता। भारतीय अर्थव्यवस्था को भी दिक्कतों का सामना करना पड़ा। निवेशकों की आशंका के कारण भारत समेत अन्य उभरते बाजारों से धन वापस लिया जाने लगा जिससे भारतीय रुपए पर दबाव पड़ा। हमारा निर्यात प्रभावित हुआ। हमारे विनिर्माण क्षेत्र का अभी पूरी तरह उभरना बाकी है।

4. 2015 में हम प्रकृति की कृपा से भी वंचित रहे। भारत के अधिकतर हिस्सों पर भीषण सूखे का असर पड़ा जबकि अन्य हिस्से विनाशकारी बाढ़ की चपेट में आ गए। मौसम के असामान्य हालात ने हमारे कृषि उत्पादन को प्रभावित किया। ग्रामीण रोजगार और आमदनी के स्तर पर बुरा असर पड़ा।

प्यारे देशवासियो,

5. हम इन्हें चुनौतियां कह सकते हैं क्योंकि हम इनसे अवगत हैं। समस्या की पहचान करना और इसके समाधान पर ध्यान देना एक श्रेष्ठ गुण है। भारत इन समस्याओं को हल करने के लिए कार्यनीतियां बना रहा है और उनका कार्यान्वयन कर रहा है। इस वर्ष 7.3 प्रतिशत की अनुमानित विकास दर के साथ, भारत सबसे तेजी से बढ़ रही विशाल अर्थव्यवस्था बनने के मुकाम पर है। विश्व तेल कीमतों में गिरावट से बाह्य क्षेत्र को स्थिर बनाए रखने और घरेलू कीमतों को नियंत्रित करने में मदद मिली है। बीच-बीच में रुकावटों के बावजूद इस वर्ष उद्योगों का प्रदर्शन बेहतर रहा है।

6. आधार 96 करोड़ लोगों तक मौजूदा पहुंच के साथ, आर्थिक रिसाव रोकते हुए और पारदर्शिता बढ़ाते हुए लाभ के सीधे अंतरण में मदद कर रहा है। प्रधान मंत्री जन धन योजना के तहत खोले गए 19 करोड़ से ज्यादा बैंक खाते वित्तीय समावेशन के मामले में विश्व की अकेली सबसे विशाल प्रक्रिया है। सांसद आदर्श ग्राम योजना का लक्ष्य आदर्श गांवों का निर्माण करना है। डिजीटल भारत कार्यक्रम डिजीटल विभाजन को समाप्त करने का एक प्रयास है। प्रधान मंत्री फसल बीमा योजना का लक्ष्य किसानों की बेहतरी है। महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम जैसे कार्यक्रमों पर बढ़ाए गए खर्च का उद्देश्य ग्रामीण अर्थव्यवस्था को दोबारा सशक्त बनाने के लिए रोजगार में वृद्धि करना है।

7. भारत में निर्माण अभियान से व्यवसाय में सुगमता प्रदान करके और घरेलू उद्योग की स्पर्द्धा क्षमता बढ़ाकर विनिर्माण तेज होगा। स्टार्ट-अप इंडिया कार्यक्रम नवान्वेषण को बढ़ावा देगा और नए युग की उद्यमशीलता को प्रोत्साहित करेगा। राष्ट्रीय कौशल विकास मिशन में 2022 तक 30 करोड़ युवाओं को कुशल बनाने का विचार किया गया है।

8. हमारे बीच अकसर संदेहवादी और आलोचक होंगे। हमें शिकायत, मांग, विरोध करते रहना चाहिए। यह भी लोकतंत्र की एक विशेषता है। परंतु हमारे लोकतंत्र ने जो हासिल किया है, हमें उसकी भी सराहना करनी चाहिए। बुनियादी ढांचे, विनिर्माण, स्वास्थ्य, शिक्षा, विज्ञान और प्रौद्योगिकी में निवेश से, हम और अधिक विकास दर प्राप्त करने की बेहतर स्थिति में हैं जिससे हमें अगले दस से पंद्रह वर्षों में गरीबी मिटाने में मदद मिलेगी।

प्यारे देशवासियो,

9. अतीत के प्रति सम्मान राष्ट्रीयता का एक आवश्यक पहलू है। हमारी उत्कृष्ट विरासत, लोकतंत्र की संस्थाएं सभी नागरिकों के लिए न्याय, समानता तथा लैंगिक और आर्थिक समता सुनिश्चित करती हैं। जब हिंसा की घृणित घटनाएं इन स्थापित आदर्शों, जो हमारी राष्ट्रीयता के मूल तत्त्व हैं, पर चोट करती हैं तो उन पर उसी समय ध्यान देना होगा। हमें हिंसा, असहिष्णुता और अविवेकपूर्ण ताकतों से स्वयं की रक्षा करनी होगी।

प्यारे देशवासियो :

10. विकास की शक्तियों को मजबूत बनाने के लिए, हमें सुधारों और प्रगतिशील विधान की आवश्यकता है। यह सुनिश्चित करना विधि निर्माताओं का परम कर्तव्य है कि पूरे विचार-विमर्श और परिचर्चा के बाद ऐसा विधान लागू किया जाए। सामंजस्य, सहयोग और सर्वसम्मति बनाने की भावना निर्णय लेने का प्रमुख तरीका होना चाहिए। निर्णय और कार्यान्वयन में विलम्ब से विकास प्रक्रिया का ही नुकसान होगा।

प्यारे देशवासियो,

11. विवेकपूर्ण चेतना और हमारे नैतिक जगत का प्रमुख उद्देश्य शांति है। यह सभ्यता की बुनियाद और आर्थिक प्रगति की जरूरत है। परंतु हम कभी भी यह छोटा सा सवाल नहीं पूछ पाए हैं : शांति प्राप्त करना इतना दूर क्यों है? टकराव को समाप्त करने से अधिक शांति स्थापित करना इतना कठिन क्यों रहा है?

12. विज्ञान और प्रौद्योगिकी में उल्लेखनीय क्रांति के साथ 20वीं सदी की समाप्ति पर, हमारे पास उम्मीद के कुछ कारण मौजूद थे कि 21वीं सदी एक ऐसा युग होगा जिसमें लोगों और देश की सामूहिक ऊर्जा उस बढ़ती हुई समृद्धि के लिए समर्पित होगी जो पहली बार घोर गरीबी के अभिशाप को मिटा देगी। यह उम्मीद इस शताब्दी के पहले पंद्रह वर्षों में फीकी पड़ गई है। क्षेत्रीय अस्थिरता में चिंताजनक वृद्धि के कारण व्यापक हिस्सों में अभूतपूर्व अशांति है। आतंकवाद की बुराई ने युद्ध को इसके सबसे बर्बर रूप में बदल दिया है। इस भयानक दैत्य से अब कोई भी कोना अपने आपको सुरक्षित महसूस नहीं कर सकता है।

13. आतंकवाद उन्मादी उद्देश्यों से प्रेरित है, नफरत की अथाह गहराइयों से संचालित है, यह उन कठपुतलीबाजों द्वारा भड़काया जाता है जो निर्दोष लोगों के सामूहिक संहार के जरिए विध्वंस में लगे हुए हैं। यह बिना किसी सिद्धांत की लड़ाई है, यह एक कैंसर है जिसका इलाज तीखी छुरी से करना होगा। आतंकवाद अच्छा या बुरा नहीं होता; यह केवल बुराई है।

प्यारे देशवासियो,

14. देश हर बात से कभी सहमत नहीं होगा; परंतु वर्तमान चुनौती अस्तित्व से जुड़ी है। आतंकवादी महत्त्वपूर्ण स्थायित्व की बुनियाद, मान्यता प्राप्त सीमाओं को नकारते हुए व्यवस्था को कमज़ोर करना चाहते हैं। यदि अपराधी सीमाओं को तोड़ने में सफल हो जाते हैं तो हम अराजकता के युग की ओर बढ़ जाएंगे। देशों के बीच विवाद हो सकते हैं और जैसा कि सभी जानते हैं कि जितना हम पड़ोसी के निकट होंगे, विवाद की संभावना उतनी अधिक होगी। असहमति दूर करने का एक सभ्य तरीका, संवाद है, जो सही प्रकार से कायम रहना चाहिए। परंतु हम गोलियों की बौछार के बीच शांति पर चर्चा नहीं कर सकते।

15. भयानक खतरे के दौरान हमें अपने उपमहाद्वीप में विश्व के लिए एक पथप्रदर्शक बनने का ऐतिहासिक अवसर प्राप्त हुआ है। हमें अपने पड़ोसियों के साथ शांतिपूर्ण वार्ता के द्वारा अपनी भावनात्मक और भू-राजनीतिक धरोहर के जटिल मुद्दों को सुलझाने का प्रयास करना चाहिए, और यह जानते हुए एक दूसरे की समृद्धि में विश्वास जताना चाहिए कि मानव की सर्वोत्तम परिभाषा दुर्भावनाओं से नहीं बल्कि सद्भावना से दी जाती है। मैत्री की बेहद जरूरत वाले विश्व के लिए हमारा उदाहरण अपने आप एक संदेश का कार्य कर सकता है।

प्यारे देशवासियो,

16. भारत में हर एक को एक स्वस्थ, खुशहाल और कामयाब जीवन जीने का अधिकार है। इस अधिकार का, विशेषकर हमारे शहरों में, उल्लंघन किया जा रहा है, जहां प्रदूषण खतरनाक स्तर पर पहुंच चुका है। जलवायु परिवर्तन अपने असली रूप में सामने आया जब 2015 सबसे गर्म वर्ष के रूप में दर्ज किया गया। विभिन्न स्तरों पर अनेक कार्यनीतियों और कार्रवाई की आवश्यकता है। शहरी योजना के नवान्वेषी समाधान, स्वच्छ ऊर्जा का प्रयोग और लोगों की मानसिकता में बदलाव के लिए सभी भागीदारों की सक्रिय हिस्सेदारी जरूरी है। लोगों द्वारा अपनाए जाने पर ही इन परिवर्तनों का स्थायित्व सुनिश्चित हो सकता है।

प्यारे देशवासियो,

17. अपनी मातृभूमि से प्रेम समग्र प्रगति का मूल है। शिक्षा, अपने ज्ञानवर्धक प्रभाव से, मानव प्रगति और समृद्धि पैदा करती है। यह भावनात्मक शक्तियां विकसित करने में सहायता करती है जिससे सोई उम्मीदें और भुला दिए गए मूल्य दोबारा जाग्रत हो जाते हैं। डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कहा था, "शिक्षा का अंतिम परिणाम एक उन्मुक्त रचनाशील मनुष्य है जो ऐतिहासिक परिस्थितियों और प्राकृतिक विपदाओं के विरुद्ध लड़ सकता है।" चौथी औद्योगिक क्रांति' पैदा करने के लिए जरूरी है कि यह उन्मुक्त और रचनाशील मनुष्य उन बदलावों को आत्मसात करने के लिए परिवर्तन गति पर नियंत्रण रखे जो व्यवस्थाओं और समाजों के भीतर स्थापित होते जा रहे हैं। एक ऐसे माहौल की आवश्यकता है जो महत्त्वपूर्ण विचारशीलता को बढ़ावा दे और अध्यापन को बौद्धिक रूप से उत्साहवर्धक बनाए। इससे विद्वता प्रेरित होगी और ज्ञान एवं शिक्षकों के प्रति गहरा सम्मान बढ़ेगा। इससे महिलाओं के प्रति आदर की भावना पैदा होगी जिससे व्यक्ति जीवन पर्यन्त सामाजिक सदाचार के मार्ग पर चलेगा। इसके द्वारा गहन विचारशीलता की संस्कृति प्रोत्साहित होगी और चिंतन एवं आंतरिक शांति का वातावरण पैदा होगा। हमारी शैक्षिक संस्थाएं मन में जाग्रत विविध विचारों के प्रति उन्मुक्त दृष्टिकोण के जरिए, विश्व स्तरीय बननी चाहिए। अंतरराष्ट्रीय वरीयताओं में प्रथम दो सौ में स्थान प्राप्त करने वाले दो भारतीय उच्च शिक्षा संस्थानों के द्वारा यह शुरुआत पहले ही हो गई है।

प्यारे देशवासियो,

18. पीढ़ी का परिवर्तन हो चुका है। युवा बागडोर संभालने के लिए आगे आ चुके हैं। ‘नूतन युगेर भोरे' के टैगोर के इन शब्दों के साथ आगे कदम बढ़ाएं :

"चोलाय चोलाय बाजबे जायेर भेरी-......

 
 
एक टोकरी-भर मिट्टी  - माधवराव सप्रे

किसी श्रीमान् जमींदार के महल के पास एक गरीब अनाथ विधवा की झोंपड़ी थी। जमींदार साहब को अपने महल का हाता उस झोंपड़ी तक बढा़ने की इच्‍छा हुई, विधवा से बहुतेरा कहा कि अपनी झोंपड़ी हटा ले, पर वह तो कई जमाने से वहीं बसी थी; उसका प्रिय पति और इकलौता पुत्र भी उसी झोंपड़ी में मर गया था। पतोहू भी एक पाँच बरस की कन्‍या को छोड़कर चल बसी थी। अब यही उसकी पोती इस वृद्धाकाल में एकमात्र आधार थी। जब उसे अपनी पूर्वस्थिति की याद आ जाती तो मारे दु:ख के फूट-फूट रोने लगती थी। और जबसे उसने अपने श्रीमान् पड़ोसी की इच्‍छा का हाल सुना, तब से वह मृतप्राय हो गई थी। उस झोंपड़ी में उसका मन लग गया था कि बिना मरे वहाँ से वह निकलना नहीं चाहती थी। श्रीमान् के सब प्रयत्‍न निष्‍फल हुए, तब वे अपनी जमींदारी चाल चलने लगे। बाल की खाल निकालने वाले वकीलों की थैली गरम कर उन्‍होंने अदालत से झोंपड़ी पर अपना कब्‍जा करा लिया और विधवा को वहाँ से निकाल दिया। बिचारी अनाथ तो थी ही, पास-पड़ोस में कहीं जाकर रहने लगी।

एक दिन श्रीमान् उस झोंपड़ी के आसपास टहल रहे थे और लोगों को काम बतला रहे थे कि वह विधवा हाथ में एक टोकरी लेकर वहाँ पहुँची। श्रीमान् ने उसको देखते ही अपने नौकरों से कहा कि उसे यहाँ से हटा दो। पर वह गिड़गिड़ाकर बोली, ''महाराज, अब तो यह झोंपड़ी तुम्‍हारी ही हो गई है। मैं उसे लेने नहीं आई हूँ। महाराज क्षमा करें तो एक विनती है।'' जमींदार साहब के सिर हिलाने पर उसने कहा, ''जब से यह झोंपड़ी छूटी है, तब से मेरी पोती ने खाना-पीना छोड़ दिया है। मैंने बहुत-कुछ समझाया पर वह एक नहीं मानती। यही कहा करती है कि अपने घर चल। वहीं रोटी खाऊँगी। अब मैंने यह सोचा कि इस झोंपड़ी में से एक टोकरी-भर मिट्टी लेकर उसी का चूल्‍हा बनाकर रोटी पकाऊँगी। इससे भरोसा है कि वह रोटी खाने लगेगी। महाराज कृपा करके आज्ञा दीजिए तो इस टोकरी में मिट्टी ले आऊँ!'' श्रीमान् ने आज्ञा दे दी।

विधवा झोंपड़ी के भीतर गई। वहाँ जाते ही उसे पुरानी बातों का स्‍मरण हुआ और उसकी आँखों से आँसू की धारा बहने लगी। अपने आंतरिक दु:ख को किसी तरह सँभालकर उसने अपनी टोकरी मिट्टी से भर ली और हाथ से उठाकर बाहर ले आई। फिर हाथ जोड़कर श्रीमान् से प्रार्थना करने लगी, ''महाराज, कृपा करके इस टोकरी को जरा हाथ लगाइए जिससे कि मैं उसे अपने सिर पर धर लूँ।'' जमींदार साहब पहले तो बहुत नाराज हुए। पर जब वह बार-बार हाथ जोड़ने लगी और पैरों पर गिरने लगी तो उनके मन में कुछ दया आ गई। किसी नौकर से न कहकर आप ही स्‍वयं टोकरी उठाने आगे बढ़े। ज्‍योंही टोकरी को हाथ लगाकर ऊपर उठाने लगे त्‍योंही देखा कि यह काम उनकी शक्ति के बाहर है। फिर तो उन्‍होंने अपनी सब ताकत लगाकर टोकरी को उठाना चाहा, पर जिस स्‍थान पर टोकरी रखी थी, वहाँ से वह एक हाथ भी ऊँची न हुई। वह लज्जित होकर कहने लगे, ''नहीं, यह टोकरी हमसे न उठाई जाएगी।''

यह सुनकर विधवा ने कहा, ''महाराज, नाराज न हों, आपसे एक टोकरी-भर मिट्टी नहीं उठाई जाती और इस झोंपड़ी में तो हजारों टोकरियाँ मिट्टी पड़़ी है। उसका भार आप जन्‍म-भर क्‍योंकर उठा सकेंगे? आप ही इस बात पर विचार कीजिए।"

जमींदार साहब धन-मद से गर्वित हो अपना कर्तव्‍य भूल गए थे पर विधवा के उपर्युक्‍त वचन सुनते ही उनकी आँखें खुल गयीं। कृतकर्म का पश्‍चाताप कर उन्‍होंने विधवा से क्षमा माँगी और उसकी झोंपड़ी वापिस दे दी।

माधवराव सप्रे [1900]

 


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दुलाईवाली  - बंगमहिला

काशी जी के दशाश्‍वमेध घाट पर स्‍नान करके एक मनुष्‍य बड़ी व्‍यग्रता के साथ गोदौलिया की तरफ आ रहा था। एक हाथ में एक मैली-सी तौलिया में लपेटी हुई भीगी धोती और दूसरे में सुरती की गोलियों की कई डिबियाँ और सुँघनी की एक पुड़िया थी। उस समय दिन के ग्‍यारह बजे थे, गोदौलिया की बायीं तरफ जो गली है, उसके भीतर एक और गली में थोड़ी दूर पर, एक टूटे-से पुराने मकान में वह जा घुसा। मकान के पहले खण्‍ड में बहुत अँधेरा था; पर उपर की जगह मनुष्‍य के वासोपयोगी थी। नवागत मनुष्‍य धड़धड़ाता हुआ ऊपर चढ़ गया। वहाँ एक कोठरी में उसने हाथ की चीजें रख दीं। और, 'सीता! सीता!' कहकर पुकारने लगा।

"क्‍या है?" कहती हुई एक दस बरस की बालिका आ खड़ी हुई, तब उस पुरुष ने कहा, "सीता! जरा अपनी बहन को बुला ला।"

"अच्‍छा", कहकर सीता गई और कुछ देर में एक नवीना स्‍त्री आकर उपस्थित हुई। उसे देखते ही पुरुष ने कहा, "लो, हम लोगों को तो आज ही जाना होगा!"

इस बात को सुनकर स्‍त्री कुछ आश्‍चर्ययुक्‍त होकर और झुँझलाकर बोली, "आज ही जाना होगा! यह क्‍यों? भला आज कैसे जाना हो सकेगा? ऐसा ही था तो सवेरे भैया से कह देते। तुम तो जानते हो कि मुँह से कह दिया, बस छुट्टी हुई। लड़की कभी विदा की होती तो मालूम पड़ता। आज तो किसी सूरत जाना नहीं हो सकता!"

"तुम आज कहती हो! हमें तो अभी जाना है। बात यह है कि आज ही नवलकिशोर कलकत्ते से आ रहे हैं। आगरे से अपनी नई बहू को भी साथ ला रहे हैं। सो उन्‍होंने हमें आज ही जाने के लिए इसरार किया है। हम सब लोग मुगलसराय से साथ ही इलाहाबाद चलेंगे। उनका तार मुझे घर से निकलते ही मिला। इसी से मैं झट नहा-धोकर लौट आया। बस अब करना ही क्‍या है! कपड़ा-वपड़ा जो कुछ हो बाँध-बूँधकर, घण्‍टे भर में खा-पीकर चली चलो। जब हम तुम्‍हें विदा कराने आए ही हैं तब कल के बदले आज ही सही।"

"हाँ, यह बात है! नवल जो चाहें करावें। क्‍या एक ही गाड़ी में न जाने से दोस्‍ती में बट्टा लग जाएगा? अब तो किसी तरह रुकोगे नहीं, जरूर ही उनके साथ जाओगे। पर मेरे तो नाकों दम आ जाएगी।"
"क्‍यों? किस बात से?"

"उनकी हँसी से और किससे! हँसी-ठट्ठा भी राह में अच्‍छी लगती है। उनकी हँसी मुझे नहीं भाती। एक रोज मैं चौक में बैठी पूड़ियाँ काढ़ रही थी, कि इतने में न-जाने कहाँ से आकर नवल चिल्‍लाने लगे, "ए बुआ! ए बुआ! देखो तुम्‍हारी बहू पूड़ियाँ खा रही है।" मैं तो मारे सरम के मर गई। हाँ, भाभी जी ने बात उड़ा दी सही। वे बोलीं, "खाने-पहनने के लिए तो आयी ही है।" पर मुझे उनकी हँसी बहुत बुरी लगी।"......

 
 
संजय उवाच : पर्यावरण दिवस की दस्तक - संजय भारद्वाज

लौटती यात्रा पर हूँ। वैसे ये भी भ्रम है, यात्रा लौटती कहाँ है? लौटता है आदमी..और आदमी भी लौट पाता है क्या, ज्यों का त्यों, वैसे का वैसा! खैर सुबह जिस दिशा में यात्रा की थी, अब यू टर्न लेकर वहाँ से घर की ओर चल पड़ा हूँ। देख रहा हूँ रेल की पटरियों और महामार्ग के समानांतर खड़े खेत, खेतों को पाटकर बनाई गई माटी की सड़कें। इन सड़कों पर मुंबई और पुणे जैसे महानगरों और कतिपय मध्यम नगरों से इंवेस्टमेंट के लिए ‘आउटर' में जगह तलाशते लोग निजी और किराये के वाहनों में घूम रहे हैं। ‘धरती के एजेंटों' की चाँदी है। बुलडोज़र और जे.सी.बी की घरघराहट के बीच खड़े हैं आतंकित पेड़। रोजाना अपने साथियों का कत्लेआम खुली आँखों से देखने को अभिशप्त पेड़। सुबह पड़ी हल्की फुहारें भी इनके चेहरे पर किसी प्रकार का कोई स्मित नहीं ला पातीं। सुनते हैं जिन स्थानों पर साँप का मांस खाया जाता है, वहाँ मनुष्य का आभास होते ही साँप भाग खड़ा होता है। पेड़ की विवशता कि भाग नहीं सकता सो खड़ा रहता है, जिन्हें छाँव, फूल-फल, लकड़ियाँ दी, उन्हीं के हाथों कटने के लिए।


मृत्यु की पूर्व सूचना आदमी को जड़ कर देती है। वह कुछ भी करना नहीं चाहता, कर ही नहीं पाता। मनुष्य के विपरीत कटनेवाला पेड़ अंतिम क्षण तक प्राणवायु, छाँव और फल दे रहा होता है। डालियाँ छाँटी या काटी जा रही होती हैं तब भी शेष डालियों पर नवसृजन करने के प्रयास में होता है पेड़।

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लोकसभा चुनाव 2019  - रोहित कुमार हैप्पी

2019 लोकसभा चुनाव सात चरणों में होंगे। 11 अप्रैल को पहले चरण के लिए मतदान होंगे, जबकि 19 मई को सातवें चरण के लिए मतदान होंगे। मतों की गिनती 23 मई को होगी। लोकसभा के साथ ही ओडिशा, अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम और आंध्र प्रदेश विधानसभा के चुनाव भी होंगे।

17वीं लोकसभा के लिए इस बार 90 करोड़ लोग मतदान करेंगे। इस बार डेढ़ करोड़ मतदाता 18 से 19 आयुवर्ग के हैं जो पहली बार मतदान कर रहे हैं।

मतदान के 48 घंटे पहले लाउडस्पीकर पर बैन होगा। हर संवेदनशील स्थान पर सीआरपीएफ तैनात की जाएगी।

2014 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को बहुमत मिला था और उसने दूसरे सहयोगी दलों के साथ एनडीए की सरकार बनयी थी। भाजपा को 2014 के चुनावों में 282 सीटें मिली थीं।

 


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जितने मुँह उतनी बात - रोहित कुमार 'हैप्पी'

एक बार एक वृद्ध और उसका लड़का अपने गाँव से किसी दूसरे गाँव जा रहे थे। पुराने समय में दूर जाने के लिए खच्चर या घोड़े इत्यादि की सवारी ली जाती थी। इनके पास भी एक खच्चर था। दोनों खच्चर पर सवार होकर जा रहे थे। रास्ते में कुछ लोग देखकर बोले, "रै माड़ा खच्चर अर दो-दो सवारी। हे राम, जानवर की जान की तो कोई कीमत नहीं समझते लोग।"

Duniya - Jitne Munh Utni Batein.

वृद्ध ने सोचा लड़का थक जाएगा। उसने लड़के को खच्चर पर बैठा रहने दिया और स्वयं पैदल हो लिया। रास्ते में फिर लोग मिले, बोले,"देखो छोरा क्या मज़े से सवारी कर रहा है और बेचारा बूढ़ा थकान से मरा जा रहा है।"

लड़का शर्म के मारे नीचे उतर गया, बोला, "बापू, आप बैठो। मैं पैदल चलूँगा।" अब बूढ़ा सवारी ले रहा था और लड़का साथ-साथ चल रहा था। फिर लोग मिले, "देखो, बूढ़ा क्या मज़े से सवारी ले रहा और बेचारा लड़का.....!"

लोकलाज से बूढ़ा भी नीचे उतर गया। दोनों पैदल चलने लगे।

थोड़ी देर में फिर लोग मिले, "देखो रे भाइयो! खच्चर साथ है और दोनों पैदल जा रहे हैं। मूर्ख कहीं के!"

कुछ सोचकर वृद्ध ने लड़के से कहा, "बेटा, तू आराम से सवारी कर, बैठ।"

'...पर! बापू!"

बूढ़ा बोला, "बेटा, आराम से बैठ जा। बोलने दे दुनिया को, जो बोलना है। ये दुनिया किसी तरह जीने नहीं देगी।"

"अब क्या हम खच्चर को उठाकर चलें और फिर क्या ये हमें जीने देंगे?"

लड़का बाप की बात और दुनिया दोनों को समझ गया था।

प्रस्तुति: रोहित कुमार 'हैप्पी', न्यूज़ीलैंड

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आभार- यह कहानी बचपन में पड़ोस में एक दाने भूनने वाले 'हरिया राम' नाम के बुजुर्ग सुनाया करते थे, जहां हम मक्की और कभी चने के दाने भुनवाने जाया करते थे। हरिया राम अब नहीं रहे पर उनकी यह सुनाई कथा स्मृतियों में सदैव साथ है और यदाकदा इसका जिक्र होता रहता है।


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हिमाचल की धाम संस्कृति - चंद्रकांता

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नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जीवनी - भारत-दर्शन संकलन

नेताजी सुभाष चंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 को उड़ीसा में कटक के एक संपन्न बंगाली परिवार में हुआ था। बोस के पिता का नाम 'जानकीनाथ बोस' और माँ का नाम 'प्रभावती' था। जानकीनाथ बोस कटक शहर के मशहूर वक़ील थे। प्रभावती और जानकीनाथ बोस की कुल मिलाकर 14 संतानें थी, जिसमें 6 बेटियाँ और 8 बेटे थे। सुभाष चंद्र उनकी नौवीं संतान और पाँचवें बेटे थे। अपने सभी भाइयों में से सुभाष को सबसे अधिक लगाव शरदचंद्र से था।
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स्वतंत्रता-दिवस | लघु-कथा - रोहित कुमार 'हैप्पी'

महानगर का एक उच्च-मध्यम वर्गीय परिवार।
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हमने किए जो वादे | ग़ज़ल - रोहित कुमार 'हैप्पी'

हमने किए जो वादे उन्हें तोड़ते नहीं
कितनी भी मुश्किलें हों राहें छोड़ते नहीं।......

 
 
बन्दर मामा | बाल कविता - दीपक श्रीवास्तव 'नादान' | Deepak Shrivastava

बन्दर मामा बना रहे थे आम के नीचे खाना,
लदा हुआ था पेड़ आम से, उसको मिला बहाना,......

 
 
चुन्नी मुन्नी - हरिवंश बच्चन

मुन्नी और चुन्नी में लाग-डाट रहती है । मुन्नी छह बर्ष की है, चुन्नी पाँच की । दोनों सगी बहनें हैं । जैसी धोती मुन्नी को आये, वैसी ही चुन्नी को । जैसा गहना मुन्नी को बने, वैसा ही चुन्नी को । मुन्नी 'ब' में पढ़ती थीँ, चुन्नी 'अ' में । मुन्नी पास हो गयी, चुन्नी फ़ेल । मुन्नी ने माना था कि मैं पास हो जाऊँगी तो महाबीर स्वामी को मिठाई चढ़ाऊंगी । माँ ने उसके लिए मिठाई मँगा दी । चुन्नी ने उदास होकर धीमे से अपनी माँ से पूछा, अम्मा क्या जो फ़ेल हो जाता है वह मिठाई नहीं चढ़ाता?

इस भोले प्रश्न से माता का हृदय् गद्‌गद हो उठा । 'चढ़ाता क्यों नहीं बेटी' माँ ने यह कहकर उसे अपने हृदय स लगा लिया । माता ने चुन्नी के चढ़ाने के लिए भी मिठाई मँगा दी ।......

 
 
सुभाषजी | गीत - मुमताज़ हुसैन

सुभाष जी
सुभाष जी......

 
 
रंगो के त्यौहार में तुमने - राहुल देव

रंगो के त्यौहार में तुमने क्यों पिचकारी उठाई है?
लाल रंग ने कितने लालों को मौत की नींद सुलाई है।......

 
 
फर्ज | लघुकथा  - सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा

"अशरफ मियाँ कहाँ थे आप ?"
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लक्ष्य | क्षणिका - सौरभ सिंह

दुर्लभ है लक्ष्य अभेद्य नही
प्रबल है शत्रु अजेय नही......

 
 
क्या आप जानते हैं? - भारत-दर्शन संकलन

यहाँ प्रेमचंद के बारे में कुछ जानकारी प्रकाशित कर रहे हैं। हमें आशा है कि पाठकों को भी यह जानकारी लाभप्रद होगी।

-प्रेमचंद ने 15 उपन्यास, 300 से अधिक कहानियाँ, 3 नाटक, 10 अनुवाद, 7 बाल पुस्तकें तथा हजारों पृष्ठों के लेख, भाषण, सम्पादकीय, भूमिकाएं व पत्र इत्यादि की रचना की।

-ज़माना के संपादक दयानारायण को लिखे एक पत्र में प्रेमचंद ने लिखा है कि उनकी साहित्यिक जीवन 1901 से आरम्भ हुआ। 1904 में हिंदी उपन्यास 'प्रेमा लिखा'।

-प्रेमचंद ने 1907 में गल्प लिखना शुरू किया।

-सबसे पहले 1908 में उनका पाँच कहानियों का संग्रह, 'सोजे वतन' ज़माना-प्रेस से प्रकाशित हुआ। यह संग्रह उस समय प्रतिबंधित हो गया था।

-प्रेमचंद की पहली रचना एक नाटक थी जो उन्होंने अपने एक 'नाते के मामा' के प्रेमप्रंसग पर लिखी थी और शायद वह रचना उसी मामा के हाथ लग गई थी जिसे उसने नष्ट के दिया था। इस पहली रचना के समय प्रेमचंद की आयु तेरह बरस की थी।

-प्रेमचंद को 'उपन्यास सम्राट' कहने वाले पहले व्यक्ति थे महान साहित्यकार शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय। शरत् बाबू के ऐसा कहने के बाद लोग प्रेमचंद को 'उपन्यास सम्राट' कहने लगे।

-प्रेमचंद का पहला विवाह पंद्रह वर्ष की आयु में हुआ था। उस समय वे नौंवी कक्षा में पढ़ते थे। 1904 में उनकी पहली पत्नी का देहांत हो गया।

-प्रेमचंद ने अपनी पहली नौकरी 1899 में चुनार के एक मिशनरी स्कूल में की। उन्हें वहाँ 18 रुपये प्रति मास वेतन मिलता था। धनपतराय ने यहाँ नौकरी के तो ली लेकिन आर्यसमाज के अनुयायी प्रेमचंद का मन ईसाईयों के बीच लगता न था। अंतत: 2 जुलाई 1900 को बहराइच के सरकारी स्कूल में नौकरी का प्रबंध कर लिया।

-'बड़े घर की बेटी' प्रेमचंद की प्रिय कहानियों में से एक थी।

-प्रेमचंद की निर्धनता की छवि सर्द्विदित है किंतु प्रेमचंद पर शोध करने वाले मदन गोपाल व डॉ कमल किशोर गोयनका का मानना है कि प्रेमचंद निर्धन नहीं थे। उन्होंने यह प्रमाणित करने के लिए अनेक तथ्य प्रस्तुत किए हैं।

-प्रेमचंद प. रतननाथ लखनवी व रबींद्रनाथ से प्रभावित थे।

-प्रेमचंद को लेखन से अच्छी आय होती थी तथापि उनके प्रकाशनों (हंस और जागरण) से उन्हें लगातार घाटा हुआ।

-प्रेमचंद दिल खोलकर प्रशंसा करते थे और दिल खोलकर निन्दा भी।

-प्रेमचंद को रबीन्द्रनाथ टैगोर के 'शांतिनिकेतन' से कई बार बुलावे आए लेकिन उनका जाना संभव न हो सका।

-रबीन्द्रनाथ चाहते थे कि प्रेमचंद की कहानियों का अनुवाद बँगला में हो।

-प्रेमचंद जितने हिंदी वालो के थे, उतने ही उर्दूवालों के भी थे।

-प्रेमचंद ने अपने नाम के आगे 'मुंशी' शब्द का प्रयोग स्वयं कभी नहीं किया। 'मुंशी' शब्द वास्तव में 'हंस' के संयुक्त संपादक कन्हैयालाल मुंशी के साथ लगता था। दोनों संपादको का नाम हंस पर 'मुंशी, प्रेमचंद' के रूप में प्रकाशित होता था। अत: मुंशी और प्रेमचंद दो अलग व्यक्ति थे लेकिन कई बार ऐसा भी हुआ कि प्रेस में 'कोमा' भूलवश न छपने से नाम 'मुंशी प्रेमचंद' छप जाता था और कालांतर में लोगों ने इसे एक नाम और एक व्यक्ति समझ लिया यथा प्रेमचंद 'मुंशी प्रेमचंद' नाम से लोकप्रिय हो गए।

-प्रेमचंद ने अपना प्रकाशन 'हंस' चलाते रहने के लिए कुछ दिन सिनेमा के लिए भी लिखा लेकिन शीघ्र ही उनका मोहभंग हो गया और वे वापिस घर लौट आए। फिल्मी जीवन के उनके अनुभव कटु रहे।

प्रस्तुति: रोहित कुमार 'हैप्पी'


संदर्भ :

कलम का मज़दूर [मदन गोपाल]......

 
 
संगठन में शक्ति - भारत-दर्शन संकलन

किसी जंगल में एक वृक्ष पर घोंसला बनाकर एक चिड़ा व चिड़िया का जोड़ा रहता था। चिड़िया ने अंडे दिये तो वह उसे सेह रही थी। इसी बीच धूप से परेशान एक मदमस्त हाथी उस वृक्ष की छाव में आ गया। अपने चंचल स्वभाव के कारण उसने पास की शाखा को तोड़ डाला। शाखा टूटते ही चिड़ियाँ के सभी अंडे टूट गए। घोसले का नामोनिशान नहीं रहा। असहाय चिड़िया विलाप करने लगी। चिड़िया को इस तरह दु:खी देखकर उसके साथी कठफोड़वा ने समझाते हुए कहा-- बुद्धिमान लोग विपत्ति के समय रोते-बिलखते नहीं, बल्कि धैर्य से काम लेते हैं।

चिड़िया को कठफोड़वा की बात तर्क-संगत लगी, लेकिन उसने उससे आग्रह किया कि वह हाथी को दंड देने में उसकी सहायता करे।

कठफोड़वा ने उसे सहायता करने का आश्वासन दिया। उसने चिड़िया को कहा-- वीणाख नाम की मेरी एक परम मित्र मक्खी है। मैं उसके साथ मिलकर कोई योजना बनाता हूँ। तुम मेरी प्रतीक्षा करो।

कठफोड़वा मक्खी के पास गया तथा चिड़िया की दुखद कथा से उसे जा सुनाई तथा उससे सहता का आग्रह किया।

मक्खी ने कठफोड़े की बात को रखते हुए कहा-- मित्र, मित्र होता है और फिर मित्र का मित्र भी तो मित्र ही हुआ। मैं आपके मित्र की सहायता अवश्य करूंगी। मेघनाथ नामक मेढ़क मेरा दोस्त है। हम सब साथ मिलकर योजना बनाते हैं।

शीघ्र ही मक्खी ने अपने दोस्त मेढ़क को बुला लिया। तीनों मिलकर शोक संतप्त चिड़िया के पास पहुंचे तथा काफी विचार-विमर्श के बाद हाथी को मार डालने की योजना बनाई।

वीणाख मक्खी ने कहा-- मैं दोपहर के समय उस दुष्ट हाथी के कान के पास जाकर मधुर आवाज निकालूँगी, जिससे हाथी मदमस्त होकर अपनी आँखे बंद कर लेगा। कठफोड़वा उसी समय अपनी चोंच से हाथी की आँखे फोड़ देगा। मेढ़क ने कहा- इस बीच जब वह प्यास से व्याकुल होकर जल की खोज में निकलेगा, तब मैं अपने परिवार के साथ एक गहरे गड्ढे में छिपकर "टर्र-टर्र' की आवाज निकालूँगाा। भ्रम में जब हाथी पानी के लिए हमारी तरफ आएगा, तब उसी में गिर जाएगा।

ठीक अगले दिन चारों अपनी योजनानुसार निकल पड़े। कठफोड़वा द्वारा आँख फोड़े जाने के बाद कष्ट और प्यास से तड़पता हुआ हाथी पानी के लिए उस गड्ढे की तरफ चला गया तथा उसमें गिर गया। भूख और प्यास से तड़पते हुए उसकी मृत्यु हो गयी। इस प्रकार चिड़िया ने अपने मित्रों की सहायता से हाथी के प्राण ले लिये तथा अपना प्रतिशोध पूरा किया।


सीख: साथ मिलकर बड़ा-से-बड़ा कार्य भी संभव हो जाता है। चिड़ियाँ अकेले उस दुष्ट हाथी का कुछ नहीं कर पाती।

[भारत-दर्शन संकलन] 

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विश्‍व हिन्‍दी सम्‍मेलन प्रेस वार्ता - भारत-दर्शन संकलन

अगस्त 31, 2015

आधिकारिक प्रवक्‍ता (श्री विकास स्‍वरूप): नमस्‍कार, मैं इस प्रेस वार्ता में आप सबका स्‍वागत करता हूँ। जैसा कि आप जानते हैं, दसवॉं विश्‍व हिन्‍दी सम्‍मेलन भोपाल में 10 से 12 सितम्‍बर, 2015 को विदेश मंत्रालय द्वारा आयोजित किया जा रहा है। आज हम आपको इस सम्‍मेलन की पृष्ठभूमि और इसके कार्यक्रम से अवगत करायेंगे। इस प्रेस वार्ता में हमारे साथ उपस्थित हैं माननीय विदेश एवं प्रवासी भारतीय कार्य मंत्री श्रीमती सुषमा स्‍वराज जी, जो दसवें विश्‍व हिन्‍दी सम्‍मेलन की अध्‍यक्षता करेंगी। उनके साथ हैं माननीय विदेश राज्‍य मंत्री और कार्यक्रम संचालन समिति के उपाध्‍यक्ष जनरल वी.के. सिंह जी, प्रबन्‍धन समिति के उपाध्‍यक्ष सांसद श्री अनिल माधव दवे जी और सचिव(पूर्व) श्री अनिल वाधवा जी।
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आओ ! आओ ! भारतवासी । - बाबू जगन्नाथ

आओ ! आओ ! भारतवासी ।
क्या बंगाली ! क्या मदरासी ! ॥

क्या पंजाबी ! क्या गुजराती ! । ......

 
 
कुछ हाइकु - मनीषा सक्सेना

1)
मित्र हैं वही......

 
 
पं० बाल गंगाधर तिलक - भारत-दर्शन

"स्वराज मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है, और मै इसे लेकर रहूँगा।"

पं० बाल गंगाधर तिलक (Bal Gangadhar Tilak) का जन्म 23 जुलाई 1856 को हुआ था। तिलक भारत के एक प्रमुख नेता, समाज सुधारक और स्वतन्त्रता सेनानी थे। आप भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के पहले लोकप्रिय नेता थे। भारत में पूर्ण स्वराज की माँग उठाने वाले आप पहले नेता थे।

आपका "स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है, और मैं इसे लेकर रहूँगा" का उद्घोष बहुत लोकप्रिय हुआ। आदर से लोग इन्हे "लोकमान्य" बुलाने लगे।

तिलक ने अंग्रेजी सरकार की क्रूरता और भारतीय संस्कृति के प्रति हीन-भावना की बहुत आलोचना की। आपने माँग की कि ब्रिटिश सरकार तुरन्त भारतीयों को पूर्ण स्वराज दे। केसरी में प्रकाशित आपके आलेखों के कारण आपको कई बार जेल जाना पड़ा।लोकमान्य तिलक ने जनजागृति का कार्यक्रम पूरा करने के लिए महाराष्ट्र में गणेश उत्सव तथा शिवाजी उत्सव सप्ताह भर मनाना प्रारंभ किया। इन त्योहारों के माध्यम से जनता में देशप्रेम और अंगरेजों के अन्यायों के विरुद्ध संघर्ष का साहस भरा गया।

तिलक की क्रांतिकारी गतिविधियों से अंग्रेज बौखला गए और उन पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा चलाकर छह वर्ष के लिए 'देश निकाला' दे दिया गया और बर्मा की मांडले जेल में भेज दिया गया। इसी समय तिलक ने गीता का अध्ययन किया और गीता रहस्य नामक भाष्य भी लिखा। तिलक के जेल से छूटने के पश्चात् जब उनका गीता रहस्य प्रकाशित हुआ तो उसका बहुत तीव्र गति से प्रचार-प्रसार हुआ।

1 अगस्त,1920 को मुम्बई में आपका देहान्त हो गया।

 


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रंग बदलता मौसम  - सुभाष नीरव

पिछले कई दिनों से दिल्ली में भीषण गरमी पड़ रही थी लेकिन आज मौसम अचानक खुशनुमा हो उठा था। प्रात: से ही रुक-रुक कर हल्की बूंदाबांदी हो रही थी। आकाश काले बादलों से ढका हुआ था। धूप का कहीं नामोनिशान नहीं था।
मैं बहुत खुश था। सुहावना और ख़ुशनुमा मौसम मेरी इस ख़ुशी का एक छोटा-सा कारण तो था लेकिन बड़ा और असली कारण कुछ और था। आज रंजना दिल्ली आ रही थी और मुझे उसे पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर रिसीव करने जाना था। इस खुशगवार मौसम में रंजना के साथ की कल्पना ने मुझे भीतर तक रोमांचित किया हुआ था।

हल्की बूँदाबाँदी के बावजूद मैं स्टेशन पर समय से पहले पहुँच गया था। रंजना देहरादून से जिस गाड़ी से आ रही थी, वह अपने निर्धारित समय से चालीस मिनट देर से चल रही थी। गाड़ी का लेट होना मेरे अंदर खीझ पैदा कर रहा था लेकिन रंजना की यादों ने इस चालीस पैंतालीस मिनट के अन्तराल का अहसास ही नहीं होने दिया।

परसों जब दफ्तर में रंजना का फोन आया तो सिर से पाँव तक मेरे शरीर में ख़ुशी और आनन्द की मिलीजुली एक लहर दौड़ गई थी। फोन पर उसने बताया था कि वह इस रविवार को मसूरी एक्सप्रेस से दिल्ली आ रही है और उसे उसी दिन शाम चार बजे की ट्रेन लेकर कानपुर जाना है। बीच का समय वह मेरे संग गुज़ारना चाहती थी। उसने पूछा था- ''क्या तुम आओगे स्टेशन पर?''

''कैसी बात करती हो रंजना ! तुम बुलाओ और मैं न आऊं, यह कैसे हो सकता है? मैं स्टेशन पर तुम्हारी प्रतीक्षा करता खड़ा मिलूँगा।''

फोन पर रंजना से बात होने के बाद मैं जैसे हवा में उड़ने लगा था। बीच का एक दिन मुझसे काटना कठिन हो गया था। शनिवार की रात बिस्तर पर करवटें बदलते ही बीती।

करीब चारेक बरस पहले रंजना से मेरी पहली मुलाकात दिल्ली में ही हुई थी- एक परीक्षा केन्द्र पर। हम दोनों एक नौकरी के लिए परीक्षा दे रहे थे। परीक्षा हॉल में हमारी सीटें साथ-साथ थीं। पहले दिन सरसरी तौर पर हुई हमारी बातचीत बढ़कर यहाँ तक पहुँची कि पूरी परीक्षा के दौरान हम एक साथ रहे, एक साथ हमने चाय पी, दोपहर का खाना भी मिलकर खाया। वह दिल्ली में अपने किसी रिश्तेदार के घर में ठहरी हुई थी। तीसरे दिन जब हमारी परीक्षा खत्म हुई तो रंजना ने कहा था- ''मैं पेपर्स की थकान मिटाना चाहती हूँ अब। इसमें तुम मेरी मदद करो।''

पिछले तीन दिनों से परीक्षा के दौरान हम दिन भर साथ रहे थे। अब परीक्षा खत्म होने पर रंजना का साथ छूटने का दुख मुझे अंदर ही अंदर सता रहा था। मैंने रंजना की बात सुनकर पूछा- ''वह कैसे?''

''मैं दिल्ली अधिक घूमी नहीं हूँ। कल दिल्ली घूमना चाहती हूँ। परसों देहरादून लौट जाऊँगी।'' कहते हुए वह मेरे चेहरे की ओर कुछ पल देखती रही थी।

मैं उसका आशय समझ गया था। उसके प्रस्ताव पर मैं खुश था लेकिन एक भय मेरे भीतर कुलबुलाने लगा था। बेकारी के दिन थे। घर से दिल्ली में आकर परीक्षा देने और यहाँ तीन दिन ठहरने लायक ही पैसों का इंतज़ाम करके आया था। मेरी जेब में बचे हुए पैसे मुझे रंजना के साथ पूरा दिन दिल्ली घूमने की इजाज़त नहीं देते थे।

''दिल्ली तो मैं भी पहली बार आया हूँ, इस परीक्षा के सिलसिले में। घूमना तो चाहता हूँ पर...।''

''पर वर कुछ नहीं। कल हम दोनों दिल्ली घूमेंगे, बस।'' रंजना ने जैसे अंतिम निर्णय सुना दिया। परीक्षा केन्द्र इंडिया गेट के पास था। वह बोली, ''कल सुबह नौ बजे तुम यहीं मिलना।''

यूँ तो मुझे परीक्षा समाप्त होते ही गांव के लिए लौट जाना था, पर रंजना की बात ने मुझे एक दिन और दिल्ली में रुकने के लिए मजबूर कर दिया। मैं पहाड़गंज के एक छोटे-से होटल में एक सस्ता सा कमरा लेकर ठहरा हुआ था। जेब में बचे हुए पैसों का मैंने हिसाब लगाया तो पाया कि कमरे का किराया देकर और वापसी की ट्रेन का किराया निकाल कर जो पैसे बचते थे, उसमें रंजना को दिल्ली घुमाना क़तई संभव नहीं था। बहुत देर तक मैं ऊहापोह में घिरा रहा था- गांव लौट जाऊँ या फिर ...। रंजना की देह गंध मुझे खींच रही थी। मुझे रुकने को विवश कर रही थी। और जेब थी कि गांव लौट जाने को कह रही थी।

फिर मैंने एक फ़ैसला किया। रुक जाने का फ़ैसला। इसके लिए मुझे गले में पहनी पतली-सी सोने की चेन और हाथ की घड़ी अपनी जेब कट जाने का बहाना बनाकर पहाड़गंज में बेचनी पड़ी थी। अगले दिन मैं समय से निश्चित जगह पर पहुँच गया था। रंजना भी समय से आ गई थी। वह बहुत सुन्दर लग रही थी। उसका सूट उस पर खूब फब रहा था। उसके चेहरे पर उत्साह और उमँग की एक तितली नाच रही थी। एकाएक मेरा ध्यान अपने कपड़ों की ओर चला गया। मैं घर से दो जोड़ी कपड़े लेकर ही चला था। मेरी पैंट-कमीज और जूते साधारण-से थे। मन में एक हीन भावना रह-रह कर सिर उठा लेती थी। मेरे चेहरे को पढ़ते हुए रंजना ने कहा था, ''तुम कुछ मायूस-सा लगते हो। लगता है, तुम्हें मेरे संग दिल्ली घूमना अच्छा नहीं लग रहा।''

''नहीं, रंजना। ऐसी बात नहीं।'' मेरे मुँह से बस इतना ही निकला था।

हम दोनों ने उस दिन इंडिया गेट, पुराना किला, चिड़िया घर, कुतुब मीनार की सैर की। दोपहर में एक ढाबे पर भोजन किया। सारे समय हँसती-खिलखिलाती रंजना का साथ मुझे अच्छा लगता रहा था।

साल भर बाद इंटरव्यू के सिलसिले में हम फिर मिले थे। हमने फिर पूरा एक दिन दिल्ली की सड़कें नापी थीं। इसी दौरान रंजना ने बताया था कि उसके बड़े भाई यहाँ दिल्ली में एक्साइज विभाग में डेपूटेशन पर आने वाले हैं। उसने मुझे उनका पता देते हुए कहा था कि मैं उनसे अवश्य मिलूं।

कुछ महीनों बाद मुझे दिल्ली में भारत सरकार के एक मंत्रालय में नौकरी मिल गई। मैं रंजना के बड़े भाई साहब से उनके ऑफिस में जाकर मिला था। वह बड़ी गर्मजोशी में मुझसे मिले थे। उनसे ही पता चला कि नौकरी की ऑफर तो रंजना को भी आई थी, पर इस दौरान देहरादून के केन्द्रीय विद्यालय में बतौर अध्यापक नियुक्ति हो जाने के कारण उसने दिल्ली की नौकरी छोड़ दी थी। मैं उन्हें अपने ऑफिस का फोन नंबर देकर लौट आया था। मुझे रंजना का दिल्ली में नौकरी न करना अच्छा नहीं लगा था। फिर भी, मुझे उम्मीद थी कि रंजना से मेरी मुलाकात अवश्य होगी। लेकिन, रंजना के बड़े भाई साहब कुछ समय बाद दिल्ली से चंडीगढ़ चले गए और मेरे मन की चाहत मेरे मन में ही रह गई थी। ......

 
 
ख्याली जलेबी  - भारत-दर्शन संकलन

एक बार एक बुढ़िया किसी गाड़ी से टकरा गई। वह बेहोश होकर गिर पड़ी। लोगों की भीड़ ने उसे घेर लिया। कोई बेहोश बुढ़िया को हवा करने लगा तो कोई सिर सहलाने लगा।

गाड़ीवाला टक्कर मारते ही भाग गया था। वहीं शेखचिल्ली जनाब भी खड़े थे। एक आदमी बोला, ‘जल्दी से बुढ़िया को अस्पताल ले चलो।' दूसरे ने कहा, ‘हाँ', ताँगा लाओ और इसे अस्पताल पहुँचाओ।'

‘हमें इसे यहीं पर होश में लाना चाहिए।'

'भई, कोई तो पानी ले लाओ।' तीसरा बोला।

‘पानी के छींटे देने पर यह होश में आ जाएगी।'

'हाँ, हमें इसकी जिंदगी बचानी चाहिए।'

'लेकिन यह तो होश में नहीं आ रही। इसे अस्पताल ही ले चलो। वहीं होश में आएगी।'

वहीं खड़ा शेखचिल्ली बोला, ‘इसे होश में लाने का तरीका तो मैं बता सकता हूँ।'

‘बताओ भाई?' कई लोग एक साथ बोले।

‘इसके लिए गर्म-गर्म जलेबियाँ लाओ। जलेबियों की खुशबू इसे सुँघाओ और फिर इसके मुँह में डाल दो। जलेबियाँ इसे बड़ा फायदा करेंगी।' शेखचिल्ली ने बताया।

लोगों को शेखचिल्ली की बात मूर्खतापूर्ण लगी और लोगों ने उसे अनसुना कर दिया।

शेखचिल्ली की बात बुढ़िया के कानों में पड़ चुकी थी।

बुढ़िया बेहोशी का बहाना किए पड़ी थी। शेखचिल्ली की बात को अनसुना होते देख बुढ़िया बोल उठी, ‘अरे भाइयों, इसकी भी तो सुनो! देखो यह लड़का क्या कह रहा है।'

लोग चौंक पड़े। उन्होंने बुढ़िया को बुरा-भला कहा और चल दिए। बहानेबाज़ बुढ़िया भी चुपचाप उठकर जाने को मजबूर हो गई।

[भारत-दर्शन संकलन]

 


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दुरुपयोग की जाने वाली संपत्ति ज़ब्त  - रोहित कुमार हैप्पी

1700.16 करोड़ की संपत्ति ज़ब्त

भारत (6 अप्रैल 2019): निर्वाचन आयोग ने 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले भारत के विभिन्न राज्यों में चुनावों को प्रभावित करने के लिए, इस्तेमाल की जाने वाली 1700.16 करोड़ की संपत्ति जिसमें नगद, सोना-चांदी, शराब, नशीली दवाएं और अन्य वस्तुएं सम्मिलित हैं, ज़ब्त की हैं। यह आंकड़े 05.04.2019 तक के हैं । अच्छा होता, निर्वाचन आयोग इस रिपोर्ट में यह भी पुष्टि कर देता कि यह संपत्ति किन-किन राजनैतिक दलों से संबद्ध रखती है।

स्रोत: भारत निर्वाचन आयोग


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पैरोडी - कवि चोंच

[रसखान के एक छंद की ‘पैरोडी' ]

मानुष हौं तौ वहै कवि 'चोंच'
बसौ सिटी लंदन के किसी द्वारे। ......

 
 
दयामय की दया | लोककथा  - लियो टाल्स्टाय

किसी समय एक मनुष्य ऐसा पापी था कि अपने 70 वर्ष के जीवन में उसने एक भी अच्छा काम नहीं किया था। नित्य पाप करता था, लेकिन मरते समय उसके मन में ग्लानि हुई और रो-रोकर कहने लगा - हे भगवान्! मुझ पापी का बेड़ा पार कैसे होगा? आप भक्त-वत्सल, कृपा और दया के समुद्र हो, क्या मुझ जैसे पापी को क्षमा न करोगे?

इस पश्चात्ताप का यह फल हुआ कि वह नरक में गया, स्वर्ग के द्वार पर पहुँचा दिया गया। उसने कुंडी खड़खड़ाई।

भीतर से आवाज आई - स्वर्ग के द्वार पर कौन खड़ा है? चित्रगुप्त, इसने क्या-क्या कर्म किए हैं?

चित्रगुप्त - महाराज, यह बड़ा पापी है। जन्म से लेकर मरण-पर्यंत इसने एक भी शुभ कर्म नहीं किया।

भीतर से - 'जाओ, पापियों को स्वर्ग में आने की आज्ञा नहीं हो सकती।'

मनुष्य - 'महाशय, आप कौन हैं?

भीतर - योगेश्वर।

मनुष्य - योगेश्वर, मुझ पर दया कीजिए और जीव की अज्ञानता पर विचार कीजिए। आप ही अपने मन में सोचिए कि किस कठिनाई से आपने मोक्ष पद प्राप्त किया है। माया-मोह से रहित होकर मन को शुद्ध करना क्या कुछ खेल है? निस्संदेह मैं पापी हूं, परंतु परमात्मा दयालु हैं, मुझे क्षमा करेंगे।

भीतर की आवाज बंद हो गई। मनुष्य ने फिर कुंडी खटखटाई।

भीतर से - 'जाओ, तुम्हारे सरीखे पापियों के लिए स्वर्ग नहीं बना है।

मनुष्य - महाराज, आप कौन हैं?

भीतर से - बुद्ध।

मनुष्य - महाराज, केवल दया के कारण आप अवतार कहलाए। राज-पाट, धन-दौलत सब पर लात मार कर प्राणिमात्र का दुख निवारण करने के हेतु आपने वैराग्य धारण किया, आपके प्रेममय उपदेश ने संसार को दयामय बना दिया। मैंने माना कि मैं पापी हूँ; परन्तु अंत समय प्रेम का उत्पन्न होना निष्फल नहीं हो सकता।

बुद्ध महाराज मौन हो गए।

पापी ने फिर द्वार हिलाया।

भीतर से - कौन है?

चित्रगुप्त - स्वामी, यह बड़ा दुष्ट है।

भीतर से - जाओ, भीतर आने की आज्ञा नहीं।

पापी - महाराज, आपका नाम?

भीतर से - कृष्ण।

पापी - (अति प्रसन्नता से) अहा हा! अब मेरे भीतर चले जाने में कोई संदेह नहीं। आप स्वयं प्रेम की मूर्ति हैं, प्रेम-वश होकर आप क्या नाच नाचे हैं, अपनी कीर्ति को विचारिए, आप तो सदैव प्रेम के वशीभूत रहते हैं।

आप ही का उपदेश तो है - 'हरि को भजे सो हरि का होई,' अब मुझे कोई चिंता नहीं।

स्वर्ग का द्वार खुल गया और पापी भीतर चला गया।

-लियो टाल्स्टाय
[ अनुवाद - प्रेमचंद ]

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तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा - सुभाष चंद्र बोस - भारत-दर्शन संकलन

जब भारत स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत था और नेताजी आज़ाद हिंद फ़ौज के लिए सक्रिय थे तब आज़ाद हिंद फ़ौज में भरती होने आए सभी युवक-युवतियों को संबोधित करते हुए नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने कहा, "तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा।"
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हिंदी-दिवस | लघु-कथा - रोहित कुमार 'हैप्पी'

'देखो, 14 सितम्बर को 'हिंदी डे' है और उस दिन हमेंहिंदी लेंगुएज ही यूज़ करनी चाहिए। अंडरस्टैंड?'सरकारी अधिकारी ने आदेश देते हुए कहा।

'यस सर!' कहकर सरकारी बाबू ने भी हामी भरी।

हिंदी-दिवस की तैयारी जोरों पर थी।

-रोहित कुमार 'हैप्पी'

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हमको सपने टूटने का ग़म नहीं | ग़ज़ल - रोहित कुमार 'हैप्पी'

हमको सपने टूटने का ग़म नहीं
अपने ही वादों में था कोई दम नहीं!

माना तुम भी ज़िंदगी से खुश नहीं ......

 
 
पागल कौन ? - दिलीप लोकरे

नींद मेरी आँखों से कोसों दूर है । सोने की लाख कोशिश करने के बाद भी आँखें बंद करते ही शाम की घटना आँखों के सामने तैरने लगती है । हम सभी उसे पिछले कई दिनों से जानते है । ऑफ़िस के आसपास ही घूमती रहती है। किसी को कोई नुकसान नहीं पहुँचाती, लेकिन उसके हुलिए की वजह से लोग उससे दूर रहना ही पसंद करते हैं । उम्र यही कोई 18-19 वर्ष । बाल मैले ओर उलझे रहते है लेकिन चेहरा सुन्दर है - ख़ासकर उसकी दोनों आँखें । मै जानता हूँ कि मेरे कई साथी उसकी देहयष्टि पर मोहित है लेकिन शिक्षा के माध्यम से ओढा हुआ सभ्यता का आवरण उन्हें अपने खोल से बाहर नहीं आने देता । हालाँकि मानसिक तौर पर सभी उसे भोग रहे है । इस बलात्कार के लिए अभी कोई कानून बना भी नहीं, जो उन्हें रोके ।

घटना आज शाम की है । मैं घर आने के लिए बस स्टॉप पर खड़ा था। पास ही वह हमेशा की तरह कचरे में कुछ बीन रही थी । तभी न जाने कहाँ से युवाओं का एक ग्रुप, जो लगभग पांच लोगों का था, वहाँ आ धमका । कुछ देर इधर-उधर की आपस में गपशप के बाद उनमे से एक की नजर उस पर पड़ गई और शुरू हो गया छेड़खानी का दौर । जवानी की हवस गरीब-अमीर, खूबसूरत-बदसूरत गंदे या साफ़सुथरे में फर्क करना नहीं जानती | जुबानी शरारत से होते हुए कुछ देर बाद ये हरकतें शारीरिक छेड़खानी तक पहुँच गई। सभ्यता के लबादे में लिपटा मैं उनके पचड़े में नहीं पड़ा । कमजोर हो कर अपने आप को शरीफ कहलाना, डरपोक कहलाने से अच्छा होता है। कुछ देर तक तो उसने इन हरकतों को सहन किया लेकिन फिर अचानक खूंखार हो कर, एक बड़ा सा पत्थर हाथों में उठाये वह इन लड़कों की तरफ बढ़ी और सीधा उसके सर पर दे मारा जो उससे छेड़खानी कर रहा था । खून का फव्वारा उस लड़के के सर से फूट पड़ा । पहले तो वह सभी हक्केबक्के रह गए , फिर अचानक वह लड़का जिसका सर फूटा था, मां बहन की गालियों के साथ आक्रामक तरीके से उस लड़की की और लपका । घटना से घबराए उसके साथियों ने जैसे तैसे उसे पकड़ा और बोले, "जाने दे यार । पागल है साली"..................और वहां से चल दिए ।

और मैं तब से लगातार यही सोच रहा हूँ कि ... पागल कौन है ?

-दिलीप लोकरे
diliplokreindore@gmail.com

......
 
 
मिठाईवाला  - भगवतीप्रसाद वाजपेयी

बहुत ही मीठे स्वरों के साथ वह गलियों में घूमता हुआ कहता - "बच्चों को बहलानेवाला, खिलौनेवाला।"

 

इस अधूरे वाक्य को वह ऐसे विचित्र किन्तु मादक-मधुर ढंग से गाकर कहता कि सुननेवाले एक बार अस्थिर हो उठते। उनके स्नेहाभिषिक्त कंठ से फूटा हुआ उपयुक्त गान सुनकर निकट के मकानों में हलचल मच जाती। छोटे-छोटे बच्चों को अपनी गोद में लिए युवतियाँ चिकों को उठाकर छज्जों पर नीचे झाँकने लगतीं। गलियों और उनके अन्तर्व्यापी छोटे-छोटे उद्यानों में खेलते और इठलाते हुए बच्चों का झुंड उसे घेर लेता और तब वह खिलौनेवाला वहीं बैठकर खिलौने की पेटी खोल देता।

 

बच्चे खिलौने देखकर पुलकित हो उठते। वे पैसे लाकर खिलौने का मोल-भाव करने लगते। पूछते - "इछका दाम क्या है, औल इछका? औल इछका?" खिलौनेवाला बच्चों को देखता, और उनकी नन्हीं-नन्हीं उँगलियों से पैसे ले लेता, और बच्चों की इच्छानुसार उन्हें खिलौने दे देता। खिलौने लेकर फिर बच्चे उछलने-कूदने लगते और तब फिर खिलौनेवाला उसी प्रकार गाकर कहता - "बच्चों को बहलानेवाला, खिलौनेवाला।" सागर की हिलोर की भाँति उसका यह मादक गान गली भर के मकानों में इस ओर से उस ओर तक, लहराता हुआ पहुँचता, और खिलौनेवाला आगे बढ़ जाता।

 

राय विजयबहादुर के बच्चे भी एक दिन खिलौने लेकर घर आए! वे दो बच्चे थे - चुन्नू और मुन्नू! चुन्नू जब खिलौने ले आया, तो बोला - "मेला घोला कैछा छुन्दल ऐ?"

 

मुन्नू बोला - "औल देखो, मेला कैछा छुन्दल ऐ?"

 

दोनों अपने हाथी-घोड़े लेकर घर भर में उछलने लगे। इन बच्चों की माँ रोहिणी कुछ देर तक खड़े-खड़े उनका खेल निरखती रही। अन्त में दोनों बच्चों को बुलाकर उसने पूछा - "अरे ओ चुन्नू - मुन्नू, ये खिलौने तुमने कितने में लिए है?"

 

मुन्नू बोला - "दो पैछे में! खिलौनेवाला दे गया ऐ।"

 

रोहिणी सोचने लगी - इतने सस्ते कैसे दे गया है? कैसे दे गया है, यह तो वही जाने। लेकिन दे तो गया ही है, इतना तो निश्चय है!

 

एक जरा-सी बात ठहरी। रोहिणी अपने काम में लग गई। फिर कभी उसे इस पर विचार की आवश्यकता भी भला क्यों पड़ती।

 

2

छह महीने बाद।

 

नगर भर में दो-चार दिनों से एक मुरलीवाले के आने का समाचार फैल गया। लोग कहने लगे - "भाई वाह! मुरली बजाने में वह एक ही उस्ताद है। मुरली बजाकर, गाना सुनाकर वह मुरली बेचता भी है सो भी दो-दो पैसे भला, इसमें उसे क्या मिलता होगा। मेहनत भी तो न आती होगी!"

 

एक व्यक्ति ने पूछ लिया - "कैसा है वह मुरलीवाला, मैंने तो उसे नही देखा!"

 

उत्तर मिला - "उम्र तो उसकी अभी अधिक न होगी, यही तीस-बत्तीस का होगा। दुबला-पतला गोरा युवक है, बीकानेरी रंगीन साफा बाँधता है।"

 

"वही तो नहीं, जो पहले खिलौने बेचा करता था?"

 

"क्या वह पहले खिलौने भी बेचा करता था?'

 

"हाँ, जो आकार-प्रकार तुमने बतलाया, उसी प्रकार का वह भी था।"

 

"तो वही होगा। पर भई, है वह एक उस्ताद।"

 

प्रतिदिन इसी प्रकार उस मुरलीवाले की चर्चा होती। प्रतिदिन नगर की प्रत्येक गली में उसका मादक, मृदुल स्वर सुनाई पड़ता - "बच्चों को बहलानेवाला, मुरलियावाला।"

 

रोहिणी ने भी मुरलीवाले का यह स्वर सुना। तुरन्त ही उसे खिलौनेवाले का स्मरण हो आया। उसने मन ही मन कहा - "खिलौनेवाला भी इसी तरह गा-गाकर खिलौने बेचा करता था।"

 

रोहिणी उठकर अपने पति विजय बाबू के पास गई - "जरा उस मुरलीवाले को बुलाओ तो, चुन्नू-मुन्नू के लिए ले लूँ। क्या पता यह फिर इधर आए, न आए। वे भी, जान पड़ता है, पार्क में खेलने निकल गए है।"

 

विजय बाबू एक समाचार पत्र पढ़ रहे थे। उसी तरह उसे लिए हुए वे दरवाजे पर आकर मुरलीवाले से बोले - "क्यों भई, किस तरह देते हो मुरली?"

 

किसी की टोपी गली में गिर पड़ी। किसी का जूता पार्क में ही छूट गया, और किसी की सोथनी (पाजामा) ही ढीली होकर लटक आई है। इस तरह दौड़ते-हाँफते हुए बच्चों का झुण्ड आ पहुँचा। एक स्वर से सब बोल उठे - "अम बी लेंदे मुल्ली, और अम बी लेंदे मुल्ली।"

 

मुरलीवाला हर्ष-गद्गद हो उठा। बोला - "देंगे भैया! लेकिन जरा रुको, ठहरो, एक-एक को देने दो। अभी इतनी जल्दी हम कहीं लौट थोड़े ही जाएँगे। बेचने तो आए ही हैं, और हैं भी इस समय मेरे पास एक-दो नहीं, पूरी सत्तावन।... हाँ, बाबूजी, क्या पूछा था आपने कितने में दीं!... दी तो वैसे तीन-तीन पैसे के हिसाब से है, पर आपको दो-दो पैसे में ही दे दूँगा।"

 

विजय बाबू भीतर-बाहर दोनों रूपों में मुस्करा दिए। मन ही मन कहने लगे - कैसा है। देता तो सबको इसी भाव से है, पर मुझ पर उलटा एहसान लाद रहा है। फिर बोले - "तुम लोगों की झूठ बोलने की आदत होती है। देते होगे सभी को दो-दो पैसे में, पर एहसान का बोझा मेरे ही ऊपर लाद रहे हो।"

 

मुरलीवाला एकदम अप्रतिभ हो उठा। बोला - "आपको क्या पता बाबू जी कि इनकी असली लागत क्या है। यह तो ग्राहकों का दस्तूर होता है कि दुकानदार चाहे हानि उठाकर चीज क्यों न बेचे, पर ग्राहक यही समझते हैं - दुकानदार मुझे लूट रहा है। आप भला काहे को विश्वास करेंगे? लेकिन सच पूछिए तो बाबूजी, असली दाम दो ही पैसा है। आप कहीं से दो पैसे में ये मुरलियाँ नहीं पा सकते। मैंने तो पूरी एक हजार बनवाई थीं, तब मुझे इस भाव पड़ी हैं।"

 

विजय बाबू बोले - "अच्छा, मुझे ज्यादा वक्त नहीं, जल्दी से दो ठो निकाल दो।"

 

दो मुरलियाँ लेकर विजय बाबू फिर मकान के भीतर पहुँच गए। मुरलीवाला देर तक उन बच्चों के झुण्ड में मुरलियाँ बेचता रहा। उसके पास कई रंग की मुरलियाँ थीं। बच्चे जो रंग पसन्द करते, मुरलीवाला उसी रंग की मुरली निकाल देता।

 

"यह बड़ी अच्छी मुरली है। तुम यही ले लो बाबू, राजा बाबू तुम्हारे लायक तो बस यह है। हाँ भैए, तुमको वही देंगे। ये लो।... तुमको वैसी न चाहिए, यह नारंगी रंग की, अच्छा वही लो।.... ले आए पैसे? अच्छा, ये लो तुम्हारे लिए मैंने पहले ही निकाल रखी थी...! तुमको पैसे नहीं मिले। तुमने अम्मा से ठीक तरह माँगे न होंगे। धोती पकड़कर पैरों में लिपटकर, अम्मा से पैसे माँगे जाते हैं बाबू! हाँ, फिर जाओ। अबकी बार मिल जाएँगे...। दुअन्नी है? तो क्या हुआ, ये लो पैसे वापस लो। ठीक हो गया न हिसाब?....मिल गए पैसे? देखो, मैंने तरकीब बताई! अच्छा अब तो किसी को नहीं लेना है? सब ले चुके? तुम्हारी माँ के पैसे नहीं हैं? अच्छा, तुम भी यह लो। अच्छा, तो अब मैं चलता हूँ।"

 

इस तरह मुरलीवाला फिर आगे बढ़ गया।

 

3

आज अपने मकान में बैठी हुई रोहिणी मुरलीवाले की सारी बातें सुनती रही। आज भी उसने अनुभव किया, बच्चों के साथ इतने प्यार से बातें करनेवाला फेरीवाला पहले कभी नहीं आया। फिर यह सौदा भी कैसा सस्ता बेचता है! भला आदमी जान पड़ता है। समय की बात है, जो बेचारा इस तरह मारा-मारा फिरता है। पेट जो न कराए, सो थोड़ा!

 

इसी समय मुरलीवाले का क्षीण स्वर दूसरी निकट की गली से सुनाई पड़ा - "बच्चों को बहलानेवाला, मुरलियावाला!"

 

रोहिणी इसे सुनकर मन ही मन कहने लगी - और स्वर कैसा मीठा है इसका!

 

बहुत दिनों तक रोहिणी को मुरलीवाले का वह मीठा स्वर और उसकी बच्चों के प्रति वे स्नेहसिक्त बातें याद आती रहीं। महीने के महीने आए और चले गए। फिर मुरलीवाला न आया। धीरे-धीरे उसकी स्मृति भी क्षीण हो गई।

 

4

आठ मास बाद -

 

सर्दी के दिन थे। रोहिणी स्नान करके मकान की छत पर चढ़कर आजानुलंबित केश-राशि सुखा रही थी। इसी समय नीचे की गली में सुनाई पड़ा - "बच्चों को बहलानेवाला, मिठाईवाला।"

 

मिठाईवाले का स्वर उसके लिए परिचित था, झट से रोहिणी नीचे उतर आई। उस समय उसके पति मकान में नहीं थे। हाँ, उनकी वृद्धा दादी थीं। रोहिणी उनके निकट आकर बोली - "दादी, चुन्नू-मुन्नू के लिए मिठाई लेनी है। जरा कमरे में चलकर ठहराओ। मैं उधर कैसे जाऊँ, कोई आता न हो। जरा हटकर मैं भी चिक की ओट में बैठी रहूँगी।"

 

दादी उठकर कमरे में आकर बोलीं - "ए मिठाईवाले, इधर आना।"

 

मिठाईवाला निकट आ गया। बोला - "कितनी मिठाई दूँ, माँ? ये नए तरह की मिठाइयाँ हैं - रंग-बिरंगी, कुछ-कुछ खट्टी, कुछ-कुछ मीठी, जायकेदार, बड़ी देर तक मुँह में टिकती हैं। जल्दी नहीं घुलतीं। बच्चे बड़े चाव से चूसते हैं। इन गुणों के सिवा ये खाँसी भी दूर करती हैं! कितनी दूँ? चपटी, गोल, पहलदार गोलियाँ हैं। पैसे की सोलह देता हूँ।"

 

दादी बोलीं - "सोलह तो बहुत कम होती हैं, भला पचीस तो देते।"

 

मिठाईवाला - "नहीं दादी, अधिक नहीं दे सकता। इतना भी देता हूँ, यह अब मैं तुम्हें क्या... खैर, मैं अधिक न दे सकूँगा।"

 

रोहिणी दादी के पास ही थी। बोली - "दादी, फिर भी काफी सस्ता दे रहा है। चार पैसे की ले लो। यह पैसे रहे।

 

मिठाईवाला मिठाइयाँ गिनने लगा।

 

"तो चार की दे दो। अच्छा, पच्चीस नहीं सही, बीस ही दो। अरे हाँ, मैं बूढ़ी हुई मोल-भाव अब मुझे ज्यादा करना आता भी नहीं।"

 

कहते हुए दादी के पोपले मुँह से जरा-सी मुस्कराहरट फूट निकली।

 

रोहिणी ने दादी से कहा - "दादी, इससे पूछो, तुम इस शहर में और भी कभी आए थे या पहली बार आए हो? यहाँ के निवासी तो तुम हो नहीं।"

 

दादी ने इस कथन को दोहराने की चेष्टा की ही थी कि मिठाईवाले ने उत्तर दिया - "पहली बार नहीं, और भी कई बार आ चुका है।"

 

रोहिणी चिक की आड़ ही से बोली - "पहले यही मिठाई बेचते हुए आए थे, या और कोई चीज लेकर?"

 

मिठाईवाला हर्ष, संशय और विस्मयादि भावों मे डूबकर बोला - "इससे पहले मुरली लेकर आया था, और उससे भी पहले खिलौने लेकर।"

 

रोहिणी का अनुमान ठीक निकला। अब तो वह उससे और भी कुछ बातें पूछने के लिए अस्थिर हो उठी। वह बोली - "इन व्यवसायों में भला तुम्हें क्या मिलता होगा?"

 

वह बोला - "मिलता भला क्या है! यही खाने भर को मिल जाता है। कभी नहीं भी मिलता है। पर हाँ; सन्तोष, धीरज और कभी-कभी असीम सुख जरूर मिलता है और यही मैं चाहता भी हूँ।"

 

"सो कैसे? वह भी बताओ।"

 

"अब व्यर्थ उन बातों की क्यों चर्चा करुँ? उन्हें आप जाने ही दें। उन बातों को सुनकर आप को दु:ख ही होगा।"

 

"जब इतना बताया है, तब और भी बता दो। मैं बहुत उत्सुक हूँ। तुम्हारा हर्जा न होगा। मिठाई मैं और भी कुछ ले लूँगी।"

 

अतिशय गम्भीरता के साथ मिठाईवाले ने कहा - "मैं भी अपने नगर का एक प्रतिष्ठित आदमी था। मकान-व्यवसाय, गाड़ी-घोड़े, नौकर-चाकर सभी कुछ था। स्त्री थी, छोटे-छोटे दो बच्चे भी थे। मेरा वह सोने का संसार था। बाहर संपत्ति का वैभव था, भीतर सांसारिक सुख था। स्त्री सुन्दरी थी, मेरी प्राण थी। बच्चे ऐसे सुन्दर थे, जैसे सोने के सजीव खिलौने। उनकी अठखेलियों के मारे घर में कोलाहल मचा रहता था। समय की गति! विधाता की लीला। अब कोई नहीं है। दादी, प्राण निकाले नहीं निकले। इसलिए अपने उन बच्चों की खोज में निकला हूँ। वे सब अन्त में होंगे, तो यहीं कहीं। आखिर, कहीं न जन्मे ही होंगे। उस तरह रहता, घुल-घुल कर मरता। इस तरह सुख-संतोष के साथ मरूँगा। इस तरह के जीवन में कभी-कभी अपने उन बच्चों की एक झलक-सी मिल जाता है। ऐसा जान पड़ता है, जैसे वे इन्हीं में उछल-उछलकर हँस-खेल रहे हैं। पैसों की कमी थोड़े ही है, आपकी दया से पैसे तो काफी हैं। जो नहीं है, इस तरह उसी को पा जाता हूँ।"

 

रोहिणी ने अब मिठाईवाले की ओर देखा - उसकी आँखें आँसुओं से तर हैं।

 

इसी समय चुन्नू-मुन्नू आ गए। रोहिणी से लिपटकर, उसका आँचल पकड़कर बोले - "अम्माँ, मिठाई!"

 

"मुझसे लो।" यह कहकर, तत्काल कागज की दो पुड़ियाँ, मिठाइयों से भरी, मिठाईवाले ने चुन्नू-मुन्नू को दे दीं!

 

रोहिणी ने भीतर से पैसे फेंक दिए।

 

मिठाईवाले ने पेटी उठाई, और कहा - "अब इस बार ये पैसे न लूँगा।"

 

दादी बोली - "अरे-अरे, न न, अपने पैसे लिए जा भाई!"

 

तब तक आगे फिर सुनाई पड़ा उसी प्रकार मादक-मृदुल स्वर में - "बच्चों को बहलानेवाला मिठाईवाला।"

 

- भगवतीप्रसाद वाजपेयी

 


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माँ कह एक कहानी - मैथिलीशरण गुप्त

"माँ, कह एक कहानी !"
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कुछ और नहीं है चाह मुझे | गीत -  कमलेश कुमार वर्मा

कुछ और नहीं है चाह मुझे
......बन गुलाब मुस्कराओ तुम,......

 
 
आलेख संकलन - भारत-दर्शन

आलेख संकलन।


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अनशन | लघु कथा  - डॉ. पूरन सिंह

अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार के विरोध में अनशन जारी था। वे और उनकी कम्पनी लोकपाल बिल लाने के लिए सरकार पर दबाव बनाने के लिए जमीन आसमान एक किए दे रहे थे। मुझे उनकी बात ठीक लगी इसीलिए मैं उनसे मिलना चाहता था । विशाल भीड़ में उन तक पहुंचना मुश्किल था । उनके समर्थक ब्लैक कैट कमांडो की तरह उनके आस-पास मंडरा रहे थे । अब एैसे में उनसे कैसे मिला जाए, मैं सोच रहा था।


तभी मेरे दिमाग में एक आइडिया बिलबिलाया, "अरे भैया, अन्ना जी के चरण स्पर्श करना चाहता था ।"' उनके बहुत पास खडे़ उनके ही सुरक्षा गार्ड से मैने हाथ जोड़ते हुए विनय की थी।

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होली बाद नमाज़  - क़ैस जौनपुरी | कहानी

अहद एक मुसलमान है। मुसलमान इसिलए क्योंकि वो एक मुस्लिम परिवार में पैदा हुआ है। हाँ, ये बात अलग है कि 'वो' कभी इस बात पर जोर नहीं देता है कि वो मुसलमान है। वो मुसलमान है तो है। क्या फर्क पड़ता है? और क्या जरूरत है ढ़िंढ़ोरा पीटने की? वो कभी इन बातों पर गौर नहीं करता है। लेकिन उसके गौर न करने से क्या होता है? लोग तो हैं? और लोग तो गौर करते हैं और लोग अहद की हरकतों पर भी गौर करते हैं।

सच कहा जाए तो अहद सिर्फ एक इनसान है। एक सच्चा इनसान। जो लोगों की मदद करता है। किसी को तकलीफ में देखकर बेचैन हो उठता है। चाहे वो उसके अपने मजहब का हो या किसी और मजहब का हो। वो हर मजहब की इज्जत करता है जिस गांव में पैदा हुआ वहां गिनती के मुसलमान थे और इस वजह से उसके ज्यादातर दोस्त गैर-मजहब के थे। मसलन, हिन्दू वगैरह!!!

और हिन्दू दोस्तों के साथ घूमते-फिरते वो मन्दिर में भी जाने लगा। उसके दोस्तों ने उसे आगाह किया मगर अहद कहता, "यार...ये दुनिया सिर्फ एक ने बनाई है और वो एक सिर्फ एक है जिसे मैं अल्लाह कहता हूं और तुम भगवान। ये सिर्फ ज़ुबान का फर्क है। कोई भी धर्मग्रन्थ उठाकर पढ़ लो। सब में एक ही बात लिखी है "आपस में मिलजुल कर रहना चाहिए।" और फिर अगर कुछ फर्क है भी तो वो हमने ही बनाया है। अपनी सहूलियत के हिसाब से। वक्त और जरूरत के हिसाब से चीजों ने एक अलग शकल ले ली है। और हम आपस में बहस करते हैं कि मैं हिन्दू मैं मुसलमान। सब बेकार की बातें हैं। मेरे कुरान शरीफ में लिखा है, "अपने पड़ोसी का ख्याल रखो।" अब तुम बताओ? क्या मैं तुम्हें अपना पड़ोसी समझूं या क़ाफिर? क़ाफिर मानने में कोई भलाई नहीं हैं। ना तो मेरी, ना तो तुम्हारी। हम इनसान अगर मिलजुल कर रहें और खुश रहें तो एक दिन वो ऊपरवाला इतना खुश हो जाएगा कि खुद जमीन पर आकर बताएगा कि "मैं ही हूँ सबकुछ। सबका भगवान और सबका खुदा।"

अहद की फिलॉसफी के आगे उसके हिन्दू दोस्त खामोश हो जाते थे। वो कहते थे, "यार अहद....तेरी सारी बातें हमें तो समझ में आती हैं मगर बाकी लोगों का क्या? लोग तो हमें 'नादान नौजवान' समझकर एक किनारे रख देते हैं। उसका क्या? लोग दंगे-फसाद करते हैं और बेगुनाहों को मारते हैं। ऐसी हालत में तू क्या करेगा अगर इस गांव में भी कभी दंगा हुआ तो? यहां तो तुम लोग बस गिनती भर हो?

अहद इस बात पर मुसकुराता और हँस कर मजाक में कहता, "अबे....इसीलिए तो मैं तुम लोगों के साथ मन्दिर भी आता हूँ ताकि तुम लोग मुझे भी अपना भाई समझो। और तुम्हारे भगवान से प्रार्थना करता हूँ कि 'मेरे हिन्दू भाईयों को अकल दे।' सब अहद की बात सुनकर हँस देते थे।

वक़्त गुजरा। सब अपने-अपने रास्ते हो लिए। अहद अब एक बड़े शहर में रहने लगा जहां आए दिन हिन्दू-मुसलमान आपस में लड़ते-मरते रहते थे। खैर...अहद को अपने अल्लाह और ईश्वर पर यकीन था कि उसे कोई मुश्किल नहीं होगी इस शहर में। और कुछ खास मुश्किल हुई भी नहीं, जिस सोसाईटी में रहता है, वहां वो अकेला मुसलमान है। मगर सबने अहद को हाथों-हाथ लिया। वजह थी अहद की बीबी, जो एक हिन्दू थी। जी हाँ...अहद ने एक हिन्दू लड़की से शादी की थी।

अहद अब भी उसी तरह रहता है। जहां मस्जिद मिली, नमाज़ पढ़ ली। जहां मन्दिर दिखा, सिर झुका लिया। अहद दिवाली में पटाखे भी लाता है, अपनी बीबी के लिए...छुरछुरी। हां, जी...अहद की बीबी को दिवाली में छुरछुरी जलाना बहुत पसन्द है। अहद खुद तो पटाखे नहीं जलाता है मगर छुरछुरी जलाने में अपनी बीबी की मदद जरूर करता है। अहद को छुरछुरी की जगमग रोशनी बहुत पसन्द है। अपनी बीबी के कहने पर अहद घर के हर कोने में 'दिया' जलाता है। अहद को ये बात बहुत अच्छी लगती है क्योंकि पूरे साल में एक बार घर का हर कोना रोशनी से जगमगा जाता है। अहद इसी बात से खुश हो लेता है कि 'चलो इसी बहाने, घर के सारे कीटाणु मर जाएंगे।'

फिर आया मार्च का महीना और लोग होली की तैयारी करने लगे। पहले तो अहद ने सोचा कि 'इस बार होली नहीं खेलूंगा क्योंकि अब वो गांव नहीं। और वो लोग भी नहीं...तो मजा नहीं आएगा। लेकिन फिर उसने देखा कि 'उसकी एक बीबी और एक तीन साल का बच्चा होली खेलने के लिए तैयार हैं। अगर वो नहीं खेलेगा तो इन्हें भी मजा नहीं आएगा।'

और फिर अहद ने शुरु की अपने तरह की होली और बाल्टी भर-भर के रंग बनाया और जो भी दिखा सबको रंग दिया। खूब जमकर होली हुई। सोसाईटी में जिसने नहीं भी देखा था उसने भी देख लिया कि 'ये वही अहद है जो ज्यादातर खामोश रहता है। मगर आज इसे क्या हो गया है? और ये तो होली खेल रहा है। ये तो मुसलमान है ना???'

सारी बातों को भूलकर अहद ने खूब जमकर होली खेली। और उसका असर ये हुआ कि रंग इस कदर चढ़ चुका था कि उतरने का नाम नहीं ले रहा था। अहद के दोनों हाथ गुलाबी हो चुके थे। गर्दन के पिछले और किनारे के हिस्से से लेकर कानों तक रंग लगा हुआ था जो नहाने और रगड़-रगड़ कर छुड़ाने के बाद भी नहीं छूटा। अहद को लगा कि 'लोग क्या कहेंगे?' मगर फिर सिर झटककर खुद से कहा, 'क्या कहेंगे? पहली बार तो होली खेली नहीं है? हर बार ही खेलते हो। हर बार की तरह इस बार भी एक-आध महीने में छूट ही जाएगा।'

ऐसा सोचकर नहा-धोकर, साफ कपड़े पहनकर बैठ गया और होली में बनी गुझिया खाने लगा। अहद को अपनी बीबी के हाथ की बनी गुझिया बहुत पसन्द है। सच कहें तो होली की हुड़दंग और गुझिए की मिठास ने ही अहद का दिल जीत लिया था और उसने सारी बातों को दरकिनार करते हुए एक हिन्दू लड़की को पसन्द कर लिया था।

बात यहां तक उसकी जाति जिन्दगी की थी जिससे किसी को कोई लेना-देना नहीं होना चाहिए। मगर होली के अगले दिन जब अहद सुबह की नमाज़ पढ़ने के लिए मस्जिद की ओर चला तब उसके दिमाग में तरह-तरह के सवाल आने लगे। खैर....अब वो कर भी क्या सकता है। लोगों के डर से अपना हाथ तो नहीं काट सकता है।

अहद मस्जिद में दाखिल हुआ। उसने वुज़ू किया। सुन्नत तो उसने अकले में पढ़ ली। मगर फर्ज़ पढ़ने के लिए जब सफ में खड़ा हुआ जो कि इमाम के पीछे पढ़ी जाती है और सब लोग लाइन से खड़े होते हैं। एक-दूसरे से कंधे से कंधा मिलाकर। सफ इसी लाइन को कहते हैं। इसका तरीका ये होता है कि अगर अगली सफ में जगह बाकी है तो लोग आगे बढ़कर पहली सफ को पूरा करते हैं फिर दूसरी सफ बनती है और इसी तरह लोग लाइन में खड़े होकर नमाज़ पढ़ते हैं।

अहद दूसरी सफ में खड़ा था। मस्जिद में ज्यादा भीड़ तो नहीं थी इसिलए पहली सफ में जगह बच रही थी जिसमें बड़े-बड़े बुजुर्ग दिखाई दे रहे थे। अहद ने एकबारगी ये सोचा कि 'अगली सफ में ना जाए मगर वो सफ का तरीका तोड़ नहीं सकता था। वो भी सिर्फ इसलिए कि उसके हाथों-पैरों में होली का रंग लगा हुआ है?'

अहद अगली सफ में शामिल हो गया। इमाम साहब ने नमाज शुरु की। सबने बाकायदा नमाज़ पढ़ी। अहद ने भी। मगर नमाज़ के दरम्यान अहद का दिमाग कुछ बातों पर गया जैसे कि 'अहद की हथेलियां गुलाबी रंग से रंगी हुई थीं। अहद के पैरों की अंगुलियां इस तरह से रंगी हुई थी जैसे हिन्दूओं के यहां नई-नवेली दुल्हन का पैर रंगा जाता है, गुलाबी रंग में। रंग अहद की हथेलियों से होता हुआ पूरे बाजू तक फैला हुआ है। अहद की हथेलियां ऐसे लग रहीं थीं जैसे उसने अपने हाथों में गुलाबी रंग की मेंहदी लगाई हो।'

अहद को महसूस हुआ कि बगल में खड़े बुजुर्ग लोग उसे अजीब नजरों से देख रहे हैं। भले ही लोग नमाज़ में थे मगर आँखें तो सबकी खुली थीं और खुली आँखों से जो दिखाई दे रहा था वो सबको मन्जूर नहीं था। सब थे नमाज़ में इसलिए कोई कुछ कह भी नहीं सकता था।

खैर नमाज़ खत्म हुई और अहद ने अपने रंगीन हाथों से ही अपने खुदा से दुआ मांगी और हाथ मुंह पर फेरते हुए उठ खड़ा हुआ। उसने देखा कुछ लोग उसे घूर रहे थे। अहद ने कुछ नहीं कहा क्योंकि अभी तक किसी ने उससे भी कुछ नहीं कहा था। और जब तक बात मुंह से बाहर नहीं निकलती है तब तक कोई मुश्किल नहीं होती हैं।

अहद आगे बढ़ा और मस्जिद से बाहर की तरफ निकलने लगा तभी किसी ने कहा, "अस्सलामुअलैकुम।" अहद ने जवाब में कहा, "वालैकुमअस्सलामज़।"

सलाम करने वाला अकेला नहीं था। मगर अहद ने भी सोचा "चलो आज दो-दो हाथ कर ही लेते हैं।" एक ने कहा, "तो जनाब नमाज़ भी पढ़ते हैं और होली भी खेलते हैं?" अब अहद को जवाब देना था। उसने कहा, "जी।"

अगला सवाल हुआ, "तो क्या आप अल्लाह से नहीं डरते?" अहद ने जवाब दिया, "अल्लाह से डरता हूं इसीलिए तो नमाज़ पढ़ता हूं?"

इस जवाब ने एक पल को खामोशी पैदा कर दी। सवाल पूछने वालों को समझ नहीं आ रहा था कि अगला सवाल क्या करें? अहद ने सोचा, "बात खत्म हो चुकी है। इन लोगों को इनके सवाल का जवाब मिल चुका है।"

उधर सवाल करने वाले भी यही सोच रहे थे कि ये तो पढ़ा-लिखा मालूम होता है। इसके ऊपर अपनी बातों का असर नहीं होने वाला। मगर जब बात यहां तक पहुंच ही चुकी थी तो थोड़ी दूर तक और जानी थी। अब वहां कुछ लोग और आ चुके थे। सब अहद को चील की नजर से देख रहे थे जैसे नोच कर खा जाएंगे। वो तो अहद के बदन पर रंग लगा हुआ था इसलिए सब खुद को रोके हुए थे क्योंकि रंग से ही तो उन्हें परहेज है।

भीड़ में से एक सवाल और हुआ, "ये रंग आपको जहन्नुम में ले जाएंगे।"

अब अहद को गुस्सा आने लगा क्योंकि उससे सवाल करने वाले जाहिल लोग थे जिन्हें खुद ज़न्नत और जहन्नुम के बारे में ठीक से पता नहीं है । वो उसे ज़हन्नुम में भेज रहे थे सिर्फ इसलिए क्योंकि उसके हाथ-पैरों में रंग लगा हुआ है। फिर भी अहद ने गुस्से को पीकर बात का जवाब बात से ही देना ठीक समझा। वैसे भी 'कुरान झगड़े को जितना हो सके टालने की नसीहत देता है।'

अहद ने इस बात का जवाब कुछ यूं दिया "कौन जाने जनाब..... किसको जन्नत मिलेगी और किसे जहन्नुम? ये तो खुदा ही जानता है और ये आप भी जानते होंगे कि खुदा को किसकी कौन सी अदा पसन्द आ जाए ये भी सिर्फ खुदा ही जानता है। मेरे हाथों में रंग लगा है। इस बात पर आपने मेरा जहन्नुम का टिकट निकाल दिया। ...और मैंने इन्हीं रंग लगे हाथों से नमाज़ पढ़ी है तो हो सकता है खुदा मेरे इस नमाज़ पढ़ने के तरीके को पसन्द कर ले और मुझे जन्नत में डाल दे और मुझे इन रंगों के बदले रंगीन चादर दे ओढ़ने के लिए, जैसे बाकी ज़न्नत में जाने वालों को सफेद चादर मिलती है। ...तो मैं तो इस बात से खुश हूं कि खुदा मुझे अलग नज़र से देखेगा जैसे आप लोग देख रहे हैं। मगर मुझे पता है आपकी नज़र और खुदा की नज़र में बहुत फर्क है।"

अहद के इस जवाब ने सबको लाजवाब कर दिया। एक बार के लिए तो भीड़ में खड़ा हर आदमी सोचने लगा "काश! मेरे भी हाथ रंगीन होते!" भीड़ छंटने लगी और अहद को अपना रास्ता दिखाई दिया। अहद अपने घर की ओर चल दिया। रास्ते में वो एक बार फिर अपने रंगीन हाथों को देखने लगा और सोचने लगा। अहद सोचने लगा 'वो' ज़न्नत में है। चारों तरफ सफेद बादल हैं। लोग सफेद लिबास में हाथ ऊपर किये खड़े हैं। इन्हीं लोगों के बीच में अहद गुलाबी लिबास में लिपटा हुआ खड़ा है। अहद खुदा का शुक्रिया अदा कर रहा है।

- क़ैस जौनपुरी, मुंबई, भारत।
ई-मेल : qaisjaunpuri@gmail.com

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अजब हवा है - कृष्णा कुमारी

अब की बार अरे ओ फागुन
मन का आँगन रन-रंग जाना।......

 
 
चन्द्रशेखर आज़ाद की पसंदीदा शायरी - भारत-दर्शन संकलन

पं० चंद्रशेखर आज़ाद को गाना गाने या सुनने का शौक नहीं था लेकिन फिर भी वे कभी-कभी कुछ शेर कहा करते थे। उनके साथियों ने निम्न शेर अज़ाद के मुंह से कई बार सुने थे:

"टूटी हुई बोतल है टूटा हुआ पैमाना।
सरकार तुझे दिखा देंगे ठाठ फकीराना॥"

"शहीदों की चिताओं पर पड़ेंगे ख़ाक के ढेले।......

 
 
मूर्ख मित्र - भारत-दर्शन संकलन

किसी राजा के राज्य में एक बहुत बलवान बंदर था। वह बड़े-बड़े योद्धाओं को मत देता था। राजा ने उसकी ख्याति सुनी तो उसे अपना अंगरक्षक रख लिया। वह बंदर राजा के सेवक के रुप में महल मे रहने लगा। धीरे-धीरे वह राजा का विश्वास-पात्र बन गया। बंदर बहुत स्वामीभक्त था । अन्तःपुर में भी वह बेरोक-टोक जा सकता था ।

एक दिन जब राजा सो रहा था और बंदर उसे पंखे से हवा झोल रहा था तो बन्दर ने देखा, एक मक्खी बार-बार राजा की गर्दन पर बैठ जाती थी। पंखे से बार-बार हटाने पर भी वह उड़कर फिर वहीं बैठी जाती थी ।

बंदर को क्रोध आ गया। उसने पंखा छोड़ कर हाथ में तलवार ले ली; और इस बार जब मक्खी राजा की गर्दन पर बैठी तो उसने पूरे बल से मक्खी पर तलवार से प्रहार किया। मक्खी तो उड़ गई, किन्तु राजा की गर्दन तलवार के वर से धड़ से अलग हो गई। राजा वहीं ढेर हो गया। स्वामीभक्त बंदर को पछतावा हो रहा था किन्तु वह अब राजा को जीवित तो नहीं कर सकता था!

सीख: मूर्ख मित्र से बुद्धिमान शत्रु अच्छा!

 


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जय हिन्दी  - रघुवीर शरण

जय हिन्दी ! जय देव नागरी ! जय जय भारत माता।
‘तुलसी' 'सूर' और 'मीरा' का जीवन इसमें गाता ॥ ......

 
 
नव वर्ष  - सोहनलाल द्विवेदी

स्वागत! जीवन के नवल वर्ष
आओ, नूतन-निर्माण लिये,......

 
 
ग्यारह वर्ष का समय  - रामचंद्र शुक्ल

दिन-भर बैठे-बैठे मेरे सिर में पीड़ा उत्‍पन्‍न हुई : मैं अपने स्‍थान से उठा और अपने एक नए एकांतवासी मित्र के यहाँ मैंने जाना विचारा। जाकर मैंने देखा तो वे ध्‍यान-मग्‍न सिर नीचा किए हुए कुछ सोच रहे थे। मुझे देखकर कुछ आश्‍चर्य नहीं हुआ; क्‍योंकि यह कोई नई बात नहीं थी। उन्‍हें थोड़े ही दिन पूरब से इस देश मे आए हुआ है। नगर में उनसे मेरे सिवा और किसी से विशेष जान-पहिचान नहीं है; और न वह विशेषत: किसी से मिलते-जुलते ही हैं। केवल मुझसे मेरे भाग्‍य से, वे मित्र-भाव रखते हैं। उदास तो वे हर समय रहा करते हैं। कई बेर उनसे मैंने इस उदासीनता का कारण पूछा भी; किंतु मैंने देखा कि उसके प्रकट करने में उन्‍हें एक प्रकार का दु:ख-सा होता है; इसी कारण मैं विशेष पूछताछ नहीं करता।

 

मैंने पास जाकर कहा, "मित्र! आज तुम बहुत उदास जान पड़ते हो। चलो थोड़ी दूर तक घूम आवें। चित्त बहल जाएगा।"


वे तुरंत खड़े हो गए और कहा, "चलो मित्र, मेरा भी यही जी चाहता है मैं तो तुम्‍हारे यहाँ जानेवाला था।"

 

हम दोनों उठे और नगर से पूर्व की ओर का मार्ग लिया। बाग के दोनों ओर की कृषि-सम्‍पन्‍न भूमि की शोभा का अनुभव करते और हरियाली के विस्‍तृत राज्‍य का अवलोकन करते हम लोग चले। दिन का अधिकांश अभी शेष था, इससे चित्त को स्थिरता थी। पावस की जरावस्‍था थी, इससे ऊपर से भी किसी प्रकार के अत्‍याचार की संभावना न थी। प्रस्‍तुत ऋतु की प्रशंसा भी हम दोनों बीच-बीच में करते जाते थे।

 

अहा! ऋतुओं में उदारता का अभिमान यही कर सकता है। दीन कृषकों को अन्‍नदान और सूर्यातप-तप्‍त पृथिवी को वस्‍त्रदान देकर यश का भागी यही होता है। इसे तो कवियों की ‘कौंसिल' से ‘रायबहादुर' की उपाधि मिलनी चाहिए। यद्यपि पावस की युवावस्‍था का समय नहीं है; किंतु उसके यश की ध्‍वजा फहरा रही है। स्‍थान-स्‍थान पर प्रसन्‍न-सलिल-पूर्ण ताल यद्यपि उसकी पूर्व उदारता का परिचय दे रहे हैं।

 

एतादृश भावों की उलझन में पड़कर हम लोगों का ध्‍यान मार्ग की शुद्धता की ओर न रहा। हम लोग नगर से बहुत दूर निकल गए। देखा तो शनै:-शनै: भूमि में परिवर्तन लक्षित होने लगा; अरुणता-मिश्रित पहाड़ी, रेतीली भूमि, जंगली बेर-मकोय की छोटी-छोटी कण्‍टकमय झाड़ियाँ दृष्टि के अंतर्गत होने लगीं। अब हम लोगों को जान पड़ा कि हम दक्षिण की ओर झुके जा रहे हैं। संध्‍या भी हो चली। दिवाकर की डूबती हुई किरणों की अरुण आभा झाड़ियों पर पड़ने लगी। इधर प्राची की ओर दृष्टि गयी; देखा तो चंद्रदेव पहिले ही से सिंहासनारूढ़ होकर एक पहाड़ी के पीछे से झाँक रहे थे।

 

अब हम लोग नहीं कह सकते कि किस स्‍थान पर हैं। एक पगडण्डी के आश्रय अब तक हम लोग चल रहे थे, जिस पर उगी हुई घास इस बात की शपथ खा के साक्षी दे रही थी कि वर्षों से मनुष्‍यों के चरण इस ओर नहीं पड़े हैं। कुछ दूर चलकर यह मार्ग भी तृण-सागर में लुप्‍त हो गया। ‘इस समय क्‍या कर्तव्‍य है?' चित्त इसी के उत्तर की प्रतीक्षा में लगा। अंत में यह विचार स्थिर हुआ कि किसी खुले स्‍थान से चारों ओर देखकर यह ज्ञान प्राप्‍त हो सकता है कि हम लोग अमुक स्‍थान पर हैं।

 

दैवात् सम्‍मुख ही ऊँची पहाड़ी देख पड़ी, उसी को इस कार्य के उपयुक्‍त स्‍थान हम लोगों ने विचारा। ज्‍यों-त्‍यों करके पहाड़ी के शिखर तक हम लोग गए। ऊपर आते ही भगवती जन्‍हू-नन्दिनी के दर्शन हुए। नेत्र तो सफल हुए। इतने में चारुहासिनी चंद्रिका भी अट्टहास करके खिल पड़ी। उत्तर-पूर्व की ओर दृष्टि गई। विचित्र दृश्‍य सम्‍मुख उपस्थित हुआ। जाह्नवी के तट से कुछ अंतर पर नीचे मैदान में, बहुत दूर, गिरे हुए मकानों के ढेर स्‍वच्‍छ चंद्रिका में स्‍पष्‍ट रूप से दिखाई दिए।

 

मैं सहसा चौंक पड़ा और ये शब्‍द मेरे मुख से निकल पड़े, "क्‍या यह वही खँडहर है जिसके विषय में यहाँ अनेक दंतकथाएँ प्रचलित हैं?" चारों ओर दृष्टि उठाकर देखने से पूर्ण रूप से निश्‍चय हो गया कि हो न हो, यह वही स्‍थान है जिसके संबंध में मैंने बहुत कुछ सुना है। मेरे मित्र मेरी ओर ताकने लगे। मैंने संक्षेप में उस खँडहर के विषय में जो कुछ सुना था, उनसे कह सुनाया। हम लोगों के चित्त में कौतूहल की उत्पत्ति हुई; उसको निकट से देखने की प्रबल इच्‍छा ने मार्गज्ञान की व्‍यग्रता को हृदय से बहिर्गत कर दिया। उत्तर की ओर उतरना बड़ा दुष्‍कर प्रतीत हुआ, क्‍योंकि जंगली वृक्षों और कण्‍टकमय झाड़ियों से पहाड़ी का वह भाग आच्‍छादित था। पूर्व की ओर से हम लोग सुगमतापूर्वक नीचे उतरे। यहाँ से खँडहर लगभग डेढ़ मील प्रतीत होता था। हम लोगों ने पैरों को उसी ओर मोड़ा; मार्ग में घुटनों तक उगी हुई घास पग-पग पर बाधा उपस्थित करने लगी; किंतु अधिक विलम्‍ब तक यह कष्‍ट हम लोगों को भोगना न पड़ा; क्‍योंकि आगे चलकर फूटे हुए खपड़ैलों की सिटकियाँ मिलने लगीं; इधर-उधर गिरी हुई दीवारें और मिट्टी के ढूह प्रत्‍यक्ष होने लगे। हम लोगों ने जाना कि अब यहीं से खँडहर का आरंभ है। दीवारों की मिट्टी से स्‍थान क्रमश: ऊँचा होता जाता था, जिस पर से होकर हम लोग निर्भय जा रहे थे। इस निर्भयता के लिए हम लोग चंद्रमा के प्रकाश के भी अनुगृहीत हैं। सम्‍मुख ही एक देव मंदिर पर दृष्टि जा पड़ी, जिसका कुछ भाग तो नष्‍ट हो गया था, किंतु शेष प्रस्‍तर-विनिर्मित होने के कारण अब तक क्रूर काल के आक्रमण को सहन करता आया था। मंदिर का द्वार ज्‍यों-का-त्‍यों खड़ा था। किवाड़ सट गए थे। भीतर भगवान् भवानीपति बैठे निर्जन कैलाश का आनंद ले रहे थे, द्वार पर उनका नंदी बैठा था। मैं तो प्रणाम करके वहाँ से हटा, किंतु देखा तो हमारे मित्र बड़े ध्‍यान से खड़े हो, उस मंदिर की ओर देख रहे हैं और मन-ही-मन कुछ सोच रहे हैं। मैंने मार्ग में भी कई बेर लक्ष्‍य किया था कि वे कभी-कभी ठिठक जाते और किसी वस्‍तु को बड़ी स्थिर दृष्टि से देखने लगते। मैं खड़ा हो गया और पुकारकर मैंने कहा, "कहो मित्र! क्‍या है? क्‍या देख रहे हो?"

 

मेरी बोली सुनते ही वे झट मेरे पास दौड़ आए और कहा, "कुछ नहीं, यों ही मंदिर देखने लग गया था।" मैंने फिर तो कुछ न पूछा, किंतु अपने मित्र के मुख की ओर देखता जाता था, जिस पर कि विस्‍मय-युक्‍त एक अद्भुत भाव लक्षित होता था। इस समय खँडहर के मध्‍य भाग में हम लोग खड़े थे। मेरा हृदय इस स्‍थान को इस अवस्‍था में देख विदीर्ण होने लगा। प्रत्‍येक वस्‍तु से उदासी बरस रही थी; इस संसार की अनित्‍यता की सूचना मिल रही थी। इस करुणोत्‍पादक दृश्‍य का प्रभाव मेरे हृदय पर किस सीमा तक हुआ, शब्‍दों द्वारा अनुभव करना असम्‍भव है।

 

कहीं सड़े हुए किवाड़ भूमि पर पड़े प्रचण्‍ड काल को साष्‍टांग दण्‍डवत् कर रहे हैं, जिन घरों में किसी अपरिचित की परछाईं पड़ने से कुल की मर्यादा भंग होती थी, वे भीतर से बाहर तक खुले पड़े हैं। रंग-बिरंगी चूड़ियों के टुकड़े इधर-उधर पड़े काल की महिमा गा रहे हैं। मैंने इनमें से एक को हाथ में उठाया, उठाते ही यह प्रश्‍न उपस्थित हुआ कि "वे कोमल हाथ कहाँ हैं जो इन्‍हें धारण करते थे?"

 

हा! यही स्‍थान किसी समय नर-नारियों के आमोद-प्रमोद से पूर्ण रहा होगा और बालकों के कल्‍लोल की ध्‍वनि चारों ओर से आती रही होगी, वही आज कराल काल के कठोर दाँतों के तले पिसकर चकनाचूर हो गया है! तृणों से आच्‍छादित गिरी हुई दीवारें, मिट्टी और ईंटों के ढूह, टूटे-फूटे चौकठे और किवाड़ इधर-उधर पड़े एक स्‍वर से मानो पुकार के कह रहे थे - ‘दिनन को फेर होत, मेरु होत माटी को,' प्रत्‍येक पार्श्‍व से मानो यही ध्‍वनि आ रही थी। मेरे हृदय में करुणा का एक समुद्र उमड़ा जिसमें मेरे विचार सब मग्‍न होने लगे।

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हमारे नेता  - भारत-दर्शन

इन पृष्ठों पर हमारे हमारे नेताओं के जीवन-परिचय व उनसे संबंधित जानकारी संकलित की जा रही है।


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पुरुषोत्तम दास टंडन - भारत-दर्शन

पुरुषोत्तम दास टंडन का जन्म 1 अगस्त, 1882 को उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद शहर में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा इलाहाबाद स्थित सिटी एंग्लो वर्नाक्यूलर स्कूल में हुई। सन 1894 में उन्होंने इसी स्कूल से मिडिल की परीक्षा उत्तीर्ण की। हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उनका विवाह मुरादाबाद निवासी चन्द्रमुखी देवी के साथ करा दिया गया।

सन 1899 में वे कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गए और उसी साल इण्टरमीडिएट की परीक्षा भी उत्तीर्ण की। सन 1900 में उनकी पत्नी ने एक कन्या को जन्म दिया। लगभग इस दौरान वे स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हो गए। इंटरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय के म्योर सेण्ट्रल कॉलेज में दाखिला लिया परन्तु अपने क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण उन्हें सन 1901 में कॉलेज से निष्कासित कर दिया गया। वर्ष 1903 में उनके पिता का स्वर्गवास हो गया। इन सब कठिन परिस्थितियों के मध्य उन्होंने 1904 में स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके बाद उन्होंने इतहास विषय में स्नातकोत्तर किया और फिर कानून की पढ़ाई करने के बाद सन 1906 में वकालत प्रारंभ कर दिया। इसके पश्चात वे उस समय के प्रसिद्ध अधिवक्ता तेज बहादुर सप्रू के देख-रेख में इलाहाबाद उच्च न्यायालय में वकालत करने लगे। स्वाधीनता आन्दोलन और सामाजिक गतिविधियों के लिए उन्होंने सन 1921 में अपनी वकालत छोड़ दी।

राजनैतिक जीवन

सन 1905 में उनके राजनीतिक जीवन का प्रारंभ हुआ जब बंगाल विभाजन के विरोध में समूचे देश में आन्दोलन हो रहा था। बंगभंग आन्दोलन के दौरान उन्होंने स्वदेशी अपनाने का प्रण किया और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार प्रारंभ किया।

अपने विद्यार्थी जीवन में ही सन 1899 में वे कांग्रेस पार्टी का सदस्य बन गए थे। सन 1906 में उन्होंने अखिल भारतीय कांग्रेस समिति में इलाहाबाद का प्रतिनिधित्व किया। कांग्रेस पार्टी ने जलियाँवालाबाग कांड के जांच के लिए जो समिति बनाया था उसमे पुरुषोत्तम दास टंडन भी शामिल थे। वे ‘लोक सेवक संघ' का भी हिस्सा रहे थे। 1920 और 1930 के दशक में उन्होंने असहयोग आन्दोलन और नमक सत्याग्रह में भाग लिया और जेल गए। सन 1931 में गाँधी जी के लन्दन गोलमेज सम्मलेन से वापस आने से पहले गिरफ्तार किये गए नेताओं में जवाहरलाल नेहरु की साथ-साथ वे भी थे।

पुरुषोत्तम दास टंडन कृषक आंदोलनों से भी जुड़े रहे और सन 1934 में बिहार प्रादेशिक किसान सभा का अध्यक्ष भी रहे। वे लाला लाजपत राय द्वारा स्थापित ‘लोक सेवा मंडल' का भी अध्यक्ष रहे।

वे यूनाइटेड प्रोविंस (आधुनिक उत्तर प्रदेश) के विधान सभा का 13 साल (1937-1950) तक अध्यक्ष रहे। उन्हें सन 1946 में भारत के संविधान सभा में भी सम्मिलित किया गया।

आजादी के बाद सन 1948 में उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए पट्टाभि सितारमैय्या के विरुद्ध चुनाव लड़ा पर हार गए। सन 1950 में उन्होंने आचार्य जे.बी. कृपलानी को हराकर कांग्रेस अध्यक्ष पद हासिल किया पर प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु के साथ वैचारिक मतभेद के कारण उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया।

सन 1952 में वे लोक सभा और सन 1956 में राज्य सभा के लिए चुने गए। इसके बाद ख़राब स्वास्थ्य के चलते उन्होंने सक्रीय सार्वजानिक जीवन से संन्यास ले लिया। सन 1961 में भारत सरकार ने उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न' से सम्मानित किया।

देश के विभाजन पर उनका विचार

12 जून 1947 को कांग्रेस कार्य समिति ने देश के विभाजन को स्वीकार कर लिया। जब 14 जून इस प्रस्ताव को अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के समक्ष मंजूरी के लिए रखा गया तब इसका विरोध करने वालों में से एक पुरुषोत्तम दास टंडन भी थे। उनका कहना था कि विभाजन स्वीकार करने का मतलब था अंग्रेजों और मुस्लिम लीग के सामने झुकना। उन्होंने कहा विभाजन से किसी का भी भला नहीं होगा - पाकिस्तान में हिन्दू और यहाँ भारत में मुसलमान डर के वातावरण में जीवन व्यतीत करेंगे।

हिंदी के समर्थक

हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने में राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन का बड़ा योगदान था। ‘हिंदी प्रचार सभाओं' के माध्यम से उन्होंने हिंदी को अग्र स्थान दिलाया। गाँधी और दूसरे नेता ‘हिन्दुस्तानी' (उर्दू और हिंदी का मिश्रण) को राष्ट्रभाषा बनाना चाहते थे पर उन्होंने देवनागरी लिपि के प्रयोग पर बल दिया और हिंदी में उर्दू लिपि और अरबी-पारसी शब्दों के प्रयोग का भी विरोध किया।

 


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कफ़न | शेखचिल्ली - भारत-दर्शन संकलन

एक जगह कुछ लोग इकट्ठे बैठे थे। शेखचिल्ली भी उन्हीं के साथ बैठा था। कस्बे के कुछ समझदार लोग और हकीम दुर्घटनाओं से बचने के उपायों पर विचार-विमर्श कर रहे थे। किस दुर्घटना पर कौन-सी प्राथमिक चिकित्सा होनी चाहिए, इस पर विचार किया जा रहा था।

थोड़ी देर में हकीम साहब ने वहां बैठे सभी लोगों से पूछा, "किसी के डूब जाने पर पेट में पानी भर जाए और सांस रुक जाए तो तुम क्या करोगे?" सब चुप थे।

हकीम जी के अन्य साथी बोले, "तुम बोलो शेखचिल्ली, किसी के डूबने पर उसकी सांस रुक जाए तो सबसे पहले तुम क्या करोगे?"

"उसके लिए सबसे पहले कफ़न लाऊंगा। फिर कब्र खोदने वाले को बुलाऊंगा। " शेखचिल्ली ने जवाब दिया।

[भारत-दर्शन संकलन]


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ब्लू माउंटेनस | ऑस्ट्रेलियन लोक-कथा - रोहित कुमार 'हैप्पी'

सिडनी, ऑस्ट्रेलिया में अपने प्राकृतिक सौंदर्य से सभी को अभिभूत कर देने वाली 'ब्लू माउंटेनस' (Blue Mountains) के बारे में कहा जाता है कि कभी वे जीती-जागती तीन सुंदर युवतियां हुआ करती थीं ।

Blue Mountains Australia - The Aboriginal dream-time legend has it that three sisters, 'Meehni', 'Wimlah' and Gunnedoo' lived in the Jamison Valley as members of the Katoomba tribe.

ब्लू-माउंटेनस के बारे में ऑस्ट्रेलिया के आदिवासियों में यह कथा प्रचलित है कि बहुत पहले काटुंबा कबीलें में तीन बहनें थी जिनका नाम था - मिहीनी, विम्लाह और गुनेडो। ये तीनों बहने जैमिसन घाटी में अपने जनजातीय कबीले 'काटुंबा' के साथ रहती थीं।

इन तीनों सुंदर युवतियों को नेपियन जनजाति के तीन भाइयों से प्यार हो गया, किंतु उनका जनजातीय कानून उन्हें शादी करने से मना करता था।

तीनों भाइयों को यह कानून स्वीकार्य न था। उन्होंने अपनी प्रेमिकाओं को पाने के लिए बल-प्रयोग का मार्ग चुना और इसके लिए दो कबीलों में भारी लड़ाई हुई।

तीन बहनों के जीवन को गंभीर खतरा था। काटुंबा जनजाति के एक जादूगर ने उन तीनों बहनों की सुरक्षा का भार अपने ऊपर ले लिया। उन्हे किसी भी प्रकार के नुकसान से बचाने के लिए जादूगर ने तीनों बहनों को पत्थर में बदल दिया। जादूगर का इरादा था कि जब लड़ाई खत्म हो जाएगी तो वह पुनः उन तीन बहनों को जीवित कर देगा। दुर्भाग्यवश दो कबीलों की इस भयानक लड़ाई में जादूगर स्वयं मारा गया। केवल वह जादूगर ही इन पत्थरों को जीवित इंसानों में बदलने की शक्ति रखता था, अत: अब इसकी संभावना जाती रही और तब से ये पर्वत के रूप में उपस्थित हैं।

आज भी तीनों बहने 'ब्लू माउंटेन' के रूप में अपने भव्य सौंदर्य से लोगों को आकर्षित करती हुई, अपने कबीले की लड़ाई की याद दिलाती हैं।

-रोहित कुमार 'हैप्पी'

 


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दो क्षणिकाएं - विनोद बापना

माँ

व्यर्थ हे,
सारी पूजा-पाठ,......

 
 
हिंदी | लघु-कथा - रोहित कुमार 'हैप्पी'

हिंदी का एक साहित्य-सम्मेलन चल रहा था। सम्मेलन जहाँ आयोजित किया गया था उस भवन के प्रांगण में मेज़ पर एक पंजीकरण-पुस्तिका रखी थी। सम्मेलन में सम्मिलित होने वाले सभी साहित्यकारों को इस पुस्तिका में हस्ताक्षर करने थे।

मैं भी पंक्ति में खड़ा था। अपनी बारी आने पर मैं हस्ताक्षर करने लगा तो पुस्तिका में दर्ज सैकड़ों हिंदी कवियों, लेखकों व साहित्यकारों के हस्ताक्षरों पर मेरी दृष्टि पड़ी - कहीं एक-आध हस्ताक्षर ही हिंदी में दिखाई दिया। हिंदी में रचना करने वाले कवियों, लेखकों व साहित्यकारों का यह कर्म मेरी समझ से परे था। हिंदी का साहित्य-सम्मेलन !

-रोहित कुमार 'हैप्पी'


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रंगून के 'जुबली हॉल' में सुभाष चंद्र बोस द्वारा दिया ऐतिहासिक भाषण - भारत-दर्शन संकलन

रंगून के 'जुबली हॉल' में सुभाष चंद्र बोस द्वारा दिया गया भाषण सदैव के लिए इतिहास के पत्रों में अंकित हो गया जिसमें उन्होंने कहा था -

"स्वतंत्रता संग्राम के मेरे साथियों! स्वतंत्रता बलिदान चाहती है। आपने आज़ादी के लिए बहुत त्याग किया है, किन्तु अभी प्राणों की आहुति देना शेष है। आज़ादी को आज अपने शीश फूल की तरह चढ़ा देने वाले पुजारियों की आवश्यकता है। ऐसे नौजवानों की आवश्यकता है, जो अपना सिर काट कर स्वाधीनता की देवी को भेंट चढ़ा सकें। तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा। खून भी एक दो बूँद नहीं इतना कि खून का एक महासागर तैयार हो जाये और उसमें में ब्रिटिश साम्राज्य को डूबो दूँ ।"

                                                     -सुभाष चंद्र बोस

 

[1944 में नेताजी सुभाष चंद्र बोस द्वारा दिए गए ऐतिहासिक भाषण का अंश]

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Tum Mujhe Khoon Do, Main Tumhe Azadi Dunga - Netaji Subhash Chandra Bose

 

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बारिश की मस्ती | बाल कविता - अमृता गोस्वामी

रिमझिम रिमझिम बारिश आई,
काली घटा फिर है छाई।......

 
 
गुड्डा गुड़िया - गिजुभाई

एक राजा था । उसकी एक बेटी थी। राजा ने अपनी बेटी का ब्याह एक दूसरे राजा के साथ कर दिया। राजा ने जब राजकुमारी को कहारों के साथ डोली में ससुराल भेजा, तो उसके साथ एक दासी भेजी। रास्तें में दोपहर के समय, डोली वाले कहार खाने-पीने के लिए एक नदी के किनारे रुके। राजकुमारी का नियम था कि वह रोज नहाने के बाद ही भोजन करती थी। इसलिए वह अपनी दासी के साथ नदी पर नहाने गई। इधर राजकुमारी अपने कपड़े उतार नदी में नहाने लगी, उधर दासी राजा की बेटी के कपड़े पहनकर रथ में जा बैठी, और खाना-पीना जल्दी से निपटाकर रथ के साथ आगे बढ़ गई।

जब राजकुमारी नहाकर नदी के बाहर निकली, तो देखा कि वहां उसकी दासी नहीं है। दासी नदी किनारे पर एक फटी-पुरानी साड़ी छोड़ गई थी। बेचारी राजकुमारी यही साड़ी पहनकर ऊपर आई। आकर देखती क्या है कि वहां न तो डोली है और न कहार।

राजा की बेटी रोती-विलखती, गरम धूल पर नंगे पैर चलती, भूखी प्यासी, हैरान-परेशान अपनी ससुराल वाले गॉँव में पहुँच गई। वहां जाकर वह राजमहल में दासी की तरह रहने लगी। अपनी सेवा से उसने राजा को बहुत खुश कर लिया।

एक बार राजा दूसरे गॉँव जाने को निकला । सबने अपने-अपने लिए अलग-अलग चीजें मंगवाई। इस दासी ने एक ‘गुड्डा' और एक ‘गुड़िया' लाने को कहा। जब राजा लौटा, तो दासी के लिए गुड्डा-गुड़िया लेता आया।

रोज रात होने पर दासी अपने कमरे में जाकर गुड्डा-गुड़िया को अपने सामने बैठा लेती, और उनको यह कहानी सुनाया करती :

‘‘गुड्डा-गुड़िया ! तुम सुनते हो ?''
गुड्डा-गुड़िया कहते, ‘‘जी, बाईजी !''......

 
 
छोटा जादूगर - जयशंकर प्रसाद

कार्निवल के मैदान में बिजली जगमगा रही थी। हँसी और विनोद का कलनाद गूंज रहा था। मैं खड़ा था उस छोटे फुहारे के पास, जहां एक लड़का चुपचाप शराब पीने वालों को देख रहा था। उसके गले में फटे कुरते के ऊपर से एक मोटी-सी सूत की रस्सी पड़ी थी और जेब में कुछ ताश के पत्ते थे। उसके मुँह पर गंभीर विषाद के साथ धैर्य की रेखा थी। मैं उसकी ओर न जाने क्यों आकर्षित हुआ। उसके अभाव में भी सम्पन्नता थी। मैंने पूछा, "क्यों जी, तुमने इसमें क्या देखा?"

"मैंने सब देखा है। यहां चूड़ी फेंकते हैं। खिलौनों पर निशाना लगाते हैं। तीर से नम्बर छेदते हैं। मुझे तो खिलौनों पर निशाना लगाना अच्छा मालूम हुआ। जादूगर तो बिलकुल निकम्मा है। उससे अच्छा तो ताश का खेल मैं ही दिखा सकता हूं।" उसने बड़ी प्रगल्भता से कहा। उसकी वाणी में कहीं रूकावट न थी ।

मैंने पूछा, "और उस परदे में क्या है? वहां तुम गए थे?"

"नहीं, वहां मैं नहीं जा सका। टिकट लगता है।"

मैंने कहा, "तो चलो मैं वहां पर तुमको लिवा चलूं।" मैंने मन-ही-मन कहा, "भाई! आज के तुम्हीं मित्र रहे।"

उसने कहा, "वहाँ जाकर क्या कीजिएगा ? चलिए, निशाना लगाया जाए ।"

मैंने उससे सहमत होकर कहा, "तो फिर चलो, पहले शरबत पी लिया जाए।" उसने स्वीकार-सूचक सिर हिला दिया।

मनुष्यों की भीड़ से जाड़े की संध्या भी वहां गर्म हो रही थी। हम दोनों शरबत पीकर निशाना लगाने चले। राह में ही उससे पूछा, "तुम्हारे घर में और कौन है?"

"मां और बाबूजी।"

"उन्होंने तुमको यहां आने के लिए मना नहीं किया?"

"बाबूजी जेल में हैं ।"

"क्यों ?"

"देश के लिए ।" वह गर्व से बोला।

"और तुम्हारी माँ ?"

"वह बीमार है ।"

"और तुम तमाशा देख रहे हो ?"

उसके मुँह पर तिरस्कार की हँसी फूट पड़ी। उसने कहा, "तमाशा देखने नहीं, दिखाने निकला हूँ। कुछ पैसे ले जाऊंगा, तो माँ को पथ्य दूँगा। मुझे शरबत न पिलाकर आपने मेरा खेल देखकर मुझे कुछ दे दिया होता, तो मुझे अधिक प्रसन्नता होती !"

मैं आश्चर्य से उस तेरह-चौदह वर्ष के लड़के को देखने लगा ।

"हाँ, मैं सच कहता हूँ बाबूजी ! माँजी बीमार हैं, इसीलिए मैं नहीं गया।"

"कहाँ ?"

"जेल में ! जब कुछ लोग खेल-तमाशा देखते ही हैं, तो मैं क्यों न दिखाकर माँ की दवा करूं और अपना पेट भरूँ ।"

मैंने दीर्घ नि:श्वास लिया । चारों ओर बिजली के लट्टू नाच रहे थे । मन व्यग्र हो उठा । मैंने उससे कहा, "अच्छा चलो, निशाना लगाया जाए ।"

हम दोनों उस जगह पर पहुँचे, जहाँ खिलौने को गेंद से गिराया जाता था। मैंने बारह टिकट खरीदकर उस लड़के को दिए ।

वह निकला पक्का निशानेबाज़। उसकी कोई गेंद खाली नहीं गयी। देखनेवाले दंग रह गए। उसने बारह खिलौनों को बटोर लिया, लेकिन उठाता कैसे ? कुछ मेरी रूमाल में बँधे, कुछ जेब में रख लिए गए।

लड़के ने कहा, "बाबूजी, आपको तमाशा दिखाऊँगा। बाहर आइए, मैं चलता हूँ ।" वह नौ-दो ग्यारह हो गया। मैंने मन-ही-मन कहा, "इतनी जल्दी आँख बदल गई।"

मैं घूमकर पान की दुकान पर आ गया। पान खाकर बड़ी देर तक इधर-उधर टहलता देखता रहा। झूले के पास लोगों का ऊपर-नीचे आना देखने लगा। अकस्मात् किसी ने ऊपर के हिंडोले से पुकारा, "बाबूजी !"

मैंने पूछा, "कौन?"

"मैं हूँ छोटा जादूगर।"

कलकत्ता के सुरम्य बोटानिकल- उद्यान में लाल कमलिनी से भरी हुई एक छोटी-सी झील के किनारे घने वृक्षों की छाया में अपनी मण्डली के साथ बैठा हुआ मैं जलपान कर रहा था। बातें हो रही थीं । इतने में वही छोटा जादूगर दिखाई पड़ा । हाथ में चारखाने का खादी का झोला, साफ जांघिया और आधी बांहों का कुरता । सिर पर मेरी रूमाल सूत की रस्सी से बँधी हुई थी । मस्तानी चाल में झूमता हुआ आकर वह कहने लगा -

"बाबूजी, नमस्ते! आज कहिए तो खेल दिखाऊँ ।"

"नहीं जी, अभी हम लोग जलपान कर रहे हैं।"=

"फिर इसके बाद क्या गाना-बजाना होगा, बाबूजी ?"

"नहीं जी-- तुमको..." क्रोध से मैं कुछ और कहने जा रहा था। श्रीमतीजी ने कहा, "दिखलाओ जी, तुम तो अच्छे आए। भला, कुछ मन तो बहले।" मैं चुप हो गया, क्योंकि श्रीमतीजी की वाणी में वह माँ की-सी मिठास थी, जिसके सामने किसी भी लड़के को रोका नहीं जा सकता। उसने खेल आरम्भ किया।

उस दिन कार्निवल के सब खिलौने उसके खेल में अपना अभिनय करने लगे। भालू मनाने लगा। बिल्ली रूठने लगी। बन्दर घुड़कने लगा।

गुड़िया का ब्याह हुआ। गुड्डा वर काना निकला। लड़के की वाचालता से ही अभिनय हो रहा था। सब हँसते-हँसते लोट-पोट हो गए।

मैं सोच रहा था। बालक को आवश्यकता ने कितना शीघ्र चतुर बना दिया। यही तो सँसार है।


ताश के सब पत्ते लाल हो गए। फिर सब काले हो गए। गले की सूत की डोरी टुकड़े-टुकड़े होकर जुड़ गई। लट्टू अपने से नाच रहे थे। मैंने कहा, "अब हो चुका। अपना खेल बटोर लो, हम लोग भी अब जाएंगे ।"

श्रीमती जी ने धीरे से उसे एक रूपया दे दिया। वह उछल उठा।

मैंने कहा, "लड़के !"

"छोटा जादूगर कहिए। यही मेरा नाम है। इसी से मेरी जीविका है ।"

मैं कुछ बोलना ही चाहता था, कि श्रीमतीजी ने कहा, "अच्छा, तुम इस रूपए से क्या करोगे ?"

"पहले भरपेट पकौड़ी खाऊंगा। फिर एक सूती कम्बल लूँगा ।"

मेरा क्रोध अब लौट आया। मैं अपने पर बहुत क्रुद्ध होकर सोचने लगा, "ओह ! कितना स्वार्थी हूँ मैं। उसके एक रूपया पाने पर मैं ईर्ष्या करने लगा था न !"

वह नमस्कार करके चला गया। हम लोग लता-कुँज देखने के लिए चले।

उस छोटे-से बनावटी जंगल में संध्या साँय-साँय करने लगी थी। अस्ताचलगामी सूर्य की अन्तिम किरण वृक्षों की पत्तियों से विदाई ले रही थी। एक शांत वातावरण था। हम लोग धीरे-धीरे मोटर से हावड़ा की ओर आ रहे थे।

रह-रहकर छोटा जादूगर स्मरण होता था। तभी सचमुच वह एक झोपड़ी के पास कम्बल कंधे पर डाले खड़ा था । मैंने मोटर रोककर उससे पूछा, "तुम यहाँ कहाँ ?"

"मेरी मां यहीं है न । अब उसे अस्पताल वालों ने निकाल दिया है।" मैं उतर गया। उस झोंपड़ी में देखा तो एक स्त्री चिथड़ों से लदी हुई काँप रही थी।

छोटे जादूगर ने कम्बल ऊपर से डालकर उसके शरीर से चिमटते हुए कहा,

"माँ।"

मेरी आंखों में आँसू निकल पड़े।

......

 
 
उठो सोए भारत के नसीबों को जगा दो - जी.एस. ढिल्‍लों

उठो सोए भारत के नसीबों को जगा दो
आजा़दी यूँ लेते हैं जवाँ, ले के दिखा दो......

 
 
महीने के आख़री दिन  - राकेश पांडे

महीने के आख़री दिन थे। मेरे लिए तो महीने का हर दिन एक सा होता है। कौन सी मुझे तनख़्वाह मिलती है?  आई'म नोट एनिवन'स सर्वेंट! (I'm not anyone's servant!) राइटर हूँ।खुद लिखता हूँ और उसी की कमाई ख़ाता हू। अफ़सोस सिर्फ़ इतना है, कमाई होती ही नही। मैने सुना है की ऑस्ट्रेलिया के आदिवासी बूंरंगस (boomerangs) यूज़  करते हैं, शिकार के लिए, जो के फेंकने के बाद वापस आ जाता है। मेरी रचनायें उस बूंरंग को भी शर्मिंदा कर देंगी। इस रफ़्तार से वापस आती हैं।

कल ही मैंने एक बहुत अच्छी कहानी लिखी। मैं तो हमेशा ही बहुत अच्छी कहानियाँ लिखता हूँ, पता नही क्यूँ एडिटर्स को पसंद ही नही आती! हो क्या गया है दुनिया के टेस्ट को? अभी पिछले हफ़्ते एक कॉमेडी पीस लिख के लोकल न्यूसपेपर को भेजा। एडिटर ने इस रफ़्तार से लौटाया उसे की गोरान इवानिसेविक(Goran Ivanisevic) को भी कॉंप्लेक्स हो जाए! काश, उसने पूरी पढ़ने की जहमत तो की होती! गोड नोस!

बच्चे की स्कूल फीस पिछले 3 महीनो से नही भरी। उसे स्कूल से नोटिस मिली है कि अगर मंडे तक फीस नही भरी तो उसे धूप मे खड़ा कर देंगे। मैंने बेटे को वॉइटमिन डी के फ़ायदे बताए। वो मुझे अजीब नज़रों से देखता रहा, "पापा, वाइ डॉन'ट यू वर्क लॉइक माय फ्रेंड्स डॅड्स दो!" अब उसे कैसे समझोऊं की मैं एक लेखक हूँ । एक राइटर, जो समाज बदल सकता है, जो अपनी लेखनी से इतिहास बना और बिगाड़ सकता है, जो... फर्गेट इट। वो नही समझेगा।

आज बीवी ने अलटिमेटम दिया। "सुनिए! रॉशन ख़तम हो गया। पिसौरीलाल ने उधार देने से माना कर दिया है। कहते हैं, पहले पुराना उधार चुकाओ। अगर कल तक रॉशन नही लाया, तो भूखे सोना पड़ेगा।  'कंप्लेंट्स, कंप्लेंट्स! ऑल शी डज़ इस कंप्लेन! अब समझ आता है की होमर ने शादी के बाद परॉडाइज़ लोस्ट और बीवी की मौत के बाद परॉडाइज़ रिगेन्ड क्यूँ लिखी!

पर मैं क्या करूँ? हिन्दी मे बी. ए. किया है। इस पढ़ाई से किसी बैंक मे मैनेज़री तो मिलेगी नही! तो, वही कर रहा हूँ, जिसकी पढ़ाई की है। ये दुनिया मुझे समझती ही नही! सम्टाइम्ज़,आई वंडर! वाइ दे से कि सिर्फ़ लूज़र्स कहते हैं की ये दुनिया उनको नही समझती! अब मुझे देखो! अ गुड राइटर। वॉट इफ़ मॉइ पब्लिशर्स डॉन'ट थिंक सो। दे ऑर ईडियट्स। साहिर लुधियानवी ने सही ही कहा है कि-- "एक दिन, दुनिया बदलकर, रास्ते पर आएगी। आज ठुकराती है, पर क्या? कल हमें अपनाएगी।"

नाउ, ही'स गेटिंग मिलियन्स आफ्टर हिज़ डेथ। आइ'म नोट गेटिंग मनी इनफ टू फीड मॉइ फॅमिली! अफ़सोस!

कल रात, बिल्डिंग के टेरेस पे दोस्तो के साथ दारू पी रहे थे। मेरे दोस्तो मे एक बंदा है-- उमेश। जब ऐसे ही बात निकली, इनकम कंपेरिज़न की, उसने कहा कि वो 70के पेर मंथ कमाता है, मेरे ख़याल से, मैं इतना हर साल कमाता हूँ। उसके बच्चे इंटरनेशनल स्कूल मे पढ़ते हैं,. हमेशा महंगी से महंगी मोबाइल ले आता है। उसके सामने मैं अपनी नोकिया 1110 नही निकलता। वाइ टू गिव हिम सेटिस्फेक्शन? ही हड द नर्व टू ऑफर मी अ जॉब इन हिज़ कंपनी! ब्लडी बर्क! ये कॅपिटलिस्ट्स कभी हम राइटर्स की फीलिंग्स नही समझेंगे!

आज सुबह से बड़ा परेशान हूँ।

छोटी बेटी को मलेरिया हो गया है। डॉक्टर कहते हैं की हॉस्पिटलॉइज करना पड़ेगा। मेरी जेब मे 35 रुपये हैं जिसमे से 30 रुपये सिगरेट के लिए इअरमार्क्ड हैं। कौन सा अस्पताल 5 रुपये मे भरती करता है? सोचा, बीवी से बोलूं कि मंगलसूत्र गिरवी रख देते हैं, फिर याद आया कि वो तो पिछले महीने ही बिक गया! मेरी शादी की अंगूठी भी इसी पेट की आग मे स्वाहा हो गयी। मैंने अपने सामने पड़े सफेद काग़ज़ को देखा। मुझे लगा, उसपर कुछ गिरा है। पानी की चार बूँदें। मेरी आँखें नम थी।

मैने अपना नोकिया 1110 उठाया और उमेश का नंबर लगाया। शायद उसका जॉब ऑफर अभी भी ओपन हो!  कभी -कभी, बड़े लोग भी छोटी हरक़त करते ही हैं, ना! मैं जानता हूँ साहिर ने सही कहा है -

"उभरेंगे एक बार, अभी दिल के वलवले,
माना के दब गये हैं, ग़म-ए-ज़िंदगी से हम"

- राकेश पांडे......

 
 
नव वर्ष - हरिवंशराय बच्चन

नव वर्ष
हर्ष नव......

 
 
शेखचिल्ली और सात परियाँ  - भारत-दर्शन संकलन

शेखचिल्ली जवान हो चला तो एक दिन माँ ने कहा—'मियां कुछ काम-धंधा करने की सोचो!'

बस, शेखचिल्ली गांव से निकल पड़े काम की तलाश में। माँ से यात्रा के लिए खाने का प्रबंध करने को कहा तो माँ ने रास्ते के लिए सात रोटियां बनाकर दे दीं।

शेखचिल्ली गांव से काफी दूर निकल आए तो एक कुआं दिखाई दिया, वहीं बैठ गए। सोचा रोटियां खा लूं। वह रोटी गिनते हुए कहने लगा- 'एक खाऊँ, दो खाऊँ, तीन खाऊँ, चार खाऊँ या सातों ही खा जाऊं?

उस कुएं में सात परियां रहती थीं। उन्होंने शेखचिल्ली की आवाज सुनी तो वे डर के मारे बाहर आ गईं। उन्होंने शेखचिल्ली से कहा- 'देखो, हमें मत खाना। हम तुम्हें यह घड़ा देते हैं। इससे जो मांगोगे यह वह देगा। शेखचिल्ली मान गया।

वह रोटियां और घड़ा लेकर वापस घर लौट आया। अब तो जो उसे चाहिए बस घड़े से कह देता और मिल जाता। माँ भी प्रसन्न हो गई। शेखचिल्ली अपनी माँ के साथ सुख से रहने लगा।

[भारत-दर्शन संकलन]


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आज कैसी वीर, होली? - क्षेमचन्द्र 'सुमन'

है उषा की पुणय-वेला
वीर-जीवन एक मेला......

 
 
सरकारी नियमानुसार  - डॉ. मनीष कुमार मिश्रा

राकेश कुमार कानपुर में तीन सालों से फ़ूड सप्लाई इंस्पेक्टर के रूप में कार्यरत थे। बड़ी मेहनत के बाद नौकरी मिली थी सो नौकरी करने से अधिक नौकरी बचाने में विश्वास करते थे। ऐसा इसलिए क्योंकि उनके नौकरी सिद्धांत के अनुसार नौकरी करने की नहीं अपितु बचाने की वस्तु है। समय के पाबंद और अधिकारियों के प्रिय। बँधी - बंधाई अतिरिक्त आय की पूरी श्रृंखला से अच्छी तरह वाक़िफ़ पर किसी तरह के विरोध में दिलचस्पी नहीं। अपना हिस्सा चुपचाप ले लेते। पहली बार जब धर्मपरायण पत्नी राधिका ने टोका तो उसे समझाते हुए बोले - "देखो राधिका, इस तरह की पाप की कमाई में मुझे भी दिलचस्पी नहीं है। मैं खुद नहीं चाहता ऐसे पैसे। लेकिन क्या करूं? ऊपर से नीचे तक पूरी श्रृंखला बनी है। सब का हिस्सा निश्चित है। बिना कहे सुने सब के पास ये पैसे हर महीने पहुँच जाते हैं। सब ले लेते हैं और जो ना ले वह सब की आँख की किरकिरी बन जाता है। अधिकारी और साथी उसे परेशान करने लगते हैं। फ़र्जी मामलों में फ़साने लगते हैं। अब तुम ही कहो चुपचाप नौकरी करूं या अकेले पूरी व्यवस्था के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ें?"

इसपर सहमी पत्नी पूछती है - तो क्या ईमानदारी से काम करना पाप है ? क्या कहीं कोई सुनवाई नहीं ?" राकेश उसे फिर समझते हुए कहते -"अरे राधिका, तुम पढ़ी-लिखी हो और ऐसी बातें करती हो? ईमानदारी कोई अतिरिक्त गुण नहीं है । अगर कोई कहे कि मैं ईमानदारी से काम करता हूँ तो उस महानुभाव को यह समझाना चाहिए कि भाई जिसने तुम्हें नौकरी दी है उसने ईमानदारी से काम करने के लिये ही दी है। यह आप का कोई विशेष गुण नहीं है। इसलिए बात करते समय ईमानदारी को विशेषण के रूप में प्रस्तुत करना ही बहुत बड़ी बेईमानी है। मैं नियमों से बंधा हुआ एक मामूली प्रशासनिक कर्मचारी हूँ। इतना ‘मामूली' कि मामूली शब्द भी हमसे अधिक ताकतवर है। व्यवहार और नियम के बीच एक संतुलन बनाना पड़ता है। पानी में रहकर मगरमच्छ से बैर नहीं रख सकता। बाकी जैसा कहो, कल नौकरी चली जाये या मेरे साथ कोई ऊँच-नीच हो जाये तो...."

राकेश ने अपनी बात पूरी नहीं की थी कि राधिका ने उसके मुंह पर अपना हाथ रख दिया। राधिका की आंखें छलक आयीं थीं। वह कुछ नहीं बोली और इन दो-तीन सालों में फिर कभी इस बात पर कोई चर्चा भी नहीं की। इस तरह उसने भी राकेश की प्रशासनिक ईमानदारी के सिद्धांत को स्वीकार कर लिया था ।

सब कुछ ठीक चल रहा था कि एक दिन राकेश ने राधिका को बताया कि वह यू.पी., पी.सी. एस. की परीक्षा फिर से देना चाह रहा है। फ़ूड सप्लाई इंस्पेक्टर की पोस्ट क्लॉस वन की नहीं थी, और अब राकेश क्लास वन की नौकरी चाहता था। उसके कई दोस्त क्लास वन के अधिकारी थे, उनसे मिलने पर राकेश हीनता के भाव से भर जाता था। यह हीनता उसे अंदर ही अंदर कचोटती, अतः उसने निर्णय लिया कि वह एक बार फिर मेहनत करेगा और अपनी किस्मत आजमायेगा। राधिका को भला इसमें क्या आपत्ति हो सकती थी लेकिन थोड़ी आशंका के साथ उसने पूछा - "सुबह से शाम तक तो आप फील्ड में रहते हैं, पढ़ाई कब करेंगे? सिर्फ पाँच महीने हैं हाथ में नौकरी और पढ़ाई दोनों कैसे मैनेज करेंगे?"

राधिका की बात सुनकर राकेश ने मुस्कुराते हुए कहा--"मेरी भोली बीबी, मैं ऑफिस में छुट्टी की अर्जी डाल दूँगा। लीव विदाउट पे की अर्जी। अर्थात बिना वेतन की छुट्टी। ऐसी छुट्टी मिल जायेगी और फिर परीक्षा खत्म होते ही ऑफिस वापस ज्वाइन कर लूंगा।"

राधिका बोली--"तब ठीक है, आप चिंता न करें ये पाँच महीने मैं घर खर्च बचत के पैसों से चला लूंगी। आप अच्छे विद्यार्थी की तरह सिर्फ पढ़ाई पर ध्यान देना। घूमना-फिरना सब बिलकुल बंद।" और दोनों खिलखिला पड़ते हैं।

अगले दिन ऑफ़िस जाने से पहले ही राकेश ने छुट्टी का आवेदन पत्र तैयार कर लिया था। जल्दी- जल्दी नाश्ता खत्म करके वह ऑफ़िस के लिये निकल पड़ा लेकिन देर रात जब वह वापस आया तो उदास लग रहा था । मानों उसके अरमानों के पंख क़तर दिये गये हों । राधिका उसका चेहरा देखते ही समझ गई कि कोई बात है जिसने राकेश को परेशान कर रखा है। पानी का गिलास आगे बढ़ाते हुए वह बोली--"आप कपड़े बदल लीजिए मैं चाय बना देती हूँ।" और बिना राकेश के जबाब की प्रतीक्षा किये वह रसोई घर की तरफ़ बढ़ गई । थोड़ी देर में जब वह चाय की प्याली लेकर वापस आयी तो देखती है कि राकेश वैसे ही सोफे पर बैठा है। बिलकुल चुप और उदास । उसकी उदासी राधिका के लिए गर्मियों के उमस भरे दिनों की तरह बेचैन करने वाली थी। राधिका ने चाय की प्याली पकड़ाते हुए पूछा - "क्या बात है? आप कुछ परेशान लग रहे हैं।"

राकेश मानों इस प्रतीक्षा में ही था कि कब राधिका उससे पूछे और वह अपनी परेशानी उसे बताये वैसे ही जैसे उमड़ते बादल बरसने को बेचैन रहते हैं। राधिका को अपने पास बिठाकर उसने कहा -"तुम्हें तो पता ही है कि आज सुबह ही मैंने छुट्टी के लिये आवेदन तैयार कर लिया था। रस्तोगी साहब जब ऑफ़िस आये तो मैंने उन्हें सारी बात बताकर आवेदन पत्र उनके सामने रख दिया। उन्होंने कहा कि इतनी लंबी छुट्टी नहीं मिल सकेगी। दस-बीस दिन की छुट्टी वो दे सकेंगें, इससे अधिक नहीं। अब तुम ही बताओ मूड खराब होगा कि नहीं। ऊपर से मैं बिना वेतन की छुट्टी माँग रहा था, इसमें किसी को क्या समस्या हो सकती है? कहते हैं स्टाफ कम है। मैंने जब इनसिस्ट किया तो वो साला रस्तोगी, कहता है क्लॉस वन की नौकरी का इतना मन हो तो ये नौकरी छोड़ दो, फिर छुट्टी ही छुट्टी। इतना मन खराब हुआ कि वहीं साले को दो हाथ लगाऊँ।"

इतना कहते-कहते राकेश का चेहरा आक्रोश से तमतमाने लगा। राधिका ने राकेश का हाथ अपने हाथों में लेकर कहा -"आप गुस्सा न हों। वो रस्तोगी जी तो शुरू से आप से जलते हैं। आप जिंदगी में आगे बढ़े, नाम कमायें, यह तो वे कभी नहीं चाहेंगे । आप शांति से सोचिये कोई रास्ता जरूर निकल आयेगा। ऊपर के किसी अधिकारी से बात कीजिए, सब ठीक हो जायेगा। जो कीजिये सोच समझ कर कीजिए और सरकारी नियमानुसार कीजिए।"

राधिका के प्रेम में पगे इन शब्दों को सुनकर राकेश का गुस्सा थोड़ा शांत हुआ। चाय की प्याली से एक घूँट हलक के नीचे उतारकर उसने कहा -"तुम ठीक कहती हो। सरकारी नियमानुसार ही कुछ करूंगा।"

यह कहते हुए राकेश किसी गहरी सोच में डूबा हुआ लगा। मानो मन ही मन वह कोई तरकीब भिड़ा रहा था । उसे यूँ सोच में डूबा देखकर राधिका ने पूछा -"तो क्या कोई तरकीब सोच रखी है आपने?"

राकेश मुस्कुराते हुए बोला--"तरक़ीब तो है राधिका, थोड़ी टेढ़ी है पर है सरकारी नियमानुसार ही। वो तुमने सुना है ना कि जब घी सीधी उँगली से न निकले तो ऊँगली टेढ़ी कर लेनी चाहिए। मैं तो उँगली भी टेढ़ी नहीं करूंगा बल्कि घी को ही गरम कर दूंगा, वो भी सरकारी नियमानुसार।" इतना कहते ही राकेश हँसने लगा।

राधिका को कुछ समझ नहीं आया। उसने पूछा -"आप क्या करने वाले हो? मुझे बताइए।" लेकिन राकेश ने राधिका की बात को अनसुना करते हुए कहा - "चलो अब कपड़े बदल लेता हूँ, तुम खाना लगा दो।"

इतना कहकर वह बेड रूम में चला गया । राधिका का मन अंजान आशंकाओं से भरा हुआ था। लेकिन वह असहाय थी। मन मार के वह खाना लाने किचन में चली गई। उसने उस दिन कई बार राकेश की भावी योजना का पता लगाने का प्रयास किया लेकिन राकेश एकदम घाघ था। राधिका अंत में ऊबकर सो गई।

अगली सुबह राधिका ठीक वक्त पर उठ गई लेकिन उसे सिर भारी लग रहा था फिर भी उसने रोज की तरह चाय बनाई और राकेश को उठाने के बाद खुद नाश्ता बनाने किचन में चली गयी। नहा-धोकर जब राकेश नाश्ता करने के बाद ऑफिस जाने के लिए तैयार हुआ तो राधिका उसके पास आकर बोली--"देखिये कोई लड़ाई-झगड़ा मत करना और...... !" राधिका अपनी बात कर ही रही थी कि राकेश ने उसके मुँह पर हाथ रखते हुए कहा - "तुम बिलकुल परेशान मत होओ। मैं कोई लड़ाई-झगड़ा नहीं करने वाला। सिर्फ अपना काम करूंगा वो भी सरकारी नियमानुसार।"
इतना कहते हुए उसने राधिका को चूम लिया। राधिका शर्म से लाल हो गई। अपने आप को राकेश से अलग करते हुए राधिका बोली -"सुबह -सुबह बदमाशी मत करो। जाओ ऑफिस जाओ।"......

 
 
सियार और ढोल - विष्णु शर्मा

एक बार एक जंगल के निकट दो राजाओं के बीच घोर युद्ध हुआ। एक जीता, दूसरा हारा। सेनाएं अपने नगरों को लौट गई। बस, सेना का एक ढोल पीछे रह गया। उस ढोल को बजा-बजाकर सेना के साथ गए भांड व चारण रात को वीरता की कहानियां सुनाया करते थे।

युद्ध के बाद एक दिन आंधी आई। आंधी के ज़ोर में वह ढोल लुढ़कता-लुढ़कता एक सूखे पेड़ के पास जा टिका। उस पेड की सूखी टहनियां ढोल से इस तरह से सट गईं कि तेज हवा चलते ही ढोल से टकरा जाती थी और ढमाढम-ढमाढम की आवाज़ करने लगती।

उस क्षेत्र में एक सियार घूमा करता था। उसने ढोल की आवाज़ सुनी। वह बडा भयभीत हुआ। ऐसी अजीब आवाज़ बोलते पहले उसने किसी जानवर को नहीं सुना था। वह सोचने लगा कि यह कैसा जानवर हैं, जो ऐसी जोरदार बोली बोलता हैं 'ढमाढम'। सियार छिपकर ढोल को देखता रहता, यह जानने के लिए कि यह जीव उड़नेवाला हैं या चार टांगो पर दौड़नेवाला।

एक दिन सियार झाड़ी के पीछे छुप कर ढोल पर नज़र रखे था। तभी पेड़ से नीचे उतरती हुई एक गिलहरी कूदकर ढोल पर उतरी। हलकी-सी ढम की आवाज़ भी हुई। गिलहरी ढोल पर बैठी दाना कुतरती रही।

सियार बड़बड़ाया, 'ओह! तो यह कोई हिंसक जीव नहीं हैं। मुझे भी डरना नहीं चाहिए।'

सियार फूंक-फूंककर क़दम रखता ढोल के निकट गया। उसे सूंघा। ढोल का उसे न कहीं सिर दिखायी दिया और न पैर। तभी हवा के झोंके से टहनियां ढोल से टकराईं। ढम की आवाज़ हुई और सियार उछलकर पीछे जा गिरा।

'अब समझ आया।' सियार ने सोचा, 'यह तो बाहर का खोल हैं। जीव इस खोल के अंदर हैं। आवाज़ बता रही हैं कि जो कोई जीव इस खोल के भीतर रहता हैं, वह मोटा-ताजा होना चाहिए। चर्बी से भरा शरीर। तभी ये ढम-ढम की जोरदार आवाज़ करता है।'

अपनी मांद में घुसते ही सियार बोला, 'ओ सियारी! दावत खाने के लिए तैयार हो जा। एक मोटे-ताजे शिकार का पता लगाकर आया हूँ।'

सियारी पूछने लगी 'तुम उसे मारकर क्यों नहीं लाए?'

सियार ने उसे झिडकी दी, 'क्योंकि मैं तेरी तरह मूर्ख नहीं हूँ। वह एक खोल के भीतर छिपा बैठा हैं। खोल ऐसा हैं कि उसमें दो तरफ सूखी चमडी के दरवाज़े हैं।मैं एक तरफ से हाथ डाल उसे पकड़ने की कोशिश करता तो वह दूसरे दरवाज़े से भाग न जाता?'

चाँद निकलने पर दोनों ढोल का शिकार करने चल दिए। जब वे ढोल के निकट पहुंचने वाले थे तो अचानक हवा से टहनियां ढोल पर टकराईं और ढम-ढम की आवाज़ निकली। सियार सियारी के कान में बोला, 'सुनी उसकी आवाज़? जरा सोच जिसकी आवाज़ ऐसी गहरी हैं, वह खुद कितना मोटा ताजा होगा।'

दोनों ढोल को सीधा कर उसके दोनों ओर बैठे और लगे दांतो से ढोल के दोनों चमडी वाले भाग के किनारे फाड़ने। जैसे ही चमड़ी कटने लगी, सियार बोला 'सावधान रहना। एक साथ हाथ अंदर डाल शिकार को दबोचना हैं।'

दोनों ने ‘हूँ' की आवाज़ के साथ हाथ ढोल के भीतर डाले और अंदर टटोलने लगे। अदंर कुछ नहीं था। एक दूसरे के हाथ ही पकड में आए। दोंनो चिल्लाए 'आँय! यहाँ तो कुछ नहीं हैं।'

वे दोनों माथा पीटकर रह गए।

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पंचतंत्र की अन्य कहानियाँ यहाँ देखें। 


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जब पेड़ चलते थे - बलराम अग्रवाल

बेशक वे बड़े सुनहरे दिन थे।

उन दिनों आदमी जंगलों में भटकता फिरता था। आदमी की तरह ही पेड़ भी घूमते-फिरते थे। आदमी उनसे जो कुछ भी कहता, वे उसे सुनते-समझते थे। जो कुछ भी करने को कहता, वे उसे करते थे। कोई आदमी जब कहीं जाना चाहता था तो वह पेड़ से उसे वहाँ तक ले चलने को कहता था। पेड उसकी बात मानता और उसे गंतव्य तक ले जाता था। जब भी कोई आदमी पेड़ को पुकारता, पेड़ आता और उसके साथ जाता।

पेड़ उन दिनों चल ही नहीं सकते थे बल्कि आदमी की तरह दौड़ भी सकते थे। असलियत में, वे वो सारे काम कर सकते थे जो आदमी कर सकता है।

उन दिनों 'इलपमन' नाम की एक जगह थी। वास्तव में वह मनोरंजन की जगह थी। पेड़ और आदमी वहाँ नाचते थे, गाते थे, खुब आनन्द करते थे। वहाँ वे भाइयों की तरह हँसते-खेलते थे।

लेकिन समय बदला। इस बदलते समय में आदमी के भीतर शैतान ने प्रवेश किया। उसके भीतर । बुराइयाँ पनप उठीं।

एक दिन कुछ लोगों ने पेड़ों पर लादकर कुछ सामान ले जाना चाहा। परन्तु उन पर उन्होंने इतना अधिक बोझ लाद दिया कि पेड़ मुश्किल से ही कदम बढ़ा सके। वे बड़ी मुश्किल से डगमगाते हुए चल पा रहे थे।

पेड़ों की उस हालत पर उन लोगों ने उनकी कोई मदद नहीं की। वे उल्टे उनका मजाक उड़ाने लगे।

पेड़ों को बहुत बुरा लगा। वे मनुष्य के ऐसे मित्रताविहीन रवैये से खिन्न हो उठे। वे सोचने लगे कि मनुष्य के हित की इतनी चिन्ता करने और ऐसी सेवा करने का नतीजा उन्हें इस अपमान के रूप में मिल रहा है।

उसी दिन से पेड़ स्थिर हो गए। उन्होंने आदमी की तरह इधर-उधर घूमना और दौड़ना बन्द कर दिया।

अब आदमी को अपनी गलती का अहसास हुआ। वह पेड़ के पास गया और उससे पहले की तरह ही दोस्त बन जाने की प्रार्थना की। लेकिन पेड़ नहीं माने। वे अचल बने रहे।

इस तरह आदमी के भद्दे और अपमानजनक रवैये ने उससे उसका सबसे अच्छा मित्र और मददगार छीन लिया।

प्रस्तुति: बलराम अग्रवाल
[अंडमान निकोबार की लोककथाएँ, साक्षी प्रकाशन, दिल्ली]

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आह्वान  - अशफ़ाक उल्ला खाँ

कस ली है कमर अब तो, कुछ करके दिखाएँगे,
आज़ाद ही हो लेंगे, या सर ही कटा देंगे।

हटने के नहीं पीछे, डर कर कभी ज़ुल्मों से,......

 
 
दस हाइकु - अशोक कुमार ढोरिया

नेक इरादे
चुनौतियां अपार......

 
 
हमदर्दी | लघु-कथा - रोहित कुमार 'हैप्पी'

बस खच्चाखच भरी थी। एक नौजवान ने जब एक बुढ़िया को अपनी बगल में खड़े पाया तो झट से आँखें मूंद लीं, मानो सो रहा हो।

अगले बस अड्डे पर एक सुंदर नवयुवती बस में चढ़ी व उसी लड़के के समीप जा खड़ी हुई। लड़का झट से अपनी सीट से खड़ा होते हुए उस लड़की से बोला, 'आप बैठिए!'

लड़की बैठने लगी तो उसकी निगाह पास खड़ी बुढ़िया पर पड़ी। "मांजी, आप बैठिए, मैं तो खड़ी रह सकती हूँ।'' कहते हुए, लड़की ने बुढ़िया की बांह पकड़ कर सहारा देते हुए उसे खाली हुई सीट पर बिठा दिया।

-रोहित कुमार 'हैप्पी'
[भारत-दर्शन, अक्टूबर-नवंबर 1996]

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हींगवाला - सुभद्राकुमारी चौहान

लगभग 35 साल का एक खान आंगन में आकर रुक गया । हमेशा की तरह उसकी आवाज सुनाई दी - ''अम्मा... हींग लोगी?''

पीठ पर बँधे हुए पीपे को खोलकर उसने, नीचे रख दिया और मौलसिरी के नीचे बने हुए चबूतरे पर बैठ गया । भीतर बरामदे से नौ - दस वर्ष के एक बालक ने बाहर निकलकर उत्तर दिया - ''अभी कुछ नहीं लेना है, जाओ !"

पर खान भला क्यों जाने लगा ? जरा आराम से बैठ गया और अपने साफे के छोर से हवा करता हुआ बोला- ''अम्मा, हींग ले लो, अम्मां ! हम अपने देश जाता हैं, बहुत दिनों में लौटेगा ।" सावित्री रसोईघर से हाथ धोकर बाहर आई और बोली - ''हींग तो बहुत-सी ले रखी है खान ! अभी पंद्रह दिन हुए नहीं, तुमसे ही तो ली थी ।"

वह उसी स्वर में फिर बोला-''हेरा हींग है मां, हमको तुम्हारे हाथ की बोहनी लगती है । एक ही तोला ले लो, पर लो जरूर ।'' इतना कहकर फौरन एक डिब्बा सावित्री के सामने सरकाते हुए कहा- ''तुम और कुछ मत देखो मां, यह हींग एक नंबर है, हम तुम्हें धोखा नहीं देगा ।''

सावित्री बोली- ''पर हींग लेकर करूंगी क्या ? ढेर-सी तो रखी है ।'' खान ने कहा-''कुछ भी ले लो अम्मां! हम देने के लिए आया है, घर में पड़ी रहेगी । हम अपने देश कूं जाता है । खुदा जाने, कब लौटेगा ?'' और खान बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए हींग तोलने लगा । इस पर सावित्री के बच्चे नाराज हुए । सभी बोल उठे-''मत लेना मां, तुम कभी न लेना । जबरदस्ती तोले जा रहा है ।'' सावित्री ने किसी की बात का उत्तर न देकर, हींग की पुड़िया ले ली । पूछा-''कितने पैसे हुए खान ?''

''पैंतीस पैसे अम्मां!'' खान ने उत्तर दिया । सावित्री ने सात पैसे तोले के भाव से पांच तोले का दाम, पैंतीस पैसे लाकर खान को दे दिए । खान सलाम करके चला गया । पर बच्चों को मां की यह बात अच्छी न लगीं ।

बड़े लड़के ने कहा-''मां, तुमने खान को वैसे ही पैंतीस पैसे दे दिए । हींग की कुछ जरूरत नहीं थी ।'' छोटा मां से चिढ़कर बोला-''दो मां, पैंतीस पैसे हमको भी दो । हम बिना लिए न रहेंगे ।'' लड़की जिसकी उम्र आठ साल की थी, बड़े गंभीर स्वर में बोली-''तुम मां से पैसा न मांगो । वह तुम्हें न देंगी । उनका बेटा वही खान है ।'' सावित्री को बच्चों की बातों पर हँसी आ रही थी । उसने अपनी हँसी दबाकर बनावटी क्रोध से कहा-''चलो-चलो, बड़ी बातें बनाने लग गए हो । खाना तैयार है, खाओ । ''

छोटा बोला- ''पहले पैसे दो । तुमने खान को दिए हैं ।''

सावित्री ने कहा- ''खान ने पैसे के बदले में हींग दी है । तुम क्या दोगे?'' छोटा बोला- '' मिट्टी देंगे ।'' सावित्री हँस पड़ी- '' अच्छा चलो, पहले खाना खा लो, फिर मैं रुपया तुड़वाकर तीनों को पैसे दूंगी ।"

खाना खाते-खाते हिसाब लगाया । तीनों में बराबर पैसे कैसे बंटे ? छोटा कुछ पैसे कम लेने की बात पर बिगड़ पड़ा-''कभी नहीं, मैं कम पैसे नहीं लूंगा!'' दोनों में मारपीट हो चुकी होती, यदि मुन्नी थोड़े कम पैसे स्वयं लेना स्वीकार न कर लेती ।

कई महीने बीत गए । सावित्री की सब हींग खत्म हो गई । इस बीच होली आई । होली के अवसर पर शहर में खासी मारपीट हो गई थी । सावित्री कभी- कभी सोचती, हींग वाला खान तो नहीं मार डाला गया? न जाने क्यों, उस हींग वाले खान की याद उसे प्राय: आ जाया करती थी । एक दिन सवेरे-सवेरे सावित्री उसी मौलसिरी के पेड़ के नीचे चबूतरे पर बैठी कुछ बुन रही थी । उसने सुना, उसके पति किसी से कड़े स्वर में कह रहे हैं- ''क्या काम है ?' भीतर मत जाओ । यहाँ आओ । '' उत्तर मिला-''हींग है, हेरा हींग । '' और खान तब तक आंगन मैं सावित्री के सामने पहुँच चुका था । खान को देखते ही सावित्री ने कहा- ''बहुत दिनों में आए खान ! हींग तो कब की खत्म हो गई ।"

खान बोला- ''अपने देश गया था अम्मां, परसों ही तो लौटा हूँ । '' सावित्री ने कहा- '' यहाँ तो बहुत जोरों का दंगा हो गया है ।'' खान बोला-''सुना, समझ नहीं है लड़ने वालों में ।"

सावित्री बोली-''खान, तुम हमारे घर चले आए । तुम्हें डर नहीं लगा ?"

दोनों कानों पर हाथ रखते हुए खान बोला-''ऐसी बात मत करो अम्मां । बेटे को भी क्या मां से डर हुआ है, जो मुझे होता ?" और इसके बाद ही उसने अपना डिब्बा खोला और एक छटांक हींग तोलकर सावित्री को दे दी । रेजगारी दोनों में से किसी के पास नहीं थी । खान ने कहा कि वह पैसा फिर आकर ले जाएगा । सावित्री को सलाम करके वह चला गया ।

इस बार लोग दशहरा दूने उत्साह के साथ मनाने की तैयारी में थे । चार बजे शाम को मां काली का जुलूस निकलने वाला था । पुलिस का काफी प्रबंध था । सावित्री के बच्चों ने कहा- "हम भी काली का जुलूस देखने जाएंगे ।"

सावित्री के पति शहर से बाहर गए थे । सावित्री स्वभाव से भीरु थी । उसने बच्चों को पैसों का, खिलौनों का, सिनेमा का, न जाने कितने प्रलोभन दिए पर बच्चे न माने, सो न माने । नौकर रामू भी जुलूस देखने को बहुत उत्सुक हो रहा था । उसने कहा- "भेज दो न मां जी, मैं अभी दिखाकर लिए आता हूँ ।" लाचार होकर सावित्री को जुलूस देखने के लिए बच्चों को बाहर भेजना पड़ा । उसने बार-बार रामू को ताकीद की कि दिन रहते ही वह बच्चों को लेकर लौट आए ।

बच्चों को भेजने के साथ ही सावित्री लौटने की प्रतीक्षा करने लगी । देखते-ही-देखते दिन ढल चला । अंधेरा भी बढ़ने लगा, पर बच्चे न लौटे अब सावित्री को न भीतर चैन था, न बाहर । इतने में उसे -कुछ आदमी सड़क पर भागते हुए जान पड़े । वह दौड़कर बाहर आई, पूछा-''ऐसे भागे क्यों जा रहे हो ? जुलूस तो निकल गया न ।"

एक आदमी बोला-''दंगा हो गया जी, बडा भारी दंगा!' सावित्री के हाथ-पैर ठंडे पड़ गए । तभी कुछ लोग तेजी से आते हुए दिखे । सावित्री ने उन्हें भी रोका । उन्होंने भी कहा-''दंगा हो गया है!''

अब सावित्री क्या करे ? उन्हीं में से एक से कहा-''भाई, तुम मेरे बच्चों की खबर ला दो । दो लड़के हैं, एक लड़की । मैं तुम्हें मुंह मांगा इनाम दूंगी ।'' एक देहाती ने जवाब दिया-''क्या हम तुम्हारे बच्चों को पहचानते हैं मां जी ? '' यह कहकर वह चला गया ।

सावित्री सोचने लगी, सच तो है, इतनी भीड़ में भला कोई मेरे बच्चों को खोजे भी कैसे? पर अब वह भी करें, तो क्या करें? उसे रह-रहकर अपने पर क्रोध आ रहा था । आखिर उसने बच्चों को भेजा ही क्यों ? वे तो बच्चे ठहरे, जिद तो करते ही, पर भेजना उसके हाथ की बात थी । सावित्री पागल-सी हो गई । बच्चों की मंगल-कामना के लिए उसने सभी देवी-देवता मना डाले । शोरगुल बढ़कर शांत हो गया । रात के साथ-साथ नीरवता बढ़ चली । पर उसके बच्चे लौटकर न आए । सावित्री हताश हो गई और फूट-फूटकर रोने लगी । उसी समय उसे वही चिरपरिचित स्वर सुनाई पड़ा- "अम्मा!''

सावित्री दौड़कर बाहर आई उसने देखा, उसके तीनों बच्चे खान के साथ सकुशल लौट आए हैं । खान ने सावित्री को देखते ही कहा-''वक्त अच्छा नहीं हैं अम्मां! बच्चों को ऐसी भीड़-भाड़ में बाहर न भेजा करो ।'' बच्चे दौड़कर मां से लिपट गए ।

- सुभद्राकुमारी चौहान

 


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आजा़द हिन्‍द सेना ने जब - कप्तान रामसिंह ठाकुर

आजा़द हिन्‍द सेना ने जब
नेता जी का पैगाम लिया......

 
 
हम भारत की बेटी हैं - अज्ञात

हम भारत की बेटी हैं, अब उठा चुकीं तलवार
हम मरने से नहीं डरतीं, नहीं पीछे पाँव को धरतीं......

 
 
लघुकथाएं - भारत-दर्शन संकलन

लघु-कथा (Short Story) संकलन - इस संकलन में श्रेष्ठ लघु-कथाओं का संकलन किया जा रहा है। ये लघुकथाएं न केवल रोचक व पठनीय होंगी अपितु शिक्षाप्रद भी होंगीं।

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दृष्टि - रोहित कुमार 'हैप्पी'

रेलवे स्टेशन के बाहर सड़क के किनारे कटोरा लिए एक भिखारी लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए अपने कटोरे में पड़ी रेज़गारी को हिलाता रहता और साथ-साथ यह गाना भी गाता जाता -


"गरीबों की सुनो वो तुम्हारी सुनेगा......

 
 
प्रेमचन्दजी के साथ दो दिन - बनारसीदास चतुर्वेदी

"आप आ रहे हैं, बड़ी खुशी हुई। अवश्य आइये। आपने न-जाने कितनी बातें करनी हैं।

मेरे मकान का पता है -

बेनिया-बाग में तालाब के किनारे लाल मकान। किसी इक्केवाले से कहिये, वह आपको वेनिया-पार्क पहुँचा देगा। पार्क में एक तालाब है। जो अब सूख गया है। उसी के किनारे मेरा मकान है लाल रंग का, छज्जा लगा हुआ। द्वार पर लोहे की Fencing है। अवश्य आइये।
-धनपतराय।" ......

 
 
प्रेमचंद गरीब थे, यह सर्वथा तथ्यों के विपरीत है  - रोहित कुमार 'हैप्पी'

Dr. Kamal Kishore Goyanka

प्रेमचंद की बात हो तो डॉ कमलकिशोर गोयनका से चर्चा अपेक्षाकृत है। दिल्ली के ज़ाकिर हुसैन कॉलेज से अवकाश प्राप्त डॉ. गोयनका प्रेमचंद साहित्य के मान्य विद्वान एवं प्रामाणिक शोधकर्ता हैं।  प्रेमचंद पर उनकी अनेक पुस्तकें व लेख प्रकाशित हो चुके हैं। साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित प्रेमचन्द ग्रंथावली के संकलन एवं सम्पादन में उनका विशेष योगदान रहा है। डॉ. कमल किशोर गोयनका केंद्रीय हिंदी शिक्षण मंडल के वर्तमान उपाध्यक्ष हैं।
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साथी, नया वर्ष आया है - हरिवंशराय बच्चन

साथी, नया वर्ष आया है!
वर्ष पुराना, ले, अब जाता,......

 
 
अल्लाह का शुक्र - भारत-दर्शन संकलन

एक बार शेखचिल्ली की माँ ने कपडे धोकर सूखाने के लिए बाहर डाल दिए। फिर वह घर के कामों में व्यस्त हो गयी। शेखचिल्ली आराम से चारपाई पर लेटे-लेटे सपनों की दुनिया में खोया था।

अचानक आँधी आ गई और थोड़ी ही देर में उसने विकराल रूप धारण कर लिया। धूल का इतना बड़ा बवंडर उठा कि कुछ भी देखना मुहाल हो गया। आस -पड़ोस के लोग अपने-अपने घरों के भीतर चले गए। शेखचिल्ली और उसकी माँ भी अपने घर के भीतर चले गए।

अचानक शेखचिल्ली की माँ को याद आया कि सभी कपड़े तो सूखने के लिए बाहर डाले हुए हैं। उसने खिड़की से देखा तो सारे कपड़े इधर-उधर उड़ रहे थे। जब आँधी थोड़ी शांत हुई तो वह अपने कपड़ों को ढूंढने बाहर निकली। गाँव के अन्य लोग भी अपने-अपने सामान ढूंढ रहे थे। कुछ देर इधर-उधर ढूंढने के बाद शेखचिल्ली की माँ को अपने सभी कपड़े मिल गए। घर के भीतर आने पर, कपड़ों को समेटते हुए चारपाई पर बैठे शेखचिल्ली को देखकर उदासी से बोली, "बेटा! अंधड़ में उड़े सभी कपड़े तो मिल गए सिर्फ तुम्हारा पायजामा नहीं मिला। ना जाने कैसे उड़कर उस कुएँ में जा गिरा है। जाओ जाकर अपने पायजामे को उस कुएँ से निकालने की कोशिश करके देख लो।"

"अरी माँ! इसमें उदास होने वाली कौन सी बात है?" शेखचिल्ली बोला, "यह तो बहुत खुशी की बात है, इसके लिए तो आपको अल्लाह का शुक्रगुजार होना चाहिए।"

शेखचिल्ली की माँ को कुछ समझ में न आया। वह आश्चर्य से बोली, "बेटा, इसमें अल्लाह का शुक्रगुजार होने जैसी कौन सी बात है?"

"आप समझी नहीं माँ! यदि वह पायजामा मैंने पहना होता तो आँधी मुझे भी उड़ाकर कुएँ में गिरा देता। अबतक तो मैं कुएं में डूब भी गया होता और अल्लाह को प्यारा हो गया होता। इसलिए अल्लाह का शुक्र करना चाहिए।"

[भारत-दर्शन संकलन]

 


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इश्तिहार - शैलजा कौशल

तलवे से अलग हुआ फटा जूता पहने, पैर घिसता, गले में अपने चाचा की पुरानी टाई लटकाए, घिसी पुरानी कमीज - पैंट पहने आलोक पिछले तीन दिन से एक से दूसरे मार्केटिंग दफ्तरों में चक्कर लगा रहा है। उसे अफसरी तो नहीं करनी है पर वह अपनी बहन सुमति और अपने लिए दवा और खाना जुटाने निकला है। जब से उसे ह्यूमन होर्डिंग यानी इंसानी इश्तिहार के काम के बारे में पता चला है, वह पूरे मन से इस काम की तलाश करने में जुटा है। मालूम चला है कि मेन रोड पर ह्यूमन होर्डिंग बनकर डटे रहने के कुछ सौ रुपए मिलते हैं। पेट भरने के सवाल ने पिछले एक महीने से उसके रातों की नींद उडा ली है। सुमति घर पर पडी बुखार से तप रही है, इसी घबराहट में आलोक की कमीज पसीने से तर हो रही है। कडी गर्मी में वह सुबह से शाम तक कहीं किसी काम की तलाश में एक से दूसरी जगह चक्कर काट रहा है। माता पिता के देहांत के बाद आलोक और उसकी बहन चाचा केदारनाथ के घर पर दिल्ली में ही रहते रहे लेकिन अब उनका काम मंदा चल रहा था। बडे परिवार के बोझ के चलते उन्होंने आलोक और सुमति को अपने घर से अलग कर दिया है जिससे सुमति की जिम्मेदारी और अपना खुद का जीवन आलोक के कंधों पर आ गया है। बडी मुश्किल से लाजपत नगर में एक रैनबसेरे में भाई बहन को पनाह मिली है। पढाई बीच ही में छूट गई। अगर यह दिन न आते तो दोनों अगले साल कॉलेज में दाखिला लेते। आलोक अब तक हमेशा फस्र्ट डिवीयन में पास होता रहा है। अब पढाई छूट जाने का गम उसे अलग निगल रहा है। हर नौजवान की तरह उसने भी अपने भावी जीवन को लेकर सपने देखे थे। उसे चाहत थी कि वह एमबीए में एडमीश्न ले और एक मल्टीनेशनल कंपनी के मार्केटिंग विभाग में बडी पोस्ट पर काम करे और इस तरह वह एक दिन कंपनी की सबसे उंची पोस्ट तक पहुंच जाए। तब वह अपनी बहन सुमति की शादी एक अच्छे परिवार में कर पाएगा। खूब पैसा और नाम कमाएगा। लेकिन पढाई छूट जाने के बाद से उसके सभी इच्छाएं और सपने धुंधला गए थे। आलोक बेहद निराश था। समय तो बस अब रोटी की तलाश का था। अब तो पेट भरने के लिए जो काम मिलेगा वह करना पडेगा।
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मूर्ख साधू और ठग - विष्णु शर्मा

किसी गाँव के मंदिर में एक प्रतिष्ठित साधू रहता था। गाँव में सभी उसका सम्मान करते थे। उसे अपने भक्तों से दान में तरह-तरह के वस्त्र, उपहार, खाद्य सामग्री और पैसे मिलते थे। उन वस्त्रों को बेचकर साधू ने काफी धन जमा कर लिया था।

साधू कभी किसी पर विश्वास नहीं करता था और हमेशा अपने धन की सुरक्षा के लिए चिंतित रहता था। वह अपने धन को एक पोटली में रखता था और उसे हमेशा अपने साथ लेकर चलता था।

उसी गाँव में एक ठग रहता था। बहुत दिनों से उसकी निगाह साधू के धन पर थी। ठग हमेशा साधू का पीछा किया करता लेकिन साधू उस पोटली को कभी अपने से अलग नहीं करता था।

ठग ने एक योजना बनाई। उसने एक छात्र का वेश धारण किया और साधू के पास जाकर आग्रह किया कि वह उसे अपना शिष्य बना ले क्योंकि वह ज्ञान प्राप्त करना चाहता है। साधू तैयार हो गया। इस प्रकार वह ठग साधू का शिष्य बनकर मंदिर में रहने लगा।

ठग मंदिर की साफ सफाई सहित अन्य सभी काम करता था। ठग ने साधू की भी खूब सेवा की और जल्दी ही उसका विश्वासपात्र बन गया।

एक दिन साधू को पास के गाँव में एक अनुष्ठान के लिए आमंत्रित किया गया। साधू निश्चित दिन अपने शिष्य के साथ अनुष्ठान में भाग लेने के लिए निकल पड़ा।

रास्ते में एक नदी पड़ी और साधू ने स्नान करने की इच्छा व्यक्त की। उसने अपने धन वाली पोटली को एक कम्बल के भीतर रखा और उसे नदी के किनारे रख दिया। फिर ठग को सामान की रखवाली की आज्ञा देकर स्वयं नदी में स्नान करने चला गया। ठग को तो कब से इसी समय की प्रतीक्षा थी। जैसे ही साधू ने नदी में डुबकी लगायी, ठग साधू की पोटली लेकर चम्पत हो गया।

[पंचतंत्र]


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बलम संग कलकत्ता न जाइयो, चाहे जान चली जाये - संदीप तोमर

पुस्तक का नाम: बलम कलकत्ता
लेखक: गीताश्री
प्रकाशन वर्ष: 2021
मूल्य : 201 रुपए
प्रकाशक: प्रलेक प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड

बलम कलकत्ता

बिहार के मुजफ्फरपुर में जन्मी गीताश्री एक प्रतिष्ठित पत्रकार हैं, जिन्होंने सर्वश्रेष्ठ हिंदी पत्रकार (वर्ष 2008-2009) के लिए रामनाथ गोयनका पुरस्कार भी जीता है। अब तक उनके दस कहानी संग्रह, पाँच उपन्यास, स्त्री-विमर्श पर चार शोध पुस्तकें प्रकाशित हैं, चोदह किताबों का सम्पादन-संयोजन भी उनके नाम दर्ज है। वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित उनकी पुस्तक 'भूत-खेला' एक चर्चित किताब रही है। अपनी इस पुस्तक के लिए उन्होंने बहुत सारे शोध किए। शिवना प्रकाशन से कथाकार गीताश्री के सम्पादन में रेखाचित्रों का एक महत्त्वपूर्ण संग्रह भी प्रकाशित हुआ था- ‘रेखाएँ बोलती हैं’। शहरगोई (संस्मरण) भी इसी वर्ष प्रकाशित रचना है।

गीताश्री के लेखन संसार पर बात करूँ तो कहना होगा कि गीताश्री औरत की आजादी और अस्मिता की पक्षधर लेखिका हैं। कॉलेज के दिनों में ही उन्होने साहित्यिक लेखन की शुरुआत कर दी थी, उनका यह रचनात्मक सफर आज भी जारी है। उनकी चर्चित रचनाओं में कहानी-संग्रह 'प्रार्थना के बाहर और अन्य कहानियां', 'नागपाश में स्त्री', 'कथा रंगपूर्वी', 'स्त्री को पुकारता है स्वप्न', ‘23 लेखिकाएं और राजेंद्र यादव’; कविता संग्रह 'कविता जिनका हक'; स्त्री विमर्श 'स्त्री आकांक्षा के मानचित्र' और 'औरत की बोली'; आदिवासी लड़कियों की तस्करी पर आधारित शोध 'सपनों की मंडी' और बैगा आदिवासियों की गोदना कला पर आधारित सचित्र शोध पुस्तक 'देहराग' शामिल है। उन्होने बाल कहानी संग्रह 'कल के कलमकार' और 'हिंदी सिनेमा-दुनिया से अलग दुनिया' जैसी पुस्तकों का संपादन भी किया है। ‘लेडिज सर्कल’, ‘लिट्टी चोखा’, ‘स्वप्न, साजिश और स्त्री’, ‘भूत-खेला’, ‘हसीनाबाद’ जैसी कृतियों से हिंदी साहित्य में गीताश्री ने अपनी एक अलग ही पहचान बनाई। बंग राजा और मिथिला की राजनटी की प्रेम गाथा पर आधारित उनका हाल ही में प्रकाशित उपन्यास ‘राज-नटनी’ भी काफी चर्चा में रहा, जिसका कारण उनका अनूठा लेखन ही है। कितनी ही दुस्वारियाँ नारी पात्रों के आगे मुँह बाये खड़ी होती हैं, उनका संघर्ष गीताश्री को आकर्षित भी करता है, झकझोरता भी है, उनके संघर्ष की गाथा को गीताश्री कलम के माध्यम से आवाज देती हैं।

गीताश्री द्वारा रचित कहानी संग्रह “बलम कलकत्ता” का प्रकाशन प्रलेक प्रकाशन द्वारा किया किया गया। “बलम कलकत्ता” में उनकी कुल जमा पंद्रह कहानियाँ शामिल हैं। इस संग्रह की लोकप्रियता का कारण इसमें शामिल विभिन्न रंगों की कहानियाँ हैं।

इन सभी कहानी में सामान्य जीवन जीने वाले व्यक्तित्व को वे अपनी लेखनी के जादुई करिश्मे से उनके छोटे-छोटे कामों को बहुत अधिक बड़ा बनाकर पेश करती हैं। बक़ौल गीताश्री-“इनकी ओर हम अपनी भागती-दौड़ती ज़िंदगी में शायद ही ध्यान दे पाते हों; पर जैसे ही हमारी ज़िंदगी के कुछ पल इनके साथ जुड़ते हैं वे अपनी विशिष्ट जीवन दृष्टि से रचनाकारों को भी प्रभावित कर देते हैं। अक्सर यह कह दिया जाता है कि मजबूरियाँ मनुष्य को मनुष्य नहीं रहने देतीं, पर ये सामान्य जन अपनी आर्थिक-सामाजिक स्थिति में भले ही बहुत अधिक नीचे हों, पर मनुष्यता के पायदान पर ऊँचे खड़े दिखाई देते हैं। वे इस बात को रेखांकित करते हैं कि मनुष्यता का बीज असंवेदनशीलता, उपेक्षा और असमानता की बंजर चट्टानों को भी तोड़ कर उग आता है। इन सामान्य जनों में साहित्यकार हैं, बच्चे हैं, सड़क पर रेहड़ी लगाने वाले बुज़ुर्ग हैं, घरों में काम करने वाली स्त्रियाँ हैं, वाहन चालक हैं, शारीरिक रूप से विकलांग हैं, पर एक जज़्बा उन्हें विशिष्ट बनाता है, वह है हमेशा दूसरों के लिए कुछ न कुछ करते रहना। यह बात भी तय है कि ये सभी सामान्य जन शायद ही कभी किसी इतिहास की किताब में जगह पाएँ, पर वे शायद जीते ही इस तरह से हैं। साहित्य का काम यही तो है।“ गीताश्री के उक्त कथन से उनके लेखन-संसार, उनकी लेखन-प्रक्रिया की झलक हमें मिलती है।

गीताश्री की कहानियों में अलग-अलग परिवेश की सशक्त स्त्रियाँ हैं, जो स्वच्छंद जीवन जीती हैं। उनकी कहानियों में घरेलू काम करने वाली आम स्त्री है तो मल्टी-नेशनल कम्पनियों में रात की शिफ्ट में बेहिचक नौकरी करने वाली स्त्री भी है, वह स्त्री जो पब में जाकर जाम का गिलास होंठो से सटा पुरुष सत्तात्मक समाज को चुनौती देती है कि आज की स्त्री तुमसे किसी काम में कम नहीं है, वह सिगरेट के कस लेते हुए खुद को छुपाती नहीं बल्कि वह इसे स्टेट्स सिम्बल बनाती है। अगर यह विद्रोह है तो ये विद्रोह समय और समाज की माँग है, सामंतवाद के खिलाफ यह विद्रोह अनायास नहीं है, दरअसल, उन्होंने खुद सामंती समाज की पाबंदियाँ झेली हैं, तभी उनकी कहानियों में यह विद्रोह बार-बार प्रस्फुटित होता है। लेकिन कहना न होगा कि ये विद्रोह उनके लेखन को काल्पनिकता से दूर कोरे यथार्थ की ओर उन्मुख करता है। गीताश्री कहती भी हैं-“मेरा विश्वास उस यथार्थ में है जो काल्पनिकता की गुंजाइश देकर खत्म हो जाए।“
बलम कलकत्ता गीताश्री का ऐसा संग्रह है जो यह सवाल खड़ा करता है कि क्या समाज स्त्री-विमर्श को कभी स्त्री के नजरिए से देखने, उसके भीतर झांकने और उसे समझने का प्रयास करता है? क्या स्त्री-अस्मिता, उसके संघर्ष पर सवालिया निशान लगाने से पहले हम सभ्य समाज के नागरिक उसकी परिस्थितियों और मन:स्थितियों का जायजा लेने की जुर्रत करते हैं? अधिकांश स्त्रियों का ऊपरी जीवन बहुत आनंददायी प्रतीत होता है परंतु, उसका एक दूसरा पक्ष स्याह-काला भी है, जिस पर शायद ही कभी विचार किया गया हो?

गीताश्री ने अपने कहानी संग्रह “बलम कलकत्ता” में स्त्री-प्रेम, स्त्री-संघर्ष की ऐसी कहानियाँ लिखी हैं जिनमें, नारी जीवन के विविध पक्षों को बहुत सच्चाई के साथ प्रस्तुत किया गया है। पहली ही कहानी “बलम कलकत्ता पहुँच गए न” एक ऐसी महिला की कहानी है जो शराबी पति से तंग आकर पति को छोडने का निर्णय ले बेटी और उसके प्रेमी के साथ रहना तय करती है। “नहीं हैं हम तुम्हारी पत्नी... संबंध खत्म... नहीं रहना तुम्हारे साथ... तुम आज़ाद, हम आज़ाद... हम जा रहे, बेटी के साथ।“( पृष्ठ- 20), उसका यह निर्णय अनायास नहीं है, जिल्लत, तंगहाली, और पति के लालची स्वभाव के चलते उसके अंदर पकता हुआ लावा एक दिन स्वत: ही फूट पड़ता है, और वह जीवन को नए सिरे से प्रारम्भ करने का विचार कर बैठती है। “शांति ने बेखौफ होकर अपने आँचल से पहले बिंदी नोंच कर फेंक दिया, फिर लाला टुह-मुह सिंदूर की पूरी रेखा मिटाने लगी।“ (पृष्ठ-20)

“मन वसंत, तन जेठ” औपन्यासिक शैली में लिखी गयी कहानी है, जिसमें आंचलिकता का भरपूर घालमेल है। ठेठ कथानक, ठेठ पात्र, ठेठ संवाद और पात्रों के नाम भी कहानी के अनुकूल, इस कहानी में लेखिका ने राजनीति, अंधविश्वास, ग्रामीण-समाज की सिनेमाई संस्कृति इत्यादि का भरपूर उपयोग करते हुए कहानी को उसके असल मुकाम तक पहुँचाने का काम किया है। कहानी में भारतीय राजनीति के एक कालखंड की नेत्री मायावती के शुरुवाती समय की झकल भी मिलती है। जिला के एक नेता एक दिन गम्भीरता से, फुल्लो को राजनीति में आने के फायदे समझने लगे। (पृष्ठ- 27) ऐसा ही एक वाकया काशीराम के साथ मायावती के पिता द्वारा उसकी मुलाक़ात का प्रचलित है।

“उनकी महफिल से हम उठ तो आए” संग्रह की एक बेहतरीन और सशक्त कहानी है। एसिड अटैक विक्टिम से प्रेम, परिवार की वितृष्णा और उसके साथ माँ की एक धाविका के रूप में दमित इच्छाओं का संतुलित सामंजस्य इस कहानी की ताकत है, स्त्री विमर्श पर जितना पढ़ा यह कहानी उन सब पर भारी पड़ती है। इस कहानी के संवाद पाठक के ज़ेहन में अंकित हो जाते हैं- “अजय, स्त्रियाँ, तब स्त्रियाँ कहाँ रह पाती हैं, जब वे किसी की माँ या बीवी, बहन होती हैं, वे उस वक़्त स्त्री होकर नहीं सोचती। अगर ऐसा करने लगे तो हमारी दुनिया ही बदल जाएगी। (पृष्ठ-48), “मेरा ये भी अनुभव है, हो सकता है, तुम्हें ऐन्टी-वीमेन लगे, अपने अनुभव से जाना कि औरतें, मर्दों की धाक मानती हैं,, जिद छोड़ेंगी जब कोई मर्द मनाए। चाहे धौंस से चाहे मनुहार से। (पृष्ठ-48)

गीताश्री ने माँ को इतना नजदीक से विश्लेषित किया, अनुभव किया, वे जानती हैं कि माँ का हृदय गुनहगार बेटे को भी माफ कर देता है, और जब बेटा माँ को अपने पक्ष से, अपने सच से परिचित करा देता है तो वही माँ अपने जीवन में लाख बंधन सहकर भी अपनी औलाद के लिए सब बंधन तोड़ सकती है। “...उन्होने आपको कुछ करने दिया। नौकरी करती थी आप, छुड़ा दिया... घर बैठा दिया... इन्हीं में अपने को ढूंढो... इनके लिए मरो, जिओ... आप कहीं गायब हो गयी हो माँ, वह लड़की गायब... जो खेल के मैदानों में लंबी दौड़ की धावक थी... (पृष्ठ- 49) “अजय प्रसाद की माँ, बलदेव प्रसाद की पत्नी, कुमारी सरिता हवा हो गयी थी। दुपट्टा कमर में कस जो वो दौड़ी, अजय उनका मुक़ाबला न कर सका...।“( पृष्ठ- 51)

गीताश्री मानती हैं कि उम्र कोई मायने नहीं रखती, वे मिसेज दत्ता के माध्यम से कहती हैं-“एज, माई फुट।“( पृष्ठ-49) उनका मानना है कि सोच स्थानीय होती है। स्थानीयता के हिसाब से सोचें बनती हैं,। विचार बनते हैं। कुछ लोग जल्दी उम्र ओढ़कर सुकून महसूस करते हैं तो कुछ लोग उम्र ताक पर रखकर मस्त जीवन जीते हैं। (पृष्ठ- 49)

गीताश्री दो संस्कृतियों के बीच नारी की स्थिति की महीनता से पड़ताल करती हैं, उनका नारीवाद देह के दायरे से बाहर स्त्री-स्मिता का नारिवाद है। वे स्त्री-मनोविज्ञान को जानती भी हैं और मानती भी हैं- “जवान बेटे की माएं ऐसे ही अकड़ती हैं। पति से ज्यादा बेटे की बात सुनती हैं। (पृष्ठ-50)

इस कहानी में स्त्री का एक और रूप गीताश्री ने प्रस्तुत किया है-“माँ को तकलीफ देकर हमें यह संबंध नहीं बनाना। मैं तुम्हें प्यार करती हुई जीवन काट सकती हूँ, एक माँ का अंतिम पुरुष, उसका बेटा ही होता है। उन्हें तुमसे अलग करने का पाप नहीं कर सकती।" (पृष्ठ- 51) एक स्त्री अपने प्यार का परित्याग इसलिए भी कर सकती है कि माँ रूपी स्त्री उस प्यार को स्वीकृति नहीं दे सकती।

“बाबूजी का बक्सा” भी नारी-स्थिति को ही केंद्र में रखकर लिखी गयी कहानी है-“हमारे यहाँ बेटी ब्याह करते ही लड़की वाले लड़की को मुक्त कर देते हैं, दूसरे बाड़े की मवेशी हो जाती हैं। वहाँ के नियमों से हाँकी जाती हैं, मायके का हस्तक्षेप बंद।(पृष्ठ- 58) इस कहानी का अंत एक बुजुर्ग व्यक्ति के जीवन के तमाम कष्टों के अंत के साथ हुआ है, मालिन की विधवा बेटी को आश्रय दिला लेखिका समाज के सामने एक विकल्प रखती हैं, जहाँ विधवा विवाह और बुजुर्बों के अपने परिवार से इतर निजी जीवन का समाधान है।

“सोलो ट्रैवलर” में गीताश्री का स्त्रीवादी स्वरूप अधिक स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है-“मैंने मम्मी को बोल दिया है, वे जब चाहे मैं उनके साथ अलग रहने को तैयार हूँ। मैं कलह के उस माहौल में पढ़ाई पर एकाग्र नहीं रह सकती थी”। (पृष्ठ- 114) 70 से 90 के दौर के जोड़ो की स्थिति ऐसी रही कि पिता के साथ माँ की वैचारिक पटरी न बैठने पर माँ के पास कोई विकल्प नहीं होते थे, स्त्री-शिक्षा और आर्थिक आत्म-निर्भरता से स्थिति में अवश्य ही कुछ बदलाव आया है। लेकिन लेखिका का स्पष्ट मानना है कि “बहुत सी स्त्रियों के पास विकल्प नहीं होते, खास कर अधेड़वस्था में। कहाँ जाएंगी वे घर से निकाल कर, उनके पास कुछ नहीं बचता है, खाली हाथ, न उम्र न कोई संपत्ति। न माइका न रिश्तेदार। यही समय होता है जब बच्चे उसकी पूंजी होते हैं।“ (पृष्ठ-115) इन सबका समाधान आर्थिक आत्मनिर्भरता में ही निहित है, जिस बारे में लेखकों, कानूनविदों, राजनीतिज्ञों, चिंतकों को सोचने की जरूरत है।

“ठोंकू गोसाईं नाच रहा था” में एक कम उम्र लड़की का मोह एक यौन-विकलांग से दर्शाया गया है, कहानी में हालाकि यौन-विक्लांग विमर्श सीधे नहीं आया है लेकिन कहानी इस ओर बार-बार इशारा करती है। “हम औरत बनकर नाचते जरूर हैं, औरत थोड़े न हैं, लेकिन औरतन को समझते हैं।" (पृष्ठ-81)

गीताश्री के पास कहन का अपना तरीका है, अपना अंदाज है। वह खुद ज्यादा रूल्स में विश्वास नहीं करती – “आई हेट दिस रूल्स एंड रेगुलेशन! कब समय आएगा, जब हमारे ऊपर फ्रेस्ट्रेटिड लोगों के कारण इतने फालतू के रूल्स नहीं होंगे।” (पृष्ठ- 105) “हम दोनों के भीतर तन्हाई की वजहें थी। न वह बताती न मैं। मैं अपनी वाचालता से उसे ढँक देती थी और मधु अपनी खामोशी से उसे छुपा देती थी। (पृष्ठ-87)

कहीं-कहीं उनके लेखन पर कुछ अन्य लेखकों की छाप भी स्पष्ट दिखाई देती है। “एक तरफ उसका घर” कहानी का कुछ हिस्सा मोपासां की कहानी “दी फादर” से प्रभावित है- “ओह ठीक है, तुम्हारी माँ का असफल प्रेम विवाह हुआ तो क्या सबका होगा। बहुत डिप्रेसिंग है यह सब उनको समझाओ या मैं समझाऊँ।“( पृष्ठ-95) यह दृश्य गीताश्री अपने जमाने की ट्रांसपोर्ट ‘मेट्रो’ में दिखाती हैं जबकि मोपासां अपने जमाने की बस में। अक्सर ऐसा होता है कि कुछ कहानियाँ हमारे ज़ेहन में अंदर तक पैठ जाती हैं, और जब कभी हम लिखते है तो अनुकूल पात्र के साथ वह सब जो हमारे अवचेतन का हिस्सा होता है, कलम की जुबान पर बैठ कागज पर उतरने लगता है। ऐसा ही इस कहानी के साथ हुआ प्रतीत होता है। यह कहानी हमें अधिक प्रगतिशील समाज की ओर भी ले जाती है, “...मेरी माँ आज भी एक अल्हड़ युवती है... उसे बहू की नहीं दोस्त की तलाश है जिसके साथ पंख लगा कर उड़ सके।“ (पृष्ठ- 97)

“मिस बोरिंग की रसीली दास्तान” कहानी का आगाज एकदम अनोखे अंदाज में लेखिका ने किया है, यहाँ पिता का संवाद उनकी प्रगतिशीलता का वाहक बना है, “सबसे पहले तो वहाँ जाकर अपनी पढ़ाई का झण्डा गाड़ना चाहिए, फिर अपने व्यवहार से माहौल को अनुकूल बनाना चाहिए और फिर...।“ इस ‘फिर’ में सारा ब्रह्मांड समाहित हो जाता है, जहाँ बच्चों के सामने अपने उदाहरण हैं, जीवन साथी चुनने की आज़ादी है। लेखिका के पास एक ग्रामीण समाज हैं जहाँ प्रेम-विवाह एक अजूबा है तो एक आधुनिक शहरी समाज है जहाँ माता-पिता खुद सहयोगी हैं तो एक अति आधुनिक समाज भी है जहाँ, पब है, शराब है, सिगरेट है, लिव-इन का रोमांच है।

गीताश्री के लेखन में एक महत्वपूर्ण बात ये है कि वे अपने लेखन में जो वक्तव्य प्रयोग करती हैं वे तमाम वक्तव्य एक उक्ति की तरह हो जाते हैं, “उनकी बेटी बहुत अंतर्मुखी है, लगभग असमाजिकता की हद तक।“ (पृष्ठ- 100), (हालाकि यह वाक्य थोड़ा कांत्रडिक्ट्री लगता है) “मौन और एकांत दोनों महानगर में नहीं मिलते।“ (पृष्ठ- 101) “प्रेम विवाह की बलिवेदी है।“ (पृष्ठ-114) “एक द्वीप दूसरे द्वीप की तलाश में कभी मिल नहीं पाते, बस तैरते रहते हैं।“ (पृष्ठ-127)

गीताश्री इस कहानी में एक साथ कई सवाल भी उठाती है-“अपने मौन और एकांत के साथ जीना क्या इतना बोरिंग होता है? क्या हम अपनी दुनिया नहीं चुन सकते, जहाँ किसी का हस्तक्षेप न हो।“ (पृष्ठ- 101) उनकी समस्या महानगर की खराब भाषा भी है, असल में दिल्ली महानगर में गीताश्री वह कल्चर खोज रही हैं जो यहाँ है ही नहीं, यहाँ भाषागत लिहाज ऊंट के मुँह में जीरा जितना ही है। “सबसे अधिक उसे दिक्कत होती, यहाँ के लोगों से बातचीत करने में। वह सबको आप बोलती, लोग उसे तू बोलते। ... अकेले बड़बड़ाती-‘तमीज नहीं है इनको।‘… बहुत तू तड़ाक करते हैं।“ (पृष्ठ- 101)

कस्बाई लड़कियाँ आधुनिक होकर भी अपने पुराने संस्कारों को नहीं छोडती, जबकि लड़के आधुनिकता में रमी लड़कियाँ ही पसंद करते हैं-“तुम्हारी सोच बड़ी पारंपरिक है यार… मुझे लगा तुम आधुनिक हो, रही तुम वही कस्बाई लड़की...” (पृष्ठ 106) लेकिन लड़कियाँ आज भी प्रेमी को किसी से शेयर होते हुए नहीं देख सकती। वे आधुनिक तो हो जाती हैं लेकिन आम प्रेमिका का आवरण उन्हें प्रेमी के अन्य लड़कियों से बातचीत पर जलन से झुलसा देता है। जबकि लड़कों में वह वफ़ा नहीं दिखती, “अनुराग जैसा खिलंदड़ लड़का किस के साथ कब क्या कर जाये? उसका कोई भरोसा नहीं!” (पृष्ठ-108) “लड़कियाँ उसके लिए बस मजे का साधन हैं, तभी तो अपने दिल को कबूतरखाना बना रखा है।“ (पृष्ठ- 108) कुल मिलकार यह एक अच्छी प्रेम कहानी है।

“सोलो ट्रेवलर” का वे एक मनोवैज्ञानिक की तरह से लेखन करती हैं- “… एक तो मेट्रो में खड़े होने की जगह नहीं थी। किसी तरह बोगी नंबर चार में घुसी थी कि महिलाओं की बोगी में जगह मिले न मिले, कॉमन बोगी में महिला सीट लोग खाली कर ही देते हैं…।“ (पृष्ठ- 111) गीताश्री को लगता है कि महानगर हँसी तक को अपने अंदर समेटकर रख लेते हैं, यहाँ हँसी को बचाकर रखना भी एक बड़ा काम है। “तन्वी ने अपनी हँसी दस सालो बाद भी बचाकर रखी है। वैसी ही निर्बाध हँसी। (पृष्ठ 112) लेकिन कहानी में कहीं उनसे मनोवैज्ञानिक चूक भी हुई हैं, “रोज की तरह उस दिन भी बस में बहुत भीड़ थी, तन्वी और नारायणी किसी तरह से मंडी हाउस से नोयडा सिटी सेंटर वाली चार्टर बस में घुसी और अपने गंतव्य पर उतरकर ही सांस ली...।“ (पृष्ठ- 112) मेट्रो के गेट पर कार्ड लगाते हुए तन्वी ने एकदम से नारायणी के कंधे पर हाथ मारा...।“ (वही) इसी तरह से एक और प्रयोग देखा जा सकता है- “जयेश उसके कानों में फुसफुसाया था- हम 2000 में बिछड़े थे, ये 2019 है। इस बीच तुम्हारा कोई पता नहीं। कहाँ गुम हो गयी थी तन्वी?” (पृष्ठ- 112) इस संवाद से स्पष्ट होता है कि तन्वी और जयेश का प्रेम 2000 या उससे पहले रहा, और 2000 उनके ब्रेकअप का साल था, लेखिका आगे लिखती हैं,-“सुन कल तेरे एक्स ने मुझे प्रपोज किया।... किसने जयेश ने?... ओफकोर्स यार... मैंने उसकी बातों का स्क्रीन शॉट लेकर रखा है।“ (पृष्ठ-113) तकनीकी की बात की जाये तो पहला स्मार्ट फोन 22 अक्तूबर 2008 को भारत में लॉन्च किया गया था यह एक एंड्रोइड फोन था। हालाकि अमेरिका में आईबीएम ने 23 नवंबर 1992 को पहला स्मार्ट दे दिया था, कहानी का कथानक भारत की पृष्ठभूमि का होने के नाते ये संदेह हो जाता है कि लेखिका कहानी को लिखते हुए समय और तकनीकी के बारे में सचेत नहीं है। “दस साल बाद मिला है, पुराने अंदाज में बात कर रहा है, जरा भी नहीं बदला...।“(पृष्ठ-120) जबकि “2000 में बिछड़े थे हम” (पृष्ठ-112) यह सब आंकड़ा 19 साल से 10 साल कैसे हुआ ये पाठकों के समझ से बाहर की बात हुई। पुनः (पृष्ठ-122) ”दस साल बाद इतने ज़ोर से ऐसा ठहाका लगाया है, जिसमें सारे विषाद झर जाते हैं।

“उदास पानी में हँसी की परछाई” में भी लेखिका मनोविज्ञान का भरपूर प्रयोग करती हैं, “तुम हँसना तो दूर... मुसकुराती तक नहीं हो। एकदम ठस्स सी लगती हो, तुम ऐसी क्यों हो? इतनी उदास... अपनी ज़िंदगी से… अपनी उपस्थिति से... अपने होने से।...” ((पृष्ठ- 123)

उनकी चिंता जरवा समुदाय की जनजाति को लेकर भी है, वे कहती हैं-“इस सड़क ने जारवा आदिवासियों का बेड़ा गर्क कर दिया है। शिकारी आते हैं, अपने कपड़े छोड़ जाते हैं, इन्हें दे जाते हैं, जिन्हें ये पहन रहे हैं। कपड़े धोने की कला इन्हें नहीं आती है, बारिश, धूल मिट्टी से ये कपड़े उनके शरीर पर चिपक रहे हैं, गल रहे हैं, तरह-तरह की बीमारिययां हो रही हैं, ये मर रहे हैं खत्म हो जाएंगे एक दिन...” ( पृष्ठ- 123) यहाँ यह बात भी सामने आती है कि लेखिका ने इस कहानी को लिखने से पहले पूरा होमवर्क भी किया है। आदिवासी जीवन को बिना स्टडी किए निष्कर्षात्मक लिखना असम्भव ही है।

लेखिका ने यहाँ जीवन के मनोविज्ञान को भी अपनाया है, वे सोनम के माध्यम से लिखती हैं- “मैं अपना दु:ख किसी से शेयर नहीं करती। कोई दूर नहीं करता, दिल्ली जैसे शहर में तो किसी को फुर्सत नहीं, लोग पूछते हैं, ‘हाऊ आर यू... जवाब में सिर्फ इतना सुनना चाहते हैं, फ़ाइन, फ़ाइन कोई नहीं होता।“ (पृष्ठ-128), असल में किसी से हाल पूछना भी महज औपचारिकता ही है, शायद किसी को जवाब सुनना भी नहीं होता कि असल में इंसान कैसा है? बहुत दु:खी और परेशान व्यक्ति भी कहेगा- फ़ाइन।

लेखिका की कितनी ही कहानियाँ दिल्लीवासियों को टार्गेट करती हैं, जहाँ दिल्ली की कल्चर, उनके रहन-सहन, उनकी आदतों इत्यादि पर कटाक्ष किया गया है, ऐसा प्रतीत होता है लेखिका ने दिल्ली वालो काफी गहराई तक स्टडी किया है, “मैं दिल्लीवाला नहीं हूँ। (पृष्ठ-128) सोचता हूँ क्या दिल्ली वाले वाकई इतने बुरे होते हैं, फिर वह मशहूर डायलॉग कैसे बना-“दिल्ली दिलवालों कि या फिर कंगालों की।“

“अदृश्य पंखों वाली लड़की” भी एक बेहतरीन कहानी है, लेकिन इस कहानी में लेखिका कितनी ही बार लिखते हुए जजमेंटल हो जाती है। “संस्कारों की पोटली लड़कियाँ ही ढोती हैं। (पृष्ठ-130) लड़कियाँ वाइन जरा अदा से पीती है। (पृष्ठ- 134) “शादी के बाद तो लड़के यानि पति तो पत्नियों को स्पेस देने में यकीन नहीं रखते, उनकी सारी आज़ादी, सारे सपने हड़प लेते हैं। (पृष्ठ-135) दिल्ली में एक अकेली लड़की को घर नहीं मिलता। (पृष्ठ- 140) दिल्ली तेजी से रंग देती है। अपने साथ बसने लायक बना देती है सबको। (पृष्ठ- 141) “आजकल तो शादीशुदा आदमियों की ही डिमांड है।“ (पृष्ठ- 153) हालाकि इतनी बेबाकी भी गीताश्री के पास ही है कि वे बड़ी नज़ाकत के साथ घोर नारीवादी स्टेटमेंट दे सकती हैं। हालाकि वे जल्दी ही इसके उलट स्टेटमेंट भी दे जाती हैं, वे पुरुषों की समस्या पर भी पुरजोर विचार करती हैं-“विवाह एक पुरुष के लिए दो विपरीत छोरों पर बंधी हुई रस्सी की तरह हो जाता है जिस पर चलते हुए पुरुष संतुलन बिठाता है, जरा सा चुके तो सीधे खाई में।“ (पृष्ठ-136)

इस काहनी की नायिका भी बंधनो से दूर अपने तरीके से ज़िंदगी जीने में विश्वास करती है। वह विवाह के लिए तैयार नहीं है लेकिन उसका ट्रायल चाहती है। नायक के झिझकने पर वह कहती है-“जब मैं तैयार हूँ तो तुम्हें दिक्कत क्यों हैं।“ (पृष्ठ- 138) यहाँ गीताश्री एक प्रस्थापना स्थापित करती हैं- “बस यह प्रेम अलग होगा, प्रायोजित प्रेम, जब विवाह प्रायोजित हो सकता है, तो प्रेम क्यों नहीं। हम तो अपने सम्बन्धों की नीव प्रेम पर रख रहे। विवाह के नाम पर अपने अरमानों की कुर्बानी तो नहीं दे रहे।“ (पृष्ठ- 138)

“मन बंधा हुआ है पर जाल में नहीं हूँ” में भी गीताश्री ने लिवइन की परिभाषाएँ गढ़ी हैं। साथ ही वे एक निर्णय तक नायक नायिका को पहुँचाती हैं- “हम अपने बीच कभी किसी तीसरे को पंचायत करने का मौका नहीं देंगे।“ (पृष्ठ-157)

“एक सर्द रात जो आग सी गरम थी” कहानी की नायिका का प्रेमी छूटे चार-पाँच महीने हो गए हैं लेकिन गीताश्री पृष्ठ- 159 पर कहती हैं- “उसके दफ्तर में उसके सिंगल होने की खबर फैलते ही तरह-तरह की बातें होंगी। यानि लेखिका को लगता है कि चार-पाँच महीने में खबर नहीं फैला करती उसके लिए अधिक वक़्त चाहिए। उनकी नायिका इतनी बोल्ड है कि वह सिंगल होने का स्टेट्स हटाना चाहती है-“पार्ट टाइम साथी तत्काल ढूंढ लेना चाहती थी। जिसके साथ कुछ वक़्त तो कटे।“(पृष्ठ- 159) यह नायिका साथी को भी जॉब की तरह समझती है, एक छोड़ दूसरी लो, फुल टाइम न मिलने तक पार्ट टाइम लो। यह नायिका अपने प्रेमी को बता देना चाहती है-“किसी के चले जाने से चमन खाली नहीं होता। (पृष्ठ-159) यह अलग तरह का नारीवाद है, जिसमें पुरुष अब उपभोक्ता नहीं बल्कि उपभोग की वस्तु भी है, यही उसकी परिणति भी है। वक़्त के बदलाव को गीताश्री कुछ इस तरह पेश करती हैं कि नारी पात्र अब शिकार नहीं बल्कि शिकारी भी है।

गीताश्री के इस संग्रह की प्रत्येक कहानी स्त्री पात्र की सिर्फ वेदना और मजबूरी को नहीं दर्शाती वरन उसे एक निर्णायक स्त्री के रूप में पेश करती है। सभी परिस्थितियों और उनसे जूझने वाली महिलाओं के जीवन के स्याह पन्नों को लेखिका ने पाठकों, विशेष रुप से पुरुषों के सम्मुख उजागर करने का एक सफल प्रयास किया है।

सभी कहानियों को पढ़ने और उसकी भाषा शैली पर विचार करने के उपरांत यह भी स्पष्ट होता है कि लेखिका के पास अपना एक कहन का अलग ही तरीका है। लेखिका प्रत्येक कहानी में उसके पात्रों तथा उनके व्यक्तित्व के अनुसार ही भाषा का प्रयोग करती हैं। उनकी कहानियाँ विभिन्न स्थानों, वातावरण और पृष्ठभूमि के अनुसार विविध रूप धारण करती हुई दिखाई देतीं हैं। कहानी की आवश्यकता के अनुसार आमबोलचाल के शब्दों का भी प्रयोग किया गया है।

अगर शिल्प की बात करें तो कहना होगा कि गीताश्री ने कहानी के लिए किसी विशेष शिल्प को नहीं अपनाया। उनकी कथा कहने की शैली इतनी सरल और सहज है कि उनके पात्र बड़े ही सहज-सरल शब्दों में संवाद करते हैं। लेखिका हर घटना का बड़ा सूक्ष्म विश्लेषण करती हैं, वाक्य विन्यास एकदम सहज है और संवाद कथा की मांग के हिसाब से ही प्रयुक्त किये गए हैं तथापि कुछ व्याकरणिक प्रयोग अवश्य ही चौंकाते हैं। “शांति ने बेखौफ होकर अपने आँचल से पहले बिंदी नोंच कर फेंक दिया।” (पृष्ठ-20) “औरतें, मर्दों की धाक मानती हैं, जिद छोड़ेंगी जबी कोई मर्द मनाए।’’ (पृष्ठ-48) “मैं अपनी वाचालता से उसे ढंक देती थी।“ (पृष्ठ-87) “जल्द ही उनके वाइवा के बाद थीसिस सबमिट हो जानी थी।“ (पृष्ठ-104) नियमतः थीसिस सबमिट होने के बाद वाइवा का प्रावधान है शायद, लेखिका ने प्री-सबमिसन (पीएचडी कोलोकियम) कहना चाहा हो। “... तू न सुन कर पागल हो जाओगी।“ (पृष्ठ- 113) “इतनी बातें तूने कभी बताया नहीं तन्वी।“ (पृष्ठ-115) “यू विल हैव तो कम टू मी...।“ (पृष्ठ- 119) “तन्वी गुस्से में लाइब्रेरी से बाहर निकल कर यूनिवर्सिटी में आ गयी।“ (पृष्ठ- 119) मुझे लगा था कि लाइब्रेरी खुद यूनिवर्सिटी का हिस्सा होती है और वह युनिवर्सिटी में ही होगी। “क्या वह सचमुच पति के जुटाए सुविधाओं की गुलाम बन गयी है...।“ (पृष्ठ- 126) “वह औरत रगों में रोशनी दौड़ती है... जिसे प्यार और अपनेपन की दरकार है...।“ (पृष्ठ- 126)

कुछ प्रयोग एकदम सही होते हुए भी चौंकाते हैं- “उसने भी हवाओं में सवाल उछाल दिया।“ (पृष्ठ-102) “मैं इस समंदर के ठहरे पानियों-सी उदास पानी हूँ।“ (पृष्ठ- 128) “...पिछले कुछ वक़्तों से खामोशी हावी हो गयी थी।“ (पृष्ठ- 128) “तुम्हें आदत डाल लेना चाहिए।“ (पृष्ठ- 145) आदत स्त्रीलिंग शब्द है ज्सिके साथ लेना की जगह लेनी शब्द अधिक उपयुक्त है। “दोनों सड़कें से समान खींचते हुए होस्टल की तरफ चलने लगे थे।“ (पृष्ठ- 147) “मल्टीनेशनल कंपनी जितना पैसा देते हैं, उससे ज्यादा खून पी जाते हैं।“ (पृष्ठ- 152)

इधर अङ्ग्रेज़ी शब्दों का हिन्दी बहुवचन भी खुश चलन में आया है, गीताश्री भी इससे अछूती नहीं हैं-“ ... तो क्या आंटियों से करेंगे।“( पृष्ठ- 143)

गीताश्री स्त्रीवादी लेखन की एक बड़ी कथाकार हैं, उनका अन्य लेखकों-लेखिकाओं से टकराव सोशल मीडिया पर जितना देखा सुना जाता है, वैसा ही कुछ टकराव उनकी कहानी पढ़ते हुए पाठक अपने भीतर भी महसूस करने लगता है। तमाम तरह की सत्‍ताओं से टकराने वाली लेखिका की खूबी है कि वह पितृसत्‍ता की कंडीशनिंग से साफ बच गयी हैं। यह कंडीशनिंग उन्हें छू नहीं पाती।

इस समय हिंदी साहित्‍य में ही स्‍त्री रचनाकारों की एक साथ तीन पीढि़यां रचनारत हैं। एक के अनुभव में पेंटी-ब्रा का वर्णन मुखरता से दर्ज होता है, जिन्हें ब्रा पहनना / न पहनना साहित्य का अनिवार्य अंग लगता है। दूसरी पीढ़ी वह है जो पित्रसत्ता के साथ साथ चलने में अपना साहित्यिक हित खोजती है। तीसरी पीढ़ी वह है जो नारिवाद को अलग पहचान देने में प्रयासरत है और सफल भी। यह तीसरी पीढ़ी संभवतः इस धारणा को मानती है कि यह किसी भी स्‍त्री के निजी कम्‍फर्ट लेवल पर निर्भर करता है कि वह ब्रा पहने या न पहने। गीताश्री के लेखन के आधार पर उन्हें इस तीसरी पीढ़ी में शामिल करना अधिक न्यायोचित होगा। यही बात उनका कहानी संग्रह “बलम कलकत्ता” को पढ़कर भी सही साबित होती है।

संदीप तोमर
डी 2 / 1 जीवन पार्क, उत्तम नगर
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गवैया गधा - विष्णु शर्मा

एक धोबी के पास एक गधा था। गधा हर रोज मैले कपड़ों की गठरी पीठ पर लादकर घाट पर जाता और संध्या समय धुले कपड़ों का गट्ठर लेकर घर लौट आता। यही उसकी दिनचर्या थी। रात में धोबी उसे खुला छोड़ देता।

एक रात गधा घूम रहा था। वहीं कहीं से घूमता हुआ एक सियार आ पहुंचा। गधे और सियार में बातचीत हुई। दोनों ने एक-दूसरे का हालचाल पूछा, फिर दोनों मित्र बन गए। गधा और सियार दोनों बातचीत करते हुए एक खेत में पहुंचे। खेत में ककड़ियां लगी थीं। दोनों ने जी भरकर ककड़ियां खाईं। ककड़ियां बहुत स्वादिष्ट लगीं।

अब तो गधा और सियार दोनों प्रतिदिन रात में ककड़ियां खाने के लिए उस खेत में जाने लगे। दोनों जी भरकर ककड़ियां खाते और फिर चुपचाप खेत से निकल जाते। मीठी-मीठी ककड़ियां खाने के कारण दोनों मोटे-ताजे हो गए। साथ ही उन्हें ककड़ियां खाने की लत भी लग गई। जब तक ककड़ियां खा न लेते थे, उन्हें चैन नहीं पड़ता था।

धीरे-धीरे कई मास बीत गए। एक दिन चांदनी रात थी। आकाश में चंद्रमा अपनी चाँदनी बिखेर रहा था। गधा और सियार दोनों अपनी आदत के अनुसार खेत में जा पहुंचे। दोनों ने जी भरकर ककड़ियां खाईं। गधा जब ककड़ियां खा चुका, तो बोला, "अहा, कितनी सुंदर रात है, आकाश मे चंद्रमा हँस रहा है। चारों ओर दूध की धारा सी बह रही है, ऐसी सुंदर रात मे तो मेरा मन गाने को कर रहा है।"

गधे की बात सुनकर सियार बोला, "गधे भाई, ऐसी भूल मत करना। गाओगे तो, खेत का रखवाला दौड़ पड़ेगा। फिर ऐसी पूजा करेगा कि छठी का दूध याद आ जाएगा !"

गधा गर्व के साथ बोला, "वाह, मैं क्यों न गाऊं? मेरा कंठ- स्वर बड़ा सुरीला है। तुम्हारा कंठ-स्वर सुरीला नहीं है, इसीलिए तुम मुझे गाने से मना कर रहे हो। मैं तो गाऊंगा, अवश्य गाऊंगा।"

सियार बोला, "गधे भाई, मेरा कंठ स्वर तो जैसा है, वैसा है। तुम्हारे सुरीले कंठ स्वर को सुनकर खेत का रखवाला प्रसन्न तो नहीं होगा, डंडा लेकर अवश्य दौड़ पड़ेगा। पीठ पर इतने डंडे मारेगा कि आंखें निकल आएंगी।"

सियार के समझाने का प्रभाव गधे के ऊपर बिल्कुल नहीं पड़ा। वह बोला, “तुम मूर्ख और कायर हो। मैं तो गाऊंगा, अवश्य गाऊंगा।"

गधा सिर ऊपर उठाकर रेंकने के लिए तैयार हो गया। सियार बोला, “गधे भाई, जरा रुको। मुझे खेत से बाहर निकल जाने दो, तब गाओ। मैं खेत से बाहर तुम्हारी प्रतीक्षा करूंगा।" सियार इतना कहते ही खेत से बाहर भाग लिया। गधा रेंकने लगा। एक बार दो बार और तीन बार गधे की आवाज चारों ओर गूंज उठी। खेत के रखवाले के कानों में भी पडी। वह हाथ में डंडा लेकर दौड़ पड़ा।

रखवाले ने खेत में पहुंचकर गधे को पीटना आरंभ कर दिया। उसने थोड़ी ही देर में गधे को इतने डंडे मारे कि वह बेदम होकर गिर पड़ा।

गधे के गिरने पर रखवाले ने उसके गले में ऊखल भी बांध दी।

गधे को जब होश आया, तो वह लंगड़ाता-लंगड़ाता ऊखल को घसीटता हुआ खेत के बाहर गया। वहां सियार उसकी प्रतीक्षा कर रहा था । वह गधे को देखकर बोला, "क्यों गधे भाई, तुम्हारे गले में यह क्या बंधा हुआ है? क्या तुम्हारे सुरीले स्वर पर रीझकर खेत के रखवाले ने तुम्हें यह पुरस्कार दिया है?"

गधा लज्जित हो गया। वह नीची गरदन करके बोला, “अब और लज्जित मत करो, सियार भाई! झूठे अभिमान का यही फल होता है। अब तो किसी तरह इस ऊखल को गले से छुड़ाकर मेरे प्राण बचाओ।"

सियार ने रस्सी काटकर ऊखल को अलग कर दिया। गधा और सियार फिर मित्र की तरह घूमने लगे, पर गधे ने फिर कभी अनुचित समय पर गाने की मूर्खता नहीं की।

शिक्षा : 
मूर्ख मनुष्य का साथ नहीं करना चाहिए। जो झूठा गर्व करता है, उसे हानि उठानी पड़ती है। बोलने के पहले समय और कुसमय का विचार कर लेना चाहिए। चालाक आदमी से बचें, वह बलवान को भी मूर्ख बना देता है।

......
 
 
धर्म के नाम पर | लघु-कथा - रोहित कुमार 'हैप्पी'

'यीशु ही परमात्मा का सच्चा बेटा है।' ईसाई ने कहा।

'मुहम्मद ही एक मात्र पैगंबर है।' मुस्लिम ने अपना मत व्यक्त किया।

'शिव सर्वोच्च है और वो ही ईश्वर है।' हिंदू ने कहा।

'हमारे गुरू पैगंबर थे और वे ही सबको पार लगा सकते हैं।' सिख ने बताया।


वाद-विवाद जोरों पर था। उसी समय एक प्रकाशकुंज से एक आकृति प्रकट हुई। सभी उस ओर देखने लगे।

'मेरा यीश!'

'मुहम्मद!'

'शिव भगवान!'

'वाहे गुरू!'

......

 
 
गिल्लू - महादेवी वर्मा

सोनजुही में आज एक पीली कली लगी है। इसे देखकर अनायास ही उस छोटे जीव का स्मरण हो आया, जो इस लता की सघन हरीतिमा में छिपकर बैठता था और फिर मेरे निकट पहुँचते ही कंधे पर कूदकर मुझे चौंका देता था। तब मुझे कली की खोज रहती थी, पर आज उस लघुप्राण की खोज है।

परंतु वह तो अब तक इस सोनजुही की जड़ में मिट्टी होकर मिल गया होगा। कौन जाने स्वर्णिम कली के बहाने वही मुझे चौंकाने ऊपर आ गया हो!

अचानक एक दिन सवेरे कमरे से बरामदे में आकर मैंने देखा, दो कौवे एक गमले के चारों ओर चोंचों से छूआ-छुऔवल जैसा खेल खेल रहे हैं। यह काकभुशुंडि भी विचित्र पक्षी है - एक साथ समादरित, अनादरित, अति सम्मानित, अति अवमानित।

हमारे बेचारे पुरखे न गरूड़ के रूप में आ सकते हैं, न मयूर के, न हंस के। उन्हें पितरपक्ष में हमसे कुछ पाने के लिए काक बनकर ही अवतीर्ण होना पड़ता है। इतना ही नहीं हमारे दूरस्थ प्रियजनों को भी अपने आने का मधु संदेश इनके कर्कश स्वर में ही देना पड़ता है। दूसरी ओर हम कौवा और काँव-काँव करने को अवमानना के अर्थ में ही प्रयुक्त करते हैं।

मेरे काकपुराण के विवेचन में अचानक बाधा आ पड़ी, क्योंकि गमले और दीवार की संधि में छिपे एक छोटे-से जीव पर मेरी दृष्टि रफ़क गई। निकट जाकर देखा, गिलहरी का छोटा-सा बच्चा है जो संभवतः घोंसले से गिर पड़ा है और अब कौवे जिसमें सुलभ आहार खोज रहे हैं।

काकद्वय की चोंचों के दो घाव उस लघुप्राण के लिए बहुत थे, अतः वह निश्चेष्ट-सा गमले से चिपटा पड़ा था।

सबने कहा, कौवे की चोंच का घाव लगने के बाद यह बच नहीं सकता, अतः इसे ऐसे ही रहने दिया जावे।

परंतु मन नहीं माना -उसे हौले से उठाकर अपने कमरे में लाई, फिर रूई से रक्त पोंछकर घावों पर पेंसिलिन का मरहम लगाया।

रूई की पतली बत्ती दूध से भिगोकर जैसे-तैसे उसके नन्हे से मुँह में लगाई पर मुँह खुल न सका और दूध की बूँदें दोनों ओर ढुलक गईं।

कई घंटे के उपचार के उपरांत उसके मुँह में एक बूँद पानी टपकाया जा सका। तीसरे दिन वह इतना अच्छा और आश्वस्त हो गया कि मेरी उँगली अपने दो नन्हे पंजों से पकड़कर, नीले काँच के मोतियों जैसी आँखों से इधर-उधर देखने लगा।

तीन-चार मास में उसके स्निग्ध रोए, झब्बेदार पूँछ और चंचल चमकीली आँखें सबको विस्मित करने लगीं।

हमने उसकी जातिवाचक संज्ञा को व्यक्तिवाचक का रूप दे दिया और इस प्रकार हम उसे गिल्लू कहकर बुलाने लगे। मैंने फूल रखने की एक हलकी डलिया में रूई बिछाकर उसे तार से खिड़की पर लटका दिया।

वही दो वर्ष गिल्लू का घर रहा। वह स्वयं हिलाकर अपने घर में झूलता और अपनी काँच के मनकों -सी आँखों से कमरे के भीतर और खिड़की से बाहर न जाने क्या देखता-समझता रहता था। परंतु उसकी समझदारी और कार्यकलाप पर सबको आश्चर्य होता था।

जब मैं लिखने बैठती तब अपनी ओर मेरा ध्यान आकर्षित करने की उसे इतनी तीव्र इच्छा होती थी कि उसने एक अच्छा उपाय खोज निकाला।

वह मेरे पैर तक आकर सर्र से परदे पर चढ़ जाता और फिर उसी तेजी से उतरता। उसका यह दौड़ने का क्रम तब तक चलता जब तक मैं उसे पकड़ने के लिए न उठती।

कभी मैं गिल्लू को पकड़कर एक लंबे लिफ़ाफ़े में इस प्रकार रख देती कि उसके अगले दो पंजों और सिर के अतिरिक्त सारा लघुगात लिफ़ाफ़े के भीतर बंद रहता। इस अद्भुत स्थिति में कभी-कभी घंटों मेज़ पर दीवार के सहारे खड़ा रहकर वह अपनी चमकीली आँखों से मेरा कार्यकलाप देखा करता।

भूख लगने पर चिक-चिक करके मानो वह मुझे सूचना देता और काजू या बिस्कुट मिल जाने पर उसी स्थिति में लिफ़ाफ़े से बाहर वाले पंजों से पकड़कर उसे कुतरता रहता।

फिर गिल्लू के जीवन का प्रथम बसंत आया। नीम-चमेली की गंध मेरे कमरे में हौले-हौले आने लगी। बाहर की गिलहरियां खिड़की की जाली के पास आकर चिक-चिक करके न जाने क्या कहने लगीं?

गिल्लू को जाली के पास बैठकर अपनेपन से बाहर झाँकते देखकर मुझे लगा कि इसे मुक्त करना आवश्यक है।

मैंने कीलें निकालकर जाली का एक कोना खोल दिया और इस मार्ग से गिल्लू ने बाहर जाने पर सचमुच ही मुक्ति की साँस ली। इतने छोटे जीव को घर में पले कुत्ते, बिल्लियों से बचाना भी एक समस्या ही थी।

आवश्यक कागज़ -पत्रों के कारण मेरे बाहर जाने पर कमरा बंद ही रहता है। मेरे कालेज से लौटने पर जैसे ही कमरा खोला गया और मैंने भीतर पैर रखा, वैसे ही गिल्लू अपने जाली के द्वार से भीतर आकर मेरे पैर से सिर और सिर से पैर तक दौड़ लगाने लगा। तब से यह नित्य का क्रम हो गया।

मेरे कमरे से बाहर जाने पर गिल्लू भी खिड़की की खुली जाली की राह बाहर चला जाता और दिन भर गिलहरियों के झुंड का नेता बना हर डाल पर उछलता-कूदता रहता और ठीक चार बजे वह खिड़की से भीतर आकर अपने झूले में झूलने लगता।

मुझे चौंकाने की इच्छा उसमें न जाने कब और कैसे उत्पन्न हो गई थी। कभी फूलदान के फूलों में छिप जाता, कभी परदे की चुन्नट में और कभी सोनजुही की पत्तियों में।

मेरे पास बहुत से पशु-पक्षी हैं और उनका मुझसे लगाव भी कम नहीं है, परंतु उनमें से किसी को मेरे साथ मेरी थाली में खाने की हिम्मत हुई है, ऐसा मुझे स्मरण नहीं आता।

गिल्लू इनमें अपवाद था। मैं जैसे ही खाने के कमरे में पहुँचती, वह खिड़की से निकलकर आँगन की दीवार, बरामदा पार करके मेज़ पर पहुंच जाता और मेरी थाली में बैठ जाना चाहता। बड़ी कठिनाई से मैंने उसे थाली के पास बैठना सिखाया जहां बैठकर वह मेरी थाली में से एक-एक चावल उठाकर बड़ी सफ़ाई से खाता रहता। काजू उसका प्रिय खाद्य था और कई दिन काजू न मिलने पर वह अन्य खाने की चीजें या तो लेना बंद कर देता या झूले से नीचे फेंक देता था।

उसी बीच मुझे मोटर दुर्घटना में आहत होकर कुछ दिन अस्पताल में रहना पड़ा। उन दिनों जब मेरे कमरे का दरवाजा खोला जाता गिल्लू अपने झूले से उतरकर दौड़ता और फिर किसी दूसरे को देखकर उसी तेज़ी से अपने घोंसले में जा बैठता। सब उसे काजू दे आते, परंतु अस्पताल से लौटकर जब मैंने उसके झूले की सफ़ाई की तो उसमें काजू भरे मिले, जिनसे ज्ञात होता था कि वह उन दिनों अपना प्रिय खाद्य कितना कम खाता रहा।

मेरी अस्वस्थता में वह तकिए पर सिरहाने बैठकर अपने नन्हे-नन्हे पंजों से मेरे सिर और बालों को इतने हौले-हौले सहलाता रहता कि उसका हटना एक परिचारिका के हटने के समान लगता।

गरमियों में जब मैं दोपहर में काम करती रहती तो गिल्लू न बाहर जाता न अपने झूले में बैठता। उसने मेरे निकट रहने के साथ गरमी से बचने का एक सर्वथा नया उपाय खोज निकाला था। वह मेरे पास रखी सुराही पर लेट जाता और इस प्रकार समीप भी रहता और ठंडक में भी रहता।

गिलहरियों के जीवन की अवधि दो वर्ष से अधिक नहीं होती, अतः गिल्लू की जीवन यात्रा का अंत आ ही गया। दिन भर उसने न कुछ खाया न बाहर गया। रात में अंत की यातना में भी वह अपने झूले से उतरकर मेरे बिस्तर पर आया और ठंडे पंजों से मेरी वही उँगली पकड़कर हाथ से चिपक गया, जिसे उसने अपने बचपन की मरणासन्न स्थिति में पकड़ा था। पंजे इतने ठंडे हो रहे थे कि मैंने जागकर हीटर जलाया और उसे उष्णता देने का प्रयत्न किया। परंतु प्रभात की प्रथम किरण के स्पर्श के साथ ही वह किसी और जीवन में जागने के लिए सो गया।

उसका झूला उतारकर रख दिया गया है और खिड़की की जाली बंद कर दी गई है, परंतु गिलहरियों की नयी पीढ़ी जाली के उस पार चिक-चिक करती ही रहती है और सोनजुही पर बसंत आता ही रहता है।

सोनजुही की लता के नीचे गिल्लू को समाधि दी गई है - इसलिए भी कि उसे वह लता सबसे अधिक प्रिय थी - इसलिए भी कि उस लघुगात का, किसी वासंती दिन, जुही के पीताभ छोटे फूल में खिल जाने का विश्वास, मुझे संतोष देता है।


- महादेवी वर्मा

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साभार - महादेवी प्रतिनिधि गद्य-रचनाएँ (भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन)

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गिल्लू कहानी का वीडियो देखें।

 

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महामूर्ख | लघु कथा - अलोक मरावी

"अरे तिवारी जी, आपको पता है ...वो जो विशकर्मा जी है न ....वो जो P.W.D में काम करते हैं?"शर्मा जी बोले।
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भेड़िया और बकरी - अरविंद कुमार

एक बार की बात है, एक जंगल में एक बकरी रहती थी, उसने अपने लिए जंगल में एक झोंपड़ी बनायी और वहाँ अपने बच्चों को जन्म दिया। बकरी अकसर चारे की खोज में घास वाले जंगल में जाया करती थी। बकरी के बाहर जाते ही उसके बच्चे खुद को झोंपड़ी के अंदर बंद कर लेते थे, और कहीं बाहर नहीं जाते थे। बकरी वापस आने पर दरवाजे को खटखटा कर गाना गाती:

प्यारे मेमनों, प्यारे बच्चों!
खोलो, जल्दी ताला खोलो!......

 
 
आओ, नूतन वर्ष मना लें - हरिवंशराय बच्चन

आओ, नूतन वर्ष मना लें!

गृह-विहीन बन वन-प्रयास का
तप्त आँसुओं, तप्त श्वास का,......

 
 
सुनाएँ ग़म की किसे कहानी - अशफ़ाक़उल्ला ख़ाँ

सुनाएँ ग़म की किसे कहानी हमें तो अपने सता रहे हैं।
हमेशा सुबहो-शाम दिल पर सितम के खंजर चला रहे हैं।।

न कोई इंग्लिश न कोई जर्मन न कोई रशियन न कोई टर्की। ......

 
 
चार हाइकु  - तपेश

जूते ठाट के -
जैसे बड़े लाट के,......

 
 
ऐसे पड़ गया नाम 'शेख चिल्ली' - भारत-दर्शन संकलन

शेख चिल्ली के अनेक किस्से है। उनका नाम शेख चिल्ली कैसे पड़ा, इसपर भी कई किस्से हैं! उनके नाम के साथ 'चिल्ली' उनके द्वारा 40 दिन तक लगातार प्रार्थना, जिसे 'चिल्ला' कहते हैं, करने के कारण पड़ा, यह भी कहा जाता है। एक और मजेदार किस्सा इस प्रकार है:

बचपन में मियां शेख को मौलवी साहब नें शिक्षा दी कि लड़के और लड़की के संबोधन और वार्तालाप के लिए अलग-अलग शब्दों का प्रावधान होता है। उदाहरण के तौर पर "सुलतान खाना खा रहा है" लेकिन "सुलताना खाना खा रही है।"

शेख मियां ने मौलवी साहब की यह सीख गाठ बांध ली।

एक दिन मियां शेख जंगल से गुज़र रहे थे। तभी उन्हे किसी कुएं के अंदर से किसी के चिल्लाने की आवाज़ आई। वह फौरन वहाँ जा पहुंचे। उन्होने देखा की वहाँ कुएँ में एक लड़की गिरी पड़ी थी और वह मदद के लिए चिल्ला रही थी।

अब उन्हें इस लड्की को बाहर निकालने के लिए अपने मित्रों की सहता की आवश्यकता थी। अब उन्हें कैसे बताएं? सोचा तो मौलवी साहब वाला पाठ, "सुलताना खाना खा रही है" याद आ गया। लड़की अभी भी कुएँ के अंदर से मदद के लिए चिल्ला रही थी।

मियां शेख तुरंत दौड़ कर अपने दोस्तों के पास गए। बोले, 'जल्दी चलो। लड़की कुएँ में गिरी हुई है, उसे मदद चाहिए। वो 'चिल्ली' रही है।'

"क्या?" मित्रों ने एक साथ पूछा?

"अरे, जल्दी चलो लड़की जोर-जोर से 'चिल्ली' रही है।

दोस्तों को पूरी बात समझ नहीं आई पर वे मदद करने को साथ चल दिए। मियां शेख और उनके दोस्तों नें मिलकर उस लड़की को कुएं से बाहर निकाल लिया और वह सुरक्षित अपने घर को चल दी।

मियां शेख और उसके दोस्तों ने भी घर की रह पकड़ी। रास्ते में मियां शेख के एक दोस्त ने सवाल किया, "मियां शेख, आप लड़की 'चिल्ली' रही है, क्यों बोले जा रहे थे?

तब मियां शेख के एक पुराने दोस्त ने खुलासा किया कि मौलवी साहब नें मियां शेख को पढ़ाया था कि लड़का होगा तो, 'खाना खा रहा है', और लड़की हुई तो 'खाना खा रही है।' इसी हिसाब से मियां शेख नें लड़की के चिल्लाने पर "चिल्ली रही" शब्द का प्रयोग किया।

मियां शेख के सारे दोस्त इस बात पर पेट पकड़कर हँसते-हँसते दोहरे हो गए। तभी से मियां शेख बन गए "शेख चिल्ली"।

[भारत-दर्शन]


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साजिदा नसरीन  - डॉ. वंदना मुकेश

"हैलो, साजिदा..., हैलो, माफ़ कीजिएगा, आय एम साजिदाज़ टीचर...हाउ इज़ शी कीपिंग?" अगले छोर से कुछ अजीब सी फुसफुसाहट सी आई। फ़ोन पर किसी का नाम पुकारा गया, कुछ देर में फ़ोन पर किसी महिला की आवाज़ आई, "यस...,"

मैंने अपना सवाल फिर दोहरा दिया, "आय एम साजिदाज़ टीचर...हाउ इज़ शी कीपिंग?" दूसरी तरफ खामोशी...... फिर एक सिसकी।

मुझे कुछ अजीब सी बेचैनी हुई और मेरा एकदम दिल बैठ गया। सोचा, यों ही फ़ोन किया, काट दूँ... न... न... अब उचित न होगा फ़ोन काटना..

"आय एम साजिदाज़ नीज़, साजिदा... साजिदा...शी इज़ नो मोर।" उधर से आती आवाज़ उदास थी। मुझे विश्वास न हुआ कि जो मैंने सुना वह सच था।

मैं एकदम बौखलाते हुए बोली, "व्हॉट?, उधर से लगभग आवाज़ आई," यस शी इज़ नो मोर, कुड यू कॉल लेटर" उस छोर से रोने की दबी-दबी आवाज़ें कुछ तेज सी होने लगी। मैं कुछ कह-समझ पाती, इसके पहले फ़ोन धीरे से रख दिया गया था। साजिदा का चेहरा मेरी आँखों के सामने था। निर्दोष चेहरा। खूबसूरत। लजाती हँसी। मोटा काली फ्रेम का चश्मा। कानों में बड़े-बड़े झुमके सलवार कमीज़ से मैचिंग। अक्सर सिर ढँका। लाल मोटा ओवरकोट। बेडौल भारी-भरकम शरीर। लेकिन चेहरे की मासूमियत देखनेवाले को उलझा लेती थी।

2

इंग्लैंड के प्रायमरी और सेकेंड्री स्कूलों में पढ़ाकर कभी भी शिक्षक होने का संतोष नहीं हुआ। मैं कॉलेज ऑफ फर्दर एज्यूकेशन में उन लोगों को अंग्रेजी भाषा सिखाने लगी जिनकी प्रथम भाषा अंग्रेज़ी नहीं थी ।मेरे विद्यार्थियों में पोलिश, लिथुएनियन, सोमाली, ईराकी, अफ़गानी बांग्लादेशी, पाकिस्तानी और हिंदुस्तानी आदि थे। उम्र के लिहाज़ से 20 साल से लेकर 70 साल तक के विद्यार्थी थे। लेकिन मेरे लिये वे बच्चों की तरह ही थे। अंग्रेज़ी सीखने के कारण सबके जुदा थे, उनकी समझ के स्तर भिन्न थे लेकिन एक बात सबमें थी कि उनमें सीखने की जबरदस्त लगन थी। बहुत अच्छा लगता था जब कोई छात्र आकर टूटी- फूटी अंग्रेज़ी में उत्साह से यह बताता कि "टीचर आई आस्क, हाउ मच बस टिकिट? " आई फ़िल्ड द लायब्रेरी फार्म मायसेल्फ़"। जब परीक्षा पास करते तो चाक्लेट, मिठाई के अंबार लग जाते। मुझे नशा-सा हो गया था मेरे छात्रों का। कुछ इन क्लासों में अंग्रेज़ी सीखकर छोटी-मोटी नौकरी करने लगे, कुछ अपनी लगन से यूनिवर्सिटी में दाख़िल हो गये। उनके खुशी से दमकते चेहरे देखकर मेरा चेहरा भी दमकने लगता था और पढ़ाते-पढ़ाते न जाने कब, उनके छोटे-छोटे सुख दुख मेरे अपने बन जाते। उन्हें मैं निरापद लगने लगती, साल के शुरू में ही मेरा अभयदान उन्हें मेरे बहुत करीब ले आता। लेकिन हर साल नयी क्लास।

3

कॉलेज ने मुझे उस साल कम्युनिटी सेंटर्ज़ में जाकर इंग्लिश पढ़ाने को कहा। जिस सेंटर पर मुझे भेजा गया वहाँ लगभग सत्तर प्रतिशत लोग नये थे। ज़्यादातर लोग पाकिस्तानी थे। परिचय खेल-खेल में किया गया। एक महिला ने मेरा ध्यान विशेष रूप से खींचा। काफ़ी मोटा-से फ़्रेम का चश्मा, छोटी, तीखी सी नाक, पतले होंठ, छोटा, गोल गोरा-सा चेहरा। सर दुपट्टे से ढंका हुआ। गले के नीचे का भाग किसी और का लगता था। क्योंकि वह बड़ा भारी और बेडौल सा था। जब वह खेल-खेल में दौड़ रही थी तो उसके हाथ-पैर शरीर, सभी अंग अलग-अलग दिशाओं में पड़ रहे थे, लेकिन उसका उत्साह ज़बरदस्त था। फिर भी जाने क्यों कुछ ऐसा था जो मैं ऩ समझ सकी। जब 'इनीशियल असेसमेंट' करने के लिये सभी लोगों को नाम लिखने का काम दिया तो उसकी लिखावट देखकर मैं दंग रह गई। फ़ाउंटेन पेन से मोती जैसे अक्षरों में उसने अपना नाम बड़ी खूबसुरती से लिखा था। मैंने कहा, साजिदा, "योर हैंडरायटिंग इज़ वेरी ब्यूटीफुल।" साजिदा किसी नई दुल्हन की तरह शरमा गई। उसके गालों पर शरम की लाली और उनमें गड्ढे। बौखलाती सी बोली, "टीचर नो वन टेल मी दिस बिफ़ोर. यू आर वेरी नाईस, टीचरआई लाईक यू " । यह साजिदा से मेरी पहली मुलाकात थी।

4

मैं क्लास में अभी घुस भी नहीं पाई थी कि, अचानक कि साजिदा की आवाज़ सुनाई दी। "टीचरजी, कितनी सुंदर हैं आप! काले चश्मा और लाल टॉप में आप कितनी खूबसूरत लग रही हैं! माशाल्लाह, नज़र न लगे! सॉरी टीचरजी, यू वैरी ब्यूटीफ़ुल गागल्स एंड रेड टॉप वेयरिंग... नो एंग्री, आई स्पीकिंग इंग्लिश "
इस अकस्मात् और अप्रत्याशित विरुदावलि से मैं एकदम सकपका गई। न जाने कब और कहाँ से उसकी निगाहें मेरा पीछा करती आ रही थीं कि क्लास में घुसते ही... उसके यह कहते ही बीस से पचास की उम्र के लगभग पंद्रह जनाने-मर्दाने चेहरे मेरी ओर उठ गये।कुछ निरीक्षण-अवलोकन करते हुए, और कुछ उसकी बात पर मोहर लगाते से। मैंने भरसक सहज बनकर मुस्कराते हुए सबका अभिवादन किया और साजिदा से ही शुरुआत की।

"हैलो, हाउ आर यू", वह आँखें मिचमिचाते हुए तोते-सी बोली, "आइ एम फ़ाईन, थैंक यू। हाउ आर यू?"

फिर एक-एक कर के बाकी लोगों के इसी तरह हाल पूछा और जवाब मिलता गया । किसी का उत्साह से और किसी का अंग्रेजी ग़लत बोलने के डर से सहमा-सा। फिर, उस दिन का अंग्रेजी-पाठ पढ़ाने के लिये मैं विविध चित्र- वर्ड-कार्ड्स एवं वर्कशीट्स इत्यादि मेज पर रखने लगी। अभी रख भी नहीं पाई थी कि वह फिर आ गई, बोली, "टीचरजी, आप कभी छोड़ के तो नहीं जाओगे, मुझे बहुत डर लगता है।"

मैंने पूछा, व्हाय, व्हाट आर यू स्केयर्ड ऑफ़ ? क्यों, किससे डर लगता है?"

वह बात बदल गई। "टीचरजी, बहुत दर्द होता है" फिर उसने मेरे चेहरे के भावों के पढ़ने की कोशिश की, बोली, "अपरेशन हुआ था पेट का। मेरी..."

"ओ, आय एम रियली सॉरी एंड होप यू गैट बेटर, आय विल स्पीक टु यू आफ़्टर दि क्लास" समय भाग रहा था सो मैंने सहानुभूति जताते हुए कहा। वह एक अच्छे बच्चे की तरह जाकर अपनी जगह पर बैठ गई। पढ़ाना शुरु हुआ, फिर कैसे लगभग दो घंटे निकले, पता ही नहीं चला। लोग बाय-बाय कर जाने लगे। मैं अपना सामान उठाकर बैग में डालने लगी। मैं बोर्ड साफ़ करने उठी तो वह फिर आ गई। मेरे हाथ से बोर्ड रबर ले लिया। मैं चुपचाप अपना सामान उठाकर बैग में रखने लगी। निकलने लगी, तो वह घबराती-सी बोली, ......

 
 
काबुलीवाला  - रबीन्द्रनाथ टैगोर

मेरी पाँच बरस की लड़की मिनी से घड़ीभर भी बोले बिना नहीं रहा जाता। एक दिन वह सवेरे-सवेरे ही बोली, "बाबूजी, रामदयाल दरबान है न, वह 'काक' को 'कौआ' कहता है। वह कुछ जानता नहीं न, बाबूजी।" मेरे कुछ कहने से पहले ही उसने दूसरी बात छेड़ दी। "देखो, बाबूजी, भोला कहता है - आकाश में हाथी सूँड से पानी फेंकता है, इसी से वर्षा होती है। अच्छा बाबूजी, भोला झूठ बोलता है, है न?" और फिर वह खेल में लग गई।

मेरा घर सड़क के किनारे है। एक दिन मिनी मेरे कमरे में खेल रही थी। अचानक वह खेल छोड़कर खिड़की के पास दौड़ी गई और बड़े ज़ोर से चिल्लाने लगी, "काबुलीवाले, ओ काबुलीवाले!"

कँधे पर मेवों की झोली लटकाए, हाथ में अँगूर की पिटारी लिए एक लंबा सा काबुली धीमी चाल से सड़क पर जा रहा था। जैसे ही वह मकान की ओर आने लगा, मिनी जान लेकर भीतर भाग गई। उसे डर लगा कि कहीं वह उसे पकड़ न ले जाए। उसके मन में यह बात बैठ गई थी कि काबुलीवाले की झोली के अंदर तलाश करने पर उस जैसे और भी
दो-चार बच्चे मिल सकते हैं।

काबुली ने मुसकराते हुए मुझे सलाम किया। मैंने उससे कुछ सौदा खरीदा। फिर वह बोला, "बाबू साहब, आप की लड़की कहाँ गई?"

मैंने मिनी के मन से डर दूर करने के लिए उसे बुलवा लिया। काबुली ने झोली से किशमिश और बादाम निकालकर मिनी को देना चाहा पर उसने कुछ न लिया। डरकर वह मेरे घुटनों से चिपट गई। काबुली से उसका पहला परिचय इस तरह हुआ। कुछ दिन बाद, किसी ज़रुरी काम से मैं बाहर जा रहा था। देखा कि मिनी काबुली से खूब बातें कर रही है और काबुली मुसकराता हुआ सुन रहा है। मिनी की झोली बादाम-किशमिश से भरी हुई थी। मैंने काबुली को अठन्नी देते हुए कहा, "इसे यह सब क्यों दे दिया? अब मत देना।" फिर मैं बाहर चला गया।

कुछ देर तक काबुली मिनी से बातें करता रहा। जाते समय वह अठन्नी मिनी की झोली में डालता गया। जब मैं घर लौटा तो देखा कि मिनी की माँ काबुली से अठन्नी लेने के कारण उस पर खूब गुस्सा हो रही है।

काबुली प्रतिदिन आता रहा। उसने किशमिश बादाम दे-देकर मिनी के छोटे से ह्रदय पर काफ़ी अधिकार जमा लिया था। दोनों में बहुत-बहुत बातें होतीं और वे खूब हँसते। रहमत काबुली को देखते ही मेरी लड़की हँसती हुई पूछती, "काबुलीवाले, ओ काबुलीवाले! तुम्हारी झोली में क्या है?"

रहमत हँसता हुआ कहता, "हाथी।" फिर वह मिनी से कहता, "तुम ससुराल कब जाओगी?"

इस पर उलटे वह रहमत से पूछती, "तुम ससुराल कब जाओगे?"

रहमत अपना मोटा घूँसा तानकर कहता, "हम ससुर को मारेगा।" इस पर मिनी खूब हँसती।

हर साल सरदियों के अंत में काबुली अपने देश चला जाता। जाने से पहले वह सब लोगों से पैसा वसूल करने में लगा रहता। उसे घर-घर घूमना पड़ता, मगर फिर भी प्रतिदिन वह मिनी से एक बार मिल जाता।

एक दिन सवेरे मैं अपने कमरे में बैठा कुछ काम कर रहा था। ठीक उसी समय सड़क पर बड़े ज़ोर का शोर सुनाई दिया। देखा तो अपने उस रहमत को दो सिपाही बाँधे लिए जा रहे हैं। रहमत के कुर्ते पर खून के दाग हैं और सिपाही के हाथ में खून से सना हुआ छुरा।

कुछ सिपाही से और कुछ रहमत के मुँह से सुना कि हमारे पड़ोस में रहने वाले एक आदमी ने रहमत से एक चादर खरीदी। उसके कुछ रुपए उस पर बाकी थे, जिन्हें देने से उसने इनकार कर दिया था। बस, इसी पर दोनों में बात बढ़ गई, और काबुली ने उसे छुरा मार दिया।

इतने में "काबुलीवाले, काबुलीवाले", कहती हुई मिनी घर से निकल आई। रहमत का चेहरा क्षणभर के लिए खिल उठा। मिनी ने आते ही पूछा, ''तुम ससुराल जाओगे?" रहमत ने हँसकर कहा, "हाँ, वहीं तो जा रहा हूँ।"

रहमत को लगा कि मिनी उसके उत्तर से प्रसन्न नहीं हुई। तब उसने घूँसा दिखाकर कहा, "ससुर को मारता पर क्या करुँ, हाथ बँधे हुए हैं।"

छुरा चलाने के अपराध में रहमत को कई साल की सज़ा हो गई।

काबुली का ख्याल धीरे-धीरे मेरे मन से बिलकुल उतर गया और मिनी भी उसे भूल गई।

कई साल बीत गए।

आज मेरी मिनी का विवाह है। लोग आ-जा रहे हैं। मैं अपने कमरे में बैठा हुआ खर्च का हिसाब लिख रहा था। इतने में रहमत सलाम करके एक ओर खड़ा हो गया।

पहले तो मैं उसे पहचान ही न सका। उसके पास न तो झोली थी और न चेहरे पर पहले जैसी खुशी। अंत में उसकी ओर ध्यान से देखकर पहचाना कि यह तो रहमत है।

मैंने पूछा, "क्यों रहमत कब आए?"

"कल ही शाम को जेल से छूटा हूँ," उसने बताया।

मैंने उससे कहा, "आज हमारे घर में एक जरुरी काम है, मैं उसमें लगा हुआ हूँ। आज तुम जाओ, फिर आना।"

वह उदास होकर जाने लगा। दरवाजे़ के पास रुककर बोला, "ज़रा बच्ची को नहीं देख सकता?"

शायद उसे यही विश्वास था कि मिनी अब भी वैसी ही बच्ची बनी हुई है। वह अब भी पहले की तरह "काबुलीवाले, ओ काबुलीवाले" चिल्लाती हुई दौड़ी चली आएगी। उन दोनों की उस पुरानी हँसी और बातचीत में किसी तरह की रुकावट न होगी। मैंने कहा, "आज घर में बहुत काम है। आज उससे मिलना न हो सकेगा।"

वह कुछ उदास हो गया और सलाम करके दरवाज़े से बाहर निकल गया।

मैं सोच ही रहा था कि उसे वापस बुलाऊँ। इतने मे वह स्वयं ही लौट आया और बोला, "'यह थोड़ा सा मेवा बच्ची के लिए लाया था। उसको दे दीजिएगा।"

मैने उसे पैसे देने चाहे पर उसने कहा, 'आपकी बहुत मेहरबानी है बाबू साहब! पैसे रहने दीजिए।' फिर ज़रा ठहरकर बोला, "आपकी जैसी मेरी भी एक बेटी हैं। मैं उसकी याद कर-करके आपकी बच्ची के लिए थोड़ा-सा मेवा ले आया करता हूँ। मैं यहाँ सौदा बेचने नहीं आता।"

उसने अपने कुरते की जेब में हाथ डालकर एक मैला-कुचैला मुड़ा हुआ कागज का टुकड़ा निकला औऱ बड़े जतन से उसकी चारों तह खोलकर दोनो हाथों से उसे फैलाकर मेरी मेज पर रख दिया। देखा कि कागज के उस टुकड़े पर एक नन्हें से हाथ के छोटे-से पंजे की छाप हैं। हाथ में थोड़ी-सी कालिख लगाकर, कागज़ पर उसी की छाप ले ली गई थी। अपनी बेटी इस याद को छाती से लगाकर, रहमत हर साल कलकत्ते के गली-कूचों में सौदा बेचने के लिए आता है।

देखकर मेरी आँखें भर आईं। सबकुछ भूलकर मैने उसी समय मिनी को बाहर बुलाया। विवाह की पूरी पोशाक और गहनें पहने मिनी शरम से सिकुड़ी मेरे पास आकर खड़ी हो गई।

उसे देखकर रहमत काबुली पहले तो सकपका गया। उससे पहले जैसी बातचीत न करते बना। बाद में वह हँसते हुए बोला, "लल्ली! सास के घर जा रही हैं क्या?"

मिनी अब सास का अर्थ समझने लगी थी। मारे शरम के उसका मुँह लाल हो उठा।

मिनी के चले जाने पर एक गहरी साँस भरकर रहमत ज़मीन पर बैठ गया। उसकी समझ में यह बात एकाएक स्पष्ट हो उठी कि उसकी बेटी भी इतने दिनों में बड़ी हो गई होगी। इन आठ वर्षों में उसका क्या हुआ होगा, कौन जाने? वह उसकी याद में खो गया। ......

 
 
इमतियाज गदर की दो लघुकथाएं  - इमतियाज गदर

अनेकता का फल

शिकारी, कबूतरों की एकता की ताकत को भांप चुका था। इस बार वह अपना जाल और शिकार दोनों नहीं खोना चाहता था इसलिए उसने इस बार कई जाल बनाए और उन्हें विभिन्न स्थानों में लगा दिया। साथ ही प्रत्येक जाल में अलग-अलग प्रकार के चारे का प्रयोग किया।
......

 
 
आग के बीज | चीनी लोक-कथा - रोहित कुमार 'हैप्पी'

आदिम काल में मानव जाति अग्नि से अनभिज्ञ थी। मानव नहीं जानता था कि आग क्या चीज है! वह अपने जीवन में आग का उपयोग नहीं जानता था। उस जमाने में जब रात होती, तो हर तरफ अंधेरा छाया रहता था। जंगली जानवरों की हुंकारें सुनाई देती थी। लोग सिमटकर ठिठुरते हुए सोते थे। रोशनी न होने से रात बहुत ठंडी और डरावनी होती थी। उस समय आग नहीं होने के कारण मानव कच्चा खाना खाता था। वह अधिक बीमार पड़ता था और उसकी औसत आयु भी बहुत कम होती थी।

स्वर्ग लोक में फुशि नाम का देवता रहता था। जब उसने धरती पर रहने वाले मानव का दूभर जीवन देखा, तो उसे बड़ा दुख हुआ और दया आई। उसने सोचा कि मानव को आग से परिचित करवाया जाए। उसे एक उपाय सुझा। उसने अपनी दिव्य शक्ति से जंगल में भारी वर्षा के साथ बिजली गिरायी। एक भारी गर्जन के साथ जंगल के पेड़ों पर बिजली गिरी और पेड़ आग से जल उठे। देखते ही देखते आग की लपटें चारों तरफ तेज़ी से फैल गईं। लोग बिजली की भंयकर गर्जन और धधकती हुई आग से भयभित हो कर दूर भाग गये। कुछ समय के बाद वर्षा थम गई और बिजली का गर्जन शांत हुआ। रात हुई तो वर्षा के पानी से ज़मीन बहुत नम और ठंडी हो गई। दूर भाग चुके लोग फिर इकट्ठे हुए, वे डरते-डरते पेड़ों पर जल रही आग देखने लगे। तभी एक नौजवान ने पाया कि पहले जब रात होती थी तो जंगली जानवर हुंकार करते सुनाई देते थे लेकिन अब ऐसा नहीं हुआ। क्या जंगली जानवर पेड़ों पर जलती हुई इस सुनहरी चमकीली चीज़ से डरते हैं? नौजवान मन ही मन इसपर विचार करता रहा। वह हिम्मत बटोरकर आग के निकट गया तो उसे महसूस हुआ कि उसका शरीर गर्म हो उठा है। आश्चर्यचकित होकर उसने लोगों को आवाज दी - "आओ, देखो, यह जलती हुई चीज खतरनाक नहीं है, यह हमें रोशनी और गर्मी देती है। इसके पश्चात मानव ने यह भी पाया कि उनके आसपास जो जानवर आग से जल कर मरे, उनका मांस बहुत महकदार था। चखा, तो स्वाद बहुत अच्छा लगा। सभी लोग आग के पास जम आए, आग से जले जानवरों का मांस खाया। उन्होंने इससे पहले कभी पके हुए मांस का स्वाद नहीं लिया था। मानव को समझ आ गई कि आग सचमुच उपयोगी है। अब तो वे पेड़ों की टहनियाँ और शाखाएं एकत्रित करके जलाने लगे और आग को सुरक्षित कर रखने लगे। लोग रोज बारी बारी से आग के पास रहते हुए उसे बुझने से बचाते रहे। एक रात आग की रक्षा करने वाले व्यक्ति को नींद आ गई और वह सो गया। लकड़ियां पूरी तरह जल जाने के कारण आग बुझ गई। इस एक व्यक्ति की नींद के कारण मानव जाति पुनः अंधेरे और ठंड से जूझने लगी। जीवन दुबारा बहुत दूभर हो गया।

देवता फुशी ने ऊपर में यह जाना, तो उस ने उस नौजवान मानव को सपना दिखाया, जिस में उस ने युवा को बताया कि दूर दराज पश्चिम में स्वी मिन नाम का एक राज्य है , वहां आज की बीज मिलती है , तुम वहां जा कर आग की बीज वापल लाओ । सपने से जाग कर नौजवान ने सोचा , सपने में देवता ने जो बात कही थी, मैं उस का पालन करूंगा, तब वह आग की बीज तलाशने हेतु रवाना हो गया।

ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों को लांघ, गहरी नदियों को पार कर और घने जंगलों से गुजर, लाखों कठिनाइयों को सहते हुए वह अंत में स्वी मिन राज्य पहुंचा। लेकिन यहां भी न कोई रोशनी, न आग मिलती थी, हर जगह अंधेरा ही अंधेरा थी। नौजवान को बड़ी निराश हुई, तो स्वी मु नाम के एक किस्म के पेड़ के पास बैठा और विश्राम करने लगा। सहसा, नौजवान की आंखों के सामने चमक चौंधी, फिर चली, फिर एक चमक चौंधी, फिर चली गई, जिस से चारों ओर हल्की हल्की रोशनी से जगमगा उठा। नौजवान तुरंत उठ खड़ा हुआ और चारों ओर नजर दौड़ते हुए रोशनी की जगह ढूंढ़ने लगा। उसे पता चला था कि 'स्वी मू' नाम के पेड़ पर कई पक्षी अपने कड़े चोंच को पेड़ पर मार मार कर उस में पड़े कीट निकाल रही हैं, जब एक बार वे पेड़ पर चोंच मारती, तो पेड़ में से तेज चिनगरी चौंध उठी। यह देख कर नौजवान के दिमाग में यह विचार आया कि कहीं आग के बीज इस पकार के पेड़ में छिपे हुए तो नहीं? उस ने तुरंत 'स्वी मू' के पेड़ पर से एक टहनी तोड़ी और उसे पेड़ पर रगड़ने की कोशिश की, सचमुछ पेड़ की शाखा से चिनगरी निकली, पर आग नहीं जल पायी। नौजवान ने हार नहीं मानी, उस ने विभिन्न रूपों के पेड़ की शाखाएं ढूंढ़ कर धीरज के साथ पेड़ पर रगड़ते हुए आजमाइश की, अंत में उसकी कोशिश रंग लायी। पेड़ की शाखा से धुआँ निकला, फिर आग जल उठी, इस सफलता की खुशी में नौजवान की आंखों में आंसू भर आए।

नौजवान गृह स्थल वापस लौटा। वह लोगों के लिए आग की ऐसी बीज लाया था, जो कभी खत्म नहीं होने वाले थे। आग के बीज थे - लकड़ी को रगड़ने से आग निकालने का तरीका। तभी से संसार के मानव को आग का लाभ प्रपट हुआ। अब उन्हें सर्दी से कोई भय न था। इस एक नौजवान की बुद्धिमता और बहादुरी का सम्मान करते हुए लोगों ने उसे अपना मुखिया चुना और उसे 'स्वी रन' यानी आग लाने वाला पुरूष कहते हुए सम्मानित किया।

- रोहित कुमार 'हैप्पी'

 


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नया साल  - भवानी प्रसाद मिश्र

पिछले साल नया दिन आया,
मैंने उसका गौरव गाया,......

 
 
कोरोना हाइकु  - सत्या शर्मा 'कीर्ति'

कोरोना मार
अन्तर्भेदी चीत्कार......

 
 
देश-विदेश के हिंदी हाइकु - भारत-दर्शन संकलन

रस झरता
जीवन में जब हो......

 
 
उजड़े प्यार का मसीहा - विजय कुमार तिवारी

कहानी का अंत मेरे सामने है। ऐसा ही होगा,क्या कभी मैंने सोचा था? क्या कभी मैंने कोई कल्पना की थी कि प्यार मुझे इस तरह ऐसे मोड़ पर खड़ा कर देगा और मैं थका-हारा अपना सब कुछ लुटा चुका रहूँगा। पर,आज सत्य यही है,अंत यही है। हाँ,अभी जो कुछ हुआ है,यही होना था। एक न एक दिन यह होना ही था।

"अब मुझे सब कुछ भुला देना चाहिये। बिल्कुल भूल जाना चाहिये," यही सोचता हुआ मैं उस मकान से बाहर निकला। लोग अपने-अपने घरों की बत्तियाँ जला रहे थे। कुछ घरों में अभी भी अंधेरा पसरा हुआ था मानो कोई है ही नहीं। गली में आने-जाने वालों की कमी नहीं थी। सबके हाथों में थैले थे और थैलों में घर के लिये आवश्यक सामान। कुछ लोग साइकिल टुनटुनाते हुए चल रहे थे और उनके थैले साइकिल की हैंडिल पर लटके थे।

उन सबसे बचता-बचाता मैं सड़क तक आया। दोनों तरफ दूर-दूर तक फैली दुकानों में प्रकाश के लिये सारे बल्ब जल चुके थे। चारों ओर उजाला ही उजाला था और लोगों की भीड़ भी। मुझे सिगरेट की तलब महसूस हुई। सामने पान की दुकान से मैंने सिगरेट लिया। अनिश्चितता की स्थिति में कश लेने लगा। कुछ चैन मिला और राहत भी। एक बार पुनः उस गली की ओर देखा और विह्वल हो उठा।

ओह,इन चार वर्षों में सब कुछ बदल गया है। आज से लगभग चार वर्ष पहले की घटना मूर्त हो उठी। वह यानी मैं, एक यायावर सा इस शहर में आया था और शहर के इतिहास-भूगोल को समझना चाहता था। मैंने अपने शोध-पत्र के लिये इसी शहर को चुना और बिना सोच-विचार किये,बिना तैयारी किये चला आया । मुझे ऐसे मकान की या कमरे की जरूरत थी जहाँ कम किराये पर अपने ढंग से कुछ दिन व्यतीत कर सकूँ। होटल का खर्च उठाना मेरे जेब के बस की बात नहीं थी। मैंने इसके लिये रिक्शे वाले से बात शुरु की ही थी कि वह दलाल बीच में आ धमका।

बोला,"हाँ,साहब! एक मकान है,बहुत नजदीक ही है। पैदल जाया जा सकता है। मकान एक बूढ़े व्यक्ति का है। उम्र कोई अधिक नहीं है परन्तु परिस्थितियों का मारा हुआ है। बेसमय चेहरे पर झुर्रियाँ उभर आयीं हैं। खांसी से परेशान रहता है। लड़का और लड़की सहित बस तीन जनों का परिवार है। बच्चों की मां नहीं है। बूढ़ा ही सबको पाल रहा है। लड़का बड़ा है और लड़की लगभग सोलह-सतरह वर्ष की होगी।"

"तो चलो,"मैंने कहा।

उसकी बातें सतत जारी थीं। न जाने क्या-क्या बोलता रहा। कभी कुछ पल्ले पड़ता,कभी नहीं। उसने बहुत शातिराना तरीके से बड़ा सा चित्र खींचा था जिसमें उलझना किसी के लिये भी असम्भव नहीं था। मेरी तो जरूरत थी। मुझे प्रभावित करने की उतनी आवश्यकता नहीं थी। हाँ,शायद वह अपना धर्म निभा रहा था। उबने के बावजूद मुझे उतना बुरा नहीं लग रहा था और मैं उसकी हाँ में हाँ मिला रहा था। 

हम दोनों पैदल ही चल रहे थे। पूरा रास्ता उसने बहुत सावधानी से पार किया मानो मुझे सहारा,सहयोग और सफलता पूर्वक मार्ग-दर्शन कर रहा हो। मुझे यह अच्छा लगा।

उसका भाषण जारी था। उसकी बातों में यह शहर था,यहाँ की आबोहवा और बहुत सी गोपनीय तस्वीरें। शायद यथार्थतः बता देना चाहता था कि यहाँ अनेक तरह की परेशानियाँ हैं,चोर-उचक्के परेशान करते हैं,साफ-सफाई नहीं है,समय से नल का पानी नहीं आता और बिजली के साथ तो खूब आँखमिचौली का खेल चलता रहता है। मैंने मन ही मन तय कर लिया कि अपने शोध के लिये उससे पुनः मिलूँगा और बहुत सी बातें पूछूँगा। उसने यह भी बताया कि यहाँ आये हुए यात्रियों के लूटे जाने की पूरी सम्भावना रहती है। उसने यह भी जताने की कोशिश की कि अच्छा हुआ मैं,उसे मिल गया। उसने यह भी बताया कि रात होते ही कौन-कौन सी सड़कें असुरक्षित और खूंखार हो जाती हैं या फिर कौन-कौन सी जगहे मौज-मस्ती के लिये उपयुक्त हैं। इस तरह सारे पहनावे को उतारकर उसने शहर के नंगे जिस्म को दिखाना चाहा।

मैं समझ नहीं पाया कि उसका आशय क्या है या उसकी बातों में सच्चाई कितनी है। बस,चुपचाप सुनता रहा और कभी शांत कभी अशान्त होता रहा। उसकी पैनी निगाह मुझपर पड़ती तो मैं सिहर उठता था और वह मुस्करा देता।

गली के अंत में हम उस मकान के सामने पहुँच गये। वह रुका और मेरे बैग को अपने कंधे से नीचे उतारा। उसने लम्बी सांस खींची और दरवाजे पर दस्तक दिया। थोड़ी देर प्रतीक्षा करनी पड़ी। भीतर से पदचापों की आवाज सुनायी पड़ी तो उसके चेहरे पर एक चमक उभर आयी। दरवाजा उसी बूढ़े व्यक्ति ने खोला जिसे देखते ही लगा कि हजार-हजार बोझों से दबा हुआ होगा और जीवन में नाउम्मीदी के सिवा इसके पास कुछ भी नहीं है।

उसने पूछा,"कौन हैं आप लोग?"

"मुझे तो आप पहचानते होंगे?" दलाल ने हाथ जोड़ा। लगा,वह व्यक्ति पहचानने की कोशिश कर रहा है,बोला," रामधन हो क्या?"

"हाँ हाँ, रामधन ही हूँ भाई। आप पहचान भी नहीं पा रहे हैं," दलाल गर्मजोशी से आगे बढ़ा। हम तीनों भीतर चले आये। तिपाई के चारों ओर कुर्सियाँ थीं। दलाल ने मुझसे बैठने के लिये आग्रह किया और उस व्यक्ति की ओर मुखातिब हुआ," आपने जैसा कहा था---बिल्कुल आपकी पसन्द के अनुसार, आपकी शर्तों के अनुसार ये साहब हैं। लगभग महीना भर? ," उसने मेरी ओर देखा।

"हाँ, लगभग यही," मैंने हामी भरी।

"तो ठीक है," बूढ़ा आदमी किंचित खुश हुआ। उसकी आँखों की चमक देखकर मुझे खुशी हुई। शीघ्र ही उसके चेहरे पर चिन्ता की लकीरें उभर आयीं और वह सशंकित हो उठा। बोला,' पहले कमरा देख लें, शायद पसन्द न आये।"

मैंने कहा,' नहीं,पसन्द की कोई बात नहीं है। घर,घर ही होता है,कोई होटल थोड़े ही है। घर की अपनी महत्ता है।"

"साहब को किराया समझा दीजिये," दलाल बोला।

'पचास रुपये रोज से कम में किराया क्या हो सकता है?  यह तो घर के बीच का कमरा है, सारी जगहे खुली ही रहेंगी। होटल में तो दो सौ रुपये से कम में कहीं नहीं मिलेगा।"

मैंने हामी भर दी और मन ही मन खुश हुआ। दलाल चला गया। उसे मैंने दस रुपये देना चाहा परन्तु वह पच्चीस रुपये से कम में माना ही नहीं। थोड़े नानुकुर के बाद मैंने उसे उसके मनचाहे पैसे दिये और वह खुश होकर चला गया। मुझे अद्भुत शान्ति महसूस हुई।

मेरा कमरा बाहरी बैठका से सटा हुआ था जिसका दूसरा दरवाजा भीतर आंगन की ओर खुलता था। कमरा कोई बड़ा नहीं था और उसकी साज-सज्जा भी कोई विशेष नहीं थी। दीवारों पर चार-पांच कैलेण्डर थे। एक में पहाड़ों की खूबसूरती थी और पहाड़ी लड़कियाँ किसी नृत्य की भाव-भंगिमा में बहुत सुन्दर लग रही थीं। दो कैलेण्डर में हनुमान जी और भगवान शंकर जी सपरिवार थे। मैंने अपने दाहिने तरफ देखा,वहाँ का कैलेण्डर थोड़ा पुराना लगा परन्तु वह अनेक पन्नों वाला था और हर पृष्ठ पर भिन्न-भिन्न मुद्राओं में फिल्मी नायिकायें थीं। जिस कैलेण्डर ने सर्वाधिक ध्यान खींचा वह मेरे पीछे की दीवार पर टंगा था। वह किसी कलाकार की अद्भुत कला थी। लगभग अर्ध नग्न तरुणी का अप्रतिम सौन्दर्य छलका पड़ा था। बहुत अच्छा लगा कि यहाँ, कोई न कोई तो है जिसकी कलात्मक अभिरुचि है।  

पलंग भी पुराना था और उसकी चादर बदल दी गयी थी। वाश-बेसिन दरवाजे से  थोड़ा बाहर खुले में था। मुझे जल्दी ही स्नान-घर आदि दिखा दिया गया और  मैं बिना देर किये भीतर घुस गया। जब तक हाथ-मुँह धोकर कमरे में वापस लौटा, बूढ़ा आदमी बैठा रहा। मेरे बैठ जाने के बाद लड़की चाय की केतली और कप लेकर आयी। साथ में बिस्कुट से भरा प्लेट भी था।

मैंने लड़की को देखा। वह सुन्दर लगी। नहीं,नहीं,बहुत सुन्दर बल्कि अनुपम थी। मन ही मन बहुत खुश हुआ। उस दलाल को याद करके पुनः धन्यवाद दिया जिसने मुझे ऐसी जगह पहुँचाने में मदद की। अब मेरा शोध भी हो जायेगा और यहाँ मन भी लगा रहेगा। अच्छा लगा,भले ही ये लोग धन के अभाव में जी रहे हैं परन्तु सलीकेदार लोग हैं। ऐसे लोगों के साथ  दिन अच्छे से गुजर जायेंगे। समझ गया हूँ--सौन्दर्य का अपना प्रभाव होता है। किसी सौन्दर्यमयी मूर्ति के साथ रहने का सुख अलग ही है। सौन्दर्यमयी के साथ जीने का सुख मिले या समर्पित होने का मुझे तो पूजा करनी है। सौन्दर्य का उपासक हूँ और चितेरा भी। असली सुख किसी एकान्तिकता का नहीं बल्कि किसी मनोनुकूल के साथ का होता है। खुशी है कि मेरे जीवन में सहज ही यह सुखद संयोग बना है। मन यों ही तो आकर्षित नहीं होता,अवश्य ही किसी जन्म का टूटा हुआ भाग्य जागा होगा।

"यह मेरी बेटी है,"उस बूढ़े ने लगभग गौरवपूर्ण तरीके से उसका परिचय दिया। उसने चाय की केतली, कप को टेबुल पर रखा और दोनों हथेलियों को जोड़कर बहुत ही सौम्य तरीके से नमस्ते कहा। मैंने भी प्रति-उत्तर में हाथ जोड़े और नमस्ते कहा। उसके चेहरे पर स्मित मुस्कान उभरी। पिता खुश हुआ और बोला,"मेरी बेटी पढ़ने में बहुत तेज और समझदार है।"

एक-दो दिनों में ही मुझे घर की आर्थिक स्थिति का ज्ञान हो गया। कुछ भी छिपा नहीं रहा। उन लोगों ने भी कुछ छिपाने की कोशिश नहीं की। हालांकि दलाल ने बहुत कुछ समझा दिया था और शेष सब कुछ यहाँ आने के बाद स्पष्ट होता गया। पुनः जब वह केतली, कप ले जाने आयी तो मैं स्वयं को उसे देखे बिना रोक नहीं पाया। बल्कि मैंने गौर से देखा। शायद उसे भी अहसास हो गया कि मैं उसे देखना चाहता हूँ या उसके सौन्दर्य से अभिभूत हूँ या उसे पसन्द करने लगा हूँ। मुझे स्वीकार करने में कोई परेशानी नहीं है कि उसके लावण्य और सौन्दर्य से प्रभावित हो चुका था। उसने बहुत ही संयत तरीके से कप उठाया और भरपूर निगाह मुझपर डाल चली गयी।

आम भारतीयों की तरह यह भी परिस्थितियों से जूझता परिवार है और आज इनका जीवन संघर्षमय हो चला है। वह भी एक इंसान है परन्तु थक चुका है। उसके पास आय के सारे स्रोत समाप्त हो गये हैं। जिम्मेदारियाँ खत्म नहीं हो रही हैं। वह खोया-खोया रहता है। बोझ उठा नहीं पा रहा है और ढो भी नहीं पा रहा है।

"घर में और कौन-कौन है?" बातों का सिलसिला बनाये रखने के लिये जानबूझकर मैंने पूछा। मुझे उस पिता का विश्वास भी जीतना था और सही तरीके से उनका सहयोग भी करना था। भीतर के उतावलापन को मैंने बार-बार दबाने का प्रयास किया और अपनी सम्पूर्ण हरकतों पर नियन्त्रण रखा। किसी चालाक शिकारी की तरह बहुत से तर्क-कुतर्क उठते थे परन्तु मैंने उनका सहारा नहीं लिया। दरअसल मुझे भीतर ही भीतर उन सभी के प्रति अपनापन जैसा अनुभव हो रहा था। हृदय कभी गलत सलाह नहीं देता और ऐसे मामलों में कभी भी बुद्धि से काम नहीं लेना चाहिये।

" मोहन, मेरा बड़ा बेटा है, आवारा है और इस घर पर स्थायी रुप से बोझ है। उसकी उम्र आप ही के बराबर होगी परन्तु निकम्मा है। उसका दढ़ियल चेहरा खूंखार दिखता है। उसे मेरी या बहन की कोई चिन्ता नहीं है। उसे अपनी भी चिन्ता नहीं है," सहसा बूढ़ा आदमी मौन हो गया। मुझे स्पष्ट हुआ कि पुत्र की पीड़ा से उनका मन भावुक हो उठा है।

"कहाँ है मोहन?"

"पड़ा होगा कहीं शहर के किसी अंधेरे में दोस्तों के साथ," पिता के चेहरे पर विषाद और घृणा के भाव जाग उठे।

"मैं मिलना चाहूँगा उससे। जब आपका बेटा घर आये तो बताइयेगा," मैंने आग्रह-पूर्वक कहा।

पिता के चेहरे पर विचित्र सी हँसी के भाव उभरे। उन्होंने कहा," क्या कीजियेगा उस नालायक से मिलकर? देर रात गये आता है और चादर तान लेता है। मुझसे बात तक नहीं करता। क्या पता,मुझसे घृणा करता है शायद---।"

मैं सिहर उठा,पिता की लाचारगी और बेबसी देखकर। उनकी बूढ़ी आँखें भर आयीं। उनका दुख है कि जिस पुत्र को उनका और घर का सहारा होना चाहिये,वह पिता से बात तक नहीं करता।

"बाबा! किशोरी आयी है," पर्दा हटाकर उनकी बेटी ने सूचित किया।

"अभी आया बेटा! "बूढ़ा उठ खड़ा हुआ। मेरी ओर देखते हुए उन्होंने कहा," आपका खाना हमारे साथ ही होगा। आप नहा-धो लीजिये। तब तक मैं किशोरी के पिता से मिलकर आता हूँ। रघु मेरा बचपन का साथी है। किशोरी उसकी इकलौती बेटी है। अच्छा है,उसे कोई लड़का नहीं हुआ,नहीं तो मोहन की तरह आवारागर्दी करता फिरता।"

बात मेरे गले नहीं उतरी। लड़का होगा तो आवारा ही होगा,कोई जरूरी तो नहीं। सभी लड़के क्या आवारा ही होते हैं? हरगिज नहीं। वरना यह दुनिया ऐसे ही आवारा लोगों से भर गयी होती।

मैंने उनसे अपनी असहमति नहीं जतायी क्योंकि उनकी मनःस्थिति शायद सच सुनने, समझने की नहीं थी। कहना तो यह चाहता था कि मां-बाप स्वयं जिम्मेदार होते हैं ऐसी परिस्थितियों के लिये। क्या यह बूढ़ा आदमी,जिसका नाम तक मैं नहीं जानता,मोहन के लिये जिम्मेदार नहीं है?

पिता के जाने के बाद तरूणी अपनी सहेली किशोरी के साथ कमरे में उपस्थित हुई। लगा,कोई मधुर हवा का सुगन्धित झोंका पूरे कमरे को तरोताजा कर गया है। उसने कहा,"यह मेरी सहेली है।"

"किशोरी है,"मैंने जोड़ा। किशोरी का गौरवर्णीय चेहरा लाल-गुलाबी हुआ। हम सभी हँस पड़े।

"तुम्हारा भाई मोहन कहाँ है?" मैंने अपने तरीके से उसके बारे में खोजबीन शुरु की।

"रात के पहले तो आता नहीं है," लड़की ने धीरे से कहा। मुझे खुशी हुई कि वह मुझसे बिना किसी संकोच के बातें कर रही है। किशोरी भी उसका भरपूर साथ दे रही है। दोनों समवयस्क लड़कियाँ बहुत अन्तरंग हैं और एक-दूसरे को सहयोग करती हैं।

फिर मैंने स्नान करने का उपक्रम शुरु किया। दोनों बाहर जाने लगीं। "जरा सुनिये," मैंने पुकारा। "मेरा नाम विभा है," मुस्कराते हुए वह वापस मुड़ी।

"अच्छा की नाम बताकर। नाम से पुकारने में आसानी होती है।" मैंने कहा।

"किसको बुलाया जा रहा है, यह भी स्पष्ट होता है," वह हँस पड़ी। उसकी निश्छल हँसी बहुत प्यारी लगी। मैंने कहना 
चाहा," अग्रिम भुगतान के लिये----।"

"बाबा को ही दीजियेगा,"बोलकर तेजी से विभा वापस चली गयी।

नहाकर मैं वापस आया और कमरे की बारीकी से छानबीन करने लगा। पिता जिनका नाम विभा ने भोलानाथ बताया था,उनके वापस लौटने में देर हो रही थी। विभा ने आग्रहपूर्वक कहा, " यदि पीने का पानी या ऐसी कोई आवश्यकता हो तो मांग लीजियेगा।"

मैंने पाजामा-कुर्ता पहना और बाहर निकल गया। शाम में लगभग नित्य ही ऐसा करने लगा। भीड़ के बीच से गुजरते हुए,लोगों को भागते-दौड़ते देखते हुए महसूस करता था कि सभी के जीवन में भागम-भाग है। किसी को न शान्ति है,न चैन है। पता नहीं क्यों लोग इतनी बेचैनी का बोझ लेकर जीते हैं? वापस लौटा। भोलानाथ जी भी लौट आये थे, मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। हमने साथ ही भोजन किया। मोहन अभी भी नहीं आया था। मन ही मन मैंने तय किया कि अपने शोध में कम से कम एक प्रसंग इस घर का जोड़ूँगा ही।

दरअसल मेरी मनःस्थिति खास दिशा की ओर मुड़ने लगी थी, भीतर-भीतर मानो कोई लगन जाग गयी थी। विभा मेरी सर्वप्रिय पसन्द बन चुकी थी और चाहता था कि अधिक से अधिक वह मेरे साथ रहे,मेरे आसपास रहे। सुखद संयोग यह हुआ कि वह मेरे साथ या आसपास रहने लगी। छोटे से पुराने घर में बहुत दूर-दूर रह पाने का कारण भी नहीं था। दूसरी अच्छी बात यह हुई कि उसके पास सुनाने के लिये बहुत सी बातें और कहानियाँ थीं तथा मैं सुनने के लिए लालायित।

चंद दिनों में ही मैंने अनुभव किया कि मोहन के लिये यह घर,यहाँ के लोग महत्वहीन हैं और वह भी अपना मूल्य खो चुका है। थोड़ी खुशी हुई कि इनके बहाने से ही मानविकी के अन्तर्सम्बन्धों की जटिलता को समझ सकूँगा। आखिर मनुष्य किन-किन परिस्थितियों में, किन-किन कारणों से घर-समाज के लिये महत्वहीन हो जाता है। किन हालातों में किसी का जीना-मरना कोई अर्थ नहीं रखता? मोहन शायद वैसा ही है। घर-परिवार और समाज के बंधन से अलग,स्वतन्त्र और निठल्ला। भावनाओं के धरातल पर उसकी पहुँच नहीं के बराबर है,शायद उसके भीतर का वह स्रोत ही सुख गया है।

एक सहज प्रश्न मेरे सामने बार-बार खड़ा हो रहा था-आखिर वह भी तो इंसान है धरती का,हम सबकी तरह हाड़-मांस का मानव। इससे कोई इनकार कैसे कर सकता है? मैं उसे पकड़ना चाहता था,उसको समझना,समझाना चाहता था परन्तु उससे मिलना मुश्किल था। कभी मैंने उसे आते-जाते नहीं देखा। उसी की बहन विभा सब कुछ समझती है। वह घर-गृहस्थी की सारी बाते बताती और मुझे समझाती रहती है। थोड़ा-बहुत मुझे भी समझ में आने लगा कि जीवन का गणित बहुत ही कठिन और कठोर होता है। मैं उसके सौन्दर्य के साथ-साथ उसकी व्यवहार-कुशलता पर मर मिटा था। सौन्दर्य भी है,व्यवहार-कुशल भी है,अब किसी एक लड़की में और क्या चाहिये? विभा उसी तरह की अद्वितीय मूर्ति है।

ऐसी ही खूबसूरत स्मृतियों के साथ मैं वापस अपने गाँव आया था। मेरा शोधकार्य पूरा हुआ और वह विश्वविद्यालय के जर्नल में छपा भी था। टिप्पणी करते हुए विद्वान समीक्षक ने लिखा कि शहरों में इस तरह अपनी पहचान खोते जा रहे लोगों की ओर संकेत करके शोधार्थी ने बहुत बड़ा काम किया है। संस्थाओं,सरकारों और मानवता से सरोकार रखने वाले सभी लोगों का दायित्व बनता है कि इस दिशा में पहल करें।

यहाँ मेरे गाँव के हालात अचानक बदले हुए थे। घर क्या आया, जीवन की सारी कठोर परिस्थितियाँ एक-एक कर मेरे सामने चुनौती-स्वरूप खड़ी होने लगीं। सर्वप्रथम मां चल बसी और कुछ महीनों बाद पिताजी नहीं रहे। मेरे अलावा घर में चार प्राणी और थे जिनका गुरुतर भार चाहे-अनचाहे अनायास ही मेरे उपर आ पड़ा। भाई-बहनों की जिम्मेदारी थी,भागता भी कैसे? बहुत भाग-दौड़ करने के बाद पिताजी के ही कार्यालय में नौकरी मिली।

सोचा,चलो कुछ तो सहारा हुआ। शायद दुर्दिन देखना अभी शेष था,एक दिन मेरा छोटा भाई घर छोड़कर भाग गया। हृदय पर वज्राघात सा लगा। मैं टूट कर बिखर ही जाता यदि विभा की स्मृतियाँ मेरा सहारा नहीं बनती। उन्हीं यादों के सहारे मैं लड़ता रहा और परिस्थितियों से जुझता रहा। पढ़ाई-लिखाई का प्रभाव हो या मेरी लगनशीलता का जल्दी ही दफ्तर में मुझे पदोन्नति मिली। क्लर्क से अधिकारी बना और शहर दर शहर की मेरी भटकन भरी जिन्दगी शुरु हुई। 

कार्यालय के काम से बीच में एक बार विभा के शहर जाने का सुअवसर मिला। उन गलियों में भटका, भोलानाथ जी से भेंट हुई। वे बीमार थे और बहुत कमजोर भी। शायद अपने जीवन की अंतिम घड़ियाँ गिन रहे थे। मेरी निगाहें विभा को तलाश रही थीं। वह कहीं दिख नहीं रही थी। मेरे मन में नाना शंकाये डूब-उतरा रही थीं।

भोलानाथ जी ने वज्रपात करते हुए कहा," विभा स्थानीय कालेज के प्रवक्ता के साथ शादी रचा अपना संसार बसा चुकी ......

 
 
शेख चिल्ली की चिट्ठी - भारत-दर्शन संकलन

शेख चिल्ली का भाई उनसे दूर किसी अन्य गाँव में रहता था। किसी ने शेख चिल्ली को उनके बीमार होने की ख़बर दी तो उनकी ख़ैरियत जानने के लिए शेख ने अपने भाई को ख़त लिखने की सोची। उस ज़माने में डाकघर तो थे नहीं, लोग चिट्ठियाँ गाँव के नाई के हाथों या नौकर के हाथों भिजवाया करते थे।

शेख चिल्ली ने नाई से संपर्क किया लेकिन नाई बीमार था। फसल कटाई का वक़्त होने से कोई नौकर या मज़दूर भी खाली नहीं था। मियाँ जी ने तय किया कि वह ख़ुद ही चिट्ठी पहुँचाने जाएँगे। अगले दिन वह सुबह-सुबह चिट्ठी लेकर घर से निकल पड़े। शाम ढलते-ढलते वे अपने भाई के घर पहुँचे और उन्हें चिट्ठी पकड़ाकर लौटने लगे।

उनके भाई ने हैरानी से पूछा, "अरे! चिल्ली भाई! तुम वापिस क्यों जा रहे हो? क्या मुझसे कोई नाराजगी है?"

शेख चिल्ली के भाई ने यह कहते हुए उसे रोकते हुए, बैठने को कहा तो चिल्ली बोले, "भाई जान, ऐसा है कि मैंने आपको चिट्ठी लिखी थी। चिट्ठी ले आने को न नाई मिला और न कोई नौकर। इसलिए मुझे ही चिट्ठी देने आना पड़ा।

भाई ने कहा, "हाँ, वह तो ठीक है लेकिन जब आप आ ही गए हो तो दो-चार दिन ठहर कर जाओ।"

भाई की बात सुनकर शेख चिल्ली बिगड़ गए, मुँह बनाते हुए बोले तेज आवाज में बोले, "आप भी अजीब इंसान हैं। समझते ही नहीं! मैं तो सिर्फ नाई का फर्ज़ निभा रहा हूँ। मुझे आना होता और आपसे मिलना होता तो मैं चिट्ठी क्यों लिखता?" शेखचिल्ली अपने भाई से हाथ छुड़ा अपनी राह हो लिए।

[भारत-दर्शन संकलन]


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नम्रता पर दोहे - सुशील शर्मा

सच्चा सद्गुण नम्रता, है अमूल्य यह रत्न।
नम्र सदा विजयी रहे, व्यर्थ अहं के यत्न॥

नम्र सदा हरि प्रिय रहें, नम्र आत्म का रूप।......

 
 
जैसे को तैसा - विष्णु शर्मा

"तुला लोहसहस्रस्य यत्र खादन्ति मूषिकाः।
 राजंस्तत्र हरेच्छयेनो बालकं नात्र संशयः ॥"

अर्थात जहां मन भर लोहे की तराजू को चूहे खा जाएं वहां की चील भी बच्चे को उठा कर ले जा सकती है।

- ० -

एक स्थान पर जीर्णधन नाम का बनिये का लड़का रहता था। धन की खोज में उसने परदेश जाने का विचार किया। उसके घर में विशेष सम्पत्ति तो थी नहीं, केवल एक मन भर भारी लोहे की तराजू थी। उसे एक महाजन के पास धरोहर रखकर वह विदेश चला गया। विदेश से वापिस आने के बाद उसने महाजन से अपनी धरोहर वापिस मांगी। महाजन ने कहा--"वह लोहे की तराजू तो चूहों ने खा ली।"

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घर-सा पाओ चैन कहीं तो |ग़ज़ल  - रोहित कुमार 'हैप्पी'

घर-सा पाओ चैन कहीं तो हमको भी बतलाना तुम
हमसा कोई और दिखे तो जरा हमें दिखलाना तुम

मिलने को तो मिल जाएंगे दिखने को तो दीख जाएंगे......

 
 
अनपढ़-गवार | लघु-कथा - रोहित कुमार 'हैप्पी'

बेटे ने अपनी पसंद की लड़की से शादी की थी। निसंदेह माँ की कैसोटी पर बहू के रूप में लड़के की पसंद पूरी तरह खरी नहीं उतरती थी लेकिन बेटा खुश रहे तो माँ उसकी खुशी में खुश थी।

घर में माँ-बेटा दो ही तो जीव थे। बेटा भी ऐसा कि कलियुग में लोगों को श्रवण की कथा याद आ जाए पर यह आज उसको क्या हुआ?

'तुम मुझे बसने भी दोगी कि नहीं? तुम उम्र-भर अनपढ़-गवार ही रही!' बेटा माँ पर चिल्ला रहा था, 'मधु को जो करना है, करने दिया करो। वह पढ़ी-लिखी है और उसे हर बात पर तुम्हारी दखलअंदाजी पसंद नहीं।' बेटा पैर पटकते हुए बाहर हो लिया था।

अपने श्रवण-कुमार के मुँह से निकले इन अग्नि-बाणों को माँ झेल नहीं पा रही थी। 'तू कितनी भोली है, तू कितनी प्यारी है..' चहकते रहने वाले बेटे का यह रौद्र रुप और उसके मुँह से 'अनपढ़-गवार' जैसे शब्द माँ के मानो प्राण-पखेरू ही उड़ा डालना चाहते थे।

एक ही तो बेटा है! माँ जाए तो कहाँ जाए? लेकिन अब वो दूर, कहीं बहुत दूर चली जाना चाहती थी।

-रोहित कुमार 'हैप्पी'


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एक तिनका  - अयोध्या सिंह उपाध्याय

मैं घमंडों में भरा ऐंठा हुआ,
एक दिन जब था मुंडेरे पर खड़ा।......

 
 
है वक्त बड़ा बलशाली - प्रदीप कुमार तिवारी 'साथी'

वक्त ही दाता वक्त विधाता, वक्त बड़ा बलशाली
है वक्त बड़ा बलशाली, है ये वक्त बड़ा बलशाली......

 
 
नववर्ष - भवानी प्रसाद मिश्र

दुस्समय ने साँस ली है,
वर्ष भर अविरत किया श्रम,......

 
 
आप क्यों दिल को बचाते हैं यों टकराने से | ग़ज़ल - गुलाब खंडेलवाल

आप क्यों दिल को बचाते हैं यों टकराने से
ये वो प्याला है जो भरता है छलक जाने से

हैं वही आप, वही हम हैं, वही दुनिया है......

 
 
सुभाष चन्द्र बोस - गोपालप्रसाद व्यास की कविता  - भारत-दर्शन संकलन

है समय नदी की बाढ़ कि जिसमें सब बह जाया करते हैं।
है समय बड़ा तूफ़ान प्रबल पर्वत झुक जाया करते हैं ।।......

 
 
दयालु शिकारी - अज्ञात

एक घना जंगल था। एक दिन एक शिकारी उस जंगल में शिकार करने जाता है। जंगल में वह एक सुंदर हिरनी देखता है। हिरनी ने उसी समय एक शावक को जन्म दिया था। हिरनी अपने शावक के पास बड़ी शांति से चुपचाप बैठी हुई थी।

शिकारी हिरनी को शांति से बैठी हुई देखकर बहुत खुश होता है और उसका शिकार करने के लिए उसी समय अपनी बंदूक से गोली छोड़ता है। गोली हिरनी की टाँग में लगती है। शिकारी ने देखा कि गोली की आवाज सुनकर हिरनी भागी नहीं और उसकी आँखों से आँसू निकल आये हैं।

शिकारी को ताज्जुब होता है और वह फौरन हिरनी के पास जाता है। वहाँ जाकर शिकारी देखता है कि प्रसूता हिरनी ने अभी-अभी बच्चे को जन्म दिया है। शिकारी को यह दृश्य देखकर बहुत पछतावा होता है।

शिकारी तुरंत हिरनी और शावक को अस्पताल में ले जाता है। डॉक्टर की शल्यचिकित्सा से हिरनी की गोली निकल जाती है और हिरनी स्वस्थ हो जाती है। शिकारी हिरनी को फिर से जंगल में छोड़ आता है।

[ भारत-दर्शन संकलन]


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सशक्तिकरण - सम्यक मिश्र

रविवार की अलसाई सी दोपहर, पायल ने कॉफ़ी कप टेबल पर रखते हुए कहा, "मैंने तो साफ़-साफ़ कह दिया एम्.डी से, ९ महीने की छुट्टी तो चाहिए ही चाहिए।"

"और...वो मान गया ?" सरिता ने आश्चर्य भरा प्रश्न किया । प्रश्न वाजिब भी था।

कार्पोरेट कंपनियों से छुट्टी ले लेना भी अपने आप में एक उपलब्धि ही है और खास कर के जिस पद पर पायल और सरिता काम करती है। साल ख़त्म हो जाता है पर छुट्टियाँ नहीं मिलतीं ।

"अरे देता कैसे नहीं, प्रेगनेंसी लीव मांगी थी, देना तो थी ही उसे।" पायल ने ऐंठते हुए कहा । "थोड़ी ना-नुकुर तो कर रहा था, पर मैंने बतला दिया कि महिला मोर्चा को लिखित में देने की तैय्यारी है, मातृत्व अवकाश कोई मज़ाक नहीं है"। पायल की आँखों में चमक थी।

"सही बात है, अब हम भला किस से दबने वाले हैं, वो ज़माने गए जब महिलाओं को उनके अधिकारों से वंचित कर दिया जाता था, ये दौर तो हमारा है।" सरिता ने भी समर्थन किया।

"नारी सशक्तिकरण का ज़माना है, और मातृत्व अवकाश, ये तो अधिकार है हर महिला का । मैंने तो ऊपर तक जाने की तैय्यारी कर रखी थी, एम्.डी की तो खाट खड़ी हो जाती ।" कहते हुए पायल ने कॉफ़ी का एक घूंट लिया।

तभी तेज़ क़दमों से चलती हुई लक्ष्मी घर में दाखिल हुई, पायल ने तुरंत कहा "आज बड़ी देर कर दी आने में, चलो पहले झाड़ू कर दो, मैं कपड़े भी निकाल देती हूँ"।

"मेडम जी, मुझे छुट्टी चाहिए", लक्ष्मी ने दबे से सुर में कहा।

पायल ने तल्खी से पूछा, "क्यों क्या काम है?"।

"मेडम जी आप तो जानती ही हैं, पेट से हूँ, चौथा महीना है, ऐसी हालत में काम नहीं हो पाता ।" लक्ष्मी ने आशा भरी नज़रों से पायल की तरफ देखा।

"छुट्टी-वुट्टी कोई नहीं मिलेगी, अब क्या तुझे 6 महीनों की छुट्टी दूँ, और ये काम, काम कैसे होगा?" पायल ने लक्ष्मी की उम्मीदों को चूर करते हुए कहा।

लक्ष्मी हिम्मत जुटा कर बोली "पर मेडम जी.... ।"

"पर-वर कुछ नहीं । कल से या तो अपनी लड़की को भेजो या सीधे-सीधे आओ काम पर ।" पायल ने अंतिम निर्णय दे दिया।

लक्ष्मी आँखों में आंसू लिए काम पर लग गयी। पायल और सरिता फिर अपनी बातों में खो गए। नारी सशक्तिकरण और महिलाओं के दौर वाली बातें शायद बेमानी ही थीं। शायद सशक्तों को और सशक्त करना ही सशक्तिकरण है।

-सम्यक मिश्र
 बी.एस.सी ( प्रथम वर्ष )

samyak2708@gmail.com

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अजगर | लोक-कथा - शंकर

बहुत वर्ष पहले एक राजा की दो रानियाँ थीं। बड़ी रानी शोभा बहुत अच्छे स्वभाव की दयावान स्त्री थी। छोटी रानी रूपा बड़ी कठोर और दुष्ट थी। बड़ी रानी शोभा के एक पुत्री थी, नाम था देवी। रानी रूपा के भी एक बेटी थी, नाम था तारा।

रानी रूपा बड़ी चालाक और महत्वाकाँक्षी स्त्री थी। वह चाहती थी कि राज्य की सत्ता उसके हाथ में रहे। राजा भी उससे दबा हुआ था। रानी रूपा बड़ी रानी और उसकी बेटी से नफरत करती थी। एक दिन उस ने राजा से कह दिया कि रानी शोभा और देवी को राजमहल से बाहर निकाल दिया जाये। राजा रानी रूपा की नाराजी से डरता था। उसे लगा कि उसे वही करना पड़ेगा जो रूपा चाहती है। उस ने बड़ी रानी और उस की बेटी को राजमहल के बाहर एक छोटे से घर में रहने के लिए भेज दिया। लेकिन रानी रूपा की घृणा इससे भी नहीं हटी।

उस ने देवी को आज्ञा दी कि वह प्रतिदिन राजा की गायों को जंगल में चराने के लिए ले जाया करे। रानी शोभा यह अच्छी तरह जानती थी कि यदि देवी गायों को चराने के लिए गई तो रानी रूपा उन्हें किसी और परेशानी में डाल देगी। इसलिए उसने अपनी लड़की से कहा कि वह रोज सुबह गायों को जंगल में चरने के लिए ले जाया करे और शाम के समय उन्हें वापिस ले आया करे।

देवी को अपनी माँ का कहना तो मानना ही था, इस लिए वह रोज़ सुबह गायों को जंगल में ले जाती। एक शाम जब वह जंगल से घर लौट रही थी तो उसे अपने पीछे एक धीमी सी आवाज़ सुनाई दी-
‘‘देवी, देवी, क्या तुम मुझसे विवाह करोगी ?''

देवी डर गई। जितनी जल्दी हो सका उसने गायों को घर की ओर हाँका। दूसरे दिन भी जब वह घर लौट रही थी तो उस ने वही आवाज़ पुन: सुनी। वही प्रश्न उससे फिर पूछा गया।

रात को देवी ने अपनी माँ को उस आवाज़ के बारे में कहा। माँ सारी रात इस बात पर विचार करती रही। सुबह तक उस ने निश्चय कर लिया कि क्या किया जाना चाहिए।

‘‘सुनो बेटी,'' वह अपनी लड़की से बोली- ‘‘मैं बता रही हूँ कि यदि आज शाम के समय भी तुम्हें वही आवाज़ सुनाई दे तो तुम्हें क्या करना होगा।''

‘‘बताइये माँ,'' देवी ने उत्तर दिया।

‘‘तुम उस आवाज़ को उत्तर देना,'' रानी शोभा ने कहा, ‘‘कल सुबह तुम मेरे घर आ जाओ, फिर मैं तुम से विवाह कर लूँगी।''

‘‘लेकिन माँ,'' देवी बोली- ‘‘हम उसे जानते तक नहीं।''

‘‘मेरी प्यारी देवी,'' माँ ने दु:खी होकर कहा- ‘‘जिस स्थिति में हम जीवित हैं उस से ज्यादा बुरा और क्या हो सकता है। हमें इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लेना चाहिए। ईश्वर हमारी सहायता करेगा।''......

 
 
कोरोना हाइकु - बासुदेव अग्रवाल नमन

कोरोनासुर
विपदा बन कर......

 
 
जल बरसाने वाले वृक्ष - कुमार मनीश

कैनरी टापू (Canery Island) पर अधिकतर वर्षा नहीं होती।  यहाँ नदी नाले या झरने नहीं पाए जाते। वहां एक प्रकार के जल वृक्ष पाए जाते हैं जिनसे प्रतिदिन रात के समय वर्षा होती है। कैनरी टापू के निवासी इस जल का प्रयोग दैनिक उपयोग के लिए भी करते हैं।

इसी प्रकार के वृक्ष इंडोनेशिया के सुमात्रा नामक द्वीप में भी पाए जाते हैं।

इनके जल वर्षिक होने का वैज्ञानिक कारण यह है कि जब दोपहर के समय सूर्य की किरणें तेज होती है तब यह पेड़ हवा के द्वारा भाँप ग्रहण करते हैं। कुछ देर बाद वही भाँप जल बनकर बूंदों के रूप में टपकने लगती है। इन वृक्षों के नीचे घड़ा रख देने पर घड़ा भी भर जाता है।

इसी प्रकार अफ्रीका में भी एक प्रकार का वृक्ष पाया जाता है जिसे छेद कर पानी प्राप्त किया जाता है।

दक्षिण अमेरिका के मेरु प्रदेश में बादलों का नामोनिशान ना होने पर भी ऐसा लगता कि वृक्ष के पास घनी वर्षा हुई थी पूर्णविराम इस वृक्ष के पत्ते घने होते हैं। उनमें ऐसा गुण है कि वे हवा में उपस्थित भाँप को सोख लेते हैं और फिर वर्षा के रूप में बरसाते हैं।

[पेड़ पौधों की आश्चर्यजनक बातें] 


......
 
 
अंझू - गुरबख्श सिंह

आंध्र में उगोल रेलवे स्टेशन के मुसाफिर खाने में बैठा गाडी की प्रतीक्षा में था। वेला सांझ की थी और दिसम्बर का सूरज सुनहले आकाश में से मुझे कमरे के द्वार में से प्लेटफार्म के पार दीख रहा था, जैसे रक्तिम कालीनों पर कोई छबीला साजन पग-पग उतर रहा हो। इधर मेरे कमरे में कोई सूरज, उभर भी तो रहा था। एक प्रेमी दम्पति एकांत छोर में बैठा अंग-अंग से मुस्करा रहा था। प्रकट में तो मैं बाहर के सूर्यास्त पर ही दृष्टि डाले बैठा था, किन्तु ध्यान मेरा अन्तरवर्ती सूर्योदय से ही जुड़ा हुआ था। अभी मेरी अन्तरात्मा से इस प्रीत नाटक की झलक के लिए कृतज्ञता की अनुभूति उभरी ही थी कि एक अनोखी मृदुल स्वर लहरी मेरे कानों में गूंज उठी। ऐसा लगा जैसे प्रेमी युगल की मौन भंगिमाएं संगीत में ढल गई हों।

किन्तु नहीं, वे तो निःशब्द एक-दूसरे के लोचनों में झांक रहे थे। वह स्वर-लहरी कहीं बाहर से सुनाई दी थी और उसमें मेरे लिए इस स्नेहिल क्रीड़ा से भी अधिक कोई आकर्षण था। मन-ही-मन उन स्नेहीजनों से आज्ञा लेकर मैं ध्वनित दिशा की ओर चल पड़ा, जैसे-जैसे निकटतर गया, स्वर लहरी एक थिरकता हुआ संगीत बनती गई।

तीसरे दर्जे के मुसाफिरखाने में कई लोग बैंचों पर बैठे थे, उन्हीं में से कोई गा रहा था, आवाज लड़की की तरह सुकोमल थी, लेकिन उस सारी भीड़ में लड़की कोई नहीं दिखाई देती थी।

दृष्टि गड़ा कर झांका, नौ एक वर्ष का एक लड़का नाच भी रहा था और गा भी रहा था। मेरी ओर उसकी पीठ थी, सिर पर लपेटी हुई मैली सी पगड़ी, से अनकटी लटें बाहर झूल रही थीं। वह कई बार सिर खुजलाता था, उसके कुर्ते के चीथड़े लटक रहे थे। पांव नंगे, टांगें खुजला-खुजलाकर खराशी हुई। उसके गले से एक ओर एलमीनियम का कंठदार पतीला एक रस्सी से लटक रहा था और वह उस पतीले पर बड़ी मस्ती से चुटकियाँ बजा रहा था। 

उसका मुंह मेरी ओर मुड़ा। चमकती-खनकती आवाज़, मैला-पीला मुखड़ा, उजली आँखें, परंतु ओंठों पर 
अमित मुसकान, हाथ-पैर और कंठ पर कमाल का अधिकार  कई बार वह अपने को खुजलाता किन्तु न पांवों का ताल टूटता, न ही चुटकी का।

और गीतों का भी कोई भंडार था उस के पास। एक समाप्त होता तो श्रोता किसी नए गीत की मांग कर उठते। हर धुन के साथ वह चरणों को नई लय में उठाता। मैं उसकी भाषा का एक शब्द भी नहीं समझता था, लेकिन अनुभव कर रहा था कि उसके गायन में सस्ती फिल्मी धुनें नहीं थी, भक्ति संगीत को उसमें पवित्रता थी, अमर सत्य-स्नेह की तरह उसमें आराधना थी।

मेरी जिज्ञासा भरी व्याकुलता भांप कर एक अंग्रेजी भाषी यात्री मेरे पास आ बैठा, उसने मुझे एक गीत का आशय समझाया--

नदी के घाट पर ......

 
 
मित्रता की परख - विष्णु शर्मा

एक जंगल में गाय, घोड़ा, गधा और बकरी चरने आते थे। वहीं साथ चरते-चरते उन चारों में मित्रता हो गई। वह चरते-चरते आपस में कहानियाँ कहते। वहीं एक पेड़ के नीचे एक खरगोश रहता था। एक दिन उसने इन चारों को देखा तो खरगोश उनके पास जाकर बोला, “मैं भी तुम सबका मित्र बनाना चाहता हूँ।"

सबने 'अच्छा' कहकर हामी भर दी तो खरगोश बहुत प्रसन्न हुआ। अब तो खरगोश हर रोज उनके पास आकर बैठ जाता। कहानियाँ सुन-सुनकर वह आनंदित होता। एक दिन खरगोश उनके पास बैठा कहानियाँ सुन रहा था, अचानक शिकारी कुत्तों की आवाज सुनाई दी। भयभीत खरगोश ने गाय से कहा, "तुम मुझे पीठ पर बिठा लो। जब शिकारी कुत्ते आएँ तो उन्हें सींगों से मारकर भगा देना।"

गाय ने कहा, "मेरा तो अब घर जाने का समय हो गया है।

तब खरगोश घोड़े के पास गया, कहने लगा, “घोड़े भाई! तुम मुझे पीठ पर बिठा लो और शिकारी कुत्तों से बचाओ। तुम तो एक दुलत्ती मारोगे तो कुत्ते भाग जाएँगे।”

घोड़े ने कहा, "मुझे बैठाना नहीं आता। मैं तो खड़े-खड़े ही सोता हूँ। मेरी पीठ पर कैसे चढ़ोगे? मेरे पाँव भी दुःख रहे हैं। इन पर नई नाल चढ़ी है। मैं दुलत्ती कैसे मारूँगा? तुम कोई और उपाय करो।"

तब खरगोश ने गधे के पास गया, "मित्र गधे! तुम मुझे शिकारी कुत्तों से बचा लो। मुझे पीठ पर बिठा लो। जब कुत्ते आएँ तो दुलत्ती झाड़कर उन्हें भगा देना।"

गधे ने कहा, “मैं घर जा रहा हूँ। समय हो गया है। अगर मैं समय पर न लौटा, तो कुम्हार डंडे मार-मार कर मेरा कचूमर निकाल देगा।"

तब खरगोश बकरी की तरफ चला। बकरी ने दूर से ही कहा, "छोटे भैया! इधर मत आना। मुझे शिकारी कुत्तों से बहुत डर लगता है। कहीं तुम्हारे साथ मैं भी न मारी जाऊँ।"

इतने में कुत्ते पास आ पहुंचे। अब तो खरगोश सिर पर पाँव रखकर भागा। कुत्ते खरगोश जितनी तेज दौड़ नहीं पाए और खरगोश तेज़ी से एक झाड़ी में जा छिपा। वह मन ही मन विचार करने लगा, 'हमेशा अपने पर ही भरोसा करना चाहिए।'

सीख : मित्रता की परख मुसीबत में ही होती है।

[पंचतंत्र की कहानियाँ]


......
 
 
अंगूर - कमल कुमार शर्मा

भाभी की तबीयत खराब है। रमेश आधा सेर अंगूर लाया है। भाभी की लड़की शीला सामने बैठी है, कोई चार बरस की होगी। अंगूर देखते ही लपकी और खाने शुरू करें दिए। रमेश ने झड़पकर कहा--"अरे, सब तू ही खा जाएगी या उनके लिए भी कुछ छोड़ेगी?  भाभी, तुम भी देख रही हो, यह नहीं कि हटा लो। "

भाभी ने कहा-–“खाने दो।"

"दस्त आने लगेंगे, वरना खाने को कौन मना करता है।” – रमेश चुप हो गया।

 

X X X X X X

 

आज से सोलह बरस पहले की बात है, शायद इससे भी कुछ ज्यादा दिन बीत चुके हों। उस समय रमेश आठ-नौ साल का था। शैतानी उसकी नस-नस में भरी हुई थी। रमेश के पिता उसे बहुत प्यार करते थे;  मगर घर-भर रमेश से नाराज रहता था। घरवाले बाबूजी का लाड़-प्यार देखकर कहते--"लड़के को इतना सिर पर चढ़ाना ठीक नहीं।

एक दिन का जिक्र है। बाबूजी के सिर में दर्द था। अकसर उनकी तबीयत खराब हो जाती थी। उनके लिए रमेश के चाचा अंगूर लाया करते थे। आज भी अंगूर लाए और बाबूजी के सिरहाने रखकर चले गए।

रमेश छत पर खेल रहा था। उसने चाचा को अंगूर लाते हुए देखा। फट छत पर से उतरा और अपने बाप के कमरे में पहुँच गया। बाबूजी के मुँह में एक अंगूर डालता और खुद दो-चार साफ कर जाता। यही हरकत जारी थी कि रमेश ने देखा, चाचा सामने खड़े हैं। उन्होंने आव देखा न ताव, रमेश को कान पकड़कर कमरे से बाहर निकाल दिया। बाबूजी की आँखे बन्द थीं, उन्हें खबर भी न हुई। रात को जब रमेश उनके साथ सोया, तो रो-रोकर उसने सारा हाल सुनाया।

बाबूजी ने दिलासा देते हुए कहा-– “रो नहीं, कल मैं तेरे लिए इतने अंगूर ला दूँगा कि तू खा भी न सकेगा।"

एक हफ्ते के बाद।

वही सिर दर्द और वही अंगूर। चाचा ने रमेश को बुलाकर कहा-- "ले, पेट भरकर खा ले। बाप के हलक से न निकाल।

थोड़ी देर तो रमेश सब्र किए रहा। फिर जी न माना। बाप के कमरे में पहुँच गया। उसे देखते ही बाबूजी ने कहा--"अंगूर खाएगा?"

रमेश ने चाचा के डर से कहा--"नहीं।" लेकिन बाबूजी ने उसे खिला ही दिये।

चाचा कमरे में किसी काम से आये। उन्होंने यह देखा, तो जल गये और कहने लगे-– “अभी-अभी ऊपर से खाकर आया है, पेट नहीं भरा? भैया, इतना लाड़-प्यार अच्छा नहीं।"

बाबूजी ने कोई उत्तर नहीं दिया। बुरा उन्हें जरूर लगा था, वरना क्यों कहते-–“रमेश, कल बाजार में तुम्हें खूब अंगूर खिलायेंगे।"

फिर वही सिर दर्द और वही अंगूर--

इस बार चाचा सामने बैठ गए और बाबूजी को खुद अंगूर खिलाने लगे। लेकिन उनके जाते ही रमेश कमरे में पहुँच गया। बाबूजी बड़ी मुश्किल से कराहते हुए उठे, आलमारी के ऊपर से अंगूर उतारे और रमेश को दिये। रमेश खुशी-खुशी बाहर खाता हुआ चला आया। रमेश की चचेरी बहन नीला ने देख लिया। पकड़कर चाची के सामने ले गई और बोली--"न जाने किससे अंगूर माँग लाया है और खा रहा है।"

“क्यों बे, कहाँ से माँग लाया है?  इतना खाने को मिलता है, फिर भी दूसरों से माँगता फिरता है। नीला, इसे इसके बाप के पास ले जा। उन्हें भी तो मालूम हो कि यह कैसा बेहया लड़का है!" –चाची ने गुस्से में भरकर कहा।

बाबूजी ने कहा--"माँगकर नहीं लाया है। मैंने दिये हैं। रमेश, यहाँ बैठकर खा लो।"

"रमेश, तेरी जबान को उस वख्त क्या लकवा मार गया था, जो मुँह से एक शब्द भी न निकाला।" डाँटते हुए नीला ने कहा।

कई दिन और बीते।

बाबूजी के सिर में फिर दर्द है। रमेश बगल में लेटा हुआ धीरे-धीरे उनका सिर दबा रहा है। इतने में उसकी पुकार हुई। ·

चाचा ने उसे सामने बैठाते हुए कहा--"खबरदार, जो यहाँ से हिला भी, वरना टॉंग तोड़ दूँगा। जब तू अपने बाप का ही सगा नहीं, तो और किसका होगा?  जा, नीला, भैया को अपने सामने अंगूर खिला कर आना।"

चाची बोली--"न मालूम जेठजी इसे इतना प्यार क्यों करते हैं, न सूरत, न शक्ल ऐसा तो अभागा है कि जब पेट में आया, तो नौकरी छूट गई।"

रमेश सामने बैठा है। दिल में सोच रहा है, कैसे भाग निकलें? चाचा को कोई बुलाने आ जाए, या किसी काम से चले जाएँ। इतने में नौकर ने आकर कहा--"घडी वाले का आदमी आया है।" चाचा उठकर चले लेकिन रमेश को भी साथ लेते गए। चाची घडी वाले से बातें करने लगे। वे झुककर घड़ी देखने लगे। बस, यह मौका बहुत था, रमेश चुपके से नौ दो ग्यारह हो गया।

बाबूजी लेटे थे, नीला उन्हें अंगूर खिला रही थी। आते ही रमेश भी खाने लगा। यहाँ उसे किसका डर था?  बाबूजी के सामने कौन उसे एक अंगुली भी लगा सकता है? यहाँ तो रमेश का राज्य है।

थोड़ी देर बाद चाचा भी आ पहुँचे। आँखें लालकर बोले--"क्यों बे शैतान, जरा-सी देर में तू भाग आया। चल यहाँ से।"  रमेश ने यह सुनकर अपनी आँखे बन्द कर लीं, मानो उसने कुछ सुना ही नहीं।

बाबूजी ने कहा--"खा नहीं रहा है। सिर्फ लेटा है, लेटा रहने दो। अभी बच्चा है, कुछ समझता नहीं।"

चाचा चले गए। उस वक्त भी रमेश के मुँह में कई अंगूर भरे हुए थे।

 

X X X X X X

 

शीला सामने बैठी है। जल्दी-जल्दी अंगूर खा रही है। डरती है कि कहीं रमेश छीन न ले। रमेश से उसने कहा--"और लाओगे न!”

-कमल कुमार शर्मा
[1939 में प्रकाशित]

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नेताजी का तुलादान - गोपालप्रसाद व्यास की कविता  - भारत-दर्शन संकलन

देखा पूरब में आज सुबह,
एक नई रोशनी फूटी थी।......

 
 
तेरा हँसना कमाल था साथी | ग़ज़ल - रोहित कुमार 'हैप्पी'

तेरा हँसना कमाल था साथी
हमको तुमपर मलाल था साथी

दाग चेहरे पे दे गया हमको
हमने समझा गुलाल था साथी

रात में आए  तेरे  ही  सपने
दिन में तेरा ख़याल था साथी

उड़ गई नींद मेरी रातों की
तेरा कैसा सवाल था साथी

करने बैठे थे दिल का वो सौदा
कोई आया दलाल था साथी

- रोहित कुमार 'हैप्पी'


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ओवर टाइम | लघु-कथा - रोहित कुमार 'हैप्पी'

"अरे, राजू! घर जा रहे हो?" राजू को जाता देख राव साहब ने उसे पुकारा।

"हाँ, साब! 6 बजने को हैं। कोई काम था?" राजू  सुबह 8 से शाम 6 बजे तक उनके यहाँ काम करता था परंतु 6 से सात बज जाना कोई नई बात नहीं थी।

"हाँ, जरा मेरे कपड़े लेते जाओ। इस्त्री करवाकर सुबह लेते आना।" और साहब ने उसे कुछ कपड़े थमा दिए।

"ठीक है, साब!" कहकर राजू ने सलाम बजा दिया।

"अरे...तुम तो आठ बजे आओगे ना? मुझे तो आठ बजे यहाँ से जाना है!"

"कोई बात नहीं साब! मैं सात बजे दे जाऊंगा।"

"बहुत अच्छा।"

अगली सुबह राव साहब नहा-धोकर निकले तो राजू कपड़े ले कर आ चुका था।

"अरे, आ गए तुम, राजू!"

"जी, साब!"

वैसे तो राजू आठ बजे काम आरंभ करता है पर अब सात बजे पहुंच गया तो घर थोड़े न वापिस जाएगा।

"अरे, राजू...जरा मेरी कार साफ कर दे मुझे जल्दी निकलना है।"

"ठीक है, साब।" राजू कार साफ करने का सामान लेकर बाहर चल दिया।

राव साहब को आज 'श्रमिक दिवस' समारोह में भाषण देना था, शायद इसी लिए घर के नौकर को आज 'थोड़ा अधिक श्रम' करना पड़ रहा था। क्या उसे इस श्रम का ओवर टाइम मिलेगा?

-रोहित कुमार 'हैप्पी'
 न्यूज़ीलैंड 

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मंजुल भटनागर की बाल-कविताएं | बाल कविता - मंजुल भटनागर

दादी

चाँद की दादी ......

 
 
गन्ने के खेतों में हिंदी के आखर  - राकेश पाण्डेय

उन गिरमिटियों की श्रमसाधना को समर्पित जिनके कारण आज हिंदी विश्वभाषा बनी।

गन्ने के खेतों में हिंदी के आखर
बन गए राखी-रोली चन्दन ......

 
 
गिलहरी  - अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

कहते जिसे गिलहरी हैं सब ।
सभी निराले उसके हैं ढब ॥

पेड़ों से नीचे है आती ।
फिर पेड़ों पर है चढ़ जाती ॥

कुतर कुुतर फल को है खाती ।
बच्चों को है दूध पिलाती ॥

उसकी रंगत भूरी कारी ।
आँंखों को लगती है प्यारी ॥

होती है यह इतनी चंचल ।
कहीं नहीं इसको पड़ती कल ॥

उछल कूद में है यह जैसी ।
दौड धूप में भी है वैसी ॥

बैठी इस धरती के ऊपर ।
दोनों हाथों में कुछ ले कर ।।

जब वह जल्दी से है खाती ।
तब है कैसी भली दिखाती ॥

चिकना चिकना रोआँ इसका ।
लुभा नहीं लेता जी किसका ।।

मत तुम इसको ढेले मारो ।
जा पूरा इतना बात बचा ॥

कहीं इसे जो लग जावेगा ।
तो इसका जी दुःख पावेगा ॥

अब तक सब ने है यह माना ।
जी का अच्छा नहीं दुखाना ॥

- अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'


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कभी दो क़दम.. | ग़ज़ल - गुलाब खंडेलवाल

कभी दो क़दम, कभी दस क़दम, कभी सौ क़दम भी निकल सके
मेरे साथ उठके चले तो वे, मेरे साथ-साथ न चल सके

तुझे देखे परदा उठाके जो किसी दूसरे की मजाल क्या!......

 
 
साल मुबारक!  - अमृता प्रीतम

जैसे सोच की कंघी में से
एक दंदा टूट गया......

 
 
निस्वार्थ स्नेह - चंदा आर्य

उस शाम मैं जब विश्वविद्यालय से घर पहुंची तो बच्चे कुछ रहस्य छुपाये हुए से लगे, कहने लगे कि एक चीज़ दिखानी है। डरते -डरते उन्होंने मुझे वह चीज दिखाई ......क्या चीज थी वह चीज़! 

हमारे मिट्ठू के पिंजरे में बंद एक चिड़िया। मिट्ठू तो कब का आज़ाद हो चुका था, और किसी पंछी का पिंजरे में कैद होना मुझे अच्छा नहीं लगा, सो बच्चों को जिसका डर था वही हुआ बहुत डांट पड़ी । तीन घंटे से बंद पंछी को आँगन में लाया गया और जैसे ही उसे खोला गया, वह चीं- चीं करता आँगन की नीची दीवार पर बैठ गया ............ आश्चर्य !! उसकी आवाज सुनते ही पल भर में आस-पास के पेड़ों पर छिपे उसके भाई-बन्धु आ गए और उसे अपने साथ ले गए, क्या विश्वास किया जा सकता है कि वे तीन घंटे से उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे !

हम मनुष्य तो विश्वास नहीं कर सकते क्योंकि ऐसा निस्पृह स्नेह, लगाव व भाईचारा हम मनुष्यों में परस्पर कहाँ देखने को मिलता है।

-चंदा आर्य


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सर्वश्रेष्ठ उपहार - जयप्रकाश भारती

विधाता एक दिन बैठे थे। आसपास सेवक खड़े थे। कब कौन सा आदेश मिले और वह पालन करें। अचानक तभी विधाता बोले --"तुम सब पृथ्वी पर जाओ। वहां से मेरे लिए कोई अद्भुत उपहार लाओ। जो सबसे अच्छा उपहार लाएगा, वही मेरा प्रिय सेवक होगा।"

पलक झपकते ही सब सेवक पृथ्वी की ओर चल दिए। कोई कहीं जा पहुंचा। कोई कहीं। वे ढूंढते रहे। अपनी-अपनी समझ से बेशकीमती उपहार लेकर विधाता के पास पहुंचे। अनोखे हीरे-जवाहरात, कीमती धातुओं में तराशी गई मूर्तियां, दुर्लभ फल फूल और भी न जाने क्या-क्या! पर विधाता किसी भी उपहार को पाकर पसंद नहीं हुए। अभी एक सेवक नहीं लौटा था।

अंतिम सेवक आ गया। उसने हाथ जोड़े। फिर झोले में से निकालकर बड़ी-सी एक पुड़िया विधाता को दी। पुड़िया खोली गई तो सब हैरान। विधाता ने कहा--" अरे, तुम यह क्या ले आए, यह तो मिट्टी...। !

सेवक बोला-- " भगवान क्षमा करें। यह मिट्टी ही है। किसान इसी मिट्टी में बीज डालता है। इसी में लहलहाती फसलें उगती हैं। उससे मनुष्य और पशु पेट भरते हैं। पृथ्वी पर रहने वाले किसी माटी के लिए हँसते-हँसते प्राण भी दे देते हैं।"

विधाता मुसकराए। उन्होंने मिट्टी को माथे से लगाया। फिर बोले--" सचमुच तुम तुम्हारा उपहार सर्वश्रेष्ठ है।"

अपनी माटी अपनी ही होती है। हम इसको प्यार करना और माथे पर लगाना सीखें।

-जयप्रकाश भारती

 


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सूरज की ओर - बलराम अग्रवाल

बहुत पहले की बात है। एक आदमी ने सूरज की ओर जाना शुरू किया। उसे रास्ता नहीं पता था। रास्ते में उसे अनेक कठिनाइयाँ आईं, लेकिन वह चलता रहा। जब सूरज डूब गया, वह वहीं रुक गया।

घना जंगल उसके चारों ओर था। जंगल में उसने थोड़ी जगह साफ की और एक झोंपड़ी बना ली। उसके चारों ओर उसने केला, पपीता, सुपारी, नारियल आदि फलों के पौधे रौंप दिए। इनसे उसे पर्याप्त भोजन मिलने लगा।

इस तरह समय बीतता रहा।

एक दिन मलक्का गाँव के लोगों ने एक पक्षी को चोंच में मछली दबाकर पश्चिम की तरफ उड़ते देखा। उन लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ। वापसी में वे उसका पीछा करने लगे। कुछ समय बाद वह पक्षी एक झरने में जा उतरा। पानी वहाँ चाँदी की तरह चमक रहा था। लोगों ने सोचा कि पक्षी ने यहीं कहीं से मछली पकड़ी होगी। उन्हें उस जगह का नाम नहीं पता था। लेकिन वे खुश थे कि उन्होंने एक झरने को खोज लिया है। इधर-उधर देखने पर उन्हें वहाँ एक झोंपड़ी दिखाई दी। उसके चारों ओर फलों का बगीचा था। उन्हें आश्चर्य हुआ कि ऐसे घने और सुनसान जंगल में कौन अकेला रह रहा है ! वे धीरे-धीरे झोंपड़ी तक गए और उसका दरवाजा खटखटाया।

आदमी बाहर आया।

"आप कौन हैं ?'' उसने उनसे पूछा।

"हम मलक्का के निवासी हैं।" वे बोले, "हम पूरब की ओर उड़ते एक पक्षी का पीछा करते हुए यहाँ पहुँचे हैं। आप कौन हैं और यहाँ अकेले क्यों रहते हैं ?"

"मैं भी कभी मलक्का में ही रहता था।" उसने उत्तर दिया, "एक दिन मैंने सूरज की तरफ चलना शुरू किया। सूर्यास्त तक मैं यहाँ पहुँचा और तब से यहीं रहने लगा।''

यह सुनकर मलक्कावासियों ने अपने गाँव से आए उस पहले आदमी को गले लगाया और पुनः मिलने का वादा करके वापस अपने गाँव को लौट गए।

एक दिन 'पहले आदमी ' को पता चला कि घर में नमक का एक कण भी नहीं है। वह नमक की खोज में झोंपड़ी से बाहर निकला। कुछ दूर चलने पर उसने एक अन्य आदमी को देखा।

"नमस्ते भाई, आप कौन हैं और कहाँ से आए हैं ?'' पहले आदमी ने पूछा।

"मैं फोबोई गाँव का रहने वाला हूँ और लम्बे समय से यहाँ रह रहा हूँ।" वह बोला।

दोनों आदमी गहरे दोस्त बन गए। कुछ समय तक बातें करने के बाद दोबारा मिलने का वादा करके वे अपने-अपने रास्ते पर चले गए।

प्रस्तुति: बलराम अग्रवाल
[अंडमान-निकोबार की लोक कथाएं, साक्षी प्रकाशन, दिल्ली ]

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श्रद्धांजलि - मैथिलीशरण गुप्त

अरे राम! कैसे हम झेलें,
अपनी लज्जा उसका शोक।......

 
 
उसकी औक़ात - हंसा दीप

चेयर के चयन के परिणाम सामने थे। मिस्टर कार्लोस एक बार फिर विभागाध्यक्ष चुन लिए गए थे पर उनके चेहरे पर वह खुशी नहीं थी। हालाँकि फिर से कुर्सी मिलने में कोई संदेह तो नहीं था फिर भी एक अगर-मगर तो बीच में था ही। किसके मन में क्या चल रहा है, किसके अंदर चल रही सुगबुगाहट कब बाहर आ जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता! बड़े तालाबों की छोटी मछलियों की ताकत का अंदाज़ लगाने के लिए कुछ प्रतिशत संदेह तो हमेशा रहता ही है। खास तौर पर जब कोई बड़ा परिणाम आने वाला हो तब तो कई बार छोटी-छोटी बातें भी अपना हिसाब माँग लेती हैं। ऐसे मौकों पर कोई भी अपने अंदर की भड़ास निकाल दे तो आश्चर्य की कोई बात नहीं।

इस बार एक ही केस ऐसा हुआ था जिसकी वजह से दोबारा कुर्सी मिलने में उन्हें थोड़ा संदेह था। वह था मिस हैली के खिलाफ एक्शन लेना क्योंकि वह क़दम तो मिस्टर कार्लोस के गले की घंटी बन गया था। यहाँ-वहाँ हर जगह इसकी चर्चा हुई और ख़ामख़्वाह यह घटना मिस्टर कार्लोस की जमी-जमायी साख़ को बट्टा लगा गयी थी। इस हार से मानसिक रूप से उबरने में उन्हें काफी समय लगा। एक ऐसी हार जिसमें उनकी जीत सौ प्रतिशत तय थी। अचानक पासा पलटा और वे हारे हुए खिलाड़ी की तरह चुप बैठने के अलावा कुछ कर नहीं पाए, मन मसोस कर रह गए।

ऐसा क्यों हुआ इस बारे में लाख सोचा, अपने खास लोगों से चर्चा भी की परन्तु कोई कारण समझ में नहीं आया कि ऐन मौके पर कैसे डीन ने एक नये प्राध्यापक का सपोर्ट किया बजाय इसके कि सालों से काम करने वाले विभाग के सम्माननीय अध्यक्ष का सपोर्ट करे। कहाँ और क्यों वाले सवाल आज भी उन्हें उलझा कर रख देते हैं। कभी कोई निर्णय ऐसा नहीं हुआ था कि कोई मिस्टर कार्लोस के ऊपर उँगली उठाए लेकिन मिस हैली के मामले में इतना होमवर्क करके अपना मजबूत पक्ष रखने के बावजूद उन्हें मुँह की खानी पड़ी थी।

वैसे एक्शन लेने का यह क़दम उठाना बहुत ज़रूरी हो गया था क्योंकि एक तो मिस हैली अपने आपको न जाने क्या समझती थी। कभी हाय-हलो नहीं करती, कभी विभागीय मीटिंग में हाथ खड़ा नहीं करती, कभी किसी प्रकार का कोई प्रश्न भी नहीं पूछती, न ही कभी उनकी तारीफ़ में एक भी शब्द कहती। हैली की यह खामोशी वे अधिक दिन तक नज़रअंदाज़ नहीं कर पाए। उसकी चुप्पी में मिस्टर कार्लोस को उसका अहं दिखा, उसकी हेकड़ी दिखी, उसकी घमंडी कार्यशैली दिखी।

एक दीवार थी बॉस और मातहत के बीच में। मिस हैली को मिस्टर कार्लोस पसंद नहीं और मिस्टर कार्लोस को मिस हैली पसंद नहीं, ऐसा विचार उन दोनों के दिमाग में कुंडली मार कर बैठ गया था। दोनों एक दूसरे से कन्नी काटते थे। मिस्टर कार्लोस का कन्नी काटना तो ठीक था उनके पास अधिकार थे, विभाग के सर्वेसर्वा होने के तेवर थे और एक लम्बे प्राध्यापकीय जीवन के अनुभव थे। मिस हैली तो नयी-नयी लड़की थी जिसने अभी-अभी ज्वाइन किया था, जिसके सिर पर हमेशा ही तलवार लटकती रहती कि कभी भी नौकरी चली जाएगी पर फिर भी उसका घमंड ऐसा कि चेहरा तो चेहरा, आँखें भी मिस्टर कार्लोस के खिलाफ संदेश देती रहती थीं। जाने क्या था उन आँखों की चुप्पी में जो बिन बोले भी बहुत कुछ बोल जाती थीं, बगावत का संदेश भी अनायास ही मिस्टर कार्लोस तक पहुँचा देती थीं।    

यह मौन लड़ाई बहुत जल्दी कागजी लड़ाई में बदल गयी जब हैली ने फाइनल परीक्षा के पहले अपनी कक्षा में रिवीज़न के लिए एक सेम्पल प्रश्नपत्र दिया। इतने कम समय में मिस हैली की प्रतिभा से छात्रों में वह काफी लोकप्रिय हो गयी थी। सबसे ज्यादा छात्र मिस हैली की कक्षा में होते थे और सभी मिस हैली की मित्रवत अध्यापन शैली से प्रभावित थे। इससे जलती हैली की सहकर्मी मिस शनाया किसी न किसी तरह उसे नीचा दिखाने का बहाना ढूँढती रहती थी। वह मिस्टर कार्लोस के उन खास लोगों में से थी जो गाहे-बगाहे चेम्बर के चक्कर लगाते रहते थे।

शनाया के लिये हैली की लोकप्रियता को सहन करना विषैला कड़वा घूँट पीने जैसा था। सारा काम वह करे और छात्रों की वाहवाही हैली लूट कर ले जाए यह कब तक सहन किया जा सकता था। उसने अपने खास छात्रों को मिस हैली के छात्रों से मेलजोल बढ़ाने को उकसा कर जानने का प्रयास किया कि उसकी कक्षा में क्या-क्या होता है। आखिरकार ऐसा क्या है जो छात्र इतने उदार होकर उसकी प्रशंसा करते हैं। इस जुगाड़ से कुछ हाथ आया, ऐसा जिससे मिस हैली को नीचा दिखाया जा सकता था।

विश्वस्त सूत्रों से पता चला कि मिस हैली ने अपनी कक्षा को फाइनल परीक्षा के पहले जो रिवीज़न के लिए सेम्पल प्रश्नपत्र दिया है वह असली पेपर को आउट करने जैसा ही है। जिस प्रश्नपत्र को विभाग के पाँच लोगों ने मिलकर तैयार किया है उनमें मिस हैली भी थीं। वह रिवीज़न पेपर बाकायदा विभागाध्यक्ष को ईमेल किया गया यह कह कर कि मिस हैली ने अपने पद की आचारसंहिता का उल्लंघन किया है। इसके प्रमाण अटैच किए गए हैं। जब सारे प्रमाणों पर नजर डाली गयी तो मिस्टर कार्लोस की आँखें चमक गयीं। ठीक वैसे ही जैसे शेर की आखें चमक जाती हैं अपने शिकार को देखकर, क्रूर और ताकतवर आँखें किसी कमजोर प्राणी को दबोचती हुईं।   

बस फिर क्या था। विभागीय कार्यवाही शुरू हो गयी। एक के बाद एक नोटिस देने का सिलसिला शुरू हुआ जिनमें कहा गया था– “आप एक जिम्मेदार पद पर काम करते हुए ऐसे गैरजिम्मेदार कदम कैसे उठा सकती हैं। उचित कारण बताइए वरना आपकी नौकरी खतरे में पड़ सकती है।”

“आपने अपने छात्रों को फाइनल पेपर आउट कर दिया है, यह सरासर नियमों का उल्लंघन है।” मिस हैली को लगातार मिलते ये नोटिस उसकी कार्य शैली पर प्रश्न खड़े कर रहे थे। हैली को पता था कि उसने कुछ गलत नहीं किया है। वह साबित कर देगी कि व्याकरण के जो पाठ पढ़ाए गए थे वे सारे पाठ्यक्रम का हिस्सा थे, अगर उनका रिवीज़न करवाने की बात सेम्पल प्रश्नपत्र में होती है तो आचार संहिता का उल्लंघन कैसे होता है! दूसरा, अगर भाषा की कक्षा है तो जिन कवियों-लेखकों को पढ़ाया गया है वह सब रिवाइज़ करने के लिए कहा ही जाएगा। इसमें प्रश्नपत्र आउट करने की बात कहाँ से आ सकती है, वे तो फाइनल परीक्षा का हिस्सा होंगे ही क्योंकि वे पाठ्यक्रम का अहम हिस्सा हैं। 

दोनों के अपने वाजिब बिन्दु थे, वाजिब कारण थे। विभागाध्यक्ष का केस बनाने के लिए विभाग के कई लोग काम कर रहे थे। समूचा विभाग एक ओर, मिस हैली दूसरी ओर। कमेटी बैठायी गयी जाँच के लिए।

मिस्टर कार्लोस और मिस हैली के बीच की जंग शुरू हो गयी थी। यह जंग अब विभाग के मान-सम्मान से जुड़ गयी थी। एक और सक्षम सत्ता के लम्बे हाथ थे तो दूसरी ओर हैली के कटे हाथ थे जहाँ यूनियन भी उसका पक्ष लेने से कतरा रही थी। जो कुछ करना था हैली को ही करना था लेकिन वह करती भी क्या, उसके करने के लिए कुछ था ही नहीं। सिर्फ छात्रों के बीच अपनी लोकप्रियता के अलावा कुछ भी ठोस नहीं था। वह सेम्पल पेपर था जो खुद उसके विरोध में चिल्ला-चिल्ला कर बोल रहा था, बोल ही नहीं रहा था बल्कि उसके खिलाफ गवाही दे रहा था।  

अगले दिन कमेटी के सामने दोनों को अपने-अपने पक्ष रखने थे। मिस्टर कार्लोस के साथ उनकी पूरी टीम ने सुनियोजित तरीके से सभी कागज़ातों की फाइल बनायी और सिलसिलेवार एक के बाद एक आरोपों को साक्ष्य समेत अटैच कर दिया गया ताकि मीटिंग में मिस्टर कार्लोस को सब कुछ क्रमवार मिल जाए। विभागाध्यक्ष होने के नाते मिस्टर कार्लोस के तर्क सप्रमाण थे, वहीं मिस हैली के तर्क जबानी थे। किसी कागज या कागज पर लिखे बिन्दुओं पर विश्वास करने के बजाय वह ऐसे ही जाना चाहती थी, जो समय पर कहना होगा कह देगी। जो सच है उसके लिए किसी क्रमगत प्रमाण की जरूरत थी ही नहीं। अपने और छात्रों के बीच के संबंधों को उजागर करने के अलावा उसके पास कुछ था भी नहीं। जो भी था वह केवल और केवल इस मुद्दे पर आधारित था कि मिस हैली को अपने छात्रों की चिन्ता है।          

पहली मीटिंग में दोनों पक्षों को सुनने के बाद जाँच अधिकारी ने अगली मीटिंग रखी। यह मीटिंग डीन और प्राचार्य के साथ थी। विभागीय पक्ष अपने केस को मजबूत करने के लिए साक्ष्य जुटाता रहा। पहली मीटिंग में तय सा दिखा था कि विभाग जीत रहा है। मिस्टर कार्लोस का केस मजबूत था। सारा विभाग उनके साथ था क्योंकि कुर्सी अकेली नहीं होती उसके चार पैर होते हैं, हत्थे भी होते हैं, टिके रहने के लिए मजबूत पीठ होती है और बैठने के लिए आरामदेह गद्देदार बैठक होती है। ये सारे कुर्सी के उर्जे-पुर्जे कई चमचों की कतार खड़ी कर देते थे। इसी कुर्सी के बलबूते पर कार्लोस विश्वस्त थे कि इस बार हैली की छुट्टी कर ही देंगे। हैली का अति आत्मविश्वास और ज्ञान सबको चुभ रहा था। यही वजह थी कि उसके इस व्यक्तित्व की मजबूती बाहर आकर दंभ का काम करती थी। उसके स्वभाव का यह पहलू कई लोगों को ईर्ष्या की आग में लपेटता था, अपने ख़िलाफ खड़े होने के लिए माहौल तैयार करता था। मिस हैली के लिए इन सब लोगों के विचार मिस्टर कार्लोस के पक्ष में जा रहे थे।

ऐसा भी नहीं था कि मिस हैली इतनी नादान थी कि कुर्सी की ताकत को नहीं पहचानती थी लेकिन वह यह भी जानती थी कि कुर्सी के दायरों में सेंध लगाने के लिए हिम्मत की आवश्यकता है, किसी डर की नहीं। यह उसके कैरियर की शुरुआत है। अगर ऐसा ही चलता रहा तो ऐसे भविष्य में उसकी प्रतिभा का दम घुट जाएगा। इसलिए “अभी नहीं तो कभी नहीं” वाली दृढ़ मानसिकता थी उसकी।

हालांकि एक के बाद एक हो रही इन मीटिंग और आरोप-प्रत्यारोपों की इस शृंखला ने हैली को झिंझोड़ कर रख दिया था। आखिर थी तो वह एक इंसान ही, इस नए पद पर कितने दिन तक अपने तर्कों के बलबूते पर खड़ी रहती, पैर डगमगाने लगे थे।

आज डीन के साथ आखिरी मीटिंग थी जहाँ निर्णय लिया जाना था कि मिस हैली के खिलाफ क्या एक्शन लिया जाए। कहीं से कोई सपोर्ट नहीं मिल रहा था मिस हैली को। यूनियन का एक मददगार साथी था जो स्वयं हैली को समझा चुका था- “जिस तरह मीटिंग में उत्तेजित होकर आप अपने विभागाध्यक्ष से बात करती हैं वहीं पर आप अपने खिलाफ कई सबूत पेश कर देती हैं।”

“अगर मैं जोर से न बोलूँ तो मेरी बात सुनेगा कौन। मैं ऐसे कई लोगों के उदाहरण दे सकती हूँ जिन्होंने ऐसे कई रिवीज़न पेपर दिए और किसी को मुद्दा नहीं बनाया गया, सिवाय मेरे। यह मेरे खिलाफ बिछायी गयी शतरंजी बिसात है जिसमें मुझे चारों ओर से घेर कर शह और मात की औपचारिकता की प्रतीक्षा की जा रही है।”

“मिस हैली, आपको यह समझना होगा कि आपकी नौकरी इस समय खतरे में है।”

“मैं कोर्ट में जाऊँगी अगर मुझे नौकरी से निकाला गया। जिस लड़की के खिलाफ मेरे पास सबूत हैं उसके मिस्टर कार्लोस से अफेयर चल रहे हैं, मैं उस बात को सबके सामने लाऊँगी।”

“रिलेक्स मिस हैली, यह उनका व्यक्तिगत मामला है इसे आप काम से नहीं जोड़ सकतीं। आपका यह एटीट्यूड आपके ही खिलाफ जा रहा है, अगर आप सच प्रस्तुत कर रही हैं तो उसे पेश करने में किसी एटीट्यूड की जरूरत नहीं है।”

“मैंने कोई गलत काम नहीं किया, मुझे कोई डर नहीं है। इस तरह मैं कुर्सी की चापलूसी न कर सकती हूँ, न ही करूँगी। जहाँ कोई मुद्दा नहीं था वहाँ इसे मुद्दा बनाया गया और जहाँ असली मुद्दा था वहाँ उसे रफा-दफा कर दिया गया।”

“मिस हैली जब भी आप कुछ बोलें, अपने मामले से संबंधित ही बोलें तो बेहतर होगा।”

“मैं तो चुप थी इन लोगों ने मुझे बोलने पर मजबूर किया है। मुझे जो धक्का दिया है वह उल्टा उन पर ही वार करेगा। मेरा तो अधिक नुकसान नहीं होगा पर इनकी इतने साल की नौकरी का भट्ठा बैठ जाएगा।” मिस हैली के लिए यह बेहद निराशाजनक था कि यूनियन, जिसे उसका साथ देना चाहिए वे भी उसके खिलाफ बोलने लगे थे।  

डीन के साथ मीटिंग शुरू होने वाली थी, आज मिस हैली शांत थी। जानती थी बहुत बोल ली, अब उसके कागज बोलें तो ठीक है, नहीं बोलें तो अंधे कानून को बोलने दो। “हाय-हलो” के बाद एक कंपन था शरीर में, एक साजिश में फँसने का कंपन, अपनी नौकरी जाने का कंपन, अपने काम में ईमानदार होने का कंपन।

सबसे पहले डीन ने हैली को अपना पक्ष रखने के लिए कहा।

वह शांत स्वर में बोली – “अगर फाइनल परीक्षा में कवियों और लेखकों के बारे में पूछा गया है तो हाँ, मैंने उसका रिवीज़न करवाया है। अगर यह गलत है तो मेरा व्याकरण पढ़ाना भी गलत था क्योंकि वह व्याकरण मैंने नहीं बनायी थी बल्कि किसी की किताब से चोरी की थी। यह कॉपीराइट एक्ट का उल्लंघन है।”

“मेरा सेम्पल प्रश्नपत्र अगर जाँच के दायरे में है तो उन सबका भी होना चाहिए जिन्होंने अपनी-अपनी कक्षा में रिवीज़न पेपर दिये हैं।”

“मैं अपने छात्रों को फाइनल परीक्षा के लिए तैयार कर रही थी अगर यह गलत है तो मेरे खिलाफ कार्रवाई की जाए। मैंने जो कुछ पढ़ाया वह सब इस प्रश्नपत्र में था, जो कुछ पढ़ाया है उसी को रिवाइज़ करना चाहती थी। भाषा को पढ़ाते हुए भी मैंने पूरी व्याकरण किसी दूसरी किताब से ली थी क्योंकि मेरी अपनी कोई व्याकरण नहीं है। इस तरह मैं हर जगह कॉपी ही कर रही थी, नया कुछ नहीं दे रही थी। ठीक वैसे ही मैंने अपना सेम्पल प्रश्नपत्र भी कॉपी किया है।”

डीन ने हैली के सारे बिन्दु नोट किए। अब मिस्टर कार्लोस की बारी थी– “मैं कुछ कहना नहीं चाहता, बस दोनों प्रश्नपत्र दिखाना चाहता हूँ।”

 प्राचार्य ने उस भाषा को जानने वाले सदस्य से कुछ सवाल किए। यह भी पूछा कि इस पूरे प्रकरण के बारे में वे क्या कहना चाहेंगे। उन्होंने कहा कि वे अपनी राय के साथ ई-मेल भेजेंगे, इस प्रकरण के हर पहलू पर विचार करने के बाद ही कुछ कह पाएँगे।

एक दिन निकला, दो दिन निकले। मिस हैली को इस बात का अहसास था कि वह गले-गले तक फँसी हुई है। मिस्टर कार्लोस को पता था कि जीत दूर नहीं है। सारे साक्ष्य चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे हैं कि मिस हैली ने गलत किया है।

अगले दिन दोनों को एक-एक ई-मेल मिली। हैली के लिए लिखा गया था- “यह आपके कार्यक्षेत्र में था। कवियों-लेखकों और व्याकरण के बारे में पढ़ाना पाठ्यक्रम का एक हिस्सा था। आपने उसी को दोहराया, कोई गलत काम नहीं किया।”

मिस्टर कार्लोस के लिए लिखा गया था– “यह पाया गया कि अनर्गल आरोपों के साथ आपने एक मेहनती और उदार प्राध्यापक को मानसिक त्रास पहुँचाया है। यह अपने अधिकार का गलत प्रयोग है। आपको तत्काल अपना माफ़ीनामा मिस हैली को भेजना चाहिए व प्रतिलिपि मुझे भी, ताकि भविष्य में ऐसे अनर्गल आरोपों वाले मामले में आप अपना व पूरे तंत्र का समय नष्ट न करें।”

एक चींटी ने एक हाथी से टक्कर ली थी और उसे गोल-गोल घुमा दिया था। चकरी घिन-घिन घूम रही थी परन्तु दिशा उसकी अपनी थी। चाहे तो विपरीत दिशा में घूमे या सामने घूमे। घूमना तो उसकी नियति है लेकिन दिशा का निर्धारण करने की स्वतंत्रता है उसे। विभागाध्यक्ष मिस्टर कार्लोस ने माफ़ीनामा भेजा, भेजना पड़ा क्योंकि इसके अलावा कोई विकल्प नहीं था। बॉस की आज्ञा की अवहेलना तो नहीं की जा सकती परन्तु अब उस चकरी की डोरी और कस कर पकड़ ली थी जिसे घुमाना अब उन्हीं के हाथ में रहे, किसी और के हाथ में नहीं। देख लिया जाएगा, कहीं न कहीं तो वे इसका बदला ले ही लेंगे। अपने कार्यक्षेत्र में कार्य को कितना घुमाया-फिराया जा सकता है, इसका तजुर्बा है उन्हें।

लेकिन अगले दिन फिर से पासा उलटा पड़ गया। उनकी मेज पर मिस हैली का त्यागपत्र रखा था। मिस्टर कार्लोस को पहली बार लगा जैसे उन्हें जोर का धक्का दे दिया गया हो। न जाने वह धक्का डीन के निर्णय ने दिया था या उस त्यागपत्र ने जो लिफाफे से बाहर आकर उन्हें धकेल गया था। वे चाहते थे कि एक बार उसे उसकी औक़ात दिखा दे और फिर वह चली जाए लेकिन वह जीत कर नौकरी छोड़ कर जा रही थी। उसका जीत कर जाना मिस्टर कार्लोस को अपने चेहरे पर एक तमाचे की तरह पड़ रहा था जो रह-रह कर अपने गाल सहलाने को मजबूर कर रहा था। बस यही कारण था कि दोबारा कुर्सी पाकर भी वह खुशी नहीं थी चेहरे पर जो मिस हैली के रहते इस समय उनके चेहरे पर होती। बार-बार एक ही बात खाए जा रही थी कि मिस हैली ने उन्हें कुर्सी सहित चकरी की डोरी से घुमा कर ऐसे छोड़ दिया था कि वे लगातार चकरघिन्नी की तरह घूमते ही जा रहे थे।

--हंसा दीप, कनाडा


......
 
 
शाही हुक्का - भारत-दर्शन संकलन

हाफिज नूरानी, शेखचिल्ली के पुराने दोस्त थे। नारनौल कस्बे में उनका अच्छा-खासा व्यापार था। उनकी बीवी नहीं थी। वे अपनी बड़ी हवेली में बेटे-बहू के साथ रहते थे। बेटे का ब्याह हुए सात साल बीत गए थे, लेकिन उसकी कोई संतान नहीं थी। हाफिज साहब को हमेशा यही फिक्र लगी रहती थी कि खानदान कैसे आगे बढ़े।

एक दिन उन्होंने शेखचिल्ली को एक खत लिखा और उससे इस मामले में राय मांगी। शेखचिल्ली कुरुक्षेत्र के पीर बाबा का मुरीद था और कोसों दूर रहने के बावजूद वो समय निकालकर बीच-बीच में वहाँ आते-जाते रहता था। एक दिन वह हाफिज नूरानी के बेटे-बहू को अपने साथ पीर बाबा के पास ले गया। वहां पीर बाबा ने मंत्र फूंका और बहू को पानी पिलाया और साथ ही एक ताबीज उसकी बाजू पर बांध दिया। इसके बाद पीर बाबा बोले, ‘अल्हा ने चाहा, तो इस साल आपकी मुराद जरूर पूरी हो जाएगी।’

पीर बाबा के ताबीज का असर हुआ और एक साल के अंदर ही उनके यहाँ संतान हुई। अब तो हाफिज नूरानी दादा बन गए। देखते ही देखते हाफिज साहब का आंगन खुशियों से भर गया। खुशी को मनाने के लिए एक जश्न का आयोजन किया गया और शेखचिल्ली को खास न्यौता भेजा गया। न्यौता पाकर शेखचिल्ली बहुत खुश हुआ और उसने अपनी बेगम को जल्दी तैयारी करने के लिए कहा। बेगम झटक कर बोल पड़ी, ‘क्या खाक तैयारी करूं, न पहने को कुछ है और न ही ओढ़ने को कुछ। इस हालत में गई, तो जग हँसाई ही होगी।

बेगम की बात सच थी,  शेखचिल्ली खामोश रहे। वे जानते थे कि हाफिज साहब नारनौल के बड़े आदमी हैं और उनके यहाँ जश्न भी बड़ा ही होता है। ऐसे में शेखचिल्ली कुछ तरकीब सोचने लगा।

नवाब साहब का धोबी शेखचिल्ली को काफी मानता था। कुछ ही दिन पहले शेखचिल्ली ने नवाब के गुस्से से उसे बचाया था और उसने शेखचिल्ली से कहा था कि वक्त आने पर वह उसके लिए जान तक दे देगा। यह घटना याद आते ही शेखचिल्ली उसके पास गया और उसने अपने लिए और बेगम के लिए कुछ नए कपड़ों की फरमाइश की। 

शेखचिल्ली ने कहा कि नारनौल से वापस लौटते ही कपड़े तुम्हें वापस दे दूंगा। धोबी को कुछ घबराहट हुई लेकिन  उसके सिर पर अहसान भी था और उसे अपना वादा भी याद था। किसी तरह हौसला करके उसने शेखचिल्ली को कपड़े दे दिए और बोला, ‘ये कपड़े नवाब और उनकी भांजी के हैं। सही-सलामत वापस कर देना।’ 
शेखचिल्ली ने हामी भरी और कपड़े लेकर घर को चल दिया। 

बेगम ने कपड़े देखे, तो बहुत खुश हुई। ‘कपड़े तो मिल गए, लेकिन जूते-चप्पलों का इंतजाम कैसे हो?’ नारनौल पैदल तो जाएंगे नहीं। सवारी का क्या होगा? 

अब शेखचिल्ली मोची के पास पहुंचा। वो मोची से बोला कि मेरे लिए और बेगम के लिए जूतियां चाहिए। मोची ने कई जूतियां दिखाई। शेखचिल्ली ने सबसे कीमती जूतियां पसंद कर ली। उसने कहा, ‘एक बार बेगम को दिखा लाता हूँ, तब खरीदूंगा।’ मोची मान गया। शेखचिल्ली जूतियां लेकर घर आ गया। अब केवल सवारी का इंतजाम बाकी था।

इलाके में जिसके पास सबसे अच्छी घोड़ा-गाड़ी थी, शेखचिल्ली अब उसके पास जा पहुंचा और बोला, "मुझे नवाब साहब के किसी काम के लिए नारनौल जाना है। नवाब साहब की बग्घी का एक घोड़ा बीमार हो गया है, इसलिए अपनी घोड़ा-गाड़ी मुझे दे दो। किराया मैं नवाब साहब से दिलवा दूगां। अब नावाब साहब को कौन नाराज करता? घोड़ा-गाड़ी भी मिल गई। घर पहुंचकर शेखचिल्ली ने बेगम को साथ लिया और नारनौल के लिए निकल पड़े।

हाफिज नूरानी के मेहमानों में कुछ नवाब के घराने से भी थे। हाफिज ने उन्हें शेखचिल्ली से मिलवाया तो उन्होंने शेखचिल्ली के कपड़े पहचान लिए लेकिन उस वक्त किसी ने कुछ कहा नहीं।  शेखचिल्ली उनके बर्ताव से भांप गया था कि उसकी पोल खुल चुकी है। जश्न के मजे पर पानी फिर गया। धीरे-धीरे पूरे इलाके में फुसफुसाहट होने लगी, जिसकी भनक शेखचिल्ली को भी लगी। बस हुक्का पकड़े-पकड़े भागे बेगम को खोजने। बेगम के मिलते ही बोले, ‘जल्द सामान बांधों और यहां से निकलो। कपड़ों की पोल खुल चुकी है। कहीं धोबी के साथ-साथ हम भी न रगड़े जाएं।’

किसी तरह शेखचिल्ली और उसकी बेगम जश्न के बीच से जान बचाकर निकले और नारनौल के बाहर आकर ही दम लिया। तभी बेगम तुनककर बोल पड़ी, ‘सत्यानाश हो उन निगोड़ों का जिन्होंने हमारे कपड़े पहचाने। अच्छा भला हम जश्न मना रहे थे, लेकिन सारा मजा किरकिरा हो गया।’ तभी उसका ध्यान शाही हुक्के पर गया, जिसे शेखचिल्ली ने हाथ में पकड़ा हुआ था। बेगम बोली, ‘यह हुक्का क्यों उठा लाए? नूरानी भाई इसे खोजते हुए बेकार हाय-तौबा मचाएंगे।’ लेकिन, शेखचिल्ली तो इतने गुस्से में था, जैसे अभी उन लोगों को मार खाएगा। बेगम की बात सुनते ही बोल पड़ा, ‘मेरा बस चले, तो मैं अभी के अभी उन सभी को फांसी पर चढ़ा दूं। भला नवाबों के कपड़ों में क्या नाम लिखा होता है, जो वैसे कपड़े कोई और नहीं पहन सकता।’

शेखचिल्ली बोला, ‘काश मुझ पर अल्लाह का थोड़ा रहम हो जाए, तो मैं इन सब को देख लूंगा। सबसे पहले नूरानी के जश्न में जाऊंगा और उन कमबख्तों को ऐसी नजर से देखूंगा कि वे सिर से पांव तक शोला बन जाएंगे। इधर-उधर भागते फिरेंगे और शोर मच जाएगा। दूसरे लोग उनसे बचते फिरेंगे और उन पर पानी डालेंगे।’ इतने में बेगम बोल पड़ी, ‘अगर वे भागते-भागते जनानखाने में जा घुसे, तो क्या होगा? वहां भी भगदड़ मच जाएगी। औरतें अपने को छिपाती फिरेंगी। बेगम तो चल-फिर भी नहीं पाएंगी। ऐसे में उनकी जान कैसे बचेगी। देखते ही देखते वहां सब कुछ खाक हो जाएगा।’ दोनों इतना सोच ही रहे थे तभी हुक्का हाथ से छूट कर गिर गया। देखते ही देखते घोड़ा-गाड़ी में धुंआ भर गया। साथ ही धोबी से उधार मांगे कपड़ों में से भी चिंगारियां उठने लगी।

सीख : ......

 
 
कमलेश भट्ट कमल के हाइकु - कमलेश भट्ट कमल

कौन मानेगा
सबसे कठिन है ......

 
 
अधूरी कहानी - कुमारी राजरानी

मैं भला क्यों उसे इतना प्यार करती थी ? उसके नाममात्र से सारे शरीर में विचित्र कँपकँपी फैल जाती थी। उसकी प्रशंसा सुनते ही मेरी आँखें चमक जाती थीं। उसकी निन्दा सुनकर मेरा मन भारी हो उठता था। पर मैं उसके निन्दकों का खण्डन नहीं कर सकती थी, क्योंकि उसके पक्ष समर्थन के लिए मेरे पास पर्याप्त शब्द नहीं थे। बस, अपनी विवशता पर गुस्सा आता था। और यदि मेरे पास पर्याप्त शब्द होते भी, तो मैं किस नाते उसके निन्दकों का मुँह बन्द करती?  वह मेरा कौन था और मैं उसकी क्या लगती थी!

मैं उसकी पूजा करती थी। उसमें पवित्रता के अतिरिक्त कुछ नहीं था। मेरा प्यार बादाम के पेड़ के फूलों के समान था, जो पत्तों के उगने से पहले ही खिलते हैं। मैं सिर्फ़ तेरह साल की थी। मेरे प्यार में यौवन की मादकता अभी टपक नहीं पाई थी। मेरा प्यार उस अबोध बाल विधवा के प्यार की तरह था, जिसे अपने पति के  ध्यान में अपना बाक़ी जीवन बिताना हो। पर उस बाल विधवा के प्यार में विवशता है और अपने समाज के लिए कटुता और द्वेष। और लोगों की क्या मजाल है कि उसके आगे उसके पति की कोई निन्दा करे। चाहे उसको अपने पति के दर्शन भी अच्छी तरह न हुए हों; पर उसपर उसका समग्र अधिकार है। सारी दुनिया जानती है कि वह मृत व्यक्ति उस बाल विधवा का पति था। किस अधिकार से उसके साथ अपनी तुलना करती हूँ? पर मैं वैसे तो दुनिया के आगे वह मेरा कुछ भी नहीं लगता था- वह तो मुझे जानता भी न था; पर मैं उसको जानती थी। मैं उसका नाम प्यार के मारे जरा जोर से भी नहीं ले सकती थी। उस प्यार को हृदय मन्दिर में छिपाकर पोषण करने के अतिरिक्त और कोई मार्ग ही न था।

एक बार की घटना मैं कभी नहीं भूल सकती। मैं उन दिनों आठवीं कक्षा में पढ़ती थी। स्कूल और कालेजों में उच्च-श्रेणी की लड़कियाँ निम्न-श्रेणी की लड़कियों पर खूब रोब जमाती हैं। उनकी हर बात में हाँ मिलाना पड़ता है| उच्च-श्रेणी की लड़कियों से दोस्ती करना गौरव समझा जाता है। मैं स्वभाव से बड़ी लजीली थी। मैं कभी बड़ी लड़कियों के आगे जाती, तो मेरे मुँह से आवाज़ ही न निकलती थी। हाँ, अपने बराबर की लड़कियों से मेरी अच्छी तरह बनती थी।

एक दिन दसवीं और नौवीं श्रेणी की लड़कियाँ मिलकर उसकी चर्चा कर रही थीं। मैं भी वहीं पर थी।  मैं भी उन लोगों की बात में दिलचस्पी लेने लगी। मेरे कान गरमागरम हो उठे, हृदय बुरी तरह धड़क रहा था। मेरे मुँह का रंग गिरगिट की तरह चढ़ता और उतरता था। परमात्मा को धन्यवाद है कि उस वक्त किसी ने मेरी ओर ध्यान नहीं दिया। सभी बातें करने में लगी थीं। बातों के प्रसंग में एक लड़की बोल उठी—“मैं मानती हूँ कि वे सुयोग्य कवि हैं; पर वे एकदम अकर्मण्य हैं। लिखते तो हैं हज़रत देशभक्ति पर और गरीब किसानों की दुर्गति पर; पर आप रहते कहाँ हैं, ज़रा जाकर देखिये। वे एक महाराजकुमार की तरह रहते हैं। कुछ काम तो करना नहीं है। बस, जब मर्जी आती है, कलम लेकर घसीट मारते हैं। और उनकी लेखनी सबसे पहले दौड़ती है किसानों की दुर्गति पर! यदि मैं कल उनको हल जोतने के लिए कहूँ, तो उनकी कविता भाग जाए। हमें ऐसे कवियों की जरूरत नहीं। आजकल देश को कर्मण्य लोगों की जरूरत है।"

मुझसे नहीं रहा गया, मैं गरज उठी-- "बस, रहने भी दो।" सबकी सब मेरी ओर देखने लगीं। मेरा मुँह गुस्से के मारे तमतमा रहा था। मैं बोलती गई--"यहाँ पर बैठे-बैठे किसी की टीका-टिप्पणी करना बहुत आसान बात है। आप लोग अकर्मण्यता पर व्याख्यान दे रही हैं; पर आप लोगों में कितनी कर्मण्यता भरी पड़ी है? क्या आप लोग समझती हैं कि हल जोतने से आदमी कर्मण्य बन जाता है? दुनिया में जितने प्रसिद्ध कवि हुए हैं और जिन्होंने 'मास्टरपीस' कविताएँ लिखी हैं, वह सब क्या कर्मण्य थे? कवि लोग जनता के प्रतिनिधि हैं।  जनता की मूकवाणी में विचार भरकर गाते हैं। आप चाहती हैं कि सबके सब ढोल पीटें और कोई गाये नहीं।"

न-जाने मैं इतनी बातें किस तरह बक गई। मेरी आँखों में आँसू आ गये। मैंने कहा-- "आप लोगों को उनके बारे में कुछ भी कहने का अधिकार नहीं है। वे एक महान कवि हैं।"

फिर मैं फूट-फूटकर रोने लगी। वहाँ कुछ देर के लिए सन्नाटा छा गया। सबको मेरी इस स्वतन्त्रता पर आश्चर्य हो रहा था। कहाँ तो मैं बुद्ध समझी जाती थी और कहाँ अपने से उच्च-श्रेणी की लड़कियों के साथ इस तरह प्रगल्भता के साथ बोलना! आश्चर्य के मारे सब मुँह बाये मेरी ओर देखने लगीं।

कुछ देर के बाद वही लड़की, जो इस प्रिय प्रसंग का कारण थी, बोल उठी--"बस-बस, बहुत ज्यादा बोलने की जरूरत नहीं। हम तुमसे ज्यादा जानती हैं। आखिर उसके नाम पर रोने की क्या जरूरत है? वह तुम्हारा क्या लगता है?"

मैं शर्म के मारे जमीन में गड़ गई। बाक़ी लड़कियाँ ठहाका मारकर हँसने लगीं। एक लड़की, जिसकी आँखों से शरारत टपक रही थी, मेरे पास आकर बोली-- “तुम्हारी जैसी भक्तिन को पाने वाले वह कवि महाशय सचमुच धन्य हैं। उनकी तरफ़दारी लेकर वकालत करने में तुम बहुत कुशल हो।"

मेरा मन अपमान और रोष के मारे जल उठा। दिल में आया कि मैं सबको मार डालूँ। ये सब मेरी मीठी स्मृति को कलुषित करने पर तुली हैं; पर मैं अपमान के खून की घूँट चुपचाप पी गईं। मैं वहाँ से उठकर घर चली आई।  मुझे काफ़ी देर तक उनकी हँसी सुनाई देती रही। वही शरारत की पुतली न जाने क्या-क्या कहकर पुकार रही थी।
घर आते ही अम्मा ने पूछा--"आज इतनी जल्दी क्यों लौट आई?"

पहले तो मैंने कोई जवाब न देकर इस बात को टालना चाहा; पर वे न मानीं। मेरे हृदय का बाँध टूट गया, और मैंने बिलख-बिलखकर रोते हुए उनसे सारा किस्सा कह सुनाया। अम्मा ने मुसकराते हुए कहा-- "अरे पगली, इसमें रोने की क्या बात है? हरएक कवि में कुछ-न-कुछ दोष होता ही है। आखिर वे भी हमारे-जैसे आदमी हैं। कवि और लेखक सर्वसाधारण की सम्पत्ति हैं। हर कोई उनकी बातें कर सकता है।"

मैंने कहा--"अम्मा, पर मेरे कवि के बारे में कोई कुछ नहीं कह सकता।“

अम्मा. गम्भीर हो गई और बोली--"मन्ना, तुम्हें इस तरह नहीं बोलना चाहिए। अब तुम सयानी होती जा रही हो।"

मुझे ऐसा लगा कि मानो मेरे ऊपर घड़ों पानी पड़ गया हो। आखिर अम्मा भी मेरे बारे में ऐसा सोच रही हैं! मेरा वह प्यार कैसा था! शीतल चाँदनी की तरह पवित्र। उस प्यार में सांसारिकता की जरा भी गन्ध न थी। थी तो सिर्फ संलग्नता थी, भक्ति थी। जैसे भगवान की प्रशंसा सुनकर भक्त उसकी कल्पना में तल्लीन हो जाता है, कुछ वैसी ही दशा मेरी थी। मेरे मन में एक अजीब जाग्रति पैदा हो गई। आखिर मेरा भगवान आदमी है। एक निराकार अव्यक्त मूर्ति की कल्पना को प्यार करना आसान है; पर भौतिक वस्तु को प्यार करने में बहुत सावधान होना चाहिए। दुनिया तो एक जवान आदमी और एक जवान लड़की के प्यार का इसी तरह अन्दाज्ञ लगायेगी ही। परमात्मा को धन्यवाद है कि पिताजी की बदली हो गई, क्योंकि उस दिन से मेरा उस स्कूल में निबाह मुश्किल हो गया था।

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जब मैं दसवीं क्लास में पढ़ती थी, तो कवि के प्रथम दर्शन हुए। हमारे स्कूल की ओर से उनके आगमन के उपलक्ष में एक सभा की गई थी। मैं स्कूल के साहित्य संघ की सेक्रेटरी थी। मैंने आयोजना में कोई कमी नहीं रखी थी। हॉल लोगों से खचाखच भरा था। कवि मुझसे काफी दूरी पर बैठे कविताएँ पढ़ रहे थे। मैं मन्त्रमुग्ध की तरह उनकी ओजस्वितापूर्ण वाणी सुनती रही थी। उसके बाद सभापति महोदय ने उनकी रचनाओं की भूरि-भूरि प्रशंसा की। मेरा रोम-रोम आनन्द के मारे फड़क रहा था। सभापति महोदय ने भाषण समाप्त करने के पहले फूलों की मालाएँ लेकर कहा--"मैं अब आप लोगों के इच्छानुसार कवि महोदय तथा उनकी पत्नी का सत्कार करता हूँ। आप दोनों ने यहाँ पधारकर बड़ी कृपा की है।"

मेरे ऊपर मानो बिजली गिर पड़ी। मेरे सारे शरीरका रक्त सूख गया। माँखों के आगे अँधेरा छा गया। सभापति महोदय न जाने क्या-क्या बड़बड़ा गये और न जाने कितनी देर तक मैं मूक बैठी रही। लोगों ने तालियाँ बजाना शुरू किया, तब मैं एकाएक होश में आई। मैंने देखा कि औरतों के बीच से उठकर एक युवती प्लैटफार्म की तरफ आ रही है। तालियाँ और भी ज़ोर से बज उठीं। मैं अभी उसे अच्छी तरह देख भी न सकी थी कि एक आदमी ने मेरे पास आकर कहा--"सभापतिजी चाहते हैं कि आप कवि-वधू के गले में हार पहनावें।"

मैं तुरन्त उठ खड़ी हुई। शरीर में ताक़त न थी। गला सूख रहा था। किसी तरह मैं प्लैटफार्म पर चढ़ गई और कवि--पत्नीके गले में माला पहनाई। फिर अपनी जगह पर आकर बैठ गई। तालियाँ बज रही थीं। अब मैं कुछ स्वस्थ्य हो गई थी। मैं कवि—पत्नी की ओर जरा ध्यान से देखने लगी--"अरे, यह क्या! यह तो वही है!”

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मैं घर पर लेटी हुई थी। अम्मा पास बैठी पंखा कर रही थीं। मेरे आँखें खोलने पर अम्मा मेरे माथे पर हाथ फेरती हुई कहने लगीं-- "मन्ना, अब तुम्हारा जी कैसा है?"......

 
 
लोभी गीदड़ी - विष्णु शर्मा

एक किसान के पास एक बिगड़ैल साँड़ था। उसने कई पशुओं को सींग मार-मारकर घायल कर दिया था। किसान ने उससे तंग आकर साँड़ को जंगल की ओर खदेड़ दिया।

साँड़ जिस जंगल में पहुँचा, वहाँ खूब हरी-भरी घास उगी थी। आजाद होने के बाद साँड़ के पास दो ही काम रह गए। खूब खाना, हुंकारना तथा पेड़ों के तनों में सींग फँसाकर जोर आजमाइश करना। अब तो साँड़ पहले से भी अधिक तगड़ा हो गया। सारे शरीर में ऐसी मांसपेशियाँ उभरी जैसे चमड़ी से बाहर छलक ही पड़ेंगी! पीठ पर कंधों के ऊपर की गाँठ बढ़ते-बढ़ते धोबी के कपड़ों के गट्ठर जितनी बड़ी हो गई। गले में चमड़ी व मांस की तहों की तहें लटकने लगीं। उसी वन में एक गीदड़ व गीदड़ी का जोड़ा रहता था, जो बड़े जानवरों द्वारा छोड़े शिकार को खाकर गुजारा करता था। स्वयं तो वे केवल जंगली चूहों आदि का ही शिकार कर पाते थे ।

संयोग से एक दिन वह मतवाला साँड़ झूमता हुआ उधर आ निकला, जिधर गीदड़-गीदड़ी रहते थे। गीदड़ी ने उस साँड़ को देखा तो उसकी आँखें फटी की फटी रह गई। उसने आवाज देकर गीदड़ को बुलाया और बोली, ‘“देखो तो इसकी मांसपेशियाँ। इसका मांस कितना स्वादिष्ट होगा। आह, भगवान ने हमें क्या स्वादिष्ट उपहार भेजा है।"

गीदड़ ने गीदड़ी को समझाया, "सपने देखना छोड़ो। उसका मांस कितना ही चर्बीला और स्वादिष्ट हो, हमें क्या लेना!"

गीदड़ी भड़की, "तुम तो भौंदू हो। देखते नहीं, उसकी पीठ पर जो चरबी की गाँठ हैं, वह किसी भी समय गिर जाएगी। हमें उठाना भर होगा और इसके गले में जो मांस की तहें नीचे लटक रही हैं, वह किसी भी किसी समय टूटकर नीचे गिर सकती हैं। बस हमें इसके पीछे-पीछे चलते रहना होगा।"

गीदड़ बोला, "भाग्यवान! यह लालच छोड़ो।”

गीदड़ी ने जिद पकड़ ली। वह लोभी हो चुकी थी, बोली, "अपनी कायरता से तुम हाथ आया यह कीमती अवसर गँवाना चाहते हो। तुम्हें मेरे साथ चलना ही होगा। मैं अकेली कितना खा पाऊँगी?"

गीदड़ी की हठ के आगे गीदड़ की एक न चली। दोनों ने साँड़ के पीछे-पीछे चलना शुरू कर दिया। कई दिन हो गए, पर साँड़ के शरीर से कुछ नहीं गिरा गीदड़ ने बार-बार गीदड़ी को समझाने की कोशिश की, "गीदड़ी, घर चलते हैं, एक-दो चूहे मारकर पेट की आग बुझा लेंगे।"

गीदड़ी की अक्ल पर तो जैसे परदा पड़ा था। वह न मानी, "हम खाएँगे तो इसी का मोटा ताजा स्वादिष्ट मांस कभी-न-कभी तो यह गिरेगा ही।'

बस दोनों साँड़ के पीछे लगे रहे। आखिर एक दिन भूखे-प्यासे दोनों ही गिर पड़े और फिर कभी नहीं उठे।

सीख : लालच बुरी बला है।

[पंचतंत्र की कहानियाँ]


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सुभाषचन्द्र - गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही' की कविता - भारत-दर्शन संकलन

तूफान जुल्मों जब्र का सर से गुज़र लिया
कि शक्ति-भक्ति और अमरता का बर लिया ।......

 
 
कहावत | लघु-कथा - रोहित कुमार 'हैप्पी'

- कैंची मत बजाओ।

- क्यों?

- कहते हैं लड़ाई हो जाती है।

- पर...

- कहा न मत बजाओ।

- यहाँ और है ही कौन? लड़ाई किससे होगी?

  तड़ाक....त...ड़ा...क....

- जवाबतलबी करते हो!

#

-रोहित कुमार 'हैप्पी'

 

 


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बादल और बारिश | बाल कविता - रवि रंजन गोस्वामी

बादल गुस्साए थे
लड़ते भिड़ते आये थे......

 
 
फ़क़ीर का उपदेश - भारत-दर्शन संकलन

एक बार गाँव में एक बूढ़ा फ़क़ीर आया । उसने गाँव के बाहर अपना आसन जमाया । वह बड़ा होशियार फ़क़ीर था । वह लोगों को बहुत सी अच्छी-अच्छी बातें बतलाता था । थोड़े ही दिनों में वह मशहूर हो गया । सभी लोग उसके पास कुछ न कुछ पूछने को पहुँचते थे । वह सबको
अच्छी सीख देता था ।

गाँव में एक किसान रहता था । उसका नाम रामगुलाम था । उसके पास बहुत सी ज़मीन थी, लेकिन फिर भी रामगुलाम सदा गरीब रहता था । उसकी खेती कभी अच्छी नहीं होती थी ।

धीरे-धीरे रामगुलाम पर बहुत सा क़र्ज़ हो गया । रोज़ महाजन उसे रुपये के लिए तंग करने लगा । लेकिन खेतों में अब भी कुछ पैदा नहीं होता था । रामगुलाम ख़ुद तो खेतों में बहुत कम जाता था । वह सारा काम नौकरों से लेता था । उसके यहाँ दो नौकर थे । वे जैसा चाहते, वैसा करते थे ।

आखिर महाजन से तंग आकर रामगुलाम ने अपनी आधी ज़मीन बेच दी । अब आधी ज़मीन ही सके पास रह गई ।

जिन खेनों में बहुत कम पैदावार होती थी वही रामगुलाम ने बेच दिये थे ।  जिस किसान ने उसकी ज़मीन ली थी वह बड़ा मेहनती था । वह अपना सारा काम अपने हाथों से करने की हिम्मत रखता था । जो काम उससे न होता वह मजदूरों से कराता, पर रहता सदा उनके साथ ही साथ था । वह कभी अपना काम मज़दूरों के भरोसे नहीं छोड़ता था ।

पहली ही फ़सल में उस किसान ने उन खेतों को इतना अच्छा बना दिया कि उनमें चौगुनी फ़सल हुई । रामगुलाम ने जब यह देखा तो वह अपने भाग्य को कोसने लगा । इधर उस पर और भी कर्ज़ हो गया और उसको बड़ी चिन्ता रहने लगी ।

आख़िर एक दिन वह भी उस फ़क़ीर के पास गया । उसने बड़े दुख के साथ अपने दुर्भाग्य की कहानी फ़क़ीर से कह सुनाई । फ़क़ीर ने सुनकर कहा-अच्छी बात है, कल हम तुम्हें बताएँगे ।

रामगुलाम चला आया । उसी रात को फ़क़ीर ने गाँव में जाकर रामगुलाम की दशा का सब पता लगा लिया । दूसरे दिन उसने रामगुलाम के पहुँचने पर कहा- तुम्हारे भाग्य का भेद सिर्फ 'जाओ और आओ' में है । वह किसान 'आओ' कहता है और तुम 'जाओ' कहते हो । इसी से उसके ख़ूब पैदावार होती है, और तुम्हारे कुछ नहीं ।

रामगुलाम कुछ भी न समझा । तब फ़क़ीर ने फिर कहा--तुम खेती का सारा काम मज़दूरों पर छोड़ देते हो । तुम उनसे कहते हो--जाओ ऐसा करो, पर ख़ुद न उनके साथ जाते हो, न काम करते हो । पर वह किसान मज़दूरों से कहता है-आओ, खेत चलें' । वह उनके साथ-साथ जाता......

 
 
नवल हर्षमय नवल वर्ष यह - सुमित्रानंदन पंत

नवल हर्षमय नवल वर्ष यह,
कल की चिन्ता भूलो क्षण भर;......

 
 
मौत और ज़िन्दगी - आनन्द मोहन अवस्थी

एक आदमी मौत से डरने वालों की सदा हँसी उड़ाया करता था, पर जब अन्तिम समय मौत ने उसके ही पास पहुँच अट्टहास किया, तो वह निश्चल, निश्चेष्ट, स्पन्दनहीन हो गया और फूट-फूट कर रो रही उसकी विधवा के पास, धरती पर 'घुटमुटइयाँ' चलने की चेष्टा करते हुये उसका बेटा किलकारी भर रहा था!

- आनन्द मोहन अवस्थी
   साभार - बन्धनों की रक्षा

 

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महात्माजी के प्रति - मैथिलीशरण गुप्त

तुम तो प्राण दे चुके बापू! स्वयं उन्हें साधारण जान,
कृपया कभी न करना अब फिर अपने दिए हुए का दान।......

 
 
तेंदुए का शिकार | शेखचिल्ली - भारत-दर्शन संकलन

एक बार झज्जर के नवाब ने शेख चिल्ली को नौकरी पर रख लिया था। अब तो शेख चिल्ली की समाज में ख़ासी पूछ होने लगी। 

एक दिन नवाब साहब शिकार के लिए जा रहे थे। शेख चिल्ली ने भी साथ चलने की विनती की।  ''अरे मियां तुम घने जंगलों में क्या करोगे?'' नवाब ने पूछा। ''जंगल कोई दिन में सपने देखने की जगह थोड़े ही है! क्या तुमने कभी किसी चूहे का शिकार किया है जो तुम अब तेंदुए का शिकार करोगे?''

''सरकार आप मुझे बस एक मौका दीजिए, फिर देखिए " शेख चिल्ली ने बड़े अदब के साथ फरमाया।

फिर क्या था!  नवाब असहनब मान गए। अब जनाब शेख चिल्ली भी हाथ में बंदूक थामे शिकार पार्टी के साथ हो लिए। उसने अपने आपको एक मचान के ऊपर पाया। थोड़ी ही दूर पर एक बड़ा पेड़ था जिससे तेंदुए का भोजन- एक बकरी बंधी थी। चांदनी रात थी। इस माहौल में जब भी तेंदुआ बकरी के ऊपर कूदेगा तो वो साफ दिखाई देगा। दूसरी मचानों पर नवाब साहब और उनके अनुभवी शिकारी चुपचाप तेंदुए के आने का इंतजार कर रहे थे। इस तरह जब कई घंटे बीत गए तो शेख चिल्ली कुछ बेचैन होने लगा। ''वो कमबख्त तेंदुआ कहां है?'' उसने मचान पर अपने साथ बैठे दूसरे शिकारी से पूछा।

''खामोश रहो!'' शिकारी ने फुसफुसाते हुए कहा। ''तुम तो बेड़ा गर्क कर दोगे!''

शेख चिल्ली चुप हो गया परंतु उसे यह अच्छा नहीं लगा। यह भी भला कोई शिकार है कि हम सब लोग पेड़ों में छिपे बैठे हैं और एक जानवर का इंतजार कर रहे हैं? हमें अपनी बंदूक उठाए पैदल चलना चाहिए! परंतु लोग कहते हैं कि तेंदुआ बहुत तेज दौड़ता है। वो जंगल में उसी तरह दौड़ता है जैसे मेरी पतंग आसमान में दौड़ती है, खैर छोड़ो भी। हम उसके पीछे-पीछे दौड़ेंगे। हम आखिर तक उसका पीछा करेंगे। धीरे-धीरे करके बाकी शिकारी पीछे रह जाएंगे। मैं सबको पीछे छोड़कर आगे जाऊंगा। मैं तेंदुए के एकदम पीछे जाऊंगा। तेंदुए को पता होगा कि मैं उसके एकदम पीछे हूँ। वो रुकेगा। वो मुड़ेगा। उसे पता होगा कि अब उसका अंत नजदीक है। वो सीधा मेरी आखों में देखेगा। एक शिकारी की आखों में देखेगा। और फिर मैं....!

---धांय और तेंदुआ मिमियाती बकरी के सामने ढेर होकर गिर गया। वो बस बकरी को दबोचने वाला ही था!

एक शिकारी बड़ी सावधानी से तेंदुए के मृत शरीर को देखने के लिए गया। तेंदुआ मर चुका था। पर इतनी फुर्ती से उसे किसने मारा था? 

'इसने' शेख चिल्ली के साथी ने शेख चिल्ली की पीठ ठोकते जुए उसे शाबाशी दी।

''क्या गजब का निशाना है!'' उसने कहा। ''तुमने तो सब शिकारियों को मात कर दिया!''

''शाबाश मियां! शाबाश!'' नवाब साहब ने शेख चिल्ली को बधाई देते हुए कहा। इस बीच में पूरी शिकार पार्टी शेख द्वारा मारे गए तेंदुए का मुआयना करने के लिए इकट्‌ठी हो गई थी।

''मुझे लगा कि कोई भी शिकारी मुझे चुनौती नहीं दे पाएगा परंतु शेख चिल्ली ने हम सबको सबक सिखा दिया। वाह! क्या उम्दा निशाना था!''

शेख चिल्ली ने बडे अदब से अपना सिर झुकाया हुआ था। तेंदुआ कब आया और कैसे उसकी बंदूक चली, शेख चिल्ली को इसकी कोई खबर न थी।  तेंदुआ सचमुच मर चुका था और शेख चिल्ली को अव्वल दर्जे का शिकारी माना जा चुका था। 

[भारत-दर्शन संकलन]


......
 
 
चन्दबरदाई और पृथ्वीराज चौहान - रोहित कुमार 'हैप्पी'

चन्द हिंदी भाषा के आदि कवि माने जाते हैं। ये सदैव भारत वर्ष के अंतिम सम्राट चौहान-कुल के पृथ्वीराज चौहान के साथ रहा करते थे। दिल्लीश्वर पृथ्वीराज के जीवन भर की कहानियों का वर्णन इन्होंने अपने ‘पृथ्वीराज रासो' में किया है। शहाबुद्दीन मोहम्मद गोरी ने संवत् 1250 में थानेश्वर की लड़ाई में पृथ्वीराज को पकड़ लिया, और उनकी दोनों आंखें फोड़कर कैद कर लिया। उसी समय उनके परमप्रिय सामन्त कविवर चन्दबरदाई को भी कारावास में डाल दिया।

कहते हैं, पृथ्वीराज शब्दभेदी बाण चलाना जानते थे। एक दिन शहाबुद्दीन का भाई गयासुद्दीन ज्योंही उनके सामने आया त्योंही चन्द ने पृथ्वीराज को संबोधनकर कहा--

बारह बांस बत्तीस गज, अंगुल चारि प्रमाण।
इतने पर पतसाह है, मति चुक्कै चौहान॥......

 
 
छोटा सा शीश महल - अरुणा सब्बरवाल

परेशान थी वह। परेशानियों जैसी परेशानी थी। दिल में एक दर्द जमा बैठा था। पिघलता ही नहीं। आकाश से बर्फ गिरती है। दो-तीन दिन में पिघल जाती है। किंतु कैसी पीड़ा है जिसके फ्रीजिंग प्वाइंट का कुछ पता नहीं। कमबख्त दर्द घुलता ही नहीं। पिघलकर बह क्यों नहीं जाता, पानी की तरह? घुल तो रही थी केवल आशा; रवि की पत्नी।

आज रवि के व्यवहार से उसके मन की कुलबुलाहट बढ़ने लगी। उसने रवि की ऐसी बेरुखी पहले कभी नहीं देखी थी। उसे पूरे दो दशक से ऊपर हो चुके हैं। पूछते-पूछते प्यार से….नम्रता से….रोष से, पर रवि सुनी-अनसुनी करते रहे। आशा भुनभुनाती रही।

आज भी यही क्रम दोहराया गया। बात को टालकर उसे दिलासा-सा देकर रवि नहाने चला गया। आशा तिलमिला उठी। नाश्ता करते वक्त फिर वही सवाल दोहराए जो पिछले पच्चीस सालों से दोहराती आ रही है। क्या हुआ अगर पूछ लिया तो? क्यों नहीं पूछेगी? बार-बार पूछूँगी कहाँ है मेरा बेटा लव? क्या किया उसका? बोलते क्यों नहीं?

झल्ला पड़ा था रवि! पल में फूट पड़ी थी ज्वाला। उगल डाला दबा हुआ क्रोध एक ही साँस में और चिल्लाया, ”क्या किया….? क्या मैंने किया….? अरे करने वाला कोई और ही है….! कब तक रोना रोती रहोगी लव का। न जाने कब छुटकारा मिलेगा इन सवालों से….? आगे बढ़ो….आगे!! इस दर्द से!!!’’

”दर्द…? हाँ-हाँ, वही। तुम क्या जानो माँ का दर्द? तुम माँ जो नहीं हो उसकी!’’ आशा रोष से चीखी।

”हाँ! ठीक कहती हो तुम! मैं माँ नहीं बन सकता पर तुम भी तो बाप नहीं! यह क्यों भूल जाती हो, यह दर्द दोनों का है। भगवान के वास्ते निकलो बाहर इस दर्द के पुराने खंडहर से!’’

रवि बड़बड़ाता रहा। आशा सुबकती रही। रवि फिर बोला, ”समझ नहीं आता क्या करूँ। यही चकिया राग सुन रहा हूँ पच्चीस सालों से। विशेषकर जब कोई उत्सव या खुशी का मौका होता है तुम पुराने संदर्भ लेकर बैठ जाती हो। उसी खंडहर में गुम, पुराने घाव कुरेदने लगती हो। थक गया हूँ तुम्हारे पैरों के नीचे से काँटे उठाते-उठाते। चार कदम आगे बढ़ती हो तो दस कदम पीछे। यूँ लगता है हम अलग-अलग दुनिया के चौराहे पर खड़े हैं। जाहिर तौर से एक दूसरे के समीप मगर ज़हनी तौर से एक दूसरे से कटे हुए। तुम्हारा रुख एक तरफ, मेरा दूसरी तरफ! ….इन बंजर क्षणों को झेलना भारी लगता है।

 

आज की बात ही लो। कितनी आसानी से कह दिया तुमने कि तुम्हारा मूड नहीं जाने का। यह जानते हुए भी कि मिसिज अरोड़ा के साथ हमारे पुराने संबंध हैं जो हम तोड़ नहीं सकते….। आज जो तुम पूरे होशो-हवास में खड़ी हो, सब उन्हीं की बदौलत। शादियाँ कोई रोज़-रोज़ थोड़े ही होती हैं। रिश्तों को बनाकर रखना पड़ता है। उन्हें सींचना पड़ता है। ….चलो उठो, यह वक्त रोने-धोने का नहीं। इस शादी में हमें ज़रूर जाना है। कुश से भी कह दो फोन करके कि वहीं पहुँच जाए। होटल में रात ठहरने की बुकिंग मैं करा लूँगा नेट पर। न्यूकासल से एडिनबरा—चार घंटे की ड्राइव भी है। तैयारी कर लेना। ’’

 

इतना कहकर रवि चला गया।

सामान आदि बाँधते समय आशा थोड़ा आश्वस्त थी। रवि की झिड़की निरर्थक नहीं थीं। उसे याद आया जब वह भारत से नई-नई आई थी। यू.के. में नए लोग, नया वातावरण। ऊपर से डाक्टर के मुँह से अपने माँ बनने की खबर सुनकर उसके मन में खुशी की लहर दौड़ गई। मगर जब पता चला कि उसके जुड़वाँ बच्चे होंगे तो उसका उत्साह ही गुम हो गया। रवि ने आश्वासन दिया कि इस देश में कुछ मुश्किल नहीं, ”चिंता क्यों करती हो। मैं हूँ ना। मिलकर सँभाल लेंगे। यहाँ तो सभी पुरुष अपने परिवार के लालन-पालन व घर के कामों में बराबर का हाथ बँटाते हैं। मेरे दोस्त सुभाष अरोड़ा के भी चार साल के जुड़वाँ लड़के हैं। उनकी पत्नी सिमरन से तुम्हें सब दुविधाओं का समाधान मिल जाएगा।’’

सिमरन ने उसे उत्साहित करते हुए कहा था, ”घबराना क्या? जश्न मनाओ जश्न। दो-दो आ रहे हैं। बाई वन, गेट वन फ्री….तुरंत शॉपिंग शुरू कर दो। ’’ आशा प्रफुल्लित होकर हँस पड़ी थी। बोली, दोनों को चिकित्सा शास्त्र में प्रोफेसर बनाऊँगी। सिमरन उसे पग-पग पर मशविरा देती, लड़कों के नाम, नर्सरी के रंग, अपनी देखभाल आदि-आदि।

आज यही बात टीसती है उसे। ‘जुड़वाँ’ शब्द का प्रसंग आते ही उसकी छातियाँ अकड़ने लगतीं। उसे लगता जैसे लव दूध के लिए रो रहा है।

अचानक फोन की घंटी उसे अतीत से वर्तमान में ले आई। उसने घड़ी पर नज़र डाली, रवि के घर पहुँचने का समय हो गया था। शर्मिंदगी से अपने सिर पर हाथ मारते बोली, बेवकूफ कहीं की, क्यों बार-बार तुम्हारा दिमाग चौबीस वर्ष पहले उसी दिन पर अटक जाता है। खुद को कोसती हुई अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गई।

रवि का दिन भी दफ्तर में टूटा-टूटा-सा गुज़रा। वह खुद पर खफा था….क्यों उसमें इतना साहस नहीं कि आशा को सच-सच बता दे? अपना आक्रोश उस पर निकाल दिया। क्यों अपने क्रोध पर काबू नहीं रखा? दिन में कई बार मन में आया कि घर फोन करके आशा को प्यार के दो बोल सुना दे—पर हर बार उसका अहं आड़े आ गया। पुरुष जो ठहरा!

अगले दिन शनिवार था। रवि और आशा समय से गुरुद्वारे पहुँच गए। कुश भी वहीं आ गया। थ्री-पीस सूट पहने वह राजा लग रहा था। मिस्टर अरोड़ा, सिमरन और उनके जुड़वाँ बेटे अर्शी और कँवल आनन्द कारज पर बैठे थे। पल भर को आशा को लगा जैसे उसके दोनों बेटे लव-कुश बैठे हों। पर अगले ही क्षण वह सँभल गई। कुश का हाथ उसके कंधों के गिर्द लिपटा था। वह किसी जोक पर हँस रहा था। लावों के बाद बधाइयाँ और आशीर्वाद! उसके बाद लंगर। शाम को दुल्हनों का स्वागत एक नामीगिरामी बैंक्वट हॉल में था। नव विवाहित जोड़ों की मंगलकामना के लिए जाम से जाम टकराए। गाना-बजाना, भाँगड़ा, शोर। आशा इनमें कुछ देर खोई रही, तभी किसी ने पूछा।

”आशा, कुश की शादी कब कर रही हो?’’

 

”फेलोशिप करना चाहता है, उसके बाद।’’

आशा सोचने लगी उसके भी तो दो बेटे थे। समय पर दोनों की बहुएँ साथ-साथ लाती। पोते-पोतियों की चहल-पहल होती। आशा के दिल पर दुखदायी स्मृतियों के हथौड़े पड़ने लगे। उसे उसकी अन्दर की उदासी और बाहर के अँधेरों ने घेर लिया। आँसुओं के घिरते बादलों को उसने बड़ी मुश्किल से रोका। दुख सहने की अनंत शक्ति को वह तभी जान पाई थी। सोचने लगी ‘क्या घाव सचमुच भर जाते हैं?’ चौबीस वर्ष का अधूरापन दर्द बनकर उभरने लगा। पलकों पे छाए आँसुओं को समेटने वह बाथरूम चली गई।

आशा के मन में क्या चल रहा था रवि भलीभाँति जानता था। उसके बाथरूम से आते ही वह उसे डांस फ्लोर पर खींच लाया। आशा कभी फिरकी की तरह नाचती थी। रवि का अरमान था उसके साथ नाचने का। दो धुनों के बाद आशा थककर बैठ गई। लोगों की बातें, वातावरण का अथाह शोर उसके कानों को बींधने लगा। उसके भीतर की बेचैनी ने उसे उठने पर बाध्य कर दिया। वह दबे स्वर में बोली, ”चलें। ’’

रवि उसके दर्द से अनजान कब था! उसने प्यार से हाथ बढ़ाते कहा, ”चलो। ’’

होटल के अपरिचित पलंग पर पड़े, दोनों अपने-अपने दुख समेटे, सोने-जागने की बारीक रेखा को एक दूसरे से छुपाते रहे।

”आशा, क्या सोच रही हो?’’ गई रात रवि ने करवट बदलते हुए मुलायम-सी आवाज़ में पूछा।

”कुछ नहीं। ’’

”कुछ तो ज़रूर चल रहा है तुम्हारे दिमाग में?’’

”और आपके?’’

”वही जो तुम्हारे दिमाग में….’’ रवि ने प्यार से उसे अपनी बाँहों में भर लिया।

स्नेह, सहानुभूति का स्पर्श पाते ही आशा रवि से लिपटकर सिसकने लगी। अतीत की यादें जगर-मगर नाचने लगीं।

कितनी खुश थी उस दिन वह?—दो बेटों की माँ! कैसे उचककर नर्स के पूछने से पहले ही दोनों बच्चों के नाम बता दिए थे उसने—’लव’ और ‘कुश’। यही तो दो नाम किशोरावस्था से सोचती आई। लव आगे-आगे और दस मिनट बाद कुश पीछे-पीछे। लव शांत, शालीन—कुसका तक नहीं। और कुश—तेज चुलबुला—चैन से लेटा तक नहीं। मुँह मचोड़-मचोड़ कर अंगड़ाइयाँ ले रहा था।

लव को प्यार से सहलाते रवि झट से बोला, ”बड़ा बेटा बाप पर गया है। ’’

”नहीं-नहीं, यह तो अपनी शरीफ माँ पर गया है। कुश है आपके जैसा, शरारती।’’

सब हँस पड़े थे।

रात के आठ बज रहे थे। रवि तो घर चले गए थे दिन भर दफ्तर के थके-हारे। आशा ने देखा लव बहुत देर से हिला डुला नहीं था। दूध पीते समय साँस लेने में अजीब-अजीब-सी आवाज़ें कर रहा था। घबराकर उसने नर्स के लिए घंटी बजाई। नर्स ने लव को देखते ही डॉक्टर को ब्लीप किया। मिनटों में वहाँ डाक्टरों-नर्सों की भीड़ लग गई। लव को वह तुरंत आई.सी.यू. में ले गए। आशा अनहोनी आशंका से काँप उठी। आशा जानने के लिए छटपटा रही थी कि बेटे को हुआ क्या है। उसका कलेजा तड़पकर बाहर आ रहा था। बार-बार नर्सों को पूछती। नर्सें टालती रहीं। उसने एक-दो बार उठने की कोशिश की किंतु पोस्टनैटल हेम्रेज के कारण उसे चलना-फिरना मना था। नर्स उसे हल्की-सी नींद की गोली देकर चली गई।

सुबह होते ही रवि को इत्तला दे दी गई थी। आशा की हालत देखकर उसने भी आशा को कुछ बताना ठीक नहीं समझा। लव को एक हृदय रोग था जो हज़ारों में एक बच्चे को जन्मजात होता है। उसके हृदय का बायाँ कोष्ठक अविकसित रह गया था और इसका इलाज लगभग नामुमकिन था। रवि ने यह आघात अकेले झेला। डॉक्टर लव के नन्हे से हृदय पर अपनी समस्त योग्यता और खोज खर्च करते रहे।

इधर आशा व्यथित हो उठी। सबकी चुप्पी और टाल-मटोल उसे विह्वल किए डाल रही थी। चौबीस घंटे हो गए थे लव को आई.सी.यू. में गए पर कोई खबर नहीं थी। आशा की बेचैनी बढ़ती गई। माँ जो थी वह। ….खुद को रोक ना पाई। आखिर आधी रात को नर्सों की आँख बचाकर वह दबे पाँव आई.सी.यू. की ओर बढ़ी मगर कमजोरी और घबराहट में चक्कर आ गया। वह अपना संतुलन खोकर वहीं फर्श पर लुढ़क गई। वह कई दिनों तक सेमी कोमा में पड़ी रही थी। यही उसे बताया गया था।

यही सब याद करते-करते कब उसकी आँख लग गई उसे पता नहीं चला। अगले दिन एक कुरमुरी सुबह थी। खिड़की से झाँकते सूरज ने उसे जगाया। कुश भी माँ-बाप के साथ वहीं नाश्ता मँगवाकर आ बैठा। वह देर तक गपशप करते रहे। पश्चात सुभाष और सिमरन से विदा लेकर वापस अपने घर न्यू कासल के लिए चल पड़े।

तीन वर्ष और गुजर गए। कुश ने फेलोशिप भी हासिल कर ली। चारों ओर से बधाई संदेशों का अंबार लग गया। दूर-दूर तक दोस्तों को मिठाई बाँटी। कॉलेज के डीन की ओर से बधाईपत्र के साथ ही फेलोशिप की अवॉर्ड सेरेमनी के डिनर व डांस का निमंत्रण था। सुबह शिक्षार्थियों का सम्मानोत्सव, रात को डिनर व डांस, अगले दिन रविवार को कॉलेज की नई प्रयोगशाला का उद्घाटन व प्रदर्शनी। पढ़ते ही दोनों खुशी से उछल पड़े। बेटा उनके स्वप्नों से भी आगे पहुँच गया था। उनके उत्साह की सीमा ना रही।

”आशा, तुम डिनर डांस के लिए अपनी गुलाबी शिफॉन की साड़ी ज़रूर पैक कर लेना। बहुत फबती है तुम पर!’’ रवि ने मनुहार से कहा।

 

”हाँ-हाँ…. आप भी अपनी नई डिनर शर्ट, काली ट्रिमिंग वाला टसकीडो और मैचिंग बो टाई पहनना। कुश को अच्छा लगेगा। ’’

”कुश को?…. और तुम्हें नहीं?’’ रवि ने चुटकी ली।

वह दिन भी आ गया। उन अनमोल क्षणों को कैद करने के लिए रवि ने नया कैमकॉर्डर खरीदा था। उत्सुकता और उत्साह दोनों के कारण रात भर ठीक से नींद भी नहीं आई। सुबह दफ्तर जाते वक्त रवि कह गया, ‘दो बजे तक तैयार रहना। शुक्रवार है ट्रैफिक ज्यादा होगा। एडिनबरॉ पहुँचने में चार के पाँच घंटे भी लग सकते हैं। और सुनो….कैमकॉर्डर रखना मत भूलना। ’

घड़ी की सुई बढ़ती ही ना थी। उसे अभी घर भी बंद करना था। पैकिंग किसी तरह पूरी की। कैमकॉर्डर रखने लगी तो फिर वही ख्याल उसे अवसाद के गह्वर में धकेल गया। रवि ने लव और कुश के कितने फोटो उतारे थे। कहाँ गए सब? कभी दिखाता क्यों नहीं? बस उसकी सारी हँसी आँखों की कोरों में भाप बनकर अटक गई। जब भी पूछती है वही पुरानी कहानी दोहरा देता है उत्तर में।

तुम कोमा में थी। उस रात कितनी बर्फ पड़ी थी! साइबेरिया बन गया था न्यूकासल, इतना हिमपात। चारों ओर बर्फ की मोटी तह और मोटी होती जा रही थी। तीन दिन इंतज़ार किया फिर चर्च की ज़मीन में दफना डाला। जगह याद नहीं।

झूठ! क्या बिना निशान की कब्रें भी होती हैं? उसका तो नाम था। कितने दिन जिया मेरा लाल? कुछ है जो मुझसे छुपाया गया। सिवा रवि के और कौन बताए?

उन दोनों का मौन भी कभी चुप ना रहा। रवि मन ही मन बोलते, ”आशा, भलीभाँति जानता हूँ तुम्हारे प्रश्नों का उठना….तुम्हारा यूँ बिफर जाना भी सही है….मगर उस पल में जो सबसे ठीक लगा मैंने किया….’’

आशा सोचती, ‘तुम नहीं समझोगे….सब कुछ अधूरा-अधूरा अज्ञात के भँवर में फँसा हुआ लगता है। क्यों लव के बिना कुश भी अधूरा लगता है?….बिना पूरा सच जाने मुझे सदा यह क्यों लगता रहा कि मेरा बच्चा अभी है….मुझे आवाज़ दे रहा है….दूध के लिए प्यासा है….

रवि के घर पहुँचते ही आधे घंटे के अंदर ही दोनों एडिनबरा के लिए निकल पड़े। मोटरवे पर जाते ही उसने कार की गति को तेज कर दिया। नब्बे मील की गति से भागने लगी। बेटे की सफलता के नशे में मस्त न जाने कब एडिनबरा आ गया पता ही नहीं चला। रवि बोला, ”आशा, माँ-बाप के लिए इससे अधिक गर्व की बात और क्या बात हो सकती है….? सच मानो बच्चों की सफलता ही माँ-बाप की सफलता है। आज मैं….रवि भल्ला अपने को सफल पिता घोषित करता हूँ। ’’ रवि गर्व से चिल्लाया।

”अकेले ही सारा श्रेय ले लोगे क्या? माँ तो पहली शिक्षक होती है। ’’ आशा ने खिले गुलाब-सी मुस्कराहट के साथ कहा। उसके मन में अनायास कुश की पहली मुस्कान कौंध गई। वह अतीत से खुशियाँ के मोती उठा-उठा कर माला पिरोने लगी—कुश का पहला दाँत, पहला कदम, पहला शब्द, पहला जन्मदिन, पहला स्कूल का दिन….अंत ही नहीं था। कितने वर्षों से सहेजती आ रही थी इन सुखदायी क्षणों को, पर कभी खुलकर उनका उत्सव नहीं मनाया….आज भी नहीं….।

कार चलाते हुए रवि ने उसकी मुस्कान को तिरोहित होते हुए महसूस किया। उसकी निर्बाध खुशी पर जैसे तुषारापात हो गया हो। एकदम से झल्लाकर बोला, ”कम से कम आज तो विदा कर दो अपनी व्यथा को! क्या मिल गया जो अब मिल जाएगा? जो जीवित है, तुम्हारे सामने खड़ा है, क्या तुम उसके सुख के लिए उमड़ते बादलों को दबाकर मुस्करा नहीं सकतीं….? हर खुशी के अवसर पर नई मुश्किल खड़ी करके उसे किरकिरा कर देती हो। ….क्या कुश को खरे सोने के जैसा शुद्ध आशीर्वाद नहीं दे सकतीं? उसने हमें जो दिया उसके बदले यह खोट मिली नकली मुस्कान? माँ हो—अब सिर्फ उसकी माँ!

”क्या करूँ—कोख अपना हक माँगती है।’’

”किससे? रोक सकती थी क्या तुम उसे? या मैं रोक लेता? सँभालो अपने आप को। हमारा कुश….तुम्हारा जाया—दो क्या आज दस के बराबर है। अब से हर पल उसकी खुशी के लिए जीना ही तुम्हारा धर्म है। इससे ज्यादा और क्या महत्वपूर्ण है तुम्हारे लिए?’’

कुछ पल दोनों में मौन वार्तालाप का सिलसिला जारी रहा। आशा मन ही मन में बड़बड़ाती रही।

”हाँ-हाँ…. पूछूँगी….बार-बार पूछूँगी….हर बार वही पुरानी मनगढ़ंत कहानी सुना देते हैं, तुम कोमा में थीं….चारों ओर बर्फ ही बर्फ जमी थी….बल्ला….बल्ला इत्यादि।

रवि भी मन ही मन बड़बड़ाते रहे, ”आशा, मैं अच्छी तरह जानता हूँ तुम्हारे प्रश्नों का उठना, बिखर जाना ही सही है। ’’

”तुम नहीं समझोगे, सब कुछ अधूरा-अधूरा अज्ञात के भँवर में फँसा लगता है।’’

”निकलो उस भँवर से, बहुत हो गया।’’

रवि ने अपना बायाँ हाथ आशा के हाथ पर रखा। आशा ने उसका हाथ अपने हाथ में लेकर चूम लिया। आज पहली बार आशा को अपनी कमजोरी का दुख हुआ। ‘नहीं….अब नहीं रोऊँगी। जो जिंदा है उसके लिए जिऊँगी, खुशी से। ’

रवि ने उसकी मूक प्रतिज्ञा को जैसे पढ़ लिया।

दोनों एक-दूसरे की ओर मुस्करा दिए।

कार कॉलेज के अहाते में आकर रुकी। सामने से कुश आता नज़र आया। दोनों ने उसकी पीठ थपथपाई और शाबाशी दी। आते-जाते अनजान लोग उन्हें बधाई कह रहे थे। दूसरी सुबह समारोह निश्चित समय पर शुरू हुआ। अनगिनत श्रोता। पूरी फैकल्टी अपने काले गाउन और हैट लगाए परेड करती हुई जब अपने-अपने स्थान ग्रहण करने लगी तो स्कॉटिश बैग पाइप बैंड ने स्वागत धुन बजाई। आशा को झुरझुरी आ गई। इसके बाद शिक्षार्थियों को उनकी सफलता के प्रमाणपत्र दिए गए। आशा और रवि के हाथ कसकर एक मुट्ठी में बँध गए। खुशी के आँसू बह निकले। सामने कुश को प्रथम श्रेणी का विशेष मैडल भेंट किया गया। विभिन्न जातियों, विभिन्न देशों, विभिन्न भाषा-भाषियों से हॉल खचाखच भरा था परंतु आज इस वेला में वह सब समान रूप से इस वैश्विक परिवार के सदस्य थे। सबका एक रुतबा था, एक जात थी—वह सब सफलता के सर्वोत्तम शिखर पर खड़े चिकित्सकों के अभिभावक थे—गर्व और आत्म सम्मान के अधिकारी!

समारोह के बाद रवि ने कुश से पूछा, ”आगे क्या करने का इरादा है बेटे?’’

”पापा, मैं पढ़ाना चाहता हूँ। प्रोफेसर बनना चाहता हूँ। डाक्टरी और मरीजों का इलाज तो साथ-साथ चलता ही रहेगा।’’

शाम को डिनर के लिए रवि और आशा अच्छे-से सज-बनकर तैयार हुए।

”वाह, यह हुई ना बात! कभी हमारे लिए भी ऐसे तैयार हो जाया करो….!’’ रवि ने आशा को खुश करने के लिए कहा।

”आप भी ना!….’’ आशा शरमाकर मुस्करा दी।

डिनर हॉल की सजावट अद्वितीय थी। दोनों आश्चर्यचकित रह गए। इतनी खातिरदारी, इतनी गहमागहमी—पहले कभी नहीं देखी थी। प्रत्येक मेहमान को यह अहसास दिलाया गया कि वही खास मेहमान है। नम्रता व नफासत, दिखावा और शराफत सब भरपूर। क्या शान थी!

दावत के बाद कॉलेज की टीम की ओर से डीन ने सभी अतिथियों को धन्यवाद दिया और नई प्रयोगशाला के उद्घाटन का उद्घोष किया। अगले दिन सुबह दस बजे सबको उद्घाटन समारोह के लिए आमंत्रित किया।

”मेरा आप सबसे अनुरोध है कि आप सब पधारें और देखें कि आपके बच्चों को इस मुकाम तक पहुँचाने में पर्दे के पीछे कितने लोगों का सहयोग रहा है। आपके यहाँ आने का शुक्रिया। अब आप बाकी शाम का आनंद लीजिए….’’

बारह बजते ही तीनों अपने-अपने होटल की ओर चल दिए। रवि की रात धज्जी-धज्जी गुजरी। रात भर उसके मस्तिष्क में वही काली रात घूमती रही।

उसके मन में अलग ही सागर मंथन चलने लगा। हमेशा आशा की भावनाओं को महत्वहीन करार देकर क्या वह अपने दिल में बसे चोर को भगा पाया कभी? आशा का मूक आश्वासन उसे अपने अपराधबोध से लड़ने के लिए छोड़ गया। कितना कमजोर था वह जो इतने सालों तक उसे सच बताने का साहस न कर पाया! किससे डरता था? आशा से—कि वह सहन नहीं कर पाएगी? या अपनी उस झूठी महानता से जिसकी झोंक में उसने अपने नन्हे से नवजात को मानव-सेवा के लिए अर्पण कर दिया? उफ! क्या गुजरी होगी उस नाज़ुक-से शव पर? किस-किस ने चीर-फाड़ की होगी? क्यों उसने डा. फर्ग्यूसन का प्रस्ताव ठुकराया। लव को जन्मजात हृदय रोग था जो हज़ारों में एक को होता है। लव चिकित्साशास्त्र के लिए एक अमूल्य उदाहरण था। उस पर अन्वेषण करके बहुत कुछ सीखा जा सकता था।

 

उस वक्त आशा अपने कक्ष में थी नीम बेहोश। रवि लव के पास आई.सी.यू. में भागा था। डॉ. फर्ग्यूसन उस नन्हीं सी जान को ऑक्सीजन चढ़ाते रहे। दो अन्य प्रोफेसर—उनके वरिष्ठ चिकित्सक वहाँ आ गए हालाँकि रात के ग्यारह बज रहे थे। सभी प्रयोग विफल रहे। चारों ओर नलियों में लव की नन्हीं जान अटकी थी।

डॉक्टर फर्ग्यूसन ने उसका कंधा थपथपाया! दुविधा में उनकी आँखों में आँसू थे। क्षोभ के, असफलता के, विवशता के। रवि उनकी छाती से लिपटकर फफक उठा।

”रो मत! ईश्वर ही इस सारे नाटक का रचयिता है मित्र! उसने इस मंच पर आज यह अपनी नई रचना भेजी थी। शायद इसलिए कि हम ऐसी अजीब रचना को समझ सकें और भविष्य में इससे सबक ले सकें। ’’

”सीख लिया डॉक्टर? क्या सीखा? उसकी माँ को सिखा पाओगे?’’ रवि हताश-सा पूछ बैठा।

”नहीं, पर जाने कितने और डॉक्टर उससे अनुभव ले सकेंगे अगर तुम चाहो तो।’’

”क्या मतलब?’’

”तुम चाहो तो तुम्हारा बच्चा अमर रहेगा। इसे बेजान हीरो बना डालो। इसे चिकित्साशास्त्र को उपहार दे दो। युगों-युगों तक अनेक विद्यार्थी तुम्हारे आभारी रहेंगे और यह मरकर भी जिंदा रहेगा। हमारे पास समय बहुत कम है। ’’ डॉक्टर फर्ग्यूसन उसके सामने एक फार्म रखकर चला गया, बहुत आत्म-मंथन के पश्चात उसके मन में उपकार की किरण फूटी। आशा से बात करना चाहता था, पर आशा होश में कहाँ थी जो कुछ पूछता या बताता। यह उसके जीवन की सबसे कठिन परीक्षा थी। उस वक्त उसने कैसे लव की सभी नलियाँ उतारीं….उस फार्म पर हस्ताक्षर कर चुपचाप घर चला गया। यह वह भी नहीं जानता, गुनहगार हूँ आशा का। मैं भी तो उसी आग में जल रहा हूँ। आज तक न ही उस शून्य को भर पाया और न ही उसे प्रकट करने की हिम्मत ही जुटा पाया। कितनी आसानी से आशा उसे हृदयहीन करार देती है। उस दिन कैसे वह अपने हृदय और हाथों में खालीपन का एहसास लिये लौटा था। यही सोचते-सोचते न जाने कब उसकी आँख लग गई।

अगली सुबह कुश जल्दी ही वहाँ आ पहुँचा। तीनों समय से रिबन काटने के समारोह में उपस्थित हुए। इसके बाद एक वरिष्ठ प्रोफेसर उन्हें निर्देश देते हुए अंदर ले गए। चारों ओर शीशे को बड़ी-बड़ी अलमारियों में हड्डियों के मानव ढाँचे, फोरमेलीन में सुरक्षित मानव शरीर अत्यंत सफाई से दर्शनार्थ सजाए गए थे। प्रोफेसर का धीर गंभीर स्वर ऊँची छत वाले विशाल हॉल में गूँज रहा था।

”यह म्यूजियम है मानवता का। इसे मृत्युकक्ष न समझा जाए। यह मानवता के वह पुजारी हैं जिन्होंने सहर्ष अपना शरीर चिकित्सा शोध के लिए दान कर दिया। इन अवयवों को जो छोटी-छोटी शीशमहलों में सुरक्षित हैं। आप एक संपूर्ण नागरिक के रूप में पहचानें जिनके आप ही के जैसे माँ-बाप थे या शायद अभी भी हैं। जो रोते और हँसते थे, नाचते और गाते थे, खाते और पीते थे। अपनी मौत में भी यह अमर हैं और हम इनके तहेदिल से आभारी हैं क्योंकि प्रोफेसर आए और गए मगर यह वर्षों से आपके बच्चों को चिकित्सक बनाने में अपना अमूल्य सहयोग दे रहे हैं। ….कृपया उन्मुक्त मन से इन्हें अपनी श्रद्धांजलि दीजिए। ’’

तालियों की कर्णभेदी गड़गड़ाहट रवि को सुनाई नहीं पड़ी। वह अतीत में खोया इन्हीं शब्दों को वर्षों पीछे से सुन रहा था। यह नहीं हो सकता….कहाँ न्यू कासल कहाँ एडिनबरा….पच्चीस साल का अंतराल….प्रो. फर्ग्यूसन?

सहसा उसकी नज़र एक छोटे से जार पर अटक गई। मुश्किल से दो इंच का एक हृदय उसमें तैर रहा था अपने समस्त स्नायु संस्थान से चिपका। नीचे उसके जन्म की तारीख और बीमारी का नाम लिखा था, बस। यह भी लिखा था कि यह नन्हा बालक जन्म से ऐसा था और कुछ घंटे ही जीवित रह पाया।

यह देखते रवि सुन्न का सुन्न रह गया। उसका कलेजा धक-धक करने लगा। वह मन ही मन में गायत्री मंत्र का जाप करने लगा।

रवि ने देखा आशा तेजी से आगे बढ़ती जा रही थी। वह अचानक एक शीशी को देखकर ठिठकी….फिर आगे बढ़ गई। रवि की साँस में साँस आई। न जाने क्या सोच आशा पीछे मुड़ी और उसी शीशी के सामने जा खड़ी हुई जिस पर लिखा था 12.2.1989। तारीख देखते ही उसकी आँखें उस पर गड़ी की गड़ी रह गईं….पाँव वहीं जम गए….उसका सिर चकराने लगा….उसे धुँधला-धुँधला-सा दिखाई देने लगा। उसके मस्तिष्क में डॉक्टर के वही शब्द गूँजने लगे अनडेवेलप हार्ट….जो शीशी पर लिखा था। उसने अपनी आँखें मलकर फिर गौर से देखा….उसे कुछ क्षण दृष्टि स्थिर करने में लगे। आगे वह न पढ़ सकी। वह समझ नहीं पा रही थी कि वह थी या नहीं? यह होना न होना क्या होता है, उसने अपने को च्यूँटी काटी, उसकी ममता कराह रही थी। उसकी छातियाँ अकड़ने लगीं। उसके अतीत की सिसकियों की आवाज़ ऊँची हो गई। वह भूल गई थी कि वह कहाँ खड़ी थी। रो-रो कर वह उस शीशे के खरोंचती….ठोंकती….चूमती…. पुचकारती रही, बड़बड़ाती रही, ‘मेरे लाल….मेरे लाल….मेरे जिगर के टुकड़े….तू यहाँ?….क्यों….? तेरी यह हालत….कैसे?’ रवि और कुश ने उसे गिरते-गिरते बचा लिया। रवि उसे कमरे से बाहर ले गया। उसे समझाने की कोशिश करता रहा। आशा क्रोध से रवि को कालर से पकड़कर झिंझोड़ती बोलती जा रही थी, ”तुम तो कहते थे लव को वर्तमान से नहीं अतीत से संबोधित किया करो। वह देखो लव तुम्हारे सामने है मेरा बेटा….यहाँ कैसे….?….क्यों….क्या तुम नहीं जानते….मरकर भी आदमी मरता नहीं जब तक उसकी अंतिम चीज़ों को पूरा नहीं कर देते। यह देखो, लटक रहा है हमारा बेटा….न जियों में….न मरों में। ’’ उसका चेहरा कटुता से तमतमा रहा था।

रवि निःशब्द था। उसके गले में दोष भावना की गुठली ऐंठने लगी। वह नहीं जानता, आशा के बिलखते मन को कैसे शांत करे। रवि ने प्यार से आशा को गले लगाकर सहलाया। उसकी सिसकियाँ शांत होते ही बोला, ”गुनहगार हूँ तुम्हारा, तुम्हीं दोनों बेटों को प्रोफेसर बनाना चाहती थीं। देखो न, लव तो कुश से पहले ही प्रोफेसरों का प्रोफेसर बनकर कितने प्रोफेसर बना चुका है।’’

तीनों शांत थे। केवल रवि ही जानता था कि वह भी उसी आग में जलता रहता है। यह उसके जीवन का कठिन और कठोर फैसला था। लव का कोमल चेहरा अभी तक उसके भीतर चुभन-सी ला देता है। बाप तो वह भी है।

जाते-जाते आशा की नज़रों से आँख चुराकर उसने पीछे मुड़कर लव पर दृष्टि डाली, और बोला, ”आशा, सुनो तुमने….उसने तुम्हें पुकारा, ‘मम्मी। ’

--अरुणा सब्बरवाल


......
 
 
चींटी सेना - विष्णु शर्मा

बहुत समय पहले की बात है। किसी वन में एक अजगर रहता था। वह बहुत अभिमानी तो था ही, अत्यंत क्रूर भी था। वह जब बाहर निकलता सब जीव उससे डरकर भागने लगते। एक बार अजगर शिकार की तलाश में घूम रहा था। सारे जीव उसे बाहर निकला देख भाग चुके थे। उसे कुछ न मिला तो वह क्रोधित होकर फुफकारते हुए, भोजन की तलाश करने लगा। एक हिरणी अपने नवजात शिशु को पत्तियों के ढेर के नीचे छिपाकर स्वयं भोजन की तलाश में दूर निकल गई थी।

अजगर की फुफकार से सूखी पत्तियाँ उड़ने लगीं और हिरणी का बच्चा नजर आने लगा। अजगर की नजर उस पर पड़ी। हिरणी का बच्चा उस भयानक जीव को देखकर डर के मारे काँपने लगा लेकिन उसके मुँह से चीख तक न निकल पाई। अजगर ने देखते-ही-देखते नवजात हिरण के बच्चे को निगल लिया। तब तक हिरणी भी लौट आई थी, पर वह क्या करती ? आँखों में आँसू भर, जड़ होकर दूर से अपने बच्चे को काल का ग्रास बनते देखती रही।

दुखी हिरणी ने अजगर से बदला लेने की ठान ली। हिरणी की एक नेवले से दोस्ती थी। शोक में डूबी हिरणी अपने मित्र नेवले के पास गई और रो-रोकर उसे अपनी दुःख भरी कथा सुनाई। नेवले को भी बहुत दुःख हुआ। वह दुःख भरे स्वर में बोला, "मित्र, मेरे बस में होता तो मैं उस नीच अजगर के सौ टुकड़े कर डालता। पर क्या करें, वह छोटा-मोटा साँप नहीं है, जिसे मैं मार सकूँ, वह तो एक अजगर है। अपनी पूँछ की फटकार से ही मुझे अधमरा कर देगा। तुम चिंता मत करो। यहाँ पास ही में चींटियों की एक बाँबी है। चींटियों की रानी मेरी मित्र है। उससे सहायता माँगते हैं।"

हिरणी ने निराशा भरे स्वर में कहा, "अगर तुम अजगर का कुछ नहीं बिगाड़ सकते तो भला वह छोटी सी चींटी क्या करेगी?"

नेवले ने कहा, “ऐसा मत सोचो। उसके पास चींटियों की एक बहुत बड़ी सेना है। संगठन में बड़ी शक्ति होती है। "

हिरणी को कुछ आशा बंधी। नेवला हिरणी को लेकर चींटी रानी के पास गया और उसे सारी कहानी सुनाई। चींटी को दया आ गई, उसने सोच-विचारकर कहा, "हम तुम्हारी सहायता करेंगे । हमारी बाँबी के पास एक सँकरीला नुकीले पत्थरों भरा रास्ता है। तुम किसी तरह अजगर को उस रास्ते पर ले आओ। बाकी काम मेरी सेना पर छोड़ दो।"

नेवले को अपनी मित्र चींटी रानी पर पूरा विश्वास था, इसलिए वह अपनी जान जोखिम में डालने को तैयार हो गया। अगले दिन नेवला अजगर के पास जाकर बोलने लगा। अपने शत्रु की बोलते सुनकर अजगर क्रोध से भरकर बाहर आ गया। नेवला उसी सँकरे रास्तेवाली दिशा में दौड़ा। अजगर ने पीछा किया। अजगर रुकता तो नेवला मुड़कर फुफकारता और अजगर को गुस्सा दिलाकर फिर पीछा करने को मजबूर करता। इस प्रकार अजगर उस पथरीले रास्ते पर आ गया और नुकीले पत्थरों से उसका शरीर छिलने लगा और जगह-जगह से खून टपकने लगा था।

उसी समय चींटियों की सेना ने उस पर हमला कर दिया। चींटियाँ उसके शरीर पर चढ़कर छिले शरीर पर को काटने लगीं। अजगर तड़प उठा। अपना शरीर पटकने लगा, जिससे और मांस छिलने लगा और चींटियों वहीं काटने लगीं। असहाय अजगर चींटियों का कुछ नहीं बिगाड़ सकता था। वे हजारों की संख्या में उस पर टूट पड़ीं थीं। कुछ ही देर में क्रूर अजगर ने तड़प-तड़पकर दम तोड़ दिया।

सीख : संगठन में बहुत शक्ति होती है।

[पंचतंत्र की कहानियाँ]


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पाँच हाइकु - डॉ. भगवतशरण अग्रवाल

महँगा सौदा
बचपन खोकर......

 
 
भैया-बहना | बाल कविता - अमिश भट्ट

समय से सोता राजू भैया
समय से सोती मिनी बहेना ......

 
 
बंदर - अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

देखो लड़को !  बंदर आया ।
एक मदारी उसको लाया ॥......

 
 
पारस - रोहित कुमार 'हैप्पी'

'एक बहुत गरीब आदमी था । अचानक उसे कहीं से पारस-पत्थर मिल गया। बस फिर क्या था ! वह किसी भी लोहे की वस्तु को छूकर सोना बना देता। देखते ही देखते वह बहुत धनवान बन गया ।' बूढ़ी दादी माँ अक्सर 'पारस पत्थर' वाली कहानी सुनाया करती थी । वह कब का बचपन की दहलीज लांघ कर जवानी में प्रवेश कर चुका था किंतु जब-तब किसी न किसी से पूछता रहता, "आपने पारस पत्थर देखा है?"

उसे इस प्रश्न का प्राय: उत्तर मिलता, "नहीं !"

आज भी उसने एक व्यक्ति से फिर वही प्रश्न किया तो आशा के विपरीत उत्तर पाकर वह दंग रह गया ।

"हाँ, मैंने देखा है। मेरे पास है ।"

"आपके पास है ? कहाँ है, दिखाइए ?"

"तुम्हें विश्वास नहीं हो रहा ?"

"जी, मुझे विश्वास नहीं हो रहा !" उसने जिज्ञासा दिखाई।

उस आदमी ने अपने दोनों हाथ आगे बढ़ाते हुए कहा, "बस यही हाथ हैं पारस पत्थर। मेहनत करो इनसे, और कर्मयोगी बनो।"

उस आदमी की बात सुनकर उसे लगा जैसे सचमुच उसे 'पारस पत्थर' मिल गया हो। वह मन ही मन खूब मेहनत करने का संकल्प करते हुए अपने दोनों हाथों को निहारने लगा।

'परिश्रम ही सफलता की कुँजी है ।'

......

 
 
जो दीप बुझ गए हैं - दुष्यंत कुमार

जो दीप बुझ गए हैं
उनका दु:ख सहना क्या,......

 
 
दो आदमी - आनन्द मोहन अवस्थी

अक्सर मै अँग्रेज़ी सिनेमा देखने जाता हूँ और अर्ध-रात्रि को घर वापिस लौट कर आता हूँ ।
......

 
 
युग-पुरुष बापू अमर हो - सुमित्रा कुमारी सिन्हा

पृष्ठ में इतिहास के नव जोड़कर अध्याय सुंदर,
सत्य, मैत्री औ' अहिंसा का पढ़ाया पाठ हितकर,......

 
 
तुम्हारी नन्दिनी! - नीलिमा टिक्कु

नन्दिनी! ….हाँ वही थी तीस साल बाद अचानक उसे देखकर मेरे दिल की धड़कने बढ़ गईं थीं। कभी एक-दूसरे के साथ जीने-मरने की कसमें खायीं थीं हमने। हड़बड़ाती सी वह सामने से चली आ रही थी। प्लेन में केवल मेरे बगल वाली सीट ही खाली थी ज़ाहिर सी बात थी वो वहीं बैठती। मैं ज़बरन अख़बार में आँखें गड़ाये बैठा रहा। विंडो सीट पर निशा पसरी हुई थी। कॉलेज में नन्दिनी के साथ अकेले वक्त बिताने की चाह में जिस निशा से पीछा छुड़ाने के लिए मैं कई तरह के झूठ बोला करता था वही निशा मेरी पत्नी बनकर हमेशा के लिए मेरी जिंदगी में आ गयी थी और जिससे बेइंतिहा प्यार करता था वही नन्दिनी अब मेरी कुछ भी नहीं यहाँ तक की उससे मित्रता भी नहीं रही थी। निशा की उपस्थिति में उसके साथ बैठने में भी मैं असहज हो उठा था। ऐसा नहीं था कि निशा मुझ पर जबरन थोप दी गई थी या नन्दिनी से सम्बन्ध विच्छेद मुझे मजबूरी में करना पड़ा। उस वक्त मैंने ये निर्णय बहुत सोच समझ कर लिया था। मैं बेहद साधारण परिवार का इकलौता बेटा था। निशा एक बेहद पुरातनपंथी विचारधारा की लड़की थी इसके विपरीत नन्दिनी खुले दिमाग की मिलनसार लड़की थी। हमारे विचार परस्पर मिलते-जुलते थे। नन्दिनी और मेरे विषय एक से थे इसलिए हम पूरा समय कॉलेज में साथ ही रहते थे। निशा केवल पोलिटिकल साइंस के पीरियड में हमारे साथ होती थी। आरम्भ में निशा जबरन मुझ पर अधिकार जमाने की कोशिश किया करती थी, उसे मेरा और नन्दिनी का साथ फूटी आँख नहीं सहाता था। मैं बेबस सा केवल एक पीरियड के लिए निशा को जैसे-तैसे झेल पाता था। धीरे-धीरे निशा समझ गई थी कि मैं नन्दिनी से ही प्यार करता हूँ, तंग आकर उसने हमसे दूरी बना ली थी। नन्दिनी के पिता आसाम में व्यवसाय करते थे। 

मैं दिन-रात उसके सपनों में खोया रहता था। नन्दिनी के साथ भविष्य में ठाठबाट से रहने के मेरे सपने तब धराशायी हो गये। जब नन्दिनी के पिता की किसी ने गोली मार कर हत्या कर दी और नन्दिनी को अपनी पढ़ाई अधूरी छोड़कर वापिस जाना पड़ा। कॉलेज के हॉस्टल में रखा उसका सामान ज्यों का त्यों पड़ा रहा, नन्दिनी फिर कभी वापिस नहीं आ सकी। फोन पर रो-रोकर उसने बताया था कि किस तरह पिता के व्यवसाय से सम्बन्धित अनगिनत लेनदार आकर धमक गये थे और जिनसे पैसा लेना था वो सब लोग गायब हो गये थे। दुकान-मकान बेच कर बड़ी मुश्किल से कर्जे चुकाकर नन्दिनी अपने छोटे भाई व माँ के साथ ननिहाल चली गयी थी। मैं नन्दिनी को प्यार ज़रूर करता था लेकिन ज़िंदगी में पैसे का इतना अभाव देखा था कि उसके साथ विवाह करके पूरी जिंदगी उसके और अपने परिवार की गाड़ी खींचने वाला बैल बनने की हिम्मत मुझमें नहीं थी। निशा अब भी मेरी तरफ आकर्षित थी जिस निशा को मैंने मानसिक स्तर पर कभी अपने योग्य नहीं समझा था उसी की लम्बी-चौड़ी जायदाद ने मेरी आँखें चौंधिया दी थी तिस पर वो अपने पिता की लाडली इकलौती बेटी थी, जिन्होंने अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद भी बेटी की वजह से दूसरा विवाह नहीं किया था। मुझे लगने लगा था कि निशा भी कोई बुरी नहीं है। उसके चेहरे से टपकता रईसी मिज़ाज़ उसके पारिवारिक हालात की देन है। हमारे विचार आपस में मेल नहीं खाते क्या फ़र्क पड़ता है विवाह के बाद सब ठीक हो जायेगा। मेरे चालबाज़ मन ने तब सोची समझी साजिश के तहत उससे सम्बन्ध बढ़ाने शुरू कर दिए थे। निशा को तो मानो मुँह माँगी मुराद मिल गई थी। निशा से विवाह मेरी जिंदगी का पहला और आखिरी निर्णय साबित हुआ था। उसके बाद की जिंदगी में मैंने कभी किसी मुक़ाम पर कोई निर्णय नहीं लिया था या निर्णय लेने की स्थिति में नहीं रहा ये दीगर बात है। मुझे अब भी याद है निशा के पिता द्वारा दिये गये हमारे विवाह के रिसेप्शन में वो गर्व से ऐंठी मेरे पास बैठी हुई थी और कॉलेज का फ्रैंड सर्किल जिनके साथ मिलकर मैं सदा निशा से पीछा छुड़ाने के उपाय सोचा करता था। मुझे आ आकर बधाई दे रहा था। किसी की आँखों में हैरत, किसी नज़र में व्यंग्य तो कोई तरस खाती निगाहों से मुझे सांत्वना दे रहा था। एक-दो तो कान में फुसफुसा गये थे, “बेटा दिखने में ही सीधा लगता था तू लेकिन मोटी मुर्गी फंसा ली। अब जिंदगी भर कुछ करने की ज़रूरत नहीं है। हमारी मान तो ससुर के पैर पकड़ ले तर जायेगा। 

मैं ढीठ बना सारी चुहलबाजियाँ नज़र अंदाज़ करता रहा था। विवाह के बाद मैंने भी निशा की खुशी में ही अपनी ख़ुशी मान ली थी। मिट्टी का माधो बना जिंदगी को गुज़रते हुए देखता रहा। मेरे माता-पिता अति उत्साह में इकलौते बेटे के निर्णय को सिर आँखों पर लेते हुए निशा को बहू बनाकर अपने घर ले आए थे। धनाढ्य परिवार की इकलौती, बिगड़ैल लड़की को जैसा होना चाहिए था निशा बिल्कुल वैसी ही थी। उसकी कही हर बात पत्थर की लकीर होती थी। पैसों का घमंड और पारिवारिक रिश्तों के प्रति बेहद लापरवाह निशा से उलझने का साहस घर में कोई नहीं कर सकता था। मेरे माता-पिता तो उससे दूर-दूर ही रहते थे। बात-बात पर अपने पिता के घर चले जाने का खौफ़ दिखाकर वो हम सब का दम साधे रखती थी। मैंने शकर मनाया था कि निशा के बहुत कहने पर भी मैंने अपनी बैंक की नौकरी नहीं छोड़ी थी। विवाह के एक साल बाद ही बेटी का जन्म हुआ और मानो घर में विस्फोट हो गया। पढ़ी लिखी निशा इस बात के लिए हमारे घर के सामने रहने वाली शचि भाभी को ज़िम्मेदार ठहराती रही। निशा का कहना था कि रोज़ सुबह शचि भाभी अपनी दोनों बेटियों को स्कूल बस के लिए छोड़ने के लिए घर के बाहर खड़ी होती थीं और वह सुबह उठते ही बॉलकनी से उनका चेहरा देखती थी इसीलिए उसके भी लड़की पैदा हो गई । जहाँ मैं उसकी इस बेतुकी बात से हैरान था वहीं माँ-बाऊजी इतनी पढ़ीलिखी बहू की ऐसी बात सुनकर शर्मिंदा हो गये थे। बेटी को देखने आयी शचि भाभी को निशा ने मुँह बनाते हुए यह बात कह भी दी थी। उसके बाद से वो हमारे घर कभी नहीं आयीं। इस घटना से एक-दूसरे के दुःख-सुख में वर्षों से साथ निभाते एक अच्छे पड़ौसी परिवार के स्नेह से हम हाथ धो बैठे थे। जिंदगी एक अलग ही ढर्रे पर चलने लगी थी। 

निशा दूसरी बार माँ बनने की तैयारी कर रही थी और इस बार वो अपने पिता के घर चली गयी थी। इसके पीछे टोटका यही था कि रोज़ सामने वाली शचि भाभी का मुँह नहीं देखना पड़ेगा। मुझे भी अक्सर ससुराल जाना पड़ता। एक रात अचानक ससुराल से फ़ोन आया कि सीढ़ियों से गिरने की वजह से निशा का गर्भपात हो गया है। शहर के एक बड़े नर्सिंग होम में भर्ती निशा की हालत बहुत गंभीर थी। पानी की तरह पैसा बहा और किसी तरह निशा बच गई थी लेकिन डॉक्टर ने चेतावनी दे डाली थी कि उसका गर्भाशय बहुत कमजोर हो गया है इसलिए भविष्य में माँ बनना उसके लिए खतरनाक हो सकता है। इतना सब होने के बाद भी निशा के चेहरे पर दख या परेशानी के चिन्ह दिखाई नहीं दिये। अब वो अपना अधिक समय पिता के घर ही व्यतीत करती थी। ससुराल और घर के बीच झूलता मैं कई बार निशा की तुलना अनायास ही नन्दिनी से करता हुआ पश्चाताप से भर उठता। नन्दिनी से मैंने सम्बन्ध खत्म करते हुए फ़ोन पर उसे माता-पिता के सामने सिर झुकाये श्रवण कुमार वाले अपने रूप का हवाला दिया था। उसने भी मेरे निर्णय को उचित ठहराते हुए मानो मुझे आज़ाद कर दिया था। पढ़ लिखकर भी निशा ने नौकरी नहीं की थी उसका कहना था कि “जिन घरों की स्थिति फटीचर होती है वहीं औरतों को नौकरी करनी पड़ती है। ” इसी सोच के साथ वो अपने पिता के पैसों पर ऐशोआराम की जिंदगी निकाल रही थी। मैं बैंक में मैनेजर बन गया था। निशा और उसके व्यवसायी पिता की नज़रों में वो एक टुच्ची नौकरी थी। मैं अपनी नौकरी से सन्तुष्ट था। दस से पाँच घर से बाहर रहकर चैन की सांस लेता था और इसी बहाने अपने स्वाभिमान को क़ायम रख पा रहा था। निशा को बेटी में ज़रा भी रुचि नहीं थी। दादा दादी और नौकर मिलकर नन्हीं समिधा को संभाल लेते थे। जेवर-कपड़ों से लदी-फदी निशा अपने पिता के सोशल सर्किल में मूव करती थी। कभी-कभी मुझे भी सूट-बूट पहनाकर नुमाइश की तरह साथ ले जाती थी। मैं खुद ऐसी दिखावे की बड़ी-बड़ी पार्टियों से बचने की कोशिश में लगा रहता था। बेटी तीन साल की हो गई थी कि अचानक एक दिन निशा मेरे कानों में फुसफुसाई, “तुम फिर से पिता बनने वाले हो। “मैं दहल गया था, “क्या कह रही हो निशा? तुम होश में तो हो ना, डॉक्टर ने मना किया था ना। बच्चे की वजह से तुम्हारी जान को खतरा हो सकता है। क्या तुमने प्रिकाशन लेना बंद कर दिया था?” बेहद लापरवाह सी वो बोली थी, “मुझे कुछ नहीं होगा, पिताजी बड़े से बड़ा डॉक्टर खड़ा कर देंगे। ” हुआ भी यही निशा पूरे नौ महीने अस्पताल में बैड रेस्ट करती रही और सिजेरियन ऑपरेशन द्वारा उसने एक बेटे को जन्म दिया उसकी हालत ठीक नहीं थी लेकिन बेटे को जन्म देने की खबर सुनकर उसकी मानसिक हालत के साथ ही शारीरिक हालत में आश्चर्यजनक रूप से सुधार होने लगा। कई दिनों तक अस्पताल में रहने के बाद निशा वहाँ से सीधी अपने पिता के घर चली गयी थी। जहाँ दिन रात खड़ी नौकरों की फौज ने उसे फिर से स्वस्थ कर दिया था। अक्सर पलंग पर लेटी गरिष्ठ खाना खाती निशा एक थुलथुल काया की मालकिन बन गई थी। गर्व से दपदपाती वह हर समय अपने बेटे की बलैयाँ उतारती रहती। अक्सर कहती, “मेरे पिता की लम्बी-चौड़ी जायदाद संभालने के लिए एक वारिस बेहद ज़रूरी था। “

“अगर दूसरी भी बेटी हो जाती तो क्या कर लेती तुम?”

मेरी बात सुनकर उसने मुझे घूरते हुए कहा, “तुम बहुत मूर्ख हो अबीर इसीलिए मैंने तुम्हें कभी बताया नहीं। इससे पहले जो मेरा गर्भपात हुआ था वो मैंने स्वयं करवाया था क्योंकि गर्भ में बेटी थी। “

“निशा तुम पागल तो नहीं हो बिना मुझसे पूछे…. चलो पूछा नहीं, लेकिन अपनी जान की भी फिक्र नहीं की तुमने ? तुम्हें कुछ हो जाता तो हमारी नन्हीं बेटी का क्या होता? और एक मासूम की जान लेने से पहले तुम्हारा दिल नहीं दहला?”

वो बेहद लापरवाह अंदाज़ में बोली, “सब ठीक हो गया ना? इस बार भी टैस्ट करवाया था, लड़का था इसीलिए ये रिस्क लिया।” निशा की बात सुनकर मैं बेहद व्यथित हो उठा था। धीरे-धीरे मैंने गौर किया कि निशा के बेटा होने से मेरे अपने माता-पिता भी बेहद खुश हैं। पहले उन्हें बुरा लगता था कि निशा पीहर में जाकर रहने लगी थी लेकिन अब उन्हें कोई एतराज़ नहीं है पोता जो हुआ है उनके इकलौते बेटे का। उनके खानदान का वारिस । मुझे पहले मन ही मन ऐसी बातों पर हँसी आती थी। नन्दिनी को हमेशा से बेटी अच्छी लगती थी और मुझे भी। मैं अक्सर सोचता था बेहद मामूली परिवार से सम्बन्ध रखता हूँ। मेरे पास कौन सी बाप-दादा की लम्बी-चौड़ी ज़मीन-जायदाद है या कोई बहुत बड़ा व्यवसाय है जिसे चलाने के लिए वारिस ही होना चाहिए लेकिन अब धीरे-धीरे मैं भी इन सबके रंग में रंगने लगा था। कहाँ सोचा करता था कि विवाह के बाद मेरे साथ रहकर निशा के विचार बदल जायेंगे उलटा मैं ही निशामय होने लगा था। निशा के बार-बार कहने से मुझे भी बेटे के बाप होने का गर्व महसूस होने लगा। मुझे लगने लगा कि शायद मेरी आदर्शवादी सोच बेवकूफी से भरी थी। जिंदगी में बेटा होना बहुत बड़ी बात है। निशा ने अपनी जान पर खेलकर मुझे तोहफ़े के रूप में बेटा दिया है। अब मैंने अपने माता-पिता को महत्त्व देना कम कर दिया था। मेरे लिए निशा और दोनों बच्चों की दुनिया ही सब कुछ थी। बेटी का नाम ‘समिधा’ मैंने रखा था क्योंकि निशा को उस समय बेटी में कोई रुचि नहीं थी। इसलिए उसने मेरे रखे नाम पर कोई आपत्ति भी नहीं की लेकिन अब बेटे के जन्म पर उसने मेरे द्वारा सुझाये नाम से असहमति जताते हुए उसका नाम ‘निशान्त’ रखा। हँसते हुए कभी-कभी कहती भी थी तेरे आने से मेरे जीवन में उजाला आ गया। तेरे जन्म पर मेरा अंत करीब-करीब पास ही आ पहुंचा था। बेटे के जन्म के बाद तो निशा ने मुझे पूरी तरह से भुला दिया था। नौकरों के साथ घिरी उसकी देखभाल में लगी रहती। जब कभी मैं उसका साथ चाहता वो बिदक जाती, “अब ये चोचले छोड़ो। मैंने तुम्हें दो बच्चे दे दिए तुम्हारा परिवार पूरा हुआ और मेरा कर्त्तव्य। ” पत्नी का भी कुछ कर्त्तव्य होता है ये उसकी समझ में नहीं आता था या वो जानबूझ कर समझना ही नहीं चाहती थी। युवावस्था में ही मुझे जबरन वैराग्य ढोना पड़ रहा था। ऐसे में नन्दिनी कई बार याद आ जाती, जो अक्सर कहा करती थी अस्सी-नब्बे साल तक तो हमें एक-दूसरे से फुर्सत नहीं मिल पायेगी अबीर, सौ वर्ष के हो जायेंगे तब भजन-कीर्तन की सोचेंगे। उसकी बात सुनकर मैं ज़ोरदार ठहाका लगाता था, “बहुत नेक ख्याल है बालिके…. तुम साथ होगी तो जिंदगी में रस घुले रहेंगे नन्दी….”

इस बीच समय ऐसे निकला जैसे मुट्ठी से रेत….. दोनों बच्चों ने पढ़ लिखकर नौकरियाँ पकड़ लीं। घर में कोहराम मच गया था लेकिन दोनों बच्चे नहीं माने। बेटा मुम्बई और बेटी बंगलौर चली गई। बात यहीं खत्म नहीं हुई दोनों ने अपनी पसंद से विवाह करना चाहा। निशा ने बेटे को लम्बी-चौड़ी जायदाद से बेदख़ल करने का डर भी दिखाया लेकिन वो नहीं माना। स्वभाव के अनुसार निशा ने एक झटके में ही दोनों बच्चों से सम्बन्ध तोड़ लिए थे। बेटी-दामाद तो विवाह कर सीधे घर में आ धमके थे और उसे आशीर्वाद देना ही पड़ा लेकिन बेटे को निशा ने फ़ोन कर दिया था कि उसकी पत्नी बनी लड़की उसके जीते जी कभी घर में कदम नहीं रख सकेगी। 

आज वो बॉस्टन बेटी-दामाद के पास ही जा रहे हैं। बेटी की डिलीवरी होने वाली है वैसे तो बच्चा बह के भी होने वाला है। बेटे ने फोन पर बेहद दखी होकर माँ से अनुनय-विनय की थी, “तुम्हारी बहू को कोई संभालने वाला नहीं है, माँ तुम यहाँ आ जाओ या तुम कहो तो मैं उसे तुम्हारे पास छोड़ जाता हूँ।“  लेकिन निशा ने आननफानन में बेटी के पास जाने का फैसला कर लिया था। बेटा माँ से तो कुछ कह नहीं सका लेकिन मुझसे बोला था, 

 

“पापा, दीदी और मैंने दोनों ने ही अपनी पसंद से विवाह किया था, फिर माँ का हमारे प्रति ये भेदभाव क्यों है? आप घर के बड़े हैं पापा, आपको मम्मी को समझाना चाहिए था, आख़िर आपका भी घर में कोई डिसीज़न चलता है या नहीं। “

मैं उसे कैसे बताता कि मैंने वर्षों पहले उसकी माँ से विवाह करने का जो निर्णय लिया था उसके बाद मैं कोई और निर्णय लेने लायक नहीं रहा था। प्रत्यक्षतः यही बोला, “तेरे निर्णय से तुम्हारी माँ को बेहद दुख पहुँचा है बेटा तू इकलौता बेटा था तुझे लेकर उसने दिल में कई अरमान सजा रखे थे।”

निशा को अपने पिता द्वारा छोड़ी गई जिस ज़मीन-जायदाद का घमंड था उसे नकार कर बेटा अपनी मनपसंद युवती के साथ विवाह कर मुम्बई के एक कमरे के फ्लैट में रह रहा है। उसके मुँह पर वक्त ने ऐसा तमाचा जड़ दिया है कि अब घायल शेरनी सी वो बहू की शक्ल तक देखने को तैयार नहीं है। इधर दामाद की माँ भी अपनी बह के पास जाने को तैयार बैठी थी, लेकिन अचानक निशा के वहाँ जाने के निर्णय न उनके उत्साह पर भी पानी फेर दिया था। जीवन के ऊबड़-खाबड़-पथरीले रास्तों से गुज़रता मैं पचपन वर्ष का हो चला था। उम्र के इस पड़ाव पर नन्दिनी के साथ बैठा मैं उससे बचने की नाकाम कोशिश कर रहा हूँ। तभी प्लेन के टेक ऑफ करने की घोषणा होने लगी। मैंने निशा को हिला कर सीट बेल्ट बाँधने को कहा। उसे शायद झपकी आ गई थी. वो हड़बड़ा कर उठ गई। उसने उचक कर मेरे पास वाली सीट पर किसी महिला को बैठे देखा और फूहड़ता से मुस्कराते हुए आँख से इशारे करने लगी। मैं जानबूझ कर अपना मुँह उसकी तरफ कर उसकी बेल्ट बँधवाने में मदद करने लगा। कब तक यूँ गर्दन टेढ़ी करके बैठा रहूँगा। यही सोच रहा था कि तभी चिरपरिचित स्वर कानों में रस घोल गया, “क्या हुआ अबीर मुझे पहचाना नहीं ? मैं हैरत से भर उठा, इसका मतलब नन्दिनी ने मुझे पहले ही देख लिया था। उसकी बात सुनकर निशा चौंक गई थी। नन्दिनी को पहचानने में उसे ज़रा सी भी देर नहीं लगी थी। मैंने जबरन आश्चर्य प्रकट किया, “अरे नन्दिनी तुम! कैसा संयोग है आज इतने वर्षों बाद यूँ मिलना हुआ। ” निशा के चेहरे पर ईर्ष्या के भाव उभर आये थे, “तुम बिल्कुल नहीं बदली, अभी तक वैसी ही हो स्लिम-ट्रिम-सुन्दर। “

नन्दिनी निशा को पहचानने की कोशिश कर रही थी। अचानक उछल पड़ी, “निशा तुम! कमाल है तुम तो बिल्कुल ही पहचान में नहीं आ रही हो। माशाअल्लाह से खूब सेहत बना ली है।” अबीर सिहर गया था। वो सोच रहा था कि निशा को मेरी पत्नी के रूप में देखकर नन्दिनी ने ना जाने मेरे बारे में क्या सोचा होगा। वहीं नन्दिनी के इस मज़ाक से कहीं पत्नी भड़क ना जाये सो तुरन्त बोल उठा, “खाते-पीते घर की लड़की है हट्टी-कट्टी दिखनी चाहिए। तुम्हारी तरह जीरो फिगर के चक्कर से दूर है।“

वह मुस्कराई, “ऐसा कुछ नहीं है अपन तो ना सावन हरे ना भादो सूखे। जैसे थे वैसे ही हैं।“

अबीर उसकी बात का अर्थ समझने की कोशिश कर रहा था लेकिन नन्दिनी के चेहरे पर पुराने सम्बन्धों की लेश-मात्र भी झलक दिखायी नहीं दी। वह बेहद सामान्य दिख रही थी। अचानक उसने महसूस किया, नन्दिनी के पास वाली सीट पर उसका बैठना निशा को रास नहीं आ रहा है। वह तुरन्त उठ खड़ा हुआ। भई तुम दोनों सहेलियाँ बातें करो मैं किनारे हो लेता हूँ। वह विंडो सीट पर बैठ गया था। हालांकि वो जानता था कि निशा और नन्दिनी एक नदी के दो किनारे थे। उनमें कभी घनिष्ठता थी ही नहीं । निशा ने एक बार अपनी मोटी थुलथुल काया को देखा और फिर मोटी ऐनक को ठीक किया। अपनी साड़ी को ठीक करती वो नन्दिनी की कमनीयता को हैरानी से निहार रही थी, “तुमने अपने आपको इतना फिट कैसे रखा हुआ है नन्दिनी? तुम तो अभी भी वैसी की वैसी हो जैसी कॉलेज के ज़माने में दिखाई देतीं थी। “

नन्दिनी सरलता से मुस्करा रही थी, “ऐसा कोई फिटनेस का प्रयास मेरी तरफ से नहीं हुआ। अपने आप ही सब हो रहा है। “

“बच्चे कितने हैं तुम्हारे?” निशा की खोजी निगाहें मानों नन्दिनी के जीवन के सभी रहस्य जानने को उत्सुक थीं। आखिर एक वक्त था जब उसके पति और नन्दिनी के प्यार के चर्चे जग ज़ाहिर थे। 

“तीन”

निशा आश्चर्य से भर उठी थी, “कमाल है तुम्हें देखकर भला कौन कह सकता है कि तुम तीन बच्चों की माँ हो। “

नन्दिनी पूर्ववत मुस्कराते हुए बोली, “पहली बार जुड़वां बच्चे हुए थे लेकिन मेरी हसरत अधूरी रह गई थी। सो पाँच साल बाद फिर माँ बनी लेकिन फिर भी मन की इच्छा मन में ही रह गई। “

इस बार निशा ने गर्व से गर्दन अकड़ायी, “ओह ! अच्छा…. वैसे तो मेरा भी यही हाल हुआ था। पहली लड़की सिजेरियन से हुई थी तब डॉक्टर ने दूसरे बच्चे के बारे में सोचने से भी मना कर दिया था, लेकिन मेरे पिताजी की इतनी लम्बी-चौड़ी जायदाद को संभालने वाला तो लाना ही था और फिर अबीर और उसके परिवार को वंशचालक देने का फर्ज़ भी बनता था। सो दो साल बाद ही जान पर खेल कर बेटा थमा दिया। “

नन्दिनी बड़ी हैरानी से निशा की बातें सुन रही थीं, “निशा जब डॉक्टर ने तुम्हें सख्ती से मना कर दिया था तो तुम्हें इतना बड़ा रिस्क उठाने की क्या ज़रूरत थी। मैं तो उसे सरासर बेवकूफी ही कहूँगी। “

“नन्दिनी ये तुम कह रही हो? जब कि तुम खुद ये बेवकूफी कर चुकी हो। तुमने ही कुछ देर पहले कहा था कि अधूरी हसरत की वजह से तुमने दो बच्चों के होते हुए भी पाँच साल बाद एक और बच्चे को जन्म दिया था…”

“मेरी बात अलग थी, मैं पूरी तरह स्वस्थ थी इसीलिए एक और चांस लिया था।“

निशा का चेहरा कुटिलता से टेढ़ा हो गया था, “नन्दिनी हैरान हूँ तुम औरत होकर भी दूसरी औरत का दर्द नहीं समझती हो। ” अबीर ने बात को नज़रअंदाज़ किया, “छोड़ो ये सब बातें। ” लेकिन निशा दया भाव दिखा रही थी, “नन्दिनी तीन बच्चों के बाद भी तुम्हारी हसरत अधूरी ही रह गई। इसका हमें बहुत दुःख है। ” उसकी बात सुनकर नन्दिनी खिलखिलाई, “हाँ पहले मैं भी काफी समय तक मायूस रही लेकिन ये सब चीज़़ें हमारे हाथ में कहाँ हैं ? … उसकी बात बीच में काटते हुए अबीर ने फिर हस्तक्षेप किया. “अब छोड़ो, हमारा इरादा तुम्हारे ज़ख्मों को कुरेदने को बिल्कुल नहीं है। खुशी की बात यह है कि हम अपनी बेटी के पास जा रहे हैं। ” निशा चहकी, “हाँ वो एक्सपैक्ट कर रही है। इस महीने के अंत तक, और तुम!? तुम अकेली कहाँ जा रही हो? तुम्हारे पति कहाँ हैं?”

नन्दिनी मुस्कराई, “पतिदेव अपने बिज़नेस में व्यस्त हैं वो बाद में आयेंगे। वैसे मैं भी इसी काम से जा रही हूँ। श्रद्धा भी एक्सपैक्ट कर रही है।“

निशा के स्वर में व्यंग्य का पुट था, “अच्छा कौन से नम्बर वाली बेटी है ?”

“पहले नम्बर वाली।” कहती नन्दिनी खिलखिलाकर हँस दी। निशा उसके चेहरे पर दर्द की लकीर ढूंढ़ने का प्रयास कर रही थी लेकिन वो बेख़बर-बिंदास हँसे जा रही थी। हँसते-हँसते ही बोली, “मेरी तीनों बेटियाँ, बॉस्टन, न्यूयार्क और न्यूजर्सी में जा बसी हैं। “

निशा का दिल अब भी नहीं भरा था। मानो कॉलेज के ज़माने की पुरानी खुंदक आज ही निकालने की ठाने बैठी थी,

“ओह तो तुम पति-पत्नी अकेले ही रह रहे हो?”

नन्दिनी खिलखिलाई, “हम अकेले कहाँ हैं दोनों साथ मिलकर रहते हैं। बढ़िया टाइमपास होता है। यूं समझो कि पहले तो तीनों बच्चे पालने उन्हें सैटल करने में व्यस्त थे अब रियल सैंस में हनीमून मना रहे हैं। सारे नाते-रिश्तेदार, दोस्तों सभी से मिलते-जुलते रहते हैं। समय का पता ही नहीं चलता। अभी भी प्लेन में आने में इसलिए देर हो गई कि जनाब फ़ोन पर फ़ोन किए जा रहे थे। आराम से जाना मैं जल्दी से जल्दी आने की कोशिश करूँगा। मेरा तो अभी से ही मन नहीं लग रहा… बड़ी मुश्किल से फ़ोन बंद किया वरना आज प्लेन छुड़वाने की ठान ली थी पतिदेव ने। वैसे तुम्हारा बेटा तो इंडिया में ही है तुम तो साथ रहकर रिश्तों का मज़ा ले रहे होंगे?”

नन्दिनी की बातों से वैसे ही निशा के दिल पर सांप लोट रहे थे लेकिन आखिरी प्रश्न से तो उसका मुँह फक्क हो गया था। मैंने तुरन्त बात संभाली. “अरे नहीं भई. हम युवा बच्चों के बीच कबाब में हड्डी बनकर नहीं रहना चाहते। हम चाहते हैं कि बच्चे आज़ाद पंछियों की तरह अपनी जिंदगी निकालें। बच्चे मुम्बई में रहते हैं और हम भी मस्ती से लखनऊ के अपने बंगले में सुकून से रहते हैं।” ना चाहते हुए भी बंगले शब्द पर ज़्यादा ज़ोर दे बैठा था। अपने आपको नन्दिनी से कम ख़ुश कैसे बताता। हमारे ज़ज़्बातों से बेखबर वो खिलखिलाई, “यानि अकेले ही रहते हो?”

इस बार भी बड़ी सफाई के साथ मैंने झूठ बोला, “नहीं जब मर्जी होती है मुम्बई रह आते हैं। घर की याद आती है तो लखनऊ आ जाते हैं। हम भी बिंदास पंछी हैं। “

थोड़ी देर के लिए नन्दिनी वाशरूम चली गई थी और इसी बीच निशा अपने जाहिल रूप में लौट आयी थी, “तुम इससे प्यार की पींगें बढ़ा रहे थे। विवाह कर लेते तो तुम्हारी ये सो कॉल्ड आदर्शवादी दोस्त तीन लड़कियों की लाइन लगा देती। ” उसकी मूर्खतापूर्ण सोच पर मैं लज्जित हो उठा था। उसके अंदर अभी भी कुंडली मार कर बैठे शक के फन को कुचलने के लिए मैंने इतना ही कहा, “छोड़ो तुम भी कहाँ कॉलेज की बचकानी बातें याद कर रही हो। उस समय हमारी उम्र ही क्या थी। वो एक बचपना था। तुम्हारा शुक्रगुज़ार हूँ। तुमने प्यारे-प्यारे दो बच्चे उपहार में दिए लेकिन तुम अपने बेटे के साथ ज्यादती कर रही हो। “

निशा ने खा जाने वाली नज़रों से मुझे घूरा, “बेटा तो मेरा ही है लेकिन वो उस जादूगरनी के बिना मेरे घर में आने को तैयार नहीं है।” “तो तुम क्यों नहीं उसे अपने घर में आने की स्वीकृति दे देतीं, अपनी बहू को अपना लो निशा। वो भी किसी की बेटी है।“

वह धीमे से गुर्राई, “मैं बेटी के पास अपना गम हल्का करने जा रही हूँ। तुम फालतू के उपदेश मत झाड़ो। पुरानी प्रेमिका को देखते ही कहीं तुम्हारा पुराना प्रेम फिर से हिलोरे तो नहीं मारने लगा, जो मेरी कमियाँ गिनानी शुरू कर दीं। ये तुम्हारी नन्दिनी, तीन-बेटियों की माँ बनकर भी ऐसा दिखावा कर रही है जैसे कुछ हुआ ही न हो। बड़ा घमंड था ना इसे अपनी योग्यता पर, पढ़ाई-लिखाई, गाना-नृत्य, पेंटिंग डिबेड, हर चीज़ में पारंगत होने को उछलती रहती थी। यहाँ मात खा गई ना मुझसे, बनावटी औरत!” मुझे नन्दिनी पहले की तरह ही सरल-सहज लग रही थी कहीं से भी बनावटीपन का एहसास नहीं हो रहा था। तभी नन्दिनी को आते देख मैं फुसफुसाया, “अब चुप भी करो। कुछ अंट-शंट मत बोल देना, उसे बुरा लगेगा। ” निशा चिहुँकी, “लगता है अभी तक भुला नहीं पाए अपने पहले प्यार को!?” निशा को खुश करने के लिए मुझे दिल पर पत्थर रखकर कहना पड़ा, “पहला प्यार, माय फुट। “

उसकी ये बातें सुनकर निशा ने चैन की सांस ली। पूरी यात्रा के दौरान निशा ने नन्दिनी को बोलने का मौका नहीं दिया। बढ़ा-चढ़ाकर अपने बेटे की तारीफ करती रही और नन्दिनी भी एक अच्छे श्रोता की तरह मुस्करा कर उसकी बातें सनती रही। एमस्टरडम पहुँचने पर उसे दामाद का मैसेज मिला कि उसकी अर्जेन्ट मीटिंग आ गई वो टैक्सी से घर आ जायें। एमस्टरडम से बॉस्टन तक भी निशा का ‘बेटा राग’ ही बजता रहा। बॉस्टन एयरपोर्ट पर नन्दिनी को लेने आए युवक को नन्दिनी के पैरे छूते हुए देखकर अबीर आश्चर्य से भर उठा, कितना सभ्य दामाद है। नन्दिनी ने परिचय कराया, “बेटा इनसे मिलो ये मेरे कॉलेज के फ्रैंड अबीर और इनकी वाइफ निशा और ये…. मेरा बड़ा बेटा। निशा को नन्दिनी के दामाद का स्नेह-प्रेम सहन नहीं हो रहा था, जल भुन गई थी। मन ही मन सोच रही थी कि कैसी जादूगरनी है ये, कॉलेज में अबीर को ऐसे काबू में किया हुआ था कि वो आँख उठाकर भी उसकी तरफ नहीं देखता था और अब दामाद को पालतू कुत्ता बना रखा है। विदेश में रहते हुए भी सास के पैर छ रहा है । खैर अभी तो गधों को बाप बनाना था सो वो भी उस पर बनावटी स्नेह बरसाती रही। नन्दिनी के दामाद ने अबीर व निशा को टैक्सी में बैठाते हुए अपना कार्ड थमा दिया था जिसे बिना देखे ही अबीर ने अपनी जेब में रख लिया था। पराया देश है ना जाने कब ज़रूरत पड़ जाये। 

एक दिन अचानक से बेटी को लेबर पेन शुरू हो गये थे। दामाद और निशा उसे लेकर अस्पताल चले गये थे। काफी देर बाद दामाद का फ़ोन आया था कि बेटी को लेकर लेबर रूम में जा रहे हैं। उसके मोबाइल की बैट्री खत्म होने वाली है। चार्जर भी वो घर पर ही भूल गये थे। दामाद का फ़ोन आये करीब छह घंटे बीत गये थे। मैं इधर से उसका फ़ोन लगा रहा था और उधर से फ़ोन स्विच ऑफ है का संदेश आ रहा था। मैं घबरा रहा था बेटी एनीमिक है परदेस में बैठे हैं। भगवान सब ठीक करे तभी अचानक मुझे नन्दिनी का ख्याल आया हालांकि निशा के शक्की स्वभाव की वजह से मैं उसे अपने घर के नम्बर नहीं दे सका था लेकिन उसके दामाद ने मुझे अपना कार्ड दिया था। काफी तलाश के बाद पुरानी जींस में से उसका कार्ड निकल आया था। नाम पढ़कर ठिठक गया। डॉ. कबीर जायसवाल, मैं वर्षों पुरानी कॉलेज की रूमानी दुनियाँ में पहुँच गया था… किन्हीं रोमांटिक पलों में उसने नन्दिनी का हाथ पकड़ कर कहा था विवाह के बाद बेटा हुआ तो उसका नाम कबीर रखेंगे। धत् कहती नन्दिनी शर्म से लाल हो गई थी। संयोग ही है कि नन्दिनी के दामाद का नाम भी कबीर है उसने अपने सिर को झटकते हुए कार्ड से नम्बर डायल किया। उधर मैसेज रिकार्डर पर चल गया था। वह इतना ही बोल सका, “मैं अबीर सिन्हा मेरे घर का नम्बर ये है नन्दिनी जी फ्री हों तो बात करवाइयेगा। ” तुरन्त ही नन्दिनी का फ़ोन आ गया था, “हैलो अबीर कैसे हो?” “मैं ठीक हूँ नन्दिनी तुमने बताया नहीं की तुम्हारे दामाद डॉक्टर हैं। ” नन्दिनी चिरपरिचित अंदाज़ में खिलखिलाई, “पूरे सफ़र में निशा ने मुझे कुछ बोलने का अवसर ही कहाँ दिया? मुझे तो लगता है कि तुम अपने काम में कुछ ज्यादा ही व्यस्त रहते हो और बिचारी निशा को कुछ बोलने का अवसर ही नहीं देते हो। इसीलिए पूरे सफ़र में निशा अपने मन का गुबार निकलती रही। वैसे मैं हॉस्पिटल जा रही हूँ। मेरी बड़ी बेटी के नन्हीं परी हुई है उसे लेने जा रही हूँ। “

“बधाई हो नन्दिनी ! तुम किस हॉस्पिटल में जा रही हो?” 

“मैं मास जनरल हॉस्पिटल में।“

“ओह नन्दिनी मेरी बेटी भी वहीं एडमिट है क्या तुम मुझे वहाँ ले जा सकती हो?”

हाँ-हाँ क्यों नहीं, हम तुम्हारे घर के पास से ही निकलेंगे, अस्पताल वहाँ से ज़्यादा दूर नहीं है। 

कुछ ही देर में मैं नन्दिनी और उसके दामाद के साथ अस्पताल जा रहा था। नन्दिनी बेहद खुश थी, “अरे तुम मुँह लटकाये क्यों बैठे हो अबीर मुझे बधाई नहीं दोगे?” मैंने गौर से उसका चेहरा देखा। उसके चेहरे पर छायी खुशी में दुख की हल्की सी भी परछाईं नहीं थी। अस्पताल पहुंचने पर पता चला कि मेरी बेटी के बेटा हुआ है। निशा का चेहरा खिला हुआ था। “नन्दिनी मैं बहुत खुश हूँ मेरी बेटी के बेटा हुआ है। अब मैं निश्चित हूँ तुम्हारी बेटी कैसी है। ” नन्दिनी प्रसन्नता से निशा के गले लग गयी थी। 

“मेरे घर नन्हीं परी आयी है निशा। मैं उसका नाम ‘कामना’ रखूंगी। ” निशा विस्मित सी उसे घूर रही थी। धीरे से मुझसे बोली, “लगता है बेटियों के गम ने इसे पागल कर दिया है। भला ऐसी कौन सी ख़ुशख़बरी है ये?”

मैंने उसे चुप रहने का इशारा किया। नन्दिनी अपनी बेटी और दामाद के साथ छोटी बच्ची को घर ले जाने की तैयारी कर रही थी। निशा उसकी बेटी से मिली फिर उसे प्यार से सहलाते हुए सहानुभूति व्यक्त करती हुई बोली, “कोई बात नहीं अगली बार बेटा होगा तब तुम्हारी मम्मी की वर्षों पुरानी मन में दबी इच्छा पूरी हो जायेगी। ” उसकी बेटी हैरानी से निशा को ताक रही थी। 

 

“कैसी बातें कर रही हैं आंटी, मम्मी की तो वर्षों से एक ही तमन्ना थी कि उनके एक बेटी हो लेकिन भगवान ने उनकी एक ना सुनी। पहले जुड़वा बेटे हुए और पाँच साल बाद बेटी की चाह में एक और बेटा हो गया। अब जाकर हमारे घर में बेटी हुई है। उनकी वर्षों की साध पूरी करी है मैंने । वो गर्व से सिर ऊँचा किए प्रसन्नता से चहक रही थी। “

“क्या!?” निशा तो मानो आसमान से ज़मीन पर आ गिरी थी। मैं भी कम हैरान नहीं था। निशा की आवाज़ लड़खड़ा गई थी, “तो तुम… नन्दिनी की बहू हो?”

वो मुस्करायी, “हाँ समाज के हिसाब से यही रिश्ता है पर वो मेरी मम्मी हैं और मैं उनकी प्यारी बेटी, है ना मम्मा!? और अपनी पोती को गोद में उठाये भावविह्वल नन्दिनी ने उसे चूम लिया था। “

मेरी बरसों पुरानी मनोकामना पूरी हो गई । मेरी ‘कामना’ आ गई फिर प्यार भरी नज़रों से अपने बेटे-बहू को देखते हुए अपने बेटे से बोली, “बेटा मुझे तेरी पसंद पर गर्व है। “

निशा उनके आपसी प्रेम को देखकर हैरान थी। उसे ये सब हज़म नहीं हो रहा था। 

इधर उसके बेटे के साथ चलते हुए मुझे ना जाने क्या सूझा कि मैं अचानक बोल उठा, “तुम्हारे घर में सभी बच्चों के नाम नन्दिनी ने ही रखे हैं ना? कितना सुन्दर नाम है तुम्हारा ‘कबीर!’ मैं अब अपने पुराने प्यार के सुरूर में आ गया था। तभी कबीर मुस्कराया, “नहीं अंकल मेरा नाम मम्मी को तो बिल्कुल पसंद नहीं था। मेरे पापा का नाम दीपक है। मम्मी ने तो मेरा नाम सुदीप रखा था। लेकिन मेरी दादी को ‘कबीर’ नाम पसंद था। इ
......

 
 
सुनहरा अखरोट | अफ्रीकी लोक-कथा - हंसराज रहबर

बहुत दिनों की बात है। किसी गाँव में एक लोहार और उसकी पत्नी रहते थे। उन्हें धन-दौलत किसी चीज की कमी नहीं थी। दुख सिर्फ यह था कि इनके कोई सन्तान नहीं थी। एक रात लोहार की पत्नी ने सपना देखा। उसे एक घने जंगल में एक पेड़ दिखाई दिया। जिसकी टहनी फल के बोझ से झुकी हुई थी। इस टहनी पर एक बड़ा-सा सुनहरा अखरोट लटक रहा था।

जब वह यह सपना बराबर तीन रात तक देखती रही, तब उसने अपने पति से कहा, ‘‘तुम जंगल में जाओ और मुझे वह सुनहरा अखरोट ला दो।’’

लोहार को इस बात का विश्वास तो नहीं आया, पर वह चल पड़ा। चलते-चलते आखिर वह एक घने जंगल के बीच में पहुँच गया। वहाँ उसे वही पेड़ नजर आया, जिसकी टहनी झुकी हुई थी और उस पर सुनहारा अखरोट लटक रहा था।

ज्यों ही उसने हाथ बढ़ाकर टहनी से अखरोट तोड़ा, पास से एक गिलहरी क्रोध में भरकर बोल उठी, ‘‘तुमने यह अखरोट तोड़ने का साहस कैसे किया?’’

वह गिलहरी कोई साधारण गिलहरी नहीं थी। उसके बाल बर्फ की तरह सफेद थे और गले में सुनहरे अखरोटों की एक माला थी।

‘‘जंगल की महारानी, आप मुझसे नाराज मत हों - लोहार ने विनम्रता से कहा, मुझे मालूम नहीं था कि इसे तोड़ने की मनाही है। मैं इसे अपनी बीमार बीवी को दूँगा।’’

गिलहरी बोली, ‘‘तुमने सच बात कह दी, इसलिए मैं यह अखरोट तुम्हें उपहार देती हूँ। अपनी पत्नी से कहना कि वह इसका गूदा खाकर खोल रख छोड़े। तुम्हारे घर दो जुड़वाँ लड़के होंगे। जब उनकी उम्र बीस साल हो जाए तो उन्हें आधा-आधा खोल दे देना। वे दोनों जंगल में चले आएँ और जहाँ पेड़ पर हुदहुद की ठक-ठक सुनें वहाँ ये खोल धरती पर फेंक दें। तब उन दोनों के भाग्य का निर्णय हो जाएगा।’’

सफेद गिलहरी ने जैसा कहा था, वैसा ही हुआ। लोहार-पत्नी के जुड़वाँ लड़के हुए। लेकिन दोनों रंग रूप में एक-दूसरे से काफी भिन्न थे। एक लड़के की आँखें गहरी स्याह थीं जबकि दूसरे की भूरी थीं। धीरे-धीरे दोनों जवान हो गये। दोनों सुन्दर और सुडौल थे। लेकिन काली आँखोंवाला लड़का स्वभाव से क्रूर और निष्ठुर था और भूरी आँखों वाला सहृदय और दयालु।

जब वे बीस साल के हुए तो पिता ने उन्हें अखरोट का आधा-आधा खोल दिया। लड़के जंगल में चले गये। ज्यों ही हुदहुद के ‘ठक-ठक’ की आवाज कान में पड़ी, उन्होंने वे खोल धरती पर फेंक दिये और दूसरे ही क्षण अपने आपको एक कलकल करते स्रोत के किनारे खड़ा पाया। सफेद गिलहरी उनके सामने एक टहनी पर बैठी थी। नीचे एक पेड़ के ठूँठ पर दो अखरोट पड़े थे। उनमें से एक सादा और खुरदरा था और दूसरा खूब चमक रहा था।

गिलहरी बोली, ‘‘अपनी मर्जी का एक-एक उठा लो। पर उतावले मत बनो, क्योंकि इससे तुम्हारी किस्मत का फैसला होगा।’’

काली आँखोंवाले लड़के से न रहा गया। वह तुरन्त झपटा और उसने चमकता हुआ अखरोट उठा लिया। खुरदरा अखरोट दूसरे भाई के हाथ लगा।

सफेद गिलहरी ने कहा, ‘‘अब अपना-अपना अखरोट तोड़ो। जो कुछ निकले, उसी पर सन्तोष करो, क्योंकि इसमें किसी तीसरे का दखल नहीं है।’’

वह पूँछ हिलाती हुई जंगल में गायब हो गयी।

काली आँखोंवाले भाई ने अपना अखरोट पहले तोड़ा। उसके सामने काले रंग का एक कोतल घोड़ा खड़ा था। घोड़े की काठी से एक वर्दी बँधी थी, जिस पर सुनहरी फीता लगा हुआ था। इसके अलावा एक तलवार थी, जिसका दस्ता सोने का था।

‘‘अहा! इस तलवार के बल पर तो मैं दुनिया भर का धन इकट्ठा कर लूँगा।’’ उसने उल्लास में भरकर बड़े गर्व से कहा।

इसके बाद भूरी आँखोंवाले लड़के ने अपना अखरोट तोड़ा। उसके सामने भार ढोने-वाला साधारण टट्टू खड़ा था। उसकी पीठ पर एक थैला था, जिसमें मन-डेढ़-मन बीज थे।

दोनों भाई अपने-अपने घोड़े पर सवार होकर अलग-अलग दिशा में चल पड़े।

भूरी आँखोंवाला एक दिन जंगल में और दो दिन मैदानों में भटकता रहा। तीसरे दिन शाम को वह एक गाँव में पहुँचा और रात बिताने का कोई ठिकाना ढूँढ़ने लगा। जब वह एक झोंपड़ी के सामने जाकर रुका तो एक किसान ने बाहर आकर उसका स्वागत किया और विनम्रतापूर्वक कहा, ‘‘आप खुशी से हमारे पास ठहर सकते हैं। हमें खेद है कि हम आपकी अधिक सेवा नहीं कर पाएँगे। एक डाकू हमारी फसलें लूट ले जाता है।’’

‘‘आप उसे पकड़ते क्यों नहीं?’’ भूरी आँखोंवाले लड़के ने पूछा।

किसान ने उत्तर दिया, ‘‘हम कैसे पकड़ें? वह आदमी थोड़ा है। वह तो गर्म हवा है जो फ़सलें झुलसा देती है।’’

वह अपना बीज का थैला सिरहाने रखकर किसान के आँगन में लेट गया। उसे यों महसूस हुआ कि बीज हिल रहे हैं।

‘‘हमें बो दो, हमें बो दो।’’ थैले में से आवाज आयी - ‘‘हम ऐसी घनी दीवार बना देंगे, जो गर्म हवा को खेतों में आने से रोक देगी।

अगले दिन लड़के ने किसान से कहा, ‘‘क्या मैं आपके साथ रह सकता हूँ? शायद हम दोनों गर्म हवा को रोकने में सफल हो जाएँ।’’

किसान यह प्रस्ताव सुनकर बहुत खुश हुआ और वे दोनों एक साथ रहने लगे। अब भूरी आँखोंवाले नौजवान को वहाँ रहते साल-दो साल नहीं, बीसियों साल बीत गये। यहाँ तक कि उसके सिर के बाल सफेद हो गये। उसने जो बीज बोये थे, वे जैतून के लम्बे-लम्बे घने पेड़ बन चुके थे। गर्म हवा उनसे टकराकर लौट जाती थी और खेतों में खूब गेहूँ उगता था। वे हर साल बढ़िया-से-बढ़िया फसल काटते थे। गेहूँ की पकी हुई बालियाँ देखकर भूरी आँखोंवाला व्यक्ति उल्लास से खिल उठता और अपने भाई को याद करके सोचता - यही मेरा सोना है। जाने उसका क्या हाल होगा?

एक बार वह किसी दूसरे गाँव में से गुजर रहा था। उसने देखा कि एक नन्हा लड़का अखरोट के खोल से खेल रहा था। खोल आधा सोने का और आधा लोहे का था।

‘‘तुम्हें यह खोल कहाँ से मिला?’’ भूरी आँखोंवाले ने लड़के से पूछा।

‘‘मेरे पिता लड़ाई के मैदान से इसे लाये थे।’’ लड़के ने उत्तर दिया - ‘‘किसी सेनापति ने हमारे देश पर हमला किया। घमासान युद्ध हुआ। सेनापति और उसके सिपाही मारे गये। जब लोग सेनापति को दफनाने को ले चले तो उसकी वर्दी में से यह खोल धरती पर गिर पड़ा था।’’

‘‘उस सेनापति का नाम क्या था?’’ भूरी आँखोंवाले ने पूछा।

‘‘यह मुझे मालूम नहीं। खुद पिताजी उसका नाम भूल गये थे, इसलिए उन्होंने मुझे नहीं बताया।’’ -लड़के ने उत्तर दिया और मुँह बनाकर कहा, ‘‘हमें उसका नाम जानने की जरूरत ही क्या है? जो शत्रु बनकर किसी का देश हड़पना चाहे, उसका नाम कौन याद रखेगा?’’

काली आँखोंवाले सेनापति भाई का यह अन्त हुआ। लेकिन सदियाँ बीत गयीं, इस भूरी आँखोंवाले भाई को लोग अब भी याद करते हैं और उसका नाम बड़े आदर और प्यार से लेते हैं।

- हंसराज रहबर

[ अफ्रीका की लोक-कथा ]


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हाइकु  - अभिषेक

रास्ते में बचे
झुलस गये पिता
घर में आ के

अनाथ बच्चा
भर रहा कॉलम
स्थायी पते का

चिता का धुआँ
पल में उड़ गया
इंसां का अहं

बड़े बंगले
हरे भरे गमले
मुरझाई माँ

मना ले आये
नाराज समधी को
माँ के गहने

-अभिषेक कुमार, भारत 


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शेर और खरगोश की कहानी - विष्णु शर्मा

किसी घने जंगल में एक शेर रहता था। अपने पेट की भूख शांत करने के लिए वह हर रोज अनेक जानवरों को मार डालता था। इससे सभी जानवर चिंतित थे। सभी जानवरों ने एक सभा बुलाई और निर्णय लिया कि वे इस विषय पर शेर से बात करेंगे। शेर से बातचीत करने के बाद यह तय हुआ कि वे प्रतिदिन एक जानवर शेर के पास भेज देंगे। इस तरह यह क्रम चलता रहा और एक दिन एक खरगोश की बारी आई। वह शेर के हाथो मरना नहीं चाहता था। शेर के पास जाते हुए खरगोश खरगोश अपनी प्राण-रक्षा के बारे में किच रहा था कि रास्ते में उसे एक कुआं दिखाई दिया, जिसके पानी में खरगोश को अपना प्रतिबिंब दिखाई दिया। उसे एक युक्ति सूझी। उसने शेर के पास पंहुचकर कहा, “महाराज! मैंने रास्ते में आपसे भी अधिक शक्तिशाली शेर देखा। वह मुझे मारकर खा जाना चाहता था लेकिन लेकिन मैं बड़ी मुश्किल से अपनी जान बचाकर आपके पास पहुंचा हूँ।”

खरगोश की बात सुनकर शेर को बहुत गुस्सा आया। वह बोला, "मेरे से बलशाली और शेर कहाँ से आ गया? तुम मुझे उसके पास लेकर चलो। खरगोश शेर को कुएं के पास ले गया और बोला, "महाराज! आप इस गुफा में देखो। वह यहीं रहता है। शेर कुंए में झाँका तो उसे अपनी ही परछाई दिखाई दी। शेर जोर से दहाड़ा तो तो उसकी अपनी आवाज कुएं से गूंजी। शेर को लगा कि दूसरा शेर भी दहाड़ रहा है। शेर ने हमला बोलते हुए कौए में छलांग लगा दी और उसी में डूबके कर मर गया।

शिक्षा: बल की अपेक्षा बुद्धि शक्तिशाली होती है। हमारे ऊपर कितनी विपत्तियाँ आएँ, हमें हमेशा अपनी बुद्धि से काम लेना चाहिए। 

[पंचतंत्र की कहानी]


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सबसे झूठा कौन? - भारत-दर्शन संकलन

एक बार शेख चिल्ली झज्जर के नवाब के यहाँ नौकरी करने लगे। नवाब साहब शेख चिल्ली को ख़ूब चाहते थे। उन्हें उनकी बातों में बहुत आनंद आता था लेकिन नवाब के छोटे भाई को शेख चिल्ली पसंद नहीं थे।   

एक बार नवाब युद्ध लड़ने के लिए कई महीनों से बाहर गए हुए थे तो सारा कामकाज़ छोटे नवाब यानी नवाब साहब के छोटे भाई देखते थे। छोटे नवाब शेख चिल्ली को मूर्ख और कामचोर मानते थे। एक दिन उन्होंने भरी सभा में शेख चिल्ली को ख़ूब फटकार लगाई और उनका अपमान किया, “एक अच्छा आदमी एक बार बताए काम को ठीक से करता है, और जितना कहा जाए उससे भी अधिक करता है। एक तुम हो जो आसान से आसान काम को भी ढंग से नहीं कर सकते।"

“तुमहें अस्तबल में घोड़ा ले जाने को कहो तो तुम उसे बांधना भूल जाते हो। तुम कोई बोझा उठाते हो तो या तो खुद गिर जाते हो या फिर तुम्हारे पैर लड़खड़ाते हैं! तुम जो काम करते हो, उसे ध्यान लगाकर क्‍यों नहीं करते?” छोटे नवाब ने गरजते हुए सवाल किया। 

शेख चिल्ली मुंह लटकाए चुपचाप खड़े रहे।

कुछ दिनों बाद शेख चिल्ली छोटे नवाब के घर के सामने से होकर जा रहे थे तो उन्हें बुलावा आया और छोटे नवाब ने उन्हें कोई हकीम बुलाने को कहा, “जल्दी किसी अच्छे हकीम को बुलाकर लाओ। बेगम बहुत बीमार हैं।”

“जी सरकार।” कहकर शेख चिल्‍ली झट से आदेश का पालन करने चल दिया। थोड़ी ही देर में एक हकीम, एक कफन बनानेवाला और दो कब्र खोदने वाले मजदूर भी वहां पहुंच गए।

“यह सब क्‍या हो रहा है?” छोटे नवाब ने गुस्से में पूछा “मैंने तो सिर्फ एक हकीम को बुला लाने के लिए कहा था। बाकी लोगों को कौन बुलाकर लाया?"

“सरकार! मैं ही लाया हूँ।” शेख चिल्ली ने कहा, “आपने ही तो कहा था कि एक अच्छा आदमी बताए गए काम से भी ज्यादा काम करता है।"

"मैंने सभी संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए यह कदम उठाया। अल्लाह करे कि बेगम साहिबा जल्दी से ठीक हो जाएं पर बीमारी में क्या हो जाए, यह किसे पता!”

छोटे नवाब ने शेख चिल्ली को बुरा-भला कहकर वहाँ से चले जाने को कहा। 

एक दिन छोटे नवाब ने एक प्रतियोगिता रखी। इस प्रतियोगिता मैं सबसे बड़ा झूठ बोलने वाले को विजयी घोषित किया जाना था। जीतने वाले को सोने की एक हजार दीनारें पुरस्कार में दिए जाने की घोषणा की गई।

कई झूठ बोलने में माहिर लोग इनाम पाने के चाह में सामने आए। एक ने कहा, “सरकार, मैंने भेंसों से भी बड़ी चींटियां देखीं हैं, जो एक बार में चालीस सेर दूध देती हैं!"

“क्यों नहीं!” छोटे नवाब ने कहा, “यह संभव है।”

“सरकार, हर रात मैं चंद्रमा तक उड़ते हुए जाता हूँ और सुबह होने से पहले ही उड़कर वापिस आ जाता हूँ।” दूसरे ने डींग हांकी।

“अच्छा!” छोटे नवाब मुस्कुराए, “हो सकता है तुम्हारे पास कोई रहस्यमयी ताकत हो।”

“सरकार!" एक तोंद निकले मोटे आदमी ने कहा, “जबसे मैंने एक तरबूज के कुछ बीज निगले हैं तब से मेरे पेट में छोटे-छोटे तरबूज पैदा हो रहे हैं। जब कोई तरबूज पक जाता है तो वो फूट जाता है और उससे मुझे अपना भोजन मिल जाता है। अब मुझे और कुछ खाने की जरूरत ही नहीं पड़ती है।”

“तुमने किसी खास किस्म के तरबूज के बीज निगल लिए होंगे।" छोटे नवाब ने बिना पलकें झपकाए उसकी ओर देखते हुए कहा।

“सरकार! क्या मुझे भी बोलने की इजाजत है?” पीछे खड़े शेख चिल्ली ने पूछा।

“ज़रूर।" छोटे नवाब ने ताना कसने के अंदाज़ में कहा, “तुमसे हम किन प्रतिभाशाली शब्दों की उम्मीद करें?"

“सरकार!” शेख चिल्ली ने एक ही सांस में बड़े जोर से कहा, “आप इस पूरे राज्य के सबसे बड़े बेवकूफ आदमी हैं। आपको नवाब के सिंहासन पर बैठने का कोई हक नहीं है।"

राजसभा में सन्नाटा छा गया। छोटे नवाब चिल्लाए, “सिपाहियो, इस नाचीज को गिरफ्तार कर लो!"

शेख चिल्ली को पकड़ लिया गया और खींचकर राजा के आगे लाया गया।

“निकम्मे, बेशरम!” छोटे नवाब का गुस्सा उबल पड़ा, “तुम्हारी यह जुर्रत! अगर तुमने इसी वक्‍त हमारे पैरों में गिरकर माफ़ी नहीं मांगी तो तुम्हारा सिर धड़ से अलग कर दिया जाएगा!”

“...पर सरकार!” शेख चिल्ली ने इत्मिनान से कहा, “आपने ही तो कहा था कि आप दुनिया का सबसे बड़ा झूठ सुनना चाहते हैं!” फिर शेख चिल्ली छोटे नवाब को देखते हुए बोला, “जो कुछ मैंने कहा उससे बड़ा क्या कोई और झूठ हो सकता है?"

छोटे नवाब को चक्कर में पड़ गए कि क्या करें! उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि शेख चिल्‍ली अब झूठ बोल रहा है या पहले झूठ बोल रहा था! शेख चिल्ली उतना बड़ा बेवकूफ नहीं था जितना छोटे नवाब और कुछ लोग उसे समझते थे।

छोटे नवाब धीमे से हँसे और बोले, “शाबाश! तुम जीते!”

सब लोगों ने शेख चिल्‍ली की अकल को सराहा। 

'छोटे नवाब चाहें थोड़े बेवकूफ हों परंतु वे हैं दिलदार!' शेख चिल्ली सोने की हजार दीनारें लेकर घर को चल दिया।  

[शेख चिल्ली के कारनामें]


......
 
 
प्रकृति और मनुष्य | बाल कविता -  सय्यद अरबाज़

प्रकृति हमारी कितनी प्यारी,
सबसे अलग और सबसे न्यारी, ......

 
 
युगावतार गांधी - सोहनलाल द्विवेदी

चल पड़े जिधर दो डग, मग में
चल पड़े कोटि पग उसी ओर;......

 
 
घोटाला  - गौरीशंकर मधुकर

पिछले साल
करोड़ों का हुआ घोटाला......

 
 
नेता जी सुभाषचन्द्र बोस - डॉ० राणा प्रताप गन्नौरी राणा

वह इस युग का वीर शिवा था,
आज़ादी का मतवाला था।

जन-मन पर शासन था उसका,......

 
 
कुछ यूँ हुआ उस रात... - प्रगति गुप्ता

उस रात तिलोत्तमा के मोबाइल की बजती घंटी ने गहराते हुए सन्नाटे के साथ-साथ उसके मन की शांति को भी भंग कर दिया। कुछ देर पहले ही उसकी आँख लगी थी। पल भर तो उसे समझ ही नहीं आया कि मोबाईल की घंटी सच में बज रही है या वह कोई सपना देख रही है। उसने उनींदी आँखों से देखा... रात का एक बज चुका था।

तिलोत्तमा ने अनमने ढंग से बेड-साइड पर रखे हुए अपने मोबाईल को उठाकर हेलो कहने का प्रयास किया ही था कि उसे एक लड़की की आवाज़ सुनाई दी। फ़ोन करने वाली लड़की शायद कुछ जल्दी में थी। तभी उसने बिना प्रतीक्षा किये बोलना शुरू कर दिया।

“मम्मा... मम्मा! आप प्लीज मुझ से बात कीजिये।....कुछ हो गया है मुझे। मेरे पेट का निचला हिस्सा फोड़े की तरह दु:ख रहा है।... अभी कुछ सफ़ेद-सफ़ेद गाढ़ा-सा भी निकला है। आप सुन रही हो न मम्मा... आपकी बेटी को बहुत घबराहट हो रही है।... नींद भी नहीं आ रही। मेरे पेट में होने वाला तेज़ दर्द धीरे-धीरे सब जगह फैलता जा रहा है।... मैं ठीक से साँस भी नहीं ले पा रही हूँ। कुछ घुटन-सी महसूस हो रही है।”

तिलोत्तमा को उसकी गहराती हुई आवाज़ सुनकर खुद के भीतर एक अजीब-सा हौल महसूस हुआ। उसे लगा कहीं उसके अपने ही पेट में तो दर्द नहीं हो रहा। उसके दाएं हाथ में मोबाईल था। अनजाने में ही बायां हाथ भी रजाई से शरीर को कवर करने के चक्कर में खुद-ब-खुद बाहर आ गया था। भरी सर्दी में उसके दोनों हाथ काफ़ी ठंडे हो गए। जैसे ही उसके बाएं हाथ ने पेट पर स्पर्श किया, एक झुरझुरी-सी ने भीतर दौड़कर उसे चौकन्ना कर दिया।

तिलोत्तमा को बोलने वाली लड़की की उम्र पंद्रह-सोलह साल की बच्ची जैसी लग रही थी। लड़की का लड़खड़ाते हुए बोलना उसकी भी साँसों की रफ़्तार को घटा-बढ़ाकर असंयत करने लगा। उसका बी.पी. भी कुछ समय से बढ़ा हुआ चल रहा था। फ़ोन की आवाज़ के साथ तिलोत्तमा का झटके से उठना, उसकी धड़कनें और बढ़ा गया। असमंजस की स्थिति में उसने खुद से प्रश्न किया...

इस वक़्त किसका फ़ोन हो सकता है?... कौन उसे मम्मा पुकारकर अपनी बातें बता रहा है? कहीं उसकी बेटी भव्या ने कोई भयावह सपना तो नहीं देख लिया और वो घबरा गई हो?’... बेटी का ख्याल आते ही तिलोत्तमा को अपनी सांस हलक में अटकी हुई महसूस हुई। उसने तेज़ी से उठकर बेटी के कमरे में पहुंचना चाहा। इससे पहले कि वह ऐसा कुछ कर पाती, फ़ोन पर एक बार फिर आवाज़ सुनाई देने लगी…

“मम्मा...! आप मुझे सुन रही है न? मैं कहीं मरने वाली तो नहीं हूँ? मैं मरने से पहले आपसे ढेर-सी बातें करना चाहती हूँ... क्योंकि मरने के बाद... सिर्फ़ बातें ही तो रह जाती हैं। मुझे भी तो आपसे कितनी सारी बातें करनी थीं...।” कुछ देर की चुप्पी के बाद अचानक आवाज़ आई... “प्लीज! आप फ़ोन मत रख देना।” फिर कुछ समय के लिये ख़ामोशी छा गयी।

बच्ची के साथ चल रही बातों का सिलसिला तिलोत्तमा के दिमाग में बार-बार अपनी बेटी का ही ख्याल ला रहा था। क्यों भव्या उसके पास नहीं आ रही?... क्यों वह फ़ोन करके बातें कर रही है?... जबकि दोनों एक ही घर में हैं।

तिलोत्तमा ने न जाने कितनी बार अपने विचारों को झटककर पुनः सोचने के लिए संयत किया और घड़ी की ओर फिर से देखा। लड़की की बातें सुनते हुए पाँच-सात मिनट गुज़र चुके थे।

तिलोत्तमा अब अपने विचारों को समय से जोड़कर सुलझाने की कोशिशें करने लगी थी। साढ़े ग्यारह बजे ही उसकी बेटी अपने कमरे में सोने गई थी। डिनर के बाद काफी देर तक माँ-बेटी हंसी-ठट्ठा करती रही थी। भव्या के पास स्कूल-कॉलेज की न जाने कितनी बातें सुनाने के लिए होती थीं। अगर भव्या को कोई परेशानी होती तो वह साझा जरूर करती। उनके घर में कोई बंदिश नहीं थी।... फिर यह क्या हो रहा है?.. आने वाले फ़ोन पर बच्ची का सम्बोधन मम्मा होने से तिलोत्तमा असमंजस की स्थिति में आ गई थी।

तिलोत्तमा ने फ़ोन हाथ में लिये-लिये ही अपने पैर रज़ाई से बाहर निकाल लिए ताकि चप्पल पहनकर बात करते हुए बेटी के कमरे तक पहुँच सके। उसके अंदर गहराता हुआ डर फ़ोन काटने नहीं दे रहा था। वह बेटी को सही-सलामत देखकर निश्चिंत हो जाना चाहती थी। इंतज़ार का एक-एक पल बहुत भारी पड़ रहा था। साथ ही वह फ़ोन पर भी बात करते रहना चाहती थी ताकि संवाद न टूटे। तिलोत्तमा ने दोनों के बीच छाई हुई खामोशी को तोड़ते हुए पूछा...

“भव्या! क्या हुआ है तुमको?... तुम ठीक तो हो बेटा!... क्यों इतनी घबराई हुई हो? मैं बस आ ही रही हूं तुम्हारे पास... बिल्कुल परेशान मत होना।”

उसने शायद तिलोत्तमा की कही हुई बातों पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया। वह अपनी बात कहे जा रही थी...

“मम्मा! आप सिर्फ़ बातें करती रहो।... अगर आप मेरे पास आओगी तो मैं भाग जाऊंगी।... फिर कभी लौटकर वापस नहीं आऊँगी।”

अनायास ही बेटी के भागने वाली बात सुनकर तिलोत्तमा को भरी सर्दी में भी पसीना आ गया। उसका दिल धौंकनी की तरह जोर-जोर से धड़कने लगा। उसने फिर से अपने पैर रजाई में वापस खींच लिए और अपने माथे के पसीने को पोंछते हुए कहा...

“कहां भागकर जाओगी बेटा?... कहीं नहीं जाना है।... अपना घर छोड़कर कोई जाता है क्या?... मैं एक मिनट में आती हूं।”

तिलोत्तमा ने अब पुनः रजाई से पैर निकालकर चप्पल पहनने का सोचा। बगैर विलंब किए वह अपनी बेटी के कमरे में पहुंचना चाहती थी। तभी फ़ोन पर आवाज़ आई...

“आप प्लीज... मेरे पास मत आना।... मैं नंगू हूं।... मैंने नीचे कुछ भी नहीं पहना हुआ है। मेरे कपड़े गंदे हो गए थे। मैंने अपने कपड़े उतारकर डस्ट्बिन में डाल दिए हैं।... मैं नहीं चाहती हूँ कि आप मुझे ऐसे देखो। आप परेशान हो जाओगी।... मुझे बहुत डर लग रहा है।... मेरे साथ यह क्या हो रहा है मम्मा?”

बच्ची की आवाज़ में घुला हुआ भय तिलोत्तमा को भी भयभीत करने लगा था। तिलोत्तमा के हाथ-पाँव भय से ठंडे होने लगे थे।

“तुम नंगू हो... कोई बात नहीं बेटा।… कोई भी निर्णय लेने से पहले... एक बार आकर, मुझ से बातें करो।”

तिलोत्तमा अब लगभग गिड़गिड़ा ही पड़ी थी। बेटी की सलामती की चिंता ने उसे गिड़गिड़ाने पर मज़बूर कर दिया था। तिलोत्तमा को डर खाए जा रहा था बेटी कहीं कोई गलत निर्णय न ले ले। जैसे ही तिलोत्तमा ने वापस हैलो कहा, फ़ोन कट चुका था। अब तिलोत्तमा के दिलो-दिमाग पर बुरे-बुरे ख्याल कब्जा करने लगे। तभी तिलोत्तमा के मन में विचार उठा... कहीं भव्या ने कोई नशा तो नहीं कर लिया? उसके बात करने के अंदाज़ से लग रहा था कि वह नशे में है।

कुछ पलों बाद मोबाइल की घंटी दोबारा बजने से तिलोत्तमा के विचारों की श्रंखला टूटी|... फ़ोन उठाते ही बच्ची की आवाज़ आई...

“आपने फ़ोन क्यों काट दिया था?…. आप मुझे छोड़कर क्यों चली गई? आपने क्यों नहीं सोचा... आपकी बेटी आपके बिना कैसे रहेगी?.. मुझे अपने कमरे में बहुत डर लगता है मम्मा। कहीं मैं भी आप की तरह खुद को खत्म न कर लूँ।”

“पर बेटा! मैं तो ज़िंदा हूं... तुम मुझ से ही तो बात कर रही हो।... कुछ नहीं होगा तुम्हें।”...

तिलोत्तमा को बच्ची की बातों ने फिलहाल पूरी तरह पगला दिया था। इसी उधेड़-बुन में तिलोत्तमा अपने पास रखी बोतल का पूरा पानी गटक चुकी थी।... अब उसकी नींद पूरी तरह उड़ गई थी।... वह अपने बिस्तर पर ही तकिये की टेक लगाकर बैठ गई। न तो बच्ची फ़ोन रख रही थी....न ही तिलोत्तमा को फ़ोन रखने दे रही थी। न ही वह बेटी के कमरे तक पहुँच पा रही थी।

खौफ़ में होने से फ़ोन पर आने वाली आवाज़ उसे बिल्कुल भव्या की आवाज़-सी ही लग रही थी। उसके दिलो-दिमाग में अजब-सी जंग छिड़ी हुई थी। दिल फ़ोन वाली बच्ची को बेटी समझ रहा था और दिमाग इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं था। फिर तिलोत्तमा ने मन ही मन तय कर लिया कि यह उसकी अपनी बेटी नहीं हो सकती। उसने बच्ची से पूछा...

“तुम क्यों इतनी परेशान हो? तुमने कोई नशा किया है क्या?... तुम्हारे मां-पापा कहां हैं?... किस क्लास में पढ़ती हो?”

बच्ची ने तिलोत्तमा की किसी भी बात का पूरा जवाब नहीं दिया।

“मेरे मम्मा और पापा?... आपको नहीं पता कि... आपकी बेटी नवीं में आ गई है। जब आप मुझे कोचिंग के लिए कोटा छोड़ने आई थी, मुझे अच्छा नहीं लग रहा था। मैं आपके बगैर नहीं रहना चाहती थी मम्मा। पर आपकी ज़िद थी.....मैं अपना कैरियर बनाऊँ। जल्दी ही सेटल हो जाऊँ।... यहाँ आने के बाद मेरा एक दोस्त बन गया।… वह कोटा में पिछले तीन सालों से पढ़ रहा है। उसने मेरी बहुत मदद की। मैंने उसको आप दोनों के झगड़ों के बारे में भी बता दिया। जब आप दोनों आपसी झगड़ों में मेरे से भी बात करना छोड़ देते थे ... मेरा मन बहुत दु:खता था। मैं रात-रात भर सो नहीं पाती थी।”

कुछ देर के लिये वह रुकी, और दोबारा अपनी बात कहने लगी।

“एक दूसरे पर लगाया हुआ आपका हर थप्पड़, मेरे गाल पर लगता था। सारी-सारी रात में अपने बदन पर आप दोनों की हाथापाई को महसूस करती थी। सॉरी मम्मा... मुझे किसी अनजान को अपने घर की बातें नहीं बतानी चाहिए थी।... आप ही बताइए मैं अपनी बातें उसे न बताती तो किसे बताती? पर यह सब आपको कैसे पता होगा?... तीन महीने पहले आपने तो... कोई अपनी बेटी को अकेला छोड़कर जाता है क्या?”

एक लंबी चुप्पी के बाद उसने अपनी बात पूरी की...

“मम्मा! आपको पता है... मेरे दोस्त ने मेरे साथ जबरदस्ती... शायद उसी वज़ह से...” अपनी बात फिर से अधूरी छोड़कर वह चुप हो गई।

बच्ची की आवाज़ की लड़खड़ाहट तिलोत्तमा को भीतर ही भीतर बेचैन कर रही थी। उसकी बातों के सिरे उलटे-सीधे थे। बच्ची का अटक-अटक कर टुकड़ों में अपनी बातें बताना या दोहराव करना, उसके नशे में होने को पुख्ता कर रहा था।

कैशोर्य अवस्था में होने वाले परिवर्तनों ने उसे परेशान कर दिया था। घर के माहौल से चोटिल बच्ची ने भटककर कुछ ज्यादा ही नशा कर लिया था। तभी वह अपनी समस्याएँ घर के लोगों की बजाय अनजान लोगों से साझा कर रही थी। तिलोत्तमा के लिए बच्ची अभी भी एक रहस्य थी। तिलोत्तमा ने बात आगे बढ़ाते हुए कहा...

“अपनी बातें खुलकर कहो बेटा।... मम्मा कहा है न मुझे।” अब शायद उसने तिलोत्तमा की बात सुनी थी। तभी वह बोली....

“पर आप कैसे सुन पाओगी मेरी बात?... तीन महीने पहले आपने...। आपने पापा की रिवाल्वर से खुद को गोली क्यों मार ली थी?... आपने अपनी बेटी का नहीं सोचा? पापा आपको प्यार नहीं करते थे।... पर मैं तो करती थी।... आपके जाते ही पापा ने दूसरी...। हम दोनों ही पापा के जीवन में कांटा थे मम्मा।... तभी तो दूसरी शादी करने के बाद वह मुझसे कभी मिलने ही नहीं आए।”

अचानक फ़ोन फिर से कट गया। नशे के हालात में बच्ची से शायद फ़ोन बार-बार ग़लती से कट रहा था। कुछ पल बाद ही वापस फ़ोन की घंटी बजते ही तिलोत्तमा ने जैसे ही फ़ोन उठाया तो बच्ची की आवाज़ आई...

“मम्मा।… प्लीज़ आप मुझे सुला दो न। पिछले पाँच दिनों से मैं सोई नहीं हूँ। वह मेरा दोस्त है न... उसने मुझे कुछ गोलियां दी थी ताकि मैं सो सकूँ। आज जब एक गोली खाने के बाद भी मुझे नींद नहीं आई तो मैंने एक साथ दो गोली और खा ली। मुझे बहुत घबराहट हो रही है।... अगर मैं गोली नहीं खाती तो आपकी ही तरह कुछ कर लेती।...”

फिर एक लंबी साँस लेकर वह आगे बोली...

“मम्मा। मेरे मना करने के बावजूद मेरा दोस्त मुझे कोई पाउडर खिलाता रहता था, कभी कुछ गोलियां... आप ही बताइये भला किसको बताती यह सब बातें।... मुझे लगता है जैसे ही मेरी आंखें बंद होगी... मैं फिर कभी नहीं उठूंगी। इसलिए मैं पूरी-पूरी रात आँखें खोल कर पड़ी रहती हूँ।”

इतनी छोटी बच्ची के नशा करने की बात स्वीकारते ही तिलोत्तमा की आँखें नम हो गई।

“बेटा! तुम्हें कोई बड़ी बीमारी नहीं है। सब ठीक हो जाएगा। थोड़ी देर सो जाओ।”

“मैं सो जाऊँगी मम्मा।... प्लीज आप मेरे साथ रहना... आप रहोगी न मेरे साथ?”

“हाँ बेटा! मैं रहूँगी तुम्हारे साथ।... तुमने खाना तो खा लिया था न।”

“मुझे अपने हॉस्टल का खाना अच्छा नहीं लगता मम्मा। मुझे आपके हाथ का बनाया हुआ खाना बहुत अच्छा लगता था।... आप बहुत याद आती हो मम्मा। आपको पता है... पिछले तीन दिनों से मैं कॉलेज भी नहीं गई।”

“तुम कॉलेज क्यों नहीं गयी बेटा?... सुनो अब पाउडर या गोलियां मत खाना।… मैं तुम्हारे साथ हूँ न।”… सिर्फ़ ‘हम्म’ बोलकर बच्ची चुप हो गई।

लगभग चालीस मिनट की बातचीत के बाद तिलोत्तमा को काफ़ी कुछ समझ आ गया था। बच्ची भी अपनी बातें बताकर शायद हल्की हो गई। जब बहुत देर तक कोई आवाज़ या फ़ोन नहीं आया तो तिलोत्तमा को लगा बच्ची सो गई है।

इसी बीच तिलोत्तमा के लगातार बोलने की आवाज़ें, जब सोई हुई भव्या तक पहुंची, वह अपने कमरे से निकलकर तिलोत्तमा के सामने पहुँच गई।.....

“मम्मा!... मम्मा क्या हुआ है? इतनी रात को आप हाथ में फ़ोन लिए क्यों बैठी हैं?... क्या किसी का फ़ोन आया था?

तिलोत्तमा अभी भी बच्ची की बातों में खोई हुई थी।... जैसे ही उसने भव्या को देखा, उसके शब्द मुँह में ही गुम हो गए हो। भव्या को सही सलामत देखकर उसने बिस्तर से उठकर भव्या को कसकर गले लगा लिया और रूआंसी हो आई।

भव्या ने तिलोत्तमा से पूछा...

“आपके चेहरे पर हवाइयाँ क्यों उड़ रही हैं मम्मा? आपकी तबीयत ठीक तो है?”

अनायास ही भव्या भी माँ के लिए चिंतित हो उठी थी। तिलोत्तमा ने जैसे ही फ़ोन को वापस कान पर लगाकर हेलो किया.. फ़ोन कट चुका था। उसने फोन पर हुई बातें भव्या को बताई|

“गलत नंबर लग गया होगा मम्मा| अब आप भी सो जाइए। पापा भी बाहर गए हुए हैं। अगर आप कहे तो मैं आपके पास ही सो जाती हूँ।... आपकी नींद पूरी नहीं हुई तो बी.पी. बढ़ जाएगा।” भव्या ने प्यार से तिलोत्तमा को कहा|

“मैं ठीक हूँ बेटा। तुम चिंता मत करो।... अपने कमरें में सोने जाओ।... तुम्हें कल कॉलेज भी जाना है।”

तिलोत्तमा के कहने से भव्या सोने चली गई। मगर तिलोत्तमा के दिलो-दिमाग से बच्ची की आवाज़ हट नहीं रही थी। न जाने क्यों उसे बार-बार लग रहा था, बच्ची का फ़ोन एक बार फिर आएगा। बच्ची का मम्मा कह कर बातें करना, सारी रात उसकी नींद में विघ्न डालता रहा।

जैसे-तैसे पूरी रात और फिर दिन भी निकल गया। सारा दिन उस बच्ची की आवाज़ें तिलोत्तमा के दिमाग़ में गूंजती रहीं।... नशे की ओवर-डोज़ होने से बच्ची ने गफ़लत में अपनी माँ के नंबर को डायल किया होगा और फ़ोन तिलोत्तमा के नंबर पर लग गया होगा। दिन भर तिलोत्तमा बच्ची की बातों के सिरों को बांधने की कोशिशों में लगी रही।

अगली शाम तक तिलोत्तमा के पास बच्ची का फ़ोन दोबारा नहीं आया। वह उसके बारे में सोच-सोच कर बैचेन हो उठी। और थक-हार कर उसने फ़ोन लगा लिया।

बच्ची ने फ़ोन उठाते ही खीजते हुए कहा....

“कौन बोल रही है आप?... मेरी नींद खराब कर दी आपने।”

“कल रात तुमसे कई बार बात हुई थी बेटा।... तुम बहुत परेशान थी। मैं सवेरे से तुम्हारे लिए चिंतित थी। जब तुम्हारा कोई कॉल नहीं आया तो खुद को लगाने से नहीं रोक पाई।” तिलोत्तमा ने उसकी खीज़ को नजरंदाज करते हुए अपनी बात रखी।

शायद बच्ची कुछ असमंजस की स्थिति में थी। वह काफ़ी देर तक चुप रहने के बाद बोली...

“सॉरी आंटी। आपको मेरी वज़ह से जागना पड़ा।... अभी मैंने अपनी कॉल लिस्ट देखी।... मैं ठीक हूँ। आपको आइंदा परेशान नहीं करूंगी।”

“सॉरी कहने की कोई ज़रूरत नहीं है बेटा।... मैं तुमसे मिलना चाहूंगी।”

“पता नहीं कल रात क्या हो गया था?... शायद कुछ ज़्यादा ही... आई एम सॉरी!” फिर से उस लड़की ने अपनी बात अधूरी छोड़, थोड़ी देर की चुप्पी के बाद फ़ोन डिस्कनेक्ट कर दिया।

न जाने कितनी देर तक तिलोत्तमा फ़ोन अपने कान से चिपकाए रही। उसे फ़ोन कटने के बाद दोबारा आने का इंतज़ार था। मगर ऐसा हुआ नहीं। तिलोत्तमा ने कई दिनों तक उस नंबर पर फ़ोन लगाया, मगर हमेशा एक ही मैसेज आता रहा... ‘दिस नंबर डज़ नॉट एगज़िस्ट।’

तिलोत्तमा सोच में पड़ गई थी... ऐसा कैसे हो सकता है कि जिस से रात भर बातें होती रहीं... उसका कोई वजूद ही नहीं। कम से कम वह लड़की तो केवल एक टेलिफ़ोन नंबर भर नहीं हो सकती।... वह लड़की चाहे अपना फ़ोन हमेशा के लिये बन्द कर दे, मगर तिलोत्तमा के दिल में उसका वजूद हमेशा बना रहेगा।
......

 
 
जामुन का पेड़ - कृश्न चंदर

रात को बड़े जोर का अंधड़ चला। सेक्रेटेरिएट के लॉन में जामुन का एक पेड़ गिर पडा। सुबह जब माली ने देखा तो उसे मालूम हुआ कि पेड़ के नीचे एक आदमी दबा पड़ा है।

माली दौड़ा दौड़ा चपरासी के पास गया, चपरासी दौड़ा दौड़ा क्‍लर्क के पास गया, क्‍लर्क दौड़ा दौड़ा सुपरिन्‍टेंडेंट के पास गया। सुपरिन्‍टेंडेंट दौड़ा दौड़ा बाहर लॉन में आया। मिनटों में ही गिरे हुए पेड़ के नीचे दबे आदमी के इर्द गिर्द मजमा इकट्ठा हो गया।

"बेचारा जामुन का पेड़ कितना फलदार था।‘' एक क्‍लर्क बोला।

‘'इसके जामुन कितने रसीले होते थे।‘' दूसरा क्‍लर्क बोला।

‘'मैं फलों के मौसम में झोली भरके ले जाता था। मेरे बच्‍चे इसके जामुन कितनी खुशी से खाते थे।‘' तीसरे क्‍लर्क का यह कहते हुए गला भर आया।

‘'मगर यह आदमी?'' माली ने पेड़ के नीचे दबे आदमी की तरफ इशारा किया।

‘'हां, यह आदमी'' सुपरिन्‍टेंडेंट सोच में पड़ गया।

‘'पता नहीं जिंदा है कि मर गया।‘' एक चपरासी ने पूछा।

‘'मर गया होगा। इतना भारी तना जिसकी पीठ पर गिरे, वह बच कैसे सकता है?'' दूसरा चपरासी बोला।

‘'नहीं मैं जिंदा हूं।‘' दबे हुए आदमी ने बमुश्किल कराहते हुए कहा।

‘'जिंदा है?'' एक क्‍लर्क ने हैरत से कहा।

‘'पेड़ को हटा कर इसे निकाल लेना चाहिए।‘' माली ने मशविरा दिया।

‘'मुश्किल मालूम होता है।‘' एक काहिल और मोटा चपरासी बोला। ‘'पेड़ का तना बहुत भारी और वजनी है।‘'

‘'क्‍या मुश्किल है?'' माली बोला। ‘'अगर सुपरिन्‍टेंडेंट साहब हुकम दें तो अभी पंद्रह बीस माली, चपरासी और क्‍लर्क जोर लगा के पेड़ के नीचे दबे आदमी को निकाल सकते हैं।‘'

‘'माली ठीक कहता है।‘' बहुत से क्‍लर्क एक साथ बोल पड़े। ‘'लगाओ जोर हम तैयार हैं।‘'

एकदम बहुत से लोग पेड़ को काटने पर तैयार हो गए।

‘'ठहरो'', सुपरिन्‍टेंडेंट बोला- ‘'मैं अंडर-सेक्रेटरी से मशविरा कर लूं।‘'

सु‍परिन्‍टेंडेंट अंडर सेक्रेटरी के पास गया। अंडर सेक्रेटरी डिप्‍टी सेक्रेटरी के पास गया। डिप्‍टी सेक्रेटरी जाइंट सेक्रेटरी के पास गया। जाइंट सेक्रेटरी चीफ सेक्रेटरी के पास गया। चीफ सेक्रेटरी ने जाइंट सेक्रेटरी से कुछ कहा। जाइंट सेक्रेटरी ने डिप्‍टी सेक्रेटरी से कहा। डिप्‍टी सेक्रेटरी ने अंडर सेक्रेटरी से कहा। फाइल चलती रही। इसी में आधा दिन गुजर गया।

दोपहर को खाने पर, दबे हुए आदमी के इर्द गिर्द बहुत भीड़ हो गई थी। लोग तरह-तरह की बातें कर रहे थे। कुछ मनचले क्‍लर्कों ने मामले को अपने हाथ में लेना चाहा। वह हुकूमत के फैसले का इंतजार किए बगैर पेड़ को खुद से हटाने की तैयारी कर रहे थे कि इतने में, सुपरिन्‍टेंडेंट फाइल लिए भागा भागा आया, बोला- हम लोग खुद से इस पेड़ को यहां से नहीं हटा सकते। हम लोग वाणिज्‍य विभाग के कर्मचारी हैं और यह पेड़ का मामला है, पेड़ कृषि विभाग के तहत आता है। इसलिए मैं इस फाइल को अर्जेंट मार्क करके कृषि विभाग को भेज रहा हूं। वहां से जवाब आते ही इसको हटवा दिया जाएगा।

दूसरे दिन कृषि विभाग से जवाब आया कि पेड़ हटाने की जिम्‍मेदारी तो वाणिज्‍य विभाग की ही बनती है।

यह जवाब पढ़कर वाणिज्‍य विभाग को गुस्‍सा आ गया। उन्‍होंने फौरन लिखा कि पेड़ों को हटवाने या न हटवाने की जिम्‍मेदारी कृषि विभाग की ही है। वाणिज्‍य विभाग का इस मामले से कोई ताल्‍लुक नहीं है।

दूसरे दिन भी फाइल चलती रही। शाम को जवाब आ गया। ‘'हम इस मामले को हार्टिकल्‍चर विभाग के सुपुर्द कर रहे हैं, क्‍योंकि यह एक फलदार पेड़ का मामला है और कृषि विभाग सिर्फ अनाज और खेती-बाड़ी के मामलों में फैसला करने का हक रखता है। जामुन का पेड़ एक फलदार पेड़ है, इसलिए पेड़ हार्टिकल्‍चर विभाग के अधिकार क्षेत्र में आता है।

रात को माली ने दबे हुए आदमी को दाल-भात खिलाया। हालांकि लॉन के चारों तरफ पुलिस का पहरा था, कि कहीं लोग कानून को अपने हाथ में लेकर पेड़ को खुद से हटवाने की कोशिश न करें। मगर एक पुलिस कांस्‍टेबल को रहम आ गया और उसने माली को दबे हुए आदमी को खाना खिलाने की इजाजत दे दी।
माली ने दबे हुए आदमी से कहा- ‘'तुम्‍हारी फाइल चल रही है। उम्‍मीद है कि कल तक फैसला हो जाएगा।‘'

दबा हुआ आदमी कुछ न बोला।

माली ने पेड़ के तने को गौर से देखकर कहा, अच्‍छा है तना तुम्‍हारे कूल्‍हे पर गिरा। अगर कमर पर गिरता तो रीढ़ की हड्डी टूट जाती।

दबा हुआ आदमी फिर भी कुछ न बोला।

माली ने फिर कहा ‘'तुम्‍हारा यहां कोई वारिस हो तो मुझे उसका अता-पता बताओ। मैं उसे खबर देने की कोशिश करूंगा।‘'

‘'मैं लावारिस हूं।‘' दबे हुए आदमी ने बड़ी मुश्किल से कहा।

माली अफसोस जाहिर करता हुआ वहां से हट गया।

तीसरे दिन हार्टिकल्‍चर विभाग से जवाब आ गया। बड़ा कड़ा जवाब लिखा गया था। काफी आलोचना के साथ। उससे हार्टिकल्‍चर विभाग का सेक्रेटरी साहित्यिक मिजाज का आदमी मालूम होता था। उसने लिखा था- ‘'हैरत है, इस समय जब ‘पेड़ उगाओ' स्‍कीम बड़े पैमाने पर चल रही है, हमारे मुल्‍क में ऐसे सरकारी अफसर मौजूद हैं, जो पेड़ काटने की सलाह दे रहे हैं, वह भी एक फलदार पेड़ को! और वह भी जामुन के पेड़ को !! जिसके फल जनता बड़े चाव से खाती है। हमारा विभाग किसी भी हालत में इस फलदार पेड़ को काटने की इजाजत नहीं दे सकता।‘'

‘'अब क्‍या किया जाए?'' एक मनचले ने कहा- ‘'अगर पेड़ नहीं काटा जा सकता तो इस आदमी को काटकर निकाल लिया जाए! यह देखिए, उस आदमी ने इशारे से बताया। अगर इस आदमी को बीच में से यानी धड़ की जगह से काटा जाए, तो आधा आदमी इधर से निकल आएगा और आधा आदमी उधर से बाहर आ जाएगा और पेड़ भी वहीं का वहीं रहेगा।‘'

‘'मगर इस तरह से तो मैं मर जाऊंगा !'' दबे हुए आदमी ने एतराज किया।......

 
 
देशभक्ति का पारितोषिक - प्रवीण जैन

चोर एक घर में घुसा। उस समय वहाँ टेलीविज़न चल रहा था। टेलीविज़न पर राष्ट्रीय गान आरंभ हो गया। चोर सावधान की मुद्रा में वहीं सावधान खड़ा हो गया। गृहस्वामी ने उसे पकड़कर पुलिस के हवाले कर दिया। न्यायाधीश महोदय ने देशभक्ति के पारितोषिक स्वरूप चोर को इज्जत सहित बरी कर दिया और गृहस्वामी को राष्ट्रीय गान का अपमान करने पर सज़ा सुना दी।

 

 साभार- प्रवीण जैन, भारत

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[भारत-दर्शन संकलन से]


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हस्ताक्षर  - राजेश चेतन

हस्ताक्षर तक हम करते हैं
एक विदेशी भाषा में......

 
 
पिता पर हाइकु - रश्मि विभा त्रिपाठी 
पिता के देश
जुगनू, चंदा, सूर्य 
तथा उन्मेष।
 
पिता का प्रेम 
बाल कुशल- क्षेम 
अभिलाषी है।
 
पिता का जाना
जीवन अस्त- व्यस्त 
आँधी का आना।
 
पिता के जाते 
विदा हो गए सभी
रिश्ते औ नाते।
 
पिता हैं बुद्ध
दु:ख- निवृत्ति हेतु
नित्य प्रबुद्ध।
 
पिता हैं कल्कि 
क्षमा ही नहीं बल्कि 
उद्धार करें।
 
पिता हैं कृष्ण 
करें जीवन- प्रश्न 
पल में हल।
 
पिता वशिष्ठ 
धर्म औ नीति पढ़ो 
होओ उत्तिष्ठ। 
 
पिता का क्रोध
जीवन- अवरोध 
मिटाने आता।
 
ले काँधे घूमे 
नदी- गिरि- अरण्य
पिता हैं धन्य।
 
पिता हैं पेड़
सहें हवा की मार 
शाखों से प्यार।
 
पिता हैं माली
करते रखवाली
बाल- बाड़ी की।
 
पिता हैं शिल्पी
शिशु- आलेख गढा
नेह में मढ़ा।
 
पिता हैं स्तंभ 
टूटेंगे सारे दम्भ 
यदि गिरे तो!
 
पिता धरा- से
सौ-सौ भार उठाए 
तो भी मुस्काए।
 
पिता ज्योति- से
रहे स्वयं को बाल
शिशु का ख्याल।
 
पिता नदी- से 
भरी तृषा की प्याली 
कभी न खाली।
 
पिता वट- से 
बाँधे जो दुआ- धागे 
तो विघ्न भागे।
 
पिता तरु- से
जब ताप बरसे
दें घनी छाया।
 
पिता विहान
तिमिर का प्रस्थान
सुनिश्चित है।
 
पिता का प्यार 
मरुथल में वर्षा
मूसलाधार।

-रश्मि विभा त्रिपाठी 
 ई-मेल : rashmivibhatripathi@gmail.com

......
 
 
नया साल आए - दुष्यंत कुमार

नया साल आए, नया दर्द आए ।
मैं डरता नहीं हूँ, हवा सर्द आए,

रहे हड्डियों में ज़रा भी जो ताकत ।......

 
 
खोट | लोक-कथा - भारत-दर्शन संकलन

एक मार्ग चलती हुई बुढ़िया जब काफ़ी थक चुकी तो पास से जाते हुए एक घुड़सवार से दीनतापूर्वक बोली-'भैया, मेरी यह गठरी अपने घोड़े पर रख ले और जो उस चौराहे पर प्याऊ मिले, वहाँ दे देना। तेरा बेटा जीता रहे, मैं बहुत थक गई हूँ, मुझसे अब यह उठाई नहीं जाती ।'

घुड़सवार ऐंठकर बोला--'हम क्या तेरे बाबा के नौकर हैं, जो तेरा सामान लादते फिरें? और यह कहकर वह आगे बढ़ गया।'

बुढ़िया बिचारी धीरे-धीरे चलने लगी। आगे बढ़कर घुड़सवारको ध्यान आया कि गठरी छोड़कर बड़ी ग़लती की, गठरी उस बुढ़िया से लेकर प्याऊवाले को न देकर, यदि में आगे चलता बनता, तो कौन क्या कर सकता था? यह ध्यान आते ही वह घोड़ा दौड़ाकर फिर बुढ़िया के पास आया और बड़े मधुर वचनों में बोला-'ला बुढ़िया माई, तेरी यह गठरी ले चलूं, मेरा इसमें क्या बिगड़ता है, प्याऊ पर देता जाऊँगा।'

बुढ़िया ने गठरी देने से इनकार कर दिया तो घोड़े वाले ने अचरज से कहा,'अब किस कारण मन बदल गया?'

'जिस कारण तुम्हारा बदल गया!'

बुढ़िया बोली- 'बेटा, वह बात तो गई, जो तेरे दिल में कह गया है वह मेरे कान में कह गया है। जिसने तेरी मति पलटी, उसी ने मेझे भी मति दी। जा अपना रास्ता नाप ! मैं तो धीरे-धीरे पहुँच ही जाऊँगी।'

घुड़सवार मनोरथ पूरा न हुआ और वह अपना सा मुँह लेकर अपने रास्ते हो लिया।

[भारत-दर्शन संकलन]


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उल्लुओं की बस्ती में - पंडित विष्णु शर्मा

एक वृक्ष पर एक उल्लू रहता था। उल्लू को दिन में दिखाई नहीं पड़ता, इसीलिए इसको दिवांध भी कहते हैं। उल्लू दिन-भर अपने घोंसले में छिपा रहता था। जब रात होती थी, तो शिकार के लिए बाहर निकलता था।

गर्मी के दिन थे, दोपहर का समय। आकाश में सूर्य आग के गोले की तरह चमक रहा था। बड़े जोरों की गर्मी पड़ रही थी। कहीं से उड़ता हुआ एक हंस आया और वृक्ष की डाल पर बैठकर बोला, "ओह, बड़ी भीषण गर्मी है। आकाश में सूर्य आग के गोले की तरह चमक रहा है।"

हंस की बात उल्लू के भी कानों में पड़ी। यह बोल उठा, "क्या कह रहे हो? सूर्य चमक रहा है। बिलकुल झूठ। चंद्रमा के चमकने की बात कहते तो मान भी लेता।"

हंस बोला, "चंद्रमा तो दिन में चमकता नहीं, रात में चमकता है। इस समय दिन है। दिन में सूर्य ही चमकता है। सूर्य का प्रकाश जब तीव्र रूप से फैल जाता है तो भयानक गर्मी पड़ती है। आज सचमुच बड़ी भयानक गर्मी पड़ रही है।" 

उल्लू व्यंग्य के साथ हँस पड़ा और बोला, "अभी तो तुम सूर्य की बात कर रहे थे, अब सूर्य के प्रकाश की बात करने लगे। बड़े मूर्ख लग रहे हो। अरे भाई, न सूर्य है, न प्रकाश। यह तो हमारे मन का भ्रम है।" 

हंस ने उल्लू को समझाने का बड़ा प्रयत्न किया कि आकाश में सूर्य चमक रहा है और उसके कारण भयानक गर्मी पड़ रही है, पर उल्लू अपनी बात पर अड़ा रहा। हंस के अधिक समझाने पर भी वह यही कहता रहा कि न तो सूर्य है, न सूर्य का प्रकाश है और न गर्मी पड़ रही है। 

उल्लू और हंस दोनों जब देर तक अपनी-अपनी बात पर अड़े रहे तो उल्लू बोला, "पास ही एक दूसरे वृक्ष पर मेरे सैकड़ों जाति-भाई रहते हैं। वे बड़े बुद्धिमान हैं। चलो, उनके पास चल कर निर्णय कराएं कि आकाश में सूर्य है या नहीं।" 

हंस ने उल्लू की बात मान ली। उल्लू उसे साथ लेकर दूसरे वृक्ष पर गया। दूसरे वृक्ष पर सैकड़ों उल्लू रहते थे। उल्लू ने अपने जाति-भाइयों को एकत्र करके कहा, "भाइयो, इस हंस का कहना है, इस समय दिन है और आकाश में सूर्य चमक रहा है। आप लोग ही निर्णय करें, इस समय दिन है या नहीं, और आकाश में सूर्य चमक रहा है या नहीं।" 

उल्लू की बात सुनकर उसके जाति-भाई हंस पर हँस पड़े और उसका उपहास करते हुए बोले, "क्या कह रहे हो जी, आकाश में सूर्य चमक रहा है? बिलकुल अंधे हो। हमारी बस्ती में ऐसी झूठी बात का प्रचार मत करो।" 

पर हंस चुप नहीं रह सका, बोला, "मैं झूठ नहीं बोल रहा हूं। इस समय दिन है और आकाश में सूर्य चमक रहा है।" 

हंस की बात सुनकर सभी उल्लू कुपित हो उठे और हंस को मारने के लिए झपट पड़े। 

हंस प्राण बचाकर भाग चला। कुशल था कि दिन होने के कारण उल्लुओं को दिखाई नहीं पड़ रहा था। यदि दिखाई पड़ता, तो वे हंस को अवश्य मार डालते। उधर दिन होने के कारण हंस को दिखाई पड़ रहा था। उसने सरलता से भागकर उल्लुओं से अपनी रक्षा कर ली। हंस ने बड़े दुःख के साथ अपने-आप ही कहा, "यह बात सच है कि इस समय दिन है और आकाश में सूर्य चमक रहा है, पर उल्लुओं ने संख्या में अधिक होने के कारण सच को भी झूठ ठहरा दिया। जहां मूर्खी का बहुमत होता है, वहां इसी प्रकार सत्य को भी असत्य सिद्ध कर दिया जाता है। 

कहानी से शिक्षा

मूर्ख मनुष्य विद्वान की बात को भी सच नहीं मानता। मूर्षों की सभा में सत्य को भी असत्य ठहरा दिया जाता है। मूर्खी की बड़ाई से न तो प्रसन्न होना चाहिए और न बुराई करने से अप्रसन्न होना चाहिए, क्योंकि मूर्ख तो मूर्ख ही होते हैं।

[भारत-दर्शन संकलन]


......
 
 
खुरपी - भारत-दर्शन संकलन

शेखचिल्ली की माँ एक दिन किसी शादी में जाने के लिए घर से बाहर जाने लगी। उन्होंने जाने से पहले अपने बेटे को आवाज देते हुए कहा, “बेटा शेख तुम जंगल जाकर घास ले आना। फिर पड़ोसी को घास देकर पैसे ले लेना। तुम यहां ये काम करो और मैं शादी में जाकर तुम्हारे लिए मिठाइयां लेकर आऊंगी।” शेख चिल्ली ने खुशी-खुशी माँ की बात मान ली।

शेख के दिमाग में अब घास लाने की बात नहीं, बल्कि मिठाइयां घूमने लगी। वो दिनभर मिठाइयों के ही सपने देखता रहा। कुछ घंटों बाद जैसे ही शेख की मां घर लौटी, तो उन्होंने अपने बेटे को बिस्तर पर लेटा देखा। उन्होंने उसे आवाज दी, लेकिन शेखचिल्ली तो अपने सपनों की दुनिया में खोया हुआ था।

उसकी माँ ने उसका बिस्तर खिंचते हुए कहा कि तू सपनों की दुनिया में खोया हुआ है और मेरा घास वाला काम ऐसे ही छोड़ दिया। अब तू जब तक जंगल जाकर वो काम नहीं करेगा, तुझे मिठाई नहीं मिलेगी। मिठाई न मिलने की बात सुनकर शेख तुरंत उठकर जंगल चला गया। उसने जंगल जाकर सबकुछ ठीक वैसा किया जैसा उसकी मां ने कहा था। फिर घर आने के बाद उसने घास बेचने से मिले पैसे मां के हाथों में रख दिए।

माँ ने भी खुश होकर उसे मिठाई दी। मिठाई खाते ही शेख को याद आया कि वो घास लाने के लिए जो खुरपी जंगल ले गया था, उसे वहीं छोड़ आया है। मिठाई खत्म करते ही वो जंगल की ओर खुरपी लेने के लिए भागा। जंगल पहुंचते ही उसे अपने सामने खुरपी दिखी। शेखचिल्ली मुस्कुराते हुए खुरपी को उठाने के लिए आगे बड़ा। जैसे ही शेख ने खुरपी को छुआ, तो वो जोर से चिल्लाया, क्योंकि खुरपी पर सीधी धूप पड़ रही थी, जिस वजह से वो बहुत गर्म थी।

शेखचिल्ली के मन में हुआ कि खुरपी इतनी गर्म है, तो इसका मतलब इसे बुखार आ गया है। शेख ने किसी तरह से खुरपी को उठाया और उसे लेकर सीधे एक हकीम के पास चला गया। वहां जाते ही शेखचिल्ली ने कहा, “देखिए! इस खुरपी को तेज बुखार हो गया है। इसका उपचार कीजिए।”

हकीम को शेख की ये बात सुनकर हँसी आई। उन्होंने मजाक में कह दिया कि हां, इसे तेज बुखार है, लेकिन इसका इलाज दवाई से नहीं होगा। तुम इसे किसी रस्सी में बांधकर पास के कुएं में ले जाओ और वहां पानी में दो-तीन बार डुबाकर निकाल लेना। ऐसा करने से इसका बुखार उतर जाएगा।

शेखचिल्ली ने ठीक वैसा ही किया। शेख ने पानी से खुरपी के निकालने के बाद छुआ, तो वो ठंडी थी। उसे लगा कि हकीम का इलाज असर कर गया और वो खुशी-खुशी खुरपी लेकर अपने घर चला गया।

कुछ दिनों बाद उसके पड़ोस में एक बूढ़ी महिला को तेज बुखार आ गया। सभी परिवार वाले परेशान होकर उसे हकीम के पास ले जा रहे थे। तभी रास्ते में शेखचिल्ली उन्हें मिल गया। उसने सब लोगों से पूछा कि आप लोग इतने परेशान क्यों हैं? उन्होंने शेख को बताया कि वो बुखार के इलाज के लिए हकीम के पास जा रहे हैं। बुखार शब्द सुनते ही शेख को खुरपी वाला किस्सा याद आ गया।

उसने सबसे कहा कि मुझे बुखार के इलाज का नुस्खा पता है। किसी को भी हकीम के पास जाने की जरूरत नहीं है। उसने बूढ़ी महिला के घरवालों को बताया कि इन्हें एक रिस्सी से बांधकर कुएं में एक दो बार डुबोकर निकाल लो। बुखार खुद उतर जाएगा। हैरानी में सबने शेख से पूछा कि क्या सच में ये नुस्खा हकीम साहब ने बताया है? शेख ने पूरे विश्वास के साथ कहा, “हां, बिल्कुल उन्होंने ही बताया है और इससे बुखार भी झट से उतर जाता है।”

सभी ने शेखचिल्ली की बात मानते हुए उस बूढ़ी महिला को रस्सी के सहारे कुएं में दो-चार बार डुबो दिया। कुछ देर बाद जब उन्हें बाहर निकाला, तो उनका पूरा शरीर ठंडा पड़ गया था। शेखचिल्ली ने उसे छुआ और खुशी में कहने लगा, “देखो! मैंने कहा था न कि बुखार पूरी तरह से उतर जाएगा।”

उस बूढ़ी औरत के घरवाले गुस्से में शेख पर चिल्लाने लगे। उन्होंने कहा कि तुम्हें नहीं पता कि ये दुनिया से ही चल बसी हैं, इसलिए इनका पूरा शरीर ठंडा हो गया है। शेख ने भी गुस्से में जवाब दिया कि मैंने बोला था कि इससे बुखार उतरेगा और वो उतर गया है। अब अगर इनकी जान चली गई है, तो उसमें मेरी नहीं उस हकीम की गलती है। आखिर ये नुस्खा हकीम का ही तो है।

अब सारे लोग गुस्से में हकीम के पास गए और उन्हें सारा किस्सा सुना दिया। यह सुनते ही हकीम ने दुखी होकर अपने सिर पर हाथ रख लिया। फिर धीमी आवाज में वो कहा, “अरे! भाई मैंने वो इलाज गर्म खुरपी को ठंडा करने के लिए बताया था। किसी इंसान का बुखार उतारने के लिए नहीं।”

हकीम की यह बात सुनते ही सब लोगों ने मिलकर शेखचिल्ली को खूब डांटा और उसे पीटने लगे। किसी तरह से सबसे बचकर शेख वहां से भाग निकला।

सीख
बिना सोचे समझे किसी की भी बात नहीं मान लेनी चाहिए। इससे खुद का ही नुकसान होता है।


......
 
 
देख लिया ग़ैर को | ग़ज़ल - रोहित कुमार 'हैप्पी'

देख लिया ग़ैर को अपना बना के
छोड़ गया हमको ख़ाक में मिला के......

 
 
नेता जी की शिकायत - प्रवीण शुक्ला

एक कवि-सम्मेलन में
'नेता जी' मुख्य अतिथि के रूप में आये हुए थे,......

 
 
नहीं कुछ भी बताना चाहता है - डॉ.शम्भुनाथ तिवारी

नहीं कुछ भी बताना चाहता है
भला वह क्या छुपाना चाहता है

तिज़ारत की है जिसने आँसुओं की......

 
 
ज़मीन आसमान | लघु कथा  - रेखा जोशी

आज अंजू सातवें आसमान पर उड़ रही थी ,बार बार वह अपने चाचा जी का धन्यवाद कर रही थी जो उसे शहर के इतने खूबसूरत जगमगाते स्थान पर ले कर आये थे ।

ऐसा खूबसूरत नज़ारा उसने ज़िंदगी में पहली बार देखा था जो उसे किसी परीलोक से कम नही लग रहा था । सुसज्जित दुकानो से लोग थैले भर भर के सामान खरीद रहे थे, ऐसा लग रहा था मानो सब ओर केवल खुशियाँ ही खुशियाँ है ।

वहाँ से बाहर निकलते ही सड़क के उस पार अंजू की नज़र एक भिखारिन पर पड़ी जो अपने नंग धड़ंग दो बच्चों के साथ भीख मांग रही थी । उसे देखते ही एक झटके के साथ वह परीलोक से ज़मीन पर आ गिरी ।

- रेखा जोशी
rekha.fbd@gmail.com

 

......
 
 
परिवार की लाड़ली | लघु-कथा - माधव नागदा

एक साथ तीन पीढ़ियां गांव के बस स्टेण्ड पर बस का इंतजार कर कही थीं| दादी,मां,पिता, बेटा और उसकी नई-नवेली बहू| बस स्टेण्ड हाइवे के किनारे था हालांकि यातायात की कमी नहीं थी लेकिन लोकल बसों की कमी थी| फलस्वरूप लोगों को घंटों इंतजार करना पड़ता था|

समय गुजारने के लिये बेटे ने एक तरीका ढूंढ निकाला| वह आते-जाते ट्रकों के पीछे की लिखावटों को पढ़ने लगा |जरा जोर से ताकि सब सुन लें| कोई रोमांटिक सी बात होती तो बहू की ओर देख कर और जोर से बोलता| बहू घूंघट कुछ ऊपर उठाती नीचे का ओंठ दांतों तले दबाती और सबकी नजरें बचाते हुए पति की ओर आंखें तरेरती| पति को पत्नी के चेहरे की यह लिखावट ट्रक की लिखावट से भी ज्यादा रोमांचित कर देती| उसे इंतजार में भी अनोखा आनंद आने लगा|

अभी-अभी मार्बल से लदा एक ट्रक गुजरा था| ओवरलोड| धीमी रफ्तार| दर्द से कराहता हुआ सा, लिखा था, ‘परिवार की लाडली।' बेटे ने कहा, वो देखो परिवार की लाडली जा रही है और बड़े लाड़ से पत्नी को निहारा|

"हुंह, इतना तो बोझा लाद रखा है और परिवार की लाड़ली!" पत्नी ने व्यंग्य किया|

सासूजी सुन रही थी| उन्होंने तिरछी निगाहों से अपने पति व सास की तरफ देखा, फिर बोली,"इतना बोझा लाद रखा है तभी तो परिवार की लाड़ली है| वरना.....|" बहू ने महसूस किया कि सासूजी की आवाज घुट कर रह गई है|

- माधव नागदा
ई-मेल: madhav123nagda@gmail.com

 

......
 
 
तुम्हारे स्नेह की छाया - अमिता शर्मा

तुम्हारे स्नेह की छाया ने मेरा दर्द सहलाया,
बुझा मन खिल उठा मेरा, ये कैसा नेह बरसाया!

तुम्हारा ख्याल जव आया, मेरा हर अश्क मुसकाया,......

 
 
सफलता - वंदना

ओ सफलते! आ मुझे अपना बना
हूँ मैं व्याकुल तुझको पाने के लिए।......

 
 
राजेश ’ललित’ की दो क्षणिकाएँ  - राजेश ’ललित’

ख़्वाब

थे हमारे भी !
कुछ ख़्वाब,......

 
 
मुबारक हो नया साल  - नागार्जुन

फलाँ-फलाँ इलाके में पड़ा है अकाल
खुसुर-पुसुर करते हैं, ख़ुश हैं बनिया-बकाल......

 
 
क्यों हमें डर लगता है - मनीष तुलसानी

डर हर किसी को लगता हैं,
किसी कीमती चीज के खो जाने का,......

 
 
वो था सुभाष, वो था सुभाष - रोहित कुमार 'हैप्पी'

वो भी तो ख़ुश रह सकता था
महलों और चौबारों में।......

 
 
करना हो सो कीजिए - गिजुभाई बधेका

एक कौआ था। वह रोज नदी-किनारे जाता और बगुले के साथ बैठता। धीरे-धीरे दोनों में दोस्ती हो गई। बगुला मछलियां पकड़ता और कौए को खिलाया करता। बगुला नये-नये ढंग से रोज़ नई-नई मछलियां पकड़ता रहता, कौए को हर दिन नया-नया भोजन मिलने लगा।

बगुला आसमान में उड़ता। ऊंचा और ऊंचा उड़ता ही जाता। निगाह उसकी बराबर नीचे रहती। मछली को देखते ही वह सरसराता हुआ नीचे आता, अपनी लम्बी चोंच पानी में डुबोता और पैर ऊंचे रखकर झट-से मछली पकड़कर किनारे पर आ बैठता।

कौआ यह सब देखता। उसका भी मन होता कि वह ऐसा ही करे। वह मन-ही-मन सोचा करता, ‘चलूं, मैं भी ऐसा ही करूं। इसमें कौन बड़ी बात है? ऊपर उड़ना, निगाह नीचे की तरफ रखना, मछली दीखते ही नीचे आना, चोंच फैलाकर पानी में डालना, औंधा सिर करके पैर ऊपर की तरफ रखना। मछली पकड़ में नहीं आयेगी, तो आखिर जायेगी कहां?' सबकुछ सोच-विचारकर एक दिन कौआ आसमान में उड़ा। बहुत ऊंचा उड़ा, पर आखिर वह कितना ऊंचा उड़ता?

इसी बीच उसे पानी में एक मछली दिखाई पड़ी। कौआ सरसराता हुआ नीचे उतरा। पैर ऊंचे रखे और चोंच नीची करके फुरती के साथ मछली पकड़ने झपटा, पर मछली वहां से खिसक गई, और चोंच काई में उलझ गई। पैर ऊंचे रह गए। कौआ छटपटाने लगा। ऊपर आने की बहुत मेहनत की, पर सिर तो पानी के अन्दर-ही-अन्दर डूबता चला गया। इसी बीच बगुला वहां पहुंचा। बगुले को दया आ गई। उसने बङी मुश्किल से कौए को पानी के बाहर खींच निकाला। फिर कौए से कहा:

करना हो सो कीजिए,
और न कीजे कग्ग।
सिर रहे सवार में
ऊंचे रहे पग्ग।

उस दिन से कौआ समझ गया और बगुले की नकल करना भूल गया।

- गिजुभाई बधेका
[ गिजुभाई की बाल-कथाएं, सस्ता साहित्य मंडल]

 


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दुनिया मतलब की गरजी  - द्यानत

दुनिया मतलब की गरजी, अब मोहे जान पडी ।।टेक।।
हरे वृक्ष पै पछी बैठा, रटता नाम हरी। ......

 
 
राजभाषा तेरे लिए ..... - जयप्रकाश शर्मा

राजभाषा तेरे लिए
ये जान भी कुर्बान है।......

 
 
असहयोग कर दो - गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही'

असहयोग कर दो॥

कठिन है परीक्षा न रहने क़सर दो,
न अन्याय के आगे तुम झुकने सर दो।......

 
 
झंझट ख़त्म - शिखा वार्ष्णेय

लन्दन में जून का महीना सबसे खुशनुमा होता है। सुबह चार-पाँच बजे से दिन चढ़ आता है। खिड़की से धूप झाँकने लगती है और आप चाहकर भी सोये नहीं रह पाते हैं।

अब ऐसे ही पड़े रहने का क्या फायदा। उठकर जैसे ही खिड़की से पर्दा सरकाया, मार्तण्ड की रश्मियाँ पूरे जोश से कमरे में दाखिल हो गईं।

सुबह की चाय हाथ में लेकर, फ़ोन पर ईमेल खोला तो कुछ प्रोमोशनल ईमेल के साथ ही एक इम्पोर्टेंट मार्क का ईमेल भी था। क्लिक किया तो पता चला ऑफिस के एक कलीग के पिताजी के फ्यूनरल की मीटिंग का सूचना पत्र था। जिनकी मृत्यु पिछले दिनों ही अचानक हार्ट फेल होने से हो गई थी। ईमेल के साथ ही एक डिजिटल कार्ड भी जुड़ा हुआ था। इसमें दो पंक्तियों के एक सन्देश के साथ मीटिंग यानी ‘फ्यूनरल टी’ की जगह का पता, तारीख और समय लिखे हुए थे। और साथ में, आर एस वी पी में उनके बेटे का नाम भी लिखा हुआ था। यानि आप शामिल होंगे या नहीं इसकी सूचना नियत समय से पहले देनी थी। जिससे कि वे आने वालों के हिसाब से इंतजाम कर सकें।

उनकी मृत्यु के दिन तो जाने का सवाल नहीं था। बस घरवाले ही मिलकर उसी दिन उनका संस्कार कर आये थे। सब कुछ व्यवस्थित था ही। बस फ्यूनरल सर्विस को फ़ोन किया और सब हो गया। हम सबको दूसरे दिन खबर लगी थी तो बस कलीग को एक संवेदना वाला सन्देश ही भेज दिया था। पर अब मैसेज आया है तो इसमें तो जाना चाहिए। चाय का स्वाद अचानक फीका सा हो गया। पता नहीं ऐसी कोई ड्रेस भी अलमारी में है या नहीं। फिर वहाँ जाकर करना क्या होता है यह भी तो नहीं पता। वैसे जैसा सुना है लोगों से, यहाँ तो बहुत ही सभ्य और व्यवस्थित तरीके से सब होता है। सब सज धज कर जाते हैं। खाते पीते हैं, मृतक के कुछ नजदीकी लोग उसकी याद में कुछ भाषण देते हैं और बस... फिर सब हाथ मिलाकर अपने अपने घर चले जाते हैं। यूँ तो यहाँ जो भी होता है अब, वो फ्यूजन सा ही होता है। यहाँ की व्यवस्था और अपने धर्म -समुदाय के मुताबिक थोड़ा सामंजस्य बैठाकर काम कर लिए जाते हैं। जैसे मृत्यु पर भी हम भारतीय लोग तो बिना बुलाये भी चले जाते हैं दुख प्रकट करने। फिर संस्कार के बाद एक जगह पर कुछ ड्रिंक्स की व्यवस्था होती है और बस वहां मिलने जुलने की औपचारिकता और शोक और दुख प्रकट करना पूरा हो जाता है। फिर मरने वाला कोई ऐसी हस्ती हो जिसका कि सामाजिक दायरा और पद बड़ा हो तो कुछ दिन बाद “सेलेब्रेशन ऑफ़ लाइफ” नाम से एक भोज और सभा रखी जाती है। जहाँ फिर लोग मृतक को याद कर अपनी अपनी बात कहते हैं। परन्तु हमारे लोग अपने यहाँ की तेरहवीं और इनका सेलेब्रेशन ऑफ़ लाइफ दोनों का फ्यूजन मिलाकर एक भोज सभा सी रख लेते हैं। जिसमें मृतक के सभी जानने वालों को औपचारिक रूप से बुला लिया जाता है। नहीं करने वाले नहीं भी करते। जो भी हो काफी व्यवस्थित होता है सब कुछ। न दहाड़ मार कर रोना धोना, न दुखी होने का दिखावा और न ही फालतू के रिवाज। पर ऑफिस वाली नीति ने बताया था कि बहुत महंगा होता है यह सब और अपने जीते जी ही इसकी व्यवस्था करके जाना होता है। हर एक के जरूरत और बजट के हिसाब से अलग अलग पैकेज हैं फ्यूनरल सर्विस वालों के। महंगे से महंगे। पर बेसिक वाला भी सस्ता नहीं है। बाकी सब भी खुद ही सोच कर, बता कर जाना होता है। कह रही थी उसने अपने लिए फूल भी चुन रखे हैं कि कौन से लगेंगे।

हाए राम ! मैंने तो कुछ भी नहीं सोचा है अब तक। पैसे तो खैर थोड़े बहुत बचा लिए हैं। कल भी मर जाऊं तो बेसिक पैकेज तो आ ही जायेगा। परन्तु और भी तो सोचना है। एक साड़ी भी लेनी होगी। हमारे यहाँ तो लाल पहनाते हैं शायद। पर यहाँ तो टैकी लगेगी वो सबको। मुझे भी लाल रंग कहाँ पसंद है। बहुत लाउड और भड़कीला रंग लगता है। और उसको पसंद करने वाला लगता है बहुत गर्म दिमाग और गुस्सैल सा होगा। कभी कभी खुद पहन लेती हूँ तो लगता है जैसे इस रंग के कपड़े के अन्दर मैं हूँ ही नहीं, कोई और है। शादी पर पहनना पड़ा था तो अजीब सा महसूस हो रहा था मुझे तो। कोई हलके रंग की ले लुंगी। तब भी तो... मैं जो भी चुनूंगी वह, “छीईई...” ही कहेंगे ये घरवाले। फूल तो चलो ठीक हैं। लिली वैसे भी पसंद हैं पति को तो उसमें तो कोई समस्या नहीं होगी। मुझे भी सफ़ेद रंग पसंद है। एक गाना भी तो चुनना होगा। मुझे तो हिन्दी का पुराना गीत ही पसंद है। बचपन से वही पसंद है। न जाने क्यों। जिस उम्र में बच्चे ‘लकड़ी की काठी’ गाते, सुनते थे मैं वह ग़ज़ल नुमा गीत सुनती थी। कैसा सुकून सा था जगजीत सिंह की आवाज में। रूह तक पहुँचती है एकदम। पर वो तो यहाँ कोई नहीं बजाने देगा। बेटी कहेगी, यह क्या समझ आएगा किसी को। कोई वेस्टर्न इंस्ट्रुमेंटल बजा दो। आखिर मिलने वाले तो ज्यादातर उनके ही आयेंगे। जाने के लिए लिमोजीन ठीक रहेगी क्या? अरे नहीं ! इतनी लम्बी क्या करनी, कोई छोटी कार ही देख लूँगी। लेट के पूरी आ जाऊँ बस। पैर न मुड़ें। खाने में भी हाई टी रखवा दूँगी। उसमें वेज - नॉनवेज की समस्या कम होती है। समोसा तो ये अंग्रेज भी शौक से खा लेते हैं। साथ में एक दो तरह के सैंडविच। मन तो मेरा सूशी रखवाने का है। यह जापानी व्यंजन बेहद पसंद है मुझे। समुद्री सिवार सा ये जीवन। उसपर सख्त, मुलायम सब्जियों रूपी सुख- दुख को जमाये रखने के लिए, स्टिकी चावल से ये रिश्ते। ये जिंदगी भी "सूशी" सी तो है। छोटी, रंगीन पर अपने आप में सम्पूर्ण।

परन्तु फिर पति का नाक मुँह सिकुड़ेगा। बेकार में बच्चों की आफत होगी। जाने दो। ये खाना पीना वो अपने आप देख लेंगे अपने हिसाब से। ड्रिंक का तो मुझे पता ही नहीं है वैसे भी। यूँ भी ज्यादा कोई कुछ करेगा नहीं। वरना मन तो मेरा है कि एक खास कविता कोई पढ़ दे वहाँ मेरे नाम से। पर बेटा और पति तो पढ़ने से रहे। बेटी शायद पढ़ दे। पर वहां सुनेगा कौन। छोड़ो। कहेंगे जीते जी तो फ़ालतू काम करती रही सब, मर के भी बोर कर रही है। खैर जो भी हो। जरूरत भर के पैसे जरूर छोड़ जाऊँगी कि किसी पर बोझ न पड़े बाद में। अपने कपड़ों वाली दराज में रख जाऊँगी एक डिब्बे में। पर वहां कैसे दिखेगा किसी को? हाँ सामने की मेज की दराज में रख दूँगी और एक डायरी में सब लिखकर उसे वहीं पास में रख दूंगी।

अरे मम्मी मेरे ईरफ़ोन देखे हैं आपने?

और मेरा चश्मा कहाँ रख दिया ?

अरे देखो न वहीं आँख खोल के। जहाँ होता है वहीं है ।

नहीं मिल रहे हैं न। ज़रा देख दो।

उफ़...किसी को अपनी कोई चीज अपने आप मिलती है इस घर में?

ये हैं तो... एकदम सामने पड़े हैं। ज़रा तो नजरें घुमा लिया करो। इतनी बड़ी बड़ी आँखें दी हैं भगवान ने।

सामने पड़ी चीज तो दिखती नहीं इन्हें। मेज की दराज में जरूर मिल जाएगी डायरी और पैसे हुंह !

अरे इतने झंझट से तो बेहतर है कि कह दूँ कि इंडिया ले जाना। वहाँ मेरे अपने तो होंगे । कुछ कर करा के छुट्टी होगी। ज़रा यहाँ से बॉडी ले जाने का खर्चा ही तो होगा। रख जाऊँगी इतने पैसे तो निकाल कर कहीं। उसके बाद का काम तो वहाँ नाते रिश्तेदार कर लेंगे। इसी बहाने बच्चे इंडिया हो आयेंगे। अपनी मिट्टी में ही मिल जाऊँगी तो क्या पता सुकून आ जाये मरने के बाद कुछ। अरे पर गर्मी में मरी तो मुश्किल हो जाएगी बड़ी। बच्चों को बड़ी परेशानी होगी। बेटे से तो बर्दाश्त ही नहीं होती ज़रा भी गर्मी और बेटी को तो सूरज से ही एलर्जी है। फिर वहाँ भी पता नहीं कैसा इंतजाम होगा। कहाँ करेंगे। अब वहाँ भी कौन ऐसा अपना धरा है जो ढंग से निबटा ले। फिर वो मिलने जुलने वाले। ऐसा रोना – धोना और हंगामा मचाते हैं वहाँ लोग जैसे उनकी ही दुनिया उजड़ गई हो। बेचारे बच्चे तो डर ही जायेंगे। वो तो यहाँ रहते हैं तो मैं बच जाती हूँ इस तरह की नौटंकी देखने, भुगतने से। वरना एक बार इत्तफाक से वहां थी तो जाना पड़ा था किसी के घर ऐसे मौके पर। देखकर दिमाग खराब हो गया था। सारी औरतें एक जगह मजमा सा लगा के बैठी थीं। जैसे ही कोई नया मिलने वाला आता उनका सप्तम स्वर में रुदन शुरू हो जाता। हर बार एक सा समवेत सुर। दो मिनट तक चलता फिर आँख, नाक पल्लू से पोंछकर दुनिया भर की पंचायत शुरू। फिर पाँच मिनट बाद ही सबको चाय, नाश्ता याद आने लगेगा। कोई कहेगा अरे फ्रिज का पानी नहीं है क्या? तो ज़रा बर्फ ही डाल दो, उबल सा रहा पानी। किसी को चीनी वाली चाय चाहिए होगी, किसी को बिना चीनी की, फिर वो हिन्दुस्तानी अंग्रेज फूफाजी आयेंगे तो उनकी पत्नी श्री कहेंगी अरे इनके लिए तो कोई ब्लैक या ग्रीन टी बना दो, दूध वाली से गैस बनती है इन्हें। किसी को खाने को पूरी चाहिए होगी कि कच्चा नहीं बनेगा, तो किसी को रोटी चाहिए होगी कि पूरी नहीं पचेगी। हे भगवान ! कैसे संभालेंगे बच्चे सब। फिर वहाँ के रिवाज। दकियानूसी बातें। बेटी तो हत्थे से उखड़ जायेगी। उसे तो वैसे ही फैमिन्ज्म का कीड़ा है। आखिर बेटी किसकी है। मुझे भी तो कितने बुरे लगते हैं ये सारे रिवाज। बिना मतलब के। औरत मरी तो कफ़न तक मायके से आएगा। बेचारे मायके वाले न हों तो किसी भी दूर दराज के मायके वाले को ढूँढ़ लेंगे। बेशक जीते जी, मरने वाली ने उसका नाम भी न सुना हो। न जाने और भी क्या क्या। तीसरे दिन ये होगा, पाँचवें दिन ये खबेगा, तेरहवीं पे इतने ब्राह्मण आयेंगे। और वहाँ के पंडित, उनका तो बस पूछो ही मत। इतने कानून निकालेंगे हर बात पर कि बेचारा कानून शरमा जाये। ये बेटियों के करने के काम है, यह बस बहुएं करेंगी जी... फलाना काम लड़कियां नहीं कर सकतीं, इस कर्म के लिए बेटा लाओ। बेटा न हो तो कोई ‘बेटा सा’ ले आओ। देवर, भतीजा, यहाँ तक कि पड़ोसी का लड़का भी चलेगा पर नहीं, बेटियां नहीं कर सकतीं।

मेरा बस चले तो ये सारे कर्मकांड ख़त्म करा दूं। बेचारे घरवाले किसी अपने के मरने से इतने दुखी और परेशान न हों जितना ये रिवाज और इन्हें समझाने, मनवाने वाले उन्हें कर दें।

अरे न न ... रहने दो इंडिया। नहीं जाना मुझे। बेचारे सब पहले ही इतने दुखी होंगे। बच्चे तो बहुत रोयेंगे सच्ची। उसपर वहाँ के इतने झंझट। नहीं नहीं। मुझे नहीं करना परेशान उनको बिना बात। बेचारे सब करेंगे भी और सुनेंगे भी। बेकार में फ़ज़ीयत और हो जाएगी।

ये लो! चाय भी ख़त्म हो गई। इंडिया का प्लान कैंसिल। अब चल कर तैयार हो जाऊँ। ऑफिस तो जाना ही पड़ेगा न। मरने के बाद का बाद में सोचा जायेगा। अभी थोड़े न मर रही हूँ। वैसे भी पति कहते रहते हैं दस बीस को मार के ही मरोगी। मजाक ही सही। मन तो बिलकुल नहीं कर रहा आज कहीं भी जाने का, ये मुई मौत दिमाग में जाकर अड़ गई है। एक भी साँस का भरोसा नहीं है। अभी है, दूसरे ही पल सब ख़त्म। आज तो बस मन कर रहा है अकेले उस खिड़की के सहारे लगी कुर्सी पे बैठकर जो पल उपलब्ध हैं उन्हें जी लूं। ऑफिस फ़ोन कर के कह देती हूँ कि तबीयत ठीक नहीं है। फ्लू का मौसम है मान लेंगे सब। वैसे भी नीति के लिए उसकी तीन शिफ्ट कर चुकी हूँ। एक तो वह भी कर सकती है मेरे लिए। संभाल लेगी।

ठीक है। फटाफट कार से स्टोर जाकर कुछ चीजें ले आती हूँ फिर आराम सी बैठूँगी पूरा दिन। कभी किसी के साथ डेट पे तो गई नहीं। आज अपने साथ ही डेट करती हूँ।

खुद के साथ समय बिताती हूँ कुछ।

यह काम भी क्यों छूटे। डेट पे जाना- कितना बकवास सा कांसेप्ट है। कोई मतलब भी है इसका? अरे ऐसे ही मिलने, खाने, फिल्म देखने, बतियाने चले जाओ किसी के भी साथ। ये डेट का क्या मतलब हुआ आज तक नहीं समझ में आया मुझे। वैसे भी ये इश्क, रोमांस कभी पचा ही नहीं मुझे। पर करती है दुनिया। आजकल तो फैशन और बढ़ गया है। अब तो हर चीज की डेट। मूवी डेट, डिनर डेट, अलाना डेट, फलाना डेट। ठीक है ! एक ‘सेल्फ डेट’ भी कर के देख लेते हैं। एक काम यह भी ख़त्म हो।

कार का रेडियो – बेबी डॉल मैं सोने दी ...

चैनल चेंज – यो यो हनी सिंह...

उफ़ इन हिन्दी रेडियो वालों को भी चलाने को कुछ ढंग का नहीं मिलता

अब सुनिए समाचार और मौसम की जानकारी

चलो यही ठीक है।

विज्ञापन – बिना अंग प्रत्यारोपण के मरने वालों में दक्षिणी एशिया मूल के मरीजों की संख्या सर्वाधिक है। क्योंकि वे अपने अंग दान नहीं करते। कृपया मृत्युपरांत अपने अंग और शरीर दान कीजिए और किसी की जिन्दगी बचाइए। आज आप किसी को देंगे तो कल कोई आपके किसी अपने को देगा। अंग या शरीर दान करने के लिए अधिक जानकारी के लिए कृपया इस नंबर पर कॉल करें या इस साइट पर लॉगइन करें।

आह ... मिल गया हल। बस... अब चैन से मरूंगी। झंझट ख़त्म...


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धरती की उत्पत्ति | लोक कथा - रोहित कुमार ‘हैप्पी'

धरती की उत्पत्ति

सामोअन लोगों का मानना है की पहले केवल आकाश और पानी ने पृथ्वी को ढका हुआ था। एक बार तांगालोआ (सामोअन देवता) ने आकाश से नीचे की ओर देखा। उन्होंने अपने खड़े होने के लिए एक जगह बनाने का विचार किया। उन्होंने एक चट्टान का निर्माण किया ताकि वे उस पर आराम कर सकें। इसके बन जाने पर वे बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने सोचा इस इससे अतिरिक्त भी कुछ और जगह का निर्माण किया जाए, जहाँ वे विश्राम कर सकें। उन्होंने इस चट्टान को दो भागों में विभक्त कर दिया। यही दो चटाने सामोआ की सवाई और उपोलु बनी इसी से आगे टोंगा फीजी और अन्य द्वीप बने।

जब तांगालोआ ने अपना काम समाप्त कर लिया तो वे सामोआ लौट गए। उन्होंने सवाई द्वीप और मानुआ द्वीप के बीच की दूरी नापी तो उन्हें लगा की यह दूरी बहुत अधिक है। इसी कारण उन्होंने इन दोनों के बीच में एक और चट्टान बना दी, जो द्वीप के मुखियाओं के काम के लिए रखी गई।

तांगालोआ ने चट्टानों पर फैलने के लिए एक पवित्र बेल उगा दी । इस लता के पत्ते गिरने और उनके गलने से कुछ केचुओं की उत्पत्ति हुई। तांगालोआ ने देखा कि धरती पर ऐसे कृमि उत्पन्न हुए हैं जिनके न तो सिर थे, न ही पैर और न ही उनमें जीवन का कोई आभास था। देवता ने नीचे आकर इनके सिर, पैर और हाथ लगाए। इन्हें एक धड़कता हुआ दिल उपलब्ध करवाया। इस प्रकार ये केंचुए मनुष्य बन गए। तांगालोआ देवता ने एक-एक नर और नारी को प्रत्येक द्वीप पर भेजा। उसने ‘सा’ नामक नर (आदमी) और ‘वाई’ नामक ‘नारी’ (औरत) को एक द्वीप में भेजा। इसी से इस द्वीप का नाम ‘सवाई’ हुआ। ‘उ’ और ‘पोलू’ को दूसरे स्थान पर रखा गया और इसे उपोलू के नाम से जाना जाने लगा। दंपति टूटू और इला, टुटुइला के पहले निवासी थे। ‘टो’ और ‘गा’ जिस जगह पर भेजे गए वह स्थान टोगा यानी टोंगा कहलाया। एक अन्य दंपत्ति ‘फी’ और ‘ती’ को जहां बसाया गया, वह जगह ‘फीती’ यानी ‘फीजी’ कहलाई।

इसके बाद तांगालोआ ने विभिन्न लोगों को भिन्न-भिन्न द्वीपों पर शासन करने के लिए नियुक्त किया।

[सामोआ की लोक-कथा]

-रोहित कुमार 'हैप्पी'
 न्यूज़ीलैंड


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एक गज़ दूध - भारत-दर्शन संकल

एक दिन शेख़चिल्ली ने अपनी अम्मी से कहा, ‘अम्मी! तुम या अब्बू मुझसे कोई काम नहीं करवाते। सभी बच्चों के अम्मी-अब्बू उनसे कोई-न-कोई काम करवाते हैं। क्या मैं इतना नकारा हूँ कि आप मुझे किसी काम के क़ाबिल नहीं समझते?’

शेख़चिल्ली की बात सुन शेख़चिल्ली की माँ चौंक पड़ीं। अरे! यह बच्चा, अभी से क्या काम करेगा? उन्होंने शेख़चिल्ली को प्यार से सहलाते हुए कहा, ‘ठीक है, मेरे राजा बेटे! अब मैं तुमसे भी कोई-न-कोई काम कराती रहूंगी।’

माँ का दुलार पाकर शेख़चिल्ली ख़ुश हो गया और मदरसे से मिला सबक़ पूरा करने में लग गया।

दूसरे दिन सुबह जब वह मदरसा जाने के लिए निकला तो देखा, अम्मी दरवाजे़ पर फेरीवाले से कपड़े ख़रीद रही थीं। उसे पास से गुज़रता देखकर अम्मी ने उसे आवाज़ दी, ‘जरा इधर तो आना शेख़ू!’ शेख़चिल्ली का भी मन था कि वह फेरीवाले के पास जाकर नए-नए कपड़े देखे। अम्मी की पुकार सुनकर वह ख़ुश हो गया और दौड़कर अम्मी के पास पहुंच गया। अम्मी ने उससे कहा, ‘बेटे, देख तो इनमें से कौन-सा कपड़ा तुम्हें अच्छा लग रहा है?’

शेख़चिल्ली ने एक बार रशीदा बेगम की तरफ़ ख़ुश होकर देखा और फिर उसकी निगाहें फेरीवाले के कपड़ों पर दौड़ने लगीं और अंतत: उसने लाल-लाल छापोंवाले कपड़े के थान पर अपनी अंगुली रख दी, ‘अम्मी, यह!’ शेख़चिल्ली की माँ को भी लाल बूटों वाला वह कपड़ा पसंद आ गया और उसने फेरीवाले से कहा, ‘भैया, इसमें से एक गज़ निकाल दो।’

फेरीवाले ने अपने पास से एक फीता निकाला और कपड़े के किनारे पर उसे फैलाकर माप लिया और कैंची से कपड़ा काटकर उन्हें थमा दिया।

शेख़चिल्ली के लिए माप का यह शब्द ‘गज़’ नया था और बांहें फैलाकर कपड़ा मापने का तरीक़ा भी उसके लिए नया और दिलचस्प था। ‘गज़’ और हाथ फैलाकर माप लेना--ये दो बातें शेख़चिल्ली के दिमाग़ में बैठ गईं। शाम को शेख़चिल्ली मदरसे से वापस आया। बस्ता रखकर हाथ-मुंह धोया। तभी उसकी माँ ने उसे दुअन्नी थमाते हुए कहा, ‘बेटा, दौड़कर जाओ और पास वाले हलवाई से दो आने का दूध लेकर आओ!’

शेख़चिल्ली ने मुट्‌ठी में दुअन्नी दबाई और दूध लेने के लिए एक बर्तन चौके से लेकर दौड़कर हलवाई की दुकान पर पहुंच गया। गांव के कई लोग उस हलवाई के पास खड़े थे। हलवाई अपने दोनों हाथ में एक-एक मग पकड़े था और एक हाथ ऊपर करते हुए उससे गरम दूध की धार गिराता और दूसरे हाथ को नीचे कर उस दूध की धार को मग में भर लेता। फिर भरे मगवाला हाथ ऊपर करता और ख़ाली मगवाला हाथ नीचे। यह क्रिया वह बार-बार यंत्रवत् दोहराता जा रहा था।

शेख़चिल्ली के लिए यह दृश्य भी नया था। दूध ठंडा करने का यह तरीक़ा उसके लिए नया था। वह समझने की कोशिश कर रहा था कि आख़िर यह हलवाई क्या कर रहा है! फिर उसे सुबह की घटना याद हो आई। कपड़ावाला भी तो इसी तरह कपड़े की लम्बाई माप रहा था। उसने सोचा--यह दूधवाला ज़रूर दूध की लम्बाई माप रहा है। ऐसा सोचकर वह गर्वित हुआ कि सही वक़्त पर उसके दिमाग़ ने साथ दिया और वह यह समझने के क़ाबिल हुआ कि दूधवाला क्या कर रहा है।

शेख़चिल्ली को अपने पास देर से टकटकी लगाए खड़ा देखकर हलवाई ने पहले सोचा कि यह किसी ग्राहक के साथ आया होगा, लेकिन जब पहले से खड़े ग्राहक दूध लेकर लौट गए, तब भी शेख़चिल्ली को वहीं खड़ा देख हलवाई ने पूछा, ‘ऐ लड़के! तुम्हें क्या चाहिए?’

शेख़चिल्ली की तंद्रा टूटी और उसने कहा, ‘दूध!’

‘कितना दूध चाहिए?’ हलवाई ने शेख़चिल्ली से पूछा।

अम्मी ने तो बताया नहीं था कि कितना दूध लेना है? फिर भी अक़्ल पर ज़ोर डालते हुए उसने कहा, ‘एक गज़ दूध दे दो!’

हलवाई और उसकी दुकान पर खड़े लोगों ने जब शेख़चिल्ली की बात सुनी तो ठहाका मारकर हँस पड़े। शेख़चिल्ली समझ नहीं पा रहा था कि लोग हँस क्यों रहे हैं।

हलवाई समझ गया था कि शेख़चिल्ली दूध की माप नहीं जानता, इसलिए उसने शेख़चिल्ली से पूछा, ‘क्यों बेटे, पैसे लाए हो?’

‘हाँ!’ शेख़चिल्ली ने कहा और दुअन्नी हलवाई को थमा दी।

हलवाई ने उसके कटोरे में दो आने का दूध डाल दिया।

जब शेख़चिल्ली दूध लेकर घर की ओर चलने लगा, तभी एक ग्राहक ने दुकानदार से ज़ोर से कहा, ‘देना भैया, मुझे भी एक गज़ दूध!’ और फिर वे ठहाके लगाकर हँसने लगे।

[भारत-दर्शन संकलन]


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टिटिहरी और समुद्र  - पंडित विष्णु शर्मा

समुद्र के तट पर एक स्थान पर एक टिटिहरी का जोड़ा रहता था। टिटिहरी कुछ दिनों में अंडे देने वाली थी। उसने अपने पति से कहा, "अब समय निकट आ रहा है, इसलिए आप किसी सुरक्षित स्थान की खोज कीजिए जहां मैं शान्तिपूर्वक अपने बच्चों को जन्म दे सकूं।" 

उसकी बात सुनकर टिटिहरा बोला, "प्रिये! समुद्र का यह भाग अत्यन्त रमणीय है। हमारे लिए यह स्थान अत्यंत उपयुक्त है।" 

"यहाँ पूर्णिमा के दिन समुद्र में ज्वार आता है। उसमें तो बड़े-बड़े हाथी तक बह जाते हैं।  हमें यहाँ  से दूर किसी अन्य स्थान पर जाना चाहिए।" टिटिहरी ने चीता जतायी।

"वाह! तुम भी क्या बात करती हो ! समुद्र की क्या शक्ति कि वह हमारे बच्चों को बहाकर ले जाए। तुम निश्चिन्त रहो।"

समुद्र भी उनका संवाद सुन रहा था। वह सोचने लगा कि इस तुच्छ-से पक्षी को भी कितना गर्व हो गया है। आकाश के गिरने के भय से यह अपने दोनों पैरों को ऊपर उठाकर पड़ा रहता है और सोचता है कि वह गिरते हुए आकाश को अपने पैरों पर रोक लेगा। कौतूहल के लिए इसकी शक्ति को भी देखना ही चाहिए। इसके अण्डे अपहरण करने पर यह क्या करता है, यह देखना चाहिए। बस अण्डे देने के बाद एक दिन जब टिट्टिभ दम्पति भोजन की खोज में निकले तो समुद्र ने लहरों के बहाने उनके अण्डों का अपहरण कर लिया। 

लौटने पर जब टिटिहरी ने अण्डों को अपने स्थान पर नहीं पाया तो वह विलाप करती हुई अपने पति से कहने लगी, "मैंने पहले ही कहा था कि इस समुद्र की तरंगों से मेरे अण्डों का विनाश हो जाएगा, किन्तु अपनी मूर्खता और गर्व के कारण तुमने मेरी बात को सुना नहीं। किसी ने ठीक ही कहा है कि हितचिंतों और मित्रों की बात को जो नहीं मानता वह अपनी मूर्खता के कारण उसी प्रकार विनष्ट हो जाता है।" 

सीख : हितचिंतों और मित्रों की बात सदैव ध्यान से सुननी चाहिए। 


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आँख से सपने चुराने आ गए | ग़ज़ल - रोहित कुमार 'हैप्पी'

आँख से सपने चुराने आ गए
वो हमें अपना बनाने आ गए

कम परेशां थी क्या मेरी ज़िंदगी
उसपे हमको तुम सताने आ गए

मैं तो कुंदन हूँ उन्हें मालूम क्या
आग में मुझको तपाने आ गए

उनका कद हमसे कहीं मिलता नहीं
आईना हमको दिखाने आ गए

जो 'ग़ज़ल' रोहित कही थी आपने
अपनी कह हमको सुनाने आ गए

- रोहित कुमार 'हैप्पी'


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पिंकी - बाबू लाल सैनी

एक विरोधी पक्ष के नेता गाँव में पधारे,
और,......

 
 
क्या कहें ज़िंदगी का फ़साना मियाँ | ग़ज़ल - डॉ. शम्भुनाथ तिवारी

क्या कहें ज़िंदगी का फ़साना मियाँ
कब हुआ है किसी का ज़माना मियाँ

रोज़ है इम्तिहाँ आदमी के लिए......

 
 
लोभी दरजी | बाल-कहानी - गिजुभाई

 

एक था दरजी, एक थी दरजिन। दोनों लोभी थे। उनके घर कोई मेहमान आता, तो उन्हें लगता कि कोई आफत आ गई। एक बार उनके घर दो मेहमान आए। दरजी के मन में फिक्र हो गई। उसने सोचा कि ऐसी कोई तरकीब चाहिए कि ये मेहमान यहाँ से चले जाएं।

दरजी ने घर के अन्दर जाकर दरजिन से कहा, "सुनो, जब मैं तुमको गालियां दूं, तो जवाब में तुम भी मुझे गालियां देना। और जब मैं अपना गज लेकर तुम्हें मारने दौडू़ तो तुम आटे वाली मटकी लेकर घर के बाहर निकल जाना। मैं तुम्हारे पीछे-पीछे दौड़ूंगा। मेहमान समझ जायेंगे कि इस घर में झगड़ा है, और वे वापस चले जाएंगे।"

दरजिन बोली, "अच्छी बात है।"

कुछ देर के बाद दरजी दुकान में बैठा-बैठा दरजिन को गालियां देने लगा। जवाब में दरजिन ने भी गालियां दीं। दरजी गज लेकर दौड़ा। दरजिन ने आटे वाली मटकी उठाई और भाग खड़ी हुई।

मेहमान सोचने लगे, "लगता है यह दरजी लोभी है। यह हमको खिलाना नहीं चाहता, इसलिए यह सारा नाटक कर रहा है। लेकिन हम इसे छोड़ेंगे नहीं। चलो, हम पहली मंजिल पर चलें और वहां जाकर-सो जाएं। मेहमान ऊपर जाकर सो गए। यह मानकर कि मेहमान चले गए होंगे, कुछ देर के बाद दरजी और दरजिन दोनों घर लौटे। मेहमानों को घर में न देखकर दरजी बहुत खुश हुआ और बोला, "अच्छा हुआ बला टली।"

फिर दरजी और दरजिन दोनों एक-दूसरे की तारीफ़ करने लगे।

दरजी बोला, "मैं कितना होशियार हूं कि गज लेकर दौड़ा!"

दरजिन बोली, "मैं कितनी फुरतीली हूं कि मटकी लेकर भागी।"

मेहमानों ने बात सुनी, तो वे ऊपर से ही बोले, "और हम कितने चतुर हैं कि ऊपर आराम से सोए हैं।"

सुनकर दरजी-दरजिन दोनों खिसिया गए। उन्होंने मेहमानों को नीचे बुला लिया और अच्छी तरह खिला-पिलाकर बिदा किया।

- गिजुभाई

[साभार - चंदाभाई की चांदनी
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चन्द्रमा की चाँदनी से भी नरम | गीत - रमाकांत अवस्थी

चन्द्रमा की चाँदनी से भी नरम
और रवि के भाल से ज्यादा गरम......

 
 
तुझसंग रंग लगाऊँ कैसे -  प्रशांत कुमार पार्थ

चढी है प्रीत की ऐसी लत
छूटत नाहीं......

 
 
मुक्ता - सोहनलाल द्विवेदी

ज़ंजीरों से चले बाँधने
आज़ादी की चाह।......

 
 
गए साल की - केदारनाथ अग्रवाल

गए साल की
ठिठकी ठिठकी ठिठुरन......

 
 
सच - अश्विन गुप्ता

माँ स्कूल में टीचर जी कहती है कि बच्चे जैसा देखते हैं, वे वैसा ही सीखते है। क्या यह सच है, माँ?" बेटे ने खाना खाते हुए माँ से प्रश्न किया।

"हाँ बेटा, ये सच है।"

बेटे को रूआँसा देख, माँ ने कारण पूछा तो बेटा फूट पड़ा, "माँ, तुम पापा को समझाना कि वो दादी पर चिल्लाए नहीं। उनकी इज्जत करें क्योंकि मैं तुमसे ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहता|"

बेटे को खाना खिलाते-खिलाते स्वयं भी खाना खाती माँ के गले में जैसे निवाला जा अटका।

- अश्विन गुप्ता
ashwingupta2012@yahoo.com

 

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कुछ दोहे - अमिताभ त्रिपाठी 'अमित'

ठगिनी माया खा गई, पुण्यों की सब खीर
तन जर्जर मन भुरभुरा, आये याद कबीर

आँसू तो चुक-चुक गये, लेकिन चुकी न पीर......

 
 
दो क्षणिकाएँ - डॉ पुष्पा भारद्वाज-वुड

कहा-सुनी

तुमने कहा, हमने सुना। 
हमने कहा, तुमने सुना। ......

 
 
कृष्णा की चूड़ियाँ  - कादंबरी मेहरा

कुसुम को नए साल से पहले-पहले कानपुर पहुंचना है। भाई की इकलौती बेटी शुभा की शादी तय हो गयी है। सर पर से माँ का साया वर्षों पहले उठ गया था। शादी की तैय्यारी शुभा कैसे कर पायेगी। नानी के घर से मामा और मामी आयेंगे पर वे पुराने विचारों के लोग ठहरे। कुसुम को कम से कम पंद्रह दिन पहले तो पहुंचना ही चाहिए। दिक्कत ये है कि दिसंबर में भारत की सीट मिलना बड़ा मुश्किल होता है। इमर्जेंसी में बुक करने के दुगुने दाम। कुसुम ने पड़ोसी को अपनी परेशानी बताई तो वह चहक पड़े।

‘‘देखो जी मैं इंतजाम करा दूंगा। हमारे निरंकारियों का भंडारा हो रहा है। भौत लोगों ने जाना है। प्लेन चार्टर करेंगे। विच्चे ई तुसी वी लग जाओ।”

कुसुम को जगह मिल गयी। दाम भी ज्यादा नहीं देने पड़े।

प्लेन कुछ अजीब सा था। था तो बोइंग मगर उसमें कोई क्लास नहीं थी। आगे से लेकर पीछे तक एक सार। कुसुम के सामने दो विशाल शीशे की खिड़कियाँ थीं। आइल के दूसरी तरफ बैठे जोड़े ने हेल्लो कहा और बताया कि यह नई एयरलाइन शुरू हो रही है, प्लेन रूस से सेकंड हैंड खरीदे गए हैं। अपना नाम उन्होंने नईम और राशिदा बतलाया। कुसुम ने अपने सारे देवता परिवार को याद किया और अपने गुनाहों की माफ़ी मन ही मन मांगी। आज बचे तो कल होगी। राजी ख़ुशी पहुंचा देना भगवन!

बैठने के दस मिनट बाद उसकी साथ वाली सीट पर एक मझोले क़द का व्यक्ति आ बैठा। प्लेन चलने में देर हो रही थी। वह शायद आखिरी यात्री था। उसके आते ही प्लेन घुरघुराने लगा। उसके हाथ में एक नहीं चार अदद हैंड बैगेज थे। सब उसने पांवों के सामने अड़ा लिया। कुसुम को पैर खिसकाने पड़े। उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखलाई। गंवार! कुसुम ने सोचा। इसके बाद इत्मीनान से अपना अनोरक उसने उतारा। अपने ब्रीफ़केस में से एक प्लास्टिक का खूब बड़ा बैग निकाला। उसे सहेजकर बैग में रखा। अनोरक के नीचे उसने जॉगिंग सूट पहन रखा था। उसे भी उतारा। उसी एहतियात से तहाया और बड़े बैग के हवाले किया। अब वह अपनी पतलून के मैचिंग सूट में खड़ा था। बाकायदा टाई भी लगाई थी। प्लेन के अंदर खासी गरमी थी। सामने कांच की खिड़कियों से सुबह ग्यारह बजे का सूरज आँखों को तकलीफ दे रहा था। उस आदमी ने अपना ग्रे जैकेट भी उतार दिया। उसे भी तहाया। प्लास्टिक के बैग में अब गुंजाइश नहीं थी। दो एक मिनट सोचता रहा फिर शनील के कम्बल के पैकेट की ज़िप खोलकर उसे करीने से अंदर बिछा दिया और ज़िप बंद की। फिर वह बैठ गया। अब वह पूरी बांह का स्वेटर पहने नज़र आया। दो मिनट बाद यह भी उसे ज्यादा समझ आया तो उसे उतारकर ब्रीफ़केस में ठूंस लिया। और बोला, ‘‘यह तो मेरा अपना है। किसी ने माँगा तो दे भी सकता हूँ।”

अनायास कुसुम ने सर हिला कर उसका समर्थन किया जैसे इतनी देर से वह कुसुम से ही कह सुन रहा हो। इतने में परिचारिका ने आकर उसे पेटी बाँधने और बैठने को कहा। उसी ने सारा सामान सामने दोनों खिड़कियों के बीच बनी एक चोर अलमारी में सहेज दिया। कुसुम ने मन ही मन भगवान का शुकर किया, क्योंकि पाँव रखने कि तो जगह ही नहीं बची थी। ऊपर कोई शेल्फ नहीं बना था। अगर यह नॉर्मल प्लेन होता तो यहाँ पायलट की केबिन होती।

वह अब इतना मोटा नहीं लग रहा था। उसने जूते उतार दिए और सीट बेल्ट टटोलने लगा। कुसुम ने उसकी मदद की तो झेंपा झेंपा मुस्कुराया और पंजाबी मिश्रित हिंदी में बोला, ‘‘सॉरी मैडम। जरा सामान ज्यादा हो गया। की करां मेरा टब्बर भौत है। सब दी फरमाइश। नाले मैं वीस साल बाद पिंड (गाँव) जा रा हाँ।”

भारतवासी जहां तहां अपनी राम कहानी सुनाने लगते हैं। कुसुम ने औपचारिक हाँ हूँ करके अपनी दृष्टि हवाई कंपनी की पत्रिका में गड़ा ली। हवाई जहाज अब बादलों की सरहदें पार कर नीले आकाश में था। वह स्वयं ही कहने लगा, ‘‘मैं तो जी पंडित हाँ। तुसी मैनु टीचर जी लगते हो।”

कुसुम को उसकी सरलता पर हंसी आ गयी, ‘‘नहीं जी, मेरा पोस्ट ऑफिस है।”

‘‘फिर वी, हो तो पढ़े लिखे। मैं तो दसवीं वी नईं कर पाया। की करदा। गाँव में मुंडा हाथ पैर निकाल ले तो उसे खेत पर भेज देते हैं जी। मेरे से बड़ी तिन्न भैना ब्याहन वालियां थीं। पढ़ाता कौन मैनु। वैसे हम रज्जे पुज्जे लोग थे। जमीन, संतरे का बाग तेल की घिरनी, गाय भैंसां। ओ जी बड़ा कुछ।”

कुसुम चुपचाप सुनती रही। परिचारिका जूस ले आई। नईम और राशिदा कुसुम से हिंदी में बातें करने लगे। पंडित जी को लगा कुसुम उनको टाल रही है। वे बीच बीच में प्रश्न पूछते रहे। कुसुम ने बताया कि उसे शादी में जाना है, शुभा विवाह के बाद ऑस्ट्रेलिया चली जायेगी जहां उसे नौकरी मिल गयी है। उसका पति तो पहले ही वहाँ काम कर रहा है।

पंडित जी ने यह सुनकर लम्बी सांस ली। “बस जी कुछ ना पुच्छो। बेटियां जनमती कहाँ हैं और जा पड़ती कहाँ हैं। मेरी भैना वी परदेस व्या गईं। जी मेरी माँ ने पैली वार तो रो रोकर आस्मां सर ते चुक लिता मगर मेरे बाऊ ने समझाया कि भई हमें कोई लंबा चौड़ा दान दहेज़ नईं देना पड़ा। मेरी भैन जब अगली वरी आई तो दूजी नु वी अपने देवर नाल ब्या के ले गयी। कुड़ी मेहनतन होवे और जवाब सवाल न करे तो सारे उसे लाइक करते हैं जी। बस दो साल बाद तीजी का वि नंबर लग गया। कोई पार्टी बर्मिगाओ से आई। जी उसे व्या के लै गए। भौत पैसेवाले। सोनी बड़ी सी। रै गया मैं।”

कुसुम को एक मिनट लगा समझने में कि वह बर्मिंघम में रहती है।

“आपकी बड़ी दोनों बहनें कहाँ पर हैं?”

‘‘ओ जी कुलवंत्री (कोवेंट्री) ते मैं लंदन। मैं जी एक ही भाई था। भैना भौत कुछ मेरे वास्ते भेजती थीं राखी हो या टिक्का। जो वी आंदा जांदा मिलता मेरे वास्ते गिफ्टां ही गिफ्टां। पर मैं तो गरीब गाओंवाला, मेरा व्या होया तो सब घर आये। तीनो के पांच बच्चे। मामा फक्कड़। क्या देता। गाँव में उनके लायक मिलता वी क्या जी। चंगी तरह खिला पिला के गन्ने चुपा के लाडले बालां (बालकों) नु विदा किया। नाल ले जाने वास्ते लड्डू मट्ठियां और अम्ब दा अचार बस।”

पंडित जी की बातों में एक मलाल था, एक बेचारगी। कुसुम ने तसल्ली देते हुए कहा, “यह तो सबसे अच्छा तोहफा है। घर की ताज़ी चीज़ें यहाँ लंदन में खाने को कहाँ मिलती हैं।”

‘‘हाँ जी वो तो ठीक है मगर था तो गरीब का घर। मेरी अपनी फैमिली बढ़ने लगी सुखनाल। तीन बेटे आ गए। कृष्णा का बड़ा मान हो गया। मेरी माँ के तीन कुड़ियां। कृष्णा के पुत्तर ही पुत्तर। वो भी चहकने लगी जी। कैती थी देख तेरी भैना कित्ता सोना पा के आती हैं। बच्चे कितने तमीज वाले बनाये हैं। स्कूल जाते हैं। यहाँ क्या बनेंगे। गोबर चुकेंगे। पैले तो मैं बड़ा शरमाया मगर गाँव कि बात आप जानो। बाऊ को हैजा हो गया। वो चलता बना। शाहूकार का उधार मेरे लिए छोड़ गया। हमारा संतरों का बाग़ निकल गया। दो भैंसे बूढी हो गईं थीं। चारा ज्यादा दूध कम। उनको भी निकाला आमदनी कम। मेरी माँ ने बेटियों से ज्यादा अपनी भैसों को याद करके रोना। ऊपर से कृष्णा को एक बेटी चाहिए थी। गुजारा ही रै गया बस। मैंने वी कमर कस के कया कि कोई राखी टिक्का नहीं जब तक मुझे इंग्लैंड नहीं।”

कुसुम को अब उसकी कहानी में रस आने लगा था। नईम और राशिदा अपने घर की बातें कर रहे थे। कुसुम ने पूछा, ‘‘क्या आपके घर बेटी हुई फिर।”

‘‘ओ जी हो ही गयी। मेरे उप्पर तो एक और डिग्री आ बैठी। चार बच्चे, एक बूढी बीमार माँ। रोज का आया गया। कमाई बस खेत की। पैसे कहाँ थे। बड़ी दोनों तो चुप मार गईं। फिर छोटी, कुक्की अपनी नई बेबी को लेकर घर आई। उसे कृष्णा पर बड़ी दया आई। उसने मेरे को बुलाने का इंतजाम किया। स्पांसर का कागज़ भेजा। किशन महाराज की किरपा नाल मैं इधर आ गया। तब से इधर ही रहा। पैली वार घर जा रहा हूँ।”

कुसुम को इस इंसान से बड़ी सहानुभूति हुई। रवीन्द्रनाथ टैगोर के चरित्र काबुलीवाला की छवि अनायास उसके मन को मथने लगी। जहाज अब यूरोप के ऊपर उड़ रहा था। नीचे जर्मनी का सुप्रसिद्ध ब्लैक फोरेस्ट था। उसके अंचल में फैले खेत रंगोली के नमूने से लगते थे। मशीन से कटे छंटे चौकोर, पंचभुजी या अष्टभुजी आकृतियों में संवारे खेत जिनमें फसलें इस प्रकार रोपी गईं थीं कि उनके रंग अलग अलग बानगी प्रस्तुत कर रहे थे। कुसुम मंत्रमुग्ध उन्हें निहारती रही।

लंच में कुसुम ने शाकाहारी भोजन लिया मगर पंडितजी ने मुर्ग मंगवाया। खाना जब तक समाप्त हुआ सामने का दृश्य फिर बदल गया। जहाज अब स्विस आल्प्स पर से गुज़र रहा था। प्रकृति का अभूतपूर्व नज़ारा! नीला आसमान और उसको लगभग छूती हुई बर्फानी चोटियां। नीचे बर्फ से ढंके हुए असंख्य पर्वत एक दूसरे में उलझे अटके से! उन पर उड़ते बादलों के साये अजीब अजीब शक्लें फेंक रहे थे जिन्हें पढ़ती हुई कुसुम जाने किस स्वप्नलोक में विचरने लगी। कभी लगता वह सामने पड़ी बर्फ को हाथ बढ़ाकर उठा लेगी तो कभी लगता खाई में गिरने वाली है। कभी लगता कि जहाज सामने वाले पहाड़ से टकरा जायेगा तो डर से दिल धड़कने लगता मगर ज्यूँ ज्यूँ आगे बढ़ता पर्वत शृंग परे परे हट जाते।

सहसा पंडित जी ने उससे पूछा, ‘‘मैडम जी ये पहाड़, ये बदल, ये नदियां वगैरह क्योंकर बनाये होंगे बिधाता ने? कित्ते बड़े हाथ होंगे किशन महाराज के हम तो एक घर नहीं बना पाते अकेले। मुझे तो ये ई नईं पता कि हवा पानी किधर से आते हैं।”

कुसुम सरल शब्दों में उसकी अज्ञानता दूर करने लगी। नईम साहब व्यंग से बोले, ‘‘लीजिये आपने तो जुगराफिये की क्लास ही खोल ली। ओ पडत इंग्लैंड में एडल्ट्स की क्लास भी होती है। वापस आके नाम लिखा लेना।‘‘

कुसुम हँसकर चुप हो गयी। पंडितजी बोले, ‘‘क्या करूँ जी मुझे चंगी तरह अंग्रेजी भी नईं आती।”

कुसुम को अचरज हुआ, ‘‘अरे बीस सालों में आपने क्या किया?”

‘‘बस जी पुच्छो मत। पैले आया तो बड़ी भैन के घर टिका। जीजे ने कम्म दिला दिया। एक गोदाम था उसमें झाड़ू लगानी सामान उठाना। इक्क दिन गोरों ने आप ई चोरी कर मारी। मैं सुवेरे सबसे पैले पौंचता था जी। जाकर देख्या कि ताला टूट्या पड़ा है ते शटर अध्धा उप्पर। मैनु शक पड़ गया। कीचड़ वाले बूट दे निशान - अंदर वी बार वी। मैं डर गया। मुड़ घर वापिस आ गया। भैन ने पुच्छा तो मेरा बोल न निकला डर के मारे। जीजे ने देखा समझ गया कि खैर नईं। पुच्छा कि तू अंदर तो नईं गया। मैं कया, नईं जी। मैं तो दूर से देख के वापिस आ रया हूँ। भैन दा पुत्तर अंग्रेजी में बोला यू रन अवे मामा गो एनीवेयर बट नोट हियर।

मैं दूजी भैन के घर भाग के कुलवंतरी (कोवेंट्री) पौंचा। उधर कुछ दिन छुपा रया। फेर जी उसने मुझे अपनी जिठानी के घर लंदन भेज दिया। डरा तो मैं भौत मगर मेरा नाम नहीं लगा न कोई इन्क्वायरी हुई। करते तो आप मरते। क्योंकि मैं तो इल्लीगल कम्म कर रया था जी। रोज़ दा तीन पौंड ते सारा दिन। मैंने किशन महाराज दा शुकर किया। लंदन में बेगाने घर बैठ के रोटी तोड़ने का तो कोई मतलब नहीं था। पास ई बैच अप रोड पे बड़े अस्प्ताल के सामने मार्किट लगती थी। उधर अपने बन्दे भौत। मुझे बक्से उठाने का कम्म मिल गया।”

कुसुम पोस्ट ऑफिस की मालकिन ठहरी। बैच अप रोड नहीं समझी कहाँ होगा। फिर से पूछा कौन सा अस्पताल। पंडित जी ने बताया, “ओ जी सबसे पुराना। फिर उधर से पेटीकोट मार्किट आ जाती है।”

‘‘ओह हो हो! आपका मतलब है वाइट चैपल रोड?”

‘‘ओ जी मैंने अपनी आँखों देख्या। मैं होटल के पिच्छे कूड़ा कचरा फैंकने गया था। करीब दस बारा बैग होते थे रोज़। हमारे कूड़े के डराम तो मेरे से वी उच्चे। दो फेरे कर चुका तो पुलिस की गाड़ी का सायरन सुना। तीन चार गाड़ियां इक्को संग सामने वाले दरवाजे पे आके रुकीं। मैं जल्दी से बाहर हो गया। हाथ में चार बैग कूड़े के थे। मैं उनमें छुप गया। दीवाल से चिपक कर सांस रोके खड़ा रहा जी। कोई चार छै मुस्टंडे होटल में आन धमके और मेजाँ पलटने लगे। मैंने देखा असलम पिछली खिड़की से दूसरे के यार्ड में कूद गया और भागा। मैंने भी डर के मारे बैग पटके और कूड़े के डरामो की आड़ लेकर निकल गया। दोनों जेबों में हाथ डालकर मैं ऐसे चलने लगा जैसे कोई और ही राहगीर हो।

गली के मोड़ पर मैं लेफ्ट मुड़ा। असलम आगे गली के दुसरे छोर पर नज़र आया। फिर किसी घर से शायद अँधेरे में इक्क जनानी सर ते रुमाला बंध के निकली और हमारे विच्च आ गयी। मैनु असलम फेर नईं दिक्खा। जनानी रैट वाली गली में मुड़ गयी। मैं अगले मोड़ से लैफ्ट मुड़ा। कोई दस गज़ परे असलम गिरा पड़ा था। मैं रुका नहीं। मेरे पिच्छे कोई चिल्लाने लगा। हेल्प दी मैन, काल दी अम्बुलन्स। मैंने मुड़कर देखा एक बार मगर जल्दी जल्दी निकल भागा।

बात ये है जी, असलम था तो बड़ा अच्छा मगर धधे पुट्ठे (उलटे) पाल रखे थे। होटल में रात। को जो खाने पीने आते थे उनको ड्रगें सप्लाई करता था। अपने होटल की सारी रसद ढाका से मंगवाता था और खुद हीथ्रो जाकर छुड़ाता था। मेथी धनिये के संग भंग की गठियाँ छुपी होती थीं। गुड की भेली को अंदर से खोखला करके ब्राउन शुगर भरी होती थी। अकेला असलम नहीं था पूरा एक गंग था। उसमें कस्टम वाले भी शामिल थे। इक्क गोरी आती थी होटल में वो असलम को बड़ी जफ्फियां पाती थी। बस जी पुलिस को शक पै गया। मगर जी अंग्रेज होते बड़े गधे हैं। रेड मारनी थी तो सायरन क्यूँ बजाकर आये? दराजें खोलीं। रौला पाया तो चोर निकल भागा।‘‘

‘‘मगर उसे मारा किसने?” कुसुम ने जिज्ञासा से पूछा।

‘‘ओ जी की पता। खबर है उसी गैंग का कोई हो। मोहल्ले में ही रैता होगा। मेरे जान में वोई जनानी काम तमाम कर गयी। हो सकता है कि वो कोई मर्द हो। ठां की अवाज वी नईं होई जी। कैंदे ने पिस्तौल वी बिना अवाज की मिलती है इस मुल्क में। मैं तो कभी उधर मुड़ गया ई नईं। शुकर करो बच गया। दो चार मिनट वी रै जांदा तो पुलिस मुझे पकड़ लेती। जी मेरा पासपोट जो नईं था।‘‘

‘‘फिर?” कुसुम ने सर सहमति में हिलाया।

‘‘फिर जी मैडम मैं सिद्धा स्टेशन आया और मैंने पैली ट्रेन पकड़ी। वो पडिंगटन जा के रुकी। उधर से बस पकड़ के मैं साउथाल आ गया। दिल मेरा धड़ धड़ कर रया था। मगर उप्पर से मैं कूल बना रया। अंदर से किशन महाराज से सौ माफियां माँगी। सारे बुरे काम याद कर कर के भगवन नु गिनाये कि कोई पाप बच ना जाए माफ़ी से। डराइवर कोई अपना ई बन्दा था। मैंने कया मंदिर जाना है। रात के दस बज चुके थे। उसने लेड़ी मार्गरेट रोड वाले मंदिर उतार दिया। मेरी किस्मत से अंदर बत्ती जल रही थी। खड़काने पर दरवाजा खुल गया। असलम ने सिखाया था मर्द की जेब कभी खाली नहीं रखनी। मेरे पास भी दस पांच होते थे। एक भाई ने दरवाज़ा खोला। मैं रो पड़ा। बताया कि कालों ने मारा है। सवेरे चला जाऊंगा। उसने सीढ़ी के पास जगह दिखा दी। कम्बल वी डाल दिया।

सुवेरे चार बजे पंडत ने जगाया। मैंने पैर छू के मत्था टेका। उधर ई नहाया। बताया कि मैं वी पंडत हूँ जात का। नहा धो के मैंने मंदिर में सेवा की थोड़ी भौती। उस दिन भंडारा था किसी का। भंडारे में मेरी दोस्ती स्वामी जगतराम से हो गयी। वो मुझे अपने डेरे पे लै गया। जी वो दस जने इक्को ई कमरे में रैहते थे। रात को गद्दे बिछा लेते थे दिन को इक्क पासे कर देते थे। खाना पीना कभी गुरद्वारे ते कभी मंदिर। नईं तो रॉक्सी हटल में।

‘‘रॉक्सी तो हम भी जाते हैं। खाना अच्छा होता है।”

‘‘ओ जी गुरद्वारे वी बड़ी सेवा होती है। इक्क जनानी सिंधी है। सुवेरे चार बजे से रोटियां लगाती है मक्की की। नाल दाल। जिन मजदूरों ने पैहली शिफ्ट कम्म ते पौंचना होवे ओ सब उधर खाके और लंच दा डिब्बा नाल पैक करा के लै जाते हैं जी। सारा कुछ फ्री।”

‘‘हाँ मगर कमा के लाते हैं तो चढ़ाते भी तो हैं।”

‘‘जगतराम ने मुझे बताया कि वो सब उत्तरकाशी के बाबा तिरशूलवाले सच्चिदानंद के चेले थे। इधर हम काली का मंदर बनाएंगे। मुझे तो जी ते रात को सर छुपाने की जगैह चाहिए थी सो मैं उधर ई ठैर गया। उन सबने रोज़ काली माता की पूजा करनी फिर खा पी के काम पकड़ना। हम सुवेरे सात आठ बजे कैंग स्ट्रैट (किंग स्ट्रीट) लैन लगाते थे। इक्क अंग्रेज ने आना ते सब नू काम देना। बताना पड़ता था कि भई की करना आता है। मुझे पूछा तो जगतराम बोल पया एवरीथिंग गोव। मैनु सीमेंट मिक्सर ते लगा दिया। दूजा बन्दा वी उधर कोई अपना था। ओ समझ गया। नया आया है। उसने परात भर भर के मसाला मुझे पकड़ाया। फिर मिक्सर चलाना वी सिखा दिया। पंज साल मैंने मजूरी की। पैसा बनाया। बराबर घर भेजा। मुझे जी सब काम आ गए। दीवार बना लेता हूँ। पलंबी कर लेता हूँ। नलके वाल्के सब।”

‘‘बस जी किशन महाराज की मैहर है। चढ़ावा भौत आ जाता है। हमारे महंत जी मरे का नई लेते। इक्क बन्दा आया गुजराती। बोला माँ मरने वाली है। गौदान करना चाहती है। महंत जी ने कया जो शरधा हो दे दो। हम गऊ खरीद कर बामन के घर भेज देंगे। सो वो पैसे दे गया। महंत ने कहा तू घर भेज दे और गऊ खरीद ले। मेरी अस्सी साल कि माँ तो ख़ुशी से रो पड़ी जब उसे नवीं गऊ मिली। जब कोई मर जाता है महंत मुझे किरिया करम कराने भेज देता है। छोटी पूजा होती है। ओ जी इधर लोगों को मंतर शंटर नईं आते। बस अंट शंट मैं वी भेड़ लेता हूँ। खाने को भोजन दान दक्षिणा भौत। महंत ने ई सिखाया कि जो पैसा गल्ले में डाले वो मंदिर का। जो तुझे चढ़ाये वो बाँट लेंगे । मैं बड़ी गिफ्टां घर भेजियां। जी मेरे तीनो पुत्तर व्या गए। मैंने बिजलीवाला पम्प लगवाया। मेरा बड़ा बेटा भौत अकल्मन्द है। इस बार संतरों का पेड़ लगाऊंगा।”

‘‘अब तो आपकी बेटी भी ब्याहने लायक हो गयी होगी?‘‘

‘‘हाँ जी। पर वो तो कोई प्रॉब्लम नईं है। उसे इधर ई व्या देना है। मेरी भैनो ने कई मुंडे बताये हैं जी। उनके अपने फैमली वाले ई हैं जी।‘‘

पंडत के स्वर में गर्व भरा था। कुसुम से न रहा गया।” पंडितजी आपके पास पैसा भी हो गया तो भी आप घर नहीं गए?‘‘

‘‘ओ जी आपको तो पता ई है। आया तो मैं सिर्फ छै महीने के वास्ते। मुड़ कभी गया नहीं। मुल्क से बाहर जाता तो पकड़ा न जाता? पासपोट तो था नहीं। इधर वीसा नईं तो घरवाली को कैसे बुलाता? पैसे तो बराबर घर भेजे, “आपकी घरवाली इतने साल से अकेले चला रही है। आपको उसका ख्याल नहीं आया?‘‘ अब कुसुम उसे उपालम्भ सी दे रही थी। मर्द उसे बड़े स्वार्थी लगते थे। खुद खाते पीते मौज करते हैं और पत्नियां घर बैठी सारा काम करती हैं। अपनी कमाई भी पति देवताओं को पकड़ा देती हैं।

पंडित जी शर्मिन्दा होकर बोले, ‘‘कैसे बुलाता जी। उसका उधार जो बाक़ी था मुझ पर। जब तक उसका पूरा इंतजाम न कर लेता कैसे जाता। दुनिया भर के जरूरी कामो में पैसे खर्चे। पुत्तरों को अलग अलग कम्म करा के सैटल किया। व्या कराये। खुड्डी चैन वाली बनवाई घर में। घर पक्का बनवाया। चेला बनाने के ढ़ाई हजार पोंड वसूले तिरशूलवाले गुरु ने। सब चोर बाजारी के धंधे हैं जी। मैंने मजूरी करके हौले हौले चुकाए। मैं अनपढ़ था वो पक्के थे। तभी तो मैंने उन्हें छोड़ दिया। अब थोड़ा हाथ खुला तो रकम जोड़ पाया। कृष्णा का उधार चुकाए बिना उसे क्या मुंह दिखाता?”

‘‘पत्नी का कैसा उधार पंडित जी?” पंडितजी का सारा अभिमान जैसे रसातल में डूब गया था। बेहद झेंपे से आवाज़ को नीची करके बोले, ‘‘बात ही कुछ ऐसी थी मैडम जी। जब मैं लंदन आया था तब मेरे टिकट और वीसा के पैसे कृष्णा ने अपनी चूड़ियाँ बेचकर दिए थे। मैंने जी इतना नीच करम किया कि औरत की चूड़ियाँ बिकाईं। अब मैं आठ चूड़ियाँ बनवा के ले जा रहा हूँ। बल्कि मेरी एक जिजमान ने सुना तो सोने की बालियां भी बनवा दीं। समझो मैं सूद व्याज समेत लौटा पाऊंगा इतने सालों बाद। मर्द को अपनी इज़ज़त रखनी चाहिए!‘‘


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हाथियों के पंख - भारत-दर्शन संकलन

अरुणाचल प्रदेश में घने जंगल हैं। वर्षा भी खूब होती है। इन जंगलों में बड़े खूँखार हाथी पाए जाते हैं। बहुत पुराने जमाने की बात है। एक साल खूब वर्षा हुई। जंगल में साँप, बिच्छू व दूसरे जहरीले जीव पैदा हो गए। कँटीली झाड़ियों से जंगल पट गया। रास्ते बंद हो गए। ऐसी हालत में विशालकाय हाथियों को घूमने-फिरने में कठिनाई होने लगी। एक दिन सारे हाथी मिलकर ब्रह्माजी के पास गए। उन्होंने अपनी मुसीबत बताई और ब्रह्माजी से प्रार्थना की- "भगवन्, हम आपके बनाए जीव हैं। आप हमारी रक्षा करें। पक्षियों की तरह हमें पंख लगा दें, ताकि हम उड़कर इधर से उधर आ-जा सकें।"

ब्रह्माजी के दरबारियों ने यह सुना तो खिलखिलाकर हँस पड़े- "इतना भारी-भरकम शरीर और पक्षियों वाले पंख।” उन्होंने ब्रह्माजी से कहा - "प्रभु, हाथियों की बात मत मानिए। बड़ा अनर्थ हो जाएगा। अगर कोई हाथी उड़कर किसी छप्पर पर बैठ गया, तो न जाने कितनी जानें चली जाएँगी।"

हाथियों का बुरा हाल था। एक बूढ़ा हाथी उठा और तेजी से अपनी सूंड घूमाकर बोला- "महाराज, ये सब हमारी जान लेने पर तुले हैं। धरती के जहरीले जीवों ने हमारी नाक में दम कर रखा है। आप अगर हमें पंख नहीं देंगे, तो हमारी सारी की सारी नस्ल ही खत्म हो जाएगी।" और सारे हाथी भूख हड़ताल पर बैठ गए।

ब्रह्माजी का दिल पसीज गया। उन्होंने तुरंत आदेश दिया - "इस प्रदेश के सभी हाथियों के पंख लगा दिए जाएँ।" देखते-देखते हाथियों के पंख उग आए। अब क्या था ! हाथी आकाश में उड़ने लगे। जब जी में आता, किसी पेड़ के ऊपर जा बैठते। जब मन करता, किसी पहाड़ की चोटी पर जाकर लेट जाते।

एक बार किसी लकड़हारे ने एक हाथी को गाली दे दी। वह गुस्से में लाल-पीला हो गया। उड़कर लकड़हारे की झोंपड़ी पर जा बैठा । नीचे उसके बच्चे सो रहे थे। धम्म की आवाज़ हुई। बच्चों ने जोर से एक चीख मारी। बात की बात में झोंपड़ी टूट गई। हाथी नीचे आ गिरा। दो लड़कियों को छोड़कर सब बच्चे नीचे दब गए।

लड़कियाँ रोती-चिल्लाती जंगल की ओर भागीं। एक दिन नागा जनजाति के कुछ शिकारी उधर जा पहुँचे। लड़कियों ने उनको हाथियों की करतूत बताई। उन्होंने अपने भाले सँभाले। वे जैसे ही हाथियों पर भाले से वार करते, हाथी उड़कर पेड़ों पर जा बैठते। आकाश में उड़ जाते। बहुत देर तक लड़ाई होती रही। हाथी हार माननेवाले नहीं थे। उन्होंने नागाओं के गाँव के गाँव उजाड़ दिए।

नागा पुरुषों के साथ-साथ उनकी बहुत-सी स्त्रियाँ भी इस लड़ाई में मारी गईं। डरे हुए बच्चे घरों से बाहर निकल आए। हाथियों के डर से लोग झाड़ियों में छिपने लगे। काँटों से उनके शरीर लहूलुहान हो गए। दूर खड़ी दोनों लड़कियाँ यह सब देख रही थीं। उनकी आँखों में क्रोध के अंगारे फूट रहे थे। एक दूसरे से कहने लगी- "इस तरह हम नष्ट हो जाएँगे। हाथियों का ही राज्य हो जाएगा। हमें इनसे बदला लेना चाहिए।" देर तक वे दोनों सोचती रहीं। फिर उन्हें एक उपाय सूझ ही गया उन्होंने झाड़ियों में छिपे बच्चों को बुलाया। उन्हें दिलासा दिया। फिर गुलेलें तैयार कीं। हर बच्चे के हाथ में एक-एक गुलेल थी। बच्चों ने कुछ नुकीले पत्थर भी इकट्ठे कर लिए थे।

उन लड़कियों से बच्चों ने कहा- "हम लोग झाड़ियों के पीछे छिपकर हाथियों पर वार करें।” लड़कियाँ अपनी गुलेल ताने आगे चलीं। बच्चे पीछे-पीछे सामने से हाथियों का झुंड आता दिखाई दिया। बच्चों ने अपनी-अपनी गुलेल तानकर हाथियों पर सीधा वार किया। नुकीले पत्थरों की चोट की। उड़ते हुए हाथी भी गुलेल की मार से बच न सके। हाथी घायल होने लगे। बहुत-से हाथियों के पंख भी टूट-टूटकर गिर गए। ब्रह्माजी को युद्ध की खबर पहुँची। वह स्वयं धरती पर आए। बच्चों के साहस को सराहा और हाथियों को डाँटने लगे। दोनों लड़कियों ने ब्रह्माजी से कहा-"पितामह, हम सब आपकी संतान हैं। फिर यह अन्याय क्यों ? "

"कैसा अन्याय?" ब्रह्माजी ने अचकचाकर पूछा।

"आपने हाथी जैसे विशालकाय जानवर के पंख लगाकर अन्याय ही तो किया है। वे उड़-उड़कर हमारे घरों पर बैठ जाते हैं। उनके भार से घर गिर जाते हैं। पंख तो छोटे पक्षियों को ही शोभा देते हैं । आपने देखा होगा, पंख पाकर हाथियों ने क्या तूफान मचाया है। पहले हाथी जंगल में रहते थे। अब गाँव में आकर तबाही मचाने लगे। या तो आप हमारे भी पंख लगा दें या फिर हाथियों के पंख वापस ले लें।

ब्रह्माजी ने पीठ थपथपाकर लड़कियों के साहस की प्रशंसा की। उन्होंने तुरंत हाथियों के पंख गायब कर दिए। फिर कहा-"हाथियों ने जो किया है। उसका फल भी उन्हें भुगतना पड़ेगा। अब से हाथी जंगलों में रहेंगे। आबादी में रहना चाहेंगे, तो उन्हें मनुष्य का सेवक बनकर रहना पड़ेगा।" इतना कहकर ब्रह्माजी अंतर्धान हो गए।

पंख चले जाने से हाथी बहुत निराश हुए। दोनों बहनें अपनी जीत की खुशी में मुसकराने लगीं।

(अरुणाचल प्रदेश की लोककथा)


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कुसंग का फल | पंचतंत्र - विष्णु शर्मा

जूं और खटमल की कहानी

जूं और खटमल की कहानी

न ह्यविज्ञातशीलस्य प्रदातव्यः प्रतिश्रयः। 
अज्ञात या विरोधी प्रवृत्ति के व्यक्ति को आश्रय नहीं देना चाहिए। 

एक राजा के शयनगृह में शय्या पर बिछी सफेद चादरों के बीच एक मन्दविसर्पिणी सफेद जूँ रहती थी। एक दिन इधर-उधर घूमता हुआ एक खटमल वहाँ आ गया। उस खटमल का नाम था अग्निमुख। 

अग्निमुख को देखकर दुःखी जूँ ने कहा-हे अग्निमुख! तू यहाँ अनुचित स्थान पर आ गया है। इससे पूर्व कि कोई आकर तुझे देखे, यहाँ से भाग जा। 

खटमल बोला--भगवती! घर आए हुए दुष्ट व्यक्ति का भी इतना अनादर नहीं किया जाता, जितना तू मेरा कर रही है। उससे भी कुशलक्षेम पूछा जाता है। घर बनाकर बैठने वालों का यही धर्म है। मैंने आज तक अनेक प्रकार का कटु-तिक्त, कषाय-अम्ल रस का खून पिया है; केवल मीठा खून नहीं पिया। आज इस राजा के मीठे खून का स्वाद लेना चाहता हूँ। तू तो रोज़ ही मीठा खून पीती है। एक दिन मुझे भी उसका स्वाद लेने दे। 

जूँ बोली-अग्निमुख! मैं राजा के सो जाने के बाद उसका खून पीती हूं। तू बड़ा चंचल है, कहीं मुझसे पहले ही तूने खून पीना शुरू कर दिया तो दोनों ही मारे जाएँगे। हाँ, मेरे पीछे रक्तपान करने की प्रतिज्ञा करे तो एक रात भले ही ठहर जा। 

खटमल बोला-भगवती! मुझे स्वीकार है। मैं तब तक रक्त नहीं पीऊंगा, जब तक तू नहीं पी लेगी। वचन-भंग करूँ तो मुझे देव-गुरू का शाप लगे। 

इतने में राजा ने चादर ओढ़ ली। दीपक बुझा दिया। खटमल बड़ा चंचल था। उसकी जीभ से पानी निकल रहा था। मीठे खून के लालच से उसने जूँ के रक्तपान से पहले ही राजा को काट लिया। जिसका जो स्वभाव हो, वह उपदेशों से नहीं छूटता। अग्नि अपनी जलन और पानी अपनी शीतलता के स्वभाव को कहाँ छोड़ सकता है। मर्त्य जीव भी अपने स्वभाव के विरुद्ध नहीं जा सकते। 

अग्निमुख के पैने दाँतों ने राजा को तड़पाकर उठा दिया। पलंग से नीचे कूदकर राजा ने सन्तरी से कहा-देखो, इस शय्या में खटमल या जूँ अवश्य हैं। इन्हीं में से किसी ने मुझे काटा है-सन्तरियों ने दीपक जलाकर चादर की तहें देखनी शुरू कर दीं। इस बीच खटमल जल्दी से भागकर पलंग के पायों के जोड़ों में जा छिपा। मन्दविसर्पिणी जूँ चादर की तह में ही छिपी थी। सन्तरियों ने उसे देखकर पकड़ लिया और मसल डाला। 

सीख : कुसंग से दूर रहो। 


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कृष्ण उवाच - बाबू लाल सैनी

मुझे सब पता है, तुमने राज्य का क्या हाल किया है ?
धृतराष्ट्र को, बिल्कुल मनमोहन सिंह बना दिया है !......

 
 
लोग क्या से क्या न जाने हो गए | ग़ज़ल - डॉ. शम्भुनाथ तिवारी

लोग क्या से क्या न जाने हो गए
आजकल अपने बेगाने हो गए

बेसबब ही रहगुज़र में छोड़ना......

 
 
सड़क यहीं रहती है | शेखचिल्ली के कारनामें - भारत-दर्शन संकलन

एक दिन शेखचिल्ली कुछ लड़कों के साथ, अपने कस्बे के बाहर एक पुलिया पर बैठा था। तभी एक सज्जन शहर से आए और लड़कों से पूछने लगे, "क्यों भाई, शेख साहब के घर को कौन-सी सड़क गई है ?"

शेखचिल्ली के पिता को सब ‘शेख साहब' कहते थे । उस गाँव में वैसे तो बहुत से शेख थे, परंतु ‘शेख साहब' चिल्ली के अब्बाजान ही कहलाते थे । वह व्यक्ति उन्हीं के बारे में पूछ रहा था। वह शेख साहब के घर जाना चाहता था ।

परन्तु उसने पूछा था कि शेख साहब के घर कौन-सा रास्ता जाता है। शेखचिल्ली को मजाक सूझा । उसने कहा, "क्या आप यह पूछ रहे हैं कि शेख साहब के घर कौन-सा रास्ता जाता है ?"

"‘हाँ-हाँ, बिल्कुल !" उस व्यक्ति ने जवाब दिया ।

इससे पहले कि कोई लड़का बोले, शेखचिल्ली बोल पड़ा, "इन तीनों में से कोई भी रास्ता नहीं जाता ।"

"‘तो कौन-सा रास्ता जाता है ?"

"‘कोई नहीं ।'"

"क्या कहते हो बेटे?' शेख साहब का यही गाँव है न ? वह इसी गाँव में रहते हैं न ?"

"हाँ, रहते तो इसी गाँव में हैं ।"

"‘मैं यही तो पूछ रहा हूँ कि कौन-सा रास्ता उनके घर तक जाएगा "

"साहब, घर तक तो आप जाएंगे ।" शेखचिल्ली ने उत्तर दिया, "यह सड़क और रास्ते यहीं रहते हैं और यहीं पड़े रहेंगे । ये कहीं नहीं जाते। ये बेचारे तो चल ही नहीं सकते। इसीलिए मैंने कहा था कि ये रास्ते, ये सड़कें कहीं नहीं जाती । यहीं पर रहती हैं । मैं शेख साहब का बेटा चिल्ली हूँ । मैं वह रास्ता बताता हूँ, जिस पर चलकर आप घर तक पहुँच जाएंगे ।"

"अरे बेटा चिल्ली !" वह आदमी प्रसन्न होकर बोला, "तू तो वाकई बड़ा समझदार और बुद्धिमान हो गया है । तू छोटा-सा था जब मैं गाँव आया था । मैंने गोद में खिलाया है तुझे । चल बेटा, घर चल मेरे साथ । तेरे अब्बा शेख साहब मेरे लँगोटिया यार हैं । और मैं तेरे रिश्ते की बात करने आया हूँ । मेरी बेटी तेरे लायक़ है । तुम दोनों की जोड़ी अच्छी रहेगी । अब तो मैं तुम दोनों की सगाई करके ही जाऊँगा ।"

शेखचिल्ली उस सज्जन के साथ हो लिया और अपने घर ले गया । कहते हैं, आगे चलकर यही सज्जन शेखचिल्ली के ससुर बने ।

 


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मिट्टी और कुंभकार - नरेन्द्र ललवाणी | लघुकथा

बार-बार पैरों तले कुचले जाने के कारण मिट्टी अपने भाग्य पर रो पड़ी । अहो! मैं कैसी बदनसीबी हूँ कि सभी लोग मेरा अपमान करते हैं । कोई भी मुझे सम्मान की दृष्टि से नहीं देखता जबकि मेरे ही भीतर से प्रस्फुटित होने वाले फूल का कितना सम्मान है । फूलों की माना पिरोकर गले में पहनी जाती है । भक्त लोग अपने उपास्य के चरणों में चढ़ाते हैं । वनिताएं अपने बालों में गूंथ कर गर्व का अनुभव करती हैं । क्या ही अच्छा हो कि मैं भी लोगों के मस्तिष्क पर चढ़ जाऊं!


मिदटी के अंदर से निकलती हुई आह को जानकर कुंभकार बोला- मिट्टी बहिन! तुम यदि सम्मान पाना चाहती हो तो तुम्हें बड़ा सम्मान दिला सकता हूँ लेकिन एक शर्त है ।

 

'एक क्या तुम्हारी जितनी भी शर्ते हों, मुझे सभी स्वीकार हैं । बस मुझे लोगों के पैरों तले से हटा दो,' कुंभकार की बात को बीच में ही काटते हुए मिट्टी ने कहा ।

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भारत न रह सकेगा ... - शहीद रामप्रसाद बिस्मिल

भारत न रह सकेगा हरगिज गुलामख़ाना।
आज़ाद होगा, होगा, आता है वह जमाना।।

खूं खौलने लगा है हिन्दुस्तानियों का।......

 
 
सीख न दीजे वानरा | पंचतंत्र - विष्णु शर्मा

"उपदेशो हि मूर्खाणां प्रकोपाय न शान्तये"

उपदेश से मूखों का कोध और भी भड़क उठता है, शांत नहीं होता।

किसी पर्वत के एक भाग में बन्दरों का दल रहता था। एक दिन हेमन्त मास के दिनों में वहां इतनी बर्फ पड़ी और ऐसी हिम-वर्षा हुई कि बन्दर सर्दी के मारे ठिठुरने लगे। 

कुछ बन्दर लाल फलों को ही अग्नि-कण समझ कर उन्हें फूकें मार-मारकर सुलगाने की कोशिश करने लगे।

सूचीमुख पक्षी ने तब उन्हें वृथा प्रयत्न से रोकते हुए कहा—"ये आग के शोले नहीं, गुञ्जाफल हैं। इन्हें सुलगाने की व्यर्थ चेष्टा क्यों करते हो? अच्छा होगा कि कहीं गुफा-कन्द्रा देखकर उसमें चले जाओ। तभी सर्दी से रक्षा होगी।"

बन्दरों में एक वृद्ध बन्दर भी था,  उसने सूचीमुख  से कहा—"इनको उपदेश न दो। ये मूर्ख हैं, तुम्हारे उपदेश को नहीं मानेंगे, बल्कि तुम्हें हानि पहुंचा देंगे।"

वह बन्दर यह कह ही रहा था कि एक बन्दर ने सूचीमुख को उसके पंखों से पकड़ कर झकझोर दिया।

सीख :
मूर्खों की संगति से दूर रहो। 


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एक बरस बीत गया - अटल बिहारी वाजपेयी

एक बरस बीत गया
झुलसाता जेठ मास......

 
 
क़ब्र की मिट्टी - खेमराज गुप्त

"अम्माँ, छोटे भैया को क्या हो गया? वह कहाँ गया माँ? और बापू ने उसे गढ़े में क्यों दबा दिया? क्या भैया वहाँ डरेगा नहीं? उसे जब भूख लगेगी तो वह रोयेगा भी, तब उसे दूध कौन पिलायेगा अम्माँ?"

लगातार कितनी ही बार उसने माँ से यही प्रश्न कर डाले और अन्त में बजाये उत्तर देने के माँ ने एक जोर का तमाचा उसके नन्हें कोमल मुँह पर लगाकर कहा था-- 'कलमुँहे, तैने ही उसे मारा है, जब से तू पैदा हुआ है, एक को नहीं तीन-तीन को खा डाला है, नभाग कहीं का!" -और तभी एक ज़ोर का दूसरा थप्पड़ उसके नन्हें से गालों पर आ पड़ा। वह सन्न रह गया, उसे रोना-सा आ रहा था किन्तु वह रो भी नहीं सका।

बाहर आकाश पर काले डरावने बादल तरह-तरह की शक्लें बना-बनाकर बिगाड़ रहे थे - बिगाड़-बिगाड़कर बना रहे थे। उसे लगा मानो, बादल आकाश पर नहीं उसके गाल पर रेंग रहे हों। हतबुद्धि सा वह अपनी माँ का मुँह देखता ही रह गया अभागा मुन्नू!  हाँ, उसे मुन्नू कहते थे सब; हालाँकि उसका नाम मनोहर था। माँ के इस व्यवहार से मुन्नू, हाँ, हाँ, नन्हें मुन्नू के दिल पर गहरी चोट लगी और वह अनमना सा होकर वहाँ से उठ गया ।

आज से छः साल पहले--जब मनोहर पैदा हुआ था--तो हरि गोपाल बाबू ने मुहल्ले भर में लड्डू बँटवाए थे, दिनों तक गाना बजाना होता रहा था। मनोहर जब दो साल का हो गया तो उसे एक नन्हीं सी बहन मिली परन्तु जन्म के पन्द्रह दिनों के पश्चात् ही वह चल बसी, फिर दो भाई हुए, वह भी नहीं बचे; मनोहर अकेला का अकेला ही रह गया।
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सब समान - विक्रम कुमार जैन

एकबार की बात है। सूरज, हवा, पानी और किसान के बीच अचानक तनातनी हो गई। बात बड़ी नहीं थी, छोटी-सी थी कि उनमें बड़ा कौन् है? सूरज ने अपने को बड़ा बताया तो हवा ने अपने को, पानी और किसान भी पीछे न रहे। उन्होंने अपने बड़े होने का दावा किया। आखिर तिल का ताड़ बन गया। खूब बहस करने पर भी जब वे किसी नतीजे पर न पहुंचे तो चारों ने तय किया कि वे कल से कोई काम नहीं करेंगे। देखें, किसके बिना दुनिया का काम रुकता है।

पशु-पक्षियों को जब यह मालूम हुआ तो वे दौड़े आये। उन्होंने उनके मेल का रास्ता खोजने का प्रयत्न किया, पर उन्हें सफलता नहीं मिली।

दूसरे दिन सूरज नहीं निकला, हवा ने चलना बंद कर दिया, पानी सूख गया और किसान हाथ-पर-हाथ रखकर बैठ गया। चारों ओर हाहकार मच गया। लोग प्रार्थना करने लगे कि वे अपना-अपना काम करें; लेकिन वे टस-से-मस न हुए। अपनी आप पर डटे रहे। लोग हैरान होकर चुप हो गये पर दुनिया का काम रुका नहीं। जहाँ मुर्गा नहीं बोलता, वहाँ क्या सवेरा नहीं होता ?

चारों बड़े ही कमेरे थे, खाली बैठे तो उन्हें थोड़ी ही देर में घबराहट होने लगी। समय काटना भारी हो गया। उनका अभिमान गलने लगा। अखिर बड़ा कौन है? छोटा कौन है? सबके अपने-अपने काम हैं। बड़ा कोई आन से नहीं, काम से होता है।

सबसे ज्यादा छटपटाहट हुई सूरज को। अपने ताप से स्वयं जलने लगा। उसने अपनी किरणें बिखेरनी शुरू कर दीं। निकम्मे बैठे होने से हवा का दम घुटने लगा तो वह भी चल पड़ी। इसी तरह पानी और किसान भी अपने-अपने काम में लग गये।

वे अच्छी तरह समझ गये कि संसार में न कोई छोटा है, न कोई बड़ा है। सब समान हैं। छोटे-बड़े का भेद तो ऊपरी है।

-विक्रम कुमार जैन
[मालवा की लोक-कथाएँ]

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जैसी दृष्टि - आचार्य विनोबा

रामदास रामायण लिखते जाते और शिष्यों को सुनाते जाते थे। हनुमान भी उसे गुप्त रुप से सुनने के लिए आकर बैठते थे। समर्थ रामदास ने लिखा, "हनुमान अशोक वन में गये, वहाँ उन्होंने सफेद फूल देखे।"
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बिला वजह आँखों के | ग़ज़ल - डॉ. शम्भुनाथ तिवारी

बिला वजह आँखों के कोर भिगोना क्या
अपनी नाकामी का रोना रोना क्या

बेहतर है कि समझें नब्ज़ ज़माने की......

 
 
फ़िजूलखर्ची - रेखा

"सुनिए जी, आज वह गौशाला वाला आया था, शर्मा जी के घर। मैं भी उनके यहाँ थी तो मैंने भी 501 रुपये की पर्ची कटवा दी, ससुर जी के नाम। दो दिन बाद उनकी बरसी है ना!" शारदा ने चहकते हुए कहा!

"तुम्हारा तो दिमाग ख़राब हो गया है। मैं यहाँ दफ़्तर में दिन-रात खटता रहता हूँ और तुम्हें दान की पड़ी है! आइन्दा मुझे इस तरह की फ़िजूलखर्ची नहीं चाहिए!" विश्वास लगभग बरस ही पड़ा था शारदा पर।

चार दिन बाद ब्रजेश की शादी में गए तो 'विश्वास' ने नाचते-नाचते अचानक नोटों की गड्डी जेब से निकाली और घोड़ी के आगे झूमते शराबी बारातिओं पर वार कर हवा में उछाल दी!

दूर से यह सब देखती हुई शारदा फ़िज़ूलख़र्ची की परिभाषा नहीं समझ पा रही थी !

- रेखा

 


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नए साल की शुभकामनाएं - सर्वेश्वरदयाल सक्सेना 

नए साल की शुभकामनाएँ!
खेतों की मेड़ों पर धूल भरे पाँव को......

 
 
भगवान सबका एक है | लोक-कथा - नीरा सक्सेना

पेरिस में इब्राहीम नाम का एक आदमी अपनी बीवी और बच्चों के साथ एक मोंपड़ी में रहता था। वह एक साधारण गृहस्थ था, पर था बड़ा धर्मात्मा और परोपकारी । उसका घर शहर से दस मील दूर था। उसकी झोपड़ी के पास से एक पतलीसी सड़क जाती थी। एक गाँव से दूसरे गाँव को यात्री इसी सड़क से होकर आते-जाते थे।

मार्ग में विश्राम करने की और कोई जगह न होने के कारण, यात्रियों को इब्राहीम का दरवाजा खटखटाना पड़ता था। इब्राहीम उनका उचित सत्कार करता। यात्री हाथ-मुँह धोकर जब इब्राहीम के परिवार के साथ खाने बैठते तो खाने से पहले इब्राहीम एक छोटी-सी प्रार्थना कहता और ईश्वर को उसकी कृपा के लिये धन्यवाद देता। बाद में अन्य सब व्यक्ति भी उस प्रार्थना को दुहराते।

यात्रियों का इस प्रकार सत्कार करने का क्रम कई साल तक चलता रहा पर सदा सबके दिन एक से नहीं जाते। समय के फेर में पड़ कर इब्राहीम गरीब हो गया। तिस पर भी उसने यात्रियों को भोजन देना बन्द नहीं किया। वह और उसकी बीवी-बच्चे दिन में एक बार भोजन करते और एक बार का भोजन बचा कर यात्रियों के लिये रख छोड़ते थे। इस परोपकार से इब्राहीम को बड़ा संतोष होता, पर साथ ही साथ उसे कुछ गर्व हो गया और वह यह समझने लगा कि मैं बहुत बड़ा धर्मात्मा हूँ और मेरा धर्म ही सबसे ऊँचा है।

एक दोपहर को उसके दरवाजे पर एक थका-हारा बूढ़ा आया। वह बहुत ही कमजोर था। उसकी कमर कमान की तरह झुक गई थी और कमजोरी के कारण उसके कदम भी सीधे नही पड़ रहे थे। उसने इब्राहीम का दरवाजा खटखटाया। इब्राहीम उसे अन्दर ले गया और आग के पास जाकर बिठा दिया। कुछ देर विश्राम करके बूढ़ा बोला"बंटा, मैं बहुत दूर से आ रहा हूँ। मुझे बहुत भूख लग रही है।" इब्राहीम ने जल्दी से खाना तैयार करवाया और जब खाने का समय हुआ तो आपने नियम के अनुसार इब्राहीम ने दुआ की। उस दुआ को उसके बीवी-बच्चों ने उसके पीछे दुहराया । इब्राहीम ने देखा, वह बूढ़ा चुपचाप बैठा है । इस पर उसने बूढ़े से पूछा-"क्या तुम हमारे धर्म में विश्वास नहीं करते? तुमने हमारे साथ दुआ क्यों नहीं की?"

बूढ़ा बोला-"हम लोग अग्नि की पूजा करते हैं।"

इतना सुन कर इब्राहीम गुस्से से लाल-पीला हो गया और उसने कहा-"अगर तुम हमारे खुदा में विश्वास नहीं करते और हमारे साथ दुआ नहीं करते, तो इसी समय हमारे घर से बाहर निकल जाओ।"

इब्राहीम ने उसे बिना भोजन दिये ही घर से बाहर निकाल दिया और दरवाजा लगा लिया, पर दरवाजा बन्द करते ही कमरे में अचानक रोशनी छा गई और एक देवदूत ने प्रकट होकर कहा-"इब्राहीम, यह तुमने क्या किया? वह गरीब बूढ़ा सौ वर्ष का है। भगवान् ने इतनी उम्र तक उसकी देखभाल की और एक तुम हो जो कि अपने को भगवान का भक्त समझते हो, तिस पर भी उसे एक दिन खाना नहीं दे सके, केवल इसीलिये कि उसका धर्म तुम्हारे धर्म से भिन्न है। संसार में धर्म भले ही अनेक हों पर भगवान् या खुदा सब प्राणियों का परम पिता है और सबके लिये वही एक ईश्वर है।"

यह कह कर वह देवदूत आँखों से ओझल हो गया । इब्राहीम को अपनी भूल मालूम हुई और वह भागा-भागा उस बूढ़े के पास पहुँचा और उसने उससे क्षमा माँगी। बूढ़े ने उसे क्षमा करते हुए कहा-"बेटा, अब तो तुम समझ गये होगे कि भगवान् सबका एक है।"

यह सुन कर इब्राहीम को बड़ा आश्चर्य हुभा क्योंकि यही बात उससे फरिश्ते ने भी कही थी।

-नीरा सक्सेना

[देश विदेश की लोककथाएँ, पब्लिकेशन्स डिविजन, इंडिया]


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हलीम 'आईना' के दोहे  - हलीम 'आईना'

आज़ादी को लग चुका, घोटालों का रोग।
जिसके जैसे दांत हैं, कर ले वैसा भोग ॥

ख़ाकी में काला मिला, उसमें मिला सफ़ेद। ......

 
 
राजनीतिक गठबंधन - प्रवीण शुक्ल

दोनों ने सोचा कि साथ चलने में फ़ायदा है
इसलिए ये भी, वे भी साथ दौड़ रहे हैं।

धारा दोनों के विचारों की है भिन्न-भिन्न ......

 
 
लोहे को पानी कर देना  - सुभद्राकुमारी चौहान

जब जब भारत पर भीर पड़ी, असुरों का अत्याचार बढ़ा;
मानवता का अपमान हुआ, दानवता का परिवार बढ़ा।......

 
 
बुरा उदाहरण - दीपक शर्मा

“आप नयी हो?” अपनी नब्ज पर एक नया कोमल स्पर्श पाता हूँ तो आंखेँ खोल लेता हूँ।
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सुखी आदमी की कमीज़  - जॉन हे

एक बार एक राजा था। उसके पास सब कुछ था लेकिन वह सुखी नहीं था। वह समझ नहीं पाता था कि कैसे ख़ुश रहा जाए? उसे यह लगने लगा कि वह बीमार है जबकि वह बिलकुल स्वस्थ दिखता था।

राजा के आदेश पर राज्य के एक से एक अच्छे डॉक्टरों को बुलाया गया लेकिन कोई भी उसका इलाज नहीं कर पाया।

अंत में एक बुद्धिमान वैद्य ने राजा की मर्ज समझ ली। उसे एक युक्ति सूझी उसने कहा, "यदि महाराज एक रात्रि के लिए किसी ख़ुश व्यक्ति कि कमीज़ पहन कर सोएं तो इनकी बीमारी दूर हो सकती है।

सैनिकों को राज्य भर में किसी ख़ुश आदमी को खोजने और उसकी कमीज़ लाने का आदेश दिया गया। पूरे राज्य में खोजने पर भी कोई ख़ुश व्यक्ति खोजा नहीं जा सका।

किसी को अपनी निर्धनता का दुःख था तो कोई धनवान और धन की लालसा पाले हुआ था। किसी को दुःख था कि उसकी पत्नी का निधन हो गया था, तो किसी को शिकायत थी कि उसकी पत्नी जीवित क्यों है! किसी को संतान न होने का दुःख था तो कोई संतान से दुःखी था । वस्तुतः सब जन दुःखी थे। कहते भी हैं, ‘नानक दुखिया सब संसार'।

तभी सैनिकों को गाँव के दवार पर एक भिखारी मदमस्त लेटा हुआ दिखाई पड़ा जो अपनी मस्ती में सीटी बजा-बजा कर, हँस-हँसकर गाना गाता हुआ लोटपोट हुए जाता था। वह अत्यधिक प्रसन्नचित्त जान पड़ता था।

सैनिक उसके पास रुकते हुए उसका अभिवादन कर उससे कहा, "ईश्वर आपका भला करे। आप काफी प्रसन्न दिखाई देते हैं।

"हाँ, मैं ख़ुश हूँ और मुझे किसी बात का कोई दुःख नहीं है।"

सैनिक उसे पाकर अभिभूत हो गये थे। उन्होंने उसे कहा कि यदि वह एक रात के लिए अपनी कमीज़ उधारी दे दे तो वे उसे एक सौ स्वर्ण मुद्राएँ दे देंगे।

यह सुनकर वह जोर-जोर से हँसते-हँसते लोटपोट हो गया फिर किसी तरह अपनी हँसी रोकते हुए बोला, " मैं अवश्य ही अपनी कमीज़ दे देता पर...! मेरे तन पर कोई वस्त्र नहीं है।

राजा को हर दिन का समाचार दिया जाता था जिससे वह यह जान सका कि दुनिया में कितने दुःख व्याप्त हैं। अब सैनिकों ने यह समाचार दिया कि उन्हें एक व्यक्ति मिला जो पूर्णतया प्रसन्न व संतुष्ट है लेकिन उसके पास तन ढकने को वस्त्र नहीं हैं!

अब राजा जीवन के गूढ़ तत्व को समझ गया। वह अपनी व्यर्थ के भ्रम को छोड़ कर जनता की भलाई में लग गया। अब राजा व प्रजा दोनों सुखी थे।

['जॉन हे' की कविता ‘एनचांटेड शर्ट' का गद्यात्मक भावानुवाद ]

गद्यात्मक भावानुवाद - रोहित कुमार ‘हैप्पी'


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वर्ष नया - अजित कुमार

कुछ देर अजब पानी बरसा ।
बिजली तड़पी, कौंधा लपका ।......

 
 
पहचान - चंद्रेश कुमार छतलानी

उस चित्रकार की प्रदर्शनी में यूं तो कई चित्र थे लेकिन एक अनोखा चित्र सभी के आकर्षण का केंद्र था। बिना किसी शीर्षक के उस चित्र में एक बड़ा सा सोने का हीरों जड़ित सुंदर दरवाज़ा था जिसके अंदर एक रत्नों का सिंहासन था जिस पर मखमल की गद्दी बिछी थी।उस सिंहासन पर एक बड़ी सुंदर महिला बैठी थी, जिसके वस्त्र और आभूषण किसी रानी से कम नहीं थे। दो दासियाँ उसे हवा कर रही थीं और उसके पीछे बहुत से व्यक्ति खड़े थे जो शायद उसके समर्थन में हाथ ऊपर किये हुए थे।

सिंहासन के नीचे एक दूसरी बड़ी सुंदर महिला बेड़ियों में जकड़ी दिखाई दे रही थी जिसके वस्त्र मैले-कुचैले थे और वो सर झुका कर बैठी थी। उसके पीछे चार व्यक्ति हाथ जोड़े खड़े थे और कुछ अन्य व्यक्ति आश्चर्य से उस महिला को देख कर इशारे से पूछ रहे थे "यह कौन है?"

उस चित्र को देखने आई दर्शकों की भीड़ में से आज किसी ने चित्रकार से पूछ ही लिया, "इस चित्र में क्या दर्शाया गया है?"

चित्रकार ने मैले वस्त्रों वाली महिला की तरफ इशारा कर के उत्तर दिया, "यह महिला जो अपनी पहचान खो रही है..... वो हमारी मातृभाषा है...."

अगली पंक्ति कहने से पहले वह कुछ क्षण चुप हो गया, उसे पता था अब प्रदर्शनी कक्ष लगभग खाली हो जायेगा।

-चंद्रेश कुमार छतलानी


......
 
 
आदमी से अच्छा हूँ ....! - हलीम 'आईना'

भेड़िए के चंगुल में फंसे
मेमने  ने कहा--......

 
 
प्रणाम | पूज्य बापू को श्रद्धांजलि - महादेवी वर्मा

हे धरा के अमर सुत! तुमको अशेष प्रणाम !
जीवन के अजस्र प्रणाम !......

 
 
नेतावाणी-वंदना | हास्य कविता - डॉ रामप्रसाद मिश्र

जय-जय-जय अंग्रेज़ी-रानी ! 

'इंडिआ, दैट इज़, भारत की भाषाएं भरती पानी। 
सेवारत हैं पिल्ले, मेनन, अयंगार, मिगलानी ......

 
 
दुष्यंत और भारती के सवाल-जवाब - भारत-दर्शन संकलन

एक बार दुष्यंत कुमार ने 'धर्मयुग' से लेखकों को मिलने वाले पारिश्रमिक को लेकर शिकायती लहजे में एक ग़ज़ल लिखकर संपादक को भेजी। उस समय ‘धर्मयुग’ के संपादक धर्मवीर भारती थे। उन्होंने भी अपनी मजबूरी को एक ग़ज़ल के रूप में व्यक्त करके दुष्यंत कुमार को भेज दिया। बाद में ये दोनों ग़ज़लें धर्मयुग में प्रकाशित भी हुई। यहाँ दुष्यंत कुमार और धर्मवीर भारती की दोनों ग़ज़लें प्रकाशित की जा रही हैं, आप भी आनंद उठाएँ।

दुष्यंत कुमार की शिकायत...

पत्थर नहीं हैं आप तो पसीजिए हुज़ूर
संपादकी का हक़ तो अदा कीजिए हुज़ूर

अब ज़िंदगी के साथ ज़माना बदल गया......

 
 
पहला कहानीकार - रावी

एक समय था जब दुनिया के लोग बहुत सीधे-सादे और सत्यवादी होते थे। वे जो कुछ देखते थे, वही कहते थे और जो कुछ कहते थे वही करते थे।

एक बार एक आदमी ने एक आदमी से एक गाँव के एक आदमी के बारे में एक बात कही। यह बात कानों-कान कई आदमियों तक पहुँच गई। इस समाचारके कुछ और आगे बढ़ने पर लोगोंको पता लगा कि उस नामका वहाँ न कोई गाँव था, न उस नामका कोई आदमी था और न किसी आदमीने वैसा काम ही किया था, जैसा कि उस समाचारमें बताया गया था।

जिस आदमीने यह झूठा समाचार सबसे पहले फैलाया था, उसे खोज निकालने में कोई कठिनाई न हुई । लोग उसे पकड़कर उस देशके राजाके पास ले गये।

"इस आदमीने एक गाँव के एक आदमी के बारेमें एक बात कही है; लेकिन न तो उस नाम का कोई गाँव ही है, न आदमी और न किसी ने वैसा काम ही किया है, जैसा कि इसने अपनी खबर में बताया है। अनहोनी बात कहकर इसने लोगों को भुलावे में डाला है। इसे उचित दण्ड मिलना चाहिए " — लोगों ने राजा के सामने उस पर यह आरोप लगाया।

"क्या तुम जानते थे कि इस नामका कोई गाँव मौजूद है ?" महाराजने अपने न्यायासन से अपराधी से प्रश्न किया।

"नहीं महाराज!"

"क्या तुम जानते थे कि इस नाम का कोई आदमी मौजूद है ?" दूसरा प्रश्न हुआ।

"नहीं महाराज!"

"क्या तुमने किसी आदमी को वैसा काम करते देखा था, जैसा कि तुमने अपने समाचार में बताया था ?" तीसरा प्रश्न हुआ।

"नहीं महाराज!"

"तो फिर तुमने ऐसी अनहोनी खबर क्यों फैलाई?"

"महाराज !" अपराधी ने अपनी स्थिति स्पष्ट की, "मैंने किसी बुरे काम की नहीं, बल्कि एक अच्छे काम की ही खबर फैलाई है--ऐसे काम की जिसे अगर कोई करे तो उससे दूसरों का बहुत भला हो और स्वयं उसका बहुत यश हो। उस काम को करने के लिए कोई न कोई आदमी चाहिए था, और उस आदमी के होने के लिए कोई न कोई गाँव भी आवश्यक था। इसलिए मैंने उस ख़बर के साथ आदमी और गाँव के नाम भी मन सोचकर जोड़ दिये थे।"

राजा असमंजस में पड़ गया। उस दिन तक किसी भी आदमी ने किसी से कोई अनहोनी या अन हुई बात नहीं कही थी और इस प्रकार के अपराध के लिए राजकीय दण्ड के नियमों में कोई व्यवस्था भी नहीं थी। यह एक सर्वथा नये ढंग का अपराध था।

उचित न्यायका आश्वासन देकर राजा ने लोगों को विदा किया और अपराधी को राजकीय बन्दीगृह में आदर और आराम के साथ रखवा दिया।

राजा ने इस नये अभियोग के सम्बन्ध में राजगुरुके साथ परामर्श किया। राजगुरु के लिए भी यह एक नये ढंग का अपराध था। उन्होंने देवराज इन्द्र के सामने यह अभियोग उपस्थित किया।

देवराज इन्द्रकी आज्ञासे देवदूतों ने भूमण्डल में पूरी छानबीन करके अपना वक्तव्य दिया, "पृथ्वी के वर्तमान कुल ८,३२,४८० ग्रामों-नगरोंमें ८०,१६,८०, ४२१ मनुष्य इस समय रह रहे हैं और उन सबने मिलकर लेखराज महाचौहान के रजिस्टरों के अनुसार, अबतक ३७, १४,५५,८०, ३५, १७,८२७ कर्म किये हैं। जिस गाँव, मनुष्य और कर्मकी खोज करनेकी हमें आज्ञा दी गई थी उन तीनोंका अस्तित्व उन गाँवों, मनुष्यों और उनके अब तक के कर्मों में कहीं भी नहीं है ।"

अभियुक्त मनुष्यका अपराध प्रमाणित हो गया। उसने सचमुच एक अस्तित्वहीन बात कही थी। मनुष्य जाति की ओर से यह पहला ही इतना विचित्र और भयंकर अपराध था। स्वयं देवराज इन्द्र भी नहीं जानते थे कि ऐसा भी अपराध कोई मनुष्य कर सकता है। इस अपराधका प्रभाव कितना व्यापक हो सकता है और इसका दण्ड क्या होना चाहिए, इसी सोच में वे पड़ गये।

अपनी सहायता के लिए इन्द्र ने धर्मराज यम की ओर दृष्टि फेरी और कुछ देर तक टकटकी लगाये उनकी ओर देखते रहे; किन्तु यमराज स्वयं इस नई पहेली की गुत्थियोंमें उलझ गये थे और उनकी दण्ड-व्यवस्था की कोई भी धारा इस अपराधी पर लागू नहीं हो रही थी। लाचार वह भी गर्दन घुमाये दूसरी ओर को इस प्रकार देखने लगे जैसे उन्हें इन्द्र के देखनेकी खबर ही न हुई हो!

"अपराधीका अपराध गम्भीर है," देवराज इन्द्रने कहा।" उस पर कोई निर्णय देने के पहले हमें देवगुरु का परामर्श लेना होगा।"

देवगुरु बृहस्पति को उसी समय देव सभा में आमंत्रित किया गया।

"आपने भूलोककी छान-बीन करा ली है," बृहस्पति देव ने अभियोग की सारी कथा सुन चुकने के पश्चात् कहा, "लेकिन क्या भुवर्लोक और स्वर्ग-लोक की भी छान-बीन कराकर आपने निश्चय कर लिया है कि इन लोकों में भी उस नाम का कोई गाँव, उस नाम का कोई व्यक्ति और उस प्रकार का कोई किया हुआ कर्म नहीं है ?"

देवगुरुके इस प्रश्न से सारी देव-सभा सोच-विचार में पड़ गई। साधारणतया मनुष्यों के कार्यों से स्वर्ग और भुवर्लोक कोई सम्बन्ध नहीं होना चाहिए था।

'अपराध में कहे हुए नामों का कोई गाँव, कोई व्यक्ति और कोई कर्म स्वर्ग और भुवर्लोक में निर्मित नहीं हुआ।" स्वर्ग और भुवर्लोक के तत्सम्बन्धी विभागों के अधिकारियों ने उत्तर दिया।

"अधिक अच्छा हो कि आप लोग इन बातों की खोज एक बार और अपने लोक में कर लें।” देवगुरु ने मुसकराते हुए कहा।

देवगुरुके आदेश का पालन हुआ। अनेक कामदूत और देवदूत इस खोज के लिए छोड़ दिये गये।

अगले दिन देव सभा में उन्होंने आकर सूचना दी कि स्वर्ग और भुवर्लोक दोनों में उस नाम का गाँव, और उस नाम का व्यक्ति विद्यमान है और उसने सचमुच उस प्रकार का कर्म किया है।

सारी देव सभा इस समाचार से स्तब्ध रह गई। देवगुरु ने कनखियों से देखते हुए एक व्यंग्यपूर्ण मुसकान उन अधिकारियों की ओर डाली जिन्होंने पिछले दिन विपरीत उत्तर दिया था।

"किन्तु गुरुदेव!" उन्होंने हाथ जोड़कर उत्तर दिया, "हमने तो अपने लोकों में वैसे किसी गाँव, व्यक्ति या कर्म का निर्माण नहीं किया।" बृहस्पतिदेव का स्वभावसिद्ध सुकोमल अट्टहास देव सभा में गूंज उठा।

"आप अकेले ही ब्रह्मा के सहकारी, सृष्टि के निर्माता नहीं हैं, मनुष्य भी उनका सहकारी और आपका सहयोगी है। जिस प्रकार ब्रह्माजी अपने संकल्प-बल से और आप लोग अपने ध्यान-बल से रचना के विविध रूपों का निर्माण करते हैं, उसी प्रकार मनुष्य का भी काम है कि वह अपने कल्पना-बल से वस्तुओं का निर्माण करे। वह आपका समकक्ष है और आपके लोकों के निर्माण में भी उसका प्रायः उतना ही हाथ है, जितना उसके लोक के निर्माण में आपका। जिस मनुष्य को आप अपराधी के रूप में अपने सामने रखे हुए हैं, वह मनुष्य जाति में ब्रह्मा का विशेष पुत्र और मनुष्य जाति का प्रधान शिक्षक है। कल्पना उसका कार्योपकरण है और कहानीकार उसका जातिवाचक नाम है। आपका अभियुक्त मनुष्य जाति में पहला पूजनीय कहानीकार और ब्रह्मा का सर्वप्रथम सह-निर्माता है !"

कहते हैं कि देवताओं और मनुष्यों के भी आगामी बृहत्तम शब्द-कोश में 'झूठ' के अर्थ का कोई शब्द नहीं है और जो कुछ भी मनुष्य के मुख से निकल सकता है, उसका मूर्त अस्तित्व कहीं न कहीं अवश्य होता है।

-रावी


......
 
 
क्या मैं गूँगा, बहरा और अंधा हो जाऊं | ग़ज़ल - रोहित कुमार 'हैप्पी'

क्या मैं गूँगा, बहरा और अंधा हो जाऊं
थोड़ी देर ऊबल कर कैसे ठंडा हो जाऊं?

मीठी-मीठी बातें उनकी जहर-सी लगती हैं......

 
 
हमसे सब कहते - निरंकार देव सेवक

नहीं सूर्य से कहता कोई
धूप यहाँ पर मत फैलाओ,
कोई नहीं चाँद से कहता
उठा चाँदनी को ले जाओ।

कोई नहीं हवा से कहता
खबरदार जो अंदर आई,
बादल से कहता कब कोई
क्यों जलधार यहाँ बरसाई?

फिर क्यों हमसे भैया कहते
यहाँ न आओ, भागो जाओ,
अम्मा कहती हैं, घर-भर में
खेल-खिलौने मत फैलाओ।

पापा कहते बाहर खेलो,
खबरदार जो अंदर आए,
हम पर ही सबका बस चलता
जो चाहे वह डाँट बताए।

- निरंकार देव सेवक


......
 
 
मोर - जय प्रकाश भारती

उमड़ उमड़ कर बादल आते
देख-देख खुश होता मोर ।......

 
 
मिलिए इस बहार से | गीत - सुभाष

खिली है हर कली-कली,
महक उठी है हर गली।......

 
 
दीवाली की मुस्कान - सुधा भार्गव

दीवाली के दिन लक्ष्मी पूजन का समय हो गया था। पर बच्चे, फुलझड़ियाँ , अनार छोड़ने में मस्त -- । तभी दादाजी की रौबदार आवाज सुनाई दी -देव --दीक्षा --शिक्षा जल्दी आओ --मैं तुम सबको एक कहानी सुनाऊंगा । कहानी के नाम भागे बच्चे झटपट घर की ओर । हाथ मुंह धोकर पूजाघर में घुसे और कालीन पर बिछी सफेद चादर पर बैठ गये । सामने चौकी पर लक्ष्मीजी कमल पर बैठी सबका मन मोह रहीं थीं। पास में गणेश जी हाथ में लड्डू लिए मुस्करा रहे थे।

बातूनी देव जरा जरा सी बातें बहुत ध्यान से देखा करता और फिर लगा देता प्रश्नों की झड़ी। बड़ी उत्सुकता से बोला ----

-दादाजी--- लक्ष्मी जी कमल पर क्यों बैठी हैं ?

-कमल अच्छे भाग्य (good luck) का प्रतीक है और लक्ष्मी धन की देवी है। जिस घर में वह जाती है उसके अच्छे दिन शुरू हो जाते हैं।

-हमारे घर में लक्ष्मी जी कब आएंगी दादा जी?उन्हें जल्दी बुला लाओ।

दीक्षा को अपने भाई की बुद्धि पर बड़ा तरस आया और बोली -
-अरे बुद्धू !इतना भी नहीं जानता -लक्ष्मीजी को बुलाने के लिए ही तो हम उनकी पूजा करेंगे।

-देखो दीदी मुझे चिढाओ मत । अच्छा तुम्ही बता दो -लक्ष्मी जी कमल के साथ कब से रहती हैं ?

दीक्षा अपने दादाजी का मुँह ताकने लगी, इसके पीछे भी एक कहानी है -दादा जी बोले ।

मलाई को मथने से जैसे मक्खन निकलता है उसी प्रकार जब राक्षस और देवताओं ने समुद्र का मंथन किया तो सबसे पहले कमल बाहर निकला। उससे फिर लक्ष्मीजी का जन्म हुआ। तभी से वे उसके साथ रहती हैं और उसे बहुत प्यार करती हैं। कमल का फूल होता भी तो बहुत सुंदर है।मुझे भी बहत अच्छा लगता है।

-आपने तो हमारे बगीचे में ऐसा सुंदर फूल उगाया ही नहीं। देव बोला।

- बच्चे, यह बगीचे में नहीं, तालाब की कीचड़ में पैदा होता है।

-कीचड़ -काली काली -बदबूदार! फिर तो कमल को हम छुएंगे भी नहीं । दीक्षा ने मुँह बनाया।

-पूरी बात तो सुनो--कीचड़ में पैदा होते हुए भी यह गंदगी से ऊपर उठा साफ -चमकदार रहता है। इस पर गंदगी का एक दाग भी नहीं होता। इसकारण भी लक्ष्मी इसे पसंद करती है।

-कमाल हो गया --गंदगी में पैदा होते हुए भी गन्दा नहीं।यह कैसे हो सकता है।

- यही तो इसका सबसे बड़ा गुण है।तुम्हें भी गंदगी में रहते हुए गन्दा नहीं होना है।

-दादा जी हम तो कीचड़ में रहते नहीं ,माँ धूल में भी नहीं खेलने देती --- फिर गन्दे होने का सवाल ही नहीं।

-स्कूल में तो तुम्हें गंदे बच्चे मिल सकते हैं।

-हमारे स्कूल में कोई गंदे कपड़े पहन कर नहीं आता। मेरे दोस्त तो रोज नहाते हैं।

-दूसरे तरीके की भी गंदगी होती है,बेटा। जो झूठ बोलते हैं, नाक-मुँह में उंगली देते हैं, दूसरों की चीजें चुपचाप उठा लेते हैं, वे भी तो गंदे बच्चे हुए।

-हाँ, याद आया परसों मोनू ने खेल के मैदान में बागची को धक्का दे दिया था और नाम मेरा ले दिया। उसके कारण मास्टर जी ने मुझे बहुत डांटा। तब से मैंने उससे बोलना बंद कर दिया।

-तुमने ठीक किया।तुमको बुरे बच्चों के साथ रहते हुए भी उनकी बुरी आदतें नहीं सीखनी है।

- समझ गये दादा जी, हमें कमल की तरह बनना है तभी तो लक्ष्मी जी हमको पसंद करेंगी । बच्चे चहचहाने लगे।

-अब बातें बंद--। आँखें मीचकर लक्ष्मीजी की पूजा में ध्यान लगाओ।अरे शिक्षा तुम्हारी आँखें खुली क्यों हैं?

-दादा जी, मैं तो पहले गणेश जी वाला बड़ा सा पीला लड्डू खाऊँगी तब आँख मीचूंगी। मैंने आँखें बंद कर ली तो शैतान देवू खा जाएगा।

-अरे पगली मेरे पास बहुत सारे लड्डू हैं। पूजा के बाद प्रसाद में तुझे एक नहीं दो दे दूंगा। खुश!

-सच दादा जी ---मेरे अच्छे दादा जी। उसने खूब ज़ोर लगाकर आँखें मींच लीं।

कुछ पल ही गुजरे होंगे कि बच्चे झपझपाने लगे अपनी पलकें। बड़ों की बंद आँखें देख कुछ इशारा किया और भाग खड़े हुए तीनों, तीन दिशाओं की ओर, पर ---पकड़े गये ।

-कहाँ भागे --पहले दरवाजे पर मिट्टी के दीये जलाओ। फिर बड़ों को प्रणाम कर उनसे आशीर्वाद लो।

बच्चे दीयों की तरफ मुड़ गए। आज तो वे उमंग से भरे हुए थे। दीपों को जलाते समय हर्षित हो गाने लगे ---

दीप जलाकर खुशी मनाते......

 
 
आओ होली खेलें संग - रोहित कुमार 'हैप्पी'

कही गुब्बारे सिर पर फूटे
पिचकारी से रंग है छूटे......

 
 
दुर्योधन सा सिंहासन है मिला - प्रियांशु शेखर

मेरे अधिकार तो छीन लिए तुमने
मेरे जैसा हुनर कहाँ से लाओगे?......

 
 
शुभकामनाएँ - कुमार विकल

मैं भेजना चाहता हूँ
नए वर्ष की शुभकामनाएँ......

 
 
इन्सान - अजना अनिल

एक दिन वो नगर के कई लोगों से मिला।

सबने अपने-अपने नाम बताकर परिचय दिया ।

लेकिन उसे बेहद कोफ़्त हुई ।

'कि काश! कोई तो कह देता यार!'

- मैं क्या हूँ? कौन हूँ? क्यों पूछते हो?
हूँ तो सिर्फ इन्सान ही!

- अजना अनिल [साक्षात्कार]

 

......
 
 
कुछ दोहे - डॉo सत्यवान सौरभ

अपने प्यारे गाँव से, बस है यही सवाल।
बूढा पीपल है कहाँ, गई कहाँ चौपाल॥

रही नहीं चौपाल में, पहले जैसी बात।......

 
 
तुम काग़ज़ पर लिखते हो - भवानीप्रसाद मिश्र

तुम काग़ज़ पर लिखते हो
वह सड़क झाड़ता है......

 
 
भोर का शहर - मेधा झा

पछाड़ खाती तीव्र लहरों का काले पत्थरों से टकरा कर लौटना, बीच से एक श्यामल सी मोहक छवि का उभरना और उन्हीं चोट खाती लहरों के बीच से दिखना किसी की बेचैन आंखें। कौंधना प्रकृति के सानिध्य में बसा एक मनोरम स्थल और ॐ की ध्वनि का आना।

प्रचंड वेग से आती समुद्री लहरों की आवाज से अचानक चौंक कर उसकी आंखों का खुलना। क्यों बेचैन है वो? क्या छिपा है उस स्वप्न के पीछे? यह कौन सी जगह है, जो उसे बार-बार आकृष्ट करती है? क्या छिपा है इन काले पत्थरों से टकराती लहरों के पीछे?

क्या किसी की तलाश में थीं वो दो आंखें? सामान्य तलाश से अलग, क्या दैवीय पुकार भी कुछ होता है, जो तमाम भौगोलिक सीमाओं से परे, देह से परे , दो आत्माओं को एक दूसरे की तरफ आकृष्ट करता है। वह बेचैन आंखों वाली यहां की तो नहीं लगती। हजारों प्रश्न और कोई जवाब नहीं। छटपटाहट से छुटकारा का अब एक ही इलाज था।

यायावरी देवांशी के लिए शौक मात्र नहीं था, बल्कि उसका जुनून था। जब तलब उठती उसको इसकी, तो बिन बताए किसी को , दो चार कपड़े और उपयोगी सामान लिए निकल पड़ती थी वो। अनजाने लोग, जगह , उनके संस्कृति को जानना - दिव्य अनुभूति से भर देता उसे। कौन कहता है दुनिया में सिर्फ नकारात्मकता है, हरेक नई जगह एक नए ईश्वर से परिचय होता उसे।

कुछ महीनों से अपने सामान्य दिनचर्या में व्यस्त रही थी और उसका जुनून कहीं उपेक्षित से कोने में पड़ा था। आश्चर्य हो रहा था उसे अपने सपने पर। कभी कभार स्मृतियों में कौंधता वही दृश्य और कुछ क्षण बेचैनी से भरे होते उसके लिए।

आज कई महीनों बाद ब्यूटी पार्लर आई थी वह। अपनी बारी की प्रतीक्षा करते हुए आदतन उठाया उसने वहीं रखा एक पर्यटन मैगज़ीन और अनमने भाव से पलटते हुए अचानक लगा कि कुछ परिचित सा गुजरा उसकी आंखों के सामने से। उंगलियां आगे के पृष्ठों को पलटती जा रहीं थीं, लेकिन उस क्षणांश में भी दृष्टि ने कुछ कैद कर लिया था अपने अंदर। फिर से पलटा उन्हीं पिछले पृष्ठों को उसने और आंखें फैल गई उसकी, सपने में दिखी वही आबनूसी काले पत्थरों को हृदय लगातीं अनंत तक फैली अथाह जलराशि की तस्वीर और नीचे लिखा था पांडिचेरी टूरिज्म की टैग लाइन - 'पीसफुल पांडिचेरी - गिव टाइम ए ब्रेक।' क्या समय आ गया था स्वयं को विराम देने का इस उथल पुथल से?

पांडिचेरी - ठहर गई दृष्टि उसकी इस पर। कुछ तो है इस जगह से उसका रिश्ता , जो आकृष्ट कर रहा उसे बार बार। आश्चर्य है ये जगह इतना परिचित सा दिख रहा उसे, जैसे कई कई बार साक्षात्कार किया हो उसने इसका। उसकी अगली मंजिल तय हो चुकी थी। अथाह उत्साह से किलक रहा था मन उसका, पानी के प्यासे पर जैसे तकदीर ने अमृत वर्षा कर दी हो।

दो दिन बाद सुबह छह बजे शानदार चौड़ी सड़क से तमिलनाडु की सीमा पार कर कार दौड़ती जा रही थी अपने गंतव्य पांडिचेरी की तरफ और साथ में कई कई स्मृतियां कौंध रही थी। चेहरे को स्पर्श कर रहीं थीं ठंडी हवाएं और झटके से जागृत हो रही थी कई सारी यादें।

घर के दाहिने तरफ का प्रकाशित कमरा, उसमें टंगा श्वेत श्याम श्री अरविन्द घोष और द मदर की तस्वीर। प्रत्येक सांस के साथ नासिका में भरता मोगरा अगरबत्ती की सुगंध । यादों में भी सुवासित हो उठा उसका मन। तस्वीर के समक्ष बैठे सारे भाई बहन मम्मी पापा के साथ। फिर गूंजती पापा की सुंदर गंभीर सधी हुई आवाज -

'ॐ आनंदमयी चैतन्यमयी सत्यमयी परमे।'
'हे मां, तुम आनंद का स्रोत हो, तुम चेतना का स्रोत हो, और तुम सत्य का स्रोत हो, तुम ही सर्वोच्च हो।'

सब उनके पीछे दुहराते। फिर कई और मंत्रोच्चार। पता नहीं कब उसके जीवन में श्री अरविंद , श्री माता जी के साथ समाहित होकर परिवार का अंग होते चले गए।

पापा हमेशा कहते कि हम लोग जाएंगे पांडिचेरी के अरविंदो आश्रम में और आश्रम की सुंदर तस्वीर खींच देते आंखों के समक्ष। वैसे भी उस समय गूगल के प्रयोग से लोग वाकिफ ही कहां थे। हमारी सारी जानकारियों के स्रोत पापा का जीवंत वर्णन और फिर उनकी बनाई हुई तस्वीरें ही रहती। जब भी बात होती अरविंदो आश्रम की और वहां के निर्मल सुंदर समुद्र तट की, मन पहुंच जाता उस अनदेखे प्रदेश में। कैसा होगा वह जगह, जिसने अरविंद घोष को दिव्य तपस्वी में बदल दिया। क्या होगा वहां , जिससे आकर्षित होकर एक विदेशी महिला अपना देश, अपने लोग को छोड़ कर हमेशा हमेशा के लिए यहां की हो ली। कैसा होगा वह जगह जहां रवीन्द्रनाथ की कही पंक्तियों को साकार करने का जिम्मा एक सुदूर देश की महिला ने उठाया होगा ऑरोविले की कल्पना करके। एक ऐसी दुनिया की कल्पना जहां विश्व संकीर्ण दीवारों द्वारा विभाजित ना हो।

आज सालों बाद देवांशी निकली थी इस दिव्य जगह की ओर और साथ में थे पापा मम्मी भी। वैसे भी इस जगह को जाने की कल्पना उनके बगैर हो ही नहीं सकती थी। अब प्रवेश कर रहे थे वो उस अनदेखे प्रदेश की सीमाओं से, जो कहीं से भी अपरिचित लग नहीं रहा था उसे।

होटल लॉबी में उसकी दृष्टि उठी और लगा दो स्नेहिल आंखों ने मुस्कुरा कर स्वागत किया उसका। श्री माता के बगल में श्री अरविन्द की दैवीय छवि, लगा जैसे अपने बाबा स्नेह से आशीर्वाद दे रहे हों उसे।

अब समय था सालों से स्वप्न में देखे जगह से साक्षात्कार का। कदम स्वतः बढ़ते जा रहे थे उसके समुद्र तट की तरफ। लग रहा था मानो सालों बाद अपने घर लौटी हो वो और अब जोरों से हृदय धड़कने लगा उसका। वही तीव्र लहरें समूचे वेग से दौड़ रही थी उसके तरफ। शायद वो भी उतनी ही बेताब थी उसे अपने आलिंगन में लेने को। एक पल के लिए लगा उसे कि सब तरफ शून्य है और सिर्फ वह है और उसे अपने में समाहित करने को बेताब उसका कोई आत्मीय। सम्मोहित से करने वाले पल की तंद्रा से मुक्त हुई वह मां की आवाज से। श्री मां ने जगत मां के स्वरूप में पहले उसे वह दिव्य अनुभूति करवाई और फिर खींच पर इस दुनिया में ले आई थीं।

अगला पूरा दिन समर्पित था अरविंद आश्रम, उसके सामने के गणपति मंदिर, विभिन्न चर्चों , म्यूजियम को देखने में। हर जगह वही आत्मीयता, वही अपने घर वापसी का अहसास। और अंतिम दिन रखा था खासकर उसने ऑरोविले के लिए।

आज प्रवेश कर रही थी वो इस अद्भुत आश्रम में, जहां पारंपरिक आश्रम जैसा कुछ था ही नहीं। आत्मीय मुस्कान ओढ़े वह बुजुर्ग बताए जा रहे थे उन्हें - औरोविले, जिसे फ्रेंच में भोर का शहर कहा जाता है। इस आत्मा के उदित होने के शहर की कल्पना की थी द मदर ने, एक फ्रांसीसी महिला ने। और उनके नाम चयन का एक कारण अरविंदो के नाम के शुरुआती अक्षरों से साम्य भी तो था।

सोच रही थी देवांशी - क्या सब कुछ दैवीय ही था या मात्र संयोग। फ्रांसीसी मिर्रा अल्फासा के नाम का साम्य कृष्ण दीवानी मीरा से होना, विवेकानंद के राजयोग को पढ़ कर भारत में रुचि का जगना और उनके बचपन में आभासित होने वाले श्यामल छवि से श्री अरविंदो के रूप में साक्षात्कार होना।

सोचती रह गई देवांशी - जहां हमारे सोचने की सीमा खत्म होती है, वहीं से बहुत कुछ इस ब्रह्माण्ड में शुरू होता है। मन में पुन: ध्वनित हुआ ॐ का स्वर और लगा समुद्र में डूबते सूर्य के समान उसकी सारी उद्वेगता समुद्र में क्रमशः विलीन हो रही हैं।

- मेधा झा

......
 
 
गधा और मेढक  - सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

एक गधा लकड़ी का भारी बोझ लिए जा रहा था। वह एक दलदल में गिर गया। वहाँ मेढकों के बीच जा लगा। रेंकता और चिल्‍लाता हुआ वह उस तरह साँसें भरने लगा, जैसे दूसरे ही क्षण मर जाएगा।


आखिर को एक मेढक ने कहा, ''दोस्‍त, जब से तुम इस दलदल में गिरे, ऐसा ढोंग क्‍यों रच रहे हो? मैं हैरत में हूँ, जब से हम यहाँ हैं, अगर तब से तुम होते तो न जाने क्‍या करते?"

......

 
 
हम मन में अपने विष कभी घोलते नहीं | ग़ज़ल - रोहित कुमार 'हैप्पी'

हम मन में अपने विष कभी घोलते नहीं
मन बात जो ना माने उसे बोलते नहीं।

अपनी नजर में कोई ना छोटा है ना बड़ा......

 
 
कौन? -  सोहन लाल द्विवेदी

किसने बटन हमारे कुतरे?
किसने स्याही को बिखराया?......

 
 
गुरु और चेला - सोहन लाल द्विवेदी

झगड़ने लगे फिर गुरु और चेला,
मचा उनमें धक्का बड़ा रेल-पेला।......

 
 
नया वर्ष - डॉ० राणा प्रताप गन्नौरी राणा

नया वर्ष आया नया वर्ष आया,
नया हर्ष लाया नया हर्ष लाया ।

नया साज़ छेड़ें नया गीत गाएं,......

 
 
लोकतंत्र का ड्रामा देख  - हलचल हरियाणवी

विदुर से नीति नहीं
चाणक्य चरित्र कहां......

 
 
ऊँचाई - रामेश्वर काम्बोज "हिमांशु"

पिताजी के अचानक आ धमकने से पत्नी तमतमा उठी, "लगता है बूढ़े को पैसों की ज़रूरत आ पड़ी है, वर्ना यहाँ कौन आने वाला था। अपने पेट का गड्‌ढा भरता नहीं, घर वालों का कुआँ कहाँ से भरोगे?"

मैं नज़रें बचाकर दूसरी ओर देखने लगा। पिताजी नल पर हाथ-मुँह धोकर सफर की थकान दूर कर रहे थे। इस बार मेरा हाथ कुछ ज्यादा ही तंग हो गया। बड़े बेटे का जूता मुँह बा चुका है। वह स्कूल जाने के वक्त रोज़ भुनभुनाता है। पत्नी के इलाज़ के लिए पूरी दवाइयाँ नहीं खरीदी जा सकीं। बाबू जी को भी अभी आना था।

घर में बोझिल चुप्पी पसरी हुई थी। खान खा चुकने पर पिताजी ने मुझे पास बैठने का इशारा किया। मैं शंकित था कि कोई आर्थिक समस्या लेकर आए होंगे। पिताजी कुर्सी पर उकड़ू बैठ गए। एकदम बेफिक्र, "सुनो" -कहकर उन्होंने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा। मैं साँस रोककर उनके मुँह की ओर देखने लगा। रोम-रोम कान बनकर अगला वाक्य सुनने के लिए चौकन्ना था।

वे बोले, "खेती के काम में घड़ी भर की फ़ुर्सत नहीं मिलती है। इस बखत काम का जोर है। रात की गाड़ी से ही वापस जाऊँगा। तीन महीने से तुम्हारी कोई चिट्ठी तक नहीं मिली। जब तुम परेशान होते हो, तभी ऐसा करते हो।"

उन्होंने जेब से सौ-सौ के दस नोट निकालकर मेरी तरफ़ बढ़ा दिए- "रख लो। तुम्हारे काम आ जाएँगे। इस बार धान की फ़सल अच्छी हो गई है। घर में कोई दिक्कत नहीं है। तुम बहुत कमज़ोर लग रहे हो। ढंग से खाया-पिया करो। बहू का भी ध्यान रखो।"

मैं कुछ नहीं बोल पाया। शब्द जैसे मेरे हलक में फँसकर रह गए हों। मैं कुछ कहता इससे पूर्व ही पिताजी ने प्यार से डाँटा- "ले लो। बहुत बड़े हो गए हो क्या?"

"नहीं तो" - मैंने हाथ बढ़ाया। पिताजी ने नोट मेरी हथेली पर रख दिए। बरसों पहले पिताजी मुझे स्कूल भेजने के लिए इसी तरह हथेली पर इकन्नी टिका दिया करते थे, परन्तु तब मेरी नज़रें आज की तरह झुकी नहीं होती थीं।

- रामेश्वर काम्बोज "हिमांशु"
[साभार - लघुकथा डॉट कॉम ]

 

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हम गाँधी की प्रतिभा के इतने पास खड़े - हरिवंशराय बच्चन

हम गाँधी की प्रतिभा के इतने पास खड़े
हम देख नहीं पाते सत्‍ता उनकी महान,......

 
 
मैं करती हूँ चुमौना  - अलका सिन्हा

कोहरे की ओढ़नी से झांकती है
संकुचित-सी वर्ष की पहली सुबह यह......

 
 
चिंगारी - जूही विजय

दिन इतवार का था।

बाहर बारिश तेज हो चुकी थी और नितिन अपनी निर्धारित जगह पर गाड़ी लगाकर बेतकल्लुफ था। ऐसा शायद इसलिए क्योंकि उसे पता था की आज कोई सवारी नहीं मिलेगी।

वह जानता था, इस मूसलाधार बारिश में कोई अपने घर से निकलना नहीं चाहता।

कहने को वह एक बड़े शहर में रहता है, लेकिन यह बड़ा शहर भी बरसात के आगे अपने घुटने टेक देता है और इसकी सारी भाग-दौड़ थम जाती है। देखते ही देखते इतना बड़ा शहर बारिश के सामने बहुत छोटा नज़र आने लगता है।

नितिन जिस शहर-समाज से हारा था, उसका यूं मामूली सी बरसात जैसी चीज से हार जाना नितिन को एक अलग किस्म की संतुष्टि देता है।   

बारिश की बूंदे गाड़ी की छत पर गिरती हैं तो यूं आवाज़ होती है जैसे किसी ने दूर से कोई पत्थर फेंका हो।   

अधेड़ उम्र में हर आदमी के पास दो ही चीजें रह जाती हैं – बीते हुए दिनों का सुख और आने वाले कल की जिम्मेदारियों का बोझ। ‘आज’ दोनों के बीच कहीं खो जाता है और ढूंढे नहीं मिलता।

वह कई बार जोड़-भाग कर चुका था पर दहेज की रकम है कि पूरी नहीं होती। उसने देर रात तक टैक्सी चलाना भी तो इसलिए ही शुरू किया था कि जैसे-तैसे जोड़-तोड़ कर बस दहेज की रकम इकट्ठा कर ले।  

लड़का एक बड़ी कंपनी में बाबू है और तनख्वाह के ऊपर भी काफी कुछ कमा लेता है।

“यह रिश्ता हाथ से जाना नहीं चाहिए।“ माँ का हुकूम था।

“लेकिन माँ, नीतू का यह आखिरी साल है फिर इसकी डिग्री भी पूरी हो जाएगी। साल-दर-साल यह कॉलेज टॉप करती आई है। शादी की इतनी जल्दी भी कहाँ है?”

“क्यूँ? शादी के बाद भी तो पढ़ाई जारी रख सकती है – कहा तो है, समधी जी ने। ...और इसे कौनसा कलेक्टर बनना है कहीं का? तेरा जो हाल हुआ है, नीतू का भी वही हाल करना है क्या?’

बस, इसी तरह जो बीत गया था, उसका तमगा किसी गाली की तरह उसके माथे पर लगा दिया जाता और उसकी पहचान को उसी तमगे में सिकोड़ दिया जाता। कुछ गलतियाँ ऐसी होती हैं जिन्हे माफ किया जा सकता है, जिन्हे माफ कर देना चाहिए।

खैर, एक तरफ माँ, बाकी का परिवार व समाज और दूसरी तरफ केवल नीतू और समाज से हारा हुआ नितिन। पलड़ा किस तरफ झुकेगा यह बताना सरल था।

यह सब सोचते हुए एकाएक नितिन का दम घुटने लगा। उसे लग रहा था जैसे उसका अतीत फिर उसकी गर्दन जकड़ने आ रहा हो। यह देखकर कि जिन बातों को भूलने की कोशिश में वह एक अरसे से है, वह हर बार उसे अगले मोड़ पर इंतजार करती मिलती हैं, वह उत्तेजित हो गया। गाड़ी के अंदर एक बोझिल-सा भारीपन दाखिल होने लगा। उसने इतनी खिड़की खोल ली कि बारिश की बूंदें गाड़ी के अंदर न गिरें पर जो भारीपन भीतर है, वह बाहर फैल जाए। नितिन ने गाड़ी की सीट पीछे की और जेब से एक सिगरेट निकाली। वह सिगरेट जलाने ही लगा था कि फोन बज उठा।

“अभी कुछ देर और लगेगी या तड़के ही आऊँ, यह भी हो सकता है।“

माँ का यह सवाल न करना कि इतनी भीषण बारिश में कहाँ कोई सवारी मिलेगी या इस तरह बरसात में क्यूँ  परेशान होना, उसे खला नहीं।

“क्या बात है? अभी कह दो।“

यह भी उसने इस उदासीनता से कहा था, जैसे अब उसे किसी बात से कोई फ़र्क नहीं पड़ता हो।

“क्या? लेकिन उन्होंने तो साफ-साफ कहा था कि नीतू शादी के बाद अपनी पढ़ायी जारी रख सकती है?” नितिन बौखला गया।

माँ उस से कुछ और देर तक बातें करती रहीं। वह बातें उसके कान पर रेंगी लेकिन भीतर प्रवेश न कर सकी। उसे अब केवल इस बात की फिक्र थी कि नीतू जैसी समझदार भी समाज के नियम तले दब जाएगी, नीतू के लिए जिस उज्ज्वल भविष्य की कामना उसने की थी, वह उसे धूमिल होती हुई नज़र आने लगी।

माँ की बातें जैसे ही खत्म हुईं, नितिन ने तिलमिलाकर फोन रख दिया। एक भद्दी गाली उसके मुँह से लड़के के बाप के लिए निकली। उसने कुछ गुस्से से सिगरेट जलाई और धीरे-धीरे लंबे कश खींचने लगा।  उसे महसूस हुआ कि यदि उसकी पिछली नौकरी न छूटी होती तो शायद आज स्थिति कुछ और होती। अब नितिन अपनी बात रखता भी तो उसे तानों से चुप करा दिया जाता।

उसका वापस अपना जीवन पटरी पर लाना, खुद की एक टैक्सी कर लेना, किसी को दिखाई नहीं देता।

सिगरेट खिड़की से बाहर फेंक, नितिन ने अपने वॉलेट की जेब से अपनी पिछली कंपनी वाला ई-कार्ड निकाला। उस  पर यूं हाथ फिराया जैसे अपने पुराने दिनों को सहला रहा हो, वह दिन जो उससे छीने जा चुके हैं, उनपर अपना अधिकार दुबारा इख्तियार कर रहा हो।

वह खुद में ही गुम था कि खिड़की पर किसी ने दस्तक दी।।  नितिन लोगों को इतना तो पढ़ना सीख गया था कि वह उन दोनों के बीच के रिश्ते को भांप सके, दोनों की शादी को ज्यादा समय नहीं हुआ लगता  था पर लड़की की आँखों में एक मरे हुए रिश्ते को खीचने का बोझ जीवित था। 

उसने खिड़की थोड़ी और नीचे की तो उस आदमी ने रोबीली आवाज़ में पूछा-– “कालिंदी कुञ्ज जाना है, चलोगे?

“बैठो।”

वह दोनों गाड़ी में बैठ गए। नितिन ने पहले ही उन्हे देख सुनिश्चित कर लिया था कि वो कितने भीगे हैं और गाड़ी उनके बैठने से कितनी खराब हो सकती है।

जहां उन्हें जाना था, वह जगह ज्यादा दूर नहीं थी।

नितिन की टैक्सी में भिन्न-भिन्न प्रकार के लोग बैठते हैं लेकिन इतनी अलग-अलग तरह के लोगों में भी एक बात समान है कि हर सवारी मुनासिब समय से जल्दी अपने गंतव्य पर पहुँचना चाहती है।

“आर यू हैप्पी नाउ? आफ्टर इन्सल्टिंग मी इनफ्रंट ऑफ सो मैनी पीपल?”

‘मैनी पीपल? द’टस माई पेरेंट्स, माई फॅमिली यू आर टॉकिंग अबाउट। अभी ये बात करना जरूरी है? घर जाकर भी तो डिस्कस कर सकते हैं। ”

“घर जाकर क्या होगा? यू हैव नो आइडिया।“ उस आदमी ने यह कहते हुए नितिन की ओर देखा और इतमीनान कर लिया कि नितिन अंग्रेजी नहीं समझता। उसने अपनी बात अंग्रेजी में जारी रखी, “यू बिच। यू हैव स्टार्टेड अर्निंग मोर देन मी सो यू थिंक यू आर अबव मी? आई शुड नॉट हैव अलाउड यू टू वर्क इन द फर्स्ट प्लेस।”

उसकी आवाज़ द्वेष से लबालब थी और जरूर जहर की तरह उस लड़की के भीतर उतरी होगी, जिसने उसे भीतर से पूरी तरह झुलसा दिया होगा। वह ज़रा धीमी आवाज़ में बोली “व्हाट आर यू सेइंग? व्हाट अबाउट ऑल दोस टॉक्स अबाउट इकुएल्टी एण्ड एव्रीथिंग?” फिर जैसे उसने किसी तरह खुद को थामा और बोली, “लेट्स नोट क्रीए ट अ सीन हियर।“

सीन! हम हमेशा ‘सीन’ कहाँ ‘क्रीएट’ हो रहा है, इसकी चिंता में रहते हैं। भले ही ‘सीन’ में कितना भी घिनौना सच उबल रहा हो। इस से परे हमारा वास्ता होता है केवल इस बात से कि कौन यह सीन करते हुए हमे देख रहा है, क्या सोच रहा है!

उस लड़के का वही बर्ताव कायम था। उसने उसी लहज़े में कहा “यू स्लट। डॉन्ट टेल मी व्हाट टू डू।

फिर एक गहरी चुप्पी गाड़ी में गहरा गई।

नितिन यूँ ही गाड़ी चलाता रहा, जैसे उसने कुछ न देखा, न सुना हो। 

उनके उतरने की जगह आ गई। वह आदमी तेजी से उतर पैरों से जमीन ठोकता हुआ चला गया। वह लड़की ज़रा एक मिनट ठहरी, जैसे किसी बड़ी क़यामत के लिए खुद को तैयार कर रही हो। उसने अपने बैग से बटुआ निकला और नितिन को किराया चुकाया। फिर बिना नितिन को देखे ही उतरी और बड़े धीमें कदमों से आगे  बढ़ गई।

नितिन काफी देर तक वहीं खड़ा रहा। फिर वह पास वाले स्टैन्ड पर गाड़ी लेकर पहुच गया और एक सिगरेट जला ली। जो कुछ घटित हुआ वह अपने साथ एक बिजली लेके आया था, जो नितिन के भीतर कौंध रही थी। एक क्षणिक चिंगारी में भी कितनी ताकत होती है, यह उसने आज जाना। धीरे-धीरे अपनी सिगरेटे ख़त्म कर उसने अपनी पत्नी को फोन किया।

“नीतू की शादी हम अभी नहीं करेंगे। अभी वो पढ़ेगी और पहले अपना साल खत्म करेगी।”

-जूही विजय
 ई-मेल
: juhiwrites1@gmail.com

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डॉo सत्यवान 'सौरभ' के दोहे  - डॉo सत्यवान 'सौरभ'

सास ससुर सेवा करे, बहुएँ करती राज।
बेटी सँग दामाद के, बसी मायके आज॥

कौन पूछता योग्यता, तिकड़म है आधार।
कौवे मोती चुन रहे, हंस हुये बेकार॥

परिवर्तन के दौर की, ये कैसी रफ़्तार।
गैरों को सिर पर रखें, अपने लगते भार॥

अंधे साक्षी हैं बनें, गूंगे करें बयान।
बहरे थामें न्याय की, 'सौरभ' आज कमान॥

कौवे में पूर्वज दिखे, पत्थर में भगवान।
इंसानो में क्यों यहाँ, दिखे नहीं इंसान॥

जब से पैसा हो गया, सम्बंधों की माप।
मन दर्जी करने लगा, बस खाली आलाप॥

अच्छे दिन आये नहीं, सहमा-सहमा आज।
'सौरभ' हुए पेट्रोल से, महंगे आलू-प्याज॥

गली-गली में मौत है, सड़क-सड़क बेहाल।
डर-डर के हम जी रहे, देख देश का हाल॥

लूट-खून दंगे कहीं, चोरी भ्रष्टाचार॥
ख़बरें ऐसी ला रहा, रोज़ सुबह अख़बार।

मंच हुए साहित्य के, गठजोड़ी सरकार।
सभी बाँटकर ले रहे, पुरस्कार हर बार॥

नई सदी में आ रहा, ये कैसा बदलाव।
संगी-साथी दे रहे, दिल को गहरे घाव॥

जर्जर कश्ती हो गई, अंधे खेवनहार।
खतरे में 'सौरभ' दिखे, जाना सागर पार॥

थोड़ा-सा जो कद बढ़ा, भूल गए वह जात।
झुग्गी कहती महल से, तेरी क्या औक़ात॥

मन बातों को तरसता, समझे घर में कौन।
दामन थामे फ़ोन का, बैठे हैं सब मौन॥

हत्या-चोरी लूट से, कांपे रोज़ समाज।
रक्त रँगे अख़बार हम, देख रहे हैं आज॥

कहाँ बचे भगवान से, पंचायत के पंच।
झूठा निर्णय दे रहे, 'सौरभ' अब सरपंच॥

योगी भोगी हो गए, संत चले बाज़ार।
अबलायें मठलोक से, रह-रह करे पुकार॥

दफ्तर, थाने, कोर्ट सब, देते उनका साथ।
नियम-कायदे भूलकर, गर्म करे जो हाथ॥

डॉo सत्यवान 'सौरभ'
    ई-मेल: saurabhpari333@gmail.com  
    [तितली है खामोश, दोहा संग्रह)


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दूध का दाँत - संगीता बैनीवाल

कुछ यादें बचपन की कभी नही भूलती हैं । जब कभी उसी प्रकार की परिस्थितियाँ देखने को मिलती हैं तो हमारी यादें बिन बुलाए मेहमान की तरह अा टपकती हैं।

आज जब धूप में बैठ कर छुट्टी का मज़ा लेते हुए अचार के साथ पराँठे खा रहा था तो मुझे वो पराँठे की बोटी भी याद आ ही गई जो मेरे उस प्यारे से दूध के दाँत को ले बैठी थी। कैसे भूल सकता हूँ मै वो पराँठा ? वो आलू का पराँठा जो सर्दी की धूप में लॉन में बैठ कर बड़े मज़े से खा रहा था।

पराँठे तो सर्दियों में सभी तरह के अच्छे लगते हैं मगर आलू का पराँठा और अचार का मेल सोच कर ही मुँह में पानी भर देता है। ऐसा बचपन में भी हुआ था। धूप में बैठ जब आलू का पराँठा खा रहा था तभी अचानक लगा कि इसे और रुचीकर बना कर खाता हूँ ।

पराँठे पर थोड़ा सा आम के अचार का मसाला फैलाया और रोल कर लिया । बस फिर क्या था लगा घुम-घुम कर खाने।

माँ हमेशा टोकती थी कि एक जगह टिक कर बैठ कर खाया करो । मै माँ की ये बात अक्सर सुन कर अनसुना कर देता था।

मै जानता था कि इस प्रकार से खाने में माँ कोई ज़्यादा से अनुशासनिक क़ानून नही लगाती थी क्योंकि मैने एक बार दादी को ये कहते हुए सुन लिया था कि खाने दे इसे खेल-खेल में ये जल्दी खा लेता है,हाँ बाक़ी सभी जगह अनुशासन की पालना अच्छे से करवाती थी ।

हाँ तो दोस्तों हुआ यूँ कि पराँठे को काटते समय आम की गुठली दाँत के नीचे क्या आई मेरे सामने के ऊपर वाले दाँत में दर्द की लहर दौड़ गई। मैने दाँत को छू कर देखा तो वह हिल रहा था। सामने का दूध का दाँत क्या हिला मानों मेरी तो दुनियाँ ही हिल गई थी। पूँजी जो थी वो मेरे उस...... तब तक के जीवन भर की। इसके बाद तो मै जब भी खाना खाता आराम से ध्यान से खाता कहीं दाँत टूट न जाए। दर्द तो कम हो गया था मगर वह बहुत अधिक हिलने लग गया था। और जीभ उसे तो एक नया काम मिल गया। पूरे दिन दाँत को झूला देती रहती। इतना बचा कर रखने के बावजूद एक दिन केला खाते-खाते केले की बोटी में फँस गया। मै हैरान कि केले में बीज तो नही होता मगर दाढ़ के बीच में कुछ तो है निकाल कर देखा तो दाँत । हिलने के बाद इतना अधिक संभाल कर रखने के बावजूद भी आख़िरकार उसने मेरा साथ छोड़ ही दिया। कुछ दिन बाद ही मेरा जन्म-दिन ! 'हैप्पी बर्थडे' की मोमबत्ती को बुझाने में जो भारी संघर्ष किया और जो मेरी खिल्ली उड़ी सब याद है मुझे आज भी। मै फूँक रहा था हवा उस लौ पर और वह टूटे दाँत के झरोखे से कही ओर ही भाग जाती थी। हर बार मोमबत्ती बुझाने में असफल व दोस्तों के बीच हँसी का पात्र बना। दोस्तों एक दुख आप लोगों से साँझा कर रहा हूँ कि जब दाँत टूटा हो तब जन्मदिन नही आना चाहिये। जीभ तो सबसे ज़्यादा मज़े लेती है ऐसी परिस्थिति के। मेरी जीभ तब मेरे बिलकुल भी क़ाबू में न रही,जब देखो झाँक जाती थी मेरे मुख-मंडल के उस झरोंखे से बाहर और मुझे पता भी नही लगता था। उस सर्दी के मौसम में गन्ने चूसने के आनन्द से भी वंचित रहा सो अलग। जब तक नया दाँत नही आया बहुत भारी परेशानी में तो रहा मगर मैने अपनी ग़लत आदत अवश्य सुधार ली। इसके बाद खाना हमेशा साफ़ हाथों से व आराम से बैठ कर ध्यान से खाता था।


संगीता बैनीवाल......

 
 
चिन्टू जी - प्रकाश मनु

सब पर अपना रोब जमाते
नन्हे-मुन्ने चिन्टू जी !......

 
 
काश! नए वर्ष में - हलीम 'आईना'

काश! नए वर्ष में
ऐसा हो जाए। ......

 
 
गरीबी रेखा का कार्ड - शिवम् खरे

सुखी काछी ग़रीबी रेखा का कार्ड बनवाने के लिए आज पाँचवी बार सरकारी बाबू के पास आया है ।

बाबू- अरे भैय्या! तुमने साबित कर दिया की भैंस अक़ल से बड़ी होती है। दस बार कह चुका हूँ की जब तक पूरे कागज़ात सही नहीं लाओगे, कार्ड नहीं बन पायेगा।

सुखी- हुज़ूर, डेढ़ हज़ार रुपया तक की औकात ही है ग़रीब की, ले लिया जाए और ग़रीब की अरज़ सुन ली जाए सरकार।

बाबू- अरे, मरवाएगा क्या? ख़ुद का कोई ईमान धरम नहीं है तो क्या सबको अपने जैसा समझा है? चल जा अभी, साहब आएँगे तब आना।

सुखी जिस मालगुज़ार के खेत में काम करता था, वहाँ उसे पता चला कि मालगुज़ार का कार्ड बना हुआ है। वह हिम्मत करके और हैरानी के साथ मालगुज़ार से पूछता है-- "बड़े सरकार, मेरा ग़रीबी रेखा वाला कार्ड नहीं बन रहा है, बाबू बार-बार परेशां कर रहा है मालिक। आपई कुछ मदद करो प्रभु!"

मालगुज़ार ज़ोर का ठहाका लगाते हुए कहता है- "अरे काछी! ग़रीबी रेखा का कार्ड पाने के लिए ग़रीब नहीं, अमीर होना पड़ता पगलादीन!"

मालगुज़ार फिर ज़ोर से हँसता है, सुखी काछी अपनी आँखों में पीढ़ियों की विवशता लिए असहाय खड़ा है।

- शिवम् खरे
ई-मेल: shivamkhare2008@gmail.com

 

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प्यारे बापू | बाल कविता - सियाराम शरण गुप्त

हम सब के थे प्यारे बापू
सारे जग से न्यारे बापू

जगमग-जगमग तारे बापू......

 
 
ऊँचाइयाँ - हंसा दीप

ऊँचाइयाँ--डॉ हंसादीप की कहानी

डॉ. आशी अस्थाना का भाषण चल रहा है। वे एक सुलझी हुई नेता हैं। नेता और नारी दोनों की भूमिका ने उनके व्यक्तित्व को ऊँचाइयों तक पहुँचाने में मदद की है। कभी वे अपनी कुर्सी के लिए भाषण देती हैं, कभी नारी की अस्मिता के लिए। उनके विचारों के सख़्त धरातल पर कभी राजनीति हावी होती है, तो कभी समाजनीति। एक ओर सत्ता की डोर को थामे उनके भीतर शासन करने का गर्व छलकता है, दूसरी ओर एक स्त्री होने की क्षमताओं को वजन देते उनके अंदर की नारी शक्ति हिलोरें मारने लगती है। दो मोर्चे एक साथ खोल रखे हैं उन्होंने, एक तो अपने सत्ताधारी दल की अधिकृत प्रवक्ता होने का और दूसरा नारी के ख़िलाफ़ हो रहे अत्याचारों के ख़िलाफ आवाज़ उठाने का।

उनके भाषण बहुत तीखे और बहुत झकझोर देने वाले होते हैं। राजनीति के गलियारों में उनकी आवाज़ विरोधी पार्टियों की खटिया खड़ी कर देती है। एक-एक करके उनके तीखे कटाक्ष और धारदार लहज़ा उन्हें एक आक्रामक नेता की छवि देते हैं। वहीं सामाजिक परिवेश में उनकी आवाज़ पुरुषों के आधिपत्य को जड़मूल से ख़त्म करने की हर संभव कोशिश को अंजाम देने की पुरजोर चेष्टा को बलवती करती है।

राजनैतिक ठेकेदारों का आधिपत्य उनसे ख़ौफ खाता है। जब सत्ता में उनकी पार्टी होती है तब भी, और नहीं होती है तब भी। अपने विरोधी दलों की मिट्टी-पलीत करने में उनका कोई सानी नहीं– “किस देश के विकास की बात करती है यह पार्टी, किसी भुलावे में मत रहिए। उनकी पार्टी देश की नहीं अपनों के विकास की बात करती है। अपनी जेबें ठसाठस भरने से फुरसत कब मिलती है उन्हें जो देश के बारे में सोचें। अपनी आने वाली सात पीढ़ियों की चिंता में लगी ये स्वार्थी दलीय राजनीति की चालें देश को गर्त में ले जाकर ही छोड़ेंगी। हमें देखिए हमने क्या-क्या नहीं किया देश के विकास के लिए। हमारे सारे काम खुली किताब की तरह होते हैं, कुछ छिपा हुआ नहीं होता।”

कई बार इतना समय भी नहीं होता कि वे प्रेस के लिए रुक पाएँ, पूरा काफ़िला तत्काल अगली सभा की ओर बढ़ जाता। कार से जाते हुए रास्ते में पानी पीकर अगली सभा की तैयारियों में जुट जातीं। देश सेवा और समाज सेवा का पसीना मिलकर ऐसा टपकता कि लगता ऐसी ही शक्ति की ज़रूरत है हमारे देश की ज़मीन को कि इस पसीने से बहता पानी ही सूखी ज़मीन की सिंचाई कर दे। उनकी दबंगई गूँजती सत्ता के चौबारों में भी, और समाज के चौराहों पर भी।

तालियों में गूँजती उनकी आवाज़ एक मंच से दूसरे पर जाती तो उनका नज़रिया और सोच, पार्टी से हटकर समाज-सुधार की ओर होते। पित्तृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था पर उनके वार होते और हर शब्द से बगावत की बू आती- “सदियों से होते दमन और शोषण के प्रति चेतना ने स्त्री सशक्तिकरण की लड़ाई को जन्म दिया है। हाशिए पर धकेल दी गई अस्मिताओं को पुन: उनका स्थान दिलाना है। स्त्री की गरिमा को पुन: प्रतिष्ठित करने का महाभियान है यह। स्त्री का दमन पुरुष सत्तात्मक समाज में होता रहा है जहाँ उसे दोयम दर्जे का प्राणी समझा जाता है। लिंग भेद की राजनीति करके आप समाज की प्रतिष्ठा को दाँव पर लगा रहे हैं। समाज के अक्स को बदलो वरना समाज रसातल में जाएगा। कब तक दबाओगे, कब तक अपनी मनमानी करोगे, अरे बस करो अब!”

यहाँ से जाने के पहले पत्रकारों से रूबरू होना अति आवश्यक होता। पत्रकारों के समूह से कुछ महिला पत्रकार उनका इंटरव्यू लेने आगे बढ़तीं। माला और आन्या, वे टीवी एंकर जो अपने-अपने चैनल पर चिल्ला-चिल्ला कर महिलाओं की दबी हुई इच्छाओं को बाहर आने के लिए ललकारती हैं, अपने बुने जाले से बाहर आने का आह्वान करती हैं, किचन से आगे के संसार से मुख़ातिब कराती हैं, उनका सौभाग्य है कि उन्हें आज पहली बार मौका मिला है डॉ. आशी अस्थाना जी से आमना-सामना करने का। ऐसे व्यक्तित्व से साक्षात्कार करने का जिसकी आवाज़ एक आंदोलन है, स्त्री की परम्परागत छवि से एक अलग पहचान बनाने की।

“हमारे दर्शकों को बताइए आशी जी, आप स्त्रियों के अधिकारों के लिए क्या कर रही हैं?”

“मैं पूरी तरह से समर्पित हूँ इसके लिए। हमने संविधान में नयी धाराएँ जोड़ने का प्रावधान किया है। आज ही मेरी प्रधानमंत्री जी से बात हुई है। आपको पता लग जाएगा कि मैं क्या कर रही हूँ।”

“ज़रा दो लाइनों में उनके बारे में बताना चाहेंगी हमारे दर्शकों को।”

“दो लाइनों में, कैसी बात करती हैं आप! हमारा विशाल स्त्री समाज सदियों से इस आग में झुलस रहा है। इस विशालकाय समस्या को बताने के लिए दो लाइनों की नहीं, दो मिनटों की नहीं, दो युगों की जरूरत है।”

“तो क्या आपका गुस्सा पुरुषों पर है?”

“और किस पर होगा। आप ही बताइए, घर की दीवारों पर तो होगा नहीं। घर के बर्तनों पर तो होगा नहीं। यह पुरुष सत्तात्मक समाज है जिसमें हम जीने को मजबूर हैं। हमें चुटकुलों के पात्र बना खी-खी-खी करना बंद करें ये पुरुष। मैं पिछले पचास सालों से इस दिशा में चेतना जगाने का प्रयास कर रही हूँ लेकिन अकेला चना तो भाड़ नहीं फोड़ सकता न। हमारी सारी शक्ति तो रोटियाँ बेलने में लगी है।”

पत्रकार उनकी उम्र देखने लगीं वे पचपन से अधिक की नहीं थीं। लगता है कि चार-पाँच साल की उम्र से ही राजनीति और समाजनीति पर बातें कर रही हैं। समझ भी नहीं होगी कि यह सब क्या होता है, संविधान क्या होता है। खैर, अतिशयोक्ति हो ही जाती है, जोश में थोड़े होश खोना तो बनता है। ऐसे बड़े हस्ताक्षरों के हर शब्द पर नहीं हर अर्थ पर जाना बुद्धिमत्ता है।

“तो आप प्रयास करती रहेंगी औरों को जोड़ने के लिए?”

“निश्चित ही मरते दम तक करती रहूँगी। मेरा नाम आशी है, आशा से बना है और आशा कभी टूटती नहीं। जिस दिन टूटे उस दिन जिजीविषा खत्म होने का अंदेशा होने लगता है। मैं सभी बहनों से अनुरोध करूँगी कि आगे आएँ, महिला शोषण के खिलाफ आवाज़ उठाएँ और समाज में बराबरी का दर्ज़ा हासिल करें।”

प्रसिद्ध नारी चेतना की संचालक और केन्द्रीय मंत्री का बड़ा तमगा कंधे पर लगने के बाद उनका रोब काफी बढ़ गया था। अपने तमगे से टकरा कर परावर्तित होता, दुगुना होता यह आक्रोश, जब शब्दों में बाहर आता था तो जोश भर जाता था। समारोह में जान आ जाती थी। कार्यकर्ताओं को लगता कि उनकी मेहनत सफ़ल हो गयी। ऐसा दबदबा था उनका, इतना कि उनके सामने किसी की भी बोलती बंद हो जाती। अपने सफल कार्यक्रमों के बाद जब वे घर पहुँचती थीं तो उनका बेटा और पति स्वागत के लिए तैयार रहते। आधे घंटे पहले अव्यवस्थित पड़ी हर चीज़ अपनी जगह पर जाकर मुस्कुराने लगती। किचन का काउंटर टाप साफ हो जाता व फर्श पर बिखरे जूते, मोजे, कचरा-बगदा सब गायब हो जाते।

वे बहुत खुश होतीं, अपनी किस्मत पर रश्क़ करतीं और थकी-हारी आकर चाय के साथ अपने दिन की वर्चस्वता का बखान करतीं। कितना आदर-सत्कार है उनका हर ओर! लोग कितने डरते हैं उनसे! उनके भाषण कौशल्य की दाद हर कोई देता है। एक मिसाल हैं वे अपने राजनैतिक और सामाजिक समाज में। यहाँ तक कि सारे पुरुष नेता भी भयभीत हो जाते हैं कि पता नहीं कब उनकी खिंचाई हो जाए।

घर का माहौल देखते-सुनते, जवान होते बेटे अलंकार को जो समझ में आता था वह यह कि किसी भी लड़की को कभी भी कम नहीं समझना चाहिए। घुट्टी में पी-पीकर अंदर तक पैठ चुकी थी यह समझ। वह स्वयं को देखता और सोचता- “काश, वह एक लड़की के रूप में जन्म लेता! लड़कियाँ कितनी ताकतवर होती हैं! बिल्कुल माँ की तरह होता वह भी, निडर।” लेकिन वह एक लड़का है इसीलिए उसे पापा की तरह रहना होगा। हमेशा डरे-डरे और सहमे-सहमे। शायद इसीलिए खुद को किसी भी लड़की से बहुत कमज़ोर समझता था वह। उसका दिमाग़ लड़कियों से दूर रहने की ताकीद करता रहता। लड़कियों के लिए उसके मन में एक अनजाना-सा डर था ।

पापा को रोज़ देखता था, बचपन से लेकर आज तक। वे घर में तब अधिक रहते थे जब माँ नहीं होतीं। माँ के घर आते ही घर से बाहर जाने का उन्हें कोई न कोई काम निकल आता। देखता था कि माँ के घर आ जाने पर वे किस तरह दबे-दबे रहते हैं। उनकी अनुपस्थिति में वे बिंदास होते थे, मस्त खेलने, हँसने-हँसाने वाले। वह भी डरता था माँ से। जानता था कि माँ उसे बहुत प्यार करती हैं। उसके लिए सब कुछ कर सकती हैं लेकिन पापा के लिए वे कुछ अधिक ही कठोर हैं। पापा को माँ के सामने चुप रहते देख उसे अच्छा नहीं लगता था। पापा की मजबूरी उसकी कमज़ोरी बनती जा रही थी।

इस सबसे बेखबर आशी जी ने अपने रुतबे के साथ अपने अलंकार के लिए लड़की देखना शुरू कर दिया। सोशल मीडिया पर उसकी प्रोफाइल लगा दी। संदेश आने-जाने लगे। कुछ प्रस्ताव अपने स्तर के लगे तो अलंकार से बात करनी जरूरी लगी– “बेटे यह लड़की अच्छी लग रही है, इससे बातचीत शुरू करो।” अलंकार देखता, मन से, अनमने मन से, पर देखता जरूर। कोई न कोई ख़ामी नज़र आ ही जाती। माँ का बचाव पक्ष मजबूत होता तो उसे बचने के कोई आसार नहीं दिखाई देते। तब आखिरी हथियार आजमाता, वह साफ कह देता– “मुझे शादी नहीं करनी”।

आमतौर पर हर युवा मन अपनी वैवाहिक गतिविधि को ना-नुकूर से ही शुरू करता है और धीरे-धीरे सब कुछ सामान्य हो जाता है, यही सोचकर आशी जी आश्वस्त थीं। एक के बाद एक अच्छे-से, ठोक-बजा कर चयन किए गए रिश्तों का यही हश्र होता रहा तो उनका माथा ठनका। अगले रिश्ते में वे अड़ गयीं– “अच्छा बताओ, क्या ठीक नहीं लग रहा? लड़की सुन्दर है, पढ़ी लिखी है, परिवार अच्छा है और क्या चाहिए तुम्हें?”

“ये तो आपके मापदंड हैं, मेरे नहीं।”

“तो तुम अपने मापदंड बताओ, बताओगे नहीं तो पता कैसे चलेगा।”

“आपको पता होना चाहिए, नहीं पता है तो पता लगाइए।”

घुमा-फिरा कर देने वाले जवाब किसी ओर-छोर तक नहीं पहुँचे। आशी जी की तलाश जारी रही और अलंकार का इनकार जारी रहा।

आज सुबह उनका यह आशावादी रवैया डगमगाने लगा था। दिल को धक्का लगा था तब, जब बेटे अलंकार की मेज से एक पेन उठाने गयी थीं। वह सब कुछ, जिसकी कभी कल्पना भी नहीं की थी उन्होंने। उसका लैपटॉप खुला था, किसी से प्यार भरी बातें हो रही थीं। वे खुश हुईं– “यह है उसके इनकार का कारण। उसने पहले ही कोई लड़की पसंद कर रखी है। पगला, इतनी सी बात नहीं बता पाया मुझे।”

मगर अगले ही पल जिसकी फोटो देखी वह झकझोर देने वाली थी। यही एक कारण था कि बेहद महत्वपूर्ण समारोह के बाद भी आशी जी तनाव में थीं। भाषण की तैयारियों का जोश धूमिल हो गया था। उस समय यह प्राथमिकता थी, समारोह में जाकर मुख्य अतिथि की भूमिका निबाहने की। वह पूरा होते ही फिर से सुबह की घटना विचलित करने लगी। एक भय था, कहीं परिस्थितियाँ उनके खिलाफ तो नहीं हो रहीं, घर में उनकी अनुपस्थिति किसी भावी संकट की नींव को पुख़्ता तो नहीं कर रही! आशंकाओं के घेरे में सब कुछ ठीक होने की अपनी आशा को कायम रखने की कोशिश कर रही थीं वे।

ऐसी परिस्थिति थी यह, जो इतनी दबंग नारी को निराश कर रही थी। अपने वातानुकूलित चेम्बर में भी पसीना आ रहा था उन्हें। एक झूठा दिलासा था कि शायद वे हर छोटी बात को बहुत गंभीरता से लेती हैं। उतनी गंभीरता से लेने की आवश्यकता नहीं है। बहुत बार समझाया खुद को कि सब कुछ इस तरह लो जैसे ऐसा कुछ खास नहीं देखा उस फोटो में, जो उसकी स्क्रीन पर था। हो सकता है वहीं किसी लड़की की तस्वीर हो जो छुप गयी हो। उनकी आँखों का भ्रम हो यह। कुछ ज़्यादा ही सोचने लगी थीं वे अपने जवान बेटे के बारे में।

ऐसी छोटी-मोटी बातों से इतनी बेचैनी क्यों। ज़रा-सी बात में बात का बतंगड़ बनाने का कोई फायदा नहीं। अलंकार से बात करके सब कुछ साफ किया जा सकता है। सबसे अच्छा तो यही होगा कि उसकी शादी की बात चलायी जाए। अच्छा रिश्ता मिल जाए तो जल्द से जल्द हाथ पीले कर दिए जाएँ। बेटे के लिए इतना भी नकारात्मक सोचने की जरूरत नहीं है। कई अच्छे रिश्तों की लंबी कतार थी मगर अलंकार का कहीं भी ध्यान नहीं था। रिश्ते पर चर्चा होती, मगर अलंकार हर बार एक ही बात कहता– “उसे शादी नहीं करनी है।”

जो माँ से नहीं कह पा रहा है वह यह कि वह लड़की से बात करते हुए भी डरता है। एक खौफ़ है मन में। जैसी पापा की हालत है वैसी अपनी हालत होते देखता है। आए दिन के माँ के भाषण समारोहों और टीवी कार्यक्रमों को देख पापा की दहशत और बढ़ती थी। उन्हें पता था कि जितना सफल कार्यक्रम होगा उतना अधिक घर का वातावरण रोबीला होगा। इस खौफ़ की वजह से उसका मन कहीं और लग गया है। वह अपने दोस्तों में अपनी खुशी ढूँढने लगा है। हर लड़की से वह दूर रहने की कोशिश करता रहा। कभी भूले से कोई सामने भी आ जाती तो रास्ता काट कर निकल जाता। काली बिल्ली तो अपने रास्ते पर जाते हुए अनजाने में लोगों के रास्ते में पड़ जाती है, बेचारी गालियाँ खाती है। अलंकार स्वयं को सुरक्षित रखने के लिए किसी और का नहीं, अपना ही रास्ता काटता। अपने घेरे से कभी बाहर ही नहीं आता।

कई बार किसी पारिवारिक शादी के समारोह में जाना पड़ता तो एक ऐसी जगह जाकर बैठता जहाँ कोई उसे देख न सके, या फिर किसी बहाने से वहाँ से बगैर खाए-पीए अपने घर वापस आ जाता। इकलौती संतान होने के जितने फ़ायदे हैं उतने ही नुकसान भी हैं। वह अपनी घुटन को किसी से साझा नहीं कर सकता। अपने अंदर के भय को बाहर नहीं ला पाता। अपने आपको अपराधी पाता है जब पापा चुपचाप माँ के आगे-पीछे बगैर सवाल किए ऐसे चलते हैं जैसे माँ के इशारों पर वे सिर्फ एक कठपुतली की तरह नाच रहे हैं । उसे माँ से बात करना भी अच्छा नहीं लगता। वह उनसे भी दूर रहता। स्त्री मात्र की छाया से भी दूर जहाँ किसी प्रकार का कोई हिटलरी फरमान जारी न हो।

आशी जी की आशा अभी भी साथ थी। मन में दृढ़ निश्चय था कि ऐसी लड़की ढूँढ कर लाएँगी कि देखते ही अलंकार शादी के लिए “हाँ” कर देगा। हर दूर के, पास के रिश्तेदार को सूचित किया कि अलंकार के योग्य कोई रिश्ता नज़र में हो तो तुरंत बताए। एक के बाद एक कई रिश्ते आए, उसने “हाँ” नहीं की तो नहीं की।

अपने स्वभाव के प्रतिकूल शहद जैसी मिठास के साथ पूछा आशी जी ने– “बेटा बात क्या है? मैं भी तो जानूँ, क्यों शादी नहीं करना चाहते तुम?”

“इस लड़की वाली किट-किट से दूर रहना चाहता हूँ मैं।”

“आखिर क्यों?”

“मुझे लड़कियों से सख़्त नफ़रत है।”

“नफ़रत है! क्या किसी ने दिल तोड़ा है तुम्हारा?”

“बचपन से अभी तक कई बार दिल टूटा है माँ, मेरा भी और पापा का भी।”

“तू क्या कह रहा है अलंकार, मेरी तो कुछ समझ में ही नहीं आ रहा। शादी नहीं करेगा तो करेगा क्या?”

“शादी तो मैं करूँगा पर किसी लड़की से नहीं।”

“अरे लड़की से नहीं करेगा तो क्या तू लड़के से शादी करेगा?”

“हाँ।”

“अलंकार…”

बेटे के गालों पर एक कस कर थप्पड़ मार देती हैं वे। तमतमाता कर चला जाता है वह।

हवा अब उल्टी दिशा से बह रही थी जो किसी तूफ़ान का संकेत दे रही थी, तबाही का भी। जो देखा था आशी जी ने और जिस सच को नकारने पर तुली हुई थीं, अब वह सामने खड़ा था। एक हट्टे-कट्टे मुस्टंडे का फोटो, जिसको पुच्चियाँ दी जा रही थीं और गंदे इशारे किए जा रहे थे।

ऐसा ही कुछ डॉ. आशी अस्थाना को लग रहा था जैसे कि कोई उनकी अस्मिता को ललकार कर गया है। वह और कोई नहीं, उनका अपना बेटा अलंकार जिसे वे जी-जान से चाहती हैं। वे न तो अपने पति से बात कर पायीं, न अपने बेटे से। इतनी दूरियाँ थीं उन तीनों के बीच कि उन्हें लगा वे बहुत ऊँचाई से उन दोनों को खींचने की कोशिश कर रही हैं। वे इतने नीचे खड़े हैं कि उन तक पहुँचना नामुमकिन है। उनकी हालत उस मकड़ी की तरह हो गयी है जो दीवार की ऊँचाइयों को तो नाप लेती है लेकिन वहाँ बनाए गए बसेरे में उसका अपना कोई नहीं होता।

आशी जी भी अपनी ऊँचाइयों पर अपने आसपास एक जाला बुनते आयी थीं जिसके मजबूत रेशों में वे अंदर तक कैद हो गयी थीं। वे जाले उनके हर अंग को जकड़ रहे थे। जालों के जाल में वे उलझ कर रह गयी थीं। अपने आसपास के उस मकड़जाल में कैद जहाँ से निकलने का कोई रास्ता ही नहीं था।

-हंसा दीप, कनाडा  


......
 
 
रेल | बाल कविता - हरिवंशराय बच्चन

आओ हम सब खेलें खेल

एक दूसरे के पीछे हो

लम्बी एक बनायें रेल ।

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गिलहरी का घर | बाल कविता - हरिवंशराय बच्चन

एक गिलहरी एक पेड़ पर
बना रही है अपना घर,......

 
 
नववर्ष पर.. - अमिता शर्मा

नव उमंग दो नव तरंग दो
नव उत्साह दो नव प्रवाह दो......

 
 
नये बरस में कोई बात नयी - रोहित कुमार 'हैप्पी'

नये बरस में कोई बात नयी चल कर लें
तुम ने प्रेम की लिखी है कथायें तो बहुत......

 
 
ऐसा नहीं कि... - रोहित कुमार हैप्पी

ऐसा नहीं कि कोई सवालात नहीं हैं
मुंह खोलने के बस बचे हालत नहीं हैं

रंजिश कोई उससे मेरी तकरार नहीं है ......

 
 
ताजपुर जंगल में आतंकी - राजेश मेहरा

ताजपुर जंगल में शाम का समय था। हल्की हल्की सर्द हवा बह रही थी।आसमान में बादल थे ऐसा लग रहा था जैसे बरसात होगी। सब जानवर अपना खाना खा कर तेजी से अपने अपने घरों की तरफ जा रहे थे। बीनू बाज भी आसमान के रास्ते अपने घोसले की तरफ जा रहा था। आज वह अपने घोसले से बहुत दूर आ गया था इसलिए वह जल्दी से उड़ कर अपने घर पहुंचना चाहता था। अचानक उसकी निगाह नीचे एक पहाड़ी की ओट में पड़ी, उसने देखा की चार भेड़िये अपने मुहँ पर कपडा बांधे और अपने आप को दुसरे जानवरों से बचाते व् छुपाते हुए ताजपुर जंगल की तरफ बढ़ रहे थे।बीनू बाज को उनकी इस हरकत पर कुछ शक हुआ। उसने एक बार तो सोचा मरने दो मुझे क्या लेकिन उसने सुन रखा था की उसके जंगल पर आने वाले नए साल के मोके पर कुछ आतंकी हमला कर सकते है, तो उसने उन चारो भेड़ियों की हरकत के बारे में पता लगाने का निश्चय किया। वह धीरे से नीचे आया और एक पेड़ पर छुप कर बैठ गया। अब बीनू बाज तो उन चारो भेडियों को देख सकता था लेकिन वो चारो उसको नही देख सकते थे।

वो चारो भेड़िये भी उसी पेड़ के नीचे आकर बेठ गए। काले बादलों की वजह से अंधेरा होने लगा था। चारो भेड़ियों में से एक बोला- बस अब थोड़ी देर की बात है ताजपुर जंगल के सब जानवर सो जायेंगे और फिर हम उनपर हमला कर देंगे। दूसरा बोला- हां सब अपने अपने हथियार चेक कर लो। इतना कहने पर सबने अपने थेलों में छिपाई हुई आधुनिक बन्दुक को निकाल कर देखा और सबने एक साथ कहा-सब ठीक है। अब बीनू बाज भी घबरा गया और उसका शक ठीक था । अब उसने सोचा सब जंगल वालों को इसके बारे में बताना चाहिए जिससे वो अपने बचाव में कुछ कर सकें। वह तुरंत धीरे से उस पेड़ से उड़ा और अपने ताजपुर जंगल के द्वार पर पंहुचा। डर और घबराहट से वह पसीने पसीने हो रहा था। उसको इस हालत में देख कर खेमू खरगोश बोला-अरे बीनू इतना घबराये और बदहवास से कहाँ भागे जा रहे हो ? इतना सुनकर बीनू बाज रुका और नीचे आकर के खेमू खरगोश के पास बेठ गया। उसने जल्दी से उन आतंकी भेडियों की बात उसे बताई। अब खेमू खरगोश भी परेशान हो गया और काफ़ी घबरा गया।बीनू बाज जाने लगा और बोला-मुझे सारे जंगल वासियों को बताना पड़ेगा। इतना सुनकर खेमू खरगोश बोला- बीनू यदि तुम ये बात सारे जंगल को बताओगे तो सारे जंगल वासी घबरा जायेंगे तथा जंगल में ज्यादा हलचल और भगदड़ मच जायेगी इसे देखकर हो सकता है वो भेड़िये आज हमला ना करके फिर कभी करे और हो सकता है की अगली बार हमे ना पता लगे की वो कब हमला करेंगे इसलिए उन्हें हमें आज ही पकड़ना पड़ेगा और अपने जंगल को भी बचाना पड़ेगा। बीनू बाज को खेमू खरगोश की बात में दम लग रहा था। वह थोड़ी देर चुप होकर बोला-फिर हम दोनों कैसे अकेले अपने जंगल को बचायें? खेमू खरगोश बोला- हम दोनों ये नहीं कर सकते इसलिए हमे और साथी लेने पड़ेंगे, हमारे पास समय हे वो लोग सबके सो जाने पर ही हमला करेंगे। अब हल्की बरसात शुरू हो चुकी थी। इतने में खेमू खरगोश बोला-मुझे एक तरकीब सूझी है मेरे पीछे आओ। खेमू खरगोश और बीनू बाज जल्दी से ताजपुर जंगल के सेनापति चीनासिंह चीता के पास पहुंचे और उन्हें सारी बात जल्दी जल्दी बताई। वो उनकी इस बात से सहमत थे की उन्हें हमे आज ही और बिना किसी शोर शराबे के पकड़ना पड़ेगा।तभी खेमू खरगोश ने उन भेड़ियों को पकड़ने की एक योजना बताई तो वो खुश हुए।सेनापति बोला-हां ये ठीक रहेगा इससे हम उनको बिना किसी शोर शराबे के पकड़ सकेंगे। वो तीनो मिलकर अजगर भाईयोंके पास पहुंचे और उनको भी सारी बात बताई तो वो भी झट से उबके साथ चलने को तैयार हो गये। वो सब मिलकर जुगनू के मोहल्ले में पहुँचे और उनको भी बात बता कर अपने साथ ले लिया वो सब भी सहायता को तैयार हो गये और उनके साथ चल दिये। अब सब मिलकर बीनू बाज के पीछे उन छूपे भेडिये आतंकियों के ठिकाने की तरफ चल दिये। जब वो सब उन आतंकियों के पास पहुँच हए तो बीनू ने उन्हें रूकने का इशारा किया। अँधेरा काफी हो गया था और अब बरसात भी तेज थी लेकिन उन सब को दिख रहा था की वो आतंकी वहीँ छिपे हुए है। अब सेनापति चीनासिंह ने कहा- अब हमे अपनी योजना पर काम करना है। बीनू तुम अपनी चोंच में उठाकर इन अजगर भाइयों को पेड़ की डाल पर ठीक उन आतंकियों के सिर के ऊपर बेठाकर आओ। सेनापति ने अजगर भाइयों को खा की जैसे ही ये सब जुगनू पेड के एक साथ तेज रोशनीकरें तो तुम उन चारो भेड़ियों पर पेड़ पर से हमला कर के दबोच लेना और उसके बाद में और खेमू उनको जाल डालकर कैद कर लेंगे उन चारो ने सहमतिसे सिर हिलाया।बीनू ने वैसा ही किया और एक एक करके उन चारो अजगर भाइयों को डाल पर अपनी चोंच से लेजा कर बेठा दिया था और उन आतंकियों को अहसास भी नही हुआ। उसके बाद खेमू ख़रगोश जुगनू के दल की तरफ इशारा किया तो वो लोग पेड़ के ऊपर झूंड में खड़े हो गये। जेसे ही खेमू खरगोश ने मुहँ से आवाज निकाली तो तुरंत जुगनू चमकाने लगे और इतनी रौशनी हो गई की वो आतंकी साफ़ दिखने लगे तुरंत ही चारो अजगर पेड़ से एक एक करके उन पर झपटे, इससे पहले की वो कुछ समझ पाते खेमू खरगोश और सेनापति चीतासिंह ने उन्हें जाल में पकड़कर कैद कर लिया और झटपट बीनू बाज ने उनके हथियार छीन लिए। वो अब पूरी तरह से कैद में थे । उनको पकड़ कर उसी समय जंगल के राजा शेरसिंह के सामने पेश किया गया। सेनापति ने सारी बात बिस्तार से राजा को बताई और ये भी बताई की इसके बारे में पहले आपको क्यों नही बताया गया था ताकि ज्यादा शोर शराबा ना हो और ये आतंकी भेड़ियेसतर्क होकर भाग ना जाएँ। राजा ने खेमू खरगोश, बीनू बाज, अजगर भाईयों और जुगनू भाइयों को उनकी बहादुरी का इनाम दिया और उन आतंकियों को कैद में डाल दिया।

राजेश मेहरा
ई-मेल: rajeshkumar5970@rediffmail.com

 

......
 
 
जानवरीयत - डॉ. चंद्रेश कुमार छ्तलानी

वृद्धाश्रम के दरवाज़े से बाहर निकलते ही उसे किसी कमी का अहसास हुआ, उसने दोनों हाथों से अपने चेहरे को टटोला और फिर पीछे पलट कर खोजी आँखों से वृद्धाश्रम के अंदर पड़ताल करने लगा। उसकी यह दशा देख उसकी पत्नी ने माथे पर लकीरें डालते हुए पूछा, "क्या हुआ?"

उसने बुदबुदाते हुए उत्तर दिया, "अंदर कुछ भूल गया..."

पत्नी ने उसे समझाते हुए कहा, "अब उन्हें भूल ही जाओ, उनकी देखभाल भी यहीं बेहतर होगी। हमने फीस देकर अपना फ़र्ज़ तो अदा कर ही दिया है, चलो..." कहते हुए उसकी पत्नी ने उसका हाथ पकड़ कर उसे कार की तरफ खींचा।

उसने जबरन हाथ छुड़ाया और ठन्डे लेकिन द्रुत स्वर में बोला, "अरे! मोबाइल फोन अंदर भूल गया हूँ।"

"ओह!" पत्नी के चेहरे के भाव बदल गए और उसने चिंतातुर होते हुए कहा,
"जल्दी से लेकर आ जाओ, कहीं इधर-उधर हो गया तो? मैं घंटी करती हूँ, उससे जल्दी मिल जायेगा।"

वह दौड़ता हुआ अंदर चला गया। अंदर जाते ही वह चौंका, उसके पिता, जिन्हें आज ही वृद्धाश्रम में दाखिल करवाया था, बाहर बगीचे में उनके ही घर के पालतू कुत्ते के साथ खेल रहे थे। पिता ने उसे पल भर देखा और फिर कुत्ते की गर्दन को अपने हाथों से सहलाते हुए बोले, "बहुत प्यार करता है मुझे, कार के पीछे भागता हुआ आ गया... जानवर है ना!"

डबडबाई आँखों से अपने पिता को भरपूर देखने का प्रयास करते हुए उसने थरथराते हुए स्वर में उत्तर दिया, "जी पापा, जिसे जिनसे प्यार होता है... वे उनके पास भागते हुए पहुँच ही जाते हैं..."

और उसी समय उसकी पत्नी द्वारा की हुई घंटी के स्वर से मोबाइल फोन बज उठा। वो बात और थी कि आवाज़ उसकी पेंट की जेब से ही आ रही थी।

- डॉ. चंद्रेश कुमार छ्तलानी......

 
 
प्रार्थना  - रामकुमार वर्मा

बापू, तुम करो स्वीकार
आज शत शत मस्तकों का नमन बारबार ......

 
 
उदयेश्वर नीलकंठेश्वर - डॉ प्रियंका जैन

उदयपुर का नाम लें और दिमाग में आता है - राजस्थान राज्य के मेवाड़ क्षेत्र में झीलों का शहर - उदयपुर!

न, न, ये वो नहीं है! मैं बात कर रही हूँ, अपने मूल निवास स्थान 'गंज बासौदा' शहर की जो कि मध्य प्रदेश के जिला विदिशा के सम्राट अशोक के साँची स्तूप के निकट है। इस शहर के बाहरी इलाके में लगभग 12 किलोमीटर दूर एक बहुत ही सुंदर ऐतिहासिक मंदिर और उसके आसपास के कई छोटे-छोटे मंदिर हैं और यह अज्ञात व अनूठी जगह का नाम है - "उदयपुर"।

उदयेश्वर नीलकंठेश्वर

यह उदयपुर एक प्राचीन पूर्व मुखी शिव मंदिर के लिए प्रसिद्ध है, जिसकी वास्तुकला इतनी अनोखी है कि सूर्य की पहली किरण वर्ष में दो बार मंदिर के मुख्य देवता'भगवान उदयेश्वर नीलकंठेश्वर' पर पड़ती है। उस समय, जब गणित ज्योतिष में विषुवों के आसपास सूर्य विषुवत् रेखा पर पहुँचता है तथा दिन और रात दोनों बराबर होते हैं।

यह मंदिर 11वीं शताब्दी में राजा उदयादित्य द्वारा बनाया गया था। राजा उदयादित्य परमार वंश के महान राजा भोज के पुत्र और शहर भोजपाल यानी भोपाल के संस्थापक थे। कहा जाता है कि पुष्य नक्षत्र में हर महीने का एक दिन इस मंदिर के निर्माण के लिए निर्धारित किया गया था। 26 दिनों तक नक्काशी और अन्य सामग्री तैयार होने के बाद, मंदिर की वास्तविक इमारत 27वें दिन केवल 24 घंटे की अवधि में होती थी।

यह आकर्षक कहानी पूरी होती है शिखर के शीर्ष के पास पत्थर में एक मानव आकृति के साथ। ऐसा कहा जाता है कि मंदिर का निर्माण कार्य पूरा होने के बाद 'कलशारोहण' के लिए एक शिल्पकार ऊपर गया और उसने कलश स्थापित किया। स्वयं की कलाकृति को निहारते हुए, वह अभिभूत शिल्पी कुछ क्षणों के लिए हतप्रभ रह गया। इसी वक्त सूर्य उदय हो गया और वह कलाकार पत्थर में परिवर्तित हो गया, अनंत काल के लिए अपनी कला और देवता को समर्पित।

इतना ही नहीं¸ इस मुख्य मंदिर के बाहृ परिदृश्य में भगवान शिव का नटराज रूप, नारी रूप भगवान गणपति, सूर्य देव, नक्काशीदार चामुंडा माता, देवी सरस्वती, अर्धनारेश्वर (एक शरीर में नर और मादा रूपों का प्रतीक) और विभिन्न नृत्य मुद्राओं के साथ रूपजटिल नक्काशीदार स्तंभ भी हैं। आस पास बिखरी हुई शिलाओं पर कुछ अधूरे रेखा चित्र (ब्लू प्रिंट) जैसे कि आज भी इंतज़ार कर रहे हैं मंदिर के किसी भाग में अंतिम रूप दिए जाने का।

यह सांस्कृतिक धरोहर पूर्ण रूप से सुरक्षित है और अब भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के संरक्षण में है। यह जगह भारतीय संस्कृति का एक छिपा रत्न है जिसे देखे बगैर छोड़ा नहीं जा सकता।

स्वागत है मेरे घर 'गंज बासौदा' में ...मेरा मूल निवास... मेरा गर्व!

-डॉ प्रियंका जैन
 सह निदेशक ......

 
 
इंग्लिश रोज़ - अरुणा सब्बरवाल

इंग्लिश रोज़

वह आज भी खड़ी है... वक्त जैसे थम गया है... दस साल कैसे बीत जाते हैं... इतने वर्ष.... वही गाँव...वही नगर...वही लोग... यहाँ तक कि फूल और पत्तियां तक नहीं बदले। टूलिप्स सफेद डेज़ी लाल और पीला गुलाब वापिस उसकी तरफ ठीक वैसे ही देखते हैं जैसे उसकी निगाह को पहचानते हों।

चशैयर काऊंटी के एक गाँव तक सिमट कर रह गई है उसकी जिन्दगी। अपनी आराम कुर्सी पर बैठ वह उन फूलों का पूरा जीवन अपनी आँखों से जी लेती है। बसन्त से पतझड़ तक पूरी यात्रा... हर ऋतु के साथ उसके चेहरे के भाव भी बदल जाते हैं... कभी मुस्कुराहट तो कभी उदासी। अचानक घंटी की आवाज़ सुनते ही वह उचक कर दरवाजे़ की ओर भागती है। सामने नीली आँखों तथा भूरे घुंघराले बालों वाला बालक खड़ा है... एक देसी चेहरा देख कर वह घबराया फिर हाथ आगे बढ़ाता बोला, “आई एम शॉन... आपके गार्डन में मेरी गेंद गिरी है। क्या मैं ले सकता हूँ... ?’’

“ऑफ़कोर्स... अन्दर आओ...’’ गार्डन में एक नहीं छः गेंदे पड़ी थीं। वह थैंक्स कह कर जाने ही वाला था कि विधि की ममता ने उसे रोक कर पूछ ही लिया... ’"कोक पियोगे...?"

एकाएक उसकी आँखें डबडबा जाती हैं। वर्षों का जमा दर्द उसकी आँखों से बहने लगता है। वह खिड़की से टकटकी लगाये उसे देखती रही। उसके आँसुओं की धारा चेहरे से होते हुए उसके आँचल को भिगाने लगी। सोचते-सोचते वह अपने जीवन के विकृत पन्नों के अंधेरों में डूब गई... जब उसकी सास शरद जैसे अपने बेटे को जन्म देने के अहम् की जय और कैंसर से जूझती उसकी पत्नी की पराजय का उत्सव मना रही थी, जिसने अभी-अभी पैदा होते ही अपना बेटा खोया था। उसके राम जैसे बेटे शरद ने अपनी कैंसर से लड़ती पत्नी को प्यार और सहानुभूति के दो शब्दों के स्थान पर अपमान मे ही उसका निजी समान सौंपते हुए कहा था.-- "अब तुम मेरे लिए व्यर्थ हो....."

"व्यर्थ...’ भला एक इन्सान व्यर्थ कैसे हो सकता है?"  पत्थरों की भाँति लगे थे वे कठोर शब्द उसे दिल पर... तिलमिला उठी थी वह... इस गहरी चोट पर... एक चिंगारी लग गई थी उसके तन-मन पर। यह घात उसके शरीर पर नहीं उसकी आत्मा पर लगा था। वही पत्नी जो कैंसर होने से पहले उनके मन में लालसा और आकर्षन के ज्वार पैदा करती थी, जिसका रुतबा था, पढ़ी-लिखी थी, आज उसे ही एक छाती न होने पर व्यर्थ कह कर कूड़े में फेंक दिया गया है।

उसे शरद के इस व्यवहार पर विश्वास नहीं हुआ। सोचने लगी ऐसा तो वह कभी न था। उसे शरद के व्यक्तित्व में से कोई शख्स अन्दर-बाहर होता नज़र आ रहा था। उसकी “माँ’’ जिसका आतंक, होल्ड और कंट्रोल घर के सभी सदस्यों पर था, विशेष रुप से शरद पर। उसकी माँ जितनी भी गलत बात करे, वह चुप ही रहता और उसकी माँ उसकी चुप्पी का अर्थ अपने ही हक में ले लेती। शरद यह नहीं जानता कि मौखिक शब्दों की भी जिम्मेदारी होती है। उस दिन भी वही हुआ... वही चुप्पी... अपमान बोध की चुभन... विधि के मन... आत्मा को बंधे जा रही थी। अपने जीवन साथी के प्रति उसके मन में विरक्ति पैदा हो गई थी... घृणा जम गई थी, किंतु यही सोच कर उसके मन को संयमित रखा और समझाया कि जीवन समय से आगे निकलने का नाम है न कि ठहरी पहाड़ी। बेशक विधि का जीवन की सुन्दरता और अच्छाई से भरोसा उठ गया था, फिर भी वह न रोई... न गिड़गिड़ाई... न ही टूटी। सभी संभावनाओं के बावजूद उसकी चेतना, आत्मस्वाभिमान धीरे-धीरे अपना स्थान ग्रहण करने लगे, जो अस्वीकरण की भावना से कहीं दब सा गया था। घर वाले उस पर तलाक लेने का दबाव डालने लगे। पल भर को उसके मन में आया भी कि वह तलाक न देकर उम्र भर उसे लटकाती रहे... फिर सोचा--"ऐसा करने से उसमें और मुझमें अन्तर ही क्या रह जायेगा। बदले की भावना से ठहरा पानी बन कर रह जाऊँ! जिन्दगी आगे बढ़ने का नाम है... और उसे तो आगे बढ़ना है नदी की भाँति।"

बेटे का शौक मनाने के बाद वह बाहर आने-जाने लगी। अपने जीवन को समेटने का प्रयास करने लगी। प्रयास कभी खाली नहीं जाता, शीघ्र ही उसे दिल्ली के नामी कालेज में प्रोफेसर की नौकरी मिल गई। अपने क्षेत्र में पारंगत होने के कारण सभी सहकर्मियों में वह बहुत लोकप्रिय हो गई।

जवान, लम्बी पतली खूबसूरत विधि जहाँ से गुजरती लोगों की गंदी नज़रों से न बच पाती। औरत जब सुन्दर...प्रतिभाशाली और अकेली हो तो हर पुरुष उसे अपनी धरोहर समझने लगता है। लोगों की ऐसी सोच से वह तंग आ चुकी थी। एक दिन उसके भीतर से आवाज़ आई- "विधि... तुम अगर अपनी ढ़ाल नहीं बनोगी तो समाज के भेड़िये तुम्हारा दिल और शरीर दोनों नोच डालेंगे। अकेलेपन की लम्बी गुफा का कोई छोर नहीं है। और देर मत करो।" इस बात को ध्यान में रखते हुए वह अपने भाइयों की बात मानने को तैयार हो गई, जो उस पर कई वर्षों से दूसरी शादी का दबाव डाल रहे थे। एक दो जगह रिश्ते की बात भी चलाई उसके भाइयो ने, किंतु कहीं बड़े बच्चों के स्वार्थ के कारण या फिर एक छाती न होने के कारण बात कहीं बन न पाई। लोगों की ऐसी मनोवृति को देखकर उसकी बड़ी बहन ने कुछ समय के लिए उसे लन्दन बुला लिया। लन्दन से लौटते वक्त उसकी मुलाकत उसके साथ बैठे जॉन से हुई। बातों-बातों में उसने बताया कि रिटायरमैन्ट के बाद वह भारत घूमने जा रहा है, जहां उसका बालपन गुज़रा था। उसके पिता ब्रिटिश आर्मी में थे। दस वर्ष पहले उनकी पत्नी का देहान्त हो गया था। तीनों बच्चे शादी-शुदा हैं। अब उनके पास समय ही समय है। भारत से उसका आत्मीय संबंध है। मरने से पहले वह अपना जन्म स्थान देखना चाहते है, वह उनकी हार्दिक इच्छा है। बातों-बातों में आठ घंटे का सफर न जाने कैसे बीत गया। एक दूसरे से विदा लेते लेने से पहले दोनों ने अपने-अपने पते और टेलीफोन नम्बर का आदान-प्रदान किया।

“विधि, मैं भारत घूमना चाहता हूँ, अगर किसी गाईड का प्रबन्ध हो जाये तो आभारी होऊँगा।’’ जॉन ने निवेदन किया।

“भाइयों से पूछ कर फोन कर दूँगी।" विधि ने आश्वासन देते हुए कहा। दूसरे दिन अचानक जॉन सीधे विधि के घर पहुँच गये। छः फुट लम्बी देह, कायदे से पहनी गई विदेशी वेशभूषा, काला ब्लेज़र विधि ने भाइयों से उसका परिचय कराते हुए कहा--“भैया... यह है जॉन, जिन्हें गाईड की ज़रुरत है। ’’

“गाईड...?  नहीं... गाईड तो कोई नहीं है ध्यान में...’’

“विधि... तुम क्यों नहीं चल पड़ती...?’’ जाॅन ने सुझाव देते हुए कहा। प्रश्न सोचने वाला था, विधि सोच में पड़ गई। इतने में छोटा भाई नवीन बोला, “हाँ...हाँ... हर्ज़ ही क्या है... वैसे भी रिटायर्ड है। बूढ़ा है... क्या कर लेगा, ...?’’

“थैंक्स... यू नो...वंडरफुल आईडिया... विधि से बुद्धिमान गाईड कहाँ मिल सकता है।" जाॅन ने उचक कर कहा।

छह सप्ताह दक्षिण के सभी मंदिरों के दर्शनों के पश्चात दोनों दिल्ली पहुँचे। एक सप्ताह पश्चात जाॅन की वापिसी थी। दोनों की अक्सर फोन या टेक्स्ट्स पर बात हो जाती। अगर किसी कारणवश विधि जाॅन को फोन न कर पाती, तो वह अधीर हो उठता। वह विधि को चाहने लगा था। उसकी बहुमुखी प्रतिभा पर जाॅन मर मिटा था। विधि गुणवान, स्वाभिमानी, साहसी और खरा सोना थी।

इधर विधि जाॅन के रंगीले, सजौले, ज़िन्दादिल व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुई पर उसकी उम्र का सोच कर चुप रह जाती। जाॅन पैंसठ पार कर चुका था और विधि ने अभी तीस ही पूरे किये थे।। लन्दन लौटने से पहले एक दिन अचानक जाॅन ने खाने के प्श्चात् सैर करते वक्त पूरे बाजर में विधि को रोक कर अपने मन की बात कह डाली--’’विधि, जब से तुम्हें मिला हूँ, मेरा चैन खो गया है, न जाने तुम में ऐसी कौन सी मोहिनी शाक्ति है कि मैं इस उम्र में बरबस तुम्हारी और खिंचा आया हूँ...’’ उसने वहीं घुटनों के बल बैठकर प्रस्ताव रखते हुए कहा-“विधि... क्या तुम मुझसे शादी करोगी...?’’

विधि स्तब्ध निःशब्द सी रह गई। वह तो उसने पहले सोचा भी न था। उसने एक ही साँस में कह दिया, "नहीं...नहीं... वह नहीं हो सकता। हम दोनों एक दूसरे के बारे में जानते ही कितना...?  तुम जानते भी हो... क्या कह रहे हो...?  मैं...मैं किसी को भी संपूर्ण वैवाहिक सुख नहीं दे सकती।’’ इतना कह कर वह चुप हो गई, उसकी आँखों से टप-टप आँसू बहने लगे।

जाॅन कहाँ पीछे हटने वाला था। बार-बार पूछता ही रहा, "क्या बात है?"  हारकर विधि ने एक ही सांस में कह दिया--"कैंसर के कारण मेरा एक वक्ष-स्थल नहीं है... और तुम उम्र में मेरे पिता के बराबर हो...’’

“ब...स... इतनी सी बात है मेरी जान। मैं तुम्हें प्यार करता हूँ। तुम्हारे संग जीवन बिताना चाहता हूँ... मैंने अपनी पहली पत्नी को तो कैंसर के कारण छोड़ा नहीं। अगर आज वह मेरे साथ नहीं है... वह भगवान की मर्ज़ी है...!’’

विधि चुप थी। सोच में थी कि--“जो ख्याल हमे छू कर भी नहीं गुज़रता, जो पल में सामने आ जाता है।’’

“कोई जल्दी नहीं है... यू टेक योर टाइम...’’ जाॅन ने परिस्थित को भाँपते हुए कहा।

एक सप्ताह पश्चात जाॅन तो चला गया किंतु उसके दुर्लभ प्रश्न ने विधि को दुविधा में डाल दिया। मन में उठते भांति-भांति के प्रश्नों से जूझती रही, जिनका उसके पास कोई उत्तर न था। कभी कागज़ पर लकीरे खींच कर काटने लगती... कभी गुलदस्ते से फूल लेकर उसकी पंखुडियों को तोड़-तोड़े सवालों के उत्तर ढूंढती... और कभी खुद से प्रश्न करने लगती--'कब तक रहोगी भाई-भाभियों की छत्र छाया में...? क्या समाज तुम्हें चैन से जीने देगा तलाकशुदा की तख्ती के साथ...?  कौन होगा तेरे दुख सुख का साथी...?  क्या होगा तेरा अस्तित्व...? अगर मान भी जाती है तो क्या उत्तर देगी, जब लोग पूछेंगे... इतने बूढ़े से शादी की है! कोई और नहीं मिला क्या...?' इन्हीं उलझनों में समय निकलता गया। समय थोड़े ही ठहर पाया है किसी के लिये...!

जाॅन को गये करीब एक वर्ष बीत गया। दोनों की अक्सर फोन या स्काईप पर बात हो जाती थी, एक दोस्त की तरह।

काॅलेज में भी विधि सदा खोई-खोई रहती। एक दिन उसने अपनी सहेली रेणु से जाॅन की बात की.. “विधि, बात तो गंभीर है किंतु गौर करने की है। भारतीय पुरुषों की प्रवृति तो तू जान ही चुकी है। अगर यहां कोई शादी को तैयार भी हो गया तो उम्र भर उसके एहसान के नीचे दबी रहेगी... जाॅन तुझे मन से चाहता है। उसने अपना हाथ आगे बढ़ाया है... अपना ले उसे... हटा दे यह जीवन से तलाकशुदा की तख्ती और आगे बढ़... खुशियों ने तुझे आमंत्रण दिया है... ठुकरा मत... औरत को भी तो हक है तकदीर बदलने का। बदल दे अपने जीवन को दिशा और दशा।’’ रेणु ने उसे समझाते हुए कहा।

"धर्म... सोच...संस्कार... सभ्यता...कुछ भी तो नहीं है, एक जैसा हमारा... ऊपर से उसकी उम्र... फिर इतनी दूर...?"

“प्रेम... उम्र धर्म, भाषा, रंग और जाति सभी दीवारों को लांघने की शक्ति रखता है मेरी जान... प्यार में दूरियां  भी नज़दीकियां बन जाती है। देर मत कर...’’

“किंतु मैंने तो उसे 'ना’ कर दी थी... अब किस मुँह से...?’’

“वह तू मुझ पर छोड़ दे... उसका ई-मेल का पता दे मुझे।’’ रेणु ने शरारत से कहा।

रेणु से मन की बात करके विधि की शंकाओं और द्वन्दों की पुष्टि हो गई। उसे भविष्य झिलमिलाता हुआ दिखाई देने लगा। उसका मन इच्छाओं के उड़न-खटोले पर बैठकर बादलों के संग उड़ने लगा।

“चल उठ... लेक्चर का समय हो गया है। बड़ी जल्दी खो गई जॉन के ख्यालों में.....’’ रेणु ने छेड़ते हुए कहा।

अगले ही दिन रेणु ने जॉन को ई-मेल डाला।

"डियर जॉन,

विधि का दोस्त हूँ। विधि ने आपके शादी के प्रताव के बारे में बताया। क्या वह प्रस्ताव अभी तक मान्य है कि नहीं...? अगर मान्य है तो आप उस प्रस्ताव को विधि के बड़े भाई के सामने रखिये तो ठीक रहेगा। मैं, विधि की ही इजाज़त से यह पत्र लिख रही हूँ।

धन्यवाद

विधि की सहेली

रेणु चोपड़ा"

ई-मेल देखते ही जॉन खुशी से पागल हो गया तुरन्त ही उड़ान ले कर वह दिल्ली पहुंचा। उसने विधि के बड़े भाई को होटल में बुलाकर वह ई-मेल दिखाते हुए विधि का हाथ माँगा।

“मैं आपको घर में सबसे बात करके फोन करुंगा।’’ विधि के भाई ने कहा।

शाम को विधि जब घर पहुंची बैठक में सारा परिवार उसकी प्रतीक्षा कर रहा था। अजय ने जॉन द्वारा भेजा प्रस्ताव सामने रखा। सभी हैरान थे... छोटा भाई सन्नी तैश में आकर बोला,  "इतने बड़े से... दिमाग खराब हो गया है। विधि की उम्र के तो उसके बच्चे होगे! अंग्रेज़ों का कोई भरोसा नहीं...।’’ सभी घर वाले इस बात से हक्का-बक्का थे।

“तुमने क्या सोचा है, विधि?’’ बड़े भाई ने पूछा।

“मुझे कोई एतराज नहीं...’’ विधि ने शरमाते हुए कहा।

“होश में तो हो दीदी... क्या सचमुच उस सठिये से शादी करेगी...?’’ सन्नी भुनभुनाते हुए बोला।

अजय ने जॉन को घर बुलाया और कहा--"शादी तय करने से पहले हमारी कुछ शर्त है... शादी हिन्दू रीति रिवाजों से होगी... उसके लिये तुम्हें हिन्दू बनना होगा... हिन्दू नाम रखना होगा... विवाह के तुरंत बाद विधि को साथ ले जाना होगा।’’

उसे सब शर्त मंजूर थी। वह उत्तेजना में... “आई विल... आई विल।" कहता नाचने लगा। पुरुष चहेती स्त्री को पाने को हर संभव प्रयास करता है, उसमें साम-दाम-दण्ड-भेद सब भाव जायज़ है।

अच्छा सा मुहूर्त निकाल कर दोनों का विवाह सम्पन्न हुआ। किशोरावस्था की तरह विधि के हृदय की डाली पर उमंगों के फूल अंकुरित होने लगे।

विवाह के एक महीने पश्चात् दोनों अपने घर लन्दन पहुंचे। अंग्रेज़ी रिवाज के अनुसार जॉन ने विधि को गोद में उठाकर घर की दहलीज पार की और बड़े प्यार से बोला--"विधि, मैं तुम्हारा तुम्हारे घर में स्वागत करता हूँ...’’ उसकी आत्मीयता देख विधि की आंखों से आंसू बहने लगे। अंदर घुसते ही उसने देखा अकेले रहते हुए भी जॉन ने घर बड़ी तरतीब और अच्छे से सजा रखा था। घर में सभी सुविधायें थी... जैसे कपड़े धोने की मशीन, ड्रायर... डिश वाशर (बर्तन धोने की मशीन) स्टोव और आवन। काटेज के पीछे एक छोटा सा गार्डन था जो जॉन का 'प्राइड एण्ड जॉय' था।

पहली ही रात को जॉन ने विधि को अपने प्यार का अनमोल उपहार देते हुए कहा--“विधि, मैं तुम्हें क्रूर संसार की कोलाहल से दूर, दुनिया के कटाक्षों से हटाकर अपने हृदय में रखने के लिए हूँ। तुमको मिलने के बाद तुम्हारी मुस्कान और चिपरिचित अदा ही तो मुझे चुम्बक की तरह बार-बार खींचती रही है और मरते दम तक खींचती रहेगी। मैं तुम्हें इतना प्यार दूंगा कि तुम अपने अतीत को भूल जाओगी।’’ और जॉन ने उसे गले से लगा लिया। ऐसे प्रेम का एहसास उसे आज पहली बार हुआ था। धीरे-धीरे वह जान पाई कि जॉन केवल गोरा चिट्ठा ऊँचे कद का ही नहीं, वह रोमांटिक, ज़िन्दादिल और मस्त इंसान भी है जो बात-बात में किसी को भी अपना बनाने का हुनर जानता है। उसका हृदय जीवन की आकांक्षाओं से धड़क उठा। जॉन ने उसे इतना मान और प्यार दिया कि उसकी सभी शंकाओं की पुष्टि हो गई। वह उसे मन से चाहने लगी थी। दोनों बेहद खुश थे। वीक एंड में जॉन के तीनों बच्चों ने खुली बाँहों से विधि का स्वागत किया और अपने पिता के विवाह पर एक भव्य पार्टी दी।

विधि अपने फैसाले से प्रसन्न थी। अब उसका घर परिवार था। असीम प्यार करने वाला पति। जॉन ने घर की बागडोर उसी के हाथ में थमा दी। उसे प्यार करना सिखाया। उसका आत्माविश्वास जगाया। उसे कालेज में पोस्ट ग्रेजुएट भी करवा दिया क्योंकि भीतर से वह जानता था कि उसके जाने के बाद विधि अपने समय का सदुपयोग कर सकेगी। बिना इंगलिश ट्रेनिंग के उसे कोई नौकरी नहीं मिलने वाली थी।

गर्मियों का मौसम था। चारों ओर सतरंगी फूल लहलहा रहे थे। बाहर बच्चे खेल रहे थे। दोपहर के खाने के पश्चात् दोनों कुर्सी बाहर डाल कर धूप का आनन्द लेने लगे। बच्चों को देखते ही विधि की ममता उमड़ने लगी। जॉन की पैनी नज़रों से यह बात छिपी नहीं। उसने पूछ ही लिया, "विधि, मैं तैयार हूँ... हमारे पूर्व-पश्चिम के इन्फूज़न के लिये। ’’

“नहीं... नहीं... हमारे हैं तो सही ... वो तीन और उनके बच्चे। मैंने तो जीवन के सभी अनुभवों को भोगा है। माँ न बनकर भी अब नानी-दादी होने का सुख भोग रही हूं।’’ विधि ने हँसते हुए कहा।

“मैं तो समझता था तुम्हें मेरी निशानी चाहिए...” उसने मुस्कराते हुए कहा।

“ठीक है, अगर बच्चा नहीं तो एक सुझाव दे सकता हूँ। बच्चों से कहेंगे हमारे बाद मेरे नाम का एक 'इंग्लिश रोज़' (लाल गुलाब) का फूल और तुम्हारे नाम का (पीला गुलाब) 'इंडियन समर' लगा दे। ताकि मरने के बाद भी हम एक दूसरे को देखते रहे।’’ इतना कह कर जॉन ने प्यार से उसके गालों पर एक चुम्बन रख दिया।

विधि के होठों पर मुस्कुराहट, आंखों से खुशी के आंसू बह निकले और वह प्यार से जॉन के आगोश में लिपट गई। जॉन उसकी छोटी से छोटी हर जरुरत का ध्यान रखता। धीरे-धीरे उसने विधि के पूरे जीवन को अपने प्यार के आँचल से ढक लिया। जहां उसपर कठोर धूप चमकती, वहां वह नीले आकाश की परछाई बन कर छा जाता। सामाजिक बैठकों में इसे अदब और शिष्टाचार से संबोधित करता। उसे जी-जी करते उसकी जुबान न थकती। कुछ ही वर्षों में जॉन ने उसे आधी दुनिया की सैर करा दी। यहाँ तक कि मन्दिर, गुरुद्वारे, आर्य समाज सभी धार्मिक स्थानों पर भी वह उसे खुशी-खुशी ले जाता। अब विधि के जीवन में सुख ही सुख थे।

समय हँसी-खुशी बीतता गया। इधर कई महीनों से जॉन थोड़ा सुस्त था। विधि चिन्तित थी कि कहाँ गई इसकी चंचलता, चपलता, यह कभी टिककर न बैठने वाला चुपचाप कैसे बैठा रह सकता है? डाक्टर के पास जाने को कहो तो कह देता..."मेरा शरीर है... मैं जानता हूँ क्या करना है।’’ भीतर से खुद भी चिन्तित था। हारकर विधि से चोरी डॉक्टर के पास गया। अनेक टेस्ट हुए। डॉक्टर ने जो बताया, उसका मन उसे मानने को तैयार न था। वह जीना चाहता था। उसे विधि की चिन्ता होने लगी। उसने डॉक्टर से निवेदन किया कि वह नहीं चाहता है कि उसकी यह बीमारी उसकी और उसकी पत्नी की खुशी के आड़े न आये। जानता हूँ, समय कम है। अब पत्नी के लिए वह सब कुछ करना चाहता है, जो अभी तक नहीं कर पाया। समय आने पर वह खुद उसे बता देगा,  एक दिन अचानक वर्ल्डक्रूज़ के टिकट विधि के हाथ में थमाते हुए बोला--“यह लो, हमारी शादी की दसवीं साल-गिरह का तोहफा।’’ उसकी जी-हुजूरी ही खत्म नहीं होती थी।

वर्ल्डक्रूज से लौटने के पश्चात् दोनों ने शादी की दसवीं वर्ष-गाँठ बड़ी धूम-धाम से मनाई। घर के रजिस्ट्री के कागज़ और सभी एफडीज़ उसने विधि के नाम कर उसे तोहफे में दी। उस रात वह बहुत अशांत था। उसे बार-बार उल्टियां और चक्कर आते रहे। उसे अस्पताल ले जाया गया। जॉन की दशा दिन-ब-दिन बिगड़ती गई। कैंसर पूरे शरीर में फैल चुका था। अब कुछ ही समय की बात थी। कैंसर शब्द सुन कर सभी भौंचक्के से रह गये। डाक्टर ने बताया--“तुम्हारे डैड जाने से पहले तुम्हारी माँ को उम्र भर की खुशियां देना चाहते थे।’’

बच्चे तो घर आ गए पर विधि नाराज़ सी बैठी रही। जॉन ने उसका हाथ पकड़ कर उसे प्यार से समझाया--“जो समय मेरे पास रह गया था, मैं उसे बरबाद नही करना चाहता था। भोगना चाहता था तुम्हारे साथ। तुमने ही तो मुझे जीना सिखाया है। अब जीवन से रिश्ता तोड़ सकता हूँ। जाना तो एक दिन सभी को है। ’’

अपनी शादी की ग्यारहवीं वर्ष-गाँठ से पहले ही वह चल बसा।

फ्यूनरल के बाद जॉन की इच्छा के अनुसार उसकी अस्थियाँ उसके गार्डन में बिखरे दी गई। उसके बेटे ने एक इंग्लिश रोज़ और एक इंडियन ...साथ-साथ गार्डन में लगा दिए। इस सदमे को सहना कठिन था...विधि को लगा मानो किसी ने उसके शरीर के टुकडे-टुकड़े कर दिये हों। वह फिर अकेली रह गई।

एक दिन उसके भीतर से एक आवाज़ सिहर उठी--“उठ विधि... संभाल खुद को, तेरे पास उसका प्यार है, स्मृतियां हैं। वह तुझे क्वालिटी ऑफ़ लाईफ तो दे कर गया है।’’

धीरे-धीरे वह संभलने लगी। जॉन के बच्चों के सहयोग और प्यार ने इसे फिर खड़ा कर दिया। कॉलेज में उसे नौकरी मिल गई। बाकी समय गार्डन की देख-भाल करती। इंग्लिश रोज़ और इडियन समर की छटाई करने की उसकी हिम्मत नहीं पड़ती। उसके लिये वह माली को बुला लेती। गार्डन जॉन और उसकी जान था। उसका प्यार था, उसकी निशानी थी। एक दिन भी ऐसा न जाता जब वह अपने पौधे को न सहलाती। अक्सर उनसे बातें करती। बर्फ हो या कोहरा पड़, कड़कई सर्दी में वह अपने फ्रेंच डोर के भीतर से ही पौधों को निहराती जो जॉन ने लगाये थे। उदासी में इंग्लिश रोज़ से शिकवे और शिकायतें भी करती... "देखो तो अपने लगाये परिवार में लहलहा रहे हो और मैं...?  नहीं-नहीं शिकायत नहीं कर रही... मुझे याद है जिस दिन आप मुझे घर लाये थे, आपने कहा था वह मेरा परिवार है, मरने के बाद भी इससे मुझे अलग मत करना। मेरी राख मेरे पौधों में बिखेर देना।’’

यही सोचते-सोचते अंधेरा छाने लगा। उसने घड़ी देखी, अभी शाम के पाँच ही बजे थे। मरियल सी धूप भी चोरी-चोरी दीवारों में खिसकती जा रही थी। वह जानती थी यह गर्मियों के जाने और पतझड़ के आने का संदेसा था। वह आँख मूँदकर बिछे रंग-बिरंगे पत्तों की मुरमुराहट का आनन्द ले रही थी।

अचानक तेज हवा के वेग से पत्ते उड़ने लगे। हवा के झोके में एक सूखा पत्ता उलटता-पलटता उसके आंचल में आ अटका। पल भर को उसे लगा कोई छूकर कह रहा हो--"उदास क्यों होती हो... मैं यही हूँ... तुम्हारे चारों ओर, ... देखो वही हूँ जहां फूल खिलते हैं... क्यों खिलते हैं, यह मैं यही जानता... बस इतना ज़रुर जानता हूँ... फूल खिलता है, झर जाता है क्यों?  यह कोई नहीं जानता। बस इतना जानता हूँ इंग्लिश रोज़ जिसके लिये खिलता है, उसी के लिये झर जाता है। खिले फूल की सार्थकता और झरे फूल की व्यथा एक को ही अर्पित है...’’

उस दिन वह झरते फूलों को तब तक निहारती रही, जब तक अंधेरे के कारण उसे दिखाई देना बंद नहीं हो गया। पल भर को उसे लगा मानो जॉन पल्लू पकड़ कर कह रहा हो--“मी टू...!"  "तुम्हारी शरारत की आदत अभी गई नहीं इंग्लिश रोज़...’’ उसने मुस्कुराते हुए कहा।

-अरुणा सब्बरवाल, ब्रिटेन


......
 
 
बेटी - केतन कोकिल

आक्रोश घेर रहा था दीवारों में...परन्तु दीवारे इतनी मज़बूत थी...कभी निकल ना पाओ...कभी रह ना पाओ!!
दर्द भी जेब में खनक रहा था, सर और शरीर दोनों टूटने को तैयार थे ...!

बहुत मज़ा आ रहा था अहंकार को....द्वेष को...क्लेश को। इंसान टूट चुका था..आँखे नम थी.. फिर वापस याद आयी बेटी...! ..और वो कमाने निकल पड़ा..

- केतन कोकिल ......

 
 
बेईमान - अरविन्द

गाँव में एक किसान रहता था जो दूध से दही और मक्खन बनाकर बेचने का काम करता था। 

एक दिन किसान की पत्नी ने मक्खन तैयार करके मक्खन के एक-एक किलो के पेड़े बनाकर किसान को बेचने के लिए दे दिए।   वह उसे बेचने के लिए अपने गाँव से शहर चला गया।  
शहर में किसान ने उस मक्खन को हमेशा की तरह एक दुकानदार को एक-एक किलो के पेड़े  बताकर बेच दिया और दुकानदार से जो पैसे मिले उससे अपने घर के लिए चायपत्ती, चीनी, तेल और साबुन इत्यादि खरीदकर वापस अपने गाँव आ गया।  

अब तो दुकानदार व किसान का अच्छा परिचय हो चला था। इसबार भी किसान ने दुकानदार को एक-एक किलो के मक्खन के पेड़े बेचे इधर, किसान के जाने के बाद दुकानदार मक्खन को रेफ्रिजरेटर में रखने लगा तो उसे खयाल आया कि क्यों ना एक पेड़े का वज़न तोला जाए!  वज़न करने पर पेड़ा केवल  900 ग्राम का निकला।  आश्चर्य और निराशा से उसने सारे पेड़े तोल डाले मगर किसान के लाए हुए सभी पेड़े 900-900 ग्राम के ही निकले।

'धोखेबाज़----बेईमान!"

अगले सप्ताह फिर किसान हमेशा की तरह मक्खन लेकर जैसे ही दुकानदार की दहलीज़ पर चढ़ने लगा तो दुकानदार किसान पर चिल्लाने लगा, "दफ़ा हो जा! किसी बेईमान और धोखेबाज़ से कारोबार करना--- पर मुझसे नही! कपटी कहीं का!"

दुकानदार का गुस्सा रुकने का नाम नहीं ले रहा था, "900 ग्राम के मक्खन को पूरा एक किलो कहकर बेचने वाले शख्स की मैं शक्ल भी देखना पसंद नहीं करता।"

किसान ने बड़ी विनम्रता से दुकानदार की पूरी बात सुनी और फिर कहा,  "मेरे भाई, नाराज़ मत हो।   हम ग़रीब बेशक हों पर बेईमान नहीं!  हमारी माल तोलने के लिए बाट (वज़न) खरीदने की हैसियत नहीं।  आपसे जो एक किलो चीनी लेकर जाता हूँ, उसी को तराज़ू के एक पलड़े में  रखकर दूसरे पलड़े में  उतने ही वज़न का मक्खन तोलकर ले आता हूँ।"

-अरविन्द......

 
 
बापू के प्रति - सुमित्रानंदन पंत

तुम मांस-हीन, तुम रक्तहीन,
हे अस्थि-शेष! तुम अस्थिहीन,......

 
 
फूलों की सेज - भगवानचन्द्र 'विनोद'

किसी नगर मे एक राजा राज था। उसकी एक रानी थी। रानी को कपड़े और गहनों का बड़ा शौक था। कभी सोने का करनफूल चाहिए तो कभी हीरे का हार, कभी मोतियों की माला चाहिए तो कभी कुछ। कपड़ों की तो बात ही निराली थी। भागलपुरी तसर और ढाके की मलमल के बिना उसे चैन नही पड़ता था। सोने के लिए फूलो की सेज। फूल भी कैसे? खिले नही, अधखिली कलियाँ, जो रात मे धीरे-धीरे खिलें। नौकर कलियाँ चुन-चुनकर लाते, दासियाँ सेज सजाती। एक दिन संयोग से अधखिली कलियों के साथ कुछ खिली कलियाँ भी आ गईं। अब तो रानी की बेचैनी का ठिकाना नहीं रहा। उनकी पंखुड़ियाँ रानी के शरीर मे चुभने लगी। नींद गायब हो गई। दीपकदेव अपना उजाला फैला रहे थे। रानी की यह दशा देखकर उनसे न रहा गया। बोले, "रानी, अगर कभी मकान बनाते समय राजाओं को तसले भर-भरकर गिलावा और चूना देने की नौबत आ जाए तो तुम्हें कैसा लगेगा? क्या तसलों का ढोना इन कलियों से भी ज्यादा अखरेगा?" 

रानी सवाल सुनकर अवाक् रह गई। उसने कोई जवाब नही दिया परतु तब तक राजा जाग गये थे और उन्होंने सारी बात सुन ली थी।

उन्होने रानी से कहा, "रानी, दीपकदेव के सवाल को आजमा देखो न!'

रानी राजी हो गई। राजा ने काठ का एक कठघरा बनवाया, उसमें रानी को बंद करवाकर पास की नदी में बहा दिया। कठघरा बहते-बहते किसी दूसरे नगर में नदी किनारे जा लगा। संयोग से वहाँ राजा का बहनोई राज करता था। वह नदी पर सैर के लिए आया हुआ था। उसने कठघरे को बहते देखा तो निकलवा लिया। खोला तो उसमे एक सुदर स्त्री निकली। रानी के गहने और बढ़िया कपड़े पहले ही उतार लिये गए थे। वह मोटे-फटे चीथडे पहने हुए थी। राजा उसको पहचान न सका और न रानी ने ही अपना सही पता बताया। राजा ने पूछा, "तुम क्या चाहती हो?"

रानी ने अपनी इच्छा बताते हुए कहा, "आपका कोई मकान बन रहा हो तो मुझे तसला ढोने का काम दे दीजिये।"

राजा का नया महल बन रहा था, सो उसने रानी को तसला ढोने के काम पर लगा दिया। रानी दिनभर तसला ढोती और मजदूरी के जो पैसे मिलते उनसे अपनी गुजर कर लेती। दिनभर की कड़ी मेहनत के बाद जो रूखा-सूखा मिलता, वही उसे बड़ा अच्छा लगता और रात को खुरदरी चटाई पर उसे ऐसी नींद आती कि पता न चलता, कब रात निकल गई। बड़े तड़के वह उठ जाती और तैयार होकर बड़ी उमंग के साथ अपने काम में जुट जाती।

इस तरह काम करते-करते बहुत दिन बीत गये। दैवयोग से एक बार उसका पति अपने बहनोई के यहाँ आया। बिना रानी के उसका मन नही लगता था। बहनोई के नये महल को देखने गया तो अचानक उसकी निगाह रानी पर पड़ी।

उसने झट उसे पहचान लिया। मेहनत-मजूरी करने से रानी का रंग कुछ सांवला हो गया था, पर बदन कस गया था।

रानी ने भी राजा को पहचान लिया।

राजा ने उसके पास जाकर पूछा, "कहो, तसलों का ढोना कैसा लग रहा है?"

रानी ने कहा, "कलियाँ देह मे गड़ती थी, पर तसले नही गड़ते।"

राजा के बहनोई ने दोनों की बात सुनी। उन्हे बड़ा अचंभा हुआ। उन्होंने पूछा, "क्या बात है?" राजा ने सारा हाल कह-सुनाया। सुनकर बहनोई को बडी लज्जा आई। उसने रानी को काम से छुट्टी दे दी। वे दोनों अपने राज्य में लौट आये।

कुछ दिनो के बाद राजा ने रानी से पूछा--"रानी, अब कैसा लगता है?"

रानी ने कहा, "स्वामी, वह आनंद कहाँ? आलस्य बढ़ता जा रहा है। डर लगता है, कही कलियाँ फिर से न गड़ने लगें।"

राजा ने कहा, "ऐसा है रानी, तो हम एक काम क्यों न करें। दोनों मिलकर दिनभर मजूरी किया करें, रात को कलियों की सेज पर सोया करें। ठीक है न?"

रानी ने कहा, "मजूरी करेंगे तो फिर कलियों की कोई दरकार ही नही रह जाएगी। यों ही नीद आ जाया करेगी।" उस दिन से राजा और रानी मेहनत-मजूरी करने लगे और उनका जीवन बड़े सुख और आनंद से बीतने लगा ।

भगवानचन्द्र 'विनोद'
[मैथिली लोक-कथा]


......
 
 
हँसो, जल्दी हँसो - कल्पना मनोरमा

एहसास की स्याही से कहानी लिखे तो ठीक, वरना कथ्य को चेज़ करते रहना टाइफाइड के लक्षणों जैसा लगने लगता है। कभी-कभी प्रकाशित आकांक्षाएँ मन जाग्रत करने में चूक जाती हैं और धुँधले निष्कर्ष सहायक सिद्ध हो जाते हैं। शनिवार ऑफिस से लौटकर, जल्दी सोने और सुबह देर से उठने का मन था। बिस्तर पर पहुँचने तक ख़याल साथ रहा। जब ऑंखें मूँदीं तो नींद हवा हो गयी। विचारों की पोटली खुलकर, मन के आँगन में बिखर गयी। मैं उठकर कमरे में घूमने लगी।

मानवीय दुःख, पीड़ा, परेशानी रात के नीरव बहाव में बहते जा रहे थे। मैं खिड़की में बैठ उजाले की तलाश में भटकने लगी। उम्र की डाल पर लगे अनुभव के सारे फल, एक साथ पकने, टपकने, फटने की प्रतीति कराने लगे। कमरे के नितांत अँधेरे सन्नाटे में घड़ी की टिक-टिक बज रही थी। जवान रात अपनी रवानगी पर थी। समय के संकुचन में सन्नाटे की सरसराहट थी। अचानक पक्षी चहक उठे। घड़ी पर नज़र डाली। रात के डेढ़ बज रहे थे। क्षितिज पर जिस ओर देख रही थी, एक तारा टूटकर, लकीर बनाता हुआ धरती पर आ गिरा।

"तारे टूटकर ज़मीन पर गिरते ही हैं तो लोग तारे क्यों बन जाते हैं..? क्या गज़ब का कॉम्बिनेशन बिठाया है, ऊपर वाले ने।" एक विचार उल्कापिंड-सा कौंधा।

रात के वीराने को चीरती हुई चौकीदार की सीटी चीखी। एक झुरझुरी के साथ मन सिहर उठा।

उसने कबीर की भाँति सोए हुओं को आगाह किया था। लगा, अँधेरा सब कुछ यकसां कर सकता है, आवाज़ें नहीं छिपा सकता। बीच पीठ में एक लकीर खींचती, महसूस हुई और रोएँ खड़े हो गए। रीता-रीता मन, अँधेरे में ज्योति खोजने लगा। अक्टूबर की भीगी रात, झींगुर की ताल पर थिरक रही थी। शीशम की टहनियाँ हिल-डुलकर कृत्रिम उजाले में, छाया के चकत्ते उकेर रही थीं। लाखों तारों के गुम्फन में एक, दो, तीन…तारों को तर्जनी से इंगित कर, माँ को टटोलने की कोशिश की।

“माँ, दिखो न..! कहाँ छिपी हो…? आज बहुत सारी बातें करनी हैं…।"

बहुत खोजने के बाद भी माँ को तारे में रोपित नहीं कर सकी। एक उदास भाव उठने को हुआ…तभी शीशम की अंतिम फुनगी पर, थरथराता हुआ एक चटक तारा चमका।

"ये माँ हैं..? नहीं… तो क्या ये नानी हैं?"  हाँ…हाँ..! ये नानी ही हैं। मेरी नानी हँसती बहुत थीं, बिल्कुल तारे की तरह। पहचानने में तनिक भी देर नहीं लगी।

हँसी पसंद नानी की बेटी यानी मेरी माँ! बहुत सोच-समझकर हँसती थीं। इसी बिना पर मुझे डाँटती थीं–-"नानी की तरह तुम दिन-दिन हँसती हो…! ज़रा तमीज़ सीखो कृपा। ज्यादा हँसना, माने अपने दुःख को पहचानने से इनकार कर देना है। उस पीड़ा को मौन पी जाना, जो अपने हिस्से की होती ही नहीं। हँसी, दुःख को ही नहीं, सिद्धांतिक समझ को भी खा जाती है।”    

ऐसा मेरी माँ को लगता था…जबकि हर छोटी-बड़ी बात पर… मैंने नानी को खूब-खूब हँसते देखा था। मुझे हँसना अच्छा लगने लगा था…। हँसने में सुकून था। अपने को भुलाने की कुव्वत थी।

हालाँकि जब मेरा अनुभव पका तो ज्यादा हँसना, बे-बात का हँसना, फ़ालतू का हँसना और अति के हँसने में अंतर समझ आने लगा था। साथ में ये भी कि नानी को कोई भी दुख, दुःखी नहीं कर सकता। कोई सुख, हँसी से ज्यादा कुछ दे नहीं सकता।

शायद इसीलिए उन्होंने अपने सुख-दुःख को हँसी के भाव से तौल लिया था।

अब–जब नानी की हँसी याद आ गयी, तो रात भी मुझे हँसती हुई-सी लगने लगी। रात की हँसी यानी शून्य का महाविलास। बिरला ही महसूस कर पाता होगा।

नींद में खलल न पड़े…सोचते हुए मैं बिस्तर की ओर लौट आई।

गाव तकिया का सहारा लेकर मैं बेड पर बैठ गयी। किताबों में से रघुबीर सहाय की कृति उठा ली। मौका पाते ही कवि कानों में फुसफुसाया—“हँसो हँसो, जल्दी हँसो...!”

“क्यों भई! हँसना इतना आसान है! जो कभी भी, कहीं भी हँस पडूँ…? बचपन की बात और थी!”

यादों की रेल से नानी की याद उतरने वाली थी…मेरे साथ यात्रा करने लगी।

बात उन दिनों की थी जब गर्मियों में शिमला, मनाली, लंदन-गोवा सब नानी के घर में सिमट आते थे।

वार्षिक परीक्षा खत्म होने की प्रतीक्षा पूरे वर्ष रहती। आठवीं की परीक्षा के बाद मैं भी नानी के घर गई थी। घर के बाहर अहाते में झूला बन चुकी चारपाई में नानी अकेली बैठी थीं।

सूरज पश्चिम की ओर यूकेलिप्टस की आड़ में अटका कसमसा रहा था।

दो-चार गौरैयाँ अहाते में फुदक कर दाना खोज रही थीं। नानी मुस्कुराते हुए ऊँगली उठाए हवा में गोल-गोल कुछ बना रही थीं। मुँह खोले हँसती जा रही थीं। मैंने चारों ओर देखा, दूर-दूर तक कोई नहीं था। माँ आगे बढ़कर नानी से चिपक कर बैठ गयीं। नानी ने हँसकर उन्हें पुचकार लिया। मामा बैग उठाये घर में चले गये।

“अरे कोई सुन रहा है? देवा आई है। ज़रा पानी ले आओ।” नानी ने माँ को टटोल कर जब तसल्ली कर ली तब मेरे बारे में पूछा।

”देवा, किरपा कहाँ है?”

माँ ने मेरा हाथ उन्हें पकड़ा दिया। नानी ने खींच कर मुझे भी अपने घुटने के पास बिठा लिया। और मेरे हाथ की उँगलियाँ, बाँहें, कंधे, सिर, माथा, कान हँसते हुए टटोलती रहीं। उस दिन नानी कुछ नहीं, बहुत ज्यादा! अजीब लगी थीं मुझे।

नानी को पहली बार जिंदगी को टटोलकर तलाशते हुए देख,मैं बेचैन हो उठी थी।

शाम आँगन में मामा, नाना, मामा के बेटे-बेटियाँ सब गप लगाते रहे। मेरा ध्यान नानी से हटकर कहीं लगा ही नहीं। रात भोजन के बाद सभी सोने चले गए। हमारा बिस्तर बड़ी मामी के कमरे में लगाया गया। जब मामी की नाक बजने लगी यानी वे सो गयीं…मैंने माँ से पूछा–

“माँ, नानी को कब से दिखना बंद हो गया है? या नानी जन्मांध हैं…?”

“जन्मांध...न! नहीं तो, किसने कहा तुमसे…?”

लैम्प की मद्धिम रोशनी में माँ का चेहरा बुझता हुआ दिखा। ज़रा-सी हवा लगते ही अपनों के दर्द कैसे सतह छोड़कर आँखों में तिर जाते हैं– देखा मैंने। नानी की पीड़ा को जब माँ की आँखों में टीभते पाया तो मैं खिसककर उनसे चिपक गयी। माँ की धड़कन बज रही थी। पता चला, साँसें प्रेम में ही नहीं, दुःख में भी बहुत शोर मचाती हैं। माँ टकटकी लगाए लैम्प की स्थिर लौ को देख रही थीं। उस दिन पता चला माँ के जीवन में जो अपने दुख हैं,उनमें से आधे दुखों का कारण नानी का अंधकार है।

मैंने माँ का रुख अपनी तरफ मोड़ते हुए कहा– “नानी के बारे में कुछ और बताओ न माँ!”

”क्या ही तुम्हें बाताऊँ? और क्या करोगी सुनकर ?"

"कुछ भी..! सुनना है मुझे!"

"कृपा, नानी अपने ज़मीदार पिता की इकलौती सन्तान थीं।”

उनके पिता बड़े चाव से जिंदगी जीने वाले रईस इंसान थे। नानी की माँ का देहांत उनकी कम उम्र में ही हो गया था। फिर भी उनके पिता ने दूसरी शादी नहीं की थी। बेटी की परवरिश चाची, ताई और भाभियों की मदद से करते रहे। नानी के पिता खाने-पीने के शौक़ीन थे। शुद्ध मावे के पेड़ों को भी वे पीतल की चाक़ू से छीलकर खाते थे। क्योंकि पेड़ों के ऊपर पड़ी पपड़ी उन्हें दो-चार दिनों में ही सख्त लगने लगती थी।

उनकी इस आदत ने पेड़ों के छिलके खाने वालों की एक जमात इकट्ठी कर दी थी। उसी चहल-पहल में नानी का दिन निकल जाता। तुम्हारी नानी अपने पिता के साथ हिली-मिली थीं। वक्त के साथ आँख-मिचौली करते जब वे दस वर्ष की हुईं… इस शर्त पर उन्हें ब्याह दिया गया कि गौना, सोलह साल होने पर दिया जायेगा। जैसा उनके पिता ने चाहा वैसा ही हुआ।

सोलहवें साल में सौ बीघे ज़मीन की मालकिन बनकर नानी ससुराल आ गईं और बिना किसी अकड़-धकड़ के नाना की गृहस्थी सम्हालने लगीं। समय की पीठ पर डोलते-डोलते हवाएँ भी निशान छोड़ जाती हैं। नानी पहले दो से तीन हुईं। फिर चार और देखते-देखते दस बच्चों की माँ बन गयीं। तेज़-तर्रार सास के साथ भी वे इतनी शांति और सामंजस्य से जीती गयीं कि बिना किसी दबाव के उनके सुबह-शाम ढलते-उगते रहे।” कहते-कहते माँ अचानक मौन हो गयीं।

“माँ! पर नानी अपनी बात पर खुद ही क्यों हँस पड़ती हैं? ये तो बुरी बात होती है न!”

“हाँ, होती तो है…! लेकिन रात के अँधेरों से ज्यादा दिन के अँधेरे खतरनाक होते हैं। दिन का अँधेरा कमरे के कोने ही नहीं, मन को भी अँधेरे से भर देता है। जहाँ न चाँद जादुई रंगत बिखेरता है। न तारे टिमटिमाते हैं। और न ही इनमें रात के जैसी आत्मीयता होती है। दिन के अँधेरों के फेर में पड़कर नानी अपने आपको भूलती जा रही हैं।" माँ ने निंदासी उबासी लेकर करवट बदल ली। मेरा मन शांत हुआ तो नाक हरकत में आ गयी। मुझे अजीब सी गंध महसूस हुई। उठकर खुली खिड़की से झाँका तो अहाते में पक्की नाली से बू उठ रही थी। उसी को हवा बहाकर मेरे कमरे तक ला रही थी।

“नानी वहाँ कैसे लेट सकती हैं….? वहाँ से कितनी बदबू आ रही है।” कहते हुए मैंने माँ को अपनी ओर खींचा। उदासी ने उन्हें और दबा लिया, वे नहीं बोलीं। रात का सन्नाटा मेरे कानों में सांय-सांय बज उठा। सहमकर मैंने भी आँखें मूँद लीं।

“कृपा सो गईं तुम?”

“नहीं…..!”

दूसरी रात में माँ ने वही बात फिर छेड़ी, "जो तुम देख रही हो वही सच है हमारा, तुम्हारी नानी का। नानी के जीवन में अँधेरा बिना किसी संकेत और प्रमाण के आ डटा है। हँसते-मुस्कराते आधा जीवन बुनते-बुनते एक दिन उन्हें दीए की ज्योति में किरणें फूटती-सी दिखने लगीं। लेकिन जीवन अघटित को भी सह लेता है।"

जब नानी ने अपनी आँखों के बारे में बताया तो जानकारों ने मोतियाबिंद उतर आने की बात कही थी।

उम्र के अधरस्ते पहुँचते हुए नानी के कई बेटे-बेटियाँ गृहस्थी वाले हो चुके थे। आँखों में मोतियाबिंद की सफेदी फ़ैलना आम बात थी। क्योंकि इस मर्ज़ का इलाज़ संभव हो चुका था।

पर कलकल बहती मीठी नदी को परिस्थियाँ भीतर की ओर मोड़कर ही दम लेगीं। नहीं जानते थे हम।

एक बात का मलाल हमेशा बना रहेगा। उन्हें डॉक्टर को दिखाने का निर्णय देर से लिया गया। आँखों का ऑपरेशन सीतापुर आई-हॉस्पिटल में करवाने का जब निश्चय किया तो नाना ने सोचा कि एक ही साथ दोनों आँखों का ऑपरेशन करवा दिया जाए। बार-बार अस्पताल आने के झंझट से बच जायेंगे। हम सब अंजान थे इसलिए खुश थे।

पट्टी खुलने का दिन आया तो डॉक्टर ने पूरी सावधानी से पट्टी भी खोली।

दोनों हथेलियाँ मलते हुए उसने चाव से नानी से पूछा–-"माताजी आँखें खोलकर बताइए कैसा दिख रहा है?"

“इधर देखिए मेरी ओर! बताइए कितनी उँगलियाँ हैं…?”

"अरे! आँखें तो खोलो डाक्टर।" नानी ने कहा।

डॉक्टर को जैसे करेंट छू गया। नाना ने बताया था…उसका चेहरा फक्क पड़ गया। आगे झुककर उसने अपना हाथ नानी की आँखों के आगे ऊपर-नीचे किया। लेकिन नानी ने पलकें नहीं झपकाईं। चारों ओर सन्नाटा खिंच गया। कुछ मिनटों तक कोई किसी से बोल न सका।  

”माताजी एक बार खिड़की के बाहर देखने की कोशिश कीजिए।” डॉक्टर ने खेद सहित कहा।

“कुँए में झाँकने पर जैसा दिखता है, वैसा ही कुछ…।"

नानी, जीवन के दावानल में भीगी लकड़ी-सी धुंधक उठी थीं, जान कोई नहीं सका। क्लिनिक में देखने वालों ने महसूस किया कि वे खुश हैं।

डॉ. ने हाथ मसलते हुए कहा– “आई एम सॉरी, सो सॉरी। इट इज वैरी सेड! ऐसा होना नहीं चाहिए था। इस फ़ील्ड में काम करते हुए मुझे बीस वर्ष हुए…पर ऐसा केस तो कभी नहीं हुआ।”

अँधेरे की छटपटाहटें डॉक्टर के चेहरे पर पसर गईं। मगर ये कोई नहीं जान पाया कि नाना अपने निर्णय पर शर्मिंदा थे भी या नहीं।

कुछ दवाइयों के साथ आँखें गँवा, काली ढक्कनदार पट्टी बँधवाकर नानी घर लौट आयीं।

उसके बाद नानी के जीवन की विधि जो बिगड़ी, उन्होंने क्या! किसी ने भी कभी नहीं सोचा था।

लोग बताते रहे कि नाना पूजा के दौरान कई दिनों तक चुपके-चुपके रोते रहे थे।

मुझे कभी सच नहीं लगा। बताने को लोग कुछ भी बता देते हैं। …जो महिला न कभी खद्दर पर रीझी…न सिल्क के लिए मचली….उसने अपनी आँखों का जाना भी सहज स्वीकार लिया था। अचंभा तो इस बात का था।

उनके जीवन में पहले वस्तुओं ने, फिर व्यक्तियों ने अपनी-अपनी जगहें बदल लीं। नानी किसी गरीब की तरह बस सारा दिन हँसी को धोने-सुखाने में गुजारने लगीं।

अँधेरे के साथ सामंजस्य बैठाने के बाद नानी को पहले आवाजें प्रिय हुईं। फिर जब खामोशियों की झिड़कियाँ सुनाई पड़ने लगीं, तो हर उस मौके पर वे हँसकर उसकी अहमियत गिराने लगीं… जो उनके लिए अनिवार्य और कीमती रहा था।लम्हा-लम्हा नानी के सुख-दुःख हँसी में बिलाते चले गए।

ज़ाकिर हुसैन तबले की रियाज़ के लिए जितने प्रतिबद्ध होंगे…नानी निरंतर हँसी के लिए प्रयासरत रहने लगीं। और देखते-देखते उनकी साँसों में हँसी जीवन की तरह उतर गई।

अँधेरे से भरे ठोकर खाए दिनों की शुरुआत में जब वे एक जगह बैठे-बैठे ऊब जातीं तो दीवारों का सहारा लेकर चल पड़तीं। और किसी न किसी से टकराकर फिर बैठ जातीं। हाथों से दीवारों को टटोलती। कानों को दीवार से लगाकर जीवन की आहट लेतीं। देखने वालों का मन बैठ जाता। आँगन में बैठ कर जब वे चौके की ओर दीदे फाड़ कर देखतीं तो मन होता कैसे अपनी आँख से थोड़ी-सी रोशनी लेकर अम्मा की आँख में रख दूँ। कोई किसी को पुकारता तो उसकी दिशा में उठ पड़तीं। टकरा जातीं। माथे पर चोट फूल आती। बैठकर सहलाते हुए ज़ोर से हँस पड़तीं।

उनके दिन-रात इतने हँसने लगे कि लोगों के दिलों से उनकी बेचैनियाँ तिरोहित होती चली गईं।

इतने पर भी दुःख का मन नहीं भरा। वह ज्यादा नुकीला होकर उन्हें छलने लगा। दर्द छिपाने में उनका हँसना तीव्र से तीव्रतर होता चला गया। इस तरह गहन दुख के एक-दो दृश्यों में नहीं…नानी दयनीयता की पूरी पिक्चर में बदल गईं।

माँ ने सिसक कर मेरी ओर से पीठ फेर ली थी।

मेरी माँ को हमेशा लगता रहा कि उनकी माँ अर्थात नानी अपनी पीर छिपाने के लिए हास-परिहास का चोंगा, जबरन पहने रहती हैं। वरना किसी न किसी से तो उन्हें शिकायत होती। कभी तो मन का क्षोभ उगल लेतीं। मन का बोझ हल्का कर लेतीं। लेकिन नानी को न बहू, न बेटे, न उनके बच्चों से शिकायत थी। न ही ऊपर वाले के प्रति नाराज़गी। मानो दुनिया के सारे दुःख एक तरफ और नानी की हँसी एक तरफ।

फिर जैसे-जैसे मैं बड़ी होती गयी– देखा,नानी के हिस्से की धूप जब–सब में बंट गई तो नानी अपने हिस्से की गुनगुनाहट अकेले तलाशने के लिए मजबूर होती चली गयीं। अपने परिवार के सुख-दुःख की उलीचन में नानी अपनी पीड़ा हँसते हुए गूँदने लगीं।

घर के चेहरे पर जो स्थाई रूप से तनाव था…पिघल गया। सभी अपनी ओर लौटे और नानी सबकी ओर… लेकिन वे पहुँची कहीं नहीं।

इतने पर भी समय अपनी भड़ास उगलता रहा।

नानी को पूरी तरह दिखना बंद हो गया। उन्हें सुबह से लेकर शाम तक किसी न किसी की जरूरत पड़ने लगी। लोगों की खिसियाहट पारा की तरह बढ़ने लगी। इसकी भनक जल्दी ही नानी को लग गयी। उन्होंने अपने कामों को आगे की ओर स्थगित करना सीख लिया।

अब वे खुद ही अपने कपड़ों को टटोलकर पहचानने का प्रयास करतीं और बिना कँघी-चोटी हफ़्तों-हफ़्तों गुज़ार देतीं। जुएँ उनके स्थाई संगी बन गए थे।

खाना खिलाने वाले अकसर झुँझलाकर दाल-सब्ज़ी, दही एक साथ थाली में उड़ेल देते। उन्हें दिया जाने वाला गिलास भर दूध,पानी का साथी हो गया। तीन कपड़ों में से उनका साथ सबसे पहले ब्लाउज ने छोड़ा। नामुराद ऐसे कहीं दब जाता कि खोजे नहीं मिलता। अब बिन बटनों के ब्लाउज का खोना ही ठीक था। उसके बाद जब पेटीकोट भी समय से नहीं मिलने लगा… तो द्रोपदी की तरह वे एकवस्त्रा हो गयीं। और जीवन भर गाँठ बाँधकर धोती पहनती रहीं।

धोती उनके प्रति सदा समर्पित बनी रही। कारण उसे खँगाल कर नानी गुसलखाने के पास खूँटी पर जैसी  टाँग देतीं, वैसी ही उन्हें मिल जाती।

मैंने बहुत बार देखा— गरमी की धूप उनके पायताने घंटों खड़ी रहती। दिन के तीसरे पहर भी नहाने को उन्हें मिलता तो भी वे उफ़ तक न करतीं। चप्पल पलंग के पास न मिलने पर नंगे पाँव चल पड़तीं। तलवों में कुछ गड़ जाता तो उनके हँसने में इजाफ़ा हो जाता। प्यास जब गला खरोंचती तो उनकी हँसी का ताप बढ़ जाता।

इस बात का अंदाजा मेरी माँ को हुआ था जब उन्होंने ख़ुद प्यास लगने पर अचानक पूछ लिया था–-"अम्मा पानी पियोगी?”

नानी दो गिलास पानी एक साथ गटक गयी थीं। नानी के मौन पर माँ स्तब्ध थीं। फिर तो उनकी उम्र ज्यों-ज्यों ढलती गयी, सुबह से लेकर शाम तक उन्हें हर बात के लिए अपनी बारी का इंतज़ार रहने लगा। वहीं उनकी हँसी अपना दायरा बढ़ाती चली गयी।

माँ कभी-कभी अचानक बोल पड़तीं–-“कृपा, नानी की हँसी के नीचे अनगिनत ज़िन्दा नासूर हैं। काश! कोई हँसी का लिहाफ़ उठाकर मरहम लगा देता!”

दुनिया की नंगी सच्चाई…आँख वालों से ज्यादा बिना आँख वाले साफ़ देख लेते हैं। मुझे नानी को देखकर समझ आ गया था। उसके बाद नानी के घर जब भी जाना हुआ, उन्हें नहलाना, बालों में कँघी करना, घर में इधर-उधर घुमाना, मैं अपने जिम्मे ले लेती थी।

जब आँखें मींचे नानी हँसी में लहालोट नज़र आतीं… तो उन्हें नीले आसमान की रंगत, भोर की नारंगी धूप, अबोध मुस्कान, अपनी हथेली पर मेंहदी दिखाने को मेरा मन मचल उठता। मगर उम्र की ढलान पर नानी पहले से ज्यादा हँसने और सोने लगी थीं।

उनकी छाती से पल्ला सरकता तो मुझे बहुत झेंप लगती। एक दिन मैंने उनसे कहा–-"नानी आप ब्लाउज पहनने लगो। मुझे अच्छा नहीं लगता।”

“अच्छा ठीक है किरपा ! अपनी आजी की अँगिया लेती आना…।” कहकर नानी तेज़-तेज़ हँसने लगी। 

एक दिन नानी अपना हाथ चौखट पर रखे थीं, उसी समय किसी ने दरवाज़ा खोल दिया। उनकी कानी ऊँगली दब गयी। नाख़ून नीला पड़ गया। देखने वाले कराह उठे। नानी उस टीसती नील पर भी हँसती रही थीं।

"नानी, हँसने और रोने में कितना अंतर होता है..? आप इतना क्यों हँसती हो? जबकि आपके मुँह में एक भी दाँत नहीं, जिन्हें देखकर कोई दूसरा भी हँस सके..?" इस बार मैंने उनसे गुस्से में पूछा था। 

“किरपा,रोना किसी को सीखना नहीं पड़ता। हँसी सीखने में उम्र निकल जाती है। अब जबकि हमें हँसना आ ही गया है तो आखरी दम तक बस हँसती रहूँ..सोचती हूँ।”

कहते-कहते नानी रुक गईं। उनके शब्दों की आँच मेरे मन को तपाने लगी थी। उनकी हँसी मेरे भीतर हिल्की बनकर उभरना चाह रही थी। तब तक नानी ने टटोलकर मुझे अपनी गोद में खींच लिया और अपनी नरम हथेली से मेरा माथा सहलाकर हँसने लगीं।

नानी के काले वर्तमान ने विस्तृत हो मुझे ढँक लिया।

गरमी की छुट्टियाँ फिर आई थीं। नानी के घर जाने की तैयारियों में माँ जुटी थीं। तभी ननिहाल से खबर आई–“नानी नहीं रहीं— उनकी मृत्यु का कारण डॉक्टरों ने अति ख़ुशी बताया था।”

"माँ, ऐसी कौन-सी ख़ुशी थी जो नानी सहन नहीं कर सकीं…?" मैंने पूछा।

“तुम चुप रहोगी? एक! दम! चोsप…! जाओ एक तरफ बैठो जाकर….!”

रोते हुए माँ ने इतनी व्यग्र कठोरता से कहा कि मेरी अधपकी भावुकता चटख गयी।

मैं जानती थी कि उत्तर उन्हें मालूम था मगर वे देना नहीं चाहती थीं। मैं जाकर दूर बैठ गयी। रोते-रोते माँ ज़मीन पर उँगलियाँ चला रही थीं। जैसे कुछ लिख रही हों। क्या लिख रही होंगी…? नानी की हँसी या उनका दुख… जिसे नानी ने हँसी की परतों में छिपा रखा था….?

"ठक ठक ठक….."

चौकीदार के डंडे की आवाज़ें मुझे वर्तमान में लौटा लाईं।

नज़र घड़ी पर पड़ी तो महसूस हुआ कि रात अपने अंतिम चरण में डोल रही थी। रघुबीर सहाय की कविता ‘हँसो हँसो जल्दी हँसो’ की किरचें अर्थ के साथ मेरे जेहन में धँस चुकी थीं।

किताब बंदकर मैंने तकिया के नीचे खिसका दी और आँखें मूँद लीं।

-कल्पना मनोरमा, भारत
 
ई-मेल: kalpanamanorama@gmail.com


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हटाओ धूल ये रिश्ते संभाल कर रक्खो | ग़ज़ल - अखिलेश कृष्णवंशी

हटाओ धूल ये रिश्ते संभाल कर रक्खो,
पुराना दूध है फिर से उबाल कर रक्खो।......

 
 
गुम होता बचपन - डा. अदिति कैलाश

अक्सर देखती हूँ बचपन को
कचरे के डिब्बों में......

 
 
बंदगी के सिवा ना हमें कुछ गंवारा हुआ - रामकिशोर उपाध्याय

बंदगी के सिवा ना हमें कुछ गंवारा हुआ
आदमी ही सदा आदमी का सहारा हुआ......

 
 
नादानी - डॉ. ऋषिपाल भारद्धाज

आज करेंगे हम नादानी
मौसम भी है पानी पानी ......

 
 
सरफ़रोशी की तमन्ना  - पं० रामप्रसाद बिस्मिल

सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है।
देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-कातिल में है॥

राहरवे राहे मुहब्बत रह न जाना राह में ।......

 
 
नये साल का पृष्ठ - शिवशंकर वशिष्ठ

एक साल कम हुआ और इस जीवन का,
नये साल का पृष्ठ खोलने वाले सुन!......

 
 
लड्डू - हरीश पुरोहित

माँ ने दिया जनम तो हँसना रोना आया,
पिता ने पकड़ी ऊँगली तो चलना आया।

भैया ने जोर से ढकेला तो साईकिल चलानी आयी,......

 
 
काका की वसीयत - रोहित कुमार हैप्पी

सहज विश्वास नहीं होता कि कोई व्यक्ति अपनी वसीयत में यह लिखकर जाए कि उसके देहांत पर सब जमकर हँसें, कोई रोए नहीं!

जी हाँ!! ऐसी भी एक वसीयत हुई थी। यह वसीयत थी हम सब के चहेते हास्य कवि काका हाथरसी की।

काका जीवन भर तो सभी को हँसाते ही रहे, अपने जाने पर भी लोगों को मुसकुराते रहने का आदेश दे गए। वह इस दुनिया में आए ही लोगों को हँसाने के लिए थे। उनकी वसीयत का सम्मान करते हुए ऐसे ही किया गया।

18 सितंबर 1995 को एक ओर काका का शरीर पंचतत्व में विलीन हो रहा था और दूसरी ओर शमशान में हास्य कवि सम्मेलन का आयोजन किया हया था। आधी रात को सब लोग ठहाके मार-मार कर हँस रहे थे। 

काका की शवयात्रा भी उनकी इच्छा के अनुसार ऊंट गाड़ी पर ले जाई गई थी।


- रोहित कुमार हैप्पी


......
 
 
घमंड कब तक  - अयोध्याप्रसाद गोयलीय

"नानी, यह ऊँट इतना उछल-कूद क्यों रहा है?"

"इसे अपनी ऊँचाई पर घमंड हो गया है बेटे!"

"यह घमंड कब दूर होगा, नानी?"

"जब यह किसी पहाड़ के नीचे-से निकलेगा, इसका घमंड पानी-पानी हो जाएगा।"

- अयोध्याप्रसाद गोयलीय
[ साभार - कुछ मोती कुछ सीप ]

 

......
 
 
कितनी देर लगेगी ? - फ़ादर पालडेंट एस० जे०

ईसप यूनानियों के विख्यात लेखक थे। उनकी छोटी-छोटी कहानियाँ संसार भर की सभ्यासभ्य भाषाओं में अनुवादित हैं।

एक समय किसी राही ने ईसप से पूछा कि अमुक नगर पहुँचने में कितनी देर लगेगी ? ईसप ने कहा, "आप जब पहुँचेंगे, तब पहुँचेगे।
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महात्मा गांधी  - साग़र निज़ामी

कैसा संत हमारा
गांधी......

 
 
पाँच क्षणिकाएँ  - नवल बीकानेरी

अर्थी के
अर्थ को ......

 
 
अक्ल का कमाल - राजेन्द्र मोहन शास्त्री एवं मृदुला शर्मा 

एक बार एक सिपाही रिटायर होने के बाद अपने घर लौट रहा था। वर्षों घर से दूर नौकरी करने के बाद भी उसकी जेब खाली थी। उसका मन बड़ा उदास था। पिछले काफी अरसे से उसने अपने घरवालों की कोई खैर-खबर नहीं ली थी। वह तो यह भी नहीं जानता था कि उसके घर में कोई जिन्दा भी है कि नहीं। चलते-चलते वह एक गाँव में पहुँचा। तब तक रात हो चुकी थी। वह काफी थक गया था और उसे भूख भी जोर की लगी थी, अतः उसने एक घर का दरवाजा खटखटाया।

उस घर में एक बुढ़िया रहती थी। दरवाजा खोल बुढ़िया ने सिपाही को घूरकर देखा और बोली "कौन हो तुम...?"

"मैं एक सिपाही हूँ। रिटायर होकर अपने घर लौट रहा हूँ। मुझे बहुत दूर जाना है। कुछ देर आराम करना चाहता हूँ।"

"आओ, अन्दर आ जाओ..."

सिपाही बुढ़िया के साथ मकान में दाखिल हो गया।

सिपाही की उम्मीद थी कि बुढ़िया उसे कुछ खिलाएगी-पिलाएगी लेकिन बुढ़िया बड़ी कंजूस थी। उसने तो एक गिलास पानी तक नहीं पूछा।

कुछ देर बाद सिपाही ने ही बुढ़िया से पूछा--"कुछ खाने को मिलेगा, अम्मा?"

"अरे बेटा, मैंने तो खुद ही कल से कुछ नहीं खाया है," यह कहकर बुढ़िया ने सिपाही को टाल दिया। सिपाही चुप हो गया।

तभी उसे बेंच के नीचे एक बिना मूठ की कुल्हाड़ी पड़ी दिखाई दी। यह कुल्हाड़ी उठाता हुआ बोला "चलो, इस कुल्हाड़ी का ही दलिया बना लेते हैं। बुढ़िया उसका मुँह ताकने लगी कि कहीं यह सिपाही पागल तो नहीं है, अतः उसने उसे रोकते हुए कहा "अरे, कुल्हाड़ी का भी कहीं दलिया बनता है?"

"क्यों नहीं? जरा मुझे एक बर्तन तो दो, फिर देखना कि कुल्हाड़ी का मजेदार दलिया कैसे बनता है। एक बार बनाकर खाया था, आज तक मुँह में स्वाद है।"

बुढ़िया के लिए तो यह हैरानी की बात थी, वह फौरन ही एक बर्तन ले आई। सिपाही ने कुल्हाड़ी को खूब धो-पोंछकर बर्तन में रखा और कुछ पानी डालकर चूल्हे पर चढ़ा दिया।

अचम्भे से बुढ़िया की आँखें मानो बाहर को निकली जा रही थीं। सिपाही एक कलछी लेकर बर्तन में चलाने लगा। फिर उसने थोड़ा-सा पानी कलछी से निकालकर चखा।

"बहुत जल्दी तैयार हो जाएगा।" वह बोला, "मगर क्या करूँ, मेरे पास नमक तो है ही नहीं। नमक बगैर दलिये का क्या स्वाद आएगा।" बुढ़िया उस अ‌द्भुत दलिये का स्वाद चखने के लिए बेचैन हो रही थी, "मेरे पास है थोड़ा-सा नमक।" वह उठकर गई और नमक ले आई।

सिपाही ने नमक डालकर फिर चखा।

"थोड़ा-सा अधकुटा गेहूँ होता तो मजा ही आ जाता," उसने फिर कहा।

बुढ़िया कुठियार में गई और दलिये से भरी एक थैली निकाल लाई और बोली, "लो, जितनी जरूरत हो डाल लो। दलिया कम नहीं पड़ना चाहिए।"

सिपाही ने दलिया बर्तन में डाल दिया और उसे चलाता रहा। अन्त में उसने उसे फिर चखा। बुढ़िया टकटकी बाँधे उसे देख रही थी।

"अहा, बड़ा स्वादिष्ट बना है।" सिपाही बोला, "बस, जरा-सा मक्खन और होता तो फिर क्या कहने थे।"

बुढ़िया थोड़ा-सा मक्खन भी ले आई। सिपाही ने दलिये में मक्खन भी डाल दिया।

"अब एक चमचा ले आओ अम्मा, दलिया तैयार है...।"

बुढ़िया चम्मच ले आई तो दोनों ने दलिया खाना शुरू कर दिया। बुढ़िया खाती जाती और तारीफ करती जाती।

"भई वाह! कुल्हाड़ी का दलिया इतना मजेदार बनता है, यह तो मैंने कभी सोचा ही न था!"

सिपाही मन-ही-मन हँसता हुआ दलिया खा रहा था। उसने बातों के जाल में बुढ़िया को उलझाकर आखिरकार अपने खाने का इन्तजाम कर ही लिया था। इसे कहते हैं अक्ल का कमाल।

-राजेन्द्र मोहन शास्त्री, मृदुला शर्मा 
[रूस की लोक-कथाएँ]


......
 
 
तितली और ततैया - डॉ आरती ‘लोकेश’

तितली और ततैया

आज फिर कुसुम को तितलियाँ दिखीं। आजकल तितलियाँ आस-पास कुछ अधिक ही मंडराने लगी हैं, वह सोच में पड़ गई। उसे तितलियाँ बहुत पसंद हैं और रंगों के चाव में तितली के पंख पकड़ने वाले उतने ही नापसंद।  
 
दमकल की लाल गाड़ी अपनी खंदक में घुसी और एक ही बार में अनुशासित बालक-सी सही जगह हाथ बाँधकर खड़ी हो गई। इंजन बंद कर कुसुम फायरटैंडर चालक की सीट से नीचे उतरी। नीली वर्दी में लिपटी सांवलकाय कुसुम को अगली दस खंदकों में कुछ और आज्ञाकारी सिंदूरी वाहन अपने-अपने चालकों के इशारों पर शांति का दान करते दिखे। कुसुम ने पलटकर अपने वाहन पर दृष्टि डाली। क्या सारा शोर उसके वाहन से ही था? या फिर यह शोर उसके अंतस में मचा हुआ था? नज़रें कहीं और अटकी थीं और आँखें बढ़ते कदम को पग-पग पर नाप रही थीं। कान मनस के नाद का मनन करते थे। 

दफ्तर जाने के रास्ते की क्यारियाँ पीले फूलों से अटी पड़ीं थीं। सूरजमुखी पर बैठी पंचरंगी, सतरंगी तितलियाँ फिर उसे अपनी ओर आकर्षित करने लगीं। आकर्षण का केंद्र तो वह स्वयं थी। अग्निशमन सेवा में अकेली स्त्री। कुशल चालक, निडर कर्मी, अदम्य साहसी; सम्मोहक, मुँहफट और दंभी। 

आपत सेवा देने के बाद रिपोर्ट लिखने अफसर के कमरे का रुख करना ही पड़ता था। कमरे के बाहर ‘सौरभ अभयंकर’ के नाम की तख्ती पर सौम्य तितली बैठी मिली। सौरभ से कौन-सा पराग मिल रहा होगा, जब तक इसका उत्तर सोचती, वह सौरभ के सामने थी। सौरभ के जिज्ञासामय चक्षु कुसुम के नेत्रों से कुछ रिपोर्ट लेने के इच्छुक थे। रजिस्टर सामने की केबिनेट पर रखा होता था। कुसुम ने किसी इच्छा पर ध्यान न देते हुए रजिस्टर निकाला और खड़े-खड़े ही रिपोर्ट लिख दी। पेन को रजिस्टर के बीच में दबाकर रजिस्टर बंद कर दिया। सौरभ की ओर उसकी पीठ रही। उसी दिशा में खड़े से वह बाहर निकलने को उद्यत हुई। 

“बैठ जाओ कुसुम!” सौरभ को अनसुना न कर पाती मगर उसका फ़ोन बज उठा। उस क्षण कदम वहीं ठहर गए। जरूर कजरी होगी। नीली वर्दी की जेब से मोबाइल निकालकर देखा। उसका अनुमान सही था। एक यांत्रिक-सी प्रतिक्रिया के वशीभूत रिजेक्ट का बटन स्वत: दब गया। 

सौरभ की आँखें खुली किताब थीं। कुसुम ही अनपढ़ जान पड़ती थी सहकर्मियों को। अपनी सुस्त पड़ती निष्ठुरता को अधिकारपूर्वक काम पर लगाया कुसुम ने। चलने ही वाली थी कि सौरभ की मेज़ पर रखे अखबार पर नज़र टिक गई। 

‘बलात्कारियों को फाँसी दो!’ मोटे-मोटे काले अक्षरों में मुखपृष्ठ पर हेडलाइन में दर्ज था। 

“बीच चौराहे पर लटका दो हरामियों को” वह क्रोध से उफन पड़ी। “...कुकर्म करके हाथ में मंगलसूत्र और ले आते हैं कि ...” आँखें चिंगारी बरसाने लगीं। कुसुम की जिह्वा पर सहसा गाँठ लग गई जब उसकी नज़र सौरभ पर पड़ी, उसे अपने चारों ओर की स्थिति का भान हुआ। सौरभ सहम गया था। पलभर को उसे लगा कि वह ही बलात्कारी है, समाचार-पत्र में मानो उसे ही फाँसी देने की बात कही गई है। ततैये ही ततैये भर गए कक्ष में।  

ततैयों के डंक से बचती वह बाहर निकलने लगी कि तितलियाँ उसके जख्म सहलाने उसपर आ बैठीं। सौरभ की आँखों से झरते प्रेम से वह कब तक सूखी रहती। अंतर तो भीज ही जाता था। विरक्ति की ओढ़नी में कब तक मुँह छिपा सकती थी। उसने प्रेम फुहार के स्रोत को तौलने का निश्चय किया। आजमाना चाहती थी कि यह दैहिक इच्छाओं की पूर्ति की चाहत मात्र है या जन्म-जन्मांतर का साथ निभाने का संकल्प।  

प्रशिक्षण के दिनों में एक निराश प्रेमी ने अपने शरीर पर मिट्टी का तेल छिड़ककर आग लगा दी तो चारों ओर तमाशबीन भीड़ में से अकेली कुसुम ही थी जो उसे बचाने के लिए आग में कूद पड़ी। दूधवाले के शरीर से कंबल झपटकर जलते छात्र पर लपेटा और उसे खींचकर केंद्र के बाग तक ले गई। सिंचाई के पाइप से आते पानी से उसकी आग बुझाई। एक लड़की की बहादुरी से सब आश्चर्यचकित थे। उस पागल प्रेमी को प्रथम श्रेणी जलने के निशान थे। वह बच गया था और कुसुम भी। जो स्वयं पावक हो उसका कहाँ अग्नि कुछ बिगाड़ सकती थी।  

एक कजरी थी जो दिन में पच्चीस बार फ़ोन पर कुशल पूछती जैसे आग बिल्डिंग में नहीं, कुसुम के शरीर में लगी हो। फौलाद से बनी कुसुम के अंदर अनवरत लावा बहता था। यही तरल अनल सौरभ के सान्निध्य में पाँख फैलाते मोहक अहसासों को खाक कर जाती। 

दिनभर बलात्कारियों की खबर के अक्षर कान में गूँजते रहे। न्यूज़ चैनलों पर बहस चल रही थी कि लड़कियों को कैसे कपड़े पहनने चाहिए; किसके साथ आना-जाना चाहिए और किस समय घर के बाहर नहीं होना चाहिए। दिन छुपने के बाद घर के अंदर रहना चाहिए जहाँ वह पूरी तरह सुरक्षित है। अग्नि की-सी आँच कुसुम के भीतर तैर गई। घर में सर्वाधिक सुरक्षा की कल्पना कितनी मिथ्या है, यह उससे अधिक कोई नहीं जानता था। 

वह शाम को घंटाघर पहुँची।  सामूहिक बलात्कारियों को फाँसी देने के लिए ज़ोर-ज़ोर से नारेबाज़ी चल रही थी। स्त्री वर्ग पूरे उत्साह से न्याय की माँग कर रहा था। कुछ शोहदे ओछी हरकतों से यहाँ भी बाज़ न आ रहे थे। लड़कियों की उपस्थिति उनके लिए एक अवसर थी जिसका वे मनमाना लाभ उठा रहे थे। लड़कियों से छेड़खानी के लिए कोई सज़ा के प्रावधान की माँग करता न दिखा। लड़कियों के चेहरों पर क्रोध व हिकारत के भाव उभरते और माँग के शब्दों के बीच ही लापता हो जाते।  स्वयं कुसुम को भी कई बार यह करेंट लगा। युवतियों के शरीर से शरीर रगड़ता एक आवारा  कुसुम के हाथ लग गया और उसके अंदर का लावा यकायक बाहर फूट पड़ा। उसने जमकर उसकी धुनाई की। वह माफ़ी माँगता रहा और कुसुम उसे अदरक की भाँति कूटती रही। जहाँ कुछ को यह अतिक्रिया लगी, वहीं युवतियों को आत्मरक्षा का एक नया अध्याय पढ़ने को मिला।
  
कजरी का फ़ोन फिर आया। फ़ोन पर कजरी का नाम देख कुंबज का चेहरा मानसपटल पर तैर गया। कुंबज का पावन प्रेमनाद अनाहद ही रहा, मगर कजरी और कुसुम की मित्रता में कोई कमी नहीं आई। पड़ोस में रहने वाली कजरी का भाई कुंबज बचपन से ही कुसुम का दीवाना था। कुसुम के मुरझाए चेहरे में भी उसे प्रेम ही प्रेम पनपता दिखाई देता। कजरी खुद बार-बार अपने भाई के हृदय के संदेश लाती पर कुसुम उन्हें उपेक्षित ही छोड़ देती। फ़ोन बज-बजकर अनुत्तरित बंद हो गया। शोर में बात न कही जा सकती थी न सुनी। कजरी कुशल-क्षेम ही पूछ रही होगी और कुसुम सकुशल है।

अबकी बार फ़ोन की घंटी से कुसुम के शरीर में झनझनाहट फैल गई। दूसरी ओर कजरी ही थी।  

“कुसुम! अस्पताल ले जाना पड़ेगा मौसाजी को। उनके सीने में तेज़ दर्द है।” हड़बड़ाहट से भरी आवाज़ आई। 

“मरने दे उस पाखंडी को। थोड़ा दर्द का अहसास तो होने दे। जो दर्द मिल रहा है, उस दर्द से तो कम ही होगा जो उसने मुझे दिया है। ...और कितनी बार कहूँ कि मौसा मत कह उस कमीने को।” कुसुम के स्वर में झल्लाहट थी।  

“सुन तो कुसुम! लगता है शिखंडीलाल की तबीयत ज़्यादा खराब है।” कजरी गिड़गिड़ाने लगी।  

“बहुत कड़ी जान है। ऐसी आसानी से ये कमीने मरा भी नहीं करते।” कहकर कुसुम ने फ़ोन काट दिया। 

फ़ोन फिर बज उठा। 

“कुछ तो कर कुसुम!” कजरी के शब्द पाषाण में कोंपल फूटने की आस से भरे थे। फिर कुसुम तो ऐसी पंक थी जिसमें पंकज जन्मते हैं। निर्मम में ममता का संचार हुआ। 

“आज तो नहीं कजरी! ...मैं आज शाम शिमला जा रही हूँ। परसों आ जाऊँगी। फिर देखती हूँ।” दुविधा विचार से निकल शब्दों में भर आई थी।  

“तुम शिमला क्यों चल देती हो जब देखो। वहाँ कौन है तुम्हारा?” 

“बस यूँ ही ..., जब भी तितलियाँ देखने का मन होता है।”  

“तितलियाँ...? शिमला में कौन-सा बटरफ्लाई गार्डन है कुसुम?”

“है एक। ... तुझे नहीं पता।” टाल दिया कुसुम ने। शरारती मुसकान पुष्प-पल्लवित हो खिल गई और एक नन्हीं तितली उस पर आ बैठी। 

“और शिखंडी का ... क्या? फ़ोन कट चुका था और कजरी के शब्द अश्रुत ही रह गए। 

‘अनुमान तो मुझे है कुसुम! पर मैं तब तक नहीं पूछूँगी जब तक तू स्वयं नहीं बताती।’ मन में निशब्द ही कहा। 

कजरी के स्नेह और दुलार से उऋण होना न कुसुम के वश में था, न उसकी सूची में ही। माँ का स्थान सहेली ने ले लिया था। 

चार कमरों के अपने मकान में दो रसोईघर होने से कुसुम की विधवा माँ ने छोटी बहन सरला और बहनोई शिखंडीलाल को पिछला हिस्सा किराए पर दे दिया। बेऔलाद बहन का सहारा बनकर अपने लिए भी एक सहारा तलाश रही थी कलावती। बेल ने कब वृक्ष को सहारा दिया है। सरला को पार्किंसन ने जकड़ लिया। कुछ समय किराया आया फिर शिखंडी पर साथी महिला पत्रकार से छेड़-छाड़ का आरोप लगा और नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया। 

कलावती के सिर पर सरला और शिखंडी की ज़िम्मेदारी भी आ पड़ी। भागते-दौड़ते सबके खाने-पीने का प्रबंध कर बच्ची कुसुम को मौसी का ध्यान रखने के निर्देश देकर कारखाने निकल जाती। आग बुझाने के यंत्र बनाने के कारखाने में अकाउंटेंट का काम करती थी। कुसुम मौसी-मौसा को खाना पहुँचाने जाती तो शिखंडी उसे गोद में बिठाकर अजब तरीकों से दुलराता। बच्ची कुसुम को इस स्पर्श से नफ़रत थी। मौसा की हरकतों से घिन्न होती थी। शिखंडी के छूते ही उसके शरीर पर ततैये डंक मारने लगते। 

कुसुम के स्कूल जाने के बाद कलावती काम पर जाती तो घर की चाभी सरला के पास छोड़ जाती। स्कूल से लौट चाभी लेने के लिए किशोरी कुसुम का कलेजा धक-धक करता रहता। चाभी के साथ ही शिखंडी घर में घुसा चला आता। खाना लेने कुसुम के पीछे-पीछे रसोई तक जाता और जबरन उसे बाँहों में भरकर उसके शरीर को रगड़ता। कुसुम कसमसाकर रह जाती। चिल्लाने की कोशिश करती तो शिखंडी कसकर उसका मुँह भींच देता। कितनी ही बार स्कूल से आने के बाद वह बेमतलब कजरी के घर जा बैठती। 

ततैये के डंक से केवल कुसुम ही घायल न थी, कुंबज पर बैठी तितलियाँ भी आहत हो जातीं। जिस पराग की इन तितलियों को तलाश है उससे कुसुम के हाथ रीते हैं। यहाँ इन्हें कुछ न मिलेगा। शाम को माँ के आने का समय होने पर ही घर आती। घर आने पर उसे माँ से डाँट पड़ती कि मौसा-मौसी कब से भूखे बैठे हैं।  

डाँट सुनकर वह मन मसोसकर रह जाती पर एक दिन वह इस डाँट के लिए भी तरस गई। आग बुझाने का सिलेन्डर बनाने के कारखाने में शॉर्ट सर्किट हुआ और फैक्ट्री धूँ-धूँ कर जल उठी। दमकल गाड़ी जब तक पहुँची, सब भस्म हो चुका था। सौइयों कर्मचारी मालिक समेत प्रचंड आग में दाह हो गए थे। दुर्घटना की खबर जंगल की आग-सी फैली। टीवी-रेडियो और अखबार इस हादसे की सूचना से अटे पड़े थे। 

‘दमकल वाहन चालकों के अभाव में फुहाराबाद शहर आग की चपेट में?’ ... आदि शीर्षक  मुखपृष्ठ पर विराजमान थे। वीरान-उजाड़ कुसुम ने उस घड़ी फैसला किया कि वह दमकल चालक का प्रशिक्षण लेगी ताकि अब और कायाएँ जीते-जी अग्नि में स्वाह न हो जाएँ। माँ को यही श्रद्धांजलि दे सकती थी वह।  

सदमे और विपदा से घिरी कुसुम घर में अकेली और शिखंडी को भरपूर अवसर। सरला को काँपते हाथ-पैर वहीं छोड़ उसे कुसुम के पास बने रहने का बहाना मिल गया। कुसुम का अपना ही घर ततैये ही ततैयों से भर जाता। कुछ दिन रिश्तेदार व पड़ोसी घर आते-जाते रहते और कुसुम को ततैये दूर से ताकते-मँडराते मालूम होते। तेरहवीं पर सभी नातेदार शिखंडी को ही कुसुम का ध्यान रखने की हिदायत देकर विदा हो गए। 

उस दिन कुसुम की निढाल काया ततैयों से ढक गई। ततैयों का आकार भी साँपों के समान हो गया उस दिन। लाख कोशिश करने पर भी वह शरीर के अंगों पर रेंगते साँपों से बच न सकी। ‘मौसी ई ई ई ...मौसी इई इई इई’ की आवाजें सरला के कानों के पर्दों पर दस्तक न दे सकीं। वह किसी और दुनिया के भ्रमण पर थी। बीमार सरला को नींद की गोली खिलाकर सुलाने के बाद कानों के पर्दों के साथ आँखों और दिमाग पर भी पर्दे पड़ गए थे।
  
अपनी आस्तीन में सर्प पल रहा हो तो बचाव कैसे हो! कजरी कुसुम के संग बनी रहती, उतनी देर कुसुम की साँस में साँस रहती। शाम ढले कजरी घर जाने लगती तो कुसुम का कलेजा मुँह को आ जाता। कजरी की उपस्थिति में भी निगाहों के डंक उसके शरीर में गढ़े रहते। रातभर कुसुम जहरीले बाणों की शिकार रहती। कुसुम दिन में भी जिंदा लाश दिखाई देने लगी थी।  

कुसुम की अवस्था का कारण माँ का जाना समझते हुए कजरी के साथ ही कुंबज के हृदय में सहानुभूति की गंगा बहने लगी थी। कुसुम के मन में पैठी कुंठा और ग्लानि उसे यह प्रेम स्वीकार न करने देती। उसकी बदहवासी में शायद अग्निशामक प्रशिक्षण का आमंत्रण पत्र भी अनदेखा ही निकल जाता जो वह कजरी के हाथ न लगा होता। 
कजरी ने ही स्नेहपूर्वक कुसुम को नैराश्य और अवसाद से बाहर निकाला और कुफ़री जाने के लिए राज़ी किया। कजरी कुसुम को रेलवे स्टेशन तक छोड़ने गई। कुसुम की पथराई आँखें छलछला आईं। कजरी के गले लग कुसुम ज़ार-ज़ार रोई। जीवन-विषाद के घिनौने सत्य का पृष्ठ कजरी के सामने खुल गया। सब जानकर कजरी के पैरों तले ज़मीन खिसक गई। 

कुफ़री में प्रशिक्षण के दौरान कुसुम को आभास हुआ कि वह अकेली नहीं है, एक जीव उसके अंदर पनाह ले चुका है। वह विक्षिप्त-सी हो उठी। अजन्मे जीव से घृणा हो जाती और वह शरीर के नए हिस्से को नोंचकर फेंकने को मचल जाती। 

इस नई स्थिति से अनजान कजरी का फ़ोन जब-जब आता, एक सहारे की, एक अपने की ज़रूरत के अहसास का जीव अंदर पलने लगा जाता। अपने शरीर के बदलाव से मोह जन्मने लगा।

उम्मीदों की कलियाँ चटकीं। कुसुम के जीवन में तितलियों का आगमन हुआ। इस अवस्था में उसके लिए अग्निसेना का प्रशिक्षण जारी रखना संभव न था। अग्निशमन संचार व लिपिक कार्यों की ट्रेनिंग का छ: माह का कैंप शिमला के राष्ट्रीय आपातकालीन प्रबंधन कॉलेज में लगा। कुसुम की अर्जी मंज़ूर हुई और भर्ती उसमें हो गई। 

शिमला अस्पताल में कुसुम ने वरदा को जन्म दिया। तितलियाँ सुनहरे पंख लहराने लगीं। माँ के दु:ख में लिया प्रण और एक माँ के उत्तरदायित्व आपस में टकराने लगे। अपने कलेजे पर पत्थर रख ‘वितान बाल आश्रम’ में वरदा को छोड़ उसने शिमला से डेस्क-लिपिक का कोर्स पूरा किया और वापस कुफ़री से अग्निसेना तथा अग्निवाहन चालक का प्रशिक्षण पूरा किया। फुहाराबाद के फायरफाइटिंग कार्यालय में उसकी हाथोंहाथ नियुक्ति हो गई। 

सरला मौसी का पार्किंसन बढ़ते-बढ़ते इतना बढ़ गया था कि अब वह चलने-फिरने व बोलने से बिलकुल लाचार हो गई थीं। उनकी दशा पर तरस आता तो शिखंडी पर क्रोध और बढ़ जाता। कुफ़री पर लौटने के बाद से कुसुम अब अबोध-मासूम-गुमसुम न रह गई थी। उसकी शांत आँखों से ज्वाला निकलती थी जो शिखंडी को देखते ही दावानल में बदल जाती थी। शिखंडी को छूकर आने वाले काममद ततैये पटाखे की तरह दहन हो जाते। कुसुम ने सीख लिया था कि ततैये के डंक को लोहे के चाकू पर चूना लगाकर निकाला जाता है। 

काम से आने के बाद कुसुम सरला मौसी की खूब सेवा करती। सरला को नहलाना, स्वच्छ करना, अपने हाथ से खाना और दवाई खिलाना; कुसुम वह सब करती जो शायद कभी केवल अपनी माँ के लिए कर सकती थी। कुसुम के सामने होते हुए भी शिखंडी का इतना साहस न हो पाता कि वह कुसुम को छू ले या उसे छूने की कल्पना भी कर जाए।  

सरला की बीमारी में सुधार होना शुरू हुआ। कुसुम को सरला में माँ दिखने लगी। सरला ने बहकती-बिखरती ध्वनि में बोलना तथा अपनी इच्छाएँ बताना भी शुरू कर दिया था। कुसुम के सख्त चेहरे से बिछुड़ी सौम्यता और मुस्कुराहट चुपके से लौट आईं। तुतलाती भाषा में सरला ने कुसुम से उसके विवाह की योजना के बारे में पूछना चाहा। कुसुम की आँखों की चमक बुझ गई। पचासियों दृश्य व अनसुलझे प्रश्न मस्तिष्क में लहर गए। कुंबज का विवाह हो चुका था। वरदा को कौन अपनाएगा जब वह ही नहीं अपना पाई अभी तक। 

कुसुम में नरमाई की कोंपलें फूटती देख एक दिन फिर शिखंडी पर हवस का भूत सवार हो गया। वह कुसुम के कमरे में बलात् घुस आया पर उसकी आँखों के अंगारों से दहल गया। उसके पैरों में गिरकर प्रेम तृप्ति की भीख माँगने लगा। कुसुम की एक लात पड़ते ही वह दूर जा पड़ा। कुसुम छुईमुई का फूल नहीं, कोबारा लिली के फूल में ढल चुकी थी। शिखंडी का स्वाभिमान फन कुचले साँप की भाँति फुफकारने लगा। जिसका दिन-रात दोहन किया हो, उससे पराजय को वह पचा नहीं पाया। अन्य  कोई उपाय न देख वह कुसुम को धमकाने लगा कि वह उसकी नाजायज़ बेटी वरदा के बारे में सब जानता है अत: कुसुम के लिए यही बेहतर होगा कि वह उसे अपने पति के रूप में स्वीकार करे और चुपचाप इस संबंध को चलने दे। 

शिखंडी का वार खाली नहीं गया था। कुसुम सकते में आ गई। उसकी जबान काठ की हो गई। उसकी दृष्टि अपने पर्स पर पड़ी जिसमें वरदा की तसवीर और उसके जन्म का प्रमाण-पत्र रखा था। कुसुम को हारा हुआ जानकर शिखंडी अपने कपड़े खोलकर लहराते कोबरा-सा कुसुम पर झपटा। कुसुम सन्न थी, परास्त नहीं। कुसुम ने शिमला से खरीदा हुआ लंबा चाकू उठाया और एक ही वार में उसके कामांग को उसके शरीर से अलग कर दिया। जब-जब विगत के वीभत्स क्षण दंश देते, बोबीटाइज़ कर हत्या की जड़ को ही उखाड़ फेंकने का विचार बार-बार उसकी मेधा में कौंधा करता था, सो आज यथार्थ में परिणत हो गया। अपने हृदय के टुकड़े पर काले बादल मँडराते देख आज यह साहस और बल भी आ गया था। अशक्त में अपार शक्ति का संचार कुछ ऐसे ही उद्दीपनों से हुआ करता है। फिर कुसुम तो पूर्व की तुलना में मानसिक और शारीरिक बलिष्ठता को प्राप्त हो गई थी। 

शिखंडी को वहीं बेहोश छोड़कर वह सरला को सब बताने के लिए दौड़ी। अचानक उसका यह तिनके-सा आखिरी सहारा भी सदा के लिए आँख मूँद चुका था। वह भीतर तक हिल गई। पत्ते-सी काँप रही थी वह। सरला की मृत देह के पास बैठी वह सारी रात सिसकती रही। क्या करे क्या न करे, कुछ सूझ न रहा था। सुबह शिखंडी को होश आया। वह दर्द से छटपटा रहा था। इस दर्द को कम करने का उसके पास कोई उपाय नहीं था। सरला की चिता को आग देने तक की ताकत उसमें नहीं थी। यह धर्म भी पड़ोस के कुंबज ने निभाया। 

कुसुम को वरदा की चिंता सताने लगी। कजरी को कुछ जरूरी मीटिंग कहकर कुसुम शिमला चली गई। बालाश्रम में उसकी सकुशलता अपनी आँखों से देख वह अगले दिन लौट आई। कजरी को कुसुम का यूँ अचानक शिमला जाना समझ नहीं आया। लेकिन वितान बालाश्रम की संचालिका समझ चुकी थी कि जिस बच्ची को वह कूड़े में पड़ी मिली बताकर छोड़ गई है, उसके गण-नक्षत्र किस कुंडली की ओर संकेत कर रहे हैं।  

कुसुम का फ़ोन बजा तो चीत्कारी यादों का सिलसिला टूटा। 

“कुसुम! शिखंडी को हार्ट अटैक आया है। कुंबज उन्हें प्रज्ञावती अस्पताल ले गया है।” कुसुम का भरभराया स्वर फूटा। 

“कुंबज को कैसे पता चला?” कुसुम को कुंबज के संज्ञान की चिंता ने अधिक सताया। कुंबज के चित्त में कुसुम का चित्र कहीं विकृत न हो जाए, यह एक और वेदना कुसुम को तोड़ सकती थी। 

“फ़ोन पर हमारी बात सुन ली कुंबज ने।” कजरी सकपका गई।   

“कुंबज को उस दैत्य के अंग-भंग से जुड़ी कहानी सुना देती तो शायद उसकी दया भंग हो जाती।” अंदर ही अंदर वह कुंबज को इस बात का पता न लगने देने के लिए कटिबद्ध थी। 

“मालूम तो है ... खैर छोड़, तू कब जा रही है शिमला?” 

“कुछ ही देर में ...” कुसुम जल्द से जल्द फुहाराबाद से निकल जाना चाहती थी। हृदय को मजबूत रखना आवश्यक था। महादुष्ट पर दया का भाव जाग्रत होने न देना था उसे। 

सरला के जाने के बाद से शिखंडी बुझ गया था कि बोबीटाइज़ होने से, यह जाँचना मुश्किल था। बहुत दिन तक चलने-फिरने में तकलीफ़ स्पष्ट दिखाई देती थी। अब उसकी चाल की त्रिज्या अपने कमरे की परिधि तक सिमट गई थी। कुसुम खाना बनाकर पोटली उसके कमरे के हैंडल पर टाँग आती और वह उसपर अपनी ज़िंदगी बसर कर लेता। भूख से उसकी बेचैनी कभी दरवाज़ा समय से पहले खोल देती तो भी कुसुम उसके जुड़े हुए हाथों को अनदेखा कर देती। कृपा दिखाना संभव था, क्षमा करना नहीं। राक्षसों का दीन-ईमान नहीं होता। वरदा को उससे खतरा बना रहेगा और कुसुम की सामाजिक अस्मिता को भी। अनेक बार विचार किया कि उस प्रमाण-पत्र को नष्ट कर दे, किन्तु यह द्वंद्व भी साथ ही उपजा कि उससे हासिल क्या होगा। अनिर्णय के कारण प्रमाण-पत्र अपने स्थान पर सुरक्षित रहे। 

आज तितलियों के झुंड के झुंड शिमला की ट्रेन में भी मिले कुसुम को। ट्रेन से बाहर भी देखती तो झिलमिलाती तितलियाँ उसके भावों को गुदगुदा जातीं। 

स्टेशन से ‘वितान’ तक के रास्ते में तितलियाँ उसके दिमाग में डेरा डाले रहीं। टैक्सी चालक को पैसे देने के लिए पर्स में हाथ डाला तो वरदा की तसवीर पर पखौटे उग आए। उसके जन्म का प्रमाण-पत्र भी तितली की भाँति फड़फड़ाता मिला। उसने पल भर में सैकड़ों निर्णय ले डाले। 

संचालिका ने वरदा को बिना कानूनी कार्यवाही के गोद देने से इंकार किया तो उसके जन्म का सर्टिफिकेट काम आया। कुछ ज़रूरी कागज भरवाकर उन्होंने वरदा को कुसुम की गोद में डाल दिया। 

शिमला से दिल्ली की ट्रेन 100 से अधिक गुफ़ाओं-कंदराओं से गुजरी मगर आश्चर्य था कि कुसुम को कहीं अंधकार न दिखाई दिया। गुफ़ा से निकलने पर आँखें अवश्य चौंधिया जातीं। प्रकृति के संकेत हृदय तक प्रेषित हो रहे थे फिर भी मस्तिष्क बार-बार हृदय पर हावी हो जाता और वह वरदा की सलामती-रक्षा को लेकर सोच में पड़ जाती। यद्यपि समाज की सोच के डर को उसने अपने अस्तित्व से काटकर दूर फेंक दिया था तथापि नौकरी के बिना गुज़ारा कठिन होगा, यह विचार तो कौंध ही जाता। सारे विचारों को झटके से उखाड़ उसने चलती ट्रेन के बाहर फेंका और वरदा को कसकर गले लगा लिया। अब वही तो उसके जीवन का आधार थी। 

सामने की सीट पर बैठी सवारी के हाथ में पकड़े अखबार पर नज़र पड़ी। ‘बलात्कारियों को फाँसी!’ मुख्यपंक्ति पढ़कर न्याय पर विश्वास पुख्ता हुआ। कुदरत के फैसले कब कोई जान पाया है। 

वरदा से खेलते-बतियाते वह टैक्सी में सवार हो फुहाराबाद रेलवे स्टेशन से घर की ओर बढ़ रही थी। सबसे पहले वरदा को कजरी से मिलवाना चाहती थी। एक कजरी ही तो थी जो हेय विभाव के बिना उसे अपना सकती थी और माँ जैसी ममता कर सकती थी। वरदा किसी प्रौढ़ा सी शांत और कुसुम किसी बच्ची सी चहकती अपनी दुनिया में रंग भर रही थी कि फ़ोन फिर बज उठा। कजरी का फ़ोन होगा, समझकर उसने पर्स में से मोबाइल निकाला किन्तु स्क्रीन पर सौरभ का नाम उभर रहा था। उसने झट से फ़ोन रिसीव किया। 

“कुसुम तुम वापस आ गई हो क्या? इमरजैंसी है...। प्रज्ञावती अस्पताल में भयंकर आग लगी है।” सौरभ की हड़बड़ाहट स्पष्ट सुनाई आ रही थी। 

“अरे! ...वहाँ ...वहाँ तो मेरे..., मैं आती हूँ वापस।” कुसुम का स्वर लड़खड़ाने लगा था। टैक्सी को प्रज्ञावती अस्पताल चलने का आदेश दिया। 

अस्पताल में बहुत से रोगियों को बाहर निकाला जा चुका था। बहुत से अभी बाकी थे। उसने फटाफट दमकल वाहन से निकाल अपना फायर सूट पहना और अंदर जाने ही वाली थी कि उसकी नज़र पूरी तरह जले हुए आई.सी.यू. वार्ड के पेशेंट्स पर पड़ी। एक मृत जली देह के पास वह क्षण भर को ठिठक गई। 

त्राहि-त्राहि मची हुई थी। अस्थिर मन:स्थिति और भयंकर आपदा की परिस्थिति में भी उसने बीसियों लोगों की जान बचाई। जब आग पर काबू कर लिया गया तब उसे वरदा का होश आया। वह टैक्सी को खोजने लगी। वरदा सौरभ अभयंकर की गोदी में सुरक्षित मुस्कुरा रही थी और सौरभ के चश्मे से खेल रही थी। तितलियाँ उसके चारों ओर खिलखिला रहीं थीं। कुसुम ने चारों दिशाओं में दृष्टि घुमाई। ततैये कहीं नहीं थे। उगते सूरज की लालिमा के समान एक मधुर स्मित उसके चेहरे पर फैल गई।

-डॉ. आरती ‘लोकेश’
दुबई, यू.ए.ई. 
ई-मेल: arti.goel@hotmail.com


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खिलौनेवाला  - सुभद्रा कुमारी चौहान

वह देखो माँ आज
खिलौनेवाला फिर से आया है।......

 
 
हम दीवानों की क्या हस्ती - भगवतीचरण वर्मा

हम दीवानों की क्या हस्ती,
आज यहाँ कल वहाँ चले,......

 
 
यमराज से मुलाक़ात - मनीष सिंह


एक बार रास्ते में मुझे मिल गए यमराज ,......

 
 
होली है आख़िर.. -  राजेन्द्र प्रसाद

होली है आख़िर मनाना पड़ेगा
मजबूर है दिल मिलाना पड़ेगा

सड़े डालडे की तली पूड़ियां हैं......

 
 
बुराई का जोर बुरे पर  - दीन दयाल भार्गव

दो भाई थे। एक भूत की पूजा करता था, दूसरा भगवान की। भूत भगवान की पूजा करने वाले भाई को नाना प्रकार के लोभ-प्रलोभन दिखाता था, जिससे वह उसकी ओर आकृष्ट हो; परन्तु जब वह भाई इनसे विचलित नहीं हुआ तब वह भूत उसे तरह-तरह से डराने लगा। परन्तु जब इससे भी वह भाई अपनी भगवद्भक्ति में अटल रहा, तब तो भूत बड़ा निराश हुआ। एक दिन भूत ने अपनी पूजा करने वाले भाई को स्वप्न दिया और कहा, "देख तू अपने भगवान की पूजा करने वाले भाई को मना ले वरना तुझे मार डालूगा ।"

भूत-भक्त भाई ने कहा, "वाह, यह खूब रही! मैं तुम्हारी पूजा करूँ और तुम मुझे ही मारो।"

भूत ने कहा, "क्या करूँ, मेरा वश तुम्हारे ऊपर ही चलता है, क्योंकि वह दूसरा तो मुझे मानता ही नहीं।"

शैतान का जोर शैतान पर ही चलता है जिसमें शैतानियत नहीं, उसका शैतान क्या बिगाड़ सकता है। काम, क्रोध, लोभ ही बड़े शैतान है। गीता में इन्हीं तीनों को नरक के द्वार बताया गया है, परन्तु इन तीनों में से एक को भी जो अपने अन्दर घर करने नहीं देता उसका कोई क्या बिगाड़ सकता है?

- दीन दयाल भार्गव 


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साहसी कुंग - रोहित कुमार हैप्पी

एक समय की बात है कि चीन में एक ‘कुंग' नामक बाल भिक्षु था। एक बार वह अपने अन्य भिक्षु साथियों के साथ बौद्ध विहार के खेतों में धान काट रहा था। इसी बीच कुछ चोर-लुटेरे खेत में आ पहुँचे और बलपूर्वक धान की फसल को उठाने लगे। उन्हें देखकर सब भिक्षु डरकर भाग निकले पर कुंग खेत में ही डटा रहा।

उन लुटेरों में से एक ने जब 'कुंग' को खड़े देखा, तो पूछा, 'तुम क्यों नहीं गए? तुम्हें डर नहीं लगता?'

कुंग ने निडरता से उत्तर दिया, 'नहीं! मुझे किसी से डर नहीं लगता।'

वह लुटेरों को कहने लगा, 'ले जाना ही चाहते हो तो सारी फसल उठा ले जाओ। ...पर भाई पहले जन्म में दान न देने का ही तो यह फल है कि तुम इस जन्म में दरिद्र हुए। अब इस जन्म में तुम दूसरों की चोरी करते फिरते हो, अगले जन्म में इससे क्या-क्या दुःख पाओगे, मुझे तो यही सोचकर दुःख हो रहा है।”

यह कह, कुंग खेत छोड़ अपने साथियों के पीछे विहार की ओर चल दिया। उसने पीछे मुड़कर भी न देखा। उसकी बातों का चोरों पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि वे बिना फसल उठाए खेत से लौट गए। उन्होंने धान का एक दाना तक छुआ भी नहीं।

'कुंग' के साहस की विहार में चर्चा होने लगी और सभी उसकी प्रशंसा करने लगे।

आप जानते हैं, यह 'कुंग' नाम का बच्चा कौन था? आगे चलकर यही बालक 'फ़ाहियान' के नाम से विश्वविख्यात हुआ।

-रोहित कुमार 'हैप्पी'


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धूर्त की प्रीति - आनंदकुमार

एक नामी कंजूस था। लोग कहते थे कि वह स्वप्न में भी किसी को प्रीति-भोज का निमन्त्रण नहीं देता था। इस बदनामी को दूर करने के लिए एक दिन उसने बड़ा साहस करके एक सीधे-सादे सज्जन को अपने यहां खाने का न्योता दिया। सज्जन ने आनाकानी की। तब कंजूस ने कहा--आप यह न समझें कि मैं खिलाने-पिलाने में किसी तरह की कंजूसी करूंगा। मैं अपने पुरखों की कसम खाकर कहता हूं कि जो बढ़िया से बढ़िया चीज मिलेगी, वही आपके सामने रखूंगा। आप अवश्य पधारें धर्मावतार !

कंजूस के आग्रह से सज्जन दोपहर को उसके घर खाने पहुंचा। वहां देखा तो चूल्हा तक नहीं जला था। कंजूस अपने बाल-बच्चों के साथ बैठा हुआ शकरकन्द खा रहा था। अतिथि को देखते ही वह उठकर बोला--आओ-आओ मेरे इकलौते मेहमान, हम तुम्हारे साथ अभी-अभी बाजार चलते हैं। वहां बीच बाजार में लोग जिस वस्तु को सबसे बढ़िया कहेंगे, उसी से मैं तुम्हारा भोग लगाऊंगा। उसके लिए एक लाख रुपया भी खर्च करने पड़ेंगे, तो मैं पीछे नहीं हटूंगा। अपनी भूख को मरने मत देना।

खाने का समय हो गया था। बढ़िया भोजन के लोभ से सज्जन की भूख भी प्रबल हो गई थी। वह कंजूस के साथ बाजार की ओर चल पड़ा। बाजार में कंजूस ने पहले एक हलवाई की दुकान पर जाकर उससे पूछा--कहो जी, ये पूरियां कैसी हैं?

हलवाई बोला--सेठजी, देख लीजिए मक्खन जैसी मुलायम हैं।

कंजूस ने तब अपने मेहमान से कहा कुछ सुना आपने? यह इन पूरियों को मक्खन जैसी बता रहा है। मतलब यह है कि मक्खन इनसे उत्तम वस्तु है, तभी तो उसके साथ इनकी तुलना की जा रही है। चलिए, आपके लिए हम मक्खन खरीदेंगे।

दोनों एक दूध-दहीवाले की दुकान पर पहुंचे। वहां कंजूस ने दुकानदार से पूछा--कहो भाई, यह मक्खन कैसा है?  दुकानदार बोला--बड़े सरकार, चखकर देखिए; जैतून के तेल जैसा जायकेदार है।

कंजूस फिर सज्जन से बोला--सुनिए-सुनिए, यह क्या कह रहा है। इसके कहने का अर्थ यह है कि जैतून का तेल मक्खन से भी उत्तम वस्तु है। चलिए, उसी का भोग लगाया जाएगा; आज आप हमारे देवता हैं।

दोनों एक तेलवाले के यहां पहुंचे। वहां कंजूस ने जैतून का तेल देखकर बेचनेवाले से पूछा--अरे यह कैसा है?  दुकानदार ने कहा--दयानिधान, देख लीजिए; पानी जैसा स्वच्छ है।

कंजूस परम प्रसन्न होकर भूखे-प्यासे अतिथि से बोला--लीजिए भाई साहब, सर्वोत्तम वस्तु मिल गई। पानी इस तेल से बढ़-चढ़कर है, तभी तो इसको उसके जैसा बताया जा रहा है। यही नहीं, पानी ही पूरी, मक्खन, जैतून सबसे बढ़कर है क्योंकि पूरी का बाप मक्खन, मक्खन का चचा जैतून का तेल और तेल का दादा पानी है, यह सिद्ध हो चुका है। अब चलिए, जिस चीज की जरूरत थी, मिल गई है। मैं दिल खोलकर आपका सत्कार करूंगा।

अतिथि को लेकर वह धूर्त तीसरे पहर घर लौटा। वहां तुरन्त कई घड़े पानी सामने रखकर वह उससे हाथ जोड़कर बोला--दीनदयालु, अब संकोच न कीजिए; इस अमूल्य वस्तु को ग्रहण कीजिए। आपकी तृप्ति से हमारी सात पीढ़ियां तर जाएंगी।

अतिथि थोड़ा-सा जल पीकर चुपचाप बैठकर मन में अपनी मूर्खता पर पछताने लगा। कंजूस ने फिर विनय के साथ कहा--बस, इतने से ही आपका पेट भर गया! और लीजिए साहब! यह मेरे बाबा के बाबा के खुदवाए हुए कुएं का जल है। पहले यह पाताल तक गहरा था, लेकिन अब किनारे की मिट्टी और पेड़ की पत्तियों के गिरते रहने से पटता जा रहा है। इसका पानी पहले शरबत जैसा मीठा होता था, लेकिन न जाने क्यों, इधर कुछ खारा हो गया है। इसका गंदलापन देखकर शंका न कीजिए। बात यह है कि खर्चे की कमी के कारण पुरखे इसकी सफाई नहीं करा सके। पानी में मछली नहीं है। आप जी भरकर पीजिए। इससे भूख की ज्वाला की कौन कहे, घर की ज्वाला भी बुझ जाती है। इन घड़ों को खाली कर दीजिए; मैं अभी दो-चार घड़े और ला दूंगा। सब आप ही का तो है। आप मेरे लिए अगस्त्य ऋषि की भांति पूज्य हैं। मेरे समुद्र को सोखिए नाथ! सोखिए!

सज्जन ने नाक बन्द करके थोड़ा-सा पानी और पी लिया। इसके बाद वह विदा मांगकर चलने लगा। कंजूस ने बड़े भक्तिभाव से विदा करते हुए कहा भाई साहब, आप मान गए होंगे कि मैंने अपने वचन का पूरा पालन किया है। जिस जल से मैंने आज आपको तृप्त किया है, उसे मैं किसी दूसरे को छूने भी नहीं देता। दूसरों के लिए वह दुर्लभ है। अब आप प्रसन्न होकर यह आशीर्वाद दें कि मेरे पितर तर जाएं। इसी जल से में पितरों का तर्पण करता हूं। सज्जन का पेट उसकी चिकनी-चुपड़ी बातों से कैसे भरता! वह उस धूर्त को धन्यवाद देकर खाली पेट अपने घर लौट आया।

-आनंदकुमार  


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लाल कमीज-बिल्ला नम्बर 243 - गोवर्धन यादव 

"यात्रीगण कृपया ध्यान दें। निजामुद्दीन से चलकर हैदराबाद को जाने वाली दक्षिण एक्सप्रेस अपने निर्धारित समय से एक घण्टा विलम्ब से चल रही है...... यात्रीगण कृपया ध्यान दें" ... उद्घोषिका बार-बार इस सूचना को प्रसारित कर रही थी।

दक्षिण एक्सप्रेस ही क्या प्राय़ः सभी गाड़ियाँ कोहरे की वज़ह से विलम्ब से चल रही है। पूरा प्लेटफ़ार्म यात्रियों से खचाखच भरा हुआ है। हर कोई अपने आप में व्यस्त है। कोई मोबाइल पर चिटचैट करने में लगा है, तो कोई अपना सामान इधर से उधर ज़माने में लगा है। कोई सीट पर कुण्डली मारे बैठा, अनमने मन से अख़बार के पन्ने पलट रहा है, तो कोई किसी पत्रिका के. सामान बेचने वाले वैण्डर अपनी ठिलिया लेकर इधर से उधर चक्कर लगा रहे है। उन्हें उम्मीद है कि कोई न कोई सामान तो बिक ही जाएगा। चाय बेचने वाले भी कहाँ पीछे रहने वाले थे। वे भी अपनी केतली उठाए इधर से उधर डोल रहे थे। बड़े-बूढ़े अपने सामान की सुरक्षा में सतर्क बैठे थे, जबकि युवातुर्क कान में इअर-फ़ोन और आँखों पर सनग्लास चढ़ाए चढ़ाए, एक सिरे से चलते हुए दूर तक निकल जाते और फिर बड़ी शान से, धीरे-धीरे चलते हुए अपनी जगह पर वापिस लौट आते। सफ़ाई कर्मी मुस्तैदी के साथ प्लेटफ़ार्म की सफ़ाई में लगे हुए थे। सफ़ाई कर्मी, सफ़ाई करते हुए आगे निकलता कि दूसरा यात्री कोई न कोई अनुपयोगी वस्तु बिखेर देता। इन हरकतों को देख वह अपने दूसरे सफ़ाई कर्मी से शिकायत भरे शब्दों में कहता-" कब सुधरेंगे हमारे यहाँ के लोग? जगह-जगह डस्टबीन रखे हुए हैं लेकिन उनमें कचरा न डालकर लोग फ़र्श पर बिखेर देते हैं। शर्म नाम की तो कोई चीज ही नहीं बची है। समझाओं, तो झगड़ा-फ़साद करने बैठ जाते हैं। कचरा पड़ा देखकर सुपरवाईजर अलग खरी-खोटी सुनाता है। अपने मन का गुबार निकाल कर फिर वह अपने काम में जुट गया था। लाल कुर्ता पहने कुली इस आशा को लिए इधर से उधर चक्कर काटते दीखते कि कोई न कोई काम तो मिल ही जाएगा। किसी को सीट चाहिए होती है, तो किसी के पास ज़रूरत से ज़्यादा सामान होता है। उन्हें काम तो मिल जाता है लेकिन मोल-भाव को लेकर काफ़ी चिकचिक चलती है, तब जाकर कोई सौदा पटता है।

"यात्रीगण कृपया ध्यान दें..." उद्घोषिका का स्वर माइक पर गूंजता है। वह अभी पूरा वाक्य भी नहीं बोल पायी थी कि यात्रियों के कान सजग हो उठते है। मन में खदबदी-सी मचने लगती है कि पता नहीं कौन-सी ट्रेन आने वाली है। वाक्य पूरा हो इसके पहले पूरे प्लेटफ़ार्म पर पसरा कोलाहल थम-सा जाता है। वाक्य पूरा होते ही यात्री अपने-अपने सामान समेटने लगता है। कौन-सा डिब्बा कहाँ लगेगा, स्क्रीन पर दिखाया जाने लगता है। लोग इधर से उधर भाग-दौड़ लगाने लगते है। कुछ युवा तुर्क प्लेटफ़ार्म के एकदम किनारे पर खड़े होकर, आने वाली ट्रेन को देखने के लिए कभी इधर, तो कभी उधर देखते हैं। इनमें से कई तो ऎसे भी है, जिनको पता ही नहीं होता कि गाड़ी किस दिशा से आने वाली है।

गाड़ी धीरे-धीरे रेंगते हुए आकर ठहर जाती है। उतरने वाला यात्री उतर भी नहीं पाता कि चढ़ने वाले किसी तरह डिब्बे में प्रवेश कर जाना चाहते है। एक अघोषित मल्ल-युद्ध मचने लगता है इस समय। थोड़ी देर में माहौल शांत होने लगता है। ट्रेन अब अपनी जगह से चलने लगी है। कुछ मनचले लड़के दौड़कर डिब्बे में सवार होने के लिए रेस लगा रहे थे। ट्रेन ने अब स्पीड पकड़ ली थी। ट्रेन के गुजर जाने के बाद भी भीड़ में कमी नहीं हुई थी।

एक ट्रेन अभी गुजरी भी नहीं थी कि दूसरी आकर खड़ी हो गई. ट्रेन के आते ही भगदड़ मच गई. कोई इधर से दौड़ लगाता, कोई उधर से। उतरने वालों और सवार होने वाले पैसेंजरों के बीच तू...तू...मैं...मैं। मचने लगी। ट्रेन चुंकि सुपरफ़ास्ट थी और उपर से विलम्ब से भी चल रही थी, फिर स्टापेज भी काफ़ी कम समय के लिए ही था। इसलिए ये सब तो होना ही था।

दो-ढाई घण्टे में चार-पांच ट्रेने आयीं और चली गई. किसी दूसरी ट्रेन के आने में अभी विलम्ब था। सब्जी-पूड़ी की ठिलिया लगाने वाले रामदीन ने बड़े इत्मिनान से माथे पर-पर चू रहे पसीने को अपने गमझे से पोंछा और अब वह नोट गिनने का उपक्रम करने लगा था। इस बीच उसकी जमकर कमाई हुई थी। नोट गिन लेने के बाद उसने नोटॊं की गड्डी को अपनी पतलून के जेब में ठूंस कर भरा और लोगों की नजरें बचाते हुए उसने तम्बाखू की डिब्बी निकाली। जर्दा निकाला और चुने से मलते हुए अपने होंठो के नीचे दबा लिया।

काम की व्यस्तता के बावजूद उसकी नजरें कुली कल्लु पर जमी हुई थी। कई ट्रेनों के गुजर जाने के बावजूद भी वह रेलिंग से पीठ टिकाए बैठा था। अनमना सा। उदास सा। पल भर को भी अपनी जगह से हिला तक नहीं था। सोच में पड़ गया था रामदीन कि ज़रूर कोई न कोई दुख साल रहा होगा उसे, वरना एक मस्त तबीयत का आदमी, कभी इस तरह सूरत लटकाए बैठ सकता है? । उससे अब रहा नहीं गया।

"का बात है कल्लु भइया...काहे सूरत उतारे बैठे हो? ज़रूर कोई बात है, वरना तुम कभउ अएसन बैठे नाहीं दिखे। तबियत-वबियत तो ठीक है ना तुम्हारी?" रामदीन ने उसका हाथ अपने हाथ में लेते हुए पूछा था। सहानुभूति में पगे दो शब्दों को सुनकर उसकी आँखे नम हो उठी थीं। किसी तरह छलछला आए आंसुओं को रोकते हुए उसने कहा-

"अइसी वइसी कोनु बात नई है रे...बस यूं ही..."

" ज़रूर, कोई न कोई बात तो है... वरना तुम इस तरह उदासी ओढ़े कभी बैठे रहे हो भला? । खुश तबीयत होती तो अब तक दो-तीन सौ तो कमा ही लेते। देखो भइया...तुम्हारा हमारा आज का साथ नहीं है। बरसों बरस से हम एक दूसरे को जानते हैं...एक दूसरे के दुख-सुख के साथी रहे हैं। न तो हमारी कोई बात तुमसे छिपी है और न ही तुम्हारी बात हमसे छिपी है। तुम्हारी हालत देखकर समझा जा सकता है कि तुम किसी बात को लेकर दुखी ज़रूर हो। कहते हैं कि अपना दुख उजागर कर देने से मन हलका हो जाता है...दुख आधा हो जाता है...बताओ तो आख़िर का बात है?

"आख़िर बतलाए भी तो क्या बतलाए कल्लु कि उसका बेटा जो महानगर में एक बड़ा अफ़सर है, उसे अपने साथ शहर लिवा ले जाने के लिए तीन दिन से यहाँ डेरा डाले बैठा है। उसका अपना तर्क है कि-कि मुझे अपना पुश्तैनी मकान और खेत-बाड़ी बेच-बाच कर उसके साथ रहना चाहिए. उसका तो यह भी कहना है कि उसे मेरे स्वास्थ्य आदि को लेकर गहरी चिंता बनी रहती है लेकिन लंबी दूरी रहने के कारण वह बार-बार नहीं आ सकता। साथ रहेंगे तो हमें बेफ़िक्री बनी रहेगी। फिर चिंटु भी तो आपकी ख़ूब याद करता है। उसे आपका साथ मिल जाएगा। सच कहता है बेटा कि मुझे साथ चले जाना चाहिए. तभी उसे अपनी बहू अलका कि याद हो आयी... याद हो आए वे कड़ुवे पल जब उसकी हरकतों को देखकर उसका दिल छलनी-छलनी हो गया था। उसे खून के आंसू बहाने पड़े थे। यदि लगातार का साथ बना रहा तो वह और भी नीच हरकतें कर सकती है। बेटे से शिकायत भी करेगा तो कितनी बार करेगा? जाहिर है कि उनके बीच अप्रत्याशित तकरारें बढ़ेगी और संभव है कि उनकी घर-गृहस्थी में दरार पड़ जाएगी... घर नर्क बन जाएगा...वह ऎसा होता हुआ वह हरगिज़ नहीं देख सकेगा...वह उन दोनों के बीच खलनायक नहीं बनना चाहेगा। अपने दुखों को मित्रो के बीच बांटना उचित नहीं है। ऎसा करने से उसकी जग हंसाई ही होगी और उनकी नजरों में बेटे की साख भी गिर जाएगी...नहीं...नहीं वह अपने दुखों की गठरी किसी पर नहीं खोलेगा" । वह कुछ और सोच पाता इसी बीच एनाउन्सर की आवाज़ गूंजने लगी थी, शायद किसी ट्रेन के आने का वक़्त हो गया था। ट्रेन के आगमन की सूचना पाकर उठ खड़ा हुआ और अपनी ठिलिया सजाने लगा था।

रामदीन के जाते ही कल्लु फिर अपनी विचारों की दुनिया में वापिस लौट आया था। स्मृतियों के पन्ने फिर तेजी से फ़ड़फ़ड़ाने लगे थे और वह अतीत की गहराइयों में उतरकर डूब-चूभ होने लगा था।

उसके पोते का जन्म दिन था। फ़ोन पर चिंटू था। सबसे पहले उसने ' दादाजी पायलागु"कहा। सुनते ही उसके शरीर में रोमांच हो आया था।" दादा जी, परसों मेरा जन्म-दिन है। आपको आना पड़ेगा। आपके बगैर मुझे अच्छा नहीं लगेगा। मैंने पापा जी से कह दिया है कि अगर आप नहीं आओगे, तो मैं अपना जन्मदिन नहीं मनाउंगा। आज ही आप टिकिट कटवा लें। कल सुबह तक आप यहाँ पहुँच जाएंगे " । ना करने का तो कोई प्रश्न ही नहीं था। उसने हामी भर दी थी और रात की ट्रेन का रिजर्वेशन करवा लिया।

अपने पोते से मिलने को वह उतावला हुआ जा रहा था। कई दिनों से वह सोच भी रहा था कि एक बार उससे मिल आना चाहिए. लेकिन चाह कर भी वह नहीं जा सका था। जाने से पहले उसने अपने प्रिय पोते के लिए एक बड़ा-सा खिलौना खरीदा। बनारसी की मिठाई की दुकान से एक किलो का डिब्बा पैक करवाया और जयराम की दुकान से अपने बेटे के लिए सूट का कपड़ा और बहूरानी के लिए साड़ी पैक करवायी।

ट्रेन अपने निर्धारित समय से दो घंटा विलम्ब से चल रही थी। ट्रेन को विलम्ब से चलता देख उसे खीझ होने लगी थी। मन में बेचैनी बढ़ने लगी थी। वह जल्द से जल्द शहर पहुँच जाना चाहता था, लेकिन मजबूरी थी। वह कर भी क्या सकता था? । वैसे तो अपने जीवन में वह लेट चलने वाली ट्रेनों को देखता आया है। तब उसके मन में न तो किसी प्रकार का रोष पैदा हुआ था और न ही खीज पैदा हुई थी। ट्रेन के इन्तजार में बैठा वह सोचने लगा था कि काश यदि उसके पंख होते, तो बिना समय गवांए वह कभी का वहाँ जा पहुँचता।

आखिर इन्तजार की घड़ियाँ समाप्त हुई. ट्रेन छुक-छुक करती प्लेटफ़ार्म पर आकर ठहर गई थी। अपनी निर्धारित सीट पर बैठते हुए उसने अपने सूटकेस को चेन से कसा और ताला जड़ दिया। अब वह इत्मिनान से सफ़र कर सकता है।

खिड़की पर उसकी अपनी मित्र मंडली जमी हुई थी। एक कहता-"भैये...अब जमकर रहना बेटे के पास। हो सके तो वहीं रुक जाने का मन बना लेना। उसका वाक्य पूरा भी नहीं हो पाता तो दूसरे ने चहक कर कहा-हाँ...हाँ तुमने पते की बात की है। इन्हें अब बेटे के पास ही रहना चाहिए. बुढ़ाती देह को किसी न किसी का सहारा तो होना ही चाहिए न! । भाभी होती तो अड़ी समय में देखभाल करती। पता नहीं रात-बिरात क्या कुछ हो जाए? । ईश्वर करे, ऎसा न हो, लेकिन नियति का क्या ठिकाना, कब क्या घट जाए? । तीसरे ने कहा-तुम लोग ठीक सलाह दे रहे हो, पर भाई माने तब न। बेटा कितनी मिन्नते करता रहता है कि साथ रहना चाहिए. पर ये ज़िद पकड़े बैठे हैं कि यहीं ठीक हूँ। पता नहीं तीन कमरों के छोटे से मकान का मोह ही नहीं छूट पा रहा है इनका। अब चौथे की बारी थी-" इनकी जगह मैं होता न! तो कभी का बेटे के पास चला जाता। अरे...हम अपने बेटा-बेटियों को पढ़ाते-लिखाते ही इसलिए हैं कि वे एक दिन बड़ा आदमी बने...एक अफ़सर बने और हम गर्व के साथ उनके बीच रहकर शेष जीवन काट सके. जितने मुंह उतनी बातें। वह गम्भीरता से सबकी बातें सुनता रहा था।

सिग्नल दिया जा चुका था। ट्रेन के छूटने का समय हो चला था। सबकी ओर मुख़ातिब होते हुए.वह केवल इतना ही कह पाया था-" आप सब लोगों ने उचित सलाह ही दी है। मुझे ख़ुशी हुई आप लोगों की बात सुनकर। लेकिन मैं अब तक इस शहर को छोड़ने का मानस नहीं बना पाया। मन है कि मानता ही नहीं। अब तुम्हीं बताओ... बचपन से लेकर अब तक मैं इसी शहर में पला-बढ़ा। पूरा जीवन आप लोगों के बीच रह कर बिताया। आप लोगों के बीच रह कर सुख-दुख दोनों भोगे। मैं आप लोगों से इतना घुलमिल गया हूँ कि दूर चले जाने की कल्पना मात्र से दिल में घबराहट होने लगती है। वह और कुछ कह पाता कि ट्रेन चल निकली। अश्रुपुरित नेत्रों से वह सभी को हाथ हिला-हिलाकर अभिवादन करता रहा था, जब तक कि वे आंखों से ओझल नहीं हो गए थे।

पूरी रात वह चैन की नींद सो नहीं पाया था। अपने पोते के साथ बिताए दिनों की याद करते हुए उसके शरीर में गुदगुदी होने लगी थी। कभी उसे घोड़ा बनना पड़ता था तो कभी चोर-सिपाही का खेल खेलते हुए उसे चोर बनना पड़ता। चिंटु हाथ में रस्सी का टुकड़ा लिए मानो वह हथकड़ी हो, उसकी तलाश करता। कभी उसे पलंग के नीचे तो कभी दरवाजे की ओट में खड़ा रहना पड़ता था। पकड़ा जाने पर पिंटु ख़ूब शोर मचाता कि उसने एक मुलजिम को गिरफ़्तार कर लिया है। कभी घूमते हुए वे शहर के बाहर निकल जाते और ऊँची-सी टेकड़ी पर बैठकर अपने घर की तलाश करते। दोनों के बीच होड़ लगती कि जो अपने घर को पहचान लेगा, इनाम में उसे सौ रुपये का एक नोट मिलेगा।

बेचारा चिंटु हार मान लेता। असंख्य मकानों के बीच अपना घर पहचान लेना, कोई आसान काम तो नहीं था उसके लिए. आख़िर वह अपनी हार मान लेता और कहता-" दादा जी, हम हार गए. पापा से पैसे लेकर मैं आपको दे दूंगा। अब आप ही बतलाइये कि अपना मकान कौन-सा है? । वह उंगली से इशारा करते हुए उसे अपना मकान दिखलाता। वह सब महज़ इसलिए भी इस खेल को खेल रहा था कि बड़ा होने पर उसे अपनेपन का अहसास तो बना रहेगा... अपने घर के प्रति मोह तो बना रहेगा। वैसे वह जानता है कि पढ़-लिख कर कोई एक बार महानगर में पैर रख लेता है, वह दुबारा लौट कर घर नहीं आता। पिंटु ही की क्या, उसका अपना बेटा भी तो शहर का ही होकर रह गया है। वह शायद ही वापिस लौटे। जब वह लौट नहीं सकेगा तो इस नन्हें बालक से क्या उम्मीद की जा सकती है? ।

पिंटु की बात सुनकर मन खुश हो जाता और वह उसे अपने सीने से चिपका लेता। उसे सीने से लगाते हुए उसके रोम-रोम में प्रसन्नता कि लहरें हिलोरे लेने लगतीं। फिर वह उसके कहता-"पिंटु सौ रुपये उधार रहे। मुझे अभी इसकी आवश्यक्ता नहीं है। जब तुम बड़े होगे। लिख-पढ़कर जब तुम एक अफ़सर बनोगे! तब लौटा देना" कहते हुए उसकी कोर भींग उठती। वह जानता है कि जब तक वह इस संसार में ही नहीं रहेगा।

पिंटु कभी किसी पेड़ की शाख़ पकड़कर झूलता तो कभी किसी रंग-बिरंगी तितली का पीछा करते हुए उसे पकड़ने के लिए दौड़ लगाता। सर्र-सर्र करती बहती हवा के झोंकों में उसे लगता कि वह भी किसी पखेरु की तरह हवा में उड़ा जा रहा है। तरह-तरह के खेलों को खेलते हुए शाम घिर आती। सूरज के लाल-लाल बड़े से गोले की ओर उंगली उठाकर वह कहता-" पिंटु सूरज देवता अब अपने घर जा रहे हैं। कल सुबह फिर वे एक नया सबेरा लेकर आएंगे। बस, थोड़ी ही देर में अन्धकार गहराने लगेगा। अब हमें इस पहाड़ी पर से उतर जाना चाहिए, वर्ना अंधकार में उतरने में परेशानी हो सकती है। मगन मन चिंटु हामी भरता और वे पहाड़ी उतरने लगते।

घर लौटने से पहले वह उसे चाकलेट-टाफ़ी वगैरह दिलवाता और इस तरह वे घर लौट आते।

हंसते-खेलते दिन पर दिन कैसे बीतते चले गए, पता ही नहीं चल पाया। अब उसे वापिस होना था। उसके स्कूल जो खुलने वाले थे। पिंटु के जाने के बाद से उसका दिल गहरी उदासी से भर गया था। न खाने-पीने में मन लगता और न ही उसे नींद आती थी। धीरे-धीरे सब सामान्य हो चला था। बीते दिनों को याद करते हुए वह खुश हो लेता। शायद ही कोई ऎसा दिन रहा होगा, जिस दिन पिंटु की ओर से फ़ोन न आया हो। फ़ोन की घंटी बजते ही वह लपक कर उठाता और देर तक उससे बातें करते रहता।

विचारों की शृंखला टूटने का नाम नहीं ले रही थीं। उसमें गहरे गोते लगाते हुए वह कब नींद की आगोश में चला गया, पता ही नहीं चल पाया। शोरगुल सुनकर उसकी नींद खुली। खिड़की से झांककर देखा। ट्रेन वीटी पर खड़ी थी और उतरने वालों की लंबी लाईन लगी थी। उसने जेब से चाभी निकाली। चेन से बंधे सूटकेस को खोला और अपनी सीट से उठ खड़ा हुआ। स्टेशन से बाहर निकलकर उसने टैक्सी ली और घर की ओर चल पड़ा। ट्रेन की लेट-लतीफ़ी की वज़ह से उसने बेटे को स्टेशन न आने की सलाह देते हुए कह दिया था कि वह सीधे घर पहुँच जाएगा।

दरवाजा अन्दर से बंद था। उसने काल-बेल का स्वीच दबाया और किसी के आने का इन्तजार करने लगा। दरवाज़ा खोलने वाला और कोई नहीं बल्कि उसका चहेता पिंटु ही था। उसे सामने पाकर उसने सूटकेस को एक तरफ़ रखते हुए उसे अपनी बाहों के घेरे में ले लिया। चिंटु से गले लगते हुए उसे अपार प्रसन्नता का अनुभव हो रहा था। घर के अन्दर प्रवेश करते ही चिंटु ने अपनी मम्मी को तेज आवाज़ लगाते हुए कहा-"मम्मी...मम्मी...देखो तो सही...मेरे प्यारे दादाजी आए हैं" ।

सोफ़े में धंसते हुए दादा-पोते बतियाने लगे। बातें करते हुए उसे ध्यान ही नहीं आया कि चिंटु को तोहफ़ा देना तो वह भूल ही गया है। अपनी भूल को सुधारते हुए उसने एक बड़ा-सा पैकेट देते हुए कहा-"पिंटु...ये रहा भाई तुम्हारा तोहफ़ा...इसे खोलकर देखो तो सही कि दादाजी तुम्हारे लिए क्या लाए है? । पिंटु ने पैकेट हाथ में लेते हुए कहा..." दादाजी ...आपने जो भी लाया होगा, वह सुन्दर ही होगा...इसे कल सबके सामने खोलूंगा और अपने दोस्तों को बतलाउंगा" । कहते हुए उसने उसे एक ओर रख दिया था।

इसी बीच बहू ने आकर उसके चरण स्पर्ष किए. कुशल-क्षेम पूछा और यह कहकर वापस हो ली कि वह जल्दी ही नाश्ता और चाय-पानी लेकर आएगी।

चिंटु ने अपने पिता को दादाजी के आगमन की सूचना फ़ोन पर दे दी थी। "बेटे...मुझे आने में थोड़ा समय लग जाएगा। तब तक आप अपने दादाजी के साथ गप्प-सड़ाका लगाओ. हो सके तो उन्हें पार्क घुमा लाओ. आफ़िस से लौटते समय मैं पूजा प्लस होता हुआ आउंगा। मैनेजर ने पूरी व्यवस्था कर रखी है या नहीं...देखता आउंगा।"

चाय-नाश्ते के बाद दोनों पार्क की ओर निकल गए. रास्ता चलते हुए उसने देखा कि कई बच्चे संकरी गली में क्रिकेट खेलने में निमग्न हैं। यह देखते हुए वह सोच में पड़ गया था उसका पोता भी इन्हें गलियों में अपने मित्रो के साथ खेलता होगा। महानगरों में इतनी जगह ही कहाँ बची है कि बच्चे खेल-खेल सकें, जबकि उसके अपने छॊटे से शहर में बड़े-बड़े खेल के मैदान है। लंबे-चौड़े पार्क भी हैं जहाँ वे अपना मनोरंजन कर सकते हैं।

देर रात बीते उसे अपने बेटे से मिलने का मौका मिला। सभी ने साथ बैठकर खाना खाया। यहाँ-वहाँ की बातों के बाद अब वे सोने चले गए थे, ताकि अगली सुबह बची-खुची तैयारियाँ की जा सके.

पूजा प्लस जाने से पहले बेटे ने दो बड़े से पैकेट अपने पिता को देते हुए कहा-"पापाजी... इसमें आपके लिए कुछ कपड़े हैं, मेरी इच्छा है कि आप इन्हें पहन लें। बस थोड़ी ही देर में हम सब यहाँ से निकल चलेंगे" । पैकेट देकर वह लौटने ही वाला था कि कल्लु ने उसे रोकते हुए कहा..."ज़रा एक मिनट के लिए रुको तो सही...मैं इसे तुम्हारे ही सामने खोलना चाहूंगा" ।

" जी ...पापाजी.।कहते हुए वह एक कुर्सी में धंस गया था।

कल्लु ने पैकेट खोला। उसमें एक बंद गले का कोट-पैंट और शर्ट थी। दूसरे पैकेट में चमचमाते जूते थे। कल्लु को यह सब देखकर आश्चर्य होने लगा था। उसने कहा;-"बेटे तू तो जानता है कि मेरी अपनी पहचान लाल कमीज और बिल्ला नम्बर 243 की रही है। मैंने अपने पूरे जीवन में कभी भी कोट-पैंट नहीं पहने और न ही इस तरह के जूते। बजाए इसके, तुम मेरे लिए कुर्ता-पाजामा लाए होते तो अच्छा होता" ।

सुनकर वह सोच में पड़ गया था। बात सच भी थी। वह दुविधा में पड़ गया था और सोचने लगा था कि बर्थ-डे पार्टी में चिंटु उनका साथ नहीं छोड़ेगा। अगर वे मामूली कपड़ों में होंगे, तो आने वाले अफ़सर उन्हें हिकारत भरी नजरों से देखेंगे...अगर ऎसा हुआ तो वह सहन नहीं कर पाएगा और पार्टी का मज़ा किराकिरा हो जाएगा। यही सोचकर उसने उनके नाप का सूट और जूते ले आया था। पुराने ज़माने के अपने पिता को वह कैसे और क्या कहकर मनाए, समझ में नहीं आ रहा था। तभी उसके मन में एक आइडिया आया कि चिंटु का हवाला देते हुए उन्हें मनाया जा सकता है। अगर पिंटु एक बार उनसे कह दे तो वे इनकार नहीं कर पाएंगे।

"पापाजी... मैं आपकी भावनाओं को समझ सकता हूँ लेकिन चिंटु को भला कौन समझाए. ज़िद कर बैठा कि मेरे दद्दु के लिए सूट ही खरीदना है। वे मेरी पसंद का सूट अवश्य पहनेंगे। अब आप जाने और आपका लाड़ला चिटु" । मुझे बीच में मत डालिए" । कहते हुए उसने याचना भरी नजरों से देखा। होशियार था चिंटु। समझ गया कि अब उसे क्या करना और कहना चाहिए.

"दादाजी... आपको सूट पहनना ही पड़ेगा। मैंने इन्हें आपके लिए ही पसंद किया है। अब उठिए और जल्दी से तैयार हो जाइए" । चिटु की बात सुनकर उसका हृदय भर आया था और नेत्रों से आंसू झरझराकर बह निकाले थे। कहते हैं न कि मूल से सूद ज़्यादा प्यारा होता है। बड़े-बूढ़े एक बार भले ही अपनी सगी औलाद की बात सुनी-अनसुनी कर दें, लेकिन अपने पोते की बात को किसी भी क़ीमत पर टाल सकने की स्थिति में नहीं रहते।

ना-नुकुर करने की स्थिति में नहीं था कल्लु। उसे हर हाल में अपने पोते की बात माननी ही पड़ेगी।

कपड़े पहन कर वह आईने के सामने जा खड़ा हुआ। अपने बदले हुए अंदाज़ देखकर वह ख़ुद पर भरोसा नहीं कर पा रहा था कि क्या यह वही कल्लु कुली है जिसकी देह पर चौबीसों घंटे लाल शर्ट और कमर में पाजामा बंधा रहता है। वह कुछ और सोच पाता कि बहू ने कमरे में प्रवेश करते हुए उसे सोने की चेन देते हुए कहा। ।"बाबूजी.।इसे ज़रूर पहन लेना" । इतना कहकर वह वापिस हो ली थी।

पूजा प्लस को दुल्हन की तरह सजाया गया था। बेटा और बहू अपने मित्रो का मुस्कुराते हुए स्वागत करने में निमग्न थे। वह अपने पोते के साथ बैठा उस घड़ी का इन्तजार कर रहा था, जब उसके माथे पर तिलक-रोली लगायी जाएगी। फिर वह केक काटेगा और इसी के साथ जश्न शुरु हो जाएगा।

झिलमिल रोशनी के बीच आर्केस्टा वाले फ़िल्मी गीत गा रहे थे। डांसिग फ़्लोर पर कुछ बच्चे नाच-गा रहे थे। पूरा हाल मेहमानों से खचाखच भरा था। सभी को उस घड़ी का इन्तजार था, जब चिंटु मंचासीन होकर केक काटेगा। तभी बेटे ने मंच से मुख़ातिब होते हुए सभी को उस स्थान पर आने के लिए आमंत्रित किया, जहाँ केक काटने की व्यवस्था कि गई थी।

चिंटु इस वक़्त किसी हीरो से कम नहीं लग रहा था। सबकी नजरें उस पर टिकी थी। बहू ने आगे बढ़कर मोमबत्तियाँ सुलगाई. चिंटु ने केक काटा और जलती हुई मोमबत्तियों को एक फ़ूंक में बुझा दिया। पूरा हाल तालियों की गूंज और हेप्पी बर्थडे टू चिंटू की शोर में नहा गया। जलती मोमबत्तियों को बुझाता देख वह ऎसा करने से मना करने वाला ही था, लेकिन यह सोचते हुए चुप्पी साध गया कि उसे जाहिल-गवांर समझा जाएगा। यदि ऎसा हुआ तो बेटे की किरकिरी हो जाएगी। लोग उसके बारे में पता नहीं कैसी-कैसी धारणाएँ बना लेंगे। वह गंभीरता से सोचने लगा था कि हमारी संस्कृति में दीप जलाकर, अन्धकार को दूर करने की परम्परा रही है। क्या सारे हिन्दुस्थानी अपनी पुरातन संस्कृति को...अपनी पावन परम्परा को भूल गए है? । हमारे यहाँ जलते हुए दीपक को कभी बुझाया नहीं जाता है। ऎसा करना अपशगुन माना जाता है, लेकिन यहाँ क्या, सभी जगह उलटी रीत जो चल निकली है।

केक कटने के साथ ही लोग उसे तोहफ़े देने लगे थे। चिंटु लेता जाता। मुस्कुरा कर उनका अभिवादन करता। थैंक्स कहता और दादाजी को देता जाता। वह भी उन्हें यथास्थान रखता जाता। अब कुछ युवा तुर्क डांसिंग फ़्लोर की ओर बढ़ चले थे। किसी इंग्लिश फ़िल्म का गाना बज रहा था। कुछ युवक-युवतियाँ एक-दूसरे की कमर में हाथ डाले थिरक रहे थे। कुछ स्वादिष्ट भोजन का आनन्द ले रहे थे। बड़े-बूढ़े भी भला पीछे कैसे रहते। वे भी अपनी बुढ़ियाओं को लेकर डानिंस फ़्लोर पर पहुँच गए थे और अपने बीते दिनों की सुनहरी यादों को ताज़ा करते हुए थिरकने लगे थे। शम्मीकपूर की तरह थिरकते हुए एक महानुभाव ने आगे बढ़ते हुए कल्लु से नाचने का आग्रह किया। वह भी इसी फ़िराक में था कि उससे एक बार कोई तो कहे। मन की मुराद पूरी हुई और वह भी डासिंग-फ़्लोर पर जा पहुँचा। आरकेस्ट्रा वालों से कभी वह अपने ज़माने की पसंदीदा फ़िल्मी गीतों को गाने-बजाने को कहता, तो कभी गोंडी गानों की धुन बजाने को कहता। तरह-तरह की स्टाईल में वह नाचता और साथ ही अभिनय भी करता जाता था। डसिंग-फ़्लोर से सभी नाचने और थिरकने वालों ने अपने नाच बंद कर दिए थे और एक बड़ा-सा घेरा बनाए, उसे नृत्य करता देखने लगे थे। बिना रुके वह घंटॊं नाचता रहा था। उसे नाचता देख कोई युवा-तुर्क सीटी बजा-बज कर उसका उत्साहवर्धन करता और बाक़ी के लोग तालियाँ बजा-बजा कर। कभी वह अपने पोते को लेकर नृत्य करता तो कभी हमउम्र के किसी साथी को पकड़कर नाचता। हर आदमी उसकी भाव-भंगिमा को, उसकी थिरकन को लेकर कहता...देखो तो सही...इस उम्र में भी बूढ़ा कैसे-कैसे जलवे दिखा रहा है।

देर रात तक जश्न का माहौल बना रहा था। जब वे घर वापिस लौटे तो रात के तीन बज रहे थे।

अपने परिवार के साथ रहते हुए एक सप्ताह कैसे बीत गया, पता ही नहीं चल पाया। उसे अब बोरियत-सी होने लगी थी। दिन भर दौड़-धूप करने वाला आदमी भला एक कमरे में अकेला कितनी देर बैठा रह सकता था? । चिंटू सुबह स्कूल चला जाता है और तीन बजे के करीब लौटता है। बेटा भी साढ़े नौ बजे अपनी नौकरी के लिए निकल जाता है। बहूरानी से बात करने का सवाल ही पैदा नहीं होता। बचा रहता है वह अकेला अपने कमरे में। न तो उसके लिए कोई काम ही बचता है और न ही वह पढ़ना-लिखना ही जानता है। टीव्ही भी देखेगा तो कितनी देर तक देख सकता है? खाना खाकर सिवाय पलंग तोड़ने के वह कर भी क्या सकता है। फिर आदमी दिन भर सोता भी कैसे रह सकता है? ।

एक दिन। उसने अपने पड़ौसी से बात करना चाहा। पहले तो उसने उसे ग़ौर से देखा और बिना कुछ बोले आगे बढ़ गया था। महानगरों का माहौल ही कुछ ऐसा बन गया है कि एक पड़ौसी अपने दूसरे पड़ौसी को पहचानता तक नहीं है। ऎसे माहौल में भला वह कितने दिन रह सकता है? । वह यह भी नहीं भूला था कि घर में खाना पकाने वाली बाई उसकी थाली में प्रचुर मात्रा में खाना परोसकर उसके कमरे में रख जाती थी। धीरे-धीरे उसकी मात्रा में कमी आने लगी थी। कभी तो उसे भूखा भी रहना पड़ जाता था। शिकायत करें भी किससे करे...क्या ऎसा किया जाना उसे शोभा देगा? क्या यह उचित होगा? यही सोचकर वह चुप्पी साध जाता। एक दिन की बात हो तो सहा जा सकता है, लेकिन लंबे समय तक भूखे कैसे रहा जा सकता है। शिकायत करे भी तो किससे करे? बेटे से कहता है तो निश्चित ही घर में तूफ़ान उठ खड़ा होगा। अतः चुप रहना ही श्रेयस्कर लगा था उसे।

उसे अब अपनी मित्र-मण्डली की याद भी आने लगी थी। भले ही वह मेहनत-मजूरी का काम करता था, लेकिन अपने लोगों के बीच घिरा तो रहता था। यहाँ न तो कोई बोलने वाला था और न ही बताने वाला। उसने तय कर लिया था कि अब उसे लौट जाना चाहिए. इसी में उसकी भलाई है।

एक दिन सकुचाते हुए उसने अपने बेटे से कहा कि अब वह घर लौट जाना चाहता है। बेटे की मंशा थी कि वह अब साथ में ही रहे। "ऎसी भी क्या जल्दी है पापाजी... मैं चाहता हूँ कि अब आप हमारे ही साथ रहें" । बेटे ने कहा था। "चाहता तो मैं भी हूँ कि साथ में रहूँ...लेकिन मेरी मजबूरी तुम समझ नहीं पा रहे हो। दिन भर अकेला बैठे रहना मेरे बस का नहीं है। अगर इसी तरह मैं बैठा रहा तो पागल हो जाउँगा। अब मुझे चले जाना चाहिए. वहाँ मेरी अपनी मित्र-मण्डली है। सुख-दुख के हम साथी रहे हैं, फिर बरसों का साथ भी रहा है। दिन और रात कैसे हँसते-हँसाते कट जाते हैं पता ही नहीं चल पाता" ।

चिंटू ने सुना तो रुआंसा होकर बोला..."दादाजी. अब आप कहीं नहीं जाएंगे...हमारे साथ ही रहेंगे..."

अपने पोते की बात सुनकर उसकी आँखे छलछला आयी थीं। भर्राये स्वर में वह इतना ही बोल पाया था कि अगले साल तुम्हारे जन्म-दिन पर फिर चला आउँगा" कहते हुए वह फ़बक कर रो पड़ा था और उसने उसे अपने सीने से चिपका लिया था।

चिंटु अपने स्कूल गया हुआ था और बेटा नौकरी पर। उसकी गाड़ी दोपहर दो बजे की थी। उसने अपना सामान समेटा और बहू से बोला-"अच्छा बेटी... हम अब चलते हैं" ।

"ठीक है, जैसी आपकी मर्जी... लेकिन जाने से पहले आप सोने की चेन वापिस देते जाइएगा...वहाँ, कहाँ संभालते फ़िरेंगे आप? । दिन भर तो आप घर में रहते नहीं हैं...फ़िर किसी ने चुरा ली तो...लाखों का नुक़सान हो जाएगा। हाँ...सूट भी वापिस करते जाइएगा...पूरे दिन तो आप कुलियों वाली लाल शर्ट ही पहने रहते हैं...सूट भला क्या पहन पाएंगे...पेटी में पड़े-पड़े कीड़े भी लग सकते है" । वह केवल इतना ही बोल पायी थी। ज़्यादा कुछ न बोलते हुए भी इसने काफ़ी कुछ बोल दिया था।

बहू की बातें सुनकर सन्न रह गया था वह। उसे इस बात की तनिक भी उम्मीद नहीं थी कि बहू ऎसा कुछ कहेगी। "हाँ...हाँ...क्यों नहीं... पहले से ही मैंने उन चीजों को अलग रख दिया था ताकि जाते समय लौटा सकूं...सच कहती हो बहू तुम...मेरे लिए ये भला, हैं भी किस काम के" । कहते हुए उसने जेब से चेन निकालकर उसकी हथेली पर रखते हुए, सूट का पैकेट टेबल पर रख दिया और अब वह सीढ़ियाँ उतरने लगा था।

कल्लु अब धीरे-धीरे अपने अतीत की खोल से बाहर निकल रहा था। स्टेशन पर वही चिर-परिचित शोरगुल मचा हुआ था। लोग-बाग अपना सामान इधर से उधर ले जा रहे थे, तो कोई उधर से इधर आ रहा था। रामदीन ने भजिया तल लिया था और अब पूरियाँ निकाल रहा था। शायद कोई ट्रेन आने वाली थी। उसका शरीर अब भी उसी रेलिंग से सटकर बैठा हुआ था। इंजिन की चीखती आवाज़ और हार्न सुनकर वह अपनी अतीत की गहराइयों से वापिस लौटने लगा था।

अब वह पूरी तरह से बाहर निकल आया था। चैतन्य होते हुए वह उठ खड़ा हुआ। नल पर जाकर उसने मुँह पर पानी की छींटें मारे और कांधे पर टंगे गमछे से मुँह पोछा।

अतीत के अपने कड़ुवे अनुभवों को याद करते हुए उसका मुँह कड़ुवा हो आया था। गला खंगारते हुए उसने आक थू कहते हुए, थूक एक ओर उछाल दिया और अब वह रामदीन की ठिलिया के पास चला आया था। "अरे ओ रामदीन भइया...जरा एक कड़क-मीठी चाय तो बनइयो...बहुत देर हो गई ससुरा, हम चाय नहीं पी पाए"

कड़क मीठी चाय को गले से नीचे उतारते हुए उसने निर्णय कर लिया था कि वह अपने बेटे से साफ़-साफ़ कह देगा कि वह उसे अपने साथ ले जाने की ज़िद छोड़ दे और वापिस लौट जाए. वह किसी भी क़ीमत पर उसके साथ नहीं जा पाएगा। वह जैसा भी है, जहाँ भी है सुखी है।

-गोवर्धन यादव 
 ई-मेल: goverdhanyadav44@gmail.com


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चाँद का कुरता  - रामधारी सिंह दिनकर

हठ कर बैठा चाँद एक दिन, माता से यह बोला,
"सिलवा दो माँ, मुझे ऊन का मोटा एक झिगोला।

सन-सन चलती हवा रात भर, जाड़े से मरता हूँ,......

 
 
लोमड़ी और अंगूर - भारत-दर्शन संकलन

एक बार एक लोमड़ी इधर-उधर भटकती हुई एक बाग में जा पहुँची। बाग में फैली अंगूर की बेल अंगूरों से लड़ी हुई थी। उस पर पके हुए अंगूरों के गुच्छे लटक रहे थे। पके अंगूरों को देखकर लोमड़ी के मुँह में पानी आ गया।

अंगूरों के गुच्छे ऊँचाई पर थे और लोमड़ी उन तक पहुँच नहीं पा रही थी। लोमड़ी अंगूरों के गुच्छों तक पहुँचने की कोशिश करने लगी। उसने कई बार छलांगें लगायी लेकिन पूरा जोर लगाने पर भी वह अंगूरों तक नहीं पहुँच सकी। वह अंगूर का एक दाना भी नहीं पा सकी।

अब लोमड़ी उछल-उछलकर थक गई और उसे विश्वास हो गया कि वह अंगूरों तक नहीं पहुँच सकती। तब वह बाग से बाहर निकाल आई। दूसरे जानवरों ने उसे कहते सुना, "ये अंगूर खट्टे हैं। इन्हें खाकर मैं बीमार पड़ सकती हूँ, इसलिए मैं इन्हें नहीं खाऊँगी।"

[भारत-दर्शन संकलन]

 


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व्यंग्य संकलन  - भारत-दर्शन संकलन

हास्य-व्यंग्य संकलन -विविध व्यंग्यकारों की श्रेष्ठ हास्य-व्यंग्य रचनाओं का संकलन।


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होली पद  - जुगलकिशोर मुख्तार

ज्ञान-गुलाल पास नहिं, श्रद्धा-रंग न समता-रोली है ।
नहीं प्रेम-पिचकारी कर में, केशव शांति न घोली है ।।......

 
 
कलम और कागज़ - मुनिज्ञान

अपने ऊपर आती हुई कलम को देखते ही कागज़ ने कहा--जब भी तुम आती हो, मुझे सिर से लेकर पैर तक काले रंग से रंग देती हो। मेरी सारी शुक्लता और स्वच्छता को विनष्ट कर देती हो ।

कलम ने कहा--देखो, मैं तुम्हारी शालीनता-स्वच्छता भंग नहीं कर रही हूँ बल्कि तुम्हारी उपादेयता में निखार ला रही हूँ। जब तुम्हें मै अक्षरों की रंगीनता से भर देती हूँ तो लोग तुम्हें सुरक्षित रखते हैं। समझदार व्यक्ति की दृष्टि में कोरे कागज़ का कोई विशेष महत्व नहीं होता। यदि इसमें कुछ न कुछ लिखा होता है तो सुज्ञ व्यक्ति अवश्य उसे उठाता है और पढ़ने की कोशिश करता है। तो, भाई तुम्हारे ऊपर जितना अधिक लेखन होगा, तुम्हारी उतनी ही अधिक उपादेयता बढ़ती जाएगी ।

कलम की सत्य बात कागज़ ने सहर्ष स्वीकार कर ली ।

ऊपरी कालेपन या गोरेपन का इतना कोई महत्व नहीं है। महत्व तो उसका है कि उसके अन्तरंग में उपयोगी वस्तु क्या है ?
[ मुनिज्ञान ]

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अमर बेल की चोरी - प्रह्लाद रामशरण

बहुत दिन हुए, बेबीलोनिया में एरीच नाम का एक नगर था। जीलगामेश वहां का राजा था। उसने नगर के चारों ओर एक बड़ी ऊंची दीवार खड़ी की थी और उसमें एक आलीशान मन्दिर भी बनवाया था।

जीलगामेश अत्यन्त ही रूपवान व्यक्ति था। इसके साथ-साथ उसके शरीर में अपार शक्ति थी। इसीलिए नगर की प्रजा उससे हमेशा भयभीत रहती थी। वे भगवान् से प्रार्थना करते रहते थे कि उनको अभयदान दिया जाए। 

उनकी प्रार्थना सुनकर देवताओं को दया आई। उन्होंने अनकीदू नाम के एक आदमी को जन्म देकर एरीच में भेजा। उन्होंने सोचा, अनकीदू जीलगामेश के समान ही बलशाली होगा और वह उसको सम्भाल कर नगरवासियों को अभयदान प्रदान करेगा।

इस प्रकार अनकीदू एरीच आया और जीलगामेश के साथ उसकी लड़ाई होने लगी। काफी देर तक दोनों योद्धाओं की लड़ाई होती रही, परन्तु अन्त में जीत हुई जीलगामेश की लेकिन अनकीदू का शौर्य देखकर जीलगामेश बहुत प्रसन्न हुआ। इसीलिए जब लड़ाई खत्म हुई तब दोनों मित्र बन गये और भविष्य में आपस में लड़ाई नहीं करने की प्रतिज्ञा कर ली। 

इसके बाद दोनों प्रतापी मित्र साहसपूर्ण कार्य करने निकले। वे एरीच से काफी दूर निकल गये और सरों के जंगल में पहुंच कर, उसके रखवाले को, जो एक भयानक दैत्य था, मार डाला और वहां की बहुत-सी लकड़ियों को काट-काटकर अपने नगर में लाते रहे।  

किन्तु जीलगामेश और अनकीटू की सफलता ने अन्यों के हृदय में प्रेम अथवा घृणा की भावना उत्पन्न कर दी थी। इसीलिए एरीच की नगर-रक्षिका इत्सर ने जीलगामेश के साथ शादी करनी चाही। उसने शादी का प्रस्ताव भी भेजा, परन्तु जीलगामेश ने उसे अस्वीकार कर दिया। 

इस पर इत्सर को बहुत ठेस लगी। उसने देवताओं से प्रार्थना की कि वे एक जंगली बैल को एरीच भेजें, जो नगर को तहस-नहस कर सकता था। देवताओं ने उसकी पुकार सुन ली और उन्होंने एक अत्यन्त शक्तिशाली जंगली बैल को एरीच में भेज दिया। बैल आया और उसने नगर में तोड़-फोड़ शुरू कर दी परन्तु जीलगामेश और अनकीदू ने मिलकर उस जंगली बैल को भी जान से मार डाला। अब तो एरीच की प्रजा खुशियां मनाने लगी परन्तु देवताओं द्वारा भेजे गये उस पवित्र बैल के मरते ही दोनों योद्धाओं का पतन शुरू हो गया। देवताओं ने अनकीदू को शाप दिया, और वह उसी दिन से बीमार हो गया और कुछ ही दिनों में मर गया। जीलगामेश ने अपने परम मित्र को मरते देखा तो स्वयं डर-सा गया। मित्र की मृत्यु पर वह बहुत रोया। उसके अन्तिम क्रियाकर्म के बाद उसने अपने शिल्पकारों को आदेश दिया कि वे सोने और हीरों की अनकीदू की एक विशाल मूर्ति बनाएँ। 

इसके बाद जीलगामेश सोचने लगा, मृत्यु कितनी बुरी होती है, जो दो परम मित्रों को भी अलग-थलग कर सकती है। क्या इससे बचना सम्भव नहीं है? उसे पहले से मालूम था कि यूनान में नोवा नाम का एक आदमी रहता है जिसे अमरता प्राप्त हो चुकी है। अब वह उसकी खोज में निकल पड़ा। 

इसके लिए उसे बहुत लम्बी यात्रा करनी पड़ी। रास्ते में बड़े-बड़े पर्वतों को लांघा। एकाध बार उसे बहुत तेज तूफान के बीच से गुजरना पड़ा। जंगलों में जाते समय जंगली जानवरों के मध्य से भी निकलना पड़ा। इन सब कठिनाइयों के बावजूद उसे कई-कई दिनों तक भूखे-प्यासे रहना पड़ा। अन्त में वह नोवा के स्थान पर पहुंच गया। 

उसने इस बारे में नोवा से बातचीत की। इसी व्यक्ति ने जल-प्लावन के समय संसार के एक जोड़ी जीवों को बचाया था और इसीलिए उसे अमरता प्राप्त हुई थी परन्तु नोवा अमरता प्राप्त करने का कोई रास्ता नहीं बता सका। 

उसने जीलगामेश को बताया कि एक बार भगवान् एनील ने संसार को जलमग्न करके उसे डुबो देना चाहा, क्योंकि पृथ्वी के कोलाहल से उसकी नींद भंग हो रही थी। एहा नाम के देव ने नोवा को यह सूचना दे दी और उसने उसे यह भी आदेश दिया कि वह एक बड़ी नाव बना कर उसमें हर जीवधारी की एक-एक जोड़ी को उसमें रख ले। नोवा ने ऐसा ही किया। जब संसार जलमग्न हो गया तब नोवा अपनी पत्नी और जीवों की जोड़ी के साथ उस नाव में चला गया। इस प्रकार जब बाढ़ शांत हुई, तब एहा ने भगवान् एनील को शांत किया और नोवा और उसकी पत्नी को अमरता प्रदान करवाई, क्योंकि जल-प्लावन के समय पति-पत्नी ने ही पृथ्वी के जीवों की रक्षा की थी। अब जीलगामेश नोवा के घर से हताश होकर लौटने ही वाला था कि उसकी पत्नी को उस पर दया आ गई। उसने जीलगामेश को बताया कि समुद्र में एक प्रकार की वनस्पति पायी जाती है जिसका सेवन करने से शरीर में हमेशा यौवनात्रस्था बनी रहती है।

जीलगामेश उसकी खोज में समुद्र की ओर चल पड़ा। वहां पहुंचकर उसने अपने पैरों में एक भारी पत्थर बांधा और समुद्र में डुबकी लगा दी। गहरे समुद्र में उसे वह वनस्पति मिल गई। वह उसे लेकर खुशी-खुशी ऊपर आया। उसने सोचा कि वह अपने नगर में चलकर इसे खायेगा और अपने नगरवासियों को भी खिलायेगा परन्तु जब वह समुद्र में नहा रहा था तब एक सांप उस वनस्पति को चुराकर भाग खड़ा हुआ। इस प्रकार जीलगामेश की आशा निराशा में बदल गयी और वह भारी मन से एरीच लौटा। अब उसे विश्वास हो गया कि मृत्यु जो सबको खा जाती है, उससे किसी को भी बचाया नहीं जा सकता ।

 -प्रह्लाद रामशरण

[बेबीलोन की लोक-कथा]


......
 
 
लोहे की जालियाँ | कहानी - राम नगीना मौर्य

लोहे की जालियां

‘‘देखिये, आप रोज कोई-न-कोई बात कह कर मुझे बहंटिया देते हैं, काम के बहाने टाल जाते हैं। कितनी बार कहा कि ऑफिस से लौटते वक्त, अपने पुराने मकान-मालिक अवनीन्द्र बाबू के घर चले जाइये। मच्छरों, कीट-पतंगों से बचने वास्ते हमने अपनी गाढ़ी कमाई के पैसों से उनके मकान के दरवाजे, खिड़कियों में लोहे की जो लोहे की जो जालियाँ लगवाईं थीं। उस मकान को छोड़ते, अपने इस नये मकान में आते वक्त तत्काल कोई मिस्त्री न मिलने के कारण हम वो जालियाँ निकलवा नहीं पाये थे। लोहे की उन जालियों के बारे में अवनीन्द्र बाबू का क्या कहना है...? यही पूछ आते।’’

‘‘अरे भई, मुझे अच्छी तरह याद है। हमने अपनी गाढ़ी कमाई के पैसों से ही वो जालियाँ लगवाईं थीं। अवनीन्द्र बाबू से तो मैंने एक-दो बार बात भी चलाई थी कि मकान छोड़ते समय हम वो जालियाँ निकलवायेंगे नहीं, बशर्ते कि वो उन जालियों के पैसे मकान किराये में एडजस्ट कर लें। लेकिन उन्होंने मेरे इस प्रस्ताव पर कोई अभिरूचि ही नहीं दिखाई। जब मकान-मालिक ने किराये में एक पैसे की रियायत नहीं दी तो हम क्यों रियायत दिखाने लगे...?’’

‘‘तो उन जालियों को निकलवाने के बारे में आप रोज-रोज नये प्रवचन ही देते रहेंगे, या इस दिशा में कुछ फलदायक, रचनात्मक काम भी करेंगे...? आपको याद होगा...अवनीन्द्र बाबू का वो मकान जब हमने किराये पर लिया था, तो उस मकान की क्या दशा थी? बिजली की सारी वाॅयरिंग-फिटिंग और बिजली के बोर्ड तक उखड़े पड़े थे। गरज हमारी थी, सो हमने ही सारी वाॅयरिंग-फिटिंग और बोर्ड आदि अपने पैसे खर्च कर लगवाए थे। तब कहीं जाकर वो मकान रहने लायक हुआ था। वो तो शुक्र मानिए मकान मालकिन का कि उनसे चिरौरी-विनती पर वो किराए के पैसों में, वाॅयरिंग-फिटिंग और बोर्ड के खर्चे को एडजस्ट करने के लिए तैयार हो गयीं थीं। आप हैं कि अपनी गाढ़ी कमाई के पैसों से लगवाई गयी उन जालियों को निकलवाने में भी संकोच कर रहे हैं।’’

‘‘अरे भई, उधर जाना चाहता तो मैं भी हूँ, पर क्या करूं, ये मार्च का जो चक्कर है, दम लेने की भी फुर्सत नहीं है। तिस पर अभी नया-नया प्रमोशन है, छुट्टी लेना भी ठीक नहीं है। किसी सण्डे वाले दिन ही उधर जाना हो सकेगा। वो लोहे की जालियाँ तो हमारे गले की तौक हो गयी हैं।’’

‘‘आप ऐसा क्यों नहीं करते, अवनीन्द्र बाबू से फोन पर ही बात कर लीजिए कि वो जालियाँ अब आपके किसी काम की नहीं रहीं। अपने मकान में तो हमने सभी दरवाजे, खिड़कियों पर जालीदार पल्ले आदि लगवा ही रखे हैं। अगर वो उन जालियों के पैसे नहीं दे सकते तो, उस मकान में उन्होंने जो नया किरायेदार रखा हो, उसी से हमें पैसे दिलवा दें, और उसे अपने किराये में एडजस्ट कर लें।’’

‘‘अवनीन्द्र बाबू को तो तुम अच्छी तरह जानती हो कि वे कितने काइयां किस्म के इन्सान हैं। टूटी-फूटी सड़कें, बजबजाती नालियों, संकरी गली वाले उस बदबूदार मुहल्ले में हमने सात साल कैसे काटे हैं, ये हमसे बेहतर कौन जानता होगा। मच्छर, कीट-पतंगों के आतंक की ओर बार-बार ध्यान दिलाने पर भी अवनीन्द्र बाबू के कान पर जूं नहीं रेंग रहे थे। अन्ततः थक-हार कर हमें ही अपने पैसों से उस मकान के सभी खिड़कियां, दरवाजों पर लोहे की जालियाँ लगवानी पड़ी थीं। पूरे पांच हजार खर्च हुए थे।’’

‘‘आप उनसे इस बारे में किसी दिन उनके घर जाकर इत्मिनान से बात कर लीजिए। अरे, चार हजार ही दे दें, या उनके नये किरायेदार को ही सारी बातें बताते इस बारे में बात कर लीजिए। क्या पता, उनके नये किरायेदार से बात करने में ही कोई समाधान निकल आये...?’’

‘‘तुम्हारा ये सुझाव तो ठीक है। अगर वो इस पर भी नहीं माने तो मैं किसी दिन कोई लोहार या मिस्त्री लेकर जाऊंगा, और लोहे की अपनी वो सभी जालियाँ उखड़वा ले आऊंगा।’’

‘‘हां, अब आपने मेरे मन की बात कही। मैंने तो कितनी बार कहा कि आपकी अकल जब चरने चली जाय तो कभी-कभी मुझसे भी थोड़ी अकल उधार ले लिया कीजिए। हां, एक बात और...अगर आपसे इस मुश्किल का समाधान न निकल सके तो बताइयेगा, मैं ही चल कर अवनीन्द्र बाबू की पत्नी से बात कर लूंगी। पर...एक बात और भी गौरतलब है। अब उन जालियों की हमारे लिए कोई उपयोगिता नहीं है, ऊपर से लोहार या मिस्त्री की दिहाड़ी अलग से देनी पड़ जायेगी। आप कोशिश कीजियेगा कि किरायेदार या मकान-मालिक में से किसी से भी, हमें हमारे पैसे ही मिल जायें।’’

‘‘ठीक है। मैं कुछ करता हूँ। वैसे भी कल छुट्टी है, और संजोग से भइय्या के काम से कल उधर ही जाना भी है।’’

(2)
पत्नी संग उपरोक्तानुसार बातचीत के उपरान्त मैं अगले दिन शाम को मकान-मालिक, अवनीन्द्र बाबू के घर पहुंचा, और उनके दरवाजे पर दस्तक दी।

‘‘कौन है वहां, दरवाजे पर...?’’ कमरे के अन्दर से अवनीन्द्र बाबू ने आवाज दी थी।

‘‘अवनीन्द्र बाबू, दरवाजा खोलिए। मैं सत्यजीत हूँ। आपका पुराना किरायेदार।’’

‘‘अच्छा! आप हैं, सत्यजीत बाबू। बहुत दिन बाद दिखाई दिये। अचानक...इधर कैसे आना हुआ...? बहू कैसी है, और बच्चे कैसे हैं...? छोटा वाला लड़का तो अब बड़े क्लाॅस में चला गया होगा, और डाॅली बिटिया के तो इण्टर के रिजल्ट भी आ गये होंगे?’’ अवनीन्द्र बाबू ने दरवाजा खोलने के साथ-साथ ही, अपनी आदत के अनुरूप यके-बाद-दीगरे, मुझसे ढ़ेर सारे प्रश्न कर डाले।

‘‘अरे, भई सत्यजीत बेटे को अन्दर बुलाकर बिठायेंगे भी कि दरवाजे पर खड़े-खड़े ही पूछताछ करते रहेंगे? रिटाॅयर हो गये हैं, लेकिन मास्टरी की आदत अभी तक गयी नहीं।’’ मैं उनकी बातों का कुछ जवाब देता कि अन्दर आंगन से अवनीन्द्र बाबू की पत्नी, सुरेखा जी ने आवाज दी।

‘‘आओ-आओ भई। अन्दर आ जाओ। बताओ कैसे आना हुआ?’’ अवनीन्द्र बाबू ने दरवाजे के एक तरफ हटते, मुझे अन्दर कमरे में बुला कर बिठाया।

‘‘बड़े भाई साहब का कुछ काम था, यहां अमीनाबाद में। इधर आया तो आप लोगों की भी याद आ गयी। सोचा, क्यों न आप लोगों से मुलाकात कर ली जाय। काफी समय हो गया था मुलाकात किये। सोचा, इसी बहाने आप लोगों का हाल-चाल भी लेता चलूंगा।’’ मैंने मेहमानखाने में रखे, टीक के पुराने, जाने-पहचाने सोफे पर बैठते हुए कहा।

‘‘बहुत अच्छा किया भई। तुम लोग आते रहा करो। तुम तो जानते हो, बिन्नू हमारी इकलौती बेटी थी। उसकी शादी के बाद, अब घर का सूनापन काटने को दौड़ता है।’’

‘‘सत्यजीत को अपनी राम कहानी ही सुनाते रहेंगे कि उसे चाय-वाय के लिए भी पूछेंगे?’’ आंगन से ही अवनीन्द्र बाबू की पत्नी ने उन्हें एक बार फिर टोका।

‘‘हां भई, चाय-वाय तो पियोगे न? जल्दी में तो नहीं हो?’’ पत्नी के टोकने पर अवनीन्द्र बाबू ने मुझसे पूछा।

‘‘जी! लेकिन, मेरी चाय में शक्कर की मात्रा कम ही रहेगी।’’

‘‘सुरेखा, जरा कम शक्कर वाली चाय, और उसके साथ थोड़ी नमकीन भी ले आना।’’ अवनीन्द्र बाबू ने मेहमानखाने से ही पत्नी को आवाज दी।

‘‘आपने आज फिर अपनी सुनने वाली मशीन आंगन में ही तिपाई पर छोड़ दिया है। इसे लगा लीजिए, नहीं तो सत्यजीत की आधी बातें सुनेंगे, आधी बातें अनसुनी करते...आंय-आंय करते रहेंगे।’’ अवनीन्द्र बाबू की बातों की अनसुनी करते उनकी पत्नी ने पुनः आवाज दी।

‘‘यहीं लाकर दे दो। आज सुबह से ही घुटनों में बहुत दर्द है। बार-बार उठने-बैठने, चलने-फिरने में दिक्कत हो रही है।’’

‘‘हां-हां क्यों नहीं? मेरे घुटने तो अभी भी सोलह साल की उम्र वाले हैं। मुझे तो कोई परेशानी होती नहीं। अन्दर किचन में आइये। चाय, खुद से ले जाइये, और आंगन से अपनी कान में लगाने वाली मशीन भी।’’ अवनीन्द्र बाबू की पत्नी ने उन्हें एक बार फिर से प्यार भरी झिड़की देते टोका।

‘‘अच्छा भई...आता हूँ।’’ कहते, थोड़ी मुश्किल से कुर्सी से उठते, मुझे मेहमानखाने में अकेला छोड़, अवनीन्द्र बाबू अन्दर किचन में चले गये। अवनीन्द्र बाबू के वहां से जाने के बाद मैंने मेहमानखाने में एक उड़ती निगाह डाली। अवनीन्द्र बाबू के मेहमानखाने में मैंने पिछले सात-आठ सालों में कोई खास तब्दीली नोटिस नहीं की थी।...‘उत्तिष्ठ जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत...’...के मानिन्द हर आगन्तुक को प्रेरित करती, मेरे सामने की दीवाल पर स्वामी विवेकानन्द जी की फोटो आज भी बदस्तूर, लगी दिखी। वर्षों पुराने टीक के सोफे पर गहरे भूरे रंग के कपड़े का कवर, अभी भी दिख रहा था। सामने नक्काशीदार गोल-मेज पर, एक कोने से हल्का टूटा ग्लाॅस भी वैसे ही रखा था।

मुझे याद है, तब मेरी बेटी छोटी ही थी। एक बार, अवनीन्द्र बाबू के मेहमानखाने में पेपरवेट से खेल रही थी। साथ ही टी.वी. पर आ रहे गाने...‘‘हिन्द देश के निवासी सभी जन एक हैं। रंग-रूप वेश-भाषा चाहे अनेक हैं।।’’... को तोतली भाषा में, गुनगुनाते, सस्वर अभिनय करती जा रही थी कि अचानक लड़खड़ा जाने पर उसके हाथ से पेपर-वेट छूट कर इस टेबल पर गिर गया था, जिससे ग्लाॅस का एक कोना हल्का सा टूट गया था, जो बतौर निशानी, आज भी मौजूद है। 

इसी बीच मुझे अन्दर के कमरे से कुछ खुसर-फुसर सी आवाजें सुनाई दी। मैं सचेत हो गया, और उधर ही कान लगाकर सुनने लगा। ‘‘पता नहीं ये अब यहां क्या लेने आया है?’’ मैंने ध्यान दिया, आवाज अवनीन्द्र बाबू की ही थी, जो अपनी पत्नी से फुसफुसाते हुए बतिया रहे थे। ‘‘आप तो बिलावजह ही सभी पर शक करते रहते हैं। अरे, चौक वाले हमारे मकान में ये लोग लगभग सात साल किराये पर रहे हैं। अभी नई जगह पर एडजस्ट करने में दिक्कत हो रही होगी। क्या पता इसे हमारी याद आ रही हो, तभी तो ये हमसे मिलने आया है। आप ये चाय ले जाइये और कोई आशंका-वाशंका मत पालिए। निश्चिन्त रहिए।’’ कहते अवनीन्द्र बाबू की पत्नी ने उन्हें आश्वस्त किया।

चाय तैयार हो गयी थी। अगले पांच-छः मिनट बाद, अवनीन्द्र बाबू एक ट्रे में दो चाय के भरे कप और भुनी हुई मूंगफलियों के एक प्लेट के साथ मेहमानखाने में नमूदार हुए। मैंने ध्यान दिया, उन्होंने अपने दाहिने तरफ वाले कान के पीछे सुनने वाली मशीन भी लगा रखी थी।

‘‘लो भई, चाय पियो और बताओ, तुम्हारे बाल-बच्चे कैसे हैं?’’

‘‘जी, आप लोगों के आशीर्वाद से सभी ठीक-ठाक, स्वस्थ हैं। ऑण्टी जी को भी बुला लीजिए। उनसे भी मुलाकात हो जाये।’’ अपने मुद्दे पर विचार साझा करने के तईं मैंने उनकी पत्नी को भी इस बातचीत में शामिल करना उचित समझा।

‘‘अरे भई सुरेखा, तुम भी आ जाओ।’’ अवनीन्द्र बाबू ने पत्नी को आवाज दी। अगले दो-चार मिनट बाद अवनीन्द्र बाबू की पत्नी सुरेखा जी भी, अपने हाथ पल्लू में पोंछते, मेहमानखाने में हाजिर हुईं।

‘‘अरे! तुमने तो कुछ खाया-पिया ही नहीं?’’ मेहमानखाने में हाजिर होते ही उन्होंने मुझे टोका।

‘‘जी, अभी अमीनाबाद की तरफ से लौटा हूँ। वहीं एक जनाब के पास चला गया था। उन्होंने वहां की मशहूर कचैड़ियां और कुल्फी खिला दी। पेट अभी भी भरा हुआ है। कुछ खाने का मन नहीं कर रहा। आपके हाथ की अदरक-कालीमिर्च वाली चाय पिये बहुत दिन हो गये थे, सो मैं ये चाय ही पी लेता हूँ।’’

‘‘इतने दिनों बाद हमारी याद कैसे आयी?’’ अवनीन्द्र बाबू की पत्नी ने सामने की कुर्सी खींच कर बैठते हुए पूछा।

‘‘जी, आपको ध्यान होगा, आपके चौक वाले जिस मकान में हम किराये पर रहते थे, आप लोगों की अनुमति लेकर, मच्छर, कीट-पतंगों से बचाव वास्ते हमने उस मकान के सभी दरवाजे, खिड़कियों के पल्लों पर लोहे की जालियाँ भी लगवाईं थीं।’’

‘‘हां-हां, हमें अच्छी तरह याद है। आपने अपने हाथों ही उनकी पेण्टिंग भी कर दी थी, ताकि उन पर जंग न लगे। आपने बहुत अच्छा काम किया था। ये काम तो हमारे वश का था ही नहीं।’’

‘‘अभी वहां, क्या कोई किरायेदार रहता है?’’

‘‘हां-हां, एक मिस्टर सक्सेना जी रहते हैं। यूनिवर्सिटी में लेक्चरर हैं। सपरिवार रहते हैं। अभी बाल-बच्चे नहीं हैं। उनकी नई-नई शादी हुई है। हम लोगों से तो महीने-पन्द्रहियन...मिलने आते ही रहते हैं।’’

‘‘जी, आपको तो पता ही है, उस मकान के सभी दरवाजे, खिड़कियों के पल्लों पर लोहे की जालियाँ लगवाने में हमारे लगभग पांच हजार रूपये खर्च हो गये थे। अब उन जालियों को निकलवाने में मिस्त्री का खासा खर्च भी आ जायेगा। पत्नी, माधुरी भी जालियाँ निकलवाने के पक्ष में नहीं है। यदि आप लोगों की अनुमति हो तो मैं आपके नये किरायेदार से इस विषय पर बात कर लूं कि वो हमें उन जालियों के पैसे दे दें, और आप उन्हें किराये में एडजस्ट कर लें। अथवा यदि उचित समझें...तो मुझे उन जालियों के वाजिब पैसे आप ही दे दें। आजकल पैसे की बड़ी किल्लत हो गयी है। इधर बीच बिटिया को कोचिंग-क्लाॅस ज्वाॅइन करवाया है। उसी में हमारे काफी पैसे खर्च हो गये।’’ अवनीन्द्र बाबू की पत्नी की सहृदयता को देखते, मैंने तनिक झिझकते-अटकते अपनी बात पूरी की।

‘‘पर आपको देने के लिए इतने पैसे हमारे पास कहां? हां, जहां तक किरायेदार से पैसे लेने की बात है, तो पैसे देने या जालियाँ निकलवाने का निर्णय, किरायेदार महोदय को ही लेना होगा। फिर, ये आपके और उनके बीच का मामला है। भला इसमें हम क्या कर सकते हैं? किरायेदार महाशय यदि उन जालियों के बदले आपको पैसे देना चाहें, तो ले लीजिए, या यदि निकलवाने को कहें, तो निकलवा लीजिए। बेहतर होगा कि इस बारे में आप उन्हीं से बात कर लें। हमारी तरफ से कोई आपत्ति नहीं है।’’ इस बार तनिक अन्यमनस्कता दिखाते, अवनीन्द्र बाबू ने हस्तक्षेप किया।

‘‘जी ठीक है। अब मैं निकलूंगा। कभी चौक की तरफ जाना हुआ तो आपके किरायेदार से इस बारे में अवश्य बात कर लूंगा। अभी तो देर शाम हो गयी है। वैसे भी इस तरह के कामों के लिए किसी के घर शाम के समय जाना उपयुक्त नहीं रहता। नमस्ते।’’

‘‘जैसी आपकी मर्जी। नमस्ते।’’ मैंने अवनीन्द्र बाबू से घर जाने की इजाजत मांगी। मेरा अनुमान ठीक निकला। हमेशा की तरह अवनीन्द्र बाबू ने आज भी टाल-मटोल वाला ही रवैय्या अपनाया था। 

(3)
अवनीन्द्र बाबू के घर से लौटने के बाद जाहिरन तौर मैंने पत्नी से आद्योपान्त पूरा वाकया कह सुनाया। तत्पश्चात् पत्नी के सुझावानुसार बिना किसी बिलम्ब के मैं अगले इतवार अवनीन्द्र बाबू के चौक स्थित नये किरायेदार से मिलने, उस मकान पर जा पहुंचा।

मकान का दरवाजा खटखटाने से पहले स्वाभाविक तौर मेरी निगाह दरवाजे-खिड़कियों पर लगी उन जालियों पर भी चली गयी। दरवाजे, खिड़कियों की जालियों को, जिन्हें मैंने कभी खुद अपने हाथों पेण्ट किया था, देखा कि उनके रंग तनिक धुंधला से गये हैं।

‘‘कौन है...?’’ दरवाजा खटखटाने पर, प्रश्न करने के साथ ही अन्दर से एक महिला निकली, उसी ने दरवाजा खोला था।

‘‘जी, मैं सत्यजीत। पहले मैं इसी मकान में किरायेदार था।’’

‘‘ठीक है। आप अन्दर आ जाइये, बैठिये। मैं सुशान्त को बुला रही हूँ।’’ कहते उस महिला ने मुझे ड्राइंगरूम में बिठाया, और अन्दर चली गयीं। मैं भी आदतन ड्राइंगरूम का मुआयना करने लगा। फर्नीचर के नाम पर कमरे में मात्र चार कुर्सियां और उनके बीच एक तिपाई रखी थी। बगल में छोटा सा दीवान, जिसके ऊपर साफ-सुथरा गावतकिया भी रखा था। मध्यम आय वर्ग वाले लोग लग रहे थे। मेरे द्वारा अपने पीछे की दीवाल पर पेंसिल से यूं ही कभी किसी समय मजाहिया मूड में लिखा वो गाना...‘‘खरखुट करती टमटम करती, गाड़ी हमरी जाये/ फरफर दौड़े सबसे आगे कोई पकड़ न पाये।’’...जिसे मिटाने की असफल कोशिश की गयी थी, पर पठनीय था, हल्के धब्बे की तरह बदस्तूर कायम दिखा। छत का प्लाॅस्टर अभी भी जगह-जगह से उखड़ा हुआ था, जिसकी रिपेयरिंग के लिए बार-बार अवनीन्द्र बाबू का ध्यान आकृष्ट कराने पर भी उनके कानों पर जूं नहीं रेंगते थे।

‘‘जी मैं सुशान्त, और आप?’’ मेरे पीछे से आकर नये किरायेदार ने नमस्ते करते मुझसे हाथ मिलाया। उसे देखते ही मुझे नये किरायेदार का चेहरा कुछ-कुछ जाना-पहचाना सा लगा।

‘‘अरे सुशान्त! मैं सत्यजीत। पहचाना मुझे?’’ मैंने अपने जूनियर सुशान्त को फौरन पहचान लिया, उसने भी इकनाॅमिक्स डिपाॅर्टमेण्ट में मेरे गाइड के अण्डर में ही पी.एच.डी. के लिए एनरोलमेण्ट कराया था।

‘‘अरे सर, कैसे नहीं पहचानूंगा आपको? आपने तो गाहे-बगाहे, मुझे गाइड सर से भी ज्यादा गाइड किया था। मुझे हाॅस्टल मिलने तक आपने अपना रूम, लगभग छः महीने तक मेरे साथ शेयर भी किया था। यूनिवर्सिटी छोड़ने के बाद आप तो नैनीताल निकल गये थे, लेकिन मैंने अपनी पी.एच.डी. पूरी की थी।’’

‘‘व्हाट ए प्लीजेण्ट सरप्राइज? हमारी मुलाकात इतने समय बाद, इस तरह होगी, मैंने तो कल्पना भी नहीं की थी।’’

‘‘मुझे भी विश्वास नहीं हो रहा है सर।’’

‘‘पर, तुम यहां कैसे?’’

‘‘जी, मैं यहीं यूनिवर्सिटी में लेक्चरर हूँ। यूनिवर्सिटी के पास ही कोई सस्ता सा किराये का मकान ढूंढ़ रहा था। घूमते-घामते एक दिन इधर चौक की तरफ निकल आया। इस मकान के आगे ‘टू-लेट’ का बोर्ड दिखा। नीचे मकान-मालिक का मोबाॅयल नम्बर भी था। मैंने फौरन ही उस नम्बर पर फोन मिलाया। बातचीत में हमारे बीच थोड़ी-बहुत औपचारिक जानकारी के आदान-प्रदान के बाद, मकान-मालिक हमें ये मकान किराये पर देने के लिए राजी हो गये। हालांकि बातचीत में किराये को लेकर वो थोड़ा कंजूस और खड़ूस भी लग रहे थे, लेकिन बात बन गयी। फिर अगले हफ्ते ही अपने सगरो साज-सामान के साथ मैं सपत्निक यहां आकर रहने लगा। बड़े मौंके से मुझे ये मकान मिल गया।’’ 

‘‘अभी जिसने दरवाजा खोला था, वो तुम्हारी पत्नी ही थीं न?’’

‘‘जी सर।’’

‘‘अगर मैं गलत नहीं हूँ, तो ये वही सुनैना है न, जिसे तुम स्टैटिस्टिक्स का ट्यूशन देने जाते थे, और इस पर अपना रौब जताने के लिए बाजदफे मुझसे ‘मीन-मिडियन-मोड’ और ‘को-रिलेशन’ के कुछ कठिन सवालों पर डिस्कशन भी करते थे। राह चलते-चलते कभी-कभी इससे सामना होने पर इसे देखकर तुम अक्सर ही मजाहिया मूड में...‘‘फुलगेंदवा न मारो...लगत करेजवा में तीर’’...गुनगुना लेते थे?’’

‘‘वो भी क्या दिन थे सर। अब तो न वो फूल रहा, न वो गेंदा ही। अब तो सिर्फ चोट-ही-चोट बची है, और उसके निशान...हें-हें-हें।’’

‘‘हें-हें-हें।’’

‘‘अच्छा, आप चाय तो पियेंगे न?’’

‘‘नहीं, आज सुबह से ही पांच चाय हो गयी है।’’

‘‘ऐसा कैसे हो सकता है सर, आपसे इतने सालों बाद मुलाकात हुई है, और आप मेरे घर पर चाय-पानी भी नहीं लेंगे?’’

‘‘अच्छा, अगर ऐसी बात है तो तुम मुझे एक गिलास ठण्डा पानी ही पिला दो।’’

‘‘आप बैठिये, मैं आपको अपनी मां के हाथों बनाया बतीशा-मिठाई खिलाऊंगा। खालिस देशी घी में बना।’’

‘‘ठीक है भई। जैसी तुम्हारी मर्जी। तुम्हें पता है, बतीशा मेरी प्रिय मिठाइयों में से है?’’

‘‘मेरी भी। मां तो अक्सर ही मेरे लिए बनाती है। आप भी खा कर देखिये।’’ कहते सुशान्त ने फ्रिज में पहले से ही सजा कर रखी मिठाइयों की प्लेट मेरे सामने रख दी।

‘‘हां वाकई! बहुत स्वादिष्ट हैं ये मिठाइयां। वैसे कितने दिन हो गये तुम्हें यहां रहते?’’ मिठाई खा कर पानी पीते, मैंने बात आगे बढ़ाई।

‘‘अभी पिछले अक्टूबर में ही तो आया हूँ सर। पांच-छः महीने तो हो ही गये होंगे।’’

‘‘जरा पंखा तेज कर दो, और खिड़कियां भी खोल दो, ताकि प्रकाश आये। आज काफी गर्मी है। चैत-बैशाख में ही ये हाल है तो पता नहीं जेठ-आषाढ़ में क्या हाल होगा?’’

‘‘अब पेड़-पौधे भी तो नहीं रहे सर। शहरीकरण की आपाधापी में चहुंओर क्रंक्रीट के ही जंगल दिखते हैं। वाबजूद इसके, गांवों से शहरों की तरफ लोगों का पलायन इतनी तेजी से हो रहा है कि यहां रहने के लिए दो कमरे का ढंग का मकान भी मिलना मुश्किल है। लोग दड़बेनुमा मकानों में रहने के लिए मजबूर हैं। लेकिन मैं इस मामले में थोड़ा भाग्यशाली हूँ। इस मकान के दरवाजे, खिड़कियों में जालियाँ लगे होने के कारण सुबह-शाम हम दरवाजे और खिड़कियों के पल्ले खोल देते हैं। इससे अच्छी हवा तो आती ही है, और मच्छर, कीट-पतंगे आदि भी नहीं आ पाते। इस मकान में यही एक अच्छी सुविधा है।’’

‘‘हां...सो तो है...।’’ मैं उन जालियों के बारे में कुछ कहते-कहते रूक गया।

‘‘मकान-मालिक ने बताया था कि उनके किसी पुराने किरायेदार ने ये जालियाँ लगवाई हैं। वो उन पुराने किरायेदार की बड़ी तारीफ कर रहे थे। आप इस मकान में कब रहे थे सर?’’ अपनी बातों के क्रम में ही सुशान्त ने मुझसे ये प्रश्न किया।

‘‘सात-आठ महीनें पहले रहता था मैं यहां।’’

‘‘अभी आप कहां रह रहे हैं?’’

‘‘अब तो मैंने अपना मकान बनवा लिया है। यहीं अली नगर में।’’

‘‘ये तो बड़ी अच्छी बात है सर। मुझे तो अभी भी यकीन नहीं हो रहा कि वर्षों बाद आपसे मेरी मुलाकात इस तरह होगी। मैं आपका हमेंशा एहसानमन्द रहूँगा।’’

‘‘क्यों भइय्या? मैंने तुम पर कौन सा एहसान किया है?’’

‘‘अऽरे सर, आप भूल सकते हैं, मैं नहीं। बनारस में मुझे हाॅस्टल मिलने तक, कहीं और ठौर-ठिकाना न मिलने पर मुझे हैरान-परेशान देख, आपने अपने हाॅस्टल का कमरा मेरे साथ लगभग छः महीने तक शेयर किया था। कौन ऐसा करता है सर?’’

‘‘पर, तुम्हारे कुछ एहसान तो मेरे ऊपर भी हैं।’’

‘‘भला...मैं क्या किसी पर एहसान कर सकता हूँ सर?’’

‘‘शायद, तुम भूल रहे हो। तुम्हें याद होगा। उन्हीं दिनों मुझे परिवहन विभाग के एक इण्टरव्यू में शामिल होना था। मेरे पास ढंग के जूते नहीं थे। मैंने तुम्हारे ही जूते पहन कर वो इण्टरव्यू दिया था। मैं उसमें सफल भी हुआ। तुम्हारे जूते मेरे लिए बहुत लकी साबित हुए थे। ये अलग बात है कि कालान्तर में मैंने वो नौकरी छोड़ दी थी। लेकिन पहली नौकरी के रूप में उसकी याद तो दिलो-दिमाग में अभी भी रची-बसी है। और-तो-और मैंने अपनी बहन की शादी में पहनने के लिए तुम्हारा ही कोट उधार लिया था। पता नहीं तुम्हें याद है कि नहीं?’’

‘‘आप मुझे शर्मिन्दा कर रहे हैं सर। आपको पढ़ता देख कर ही तो मैं अपने कैरियर को लेकर संजीदा हुआ था, वरना तो उस वक्त मैं यूनिवर्सिटी में लाखैरा नम्बर वन ही माना जाता था। आज मैं जो कुछ भी हूँ, जहां तक भी पहुंचा हूँ, सिर्फ आपकी ही बदौलत।’’

‘‘तुम्हें बताऊं? मैं जब भी अपने बहन की शादी का एलबम देखता हूँ, तुम्हारी याद आ जाती है। उस एलबम में ग्रुपिंग के समय, अपने परिवार के सभी सदस्यों संग मैं वही कोट पहने खड़ा हूँ। तुम्हें ये जानकर आश्चर्य होगा कि ये बात, मेरे घर-परिवार के सदस्यों, यहां तक कि मेरी पत्नी को भी नहीं पता।’’

‘‘क्यों शर्मिन्दा कर रहे हैं सर। पढ़ाई के दिनों में तो ये सब उधार लेना-देना चलता ही रहता है। पर आपने बताया नहीं कि आप, इधर कैसे आये थे?’’

‘‘कुछ नहीं बस्स...सिलाई-कटाई से सम्बन्धित एक ठो कैंची खरीदने के लिए इधर चौक की तरफ आया था। कैंची खरीदने के बाद सोचा, अपने पुराने मकान को भी देख लिया जाय, और उत्सुकता ये भी थी कि देखा जाय, अब इस मकान में रहने के लिए कौन आये हैं। लगे हाथ उनसे भी मुलाकात कर ली जाये। यही सोच कर इधर चला आया था।’’

‘‘बड़ा अच्छा हुआ सर। हमें दुबारा मिलना लिखा था। ये मेरे लिए बड़े सौभाग्य की बात है। आप अक्सर किसी विद्वान की वो प्रसिद्ध उक्ति कहते रहते थे न...’मनुष्य पैदा तो स्वतन्त्र हुआ है, मगर हर जगह जंजीरों में जकड़ा हुआ है।’’

‘‘ये बात तो सार्वकालिक है। सार्वभौमिक है। इससे भला किसे इन्कार होगा...? अच्छा, अपनी पत्नी सुनैना से नहीं मिलवाओगे...?’’

‘‘जी, वो छत पर कपड़े सुखाने वास्ते, उन्हें अलगनी पर फैलाने गयी है। छत पर गीले कपड़े ले जाते समय वो कपड़ों के पिन ले जाना भूल गयी थी, वही लेने नीचे आयी थी कि दरवाजे पर आपने दस्तक दे दी। दरवाजा उसी ने खोला था। मैं उस समय ‘शेव’ बना रहा था।’’

‘‘ठीक है, अब देर हो रही है। मैं चलता हूँ। किसी दिन अपनी पत्नी को लेकर घर आना।’’

‘‘जी, बिलकुल। आप अपना नम्बर बताइये मैं ‘सेभ’ कर लेता हूँ। आने से पहले फोन कर लूंगा।’’

‘‘हां, नोट करो...नाइन फाइव...अच्छा छोड़ो, ऐसा करो तुम मुझे अपना नम्बर बताओ, मैं मिस्सड-काॅल मार देता हूँ।’’

‘‘जी, नोट करिये...एट सिक्स जीरो...।’’

‘‘ठीक है, अब मैं चलता हूँ। घर जरूर आना।’’

‘‘जी बिलकुल। नमस्ते सर।’’

‘‘नमस्ते।’’ सुशान्त से इस संक्षिप्त मुलाकात के बाद मैं घर आ गया।

(4)
‘‘क्या हुआ? आज लौटने में इतनी देर कैसे हो गयी?’’ उस शाम घर पहुंचने पर पत्नी ने पूछा।

‘‘चौक की तरफ गया था। बहुत दिनों से तुम्हारी इच्छा थी न! सिलाई-कटाई वाली एक ठो बड़ी सी कैंची खरीदने की। मैंने सोचा कि क्यों न इसे बनाने वाली फैक्ट्री से ही खरीदी जाय? सस्ती रहेगी और मजबूत, टिकाऊ भी। उसके बाद चौक वाले किराये के अपने पुराने मकान की तरफ भी चला गया था।’’

‘‘अरे वाह! तब तो उस मकान के दरवाजे, खिड़कियों पर लगी जालियों के बारे में भी बात हुई होगी...?’’

‘‘जरा आराम से बैठने तो दो। सब बताता हूँ। एक गिलास ठण्डा पानी दे जाओ, और जरा कम चीनी, अदरक, कालीमिर्च वाली एक ठो चाय भी बना देना। तब-तक मैं हाथ-मुंह धो लेता हूँ।’’

‘‘ये रहा ठण्डा पानी। पर...अब तो खाना खाने का टाइम हो गया है। फिर चाय क्यूं?’’

‘‘अरे भई, मन कर रहा है। अभी भूख नहीं लगी है। और हां! जरा दीदी की शादी का वो एलबम तो लाना।’’

‘‘एलबम क्यों?’’

‘‘क्या सारे सवालों के जवाब अभी चाहिए? एलबम ले आओ, फिर इत्मिनान से बैठ कर बताता हूँ।’’

‘‘ये लीजिए चाय, अभी शाम को ही बनायी थी। ज्यादा बन गयी थी तो आपके लिए ढंक कर रख दिया था। गरम कर दिया है। और ये रहा एलबम। अब बताइये, नये किरायेदार से उन जालियों के बारे में आपकी क्या बातचीत हुई?’’ पत्नी ने सामने डाइनिंग-टेबल पर चाय का प्याला और एलबम रखते फरमाया।

‘‘कौन सी जालियाँ?’’

‘‘अरे, क्या बहकी-बहकी बातें कर रहे हैं? आप भूल गये? हमने उस मकान के दरवाजे और खिड़कियों पर मच्छर, कीट-पतंगों से बचने वास्ते लोहे की जो जालियाँ लगवा रखीं हैं, उनके बारे में नये किरायेदार से बात करनी थी। अगर नया किरायेदार पैसे नहीं देगा तो हम उन जालियों को किसी दिन उखड़वा लायेंगे। आपने ये भी कहा था?’’ पत्नी ने जैसे मुझे याद दिलाने की पुरजोर कोशिश की। जबकि मुझे वो जालियाँ, अच्छी तरह याद थीं।

‘‘पर, वो जालियाँ अब हमारे किस काम आयेंगी?’’ मैंने तनिक अन्यमनस्कता सी जताई।

‘‘काम तो नहीं आयेंगी। कबाड़ में ही बिकेंगी। लेकिन हम अपनी चीज छोड़ें क्यों? अवनीन्द्र बाबू भी तो उनके पैसे देने को तैयार नहीं।’’

‘‘हां...मैं तुम्हें बताना चाह रहा था। ये जो दीदी की शादी में मैंने कोट पहन रखा है न! ये मेरा नहीं है।’’ मैंने एलबम, जो जगह-जगह से फट गया था, के पन्नों को संभालते, उलटते, एक फोटो पर उंगली रखी।

‘‘किसका है?’’

‘‘तुम्हें जानकर शायद आश्चर्य हो। ये कोट उसी आदमी का है, जो आज अवनीन्द्र बाबू के उस चौक वाले मकान में किरायेदार है।’’ चाय पीने के बाद एलबम खोलते, मैंने दीदी की शादी के समय खिंचवाये गये अपने परिवार संग उस तस्वीर में कोट पहने खुद को दिखाते हुए कहा।

‘‘अच्छा...!’’

‘‘एक बार तो इण्टरव्यू देने के लिए मैंने उससे जूते भी उधार लिये थे।’’

‘‘आप उसे कैसे जानते हैं? क्या नाम है उसका?’’

‘‘सुशान्त। यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के दिनों में वो हाॅस्टल में मेरा रूम-पाॅर्टनर था। वो मेरे लिए बहुत लकी था। उसके, मुझ पर काफी एहसान हैं। आज वो यहीं यूनिवर्सिटी में लेक्चरर है। उससे यूनिवर्सिटी के दिनों के बारे में ढ़ेर सारी बातें हुईं। किसी दिन पत्नी सहित घर आयेगा तो तुम खुद मिल लेना। देखना, कितना अच्छा लड़का है।’’

‘‘यानि, उन लोहे की जालियों को अब हम भूल जायें?’’

‘‘वहां बैठे-बैठे, थोड़ी देर के लिए बिजली चली गयी, तो सुशान्त ने दरवाजे, खिड़कियों के पल्ले खोल दिये। जिससे जरा भी सफ्फोकेशन महसूस नहीं हुआ। बढ़िया हवा आने लगी। दरवाजे, खिड़कियों के पल्लों पर जाली होने के कारण मच्छर, कीट-पतंगे भी नहीं आ रहे थे। वो तो खुले हृदय से जालियाँ लगवाने वाले किरायेदार को धन्यवाद दे रहा था। उस बेचारे को तो ये तक नहीं पता है कि उस मकान के दरवाजे, खिड़कियों के पल्लों पर लोहे की जालियाँ हमने लगवाई हैं।’’

‘‘चलिए, ये भी ठीक है। छोड़िये, जाने दीजिए। मैं आपकी मजबूरी समझ सकती हूँ। ’मनुष्य पैदा तो स्वतन्त्र हुआ है, मगर हर जगह जंजीरों में जकड़ा हुआ है।’ आप तो अक्सर ही ये उक्ति दुहराते रहते हैं। जाहिर है, वो लोहे की जालियाँ, इन्सानी रिश्तों की जंजीर से कमजोर साबित हुईं। फिर...जीवन में किसका एहसान हमें किस रूप में चुकाना पड़ जाय, कौन जानता है?’’

‘‘हां...हवा-प्रकाश के रूप में।’’

‘‘बेशक्...कोट और जूतों के रूप में।’’

‘‘जाहिर है...लोहे की जालियों के रूप में भी...?’’

उस रात हम पति-पत्नी के बीच, सुशान्त और उसकी पत्नी के बारे में यूनिवर्सिटी के दिनों की ढ़ेरों स्मृतियों को लेकर ये बहस-विमर्श, रात कितनी देर तक चलता रहा, आज की तारीख में बिलकुल भी याद नहीं।

-राम नगीना मौर्य  
 5/348, विराज खण्ड, गोमती नगर,
 लखनऊ-226010, उत्तर प्रदेश।
 मोबाइल : 9450648701,
 ई मेल : ramnaginamaurya2011@gmail.com

 


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संतोष का पुरस्कार  - अज्ञात

आसफउद्दौला नेक बादशाह था। जो भी उसके सामने हाथ फैलाता, वह उसकी झोली भर देता था। एक दिन उसने एक फ़क़ीर को गाते सुना- जिसको न दे मौला उसे दे आसफउद्दौला। बादशाह खुश हुआ। उसने फ़क़ीर को बुलाकर एक बड़ा तरबूज दिया। फकीर ने तरबूज ले लिया, मगर वह दुखी था। उसने सोचा- तरबूज तो कहीं भी मिल जाएगा। बादशाह को कुछ मूल्यवान चीज देनी चाहिए थी।

थोड़ी देर बाद एक और फ़क़ीर गाता हुआ बादशाह के पास से गुजरा। उसके बोल थे- मौला दिलवाए तो मिल जाए, मौला दिलवाए तो मिल जाए। आसफउद्दौला को अच्छा नहीं लगा। उसने फ़क़ीर को बेमन से दो आने दिए। फ़क़ीर ने दो आने लिए और झूमता हुआ चल दिया। दोनों फकीरों की रास्ते में भेंट हुई। उन्होंने एक दूसरे से पूछा, 'बादशाह ने क्या दिया?' पहले ने निराश स्वर में कहा,' सिर्फ यह तरबूज मिला है।' दूसरे ने खुश होकर बताया,' मुझे दो आने मिले हैं।' 'तुम ही फायदे में रहे भाई।', पहले फकीर ने कहा।

दूसरा फ़क़ीर बोला, 'जो मौला ने दिया ठीक है।' पहले फ़क़ीर ने वह तरबूज दूसरे फकीर को दो आने में बेच दिया। दूसरा फ़क़ीर तरबूज लेकर बहुत खुश हुआ। वह खुशी-खुशी अपने ठिकाने पहुंचा। उसने तरबूज काटा तो उसकी आंखें फटी रह गईं। उसमें हीरे जवाहरात भरे थे। कुछ दिन बाद पहला फ़क़ीर फिर आसफउद्दौला से खैरात मांगने गया। बादशाह ने फ़क़ीर को पहचान लिया। वह बोला, 'तुम अब भी मांगते हो? उस दिन तरबूज दिया था वह कैसा निकला?' फ़क़ीर ने कहा, 'मैंने उसे दो आने में बेच दिया था।' बादशाह ने कहा, 'भले आदमी उसमें मैंने तुम्हारे लिए हीरे जवाहरात भरे थे, पर तुमने उसे बेच दिया। तुम्हारी सबसे बड़ी कमजोरी यही है कि तुम्हारे पास संतोष नहीं है। अगर तुमने संतोष करना सीखा होता तो तुम्हें वह सब कुछ मिल जाता जो तुमने सोचा भी नहीं था। लेकिन तुम्हें तरबूज से संतोष नहीं हुआ। तुम और की उम्मीद करने लगे। जबकि तुम्हारे बाद आने वाले फ़क़ीर को संतोष करने का पुरस्कार मिला।'


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किस रंग खेलूँ अबके होली - विवेक जोशी

लाल देश पे क़ुर्बान हुआ
सूनी हुई एक माँ की झोली......

 
 
चांदी का चमचा | बालकथा - चांद वर्मा

गंगा के किनारे तेजभानु राजा की नगरी थी। राजा बहुत गुणी और तेजस्वी था। उसके दरबार में अनेकों प्रखर बुद्धि वाले विद्वान थे जिनपर राजा को बहुत गौरव था । यूं तो सभी एक से बढ़ कर एक योग्य पंडित थे परन्तु दीर्घ बुद्धि नाम का विद्वान अपनी विलक्षण बुद्धि के कारण सब जगह विख्यात था।

एक बार लंका द्वीप के सम्राट ने अपना दूत (संदेश वाहक) तेजभानु के दरबार में भेजा। एक खाली मटका और सम्राट का पत्र दूत ने राजा को दिया जिसमें लिखा था-सुना है आपके पास ऐसे गुणी-ज्ञानी हैं जिनके पास अक्ल के खजाने हैं। हम एक खाली मटका आपके पास भेज रहे हैं, इसमें कुछ अक्ल भरवा कर हमारे पास भिजवा दीजिए। पत्र सुन कर सारे दरबारी हैरान रह गए कि यह भी कोई तुक की बात हुई। अक्ल क्या ऐसी चीज है जिसे चाहे जितना मटके में भर कर भेजा जाए? सवाल का जवाब तो देना ही चाहिए, नहीं तो राजा की मान हानि के साथ विद्वानों का अनादर भी हो जाएगा।

दीर्घ बुद्धि ने आगे बढ़ कर राजा से कहा कि आप दूत को कहिए कि मटका यहीं हमारे पास छोड़ जायें क्योंकि अक्ल को मटके में भरने के लिए कुछ देर लगेगी। मैं रोज थोड़ी-थोड़ी अक्ल इसमें डालता रहूंगा। जब यह पूरा भर जाएगा तो सम्राट के पास भिजवा देंगे।

अब दीर्घ बुद्धि ने बाग में से एक बेल कद्दू सहित निकाल कर उसे मटके में रख दिया और हर रोज उसमें पानी डालते ताकि कद्दू बढ़ता रहे। धीरे-धीरे कद्दू मटके के बराबर बड़ा हो गया। उसके पत्ते, डंठल बाहर निकल आए जिन्हें माली को बुलवा कर कटवा दिया और मटके का मुँह गीले कपड़े से अच्छी तरह से लपेट कर उसे बंद कर दिया। ढ़क लपेट कर जब मटका तैयार हो गया तो राजा ने एक पत्र सम्राट को लिखा कि मटके में अक्ल भर कर आपके पास भेज रहे हैं, पर यह मटका इतने दिन हमारे पास रहने के कारण, हमें बहुत पसन्द है। अक्ल निकाल कर मटका हमें भेज दें तो आपकी मेहरबानी होगी। आशा है, आप निराश नहीं करेंगे।

पत्र पढ़ कर लंका द्वीप सम्राट और दरबारी सब हँस पड़े और विद्वानों की बुद्धि की सराहना करने लगे।

-चांद वर्मा

[आकाशवाणी रोहतक से प्रसारित ]


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डाइन  - पृथ्वीनाथ 'मधुप'

Kashmir Ki Lok Katha

कश्मीर की घाटी में एक बादशाह था। एक बार बादशाह शिकार खेलने गया था तो वन में उसने एक परी जैसी बहुत सुन्दर नवयुवती को देखा। इस सलोनी नवयुवती ने हीरे-जवाहरों से जड़े अनेक आभूषण पहने हुए थे। बादशाह की बेगम की मृत्यु हो चुकी थी। बादशाह इस नवयुवती की ओर आकृष्ट हो गया और मन-ही-मन उसने निर्णय लिया कि मैं इसी सुंदरी से शादी करूंगा। 

बादशाह इस रूपसी के पास गया। उसने उसकी ख़ैर-ख़बर ली। युवती ने कहा, "मेरा पति शादी से सात दिन के अन्दर ही अल्लाह को प्यारा हो गया और अब मैं मैके जा रही हूँ।" 

बादशाह ने अन्दर-ही-अन्दर अल्लाह का शुक्र किया और इस चन्द्रमुखी को बिना किसी लाग-लपेट के अपने मन की बात बता दी। रूपसी तैयार हो गई। दोनों का विवाह सम्पन्न हो गया। 

शादी के बाद बादशाह दिन-प्रतिदिन सूख कर काँटा होने लगा। देश के जाने-माने पीरों-फकीरों से मंत्र पढ़वाया गया तथा बड़े-बड़े हकीमों से इलाज कराया गया। कोई भी उसकी बीमारी को ठीक न कर सका। इलाज की असफलता से बादशाह काफी परेशान हो गया। मन्त्री और दरबारी भी बादशाह का इलाज करवाते थक गए। आखिर में ढिंढोरा पिटवाया गया कि जो बादशाह को ठीक कर देगा उसे आधी बादशाही दे दी जाएगी। 

इस शहर में एक वृद्धा रहती थी। इसने भी बादशाह की बीमारी के बारे में सुना। यह लाठी टेकती हुई बादशाह के महल में आ पहुँची। वहाँ हर वस्तु और व्यक्ति का अपनी अनुभवी नजरों से निरीक्षण करने के पश्चात् उसने घोषणा की कि वह बादशाह को ठीक कर सकती है। सभी लोग बहुत खुश हुए और बादशाह के ठीक होने की प्रतीक्षा करने लगे। बुढ़िया ने एकांत में बादशाह को कहा,"आज आप जो भी सब्जियाँ या व्यंजन पकवाएँगे उनमें काफी नमक डलवाना और भोजन करते समय यही सब्जियाँ एवं व्यंजन अपनी पत्नी को खिलवाना तथा महल में एक बूंद पानी भी नहीं रखना, रात भर जागते रहना और सुबह मुझे सारा हाल बता देना, जो आपने रात को देखा हो।" 

बादशाह ने बुढ़िया की बातें मान लीं। रात भर जागते रहने के लिए उसने अपनी टाँग पर छोटे-छोटे घाव कर दिए और इन पर नमक तथा पिसी मिर्ची छिड़की। इसके बाद बादशाह अपनी नई-नवेली बेगम के साथ शयनकक्ष में चला गया। बादशाह को नींद कहाँ? वह आँखें बन्द कर सोने का नाटक करने लगा और वह अपनी बेगम की हर गतिविधि पर नजर रख रहा था। वह टाँग के घावों में दर्द के कारण अपनी टाँग सहला रहा था। उसकी पत्नी मारे प्यास के हलकान होती जा रही थी। आधी रात के करीब उसने अपनी गर्दन ओढ़ने से बाहर निकाली। गर्दन लम्बी होती गई। लगभग आधे घंटे में गर्दन लम्बी और लम्बी होती गई और खिड़की से भी बाहर हो गई। उसके बाद लगभग एक पहर बीता और उसका शरीर ठंडा हो गया। फिर गर्दन छोटी होते-होते अपने आकार तक आ गई और वापिस ओढ़ने में घुस गई। तनिक विश्राम लेने के बाद बेगम ने बादशाह के सीने को दिल की जगह चाटना शुरू किया। 

सुबह बादशाह ने यह सारा हाल बुढ़िया को सुनाया। बुढ़िया बोली, "बादशाह सलामत, यह एक डाइन है। इसका भोजन आपका दिल है जिसे यह धीरे-धीरे चाट कर खत्म कर देगी।" 

बादशाह हैरान रह गया। क्षण भर मौन के बाद बुढ़िया से पूछा, "अच्छा अम्मा! इस डाइन को खत्म करने की क्या युक्ति है?" बुढ़िया ने युक्ति बता दी। इसके बाद लोहार को एक चार पायों वाला मजबूत सन्दूक बनाने का हुक्म दिया गया। यह सन्दूक जब बनकर तैयार हुआ तो यह एक छोटे कमरे के बराबर था। इस सन्दूक के चारों पाये जमीन के अन्दर दबा दिये गए। इसके पश्चात् बादशाह अपनी बेगम को सैर के बहाने बाग में लाया और चहलकदमी करते हुए उस सन्दूक के पास पहुंचा और कहा, "देखो, गर्मियों के लिए मैंने कितना अच्छा सर्दखाना (ठण्डा कमरा) बनवाया है। इसके अन्दर बैठने वाले को गर्मी नहीं लगेगी।" बेगम बहुत प्रसन्न हुई और कहा, "जरा इसका ढक्कन तो खोल दीजिए, मैं भी देखूँ कि यह सर्दखाना अन्दर से कैसा है!" बादशाह ने ढक्कन खोला और बेगम सन्दूक के अन्दर चली गई। बादशाह इसी अवसर की ताक में था। बेगम के अन्दर घुसते ही बादशाह ने ढक्कन बन्द कर दिया! 

लकड़ियों की लगभग एक हजार खारियाँ* लाकर इस सन्दूक के इर्द-गिर्द तथा ऊपर रखी गईं और आग लगा दी गई। इतना कुछ करने पर भी डाइन दो दिन तक नहीं मरी। अन्त में जब वह राख हो गई तो सन्दूक खोल दिया गया। इसमें राख का एक ढेर था। राख के छानने पर इसमें से एक सोने की रोटी-सी निकली। यह सोना बुढ़िया ने आधी बादशाही के बदले ले लिया। 

अब बादशाह स्वस्थ होकर पुनः अपना राजकाज देखने लगा। 

[कश्मीर की लोक कथाएँ, पृथ्वीनाथ 'मधुप', यात्री प्रकाशन, दिल्ली ]

शब्दार्थ

खारी = एक कश्मीरी तौल है, जो लगभग दो मन के बराबर होता है।


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वृक्षगंधा | कहानी - रजनी शर्मा बस्तरिया

गायों के रंभाने की आवाज आने लगी। दूर  से धूल की उड़ती गुबार ने गोधूली बेला का शंखनाद कर ही दिया। गायों के गले में बंधे लकड़ी के डिब्बे में लगी घंटी मानो उनके कदमों से जुगलबंदी कर रही हो। 

‘‘कृष्णा’’ ने गायों को भीतर कोठार में बांधा और चल पड़ी टपरे की ओर...। चारों ओर लकड़ियाँ बिखरी थी। गट्ठा, चिनार, जलाऊ, बत्ता, चिल्फा, बूरा, चूरा, और न जाने क्या-क्या। जिनके यहाँ चिरान (लकड़ी काटने की) की सुविधा थी वे गट्ठड़ (गोले) ले लेते थे। चिरी (चीरा लगाया गया लकड़ी)। एक खास वर्ग की जरूरत होती थी। पतली पट्टियों को ‘फारे’ की शक्ल में कोई ले जाना चाह रहा था। कोई लकड़ियों के बारिक-बारिक टुकड़े (चिल्फा) को तौलाने आतुर था। कृष्णा को तो पेंसिल छीलने पर निकले छिलके सी पतली लकड़ियों का छिलका चाहिये था। खुले आँगन में लकड़़ी के चौकोन पलड़े पर बने तराजू में ‘‘लकड़ी बेचईया’’ बड़ा सा बॉट (वजन) रखता और जमीन पर लकड़ियों की विविध किस्मों को पटकता जाता। 

‘‘कृष्णा’’ काजर सी अंजी आँखें, श्यामवर्ण, कालिया सर्प से केश पर मन एकदम उजला।  शाम को चूल्हा जलना है तो लकड़ियों का इंतजाम तो करना ही पड़ेगा।

कृष्णा का मन तो मन तो जाने कहाँ-कहाँ विचरता था। कभी नदी के पार में महादेव घाट पर वृक्ष में टंगी लाल पोटली को ध्यान से देखा करती। षोडशी कृष्णा को जीवन-मरण की समझ नहीं थीं। वह मन ही मन सोचा करती थी। इस विराने में इन पोटलियों को  कोई क्यों नही चुराता? उसे तो बाद में समझ में आया कि कीमत तो जीवित हाड़ माँस की होती है,  तन के तंबूरे से निकली इन अस्थियों को सिर्फ और सिर्फ वृक्ष ही यथेष्ट सम्मान दे सकते हैं। आम के पेड़ की शादी भी उसने देखी थी। अम्मा कहती थी कि आम का फल उसकी शादी के बाद ही खाना चाहिये।

सब जीवित गुण होने के बाद भी इन वृक्षों को जब काटा जाता होगा तो कितनी पीड़ा होती होगी। वह गायों के रंभाने की आवाज सुन दौड़ पड़ती अपने घर। बूरा सिगड़ी में भर ‘‘चित्तौड़गढ़ के किले’’ जैसे जब वह सिगड़ी के नीचे से ऐंठे हुए कागज से आग जलाती तो उसके बाद सिगड़ी की आग, डेगची की भात, छप्पर से निकलती धुएं की लकीरों की जुगलबंदी देखने लायक होती थी। भात की खुशबु से पड़ोस भी गमक जाया करते थे। 

आज सुबह से मोहल्ले में चहल-पहल थी। ‘नुआ बायले’ (नई बहु) गाँव आई थी। मंदिर के पास के बरगद जो पूरे गाँव के बाबा स्वरूप थे। उन्हीं की छाँव में नुआ बायले को बिठाया गया। बरगद की सैकड़ों जड़ों ने आज हाथ बनकर आशीष न्यौछावर करने की ठान ली थी। बरगद की पहले पूजा हुई। फिर बाजे गाजे के साथ दुल्हन का गृह प्रवेश। पीपल भी भला कब पीछे रहने वाला था। वह भी साथ हो लिया। सांझ हुई नही कि संध्या दीपक बारने कोई आये इसका इंतजार तो पीपल को भी रहता था। 

कृष्णा को गाँव के पास के जंगल जाकर गिरी सूखी टहनियाँ बटोरने में ही मन रूचता था। सूखे पत्तों को बुहार कर गट्ठे में बांधना और लाना उसकी और उसकी सखियों का रोज का काम था। उसे यही भला जान पड़ता था। भला कोई जीवित (वृक्ष) हाड़ मांस (शाखों, टहनियों) की चिता जलाता है? ये वृक्ष तो बिना मांगे ही सैकड़ों पत्ते खुशी-खुशी उलीच देते थे।

कृष्णा जंगल के आगे भीतर तक जाती जहाँ मधूक (महुआ) के वृक्ष उसके आने के खुशी में गमका करते थे। ‘‘गांव अब शहरिया होने को मचल रहे थे,’’ साथ ही संदिग्ध लोगों की उपस्थिति भी उस गांटँव में बढ़ती जा रही थी। बारिश में फुहारों के साथ पत्तों की ता-ता-थैय्या तो, पुरवाई चलने पर पत्तों की और हवा की शहनाई गूँजती थी जंगलो में । इन सबसे कृष्णा का पोर-पोर परिचित था। कौन सा वृक्ष उदास है, किस वृक्ष की अनबन किसके साथ हुई है? किस वृक्ष ने नौनिहाल वल्लरियों को पनाह देने से मना किया है। यह सब हिसाब-किताब कृष्णा को मुँह जुबानी याद था। 

कृष्णा जब साँझ ढले टोकरियों में सूखे पत्ते लेकर घर आती तो ‘‘पूरा शरीर ही जंगल-जगल लगता।’’ वृक्षों की खुशबु से सुवासित वह ‘‘वृक्षगंधा’’ ही ज्यादा लगती कृष्णा कम। आज जब कृष्णा जंगल गई तो  वृक्षों की संख्या उसे कम लगी। वह बूढ़ा सेमल, वह जवान मधूक, वह नन्हा सागौन... इनकी संख्या में लगातार कमी...। आज तो कृष्ण हतप्रभ थी । कदमों के पदचाप जो संख्या में ज्यादा थे। उनकी आवाज लगातार बढ़ती जा रही थी। कृष्णा का मन आशंका से धड़क उठा साथ ही गाड़ियों की अस्पष्ट आवाज आ रही थी। 

कृष्णा मन ही मन सोचती थी कि ‘‘मानव शरीर तो वृक्ष के जैसा ही होता है। जमीन से संस्कारों को सोख नस-नस में प्रवाहित विकास-रुधिर से आरक्त होता है। लड़कियाँ भी वृक्ष जैसी होती हैं। नये जगह में लगाये जाने पर कुछ क्षण तो उदास रहती हैं पर जब वसुधा अपनी छाती पर पनाह देती है तो खुशी से पल्लवित होकर आस-पास को सुवासित कर जाती है।’’

साँझ घिर आई थी। कृष्णा को जल्द ही घर पहुंचना था। वह अनमने ढंग से पलटी और आधे रास्ते में ही थी कि कुछ लपट सी उठती दिखी। कृष्णा दौड़ी वापस जंगल की ओर। अरे... यह क्या दावानल, लपटें उठती जा रही थी। कृष्णा बदहवास। अभी तो यहां छोटी सी चिंगारी भी नहीं थी। अचानक अपरिचितों के बीच कृष्णा ने खुद को घिरा पाया। अरे ये तुम लोगों ने आग लगाई। ठहरो अभी सबको बुला लाती हूँ। पर कृष्णा के इस उद्घोष के बाद विभित्स हँसी के घेरे ने कृष्णा को घेर लिया। कृष्णा कभी इस वृक्ष को सहलाती कभी उसको। कभी सुलगते वृक्षों को देख रो पड़ती। यह क्या एक हो तो कुछ कर पाये यहाँ तो दावानल फैल चुका था। मानो वृक्षों ने आज साथ जियेंगे साथ मरेंगे वाली कसम बड़ी बेबसी, अवसादित होकर खा ली थी। वृक्षों के पत्ते टहनियों के साथ झुलसकर मँस के लोथड़ों से गिरने लगे थे। पूरे जंगल में वृक्षों के जलने की बास थी। सुबह पूरे जंगल खाक हो चुका है। मानुष गंध भी उस जंगल में घुली थी। मानुष गंध कहाँ वहाँ तो वृक्ष गंधा ही थी। जिसने अपने आपको स्वाहा किया वृक्षों के साथ।

‘‘जंगल-जंगल काया में वृक्ष की बास, वृक्षों की असंख्य रोम छिद्रों सी कृष्णा की त्वचा, छाल उतारने पर निकला रिसाव बस कृष्णा की आँखों से बह रहा था। ’’ इन जंगलों के वृक्षों में ही उसका अस्तित्व था। कई दिन बीत गये। लोग कहते हैं कि इस जंगल में एक पेड़ हैं। जिससे मानुष गंध आती है। उसका नाम है--‘वृक्षगंधा।‘

वह आज भी इस जंगल में नई कोपलों का इंतजार करती हैं। जंगल की अकेली रखवाली करती है। मृत कृष्णा का अस्तित्व इन जंगले के वृक्षों में ही था। वह वृक्षगंधा बन चुकी थी। चुपचाप निःशब्द।

-रजनी शर्मा बस्तरिया
 रायपुर (छ.ग.)
 ई-मेल: rajnibastariya.153@gmail.com


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हंस किसका? - भारत-दर्शन संकलन

सुबह का समय था। उपवन में रंग-बिरंगे फूल खिले थे। फूलों की सुगंध आ रही थी। पक्षी चहचहा रहे थे।

राजकुमार सिद्धार्थ अपने उपवन में टहल रहा था। सिद्धार्थ को बहुत अच्छा लग रहा था। अचानक पक्षियों का चहचहाना बंद हो गया। उनके चीखने की आवाज़ें आने लगीं। जैसे पक्षी डर से चिल्ला रहे हों। तभी राजकुमार सिद्धार्थ के पैरों के पास एक हंस आ गिरा। उसे तीर लगा हुआ था। वह तड़प रहा था।

सिद्धार्थ ने हंस को उठाया। उसने प्यार से हंस के पंखों को सहलाया। धीरे से तीर निकाला। आराम से उसके घाव को धोकर उसपर मरहम-पट्टी की।

इतने में सिद्धार्थ का भाई देवदत्त दौड़ा आया। उसने कहा - यह हंस मौजे दो। यह मेरा शिकार है।

सिद्धार्थ ने हंस देवदत्त को नहीं दिया, बोला - "नहीं, यह मेरा हंस हैं। इसे मैंने बचाया है।"

दोनों भाई वाद-विवाद करते हुए राजमहल की और कल दिए। आगे-आगे सिद्धार्थ और पीछे-पीछे देवदत्त।

राजमहल में पिता को देखते ही देवदत्त ने शिकायत की, "पिताजी, सिद्धार्थ मेरा हंस नहीं से रहा।"

सिद्धार्थ ने अपना पक्ष रखा, "पिताजी, मैंने इस हंस को बचाया है। देवदत्त ने इसे तीर मारा था। मैंने इसका तीर निकालकर, इसकी मरहम-पट्टी की है।"

"नहीं, नहीं! मैंने इसका शिकार किया है, यह मेरा है!"

राजा ने दोनों राजकुमारो की बात सुनी। देवदत्त ने हंस का शिकार किया था और सिद्धार्थ ने हंस को बचाया था।

राजा ने कहा - सुनो देवदत्त! तुमने इस हंस को तीर मारा। तुम इसे मारना कहते थे। सिद्धार्थ ने इसे बकाया। इसके घाव पर मरहम लगाया। इसकी रक्षा की। इस नाते हंस सिद्धार्थ का हुआ!"

सीख - मारने वाले से बचाने वाले का अधिकार अधिक होता हैं।

[भारत-दर्शन]


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रावण कौन | लघुकथा  - अमित राज ‘अमित'

वो चारों-पाँचों शराब में धूत्त होकर, सुबह से ही रावण का पुतला बनाने में व्यस्त थे। सब बराबर लगे हुए थे।

हँसी-मजाक का सफर जारी था। धीरे-धीरे हँसी-मजाक गाली-गलोच में तब्दील हो गया। कुछ देर बाद वे आपस में झगड़ने लगे। धीरे-धीरे बात बढ़ती गई, झगड़ने ने भयानक रूप धारण कर लिया।

थोड़ी देर में अजीब-सा मंज़र था - किसी के दाँत टूट गए, किसी का हाथ टूटा था, किसी का पैर टूट गया, किसी का सिर फूटा!

रावण का पुतला यह सारा दृष्य ऐसे देख रहा था, मानो पूछना चाह रहा हो कि आखिर रावण कौन? मैं या ये?


अमित राज ‘अमित'......

 
 
मनोदशा - कैलाश कल्पित

वे बुनते हैं सन्नाटे को
मुझको बुनता है सन्नाटा......

 
 
सब कुछ जायज़ है | कहानी  - सन्दीप  तोमर 

अंडमान के हैवलॉक द्वीप के समुन्द्र तट के पास लंबे ऊंचे पेड़ के नजदीक बने एयर रेस्टोरेंट की ये एक हसीन शाम थी। यह रेस्टोरेंट इतना गोल था कि लगता था मानो खुद प्रकृति ने चाँद को धरातल पर रख गोला खींच दिया हो। नीचे के तल पर रसोई और वॉशरूम थे। उसके ऊपर के तल पर यह चारो तरफ से खुला रेस्टोरेन्ट था। लकड़ी की सीढ़ियों से चढ़कर ऊपर जाया जा सकता था। ऊपर कुर्सी मेज से लेकर हर एक वस्तु लकड़ी की बनी थी। कुर्सियाँ भी एकदम अलग अंदाज की थी, समुन्द्र की लहरों से छनकर आती हवा माहौल की खुशनुमा बनाती थी। रेस्टोरेंट में खाने वालों के मन को हर्षित करने के लिए संगीत गुंजायमान था। संगीत यंत्र के पास एक लड़का हाथ में माइक लिए था, वह कभी किशोर के गाने गाता तो कभी रफी बनने की कोशिश करता। उसकी आवाज में एक कसक थी। प्रभाकर ने अपनी क्रिसेंट की घड़ी में देखा अभी 2 बजे का वक्त था, रूपल को इस वक़्त तक आ जाना चाहिए था। प्रभाकर को आदत है वक़्त से पहले पहुँचने की, शायद इंतज़ार करना अच्छा लगता है, यद्यपि उसने कभी किसी को इंतजार कराया हो ऐसा उसे याद नहीं पड़ता।

सब कुछ जायज़ है

हैवलॉक के इस समुंद्री बीच पर देश-विदेश के सैलानी आते हैं, यह अनोखा रेस्टोरेन्ट उन्हें इतना आकर्षित करता है कि अगर पेट में कुछ खाने कि गुंजाइश न भी तो एक कप चाय तो यहाँ पीते ही हैं, यही वजह है कि यह हर समय चहल-पहल रहती है। रेस्टोरेन्ट का बिल भी अच्छा खासा आता है बावजूद इसके यह जगह प्रभाकर को ख़ासी पसन्द है। जब वह अपनी नियुक्ति के समय पहली बार यहाँ आया था तब से शायद ही कोई वीकेंड हो जब वह यहाँ न आया हो।
 
प्रभाकर रूपल के आने का इंतज़ार करते हुए बार-बार घड़ी को देखता है, उसने मालबेरो की डिब्बी निकाल कुछ कश लगाए, हर कश के साथ वह धुएँ के छल्ले बनाता है। ऐसा वह तब करता  है जब वह ज्यादा चिंता में होता है या फिर बहुत खुश होता है। वेटर उसके पास आकर खड़ा हो गया है। वेटर को देखकर प्रभाकर के चेहरे पर मुस्कान आ गयी, वेटर समझ जाता है कि वह अभी कुछ भी ऑर्डर करने के मूड में नहीं है, वेटर उसे सिगरेट पीने पर भी नहीं टोकता। लगातार यहाँ आने से वेटर भी उसे पहचानने लगा है। वेटर एक हल्की मुस्कान के साथ उसकी टेबल से चला जाता है मानो कह रहा हो- “सर, आता हूँ मैडम के आने के बाद।“

ढाई बजने को आया तो प्रभाकर सीढ़ियाँ उतर रेस्टोरेन्ट के नीचे चला आया। कुछ देर समुन्द्र की रेत पर चहल-कदमी करने लगा। उसने एक और सिगरेट सुलगा ली। वह एक ताड़ के पेड़ की टेक लगाकर खड़ा हो सिगरेट में लम्बा कस लगाता है, एक अजीब सा तनाव वह अपने माथे की नसों में अनुभव करता है। समुन्द्र की लहरों का उतरना-चढ़ना-गिरना लगातार जारी है। वह आँखें बन्द करके दो-तीन कश सिगरेट के लेता है। करीब पाँच मिनट यूँ ही चुपचाप निकाल देता है। आती-जाती लहरों के साथ वह ज़िंदगी की यादों में खो जाता है। 

राज्य की अकादमी में उसका पदस्थ होना एक संयोग से कम नहीं था। साहित्य में प्रभाकर एक जाना-माना नाम है, पोर्ट-ब्लेयर में साहित्य के कार्यक्रमों की शुरुआत का श्रेय भी प्रभाकर को ही जाता है, बेहतरीन सख्शियत के मालिक प्रभाकर से ही पोर्ट ब्लेयर का साहित्य जगत प्रकाशमान है। रूपल की उनसे मुलाक़ात भी एक संयोग ही थी, वह एक भव्य आयोजन था। प्रभाकर को भारत सरकार से मिले पद्मश्री के बाद उप राज्यपाल भवन में उन्हें सम्मानित करने के लिए आयोजन था। रूपल लोकल अखबार “अग्निपथ” के लिए साहित्यिक आयोजन की खबर को कवर करने इस आयोजन में आई थी।

आयोजन के केंद्र बिन्दु को देख उसकी आँखें चौंधिया गयी। पाँच फीट ग्यारह इंच लम्बे जवान के कंधो तक बिखरे बालो को रूपल कुछ पल अपलक देखती रही। गेहूँए रंग के प्रभाकर को देखकर कोई विरला ही अंदाजा लगा सकता कि वह पचास पार का अधेड़ होगा।

कार्यक्रम सम्पन्न हुआ तो लोग खाने के लिए पास के हाल की ओर बढ़ने लगे, प्रभाकर लोगों से घिरे थे। नवलेखन से जुड़े लोग, पत्रकार, आमंत्रित आगंतुक और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के इस भवन में कार्यरत क्रमचारी सभी उनसे ऑटोग्राफ लेने को लालायित थे। रूपल ने भी अपनी ऑटोग्राफ बुक उनकी ओर बढ़ा दी। कोटेशन के साथ किए हस्ताक्षर को बार-बार देख रूपल भविष्य के सपने बुनने लगी। युवा साहित्य सम्मान की शील्ड देते प्रभाकर का चेहरा उसके समाने घूमने लगा। घर आकर आज उसने ऑटोग्राफ बुक को बार-बार चूमा। उसे लगा काश वह इतने बड़े लेखक का संपर्क सूत्र, उनका मोबाइल नंबर जुटा पाती। वह सोचने लगी-“उनसे पुनः कैसे और कहाँ मिला जा सकता है?” रात भर वह इसी ख्याल में खोई रही, पता नहीं उसे कब नींद आई होगी। सुबह उठी तो उसने प्रभाकर को सोशल मीडिया पर खोजने की गरज से फोन उठाया। ट्विटर पर आज हर नामचीन को देखा-खोजा जा सकता है, उसने ट्विटर के सर्च इंजन में प्रभाकर टाइप किया। कितने ही नामों की फेहरिस्त में वह उस खास चेहरे को तलाशती रही। एक-डेढ़ घण्टे की मशक्कत के बाद आखिर वह कामयाब हो ही गयी। ट्विटर के मसेंजर बॉक्स में प्राइवेट मैसेज छोड़ वह वाशरूम की ओर बढ़ गयी।

रूपल को लगा था कि जल्दी ही उसे प्रभाकर की तरफ से रिप्लाई मिलेगा, लेकिन उसकी बेचैनी तब बढ़ गयी जब दो दिन तक भी उसे प्रभाकर का कोई नोटिफिकेशन नहीं मिला। उसने अन्य संचार माध्यमों का सहारा लेने का मन बनाया। फ़ेसबुक, इंस्ट्रग्राम, डयूओ, इमो, यूट्यूब  सब जगह वह अपनी उपस्थिति दर्ज कराती कि कभी तो वे संज्ञान लेंगे। उसे लगातार निराशा ही हाथ लगी।

प्रसिद्धि की बुलंदी पर बैठे महान लेखक को रोमन मग्सेसे मिला तो रूपल को फिर अग्निपथ की तरफ से प्रभाकर से मिलने का मौका मिला। मानो उसे मुँह मांगी मुराद मिल गयी। पुरस्कृत लेखक का साक्षात्कार लेने की ज़िम्मेदारी मुख्य सम्पादक ने उसे सौंपी थी, साथ ही उनका सम्पर्क सूत्र देते हुए समय लेकर जाने की हिदायत दी थी।

रूपल इस मौके को गंवाना नहीं चाहती थी, प्रभाकर से मिलने की इच्छा ने उसके हृदय के स्पन्दन को बढ़ा दिया।    
          
रूपल ने कितनी दफा रिक्वेस्ट भेज इंतज़ार किया था आज उसका सपना पूरा होने का वक़्त था। साक्षात्कार के दौरान उसने खुद को संयत रखने की पूरी कोशिश की। आने वाले आवेग-संवेग को उसने नियंत्रित किया। सवालों की फेहरिस्त के बीच वह मन की बात चाह कर भी न कर पाई।

साक्षात्कार की औपचारिकता निपटा वह अखबार के दफ्तर पहुँच अगले दिन के अंक के लिए सामग्री को ठीक करने में जुट गयी, उसे खुशी थी कि एक बड़े लेखक के नाम के साथ कल सब उसका नाम भी पढ़ेंगे। काम निपटा वह दफ़्तर से निकल घर पहुँची। लेकिन उसे अभी भी निजी पहचान की चिंता सताये जाती थी। उसने फेसबुक पर भेजे मित्रता प्रस्ताव को देखा, जो अभी भी पेंडिंग स्थिति में उसे चिढ़ा रहा था। मैसेंजर पर क्लिक करके उसने आज की मीटिंग का औपचारिक धन्यवाद कर अपनी दो-तीन कवितायें भी भेज दी। दिन की थकान उस पर हवी हुई तो मोबाइल बराबर में रख नींद के आगोश में चली गयी।

प्रभाकर एक संवेदनशील व्यक्ति है, जिसे कविताओं से प्यार है, जिसे संवेदनाओ से प्यार है। लेखन से मन शिथिल हो तो वह सोशल-साइट पर समय बिताने की गरज से चला गया। मैसेन्जर पर टूटी-फूटी कविताएँ देख उसके भीतर के लेखक का जागना स्वाभाविक था। जैसे किसी अच्छे गाने वाले के सामने बेसुरा गाकर उसको उकसाया जाता है और वह यंत्रचालित सा गाने लगता है ठीक वही स्थिति प्रभाकर की भी हुई। कविताएँ को ठीक अनुक्रम में लगा उसने वापिस रूपल को भेज दी। उधर से तुरंत आह! वाह! जैसे शब्दों के साथ कुछ इमोजी भी डिस्प्ले हुई। देखकर प्रभाकर के चेहरे पर मुस्कान आई। उधर रूपल तो बल्लियों उछल रही थी, बिना मांगे तो नहीं लेकिन मुराद जरूर पूरी हो रही थी। प्रभाकर ने आगे वार्तालाप नहीं किया। रूपल फिर थोड़ी मायूस हुई। वह मैसेंजर पर लगातार मैसेज करती, हर दिन ऊपर से एक नया मैसेज ही पढ़ने में आता। लगातार जवाब न आने पर फिर वह एक टूटी-फूटी कविता भेज देती। अपने शौक के लिए व्यक्ति समय और मन दोनों का प्रबंध कर लेता है। प्रभाकर ध्यान से पढ़ता उसे लगता कि कविता में भाव पक्ष सबल है बस सही अनुक्रम न होने से कविता अपनी बात नहीं कह पा रही। उसने सोचा- “वैसे हम किसी को तकनीक सिखा सकते हैं भाव नहीं, अच्छी बात ये है कि यहाँ सिर्फ शब्दों की कीमियागीरी करनी है, अनुक्रम में शब्दों को लगाना है।“ जब भी रूपल उसे कवितायें भेजती, वह उन्हें व्यवस्थित कर देता, रूपल इतने भर से संतुष्ट न थी। अब अपने लेखन से समय निकाल वह रूपल को समय देने लगा। उनका वीकेंड अब एयर रेस्टोरेंट में या समुंदर किनारे बीतता।

सिगरेट का आखिरी कश लेकर प्रभाकर ने फेंका ही था कि उसने रूपल को आते हुए देखा। उसके कदम उसने आने की दिशा की ओर उठ गए। उसकी मानसिक तकलीफ कुछ कम हुईं। दोनों लकड़ी की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए ऊपर पहुँच दो कुर्सियों वाली मेज तक पहुंचे थे। बैठकर बातों का सिलसिला शुरू हुआ। अभी बातें कर ही रहे थे कि वेटर रूपल के पीछे आकर खड़ा हो गया। प्रभाकर की पलकें रूपल के चेहरे से हट वेटर से मुखातिब हुई।

“क्या लेना पसंद करेंगे आप?” –वेटर ने कहा।

सुनकर वे दोनों हँसने लगे मानो कहना चाहते हों, इतने दिनो में क्या तुम्हें हमारी चॉइस का पता नहीं चला, क्यों हर बार तंग करने चले आते हो?

प्रभाकर ने मुस्कराते हुए कहा-“मुझे तो कॉफी विदआउट शुगर ही पिला दो, मैडम से पूछ लो वे क्या पियेंगी।“

“मेरी भी एक रेगुलर कॉफी, साहब के स्टेटस के लायक वैसे भी तुम्हारे इस रेस्टोरेंट में कुछ मिलता ही नहीं है।“

 वेटर हर बार ही तरह सोचता है, साहब इतनी बार आते हैं कभी स्टेट्स की बात नहीं करते लेकिन मैडम हमेशा स्टेट्स में ही उलझी होती है। वेटर थोड़ी देर में ही काफी रखकर चला जाता है। रूपल दो शुगर पाउच खोल कप में उड़ेलती है। प्रभाकर ने पलकें उठा उसकी तरफ देखा। रूपल खिलखिला कर कहती है-“आप शुगर नहीं लेते न तो आपके हिस्से की शुगर भी अपने कप में दाल ली प्रभाकर बाबू।“

दोनों दो-दो घूंट कॉफी पीते हैं फिर प्रभाकर कहता है- “नयी पीढ़ी की होने पर भी तुम तकनीकी ज्ञान क्यों हासिल नहीं करना चाहती हो, पिछले काफी समय से देख रहा हूँ तुमने अपनी रचनाओं को सोशल साइट्स पर रायते की तरह बिखरा रखा है।“

“आप बताइये मैं क्या करूँ, जो मुझे अच्छा लगता है, लिख देती हूँ, आप मेरी रचनाओं के प्रथम पाठक भी हो और उनके संपादक भी। फिर मुझे कौन सा आपकी तरह फेमस होना है, बात जहाँ संप्रेषित होनी चाहिए, वहाँ हो रहीं हैं, बस इतना सा ही ख्वाब है मेरा।“

रूपल को न तकनीकी ज्ञान था और न वह परिश्रमी ही थी। कॉफी का शिप लेते हुए उसने कहा-“कभी-कभी मुझे लगता है कि आपको अपना पी ए बना लूँ, सब कुछ लिखा हुआ सहेजने में आसानी होगी।“-कहकर वह खिलखिला उठी। प्रभाकर ने भी ठहाका लगाया, बोला- “सुनो, रूपल! फेसबुक और अन्य अनेक चैनल्स पर बिखरी तुम्हारी कविताएँ वर्ड फाइल में सहेज कर रख दी है, एक जीमेल आईडी भी बनाई है, उसके मेल में भी तुम्हारी रचनाएँ सुरक्षित रख दी हैं, प्रिंट आउट निकाल स्पायरल बाइंडिंग करवाकर साहित्य अकादमी को भी तुम्हारे नाम से भेज दी है।“ असल में प्रकाशन योजना के अंतर्गत विज्ञप्ति थी, प्रभाकर ने सोचा कि रूपल को एक सरप्राइज़ दिया जाये, आज की उनकी मुलाक़ात का ये भी एक मकसद था।

रूपल ने सुना तो उसके मुँह से शब्द नहीं निकाल पाये, वह कहे तो क्या कहे, बस इतना ही बोली-“ मैंने तो मज़ाक में पी.ए. वाली बात काही और आप...?”

प्रभाकर उसके चेहरे के भाव पढ़ता हुआ बोला-“मौसम देख रही हो, बादल घिर आए हैं, लगता है बारिश होगी, तुमने एक बार कहा था न, बारिश में आपके साथ भीगते हुए समुन्द्र के पास उस ऊँचे पत्थर के पास खड़े हो तुम्हारे सीने पर सिर रख खड़े रहना चाहती हूँ, और वो कन्नी अंगुली में अपनी कन्नी अंगुली फँसा समुंदर किनारे टहलने की इच्छा। आज तुम वो सब इच्छाएं पूरी कर सकती हो।“

रूपल ने उसे शरारती निगाहों से देखा, रेस्टरों का बिल चुकता कर दोनों समुन्द्र किनारे आ गए।  
प्रभाकर रूपल को पत्र-पत्रिका इत्यादि में रचना भेजने को कहता तो उसका एक ही जवाब होता-“मुझसे न होगा! बाबा, खुद करो।“ शुरू में प्रभाकर यह सोचकर प्रभावित था कि उसको छपास की चाह नहीं परंतु मामला इसके बिल्कुल उलट था। यह बिल्कुल वैसे था जैसे चोर के स्वयं को चोर बताने  पर कोई विश्वास नहीं करता। जब कभी वे मिलते साहित्य पर, रूपल के लेखन पर ज्यादा चर्चा होती, वह अक्सर हँसकर कहती-“क्यों सीढ़ी हुए जाते हो लेखक बाबू!”

प्रभाकर धीरे-धीरे रूपल का मकसद समझने लगा था, लेकिन मन मानने को तैयार नहीं होता। उन्होने लगभग अपने सारे साहित्यिक लिंक्स रूपल से शेयर कर दिये थे, कितनी ही दफ़ा वह बिना मशवरा किए प्रभाकर के लिंक्स का फायदा लेने लगी। नूर साहब ने नयी पत्रिका शुरू की, रूपल को सूचना मिली उसने प्रभाकर के हवाले से एक कहानी भेज दी। नूर साहब प्रभाकर की संस्तुति को भला टाल भी कैसे सकते थे, पत्रिका के प्रवेशांक का पीडीएफ़ उन्होने प्रभाकर को उनके मोबाइल पर भेजा था साथ में आभार हेतु नोट भी था, जिसमें लिखा था-“रूपल जी की कहानी आपकी संस्तुति के साथ मिली थी, आपके आग्रह को कैसे टाला जा सकता था।“ उसे याद आया जब उसने एक बार मोबाइल में परेशानी के चलते रूपल के मोबाइल में अपना जीमेल अकाउंट खोला था और उसे साइन आउट करना भूल गए थे।  उन्हें आभास होने लगा कि बस प्रसिद्धि के लिए ही किसी का जुडना इस पीढ़ी का शगल रह गया है। उन्हें समझ आया कि उसका लक्ष्य ही मुझको सीढ़ी बनाना था। उसकी कविताओं और कहानियों को एडिट करते उनका खुद का लेखन कहीं पीछे छूटने लगा था। लेकिन तब वे खुश थे कि वह छप रही थी। वह अक्सर आधी-अधूरी कथा कहानी प्रभाकर को भेजती। कभी अंत तो कभी आदि सुझाते-सुझाते उनकी हालत  त्रिशंकु जैसी हो गयी।

तीन साल के इस दोस्ताना प्रेम के दौरान अपनी उपलब्धियों पर नज़र दौडाने पर लेखन के नाम पर उन्हें अपने हिस्से एक किताब और छिटपुट कहानियाँ ही नज़र आई।

बातों बातों में एक दिन एक संपादक मित्र कह बैठे कि आपकी किसी मित्र ने  रचनाएँ भेजी हैं, साथ में लिखा है कि आपने उनसे ऐसा आग्रह किया है। 

प्रभाकर अब महसूस करने लगे कि धीरे-धीरे जबसे रूपल कुछ अच्छा लिखने लगी तो उनकी कही हर बात को कोई न कोई बहाना बना टाल जाती है। वे एक कहानी लिख रहे थे, खुद कहानी से संतुष्ट नहीं दिखे, उन्होने कहानी रूपल को भेजी इस टैग के साथ कि “मेरी कहानी में मुझे कहीं झोल लग रहा है, जरा देखो तो सही।“ उसने जवाब में लिखा-“ पिताजी की तबीयत खराब है और उनके साथ कोई धोखाधड़ी हुई है, मुझे मायके जाना होगा और इस बीच हम मिल भी नहीं पाएंगे। एक-दो घण्टे बाद ही रूपल ने अपने फ़ेसबुक पर स्टोरी शेयर की  जिसमें बड़ी सुंदर डांस क्लिप पर टैग लाइन थी –“मस्ती टाइम विद फ्रैंड्स और सो ओन।“
रॉस आइलैंड के ट्विन ट्री के साथ के मैदान में बैठ प्रभाकर रूपल के जहाज के आने का इंतज़ार कर रहा है, रूपल लगभग दो घण्टे बाद आई है। पोर्ट ब्लेयर से एक ही जहाज आता है, सैलानियों को रॉस आइलैंड छोडकर पुन: पोर्ट ब्लेयर जाता है, इस वजह से उसे ज्यादा समय लगा। दोनों साथ नहीं आए हैं, यह बात बताती है कि उनके बीच अब पहले जैसी नज़दीकियाँ नहीं हैं। रूपल के आने से पहले तक वह सोचता रहा-“मुझसे कहती कि सिफारिश से छपे तो क्या छपे और खुद मेरे नाम का भरपूर फायदा....।“

वह उन दोनों के वर्तमान रिश्ते से नाखुश है, उसे अपने अतीत का रह-रह हर वह दृश्य याद आता है जब उसने एक बड़ा निर्णय लेते हुए अपनी पुरानी जिंदगी से छुटकारा पाते हुए रूपल का साथ चुना था। उसे वो दिन आया जब एक छोटे से कमरे में उसका सामान बिखरा पड़ा था जिसे वह बड़ी तेजी से बैग और सूटकेस में पैक कर रही थी और प्रभाकर अचानक वहाँ पहुँच गया था, पहले तो वह सकपकाई थी लेकिन प्रभाकर के पूछने पर उसने बताया था- आज फिर योगेश से उसका झगड़ा हुआ था, बात इतनी सी थी कि योगेश के ऑफिस जाते समय हॉट बोतल में पानी देने में जरा देरी क्या हुई कि उसने खोलता पानी उसके पैरो पर उड़ेल दिया था।  सुनकर उनके मुँह से बोल नहीं फूट पाए थे। रूपल को आँखें बन्द किये देखकर प्रभाकर ने उसके बाजू पकड़ शांत्वना देनी चाही, वह उम्मीद कर रहा था कि रूपल आँखें खोले, कुछ प्रतिक्रिया दे तभी वह अपना अगला कदम उठाए। प्रभाकर को याद आया कि ऐसे ही उनकी पत्नी आठ साल पहले गयी थी तब उसने उन्हें रास्कल कहा था, साथ में अय्याश भी, तब प्रभाकर ने उसको थप्पड़ जड़ दिया था। अंततः उससे लड़-झगड़कर वह फ्लैट छोड़कर चली गयी थी। पाँच मिनट तक रूपल के आँखें न खोलने पर और सीने से लिपट जाने पर प्रभाकर भी इसी स्थिति में खड़ा रहा था।

उसकी यादों की तंद्रा न टूटती अगर पीछे से रूपल की आवाज उसके कानों में न पड़ी होती। रूपल के आने पर दोनों रॉस आइलैंड पर घूमते हुए सबसे आखिरी छोर तक पहुँच गए हैं, यह इस आइलैंड का सबसे ऊँचाई का छोर है, पूरा आइलैंड मात्र डेढ़ किलोमीटर लम्बाई लिए हैं, लम्बाई की अपेक्षा इसे ऊँचाई कहना ही अधिक सही होगा। यहाँ आकर दोनों एक-दूसरे के पास एक ऊँचे पत्थर पर बैठे हैं। रूपल ने बताया- “यही वह आइलैंड है जिसने सुनामी के समय पूरे भारत के तटीय क्षेत्रों को भारी तवाही से बचाया, ये न होता तो सुनामी की रफ्तार से न जाने कितनी तवाही होती।“

“तबाही को कौन रोक सकता है, हर रिश्ते में एक सुनामी आता है, और हर बार उसे रोकने या उसकी गति कम करने के लिए रॉस आइलैंड नहीं होता।“

रूपल उनके गम्भीर होते चेहरे हो देख रही है। पहले तो रूपल के चेहरे पर बहुत हैरानी आई लेकिन फिर वह फीकी हँसी हँसने हुए बोली- “आप इतने बड़े लेखक और आलोचक, जिनका राजनीति तक में हस्तक्षेप है, इस तरह मामूली बातों पर आपको विचलित नहीं होना चाहिए।“ प्रभाकर की तरफ मुखातिब होते हुए रूपल ने कहा –“मात्र सरकार की मुखालफत करते हुए लिखे लेख से आपको परेशानी है, जबकि देश में न जाने कितने लेखक हैं जो प्रधान सेवक की शान में लिख रहे, अभी कुछ दिन पहले चार सौ लोगो ने उनकी सराहना करते हुए अपने समर्थन में हस्ताक्षर किया पत्र भी जारी किया।

“टॉप लेखिका इस अदने से लेखक के नाराज, परेशान होने से इतनी हलकान कैसे हो सकती है, ये बात मुझे ज्यादा हैरान कर रही है।“

 “किस एंगल से मैं आपको टॉप लेखिका लग रही हूँ, योगेश की ज़्यादतियों से इतना तंग आ चुकी हूँ कि शुगर, ब्लड प्रेशर, हाइपरटेन्शन कोई भी ऐसी बीमारी नहीं है जिसने मुझे न घेर रखा हो। पिछले तीन सालों में ही मैं साठ साल जितनी लगने लगी हूँ।“

प्रभाकर सोचने लगा- जिस दिन योगेश ने खोलता पानी फेंक तुम्हारे वजूद पर पानी फेंक दिया था, उस पल मैंने ही सहारा दिया था, 6 महीने मेरे गेस्ट हाउस में रहने के बाद वापिस योगेश के पास चली तो गई थी लेकिन कितना कुछ साथ ले गई थी, कितने सपने कितने ख्वाब, कितना ज़िंदगी का हिस्सा? लेकिन उसने कुछ नहीं कहा। बस उसके मन में एक बेचैनी एक उकताहट है। उसकी बेचैनी और उकताहट देखकर वह धीरे से बोली- “अब ये सब मत कहना कि योगेश के पास वापिस जाने का निर्णय भी तुम्हारा खुद का था, इतना समझ लो कि हम मिडिल क्लास लड़कियाँ लड़ाई झगड़े के बाद भी उसी पति को परमेश्वर मानती हैं, जिनके साथ माँ-बाप ब्याह कर विदा करते हैं।“

“सुनो रूपल! योगेश और तुम्हारे रिश्ते से मुझे रत्ती भर भी फ़र्क नहीं पड़ता, हर नामचीन लेखक में एक चुम्बकीय आकर्षण होता है, वह भावनाओं, संवेदनाओं से लबरेज होता है, लेखन में नाम, शोहरत और रुतबा पाने की चाह रखने वाली लड़की उनको सीढ़ी बनाती है, जब तक वह अपना मुकाम हासिल नहीं कर लेती तब तक वह जोंक की तरह उससे चिपकी रहती है,  जब वह अपना मुकाम हासिल कर लेती है तब उसके लिए वह लेखक एक ठूंठ रह जाता है, जिस पर पंछी को बैठना गवारा नहीं होता, वह खाली ड्रम की तरह हो जाता है जिसमें से अब और सोमरस नहीं निकाला जा सकता।“- कहकर प्रभाकर चुप हो गया। रूपल ने सिर ऊपर उठाया और सवालिया नजरों से उसे देखनी लगी। थोड़ी देर ठहरकर प्रभाकर ने शब्दों को चबाते हुए आगे बोलना शुरू किया-“पूरे साहित्यिक हलके में कौन नहीं जानता कि तुम मेरी साहित्यिक बीवी हो, मेरी उत्तराधिकारी, और जब तुम्हें पता है कि सत्ता परिवर्तन होते ही मुझे राज्य-सभा से चुनकर संसद भेजा जाएगा, तब तुम कैसे एक मूर्ख प्रधान सेवक के पक्ष में लिखकर मेरे विरोधियों को हवा दे रही हो? तुम्हें पता भी है कि तुम्हारी इन हरकतों का भविष्य में क्या असर होने वाला है?” 

“भविष्य में क्या होगा ये तो मैं नहीं जानती लेकिन अगर मैं तुम्हारी नजरों से उतर गयी तो फिर हमारा साथ बने रहना कोई मैने नहीं रखता, वैसे भी मर्दों की एक आदत होती है- सारा दोष औरतों पर मड़ देने की, उसी आदत के हिसाब से मैं अब आपके लिये बेकार हो चली हूँ, आई मीन आउटडेटिड।“- रूपल मानो मन का सारा बवाल उडल देना चाहती थी।

“आई एम सारी, मुझे कोई हक नहीं बनता तुम्हारे ऊपर हक जमाने का, लाइफ के बारे में ज्यादा पर्सनल होना नहीं चाहता, ये तुम्हारी जिंदगी है जैसे मर्जी जियो।“- कहते हुए प्रभाकर उठ खड़ा हुआ।
वह नज़रें झुका लेती है और धीरे-धीरे कॉफी सिप करती रहती है।

-सन्दीप तोमर 
 ई-मेल : gangdhari.sandy@gmail.com


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मॉरीशस का रहस्यमयी मूड़िया पहाड़  - रोहित कुमार 'हैप्पी'
मॉरीशस एक छोटा सा द्वीप है, लेकिन इसका मूड़िया पहाड़ इतना ऊँचा और प्रभावशाली है कि देश के किसी भी कोने से इसे देखा जा सकता है। यह ऐसा दिखता है, मानो कोई पाषाणी मानव हो। आप मॉरीशस का भ्रमण कर रहे हों तो ऐसा संभव ही नहीं कि आप इसकी ओर आकृष्ट न हों। यूं तो इस पर्वत का नाम 'पीटर बॉथ' है लेकिन स्थानीय लोग इसे इसके आकार और जनश्रुति के कारण 'मूड़िया पहाड़'  ही कहते हैं।  कठोर ऊंची चट्टानों के के बीच एक दर्दभरी प्रेम कहानी छिपी है, जो आज भी मॉरीशस के गांवों में सुनाई जाती है।
 
कहते हैं, मॉरीशस के पूर्वी तट पर एक सुंदर, शांत गाँव बसा हुआ था। उसके चरणों को समुद्र का नीला जल धोता, और पश्चिम की ओर विशाल पर्वत उसके मुकुट-सा शोभायमान रहता। यहाँ की कलकल करती नदियाँ, अपनी मस्ती में निर्मल बहते झरने और यहाँ के जंगल सुगंधित फूलों और रसीले फलों से लदे रहते। गाँव के लोग गन्ने और फलों की खेती करते, और अपनी सरल जीवनशैली में मग्न रहते।
 
इसी गाँव में  एक अल्हड़, तेजस्वी युवक—जिसकी चाल में झरनों सी मस्ती थी, स्वभाव में नदियों की बेफिक्री, आँखों में समुद्र की गहराई, और वाणी में गन्ने की मिठास। जब पूर्णिमा की रातें आतीं, और मॉरीशस की पहाड़ियों पर चाँदनी बिखर जाती, तब उसकी बांसुरी की मधुर तान घाटियों में गूंज उठती। कहते हैं, उसकी इसी बांसुरी की धुन पर एक स्वर्गीय परी मोहित हो गई।
 
"ओह! तुम कितनी सुंदर बांसुरी बजाते हो, ऐसा लगता है जैसे साक्षात कृष्ण कन्हैया मॉरीशस की धरती पर उतर आए हों।" परी ने अचानक प्रकट होकर अपनी प्रसन्नता जतायी। 
 
अचानक आई आवाज से युवक की बांसुरी की तान में व्यवधान पड़ गया। युवक ने सिर उठाकर चौंककर पूछा, "तुम कौन हो? हमारे गाँव की तो नहीं लगती?"
 
"मैं आसमान से आई हूँ। एक बार फिर बांसुरी बजाओ न!" परी ने मुसकुराते हुए आग्रह किया। 
 
युवक ने चुटकी ली, "पहले तुम परियों का नृत्य दिखाओ!"
 
परी खिलखिलाई, "सच? देखना चाहोगे परियों का नाच? चलो मेरे साथ।"
 
उसने पर्वत की चोटी की ओर इशारा किया, "रात के ठीक बारह बजे वहाँ हम परियाँ नृत्य करती हैं। देखना चाहते हो तो मेरे साथ चलो।"
 
उस रात से, हर आधी रात, वह युवक पहाड़ की चोटी पर जाने लगा। वहाँ परियों के नृत्य का जादू उसे बाँध लेता।  युवक की मस्ती जैसे गायब हो चुकी थी। वह दिनभर खोया-खोया रहता और संध्या होते ही पहाड़ की ओर चल देता। परियों ने भी उसे स्वीकार कर लिया, पर एक शर्त रखी—"इस रहस्य को कभी किसी से साझा मत करना, वरना विनाश निश्चित है।"
 
समय बीतता गया। युवक की शादी हो गई, लेकिन उसका मन परियों के नृत्य में ही अटका रहा। हर रात वह घर से निकल जाता, और उसकी नवविवाहिता पत्नी प्रतीक्षा में दीपक की लौ तकती रहती।
 
आखिरकार, पत्नी ने एक दिन पूछ ही लिया, "अगर किसी और से प्रेम था, तो मुझे ब्याहा ही क्यों?"
 
युवक हड़बड़ा गया, "कौन कहता है कि मैं किसी और के पास जाता हूँ?"
 
"तो फिर रात-रात भर कहाँ रहते हो?"
 
"यह मैं नहीं बता सकता," उसने सिर झुका लिया।
 
"सच बताओ, वरना मैं अपनी जान दे दूंगी।"
 
अंततः युवक ने सब कुछ कह सुनाया लेकिन इस स्वीकारोक्ति ने उसका भाग्य बदल दिया।
 
अगली रात जब वह पर्वत की चोटी पर पहुँचा, तो वहाँ केवल एक ही परी खड़ी थी। उसकी आँखों में क्रोध की ज्वाला धधक रही थी।
 
"तुमने हमें धोखा दिया...",  परी का क्रोध सातवें आसमान पर था। 

"मेरी बात...."  युवक की बात पूरी होने से पहले ही परी फिर दहक उठी, "अब इसका दंड भोगो।"
 
परी ने एक हाथ उठाया—युवक का दायाँ हाथ गायब हो गया। फिर दूसरा हाथ उठाया—बायाँ हाथ भी विलीन हो गया।
 
"अब पत्थर बन जाओ, ताकि यह रहस्य किसी और तक न पहुँचे।"
 
कहते हैं, तभी से वह युवक उस पर्वत की चोटी पर पत्थर बनकर खड़ा है। और तब से उस पहाड़ को "मूड़िया पहाड़" कहा जाता है।
 
-रोहित कुमार 'हैप्पी'

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सच्ची पूजा - डॉ. ज्ञान प्रकाश

"उठो! अरे, उठो भी! जाना नहीं है क्या?"

सुबह-सुबह पत्नी के मुख से जाने की बात सुन, मैं कुछ सकपका सा गया।

"आज तो छुट्टी है, फिर कहाँ?' प्रश्नवाचक निगाहों से, मैंने उनकी तरफ देखा।"

"आप भी न भूल जाते हो, कल ही तो बोला था कि आज मंदिर चलेंगे, शिवरात्रि है ना आज।"
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तुझसे मिलकर हमें महसूस ये होता रहा है | ग़ज़ल - डा भावना

तुझसे मिलकर हमें महसूस ये होता रहा है
तू सारी रात यूं ही जागकर सोता रहा है......

 
 
तख्त बदला ताज बदला, आम आदमी का आज न बदला! - आवेश हिन्दुस्तानी

महाराष्ट्र में धरती के पाँच लालों ने की, आर्थिक तंगीवश खुदकुशी,
छत्तीसगड में 8 महिलाओं की सरकारी शिविर लापरवाही ने जान ली !......

 
 
मिलिए नेहा और अंकुर से  - रोहित कुमार 'हैप्पी'

Hindi Story Video by Neha and Ankur

पेशे से अंकुर एक कैंसर स्पेशलिस्ट हैं व नेहा कई वर्षों से यूनाइटेड नेशंस के साथ जुड़ी हुई हैं। दोनों व्यावसायिक दृष्टि से भिन्न क्षेत्रों में हैं लेकिन एक चीज़ है जिसमें दोनों की समान रुचि है।  और वह क्या है? 'हिन्दी साहित्य'! दोनों को हिन्दी साहित्य का पठन-पाठन अच्छा लगता है।  इन दिनों दोनों 'हिन्दी' की सशक्त रचनाओं को वीडियो के माध्यम से जीवंत करने में लगे है।  

कहानियां किसी भाषा, बोली या ज़ुबाँ की नहीं होती, कहानियां बस होती हैं, और वो सभी के लिए होती हैं। ये मानना है नेहा और अंकुर का जो 'रानी केतकी' नाम के एक यू ट्यूब चैनल (YouTube Channel) के ज़रिए हिंदुस्तानी कहानियों के खजाने में से कुछ बेशकीमती मोती सबके सामने लाना चाहते हैं। ये दोनों न सिर्फ जीवन के, बल्कि किस्से-कहानियों की दुनिया के भी साथी हैं। साहित्य की अनमोल धरोहर, कालजयी रचनाओं को चुन उन पर छोटी-छोटी फिल्में बनाने का एक प्रोजेक्ट दोनों ने मिल कर शुरू किया है।

इस प्रोजेक्ट में उपयोग की जाने वाली अनेक कहानियां 'भारत-दर्शन' में प्रकाशित हैं जिन्हें 'नेहा और अंकुर' अब वीडियो के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं।  

नए लोगों से मिलने, कुछ नए किस्से, नई दास्तानें शुरू करने को ये हमेशा तत्पर हैं!

आप नेहा और अंकुर से sharmaneha1844@gmail.com या y.ankur25@gmail.com के माध्यम से संपर्क कर सकते हैं।

भारत-दर्शन पर निम्नलिखित वीडियो उपलब्ध हैं:

गिल्लू - महादेवी वर्मा की कहानी का वीडियो। 
  वीडियो सौजन्य: नेहा और अंकुर 

- सौतन- प्रेमचंद की कहानी का वीडियो। ......

 
 
अभिशाप का वरदान - कैलाश कल्पित

उसको ही वरदान मिला है
रूप नहीं जिसने पाया है......

 
 
होली का रंग  - कल्पनाथ सिंह

बहुत पुरानी बात है। उन दिनों धरती पर चारों तरफ हरे भरे जंगल ही जंगल थे। उन्हीं जंगलों के बीच-बीच में बाकी दूरी पर इक्का दुक्का गांव बसे हुए थे। तब न तो बड़े-बड़े शहर थे, न कस्बे। केवल छोटे-छोटे गाँवों में लोग रहते थे। लोगों में आपस में बहुत ही मेल मिलाप रहता था। कोई भी त्योहार आता तो गांव भर के छोटे-बड़े सब लोग मिलजुल कर अपना त्योहार घूमधाम से मनाते थे।

होली का त्योहार नजदीक आते ही जंगल का जंगल होली के रंग में रंग जाता था। लाल-लाल टेसू फूल उठते थे। आम बौरों से लदर-बदर हो उठते थे। सारी लता वल्लरियां फूलों से भर उठती थीं। इधर जंगल के सारे पेड़-पौधे होली के रंग मे रंग जाते थे तो इधर उन जंगलों के बीच में बसे गाँवों में लोग भी होली के दिन रंग -गुलाल से सराबोर हो उठते थे।

जंगल के पेड़ पौधों और उन जंगलों के बीच बसे गाँवों के लोगों का होली खेलना देखकर एक बार सारे जंगल के पशु-पक्षी भी आपस में सलाह करते कि हम लोग भी इस साल रंगों की होली खेलेंगे। सारे जंगल के पशु-पक्षी यह प्रस्ताव लेकर जंगल के राजा शेर सिंह के पास पहुंचे। शेर सिंह जंगल में होली मनाने की बात सुनकर फूले नहीं समाये। वह तो पहले से ही चाहते थे कि जंगल के पशु-पक्षी भी आदमियों की तरह धूम-धाम से होली का त्योहार मनाते तो कितना अच्छा होता। जंगल के पशु-पक्षिओं का प्रस्ताव सुनकर तो वे और भी मगन हो गये।

जंगल के राजा शेर सिंह पक्षियों को इस साल धूम-धाम से होली मनाने के लिए कहकर स्वयं भी होली मनाने की तैयारी करने लगे। सारे पशु-पक्षी जंगल के पेड़-पौधों के फूल और पत्तियों से रंग तैयार करने लगें पशुओं में इस साल होड लग गई कि किस का रंग सबसे बढ़िया होता है। उधर पक्षीगण अलग अपना-अपना रंग तैयार करने में लग गये।

धीरे-धीरे करके होली का त्योहार आ गया। भालू दादा अपनी टोली लेकर नाचते-गाते आ गये। बन्दर दादा अपनी टोली लेकर उछलते-कूदते आ गये। लोमड़ी, सियार, लक्कड़बग्गा, खरगोश आदि भी अपनी-अपनी टोली लेकर सुबह से ही बीच जंगल में जुट गये। उधर बूढ़े बरगद पर सारे पक्षी रंग-बिरंगा रंग लिये पंख फड़फड़ा कर नाचते-गाते इकट्ठा हो गये। सारे पशु-पक्षी अपनी-अपनी धुन मे नाच-गा रहे थे कि इतने में जंगल के राजा शेर सिंह भी आ गये। पशु पक्षियों की मस्ती भरी होली से सारा जंगल गूंज उठा। शेर सिंह के आते ही रंगों की होली शुरू हो गयी।

किसी ने भालू दादा पर एक भरी बाल्टी काला रंग उड़ेल दिया। बन्दर ने लंगूर के मुंह पर काला रंग लगा दिया। लंगूर ने देशी बन्दर के मुंह पर लाल रंग पोत दिया। किसी ने बाघ दादा और हिरन पर कत्थई रंग फेंक दिया।

इस तरह सुबह से शाम तक लोग रंग खेलते रहे। दिन डूबने के बाद जगल की होली खत्म हुई। दूसरे दिन भालू दादा रंग छुड़ाने लगे तो उनका रंग नहीं छूटा। लंगूर के मुंह का काला रंग नहीं छूटा। तथा देशी बन्दर के मुंह का लाल रंग नहीं छूटा। इसी तरह लाख कोशिश के बाद भी बाघ दादा तथा हिरन भझ्या का रंग पूरा नहीं छूटा और वे चितकबरा हो गये।

इतने पक्के रंग से होली खेलने की शिकायत लेकर लोग जंगल के राजा शेर सिंह के पास पहुंचे तो शेर सिंह ने सारे जंगल के पशु-पक्षियों से कहा कि अब जब तक पिछले साल की होली का लगा हुआ रंग नहीं छूट जाता तब तक जंगल में होली तो होगी लेकिन किसी पर कोई रंग नहीं डालेगा।
तभी से भालू दादा का रंग लाल, लंगूर का मुंह काला, देशी बंदर का मुंह लाल, हिरन और बाघ का रंग चितकबरा बना हुआ है और अभी उनका रंग नहीं छूट पाया। इसीलिये आज भी होली पर जंगल के जानवर किसी पर रंग नहीं डालते है और जब तक उन लोगों का रंग छूट नहीं जायेगा तब तक जंगल में होली पर रंग नहीं डाला जायेगा।

-कल्पनाथ सिंह ......

 
 
आँगन की चिड़िया | कहानी -  राजुल अशोक  

’चाची...।’ पड़ोस वाली नन्हीं पिंकी आवाज़ दे रही थी। 

राशि ने खिड़की से झाँका। पिंकी आँगन में खड़ी थी। उसके आसपास ज़मीन पर चावल बिखरे थे। राशि को खिड़की पर देखकर पिंकी दौड़ती हुई आई और बोली, ’चाची, चावल दो ना, मुझे चिया को किलाना है, माँ चावल नहीं दे रही।’ राशि ने मुस्कुराते हुए कहा, ’वो देखो, ज़मीन पर कितने सारे चावल बिखरे हैं, पहले चिया को इतने चावल तो खिला दो।’ पिंकी बोली, ’खा लेगी चिया, सब खा लेगी। अभी देखना, जैसे ही आँगन खाली होगा, चिया चावल चुगने यहाँ आ जाएगी। उसे और चावल दो ना चाची।’ 

राशि खिड़की से हटी और रसोई से चावल लाकर पिंकी को दे दिए। पिंकी फिर मगन हो गई और राशि का ध्यान भी उधर ही लग गया। दो-चार चिड़ियाँ पिंकी से थोड़ा दूर रहकर चावल चुगतीं और पिंकी के पास आते ही फुर्र से उड़ जातीं। पिंकी उन्हें बुलाने लगती। ’आ चिया, आ..’। 

राशि सोचने लगी; ’ऐसे ही तो वो भी बुलाती थी’। रोज़ सुबह होते ही वो आंगन में पहुँच जाती और जिस दिन वो नहीं पहुँचती, दादाजी की आवाज़ लग जाती ’राशि, चिड़ियों को दाना नहीं खिलाएगी?’ अक्सर दादी कहती, ’क्या रोज़ सुबह राशि को खेल में लगा देते हो, अरे अब उसे पढ़ने बैठाया करो। स्कूल में नाम लिखाना है। ये खेल उसकी ज़िन्दगी नहीं बनाएगा।’ दादाजी कहते, ’स्कूल जाने लगेगी तो पढ़ लेगी, अभी तो खेलने दो हमारे आँगन की चिड़िया को।’ 

राशि, दादाजी की याद कर, खिड़की से हट आई और अनमनी सी बैठ गई। कुछ करने को ही नहीं है। लंच वो तैयार कर चुकी है। कपड़े धुल कर सूख रहे हैं। बच्चों के स्कूल से आने में देर है।


2


पिंकी को चिया के साथ देखकर राशि की बचपन की यादें ताज़ा हो गई हैं। 

दादाजी और दादी का दुलार याद आ रहा है। पिताजी का प्यार याद आ रहा है, पर सबसे ज़्यादा उसे माँ याद आ रही है। 

बार-बार उसकी आँखें माँ को याद कर भर जाती हैं। ’कल माँ से बात की थी, तब पता लगा था कि वो तीन दिन से बुखार में पड़ी थीं।’ राशि बेचैन हो गई। उसे यकीन नहीं हो रहा था कि माँ डॉक्टर से दवा ले रहीं होंगी, पर माँ उसे तसल्ली देती रही कि अब तो उसका बुखार उतर भी गया है। 

राशि क्या करे। कैसे समझाए खुद को। वो इतनी दूर है कि चाहकर भी माँ को देखने नहीं पहुँच सकती। 

अभी कुछ दिन पहले ही तो वो माँ से मिलकर आई है। पर ऐसे नहीं चलेगा। अगर वो नहीं जा सकती, तो माँ की बात पर ही यकीन करना होगा। उसे किसी तरह अपना मन इन बातों से हटाना होगा। 

उसने खुद को संयत किया ’चलो, वो अपनी अलमारी ठीक कर लेगी। इस बार मायके से लौटकर उसने सूटकेस खाली किया और अलमारी में भर दिया। तब से डेढ़ हफ्ते हो गये, आज सारा सामान तरतीब से रख देगी।’ 

अलमारी खोलते ही उसे सामने नज़र आई माँ की दी हुई साड़ी। राशि ने बड़े प्यार से उस पर हाथ फेरा। ’माँ ने अपने हाथ से काढ़ी थी। इस बार चलते वक़्त माँ जल्दी से उसके हाथों में ये साड़ी थमा गई थीं।’ उसने साड़ी निकालकर कंधे पर डाल कर देखा। उसे लगा, माँ ने उसके कंधे पर हाथ रखा है। 

राशि ने कंधे से साड़ी उतारकर उसे अच्छी तरह संभालकर हैंगर पर टांग दिया। दो चार कपडे ठीक किये, तभी राशि का हाथ उस अलबम पर पड़ा, जो वो इस बार माँ से मांग लाई थी। उसने अलबम खोला, तो उसका बचपन सामने आ गया।

कितनी सारी तस्वीरें हैं बचपन की। कहीं वो दादाजी और दादीजी के साथ है, तो कहीं माँ-पिताजी के साथ। 

 

3

’ये उसकी सालगिरह की तस्वीरे हैं।’ सुन्दर फ्रॉक में नन्ही राशि मुस्कुरा रही थी। ’ये फ्रॉक माँ ने बनाई थी।’ राशि ने ठान लिया था कि इस बार सालगिरह में वो झालर वाली घेरदार फ्रॉक ही पहनेगी। बाज़ार के कई चक्कर लगे, पर राशि की पसंद की फ्रॉक कहीं नहीं मिली। तब माँ ने रात भर जागकर ये फ्रॉक बनाई थी, जिसे देखकर राशि माँ से लिपट गई थी ’यही फ्रॉक चाहिए थी मुझे।’ 

’माँ कैसे समझ जाती थी उसके मन की बात, बचपन में’। ’पर आज, वही माँ समझते हुए भी राशि के मन से अनजान बनकर जी रही है’। राशि ने फिर गहरी सांस ली। उसकी नज़रें अभी भी सालगिरह वाले फोटो पर टिकी थीं। वो देख रही है माँ का उजला चेहरा...’कितनी चमक है माँ के चेहरे पर।’ जब तक पिताजी थे, माँ का चेहरा ऐसे ही चमकता था। बाद की तस्वीरों में दादाजी और दादीजी नहीं हैं। यहाँ माँ-पिताजी के साथ वो, भाई का हाथ थामे खड़ी है।

उसका छोटा भाई; जो माँ की गोद के लिए मचल रहा था, पर फोटोग्राफर के कहने पर उसे राशि के साथ खड़ा होना पड़ा। तभी तो तस्वीर में उसके नन्हें से चेहरे पर गुस्सा झलक रहा है। ’आज यही भाई कितना बड़ा दिखने लगा है। चेहरा भी बदल गया है।’ 

राशि गहरी सांस लेकर अलबम पलटने लगी। ’ये तस्वीर तो पिताजी के बाद की है।’ वो और माँ साथ बैठे हैं। भाई पीछे खड़ा है। भाई का एक हाथ उसके कंधे पर है और एक माँ के कंधे पर। माँ का चेहरा उतरा हुआ है, पर उसकी आँखों में कितना विश्वास झलक रहा है। 

भाई को देख राशि और माँ दोनों के चेहरे खिल जाते थे। राशि को तो अपना भाई दुनिया से निराला लगता। माँ के साथ वो भी यही कोशिश करती कि भाई को सबसे अच्छी चीज़ मिले। सबसे अच्छा कपड़ा पहने और उसे घर का सबसे अच्छा बिस्तर मिले। वो भाई के साथ साये की तरह लगी रहती। उसकी ग़लतियाँ अपने सर ले लेती। माँ की डांट से उसे बचा लेती। उसे लगता, भाई जब बड़ा हो जाएगा, तो खुद ही समझ जाएगा। फिर घर, उसी तरह मुस्कुराएगा जैसे पिताजी के समय मुस्कुराता था। 

 

4

राशि की आँखे गीली हो आईं। ’जो सोचो, वो कहाँ होता है।’ 

ये तस्वीर रक्षाबंधन की है। ’कितनी ख़ुशी झलक रही है राशि के चेहरे पर, और भाई कैसे मुस्कुरा रहा है।’ अब तो रक्षाबंधन आता है, तो वो कल्पना में ही भाई को राखी बंधवाते देख लेती है और अपना व्रत खोल लेती है। उसका मन ही नहीं होता रक्षाबंधन पर भाई के पास जाने का।

उसने सोचा, और अलबम बंद कर माँ को फोन मिलाने लगी। घंटी बजती रही। ’शायद माँ सो गई होंगी।’ राशि ने फोन रख दिया। ’आँख लग गई होगी माँ की। वो कितनी कमज़ोर हो गई हैं।’ 

राशि जब तक माँ के पास रही, उसे लगता रहा किसी तरह माँ को आराम मिले। जब वो रात में माँ के पैरो में तेल लगाने लगती, तो माँ मुस्कुराकर कहती ’जाने दे राशि, इन बूढ़ी हड्डियों में तू चाहे तेल लगा या घी, इनका दर्द नहीं जाएगा।’ 

माँ अब कितना चुप भी रहने लगी हैं, और भाई कितना बोलने लगा है। कितनी शिकायते हैं भाई को। ’अपने बचपन की, अपने घर की और माँ के व्यवहार की।’ 

भाई की उन शिकायतों में एक बार भी माँ के उस संबल की बात नहीं होती, जो कदम-कदम पर माँ उन्हें देती आई है। 

राशि को याद है। यही भाई, कभी किसी चीज़ की इच्छा करता, तो माँ ’कैसे ना कैसे’ उसे पूरा करती थीं। उसे पढ़ाने के लिए माँ ने अपनी जमा-पूँजी लगा दी। आज वही भाई माँ के सामने जब-तब पैसे का रोना रोता रहता है। यही भाई था, जिसे मोटर साइकिल दिलाने के लिए माँ ने अपनी चूड़ियाँ तक बेच दीं थीं। वही भाई आज माँ की दवा लाना भूल जाता है। उसे शिकायत है कि माँ ने उसे ’वो सब’ नहीं दिया, जो दूसरे बच्चों को मिलता है। ये शिकायत करते समय वो भूल जाता है कि पापा के बाद माँ ने अपनी खुशियों का तिल-तिल होम करते हुए, किस तरह उसके लिए खुशियां जुटाई हैं। कभी-कभी तो अपनी सामर्थ्य से बाहर जाकर भी माँ ने भाई की इच्छा पूरी की है, पर भाई को आज माँ की हर बात से शिकायत है। 

 

5

भाई की शिकायतों पर भाभी की मुस्कान उससे देखी नहीं जाती, पर राशि अब चाहकर भी भाई को समझा नहीं पाती। उसे अपना भाई बिलकुल अजनबी लगता है और माँ बेहद निरीह लगती है। 

राशि का मन, माँ का चेहरा देखकर भर आता है। इस बार उसने माँ से कहा, ’तुम साथ चलो माँ।’ पर माँ ने मना कर दिया ’ना राशि, बेटी के घर माँ अच्छी नहीं लगती।’ राशि के तमाम तर्क धरे रह गये, पर माँ साथ नहीं आईं। 

कैसे आएंगी। वो तो आँगन की चिड़िया थी, जो अपना आँगन छोड़ उड़ चुकी है। अब तो उसे सिर्फ़ मेहमान बनकर आना है। चार दिन हँस-खेलकर फिर वापिस लौट जाना है। लाख जुड़ा हो उसका मन, उस आँगन से; पर, वो बेटी है, पराये घर की है और भाई लाख शिकायतें करे, पर वो बेटा है, अपने घर का है। यही सच है। 

- राजुल अशोक
  मुंबई - 400102, महाराष्ट्र, भारत
  ई-मेल : rajulashok@gmail.com


......
 
 
कुछ नहीं - आरती शर्मा

मिन्नी और मुन्ना दोनों भाई-बहन घर के दालान में खेल रहे थे। पापा भी पास में कुर्सी पर बैठे अखबार पढ़ रहे थे।

किसी बात को लेकर मुन्ना ने मिन्नी को दो-चार घूसे जमा दिए। बड़ी होने पर भी उसने मुन्ना को कुछ नहीं कहा और 'मम्मी-मम्मी' करती हुई भाग खड़ी हुई। मुन्ना अब भी उसके पीछे घूसा ताने भाग रहा था।

"क्या बात है, मिन्नी?"

"कुछ नहीं, पापा!" मिन्नी का भ्रातृ प्रेम-प्रेम जाग चुका था।

"मुन्ना, ऐसे नहीं करते! वो तुम्हारी बड़ी बहन है। लड़कियों को मारते नहीं।" पापा ने मुन्ना को हाथ से पकड़ कर भागने से रोकते हुए समझाया।
"पर पापा, आप भी तो मम्मी को....!"

तड़ाक...! "चुप्प, बहुत जुबान लड़ाने लगा है...!

अब मुन्ना भी रोने लगा था । दोनों बच्चों के रोने की आवाज सुनकर 'बच्चों की माँ' बाहर आ गई।

"क्या हुआ, जी?"

"कुछ नहीं।" पति ने अखबार पढ़ते-पढ़ते अनमना-सा उत्तर दिया।

"क्या हुआ, बेटा?" उसने दोनों सुबकते बच्चों को बांहों में भरते हुए पूछा।

"कुछ नहीं, माँ!" सहमें हुए बच्चे माँ के आँचल में दुबकते हुए सुबकाए। अचानक माँ के नीले पड़े चेहरे को देख दोनों बच्चों ने अपने नन्हे हाथों से माँ का चेहरा छूते हुए पूछा, "यह क्या हुआ?"

नन्हे हाथों का दुखते चेहरे पर स्पर्श मानो मरहम बन गया था । माँ अपना दर्द भुलते हुए बोली, "कुछ नहीं।"

-आरती शर्मा, न्यूज़ीलैंड

......
 
 
आंखों में उसका चेहरा है | ग़ज़ल - डा भावना

आंखों में उसका चेहरा है
पर पलकों पर सख्त पहरा है......

 
 
छोटे गीत - चन्द्रकुँवर बर्त्वाल

मेरा सब चलना व्यर्थ हुआ,
कुछ करने में न समर्थ हुआ,......

 
 
अमर चित्र कथा बनाने वाले अकंल पई - रोहित कुमार 'हैप्पी'

Uncle Pai


अमर चित्र कथा बनाने वाले अनंत पई (अकंल पई)

अनंत पई ( 17 सितंबर 1929 - 24 फ़रवरी, 2011) को प्यार से 'अंकल पई' पुकारा जाता है। अनंत पई का जन्म 17 सितंबर 1929 को कार्कल, कर्नाटक (उस समय ब्रिटिश मैसूर रियासत) में हुआ था। वे एक भारतीय शिक्षाशास्री, कॉमिक्स तथा अमर चित्र कथा के संस्थापक थे। 1967 में शुरू की गई इस कॉमिक्स श्रृंखला के द्वारा बच्चों को परंपरागत भारतीय लोक कथाएँ, पौराणिक कहानियाँ और ऐतिहासिक पात्रों की जीवनियों के बारे में बताया गया।

'अमर चित्र कथा' और 'टिंकल' उनकी दो सबसे प्रसिद्ध 'कॉमिक बुक सीरीज़' हैं, जिन्हें सभी आयु वर्ग के लोग पसंद करते हैं। 1967 में शुरू की गई इस कॉमिक्स श्रृंखला के द्वारा बच्चों को परंपरागत भारतीय लोक कथाएँ, पौराणिक कहानियाँ और ऐतिहासिक पात्रों की जीवनियों के बारे में बताया गया। 'अमर चित्र कथा' पारंपरिक भारतीय लोक कथाओं, पौराणिक कहानियों, और पात्रों के चित्रमय विवरण के माध्यम से ऐतिहासिक पात्रों की कथाओं से परिचित करवाती है। 'टिंकल' एक 'कॉमिक्स पत्रिका' है, जहाँ रहस्य और साहसिक कहानियों, क्विज़, पहेली, प्रतियोगिता इत्यादि के माध्यम से बहुत कुछ सीखने को मिलता है।

24 फ़रवरी 2011 को मुंबई में अनंत पई का निधन हो गया।

 

अमर चित्र कथा का जन्म......

 
 
शेर और चूहा - ईसप

एक शेर जंगल में अपने पंजों पर अपना भारी भरकम सिर टिकाए आराम कर रहा था।  अचानक एक चूहा उसके ऊपर आ कर गिरा और डरकर शेर के मुख की और भागने लगा। शेर को बहुत गुस्सा आया। उसने चूहे को अपने पंजों में जकड लिया और कहा, "तेरी यह हिम्मत? मैं अभी तुझे खा सकता हूँ।"

चूहा डर के मरे कांपता हुआ, जीवनदान मांगें लगा, "शेर महाराज , मुझे क्षमा कर दो, गलती हो गयी। अगर आप मुझे जाने देंगे तो मैं अवश्य कभी आपके काम आऊँगा।"

'मेरे काम आओगे?" शेर को एक बार तो और अधिक गुस्सा आ गया पर उस डरे हुए चूहे को देखकर शेर को दया आ गई, बोला, "तुम इतने छोटे हो, तुम मेरी क्या मदद करोगे। अच्छा, जाओ।" शेर ने चूहे पर दया कर उसे छोड़ दिया।

कुछ दिनों बाद अपने शिकार को ढूंढते हुए शेर एक शिकारी के जाल में जा फंसा। चूहे ने दूर से शेर को जोर-जोर से दहाढ़ते सुना और वह चूहा शेर की गर्जना से उसे पहचान गया।   उसे शेर की दयालुता याद थी।  वह भागकर शेर के पास जा पंहुचा। उसने देखा कि शेर जाल में फंसा हुआ छटपटा रहा है।

उसने शेर के समीप जाकर कहा, "महाराज, आप चिंता न करें। मैं एक ही पल मैं आपको इस जाल से मुक्त कर दूंगा।"  चूहे ने झटपट अपने नुकीले दाँतों से जाल को कुतर डाला।

अगले पल शेर उस जाल से मुक्त हो गया। शेर की आँखों में पानी आ गया। उसने चूहे को गले लगाकर, धन्यवाद दिया। फिर वे दोनों शिकारी के आने से पहले वहाँ से चले गए।

सीख: दयालुता कभी व्यर्थ नहीं जाती।

अनुवाद: रोहित कुमार 'हैप्पी' 

[ईसप की कथाएँ ]


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बेगम के पैर | शेख़चिल्ली - भारत-दर्शन संकलन

यह कहानी उन दिनों की है जब झज्जर महेंद्रगढ़ का ही हिस्सा हुआ करता था। उस दौरान भारत के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र में विदेशियों के हमले हो रहे थे। पानीपत, रोहतक और दिल्ली जैसे शहरों पर खतरा ज्यादा था। उन दिनों नवाब झज्जर में मौजूद बुआवाल तालाब की मरम्मत करवा रहे थे, ताकि मुसीबत के समय रेवाड़ी के लोगों को पानी की किल्लत न हो। अचानक कहीं से खबर आई कि दुर्राने ने हमला कर दिया है और दुर्रानी की सेना रेवाड़ी के पास पहुंचने वाली है।

इस बात का पता चलते ही नवाब ने अपने जांबाज सिपाहियों और वजीरों के साथ जरूरी बैठक की। बैठक का मसला था कि अगर दुर्रानी की सेना झज्जर पर हमला करे, तो उससे कैसे निपटा जाएगा और अगर हमले के दौरान रोहतक या रेवाड़ी मदद मांगते हैं, तो क्या करना सही रहेगा? बैठक में मौजूद सभी लोगों ने कहा कि रियासत में सभी को हमले के बारे में सूचित कर दिया जाए और पूरी तैयारी की जाए, ताकि हमले के जवाब में कोई कसर न रहे। साथ ही आसपास की रियासतों की भी मदद की जाएगी।

उसी दिन रियासत में यह ऐलान करवा दिया गया है कि अगर हमला होता है, तो कमजोर, बीमार, महिलाएं और बच्चे जंगल में जाकर छिप जाएंगे और जवान सैनिकों का साथ देंगे। यह ऐलान शेखचिल्ली ने भी सुना। शेखचिल्ली थोड़ा परेशान हो गया, क्योंकि उसकी बेगम थोड़ी मोटी थी। उसने सोचा कि अगर हमला हुआ, तो उसकी बेगम जंगल तक कैसे पहुंचेगी। शेखचिल्ली के मन में अजीब-अजीब से ख्याल आने लगे। तभी उसने खुद को रोका और खुद से कहा, ‘मैं क्या बेकार की बातें सोच रहा हूं। फिर उसने सोचा कि इस बार तो भारी मुसीबत आन पड़ी है। मैं अपनी जन्नत को इस तरह कुर्बान नहीं होने दे सकता।’

अचानक उसके मन में ख्याल आया कि कितना अच्छा हो अगर कहीं से उड़ने वाला कालीन मिल जाए। फिर उसने खुद से कहा, ‘नवाब साहब ने तो मुझे घोड़ा दिया था। घोड़े की मदद से मैं बेगम की जान बचा सकता है।’ दुर्रानी की सेना हाथ मलती रह जाएगी। तभी उसे ख्याल आया कि आखिर घोड़ा भी तो एक जानवर है। क्या वह मेरी बेगम का बोझ उठा  पाएगा? कहीं बीच रास्ते में उसने दम तोड़ दिया, तब क्या होगा? अगर उस वक्त बेगम दुश्मनों के हाथ लग गई, तो उसकी जान कैसे बचेगी? माना बेगम के पिता ताकतवर सिपाही थे और अच्छी तलवारबाजी जानते थे, लेकिन बेगम को तो तलवार चलानी नहीं आती। मेरी बेगम को तो बस जुबाना चलाना आता है। कम से कम उनमें भी यह कला होती, तो आज वो अपनी जान बचा पाती। इतने में शेखचिल्ली को ध्यान आया कि अगर बेगम को तलवार चलानी आती भी हो, तो तलवार आएगी कहां से? अब अल्लाह मियां तलवार आसमान से टपका तो नहीं देंगे कि लो शेखचिल्ली की बेगम इससे दुर्रानी की गर्दन काट देना।

अगर ऐसा हो भी जाए, तो बेगम सच में दुर्रानी की गर्दन काट डालेगी और उस दिन दुर्रानी की सेना में खौफ छा जाएगा। उसके सारे सिपाही मैदान छोड़कर भाग जाएंगे। ये सब होता देख नवाब चौंक जाएंगे और अपनी सेना से पूछेंगे कि आखिर यह चमत्कार किसने किया है? तब सेना उन्हें बताएगी कि एक मोटी औरत ने यह कारनामा किया है, उसने दुर्रानी की गर्दन काट दी है। उस मोटी औरत की वजह से ही हम बच पाए हैं। यह सुनकर नवाब बहुत खुश होंगे और उस औरत को पूरे सम्मान के साथ दरबार में लाने का आदेश देंगे।

यह भी हो सकता है कि नवाब खुद बेगम की तलाश में निकलें। जिस तरह बादशाह अकबर नंगे पांव वैष्णो देवी के दर्शन के लिए निकले थे। तभी वे बेगम की तलवार को दुर्रानी के खून से लथपथ देखेंगे। नवाब उन्हें देखते ही उनके सजदे में झुकेंगे और सेवा का मौका मांगेंगे।

नवाब बेगम को पूरे सम्मान के साथ महल में लाएंगे और बेगम के पैरों की धूल को अपने माथे से लगाएंगे। वे वहां मौजूद सभी को बेगम के पैर चूमने के लिए कहेंगे। यहां तक कि मुझे भी यह करने के लिए कहा जाएगा। भला मैं अपनी बेगम के पैर कैसे चूम सकता हूं। इसलिए, मैं साफ मना कर दूंगा। नवाब मुझ पर चिल्लाएंगे, लेकिन मैं बार-बार मना कर दूंगा।

इस पर नवाब गुस्सा हो जाएंगे और सिपाहियों से कहेंगे कि इसे जेल में डाल दो। इतने में धड़ाम से गिरने की आवाज हुई। शेखचिल्ली की आंखे खुली, तो उसने देखा कि वह चारपाई से लुढ़ककर नीचे सब्जी काट रही बेगम के पैरों में जा गिर पड़ा है। उसके गिरते ही बेगम चिल्लाई, ‘अच्छा हुआ किनारे गिरे, वरना तुम्हारी गर्दन शरीर से अलग हो जाती।’ शेखचिल्ली ने अपना माथा पकड़ लिया। अब उसे दुर्रानी के हमले से ज्यादा बेगम के पांव चूमने का डर सताने लगा था। मन में यही सवाल आ रहा था कि कहीं सच में ऐसा करना पड़ गया तो?

सीख : ख्याली दुनिया बनाने से अच्छा है कि इंसान वर्तमान में जीना सीखे।


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लौटता हुआ स्वर | कहानी - प्रतिमा वर्मा

लौटता हुआ स्वर

ताला खोलकर अन्दर कदम रखते ही कागज के उस टुकड़े पर पांव पड़ गया है। खड़ी-खड़ी ही निगाह झुका कर विभा ने देखा है¬¬—हल्का नीला लिफाफा उल्टा हुआ। लिफाफा किसने भेजा होगा? शायद पिछले कालेज की किसी सहकर्मिनी ने या किसी मुग्धा शिष्या ने। दैनिक चर्चा में व्यवधान की तरह ऐसे पत्र कभी-कभार आ जाते हैं, नहीं तो जीजी का इन्लैण्ड या मम्मी का पोस्टकार्ड—किसी भी पत्र को ललक के साथ उठाने और खोलने की अनुभूति अब मन में नहीं जगती। आज भी वह आगे बढ़ गई है। कॉपियों का बन्डल और भारी पर्स चारपाई पर रखा है, पंखे का स्विच ऑन किया और छाती पर एक हाथ रखे चुपचाप लेट गई है। कालेज के अन्तिम घंटों को निबटाती हुई वह कितनी क्लान्त और मानसिक रूप से विषण्ण हो उठती है। ख़त में होगा भी क्या! वे ही औपचारिकताएं होंगी, ऊबा देने वाली, घिसी पिटी! कुछ देर को आँखें बन्द कर वह लेटी रही फिर आँख खोलकर दीवार पर हिलते कैलेन्डर को देखने लगी। दीवार से छत। छत से जमीन और तभी अपरिमित आश्चर्य और हर्ष के अतिरेक से उछल कर उठ बैठी है। पंखे की हवा ने लिफाफे को सीधा कर दिया है और उसने हस्तलिपि उतनी दूर से भी पहचान ली है—सौरभ की राइटिंग, उसके सौरभ की। पूरे तीन वर्ष बाद! हे भगवान—वह तो विश्वास खोने लगी थी!

पत्र पिछले पते से रिडायरेक्ट होकर आया है। पिछला पता भी उसने कहां से पा लिया यह आश्चर्य ही है। वह तो भागती गई थी—लगातार, एक शहर से दूसरे शहर, दूसरे से तीसरे, पांवों तले जैसे पूरा का पूरा जलता रेगिस्तान बिछ गया हो और एक टुकड़ा ठंडी जमीन की आस उसे भटकाती चली गई हो। आज सौरभ के हाथों की लिखावट ने वह सारा कष्टप्रद एहसास धो-पोंछ डाला है। पत्र हाथ में लिये, बिना खोले ही छलछलाते अपरिमित भावोद्रेक से उसके मन का कोना-कोना भीगने लगा है। उसे ढूंढता हुआ, कई दरवाजे उसका पता पूछता हुआ सौरभ का पत्र उस तक आ पहुंचा है, यह क्या कम है? वह तो सोचने लगी थी कि दुनिया के इस भीड़ भरे मेले में अपने सौरभ को हमेशा के लिये खो दिया है। सौरभ की मानसिक उलझन और स्वयं उसके आहत मन ने जो फासला बीच में रख दिया था—उसे पाटना कठिन दीखने लगा था। पूर्ण समर्पण और विश्वास के बाद अकारण ही अस्वीकार कर दिये जाने को वह सहजता से नहीं ले सकी थी और चुपचाप भीतर ही भीतर बिखरने लगी थी।

कालेज की वह अन्तिम शाम उसके स्मृतिपट पर आज तक गहराई से अंकित हैं। अमलतास के सूखे पत्ते लान में बिछे थे और हवा में धूल की महक थी। आखिरी पेपर आज समाप्त हो गया था। उसने सुबह ही सौरभ से कहा था—"इम्तहान के बाद मेरा इन्तजार करना—तुम ठहरे फिलास्फर बादमी कहीं भूल कर चले मत जाना।"

सौरभ अपनी वही निश्छल हँसी हँसकर बोल उठा था—फिलास्फर होना किसी का स्वभाव नहीं होता विभा! जिन्दगी बेरह‌मी से पीट देती है और वह प्रतिकार भी नहीं कर पाता तो सोचने लगता है कि चोट कैसे लगी, क्यों लगी और, ऐसी चोट लगती है तो किस कदर पीड़ा होती है—!

—बस, बस! वरना मैं और सब भूल जाऊंगी, यही डायलाग लिख पाऊंगी पेपर में—तुम्हारे जितनी ब्रिलियन्ट नहीं हूँ न! यह हँसती हुई उसे रोक कर बोली थी—रुके रहना, जाना नहीं—जरूरी बात करती है।

—अच्छा! वह परीक्षा भवन की ओर बढ़ गया था। पीछे-पीछे जाती वह सोचने लगी थी कि अगर विषय भूल कर कुछ लिखना ही हुआ तो वह शायद वो सारी बातें लिख डाले जो कई दिनों से मन में उमड़ती रही थी—"सौरभ, तुम्हें क्या पता नहीं कि मैं तुमसे प्रेम करती हूँ? फिर जानकर इतने अनजान क्यों बनते हो? 

—तुम्हें पापा ने बुलाया है, आज उनसे मिलकर तुम्हें सब निश्चित करना होगा—हाँ, मेरी मंजिल तुम्हीं हो, तुम केवल तुम—कहीं ऐसा न हो कि तुम चले जाओ और मैं तुम्हें कभी न पा सकूं।"

परीक्षा के बाद पहले सौरभ ही निकला था। वह आई तो पाया कि सौरभ घुटनों पर हाथ बान्धे उदासी के साथ हवा में हिलते-डुलते सूखे पत्तों को ताक रहा है। वह ख़ामोशी के साथ करीब बैठ गई थी और, अपनी बात कहने के पूर्व पूछा था—बड़े उदास दीख रहे हो, पेपर तो अच्छा हुआ है न?

-हाँ, ठीक ही हुआ—

—फिर!

—कुछ नहीं, ऐसे ही—वह जिस ढंग से गुमसुम हो गया था उसमें वह यह संभावना नहीं ढूंढ सकी थी कि वह उसके विछोह के सवाल से उदास हो गया होगा; सौरभ ने ही कहा—वापस घर जाने का खयाल मुझे कभी अच्छा नहीं लगा, मगर अब तो जाना ही होगा।
वह समझ गई थी। सौरम ने टुकड़ों-टुकड़ों में उसे बतला डाला था कि घर में उसकी माँ नहीं है। एक बहन थी, उसकी भी पिछले वर्ष शादी हो गई। घर ही नहीं कस्बे जैसे उस छोटे शहर में ही उसे लगता है जैसे वह किसी से कभी जुड़ा ही नहीं हो। ऐसे में होस्टल जीवन की समाप्ति उसे उदास कर गई हो तो आश्चर्य नहीं था। विभा ने सहानुभूति से भरकर अपना हाथ उसके हाथ पर धर दिया था और कुछ समझाते हुए बोली थी—हर चीज का इलाज होता है. इसका भी है।

—किसका?

—यही, तुम्हारे अकेलेपन का—कहकर वह शरारत से मुस्कराने लगी थी और फिर धीरे से कहा था—मैंने पापा से कहा था। वह तुमसे मिलना चाहते हैं सौरभ..!

—मुझसे...! एक पल के लिये उसका विस्मम घना हो गया फिर वह समझ कर मुस्कराया... ओह! समझा...! मगर, अभी तो मेरी कोई नौकरी भी नहीं है, विभा...

मान के साथ, बनावटी क्रोध से वह बोली थी—जी हां, यह हम सबों को पता है कि आप मेरे क्लासफेलो हैं, सर्विस नहीं करते हैं कहीं, मगर मिलने में कोई हर्ज है क्या? अभी ही तो सब कुछ हुआ नहीं जा रहा न!

ठीक है, आऊंगा... कहते हुए उसके मुख पर खुशी या उत्सुकता का कोई भाव नहीं था, वह अनमने ढंग से दूर-दूर देखता रहा था।
अगले दिन रविवार को वह दिन के खाने पर विभा के घर गया था। डाइनिंग टेबुल पर विभा का पूरा परिवार और दूर मोहल्ले में रहने वाले चाचा-चाची उपस्थित थे। जाहिर था, वे विभा की पसन्द को परखने के लिये इकट्ठा हुए थे। बाद में पता लगा कि वह पसन्द कर लिया गया है और वे उसकी नौकरी लगने तक प्रतीक्षा करने को तैयार हैं। शाम की ट्रेन से वह घर लौटने वाला था। विभा स्टेशन आई थी, पूरी तरह सजी धजी और लाज से रंगी हुई, आने वाले सुखद भविष्य की कल्पना से अनुप्राणित। वह उसे देखता रह गया था। एक बार पुनः अपने हृदय को टटोल कर देखा था—क्या वह इतनी ही स्वाभाविकता से विभा की भावनाओं का प्रत्युत्तर दे सकता था? नहीं—वह जब स्वयं ही अस्वाभाविक होकर रह गया है तब—चलने से पहले उसने कहा था—विभा, मुझे गलत मत समझना—मैं अभी मानसिक रूप से शादी के लिये तैयार नहीं हूँ। मेरी माँ नहीं थी। विमाता आई। मैं उनके दिये उपदेश को चुपचाप सहता रहा, इसलिये कि मेरी एक बहन थी और मैं उसके लिये सब कुछ था। जानती हो, फिर क्या हुआ? शादी के बाद वही बहन ऐसी बदली कि सुसराल की प्रशंसा के साथ मायके से जुड़े अपने पूरे अतीत से नफरत करने लगी—उसमें मैं भी शामिल हूँ। मैं एक अजीब भय और विरक्ति में जकड़ गया हूँ विभा—फूल सी दीखने वाली स्त्रियां अचानक कैसे कांटे में बदल जाती हैं...। मैं...सारी विभा, अभी मैं कुछ तय नहीं कर पाऊंगा...!

विभा जैसे आसमान से गिरी हो, उसे हतप्रभ ताकती रह गई थी। कांपते होंठों से फिर इतना ही कह सकी थी...मैं तुम्हारी प्रतीक्षा करूगी सौरभ...। किसी न किसी दिन तुम इस पूर्वाग्रह से अवश्य मुक्त हो जाओगे... सौरभ, कोई फूल कांटा हो सकता है तो सुगन्ध भी हो सकता है, फुलवारी भी। मगर मैं जिद्द नहीं करूंगी...कभी नहीं, जब तक तुम स्वयं नहीं बुलाओगे....

कहते-कहते उसका कण्ठ स्वर भर गया था पर वह तनी हुई लौट पड़ी थी। अगले ही क्षण ट्रेन चल दी थी, ढेर सारा धुंआ उगलती, प्लेटफार्म को कंपाती।

तभी से वह अध्यापिका की नौकरी करते हुए जगह-जगह भागती रही है, पुराने परिवेश के साथ सौरभ की हर याद भुला देने के लिए लेकिन कहां सफल हो सकी?  प्रतीक्षा, अटूट प्रतीक्षा, निराशा और अवसाद ही उसका जीवन दर्शन बनता जा रहा था दिन-दिन।

उसने पत्र खोला है और उत्कंठित हृदय से पढ़ गई है—यदि तुम अभी भी प्रतीक्षारत हो तो मैं तुम्हें आमन्त्रण भेजता हूँ विभा—जीवन के क्षण फूल के रूप में मिलें या कांटे के, उन्हें बांटने को कोई चाहिये और मेरे लिये वह कोई तुम्ही हो सकती हो। मैं जान गया हूँ कि अपने जीवन के लिये खुद मैं जिम्मेदार हूँ, माँ, बहन या और कोई नहीं...

"मेरे लिये तुम्हीं तब भी जीवन थे, अब भी हो सौरभ....। उसने स्वतः कहा है ! खुशी के दो बूंद आंसू पत्र पर चू पड़े हैं।

-प्रतिमा वर्मा 


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खिचड़ी भाषा - भारत-दर्शन संकलन

एक बार एक विद्यार्थी ने पंडित नेहरू से 'आटोग्राफ ' मांगा । पंडित जी ने अंग्रेजी में हस्ताक्षर करके उसे पुस्तिका लौटा दी । फिर विद्यार्थी ने पुस्तिका पर एक शुभकामना संदेश लिखने के लिए प्रार्थना की तो चाचा नेहरू ने वह भी पूरीकर दी ।

अंत में विद्यार्थी ने अनुरोध किया, 'कृपया इस पर तारीख भी डाल दें,' जिस के जवाब में पंडित नेहरू ने वैसा ही करके पुस्तिका लौटा दी ।
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नदियों के गंदे पानी को | ग़ज़ल - डा भावना

नदियों के गंदे पानी को घर में निथार कर
चूल्हा जला रही है वो पत्ते बुहार कर

फुटपाथ के वासिंदे की तकदीर है यही......

 
 
कुत्ते की वफ़ादारी - लल्लु भाई रबारी

उत्तर गुजरात के पाटण जिले में राधनपुर नाम का एक छोटा-सा नगर है। वहाँ एक तालाब है, जिसके तट पर एक कुत्ते की समाधि है। समाधि और वह भी कुत्ते की! यह जानकर आश्चर्य होगा ही। उसके पीछे एक सुंदर और हृदय को हिला देनेवाली कथा है।

पुराने जमाने में व्यापार का सामान लाने-ले जाने का काम बनजारे करते थे। एक बनजारा था। वह अपने ऊँटों पर गाँवों का माल सामान लादकर शहरों में ले जाता था और वहाँ से मिसरी, गुड़-मसाले आदि भरकर गाँवों तक ले आता था। लाखों का व्यापार था उसका। इसीलिए लोग उसे लाखा बनजारा कहते थे। लाखा के पास एक सुंदर कुत्ता था। कुत्ता बड़ा वफादार था। रात को वह बनजारे के पड़ाव की रखवाली करता था, अगर चोर-लूटेरे पड़ाव की तरफ आते दिखाई देते थे तो कुत्ता भौंक-भौंक कर उन्हें दूर भगा देता था। बनजारा अपने कुत्ते की वफादारी से बहुत खुश था।

एक बार बनजारा व्यापार में मार खा गया और रुपयों की जरूरत आ पड़ी। वह राधनपुर के एक सेठ के पास पहुँचा। उसने अपनी बात बताई।

सेठ ने कहा, "रुपये तो मैं दे दूंगा, मगर उसके बदले में तुम क्या गिरवी रखोगे?"

लाखा बोला, "सेठजी मेरे पास फूटी कौड़ी भी नहीं है। मैंने व्यापार में सब कुछ खो दिया है। मेरी जबान पर विश्वास रखें और मुझे रुपये दे दीजिए। मैं आपकी पूरी रकम सूद समेत एक साल में ही चुका दूँगा।"

सेठ बोले; "कोई बात नहीं। तुम्हारे पास यह कुत्ता है। तो तुम इसे ही जमानत के रूप में दे दो। जब तुम सारे रुपये लौटा दोगे, तब मैं भी कुत्ता तुम्हें वापस दे दूंगा।"

बनजारे को दुःख तो बहुत हुआ अपने कुत्ते को देने में, मगर कोई चारा नहीं था।रुपये लेकर वह चला गया।

कुछ दिन बीते। एक बार सेठ के यहाँ चोरी हुई। कुत्ते ने चोरों का पीछा किया। दूर जंगल में जाकर चोरों ने सारा माल-सामान जमीन में गाड़ दिया और वहाँ से नौ-दो-ग्यारह हो गए। कुत्ता वहाँ भौंक-भौंककर सेठ को बताने लगा कि लुटेरे आपकी दुकान को तोड़कर माल उठा ले गए हैं। सेठ तो हक्का-बक्का ही रह गए। कुत्ता सेठ की धोती पकड़कर आगे खींचने लगा। सेठ कुत्ते के पीछे-पीछे चलने लगे। जहाँ चोरों ने माल छिपाया था, वहाँ जाकर कुत्ता अपने पैरों से मिट्टी खोदने लगा। थोड़ा ही खोदने पर सब सामान निकल आया। सेठ की खुशी का कोई पार नहीं था। वह कुत्ते को प्रेम से थपथपाने लगा। कुत्ते की वफादारी पर वह मुग्ध हो गया। घर जाकर उसने एक चिट्ठी लिखकर कुत्ते के गले के पट्टे में बाँधकर कहा, "कुत्ते भाई - जाओ तुम अपने मालिक लाखा बनजारा के पास,तुम मुक्त हो।" कुत्ता खुश हो गया और अपने मालिक से मिलने के लिए जल्दी-जल्दी भागने लगा।

इधर लाखा ने भी व्यापार में खूब रुपया कमाया। वह सेठ को उसकी रकम वापस करने के लिए उसी रास्ते से आ रहा था। उसने दूर से अपने कुत्ते को अपनी ओर आते हुए देखा। वह नाराज़ हो गया। सोचने लगा कि कुत्ते ने मेरी जबान काट ली है। उसने बेवफाई की है। अब मैं सेठ को क्या मुँह दिखाऊँगा? उसने आव देखा न ताव; बस, कुत्ते के माथे पर लाठी का प्रहार कर दिया। कुत्ता बेहोश होकर गिर पड़ा। लाखा ने देखा कि कुत्ते के गले में एक चिट्ठी बँधी है। उसने इसे खोलकर पढ़ा, 'लाखा, तुम्हारे कुत्ते ने मुझे सूद समेत रुपये लौटा दिए हैं; अत: कुत्ते को मैं मुक्त करता हूँ। उसने मेरे घर चोरी किए गए माल-सामान को वापस दिलवा दिया है। खुश होकर मैंने स्वयं इसे मुक्त किया है।'

लाखा तो चकित हो गया। वह चिल्लाने लगा - "हाय, यह मैंने क्या कर दिया ? हाय, यह मैंने क्या कर दिया?" वह कुत्ते के शव को अपनी गोदी में लेकर फूट-फूटकर रोने लगा, लेकिन अब पछताए होत क्या, जब चिड़ियाँ चुग गई खेत।

उसने उस वफ़ादार कुत्ते की समाधि बनवाई जो आज भी पाटण जिले के राधनपुर के तालाब के किनारे पर खड़ी है और उस कुत्ते की वफ़ादारी की कथा संसार को सुना रही है।

                                     - लल्लु भाई रबारी

 


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सड़क पर बह निकली पुस्तक-गंगा - भारत-दर्शन समाचार

कनाडा का टोरोंटो शहर। बात 2016 की है। यहाँ की एक मुख्य सड़क पर हजारों पुस्तकें बिछा दी गईं। सड़क ऐसे जान पड़ती थी जैसे कि वहाँ पुस्तकों की बाढ़ आ गई हो। थोड़ी ऊंचाई से देखने पर ऐसा प्रतीत होता था जैसे यह एक पुस्तकों की नदी हो।

Book River

कनाडा में हर वर्ष ‘नुई ब्लाश' नामक एक उत्सव मनाया जाता है। फ़्रेंच में इसका अर्थ ‘सफेद रात' या ‘जगमगाती हुई रात' होता है। यह उत्सव समकालीन कला पर केंद्रित होता है। रात भर चहल-पहल बनी रहती है। शहर के सारे म्यूजियम और आर्ट-गैलरीज रात भर खुली रहती है। ये उत्सव शाम को 6:00 बजे से लेकर अगले दिन सुबह 6:00 बजे तक रहता है। हर वर्ष लोग इसका बेसब्री से इंतजार करते हैं। एक रात के लिए पूरा शहर किसी एक बड़े मंच की तरह सजाया जाता है, सड़कों को काला-दीर्घा में परिवर्तित कर दिया जाता है। विभिन्न प्रकार के गीत-संगीत, नाटक, नृत्य के अतिरिक्त रात भर खान-पान उपलब्ध रहता है।

इसी उत्सव में 2016 में शहर की सबसे व्यस्त सड़क से होने वाले शोर और प्रदूषण का विरोध करने के लिए कुछ कलाकारों ने एक युक्ति अपनाई। उन्होंने इस सड़क पर किताबें बिछानी शुरू कर दी। कुल मिलाकर 10,000 किताबें सड़कों पर बिछा दी गई। ये सभी किताबें ‘ द साल्वेशन आर्मी' नामक एक संस्था ने दानस्वरूप दी थी। सड़क के किनारे पैदल चलते लोग इन पुस्तकों को उठा सकते थे। वे अपनी पसंद की पुस्तक ले सकते थे या वहीं बैठकर भी पढ़ सकते थे। ऐसा करने से कम से कम एक रात के लिए तो उस सड़क पर यातायात नहीं चला। इस प्रकार प्रदूषण को पुस्तकों के माध्यम से रोक दिया गया। लोगों ने पैदल घूम-घूमकर अपनी मनपसंद किताबें पाईं और चाव से पढ़ी। देखते ही देखते कुछ घंटों में एक-एक करके पुस्तकें कम होने लगीं और अगले दिन सड़क फिर से सुचारु रूप से चलने लगी।

इस कारनामे स्पेन के कलाकारों के एक समूह ‘लुज़िन्त्तरप्तस' (Luzinterruptus) ने। सड़क पर पुस्तकों की यह बाढ़ तो अगले दिन ही समाप्त हो गई लेकिन इन कलाकारों का यह कलात्मक विरोध यानी 'सड़क पर बहने वाली यह पुस्तक-गंगा' वाली घटना बहुत लंबे समय तक याद की जाएगी।

प्रस्तुति : भारत-दर्शन समाचार

 


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यह जो बादल है | ग़ज़ल - डा भावना

यह जो बादल है, इक दिवाना है
उसके रहने का क्या ठिकाना है

कोख मिलती है अब किराये पर......

 
 
आखिर क्यों?  - डॉ. ज्ञान प्रकाश

शाम का धुंधलका छाने को था, मैं फिर से वहीं अपने चिरपरिचित स्थान पर आ कर बैठ गया और हर आने जाने वाले को गहरी निगाहों से देखने लगा।

याद नहीं, कितने दिन या कितने वर्ष बीत गए, पर ऐसा ही चल रहा है, मैं आता हूँ, अपनी चिरपरिचित जगह पर आ कर बैठता हूँ, और हर आने जाने वाले को गहरी निगाहों से देखता रहता हूँ। आज फिर वैसे ही आ कर बैठ गया ...

स्टेशन की धड़ी में शाम के 6.30 हुए है, हाँ यही वो समय है, कुछ ही समय में एक उद्घोषणा होगी--‘राजधानी ट्रेन प्लेटफार्म न० 1 पर से निकलेगी कृपया पटरी खाली रखे ...'

ओह...उद्घोषणा भी होने लगी, सभी यात्री, जो पटरी के रास्तें एक से दूसरे प्लेटफार्म पर जा रहे थे, वे पटरी से हट कर प्लेटफार्म के नजदीक जुटने लगे।

तभी एक युवा, उम्र के उसी पड़ाव पर, कंधे पर स्कूल बैग ... न जाने कहा से प्रकट होता है और ... वो न जाने क्यों, प्लेटफार्म के नजदीक जाने लगा, साथ ही उसकी नज़रें जैसे सभी से खुद को छुपा भी रही थी। पर उसकी नज़रें मुझसे छुप नही सकती थी, मैं समझ गया।

शायद आज फिर से वही इतिहास दोहराने वाला है। शायद आज फिर से एक गोद सूनी होने वाली है।

नहीं, नहीं मुझे कुछ करना ही होगा, ऐसा फिर से नहीं होने देना है मुझे, जैसा ... नहीं, अभी वो याद करने का वक्त नहीं है।

मुझे कुछ करना ही होगा ... पर क्या करूँ मैं?

‘बचाओ उसे, रोको उसे ...' मैं डर कर चिल्लाने लगा।

पर ... ये क्या हुआ मुझे, ऐसा लगा कि डर के कारण मेरी आवाज रुक सी गयी हो। बहुत कोशिशों के बाद भी मेरे मुख से आवाज ही नहीं निकल पा रही थी। शायद भय से कुछ भी नहीं बोल पा रहा था मैं।

अब क्या करूँ मैं? मैं सब कुछ भूल कर दौड़ पड़ा, उसे रोकने ...

ट्रेन अपनी स्पीड में थी, उसे रुकना था नहीं और न वह रुकी, ट्रेन की आवाज के साथ कुछ आवाज़ें और उभरने लगी, कौन था वो, उफ़ ... ...!

समय रहते किसी ने ध्यान नहीं दिया और अब एक भीड़ लगी थी।

आज ही तो बोर्ड एग्जाम का परिणाम आया था और आज फिर से एक गोद सूनी हो गयी। क्यों यह युवा, परीक्षा का दबाव नहीं झेल पाया ... आखिर क्यों?
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ची-ची | बाल कहानी  - वंदना शर्मा

एक था चूहा। नाम था उसका ची-ची। एक दिन वो सुबह की सैर को जा रहा था। उसे एक पेड़ के नीचे कुछ चमकीला-सा दिखाई दिया। ची-ची दौड़कर पहुंचा वहां, देखा एक सुन्दर लाल कपडा था। जो बहुत चमक रहा था। वह ख़ुशी से उछल पड़ा,"अरे वाह कितना सुन्दर कपडा है। इसकी तो मैं टोपी सिलवाऊंगा। शादी में जाऊंगा। सेल्फी लूंगा। गरम -गरम रसगुल्ले खाऊंगा। वॉओ! कितना मज़ा आएगा! युम्मी-यम्मी ! ऐसा सोचकर उसने लाल कपड़े को उठाया और उलट-पलटकर देखने लगा। टोपी सिलाने के लिए चाहिए, एक दर्जी।

ची -ची चूहा गया दर्जी के पास। पैसे तो थे नहीं, उसके पास! दर्जी ने उसकी टोपी सिलने को मना कर दिया- "जाओ पहले पैसे लेकर आओ ,ऐसे नहीं सिलूँगा।" चूहा बहुत दुखी हुआ। कुछ सोचने लगा। उसे एक तरकीब सूझी। वो फिर से दर्जी के पास गया और बोला--

"पुलिस को बुलाऊंगा, पिटाई करवाऊंगा
नहीं तो टोपी सिल दो भैया, वरना जेल भिजवाऊंगा"

दर्जी डर जाता है। उसकी टोपी सिल दी। टोपी पहनकर ची-ची चूहा बहुत खुश हुआ। उसने सोचा अगर इस टोपी में सितारे भी होते तो मजा आ जाता। चूहा गया सितारे लगवाने। पहले तो सितारे वाले ने मना कर दिया ,फिर चूहे ने उसे भी वही धमकी दी--

"पुलिस को बुलाऊंगा ,पिटाई करवाऊंगा......

 
 
शब्द-चित्र काव्य - रोहित कुमार 'हैप्पी'

निम्न शब्द-चित्र काव्य में प्रत्येक पंखुड़ी में एक अक्षर है और चित्र के मध्य में 'न' दिया हुआ है।

शब्द-चित्र काव्य

पंखुड़ियों में दिए हर अक्षर में यदि आप दूसरा वर्ण ‘न' जोड़ते जाएँ तो शब्द बनते जाएंगे। प्रत्येक शब्द का दूसरा वर्ण ‘न' है। इसे ऊपर की मध्य पंखुड़ी 'नै' से आरंभ करें। नै +न = नैन, इसी प्रकार बा + न = बान इत्यादि। इस प्रकार प्रत्येक शब्द में दूसरा अक्षर ‘न' जोड़कर पढ़ने से निम्नलिखित दोहा बनता है--

नैन बान हन बैन मन, ध्यान लीन मन कीन।
चैन है न दिन रैन तन, छिन छिन उन बिन छीन॥

साहित्यशास्त्र में काव्य के तीन भेद हैं - 'ध्वनि', गुणीभूत व्यंग्य और चित्र। इनमें से चित्रकाव्य के भी दो भेद होते हैं। एक अर्थ-चित्र और दूसरा शब्द-चित्र। अर्थ-चित्र में अर्थ की विचित्रता रहती है और शब्द-चित्र में पद रचना अहम् है। उपर्युक्त चित्र 'शब्द-चित्र' का ही एक उदाहरण है।

प्रस्तुति : रोहित कुमार 'हैप्पी'

[मूल चित्र : गुरुनारायण सुकुल,  आलंकारिक उक्तियाँ ] 

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वो जब भी | ग़ज़ल - डा भावना

वो जब भी भूलने को बोलते हैं
किसी शीशे से पत्थर तोड़ते हैं

वो अपना सच छुपाने के लिए ही......

 
 
पुत्रमोह | लघुकथा - मधुदीप

आज दस साल बाद मुझे मेरे लँगोटिया दोस्त का खत मिला है। चौंकिये मत ! समय कभी-कभी बेरहम होकर लँगोटियों के बीच भी दीवार बन जाता है। खैर, इस किस्से को यहीं छोड़कर मैं इस खत को ही आपके सामने रख देता हूँ।

Senior reading a letter

प्रिय भाई राघव !

दस साल के लम्बे अरसे के बाद आपको खत लिख रहा हूँ। समय बहुत बलवान होता है, नहीं तो साठ साल की दोस्ती क्या एक झटके में टूट सकती थी ! आप तो बिलकुल सही थे दोस्त लेकिन मैं ही उस समय पुत्रमोह में अन्धा हो गया था। आपने तो मेरा ही भला चाहा था मगर मैं न जाने कैसे कह गया था कि यदि आपकी भी कोई सन्तान होती तो आप भी वही करते जो मैं कर रहा हूँ। सुनकर आप चुपचाप वहाँ से चले गए थे। उस समय शायद मैं आपकी पीड़ा नहीं समझ सका था लेकिन आज महसूस कर सकता हूँ कि मैंने आपको कितना बड़ा आघात पहुँचाया था। आप चुपचाप उस पीड़ा को सहते रहे लेकिन एक शहर में रहते हुए भी आपने कभी लौटकर मुझे इसका उत्तर नहीं दिया। काश ! आप लौट आते या उसी समय मुझे भला-बुरा कह लेते तो आज मुझे स्वयं पर इतनी ग्लानि न होती।

आपने उस समय सही कहा था मेरे दोस्त ! हमारा भविष्य हमारे अपने हाथ में होता है। काश ! उस समय मैंने आपका कहा मानकर अपना सब-कुछ अपने इकलौते पुत्र के नाम न किया होता तो मैं इस समय आपको यह पत्र शहर के वृद्धाश्रम से न लिख रहा होता। दोस्त ! मैं चाहता हूँ कि आज आप मुझे माफ कर दो और एक बार यहाँ आकर मेरे गले से लग जाओ। आपको हमारी लँगोटिया दोस्ती का वास्ता है मेरे दोस्त !

आपका पुराना अपना, चेतन ।

नीचे वृद्धाश्रम का पता लिखा है। पाठको ! मैं पत्थर दिल नहीं हूँ। मेरी आँखों से अविरल आँसू बह रहे हैं और मेरी कार उस वृद्धाश्रम की ओर जा रही है।

-मधुदीप गुप्ता
ई-मेल: madhudeep01@gmail.com

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बच्चों के लिए चिट्ठी  - मंगलेश डबराल

प्यारे बच्चों हम तुम्हारे काम नहीं आ सके। तुम चाहते थे हमारा क़ीमती समय तुम्हारे खेलों में व्यतीत हो। तुम चाहते थे हम तुम्हें अपने खेलों में शरीक करें। तुम चाहते थे हम तुम्हारी तरह मासूम हो जाएँ।

प्यारे बच्चों हमने ही तुम्हें बताया था जीवन एक युद्धस्थल है जहाँ लड़ते ही रहना होता है। हम ही थे जिन्होंने हथियार पैने किए। हमने ही छेड़ा युद्ध। हम ही थे जो क्रोध और घृणा से बौखलाते थे। प्यारे बच्चों हमने तुमसे झूठ कहा था।

यह एक लंबी रात है। एक सुरंग की तरह। यहाँ से हम देख सकते हैं बाहर का एक अस्पष्ट दृश्य। हम देखते हैं मारकाट और विलाप। बच्चों हमने ही तुम्हें वहाँ भेजा था। हमें माफ़ कर दो। हमने झूठ कहा था कि जीवन एक युद्धस्थल है।

प्यारे बच्चों जीवन एक उत्सव है जिसमें तुम हँसी की तरह फैले हो। जीवन एक हरा पेड़ है जिस पर तुम चिड़ियों की तरह फड़फड़ाते हो।

जैसा कि कुछ कवियों ने कहा है जीवन एक उछलती गेंद है और तुम उसके चारों ओर एकत्र चंचल पैरों की तरह हो।

प्यारे बच्चों अगर ऐसा नहीं है तो होना चाहिए।

-मंगलेश डबराल


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मतदान आने वाले ,सरगर्मियाँ बढ़ीं | ग़ज़ल - संजय तन्हा

मतदान आने वाले, सरगर्मियाँ बढ़ीं।
झाँसे में हमको लेने फ़िर कुर्सियाँ बढ़ीं।।

देते चले गये हम हर रोज़ रिश्वतें......

 
 
सारे जहाँ से अच्छा - इक़बाल

सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा।
हम बुलबुलें हैं इसकी वह गुलिस्तां हमारा ॥

ग़ुर्बत में हों अगर हम रहता है दिल वतन में।......

 
 
भारतीय नवजागरण  - गोलोक बिहारी राय

राष्ट्रीय चेतना का प्रवाह प्रत्येक समाज, क्षेत्र की अपनी सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक परिस्थितियाँ होती है। परिस्थितियाँ-घटनाएं और जन सामान्य की चितवृति की पारस्परिक टकराहट से समाज में आधारभूत बदलाव आते रहते हैं। जब देश पर बाह्य, यवन-तुर्क आक्रमण हुए तब इन आक्रमणों से जन सामान्य एवं समाज की सांस्कृतिक पहचान धुँधलाने लगी। उस काल खण्ड में स्पष्ट रूप से सामाजिक चेतना की वृत्ति में ईश्वर का कहीं न कहीं स्थान किसी न किसी रूप में जन सामान्य में व्याप्त रहा। जिसे भारतीय साहित्य में भक्तिकाल के नाम से जाना गया। इस सांस्कृतिक पहचान को भक्तिकालीन कवियों ने ज्ञानमार्ग, प्रेममार्ग और भक्ति पूरक साहित्य के माध्यम से व्यक्त किया। यह जन सामान्य की चितवृति और तत्कालीन परिवेश की टकराहट का सहज स्वाभाविक परिणाम था।

समाज में वैज्ञानिक तकनीकी और विकास तथा शिक्षा के फलस्वरूप अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक परम्पराओं एवं व्यवहारों की विवेक सम्मत मूल्यांकन की शुरुआत की। आज का भारतीय नवजागरण सामाजिक-राजनैतिक खायी के वैचारिक पुनर्मूल्यांकन का वैचारिक साक्ष्य है। यह सत्य है कि एक ओर सम्पन्न, सक्षम सामाजिक-राजनैतिक वर्ग सामाजिक-राजनैतिक-आर्थिक तीनों मोर्चों पर लड़ने के लिए समाज में झूठी विषमता, अस्पृश्यता, पिछड़ापन का खोखला, छद्म नारा देकर समाज और राष्ट्र को तोड़ने, विभाजित करने का कुत्सित प्रयास कर अपनी स्वार्थ सिद्धि कर रहा है तो वहीं दूसरी ओर पीड़ित जन अपनी पहचान और अधिकार के लिए मानवीय मूल्यों को पुनः परिभाषित करने का कार्य कर रहा है।

महात्मा ज्योति फूले और बाबा साहब अम्बेडकर ने इन पीड़ित जनों का सफल नेतृत्व प्रदान किया। उन्होंने महसूस किया कि हम अपनी सांस्कृतिक, सामाजिक और राष्ट्रीय चेतना को अक्षुण रखते हुए अपनी पहचान को प्राप्त करने का सफल संघर्ष कर सकते हैं। इसलिए अपनी पहचान की लड़ाई लड़ते हुए भी भारतीय-मानस व जन-मानस से कभी भी विलग नहीं हुए। उन्होंने पीड़ित समाज में एक नई ऊर्जा प्रवाहित की जिसने राष्ट्रीय पहचान के साथ-साथ व्यक्ति की पहचान और अधिकार को स्पष्ट दिशा प्रदान की। भारतीय नवजागरण के सकारात्मक परिणामों एवं स्वतंत्रता पश्चात संवैधानिक तथा विधि-व्यवस्थाओं के चलते आज मानवीय-समानता, सामाजिक-समन्वय तथा सामाजिक-न्याय , राष्ट्रीय-एकता और राष्ट्रीय जनभाव की अक्षुणता की अनुगूँज सर्वत्र चहुँ दिशा सुनाई देने लगी है। "एक राष्ट्र - एक जन - एक मूल्य" यह विचार फैल रहा है। इसे महात्मा फूले व बाबा साहब अम्बेडकर ने अपनी कृति से सदा सर्वथा चरितार्थ किया। इसी के साथ सामाजिक परिस्थितियाँ भी बदल रही हैं। समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व और न्याय जैसी मानवीय मूल्यों का बोध समाज के अंदर एक क्रांति के रूप में, वर्तमान के युगधर्म के रूप में दिखायी पड़ रहा है। फलस्वरूप राष्ट्र- समाज - व्यक्ति के जीवन में एक क्रांतिकारी परिवर्तन की धारा चल पड़ी है।

- गोलोक बिहारी राय
ई-मेल: golokrai.gbr@gmail.com

 

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एक - दो - तीन - मेरी बायल ओ’रीली

यूरोपेयन महायुद्ध की बात है।

बर्लिन-स्टेशन से मुसाफिरों से भरी रेलगाड़ी रेंगती हुई रवाना हुई । गाड़ी में औरतें, बच्चे, बूढ़े--सभी थे; पर कोई पूरा तन्दुरुस्त नज़र न आता था। एक डब्बे में, भूरे बालोंवाला एक फौजी सिपाही एक अध-बूढ़ी स्त्री के पास बैठा था। स्त्री कमज़ोर और बीमार-सी नज़र आती थी। तेज़ चलती हुई गाड़ी के पहियों की किच-किच आवाज़ में मुसाफिरों ने सुना कि वह स्त्री रह-रहकर गिनती-सी गिन रही है--एक-दो-तीन !'
शायद वह किसी गहरे विचार में मग्न थी। बीच-बीच में वह चुप हो जाती, और फिर वही--'एक - दो - तीन!'......

 
 
नीटू का मॉस्क  - मंजरी शुक्ला

"चलो नीटू, सामने की दुकान से कुछ सब्ज़ी और फल लेकर आते है।" पापा ने नीटू को मॉस्क पकड़ाते हुए कहा।

"पर मैं मॉस्क लगाकर नहीं जाऊँगा।" नीटू ने मॉस्क से दूर हटते हुए कहा।

मम्मी बोली-"याद है कल ही डॉक्टर अंकल ने कहा था कि जब कोई भी कोरोना वायरस से संक्रमित व्यक्ति खाँसता या छींकता है तो हवा में उसके थूक के बारीक कण फ़ैल जाते है और फ़िर ये विषाणुयुक्त कण साँस के जरिये हमारे शरीर में भी प्रवेश कर सकते है।"

"पर मुझे मॉस्क लगाना बिलकुल नहीं अच्छा लगता है।" नीटू अपने पैर पटकते हुए बोला।

"क्यों, उसमें बुराई क्या है?" पापा ने पूछा।

"क्योंकि मैंने पहले कभी मॉस्क नहीं लगाया है और इसलिए मेरी आदत नहीं है।" नीटू रुआँसा होते बोला।
......

 
 
उग बबूल आया, चन्दन चला गया | ग़ज़ल - संजय तन्हा

उग बबूल आया, चन्दन चला गया।
आते ही जवानी बचपन चला गया।।

सोचा था बहुत पानी बरसे इस दफ़ा......

 
 
फूलों जैसे उठो खाट से | बाल गीत - क्षेत्रपाल शर्मा

फूलों जैसे उठो खाट से
बछड़ों जैसी भरो कुलांचे......

 
 
सुबह-सवेरे - राजबीर देसवाल

किरणों की अंगड़ाई जैसे
पौ यूं फट फट आई जैसे......

 
 
मुट्ठी - राजीव वाधवा

बहुत पुरानी बात है। किसी देश में एक सूफी फ़क़ीर रहता था। वह बहुत प्रसिद्ध था। लोग दूर-दूर से उसके पास अपनी समस्याएं लेकर आते थे। जो फ़क़ीर कह देता, वह भविष्य में सच घटित हो जाता था।

उस देश का राजकुमार था बड़ा घमण्डी। बड़े-बड़े हाथ, बड़ी-सी काया, रोबीली आवाज़, गर्व से तमतमाता व्यक्तित्व। कमी थी तो केवल नम्रता की। उसे फ़क़ीर के मान-सम्मान से बड़ी ईर्ष्या होती। वह सोचता कहाँ मैं शक्तिशाली युवराज और कहाँ वह अदना, निरीह सूफी फ़क़ीर! पर फिर भी लोग उसका अधिक सम्मान करते है। राजा से भी अधिक मानते है। ये बहुत अखरता था राजकुमार को। वह लगा था उधेड़बुन में, कि कैसे फ़क़ीर को नीचा दिखाया जाए!

फ़क़ीर का एक नियम था। वह हर बार जब भी हाट लगती तो, वहां जाकर लोगों से मिलता, उनकी परेशानियां सुनता, उनको सुलझाने की कोशिश करता।

राजकुमार ने एक योजना बनाई। उसने बहेलिए से बहुत छोटी-सी चिड़िया खरीदी। और सोचा, अगली बार जब फ़क़ीर हाट में आएगा तो बीच बाजार, चौराहे में, जब खूब भीड़ इकट्ठी हो जाएगी, मैं फ़क़ीर से जाकर पछूंगा कि बता मेरी मुट्ठी में जो चिड़िया छुपी है- वो जिंदा है या मरी हुई है?

उसने सोचा कि यदि फ़क़ीर ने कहा कि मरी हुई है तो मैं अपनी मुट्ठी खोल दूंगा और चिड़िया फुर्र से उड़ जाएगी। यदि फ़क़ीर ने कहा कि चिड़िया जिंदा है तो मैं धीरे से मुट्ठी भींचकर चिड़िया की गर्दन दबा दूंगा और चिड़िया मरी हुई निकलेगी। इससे सूफी फ़क़ीर झूठा सिद्ध हो जाएगा और लोगों का उससे विश्वास भी उठ जाएगा। ऐसा सोचता, राजकुमार बेसब्री से हाट के दिन का इंतजार करने लगा।

आखिर हाट का दिन आ गया। लोग आने लगे। फ़क़ीर भी आया। धीरे-धीरे फ़क़ीर के पास भीड़ जमा होने लगी। राजकुमार भी अपनी मुट्ठी में चिड़िया छिपाए, सेवकों के साथ हाट में आया। वह फ़क़ीर के पास पहुंचा और बोला, "अरे फ़क़ीर! जो तू इतना बुद्धिमान व भविष्यवक्ता है, तो बता मेरी मुट्ठी में जो चिड़िया है, वो ज़िन्दा है या मरी हुई है?"

ऐसा विचित्र प्रश्न सुनकर भीड़ में चुप्पी छा गई। सबने आश्चर्य से पहले राजकुमार को देखा। फिर सबके चेहरे फ़क़ीर की ओर मुड़ गए। फ़क़ीर शांत था। उसने राजकुमार की आँखों में देखा, मानो उसके मन के भावों को पढ़ रहा हो! भीड़ फ़क़ीर के उत्तर की प्रतीक्षा कर रही थी। सब तरफ मौन व्याप्त था। हवा बंद थी। सूरज तेज हो चला था।

फ़क़ीर ने कहा, "कुंवर! तेरी मुट्ठी में वो है जो तू उसका बनाएगा।"

-राजीव वाधवा, ऑकलैंड
[भारत-दर्शन, अक्टूबर-नवंबर 1996]

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कपटी मित्र  - सीताराम | बाल कहानी
मगध देश में चम्पकवती नाम का एक वन हैं,  वहाँ बहुत दिनों से एक हिरन और एक कौवा बड़े स्नेह से रहते थे। एक दिन हिरन इधर-उधर टहल रहा था। उसे एक सियार ने देखा। सियार ने विचारा, “अरे, इसके सुन्दर मांस को कैसे खायें ? अच्छा चलो, पहले मेल करके विश्वास तो करावें।”  ऐसा सोच उसके पास जाकर बोला, “मित्र अच्छे हो?  हिरन ने पूछा, “तुम कौन हो?  सियार बोल, मैं क्षुद्र-बद्धि नाम का सियार हूँ। इस वन में बिना किसी मित्र के अकेला मरे की नाईं रहता हूँ। अब तुमको मित्र पाके फिर से मेरा जन्म होगा। अब तो में सदा तुम्हारे साथ रहूँगा।” मृग ने कहा, “बहुत अच्छा।“
......
 
 
महान सोच - सुरेन्द्र सिंह नेगी | बालकथा

एक बार चीन के महान् दार्शनिक कन्फ्यूशियस से मिलने एक राजा आया। उसने उनके सामने कई सवाल रखे। इसी क्रम में उसने पूछा, "क्या ऐसा कोई व्यक्ति है, जो महान हो, लेकिन उसे कोई जानता न हो। "

इस पर कन्फ्यूशियस ने मुसकराकर कहा, "हम ज्यादातर महान लोगों को नहीं जानते। दुनिया में कई ऐसे साधारण लोग हैं, जो वास्तव में महान व्यक्तियों से भी महान् हैं।" राजा ने आश्चर्य से कहा, "ऐसा कैसे हो सकता है?"

इस पर कन्फ्यूशियस बोले, "मैं तुम्हें आज ही ऐसे व्यक्ति से मिलवाऊँगा।"

इसके बाद वह राजा को अपने साथ लेकर एक गाँव की ओर निकल गए। काफी दूर चलने के बाद उन्हें एक वृद्ध नजर आया। वह पेड़ के नीचे कुछ घड़े लेकर बैठा हुआ था। राजा और कन्फ्यूशियस ने समझा कि शायद वह वृद्ध गरमी के इस मौसम में चने बेचकर अपना गुजारा करता होगा। उन दोनों ने ही वृद्ध से माँगकर पानी पिया। फिर चने भी खाए। घड़े का शीतल जल पीने और चने खाने से दोनों को गरमी से राहत मिली। जब राजा वृद्ध को चनों का दाम देने लगा तो वह बोला, “महाशय ! मैं कोई दुकानदार नहीं हूँ। मैं तो सिर्फ वह करने का प्रयास कर रहा हूँ, जो इस उम्र में कर सकता हूँ। मेरा बेटा चने का व्यवसाय करता है। घर में मेरा मन नहीं लगता। इसलिए यहाँ चने और पानी लेकर बैठ गया हूँ। राहगीरों को ठंडा पानी पिलाकर व चने खिलाकर मेरे अंतर्मन को एक अद्भुत तृप्ति मिलती हैं। इससे मेरा समय भी कट जाता है और तसल्ली भी मिलती है कि मैं कुछ सार्थक काम कर रहा हूँ।"

तब कन्फ्यूशियस ने राजा से कहा, "देखो राजन्, यह आम आदमी कितना महान है। इसकी सोच इसे महान् बनाती हैं। सिर्फ बड़ी-बड़ी बातों से कोई महान नहीं होता। महान वही हैं, जो दूसरों के लिए अपना जीवन लगा दे।”

राजा ने अपनी सहमति जताई और उस वृद्ध के आगे सिर झुका दिया।

सुरेन्द्र सिंह नेगी
[महापुरुषों की शिक्षाप्रद बालकथाएँ, प्रभात प्रकाशन]

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माँ ने कहा था - नरेंद्रकुमार गौड़

कमला ने बाजार से रिक्शा लिया और घर की तरफ़ चल पड़ी। रिक्शा एक 18-20 साल का लड़का खींच रहा था। कमला अपनी आदत के अनुसार लड़के से बातें करने लगी।

'क्या नाम है रे तेरा?'

'श्याम।'

'कहाँ का रहने वाला है?'

'रोहतक का।'

'रोहतक खास या आस-पास कोई गाँव?'

'हाँ, रोहतक के पास जमापुर गाँव।'

'क्या? तू जमालपुर का है। जमालपुर में किसका?'

'लक्ष्मण का।'

'तू लक्ष्मण का छोरा है? रे, मैं भी जमालपुर की हूँ। मुझे पहचाना नहीं। असल में कैसे पहचानेगा, जब मैं ब्याहकर इस शहर में आई तब तू शायद पैदा भी नहीं हुआ होगा। तेरी माँ का खूब आना-जाना था हमारे घर में। सब राजी-खुशी तो हैं न?'

घर के सामने उतरकर कमला बोली-'ये ले बीस रुपए और चल घर के अंदर, चाय-पानी पीकर जाइए।'

'नहीं दीदी, मैं किराया नहीं लूँगा। माँ ने कहा था कि गाँव की कोई बहन-बेटी मिले तो किराया मत लेना।'

- नरेंद्रकुमार गौड़
हाउस नं 153, गली नं-5, ए ब्लॉक, ......

 
 
और मानवता सिसक उठी - रोहित कुमार 'हैप्पी'

राज्य में आंदोलन चल रहा था।

'अच्छा मौका है। यह पड़ोसी बहुत तंग करता है। आज रात इसे सबक सिखाते हैं।' एक ने सोचा।

'ये स्साला, मोटर बाइक की बहुत फौर मारता है। आज तो इसकी बाइक गई!' एक छात्र मन में कुछ निश्चय कर रहा था।

'सामने वाले की दूकान बहुत चलती है...आज जला दो। अपना कम्पीटिशन ख़त्म!' दुकानदार ने नफ़े की तरकीब निकाल ली थी।

'देखो, कुछ दुकानें, कुछ मकान, कुछ बसें फूक डालो। सिर्फ विरोधियों की ही नहीं अपनी पार्टी की भी जलाना ताकि सब एकदम वास्तविक लगे।' नेताजी पार्टी कार्यकर्ताओं को समझा रहे थे।

फिर चोर-उचक्के, लूटेरे कहाँ पीछे रहते! आंदोलन के नाम पर हर कोई अपनी रोटियां सेंकने में लग गया था। आंदोलन दंगे में बदल चुका था।

मानवता तार-तार होकर कहीं दूर बैठी सिसक उठी।

- रोहित कुमार 'हैप्पी'

 


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कमरा - सुभाष नीरव

"पिताजी, क्यों न आपके रहने का इंतजाम ऊपर बरसाती में कर दिया जाए? " हरिबाबू ने वृद्ध पिता से कहा। "देखिए न, बच्चों की बोर्ड-परीक्षा सिर पर हैं। बड़े कमरे में शोर-शराबे के कारण वे पढ़ नहीं पाते। हमने सोचा, कुछ दिनों के लिए यह कमरा उन्हें दे दें।" बहू ने समझाने का प्रयत्न किया।

"मगर बेटा, मुझसे रोज ऊपर-नीचे चढ़ना-उतरना कहाँ हो पाएगा? " पिता ने चारपाई पर लेटे-लेटे कहा। "आपको चढ़ने-उतरने की क्या जरूरत है! ऊपर ही हम आपको खाना-पानी सब पहुँचा दिया करेंगे। और शौच-गुसलखाना भी ऊपर ही है। आपको कोई दिक्कत नहीं होगी।"

"और सुबह-शाम घूमने के लिए चौड़ी खुली छत है।" बहू ने अपनी बात जोड़ी।

पिताजी मान गए। उसी दिन से उनका बोरिया-बिस्तर ऊपर बरसाती में लगा दिया गया।

अगले ही दिन, हरिबाबू ने पत्नी से कहा, "मेरे दफ़्तर में एक नया क्लर्क आया है। उसे एक कमरा चाहिए किराए पर। एक हजार तक देने को तैयार है। मालूम करना मुहल्ले में अगर कोई...."

"एक हजार रुपए!.... " पत्नी सोचने लगी, "क्यों न उसे हम अपना छोटा वाला कमरा दे दें?"

"वह जो पिताजी से खाली करवाया है?" हरिबाबू सोचते हुए-से बोले, "वह तो बच्चों की पढ़ाई के लिए...." "अजी, बच्चों का क्या है!" पत्नी बोली, "जैसे अब तक पढ़ते आ रहे हैं, वैसे अब भी पढ़ लेंगे। उन्हें अलग से कमरा देने की क्या जरूरत है?"

अगले दिन वह कमरा किराए पर चढ़ गया।

--सुभाष नीरव

[शोध-दिशा, सितम्बर 2014 से मार्च 2015]

टिप्पणी: यह लघुकथा लेखक की पहली लघुकथा थी और यह सारिका के लघुकथा विशेषांक (1984) में प्रकाशित हुई थी।


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अनूठी गुरु शिक्षा - शिव कुमार गोयल

भगवान् श्रीकृष्ण को उज्जयिनी के सुविख्यात विद्वान् और धर्मशास्त्रों के प्रकांड पंडित ऋषि संदीपनीजी के पास विद्याध्ययन के लिए भेजा गया। ऋषि संदीपनी श्रीकृष्ण और दरिद्र परिवार में जन्मे सुदामा को एक साथ बिठाकर विभिन्न शास्त्रों की शिक्षा देते थे। श्रीकृष्ण गुरुदेव के यज्ञ-हवन के लिए स्वयं जंगल में जाकर लकड़ियाँ काटकर लाया करते थे। वे देखते कि गुरुदेव तथा गुरु पत्नी-- दोनों परम संतोषी हैं। श्रीकृष्ण रात के समय गुरुदेव के चरण दबाया करते और सवेरे उठते ही उनके चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लिया करते।

शिक्षा पूरी होने के बाद श्रीकृष्ण ब्रज लौटने लगे, तो ऋषि के चरणों में बैठते हुए हाथ जोड़कर बोले, 'गुरुदेव, मैं दक्षिणा के रूप में आपको कुछ भेंट करना चाहता हूँ। '

ऋषि संदीपनी ने मुसकराकर सिर पर हाथ रखते हुए कहा, 'वत्स कृष्ण, ज्ञान कुछ बदले में लेने के लिए नहीं दिया जाता। सच्चा गुरु वही है, जो शिष्य को शिक्षा के साथ संस्कार देता है । मैं दक्षिणा के रूप में यही चाहता हूँ कि तुम औरों को भी संस्कारित करते रहो।' ऋषि जान गए कि मैं तो मात्र गुरु हूँ, यह बालक आगे चलकर 'जगद्गुरु कृष्ण' के रूप में ख्याति पाएगा। उन्होंने कहा, 'वत्स, मैं यही कामना करता हूँ कि तुम जब धर्मरक्षार्थ किसी का मार्गदर्शन करो, तो उसके बदले में कुछ स्वीकार न करना।'

श्रीकृष्ण उनका आदेश स्वीकार कर लौट आए। आगे चलकर उन्होंने अर्जुन को न केवल ज्ञान दिया, अपितु उनके सारथी भी बने।

-शिव कुमार गोयल
[201 प्रेरक नीति कथाएँ]

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चर्चा जारी है - स्नेह गोस्वामी

रामप्रसाद और जमना दोनों ने एक के ऊपर एक रखी कुर्सियों को कतारों में लगाया। पूरा मैदान तरतीब से लगी कुर्सियों से सज गया। गेट से लेकर मंच तक लाल मैट बिछाया, फिर दोनों ने लाल मैट पर झाङू लगा दी।

"बाहर गाड़ी में कुछ गमले रखे हैं, वह भी उठा कर यहाँ रख दो।"
गमले भी सज गये।

"सब हो गया साब। अब पैसे दे दो तो जाएँ।"

"लो ये बैनर भी टाँग दो।"

"जी साब।"

वे दोनों बैनर टाँगने लगे। मेन गेट पर, पंडाल में दो तीन जगह, मंच पर हर जगह बैनर सज गये। तब तक लोगों का आना शुरु हो गया। सीटें भरनी शुरु हो गईं।

अचानक शोर हुआ, चीफ गेस्ट आ गये।

उन दोनों को हाथ जोड़े, मुँह खोले छोड़ आयोजक चीफ गेस्ट के स्वागत-सत्कार में जुट गये।

रामप्रसाद ने जमना से कहा, "दो दिन बाद तो मजूरी मिली, इतना खटे। पिसे (पैसे) फिर भी ना मिले। सोचा था आज सौ रुपया मिलेगा तो भात के साथ सब्जी बनाएँगे पर लगता है आज भी बच्चों को एक टाइम भी भरपेट न खिला पावैंगे।"

"बता इब्ब क्या करें? चलें।"

"मैं तो पैसे ले बिना जाने वाला नहीं। बैठ के इंतजार करें और क्या?"......

 
 
उत्तम जीवन | बाल कथा - भारत-दर्शन संकलन

गरुड़ पक्षियों का राजा है। ऊँचे आकाश में वह विहार करता है। बेचारी मधु-मक्खी, छोटी-सी जान! दिन भर इधर-उधर भटककर रस इकट्ठा करती है। एक बार जब गरुड़ पानी पीने पृथ्वी पर उतरा, दोनों की भेंट हुई।

गरुड़ बोला--"मधुमक्खी, तेरा भी क्या जीवन है? वसंत ऋतु-भर तू डाल-डाल और फूल-फूल पर मारी-मारी फिरती है। बूंद-बूंद रस जमा कर छत्ता लगाती है, वह भी दूसरों के लिये! मेरा जीवन देख, ऊँचे आकाश में सदा विचरता रहता हूं। कोई भी पक्षी मुझसे ऊँचा या तेज नहीं उड़ सकता। मैं जब चाहूं, जिसके हाथ में से उसका आहार छीन लूं।"

मधु-मक्खी ने उत्तर दिया--"ठीक है, महाराज! यह ऊँचा पद आप ही को शुभ हो। मुझे इसका लोभ नहीं कि ऐसी ऊँची उड़ूँ या दूसरों का आहार छीन-कर खाऊँ। मुझे तो परिश्रम करना ही भला लगता है। कठिन परिश्रम कर मैं मधु इकट्ठा करूँ, और वह दूसरों के काम आए, इससे बड़ा सौभाग्य क्या हो सकता है?"

वास्तविक महत्ता बल-कीर्ति अथवा किसी से जबर्दस्ती छीन लेने में नहीं है। साधारण, सरल जीवन अपनाकर परोपकार करना और ऐसा करने में जो श्रम पड़े, उसे हँसते-हँसते झेलना, यही सच्चा बड़प्पन है।


......
 
 
काम हमारे बड़े-बड़े - चिरंजीत

हम बच्चे हैं छोटे-छोटे, काम हमारे बड़े-बड़े ।
आसमान का चाँद हमी ने......

 
 
जाने क्यों कोई शिकायत नहीं आती | ग़ज़ल - डॉ. मनु प्रताप सिंह

जाने क्यों कोई शिकायत नहीं आती
नजर कहीं भी अब वो सूरत नहीं आती

गये जब से छोड़कर वो जहाँ मेरा......

 
 
सच बोलनेवाला चोर  - तुलसी देवी दीक्षित

एक पंडित के जब कोई लड़का होता, तो वे पहले ही से उसका भविष्य बतला देते थे। एक लड़के के संबंध में उन्होंने अपनी श्री से बतलाया कि वह चोर होगा। लड़का पढ़ने में बड़ा होशियार था। इससे लोग उसे शास्त्रीभी कहते थे । जब वह बड़ा हुआ, तो उसका विवाह करके, उसके माता-पिता तीर्थ-यात्रा करने चले गए।

शास्त्रीजी पढ़े-लिखे तो खूब थे पर उनके घर में प्रत्यक्ष दरिद्रता का वास था। पहनने के लिये उनके पास एक लँगोटी को छोड़कर और कुछ न था। 

घर में स्त्री के पास भी चीथड़ों के अतिरिक्त और कुछ न था। खाने के लिये अतरे-दुतरे कुछ मोटा-झोटा मिल जाता था। 

इस प्रकार कष्ट उठाते शास्त्रीजी को बहुत दिन बीते पर उनकी दशा न सुधरी। उन्होंने सोचा कि अब जैसे बने, इन कष्टों को दूर करने का यत्न करना चाहिए। एक दिन आप अपनी धर्मपनी से बोले--"अब तो नहीं सहा जाता। दरिद्रता दूर करने का आज कोई उपाय करूँगा।" 

स्त्री--"क्या करोगे?" 

शास्त्रीजी--"क्या करूँगा। आज रात को चोरी करूँगा।" 

स्त्री--"पर चोरी करना तो बुरा है। अच्छा, किसके यहाँ चोरी करोगे?" 

शास्त्रीजी--"राजा के यहाँ चोरी करूँगा।" पंडिताइन ने बहुत मना किया, पर वह न माना, और रात के समय राजमहल की ओर चल पड़ा। 

महल के फाटक पर संगीन-धारी संतरी टहल रहे थे। शास्त्रीजी को जाते देख, उन्होंने पुकारा--"कौन?" 

शास्त्रीजी--"हम हैं. चोर।" 

संतरी--"चोर! हमारे रहते चोर क्या महल में घुस सकता है?" 

शास्त्रीजी--"यदि न जाने दोगे, तो लौट जाऊँगा।" 

संतरी समझे कि चोर तो इस प्रकार बातें करेगा नहीं। इसमें कोई भेद अवश्य है। संभव है, राजा के बुलाने से यह महल में जा रहा हो। कहीं ऐसा न हो कि इसके लौट जाने से राजा हम पर अप्रसन्न हों। यह सोचकर उन्होंने उसे भीतर जाने से न रोका। 

शास्त्रीजी भीतर पहुँचे। राजा के सोने के कमरे में पहुँचकर उन्होंने देखा कि राजा पलंग पर पड़े सो रहे हैं, और सिरहाने चाभियों का गुच्छा रक्खा है। फिर क्या था, शास्त्रीजी ने वह गुच्छा ले लिया; और लगे संदूक खोलने। एक संदूक में उन्हें रत्न-ही-रत्न दिखलाई दिए। कपड़ा तो उनके पास था ही नहीं, इससे सोचने लगे कि इन्हें किस प्रकार ले चलें। इतने में उन्हें स्मरण हो आया कि रत्नों की चोरी तो शास्त्र में बड़ा भारी पाप समझा गया है। इससे उन्होंने रत्नों को ज्यों-का-त्यों छोड़ दिया। 

आगे बढ़कर अशर्फियाँ देखीं पर सुवर्ण की चोरी पाप समझ उन्होंने उन्हें भी न छुआ। इसप्रकार जो चीज देखते, उसके संबंध में उनके दिल में इसी प्रकार के खयाल उठने लगते। अंत में वे एक स्थान पर बैठकर सोचने लगे कि यदि कोई ऐसी वस्तु मिले, जिसकी चोरी शास्त्रकारों ने बुरी न बतलाई हो, तो अच्छा हो। निदान ढूँढते-ढूँढते एक छत पर उन्हें चावलों की भूसी का ढेर नज़र आया। आपने स्मरणशक्ति पर बहुत कुछ जोर डाला, पर भूसी की चोरी के विरुद्ध किसी शास्त्रकार की राय याद न आई। इससे आप एक बड़े झाबे में खुशी-खुशी भूसी भरने लगे। उधर राजा की किसी कारण आँख खुल गई। उसे मालूम पड़ा कि छत पर कोई है। राजा तलवार लेकर बाहर आया, तो क्या देखता है कि एक आदमी झाबे में भूसी भर रहा है। जब शास्त्रीजी ने राजा को देखा, तो बोल उठे--"जय हो राजन्! अच्छे अवसर पर आ गए। मैं सोच ही रहा था कि यह झाबा ठवावेगा कौन? अब काम बन जाएगा। 

राजा--"तुम कौन हो और यहाँ क्या कर रहे हो?" 

शास्त्रीजी-“मैं हूँ चोर, और आपके यहाँ चोरी कर रहा हूँ।" 

राजा--"तुमको हमारे यहाँ भूसी से बढ़कर और कोई चीज़ चोरी करने को मिली ही नहीं?" 

शास्त्रीजी-"मिली तो बहुत चीजें, पर उनका चुराना धर्म-विरुद्ध था; इससे उन्हें नहीं चुराया। आपके मणि-माणिक और अशर्फियों को देखकर मैंने ज्यों-का-त्यों छोड़ दिया।" 

राजा इस अद्भुत चोर को देखकर बहुत चकराया। उसकी समझ ही में न आया कि क्या करें। अंत में बहुत सोच-विचार के बाद वह उसे एक सुसज्जित कमरे में ले गया, और बोला--"आज रात-भर यहीं तुम कैद रहो। कल तुम्हारा फैसला होगा।" 

अगले दिन राजा जब दरबार में बैठा, तो उसने पहले शास्त्रीजी को ही बुलवाया। फिर उनकी ओर इशारा करके अपने दरबारियों से बोला--"आप जिस व्यक्ति को सामने देखते हैं, बड़ा ही अद्भुत चोर है। कल रात को यह हमारे महल में धान की भूसी की चोरी करने के लिये आया था।" 

सबसे पहले पहरेवालों के बयान लिए गए। 

उन्होंने शास्त्रीजी की ओर इशारा करके कहा--"कल रात को यह आदमी राजमहल के फाटक पर आय । हम लोगों ने पूछा--'कौन? तो बोला--हम हैं चोर।' 

हमने दिल में सोचा कि कोई चोर इस प्रकार अपने को चोर थोड़े ही कहेगा; इस कारण हम समझे कि इसने हँसी की है। हमने यह भी समझा कि शायद हुजूर ने इसे किसी कार्यवश बुलाया हो, इससे उसे फाटक पर नहीं रोका। 

इसके बाद शास्त्रीजी से उनके मकान का पता पूछकर कुछ सिपाही उनके घर भेजे गए, और उनसे कहा गया कि घर में जो कोई हो, उसे दरबार में सादर बुला लाओ। थोड़ी देर में उन लोगों ने लौटकर कहा--"हुजूर इसके घर पर इसकी स्त्री के अतिरिक्त और कोई नहीं है। जब मैंने आपकी आज्ञा कह सुनाई, तो उसने कहा--"मेरे पास कपड़े ही नहीं हैं; मैं किस प्रकार बाहर निकल सकती हूँ?" 

राजा ने कहा--"खैर, उसके आने की कोई आवश्यकता नहीं।" 

फिर राजा ने अपने मंत्री से पूछा--"आपकी राय में ऐसे चोर को क्या दंड देना चाहिए।" 

मंत्री ने कहा--"मेरी समझ में इसे यों ही डॉट-फटकारकर छोड़ देना चाहिए, और इसे साफ-साफ बतला देना चाहिए कि यदि यह फिर कभी महल में आया, तो अवश्य दंड पावेगा।" 

राजा ने कोषाध्यक्ष को बुलाकर कहा--"एक हज़ार अशर्फियाँ अभी लाकर इस चोर को गिन दो।" फिर शास्त्रीजी की ओर घूमकर कहा--"तुम्हारे अपराध की यही सज़ा है।" 

शास्त्रीजी अशर्फियाँ लेकर खुशी-खुशी घर गए।

-तुलसी देवी दीक्षित
[1928]


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पाठ | लघुकथा - अभिमन्यु अनत

इंग्लैण्ड का एक भव्य शहर। प्रतिष्ठित अंग्रेज परिवार का हेनरी। उम्र अगले क्रिसमस में आठ वर्ष। स्कूल से लौटते ही वह अपनी माँ के पास पहुँचकर उससे बोला, "मम्मी कल मैंने एक दोस्त को अपने यहाँ खाने पर बुलाया है।"

"सच! तुम तो बड़े सोशल होते जा रहे हो।"

"ठीक है न माँ ?"

"हाँ बेटे, बहुत ठीक है। मित्रों का एक-दूसरे के पास आना-जाना अच्छा रहता है। क्या नाम है तुम्हारे दोस्त का।"

"विलियम।"

"बहुत सुन्दर नाम है।"

"वह मेरा बड़ा ही घनिष्ठ है माँ। क्लास में मेरे ही साथ बैठता है।"

"बहुत अच्छा।"

"तो फिर कल उसे ले आऊँ न माँ ?"

"हाँ हेनरी, जरूर ले आना।"

हेनरी कमरे में चला गया। कुछ देर बाद उसकी माँ उसके लिए दूध लिये हुए आई। हेनरी जब दूध पीने लगा तो उसकी माँ पूछ बैठी, "क्या नाम बताया था अपने मित्र का?"

"विलियम।"

"क्या रंग है विलियम का ?"

हेनरी ने दूध पीना छोड़कर अपनी माँ की ओर देखा। कुछ उधेड़बुन में पड़ कर उसने पूछा, "रंग ? मैं समझा नहीं।"

"मतलब यह कि तुम्हारा मित्र हमारी तरह गोरा है या काला ?"

एक क्षण चुप रहकर दूसरे क्षण पूरी मासूमियत के साथ हेनरी ने पूछा,"रंग का प्रश्न जरूरी है क्या माँ ?"

"हाँ हेनरी, तभी तो पूछ रही हूँ।"

"बात यह है माँ कि उसका रंग देखना तो मैं भूल ही गया।"

- अभिमन्यु अनत

[स्व. अभिमन्यु अनत मॉरीशस के जानेमाने साहित्यकार हैं]


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बेगुनाह - डॉ रामकुमार घोटड़

वो कौवों से परेशान हो उन्हें मारने का उपाय सोचने लगा।

आटे के घोल में जहर मिलाकर टिकियाँ बनायीं और आँगन में बिखेर दीं। एक कौवा उडकर टिकिया के पास बैठा। गर्दन घुमा-घुमाकर टिकिया को देखा और खाली चोंच ही काँव-कॉव करता हुआ वापिस मुंडेर पर जा बैठा।

सामने की दीवार में घोंसले से एक चिड़िया बच्चों का चुग्गा देकर बाहर आई। आँगन में रखी टिकिया को चोंच में लेकर वापिस घोंसले की तरफ उड़ने की कोशिश की, फड़फडाकर ज़मीन पर आ गिरी और शांत हो गई।

पलक झपकते ही कौवे ने झपट्टी मारी और चिड़ियों को ले उड़ा।

-डॉ रामकुमार घोटड़, भारत
[20वीं सदी की मेरी लघुकथाएँ]

 

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उपहार | बाल कहानी -  नीरज कुमार मिश्रा

आनी का छोटा भाई तेजस खाने में बहुत नखरे करता था ,वह खाने में सिर्फ मीठा पसंद करता और थोड़ा बहुत आलू खा लेता था। 

माँ जब भी कोई सब्जी बनाती तो उसे खाने से भी मना कर देता ,आये दिन तेजस बीमार भी हो जाता तो डॉक्टर भी उसे फल और संतुलित भोजन लेने की सलाह देते पर वह किसी की नहीं सुनता था। 

मम्मी और पापा उसकी हरकत से बहुत परेशान थे पर तेजस उनकी बात नहीं मानता। 

आनी का चौदहवाँ जन्मदिन आने वाला था ,मम्मी,पापा और उसका  छोटा भाई तेजस चुपके चुपके आनी को दिए जाने वाली सरप्राइज़ पार्टी की तैयारी कर रहे थे और तोहफों की लिस्ट बना रहे थे।
आनी को तोहफे बहुत पसंद थे,इस बार भी आनी ने अपने लिए महंगे तोहफों की लिस्ट तैयार करके मम्मी पापा को दे दी थी जिसमे महंगी चॉकलेट्स,वीडियो गेम्स और खाने के लिए पिज़्ज़ा और बर्गर आदि शामिल थे। 

माँ आनी के जन्मदिन की तैयारियों के लिए घर की सफाई में लगी हुई थी ,एक पुरानी अलमारी को साफ करते समय एक किताब मिली तो उन्होंने वहीँ मेज़ पर रख दी जब अपने स्कूल से आई तो उत्सुकतावश उस किताब के पन्ने पलटने लगी, उस किताब का नाम था "विज्ञान और हम",आनी ने उसे पढ़ना शुरू किया, उस विज्ञान की किताब में प्रकाशित एक लेख में यह बताया गया था कि यदि पेड़ पौधों की कटाई इसी तरह चलती रही तो यह धरती वनस्पतियों से खाली हो जाएगी और फिर इस धरती का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। 

आनी ने उस किताब को चाव से पढ़ा और फिर एक दिन अपने मम्मी-पापा से जन्मदिन के तोहफे नहीं देने को कहा।  

"पर क्या हुआ आनी? तुम्हें तो तोहफ, चॉकलेट्स और पिज़्ज़ा आदि बहुत अच्छे लगते हैं?"

"माँ… ये सारी चीजें तो हमे नुकसान पहुचाती हैं ...मैं तोहफा तो लूंगी पर ये नुकसानदायक चीजें नहीं ... "

माँ आनी को आश्चर्यजनक नज़रों से देखे जा रही थी, उसे आनी का बदला हुआ रूप बड़ा अजीब सा लग रहा था। 

"माँ…. मैं तो आपसे जन्मदिन के उपहार में एक गुलाब के फूलों का पौधा लूंगी।" 

आनी की इस बात पर माँ को बड़ा आश्चर्य लगा पर उन्होंने उसे तोहफे में एक गुलाब के पौधे को देने के लिए हाँ कर दिया और आनी के जन्मदिन पर उसे एक सुंदर से गमले में लगा हुआ गुलाब का पौधा उपहार में दे दिया। 

आनी ने उस गमले को अपनी बालकनी में रख दिया जहां उसे हल्की हल्की धूप लग रही थी और बड़े प्यार से उसकी देखभाल करने लगी। 

करीब पन्द्रह दिन के बाद आनी की खुशी का ठिकाना नहीं रहा जब उस पौधे में एक छोटा सा फूल खिल गया। 

आनी ने गमले का फूल मम्मी और पापा को बड़ी शान से दिखाया तो मम्मी और पापा ने उसे बहुत शाबाशी दी। 

मम्मी और पापा के द्वारा इस तरह से शाबाशी दिए जाने पर छोटे भाई तेजस को भी गमले में फूल उगाने की ललक जाग उठी और उसने भी मम्मी पापा से एक गमले के पौधे की ज़िद करनी शुरू कर दी, तेजस की ज़िद पर मम्मी ,पापा ने एक दूसरा गुलाब का पौधा तेजस को गिफ्ट कर दिया। 

तेजस, आनी की ही तरह एक फूलों का गमला पाकर खुश हो गया था और वह दोनों समय अपने पौधे को पानी देता और पौधे का खूब ध्यान भी रखता। 

कुछ दिनों के बाद तेजस के पौधे में भी एक छोटी सी कली आ गयी ,तेजस बहुत खुश हुआ और उसने अपने गमले को उठाकर आपके कमरे में रख लिया ताकि वह गुलाब के फूल को अपने सामने खिलता हुआ देख सके। 

कुछ दिन बीत गए थे  ,तेजस के पौधे में फूल तो नहीं आये पर उसका पौधा धीरेधीरे सूखने लगा ,तेजस परेशान हो गया उसने बाहर जाकर देखा तो पाया कि आनी के पौधे में कई फूल खिले थे। 

तेजस ने आनी से जाकर पूछा, “दीदी तुम्हारे पौधे में तो कई फूल खिल गए हैं  जबकि अंदर कमरे में रखा हुआ पौधा सूखने लगा है ….ऐसा क्यों हुआ? 

आनी ने मुस्कुराते हुए तेजस को बताया कि किसी भी पौधे को बढ़ने और स्वस्थ रहने के लिए हवा,पानी और धूप सभी चीजों की बराबर मात्रा में आवश्यकता होती है ,जो गमला बाहर रखा रहा उसे ये तीनो चीजें बराबर मात्रा में मिलती रही जबकि तू जो गमला अंदर कमरे में रख आया था उसे धूप और शुद्ध वायु नहीं मिली बल्कि सिर्फ पानी ही मिला इसलिए बाहर वाले गमले में तो फूल आ गया और अंदर रखे गमले में लगा हुआ पौधा मुरझाने लगा है। 
"तो क्या दीदी .…मैं उस अंदर रखे गमले को बाहर रख दूँ तो वह पौधा ठीक हो जाएगा ?"
"हाँ.…..हाँ ..क्यों नहीं।"
इसके बाद तेजस अंदर रखे गमले को बाहर आंगन में उसी गमले के पास रख आया जहां उसे उचित मात्रा में धूप और वायु मिल रही थी। 

तेजस और आनी की देखरेख में वह मुरझाया हुआ पौधा धीरेधीरे हरा होने लगा था और कुछ दिनों के बाद उसमें भी फूल आने लगे थे। 

विज्ञान का ये साधारण सा नियम तेजस की समझ में आ गया था ,उसने आनी दीदी को धन्यवाद दिया जिसने ये नियम समझने में तेजस की मदद की। 

"तो क्या दीदी ...मैं भी इसीलिए बीमार होता हूँ क्योंकि मैं आपकी तरह सेहतमंद चीज़ नहीं खाता "तेजस ने हैरत से आनी से पूछा। 

"हाँ…...बिल्कुल ….तेजस तुम सिर्फ आलू और मीठा खाते हो जिससे तुम्हारे शरीर में सिर्फ कार्बोहाइड्रेट ही जाते हैं जबकि शरीर को बढ़ने के लिए कार्बोहाइड्रेट के साथ प्रोटीन और विटामिन्स की भी आवश्यकता होती हैं जिसके कारण तुम्हारे अंदर पोषक तत्वों की कमी हो जाती है और तुम्हारी रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है और बीमार हो जाते हो " आनी ने तेजस को समझाते हुए कहा 
"तो अगर मैं सब चीज़ खाऊं तो क्या सेहतमंद हो जाऊंगा और बीमार भी नहीं पड़ूंगा "तेजस ने हैरत से कहा। 

"हाँ बिल्कुल सही समझे तुम।" आनी ने मुस्कुराते हुए कहा। 
"पर तेजस….तुम कहा जा रहे हो?"आनी ने पूछा। 

"मैं तो चला किचन में …..माँ के हाथ की दाल और सब्जी खाने "तेजस ने दीदी से कहा 
मम्मी पापा तेजस का बदला रूप देख कर मुस्कुरा रहे थे। 


-नीरज कुमार मिश्रा
पलिया कलां, खीरी
मोबाइल : 7007561510
ई-मेल : neerajamber007@gmail.com


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ऊबड़खाबड़ रास्ता | लघुकथा - बैकुंठनाथ मेहरोत्रा

ऊबड़खाबड़ रास्ता। उस पर एक इंसान बढ़ता चला जा रहा था।

चलते-चलते वह झुँझला उठा। सिर पकड़ कर, किनारे पड़े एक शिलाखंड पर सुस्ताने के लिए, बैठते हुए, अत्यन्त खीझ भरे स्वर में सामने पड़े हुए उस लम्बे रास्ते से बोला, "तुम इतने ऊबड़खाबड़ क्यों हो, रास्ते?"

रास्ते ने उस की शिथिलता पर मुस्कराते हुए उत्तर दिया,"मेरा काम तो मात्र पथ-प्रदर्शन करना है...मुझे संवारकर रखना तो तुम्हारा काम है...जो जिस दशा में रखता है वैसे ही रहता हूँ...इस में मेरा क्या दोष है!"

रास्ते की बात ने इंसान को निरुत्तर कर दिया।

-बैकुंठनाथ मेहरोत्रा

 


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ईमानदार किसान | बाल कहानी - अरविंद 
गाँव में एक किसान रहता था जो दूध से दही और मक्खन बनाकर बेचने का काम करता था।
 
एक दिन उसकी पत्नी ने उसे बेचने के लिए मक्खन तैयार करके दिया। किसान अपने गाँव से शहर की तरफ रवाना हो गया। किसान की पत्नी ने मक्खन गोल पेड़ों के आकार में बनाकर दिया था और हर पेड़े का वज़न एक किलो था। 
 
शहर मे किसान ने उस मक्खन को हमेशा की तरह एक दुकानदार को बेच दिया, और दुकानदार से चायपत्ती, चीनी, तेल और साबुन वगैरह खरीदकर वापस अपने गाँव को रवाना हो गया। 
 
किसान के जाने के बाद—
 
दुकानदार ने मक्खन को फ्रिज़र मे रखना शुरू किया.....उसे खयाल आया के क्यूँ ना एक पेड़े का वज़न किया जाए, वज़न करने पर पेड़ा सिर्फ 900 ग्राम का निकला।  हैरत और निराशा से उसने सारे पेड़े तोले तो  किसान के लाए हुए सभी मक्खन के पेड़े 900-900 ग्राम के ही निकले।
 
अगले हफ्ते फिर किसान हमेशा की तरह मक्खन लेकर जैसे ही दुकानदार की दहलीज़ पर चढ़ा, दुकानदार ने किसान से चिल्लाते हुए कहा—“दफा हो जाओ, किसी बेईमान और धोखेबाज़ शख्स से कारोबार करना.. पर मुझसे नही।’ दुकानदार फिर गरजा, ‘900 ग्राम मक्खन को पूरा एक किलो कहकर बेचने वाले शख्स की मैं शक्ल भी देखना पसंद नहीं करता। 
 
किसान ने बड़ी ‘विनम्रता’ से दुकानदार से कहा—'मेरे भाई मुझसे नाराज ना हो हम तो गरीब और अनपढ़ लोग हैं, हमारी माल तोलने के लिए बाट (वज़न) खरीदने की हैसियत कहाँ? आपसे जो एक किलो चीनी लेकर जाता हूँ, उसी को तराज़ू के एक पलड़े मे रखकर दूसरे पलड़े में उतने ही वज़न का मक्खन तोलकर ले आता हूँ।
 
सीख : 
जो हम दूसरों को देंगे,
वहीं लौट कर आयेगा...
चाहे वो मान-सम्मान हो,
या फिर धोखा...!!
 
-अरविंद 
 ई-मेल : arvind.gniit.kr@gmail.com

 


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समाधान | लघुकथा - अज्ञात

एक बूढा व्यक्ति था। उसकी दो बेटियां थीं। उनमें से एक का विवाह एक कुम्हार से हुआ और दूसरी का एक किसान के साथ।

एक बार पिता अपनी दोनों पुत्रियों से मिलने गया। पहली बेटी से हालचाल पूछा तो उसने कहा कि इस बार हमने बहुत परिश्रम किया है और बहुत सामान बनाया है। बस यदि वर्षा न आए तो हमारा कारोबार खूब चलेगा।

बेटी ने पिता से आग्रह किया कि वो भी प्रार्थना करे कि बारिश न हो।

फिर पिता दूसरी बेटी से मिला जिसका पति किसान था। उससे हालचाल पूछा तो उसने कहा कि इस बार बहुत परिश्रम किया है और बहुत फसल उगाई है परन्तु वर्षा नहीं हुई है। यदि अच्छी बरसात हो जाए तो खूब फसल होगी। उसने पिता से आग्रह किया कि वो प्रार्थना करे कि खूब बारिश हो।

एक बेटी का आग्रह था कि पिता वर्षा न होने की प्रार्थना करे और दूसरी का इसके विपरीत कि बरसात न हो। पिता बडी उलझन में पड गया। एक के लिए प्रार्थना करे तो दूसरी का नुक्सान। समाधान क्या हो ?

पिता ने बहुत सोचा और पुनः अपनी पुत्रियों से मिला। उसने बडी बेटी को समझाया कि यदि इस बार वर्षा नहीं हुई तो तुम अपने लाभ का आधा हिस्सा अपनी छोटी बहन को देना। और छोटी बेटी को मिलकर समझाया कि यदि इस बार खूब वर्षा हुई तो तुम अपने लाभ का आधा हिस्सा अपनी बडी बहन को देना।

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[90 के दशक में यह कथा न्यूज़ीलैंड में आए एक युवा जैन मुनि ने अपने प्रवचन में सुनाई थी। ] 


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बछडू - मृणाल आशुतोष

"क्या हुआ? कल से देख रहा हूँ, बार-बार छत पर जाती हो।" विमल अनिता से पूछ बैठे।
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हिंदी दिवस और विश्व हिंदी दिवस  - रोहित कुमार 'हैप्पी'

हिंदी दिवस और विश्व हिंदी दिवस दो अलग-अलग आयोजन हैं। दोनों का इतिहास और पृष्ठभूमि भी पृथक है।  आइए, हिंदी दिवस और विश्व हिंदी दिवस के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त करें। 

हिंदी दिवस (14 सितंबर)

14 सितंबर को 'हिंदी-दिवस' के रूप में मनाया जाता है। 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया था तभी से 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाया जाता है।

हिंदी दिवस का इतिहास और पृष्ठभूमि

हर वर्ष 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाया जाता है। 14 सितंबर, 1949 को संविधान सभा ने एक मत से यह निर्णय लिया कि हिंदी ही भारत की राजभाषा होगी। इस निर्णय के महत्व को प्रतिपादित करने और हिंदी को हर क्षेत्र में प्रसारित करने के लिए 1953 से भारत में 14 सितंबर को हर वर्ष हिंदी दिवस मनाया जाता है। हिंदी को यह दर्जा इतना आसानी से नहीं मिल गया। इसके लिए लंबी लड़ाई चली थी, जिसमें व्यौहार राजेंद्र सिंहा ने अहम भूमिका निभाई थी। संयोग ही है कि व्यौहार राजेंद्र सिंहा के 50वें जन्मदिवस अर्थात 14 सितंबर, 1949 को हिंदी को भारत की राजभाषा का दर्जा मिला।

विश्व हिन्दी दिवस (10 जनवरी)

विश्व हिन्दी दिवस का उद्देश्य विश्व में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए वातावरण निर्मित करना, हिन्दी के प्रति अनुराग पैदा करना, हिन्दी की दशा के लिए जागरूकता पैदा करना तथा हिन्दी को विश्व भाषा के रूप में प्रस्तुत करना है।

विदेशों में भारतीय दूतावास विश्व हिन्दी दिवस को विशेष आयोजन करते हैं। सभी सरकारी कार्यालयों में विभिन्न विषयों पर हिन्दी के लिए अनूठे कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं।

10 जनवरी ही क्यों?

विश्व में हिन्दी प्रचारित- प्रसारित करने के उद्देश्य से विश्व हिन्दी सम्मेलन का आयोजन आरंभ किया गया था। प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन 10 जनवरी, 1975 को नागपुर में आयोजित हुआ था। अत: 10 जनवरी का दिन ही विश्व हिन्दी दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया गया।

भारत के पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 10 जनवरी 2006 को प्रति वर्ष विश्व हिन्दी दिवस (10 जनवरी) के रूप मनाए जाने की घोषणा की थी।

प्रस्तुति: रोहित कुमार 'हैप्पी' 


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तूने मुझे निकलने को जब रास्ता दिया | ग़ज़ल - सूबे सिंह सुजान

तूने मुझे निकलने को जब रास्ता दिया
मैंने भी तेरे वास्ते सर को झुका दिया......

 
 
दोराहा - रोहित कुमार 'हैप्पी'

मैं दोराहे के बीच खड़ा था और वे दोनों मुझे डसने को तैयार थे। एक तरफ साँप था और दूसरी तरफ आदमी।
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अविरल-गंगा - रूपेश बनारसी

मैं सुरसरि बहती कल-कल थी
इस उथल-पुथल में विकल हुई

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प्यार मुझसे है तो - बल्लभेश दिवाकर

प्यार मुझसे है तो जलना सीख ले!
प्यार मुझसे है तो मरना सीख ले ।......

 
 
हिंदी पर दोहे  - रोहित कुमार 'हैप्पी'

बाहर से तो पीटते, सब हिंदी का ढोल।
अंतस में रखते नहीं, इसका कोई मोल ।।

एक बरस में आ गई, इनको हिंदी याद।......

 
 
टंगटुट्टा - मृणाल आशुतोष

घर का माहौल थोड़ा असामान्य सा हो चला था। परसों ही राजेन्द्र ने किसी दुखियारी से शादी करने की बात घर पर छेड़ दी थी। छोटे भाइयों को तो आश्चर्य हुआ, पर बहुओं की आवाज़ कुछ ज्यादा ही तेज़ हो गई। बेचारी बूढ़ी माँ समझाने की कोशिश कर थककर हार मान चुकी थी।

बहुओं के तीखे बाण से कलेजा छलनी हो रहा था, पर कान में रूई डालने के सिवा कोई चारा भी तो नहीं था।

शाम में तमतमाते वीरेंद्र का प्रवेश सीधा माँ की कोठरी में हुआ। बिना देर किए दोनों बहुएँ दरवाजे से चिपक गईं।

"माँ, यह हो क्या रहा है घर में? भैया पागल तो नहीं हो गए हैं।"

"बेटा,इसमें पागल होने वाली क्या बात है?"

" इस उम्र में शादी? लोग क्या कहेंगे? मुहल्ले वाले थूकेंगे हम पर!" गुस्से में वह लाल-पीला हो रहा था।

"बेटा, उसने कोई निर्णय लिया है, तो सोच-समझकर कर ही लिया होगा न! उस दुखियारी के बारे में भी तो सोच।"

"हाँ, कुछ ज्यादा ही सोचकर लिया है। अपना तो दोनों टाँग टूटा हुआ है ही और ऊपर से बुढ़ापे में एक औरत का जिम्मेदारी लेने चले हैं!"

"बीस साल से बिना टाँग के ही चाय बेचकर हमारा-तुम्हारा खर्चा चला रहा है न! थोड़ा कलेजे पर हाथ रखकर सोचना कि असली टंगटुट्टा वह है या...!"

-मृणाल आशुतोष
समस्तीपुर, बिहार, भारत ......

 
 
आपसे सच कहूँ मौसम हूँ | ग़ज़ल - सूबे सिंह सुजान

आपसे सच कहूँ मौसम हूँ, बदल जाऊँगा
आज मैं बर्फ हूँ कल आग में जल जाऊँगा......

 
 
दुर्दिन  - अलेक्सांद्र पूश्किन

स्वप्न मिले मिट्टी में कब के,
और हौसले बैठे हार, ......

 
 
झूठों ने झूठों से... - राहत इन्दौरी

झूठों ने झूठों से कहा है सच बोलो
सरकारी ऐलान हुआ है सच बोलो

घर के अंदर झूठों की एक मंडी है......

 
 
दिशा - फ़्रेंज़ काफ़्का

'बहुत दुख की बात है,' चूहे ने कहा, 'दुनिया दिन प्रतिदिन छोटी होती जा रही है। पहले यह इतनी बड़ी थी कि मुझे बहुत डर लगता था। मैं दौड़ता ही रहा था और जब आखिर में मुझे अपने दाएँ-बाएँ दीवारें दिखाई देने लगीं थीं तो मुझे खुशी हुई थी। पर यह लंबी दीवारें इतनी तेजी से एक दूसरे की तरफ बढ़ रही हैं कि मैं पलक झपकते ही आखिर छोर पर आ पहुँचा हूँ; जहाँ कोने में वह चूहेदानी रखी है और मैं उसकी ओर बढ़ता जा रहा हूँ।'

'जहाँ दिशा बदलने की जरूरत है, बस ।' बिल्ली ने कहा, और उसे खा गई ।

-फ़्रेंज़ काफ़्का
अनुवाद - सुकेश साहनी

 

......
 
 
दूसरा रुख | लघु-कथा - रोहित कुमार 'हैप्पी'

चित्रकार दोस्त ने भेंट स्वरूप एक तस्वीर दी। आवरण हटा कर देखा तो निहायत ख़ुशी हुई, तस्वीर भारत माता की थी। माँ-सी सुन्दर, भोली सूरत, अधरों पर मुस्कान, कंठ में सुशोभित ज़ेवरात, मस्तक को और ऊँचा करता हुआ मुकुट व हाथ में तिरंगा।

मैं लगातार उस तस्वीर को देखता रहा। तभी क्या देखता हूँ कि तस्वीर में से एक और औरत निकली। अधेड़ उम्र, अस्त-व्यस्त दशा, आँखों से छलक़ते आँसू। उसके शरीर पर काफी घाव थे। कुछ ताजे ज़ख़्म, कुछ घावों के निशान।

मैंने पूछा, "तुम कौन हो?"

बोली, "मैं तुम्हारी माँ हूँ, भारत-माँ!"

मैंने हैरत से पूछा, "भारत-माँ? पर----- तुम्हारी यह दशा! चित्रकार ने तो कुछ और ही तस्वीर दिखाई थी! तुम्हारा मुकुट कहाँ है? तुम्हारे ये बेतरतीब बिखरे केश, मुकुट विहीन मस्तक और फटे हुए वस्त्र! नहीं, तुम भारत-माता नहीं हो सकती!" मैंने अविश्वास प्रकट किया।

कहने लगी, "तुम ठीक कहते हो। चित्रकार की कल्पना भी अनुचित नहीं है। पहले तो मैं बंदी थी पर बंधन से तो छूट गई। अब विडंबना कि घाव ग्रस्त हूँ। कुछ घाव ग़ैरों ने दिए तो कुछ अपने ही बच्चों ने। ----और रही बात मेरे मुकुट और ज़ेवरात की, वो कुछ विदेशियों ने लूट लिए और कुछ कपूतों ने बेच खाए। इसीलिए रो रही हूँ। सैकड़ों वर्षों से रो रही हूँ। पहले ग़ैरों व बंधन पर रोती थी। अब अपनों की आज़ादी की दुर्दशा पर।

उसकी बात सच लगने लगी। तस्वीर का दूसरा रुख देख, मेरी ख़ुशी धीरे-धीरे खत्म होने लगी और आँख का पानी बन छलक उठी।

- रोहित कुमार 'हैप्पी'


......
 
 
जन्म-दिवस पर... - वंदना भारद्वाज

वो हर बरस आता है और मेरी उम्र का दर खटखटाता है
मैं घबरा कर उठती हूँ, उफ्फ तुम!......

 
 
साँस लेने की आजादी - अलेक्सांद्र सोल्शेनित्सिन

रात में बारिश हुई थी और अब काले-काले बादल आसमान में इधर से उधर घूम रहे हैं; कभी-कभी छिटपुट बारिश की खूबसूरत छटा बिखेरते हुए।

मैं बौर आए सेब के पेड़ के नीचे खड़ा हूँ और साँसें ले रहा हूँ। सिर्फ सेब का यह पेड़ ही नहीं, बल्कि इसके चारों ओर की घास भी आर्द्रता के कारण जगमगा रही है; हवा में व्याप्त इस सुगंध का वर्णन शब्द नहीं कर सकते। मैं बहुत गहरे साँस खींच रहा हूँ और सुवास मेरे भीतर तक उतर आती है। मैं आँखें खोलकर साँस लेता हूँ, मैं आँखें मूँदकर साँस लेता हूँ, मैं यह नहीं बता सकता कि इनमें से कौन-सा तरीका मुझे अधिक आनंद दे रहा है।

मेरा विश्वास है कि यह एकमात्र सर्वाधिक मूल्यवान स्वतंत्रता है, जिसे कैद ने हमसे दूर कर दिया है; यह साँस लेने की आजादी है, जैसे मैं अब ले रहा हूँ। इस संसार मेरे लिए यह फूलों की सुगंध भरी मुग्ध कर देने वाली वायु है, जिसमें आर्द्रता के साथ-साथ ताजगी भी है।

यह कोई विशेष बात नहीं है कि यह छोटी-सी बगीची है, जो कि चिड़ियाघर में लटके पिंजरों-सी पाँच मंजिले मकानों के किनारे पर है। मैंने मोटर साइकिलों के इंजन की आवाज, रेडियो की चिल्ल-पों, लाउडस्पीकरों की बुदबुदाहट सुनना बंद कर दिया है। जब तक बारिश के बाद किसी सेब के नीचे साँस लेने के लिए स्वच्छ वायु है, तब तक हम खुद को शायद कुछ और ज्यादा जिंदा बचा सकते हैं।
......

 
 
तू शब्दों का दास रे जोगी - राहत इन्दौरी

तू शब्दों का दास रे जोगी
तेरा कहाँ विश्वास रे जोगी

इक दिन विष का प्याला पी जा......

 
 
लॉकडाउन और महँगाई -  वीणा सिन्हा

कोरोना संक्रमरण की वजह से पिछले तीन महीने से जारी लॉकडाउन खत्म हो गया था ।

बेटे से मां पूछती है-"बेटा मैं बाजार जा रही हूँ।" "कौन-सी सब्जी खाओगे ? करेला, बैगन, भिंडी, गोभी, भंटा कि रोहू, कतला, सिंघी, झींगा मछली या चिकेन, मटन ला दूँ ?"

बारहवीं में पढ़ रहा बेटा किताबों में से सिर निकालकर माँ की ओर देखकर कहता है- "तुम्हें जो ठीक लगे ले आना, माँ।"

रात के खाने के टेबुल पर बेटा इंतजार कर रहा था.....'आज जरूर माँ ने कुछ बढि़या खाना पकाया होगा।' लेकिन यह क्या.........आलू की सब्जी और रोटी थाली में डालकर माँ ने बेटे के सामने रख दिया। शायद कोई कारण रहा होगा, यह सोच बेटा चुपचाप खाना खाकर उठ गया।

दूसरे दिन भी शाम को सब्जी का थैला व पर्स लिए माँ बेटे से पूछ रही थी- "बेटा मैं बाजार जा रही हूँ। तुम्हारे लिए कौन सी सब्जी ला दूं, भिंडी, करेला, बैगन, गोभी आलू कि रोहू, कतला, सिंघी, झींगा मछली या चिकेन कि मीट खाओगे ?"

बेटे ने सपाट जबाव दिया- "माँ, तुझे जो पसंद हो, वही ले आना .....।"

रात्रि में बेटा खाने के मेज पर यह सोचते हुए खाने का इंतजार कर रहा था कि आज तो माँ ने ज़रूर बढ़िया वेज या नॉनवेज खाना बनाया होगा। लेकिन आज भी माँ ने आलू की सब्जी तथा रोटी बेटे की थाली में परोस दी।

यह क्रम हफ्तों चलता रहा। माँ शाम को बाजार जाने से पहले सब्जियों का नाम गिनाती लेकिन रात में खाने के समय वही आलू की सब्जी तथा रोटी बेटे की थाली में परोस देती। आखिर बेटे के सब्र का बांध टूट गया। वह माँ से पूछ बैठा "माँ, एक बात बताओ, जब तुम्हें आलू की सब्जी ही बनानी होती है तो बाजार जाते समय क्यों ढेर सारी सब्जियों तथा मछली-मीट का नाम सुनाती हो ?"

बेटे के प्रश्न सुनकर आह भरती हुई माँ कहने लगी-"क्या करूं बेटा ! आजकल कोरोना काल में महँगाई इतनी बढ़ गई है कि सब्जी खरीदना मुश्किल हो गया है। मैं तुम्हें सब्जियों तथा मछली-मीट का नाम इसलिए सुनाती हूँ कि तुम महँगी सब्जी खा तो नहीं सकते लेकिन कहीं इनका नाम न भूल जाओ।"

बेटे ने माँ की विवशता की गहराई समझ ली। अगले दिन जब शाम को थैला तथा पर्स लिए जैसे ही माँ बाजार जाने के लिए तैयार हुई बेटा बोल पड़ा- "माँ! करेला, भिंडी, बैगन, भंटा, गोभी, कतला, रोहू, नैनी, झींगा, चिकन-मटन नहीं, मुझे आलू पसंद है और तुम आलू ही लेकर आना, माँ !"

बेटे की बात सुन माँ मंद-मंद मुस्कुराती हुई बाजार जाने के लिए आगे बढ़ गई ।


वीणा सिन्हा......

 
 
टूटा हुआ दिल... - राहत इन्दौरी

टूटा हुआ दिल तेरे हवाले मेरे अल्लाह
इस घर को तबाही से बचा ले मेरे अल्लाह

दुनिया के रिवाजों को भी तोड़ दूं लेकिन......

 
 
रावण की हड्डी | लघुकथा  - सुनील कुमार शर्मा

आम जनता के दर्शनार्थ रखे एक दिवंगत नेता के अस्थिकलश में से एक हड्डी चुराकर भागते हुए एक चोर पकड़ा गया।

उसकी सेवा पानी करने के बाद एक पुलिस अधिकारी ने उससे पूछा, "यह हड्डी तूने क्यों चुराई?"

"....घर मे रखने के लिए।" वह अपने नितम्बों को सहलाते हुए बोला।

"घर मे रखने के लिए! ....क्या मतलब?" वह पुलिस अधिकारी हैरान हुआ।

"जनाब! मतलब यह है कि, मैंने सुना है-जिस घर में रावण की हड्डी हो उस घर मे कभी चोरी नहीं होती....आपको पता होना चाहिए मेरे घर मे पिछले कुछ दिनों मे तीन-तीन चोरियाँ हो चुकी है, और दशहरा भी अभी बहुत दूर है....अब आप ही बताओ जनाब! मैं रावण की हड्डी कहाँ से लाता?"

-सुनील कुमार शर्मा
 ई-मेल: sharmasunilkumar727@gmail.com

 

......
 
 
दिल - सुनील कुमार शर्मा

सागर में काफ़ी दूर जाने के बाद, मगर अपनी पीठ पर बैठे बन्दर से बोला, "मुझे क्षमा करना मित्र! मैंने तुमसे झूठ बोला था। असल मे मेरी मगरी ने तेरे दिल का भक्षण करना है; इसलिए मैं तुझे अपने घर ले जा रहा हूँ।"

यह सुनकर बन्दर ने उसे समझाया, "ओ मूर्खप्राणी मगर! आज के जमाने मे अपने पास दिल रखता ही कौन है? हर किसी ने, किसी ना किसी को अपना दिल दे रखा है। यकीन ना हो तो मेरी छाती चीरकर देख लो, मैंने तो अपना दिल अपनी बंदरिया को दे रखा है। तू इतना बेवकूफ है कि तुझे पता ही नहीं कि तूने अपना दिल अपनी मगरी को दे रखा है।"

बन्दर को वापिस छोड़कर, मगर बड़ी तेजी से तैरते हुए मगरी के पास पंहुचा और बड़ा उत्तेजित होकर उससे बोला, "बन्दर ने तो अपना दिल अपनी बंदरिया को दे रखा है और मैंने अपना दिल तुझे दे रखा है। अब तू बता तूने अपना दिल किसे दे रखा है?"

यह सुनकर, घबराई हुई मगरी अपनी छाती टटोलने लगी कि दिल किधर गया; पर घबराहट में उसे तेजी से धड़कता हुआ अपना दिल भी नहीं मिल रहा था।

-सुनील कुमार शर्मा

संपर्क: सुनील कुमार शर्मा
गाँव: नौगावां......

 
 
मतपेटी में जिन्न - सुनील कुमार शर्मा

चुनाव प्रचार के बाद घर लौटे, एक थके-हारे नेता जी ने जब दो घूँट लगाने के लिए शराब की बोतल खोली; तो उस बोतल में से बहुत बड़ा जिन्न निकला, और बोला,"बोल मेरे आका! तुझे क्या चाहिए?"

नेता जी उत्तेजित होकर बोले, "जिन्न महाराज! आप इस छोटी-सी बोतल में रह सकते हैं तो मतपेटी में घुसना आपके लिए मुश्किल नहीं.... अतः आप मतदान वाले दिन मेरे ढेर सारे जाली मतपत्र पहुंचा देना, और मेरे विपक्षियों के मतपत्र खराब कर देना.... फिर तो मेरी बल्ले-बल्ले हो जाएगी। "

"मतपत्र क्या होता है?" जिन्न ने पूछा।

"ये कागज की छोटी-छोटी पर्चियाँ।" नेता जी, मतपत्र का नमूना दिखाते हुए बोले।

"कमाल है! आप बड़े-बड़े महल धन-दौलत को छोड़कर ये कागज के टुकड़े माँग रहे हो? ... मेरे में इतनी शक्ति है कि जब अलादीन नाम के एक आदमी ने मुझे चिराग से निकाला था; तो उसके माँगने पर मैंने उसे इतना आलीशान महल ला कर दिया था कि उसके मुकाबले का महल उस ज़माने मे बड़े-बड़े बादशाहों के पास भी नहीं था....।" जिन्न ने नेता जी को समझाने की कोशिश की, तो जिन्न की बात बीच में काटते हुए नेता जी बोले, "किस ज़माने की बातें करते हो? जिन्न साहिब! ... अगर मैं इन कागज के टुकड़ो के बल पर चुनाव जीत गया तो; मैं तेरे उस अलादीन के महल से भी खूबसूरत कोठियाँ पलभर में ख़डी करके दिखा दूंगा.. और रही धन-दौलत की बात, अगर मैं कोई छोटा-मोटा मंत्री भी बन गया तो देश-विदेश के बैंको में धन-दौलत के अम्बार लगा दूँगा।"

"गुस्ताखी मुआफ़ हो, मेरे आका!" जिन्न सिर झुकाकर बोला, मुझे पता नहीं था कि मतपत्र में हम जिन्नो से भी ज्यादा ताकत होती है।

मतदान वाले दिन जिन्न ने नेता जी की आज्ञा का पालन किया; पर उससे एक भूल हो गई; क्योंकि उसे मतदान खत्म होने के समय का पता नहीं था। वह एक मतपेटी से बाहर निकल भी नहीं पाया था कि मतदान का समय समाप्त हो गया, और उस मतपेटी पर सील लग गई। जिससे वह उस मतपेटी में बंद होकर मतगणना केंद्र पहुँच गया। मतगणना वाले दिन सभी दलों के एजेंटो के सामने उस मतपेटी की सील तोड़ी गई; तो उसके अंदर से निकलकर वो जिन्न बोला, "बोलो मेरे आकाओ, तुम्हें क्या चाहिए? "

वहाँ मौजूद सभी दलों के एजेंट एक साथ बोले "हमारी पार्टी की सरकार बननी चाहिए।"

"ऐसा ही होगा....।" कहकर जिन्न गायब हो गया।

उसी जिन्न की करामात से ही देश में पहली बार विभिन्न विचारधाराओं वाले दलों की एक मिली-जुली सरकार सत्ता में आयी; पर वह सरकार ज्यादा दिन चली नहीं।

इसमें उस जिन्न बेचारे का क्या दोष?
......

 
 
लूट मची है चारों ओर | ग़ज़ल  - राहत इंदौरी

लूट मची है चारों ओर, सारे चोर
इक जंगल और लाखों मोर, सारे चोर

इक थैली में अफसर भी, चपरासी थी......

 
 
दूरी  - परमजीत कौर

उस कंपकंपाती रात में वह फटी चादर में सिमट-सिमट कर, सोने का प्रयास कर रही थी ।

मगर आँखों में नींद कहाँ थी ? शरीर ठंड से कांप जो रहा था। एक ही चादर थी, जो ओढ़ी थी, दोनों बहनों ने ! छोटी- सी झोपड़ी में पाँच लोग थे। बाकी के लोग दिन-भर के थके, सर्दी की इस ठिठुरन में भी, नींद के आगोश में जा चुके थे। तभी बाहर से आती मधुर आवाजों से, वह बेचैन हो, खिंचती चली गई। एकाएक, झोपड़ी की बंद खिड़की के सुराख़ से, दो आँखें बाहर झाँकने लगी ।

दूर रोशनी से नहाई ऊँची इमारत से, जैसे परियों की आवाज़ें सुनकर, वह मुस्काई। "तो आज दीवाली है !" वह बुदबुदाई, तभी पीछे से हँसने की आवाज़ आई,"पगली! आज के दिन वहाँ कोई संत आते हैं और बच्चों को उपहार देते हैं।" बड़ी कहती हुई जाकर सोने लगी। "अच्छा।" उसने ख़ुशी से बड़ी का हाथ पकड़ लिया। "क्या मुझे भी उपहार मिलेगा ? मैं भी तो बच्ची हूँ न ?" वह ख़ुशी से छटपटाई......!. "हाँ , तुम भी अपने तकिये के नीचे अपनी इच्छा लिख दो। सुना है ,सबके घर आते हैं।" मुँह फेरकर, बड़ी सो गई, दुबारा वही फटी चादर ओढ़ कर! छोटी मुसकुराई , झोपड़ी में फैले अंधेरे में भी उसकी नज़र इधर-उधर दौड़ते हुए अचानक चमक उठी।

कोने में पड़े एक मुड़े-तुड़े कागज़ को उसने झट से उठा लिया। बहुत पहले से संभाल कर रखी एक छोटी सी पेंसिल से उस कागज़ के टुकड़े पर, आढ़ा-तिरछा लिखा -मुझे भी चाहिए ‘रोशनी' और उस कागज़ के टुकड़े को सर के नीचे रख, बड़ी उम्मीद के साथ, सो गई। उसके चेहरे पर मुस्कान थी और बंद आँखों में अनगिनत सपने !

सुबह उठी, तो देखा, बहन रोज़ की तरह खाना बना रही थी। उनींदी आँखों को मलते हुए, उसकी निगाह अपनी फटी चादर पर पडी। मगर ,फिर भी उम्मीद से इधर -उधर कुछ तलाशती है, कुछ भी तो नया नहीं था। झोपड़ी में वही सीलन, मंद-सी रोशनी! फिर भी, मन में कुछ सोचकर मुसकुराती हुई बहन के पास जा, पूछती है,"संत आए थे क्या ? "

बहन मायूसी से, बाहर की तरफ़ इशारा करती है, "ये दूरी देख रही है ? उस इमारत से झोपड़ी तक !
ये संत भी पार नहीं करते।"

7 वर्ष की छोटी, 11 वर्ष की अपनी बड़ी बहन की ओर प्रश्न भरी आँखों से देख, बुदबुदाती हुई बाहर आकर इमारत को देख , अपने-आप से सवाल करती है, "क्यों है ये दूरी........ ?"

-परमजीत कौर......

 
 
संवाद | लघु-कथा - रोहित कुमार 'हैप्पी'

पिंजरे में बंद दो सफ़ेद कबूतरों को जब भारी भरकम लोगों की भीड़ के बीच लाया गया तो वे पिंज़रे की सलाखों में सहम कर दुबकते जा रहे थे। फिर, दो हाथों ने एक कबूतर को जोर से पकड़ कर पिंज़रे से बाहर निकालते हुए दूसरे हाथों को सौंप दिया। मारे दहशत के कबूतर ने अपनी दोनों आँखे भींच ली थी। समारोह के मुख्य अतिथि ने बारी-बारी से दोनों कबूतर उड़ाकर समारोह की शुरूआत की। तालियों की गड़गड़ाहट ज़ोरों पर थी।

एक झटका सा लगा फिर उस कबूतर को अहसास हुआ कि उसे तो पुन उन्मुक्त गगन में उड़ने का अवसर मिल रहा है। वह गिरते-गिरते संभल कर जैसे-तैसे उड़ चला। उसकी खुशी का ठिकाना न रहा जब बगल में देखा कि दूसरा साथी कबूतर भी उड़कर उसके साथ आ मिला था। दोनों कबूतर अभी तक सहमें हुए थे। उनकी उड़ान सामान्य नहीं थी।

थोड़ी देर में सामान्य होने पर उड़ान लेते-लेते एक ने दूसरे से कहा, "आदमी को समझना बहुत मुश्किल है। पहले हमें पकड़ा, फिर छोड़ दिया! यदि हमें उड़ने को छोड़ना ही था तो पकड़ कर इतनी यातना क्यों दी? मैं तो मारे डर के बस मर ही चला था।"

"चुप, बच गए ना आदमी से! बस उड़ चल!"

- रोहित कुमार 'हैप्पी'


......
 
 
अंतिम दर्शन  - पूनम चंद्रलेखा

सुबह से कई बार स्वप्निल का मोबाइल बजा था किन्तु, वह बिना देखे ही कॉल बार-बार काट देता।

इतवार, फ़ुरसत का दिन। हँसी-ख़ुशी और मौज-मस्ती करने का दिन। पेट क्या, आलू के पराँठे और दही खाकर, आत्मा तक तृप्त हो गई स्वप्निल की। नेटफ़्लिक्स पर पसंदीदा फिल्म चल रही थी। मोबाइल फिर बज उठा। मूड न होते हुए भी उसने झुंझलाकर फोन उठाया तो देखा कि पापा का फोन है। ओफ्फो! फिर से! परसों कह तो दिया था कि अभी न आ सकूँगा। ऑफिस में ज़रूरी मीटिंग है। पापा ने एक बार आकर माँ को देख लेने और सुदेशना को भेजने की बात कही थी ताकि माँ का ख्याल रख सके। पर, स्वप्निल ने रुखाई से यह कह कर कि बच्चों की परीक्षाएँ सिर पर हैं,  सुशी न आ सकेगी। छोटे भाई सुमेश और उसकी पत्नी को बुलाने और नर्स का प्रबंध करने की बात कह कर फोन काट दिया था। अब क्या हो गया जो फिर से फोन... ज़रा भी चैन नहीं है। उसे झुंझलाहट हुई लेकिन आवाज़ में भरपूर मिठास घोलते हुए उसने धीरे से कहा--'हैलो पापा! कै..से..हैं?" वाक्य पूरा भी न हुआ था कि दूसरी ओर से आवाज़ आई--"तुम्हारी माँ चल बसी।"

"ओह! अरे! कब! कैसे! क्या हो गया?" एक साथ  कई प्रश्न जड़ दिए उसने।

"अभी! दस मिनट पहले"। फोन काटा जा चुका था।

"जाना ही पड़ेगा।" उसने पत्नी को तैयारी करने के लिए कहा जो पापा का नाम सुनते ही तनाव में आ चुकी थी।

कुछ ही देर में स्वप्निल नयी दिल्ली से अलीगढ़ के लिए हड़बड़ी में सपरिवार कार से निकल चुका था। 

छोटा भाई सुमेश सपरिवार, पड़ोसी, मित्र, रिश्तेदार सभी आ चुके थे। एक ओर पापा चुपचाप शांत मुद्रा में बैठे थे। कमरे के बीचो-बीच एक बड़ा सा गोल लाल रंग का घेरा बना हुआ था जिसके एक किनारे पर स्वस्तिक का चिह्न बना था। रुमाल जितने बड़े सफ़ेद रंग के कपड़े के नीचे कुछ ढका हुआ रखा हुआ था। कपड़े के ऊपर सफ़ेद फूल रखे हुए थे। कमरा अगरबत्ती व धूपबत्ती के सुगन्धित धुएँ से भरा था। गायत्री मंत्र की धुन दुखमय वातावरण को पवित्र बना रही थी। सब चुप और शांत।

स्वप्निल ने कमरे में नज़रें दौड़ायीं और आश्चर्य मिश्रित नज़रों से पापा के कान में कंपकपाते स्वर में फुसफुसाया -"पापा, माँ?"

पापा ने घेरे की ओर इशारा किया। कुछ भी न समझते हुए डरते दिल से उसने धीरे से कपड़ा उठाया। पीतल की थाली में कागज़ का एक मुड़ा हुआ टुकड़ा रखा था। आश्चर्य से स्वप्निल ने कागज़ उठाया और खोलकर पढ़ने लगा--

"प्रिय बच्चों! तुम्हें और तुम्हारे बच्चों को बस एक बार देखने की चाह लिए दुनिया से विदा हो रही हूँ। कई वर्षों से देखा नहीं था न..बहुत ज़रूरी ही काम होगा जो न आ पाए तुमलोग। खैर...मैं अपने शरीर और अंगों को ज़रूरतमंदों व शिक्षार्थियों के शोध हेतु समर्पित कर रही हूँ। तुम्हारे पापा ने सब इंतजाम कर दिया है। अंतिम संस्कार के तौर पर कागज़ के इस टुकड़े को भी पुनर्चक्रण (रीसायकल) के लिए दे देना। ईश्वर करे, तुम्हारा बुढ़ापा तुम्हारे बच्चों संग हँसी-ख़ुशी गुज़रे। आशीर्वाद! तुम्हारी माँ"

"तुम लोग आ जाते एक बार तो इस पत्र के नहीं, अपनी माँ के अंतिम दर्शन कर पाते।" पापा धीरे से बोले।

स्वप्निल हाथ में फड़फड़ाते उस कागज़ के टुकड़े से शब्दों को विसर्जित होते देख रहा था। उसका बेटा कोने में बैठा मोबाइल पर गेम खेल रहा था।

डॉ॰ पूनम चंद्रलेखा, मेरठ, भारत
मो:  9433700506......

 
 
पौधा | लघु-कथा - रोहित कुमार 'हैप्पी'

समारोह में साहित्यकार को एक नन्हा सा पौधा देकर आयोजकों ने उनका अभिनंदन किया। पौधा लेते-देते की सुंदर फोटो खींची गई फिर जैसा कि आजकल होता है फोटो मोबाइल के जरिये 'फेसबुक' पर 'अपलोड' हो गई।

साहित्यकार की फेसबुक वॉल पर उनके चहेतों ने बधाई देने का सिलसिला छेड़ दिया, उधर आयोजकों के चहेते भी उन्हें बधाई दे रहे थे। दोनों पक्ष मोबाइलों पर अपने चहेतों के 'लाइक' देख-देख कर आत्म-मुग्ध थे। इसी बीच जल-पान का न्योता आ चुका था। नन्हा पौधा समारोह में मेज़ पर कही पीछे छुट गया था। समारोह में जलपान चल रहा था। लेखकों, कवियों और पत्रकारों का अच्छा खासा जमावाड़ा लगा था। पौधे वाली फोटो कई 'फेसबुक' दीवारों की शोभा बनी हुई थी। शुभ-कामनाएं और बधाइयाँ अभी भी आ-जा रही थी। उधर पौधा अपनी मूल मिट्टी से जुदा हुआ मुरझा चला था।

- रोहित कुमार 'हैप्पी'


......
 
 
खम्भे पर बेल - सुनील कुमार शर्मा

मोलू चायवाले की दुकान के सामने, गंदे नाले के किनारे खड़े बिजली के खम्भे पर गलती से एक जंगली बेल चढ़ गयी। हर रोज मोलू की दुकान पर बैठकर चाय की चुस्कियों के साथ गपशप करने वाले देश के जागरूक नागरिकों की निगाह, जब उस बेल पर पड़ी तो वे सतर्क हो गए। उन्होंने तुरंत इसकी सूचना मोहल्ले के पार्षद को दी। पार्षद महोदय गरजे, "मेरे इलाके में इस बेल ने खम्भे पर चढ़ने की जुर्रत कैसे की?... चलो हम विद्युत् विभाग के एस.डी.ओ के पास चलते है।"

एस.डी.ओ साहब ने पूछा, "किसी को कोई करंट-वरंट तो नहीं लगा? मोहल्ले की लाइट तो नहीं गुल हुई?"

"अभी तो ऐसा कुछ नहीं हुआ।" सभी लोग एक साथ बोले।

"... फिर आप यहाँ क्या लेने आये हैं? कुछ होगा तो हम जरूर एक्शन लेंगे।" एस.डी.ओ साहब लापरवाही से बोले।

जिसे सुनकर पार्षद महोदय ने लाल-पीले होकर लोगों से कहा,"... आप जानते ही है कि इस समय हमारे विपक्षी दल की सरकार सत्ता में है। यह सरकार हमारे क्षेत्र का कोई भला नहीं चाहती... अब हम अपनी पार्टी के विधायक जयगोपाल चौधरी के पास चलते है।

उनकी बात सुनकर, विधायक जयगोपाल चौधरी उछल पड़े, "इस मुद्दे पर जब मैं विधानसभा में बोलूँगा तो भूकंप आ जायेगा।"

"भूकंप आने से कहीं वो खम्भा तो नहीं गिर जायेगा?" किसी ने आशंका व्यक्त की।  यह सुनकर, विधायक ने आँखें निकालकर चेतावनी दी, "... खम्भा बेशक़ गिर जाये; पर उस पर लिपटी हुई बेल किसी सूरत में नहीं गिरनी चाहिए।"

विधानसभा में बिजली मंत्री बोले, "अध्यक्ष महोदय! हमारे प्रदेश में साठ लाख दस हज़ार दो सौ खम्भे हैं। हम सभी खम्भों को चैक करवा रहे हैं। यहाँ पर जयगोपाल चौधरी जी ने जिस खम्भे का जिक्र किया है, उसका नंबर आठ लाख सात हज़ार पाँच सौ तीन है... जब इस खम्भे का नंबर आएगा; तो इसके साथ जो समस्या है, दूर कर दी जाएगी... अध्यक्ष महोदय! सरकार चाहती है कि किसी के साथ भेदभाव न हो; इसलिए सरकार ने सभी खम्भों को चैक करवाने का फैसला लिया है।"

बिजली मंत्री की इस दलील से संतुष्ट न होकर विरोध स्वरूप, समस्त विपक्ष विधानसभा से 'वॉकआउट' कर गया। फिर समस्त विपक्ष ने अगले ही दिन उसी बिजली के खम्भे के पास धरने पर बैठने का फैसला किया।

अगले दिन मोलू की दुकान के पास शामियाने गढ़ गए। प्रदेश के बड़े-बड़े कामरेड, ट्रेड यूनियनों के प्रधान, बिरादरियों के प्रधानों के अलावा धार्मिक संगठनों के लोग भी धरने पर बैठ गए। टी.वी चैनलों पर धरने का सीधा प्रसारण शुरू हो गया।

एक नेता जी दहाड़ रहे थे, " डीजल-पेट्रोल की कीमतों से भी तेजी से बढ़ते हुए यह बेल बिजली की तारों के बिल्कुल करीब पहुँच गयी है... और यह निकम्मी सरकार सो रही है। यानी कि यह सरकार लोगों के जीवन से खिलवाड़ कर रही है ...।"

तभी एक सिरफिरा आदमी किसी भंडारे का आयोजन समझकर वहाँ पहुँच गया। उसे देखकर मोलू चायवाला बोला, "यह बेचारा बहुत ज्यादा पढ़-लिखकर पागल हो गया हैं;  कभी-कभी बड़े काम की बातें करता हैं। उस सिरफिरे आदमी ने मोलू से पूछा, "यहाँ क्या हो रहा है?"

"सामने वाले खम्भे पर चढ़ी बेल को हटवाने के लिए यह सब हो रहा हैं।" सिरफिरे को यह समझाकर मोलू अपने काम में लग गया,  क्योंकि उस समय उसे जरा भी फुरसत ना थी। उस एक ही दिन में उसके इतने ब्रैड-पकौड़े बिक गए थे, जितने एक साल में भी न बिकते थे। वह सिरफिरा आदमी कुछ देर तक उस बेल की तरफ देखता रहा। फिर वह कुछ इरादा करके, मोलू की अंगीठी के पास पहुँच गया। फिर उसने चुपके से, वहाँ पड़ी हुई छोटी-सी कुल्हाड़ी उठा ली। सभी इतने व्यस्त थे कि उसकी इस हरकत पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। उस कुल्हाड़ी को बगल में दबाए हुए वह चुपचाप उस खम्भे के पास पहुँच गया। कोई कुछ समझ पाता उससे पहले ही उसने कुल्हाड़ी के एक ही वार से उस बेल को जड़ से काट दिया। फिर उसने कुल्हाड़ी में फँसाकर उसे एक झटके से नीचे गिरा दिया। उसके बाद वह, "हा! हा!! हा...!!!" करके जोर-जोर से हँसने लगा।

उस बेल को कटता देखकर, सभी लोग उसकी तरफ दौड़ पड़े। जब उसने आगे से कुल्हाड़ी लहराई तो भीड़ में से आवाज़ आयी, "रुक जाओ.. यह पागल है, कही मार न दे।" यह सुनकर सभी रुक गए।

एक नेता जी चिल्लाए, "ओ पागल! तूने यह क्या कर दिया? यह तो सरकार का काम था। विभाग का काम था।"

"ओ सयाने लोगों! क्या सभी काम सरकारों के होते हैं?  विभागों के होते हैं?  क्या हमारी कोई ड्यूटी नहीं होती?" सिरफिरा कुल्हाड़ी को लहराते हुए, बड़े आक्रोश के साथ बोले चला जा रहा था।

   -सुनील कुमार शर्मा
    ईमेल : sharmasunilkumar727@gmail.com

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परिणाम | लघु-कथा - रोहित कुमार 'हैप्पी'

उस शानदार महल की दीवारों पर लगे सफेद चमकीले पत्थरों का सौंदर्य देखते ही बनता था। दर्शक उन पत्थरों की सराहना किए बिना न रह सकते थे। सुंदर चमकीले पत्थर लोगों से अपनी प्रशंसा सुन फूले न समाते थे।

आलीशान महल की दीवारों पर लगे शानदार पत्थरों ने एक दिन नींव के पत्थरों से कहा, "तुम्हें कौन जानता है? हमें देखो, हमें कितनी सराहना मिलती है?'

नींव के पत्थरों ने झुंझलाकर थोड़े अशांत मन से उत्तर दिया, "हमें शांत पड़े रहने दो! शांति भंग मत करो।"

नींव के पत्थरों की झुंझलाहट और थोड़ी-सी अशांति के फलस्वरूप महल की कई दीवारें हिल गईं और उनमें लगे कई आत्म-मुग्ध सुंदर पत्थर अब जमीन पर गिर धूल चाट रहे थे।

- रोहित कुमार 'हैप्पी'


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ना जाने मेरी जिंदगी यूँ वीरान क्यूँ है | ग़ज़ल - डा अदिति कैलाश

ना जाने मेरी जिंदगी यूँ वीरान क्यूँ है
दीवार-दर हो के भी घर सुनसान क्यूँ है......

 
 
दो क्षणिकाएँ    - मंगलेश डबराल

शब्द

कुछ शब्द चीख़ते हैं
कुछ कपड़े उतार कर......

 
 
यमराज का इस्तीफा - अमित कुमार सिंह

एक दिन
यमदेव ने दे दिया......

 
 
बेच डाला जिस्म... - गिरीश पंकज

बेच डाला जिस्म और ईमान रोटी के लिए,
क्या से क्या होता गया इंसान रोटी के लिए।

एक ही जैसे हैं सब अपना-पराया कुछ नहीं,......

 
 
साझा घाव - दिलीप कुमार

कई दिनों से वे दोनों मजदूर चौक पर आते थे। पूरा-पूरा दिन बिता देते थे मगर उनकी दिहाड़ी नहीं लगती थी। माहौल में एक अजीब तरह की तल्खी और सिहरन थी। इंसानों के वहशीपन को प्रशासन ने डंडे की चोट से शांत तो करा दिया था मगर कुछ लोग खासे असंतुष्ट थे। उन्हें खुलकर वह सब करने का मौका नहीं मिल पाया था जो वे करना चाहते थे। दंगे के प्रभाव से मजदूर चौक भी अछूता नहीं रहा था क्योंकि दंगे के दिन ही सात मजदूर मार दिए गए थी। उनका दोष सिर्फ इतना था कि वे एक ऐसे इलाके में मजदूरी करने गए थे जहां उनके धर्म के लोगों की आबादी कम थी। जिस तरह रोटी की जरूरत साझी होती है, उसी तरह नफरत की विरासत भी साझी थी। लोगों को जब मारने के लिए कोई और न मिलता थे तो अपने इलाके में आये दूसरे धर्म के मजदूरों पर ही हमला करके उनको अधमरा कर देते थे। ये सिलसिला बढ़ा तो मजदूरों ने अपने-अपने इलाके में ही मजदूरी करना बेहतर समझा। मगर मजदूरी के अवसर मजहब देख कर पैदा नहीं होते। नतीजा कई दिनों तक उन दोनों को मजदूरी नहीं लगी। दोनों रोटियाँ लेकर आते फिर दोपहर में सब्जी बाँट लिया करते थे। बीड़ी, तमाखू की अदला-बदली करके बिना दिहाड़ी लगाए घर लौट जाते। हालात बिगड़े तो सब्ज़ियां आनी बन्द हो गयीं, अमल-पत्ती के भी लाले पड़ गए। किसी दिन बरसाती अली रोटियां लाता तो किसी दिन घसीटालाल। उन दोनों को अपनी पसंद के इलाके में मजदूरी ना मिली और दूसरे इलाकों में जाने पर जान का खतरा था। उनके घरों में रोटियां पकनी बन्द हो गयीं और वे खाली पोटलियों के साथ आते और नाउम्मीद होकर लौट जाते। उन्हें मौत अवश्यंभावी नजर आ रही थी, एक तरफ दंगाइयों से मारे जाने का भय दूसरी तरफ भूख से मर जाने का अंदेशा।

बरसाती को कुछ सूझा, उसने घसीटा को बताया। मरता क्या ना करता। बरसाती ने शाम को ये बात अपने घर वालों को बतायी, पहले तो उन लोगों ने बड़ी आनाकानी की मगर मजबूरी में वो लोग तैयार हो गए। वही बात घसीटा ने अपने घर वालों को बताई तो वे लोग भी इस पाप कर्म के लिए आसानी से राजी ना हुए मगर पापी पेट के आगे वे सब भी विवश हो गए।

अगले दिन बरसाती अली घसीटालाल के मोहल्ले की तरफ मजदूरी करने गया और अधमरा होकर अस्पताल पहुंच गया। उसे घसीटालाल के परिवार वालों ने घेरकर बहुत बुरी तरह से मारा था। इस घटना के एक दिन बाद घसीटा लाल बरसाती के मोहल्ले में मजदूरी करने गया तो उसे बरसाती के परिवार वालों ने मार-मार कर बेदम कर दिया। दोनों अस्पताल में भरती थे। उन दोनों के धर्म के लोगों ने उनकी फ़ौरी तौर पर माली मदद की। सरकार ने भी दंगा पीड़ित के तौर पर उनकी सुध ली और अब उन्हें सहानभूति के तौर पर एक बड़ी रकम की मदद मिलने की उम्मीद है हुकूमत से।

वे दोनों अब एक ही अस्पताल में भर्ती हैं। अब भी उनके घर से खाना आता है तो दीन-दुनिया से नजर बचाकर, वे अपनी सब्ज़ियां बाँट लेते हैं क्योंकि उनके घाव भी साझा थे और रोटियां भी।

-दिलीप कुमार
 ईमेल: jagmagjugnu84@gmail.com

*लेखक उत्तर प्रदेश के बलरामपुर में जन्में और लखनऊ एवं महाराष्ट्र में पढ़ाई की। आपके दो कथा संग्रह, एक लघुकथा संग्रह,एक उपन्यास प्रकाशित हो चुके है। एक व्यंग्य संग्रह, एक उपन्यास व एक कथा संग्रह प्रकाशनाधीन हैं। आप कहानी, व्यंग्य, लघुकथा, उपन्यास विधाओं में सृजन करते हैं। लेखन हेतु कई सम्मान व पुरस्कार प्राप्त कर चुके हैं।

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थाईलैंड में हिंदी - शिखा रस्तोगी 

गूंजे हिंदी विश्व में स्वप्न हो साकार ,थाई देश की धरा से हिंदी की जय-जयकार
हिंदी भाषा का जयघोष है सात समुंदर पार, हिंदी बने विश्व भाषा दिल करे पुकार।

वैश्वीकरण के इस युग में सांस्कृतिक आदान-प्रदान की प्रक्रिया अति सहज स्वाभाविक आवश्यक और महत्वपूर्ण हो गई है। सांस्कृतिक अभिव्यक्ति की सशक्त माध्यम भाषा है। सांस्कृतिक आदान-प्रदान की सबसे महत्वपूर्ण कड़ी भी भाषा है। सांस्कृतिक संबंधों को प्रगाढ़ और घनिष्ठतम बनाने में भाषा की भूमिका सर्वदा सार्थक और सकारात्मक रही है। भाषा मनुष्य के संपूर्ण व्यक्तित्व का महत्वपूर्ण एवं प्रभावशाली साधन है। मानव के संप्रेषण एवं अभिव्यक्ति का प्रमुख आधार भाषा ही है।जो भाषा जितनी खुली होती है वह उतनी ही विकसित होती है। स्वच्छंद सी आकाश रूपी विश्व में चांद रूपी हिंदी विचरण करती है तो उसके विकसित होने का आभास स्वतः ही हो जाता है। खुले आकाश में चमकते सितारों के मध्य चांद को देखना एक अलग अनुभव देता है। विभिन्न सितारों के मध्य चांद की आभा विलक्षण होती है। ठीक उसी प्रकार विश्व रूपी आकाश में चांद रूपी हमारी हिंदी सुशोभित है जो विभिन्न भाषाओं रूपी सितारों के मध्य अपनी आभा फैला रही है। हमारी मातृभाषा हमारी और हमारे देश की पहचान है। आन- बान और शान है। हिंदी के बढ़ते हुए अंतरराष्ट्रीय वर्चस्व को देखते हुए हम कह सकते हैं कि विश्व फलक पर हिंदी रूपी पुष्प अपनी सुगंध चहूँ और फैला रहा है।

वर्तमान में विश्व फलक पर हिंदी भाषा का प्रचार- प्रसार बहुत तेजी से होने लगा है। यह मधुर भाषा विश्व भाषा के रूप में अग्रसर होती जा रही है। अत्यंत प्रसन्नता की बात है कि दक्षिण पूर्व एशिया के सुंदर देश थाईलैंड में हिंदी भाषा का सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर पर विकास हो रहा है। थाईलैंड में रहने वाले भारतीय और थाई लोग देश की सभ्यता और संस्कृति के साथ-साथ हिंदी भाषा के प्रति भी सजग हो रहे हैं।इस संदर्भ में हिंदी चलचित्र, हिंदी सीरियलों की महत्ती भूमिका है। यहां के लोगों में खासतौर से युवा पीढ़ी में हिंदी चल- चित्रों के प्रभाव से हिंदी के प्रति लगाव और श्रद्धा दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। बॉलीवुड सिनेमा उसके गाने नृत्य के प्रति दीवानगी चरम सीमा पर है। घर -घर में थाई लोग हिंदी चलचित्र बड़े शौक से देखते हैं जैसे अशोका, चंद्रगुप्त ,नागिन, महाभारत और रामायण सीरियल बड़े प्रसिद्ध है ।इसी तरह भारतीय संस्कृति के विभिन्न पहलुओं रीति-रिवाजों, देवी-देवताओं ,मेहंदी, कुमकुम, आरती और प्रसाद आदि के बारे में उनकी जिज्ञासा पूर्ण प्रश्न बड़ी खुशी और आत्मीयता से पूछे जाते हैं। जिसका उत्तर पाकर उसमें निहित सुंदर भावों को सुनकर हिंदी भाषा के अध्ययन के प्रति उनका रुझान बढ़ जाता है।

इसी का परिणाम है कि थाईलैंड में कई विश्वविद्यालयों में हिंदी भाषा के अध्ययन अध्यापन की व्यवस्था है जैसे सिलपाकॉर्न विश्वविद्यालय, महाचुलालोंगकोर्न राज विद्यालय बौद्ध भिक्षु विश्वविद्यालय, प्रिदीपानो मान्ग धमासास्त्र विश्वविद्यालय, चुलालोंगकोर्न विश्वविद्यालय,कसासास्त्र विश्वविद्यालय और चिंयागमाई विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधि लेने के बाद वे स्नातकोत्तर और पीएचडी करने के लिए भारत जाते हैं। हर वर्ष भारतीय दूतावास की सहायता से महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय ,नॉर्थ ईस्टर्न हिल विश्वविद्यालय शिलांग ओर सेंट्रल इंस्टीट्यूट हिंदी आगरा आदि संस्थानो में छात्र अध्ययन के लिए जाते हैं।

थाई भारत सांस्कृतिक आश्रम ,ऐसा संस्थान है जो हिंदी को विश्वव्यापी बनाने की यात्रा में अपनी सक्रिय भूमिका अदा कर रहा है ।‘हिंदी बने विश्व भाषा मूल मंत्र’ का पालन करते हुए गत 12 वर्षों से मैं भी इस अभियान से जुड़ी हुई हूं।यहाँ छात्र पूर्ण निष्ठा से ना केवल हिंदी सीखते हैं बल्कि भाषा के कौशलो में दक्ष भी बनते हैं ।यह संस्था हिंदी भाषा के माध्यम से भारत और थाईलैंड के सांस्कृतिक संबंधों को सुदृढ़ करने में सेतु का काम कर रही है। यहां हिंदी भाषा की कक्षा के साथ-साथ अनेक कार्यक्रम भी आयोजित किए जाते हैं। उन समारोह के माध्यम से भारत की संस्कृति को मजबूत बनाने का प्रयास किया जाता है। कवि सम्मेलन, भाषण प्रतियोगिता, कविता पाठ और नाटक आदि समय-समय पर आयोजित होते हैं। हिंदी को घर-घर तक पहुंचाना ही मुख्य ध्येय हैं। इसमें थाई युवा वर्ग बढ़-चढ़कर भाग लेता है ।जिससे हिंदी के प्रति प्रेम जागृत होता है। विदेशी धरा पर थाई लोगों को हिंदी बोलते, पढ़ते देख मन बहुत प्रसन्न होता है।

स्वामी विवेकानंद सांस्कृतिक केंद्र, बैंकॉक में विभिन्न राष्ट्रीयता प्राप्त विद्यार्थी हिंदी भाषा सीख रहे हैं। हिंदी के प्रति सकारात्मक रवैया मेरे लिए सुखद अनुभव है ।उन लोगों की जुबान से हिंदी सुन मैं मंत्रमुग्ध रह जाती हूं।। विद्यार्थियों के साथ केवल हिंदी में बात करती हूं। हिंदी भाषा की वैज्ञानिकता मधुरता व स्पष्टता के कारण हिंदी भाषा छात्रों के लिए सरल हो जाती है। कई भाषाई पृष्ठभूमियों के छात्रों को हिंदी सीखने में सर्वाधिक सहायक हिंदी भाषा की वैज्ञानिकता है।जैसे उच्चारण और लेखन की एकरूपता ।जैसा बोलते हैं वैसा लिखते हैं। स्वर और व्यंजनों के क्रमिक उच्चारण स्थान एक वर्ण के लिए एक ही ध्वनि और मात्राओं का तर्कसंगत प्रयोग।

थाईलैंड हिंदी परिषद, थाई एवं भारतीयों को ऐसा मंच प्रदान करती है जहाँ सभी हिंदी में अपने मन के भावो को कविता, भजन, कहानी, लोकगीत द्वारा प्रकट करते हैं।ये संस्था हिंदी के प्रचार-प्रसार में महत्पूर्ण भूमिका निभा रही है। थाई छात्र संस्था द्वारा आयोजित कार्यक्रमों में बढचढकर भाग लेते है।वे कहानी, कविता और भारत के बारे में हिंदी में बोलते है।

भारत सरकार द्वारा हिंदी भाषा के अध्ययन के लिए भेजी गई पुस्तकें सुगम और आकर्षक है, जो हिंदी भाषा को सरलता से सिखाने में महत्वपूर्ण है। चित्र के साथ शब्द का अर्थ लिखा है जो छात्रों की शब्द संपदा बढ़ाने में सहायक है। वे हिंदी भाषा बोलने, लिखने, समझने और सामान्य वार्तालाप में सक्षम हो जाते हैं।उनका यह भाषिक कौशल उनके द्वारा समय-समय पर किए गए नाटकीय प्रस्तुतियों में देखा जा सकता है जैसे-भारत दर्शन, नेताजी ,स्वामी विवेकानंद, यादगार लिफ्ट आदि। विशेष बात यह है ये सब थाई है।जो हिंदी संस्थान समय-समय पर कई प्रतियोगिताएं आयोजित करता है। जिसमें छात्र बढ़-चढ़कर भाग लेते हैं ।विद्यार्थियों को भाषा कौशल दिखाने के लिए कई अवसर मिलते हैं।यह केंद्र थाई -भारत मैत्री को मजबूत करने की अटूट कड़ी है। हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार के माध्यम से भारत की सांस्कृतिक पताका को विश्व पटल पर फहराने के लिए दृढ़ संकल्प है।छात्र भारतीय दूतावास द्वारा आयोजित योग, नृत्य और वादन में रुचि रखते हैं। रंग बिरंगी होली, प्रकाश पर्व दीपावली को हमारे साथ प्रसन्नता से मनाते है।

हिंदी दिवस तथा विश्व हिंदी दिवस क्रमशः 14 सितंबर को 10 जनवरी को मनाते हैं। यह समारोह भारतीय दूतावास द्वारा बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। हिंदी के विभिन्न कार्यक्रम किए जाते हैं। विद्यार्थी इसमें बढ़-चढ़कर अपनी भागीदारी सुनिश्चित करते हैं। भारतीय दूतावास के द्वारा उनके उत्साहवर्धन के लिए प्रशंसा पत्र दिए जाते हैं।

थाईलैंड में विद्यालय स्तर पर कई विद्यालयों में द्वितीय भाषा के रूप में हिंदी का अध्ययन अध्यापन होता है। उनमें मुख्यत सीबीएसई पाठयक्रम का विद्यालय ग्लोबल इंडियन इंटरनेशनल स्कूल, पायोनीर इंटरनेशनल स्कूल,थाई सिक्ख इंटरनेशनल स्कूल आदि ।यहां छात्र पूरे मनोयोग से हिंदी सीखते हैं।

थाईलैंड के लोगों में भारतीय संस्कृति के प्रति जिज्ञासा और आकर्षण अत्यधिक है ।वर्तमान में डिजिटल क्रांति के कारण अपने देश में रहते हुए भी यहां के निवासी भारतीय संस्कृति के सुंदर व गरिमा पहलुओं को देखते हैं।जिससे भारत दर्शन की उनकी लालसा और प्रबल हो जाती है। हिंदी भाषा दोनों देशों के बीच सांस्कृतिक संबंधों को प्रगाढ़ बनाने तथा पर्यटन को बढ़ावा देने की दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है।यही संस्कृति की संवाहिका भाषा का श्रेष्ठतम पक्ष तथा महत्वपूर्ण उपलब्धि है ।

मैं उन स्वप्नदर्शियों में से एक हूँ जो अक्सर सपने देखते हैं। उनके साकार होने तक उन में खोए रहते हैं। मेरा सपना था कि मैं राष्ट्र की सेवा करूं। यह सपना साकार हुआ थाईलैंड में आकर। मेरे लिए बड़े गौरव की बात है कि हिंदी भाषा का प्रसार थाईलैंड में हो रहा है। थाईलैंड और भारत में सांस्कृतिक समानताएं हैं ।जिस वजह से हिंदी भाषा को सीखने की ललक युवाओं में अधिक है । थाईलैंड में हिंदी समृद्ध है। युवाओं के लिए रोजगार का माध्यम है। पर्यटन के लिहाज से प्रतिवर्ष हजारों की संख्या में पर्यटक थाईलैंड से भारत और भारत से थाईलैंड आते हैं। इस दौरान एक-दूसरे के संवाद बनाने और संस्कृति को समझने के लिए हिंदी अहम भूमिका निभाती है।

थाईलैंड में हिंदी अध्यापन करते हुए मैंने महसूस किया है कि विश्व स्तर पर विस्तृत होती हिंदी के सकारात्मक और सही विस्तार के लिए हम हिंदुस्तानियों की जिम्मेदारी है कि हम अपनी हिंदी का मान और सम्मान करें क्योंकि हिंदी केवल भाषा नहीं संस्कृति की वाहिका है।

हिंदी हमारी अस्मिता है......

 
 
मीठी वाणी | बाल कविता - प्रभुदयाल श्रीवास्तव

छत पर आकर बैठा कौवा,
कांव-कांव चिल्लाया ।......

 
 
भरोसा - सुनील कुमार शर्मा

आकाश पर बादल छाए हुए थे। एक वृद्ध, आधा मील दूर नदी से घड़े में पानी भर-भरकर, अपने घर में लगे पौधों में डालने के लिए ला रहा था। उसे देखकर, खेलने जा रहा एक युवक व्यंग्य से बोला, "बाबा! इतनी मेहनत क्यों कर रहे हो? बरसात तो होने ही वाली है....।"

“मुझे अपने पर भरोसा है.... इन बादलो पर नहीं!" उस वृद्ध ने बादलों की ओर इशारा करते हुए कहा।

जब वह वृद्ध नदी से घड़ा भरकर वापिस आया, तो उसी जगह पर वह युवक उसे फिर मिल गया;पर इस बार वह कुछ नहीं बोला, बल्कि आँखे नीची करके निकल गया; क्योंकि उस समय तेज धूप निकल आने के कारण वह खेल के मैदान से वापिस आ गया था। अचानक पश्चिम की तरफ से चली तेज हवाओं ने उन बादलों को उड़ा दिया था।
                                                            
- सुनील कुमार शर्मा
  ईमेल : sharmasunilkumar727@gmail.com


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हक़ | क्षणिका - सुफला सेठी

रोशनी बेचने का हक़ ,
सबको नहीं मिला करता;......

 
 
रेलमपेल -  प्रदीप चौबे

भारतीय रेल की
जनरल बोगी......

 
 
बुरा न बोलो बोल रे - आनन्द विश्वास

बुरा न देखो, बुरा सुनो ना, बुरा न बोलो बोल रे,
वाणी में मिसरी तो घोलो, बोल-बोल को तोल रे।......

 
 
पानी - सुनील कुमार शर्मा

हमारे खाली पड़े हुए प्लाट में पड़ोसी की दीवार के नीचे से रिसकर इतना पानी आ जाता था कि प्लाट में कीचड़ ही कीचड़ हो जाता था। हमने पड़ोसी से कई बार शिकायत की; पर उसके कान पर जूं तक ना रेंगी।

एक दिन श्रीमती जी ने सुझाव दिया, "हमारे प्लाट में पानी तो अपने-आप आ ही जाता है... क्यों ना हम कुछ सब्ज़ी के बीज बो द?  घर की हरी सब्ज़ी हो जाएगी!"

पत्नी का प्रस्ताव मुझे पसंद आया। मैंने उस प्लाट में छोटी-छोटी क्यारियाँ बनाकर, धनियाँ, पालक, मेथी इत्यादि के बीज बो दिए। बीज अंकुरित होकर, पौधे बढ़ने लगे। पर यह क्या?  अचानक पड़ोसी के घर से पानी आना बंद हो गया।

- सुनील कुमार शर्मा
  ईमेल : sharmasunilkumar727@gmail.com

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कोयल के कारनामे | रोचक  - रोहित कुमार हैप्पी

कोयल की आवाज इतनी मीठी होती है कि उसे हम विशेषण के रूप में  प्रयोग करते हैं।  यदि किसी व्यक्ति की आवाज़ बेहद सुरीली हो तो उसकी तुलना कोयल से की जाती है, 'क्या कोयल जैसी आवाज़ है!' 

क्या आप जानते हैं,  मधुर कर्णप्रिय आवाज़ वाली कोयल का व्यवहार बेहद कटु और हिंसक होता है।  कोयल एक आलसी परजीवी है, जो घोंसला बनाए बिना अपने अंडे दूसरे पक्षियों के घोंसले में देती है और फिर उन्हें वहीं छोड़ देती है। दूसरे पक्षी इसके अंडे सेते हैं और नवजात का भरण-पोषण करते हैं।  

कोयल दूसरे पक्षियों के घोसलों में अपने अंडे रख देती है और उनके अंडे नष्ट कर देटी है। कोयल के पंख बहुत अद्भुत होते हैं जिनकी सहायता से वह दूसरे पक्षियों के घोंसले पर कब्जा करने में कामयाब हो जाती है। रोचक बात यह है कि कोयल का नवजात भी जिस घोसले में जन्म लेता है, अपने जन्म के साथ ही वह उस घोंसले में रखे अन्य अंडों को नष्ट करने में लग जाता है। 


कोयल के बारे में क्या आप जानते हैं? 

कोयल की बोली सभी पक्षियों में सबसे मधुर है लेकिन केवल नर कोयल ही आवाज करता है।

कोयलअंटाकर्टिका के अतिरिक्त  सभी महाद्वीपों पर पाए जाते हैं। 

कोयल झारखंड का राजकीय पक्षी है। 

सबसे बड़ी कोयल 'चैनल-बिल्ड कुक्कू' (Channel Billed Cuckoo) है, जिसकी लंबाई 25 इंच तक होती है। इसका वजन 550 ग्राम से 935 ग्राम के बीच होता है। 

सबसे छोटी कोयल पक्षी का नाम 'लिटिल ब्रॉन्ज कोयल' (Little Bronze Cuckoo) है, इसकी लंबाई केवल 6 इंच होती है और इसका वजन लगभग 17 ग्राम होता है। ......

 
 
पीछे मुड़ कर कभी न देखो | बालगीत - आनन्द विश्वास

पीछे मुड़कर कभी न देखो, आगे ही तुम बढ़ते जाना।
उज्ज्वल कल है तुम्हें बनाना, वर्तमान ना व्यर्थ गँवाना।......

 
 
ये मत पूछो... - प्रदीप चौबे

ये मत पूछो कब होगा
धीरे-धीरे सब होगा

रोज़ खबर आ जाती है ......

 
 
अनीता बरार द्वारा लिखित 'क्रॉसिंग द लाइन' पुरस्कृत - भारत-दर्शन समाचार

अनीता बरार द्वारा लिखित और निर्देशित डॉक्यूमेंट्री फिल्म 'क्रॉसिंग द लाइन' को मुंबई, भारत में याथा कथा अंतरराष्ट्रीय फिल्म और साहित्य उत्सव 2021 में विशेष पुरस्कार मिला है।

यह फिल्म 25 नवंबर 2021 को इस फिल्म फेस्टिवल के विशेष खंड ‘अमृतमहोत्सव'  - भारत की स्वतंत्रता के 75वें वर्ष समारोह' में प्रदर्शित की गई थी।

इस फिल्म का 2007 में सिडनी में, जाने माने ऑस्ट्रेलियन गायक कमालह के द्वारा प्रीमियर हुआ था। इस फिल्म को दुनिया भर के विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों में मान्यता मिली है। और इसे ICAS एडिलेड और चियांग माई थाईलैंड ( ICAS  - एशियाई विद्वानों के लिए अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन)  में भी प्रदर्शित किया गया है। 
2018 में बिमटेक इंडिया ने भी इस फिल्म की स्क्रीनिंग और इसे सम्मानित किया। 

फिल्म के बारे में लेखिका का वक्तव्य 

मेरा जन्म स्वतंत्र भारत में हुआ था। मेरे लिए 1947 में भारत के विभाजन के समय जो कुछ भी हुआ वह या तो इतिहास की किताबों में था या मेरे माता-पिता की साझा स्मृति में। मेरे पिता अक्सर अपने दोस्त हुसैन को याद करते थे, जिन्हें उन्होंने दादू में अपने घर की चाबियां सौंप दी थीं, इस उम्मीद के साथ कि वे जल्द ही वहां लौट आएंगे।

विषय चाहे जो भी हो, मेरे माता-पिता की बातचीत अक्सर 'विभाजन से पहले' उपसर्ग के साथ शुरू होती थी। मेरी माँ को तेज़ आवाज़ और भीड़-भाड़ वाली जगह में असुरक्षा की भावना पैदा हो जाती थी। उम्र के साथ साथ, माँ-पिताजी के मन में एक बार फिर अपना घर खोने का डर समाया रहता था।  

उनकी बातों में  विभाजन के समय की न केवल नुकसान, दुश्मनी, हिंसा की मुझे आश्चर्य होता था कि बिना युद्ध किए लाखों लोग कैसे मारे गए, अपहरण किए गए या अपनी जड़ों से ही उखड़ गए। 

मुझे हैरानी होती थी कि धर्म, जो हमें सुरक्षा और आंतरिक शांति देता है, वह भी सीमाओं, रक्तपात और असुरक्षा का कारण बन सकता है!  तभी से भारत का विभाजन मेरे लिए एक जिज्ञासु भावना का विषय बन गया। 

जब मैं 1989 में सिडनी आयी, तो मैंने देखा कि भारत और पाकिस्तान के लोग बड़े ही मेलभाव से रहते हैं। कहीं कोई मन मुटाव नहीं। मैं  जानना चाहती थी कि कभी जो लोग एक सांप्रदायिक दरार का सामना करते हुये अपनी जड़ों से उखड़ गए थे और अब खुद को उन भौगोलिक सीमाओं से दूर एक-दूसरे के पास पाते हैं, वे अब कैसा महसूस करते हैं? क्या वह पीड़ा, वह घाव अब भी ताजा हैं?

मेरी जिज्ञासा को इस मंजिल तक पहुँचाया सिडनी में एक कला संगठन ने। ऑस्ट्रेलियन कला परिषद और कला मंत्रालय द्वारा समर्थित, इस कला संगठन ICE ने इस फिल्म के लिए कुछ वित्तीय सहायता और उपकरण प्रदान किए। 

इस फिल्म में सामान्य शुरुआती अड़चनें थीं। बजट बहुत सीमित था। सब कुछ जैसे कैमरामैन की फीस, एडीटिंग, संगीत आदि सद्भावना के रूप में ही आया।

सौभाग्य से, अपनी शुरुआती चिंताओं और झिझक के बाद, फिल्म में भाग लेने वाले सभी लोगों ने न केवल इसका पूरा समर्थन किया बल्कि इसकी सफलता के लिए प्रार्थना भी की। वे जानते थे कि विभाजन एक राजनीतिक स्थिति थी और उन्हें एक-दूसरे (भारतीय और पाकिस्तानी) से कोई दुश्मनी नहीं थी। फिल्म के एक उद्धरण के अनुसार, “हर कोई दिल का अच्छा होता है। बस वो समय था जब कुछ अच्छे लोग भी बुरे हो गए थे।"

इस फिल्म को बनाना न केवल एक प्रेरक अनुभव था, बल्कि यह एक बड़ी सीख भी थी। इस फिल्म ने एक तरह से मुझे अपनेपन का और नजदीकियों का खास एहसास दिया।

इस फिल्म की कहानी से पता चलता है कि कैसे किसी ने अतीत की विशिष्ट सीमाओं के भीतर वर्तमान को व्यवस्थित किया है।  इसकी हर घटना अपनी जड़ों को तलाशने की लालसा लिए हुए है। पहली बार, मैंने अपने माता-पिता की खामोश लालसा और उनके द्वारा बार-बार इस्तेमाल किए जाने वाले शब्दों - 'विभाजन से पहले' को पूरी तरह से समझा।

इस फिल्म में, मैंने अपने दिवंगत पिता की ऐतिहासिक तस्वीरों के व्यक्तिगत संग्रह और कुछ रेखाचित्रों का उपयोग किया है। मुझे याद है, उन्होंने 1985 में मुझे अपना संग्रह दिया था। फिर 1989 की शुरुआत में उनका निधन हो गया।

शायद मेरे पिता ने कहीं यह जान लिया था कि एक दिन मुझे उन ऐतिहासिक तथ्यों की आवश्यकता होगी। वास्तव में, यह एक आशीर्वाद और एक दैवीय सहायता थी। फिल्म में चित्रण के लिए, मैंने हिंदी फिल्म - सरदार और पिंजर से कुछ सेकंड के दृष्यों का इस्तेमाल किया है। इसके लिये मैं सरदार पटेल ट्रस्ट, भारत, शिमारू वीडियो और इरोज ऑस्ट्रेलिया के सहयोग के लिए उन्हें धन्यवाद देती हूँ।

यह फिल्म मेरे दिवंगत माता-पिता को समर्पित है, जो नवंबर 1947 में दादू (पाकिस्तान) से भारत आये और सीमा रेखा के दूसरी तरफ अपने दोस्तों से मिलने की उनकी इच्छा अधूरी रह गई …

[ अनीता बरार के कथ्य से]

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मुआवज़ा - सुनील कुमार शर्मा

".... मेरा सारा सामान, भारी बरसात में गिरी छत के नीचे दब गया है.... मुआवज़ा कब मिलेगा?" रमिया किरायेदारनी ने वार्ड के पार्षद से पूछा।

“जी आपको मुआवज़ा नहीं मिल सकता।" पार्षद लापरवाही से बोला 

“क्यों?” रमिया ने घबराकर पूछा।

“मुआवज़ा गरीबों के गिरे हुए मकानों का आया है, बर्बाद हुए सामान का नहीं।" पार्षद ने उसे समझाया।

“गरीबो के पास मकान होते ही कहाँ है?" रमिया गुस्से से पैर पटकती हुई, उठकर चल दी।

-सुनील कुमार शर्मा
 ईमेल:  sharmasunilkumar727@gmail.com

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परिंदा - सुनीता त्यागी

आँगन में  इधर-उधर फुदकती हुई गौरैया अपने बच्चे को उड़ना सिखा रही थी। बच्चा कभी फुदक कर खूंटी पर बैठ जाता तो कभी खड़ी हुई चारपायी पर, और कभी गिरकर किसी सामान के पीछे चला जाता। 

संगीता अपना घरेलू काम निपटाते हुई, ये सब देख कर  मन ही मन आनन्दित हो रही थी। उसे लग रहा था, मानो वह भी अपने बेटे रुद्रांश के साथ लुका-छिपी  खेल रही है।

आँखों से ओझल हो जाने पर जब गौरैया शोर करने लगती तब संगीता भी डर जाती कि जैसे रुद्रांश ही कहीं गुम हो गया है, और घबरा कर वह  गौरैया के बच्चे को श..श. करके आगे निकाल देती। 

बच्चा अब अच्छी तरह उड़ना सीख गया था।  इस बार वह घर की मुंडेर पर जाकर  बैठ गया और अगले ही पल उसने ऐसी उड़ान भरी कि वह दूर गगन में उड़ता चला गया। 

गौरैया उसे ढूंढ रही थी और चीं- चीं, चूं - चूं के शोर से उसने घर सिर पर उठा लिया। 

सन्तान के बिछोह में चिड़िया का करुण क्रन्दन देखकर  संगीता का दिल भी धक से बैठ गया। वो भी एक माँ जो ठहरी!  उसके बेटे रुद्र ने भी तो विदेश जाने के लिए पासपोर्ट बनवा लिया है औरअब कई दिनों से अमेरिका का वीजा पाने के प्रयास में लगा है।

-सुनीता त्यागी
 राजनगर एक्सटेंशन गाजियाबाद 
 ईमेल : sunitatyagi2014@gmail.com


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ओरछा : जहां राजा राम को दी जाती है हर रोज सशस्त्र सलामी - रोहित कुमार 'हैप्पी'

मध्य प्रदेश में भगवान राम का एक ऐसा मंदिर है जहां वे राजा के रूप में पूजे जाते हैं। यहाँ उनकी केवल आरती ही नहीं बल्कि पुलिस वाले उन्हें सशस्त्र सलामी (गार्ड ऑफ ऑनर) भी देते हैं। राजा राम का यह मंदिर मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ जिले के ओरछा में स्थित है। इस मंदिर को ‘राजा राम मंदिर’ के नाम से जाना जाता है। इस मंदिर प्रसाद के रूप में भक्तों को पान का बीड़ा दिया जाता है। इस मंदिर में पूजा करने लोग दूर-दूर से आते हैं। विदेशी सैलानियों का भी जब मध्य प्रदेश आगमन होता है तो वे ओरछा के इस मंदिर के दर्शन के अभिलाषी रहते हैं।

वैसे सशस्त्र सलामी (गार्ड ऑफ ऑनर) सूर्यास्त के पश्चात् दिए जाने का विधान नहीं है लेकिन यहाँ सूर्यास्त के बाद भी राजा रामचंद्र को सशस्त्र सलामी दी जाती है। यह भी दिलचस्प है कि ओरछा नगर के परिसर में यह 'गार्ड ऑफ ऑनर' राजा राम के अतिरिक्त देश के किसी भी व्यक्ति को नहीं दिया जाता, फिर बेशक वे देश के प्रधानमंत्री हों या राष्ट्रपति। यह विश्व का एक मात्र ऐसा मंदिर है, जहां श्री राम को 'गार्ड ऑफ ऑनर' दिया जाता है।

बुंदेलखंड की अयोध्या कहे जाने वाले ओरछा को भगवान का निवास कहा जाता है, इस संदर्भ में एक दोहा है--

सर्व व्यापक राम के दो निवास हैं खास।
दिवस ओरछा रहत हैं, शयन अयोध्या वास॥

यहाँ स्थानीय तौर पर लोग कहते हैं--

'राम के दो निवास खास, ......

 
 
दो ग़ज़लें - प्रगीत कुँअर

सबने बस एक नज़र भर देखा
हमने मंज़र वो ठहर कर देखा ......

 
 
कुछ सुन रहा था | कविता - अरविंद सैन

कुछ सुन रहा था
लगा कुछ खनक रहा था......

 
 
प्रयास करो, प्रयास करो - वीर सिंह

प्रयास करो, प्रयास करो
जब तक हैं साँस प्रयास करो......

 
 
शानदार | क्षणिका - शैलेन्द्र चौहान

खाना शानदार
रहना शानदार......

 
 
अब क्या होगा? - दिलीप कुमार

राजधानी में बरस भर से ज्यादा चला खेती-किसानी के नाम वाला आंदोलन खत्म हुआ तो तंबू-कनात उखड़ने लगे। सड़क खुल गयी तो आस-पास  गांव वालों ने चैन की सांस ली। मगर कुछ लोगों की सांस उखड़ने भी लगी थी। नौ बरस का छोटू और चालीस बरस का लल्लन खासे गमजदा थे।

कैमरा हर जगह था ,माइक को सवाल सबसे पूछने थे। हर बार कहानी नई होनी चाहिये।

ओके हुआ तो माइक ने पूछा –“क्या नाम है तुम्हारा, तुम कहाँ से आये हो?"

उसने कैमरे और माइक साल भर से बहुत देखे थे। उसे कैमरे से ना तो झिझक होती थी और ना ही वह  माइक से भयाक्रांत होता था लेकिन चेहरे की मायूसी को छिपाना वो बड़े नेताओं की तरह नहीं सीख पाया था।

उसने आत्मविश्वास से मगर दुखी स्वर में कहा, “छोटू नाम है मेरा,पीछे की बस्ती में रहता हूँ।”

माइक ने पूछा –“इस आंदोलन के खत्म हो जाने पर आप कुछ कहना चाहते हैं?"

“मैं साल भर से यहीं दिन और रात का खाना खाता था और अपने घर के लिये खाना ले भी जाता था। घर में बाप नहीं है, माँ बीमार पड़ी है, दो छोटी बहनें भी हैं। सब यहीं से ले जाया खाना खाते थे।  इन लोगों के जाने के बाद अब हम सब कैसे खाएंगे। अब या तो हम भीख मांगेंगे या हम भूख से मरेंगे।” ये कहकर छोटू फफक-फफक कर रोने लगा। 

“ओके, नेक्स्ट वन।”  कहीं से आवाज आई।

माइक ने किसी और को स्पॉट किया। वो चेहरा भी खासा गमजदा और हताश नजर आ रहा था। 

माइक ने उससे पूछा, “क्या नाम है आपका, क्या करते हैं आप?  इस आंदोलन के ख़त्म होने पर क्या आप भी कुछ कहना चाहते हैं?"

उस व्यक्ति के चेहरे पर उदासी थी मगर वो भी फंसे स्वर में बोला –“जी, लल्लन नाम है हमारा, यूपी  से आये हैं। फेरी का काम करते हैं,साबुन, बुरुश, तेल ,कंघी-मंजन वगैरह घूम-घूम कर बेचते हैं। दो साल से कोरोना के कारण धंधा नहीं हो पा रहा था। पहले एक वक्त का खाना मुश्किल से खाकर फुटपाथ पर सोते थे,जब से ये आंदोलन शुरू हुआ हमें दोनों वक्त का नाश्ता-खाना यहीं मिल जाता था। हम फुटपाथ पर नहीं, टेंट के अंदर गद्दे पर सोते थे। अब फिर हमको शायद एक ही वक्त का खाना मिले और फुटपाथ पर सोना पड़ेगा इस ठंडी में---"ये कहते-कहते उसकी भी आंखे भर आईं।

“ओके, नेक्स्ट वन प्लीज।" कहीं से आवाज आई।

“नो इट्स इनफ़।" पलटकर जवाब दिया गया।

“ओके-ओके," कैमरे ने माइक से कहा।

“ओके, लेट्स गो," माइक ने कैमरे को इशारा किया।

फिर दोनों अपना सामान समेटकर अगले टारगेट के लिये आगे बढ़ गए।

कहीं दूर से किसी ने हाथ हिलाया। छोटू और लल्लन उत्साह से दौड़ते हुए उधर गए।

जब वो दोनों टेंट से बाहर निकले तो उनके हाथों में खाने -पीने के ढेर सारे सामान के अलावा एक-एक पांच पाँच सौ का नोट भी था।

उनके चेहरे पर उल्लास और उत्साह था। उन्होंने एक दूसरे को देखा और अचानक दोनों के चेहरे से उत्साह गायब हो गया। उनकी आँखें मानों एक दूसरे से सवाल कर रही हों कि इसके बाद “अब क्या होगा!"

-दिलीप कुमार


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मामा आए, मामा आए | शिशु कविता - अमरनाथ

मामा आए, मामा आए
मामा आए, क्या क्या लाए

        मामा लाए चना चबेना......

 
 
अन्दर की बात | लघु-कथा - रोहित कुमार 'हैप्पी'

शहर में आंदोलन चल रहा था।

'अच्छा मौका है। यह पड़ोसी बहुत तंग करता है। आज रात इसे सबक सिखाते हैं।' एक ने सोचा।

'ये स्साला, मोटर साइकल की बहुत फौर मारता है। आज तो इसकी बाइक गई!' एक छात्र मन में कुछ निश्चय कर रहा था।

'सामने वाले की दुकान बहुत चलती है...आज जला दो। अपना कम्पीटिशन ख़त्म!' दुकानदार ने नफ़े की तरकीब निकाल ली।

'देखो, कुछ दुकानें, कुछ मकान, कुछ बसें फूंक डालो। सिर्फ विरोधियों की ही नहीं अपनी पार्टी की भी जलाना ताकि सब एकदम वास्तविक लगे।' नेताजी पार्टी कार्यकर्ताओं को समझा रहे थे।

फिर चोर-उच्चके, लुटेरे कहाँ पीछे रहते! आंदोलन के नाम पर हर कोई अपनी रोटियां सेंकने में लग गया था।

आंदोलन दंगे में बदल चुका था।

- रोहित कुमार 'हैप्पी'


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खोया हुआ कुछ - कमलेश भारतीय

– सुनो।

– कौन?

– मैं।

– मैं कौन?

– अच्छा। अब मेरी आवाज़ भी नहीं पहचानते?

– तुम ही तो थे जो कालेज तक एक सिक्युरिटी गार्ड की तरह चुपचाप मुझे छोड़ जाते थे। बहाने से मेरे कालेज के आसपास मंडराया करते थे। सहेलियां मुझे छेड़ती थीं। मैं कहती कि नहीं जानती।

– मैं? ऐसा करता था?

– और कौन? बहाने से मेरे छोटे भाई से दोस्ती भी गांठ ली थी और घर तक भी पहुंच गये। मेरी एक झलक पाने के लिए बड़ी देर बातचीत करते रहते थे। फिर चाय की चुस्कियों के बीच मेरी हंसी तुम्हारे कानों में गूंजती थी।

– अरे ऐसे?

– हाँ। बिल्कुल। याद नहीं कुछ तुम्हें?

– फिर तुम्हारे लिए लड़की की तलाश शुरू हुई और तुम गुमसुम रहने लगे पर उससे पहले मेरी ही शादी हो गयी।

– एक कहानी कहीं चुपचाप खो गयी।

– कितने वर्ष बीत गये। कहां से बोल रही हो?

– तुम्हारी आत्मा से। जब जब तुम बहुत उदास और अकेले महसूस करते हो तब तब मैं तुम्हारे पास होती हूं। बाय। खुश रहा करो। जो बीत गयी सो गयी। 

--कमलेश भारतीय


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एम्स के निर्माण की कहानी  - रोहित कुमार 'हैप्पी'

दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स /AIIMS) से तो आप परिचित होंगे! इसके निर्माण की कहानी भी कम रोचक नहीं। इसकी स्थापना में न्यूज़ीलैंड की भी विशेष भूमिका थी। 

इसकी आधारशिला 1952 में रखी गयी और इसका सृजन 1956 में संसद के एक अधिनियम के माध्‍यम से एक स्‍वायत्त संस्‍थान के रूप में किया गया।

1952 में भारत आर्थिक संकट में था। भारत सरकार के पास पैसा नहीं था। उस समय इसकी फंडिंग न्यूज़ीलैंड के माध्यम से हुई। उस समय भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और स्वास्थ्य मंत्री राजकुमारी अमृतकौर के प्रयासों से एम्स का निर्माण संभव हो पाया। 

AIIMS DELHI

इसके निर्माण में भारत की प्रथम महिला केंद्रीय मंत्री राजकुमारी अमृत कौर का विशेष योगदान रहा है। भारत की स्वाधीनता के पश्चात् राजकुमारी अमृत कौर जवाहरलाल नेहरू के प्रथम मंत्रिमंडल में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री बनीं। 1950 में वह विश्व स्वास्थ्य संगठन की अध्यक्ष चुनी गई। यह पद सँभालने वाली भी वह पहली महिला थीं और प्रथम एशियाई महिला भी। स्वास्थ्य मंत्री रहते हुए उन्होंने भारत में स्वास्थ्य सेवाओं के विस्तार के लिए अनेक प्रयास किए। नई दिल्ली में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान उन्हीं के प्रयासों का परिणाम है। इस संस्थान की स्थापना के लिए उन्होंने अनेक देशों से आर्थिक सहायता प्राप्त की। न्यूजीलैंड ने भी पूरा सहयोग किया। 
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सेंध | लघुकथा - सुभाष नीरव

चाँदनी रात होने की वजह से गली में नीम उजाला था। दो साल पहले इधर आया था। अब तो गली का पूरा नक्शा ही बदला हुआ था। किसी तरह अखिल का मकान खोज पाया। घंटी बजाई और इंतज़ार करने लगा। कुछ देर बाद अंदर कदमों की आहट हुई और बाहर दरवाजे क़े सिर पर लगा बल्ब ‘भक्क’ से जल उठा। अधखुले दरवाजे क़ी फांक में से एक स्त्री चेहरे ने झांका और पूछा-- ”कौन?”

"भाभी, मैं हूँ रमन।"

"अरे तुम! रात में इस वक्त?” 

दरवाज़ा पूरा खुला तो मैं अटैची उठाये अंदर घुसा। साथ ही बैठक थी। मैं सोफे में धंस गया। नेहा दरवाज़ा बंद करके पास आई तो मैंने सफ़ाई दी--”ट्रेन लेट हो गई। शाम सात बजे पहुँचने वाली ट्रेन दस बजे पहुँची। ऑटो करके सीधे इधर ही चला आ रहा हूँ। कल यहाँ दिन में एक ज़रूरी काम है। कल की ही वापसी है, शाम की ट्रेन से।”

नेहा ने पानी का गिलास आगे बढ़ाया। पानी पीकर मैंने पूछा, ”अखिल सो रहा है क्या?”

”नहीं, वह तो टूर पर हैं, तीन दिन बाद लौटेंगे।”

”अरे! मुझे मालूम होता तो मैं स्टेशन पर ही किसी होटल में…”

”अब बनो मत… हाथ-मुँह धो लो। भूख लगी होगी। सब्जी और दाल रखी है। फुलके सेंक देती हूँ।”

खाना परोसते हुए उसने पूछा, ”कोई लड़की पसंद की या यूँ ही बुढ़ा जाने का इरादा है?”

मैं मुस्करा भर दिया। भीतर से एक आवाज़ उठी, ‘एक पसंद की थी, वो तो पत्नी की जगह भाभी बन गई…’

”तुम यहीं बैठक में दीवान पर सो जाओ। सुबह बात करेंगे, रात अधिक हो गई है।” कहते हुए नेहा तकिया और चादर रखकर अपने बेडरूम में चली गई।

मैं लेट गया और सोने की कोशिश करने लगा। पर नींद आँखों से गायब थी। काफी देर तक करवटें बदलता रहा। मेरे अंदर कुछ था जो मुझे बेचैन कर रहा था। बेचैनी के आलम में मैं उठा और लॉबी में जाकर खड़ा हो गया। लाइट जलाने की ज़रूरत महसूस नहीं की। खुली खिड़की में से छनकर आता चाँदनी रात का उजाला वहाँ छिटका हुआ था। पुराने दिनों की यादें जेहन में घमासान मचाये थीं। वे दिन जब मैं नेहा के लिए दीवाना था। खूब बातें होती थीं पर मन की बात कह नहीं पाया था। जब तक अपने दिल की बात नेहा को कह पाता, तब तक देर हो चुकी थी। मेरे मित्र अखिल ने बाजी मार ली थी।
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हिस्से का दूध | लघुकथा - मधुदीप

उनींदी आँखों को मलती हुई वह अपने पति के करीब आकर बैठ गई। वह दीवार का सहारा लिए बीड़ी के कश ले रहा था।

‘‘सो गया मुन्ना....?’’

‘‘जी! लो दूध पी लो।’’ सिल्वर का पुराना गिलास उसने बढ़ाया।

‘‘नहीं, मुन्ने के लिए रख दो। उठेगा तो....।’’ वह गिलास को माप रहा था।

‘‘मैं उसे अपना दूध पिला दूँगी।’’ वह आश्वस्त थी।

‘‘पगली, बीड़ी के ऊपर दूध–चाय नहीं पीते। तू पी ले।’’ उसने बहाना बनाकर दूध को उसके और करीब कर दिया।

तभी.... बाहर से हवा के साथ एक स्वर उसके कानों से टकराया। उसकी आँखें कुर्ते की खाली जेब में घुस गई।

‘‘सुनो, जरा चाय रख देना।’’

पत्नी से कहते हुए उसका गला बैठ गया।

-मधुदीप
[1 मई 1950 - 11 जनवरी 2022]

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सर्वप्रथम कागज़ निर्माता - भारत-दर्शन संकलन

Paper producers

ठंड के दिनो मे ऐसा कौन-सा प्राणी होगा, जो अपने आपको 'असुरक्षित' महसूस न करता हो, परतु मधुमक्खियों अपने छत्तों में इन कठिन दिनों में भी आराम से काम मे लगी रहती हैं। एक विशेष प्रकार की मधुमक्खियों लकड़ी में बिल बनाकर रहती हैं, इन्हें 'बढ़ई मधुमक्खी' कहा जाता है। इन्हें 'कागज बर्र' भी कहते हैं। इनके छत्ते को किसी भी बडे भवन मे आसानी से देखा जा सकता है। कभी-कभी ये हमारे आस-पास मॅडराती भी रहती हैं। 

यह भी आश्चर्यजनक है कि बर्र और ततैया संसार के सर्वप्रथम 'कागज़ निर्माता' कहे जाते हैं। जिस प्रकार पक्षियो से मानव ने हवा में उडने की प्रेरणा ली और हवाई जहाज बनाया, उसी प्रकार मानव ने कागज़ी बर्र तथा ततैया से कागज़ बनाने की प्रेरणा ली होगी। 

आज भी ये लकड़ी को पीसकर और अपने मुँह की लार मिलाकर कागज जैसी वस्तु तैयार करती हैं।

[भारत-दर्शन संकलन]


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कोरोना फिर कब आएगा  - अनिता शर्मा की लघुकथा

सुमेल और राकेश की ड्यूटी स्लम एरिया में राशन बाँटने की लगी थी। बस्ती की सारी गलियों में राशन बाँटकर गाड़ी सड़क की ओर मोड़ ही रहे थे कि देखा पीछे से एक औरत बाबूजी, बाबूजी कहती हुई भागती आ रही थी। उसे देख सुमेल ने राकेश को गाड़ी रोकने के लिए कहा, वह औरत पास आई तो सुमेल ने कहा, "बीबी सारा सामान मिल तो गया है, कम से कम हफ़्ता-दस दिन चल जाएगा। अब और क्या चाहिए तुम्हें?"

"नहीं बाबूजी अपने लिए कछु नाहीं माँग रही।" उसने बाईं और इशारा करते हुए बताया,"उधर सीउर पाइप में तीन-चार दिन से आदमी-औरत दो जन आकर बैठा है, संग में तीन ठो बच्चा भी है। खाने को कछु है नाहीं, तनिक उधर देख लेते तो..."

सुमेल ने बाईं और नज़र मारी थोड़ी दूर मेन सीवरेज पाइप के ऊपर एक आदमी बैठा नज़र आया। सुमेल ने गाड़ी में से आटे-दालों के पैकेट उठाए और उस तरफ़ चल पड़ा। पास पहुँच कर देखा सीवरेज पाइप पर गठड़ी की तरह सिमटा हुआ एक मरियल सा आदमी बैठा है। पाइप के अंदर एक कंकाल नुमा औरत तीन नंग-धड़ंग बच्चों को अपने संग चिपटा कर बैठी सूनी आँखों से शून्य में ताक रही है। उसके पास जाने पर भी आदमी हिला नहीं, बच्चे अम्मा-अम्मा करते हुए माँ के पीछे छुपने की कोशिश करने लगे तो औरत को जैसे होश सा आया। उसे देखकर वह डर गई, हाथ जोड़ कुछ कहने लगी लेकिन सुमेल पहले ही बोल पड़ा, "बीबी यह कुछ सामान है, आटा-दालें, तेल, रख लो।"

"काहे ? हमें नहीं चइए ई सब, पइसा नहीं है हमरे पास," पाइप के ऊपर बैठा आदमी नीचे उतर कर कहने लगा।

"अरे पैसा नहीं देना पड़ेगा, सरकार बाँट रही है। लॉकडाउन लग गया है ना।"

"ऊ का होत है?"

"अरे भाई, कोरोना फैल गया है पूरी दुनिया में, भारत में भी आ गया है कोरोना। बचाव के लिए सरकार ने लॉकडाउन किया है।" बोलते-बोलते वह रुक गया, उसे लगा उसकी बात उनको समझ नहीं आ रही।

"चलो आप यह सामान रख लो।" तभी औरत बोल पड़ी, " बाबूजी, दुइ ठू रोटी है तो देइ दयो, बच्चे कल से भूखे हैं, हमरे पास पकाने का कोई साधने नहीं। " सुमेल ने ध्यान दिया उनके पास दो-चार खाली बर्तन के अलावा एक फटे से थैले में कुछ कपड़े दिखे। शायद यही पूँजी थी उनके पास, ग़रीबी की इससे ज़्यादा दर्दनाक तस्वीर कभी न देखी थी उसने। गले में गोला सा अटक गया, "वाहेगुरु कृपा करो!" बरबस ही उसके हाथ जुड़ गए। उसे याद आया उसने और राकेश ने रास्ते में दुकान खुली देखकर अपने-अपने घर के लिए ब्रेड, बिस्किट, नमकीन और एक-एक दर्जन फ़्रूटी ख़रीदी थी। वह गाड़ी की तरफ़ भागता हुआ गया और जाकर अपने थैले को उठाकर वापिस उसी तरह भागने लगा। राकेश ने पीछे से आवाज़ लगाई, " सरदार जी अब किधर?" वह अभी आया कहकर भागता हुआ वापिस वहीं पहुँचा और थैले से बिस्किट-ब्रेड वग़ैरह निकाल कर उनको देने लगा। ब्रेड को देख तीनों बच्चे उसपर टूट पड़े, बाकी सामान की तरफ़ देख उनकी सूखी सी आँखों में जैसे रोशनी जग उठी। उसने सारे थैले को वहीं खाली कर दिया। औरत ने हाथ जोड़कर माथे पर लगाए और उसके सामने झुक गई। आदमी फिर से गठरी हो उसके पैरों पे लोटने लगा, "आप तो साकसात ईसवर का रूप हो बाबूजी, क़सम से माई-बाप दो दिन से एक दाना नहीं गया पेट में। "

"अच्छा आटा- दाल रखो, कल स्टोव-सटूव का इंतज़ाम करता हूँ। वाहेगुरु भली करेगा।" कहकर वह वापिस मुड़ गया। पीछे से लड़के की चहकती हुई आवाज़ सुनाई दी... "अम्मा फिर कब आएगा इ किरोना ?"

"ओए तेरी कंजर दी, खोते दाँ पुत्तर ना होवे तां!" सुमेल की गर्दन पीछे घूमी साथ ही उसकी दमदार हँसी वातावरण में गूंज उठी। आँखों से टपकते आँसू मास्क के नीचे से होते हुए उसकी दाढ़ी में समाने लगे।
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मोती कैसे बनते हैं? - रोहित कुमार हैप्पी

जानिए, मोती कैसे बनते हैं

मोती कैसे बनते हैं?

समुद्र में कई ऐसे जीव पाए जाते हैं, जो मनुष्यों के लिए बहुत उपयोगी होते हैं। इन्हीं में से एक है मोती बनाने वाला घोंघा।

आपने मोतियों से बनी माला पहनी होगी या कम से कम देखी जरूर होगी। मोती न केवल आभूषण बनाने में उपयोगी है, बल्कि अन्य कई क्षेत्रों में भी इसका इस्तेमाल होता है।

क्या आपने कभी सोचा है कि मोती बनता कैसे है? यदि आपने अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ की प्रसिद्ध कविता ‘ज्यों निकल कर बादलों की गोद से’ पढ़ी है, तो आपको मोती बनने की प्रक्रिया का अनुमान हो सकता है। अगर नहीं पढ़ी, तो जरूर पढ़ें। इस कविता में बूंद के मोती में बदलने की सुंदर प्रक्रिया का वर्णन किया गया है।

अब जानते हैं कि मोती कैसे बनते हैं।

मोती घोंघों द्वारा बनाए जाते हैं। समुद्र में जहाँ घोंघे अधिक होते हैं, वहीं मोती बनने की संभावना भी अधिक होती है। घोंघे भोजन की तलाश में लगातार घूमते रहते हैं, जिससे रेत के छोटे-छोटे कण उनके शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। ये कण उन्हें असुविधा देते हैं, और इससे बचने के लिए घोंघा इन कणों के चारों ओर एक लेसदार पदार्थ लपेट देता है। यह लेसदार पदार्थ, जो घोंघे के शरीर से निकलता है, कैल्शियम कार्बोनेट होता है। समय के साथ यह परत सख्त हो जाती है और मोती का रूप ले लेती है।

आजकल मोतियों की बढ़ती मांग को देखते हुए कृत्रिम ढंग से मोती तैयार किए जाते हैं। इस प्रक्रिया को मोती की खेती कहा जाता है। इसमें घोंघे के खोल (सीप) में एक छोटा सा छेद किया जाता है और उसमें रेत का कण डाल दिया जाता है। इसके बाद घोंघा स्वाभाविक प्रक्रिया के तहत उस कण के चारों ओर कैल्शियम कार्बोनेट की परत चढ़ा देता है, जिससे मोती बनता है।

समुद्र से प्राकृतिक मोती निकालने का काम कुशल गोताखोर करते हैं, जो गहराई में जाकर घोंघों को खोजते हैं।

- रोहित कुमार हैप्पी


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सुजाता की दो कविताएं  - सुजाता

ठहराव


मैं कुछ पल ठहरना चाहती हूँ ......

 
 
अभी होली दिवाली | ग़ज़ल - शुभम् जैन

अभी होली दिवाली साथ में रमज़ान देखा है,
तराशा हुस्न का नायाब वो एवान देखा है।।......

 
 
सर्दी का सूरज  - पूर्णिमा वर्मन

सुबह-सुबह आ जाता सूरज
दंगा नहीं मचाता सूरज

ना आँधी, ना धूल पसीना......

 
 
लायक बच्चे - रोहित कुमार 'हैप्पी'

अकेली माँ ने उन पांच बच्चों की परवरिश करके उन्हें लायक बनाया। पांचों अपने पाँवों पर खड़े थे।

उनको खड़ा करते-करते माँ बैठ गई थी पर उसे खड़ा करने को कोई नहीं था। माँ ने एक-आध नालायक़ पैदा किया होता तो शायद आज साथ होता पर लायक बच्चे तो बहुत व्यस्त हो चुके थे।

रोहित कुमार 'हैप्पी'
न्यूज़ीलैंड।

 

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सीड बॉल - प्रो. मनोहर जमदाडे

जून का महीना था। इतवार के दिन मैं काम से छुट्टी लेता था। छुट्टी के दिन सुबह-सुबह गाँव में टहलने की मेरी आदत थी। अपनी आदत के मुताबिक मैं घर से निकला था। गाँव के बाहर पहाड़ों पर छोटी छोटी आकृतियाँ दिखाई दे रही थी। वैसे तो यह जगह अक्सर सुनसान रहती थी। मैं पहाड़ की तरफ निकल गया और वहाँ पहुँचने पर देखा कि छोटे बच्चे कीचड़ के लड्डू बना रहे थे। डॉक्टर होने के कारण मुझसे रहा नहीं गया। आदत के अनुसार बच्चों को हिदायते देने लगा। कीचड़ से सने उनके शरीर को देखकर, उनको डाटने भी लगा।

मैंने तेज़आवाज में उन्हें अपने-अपने घर जाने को कह दिया। उसी समय एक छोटा लड़का सामने आकार कहने लगा- 'अंकल, यह लड्डू नहीं हैं, इसे सीड बॉल कहते हैं। हमारी टीचर कहती है, बारिश के मौसम में हमें पेड़ लगाने चाहिए। पेड़ हमे फूल, फल, छाया और ऑक्सीज़न देते हैं। पर्यावरण के संतुलन को बनाएँ रखने के लिए पेड़ों का होना बेहद जरूरी हैं। नहीं तो हमे कई समस्याओं से लड़ना पड़ सकता है। इसीलिए हम इस उजड़े पहाड़ पर पेड़ लगाना चाहते हैं।'

सोचा, काश! इन बच्चों की तरह मैंने भी बचपन में यह काम किया होता तो आज यहाँ हरे-भरे पेड़ होते।

मुझे अपने आप पर शर्म महसूस हुई।

कुछ देर मैं बच्चों को देखता रहा। फिर मैं भी उन्हीं में से एक बनते हुए, सीड बॉल बनाकर खेलने लगा।

प्रो. मनोहर जमदाडे
ई-मेल : mjamdade@ymail.com

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जय जय जय अंग्रेजी रानी! - डॉ. रामप्रसाद मिश्र

जय जय जय अंग्रेजी रानी!
‘इंडिया दैट इज भारत' की भाषाएं भरतीं पानी ।......

 
 
देवताओं का फ़ैसला - अज्ञात

(1)
प्रातःकाल महाराज उठे उन्होंने आज्ञा दी, कि शाही दरवाज़े के भिक्षुकों को सम्मान से हमारे सामने पेश किया जाये।

उस रात उसने एक अनुपम सपना देखा था, और उसकी याद अभी तक उसकी आँखों में चमक रही थी। इसलिए उसने उन भिक्षुकों को कृरादृष्टि से देखा, और उनमें से हर एक को सोने की एक-एक सौ मोहर दान दी। सारे शहर में जय-जयकार होने लगा।

( 2 )......

 
 
रोचक संकलन - भारत-दर्शन संकलन

रोचक तथ्यों, विचारों व पठनीय सामग्री का संकलन।


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उड़ान - आई बी अरोड़ा

इक दिन हाथी मौज में आया
उड़ने का उसका मन कर आया

झटपट भागा भागा आया......

 
 
चल, भाग यहाँ से - दिलीप कुमार

“चल, भाग यहां से...जैसे ही उसने सुना, वो अपनी जगह से थोड़ी दूर खिसक गयी। वहीं से उसने इस बात पर गौर किया कि भंडारा खत्म हो चुका था। बचा-खुचा सामान भंडार गृह में रखा जा चुका था। जूठा और छोड़ा हुआ भोजन कुत्तों और गायों को दिया जा चुका था यानी भोजन मिलने की आखिरी उम्मीद भी खत्म हो चुकी थी।

उसने कुछ सोचा, अपना जी कड़ा किया और भंडार गृह के दरवाजे पर पहुंच गई।

उसे देखते ही अंदर से एक भारी-भरकम आवाज फटकारते हुए बोली-–“तू यहाँ तक कैसे आ गयी। चल, भाग यहाँ से।"

वो कातर स्वर में बोली--“अब ना भगाओ मालिक, अब तो सभी लोग खा चुके। कुत्ते और गायों को भी खाना डाल दिया गया है। अब कोई नहीं बचा।"

भारी भरकम आवाज, लंबी-चौड़ी, कद-काठी के साथ बाहर आ गयी और उस जगह का बड़ी बारीकी से मुआयना किया। उन्होंने इस बात की तस्दीक कर ली कि वहां पर कुत्तों, गायों और उनके विश्वासपात्र इकलौते बलशाली लठैत के अलावा कोई नहीं था।

बुलंद आवाज ने जनाना को भंडार गृह के अंदर बुला लिया।

तरह-तरह के पकवानों की रंगत और उसकी खुश्बू देखकर वो अपनी सुध-बुध खो बैठी, क्योंकि हफ्तों हो गए थे उसे दो वक्त का खाना खाए हुए।

मालिक ने एक पत्तल में सारे पकवान भर कर जब उसकी तरफ बढ़ाया तो पत्तल की तरफ झपट पड़ी क्योंकि भूख से उसकी अंतड़ियां ऐंठी जा रही थीं।

उसके हाथ पत्तल तक पहुंचते इससे पहले मालिक ने उसका हाथ पकड़ लिया और धीरे से कहा--“तेरा पेट तो भर जाएगा, लेकिन मेरा पेट कैसे भरेगा?"

वो रुआंसे स्वर में बोली--“पहले तुम ही खा लो मालिक। मैं उसके बाद बचा-खुचा या जूठा खा लूंगी।"

“मेरा पेट इस खाने से नहीं भरेगा," ये कहते हुए मालिक ने उसे अपने अंक में भींच लिया।

पहले वो सहमी, अचकचाई कि मालिक क्या चाहता है लेकिन फिर वो समझ ही गयी मालिक की चाहत, क्योंकि यही तो उससे तमाम मर्द चाहते हैं।

मालिक का प्रस्ताव सुनने के बाद उसने कहा--“इसके बाद तो खाना मिल जायेगा मालिक।"

“हां, खाना खाने को भी मिलेगा और ले जाने को भी, तो तैयार है ना तू?" मालिक ने कुटिल मुस्कान से पूछा।

उसने सर झुका लिया।

मालिक ने भंडार गृह से बाहर निकलकर अपने लठैत से कहा--“मैं अंदर खाना खा रहा हूँ। इधर किसी को आने मत देना। जब मैं खाकर बाहर आ जाऊं तब तू भी आकर खा लेना। समझ गया ना पूरी बात।"

लठैत ये सुनकर निहाल हो गया, उसने सहमति में सिर हिलाया।

मालिक ने अपनी भूख मिटानी शुरू कर दी, उधर वो बेबस जनाना सोच रही थी कि मालिक की ख़ुराक पूरी होते ही उसे इतना खाना मिल जाएगा कि उसकी बूढ़ी-अंधी माँ आज भरपेट भोजन कर सकेंगी और आज उसे किसी चौखट पर ये दुत्कार सुनने को नहीं मिलेगी कि “चल,भाग यहाँ से।"

-दिलीप कुमार


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बारह महीने - प्रशान्त अग्रवाल

पहला माह जनवरी
जाड़ा लाये झुरझुरी

दूसरा है फ़रवरी......

 
 
दादी | बाल-कविता - आभा सक्सेना

दादी तुम कितनी अच्छी हो,
पापा की प्यारी मम्मी हो ।

मम्मी जब गुस्सा होती हैं,......

 
 
पेट महिमा - बालमुकुंद गुप्त

साधु पेट बड़ा जाना।
यह तो पागल किये जमाना।।......

 
 
सत्य और असत्य - मुक्तिनाथ सिंह

मनुष्य की छाया मनुष्य से बोली, 'देखो! तुम जितने थे, उतने ही रहे, पर मैं तुमसे कितना गुना बढ़ गई हूँ।'

मनुष्य मुसकराया और बोला, "सत्य और असत्य में यही तो अंतर है। सत्य जितना है, जैसा है, वैसा ही जबकि असत्य छद्म और बल के सहारे घटता-बढ़ता रहता है।"

-मुक्तिनाथ सिंह


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दो पल | गीत -  शिवशंकर वशिष्ठ

दो पल को ही गा लेने दो ।
गाकर मन बहला लेने दो !

कल तक तो मिट जाना ही है;......

 
 
गाय की रोटी | लघुकथा  - सुशील शर्मा

कल जब शर्मा जी शाम को घूम कर लौट रहे थे तो उन्होंने देखा कि एक गाय दो बछड़ों के साथ एक घर के दरवाजे पर खड़ी थी ,घर की मालकिन ने एक रोटी लाकर बछड़े को देने की कोशिश की तो गाय ने बछड़े को धकिया कर खुद रोटी खाने लगी। शर्मा जी ने देखा कि वह गाय हर घर में जाती और खुद रोटी खाती पर बछड़ों को दूर कर देती।

शर्मा जी का मन बहुत भारी हो गया, सोचने लगे कि देखो कलियुग आ गया। गाय जिसे हम सबसे ज्यादा परोपकारी मानते हैं, वह भी कलियुग के प्रभाव में अपने बछड़ों को भूखा रखकर खुद रोटी खा रही है।

कुछ देर बाद जब शर्माजी बाजार के लिए निकले तो उन्होंने देखा कि वो दोनों बछड़े अपनी माँ का दूध पी रहें हैं और वह गाय बड़े दुलार से उन्हें चाट रही है। शर्मा जी को सारा मामला समझ में आ गया। शर्मा जी जब उसके बाजू से निकले तो जैसे गाय उनसे कह रही हो "क्यों शर्मा जी, अब समझ में आया कि वो सारी रोटी मैं क्यों खाती थी? ...ताकि हम तीनों जीवित रह सकें, मेरे दूध से मेरे दोनों बछड़े पल रहे हैं। अगर मैं रोटी नहीं खाती तो ये दूध कहाँ से निकलता और मेरे बच्चे कैसे पलते?" शर्मा जी की आँखों में अब गाय और उसकी समझदारी के लिए अनन्य प्रेम भाव था।

-सुशील शर्मा


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हास्य काव्य संकलन - भारत-दर्शन संकलन

हास्य कविताएं

यहाँ विभिन्न हास्य कवियों की हास्य कविताएं संकलित की हैं, इनमें सम्मिलित हैं - कवि चोंच, गोपालप्रसाद व्यासकाका हाथरसीअशोक चक्रधर, हुल्लड़ मुरादाबादी, बेधड़क बनारसी, शैल चतुर्वेदी, प्रदीप चौबे, मधुप पांडेय की कविताएं।

 


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खेलो रंग से | कविता - डॉ. श्याम सखा श्याम

खेलो रंग से
मगर ढंग से......

 
 
पहचान - अनिता रश्मि

"ऐ! इधर लाइन में खड़े हो।" वह सकपकाकर सर झुकाए वहीं बैठा रहा। सभी को खिचड़ी, चटनी, अचार बाँटते हुए बहुत गदगद थे वे। अपनी संस्था का नाम हर दिन अखबारों के पन्नों पर देखना नित्य क्रिया का अहम हिस्सा बन गया था। खिचड़ी भरे कलछुल के साथ फैले हुए हाथों के दोनों में उतरती उनकी तस्वीरें! वे सेल्फी ले नहीं पा रहे थे। पर उनके दानवीर साथी मोबाइल का जबरदस्त उपयोग कर रहे थे। लगे हाथों उन साथियों के भी पौ बारह।

सफलता की मुस्कान उनके होंठों की कोरों पर सजी रहती। प्रत्येक दिन किसी ना किसी अखबार में छपीं तस्वीरें उनकी उदारता के बखान के लिए काफी थीं।

बहुत देर से किनारे बैठा एक शख्स अपनेआप में गुम था। गंदे बिखरे केश, धूल सने कपड़े, टूटी चप्पलें, पपड़ाए होंठ, काला पड़ गया चेहरा! उन्होंने फिर आवाज दी,
"ऐई! इधर आओ, तभी मिलेगी। मैं उतनी दूर से कस्बे में आया हूँ। तुम इतने पास से उठकर नहीं आ सकते।"

फिर उन्होंने दनादन फोटो खींचनेवाले साथी से कहा, "अरे! उस भिखारी को यहाँ ले...। "

" ... साहब! हम भिखमंगा नहीं, अपने गाँव लौटनेवाले मजदूर हैं। हाँ, मजबूर हैं लेकिन भिखारी नहीं।" उनकी बात पूरी होने से पहले वह बिफर पड़ा।

-अनिता रश्मि

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'ग्रहण काल एवं अन्य कविताएँ’ का विमोचन संपन्न - भारत-दर्शन समाचार

ग्रहण काल एवं अन्य कविताएँ का विमोचन संपन्न

उद्वेलन एवं संवेदनाओं की कविताएँ : प्रो. बी. एल. आच्छा

सरल शब्दों में गहन विषयों को व्यक्त करना आसान नहीं : गोविंदराजन

11 जनवरी, 2025 (चेन्नै) : ‘डॉ रज़िया बेगम की कविताएँ सरल एवं सहज शब्दों के माध्यम से भावनाओं एवं सामाजिक विद्रूपताओं को व्यक्त करने वाली कविताएँ हैं। सरल शब्दों में गहन विषयों को व्यक्त करना आसान नहीं। इन कविताओं में प्रेम, वेदना, छटपटाहट, रिश्तों की तड़प, मातृत्व की झलक, संवादशून्यता आदि निहित हैं। कुल मिलाकर ये कविताएँ अपने आप को बचाने की कोशिश में लहूलुहान हो रही पीढ़ी को आगाह करने वाली कविताएँ हैं।’

एग्मोर स्थित बैंक ऑफ बड़ौदा के क्षेत्रीय कार्यालय में विश्व हिंदी दिवस के अवसर पर आयोजित डॉ रज़िया बेगम की पुस्तक 'ग्रहण काल एवं अन्य कविताएँ' के लोकार्पण समारोह के अवसर पर वरिष्ठ साहित्यकार व अनुवादक श्री गोविंदराजन (चेन्नै) ने अपने अध्यक्षीय टिप्पणी में उक्त उद्गार व्यक्त किए।  

बतौर मुख्य वक्ता प्रसिद्ध व्यंग्यकार एवं कवि प्रो. बी. एल. आच्छा (चेन्नै) ने कहा कि ग्रहण काल वस्तुतः एक रूपक है जिसके माध्यम से कवयित्री ने अपने भीतर की संवेदना को व्यक्त किया है। उन्होंने अपने वक्तव्य में इन कविताओं को 'उद्वेलन की कविताएँ' कहा, क्योंकि इनमें कहीं भी ठहराव नहीं है। उन्होंने इस बात पर बाल दिया कि व्यापक धरातल पर इन कविताओं में अत्यंत सूक्ष्म संवेदनाओं को महसूस किया जा सकता है, जो संसार से उपजी हैं।

तमिलनाडु हिंदी अकादमी, चेन्नै की अध्यक्ष डॉ. ए. भवानी ने कहा कि रज़िया जी आशावादी कवयित्री हैं जो अंधकार को मिटाने की गुहार लगाती है। उन्होंने यह रेखांकित किया कि रज़िया जी की कविताओं में सुख-दुख का संगम है। ये कविताएँ जहाँ समस्या की ओर इशारा करती हैं, वहीं उनका निदान भी सामने रखती हैं। उन्होंने रज़िया जी की पहली सृजनात्मक काव्य-कृति को उनके 'अवचेतन मन की अभिव्यक्ति' कहा।

पुस्तक विमोचन

डी जी वैष्णव कॉलेज, चेन्नै के हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ. मनोज कुमार सिंह ने कहा कि इन कविताओं में प्रेम के अनेक आयाम निहित हैं। उन्होंने कहा कि सरल रूप से भावों को अभिव्यक्त करना कष्टसाध्य है, फिर भी रज़िया जी ने अपने प्रथम प्रयास में ही सफलता अर्जित की है। उन्होंने यह भी कहा कि कवयित्री कभी हार नहीं मानती और वह दूसरों को भी आगाह करती है तथा चेताती है कि वे भी इस राह पर आगे बढ़ें।

मुंबई से पधारीं डॉ. सविता तायडे ने यह संकेत किया कि इस संग्रह में निहित कविताएँ अंतःसंबंधों को बचाने की कोशिश करती स्त्री-मन को पाठक के सामने प्रस्तुत करती हैं। उन्होंने इन कविताओं को राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, वैश्विक, सांस्कृतिक आयामों पर वर्गीकृत किया।

श्री शंकरलाल सुंदरबाई शाशुन जैन कॉलेज, चेन्नै की असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. सरोज सिंह ने कहा कि रज़िया जी की कविताएँ मानव अस्तित्व को उकेरती हैं, दमनकारी नीति का विरोध करती हैं, संघर्षों के बीच सांस्कृतिक धरोहर को अक्षुण्ण रखती हैं। उन्होंने इन कविताओं को 'संदेशात्मक कविताएँ' कहा।

 डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा

उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, मद्रास की एसोसिएट प्रोफेसर एवं ‘स्रवंति’ की सह संपादक डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा ने ‘मैं तो मिट्टी का कण हूँ’, ‘हैवलॉक’, ‘कालापानी’, ‘पधारो हमारो अंडमान’ शीर्षक कविताओं के हवाले कहा कि अंडमान में जन्मी, अपनी जड़ों से दूर चेन्नै में निवास रह रहीं कवयित्री रज़िया बेगम अंडमान की स्मृतियों में गोता लगाते हुई दिखाई देती हैं। उन्होंने एक कविता के हवाले सब का ध्यान इस ओर खींचा कि कवयित्री की प्रयोगशीलता 9 पंक्तियों में समाहित 15 शब्दों की गहन अभिव्यक्ति से मुखरित होता है। आगे उन्होनें स्पष्ट किया कि इन कविताओं में आत्मीयता और प्रेम के विविध पाठों के अतिरिक्त आक्रोश का पाठ, स्त्री-पाठ, बेबसी का पाठ, संघर्ष का पाठ आदि को एक पाठक अपनी दृष्टि से रच सकता है। उन्होंने कवयित्री को साधुवाद दिया।     

राजस्थान पत्रिका, चेन्नै के प्रभारी संपादक डॉ. विजय राघवन ने कहा कि नई दिल्ली के सृजनलोक प्रकाशन से प्रकाशित इस पुस्तक में कुल 75 छोटी-बड़ी कविताएँ हैं जो मर्यादाओं को लांघने वाली युवा पीढ़ी पर प्रहार करती हैं। इन कविताओं को उन्होंने कवयित्री के 'अनुभव जगत से उपजी सृजन के बीज' कहा।

इस कार्यक्रम का सफल काव्यमय संचालन अग्रसेन कॉलेज, चेन्नै के हिंदी विभागाध्यक्ष गीतकार डॉ. सतीश कुमार श्रीवास्तव ने किया। उन्होंने अपने आपको इन कविताओं के साथ जोड़ते हुए अपने 'स्व' अनुभूति को व्यक्त किया।

बैंक ऑफ बड़ौदा की मुख्य प्रबंधक (राजभाषा) सुश्री कृष्णप्रिया और वरिष्ठ प्रबंधक (राजभाषा) सुश्री रीता गोविंदन ने अतिथियों का शब्द सुमनों के साथ स्वागत किया तथा कवयित्री डॉ. रज़िया बेगम ने अपनी अनुभूतियों को साझा करते हुए धन्यवाद ज्ञापित किया।

[भारत-दर्शन समाचार]

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पानी की बर्बादी - रवि श्रीवास्तव

मत करो मुझको बर्बाद, इतना तो तुम रखो याद।
प्यासे ही तुम रह जाओगे, मेरे बिना न जी पाओगे।......

 
 
एक और महाभारत - संदीप तोमर

वो पांच भाई थे। मझले का नाम भीमा था। दंगे और दंगल दोनो का ही उस्ताद। घर में फाँकें लेकिन पहलवानी का इतना जुनून कि घर का आधा राशन खुद ही निपटा दे। भाई अपने हिस्से का राशन खाने की शिकायत करते तो कहता -"देखना एक दिन इस सारे राशन की कीमत अदा कर दूंगा और यही पहलवानी एक दिन हम सबको मालामाल कर देगी।"

सब ही उसकी बात पर हँस देते। एक दिन उसे पता चला कि पास के गांव के मुखिया ने एक दंगल रखा है। भीमा चारो भाइयों को लेकर दंगल पहुँच गया।

वहाँ जाकर पता चला कि मुखिया खुद पहलवानी करता था। आज उसने घोषणा की है कि जो भी पहलवान दंगल का विजेता होगा उससे अपनी अत्यंत गुणवान और रूपवान पुत्री की शादी कर देगा।

चार-छह घण्टे तक चले दंगल में आखिर भीमा जीत ही गया। पांचों भाई खुशी से उछल रहे थे।

मुखिया ने वादे के मुताबिक बेटी का हाथ भीमा के हाथ में थमा दिया। साथ ही धन इत्यादि के साथ विदा किया। भीमा खुशी-खुशी भाइयों के साथ घर की तरफ चल पड़ा।

घर पहुंचा तो दरवाजे से ही आवाज लगाई-" माँ, माँ देखो आज मैं दंगल में क्या जीत कर लाया हूँ?"

माँ ने बिना देखे कहा-"जो भी लाये हो आपस में बाँट लो।"

भीमा या उसके भाई कुछ कहते उससे पहले ही मुखिया की बेटी कह उठी-"माँ जी, मैं द्रौपदी नहीं हूं। मुझे बंटवाकर एक और महाभारत रचाने का इरादा है क्या?

भीमा के भाइयों के चेहरे पर आई खुशी पलभर में गायब हो चुकी थी।

-संदीप तोमर


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मन की बात - मनीष खत्री

एक माँ-बेटी थीं। बेटी जवान हो रही थी, लेकिन उसका विवाह नहीं हो पा रहा था। विधवा वृद्धा माँ इसी चिंता में घुली जा रही थी। जवान बेटी घर से बाहर जाती तो माँ उसकी चौकसी करती। बेटी को यह पसंद नहीं था।

संयोग की बात थी कि दोनों को नींद में चलने और बड़बड़ाने की आदत थी। एक रात दोनों नींद में उठ गई और सड़क पर चलने लगीं। माँ नींद में जोर-जोर से लड़की को गालियाँ दे रही थी इस दुष्ट के कारण मेरा जीना हराम हो गया है। यह जवान हो रही है और मैं बुढ़ापे से दबी जा रही हूँ।' बाजू की सड़क पर लड़की भी नींद में चल रही थी और बड़बड़ा रही थी-‘यह दुष्ट बुढिया मेरा पीछा छोड़ती ही नहीं। जब तक यह जीवित है, तब तक मेरा जीवन नरक है।' तभी मुरगे ने बाँग दी। चिड़िया चहचहाने लगीं और ठंडी बयार बहने लगी। बूढ़ी माँ ने बेटी को देखा। वह प्यार भरे स्वर में बोली, "आज इतनी जल्दी उठ गई। कहीं सर्दी न लग जाए। ऐसे दबे पाँव उठी कि मुझे पता ही नहीं चला।” बेटी ने माँ को देखा तो झुककर उसके पैर छू लिये। माँ ने बेटी को गले से लगा लिया। तब बेटी उलाहने के स्वर में बोली, "माँ, कितनी बार कहा कि इतनी सुबह मत उठा करो मैं पानी भर दूँगी और घर साफ कर दूँगी। तुम बूढ़ी हो। बीमार पड़ गई तो क्या होगा? माँ, तुम ही तो मेरा एकमात्र सहारा हो। इतनी मेहनत करना ठीक नहीं है। आखिर मैं किसलिए हूँ!"

माँ-बेटी नींद में क्या कह रही थीं और जागने पर क्या कह रही थीं? नींद तो झूठ है, सपना झूठ है। नींद में चलना तो रोग है, लेकिन बात एकदम उलटी है। जो नींद में कह रही थीं, वही सच था जो जागने पर कह रही हैं, वह एकदम झूठ है। मन में गहरी दबी बातें भी नींद में बाहर आ जाती हैं। सज्जन व्यक्ति सुप्तावस्था में वही करते हैं, जो दुर्जन लोग जाग्रत् अवस्था में किया करते हैं।

-मनीष खत्री
[प्रेरक लघुकथाएँ]

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प्रवासी भारतीय दिवस पर सिंगापुर से तीन पुस्तकों का विमोचन  - भारत-दर्शन समाचार

तस्वीर में बाएँ से--श्री एम पी राय, डॉ संध्या सिंह, चित्रा गुप्ता, अरुण माहेश्वरी, पूजा टिल्लू, डॉ चियांग ली पेंग

सिंगापुर (9 जनवरी 2025): प्रवासी दिवस के  विशेष अवसर पर,सिंगापुर में प्रवासी साहित्य की तीन पुस्तकों का विमोचन भारतीय उप उच्चायुक्त श्रीमती पूजा टिल्लू जी के करकमलों से नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ सिंगापुर (NUS) में संपन्न हुआ।

प्रतिष्ठित वाणी प्रकाशन ग्रुप द्वारा प्रकाशित दो महत्वपूर्ण पुस्तकों का विमोचन हुआ। वाणी प्रकाशन से प्रकशित पहली पुस्तक--“सिंहापुरा: द्वीप देश की प्रवासी कविता” जिसका सम्पादन डॉ संध्या सिंह और चित्रा गुप्ता ने किया है। इस पुस्तक में  सिंगापुर के 27 कवियों की रचनाएँ हैं और यह सिंगापुर के प्रवासी साहित्य का प्रतिनिधि काव्य-संग्रह है। सिंगापुर के प्रवासी कवियों की भावनाओं को समेटे यह काव्य संग्रह विविधता से भरा है।

वाणी प्रकाशन से प्रकाशित दूसरी पुस्तक “सिंहापुरा: द्वीप देश का प्रवासी गद्य” -सिंगापुर से पहला साझा गद्य संग्रह है। इसका सम्पादन डॉ. संध्या सिंह और दिव्या माथुर ने किया है। इस पुस्तक में बीस रचनाकारों ने अपने संस्मरण और यात्रा वृतांत में सिंगापुर के प्रवासी जीवन और अनुभवों  को समेटा है।

सिंगापुर से तीन पुस्तकों का विमोचन

तीसरी पुस्तक फ्लाईड्रीम से प्रकाशित ‘ओस सी ज़िन्दगी’ सिंगापुर के चर्चित साहित्यकार श्री रत्नेश पांडेय का पहला एकल काव्य संग्रह  है जो उनकी कलात्मकता से भी भरपूर है।

प्रवासी दिवस पर इन अनमोल पुस्तकों के माध्यम से प्रवासियों के जीवन, अनुभव, और भावनाओं को जानने का अवसर प्राप्त करें। इन्हें अवश्य पढ़ें और अपनी प्रतिक्रियाएँ साझा करें।

प्रवासी दिवस के अवसर पर सांस्कृतिक कार्यक्रम के  रूप में परम्परा नृत्य विद्यालय से सुष्मिता दत्ता ने  जगन्नाथ जी की प्रतिमा की उपस्थिति में ओडिसी नृत्य प्रस्तुत किया। सभी रचनाकारों ने अपनी एक रचना का पाठ भी किया।

इस भव्य कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में भारतीय उपउच्चायुक्त श्रीमती पूजा टिल्लू, वाणी प्रकाशन के प्रबंध निदेशक श्री अरुण माहेश्वरी, अमिता माहेश्वरी, NUS सेंटर फॉर लैंग्वेज स्टडीज़ की उप निदेशक डॉ. चियांग ली पेंग, हिंदी सोसाइटी के अध्यक्ष श्री एम.पी. राय, महाराष्ट्र मंडल सिंगापुर के श्री सचिन जंगम, भारत से आए भाषा विद प्रो. विमलेश कांति वर्मा, और तबला अखबार के संपादक श्री संतोष कुमार  के साथ ही विद्यार्थियों और  भारतीय समुदाय की उपस्थिति रही। कार्यक्रम का संयोजन  NUS के हिंदी व तमिल भाषा कार्यक्रम की प्रमुख, डॉ संध्या सिंह ने और संचालन लोकप्रिय और प्रतिष्ठित साहित्यकार विनोद दुबे ने किया। सिंगापुर संगम की टीम से अरुणा सिंह, पूनम चुघ, प्रतिमा सिंह, डॉ आराधना सदाशिवम्, रत्नेश पाण्डेय, विनोद दुबे, सौरभ श्रीवास्तव व सभी ने भरपूर सहयोग दिया।

[भारत-दर्शन समाचार]


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भावुक - रेखा वशिष्ठ मल्होत्रा

पन्द्रहवाँ पार करके सोलहवें में प्रवेश कर गयी थी वह। परन्तु, अब भी उसकी पलकों में आँसू बाहर ढलकने को सदैव तैयार बैठे रहते। वह छोटी-छोटी बातों पर टसुए बहाते हुए माँ की गोद में मुँह छुपा लेती।

उसको रोते देखकर उसके दोनों भाई उसे खूब चिढ़ाते और तालियाँ पीटकर खिलखिलाने लगते। भाई जुड़वां थे व उससे दो वर्ष छोटे थे। वे दोनों कभी नहीं रोते थे। पिता भी उसको माँ के पल्लू में मुँह छिपाकर रोते देख मुस्कुरा दिया करते थे।

माँ अक्सर कहती, "इतनी भावुकता लेकर कैसे निभेगी इसकी? अगर किसी दिन मैं न रही तो इसका क्या होगा?" वह सोचती, "छी! माँ भी कैसी बात कहती है। भला माँ क्यों नहीं रहेगी? कहाँ चली जायेगी!"

एक रात माँ को दिल का दौरा पड़ा और वह सचमुच हमेशा के लिए छोड़कर चली गयी। घर में कोहराम मच गया। अंतिम संस्कार के अगले दिन फिर से सभी रिश्तेदार इकठ्ठे हुए। सबको चिन्ता थी कि छोटे-छोटे बच्चों के साथ अब घर कैसे संभलेगा। पिता को आने-जाने वालों ने घेर रखा था। दोनों भाई आँखों में आँसू लिए कोने में दुबके बैठे थे।

सब बैठे चिंता जता रहे थे, लेकिन उठकर काम कोई नहीं कर रहा था। तभी सबकी नजर उसपर पड़ी, वह हाथों में चाय की ट्रे लिए खड़ी थी। उसकी आँखों में एक भी आँसू नहीं था, वह सूनी आँखें लिए सबको ताक रही थी...

-रेखा वशिष्ठ मल्होत्रा
 ई-मेल : rekha.malhotra0811@gmail.com

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डॉ. पुष्पा भारद्वाज वुड द टेन इनक्रेडिबल पीपल' सूची में - भारत-दर्शन समाचार

9 जनवरी 2025 (न्यूज़ीलैंड) :  वेलिंगटन की डॉ. पुष्पा भारद्वाज वुड को MAIA मनी चेंजर्स द्वारा घोषित 'द टेन इनक्रेडिबल पीपल' सूची में सम्मिलित किया गया है।

इस सूची में नाम आने से उन्हें मनी अवेयरनेस और इनक्लूजन अवार्ड्स (MAIA) में भी स्वचालित रूप से भाग लेने का अवसर मिलता है, यह एक ऐसा कार्यक्रम है जो दुनिया भर में लाखों लोगों के लिए वित्तीय साक्षरता और समावेशन में बदलाव लाने वाले लोगों की सराहना करता है।

डॉ वुड न्यूज़ीलैंड की मेस्सी यूनिवर्सिटी के वित्तीय शिक्षा और अनुसंधान केंद्र की निदेशक हैं और कई गैर-लाभकारी संगठनों से जुड़ी हुई हैं। डॉ वुड वित्तीय साक्षरता की प्रबल समर्थक रही हैं, जिसे सरकार, कॉर्पोरेट और घरेलू स्तर पर वित्तीय प्रबंधन की दिशा में पहला कदम माना जाता है।

MAIA उन नेताओं को मान्यता प्रदान करता है जो लोगों को वित्तीय स्थिरता और प्रगति हासिल करने के लिए इसके विभिन्न पहलुओं को समझाने में मदद करते हैं – चाहे वे शिक्षक हों, फिनटेक संस्थापक हों या नीति निर्माता।

डॉ. पुष्पा वुड वित्तीय साक्षरता और शिक्षा की समर्थक हैं। उनका काम विशेष रूप से संवेदनशील समुदायों, जैसे प्रवासी, महिलाएं और युवाओं के बीच वित्तीय क्षमता को सुधारने पर केंद्रित है। उन्होंने ऐसे साक्ष्य-आधारित कार्यक्रम और संसाधन विकसित किए हैं जो वास्तविक दुनिया की चुनौतियों को हल करने में मदद करते हैं।

डॉ. वुड का वयस्कों और वित्तीय साक्षरता के प्रचार में विस्तृत अनुभव है। उन्होंने स्कूल, उच्च शिक्षा और उद्योग क्षेत्रों में काम किया है ताकि वयस्कों की साक्षरता और वित्तीय साक्षरता में सुधार किया जा सके, और वे न्यूजीलैंड क्वालिफिकेशंस अथॉरिटी की एक परियोजना सलाहकार समिति की सदस्य हैं, जो वित्तीय साक्षरता मानकों की समीक्षा कर रही है।

डॉ. वुड वर्तमान में 'एडल्ट लिटरेसी प्रैक्टिशनर्स एसोसिएशन' की अध्यक्ष हैं। उन्हें शिक्षण संसाधन विकसित करने, प्रशिक्षण देने और स्टेकहोल्डर संबंधों में व्यापक अनुभव है। उनका शोध इस बात पर केंद्रित है कि कौन से कारक लोगों को उनके वित्तीय व्यवहार में बदलाव लाने के लिए प्रेरित करते हैं और वे सांस्कृतिक रूप से उपयुक्त संसाधनों का मूल्यांकन करती हैं।

[भारत-दर्शन समाचार]


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संबंधी - डॉ प्रेमनारायण टंडन

एक धनी के मकान में आग लग गयी। घरवाले किसी तरह जरूरी सामान के साथ अपने प्राण लेकर जब बाहर आये तब पता चला कि एक बालक अभी घर में ही रह गया है। तब तक आग ने भयंकर रूप धारण कर लिया था इसलिए किसी को सूझ न पड़ा कि बच्चे को कैसे बचाया जाए।

तभी बहन ने रोते हुए कहा-- "जो कोई मेरे भाई को बचा लाएगा, उसे एक हजार रुपया इनाम दिया जाएगा।"

जब भीड़ में से कोई न हिला तब बड़े भाई ने रोते-रोते कहा--- "जो कोई मेरे भाई को बचा लायगा, उसे पाँच हजार इनाम दिया जाएगा।"

इस पर भी जब भीड़ में कोई हलचल न हुई तो बहुत घबराकर पिता ने कहा-- "जो कोई मेरे बेटे को बचा लायगा, उसे दस हजार रुपया इनाम दिया जाएगा।"

इसी बीच एक बुढ़िया आग की लपटों को चीर कर मकान के मीतर जा चुकी थी। पिता की बात खत्म होते होते वह बालक को लिये दरवाजे से बाहर आयी। आग की लपटों में वह इस तरह झुलस गयीं थी कि द्वार के बाहर आते ही चक्कर खाकर गिर पड़ी। बालक उसकी पीठ पर बंधा होने से सुरक्षित रहा।

भीड़ के लोगों में से कुछ ने बुढ़िया के साहस की प्रशंसा की और कुछ ने कहा-- "इनाम के लालच में बुढ़िया ने अपने प्राण दे दिये।"

तभी पता चला कि वह उस बालक की धाय थी जिसने माता के मरने पर उसे कुछ दिन दूध पिलाया था।

-डॉ प्रेमनारायण टंडन


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ऑकलैंड में हिन्दी दिवस समारोह सम्पन्न  - भारत-दर्शन समाचार

ऑकलैंड (22 सितंबर 2024): भारत-दर्शन हिन्दी पत्रिका, भारतीय उच्चायोग एवं सभी हिन्दी संस्थाओं द्वारा 21 सितंबर को शाम 6 बजे से रात्रि 8 बजे तक हेंडरसन (ऑकलैंड) के श्री राम मंदिर में हिन्दी दिवस का आयोजन किया गया। इस सामरोह में भारत की उच्चायुक्त नीता भूषण मुख्य अतिथि के रूप में सम्मिलित हुईं। समारोह में पूर्व सांसद कमलजीत बक्शी, नवतेज रंधावा, डॉ पुष्पा भारद्वाज-वुड, सुनील कौशल के अतिरिक्त ऑकलैंड में नए स्थापित मुख्य कौंसलावास के अधिकारी सुनील कुमार एवं दिव्या जी विशिष्ट अतिथि थे। 

उच्चायुक्त नीता भूषण द्वारा दीप प्रज्जवलित

भारत-दर्शन पत्रिका के संपादक रोहित कुमार हैप्पी ने सभी अतिथियों का अभिनंदन करते हुए कार्यक्रम की रूपरेखा की जानकारी दी। उसके बाद मंत्रोच्चारण के बीच मुख्य अतिथि द्वारा दीप प्रज्जवलित किया गया। वीरेंद्र प्रकाश संजय द्वारा शारदा स्तुति हुई। 

शारदा स्तुति के पश्चात राम मंदिर के प्रधान प्रवीण कुमार ने स्वागत भाषण दिया। उन्होंने हिन्दी दिवस की मुख्य-अतिथि, उपस्थित विशिष्ट अतिथियों व सभी मेहमानों का स्वागत किया। उन्होंने हिन्दी दिवस का आयोजन श्री राम मंदिर में आयोजित करने और उच्चायुक्त के पधारने पर हर्ष जताया। 

गणक लोकार्पण

उच्चायुक्त नीता भूषण ने भारत-दर्शन के रोहित कुमार हैप्पी द्वारा विकसित विभिन्न हिन्दी गणकों (हिन्दी सॉफ्टवेयर) का लोकार्पण किया।

गणक डेमो

रोहित कुमार हैप्पी ने सभी गणकों, जिनमें हाइकु, चोका, सेदोका एवं तांका सम्मिलित थे, का परिचय दिया। काव्य में इनका उपयोग कैसे किया जा सकता है, इसकी भी जानकारी दी और एक डेमो दिया। उन्होंने कुछ पंक्तिएँ पेस्ट की और ऑनलाइन सॉफ्टवेर ने अक्षरों की गिनती करके यह सुनश्चित करके दिखाया कि छंद सही है या नहीं। यदि छंद सही है तो उसी अनुरूप परिणाम दिखाए और यदि दोष हुआ तो उसकी त्रुटि दिखाई गई। उच्चायुक्त ने लैपटॉप का उपयोग किया और प्रोजेक्टर की मदद से सभागार में उपस्थित मेहमानों और दर्शकों ने इसका लाइव डेमो देखा। 

रूपा सचदेव ने विद्यालयों की प्रस्तुति का सफल संचालन किया। इसमें विभिन्न विद्यालयों और संस्थाओं के विद्यार्थियों ने भाग लिया था। भारतीय समाज के बाल विकास विद्यालय की ओर से अक्षर पटेल, श्यामा जे चंगलानी, युवान जैन एवं दृषण बिर्वतकर ने प्रस्तुतियाँ दीं। भारतीय मंदिर के हिन्दी विद्यालय के वेदांश अग्रवाल ने 'मैं और मेरी भाषा' पर अपने विचार रखे। एप्सम नॉर्मल प्राइमरी स्कूल की 10 वर्षीय सान्वी भार्गव ने कविता पढ़ी। 

जेट एनज़ेड के बच्चों ने प्रज्ञा की प्रस्तुति की। पूजा और रोमा, भाविक और आदर्श एवं वीरेंद प्रकाश के गीत-संगीत ने श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया। 

मुख्य अतिथि उच्चायुक्त नीता भूषण ने हिन्दी दिवस के आयोजन के लिए भारत-दर्शन के संपादक रोहित कुमार हैप्पी व अन्य सहयोगी संस्थाओं की सराहना की। उन्होंने हिन्दी दिवस की शुभकामनाएँ देते हुए कहा, "मेरी कोशिश रहती है कि मैं हिन्दी के हर कार्यक्रम में उपस्थित रहूँ। हिन्दी हमारी मातृभाषा तो है ही। इसके अतिरिक्त मुझे यह कहते हुए बिलकुल संकोच नहीं हो रहा कि हिन्दी विश्व की सबसे सुंदर भाषाओं में से एक है। हम जब भी हिन्दी बोलते हैं तो उसमें से ऐसी ऊर्जा आती है कि, यदि हम अन्य किसी भाषा में वार्तालाप करें तो शायद ऐसी ऊर्जा हमें नहीं मिले।"

रोहित कुमार ने इस अवसर पर उच्चायुक्त को न्यूज़ीलैंड में क्षेत्रीय हिन्दी सम्मेलन करवाने का अनुरोध किया। उन्होंने कहा, "न्यूज़ीलैंड में अनेक हिन्दी संस्थाएं हैं। यहाँ से भारत-दर्शन के रूप में इंटरनेट पर विश्व का पहला हिन्दी प्रकाशन आरंभ हुआ। हमने अनेक अंतरराष्ट्रीय स्तर के हिन्दी सॉफ्टवेयर विकसित किए। अब समय आ गया है कि न्यूज़ीलैंड में एक क्षेत्रीय हिन्दी सम्मेलन भी हो। ऑस्ट्रेलिया और फीजी में पहले ही यह आयोजन हो चुका है। फीजी में तो इसके अतिरिक्त विश्व हिन्दी सम्मेलन भी आयोजित हो चुका है। दक्षिण प्रशांत में न्यूज़ीलैंड में अभी तक ऐसा कुछ नहीं हुआ यथा अब इसका आयोजन यहाँ होना चाहिए।"       

ऑकलैंड के सुविख्यात गायक मंजीत सिंह और दलजीत कौर ने अपने गायन से समां बांध दिया। मंजीत सिंह ने ऑकलैंड यूनिवर्सिटी के हिन्दोस्तानी संगीत विषय की रूपरेखा तैयार की है और वे ऑकलैंड यूनिवर्सिटी में संगीत का शिक्षण देते हैं। इसके अतिरिक्त वे 'रिदम स्कूल ऑफ म्यूजिक' का संचालन करते हैं। 

प्रीता व्यास के संचालन में सृष्टि मुद्गिल, इंद्रजीत बाजवा, प्रोमिला दुआ एवं कार्तिक कंसारा ने अपना काव्यपाठ किया। कार्तिक कंसारा के विशेष अंदाज़ की अनेक श्रोताओं ने सराहना की। प्रीता व्यास ने अपने संचालन के दौरान हिन्दी के विकास और प्रचार-प्रसार को लेकर अपनी चिंता भी प्रकट की, उन्होंने कहा, "केवल दो-चार गीत गा लिए और दो-चार कविताएं पढ़ ली उससे हिन्दी का कोई भला नहीं होने वाला। हाँ, इससे हिन्दी ज़िंदा ज़रूर रह जाएगी पर आगे नहीं बढ़ेगी। हमें ऐसे कार्यक्रम करने चाहिए जिनसे बच्चों को पता चल सके कि हिन्दी क्यों ज़रूरी है, संस्कार क्यों ज़रूरी हैं।" 

हिन्दी दिवस प्रमाणपत्र

मुख्य अतिथि उच्चायुक्त नीता भूषण ने सहभागियों को प्रमाणपत्र दिए। उन्होंने इस अवसर पर कुछ पुस्तकें भी भेंट की।

रोहित कुमार हैप्पी ने धन्यवाद ज्ञापित करते हुए, सभी का धन्यवाद किया और विशेष रूप से उच्चायोग, श्री राम मंदिर, समारोह में उपस्थित अतिथियों, दर्शकों, मंच संचालकों एवं सभी सहभागियों का आभार प्रकट किया। 

हिन्दी दिवस के अवसर पर 'न्यूज़ीलैंड की हिन्दी विकास यात्रा' प्रदर्शनी का भी आयोजन किया गया था जिसमें इस देश की सन 1930 से वर्तमान तक की 'हिन्दी यात्रा' को पत्र-पत्रिकाओं, चित्र-चलचित्रों एवं पुस्तकों के माध्यम से प्रदर्शित किया गया।

कार्यक्रम के दौरान जलपान की व्यवस्था की गई थी और अंत में भारतीय भोजन की भी व्यवस्था की गई थी।  

[भारत-दर्शन समाचार]    


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समकालीन कहानी संकलन - भारत-दर्शन संकलन

भारत-दर्शन में प्रकाशित समकालीन कहानियों का प्रकाशित व अप्रकाशित संकलन।


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मिले न मुझको सच्चे मोती | गीत - दिनेश गोस्वामी

दूर-दूर तक ढूंढ़ा मैंने
सागर-तक की गहराई में,

मिले बहुत से शंख-सीपियाँ

मिले न मुझको सच्चे मोती।

 

लहर-लहर में कोलाहल था

जलचर जल में उछल रहे थे,

एक-दूसरे के जीवन को

सगे-सहोदर निगल रहे थे,

अपने स्वार्थ-भरे चिंतन का

बोझ दिखीं चिंताएँ ढोती।

 

उलझे-उलझे जीव-जंतु थे

चिकने-चिकने शैवालों में,

आपा-धापी, भाग-दौड़ थी

सागर के रहने वालों में,

अपने-अपने में खोई थी

हर प्राणी की जीवन-ज्योती।

 

खोज-खोज के रत्नाकर से

मैंने चमके रत्न निकाले,

किंतु सभी पाषाण छली थे

रंग-रूप से छलने वाले,

आहत-आकुल आस रह गई

स्वप्न सँजोती, धीरज खोती। ......

 
 
क्यों दीन-नाथ मुझपै | ग़ज़ल - अज्ञात

क्यों दीन-नाथ मुझपै, तुम्हारी दया नहीं ।
आश्रित तेरा नहीं हूं कि तेरी प्रजा नहीं ।।......

 
 
अर्जुन या एकलव्य  - रोहित कुमार हैप्पी

'अर्जुन और एकलव्य' की कहानी सुनाकर मास्टर जी ने बच्चों से पूछा, "तुम अर्जुन बनोगे या एकलव्य?"

सारी कक्षा लगभग एक स्वर में बोली,"अर्जुन!"

मास्टर जी बच्चों की समझ पर प्रसन्न थे। तभी कोने में बैठे उस एक बच्चे पर उनकी नज़र पड़ी जो उत्तर देने की जगह मौन रहा था।

"रवि, तुम अर्जुन बनोगे या एकलव्य?"

"एकलव्य!"

उसका उत्तर सुनकर कक्षा के सभी बच्चे 'हीं -हीं ' करके दांत दिखा रहे थे।

"बेटा! एकलव्य क्यों, अर्जुन क्यों नहीं?"

"मास्टरजी, अर्जुन सब सुविधाएं पाकर भी भूलें कर देता था लेकिन एकलव्य सुविधाहीन होते हुए भी कभी भूल न करता था। उसका निशाना कभी नहीं चूका! गुणवान कौन अधिक हुआ?"

मास्टरजी के आगे एक नया 'एकलव्य' खड़ा था। अब मास्टर जी क्या करने वाले थे?

-रोहित कुमार 'हैप्पी'


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शराब - अनिल कटोच

"बाबू! कुछ पैसें दे दो।”

".............................. ?

"बाबू! सुबह से रोटी नहीं खाई।"

"मैं भूखा मर जाऊँगा। मुझे कुछ पैसे दे दो।”

"...पर तेरे मुँह से तो शराब की गन्ध आ रही हैं।"

-अनिल कटोच

[फिर सुबह होगी]


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सिंगापुर में प्रथम अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन संपन्न - भारत-दर्शन समाचार

सिंगापुर में भारतीय उच्चायोग तथा नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ  सिंगापुर द्वारा आयोजित प्रथम अंतरराष्ट्रीय क्षेत्रीय हिंदी सम्मेलन 13-15 सितंबर 2024 को संपन्न हुआ।  इस सम्मेलन में दक्षिण पूर्व एशिया में हिंदी, प्रवासी साहित्य और दक्षिण पूर्व एशिया, एशियाई हिंदी संस्थानों के बीच सहयोग, मीडिया और हिंदी, हिंदी शिक्षण में कृत्रिम मेधा, हिंदी शिक्षण की अधुनातन प्रविधियाँ, द्वितीय भाषा विद्यार्थियों के लिए हिंदी व्याकरण, अनुवाद, अध्यापक प्रशिक्षण और नवीनीकरण कार्यक्रम, व्यापार भाषा के रूप में हिंदी आदि महत्वपूर्ण विषयों पर सारगर्भित चर्चा हुई। 

प्रथम अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन सिंगापुर
डॉ माधुरी रामधारी, सरोज शर्मा, अनिल जोशी, प्रो संतोष चौबे, रवींद्र जायसवाल (संयुक्त सचिव), दिव्या माथुर, 
प्रो ईज़ूमी वॉकर, प्रो वी रा जगन्नाथन्न, प्रो राजेश कुमार, डॉ शिल्पक अंबुले (भारतीय उच्चायुक्त, सिंगापुर),
डॉ जमुना बीनी एवं डॉ संध्या सिंह
छायाचित्र : सिंगापुर संगम, सिंगापुर 

 

भारतीय उच्चायोग सिंगापुर मुख्य आयोजक रहा। सम्मेलन की अध्यक्ष  नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ सिंगापुर (NUS)  के  भाषा अध्ययन केंद्र में हिंदी और तमिल भाषा विभाग की विभागाध्यक्ष डॉ. संध्या सिंह थीं।  सिंगापुर से अरुणा सिंह, नीलिमा गुप्ते, विनोद दुबे, शांति प्रकाश उपाध्याय, लेला कौर, रत्नेश पाण्डेय, डॉ. सौरभ श्रीवास्तव, मनोज सिंह, डॉ. अर्चना मिश्रा, रश्मि जनकराज, पूनम चुघ, प्रतिमा सिंह, प्रसून सिंह, हेमा कृपलानी, मिस सुप्रिया, अनिल कुलश्रेष्ठ, रीता पांडेय, हेमा कृपलानी, सपना शिवानी केकरे, प्रतिभा गर्ग, आराधना श्रीवास्तव, चित्रा गुप्ता जी, स्मिता विवेक कुँवर, अलका प्रकाश , गौरव उपाध्याय, अंकुर गुप्ता व भारत से प्रो. राजेश कुमार और न्यूज़ीलैंड से रोहित कुमार हैप्पी का आयोजन को सफल बनाने में सहयोग मिला। नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ सिंगापुर (NUS) में हिंदी भाषा सीख रहे विद्यार्थियों साक्षी, अविनाश , फ्रे, थेरेसा , आर्य, और   अन्य कई  विद्यार्थियों ने  पंजीकरण, विश्वविद्यालय परिसर के बारे में जानकारी देना आदि कार्यों में अपनी भागीदारी निभाई।

सिंगापुर में प्रथम अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन संपन्न
दक्षिण पूर्व एशिया के कुछ प्रतिभागी
छायाचित्र : सिंगापुर संगम, सिंगापुर 

सम्मेलन में सिंगापुर के अलावा वियतनाम, मलेशिया, थाईलैंड, मॉरीशस, ब्रिटेन और भारत के विद्वानों, अध्यापकों, और हिंदी कर्मियों ने भाग लिया। इनमें प्रमुख रूप से प्रमुख शिक्षाविद, साहित्यकार, और भाषाविद प्रो. राजेश कुमार, डॉ.  माधुरी रामधारी, प्रो. सुरेंद्र दुबे, प्रो. वी.रा.  जगन्नाथन, दिव्या माथुर, प्रो. संतोष चौबे, अनिल जोशी, डॉ. पद्मा सवांगश्री, डॉ. जवाहर कर्नावट, डॉ. जमुना बीनी, शशशिरि सुवर्णदिव्य, प्रो. शीतांशु कुमार, कित्तिपोंग बून्कर्ड, डॉ. अरविंद चतुर्वेदी,  यामिनी जोशी , साधना सक्सेना आदि थे। 

डॉ. संध्या सिंह के साथ नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ सिंगापुर (NUS) के विद्यार्थी
भाषा अध्ययन केंद्र में हिंदी और तमिल भाषा विभाग की विभागाध्यक्ष डॉ. संध्या सिंह के साथ 
नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ सिंगापुर (NUS) के विद्यार्थी
छायाचित्र : सिंगापुर संगम, सिंगापुर 

सम्मेलन की प्रमुख उपलब्धि अगला विश्व हिंदी सम्मेलन सिंगापुर में आयोजित करने के प्रस्ताव को भेजने  की स्वीकृति था। भारतीय उच्चायुक्त महोदय और संयुक्त सचिव द्वारा इस प्रस्ताव को विदेश मंत्रालय भेजने की बात पर सहमति जताई गई| इसके अलावा सम्मेलन में शिक्षकों के लिए मार्गदर्शिका तैयार करने, हिंदी द्वितीय भाषा के लिए अलग व्याकरण पुस्तक की रचना, हिंदी शिक्षण में कृत्रिम मेधा के उपयोग के लिए मार्गदर्शिका तैयार करने, पाठ्यक्रम को प्रायोगिक बनाने और रोज़गार से जोड़ने, सभी मीडिया माध्यमों में सीखने की सामग्री बड़ी संख्या में उपलब्ध करवाने, हिंदी के व्यापारिक रूप को विकसित करने, भारतीय भाषा महोत्सव का आयोजन वार्षिक आधार पर करने, और दक्षिण पूर्व एशिया हिंदी प्रवासी साहित्यकार संस्था का गठन करने से संबंधित प्रस्ताव पारित किए गए। सम्मलेन में पढ़े गए शोध पत्रों को ISBN संख्या के साथ प्रकाशित करवाने का प्रस्ताव भी रखा गया जिसके लिए उच्चायुक्त महोदय ने स्वीकृति दी|
 
उद्घाटन समारोह - (13 सितम्बर)
कार्यक्रम की भव्य शुरुआत हुई, जिसमें डॉ. संध्या सिंह ने कार्यक्रम की रूपरेखा प्रस्तुत की।  स्वागत भाषण प्रो. इज़ुमी वाकर, निदेशक, भाषा अध्ययन केंद्र, नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ सिंगापुर (NUS) , और महामहिम डॉ. शिल्पक अम्बुले, सिंगापुर में भारत के उच्चायुक्त ने दिए, और बीज वक्तव्य रवींद्र जायसवाल, संयुक्त सचिव, विदेश मंत्रालय, भारत सरकार ने प्रस्तुत किया।  इसमें शामिल सांस्कृतिक कार्यक्रम में हिंदी सोसाइटी सिंगापुर के विद्यार्थियों ने नृत्य प्रस्तुत करके दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया। कत्थक नृत्य की प्रस्तुति TheDanceTribeSG के नृत्य समूह द्वारा की गई।

14 -15 सितम्बर 
अलग-अलग सत्रों में भिन्न विषयों पर चर्चा हुई।

कवि सम्मेलन (14 सितम्बर)
सम्मेलन का एक आकर्षण कवि सम्मेलन भी था, जिसमें स्थानीय कवियों ने अपनी भावपूर्ण कविताओं से श्रोताओं को आनंदित किया। 

पुस्तक विमोचन
सिंगापुर की चयनित रचनाएँ पुस्तक विमोचन
छायाचित्र : सिंगापुर संगम, सिंगापुर 
 
पुस्तक विमोचन (14-15 सितम्बर)
सम्मेलन में सुप्रसिद्ध साहित्यकार आचार्य राजेश कुमार के नवीन कहानी संग्रह ‘गुमटी की औरत’ का विमोचन सिंगापुर में भारतीय उच्चायुक्त डॉ. शिल्पक अम्बुले के कर कमलों द्वारा संपन्न हुआ। इस अवसर पर सम्मेलन की अध्यक्षा डॉ. संध्या सिंह, विदेश मंत्रालय, भारत सरकार के संयुक्त सचिव श्री रवींद्र जायसवाल, विश्व हिंदी सचिवालय की अध्यक्ष श्रीमती माधुरी रामधारी, केंद्रीय हिंदी शिक्षण मंडल के उपाध्यक्ष प्रो. सुरेंद्र दुबे उपस्थित थे।

14 सितम्बर को ‘सिंगापुर की चयनित रचनाएँ’ पुस्तक का विमोचन हुआ जिसमें सिंगापुर के रचनाकारों की रचनाएँ संकलित हैं और जिसका सम्पादन डॉ. संध्या सिंह ने किया है| इसको विश्व रंग भोपाल के आइसेक्ट प्रकाशन द्वारा प्रकाशित किया गया है| रवीन्द्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय के कुलाधिपति प्रो. संतोष चौबे ने सिंगापुर के रचनाकारों को बधाई दी और भविष्य में भी इस तरह के प्रकाशन का आश्वासन दिया| 
 
सम्मान (15 सितम्बर)
मुख्य अतिथि- भारतीय उच्चायुक्त  डॉ. शिल्पक अम्बुले
सम्मेलन में सुप्रसिद्ध प्रवासी साहित्यकार दिव्या माथुर और सुप्रसिद्ध शिक्षाविद प्रो.  संतोष चौबे को सिंगापुर में भारतीय उच्चायुक्त डॉ. शिल्पक अम्बुले और  विदेश मंत्रालय, भारत सरकार के संयुक्त सचिव श्री रवींद्र जायसवाल के कर कमलों द्वारा सिंगापुर संगम की ओर से  ‘विश्व हिंदी शिखर सम्मान’ से भी अलंकृत किया गया। सम्मेलन और सिंगापुर संगम की अध्यक्ष तथा नेशनल युनिवर्सटी ऑफ सिंगापुर में हिंदी भाषा विभाग प्रमुख  डॉ. संध्या सिंह,  विश्व हिंदी सचिवालय मॉरिशस की महासचिव डॉ. माधुरी रामधारी, केंद्रीय हिंदी शिक्षण मंडल के उपाध्यक्ष प्रो. सुरेंद्र दुबे  की उपस्थति में दिव्या माथुर और प्रो. संतोष चौबे को सम्मानित किया गया| इस अवसर पर उनके साहित्य, शिक्षा, और सामाजिक कार्य के क्षेत्र में उनके योगदान को रेखांकित किया गया। सिंगापुर से पहले अंतरराष्ट्रीय सम्मान का शुभारम्भ हुआ।


सिंगापुर में प्रथम अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन
छायाचित्र : भारतीय उच्चायोग, सिंगापुर 

समापन सत्र (15 सितम्बर)
मुख्य अतिथि- विदेश मंत्रालय, भारत सरकार के संयुक्त सचिव, रवींद्र जायसवाल
विशिष्ट अतिथि - डॉ. माधुरी रामधारी
सान्निध्य - प्रो. सुरेन्द्र दूबे
समापन वक्तव्य - सम्मेलन सम्बन्धी प्रस्ताव - डॉ. संध्या सिंह
धन्यवाद – रत्नेश पाण्डेय, अरुणा सिंह, नीलिमा गुप्ते 
संचालन – अविनाश नारायण 
समापन सत्र में सम्मेलन की संक्षिप्त रिपोर्ट प्रस्तुत की गई, और विभिन्न सत्रों के प्रस्तावों को रेखांकित किया गया।

[भारत-दर्शन समाचार] 


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जो कुछ है मेरे दिल में - अनिल कुमार 'अंदाज़'

जो कुछ है मेरे दिल में वो सब जान जाएगा ।
उसको जो मैं मनाऊँ तो वो मान जाएगा ।

बरसों हुए न उससे मुलाकात हो सकी,......

 
 
दो लघुकथाएँ - संदीप तोमर

ज़ख्मी 

उन्हें समाजवाद से ऐतराज था... 

आज सुबह ही एक जत्था लोहिया पार्क की ओर रवाना हुआ... लाठी, डंडे, पत्थर उनके हाथों में थे।

पार्क में पहुँच जत्था राममनोहर लोहिया के बुत पर पिल पड़ा। जिसके हाथ में जो हथियार था उसका भरपूर इस्तेमाल किया। एक ने स्याही की बोतल उछाली, जिसके छींटे क्षत-विक्षत बुत पर गिर गए। दूसरा अभी जूतों के हार को गले में डालने ही वाला था कि मामले का रुख बदला। लोहिया के अनुयायी पीछे से प्रहार कर चुके थे।

पहले वाला जत्था भाग गया, हार पहनाने वाला धरा गया था।

जूतों का हार पहनाने वाला ज़ख्मी हो गया। एक समाजवादी ने कहा--"ये बहुत ज़ख्मी है, चलो इसे लोहिया अस्पताल ले चलें।"

ज़ख्मी को अस्पताल ले जाने की तैयारी होने लगी थी।

- संदीप तोमर

विडंबना

वो न जाने कब से भूखा था। उसने राजा के दरबार में गुहार लगाई। राजा ने तीन दिन बाद अपने कारिंदे को भेज भूखे व्यक्ति को भोज पर बुला लाने को कहा। जब कारिंदा उसके घर पहुंचा तब तक भूखा व्यक्ति कलश में तब्दील हो चुका था। पड़ोसी वह कलश कारिंदे को देकर बोला- "वह बूढ़ा अब इस कलश में है। राजा साहब से कहिये कि इसकी तेहरवीं पर भूखों को भोज करा दें, ताकि और कोई भूखा उम्र से पहले कलश में न जा सके।"
कारिंदे ने राजा के पास पहुंचकर कलश उन्हें देते हुए सारा किस्सा कह सुनाया।

अगले दिन शहर मे ऐलान हुआ-"कल के दिन सभी भूखों को राजा की तरफ से भोज कराया जाएगा, एक दिन शहर में कोई भूखा नहीं रहेगा।"

भूखे लोगों में फुसफुसाहट शुरू हुई, आनन-फानन में एक सभा बुलाई गयी। एक भूखे ने ऐलान कर दिया-"एक दिन के भोज की राजा की दी गई भीख का हम विरोध करते हैं, कल पूरे शहर में हम सब एक दिन का उपवास रखेंगे।"
सभी भूखे एक-एक करके सभा से जाने लगे थे...।

-संदीप तोमर


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सिंगापुर में होगा प्रथम अंतरराष्ट्रीय क्षेत्रीय हिन्दी सम्मेलन - भारत-दर्शन समाचार

सिंगापुर (1-09-2024): भारतीय उच्चायोग सिंगापुर एवं नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ़ सिंगापुर के सह-आयोजन में 13-15 सितंबर को सिंगापुर में प्रथम अंतरराष्ट्रीय क्षेत्रीय हिन्दी सम्मेलन आयोजित किया जा रहा है। इसका आयोजन नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ़ सिंगापुर के सभागार में होगा।

इस सम्मेलन का मुख्य विषय है--दक्षिण पूर्व एशिया में हिन्दी - विकास की अभिनव दिशाएँ। इसके अतिरिक्त अन्य विषयों में 'हिंदी शिक्षण की आधुनिक पद्धतियाँ', 'हिंदी व्याकरण का भाषा शिक्षण में अनुप्रयोग और शिक्षण सामग्री', 'शिक्षक प्रशिक्षण और  नवीनीकरण', 'पड़ोसी देशों में हिंदी शिक्षण की स्थिति और संभावनाएँ', 'हिंदी सीखने में छात्रों के सामने आने वाली चुनौतियाँ और समस्याएँ', 'कृत्रिम मेधा - संभावनाएँ और चुनौतियाँ', 'हिंदी शिक्षण में AI का उपयोग', 'वेब-आधारित संसाधन', 'प्रवासी साहित्य - भविष्य की दिशाएँ', 'एशियाई हिंदी संस्थानों के बीच सहयोग', 'अंतरभाषी अनुवाद', 'विरासत की भाषा, विदेशी भाषा, द्वितीय भाषा अधिग्रहण' सम्मिलित हैं। 

सेंटर फॉर लैंग्वेज स्टडीज़, नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ सिंगापुर की हिन्दी व तमिल भाषा विभाग प्रमुख डॉ. संध्या सिंह ने बताया, "यह सम्मेलन सिंगापुर में आयोजित होने वाला प्रथम अंतरराष्ट्रीय क्षेत्रीय हिन्दी सम्मेलन है। इस विशेष सम्मेलन में दक्षिण पूर्व एशिया के अतिरिक्त भारत, ब्रिटेन इत्यादि कई देशों के भाषाविद्, शिक्षक एवं साहित्यकार भाग ले रहे हैं।"
 
हिन्दी सम्मेलन के बारे में सभी सूचनाएँ सम्मेलन की वेबसाइट (https://singaporehindisammelan.com) पर उपलब्ध हैं। 
 
वेबसाइट पर पंजीकरण के पश्चात नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ सिंगापुर से एक ईमेल जारी किया जाएगा जिसमें सहभागियों को विश्वविद्यालय परिसर में पहुँचने और सम्मेलन में सहभागिता की जानकारी दी जाएगी।

[भारत-दर्शन समाचार]


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मन में रहे उमंग तो समझो होली है | ग़ज़ल - गिरीश पंकज

मन में रहे उमंग तो समझो होली है
जीवन में हो रंग तो समझो होली है

तन्हाई का दर्द बड़ा ही जालिम है......

 
 
डॉ पुष्पा भारद्वाज वुड को अंतरराष्ट्रीय भारतीय भाषा सम्मान - भारत-दर्शन समाचार

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हर कोई है मस्ती का हकदार सखा होली में  - डॉ. श्याम सखा श्याम

हर कोई है मस्ती का हकदार सखा होली में
मौसम करता रंगो की बौछार सखा होली में

मस्तानी लगती है हर नार सखा होली में......

 
 
न्यूज़ीलैंड में विश्व हिंदी दिवस का आयोजन - भारत-दर्शन समाचार

ऑकलैंड (10 जनवरी 2023) : 10 जनवरी की शाम को वेलिंग्टन स्थित भारत के उच्चायोग के कार्यालय में 'विश्व हिंदी दिवस' का आयोजन हुआ।

विश्व हिंदी दिवस के अवसर पर उच्चायुक्त सुश्री नीता भूषण ने भारत के प्रधानमंत्री की ओर से शुभकामनाएं देते हुए उनका संदेश पढ़ा। उच्चायुक्त ने  उच्चायोग द्वारा आयोजित हिंदी निबंध लेखन / पोस्टर प्रतियोगिता के विजेताओं की घोषणा की। 

उच्चायुक्त ने न्यूज़ीलैंड की हिंदी कवयित्री डॉ. सुनीता शर्मा की हिंदी पुस्तक 'चिर प्रतीक्षित' का विमोचन किया।

बच्चों ने हिंदी प्रश्नोत्तरी (क्विज) का आनंद लिया।

चांसरी के प्रमुख एवं द्वितीय सचिव (कांसुलर) मुकेश घीया ने हिंदी दिवस समारोह में सम्मिलित अतिथियों को  धन्यवाद ज्ञापित किया।


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वेडिंग ऐनिवर्सरी - शिवानी खन्ना

“यार मोना समझा करो बॉस को क्या बोलूँ कि मेरी वेडिंग ऐनिवर्सरी है इसलिए टूर पर नहीं जा सकता!" सौरभ की आवाज़ थी।

“हाँ! क्यों? शर्म आती है! यह दिन सिर्फ़ मेरा है और मेरा हक़ है कि तुम अपना दिन मेरे साथ स्पेंड करो या 12 साल 2 बच्चों के बाद अब वो बात नहीं रही, मन भर गया!" मोना ने उलाहना देते हुए कहा।

“क्या बोले जा रही हो? यार काम से सब कुछ है अगर ये कॉन्ट्रेक्ट मिल गया तब सारा बोनस तुम्हारा और मैं शनिवार दोपहर तक आ जाऊँगा 14 की जगह 15 को मना लेंगे...."

बहस होती गयी आख़िर सौरभ कमरे में सोने चला गया।

थोड़ी देर टीवी पर चैनल अदल-बदल मोना भी सो गयी।

मोना उदास मन से सुबह बच्चों को बस स्टॉप छोड़ के दूध लेने चल पड़ी रास्ते में आरज़ू मिली।

“क्या हाल है मोना?" आरज़ू ने पूछा।

“सब ठीक तुम कहाँ चल दी, सुबह-सुबह?" मोना ने कहा।

“दरगाह जा रही हूँ, आज हमारी वेडिंग ऐनिवर्सरी है। अब मेजर ख़ान LOC पर है, उनकी सलामती का नेग देने जा रही हूँ। वो है तो हम है, अच्छा लेट हो जाऊँगी। शाम को पार्क में मिलते है। कहकर आरज़ू आगे बढ़ गयी।

मोना ने तेज़ी से क़दम घर की ओर बढ़ाए, सौरभ को चाय के साथ एक गुलाब देते हुए बोली, “कौनसे कपड़े ले जाने है? पैकिंग कर दूँगी।" खटे हुए उसने सौरभ के गले में अपनी बाँहें डाल दी।

-शिवानी खन्ना


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कभी पत्थर कभी कांटे कभी ये रातरानी है - डॉ. श्याम सखा श्याम

कभी पत्थर कभी कांटे कभी ये रातरानी है
यही तो जिन्दगानी है,यही तो जिन्दगानी है

जमीं जबसे बनी यारो तभी से है वजूद इसका......

 
 
वसुधा की जीवन रेखा - गीता चौबे गूँज

"अरे! सुना तुमने? वसुधा वेंटिलेटर पर है।"--मंगल के मुख से यह सुनकर शनि हतप्रभ था।

पूरे सौर-मंडल में हड़कंप मचा हुआ था। सभी ग्रह चिंतित थे कि वसुधा की जीवन-लीला समाप्त हो गयी तो उसके बच्चों का क्या होगा? सभी बेमौत मारे जाएँगे।

शुक्र जो स्वभाव से ही गरम-मिज़ाज था, गुस्से से लाल होता हुआ बरस पड़ा, "उसके बच्चों ने ही तो उसकी यह हालत कर डाली है। अब भुगतें! अच्छा हुआ कि हम जीवनरहित हैं वरना हमारा भी वही हाल होता जो आज वसुधा का है।"

"अरे! ऐसा न कहो। हमारे सौर-मंडल में एक वसुधा ही तो है, जो इतनी ख़ूबसूरत है। जहाँ पर जीवन है, हरियाली है। जल है, वायु है, ख़ुशियाँ हैं। हमें प्रार्थना करनी चाहिए कि वह जल्दी से ठीक हो जाए।"--जुपिटर भी इस ऑनलाइन कॉंफ्रेंस में शामिल हो गया था।

तभी सभी के मोबाइल पर एक मेसेज फ्लैश हुआ--

वृक्षों से बनी दवाइयाँ और ऑक्सीजन चढ़ाने से वसुधा की जीवन-रेखा की वक्रता रफ़्तार पकड़ने लगी है…

"थैंक गॉड! अब पृथ्वी पर जंगलों की अनिवार्यता मनुष्यों को समझ आ गयी होगी।" सूर्य ने भी चैन की साँस ली।

- गीता चौबे 'गूँज'


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रंगों की मस्ती | गीत - अलका जैन

उड़ने लगे हैं होली की मस्ती के गुब्बारे
धरती से आसमा की ठिठोली के इशारे।

कोई रंग बिरंगी सी हवाओं में बात है,......

 
 
आज नई आई होली है - उदयशंकर भट्ट

आज नई आई होली है ।
महाकाल के अंग - अंग में आग लगी धरती डोली है ।

सागर में वड़वानल जागा, जाग उठीं ज्वालाएँ नग से,......

 
 
हास्य ही सहारा है - डॉ. गिरिराजशरण अग्रवाल

जिंदगी हो गई है तंगदस्त
और तनावों ने उसे......

 
 
न्यूज़ीलैंड के रोहित कुमार हैप्पी को राष्ट्रीय निर्मल वर्मा सम्मान - भारत-दर्शन समाचार

14 सितंबर 2022 (भारत): हिंदी दिवस के अवसर पर न्यूजीलैंड के पत्रकार रोहित कुमार 'हैप्पी' को हिंदी भाषा के विकास में योगदान के लिए मध्य प्रदेश शासन की ओर से 'राष्ट्रीय निर्मल वर्मा सम्मान' प्रदान किया गया।
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प्राइवेसी - कल्पना मनोरमा

आवली के घर में गेस्टरूम की रिपेयरिंग का काम चल रहा था। रिश्तेदार आने की बात कहते तो मौरंग,गिट्टी और सीमेंट का पसारा पसरा है, बोल देती। एक दिन पति ने बताया—बड़ी दीदी का फोन आया था। वे आजकल में घर आना चाहती है। सुनते ही आवली भड़क पड़ी--"आपने क्या कहा?"

 "मैंने, वही कहा जो तुम कहती हो।”

 "तो फिर क्या बोलीं वे?”

 "बोलना क्या...सही तो कहा दीदी ने…वे क्या मेहमान हैं?” पति ने थोड़े रौब से कहा।

"सो व्हाट? हम क्या उन्हें अपना कमरा दे देंगे…?"

 आवली ने आँखें तरेरी तो पति ने ही शांत रहने में भलाई समझी, "अच्छा ठीक है, मैं दीदी से कुछ कह दूँगा।" कहकर बात रफादफा हो गयी। पति ने अभी पीठ फेरी ही थी कि आवली का फोन बज उठा।

 

"पम्मी कॉलिंग" देखते ही आवली का मन मोर की तरह नाच उठा। उसने झट से फोन उठा लिया।

"बोल बेटा..! क्या हाल है तेरा और मेरी बिट्टो कैसी है?"

"मम्मा हम सब ठीक है लेकिन आपकी बिट्टो जिद लगाए बैठी है कि उसको नानी के घर जाना है।"

"तो इसमें इतना सोचना क्या? तेरा ही घर है। कभी भी आओ-जाओ पम्मी।"

"अच्छा ठीक है मम्मा, मैं तैयारी करती हूँ।"

"हाँ ठीक है आ जा।" कहते हुए आवली सीधे बेटे के पास चली गई। पति भी वहीं अख़बार पढ़ रहे थे। आवली बेटे की ओर मुखतिब होकर ही बोली।

"सुन हितेन! कल तेरी दीदी और जीजा जी आ रहे हैं। तू न…।"

"ओ गॉड अभी...ऐसी सिचुएशन में?" बेटे ने माँ की बात बीच में काटते हुए कहा।

"हाँ अभी, तो क्या हुआ? अपने घर आ रही है।”

"सो व्हाट? तो क्या मैं उन्हें अपना कमरा दे दूँगा...कभी नहीं?" बेटा बोल पड़ा।

आवली ठगी-सी कभी पति का चेहरा देखती रही तो कभी बेटे का लेकिन शब्द होठों पर जड़ हो चुके थे।


-कल्पना मनोरमा


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हम आज भी तुम्हारे... - भारत भूषण

हम आज भी तुम्हारे तुम आज भी पराये,
सौ बार आँख रोई सौ बार याद आये ।......

 
 
कानून मिला हमको  - प्रदीप चौबे

दिल्ली, बंबई, काशी, देहरादून मिला हमको,
बस्ती-बस्ती इंसानों का खून मिला हमको।

वे जाने किस मौसम के पंछी होंगे जिनकी,......

 
 
न्यूज़ीलैंड की साहित्यिक हलचल  - भारत-दर्शन समाचार
14 जुलाई 2022 (न्यूज़ीलैंड): उच्चायुक्त श्री मुक्तेश परदेशी ने भारत-दर्शन के संपादक रोहित कुमार 'हैप्पी' की पुस्तक 'न्यूज़ीलैंड की हिंदी यात्रा' का पिछले दिनों वेलिंग्टन स्थित भारत के उच्चायोग में लोकार्पण किया। यह पुस्तक केंद्रीय हिंदी संस्थान आगरा ने प्रकाशित की है।
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इन्साफ - भारत-दर्शन संकलन

तीन आदमियों ने एक ही प्रकार का अपराध किया था किन्तु राजा विक्रमादित्य ने सभी को भिन्न दंड दिया अर्थात् एक को तो बुला कर इतना ही कहा कि तुम जैसे भले आदमी को ऐसा करना शोभा नहीं देता। दूसरे को बुला कर बुरा-भला कहा और कुछ झिड़का भी। तीसरे को काला मुँह कराकर गधे पर सवार कराया और पूरे नगर में फिराया। 

किसी ने पूछा कि महाराज! अपराध तो एक ही तरह का था, परंतु आपने इन्हें अलग-अलग तरह का दंड क्यों दिया?

विक्रमादित्य ने उत्तर में कहा कि अच्छा तीनों का समाचार मँगवाओ और देखो वे क्या करते हैं। सूचना मिली कि जिस व्यक्ति को केवल उसके अशोभनीय होने की काही थी, वह ज़हर खाकर मर गया। जिसको बुरा-भला कहा था, वह घर-बार छोड़कर चला गया; मगर तीसरा आदमी पोशाक बदलकर शराब के नशे में बेधड़क जुआ खेल रहा है।

दरबारी को राजा की न्याय-नीति और अपराधियों की प्रकृति पहचानकर दंड देने का विधान जानकर बहुत प्रसन्नता हुई।

[भारत-दर्शन संकलन]


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तुम मेरे आंसू .. - भारत भूषण

तुम मेरे आंसू की बूंद बनो लेकिन पलकों से बाहर मत आना!

ये पवन चुरा ले जायेगी तुमको,
ये गरम किरन झुलसायेगी तुमको!......

 
 
विचित्र विवशता! - मधुप पांडेय

‘उधर प्रशासन को
चुस्त बनाने के......

 
 
हिंदी से अनुवादित उपन्यास को अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार - भारत-दर्शन समाचार
26 मई 2022 : डेज़ी रॉकवेल द्वारा हिंदी से अनुवादित गीतांजलि श्री के उपन्यास, रेत समाधि (टूम्ब ऑफ़ सैंड) को अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार प्राप्त हुआ है।  
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बैकग्राउंड - कान्ता रॉय

“ये कहाँ लेकर आए हो मुझे?”

“अपने गांव…और कहाँ!” 

“क्या...ये तुम्हारा गांव है?”

“हाँ...यही है, ये देखो हमारी बकरी और वो मेरा भतीजा।”

“ओह नो, तुम इस बस्ती से बिलॉन्ग करते हो?”

“हाँ, तो?”

“सुनो, मुझे अभी वापस लौटना है।“

“ऐसे कैसे वापस जाओगी?  तुम इस घर की बहू हो, बस माँ अभी खेत से आती ही होगी।“

“मैं वापस जा रही हूँ...सॉरी, मुझसे भूल हो गई। तुम डॉक्टर थे इसलिए...।“

“तो...इसलिए क्या?”

“...इसलिए तुम्हारा बैकग्राउंड नहीं देखा मैंने।“

- कान्ता रॉय, भारत


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न इतने पास आ जाना .. - भारत भूषण

न इतने पास आ जाना मिलन भी भार हो जाये,
न इतने दूर हो जाना कि जीवन भर न मिल पाऊँ!

कहो तुम, 'हम तुम्हारे हैं'......

 
 
लंच! प्रपंच!! - मधुप पांडेय

आगंतुक ने चिढ़कर
बड़े बाबू से कहा - ......

 
 
सीमा की कविताओ में ऋजुता है – राहुल देव - भारत-दर्शन समाचार
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एक राजनीतिक संवाद  - बलराम अग्रवाल 

-- सर, 'पेड़ पर उलटा लटकने' वाले में और 'हर शाख पे बैठा' होने वाले में क्या अन्तर है? 
-- एक ही डाली के चट्टे-बट्टे हैं दोनों, कोई अन्तर नहीं है। 
-- यह कैसे हो सकता है? 
-- देखिए, जब आप सत्ता में होते हैं तो सारा विपक्ष आपको उलटा लटका दिखाई देता है... और जब आप विपक्ष में होते हैं तब सत्तापक्ष का हर शख्स आपको 'शाख पे बैठा' दिखाई देता है। 

-- सर, खुद अपने बारे में कैसे पता लगाएँ कि हम क्या है? 
-- अगर आप राजनीतिक जीव नहीं हैं तो बहुत आसान है। अपनी आवाज को ध्यान से सुनो। विवेक से परखो। वह अगर सत्तापक्ष की चिरौरी करती-सी लगे तो समझ लीजिए कि एक 'शाख' पर   आप भी बैठे हैं; और अगर अंधों की तरह उसका विरोध करती-सी लगे तो समझ लीजिए कि आप पेड़ पर उलटा लटके हुओं में शामिल हैं। 
-- और राजनीतिक जीव हों, तब? 
-- तब... विवेक की बात भूल जाइए। 
-- क्यों? 
--अन्तरात्मा मर जाती है।

- बलराम अग्रवाल 
ई-मेल
: balram.agarwal1152@gmail.com

[तैरती हैं पत्तियाँ, प्रकाशक-अनुजा बुक्स, दिल्ली] 


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हुल्लड़ के दोहे  - हुल्लड़ मुरादाबादी

बुरे वक्त का इसलिए, हरगिज बुरा न मान। 
यही तो करवा गया, अपनों की पहचान॥ 

आंसू यादें वेदना अब बिल्कुल बेकार।......

 
 
तीन प्रकाशनों का लोकार्पण - भारत-दर्शन समाचार

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उलझन - सन्तोष सुपेकर

नौकरी का नियुक्ति-पत्र मिला तो खुशी से उसकी आँखों में आँसू आ गए। इस नौकरी की प्रतियोगी परीक्षा के लिए उसने जी तोड़ मेहनत की थी। ईश्वर और वृद्ध माता के चरणों में नियुक्ति-पत्र रखकर, वह लपकता हुआ, पड़ोस के अंकल का आशीर्वाद लेने पहुँचा, जिनका बेरोजगार पुत्र उसका अभिन्न मित्र था।

आशा के विपरीत, अनमनेपन से आशीर्वाद देते हुए अचानक अंकल ने पूछा, "बेटा, एक बात तो बता, कितने पैसे दिये थे, इस नौकरी के लिए...?" उल्लास से  दमकता उसका मन सहसा बुझ गया, इस अप्रत्याशित प्रश्न से, अचानक चली हवा से बुझने वाले दीपक की तरह...। नौकरी मिलने की खुशी आधी रह गयी थी, अपनों के, इस मिथ्या आरोप से...।

अंकल के शब्द......ईर्ष्या का भाव था या सामाजिक कुरीतियों के प्रति, उनकी गहरी आस्था?"

वह कोई फैसला न कर सका।

-सन्तोष सुपेकर
31, सुदामा नगर, उज्जैन ( भारत) 
ई-मेल: santoshsupekar29@gmail.com


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हम होंगे सबमें पास - अभिषेक कुमार अम्बर

हम होंगे सबमें पास
हम होंगे सबमें पास......

 
 
एनजेक डे | प्रथम विश्वयुद्ध (1914-18) - भारत दर्शन संकलन

एनजेक डे

एनजेक डे वर्ष की 25 अप्रैल को पड़ता है। यह दिन युद्ध में शहीद हुए बहादुर सैनिकों व युद्ध से जीवित लौट आए सैनिकों के सम्मान में मनाया जाता है।
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रुख से उनके हमें - सुभाष श्याम सहर्ष

रुख से उनके हमें पर्दा करना ना आया
बेदर्द हम के अदा पे उनके हमें मरना ना आया

बेबफ़ा हो जायेगी एक दिन ये ज़िन्दगी......

 
 
मसख़रा मशहूर है... | हज़ल - हुल्लड़ मुरादाबादी

मसख़रा मशहूर है आँसू बहाने के लिए
बांटता है वो हँसी सारे ज़माने के लिए

घाव सबको मत दिखाओ लोग छिड़केंगे नमक......

 
 
प्रयोगवाद - दिनेश कुमार गोयल

आलू!
उस पर एक और आलू,......

 
 
बापू महान, बापू महान - नागार्जुन

बापू महान, बापू महान!

ओ परम तपस्वी परम वीर
ओ सुकृति शिरोमणि, ओ सुधीर......

 
 
भारत की साहित्यिक एवं सांस्कृतिक व्यापकता पर गोष्ठी - अरूणा घवाना एवं तरूण घवाना

ऑनलाइन 26 जनवरी गोष्ठी

26 जनवरी 2022: भारत के 73वें गणतंत्र दिवस के अवसर पर उत्थान फ़ाउंडेशन, द्वारका नई दिल्ली द्वारा अंतरराष्ट्रीय ऑनलाइन गोष्ठी का आयोजन किया गया। इस गोष्ठी में ‘गणतंत्र भारत की साहित्यिक एवं सांस्कृतिक व्यापकता’ पर चर्चा हुई जिसमें सहभागियों ने अपने संस्मरण और काव्य पाठ प्रस्तुत किए।  कार्यक्रम का संचालन अरूणा घवाना ने किया और अपना काव्य पाठ भी किया। आयोजक तरूण घवाना ने बताया कि भारत से इतर 11 देशों के लोगों ने मंच साझा किया। वेबीनार की मुख्य अतिथि न्यूजीलैंड से डॉ पुष्पा वुड और अतिथि वक्ता भारत से प्रो॰ विमलेशकांति वर्मा थे। इसके अतिरिक्त केंद्रीय हिंदी संस्थान की निदेशक डॉ बीना शर्मा भी सम्मिलित हुईं। भारतीय उच्चायोग त्रिनिदाद-टोबैगो के द्वितीय सचिव (हिंदी, शिक्षा एवं संस्कृति) शिव कुमार निगम के अतिरिक्त रुकमिणी होल्लास ने भी भाग लिया। मॉरीशस से कला एवं संस्कृति मंत्रालय के संस्कृति अधिकारी राकेश श्रीकिसून ने अपना वक्तव्य रखा। यूएसए से शुभ्रा ओझा और यूके से शैल अग्रवाल ने अपनी प्रस्तुति दी। 
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परिंदा - सुनीता त्यागी

आँगन में  इधर उधर फुदकती हुई गौरैया अपने बच्चे को उड़ना सिखा रही थी। बच्चा कभी फुदक कर खूंटी पर बैठ जाता तो कभी खड़ी हुई चारपायी पर, और कभी गिर कर किसी सामान के पीछे चला जाता। 

संयोगिता अपना घरेलू काम निपटाते हुई, ये सब देखकर मन ही मन आनन्दित हो रही थी। उसे लग रहा था मानो वह भी अपने बेटे रुद्रांश के साथ लुका-छिपी खेल रही है।

आँखों से ओझल हो जाने पर जब गौरैया शोर करने लगती तब संयोगिता भी डर जाती कि रुद्रांश ही कहीं गुम हो गया है, और घबराकर वह गौरैया के बच्चे को श..श. करके आगे निकाल देती। 

बच्चा अब काफी उड़ना सीख गया था और अब की बार वह घर की मुंडेर पर जाकर बैठ गया था। अगले कुछ पल बाद उसने ऐसी उड़ान भरी कि वह दूर गगन में उड़ता ही चला गया। 

गौरैया उसे ढूंढ रही थी, और चीं- चीं, चूं - चूं के शोर से उसने पूरा घर सिर पर उठा लिया। 

सन्तान के बिछोह में चिड़िया का करुण क्रन्दन देखकर संयोगिता का दिल भी धक से बैठ गया। वो भी एक माँ है ना! ...और उसके बेटे रुद्रांश ने भी विदेश जाने के लिये पासपोर्ट बनवा लिया है और अब कई दिनों से अमेरिका का वीजा पाने के प्रयास में लगा है।

-सुनीता त्यागी
राजनगर एक्सटेंशन, गाजियाबाद, भारत
ई-मेल: sunitatyagi2014@gmail.com 


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चिड़िया की हेल्थ - डॉ अनुपमा गुप्ता

चिड़िया रानी-चिड़िया रानी
कैसे ऊँची उड़ जाती हो
लंच-डिनर में क्या खाती हो?
हमको नहीं बताती हो।

छोटे-छोटे बीज चबाऊँ
रूखे-सूखे कीड़े
मुझको भाते तनिक नहीं हैं
मैगी,चाट,पकौड़े।

हरी-हरी सब्ज़ी खाऊँगा
अच्छी बात बताती हो।
लंच-डिनर में- - -

सुबह-शाम मेहनत करती हूँ
श्रम से तनिक नहीं डरती हूँ
तिनका-तिनका नीड़ बनाती
बच्चे भी पाला करती हूँ।

सुबह-शाम तुम जिम को जाती
सीक्रेट नहीं बताती हो।
लंच-डिनर- -

भोलू राजा, भोले हो तुम
मेहनत ज़रा न करते हो तुम
तले पकौड़े तुम नित खाते
फ़ास्ट-फ़ूड पर मरते हो तुम
काम बहुत मुझको करने हैं
फिर मिलने, उड़ जाती हूँ मैं।
लंच-डिनर- -

आखिरी आन्सर देती जाओ
कैसे तुम सुंदरता पाओ
चटकीले हैं रंग तुम्हारे
कैसे तुम नित निखरी जाओ?
हमें बताओ, नहीं छुपाओ
ब्यूटी-पार्लर जाती हो तुम?

भोलू राजा बुद्धू हो तुम
बात समझ न आती है----!

- डॉ अनुपमा गुप्ता


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नया ‘वाद’ - निशिकांत

एक साहित्य गोष्ठी में
जितने थे......

 
 
न्यूज़ीलैंड की भारतीय पत्रकारिता के गौरवशाली 100 वर्ष पर ऑनलाइन गोष्ठी - भारत-दर्शन समाचार

New Zealand Ki Patrkarita Ke 100 Varsh

17 जनवरी 2022 (न्यूज़ीलैंड): न्यूज़ीलैंड की भारतीय पत्रकारिता 100 वर्ष की हो चुकी है। इस अवसर पर रविवार, 16 जनवरी 2022, न्यूज़ीलैंड से प्रकाशित ऑनलाइन हिंदी पत्रिका भारत-दर्शन और वैश्विक हिंदी परिवार ने एक ऑनलाइन गोष्ठी का आयोजन किया। इस आयोजन में मुख्य अतिथि के तौर पर न्यूज़ीलैंड में भारत के उच्चायुक्त, ‘मुक्तेश कु॰ परदेशी’, विशिष्ट अतिथि के तौर पर वरिष्ठ पत्रकार, ‘राहुल देव’ और अंतरराष्ट्रीय सहयोग परिषद के मानद निदेशक ‘नारायण कुमार‘ सम्मिलित हुए। इसकी अध्यक्षता केंद्रीय हिंदी शिक्षण मण्डल (भारत) के उपाध्यक्ष, अनिल ‘जोशी’ और संचालन प्रो॰ राजेश कुमार ने किया। 
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गैर - जोगेंदर पाल

मुझे अपने आप पर शक होने लगा है। मैं कोई और हो गया हूँ।

-जोगेंदर पाल 
[संपादक – बलराम, भारतीय लघुकथा कोश (भाग-2), दिनमान प्रकाशन,  1990]


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मैं भी पढ़ने जाऊँगा - बेबी मिश्रा

माँ मुझको स्लेट दिला दो, मैं भी पढ़ने जाऊँगा।
पढ़ लिखकर आगे बढ़कर, सबको शिक्षित करवाऊँगा।।

शिक्षा का हक़ सबको है माँ, यह बात सबको समझाऊँगा।......

 
 
ईस्टर | Easter - भारत दर्शन संकलन

ईस्टर मार्च या अप्रैल में पड़ता है। ईस्टर के दिन ईसाई लोग ईसा मसीह के स्वर्गवास और पुनर्जीवन का उत्सव मनाते हैं। गुड फ्राइडे के दिन पारम्परिक रूप से हॉट क्रॉस बन्स खाए जाते हैं। ईस्टर संडे को लोग चॉकलेट से बने ईस्टर एग्स सांझा करते हैं।ईस्टर के अंडे

ईस्टर एग्स (ईस्टर अंडे) धर्म से जुड़े हुए हो या नहीं लेकिन बिना रंगीन अंडो के ईस्टर का त्यौहार पूरा ओनन्द नहीं देता।  पारंपरिक रूप से ये अंडे माता-पिता छिपा देते हैं और बच्चों को इन्हें ढूंढना होता है। ईसाई धर्म में अंडे पुनरुत्थान का प्रतीक हैं।

ईस्टर के रविवार को पुनरुत्थान की घोषणा के लिए चर्च की बेल्स (घंटियां) बजाई जाती हैं। इस दिन विशेष प्रार्थनाएं भी आयोजित की जाती जाती हैं।

 

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उन्हें आज ... - बेढब बनारसी

उन्हें आज आई है कैसी जवानी,
सभी कह रहे हैं उन्हीं की कहानी ।

लचकदार कानून उनके नहीं है,......

 
 
ढोल, गंवार... - सुरेंद्र शर्मा

मैंने अपनी पत्नी से कहा --
"संत महात्मा कह गए हैं--......

 
 
न्यूज़ीलैंड की भारतीय पत्रकारिता के 100 वर्ष  - भारत-दर्शन
यह न्यूजीलैंड की भारतीय पत्रकारिता का शताब्दी वर्ष है। न्यूज़ीलैंड का पहला मासिक 1921 में शुरू हुआ था। इस अवसर पर भारत-दर्शन, वैश्विक हिंदी परिवार, विश्व हिंदी सचिवालय और केंद्रीय हिंदी संस्थान आपको आमंत्रित करना चाहेंगे। इस संदर्भ में 16 जनवरी को एक ऑनलाइन कार्यक्रम होगा जिसमें 'न्यूजीलैंड में भारतीय पत्रकारिता' पर चर्चा होगी।
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उसकी ज़रूरत | लघुकथा - डॉ चंद्रेश कुमार छतलानी

उसके मन में चल रहा अंतर्द्वंद चेहरे पर सहज ही परिलक्षित हो रहा था। वह अपनी पत्नी के बारे में सोच रहा था, “चार साल हो गए इसकी बीमारी को, अब तो दर्द का अहसास मुझे भी होने लगा है, इसकी हर चीख मेरे गले से निकली लगती है।“

...और उसने मुट्ठी भींच कर दीवार पर दे मारी, लेकिन अगले ही क्षण हाथ खींच लिया। कुछ मिनटों पहले ही पत्नी की आँख लगी थी, वह उसे जगाना नहीं चाहता था। वह वहीँ ज़मीन पर बैठ गया और फिर सोचने लगा, “सारे इलाज कर लिये, बीमारी बढती जा रही है, क्यों न इसे इस दर्द से हमेशा के लिए छुटकारा...?  नहीं... लेकिन...” आखिरकार उसने दिल कड़ा कर वह निर्णय ले ही लिया, जिस बारे में वह कुछ दिनों से सोच रहा था।

घर में कोई और नहीं था, वह चुपचाप रसोई में गया, पानी का गिलास भरा और अपनी जेब से कुछ दिनों पहले खरीदी हुई ज़हर की पुड़िया निकाली। पुड़िया को देखते ही उसकी आँखों में आँसू तैरने लगे, लेकिन दिल मज़बूत कर उसने पानी में ज़हर डाल दिया और एक चम्मच लेकर कांपते हाथों से उसे घोलने लगा।

रसोई की खिड़की से बाहर कुछ बच्चे खेलते दिखाई दे रहे थे, उनमें उसका पोता भी था, वह उन्हें देखते हुए फिर पत्नी के बारे में सोचने लगा, “इसकी सूरत अब कभी... इसके बिना मैं कैसे रहूँगा?”

तभी खेलते-खेलते एक बच्चा गिर गया और उस बच्चे के मुंह से चीख निकली। चीख सुनते ही वह गिलास फैंक कर बाहर भागा, और पोते से पूछा, "क्या हुआ बेटा?"

पोते ने उसे आश्चर्य से देखा, क्योंकि पोता तो गिरा ही नहीं था, अलबत्ता गिलास ज़रूर वाशबेसिन में गिर कर ज़हरीले पानी को नाली में बहा चुका था। ...और वह भी चैन की सांस लेकर अंदर लौट आया।

- डॉ चंद्रेश कुमार छतलानी
  ई-मेल : chandresh.chhatlani@gmail.com


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हरी सब्जियॉं  - डॉ सुनील बहल

हरी सब्जियों के बड़े गुण,
दादा सदा रटते ये धुन।

घीया, कद्दू जो हैं खाते, ......

 
 
नमस्ते हिंदी - हिंदी से प्यार है - भारत-दर्शन समाचार

न्यूज़ीलैंड  (06  जनवरी 2022):  नमस्ते हिंदी - पिछले दिनों इस फिल्म को ऑनलाइन प्रदर्शित किया गया।  यह फिल्म वैश्विक हिंदी परिवार को समेटे हुए है। देश-विदेश के विद्वान, अध्यापक, लेखक, विद्यार्थी, मीडिया कर्मी, चिंतक, और भाषाविद इस फ़िल्म  में हिंदी के प्रति अपने प्रेम, सम्मान, और समर्पण की अभिव्यक्ति कर रहे हैं, जिन्हें हिंदी से प्यार है। इस फिल्म की निर्माण टीम में कई दिग्गज हैं-- प्रो राजेश कुमार, निर्देशक, डॉ संध्या सिंह, सह-निर्देशक और इसका सम्पादन किया है, अनुभव प्रियदर्शी ने।  

विदेश में बसे हुए एक दर्शक ने  इसे देखने के बाद अपनी प्रसन्नता दर्शाते हुए कहा, "नमस्ते हिंदी अवश्य देखें और उन मित्रों को दिखाएँ, जिन्हें हिंदी से प्यार है

आप भी नमस्ते हिंदी वीडियो देख सकते हैं। 

[भारत-दर्शन समाचार]

 


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इस पार न सही | लघुकथा - सुरेंद्र कुमार अरोड़ा 

"आज फिर वहाँ क्या कर रहे थे?"

"नदी का बहना मुझे अपनी ओर खींचता है, इसलिए आज भी वहाँ था।"

"नदी का बहना...? ये क्या बात हुई।“

"तुम्हीं तो कहा करती थीं कि तुम्हारा प्यार नदी के उस बहाव की तरह है जो ऊर्जा से कभी रिक्त नहीं होता।" उसने कहा।

"वो तो ठीक है पर कभी उस बहाव का हिस्सा मत बन जाना।"

"उसके लिए हिम्मत चाहिए जो मुझमें है या नहीं, मैं नहीं जानता।" उसने चाहा कि वह कह दे पर कह नहीं पाया।

"कुछ बोलते क्यों नहीं? मैने कहा है कि कभी उसके साथ बह मत जाना।"

"ऐसा कुछ हो गया तो तुम्हें अब क्या फर्क पड़ेगा?" वह यह भी नहीं कह पाया।

"मौनव्रत ले लिया है क्या?" वो झल्लायी।

"हाँ! यही समझ लो। अब मौन हो जाना चाहता हूँ। जिंदगी इतनी कठोर सतह है, इसकी तपिश अब सही नहीं जाती। नदी का प्रवाह शायद इस तपिश को समेट ले।"
"या तो बोल नहीं रहे थे और अब बोले हो तो मौन में लिपटी बातें? किसे सज़ा दे रहे हो इन बातों से?"

"ईश्वर कुछ रिश्ते सज़ा देने के लिए ही बनाता है। सज़ा भी उन अपराधों की जो अपनी मरज़ी से नहीं किए जाते।"

"बहुत ख़राब हो तुम।"

"ख़राब ही तो हूँ। ख़राब न होता तो तुमसे मिलने का अपराध कैसे करता।"

"अपराध तो मैंने किया है, सज़ा भी मुझे ही भुगतने दो।"

"कब तक झूठ बोलोगी तुम?"
"क्या करूं, और कोई चारा भी तो नहीं है। न इस पार आ पाई, न उस पार जा सकी।" वो भी कहना चाहती थी पर कह न सकी।

उत्तर नहीं मिला तो वो उठा और फिर से नदी की ओर बढ़ गया।

वह उसे जाते हुए देखती रही। उसकी आँखों में लाचारी के आंसुओं के सिवा कुछ नहीं था।

उसके बुझे और थके हुए कदम उस बड़ी नदी की ओर बढे ही थे कि उसके रास्ते में उसकी तीव्र धारा से निकली एक छोटी नदी आ गयी। उसने पूछा, "कहाँ जा रहे हो?"
"उस बड़ी नदी की तीव्र धारा का आलिंगन करने। अब यही मेरी नियति है।" उसने कहा।

"लगता है नियति से लड़ नहीं पाए! इसीलिए बहकी-बहकी बातें कर रहे हो। जानते हो मैं और मेरा जल उसी बड़ी नदी के साथ तीव्रता से बह रहे थे। हमारी नियति तय थी परन्तु तभी मार्ग में बड़े - बड़े पत्थरों के अवरोध आ गए। हमने समर्पण नहीं किया। मार्ग बदल लिया। मार्ग बदलते ही हमारी नियति भी बदल गयी। अब हम उस बड़ी नदी और उसके साथ किसी भी अवरोध से मुक्त हैं और देखो अपने नए रूप में धरती पर बिखरे छोटे-छोटे खेतों में खड़ी फसल की प्यास बुझाने जा रहे हैं।" छोटी नदी ने गर्व से अपनी करनी का बखान किया।

वह सोचने की प्रश्नवाचक मुद्रा में खड़ा हो गया।

"किस दुविधा में डूबे हो। जीवन में मार्ग कभी अवरुद्ध नहीं होते। जाओ अपनी ऊर्जा, जो छिटक गयी है, उसे फिर से संचित करो, कुछ समय बाद पाओगे कि नया मार्ग तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है।" छोटी नदी के जल से आवाज आयी।

उसने पाया कि उसकी सारी थकान मिट चुकी है और पाँव आगे बढ़ने को आतुर हैं।  

-सुरेंद्र कुमार अरोड़ा 
 साहिबाबाद (उत्तर प्रदेश) 
 ई-मेल : surendrakarora1951@gmail.com


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गर मैं रहता सागर नीचे - संगीता बैनीवाल

बहुत मज़े मैं करता
डॉल्फ़िन बने घोड़ागाडी......

 
 
ऑस्ट्रेलिया की ऑनलाइन निबंध प्रतियोगिता के परिणाम - भारत-दर्शन समाचार

न्यूज़ीलैंड  (15  नवंबर 2021):  भारतीय उच्चायोग, ऑस्ट्रेलिया द्वारा ऑनलाइन निबंध प्रतियोगिता के परिणाम घोषित किए गए हैं। 

इस प्रतियोगिता के परिणामों में मास्टर आदित्य पॉल (12 वर्ष से कम आयु वर्ग), मास्टर अनंत रवि (12 से 20 आयु वर्ग), कुमारी सारिका घनेकर (12 से 20 आयु वर्ग) और सुश्री मंजीत ठेठी ( 20 व उससे ऊपर आयु वर्ग) विजेता रहे। 

[भारत-दर्शन समाचार]

 


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भाई | लघुकथा - अरिमर्दन कुमार सिंह

सुबह-सुबह लीला जब जॉगिंग करके घर में दाखिल हुई तो उसने पति लीलेश को फोन पर बात करते हुए देखा। पति के फोन काटते ही लीला ने बातचीत का सार तत्व समझ व्यंग्य बाण छोड़ा, "लगता है कि तुम्हारे भाई भरत का फोन था? फिर पैसे की मांग की गई है न?"

लीलेश ने बात न बढ़ाने की गरज से शाब्दिक मितव्ययिता अपनाते हुए कहा, "हॉं।"

लीला ने पति को अर्थशास्त्र समझाते हुए कहा,"न जाने तुम कब समझोगे। अपने दोनों बेटों की भी चिंता किया करो। भाई को कब तक लादे फिरोगे। जब से आई हूँ तब से तुम्हारी यही हरकत देख रही हूँ। अरे, कभी शादी-विवाह पड़ा या कोई पर्व-त्योहार हुआ तो कुछ रुपए-पैसे आदमी दे देता है। इसके आगे का भाईचारा ठीक नहीं है।"

लीलेश पत्नी की बातों को अनसुना करते हुए बाहर निकल गया।

लीला ने पति पर अतिरिक्त दबाव डालने के उद्देश्य से बहुराष्ट्रीय कंपनी में कार्यरत अपने बेटे रुद्रांश से एक दिन कहा, "बेटा, मैं तो तुम्हारे पापा को समझाते-समझाते थक गई हूँ। अभी गांव से उनके भाई का फोन आया है कि आलू की फसल को पाला मार गया है। पैसे की दरकार है। अगर तुम्हारे पापा इसी तरह भामा शाह बने रहे तो तुम लोगों के लिए कुछ नहीं बचेगा। थोड़ा तुम भी उन्हें समझाओ न। शायद तुम्हारी बातों का उनपर कुछ असर हो जाए।"

रुद्रांश ने लीला से कहा, "मॉं, काका ने पापा के लिए बहुत कुछ किया है। उन्हीं की बदौलत पापा की पढ़ाई-लिखाई हुई तथा नौकरी लगी। जिस किसी सामान पर भी तुम हाथ रख देती हो पापा उसे खरीदवाते जरूर हैं। हम दोनों भाइयों की भी हर फरमाइश पूरी करते रहे हैं। वो  कमाते हैं। अगर उसमें से कुछ अपने भाई के ऊपर खर्च कर भी देते हैं तो क्या बिगड़ जाता है? मैं उनका हाथ पकड़ने तो नहीं जाऊंगा।"

लीला पर बातों का असर न पड़ता देख रुद्रांश ने माँ की ममता का छोर टटोलते हुए कहा, 
"माँ, यदि मैं अपने भाई रुद्राक्ष की मदद करूं तो तुम बुरा मानोगी क्या?"

- अरिमर्दन कुमार सिंह
  बक्सर, बिहार
  मोबाइल : 9832594994
  ई-मेल : arismathar10@gmail.com


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क्यों मनाया जाता है गुड फ्राइडे - भारत दर्शन संकलन

गुड फ्राइडे मार्च या अप्रैल मास में पड़ता है। 

गुड फ्राइडे के दिन ईसाई धर्म के अनुयायी गिरजाघर जाकर प्रभु यीशु को याद करते हैं। गुड फ्राइडे को ईसा मसीह ने धरती पर बढ़ रहे पाप के लिए बलिदान देकर निःस्वार्थ प्रेम की पराकाष्ठा का उदाहरण प्रस्तुत किया। इस दिन ईसा मसीह ने उत्पीड़न और यातनाएं सहते हुए मानवता के लिए अपने प्राण त्याग दिए।

 

क्या है गुड फ्राइडे

ईसाई धर्म ग्रंथों के अनुसार जिस दिन ईसा मसीह को सूली पर चढ़ाया गया व मसीह ने प्राण त्यागे थे उस दिन शुक्रवार का दिन था और इसी की याद में गुड फ्राइडे मनाया जाता है। अपनी मौत के तीन दिन बाद ईसा मसीह पुन: जीवित हो उठे और उस दिन रविवार था। इस दिन को ईस्टर सण्डे कहते हैं। गुड फ्राइडे को होली फ्राइडे, ब्लैक फ्राइडे या ग्रेट फ्राइडे भी कहा जाता है।

ईसाई लोगों के लिए गुड फ्राइडे का विशेष महत्व रखता है। इस दिन ईसा ने सलीब पर अपने प्राण त्यागे थे। यद्यपि वे निर्दोष थे तथापि उन्हें दंडस्वरूप सलीब पर लटका दिया गया। उन्होंने सजा देने वालों पर दोषारोपण नहीं किया बल्कि यह की कि ‘हे ईश्वर इन्हें क्षमा कर, क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं।     ......

 
 
केन्द्रीय हिदी संस्थान के हिंदी सेवी सम्मानों की घोषणा - भारत-दर्शन समाचार

22 सितंबर 2021 (भारत): केन्द्रीय हिदी संस्थान द्वारा वर्ष 2018  के लिए 12 श्रेणियों के पुरस्कारों के लिए देश-विदेश के 26 महत्वपूर्ण रचनाकारों को पुरस्कृत करने की घोषणा भारत के शिक्षा मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान के अनुमोदन व केन्द्रीय हिंदी शिक्षण मंडल के उपाध्यक्ष अनिल जोशी की गरिमामय उपस्थिति में निदेशक बीना शर्मा द्वारा 21 सितंबर को आगरा में की गई।  पुरस्कार में 5 लाख रुपये, प्रशस्ति पत्र, शाल भेंट की जाती है। इस अवसर पर मंडल के उपाध्यक्ष अनिल जोशी व निदेशक बीना शर्मा ने आगरा में पत्रकारों, हिदी लेखकों, विद्वानों और हिंदी सेवियों की एक सभा को संबोधित किया। 

2018 के लिए निम्नलिखित विद्वानों को हिंदी सेवी सम्मान दिए गए हैं:
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गिरहकट - दिलीप कुमार

गिरहकट : दिलीप कुमार की लघुकथा 

पन्ना, मैक, लंबू, हीरा, छोटू इनके असली नाम नहीं थे लेकिन दुनिया अब इसे ही इनका असली नाम मानती थी।

मंगल प्रसाद गुप्ता ही पन्ना था, मथुरादास पांडे मैक बन चुका था। लंबू का असली नाम खलील अहमद था। अब का हीरा कभी हरजिंदर हुआ करता था और आफताब को सब छोटू के नाम से जानते  थे।

वैसे तो ये लोग अलग-अलग धर्मों के थे मगर एक ही चीज थी जो इन्हें जोड़ती थी वो था इनका लक्ष्य। ये मजहब से अलग मगर मकसद से एक थे। इन सभी का इकलौता लक्ष्य था दूसरे की जेबों से माल उड़ाना।

ये पोशीदा भेड़िये थे जिन्हें दुनिया गिरहक़ट के नाम से जानती थी।

ये शहरी जंगलात के भेड़िये थे। मगर ये भी वास्तविक जंगल के भेड़ियों की तरह समूह में शिकार किया करते थे। जिसने कामयाबी से  शिकार किया सबसे पहला और बड़ा हिस्सा उसका, लेकिन झुंड में सभी को हिस्सा मिलता था।
 
कोई रेकी करता था। कोई पॉकेट पर हाथ मारता था तो कोई बटुआ लेकर भागता था, कुछ का रोल इसके बाद शुरू होता था। इन सभी शहरी भेड़ियों ने पूरी ट्रेनिंग ले रखी  थी।

टास्क शुरू हुआ, एक वृद्ध महिला को पन्ना ने स्पॉट किया और उसने मैक को काम करने का इशारा किया।

 
बस में चढ़ने की जद्दोजहद कर रही वृध्द महिला को पन्ना ने बस में चढ़ाते हुए कहा –

“आंटी जी ,जल्दी कीजिये मैं सहारा देता हूँ ना आपको "ये कहकर बस में चढ़ाते हुए उसने उस वृध्द महिला का  छोटा सा बटुआ ब्लाउज से खींच लिया।

आंटी पन्ना की ये हरकत जान गयीं । उन्होंने शोर मचाना शुरू कर दिया । भीड़ जब तक कुछ समझ पाती तब तक पन्ना ने  बटुआ  पहले से बस में मौजूद मैक की तरफ उछाल दिया। पन्ना  बस में घिर गया मगर मैक ने बटुआ कैच किया और तत्काल बस की खिड़की से बाहर कूद गया।

सब लोग बटुआ लिए मैक की तरफ भागे तब तक भीड़ से हाथ झटक कर पन्ना भी भाग निकला।

पकड़े जाने पर मैक की बेतहाशा पिटाई शुरू हो गई।

गिरहकट को पीट रहे दोनों  युवकों के सामने अचानक एक तीसरा युवक आया। वो पिटाई शांत कराते हुए बोला –

“बहुत पिट चुका है ये अब और ज्यादा मारोगे तो ये मर जायेगा। फिर पुलिस का लफड़ा हो जायेगा। वैसे भी पैसे तो आंटीजी को वापस मिल ही चुके हैं । एक काम करो इसे कोतवाली ले चलते हैं। वहाँ पर पुलिस इनकी कायदे से तुड़ाई भी करेगी और जेल भी भेज देगी ,तब इनकी अक्ल ठिकाने आएगी "।

तीसरे युवक की बात सुनकर दोनों युवकों ने पीटना बंद कर दिया औऱ भीड़ ने भी तीसरे युवक की बात का समर्थन किया , वास्तव में पुलिस के लफड़े में कोई नहीं पड़ना चाहता था चाहे पीड़ित हो या भीड़।

भीड़ ने न सिर्फ उन तीनों युवकों की तारीफ की बल्कि उनकी सजगता के प्रति कृतज्ञता भी व्यक्त की।

मैक को पीटने वाले लंबू और हीरा थे। रस्सी लाने वाला युवक छोटू था।

पकड़ने, पीटने और पुलिस तक पहुंचाने की बात करने वाले सब गिरहकट ही थे जो जंगली भेड़ियों की तरह समूह में शिकार पर थे ।

-दिलीप कुमार


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सुभद्रा कुमारी चौहान पर गूगल डूडल - भारत-दर्शन समाचार

Subhadra Kumari Chauhan

15 अगस्त 2021 (न्यूजीलैंड): सुभद्रा कुमारी चौहान के 117वें जन्मदिन पर गूगल ने डूडल द्वारा सम्मान दिया। सुभद्रा कुमारी चौहान की विचारोत्तेजक राष्ट्रवादी कविता "झांसी की रानी" को व्यापक रूप से हिंदी साहित्य में सबसे अधिक पढ़ी जाने वाली कविताओं में से एक माना जाता है।

सुभद्रा कुमारी चौहान का यह डूडल न्यूज़ीलैंड की डिजिटल कलाकार प्रभा माल्या द्वारा चित्रित किया गया है।

सुभद्रा कुमारी चौहान का जन्म 16 अगस्त 1904 को हुआ था। वह स्कूल के रास्ते में घोड़ागाड़ी में भी लगातार लिखने के लिए जानी जाती थीं, और उनकी पहली कविता सिर्फ नौ वर्ष की आयु में प्रकाशित हुई थी। 

चौहान की कविता और गद्य मुख्य रूप से उन कठिनाइयों के इर्द-गिर्द केंद्रित थे, जिन पर भारतीय महिलाओं ने विजय प्राप्त की, जैसे कि लिंग और जातिगत भेदभाव। उनकी कविता उनके दृढ़ राष्ट्रवाद द्वारा विशिष्ट रूप से रेखांकित की गई। 1923 में, चौहान की अडिग सक्रियता ने उन्हें राष्ट्रीय मुक्ति के संघर्ष में गिरफ्तार किए जाने वाले अहिंसक उपनिवेशवादियों के भारतीय समूह की पहली महिला सत्याग्रही बनने के लिए प्रेरित किया।

[भारत-दर्शन समाचार]


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अस्तित्वहीन नहीं | लघुकथा - मधुदीप

उस रात कड़ाके की सर्दी थी। सड़क के दोनों ओर की बत्तियों के आसपास कोहरा पसर गया था।

रोज-क्लब के निकास-द्वार को पाँव से धकेलते हुए वह लड़खड़ाता हुआ बाहर निकला। झट दोनों हाथ गर्म पतलून की जेवों के अस्तर छूने लगे।

बरामदे में रिक्शा खड़ी थी। उसकी डबल सीट पर पतली-सी चादर मुँह तक ढाँपे, चालक गठरी-सा बना लेटा था। घुटने पेट में घुसे थे।

रिक्शा देखकर उसका चेहरा चमक उठा।

"खारी बावली चलेगा..." वह रिक्शावाले के समीप पहुँचा।

उधर से चुप्पी रही।

"चल, दो रुपए दे देंगे।" युवक ने उसके अन्तस् को कुरेदा।

"दो रुपैया से जियादा आराम की जरूरत है हमका।"

"साले! पेट भर गया लगता है...।" नशे में बुदबुदाता हुआ जैसे ही वह युवक आगे बढ़ा...

...तड़ाक... रिक्शावाले का भारी हाथ उसके गाल पर पड़ा।

क्षणभर को युवक का नशा हिरन ही गया। वह अवाक्-सा खड़ा उसके मुँह की ओर देख रहा था।

रिक्शावाला छाती फुलाए उसके सामने खड़ा था। 

- मधुदीप


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विरह का गीत | हास्य काव्य - कवि चोंच

तुम्हारी याद में खुद को बिसारे बैठे हैं।
तुम्हारी मेज पर टंगरी पसारे बैठे हैं ।

गया था शाम को मिलने मैं पार्क में मिस से,
वहां पर देखा कि वालिद हमारे बैठे हैं ।

जरा सा रूप का दर्शन तो दे दो आंखों को,
बहुत दिनों से यह भूखे बेचारे बैठे हैं।

ये काले बाल औ' इनमें गुंथे हुए मोती,
ये राजहंस क्या जमुना किनारे बैठे हैं?

गया जो रात बिता घर तो बोल उठे अब्बा,
इधर तो आओ हम जूते उतारे बैठे हैं!

- कवि चोंच

 


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प्रसिद्ध साहित्यकार प्रभु जोशी नहीं रहे - भारत-दर्शन समाचार

4 अप्रैल 2021 (भारत): प्रसिद्ध साहित्यकार, चित्रकार और पत्रकार प्रभु जोशी का निधन हो गया। उनका 'कोविड पाजिटिव' होने के बाद से उपचार चल रहा था।

[भारत-दर्शन समाचार]


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कबीर विशेषांक - भारत-दर्शन संकलन

कबीर विशेषांक

कबीर विशेषांक (मई-जून 2015). भारत-दर्शन का सम्पूर्ण कबीर विशेषांक पढ़ें या प्रमुख रचनाएं पढ़ें जिनमें सम्मिलित हैं कबीर के दोहे, कबीर के पद, कबीर भजन, कबीर से संबंधित कथाएं।

दिन अँधेरा-मेघ झरते | रवीन्द्रनाथ ठाकुर (काव्य )

 
मेरा शीश नवा दो - गीतांजलि (काव्य )
 
काबुलीवाला | रबीन्द्रनाथ टैगोर की कहानी (कथा-कहानी )
 
काका हाथरसी का हास्य काव्य (काव्य )
 
हास्य दोहे | काका हाथरसी (काव्य )
 
दुःख का अधिकार | यशपाल की कहानी (कथा-कहानी )
 
जिस तरफ़ देखिए अँधेरा है | ग़ज़ल (काव्य )
 
बचकर रहना इस दुनिया के लोगों की परछाई से (काव्य )
 
पारस पत्थर (कथा-कहानी )
 
पहचान | लघु-कथा (कथा-कहानी )
 
जैसी करनी वैसी भरनी | बोध -कथा (कथा-कहानी )
 
करामात (कथा-कहानी )
 
ग़नीमत हुई | बोध -कथा (कथा-कहानी )
 
लोगे मोल? | कविता (काव्य )
 
ज़रा सा क़तरा कहीं आज गर उभरता है | ग़ज़ल (काव्य )
 
अनमोल वचन | रवीन्द्रनाथ ठाकुर (विविध )
 
विपदाओं से रक्षा करो, यह न मेरी प्रार्थना | बाल-कविता (बाल-साहित्य )
 
ओ मेरे देश की मिट्टी | बाल-कविता (बाल-साहित्य )
 
अनधिकार प्रवेश | रबीन्द्रनाथ टैगोर की कहानी (बाल-साहित्य )
 
चल तू अकेला! | रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कविता (काव्य )
 
महाकवि रवीन्द्रनाथ के प्रति (काव्य )
 
आज भी खड़ी वो... (काव्य )
 
छवि नहीं बनती (काव्य )
 
सर एडमंड हिलेरी से साक्षात्कार (विविध )
 
राजा का महल | बाल-कविता (बाल-साहित्य )
 
लायक बच्चे (कथा-कहानी )
 
मदर'स डे (कथा-कहानी )
 
माँ पर दोहे | मातृ-दिवस (काव्य )
 
अन्तर दो यात्राओं का दो यात्राओं का (कथा-कहानी )
 
ईश्वर का चेहरा (कथा-कहानी )
 
कबीर की कुंडलियां - 1 (काव्य )
 
बात हम मस्ती में ऐसी कह गए | ग़ज़ल (काव्य )
 
कबीर वाणी (काव्य )
 
कबीर की हिंदी ग़ज़ल (काव्य )
 
कबीर भजन (काव्य )
 
कबीर दोहे -3 (काव्य )
 
कबीर दोहे -2 (काव्य )
 
कबीर के दोहे | Kabir's Couplets (काव्य )
 
नहीं है आदमी की अब | हज़ल (काव्य )
 
नानी वाली कथा-कहानी (काव्य )
 
आज कबीर जी जैसे युग प्रवर्तक की आवश्यकता है (विविध )
 
अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस (21 जून) (विविध )
 
नारद की कल्याणकारी पत्रकारिता    (विविध)
 
तितली | बाल कविता   (काव्य)
 
मत बाँटो इंसान को | बाल कविता   (काव्य)
 
चिट्ठी | बाल कविता   (बाल-साहित्य )
 
कर्म योगी रबीन्द्रनाथ ठाकुर    (विविध)
 
कविगुरू रबीन्द्रनाथ ठाकुर    (विविध)
 
टैगोर - कवि, गीतकार, दार्शनि‍क, कलाकार और शि‍क्षा वि‍शारद   (विविध)
 
माँ    (काव्य)
 
महान संत गुरूदेव टैगोर और महान आत्‍मा महात्‍मा गांधी | विशेष लेख   (विविध)
 
अश़आर   (काव्य)
 
तेरा हाल मुझसे   (काव्य)
 
माँ कह एक कहानी   (काव्य)
 
माँ   (काव्य)
 
पानी की बर्बादी   (बाल-साहित्य )
 
साखियाँ   (बाल-साहित्य )
 
नैराश्य गीत | हास्य कविता   (काव्य)
 
आख़िर खुदकुशी करते हैं क्यों ?   (काव्य)
 
भावना चंद की तीन कविताएं   (काव्य)
 
फैशन | हास्य कविता   (काव्य)
 
सूर्यभानु गुप्त की तीन त्रिपदियाँ    (काव्य)
 
अमिता शर्मा की क्षणिकाएं    (काव्य)
 
अभिमन्यु | क्षणिका   (काव्य)
 
दो क्षणिकाएं   (काव्य)
 
लक्ष्य | क्षणिका   (काव्य)
 
मिट्टी और कुंभकार   (कथा-कहानी)
 
परिवार की लाड़ली | लघु-कथा   (कथा-कहानी)
 
इमतियाज गदर की दो लघुकथाएं    (कथा-कहानी)
 
महामूर्ख | लघु कथा   (कथा-कहानी)
 
विश्व शान्ति की शिक्षा: भगवान बुद्ध के सन्दर्भ में   (विविध)
 
संत गुरु कबीर एवं संत गुरु रैदास: वैचारिक अंतः संबंध   (विविध)
 
कबीर किंवंदतियां   (कथा-कहानी)
 
योग-दिवस पर प्रधानमंत्री मोदी का वक्तव्य    (विविध)
 
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बेधड़क दोहावली  - बेधड़क

गुस्सा ऐसा कीजिए, जिससे होय कमाल ।
जामुन का मुखड़ा तुरत बने टमाटर लाल।।

भारत की सरकार का, खूब गर्म है खून।......

 
 
साबरमती के सन्त | गीत  - कवि प्रदीप

दे दी हमें आज़ादी बिना खड्‌ग बिना ढाल
साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल......

 
 
बेटी | लघुकथा - सविता मिश्रा 'अक्षजा'
‘छुट्टी की बड़ी समस्या है दीदी, पापा अस्पताल में नर्सो के सहारे हैं!’ भाई से फोन वार्ता समाप्त होते ही सुमी तुरन्त अटैची तैयार कर बनारस से दिल्ली चल दी।
 
अस्पताल पहुँचते ही देखा कि पापा बेहोशी के हालत में बड़बड़ा रहे थे। उसने झट से उनका हाथ अपने हाथों में लेकर, एहसास दिला दिया कि कोई है, उनका अपना।
 
हाथ का स्पर्श पाकर जैसे उनके मृतप्राय शरीर में जान-सी आ गयी हो। वार्तालाप घर-परिवार से शुरू होकर न जाने कब जीवन बिताने के मुद्दे पर आकर अटक गयी।
 
एक अनुभवी स्वर प्रश्न बन उभरा, तो दूसरा अनुभवी स्वर उत्तर बन बोल उठा—"पापा, पहला पड़ाव आपके अनुभवी हाथ को पकड़ के बीत गया। दूसरा पति के ताकतवर हाथों को पकड़ बीता और तीसरा बेटों के मजबूत हाथों में बीत गया।"
 
"चौथा ...! वह कैसे बीतेगा, कुछ सोचा? वही तो बीतना कठिन होता है बिटिया।"
 
"चौथा आपकी तरह!"
 
"मेरी तरह! ऐसे बीमार, नि:सहाय!"
 
"नहीं पापा, आपकी तरह अपनी बिटिया के शक्तिशाली हाथों को पकड़, मैं भी चौथा पड़ाव पार कर लूँगी।"
 
"मेरा शक्तिशाली हाथ तो मेरे पास है, पर तेरा किधर है?" पिता ने मुस्कुराकर पूछा।
 
"नानाजी..." तभी अंशु का सुरीला स्वर उनके कानों में पड़ा जो पूरे कमरे को संगीतमय कर गया।
 
-सविता मिश्रा ‘अक्षजा'
 आगरा, भारत 
 ई-मेल : 2012.savita.mishra@gmail.com

 


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आरती शर्मा की क्षणिकाएँ - आरती शर्मा

याद आई माँ
ना आई पाती......

 
 
होलिकांक - मार्च - अप्रैल 2015 - भारत-दर्शन संकलन

होलिकांक - मार्च - अप्रैल 2015
[समग्र सामग्री]

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हँसाइयाँ - बेधड़क बनारसी

उस खुदा का नहीं कानून समझते हैं वे
मुझको हँसने का ही मजमून समझते हैं वे। ......

 
 
गाँधीजी के बन्दर तीन | बाल कविता - बालस्वरूप राही

गाँधीजी के बन्दर तीन,
सीख हमें देते अनमोल।

बुरा दिखे तो दो मत ध्यान,......

 
 
बच्चो, चलो चलाएं चरखा | बाल कविता - आनन्द विश्वास

चरखा

बच्चो, चलो चलाएं चरखा,
बापू जी ने इसको परखा।......

 
 
श्रवण राही के मुक्तक  - श्रवण राही

ज़ुल्फ़ें जो अंधेरों की सँवारा नहीं करते
काँटों पे कभी हँस के गुज़ारा नहीं करते......

 
 
अरविंद कुमार नहीं रहे  - भारत-दर्शन समाचार

अरविंद कुमार

27 अप्रैल 2021 (भारत): शब्द-साधक व हिंदी कर्मयोगी 'अरविंद कुमार' का 26 अप्रैल को निधन हो गया। आज उनकी अंत्येष्टि कर दी गई। 

"वह कई दिनों से कोरोना से संक्रमित थे। घर पर रहकर ही इलाज करवा रहे थे। कल देहांत हो गया। आज अंत्येष्टि हो गई।" डॉ विजय कुमार मल्होत्रा ने बताया।

"बहुत दुखद ॐॐ" केंद्रीय हिन्दी संस्थान शिक्षा मण्डल, आगरा के उपाध्यक्ष, अनिल शर्मा ने श्रद्धांजलि दी।

वरिष्ठ पत्रकार, राहुल देव हतप्रभ थे, अरविंद जी का समाचार सुनकर, वे केवल इतना कह पाए, "हे प्रभु..."

अंतरराष्ट्रीय सहयोग परिषद के नारायण कुमार ने अरविंद जी को श्रद्धांजलि देते हुआ कहा, "अरविंद जी, मॉडल टाउन में भी मेरे पडोसी थे और रामप्रस्थ में भी। उनका महाप्रस्थान हिन्दी कोशविज्ञान के लिए अपूरणीय क्षति है। माधुरी के सम्पादक के रूप मे उन्होंने फिल्म समीक्षा को रचनात्मक स्वरूप प्रदान किया था। अपनी सृजनात्मकता उपलब्धियों के कारण अरविंद अमर रहेंगे। आदरणीया भाभी जी, मीता और उनके परिवार और प्रशंसकों को ईश्वर यदि सचमुच कहीं हैं, तो इस अससहनीय अवसाद को सहने करने की शक्ति प्रदान करे। सादर श्रद्धांजलि।"

हिंदी के प्रसिद्ध हास्य कवि, अशोक चक्रधर ने अरविंद कुमार के निधन पर शोक व्यक्त किया है।  उन्होंने इसे 'अत्यंत दुखद' बताया। 

"हिंदी को विश्व का विशालतम शब्दकोश देकर अतुलनीय योगदान दिया अरविंद जी ने..उनकी मित्रता पर गर्व है।" हिंदी के वरिष्ठ कवि लक्ष्मी शंकर वाजपेयी ने कहा।

"ईश्वर अरविन्द जी को अपने चरणों मे स्थान थे। बहुत जुझारू इंसान थे अरविन्द जी। बहुत मीठी स्मृतियाँ हैं, उन के साथ भोपाल विश्व हिन्दी सम्मेलन की।" अनूप भार्गव ने बताया।

अरविंद कुमार भारत-दर्शन के साथ इंटरनेट के शुरुआती दिनों से जुड़े हुए थे और उनके अनेक आलेख भारत-दर्शन में प्रकाशित हैं।

अरविंद जी का जन्म 17 जनवरी 1930 को  मेरठ (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। 

आपकी मुख्य कृतियों में समांतर कोश, द पेंगुइन इंगलिश-हिंदी एंड हिंदी-इंगलिश थिसारस एंड डिक्शनरी,  अरविंद तुकांत कोश व ब्रह्म विद्या योग शास्त्र हैं। आपने विक्रम सैंधव (जुलियस सीजर), फाउस्ट : एक त्रासदी अनुवाद भी किए हैं।
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कुछ मुक्तक  - भारत-दर्शन संकलन

सभी को इस ज़माने में सभी हासिल नहीं मिलता
नदी की हर लहर को तो सदा साहिल नहीं मिलता......

 
 
मेंढकी का ज़ुकाम - आई बी अरोड़ा

मेंढकी को जब लगा ज़ुकाम
खूब घबराया मेंढक राम......

 
 
शादी मत करना - गौरीशंकर 'मधुकर'

अफसर ने अफसरी
छांटते हुए ......

 
 
मौसी - भुवनेश्वर

मानव-जीवन के विकास में एक स्थल ऐसा आता है, जब वह परिवर्तन पर भी विजय पा लेता है। जब हमारे जीवन का उत्थान या पतन, न हमारे लिए कुछ विशेषता रखता है, न दूसरों के लिए कुछ कुतूहल। जब हम केवल जीवित के लिए ही जीवित रहते हैं और वह मौत आती है; पर नहीं आती।

बिब्बो जीवन की उसी मंजिल में थी। मुहल्लेवाले उसे सदैव वृद्धा ही जानते, मानो वह अनन्त के गर्भ में वृद्धा ही उत्पन्न होकर एक अनन्त अचिन्त्य काल के लिए अमर हो गयी थी। उसकी 'हाथी के बेटों की बात', नई-नवेलियाँ उसका हृदय न दुखाने के लिए मान लेती थीं। उसका कभी इस विस्तृत संसार में कोई भी था, यह कल्पना का विषय था। अधिकांश के विश्वास-कोष में वह जगन्नियन्ता के समान ही एकाकी थी; पर वह कभी युवती भी थी, उसके भी नेत्रों में अमृत और विष था। झंझा की दया पर खड़ा हआ रूखा वृक्ष भी कभी धरती का हृदय फाड़कर निकला था, वसन्त में लहलहा उठता था और हेमन्त में अपना विरही जीवनयापन करता था, पर यह सब वह स्वयं भूल गयी थी। जब हम अपनी असंख्य दुखद स्मृतियाँ नष्ट करते हैं, तो स्मृति-पट से कई सुख के अवसर भी मिट जाते हैं। हाँ, जिसे वह न भूली थी उसका भतीजा, बहन का पुत्र - वसन्त था। आज भी जब वह अपनी गौओं को सानी कर, कच्चे आँगन के कोने में लौकी-कुम्हड़े की बेलों को सँवारकर प्रकाश या अन्धकार में बैठती, उसकी मूर्ति उसके सम्मुख आ जाती।

वसन्त की माता का देहान्त जन्म से दो ही महीने बाद हो गया था और पैंतीस वर्ष पूर्व उसका पिता पीले और कुम्हलाए मुख से यह समाचार और वसन्त को लेकर चुपचाप उसके सम्मुख खड़ा हो गया था... इससे आगे की बात बिब्बो स्वप्न में भी नहीं सोचती थी। कोढ़ी यदि अपना कोढ़ दूसरों से छिपाता है तो स्वयं भी उसे नहीं देख सकता - इसके बाद का जीवन उसका कलंकित अंग था।

वसन्त का पिता वहीं रहने लगा। वह बिब्बों से आयु में कम था। बिब्बो, एकाकी बिब्बो ने भी सोचा, चलो क्या हर्ज है, पर वह चला ही गया और एक दिन वह और वसन्त दो ही रह गए। वसन्त का बाप उन अधिकांश मनुष्यों में था, जो अतृप्ति के लिए ही जीवित रहते हैं, तो तृप्ति का भार नहीं उठा सकते। वसन्त को उसने अपने हृदय के रक्त से पाला; पर वह पर लगते ही उड़ गया और वह फिर एकाकी रह गयी। वसन्त का समाचार उसे कभी-कभी मिलता था। दस वर्ष पहले वह रेल की काली वर्दी पहने आया था और अपने विवाह का निमंत्रण दे गया, इसके पश्चात् सुना, वह किसी अभियोग में नौकरी से अलग हो गया और कहीं व्यापार करने लगा। बिब्बो कहती कि उसे इन बातों में तनिक भी रस नहीं है। वह सोचती कि आज यदि वसन्त राजा हो जाए, तो उसे हर्ष न होगा और उसे कल फाँसी हो जाए, तो न शोक। और जब मुहल्लेवालों ने प्रयत्न करना चाहा कि दूध बेचकर जीवन-यापन करनेवाली मौसी को उसके भतीजे से कुछ सहायता दिलाई जाए तो उसने घोर विरोध किया।

दिन दो घड़ी चढ़ चुका था, बिब्बो की दोनों बाल्टियाँ खाली हो गयी थीं। वह दुधाड़ी का दूध आग पर चढ़ाकर नहाने जा रही थी, कि उसके आँगन में एक अधेड़ पुरुष 5 वर्ष के लड़के की उँगली थामे आकर खड़ा हो गया।

'अब न होगा कुछ, बारह बजे...' वृद्धा ने कटु स्वर में कुछ शीघ्रता से कहा।

'नहीं मौसी...'

बिब्बो उसके निकट खड़ी होकर उसके मुँह की ओर घूरकर स्वप्निल स्वर में बोली - वसन्त! - और फिर चुप हो गई।

वसन्त ने कहा - मौसी, तुम्हारे सिवा मेरे कौन है? मेरा पुत्र बे-माँ का हो गया? तुमने मुझे पाला है, इसे भी पाल दो, मैं सारा खरचा दूँगा।

'भर पाया, भर पाया', - वृद्धा कम्पित स्वर में बोली।

बिब्बो को आश्चर्य था कि वसन्त अभी से बूढ़ा हो चला था और उसका पुत्र बिलकुल वसन्त के और अपने बाबा... के समान था। उसने कठिन स्वर में कहा - वसन्त, तू चला जा, मुझसे कुछ न होगा। वसन्त विनय की मूर्ति हो रहा था और अपना छोटा-सा सन्दूक खोलकर मौसी को सौगातें देने लगा।

वृद्धा एक महीने पश्चात् तोड़नेवाली लौकियों को छाकती हुई वसन्त से जाने को कह रही थी; पर उसकी आत्मा में एक विप्लव हो रहा था उसे ऐसा भान होने लगा, जैसे वह फिर युवती हो गयी और एक दिन रात्रि की निस्तब्धता में वसन्त के पिता ने जैसे स्वप्न में उसे थोड़ा चूम-सा लिया और... वह वसन्त को वक्ष में चिपकाकर सिसकने लगी।

हो... पर वह वसन्त के पुत्र की ओर आँख उठाकर भी नहीं देखेगी। वह उसे कदापि नहीं रखेगी, यह निश्चय था। वसन्त निराश हो गया था पर सबेरे जब वह बालक मन्नू को जगाकर ले जाने के लिए प्रस्तुत हुआ, बिब्बो ने उसे छीन लिया और मन्नू और दस रुपये के नोट को छोड़कर वसन्त चला गया।

2

बिब्बो का दूध अब न बिकता था। तीनों गायें एक के बाद एक बेच दीं। केवल एक मन्नू की बछिया रह गई थी। कुम्हड़े और लौकी के ग्राहकों को भी अब निराश होना पड़ता था। मन्नू - पीला, कान्तिहीन, आलसी, सिन्दूरी, चंचल और शरारती हो रहा था। ...

महीने में पाँच रुपया का मनीऑर्डर वसन्त भेजता था; पर एक ही साल में बिब्बो ने मकान भी बन्धक रख दिया। मन्नू की सभी इच्छाओं की पूर्ति अनिवार्य थी। बिब्बो फिर समय की गति के साथ चलने लगी। मुहल्ले में फिर उसकी आलोचना, प्रत्यालोचना प्रारम्भ हो गयी। मन्नू ने उसका संसार से फिर सम्बन्ध स्थापित कर दिया; जिसे छोड़कर वह आगे बढ़ गयी थी पर एक दिन साँझ को अकस्मात् वसन्त आ गया। उसके साथ एक ठिंगनी गेहुएँ रंग की स्त्री थी, उसने बिब्बो के चरण छुए। चरण दबाए और फिर कहा - मौसी, न हो मन्नू को मुझे दे दो, मैं तुम्हारा यश मानूँगी।

वसन्त ने रोना मुँह बनाकर कहा - हाँ, किसी को जीवन संकट में डालने से तो यह अच्छा है, ऐसा जानता, तो मैं ब्याह ही क्यों करता?

मौसी ने कहा - अच्छा, उसे ले जाओ।

मन्नू दूसरे घर में खेल रहा था। वृद्धा ने काँपते हुए पैरों से दीवार पर चढ़कर बुलाया।

वह कूदता हुआ आया। नई माता ने उसे हृदय से लगा लिया। बालक कुछ न समझ सका, वह मौसी की ओर भागा।

बिब्बो ने उसे दुतकारा - जा, दूर हो।

बेचारा बालक दुत्कार का अर्थ समझने में असमर्थ था, वह रो पड़ा।

वसन्त हतबुद्धि-सा खड़ा था। बिब्बो ने मन्नू का हाथ पकड़ा, मुँह धोया और आँगन के ताख से जूते उतारकर पहना दिए।

वसन्त की स्त्री मुस्कराकर बोली - मौसी, क्या एक दिन भी न रहने दोगी? अभी क्या जल्दी है। पर, बिब्बो जैसे किसी लोक में पहुँच गयी हो। जहाँ यह स्वर-संसार का कोई स्वर-न पहुँच सकता हो। पलक मारते मन्नू को खेल की, प्यार की, दुलार की सभी वस्तुएँ उसने बाँध दीं। मन्नू को भी समझा दिया कि वह सैर करने अपनी नई माँ के साथ जा रहा था।

मन्नू उछलता हुआ पिता के पास खड़ा हो गया। बिब्बो ने कुछ नोट और रुपये उसके सम्मुख लाकर डाल दिए - ले अपने रुपये।

वसन्त धर्म-संकट में पड़ा था, पर उसकी अर्द्धांगिनी ने उसका निवारण कर दिया। उसने रुपये उठा लिये। मौसी, इस समय हम असमर्थ हैं; पर जाते ही अधिक भेजने का प्रयत्न करूँगी, तुमसे हम लोग कभी उऋण नहीं हो सकते।

मन्नू माता-पिता के घर बहुत दिनों तक सुखी न रह सका। महीने में दो बार रोग-ग्रस्त हुआ। नई माँ भी मन्नू को पाकर कुछ अधिक सुखी न हो सकी। अन्त में एक दिन रात-भर जागकर वसन्त स्त्री के रोने-धोने पर भी मन्नू को लेकर मौसी के घर चल दिया।

वहाँ पहुँचकर उसने देखा कि मौसी के जीर्ण द्वार पर कुछ लोग जमा हें। वसन्त के एक्के को घेरकर उन्होंने कहा - आपकी यह मौसी हैं। आज पाँच दिन से द्वार बन्द हैं, हम लोग आशंकित हैं।

द्वार तोड़कर लोगों ने देखा - वृद्धा पृथ्वी पर एक चित्र का आलिंगन किये नीचे पड़ी है, जैसे वह मरकर अपने मानव होने का प्रमाण दे रही हो।

वसन्त के अतिरिक्त किसी ने न जाना कि वह चित्र उसी के पिता का था पर वह भी यह न जान सका कि वह वहाँ क्यों था!

-भुवनेश्वर
[आदर्श कहानियाँ, संपादक-प्रेमचंद, सरस्वती प्रेस, नवाँ संस्करण, 1954]

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अल्लामा प्रभु की कविताएं - अल्लामा प्रभु

हाय!  हाय शिव
आपने मुझे जन्म क्यों दिया?......

 
 
भारत के शिक्षा मंत्री, रमेश पोखरियाल 'निशंक' कोरोना से संक्रमित - भारत-दर्शन समाचार

केंद्रीय शिक्षा मंत्री रमेश पोखरियाल 'निशंक' कोरोना वायरस से संक्रमित हो गए हैं। उन्होंने ट्वीट के माध्यम से यह जानकारी दी। निशंक ने कहा, ''मैं आपको सूचित करना चाहता हूँ कि मेरी कोरोना रिपोर्ट पॉजिटिव आई है। डॉक्टर के परामर्श से मेरा उपचार हो रहा है। जो भी लोग हाल के दिनों में मेरे संपर्क में आए हैं, सावधान रहें और टेस्ट करवाएं।''

उन्होंने यह भी ट्वीट किया कि शिक्षा मंत्रालय का काम सामान्य रूप से चलता रहेगा।

[भारत-दर्शन समाचार]

 


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प्रवासी भारतीय दिवस  -  रोहित कुमार 'हैप्पी'

9 जनवरी को प्रवासी भारतीय दिवस (पीबीडी) के रूप में मान्यता दी गई है क्योंकि 1915 में इसी दिन महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे थे।

जनवरी 2003 से 2015 तक प्रत्येक वर्ष प्रवासी भारतीय दिवस (पीबीडी) सम्मेलन के रूप में मनाया जाता रहा  है। यह सम्मेलन 7-9 जनवरी तक मनाया जाता है लेकिन 2016 से प्रवासी-दिवस की तिथियों में बदलाव हुआ है। प्रवासी भारतीय दिवस का आयोजन सर्वप्रथम 2003 में किया गया था। प्रवासी भारतीय दिवस के अवसर पर प्रतिवर्ष तीन दिवसीय कार्यक्रम आयोजित किया जाता है जिसमें उन भारतीयों को सम्मानित किया जाता है जिन्होंने विदेश में जाकर भारतवर्ष का नाम ऊँचा किया है।

2003 से 2015 तक लगातार हर वर्ष प्रवासी भारतीय दिवस  का आयोजन हुआ लेकिन 2016 में इसका आयोजन स्थगित कर दिया गया और सरकार ने इसे एक वर्ष के अंतराल में आयोजित करने का निर्णय लिया। यथा 2017 में अगला प्रवासी दिवस आयोजित किया गया। 

सरकार के निर्णय के अनुसार अब अगला प्रवासी भारतीय दिवस 2019 में आयोजित होना था लेकिन 2018 में भी प्रवासी भारतीय दिवस आयोजित किया गया लेकिन सरकारी सूची में अब इसकी गणना नहीं है।  यह  प्रवासी भारतीय दिवस पहला ऐसा आयोजन था जिसका आयोजन भारत में न होकर विदेश (सिंगापुर) में किया गया था। इस प्रवासी भारतीय दिवस (2018) की एक विशेषता यह भी थी कि गूगल ने भी अपना डूडल 'प्रवासी भारतीय वैज्ञानिक' हरगोबिन्द खुराना को समर्पित किया। यह डूडल पुणे के चित्रकार 'रोहन शरद धोत्रे' ने बनाया था। रोहन उस समय बैंगलोर में कार्यरत थे।

2019 का प्रवासी भारतीय दिवस सम्मेलन 9 जनवरी के स्थान पर 21 से 23 जनवरी 2019 तक आयोजित किया गया था । सम्मेलन का आयोजन वाराणसी, उत्तर प्रदेश में किया गया था। सम्मेलन के बाद, प्रतिभागियों को 24 जनवरी, 2019 को कुंभ मेला के लिए प्रयागराज जाने और 26 जनवरी 2019 को नई दिल्ली में गणतंत्र दिवस परेड का साक्षी होने का अवसर दिया गया। 21 जनवरी, 2019 को, युवा प्रवासी भारतीय दिवस का उद्घाटन युवा मामले और खेल मंत्रालय की साझेदारी में किया था। उत्तर प्रदेश सरकार ने 21 जनवरी, 2019 को राज्य प्रवासी भारतीय दिवस-2019 भी आयोजित किया था। माननीय प्रधानमंत्री  नरेंद्र मोदी ने 22 जनवरी, 2019 को प्रवासी भारतीय दिवस सम्मेलन का उद्घाटन किया था। माननीय राष्ट्रपति श्री राम नाथ कोविंद ने 23 जनवरी, 2019 को, समापन अभिभाषण दिया और प्रवासी भारतीय सम्मान पुरस्कार प्रदान किए थे।

प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के निमंत्रण पर, मॉरीशस के प्रधानमंत्री श्री प्रविंद जगन्नाथ, सम्मेलन के मुख्य अतिथि थे। नॉर्वे की संसद के सदस्य श्री हिमांशु गुलाटी विशेष अतिथि थे और न्यूजीलैंड की संसद के सदस्य कंवलजीत सिंह बक्शी 21 जनवरी, 2019 को युवा प्रवासी भारतीय दिवस में विशिष्ट अतिथि थे।

2003 से लेकर अब तक भारत के विभिन्न नगरों में प्रवासी भारतीय दिवस आयोजित किया गया। अब तक प्रवासी भारतीय दिवस निम्नलिखित नगरों में आयोजित किए जा चुके हैं:

2003 (7-9 जनवरी) पहला प्रवासी भारतीय दिवस, नई दिल्ली
2004  (7-9 जनवरी) दूसरा प्रवासी भारतीय दिवस, नई दिल्ली......

 
 
फ़र्क  - विष्णु प्रभाकर

उस दिन उसके मन में इच्छा हुई कि भारत और पाक के बीच की सीमारेखा को देखा जाए, जो कभी एक देश था, वह अब दो होकर कैसा लगता है? दो थे तो दोनों एक-दूसरे के प्रति शंकालु थे। दोनों ओर पहरा था। बीच में कुछ भूमि होती है जिस पर किसी का अधिकार नहीं होता। दोनों उस पर खड़े हो सकते हैं। वह वहीं खड़ा था, लेकिन अकेला नहीं था-पत्नी थी और थे अठारह सशस्त्र सैनिक और उनका कमाण्डर भी। दूसरे देश के सैनिकों के सामने वे उसे अकेला कैसे छोड़ सकते थे! इतना ही नहीं, कमाण्डर ने उसके कान में कहा, "उधर के सैनिक आपको चाय के लिए बुला सकते हैं, जाइएगा नहीं। पता नहीं क्या हो जाए? आपकी पत्नी साथ में है और फिर कल हमने उनके छह तस्कर मार डाले थे।"

उसने उत्तर दिया,"जी नहीं, मैं उधर कैसे जा सकता हूँ?" और मन ही मन कहा-मुझे आप इतना मूर्ख कैसे समझते हैं? मैं इंसान, अपने-पराए में भेद करना मैं जानता हूँ। इतना विवेक मुझ में है।

वह यह सब सोच रहा था कि सचमुच उधर के सैनिक वहाँ आ पहुँचे। रौबीले पठान थे। बड़े तपाक से हाथ मिलाया।

उस दिन ईद थी। उसने उन्हें 'मुबारकबाद' कहा। बड़ी गरमजोशी के साथ एक बार फिर हाथ मिलाकर वे बोल-- "इधर तशरीफ लाइए। हम लोगों के साथ एक प्याला चाय पीजिए।"

इसका उत्तर उसके पास तैयार था। अत्यन्त विनम्रता से मुस्कराकर उसने कहा-- "बहुत-बहुत शुक्रिया। बड़ी खुशी होती आपके साथ बैठकर, लेकिन मुझे आज ही वापस लौटना है और वक्त बहुत कम है। आज तो माफ़ी चाहता हूँ।"

इसी प्रकार शिष्टाचार की कुछ बातें हुई कि पाकिस्तान की ओर से कुलांचें भरता हुआ बकरियों का एक दल, उनके पास से गुज़रा और भारत की सीमा में दाखिल हो गया। एक-साथ सबने उनकी ओर देखा। एक क्षण बाद उसने पूछा-- "ये आपकी हैं?"

उनमें से एक सैनिक ने गहरी मुस्कराहट के साथ उत्तर दिया-- "जी हाँ, जनाब! हमारी हैं। जानवर हैं, फर्क करना नहीं जानते।"


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सोशल मीडिया - अभय गौड़

सोशल मीडिया बन गया है एक नया संसार
जिसमें बढ़ता जा रहा है सूचना का भण्डार

सच और झूठ से नहीं रहा अब कोई वास्ता......

 
 
अजीब क़िस्म का अहसास - ज्ञानप्रकाश विवेक

अजीब क़िस्म का अहसास दे गया मुझको
वो खेल-खेल में बनवास दे गया मुझको

लगा गया मेरे माथे पे रोशनी का तिलक......

 
 
सुरेन्द्र शर्मा की हास्य कविताएं  - सुरेन्द्र शर्मा

राम बनने की प्रेरणा

‘पत्नी जी!
मैं छोरा नैं राम बनने की प्रेरणा दे रियो ऊँ......

 
 
राजा-रानी  - जयप्रकाश भारती

एक थे राजा, एक थी रानी
दोनों करते थे मनमानी......

 
 
वज्रपात ! - रामधारी सिंह दिनकर

टूटा पर्वत-सा महावज्र
सब तरह हमारा ह्रास हुआ,......

 
 
अल्बेयह कैमू का अनूदित काव्य - भारत-दर्शन संकलन

हमने कुछ दिन हुए 'अल्बेयह कैमू' (Albert Camus) की कुछ अँग्रेजी पंक्तियाँ अपने फेसबुक पर प्रकाशित करके इनका हिन्दी भावानुवाद करने का आग्रह किया था। अल्बेयह कैमू एक फ्रेंच दार्शनिक, लेखक, नाटककार और पत्रकार थे। उन्हें 44 वर्ष की आयु में 1957 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार दिया गया था।

अनेक मित्रों ने इसका भावानुवाद किया। उन्हें में से कुछ यहा दिए गए हैं।

मूल पंक्तियाँ ये थी--
Don’t walk behind me, I may not lead.......

 
 
देश पर मिटने वाले शहीदों की याद में - रोहित कुमार 'हैप्पी'

1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के यज्ञ का आरम्भ किया महर्षि दयानन्द सरस्वती ने और इस यज्ञ को पहली आहुति दी मंगल पांडे ने। देखते ही देखते यह यज्ञ चारों ओर फैल गया। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, तात्यां टोपे और नाना राव जैसे योद्धाओं ने इस स्वतंत्रता के यज्ञ में अपने रक्त की आहुति दी। दूसरे चरण में 'सरफरोशी की तमन्ना' लिए रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक, चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह, राजगुरू, सुखदेव आदि देश के लिए शहीद हो गए। तिलक ने 'स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है' का उदघोष किया व सुभाष चन्द्र बोस ने 'तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा' का मँत्र दिया।

अहिंसा और असहयोग का अस्त्र लेकर महात्मा गाँधी और गुलामी की बेड़ियां तोड़ने को तत्पर लौह पुरूष सरदार पटेल ने अपने प्रयास तेज कर दिए। 90 वर्षो की लम्बी संर्घष यात्रा के बाद 15 अगस्त 1947 को भारत को स्वतंत्रता देवी का वरदान मिल सका।
......

 
 
कविता-कविता - कौतुक बनारसी | हास्य कविता

कुछ जीत हुई, कुछ हार हुई
              दिन-रात रटें कविता-कविता ......

 
 
डॉ. राकेश जोशी की चार ग़ज़लें - डॉ. राकेश जोशी

जो दिया तुमने वो सब सहना पड़ा
पत्थरों के शहर में रहना पड़ा......

 
 
हाथ उठा नाची तरकारी - सरस्वती कुमार दीपक

ताक लगाकर बैठी थीं,
मालिन की डलिया में तरकारी ।......

 
 
अंजुम रहबर की दो ग़ज़लें  - अंजुम रहबर

फूलों पे जान दी

फूलों पे जान दी कभी कांटों पे मर लिये
दो दिन की ज़िन्दगी में कई काम कर लिये

शायद कोई यहाँ हमें पहचानता नहीं ......

 
 
प्रश्नचिह्न  - लतीफ घोंघी

प्रश्नवाचक चिह्न पर उनकी बड़ी आस्था है। उनकी ऐसी मान्यता है कि अपने देश की सार्थक भाषा है तो प्रश्नवाचक चिह्न की भाषा। उनकी आदत है कि हर स्थिति के पीछे वे एक प्रश्नवाचक चिह्न जरूर लगा देते हैं। इससे दो फायदे हैं। पहला यह कि लोगों को पता चलता है कि इस आदमी का अध्ययन और चिंतन-मनन तगड़ा है और दूसरा यह कि एक प्रश्नवाचक के लग जाने से उस स्थिति के अनेक नये कोण पैदा हो जाते हैं। जैसे आपने लिखा--प्रधान मंत्री। वे उसके पीछे प्रश्नवाचक चिह्न लगा देंगे। आपने लिखा--त्रिपाठी। वे उसके पीछे प्रश्नवाचक चिह्न लगा देंगे।

आपने लिखा--शुक्ल। वे उनके पीछे भी प्रश्नवाचक चिह्न लगा ही देंगे। अब यह सोचना आपका काम है कि इस त्रिकोण के पीछे छिपा रहस्य क्या है? क्यों है और कैसे है? प्रश्नवाचक चिपकाकर वे तो बरी हो गये। अब आप अपना माथा पीटते रहिये।

हम भी पीट रहे हैं उसी दिन से, जिस दिन उनका पत्र हमें मिला। पोस्टकार्ड पर पहले उन्होंने एक बड़ा प्रश्नवाचक चिह्न बनाया। इसके बाद उसके दाहिने तरफ दो छोटे प्रश्नवाचक चिह्न लगाये। एक हिन्दुस्तान टाइप नक्शा बनाया और उसके अन्दर छोटे-छोटे दस-बारह प्रश्नवाचक बनाए। एक प्रश्नचिह्न ऐसा बनाया जो कृपाण से भी मिलता-जुलता था भौर त्रिशूल से भी। पोस्टकार्ड को उल्टा करके देखने से लगता था कि कौमी एकता का कोई संदेश है ।

पत्र पढ़कर मैं उदास हो गया। इतना गंभीर किस्म का पत्र मैं अपने जीवन में पहली बार पढ़ रहा था। मित्रों को दिखाया तो बोले--जरूर किसी महान आदमी का पत्र है, जिसने इस जिंदगी की फिलासफी को अन्दर तक समझा है। मैंने पूछा--मुझे समझाओ कि आखिर ये कहना क्या चाहते हैं? मित्र बोले--यार अजीब मूर्ख आदमी हो.... इतनी-सी बात नहीं समझे? वे बता रहे हैं कि प्रश्नवाचक ही सब कुछ है..... इसे समझ गये तो सफल हो गये?

मैंने कहा--फिर? वे बोले--फिर क्या..... डूब मरो चुल्लू भर पानी में.....किस यूनिवर्सिटी से किया है यार एम० ए०?

मैंते तय किया कि उनसे मिलकर इस प्रश्नवाचक चिह्न की फिलासफी जरूर समझूंगा। यही सोचकर मैं उनसे मिलने चला गया।

वे एक साधारण और औसत किस्म के भारतीय आदमी थे। बदन उनका बिल्कुल प्रश्ववाचक चिह्न की तरह लचकदार था। कान प्रश्नवाचक थे। और आँखें तो थीं ही। कुरते की सामने की जेब में आठ-दस प्रश्नवाचक चिह्न भरे थे। पाजामे की दोनों जेबों में प्रश्नवाचक के दो सौ-सौ के बंडल रखे हुए थे। उन्होंने सामने की जेब से एक प्रश्नवाचक चिह्न निकाला और बोले--क्या चलेगा? खारा? मीठा? या और कुछ?

उनके कमरे की दीवार पर बड़े-बड़े दो प्रश्नवाचक चिह्न बने थे। कमरे में चार कुर्सियां रखी थीं और चारों की पीठ प्रश्नवाचक थी। दरवाजे पर लगे परदे पर एक भुस्का टाइप का मोटा-सा प्रश्नवाचक चिह्न बना था। खिड़कियों पर परदे नहीं लगे थे। खिड़की की ग्रिल प्रश्नवाचक डिजाइन में थी। मुझे लगा कि मैं इस कमरे से विक्षिप्त होकर ही बाहर निकलूंगा। यह भी लगभग तय था कि यहाँ से निकलने के बाद मैं आदमी कम और प्रश्नवाचक अधिक लगूँगा।

वे अन्दर गये और थोड़ी देर बाद कांच की प्लेट में चार-पांच प्रश्नवाचक चिह्न सजा कर ले आये। बोले--लीजिये।

मैंने पूछा--क्या है? मुझे डाइविटीज़ है। मीठा होगा तो नहीं चलेगा।

उन्होंने एक प्रश्ववाचक चिह्न को बीच से तोड़ा और चखकर बोले--- सॉरी.....मीठा ही है। नमकीन शर्बत बना देता हूँ आपके लिये ।

इसके पहले कि मैं इन्कार करता वे आलमारी से एक डिब्बा ले आये ।

एक प्रश्नवाचक चिह्न वाली चाबी से उन्होंने डिब्बे का ढक्कन खोला।

डिब्बे से आठ-दस प्रश्नवाचक चिह्न निकाले और पास रखे खलबत्ते में कूटने लगे।

मैंने पूछा--यह क्या है? वे बोले--सेंधा नमक है। हाजमे के लिये ठीक होता है।

उन्होंने कूट-पीसकर प्रश्नवाचक गिलास में डाले और एक चम्मच से घोलकर मुझे देते हुए बोले---लीजिये।

बड़ी दुविधा में जान फंसी थी। खुदा का नाम लेकर और नाक बंद करके शर्बत को तो अन्दर ढकेल दिया, लेकिन जैसे ही वह प्रश्नवाचक घोल पेट में पहुंचा मुझें लगा जैसे मेरे पेट में कुछ खदबदा रहा है। पेट ऐठने लगा। मैंने कहा--मेरा पेट गड़बड़ा रहा है।

वे बोले यही प्रश्नवाचक स्थितियों का सार्थक प्रभाव है। देश में आज एक भी स्थिति ऐसी नहीं है, कि जिसे आप हजम कर सकें। पंजाब को लें, यू० पी० को लें, बिहार को लें या गुजरात को लें। चाहे जिसे लें, आपके पेट में गड़गड़ाहट जरूर होगी....अपना देश प्रश्नवाचक पहले और हिन्दुस्तान बाद में है।

मैंने कहा---जल्दी से एक लोटा पानी मंगवाइए।

वे समझ गये कि मैं बहुत ही चुगद किस्म का आदमी हूँ जो देश की इतनी गंभीर स्थितियों की चर्चा के समय एक लोटे पानी के आधार पर ही अपने व्यक्तित्व का मूल्यांकन कर रहा हूँ।

वे बोले---अभी लाता हूँ।

वे अन्दर गये और एक अल्यूमीनियम के प्रश्ववाचक लोटे में पानी ले आये। मैंने पूछा--कहाँ का पानी है?

वे बोले--सरकारी योजनाओं का जल है। मेरी हाबी है कि मैं जो बांध देखने जाता हूँ वहाँ से थोड़ा सा पानी अपने लिए ले आता हूँ जिसका उपयोग इन्हीं स्थितियों में करता हूँ। आप गरम पानी चाहते हों तो विवादों में फंसे जल का इंतजाम भी है।

मैंने कहा--नहीं, ठंडा ही चलेगा।

वापस लौटने पर उन्होंने पूछा---अब कैसा लग रहा है?

मैंने कहा--मुझे लग रहा है जैसे मेरे अन्दर कोई बहुत बड़ा प्रश्न छटपटा रहा है.....मुझे बेचैनी लग रही है।

उनके चेहरे पर मुस्कान आ गई। बोले--बिल्कुल ठीक है। अब समझ में आया आपको कि प्रश्नवाचक क्या है? बुद्धिमान आदमी की तरह सोचोगे तो इसी प्रश्नवाचक चिह्न के आगे-पीछे आपको पूरा देश नज़र आयेगा। एकता नज़र आयेगी। अखंडता नज़र आयेगी। आतंकवाद नज़र आयेगा। समाज की विसंगतियां नजर आयेंगी और एक मूर्ख आदमी की तरह सोचोगे तो केवल गड़गड़ाता हुआ पेट और एक लोटा पानी ही नजर आयेगा....समझे ?

और इसके पहले कि मैं कुछ कहता, उन्होंने पाजामे की जेब से एक प्रश्नवाचक चिह्नों का वजनदार बंडल मेरे मुँह पर मारकर कहा--अब आप जा सकते हैं।
......

 
 
खुद ही बनाया और बिगाड़ा तकदीरों को  - रोहित कुमार 'हैप्पी'

खुद ही बनाया और बिगाड़ा तकदीरों  को
मैं  मानता  नहीं  हाथ  की  लकीरों को।

महलों  में  रहें  या  कभी  हों  बेघर......

 
 
तितली - नर्मदाप्रसाद खरे

रंग-बिरंगे पंख तुम्हारे, सबके मन को भाते हैं।
कलियाँ देख तुम्हें खुश होतीं फूल देख मुसकाते हैं।।......

 
 
व्यथा एक जेब कतरे की - डॉ रामकुमार माथुर

कोरोना से प्यारे अपना क्या हाल हो गया
जेबें ढीली पड़ गईं......

 
 
रामप्रसाद बिस्मिल का अंतिम पत्र  - इतिहास के पन्ने

शहीद होने से एक दिन पूर्व रामप्रसाद बिस्मिल ने अपने एक मित्र को निम्न पत्र लिखा -

"19 तारीख को जो कुछ होगा मैं उसके लिए सहर्ष तैयार हूँ।
आत्मा अमर है जो मनुष्य की तरह वस्त्र धारण किया करती है।"

यदि देश के हित मरना पड़े, मुझको सहस्रो बार भी,......

 
 
मीठा झगड़ा - प्रणेन्द्र नाथ मिश्रा

अकड़ के बोली गोल जलेबी, मुझसा कौन रसीला ?
मुझको चाहे सारी दुनिया, गाँव, शहर, क़बीला !

रबड़ी बोली , चुप कर झूठी! मुझको क्या बतलाती,......

 
 
भगतसिंह का अंतिम पत्र अपने भाई कुलतार सिंह के नाम - इतिहास के पन्ने

अजीज कुलतार,

आज तुम्हारी आँखों में आँसू देखकर बहुत दुख हुआ। आज तुम्हारी बातों में बहुत दर्द था, तुम्हारे आँसू मुझसे सहन नहीं होते।

बरखुर्दार, हिम्मत से शिक्षा प्राप्त करना और सेहत का ख्याल रखना। हौसला रखना और क्या कहूँ!

उसे यह फ़िक्र है हरदम नया तर्ज़े-ज़फा क्या है,
हमे यह शौक़ है देखें सितम की इन्तहा क्या है।......

 
 
भाई कुलतार सिंह के नाम भगतसिंह का अंतिम पत्र  - इतिहास के पन्ने

अजीज कुलतार,

आज तुम्हारी आँखों में आँसू देखकर बहुत दुख हुआ। आज तुम्हारी बातों में बहुत दर्द था, तुम्हारे आँसू मुझसे सहन नहीं होते।

बरखुर्दार, हिम्मत से शिक्षा प्राप्त करना और सेहत का ख्याल रखना। हौसला रखना और क्या कहूँ!

उसे यह फ़िक्र है हरदम नया तर्ज़े-ज़फा क्या है,
हमे यह शौक़ है देखें सितम की इन्तहा क्या है।......

 
 
बांग्ला कवि शंख घोष का कोविड-19 से निधन - भारत-दर्शन समाचार

21 अप्रैल (भारत) : पद्म भूषण से सम्मानित प्रसिद्ध बंगाली कवि शंख घोष का बुधवार सुबह उनके आवास पर निधन हो गया। वे कोविड-19 पीड़ित होने के कारण अपने घर पर ही पृथक-वास में थे।

घोष 89 वर्ष के थे और वह 14 अप्रैल को संक्रमित पाए गए थे। चिकित्सकों के परामर्श के बाद वह घर पर पृथक-वास में थे। मंगलवार रात अचानक उनकी स्थिति बिगड़ गई जिसके बाद उन्हें ऑक्सीजन दी गयी।

घोष कई रोगों से पीड़ित थे और कुछ महीने पहले ही स्वास्थ्य बिगड़ने के कारण उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया था।

घोष को रवींद्र नाथ टैगोर की साहित्यिक विरासत को आगे बढ़ाने वाला रचनाकार माना जाता है। वह ‘आदिम लता - गुलमोमय' और ‘मूर्ख बारो समझिक नै' जैसी रचनाओं के लिए जाने जाते हैं।

विभिन्न सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर मुखरता से अपनी बात रखने वाले घोष को 2011 में पूद्म भूषण से सम्मानित किया गया और 2016 में प्रतिष्ठित ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजा गया।

अपनी पुस्तक ‘बाबरेर प्रार्थना' के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने घोष के निधन पर शोक व्यक्त करते हुए कहा कि बांग्ला तथा भारतीय साहित्य के प्रति उनके योगदान को हमेशा याद किया जाएगा।

मोदी ने ट्वीट कर कहा, ‘‘बांग्ला और भारतीय साहित्य में योगदान के लिए शंख घोष को हमेशा याद किया जाएगा। उनकी कृतियों को खूब पढ़ा जाता था और उनकी सराहना भी की जाती थी। उनके निधन से दुखी हूं। उनके परिजनों और मित्रों के प्रति मेरी संवेदनाएं।''

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा कि घोष के निधन से वो काफी दुखी हैं और उनके साथ उनके बेहद आत्मीय संबंध थे।

केंद्रीय मंत्री अमित शाह ने कहा कि घोष के निधन के बारे में जानकर बेहद दुख हुआ।

उन्होंने ट्वीट किया, "उन्हें सामाजिक सरोकारों से जुड़ी उनकी उल्लेखनीय कविताओं के लिये हमेशा याद किया जाएगा। उनके परिवार और प्रशंसकों के प्रति मेरी हार्दिक संवेदनाएं। ओम शांति।"

माकपा विधायक दल के नेता सुजान चक्रवर्ती ने कहा कि घोष के निधन से बंगाल ने अपनी आत्मा खो दी है।

घोष का जन्म छह फरवरी 1932 को चंद्रपुर में हुआ था, जो अब बांग्लादेश में है।

उन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज से बंगाली में स्नातक और कलकत्ता विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर की उपाधि ली।

उनकी रचनाओं का अंग्रेजी और हिंदी समेत अन्य भाषाओं में अनुवाद हुआ है।

[भारत-दर्शन समाचार]

 


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व्यापारी और नक़लची बंदर  - अज्ञात

एक टोपी बेचने वाला व्यापारी था वह नगर से टोपियाँ लाकर गाँव में बेचा करता था। एक दिन वह दोपहर के समय जंगल में जा रहा था कि थककर एक पेड़ के नीचे बैठ गया। उसने टोपियों की गठरी एक तरफ रख दी। थकावट के कारण पेड़ की छाँव और ठंडी हवा के चलते शीघ्र ही टोपी वाले व्यापारी को नींद आ गई।

पेड़ पर कुछ बंदर बैठे थे। व्यापारी को सोता देख वे पेड़ से नीचे उतर आए और उन्होंने वहां पड़ी गठरी खोल ली। यह देखकर की व्यापारी ने टोपी पहन रखी है अपने नक़लची स्वभाव के कारण सभी बंदरों ने भी टोपियां पहन लीं। फिर सभी बंदर मस्ती में उछल-कूद करने लगे।

उनकी उछल-कूद से व्यापारी की नींद खुली तो उसने सभी बन्दरों को टोपियाँ पहने देखा। व्यापारी बड़ा दुखी हुआ वह सिर से टोपी उतार सोच में अपना सिर खुजलाने लगा तो उसने देखा कि बंदर भी वैसा ही करने लगे। व्यापारी को उनकी नक़लची प्रवृति का ध्यान आया और उसे एक उपाय सुझा। उसने जानबूझ कर बंदरों को दिखाते हुए अपनी टोपी गठरी पर फेंक दी। बंदरों ने भी उसकी नक़ल करते हुए अपनी-अपनी टोपी फेंक दी। अब व्यापारी ने बंदरों को लाठी दिखाकर शोर करते हुए भगा दिया व सभी टोपियां इकट्ठी करके अपनी गठरी बाँध व्यापारी ने अपनी राह पकड़ी।

शिक्षा - नक़ल के लिए भी अक्ल चाहिए।

 


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आत्म-दर्शन - श्रीकृष्ण सरल

चन्द्रशेखर नाम, सूरज का प्रखर उत्ताप हूँ मैं,
फूटते ज्वाला-मुखी-सा, क्रांति का उद्घोष हूँ मैं।......

 
 
नरेंद्र कोहली का कोरोना से निधन - भारत-दर्शन समाचार

17 अप्रैल 2021 (भारत) : हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकार नरेंद्र कोहली का शनिवार, 17 अप्रैल  को कोविड संक्रमण से निधन हो गया।

81 वर्षीय नरेंद्र कोहली कोविड-19 से संक्रमित हो गए थे और उन्हें 11अप्रैल को दिल्ली के सेंट स्टीफन अस्पताल में भर्ती कराया गया था। उन्हें वेंटिलेटर पर रखा गया था। भारत के राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नरेंद्र कोहली के निधन पर शोक व्यक्त किया है।

राष्ट्रपति ने अपने ट्वीट में लिखा है कि 'प्रख्यात साहित्यकार डॉ. नरेन्द्र कोहली के निधन से बहुत दुख हुआ। हिंदी साहित्य जगत में उनका विशेष योगदान रहा है। उन्होंने हमारे पौराणिक आख्यानों को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में विश्व के समक्ष प्रस्तुत किया। पद्मश्री से सम्मानित श्री कोहली के परिवार और पाठकों के प्रति मेरी शोक संवेदना।'

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी श्रद्धांजलि दी है, "सुप्रसिद्ध साहित्यकार नरेंद्र कोहली जी के निधन से अत्यंत दुख पहुंचा है। साहित्य में पौराणिक और ऐतिहासिक चरित्रों के जीवंत चित्रण के लिए वे हमेशा याद किए जाएंगे। शोक की इस घड़ी में मेरी संवेदनाएं उनके परिजनों और प्रशंसकों के साथ हैं। ओम शांति!"

कोहली का महाभारत पर आधारित उनका विशाल उपन्यास 'महासमर' तथा स्वामी विवेकानंद के जीवन पर आधारित उपन्यास 'तोड़ो कारा तोड़ो' काफी लोकप्रिय हुए।

[भारत-दर्शन समाचार]


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नतमस्तक - परवेश जैन

दुनाली साफ की या कहो वैसे ही चला दी आखिर ट्रिगर ही तो दबाना हैं। जान की ताकत होती ही कितनी हैं। कुत्ते बिल्ली हो या आदमी सबका सुर एक ही होता हैं मरने पर। तड़पने का समय भी अमूमन एक सा ही होता हैं ये ही कोई पांच से सात मिनट। फ़िर शांत हमेशा हमेशा के लिये चाहे आदमी चाहे बन्दर। 

अब ये दुनाली, चाकू और डंडा ना चले तो मालिक को ही गाली देने लगते हैं बुजदिल कहीं के…।  अब जब सरकार उनकी तो पाला भी उनका और हथियार भी तो उनके ही होंगे। सरकार बदले तो वो भी बदलेंगे…छल मार कबड्डी…कबड्डी… कबड्डी… इस पाले से उस पाले। इसमें सबका साथ हैं सबका विकास हैं। आखिर जीवित रहने पर ही घी पिया जा सकता है। जिंदा रहना भी एक कला है। संविधान के हिसाब से मरने का अधिकार नहीं है। जीवित रहने के जन्मसिद्ध अधिकार पर ताल ठोकिये और ठोकिये उन सभी को जो आपके जीवित रहने में रोड़ा बने हुये हैं।

अब कुछ तो जीवित रहने का स्वांग रचाते हैं। यह पल पल पर मरने वाले लोग हैं इनको गला फाड़ फाड़ कर चिल्लाने की आदत होती है। धरने और प्रदर्शन की पहचान होते हैं ऐसे लोग। अकेला बोल नहीं पाता इसलिए कई अकेले समूह बनाकर जिंदाबाद का नारा लगाते हैं। लोकतंत्र में जिंदाबाद वह टॉनिक है जिससे तात्कालिक जिंदा होने का आभास होने लगता है। जिन्दाबादी में पुलिस के डंडे और आँसूगैस सहन करने का मंत्र फूंका जाता है। जिंदाबाद ही तो इच्छाओं को बढ़ाता है जो दुःख का कारण बनती है। 

व्यवस्था की मार से अधमरों को चन्द आयातित गुमराह कर अपना उल्लू सीधा करते हैं फ़िर इन अधमरों को हर रोज मारा जाता है। नये नये टैक्स थोपकर, पेट्रोल और गैस का रेट बढ़ाकर, जमा राशि पर ब्याज कम करके। इन पर अनुशासन का चाबुक चलाया जाता है जिससे वे नियमों के मकड़जाल में उलझे रहें और आजादी को तरसते रहे। इनकी सहनशक्ति गजब की होती है यह अस्पताल में डॉक्टर के अभाव में जिंदा रहते हैं। ट्रेन की जनरल बोगी में खिड़की से प्रवेश कर बाथरूम में सफर कर लेते हैं, गड्ढों में सड़क ना मिले तब भी यह कुछ नहीं बोलते। ईमानदारीपूर्वक घूस देना अपना नैतिक कर्तव्य समझते हैं। 

इतने हिचकोलों के बाद बाद भी इनमें जिंदा रहने की अदभुत शक्ति होती है। मुसीबतों की एंटीबॉडीज ने इनको इस्पाती बना दिया है। ये गंदे नाले के पास रहकर भी सौ साल जीवित रहने का दमखम विकसित कर चुके हैं। 

प्रकृति के तांडव का इन पर कोई असर नहीं होता। तेज़ बारिश और बाढ़ से गंदे पानी के नाले इनके घर को नगल ले तो ये घर की छतों, पेड़ो और मचानों पर लटक जायेंगे।  पानी को छतों से देखते हुए कई दिन गुजार देंगे। खाना ना मिले तो बाढ़ में शंख के जीव को अपना निवाला बना लेंगे। नित्य कर्म और जल सेवन दोनों उसी पानी से निपटा लेंगे। 

 

इनकी इस हालत की सुध लेना जिम्मेदार लोगों का कर्त्तव्य हैं। वैसे अब माननीय का इनसे कोई लेना देना नहीं हैं। चुनाव बाद तो ये मानों रस निकलने के बाद का बेजान संतरे का गुदा हो आखिर अब यह दे भी क्या सकते हैं सिवाय कड़वाहट । माननीय बोतल बंद पानी, सूखे मेवों और फ्रेश जूस का आनंद उठाते हुये हवाई सर्वेक्षण कर रहें हैं। आकाश से बाढ़ का दृश्य मनोरम दिखता हैं और डी एस एल आर कैमरे के महंगे लेन्सेस से बाढ़ के द्रश्य बहुत अच्छे क़ैद होते हैं। आदमी की बंदरो जैसे हरकत कभी इस डाल पर तो कभी उस डाल पर फोटो खींचने में बाधक होती हैं। तड़पते, डूबते, जान बचाते इन लोगों के हज़ारो फोटोग्राफस में से चन्द फोटोग्राफ्स फॅमिली और बच्चे ही तो एल्बम हेतु सेलेक्ट करेंगे । हवाई सर्वेक्षण राजनीति के हवन कुंड में रस्म अदायगी हैं। चुनाव के वक्त आँखों देखा हाल काम आता हैं। 

इन्हे नीचे उतरने पर पानी के जहरीले सांपों के डसने का डर हैं। फ़ुफ़कार मारते लोगों का नहीं हा उनके पसीने की बदबू का डर रहता हैं। जो चढ़ा उतरा कहाँ। गरीब जमीन से छत और पेड़ पर चढ़ा, गरीबी आसमान पर चढ़ी। चढ़ना आसान भी नहीं होता कइयों को गिराने के बाद ऊपर चढ़ते हैं। 

लोकसभा में संख्या बल के बलबूते सभी प्रस्ताव पारित हो जाते हैं तो यह नीचे गिराने का भी प्रस्ताव पारित होना चाहिए देशहित में बहुत जरूरी है। शराबियों का नशा नींबू तो सत्ता के नशेड़ियों का नशा विपक्षी उतार देता है। सदन में मज़बूती से टांग खिचाई करता हैं। टांग खिंचाई पर पायजामा उतरने का डर बना रहता हैं कई बार पायजामे के साथ साथ अंगवस्त्र भी उतर जाते हैं। ख्याल रखा जाता है अंगवस्त्र फटे न हो पूरे साबुत ही हो। 

सब कुछ तो यहाँ उल्टा पुल्टा हैं। विपक्ष में रहकर विपक्ष से ज्यादा सत्ता से गुपचुप मेल जोल हैं और जो सत्ता में हैं उनके सत्ता को धत्ता दिखाकर विपक्ष से कॉकटेली संबंध हैं। अब अधमरे लोग तो कुछ हिला डुला कर सीधा कर नहीं सकते वे तो आलू, प्याज और पेट्रोल तक की बढ़ी कीमतों को रुकवा नहीं सकते। जब कोई रोकेगा ही नहीं तो उल्टा पुल्टा तो होगा ही। सार्वजनिक निर्माण मंत्री खराब सड़कों की चिंता क्यों करेगा ? वह तो राजपथ पर औषधीय पौधे रुपवायेगा। खाद्य मंत्री का पूरा रुझान राष्ट्रीय पक्षी मोर के दाने पर रहेगा। जनता तो फाको से किसी तरह से पेट भर लेंगी। हर मंत्री कठपुतली की भांति हिल रहा है। हिलने से सरकार की गतिशीलता का पता लगता है। अब सरकार हिलेंगी नहीं तो कहने वाले तो यही कहेंगे कि सरकार बैठी हैं। बैठी सरकार अच्छी नहीं लगती, सरकार तो खड़ी खड़ी ही अच्छी दिखती है, खूबसूरत लगती हैं। खड़े रहना ही जीवित रहने का प्रमाण है। साक्षात रहें या मूर्ति बन खड़े रहे, बस खड़े रहें। 

पहले महापुरुषों की मूर्ति लगती थी। यह महापुरुष भी हर सत्ता के अपने अपने होते हैं कोई एक दूसरे के महापुरुषों में दखल नहीं देता जैसे कोई गोपनीय सन्धि हो। महापुरुष बनने में समय बहुत लगता है क्या पता मरने के बाद महापुरुष बन पाये या न बन पाये किसने देखा हैं इसलिए जिंदा लोग अपनी मूर्तियां लगवा कर जिंदा महापुरुष बन गए हैं। अब महापुरुषों की भी दो कैटेगरी हैं एक जिन्दा दूसरी मृतक।  धीमे धीमे मृतक महापुरषों की केटेगरी को ख़त्म ही कर दिया जायेगा। जनता याद नहीं रख पाती। जनता के लिये जनता के प्रतिनिधि द्वारा किया गया कार्य याद न रख पाना जनता से एकत्रित प्रत्यक्ष कर की फिजूलखर्ची हैं। 

क्या कभी किसी महापुरुष ने आपकी बात मानी हैं ? फैशन के दौर में महापुरुष की भी गारंटी नहीं बेचारा कितने समय तक महापुरुष बना रहेगा। यहाँ तो रोज मुद्दे मरते हैं, वायदे फिसलते हैं, किसान जमीनजोद हो रहे हैं लेकिन आंख का पानी मरा नहीं, मूर्तियां जीवित रहती है भले ही कितनी ही गंदगी चिपक जाये। चिपटी गंदगी से वास्तविक स्वरुप का चित्रण होता हैं। गंदगी जीवन हैं और जीवन में गंदगी हैं। जब इर्द गिर्द हैं ही गंदगी तो गंदगी में विश्वास तो होगा ही। यू कहिये गंदगी ही आज़ादी हैं। 

आजाद गंदे लोग धाय धाय करेंगे,जान लेंगे, खून पियेंगे, डरायेंगे, सताएंगे और झुकाएंगे। प्रजा कर भी क्या सकती हैं सिवाय झुकने के, नतमस्तक होने के, धक्का मुक्की कर माल्यार्पण करने के। माल्यार्पण जिंदा लोगों का हो या मूर्तियों का, कुछ नतमस्तक करने के भी विशेषज्ञ लोग हैं जो 90 डिग्री से 120 डिग्री तक मुड़ जाते हैं। इन्हे परम्परावादी कहेगे ऐसे परंपरावादी लोग आजादी से पहले भी थे और बाद में भी हैं। 

ना जाने आजादी कैसी चिड़िया हैं जो प्रजा के पास आने से पहले ही फुर्र हो जाती है। आज़ादी को राज वैभव और विलासिता पसंद है। आज़ादी जानती हैं रोज़ रोज़ की किन्न किन्न से बेहत्तर हैं स्थायी तौर पर अमीरी में बसा जाये। ऊँचे आज़ाद महलों से गरीब की झुकीं पीठ देखने का अपना अलग मज़ा हैं। ऊँचाई से सही जानकारी मिल पाती हैं की कही पीठ सीधी तो नहीं हो रही। पीठ सीधी होते ही पीठ झुकाने का मंत्र फूका जा सकता हैं। 

आज़ादी का तिलस्म तो देखिये जिसे आजादी मिले उसे और ज्यादा चाहिये जिसे नहीं मिली वह किस्मत पर सारा दोष मढ़कर खुश हैं। ये भी गरीबी का ही दोष हैं की कभी कभी ही सही चन्द बगावती लोग आज़ादी से भी आंख मिला लेते हैं। 

गरीब को चाहिए बस सपने। सोते, उठते, बैठते, हसीन सपने। चमत्कार के धागों से बुने सपने। जादू मंतर से बदलाव के सपने। विश्व गुरु बनने के सपने। मुंगेरीलाल के हसीन सपने। सपने दिखलाइये, वह मस्त हो जायेगा। भूल जायेगा अपने कष्टों को, दुखों को, तकलीफों को, भूख को, बेकारी को, मौत को, शोषण को। उसे हर हाल में माटी की जय जयकार चाहिये। धर्म का नारा चाहिये। देश की वैभवशाली संस्कृति के उत्तराधिकारी होने का सपना दिखलाइये उसे सब कुछ मिल जाएगा और भूखे पेट शान से सीना फुलाये रखेगा। 

-परवेश जैन


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माँ तो आखिर माँ होती है - रश्मि चौधरी ‘प्रभास’

माँओं का काम ही क्या है? रोज सुबह मुर्गे की बांग के साथ ही उठाने लगती हैं बच्चों को। हमेशा ही सात बजे को नौ बजा बताती हैं और भोर को दोपहर बताती हैं।  बच्चों ने भी वर्षों से सुन-सुनकर अपने दिल और दिमाग को न केवल उसी ढंग से फिक्स कर लिया है बल्कि उसी ढंग की बॉडी क्लॉक भी बना ली है भीतर ही भीतर। चादर में लिपटे उनके ऊंघते हुए कान सुनते हैं कि अच्छा दोपहर है तब तो और सोना है। अच्छा नौ बज गए तो अभी थोड़ी देर और सही। माँ  कहती है कि जीवन पंछियों की भांति होना चाहिए शाम होते ही शयनकक्ष में और भोर होते ही डाली-डाली चीं-चीं–चूं-चूं और तिनका-भुनगा टैं-टैं –टूं-टूं।  ऐसे में माँ  जुगत लगाती है कि कैसे हमारे लाड़ले भारत कुमार को उठाया जाए।  चार पांच छेदों से सुशोभित ढक्कन वाली बोतल पानी से भर कर रात में याद से फ्रिज में रख देती है कि उससे भारत पर सुबह-सुबह बौछार की जा सके लेकिन बौछार भी निराश होकर धम्म से धरती पर बैठ जाती है। अगली जुगत पंखा, कूलर बंद करने की है लेकिन खर्राटे लेते भारत पर कोई असर नहीं। तरह-तरह के पकवान की सुगंध और नाक में चिड़िया के पंख से गुदगुदी भी बेकार पड़ जाती है। खैर! वह अपने भारत को दशकों से समझाती रही थी कि देखो गलत लोगों को दोस्त मत बनाना।

“कबीर संगत साधु की, जौ की भूसी खाय।
खीर, खांड़, भोजन मिले साकट संग न जाय॥" 

अर्थात सज्जनों के साथ यदि जौ की भूसी की रोटी या सादा भोजन भी मिले तो प्रेम से ग्रहण करना लेकिन दुष्ट के साथ पकवान मिले तो उनके साथ नहीं रहना चाहिए। लेकिन भारत का दिल है कि मानता नहीं। अब ऐसे कोरोना संकट काल में क्या संगत होगी तो डिजिटल इंडिया जिंदाबाद! भारत का लैपटॉप, टेबलेट, मोबाइल भला तथा बिस्तर और पकवान भले।

माँ  समझाती है कि “आंखें खराब हो जाएंगी। दूरदृष्टि तो छोड़ तुझे पैरों तक का भी दिखाई देना बंद हो जाएगा। कौन भला है और कौन बुरा है इसका भी फर्क नहीं कर पाएगा तू।” किन्तु भारत के कान पर जूं तो क्या लीकें भी नहीं रेंगती। भौंहों में अंटे डालकर माँ  कहती है “इतनी ज्यादा सुविधाएं व्यक्ति के दिल- दिमाग को मुथरा कर देती हैं और तू तो विद्यार्थी है। “सुखार्थिनः कुतो विद्या, विद्यार्थिनः कुतः सुखम्। “अरे जिसने संघर्ष में जीवन झोंक दिया उसी के व्यक्तित्व पर शान चढ़ती है। वह शानदार कहलाता है।  देख भारत तेरा शरीर अदरक जैसा बढ़ता जा रहा है। यहां वहां से फैला जा रहा है। तलवार तो बहुत दूर की बात ढ़ाल उठा ले यही बहुत है। रोज अभ्यास किया कर। दुश्मन पर चीते सी चमक और बाज जैसी दृष्टि होनी चाहिए। तेरी तो दोनों चीजें ही जैसे जीभ बिरया रही हों मुझे।”  “माँ  देखो ऐसी बात मत किया करो। दुश्मन आएगा तब देखेंगे। मैं तो काजू-बादाम खा रहा हूं तो ताकत तो है ही न मुझ में।” भारत झल्लाता हुआ, अपनी थुलथुली बांह ऊपर करके बहुत कोशिश करके कसता हुआ दिखाता है।

बिस्तर पर मोबाइल और कुरकुरे के साथ लुढ़के हुए भारत को देखते से ही माँ  सिहर जाती है। “बेटा! पिछले साल से सबक लेकर उसी के प्रश्न उत्तर याद कर ले। तैयारी अच्छी कर ले।  योजना बनाकर अमल कर। समय सारणी बना।  उसी के अनुसार तैयारी कर। प्रत्येक विषय पर बराबर ध्यान देना। बड़ी कक्षा का विद्यार्थी है न तू तो बड़ा पाठ्यक्रम तो होगा ही।  हाँ, एक-एक विषय के प्रत्येक मुद्दे पर पकड़ अच्छी होनी चाहिए। अच्छी पकड़ तभी बनेगी जब समझ अच्छी होगी और अच्छी समझ अभ्यास से आती है। देख हमारी प्रकृति भी तो रोज नियमित रूप से अभ्यास करती है। ......

 
 
ढूंढ़ते रह जाओगे | हास्य व्यंग्य - प्रेम विज

जनता और नेता का सम्बन्ध घी और खिचड़ी जैसा नहीं होता, बल्कि दुल्हा और बारात जैसा होता है। दुल्हा दुल्हन को लेकर फुर हो जाता है और बराती बेचारे खाना खाते रह जाते हैं। बरातियों की विशेषता जन की तरह होती है। बरातियों को चाहे जितना भी स्वादिष्ट भोजन परोस दिया जाए लेकिन वे उस में भी कोई न कोई नुक्स जरूर निकाल देते हैं। नेता जी भी मंत्री पद मिलते ही आलोप हो जाते हैं। जनता नेता में नुक्स निकालती रहती है। नेता जी ने चुनाव के समय चाहे जन की कितनी भी सेवा की हो, यहां तक कि पैसा पानी की तरह बहाया हो, लेकिन जन हमेशा नेता से नाखुश रहते हैं। इसलिए गद्दी मिलते ही नेता जी जन से दूर चले जाते हैं।

एक अन्य कारण यह भी है नेताओं ने भी जनता को बहुत हसीन सपने दिखा रखे होते हैं। जन इन हसीन सपनों के जाल में फंस कर नेताओं को अपने ऊपर हकूमत करने के लिए भेज देती हैं। नेता भी चुनाव जीतने के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाते हैं कभी सस्ती चीजें दिलाने, कभी उनके मकान पक्के करने के वायदे करता है। इन सपनों में जन को डूबोने के लिए वे दारू भी पिलाते हैं।

नेता जी के लिए चुनाव जीतना अब आसान नहीं रहा, पहले नेताओं के दर्शनों के लिए जनता खुद भागी चली आती थी। नेता की भगवान की तरह पूजा होती थी। चुनाव में ज्यादा खर्च भी नहीं होता था। अब तो चुनाव शादी से भी ज्यादा खर्चीले हो गये हैं। चुनाव के लिए बड़े-बड़े समारोह किये जाते हैं। बड़े-बड़े होर्डिंग्स लगाये जाते हैं। इन समारोहों में जनता स्वयं नहीं आती है। उन्हें दाम देकर लाना पड़ता है, सिर्फ यही नहीं बल्कि उनके खाने पीने का भी इंतजाम करना पड़ता है। इसलिए अब चुनाव, चुनाव न रह कर कारोबार बन चुका है।

ज्यों ही नेता जी चुनाव जीत जाते हैं सब से पहले जन से दूर हो जाते हैं। फिर मंत्री पद हासिल करने पर वे जन से और ज्यादा दूरी बना लेते हैं। इसके पीछे कई रहस्य हैं। जनता ने उन्हें चुना नहीं होता, बल्कि नेता जी के वोटों ने उन्हें खरीदा होता है चुनाव में जितनी रकम लगाई होती है वे पद मिलते ही उसकी वसूली शुरू कर दी जाती है।

जन का क्या वह फिर से खरीद ली जायेगी। नेता जी राज गद्दी मिलते ही अपना शहर छोड़ राजधानी में रहना शुरू कर देते हैं। राजधानी में पहुंचना आम आदमी की हद में नहीं होता। यदि कुछ लोग हिम्मत और पैसा खर्च कर राजधानी पहुंच भी जाए तो उन्हें मंत्री के घर के बाहर सुरक्षा गार्ड ही अन्दर घुसने नहीं देगा। यदि किसी ने बहुत पहचान निकाल कर अंदर घुसने की हिम्मत कर भी ली तो आफिस में बैठा बाबू पहले तो देर तक टैलीफोन पर बातें करता रहेगा और ज्यों ही आप पूछने की कोशिश करेंगे,वह आपको अंगुली को मुंह पर रख कर चुप रहने का इशारा करेगा। जब वह टेलीफोन से मुक्त हो जाता है तो फिर वह आप से पूछेगा क्या काम है, यह प्रश्न सुनकर आम आदमी घबरा कर काम तो क्या अपना नाम भी भूल जाता है। मंत्री जी के पास मिलने ज्यों ही किसी व्यक्ति की पर्ची पहुंचती है तो वह भीतर से ही संदेश पहुंचा देते हैं। जिन सज्जन पुरुषों ने चुनाव में तन और धन से सेवा की होती है उन्हें मंत्री जी तुरन्त अंदर बुला लेते हैं। बाकी के बारे में बता दिया जाता है कि मंत्री जी बहुत व्यस्त हैं फिर कभी मिलने के लिए आएं। जो व्यक्ति सुबह सवेरे घर से निकल कर बसों में धक्के खाकर मंत्री के आवास पर पहुंचा हो जब उसे यह कह दिया जाए फिर आना तो यह शब्द आसमानी बिजली की तरह उस पर गिरते हैं।

मंत्री जी अपने चुनाव क्षेत्र में आने से कतराते रहते हैं, क्योंकि वहां सिवाय लोगों की शिकायतों के कुछ भी सुनने को नहीं मिलेगा। दूसरा उन्होंने जनता को जो हसीन सपने दिखा रखे होते हैं वह सभी हवा में उड़ रहे होते हैं। यदि कोई समर्थक मंत्री जी को बुला ले तो भागे चले आते हैं। क्योंकि उसका तमाम खर्च उस समर्थक ने उठाना होता है। टी पार्टी में वह अपने पसंद के लोगों को बुलाता है। चुनाव क्षेत्र में पहुंच कर मंत्री जी अपने घर नहीं ठहरते बल्कि सरकारी बंगले में लाव लश्कर के साथ ठहरते हैं। यहां पर भी काली वर्दी पहने कमांडों आम आदमी को मंत्री के पास नहीं फटकने देते। सुनहरी सपनों में घिरी जनता अपने नेता को ढूंढ़ती रह जाती है।
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डॉ विनायक कृष्ण गोकाक - भारत-दर्शन

डॉ विनायक कृष्ण गोकाक का जन्म 9 अगस्त, 1909 को उत्तर कर्नाटक के सावानर में हुआ था।  आपको 'ज्ञानपीठ पुरस्कार' से सम्मानित कन्नड़ भाषा के प्रमुख साहित्यकारों में गिना जाता है।

डॉ. गोकाक ने  कविता से लेकर साहित्यिक समालोचना और सौन्दर्यशास्त्र तक कन्नड में पचास से अधिक और अंग्रेज़ी में लगभग पच्चीस पुस्तकें लिखी हैं। 1931 में बम्बई विश्वविद्यालय से विशेष योग्यता सहित स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त करने के पश्चात् आप बाईस वर्ष की आयु में फर्गुसन कॉलेज, पूना में अंग्रेज़ी के प्रोफेसर हो गए। छः वर्षों तक अध्यापन करने के बाद आप उच्च अध्ययन के लिए ऑक्सफोर्ड चले गये, जहाँ आप पाश्चात्य दर्शन  के सम्पर्क में आए।

इंग्लैण्ड से लौटने के बाद आपने महाराष्ट्र और कर्नाटक के कई महाविद्यालयों में अंग्रेजी के प्रोफेसर और प्राचार्य के रूप में कार्य किया। कछ समय के लिए आप उस्मानिया विश्वविद्यालय के अंग्रेज़ी विभाग के अध्यक्ष रहे। 1959 में आप नवगठित 'सेंट्रल इंस्टीच्यूट ऑफ इंग्लिश एंड फॉरन लैंग्वेजेज़' के प्रथम निदेशक नियुक्त हुए। बाद में आप बंगलौर विश्वविद्यालय के कुलपति बने और फिर भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला के निदेशक रहे। आपने 'श्री सत्य साई उच्च शिक्षा संस्थान' के कुलपति के रूप में भी सेवा दी। आप 1978 से 1983 तक साहित्य अकादेमी के उपाध्यक्ष रहे और 1983 से 1988 तक इसके अध्यक्ष रहे।

साहित्य क्षेत्र में डॉ. गोकाक की पहली पसंद कविता है। कन्नड में गीतों का पहला संकलन 'पयान' 1936 में प्रकाशित हुआ। अपने कवि-रूप के शुरू के दिनों में आप महान कन्नड कवि दत्तात्रेय रामचन्द्र बेन्द्रे के प्रभाव में आए। आप द्वारा गठित ''गेलेयर गुम्पु' अर्थात् 'मित्र मण्डल' ने तीसरे दशक में कर्नाटक के साहित्यिक पुनर्जागरण में एक अहम् भूमिका अदा की।

बाद में, चौथे दशक में डॉ. गोकाक श्री अरविन्द द्वारा 'डिवाइन लाइफ' में प्रतिपादित जीवन की अखण्ड दृष्टि से प्रभावित हुए। 

बीस कविता-संग्रहों के अलावा अन्य साहित्यिक विधाओं में भी डॉ. गोकाक ने महत्त्वपूर्ण योगदान किया है, यथा कहानी, नाटक, यात्रावृत्त, साहित्यिक समालोचना और दार्शनिक निबंध लिखे। आपकी एक महत्त्वपूर्ण कृति है: महाकाव्यात्मक उपन्यास समरसवे जीवन। पाँच खण्डों के 1500 पृष्ठों में फैली यह कथा विभिन्न स्तरों-पारिवारिक, क्षेत्रीय, राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय पर जीवन के विषय में विचार करती है और जीवन के नये मूल्यों को प्रस्तुत करती है। कविता के क्षेत्र में आपकी उपलब्धि है 'भारत-सिन्धु-रश्मि' नामक महाकाव्य, जो मुक्त छंद में 35,000 पंक्तियों में लिखित एक बृहत् कृति है। इसमें भारत के पुराऐतिहासिक काल का वर्णन करते हुए मुनि विश्वामित्र के राजर्षि से ब्रह्मर्षि में आत्मिक रूपांतरण की कथा है, जो प्रतीक के स्तर पर मनुष्य की नियति की एक रहस्यवादी दृष्टि है। इस महाकाव्य के केन्द्र में, जैसा कि उनकी सभी कृतियों में है, जीवन के बारे में एक सकारात्मक दृष्टिकोण है, जो इस अवधारणा पर बल देता है कि मनुष्य में दिव्यता है और उसकी भूमिका पृथ्वी पर ईश्वर के एक सक्रिय दूत की है।

कन्नड में आपका अप्रतिम योगदान मुक्त छंद के प्रवर्तक का है, जिससे आपने कन्नड कविता को छंद के दृढ़ बंधन से मुक्ति दिलायी। इसका उत्कृष्ट रूप समुद्र गीतगल में दृष्टिगत होता है,जो समुद्र के बारे में लिखी गयी कविताओं की एक शृंखला है और यह 1936 में इंग्लैंड-यात्रा के दौरान जहाज़ पर लिखी गयी। आप आधुनिक कन्नड कविता के अगुआ हैं। इसे आपने 1950 में कन्नड साहित्य सम्मेलन के बम्बई अधिवेशन में 'नव्य काव्य' की संज्ञा दी थी और बाद में यही नाम प्रचलित हो गया।

अंग्रेज़ी में साहित्यिक समालोचना की कई कृतियों के अतिरिक्त डॉ. गोकाक के तीन कविता-संकलन प्रकाशित हुए हैं। इन्टीग्रल वियू ऑव पोएट्री, इण्डिया एंड वर्ल्ड कल्चर और द पोएटिक एप्रोच टु लैंग्वेज नामक कृतियाँ सौंदर्यशास्त्र तथा सांस्कृतिक और भाषा वैज्ञानिक अध्ययन के क्षेत्र में आपका महत्त्वपूर्ण योगदान हैं।

साहित्य और समाज-सेवा के लिए डॉ.गोकाक अनेक बार सम्मानित किए गये। अपने कविता-संकलन द्यावापृथिवी के लिए आपको 1960 का साहित्य अकादेमी प्रस्कार मिला, 1967 में कर्नाटक विश्वविद्यालय से तथा 1970 में पैसिफिक यनिवर्सिटी, कैलिफोर्निया से आपको डी.लिट. की मानद उपाधियाँ प्राप्त हुईं, 1963 में दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा ने 'साहित्याचार्य' की उपाधि प्रदान की और 1960 में भारत के राष्ट्रपति ने आपको 'पद्मश्री' से सम्मानित किया।

देश और विदेश में अध्यापक और लेखक के रूप में प्रतिष्ठित, एक संवेदनशील कवि, कन्नड साहित्य और भारतीय अंग्रेज़ी लेखन के उन्नायक एक दृष्टि रखने वाले शिक्षाविद् और सांस्कृतिक व्यक्तित्व वाले डॉ. गोकाक मनीषी साहित्यकारों में से एक हैं।

कन्नड और अंग्रेजी में एक कवि और लेखक के रूप में अपने उत्कर्ष के लिए साहित्य अकादेमी ने डॉ. विनायक कृष्ण गोकाक को अकादेमी का सर्वोच्च सम्मान, महत्तर सदस्यता, प्रदान की थी।

गोकाक ने कन्नड़ कविता को स्वतंत्रता का उपहार दिया, जिससे नए क्षितिज खुले और नई संभावनाओं का जन्म हुआ। प्राच्य और पाश्चात्य, अतीत और वर्तमान, वर्तमान और भविष्य, मानवतावाद और अध्यात्म तथा राष्ट्रीय और वैश्विक के मध्य सामंजस्य की स्थापना में जीवन भर क्रियाशील गोकाक समन्वय के सिद्धांत पर आरूढ़ थे। अपने गुरु श्री अरबिंद की भांति उनकी आस्था थी कि आत्मिक विकास करते-करते मनुण्य विश्व-मानव के रूप मे सिद्ध हो सकता है।

चौथे दशक के आरंभ मे काव्य की ओर उन्मुख युवक गोकाक दत्तात्रेय रामचन्द्र बेंद्रे के प्रभाव में आए और उनके नेतृत्व में काव्य के एक नए युग का सूत्रपात करने में संलग्न कवि मंडली के एक सदस्य के रूप मे गोकाक ने स्वप्नों और आदर्शों, आध्यात्यिक अभिलाषाओं और काव्यगत प्रेरणाओं की स्वच्छंदवादी कविता का सृजन किया, 'कलोपासक' (1934) में नई पंरपराओं के गीत संकलित हैं। 'समुद्र गीतेगळु' (1940) की कविताएँ एक नई ताज़गी देती हैं और उनमें गोकाक की वह वाणी मुखर हुई है, जिसमें सहज अभिव्यंजना और फक्कड़पन के साथ गीतात्मकता है। स्वातंत्र्योत्तर भारत की नई प्रवृतियों की पूर्ति उन्होंने एक अभिनव काव्य-शैली के सूत्रपात द्वारा की, इस कविता को उन्होंने इलियट,पाउंड और फ़्राँसीसी प्रतीकवादियों के अनुसरण में 'नव्य' कविता कहा। नए विषयों, नई कल्पनाओं, नई कल्पनाओं, नई लयों, नई वक्रोक्तियों और व्यंग्यों के प्रयोगों से भरपूर 'नव्य कवितेगळु' (1950) ने कन्नड़ कविता में एक 'नव्य युग' का सूत्रपात किया।

विनायक कृष्ण गोकाक के नाटकों में 'जननायक' (1939) और 'युगांतर' (1947) विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। उन्हें कन्नड़ भाषा में आधुनिक समालोचना का जनक कहा जाता है। उनकी आरंभिक आलोचनात्मक रचनाओं पर पश्चिम की गहरी छाप है, किंतु उन्होंने शीघ्र ही कॉलरिज, अरबिंद और भारतीय काव्यशास्त्र को मिला कर अपना-अपना अलग सिद्धांत ढाल लिया, जिसे वह साहित्य का समन्वयकारी रूप कहते थे।

गोकाक की सर्वोत्कृष्ट रचना उनका महाकाव्य 'भारत सिधुं रश्म' है, जो उनकी 1972 से 1978 तक की निरंतर साहित्य साधना का प्रतिफल है। एक ओर इस महाकाव्य में विश्वामित्र का आख्यान है, जो क्षत्रिय राजकुमार होकर भी ऋषि बन गए। दूसरी ओर इसमें आर्य और द्रविड़ समस्याओं के सामरस्य और 'भारतवर्ष' के आविर्भाव की कथा है। इसका दूसरा सूत्रधार राजा सुदास जातियों की समरसता का प्रतीक है, और विश्वामित्र वर्णों की समरसता का। अध्यात्म के उदात्त स्तर पर विश्वामित्र का आख्यान जिस बात का प्रतीक है, उसे अरविंद ने 'ईश्वरत्व की ओर मनुष्य का सफल अभियन' कहा है। त्रिशंकु आज के आदमी का प्रतीक है, जिसने स्मृति, मति और कल्पना पर तो विजय प्राप्त कर ली है, किंतु अभी उसे यह जानना है, कि अंत प्रज्ञा ही सिद्धि का एकमात्र साधन है। विश्वामित्र के अतिमानवीय प्रयन्नों के बावजूद त्रिशंकु स्वर्ग में प्रवेश नहीं कर पाता, तो अंत में यह अनुभव करके कि मुक्ति केवल अंत:प्रज्ञा से ही संभव है, वह एक नक्षत्र बन जाता है। इस महाकाव्य में वैदिक संस्कृति और उसके परिवर्तनशील मूल्यों की ऐसी पुन.प्रस्तुति है, कि वे वर्तमान और भविष्य के लिए प्रांसगिंक बन गए है।

प्रमुख कृतियाँ:

काव्य
'कलोपासक' (1934)......

 
 
सारे जहाँ से अच्छा जनतंत्र हमारा | हास्य व्यंग्य - डॉ. हरीशकुमार सिंह

दुनिया का सबसे अच्छा तंत्र अपना है। नाम है जनतंत्र। हमारे लिए बहुत गर्व का विषय है जनतंत्र क्योंकि जनतंत्र में सबको समान अवसर हैं इसलिए यह बहुत अच्छा माना जाता है। जनतंत्र में आगे बढ़ने के लिए कोई रोक - टोक किसी के लिए नहीं है इसलिए यह खूब अच्छा है। जनतंत्र में अपने रहनुमाओं को चुनने का हक भी प्रजा को है इसलिए प्रजा ही जिम्मेदार मानी जाती है कि कौन राजधानी जाएगा ,कौन नहीं। जनतंत्र में जो साधन संपन्न होकर लिख पढ़ जाते हैं और परीक्षाएं वगैरह उत्तीर्ण कर उच्च अधिकारी बन जाते हैं और एयरकंडीशंड दफ्तरों में बैठते हैं वो अपनी जगह हैं मगर अगर कभी कोई पीछे रह जाए, किसी कारण से बेचारा निरक्षर रह जाए , तो वो परीक्षा देकर क्या करेंगे , उन्हें आगे बढ़ने के अवसर कैसे मिलेंगे। वो भी लाल बत्ती में घूमना चाहते हैं। उन्होंने पैदा होकर कौन सी गलती कर डाली भला जो वो सूट बूट टाई का आनंद न ले सकें, उनका भी दबदबा क्यों न हो। इसके लिए हमारा अच्छा जनतंत्र है। जनतंत्र जात-पात, धर्म, लिंग, संपत्ति, छोटा-बड़ा, अनपढ़, पढा-लिखा, ईमानदार, बेईमान, लुच्चा-टुच्चा या सच्चा नहीं देखता बल्कि सबको एक धरातल पर रखता है, किसी से कोई भेदभाव नहीं करता, जो चाहे सो आए और जनतंत्र में पाए के सिद्धांत में विश्वास रखता है इसलिए हमारा जनतंत्र अच्छा है।

जनतंत्र में यदि आप प्रजा द्वारा चुन लिए जाते हैं तो फिर आप भी ऐसे अधिकारियों के समकक्ष तो क्या इन्हें आदेशित भी कर सकते हैं, अपने इशारों पर नचा भी सकते है, जनहित में। इसलिए जनतंत्र अच्छा है। आदेश का पालन करने के लिए अधिकारी हैं तो उन्हें आदेश देने के लिए जनतंत्र में प्रजा के वोट से चुन कर आने वाले जनप्रतिनिधि हैं न। एक लोकसेवक हैं, दूसरे जनप्रतिनिधि। लोकसेवक मतलब जनता के नौकर और उधर जनतंत्र के जनता के जनप्रतिनिधि। तो दोनों में बड़ा तो जनप्रतिनिधि ही हुआ न क्योंकि जनतंत्र में प्रजा ही सर्वोच्च है और प्रजा के प्रतिनिधि, प्रजा द्वारा चुने गए जनप्रतिनिधि हैं तो जाहिर है कि लोकसेवक अधिकारी, जनप्रतिनिधियों के सामने बौने ही हैं। लोकसेवक वीआईपी हैं तो जनप्रतिनिधि वीवीआइपी। इसीलिये जिन्हें लोकसेवक कभी, पहले जिलाबदर कर देते थे, जनतंत्र में समय आने पर अब वही लोकसेवकों के तबादले कर सकते हैं , गलती पर निलंबित भी कर सकते हैं और सवाल–जवाब भी कर सकते हैं। जनतंत्र सबको हिसाब करने का अवसर सुलभ कराता है।

जनतंत्र की नजर में सब इम्पोर्टेन्ट हैं, इसलिए जनतंत्र अच्छा है। जो तब न बन पाए, अब अभी, कभी भी और आगे भी बन सकते हैं जो वो बनना चाहें। जनतंत्र ने सबके लिए द्वार खोल रखे हैं इसलिए जनतंत्र अच्छा है। कोई दल आपको दरकिनार कर दे, प्रजा के समक्ष आपको परीक्षा न देने दे तो अपना अच्छा जनतंत्र है, आप अपना नया दल बना लें, किसी और दल में भर्ती हो जाएं, जनतंत्र आपको रोकता नहीं है बल्कि पूरी स्वतंत्रता देता है कि जो चाहे सो करें, यह समानता के अधिकार की बात है। इसलिए जनतंत्र अच्छा है। एक बार आप जनतंत्र के स्तंभ को आधार बनाकर शीर्ष पर पहुंच जाएं तो अपनी विचारधारा के संगी राजनेताओं को भी सीधे उपकृत कर सकते हैं कोई भी अन्य संवैधानिक पद देकर। जनतंत्र इसलिए भी अच्छा है कि यदि कभी प्रजा आपको राजधानी न भी भेजे तो भी जनतंत्र आपको निराश नहीं करता। अभी भी आप अपने हाईकमान की मर्जी पर सरकार में कोई भी ओहदा पा सकते हैं बस छः माह के अंदर आपको फिर से प्रजा के बीच जाकर राजधानी का टिकट पाना होगा। देखा कितना अच्छा है जनतंत्र कि आपको दूसरा अवसर भी देता है निराश नहीं करता। लोकसेवक और जनप्रतिनिधियों का तालमेल कभी गड़बड़ा जाए या ये निरकुंश हो जाएं तो भी चिंता की बात नहीं क्योंकि इनके ऊपर, जनतंत्र में न्याय के मंदिर हैं जो देश और जनता के हितैषी होकर दूध का दूध और पानी का पानी कर देते हैं। जनतंत्र इसीलिए भी अच्छा है कि फर्श से अर्श तक का सफर यह किसी को भी करवा सकता है बस आपके भाग्य में होना चाहिए।

-डॉ. हरीशकुमार सिंह
 ई-मेल: harishkumarsingh2010@gmail.com

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व्यंग्य चोट करता है, गुदगुदाता है | व्यंग्य  - प्रभात गोस्वामी

साहित्य ने मुझे हमेशा आकर्षित किया है। मैं फक्कड़ भी हूँ, घुमक्कड़ भी हूँ। चिपकू भी हूँ और लपकू भी हूँ इसलिए साहित्य के लिए पूरी तरह फिट हूँ। प्यार में चोट खाकर कवि बना, फिर अपनी कहानी लिखने के लिए कहानीकार बन गया। बचपन से रुड़पट भी रहा सो यात्रा वृत्तान्त भी लिखे। मैं उस दौर का साहित्यकार हूँ जब संपादक बड़ी बेदर्दी से सर (रचना का) काटते थे और मैं कहता था – हुज़ूर अहिस्ता-अहिस्ता। कितनी ही रचनाएँ मेरी आलमारी में अस्वीकृति की पीड़ा से कराहती हुई उम्र क़ैद-सी त्रासदी का शिकार हुईं। कुछ ओझिया महाराज की कचौड़ियों के कागज़ को उपकृत करतीं रहीं। जहाँ लोग कचौड़ी और चाट के साथ मेरी रचनाओं को बड़े मन से चाटते रहे। क्या करें उन दिनों बड़े साहित्यकार घास नहीं डालते थे और सम्पादक दोस्ती नहीं करते थे। रचना छपे तो कैसे छपे?

फिर भी धक्के खा-खा कर साहित्यकार बन ही गए। आज का दौर बिलकुल ही उल्टा है। लोगों के पास पढ़ने-बांचने का समय ही नहीं। हाँ, सोशल मीडिया पर एक पोस्ट पर बिना पढ़े लाइक की झड़ी लगती है। फिर उस लाइक पर लाइक पर लाइक करते हुए पूरे दिन लाइक का चीरहरण होता रहता है। ...और, हम अपनी ही रचनाओं के स्वयं ही पाठक बने हुए हैं।
हार कर हमने व्यंग्य पर बाज़ सरीखा झपट्टा मारा। पर, हमारे देखते ही देखते व्यंग्यकारों की लाइन केरोसीन और राशन लेने के लिए लगने वाली लाइन से भी बड़ी हो गई। सरकार व्यंग्य लेखन पर टैक्स लगा दे तो अच्छा राजस्व मिल सकता है! यहाँ मेरा नंबर कब आएगा? कुछ पता नहीं। हमारे यहाँ भेड़चाल सबको पसंद है। गुरुदेव की सलाह कि मंजिल तक पहुंचना है तो एक साथ झुण्ड में चलो। एक साथ झुण्ड में नहीं चल रहे होते तो इतने बड़े देश में हमें पता ही नहीं चलता कि हम कहाँ और किस दिशा में जा रहे हैं? हमने जब देखा कि देश के कोने-कोने में व्यंग्य के कोने बने हुए हैं। तब हमने किसी अनचाहे या गोद लिए बच्चे के सामान कहानी, कविता,मु क्तक को गोदी से पटक कर व्यंग्य को एक झटके में गोदी में बिठा लिया।

बाबूजी से पूछा तो उन्होंने व्यंग्य का एक पुराने ज़माने का नुस्खा पकड़ा दिया। कहा कि कोई भी पूछे कि व्यंग्य क्या है? बड़े कॉन्फिडेंस से ज़वाब देना कि-- व्यंग्य चोट करता है, गुदगुदाता है। अब हम जुट गए व्यंग्य लेखन के लिए। हम भी वही करेंगे जो देश कर रहा है। हम भी दीना के लाल की मानिंद वही खिलौना लेने के लिए मचल गए जिससे व्यंग्य के महल में सैकड़ों राजकुमार उछाल-उछल कर खेल रहे हैं!

देश में जब सब अपनी-अपनी तरह से चोट कर रहे हैं , गुदगुदा रहे हैं तो हम भी व्यंग्य के ज़रिये चोट करेंगे, गुदगुदाएँगे। पर, दुःख कि हमारे व्यंग्य से न किसी को चोट पहुंची न ही गुदगुदी हुई! अब खीजकर हमने दो-चार को मंच से नीचे पटक कर तगड़ी चोट पहुँचाईं और कुछ के गुलगुलिया चलाकर गुदगुदाया भी। हमारे व्यंग्य लिखने से कुछ विरोधी भी बन गए। हमारी रचनाओं पर कोई टीका-टिप्पणी नहीं करते। जब हमने घर बुलाकर व्यंग्य गोष्ठी के बहाने कुछ दिग्गजों को शाल ओढाया, ग्यारह-ग्यारह सौ रूपए का टीका किया, तब जाकर उन्होंने हमारे व्यंग्य पर टिप्पणी करना शुरू किया।

कुछ राजनीति भी हमने सीखी। घर पर हर रविवार गोष्ठी के चलते हमारा अपना गुट बन गया। व्यंग्य चल पड़े चाहे वैशाखियों के सहारे से ही सही। फिर किसी दोस्त सरीखे दुश्मन ने सलाह दी कि अब एक व्यंग्य संग्रह निकालें। व्यंग्यकार के रूप में आपका मूल्यांकन तभी हो पायेगा। पहले हमको कुछ शक हुआ पर फिर लगा संग्रह आना ही चाहिए। जबरी प्रसाद भड़भूंजा ने संग्रह की भूमिका लिखने की हामी भी भर ली। शैतान नगर का एक चालू टाइप का प्रकाशक भी बता दिया। बोले सबसे सस्ता यही है। जो सस्ता है वही बिकता है।

एक दिन हमारे व्यंग्य संग्रह का पहला बण्डल छपकर घर आ गया। दादी ने पहला पंच मारते हुए बड़े व्यंग्यात्मक लहजे में कहा-– पोता तो तुम मुझे दे नहीं पाए। इस संग्रह की ख़ुशी में ही आज छत पर चढ़कर थाली बजा ले। हमने कहा कि-- विमोचन के दिन ही इसकी सूरत देखेंगे। फिर क्या, विमोचन की बिसात बिछ गई। जबरी प्रसाद ने कहा कि-- हमारे कुछ धुर विरोधियों को मंच पर बैठाने का सम्मान देकर थोड़ी राजनीति करो। मंच पर उन्हें तारीफ़ करनी ही पड़ेगी। हमने विरोधी और कटु आलोचक त्रिनेत्र देव पाण्डेय, गुदगुदी शरण चौबे और खूंखार सिंह खंगारोत को क्रमशः मुख्य अतिथि, विशिष्ट अतिथि और अध्यक्ष के पद पर सुशोभित करने का निर्णय न चाहते हुए भी कर लिया।......

 
 
व्यंग्य समय - दिलीप कुमार

मैं व्यंग्य समय हूँ, हस्तिनापुर के समीप इंद्रप्रस्थ जो कि अब दिल्ली के नाम से जाना जाता है , यही मेरे व्यंग्य का खांडव वन रहा है। अब व्यंग्य के कई अर्जुन मेरे इस खांडव वन अर्थात व्यंग्य लोक को जलाने पर आतुर हैं।

तो साहिबान, मेहरबान,कद्रदान, मैं दिल्ली के सबसे पुराने और बड़े व्यंग्य का मठाधीश स्वान्त सुखाय स्वयं को व्यंग्य ऋषि घोषित करता हूँ। इससे पहले कि आप मुझको चंदाखोर घोषित करें, मैं खुद को व्यंग्य का ऑफिशियल भिखारी भी मान लेता हूँ। अब पूछिये क्या पूछना है?

जिज्ञासु-- "आपने खुद को व्यंग्य ऋषि क्यों कहा? आपने ज्यादा लिखा है और बहुत दिनों तक लिखा है, लेकिन कुछ ऐसा कायदे का नहीं लिखा जो याद रखे जाने लायक हो या आप खुद के लेखन को कालजयी मानते हैं, इसीलिये खुद को व्यंग्य ऋषि कहते हैं?"

व्यंग्य समय--"हे जिज्ञासु, हे अज्ञानी, चूंकि तुम अति मामूली व्यंग्य लेखक हो इसलिये ऐसे बचकाने प्रश्न करते हो।
“निज कवित्त केहि लागे ना नीका ......

 
 
'गड़बड़गोष्ठी' का उद्घाटन | व्यंग्य - हरिशंकर शर्मा

"भाई भोलूराम, गड़बड़गोष्ठी' का उद्घाटन तो पिछले सप्ताह ख़ूब हुआ, परन्तु उसकी चकाचक रिपोर्ट पत्रों में प्रकाशित नहीं हुई। यों चालीस-पचास पंक्तियों में छप जाने से क्या होता है। इस प्रकार के समाचार भला ऐसे छापे जाते हैं"-- मनसुख स्वामी ने बड़ी उदासीनता दिखलाते हुए कहा। "हाँ महाराज ठीक है--" भोलूराम बोले, "सचमुच ये अख़बार वाले बड़े मतलबी होते हैं। लीडरों और मिनिस्टरों की तो दिन में दस-दस बार तसवीरें छापते हैं परन्तु हमारे गुरुजी का नाम भी नहीं प्रकाशित किया। उस दिन उद्घाटन के समय अख़बार वाला मौजूद तो था, उसे भरपेट चाय भी पिलाई गयी थी, रसगुल्ले और सन्देश भी छकाये थे फिर भी भले आदमी ने ठीक-ठोक समाचार नहीं छपाये। बड़ा बुरा आदमी है।"

( इतने में ही एक अख़बार बेचने वाले का प्रवेश )

"क्यों जी, कल के अख़बार में हमारे गुरुजो को तस्वीर क्यों नहीं छपी, आज के अख़बार में भी नहीं है। आखिर यह क्या बात है?" भोलूराम ने अख़बार वाले को डांट बताते हुए कहा।
"अज़ी बाबूजी, मैं क्या जानूं, मैं तो अख़बार बेचने वाला हूँ। मैं अख़बार नहीं छापता, मैं तो बेचता हूँ।"

"देखो-देखो, यह अख़बार ठीक नहीं छापता, इसकी अकल ठीक कर दो। आया कहीं का अख़बार वाला! ठीक खबर नहीं छापता--" मनसुख स्वानी ने गरजते हुए कहा।......

 
 
बाप दादों की कील | व्यंग्य - केशवचन्द्र वर्मा

हाजी जी ने जब अपना मकान बनवा लिया तो चैन की साँस ली। ऐसा मकान उस शहर में किसी के पास नहीं था। जो देखता वही यह कहता कि ऐसा मकान और किसी ने नहीं बनवाया। हाजी जी ने जब यह देखा तो उन्होंने अपना मकान अच्छे दामों में बेच डालने का निश्चय किया। उनका निश्चय जान कर बहुत-से लोग मकान खरीदने के लिए आने लगे। हाजी जी ने मकान खरीदने वालों के सामने सिर्फ़ एक शर्त रक्खी.... वह सारा मकान देने के लिए तैयार थे बस बात इतनी थी कि एक कमरे में एक कील गाढ़ी हुई थी जिस पर वे अपना अधिकार चाहते थे। बातचीत होते-होते अंततः एक आदमी इसके लिए तैयार हो गया। हाजी साहब एक छोटी-सी कील पर ही तो अपना अधिकार चाहते थे। उस आदमी ने सोचा चलो कोई बात नहीं। मकान अपना रहेगा। एक कील हाजी साहब की ही रहेगी।

मकान बिक गया। शर्त के साथ लिखा पढ़ी हो गई।

नए आदमी ने मकान ले लिया और उसमें जम गया। आधीरात बीत चुकी थी। सब ओर सन्नाटा था। लोग अपने-अपने घरों में खर्राटे भर रहे थे। एकाएक मकान के दरवाजे पर दस्तक सुनकर नए खरीददार ने पुकारा....

"कौन है?"

बाहर से आवाज़ आई--"मैं हूँ हाजी। जरा दरवाजा खोलिएगा।"

उस आदमी ने आकर दरवाजा खोल दिया। और घबराकर पूछा....

"कहिए क्या बात है?"

हाजी जी घर के भीतर आ गए और रहस्यपूर्ण ढंग से बोले--"बात यह है भाई कि वह जो मेरी कील है न, उसमें मुझे एक छोटी-सी डोरी बाँधनी है।... ज़रूरी काम था, इसलिए सोचा कि आपको जरा तकलीफ तो होगी लेकिन डोरी बाँधनी ही थी.... इसलिए...."

उस आदमी ने कहा--"नहीं-नहीं कोई बात नहीं। आप बाँध लीजिए डोरी।"

हाजी जी हीं-हीं करते रहे और जाकर अपनी कील में एक रेशमी डोरी बाँधते रहे। कील को ज़रा मज़बूत करके वह उस रात चले गए।

दो-तीन दिन तक कोई घटना नहीं घटी।

चौथे दिन जब नया मकान वाला खाना खाकर सोने जा रहा था, उसके दरवाजे पर दस्तक हुई! दरवाजा खोलते ही देखा तो हाजी साहब खड़े थे।

"आइए।" कह कर वह आद‌मी उनका स्वागत करने लगा ।

हाजी जी ने फिर अपनी हीं-हीं चालू की और बोले-- "वह ज़रा अपनी कील है न, उसमें जरा पालिश कर देना चाहता हूँ। बात यह है कि लोहे लक्कड़ की चीज़ों पर अगर पालिश कर दी जाय तो वह बहुत दिनों तक चलती रहती है लेकिन यूँ ही छोड़ देने पर बड़ी जल्दी खराब हो जाती है। आप तो देखते ही होंगे, यह मकान मैंने जिस कायदे से बनवाया है वह तो आप से छिपा नहीं है। हर चीज़ अव्वल देजें की है। बस यही कुछ चीजों पर पालिश रह गई है सो कब मैं इस कील पर अगर पालिश कर दूँ तो इसकी उम्र बढ़ जाए।"

उस आदमी को हाजी जी का उस वक्त आना कुछ पसन्द नहीं आया। कुछ रूखे स्वरों में उसने कहा--"जी हाँ! ठीक है। पालिश कर लीजिए।

हाजी जी ने बाहर खड़े दो आदमियों को भीतर बुला लिया । उनमें से एक ने पहिले डोरी खोली फिर दूसरे ने उस कील पर पालिश करनी शुरू की। पहिले एक कोट चढ़ाया फिर उसे सूखने में आध घन्टे लग गए। आध घन्टे बाद उस कील पर दूसरा कोट चढ़ाया। जब वह भी सूख गया तब उस पर डोरी बाँधी और तब जाने के लिए तैयार हुए। हाजी जी जाते वक्त फिर माफ़ी माँगने लगे--"माफ करना भाई। दरअस्ल 'काम में वक्त तो लगता ही है। अब ये कारीगर लोग हैं। जब तक काम ठीक से न कर लें तब तक अधूरा काम छोड़ कर भी नहीं जा सकते ।... हीं-हीं-हीं.... इन्हें भी तो अपने पूरे पैसे की फिक्र रहती है। हम तो दिन में ही आं जाते पर हमने सोचा कि रात में आप जरूर मिल जायेंगे। आपकी मौजूदगी में ही यह सब काम होना चाहिए... क्योंकि मकान तो आपका ही है.... ही-ही-ही... मेरा क्या, मेरी तो यह जरा-सी कील है.... और फिर यह कील भी अपने बाप-दादों की न होती तो मेरा क्या जहाँ इतना बड़ा मकान बेंच दिया वहाँ यह कील भी बेंच देता- तकलीफ तो आपको हुई ही पर.... काम भी तो होना ही था....।"

आदमी के तेवर कुछ चढ़े हुए थे पर फिर भी शिष्टता दिखाते हुए बोला--"ठीक है। आपका काम हो गया हो तो ठीक है।

 "आदाबअर्ज।" हाजी जी अपने कारीगरों के समेत चले गये। शहर में इधर-उधर इसकी चर्चा होने लगी। लोग कहते थे कि हाजी जी अपने बुजुर्गों की कील के पीछे जान देते हैं। घर नया हो गया, बिक गया मगर कील को उन्होंने जान से बढ़कर रक्खा।

नए खरीददार के लिए यह कील सरदर्द होने लगी। जो मिलता वही उस कील के बारे में पूछता। कोई कहता कि वह कील किसी तहखाने की कुंजी है जिसमें हाजी के बाप-दादों का खजाना है। कोई कहता कि उस कील में एक जिन्नात रहता है। सब उसका असली रहस्य जानने के लिए इस आदमी को चौक बाजार, चौराहे, दूकान, कचहरी सब जगह घेरते।

दिन भर उस कील के बारे में उड़ी हुई अफवाहों के उत्तर देता हुआ जब वह आदमी थक कर घर पहुँचा और अपनी चारपाई पर पड़ गया तभी उसे दरवाजे पर दस्तक सुनाई दी। एकाध बार उसने सुन कर अनसुना कर दिया। पर दस्तक धीरे-धीरे धमधमाइट में बदलती चली गई। हार कर उसने दरवाजा खोला। सामने ही हाजी साहब खड़े थे। उसे देखते ही हाजी साहब कुछ ऊँची आवाज में बोले--'वाह साहब, वाह। आप तो घोड़े बेच कर सोते हैं। अब में अपनी कील तक पहुँचने के लिए दो घंटे आप की मिन्नत करूँ तो वहाँ तक पहुँचूँ ।.... ऐसे ही है तो आप इस दरवाजे की एक चाभी मुझको दे दीजिए जिसमे जब भी आप इस तरह से बेखबर सो रहे हों मैं कम से कम अपना काम तो कर सकूँ।'

उस आदमी ने कहा--'लेकिन आप वक्त बेवक्त इस तरह मुझे परेशान करते हैं। आप अपनी कील ले जाइए।'

'कील कैसे ले जाऊँ। वह तो शर्तनामे में लिखी हुई है। कील रहेगो और इसी मकान में रहेगी।... एक तरफ हट जाइए.... मुझे जरा अपनी कील में से डोरी खोलनी है।

हाजी जी ने शर्तनामे की बात की तो वह आदमी चुप हो गया। उन्होंने जाकर उस कील में से डोरी खोली और एक नया फ्रीता बाँधा इस बार जाते समय न तो उन्होंने माफ्री माँगी और न दोनों में कोई अभिवादन ही हुआ।

दूसरे दिन से वह आदमी मकान बेचने के लिए शहर में इधर- उधर दौड़ने लगा। पर कील के डर के मारे कोई भी लेने को तैयार न हुआ। हार कर किसी तरह से वह हाजी जी से ही अपना मकान वापस ले लेने के लिए विनती करने लगा।

 हाजी जी ने जिस दाम पर बेचा था उसकी चौथाई कीमत लगा कर वह मकान फिर खरीद लिया और जिस चैन के लिए उन्होंने वह मकान बनवाया था वह उन्हें वापस मिल गया और साथ ही उस मकान की पूरी लागत भी!!

इस कथा से कुछ शिक्षाएँ मिलतीं हैं:

(अ) अपने बाप-दादों की कील गाढ़ने वाले सदा आनन्द करते हैं।

(ब) सस्ता सौदा देख कर ही मत दौड़िए। पहले पता कर लीजिए कि सारा माल आपका... सिर्फ़ आपका ही रहेगा।

(द) एक कील की जहमत से हार कर पूरा मकान बेचने वाले मूरखों को अपना मित्र न बनाइए।

-केशवचन्द्र वर्मा

(एस० एस० काफ्स की नीति कथा पर आधारित)


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लिखने और छपने के टोटके! - प्रभात गोस्वामी

रचनाओं के निरंतर अस्वीकृत होने की पीड़ा से त्रस्त लेखकजी को अब किसी पर विश्वास नहीं रहा। हारकर वह फिर से अंधविश्वासों पर यकीन करने को मजबूर हो रहे हैं। खिलाड़ियों से लेकर नेता लोग सब अंधविश्वासों का दामन थामे हुए हैं। आजकल किसी पर भी विश्वास करना मुश्किल हो गया है! तभी तो लोग फिर से टोने-टोटकों पर भरोसा करने लगे हैं।

लेखक जी पीड़ा यही है कि दिन-रात लिखते रहे। हर दिन (ई)मेल मिलाप करते रहे। देश की राजधानी से लेकर चारों दिशाओं से छपने वाले अख़बारों में रचनाएँ भेज रहे हैं। पर परिणाम अस्वीकृति के सिवा कुछ भी नहीं। उनको यही लगता है कि किसी ने उन पर टोना कर दिया है। उनके पास माया की कोई कमी नहीं। फिर भी लिखने-छपने का मोह नहीं छूट पा रहा!

हार कर वे एक ज्योतिषी की शरण में गए। तंत्र-मंत्र,ज्योतिषीय उपचार की उम्मीद में पग पखराई की। बड़े दुखी होकर कहा, 'आजकल हर आदमी लेखक है। सब जमकर छप रहे हैं। बड़े लेखक तो कुछ लिखने से पहले ही छप जाते हैं! फिर मेरी कुंडली में ऐसे कौन- से पापी ग्रह बैठे हैं जो मुझे छपने से रोक रहे हैं?'

बाबा ने आँखें बंद कीं। कुछ देर अपने आप में खो गए। फिर बोले, 'बेटा तेरी कुंडली में कई मठाधीशों की कुदृष्टि पड़ रही है। हर कोई तेरी शान-ओ-शौकत की वजह से तुझे अपने मठ में मथना चाहता है। सारे एक-दूसरे को रोक रहे हैं। यही वजह है कि तेरी कोई भी रचना किसी अख़बार या पत्रिका में नहीं छपने दे रहे! चिंता न कर, करते हैं कोई उपाय। '

उन्होंने फिर आँखें बंद कीं। आजकल हर समस्या पर ऑंखें बंद करना ही उसके हल की चिंता से मुक्त करता है! बोले, 'बेटा, सबसे पहले किसी एक मठाधीश की शरण में जाकर 'गंडा बंधन' करना होगा। इसके बाद बिना किसी कड़ी परीक्षा के तुम्हारा धंधा (लेखन) सारे बंधन से मुक्त हो जाएगा! तुम लिखने में गुड़गोबर भी कर दोगे तो गुरुजी गुड़ की मिठास और गोबर से होने वाले फायदे गिनाकर उसे श्रेष्ठ रचना साबित कर देंगे। साहित्य में भेड़ चाल का चलन भी खूब है। एक बार गुरुजी ने गोबर को गुड़ बता दिया तो सारे लोग 'पार्टी लाइन' की तर्ज़ पर उसकी मिठास में पगी तारीफ ही परोसेंगे। तुम लिखने में कचरे के ढेर खड़े करोगे तो गुरुवर उसमें से बिजली पैदा करते हुए साहित्य के आँगन को रोशन करवा देंगे।'

'लव,वॉर और लेखन में समय का बहुत महत्त्व है। शुभ मुहूर्त में भेजी गई रचना अवश्य छपती है। अखबार और पत्रिका के कार्यालयों में सबसे पहले रचना भेजने के लिए सुबह जल्दी उठने की आदत डाल। सब जगह आजकल 'पहले आओ,पहले पाओ', की नीति चल रही है। ध्यान रहे, ज्यादातर लेखक निशाचर होते हैं। देर रात तक जागते हैं! सो सुबह उनके उठने से पूर्व ही अपनी रचना को डिस्पेच कर। रचना के ऊपर मठाधीश जी के चरणों की धूल चिपका। फिर देख कमाल!'

- प्रभात गोस्वामी, भारत


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वे धन्यवाद नहीं ले रहे | व्यंग्य  - धर्मपाल महेंद्र जैन

मैं अपने समय के प्रतिष्ठित होते-होते बच गए व्यंग्यकार के साथ बैठा हूँ। उनका जेनेरिक नाम व्यंका है, ब्रांड नेम बाज़ार में आया नहीं, इसलिए अभी उनका नाम बताने में दम नहीं है।  यह चर्चा मोबाइल पर रिकॉर्ड हो रही है।

प्र.: व्यंका जी, कभी आपका नाम हो जाए और आप अमर हो जाएँ, उसके मद्देनज़र मैं जानना चाहता हूँ कि आपका जन्म कहाँ और कब हुआ?

उ.: धर्म जी, आपका आभारी हूँ, आपने सही समय पर मेरी प्रतिभा को परख लिया। मैं पहली बार इंटरव्यू दे रहा हूँ, कोई भूल-चूक हो जाए तो ठीक कर लें। मेरा जन्म घर पर हुआ। उस जमाने में दाई घर पर ही प्रसव करा देती थी। सरकारी अस्पताल डॉक्टर साब के घर से ही चलता था, तो लोग छोटी-छोटी बातों के लिए फीस नहीं देते थे। जन्म कब हुआ, इस पर बड़ा विवाद है। घर में घड़ी नहीं थी। पिताजी कहते हैं 'सूरज भरपूर चढ़ गया था, मैं उठ गया था, तब यह जन्मा। ’ माँ कहती है 'मैंने जन्मा तो मैं जानती हूँ, तब पौ भी नहीं फटी थी, तुम तब भी खर्राटे भर रहे थे जब यह जन्मा। ' अप्रैल की पहली तारीख को मेरा जन्म दिवस विश्व भर में हर्षोल्लास से मनाया जाता है।

 प्र.: आप किस तरह के लेखक हैं और आप क्यों लिखते हैं?

उ.: मैं बहुत अच्छा लेखक हूँ। मित्रगण मुझे लेखक मान लेते हैं। संपादकगण तटस्थ हैं। बस, लोचा आलोचकों के साथ है। वे गिनीज बुक जैसे हैं, लेखकों की सूची में मेरा नाम नहीं डाल रहे। जाकी रही भावना जैसी। मैं क्यों लिखता हूँ, यह प्रोफेशनल प्रश्न है। कम्प्यूटर पर सॉलिटेयर खेलने से तो लिखना अच्छा है। सॉलिटेयर खेलते श्रीमती जी देख लें तो आदिकालीन काम पकड़ा देती हैं।

 प्र.: आदिकालीन काम मतलब?

उ.: आदिकालीन काम मतलब जो काम आदिकाल से हो रहे हैं, जैसे झाड़ू लगाना, बर्तन धोना, पोंछा मारना, जाले साफ करना। मुझे समकालीन काम करना पसंद है।

 प्र.: समकालीन काम मतलब?

उ.: अरे यार, आप किस दुनिया में रहते हैं। समकालीन काम मतलब फेसबुक, वाट्सऐप, ट्विटर, यूट्यूब, इंस्टाग्राम आदि। और भी हैं, पर मैं इन पर ही इतना बिज़ी रहता हूँ कि मत पूछो।

 प्र.: लोग आपको फोगटिया लेखक कहते हैं, इस बारे में आप क्या कहेंगे?

उ.: जो इस तरह का पतित लांछन लगाते हैं, उन्हें ख़ुद के गिरेबान में झाँकना चाहिए। हिन्दी की समृद्ध साहित्य परम्परा लघु पत्रिकाओं से है। वे आप को छाप ही दें तो आपको उनका आभारी होना चाहिए। मानदेय लेना-देना हमारी संस्कृति नहीं है। मुफ़्त में लिखने वालों को फोगटिया नहीं कहते, उन्हें साधुवादी कहना श्रेयस्कर होगा।

 प्र.: आप पत्र-पत्रिकाओं में कम, अपनी ई-पत्रिकाओं व ब्लॉग्स पर ज़्यादा हैं। कोई खास वजह?

उ.: मुद्रित पत्र-पत्रिकाओं से वृद्ध साहित्यकार रोमांस लड़ाते हैं। यह नई टेक्नॉलॉजी का ज़माना है। अब छपने के लिए किसी का मोहताज़ होने और इंतज़ार करने की ज़रूरत नहीं। लिखो और तत्काल अपने ब्लॉग पर पोस्ट कर दो, फेसबुक पर शेयर कर दो। मेरे पांच हज़ार फॉलोअर हैं, घंटे भर में दो सौ लाइक आ जाते हैं।

 प्र.: लोग आप पर व्यंग्य करने के लिए फॉलोअर बनते हैं, आपके व्यंग्य पढ़ने के लिए नहीं। 'लाइक' का क्या, लोग बिना पढ़े ही लाइक कर देते हैं।

उ.: यह सरासर गलत है। आपको अपने पाठकों पर विश्वास होना चाहिए। वे लाइक करते हैं तो सब सोच समझ कर करते हैं। मैं उनको लाइक करता हूँ तो वे मुझे लाइक करते हैं।

 प्र.: आपका प्रतिनिधि संकलन या कोई किताब देखने को नहीं मिली।

उ.: कई प्रकाशक अप्रोच करते हैं, पर मैं स्थापित प्रकाशक को ही मौका देना चाहता हूँ। चाहे वे जमानत ज़ब्त होने के चक्कर में कुछ डिपॉज़िट या सहयोग राशि ले लें। 'दानपीठ' वालों से सालों से बात चल रही है, वहाँ बहुत-से लेखक प्रतीक्षा सूची में हैं, मैं भी हूँ। नाम तो वहीं होता है। आगे चलकर पुरस्कार भी वहाँ से लेना है।

 प्र.: आप जीवन-यापन के लिए क्या करते हैं। लोग कहते हैं, आप लिखते कम, झक ज़्यादा मारते हैं?

उ.: यह कैसा प्रश्न है? हिन्दी के लेखक को कुछ न कुछ तो करना पड़ता है। आम लेखक का जीवन-यापन लिखने से हो सकता है क्या? जलने वालों का क्या है, सभी सरकारी नौकर झक मारते हैं, मैं अकेला थोड़े ही हूँ।

 प्र.: रोज़ ही आपके छोटे-छोटे पोस्ट, कॉपी-पेस्ट और टैग शैली में आते रहते हैं। आप उपन्यास क्यों नहीं लिखते?

उ.: उपन्यास दिखने में ठीक लगता है, पर हिन्दी के पाठकों में उपन्यास पढ़ने का धैर्य है क्या? फिर, उपन्यास लिखने और उसे समेटने में बहुत समय लगता है। इतने समय सोशल मीडिया से दूर रहना स्वास्थ्य के लिए खतरनाक हो सकता है। जीवनदायी गॉसिप का मसाला तो वहीं से मिलता है।

 प्र.: आपके परिचय में पच्चीस से अधिक पुरस्कारों की सूची है। प्रथमदृष्टया ये मोहल्ले या कस्बा स्तर के पुरस्कार लगते हैं, इनमें कोई प्रतिष्ठित पुरस्कार नहीं लगता?

उ.: अब पुरस्कार-दाता अपना पुरस्कार प्रतिष्ठित नहीं करवाए तो इसमें हमारा क्या दोष! पुरस्कार प्रतिष्ठित करवाने में बहुत माल देना पड़ता है, विज्ञापन देने पड़ते हैं। रही बड़े पुरस्कारों की बात तो पद्मश्री के लिए मेरा नाम हर साल जाता है, गृह मंत्रालय के पास हर साल सत्रह हज़ार से ज़्यादा नाम आते हैं, वे भी क्या करें। वैसे मुझे पद्मश्री बूचड़लालजी की पुत्रवधू की स्मृति में स्थापित मान्यता पुरस्कार मिला है। इस अलंकरण में पद्मश्री तो लिखा है।

 प्र.: सुना है आप कुछ संस्थाओं से जुड़े हैं, आपने भी कुछ पुरस्कार स्थापित किये हैं।

 उ. मैं अखिल विश्व हिन्दी फेडरेशन एवं 'ग्लोबल हिन्दी राइटर्स ऑनलाइन' का संस्थापक अध्यक्ष हूँ। इस सदी में साहित्य और साहित्यकारों का बड़ा अवमूल्यन हुआ है। जिस तेज़ी से साहित्यकारों की संख्या में इज़ाफ़ा हुआ है, पुरस्कारों की संख्या में वृद्धि नहीं हुई। एक श्रीफल, शाल और मानपत्र दे कर हम वंचित साहित्यकारों का सम्मान कर रहे हैं। जो मुझे पुरस्कार दिलवाते हैं, मैं उनको दिलवाता हूँ, परस्परोपग्रहो जीवानाम्, सभी जीव परस्पर सहायता कर खुश रहते हैं।

 प्र.: आपने अपना नाम बहुत बड़ा रखा है। क्या आपको नहीं लगता कि बड़े नाम पढ़ने में पाठकों को असुविधा होती है?

उ.: जी नहीं, पाठकों को इसमें क्या असुविधा! नाम कौन पढता है, सब नाम देखते भर हैं। आपने सुने होंगे ये नाम - सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय", सूर्यकान्त त्रिपाठी "निराला", गजानन माधव मुक्तिबोध। बड़ा नाम सबको ध्यान रह जाता है। ज्ञान या प्रेम नाम बड़े 'कॉमन नेम' हैं।

 प्र.: आपको कौनसे समकालीन साहित्यकार प्रिय हैं, आप उनको कितना पढ़ते हैं?

उ.: मैं कुछ साहित्यकारों का नाम लेकर शेष को मायूस करना नहीं चाहता। जो साहित्यकार भगवान को प्रिय रहे, वे मुझे भी प्रिय रहे। जो अभी प्रभु को प्रिय होना शेष हैं, मैंने उनको विचाराधीन रखा हुआ है। मैं भगवान से अलग हूँ क्या! जहाँ तक मेरे पढ़ने का सवाल है, अपना लिखा ही पढ़ने का समय नहीं है तो दूसरों का कब पढूं।

 प्र.: तो व्यंग्य लेखन में आपका क्या स्थान है, और आगे क्या संभावनाएं हैं?

उ.: देखिए, हरिशंकरजी परसाई चप्पल पहनने के बाद पांच फीट साढ़े सात इंच से कुछ ऊपर थे। शरदजी जोशी भी पांच फीट साढ़े सात इंच से कुछ ऊपर लगते थे। अब पांच फीट सात इंच से कुछ ऊपर की साइज़ में ढेर सारे व्यंग्यकार हैं। मैं भी पांच फीट सात इंच तक तो पहुँच जाऊँगा। आजकल लंबाई बढ़ाने के लिए योगा कर रहा हूँ। लोग मुझे परसाईजी या जोशीजी के समकक्ष न मानें, समलंब तो मानना ही पड़ेगा।

 प्र.: आप अपनी रचना पर कितनी मेहनत करते हैं, या सब स्वतः हो जाता है? दरअसल, आपकी रचना प्रक्रिया क्या है?

उ.: रचना नदी की तरह बहती आती है, तब मैं खुद को सुनाने लगता हूँ। खुद जोर से बोलो और सुनो तो सीधा दिल तक पहुँचता है। मैं अपना बड़बड़ाना रिकॉर्ड कर लेता हूँ। फिर अच्छा मुहूर्त देख कर टाइप करना शुरू करता हूँ। ब्लॉग पर पोस्ट करने के लिए टाइप करना ज़रूरी है। अक्षर ढूँढ-ढूँढ कर एक ऊँगली से टंकित करता हूँ। आजकल रचना प्रक्रिया कठिन और श्रम-साध्य हो गयी है। रचना पूरी होते ही मैं घरेलू संपादक के आगे-पीछे घूमना शुरू कर देता हूँ। वे समझ जाती हैं और आग्रहपूर्वक मेरी रचना संपादित कर देती हैं।

 प्र.: जिन रचनाकारों को घरेलू संपादक सुलभ न हों, तो वे क्या करें?

उ.: सफल होने के लिए, साहित्यकार के पास अपना संपादक होना ही चाहिए। जिनके पास घरेलू संपादक न हों, उन्हें तदर्थ संपादक रख लेना चाहिए। हिन्दी साहित्य में 'वह' की भूमिका पर ख़ूब लिखा गया है, उसे पढ़ना चाहिए।

मैंने अपना मोबाइल ऑफ कर दिया, और खड़ा हो कर उन्हें साक्षात्कार के लिए धन्यवाद दे रहा हूँ। वे धन्यवाद नहीं ले रहे, कह रहे हैं, अभी और इंटरव्यू लो।

                                                                       - धर्मपाल महेंद्र जैन, कनाडा


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तमिल फिल्मों के हास्य अभिनेता विवेक का निधन - भारत-दर्शन समाचार

17 अप्रैल (चेन्नई) तमिल फिल्मों के प्रसिद्ध हास्य कलाकार विवेक का दिल का दौरा पड़ने के बाद शनिवार तड़के उनका निधन हो गया। वह 59 वर्ष के थे। चेन्नई के एसआईएमएस अस्पताल में उन्होंने अंतिम सांस ली।

अभिनेता विवेक को शुक्रवार को दिल का दौरा पड़ने के बाद अस्पताल में भर्ती कराया गया था। उनके परिवार में पत्नी और बेटी है। अभिनेता विवेक ने गुरुवार को ही कोरोना वैक्सीन की पहली खुराक ली थी। एसआईएमएस अस्पताल ने यह स्पष्ट किया है कि विवेक के दिल का दौरा पड़ने का कोरोना वैक्सीन से कोई लेना-देना नहीं है।

कुछ वर्षों पूर्व ही अभिनेता विवेक के बेटे का डेंगू से निधन हो गया था।

विवेक के शव को विरुगगबक्कम स्थित उनके आवास पर लाया गया, जहां उन्हें श्रद्धांजलि देने वालों का तांता लगा हुआ है। प्रसिद्ध हास्य कलाकार को श्रद्धांजलि देने वालों में तमिल फिल्म उद्योग से जुड़े लोगों के अलावा उनके प्रशंसक भी सम्मिलित हैं। 17 अप्रैल की शाम को उनकाअंतिम संस्कार किया जाएगा।

तमिलनाडु के मुख्यमंत्री ई के पलानीस्वामी, द्रमुक अध्यक्ष एम के स्टालिन, अभिनेता रजनीकांत और संगीतकार ए आर रहमान सहित तमिल फिल्म उद्योग से जुड़े कई लोगों ने विवेक के निधन पर शोक व्यक्त किया है।

[भारत-दर्शन समाचार]


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लगाने का लाभ - सी भास्कर राव

एक लाभ होता है लगाने का। जैसे तेल लगाना, मक्खन लगाना, चूना लगाना आदि। इसका पहला और प्रत्यक्ष लाभ तो यह है कि इस लगाने में कोई खर्च नहीं है। बस सिर्फ लगा भर देने से काम चल जाता है। पानी लगाने के लिए वास्तव में आपको न तेल चाहिए, न मक्खन और न चुना। यदि सचमुच लगाने के लिए इन वस्तुओं का इस्तेमाल करना हो तो लगाने वालों की संख्या आधी भी नहीं रह जाती। चूंकि मुफ्त में यह सब लग जाता है, इसलिए लोग मजे से दूसरों को लगा देते हैं। इसलिए यह सब लगाने वालों की संख्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही है, जो तनिक सिद्धांतवादी हैं, वे भी कभी-न-कभी, किसी-न-किसी को, कुछ-न-कुछ लगाने के लिए मजबूर हो ही जाते हैं। दरअसल, बिना कुछ लगाए आज के जमाने में काम ही नहीं चलता है। जब तक लगाने में हिचक होती है, दिक्कत सिर्फ तभी तक है। एक बार संकोच से बाहर आकर किसी को अपनी जरूरत के हिसाब से, इन वस्तुओं में से कुछ लगा दें तो फिर लगाते जाने का सिलसिला अपने-आप चालू हो जाता है। 

एक बार यह सिलसिला बन जाए, तब विना किसी को कुछ लगाए आप मानेंगे भी नहीं। मान लीजिए कि अपना स्वार्थ साधने के लिए किसी को तेल, घी, मक्खन या चूना लगाने की जरूरत न भी पड़े, आप अपनी आदत के मुताबिक लगाकर ही रहेंगे। जब कुछ लगाकर काम निकालने की आपकी आदत पड़ जाए तो विना लगाए काम से जाने पर भी आपको मजा नहीं आएगा। समझिए कि यह लगाना भी एक गेम है। इस क्षेत्र में बड़ी जबरदस्त प्रतियोगिता है। एक-से-एक माहिर लगाने वाले मिलेंगे। जब किसी लगाने वाले को धकियाकर खुद न लगाने बैठ जाएँ, आपका काम होने से रहा। यों यह लगाना भी एक छूत का रोग है। किसी को कुछ लगाते देखकर आपको भी लगाने की खुजली होगी। इसी तरह लगाने से लगाने तक यह गेम आगे बढ़ता रहता है। इस गेम में लगाने वालों से पिछड़ने की जगह उन्हें पछाड़ने की आवश्यकता होती है। इसके लिए थोड़ा अभ्यास चाहिए। थोड़ा प्रशिक्षण मिल जाए तो पौ बारह। हमारे समाज में इसके विशेषज्ञ उपलब्ध हैं, जो किसी को कुछ भी लगाकर बता सकते हैं। 

यह तो हुई लगाने वालों की बात, अब जरा लगवाने वालों की ओर झाँकें तो मामला और भी दिलचस्प जान पड़ेगा। मुझे लगता है कि ईश्वर ने मनुष्य में एक दोष कूटकर ठूंस दिया है। कमबख्त जल्दी बुरा नहीं बनना चाहता है। अच्छे बने रहने की जिद में रहता है। आपको याद होगा कि भविष्यवक्ताओं ने कई बार महाप्रलय की घोषणा कर दी थी, पर हमारा दुर्भाग्य कि वह कांड अभी तक नहीं हुआ, इसके लिए मनुष्य की इस जिद्द को ही मैं जिम्मेदार मानता हूँ। अन्यथा, सभी बुरे बन जाते तो मि. महाप्रलय को भी पृथ्वी पर प्रवेश की कितनी सुविधा रहती। खैर, बुरा सिर्फ एक ही बार बनना होता है, उसके बाद बुराई के लाभ के सारे दरवाजे फटाफट खुलने लगते हैं। उन्हीं में से एक दरवाजा तेल, मक्खन या चूना लगवाने का भी है। यह चूना लगाने की बात, शेष लगाने से भिन्न है, अधिक शास्त्रीय है। उस पर बाद में बात करूंगा। यह तेल या मक्खन लगवाने वालों की जो नस्ल तैयार हुई है, उसका श्रेय मूलतः लगाने वालों को ही जाता है। शुरू में लगवाने में थोड़ी अकवकी हो सकती है, पर बाद में बिना लगवाए जी नहीं मानता है। इसलिए प्रारंभ में छँटाक-भर से भी लगवाने वाले संतुष्ट हो जाते हैं, पर बाद में उन्हें संतुष्ट होने के लिए किलो से लेकर क्विंटल तक जरूरत पड़ सकती है। 

इसमें लगवाने वाले की भूख और क्षमता पर निरंतर ध्यान रखना पड़ता है। जिसे खुश होने के लिए, आपका काम करने के लिए आधा किलो तेल या मक्खन की जरूरत हो, पर आप अपनी नासमझी के कारण ढाई सौ ग्राम से काम चलाना चाहें तो बात नहीं बनेगी। किसी की तारीफ करने-भर से काम हो जाता है। किसी के सामने दाँत भी निपोरने पड़ते हैं। किसी को केवल नमस्कार यानी साष्टांग नमस्कार की जरूरत पड़ जाती है तो किसी को इस बात की कि वह रोए तो आप आँसू बहाने लगें। वह हँसे तो आप खिलखिला उठें। इसकी आगे की डिग्री है, उसकी हर बेवकूफी पर आप खुलकर दाद दें। पानी लगवाने वाले की सामर्थ्य का अनुमान लगा लेना आसान नहीं है, खासकर नौसिखिओं के लिए। यों इस क्षेत्र में ऐसे दिग्गज मिलते हैं, जो लगवाने वाले को एक नजर देखकर ही, तेल या मक्खन की मात्रा का अनुमान लगा लेते हैं। हो सकता है, कोई लगवाने वाला आकार-प्रकार से मोटा- ताजा हो, पर कम मात्रा में ही काम हो जाए। इसके विपरीत किसी दुबले-पतले को किलो क्या, मनों की जरूरत पड़ जाए। 

सच तो यह है कि तेल या मक्खन लगाने की बात काफी पुरानी हो चुकी है। अब न लगाने वालों को वह मजा मिलता है और न लगवाने वालों को, पर चूना लगाने वाली बात इससे अलग है, ऊपर है। तेल या मक्खन लगाकर आप बस किसी की खुशामद-भर कर सकते हैं, पर चूना लगाकर किसी को खुदकुशी तक ढकेल सकते हैं। इसलिए चूना लगाने का कर्म अपेक्षाकृत अधिक जटिल और गंभीर है। तेल, मक्खन तो आजकल ऐरे-गैरे भी लगा देते हैं और लगवा लेते हैं, पर चूना लगाना आसान नहीं है। इसमें काफी रिस्क है। तेल या मक्खन लगाकर छोटा-मोटा हाथ मारा जा सकता है। प्रायः लंबा हाथ मारने में चूना लगाने का उपयोग किया जाता है। जब आप किसी को तेल या मक्खन लगा रहे होते हैं, तब लगवाने वाले को भी इसका पता होता है यानी एहसास रहता है, लेकिन चूना लगने का एहसास प्रायः लग जाने के बाद ही होता है। व्याकरण की दृष्टि से तेल या मक्खन लगाने की क्रिया वर्तमान कारक है और चूना लगाने की क्रिया भूतकालिक। इसकी बुनियादी खूबी ही यह है कि क्रिया बीत जाने पर पता चलता है कि हाय! चूना लगा गया। सामान्यतः तेल या मक्खन व्यक्ति द्वारा व्यक्ति को लगाने तक सीमित होता है, पर चूना लगाने का स्कोप, व्यक्ति, विभाग, संस्था या सरकार यहाँ तक कि देश तक फैला हुआ होता है। जैसे-हर्षद मेहता ने केवल रिजर्व बैंक को ही नहीं, पूरे राष्ट्र को चूना लगाया। 

तेल या मक्खन लगवाते हुए लगवाने वाला व्यक्ति, आसमान पर चढ़ता जाता है। चूना लग जाने पर और कोई चारा नहीं रह जाता, सिवाय आसमान से जमीन पर गिरने के। जैसे अयोध्या के मामले में केंद्रीय सरकार गिरी है। वस्तुतः चूना लगाना एक कला है। तेल या मक्खन लगाने वाले तो छोटे कलाकार होते हैं, चूना लगाना बड़े और सिद्धहस्त कलाकारों का काम है। जिसे आप चूना लगा रहे हैं, उसे पता तक न चले, यही इस कला का बुनियादी सौंदर्य है। यदि दूसरे शब्दों में कहा जाए तो तेल या मक्खन लगाना स्माल स्केल इंडस्ट्री है। चूना लगाने का काम मल्टी नेशनल कंपनियों जैसा विस्तृत होता है। करोड़ों और अरबों तक का चूना लगाया जा सकता है। यह जरूर माना जा सकता है कि चूना लगाने की शुरुआत तेल लगाने से की जा सकती है। आपको तेल या मक्खन लगाना हो तो वेशक लगाइए, पर अपना लक्ष्य हमेशा चूना लगाने को बनाइए।

-सी भास्कर राव


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बद अच्छा बदनाम बुरा  - बेढब बनारसी 

शेक्सपियर ने बहुत दिन हुए कहा था कि नाम में क्या रखा है। गुलाब को चाहे जिस नामसे पुकारिये सुगंध तो वैसी मीठी होगी। किन्तु वह नहीं जानते थे कि कुछ मनचले लोगों ने उन्हीं के नाटकों को दूसरे लेखक के नाम से कहना आरंभ कर दिया तो तहलका मच गया। तुलसीदास ने तो नाम की अपार महिमा गायी है और कह दिया कि 'कहउं कहा लगि नाम बढ़ाई, राम न सकंहि नाम गुणगाई।' इसलिए ये संसार में जो कुछ किया जाए वह नाम के ही लिये किया जाए तो इसमें आश्चर्य क्या हो सकता है। 

किसी से छिपा नहीं है कि जब कोई पुण्य कार्य करता है तब यह तो निश्चित नहीं रहता कि बैकुंठ में उसके लिये स्थान सुरक्षित हो गया किन्तु उसका नाम अखबारों में छपेगा, लोगों की ज़बान पर उसका नाम अनेक बार आयेगा यह निश्चित है। और उस व्यक्तिको स्वर्ग का सुख यहीं मिल जाता है। जितने अधिक पत्रों में उसका नाम छपता है, जितने मोटे टाईप में छपता है, जितनी भाषाओं में छपता है उतना ही अधिक उसके आनंद का विस्तार होता है। 

नाम का महत्व इतना हो गया कि लोग असलियत भूल गये। आजकल जब सभी ओर वास्तविकता की ओर लोगों का ध्यान कम जाने लगा है। लोग नाम की ही महत्ता समझने लगे हैं। यदि किसी का नाम हो गया तो वह उस पर्दे के भीतर जो चाहे वह कर सकता है। और यदि किसी की कुख्याति हो गयी तो वह चाहे कितना ही अच्छा हो सब लोग उसका नाम सुनकर नाक-भौं चढ़ायेंगे। 

मैं आपको एक उदाहरण से स्पष्ट कर दूँगा और आप मान भी जायेंगे कि जो मैं कह रहा हूँ उसमें कहाँ तक सच्चाई है। गदहे को लीजिये। किसी अतीत काल में किसी ने गदहे में कोई मूर्खता देखी होगी। तबसे वह मूर्खता का प्रतीक बन गया। आज तक वह बेचारा मूर्खता का यह बोझ ढोता चला आ रहा है। अपने विद्यार्थियों में कोई त्रुटि दीख पड़ती है और अध्यापकों को जब तब यही बेचारा स्मरण किया जाता है। मालिक जब अपने नौकर में कोई कमी पाता है तब इसको याद करता है। आप स्वयं देखते होंगे कि यह कितना सीधा पशु है। सारे गंदे कपड़े साफ करने के लिये ढोता है। जितना बोझ चाहिये इसपर लादिये। उस कपड़े के बोझ पर स्वयं धोबी भी बैठ जाता है। किन्तु यह बोलता नहीं। किसी महान तपस्वी, निष्काम साधक की भाँति अपने लक्ष की ओर चला जाता है। कभी कभी तो यह ध्यान में आता है कि यह कोई पहले जन्म के योगी हैं जो स्वर्ग के किसी कर्मचारी की असावधानी से पशुके रूप में जा पड़े। इसके पैर बाँध दिये जाते हैं, डंडे का इस पर उसी प्रकार प्रयोग होता है जैसे छत पीटी जाती है किन्तु वह कितना सहनशील होता है, संतोषी होता है। विनय, मर्यादा की सीमा से बाहर नहीं जाता। फिर भी उसकी प्रशंसा नहीं होती। किसी कालेज या स्कूल की ड़िसिपलिन यदि ठीक हो वहाँ के विद्यार्थी आज्ञा पालन में आदर्श हों तो यह कहते नहीं सुना गया कि अमुक विद्यालय के विद्यार्थी गदहे के समान है। गदहा बेचारा इतना बदनाम हो गया है कि ऐसा अनेक गुण संपन्न प्राणी सदा अवगुणों के लिये ही याद किया जाता है। उसकी बुद्धि देखिये कि यदि खेत में चरने के लिये छोड़ दिया जाए तो वह इस ढंग से चलता है कि कम से कम यात्रा उसे करनी पड़े। किसी त्रिभुजकी दो भुजाएँ तीसरी से बड़ी होती है, उसीने खोज निकाला है। ज्यामिति का इतना बड़ा पंडित फिर भी वह बेवकूफ है केवल इसलिये कि कभी कोई इससे रंज हो गया होगा। 

यही हाल उल्लू का भी है। दूसरा कोई रात भर जागता तो जितेन्द्रिय कहा जाता। कौवा ऐसे निकृष्ट पक्षी का संहार करता है। रात को पहरा देता है। पुलिस का काम करता है। किन्तु मनहूस और मूर्ख समझा जाता है। कौवा धूर्त है, प्रातःकाल पुण्यात्मा लोगों से खाने के लिये ग्रास पाता है। यह है संसार का ढंग।   

कुत्ते में न जाने कहाँ से सब गुण आ गये। जिसके काटने से आदमी पागल तक हो सकता है किन्तु उसकी सब जगह पूछ है। शायद इसीलिये कि वह युधिष्ठिर का साथी था। उसका भोजन निकृष्ट, उसकी नैतिकता में संदेह है फिर भी वह लोगों की गोद का खिलौना बना हुआ है। यह है नाम की महिमा, यह है नाम का प्रभाव। बिलाई चूहे खाती है किन्तु उसको अपने बर्तन में पानी या दूध पिला दिया जाएगा किन्तु गदहे को जो पूर्ण रूप से शाकाहारी-वेजिटेरियन है कोई अपने बरतन में पानी पिलाने के लिए तैयार नहीं है क्योंकि यह बदनाम है। उसके नाम पर कलंक लगा है।

यह शिकायत की जा सकती कि पशुओं और गदहे का ही उदाहरण क्यों दिया जाता है। कारण यह है कि संसार के सभी महान् विचारक कह रहे हैं कि प्रकृति की ओर सबको लौटना चाहिये। इस युग की यही पुकार है। हम सबको अपना जीवन पशु-पक्षियों के अनुमार कीड़े-मकोड़े के अनुसार भुनगे-पतंगों के अनुसार बनाना चाहिये। इस- लिये ऐसे प्राणियों का उदाहरण दिया जा रहा है जो प्रकृतिके बृहद पुत्र हैं। यों तो परमात्मा पूर्ण है किन्तु यदि परमात्मा के बाद कोई पूर्ण है तो गदहा। शीतला माता ने इसीलिये इसे वाहन चुना है। माता के सम्मुख हाथी, ऊँट, जुराफा, जैबरा सभी थे किन्तु उन्होंने इसे ही चुना। और कहाँ तक कहा जाए यह सिगरेट-सिगार तक नहीं पीता। किन्तु बदनामी का प्रभाव देखिये। सच जगहों से यह चहिष्कृत है। इसे किसी ने उपहार स्वरूप काबुल भी नहीं भेजा जहाँ सुना है नहीं होता। 

जैसे बदनामी का बिल्ला गद‌द्दे पर लगा दिया गया है उसी प्रकार मानव समाज में भी कुछ वर्ग ऐसे हैं जिनपर यह छाप लगा दी जाती है। जैसे अविवाहित लोग। सब अविवाहित लोग दुराचारी नहीं होते। आचरण-हीन नहीं होते। किन्तु कुछ लोगोंने बदनाम कर रखा है। अविवाहित जन ब्रह्मचारी होते हैं उनकी पूजा होनी चाहिये। किन्तु किसी से घर रहने क लिये किराये पर माँगिये तो पूछा जाता है कि आपका परिवार कहाँ है। और कहिये कि मैं कुँआरा हूँ तब आपको जगह उसी प्रकार नहीं मिलेगी जैसे भारत की भूमि में पेट्रोल नहीं मिलता। और यदि कहिये कि मैं ब्रह्मचारी हूँ तो पूजा होने लगेगी। 

कितने ही कवि तथा साहित्यकार इसी प्रकार बदनाम हो गये और उनकी रचनायें ऊँची कोटि की होने पर भी जनता से दूर रही। और कितने ही लेखक तथा कवि जिनकी रचना चूसी गड़ेरी के समान नीरस और कतवार के समान निरर्थक है फिर भी कुछ लोगों ने नाम की माला जपी और वह साहित्यिकों के सरदार तथा नेता बन गये।

आज विज्ञापन का युग है। यदि विज्ञापन अच्छे ढंग से हुआ, कला से हुआ तो कैसी भी गंदी वस्तु हो, खराब हो, बेकाम हो उसका बोल-बाला होता है। आजकल का टेकनीक यही है। किसी को बुरा कहने लगिये और संसार उसे बुरा समझने लगता है। बड़ी पुरानी कहानी है कि एक आदमी एक बछड़ा खरीदकर ले जा रहा था। कुछ लोगों ने उसे ठगना चाहा। थोड़ी-थोड़ी दूर पर वह खड़े हो गये। जब वह आदमी कुछ दूर गया तब एक ठगने कहा आज यह कुत्ता कहाँ लिये चले जा रहे हैं। उस आदमी ने कहा यह कुत्ता है देखते नहीं। फिर दूसरे ठगने वही बात कुछ दूरी पर कही, फिर तीसरे ने और इसी प्रकार चौथे ने। उस आदमी को विश्वास हो गया कि यह कुत्ता है। मुझे धोखा हो गया। उसने उस बछड़े को वहीं छोड़ दिया। चार आद‌मियों के कहने से बछड़ा कुत्ता बन गया। हिटलरने "माइन कैंफ" में बताया है कि किसी झूठ को भी बारबार कहा जाए तो वह सच हो जाता है। यह सच्चाई की परिभाषा कहाँ तक ठीक है मैं नहीं कह सकता किन्तु होता ऐसा ही है। इसलिये इस युग में बद भले ही मनुष्य हो जाए किन्तु बदनाम न होना चाहिये। 

यही सबसे उत्तम सामाजिक व्यवस्था है। यही जीवन की सफलताकी सुनहली कुंजी है। आप बढ़िया से बढ़िया और अधिक से अधिक वारुणी का सेवन कीजिये किन्तु बोतल लेकर टहलने का उपक्रम न रचिये। लोटिये भी तो घर के आँगनमें पब्लिक रड़ की नाली में नहीं। सारी बुराई की जड़ बदनामी है, बुराई नहीं। स्पार्टा में भी पुराने समय में जो चोर पकड़ा जाता था वही दण्ड पाता था। जो चोरी में पकड़ा न जाए वह चैन की बंसी बजाये। कितना सुन्दर व्यवहारिक सिद्धान्त है। कुछ कठिन अवश्य, किन्तु सभी लाभकारी बातें कठिन तो होती ही है।

-बेढब बनारसी 
 [हुक्का-पानी] 


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कौमी गीत  - अजीमुल्ला

हम हैं इसके मालिक हिंदुस्तान हमारा
पाक वतन है कौम का, जन्नत से भी प्यारा ......

 
 
न्यूज़ीलैंड की संसदीय समिति के समक्ष हिंदी का पक्ष - भारत-दर्शन समाचार

14 अप्रैल 2021 (न्यूज़ीलैंड): शिक्षा संशोधन विधेयक (प्राथमिक एवं माध्यमिक विद्यालयों में द्वितीय भाषा अध्ययन सशक्तिकरण) के संदर्भ में आज न्यूज़ीलैंड की संसदीय समिति के समक्ष मौखिक प्रस्तुतियाँ हुईं जिनमें हिंदी के समर्थन में भी प्रस्तुतियां हुई। सब्मिशन भरे जाने के पश्चात संसदीय समिति ने कुछ संस्थाओं को मौखिक रूप से अपनी प्रस्तुति के लिए 14 अप्रैल को आमंत्रित किया था। हिंदी के समर्थन में भारत-दर्शन ऑनलाइन पत्रिका, भारतीय भाषा एवं शोध संस्थान, वायटाकरे हिंदी विद्यालय और वैलिंगटन हिंदी विद्यालय के प्रतिनिधियों ने अपना पक्ष रखा।

Sansadiya Samiti New Zealand

आज की प्रस्तुतियों में भारत-दर्शन के सम्पादक, रोहित कुमार 'हैप्पी', भारतीय भाषा एवं शोध संस्थान की ओर से डॉ पुष्पा भारद्वाज-वुड व सुनीता नारायण, वायटाकरे हिंदी विद्यालय की ओर से सतेन शर्मा व वैलिंगटन हिंदी विद्यालय की ओर से कश्मीर कौर ने अपना पक्ष रखा। वैलिंगटन हिंदी विद्यालय के एक भूतपूर्व छात्र ने भी अपने अनुभव साझा किए और हिंदी शिक्षण के सन्दर्भ में अपना पक्ष रखा।

रोहित कुमार 'हैप्पी' ने न्यूज़ीलैंड में हिंदी भाषियों का उल्लेख करते हुए, न्यूज़ीलैंड शिक्षण की पृष्ठभूमि और स्थानीय हिंदी मीडिया की जानकारी दी। उन्होंने इस बात का भी उल्लेख किया कि वैलिंगटन स्थित भारतीय उच्चायोग हिंदी का पूर्ण रूप से समर्थन करता है। न्यूज़ीलैंड में भारत के उच्चायुक्त, मुक्तेश परदेशी अपना पूरा सहयोग दे रहे हैं। इसके अतिरिक्त भारत के शिक्षा मंत्रालय की सबसे बड़ी संस्थाओं में से एक राष्ट्रीय मुक्त विद्यालयी शिक्षा संस्थान और विश्व हिंदी सचिवालय (मॉरीशस) ने भी अपना पूर्ण समर्थन और आश्वासन दिया है।

Sansadiya Samiti Ke Samksh Hindi Hetu Prastutiya

"न्यूज़ीलैंड ने 'भारत-दर्शन' के रूप में विश्व को हिंदी का पहला वेब प्रकाशन दिया और वह अनेक हिंदी के संसाधन विकसित कर रहा है।"

तकनीक के क्षेत्र में भारत-दर्शन ने पूर्ण सहयोग की पेशकश की।

डॉ पुष्पा ने हिंदी शिक्षण व पाठ्यक्रम के विकास पर चर्चा की। बच्चों को किस प्रकार शिक्षण दिया जाए और पाठ्यक्रम में क्या सम्मिलित हो ताकि उसका स्थनीयकरण भी हो, यह बात उठाई। न्यूज़ीलैंड में चौथी सर्वाधिक बोली जाने वाली हिंदी के पक्ष में कई तथ्य समिति के समक्ष रखे। उन्होंने बताया, यह न्यूज़ीलैंड और भारत के संबंधों को सुदृढ़ करेगा। हिंदी पढ़ाने वाले शिक्षक यहाँ उपलब्ध हैं और हमारे पास भारत सरकार के सहयोग का आश्वासन है। यहां के भारतीय उच्चायुक्त बहुत सहयोगी हैं।

भारत-दर्शन से बात करते हुए, डॉ पुष्पा ने कहा, "आओटियारोआ न्यूज़ीलैंड में सभी हिंदी भाषियों और समर्थकों के लिए आज का दिन बहुत ही महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक था। हमें आज पहली बार इस देश की संसद में सिलेक्ट कमेटी (प्रवर समिति) के सामने व्यक्तिगत रूप से हिंदी की महत्ता, विश्व में इसके योगदान और इसका प्रयोग करने वालों के लिए भावी संभावनाओं के बारे में अपने विचार प्रस्तुत करने का अवसर प्राप्त हुआ था।

हालांकि इस बिल पर अपनी लिखित प्रस्तुति हमने पहले ही जमा करा दी थी। आज की व्यक्तिगत रूप से प्रस्तुति हमारे लिए एक दोहरा मौका था हिंदी को आओटियारोआ न्यूज़ीलैंड में और सशक्त बनाने का।

मुझे आज प्रवर समिति के सामने अपने विचार प्रस्तुत करने और पूछे गए प्रश्नों का उत्तर देने में हार्दिक प्रसन्नता के साथ-साथ गर्व भी महसूस हुआ। किसी ने सही कहा है कि माँ की गरिमा उससे दूर होने पर और भाषा एवं संस्कृति की महत्ता उसके आपके जीवन से लुप्त होने की संभावना होने पर ही होती है।"

"भाषा मानव के अंतर्मन को जानने और उसकी संस्कृति तथा सभ्यता पर प्रकाश डालने वाला वह दीपक है जो इतिहास के साथ-साथ मानव के आधारभूत मूल्यों को भी उजागर करता है।" 

वे कहती हैं, "मेरा यह मानना है कि यहां के विद्यालयों में हिंदी पढ़ाने से न तो माओरी भाषा के स्थान और उसकी महत्ता पर कोई प्रभाव पड़ेगा और न ही हम किसी अन्य भाषा के साथ साथ प्रतियोगी के रूप में भाग ले रहे हैं। हमारा उद्देश्य तो अपनी प्रस्तुति के माध्यम से हमारे इस छोटे से सफेद बादलों के देश की भाषाओं, इसकी संस्कृति और आर्थिक क्षमता को और सुदृढ़ बनाना है।"

वायटाकरे हिंदी विद्यालय के संचालक, सतेन शर्मा ने हिंदी शिक्षण की चर्चा की और हिंदी पढ़ाना कितना हितकारी हो सकता है,  इसपर बल दिया। उनका यह भी मानना है कि यदि हिंदी मुख़्यधारा के स्कूलों में पढ़ाई जानी आरम्भ हुई तब भी सप्ताहांत विद्यालय साथ-साथ चलते रहें। इन विद्यालयों का अपना महत्त्व है।

वैलिंगटन हिंदी विद्यालय की ओर से कश्मीर कौर ने अपना पक्ष रखा। उन्होंने स्कूल की उपलब्धियों का उल्लेख किया और हिंदी शिक्षण के अनेक लाभ संसदीय समिति के समक्ष रखे। उनके साथ विद्यालय का छात्र, 'आनव सिंह'  और वैलिंगटन हिंदी विद्यालय की संचालिका सुनीता नारायण उपस्थित थे।

न्यूज़ीलैंड में हिंदी भाषियों की संख्या व अन्य तथ्यों के आधार पर प्राथमिक एवं माध्यमिक विद्यालयों में हिंदी के द्वितीय भाषा के रूप में शिक्षण के काफी अवसर हैं लेकिन संसदीय समिति द्वारा सभी प्रस्तुतियों को सुन लेने के पश्चात अगली संसदीय प्रक्रिया की प्रतीक्षा करनी होगी।

[भारत-दर्शन समाचार]


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क्षणिका संकलन - भारत-दर्शन संकलन

क्षणिका संकलन


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क्षणिका संकलन - भारत-दर्शन संकलन

क्षणिका संकलन


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तेनालीराम - भारत-दर्शन

तेनालीराम दक्षिण भारत के आंध्र प्रदेश के लोक-जीवन का एक सुपरिचित नाम है। जो स्थान उत्तर भारत में बीरबल का है, वही स्थान तेनालीराम को दक्षिण भारत में प्राप्त है।

दक्षिण भारत के विजयनगर के महाराजा कृष्णदेव राय की गिनती श्रेष्ठ शासकों में की जाती है। उनके शासनकाल को इतिहास में स्वर्णिम काल बताया गया है। उन्हीं के दरबार में एक दरबारी थे तेनालीराम। वे अपनी विद्वता और हाजिरजवाबी के लिए प्रसिद्ध हैं। कठिन से कठिन प्रश्नों और पेचीदी समस्याओं को वो पलक झपकते ही हल कर देते थे। उनकी बुद्धि का लोहा देश भर के विद्वान मानते थे। तेनाली राजा कृष्णदेवराय के चहेते थे।

दक्षिण भारत की लोक-कथाओं में तेनालीराम का पूरा नाम 'कृष्णस्वामी तेनालीराम मुदलियार' उल्लेखित है, परन्तु कुछ इतिहासकर तेनालीराम का वास्तविक नाम रामलिंगम् मानते हैं। तेनालीराम का जन्म गुंटूर जिले के ‘गलीपाडु' नामक कस्बे में हुआ था। तेनाली का बचपन अपने मामा के यहाँ 'तेनालि' नामक कस्बे में व्यतीत हुआ था। इसीलिए लोग उनके वास्तविक नाम की अपेक्षा उन्हें तेनाली पुकारने लगे। 

तेनालीराम के किस्से बहुत लोकप्रिय हैं। तेनालीराम की हास्य-कथाएँ न केवल स्वस्थ मनोरंजन करती हैं बल्कि बुद्धि का विकास और वाकपटुता की प्रेरणा भी देती हैं। तेनालीरम केवल बालकों को को ही नहीं बल्कि बड़े-बूढ़ों में भी ख़ूब लोकप्रिय हैं।

[भारत-दर्शन]


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नेता जी की जयंती पर बाउल गान - भारत-दर्शन समाचार

24 जनवरी 2019:  नेता जी की जयंती (23 जनवरी) पर नेशनल लाइब्रेरी कोलकाता में सांस्कृतिक कार्यक्रमों के अंतर्गत बाउल गीत-संगीत का आयोजन हुआ।  बाउल गीतों में बंगाली लोक संस्कृति को आदर्शों के प्रतीक के रूप में माना जाता है । बाउल में भाट, रचनाकार, संगीतकार, नृत्तक और अभिनेता सभी एक जैसी भूमिका निभाते हैं। उनका उद्देश्य मनोरंजन करना होता है।

बाउल पश्चिम बंगाल का प्रसिद्ध आध्यात्मिक लोक गीत है। बाउल गायक कभी भी अपना जीवन एक-दो दिन से ज्यादा एक स्थान पर व्यतीत नहीं करते। वे गाँव-गाँव जाकर भगवान विष्णु के भजन एवं लोक गीत गाकर भिक्षा मागं कर अपना व्यतीत करते हैं। बाउल एक विशेष लोकाचार और धर्ममत भी है। इस मत का जन्म बंगाल की माटी में हुआ है। बाउल परंपरा  का प्रभाव देश का राष्ट्रगान लिखने वाले 'गुरुदेव' रवींद्रनाथ टैगोर की कविताओं पर भी पड़ा है। रवींद्र संगीत में भी इसका प्रभाव देखा जा सकता है।

गीतों, विरामों, हावभावों और मुद्राओं के द्वारा ये खानाबदोष भिक्षु दूरदूर तक के क्षेत्रों में प्रेम और हर्षेान्माद का संदेश देते हैं। पिछली पीढियों के लोग भिक्षा के लिए हाथ में कटोरा एवं एकतारा लिए हुए गाते हुए फकीर निश्चत रूप से याद होंगे। बाउल गीत मे दैवी शक्ति के प्रति दिव्य प्रेम व्यक्त किया जाता है ।

बाउल संगीत में कुछ विशेष प्रकार के संगीत वाद्यों का प्रयोग होता है जैसे एकतारा, दोतारा, ढोल, मंजीरा इत्यादि। ये वाद्ययंत्र प्राकृतिक वस्तुओं जैसे मिट्टी, बांस, लकड़ी इत्यादि से बनाये जाते हैं। इनकी ध्‍वनियां मधुर होती हैं।

[भारत-दर्शन समाचार]


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शान्तिप्रसाद वर्मा के दो गद्य गीत - शान्तिप्रसाद वर्मा

दो आँखें

प्रियतम, इन दो आँखों में तुमने अपनी सारी मदिरा उँडेल दी ! तुम्हारे रूप की सुधा का पान करने के लिए हृदय सिमिट कर इन दो आँखों में आ बैठा है। तुम्हारे सौंदर्य का संगीत सुनने के लिए कान खिसक कर आँखों के अन्तस्तल में छिपे हैं। नेत्र वंचित ये दोनों पलकें तुम्हारे अनन्त लावण्य का केवल अनुभव कर बेसुध पड़े हैं।

यदि आँखों को बन्द करता हूँ तो तुम्हारे खो जाने का भय हो जाता है। यदि आँखों को खुला रहने देता हूँ तो अपने खो जाने का भय हो जाता है। विकराल वासनाएँ पिघल कर इन दो आँखों में आ बसी हैं। आज इनमें कामना की ज्वाला धधक रही है।

प्रियतम, प्रतीक्षा की चिर-जागृति से प्रज्वलित इन दो आँखों में तुम बैठो तो मैं अपने भीगी पलकों को बन्द कर चिर-निद्रा की विश्रान्ति में सो जाऊँ!

- शान्तिप्रसाद वर्मा
  [अक्टूबर 1919]......

 
 
होलिका-दहन | पृथ्वीराज चौहान का प्रश्न  - भारत दर्शन संकलन

एक समय राजा पृथ्वीराज चौहान ने अपने दरबार के राज-कवि चन्द से कहा कि हम लोगों में जो होली के त्योहार का प्रचार है, वह क्या है? हम सभ्य आर्य लोगों में ऐसे अनार्य महोत्सव का प्रचार क्योंकर हुआ कि आबाल-वृद्ध सभी उस दिन पागल-से होकर वीभत्स-रूप धारण करते तथा अनर्गल और कुत्सित वचनों को निर्लज्जता-पूर्वक उच्चारण करते है । यह सुनकर कवि बोला- ''राजन्! इस महोत्सव की उत्पत्ति का विधान होली की पूजा-विधि में पाया जाता है । फाल्गुन मास की पूर्णिमा में होली का पूजन कहा गया है । उसमें लकड़ी और घास-फूस का बड़ा भारी ढेर लगाकर वेद-मंत्रो से विस्तार के साथ होलिका-दहन किया जाता है । इसी दिन हर महीने की पूर्णिमा के हिसाब से इष्टि ( छोटा-सा यज्ञ) भी होता है । इस कारण भद्रा रहित समय मे होलिका-दहन होकर इष्टि यज्ञ भी हो जाता है । पूजन के बाद होली की भस्म शरीर पर लगाई जाती है ।

होली के लिये प्रदोष अर्थात् सायंकाल-व्यापनी पूर्णिमा लेनी चाहिये और उसी रात्रि में भद्रा-रहित समय में होली प्रज्वलित करनी चाहिये । फाल्गुण की पूर्णिमा के दिन जो मनुष्य चित्त को एकाग्र करके हिंडोले में झूलते हुए श्रीगोविन्द पुरुषोत्तम का दर्शन करता है, वह निश्चय ही बैकुण्ठ में जाता है । यह दोलोत्सव होली होने के दूसरे दिन होता है । यदि पूर्णिमा की पिछली रात्रि मे होली जलाई जाए, तो यह उत्सव प्रतिपदा को होता है और इसी दिन अबीर गुलाल की फाग होती है । उपर्युक्त कारणों के अतिरिक्त इस फाल्गुणी पूर्णिमा के दिन चतुर्दश मनुओं में से एक मनु का भी जन्म है । इस कारण यह मन्वादी तिथि भी है । अत: उसके उपलक्ष्य में भी उत्सव मनाया जाता है । कितने ही शास्त्रकारों ने तो संवत् के आरम्भ एवं बसंतागमन के निमित्त जो यज्ञ किया जाता है, और जिसके द्वारा अग्नि के अधिदेव-स्वरूप का पूजन होता है, वही पूजन इस होलिका का माना है इसी कारण कोई-कोई होलिका-दहन को संवत् के आरम्भ में अग्रि-स्वरूप परमात्मा का पूजन मानते हैं ।

भविष्य-पुराण में नारदजी ने राजा युधिष्ठिर से होली के सम्बन्ध में जो कथा कही है, वह उक्त ग्रन्थ-कथा के अनुसार इस प्रकार है -

नारदजी बोले- हे नराधिप! फाल्गुण की पूर्णिमा को सब मनुष्यों के लिये अभय-दान देना चाहिये, जिससे प्रजा के लोग निश्शंक होकर हँसे और क्रीड़ा करें । डंडे और लाठी को लेकर वाल शूर-वीरों की तरह गाँव से बाहर जाकर होली के लिए लकड़ों और कंडों का संचय करें । उसमें विधिवत् हवन किया जाए। वह पापात्मा राक्षसी अट्टहास, किलकिलाहट और मन्त्रोच्चारण से नष्ट हो जाती है । इस व्रत की व्याख्या से हिरण्यकश्यपु की भगिनो और प्रह्लाद की फुआ, जो प्रहलाद को लेकर अग्नि मे वैठी थी, प्रतिवर्ष होलिका नाम से आज तक जलाई जाती है ।

हे राजन्! पुराणान्तर में ऐसी भी व्याख्या है कि ढुंढला नामक राक्षसी ने शिव-पार्वती का तप करके यह वरदान पाया था कि जिस किसी बालक को वह पाए खाती जाए । परन्तु वरदान देते समय शिवजी ने यह युक्ति रख दी थी कि जो बालक वीभत्स आचरण एवं राक्षसी वृत्ति में निर्लज्जता-पूर्वक फिरते हुए पाए जाएंगे, उनको तू न खा सकेगी । अत: उस राक्षसी से बचने के लिये बालक नाना प्रकार के वीभत्स और निर्लज्ज स्वांग वनाते और अंट-संट बकते हैं ।

हे राजन्! इस हवन से सम्पूर्ण अनिष्टों का नाश होता है और यही होलिका-उत्सव है । होली को ज्वाला की तीन परिक्रमा करके फिर हास-परिहास करना चाहिए । ''

कवि चंद की कही हुई इस कथा को सुनकर राजा पृथ्वीराज बहुत प्रसन्न हुए ।

[साभार - हिंदुओं के व्रत और त्योहार]

 


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होली के गीत  - भारत दर्शन संकलन

त्योहारों को आधार बनाकर गीत लेखन की परम्परा हमारे देश में अत्यन्त प्राचीन है। भारतवर्ष के प्रत्येक क्षेत्र में प्रारम्भ से ऐसे गीतों की रचना की जाती है जो विभिन्न त्योहारों के अवसर पर गाए जाते हैं।

यहाँ विभिन्न प्रदेशों में होली के अवसर पर गाये जाने वाले गीतों को संकलित करने का प्रयास किया गया है।


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भारतवर्ष - श्रीधर पाठक

जय जय प्यारा भारत देश।
जय जय प्यारा जग से न्यारा,......

 
 
भारत माँ की लोरी - देवराज दिनेश

यह कैसा कोलाहल, कैसा कुहराम मचा !
है शोर डालता कौन आज सीमाओं पर ?......

 
 
मरना होगा | कविता - जगन्नाथ प्रसाद 'अरोड़ा'

कट कट के मरना होगा।

आओ वीरो मर्द बनो अब जेल तुम्हे भरना होगा । ।......

 
 
न्यूज़ीलैंड की हिंदी पत्रकारिता - रोहित कुमार 'हैप्पी'

यूँ तो न्यूजीलैंड में अनेक पत्र-पत्रिकाएँ समय-समय पर प्रकाशित होती रही हैं। सबसे पहला प्रकाशित पत्र था 'आर्योदय' जिसके संपादक थे श्री जे के नातली, उप संपादक थे श्री पी वी पटेल व प्रकाशक थे श्री रणछोड़ के पटेल। भारतीयों का यह पहला पत्र 1921 में प्रकाशित हुआ था परन्तु यह जल्दी ही बंद हो गया।

एक बार फिर 1935 में 'उदय' नामक पत्रिका श्री प्रभु पटेल के संपादन में आरम्भ हुई जिसका सह-संपादन किया था कुशल मधु ने। पहले पत्र की भांति इस पत्रिका को भी भारतीय समाज का अधिक सहयोग नहीं मिला और पत्रिका को बंद कर देना पड़ा।

उपरोक्त दो प्रकाशनों के पश्चात लम्बे अंतराल तक किसी अन्य भारतीय पत्र-पत्रिका का प्रकाशन नहीं हुआ। 90 के दशक में पुनः संदेश नामक पत्र अँग्रेज़ी में प्रकाशित हुआ व कुछ अंकों के प्रकाशन के बाद बंद हो गया। इसके बाद द इंडियन टाइम्स, इंडियन पोस्ट, पेस्फिक स्टार, ईस्टएंडर और द फीजी-इंडिया एक्सप्रैस का प्रकाशन हुआ किन्तु एक के बाद एक बंद हो गए।

90 के दशक में आई इन पत्र-पत्रिकाओं में से अधिकतर बंद हो गई। न्यूजीलैंड की भारतीय पत्रकारिता में हिन्दी का अध्याय 1996 में 'भारत-दर्शन' पत्रिका के प्रकाशन से आरम्भ हुआ। 1921 से 90 के दशक का न्यूजीलैंड भारतीय पत्रकारिता के इतिहास का गहन अध्ययन करने के पश्चात पुनः एक हिन्दी लेखक व पत्रकार ने 'भारत-दर्शन' पत्रिका के प्रकाशन व संपादन का बीड़ा उठाया। न्यूजीलैंड भारतीय पत्रकारिता में हिन्दी प्रकाशन का अध्याय यद्यपि द इंडियन टाइम्स में 1993 में हस्तलिखित हिन्दी रिर्पोटों के प्रकाशन से आरम्भ होता है तथापि वास्तविक हिन्दी प्रकाशन का श्रेय 'भारत-दर्शन' पत्रिका (1996) को जाता है चूंकि यही पत्रिका पूर्ण रूप से न्यूजीलैंड का पहला हिन्दी प्रकाशन कहा जा सकता है।

हिन्दी भाषा का प्रेम व भारतीय समाज की आवश्यकताओं हेतु यह नन्हीं सी पत्रिका निरंतर प्रयासरत रहती है। बिना किसी सरकारी या गैर-सरकारी आर्थिक सहायता के पत्रिका का प्रकाशन यदि असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है लेकिन हिन्दी प्रेमियों का स्नेह हर दिन नई उर्जा उत्पन्न करता रहा है।

1997 में 'भारत-दर्शन' का इंटरनेट संस्करण उपलब्ध करवाया गया, इसके साथ ही पत्रिका को 'इंटरनेट पर विश्व की पहली हिन्दी साहित्यिक पत्रिका' होने का गौरव प्राप्त हुआ और विश्वभर में फैले भारतीयों ने 'भारत-दर्शन' की हिन्दी सेवा की सराहना की। 1997 में पहली बार सभी भारतीयों को 'भारतीय स्वतंत्रता दिवस के स्वर्ण जयंती समारोह' में इसी पत्रिका ने एक मंच प्रदान किया।

'इंटरनेट पर आधारित हिन्दी-टीचर' विकसित करके भारत-दर्शन ने हिन्दी जगत में एक नया अध्याय जोड़ा। हमारे लिए बडे़ गर्व कि बात है कि आज भारत-दर्शन विश्व के अग्रणी हिन्दी अन्तरजालों ( इंटरनेट साइट ) में से एक है। विश्व हिन्दी मानचित्र पर न्यूजीलैंड का नाम 'भारत-दर्शन' ने अंकित किया है।

पहली बार न्यूजीलैंड में 'दीवाली मेले' का आयोजन 1998 में महात्मा गांधी सेंटर में 'भारत-दर्शन' व एक गैर-भारतीय न्यूजीलैंडर के सह-आयोजन से आरम्भ हुआ जो बाद में इतना प्रसिद्व हुआ कि ऑकलैंड सिटी कौंसिल ने इसके प्रबंधन की जिम्मेवारी स्वयं उठा ली। 'भारत-दर्शन' के इस मेले के आयोजन का ध्येय हिन्दी व अन्य भाषाओं का प्रचार करना भी था।

हिन्दी का प्रचार-प्रसार करने में कुछ अन्य संस्थाओं में हिन्दी रेडियो तराना, अपना एफ एम, प्लैनेट एफ एम ( पूर्व में एक्सेस कम्युनिटी रेडियो ) और ट्रायंगल टी वी का योगदान भी सराहनीय रहा है।

- रोहित कुमार 'हैप्पी'


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साँप - अज्ञेय | सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन

साँप!
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मंत्र  - शैल चन्द्रा

नवनियुक्त क्लर्क हेमराज अपने अन्य बाबूओं की ठाठ-बाठ देख हतप्रभ था और अपनी दीनता पर मायूस।

बड़े बाबू ने उसके कान में एक मंत्र दिया। उस मंत्र का असर ऐसा हुआ कि हेमराज के भी ठाठ-बाठ हो गए। उसने सायकल छोड़ दी। अब वह बाइक से कार्यालय आने लगा।


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होली | बाल कविता - गीत माला

होली आई, होली आई,
रंग उड़ाती होली आई।......

 
 
स्वतंत्रता दिवस की पुकार  - अटल बिहारी वाजपेयी

पन्द्रह अगस्त का दिन कहता - आज़ादी अभी अधूरी है।
सपने सच होने बाक़ी हैं, राखी की शपथ न पूरी है॥

जिनकी लाशों पर पग धर कर आजादी भारत में आई।......

 
 
ग़ज़ल - शुभांगिनी कुमारी चन्द्रिका

रहा देखता जमाना


किससे करूँ शिकायत? और किससे दोस्ताना?......

 
 
बदनाम शायर - शुभांगिनी कुमारी 'चन्द्रिका'

बदनाम शायर हूँ मगर, मेरा भी कुछ ईमान है
हूँ इश्क में रुसवा मगर, मेरी नज्म ही पहचान है......

 
 
डोरी पर दुनिया - नम्रता सिंह

किस डोरी किस धागे से बंधे हैं हम ,
डोरी खिंचती भी नहीं और ढीली भी नहीं पड़ती.........

 
 
साहिब-ए-कमाल गुरूगोविन्द सिंह जी - बलजिन्द्र सिंह बराड़

गुरूगोविन्द सिंह जी

20 जनवरी 2021 (पौष शुक्ल सप्तमी) गुरू गोविन्द सिंह जयन्ती विशेष

"कलगीयां वालिया करां की सिफ्त तेरी । कागज कलम तों तुहाडा आकार वड्डा, सारी उम्र नां लथनां इनसानां तों, ईनसानी कौम उते तुहाडा उधार वड्डा।।"

अर्थात् गुरू गोविन्द सिंह जी के बारे में लिखना मुश्किल है क्योंकि इनके बहुरूपी बलिदानी पात्र को कागज कलम से नहीं उकेरा जा सकता। आपके एहसान का कर्ज इंसानी उम्र पर है हि इतना बड़ा की जो पूरी उम्र में नहीं उतारा जा सकता।

आपके जीवन के बारें में लिखते समय समझ नहीं आता है कि आपके जीवन के किस पक्ष के बारे में लिखा जाए! दशमेश पिता साहिबश्री गुरू गोबिन्द सिंह जी आप सर्ववंश दानी, संत सिपाही, महान योद्धा, सफल नेतृत्वकर्ता, सामाजिक-आध्यात्मिक-राजनैतिक चिंतक, श्रेष्ठ साहित्यकार, बहुभाषी विद्वान, दया-क्षमा-प्रेम-विनम्रता-परोपकार आदि उच्च मानवीय गुणों के मूर्तरूप, शरणदाता आदि सद्गुणों से विभूषित एक सम्पूर्ण व आदर्श व्यक्तित्व थे।

गुरू गोविन्द सिंह का संक्षिप्त परिचय

नाम : गोविन्द राय (गुरू गोविन्द सिंह)
पिता : हिन्द-ए-चादर (गुरू तेगबहादुर जी) ......

 
 
महाकाल लोक - डॉ राम प्रसाद प्रजापति

महाकाल लोक: कालगणना के प्राचीन केंद्र का वैभव और गौरव की पुनर्स्थापना

प्राचीन काल से उज्जैनी नगरी समृद्ध ज्ञान परंपरा और कालगणना का केंद्र रही है। प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के द्वारा महाकाल लोक के लोकार्पण ने पुनः महाकाल नगरी को काल के निर्धारण का केंद्र मानते हुए वैज्ञानिकों और ज्योतिषियों को ग्रीनविच माध्य समय (जीएमटी) के स्थान महाकाल माध्य समय (एमएमटी) तय करने के लिए आगे आने का अप्रत्यक्ष रूप से आव्हान किया है। प्रधानमंत्री ने कहा--

"शिवम् ज्ञानम्' इसका अर्थ है शिव ही ज्ञान है और ज्ञान ही शिव है| शिव के दर्शन में ही ब्रह्मांण्ड का सर्वोच्च दर्शन है| आजादी के अमृतकाल में भारत ने गुलामी की मानसिकता से मुक्ति और अपनी विरासत पर गर्व जैसे पंच प्राण का आहृवान किया है| इसलिए आज अयोध्या में भव्य श्रीराम मंदिर का निर्माण पूरी गति से हो रहा है| काशी में विश्वनाथ धाम भारत की संस्कृति का गौरव बढ़ा रहा है।"

प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में उज्जैन में महाकाल लोक का लोकार्पण किया है। भौगोलिक, धार्मिक और सांस्कृतिक रूप से उज्जैन का महत्व प्राचीन काल से रहा है और इसे कालगणना का केंद्र माना गया है। प्राचीनकाल से यह नगरी ज्योतिष का प्रमुख केन्द्र रही है। खगोलशास्त्रियों की मान्यता है कि यह उज्जैन नगरी पृथ्वी और आकाश की सापेक्षता में ठीक मध्य में स्थित है। कालगणना के शास्त्र के लिए इसकी यह स्थिति सदा उपयोगी रही है। इसलिए इसे पूर्व से ‘ग्रीनविच’ के रूप में भी जाना जाता है। प्राचीन भारत की ‘ग्रीनविच’ यह नगरी देश के मानचित्र में 23.9 अंश उत्तर अक्षांश एवं 74.75 अंश पूर्व रेखांश पर समुद्र तल से लगभग 1621 फीट ऊंचाई पर बसी है। इसी भौगोलिक स्थिति के कारण इसे कालगणना का केंद्र बिंदु कहा जाता है और यही कारण है कि जिसके प्रमाण में राजा जयसिंह द्वारा स्थापित वेधशाला आज भी इस नगरी को कालगणना के क्षेत्र में अग्रणी सिद्ध करती है। कालगणना का केंद्र होने के साथ-साथ ईश्वर आराधना का तीर्थस्थल होने से इसका महत्व और भी बढ़ गया। पद्मश्री डॅा. विष्णुश्रीधर वाकणकर ने महाकाल वन में उज्जैन की महिदपुर तहसील स्थित डोंगला में सूर्य के उत्तर दिशा का अंतिम समपाद बिंदु खोजा और बताया कि उज्जैन प्राचीन भारत में खगोलीय अध्ययन का स्थान रहा है और अधिकांश वैदिक गणना उज्जैन में कर्क रेखा के स्थान पर आधारित थी ।

यह सर्वविदित है की भारत में वैदिक काल में एक समृद्ध और विविध सांस्कृतिक और सुस्थापित पारंपरिक वैज्ञानिक ज्ञान प्रणाली थी। हमारे वेद इस ब्रह्मांड के विकास की उत्पत्ति की व्याख्या करने के लिए उपयोगी हैं। "नासदीय सूक्त" जो की ऋग्वेद के 10 वें मंडल (10:129) का 129 वां सूक्त है, यह ब्रह्मांड विज्ञान और ब्रह्मांड के विकास से संबंधित है। इसके अलावा, "पुरुष सूक्तम" ऋग्वेद का 10.90 सूक्त है, जो पुरुष को समर्पित है, "ब्रह्मांडीय प्राणी जो "पुरुष सूक्त संहिता" में ब्रह्मांड के विस्तार में सर्वोच्च सर्वशक्तिमान शक्ति की भूमिका की व्याख्या करता है। हमारे प्राचीन ऋषियों ने श्लोक और सूक्ति के माध्यम से कई वैज्ञानिक घटनाओं को वैज्ञानिक तरीकों से समझाया हैं। महर्षि कणाद ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ "वैशेषिक सूत्र" में 600 ईसा पूर्व के आसपास सबसे पहले परमाणुवाद के सिद्धांत, गति के नियमों की अवधारणा, अंतरिक्ष और समय की अवधारणा, तरलता के नियम आदि प्रतिपादित किये। बाद में 450-800 ईस्वी के मध्य भारतीय खगोलशास्त्री और गणितज्ञ आर्यभट्ट, वराहमिहिर और ब्रह्मगुप्त ने सौर मंडल, ग्रहों की गति, पृथ्वी और सूर्य के बीच की दूरी को समझने के लिए मूलभूत गणितीय गणनाओं को आगे बढ़ाया। पृथ्वी और चंद्रमा के बीच की दूरी, अपनी धुरी के चारों ओर पृथ्वी का घूमना, पाई की गणना, शून्य की खोज, खगोल भौतिकी और गणित के कई और महत्वपूर्ण सिद्धांत दिए जो आज की आधुनिक वैज्ञानिक उपकरणों के साथ की गयी गणनाओं के सामानांतर पायी गयी है।

खगोल विज्ञान और गणित प्राचीन काल से वेदों के अंग रहे हैं और ऋग्वेद, शतपथ ब्राह्मण और अन्य पुस्तकों में चर्चा की गई है। प्राचीन साहित्य में सितारों, चंद्र और सौर महीनों, ऋतुओं के परिवर्तन, सूर्य, युग की इकाई (कल्प) आदि के बारे में विस्तृत जानकारी दी गई है। 525 ई. के आसपास आर्यभट्ट ने पाटलिपुत्र की वेधशाला में खगोल विज्ञान के क्षेत्र में काम किया और कई महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले। उन्होंने नादिवलय यंत्र, यष्टि यंत्र, घटी यंत्र, चक्र यंत्र, शंकु यंत्र आदि का वर्णन किया है। प्राचीन खगोल विज्ञान में प्रकाश की गति की सटीक गणना योजना और निमेश इकाइयों में मापी जाती है। आर्यभट्ट ने गुरुत्वाकर्षण खींचने, पृथ्वी के घूमने, पृथ्वी के गोल आकार की अवधारणाओं पर सफलतापूर्वक चर्चा की। आर्यभटीय गोलापाद में सूर्योदय और सूर्यास्त की व्याख्या की गई है। आर्यभट्ट ने कहा कि ग्रहण पृथ्वी पर चंद्रमा की छाया के कारण होता है न कि राहु और केतु के कारण । आर्यभट्ट ने सूर्य और अन्य ग्रहों के बीच की सही दूरी भी मापी है। आर्यभट्ट का सबसे लोकप्रिय सिद्धांत सूर्य का हेलियोसेंट्रिक मॉडल है जिसमें उन्होंने पहली बार दिखाया कि सभी ग्रह सूर्य के चारों ओर घूमते हैं। उन्होंने ग्रीक खगोलविदों टॉलेमी के भू-केंद्रीय मॉडल को खारिज कर दिया। आर्यभट के अनुसार सूर्य सौरमंडल के केंद्र में स्थित है और पृथ्वी सहित बाकी ग्रह इसकी परिक्रमा करते हैं। आर्यभट्ट ने त्रिभुजों और वृत्तों के क्षेत्रफलों की गणना के लिए भी सही सूत्र निकाले। उन्होंने साइन की तालिका के निर्माण और शून्य की खोज करने में भी बहुत प्रमुख भूमिका निभाई। आर्यभत्र ने तारों से सापेक्ष पृथ्वी के घूमने की गति को नापते हुए कहा था कि एक दिन की लंबाई 23 घंटे 56 मिनट और 4.1 सेकंड है, जो वास्तव में केवल 0.86 सेकंड कम है। आर्यभट्ट से पहले भी कई यूनानियों, यूनानी और भारतीय वैज्ञानिकों ने एक दिन की अवधि बता दी थी लेकिन वे आर्यभट्ट की गणना के अनुसार सटीक नहीं थे।

बाद में उज्जैन के कायथा में जन्मे खगोलविद वराहमिहिर ने उज्जैन में खगोल वेधशाला का निर्माण करवाया था जिसमें उन्होंने खगोल विज्ञान के क्षेत्र में आर्यभट्ट के ज्ञान का उपयोग करते हुए कई महत्वपूर्ण गणितीय सूत्र तैयार किए। वराहमिहिर ने प्रस्तावित किया कि चंद्रमा और ग्रह अपने स्वयं के प्रकाश के कारण नहीं बल्कि सूर्य के प्रकाश के कारण चमकदार हैं। वराहमिहिर का पंच सिद्धांत-टिका आर्यभट्ट के समय से पहले हिंदू खगोल विज्ञान के इतिहास के लिए सबसे महत्वपूर्ण स्रोतों में से एक है। विद्वानों का मत है कि वराहमिहिर ने "मेरु स्तम्भ" का निर्माण किया था, जो वर्तमान में कुतुब मीनार के रूप में प्रसिद्ध है | समाज के बीच हमारे प्राचीन वैज्ञानिकों के योगदान को वैज्ञानिक तथ्यों के साथ और सही दिशा में शोध करना बहुत महत्वपूर्ण है। लगभग 600 ईस्वी तक भारत में गणितीय खोजों के लिए सभी सामग्री मौजूद थी। भारतीय खगोल विज्ञान और गणित की नींव मजबूत और बुनियादी रूप से समृद्ध है। अगर हम शून्य की खोज की बात करें तो इसका इतिहास काफी लंबा है जिसे बख्शाली पांडुलिपि के रूप में जाना जाता है।

भारत अपने बौद्धिक ज्ञान, समृद्ध और विविध विरासत, संस्कृति और पारंपरिक मूल्यों के कारण विश्व-गुरु के रूप में जाना जाता था। हम अपने प्राचीन भारतीय गणितज्ञों और खगोलविदों द्वारा विज्ञान और गणित के मूलभूत नियमों को विकसित करने में दिए गए महत्वपूर्ण योगदान को याद करते हैं। वैदिक काल से ही हमारे प्राचीन ऋषियों ने विज्ञान, गणित, समाजशास्त्र, पर्यावरण आदि के क्षेत्र में कई मौलिक खोजें की हैं। इन खोजों ने आधुनिक दुनिया की नींव रखी है और दुनिया के वैज्ञानिकों को आगे बढ़ने का रास्ता दिखाया है। पश्चिमी देशों के वैज्ञानिकों द्वारा दिए गए सभी वैज्ञानिक सिद्धांतों के पीछे भारतीय विचार, दर्शन और वैज्ञानिक ज्ञान हैं। दुर्भाग्य से इन खोजों के लिए हमारे प्राचीन वैज्ञानिकों के योगदान को जानबूझकर नजरअंदाज किया गया है। हमारे ऋषियों द्वारा किए गए इस छिपे हुए ज्ञान को समाज के सामने लाना हमारा मुख्य कर्तव्य है।

भारत के प्रधानमंत्री के द्वारा महाकाल लोक के लोकार्पण ने पुनः हमें भारत की महानतम प्राचीन ज्ञान परंपरा के द्वारा विश्व गुरु बनने का शंखनाद किया है। महाकाल नगरी को पुनः काल के निर्धारण का केंद्र मानते हुए वैज्ञानिकों और ज्योतिषियों को ग्रीनविच माध्य समय (जीएमटी) के स्थान पर महाकाल माध्य समय (एमएमटी) निर्धारित करने के लिए विश्वभर में इस पर चर्चा कर इसके निर्धारण के लिए प्रयत्ननशील होने की आवश्यकता है।

- डॉ राम प्रसाद प्रजापति (प्रोफेसर)
  जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली

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भारत का स्वाधीनता यज्ञ और हिन्दी काव्य - डॉ शुभिका सिंह

"हिमालय के ऑंगन में उसे, प्रथम किरणों का दे उपहार।"

हम लगे जगाने विश्व, देश में फिर फैला आलोक,
व्योम तम पुंज हुआ तब नष्ट, अखिल संस्कृति हो उठी अशोक।"

परिवर्तन की जीवंत प्रक्रिया सतत् प्रवहमान है। संहार के बाद सृजन, क्रांति के बाद शांति और संघर्ष के बाद विमर्श का सिलसिला मानव के अन्तर्वाह्य जगत में चलता रहता है। मनुष्य का असन्तोष से भरा जीवन आजन्म संधर्ष की स्थिति को झेलता रहता है, लड़ाइयाँ लड़ता है, नयी व्यवस्था के निर्माण के लिए पुरानी व्यवस्था पर आघात करता है, इसी द्वन्द्व की स्थिति में वह जीता मरता रहता है। भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के निर्माण में व्यक्ति की यही संधर्षशील चेतना कार्यरत है। गुलामी के बन्धन को तोड़कर उन्मुक्त होने की कामना ने 1857 में क्रान्ति की नयी जमीन को खोज निकाला। इस क्रान्ति महायज्ञ में प्रथम आहुति देने वाले बलिया जनपद के हलद्वीप गाँव के ब्राह्यण कुलोत्पन्न पंडित मंगल पाण्डेय ने 8 अप्रैल 1857 को अपनी शहादत से स्वतन्त्रता का प्रथम दीप जलाया।

आजादी को लेकर देश में व्याप्त उथल-पुथल को हिन्दी कवियों ने अपनी कविता का विषय बनाकर साहित्य के क्षेत्र में दोहरे दायित्व का निर्वहन किया। स्वदेश व स्वधर्म की रक्षा के लिए कवि व साहित्यकार एक ओर तो राष्ट्रीय भावों को अपनी कविता का विषय बना रहे थे वही दूसरी ओर राष्ट्रीय चेतना को हवा दे रहे थे। कवि व साहित्यकार अपनी उर्वर प्रज्ञा भूमि के कारण युगीन समस्याओं के प्रति अधिक सावधान व संवेदनशील रहता है। स्वतन्त्रता आंदोलन के आरम्भ से लेकर स्वतन्त्रता प्राप्ति तक भिन्न-भिन्न चरणों में राष्ट्रीय भावनाओ से ओत-प्रोत कविताओं की कोख में स्वातन्त्र्य चेतना का विकास होता रहा। 'विप्लव गान' शीर्षक कविता में कवि की क्रान्तिकामना मूर्तिमान हो उठी है।

''कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ, जिससे उथल-पुथल मच जाये......

 
 
दो ग़ज़लें  - शांती स्वरुप मिश्र

शीशे का है दिल, ठोकर मत लगाना मुझको !
बाज़ारे इश्क़ में, तमाशा मत बनाना मुझको !

तुमको रखा है ख्वाबों सा पलकों में सजा के,......

 
 
मोल करेगा क्या तू मेरा? - भगवद्दत ‘शिशु'

मोल करेगा क्या तू मेरा?
मिट्‌टी का मैं बना खिलौना;......

 
 
प्रशांत के हिंदी साहित्यकार और उनकी रचनाएं - भारत-दर्शन

प्रशांत के साहित्यकार और उनकी रचनाएं
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खूनी पर्चा - जनकवि वंशीधर शुक्ल

अमर भूमि से प्रकट हुआ हूं, मर-मर अमर कहाऊंगा,
जब तक तुझको मिटा न लूंगा, चैन न किंचित पाऊंगा।......

 
 
वामनावतार कथा - पौराणिक - भारत-दर्शन संकलन


एक सौ  100 यज्ञ पूर्ण कर लेने पर दानवेन्द्र राजा बलि के  मन में स्वर्ग का प्राप्ति की इच्छा  बलवती हो गई तो का सिंहासन डोलने लगा।  इन्द्र आदि देवताओं ने भगवान विष्णु से रक्षा की प्रार्थना  की। भगवान ने वामन अवतार लेकर ब्राह्मण का वेष धारण कर लिया और  राजा बलि से भिक्षा मांगने पहुँच गए।  उन्होंने बलि से तीन पग भूमि भिक्षा में मांग ली।......

 
 
तुझे फिर किसका क्या डर है  - भगवद्दत ‘शिशु'

धूल और धन में जब समता,
जीवमात्र से है जब ममता ।......

 
 
दिन को भी इतना अंधेरा  - ज़फ़र गोरखपुरी

दिन को भी इतना अंधेरा है मिरे कमरे में
साया आते हुए डरता है मिरे कमरे में

ग़म थका-हारा मुसाफ़िर है चला जाएगा ......

 
 
न्यूज़ीलैंड के साहित्यकार और उनकी रचनाएं - रोहित कुमार हैप्पी

यहाँ न्यूज़ीलैंड के हिंदी लेखकों व कवियों की रचनाएँ जिनमें उनकी कविताएं, कहानियाँ व लघुकथाएँ सम्मिलित हैं, संकलित की गई हैं।

प्रीता व्यास

डॉ० पुष्पा भारद्वाज-वुड

शारदा मोंगा

राजीव वाधवा

रूपा सचदेव 

डॉ॰ सुनीता शर्मा

डॉ माधवी श्रीवास्तवा

महेन्द्र चन्द्र विनोद शर्मा

सुभाष मुनेश्वर

रोहित कुमार 'हैप्पी'

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राखी -भविष्य पुराण की कथा - भारत-दर्शन संकलन

भविष्य पुराण की एक कथा के अनुसार  एक बार देवता और दैत्यों  (दानवों ) में बारह वर्षों तक युद्ध हुआ परन्तु देवता विजयी नहीं हुए। इंद्र हार के भय से दु:खी होकर  देवगुरु बृहस्पति के पास विमर्श हेतु गए। गुरु बृहस्पति के सुझाव पर इंद्र की पत्नी महारानी शची ने श्रावण शुक्ल पूर्णिमा के दिन विधि-विधान से व्रत  करके रक्षासूत्र   तैयार किए और  स्वास्तिवाचन के साथ ब्राह्मण की उपस्थिति में  इंद्राणी ने वह सूत्र  इंद्र की  दाहिनी कलाई में बांधा  जिसके फलस्वरुप इन्द्र सहित समस्त देवताओं की दानवों पर विजय हुई।
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आगे गहन अँधेरा - नेमीचन्द्र जैन

आगे गहन अँधेरा है मन‚ रुक रुक जाता है एकाकी
अब भी हैं टूटे प्राणों में किस छवि का आकर्षण बाक़ी?......

 
 
चेहरा जो किसी शख्स का... - नरोत्तम शर्मा

चेहरा जो किसी शख्स का दिखता है सभी को
अक्सर वह उसी शख्स का चेहरा नहीं होता

कोई तो सुनेगा जिसे गम अपना सुना दें......

 
 
अभिषेक कुमार सिंह की दो ग़ज़लें - अभिषेक कुमार सिंह

दो ग़ज़लें

चाँद के जैसे बहुत दूर नज़र आती है
आजकल जिंदगी मुश्किल से इधर आती है

तेरी खामोशी ही भारी है सभी चीखों पर......

 
 
रक्षाबंधन -महाभारत संबंधी कथा - भारत-दर्शन संकलन

 

महाभारत काल में द्रौपदी द्वारा श्री कृष्ण को तथा कुन्ती द्वारा अभिमन्यु को राखी बांधने के वृत्तांत मिलते हैं।
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जबसे लिबासे-शब्द मिले - दीपशिखा सागर

जबसे लिबासे-शब्द मिले दर्द को मेरे
ग़ज़लें हुईं गमों का हैं त्यौहार क्या करूँ

टेढ़ी निगाह मुझ पे मुक़द्दर की ही रही......

 
 
फीजी के हिंदी साहित्यकार और उनकी रचनाएं - भारत-दर्शन

फीजी के साहित्यकार और उनकी रचनाएं
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राखी | रक्षा बंधन का ऐतिहासिक प्रसंग - भारत-दर्शन संकलन


राजपूत जब लड़ाई पर जाते थे तब महिलाएं उनको माथे पर कुमकुम तिलक लगाने के साथ-साथ हाथ में रेशमी धागा भी बाँधती थी। इस विश्वास के साथ कि यह धागा उन्हें विजयश्री के साथ वापस ले आएगा।......

 
 
पांच पर्वों का प्रतीक है दिवाली | दिवाली लेख  - लेख

त्योहार या उत्सव हमारे सुख और हर्षोल्लास के प्रतीक है जो परिस्थिति के अनुसार अपने रंग-रुप और आकार में भिन्न होते हैं। त्योहार मनाने के विधि-विधान भी भिन्न हो सकते है किंतु इनका अभिप्राय आनंद प्राप्ति या किसी विशिष्ट आस्था का संरक्षण होता है। सभी त्योहारों से कोई न कोई पौराणिक कथा अवश्य जुड़ी हुई है और इन कथाओं का संबंध तर्क से न होकर अधिकतर आस्था से होता है। यह भी कहा जा सकता है कि पौराणिक कथाएं प्रतीकात्मक होती हैं।

कार्तिक मास की अमावस्या के दिन दिवाली का त्योहार मनाया जाता है। दिवाली को दीपावली भी कहा जाता है। दिवाली एक त्योहार भर न होकर, त्योहारों की एक श्रृंखला है। इस पर्व के साथ पांच पर्वों जुड़े हुए हैं। सभी पर्वों के साथ दंत-कथाएं जुड़ी हुई हैं। दिवाली का त्योहार दिवाली से दो दिन पूर्व आरम्भ होकर दो दिन पश्चात समाप्त होता है।

दिवाली का शुभारंभ कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष त्रयोदशी के दिन से होता है। इसे धनतेरस कहा जाता है। इस दिन आरोग्य के देवता धन्वंतरि की आराधना की जाती है। इस दिन नए-नए बर्तन, आभूषण इत्यादि खरीदने का रिवाज है। इस दिन घी के दिये जलाकर देवी लक्ष्मी का आहवान किया जाता है।

दूसरे दिन चतुर्दशी को नरक-चौदस मनाया जाता है। इसे छोटी दिवाली भी कहा जाता है। इस दिन एक पुराने दीपक में सरसों का तेल व पाँच अन्न के दाने डाल कर इसे घर की नाली ओर जलाकर रखा जाता है। यह दीपक यम दीपक कहलाता है।

एक अन्य दंत-कथा के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण ने इसी दिन नरकासुर राक्षस का वध कर उसके कारागार से 16,000 कन्याओं को मुक्त कराया था।

तीसरे दिन अमावस्या को दिवाली का त्योहार पूरे भारतवर्ष के अतिरिक्त विश्वभर में बसे भारतीय हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं। इस दिन देवी लक्ष्मी व गणेश की पूजा की जाती है। यह भिन्न-भिन्न स्थानों पर विभिन्न तरीकों से मनाया जाता है।

दिवाली के पश्चात अन्नकूट मनाया जाता है। यह दिवाली की श्रृंखला में चौथा उत्सव होता है। लोग इस दिन विभिन्न प्रकार के व्यंजन बनाकर गोवर्धन की पूजा करते हैं।

शुक्ल द्वितीया को भाई-दूज या भैयादूज का त्योहार मनाया जाता है। मान्यता है कि यदि इस दिन भाई और बहन यमुना में स्नान करें तो यमराज निकट नहीं फटकता।

दिवाली भरत में बसे कई समुदायों में भिन्न कारणों से प्रचलित है। दीपक जलाने की प्रथा के पीछे अलग-अलग कारण या कहानियाँ हैं।

राम भक्तों के अनुसार दिवाली वाले दिन अयोध्या के राजा राम लंका के अत्याचारी राजा रावण का वध कर के अयोध्या लौटे थे। उनके लौटने कि खुशी यह पर्व मनाया जाने लगा।

कृष्ण भक्तों की मान्यता है कि इस दिन भगवान श्री कृण्ण ने अत्याचारी राजा नरकासुर का वध किया था। इस नृशंस राक्षस के वध से जनता में अपार हर्ष फैल गया और लोगों ने प्रसन्नतापूर्वक घी के दीये जलाए।

एक पौराणिक कथा के अनुसार विंष्णु ने नरसिंह रुप धारणकर हिरण्यकश्यप का वध किया था तथा इसी दिन समुद्रमंथन के पश्चात देवी लक्ष्मी व भगवान धन्वंतरि प्रकट हुए।

जैन मतावलंबियों के अनुसार चौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी का निर्वाण दिवस भी दीपावली को ही हुआ था।

बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध के अनुयायियों ने 2500 वर्ष पूर्व गौतम बुद्ध के स्वागत में लाखों दीप जला कर दीपावली मनाई थी। दीपावली मनाने के कारण कुछ भी रहे हों परंतु यह निश्चित है कि यह वस्तुत: दीपोत्सव है।

सिक्खों के लिए भी दिवाली महत्वपूर्ण है क्योंकि इसी दिन अमृतसर में स्वर्ण मन्दिर का शिलान्यास हुआ था और दिवाली ही के दिन सिक्खों के छ्टे गुरु हरगोबिन्द सिंह जी को कारागार से रिहा किया गया था।

नेपालियों के लिए यह त्योहार इसलिए महान है क्योंकि इस दिन से नेपाल संवत में नया वर्ष आरम्भ होता है।


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राखी | चंद्रशेखर आज़ाद का प्रसंग  - भारत-दर्शन संकलन


बात उन दिनों की है जब क्रांतिकारी चंद्रशेखर आज़ाद स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत थे और फ़िरंगी उनके पीछे लगे थे। ......

 
 
राखी | साहित्यिक संदर्भ  - भारत-दर्शन संकलन


अनेक साहित्यिक ग्रंथों में रक्षाबंधन के पर्व का विस्तृत वर्णन मिलता है। हरिकृष्ण प्रेमी  के ऐतिहासिक नाटक,  'रक्षाबंधन' का 98वाँ संस्करण प्रकाशित हो चुका है। मराठी में शिंदे साम्राज्य के विषय में लिखते हुए रामराव सुभानराव बर्गे ने भी एक नाटक लिखा है जिसका शीर्षक है 'राखी उर्फ रक्षाबंधन'।  

हिंदी कवयित्रि, 'महादेवी वर्मा' व 'निराला' का भाई-बहन का स्नेह भी सर्वविदित है। निराला महादेवी के मुंहबोले भाई थे व रक्षाबंधन कभी न भुलते थे।

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15 अगस्त - स्वतंत्रता दिवस - राष्ट्रीय पोर्टल


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फिल्मों में रक्षा-बंधन - भारत-दर्शन संकलन

'राखी' और 'रक्षा-बंधन' पर अनेक फ़िल्में बनीं और अत्यधिक लोकप्रिय हुई, इनमें से कुछ के गीत तो मानों अमर हो गए।  इनकी लोकप्रियता आज दशकों पश्चात् भी बनी हुई है।

बहन-भाई के स्नेह पर सबसे पुरानी और लोकप्रिय फिल्मों में से एक है 1959 में बनी 'छोटी बहन', जिसका गीत,  'भैया मेरे राखी के बंधन को निभाना'  आज तक जनमानस गुनगुनाता है।  
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क्या आप जानते हैं? - भारत-दर्शन संकलन

भारत ने दुनिया को बहुत कुछ दिया और भारत ने अपने 10 हजार वर्षों के इतिहास में, सक्षम होते हुए भी कभी किसी अन्य देश पर आक्रमण नही किया। आइए, भारत के बारे में कुछ जानें:

भारतीय सँस्कृति व सभ्यता विश्व की पुरातन में से एक है।

भारत दुनिया का सबसे पुरातन व सबसे बड़ा लोकतंत्र है।

भारत ने शून्य की खोज की। अंकगणित का आविष्कार 100 ईसा पूर्व भारत मे हुआ था।

हमारी संस्कृत भाषा सभी भाषाओं की जननी मानी जाती है। सभी यूरोपीय भाषाएँ संस्कृत पर आधारित मानी जाती है।

सँसार का प्रथम विश्वविद्यालय 700 ई.पू. तक्षशिला में स्थापित की गई थी। तत्पश्चात चौथी शताब्दी में नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना की गई।

5000 वर्ष पूर्व जब अन्य संस्कृतियां खानाबदोश व वनवासी जीवन जी रहे थे तब भारतीयों ने सिंधु घाटी की सभ्यता में हड़प्पा संस्कृति की स्थापना की।

महर्षि सुश्रुत सर्जरी के आविष्कारक माने जाते हैं। 2600 साल पहले उन्होंने अपने समय के स्वास्थ्य वैज्ञानिकों के साथ प्रसव, मोतियाबिंद, कृत्रिम अंग लगाना, पत्थरी का इलाज और प्लास्टिक सर्जरी जैसी कई तरह की जटिल शल्य चिकित्सा के सिद्धांत प्रतिपादित किए।

ब्रिटिश राज से पहले तक भारत विश्व का सबसे समृद्ध राष्ट्र था व इसे,'सोने की चिड़िया' कहा जाता था।

आधुनिक भवन निर्माण पुरातन भारतीय वास्तु शास्त्र से प्रेरित है।

कुंग फू मूलत: एक बोधिधर्म नाम के बोद्ध भिक्षु के द्वारा विकसित किया गया था जो 500 ई के आसपास भारत से चीन गए।

वाराणसी अथवा बनारस दुनिया के सबसे प्राचीन नगरों में से एक है। महात्मा बुद्ध ने 500 ई.पू. बनारस की यात्रा की थी। बनारस विश्व का एकमात्र ऐसा प्राचीन नगर है जो आज भी अस्तित्व में है।

सबसे प्राचीन उपचार प्रणाली आयुर्वेद है। आयुर्वेद की खोज 2500 साल पहले की गई थी।

बीजगणित की खोज भारत में हुई।

रेखा गणित की खोज भारत में हुई थी।

शतरंज अथवा अष्टपद की खोज भारत मे हुई थी।

हिन्दू, बौद्ध, जैन अथवा सिख धर्मों का उदय भारत में हुआ।

कम्प्यूटर के लिए सबसे उपयुक्त भाषा भी संस्कृत ही मानी है।

[ भारत-दर्शन संकलन ]


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मुंशी प्रेमचंद - कलम का सिपाही - रोहित कुमार 'हैप्पी'

प्रेमचन्द का जन्म 31 जुलाई 1880 को बनारस शहर से चार मील दूर लमही गाँव में हुआ था। प्रेमचंद का वास्तविक नाम धनपत राय श्रीवास्तव था। केवल तेरह वर्ष की आयु में ही प्रेमचन्द ने लिखना आरंभ कर दिया था। आरम्भ में आपने कुछ नाटक लिखे फिर बाद में उर्दू में उपन्यास लिखना आरंभ किया। इस तरह आपका साहित्यिक सफर शुरु हुआ जो जीवन भर चलता रहा। प्रेमचंद को यूं तो उपन्यास-सम्राट कहा जाता है किंतु उन्हें कहानी-सम्राट कह देना भी पूर्णतया उचित होगा। प्रेमचंद की कहानियां जितनी लोकप्रिय हैं शायद ही किसी अन्य की हों!

प्रेमचंद' नाम रखने से पहले, सरकारी नौकरी करते हुए वे अपनी रचनाएं 'नवाब राय' के रूप में प्रकाशित करवाते थे, लेकिन जब सरकार ने उनका पहला कहानी-संग्रह, 'सोज़े वतन' जब्त किया, तब 'ज़माना' के संपादक मुंशी दयानरायन निगम की सलाह पर आपने अपना नाम परिवर्तित कर 'प्रेमचंद' रख लिया। सोजे-वतन के बाद आपकी सभी रचनाएं प्रेमचंद के नाम से ही प्रकाशित हुईं। अब धनपतराय/नवाबराय 'प्रेमचंद' के नाम से लिखने लगे और कालांतर में यही नाम प्रसिद्ध हुआ।

प्रेमचंद के लिए साहित्य व देश सर्वोपरि थे। पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी को लिखे एक पत्र में प्रेमचंद कहते हैं:

"हमारी और कोई इच्छा नहीं है। इस समय यही अभिलाषा है कि स्वराज की लड़ाई में हमें जीतना चाहिए। मैं प्रसिद्धि या सौभाग्य की लालसा के पीछे नहीं हूं। मैं किसी भी प्रकार से जिंदगी गुजार सकता हूं।

मुझे कार और बंगले की कामना नहीं है लेकिन मैं तीन-चार अच्छी पुस्तकें लिखना चाहता हूं, जिनमें स्वराज प्राप्ति की इच्छा का प्रतिपादन हो सके। मैं आलसी नहीं बन सकता। मैं साहित्य और अपने देश के लिए कुछ करने की आशा रखता हूं।"

हिंदी साहित्य ने कितने रचनाकार दिए किंतु जितना याद प्रेमचंद को किया जाता है और किसी को नहीं। उनका साहित्य दशकों बाद भी प्रासांगिक है, यही प्रेमचंद के साहित्य का मुख्य गुण है। प्रेमचंद समय की नब्ज को ख़ूब पढ़ना जानते थे।

प्रेमचंद ने आम आदमी तक पहुंचने की मंशा से 1934 में अजंता सिनेटोन फिल्म कंपनी से समझौता करके फिल्मी लेखन आरम्भ किया औेर इसके लिए वे बम्बई जा पहुंचे। उन्होंने 'शेर दिल औरत' और 'मिल मजदूर' दो कहानियां लिखीं। 'सेवा सदन' को भी पर्दे पर उतारा गया लेकिन प्रेमचंद मूलतः नि:स्वार्थी व्यक्ति थे। और फिल्म निर्माताओं का मुख्य उद्देश्य जनता का पैसा लूटना था व उनका यह ध्येय नहीं था कि वे जनजीवन में परिवर्तन करें। इसी कारण से शीघ्र ही प्रेमचंद का सिनेजगत से मोहभंग हो गया और वे 8 हजार रुपए वार्षिक आय को तिलांजलि देकर बम्बई से काशी आ गए।

प्रेमचंद का अधिकतर समय वाराणसी और लखनऊ में ही व्यतीत हुआ, जहां उन्होंने अनेक पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया और अपना साहित्य-सृजन करते रहे। 8 अक्टूबर, 1936 को बीमारी के बाद उनका देहावसान हो  गया।  

 भारत-दर्शन का यह अंक प्रेमचंद पर केंद्रित है यथा प्रेमचंद को प्रमुखता से प्रकाशित किया गया है।  इस अंक में प्रेमचंद की कहानियां, लघुकथाएँ, आलेख, संस्मरण व प्रेमचंद पर अन्य विद्वानों की राय आपको कैसी लगी, अवश्य बताएं। 


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तिरंगे का इतिहास - राष्ट्रीय पोर्टल

प्रत्‍येक स्‍वतंत्र राष्‍ट्र का अपना एक ध्‍वज होता है। यह एक स्‍वतंत्र देश होने का संकेत है। भारतीय राष्‍ट्रीय ध्‍वज की अभिकल्‍पना पिंगली वैंकैयानन्‍द ने की थी और इसे इसके वर्तमान स्‍वरूप में 22 जुलाई 1947 को आयोजित भारतीय संविधान सभा की बैठक के दौरान अपनाया गया था, जो 15 अगस्‍त 1947 को अंग्रेजों से भारत की स्‍वतंत्रता के कुछ ही दिन पूर्व की गई थी। इसे 15 अगस्‍त 1947 और 26 जनवरी 1950 के बीच भारत के राष्‍ट्रीय ध्‍वज के रूप में अपनाया गया और इसके पश्‍चात भारतीय गणतंत्र ने इसे अपनाया। भारत में ''तिरंगे'' का अर्थ भारतीय राष्‍ट्रीय ध्‍वज है।


भारतीय राष्‍ट्रीय ध्‍वज में तीन रंग की क्षैतिज पट्टियां हैं, सबसे ऊपर केसरिया, बीच में सफेद ओर नीचे गहरे हरे रंग की प‍ट्टी और ये तीनों समानुपात में हैं। ध्‍वज की चौड़ाई का अनुपात इसकी लंबाई के साथ 2 और 3 का है। सफेद पट्टी के मध्‍य में गहरे नीले रंग का एक चक्र है। यह चक्र अशोक की राजधानी के सारनाथ के शेर के स्‍तंभ पर बना हुआ है। इसका व्‍यास लगभग सफेद पट्टी की चौड़ाई के बराबर होता है और इसमें 24 तीलियां है।

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ऐ ज़िन्दगी मत पूछ - शांती स्वरूप मिश्र

ऐ ज़िन्दगी मत पूछ, कि कितना करम बाक़ी है !
कितने तूफ़ान आने हैं, और कितना ग़म बाक़ी है !

देखनी है अभी तो अपने परायों की असलियत भी, ......

 
 
हर एक चेहरे पर | ग़ज़ल - शांती स्वरूप मिश्र

हर एक चेहरे पर, मुस्कान मत खोजो !
किसी के नसीब का, अंजाम मत खोजो !

डूब चुका है जो गन्दगी के दलदल में,......

 
 
न जाने इस जुबां पे | ग़ज़ल - शांती स्वरूप मिश्र

न जाने इस ज़ुबां पे, वो दास्तान किसके हैं!
दिल में मचलते हुए, वो अरमान किसके हैं!

सोचता हूँ कि खाली है दिल का हर कोना......

 
 
अंतरराष्ट्रीय हिंदी कहानी प्रतियोगिता के परिणाम - भारत-दर्शन समाचार

World Hindi Secretariat, Mauritius

13 जनवरी 2020:  मॉरीशस में विश्व हिंदी सचिवालय ने 10 जनवरी 2020 को विश्व हिंदी दिवस समारोह के अवसर पर 'अंतरराष्ट्रीय हिंदी कहानी प्रतियोगिता' के परिणामों की घोषणा की।  विश्व हिंदी दिवस 2020 के उपलक्ष्य में सचिवालय ने 2019 में 'अंतरराष्ट्रीय हिंदी कहानी प्रतियोगिता' का आयोजन किया था। प्रतियोगिता को 5 भौगोलिक क्षेत्रों में बाँटा गया था:

1. अफ़्रीका व मध्य पूर्व
2. अमेरिका......

 
 
चेतावनी - हरिकृष्ण प्रेमी

है सरल आज़ाद होना,
पर कठिन आज़ाद रहना।  

राष्ट्र राष्ट्र से तूने कहा है......

 
 
तेरा हाल मुझसे - रोहित कुमार 'हैप्पी'

तेरा हाल मुझसे जो पूछा किसी ने
न मैं बोल पाया ना तू अब रही है ......

 
 
आप सूरज को जुगनू | ग़ज़ल  - रोहित कुमार हैप्पी

आप सूरज को जुगनू बता दीजिए 
इस तरह नाम उसका मिटा दीजिए

आपकी हों अदाएं अगर काम की 
तब फकीरों को इनसे रिझा दीजिए

कारगर होगी मेरी  दवा और दुआ 
खुलके दर्द अपना मुझको बता दीजिए

मुझको आती नहीं है नुमाइश मगर 
दर्द सीने में अपना सजा दीजिए 

अपने रस्ते नहीं, मंजिलें भी नहीं 
हाथ चाहो तो मुझको थमा दीजिए 

ज़ख्म आकर कुरेदेगा हर कोई ही   
आप चाहो तो मरहम लगा दीजिए 

तेरे कहने से सूरज ना जुगनू बने 
बाकी मर्जी हो जैसी बता दीजिए

-रोहित कुमार हैप्पी, न्यूज़ीलैंड
 ई-मेल: editor@bharatdarshan.co.nz


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पंचतत्र की कहानियां | Panchtantra - पंचतंत्र

संस्कृत नीतिकथाओं में पंचतंत्र सर्वप्रथम माना जाता है। यद्यपि यह पुस्तक अपने मूल रुप में नहीं रह गया है, फिर भी उपलब्ध अनुवादों के आधार पर इसकी मूल रचना तीसरी शताब्दी के आस-पास मान्य है। इस ग्रंथ के रचयिता पं. विष्णु शर्मा थे। कहा जाता है कि जब इस ग्रंथ की रचना पूरी हुई, तब उनकी अयु लगभग 80 वर्ष थी। पंचतंत्र को पाँच तंत्रों (भागों) में बाँटा गया है-

मित्रभेद

मित्रलाभ
संधि- विग्रह......

 
 
न्यूज़ीलैंड में हिंदी पत्रकारिता का इतिहास पुस्तक का विमोचन - भारत-दर्शन

10 जनवरी 2020 (वैलिंग्टन): 10 जनवरी को वैलिंग्टन में प्रवासी दिवस व विश्व हिंदी दिवस के उपलक्ष में आयोजित एक कार्यक्रम में भारत के उच्चायुक्त मुक्तेश परदेशी ने 'न्यूज़ीलैंड में हिंदी पत्रकारिता का इतिहास' पुस्तिका का विमोचन किया व इसके डिजिटल संस्करण को भी मोबाइल फोन द्वारा लोकार्पित किया गया। यह पुस्तिका ए5 आकार की है और इसमें 56 पृष्ठ हैं।  इसमें 1930 से अब तक का इतिहास उपलब्ध करवाया गया है। 

मुद्रित संस्करण का  विमोचन करते ही उच्चायुक्त मुक्तेश परदेशी ने पुस्तक पर दिया 'क्यूआर कोड' मोबाइल पर 'स्कैन' किया गया और यह पुस्तिका भारत-दर्शन द्वारा विकसित अतिआधुनिक 'डिजिटल पुस्तकालय' के माध्यम से उपलब्ध हो गई। यह डिजिटल पुस्तकालय अपनी तरह का अनूठा पुस्तकालय है जिसमें डेस्कटॉप के लिए 'फ्लिप बुक' और मोबाइल के लिए 'ई-बुक' का विकल्प उपलब्ध करवाया गया है।

इस समारोह का आयोजन भारतीय उच्चायोग और व वैलिंग्टन हिंदी स्कूल ने किया था।  इस अवसर पर भारत के उच्चायुक्त मुक्तेश परदेशी, द्वितीय सचिव परमजीत सिंह, भारत-दर्शन के संपादक रोहित कुमार 'हैप्पी' और वैलिंग्टन हिंदी स्कूल की संचालिका सुनीता नारायण उपस्थित थे।  इसे भारत-दर्शन के संपादक रोहित कुमार 'हैप्पी' ने लिखा है।

इस समारोह में पहले वैलिंग्टन हिंदी स्कूल की संचालिका सुनीता नारायण द्वारा 'हिंदी और इसका भविष्य' पर चर्चा-परिचर्चा हुई।  उन्होंने एक 'स्लाइड शो' के माध्यम से अपने आलेख का संक्षिप्त विवरण दिया। 
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मशगूल हो गए वो - रोहित कुमार 'हैप्पी'

मशगूल हो गए वो, सब जश्न मनाने में
मेरे पाँव में हैं छाले, घर चलकर जाने में

सुन! पेट नहीं भरता, कभी भाषण-नारों से ......

 
 
हितोपदेश - नारायण पंडित

हितोपदेश भारतीय जन-मानस तथा परिवेश से प्रभावित उपदेशात्मक कथाएँ हैं। इसकी रचना का श्रेय पंडित नारायण जी को जाता है, जिन्होंने पंचतंत्र तथा अन्य नीति के ग्रंथों की मदद से हितोपदेश नामक इस ग्रंथ का सृजन किया।

नीतिकथाओं में पंचतंत्र का पहला स्थान है। विभिन्न उपलब्ध अनुवादों के आधार पर इसकी रचना तीसरी शताब्दी के आस- पास निर्धारित की जाती है। हितोपदेश की रचना का आधार पंचतंत्र ही है। स्वयं पं. नारायण जी ने स्वीकार किया है--

पंचतंत्रान्तथाडन्यस्माद् ग्रंथादाकृष्य लिख्यते।

हितोपदेश की कथाएँ अत्यंत सरल व सुग्राह्य हैं। विभिन्न पशु-पक्षियों पर आधारित कहानियाँ इसकी खास-विशेषता हैं। रचयिता ने इन पशु- पक्षियों के माध्यम से कथाशिल्प की रचना की है। जिसकी समाप्ति किसी शिक्षापद बात से ही हुई है। पशुओं को नीति की बातें करते हुए दिखाया गया है। सभी कथाएँ एक- दूसरे से जुड़ी हुई प्रतीत होती है।


रचनाकार नारायण पंडित

हितोपदेश के रचयिता नारायण पंडित के नारायण भ के नाम से भी जाना जाता है। पुस्तक के अंतिम पद्यों के आधार पर इसके रचयिता का नाम""नारायण'' ज्ञात होता है।

नारायणेन प्रचरतु रचितः संग्रहोsयं कथानाम्

इसके आश्रयदाता का नाम धवलचंद्रजी है। धवलचंद्रजी बंगाल के माण्डलिक राजा थे तथा नारायण पंडित राजा धवलचंद्रजी के राजकवि थे। मंगलाचरण तथा समाप्ति श्लोक से नारायण की शिव में विशेष आस्था प्रकट होती है।

रचना काल

कथाओं से प्राप्त साक्ष्यों के विश्लेषण के आधार पर डा. फ्लीट कर मानना है कि इसकी रचना काल ११ वीं शताब्दी के आस- पास होना चाहिये। हितोपदेश का नेपाली हस्तलेख १३७३ ई. का प्राप्त है। वाचस्पति गैरोलाजी ने इसका रचनाकाल १४ वीं शती के आसपास माना है।

हितोपदेश की कथाओं में अर्बुदाचल (आबू) पाटलिपुत्र, उज्जयिनी, मालवा, हस्तिनापुर, कान्यकुब्ज (कन्नौज), वाराणसी, मगधदेश, कलिंगदेश आदि स्थानों का उल्लेख है, जिसमें रचयिता तथा रचना की उद्गमभूमि इन्हीं स्थानों से प्रभावित है।

हितोपदेश की कथाओं को इन चार भागों में विभक्त किया जाता है --

मित्रलाभ

सुहृद्भेद

विग्रह

संधि

इनसे जुड़ी हुई कुछ प्रसिद्ध कहानियाँ दी जा रही हैं।

 

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कनाडा में हिंदी शोधपत्र आमंत्रित  - भारत-दर्शन समाचार

पुस्तक भारती आमंत्रण
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वेस्टपैक न्यूजीलैंड ने एटीएम में हिंदी भाषा जोड़ी - भारत-दर्शन समाचार

Westpac NZ Adds Hindi

8 अप्रैल 2025 (न्यूजीलैंड) : वेस्टपैक एनजेड ने अपने नेटवर्क की सभी 373 एटीएम में हिंदी,टोंगन और समोअन भाषा के विकल्प उपलब्ध करवाए हैं।

वेस्टपैक एनजेड के हेड ऑफ कस्टमर एक्सपीरियंस नॉर्थ एंड्रयू ट्विडल का कहना है कि अपडेट का उद्देश्य उपभोक्ताओं को उनकी पसंद की भाषा में बेहतर सहायता प्रदान करना है।

ट्विडल कहते हैं, "न्यूजीलैंड एक बहुसांस्कृतिक समाज है, इसलिए हम यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि हम अपनी सेवाओं में इसे प्रतिबिंबित करें।"

"हमारे एटीएम में कुछ समय से अंग्रेजी, मैंडरिन और ते रेओ माओरी भाषा के विकल्प हैं और अब टोंगन, समोअन और हिंदी के जुड़ने से अधिक लोगों को सहायता प्रदान करने में सक्षम होना शानदार है।"

वेस्टपैक-ब्रांडेड एटीएम में अपना कार्ड डालने के बाद, उपभोक्ताओं को भाषा के विकल्प सहित कई विकल्प प्रस्तुत किए जाते हैं। एक बार जब वे अपनी स्वैच्छिक भाषा चुन लेते हैं, तो मेनू विकल्प उस भाषा में दिखाई देंगे।

भाषा विकल्प नियमित और स्मार्ट वेस्टपैक एटीएम दोनों पर उपलब्ध हैं, जिसका अर्थ है कि ग्राहक अपनी चुनी हुई भाषा में निकासी, जमा और शेष राशि की जांच करने के साथ-साथ बिलों का भुगतान भी कर सकते हैं।

"यह एक साधारण बदलाव की तरह लगता है, लेकिन हम जानते हैं कि यह कई कीवी लोगों के साथ-साथ हमारे देश के आगंतुकों के लिए एक सार्थक अंतर लाएगा,"  ट्विडल ने कहा।

"हम यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि हर कोई अपनी बैंकिंग आवश्यकताओं के लिए हमारे एटीएम का उपयोग करने के बारे में आश्वस्त महसूस करे।"

वेस्टपैक एटीएम अन्य NZ बैंकों के ग्राहकों के लिए उपयोग करने के लिए निःशुल्क हैं। विदेशी बैंकों के ग्राहकों के लिए शुल्क लागू हो सकता है।

एटीएम अपडेट वेस्टपैक के उन लोगों के लिए बैंकिंग को आसान बनाने के प्रयासों में नवीनतम पहल है जो अंग्रेजी में संवाद करना पसंद नहीं करते हैं।

पिछले साल बैंक ने 'इंटरप्रिटिंग सेवा लैंग्वेज लूप' के साथ साझेदारी शुरू की थी। इस सेवा का मतलब है कि अगर कोई ग्राहक किसी अन्य भाषा में संवाद करना पसंद करता है तो वेस्टपैक कर्मचारी तुरंत एक दुभाषिया को डायल कर सकते हैं, और कॉल का जवाब 1 मिनट से भी कम समय में दिया जाता है।

'लैंग्वेज लूप' हिंदी, समोआ, टोंगन और मंदारिन सहित 190 से ज़्यादा भाषाओं का समर्थन करता है। इस इंटरप्रिटिंग सेवा की शुरुआत के बाद से अब तक ग्राहकों ने इसका 350 से ज़्यादा बार इस्तेमाल किया है।

(भारत-दर्शन समाचार)


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ऑकलैंड में भारत का नया महावाणिज्य दूतावास  - भारत-दर्शन समाचार

ऑकलैंड में भारत के महावाणिज्य दूतावास का कार्यालय गुरुवार, 5 सितंबर 2024 से काम करेगा। श्री संजीव कुमार वाणिज्य दूत व सुश्री दिव्या, उप-वाणिज्य दूत के रूप में अपनी सेवाएँ देंगे। 

महावाणिज्य दूतावास

अस्थायी वाणिज्य दूतावास कार्यालय महात्मा गांधी केंद्र, 145 न्यू नॉर्थ रोड, ईडन टेरेस ऑकलैंड से संचालित रहेगा। 

कार्यालय सुबह 9.30 बजे से दोपहर 1.00 बजे आवेदन जमा करने और शाम को 4 से 5 बजे अपने  दस्तावेज प्राप्त करने के लिए खुला रहेगा। 

कार्यालय साप्ताहांत और सार्वजनिक अवकाश वाले दिन बंद रहेगा। वेबसाइट पर अवकाश वाले दिनों की जानकारी उपलब्ध है। 

दस्तावेज सत्यापन सेवाएं 5 सितंबर 2024 से प्रदान की जाएंगी। उच्चायोग शीघ्र ही अन्य कांसुलर सेवाएं शुरू करने के लिए अधिसूचना जारी करेगा जिनमें पासपोर्ट, वीज़ा, ओसीआई इत्यादि सम्मिलित हैं। 

वाणिज्य दूत को hoc.auckland@mea.gov.in और उप-वाणिज्य दूत को admn.auckland@mea.gov.in ईमेल पर संपर्क किया जा सकता है। 

भारतीय उच्चायोग, वेलिंगटन द्वारा जारी विज्ञप्ति के अनुसार, "नए आधिकारिक वाणिज्य दूतावास के खुलने पर ऑकलैंड के ओनिहंगा मॉल में स्थित मानद कौंसल कार्यालय की सेवाएं गुरुवार 5 सितंबर 2024 से बंद की जा रही हैं।" 

भारत के केंद्रीय मंत्रिमंडल ने 27 दिसंबर 2023 को ऑकलैंड में भारत का महावाणिज्य दूतावास खोलने के प्रस्ताव को मंजूरी दी थी। हाल ही में भारत की राष्ट्रपति ने भी अपने राजकीय दौरे के दौरान ऑकलैंड में शीघ्र ही भारत के महावाणिज्य दूतावास के खुलने की जानकारी दी थी। 

[भारत-दर्शन समाचार] 


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ऑकलैंड में पंडित सुगतो नाग का सितार वादन  - भारत-दर्शन समाचार

सुविख्यात सितार वादक, पंडित सुगतो नाग का कार्यक्रम 8 सितंबर की शाम को 5 बजे 'नाद कम्यूनिटी सेंटर ( 39, East Tamaki Road, Papatoetoe) में आयोजित किया जा रहा है। ऑकलैंड के स्थानीय कलाकार मंजीत सिंह तबले पर पंडित सुगतो नाग का साथ देंगे। 

Sitar Maestro Pt. Sugato Nag

यह कार्यक्रम नाद चैरिटेबल ट्रस्ट एवं नेशनल स्टील के सौजन्य से 'बैठक' के अंतर्गत आयोजित किया जा रहा है। नाद चैरिटेबल ट्रस्ट 'बैठक' कार्यक्रम के अंतर्गत समय-समय पर देश-विदेश के कलाकारों की न्यूज़ीलैंड में प्रस्तुति करवाता है। 

अधिक जानकारी व आरएसवीपी (RSVP) के लिए 021 595 941 पर संपर्क करें।

 


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राष्ट्रपति मुर्मु की तीन दिवसीय न्यूजीलैंड राजकीय यात्रा - रोहित कुमार हैप्पी

राष्ट्रपति मुर्मु की न्यूजीलैंड की तीन दिवसीय राजकीय यात्रा

राष्ट्रपति मुर्मु अपनी न्यूजीलैंड की तीन दिवसीय राजकीय यात्रा के दौरान 7 अगस्त 2024 को ऑकलैंड पहुँचीं। न्यूजीलैंड कृषि एवं वाणिज्य मंत्री टोड मैक्कले (Todd McClay) ने ऑकलैंड एअरपोर्ट पर न्यूज़ीलैंड सरकार की ओर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू का स्वागत किया। इस अवसर पर न्यूज़ीलैंड में भारत की उच्चायुक्त नीता भूषण ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की अगवानी की।

भारत की राष्ट्रपति न्यूजीलैंड की गवर्नर जनरल डेम सिंडी किरो के साथ

दूसरे दिन सुबह (8 अगस्त, 2024) राष्ट्रपति न्यूजीलैंड की राजधानी वेलिंगटन पहुंचीं, जहां गवर्नमेंट हाउस में न्यूजीलैंड की गवर्नर जनरल डेम सिंडी किरो ने राष्ट्रपति मुर्मु की अगवानी की। 

राष्ट्रपति का पारंपरिक माओरी स्वागत

राष्ट्रपति का पारंपरिक माओरी ‘पोफिरी’ समारोह के साथ स्वागत किया गया। 

Guard of Honour for President of India

पारंपरिक स्वागत समारोह के पश्चात राष्ट्रपति को रॉयल गार्ड ऑफ ऑनर दिया गया। 

 भारत की राष्ट्रपति न्यूजीलैंड की गवर्नर जनरल डेम सिंडी किरो के साथ

न्यूजीलैंड की गवर्नर जनरल एवं भारत की राष्ट्रपति मुर्मु के बीच द्विपक्षीय वार्ता हुई। इस बैठक के दौरान दोनों राजनेताओं ने भारत एवं न्यूजीलैंड के मैत्रीपूर्ण संबंधों की सराहना की और विभिन्न क्षेत्रों में परस्‍पर सहयोग पर चर्चा की। उन्होंने विशेषतः व्यापार और कारोबार के माध्यम से पारस्परिक रूप से लाभप्रद सहयोग और साझेदारियां सुनिश्चित करके भारत-न्यूजीलैंड आर्थिक संबंधों के दायरे को व्यापक बनाने के प्रयासों को जारी रखने की आवश्यकता पर भी सहमति प्रकट की।

न्यूजीलैंड अंतरराष्ट्रीय शिक्षा सम्मेलन को संबोधित करती भारत की राष्ट्रपति

राष्ट्रपति ने अपने अगले कार्यक्रम के अंतर्गत ‘न्यूजीलैंड अंतरराष्ट्रीय शिक्षा सम्मेलन’ को संबोधित किया। राष्ट्रपति ने अपने संबोधन के दौरान ज्ञान की खोज करने की समृद्ध भारतीय परंपरा और शिक्षा के क्षेत्र में हुई समकालीन प्रगति के बारे में विस्तार से बताया जिसमें ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति’ भी सम्मिलित है।  इसका उद्देश्य बहु-विषयक शिक्षा, गहन सोच, और वैश्विक स्‍तर पर प्रतिस्पर्धी क्षमता को बढ़ावा देकर भारतीय शिक्षा परिदृश्य में व्‍यापक बदलाव लाना है। 

राष्ट्रपति ने कहा कि न्यूजीलैंड अनुसंधान एवं नवाचार, समावेशिता और उत्कृष्टता पर ध्यान केंद्रित करते हुए अपनी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए प्रसिद्ध है। अनगिनत भारतीय विद्यार्थी न्यूजीलैंड के विभिन्न संस्थानों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। उन्होंने आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस एवं मशीन लर्निंग, व्यावसायिक व कौशल-आधारित प्रशिक्षण, जलवायु एवं पर्यावरण अध्ययन, सांस्कृतिक आदान-प्रदान कार्यक्रमों, अनुसंधान एवं नवाचार के क्षेत्रों में दोनों देशों के संस्थानों के बीच और अधिक शैक्षणिक आदान-प्रदान एवं परस्‍पर सहयोग को प्रोत्साहित किया।

न्यूजीलैंड के प्रधानमंत्री क्रिस्टोफर लक्सन की राष्ट्रपति से भेंट

न्यूजीलैंड के प्रधानमंत्री क्रिस्टोफर लक्सन ने भी राष्ट्रपति से भेंट की। दोनों राजनेताओं ने सांस्कृतिक संबंधों को प्रगाढ़ करने से लेकर क्षेत्रीय और वैश्विक सुरक्षा के प्रति कटिबद्धता वाले विभिन्न मुद्दों पर चर्चा की।

न्यूजीलैंड के विदेश मंत्री की राष्ट्रपति से भेंट

प्रधानमंत्री क्रिस्टोफर लक्सन से पहले न्यूजीलैंड के उप-प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री विंस्टन पीटर्स ने भी राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु से भेंट की। दोनों राजनेताओं ने द्विपक्षीय संबंधों में अब तक हुई प्रगति को स्वीकार किया और परस्‍पर सहयोग बढ़ाने के विषयों पर चर्चा की।

राष्ट्रपति ने वेलिंगटन रेलवे स्टेशन पर महात्मा गांधी की प्रतिमा पर पुष्पांजलि अर्पित की

राष्ट्रपति ने वेलिंगटन रेलवे स्टेशन पर महात्मा गांधी की प्रतिमा पर पुष्पांजलि अर्पित की। 

President Droupadi Murmu Pay tribute to the martyred soldiers at the Pukeahu National War Memorial in Wellington

महात्मा गांधी की प्रतिमा पर पुष्पांजलि अर्पित करने के बाद राष्ट्रपति ने वेलिंगटन में पुकेहू राष्ट्रीय युद्ध स्मारक पर शहीद सैनिकों को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए माल्‍यार्पण किया। गवर्नर जनरल डेम सिंडी किरो इन दोनों ही अवसरों पर माननीया राष्ट्रपति के साथ रहीं।

राष्ट्रपति के लिए आयोजित राजकीय रात्रिभोज

वेलिंगटन में अपने अंतिम आधिकारिक कार्यक्रम में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने अपने सम्मान में गवर्नर जनरल किरो द्वारा आयोजित रात्रिभोज में भाग लिया। इस अवसर पर अपने संबोधन में राष्ट्रपति ने कहा कि भारत और न्यूजीलैंड ने पिछले कुछ वर्षों में गर्मजोशीपूर्ण और मैत्रीपूर्ण जुड़ाव विकसित किया है, जो लोकतंत्र और कानून के शासन में निहित साझा मूल्यों पर आधारित है। दोनों ही देश विविधता और समावेशिता को विशेष महत्व देते हैं जो हमारे समाज के बहुसांस्कृतिक ताने-बाने में बिल्‍कुल स्पष्ट है। राष्ट्रपति ने कहा कि भविष्य पर एक नजर डालने पर यह स्‍पष्‍ट हो जाता है कि न्यूजीलैंड के साथ हमारे जुड़ाव को सुदृढ़ करने और परस्‍पर सहयोग के नए रास्ते तलाशने की अपार संभावनाएं हैं। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, हरित प्रौद्योगिकी, कृषि प्रौद्योगिकी, अंतरिक्ष की वाणिज्यिक खोज के क्षेत्र में परस्‍पर सहयोग के लिए अपार अवसर हैं।

राष्ट्रपति को यह जानकर खुशी हुई कि वैश्विक क्षेत्र में भारत और न्यूजीलैंड ने जलवायु परिवर्तन, सतत विकास और अंतरराष्ट्रीय शांति एवं सुरक्षा सुनिश्चित करने जैसी चुनौतियों से निपटने के लिए लगातार मिलकर काम किया है।

राजकीय यात्रा के दौरान दोनों राजनेताओं के बीच अभूतपूर्व गर्मजोशीपूर्ण और सौहार्दपूर्ण संवाद से उनके बीच विशेष जुड़ाव और आत्मीयता सामने आई। गवर्नर जनरल डेम सिंडी किरो इस पद पर आसीन होने वाली माओरी मूल की प्रथम महिला हैं, जबकि राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु जनजातीय समुदाय से भारत की प्रथम महिला राष्ट्रपति हैं। दोनों राजनेताओं की शिक्षा के क्षेत्र में भी समान रुचि और अनुभव है।

वेलिंगटन में आधिकारिक कार्यक्रमों के पश्चात राष्ट्रपति ऑकलैंड के लिए रवाना हो गईं। 

Cruise Riding in Auckland

9 अगस्त की सुबह राष्ट्रपति ने ऑकलैंड में क्रूज़ का आनंद लिया।

9 अगस्त की शाम को राष्ट्रपति ने ऑकलैंड में भारतीय समुदाय को भी संबोधित किया।  

राष्ट्रपति का न्यूज़ीलैंड से प्रस्थान

रात को राष्ट्रपति न्यूज़ीलैंड ने न्यूज़ीलैंड से विदा ली और तिमोर-लेस्ते की अपनी राजकीय यात्रा के लिए प्रस्थान किया।

-रोहित कुमार हैप्पी

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भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने न्यूजीलैंड में भारतीय समुदाय के लिए आयोजित स्वागत समारोह संबोधन
9 अगस्त 2024, ऑकलैंड 

आप सभी को भारत में आपके भाइयों और बहनों की ओर से हार्दिक अभिनंदन! ऑकलैंड में ऐसे जीवंत और ओजस्वी इंडियन कम्यूनिटी के बीच उपस्थित होना, मेरे लिए खुशी और सम्मान की बात है। आज जब मैं आपके सामने खड़ी हूँ, तो मैं न्यूजीलैंड में भारतीय प्रवासियों के साहस और उपलब्धियों को देखकर गौरवान्वित हूं।

मेरे साथ, हमारे राज्य मंत्री श्री जॉर्ज कुरियन, साथ ही लोक सभा के दो सांसद, श्री सौमित्र खान और श्री जुगल किशोर भी हैं।

न्यूज़ीलैंड के साथ हमारे संबंध बहुत गहरे और बहुआयामी हैं। यहाँ का भारतीय समुदाय इस खूबसूरत देश के सामाजिक ताने-बाने का अभिन्न अंग बन गया है। भारतीय समुदाय ने यहाँ के विकास और समृद्धि में अहम भूमिका निभाई है। व्यवसाय से लेकर शिक्षा जगत, स्वास्थ्य सेवा से लेकर प्रौद्योगिकी तक, आपका योगदान अमूल्य है।

न्यूज़ीलैंड की आबादी में भारतीय मूल के लोगों की संख्या लगभग 6% है, और आपका प्रभाव जीवन के हर क्षेत्र में स्पष्ट है। आपके समर्पण और कड़ी मेहनत ने न केवल आपके परिवारों का उत्थान किया है, बल्कि व्यापक न्यूज़ीलैंड समाज और अर्थव्यवस्था में भी बहुत बड़ा योगदान दिया है। हमारे कई प्रवासी सदस्यों ने इस देश में बहुत ऊँचाइयाँ हासिल की हैं। सर आनंद सत्यानंद, जो 2006 से 2011 तक गवर्नर जनरल थे, का यहाँ और भारत, दोनों जगह अत्यधिक सम्मान किया जाता है। इसी तरह, सर एडमंड हिलेरी भारत में एक जाना- माना नाम हैं। हमारे खेल और सांस्कृतिक संबंध मजबूत रहे हैं। मुझे यह जानकर खुशी हुई कि भारत की पहली हॉकी टीम ने लगभग 100 साल पहले, 1926 में न्यूज़ीलैंड का दौरा किया था।

शिक्षा के क्षेत्र में हमारा सहयोग अत्यंत उपयोगी रहा है। हजारों भारतीय छात्र न्यूजीलैंड में अध्ययन कर रहे हैं। मुझे यह देखकर प्रसन्नता हुई कि न्यूजीलैंड के हमारे मित्र योग, मेडिटेशन और भारतीय संगीत और नृत्य सीखने के लिए भी भारत आ रहे हैं। दोनों देश आईआईटी देहली में स्थापित इंडिया-न्यूज़ीलैंड सेंटर के माध्यम से सहयोग कर रहे हैं। कल वेलिंगटन में, मैंने न्यूज़ीलैंड इंटरनेशनल एड्यूकेशन कोन्फ्रेंस (New Zealand International Education Conference) को संबोधित किया, जिसमें भारत कंट्री ऑफ ऑनर (Country of Honour) है। यह शिक्षा के क्षेत्र में हमारे सहयोग को आगे बढ़ाने के हमारे दोनों देशों के संकल्प को दर्शाता है।

न्यूजीलैंड में बसे भारतीय समुदाय का समर्पण, कड़ी मेहनत और रचनात्मक भावना सराहनीय है। ये वे मूल्य हैं, जिन्होंने पीढ़ियों से हमारा मार्गदर्शन दिया है, और भविष्य में भी हमें प्रेरित करते रहेंगे। आप में से हर कोई, अपने-अपने तरीके से भारत का प्रतिनिधित्व करता है। आप अपने साथ हमारी मातृभूमि की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत लेकर आए हैं, और आपने इसे न्यूजीलैंड की विविध संस्कृति के साथ सहजता से मिलाया है। मुझे यह जानकर खुशी हुई कि दिवाली, ओणम, होली, बैसाखी और पोंगल जैसे भारतीय त्यौहार पूरे न्यूजीलैंड में उत्साह से मनाए जाते हैं। संस्कृतियों का यह सुंदर संगम, भारतीय समुदाय की सबसे बड़ी ताकत है।

यह देखकर मुझे खुशी हुई कि हमारे दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय संबंध तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। उच्च स्तरीय यात्राओं, व्यापार और प्रतिनिधिमंडलों के आदान-प्रदान ने भारत और न्यूजीलैंड के बीच 'अंडरस्टेंडिंग' को गहरा करने, और सहयोग के नए रास्ते तलाशने में योगदान दिया है।

कल, वेलिंगटन में, गवर्नर जनरल डेम कीरो (Governor General Dame Kiro), प्रधान मंत्री लक्सन (Luxon), और उप प्रधान मंत्री पीटर्स (Peters) के साथ मेरी बहुत उपयोगी बैठकें हुईं। हमने भारत-न्यूजीलैंड साझेदारी को और मजबूत करने पर चर्चा की, जिसमें भारतीय समुदाय की भी प्रमुख भूमिका है।

मुझे यह घोषणा करते हुए खुशी हो रही है कि हम जल्द ही ऑकलैंड में एक कोंसुलेट खोलेंगे, जिसका उद्देश्य यहां बसे हमारे प्रवासी भारतीयों की लंबे समय से चली आ रही मांग को पूरा करना है। मुझे विश्वास है कि यह न्यूजीलैंड के साथ हमारे डिप्लोमैटिक संबंधों को और बढ़ाने में प्रमुख भूमिका निभाएगा।

प्रिय भाइयो और बहनो,

कुछ ही दिनों में, भारत अपना 78वां स्वतंत्रता दिवस मनाएगा। आज़ादी के समय से अमृत काल तक, हमारा प्रिय देश बहुत आगे बढ़ चुका है। सबसे बड़े और सबसे जीवंत लोकतंत्र के रूप में, भारत आज दुनिया में लोकतंत्र का प्रतीक बन गया है।

हमने दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ती बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में, अपनी स्थिति मजबूत कर ली है। बहुत जल्द हम दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जायेंगे। डिजिटल इंडिया मेक इन इंडिया और स्किल इंडिया जैसी इनिशियेटिव हमारे लाखों नागरिकों को सशक्त बना रही हैं, और वैश्विक सहयोग के अवसर पैदा कर रही हैं।

जैसे-जैसे हम 2047 तक एक विकसित भारत के निर्माण के अपने उद्देश्य की ओर बढ़ रहे हैं, हम प्रवासी भारतीय समुदाय के साथ अपने संबंधों को और मजबूत करना चाहते हैं। हम दुनिया भर में अपने प्रवासी भारतीय समुदाय को, अपने सपनों का भारत बनाने की इस यात्रा में महत्वपूर्ण भागीदार के रूप में देखते हैं।

आपका स्किल, एक्सप्रटाइज़ एक्स्पर्टीज़, और अनुभव हमारे देश की प्रगति के लिए मूल्यवान हैं। बिजनेस कोऑपरेशन हो या एड्यूकेशन एक्सचेंज, आपके पास भारत की डिवेल्पमैंट स्टोरी में योगदान देने और उसका हिस्सा बनने के अनगिनत तरीके हैं। इसके अलावा, इस खूबसूरत देश में भारत के प्रतिनिधि के रूप में, आप हमारे दोनों देशों के बीच संबंधों को मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। आपसी समझ और सहयोग को बढ़ावा देने में आपके प्रयास सराहनीय हैं। मैं इस अवसर पर न्यूजीलैंड सरकार और इस महान देश के लोगों की भी सराहना करना चाहती हूं, जिन्होंने भारतीय समुदाय को गर्मजोशी से अपनाया है। आपकी इंक्लुसिव और वेल्कमिंग भावना ने हमारे समुदाय को फलने-फूलने और समृद्ध होने में सक्षम बनाया है।

अंत में, मैं दोहराना चाहूंगी कि हमें आप सभी पर कितना गर्व है। आपकी उपलब्धियाँ हम सभी के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं। आइए, हम भारत और न्यूज़ीलैंड के उज्ज्वल भविष्य के लिए मिलकर काम करना जारी रखें।

धन्यवाद, 
जय हिन्द!

[भारत-दर्शन समाचार]


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गुरुदेव श्री श्री रविशंकर का न्यूज़ीलैंड दौरा - भारत-दर्शन समाचार

गुरुदेव श्री श्री रविशंकर

न्यूज़ीलैंड (25 अगस्त 2024): गुरुदेव श्री श्री रविशंकर विश्व प्रसिद्ध आध्यात्मिक गुरु एवं शान्ती दूत हैं। गुरुदेव अक्टूबर में दक्षिण प्रशांत का दौरा करेंगे। वे न्यूज़ीलैंड, ऑस्ट्रेलिया और फीजी में प्रवचन देंगे।

24 अक्टूबर को शाम 7:30 बजे ऑकलैंड के 'केरी ते कानवा थियेटर' (Kiri Te Kanawa Theatre) में गुरुदेव का प्रवचन व कार्यशाला होगी जिसमें वे जीवन जीने की कला एवं एक नई क्रिया से परिचय करवाएँगे। 

'आर्ट ऑफ लिविंग' से जुड़े हुए रेडियो तराना के हेमंत पारिख ने 'भारत-दर्शन' के साथ अपने अनुभव साझा करते हुए कहा, "मैं 2006 से गुरुजी के सानिध्य में हूँ। उस समय 'आर्ट आफ लिविंग' की सिल्वर जुबली मनाई जा रही थी और मैं बंगलोर में गया था। वहाँ इतने सारे उत्साही लोगों को देखकर मैं अचंभित रह गया। इतने सारे लोग इकट्ठे हुए थे और वे सब झूम रहे थे, गा रहे थे। उस समय मैं इनसे जुड़ा हुआ था और साधना कर रहा था, सुदर्शन क्रिया भी कर रहा था। 2009 में मैं  शिक्षक बना और अनेक कार्यक्रम भी किए।" 

हेमंत पारिख कहते हैं, "गुरुदेव तीसरी बार न्यूज़ीलैंड आ रहे हैं। वे इससे पहले 2004 और 2010 में भी आ चुके हैं और अब 14 वर्षों के बाद वे तीसरी बार यहाँ आ रहे हैं। वे इसबार ऑस्ट्रेलिया, फीजी और न्यूज़ीलैंड के दौरे पर हैं। इस समय बहुत लोग सोशल मीडिया के माध्य से  इनसे जुड़े हुए हैं, साधना कर रहे हैं और इनके प्रवचन सुने रहे हैं लेकिन यह स्वर्णिम अवसर है कि हम इनके साक्षात दर्शन कर सकते हैं और इनके प्रवचन सुन सकते हैं। इस अवसर पर हम जीवन जीने की कला जानने के अतिरिक्त अलग क्रिया भी सीखेंगे। मुझे विश्वास है कि हम सब इस अवसर से लाभान्वित होंगे।"

गुरुदेव श्री श्री रवि शंकर के साथ प्रेरणा और ऊर्जा का अनुभव करें। अपने अंतर्मन पर ध्यान देकर अपने विचारों और संवेदनाओं को और बेहतर तरीके से संवारना सीखें। गुरूदेव श्री श्री रवि शंकर हमें प्रेम, रिश्तों, सम्बन्धों, नेतृत्व, प्रबंध, मंत्रों और आध्यात्मिकता के बारे में ज्ञान देकर हमें जीवन में ऊँचाईयों के शिखर पर पहुंचाते हैं। 

'आर्ट ऑफ लिविंग' स्वयं सेवकों पर आधारित विश्व के सबसे बड़े संस्थानों में से एक है। यह एक गैर लाभकारी, शैक्षिक और मानवतावादी संस्थान है, जिसकी स्थापना 1981 में गुरुदेव ने की थी। वर्तमान में 156 देशों में 'आर्ट ऑफ लिविंग' के केंद्र संचालित हैं और यह  "वसुधैव कुटुम्बकम" का एक जीवंत उदाहरण है।

गुरुदेव श्री श्री रविशंकर के अनुसार, "आर्ट ऑफ लिविंग जीवन को पूर्णता से जीने के एक सिद्धांत या दर्शन से कहीं अधिक है। यह संस्थान होने के बजाय एक अभियान अधिक है। इसका मुख्य उद्देश्य अपने भीतर शांति को पाना और हमारे समाज के विभिन्न संस्कृतियों, परंपराओं, धर्मों और राष्ट्रीयता के लोगों को एक करना है और हम सबको यह याद दिलाना है कि हमारा एक ही लक्ष्य है,सब जगह मानव जीवन का उत्थान करना।"

[भारत-दर्शन समाचार]


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राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु का ऑकलैंड संबोधन - भारत-दर्शन समाचार

भारत की राष्ट्रपति, श्रीमती द्रौपदी मुर्मु का न्यूजीलैंड में भारतीय समुदाय के लिए आयोजित स्वागत समारोह में संबोधन
9 अगस्त 2024, ऑकलैंड 

आप सभी को भारत में आपके भाइयों और बहनों की ओर से हार्दिक अभिनंदन! ऑकलैंड में ऐसे जीवंत और ओजस्वी इंडियन कम्यूनिटी के बीच उपस्थित होना, मेरे लिए खुशी और सम्मान की बात है। आज जब मैं आपके सामने खड़ी हूँ, तो मैं न्यूजीलैंड में भारतीय प्रवासियों के साहस और उपलब्धियों को देखकर गौरवान्वित हूं।

मेरे साथ, हमारे राज्य मंत्री श्री जॉर्ज कुरियन, साथ ही लोक सभा के दो सांसद, श्री सौमित्र खान और श्री जुगल किशोर भी हैं।

न्यूज़ीलैंड के साथ हमारे संबंध बहुत गहरे और बहुआयामी हैं। यहाँ का भारतीय समुदाय इस खूबसूरत देश के सामाजिक ताने-बाने का अभिन्न अंग बन गया है। भारतीय समुदाय ने यहाँ के विकास और समृद्धि में अहम भूमिका निभाई है। व्यवसाय से लेकर शिक्षा जगत, स्वास्थ्य सेवा से लेकर प्रौद्योगिकी तक, आपका योगदान अमूल्य है।

न्यूज़ीलैंड की आबादी में भारतीय मूल के लोगों की संख्या लगभग 6% है, और आपका प्रभाव जीवन के हर क्षेत्र में स्पष्ट है। आपके समर्पण और कड़ी मेहनत ने न केवल आपके परिवारों का उत्थान किया है, बल्कि व्यापक न्यूज़ीलैंड समाज और अर्थव्यवस्था में भी बहुत बड़ा योगदान दिया है। हमारे कई प्रवासी सदस्यों ने इस देश में बहुत ऊँचाइयाँ हासिल की हैं। सर आनंद सत्यानंद, जो 2006 से 2011 तक गवर्नर जनरल थे, का यहाँ और भारत, दोनों जगह अत्यधिक सम्मान किया जाता है। इसी तरह, सर एडमंड हिलेरी भारत में एक जाना- माना नाम हैं। हमारे खेल और सांस्कृतिक संबंध मजबूत रहे हैं। मुझे यह जानकर खुशी हुई कि भारत की पहली हॉकी टीम ने लगभग 100 साल पहले, 1926 में न्यूज़ीलैंड का दौरा किया था।

शिक्षा के क्षेत्र में हमारा सहयोग अत्यंत उपयोगी रहा है। हजारों भारतीय छात्र न्यूजीलैंड में अध्ययन कर रहे हैं। मुझे यह देखकर प्रसन्नता हुई कि न्यूजीलैंड के हमारे मित्र योग, मेडिटेशन और भारतीय संगीत और नृत्य सीखने के लिए भी भारत आ रहे हैं। दोनों देश आईआईटी देहली में स्थापित इंडिया-न्यूज़ीलैंड सेंटर के माध्यम से सहयोग कर रहे हैं। कल वेलिंगटन में, मैंने न्यूज़ीलैंड इंटरनेशनल एड्यूकेशन कोन्फ्रेंस (New Zealand International Education Conference) को संबोधित किया, जिसमें भारत कंट्री ऑफ ऑनर (Country of Honour) है। यह शिक्षा के क्षेत्र में हमारे सहयोग को आगे बढ़ाने के हमारे दोनों देशों के संकल्प को दर्शाता है।

न्यूजीलैंड में बसे भारतीय समुदाय का समर्पण, कड़ी मेहनत और रचनात्मक भावना सराहनीय है। ये वे मूल्य हैं, जिन्होंने पीढ़ियों से हमारा मार्गदर्शन दिया है, और भविष्य में भी हमें प्रेरित करते रहेंगे। आप में से हर कोई, अपने-अपने तरीके से भारत का प्रतिनिधित्व करता है। आप अपने साथ हमारी मातृभूमि की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत लेकर आए हैं, और आपने इसे न्यूजीलैंड की विविध संस्कृति के साथ सहजता से मिलाया है। मुझे यह जानकर खुशी हुई कि दिवाली, ओणम, होली, बैसाखी और पोंगल जैसे भारतीय त्यौहार पूरे न्यूजीलैंड में उत्साह से मनाए जाते हैं। संस्कृतियों का यह सुंदर संगम, भारतीय समुदाय की सबसे बड़ी ताकत है।

यह देखकर मुझे खुशी हुई कि हमारे दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय संबंध तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। उच्च स्तरीय यात्राओं, व्यापार और प्रतिनिधिमंडलों के आदान-प्रदान ने भारत और न्यूजीलैंड के बीच 'अंडरस्टेंडिंग' को गहरा करने, और सहयोग के नए रास्ते तलाशने में योगदान दिया है।

कल, वेलिंगटन में, गवर्नर जनरल डेम कीरो (Governor General Dame Kiro), प्रधान मंत्री लक्सन (Luxon), और उप प्रधान मंत्री पीटर्स (Peters) के साथ मेरी बहुत उपयोगी बैठकें हुईं। हमने भारत-न्यूजीलैंड साझेदारी को और मजबूत करने पर चर्चा की, जिसमें भारतीय समुदाय की भी प्रमुख भूमिका है।

मुझे यह घोषणा करते हुए खुशी हो रही है कि हम जल्द ही ऑकलैंड में एक कोंसुलेट खोलेंगे, जिसका उद्देश्य यहां बसे हमारे प्रवासी भारतीयों की लंबे समय से चली आ रही मांग को पूरा करना है। मुझे विश्वास है कि यह न्यूजीलैंड के साथ हमारे डिप्लोमैटिक संबंधों को और बढ़ाने में प्रमुख भूमिका निभाएगा।

प्रिय भाइयो और बहनो,

कुछ ही दिनों में, भारत अपना 78वां स्वतंत्रता दिवस मनाएगा। आज़ादी के समय से अमृत काल तक, हमारा प्रिय देश बहुत आगे बढ़ चुका है। सबसे बड़े और सबसे जीवंत लोकतंत्र के रूप में, भारत आज दुनिया में लोकतंत्र का प्रतीक बन गया है।

हमने दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ती बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में, अपनी स्थिति मजबूत कर ली है। बहुत जल्द हम दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जायेंगे। डिजिटल इंडिया मेक इन इंडिया और स्किल इंडिया जैसी इनिशियेटिव हमारे लाखों नागरिकों को सशक्त बना रही हैं, और वैश्विक सहयोग के अवसर पैदा कर रही हैं।

जैसे-जैसे हम 2047 तक एक विकसित भारत के निर्माण के अपने उद्देश्य की ओर बढ़ रहे हैं, हम प्रवासी भारतीय समुदाय के साथ अपने संबंधों को और मजबूत करना चाहते हैं। हम दुनिया भर में अपने प्रवासी भारतीय समुदाय को, अपने सपनों का भारत बनाने की इस यात्रा में महत्वपूर्ण भागीदार के रूप में देखते हैं।

आपका स्किल, एक्सप्रटाइज़ एक्स्पर्टीज़, और अनुभव हमारे देश की प्रगति के लिए मूल्यवान हैं। बिजनेस कोऑपरेशन हो या एड्यूकेशन एक्सचेंज, आपके पास भारत की डिवेल्पमैंट स्टोरी में योगदान देने और उसका हिस्सा बनने के अनगिनत तरीके हैं। इसके अलावा, इस खूबसूरत देश में भारत के प्रतिनिधि के रूप में, आप हमारे दोनों देशों के बीच संबंधों को मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। आपसी समझ और सहयोग को बढ़ावा देने में आपके प्रयास सराहनीय हैं। मैं इस अवसर पर न्यूजीलैंड सरकार और इस महान देश के लोगों की भी सराहना करना चाहती हूं, जिन्होंने भारतीय समुदाय को गर्मजोशी से अपनाया है। आपकी इंक्लुसिव और वेल्कमिंग भावना ने हमारे समुदाय को फलने-फूलने और समृद्ध होने में सक्षम बनाया है।

अंत में, मैं दोहराना चाहूंगी कि हमें आप सभी पर कितना गर्व है। आपकी उपलब्धियाँ हम सभी के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं। आइए, हम भारत और न्यूज़ीलैंड के उज्ज्वल भविष्य के लिए मिलकर काम करना जारी रखें।

धन्यवाद, 
जय हिन्द!

[भारत-दर्शन समाचार]


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राष्ट्रपति मुर्मू का न्यूज़ीलैंड में पारंपरिक स्वागत  - भारत-दर्शन समाचार

न्यूज़ीलैंड की गवर्नर जनरल डेम सिंडी कीरो ने राजकीय भवन (गवर्नमेंट हाउस) में राष्ट्रपति मुर्मू का गर्मजोशी से स्वागत किया

8 अगस्त 2024 (न्यूज़ीलैंड): राष्ट्रपति मुर्मू आज राजधानी वेलिंगटन पहुंचीं, जहां न्यूज़ीलैंड की गवर्नर जनरल डेम सिंडी कीरो ने राजकीय भवन (गवर्नमेंट हाउस) में उनका गर्मजोशी से स्वागत किया। 

राष्ट्रपति मुर्मू का पारंपरिक माओरी 'पोफिरी' समारोह में स्वागत

राष्ट्रपति मुर्मू का पारंपरिक माओरी 'पोफिरी' समारोह में स्वागत किया।

राष्ट्रपति को 'रॉयल गार्ड ऑफ ऑनर'

पारंपरिक स्वागत के पश्चात राष्ट्रपति को 'रॉयल गार्ड ऑफ ऑनर' दिया गया।

राष्ट्रपति मुर्मू का ऑकलैंड एयरपोर्ट पर स्वागत

राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू अपनी तीन देशों की राजकीय यात्रा के दूसरे चरण में कल फीजी से न्यूजीलैंड पहुंची थी, जहां न्यूज़ीलैंड के कृषि एवं वाणिज्य मंत्री एवं न्यूज़ीलैंड में भारत की उच्चायुक्त नीता भूषण ने राष्ट्रपति का ऑकलैंड एयरपोर्ट पर स्वागत किया। 

[भारत-दर्शन समाचार]


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भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू राजकीय यात्रा पर न्यूजीलैंड पहुंची - भारत-दर्शन समाचार

7 अगस्त 2024 (ऑकलैंड): भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू तीन दिवसीय राजकीय यात्रा पर न्यूजीलैंड पहुंच गई हैं। न्यूजीलैंड कृषि एवं वाणिज्य मंत्री टोड मैक्कले (Todd McClay) ने ऑकलैंड एअरपोर्ट पर न्यूज़ीलैंड सरकार की ओर से भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू का स्वागत किया। इस अवसर पर न्यूज़ीलैंड में भारत की उच्चायुक्त नीता भूषण ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की आगवानी की। 

राष्ट्रपति मुर्मू कल ऑकलैंड से वेलिंगटन रवाना होंगी। राजधानी वेलिंगटन में सुबह राजकीय भवन (गवर्नमेंट हाउस) में उनका पारंपरिक स्वागत समारोह होगा। इसके बाद वे न्यूज़ीलैंड की गवर्नर-जनरल सिंडी कीरो से द्विपक्षीय वार्ता करेंगी। 

8 अगस्त को सुबह लगभग 20 मिनट वे राजधानी में न्यूजीलैंड अंतरराष्ट्रीय शिक्षा सम्मेलन में सम्मिलित होंगी और सम्मेलन को संबोधित करेंगी। राष्ट्रपति मुर्मू स्वयं एक शिक्षिका रह चुकी हैं। 

वे प्रधानमंत्री क्रिस्टोफर लक्सन और विदेश मंत्री विंस्टन पीटर्स के साथ भी द्विपक्षीय वार्ता करेंगी। इसके बाद वे वेलिंगटन ट्रेन स्टेशन पर महात्मा गांधी की प्रतिमा पर पुष्पांजलि अर्पित करेंगी और तत्पश्चात वे राजधानी में राष्ट्रीय युद्ध स्मारक पर पुष्पांजलि समारोह में भाग लेंगी।

बृहस्पतिवार को गवर्नर-जनरल सिंडी कीरो द्वारा राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के सम्मान में राजकीय रात्रिभोज आयोजित किया गया है। 

मुर्मू शुक्रवार शाम को तिमोर-लेस्ते के लिए उड़ान भरने से पहले ऑकलैंड में भारतीय समुदाय के सदस्यों से मिलेंगी। 

2016 में तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के न्यूजीलैंड दौरे के बाद किसी भारतीय राष्ट्राध्यक्ष की यह दूसरी यात्रा है।

[भारत-दर्शन समाचार]


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राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को फीजी का सर्वोच्च नागरिक सम्मान - भारत-दर्शन समाचार
सर्वोच्च नागरिक सम्मान
 
फीजी, 6 अगस्त : भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को मंगलवार को फीजी के सुवा में फीजी के राष्ट्रपति रातू विलियम मैवालिली काटोनिवेरे द्वारा फीजी के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार, 'कंपेनियन ऑव द ऑर्डर ऑफ फीजी' से सम्मानित किया गया। 
 
भारत की  राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू तीन देशों की अपनी यात्रा के पहले चरण में 5 अगस्त को फीजी पहुंचीं थीं। राष्ट्रपति मुर्मू फीजी के राष्ट्रपति के निमंत्रण पर 5-7 अगस्त तक फीजी की राजकीय यात्रा पर हैं। यह किसी भारतीय राष्ट्राध्यक्ष की फीजी की पहली यात्रा है।

[भारत-दर्शन समाचार]

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राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू दो दिवसीय राजकीय यात्रा पर फीजी पहुंचीं - भारत-दर्शन समाचार

फीजी (5.08.2024):  भारत की  राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू तीन देशों की अपनी यात्रा के पहले चरण में सोमवार को फीजी पहुंचीं। वह फीजी के राष्ट्रपति विलियम मैवालिली कटोनिवेरे और प्रधानमंत्री सितेवेनी रम्बूका के साथ बैठक करेंगी।

राष्ट्रपति मुर्मू फीजी के राष्ट्रपति के निमंत्रण पर 5-7 अगस्त तक फीजी में रूकेंगी। यह किसी भारतीय राष्ट्राध्यक्ष की फीजी की पहली यात्रा है।

राष्ट्रपति मुर्मू का हवाई अड्डे पर फीजी के उप प्रधानमंत्री विलियम गावोका, फीजी में भारत के उच्चायुक्त पी एस कार्तिग्यन और  फीजी के अन्य अधिकारियों ने स्वागत किया।

राष्ट्रपति मुर्मू ने फीजी की संसद को भी संबोधित किया और इसके सदस्यों से बातचीत की। 

भारत के विदेश मंत्रालय के अनुसार, फीजी की अपनी यात्रा के पश्चात, मुर्मू न्यूजीलैंड और तिमोर-लेस्ते की यात्रा करेंगी। मंत्रालय के अनुसार, राष्ट्रपति की छह दिवसीय तीन देशों की यात्रा का उद्देश्य भारत की ‘एक्ट ईस्ट’नीति को आगे बढ़ाना है।


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राष्ट्रपति मुर्मू न्यूजीलैंड के राजकीय दौरे पर  - भारत-दर्शन समाचार

न्यूज़ीलैंड (29 जुलाई 2024): भारत की राष्ट्रपति मुर्मू  7 से 9 अगस्त तक न्यूजीलैंड की राजकीय यात्रा पर रहेंगी।अपनी न्यूजीलैंड की राजकीय यात्रा के दौरान ऑकलैंड और वेलिंगटन आएंगी। राष्ट्रपति मुर्मू  न्यूजीलैंड की गवर्नर डेम सिंडी कीरो के निमंत्रण पर न्यूजीलैंड का दौरा कर रही हैं। राष्ट्रपति मुर्मू न्यूज़ीलैंड की राजकीय यात्रा करने वाली भारत की दूसरी राष्ट्रपति हैं। इससे पूर्व 2016 में भारत के राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी न्यूज़ीलैंड की राजकीय यात्रा पर आए थे। 
 
अपनी राजकीय यात्रा के दौरान राष्ट्रपति मुर्मू गवर्नर जनरल सिंडी कीरो के साथ द्विपक्षीय बैठक करेंगी और प्रधानमंत्री क्रिस्टोफर लक्सन से भी मिलेंगी। राष्ट्रपति मुर्मू एक शिक्षा सम्मेलन को संबोधित करेंगी और भारतीय समुदाय और भारत के मित्रों से बातचीत करेंगी। यह यात्रा भारत-न्यूजीलैंड द्विपक्षीय संबंधों को और बढ़ावा देगी।

राष्ट्रपति मुर्मू का यह दौरा भारत की ‘एक्ट ईस्ट पॉलिसी’ के प्रति प्रतिबद्धता को दर्शाता है और एशिया-प्रशांत क्षेत्र में भारतीय समुदाय के साथ संबंधों को और मजबूत करेगा। इस यात्रा से भारत के अंतरराष्ट्रीय संबंधों में एक नया अध्याय जुड़ने की आशा है।

राष्ट्रपति मुर्मू न्यूज़ीलैंड की यात्रा से पहले फीजी की राजकीय यात्रा करेंगी। राष्ट्रपति मुर्मू फीजी के राष्ट्रपति के निमंत्रण पर 5-6 अगस्त को फीजी का दौरा करेंगी। यह भारत के किसी राष्ट्राध्यक्ष की फीजी की पहली यात्रा होगी। राष्ट्रपति मुर्मू फीजी के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के साथ द्विपक्षीय बैठकें करेंगी। राष्ट्रपति मुर्मू का फीजी की संसद को संबोधित करने और फीजी में भारतीय प्रवासियों से बातचीत करने का भी कार्यक्रम है। 

फीजी से वे न्यूजीलैंड का दौरा करेंगी और इसके बाद वे तिमोर-लेस्ते की राजकीय यात्रा पर रहेंगी। राष्ट्रपति मुर्मू  5 से 10 अगस्त तक के बीच तीन चरणों में फीजी, न्यूजीलैंड और  तिमोर-लेस्ते की राजकीय यात्रा करेंगी।

[भारत-दर्शन समाचार]


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विक्रम मिस्री ने नए विदेश सचिव का पदभार संभाला - भारत-दर्शन समाचार

विदेश सचिव विक्रम मिस्री

15 जुलाई (नयी दिल्ली): अनुभवी राजनयिक विक्रम मिस्री ने सोमवार को भारत के नए विदेश सचिव का पदभार संभाल लिया। मिस्री भारतीय विदेश सेवा के 1989 बैच के अधिकारी हैं और उन्होंने विनय क्वात्रा का स्थान लिया है।  विक्रम मिस्री चीन से संबंधित मामलों पर विशेषज्ञ माने जाते हैं।

मिस्री ने ऐसे समय में यह महत्वपूर्ण पद संभाला है जब भारत विदेश नीति की कई चुनौतियों से निपटने का प्रयास कर रहा है जिसमें पूर्वी लद्दाख सीमा पर जारी गतिरोध के बाद चीन के साथ उसके तनावपूर्ण संबंध भी सम्मिलित हैं।

विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रणधीर जायसवाल ने सोशल मीडिया मंच ‘एक्स’ पर नए विदेश सचिव को शुभकामाएँ दी हैं, ‘‘श्री विक्रम मिस्री ने आज विदेश सचिव के तौर पर प्रभार संभाला। विदेश मंत्रालय विदेश सचिव मिस्री का गर्मजोशी से स्वागत करता है और उन्हें सफल कार्यकाल के लिए शुभकामनाएं देता है।’’

मिस्री इससे पहले राष्ट्रीय उप-सुरक्षा सलाहकार के रूप में काम कर रहे थे। उन्हें तीन प्रधानमंत्रियों इंदर कुमार गुजराल, मनमोहन सिंह और नरेन्द्र मोदी के के साथ काम करने का अनुभव प्राप्त है। राष्ट्रीय उप-सुरक्षा सलाहकार नियुक्ती से पहले वह 2019-2021 तक चीन में भारत के राजदूत रहे हैं।

ऐसा माना जाता है कि मिस्री ने जून 2020 में गलवान घाटी में झड़पों के कारण पैदा हुए तनाव के बाद भारत और चीन के बीच वार्ता में अहम भूमिका निभायी। गलवान घाटी में भीषण झड़प के बाद दोनों देशों के बीच संबंधों में तनाव पैदा हो गया। यह दशकों में दोनों पक्षों के बीच सबसे गंभीर सैन्य संघर्ष था।

मिस्री स्पेन (2014-16) और म्यांमार (2016-18) में भारत के राजदूत भी रहे हैं। इसके अतिरिक्त वे पाकिस्तान, अमेरिका, जर्मनी, बेल्जियम और श्रीलंका सहित कई भारतीय दूतावासों में विभिन्न पदों पर अपनी सेवाएं  दे चुके हैं।


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बागेश्वर सरकार धीरेन्द्र कृष्ण शास्त्री का न्यूज़ीलैंड दौरा  - भारत-दर्शन समाचार

11 जुलाई 2024 (न्यूज़ीलैंड): भारत में सर्वाधिक चर्चित कथा वाचकों में से एक पंडित धीरेन्द्र कृष्ण शास्त्री की हनुमंत कथा 3-4 अगस्त को ऑकलैंड के 'ट्रस्टस एरिना' में आयोजित की जा रही है। 

पंडित धीरेन्द्र कृष्ण शास्त्री इन दिनों दक्षिण प्रशांत की यात्रा पर हैं। वे ऑस्ट्रेलिया और फीजी के विभिन्न नगरों में हनुमंत कथा के बाद न्यूज़ीलैंड आ रहे हैं। शास्त्री जी मध्य प्रदेश के बागेश्वर धाम सरकार (Bageshwar Dham Sarkar) के पीठाधीश्वर हैं। इन्हें बागेश्वर सरकार, बागेश्वर बाबा और बागेश्वर महाराज के नाम से भी जाना जाता है।   

पंडित धीरेन्द्र कृष्ण शास्त्री का जन्म 4 जुलाई 1996 को मध्यप्रदेश के छतरपुर जिले के ग्राम गढ़ा में सरयूपारीय ब्रह्मण परिवार में हुआ। शास्त्री जी ‘दिव्य दरबार’ लगाते हैं जिसमें वे आगंतुक से बिना बात किए ही उनकी समस्याओं को धाम के पर्चे पर उल्लिखित कर देते हैं। इसके पश्चात उस व्यक्ति से उसकी समस्याओं की जानकारी ली जाती है, उसके द्वारा बताई गई सभी समस्याएं पहले से ही पर्चे पर शत-प्रतिशत लिखी होती हैं। पिछले 2-3 वर्षों से मध्यप्रदेश के यह युवा कथा वाचक पंडित धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री अपने 'दिव्य दरबार' के कारण लगातार समाचारों में छाए हुए हैं। शास्त्री जी दक्षिण प्रशांत में पहली बार आ रहे हैं। वे ब्रिटेन में कई बार हनुमंत कथा और दिव्य दरबार लगा चुके हैं। 

बागेश्वर सरकार की न्यूज़ीलैंड यात्रा के बारे में अधिक जानकारी के लिए आप रिचर्ड कुमार से 027 828 1331 पर संपर्क कर सकते हैं। 

[भारत-दर्शन समाचार] 


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प्रधानमंत्री जैसिंडा ऑर्डन ने त्यागपत्र की घोषणा की - भारत-दर्शन समाचार

ऑकलैंड (19 जनवरी 2023) : न्यूज़ीलैंड की प्रधानमंत्री जैसिंडा ऑर्डन ने घोषणा की है कि वह प्रधानमंत्री और लेबर पार्टी के नेता का पद छोड़ रहीं हैं।  उनके त्यागपत्र के कारण अब  न्यूज़ीलैंड में नए प्रधानमंत्री की नियुक्ति होगी। नया नेता चुनने के लिए लेबर पार्टी 22 जनवरी को मतदान करेगी।

"प्रधानमंत्री बनना मेरे जीवन का सबसे बड़ा सम्मान रहा है और पिछले साढ़े पांच वर्ष तक देश के नेतृत्व का दायित्व प्रदान करने के  लिए मैं न्यूजीलैंड की जनता को धन्यवाद देना चाहती हूँ।" जैसिंडा ऑर्डन ने अपने त्यागपत्र की घोषणा करते हुए कहा।


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उच्चायोग आपके द्वार : भारत के उच्चायोग का नया उपक्रम  - भारत-दर्शन समाचार

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इन्हें मिला है, 17वाँ प्रवासी भारतीय सम्मान - भारत-दर्शन समाचार

10 जनवरी 2023 (भारत): 17वें प्रवासी भारतीय सम्मान पुरस्कार (PBSA) की घोषणा हो चुकी है। इन पुरस्कारों के लिए 27 आप्रवासी भारतीयों को चुना गया है। 'प्रवासी भारतीय सम्मान पुरस्कार' प्रवासी भारतीयों को दिया जाने वाला सबसे बड़ा पुरस्कार है, जो विदेशों में उनकी उत्कृष्ट उपलब्धियों के लिए दिया जाता है। इस बार प्रवासी भारतीय दिवस सम्मेलन का आयोजन मध्य प्रदेश के इंदौर में 8 से 10 जनवरी तक हो रहा है।

प्रवासी भारतीय सम्मान पुरस्कार के लिए चुने गए लोगों में भूटान के एक शिक्षाविद, ब्रूनेई के एक डॉक्टर और सामुदायिक कल्याण के लिए काम करने वाले इथोपिया, इजरायल, पोलैंड जैसे देशों के कुल 27 व्यक्ति सम्मिलित हैं। इन सभी को राष्ट्रपति सम्मान प्रदान करेंगी। प्रवासी भारतीय सम्मान पुरस्कार एनआरआई, भारतीय मूल के व्यक्तियों या उनकी ओर से चलाई जा रही संस्थाओं को दिया जाता है, जो विदेशों में उत्कृष्ट उपलब्धियां हासिल करते हैं।

 
चयन प्रक्रिया......

 
 
रम्बूका फ़िजी के नए प्रधानमंत्री - भारत-दर्शन समाचार
रम्बूका फ़िजी के नए प्रधानमंत्री, बिमान प्रसाद उप-प्रधानमंत्री
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सुश्री नीता भूषण होंगी न्यूजीलैंड में भारत की अगली उच्चायुक्त  - भारत-दर्शन समाचार

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न्यूज़ीलैंड में भारत के भूतपूर्व उच्चायुक्त मुक्तेश परदेशी विदेश मंत्रालय के सचिव पद पर पदोन्नत - भारत-दर्शन समाचार

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सांसद डॉ. गौरव शर्मा लेबर पार्टी से निष्कासित - भारत-दर्शन समाचार

सांसद डॉ. गौरव शर्मा और न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री जैसिंडा ऑर्डन
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76वें स्वतंत्रता दिवस का भव्य समारोह संपन्न - भारत-दर्शन समाचार

ऑकलैंड में 76वां स्वतंत्रता दिवस आयोजित
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न्यूज़ीलैंड में तीज आयोजन - भारत-दर्शन समाचार
Teej in New Zealand
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आज हिन्दी बोलो, हिन्दी दिवस है  -  सुदर्शन वशिष्ठ

हमारी राजभाषा हिन्दी है। उत्तर भारत में हिन्दी पट्टी है जहां कई राज्यों की राजभाषा हिन्दी है। भारत के संविधान में इन राज्यों को ''क'' श्रेणी में रखा गया है। संवैधानिक रूप से हिन्दी को राष्ट्रभाषा नहीं, राजभाषा कहा गया है। 14 सितम्बर 1949 को हिन्दी को संघ के संविधान में राजभाषा का दर्जा दिया गया और संविधान में बाकायदा इस की व्याख्या की गई। राजभाषा के रूप में हिन्दी की विजय मात्र एक मत से ही हुई थी, ऐसा कहा जाता है। 'क' श्रेणी में हिमाचल, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार तथा सभी संघ शासित राज्य आते हैं। इस क्षेत्र को ही हिन्दी पट्टी कहा जाता है।


हिन्दी को संघ की भाषा तो माना किन्तु साथ-साथ अँग्रेज़ी के प्रयोग की भी अनुमति दी गई जिसे बार-बार बढ़ाया जाता रहा जिसके कारण अँग्रेज़ी का वर्चस्व बराबर बना रहा।

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भारतीय उच्चायोग का अनुरोध  - भारत-दर्शन समाचार

Global Pravasi Rishta Portal

न्यूजीलैंड में भारतीय नागरिकों, भारतीय छात्रों और ओसीआई कार्ड धारकों का पंजीकरण

22/04/2022 (न्यूज़ीलैंड) :  वेलिंग्टन स्थित भारत के उच्चायोग ने एक विज्ञप्ति जारी करके भारतीय डायस्पोरा को  एक महत्वपूर्ण सूचना दी है और प्रवासी रिश्ता पोर्टल के माध्यम से पंजीकरण करवाने का अनुरोध किया है। 

भारत सरकार ने भारतीय डायस्पोरा से प्रभावी ढंग से जुड़ने के लिए "ग्लोबल प्रवासी रिश्ता पोर्टल" (https://pravasirishta.gov.in/) लॉन्च किया है। यह विदेश मंत्रालय (नई दिल्ली), भारतीय उच्चायोग, वेलिंगटन और न्यूजीलैंड, समोआ, न्यूए, वानुआतु और कुक आइलैंड्स में स्थित भारतीय डायस्पोरा के बीच तीन-तरफा संचार माध्यम के रूप में काम करेगा।
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वचनामृत  - प्रो आनंदशंकर बापुभाई ध्रुवजी

तुम्हें चाहिए सदा बहन-भाई से मिलकर रहना;
सबसे मीठे बोल-बोलना, नहीं वचन कटु कहना ।

मात-पिता-गुरु आदि बड़ों का मान सदा ही करना ; ......

 
 
नेताजी सुभाष चंद्र बोस का जीवन-परिचय  - भारत-दर्शन संकलन

नेताजी सुभाष चंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 को उड़ीसा में कटक के एक संपन्न बंगाली परिवार में हुआ था। बोस के पिता का नाम 'जानकीनाथ बोस' और माँ का नाम 'प्रभावती' था। जानकीनाथ बोस कटक शहर के मशहूर वक़ील थे। प्रभावती और जानकीनाथ बोस की कुल मिलाकर 14 संतानें थी, जिसमें 6 बेटियाँ और 8 बेटे थे। सुभाष चंद्र उनकी नौवीं संतान और पाँचवें बेटे थे। अपने सभी भाइयों में से सुभाष को सबसे अधिक लगाव शरदचंद्र से था।


नेताजी ने अपनी प्रारंभिक पढ़ाई कटक के रेवेंशॉव कॉलेजिएट स्कूल में हुई। तत्पश्चात् उनकी शिक्षा कलकत्ता के प्रेज़िडेंसी कॉलेज और स्कॉटिश चर्च कॉलेज से हुई, और बाद में भारतीय प्रशासनिक सेवा (इण्डियन सिविल सर्विस) की तैयारी के लिए उनके माता-पिता ने बोस को इंग्लैंड के केंब्रिज विश्वविद्यालय भेज दिया। अँग्रेज़ी शासन काल में भारतीयों के लिए सिविल सर्विस में जाना बहुत कठिन था किंतु उन्होंने सिविल सर्विस की परीक्षा में चौथा स्थान प्राप्त किया।

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शेखचिल्ली के कारनामें - भारत-दर्शन संकलन

शेखचिल्ली के किस्से सुनकर जहाँ ज्ञानवर्धक जानकारी मिलती वहीं मनोरंजन भी होता है। शेखचिल्ली के किस्से पिछली कई पीढि़यों से सुने और सुनाये जाते हैं।


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द्रोणाचार्य | कविता - डॉ. भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी

तुम्हीं ने-
‘अर्जुन' को सर्वश्रेष्ठ ‘धनुर्धर'......

 
 
डिजिटल संसार में हिन्दी के विविध आयाम - अरविंद कुमार

आज वैश्विक हिन्दी का मतलब है सूचना प्रौद्योगिकी के युग में हिन्दी और सूचना जगत में समाई हिन्दी। एक ऐसा आभासी संसार जो ठोस है और ठोस है भी नहीँ। पल पल परिवर्तित, विकसित जानकारी से भरा जगत जो हर उस आदमी के सामने फैला है जिस के पास कंप्यूटर पर इंटरनैट कनक्शन है या जिस के हाथ में स्मार्ट टेलिफ़ोन है। यह जगत केवल हिन्दी में ही नहीँ है, इंग्लिश में है, जर्मन में है, फ़्रैंच में है, उर्दू में है, बंगला में है, गुजराती में है। मैँ अपने आप को हिन्दी तक सीमित रखूँगा। यह जो हिन्दी है अकेले हमारे अपने देश की नहीँ है, पूरे संसार की है।

आज अंतर्जाल (इंटरनैट) पर क्या नहीं है। इस अंतर्जाल पर प्रवेश के कई मार्ग हैं। ‘मोज़िला' का ‘फ़ायरफ़ौक्स' है तो ‘गूगल' का ‘क्रोम' (chrome) भी है। अंतर्जाल पर पहुँच कर आप गूगल के ज़रिए कुछ भी खोज सकते हैं। गूगल इस्तेमाल न करें तो सीधे शीर्ष पंक्ति पर वांछित सामग्री टाइप करें - हिन्दी में या इंग्लिश में - पूरी जानकारी आप को मिलती है। मान लीजिए आप को ‘आम' फल के बारे में मालूम करना है या ‘रोटी' के बारे में। ऊपर की ख़ाली पंक्ति में ये शब्द लिख कर क्लिक कीजिए, तरह तरह के आम, आम कहाँ होता है - सब कुछ। संपूर्ण विश्व की मुक्त ऐनसाइक्लोपीडिया ‘विकिपीडिया' भी हाज़िर होगी ‘आम' पर संपूर्ण जानकारी के साथ। यही ‘रोटी' टाइप करके भी होगा। यहाँ तक कि ‘गुड़ की रोटी बनाने की विधि भी मिल जाएगी।

अगर ‘विकिपीडिया' है, तो हमारा अपना पूरी तरह भारतीय ‘भारत कोष' भी है। अपना सब कुछ दाँव पर लगा कर श्री आदित्य चौधरी इसकी रचना करवा रहे हैं, जबकि विकिपीडिया अनेक संस्थाओं से प्राप्त अनुदानों से चलता है। (संदर्भवश हमारे देश में यही कमी है। हम में से कोई कुछ नया, कुछ अत्यावश्यक, करने को कमर कस लेता है तो उसे कहीं से कोई सहायता नहीँ मिलती। यह मैं अपने निजी अनुभव से भी कह सकता हूं। ‘समांतर कोश' पर काम करने से पहले मैं ने कई जगह से सहायता माँगी, कुछ नहीं मिला तो अपना सब कुछ दाँव पर लगा कर सपरिवार जुट गया था।)

आज श्री ललित कुमार के नेतृत्व में ‘भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए' तैयार किया गया अभूतपूर्व ‘कविता कोश' है, जिस में हिन्दी-उर्दू सहित भोजपुरी, राजस्थानी, अंगिका, अवधी, नेपाली, हरियाणवी के अतिरिक्त अन्य भाषाएँ समाई जा रही हैं और काव्य का विशाल रंगमंच बनता जा रहा है। इसी तरह ‘हिन्दी गद्य कोश' भी निरंतर बढ़ता जा रहा है। कल्पना कीजिए संसार में कोई भी, कहीँ भी और कभी भी हिन्दी साहित्य का रसास्वादन कर सकता है, किसी लेख में कोट (quote) भी कर सकता है।

किसी को शब्दकोश चाहिए तो कई हिन्दी-इंलिश-हिन्दी कोश हैं। द्विभाषी थिसारस चाहिए तो मेरा अरविंद लैक्सिकन मौजूद है। और तो और अमेरीकी सरकार की नई नीति के अंतर्गत दक्षिण एशिया की सभी भाषाओं के कोश अब उपलब्ध हैं - जैसे काशी नागरी प्रचारिणी सभा का बाबू श्यामसुंदर दास का ग्यारह खंडों वाला ‘हिन्दी शब्दसागर' सब के लिए खुला है। मैं नित्यप्रति इस का उपयोग करता हूँ। इसका एक विशेष लाभ बताना चाहता हूँ। आप को तरह तरह के खेलों की जानकारी चाहिए। सर्च बाक्स में ‘खेल' टाइप कीजिए। पूरे कोश में जिस जगह भी खेल शब्द आया है, वह आप देख सकते हैँ। कई ऐसे खेल आप को मिलेंगे जो अब भुलाए जा चुके हैं। उदाहरण के लिए मैं नीचे कुल 28 प्रविष्टियाँ दिखा रहा हूं:
1) अंटाघर (p. 16) ...वह कमरा जिसमें गोली का खेल खेला जाय। इस खेल को अंगरेजी में बिलियर्ड.........

 
 
न्यूज़ीलैंड में द कश्मीर फाइल्स फिल्म 18 से ऊपर के आयुवर्ग के लिए उपलब्ध  - भारत-दर्शन समाचार
न्यूज़ीलैंड के मुख्य सेंसर ने बॉलीवुड फिल्म 'द कश्मीर फाइल्स' को स्थानीय मुस्लिम समुदाय द्वारा चिंता जताए जाने के बाद कि यह मुस्लिम विरोधी भावना को भड़का सकती है, अब पुनर्वर्गीकृत किया है।
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इस दौर में... - उदय प्रताप सिंह

इस दौर में कोई न जुबां खोल रहा है
तुझको ही क्या पड़ी है कि सच बोल रहा है

बेशक हजार बार लुटा पर बिका नहीं......

 
 
सब फैसले होते नहीं... - उदय प्रताप सिंह

सब फैसले होते नहीं सिक्का उछाल के
दिल का मामला हैं जरा देखभाल के

मोबाइलों के दौर के आशिक को क्या पता......

 
 
क्या ख़ास क्या है आम - हस्तीमल हस्ती

क्या ख़ास क्या है आम ये मालूम है मुझे
किसके हैं कितने दाम ये मालूम है मुझे

हम लड़ रहे हैं रात से लेकिन उजालों पर......

 
 
जहाँ जाते हैं हम... -  उदय प्रताप सिंह

जहाँ जाते हैं हम कोई कहानी छोड़ जाते हैं
ज़रा सा प्यार थोड़ी सी जवानी छोड़ आते हैं

कहानी राम की वन-वासियों पर फ़ख़्र करती है ......

 
 
ढूँढा है हर जगह पे... - हस्तीमल हस्ती

ढूँढा है हर जगह पे कहीं पर नहीं मिला
ग़म से तो गहरा कोई समुंदर नहीं मिला

ये तजुर्बा हुआ है मोहब्बत की राह में ......

 
 
चंद्रशेखर आज़ाद का जीवन परिचय - भारत-दर्शन संकलन

चंद्रशेखर आज़ाद (Chandrasekhar Azad) का जन्म 23 जुलाई, 1906 को एक आदिवासी ग्राम भाबरा में हुआ था। काकोरी ट्रेन डकैती और साण्डर्स की हत्या में सम्मिलित निर्भीक महान देशभक्त व क्रांतिकारी चंद्रशेखर आज़ाद का नाम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में अहम् स्थान रखता है।

आपके पिता पंडित सीताराम तिवारी उत्तर प्रदेश के उन्नाव ज़िले के बदर गांव के रहने वाले थे। भीषण अकाल के चलते आप ग्राम भाबरा में जा बसे। चंद्रशेखर आज़ाद का प्रारंभिक जीवन आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र भाबरा में व्यतीत हुआ जहाँ आपने अपने भील सखाओं के साथ धनुष-बाण चलाना सीख लिया था।

आज़ाद बचपन में महात्मा गांधी से प्रभावित थे।  मां जगरानी से काशी में संस्कृत पढ़ने की आज्ञा लेकर घर से निकले। दिसंबर 1921 गांधी जी के असहयोग आंदोलन का आरम्भिक दौर था, उस समय मात्र चौदह वर्ष की आयु में बालक चंद्रशेखर ने इस आंदोलन में भाग लिया।  चंद्रशेखर गिरफ्तार कर लिए गए और उन्हें मजिस्ट्रेट के समक्ष उपस्थित किया गया।  चंद्रशेखर से उनका नाम पूछा गया तो उन्होंने अपना नाम आज़ाद, पिता का नाम स्वतंत्रता और घर 'जेलखाना' बताया। उन्हें अल्पायु के कारण कारागार का दंड न देकर 15 कोड़ों की सजा हुई। हर कोड़े की मार पर, ‘वन्दे मातरम्‌' और ‘महात्मा गाँधी की जय' का उच्च उद्घोष करने वाले बालक चन्द्रशेखर सीताराम तिवारी को इस घटना के पश्चात् सार्वजनिक रूप से चंद्रशेखर 'आज़ाद' कहा जाने लगा।

 

चंद्रशेखर का क्रांतिकारी जीवन

1922 में गांधी जी द्वारा असहयोग आंदोलन को स्थगित कर दिया गया। इससे चंद्रशेखर आजाद बहुत आहत हुए।  उन्होंने देश का स्वंतत्र करवाने की मन में ठान ली। एक युवा क्रांतिकारी  ने उन्हें हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन क्रांतिकारी दल के संस्थापक राम प्रसाद बिस्मिल से परिचित करवाया। आजाद  बिस्मिल से बहुत प्रभावित हुए । चंद्रशेखर आजाद के समर्पण और निष्ठा की पहचान करने के बाद बिस्मिल ने चंद्रशेखर आजाद को अपनी संस्था का सक्रिय सदस्य बना लिया।  चंद्रशेखर आजाद अपने साथियों के साथ संस्था के लिए धन एकत्रित करते थे। अधिकतर यह धन अंग्रेजी सरकार से लूट कर एकत्रित किया जाता था।

 

चंद्रशेखर आजाद और भगत सिंह

1925 में हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन की स्थापना की गई थी। 1925 में काकोरी कांड के फलस्वरूप अशफाक उल्ला खां, रामप्रसाद 'बिस्मिल' सहित कई अन्य मुख्य क्रांतिकारियों को मृत्यु-दण्ड दिया गया था।  इसके बाद चंद्रशेखर ने इस संस्था का पुनर्गठन किया। भगवतीचरण वोहरा के संपर्क में आने के पश्चात् चंद्रशेखर आज़ाद भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु के भी निकट आ गए।   भगत सिंह के साथ मिलकर चंद्रशेखर आजाद ने अंग्रेजी हुकूमत को भयभीत करने और भारत से खदेड़ने का हर संभव प्रयास किया।

 

झांसी में क्रांतिकारी गतिविधियां

चंद्रशेखर आजाद ने एक निर्धारित समय के लिए झांसी को अपना गढ़ बना लिया। झांसी से पंद्रह किलोमीटर दूर ओरछा के जंगलों में वह अपने साथियों के साथ निशानेबाजी किया करते थे। अचूक निशानेबाज होने के कारण चंद्रशेखर आजाद दूसरे क्रांतिकारियों को प्रशिक्षण देने के साथ-साथ पंडित हरिशंकर ब्रह्मचारी के छ्द्म नाम से बच्चों के अध्यापन का कार्य भी करते थे। वह धिमारपुर गांव में अपने इसी छद्म नाम से स्थानीय लोगों के बीच बहुत लोकप्रिय हो गए थे। झांसी में रहते हुए चंद्रशेखर आजाद ने गाड़ी चलानी भी सीख ली थी।

 

चंद्रशेखर आज़ाद का आत्म-बलिदान

फरवरी 1931 में जब चंद्रशेखर आज़ाद गणेश शंकर विद्यार्थी से मिलने सीतापुर जेल गए तो विद्यार्थी ने उन्हें इलाहाबाद जाकर जवाहर लाल नेहरू से मिलने को कहा। चंद्रशेखर आजाद जब नेहरू से मिलने आनंद भवन गए तो उन्होंने चंद्रशेखर की बात सुनने से भी इनकार कर दिया। गुस्से में वहाँ से निकलकर चंद्रशेखर आजाद अपने साथी सुखदेव राज के साथ एल्फ्रेड पार्क चले गए। वे सुखदेव के साथ आगामी योजनाओं के विषय पर विचार-विमर्श कर ही रहे थे कि पुलिस ने उन्हें घेर लिया।  आज़ाद ने अपनी जेब से पिस्तौल निकालकर गोलियां दागनी शुरू कर दी। आज़ाद ने सुखदेव को तो भगा दिया पर स्वयं अंग्रेजों का अकेले ही सामना करते रहे। दोनों ओर से गोलीबारी हुई लेकिन जब चंद्रशेखर के पास मात्र एक ही गोली शेष रह गई तो उन्हें पुलिस का सामना करना मुश्किल लगा। चंद्रशेखर आज़ाद ने  यह प्रण लिया हुआ था कि वह कभी भी जीवित पुलिस के हाथ नहीं आएंगे। इसी प्रण को निभाते हुए एल्फ्रेड पार्क में 27 फरवरी 1931 को उन्होंने वह बची हुई गोली स्वयं पर दाग के आत्म बलिदान कर लिया।

पुलिस के अंदर चंद्रशेखर आजाद का भय इतना था कि किसी को भी उनके मृत शरीर के के पास जाने तक की हिम्मत नहीं थी। उनके मृत शरीर पर गोलियाँ चलाकर पूरी तरह आश्वस्त होने के बाद ही चंद्रशेखर की मृत्यु की पुष्टि की गई।

बाद में स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात जिस पार्क में उनका निधन हुआ था उसका नाम परिवर्तित कर चंद्रशेखर आजाद पार्क और मध्य प्रदेश के जिस गांव में वह रहे थे उसका धिमारपुरा नाम बदलकर आजादपुरा रखा गया।


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मत पूछिये क्यों... - शेरजंग गर्ग

मत पूछिये क्यों पाँव में रफ़्तार नहीं है
यह कारवाँ मज़िल का तलबग़ार नहीं है

जेबों में नहीं सिर्फ़ गरेबान में झाँको......

 
 
आँखों में रहा.. - बशीर बद्र

आँखों में रहा दिल में उतर कर नहीं देखा
कश्ती के मुसाफ़िर ने समुंदर नहीं देखा

बे-वक़्त अगर जाऊँगा सब चौंक पड़ेंगे ......

 
 
अगर हम कहें... - सुदर्शन फ़ाकिर

अगर हम कहें और वो मुस्कुरा दें
हम उन के लिए ज़िंदगानी लुटा दें

हर इक मोड़ पर हम ग़मों को सज़ा दें ......

 
 
ये किसने भीड़ में - श्याम ‘निर्मम'

ये किसने भीड़ में लाकर अकेला छोड़ दिया
मेरा तमाम सफ़र हादसों से जोड़ दिया

बड़ी घुमाव भरी है सुरंग दूर तलक ......

 
 
बलजीत सिंह की दो कविताएं  - बलजीत सिंह

बर्फ का पसीना

सर्द

सुबहें,

रातें

अल्लाह!

फक कोहरे में

जायल

मानव - पिंजर।

अँधेरा,

कोहरे में ढका,

थरथराता,

कांपता,

हैवानियत का देवता

कोहरे की दहशत

अपनी आँखों में

कैद करता,

लुकता,

घिसड़ता

पथरीली ज़मीन पर।

कोहरा

आसमान का देवता

कूंच करता

ज़मीं की ओर

निगलता जाता

रास्ते के पहाड़,

आवारा सडकें,

बंज़र मरुस्थल,

निडर नदियाँ,

पठार

सबकुछ ।

कोहरा

नदी से उगता - सा

नदी को छूता,

चखता

और

महीनों की इकट्ठी

अपने अंदर की ठंड

उड़ेल देता

नदी के नंगे सीने पर

कोहरा

नदी के ज़ेहन में भी रेंगता है

एक खौफ बनकर।

                                                 ......

 
 
अपने होने का पता  - विजयकुमार सिंघल

अपने होने का पता मिलता नहीं
आजकल वो बेवफ़ा मिलता नहीं

उसके घर का रास्ता जबसे मिला ......

 
 
मन रामायण जीवन गीता - सोम अधीर

मन रामायण जीवन गीता
यह घट आधा वह घट रीता

कैसे गुज़री रात न पूछो ......

 
 
गुरु नानकदेव के पद  - गुरु नानकदेव

झूठी देखी प्रीत

जगत में झूठी देखी प्रीत।
अपने ही सुखसों सब लागे, क्या दारा क्या मीत॥......

 
 
तू है बादल - लक्ष्मी शंकर वाजपेयी

तू है बादल
तो, बरसा जल

महल के नीचे......

 
 
जल को तरसे हैं ...  - जया गोस्वामी

जल को तरसे हैं यहाँ खून पसीनो वाले
आसमा छूने लगे लोग ज़मीनो वाले

जो उठाते थे कभी खान से पत्थर सर पर......

 
 
जहाँ पेड़ पर... - बशीर बद्र

जहाँ पेड़ पर चार दाने लगे
हज़ारों तरफ से निशाने लगे

हुई शाम, यादों के इक गाँव से......

 
 
एक दरी, कंबल, मफलर - अशोक वर्मा

एक दरी, कंबल, मफ़लर, मोजे, दस्ताने रख देना
कुछ ग़ज़लों के कैसेट, कुछ सहगल के गाने रख देना

छत पर नए परिंदों से जब खुलकर बातें करनी हों, ......

 
 
रिश्ते, पड़ोस, दोस्त - उर्मिलेश

रिश्ते, पड़ोस, दोस्त, ज़मीं सबसे कट गए
फिर यूँ हुआ कि लोग यहाँ खुद से कट गए

सारे ही मौसमों में निभाते थे सबका साथ ......

 
 
माँ - मनीषा श्री

[कविता सुनने के लिए यहाँ क्लिक करें]

 

माँ मुझको प्यारी है
जीवन की......

 
 
भावना चंद की तीन कविताएं - भावना चंद

उम्मीद


दिन भर की दौड़ धूप .........

 
 
आख़िर खुदकुशी करते हैं क्यों ? - रवि श्रीवास्तव

आख़िर खुदकुशी करते हैं क्यों ?
जिंदगी जीने से डरते हैं क्यों ?......

 
 
पहुँचे उनको मेरा सलाम -  क़ैस जौनपुरी

तुमने सुना?

दुनिया से एक नेक इंसान कम हो गया...


कौन?

......

 
 
हिन्दी गान  -  महेश श्रीवास्तव

भाषा संस्कृति प्राण देश के इनके रहते राष्ट्र रहेगा।
हिन्दी का जय घोष गुँजाकर भारत माँ का मान बढ़ेगा।।

......

 
 
75वें स्वतंत्रता दिवस का भव्य समारोह संपन्न - भारत-दर्शन समाचार

स्वतंत्रता दिवस 2021

15 अगस्त 2021 (न्यूजीलैंड): ऑकलैंड के महात्मा गांधी सेंटर में भारत के 75वें स्वतंत्रता दिवस का भव्य समारोह आयोजन किया गया। भारत के उच्चायुक्त मुक्तेश कुमार परदेशी ने ध्वजारोहण किया। उसके बाद राष्ट्रगान  हुआ। उच्चायुक्त ने अपने भाषण में घोषणा की कि भारत की आज़ादी के 75 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में सम्पूर्ण न्यूजीलैंड में ‘आज़ादी का अमृत महोत्सव' वर्ष भर चलने वाला उत्सव होगा। उच्चायुक्त ने भारत के माननीय राष्ट्रपति के अभिभाषण के अंश भी पढ़े।

इस कार्यक्रम में अनेक गणमान्य उपस्थित थे जिनमें न्यूज़ीलैंड की मंत्री प्रियंका राधाकृष्णन, मंत्री माइकल वुड, ऑकलैंड के मेयर फिल गोफ, ऑकलैंड में भारत के मानद कौंसल भाव ढिल्लों व अनेक सांसद सम्मिलित थे।

इस अवसर पर उच्चायुक्त ने न्यूज़ीलैंड की मंत्री प्रियंका राधाकृष्णन को प्रवासी भारतीय सम्मान पुरस्कार 2021 प्रदान किया। प्रियंका राधाकृष्णन, न्यूजीलैंड सरकार में भारत में जन्मी पहली मंत्री हैं। उच्चायुक्त ने ‘भारत को जाने क्विज 2020-2021' के विजेताओं को भी सम्मानित किया और योग छायाचित्र प्रतियोगिता ‘योग इन एक्शन' के विजेताओं को भी प्रमाण पत्र दिए।

‘आज़ादी का अमृत महोत्सव' के अंतर्गत न्यूज़ीलैंड के मूल निवासियों के प्रति सम्मान जताते हुए उच्चायुक्त ने ‘माओरी की 75 कहावतें' ई-पुस्तिका भी लॉन्च की। यह पुस्तिका भारत-दर्शन पत्रिका के सहयोग से प्रकाशित होगी।

वेलिंगटन में द्वितीय सचिव और चांसरी के प्रमुख सी डॉस जयकुमार ने ध्वजारोहण किया। उन्होंने भारत के राष्ट्रपति के भाषण के अंश पढ़े। भारत का उच्चायोग वेलिंगटन में स्थित है और सामान्यतः भारत के उच्चायुक्त ही ध्वजारोहण करते हैं लेकिन इस बार ‘आज़ादी के अमृत महोत्सव' के विशेष आयोजन के कारण उच्चायुक्त ऑकलैंड के कार्यक्रम में सम्मिलित थे।

ऑकलैंड और वेलिंगटन के दोनों आयोजनों में भारतीय समुदाय और भारतीय शास्त्रीय नृत्य विद्यालयों के सदस्यों ने भारत की समृद्ध और विविध सांस्कृतिक विरासत प्रदर्शित करते हुए सांस्कृतिक प्रदर्शन प्रस्तुत किए।

इस अवसर पर उच्चायुक्त ने ऑकलैंड के मेयर से एक उपयुक्त स्थान के सुझाव की भी अपील की, जहां महात्मा गांधी की प्रतिमा स्थापित की जा सके। उन्होंने कहा कि ऑकलैंड में एक प्रमुख सार्वजनिक स्थान पर महात्मा गांधी की प्रतिमा स्थापित करना भारतीय समुदाय का एक सपना था।

इस कार्यक्रम के भिन्न-भिन्न भागों का संचालन भी विभिन्न मंच संचालकों ने किया लेकिन मुख्य रूप से कार्यक्रम का मंच संचालन भारतीय उच्चायोग के इशांत और ऑकलैंड की रूपा सचदेव ने किया।
[भारत-दर्शन समाचार]

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ऑस्ट्रेलिया में भारत के नए उच्चायुक्त, मनप्रीत वोहरा ने अपना पदभार संभाला - भारत-दर्शन समाचार

उच्चायुक्त, मनप्रीत वोहरा

28 अप्रैल 2021 (न्यूज़ीलैंड): ऑस्ट्रेलिया में भारत के नए उच्चायुक्त, मनप्रीत वोहरा ने अपना पद संभाल लिया है।

ऑस्ट्रेलिया में भारत के उच्चायुक्त, मनप्रीत वोहरा, भारतीय विदेश सेवा के 1988 बैच के अधिकारी हैं। आप इससे पूर्व मैक्सिको में भारत के राजदूत रहे हैं। आप अनेक देशों के राजदूत और उच्चायुक्त रहे हैं। भारत के विदेश मंत्रालय ने मार्च में आपकी नियुक्ति की घोषणा की थी।
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न्यूज़ीलैंड में हिंदी | संसदीय समिति के समक्ष हिंदी का पक्ष - भारत-दर्शन समाचार

14 अप्रैल 2021 (न्यूज़ीलैंड): शिक्षा संशोधन विधेयक (प्राथमिक एवं माध्यमिक विद्यालयों में द्वितीय भाषा अध्ययन सशक्तिकरण) के संदर्भ में आज न्यूज़ीलैंड की संसदीय समिति के समक्ष मौखिक प्रस्तुतियाँ हुईं जिनमें हिंदी के समर्थन में भी प्रस्तुतियां हुई। सब्मिशन भरे जाने के पश्चात संसदीय समिति ने कुछ संस्थाओं को मौखिक रूप से अपनी प्रस्तुति के लिए 14 अप्रैल को आमंत्रित किया था। हिंदी के समर्थन में भारत-दर्शन ऑनलाइन पत्रिका, भारतीय भाषा एवं शोध संस्थान, वायटाकरे हिंदी विद्यालय और वैलिंगटन हिंदी विद्यालय के प्रतिनिधियों ने अपना पक्ष रखा।

Sansadiya Samiti New Zealand

आज की प्रस्तुतियों में भारत-दर्शन के सम्पादक, रोहित कुमार 'हैप्पी', भारतीय भाषा एवं शोध संस्थान की ओर से डॉ पुष्पा भारद्वाज-वुड व सुनीता नारायण, वायटाकरे हिंदी विद्यालय की ओर से सतेन शर्मा व वैलिंगटन हिंदी विद्यालय की ओर से कश्मीर कौर ने अपना पक्ष रखा। वैलिंगटन हिंदी विद्यालय के एक भूतपूर्व छात्र ने भी अपने अनुभव साझा किए और हिंदी शिक्षण के सन्दर्भ में अपना पक्ष रखा।

रोहित कुमार 'हैप्पी' ने न्यूज़ीलैंड में हिंदी भाषियों का उल्लेख करते हुए, न्यूज़ीलैंड शिक्षण की पृष्ठभूमि और स्थानीय हिंदी मीडिया की जानकारी दी। उन्होंने इस बात का भी उल्लेख किया कि वैलिंगटन स्थित भारतीय उच्चायोग हिंदी का पूर्ण रूप से समर्थन करता है। उच्चायुक्त, परदेशी अपना पूरा सहयोग दे रहे हैं। इसके अतिरिक्त भारत शिक्षा मंत्रालय की सबसे बड़ी संस्थाओं में से एक राष्ट्रीय मुक्त विद्यालयी शिक्षा संस्थान और विश्व हिंदी सचिवालय (मॉरीशस) ने भी अपना पूर्ण समर्थन और आश्वासन दिया है। "न्यूज़ीलैंड ने 'भारत-दर्शन' के रूप में विश्व को हिंदी का पहला वेब प्रकाशन दिया और वह अनेक हिंदी के संसाधन विकसित कर रहा है।" तकनीक के क्षेत्र में भारत-दर्शन ने पूर्ण सहयोग की पेशकश की।

Sansadiya Samiti Ke Samksh Hindi Hetu Prastutiya

डॉ पुष्पा ने हिंदी शिक्षण व पाठ्यक्रम के विकास पर चर्चा की। बच्चों को किस प्रकार शिक्षण दिया जाए और पाठ्यक्रम में क्या सम्मिलित हो ताकि उसका स्थनीयकरण भी हो, यह बात उठाई। न्यूज़ीलैंड में चौथी सर्वाधिक बोली जाने वाली हिंदी के पक्ष में कई तथ्य समिति के समक्ष रखे। उन्होंने बताया, यह न्यूज़ीलैंड और भारत के संबंधों को सुदृढ़ करेगा। हिंदी पढ़ाने वाले शिक्षक यहाँ उपलब्ध हैं और हमारे पास भारत सरकार के सहयोग का आश्वासन है। यहां के भारतीय उच्चायुक्त बहुत सहयोगी हैं।

वायटाकरे हिंदी विद्यालय के संचालक, सतेन शर्मा ने हिंदी शिक्षण की चर्चा की और हिंदी पढ़ाने के लाभों पर बल दिया। उनका यह भी मानना है कि यदि हिंदी मुख़्यधारा के स्कूलों में पढ़ाई जानी आरम्भ हुई तब भी सप्ताहांत विद्यालय साथ-साथ चलते रहें। इन विद्यालयों का अपना महत्त्व है।

वैलिंगटन हिंदी विद्यालय की ओर से कश्मीर कौर ने अपना पक्ष रखा। उन्होंने स्कूल की उपलब्धियों का उल्लेख किया और हिंदी शिक्षण के अनेक लाभ संसदीय समिति के समक्ष रखे। उनके साथ विद्यालय का एक छात्र, 'आनव सिंह' और वैलिंगटन हिंदी विद्यालय की संचालिका सुनीता नारायण उपस्थित थे।

न्यूज़ीलैंड में हिंदी भाषियों की संख्या व अन्य तथ्यों के आधार पर प्राथमिक एवं माध्यमिक विद्यालयों में हिंदी के द्वितीय भाषा के रूप में शिक्षण के काफी अवसर हैं लेकिन संसदीय समिति द्वारा सभी प्रस्तुतियों को सुन लेने के पश्चात अगली संसदीय प्रक्रिया की प्रतीक्षा करनी होगी।

[भारत-दर्शन समाचार]


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हमें गाँधी-नेहरू तो याद रहे -  भैरो सिंह

जाने कितने झूले थे फाँसी पर, कितनों ने गोली खाई थी।।
पर झूठ देश से बोला कोरा, कि चरखे से आज़ादी आई थी।।

चरखा हरदम खामोश रहा, और अंत देश को बांट दिया। ......

 
 
पलानीस्वामी सुब्रमण्यन कार्तिग्यन होंगे फीजी के नए भारतीय उच्चायुक्त - भारत-दर्शन समाचार

28 जनवरी (भारत): पलानीस्वामी सुब्रमण्यन कार्तिग्यन (Palaniswamy Subramanyan Karthigeyan) को फीजी गणराज्य में भारत के अगले उच्चायुक्त के रूप में नियुक्त किया गया।

2004 बैच के आई एफ एस (IFS) अधिकारी वर्तमान में भारतीय उच्चायोग, कैनबरा में उप उच्चायुक्त हैं। कार्तिग्यन शीघ्र ही फीजी में भारत के अगले उच्चायुक्त का कार्यभार संभालेंगे।

[भारत-दर्शन समाचार]


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ये शोर करता है कोई  - मोहित कुमार शर्मा

कितना और बोले
कोई तो बताए ......

 
 
सवा लाख से अधिक ने गांधी और गांधी साहित्य पढ़ा  - भारत-दर्शन समाचार

Gandhi Jayanti Readership


3 अक्टूबर 2019 (न्यूज़ीलैंड): भारत-दर्शन पर एक दिन में सवा लाख से अधिक ने गांधी और गांधी साहित्य पढ़ा था।

पिछ्ली गांधी जयंती पर भारत-दर्शन पर एक दिन में 180,167 पृष्ठ पढ़े गए जिनमें 128,011 पृष्ठ गांधीजी से संबंधित सामग्री थी। यह आंकड़े गूगल एनालिटिक्स (Google Analytics) के हैं।

भारत-दर्शन के इस माह के आंकड़ें तो अगले महीने बता पाएंगे कि कितने लोगों ने गाँधी साहित्य पढ़ा लेकिन गूगल ट्रेंड के पिछले दो दिनों के आंकड़े बताते हैं कि महात्मा गाँधी के प्रति विश्व भर में रूचि है। पूरे विश्व में गाँधी और गाँधी साहित्य पढ़ा जा रहा है।

[भारत-दर्शन समाचार]

 

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न्यूज़ीलैंड की संसद में संस्कृत में ऐतिहासिक शपथ  - रोहित कुमार हैप्पी

Dr Gaurav Sharma, the MP for Hamilton West, took the oath in local language te reo and then in Sanskrit during the swearing-in ceremony.

डॉ. गौरव शर्मा ने संस्कृत में ली शपथ

25 नवंबर 2020 (न्यूज़ीलैंड): न्यूज़ीलैंड के भारतीय मूल के नवनिर्वाचित सांसद डॉ. गौरव शर्मा ने संस्कृत में शपथ लेकर न्यूज़ीलैंड के भारतीय अध्याय में एक नया ऐतिहासिक अध्याय जोड़ दिया है। वे न्यूज़ीलैंडके पहले व विश्व के दूसरे ऐसे राजनीतिज्ञ हैं जिन्होंने भारत से बाहर की किसी संसद में संस्कृत में शपथ ली है।  इनसे पहले भारतीय मूल के सूरीनाम के राष्ट्रपति चंद्रिका प्रसाद संतोखी  ने अपनी शपथ संस्कृत में ली थी। 

हिंदी में शपथ न लेने के प्रश्न पर युवा सांसद डॉ. गौरव शर्मा ने कहा, "सच कहूं तो मैंने ऐसा सोचा था, लेकिन तब इसे पहाड़ी (मेरी पहली भाषा) या पंजाबी में करने का सवाल उठता। सभी को खुश रखना मुश्किल है। संस्कृत में शपथ लेना सभी भारतीय भाषाओं का सम्मान करना है।"

संस्कृत के विषय में वे कहते हैं, "मैंने भारत के ग्रामीण क्षेत्र के एक छोटे से स्कूल में संस्कृत का अध्ययन किया, जहाँ यह केवल किसी एक वर्ग या संस्कृति से  सम्बन्धित न होकर,  हर छात्र के पाठ्यक्रम का अनिवार्य हिस्सा है।"

डॉ. शर्मा हैमिल्टन वेस्ट से लेबर पार्टी के नवनिर्वाचित सांसद हैं,  वे निर्वाचित होकर सांसद बनने वाले भारतीय मूल के पहले व्यक्ति हैं।  उनके अतिरिक्त प्रियंका राधाकृष्णन भी इस बार 'लेबर पार्टी' से निर्वाचित हुई हैं।  न्यूज़ीलैंड में अभी तक भारतीय मूल के अनेक सांसद रह चुके हैं लेकिन वे निर्वाचित न होकर, मनोनीत सांसद थे।  इन्हीं में से एक कंवलजीत सिंह बख्शी ने भी पिछली बार न्यूज़ीलैंड की संसद में अपनी शपथ हिंदी में लेकर इतिहास रचा था।  वे न्यूज़ीलैंड के पहले ऐसे सांसद थे जिन्होंने अपनी शपथ हिंदी में ली थी।  

  
डॉ. शर्मा ने मूलतः  हिमाचल से हैं।  वे केवल 12 वर्ष की आयु में अपने अभिभावकों के साथ  न्यूजीलैंड आ बसे थे। उनकी अधिकांश शिक्षा-दीक्षा न्यूजीलैंड में हुई है।  वे पेशे से डॉक्टर हैं। उन्होंने ऑकलैंड से एमबीबीएस और वाशिंगटन से एमबीए की है। उन्होंने संसद के रूप में अपनी शपथ पहले माओरी भाषा (न्यूजीलैंड की स्वदेशी भाषा) और उसके पश्चात संस्कृत भाषा में ली।  

न्यूजीलैंड में भारत के उच्चायुक्त, 'मुक्तेश कुमार परदेशी' ने  डॉ. शर्मा के शपथ ग्रहण के बारे में कहा, "उन्होंने माओरी और संस्कृत दोनों भाषाओं में शपथ लेकर न्यूज़ीलैंड और भारत दोनों  की सांस्कृतिक परम्पराओं का सम्मान किया है।"

- रोहित कुमार 'हैप्पी' ......

 
 
प्रियंका सिंह की तीन कविताएं - प्रियंका सिंह

शहर और सागर

यह शहर उतना ही विशाल है
और उतना ही गहरा......

 
 
अकारण  - राजीव वाधवा

गगन में टूटता तारा
कि जैसे हो कोई बेघर ......

 
 
न्यूज़ीलैंड के 9 व्यक्तियों/संस्थाओं को उच्चायोग ने कोविड-19 के दौरान योगदान के लिए सराहा  - भारत-दर्शन समाचार

16 अगस्त 2020 (न्यूज़ीलैंड): भारतीय उच्चायोग ने कोविड-19 आपदा के दौरान 9 विशिष्ट व्यक्तियों / संगठनों को उनकी असाधारण सामुदायिक सेवाओं व योगदान के लिए सराहनापत्र दिए हैं।

इनमें सम्मिलित हैं सर्वश्री रमेश रणछोड़, जीत सचदेव, सुप्रीम सिख सोसायटी, मोंटी पटेल, एकता एनज़ेड, पृथीपाल बसरा, बीएपीएस स्वामीनारायण संस्था, विकास सेठी (प्राण फॅमिली हैल्थ) और भाव ढिल्लो।

[भारत-दर्शन समाचार]


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न्यूज़ीलैंड के चुनाव अब 17 अक्टूबर को - भारत-दर्शन समाचार

17 अगस्त 2020 (न्यूज़ीलैंड): न्यूज़ीलैंड के चुनाव अब 17 अक्टूबर को होंगे, यह निर्णय कोविड-19 संकट के चलते लिया गया है। न्यूज़ीलैंड में मतदान 19 सितंबर को निश्चित थे लेकिन अब इसमें परिवर्तन किया गया है। प्रधानमंत्री ने मीडिया को संबोधित करते हुए यह जानकारी दी।

[भारत-दर्शन समाचार]


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कोविड-19 के 14 नए मामले - भारत-दर्शन समाचार

न्यूज़ीलैंड (13 अगस्त 2020): न्यूज़ीलैंड में कोविड-19 के 14 नए मामले सामने आए हैं, जिनमें 1 प्रबंधित अलगाव में है।

'जैसा कि हमारा सामान्य प्रोटोकॉल है, हम इन मामलों के सभी करीबी और आकस्मिक संपर्कों का पता लगा रहे हैं, और उनका कोविड-19 परीक्षण कर रहे हैं। सभी करीबी संपर्क 14 दिनों के लिए आत्म-अलगाव में रहेंगे, और सभी आकस्मिक संपर्क आत्म-अलगाव में रहेंगे जब तक कि उनके परिणाम नकारात्मक नहीं आ जाते।

न्यूजीलैंड में अब कोविड-19 के 36 सक्रिय मामले हैं।

[भारत-दर्शन समाचार]

 


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भारत के उच्चायुक्त मुक्तेश परदेशी का 'स्वतंत्रता दिवस' संदेश - भारत-दर्शन समाचार

न्यूज़ीलैंड में भारत के उच्चायुक्त मुक्तेश परदेशी

न्यूज़ीलैंड (13 अगस्त 2020) : न्यूज़ीलैंड में भारत के उच्चायुक्त माननीय मुक्तेश परदेशी ने सभी भारतीयों और सामुदायिक मीडिया को 'स्वतंत्रता दिवस' की शुभमाननाएँ दीं। उच्चायुक्त ने अपना संदेश हिंदी और अँग्रेजी दोनों भाषाओं में दिया।

उच्चायुक्त ने अपने सम्बोधन में कहा, "नमस्कार। मैं भारत में बसे सभी भारतीयों और भारतवंशियों को स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएँ देता हूँ। अभी हम एक वैश्विक महामारी से जूझ रहे हैं। इस संदर्भ में मैं सभी भारतीय सामुदायिक संस्थाओं और मीडिया के मित्रों को धन्यवाद देना चाहूँगा जिन्होंने पिछले चार महीनों में भारत के फंसे हुए लोगों को सहायता पहुंचाई है। इस पंद्रह अगस्त को आप जहां भी हों, जैसे भी हों स्वतंत्रता की इस भावना को मनाएँ। जय हिंद!"

भारत का स्वतंत्रता दिवस हर वर्ष 15 अगस्त को होता है। 

[भारत-दर्शन समाचार]

 


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ऑकलैंड में लॉकडाउन (लेवल 3), शेष न्यूज़ीलैंड में 'लेवल 2'  - भारत-दर्शन समाचार

न्यूज़ीलैंड (11 अगुस्त 2020): प्रधानमंत्री जैसिंडा ऑर्डन ने घोषणा की है कि ऑकलैंड लॉकडाउन में रहेगा और देश के बाकी हिस्से 'लेवल 2' पर रहेंगे।

यह निर्णय ऑकलैंड के एक ही परिवार में सामुदायिक प्रसारण (community transmission) के चार मामलों की पुष्टि के बाद लिया गया है।

कल दोपहर से ऑकलैंड शुक्रवार की आधी रात तक तीन दिनों के लिए 'लेवल 3' में रहेगा।

[भारत-दर्शन समाचार]

 


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पल्लवी गोपाल गुप्ता की दो कविताएं - पल्लवी गोपाल गुप्ता

अस्तित्व

नैनों के सपनों से......

 
 
नीर नयनों में नहीं - डॉ मधु त्रिवेदी

विकल हो जाती है माँ देख दुर्दिनता
सोच कर हालात कलेजा फट जाता......

 
 
शैलेंद्र चौहान को आचार्य रामचंद्र शुक्ल कालजयी सम्मान - भारत-दर्शन समाचार

30 सितंबर 2019 (भारत): साहित्यकार, पत्रकार, कवि व आलोचक शैलेंद्र चौहान को कालजयी मंच, सिलीगुड़ी ने 'आचार्य रामचंद्र शुक्ल कालजयी सम्मान' से अलंकृत किया। यह सम्मान उन्हें 30 सितंबर को गुरूंग बस्ती के सिलीगुड़ी मॉडल हाई स्कूल में आयोजित समारोह में प्रदान किया गया।

Shailendra Chuhan Awarded

मैनपुरी (उत्तर प्रदेश) के निवासी शैलेंद्र चौहान एक कवि, कथाकार, आलोचक व पत्रकार हैं। स्पष्टवादिता शैलेंद्र चौहान के साहित्य की पहचान भी है और विशेषता भी। आप व्यवसाय से इंजीनियर रहे हैं।

कालजयी मंच की स्थापना 1990 में आचार्य कैलाश नाथ ओझा ने की थी। मंच के जरिये आचार्य कैलाश नाथ ओझा की परंपरा को आगे बढ़ाने का कार्य किया जा रहा है।

सम्मान समारोह में कवि व वरिष्ठ साहित्यकार तथा कालजयी मंच के अध्यक्ष डॉक्टर भिखी प्रसाद 'विरेंद्र', व्यंगकार व मंच के कार्यकारी अध्यक्ष महावीर चाचान, मंच के महासचिव देवेंद्र नाथ शुक्ल, साहित्यकार बबीता अग्रवाल, नेमातुल्ला नूरी व इरफान ए आजम के अतिरिक्त बिहार के पूर्व विधायक रामाश्रय सिंह, सिलीगुड़ी मॉडल हाईस्कूल (एचएस) के प्रधानाचार्य डॉ. एसएस अग्रवाल, शिक्षक डॉक्टर मुन्ना लाल, सिलीगुड़ी कॉलेज के अध्यापक अजय साव सम्मिलित हुए।
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आई दिवाली - मनोज चौधरी

नच लो झूम लो आई दिवाली
रंगीं समां है रुत मतवाली

आएगी न चान्दनी आज धरा पर......

 
 
छलका दर्द  - जयशंकर प्रसाद द्विवेदी

कहीं मान मिला,अपमान मिला
सब कुछ सहते चले गए ।......

 
 
अन्तस् पीड़ा का गहन जाल  - सागर

अधरों पर हास-------
सुख का परिहास।......

 
 
रांची आकाशवाणी केंद्र पुरस्कृत  - भारत-दर्शन समाचार

नागार्जुन की रचना 'मंत्र' की प्रस्तुति पर आकाशवाणी रांची के  'पंकज मित्र' और  'राजेश करमहे' पुरस्कृत 

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29 सितंबर 2019 (भारत): आकाशवाणी का वार्षिक पुरस्कार 2018 इस बार 'रांची केंद्र' को दिया गया है।  'रांची केंद्र' को नवाचार श्रेणी (इनोवेटिव) के अंतर्गत प्रथम पुरस्कार दिया गया है।  इस केंद्र ने नागार्जुन की रचना 'मंत्र' का नाटकीय पाठ प्रस्तुत किया था।  

नागार्जुन की प्रसिद्ध कविता 'मंत्र' का वाचन 'पंकज मित्र' और ऑडियो एडीटिंग तथा ध्वनि प्रभाव 'राजेश करमहे' ने दिया है। नाटकीय पाठ की प्रस्तुति पंकज मित्र ने की थी। इससे पहले भी 'पंकज मित्र' और 'राजेश करमहे' की जोड़ी 2016 में विशेष रूपक वर्ग के अंतर्गत आकाशवाणी का वार्षिक पुरस्कार पा चुकी है।

आकाशवाणी के सभी केंद्रों के लिए ऐसी प्रतियोगिता हर वर्ष आयोजित की जाती है। वार्षिक प्रतियोगिता में नाटक, रूपक, कृषि, महिला एवं बाल कार्यक्रम, संगीत रूपक, नवाचार श्रेणी (इनोवेटिव) विभिन्न वर्गों में प्रतियोगिता होती है। विजेताओं को नकद धनराशि और विजेता केंद्र को स्मृति चिह्न दिया जाता है।

[भारत-दर्शन समाचार]

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बिरवा तुलसी जी का है - बृज राज किशोर 'राहगीर'

चारों ओर भले ही फैला, उजियारा बिजली का है।
ठाकुरजी के सम्मुख अब भी, दीपक देसी घी का है।

गाँव शहर की ओर चल दिए, सूना कर चौबारों को।......

 
 
राजी खुशी लिख दो ज़रा -  भारत जैन

राजी खुशी लिख दो ज़रा कि ख़त इंतज़ार करे
बीते चैत्र अषाढ कि अब फागुन इंतज़ार करे

पूनो रीति अमास खड़ी है दुविधा विकट बड़ी है......

 
 
हिंदी फाँट डाउनलोड Hindi Unicode Font Download - भारत-दर्शन संकलन

on this website was created using a unicode compliant Devanagari font. Unicode is a 16-bit encoding standard that allows all characters of every major language in the world to be represented. Unicode is platform independent, meaning if you typed something in Windows, it would appear the same way on a Macintosh machine. Most modern systems have built-in unicode support and often require nothing more than a unicode compliant font for any particular language.

If you can see the following sentence, then your computer should have no problems viewing this site:

हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा है | (Hindi bhaarat kii raashtrabhaashaa hai .)

If you cannot view the sentence above, try chaning the font encoding to "UTF-8" in your browser. Most users should find this option by going to View > Encoding.

If you still are not able to view the sentence above, please try following the suggestions for your particular operating system.

Windows Macintosh

  • Windows NT / Windows 2000 / Windows XP/Vista/Window 7 /windows 8
    - Unicode support is built in and you should have no problems.
  • If you are still not able to view the site, please follow the following steps:

Enabling support for Indian languages (Indic) on your computer......

 
 
तब देख बहारें होली की | होली नज़्म  - नज़ीर अकबराबादी

जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की,
और डफ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की,......

 
 
पहेलियाँ - भारत-दर्शन संकलन

भारत में पहेलियों (Riddles) का इतिहास व परम्परा बहुत पुरानी है। हमारे प्राचीन ग्रंथ ॠगवेद में बहुत सी पहेलियाँ हैं। उपनिषदों और हमारे संस्कृत काव्यों में भी पहेलियाँ पाई जाती हैं ।

पहेलियाँ मनोरंजन के साथ-साथ हमारा ज्ञान बढ़ातीं हैं ।

लोक साहित्य में सर्वप्रथम अमीर खुसरो ने पहेलियाँ बनाने का चलन आरम्भ किया। इससे पहले केवल संस्कृत साहित्य में ही पहेलियाँ  प्रहेलिका के नाम से पाई जाती थीं।
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मुकरी  - भारत-दर्शन संकलन

हिन्दी में अमीर ख़ुसरो की मुकरनियाँ प्रसिद्ध हैं। इनको ‘कह-मुकरी’ भी कहते हैं ।  'कह मुकरी' का अर्थ है कह कर मुकर जाना । मुकरने की क्रिया या भाव, एक प्रकार की लोक-प्रचलित कविता जिसका रूप बहुत कुछ पहेली का सा होता है।


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पहेलियाँ - भारत-दर्शन संकलन

किसी व्यक्ति की बुद्धि की परख हेतु पूछे जाने वाले एक प्रकार के प्रश्न, वाक्य अथवा वर्णन को पहेली कहा जाता है। पहेली पूछते हुए, प्रश्न को घुमा-फिराकर पूछा जाता है। पहेली बूझना एक तरह का बौद्धिक व्यायाम है जिससे बुद्धि का विकास होता है।

पहेलियां मनोरंजन के अतिरिक्त बौद्धिक विकास में भी सहायक हैं और निसंदेह ये व्यक्ति का ज्ञान बढ़ाती हैं । गांव देहात में बच्चों से पहेलियां बूझी जाती थी जिससे उनका बौद्धिक विकास होता था ।

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गीत ही गीत | गीत संग्रह  - भारत-दर्शन संकलन

गीत ही गीत | गीत संग्रह


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होली आई रे - डॉ मनिन्दर भाटिया

"होली के दिन दिल खिल जाते है
रंगों में रंग मिल जाते है......

 
 
पौराणिक कथाएँ - भारत-दर्शन संकलन

पौराणिक कथा संकलन में पढ़िए धार्मिक व शिक्षाप्रद कथाएँ, हिन्दू पौराणिक कथाएं, धार्मिक कहानियाँ।

यदि आपके पास कोई पौराणिक कथा है तो कृपया हमें भेजें।


पौराणिक व धार्मिक कथाएं

 
 
शुभेच्छा - लक्ष्मीनारायण मिश्र

न इच्छा स्वर्ग जाने की नहीं रुपये कमाने की ।
नहीं है मौज करने की नहीं है नाम पाने की ।।......

 
 
डॉ सुधेश की पाँच कविताएं - डॉ सुधेश

सफलता सोपान

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पृथ्वीराज चौहान का होली पर प्रश्न  - भारत-दर्शन संकलन

एक समय राजा पृथ्वीराज चौहान ने अपने दरबार के राज-कवि चन्द से कहा कि हम लोगों में जो होली के त्योहार का प्रचार है, वह क्या है? हम सभ्य आर्य लोगों में ऐसे अनार्य महोत्सव का प्रचार क्योंकर हुआ कि आबाल-वृद्ध सभी उस दिन पागल-से होकर वीभत्स-रूप धारण करते तथा अनर्गल और कुत्सित वचनों को निर्लज्जता-पूर्वक उच्चारण करते है । यह सुनकर कवि बोला- ''राजन्! इस महोत्सव की उत्पत्ति का विधान होली की पूजा-विधि में पाया जाता है । फाल्गुन मास की पूर्णिमा में होली का पूजन कहा गया है । उसमें लकड़ी और घास-फूस का बड़ा भारी ढेर लगाकर वेद-मंत्रो से विस्तार के साथ होलिका-दहन किया जाता है । इसी दिन हर महीने की पूर्णिमा के हिसाब से इष्टि ( छोटा-सा यज्ञ) भी होता है । इस कारण भद्रा रहित समय मे होलिका-दहन होकर इष्टि यज्ञ भी हो जाता है । पूजन के बाद होली की भस्म शरीर पर लगाई जाती है ।

होली के लिये प्रदोष अर्थात् सायंकाल-व्यापनी पूर्णिमा लेनी चाहिये और उसी रात्रि में भद्रा-रहित समय में होली प्रज्वलित करनी चाहिये । फाल्गुण की पूर्णिमा के दिन जो मनुष्य चित्त को एकाग्र करके हिंडोले में झूलते हुए श्रीगोविन्द पुरुषोत्तम का दर्शन करता है, वह निश्चय ही बैकुण्ठ में जाता है । यह दोलोत्सव होली होने के दूसरे दिन होता है । यदि पूर्णिमा की पिछली रात्रि मे होली जलाई जाए, तो यह उत्सव प्रतिपदा को होता है और इसी दिन अबीर गुलाल की फाग होती है । उपर्युक्त कारणों के अतिरिक्त इस फाल्गुणी पूर्णिमा के दिन चतुर्दश मनुओं में से एक मनु का भी जन्म है । इस कारण यह मन्वादी तिथि भी है । अत: उसके उपलक्ष्य में भी उत्सव मनाया जाता है । कितने ही शास्त्रकारों ने तो संवत् के आरम्भ एवं बसंतागमन के निमित्त जो यज्ञ किया जाता है, और जिसके द्वारा अग्नि के अधिदेव-स्वरूप का पूजन होता है, वही पूजन इस होलिका का माना है इसी कारण कोई-कोई होलिका-दहन को संवत् के आरम्भ में अग्रि-स्वरूप परमात्मा का पूजन मानते हैं ।

भविष्य-पुराण में नारदजी ने राजा युधिष्ठिर से होली के सम्बन्ध में जो कथा कही है, वह उक्त ग्रन्थ-कथा के अनुसार इस प्रकार है -

नारदजी बोले- हे नराधिप! फाल्गुण की पूर्णिमा को सब मनुष्यों के लिये अभय-दान देना चाहिये, जिससे प्रजा के लोग निश्शंक होकर हँसे और क्रीड़ा करें । डंडे और लाठी को लेकर वाल शूर-वीरों की तरह गाँव से बाहर जाकर होली के लिए लकड़ों और कंडों का संचय करें । उसमें विधिवत् हवन किया जाए। वह पापात्मा राक्षसी अट्टहास, किलकिलाहट और मन्त्रोच्चारण से नष्ट हो जाती है । इस व्रत की व्याख्या से हिरण्यकश्यपु की भगिनो और प्रह्लाद की फुआ, जो प्रहलाद को लेकर अग्नि मे वैठी थी, प्रतिवर्ष होलिका नाम से आज तक जलाई जाती है ।

हे राजन्! पुराणान्तर में ऐसी भी व्याख्या है कि ढुंढला नामक राक्षसी ने शिव-पार्वती का तप करके यह वरदान पाया था कि जिस किसी बालक को वह पाए खाती जाए । परन्तु वरदान देते समय शिवजी ने यह युक्ति रख दी थी कि जो बालक वीभत्स आचरण एवं राक्षसी वृत्ति में निर्लज्जता-पूर्वक फिरते हुए पाए जाएंगे, उनको तू न खा सकेगी । अत: उस राक्षसी से बचने के लिये बालक नाना प्रकार के वीभत्स और निर्लज्ज स्वांग वनाते और अंट-संट बकते हैं ।

हे राजन्! इस हवन से सम्पूर्ण अनिष्टों का नाश होता है और यही होलिका-उत्सव है । होली को ज्वाला की तीन परिक्रमा करके फिर हास-परिहास करना चाहिए । ''

कवि चंद की कही हुई इस कथा को सुनकर राजा पृथ्वीराज बहुत प्रसन्न हुए ।

[साभार - हिंदुओं के व्रत और त्योहार]

 


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अंतरराष्ट्रीय हिंदी कहानी प्रतियोगिता 2019 - भारत-दर्शन समाचार

विश्व हिंदी सचिवालय मॉरीशस एक अंतरराष्ट्रीय हिंदी कहानी प्रतियोगिता का आयोजन कर रहा है। यह आयोजन विश्व हिंदी दिवस 2020 के उपलक्ष्य में किया जा रहा है जिसके लिए प्रविष्टियाँ आमंत्रित हैं। प्रविष्टि भेजने की अंतिम तिथि 13 दिसंबर 2019 है। परिणामों की घोषणा विश्व हिंदी दिवस 2020 के समारोह में की जाएगी। 

इस प्रतियोगिता को पाँच भौगोलिक क्षेत्रों में बाँटा गया है जिनमें अफ्रीका व मध्य पूर्व, अमेरिका, एशिया व ऑस्ट्रेलिया (भारत के अतिरिक्त), यूरोप और भारत सम्मिलित हैं। इस प्रतियोगिता में प्रथम, द्वितीय और तृतीय स्थान पाने वालों को 300, 200 और 100 अमरीकन डालर की धनराशि व प्रमाण-पत्र से पुरस्कृत किया जाएगा। 

विश्व हिंदी सचिवालय पिछले कई वर्षों से विभिन्न विधाओं पर ऐसी प्रतियोगिताएँ आयोजित कर चुका है जिनमें लघुकथा, एकाँकी और यात्रा वृतांत सम्मिलित हैं। इसी शृंखला को आगे बढ़ाते हुए इस बार 'हिंदी कहानी प्रतियोगिता' का चयन किया गया है।

आप डाक अथवा ई-मेल द्वारा अपनी प्र्विष्टि सचिवालय को भेज सकते हैं।


ई-मेल: whscompetitions@gmail.com......

 
 
अमरनाथ की पौराणिक कथाएं  - रोहित कुमार 'हैप्पी'

अमरनाथ धाम के बारे में कई कहानियां प्रचलित हैं। सबसे लोकप्रिय कथा अमर कबूतर-कबूतरी की है।

अमर कबूतर-कबूतरी की कथा

पौराणिक कथा के अनुसार इस गुफा में भगवान शिव ने माता पार्वती को समस्‍त सृष्‍टि की रचना और मानवता के लिए मोक्ष के तरीकों का रहस्‍य बताया था।

जब माता पार्वती को भगवान शिव अमर होने की कथा सुना रहे थे तो माता पार्वती कथा को सुनते हुए सो गईं, लेकिन यह कथा एक कबूतर के जोड़े ने सुन ली तब से वो अमर हो गए। कबूतरों के इस जोड़े ने गुफा को अपना चिरकालिक स्‍थान बना लिया और आज भी गुफा में श्रद्धालुओं को दो कबूतर बैठे हुए दिखाई देते हैं। मान्यता है कि जो भी भक्त अमरनाथ यात्रा के लिए इस गुफा में आता है, इस कबूतर जोड़े के दर्शन होना किसी दैवीय कृपा से कम नहीं।

- रोहित कुमार 'हैप्पी'

 

उपरोक्त 'कबूतर के जोड़े'  वाली कथा के अतिरिक्त एक अन्य निम्नलिखित कथा भी प्रचलित है:

 

मुस्लिम चरवाहे की कथा

ऐसा माना जाता है कि बूटा मलिक नाम के एक मुस्‍लिम चरवाहे को एक ऋषि ने कोयले का एक बोरा दिया। घर पहुंचने के बाद मलिक ने पाया कि बोरे में सोना भरा हुआ है। वह इतना खुश हो गया कि खुशी के मारे ऋषि का आभार व्‍यक्‍त करने के लिए वापस उनके पास पहुंचा। वहां उसने एक चमत्‍कार देखा। उसे एक गुफा देखकर अपनी आंखों पर विश्‍वास नहीं हुआ। तभी से पवित्र गुफा वार्षिक तीर्थ यात्रा का स्‍थान बन गई।

- रोहित कुमार 'हैप्पी'

 


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शहीदों के प्रति  - भोलानाथ दर्दी

भइया नहीं है लाशां यह बे कफ़न तुम्हारा
है पूजने के लायक पावन बदन तुम्हारा

दिन तेईसको यह होगा त्योहार एक कौमी ......

 
 
वीर सपूत - रवीन्द्र भारती | देशभक्ति कविता

गंगा बड़ी है हिमालय बड़ा है
तुम बड़े हो या धरती बड़ी है ......

 
 
प्रदीप मिश्र की चार कवितायें - प्रदीप मिश्र

बुरे दिनों के कलैण्डरों में


जिस तरह से......

 
 
जयरामजी की  - प्रदीप मिश्र

जयरामजी की


सुना जयरामजी की......

 
 
आजाद की मातृभूमि  - संजय वर्मा

अमर शहीद चंद्रशेखर आजाद की जन्मस्थली भाभरा को चंद्रशेखर आजाद नगर घोषित किये जाने पर समर्पित कविता :-


शहीदों की क़ुरबानी से, हुआ देश आजाद हमारा है......

 
 
वतन का राग - अफ़सर मेरठी

भारत प्यारा देश हमारा, सब देशों से न्यारा है।
हर रुत हर इक मौसम उसका कैसा प्यारा प्यारा है। ......

 
 
वो चुप रहने को कहते हैं | नज़्म - राम प्रसाद 'बिस्मिल'

इलाही ख़ैर वो हर दम नई बेदाद करते हैं।
हमें तुहमत लगाते हैं जो हम फ़र्याद करते हैं॥ ......

 
 
देवेन्द्र कुमार मिश्रा की कविताएं - देवेन्द्र कुमार मिश्रा

सूखे पत्ते

सूखते पत्ते को......

 
 
म्यांमार (बर्मा) में होगा 18 वाँ अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन  - भारत-दर्शन समाचार

दस दिवसीय 18वें अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन (18th International Hindi Conference) का आयोजन म्यांमार (बर्मा) की राजधानी रंगून में 28 जनवरी 2020 से 06 फरवरी 2020 तक होगा। 

म्यांमार (बर्मा) महान शायर और अंतिम मुगल सम्राट, बहादुर शाह जफ़र, नेताजी सुभाष चंद्र बोस और आज़ादी के महानायक बाल गंधाधर तिलक की संघर्ष कथाओं को जीवंत बनाए रखनेवाली नैसर्गिक धरती है ।

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिंदी और हिंदी-संस्कृति को प्रतिष्ठित करने के लिए बहुआयामी साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था सृजन-सम्मान, छत्तीसगढ़/साहित्यिक वेब पत्रिका सृजनगाथा डॉट कॉम (www.srijangatha.com) द्वारा किये जा रहे प्रयास और पहल के अनुक्रम में रायपुर, बैंकाक, मारीशस, पटाया, ताशकंद (उज्बेकिस्तान), संयुक्त अरब अमीरात, कंबोडिया-वियतनाम, श्रीलंका, चीन, नेपाल, मिस्र, असम-शिलांग तथा बाली (इंडोनेशिया), राजस्थान, रूस, रायपुर, और यूनान (एथेंस) में 17 अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलनों के सफलतापूर्वक आयोजन किए जा चुके हैं। 

सम्मेलन में हिंदी के चयनित/आधिकारिक विद्वान, अध्यापक, लेखक, भाषाविद्, शोधार्थी, संपादक, आलोचक, लेखक, कवि, पत्रकार, प्रकाशक, संगीतकार, गायक, नृत्यकार, चित्रकार, बुद्धिजीवी एवं हिंदी सेवी संस्थाओं के सदस्य, हिन्दी-प्रचारक, हिंदीब्लागर्स, टेक्नोक्रेट आदि स्वैच्छिक सहभागिता, स्वसुविधा-साधन किन्तु अंतिम आयोजन समिति द्वारा चयन के आधार पर भाग ले सकते हैं।

सम्मेलन का मुख्य उद्देश्य देश-विदेश में सृजनरत स्थापित-नवागत रचनाकारों को जोड़कर स्वंयसेवी आधार पर भाषायी-संस्कृति का प्रचार-प्रसार, साहित्य की सभी विधाओं और उसमें सक्रिय रचनाकारों का प्रजातांत्रिक सम्मान, भाषायी सौहार्द्रता, विविध भाषाओं की रचनाशीलता से परस्पर तादात्म्य और श्रेष्ठता का अनुशीलन व सम्मान, ज्ञानात्मक सहिष्णुता के लिए सकारात्मक प्रयास, विभिन्न देशों/प्रदेशों का साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक-वैकासिक अध्ययन-परीक्षण-पर्यटन सहित वैश्वीकरण की जगह वसुधैव कुटुम्बकम् की भारतीय परंपरा को प्रोत्साहित करना है।

सहभागिता के इच्छुक कृपया निम्नलिखित ई-मेल पर संपर्क
करें: 

पंजीयन कैसे करायें ? ......

 
 
उजड़ा चमन सा वतन देखता हूँ - उत्कर्ष त्रिपाठी

न तन देखता हूँ , न मन देखता हूँ
उजड़ा चमन सा वतन देखता हूँ।......

 
 
यह भारतवर्ष हमारा है - अमित अहलावत

मैं गर्व से यारों कहता हूँ, यह भारतवर्ष हमारा है
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मकर संक्रांति - रोहित कुमार 'हैप्पी'

मकर संक्रांति हिंदू धर्म का प्रमुख त्यौहार है। यह पर्व पूरे भारत में किसी न किसी रूप में मनाया जाता है। पौष मास में जब सूर्य मकर राशि पर आता है तब इस संक्रांति को मनाया जाता है।

यह त्यौहार अधिकतर जनवरी माह की चौदह तारीख को मनाया जाता है। कभी-कभी यह त्यौहार बारह, तेरह या पंद्रह को भी हो सकता है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि सूर्य कब धनु राशि को छोड़ मकर राशि में प्रवेश करता है। इस दिन से सूर्य की उत्तरायण गति आरंभ होती है और इसी कारण इसको उत्तरायणी भी कहते हैं।

मकर संक्रांति से कई पौराणिक कथाएं जुड़ी हुई हैं।

कहा जाता है कि इस दिन भगवान सूर्य अपने पुत्र शनि से मिलने स्वयं उसके घर जाया करते हैं। शनिदेव चूंकि मकर राशि के स्वामी हैं, अत: इस दिन को मकर संक्रांति के नाम से जाना जाता है।

मकर संक्रांति के दिन ही गंगाजी भागीरथ के पीछे-पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होकर सागर में जा उनसे मिली थीं। यह भी कहा जाता है कि गंगा को धरती पर लाने वाले महाराज भगीरथ ने अपने पूर्वजों के लिए इस दिन तर्पण किया था। उनका तर्पण स्वीकार करने के बाद इस दिन गंगा समुद्र में जाकर मिल गई थी। इसलिए मकर संक्रांति पर गंगा सागर में मेला लगता है।

महाभारत काल के महान योद्धा भीष्म पितामह ने भी अपनी देह त्यागने के लिए मकर संक्रांति का ही चयन किया था।

इस त्यौहार को अलग-अलग प्रांतों में अलग-अलग नाम से मनाया जाता है। मकर संक्रांति को तमिलनाडु में पोंगल के रूप में तो आंध्रप्रदेश, कर्नाटक व केरला में यह पर्व केवल संक्रान्ति के नाम से जाना जाता है।

इस दिन भगवान विष्णु ने असुरों का अंत कर युद्ध समाप्ति की घोषणा की थी व सभी असुरों के सिरों को मंदार पर्वत में दबा दिया था। इस प्रकार यह दिन बुराइयों और नकारात्मकता को खत्म करने का दिन भी माना जाता है।

यशोदा जी ने जब कृष्ण जन्म के लिए व्रत किया था तब सूर्य देवता उत्तरायण काल में पदार्पण कर रहे थे और उस दिन मकर संक्रांति थी। कहा जाता है तभी से मकर संक्रांति व्रत का प्रचलन हुआ।

- रोहित कुमार 'हैप्पी'

 


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वृक्ष की चेतावनी - अंशु शुक्ला

ओ मानव! तू सोच जरा,
क्यों मुझे काटने आया है?......

 
 
भारत माँ के अनमोल रतन - डॉ. कुमारी स्मिता

आज सस्मित रेखाएं,
खींची जो जन-जन के मुख पर......

 
 
अमर शहीदों को नमन - डॉ. सुमन सुरभि

अमर शहीदों ने धरती पर लहू से हिंदुस्तान लिखा है 
भारत माता के सजदे में मेरा देश महान लिखा है। 

माँ के आंचल की छांव त्याग मस्ती में चले अंगारों पर ......

 
 
लोहड़ी | 13 जनवरी - रोहित कुमार 'हैप्पी'

मकर संक्रांति से एक दिन पूर्व उत्तर भारत विशेषतः पंजाब में लोहड़ी का त्यौहार मनाया जाता है। किसी न किसी नाम से मकर संक्रांति के दिन या उससे आस-पास भारत के विभिन्न प्रदेशों में कोई न कोई त्यौहार मनाया जाता है। मकर संक्रांति के दिन तमिल हिंदू पोंगल का त्यौहार मनाते हैं। असम में बीहू के रूप में यह त्यौहार मनाने की परंपरा है। इस प्रकार लगभग पूर्ण भारत में यह विविध रूपों में मनाया जाता है।

मकर संक्रांति की पूर्व संध्या को पंजाब, हरियाणा व पड़ोसी राज्यों में बड़ी धूम-धाम से 'लोहड़ी ' का त्यौहार मनाया जाता है | पंजाबियों के लिए लोहड़ी खास महत्व रखती है। लोहड़ी से कुछ दिन पहले से ही छोटे बच्चे लोहड़ी के गीत गाकर लोहड़ी हेतु लकड़ियां, मेवे, रेवड़ियां इकट्ठा करने लग जाते हैं। लोहड़ी की संध्या को आग जलाई जाती है। लोग अग्नि के चारो ओर चक्कर काटते हुए नाचते-गाते हैं व आग मे रेवड़ी, खील, मक्का की आहुति देते हैं। आग के चारो ओर बैठकर लोग आग सेंकते हैं व रेवड़ी, खील, गज्जक, मक्का खाने का आनंद लेते हैं। जिस घर में नई शादी हुई हो या बच्चा हुआ हो उन्हें विशेष तौर पर बधाई दी जाती है। प्राय: घर मे नव वधू या और बच्चे की पहली लोहड़ी बहुत विशेष होती है।

लोहड़ी को पहले तिलोड़ी कहा जाता था। यह शब्द तिल तथा रोड़ी (गुड़ की रोड़ी) शब्दों के मेल से बना है, जो समय के साथ बदल कर लोहड़ी के रुप में प्रसिद्ध हो गया।

- रोहित कुमार 'हैप्पी'


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होली की पौराणिक कथाएं  - भारत-दर्शन

होली का उत्सव फागुन की पूर्णिमा को मनाया जाता है। होली से आठ दिन पहले होलाष्टक प्रारंभ होते हैं। होलाष्टक के दिनों में कोई भी शुभ कार्य करना अच्छा नहीं माना जाता।

अन्य भारतीय उत्सवों की तरह होली के साथ भी विभिन्न पौराणिक कथाएं जुड़ी हुई हैं। यहाँ विभिन्न कथाओं को उद्धृत किया गया है।

नि:संदेह भारतीय व्रत एवं त्योहार हमारी सांस्कृतिक धरोहर है। हमारे सभी व्रत-त्योहार चाहे वह करवाचौथ का व्रत हो या दिवाली पर्व, कहीं न कहीं वे पौराणिक पृष्ठभूमि से जुड़े हुए हैं और उनका वैज्ञानिक पक्ष भी नकारा नहीं जा सकता। हमारा भरसक प्रयास रहेगा कि हम इन पन्नों में अधिक से अधिक भारतीय पर्वों व उपवासों का समावेश कर सकें।


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लेकर रेखा से कुछ बिन्दु | गीत  - विजय रंजन

लेकर रेखा से कुछ बिन्दु, आओ रेखा नई बनाएँ।।
चलो कि वक्र-वक्र रेखा को, हम सब सीधी राह दिखाएँ ।।

तिर्यक तिर्यक से सम्बन्ध !......

 
 
होली पौराणिक कथाएं  - भारत-दर्शन संकलन

होली का उत्सव फागुन की पूर्णिमा को मनाया जाता है। होली से आठ दिन पहले होलाष्टक प्रारंभ होते हैं। होलाष्टक के दिनों में कोई भी शुभ कार्य करना अच्छा नहीं माना जाता।

अन्य भारतीय उत्सवों की तरह होली के साथ भी विभिन्न पौराणिक कथाएं जुड़ी हुई हैं। यहाँ विभिन्न कथाओं को उद्धृत किया गया है।

नि:संदेह भारतीय व्रत एवं त्योहार हमारी सांस्कृतिक धरोहर है। हमारे सभी व्रत-त्योहार चाहे वह करवाचौथ का व्रत हो या दिवाली पर्व, कहीं न कहीं वे पौराणिक पृष्ठभूमि से जुड़े हुए हैं और उनका वैज्ञानिक पक्ष भी नकारा नहीं जा सकता। हमारा भरसक प्रयास रहेगा कि हम इन पन्नों में अधिक से अधिक भारतीय पर्वों व उपवासों का समावेश कर सकें।

 


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कभी मिलना - सलिल सरोज

कभी मिलना
उन गलियों में......

 
 
विवर्त -  गोलोक बिहारी राय

मुझे सोने से पहले, फिर एक बार उठ खड़ा होना है।
न हूँगा झंझावात, न उठ खड़ा हूँगा तूफ़ान बन के।......

 
 
घासीराम के पद  - घासीराम | Ghasiram Ke Pad

कान्हा पिचकारी मत मार मेरे घर सास लडेगी रे।
सास लडेगी रे मेरे घर ननद लडेगी रे।

सास डुकरिया मेरी बडी खोटी, गारी दे न देगी मोहे रोटी,......

 
 
अधूरापन और माखौल - अमलेन्दु अस्थाना

हम पहले से ही कम थे,
तुमने हमें और अधूरा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी,......

 
 
खेल - सूर्यजीत कुमार झा

आओ एक खेल खेलते हैं -
जोड़ना मैं रख लेता हूँ, तोड़ना तुम......

 
 
रक्षा बंधन का इतिहास व पौराणिक कथाएं - भारत-दर्शन संकलन

रक्षा बंधन का त्यौहार श्रावण मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। उत्तरी भारत में यह त्यौहार भाई-बहन के अटूट प्रेम को समर्पित है और इस त्यौहार का प्रचलन सदियों पुराना बताया गया है। इस दिन बहने अपने भाई की कलाई पर राखी बाँधती हैं और भाई अपनी बहनों की रक्षा का संकल्प लेते हुए अपना स्नेहाभाव दर्शाते हैं।

रक्षा बंधन का उल्लेख हमारी पौराणिक कथाओं व महाभारत में मिलता है और इसके अतिरिक्त इसकी ऐतिहासिक व साहित्यिक महत्ता भी उल्लेखनीय है।

आइए, रक्षा-बंधन के सभी पक्षों पर विचार करें।

 


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वो गरीब आदमी - हिमांशु श्रीवास्तव

सड़क पर पड़ा हुआ है वो गरीब आदमी
सिस्टम सा सड़ा हुआ है वो गरीब आदमी

भूख अब भी जिसको तड़पाया करती है......

 
 
एक सुबह  - मंजू रानी

आसमान में छितराये वो बादल
पेड़ो के झुरमुट से आती वो आवाजें......

 
 
नित्य करो तुम योग - शिवशंकर पटेल

उपभोग नहीं, उपयोग करो, नित्य करो तुम योग।
तन स्वस्थ, मन स्वच्छ, नहीं होगा कोई रोग ।।

सप्ताह में एक दिन बाइक, कार छोड़ो, करो साइकिल का प्रयोग।......

 
 
दशहरे की पौराणिक कथाएं - भारत-दर्शन संकलन

दशहरा से संबंधित विभिन्न पौराणिक कथाएं हैं जिनमें भगवान रामचंद्र द्वारा रावण का वध, दुर्गा माता से जुड़ी हुई कथा व महिषासुर की कहानी प्रमुख है।


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कुम्भ की पौराणिक कथाएं - भारत-दर्शन संकलन

कुम्भ भारतीय संस्कृति का महापर्व कहा गया है। इस पर्व पर स्नान, दान, ज्ञान मंथन के साथ-साथ अमृत प्राप्ति की बात भी कही जाती है।

कुम्भ की कथाओं के अनुसार देवता और दैत्यों में बारह दिनों तक जो संघर्ष चला था, उस दौरान अमृत कुम्भ से अमृत की जो बूंदें छलकी थीं और जिन स्थानों पर गिरी थीं, वहीं वहीं पर कुंभ मेला लगता है। क्योंकि देवों के इन बारह दिनों को बारह मानवीय वर्षों के बराबर माना गया है, इसलिए कुम्भ पर्व का आयोजन बारह वर्षों पर होता है। जिस दिन अमृत कुम्भ गिरने वाली राशि पर सूर्य, चंद्रमा और बृहस्पति का संयोग हो उस समय पृथ्वी पर कुंभ होता है। तात्पर्य यह है कि राशि विशेष में सूर्य और चंद्रमा के स्थित होने पर उक्त चारों स्थानों पर शुभ प्रभाव के रूप में अमृत वर्षा होती है और यही वर्षा श्रद्धालुओं के लिए पुण्यदायी मानी गयी है। इस प्रकार से वृष के गुरू में प्रयागराज, कुम्भ के गुरू में हरिद्वार, तुला के गुरू में उज्जैन और कर्क के गुरू में नासिक का कुम्भ होता है। सूर्य की स्थिति के अनुसार कुंभ पर्व की तिथियां निश्चित होती हैं। मकर के सूर्य में प्रयागराज, मेष के सूर्य में हरिद्वार, तुला के सूर्य में उज्जैन और कर्क के सूर्य में नासिक का कुम्भ पर्व पड़ता है।

कुम्भ का बौद्धिक, पौराणिक, ज्योतिषीय के साथ-साथ वैज्ञानिक आधार भी है। वेद भारतीय संस्कृति के आदि ग्रंथ हैं। कुम्भ का वर्णन वेदों में भी मिलता है। इस समय कुम्भ एक वैश्विक संस्कृति के महापर्व का रूप धारण करता जा रहा है। कुम्भ के दौरान विश्व भर से लोग आते हैं और हमारी संस्कृति में रचने-बसने का प्रयास करते हैं, इसलिए कुम्भ का महत्व और बढ़ जाता है। कुम्भ प्रत्येक 12 वर्ष पर आता है। प्रत्येक 12 वर्ष पर आने वाले कुम्भ पर्व को अब शासकीय स्तर पर महाकुंभ और इसके बीच 6 वर्ष पर आने वाले पर्व को कुम्भ की संज्ञा दी गई है।

पुराणों में कुम्भ की अनेक कथाएं मिलती हैं। तीन कथाएं उल्लेखनीय हैं। 
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धनतेरस | धनतेरस का पौराणिक महत्व - भारत-दर्शन संकलन

कार्तिक मास में त्रयोदशी का विशेष महत्व है, विशेषतः व्यापारियों और चिकित्सा एवं औषधि विज्ञान के लिए यह दिन अति शुभ माना जाता है।

दीवाली से दो दिन पूर्व धनतेरस व धन्वंतरी जयंती मनाई जाती है। महर्षि धन्वंतरि को आयुर्वेद व स्वस्थ जीवन प्रदान करने वाले देवता के रूप में भी पूजनीय है, जैसे धन-वैभव के लिए देवी लक्ष्मी की पूजा-अर्चना करते हैं, उसी प्रकार स्वस्थ जीवन के लिए स्वास्थ्य के देवता धन्वंतरि की आराधना की जाती है।

धनतेरस की सायंकाल को यमदेव निमित्त दीपदान किया जाता है। ऐसा करने से यमराज के कोप से सुरक्षा मिलती है। मान्यता है कि यदि गृहलक्ष्मी इस दिन दीपदान करें तो पूरे परिवार को रोग-मुक्ति मिलती है और पूरा परिवार स्वस्थ रहता है।

इस दिन पीतल और चाँदी खरीदने चाहिए क्योंकि पीतल भगवान धन्वंतरी की धातु है। पीतल खरीदने से घर में आरोग्य, सौभाग्य और स्वास्थ्यलाभ प्राप्त होता है।

व्यापारी वर्ग इस दिन नए बही-खाते खरीदता है और इन्हें गद्दी पर स्थापित करते है। तत्पश्चात् दीवाली पर इनका पूजन किया जाता है। लक्ष्मीजी के आह्वान का भी यही दिन होता है।

देवताओं के वैद्य माने जाने वाले धन्वन्तरी, चिकित्सा के भी देवता माने जाते हैं इसलिए चिकित्सकों के लिए भी धनतेरस का विशेष महत्व है। आयुर्वेद चिकित्सक अपने चिकित्सालाय पर धनतेरस के दिन धन्वंतरि देव की विशेष पूजा का आयोजन करते हैं। पुरातनकाल से अधिकांश आयुर्वेदिक औषधियों का इसी दिन निर्माण किया जाता है व साथ ही औषधियों को आज के दिन अभिमंत्रित करने का भी प्रचलन है।

धनतेरस के दिन चाँदी खरीदने की भी परंपरा है। चाँदी को चन्द्रमा का प्रतीक मानते हैं जो शीतलता प्रदान करती है जिससे मन में संतोष रूपी धन का वास होता है। चाँदी कुबेर की धातु है। इस दिन चाँदी खरीदने से घर में यश, कीर्ति, ऐश्वर्य और संपदा में वृद्धि होती है।

धनतेरस की साँय घर के बाहर मुख्य द्वार पर और आँगन में दीप जलाए जाते हैं और इसी के साथ दीवाली का शुभारंभ होता है।


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कालोनारांग - मरघट में होने वाली नृत्य नाटिका - प्रीता व्यास

इंडोनेशिया के बाली द्वीप को कौन है जो नहीं जानता! अपने समुद्र - तटों के लिए, हिंदू मंदिरों के लिए जाना जाता है अमूमन बाली, लेकिन बाली बस इतना ही नहीं है, बहुत समृद्ध है इसकी संस्कृति।

बाली वासियों का सांस्कृतिक जीवन दोनों ही तत्वों को स्वीकारता है- अच्छाई और बुराई, अँधेरा और उजाला, उत्थान और पतन, बुरी आत्माएं और अच्छी आत्माएं। उनका मानना है कि जीवन में तारतम्य बनाये रखने के लिए दोनों ही पक्षों का अपना महत्व है। यही वजह है कि जितना महत्व बाली के पारम्परिक जीवन में देवी का है उतना ही लेयाक (चुड़ैल) का।

आइये,आपको भी ले चलते हैं दिखाने। मध्य रात्रि का सन्नाटा, सुगबुगाते दिलों को थामे दर्शक। पुरा दालेम ((मृतकों का मंदिर) के बाहर बरगद की सघन शाखाओं तले कालोनारंग की डरावनी आकृति और झुरझुरी पैदा करने वाली आवाज़। बूढी-सी चुड़ैल, हाथों में छड़ी, कंधे पर झूलता शाल। कभी उसके पैर हवा में उछलते हैं, कभी वो ज़मीन पर गोल चक्कर लगाती है। असर ऐसा कि बच्चे दर्शक तो कई बार डर कर आँखें बंद कर लेते या अपनी इबू (मां) या आया (पिता) की गोद में दुबक जाते।

Coloranga Natika

कालोनारंग बाली की प्रसिद्ध चुड़ैल है, इसका अपना इतिहास है, अपनी कथा है। कालोनारंग का चरित्र केवल उन्हें ही नहीं लुभाता जो काला जादू में विश्वास करते हैं बल्कि ये तो सभी बाली वासियों को लुभाता है। इस जैसी कोई दूसरी नृत्य नाटिका नहीं है जिसमें 'लेयाक' हो, जो रहस्यात्मकता लिए हो और जिसकी कोई ऐतिहासिक पृष्ठ भूमि हो।

अमूमन यह नृत्य नाटिका रात गहराने पर ही मंचित होती है और मध्य रात्रि के बाद अपने चरम पर होती है। यह वह समय होता है जब माना जाता है कि बुरी शक्तियां प्रभावी होती हैं। इसका मंचन मरघट के समीप, मुक्ताकाश के नीचे होता है और पुरा दालेम (मृतकों का मंदिर) के बाहर घने बरगद के नीचे भी। वैसे अब दर्शकों की सुविधा के लिए, पर्यटकों के लिए, इसका मंचन पांच सितारा होटलों में भी किया जाता है लेकिन इसका असली आनंद तभी मिलता है जब इसे इसकी मूल पृष्ठभूमि में देखा जाए।

कालोनारंग की कहानी एक ऐतिहासिक घटना पर आधारित है, जिसे बाद में नृत्य नाटिका के रूप में प्रस्तुत किया जाने लगा। कहते हैं कि ये घटना 11 वीं शताब्दी की है। उस समय जावा में ऐरलांगा का शासन था। ऐरलांगा की मां महेंद्रादात्ता जावा की राजकुमारी थी और उसके पिता दार्मोदयाना बाली के शासक।

Coloranga

बाली के 'लोन्तार दुरगा पुराना तात्वा' (दुर्गा पुराण) में इस बात का उल्लेख है कि राजा दार्मोदयाना ने महेंद्रादात्ता को धोखा दिया और कई रखैलें रखीं, इसलिए महेंद्रादात्ता चुड़ैल बन गई।

दुखी महेंद्रादात्ता, बहातारी दुरगा (बुराई की देवी) के पास गई और उससे काला जादू सिखाने का अनुरोध किया ताकि वह अपने पति की रखैलों को मार सके। महेंद्रादात्ता चुड़ैल बन गई और अपने संगी- साथियों (भूत व चुड़ैल) के साथ कहर बन कर लौटी। पूर्वी जावा में उसने अनेक बीमारियां फैला दीं। मृत्यु तांडव कर उठी। अपनी जादुई शक्ति को बनाये रखने के लिए वह मरे हुए बच्चों का इस्तेमाल करती थी।

राजा एरलंगा ने उसे ख़त्म करना चाहा लेकिन कालोनारंग की जादुई ताकत के आगे विवश हो गया। राजा ने तब एक पवित्र व्यक्ति (साधु) ऐम्पु बहारादाह को भेजा। कालोनारंग नृत्य नाटिका में प्रायः यह अंतिम दृश्य ही मंचित किया जाता है जिसमें ऐम्पु बहारादाह उसे नष्ट करने का प्रयत्न करता है और कालोनारंग बचने का।

कुल मिलाकर कहानी यह कहती है कि अन्याय और ईष्या ही काले जादू के जनक हैं। बाली में पीढ़ी दर पीढ़ी यही विश्वास चला आ रहा है। वहां काला जादू करने वाले 'पेन्जीवा' कहलाते हैं और काले जादू का उपचार करने वाले 'पेनेनजेन'।

Coloranga

गांवों में तो लोग पेन्जीवा में न सिर्फ विश्वास करते हैं बल्कि उससे डरते भी हैं। कोई उससे दुश्मनी मोल नहीं लेता कि पता नहीं कौन सी बीमारी लाद दे। कहीं जान ही न चली जाए।

बाली के प्रसिद्ध समाज विज्ञानी प्रोफ़ेसर नगुराह बागुस का कहना है कि बाली की जनता कालोनारंग को मानती है। वह उनके धर्म की नहीं, विश्वास की उपज है। बालीवासियों का मानना है कि विपदाओं से उनकी रक्षा रांगदा (दैत्य) ही कर सकती है। महेन्द्रादात्ता ही अंत में रांगदा बन जाती है और लोगों को विपदाओं से बचाती है। वह औरांग तालिस्मान (वे लोग जो जादू-टोने से लोगों को बचाने का काम करते हैं) की सदा रक्षा करती है।

इंडोनेशिया के बड़े शहरों के नए बच्चों से पूछो कि कालोनारंग को जानते हो? तो प्रति प्रश्न मिलेगा कि कौन कालोनारंग? लेकिन गाँवों के बच्चे आज भी कालोनारंग को जानते हैं।

-प्रीता व्यास


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दीवाली पौराणिक कथाएं - भारत-दर्शन संकलन

नि:संदेह भारतीय व्रत एवं त्योहार हमारी सांस्कृतिक धरोहर है। हमारे सभी व्रत-त्योहार चाहे वह होली हो, रक्षा-बंधन हो, करवाचौथ का व्रत हो या दीवाली पर्व, कहीं न कहीं वे पौराणिक पृष्ठभूमि से जुड़े हुए हैं और उनका वैज्ञानिक पक्ष भी नकारा नहीं जा सकता।

दीवाली अथवा दीपावली का पर्व एक पांच दिवसीय त्योहार है। यह त्योहार सदियों से मनाया जाता है। आइए, दीवाली की पौराणिक कथाओं, इसके महत्व व ऐतिहासिक पक्ष को जानें!

त्योहार या उत्सव हमारे सुख और हर्षोल्लास के प्रतीक है जो परिस्थिति के अनुसार अपने रंग-रुप और आकार में भिन्न होते हैं। त्योहार मनाने के विधि-विधान भी भिन्न हो सकते है किंतु इनका अभिप्राय आनंद प्राप्ति या किसी विशिष्ट आस्था का संरक्षण होता है। सभी त्योहारों से कोई न कोई पौराणिक कथा अवश्य जुड़ी हुई है और इन कथाओं का संबंध तर्क से न होकर अधिकतर आस्था से होता है। यह भी कहा जा सकता है कि पौराणिक कथाएं प्रतीकात्मक होती हैं।

कार्तिक मास की अमावस्या के दिन दीवाली का त्योहार मनाया जाता है। दीवाली को दीपावली भी कहा जाता है। दीवाली एक त्योहार भर न होकर, त्योहारों की एक श्रृंखला है। इस पर्व के साथ पांच पर्वों जुड़े हुए हैं। सभी पर्वों के साथ दंत-कथाएं जुड़ी हुई हैं। दीवाली का त्योहार दिवाली से दो दिन पूर्व आरम्भ होकर दो दिन पश्चात समाप्त होता है।

दीवाली का शुभारंभ कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष त्रयोदशी के दिन से होता है। इसे धनतेरस कहा जाता है। इस दिन आरोग्य के देवता धन्वंतरि की आराधना की जाती है। इस दिन नए-नए बर्तन, आभूषण इत्यादि खरीदने का रिवाज है। इस दिन घी के दीये जलाकर देवी लक्ष्मी का आहवान किया जाता है।

दूसरे दिन चतुर्दशी को नरक-चौदस मनाया जाता है। इसे छोटी दीवाली भी कहा जाता है। इस दिन एक पुराने दीपक में सरसों का तेल व पाँच अन्न के दाने डाल कर इसे घर की नाली ओर जलाकर रखा जाता है। यह दीपक यम दीपक कहलाता है।

एक अन्य दंत-कथा के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण ने इसी दिन नरकासुर राक्षस का वध कर उसके कारागार से 16,000 कन्याओं को मुक्त कराया था।

तीसरे दिन अमावस्या को दीवाली का त्योहार पूरे भारतवर्ष के अतिरिक्त विश्वभर में बसे भारतीय हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं। इस दिन देवी लक्ष्मी व गणेश की पूजा की जाती है। यह भिन्न-भिन्न स्थानों पर विभिन्न तरीकों से मनाया जाता है।

दीवाली के पश्चात अन्नकूट मनाया जाता है। यह दीवाली की श्रृंखला में चौथा उत्सव होता है। लोग इस दिन विभिन्न प्रकार के व्यंजन बनाकर गोवर्धन पूजन करते हैं।

शुक्ल द्वितीया को भाई-दूज या भैयादूज का त्योहार मनाया जाता है। मान्यता है कि यदि इस दिन भाई और बहन यमुना में स्नान करें तो यमराज निकट नहीं फटकता।

दीवाली की कई पौराणिक कथाएं हैं, इन्हीं में से कुछ इस प्रकार हैं:


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महाशिवरात्रि - भारत-दर्शन संकलन

महाशिवरात्रि हिन्दुओं का एक प्रमुख त्योहार है। यह भगवान शिव का प्रमुख पर्व है। प्रत्येक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को शिवरात्रि कहा जाता है। इन शिवरात्रियों में सबसे प्रमुख है फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी जिसे महाशिवरात्रि के नाम से जाना जाता है।  इस अवसर पर उपवास रखते हैं।

 

 


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दो ग़ज़लें - बलजीत सिंह 'बेनाम'

फ़ोन पर ज़ाहिर

फ़ोन पर ज़ाहिर फ़साने हो गए
ख़त पढ़े कितने ज़माने हो गए

इश्क सोचे समझे बिन कर तो लिया......

 
 
अवध में राना भयो मरदाना - लोक-साहित्य

अवध में राना भयो मरदाना।
पहिल लड़ाई भई बकसर मां सेमरी के मैदाना। ......

 
 
दीवाली किसे कहते हैं? | लघुकथा - रोहित कुमार 'हैप्पी'

"बापू परसों दीवाली है, ना? बापू, दीवाली किसे कहते हैं?" सड़क के किनारे फुटपाथ पर दीये बेच रहे एक कुम्हार के फटेहाल नन्हे से बच्चे ने अपने बाप से सवाल किया।

"जिस दिन लोगों को ढेर से दीयों की जरूरत पड़ती है और अपने ढेर से दीये बिकते हैं, उसी को दीवाली कहते हैं, बेटा!'

"बापू, आज लोग नए-नए कपड़े और मिठाई भी खरीदते हैं!" बच्चे ने बाप से फिर प्रश्न करते हुए, मिठाई और नए कपड़े पाने की चाहत में अपनी आँखे पिता पर गड़ा दी।

"हाँ, बेटा! आज मैं तुम्हारे लिए भी मिठाई और कपड़े खरीदूंगा।" कहकर, सोचने लगा, 'क्या उसकी बिक्री इतनी होगी?' उसने अपने बेटे की ओर देखा, बच्चे की आँखों में लाखों दीये जगमग-जगमग कर रहे थे। 'आज बापू शायद उसके लिए भी कपड़े और मिठाई खरीदने वाला था।'

बाप की आँखों से आँसू छलक कर नीचे पड़े दीये में जा पड़ा।

-रोहित कुमार 'हैप्पी'
  न्यूज़ीलैंड।

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फोटो - डॉ पंकज गौड़

फोटो!
फोटो मेरा पहला प्यार है......

 
 
मुझको सरकार बनाने दो - अल्हड़ बीकानेरी

जो बुढ्ढे खूसट नेता हैं, उनको खड्डे में जाने दो
बस एक बार, बस एक बार मुझको सरकार बनाने दो।

मेरे भाषण के डंडे से......

 
 
सोने के हिरन  - कन्हैया लाल वाजपेयी

आधा जीवन जब बीत गया
बनवासी सा गाते-रोते......

 
 
आदमी कहीं का - रोहित कुमार ‘हैप्पी'

Adami Kahi Ka

'भौं...भौ...' की आवाज से मेरी तंद्रा टूटी। 
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अश्कों ने जो पाया है - साहिर लुधियानवी

अश्कों ने जो पाया है वो गीतों में दिया है
इस पर भी सुना है कि जमाने को गिला है

जो तार से निकली है वो धुन सबने सुनी है ......

 
 
प्रवासी - रोहित कुमार ‘हैप्पी'

विदेश से भारत लौटने पर--
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दायरा | हास्य कविता - नेहा शर्मा

एक बुढ्ढे को बुढ़ापे में इश्क का बुखार चढ़ गया
बुढिया को जीन्स-टॉप पहनाकर बीयर बार में ले गया......

 
 
तुमने मुझको देखा... - श्री गिरिधर गोपाल

तुमने मुझको देखा मेरा भाग खिल गया ।
मेघ छ्टे सूरज निकला हिल उठीं दिशाएं,......

 
 
खुशामद - पं॰ हरिशंकर शर्मा

खुशामद ही से आमद है,
बड़ी इसलिए खुशामद है।

एक दिन राजाजी उठ बोले बैंगन बहुत बुरा है, ......

 
 
कर्ज - रोहित कुमार 'हैप्पी'

वे वृद्ध थे। अस्सी से ऊपर की आयु रही होगी। कोरोना के कारण अस्पताल में भर्ती थे। पूरे देश के अस्पतालों में बैड, ऑक्सीजन और वेंटीलेटर की किल्लत थी लेकिन उन्हें संयोग से सब उपलब्ध था।

"ये इतनी ज़ोर-ज़ोर से कौन विलाप कर रहा है?" उनकी नज़र एक युवती पर पड़ी। जो लगातार रो-रोकर अपने पति को दाखिल करने की गुहार लगा रही थी।

"मैडम, आप समझ नहीं रही हैं। हमारे पास कोई बैड खाली नहीं है। आप इन्हें कहीं और ले जाइए। आ'म सारी।"

"सर, हम तीन जगह जा चुके हैं। इनकी हालत बहुत खराब है। मैं आपके पाँव पड़ती हूँ, कुछ कीजिए।" युवती ने भर्राई आवाज़ में गिड़गिड़ाई।

"डॉक्टर साहब, सुनिए।"

डॉक्टर और युवती दोनों ने उस वृद्ध की और देखा।
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मैं तुम्हारी बांसुरी में.... - नर्मदा प्रसाद खरे

मैं तुम्हारी बांसुरी में स्वर भरूँगा । 
एक स्वर ऐसा भरूँ कि  तुम जगत को भूल जाओ;......

 
 
अच्छे दिन आने वाले हैं - महेंद्र शर्मा

नई बहू जैसे ही पहुंची ससुराल
तो सास ने......

 
 
जब अन्तस में.... - विनय शुक्ल 'अक्षत'

जब अन्तस में पीड़ा हो, सन्नाटे हों
जब कहने को खुद से ही न बातें हों......

 
 
बिहार में ग़ज़ल लेखन | आलेख - डॉ ज़ियाउर रहमान जाफ़री

हिंदी ग़ज़ल की बढ़ती हुई लोकप्रियता में जिन ग़ज़लकारों का महत्वपूर्ण स्थान है, उसमें बिहार के कई ऐसे शायर भी शामिल हैं, जिन्होंने पाबंदी से इस परंपरा को सुदृढ़ किया है। सिर्फ शायरी ही नहीं आलोचनात्मक स्तर पर भी हिंदी ग़ज़ल को स्थापित करने में इनकी महती भूमिका रही है।

जब भी बिहार के ग़ज़लकारों की बात चलती है तो हमारा ध्यान सबसे पहले अनिरुद्ध सिन्हा पर जाता है। उन्होंने जहां गजल पर मौलिक पुस्तकों की रचना की, वहीं ग़ज़ल के आलोचक के तौर पर भी राष्ट्र स्तर पर अपने आप को स्थापित किया। हिंदी ग़ज़ल की विकास यात्रा में उनकी किताबें—तिनके भी डराते हैं, तपिश तड़प, तमाशा, हिंदी गजल सौंदर्य और यथार्थ आदि पाठकों के द्वारा हमेशा पसंद की जाती रही है। इधर डॉ. भावना के संपादन में उनके ग़ज़ल -साहित्य पर मुकम्मल किताब भी प्रकाशित हुई है। अनिरुद्ध सिन्हा की ग़ज़लों की सबसे बड़ी विशेषता उनकी सहजता और सरलता है। उनकी ग़ज़लों में विरोध का स्वर तो है ही पर इस मुखालफत में भी तल्खी नहीं है। वह नर्म लहजे के शायर हैं। भाषा के प्रति पूरी सावधानी उनकी अपनी शनाख़्त है। वह अपनी ग़ज़ल के दो मिसरे में पूरी कायनात समेट लेते हैं जिसे पढ़ते हुए पाठक मुतासिर हुए बिना नहीं रह पाता। इस संदर्भ में अनिरुद्ध सिन्हा के कुछ शेर देखे जा सकते हैं—

'अगर दरख़्त ना होंगे तो यह समझ लीजै
सफर की धूप में साया कोई नहीं देगा'

'जब से आई है चिड़िया चहकते हुए
मेरे आंगन की सरगम बदलने लगी'

बिहार की हिंदी ग़ज़लकारों में डॉ. भावना ने अपनी महत्वपूर्ण पहचान बनाई है। वह इन दिनों हिंदी ग़ज़ल की एक परिचित नाम हैं। हिंदी ग़ज़ल ही नहीं हिंदी आलोचना को भी उन्होंने बखूबी आजमाया है। 'हिंदी ग़ज़ल के बढ़ते आयाम' जहां उनकी आलोचना की जानी-मानी पुस्तक है, वहीं गजल संग्रह' मेरी मां में बसी है' और 'धुंध में धूप', काफी चर्चित है। उनकी ग़ज़लें विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर के पाठ्यक्रम में भी शामिल की गई हैं। डॉ. भावना की ग़ज़लों का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष सामाजिक विडंबना,धार्मिक विद्वेष, ऊंच-नीच, स्त्री और प्रेम है। उन्होंने ग़ज़लें अपने स्वभाव के अनुसार लिखी है, इसलिए वहां पूरी पावनता,पवित्रता और शालीनता दिखाई देती है। उन्होंने अपनी शायरी में मिथकों का भी खूब प्रयोग किया किया है। उदाहरण स्वरूप कुछ शेर देखे जा सकते हैं—

'महामारी को भी अवसर बना दे
भला वो किस तरह का देवता है'

'दर्द देते हो दवा देते हो
प्यार करने की सजा देते हो'

बिहार की महिला ग़ज़लकारों में डॉ.आरती भी लगातार ग़ज़लें लिख रही हैं।  वह ग़ज़ल के साथ मंच पर भी सक्रिय हैं।  हाल के दिनों में उनकी प्रकाशित किताब 'साथ रखना है' ने हिंदी गजल-आलोचकों का ध्यान अपनी तरफ खींचा है।  उनके शेर देखिए—

'उसकी आंखों में चांद रोशन है
तीरगी अब बिखर गई होगी'

'आसमां को भी धरा मिल जाएगी
बस जरा सा सिर झुकाना चाहिए'

बिहार के ग़ज़लकारों पर चर्चा करते हुए हमारा ध्यान कुछ ऐसे शायरों पर भी जाता है. जिन्होंने अपने समय में उम्दा ग़ज़लों की रचना की।  उसमें से कुछ अब नहीं है और कुछ पाबंदी से अभी भी लिख रहे हैं। ऐसे शायरों में शिव नारायण,फजलुर रहमान हाशमी,सियाराम प्रहरी, शिवनंदन सिंह, अशांत भोला, चाँद मुंगेरी, नचिकेता, प्रेमकिरण, छंदराज, अशोक आलोक आदि के नाम लिए जा सकते हैं। बिहार के नए लेकिन स्थापित हो चुके ग़ज़लकारों में जिन से बहुत सारी उम्मीदें वाबस्ता हैं और जो लगातार ग़ज़ल लेखन में सक्रिय हैं उनमें विकास, अभिषेक कुमार सिंह, राहुल शिवाय, अविनाश भारती, श्वेता गजल, रामा मौसम, शेखर सावंत आदि के नाम क़ाबिले ज़िक्र हैं। 

बेगूसराय के अशांत भोला की ग़ज़लों में ठोस यथार्थ हमेशा दिखलाई देता है। समाज में जो कुछ उपेक्षित है उनके अशआर के विषयवस्तु बने हैं.एक-दो शेर मुलाहिजा हो—

'हार कर इंसाफ घर से लौट आए
यातनाओं के सफ़र से लौट आए'

'चुपके से आजमाना अच्छा नहीं लगा
ये आप का निशाना अच्छा नहीं लगा'

आभा पूर्व बिहार के भागलपुर की शायरा हैं।  जिन्होंने नया हस्ताक्षर का संपादन भी किया है।  उन्होंने दोहा ग़ज़ल लिखकर ग़ज़ल की परंपरा को बढ़ाने का काम किया है। उनका यह शेर काफी चर्चित है—

'सांसो पर पहरा हुआ घुटते जाते प्राण
सन्नाटे में चीख़ कर मिला उन्हें वरदान' 

गजल आलोचक अनिरुद्ध सिन्हा ने ग़ज़ल के बारे में लिखा है कि आज की ग़ज़लें जीवन के कुछ बेहद जरूरी बिंदुओं पर चोट करती हैं। सूबे बिहार में लिखी जाने वाली गजलें इस दृष्टि से भी देखी जा सकती हैं। कुछ अशआर ग़ौरतलब हैं—

एक सीधे आदमी को क्यों तबाही दे गई
हाथ में गीता लिए झूठी गवाही दे गई
- उपेंद्र प्रसाद सिंह

आज के दौर की नई गजलें
तिलमिलाती ये किरचई ग़ज़लें
- चांद मुंगेरी

कहीं जुल्म की बादशाही न देना
सितमगर की वह वाहवाही न देना
- दिनेश तपन

जब जान आ के जिस्म से बाहर निकल गई
बेटे ने मकबरा तब बनवाया शान से
- वसंत

ज़लज़लों के बाद भी उम्मीद है
इस यकीं को एक पौधा रह गया
- शांति यादव

उस कलम की कभी न कल आए
जिस कलम पर नहीं ग़ज़ल आए
- सियाराम प्रहरी

इस प्रकार हम देखते हैं कि बिहार के ग़ज़ल लेखन में मानव के अस्तित्व की महत्ता स्वीकार की गई है। हिंदी ग़ज़ल का तेवर शुरू से ही विरोधी विद्रोही और बगावती रहा है। उर्दू की तरह यह आशिकों की शायरी नहीं रही। हिंदी ग़ज़ल अपनी बुनावट तो उर्दू से लेती है लेकिन बनावट इसकी खालिस अपनी है. इसने मोहब्बत की जगह ऊब, फिक्र और उदासी को अपना सब्जेक्ट बनाया है. बल्कि इस परंपरा को बिहार की युवा गजल कार भी अपनी उर्जा दे रहे हैं— बिहार के युवा ग़ज़लकारों में विकास और राहुल शिवाय का नाम काफी अहम है। विकास के दो गजल संग्रह और एक सम्पादित किताब को आलोचकों ने नोटिस किया है। अगर हम विकास की गजलों की गहराई की तरफ जाएं तो पाएंगे कि उनकी ग़ज़लों में प्रेम उत्साह और और सौंदर्य की धारा साथ-साथ बहती है। एक शेर आप भी देखें—

बगल की सीट पर बैठो तुम्हीं अब
तुम्हारे नाम का चर्चा नहीं है
-विकास

' मौन भी अपराध है' के कवि राहुल शिवाय लेखन और प्रकाशन दोनों क्षेत्र में काफी सक्रिय हैं।  उनके इस एक शेर से आप उनकी गहराई समझ सकते
हैं—
अंधेरी रात है पर रोशनी सलामत है
गमों के बीच भी यह जिंदगी सलामत है

श्वेता ग़ज़ल भी बिहार के महिला ग़ज़लजारों में अपना स्थान तेजी से बना रही हैं. वह मंचों पर भी बेहद सक्रिय हैं। उनकी रचनाओं का लबो-लहजा उन्हें एक मजी हुए शायरा की पहचान दिलाता है। उनका एक जाना-पहचाना शेर है—
तोड़कर दिल गया एक पल में मेरा
प्यार का ये कोई कायदा तो नहीं

बिहार के युवा ग़ज़लकारों में ऐसा ही एक नाम अविनाश भारती का भी है, जो ग़ज़ल तो लिखते ही हैं—वे बिहार के ग़ज़लकारों पर अपना शोध भी पूरा कर रहे हैं। उनका यह शेर देखने योग्य है—
मयस्सर नहीं जब हमें दाल रोटी
मुनासिब है कितना कमाना हमारा
- अविनाश भारती

बिहार के ऐसे ही युवा ग़ज़लकारों में अंजनी कुमार सुमन, कुमार आर्यन,अमन ग्यावी, नवनीत कृष्ण ए. आर आज़ाद आदि भी पाबंदी से ग़ज़ल कह रहे हैं।

सूबे बिहार के एक महत्वपूर्ण हिंदी गजलकार फजलुर रहमान हाशमी भी हैं। उन्होंने मैथिली साहित्य में भी अपनी विशेष पहचान बनाई है। उन्हें मैथिली में साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला, पर गहराई से देखा जाए तो हिंदी ग़ज़ल परंपरा में पौराणिक संदर्भ के प्रयोगकर्ता के तौर पर वह अकेले शायर ठहरते हैं। 'मेरी नींद तुम्हारे सपने' उनका हिंदी गजल संग्रह है, जिसके कुछ शेर देखे जा सकते हैं—

'उनकी किस्मत में कब है वैदेही
जो धनुष को कभी उठा न सके'

'मानो एहसान कर्म का अर्जुन
सांप फन बारहा उठाता है'

बिहार की माटी के अमन ज़खीरवी ने भी 'परिंदों का सफर' नामक गजल संग्रह की रचना की है। अपनी ग़ज़लों के बारे में ख़ुद कहते हैं कि मैंने इस संग्रह में आम-फ़हम शब्दों का ही चयन किया है जो हिंदी पाठकों को सहजता से समझ आ सके। उनका यह शेर देखें—

वक्त ने ऐसे दिन दिखाए हैं
कितना बूढा है हर जवां चेहरा

असल में ग़ज़ल सिर्फ सहजता और सरलता का नाम नहीं है। महज शिल्प के बल पर भी अच्छी ग़ज़लें तामीर नहीं की जा सकती। वजन को अपनी संरचना में रहते हुए मुकम्मल ग़ज़ल के लिए असर करने का गुण भी होना चाहिए। अगर शेर को सिर्फ शब्दों या फिर काफिये और रदीफ़ पर बैठा दें तो वह गजल नहीं हो सकेगी। गजल बहर कैफ जीवन के गहरे अनुभव की मांग करती है। आर. पी शर्मा महर्षि ने ग़ज़ल के छंद पर बहुत काम किया है। उनका कथन है कि ग़ज़ल वह है जो जीवन उपयोगी तथा अपनी धरती और परिवेश से जुड़ी हुई हो। उनके अनुसार ग़ज़ल एक सुकोमल विधा है जो नफासत पसंद है, वह भी इतनी के हाथ लगाते ही मैली हो जाती है। उसे सलीके से तथा स्वच्छता से स्पर्श करना पड़ता है। 

बिहार के एक ऐसे महत्वपूर्ण और स्थापित ग़ज़लकार अभिषेक कुमार सिंह है। जिन्होंने ग़ज़ल की परिपाटी से अलग होकर नए शब्द और नए कथ्य दिए हैं।  उनकी ग़ज़लों ने पारंपरिक ग़ज़लों से हटकर अपनी मौजूदगी दर्ज की है। उनके हर शेर में एक नयापन है। वह एक नई दुनिया को स्पर्श करते हैं। अछूते शब्द, चित्र, व्यंजना, कौशल और बिंब के वो लसानी गज़लकार हैं। 'वीथियों के बीच' उनका हालिया प्रकाशित गजल संग्रह है, जिसके पढ़ते हुए उनकी मौलिकता का पता चलता है—

'आओ उतार लायें ज़मीं पर वो रोशनी
झिलमिल जो कर रही है सितारों के आसपास'

'अजीब घोड़े हैं चाबुक की मार सह कर भी
सलाम करते हैं मालिक को हिनहिनाते हुए'

इन पंक्तियों के लेखक डॉ. जियाउर रहमान जाफ़री की भी दो ग़ज़ल संग्रह खुले दरीचे की खुशबू, और खुशबू छू कर आई है नाम से प्रकाशित है। खुले दरीचे की खुशबू की भूमिका हिंदी के जाने-माने ग़ज़ल का जहीर कुरैशी ने लिखी है। लेखक की हिंदी गजल की आलोचना की भी एक किताब 'गजल लेखन परंपरा और हिंदी गजल का विकास 'नाम से अनुकृति प्रकाशन बरेली द्वारा छपकर आई है। उनके भी एक-दो शेर का अवलोकन किया जा सकता है—

'नई इक फैक्ट्री तामीर कर लेने की चाहत में
यहां के लोग होरी से किसानी छीन लेते हैं'

'हमारी उम्र तो गुजरी उजाले लाते हुए
चराग़ सोच रहा था मकां जलाते हुए'

बिहार के प्रतिष्ठित गजलकारों में शिवनारायण का नाम भी जाना पहचाना है। आप नई धारा के संपादक भी हैं, और प्रसिद्ध हिंदी गज़लकार भी। लगभग 32 पुस्तकों के लेखक शिवनारायण को हिंदी साहित्य में विशिष्ट योगदान के लिए बिहार सरकार ने नागार्जुन सम्मान से भी नवाजा है। 'झील में चांद' इन का महत्वपूर्ण ग़ज़ल संग्रह है। शहंशाह आलम की मानें तो इस संग्रह में समकालीन समय की विश्वव्यापी समस्याओं का जायजा लिया गया है। इस संग्रह के कुछ शेर देखने योग्य हैं—

'उसी के हाथ होंगे फूल सारे
महक का कारवां जो आ रहा है'

'बहुत हैरान है खामोशियों में
परिंदा फड़फड़ाना चाहता है'

असल में ग़ज़ल अपनी शर्तों पर लिखी जाती है, जैसा कि अहमद रजा ने भी लिखा है इसमें नग्मगी, रवानी और मौसिकी जरूरी है। बिहार की ग़ज़लें इस प्रवृत्ति पर भी खरी उतरती है। बिहार के अन्य उभरते हुए ग़ज़लकारों में आनंद वर्धन, मनीष कुमार सिंह, प्रीति सुमन,रामनाथ शोधार्थी, हरिनारायण सिंह,स्वराक्षी स्वरा, रंजना जायसवाल, दीप नारायण आदि के नाम भी उल्लेखनीय हैं— जो ग़ज़ल को आगे बढ़ाने में निरंतर लगे हुए हैं। 

कहना न होगा कि बिहार में जिस तरह से ग़ज़लें लिखी जा रही हैं, आने वाले समय में यह विधा और मजबूती से स्थापित होगी, जिसमें बिहार के ग़ज़लकारों को और प्रभावपूर्ण ढंग से रेखांकित किया जा सकेगा।

-डॉ ज़ियाउर रहमान जाफ़री
 स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग
 मिर्ज़ा ग़ालिब कॉलेज गया, बिहार
 ई-मेल : zeaurrahmanjafri786@gmail.com


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लेख की माँग - ईश्वरीप्रसाद शर्मा

सम्पादकजी! नमोनमस्ते, पत्र आपका प्राप्त हुआ।
पढ़कर शोक समेत हर्षका भाव हृदय में व्याप्त हुआ॥ ......

 
 
सरल हैं; कठिन है | हास्य-व्यंग्य - चिरंजीत

सरल है बहुत चाँद सा मुख छुपाना,
मगर चाँद सिर का छुपाना कठिन है। ......

 
 
कैसी लाचारी | हास्य-व्यंग्य - अश्वघोष

हाँ! यह कैसी लाचारी
भेड़ है जनता बेचारी ......

 
 
एप्रिल फूल | हास्य काव्य - प्रो० मनोरंजन

एप्रिल फूल आज है साथी,
आओ, तुमको मूर्ख बनाऊँ;
मैं भी हँसू, हँसो कुछ तुम भी,
फिर तुम मैं, मैं तुम बन जाऊँ।

खामखाह की इस दुनिया में
मूरखता का है कौन ठिकाना;
हम भी मूरख, तुम भी मूरख,
मूरख है यह सकल जमाना।

फिर भी देखो, अजब तमाशा,
सभी यहाँ ज्ञानी बनते हैं;
देखो, ये मिट्टी के पुतले
कितने अभिमानी बनते हैं।

मोटे-मोटे पोथे पढ़कर
कोई तो पंडित बनता है;
कोई उछल-कूद चिल्लाकर
सब सद्गुणमंडित बनता है।

अपनी अपनी डफली लेकर
अपनी अपनी तान सुनाते;
सत्य धर्म का पन्थ यही है,
डंडे से लेकर बतलाते।

क्या जाने यह सत्य धर्म का
मार्ग इन्होंने कैसे जाना;
नित्य चिरन्तन रूप सत्य का
क्या जाने कैसे पहचाना।

फिर भी अपनी ओर खींचते,
अद्भुत है यह खैंचातानी;
आप धरम का मरम न जाने,
औरों के हित बनते ज्ञानी।

कौतुक देखो, राह बताने--
वाले ये भी तो अंधे हैं;
अजब तमाशा है दुनिया के
ये अद्भुत गोरखधन्धे हैं।

धर्मों के ये अजब झमेले,
तू-तू मैं-मैं अजब मची है;
आपस में डंडे चलते हैं,
विधि ने अद्भुत सृष्टि रची है।

धन्यवाद है उस ईश्मा को
जिसे हाथ जोड़े जाते हैं;
लेकर जिसका नाम परस्पर
सर तोड़े-फोड़े जाते हैं।

मानवता के बीच खड़ी हैं
ये कैसी दुर्गम दीवारें;
पागलखानों से पगलों की
आती, कैसी विकट पुकारें।

मेरा धर्म सभी से अच्छा,
पगले जोरों से चिल्लाते;
ये बहिश्त के ठेके वाले
आपस में ही छुरे चलाते।

अग्नि सदा पैदा होगी ही
जितने देते जाओ रगड़े;
हम मनुष्य, ये भी मनुष्य हैं,
आपस के ये कैसे झगड़े?

आओ साथी, हम-तुम हिल-मिल
विमल प्रेम के नाते जोड़ें;
‘तत्त्व धर्म का निहित गुफा में’
उसकी सारी झंझट छोड़े।

छोड़ें सारे बम्ब-बखेडे,
आपस में मिल मोद मनाएँ,
एप्रिल फूल आज है साथी,
आओ, हम-तुम हँसे-हँसाएँ।

- प्रो० मनोरंजन


......
 
 
घर जला भाई का - खुरशीद

कौम के वास्ते कुछ करके दिखाया न गया
कौम का दर्द कभी उनसे मिटाया न गया ।

चुगलियाँ लोगों की हुक्काम* से जाकर खाई ......

 
 
विरह का गीत - कवि चोंच

तुम्हारी याद में खुद को बिसारे बैठे हैं। 
तुम्हारी मेज पर टॅगरी पसारे बैठे हैं।

गया था शाम को मिलने मैं पार्क में मिस से, 
वहाँ पर देखा कि वालिद हमारे बैठे हैं !!

जरा सा रूप का दर्शन तो दे दो आँखों को, 
बहुत दिनों से ये भूखे बेचारे बैठे हैं।

ये काले बाल औ' इनमें गुँथे हुए मोती, 
ये राजहंस क्या जमुना किनारे बैठे हैं!

गया जो रात बिता घर तो बोल उठे अब्बा, 
इधर तो आओ हम जूते उतारे बैठे हैं!

-कवि चोंच


......
 
 
अच्छा है पर कभी-कभी | हास्य - हुल्लड़ मुरादाबादी

बहरों को फ़रियाद सुनाना, अच्छा है पर कभी-कभी 
अंधों को दर्पण दिखलाना, अच्छा है पर कभी-कभी 

ऐसा न हो तेरी कोई, उँगली ग़ायब हो जाए 
नेताओं से हाथ मिलाना, अच्छा है पर कभी-कभी 

बीवी को बंदूक़ सिखाकर तुमने रिस्की काम किया 
अपनी लुटिया आप डुबाना, अच्छा है पर कभी-कभी 

हाथ देखकर पहलवान का, अपना सिर फुड़वा बैठे 
पामिस्ट्री में सच बतलाना, अच्छा है पर कभी-कभी 

तुम रूहानी शे'र पढ़ोगे, पब्लिक सब भग जाएगी 
भैंस के आगे बीन बजाना, अच्छा है पर कभी-कभी 

घूँसे-लात चले आपस में, संयोजक का सिर फूटा 
कवियों को दारू पिलवाना, अच्छा है पर कभी-कभी 

पच्चीस डॉलर जुर्माने के पीक थूकने में ख़र्चे 
वाशिंगटन में पान चबाना, अच्छा है पर कभी-कभी 

-हुल्लड़ मुरादाबादी


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क्या बताएं आपसे हम - हुल्लड़ मुरादाबादी

क्या बताएं आपसे हम हाथ मलते रह गए
गीत सूखे पर लिखे थे, बाढ़ में सब बह गए

भूख, महंगाई, ग़रीबी इश्क़ मुझसे कर रहीं थीं
एक होती तो निभाता, तीनों मुझपर मर रही थीं
मच्छर, खटमल और चूहे घर मेरे मेहमान थे
मैं भी भूखा और भूखे ये मेरे भगवान थे
रात को कुछ चोर आए, सोचकर चकरा गए
हर तरफ़ चूहे ही चूहे, देखकर घबरा गए
कुछ नहीं जब मिल सका तो भाव में बहने लगे
और चूहों की तरह ही दुम दबा भगने लगे
हमने तब लाईट जलाई, डायरी ले पिल पड़े
चार कविता, पांच मुक्तक, गीत दस हमने पढे
चोर क्या करते बेचारे उनको भी सुनने पड़े

रो रहे थे चोर सारे, भाव में बहने लगे
एक सौ का नोट देकर इस तरह कहने लगे
कवि है तू करुण-रस का, हम जो पहले जान जाते
सच बतायें दुम दबाकर दूर से ही भाग जाते
अतिथि को कविता सुनाना, ये भयंकर पाप है
हम तो केवल चोर हैं, तू डाकुओं का बाप है

-हुल्लड़ मुरादाबादी


......
 
 
सत्य-असत्य में अंतर - शरदेन्दु शुक्ल 'शरद'

मैंने चवन्नी डाली 
जैसे ही आरती की थाली 
सामने आई, 
बाजू वाले ने 
हमें घूरते हुए 
सौ का पत्ता डाला 
और छाती फुलाई!
तभी पीछे से किसी ने कहा, 
सेठजी 
घर में छापा पड़ गया है, 
शहर में इज्जत का 
जनाज़ा निकल गया है, 
उसने चोर आंखों से 
हमें देखा, 
उसकी निगाह 
शर्म से गड़ रही थी, 
और अब मेरी चवन्नी 
सौ पे भारी पड़ रही थी।

-शरदेन्दु शुक्ल 'शरद'
 [हास्यस्पद से]


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बेकाम कविता | हास्य कविता - कुंजबिहारी पांडेय 

मुझसे एक न पूछा-- 
"आप क्या करते हैं?" 
मैंने कहा--"कविता करता हूँ।" 
"कविता तो ठीक है, 
आप काम क्या करते हैं?" 
मुझे लगा, 
कविता करना कोई काम नहीं है। 
कविता वह करता है, 
जिसको कोई काम नहीं है।

- कुंजबिहारी पांडेय 

 


......
 
 
रंज इस का नहीं कि हम टूटे | ग़ज़ल - सूर्यभानु गुप्त

रंज इस का नहीं कि हम टूटे
ये तो अच्छा हुआ भरम टूटे

एक हल्की सी ठेस लगते ही ......

 
 
आप हँसते जाइए | हास्य-कविता - बी० आर० नागर
आप हँसते जाइए हमको हँसाते जाइए
चमचमाते दांत मोती से दिखाते जाइए
 
भरके रक्खी मेज पर 'ख्याली पुलाओ' की पलेट
आप भी उस में से चम्मच इक उठाते जाइए
 
कुछ उड़ाते गप्प हैं और कुछ उड़ाते हैं पतंग
आप 'हाथों के मगर तोते उड़ाते जाइए 
 
चाहिए कब शेखचिल्ली को किराए का मकान,
बस 'हवा में एक किला-सा बनाते जाइए 
 
सात नम्बर डेड़-सौ में से मिले भूगोल में
एक जीरो सात के आगे लगाते जाइए 
 
-बी० आर० नागर

 


......
 
 
जीत तुम्हारी - विश्वप्रकाश दीक्षित ‘बटुक'

तुम हो अपने शत्रु किन्तु मैं मीत तुम्हारी
तुम जीवन को हार किन्तु मैं जीत तुम्हारी

प्रबल झकोरों में झंझा के बह जाते हो ......

 
 
असेम्बली हॉल में फेंका गया पर्चा  - हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातांत्रिक सेना

(8 अप्रैल, सन् 1929 को असेम्बली में बम फैंकने के बाद भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त द्वारा बाँटे गए अँग्रेज़ी परचे का हिंदी अनुवाद)

'हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातांत्रिक सेना'  

सूचना

'बहरों को सुनाने के लिए बहुत ऊँची आवाज की आवश्यकता होती है', प्रसिद्ध फ़्रांसीसी अराजकतावादी शहीद वैलियाँ के यह अमर शब्द हमारे काम के औचित्य के साक्षी हैं।

पिछले दस सालों में ब्रिटिश सरकार ने शासन-सुधार के नाम पर इस देश का जो अपमान किया है उसकी कहानी दोहराने की आवश्यकता नहीं है और न ही हिंदुस्तानी पार्लियामेंट पुकारे जाने वाली इस सभा ने भारतीय राष्ट्र के सिर पर पत्थर फेंक कर उसका जो अपमान किया है, उसके उदाहरणों को याद दिलाने  की आवश्यकता है। यह सब सर्वविदित और स्पष्ट है। आज फिर जब लोग 'साइमन कमीशन' से कुछ सुधारों के टुकड़ों की आशा में आंखें फैलाए हैं और इन टुकड़ों के लोभ में आपस में झगड़ रहे हैं, विदेशी सरकार 'सार्वजनिक सुर‌‌‌क्षा विधेयक' (पब्लिक सेफ्टी बिल)  और 'औ‍द्यौगिक विवाद विधेयक' (ट्रेड्स डिस्प्यूट्स बिल) के रूप में अपने दमन को और भी कड़ा कर लेने का यत्न कर रही है। इसके साथ ही आने वाले अधिवेशन में 'अख़बारों द्वारा राजद्रोह रोकने का क़ानून' (प्रेस सैडिशन एक्ट)  जनता पर कसने की भी धमकी दी जा रही है। सार्वजनिक काम करने वाले मजदूर नेताओं की अंधाधुंध गिरफ्तारियाँ यह स्पष्ट कर देती हैं कि सरकार किस रवैये पर चल रही है।  

राष्ट्रीय दमन और अपमान की इस उत्तेजनापूर्ण परिस्थिति में उत्तरदायित्व की गंभीरता को महसूस कर 'हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र संघ' ने अपनी सेना को यह कदम उठाने की आज्ञा दी है। इस कार्य का प्रयोजन है कि क़ानून का यह अपमानजनक प्रहसन समाप्त कर दिया जाए। विदेशी शोषक नौकरशाही जो चाहे करे परंतु उसकी वैधानिकता की नकाब फाड देना आवश्यक है।

जनता के प्रतिनिधियों से हमारा अनुरोध है कि वे इस पार्लियामेंट के पाखंड को छोडकर अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्रों में लौट जाएं और जनता को विदेशी दमन और शोषण के खिलाफ क्रान्ति के लिए तैयार करें। हम विदेशी सरकार को यह बतला देना चाहते हैं कि हम ' सार्वजनिक सुर‌‌‌क्षा' और 'औ‍द्यौगिक विवाद' के दमनकारी क़ानूनों और लाला लाजपतराय की हत्या के विरोध में देश की जनता की ओर से यह कदम उठा रहे हैं।

हम मनुष्य के जीवन को पवित्र समझते हैं। हम ऐसे उज्ज्वल भविष्य में विश्वास रखते हैं जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को पूर्ण शांति और स्वतंत्रता का अवसर मिल सके। हम इनसान का खून बहाने की अपनी विवशता पर दुखी हैं। परंतु क्रान्ति द्वारा सबको समान स्वतंत्रता देने और मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण को समाप्त कर देने के लिए क्रान्ति में कुछ न कुछ रक्तपात अनिवार्य है।

इंकलाब ज़िदाबाद!  


हस्ताक्षर बलराज ......

 
 
शहीदी दिवस | 23 मार्च - भारत-दर्शन संकलन

शहीदी दिवस - 23 मार्च

23 मार्च 1931 की रात भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की देश-भक्ति को अपराध की संज्ञा देकर फाँसी पर लटका दिया गया।  मृत्युदंड के लिए 24 मार्च की सुबह तय की गई थी लेकिन किसी बड़े जनाक्रोश की आशंका से डरी हुई अँग्रेज़ सरकार ने 23 मार्च की रात्रि को ही इन क्रांति-वीरों की जीवनलीला समाप्त कर दी। रात के अँधेरे में ही सतलुज के किनारे इनका अंतिम संस्कार भी कर दिया गया।

'लाहौर षड़यंत्र' के मुक़दमे में भगतसिंह को फाँसी की सज़ा दी गई थी तथा केवल 24 वर्ष की आयु में ही, 23 मार्च 1931 की रात में उन्होंने हँसते-हँसते, 'इंकलाब जिंदाबाद' के नारे लगाते हुए फाँसी के फंदे को चूम लिया।

भगतसिंह युवाओं के लिए भी प्रेरणा स्रोत बन गए। वे देश के समस्त शहीदों के सिरमौर थे।

[भारत-दर्शन संकलन]

 

 


......
 
 
चंद्रशेखर आज़ाद - रोहित कुमार 'हैप्पी'

शत्रुओं के प्राण उन्हें देख सूख जाते थे
ज़िस्म जाते काँप, मुँह पीले पड़ जाते थे......

 
 
भारत प्यारा - आशीष यादव

इस मिट्टी से उस मिट्टी तक जीवन सफर हमारा हो।
हम रहें चाहे जहाँ भी पर दिल में भारत प्यारा हो।। ......

 
 
वो पहले वाली बात कहाँ? - मोहम्मद आरिफ

वो पहले वाली बात कहाँ?
जब पंछी झूम के गाते थे......

 
 
आओ ! आओ ! भारतवासी । गीत  - बाबू जगन्नाथ

आओ ! आओ ! भारतवासी। 
क्या बंगाली ! क्या मदरासी ! ॥

क्या पंजाबी ! क्या गुजराती ! । ......

 
 
यह कवि अपराजेय निराला  - राम विलास शर्मा

यह कवि अपराजेय निराला,
जिसको मिला गरल का प्याला;......

 
 
कुछ तो सोचा ही होगा - बालकवि बैरागी

कुछ तो सोचा ही होगा संसार बनाने वाले ने
वरना सोचो ये दुनिया जीने के लायक क्यों होती?......

 
 
सुन ले मेरा गीत - बहज़ाद लखनवी

सुन ले मेरा गीत! प्यारी, सुन ले मेरा गीत!
प्रेम यह मुझको रास न आया, तेरी क़सम बेहद पछताया,......

 
 
माँ हम विदा हो जाते हैं - अमर क्रांतिकारी चंद्रशेखर आज़ाद

माँ हम विदा हो जाते हैं, हम विजय केतु फहराने आज
तेरी बलिवेदी पर चढ़कर माँ निज शीश कटाने आज।

मलिन वेष ये आँसू कैसे, कंपित होता है क्यों गात? ......

 
 
ऐसे थे चन्द्रशेखर आज़ाद - इतिहास के पन्ने

एक बार भगतसिंह ने बातचीत करते हुए चन्द्रशेखर आज़ाद से कहा, 'पंडित जी, हम क्रान्तिकारियों के जीवन-मरण का कोई ठिकाना नहीं, अत: आप अपने घर  का पता दे दें ताकि यदि आपको कुछ हो जाए तो आपके परिवार की कुछ सहायता की जा सके।'
......

 
 
हिंदी ग़ज़ल की समस्याएं | आलेख - डॉ ज़ियाउर रहमान जाफ़री 

हिंदी साहित्य की कई विधाओं का आरंभ आज़ादी के बाद हुआ। नई कहानी और नई कविता का नाम तो इसमें प्रमुख है ही, दलित आदिवासी और स्त्री विमर्स जैसा दौडर भी आज़ादी के बाद ही व्यवस्थित रूप पर हमारे सामने आया। आज़ादी के पूर्व मूल रूप से एक चुनौती थी देश को स्वतंत्र करना, किंतु आज़ादी के बाद युद्ध, अकाल, सांप्रदायिकता बंटवारा, निर्वासन जैसी कई चुनौतियां हमारे सामने आती चली गईं। हमने आज़ादी से जो सपने देखे थे देश उस उम्मीद पर खड़ा नहीं उतर रहा था। इस तरह जब स्थितियां बदलीं तो साहित्य के मूल्य और प्रतिमान भी बदलते चले गए।

हिंदी ग़ज़ल भी मूल रूप से आज़ादी के बाद की शायरी है,इसलिए जो घुटन, निराशा,अवसाद, दर्द जहां समकालीन कविता में है,वहीं ये पीड़ा ग़ज़लों में भी दिखाई पड़ती है। अंतर यह है कि समकालीन कविता का जुड़ाव जन मानस से नहीं हो सका,पर ग़ज़ल अपनी लयात्मकता, प्रस्तुतीकरण और छंद रचना के कारण जनसमूह पर राज करने लगी।कहने को हम कह सकते हैं कि हिन्दी ग़ज़ल की परम्परा ख़ुसरो से कबीर होते हुए निराला के साथ दुष्यंत तक पहुंचती है,पर यह भी सच है कि कबीर  आदि की ग़ज़लें उस अनुपात में नहीं है जहां से कोई विधा स्थापित होती है।

हिंदी में ग़ज़ल उर्दू से आई,पर हिंदी ग़ज़ल ने उर्दू से अपनी बनावट ली, बुनावट उसकी अपनी है। उर्दू में जो ग़ज़ल आनंद के लिए लिखी गई थी हिंदी में वह ग़ज़ल आमजन के लिए लिखी जाने लगी। हिंदी गजल ने उन तकलीफों को छुआ जिससे आम जनता दो चार हो रही थी। ग़ज़ल ने समाज के यथार्थ को प्रस्तुत किया उसकी विसंगतियों की तरफ इशारा किया, और सत्ता के विरोधाभासी चरित्र की परतें खोल कर रख दीं।दूसरी विधाओं में जहां सिर्फ प्रेम की रचनाएं हो रही थीं,वहीं हिंदी का शायर आपातकाल का विरोध कर रहा था। हिंदी ग़ज़ल ने प्रेम के लहजे को नहीं व्यंग्य के लहजे को अपनाया, और इस प्रकार उस निरंकुश शासन व्यवस्था पर सीधे-सीधे प्रहार किया।

ज़ाहिर है जब हम लीक से हटकर बात करते हैं तो उसका विरोध भी होना लाज़िम होता है।

समकालीन कविता के सामने हिंदी ग़ज़ल एक चुनौती के रूप में सामने आती है।इसी कारण नई हिंदी कविता के पैरोकार बड़े-बड़े आलोचकों ने इस सिन्फ़ को ख़ारिज करना शुरू किया, और आज भी हिंदी कविता की परंपरा में ग़ज़ल को दरकिनार किया जा रहा है।गरचे अब स्थितियां बहुत बदल गई हैं।ग़ज़ल एक सशक्त विधा के रूप में लोगों के सामने आ चुकी है।

जब हिंदी में ग़ज़ल आई तो चुनौतियां गैरों से भी मिलीं और विरोध अपनों से भी हुआ। उर्दू का शायर जहां हिंदी में ग़ज़ल स्वीकार नहीं करता था,वहीं हिंदी के आलोचक भी ग़ज़ल को काव्य की विधा के तौर पर मानने के लिए तैयार नहीं थे। हरिवंश राय बच्चन ने तो यहां तक कह दिया था कि हिंदी में ग़ज़ल लिखी ही नहीं जा सकती।

पहल और कदंबिनी जैसी मशहूर पत्रिकाएं लगभग घोषणा कर चुकी थीं कि वह ग़ज़लें नहीं छापतीं। समकालीन भारतीय साहित्य ग़ज़ल को कुंठा के साथ स्वीकारती थीं। ज्ञानोदय, हंस और वागर्थ जैसी पत्रिकाओं ने बहुत बाद में ग़ज़ल देना शुरू किया।धर्मयुग ने उस समय एक साथ दुष्यंत की आठ ग़ज़लें छाप कर एक नया विमर्श पैदा कर दिया था।ऐसी भी कथा प्रधान महत्वपूर्ण पत्रिकाएं थीं जो ऐलान कर चुकी थी कि वह कविताओं में पारिश्रमिक नहीं देते।

आचार्य शुक्ल से लेकर गुलाब राय डॉ।नागेंद्र, बच्चन सिंह आदि किसी ने भी हिंदी साहित्य का इतिहास लिखते हुए ग़ज़ल का ज़िक्र तक नहीं किया। इधर प्रकाशित हुई डॉ।मोहन अवस्थी की किताब हिंदी साहित्य का इतिहास में भले ग़ज़ल पर थोड़ा सा वर्णन मिलता है,पर वह भी दुष्यंत के आगे के ग़ज़लकारों को नहीं देख पाते हैं, जबकि हिंदी साहित्य के ऐसे इतिहास में अकविता और नकेनवादी कविता का ज़िक्र होता है, जिसकी कोई स्वस्थ परंपरा कभी नहीं रही, पर गजल का नाम आते ही उन्हें चिंता सी महसूस होने लगती है।

असल में ग़ज़ल ने हिंदी कविता को विलुप्त होने से बचाया। गजल वह आलोक स्तंभ है जिसे छुपा कर नहीं रखा जा सकता। यह ग़ज़ल जब बारात में होती है तो दुल्हन बन जाती है, और जो काग़ज़ के पन्नों में आ जाती है तो चांदनी बन कर बिखर जाती है।एक समय में जब कहानियों की तरह कविताएं लिखी जाने लगीं तो एक पढ़ा लिखा वर्ग भी उसे समझने से क़ासिर हो गया। उसे पढ़ते हुए कविता का कोई आनंद नहीं मिलता था। किसी भी कविता की अपनी शर्ते हैं।वह कविता है तो कम से कम उसे कहानी से अलग होना चाहिए था।ग़ज़ल छंद के साथ श्रोताओं के क़रीब आती है, क्योंकि ग़ज़ल में सिर्फ छंद ही नहीं है उसमें एक अर्थगाम्भीर्य भी है,लहजा भी है और मूड भी इसमें गज़लीयत है,और सबसे बड़ी बात पाठक को प्रभावित करने की क्षमता है। एक शेर पढ़ते हुए पाठकों को ऐसा लगता है कि यह उसके ही दुख- दर्द का बयान है। इसमें उसकी अपनी ज़िदगी की तल्खियां मौजूद हैं।

ऐसा नहीं है कि यह मामला सिर्फ हिंदी शायरी का है। उर्दू शायरी में तरक्की पसंद शायर ग़ज़ल का विरोध करते रहे। मौलाना अल्ताफ़ हुसैन हाली को तो ग़ज़ल की विधा बेढंगी ही लगती थी।अख्तरुल ईमान ने तो ग़ज़लें न लिखने की क़सम ही खा ली थी,पर इस विरोध का कोई व्यापक असर नहीं हुआ। उर्दू शायरी ग़ज़लों की मुरीद थी इसलिए उसका इतिहास शायरों से भरा हुआ है, और हमारा इतिहास शायरों से हटा हुआ है।

हिंदी में जब दुष्यंत आए तो लोगों को कविता की ताक़त का पता चला। एक आदमी जब शेर लिखता है और उसमें जिस बूढ़े का जिक्र करता है,उस बूढ़े का नाम पूछने के लिए उपराष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद को उसे सामने बुलाना पड़ता है।यह वही दुष्यंत है जिनकी शायरी बाज़ाब्ता ऐलान करती है -कभी तालाब से मछली बदलने की,कभी निज़ाम बदलने का तो कभी कुंभालाए हुए फूल बदलने का। दुष्यंत ने साफ़ कहा था सिर्फ पोशाक या शैली बदलने के लिए उन्होंने ग़ज़लें नहीं लिखी। दुष्यंत की गग़ज़लें जन- मानस के लिए थी। उन्होंने मंच के लिए ग़ज़लें नहीं रची थी। उनकी ग़ज़लों में जो आब और ताब है वह उन्हें ग़ज़ल सम्राट की पदवी से विभूषित करता है। दुष्यंत के अंदर जो तकलीफ़ है वह एक विद्रोह बनाकर हमारे सामने आती है। तब यह शायर लिखता है -

 दुख को बहुत सहेज के रखना पड़ा हमें 
 सुख तो किसी कपूर की टिकिया सा उड़ गया 
               
और फिर यह भी कि--

 कभी मचान पे चढ़ने की आरज़ू की है 
 कभी ये डर कि यह सीढ़ी फ़िसल न जाए कहीं 

दुष्यंत अपनी शायरी में समाज की संगति और विसंगति को दिखलाते हैं। ऐसा नहीं है कि उनकी शायरी का निशाना सिर्फ सत्ता वर्ग बनता है, बल्कि दुष्यंत उसे आदमी की भी खैर -खबर लेते हैं जो सिर्फ कठपुतलियों की तरह नाच रहा है-

 पत्तों से चाहते हो बजें साज़ की तरह
 पेड़ों से पहले आप उदासी तो लीजिए

ऐसा नहीं है कि इस तरह खुलेआम लिखने वाला यह शायर विरोधियों का शिकार नहीं बना। नौकरी करते हुए उनका बार-बार तबादला कर दिया जाता था।यही त्रासदी दिनकर के साथ भी हुई।

दुष्यंत ने जो संघर्ष को झेला था,वही संकट ग़ज़ल की ताक़त बन गई थी। दुष्यंत के बाद भी हिंदी शायरों की जो पीढ़ी तैयार हुई उसने तमाम विरोधों और अवरोधों के बीच हिंदी ग़ज़लें लिखना जारी रखा, और एक ऐसा वक्त भी आया जब ग़ज़ल पर  नामवर सिंह और विश्वनाथ त्रिपाठी जैसे आलोचकों ने भी लिखना शुरू कर दिया।

आज भी हिंदी ग़ज़ल के सामने कई प्रश्न खड़े हैं,भाषा से लेकर शिल्प और संरचना तक। कथ्य को लेकर भी प्रश्न खड़े किए जा रहे हैं। आज़ाद ग़ज़ल के नाम पर भी कुछ लोग बकवास कर रहे हैं। ग़ज़ल इस आंतरिक और वाह्य विरोध का मुक़ाबला करती हुई मज़बूती के साथ लगातार आगे बढ़ रही है।

ग़ज़ल की भाषा को लेकर भी हिंदी ग़ज़ल के दो प्रतिमान हैं।एक वर्ग जहां ग़ज़ल में शुद्ध हिंदी -संस्कृत शब्दों का पैरोकार हैं तो दूसरे वर्ग के ग़ज़लकारों ने हिंदुस्तानी बोली को मज़बूती से अपनाया है।

असल में ग़ज़ल जब आम लोगों की तकलीफों और चिंताओं को लेकर लिखी गई तो उसकी भाषा भी उसी आवाम की होनी चाहिए। जानबूझकर ग़ज़लों को धदुरूह बनाने से उसमें वह संप्रेषणीयता नहीं आ सकेगी हिंदी ग़ज़ल जिसके लिए रची गई है।

ग़ज़ल अगर महबूब की भाषा है तो महबूब की ज़बान हमेशा आसान रही है। हिंदी ग़ज़ल की भी वही मानक भाषा हो सकती है जिसे दुष्यंत,अदम और जहीर ने अपनाया था। दुष्यंत और अदम गोंडवी जैसे शायर इसलिए भी लोगों के क़रीब आ सके कि उन्होंने शायरी उसी की ज़बान में की। आज भी हिंदी के जाने-माने शायर इसी भाषा में ग़ज़लें लिख रहे हैं। प्रश्न यह नहीं है कि यह शब्द किस भाषा का है, प्रश्न यह है कि उस शब्द से जनता का जुड़ाव कितना है। जनता अगर सिनेमा हॉल समझ रही है तो उसे चलचित्र कहने की बेजा ज़रूरत नहीं है।

 ग़ज़ल का अपना एक लहजा भी है, जब हम चन्द्रसेन विराट की तरह ग़ज़ल लिखते हैं -

 जीव ईश्वर का अनविल नित्य चेतन अंश है
 द्वंद से होती प्रगट निर्द्वंद की अवधारणा

 तो न यह सलीक़े का शेर बन पाता है और ना इसमें शेरीयत आती है।

ठीक इसी तरह ग़ज़ल का अपना एक छंद विधान भी है। उसका अपना स्वरूप फॉर्म और संरचना है। बहर का कोई हिंदी नामकरण कर देने से काफिया को समान्त और रदीफ़ को पदांत नाम दे देने मात्र से ग़ज़ल के तकाज़े नहीं बदल जाते। बहर ग़ज़ल की रीढ़ है जिसके बिना इस ग़ज़ल रूपी महबूबा का शरीर शिथिल पड़ जाता है, पर यह समझना भी जरूरी है कि ग़ज़ल सिर्फ शिल्प नहीं है उसमें कथ्य का होना भी बहुत ज़रूरी है। प्रोफेसर वशिष्ठ अनूप कहा करते हैं कि ग़ज़ल के शिल्प के लिए कथ्य की हत्या नहीं की जा सकती।

ग़ज़ल के हर शेर को अनुभव,गहराई, बिनाई और तकनीक की दरकार होती है। ग़ज़ल कभी सतही नहीं हो सकती। भरपाई के शेर ग़ज़ल में दोष माने गए हैं।उसमें बातों की गंभीरता निहायत ज़रूरी है। फ़ैज़ अहमद फैज़ इसे मूड की शायरी कहते थे। इसे जबरदस्ती नहीं लिखी जा सकती। अरबी में कहावत है कि जिसे सौ शेर याद हो वही एक शेर लिखकर देखे। जहीर कुरैशी ने एक बार मुझे कहा था कि  हिंदी के ज्यादातर ग़ज़लकारों की शायरी जल्दबाज़ी में लिखी गई  शायरी है।

हिंदी ग़ज़ल के सामने कई चुनौतियां हैं। सबसे पहले उसे हिंदी कविता में स्थापित होना है।ग़ज़ल का एक मानक तय करना है।एक परिभाषा और भाषा तय करनी है। गीतिका मुक्तिका, तेवरी,द्वीपदी, हजल आदि का नाम देने से बेहतर है ग़ज़ल को ग़ज़ल ही रहने दिया जाए,जो जन सामान्य में स्वीकृत है। कवि त्रिलोचन ने एक स्थान पर लिखा है कि हिंदी ग़ज़ल शुद्ध हिंदी का बोझ नहीं सह सकती। ग़ज़ल एक ऐसी विधा है जिसमें कथ्य की गहराई बिनाई और दानाई की ज़रूरत पड़ती है। हिंदी ग़ज़ल आज इसलिए लोकप्रिय है कि वह हमारी संवेदनाओं को छू रही है। हिंदी के कई कवि ग़ज़ल की तरफ़ मुतासिर हो रहे हैं। विभिन्न विश्वविद्यालयों में ये शोध का रुचिकर विषय रहा है। पत्र- पत्रिकाओं के ग़ज़ल विशेषांक सबसे ज्यादा बिक रहे हैं। आज भी कारखाना,अलावा संवदिया और नया ज्ञानोदय का ग़ज़ल विशेषांक तलाशा जा रहा है। हिंदी में लगातार दस से अधिक महत्वपूर्ण ग़ज़लकारों की साहित्य साधना पर मोटी -मोटी किताबें मौजूद हैं।

हिंदी ग़ज़ल में सिर्फ व्यवस्था का विरोध नहीं है। उसकी दृष्टि समाज के हर कमियों और नाकामियों पर है अनिरुद्ध सिंहा लिखते हैं--

वेदना में क्रोध की आवाज़ है हिंदी ग़ज़ल 
 एक प्रबल आवेग का अंदाज़ है हिंदी ग़ज़ल 
 है जिन्हें भी प्यार कविता से कहो जाकर पढ़े 
 छंद उत्सव के लिए हर साज़ है हिंदी ग़ज़ल 
-अनिरुद्ध सिन्हा 

डी एम मिश्र का मानना है -
 ग़ज़ल ग़ज़ल  है न उर्दू है ये न हिंदी है 
 लिबास छोड़ के देखो कि रूह कैसी है
-डी एम मिश्र 

हिंदी ग़ज़ल पर अपना मंतव्य हरेराम समीप यों देते हैं -

 हिंदी ग़ज़ल कहो कि इसे रेख़्ता कहो 
 कब खींच कर लकीर अलग होगी शायरी 
               
अभिषेक कुमार सिंह अपना विचार बिल्कुल अलग तरह से इस शेर में पेश करते हैं -

कहने लगी हैं अब तो रिवायत की बेड़ियाँ
हिंदी ग़ज़ल ने अपना ही आकाश रच लिया
-अभिषेक सिंह 

 इस प्रकार हम कर सकते हैं की हिंदी ग़ज़ल हिंदी कविता परंपरा में सबसे आगे खड़ी है। अपनी कहन शैली, लबो लहजे,प्रस्तुतीकरण,मुहावरे, तकनीक और कथ्य के कारण इसने स्वयं अपना स्थान निर्धारण किया है। यह ऐसे शेर हैं जो सीधे हमारे दिल में उतर जाते हैं,और हमें लगता है यहां सिर्फ हमारा और हमारा ही ज़िक्र है।ग़ज़ल के साथ हिंदी कविता में छंद की वापसी तो हुई ही,वह कविता भी बच गई जिसके मरने की घोषणा कर दी गई थी। आज हिंदी ग़ज़ल के पास कई ऐसे शायर हैं जो हिंदी ग़ज़ल को अपने मुक़ाम तक ले जा रहे हैं। उनकी शायरी हमसे सीधे जुड़ती है,इसलिए पाठक भी उससे सीधा कनेक्ट हो जाता है।आप भी कुछ शेर देखें--

 धरती आग हुई जाती है फिर गुस्से में 
 ऐसा लगता है हम सारे जल जाएंगे 
-कमलेश भट्ट कमल 

 इन दिनों ही ज़रूरी बहुत काम है
 इन दिनों आपकी छुट्टियां चल रहीं 
-डॉ भावना 

 किसी धुन में किसी लय में किसी कलकल में रहना है 
 हमेशा ही यहां मुझको नदी के जल में रहना है 
-विनय मिश्र 

 दांत खाने के अलग थे और दिखाने के अलग 
 लोग हाथी की तरह व्यवहार भी करते रहे
-ज़हीर कुरैशी 

 हंसी ख़ामोश हो जाती ख़ुशी ख़तरे में पड़ती है 
 यहां हर रोज़ कोई दामिनी ख़तरे में पड़ती है 
-ओमप्रकाश यती 

 मैं था तन्हा एक तरफ़ 
 और ज़माना एक तरफ़ 
-विज्ञान व्रत 

 नई तहज़ीब जब निर्वस्त्र होती जा रही हर दिन 
 सलीक़ेदार औरत गांव वाली याद आती है 
-वशिष्ठ अनूप 
 
सूरज के पांव से मुझे छाला नहीं मिला
 जुगनू से आसमां को उजाला नहीं मिला
-राहुल शिवाय 

कहना ना होगा कि हिंदी ग़ज़ल आज जहां खड़ी है,वहां अब उसे पीछे मुड़कर देखने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि और चीज़ों को अगर छोड़ भी दें तो हिंदी ग़ज़ल के ख़िलाफ आवाज़ बुलंद करने वाले आज ख़ुद उस काफ़िले में शामिल हैं।

- डॉ ज़ियाउर रहमान जाफ़री 
  नालंदा बिहार 803107 
  मोबाइल : 9934847941,6205254255
  ई-मेल : zeaurrahmanjafri786@gmail.com


......
 
 
लक्ष्य-भेद - मनमोहन झा की

बोलो बेटे अर्जुन!
सामने क्या देखते हो तुम?......

 
 
कौन - बालस्वरूप राही

अगर न होता चाँद, रात में
हमको दिशा दिखाता कौन?......

 
 
हिंदुस्तान - मनमोहन झा की


धूर्तों का नारा......

 
 
श्री कृष्ण जन्माष्टमी व्रत - डॉ० राधेश्याम द्विवेदी

जन्माष्टमी

 

कृष्ण जन्माष्टमी भगवान श्री कृष्ण का जनमोत्सव है। योगेश्वर कृष्ण के भगवद गीता के उपदेश अनादि काल से जनमानस के लिए जीवन दर्शन प्रस्तुत करते रहे हैं। जन्माष्टमी भारत में हीं नहीं बल्कि विदेशों में बसे भारतीय भी इसे पूरी आस्था व उल्लास से मनाते हैं। श्रीकृष्ण ने अपना अवतार श्रावण माह की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मध्यरात्रि को अत्याचारी कंस का विनाश करने के लिए मथुरा में लिया। चूंकि भगवान स्वयं इस दिन पृथ्वी पर अवतरित हुए थे अत: इस दिन को कृष्ण जन्माष्टमी के रूप में मनाते हैं। इसीलिए श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के मौके पर मथुरा नगरी भक्ति के रंगों से सराबोर हो उठती है। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के पावन मौके पर भगवान कान्हा की मोहक छवि देखने के लिए दूर दूर से श्रद्धालु आज के दिन मथुरा हैं। श्रीकृष्ण जन्मोत्सव पर मथुरा कृष्णमय हो जात है। मंदिरों को खास तौर पर सजाया जाता है। ज्न्माष्टमी में स्त्री-पुरुष बारह बजे तक व्रत रखते हैं। इस दिन मंदिरों में झांकियां सजाई जाती है और भगवान कृष्ण को झूला झुलाया जाता है। और रासलीला का आयोजन होता है।

 

उपवास: अष्टमी दो प्रकार की है- पहली जन्माष्टमी और दूसरी जयंती। इसमें केवल पहली अष्टमी है। स्कन्द पुराण के मतानुसार जो भी व्यक्ति जानकर भी कृष्ण जन्माष्टमी व्रत को नहीं करता, वह मनुष्य जंगल में सर्प और व्याघ्र होता है। ब्रह्मपुराण का कथन है कि कलियुग में भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी में अट्ठाइसवें युग में देवकी के पुत्र श्रीकृष्ण उत्पन्न हुए थे। यदि दिन या रात में कलामात्र भी रोहिणी न हो तो विशेषकर चंद्रमा से मिली हुई रात्रि में इस व्रत को करें। भविष्य पुराण का वचन है- श्रावण मास के शुक्ल पक्ष में कृष्ण जन्माष्टमी व्रत को जो मनुष्य नहीं करता, वह क्रूर राक्षस होता है। केवल अष्टमी तिथि में ही उपवास करना कहा गया है। यदि वही तिथि रोहिणी नक्षत्र से युक्त हो तो 'जयंती' नाम से संबोधित की जाएगी। वह्निपुराण का वचन है कि कृष्णपक्ष की जन्माष्टमी में यदि एक कला भी रोहिणी नक्षत्र हो तो उसको जयंती नाम से ही संबोधित किया जाएगा। अतः उसमें प्रयत्न से उपवास करना चाहिए। विष्णुरहस्यादि वचन से- कृष्णपक्ष की अष्टमी रोहिणी नक्षत्र से युक्त भाद्रपद मास में हो तो वह जयंती नामवाली ही कही जाएगी। वसिष्ठ संहिता का मत है- यदि अष्टमी तथा रोहिणी इन दोनों का योग अहोरात्र में असम्पूर्ण भी हो तो मुहूर्त मात्र में भी अहोरात्र के योग में उपवास करना चाहिए। मदन रत्न में स्कन्द पुराण का वचन है कि जो उत्तम पुरुष है। वे निश्चित रूप से जन्माष्टमी व्रत को इस लोक में करते हैं। उनके पास सदैव स्थिर लक्ष्मी होती है। इस व्रत के करने के प्रभाव से उनके समस्त कार्य सिद्ध होते हैं। विष्णु धर्म के अनुसार आधी रात के समय रोहिणी में जब कृष्णाष्टमी हो तो उसमें कृष्ण का अर्चन और पूजन करने से तीन जन्मों के पापों का नाश होता है। भृगु ने कहा है- जन्माष्टमी, रोहिणी और शिवरात्रि ये पूर्वविद्धा ही करनी चाहिए तथा तिथि एवं नक्षत्र के अन्त में पारणा करें। इसमें केवल रोहिणी उपवास भी सिद्ध है। अन्त्य की दोनों में परा ही लें।


मोहरात्रि: श्रीकृष्ण-जन्माष्टमी की रात्रि को मोहरात्रि कहा गया है। इस रात में योगेश्वर श्रीकृष्ण का ध्यान, नाम अथवा मंत्र जपते हुए जगने से संसार की मोह-माया से आसक्तिहटती है। जन्माष्टमी का व्रत व्रतराज है। इसके सविधि पालन से आज आप अनेक व्रतों से प्राप्त होने वाली महान पुण्यराशिप्राप्त कर लेंगे। व्रजमण्डलमें श्रीकृष्णाष्टमीके दूसरे दिन भाद्रपद-कृष्ण-नवमी में नंद-महोत्सव अर्थात् दधिकांदौ श्रीकृष्ण के जन्म लेने के उपलक्षमें बडे हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। भगवान के श्रीविग्रहपर हल्दी, दही, घी, तेल, गुलाबजल, मक्खन, केसर, कपूर आदि चढाकर ब्रजवासीउसका परस्पर लेपन और छिडकाव करते हैं। वाद्ययंत्रोंसे मंगलध्वनिबजाई जाती है। भक्तजन मिठाई बांटते हैं। जगद्गुरु श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव नि:संदेह सम्पूर्ण विश्व के लिए आनंद-मंगल का संदेश देता है।

 

व्रत: भक्त लोग, जो जन्माष्टमी का व्रत करते हैं, जन्माष्टमी के एक दिन पूर्व केवल एक ही समय भोजन करते हैं। व्रत वाले दिन, स्नान आदि से निवृत्त होने के पश्चात, भक्त लोग पूरे दिन उपवास रखकर, अगले दिन रोहिणी नक्षत्र और अष्टमी तिथि के समाप्त होने के पश्चात व्रत कर पारण का संकल्प लेते हैं। कुछ कृष्ण-भक्त मात्र रोहिणी नक्षत्र अथवा मात्र अष्टमी तिथि के पश्चात व्रत का पारण कर लेते हैं। संकल्प प्रातःकाल के समय लिया जाता है और संकल्प के साथ ही अहोरात्र का व्रत प्रारम्भ हो जाता है। जन्माष्टमी के दिन, श्री कृष्ण पूजा निशीथ समय पर की जाती है। वैदिक समय गणना के अनुसार निशीथ मध्यरात्रि का समय होता है। निशीथ समय पर भक्त लोग श्री बालकृष्ण की पूरे विधि-विधान से पूजा-अर्चना करते हैं। विस्तृत विधि-विधान पूजा में षोडशोपचार पूजा के सभी सोलह (१६) चरण सम्मिलित होते हैं। जन्माष्टमी की विस्तृत पूजा विधि, वैदिक मन्त्रों के साथ जन्माष्टमी पूजा विधि पृष्ठ पर उपलब्ध है।

 

व्रत के नियम: एकादशी उपवास के दौरान पालन किये जाने वाले सभी नियम जन्माष्टमी उपवास के दौरान भी पालन किये जाने चाहिये। अतः जन्माष्टमी के व्रत के दौरान किसी भी प्रकार के अन्न का ग्रहण नहीं करना चाहिये। जन्माष्टमी का व्रत अगले दिन सूर्योदय के बाद एक निश्चित समय पर तोड़ा जाता है जिसे जन्माष्टमी के पारण समय से जाना जाता है। जन्माष्टमी का पारण सूर्योदय के पश्चात अष्टमी तिथि और रोहिणी नक्षत्र के समाप्त होने के बाद किया जाना चाहिये। यदि अष्टमी तिथि और रोहिणी नक्षत्र सूर्यास्त तक समाप्त नहीं होते तो पारण किसी एक के समाप्त होने के पश्चात किया जा सकता है। यदि अष्टमी तिथि और रोहिणी नक्षत्र में से कोई भी सूर्यास्त तक समाप्त नहीं होता तब जन्माष्टमी का व्रत दिन के समय नहीं तोड़ा जा सकता। ऐसी स्थिति में व्रती को किसी एक के समाप्त होने के बाद ही व्रत तोड़ना चाहिये। अतः अष्टमी तिथि और रोहिणी नक्षत्र के अन्त समय के आधार पर कृष्ण जन्माष्टमी का व्रत दो सम्पूर्ण दिनों तक प्रचलित हो सकता है। हिन्दु ग्रन्थ धर्मसिन्धु के अनुसार, जो श्रद्धालु-जन लगातार दो दिनों तक व्रत करने में समर्थ नहीं है, वो जन्माष्टमी के अगले दिन ही सूर्योदय के पश्चात व्रत को तोड़ सकते हैं। कृष्ण जन्माष्टमी को कृष्णाष्टमी, गोकुलाष्टमी, अष्टमी रोहिणी, श्रीकृष्ण जयन्ती और श्री जयन्ती के नाम से भी जाना जाता है।

 

-डॉ० राधेश्याम द्विवेदी

......
 
 
सयाना - गोलोक विहारी राय

आदि काल से बस यूँ ही, चला आ रहा खेल।
बनने और बनाने की, चलती रेलम पेल।।......

 
 
चिड़िया का गीत - निरंकार देव 'सेवक'

सबसे पहले मेरे घर का
अंडे जैसा था आकार ......

 
 
मगहर की दिव्यता एवं अलौकिकता  - डॉ० राधेश्याम द्विवेदी

उत्तर प्रदेश के बस्ती एवं गोरखपुर का सरयूपारी क्षेत्र महात्माओं, सिद्ध सन्तों, मयार्दा पुरूषोत्तम भगवान राम तथा भगवान बुद्ध के जन्म व कर्म स्थलों, महर्षि श्रृंगी, वशिष्ठ, कपिल, कनक, क्रकुन्छन्द, कबीर तथा तुलसी जैसे महान सन्तों-गुरूओं के आश्रमों से युक्त है। गोरखपुर से लगभग 30 कि.मी. पश्चिम, बस्ती से 43 कि.मी. पूर्व पहले गोरखपुर, फिर बस्ती तथा अब सन्त कबीर नगर जिले में आमी नदी के तट पर मगहर नामक एक दिव्य एवं अलौकिक कस्बा अवस्थिति है। इसके नाम के बारे में अलग अलग तरह की भ्रान्तियां एवं किवदन्तियां प्रचलित है। मेरे विचार से भाषाशास्त्र के शब्द व्युत्पत्ति को देखते हुए ''मामा का घर'' को मगहर के रूप में जाना जा सकता है । यह किस मामा से संबंधित है। यह शोध एवं खोज का विषय हो सकता है। यह भी हो सकता है कि भगवान बुद्ध या अन्य किसी इतिहास पुरूष के ननिहाल या मामा का घर इस क्षेत्र में होने के कारण इसको पहले मामा का घर और बाद में मगहर कहा जाने लगा हो।
......

 
 
कहो मत, करो  - श्रीनाथ सिंह

सूरज कहता नहीं किसी से, मैं प्रकाश फैलाता हूँ।
बादल कहता नहीं किसी से, मैं पानी बरसाता हूँ ।। ......

 
 
कमल - मयंक गुप्ता

दलदल के भीतर अपने अंशों को पिरोए हुए,
शायद वंशावली की धरोहर को संजोए हुए,......

 
 
अंतरराष्ट्रीय प्रेस स्वतंत्रता दिवस - डॉ० राधेश्याम द्विवेदी

1991 में यूनेस्को और संयुक्त राष्ट्र से शुरुआत :- तरह-तरह के दिवस शायद इसीलिए मनाए जाते हैं कि लोग उस दिन किसी ख़ास मुद्दे पर अच्छी-अच्छी बातें करें, आदर्श-नीति-सिद्धांत वग़ैरह पर ज़ोर दिया जाए। अंतरराष्ट्रीय प्रेस स्वतंत्रता दिवस (अंग्रेज़ी: World Press Freedom Day) प्रत्येक वर्ष '3 मई को मनाया जाता है। प्रेस किसी भी समाज का आइना होता है। प्रेस की आज़ादी से यह बात साबित होती है कि उस देश में अभिव्यक्ति की कितनी स्वतंत्रता है। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में प्रेस की स्वतंत्रता एक मौलिक जरूरत है। आज हम एक ऐसी दुनिया में जी रहे हैं, जहाँ अपनी दुनिया से बाहर निकल कर आसपास घटित होने वाली घटनाओं के बारे में जानने का अधिक वक्त हमारे पास नहीं होता। ऐसे में प्रेस और मीडिया हमारे लिए एक खबर वाहक का काम करती हैं, जो हर सवेरे हमारी टेबल पर गरमा गर्म खबरें परोसती हैं। यही खबरें हमें दुनिया से जोड़े रखती हैं। आज प्रेस दुनिया में खबरें पहुंचाने का सबसे बेहतरीन माध्यम है। शुरुआत 'अंतरराष्ट्रीय प्रेस स्वतंत्रता दिवस' मनाने का निर्णय वर्ष 1991 में यूनेस्को और संयुक्त राष्ट्र के 'जन सूचना विभाग' ने मिलकर किया था। इससे पहले नामीबिया में विन्डंहॉक में हुए एक सम्मेलन में इस बात पर जोर दिया गया था कि प्रेस की आज़ादी को मुख्य रूप से बहुवाद और जनसंचार की आज़ादी की जरूरत के रूप में देखा जाना चाहिए। तब से हर साल '3 मई' को 'अंतरराष्ट्रीय प्रेस स्वीतंत्रता दिवस' के रूप में मनाया जाता है। प्रेस की आज़ादी 'संयुक्त राष्ट्र महासभा' ने भी '3 मई' को 'अंतरराष्ट्रीय प्रेस स्वातंत्रता' की घोषणा की थी।


1993 में प्रस्ताव स्वीकार :- यूनेस्को महासम्मेलन के 26वें सत्र में 1993 में इससे संबंधित प्रस्ताव को स्वीकार किया गया था। इस दिन के मनाने का उद्देश्य प्रेस की स्वतंत्रता के विभिन्न प्रकार के उल्लघंनों की गंभीरता के बारे में जानकारी देना है, जैसे- प्रकाशनों की कांट-छांट, उन पर जुर्माना लगाना, प्रकाशन को निलंबित कर देना और बंद कर देना आदि। इनके अलावा पत्रकारों, संपादकों और प्रकाशकों को परेशान किया जाता है और उन पर हमले भी किये जाते हैं। यह दिन प्रेस की आज़ादी को बढ़ावा देने और इसके लिए सार्थक पहल करने तथा दुनिया भर में प्रेस की आज़ादी की स्थिति का आकलन करने का भी दिन है। अधिक व्यावहारिक तरीके से कहा जाए, तो प्रेस की आज़ादी या मीडिया की आज़ादी, विभिन्न इलैक्ट्रोनिक माध्यमों और प्रकाशित सामग्री तथा फ़ोटोग्राफ़ वीडियो आदि के जरिए संचार और अभिव्यक्ति की आज़ादी है। प्रेस की आज़ादी का मुख्य रूप से यही मतलब है कि शासन की तरफ से इसमें कोई दख़लंदाजी न हो, लेकिन संवैधानिक तौर पर और अन्य क़ानूनी प्रावधानों के जरिए भी प्रेस की आज़ादी की रक्षा जरूरी है। मीडिया की आज़ादी का मतलब है कि किसी भी व्यक्ति को अपनी राय कायम करने और सार्वजनिक तौर पर इसे जाहिर करने का अधिकार है। इस आज़ादी में बिना किसी दख़लंदाजी के अपनी राय कायम करने तथा किसी भी मीडिया के जरिए, चाहे वह देश की सीमाओं से बाहर का मीडिया हो, सूचना और विचार हासिल करने और सूचना देने की आज़ादी शामिल है। इसका उल्लेख मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के 'अनुछेद 19' में किया गया है। 'सूचना संचार प्रौद्योगिकी' तथा सोशल मीडिया के जरिए थोड़े समय के अंदर अधिक से अधिक लोगों तक सभी तरह की महत्वपूर्ण ख़बरें पहुंच जाती हैं। यह समझना भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि सोशल मीडिया की सक्रियता से इसका विरोध करने वालों को भी स्वयं को संगठित करने के लिए बढ़ावा मिला है और दुनिया भर के युवा लोग अपनी अभिव्यक्ति के लिए और व्यापक रूप से अपने समुदायों की आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति के लिए संघर्ष करने लगे हैं। इसके साथ ही यह समझना भी जरूरी है कि मीडिया की आज़ादी बहुत कमज़ोर है। यह भी जानना जरूरी है कि अभी यह सभी की पहुंच से बाहर है। हालांकि मीडिया की सच्ची आज़ादी के लिए माहौल बन रहा है, लेकिन यह भी ठोस वास्तविकता है कि दुनिया में कई लोग ऐसे हैं, जिनकी पहुंच बुनियादी संचार प्रौद्योगिकी तक नहीं है। जैसे-जैसे इंटरनेट पर ख़बरों और रिपोर्टिंग का सिलसिला बढ़ रहा है, ब्लॉग लेखकों सहित और अधिक इंटरनेट पर पत्रकारों को परेशान किया जा रहा है और हमले किये जा रहे हैं। प्रत्येक लोकतांत्रिक और जागरुक देश में मीडिया या प्रेस की भूमिका सबसे अहम रहती है। शासक और सत्तासीन सरकारों का हमेशा यह प्रयत्न रहता है कि वह सूचना के उसी पहलू को जनता के सामने लाएं जो उनके पक्ष में हो ताकि उनके शासन को कोई चुनौती ना दे पाए। ऐसे में प्रेस की स्वतंत्रता पर खतरा होना लाजमी है। यही वजह है कि हर वर्ष 3 मई को प्रेस स्वतंत्रता दिवस मनाया जाता है जिसका उद्देश्य अंतरराष्ट्रीय समुदाय तक यह संदेश पहुंचाना है कि प्रेस और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमारे मौलिक अधिकारों में से एक है जिस पर किसी भी प्रकार का अवरोध या बंदिश सहन नहीं की जाएगी वर्तमान हालातों के मद्देनजर यह कहना गलत नहीं होगा कि आज का मनुष्य सामाजिक और राजनैतिक दोनों ही तरह से पहले से कहीं अधिक जागरुक और सचेत हो गया है। वह अपनी जानकारी के दायरे को बढ़ाने के लिए प्रयत्नशील तो है लेकिन समय की कमी होने के कारण वह इस उद्देश्य में सफल नहीं हो पाता। ऐसे में उसके जीवन में सूचना प्रसारित करने वाले माध्यमों की अहमियत और अधिक बढ़ जाती है।

......

 
 
लोकगीतों में झलकती संस्कृति का प्रतीक : होली - आत्माराम यादव 'पीव'

होली  की एक अलग ही उमंग और मस्ती होती है जो अनायास ही लोगों के दिलों में गुदगुदी व रोमांच से भर देती है। खेतों में गेहूं चने की फसल पकने लगती है। जंगलों में महुए की गंध मादकता भर देती है। कहीं आम की मंजरियों की महक वातावरण को बासन्ती हवा के साथ उल्लास भरती है तो कहीं पलाश दिल को हर लेता है। ऐसे में फागुन मास की निराली हवा में लोक संस्कृति परम्परागत परिधानों में आन्तरिक प्रेमानुभूति के सुसज्जित होकर चारों और मस्ती भंग आलम बिखेरती है जिससे लोग जिन्दगी के दुख-दर्द भूलकर रंगों में डूब जाते है। शीत ऋतु की विदाई एवं ग्रीष्म ऋतु के आगमन की संधि बेला में युग मन प्रणय के मधुर सपने सजोये मौसम के साथ अजीव हिलौरे महसूस करता है जब सभी के साथ ऐसा हो रहा हो तो यह कैसे हो सकता है कि ब्रज की होली को बिसराया जा सके। हमारे देश के गॉव-गॉव में ढ़ोलक पर थाप पड़ने लगती है,झांझतों की झंकार खनखता उठती है और लोक गीतों के स्वर समूचे वातावरण को मादक बना देते है। आज भी ब्रज की तरह गांवों व शहरों के नरनारी बालक-वृद्घ सभी एकत्रित होकर खाते है पीते -गाते है और मस्ती में नाचते है।

राधा कृष्ण की रासस्थली सहित चौरासी कोस की ब्रजभूमि के अपने तेवर होते हैं जिसकी झलक गीतों में इस तरह फूट पड़ते को आतुर है जहां युवक युवतियों में पारंपरिक प्रेमाकंट के उदय होने की प्राचीन पराकाष्ठा परिष्कृत रूप से कूक उठती हैः-

आज विरज में होली रे रसिया

होली रे रसिया बरजोरी रे रसिया

क हॅू बहुत कहॅू थोरी रे रसिया

आज विरज में होली रे रसिया।

नटखट कृष्ण होली में अपनी ही चलाते है। गोपियों का रास्ता रोके खडे होना उनकी फितरत है तभी जी भर कर फाग खेलने की उन जैसी उच्छृखंलता कही देखने को नहीं मिलती। उनकी करामाती हरकतों से गोपियां समर्पित हो जाती है और वे अपनी बेवशी घॅूघट काढ़ने की शर्महया को बरकरार रखे मनमोहन की चितवन को एक नजर देखने की हसरत लिये जतलाती है कि सच मैं अपने भाई की सौगंध खाकर कहती हॅू कि मैं तुम्हें देखते से रही। इसलिये उलाहना करते हुये कहती है कि-

भावै तुम्हें सो करौ सोहि लालन

पाव पडौ जनि घूघट टारौ

वीर की सौ तुम्हे देखि है कैसे

अबीर तो ऑख बचाय के डारौ

जब कभी होली खेलते हुए कान्हा कहीं छिप जाते है तब गोपियॉ व्याकुल हो उन्हें ढॅूढती है। उनके लिए कृष्ण उस अमोल रत्न की तरह है जो लाखों में एक होता है वे कृष्ण के मन ही मन नहीं अपितु अंगों की सहज संवेदनाओं से भी चिर-परिचित है तभी उनके अंग स्पर्श के अनुभव को तारण करते हुए उपमा देती है कि उनके अंग माखन की लुगदी से भी ज्यादा कोमल हैः-

अपने प्रभु को हम ढॅूढ लियों

जैसे लाल अमोलक लाखन में

प्रभु के अंग की नरमी है जिती

नरमी नही ऐसी माखन में।

वे कृष्ण को एक नजरभर के लिये भी अपने से अलग रखने को कल्पना नहीं करती। यदि वे नजरों के आगे नहीं होते तो उस बिछोह तक को वे अपने कुल की मर्यादा पानी में मिलाकर पीने का मोह नहीं त्यागती। जब कृष्ण दो चार दिन नहीं मिलते तो उस बिछुडन की दशा में उनको होश भी नहीं रहता कि कब उनकी ऑखों से बरसने वाले ऑसुओं से शरीर धुल गया हैः-

मनमोहन सों बिछुरी जब से

तन ऑसुन सौ नित धोबति है

हरीचन्द्र जू प्रेम के फन्द परी

कुल की कुल लाजहि खोवती है।

इस कारण सभी गोपिया मान प्रतिष्ठा खोकर दुख उठाने के लिये सदैव तत्पर रहती है उन्हें भोजन में रूचि नहीं है बशर्ते कृष्ण ब्रजभूमि त्यागने को न कहे। ब्रज भूमि से इतना अधिक गहरा लगाव हो गया है जैसे आशा का संबंध शरीर से एकाकर हो जाता है।ः-

कहीं मान प्रतिष्ठा मिले-न-मिले

अपमान गले में बंधवाना पडे

अभिलाषा नहीं सुख की कुछ भी

दुख नित नवीन उठाना पडे

ब्रजभूमि के बाहर किन्तु प्रभो

हमको कभी भूल के न जाना पडे

जल भोजन की परवाह नहीं

करके व्रत जीवन यॅू ही बिताना पडे।

फाग की घनी अंधेरी रात में श्याम का रंग उसमें मेल खाता है। गोपी उन्हें रंगने को दौडती है किन्तु वे पहले ही सतर्क है और गोपियां अपने मनोरथ सिद्घ किये बिना कृष्ण के हाथों अपने वस्त्र ओढ़नी तक लुटा आती हैः-

फाग की रैनि अंधेरी गलि

जामें मेल भयो सखि श्याम छलि को

पकड़ बॉह मेरी ओढ़नी छीनी

गालन में मलि दयो रंग गुलाल को टीको।

आयो हाथ न कन्हैया गयो न भयो

सखी हाय मनोरथ मेरे जीको।

कृष्ण पर रीझी गोपिया अनेक अवसर खो बैठती है तो कई पाती भी है। इधर कृष्ण गोपी को अकेला पाकर उस पर अपना अधिकार जताते है तो उधर गोपियॉ कृष्ण को गलियों में रोक गालिया गाते हुए तालिया बजाती पिचकारी से रंग देती हैः-

मैल में माई के गारी दई फिरि

तारी दई ओ दई ओ दई पिचकारी

त्यों पदमाकर मेलि मुढि इत

पाई अकेली करी अधिकारी।

फाग हो और बृजभान दुलारी न हो ऐसा संभव नहीं। रंग गुलाल केसर लिये मधुवन में कृष्ण के मन विनोद हिलोर लेता है कि अब बृजभान ललि के साथ होली खेलने का आनन्द रंग लायेगाः-

हरि खेलत फाग मधुवन में

ले अबीर सुकेसरि रंग सनै

उत चाड भरी बृजभान सुता

उमंग्यों हरि के उत मोढ मनै।

होली खेलते समय कृष्ण लाल रंगमय हो जाते है जागते हुए उनकी आंखे भी लाल हो गई है, नंदलाल-लाल रंग से रंगे है यहॉ तक कि पीत वस्त्र पीताम्बर सहित मुकुट भी लाल हो गया हैः-

लाल ही लाल के लाल ही लोचन

लालन के मुख लाल ही पीरा

लाल हुई कटि काछनी लाल को

लाल के शीश पै लस्त ही चीरा।

मजाक की अति इससे कहीं दूसरी नहीं मिलेगी जब गोपियॉ मिलकर कृष्ण को पकड़ उनके पीताम्बर व काम्बलियॉ को उतारकर उन्हें साडी झुमकी आदि पहना दे फिर पांव में महावर आंखों में अंजन लगा गोपी स्वरूप बनाकर अपने झुण्ड में शामिल कर लें तब होली का मजा दूना हुए नहीं रह सकेगाः-

छीन पीताम्बर कारिया

पहनाई कसूरमर सुन्दर सारी

आंखन काजर पाव महावर

सावरौ नैनन खात हहारी।

कृष्ण इस रूप में अपने ग्वाल सखाओं के साथ हॅसी ठहाका करने में माहिर है। बृजभान ललि भीड का लाभ लेकर कृष्ण को घर के अन्दर ले जाती है और नयनों को नचाते हुए मुस्कुराहटे बिखेरती हुई दोबारा होली खेलने का निमंत्रण इस तरह देती हैः-

फाग की भीर में पकड़ के हाथ

गोविन्दहि ले गई भीतर गोरी

नैन नचाई कही मुसुकाइ के

लला फिर आईयों खेलन होरी।

होली के राग रंग में कोई अधिक देर रूठा नहीं रहता जल्दी ही एक दूसरे को मनाने की पहल चल पडती है फिर मिला जुला प्रेम पाने की उम्मीद में सभी रंगों में खो जाते है। लक्ष्य और भावना के चरम आनन्द की भाव भंगिया को आंखों में अंग प्रत्यंग में व्यक्त किये पीढी दर पीढी यह पर्व अनन्तकाल से चला आ रहा है कृष्ण ब्रज को मन में बसाये एक महारास की निश्चलता श्रद्घा को जीवन्त रखने हेतु सभी को प्रेरित करता हुआ आनन्द की तरंगे फैलाता जीवन में रंग घोल जीने की कला लिये।

-आत्माराम यादव 'पीव'


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नकली और असली  - अरुण प्रकाश 'विशारद'

नकली आँखें बीस लगा ले,
अँधा देख न सकता है। ......

 
 
तुम बेटी हो - राधा सक्सेना

तुम मेरी बेटी जैसी हो, ये कहना बहुत आसान है
इन शब्दों का लेकिन अब यहां, कौन रखता मान है!......

 
 
नारद की कल्याणकारी पत्रकारिता  - लोकेन्द्र सिंह

पत्रकारिता की तीन प्रमुख भूमिकाएं हैं- सूचना देना, शिक्षित करना और मनोरंजन करना। महात्मा गांधी ने हिन्द स्वराज में पत्रकारिता की इन तीनों भूमिकाओं को और अधिक विस्तार दिया है- लोगों की भावनाएं जानना और उन्हें जाहिर करना, लोगों में जरूरी भावनाएं पैदा करना, यदि लोगों में दोष है तो किसी भी कीमत पर बेधड़क होकर उनको दिखाना। भारतीय परम्पराओं में भरोसा करने वाले विद्वान मानते हैं कि देवर्षि नारद की पत्रकारिता ऐसी ही थी। देवर्षि नारद सम्पूर्ण और आदर्श पत्रकारिता के संवाहक थे। वे महज सूचनाएं देने का ही कार्य नहीं बल्कि सार्थक संवाद का सृजन करते थे। देवताओं, दानवों और मनुष्यों, सबकी भावनाएं जानने का उपक्रम किया करते थे। जिन भावनाओं से लोकमंगल होता हो, ऐसी ही भावनाओं को जगजाहिर किया करते थे। इससे भी आगे बढ़कर देवर्षि नारद घोर उदासीन वातावरण में भी लोगों को सद्कार्य के लिए उत्प्रेरित करने वाली भावनाएं जागृत करने का अनूठा कार्य किया करते थे। दादा माखनलाल चतुर्वेदी के उपन्यास 'कृष्णार्जुन युद्ध' को पढऩे पर ज्ञात होता है कि किसी निर्दोष के खिलाफ अन्याय हो रहा हो तो फिर वे अपने आराध्य भगवान विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण और उनके प्रिय अर्जुन के बीच भी युद्ध की स्थिति निर्मित कराने से नहीं चूकते। उनके इस प्रयास से एक निर्दोष यक्ष के प्राण बच गए। यानी पत्रकारिता के सबसे बड़े धर्म और साहसिक कार्य, किसी भी कीमत पर समाज को सच से रू-ब-रू कराने से वे भी पीछे नहीं हटते थे। सच का साथ उन्होंने अपने आराध्य के विरुद्ध जाकर भी दिया। यही तो है सच्ची पत्रकारिता, निष्पक्ष पत्रकारिता, किसी के दबाव या प्रभाव में न आकर अपनी बात कहना। मनोरंजन उद्योग ने भले ही फिल्मों और नाटकों के माध्यम से उन्हें विदूषक के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया हो लेकिन देवर्षि नारद के चरित्र का बारीकी से अध्ययन किया जाए तो ज्ञात होता है कि उनका प्रत्येक संवाद लोक कल्याण के लिए था। मूर्ख उन्हें कलहप्रिय कह सकते हैं। लेकिन, नारद तो धर्माचरण की स्थापना के लिए सभी लोकों में विचरण करते थे। उनसे जुड़े सभी प्रसंगों के अंत में शांति, सत्य और धर्म की स्थापना का जिक्र आता है। स्वयं के सुख और आनंद के लिए वे सूचनाओं का आदान-प्रदान नहीं करते थे, बल्कि वे तो प्राणी-मात्र के आनंद का ध्यान रखते थे।


भारतीय परम्पराओं में भरोसा नहीं करने वाले 'बुद्धिजीवी' भले ही देवर्षि नारद को प्रथम पत्रकार, संवाददाता या संचारक न मानें। लेकिन, पथ से भटक गई भारतीय पत्रकारिता के लिए आज नारद ही सही मायने में आदर्श हो सकते हैं। भारतीय पत्रकारिता और पत्रकारों को अपने आदर्श के रूप में नारद को देखना चाहिए, उनसे मार्गदर्शन लेना चाहिए। मिशन से प्रोफेशन बनने पर पत्रकारिता को इतना नुकसान नहीं हुआ था जितना कॉरपोरेट कल्चर के आने से हुआ है। पश्चिम की पत्रकारिता का असर भी भारतीय मीडिया पर चढऩे के कारण समस्याएं आई हैं। स्वतंत्रता आंदोलन में जिस पत्रकारिता ने 'एक स्वतंत्रता सेनानी' की भूमिका निभाई थी, वह पत्रकारिता अब धन्ना सेठों के कारोबारों की चौकीदार बनकर रह गई है। पत्रकार इन धन्ना सेठों के इशारे पर कलम घसीटने को मजबूर, महज मजदूर हैं। संपादक प्रबंधक हो गए हैं। उनसे लेखनी छीनकर, लॉबिंग की जिम्मेदारी पकड़ा दी गई है। आज कितने संपादक और प्रधान संपादक हैं जो नियमित लेखन कार्य कर रहे हैं? कितने संपादक हैं, जिनकी लेखनी की धमक है? कितने संपादक हैं, जिन्हें समाज में मान्यता है? 'जो हुक्म सरकारी, वही पकेगी तरकारी' की कहावत को पत्रकारों ने जीवन में उतार लिया है। मालिक जो हुक्म संपादकों को देता है, संपादक उसे अपनी टीम तक पहुंचा देता है। तयशुदा ढांचे में पत्रकार अपनी लेखनी चलाता है। अब तो किसी भी खबर को छापने से पहले संपादक ही मालिक से पूछ लेते हैं- 'ये खबर छापने से आपके व्यावसायिक हित प्रभावित तो नहीं होंगे।' खबरें, खबरें कम विज्ञापन अधिक हैं। 'लक्षित समूहों' को ध्यान में रखकर खबरें लिखी और रची जा रही हैं। मोटी पगार की खातिर संपादक सत्ता ने मालिकों के आगे घुटने टेक दिए हैं। आम आदमी के लिए अखबारों और टीवी चैनल्स पर कहीं जगह नहीं है। एक किसान की 'पॉलिटिकल आत्महत्या' होती है तो वह खबरों की सुर्खी बनती है। पहले पन्ने पर लगातार जगह पाती है। चैनल्स के प्राइम टाइम पर किसान की चर्चा होती है। लेकिन, इससे पहले बरसों से आत्महत्या कर रहे किसानों की सुध कभी मीडिया ने नहीं ली। जबकि भारतीय पत्रकारिता की चिंता होना चाहिए- अंतिम व्यक्ति। आखिरी आदमी की आवाज दूर तक नहीं जाती, उसकी आवाज को बुलंद करना पत्रकारिता का धर्म होना चाहिए, जो है तो, लेकिन व्यवहार में दिखता नहीं है। पत्रकारिता के आसपास अविश्वसनीयता का धुंध गहराता जा रहा है। पत्रकारिता की इस स्थिति के लिए कॉरपोरेट कल्चर ही एकमात्र दोषी नहीं है। बल्कि पत्रकार बंधु भी कहीं न कहीं दोषी हैं। जिस उमंग के साथ वे पत्रकारिता में आए थे, उसे उन्होंने खो दिया। 'समाज के लिए कुछ अलग' और 'कुछ अच्छा' करने की इच्छा के साथ पत्रकारिता में आए युवा ने भी कॉरपोरेट कल्चर के साथ सामंजस्य बिठा लिया है।

......

 
 
वो मजदूर कहलाता है - राधा सक्सेना

जो हमारे लिए घर बनाता है
घर नहीं हमारे उस सपने को साकार करता है......

 
 
सबसे बढ़कर - रमापति शुक्ल

आलपीन के सिर होता पर
बाल न होता उसके एक ।

कुर्सी के दो बाँहें हैं पर......

 
 
ऐसे सूरज आता है - श्रीप्रसाद

पूरब का दरवाज़ा खोल
धीरे-धीरे सूरज गोल ......

 
 
होली के विविध रंग : जीवन के संग - ललित गर्ग

भारतवर्ष की ख्याति पर्व-त्यौहारों के देश के रूप में है। प्रत्येक पर्व-त्यौहार के पीछे परंपरागत लोकमान्यताएं एवं कल्याणकारी संदेश निहित है। इन पर्व-त्यौहारों की श्रृंखला में होली का विशेष महत्व है। इस्लाम के अनुयायियों में जो स्थान ‘ईद' का है, ईसाइयों में ‘क्रिसमस' का है, वही स्थान हिंदुओं में होली का है। होली का आगमन इस बात का सूचक है कि अब चारों तरफ वसंत ऋतु का सुवास फैलनेवाला है। यह पर्व शिशिर ऋतु की समाप्ति और ग्रीष्म ऋतु के आगमन का प्रतीक है। वसंत के आगमन के साथ ही फसल पक जाती है और किसान फसल काटने की तैयारी में जुट जाते हैं। वसंत की आगमन तिथि फाल्गुनी पूर्णिमा पर होली का आगमन होता है, जो मनुष्य के जीवन को आनंद और उल्लास से प्लावित कर देता है।
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एक बार फिर... -  व्यग्र पाण्डे

वो
चला तो ठीक था......

 
 
अरविंद कुमार और उनके विलक्षण कोश  - मीता लाल

आज हर ओर पचासी-वर्षीय अरविंद कुमार के नवीनतम द्विभाषी कोश अरविंद वर्ड पावर - इंग्लिश-हिंदी की धूम मची है। अशोक वाजपेयी जैसे मनीषी लिख रहे हैँ - हिंदी समाज को अरविंद कुमार का कृतज्ञ होना चाहिए कि उन्होँ ने ऐसा अद्भुत कोश बनाया।

ऐसे मेँ मन मेँ सवाल उठता है - वह क्या है जो किसी को एक सपना पूरा करने के Shri Arvind Kumarलिए अडिग आत्मसमर्पण से 38 साल तक एक ही काम में लगे रहने को बाध्य करता रह सकता है? जुनून? उन्माद? धुन? या यह विश्वास कि वह करने के लिए उसे ही चुना गया है, कि उस का जन्म इस काम के लिए ही हुआ है? मुझे लगता है कि इन सभी ने मिल कर लेखक-पत्रकार-समीक्षक अरविंद कुमार को दस लाख से भी ज़्यादा इंग्लिश-हिंदी अभिव्यक्तियोँ का संसार का विशालतम डाटाबेस अरविंद लैक्सिकन बनाने मेँ जुटाए रखा, एक ऐसा अनोखा डाटा जो अपनेआप मेँ थिसारस भी है, शब्दकोश भी और मिनी ऐनसाइक्लोपीडिया भी।

 

1996 मेँ संसार को मिला समांतर कोश - अरविंद की बीस साल की अनथक अनवरत खोज और अप्रतिम कल्पनाशीलता से - सभी भारतीय भाषाओँ मेँ सब से पहला आधुनिक हिंदी थिसारस। वह कोश जिस ने समसामयिक हिंदी जगत को थिसारस की परिकल्पना से परिचित कराया, जिस ने देश तथा विश्व की कोशकारिता मेँ रातोरात महान क्रांति कर दी, जिस ने संस्कृत भाषा के अपेक्षाकृत छोटे निघंटु और अमरकोश वाली प्राचीन भारतीय कोश परंपरा को आगे बढ़ाया। ऐसे अरविंद कुमार को लोग भारत का पीटर मार्क रोजेट कहेँ तो अचरज नहीँ होता. कुछ लोग उन्हेँ वैदिक शब्दोँ के संकलन निघंटु की रचना करने वाले प्रजापति कश्यप का अभिनव अवतार तक कह डालते हैँ।

 

स्वतंत्रता के स्वर्ण जयंती वर्ष मेँ प्रकाशित समांतर कोश - हिंदी थिसारस की पहली प्रति 13 दिसंबर 1996 के पूर्वाह्न में अरविंद कुमार दंपती ने तत्कालीन राष्ट्रपति डा. शंकरदयाल को समर्पित की। इस नई तरह के कोश को तत्काल सफलता, अपार प्रशंसा और हार्दिक स्वीकृति मिलीँ। प्रसिद्ध लेखक ख़ुशवंत सिंह ने लिखा - "इस ने हिंदी की एक भारी कमी को पूरा किया है और हिंदी को इंग्लिश भाषा के समकक्ष खड़ा कर दिया है।"

 

ग्यारह और साल की मेहनत के बाद, 2007 मेँ, अरविंद ने हमेँ दिया तीन खंडोँ मेँ 3000+ पेजोँ वाला द पेंगुइन इंग्लिश-हिंदी/हिंदी-इंग्लिश थिसारस ऐंड डिक्शनरी - Shri Arvind Kumar with Purav Rashtrapati, Shankardayal SharmaThe Penguin English-Hindi/Hindi-English Thesaurus and Dictionary। संसार का यह विशालतम द्विभाषी थिसारस तमाम विषयोँ के पर्यायवाची और विपर्यायवाची शब्दोँ का महाभंडार है। संदर्भ क्रम से आयोजित इस कोश मेँ पहली बार संबद्ध और विपरीत शब्दकोटियोँ के क्रासरैफ़रैंस भी शामिल किए गए। और फिर छः साल बाद 2013 मेँ अरविंद ने प्रदान किया समांतर कोश का परिवर्धित और परिष्कृत संस्करण - बृहत् समांतर कोश।

 

अरविंद कुमार के दो अन्य प्रशंसनीय और प्रख्यात कोश हैँ - अरविंद सहज समांतर कोश (किसी भी भारतीय भाषा मेँ कोशक्रम से आयोजित एकमात्र थिसारस) और शब्देश्वरी (भारतीय मिथक पात्रोँ का संसार की किसी भी भाषा मेँ एकमात्र संकलन)।

 

ऊपरोक्त सभी कोशोँ का स्रोत है - अरविंद का 10,12,754 अभिव्यक्तियोँ वाला डाटाबेस अरविंद लैक्सिकन (www.arvindlexicon.com)। यह अपनी तरह का अकेला भाषाई संसाधन है। इसे इस तरह बनाया गया है कि अकेले भारत की ही नहीँ, संसार की सभी भाषाओँ को इस मेँ समाया जा सकता है। इस की सहायता से भारत को सभी देशी विदेशी भाषाओँ से जोड़ने के सेतु निर्मित किए जा सकते हैँ।

 

अरविंद कुमार की कहानी परीकथाओँ जैसी विचित्र या अविश्सनीय सी लगती है। बहुत पहले 1945 मेँ पंदरह साल का एक लड़का बालश्रमिक के तौर पर छापेख़ाने की सब से निचली पायदान पर दाख़िल हुआ। उस की तमाम उच्च शिक्षा सायंकालीन कक्षाओँ मेँ हुई। वह कविताएँ लिखता था, लेख और निबंध लिखता था। उस ने नाटक लिखे, पत्रकार रहा (संपादक: सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट 1980-85, माधुरी (टाइम्स आफ़ इंडिया समूह 1963-1978, एग्ज़क्टिव संपादक: सरिता (हिंदी), सरिता (उर्दू), मुक्ता (हिंदी), कैरेवान Caravan (इंग्लिश) (दिल्ली प्रैस ग्रुप))। अपनी महत्वाकांक्षा अरविंद लैक्सिकन की रचना पूरा करने के लिए वह माधुरी का संपादक पद त्याग आया। उल्लेखनीय है कि अपना सपना पूरा करने के लिए अरविंद को न किसी संस्थान से न किसी सेठ से किसी प्रकार की सहायता प्राप्त नहीँ थी। जैसे तैसे जीवनयापन करते वह बच्चोँ को पढ़ाता रहा, अपनी साधना मेँ जुटा रहा।

 

अरविंद कुमार को मिले कुछ सम्मान हैँ - शलाका सम्मान (हिंदी अकादेमी, दिल्ली), सुब्रह्मण्य भारती अवार्ड (केंद्रीय हिंदी संस्थान आगरा), अखिल भारती हिंदी सेवा पुरस्कार (महाराष्ट्र राज्य हिंदी अकादेमी) और डा. हरदेव बाहरी सम्मान (हिंदी साहित्य सम्मेलन)।

 

अब अरविंद ने देश को दिया है अपना नवीनतम उपहार अरविंद वर्ड पावर: इंग्लिश-हिंदी (Arvind Word Power: English-Hindi) - उपयोक्ताओँ की शब्दशक्ति कई गुना बढ़ाने वाला सशक्त कोश और थिसारस। इस का आयोजन सब के सुपरिचित कोशक्रम से किया गया है। ऊपर नीचे पैराग्राफ़ोँ मेँ शब्दोँ के इंग्लिश और हिंदी पर्याय तो यह परोसता ही है, सदृश और विपरीत धारणाओँ की जानकारी दे कर उन तक जाने की प्रेरणा भी देता है। अरविंद वर्ड पावर: इंग्लिश-हिंदी का संयोजन भारतीय पाठकोँ की आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए विशेषतः किया गया है। यह एकमात्र भारत-केंद्रित इंग्लिश-हिंदी कोश है। हमारे रीतिरिवाजोँ, प्रथाओँ, परंपराओँ, विचारधाराओँ, दर्शनोँ, सिद्धांतोँ, मिथकोँ, मान्यताओँ, संस्कृति का दर्पण है।

 

संक्षेप मेँ कहेँ तो भारत और भारतीय समाज, थाती, विरासत को इस हद तक समाने वाला कोई और इंग्लिश-हिंदी कोश एकमात्र कोश है अरविंद वर्ड पावर: इंग्लिश-हिंदी।

 

आज पिचासी वर्ष की परिपक्व उम्र मेँ अरविंद सपना देख रहे हैँ - शब्दोँ का विशाल विश्व बैंक (World Bank of Words) बना पाने का। उन का कहना है कि आज भारत की हर भाषा को संसार की हर भाषा से अपना सीधा संबंध बनाना चाहिए। आखिर हम कब तक संसार को अभारतीय इंग्लिश कोशोँ के ज़रिए देखते रहेंगे? और कब तक संसार हमें इन अभारतीय कोशोँ के ज़रिए देखता रहेगा? क्योँ नहीँ हम स्वय़ं अपने अरबी-हिंदी और हिंदी-अरबी कोश बनाते? या हिंदी-जापानी और जापानी-हिंदी कोश?

 

अरविंद लैक्सिकन के माध्यम से अब यह पूरी तरह संभव है। हमारे विशाल शब्दभंडार मेँ एक एक कर के दूसरी भाषाओं के शब्द डालकर, वांछित भाषाओँ के द्विभाषी या त्रिभाषी कोश तत्काल बन सकते हैं। समय आ गया है कि हम अपने दूरगामी राष्ट्रीय हितोँ के लिए संसार की भाषाओँ तक अपने भाषा-सेतु बनाएँ।

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अरविंद कुमार से संपर्क सूत्र--......

 
 
जामुन - श्रीप्रसाद

पौधा तो जामुन का ही था
लेकिन आये आम......

 
 
दूब - मंजू रानी

तुम ने कभी दूब को मरते देखा है
वह सदा जीवित रहती है।......

 
 
सबकी ‘होली’ एक दिन, अपनी ‘होली’ सब दिन - डॉ. भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी

मुझे बहुत अजीब सा लगता है, जब हास्य-व्यंग्य शैली में लिखने वाले लोग अप्रासंगिक विषय-वस्तु का प्रयोग करते हैं। इन व्यंग्यकारों के गुणावगुण पर ज्यादा कुछ कहना नहीं है। मैंने महसूस किया है कि इनके कुछेक आलेख सर्वथा काल्पनिक ही होते हैं। मसलन होली या अन्य विशेष पर्व-अवसरों के बारे में जब इनकी लेखनी चलती है तो प्रतीत होता है कि ये ‘टू एनफ' ही कर रहे हैं। मैं यह आप पर कत्तई ‘लाद' नहीं रहा। कोई जरूरी तो नहीं कि आप किसी की बात को नसीहत ही मानें या आँख मूँद कर विश्वास ही करें।
......

 
 
विश्व शान्ति की शिक्षा: भगवान बुद्ध के सन्दर्भ में - डॉ मनुप्रताप

बौद्ध धर्म के विषय में प्रायः एक भ्रांति लोगों के मन में यह रहती है कि यह मात्र एक धर्म है जो हमें हिन्दू धर्म के विपरीत आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान करता है। जबकि वास्तविकता यह है कि बौद्ध धर्म शैक्षिक मानव जीव के सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, आर्थिक एवं राजनैतिक क्षेत्रों में लोक कल्याण की दीक्षा देता है। बौद्ध धर्म विश्व के सभी धर्मों में अपना अद्वितीय स्थान रखता है। इस धर्म ने मानव लोक कल्याण की भावना को जन्म दिया और शान्ति का उपदेश देकर सबसे पहले पंचशील के विषय में अवगत कराया। लोगों को समता-करुणा-प्यार के साथ रहना सिखाया। बौद्ध धर्म सुखमय जीवन बिताने का मार्ग प्रशस्त करता है।

 

‘‘महामंगलसुत्त'' और ‘‘करणीयमेत्तसुत्त'' विश्व के मानव को बन्धुता के सूत्र में आबद्ध रखने में आज भी सक्षम है। इसमें सुशिक्षित होना, शिल्प प्रशिक्षित होना, विनयशील होना, मृदुभाषी होना, माता-पिता की सेवा करना, पत्नी और सन्तानों का पालन-पोषण करना, अहितकारी कर्मों से दूर रहना, दान देना, पवित्र जीवन बिताना, आपत्ति-विपत्ति आने पर साहसपूर्वक उसका सामना करना और विचलित न होना क्रोध पर विजय प्राप्त करना और क्षमाशीलता को न खोना आदि ‘‘महामंगलसुत्त'' प्रमुख बातें हैं।

 

बौद्ध धर्म मानव को स्वतंत्र जीवन जीना सिखाता है। यही कारण है कि भारत में जब-जब बौद्ध शासकों का शासन हुआ देश की राजनैतिक और सांस्कृतिक सीमाएं बढ़ती ही गयीं। उनके समय में भारत कभी परतन्त्र नहीं हुआ बौद्ध धर्म को मानने वाले म्यांमर, बर्मा, थाईलैण्ड, श्रीलंका, जापान कोरिया, चीन जैसे राष्ट्र अपनी स्वतंत्रता की रक्षा के लिए अपने शरीर के रक्त की अंतिम बूँद तक संघर्षरत प्रयासरत एवं प्रयत्नशील रहते हैं।1

 

भगवान बुद्ध ने उस मानवता का संदेश दिया जहां जाति धर्म और सम्प्रदाय, राष्ट्र की सीमाएं नहीं होतीं। बाबा साहेब के दीक्षा के लिए 57 वर्ष पूरे हो गये। उनका वह शब्द कि मैं अशोक की भांति भारत को बौद्धमय बनाऊँगा, वह सपना पूरा क्यों नहीं हुआ उसका क्या कारण है ? हम या आप कौन दोषी हैं जवाब तो देना ही पड़ेगा ?

 

आप नहीं देंगे, मैं नहीं दूंगा, तो कौन देगा ? हम भारत को बौद्धमय नहीं बना सकते, तो विश्व की शांति की बात करना ही व्यर्थ हो जाती है। हमें विश्व शान्ति बुद्ध वचनों में ही ढूंढ़ना पड़ेगा।

 

बौद्ध धर्म का शान्ति से अटूट सम्बन्ध भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। बौद्ध धर्म के 2557 वर्ष के इतिहास में जबकि यह सम्पूर्ण पृथ्वी के चतुर्थ भाग से अधिक प्रदेश में फैल गया, काफी श्रम साध्य, गंवेषण करने पर भी स्थायी और अल्प महत्व के कुछ एक उदाहरण ही मिल सकेंगे जबकि बल का प्रयोग किया गया हो। बौद्ध धर्म के इतिहास का एक भी पृष्ठ ऐसा नहीं है जो रक्त रंजित हो। बौद्ध धर्म के पास केवल एक ही तलवार है प्रज्ञा की तलवार और उसका एक ही शत्रु है अज्ञान। यह इतिहास का साक्ष्य है, जिसका विरोध नहीं किया जा सकता। बौद्ध धर्म और विश्व शान्ति का सम्बन्ध कार्य कारण का सम्बन्ध है। बौद्ध धर्म के प्रवेश से पूर्व तिब्बत, एशिया का सबसे बलवान सैनिक देश था। वर्मा, स्याम और कंबोडिया का पूर्वकालीन इतिहास बतलाता है कि यहां के निवासी अत्यन्त युद्ध प्रिय और हिंसात्मक स्वभाव के थे। मंगोल लोगों ने एक बार संपूर्ण ऐशिया को ही नहीं भारत, चीन, ईरान और अफगानिस्तान को भी रौंद डाला था और यूरोप के दरबाजों पर भी वे जा गरजे थे। जापान की सैनिक भावना को बौद्ध धर्म की पंद्रह शताब्दियां भी अभी पूरी तरह परास्त नहीं कर सकी हैं। संभवतः भारत और चीन के अपवादों को छोडकर एशिया के प्रायः अन्य सब राष्ट्रों के लोग मूलतः हिंसा प्रिय थे। बाद में उनमें जो शांति प्रियता आई वे बौद्ध धर्म के शांतिवादी उपदेशों के प्रभाव स्वरूप ही थी। इस प्रकार बौद्ध धर्म और शांति का संबंध आकस्मिक न होकर अनिवार्य है। विश्व शांति की स्थापना में बौद्ध धर्म अतीत में योगदान देने वाला साधन रहा है, इस समय है और आगे भी रहेगा।

 

अपने 2557 वर्ष के इतिहास में बौद्ध धर्म ने सांस्कृतिक कार्य किये हैं और इस बीच उसका जो राजनैतिक स्थान और प्रभाव रहा है उसकी झांकी हमारे लिए पूर्व और पश्चिम में बौद्ध धर्म के सांस्कृतिक निष्कर्षों को समझने में सहायक होगी।

 

भगवान बुद्ध ने धर्म की उपमा बेड़े से दी है, जिस प्रकार बेड़ा पार होने के लिए है, पकड़कर रखने के लिए नहीं, उस प्रकार बुद्ध ने धर्म का उपदेश दिया है। यह संसार सागर को पार करने के लिए है पकड़कर रखने के लिए नहीं। जिस प्रकार पार होने के बाद बेड़े की आवश्यकता नहीं रहती, उसे छोड़ देते हैं उसी प्रकार धर्म की स्थिति है। परन्तु जब हम तक समुद्र के इस पार हैं या उसे उतरने का प्रयत्न कर रहे हैं धर्म रूपी बेड़े की हमें अनिवार्य आवश्यकता है और किसी प्रकार छोड़ नहीं सकते।

 

बौद्ध धर्म का स्वरूप व्यवहारिक है, इस बात पर जोर हमें भगवान बुद्ध के उन शब्दों में मिलता है जो उन्होंने अपनी मौसी महाप्रजापति गौतमी से कहे थे। "गौतमी, जिन धर्मों के बारे में तू निश्चयपूर्वक जान सके कि ये निष्कामता के लिए है, कामनाओं की वृद्धि के लिए नहीं, विराग के लिए हैं राग के लिए नहीं, एकांत के लिए हैं, भीड़ के लिए नहीं, उद्यम के लिए हैं, प्रमोद के लिए नहीं, अच्छाई में प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए हैं, बुराई में प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए नहीं तो गौतमी ! उन ऐसे धर्मों के विषय में तू निश्चयपूर्वक जानना है कि यही धर्म है, यह विनय है, यही शास्ता का संदेश है।‘‘ यही बुद्ध का वचन है।

 

तथागत द्वारा अनुमति प्रदान करने पर सिंह सेनापति ने कहा-शास्ता ! मैं एक योद्धा हूं और राजा के नियमों को लागू करने और उसके लिए युद्ध लड़ने को नियुक्त किया गया हूँ। क्या असीम दयालुता और दुखियों के साथ सहानुभूति सिखाने वाले तथागत अपराधी को दंड देने की अनुमति देंगे ? और क्या तथागत यह कहेंगे कि कुटुंब, पत्नियों, बच्चों और संपत्ति की रक्षा के लिए युद्ध करना अनुचित है ? क्या तथागत आत्म समर्पण का सिद्धांत सिखायेंगे, जिससे मैं दुराचारी की मनमानी को सहूं और मेरे अधिकारों को बल प्रयोग से छीन लेने वाले के सम्मुख झुक जाऊँ ? क्या तथागत यह मानते हैं कि सभी संघर्ष, भले ही वे किसी उचित उद्देश्य के लिए हो निषिद्ध है ?

 

बुद्ध ने उत्तर दिया जो दण्ड के योग्य है, उसे दंड दिया जाना चाहिए और जो कृपा के पात्र है, उस पर कृपा की जानी चाहिए किन्तु इसके साथ ही तथागत किसी जीव को चोट न पहुंचाने और प्रेम, करूणा मैत्री से परिपूर्ण होने का उपदेश देते हैं। ये आदेश अंतर्विरोधी नहीं है, क्योंकि अपराध करने के लिए दण्ड का भागीदार मनुष्य न्यायाधीश के द्वेष के कारण नहीं, बल्कि अपने दुराचरण के कारण दण्ड पाता है। नियमों को निष्पादित करने वाला उसे जो क्षति पहुंचाता है उसका कारण स्वयं अपराधी के दुष्कर्म ही हैं। न्यायाधीश दण्ड देते समय अपने चित्त में कोई द्वेष न रखे और मृत्यु दण्ड पाने पर अपराधी यही सोचे यह उसके दुष्कर्मों का फल है जैसे ही यह जान लेगा कि दण्ड अन्तःकरण को निर्मल करेगा वैसे ही वह अपनी नियति पर दुख करने के बजाए प्रसन्न होगा।

 

और भगवान बुद्ध ने कहा ‘तथागत सिखाता है कि वह युद्ध जिसमें मनुष्य का वध करता है, शोचनीय है। किन्तु तथागत यह नहीं सिखाता कि शांति को बनाये रखने के सभी संभव प्रयासों में विफल रहने के बाद न्यायसंगत उद्दश्यों के लिए युद्ध करने वाले निन्दनीय हैं। किन्तु जो युद्ध का कारण पैदा करता है, वह अवश्य दोषी है।

 

‘तथागत आत्म का पूर्ण समर्पण करना अवश्य सिखाता है किन्तु वह बुरी शक्तियों के सम्मुख चाहे वे मनुष्य हो, देवता हो या प्राकृतिक तत्व, किसी भी वस्तु का समर्पण करने की शिक्षा नहीं देता। संघर्ष तो रहेगा, क्योंकि पूरा जीवन किसी न किसी तरह का संघर्ष ही है। किन्तु संघर्ष करने वाले को यह देखना होगा कि कहीं वह सत्य और सदाचार के विरूद्ध आत्म का संघर्ष तो नहीं कर रहा है।'

 

जो आत्म हित में संघर्ष करता है जिससे कि स्वयं शक्तिशाली, महान, धनी या विख्यात हो सके, वह कोई पुरस्कार नहीं पाता। किन्तु जो सत्य और सदाचार के पक्ष में संघर्ष करेगा, वह श्रेष्ठ पुरस्कार प्राप्त करेगा। क्योंकि उसकी पराजय भी एक विजय होगी।

 

किन्तु हे सिंह ! यदि वह स्वयं को उदार बनाता है और अपने हृदय की सारी घृणा को बुझाकर अपने पद, दिल शत्रु को उठाकर यह कहता है कि ‘आओ, अब समझौता कर हम बंधु बन जायें', तो वह ऐसी विजय प्राप्त करता है जो अस्थायी सफलता नहीं अपितु जिसके फल हमेशा विद्यमान रहेंगे।

 

‘हे सिंह ! एक सफल सेनापति महान है, किन्तु जिसने अपने को जीत लिया है, वह सर्वश्रेष्ठ विजेता है।'

 

वह विजय जो पीछे दुख छोड़ जाये उसे विजय नहीं कहते, विजय उसे कहते हैं कि कोई पराजित न हो। बुद्ध ने कहा भिखुओं संसार जल रहा है। कोई तृष्णा से, राग से, द्वेष से, सम्प्रदाय से, जाति-पाति से, बाप-बेटा से, पत्नी और पति से, मां-बेटा से, ब्राह्मण-ब्राह्मण से क्षत्रिय-क्षत्रिय से, वैश्य-वैश्य से, एक राजा दूसरे राजा से सब युद्धरत हैं, बैर-बैर से शान्त नहीं होता, बैर शान्ति से शान्त होता है।2

 

बौद्ध धर्म वसंत के उस मलयानिल के समान था जिसने एशिया के उपवन को एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक अपनी संस्कृति के झोंकों से सुरभित और पुष्पित कर दिया। ऐशिया में संस्कृति अपने समग्र रूप में बौद्ध संस्कृति ही है।

 

बौद्ध धर्म मन से शांति का संचार करके उसका बाहर प्रसारण करना चाहता है। इस प्रकार उसका अन्दर से शुरू होकर बाहर फैलता है। राजनैतिक स्तर पर बौद्ध धर्म किसी पक्ष में नहीं पड़ता है। उसके पास मैत्री का ही सबसे बड़ा बल है, जो तटस्थ है और सम्पूर्ण विश्व को अपने में समेटे हुए है। बुद्ध ने अपने अनुयायियों से कहा कि उन्हें उनके काम को स्वीकार करना चाहिए, परन्तु उसके जीवन को आदर्श नहीं मानना चाहिए।

 

स्वतंत्रता, बन्धुत्व, समता, विकास, शिक्षा और अधिकार एवं राष्ट्रीयता ब्राह्मणवाद की तंग चार दीवारों के अन्दर बन्द नहीं किया जा सकता। कमल कीचड़ में पैदा होता है। कमल से प्रेम करो, कीचड़ से नहीं। शरहपाद (सहजियान) द्वारा की गई आलोचना का स्मरण हो आता है। उदाहरण देखिए-

 

निर्लज्ज लोग सम्पन्न बन जाते हैं। वाकपटु लोग उच्च अधिकारी बन जाते हैं। छोटे-मोटे चोरों को कारावास में डाल दिया जाता है, किन्तु बड़े डाकू सामंत स्वामी बन जाते हैं और इन्हीं सामंतों के द्वार पर आपको-धर्म परायण विद्वान' नजर आयेंगे।

 

जिन लोगों को साधारण जन ज्ञानी पुरुष कहते हैं क्या वे इन बड़े चोरों के लिए कर उगाहने वाले लोग नहीं बन जाते ? और जिन्हें ऋषि मुनि समझा जाता है क्या वे इन बड़े चोरों के हितो के रक्षक नहीं सिद्ध होते ? यहां तो एक व्यक्ति (अपनी करधनी के लिए) एक बकसुआ चुराता है तो उसे मृत्युदण्ड दे दिया जाता है और उधर दूसरा व्यक्ति जो पूरा राज्य ही चुरा लेता है वह उसका राजा बन जाता है और ऐसे ही राजाओं के द्वार पर हम दया और सदाचार के उपदेश सुनते हैं। क्या यह दया, सदाचार, प्रज्ञा, बुद्धिमत्ता और ऋषि-मुनियों जैसे आचरण की चोरी नहीं है।

 

बुद्ध उस श्रमण संस्कृति में पैदा हुए जो हमें 6000 पूर्व के अवशेष रोरूक (मोहनजोदड़ो से प्राप्त अवशेषों से प्राप्त हुए, यहां की नारियों ने कृषि की सर्वप्रथम खोज की और पुरुषों ने धातु विज्ञान और धातु से हथियारों का अविष्कार किया, जिन्होंने नदियों के पुश्ते बांधने और दीवारें बनाने की विधि निकाली। जो लोग शिल्पी थे अर्थात् तांबे की वस्तुएं बनाते थे। जिनको 1500 बी.सी में आर्यों ने परास्त किया और संस्कृति का विनाश किया, आज उनकी पहचान दो रूपों में की जा सकती है-

 

(1) पुरोहित वर्ग (कर्मकाण्डी) परजीवी वर्ग जो श्रम से दूर भागने वाले (2) कुछ उच्च उठा हुआ वर्ग यानी मानसिक गुलाम और दूसरे आदिवासी जनजाति उसके अवशेष हैं।3

 

शारीरिक श्रम और शिल्प विद्या, संगीतज्ञ, नाविक, तैराक, तलवार, घंटियों के स्तम्भ, स्तुप, तीर आदि बनाने वाले, रथकार, जानवरों को पालतू बनाने वाले तथा गणितज्ञों के संबंध में हैं। यह रोरूक समाज के विशिष्ट बने रहे। इसी में हमें उनकी वैज्ञानिक विश्व दृष्टि का संकेत मिलता है। श्रमरत मनुष्य की चेतना इस जगत को ठोस भौतिक पदार्थों पर केन्द्रित रहती है, और बुद्ध परलोक और अन्य भाववादी कल्पनाओं में नहीं उलझती। जब सामाजिक विकास की प्रक्रिया के परिणाम स्वरूप श्रम को घृणा की दृष्टि से देखा जाने लगता है, इसे पतन और हीनता का परिचायक समझा जाता है तो मानव चेतना अर्थात् शासक की चेतना अपने श्रमरत होने की सीधी जिम्मेदारी से दूर हटा लेती है। यह शासक वर्ग स्वयं को श्रम द्वारा ठोस भौतिक आवश्यकताएं जुटाने के कर्तव्य से मुक्त कर लेता है और अपने आप को सर्वशक्तिमान समझने लगाता है। उसके अन्दर यह गर्व आ जाता है कि वह इस वाह्य जगत का श्रेष्ठा है। यह भाग्यवादी दृष्टिकोण है, अब चेतना के स्थान पर ईश्वर या आत्मा अथवा जीव शब्द का प्रयोग होने लगता है तो यह आध्यात्मबाद या ब्राह्मणवाद कहलाता है।4

 

हिन्दू धर्म के लोग प्रचलित और रहस्यमय, दोनों पक्ष व्यवहारिक दृष्टि से मुख्यतः तांत्रिक हैं। पुरातत्ववेत्ताओं का कहना है कि यही आर्य लोग थे, जो तंत्रवाद को भारत में लाये।

 

हिन्दू रूपी झील में ब्राह्मणवादी मगरमच्छ आनन्द के झरोखे ले रहा था। जो मरने के हेतु बाबा साहेब अम्बेडकर ने झील में आनेवाले श्रोतों के बांध लगाये थे, वह बांध जो दलित नेताओं ने तटबांध को तोड़ा और उसे जीवन दान दे दिया। अब पुनः मगरमच्छ दलितों को जिन्दा निगल रहा, इसे कैसे बचाया जाये ? यह प्रश्न आपके सामने इस मगरमच्छ को मारने के क्या उपाय हैं, भूसी के ढेर से अनाज के दाने को अलग करना।

 

एक इतिहास के काम का वर्णन यह मुख्य रूप से श्रमण सभ्यता और वैदिक सभ्यता की भिड़न्त है। इसे समझे विना विश्व शांति की बात नहीं करते और सम्भव भी नहीं है। सैकड़ों वर्षों से इस्लाम ईसाईयत के बीच गहरा अन्तर्विरोध है और अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए सैकड़ों वर्षों से इन धर्मों के अनुयाईयों के बीच क्रूसेड और जेहाद लड़े जाते हैं। इसी तरह वैदिक आर्यों का नास्तिक इसी का प्रति रूप में देखना होगा। क्योंकि कोई भाड़े का ट्टुओं का धर्मरक्षक बलिदानियों के रूप में पेश करते है। यह बात सिर्फ ईसाईयों और मुसलमानों पर ही लागू नहीं होती बल्कि उदार और सहिष्णु समझे जाने वाले हिन्दू सनातनियों पर भी फिट बैठती है।

 

कुरुक्षेत्र के मैदान में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जो प्रवचन दिया था। उसका एक महत्वपूर्ण संदेश यही था कि मरोगे तो सीधे स्वर्ग जाओगे और यदि बचे रहे तो इस धरा पर स्वर्ग का सुख भोगोगे। खालसा पंथ में भी शस्त्र धारण करने की परम्परा धर्म रक्षक की भावना के कारण प्रतिष्ठित हुई। पहले बात गीता की। अगर उसी सूत्र बात को गांठ बांधा जाये तो ‘स्वधर्मोः निधने श्रेयः परधर्मोः भयबद्धः' तब धार्मिक कट्टरपंथी और साम्प्रदायिक हठ धार्मिकता के आक्षेप से हिन्दुत्व को कितनी देर तक बचाया जा सकता है आप चाहे कितनी ही कुशल कसरती कलाबाजी करें वैचारिक शरीर को तोड़े-मरोड़ें धर्म को मजहब नहीं जाति धर्म, देशकाल, सापेक्ष आपद धर्म के रूप में परिभाषित करें- स्वः और पर की भिड़ंत को टाल नहीं सकते। ऐसे ही अगर मैतियाना साहब के दृष्य के बारे में ठण्डे दिमाग से सोचें तो धार्मिक वैमनस्य और इससे पैदा होने वाली हिंसक मुठ भेड़ों के ऐतिहासिक यथार्थ को झुठला नहीं सकते।

 

- डॉ मनुप्रताप
ई-मेल: dr.manu_pratap@rediffmail.com......

 
 
अदम गोंडवी के जन्मदिन पर विशेष - अजीत कुमार सिंह

भारत को आजाद हुए 2 माह ही बीता था, लोगों में आजादी के जश्न की खुमारी छायी हुई थी। चारों तरफ आजाद भारत की चर्चाएँ हो रही थीं। कहीं-कहीं पर रह-रह कर उत्सव भी मनाये जा रहे थे। इन्हीं उत्सवों के मध्य एक उत्सव गोण्डा के आटा ग्राम में 22 अक्टूबर, 1947 को मनाया गया, जिसका मुख्य कारण राम सिंह का जन्म था।


राम सिंह का जन्म वैसे तो आजाद भारत में हुआ था किन्तु स्थिति परतंत्र भारत के जैसी थी। तत्कालीन भारत की जो सबसे बड़ी समस्याएँ थीं वे आर्थिक, शैक्षिक, राजनीतिक व धर्मिक थीं। राजनीतिक क्षेत्र में कांग्रेस का बोलबाला था किन्तु अर्थ, शिक्षा व धर्म पर सत्तापक्ष का पूर्ण नियंत्रण न हो पाया था, जिसके परिणामस्वरूप अशिक्षा, भुखमरी, कुपोषण, महामारी तथा धार्मिक दंगे बढ़े। अभाव और सामाजिक उन्मादों का प्रभाव गोंडवी जी पर पड़ा साथ ही अवध में जन्म होने के कारण आप पर गंगा-जमुनी तहजीब का भी असर पड़ा। परिणामस्वरूप आपकी लेखनी सेकुलरवादी हुई। अदम गोंडवी भारतीय इतिहास की समझ रखते थे, ऐसे में हो रहे दंगों के मध्य अदम को कहना पड़ा-

 

गर गलतियाँ बाबर की थीं, जुम्मन का घर फिर क्यों जले।......

 
 
चलो चलें - शशि द्विवेदी

चलो चलें कुछ नया करें,
नयी राह बना दें,......

 
 
माँ का संवाद – लोरी -  इलाश्री जायसवाल

माँ बनना स्वयं में एक आनन्ददायी व संपूर्ण अनुभव है। यह प्रक्रिया तभी से आरंभ हो जाती है जब एक स्त्री गर्भ धारण करती है। गर्भ धारण करने से लेकर शिशु के जन्म तक स्त्री शिशु से अनेक प्रकार से संवाद करती है फिर चाहे वह संवाद उसकी भावनाओं का हो या पेट पर हाथ फेरकर सहलाने का हो। शिशु समस्त भावों को समझता है तभी तो गर्भवती स्त्रियों को अच्छा संगीत सुनने, अच्छी पुस्तकें पढ़ने अथवा अच्छा सोचने के लिए कहा जाता है।

शिशु जन्म के बाद से माता-शिशु के मध्य एक नैसर्गिक प्रेम तथा आकर्षण होता ही है लेकिन फिर भी न केवल माताएं वरन परिवार के अन्य सदस्य भी यथासंभव शिशु से वार्तालाप जन्म के साथ ही करना शुरू कर देते हैं। जिसे सुनकर शिशु मन आनंदित हो उठता है। यह वार्तालाप अलग-अलग रूपों में चलता ही रहता है। शिशु के जागने से लेकर सोने तक के मध्य में जितनी भी क्रियाएं होती हैं, इन सब में होने वाला संवाद अत्यंत महत्वपूर्ण है। ऐसा ही एक संवाद है शिशु के सोने के समय पर किया जाने वाला संवाद जिसे हम साधारण भाषा में लोरी कहते हैं।

संपूर्ण विश्व में स्त्रियाँ ही नहीं बल्कि समस्त प्राणी अपने बच्चों को मधुर लय और धुन में कुछ वात्सल्यपूर्ण शब्द अपनी-अपनी भाषा में उच्चरित करते हैं। इन प्राणियों में समस्त पशु-पक्षी भी शामिल हैं। पशु-पक्षियों की ‘में-में,चूं-चूं,ची-ची,टी-टी,कीं-कीं' आदि इसी श्रेणी में आते हैं।

माताओं द्वारा शिशुओं को भांति-भांति की आवाज़ें बनाकर सुनाई जाने वाले सार्थक-निरर्थक गीतों को न जाने कब से लोरियों के रूप में माना जा रहा है, यह अभी तक अज्ञात ही है लेकिन कवियों ने जरूर इस विधा को साहित्य में समाहित कर लिया। इसका सबसे बड़ा उदाहरण हमें तुलसीदास और सूरदास की कृतियों में देखने को मिलता है। सूरदास जैसा बाल-वर्णन अब तक न किसी ने किया है और न ही भविष्य में कोई कर पाएगा। तुलसीदास भी श्रीराम के बाल रूप की मोहक छवि से स्वयं को बचा नहीं पाए। माताओं की चिंता का सबसे बड़ा विषय होता है- उनके शिशु का खाना तथा सोना। शिशुओं के सोने के समय को लेकर तो वे कहीं भी किसी भी प्रकार का समझौता नहीं करती।

लोरियों का विषय कुछ भी हो सकता हैं। माँ की कल्पना अनन्त है, वह अपने भावों में शिशु को सात समंदर पार भी ले जाती है तो कभी परियों के देश, कभी राजा-रानी होते हैं तो कभी हाथी-घोड़े इत्यादि। वह अपने शिशु की तुलना कभी चन्द्रमा से करती है, तो कभी कमल से।

भक्त तुलसीदास द्वारा रचित एक लोरी देखिए, जिसमें माता कौशल्या प्रभु श्रीराम को पालने में झुलाते हुए कहतीं हैं कि राम के कर (हाथ), पाद (पैर ) एवं मुख को देखकर भ्रमर को कमल का भुलावा हो जाता है-

पौढिए लालन पालने हौं झुलावौं
कर, पद मुख लख कमल लसत सजि लोचन भंवर भुलावौं ।

तुलसीदास द्वारा रचित एक और उदाहरण भी दृष्टव्य है-......

 
 
रोहित ठाकुर की तीन कविताएं  - रोहित ठाकुर

चलता हुआ आदमी

एक चलता हुआ आदमी
रेलगाड़ी की तरह नहीं रुकता ......

 
 
यह टूटा आदमी -  शिव नारायण जौहरी 'विमल'

कुंठा के कांधे पर उजड़ी मुस्कान धरे
हर क्षण श्मशान के द्वार खड़ा आह भरे ......

 
 
1857  - शिव नारायण जौहरी 'विमल'

सत्तावन का युद्ध खून से
लिखी गई कहानी थी ......

 
 
आयुर्वेदिक देसी दोहे  - भारत-दर्शन संकलन

रस अनार की कली का, नाक बूंद दो डाल।
खून बहे जो नाक से, बंद होय तत्काल।।

भून मुनक्का शुद्ध घी, सैंधा नमक मिलाए।......

 
 
फगुनिया दोहे - डॉ सुशील शर्मा

फागुन में दुनिया रँगी, उर अभिलाषी आज।
जीवन सतरंगी बने, मन अंबर परवाज॥

आम मंजरी महकती, टेसू हँसते लाल।......

 
 
चुम्मन चाचा की होली | कुंडलियाँ - डॉ सुशील शर्मा

होली में पी कर गए,चाचा चुम्मन भंग।
नाली में उल्टे पड़े, लिपटे कीचड़ रंग॥......

 
 
हिंदी पर कवितांएं - भारत-दर्शन संकलन

इस पृष्ठ पर विभिन्न हिंसी कवियों की हिंदी पर लिखी कविताएं संकलित की गई हैं जिनमें डा० लक्ष्मीमल्ल सिंघवी, श्रीनिवास, डॉ० इंद्रराज बैद 'अधीर',  श्रीमती रेवती, सुनीता बहल, बाबू जगन्नाथ, रघुवीर शरण, राकेश पाण्डेय, राजेश चेतन, जयप्रकाश शर्मा और रोहित कुमार हैप्पी की रचनायें सम्मिलित हैं।


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बंजारा लोकगीतों में भक्ति : एक समीक्षा - डॉ. सुनील जाधव

जब से मनुष्य ने बोलना सीखा तभी से मनोरंजन, उपदेश, भक्ति, प्रेम, सौन्दर्य, दुःख, वेदना, पीड़ा, वीरता, उत्साह, को अभिव्यक्त करने के लिए कथा, लोककथा, लोकगीत, लोकनाट्य, लोकनृत्य, लोकगाथा आदि का जन्म हुआ । यह सबको विदित हैं कि लोक साहित्य किसी एक का नहीं होता वह तो परम्परागत रूप से एक पीढ़ी  से दूसरे पीढ़ी में मनोरजन, उपदेश, भक्ति, संकृति, संस्कार आदि के रूप में आगे बढ़ता रहता हैं । साथ ही पीढ़ी दर पीढ़ी उसमें कुछ न कुछ जुड़ते, छटते, परिमार्जित होते जाता हैं । लोकसाहित्य का माध्यम मौखिक होने के कारण आज वह अल्प रूप में लिखित हैं । समय के साथ जागरूक लोकसाहित्य प्रेमी उसे मुद्रित कर हमारे सम्मुख प्रस्तुत कर रहा हैं ।  आज सभा-सम्मेलन, राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों के माध्यम से लुप्त हो रहे लोक साहित्य को संजीवनी प्रदान की जा रही हैं । विश्व के प्रत्येक समूह, जाति, समाज, राष्ट्र का लोक साहित्य हैं । क्योंकि वर्तमान आधुनिक साहित्य लोकसाहित्य की ही देन हैं । उसे हम आधुनिक साहित्य की जन्मदात्री भी कह सकते हैं । जिस प्रकार से प्रत्येक आधुनिक साहित्य की विधा की अपनी एक स्वतंत्र संरचना होती हैं, उसी प्रकार लोक साहित्य का गौर से अध्ययन करने पर ज्ञात होगा कि लोकसाहित्य का भी अपना एक स्वतंत्र ढाँचा होता हैं ।


बंजारा लोक साहित्य अभी-भी पूरी तरह से लिखित-संकलित रूप में नहीं हैं । लोगों की जागरूकता एवं सभा-सम्मेलन,संगोष्ठियों के माध्यम से वह संकलित एवं लिखित रूप में हमारे सम्मुख आ रहा हैं । आज आवश्यकता हैं, लोक साहित्य को सम्पूर्ण रूप से लिखित -संकलित किये जाने की । और इस पर गहन चर्चा, गोष्ठी आदि का आयोजन हो, समीक्षा हो । क्योंकि लोकसाहित्य हमारा इतिहास हैं । साहित्य का इतिहास है । जो मौखिक रूप में आज भी जीवित हैं । लोकसाहित्य की उत्पति और विकास लोक में ही होता हैं । लोक में जन्म लेता है और लोक में ही विकसित होता जाता हैं । इसीलिए लोक साहित्य का कोई एक इन्सान लेखक नहीं होता । बल्कि उसका लेखक सम्पूर्ण लोक होता हैं । इसीलिए इस साहित्य को लोकसाहित्य कहा जाता हैं । आधुनिक साहित्य की भांति लोकसाहित्य की भी विधायें होती हैं । जिसमें लोककथा-गाथा-गीत-नृत्य-संगीत,नाट्य आदि विधाएं होती हैं । सम्पूर्ण विश्व में बंजारा जनजाति २० करोड़ से भी अधिक हैं । बंजारा लोक साहित्य में लोकगीत शीर्ष पर हैं । सर्वप्रिय हैं । लोकगीत वास्तव में एक जीवन पद्धति, संस्कार,संस्कृति, तत्वज्ञान  हैं । लोकगीतों में जहाँ तीज-त्यौहार-पर्व, जन्म से लेकर मृत्यु तक के गीत, ख़ुशी के गीत-दुःख के गीत, परिश्रम-प्रकृति आदि से सम्बन्धित गीत दिखाई देते हैं; वहीं भक्ति से सम्बन्धित गीत-भजन-कीर्तन भी अपना एक अलग स्थान रखते हैं । उन्हीं भक्ति गीतों का समीक्षात्मक अध्ययन यहाँ प्रस्तुत हैं ।                                      ......

 
 
देश के भविष्य को स्वयं अपने निर्माण का अधिकार चाहिए - अभिजीत आनंद

युवा वह अवस्था होती है जब कोई लड़का बचपन की उम्र को छोड़ धीरे-धीरे वयस्कता की ओर बढ़ता है। इस उम्र में अधिकांश युवा लड़कों में एक जवान बच्चे की जिज्ञासा और जोश तथा एक वयस्क के ज्ञान की उत्तेजना होती है। किसी भी देश का भविष्य उसके अपने युवाओं पर निर्भर होता है। इस प्रकार बच्चों का सही तरीके से पोषण करने पर बहुत जोर दिया जाना चाहिए ताकि वे एक जिम्मेदार युवा बन सकें।

युवा कल की आशा हैं। वे राष्ट्र के सबसे ऊर्जावान भाग में से एक हैं और इसलिए उनसे बहुत उम्मीदें हैं। सही मानसिकता और क्षमता के साथ युवा राष्ट्र के लिए वरदान साबित हो सकते हैं ।

बच्चों की वृद्धि के लिए खेल और शारीरिक गतिविधियां जरूरी हैं, यह उनके तनाव को कम करने में काफी सहायता प्रदान करती हैं। बच्चों में खेल संबंधी गतिविधियां उत्पन्न करने की आवश्यकता है लेकिन माता-पिता द्वारा डाला गया अनुचित दबाव बच्चों में खेल के प्रति घृणा उत्पन्न करता है। प्रतिस्पर्धात्मक अभिभावकों द्वारा बच्चों की लगातार तुलना और शर्मिंदा करने की प्रवृत्ति ने इस स्थिति को और भी बदतर कर दिया है।

बच्चों की रचनात्मकता को उत्तेजित करने के लिए नृत्य, संगीत, कला और अन्य गतिविधियां उत्कृष्ट विकल्प हैं। इसमें वह अनुशासन, ध्यान केन्द्रित करने और टीम वर्क जैसे महत्वपूर्ण मूल्यों को सीखते हैं, इससे उनको किताबी दुनिया से बाहर आकर अपनी क्षमताओं को पहचानने में मदद मिलती है। अच्छा प्रदर्शन करने के लिए बच्चों पर अभिभावकों द्वारा डाले गये दबाव ने इन सुखद गतिविधियों को प्रतिस्पर्धी घटनाओं में बदल दिया है। इसने बच्चों को भारी तनाव में डाल दिया है।

जिन गतिविधियों में बच्चे आमतौर पर भाग लेना अधिक पसंद करते हैं, वह कार्य करने के लिए रोकर जिद कर सकते हैं। बच्चों पर शिक्षकों या अभिभावकों द्वारा डाला गया अत्यधिक दबाव उनके उस क्षेत्र में भी प्रदर्शन को खराब कर देता है जिसमें वह स्वाभाविक रूप से निपुण होते हैं।


अभिभावकों की सकारात्मकता

आत्मनिरीक्षण - आत्मनिरीक्षण माता-पिता का एक महत्वपूर्ण तत्व है। लंबे दिन के बाद अपने माता-पिता को अपने बच्चों से बातचीत करनी चाहिए। क्या आपने पारस्परिक प्रभावों पर ध्यान दिया है या आपके बच्चे को असहमति का अधिकार है? क्या आपके व्यवहार में उसको समझाने और प्रेरणा देने की बजाय मजबूर किया जा रहा है?

प्रोत्साहित करें - माता-पिता द्वारा बच्चे को प्रोत्साहित करना, उसकी सफलता का एक मूल मंत्र हो सकता है। आप अपने बच्चे के जीवन में एक प्रमुख खिलाड़ी हैं उसको आत्मविश्वास, कड़ी मेहनत और उत्कृष्टता सिखाना आप पर निर्भर करता है। यह भी आपकी ही जिम्मेदारी है कि आपका बच्चा आपकी हर बात को दिल से स्वीकार करे। विफलता नए अवसरों की तलाश करने और शोक का एक अवसर नहीं है।

बातचीत करें - आपके बच्चे के साथ बिताए जाने वाले कुछ सबसे अच्छे पल वह होते हैं जब आप खेल रहे हों और मस्ती या मनोरंजन की गतिविधियों में खुशी से भाग ले रहे हों। इन पलों को गहरी मित्रता और दोस्ती बनाने के अवसर के रूप में इस्तेमाल करें। आपके द्वारा दी गयी कोई भी वह सलाह जो उसको आज्ञा या दबाव न लगे, बच्चे के व्यक्तित्व को मजबूत करने में बहुत सहायता करेगी।

सहायता प्राप्त करें - आपको और आपके बच्चे के लिए लगातार सहायता मांगना वर्जित नहीं है। वास्तव में परिवार परामर्श के लिए जीवन का एक जरूरी हिस्सा है, जिससे हम आगे बढ़ रहे हैं। मनोवैज्ञानिकों और परामर्शदाताओं को नकारात्मक व्यवहार संबंधी गतिविधियों की पहचान करने और उन्हें अलग करने में आपकी सहायता करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है।......

 
 
यात्रा अमरनाथ की  - गोवर्धन यादव

आपने अब तक अपने जीवन में अनगिनत यात्राएं की होगी लेकिन किन्हीं कारणवश आप अमरनाथ की यात्रा नहीं कर पाएं है तो आपको एक बार बर्फ़ानी बाबा के दर्शनों के लिए अवश्य जाना चाहिए। दम निकाल देने वाली खड़ी चढ़ाइयां, आसमान से बातें करती, बर्फ़ की चादर में लिपटी-ढंकी पर्वत श्रेणियां, शोर मचाते झरने, बर्फ़ की ठंडी आग को अपने में दबाये उद्दंड हवाएं जो आपके जिस्म को ठिठुरा देने का माद्दा रखती हैं। कभी बारिश आपका रास्ता रोककर खड़ी हो जाती है तो कहीं नियति नटी अपने पूरे यौवन के साथ आपको सम्मोहन में उलझा कर आपका रास्ता भ्रमित कर देती है। वहीं असंख्य शिव-भक्त बाबा अमरनाथ के जयघोष के साथ, पूरे जोश एवं उत्साह के साथ आगे बढ़ते दिखाई देते हैं और आपको अपने साथ भक्ति की चाशनी में सराबोर करते हुए आगे, निरन्तर आगे बढ़ते रहने का मंत्र आपके कानों में फूँक देते हैं। कुछ थोड़े से लोग जो शारीरिक रुप से अपने आपको इस यात्रा के लिए अक्षम पाते हैं, घोड़े की पीठ पर सवार होकर बाबा का जयघोष करते हुए खुली प्रकृति का आनन्द उठाते हुए, अपनी यात्राएं संपन्न करते हैं। सारी कठिनाइयों के बावजूद न तो वे हिम्मत हारते हैं और न ही उनका मनोबल डिगता है। प्रकृति निरन्तर आगे बढ़ते रहने के लिए आपको प्रेरित करती है। रास्ते में जगह-जगह भंडारे वाले आपका रास्ता, बड़ी मनुहार के साथ रोकते हुए, हाथ जोड़कर विनती करते हैं कि बाबा की प्रसादी खाकर ही जाइए। भंडारे में आपको आपके मन पसंद व्यंजन खाने को मिलेंगे। कहीं कढ़ाहे में केसर डला दूध औट रहा है, तो कहीं इमरती सिक रही होती है। बरफ़ी, पेड़ा, बूंदी, कचौडियां और न जाने कितने ही व्यंजन आपको खाने को मिलेंगे, वो भी बिना कोई कीमत चुकाए।

ऐसा नहीं है कि यह नजारा आपको एकाध जगह देखने को मिले। आप अपनी यात्रा के प्रथम बिन्दु से चलते हुए अन्तिम पड़ाव तक, शिवभक्तों की इस निष्काम सेवा को अपनी आँखों से देख सकते है। हमारी बस को जब एक भंडारे वाले( अब नाम याद नहीं आ रहा है) ने रोकते हुए हमसे प्रसादी ग्रहण करने की विनती की, तो भला हममें इतनी हिम्मत कहाँ थी कि हम उनका अनुरोध ठुकरा सकते थे। काफ़ी आतिथ्य-सत्कार एवं सुस्वादु प्रसाद ग्रहण कर ही हम आगे बढ़ पाए थे। मन तो सदैव शंका पाले रखने का अभ्यस्त होता है। मेरे मन में एक शंका बलवती होने लगी कि ये भंडारे वाले, अगम्य ऊँचाइयों पर जहाँ आदमी का पैदल चलना दूभर हो जाता है, यात्रा के शुरुआत से पहले अपने लोगों को साथ लेकर अपने-अपने पंडाल तान देते है। रसोई पकाने में क्या कुछ नहीं लगता, वे हर छोटी-बड़ी सामग्री ले कर इन ऊँचाइयों पर अपने पंडाल डाले यात्रियों की राह तकते हैं और पूरी निष्ठा और श्रद्धा के साथ सभी की खातिरदारी करते हैं। वे इस यात्रा के दौरान लाखों रुपया खर्च करते हैं। भला इन्हें क्या हासिल होता होगा? क्यों ये अपना परिवार छोड़कर, काम-धंधा छोड़कर यात्रा की समाप्ति तक यहाँ रुकते हैं? भगवान भोले नाथ इन्हें भला क्या देते होंगे?

मन में उठ रहे प्रश्न का उत्तर जानना मेरे लिए आवश्यक था। मैंने एक भक्त से इस प्रश्न का उत्तर जानना चाहा तो वह चुप्पी लगा गया। शायद वह अपने आपको अन्दर ही अन्दर तौल रहा था कि क्या कहे। काफ़ी देर तक चुप रहने के बाद उसने हौले से मुंह खोला और बतलाया कि वह एक अत्यन्त ही गरीब परिवार से है। रोजी-रोटी की तलाश में दिल्ली आ गया। छोटा-मोटा काम शुरु किया। सफलता रुठी बैठी रही। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए? किसी शिव-भक्त ने मुझसे कहा-भोले भंडारी से मांगो। वे सभी को मनचाही वस्तु प्रदान करते हैं। बस, उसके प्रति सच्ची लगन और श्रद्धा होनी चाहिए। मैंने अपने व्यापार को फलने-फूलने का वरदान मांगा और कहा कि उससे होने वाली आय का एक बड़ा हिस्सा वह शिव-भक्तों के बीच खर्च करेगा। बस क्या था। देखते-देखते मेरी किस्मत चमक उठी और मैं यहां आने लगा। मेरी कोई संतान नहीं थी। मैंने शिवजी से प्रार्थना की और आने वाले साल पर मेरी मनोकामना पूरी हुई। इतना बतलाते हुए उसके शरीर में रोमांच हो आया था और उसकी आँखों से अविरल अश्रुधारा बह निकली थी।

इससे ज्ञात होता है कि यहाँ आने वाले सभी शिव भक्तों को भोले भंडारी खाली हाथ नहीं लौटाते। शायद यह एक प्रमुख कारण है कि यहाँ प्रतिवर्ष लाखों की संख्या में शिवभक्त आते है। यह संख्या निरन्तर बढ़ती ही जा रही है। दूसरा कारण तो यह भी है कि बर्फ़ का शिवलिंग केवल इन्हीं दिनों बनता है और हर कोई इस अद्भुत शिवलिंग के दर्शन कर अपने जीवन को कृतार्थ करना चाहता है। तीसरी खास वजह यह भी है कि लोग अपनी आँखों से प्रकृति का नैसर्गिक सौंदर्य देखना चाहते है। जो शिवभक्त हिम से बने शिवलिंग के दर्शन कर अपने जीवन को धन्य बनाना चाहते हैं, उन्हें जम्मू पहुँचना होता है। जम्मू रेलमार्ग-सड़कमार्ग तथा हवाई मार्ग से देश के हर हिस्से से जुड़ा हुआ है।


जम्मू से पहलगाम ( 297 कि.मी. ) 

जम्मू से पहला पड़ाव पहलगाम है। यात्री टैक्सी द्वारा नगरोटा- दोमल- उधमपुर- कुद- पटनीटाप- बटॊट- रामबन-बनिहाल- तीथर- तथा जवाहर सुरंग होते हुए पहलगाम पहुँचते हैं। पहलगाम नूनवन के नाम से भी जाना जाता है। यह एक अत्यन्त सुन्दर रमणीय स्थान है। जनश्रुति के अनुसार भगवान शिव माँ पार्वती को अमरकथा का रहस्य सुनाने के लिए एक ऐसे स्थान का चयन करना चाहते थे, जहाँ अन्य कोई प्राणी उसे न सुन सके। ऐसे स्थान की तलाश करते-करते शिव पहलगाम पहुँचे थे। यह वह स्थान है, जहाँ उन्होंने अपने वाहन नंदी का परित्याग किया था। इस स्थान प्राचीन नाम बैलगाम था जो क्षेत्रीय भाषा में बदलकर पहलगाम हो गया। यात्री यहाँ भण्डारे में भोजन कर रात्रि विश्राम करते हैं।

......

 
 
प्रेम रस - अंतरिक्ष सिंह

चाँदनी रात में
तुम्हारे साथ हूँ। ......

 
 
1857 के आन्दोलन में उत्तर प्रदेश का योगदान - जयकिशन परिहार / प्रशांत कक्कड़

देश के स्वतंत्रता संग्राम के आंदोलन के समय उत्तर प्रदेश को संयुक्त प्रांत कहा जाता था। देश के स्वतंत्रता आंदोलन में इस प्रांत की भूमिका काफी अहम मानी जाती है। भौगोलिक स्थिति के अनुसार उत्तर प्रदेश देश का एक मुख्य राज्य है और इसकी देश के स्वतंत्रता संग्राम में प्रमुख भूमिका रही है। 1857 का विद्रोह हो या गांधीजी के नेतृत्व में चला स्वतंत्रता संग्राम, इन आंदोलनों को प्रदेश में भरपूर समर्थन मिला।

1857 के विद्रोह ने अंग्रेजों के मन में भय पैदा कर दिया था। इस विद्रोह के शुरू होने के कई कारण थे। जैसा कि अंग्रेजों के द्वारा सहायक संधि प्रणाली का आरंभ करना। इस संधि के अंतर्गत राजा को अपने खर्चे पर अंग्रेजों की सेना अपने राज्य में रखनी होती थी। राज्य के दिन-प्रतिदिन के कार्य में भी सेना का हस्तक्षेप होता था। गोद प्रथा की समाप्ति ने निसंतान राजाओं को बच्चा गोद लेने की प्रथा पर रोक लगा दी थी। 1856 में अवध राज्य का धोखे से विलय होने से संबंधित अंग्रेज सरकार के कदम ने आम जनता और अन्य राजघरानों को चिंता में डाल दिया था। अंग्रेजों के द्वारा सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक क्षेत्रों में किए गए कार्यों ने आम जनमानस को व्यथित कर दिया था। जनता इन सब कार्यों को अपनी जिंदगी में हस्तक्षेप मानने लगी। तात्कालिक कारणों में 29 मार्च, 1857 को बैरकपुर में बलिया के सैनिक मंगल पांडे द्वारा किया गया विद्रोह था, जब सैनिक छावनी में इस बात की खबर फैली कि कारतूसों में गाय-सुअर की चर्बी मिली हुई है। इस बात ने वहां उपस्थित सैनिको में रोष उत्पन्न कर दिया। भारतीय सैनिकों ने बैरक में अंग्रेज अधिकारियों को मारकर कब्जा करने की असफल कोशिश की। इसके लिए मंगल पांडे को दोषी मानते हुए उन्हें आठ अप्रैल 1857 को फांसी की सजा दे दी गई। इस घटना ने पूरे देश में रोष उत्पन्न कर दिया। 10 मई 1857 को मेरठ में सैनिकों के विद्रोह ने अंग्रेज सरकार के विरुद्ध जनता के मन में पनप रहे आक्रोश को और अधिक भड़का दिया। जे.सी.विल्सन के शब्दों में " प्राप्त प्रमाणों से मुझे पूर्ण रूप से विश्वास हो चुका है कि एक साथ विद्रोह करने के लिए 31 मई 1857 का दिन चुना गया था, यह संभव है कि कुछ क्षेत्रों में विद्रोह का सूत्रपात निश्चित समय के बाद हुआ हो, किंतु इस आधार पर यह आरोप नहीं लगाया जा सकता कि 1857 की क्रांति के सूत्रपात के लिए कोई निश्चित समय निर्धारित नहीं किया गया था। उस समय देश में विद्रोह के कई कारक पूरी तरह से मौजूद थे। बैरकपुर की घटना ने उसे चिंगारी का रूप दे दिया, वहीं मेरठ की घटना ने उसे ज्वाला का रूप दिया।

1857 के पूर्व बरेली में 1816 ई. में स्थानीय अंग्रेज अधिकारियों द्वारा चौकीदार को आरोपित करने पर हुई सख्ती ने हिंसक विद्रोह का रूप धारण कर लिया। इस विद्रोह का नेतृत्व मुफ्ती मोहम्मद एवाज ने किया, जो 1817 ई. में आगरा प्रांत के अंतर्गत अलीगढ़ के किसान, जमींदार व सैनिक कम्पनी के प्रशासनिक फेरबदल से क्रोधित थे। इसके साथ ही मालगुजारी बढ़ाने के निर्णय ने विद्रोह का रूप अख्तियार कर लिया। इसके नेतृत्वकर्ता हाथरस के दयाराम और मुरसान के भगवंत सिंह रहे।

1857 के विद्रोह में मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के नेतृत्व में विद्रोह आरंभ हुआ। जफर के अत्याधिक वृद्ध होने पर उनके सैन्य दल का नेतृत्व बरेली के बख्त खां ने किया। बख्त खां के नेतृत्व वाला 10 सदस्यीय दल सार्वजनिक मुद्दों पर सम्राट के नाम से सुनवाई करता था।

कानपुर के अंतिम पेशवा बाजी राव द्वितीय के दत्तक पुत्र धोंधू पंत, जो कि नाना साहब के नाम से प्रसिद्ध थे, ने स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर भारत के सम्राट बहादुर शाह जफर को गर्वनर के रूप में मान्यता दी। नाना साहब ने अंग्रेजों का बखूबी सामना किया। बाद में वे पराजित होकर नेपाल चले गए और वहां से आजीवन वो अंग्रेजों के खिलाफ लड़ते रहे। नाना साहब ने अंग्रेजों को चुनौती देते हुए कहा "कि जबतक मेरे शरीर में प्राण है, मेरे और अंग्रेजों के बीच जंग जारी रहेगी। चाहे मुझे मार दिया जाए, या फिर कैद कर लिया जाए, या फांसी पर लटका दिया जाए, पर मैं हर बात का जवाब तलवार से दूंगा''।

लखनऊ में बेगम हजरत महल ने विद्रोह को अपना नेतृत्व प्रदान किया और लखनऊ में ब्रिटिश रेजीडेंसी पर आक्रमण किया। बाद में वे पराजित होकर नेपाल चली गई, जहां गुमनामी में उनका इंतकाल हो गया।

झांसी में रानी लक्ष्मीबाई ने 4 जून, 1857 को विद्रोह प्रारंभ किया, जहां वे अपने राज्य के पतन तक लड़ती रही। जहां से वह ग्वालियर चली गई और तात्या टोपे के साथ विद्रोह को नेतृत्व प्रदान किया। अनेक युद्धों को जीतने के बाद 17 जून 1858 को जनरल ह्यूरोज से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हो गई। खुद जनरल ह्यूज ने लक्ष्मीबाई के बारे में कहा "कि भारतीय क्रांतिकारियों में यह सोयी हुई औरत अकेली मर्द है''।

फैजाबाद में मौलवी अहमदुल्ला ने विद्रोह का झंडा बुलंद किया और आह्वान किया "कि सारे लोग अंग्रेज काफिर के विरुद्ध खड़े हो जाओ और उसे भारत से बाहर खदेड़ दो''। उनकी गतिविधियों से परेशान होकर अंग्रेज सरकार ने उन पर 50 हजार रुपए का इनाम घोषित कर दिया था। उन्हें पांच जून 1858 को पोवायां (रुहेलखंड) में गोली मार दी गई। अंग्रेजों ने मौलवी अहमदुल्ला के बारे में कहा "कि अहमदुल्ला साहस से परिपूर्ण और दृढ़ संकल्प वाले व्यक्ति तथा विद्रोहियों में सर्वोत्तम सैनिक है''।

रुहेलखंड में खान बहादुर खान ने विद्रोह को नेतृत्व प्रदान किया। मुगल सम्राट, बहादुर शाह जफर ने इन्हें सूबेदार नियुक्त किया। इलाहाबाद में लियाकत अली, गोरखपुर में गजाधर सिंह, फर्रूखाबाद में तफज्जल हुसैन, सुल्तानपुर में शहीद हसन, मथुरा में देवी सिंह और मेरठ में कदम सिंह सहित अन्य कई लोगों ने विद्रोह को गति प्रदान की।

हालांकि यह विद्रोह अपने मंतव्य में सफल नहीं रहा, क्योंकि इसमें एकता, संगठन की कमी, उपर्युक्त सैन्य नेतृत्व का अभाव इत्यादि था। लेकिन 1857 के विद्रोह ने लोगों में देश प्रेम की भावना को बल प्रदान किया और लोगों में यह विश्वास उत्पन्न कर दिया कि वे भी अंग्रेजों से टक्कर ले सकते हैं। 90 साल बाद 1947 में अंग्रेजों की भारत से विदाई के लिए इस कारक को बड़ा अहम माना जाता है।

-जयकिशन परिहार/प्रशांत कक्कड़
[लेखक द्वय, पसूका]

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हिंदुस्तान की शान है हिन्दी - विकास कुमार

हिंदुस्तान की शान है हिन्दी, जन-जन की पहचान है हिन्दी।
यूं तो प्यारी हमको सारी भाषाएँ, पर हमारी जान है हिन्दी॥

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अटल जी का ऐतिहासिक भाषण  - भारत-दर्शन संकलन

स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी का हिंदी प्रेम सर्वविदित है।

प्रधानमंत्री बनने से पहले अटल बिहारी वाजपेयी जब जनता सरकार में विदेश मंत्री थे, उस समय 1977 में वाजपेयी ने संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा को हिंदी में संबोधित किया था। उनके इस भाषण ने विश्वपटल पर हिंदी को एक अलग स्थान दिलाया।

संयुक्त राष्ट्र संघ में अटल बिहारी वाजपेयी का हिंदी भाषण उस वक्त काफी लोकप्रिय हुआ था। इस भाषण से संयुक्त राष्ट्र संघ जैसे अतंराष्ट्रीय मंच पर भारत और हिंदी भाषा का मान बढ़ा था। हिंदी में दिए गए इस भाषण से संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रतिनिधि बहुत प्रभावित हुए थे और उन्होंने खड़े होकर भारतीय विदेश मंत्री वाजपेयी के लिए तालियां बजाई थी।

अटल बिहारी वाजपेयी का भाषण

"मैं भारत की जनता की ओर से राष्ट्रसंघ के लिए शुभकामनाओं का संदेश लाया हूं। महासभा के इस 32 वें अधिवेशन के अवसर पर मैं राष्ट्रसंघ में भारत की दृढ़ आस्था को पुन: व्यक्त करना चाहता हूं। जनता सरकार को शासन की बागडोर संभाले केवल 6 मास हुए हैं।   फिर भी इतने अल्प समय में हमारी उपलब्धियां उल्लेखनीय हैं। भारत में मूलभूत मानव अधिकार पुन: प्रतिष्ठित हो गए हैं, जिस भय और आतंक के वातावरण ने हमारे लोगों को घेर लिया था वह अब दूर हो गया है।  ऐसे संवैधानिक कदम उठाए जा रहे हैं जिनसे ये सुनिश्चित हो जाए कि लोकतंत्र और बुनियादी आजादी का अब फिर कभी हनन नहीं होगा।"

"अध्यक्ष महोदय, 'वसुधैव कुटुंबकम' की परिकल्पना बहुत पुरानी है।  भारत में सदा से हमारा इस धारणा में विश्वास रहा है कि सारा संसार एक परिवार है। अनेकानेक प्रयत्नों और कष्टों के बाद संयुक्त राष्ट्र के रूप में इस स्वप्न के अब साकार होने की संभावना है।  यहां मैं राष्ट्रों की सत्ता और महत्ता के बारे में नहीं सोच रहा हूं। आम आदमी की प्रतिष्ठा और प्रगति मेरे लिए कहीं अधिक महत्व रखती है।  अंतत: हमारी सफलताएं और असफलताएं केवल एक ही मापदंड से नापी जानी चाहिए कि क्या हम पूरे मानव समाज वस्तुत: हर नर-नारी और बालक के लिए न्याय और गरिमा की आश्वसति आश्वस्ति में प्रयत्नशील हैं।"

"अफ्रीका में चुनौती स्पष्ट है, प्रश्न ये है कि किसी जनता को स्वतंत्रता और सम्मान के साथ रहने का अनपरणीय अधिकार है या रंग भेद में विश्वास रखने वाला अल्पमत किसी विशाल बहुमत पर हमेशा अन्याय और दमन करता रहेगा। नि:संदेह रंगभेद के सभी रुपों का जड़ से उन्मूलन होना चाहिए।  हाल में इजरायल ने वेस्ट बैंक को गाजा में नई बस्तियां बसा कर अधिकृत क्षेत्रों में जनसंख्या परिवर्तन करने का जो प्रयत्न किया है, संयुक्त राष्ट्र को उसे पूरी तरह अस्वीकार और रद्द कर देना चाहिए। यदि इन समस्याओं का संतोषजनक और शीघ्र ही समाधान नहीं होता तो इसके दुष्परिणाम इस क्षेत्र के बाहर भी फैल सकते हैं।  यह अति आवश्यक है कि जेनेवा सम्मेलन का शीघ्र ही पुन: आयोजन किया जाए और उसमें पीएलओ का प्रतिनिधित्व  दिया।"

"अध्यक्ष महोदय, भारत सब देशों से मैत्री चाहता है और किसी पर प्रभुत्व स्थापित करना नहीं चाहता। भारत न तो आण्विक शस्त्र शक्ति है और न बनना ही चाहता है। नई सरकार ने अपने असंदिग्ध शब्दों में इस बात की पुनर्घोषणा की है, हमारी कार्यसूची का एक सर्वस्पर्शी विषय जो आगामी अनेक वर्षों और दशकों में बना रहेगा, वह है - मानव का भविष्य। मैं भारत की ओर से इस महासभा को आश्वासन देना चाहता हूं कि हम एक विश्व के आदर्शों की प्राप्ति और मानव के कल्याण तथा उसके गौरव के लिए त्याग और बलिदान की बेला में कभी पीछे नहीं रहेंगे।"

"जय जगत...धन्यवाद।"

[ भारत-दर्शन संकलन  ] 


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स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी  - शिव शंकर पटेल

अटल जी के पटल में, शब्द कोई न था जटल ।
दिखते थे सहज, रहते थे सज्जन व देश सेवा की थी ललक ।......

 
 
कविता  - शिव प्रताप पाल

कविता किसी के ह्रदय का उदगार है
किसी के लिए ये काला आजार है......

 
 
हिंदी वालों को अटल-पताका की डोर फिर थमा गया विश्व हिंदी सम्मेलन - प्रो.वीरेंद्र सिंह चौहान

तीन साल में एक बार आयोजित होने वाला हिंदी का वैश्विक मेला अर्थात विश्व हिंदी सम्मेलन बीते दिनों मॉरिशस के पाई में स्वामी विवेकानंद अंतर्राष्ट्रीय कन्वेंशन सेंटर में संपन्न हुआ। सम्मेलन से ठीक 2 दिन पहले जाने-माने हिंदी प्रेमी और जागतिक पटल पर हिंदी के सबसे प्रभावी ध्वज वाहकों में से एक पूर्व प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का महाप्रयाण हो गया था। स्वाभाविक रुप से ग्यारहवें विश्व हिंदी सम्मेलन पर कवि साहित्यकार, पत्रकार व राजनेता अटल बिहारी वाजपेयी के निधन की छाया प्रारंभ से अंत तक बनी रही। सम्मेलन से मेले और उल्लास का भाव तो अटल जी के परलोक गमन के चलते चला गया। मगर ग्यारहवें विश्व हिंदी सम्मेलन में हिंदी को लेकर हिंदी वालों को उस डोर का छोर जरूर मिल गया जिसे थाम कर विदेश मंत्री के रूप में संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा में प्रथम हिंदी संबोधन के साथ अटल जी ने विश्व गगन में हिंदी की गौरव ध्वजा फहरायी थी।

इस वैश्विक आयोजन की धुरी विदेश मंत्रालय होता है। उद्घाटन सत्र में अपने संबोधन में विदेश मंत्री के रूप में स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी जी की वर्तमान उत्तराधिकारी श्रीमती सुषमा स्वराज ने हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा बनाने की दिशा में नए सिरे से पुरजोर प्रयत्न करने का संकल्प दोहराया। उन्होंने कहा कि इस उद्देश्य की प्राप्ति के मार्ग में जो भी बाधाएं हैं उन्हें दूर किया जाएगा। बाद के औपचारिक मंथन और अनोपचारिक चर्चाओं में भी विद्वान हिंदी प्रेम यूनिस मसले पर खुलकर चर्चा की। और समापन सत्र में मेज़बान देश के मार्गदर्शन मंत्री अनिरुद्ध जगन्नाथ ने भी कहा कि हिंदी को यह स्थान दिलवाने के लिए एक देश के रूप में मारीशस हर सम्भव उपाय करेगा।

बात जब हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा बनवाने की चली तो भारत में राजकीय कामकाज में हिंदी की वर्तमान स्थिति पर टीका टिप्पणी होना भी आवश्यक था। हिंदी के प्रति वर्तमान सत्ता प्रतिष्ठान के अनुराग को लेकर जहां कोई विवाद नहीं दिखता, वहीं इस बात से इंकार करना गलत होगा कि अभी हिंदी को उसके अपने घर अर्थात हिंदुस्थान में ही अपनी वह स्थिति प्राप्त करने के लिए जूझना पढ़ रहा है, जिसकी वह वास्तविक अधिकारी है।

स्वदेश में इस स्थिति के लिए दोष हिंदी को नहीं बल्कि व्यवस्था पर आज भी हावी और प्रभावी हिंदी विरोधी मानसिकता को ही दिया जा सकता है। जो कार्य हम हिंदुस्थानी विदेशी भाषा अंग्रेजी में करना सरल और सहज समझते हैं, वह सब कार्य उतनी ही सहजता और सुगमता के साथ हिंदी में करना संभव है। कई मामलों में एक भाषा के रुप में हिंदी भारत में उसकी प्रतिद्वंद्वी और सौतन बनकर उभरी व जमी अंग्रेजी से कहीं बेहतर है। आवश्यकता है तो अंग्रेजीदां मानसिकता से देश के प्रबुद्ध वर्ग को मुक्ति दिलाने की। मनों की स्वतंत्रता का यह संग्राम चल तो रहा है मगर इसे विजयश्री वाले छोर तक ले जाने के लिए इस विश्व हिंदी सम्मेलन के बाद और अधिक तीव्रता से चलाएं जाने की आवश्यकता है।

खैर, इस बार विश्व हिंदी सम्मेलन में हिंदी की ‘दशा ओर दिशा' पर चिंतन-मंथन के साथ विमर्श का केंद्रीय विषय था ‘भारतीय संस्कृति और हिंदी'। हिंदी किस प्रकार भारतीय संस्कृति की सबसे प्रभावी संवाहक के रूप में अतीत में काम करती रही है और भविष्य में कर सकती है, इन सवालों पर प्रतिभागियों ने अपने-अपने अंदाज में मन की बात कही। एक सत्र सिनेमा और हिंदी को समर्पित रहा तो एक-दूसरे प्रमुख सत्र में संचार माध्यमों की हिंदी को लेकर शिखर विद्वान वर्तमान परिदृश्य पर मुखर हुए। विज्ञान और प्रौद्योगिकी की तेजी से बदलती दुनिया में हिंदी कितना आगे बढ़ी है और आज कहां खड़ी है ? इस पर भी विस्तार से चिंतन मनन किया गया। कुल मिलाकर मॉरिशस के पाई नामक स्थान पर आयोजित इस 3 दिवसीय जुटाव के लिए विश्व भर से आए हिंदी विद्वानों और हिंदी सेवियों के समक्ष वह अधिकांश सवाल किसी न किसी रूप में उछले तो अवश्य जो आज एक विश्व भाषा के रुप उभरने को आतुर हिंदी के सम्मुख मुंह बाये खड़े हैं। इनमें से कुछ के संभावित जवाब भी आए। सम्मेलन के बाद यह बात विश्वास के साथ कही जा सकती है कि विदेश मंत्रालय और भारत सरकार के अन्य अंग-प्रत्यंग ग्यारहवें विश्व हिंदी सम्मेलन रुपी विचार-मंथन से निकले विष और अमृत दोनों का हिंदी-हित में सदुपयोग करेंगे। भोपाल में आयोजित हुए दसवें विश्व हिंदी सम्मेलन की अनुवर्ती कार्यवाही रिपोर्ट के नाते 'भोपाल से मॉरिशस तक' नामक जो पुस्तक विश्व हिंदी सम्मेलन के पटल पर रखी गई, उसे विदेश मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज की विश्व में हिंदी और विश्व हिंदी सम्मेलन के प्रति संजीदगी का प्रमाण कहा जा रहा है। इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि हिंदी के प्रति विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के आग्रह के कारण ही भोपाल सम्मेलन के बाद एक अनुशंसा अनुपालना समिति का गठन हुआ था। पिछले सम्मेलन की हिंदी विषयक संस्तुतियों को लागू करने के लिए जो प्रयास हुए, उन्हें विधिवत दस्तावेजों में उकेरा गया है। मॉरीशस सम्मेलन में आए रचनात्मक और उपयोगी सुझाव भी उसी शैली में या यूं कहिए कि उससे भी कहीं अधिक धारदार ढंग से आगामी कार्य योजना का आधार बनने चाहिए। मॉरिशस के पाई से विश्व-गगन में हिंदी की नए सिरे से चढ़ाई का सिलसिला शुरु होना ही चाहिए।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी विश्व हिंदी सम्मेलन की स्मारिका के लिए भेजे अपने संदेश में लिखा कि भारत के आर्थिक विकास और उभरती हुई वैश्विक ताकत के रूप में उसकी पहचान के कारण विश्व समुदाय में हिंदी का महत्व निश्चित रूप से बढ़ा है।

यहां यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगा कि हालिया विश्व हिंदी सम्मेलन विश्व समुदाय में भारत के और भारतीय संस्कृति की ध्वज-वाहिका हिंदी के नए आभामंडल के प्रकाश में आयोजित हुआ। बदलते वैश्विक परिदृश्य में जैसे भारत की उपस्थिति उत्तरोत्तर और अधिक प्रभावी और गरिमापूर्ण होती जा रही है, हिंदी का स्थान भी उसी अनुक्रम में अधिकाधिक असरदार बनना चाहिए। और इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए साधना करते हुए हमें यह बात भी ध्यान रखनी होगी कि हिंदी केवल भारत की भाषा नहीं है। विश्व भर में हिंदी बोलने वाले और हिंदी के प्रति अनुराग रखने वाले लोग फैले हुए हैं। भारत के प्रति संसार की बढ़ती हुई रुचि के कारण आर्थिक, सामरिक, राजनीतिक या सांस्कृतिक, जो भी हों, जो भी व्यक्ति,संस्थान या देश अपनी इस क्षुधा और जिज्ञासा को शांत करना चाहेगा, उसे हिंदी रूपी द्वार को अंगीकार और पार करना होगा। इस संदर्भ में एक महत्वपूर्ण आयाम यह भी है कि हम हिंदी वाले नवल वैश्विक परिवेश और प्रश्नों के प्रकाश में हिंदी की वृद्धि और समृद्धि के लिए क्या क्या करने के लिए कटिबद्ध है।

*लेखक हरियाणा ग्रंथ अकादमी के उपाध्यक्ष और निदेशक हैं तथा विश्व हिंदी सम्मेलन में हिस्सा लेकर लौटे हैं।

 


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परदेश और अपने घर-आंगन में हिंदी - बृजेन्द्र श्रीवास्तव ‘उत्कर्ष’

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था, "भारत के युवक और युवतियां अंग्रेजी और दुनिया की दूसरी भाषाएँ खूब पढ़ें मगर मैं हरगिज यह नहीं चाहूंगा कि कोई भी हिन्दुस्तानी अपनी मातृभाषा को भूल जाएँ या उसकी उपेक्षा करे या उसे देखकर शरमाये अथवा यह महसूस करे कि अपनी मातृभाषा के जरिए वह ऊँचे से ऊँचा चिन्तन नहीं कर सकता।" वास्तव में आज उदार हृदय से, गांधी जी के इस विचार पर चिंतन-मनन करने की आवश्यकता है। हिंदी भाषा, कुछ व्यक्तियों के मन के भावों को व्यक्त करने का माध्यम ही नहीं है बल्कि यह भारतीय संस्कृति, सभ्यता, अस्मिता, एकता-अखंडता, प्रेम-स्नेह-भक्ति और भारतीय जनमानस को अभिव्यक्त करने की भाषा है। हिंदी भाषा के अनेक शब्द वस्तुबोधक, विचार बोधक तथा भावबोधक हैं ये शब्द संस्कृति के भौतिक, वैचारिक तथा दार्शनिक-आध्यात्मिक तत्वों का परिचय देते हैं । इसीलिए कहा गया है- "भारत की आत्मा को अगर जानना है तो हिंदी सीखना अनिवार्य है ।"

विश्व-ग्राम में बदल रहे सम्पूर्ण विश्व-जगत को आज भारतीय संस्कृति-सभ्यता, धर्म-योग, सुरक्षा, अर्थव्यस्था और बाजार की चमक ने सम्मोहित कर दिया है । भारतीय फिल्मों , कलाकारों, पेशेवर कामगारों, धार्मिक गुरुओं, समाज-सुधारकों, राजनेताओं को चाहने वालों की संख्या करोड़ों में है तथा इन मनीषियों ने हिंदी भाषा के माध्यम से वैश्विक परिदृश्य में भारत को महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की ओर अग्रसर किया है । विश्व में नेपाल, पाकिस्तान, बांग्लादेश, संयुक्त राज्य अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम, कनाडा, संयुक्त अरब अमीरात, सऊदी अरब, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका, मॉरीशस, दक्षिण अफ्रीका, यमन, युगांडा, सिंगापुर, न्यूजीलैंड, जर्मनी आदि; लगभग डेढ़ सौ से ज्यादा देशों में हिंदी वृहद् रूप में बोली या समझी या पसंद की जाती है। विश्व के अनेकों विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में हिंदी भाषा और साहित्य को प्रमुख स्थान प्राप्त है।

हिंदी भाषा में साहित्य-सृजन की दीर्घ परंपरा है और इसकी सभी विधाएँ वैविध्यपूर्ण एवं समृद्ध हैं। सूर, कबीर, तुलसी, मीरा, रसखान, जायसी, भारतेंदु, निराला, महादेवी, अज्ञेय, महावीर, जयशंकर, प्रेमचंद आदि ने अपनी विविध कलम-कारी से इस भाषा के साहित्य को वैश्विक पटल पर स्थापित किया है तथा विश्व को साहित्यामृत का पान कराया है । "रामचरितमानस" के बिना हिन्दू जनमानस की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। हिंदी भाषा पूर्णतया वैज्ञानिक भाषा है तथा अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक संदर्भों, सामाजिक संरचनाओं, सांस्कृतिक विषमताओं तथा आर्थिक विनिमय की संवाहक है। हिंदी भाषा सरल-सहज दूसरी भाषा के शब्दों को अपने में समाहित करने वाली है। आधुनिक युग में हिंदी का तकनीक के क्षेत्र में भी वृहद् योगदान है| हिंदी भाषा में ई-मेल, ई-बुक, सन्देश लिखना हो या इन्टरनेट और वेबजगत में कुछ ढूंढना, हिंदी भाषा में बोलकर कम्प्यूटर पर टंकण करना आदि सब कुछ उपलब्ध है । भारतीय जनसंचार जगत में हिंदी ही श्रेष्ठ है। भारत में आज भी मनोरंजन जगत में हिंदी का ही बोलबाला है। हिंदी फ़िल्में, आज भी वैश्विक स्तर पर हिंदी भाषियों को जोड़ने का काम करते हैं तथा दूसरों को हिंदी भाषा सीखने की प्रेरणा देते हैं। भारत की संस्कृति, धर्म, ज्ञान-विज्ञान एवं भाषा सम्पूर्ण विश्व को विश्व-बंधुत्व का पाठ पढ़ाती है तथा उनको अपने में आत्मसात करती है।
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मजदूर की पुकार  - अज्ञात

हम मजदूरों को गाँव हमारे भेज दो सरकार
सुना पड़ा घर द्वार ......

 
 
लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक - प्रदीप कुमार सिंह

23 जुलाई - लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक जयन्ती 

Lokmanya Tilak

‘जगत गुरू' भारत को अब सारे विश्व की एक लोकतांत्रिक व्यवस्था बनानी है!

लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक एक समाज सुधारक, स्वतंत्रता सेनानी, गणितज्ञ, खगोलशास्त्री, पत्रकार और भारतीय इतिहास के विद्वान थे। तिलक का जन्म 23 जुलाई, 1856 को महाराष्ट्र के रत्नागिरि में हुआ था। तिलक के पिता श्री गंगाधर रामचंद्र तिलक संस्कृत के विद्वान और प्रसिद्ध शिक्षक थे। तिलक एक प्रतिभाशाली छात्र थे। वह अपने कोर्स की किताबों से ही संतुष्ट नहीं होते थे। गणित उनका प्रिय विषय था। वह क्रेम्बिज मैथेमेटिक जनरल में प्रकाशित कठिन गणित को भी हल कर लेते थे। उन्होंने बी.ए. करने के बाद एल.एल.बी. की डिग्री भी प्राप्त कर ली। वह भारतीय युवाओं की उस पहली पीढ़ी से थे, जिन्होंने आधुनिक कॉलेज एजुकेशन प्राप्त की थी।

तिलक को जीवन के सबसे जरूरी समय में माता-पिता का सानिध्य नहीं मिल पाया था। केवल दस वर्ष की अवस्था में ही तिलक की माँ उन्हें छोड़कर चल बसीं और कुछ ही वर्षों के बाद पिता का भी देहांत हो गया। तिलक को उनके दादा श्री रामचन्द्र पंत जी 1857 को हुए प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के किस्से सुनाते थे। इसका प्रतिफल यह हुआ कि तिलक ने बचपन से ही देश की तत्कालीन परिस्थितियों पर चिन्तन करना शुरू कर दिया। तिलक के अन्दर यह योग्यता विकसित हुई कि राष्ट्र को एक सूत्र में कैसे पिरोया जा सकता है? सच्चे जननायक तिलक को लोगों ने आदर से लोकमान्य अर्थात लोगों द्वारा स्वीकृत नायक की पदवी दी थी। 

वह एक महान शिक्षक थे। उन्होंने तकनीक और प्राबिधिक शिक्षा पर जोर दिया। तिलक अच्छे जिमनास्ट, कुशल तैराक और नाविक भी थे। तिलक का मानना था कि अच्छी शिक्षा व्यवस्था ही अच्छे नागरिकों को जन्म दे सकती है। तिलक ने महाराष्ट्र में 1880 में न्यू इग्लिश स्कूल स्थापना की। युवाओं को अच्छी शिक्षा देने के लिए महान समाज सुधारक श्री विष्णु शास्त्री चिपलूणकर के साथ मिलकर 1884 डेक्कन एजुकेशन सोसायटी की स्थापना की जिसने फरक्यूसन कॉलेज की स्थापना पुणे में की। 

1893 में तिलक ने अंगे्रजों के विरूद्ध भारतीयों को एकजुट करने के लिए बड़े पैमाने पर सबसे पहले गणेश उत्सव की शुरूआत की थी, इस अवधि में स्वामी विवेकानंद उनके यहां ठहरे थे। तिलक की स्वामी जी से अध्यात्म एवं विज्ञान में समन्वय एवं आर्थिक समृद्धि पर लम्बी चर्चा हुई। स्वामी जी ने तिलक के प्रयासों को मुक्त कंठ से सराहा। गणेश उत्सव में लोगों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और इस प्रकार पूरे राष्ट्र में गणेश चतुर्थी मनाया जाने लगा। तिलक ने यह आयोजन महाराष्ट्र में किया था इसलिए यह पर्व पूरे महाराष्ट्र में बढ़-चढ़ कर मनाया जाने लगा। वर्तमान में गणेश उत्सव की व्यापक छवि आज भी पूरे महाराष्ट्र में देखने को मिलती है।

तिलक छत्रपति शिवाजी को अपना आदर्श मानते थे। छत्रपति शिवाजी का शासन प्रबन्ध एक लोकतांत्रिक राज्य प्रणाली का था। राज्य के सुधार संचालन के लिए उसे प्रान्तों, जिलों एवं परगनों में बांटा गया था। वित्त व्यवस्था के साथ-साथ भूमि कर प्रणाली का आदर्श रूप प्रचलित था। मुगल साम्राज्य के खिलाफ दक्षिण भारत में शक्तिशाली हिन्दू राष्ट्र की नींव रखने वाले सर्वशक्तिशाली शासक छत्रपति शिवाजी कहे जा सकते हैं। उन्हें हिन्दुओं का अन्तिम महान राष्ट्र निर्माता कहा जाता है। छत्रपति शिवाजी का निर्मल चरित्र, महान पौरुष, विलक्षण नेतृत्व, सफल शासन प्रबन्ध, संगठित प्रशासन, नियन्त्रण एवं समन्वय, धार्मिक उदारता, सहनशीलता, न्यायप्रियता सचमुच में ही अलौकिक थी। यह सब गुण उन्हें अपनी माता जीजाबाई तथा गुरू समर्थ रामदास से मिले थे।

लोकमान्य तिलक और देश के प्रसिद्ध उद्योगपति तथा औद्योगिक घराने टाटा समूह के संस्थापक श्री जमशेदजी टाटा ने साथ मिलकर बाम्बे स्वदेशी को- ऑपरेटिव स्टोर्स शुरू किए  थे। देश के इन दो महान् व्यक्तियों की इसके पीछे भावना देशवासियों को आर्थिक रूप से समृद्ध बनाने की थी। सहकार-सहकारिता के विचार को आज भारत सहित विश्व के आर्थिक जगत ने अपनाया है।

तिलक के प्रमुख सहयोगी में लाला लाजपत राय भी थे। ब्रिटिश शासन के खिलाफ लड़ने वाले मुख्य क्रान्तिकारी पंजाब केसरी (शेरे पंजाब नाम से विख्यात) लाल बाल पाल तिकड़ी में से एक प्रमुख नेता थे। वह पंजाब नेशनल बैंक एवं लक्ष्मी बीमा कम्पनी के संस्थापक थे। लाला जी ने बंगाल के विभाजन के विरूद्ध किए जा रहे संघर्ष में भाग लिया। लोकमान्य तिलक, सुरेंद्रनाथ बनर्जी, बिपिन चंद्र पाल और अरविंद घोष के साथ उन्होंने स्वदेशी के अभियान के लिए बंगाल और बाकी देश को प्रेरित किया। 

तिलक के प्रमुख सहयोगी में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने वाले महान क्रान्तिकारी श्री बिपिन चन्द्र पाल ने स्वदेशी, गरीबी उन्मूलन और शिक्षा के लिए उन्होंने खूब काम किया। इन्होंने भी समाचार पत्रों के द्वारा स्वदेशी तथा स्वराज के विचारों को जन आंदोलन के रूप में विकसित किया। वह लाल बाल पाल के तिकड़ी के हिस्सा थे। 

तिलक के प्रमुख सहयोगी में आयरलैण्ड की मूल निवासी एनी बेसेंट एक समाज सुधारक एवं राजनेता थी। वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की 33वीं अध्यक्ष तथा थियोसोफिकल सोसाइटी की दूसरी अंतर्राष्ट्रीय अध्यक्ष थी जो कि एक अंतर्राष्ट्रीय आध्यात्मिक संस्था है। तिलक ने 1916 में एनी बेसेंट के साथ मिलकर अखिल भारतीय होम रूल लीग की स्थापना की थी। 2018 में तिलक होमरूम के अध्यक्ष के रूप में इंण्लैण्ड भी गये। एनी बेसेंट का कहना था कि मैं अपनी समाधि पर यही एक वाक्य चाहती हूँ - उसने सत्य की खोज में अपने प्राणों की बाजी लगा दी।

तिलक के चार सूत्रीय के कार्यक्रम थे - स्वराज, स्वदेशी, विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार तथा राष्ट्रीय शिक्षा। महात्मा गांधी ने भी इन चारों कार्यक्रमों को बाद में आजादी के लिए अपना हथियार बनाया। तिलक को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का पुरोधा माना जाता हैं। तिलक का 'स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, मैं उसको लेकर रहूंगा' का नारा देश भर में गुंजने लगा। लोकमान्य तिलक ने स्वराज के प्रति अटूट विश्वास तथा स्वाभिमान प्रत्येक भारतीय में जगा दिया। वह लोगों को बताना चाहते थे कि बीमारी रूपी गुलामी की दवा स्वराज  के रूप में हमारे अंदर ही है। जिस दिन देश का प्रत्येक व्यक्ति इस बात को जान लेगा उस दिन अंग्रेज भारत छोड़कर चले जायेंगे। 

तिलक देश के पहले भारतीय पत्रकार थे जिन्हें पत्रकारिता के कारण तीन बार जेल की सजा हुई थी। तिलक ने अपनी कलम को हथियार के रूप में चुना और दो समाचार पत्र मराठी में केसरी तथा अंग्रेजी में मराठा निकालकर अंग्रेजी शासन को हिला दिया। क्रांतिधर्मी पत्रकार और पत्रकारिता जगत के लिए प्रेरणापुंज हैं लोकमान्य तिलक। तिलक ने अपनी पत्रिकाओं के माध्यम से जन-जागृति की नयी पहल की। तिलक द्वारा प्रकाशित दोनों समाचार पत्र आज भी छपते हैं। कलम की ताकत से ही आज विश्व के 100 से ज्यादा देशों ने लोकतंत्र को अपनाया है।

अन्यायपूर्ण अंग्रेजी शासन के खिलाफ 30 अप्रैल 1908 को खुदीराम बोस तथा प्रफुल्ल चन्द्र चाकी ने मुजफ्फरपुर में बम विस्फोट किया। केसरी तथा मराठा के मई व जून के चार अंकों में प्रकाशित सम्पादकीय को राज द्रोहात्मक ठहराकर अंग्रेज जज ने तिलक को छः वर्ष की देश के बाहर बर्मा की जेल में भेजने की सजा सुनायी। तिलक ने बम विस्फोट का समर्थन किया था। उन्होंने लिखा था कि यह एक बम भारत की आजादी प्राप्त नहीं करा सकता लेकिन यह उन स्थितियों की ओर सरकार का ध्यान आकर्षित करता है जिन स्थितियों ने इस बम को जन्म दिया। तिलक ने यूँ तो अनेक पुस्तकें लिखीं किन्तु श्रीमद्भगवद्गीता की व्याख्या को लेकर मांडले जेल में लिखी गयी गीता-रहस्य सर्वोकृष्ट है जिसका कई भाषाओं में अनुवाद हुआ है। तिलक का मानना था कि गीता मानवता की सेवा का पाठ पढ़ाती है। समाजसेवी ''श्यामजीकृष्ण वर्मा को लिखे तिलक के पत्र'' पुस्तक भी काफी प्रेरणादायी है।

1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की असफलता के बाद अंग्रेजों ने इसकी वापसी दुबारा न हो इसके लिए कांग्रेस की स्थापना की योजना बनायी। 1883 में कांग्रेस की स्थापना हुई थी। तब उसका साहस नही था कि पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव पास कर सके। यह भारतीयों के लिए ऐसा मंच था जहां वह अनुनय-विनय कर सकते थे। पेटीशन, प्रार्थना पत्र दायर कर सकते थे। यहां पर यूनियन जैक अंग्रेजों का झण्डा फहराया जाता था। ब्रिटेन के राजा की जय जयकार होती थी। ब्रिटेन का राष्ट्रगान गाया जाता था। 

तिलक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से 1890 में जुड़े। कोर्ट में सीना ठोक कर तिलक ने कहा 'स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है वह इसे लेकर रहेंगे' तो कांग्रेस पूरी तरह से देश का राजनीतिक मंच बन गया। 1929 लाहौर के कांग्रेस अधिवेशन में पूर्ण स्वतंत्रता का प्रस्ताव पारित हुआ। तिलक ने कांग्रेस को सअधिकार अपनी बात कहने का मंच बना दिया। वह पूना की निगम परिषद्, बॉम्बे विधानसभा के सदस्य और बॉम्बे विश्वविद्यालय के निर्वाचित 'फेलो' थे।

तिलक ने 1905 में बंगाल विभाजन कानून का जमकर विरोध किया। कांग्रेस में फहराये जाने वाले यूनियन जैक का भी विरोध किया। विपिन चन्द्र पाल तथा लाला लाजपत राय भी उनकी इस मांग के समर्थन में आ गये। तिलक ने देश के प्रत्येक व्यक्ति में अधिकार तथा स्वराज के विचारों को रोपा। 1911 में बंगाल विभाजन कानून वापस होने के पीछे तिलक की सबसे बड़ी भूमिका थी। 21 वर्ष का यह कालखण्ड भारत की राजनीति में तिलक युग कहलाता है। अगले 47-48 वर्षों तक उनके 4 सूत्रीय कार्यक्रम ही भारतीय राजनीति का एजेण्डा रहने वाला था। इसी से प्रेरणा लेकर तमाम लोग राजनीति में आये तथा आगे बढ़े हैं। तिलक का 1 अगस्त 1920 को देहान्त का गया। उनकी शवयात्रा में लाखों लोग शामिल हुए। देश में कई जगहों पर उनको श्रद्धांजलि दी गयी। इस शव यात्रा को स्वराज यात्रा कहा गया। आज तिलक देह रूप में हमारे बीच नहीं है लेकिन उनके सत्यवादी, साहस, स्वाभिमान, स्वराज तथा न्यायपूर्ण मानव अधिकार के सार्वभौमिक विचार धरती माता की सभी संतानों का युगों-युगों तक सदैव मार्गदर्शन कर रहे हैं।

वर्तमान समय की मांग है कि विश्व के प्रत्येक नागरिक का दायित्व है कि वह विश्व को सुरक्षित करने के लिए अति शीघ्र आम सहमति के आधार पर अपने-अपने देश के राष्ट्राध्यक्षों का ध्यान आकर्षित करें। इस मुद्दे पर कोई राष्ट्र अकेले ही निर्णय नहीं ले सकता है क्योंकि सभी देशों की न केवल समस्याएँ बल्कि इनके समाधान भी एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। वह समय अब आ गया है जबकि विश्व के सभी देशों के राष्ट्राध्यक्षों को एक वैश्विक मंच पर आकर इस सदी की विश्वव्यापी समस्याओं के समाधान हेतु सबसे पहले पक्षपातपूर्ण पांच वीटो पॉवर  को समाप्त करके एक लोकतांत्रिक विश्व व्यवस्था (विश्व संसद) का निर्माण करना चाहिए। 

तिलक के स्वराज का अभियान 1947 में आजाद भारत के रूप में पूरा हुआ। भारत की स्वराज की आंधी ने विश्व के 54 देशों से अंग्रेजी शासन को उखाड़ फेंका। तिलक ने देशवासियों को आत्मसात कराया था कि स्वराज जीवन है तथा गुलामी मृत्यु है। वर्तमान परिपेक्ष्य में अनेक देशों में राष्ट्रीय स्तर पर तो लोकतंत्र तथा कानून का राज है लेकिन विश्व स्तर पर लोकतंत्र तथा कानून का राज न होने के कारण जंगल राज है। सारा विश्व पांच वीटो पॉवर  वाले शक्तिशाली देशों अमेरिका, रूस, चीन, ब्रिटेन तथा फ्रान्स द्वारा अपनी मर्जी के अनुसार चलाया जा रहा है। तिलक जैसी महान आत्मा के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि यह होगी कि विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक तथा युवा भारत को एक लोकतांत्रिक विश्व व्यवस्था (विश्व संसद) के गठन की पहल पूरी दृढ़ता के साथ करना चाहिए। विश्व स्तर पर स्वराज (लोकतंत्र) लाने के इस बड़े दायित्व को हमें समय रहते निभाना चाहिए। किसी महापुरुष ने कहा कि अभी नहीं तो फिर कभी नहीं।

- प्रदीप कुमार सिंह
  बी-901, आशीर्वाद, उद्यान-2, एल्डिको, रायबरेली रोड,        लखनऊ-226025......

 
 
राजभाषा हिंदी  - डॉ० शिबन कृष्ण रैणा

हर साल हिंदी दिवस 14 सितंबर को मनाया जाता है। स्वतंत्रता- प्राप्ति के बाद 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने एकमत से यह निर्णय लिया था कि खड़ी बोली हिन्दी ही भारत की राजभाषा होगी। इसी महत्वपूर्ण निर्णय को प्रतिपादित करने तथा हिन्दी को हर क्षेत्र में प्रसारित करने के लिए राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा द्वारा सन् 1953 से संपूर्ण देश में प्रतिवर्ष 14 सितंबर को 'हिन्दी दिवस' के रूप में मनाये जाने का प्रस्ताव रखा गया, जिसका अनुपालन आज तक बराबर होता आ रहा है।

विगत साठ-सत्तर वर्षों से हम यह दिवस बड़े उत्साह और उमंग से मनाते आ रहे हैं। समय आ गया है अब हम इस बात पर विचार करें कि इन सत्तर वर्षों के दौरान हिंदी ने अपने स्वरूप और आधार को कितना समृद्ध किया है? अगर नहीं किया है तो उसके क्या कारण हैं?

भाषण देने, बाज़ार से सौदा-सुलफ खरीदने या फिर फिल्म/सीरियल देखने के लिए हिंदी ठीक है, मगर कौन नहीं जानता कि वैश्वीकरण के इस दौर में अच्छी नौकरियों के लिए या फिर उच्च अध्ययन के लिए अब भी अंग्रेजी का दबदबा बना हुआ है। इस दबदबे से कैसे मुक्त हुआ जाए? निकट भविष्य में आयोजित होने वाले हिंदी-आयोजनों के दौरान इस पर भावुक हुए बिन वस्तुपरक तरीके से विचार-मंथन होना चाहिए। निजी क्षेत्र के संस्थानों अथवा प्रतिष्ठानों में हिंदी की स्थिति शोचनीय बनी हुई है और मात्र कमाने के लिए इस भाषा का वहां पर ‘दोहन' किया जा रहा है।  इस प्रश्न का उत्तर भी हमें निष्पक्ष होकर तलाशना होगा।

यों देखा जाए तो हिंदी-प्रेम का मतलब हिंदी विद्वानों,लेखकों,कवियों आदि की जमात तैयार करना कदापि नहीं है। हिंदी-प्रेम का मतलब है हिंदी के माध्यम से रोज़गार के अच्छे अवसर तलाशना, उसे उच्च-अध्ययन ख़ास तौर पर विज्ञान और टेक्नोलॉजी की पढ़ाई के लिए एक कारगर माध्यम बनाना और उसे देश की अस्मिता व प्रतिष्ठा का सूचक बनाना। कितने दुःख की बात है कि हिंदी दिवस तो पसरते जाते हैं, मगर खुद हिंदी सिकुड़ती जा रही है। कहने को तो आज इस देश में हिंदी को राजभाषा का दर्जा प्राप्त है किन्तु स्थिति भिन्न है। चाहे विश्विद्यालयों या लोकसेवा आयोगों के प्रश्न-पत्र हों, या फिर सरकारी चिट्ठी-पत्री, मोटे तौर पर राज-काज की मूल प्रामाणिक भाषा अंग्रेजी ही है। रैपिड इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स के सर्वव्यापी विज्ञापन और कुकरमुत्ते की तरह उगते इंग्लिश मीडियम के स्कूल अंग्रेजी के साम्राज्य का डंका बजाते दीख रहे हैं। जहां-जहां अभिलाषा या जरूरत है, वहां-वहां अंग्रेजी है।

दरअसल, इन पैंसठ-सत्तर सालों में सत्ता का व्याकरण हिंदी में नहीं अंग्रेजी में रचा जाता रहा है। सता के केंद्र में बैठे लोग औपचरिकतावश हिंदी का समर्थन करते रहे,अन्यथा भीतर से मन उनका अंग्रेजी की ओर ही झुका हुआ था। हिंदी की ओर होता तो शायद आज हिंदी को लेकर परिदृश्य ही दूसरा होता। जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है कि हिन्दी प्रचार-प्रसार या उसे अखिल भारतीय स्वरूप देने का मतलब हिन्दी के विद्वानों, लेखकों, कवियों या अध्यापकों की जमात तैयार करना नहीं है। जो हिन्दी से सीधे-सीधे आजीविका या अन्य तरीकों से जुडे हुए हैं, वे तो हिन्दी के अनुयायी हैं ही। यह उनका धर्म है, उनका नैतिक कर्तव्य है कि वे हिन्दी का पक्ष लें। मैं बात कर रहा हूं, ऐसे हिन्दी वातावरण को तैयार करने की जिसमें भारत देश के किसी भी भाषा-क्षेत्र का किसान, मजदूर, रेल में सफर करने वाला हर यात्री, अलग अलग काम-धन्धों से जुडा आम-जन हिन्दी समझे और बोलने का प्रयास करे। टूटी-फूटी हिन्दी ही बोले, मगर बोले तो सही।

हिंदी प्रचार-प्रसार सम्बन्धी कई राष्ट्रीय संगोष्ठियों में मुझे सम्मिलित होने का सुअवसर मिला है। इन संगोष्ठयों में अक्सर यह सवाल अहिन्दी-भाषी हिंदी विद्वान करते हैं कि हम तो हिंदी सीखते हैं या फिर हमें हिंदी सीखने की सलाह दी जाती है, मगर आप लोग यानी हिंदी भाषी क्षेत्रों के लोग हमारे दक्षिण भारत की एक भी भाषा सीखने के लिए तैयार नहीं हैं। यह रटा-रटाया जुमला मैं कई बार सुन चुका हूँ। आखिर एक सेमिनार में मैंने कह ही दिया कि दक्षिण की कौनसी भाषा आप लोग हम को सीखने के लिए कह रहे हैं? तमिल/मलयालम/कन्नड़/या तेलुगु? और फिर उससे होगा क्या? आपके अहम् की संतुष्टि? पंजाबी-भाषी डोगरी सीखे तो बात समझ में आती है। राजस्थानी-भाषी गुजराती सीख ले तो ठीक है। इन प्रदेशों की भौगोलिक सीमाएं आपस में मिलती हैं, अतः व्यापार या परस्पर व्यवहार आदि के स्तर पर इससे भाषा सीखने वालों को लाभ ही होगा। अब आप कश्मीरी-भाषी से कहें कि वह तमिल या उडिया सीख ले या फिर पंजाबी-भाषी से कहें कि वह बँगला या असमिया सीख ले (क्योंकि इस से भावात्मक एकता बढेगी) तो आप ही बताएं यह बेहूदा तर्क नहीं है तो क्या है? इस तर्क से अच्छा तर्क यह है कि अलग-अलग भाषाएँ सीखने के बजाय सभी लोग हिंदी सीख लें ताकि सभी एक दूसरे से सीधे-सीधे जुड़ जाएँ। वह भी इसलिए क्योंकि हिंदी देश की अधिकाँश जनता समझती-बोलती है।

-डॉ० शिबन कृष्ण रैणा

पूर्व सदस्य,हिंदी सलाहकार समिति,विधि एवं न्याय मंत्रालय,भारत सरकार।
पूर्व अध्येता,भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान,राष्ट्रपति निवास,शिमला तथा पूर्व वरिष्ठ अध्येता (हिंदी) संस्कृति मंत्रालय,भारत सरकार।

ई-मेल: skraina123@gmail.com,

 

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दलित साहित्य के महानायक : ओमप्रकाश वाल्मीकि - नरेन्द्र वाल्मीकि

वाल्मीकि समाज के गौरव और हिन्दी व दलित साहित्य के सुप्रसिद्ध साहित्यकार, कवि, कथाकार आलोचक, नाटककार, निर्देशक, अभिनेता, एक्टिविष्ट आदि बहुमुखी प्रतिभा के धनी ओमप्रकाश वाल्मीकि जी का जन्म 30 जून 1950 को ग्राम बरला, जिला मुजफ्फरनगर (उ0 प्र0) में एक गरीब परिवार में हुआ था। ओमप्रकाश वाल्मीकि जी के पिता का नाम छोटन लाल व माता जी का नाम मुकन्दी देवी था। उनकी पत्नी का नाम चन्दा जी था, जो आपको बहुत प्रिय थी। अपनी भाभी की छोटी बहन को अपनी मर्जी से आपने अपनी जीवन संगनी के रूप में चुना था। उन्हें पत्नी के रूप में पाकर आप हमेशा खुश रहे। वाल्मीकि जी ने अपने घर का नाम भी अपनी पत्नी के नाम पर ‘‘चन्द्रायन'' रखा है, जो उनकी पत्नी से उनके अद्भुत प्रेम को दर्शाता है। वाल्मीकि जी के कोई सन्तान नहीं थी। जब आपसे कोई अनजाने में पूछ लेता तब चन्दा जी बताती थी कि हमारे बच्चे एक, दो नहीं बहुत बड़ा परिवार है। हमारे जितने छात्र ओमप्रकाश वाल्मीकि जी को पढ़ रहे है, उन पर शोध कार्य कर रहे है, वे सब हमारे ही तो बच्चे है। ओमप्रकाश वाल्मीकि जी के कार्यो पर पूरे देश में सैकडो छात्र-छात्राओ ने रिसर्च किया है । अपने जीवन के अंतिम समय तक ओमप्रकाश वाल्मीकि स्वयं भी भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, राष्ट्रपति निवास शिमला में फैलो के रूप में शोध कार्य करते रहे। ओमप्रकाश वाल्मीकि देहरादून में लम्बे समय तक कैंसर से जूंझते रहे और अंततः 17 नवम्बर 2013 को आपका निधन हो गया।

वाल्मीकि जी के जाने से साहित्य जगत की भारी क्षति हुई, जिसकी पूर्ति कभी नहीं हो पाएगी। मात्र 63 वर्ष की आयु में वाल्मीकि जी हमारे बीच नहीं रहे। वाल्मीकि जी अपने जीवन में दो-चार वर्ष और चाहते थे ताकि वे लेखन के अपने कुछ अधूरे कार्य पूरे कर सके। अंतः तक वे कहते रहे कि दो-तीन वर्ष शरीर साथ दे दे तो कुछ और महत्वपूर्ण कार्य कर जाऊँ, मगर ऐसा संभव नहीं हो सका।

दलित होने की पीड़ा को आपने बचपन से सहा है। जो जीवन भर साथ रही, चाहे आप कहीं भी रहे, यही पीड़ा आपको लिखने के लिए प्रेरित करती रही। आपने हमेशा दलितों एवं पिछड़ों की मूलभूत समस्याओं पर लिखा है। वाल्मीकि जी ने नौकरी करते हुए अनेक स्थानों की यात्रा की। वाल्मीकि जी ने देहरादून से जबलपुर, फिर मुम्बई, चन्द्रपुर की यात्रा की। सरकारी ऑर्डनेन्स विभाग की अपनी नौकरी की ट्रेनिंग के लिए आप महाराष्ट्र में रहे। यही वाल्मीकि जी ने दलित आन्दोलन को बहुत करीब से देखा। यहाँ के दलित आन्दोलन के नेताओ और कार्यकर्ताओं के साथ जुड़कर आपने डा॰ भीमराव अम्बेडकर और उनके जीवन संघर्ष को समझा, यही से प्रेरणा लेकर दलित लेखन से जुड़ गए और महाराष्ट्र से लौटने के बाद वाल्मीकि जी अपने विचारो को लेखन के माध्यम से सम्पूर्ण भारत तक ले गए। वाल्मीकि जी ने अपनी आत्मकथा जूठन लिखकर दलित साहित्य को अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलायी। जूठन के द्वारा वाल्मीकि जी ने हिन्दी साहित्य में नई जमीन तलाशी थी, जिसने अभिजात्य और प्रभुता की जडों को खोदा, शुद्धता और शुचितावादी साहित्यकारों की नसों को हिलाया तथा हिन्दी साहित्य के इतिहास और समाज शास्त्र को बदल कर रख दिया। जूठन के माध्यम से आपने वाल्मीकि समाज की दुर्दशा की ओर समाज का ध्यान आकृष्ट किया। मनुष्यों के समाज में वाल्मीकि समाज यानि (सफाई कामगार समुदाय) किस प्रकार अमानवीय जीवन जीने के लिए विवश है। जूठन के प्रकाशित होने के बाद उस पर चर्चा ने जो प्रभाव छोडा वह अद्भुत था। जूठन ने कई दलित साहित्यकारों को आत्मकथा लिखने के लिए प्रेरित किया। वाल्मीकि जी की आत्मकथा हिन्दी दलित आत्मकथाओं में सर्वश्रेष्ठ मानी गई जिसका अनुवाद सभी भारतीय भाषाओं जिनमें पंजाबी, बंगाली, तेलगू, गुजराती, उर्दू, मराठी, तमिल, उडि़या मलयालम, कन्नड इत्यादि सम्मिलित हैं, के अतिरिक्त अंग्रेजी, फ्रेंच, स्वीडिश इत्यादि विदेशी भाषाओं में भी हुआ। अनेक भाषाओं में उपलब्ध होने से वाल्मीकि जी की आत्मकथा बहुत प्रसिद्ध हुई। जूठन को अनेक विश्वविद्यालयों में दलित पाठ्यक्रम के अन्तर्गत पढ़ाया जा रहा है। जूठन के अतिरिक्त भी वाल्मीकि जी की अनेक कहानियां व कविताएं अत्यन्त चर्चित हुई जिनमें घुसपैठियें, छतरी, अम्मा, सलाम, पच्चीस चोका डेड सौ और बिरम की बहु इत्यादि महत्वपूर्ण हैं। वाल्मीकि जी का पहला कविता संग्रह ‘‘सदियों का सन्ताप'' (1989) में छपा इसके बाद ‘बस बहुत हो चुका' (1997) में छपा। ‘‘अब और नही'' और ‘‘शब्द झूठ नहीं बालते'' क्रमशः 2009 व 2012 में छपे। इस तरह वाल्मीकि जी के चार कविता संग्रह छपे है। उन्होंने कांचा एलैय्या की पुस्तक का हिन्दी अनुवाद ‘‘क्यों मैं हिन्दू नहीं हूँ'' तथा ‘साइरन का शहर' (अरूण का कविता संग्रह) का हिन्दी अनुवाद किया। ‘‘सदियों का संताप'' कविता संग्रह में संकलित ‘ठाकुर का कुआं' बहुत ही मार्मिक कविता है। इसमें ग्रामीण परिवेश में होने वाले शोषण को उजागर किया गया है। जो इस प्रकार से है-

चूल्हा मिटटी का
मिटटी तालाब की......

 
 
दुनिया के दर पर एक और कैलेंडर वर्ष--2021  - डॉ साकेत सहाय

दुनिया न किसी के लिए रुकती है न थकती है। समय के साथ चलती है। समय के साथ कदम-ताल करती है क्योंकि समय ही सब कुछ है। जीवन बिना समय के निर्मूल है। दुनिया की गति-प्रगति इसी के इर्द-गिर्द घूमती है। चाहे अदना हो या खास सभी का जीवन घंटा, मिनट, सेकंड, पहर, दोपहर, क्षण, प्रतिक्षण, दिन, सप्ताह, माह, साल इन सभी शब्दों से हर पल प्रभावित होता है। परंतु क्या हमने कभी सोचा है कि एक आम आदमी के जीवन में समय की इतनी बड़ी भूमिका को भला कौन प्रतिबिंबित करता है? सोचिए मत! ना ही दिमाग पर जोर डालिए। समय का यह दूत हम सभी के घरों की दिवारों पर, टेबुलों पर, अलमारियों पर, दराजों पर, खिड़कियों पर रखे या टंगे अक्सर दिख जाते है। कहने को तो हमारे विज्ञान की परिभाषा में ये निर्जीव हैं। लेकिन समय के ये दूत हम सभी के जीवन में एक सजीव से भी अधिक प्रभाव डालते है। अब तक हममें से अधिकांश समझ गए होंगे कि समय के यह दूत और कोई नहीं कैलेंडर है। जिसकी प्रतीक्षा हम सभी को प्रत्येक वर्ष के आरंभ पर रहती है।

जी, हाँ, हम सभी के जीवन का अभिन्न अंग कैंलेडर है। चाहे हम अनुशासित व्यक्ति हो या नहीं। हममें से किसी की जिंदगी इसके बिना नहीं चल सकती। ये हमारी जिंदगी का अहम् हिस्सा है। भले ही यह सिमट कर अब मोबाइल या घड़ी में सिमट गया हो और इस बार तो और अधिक दुविधा आ गयी जब कोरोना की वजह से सरकार ने कैलेंडर की छपाई पर ही रोक लगा दी है। फिर भी कैलेंडर सॉफ्ट रूप में तो रहेगा ही।

सालों से हम सभी को वर्ष के शुभारंभ पर अगर किसी एक चीज का सबसे ज्यादा इंतजार रहता है तो वह कैलेंडर ही है। आज भी अलसुबह हम सभी को इस नए कैलेंडर का इंतजार रहेगा। चाहे हमें दैनिक कार्यक्रम बनानी हो, नवीन योजनायें या नोटबुक पर अपनी डेट डालनी हो, जीवन के यादगार क्षणों को और यादगार बनाना या छुट्टियों का रिकार्ड रखना हो इन सभी का समाधान कैलेंडर में छुपा होता है। और तो और किसी को अपनी विवाह की तिथि नियत करानी हो या और कोई शुभ काम तब भी उसे पंचाग की ही जरूरत पड़ती है।
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नारी - अर्चना

तू ही धरा, तू सर्वथा ।
तू बेटी है, तू ही आस्था।......

 
 
नव-वर्ष! स्वागत है तुम्हारा - डॉ० शिबन कृष्ण रैणा

नव-वर्ष यानी नया साल! जो था सो बीत गया और जो काल के गर्भ में है,वह हर पल,हर क्षण प्रस्फुटित होने वाला है। यों देखा जाए तो परिवर्तन प्रकृति का आधारभूत नियम है। तभी तो दार्शनिकों ने इसे एक चिरंतन सत्य की संज्ञा दी है। इसी नियम के अधीन काल-रूपी पाखी के पंख लग जाते हैं और वह स्वयं तो विलीन हो जाता है किन्तु अपने पीछे छोड जाता है काल के सांचे में ढली विविधायामी आकृतियां। कुछ अच्छी तो कुछ बुरी। कुछ रुपहली तो कुछ कुरूप। काल का यह खेल या अनुशासन अनन्त समय से चला आ रहा है। तभी तो काल को महाकाल या महाबली भी कहा गया है। उसकी थाह पाना कठिन है। उस अनादि-अनन्त महाकाल को दिन,मास और वर्ष की गणनाओं में विभाजित करने का प्रयास हमारे गणितज्ञ एवं ज्योतिषी लाखों वर्षों से करते आ रहे हैं। उसी काल गणना का एक वर्ष देखते-ही-देखते हमारे हाथों से फिसल कर इतिहास का पृष्ठ बन गया और हम बाहें पसारे पूरे उत्साह के साथ अब नए वर्ष का स्वागत करने को तैयार हैं।

तो साहब,वर्ष २०२० चुपचाप सरक गया और हमें भनक तक नहीं पडी। नव-वर्ष की पूर्व रात्रि को अच्छे-भले सोए थे आप-हम और अगली सुबह मालूम पड़ा कि नए वर्ष का अवतरण हो गया है। हर प्राणी- चाहे वह जड था या चेतन- की आयु एक वर्ष बढ़ गई। दार्शनिकों के अन्दाज़ में बात की जाए तो आयु बढी नहीं,आयु घट गई। यों यह बात अल्पायु वालों पर लागू नहीं होती। लागू होती है गृहस्थाश्रम की सीढ़ी को पार करने वाले उन बुजुर्गों पर जिन्होंने जीवन के ढेर सारे वसंत देखें हैं। अल्पायु वालों के लिए तो नया वर्ष नई खुशियों,आशाओं,चाहतों, एवं उमंगों का सन्देश लेकर आता है।

नया वर्ष जन्म कहां से लेता है,कभी आपने इस बात पर विचार किया है? लीजिए हम बताते हैं आपको। नया वर्ष जन्म लेता है बीते वर्ष की कोख में से। नए वर्ष का सूर्य अपनी नई ऊषमा के साथ जब गगनांचल में हंसता-खेलता उदित होता है, तो एक कवि की ये पंक्तियां बरबस याद आती हैं-

वह देखो मुंदी पलकों को खोलने
उगा है नए वर्ष का सूरज।......

 
 
भावनात्मक बुद्धिमत्ता (ईआई) और कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई)  - अभिनंदन जैन

स्वचलीकरण (Automation ) और कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) व्यापार व समाज के लिए नए अवसर के साथ-साथ अधिक निपुणता प्रदान कर रहे हैं। यह कर्मचारी और संगठन दोनों की अद्वितीय मानव संज्ञानात्मक क्षमताओं पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं क्योंकि मशीनें मानव की मालिक नहीं हो सकती हैं। भावनात्मक बुद्धिमत्ता (EI) एक ऐसा क्षेत्र है जिसको AI और मशीनों द्वारा अनुकरण करना कठिन लगता है । इसी कारण से यह आज के युग में एक आवश्यक कौशल बन गया है। AI हर जगह है और हमारे कार्य और घरेलू जीवन दोनों जगहों पर अत्यधिक प्रचलित हो रहा है।

मुझे लगता है कि AI कंपनियों की जॉब प्रोफाइल को बदल देगा, जहाँ कई पारंपरिक भूमिकाएं पहले से ही स्वचालित हो चुकी हैं । अत्याधुनिक AI के साथ, अधिकतर भूमिकाएं उन मशीनों द्वारा की जाएगी जो मानव बुद्धि की पूरक हैं और मनुष्यों को अपने नौकरी कौशल को विकसित करने में मदद कर रही हैं। वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की भविष्य की रिपोर्ट [1] के अनुसार, 2022 तक 50% से भी अधिक कर्मचारियों को विश्व स्तर पर छह महीने या उससे अधिक समय तक महत्वपूर्ण पुनर्मूल्यांकन की आवश्यकता होगी। कर्मचारियों (कार्यबल ) का विन्यास भी बदल रहा है। Instant Offices Ltd [2] द्वारा हाल के अध्ययनों से पता चलता है कि 2020 तक वैश्विक कार्यबल का 35% युवा वयस्क होंगे और यह देखते हुए कि 72% युवा वयस्क 5 वर्षों के भीतर अपनी नौकरी छोड़ देंगे, क्या हम आज अपने कार्यबल की जरूरतों को पूरा कर पा रहे हैं? इसमें और क्या चुनौतियां हैं?

• क्या हम अपने कार्यबल को पर्याप्त रूप से और कुशलता से दोबारा दक्ष कर 
  सकते हैं?......

 
 
'अंतहीन' जीवन जीने की कला - डॉ. सुधांशु कुमार शुक्ला

डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक के कहानी संग्रह अंतहीन को 12 अविस्मरणीय कहानियों का दस्तावेज़ कहना ठीक है, इससे भी अधिक यदि यह कहा जाए कि यह कहानी संग्रह सांस्कृतिक-बोध और मानवीय-रिश्तों की अद्भुत गाथा है, तो अधिक सटीक होगा। कहानीकार का कवि मन कहानी के साथ-साथ भाषाई-सौंदर्यबोध, उत्तराखंड के सुरम्य प्राकृतिक सुषमा को चित्रित करता चला जाता है। यही कारण है कि वाह! जिंदगी कहानी संग्रह पर चर्चा होने के तुरंत बाद बेचैन कंडियाल जी के द्वारा उपलब्ध कराई गई। इस कहानी संग्रह पर छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक धरा पर डॉ. विनय पाठक और श्री बी. एल. गौड़ जैसे संतों के समक्ष साहित्य की मंदाकिनी की कल-कल ध्वनि की गूँज न केवल छत्तीसगढ़ के विश्वविद्यालयों में गूँजी अपितु इसका नाद सौंदर्य भारत की सीमा को बेधता हुआ, विदेशी विश्वविद्यालयों को भी आनंदित कर गया।

अंतहीन नामकरण की सार्थकता को सिद्ध करती हुई ये कहानियाँ पाठक मन को सोचने समझने को प्रेरित करती हुई, अनेक प्रश्नों के उत्तर खोजने के लिए बाध्य करती हैं। यही कारण है कि इनकी कहानियाँ और इनके पात्र देशकाल की सीमाओं से परे सार्वभौमिक, सार्वदेशीय बन जाते हैं। साधारणीकरण की यह प्रक्रिया सुखद अनुभूति देती है।

अतीत की परछाइयाँ कहानी मात्र माता-पिता से बिछुड़े सरजू की कहानी नहीं है, अपितु यह कहानी भागीरथी और रामरथ के एकमात्र पुत्र को विदेशी दंपत्ति को बेचे जाने की दर्द भरी कहानी है। कहानीकार ने जहाँ उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल में भटकते लालची लोगों द्वारा बच्चों को उठाकर विदेशियों को बेचने की समस्या को चित्रित किया है। वहीं अपने बेटे की याद में जीवन काटने पर अचानक नीदरलैंड से आए विदेशियों के झुंड में एक बालक को देखकर हू-बहू अपने बेटे का चेहरा देखकर रामरथ व्याकुल हो उठता है। जब वह पूरी घटना पत्नी को बताता है तो वह भी व्याकुल हो उठती है। युवकों का दल वापस लौटकर आयेगा, इस बात को ध्यान में रखकर भागीरथी का मातृहृदय विकल हो उठता है, माँ की ममता पुत्र से मिलने के लिए बेचैन हो उठती है, सुख के मारे अंतः चेतना जागृत हो जाती है, मृतप्राय में मानों एक बार फिर प्राण संचार हो गया हो ऐसा लगने लगता है। प्रातः से शाम तक चाय की दुकान पर उससे मिलने की आशा में बैठती है। एक दिन आ जाने पर और पूछने पर किस देश से आए हो अपने बेटे को पहचानने-जानने पर भी अपनी ममता को दबाकर वह शब्दहीन हो जाती है। वह सोचती है कि अगर वह यहाँ होता तो चाय की दुकान पर ही बैठता। उसका बेटा जिंदा है, खुश है यही भागीरथी और रामरथ की खुशी, महिमा है। भागीरथी और रामरथ नाम के पात्र उस मर्मस्पर्शी ममत्व की कुर्बानी की याद दिलाते हैं, जिन्होंने मानवता के हित में ही काम किया। भागीरथी और रामरथ भारतीय संस्कृति के प्रतीक हैं। भागीरथी गंगा की पावनता को धारण किए हुए बच्चे के लिए अपना सर्वस्व कुर्बान करने के लिए तैयार है। रामरथ भी पिता के पितृत्व को धारण किए हुए है।

अनजान रिश्ता कहानी वास्तव में ससुर-बहू के अनोखे रिश्ते की दास्तान है। मेरे जीवन की यह बेमिसाल कहानी है, जहाँ बहू सुलक्षणा दीनानाथ के बेटे से शादी करना चाहती थी, शादी से ठीक पहले ही अनुपम की मृत्यु हो जाने पर अनुपम के पिता दीनानाथ को अपने पिता के रूप में मानकर, अपनी पूरी जिंदगी उनकी सेवा में लगा देती है। यह मानवता की एक अद्भुत मिसाल है। यह कहानी अंतहीन चिंतन-मनन करने और स्वयं को देखने परखने को मजबूर करती है। जहाँ बेटे और बहू वृद्धों को वृद्धाश्रम छोड़ रहे हैं, उनका बुढ़ापा नरक बना रहे हैं। स्त्री विमर्श, वृद्ध विमर्श से भी ऊपर भारतीय संस्कृति में मानवता की विशद् व्याख्या है, जो आज अत्यंत आवश्यक एवं प्रासंगिक है, उसे लाने का प्रयास, उसकी बेचैनी साहित्यकार के साहित्य और आचरण में दिखलाई पड़ती है। यह कहानी विकलांग व्हीलचेयर पर बैठे ससुर की सबलता को दर्शाती है। उनकी मानवतावादी दृष्टिकोण, उनकी दूरदर्शिता को दर्शाती है।

संपत्ति कहानी में नालायक पुत्र की नालायकी और भू-माफिया की चालबाज़ी देखने को मिलती है। कहानीकार अगर कहानी को यहीं तक दिखाता तो कहानी सामान्य बन कर रह जाती। कहानीकार का उद्देश्य तो पति-पत्नी के झगड़ों से पुत्र की बर्बादी का रास्ता दिखाना मात्र भी नहीं है। अपने पुत्र के लिए रिटायरमेंट के बाद भी जमा पूँजी लगा देने वाला प्रशांत संबंधों की एक नई पकड़, एक नई राह में बंधकर सुमंगला नामक नारी के नारीत्व और प्यार को भी दिखाना चाहता है। शायद विवाह के बंधन में ना बंधकर भी एक साथ रहने वाली सुमंगला को प्रशांत का बेटा घर से निकाल देता है। सुमंगला को ढूँढते हुए प्रॉपर्टी अधिकारी जब वृद्धाश्रम पहुँचते हैं, तब सुमंगला कहती है, 'वो प्रशांत का बेटा है और प्रशांत मेरे लिए सब कुछ था। जो कुछ प्रशांत ने मुझे दिया वह मेरे लिए अमृत के समान है। उसी अमृत के प्रभाव और उनके साथ बिताये समय के सहारे मैं अपना शेष जीवन गुजार लूँगी। प्रशांत की हर चीज मेरी अपनी है, इसलिए बेटा और बहू भी मेरे अपने हैं। अपनों को कुछ देकर बहुत संतोष मिलता है बेटा।' (पृष्ठ-33) संपत्ति प्रशांत के नाम हो गई। भारतीय समाज में नारीत्व की पराकाष्ठा को दर्शाती यह कहानी आज के समय में और भी अधिक उपयोगी लगती है। जैसा नाम वैसा गुण, सुमंगला अर्थात् सु+मंगल की कामना धारण करने वाली सावित्री, सीता जैसी नारियों के देश को गौरवान्वित करती है।

अंतहीन कहानी गरीबी, मजबूरी, लाचारी की विशद् गाथा है। ना जाने कितने वर्षों से दूसरों के घरों में काम करके जीविका चलाने वाली पावन महिलाओं के अथक परिश्रम और यातना का दस्तावेज़ है यह कहानी। गरीबी, मजबूरी की मार के साथ-साथ लुभायाराम जैसे पति पाकर झुमकी की माँ जैसी औरतों को शराब के नशे में मार-पीट की यातना भी झेलनी पड़ती है। इस वर्ग की विकट जिजीविषा और संघर्षरत नारी का प्रतिनिधित्व करती झुमकी को इस कहानी की नायिका या केंद्रित पात्र कहा जा सकता है। कीचड़ में कमल की तरह खिली झुमकी को घर की परिस्थिति के कारण विद्यालय देखने का मौका तक ना मिला।

लाला सुखराम गरीबों को ब्याज पर उधार पैसा देता और सामान भी उधार देता। जो केवल अपना स्वार्थ खोजता है। लालची प्रवृत्ति का यह इंसान झुमकी जैसी लड़कियों को आपना शिकार बनाता है। यह कहानी अनमेल विवाह, ऋण की समस्या, दहेज प्रथा, नारी शोषण, रिश्तों की अमानवीयता, कामुक पुरूष की लालसा को दर्शाती है। साथ ही साथ गरीब महिलाओं की जिजीविषा को भी दर्शाती है। कहानीकार ने सैकड़ों वर्षो से चली आ रही मजबूरी में किए गए विवाह को संस्कार न मानकर शोषण-यातना की जीती जागती फिल्म के रूप में चित्रित किया। इस कहानी को पढ़कर रोटी, कपड़ा और मकान फिल्म याद आती है।

रमेश जी की कहानियाँ मानवतावादी सोच को दर्शाती है। इनकी अन्य कहानियाँ बदल गई जिंदगी, गेहूँ के दाने, कैसे सम्बन्ध, कतरा कतरा मौत, दहलीज, फिर जिंदा कैसे, रामकली, एक थी जूही सभी सराहनीय और पठनीय है। कहानी की विशेषता का प्रथम गुण जिज्ञासा, निरंतरता होता है। जिज्ञासा के कारण नीरसता कहीं भी नहीं आती है। अंत भी कथानक की चरम सीमा पर होता है। पाठक चिंतन मनन करता है। इनकी कहानियों में चित्रात्मकता और सौंदर्यबोध का प्रभाव देखने को मिलता है।

कहानियाँ पहाड़ी परिवेश के लोकतत्व को उजागर करती हैं। खासतौर पर पौड़ी गढ़वाल का परिवेश है। जहाँ उमड़ती नदियों का वेग, साँप की भाँति लहराती पहाड़ी सड़कें और ग्रामीण समाज में संतों का प्रभाव देखने को मिलता है। नारी को शोभायमान करने-मानने वाले कहानीकार ने अपनी संस्कृति का प्रमाण नारी पात्रों के नाम से व्यक्त किया है। यथा नाम तथा गुण वाले पात्र भागीरथी, सुमंगला, सुलक्षणा, सुरभि, झुमकी अनुराधा जूही आदि हैं। कहानीकार ने विवाह को संस्कार और लिव इन रिलेशनशिप को स्वच्छंदता और फन बताया है।
कहानीकार युवाओं को बिन उपदेश के सहज, सरल भाषा में जीवन के प्रति आस्था, कर्म के प्रति लगाव और बुराइयों से बचना सिखाता है। इन कहानियों की श्रेष्ठता त्रासदी में भी सकारात्मक सोच के साथ आगे बढ़ना है। समाज में हाशिए पर आए लोगों के जीवन की संघर्षमयी गाथा के साथ-साथ उनकी पावनता को चित्रित करना कहानीकार का उद्देश्य है। सहज सरल देशज शब्दों के साथ मुहावरों का प्रयोग चार चाँद लगा देता है जैसे- पत्थर होना, बदहवास स्त्री, कहर टूटना, आसमान की ओर ताकना, चील की मानंद झपटना, हृदय फटना, ऊँट के मुँह में जीरा, आसमान से आग बरसना, सब्जबाग दिखाना आदि।

निशंक जी की कहानियाँ काव्यशास्त्रीय दृष्टि से साधारणीकरण का निर्वाह करती है। संवेदना के भाव को उजागर करती हैं। इनके पात्र पाठक को अपने इर्द-गिर्द मिल जाएँगे। इनकी कहानियाँ पठनीय ही नहीं संग्रहणीय भी हैं। अमेरिकन साहित्यकार डेविड फ्राउले इनकी कहानियों को समस्त विश्व के पिछड़े वर्ग के संघर्ष की जीती जागती मिसाल कहते हैं। युगांडा के प्रधानमंत्री रूहकाना मानवीय संवेदनाओं की अतुलनीय मीसल कहते हैं। ये कहानियाँ लोगों को आईना दिखाने का काम करती हैं। अंतहीन की अंतहीन गूँज पाठक के मानसपटल पर अंकित होती है। विश्व साहित्यकारों की गरिमा को शोभायमान करती है। जो वास्तविकता के धरातल को साथ लेकर चल रही हैं। कहीं भी पाठक टूटता या ऊबता नहीं है। शब्दों की बयार, वाक्य संरचना, पाठक में नई ऊर्जा पैदा कर देती हैं।

डॉ. सुधांशु कुमार शुक्ला......

 
 
फूलवाली - रामकुमार वर्मा

फूल-सी हो फूलवाली।
किस सुमन की साँस तुमने......

 
 
आजकल देशभक्ति क्या है? भारत छोड़ो! - प्रीशा जैन

देशभक्ति: इस एक शब्द में काफी व्याख्याएं हो सकती हैं और इस वजह से मेरा मानना है कि इसे एक ही परिप्रेक्ष्य तक सीमित नहीं किया जा सकता । इसका अर्थ है किसी का देश के प्रति लगाव, किसी की देश के प्रति प्रतिबद्धता, किसी के देश के लिए काम करने का समर्पण और इसका मतलब किसी की देश के लिए बलिदान करने की इच्छा भी है । अब, क्या ये भावनाएं अलग हैं? ज़रुरी नहीं। यह सभी यह बताते है कि, किसी का एक लगाव जो अपने वतन और उसके लोगों से है और जो उसे अपने देश के विकास के लक्ष्य में अपना जीवन समर्पित करने को प्रेरित करता है । वे कई अलग-अलग तरीकों से ऐसा करते हैं, उनमें से कुछ ऐसे सैनिक बनते हैं जो देश की बेहतरी के लिए नीतियां और कानून विकसित करने वाले नागरिकों, राजनीतिक नेताओं, देश के युवाओं को पढ़ाने वाले शिक्षकों की रक्षा के लिए अपना जीवन समर्पित करते हैं, जबकि कुछ व्यापारी और किसान बनते हैं जो अपने देश के विकास के लिए योगदान करते हैं।

हमारे लोगों में देशभक्ति का विकास स्वतंत्रता, मताधिकार, झगड़ों, लड़ाइयों और विद्रोहों के लंबे इतिहास के माध्यम से हुआ है । इतिहास में स्वतंत्रता सेनानियों और प्रमुख नेताओं के जोश से देशभक्ति की भावनाओं को प्रोत्साहित किया गया। हमने देखा कि किस प्रकार महात्मा गांधी द्वारा हमारी मातृभूमि को मुक्त करने के लिए सविनय अवज्ञा आंदोलन जैसे कई शांतिपूर्ण हड़तालों का आयोजन किया गया। हमने भारत के राष्ट्रपति  एपीजे अब्दुल कलाम को देखा, जिन्होनें परमाणु हथियार बनाया और भारत के अग्रणी अंतरिक्ष कार्यक्रम की स्थापना की । बहुत से लोगों ने देश के लिए काम किया है और देशभक्ति की इस भावना में योगदान दिया है ।

आजकल हम शायद ही कभी देशभक्ति की बात करते हैं और यह भावना अपरिचित है । हम देशभक्ति का उल्लेख इतिहास की किसी बात के रूप में करते है और जो अब मौजूद नहीं है । हम देशभक्ति की प्रबल भावना के प्रतीक के रूप में सुभाष चंद्र बोस, नाना साहब, जवाहरलाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री और ऐसे अन्य नेताओं के बारे में बात करते हैं लेकिन यह पहचानने में असफल रहते हैं कि मंगल कक्षित्र मिशन (मार्स ऑर्बिटर मिशन) ने भी देश का मान बढ़ाकर वही काम किया है। हम इन हालिया कार्यों को देशभक्ति के रूप में मान्यता नहीं देते हैं। हमारे प्रधानमंत्री द्वारा हमारी बेहतरी के लिए जो भी काम किया जाता है, वह  देशभक्ति है, पर्यटन कंपनियां द्वारा दूसरे देशों में भारत को  बढ़ावा देने वाले विज्ञापनों को दिया जाना देशभक्ति है, और इसी प्रकार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपने देश के लिए किसी खेलना भी देशभक्ति ही है ।

तो अब कोई देशभक्ति के बारे में बात क्यों नहीं करता? मेरा मानना है कि समस्या हम ही में निहित है । जब हम स्नातक होते हैं और एक सुविकसित देश में नौकरी प्राप्त करते हैं, तो हमें सफल और बुद्धिमान के रूप पहचाना जाता है । यदि हम संयुक्त राज्य अमेरिका या ब्रिटेन के किसी विश्वविद्यालय में अध्ययन करें तो इसे और भी बेहतर माना जायेगा। ऐसा क्यों है कि हम तभी सफल होते हैं जब हम किसी विदेशी देश में बसते हैं? यदि भारत में हमारा अरबों रुपयों का व्यवसाय है तो हमें सफल क्यों नहीं माना जा सकता? ऐसा इसलिए क्योंकि हमारे देश में बहुत से युवाओं ने उम्मीद खो दी है। यह वैश्वीकरण में वृद्धि के कारण है जो लोगों को अन्य देशों के बारे में अधिक जानने की अनुमति और अवसर प्रदान करता है । युवा दूसरे देशों के लोगों के वीडियो देखते हैं और उन पर मोहित हो जाते हैं, फिर वे उन देशों में जाने की ख्वाहिश रखते हैं । इसकी वजह यह है कि माता-पिता अपने बच्चों को विदेश में पढ़ाई करनें और दूसरे देशों में काम करने का पहला मौका हथिया लेने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।

स्वतंत्रता सेनानियों और अन्य लोगों ने असाधारण साहस और देशभक्ति दिखाई है, उनकी एक पहचान है और वे सम्मानित हैं क्योंकि उन्होंने अपने देश के लिए अपना सब कुछ दे दिया था। यदि हम अपनी बेहतरी की दिशा में अपना सब कुछ दे दें तो हमारे युवा भी हमारे देश का भविष्य बदल सकते हैं । जब हमारा देश विश्व कप जीतता है या ओलंपिक में पदक जीतता है, तो हमें गर्व की भावना और महसूस होता है कि हम में वास्तव में देशभक्ति की भावनाएं हैं। भारत के समृद्ध इतिहास और उपलब्धियों के बारे में सीखना एक शुरुआत है, और देश की सेवा की उम्मीद में हमारा ऐसा करना आवश्यक है । अंत में, मैं यह कहना चाहूंगी कि देशभक्ति कोई अनुशासन या नियम नहीं है, यह एक ऐसी भावना है जो हर व्यक्ति को अपने देश को बेहतर बनाने के लिए अपना अपना योगदान देने के लिए प्रेरित करती है।

-प्रीशा जैन

[ सपने देखने वाली प्रीशा जैन, दिल्ली में 12वीं कक्षा की छात्रा हैं, जो दुनिया को अपने दिमाग से  एक अंतर्दृष्टि देने की इच्छा रखती हैं। ]

संदर्भ:

बॉमेस्टर, एंड्रिया। "देशभक्ति"। विश्वकोश ब्रिटानिका, 10 जुलाई 2017,
https://www.britannica.com/topic/patriotism-sociology ......

 
 
अनेक नामों वाला पर्व मकर संक्रांति  - गोवर्धन दास बिन्नाणी

आप लोगों में से अधिक लोग जानते होंगे कि 14 जनवरी को मनाया जानेवाला मकर संक्रांति ( कभी-कभी यह एक दिन पहले या बाद में भी मनाया जाता है) एक ऐसा त्योहार है जो भारत के विभिन्न प्रान्तों में, विभिन्न रूपों में, अलग-अलग तरीके से मनाया जाता है यानी किसी भी अन्य पर्व में  इतने अधिक रूप प्रचलित नहीं हैं जितने इस त्योहार को मनाने के हैं। सभी प्रान्तों में मकर संक्रांति वाले दिन उस जगह प्रचलित धार्मिक क्रियाकलाप जैसे जप, तप, दान, स्नान, श्राद्ध, तपर्ण वगैरह ही होता है । कहीं कहीं लोग पतंग भी उड़ाते हैं।

आपके ध्यान्नार्थ छत्तीसगढ़, गोआ, ओड़ीसा, हरियाणा, बिहार, झारखण्ड, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, मणिपुर, राजस्थान, सिक्किम, उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, पश्चिम बंगाल, गुजरात और जम्मू में इसे मकर संक्रान्ति तो कहते ही  हैं लेकिन कुछ प्रान्तों में  इसको इस नाम के अलावा अन्य नाम से भी जाना जाता है जैसे हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, पंजाब में माघी,  तमिलनाडु में ताइ पोंगल / उझवर /तिरुनल, गुजरात, उत्तराखण्ड में उत्तरायण, असम में भोगाली बिहु, कश्मीर घाटी में  शिशुर सेंक्रात, उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बिहार में खिचड़ी,  पश्चिम बंगाल में पौष संक्रान्ति  कर्नाटक में मकर संक्रमण और पंजाब में लोहड़ी। 

अपने देश के अलावा विश्व के अन्य भागों में भी यह मकर संक्रांति का पर्व,  बांग्लादेश में संक्रेन / पौष संक्रान्ति, नेपाल में माघे संक्रान्ति या 'माघी संक्रान्ति' या 'खिचड़ी संक्रान्ति,  थाईलैण्ड में  सोंगकरन,  लाओस में पि मा लाओ, म्यांमार में थिंयान, कम्बोडिया में मोहा संगक्रान एवं श्री लंका में पोंगल, उझवर तिरुनल नामों से, भांति-भांति के रीति-रिवाजों द्वारा भक्ति एवं उत्साह के साथ बड़े ही धूम धाम से मनाया जाता है।

सनातन धर्मानुसार  हर माह के 2 भाग हैं- कृष्ण और शुक्ल पक्ष जो चन्द्र के आधार पर है और ठीक इसी प्रकार सूर्य के आधारानुसार हर वर्ष के भी दो भाग होते जिसे हम उत्तरायन और दक्षिणायन मानते हैं । मकर संक्रांति वाले दिन से धरती का उत्तरी गोलार्द्ध सूर्य की ओर हो जाता है (जिसे हम सोम्यायन भी कह सकते हैं ) जिसके  परिणामस्वरुप सूर्य भगवन उत्तर दिशा से उदय होते हैं। मकर संक्रांति वाले दिन से कर्क संक्रांति के बीच छह माह का जो समय होता है, उसे उत्तरायन कहते हैं जबकि कर्क संक्रांति से मकर संक्रांति वाले दिन तक  छह माह वाले  समय को दक्षिणायन। उत्तरायन देवताओं का दिन यानी देवयान और दक्षिणायन देवताओं की रात्रि यानी पितृयान मानते हैं। इसलिये ही मकर संक्रांति से यानि माघ मास से प्रारम्भ होने वाले उत्तरायन में सभी प्रकार के शुभ कार्य प्रारम्भ हो जाते हैं।

यह ऐतिहासिक तथ्‍य है कि प्रभु श्री कृष्ण ने गीता में उत्तरायन का महत्व समझाते हुए बताया कि इस समय में शरीर का परित्याग करने से व्यक्ति का पुनर्जन्म नहीं होता, ऐसे लोग ब्रह्म को प्राप्त होते हैं यानि देह त्यागने वाले व्यक्ति की आत्मा को मोक्ष मिलती है।  इसी उपदेशानुसार बाणों की शय्या पर पड़े भीष्म पितामह ने मकर संक्रांति वाले दिन ही अपना नश्वर शरीर सूर्य उत्तरायन होने के बाद इच्छामृत्यु वरदानुसार स्वेच्छा से शरीर का परित्याग किया था।

यह भी  ऐतिहासिक तथ्‍य है कि मकर संक्रांति के ही दिन माता गंगा महाराज भगीरथ के पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से गुजरते हुए सागर में समा गयी थी लेकिन उसके पहले माता ने  महाराज भगीरथ द्वारा जो  अपने पूर्वजों के  आत्मा की शांति के लिए तर्पण किया उसे स्वीकार किया था। इसी कारण से मकर संक्रांति पर तर्पण प्रथा है और हर साल मकर संक्रांति पर गंगा सागर में मेला भी लगता है। कुम्भ  के पहले स्नान की शुरुआत भी मकर संक्रांति वाले दिन से होती है।

एक अन्य रोचक ऐतिहासिक तथ्यानुसार मकर संक्रांति के दिन भगवान विष्णु ने मधुकैटभ राक्षस को पराजित कर उसका वध किया फिर  युद्ध समाप्ति की घोषणा करने के पश्चात उसे विशाल मंदार पर्वत के नीचे दबा दिया था। इसलिए इस दिन से भगवान विष्णु मधुसूदन कहलाने लगे।

मौसम विशेषज्ञों के अनुसार मकर संक्रांति के दिन से ही जलाशयों में वाष्पन /  वाष्पीकरण क्रिया शुरू होने लगती है, जिसमें स्नान करने से स्फूर्ति व ऊर्जा का संचार होता है। धार्मिकता  के अलावा  यह भी एक  कारण है कि इस दिन झुण्ड के झुण्ड में लोग पवित्र नदी और जलाशयों में स्नान करने जाते हैं। इसके अलावा इस दिन गुड़ व तिल खाने से शरीर को उष्णता व शक्ति मिलती है और  खिचड़ी खाने से प्रतिरोधात्मक शक्ति भी बढती है। 

उपरोक्त वर्णित तथ्यों से यह स्पष्ट होता है कि मकर संक्रांति वाला पर्व एकता में अनेकता को अति बढ़िया रुप में  प्रदर्शित करता है। इसके अलावा आज के डिजीटलाईजेशन के समय में होली,दीपावली वगैरह त्यौहारों की तरह मकर संक्रांति त्यौहार से सम्बन्धित ज्ञानवर्धक, प्रेरणादायी, आकर्षक बधाई सन्देश कार्ड द्वारा , ईमेल एवं वॉट्सऐप के माध्यम से आदान प्रदान कर इस त्यौहार को बहुत ही प्रभावी भी बनाता है। 

- गोवर्धन दास बिन्नाणी "राजा बाबू"
  जय नारायण ब्यास कालोनी......

 
 
भारतीय शिक्षा प्रणाली में भारतीय ज्ञान परम्परा की अनिवार्यता - प्रो. सरोज शर्मा

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पुतिन- ‘अग्नि दीक्षा’ से ‘अग्नि परीक्षा’ तक - डॉ कुमार कौस्तुभ

सोवियत युग के प्रमुख उपन्यास ‘अग्नि दीक्षा’ (How The Steel Was Tempered, अनुवाद- अमृत राय) की भूमिका में एन वेन्ग्रोव लिखते हैं-“ ‘अग्नि दीक्षा’ नये मानव के जन्म की कहानी है, समाजवादी युग के उस नये मनुष्य की, जो मानवता के सुख के लिए होनेवाले संघर्ष में सब कुछ करने की योग्यता अपने अंदर दिखलाता है, जो बड़े-बड़े काम अपने सामने रखता है और उन्हें पूरा करके दिखलाता है” (पृ. 20, 1981) । ये पंक्तियां कहीं-न-कहीं रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन पर माकूल बैठती हैं, जो सोवियत युग में ही पैदा हुये (1952), जिन्होंने सोवियत शासन को अपने उरूज पर देखा, सोवियत खुफिया सेवा केजीबी में नौकरी भी की (1975-1990), सोवियत संघ का विघटन (1991) भी देखा और 1996 से रूसी राजनीति और प्रशासन में सक्रिय रहते हुए न सिर्फ सत्ता के शिखर तक पहुंचे बल्कि रूस में सबसे ज्यादा लंबे समय तक शीर्ष पदों पर रहने का रिकॉर्ड भी कायम कर सकते हैं। पुतिन को जहां सोवियत रूस के विघटन के बाद बने रशियन फेडरेशन को कंगाली और खस्ताहाली से उबारकर नये सिरे से खड़ा करने का श्रेय जाता है, वहीं अपनी सख्त और आक्रामक नीतियों के कारण उन पर तानाशाही के भी आरोप लगते रहे। खासतौर से 2022 में 24 फरवरी के बाद से यूक्रेन पर रूसी हमलों को लेकर पुतिन की चौतरफा आलोचना शुरु हो गई।

प्रश्न यह है कि क्या सोवियत शासन के उत्तरार्द्ध में और उसके बाद ‘अग्नि दीक्षा’ के जरिए मुश्किल हालात के बीच तप कर खरे सोने की तरह ताकतवर नेता के रूप में उभरे और शासन पर काबिज हुये पुतिन के लिए अपनी सत्ता पर पकड़ मजबूत बनाये रखने के लिए अब अग्नि परीक्षा की घड़ी आ गई है? भले ही पुतिन ने 6 अप्रैल 2021 को एक नए कानून पर हस्ताक्षर किये जिसके बाद उनके 2036 तक रूस की सत्ता में बने रहने का रास्ता साफ हो गया। 2 बार प्रधानमंत्री और 3 बार राष्ट्रपति रह चुके पुतिन 2018 में एक बार फिर 6 साल के लिए राष्ट्रपति चुने गये। उनका यह कार्यकाल 2024 में खत्म हो रहा है, लेकिन नये कानून के तहत उनके पास 6-6 साल के दो कार्यकाल और होंगे (आजतक डॉटकॉम, अप्रैल 6, 2021) लेकिन, उससे पहले यूक्रेन में छिड़ी लड़ाई ने यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या पुतिन रूस में सर्वाधिक समय तक सत्ता पर कब्जे का रिकॉर्ड कायम कर सकेंगे या उन्हें बेआबरू होकर कूचे से निकलना पड़ेगा। अपने अगले चुनाव से पहले यूक्रेन संकट के कारण पुतिन बहुत-ही कठिन परिस्थिति से गुजर रहे हैं। यूक्रेन पर हमले के लिए जहां एक ओर उन्हें अमेरिका और यूरोप समेत लगभग सारे देशों का विरोध झेलना पड़ रहा , तो वहीं दूसरी ओर साम्यवादी शासन से लोकतंत्र बने उनके अपने देश रूस में भी उनके खिलाफ माहौल बनने लगा है और उनकी कार्रवाई के विरुद्ध आवाजें उठने लगी हैं।

अमेरिका और नाटो ने भले ही लहूलुहान यूक्रेन का साथ देने के लिए हथियार उठाने से परहेज किया, परंतु, तरह-तरह की पाबंदियां लगाकर उन्होंने अंतरराष्ट्रीय फलक पर रूस को अलग-थलग करने की कार्रवाई जरूर शुरु कर दी। पहले अमेरिका और यूरोपीय देशों ने रूसी बैंकों और अरबपतियों के कारोबार पर रोक लगाई। इसके बाद, राष्ट्रपति पुतिन, विदेश मंत्री लावरोव और उनके रक्षा मंत्री से जुड़ी संपत्तियों को फ्रीज करने का एलान हुआ। जर्मनी ने रूस गैस पाइपलाइन से हाथ खींच लिया। फिर, रूसी विमानों के लिए एयरस्पेस बंद करने का कदम उठाया गया। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भुगतान और लेनदेन की व्यवस्था SWIFT से भी रूस को हटाने की मांग उठी। इस बीच, खेलों के अंतरराष्ट्रीय संगठनों से रूस को निकाल बाहर किया गया। अंतराराष्ट्रीय ओलंपिक संघ, फुटबॉल और जूडो से जुड़े संगठनों ने रूस से किनारा कर लिया। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद और संयुक्त राष्ट्र महासभा में भले ही रूस के वीटो के कारण उसके खिलाफ प्रस्तावों को कामयाबी न मिले, लेकिन, अमेरिका और यूरोप की रूस-विरोधी लॉबी ने कूटनीतिक स्तर पर पुतिन के लिए मुश्किलें जरूर बढ़ा दीं।

इस दरम्यान, यूक्रेन पर रूस के हमलों में कमी नहीं आई और यूक्रेन यूरोपीय संघ, नाटो से सदस्यता की गुहार लगाता ही रह गया। यही वो पेंच है जिसको लेकर यूक्रेन पर रूस आगबबूला है और हमले पर हमले करता जा रहा है। रूस नहीं चाहता कि यूक्रेन नाटो का सदस्य बने। रूस के राष्ट्रपति पुतिन कह चुके हैं कि यह रूस की संप्रभुता और सुरक्षा पर खतरा होगा। पुतिन कह चुके हैं कि यूक्रेन को तटस्थ देश रहना चाहिए। लेकिन, यूक्रेन नाटो और अमेरिका के खेमे में जाने के लिए आतुर है। यूक्रेन नहीं चाहता कि उसे रूस के दबदबे को सहना पड़े। वहीं, विडंबना यह भी है कि वह नाटो और अमेरिका की कठपुतली बनने के लिए तैयार है। विदित हो कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद सोवियत संघ को रोकने के लिए अमेरिका और यूरोपीय देशों ने नाटो सैन्य संगठन बनाया था (भास्कर डॉटकॉम, 28 फरवरी 2022)। अब सोवियत रूस नहीं रहा, लेकिन रूस तो है, तो कहीं न कहीं अमेरिका और सदस्य देश चाहते हैं कि क्षेत्रीय स्तर पर उसका दबदबा न बन सके जिसकी आहट 2014 में यूक्रेन से क्रीमिया के अलग होकर रशियन फेडरेशन से जुड़ने पर ही मिलने लगी थी। 2022 में यूक्रेन के साथ तनाव बढ़ने पर पूर्वी यूक्रेन के दो क्षेत्रों दनिएत्स्क और लुगांस्क को रूस की ओर से स्वतंत्र देश की मान्यता देने के काम ने आग में घी का काम किया। फिर भी, युद्ध सरीखे आक्रामक हमलों की पहल यूक्रेन या अमेरिका समर्थित नाटो की ओर से नहीं हुई, बल्कि रूस की ओर से ही हुई। रूसी सुरक्षा परिषद ने 22-23 फरवरी 2022 को दोनों क्षेत्रों में रूसी सैन्य कार्रवाई को मंजूरी दे दी जिसके बाद रूस ने हमले शुरु कर दिये।

सवाल यह है कि क्या रूस ने यूक्रेन पर हमला करने में जल्दबाजी की? क्या रूस को प्रतीक्षा करनी चाहिए थी? क्या रूस को इस बात का डर था कि अगर समय दिया गया को यूक्रेन की ओर से कड़ी कार्रवाई हो सकती थी? क्या रूस ने अपनी ताकत की नुमाइश करने के लिए पहले हमला करने का खतरनाक कदम उठा लिया? इन प्रश्नों के सही-सही उत्तर तो रूस की सरकार और वहां के नुमाइंदे ही दे सकते हैं। लेकिन, आमतौर पर यह माना जा सकता है कि रूस को यूक्रेन से तत्काल कोई खतरा नहीं था। यूक्रेन के राष्ट्रपति की अपीलों के बावजूद अमेरिका और नाटो बेहद सुस्त रुख अपनाये हुये थे। रूस चाहता तो इंतजार कर सकता था और जरूरत पड़ने पर आत्मरक्षा की कार्रवाई कर सकता था। दनिएत्स्क और लुगांस्क को मान्यता देने के बाद भी रूस के पास यूक्रेन की ओर से होनेवाली संभावित कार्रवाई का जवाब देने के लिए पर्याप्त समय था। लेकिन, रूस ने गेंद उनके पाले में फेंककर देखने के बजाय आश्चर्यजनक रूप से पहले हमले का कदम उठा लिया जिसका नतीजा बेहद खौफनाक रहा। अमेरिका और नाटो के सुस्त या संयमित रवैये का खामियाजा यूक्रेन को बुरी तरह से भुगतना पड़ा। वहीं, रूस के सामने यह स्थिति पैदा हो गई कि अपनी तरफ से युद्ध छेड़कर आग के दरिया में पांव डाल चुका तो निकाले कैसे? और सवाल यह भी है कि बेकाबू हो रही स्थिति से अमेरिका और मित्र देशों को क्या फायदा होगा?

विदेशी मामलों के जानकार प्रकाश के. रे का मानना है कि मौजूदा संकट से अमेरिका को यह लाभ होगा कि उसके साये और प्रभाव से निकलता जा रहा यूरोप फिर उसके पीछे आएगा। वहीं, रूस के लिए फायदे की बात यह है कि ग्लोबल साउथ और यूरेशिया में उसके संबंध गहरे होंगे। जबकि ग्लोबल साउथ के देश शीत युद्ध 2.0 और मल्टीपोलर वर्ल्ड में अधिक मोल-तोल करने की स्थिति में होंगे (फेसबुक, 2 मार्च 2022)।

रूस-यूक्रेन युद्ध के दूरगामी फायदे-नुकसान जो भी हों, लेकिन, तत्काल तो दुनिया परेशान हो ही गई। माना जाता है कि रूस के पास 600 अरब डॉलर से ज्यादा का विदेशी मुद्रा भंडार है। लेकिन, जब चंद देशों को छोड़कर बाकी देश उससे संबंध तोड़ने पर आमादा हैं, तो पुतिन भला अपना देश कब तक और कैसे चला सकेंगे? दुनियाभर में अलग-थलग पड़े उत्तर कोरिया की स्थिति किसी से छुपी नहीं है। पुतिन के लिए निश्चित रूप से यह अग्निपरीक्षा की घड़ी है। रूस के पास अकूत प्राकृतिक संसाधन हैं, लेकिन जब उनका खरीदार ही नहीं रहेगा, तो मुश्किलें बढ़ेंगी ही। वहीं, ऐसा नहीं है कि सिर्फ रूस को नुकसान होगा, दिक्कत तो यूरोप को भी होगी, दबाव उस पर भी बढ़ रहा है। गैस की कीमतों में इजाफे से इंकार नहीं किया जा सकता। रूस और यूक्रेन से गेहूं का भी बड़ा निर्यात होता है, तो जो देश उन पर निर्भर हैं, उनके लिए भी समस्या होगी। भू-राजनैतिक स्थितियां जो भी हों, आर्थिक और व्यापारिक मसलों पर एक-दूसरे पर बन चुकी निर्भरता को झटके में नहीं खत्म किया जा सकता। यह बात चीन के मामले में भी देखी जा चुकी है। बहरहाल, विश्व राजनीति के इन बड़े खिलाड़ियों की तनातनी का शिकार तो दुनिया की सबसे छोटी इकाई यानी आम लोग ही होते हैं। सबसे बड़ा सवाल यही है कि आपसी द्वंद्व में उलझी दुनिया यह क्यों नहीं सोचती कि जिस मानवता की दुहाई सारे बड़े नेता देते हैं, उसको आखिर इस लड़ाई में कैसे बचाया जाये?

-डॉ कुमार कौस्तुभ
 ईमेल संपर्क- kumar.kaustubh@gmail.com......

 
 
मौन के क्षण | बातें देश-विदेश की - विनीता तिवारी

1997 में जब अमेरिका आई तो कुछ वर्ष घर की ज़िम्मेदारियों को सम्भालने और कुछ यहाँ के हिसाब से जीवन शैली को व्यवस्थित करने में निकल गये। फिर बच्चों एवं परिवार को प्राथमिकता देते हुए बैंक में पार्ट टाइम काम करना शुरू किया। जब बच्चे स्कूल जाने लगे तो सोचा कि बैंक की नौकरी छोड़कर विद्यालय में ही नौकरी कर ली जाए ताकि बच्चों के साथ सर्दी-गर्मी की छुट्टियों का आनंद उठाया जा सके और उन्हें इधर उधर डे केयर में भी नहीं छोड़ना पड़े। बात जब दिमाग़ में बैठ गई तो कुछ दिनों पश्चात् उसका क्रियान्वयन भी हो गया। चंद परीक्षाओं एवं साक्षात्कारों से सफलतापूर्वक गुजरने के बाद एक उच्च-माध्यमिक विद्यालय में पर्मानैंट सब्स्टिट्यूट टीचर की नौकरी सुनिश्चित हुई।

अमेरिका के इस उच्च माध्यमिक विद्यालय का समय था सुबह 9:15 से शाम 4:03 बजे तक। मेरी दृष्टि से किसी भी विषय की पढ़ाई में तन्मयता से जुटे रहने के लिए ज़रूरत से ज़्यादा लम्बा समय। मेरे समय में भारत के सरकारी विद्यालय सात से साढ़े बारह या साढ़े बारह से छह बजे तक की पारी में चला करते थे। ख़ैर, इस बात की मुझे ख़ुशी भी थी कि मुझे स्कूल में बहुत ज़्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी तो दूसरी तरफ़ दुख भी था कि कितने ही विषयों से मेरी जानकारी पूरी तरह अछूती रही।

विद्यालय में पहले दिन जाकर पता चला कि अमेरिका के सरकारी स्कूलों में दिन की शुरुआत किसी क्रिश्चियन भजन, गीत या प्रार्थना से नहीं होती बल्कि सिर्फ़ “मौन के कुछ क्षणों” या कहिए “Moments of silence” से होती है।

मौन के इन क्षणों में आप जिसका ध्यान, चिंतन-मनन करना चाहें कर सकते हैं। विद्यालय के सभी कर्मचारी और विद्यार्थी इन क्षणों में शान्ति से बिना एक दूसरे पर ध्यान दिए अपने अपने इष्ट का सामूहिक रूप से ध्यान कर वातावरण को सकारात्मक ऊर्जा से भर देते हैं। मौन के इन क्षणों में कोई भगवान को अपने ख़ूबसूरत जीवन के लिए धन्यवाद प्रेषित कर रहा होता है तो कोई अपने दिन की अच्छी शुरुआत के लिए प्रार्थना। सम्भव है कुछ अपनी परेशानियों के लिए ईश्वर से झगड़ भी रहे हों लेकिन जो भी हो अमेरिका के सरकारी स्कूलों का धर्म निरपेक्ष और सभी धर्मों के प्रति समान आदर भाव का यह तरीक़ा मुझे बेहद पसंद आया।

दूसरी बात जो आप सबको शायद अजीब सी लगे वो ये कि यहाँ प्राइमरी से लेकर हाई स्कूल तक, विद्यार्थियों की कोई यूनिफ़ॉर्म राज्य सरकार द्वारा निर्धारित नहीं की गई है। मतलब ये कि आपकी जो इच्छा हो आप वो पहन कर स्कूल आ सकते हैं। हाँ, अगर आपकी वेशभूषा बिलकुल ही सामाजिक दायरों के बाहर है तो आपको अलग से बुलाकर सचेत किया जा सकता है मगर आपको किसी नियत तरह के परिधान में आने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। इसका परिणाम यह है कि मैं स्कूल में टरबन पहने सिख बच्चों को भी देखती हूँ तो हिजाब या कभी कभी अबाया पहने मुस्लिम बच्चियों को भी। फटी जींस में आ रही लड़कियों को भी देखती हूँ तो लम्बे, घुंघराले बालों में हेयर बैंड या टोपी लगाए लड़कों को भी। ये कहना ग़लत नहीं होगा कि अमेरिका में फ़ैशन काफ़ी हद तक माध्यमिक, उच्च-माध्यमिक विद्यालय के विद्यार्थियों को ध्यान में रखकर ही तय होता है।

हालाँकि विद्यालयों में यूनिफ़ॉर्म नहीं होने की बहुत सी समस्याएँ भी हैं लेकिन हाल ही में भारत में यूनिफ़ॉर्म को लेकर हुई वारदातों को देखकर लगता है कि अमेरिका जैसे विशाल बहुसांस्कृतिक, बहुधर्मी और विविधताओं से भरे देश में स्कूल यूनिफ़ॉर्म का ना होना ही शायद बेहतर विकल्प है।
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रो वी वेड | बातें देश-विदेश की - विनीता तिवारी

कुछ सप्ताह पूर्व का शुक्रवार, 24 जून 2022, यूनाइटेड स्टेट्स ऑव अमेरिका के इतिहास में दर्ज होने वाली एक महत्वपूर्ण तारीख़!! ये वो दिन है जब दुनिया के महाशक्तिशाली देश अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने यहाँ की महिलाओं से गर्भपात का संवैधानिक अधिकार यह कहकर छीन लिया कि इस बारे में यहाँ का संविधान साफ़ साफ़ कुछ नहीं कहता। बात सही भी है 1787 मैं लिखे गए इस महत्वपूर्ण दस्तावेज़ में गर्भपात ही नहीं, बल्कि बहुत से आधुनिक विषयों पर कुछ नहीं लिखा गया होगा। लेकिन ध्यान देने वाली बात ये है कि पिछले पाँच दशकों से ये अधिकार अमरीकी महिलाओं को बाइज़्ज़त मिला हुआ था और इसे 24 जून 2022 को अचानक से उलट दिया गया। नहीं, नहीं, अचानक से नहीं, बहुत सालों की मेहनत मशक़्क़त का परिणाम है ये नया निर्माण। ये सब कैसे हुआ इसकी जानकारी के लिए चलिए थोड़ा पीछे चलते हैं।

आज से तक़रीबन पचास साल पुरानी बात है जब 1969 में जेन रो नामक टैक्सास में रहने वाली महिला ने, अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट में, डिस्ट्रिक्ट अटोर्नी हेनरी वेड के ख़िलाफ़ ये कहकर मुक़दमा दायर किया (Roe v. Wade) कि टैक्सास राज्य में गर्भपात नहीं होने देने का क़ानून असंवैधानिक है। उस समय सुप्रीम कोर्ट के 9 में से 7 जजों ने जेन रो के पक्ष में निर्णय लिया और 22 जनवरी 1973 को, गर्भपात महिलाओं का संवैधानिक अधिकार निर्धारित हुआ। साफ़ दिखाई देता है कि 1973 में रहे सुप्रीम कोर्ट के जज, महिलाओं के अधिकारों के प्रति 2022 से ज़्यादा सजग थे। तो क्या ये मान लिया जाए कि अमेरिका रूढ़िवादिता और लैंगिक असमानता की तरफ़ बढ़ रहा है? हो भी सकता है और नहीं भी। इस पूरे प्रकरण को समझने के लिए फिर से कुछ बिंदुओं की तरफ़ ध्यान देना होगा।

पहला बिन्दु यह कि अमेरिका में गर्भपात का मुद्दा भारत के बेटी बचाओ अभियान की तरह नहीं है। यहाँ गर्भपात बेटों की चाहत और बेटियों को बोझ समझकर नहीं होते बल्कि ये लड़ाई प्रो लाइफ़ और प्रो चोइस वालों के बीच की है, मतलब कि माँ के गर्भ में पल रहे बच्चे की ज़िंदगी का अधिकार वर्सेज़ महिलाओं का मातृत्व को चुनने या नहीं चुनने की स्वतंत्रता का अधिकार। 1973 से लेकर 2022 तक यानी कि पिछले सप्ताह तक प्रो लाइफ़ वाले किसी न किसी रूप में अपना आक्रोश दिखाने और अपनी बातें मनवाने की कोशिश में लगातार प्रयासरत थे। इसके लिए आवश्यकता सिर्फ़ इस बात की थी कि सुप्रीम कोर्ट के 9 में से कम से कम 5 जज ऐसे हों जो प्रो लाइफ़ या बहुत हद तक कहिए कि धार्मिक या रूढ़िवादी मानसिकता के पक्षधर हो। राष्ट्रपति ट्रम्प के शासन काल में इस आवश्यकता की पूर्ति होने के साथ ही प्रो चोइस वालों के सिर पर इस क़ानून के रद्द होने का ख़तरा मंडराने लगा और वैसा ही हुआ भी।

इस मामले का दूसरा बिन्दु ये है कि सुप्रीम कोर्ट के गर्भपात को असंवैधानिक बताने या संवैधानिक अधिकार नहीं देने का मतलब यह कदापि नहीं कि पूरे देश में गर्भपात को क़ानूनन अपराध घोषित कर दिया गया है। इसका मतलब सिर्फ़ यह है कि 1973 से पहले की तरह एक बार फिर से ये निर्णय अमेरिका के राज्यों पर छोड़ दिया गया है। अब हर राज्य अपनी जनता के बहुमत के हिसाब से गर्भपात पर क़ानून बना सकता है और वह क़ानून उस राज्य में ही सीमित और मान्य होगा। ज़ाहिर है कि अमेरिका के कुल 50 राज्यों में से कुछ राज्य जहाँ प्रो चोइस वालों की बहुलता है और डेमोक्रेटिक पार्टी का शासन है वहाँ गर्भपात को पूर्णरूपेण महिलाओं के अधिकारों में शामिल किया जाएगा और उसी हिसाब से सुविधाएँ उपलब्ध करायी जाएँगी। दूसरी तरफ़ जहाँ प्रो लाइफ़ वालों की बहुलता और रिपब्लिकन पार्टी का दबदबा है वहाँ बहुत सम्भव है कि गर्भपात को एक अपराध के रूप में देखा जाए और गर्भपात की सभी मेडिकल सुविधाएँ बंद कर दी जाएँ। हाँ, कुछ राज्य ऐसे भी रहेंगे जहाँ दोनो तरह की मान्यताओं वाले बराबर सी मात्रा में रहते हैं वहाँ पार्टी कोई भी हो, जनता को ख़ुश करने के लिए कुछ परिस्थितियों में गर्भपात जायज़ और कुछ में नाजायज़ क़रार दिया जाएगा। भैया, अगली बार के चुनाव में जीतना भी तो है।

अब तीसरा बिन्दु इस सवाल पर अटका है कि क्या ये नया क़ानून फिर से उलट कर सीधा नहीं किया जा सकता? क्यों नहीं? भाई, देश में लोकतंत्र है, तानाशाही नहीं। इस देश की जनता अगर चाहे तो एक बार फिर से रो वी वेड को उलट कर सीधा कर सकती है। ज़रूरत है उन्हीं हालातों को फिर से पैदा करने की जिसमें 9 में से कम से कम 5 जज, महिलाओं एवं लैंगिक समानता के अधिकारों के प्रति जागरूक और धर्म को राजनीति से अलग रखने के पक्षधर हों। ये सब कैसे होना चाहिए और कैसे हो सकता है ये सभी को मालूम है।

-विनीता तिवारी, अमेरिका


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प्रवासियों की व्यथा-कथा  - विनीता तिवारी

बातें देश-विदेश की

विदेशों में बसी पहली प्रवासी भारतीय पीढ़ी का न बिसरने वाला देश प्रेम उसे ता उम्र देश और विदेश के बीच त्रिशंकु सा लटकाए रखता है।

देश से बाहर विदेशों में जाने और घूमने फिरने का मन तो वैसे किसका नहीं करता मगर वहाँ जाकर पूरी तरह बस जाने के लिए काफ़ी दिमाग़ी जद्दोजहद से गुज़रना पडता है। शुरूआती दिनों में ज़्यादातर सभी प्रवासियों के दिमाग़ में पैसा कमाकर वापिस देश लौट जाने का विचार बना रहता है। माता-पिता, भाई- बहनों का विछौह दूर बैठे प्रवासी भारतीयों को शुरू शुरू मे कुछ ज़्यादा ही खलता है। अपनी भाषा, अपने वार-त्यौहार और अपने पहरान-उढान भी जब-तब दिल पर दस्तक देते रहते हैं। और सबसे ज़्यादा तो देश में आसानी से मिलने वाली लेबर, यानि कि कामवाले, कामवालियों की कमी रह-रह कर विदेश में अखरती रहती है। क्यों न हो भई, पश्चिमी देशों में सारा का सारा काम जब ख़ुद को करना पड़ता है तो कामवालियों की याद में रो रो के रुमाल भीग ही जाता है।

ख़ैर, इन उपरोक्त प्रवासी भारतीयों में अधिकांशत: 25 से 40 की उम्र वाले वे शिक्षित प्रोफेशनल्स होते हैं जो अच्छी नौकरी एवं अच्छी तनख़्वाह पर बाहर की कम्पनियों द्वारा पश्चिमी देशों में बुलाए जाते हैं। इन देशों में आते ही सामान्य सुख सुविधाओं के लिए इन प्रवासियों को ज़्यादा मेहनत मशक़्क़त नहीं करनी पड़ती। साथ ही इंटरनेशनल तज़ुर्बा उन्हें भारत वापिस लौटकर भी बेहतर नौकरी एवं आला भविष्य की उम्मीद दिलाए रहता है। लेकिन फिर भी न जाने क्यूँ इनमें से बहुत ही कम ऐसे प्रवासी भारतीय होते हैं जो कि सिर्फ़ चंद वर्ष बाहर विदेशों में रहकर और थोड़ा-बहुत पैसा इकट्ठा करके स्वेच्छा से देश लौटने की हिम्मत जुटा पाते हैं।

कारण ये है कि अगर वे नवविवाहित दम्पत्ति का स्टेटस लेकर आए होते हैं तो इन अगले चंद वर्षों में वे नये आने वाले मेहमानों के आगमन में व्यस्त हो जाते हैं और इन नन्हें मुन्ने मेहमानों को मिलने वाली विदेशी नागरिकता का लालच माँ बाप को वहीं विदेशों में रोके रखता है। जो परिवार भारत से ही अपने छोटे बच्चे साथ लेकर विदेशों में आए होते हैं, उनके बच्चे यहाँ आकर स्कूल/कॉलेज जाना शुरू कर देते हैं, तो अच्छी शिक्षा व्यवस्था और बच्चों का बेहतर भविष्य भारतीय माता पिता की वापसी में आड़े आने लगता है। कुछ जो अविवाहित या प्रोढ अवस्था में आए होते हैं, उनको लगता है कि अब आ ही गये हैं तो कम से कम ग्रीनकार्ड, सिटीज़नशिप होने तक तो रूकना ही चाहिए कि कल को अगर फिर से आने का मन हो तो वीज़ा मिलने न मिलने की अनिश्चितता से न गुज़रना पड़े। किसी को यहाँ उपलब्ध उच्च शिक्षा की सम्भावनाएँ रोक लेती हैं तो किसी को व्यवसाय करने की सरलता और भरपूरता। फिर इस तरह एक के बाद एक आने वाले जीवन के पड़ावों के साथ धूमिल होता जाता है देश वापिस लौटने का विचार।

अगर कुछ एक प्रतिशत किसी न किसी वजह से भारत वापिस लौटते भी है तो उनकी पुन: विदेश लौट आने की संभावना बराबर बनी रहती है।

पिछले 25 वर्षों के दौरान मेरे अपने जान पहचान के दायरे मे मैंने कुल 3-4 ही परिवारों को वापिस देश लौटते देखा है जिनमें से दो परिवार अपनी पक्की धारणा बनाकर जाने के बावजूद किसी न किसी परिस्थिति के तहत वापिस अमेरिका लौट आए। एक परिवार को भारत में नौकरी और व्यवसाय करने के कठिन एवं भिन्न तरीक़ों ने परेशान कर दिया तो दूसरे परिवार को उनके बच्चो के वापिस यहीं आकर उच्च शिक्षा प्राप्त करने के फ़ैसलें ने। वजह जो भी हो मगर प्रवासी भारतीयों की यह उथल-पुथल और अनिश्चितता वाली ज़िंदगी कभी-कभी सालों-साल तक यूं ही चलती रहती है। और साथ में चलती रहती है देश से विदेश और विदेश से देश की न ख़त्म होने वाली तुलना एवं इस तुलना से जुड़ी चुनावी सम्भावनाएँ। असल में यही तुलनात्मक दृष्टिकोण और चुनने का विकल्प बहुत से प्रवासियों की आजीवन असंतुष्टता का कारण बना रहता है।

विनीता तिवारी
वर्जीनिया, अमेरिका

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वाल्मीकी समाज के आराध्य देव वीर गोगा जी महाराज सामाजिक समरसता की मशाल - डॉ. बालाराम परमार 'हंसमुख'

वाल्मीकी समाज के आराध्य देव वीर गोगा जी महाराज सामाजिक समरसता की मशाल

आश्चर्य किंतु सत्य है कि इक्कीसवीं शताब्दी में पढ़े लिखे लोग संत और ऋषि, योद्धा और महापुरुष और यहाँ तक कि भगवान को भी जातियों में बाँटकर अपने को उच्च समाज का बतलाते हुए नहीं थकते हैं! अपने ही धर्म के दूसरी जाति या समाज का व्यक्ति उनके मंदिर में जाकर पूजा अर्चना करना तो दूर, प्रवेश भी नहीं कर सकता!भारत में आज भी अनेक ऐसे मंदिर, मस्जिद और चर्च हैं, जहां उसी धर्म या जाति या समाज के लोगों को पूजा अर्चना करने की पाबंदी है। यहां तक की मृत शरीर का अंतिम संस्कार के लिए भी हिंदुओं में शमशान और मुस्लमान व क्रिश्चियन में क़ब्रिस्तान भी बंटे हुए हैं!!

इतनी ज्यादा ऊंच-नीच, छुआ छूत, भेदभाव और विषम परिस्थितियों के बाद भी वीर गोगा जी महाराज, जिनका वर्ण व्यवस्था के आधार पर संबंध क्षत्रिय चौहान राजपूत वंश से है, को हिंदू समाज की वर्ण व्यवस्था के हिसाब से सबसे अंतिम पायदान पर माने जाने वाले वाल्मीकि समाज द्वारा आराध्य देव के रूप में निर्मल मन से स्वीकार करना और उनकी पवित्र छड़ी को स्थापित कर एक महीने तक शुद्ध अंत:मन से पूजा - अर्चना करना वास्तव में अद्भुत सुखद की अनुभूति है और 'अनेकता में एकता भारतीय संस्कृति व सभ्यता की अप्रतिम विशेषता'; कहावत को सही साबित करता है। सामाजिक समरसता की जीती जागती मशाल और मिशाल है।

वीर गोगा जी महाराज एक ऐसे लोक देवता हैं जिनको हिंदू के अलावा इस्लाम और सिख धर्म के मतावलंबी भी अपना आराध्य देव मानते हैं। विश्व में कहीं भी मुसलमान द्वारा हिन्दू देवी देवताओं की पूजा अर्चना करने का प्रमाण नहीं मिलता है लेकिन हमारे देश में कायमखानी मुसलमान समाज एक ऐसा समाज है जो वीर गोगा जी की 'जाहर पीर' के रूप में पूजा अर्चना करता है। जाहर पीर का शाब्दिक अर्थ है तत्काल हर कहीं प्रकट होने वाला। यह संज्ञा महमूद गजनवी ने उनसे युद्ध करते समय दी थी। कहा जाता है कि जब वीर गोगा देव जी का युद्ध महमूद गजनवी के साथ हो रहा था, तब गजनवी ने देखा कि गोगाजी युद्ध में हर कहीं दिखाई देते हैं और अपनी सेना का नेतृत्व बखूबी करते हैं। उनकी तत्परता और वीरता को देखते हुए उन्हें 'जाहर पीर'की उपाधि से नवाजा गया था।

वीर गोगा जी का जन्म ददरेवा ( दत्तखेड़ा ) वर्तमान जिला चुरु, राजस्थान में 10 वीं सदी के अंत या 11 वीं सदी के प्रारंभ में चौहान वंश के राजा जैबर सिंह के यहां हुआ था। उनकी माता का नाम बाछल कवर था और वे सरसापट्टम की राजकुमारी थी।पत्नी का नाम 'कैमल दे' था और वे कोलूमंड की राजकुमारी थी। मान्यता है कि गुरु गोरखनाथ ने रानी बाछल कवर को कई वर्षों तक संतान प्राप्ति नहीं होने पर उनके आश्रम "नौलाब बाग" में जाकर संतान प्राप्ति हेतु उपाय बताने की याचना करने पर अभिमंत्रित गुग्गल फल खाने को देते हुए वरदान दिया था कि आपको पुत्र की प्राप्ति होगी और वह महान राजा की ख्याति प्राप्त करेगा। यहां यह बताना प्रासंगिक होगा कि वीर गोगाजी पृथ्वीराज चौहान के बाद इस वंश के महान योद्धा थे और उन्होंने अपने राज्य का विस्तार सतलुज से लेकर चिनाव नदी तक किया था। वीर गोगा जी को कई उपनाम से भी पुकारा जाता है, जैसे- गोगाजी, गुग्गा वीर, बागड के पीर, जाहर वीर, जाहर पीर और राजा मंडलीक। गोगा जी की जन्म भूमि पर आज भी अस्तबल है, जहां सैकड़ों वर्ष बाद भी उनके घोड़े की रकाब विद्यमान है।

विदित है कि वीर गोगाजी, गुरु गोरखनाथ के परम शिष्य थे और माता द्वारा गुग्गल फल खाने के पश्चात ही उनका जन्म हुआ था। इसी कारण उनका नाम गोगा देव रखा गया था। जब जाहर वीर की आठवीं पीढ़ी ने मुस्लिम आक्रांताओं से त्रस्त हो कर इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया था,तभी से उनके वंशज "कासिम खानी मुसलमान"कहलाने लगे और इनका निवास स्थान फतेहपुर सीकरी के आस पास माना जाता है ।

गोगाजी का अपने मौसेरे भाई अर्जुन और सुरजन चौहान के साथ कुछ इलाके को लेकर मतभेद था ।अर्जुन और सूरजन गोगाजी के विरुद्ध युद्ध करने के लिए तुर्क आक्रांताओं से मदद मांगी । तुर्कों ने गोगाजी की गाएं की घेर लिया। जिसके प्रतिरोध में वीर गोगा जी ने तुर्क आक्रमण से युद्ध किया था। वीर गोगा जी का युद्ध में यहां शीश कटा उस स्थान को *शीशमढ़ी* जो वर्तमान में चुरु जिले के ददरेवा में स्थित है तथा उनके वीरगति प्राप्त होने के स्थान को *धूरमेडी* या *गोगामेडी* कहते हैं । यह स्थान नोहर हनुमानगढ़ में गोगाजी महाराज के जन्म स्थान से 80 कि.मी.दूर स्थित है। हनुमानगढ़ के गोगा वीर मंदिर का निर्माण बीकानेर के महाराजा गंगा सिंह ने करवाया था। इस मंदिर के दरवाजे पर #बिस्मिल्लाह# लिखा है। जिसका अर्थ होता है 'अल्लाह के नाम से' या 'ईश्वर के नाम से'।

कायमखानी मुसलमान जाहर पीर की इस स्थान पर वर्ष में 11 महीने पूजा अर्चना करते हैं और शेष 1 महीना हिंदुओं के लिए पूजा अर्चना के लिए छोड़ दिया जाता है। जालौर जिले के किलोरियों की ढाणी में भी गोगा जी महाराज की ओल्डी नामक स्थान पर गोगाजी का एक मंदिर और है। वीर गोगा जी की राजस्थान में इतनी ज्यादा मान्यता है कि किसान वर्षा के बाद खेत में हल जोतने से पहले गोगाजी के नाम की राखी 'गोगाराखड़ी' हल और हाली ( मजदूरी पर खेती किसानी करने वाला) दोनों को बांधते हैं। गोगाजी के 'थान'(ओटला या चबूतरा) खेजड़ी वृक्ष के नीचे होता है। जहां एक पत्थर पर सर्प की आकृति अंकित होती है । 'गांव गांव में गोगो ने गांव-गांव में खेजड़ी' की लोकोक्ति प्रचलित है। लोक मान्यता एवं लोक कथाओं के अनुसार गोगाजी को सांपों और गायों के देवता के रूप में पूजा जाता है। गोगा देव महाराज बच्चों के जीवन की रक्षा करते हैं। जब छड़ी यात्रा निकलती है तो श्रद्धालु 'दुखियों का सहारा गोगा वीर' जयकारा लगाते हुए आगे बढ़ते हैं। प्रतिवर्ष भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की पंचमी को गोगा पंचमी की रूप में मध्य प्रदेश, राजस्थान और गुजरात में बड़े ही धूमधाम से मनाया जाता है।

छड़ी पूजा और वीर गोगाजी की पूजा का इतिहास बड़ा रोचक, मनभावन और अजब गजब है। छड़ी पूजा एक प्राचीनतम सांस्कृतिक परंपरा है। विभिन्न समाज और धर्म के लोग छड़ी का उपयोग पवित्रता स्वरूप ध्वज या ध्वजा के रूप करते हैं । शायद यही कारण है कि सभी धर्मों के राजा महाराजा जब यात्रा पर निकलते थे तो उनके आगे आगे अपनी विशिष्ट पहचान स्वरूप छड़ी या निशान चलते थे। शायद इसलिए इसे शुभ फल देने वाला मानते हुए 'देवक स्तंभ' कहा जाता है। छड़ी का उपयोग धर्म ध्वजा के रूप में भी किया जाता है। तेजाजी महाराज की छड़ी को 'निशान' कहा जाता है। आदि शंकराचार्य और वर्तमान धर्माचार्यों द्वारा हमेशा अपने साथ धर्म ध्वजा अपने हाथ में लेकर चलने की परंपरा हैं। हिंदू के अलावा छड़ी पूजा नार्वे में माइरे चर्च, इजरायल में अशेरा पोल (Ashers Pole) की पूजा "ज्यू" धर्म की स्थापना के पहले से ही की जाती रही है। विश्वभर में विभिन्न आदिवासी समुदाय में छड़ी पूजा की परंपरा का निर्वाह दिखाई देता है। भारतीय उपखंड में बलूचिस्तान में हिंगलाज माता, जम्मू कश्मीर के पहल गांव में छड़ी मुबारक, महाराष्ट्र में जोतिबा गुड़ी के साथ यात्रा करने की परंपरा विद्यमान है। मध्यप्रदेश में निमाड़ में छड़ी माता की पूजा व छड़ी नृत्य परंपरा है।
इस प्रकार वीर गोगाजी की वाल्मीकि समाज द्वारा छड़ी पूजा करना सामाजिक समरसता के जीती जागती मशाल और मिसाल है।

-डॉ. बालाराम परमार 'हंसमुख'

*लेखक वरिष्ठ स्तंभकार एवं समाजिक समरसता टोली के सदस्य हैं।

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ब्रिटिश प्रधानमंत्री-ऋषि सुनक - विनीता तिवारी

हाल ही में इंग्लैंड के 56वे प्रधानमंत्री पद के लिए ऋषि सुनक का चुना जाना इंग्लैंड और बाक़ी दुनिया के लिए तो एक सनसनीख़ेज़ खबर है ही, मगर उससे भी कहीं बहुत-बहुत ज़्यादा ये बात भारत में चर्चा का केंद्र बनी हुई है! सुनने में आ रहा है कि इस चर्चा की वजह उनके भारतीय मूल का निवासी होना है और अब भारतीय मूल के किसी इंसान का इंग्लैंड में प्रधानमंत्री बनना कुछ भारतीयों को इंग्लैंड में अपना साम्राज्य स्थापित होने जैसा महसूस हो रहा है। किसी को इस राजनैतिक उथल-पुथल में ब्रिटिशर्स को अपने अनैतिक कर्मों का फल मिलता दिखाई दे रहा है तो किसी को इंग्लैंड की राजनीति में भारत और वहाँ रहने वाले प्रवासी भारतीयों को एक विशिष्ट अतिथि का दर्जा मिलने की संभावना दिखाई दे रही है। रब्बा ख़ैर करे ये इंसान का दिमाग़ भी क्या चीज़ है न, कि हर सूचना में सबसे पहले अपना व्यक्तिगत फ़ायदा नुक़सान ढूँढने लगता है।

वैसे ये बात सच में नाज़ करने जैसी है कि ऋषि सुनक इंग्लैंड के पहले ऐसे प्रधानमन्त्री हैं जिनकी पुश्तैनी जड़ें अंग्रेजों के ज़माने के भारत और वर्तमान समय के पाकिस्तान में मिलती हैं। उनके दादा दादी 1935 में अविभाजित भारत के गुज़रानवाला से निकल कर बेहतर जीवन की तलाश में दक्षिण अफ़्रीका के केन्या देश में पहुँचे। केन्या में क़रीब 30-32 वर्ष रहने के पश्चात वहाँ भी जटिल परिस्थितियों के चलते वे 1960 के दशक में इंग्लैंड जा बसे। यहीं तंज़ानिया में जन्मी ऋषि सुनक की माता और नैरोबी, केन्या में जन्मे उनके पिता एक दूसरे के सम्पर्क में आये और विवाह बंधन में बंधे। आप दोनों से उत्पन्न तीन संतानों में ऋषि सुनक सबसे बड़े है। ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी से पढ़े सुनक जब MBA करने अमेरिका के स्टैनफ़र्ड विश्वविद्यालय पहुँचे तो उनकी मुलाक़ात अपनी भावी पत्नी अक्षता मूर्ति से हुई। इस मुलाक़ात के क़रीब चार साल बाद एक दूसरे से विवाह बंधन में बंधे ऋषि एवं अक्षता अब ब्रिटेन के 222वें सबसे अमीर दम्पति हैं। ये तो थी ऋषि सुनक के परिवार और उनकी पुश्तैनी जड़ों की बातें, लेकिन इस परिवार की जड़ों को खोद निकालने से भारत या पाकिस्तान या तंज़ानिया या फिर केन्या के लोगों का अपने फ़ायदे नुक़सान की अटकलें लगाना थोड़ा हास्यास्पद सा लगता है।

याद होगा जब कुछ ही सालों पहले कमला हैरिस अमेरिका की उपराष्ट्रपति के पद पर चुनी गयी थीं तब भी भारत में कुछ ऐसा ही माहौल बना था जैसे भारत-अमेरिका के रिश्ते में बहुत ही निकटता बल्कि घनिष्ठता बढ़ने वाली हो। कैलिफ़ोर्निया में जन्मी 58 वर्षीय कमला देवी हैरिस भी ऋषि सुनक की तरह अफ़्रीका और एशिया दोनों महाद्वीपों से सम्बन्ध रखती हैं मगर पिछले डेढ़-दो सालों में उनको लेकर जो ख़याली पुलाव पकाए जा रहे थे वैसा कुछ देखने को मिला नहीं।

ऋषि सुनक को लेकर तो भारत में उत्साह उनसे भी कहीं बहुत ज़्यादा है, और इस उत्साहपूर्ण उम्मीद के लिये यक़ीनन ऐतिहासिक घटनाएँ ज़िम्मेदार हैं। लेकिन क्या बात-बात में इतिहास के पन्ने पलटना और उसे भूलकर आगे न बढ़ना निरी मूर्खता सी नहीं लगती? तक़रीबन एक सदी पहले छोड़ी हुई जगह से इंसान जुड़ा तो होता है मगर बस उतना ही जितना कि दिल्ली बंबई की NRI कालोनी में रहने वाले रईस अपने पुरखों के गाँव से जुड़े होते हैं। ऋषि सुनक के बारे में अब तक की जानकारी से ये तो तय हो ही गया कि ऋषि सुनक और उनके परिवार पर एक दो नहीं बल्कि चार-पाँच देशों के साहित्य एवं संस्कृति का प्रभाव है। उनकी अपनी शिक्षा-दीक्षा इंग्लैंड के आक्सफोर्ड और अमेरिका के स्टैनफ़र्ड जैसे दुनिया के बेहतरीन विश्वविद्यालयों में होना उन्हे एक बहुसांस्कृतिक एवं सुशिक्षित राजनैतिज्ञ के रूप में प्रतिष्ठित करता है। और एक वैल राउंडेड पॉलिटिकल लीडर से ये उम्मीद की जानी चाहिए कि उनके द्वारा लिए जाने वाले राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर के निर्णयों में न सिर्फ़ उनके अपने जीवन से जुड़े दुनिया के देशों की बल्कि सम्पूर्ण विश्व की समृद्धि और शांति की भावना समाहित हो।

विनीता तिवारी
वर्जीनिया, अमेरिका

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17वां प्रवासी भारतीय दिवस सम्मेलन 2023 - भारत-दर्शन समाचार

प्रवासी भारतीय दिवस (पीबीडी) सम्मेलन भारत सरकार का प्रमुख कार्यक्रम है। यह विदेशों में रहने वाले भारतीयों के साथ जुड़ने और सम्‍पर्क स्‍थापित करने तथा प्रवासी भा‍रतीयों को एक-दूसरे के साथ बातचीत करने के लिए एक महत्वपूर्ण मंच प्रदान करता है। 17वां प्रवासी भारतीय दिवस सम्मेलन मध्य प्रदेश सरकार के साथ साझेदारी में 08-10 जनवरी 2023 तक इंदौर में आयोजित किया जा रहा है। इस पीबीडी सम्‍मेलन का विषय है "प्रवासी: अमृत काल में भारत की प्रगति में विश्वसनीय भागीदार"। लगभग 70 विभिन्न देशों के 3,500 से अधिक प्रवासी सदस्यों ने पीबीडी सम्मेलन के लिए पंजीकरण कराया है।

पीबीडी सम्‍मेलन के तीन खंड होंगे। 08 जनवरी 2023 को, युवा प्रवासी भारतीय दिवस का उद्घाटन युवा कार्यक्रम और खेल मंत्रालय के साथ साझेदारी में होगा। युवा प्रवासी भारतीय दिवस पर ऑस्ट्रेलिया की सांसद महामहिम सुश्री ज़नेटा मैस्करेनहास सम्‍मानीय अतिथि होंगी।

भारत के माननीय प्रधानमंत्री नरेन्‍द्र मोदी 09 जनवरी 2023 को पीबीडी सम्मेलन का उद्घाटन करेंगे और गयाना गणराज्य के राष्ट्रपति डॉ. मोहम्मद इरफ़ान अली मुख्य अतिथि और सूरीनाम गणराज्य के माननीय राष्ट्रपति चंद्रिकाप्रसाद संतोखी विशेष सम्मानित अतिथि के रूप में सम्‍मेलन को संबोधित करेंगे।

एक स्मारक डाक टिकट 'सुरक्षित जाएं, प्रशिक्षित जाएं'  जारी किया जाएगा जो सुरक्षित, कानूनी, व्यवस्थित और कुशल प्रवासन के महत्व को रेखांकित करेगा। भारत की स्वतंत्रता में हमारे प्रवासी स्वतंत्रता सेनानियों के योगदान को उजागर करने के लिए माननीय प्रधानमंत्री "आजादी का अमृत महोत्सव" - "भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में प्रवासी भारतीयों का योगदान" विषय पर पहली बार डिजिटल प्रवासी भारतीय दिवस प्रदर्शनी का भी उद्घाटन करेंगे। जी20 की भारत की वर्तमान अध्यक्षता के मद्देनजर, 09 जनवरी को एक विशेष टाउन हॉल भी आयोजित किया जाएगा।

10 जनवरी 2023 को, माननीय राष्ट्रपति जी, श्रीमती द्रौपदी मुर्मु प्रवासी भारतीय सम्मान पुरस्कार 2023 प्रदान करेंगी और समापन सत्र की अध्यक्षता करेंगी। प्रवासी भारतीय सम्मान पुरस्कार चुनिंदा भारतीय प्रवासी सदस्यों को उनकी उपलब्धियों को पहचानने और विभिन्न क्षेत्रों में, भारत और विदेश दोनों में उनके योगदान का सम्मान करने के लिए प्रदान किए जाते हैं।

पीबीडी सम्‍मेलन में पांच विषयगत पूर्ण सत्र होंगे-

  • पहला पूर्ण सत्र युवा कार्यक्रम और खेल मंत्री श्री अनुराग सिंह ठाकुर की अध्यक्षता में 'नवाचारों और नई प्रौद्योगिकियों में प्रवासी युवाओं की भूमिका' पर होगा।
  • दूसरा पूर्ण सत्र 'अमृत काल में भारतीय हेल्थकेयर इको-सिस्टम को बढ़ावा देने में प्रवासी भारतीयों की भूमिका: विजन @ 2047' पर होगा जिसकी अध्‍यक्षता स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्री डॉ. मनसुख मांडविया की अध्यक्षता में और विदेश राज्य मंत्री डॉ. राजकुमार रंजन सिंह की सह-अध्यक्षता में होगा।
  • तीसरा पूर्ण सत्र विदेश राज्य मंत्री श्रीमती मीनाक्षी लेखी की अध्यक्षता में 'भारत की नरम शक्ति का लाभ उठाना - शिल्प, व्यंजन और रचनात्मकता के माध्यम से सद्भावना' पर होगा।
  • चौथा पूर्ण सत्र शिक्षा, कौशल विकास और उद्यमिता मंत्री, श्री धर्मेंद्र प्रधान की अध्यक्षता में 'भारतीय कार्यबल की वैश्विक गतिशीलता को सक्षम करना - भारतीय डायस्पोरा की भूमिका' पर होगा।
  • पांचवा पूर्ण सत्र वित्त मंत्री श्रीमती निर्मला सीतारमण की अध्यक्षता में 'राष्ट्र निर्माण के लिए एक समावेशी दृष्टिकोण की दिशा में प्रवासी उद्यमियों की क्षमता का दोहन' पर होगा।

सभी पूर्ण सत्रों में प्रख्यात प्रवासी विशेषज्ञों को आमंत्रित कर पैनल चर्चा होगी।

17वां प्रवासी भारतीय दिवस सम्मेलन चार साल के अंतराल के बाद और कोविड-19 महामारी के बाद पहली बार वास्‍तविक कार्यक्रम के रूप में आयोजित किया जा रहा है। महामारी के दौरान 2021 में अंतिम प्रवासी भारतीय दिवस सम्मेलन वर्चुअली आयोजित किया गया था।

इस कार्यक्रम का  सीधा वेब प्रसारण किया जाएगा और इसे आप यूट्यूब पर भी देख सकते हैं:  https://www.youtube.com/user/MEAIndia


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सुब्रह्मण्य भारती : बीसवीं सदी के महान तमिल कवि - डॉ. एस मुथुकुमार

देश के स्वाधीनता संग्राम में जहाँ कुछ देशभक्तों ने अपने तेजस्वी भाषणों, नारों से विदेशी सत्ता का दिल दहलाया, वहीं कुछ ऐसे साहित्यकार भी थे जिन्होंने अपने काव्य-बाणों से विपक्षी को आहत किया। हिंदी में यदि ‘मैथिलीशरण गुप्त‘, ‘सोहनलाल द्विवेदी‘, ‘सुभद्राकुमारी चौहान‘, ‘रामधारी सिंह ‘दिनकर‘ आदि ने अपनी काव्य-रचनाओं से भारतीय नवयुवकों के मन में देश-प्रेम के भाव भरे तो देश की अन्य भाषाओं में भी ऐसे देशभक्त कवि, साहित्यकार हुए जिनकी रचनाओं ने अँग्रेजी राज्य की जड़ें हिला दीं। तमिल भाषा के ऐसे ही कवि थे ‘सुब्रह्मण्य भारती‘।

सुब्रह्मण्य भारती बीसवीं सदी के महान तमिल कवि थे। उनका नाम भारत के आधुनिक इतिहास में एक उत्कट देशभक्त के रूप में लिया जाता है। देश के स्वतंत्रता-संग्राम के लिए उन्होंने जिस शस्त्र का प्रयोग किया, वह था उनका लेखन, विशेषतः कविता।
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हिंदी की व्यंग्य प्रधान ग़ज़ले - डॉ.जियाउर रहमान जाफरी

व्यंग्य साहित्य की वह विधा है जो पाठकों के लिए तो हमेशा रुचिकर रही लेकिन आलोचकों ने इसे स्थापित करने में कभी कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। अक्सर व्यंग्य को हास्य के साथ जोड़ दिया जाता है जबकि हास्य और व्यंग्य दोनों अलग-अलग प्रकार की विधा है। व्यंग्य में गंभीरता भी होती है पर हास्य अक्सर हास्यास्पद बन जाता है।

कविता में व्यंग्य निश्चित तौर पर मौजूद होता है; क्योंकि कविता अपनी बात को प्रस्तुत करने के लिए जिस वक्रता और लाक्षणिकता का सहारा लेती है तथा समाज और व्यवस्था पर जिस प्रकार से प्रहार दिखता है, यह व्यंग्य की ही शैली या विषय रहे हैं। व्यंग्य शब्द का शब्दकोश में अर्थ भी शब्द की व्यंजना शक्ति के द्वारा निकला गूढ़ अर्थ बताया गया है। कविता में ही नहीं मनुष्य के अंदर भी तंज़ करने या व्यंग्य करने की प्रवृत्ति देखने को मिलती है। हम कह सकते हैं कि व्यंग्य वह माध्यम है जो बातों को विपरीत रूप में प्रस्तुत करता है। वक्ता के अभिप्राय या आशय को श्रोता अपने आप उसे समझने की चेष्टा करता है। कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना यह पंक्ति भी व्यंग्य पर फिट बैठती है। हास्य का उद्देश्य भले मनोरंजन करना हो लेकिन व्यंग्य का उद्देश्य लोगों को जगाना होता है। व्यंग्य में स्पष्टता ने होने पर भी यह हमें प्रभावित करता है। हम जो बातें सहज रूप में नहीं कर सकते व्यंग्य के द्वारा वह बातें आसानी से कह लेते हैं। रीतिकालीन कवि बिहारी व्यंग्य के माध्यम से राजा जयसिंह को पत्नी से अलग होकर राज- काज से जोड़ देते हैं।
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हिन्दी का पुराना और नया साहित्य - यज्ञदत्त शर्मा

मानव-जीवन का समस्याओं के साथ-ही-साथ साहित्य चलता है। जीवन में जिस काल के अंतर्गत जो-जो भावनाएँ रही हैं उन-उन कालों में उन्हीं भाव- नाओं से ओत-प्रोत साहित्य का भी सूजन हुआ है। प्रारम्भ में मानव की कम आवश्यकताएं थीं, कम समस्याएं थीं। इसीलिए साहित्यिक विस्तार का क्षेत्र भी सूक्ष्म था। वीरगाथाकाल में वीर-गाथाएँ लिखी गई, भक्ति-काल में साहित्य का क्षेत्र कुछ और व्यापक हुआ, विकसित हुआ, भक्ति के भेद हुए और अनेकों धाराएँ प्रवाहित हुईं। निर्गुण-भक्ति, प्रेमाश्रयी-शाखा, कृष्ण-भक्ति, राम-भक्ति और अन्त में सब मिलकर श्रृंगार की तरफ़ चल दिये। एक युग-का- युग शृंगारी कविता करते और नायक-नायिकाओं के भेद गिनते हुए व्यतीत हो गया, न समाज ने कोई उन्नति की और न राष्ट्र ने। फिर भला साहित्य में प्रगति कहाँ से आती ! साहित्य अपने उसी सीमित क्षेत्र में उछल-कूद करता हुआ झूठे चमत्कार की ओर प्रवाहित होता चला गया। भक्ति-कालीन रसात्मकता रीति-काल में नष्ट हो गई और वह प्रणाली आज के साहित्य में भी ज्यों-की-त्यों लक्षित है।

आज के नवीन युग में साहित्य का क्षेत्र बहुत व्यापक होता जा रहा है। केवल शृंगार अथवा भक्ति के क्षेत्र तक ही साहित्य सीमित नहीं है। वह मानव- जीवन की सभी खोजों के साथ अपना विस्तार बढ़ाता चला जा रहा है। यदि साहित्य का अर्थ हम सीमित क्षेत्र में ललित-कलाओं तक भी रखें तब भी ललित-कलाओं में गद्य का विकास हो जाने के कारण कहानी, उपन्यास, निबन्ध, समा- लोचना, जीवनियाँ, गद्य-गीत इत्यादि साहित्य में प्रस्फुटित हो चुके हैं और नाटक- साहित्य भी अपनी विशेषताओं के साथ अग्रसर है। नाटक कम्पनियों और सिनेमा कम्पनियों ने इस साहित्य को विशेष प्रचय दिया है। साहित्य का रूप बदल गया और साहित्य का दृष्टिकोण भी। जब-जब राष्ट्र को जैसी-जैसी आवश्यकता रही है तब-तब उसी प्रकार का साहित्य लिखा गया है। साहित्य के इतिहास पर दृष्टि डालने से यह स्पष्ट हो जाता है।

आज के साहित्य ने प्रेम, विरह और श्रृंगार को भुलाया नहीं परन्तु उनका दृष्टिकोण बदल दिया है। रीति-शास्त्रों पर आधारित स्यून विचारों के स्थान पर भाषा और शैली के आधुनिक प्रयोग किये जा रहे हैं। नख-सिख वर्णन और प्राचीन केलि-विलात इत्यादि को आज के कवियों ने अपने साहित्य में स्थान नहीं दिया। आज का कवि करता है. प्रेमी और प्रेमिका के भावना जगत में होने वाले मनोभावों का वैज्ञानिक चित्रण। वह अभिसार, विपरीत रति, सुरता- रम्भ, दूती इत्यादि का समावेश अपने साहित्य में न करके तन्मयता और बात्म- बलिदान का चित्रण करता है।

वीर-काव्य आज का कवि भी तिखता है, परन्तु उसमें केवल शब्दों की झंकार-मात्र न होकर कष्ट-सहन और आत्मोत्सर्ग की भावना रहती है। युद्ध क्षेत्र में जाकर तलवार चलाने वाले नायक का चित्रण आज के कवि को नहीं करना होता । उसे तो राष्ट्रीय स्वरूप का निरूपण करना होता है। आज की राष्ट्रीय भावना और प्राचीन राष्ट्रीय भावना में भी अन्तर आ चुका है। प्राचीन काल में धर्म पर राष्ट्र बाधारित था बौर इसीलिए धार्मिक भावना ही राष्ट्रीय भावना थी। वही भावना हमें 'चन्द्र' और 'भूषण' में मिलती है। परन्तु आज के साहित्य में धर्म गौण है बौर राष्ट्र प्रधान। इसलिए वीर-काव्य का धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं है। धर्म का क्षेत्र पृथक् है और राष्ट्र का क्षेत्र पृथक् है।

"आज के नये साहित्य में देश के प्रति भक्ति और प्रेम, राष्ट्रीय और जातीय वीरों के गुण-गान, अपनी पतित दशा पर शोक, नारी-स्वतन्त्रता के गीत, व्यक्ति की आशा और निराशा, प्रकृति आकर्षण और प्रेम, रहस्यमयी सत्ता की अनुभूति, प्रतिदिन के दैनिक जीवन का विश्लेषण, राष्ट्रीय और जातीय समस्याएँ प्रचुर मात्रा में उपस्थित हैं।" -डॉ० रामरतन भटनागर।

आधुनिक काल का रहस्यवाद भी हमें 'ठायावाद' के रूप में मिलता है परन्तु उस पर अंग्रेजी रोमांटिक (Mystic Literature) साहित्य और बँगला- साहित्य का प्रभाव रहस्यवाद तथा छायाबाद में है परन्तु धार्मिक भावना में नहीं। धर्म का आज के युगों में अभाव है, दर्शन का नहीं। दर्शन का सम्बन्ध केवल दृश्य-जगत तक ही सीमित रह जाता है, आध्यात्मिक क्षेत्र तक उसे ले जाना आज के लेखक उचित नहीं समझते। कविवर 'निराला' में दार्शनिक चिन्तन और मैथिलीशरण 'गुप्त' में 'धार्मिक भावना' का समावेश मिलता है परन्तु उसमें भी कबीर और तुलसीदास जैसी भावनाओं का सम्पूर्ण एकीकरण नहीं मिलता । सांसारिकता (Matterialisticism) का समावेश उनके साहित्य में पग-पग पर मिलता है।

नवीन युग में मानव-जीवन पर जितना साहित्य लिखा गया है उतना धर्म और दर्शन पर नहीं। मानव का विश्लेषण आज के लेखक के लिए अधिक महत्त्वपूर्ण बन गया है, इसलिए उसने जीवन के विविध पहलुओं पर जी खोलकर विचार किया है। उपन्यास, कहानी और जीवनियों में तो प्रधान विषय हो मानव-जीवन है। प्रेमचन्द ने अपने उपन्यासों और कहानियों में समाज का सुन्दर चित्रण किया है। प्राचीन साहित्य में इस प्रकार के काव्य तो हैं ही नहीं।

आज के युग ने बुद्धि को प्रधानता दी है। नवीन साहित्य बुद्धि का आश्रय लेकर चलता है और प्राचीन साहित्य भावना का। भावना-प्रधान साहित्य में रस प्रधान होता है और बुद्धि-प्रधान साहित्य में वास्तविकता, जड़ता और चमत्कार । आज का साहित्य धार्मिक क्षेत्र में गौण है परन्तु मानवता के वह अमर सिद्धान्त उसमें वर्तमान है जिनका दर्शन भी हमें प्राचीन साहित्य में नहीं मिलता ।

-यज्ञदत्त शर्मा


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पुस्तक समीक्षा : विदेश में हिंदी पत्रकारिता - रोहित कुमार हैप्पी

विदेश में हिंदी पत्रकारिता

पुस्तक का शीर्षक: विदेश में हिंदी पत्रकारिता 
(27 देशों की हिंदी पत्रकारिता का सिंहावलोकन)
लेखक: डॉ जवाहर कर्नावट 
प्रकाशक: राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत

विदेश में हिंदी पत्रकारिता पुस्तक के लेखक डॉ जवाहर कर्नावट  बैंक ऑफ बड़ौदा से महाप्रबंधक के रूप में सेवानिवृत्त हुए हैं। वर्तमान में रवीन्द्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय (भोपाल) में प्रवासी भारतीय साहित्य एवं संस्कृति शोध केंद्र के सलाहकार हैं। 

विदेश में हिंदी पत्रकारिता पुस्तक विदेशों में हिंदी भाषा की पत्रकारिता के इतिहास, विकास और वर्तमान स्थिति का एक व्यापक अध्ययन है। लेखक, जवाहर कर्नावट ने इस विषय पर कई वर्षों तक गहन शोध किया है। पुस्तक में विदेशों में प्रकाशित होने वाले विभिन्न हिंदी समाचार पत्रों और पत्रिकाओं का विस्तृत विवरण दिया गया है, साथ ही उनसे जुड़े प्रमुख व्यक्तियों और संस्थानों का भी उल्लेख किया है। 

इस पुस्तक के चार प्रमुख अध्याय हैं जिनमें गिरमिटिया देशों में हिंदी पत्रकारिता, उत्तरी अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया महाद्वीप के देशों में हिंदी पत्रकारिता, यूरोप महाद्वीप के देशों में हिंदी पत्रकारिता एवं एशिया महाद्वीप के देशों में हिंदी पत्रकारिता सम्मिलित हैं।  

गिरमिटिया देशों में हिंदी पत्रकारिता के अंतर्गत मॉरीशस, दक्षिण अफ्रीका, फीजी, सूरीनाम, गयाना, त्रिनिदाद-टोबेगो की हिन्दी पत्रकारिता का उल्लेख किया गया है। 

उत्तरी अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया महाद्वीप के देशों में हिंदी पत्रकारिता के अंतर्गत अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया एवं न्यूजीलैंड की हिन्दी पत्रकारिता पर चर्चा है।  

यूरोप महाद्वीप के देशों में हिंदी पत्रकारिता के अंतर्गत ब्रिटेन, नीदरलैंड, जर्मनी, नार्वे, हंगरी और बुल्गारिया एवं रूस की हिन्दी पत्रकारिता पर प्रकाश डाला गया है। 

एशिया महाद्वीप के देशों में हिंदी पत्रकारिता के अंतर्गत जापान, संयुक्त अरब अमीरात, कुवैत और कतर, चीन और तिब्बत, सिंगापुर, श्रीलंका, म्यांमार और थाईलैंड एवं नेपाल की हिन्दी पत्रकारिता से पाठकों का परिचय करवाया गया है।

"विदेश में हिंदी पत्रकारिता" एक महत्वपूर्ण पुस्तक प्रमाणित होगी जो विदेश की हिंदी पत्रकारिता के विकास और प्रसार को समझने में सहायक है। लेखक जवाहर कर्नावट ने इस पुस्तक में अपने व्यापक अनुभवों और ज्ञान को साझा किया है। लेखक ने पुस्तक की भूमिका में लिखा है—
“भारत की हिंदी पत्रकारिता की तरह ही विदेशों में भी हिंदी पत्रकारिता का गौरवशाली इतिहास रहा है। विश्व के अनेक देशों में हिंदी पत्रकारिता की यात्रा कुछ पत्र-पत्रिकाओं के छपने-बँटने तक सीमित नहीं थी। उसका इतिहास भारतीयों की विश्व यात्रा के संघर्ष, पीड़ा और सुखद प्रतिष्ठापन तक के सफर का अहम दस्तावेज है।”

इस पुस्तक में विदेशों में हिंदी पत्रकारिता के विभिन्न पहलुओं का व्यापक परिचय मिलता है। विभिन्न देशों की हिन्दी पत्रकारिता की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, प्रकाशनों की जानकारी और अनेक दुर्लभ पत्र-पत्रिकाओं के चित्र भी उपलब्ध करवाए गए हैं। ये जानकारियाँ उपलब्ध करवाने से ‘विदेश में हिंदी पत्रकारिता’ पुस्तक एक महत्वपूर्ण संसाधन बन जाती है, जो हिंदी मीडिया के प्रकाशन और प्रसार के बारे में जानकारी और समझ बढ़ाने में सहायक सिद्ध हो  सकती है। 

पुस्तक में दिए गए तथ्य और संदर्भ विद्यार्थियों, पत्रकारों, और मीडियाकर्मियों के लिए उपयोगी हैं। इसके अतिरिक्त, यह पुस्तक उन सभी लोगों के लिए भी रुचिकर है जो प्रवासी भारतीय समुदायों और उनकी मीडिया संस्कृति के बारे में अधिक जानना चाहते हैं।

इस पुस्तक को हिंदी पत्रकारिता, समाचार और मीडिया अध्ययन में रुचि रखने वाले पाठकों  के लिए एक अत्यंत आवश्यक संसाधन के रूप में देखा जाना चाहिए। 

पुस्तक की प्रमुख विशेषताएं

•    विदेशों में हिंदी पत्रकारिता के इतिहास का एक व्यापक और सटीक विवरण।
•    विभिन्न देशों में प्रकाशित होने वाले प्रमुख हिंदी समाचार पत्रों और पत्रिकाओं का विश्लेषण।
•    इस क्षेत्र से जुड़े प्रमुख व्यक्तियों और संस्थानों के योगदान का विवरण।
•    विदेशों में हिंदी पत्रकारिता के सामने आने वाली चुनौतियों और अवसरों पर चर्चा।

पुस्तक की भाषा

पुस्तक की भाषा सरल और सहज है, और इसे हिंदी पत्रकारिता में रुचि रखने वाले सभी पाठकों द्वारा आसानी से समझा जा सकता है। पुस्तक पठनीय, रोचक और जानकारीपूर्ण है।

निष्कर्ष

"विदेश में हिंदी पत्रकारिता" हिंदी भाषा की पत्रकारिता के इतिहास और विकास में रुचि रखने वाले विद्वानों, शोधकर्ताओं और छात्रों के लिए एक महत्वपूर्ण संदर्भ पुस्तक है। यह पुस्तक उन सभी लोगों के लिए भी उपयोगी है जो विदेशों में रहने वाले हिन्दी मीडिया और वहाँ के भारतीय समुदाय के बारे में अधिक जानना चाहते हैं।

यह पुस्तक विदेशों में हिंदी पत्रकारिता की समृद्ध परंपरा और विविधता से परिचित करवाती है। यह पुस्तक पाठकों के लिए विदेशों में हिंदी पत्रकारिता के परिदृश्य की समझ विकसित करने का एक अवसर है।

         समीक्षक : रोहित कुमार हैप्पी
         संपादक : भारत-दर्शन ऑनलाइन पत्रिका, न्यूज़ीलैंड  
         ई-मेल : editor@bharatdarshan.co.nz

*लेखक इंटरनेट पर विश्व की सबसे पहली हिन्दी पत्रिका ‘भारत-दर्शन’ के संपादक हैं।


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पुस्तक समीक्षा : सिंगापुर में भारत - रोहित कुमार हैप्पी

सिंगापुर में भारत

पुस्तक का शीर्षक - सिंगापुर में भारत (विशेष संदर्भ उत्तर भारत)
लेखिका - डॉ संध्या सिंह
प्रकाशक - केंद्रीय हिंदी संस्थान आगरा, भारत

‘सिंगापुर में भारत’ पुस्तक की लेखिका डॉ संध्या सिंह नेशनल यूनिवर्सिटी ऑव सिंगापुर में हिंदी और तमिल भाषा विभाग प्रमुख हैं। वाराणसी में जन्मी और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से शिक्षित डॉ सिंह ढाई दशकों से भी अधिक समय से सिंगापुर की निवासी हैं और सिंगापुर में ही नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वैश्विक हिन्दी जगत में एक परिचित नाम हैं।  

‘सिंगापुर में भारत’ पुस्तक सिंगापुर में रहने वाले भारतीय समुदाय के इतिहास, संस्कृति और अनुभवों का एक व्यापक चित्रण प्रस्तुत करती है। लेखिका डॉ संध्या सिंह विभिन्न पीढ़ियों के भारतीय प्रवासियों के जीवन पर प्रकाश डालती हैं, और वे अपनी मातृभूमि से दूर रहते हुए अपनी पहचान और संस्कृति को कैसे बनाए रखते हैं, इसकी पड़ताल करती हैं। यह पुस्तक लेखिका के व्यक्तिगत अनुभवों और शोध पर आधारित है।

पुस्तक को दस श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है जिनमें 'सिंगापुर : एक परिचय', 'भारतीयों का आगमन', 'हिंदी और हिंदुस्तानी भाषा की उपस्थिति', 'हिंदी शिक्षण की आवश्यकता व स्थिति', 'स्वयंसेवी संस्थाएँ एवं मंदिर', 'साहित्य और हिंदी भाषा संबंधी कार्य', 'प्रसारण सेवाएँ', 'भारतीय नामों वाले महत्वपूर्ण रास्तों की कहानी', 'उल्लेखनीय व्यक्ति' एवं 'सिंगापुर : कुछ रोचक तथ्य' सम्मिलित हैं। ‘यथा नाम तथा गुण’ की उक्ति चरितार्थ करते हुए इस पुस्तक की श्रेणियों के शीर्षक ही उसकी सामग्री के परिचायक हैं।

इस पुस्तक में सिंगापुर में बसे भारतीय समुदाय की जीवनशैली, सांस्कृतिक धाराएँ, सामाजिक संगठन, और उनकी ऐतिहासिक महत्वपूर्ण घटनाओं को भी उजागर किया गया है। लेखिका ने विस्तृत अनुसंधान और व्यापक शोध के माध्यम से पुस्तक को अत्यंत पठनीय बना दिया है, जिससे सिंगापुर के प्रति पाठकों की समझ और विकसित होगी।

पुस्तक की प्रमुख विशेषताएं:

समृद्ध जानकारी: यह पुस्तक सिंगापुर में भारतीय समुदाय के बारे में जानने के लिए एक मूल्यवान स्रोत है।

विस्तृत शोध: पुस्तक में सिंगापुर में भारतीय समुदाय के इतिहास और विकास के बारे में गहन जानकारी है। लेखिका ने प्राथमिक स्रोतों, साक्षात्कारों और विद्वानों के कार्यों का उपयोग करके डेटा एकत्रित किया है।

उल्लेखनीय प्रवासी परिचय: पुस्तक में विभिन्न उल्लेखनीय प्रवासियों का परिचय है, जो पाठकों को उनके संघर्षों, सपनों और सिंगापुर में जीवन की वास्तविकताओं से जुड़ने में सहायक है।

सांस्कृतिक अंतर्दृष्टि: लेखिका भारतीय द्वारा अपनी संस्कृति और परंपराओं को कैसे सिंगापुरी समाज के अनुरूप अनुकूलित किया, इसकी जानकारी देती हैं।

विश्लेषणात्मक ढांचा: पुस्तक में प्रवास, पहचान, संस्कृति और सामाजिक परिवर्तन जैसे जटिल विषयों का विश्लेषणात्मक अध्ययन किया गया है।
समृद्ध जानकारी: यह पुस्तक सिंगापुर में भारतीय समुदाय विशेषतः उत्तर भारतीयों व सिंगापुर में हिन्दी के परिदृश्य के बारे में जानने के लिए एक अहम् स्रोत प्रमाणित होगी।

व्यापक विषय व विभिन्न दृष्टिकोण: पुस्तक विभिन्न सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि के भारतीय प्रवासियों के अनुभवों को प्रस्तुत करती है।
समकालीन प्रासंगिकता: यह पुस्तक सिंगापुर में प्रवास, बहु-संस्कृति और वैश्वीकरण जैसे समकालीन मुद्दों पर महत्वपूर्ण अंतर्दृष्टि प्रदान करती है।

आप सिंगापुर में पर्यटन के लिए जा रहे हो, शॉपिंग के लिए जा रहे हों, वहाँ की संस्कृति के बारे में जाने के इच्छुक हों, नेताजी सुभाष और सिंगापुर के सम्बन्धों के बारे में जानकारी चाहते हो, शोध कर रहे हों, अपना सामान्य ज्ञान बढ़ाना चाहते हो, सिंगापुर की दिलचस्प जानकारी के जिज्ञासु हों या वहाँ के हिन्दी समुदाय से परिचित होना चाहते हों—यह पुस्तक आपके लिए है।

कुल मिलाकर यूं कहा जा सकता है कि "सिंगापुर में भारत" सिंगापुर में भारतीय समुदाय के इतिहास, संस्कृति और अनुभवों को समझने के लिए एक महत्वपूर्ण पुस्तक है। यह पुस्तक विद्वानों, पत्रकारों, पर्यटकों, छात्रों और सामान्य पाठकों सभी के लिए रुचिकर है जो प्रवास, बहु-संस्कृति और वैश्वीकरण के मुद्दों में रुचि रखते हैं अथवा समकालीन दुनिया में भारतीय डायस्पोरा के बारे में पढ़ना चाहते हैं

इस पुस्तक में सिंगापुर के इतिहास, सांस्कृतिक प्रभाव, भूगोल, समाजशास्त्र, राजनीति, और भाषा-साहित्य के विभिन्न पहलुओं पर विस्तृत जानकारी दी गई है। इसमें अध्ययन के लिए महत्वपूर्ण स्रोतों का उल्लेख भी है। पुस्तक में सिंगापुर के विकास और संस्कृति के संदर्भ में महत्वपूर्ण जानकारी प्रस्तुत की गई है।

मैं स्वयं अनेक बार सिंगापुर गया हूँ लेकिन निःसन्देह इस पुस्तक ने मेरे ज्ञान में वृद्धि की है। इससे सिंगापुर के बारे में अनेक नई जानकारियाँ हासिल हुई हैं। इस पुस्तक में सिंगापुर की अँग्रेजी के उल्लेख ने मुझे ‘सिंग्लिश’ के बारे में और अधिक जानने को प्रेरित किया।

यदि आप सिंगापुर में भारतीय समुदाय के बारे में विस्तृत जानकारी की आकांक्षा रखते हैं और इसके लिए किसी पुस्तक की तलाश में हैं, तो "सिंगापुर में भारत" पढ़ने लायक है।

           समीक्षक : रोहित कुमार हैप्पी
           संपादक : भारत-दर्शन ऑनलाइन पत्रिका, न्यूज़ीलैंड 
           ई-मेल : editor@bharatdarshan.co.nz


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पुस्तक समीक्षा : आदि इत्यादि -  रोहित कुमार हैप्पी

आदि इत्यादि की पुस्तक समीक्षा

पुस्तक का शीर्षक: आदि इत्यादि 
लेखक: डॉ. हरी सिंह पाल 
प्रकाशक: एस. कुमार एण्ड कम्पनी, नई दिल्ली, भारत
प्रकाशन वर्ष: 2024
मूल्य: 550 रुपये
ISBN: 978-93-95095-61-7

आदि-इत्यादि पुस्तक के लेखक डॉ. हरिसिंह पाल  भारतीय प्रसारण सेवा से सेवानिवृत्त हैं। वर्तमान में नागरी लिपि परिषद, नई दिल्ली के महामंत्री हैं। सौरभ (न्यूयॉर्क, अमेरिका) एवं नागरी संगम (शोध पत्रिका, दिल्ली) के प्रधान संपादक हैं। संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार की हिंदी सलाहकार समिति के सदस्य, डॉ पाल लोकसाहित्य में पी-एच.डी हैं।

आदि-इत्यादि  हिंदी भाषा, लिपि एवं साहित्य विषयक निबंध-संग्रह है। पुस्तक में संगृहीत 20 निबंध समय-समय पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। इनमें से कुछ  हिन्दी संस्थानों हेतु शोध-पत्र प्रस्तुति के लिए भी लिखे गए थे। यथा इनमें विषय की विविधता स्वाभाविक है। ये भाषा, लिपि, संस्कृति, लोकसाहित्य, व्यक्तित्वपरक और दलित साहित्य चितंन एवं हिंदी साहित्य विषयक हैं। 

इस संग्रह में ‘लिपि और भाषाः संस्कृति के वाहक’, ‘नागरी लिपि की सशक्तता’, ‘राष्ट्रीय एकता और अखंडता की प्रेरकः हिंदी’, ‘हिंदी को समृद्ध करने में नागरी की भूमिका’, ‘अंतर्कथा राजभाषा हिंदी के कार्यान्वयन की’, ‘हिंदी के विकास में हिंदीतर विद्वानों का योगदान’, ‘भारतेतर हिन्दी विद्वान’, ‘हिंदी में विज्ञान लेखन’, ‘राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का भारतीय भाषा-प्रेम’, ‘लोककथाओं का रोचक संसार’, ‘भारत में लोक साहित्य की पृष्ठभूमि’, ‘राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का लोकसाहित्य पर प्रभाव’, ‘लोक संस्कृति के समक्ष वर्तमान चुनौतियाँ’, ‘रसेश्वर और योगेश्वर : भगवान श्रीकृष्ण’, ‘साहित्यिक परिप्रेक्ष्य में : योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण’, ‘इन मुसलमान कवियन पै कोटिक हिन्दू बारिए’, ‘हिंदी के प्रथम कवि : अमीर खुसरो’, ‘दलित समाज के साहित्यिक सरोकार’, और ‘नारी सशक्तिकरण के प्रेरक डॉ. भीमराव अम्बेडकर’ निबंध सम्मिलित हैं। 

‘आदि-इत्यादि’ हिंदी के शिक्षकों, शोधार्थियों एवं विद्यार्थियों के लिए महत्वपूर्ण पुस्तक प्रमाणित होगी, जो हिन्दी भाषा-लिपि एवं साहित्य को समझने में सहायक है। 

भाषा और शैली
डॉ. हरी सिंह पाल की लेखनी में स्पष्टता और सरलता है, जो जटिल विषयों को भी सरलता  से समझने योग्य बनाती है। उनकी भाषा अकादमिक होने के साथ-साथ प्रवाहपूर्ण और रोचक है। पाठकों को बांधे रखने की क्षमता इस पुस्तक की एक बड़ी विशेषता है। 

पुस्तक की विशेषताएँ
• विविध विषयों का समावेश
पुस्तक में साहित्य, भाषा विज्ञान, लोक साहित्य, विज्ञान लेखन और साहित्यिक आलोचना जैसे विविध विषयों को गहनता से समेटा गया है। विषयों की विविधता ही इसे एक व्यापक और बहुआयामी पठनीय पुस्तक बनाती है।

• सामयिकता और प्रासंगिकता
लेखक ने समकालीन हिंदी भाषा की चुनौतियों पर विस्तार से चर्चा की है, जिससे यह पुस्तक वर्तमान समय में भी प्रासंगिक है। इसमें उन समस्याओं का भी उल्लेख है, जिनका सामना हिंदी भाषा को आज के दौर में करना पड़ रहा है।

• शोधपरक दृष्टिकोण
यह पुस्तक न केवल साहित्यिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि इसमें शोधपरक सामग्री भी दी गई है, जो इसे अकादमिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण बनाती है। लेखक ने हिंदी भाषा के विभिन्न पहलुओं पर गहन शोध किया है और उसके आधार पर तर्क प्रस्तुत किए हैं।

निष्कर्ष
आदि इत्यादि एक महत्वपूर्ण पुस्तक है, जो हिंदी भाषा, लिपि, और साहित्य पर विस्तृत एवं  गहन अध्ययन प्रस्तुत करती है। यह न केवल भाषा के छात्रों और शोधकर्ताओं के लिए उपयोगी है, बल्कि उन पाठकों के लिए भी महत्वपूर्ण है, जो हिंदी के विकास और उसकी सांस्कृतिक धरोहर को समझना चाहते हैं। डॉ. हरी सिंह पाल ने हिंदी भाषा की व्यापकता और उसकी प्रासंगिकता को सटीक रूप से प्रस्तुत किया है।

आदि इत्यादि हिंदी भाषा और साहित्य के संरक्षण और संवर्धन के प्रयासों में एक मील का पत्थर प्रमाणित हो सकती है। यह पाठकों को न केवल हिंदी के प्रति जागरूक करती है, बल्कि उसकी गरिमा और महत्ता को भी पुनर्स्थापित करने का प्रयास करती है। 

समीक्षक : रोहित कुमार हैप्पी
संपादक : भारत-दर्शन ऑनलाइन पत्रिका, न्यूज़ीलैंड  
ई-मेल : editor@bharatdarshan.co.nz

*लेखक इंटरनेट पर विश्व की सबसे पहली हिन्दी पत्रिका ‘भारत-दर्शन’ के संपादक हैं।

 


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पुस्तक समीक्षा : ‘वीर अभिमन्यु’ नाटक ने पारसी रंगमंच पर रचा था इतिहास - रणजीत पांचाले

वीर अभिमन्यु

पुस्तक समीक्षा
‘वीर अभिमन्यु’ नाटक ने पारसी रंगमंच पर रचा था इतिहास
रणजीत पांचाले

उन्नीसवीं सदी में पारसी थिएटर के प्रति लोगों में ज़बरदस्त आकर्षण था। मंच पर लगे पर्दों पर बनी सीनरियाँ,  कलाकारों के बेहतरीन अभिनय, गीत-संगीत और संवाद दर्शकों के मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव छोड़ते थे। बीसवीं सदी के दूसरे दशक में मूक सिनेमा के रूप में लोगों को मनोरंजन का एक और साधन मिल गया। जादुई असर वाले इस सिनेमा के बावजूद लोगों में पारसी थिएटर के प्रति आकर्षण कम नहीं हुआ। इसका प्रमुख कारण यह था कि थिएटर में ‘आवाज़’ थी जबकि सिनेमा ‘मूक’ था। पारसी थिएटर में जहाँ एक ओर प्रेम कहानियों पर आधारित नाटक प्रस्तुत किए जाते थे तो दूसरी ओर ऐतिहासिक-धार्मिक-सामाजिक नाटक भी प्रस्तुत करके समाज को शिक्षित किया जाता था। परतंत्रता के उस दौर में दर्शकों का धार्मिक-सामाजिक नाटकों की ओर काफ़ी रुझान था। बीसवीं सदी के दूसरे दशक के मध्य में जबकि भारत में आग़ा हश्र काश्मीरी और नारायण प्रसाद ‘बेताब’ सरीखे नाटककारों के नाटकों की धूम मची हुई थी, उसी समय पारसी थिएटर में एक युवा नाटककार का प्रवेश हुआ जिसका नाम था- पंडित राधेश्याम कथावाचक। 

पारसी थिएटर में फ़ारसी लदी उर्दू भाषा का प्रयोग किया जाता था। विशेष रूप से नाटककार आग़ा हश्र काश्मीरी की यही भाषा थी। नारायण प्रसाद ‘बेताब’ ने यथासंभव फ़ारसीमुक्त सरल हिन्दुस्तानी भाषा को अपनाया जिसमें उर्दू शब्द तो अच्छी ख़ासी संख्या में थे ही, लेकिन हिंदी शब्द भी बहुतायत में होने के कारण पारसी थिएटर की भाषा में बदलाव आना शुरू हो गया था। मुख्यतः बेताब के नाटक ‘महाभारत’ से पारसी थिएटर की नाट्य भाषा में विशेष परिवर्तन आया। जब ‘महाभारत’ नाटक पहली बार 29 जनवरी 1913 को दिल्ली के संगम टाकीज़ में खेला गया तो दर्शकों की ख़ुशी का ठिकाना न रहा। अगले तीन-चार दिनों में शहर में नाटक की धूम मच गई। नारायण प्रसाद ‘बेताब’ ने अपनी आत्मकथा ‘बेताब चरित’ में लिखा है कि हिंदू समाज के महानुभावों ने इस नाटक को नवीन ही नहीं, बल्कि ‘नवयुग प्रवर्तक, क्रांतिकारक, हिंदू इतिहास प्रदर्शक, पवित्रतापूर्वक मनोरंजक’ इत्यादि अनेक उपाधियाॅं दीं। जिस काल में उर्दू नाटकों का राज था और पारसी थिएटर कम्पनियाॅं अपने व्यावसायिक दृष्टिकोण के कारण हिंदी भाषा से डरती थीं, उस काल में बेताब द्वारा उर्दू को महत्त्व देते हुए इस नाटक में हिंदी का प्रवेश कराना बहुत बड़ी बात थी। इस नाटक में बेताब का लिखा निम्नलिखित धार्मिक गीत लोगों की ज़ुबान पर चढ़ गया था:

    अजब हैरान हूँ भगवन तुम्हें क्योंकर रिझाऊॅं मैं?
     कोई वस्तु नहीं ऐसी जिसे सेवा में लाऊॅं मैं॥
     करूँ किस तर्ह आवाहन, कि तुम मौजूद हो हरजा। 
     निरादर है बुलाने को अगर घंटी बजाऊॅं मैं॥
     तुम्हीं हो मूर्ति में भी तुम ही व्यापक हो फूलों में।
     भला भगवान को भगवान पर क्योंकर चढ़ाऊॅं मैं॥
     लगाना भोग कुछ तुमको यह इक अपमान करना है।
     खिलाता है जो सब संसार को, उसको खिलाऊॅं मैं?
     तुम्हारी ज्योति से रोशन हैं सूरज चन्द्र और तारे।
     महान अन्धेर है तुमको अगर दीपक दिखाऊॅं मैं॥

पौराणिक नाटक होते हुए भी बेताब के ‘महाभारत’ नाटक में उर्दू शब्दों की भी भरमार थी। नाटक के एक दृश्य में जब रुक्मिणी और सत्यभामा बातचीत कर रही हैं, तभी वहाॅं द्रौपदी आती हैं। सत्यभामा उनका स्वागत करते हुए कहती हैं : 

     मरीज़े नातवाँ तक चारागर वे इल्तमास आया। 
     ज़हे-क़िस्मत कुआँस प्यासे के पास आया॥

 ‘महाभारत’ नाटक के प्रथम मंचन के मात्र तीन वर्ष बाद दिल्ली के उसी संगम टाकीज़ में 1916 में पं. राधेश्याम कथावाचक के नाटक ‘वीर अभिमन्यु’ का मंचन हुआ जिसने एक नया इतिहास रच दिया। इस नाटक ने पारसी थिएटर में हिंदी को प्रतिष्ठित कर दिया। नाटक में परिष्कृत हिंदी का प्रयोग किया गया था। कहीं-कहीं तो हिंदी संस्कृतनिष्ठ भी थी। उर्दू शब्दों का प्रयोग न्यूनतम था। पारसी थिएटर कम्पनी ‘न्यू अल्फ्रेड’ के डायरेक्टर सोराबजी ने जब नाटक मंचन के लिए तैयार करा दिया तो इसकी ‘ग्राण्ड रिहर्सल’ देखकर कम्पनी के मालिक माणिकजी जीवनजी उदास हो गए। उन्होंने नाटक को ‘टोटली फ़ेल’ बताते हुए कहा कि इस पर पैसा बर्बाद किया गया है। उन्होंने डायरेक्टर सोराबजी से कहा कि इतनी ज़्यादा हिंदी का नाटक पब्लिक नहीं समझ पाएगी। ‘वीर अभिमन्यु’ को लेकर अपने अति उत्साह के बावजूद डायरेक्टर सोराबजी भी इसमें अत्यधिक हिंदी के कारण आशंकित थे कि कहीं नाटक दर्शकों द्वारा नकार न दिया जाए। जनता के सामने नाटक की प्रस्तुति से एक दिन पहले सोराबजी ने पं. राधेश्याम से कहा--“अधिक हिंदी स्टेज पर पहुॅंचाकर हम परीक्षण कर रहे हैं, कर तो अच्छा ही रहे हैं-अब भगवान् जाने।”

‘वीर अभिमन्यु’ नाटक में कैसी हिंदी का प्रयोग किया गया था, यह निम्नलिखित उदाहरणों से स्पष्ट हो जाता है :
अर्जुन की अनुपस्थिति में द्रोणाचार्य द्वारा युद्ध-क्षेत्र में चक्रव्यूह के निर्माण पर जब युधिष्ठिर चिंतित होकर कहते हैं कि इस चक्रव्यूह को अब कौन तोड़ेगा? तो अभिमन्यु स्वयं को प्रस्तुत करते हुए कहता है : 

     कायर कभी न होगा, जो क्षत्री का वंश है।
     अर्जुन अगर नहीं है, तो अर्जुन का अंश है॥

रणभूमि में प्रस्थान से पूर्व जब अभिमन्यु अपनी पत्नी उत्तरा से मिलने जाता है और वह अमंगल की आशंका व्यक्त करती है, तो अभिमन्यु उससे कहता
है : 

     प्रिय उत्तरे, प्रियतमे, प्राणवल्लभे प्रान।
     समर-क्षेत्र ही सर्वदा, क्षत्रिए का सुस्थान॥

आख़िरकार 4 फरवरी 1916 को जब संगम टाकीज़ में ‘वीर अभिमन्यु’ का मंचन हुआ, तो इसकी असाधारण सफलता ने सोराबजी और पं. राधेश्याम कथावाचक को भी आश्चर्यचकित कर दिया। अपनी आत्मकथा ‘मेरा नाटक काल’ में पं. राधेश्याम ने लिखा है कि दर्शकों की सकारात्मक प्रतिक्रिया देखकर सोराबजी सेठ की ऑंखों से अश्रुधारा बह निकली थी। अगले दिन देहली में नाटक की इतनी चर्चा हुई कि शहर के क़रीब-क़रीब सभी ‘रईस’ उसी दिन इस नाटक को देख लेना चाहते थे, पर बुकिंग बंद हो चुकी थी। इसलिए अगले हफ़्ते के रिज़र्वेशन शुरू कर दिए गए। आगे चलकर हिंदी के अनेक पत्र-पत्रिकाओं ‘सरस्वती’, ‘भारत मित्र’, ‘आज’, ‘प्रताप’ आदि ने इस नाटक की बहुत प्रशंसा की। 

‘वीर अभिमन्यु’ की अपार लोकप्रियता को देखकर पारसी थिएटर कम्पनियों के मालिकों और डायरेक्टरों के मन से हिंदी को लेकर डर ख़त्म हो गया। पं. राधेश्याम कथावाचक ने बाद में और भी अनेक हिंदी नाटक लिखे जो पारसी थिएटर में खेले गए तथा वे ख़ूब सफल हुए। ऐसे नाटकों में ‘श्रवण कुमार’, ‘परिवर्तन’, ‘परम भक्त प्रह्लाद’, ‘श्रीकृष्णावतार’ तथा ‘ईश्वर भक्ति’ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। हिंदी के कारण नारायण प्रसाद ‘बेताब’ और पं. राधेश्याम कथावाचक के नाटकों की बढ़ती लोकप्रियता को देखकर आग़ा हश्र काश्मीरी ने इसके बाद लिखे गए अपने नाटकों में हिंदी को काफ़ी महत्त्व दिया। पौराणिक और सामाजिक नाटकों की प्रस्तुतियों में शुचिता के कारण वे लोग भी अपनी स्त्रियों को नाटक दिखाने लाने लगे, जो उन्हें ड्रामा दिखाना पाप समझते थे। 

राधेश्याम कथावाचक साहित्य के विशेषज्ञ हरिशंकर शर्मा के संपादन में कुछ समय पूर्व ही ‘वंस मोर : वीर अभिमन्यु’ पुस्तक आई है जो इस नाटक के ऐतिहासिक महत्त्व को रेखांकित करती है। बहुत खोज करके हरिशंकर शर्मा ने पिछले 100 वर्षों में विद्वानों द्वारा इस नाटक पर लिखे गए लेखों को प्रकाशित किया है। सन् 1918 में नैनीताल निवासी जियाराम एम.ए. ने लिखा था: ‘यदि हिंदी साहित्य में नाटकों के चरित्र संस्कृत के प्राचीन ग्रंथो से लिए जाऍंगे तो इसमें कुछ संदेह नहीं कि उन इतिहासों की बेजान हड्डियों में फिर जान पड़ जाएगी, और इस प्रकार भारतवासियों का ध्यान अपने प्राचीन धर्म की ओर आकर्षित हो जाएगा।… जयद्रथ वध पर यह नाटक समाप्त हो जाता है, परन्तु कुछ मित्रों के आग्रह से लेखक ने परीक्षित का राज्याभिषेक और बढ़ा दिया है जो हमारी राय में अभिमन्यु वध की घटना का शोक शांत करने के लिए तथा संस्कृत नाटकों के नियमानुसार नाटक को सुखांत करने के लिए अच्छा ही हुआ है।’ 

कथा सम्राट प्रेमचंद ने इस नाटक पर टिप्पणी करते हुए लखनऊ से प्रकाशित मासिक पत्रिका ‘माधुरी’ में लिखा था : ‘हम समझते हैं कि इससे पहले इतने हिन्दीत्व का कोई नाटक पारसी कम्पनियों के स्टेज पर नहीं आया। इस नाटक का हास्य वाला भाग (कामिक) भी बड़ा शिक्षाप्रद और अश्लीलता से रहित था। यह उस ज़माने में पहली बार स्टेज पर आया जिस ज़माने में कितने ही उर्दू के नाटककारों ने ऐसे-ऐसे गन्दे कामिक स्टेज पर पहुॅंचाए थे कि माताओं और बहनों को थिएटर में ले जाते हुए भी लज्जा आती थी। माता को स्त्री, और स्त्री को माता कहलाना तो उन दिनों के कुछ उर्दू नाटककारों का मानो धर्म हो रहा था। ख़ैर, ‘वीर अभिमन्यु’ को पूर्ण सफलता मिली। महामना मालवीय जी तक ने इसे देखा और प्रशंसा की। इतना ही नहीं, जनता ने भी इसे उतना आदर दिया, जितना आदर इससे पहले के पारसी कम्पनियों के किसी नाटक को प्राप्त नहीं हुआ था। पंजाब यूनिवर्सिटी ने इसे क्रमशः ‘हिन्दी भूषण’ और ‘इन्टरमीडिएट’ क्लास कोर्स की पुस्तकों में पढ़ाए जाने के लिए चुना।’ 

‘वीर अभिमन्यु’ की उस समय पूरे देश में इतनी लोकप्रियता बढ़ गई थी कि इसे देश के लगभग सभी नाट्य-क्लबों द्वारा खेला गया था। अनेक स्कूल-कॉलेजों में भी इसका मंचन हुआ। पुस्तक में दिए गए एक लेख के अनुसार राजस्थान के मुख्यमंत्री एवं भारत के उपराष्ट्रपति रह चुके भैरों सिंह शेखावत जब 1940-41 में वैदिक हाई स्कूल जोबनेर (बाद में श्री कर्ण-नरेन्द्र उच्च माध्यमिक विद्यालय) में पढ़ रहे थे तब उन्होंने जोबनेर स्कूल में मंचित राधेश्याम कथावाचक के नाटक ‘वीर अभिमन्यु’ में अभिमन्यु की भूमिका निभाई थी। अभिनय करते हुए वीरता का उन्माद उन पर छा गया था। एक हुंकार के साथ दर्शकों के देखते-देखते चक्रव्यूह में प्रविष्ट हो उन्होंने एक के बाद एक योद्धा को धराशाई करते हुए चक्रव्यूह का भेदन कर डाला। दर्शक समुदाय उनके अद्भुत पराक्रम को देखकर मुग्ध हो गया। तालियों की गड़गड़ाहट और वीर अभिमन्यु की जय जयकार से सभागारगूँज उठा। दर्शकों में स्कूल के संस्थापक रावल नरेन्द्र सिंह की दोनों रानियाँ भी अन्य महिलाओं सहित यह नाटक देखने आई थीं। वे अभिमन्यु के जीवंत अभिनय से इतनी प्रसन्न हुईं कि उन्होंने एक स्वर्ण पदक तथा 11 रुपए पुरस्कार स्वरूप प्रदान किए। उस ज़माने में यह राशि काफ़ी मायने रखती थी।   
  
हिंदी जगत के सुप्रसिद्ध आलोचक मधुरेश ने अपने लेख ‘पारसी थिएटर का पहला हिंदी नाटक’ में लिखा है कि ‘वीर अभिमन्यु’ नाटक ने एक तरह से हिंदी के लेखकों को जगा दिया था। उर्दू के विरुद्ध हिंदी का बढ़ता वर्चस्व और उसी के हिसाब से हिंदू अभिनेताओं की खोज ‘वीर अभिमन्यु’ से शुरू हो गई थी। एक नाटककार के रूप में राधेश्याम एक ओर यदि उर्दू के गढ़ में हिंदी की सेंध लग रहे थे, वहीं वे हिंदू आदर्शों के सम्पोषण और प्रचार में भी सक्रिय थे। लेकिन उनका यह हिंदुत्व समावेशी और सकारात्मक हिंदुत्व था। सनातन धर्म के आदर्शों से प्रेरित होकर भी वे किसी और धर्म के प्रति विद्वेष, घृणा और शत्रुता के भाव से मुक्त थे।
 
शिक्षाविद् डॉ. अशोक उपाध्याय ने इस नाटक के विभिन्न अवयवों का विश्लेषण करते हुए अपने लम्बे आलेख में लिखा है: ‘वीर अभिमन्यु पारसी रंगमंच के प्रसिद्ध हिंदी नाटकों में उच्च स्थान पर प्रतिष्ठित है। इसमें करुण और वीर रस के साथ-साथ हास्य रस का भी मजे़दार रूप देखने को मिलता है। भाषा भी प्रायः साफ़-सुथरी और भावाभिव्यंजक है। तत्कालीन जनता की अभिरुचि को ध्यान में रखकर जिन नाटकों को खेला जा रहा था, उनकी पूर्ण उपलब्धि और पराकाष्ठा ‘वीर अभिमन्यु’ में हुई थी।’
 
अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ नॉर्थ कैरोलिना में प्रोफेसर डॉ. पामेला लैटस्पाईक ने अपने लेख ‘वीर अभिमन्यु एंड द फैबुलस पारसी थिएटर’ में लिखा है : ‘कथावाचक जी का सदैव यह प्रयास रहा कि वे कुछ ऐसा दिखाऍं जिसमें मनोरंजन के साथ-साथ देश और समाज का भी कल्याण हो। नाटक के अभिनेता से राधेश्याम जी कहलाते हैं, “और सुनो यह एक हिंदू नाटक है। हिंदी भाषा का इसमें प्रयोग है। सभी अभिनेताओं को समझा दिया जाए कि वे हिंदी और हिंदू दोनों का आदर और सम्मान, अपने चरित्रों और प्रदर्शन में तथा संवादों में बनाए रखेंगे क्योंकि हमें आर्य सभ्यता का गौरवपूर्ण इतिहास जनता तक पहुँचाना है।” शोधार्थी सत्यभामा ने अपने लेख ‘राधेश्याम कथावाचक और वीर अभिमन्यु’ में लिखा है : ‘पारसी रंगमंच की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह थी कि उसमें जो कामिक सीन होते थे, वे समाज की सच्चाई बयान करते थे। ‘वीर अभिमन्यु’ में राजाबहादुर का चरित्र जनता को हॅंसाता तो अवश्य है, साथ ही तत्कालीन समाज पर कमेन्ट्री भी करता है। राजाबहादुर कहता है—“ख़ुशामद सीखो। ख़ूब रुपया पैसा पैदा करके रईस बनना है, तो ख़ुशामद सीखो। ख़ुशामद सीखने के लिए किसी मकतब में नहीं जाना होगा। यह सबक़ नीम शरीफ़ों से सीखो या हम जैसे राजाबहादुरों से सीखो। कहीं भी न मिले, तो ऐश-पसन्द राजा-महाराजाओं की सभा से सीखो। राजाधिराज सुयोधन महाराज (यहाँ दुर्योधन को सुयोधन जानबूझकर कहा गया है) ने जब द्रोणाचार्य को सेनापति बनाया, तो हमें भी ख़ुशामद की बदौलत राजाबहादुर का ख़िताब दिया।” पं. राधेश्याम के समय में चापलूसी करने वाले लोगों को अंग्रेज़ों ने पुरस्कृत किया था। उन्हें ‘रायबहादुर’ आदि का खिताब दिया था। बड़ी सूक्ष्मता से राधेश्याम ने इस नाटक में उन पर व्यंग्य किया था।
 
संपादक हरिशंकर शर्मा ने इस नाटक पर टिप्पणी करते हुए लिखा है कि कथावाचक जी ने पारसी थिएटर की व्यावसायिकता को ध्यान में रखते हुए बड़ी कुशलता के साथ ‘वीर अभिमन्यु’ में आदर्श के साथ मनोरंजन को भी समाहित किया है। पुस्तक में हेमा सिंह का लेख पारसी नाट्य शैली को बारीकी से समझने के लिए आज के रंगकर्मियों के लिए इसकी उपयोगिता पर प्रकाश डालता है। उन्होंने लिखा है : ‘स्वर्गीय बी. एम. शाह द्वारा निर्देशित पारसी शैली के नाटक ‘मशरिक़ी हूर’ में मुख्य पात्र ‘हमीदा’ और ‘वीर अभिमन्यु’ में ‘सुभद्रा’ निभाने के अनुभव के आधार पर मैंने पाया के पारसी रंगमंच शास्त्रीय संस्कृत नाटक शैली, लोकनाट्य परम्पराओं और विक्टोरियन थिएटर का अनूठा, अद्भुत और जटिल मिश्रण है। जिसकी अच्छी झलक ‘वीर अभिमन्यु’ में देखी जा सकती है।’ 

पुस्तक में प्रकाशित गोपीवल्लभ उपाध्याय, रणवीर सिंह, डॉ. नितिन सेठी सहित सभी साहित्यकारों के लेखों से पारसी थिएटर के महत्त्व, वीर अभिमन्यु नाटक के सामाजिक सरोकार, देशभक्ति और स्वाधीनता आंदोलन को शक्ति एवं प्रेरणा देने वाले इसके प्रसंग, तत्कालीन रंगमंच पर इस नाटक की अपार लोकप्रियता, प्रस्तुति की शैली और इसकी साहित्यिक विशेषताओं की अच्छी जानकारी मिलती है।

-रणजीत पांचाले 
 24-कैलाशपुरम, निकट डेलापीर, 
 बरेली-243122 (उ. प्र.)
 ईमेल: ranjeetpanchalay@gmail.com
 मो. 73516 00444
 
संपादक-हरिशंकर शर्मा, पुस्तक-वंस मोर:वीर अभिमन्यु, प्रकाशक-बोधि प्रकाशन, जयपुर, प्रथम संस्करण 2023, पृष्ठ 115 


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लिखे बगैर रहा नहीं जाता लिखे बगैर रहा नहीं जाता | डायरी - डॉ कुबेर कुमावत

दिनांक : 24/08/2024

कल मैंने कॉलेज में ही अपनी जेब की एक छोटी-सी पर्ची पर एक टिप नोट कर ली थी, इसलिए कि उसे विषय बनाकर मैं कुछ लिख सकूँ।फुरसत में और घर पहुँचकर।यह टिप है--"ओ लेखकासुर! मैं तुम्हारा क्या कर सकता हूँ?" असल में हम हर उस व्यक्ति का कुछ भी कर नहीं सकते जो व्यक्ति श्रेष्ठताबोध या विशिष्टताबोध से प्रचंड रूप से ग्रस्त है। वह व्यक्ति इतना आत्ममुग्ध हो गया है कि उसे अपने सामान्य होने की दूर-दूर तक अनुभूति ही नहीं होती। वह अपने आपको किसी महान आत्मा या देवता की तरह अद्वितीय समझने लगता है। साहित्य के क्षेत्र में इस रोग से अनेक लोग मुझे पीड़ित दिखाई देते हैं। कहना तो नहीं चाहिए पर ऐसा लगता है कि कहना जरूरी हो गया है। 

इधर के दिनों में मैंने यह अनुभव किया कि यदि किसी रचनाकार की दस पुस्तकें प्रकाशित हैं तो वह नौ प्रकाशित पुस्तकोंवाले रचनाकार को अपने से कमतर समझता है। किसी के यदि पचास उपन्यास प्रकाशित है तो वह चालीसवाले को अपने से छोटा उपन्यासकार समझता है। कविता, कहानी, उपन्यास और साहित्यिक आलोचना की प्रकाशित पुस्तकों की संख्या के आधार पर उत्पन्न यह विशिष्टता की  भावना साहित्य के क्षेत्र में स्वस्थ भावना या प्रवृत्ति तो नहीं कही जा सकती? किसी लेखक की खुद की प्रेस है तो उसकी सौ-डेढ़सौ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है। नहीं है तो किसी भी तरह पुस्तकें प्रकाशित कर ली गयी हैं। इस भाव से कि मैं संख्या के मामले में तो उच्च श्रेणी का बन ही गया हूँ। अब इस तरह थोक में लिखनेवालों और प्रकाशित करनेवालों को तो 'लेखकासुर' ही कहा जा सकता है ना, कि उसे 'कलम का सिपाही' कहेंगे या 'कलम का जादूगर'?  उसे 'लेखक सम्राट' भी कहा जा सकता है या 'प्रचंड लेखक' या 'लेखकवीर'। आजकल के 'अग्निवीर' की तरह। प्रचंड पराक्रम से युक्त लेखन जो आजतक कोई न कर सका।                

इधर प्राध्यापकों में भी यह बिमारी तीव्रता से पसर चुकी हैं। 200-300 शोधपत्रों से तो कम की बात ही नहीं हो रही है। एक ही वर्ष में 50 शोधपत्र प्रकाशित। देवताओं और असुरों की तरह प्रचंड पराक्रम से युक्त लेखन। मेरे मन में अनेक बार लिखने के प्रति वितृष्णा या व्यर्थताबोध की भावना उत्पन्न हो जाती है। मुझे न साहित्यजगत का देवता बनना है और न दानव। सामान्य मनुष्य की तरह लिखूँ और दिखाई भी दूँ। इधर एक प्राध्यापक मित्र ने मुझे अपने से इसलिए छोटा समझा कि मेरे निर्देशन में अभी तक एक भी छात्र पीएच.डी. नहीं हुआ और उनके दो हो चुके और चार पीएच.डी. कर रहे हैं। मुझे यह भी पता चला कि मेरी तो सिर्फ तीन पुस्तकें प्रकाशित है इसलिए मैं उन लेखकों से अयोग्य और छोटा हूँ, जिनकी मुझसे अधिक प्रकाशित हो चुकी हैं। एक और गौर करने की बात यह है कि यदि हिंदी के श्रेष्ठ प्रकाशनों से आपकी पुस्तकें प्रकाशित हैं तो आप उनसे अधिक श्रेष्ठ है जिनकी ऐसे प्रकाशनों से प्रकाशित नहीं है। 

मुझे लगा कि इसतरह छोटा और अयोग्य समझना मेरे लिए किसी सम्मान से कम नहीं है। जब कभी योग्यता विवादित हो तो अयोग्यता कितनी महत्वपूर्ण चीज़ है, यह मैं समझ चुका हूँ। मैं तो छोटा, निरीह और सामान्य बने रहने में ही अपने जीवन की सार्थकता और योग्यता समझता हूँ और न लिखनेवाला या किसी भी तरह की प्रतिभा से हीन व्यक्ति तो एकदम तुच्छ या क्षुद्र व्यक्ति ही है इनके सामने। ओ लेखकासुर! मैं तुम्हारा कर भी क्या सकता हूँ?

दिनांक : 30/08/2024
कल एक भारतीय विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के प्रोफेसर द्वारा जारी एक पोस्ट पढ़ी जिसमें उन्होंने यह निवेदन किया है कि उन्होंने पीएचडी शोधकार्य हेतु एक योजना बनाई है। जिन साहित्यकारों की हिंदी की विविध विधाओं में सृजनात्मक स्तर की न्यूनतम दस या उससे अधिक रचनाएँ  यानी पुस्तकें प्रकाशित हैं, वे अपनी इन रचनाओं की सूची उन्हें भेजकर कृतार्थ करें। अब ऐसी स्थिति में मेरे सामने दो प्रश्न उपस्थित होते हैं--
प्रश्न 1) आप पीएच.डी. किसलिए करना और करवाना चाहते हैं?   
प्रश्न 2) साहित्यकार किसी विश्वविद्यालय को अपनी रचनाओं पर पीएच.डी. करवाने के लिए अपनी रचनाओं की जानकारी या रचनाएँ खुद होकर क्यों भेजे?

मुझे लगा कि उक्त दोनों प्रश्नों की पृष्ठभूमि में यह निवेदन कतई गरिमामय और स्वागतयोग्य नहीं है। आप सभी तो जानते है कि देश में हिंदी शोधकार्य का स्तर किस प्रकार का है। मैं ऐसा नहीं कह रहा हूँ कि हिंदी में शोधकार्य का स्तर एकदम से गिरा हुआ है बल्कि मुझे यह कहना अभिप्रेत है कि हिंदी में स्तरीय शोधकार्य बहुत ही कम मात्रा में हो रहा है और जो हो रहा है उसकी कोई विशेष दखल नहीं ली जा रही है। जो बहुसंख्या में खराब शोधकार्य हो रहा है वह दुर्भाग्य से शोधप्रविधि का आदर्श या मानक बनता जा रहा है। ऐसा क्यों हो रहा है, इसपर बहुत गंभीरता से सोचना आवश्यक है। दूसरी ओर मेरा एक और निरीक्षण यह कहता है कि जिन समकालीन साहित्यकारों पर पीएच.डी. हो रही हैं या की जा रही हैं उन साहित्यकारों को ऐसा लग रहा है कि इसतरह उनकी रचनाओं पर पीएचडी होना उनके साहित्यकर्म की उत्कृष्टता और अद्वितीयता का परिचायक है। मैंने ऐसे कई साहित्यकारों को अपनी फेसबुक वाल पर अपने साहित्यकर्म पर पीएच.डी. करनेवाले शोधकर्ताओं की सूची को प्रदर्शित करते हुए देखा। कोई तो यह बताने की चेष्टा कर रहा है कि देखों, इन 20 से 25 लोगों ने मुझपर पीएच.डी. की है। इस तरह अपने सृजनकर्म पर केंद्रित शोधकार्यों पर साहित्यकारों का मोहित हो जाना अविश्वसनीय है। मैं इन साहित्यकारों से यह विनम्र निवेदन करता हूँ कि कृपया यह तो बताइए कि उन शोधकर्ताओं ने भला आपकी रचनाओं को लेकर कौनसा मौलिक शोध किया है? शोध तो जानते ही हैं न आप? आप अपने सृजन पर हुए इन शोधकार्यों को पढ़कर कोई मौलिक या 
मा'ना-ख़ेज़ टिप्पणी करने का साहस क्यों नहीं करते? केवल सूची या सूचनाएँ भेजते रहते हैं। 

देखिए, यह लोग शोधकार्य क्यों कर रहे हैं? इसलिए कि पीएच.डी. देश के महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में प्राध्यापक बनने की एक योग्यता या पात्रता यूजीसी द्वारा निर्धारित की गई है इसलिए कर रहे हैं.आपका साहित्य बहुत ही अच्छा और श्रेष्ठ है इसलिए नहीं. यदि इस शर्त को यूजीसी निकाल देती है तो आपके लेखन पर कोई शोध नहीं करेगा. शोध तो क्या आपकी रचनाओं की एक लाईन भी नहीं पढ़ेगा. मित्रो, शोधकर्ताओं और शोधनिर्देशकों का हेतु कुछ और ही है. प्रामाणिक शोधकर्ता और सच्चा पाठक तो आपको भाग्य से ही मिलेगा. इसपर बहुत अधिक इतराने की कोई आवश्यकता नहीं है. पर मामला यह है कि आप भी प्रतिष्ठा के लोभी है. चाहे वह नकली प्रतिष्ठा ही क्यों न हो. पर आप यह क्यों नहीं समझते कि ऐसी जद्दोजहद से आप वास्तविक सम्मान या प्रतिष्ठा को तो अर्जित नहीं कर सकते. पर आज के युग का सच यह भी है कि झूठी ही सही, प्रतिष्ठा मिलना जरूरी है. 

मैं इस क्षेत्र से संबंधित हूँ और बहुत निकट से जानता हूँ कि हम प्राध्यापक वर्ग के लोग इस क्षेत्र को कितना बदनाम कर चुके हैं। कुछ भी और किसी भी तरह से लिखी हुई सामग्री को पीएच.डी. थीसिस के रूप में मान्यता दिलवाने में सफल हो जाते हैं। कतिपय लोग तो नित्य यह ढिंढोरा पिटते रहते हैं कि मेरे निर्देशन में अब तक 30-40 छात्रों ने एम.फिल्. और पीएच.डी. की है. इसी उपलब्धि के बल पर वें विश्वविद्यालयों के ऊँचे पदों पर या यह कहे कि वॉयस चांसलर के पद पर भी चयनित हो जाते हैं। उनकी इस प्राप्त सफ़लता या उपलब्धि को देखकर अन्य लोग भी इसी रास्ते का अनुसरण करते पाये जाते हैं। ऐसी स्थिति को देखकर लगता है कि हम क्यों इस क्षेत्र में आए हैं? देखिए, ऐसे शोधकार्यों पर साहित्यकार ही चाहे तो कुछ अंकुश लगा सकते हैं। अपने साहित्यपर की गई पीएच.डी. को यदि लगे तो कटघरे में खड़ा करें, आपत्ति उठाए। लेकिन किसी भी तरह साहित्य के क्षेत्र में इस गंदी परिपाटी को रोकने में सहायता करें। एक से एक ठग और डाकू इस पवित्र क्षेत्र को अपने कब्जे में ले चुके हैं. आप चाहे तो साहित्य सृजन का काम थोड़े समय के लिए स्थगित कर दे। यह युग आपकी सक्रिय होने की तीव्र प्रतीक्षा कर रहा है। आपसे बड़ी उम्मीद है। 

दिनांक : 31/08/2024 
"भारत में अँग्रेजी लोगों की प्रतिष्ठा (प्रेस्टीज) के साथ घनिष्ठता से जुड़ी हुई है"  : पद्मश्री तोमियो मिजोकामि
"ज्वालामुखी" जापानी लोगों द्वारा लिखित एवं प्रकाशित हिंदी की एक महत्वपूर्ण पत्रिका रही है। अब यह प्रकाशित नहीं होती। इस पत्रिका का प्रथम अंक सितंबर-1980 में प्रकाशित हुआ था और इसके संपादक थे श्री योशिअकि सुजुकी। इस पत्रिका के 1980 के दशक से लेकर 1986 तक प्रतिवर्ष कुल छह अंक निकले। केवल 1984 में इसका कोई अंक प्रकाशित नहीं हुआ। इन सभी छह अंकों की सामग्री को एकत्रित कर पुनश्च "ज्वालामुखी" शीर्षक से ही पुस्तकाकार रूप में 2023 में प्रकाशित किया गया। पुस्तकाकार इस पत्रिका के प्रस्तुतकर्ता डॉ. वेदप्रकाश सिंह ने मुझे इस पुस्तक की एक प्रति सितंबर-2023 में ही भेजी थी परंतु समयाभाव के कारण मैं इस पुस्तक पर तुरंत कोई प्रतिक्रिया नहीं दे सका और न ही इसपर कुछ लिख सका। 

वास्तव में भारत में हिंदी भाषा और साहित्य को लेकर अत्यंत अनूठी, ज्ञानवर्धक और शोधपरक सामग्री इस पुस्तक में संकलित है। यह सब कुछ जापानी लेखकों द्वारा लिखित होने के कारण इसका विशेष महत्व है, ऐसा नहीं है बल्कि उन्होंने जिस तरह से हिंदी में लिखा है वह अद्वितीय है और भारत के हिंदी में लिखनेवाले लोगों के लिए भी एक उत्कृष्ठ उदाहरण है। शोध करते समय शोधकर्ता की दृष्टि कैसी तीक्ष्ण और सूक्ष्म होनी चाहिए तथा शोध किस प्रकार गंभीरता और निष्ठा से करना चाहिए इसके कई उत्तम उदाहरण इस पत्रिका में मिलते है। मैं पद्मश्री डॉ.तोमियो मिजोकामी के उस लेख को पढ़कर प्रभावित हुआ जो पत्रिका के 1980 के अंक में प्रकाशित हुआ था। इसका शीर्षक है--"उत्तरी भारत के नगरों में भाषा समस्या पर कुछ टिप्पणियाँ"। आप विश्वास भी नहीं करेंगे ऐसे किसी अनूठी और वाकई महत्वपूर्ण परिकल्पना से युक्त विषयपर कुछ शोधपरक लिखा जा सकता है और वह भी किसी विदेशी द्वारा। यह काम तो हम में से किसी एक को करना चाहिए था। इस शोधपरक लेख में उन्होंने उत्तर भारत के विभिन्न नगरों के हिंदी बोलने और समझने वाले लोगों को आठ वर्गों में विभक्त किया है जो उनकी शिक्षा, संस्कृति तथा भाषा के प्रति उनकी सचेतनता अथवा अचेतनता पर आधारित है और उनके सामाजिक स्तर से मेल नहीं खाता। यह आठ वर्ग क्रमशः क, का, ख, खा, ग, घ, ड और च है। इस लेख का संक्षिप्त कुछ इस प्रकार है जो अत्यंत रोचक और विचारोत्तेजक है: 

वर्ग 'क..... हिंदी-विद्वान अथवा अध्यापक, हिंदी अथवा संस्कृत के स्नातक और स्नातकोत्तर छात्र, हिंदी लेखक, कवि, आलोचक, हिंदी-पत्रकार, आर्य समाज के नेता, और सनातन हिंदू धर्म के साथ संबंधित पंडित इत्यादि इसी वर्ग में आते हैं। ये उच्च हिंदी में बहुत दक्ष हैं। गमपर्ज" के अनुसार हम इस वर्ग को 'संभ्रांत हिंदी वक्ता' कह सकते हैं। जब ये 'संभ्रांत हिंदी वक्ता' शुद्ध हिंदी के संकुचित प्रचारक बन जाते हैं, तो इन्हें 'हिंदी वाले' कहा जाता है, जो कि एक अपमानजनक शब्द है। इस प्रकार की मौजूदगी ही हिंदी क्षेत्र की अन्यतम विशेषता है।
 
वर्ग 'का'.... उन लोगों का है जो अंग्रेज़ी में उच्चशिक्षित होने के साथ-साथ हिंदी में भी समान रूप से अच्छे हैं। ये वास्तविक द्विभाषी हैं। ये स्थिति के अनुरूप एक भाषा को दूसरी भाषा में सहजता से बदल सकते हैं। ये संकीर्णतावादी नहीं होते। ये भारतीय बुद्धि का प्रतिनिधित्व करते हैं, किंतु आर्थिक दृष्टि से उनमें से अधिकांश मध्यवर्ग या उच्च मध्यवर्ग में आते हैं। 'क' तथा 'का' वर्ग ही ऐसे हैं जो किसी विदेशी से यह नहीं कहेंगे कि "आप मुझसे अच्छी हिंदी जानते हैं।" और जिनसे विदेशी लोग अच्छी हिंदी सीख सकते हैं।

वर्ग 'ख'..... वर्ग 'क' का ही यह उर्दू संस्करण है और वर्ग 'खा', वर्ग 'का' का। शिक्षित मुसलमान और कुछ शिक्षित हिंदू (जैसे कायस्थ लोग जो उर्दू में शिक्षित हैं) 'ख' वर्ग अथवा 'खा' वर्ग के अंतर्गत आते हैं। उनकी संख्या कम होती जा रही है।

वर्ग 'ग'.... यह एक ऐसा वर्ग है जो भाषा नीति के प्रति उदार तथा उदासीन है। शिक्षित मध्यवर्ग का अधिकांश इसी वर्ग में आता है। ये वर्ग 'का' अथवा वर्ग 'खा' के निम्नतर स्तर के लोग हैं। 'क' का 'ख' और 'खा' वर्ग अपने भाषा प्रयोग के प्रति 'सजग' हैं किंतु 'ग' वर्ग उसके प्रति 'सुप्त' है। यद्यपि ये लोग भी द्विभाषी हैं, किंतु स्थिति के अनुरूप एक भाषा को दूसरी भाषा में नहीं बदल सकते। इन्हें 'भाषा के अवसरवादी' कह सकते हैं।

वर्ग 'घ'.... उन लोगों का वर्ग है जो शरीर से भारतीय और मन से 'अंग्रेज' हैं। ये अंग्रेज़ों के समान ही धाराप्रवाह अंग्रेज़ी बोलते हैं। इन्होंने पब्लिक स्कूलों में शिक्षा पाई है। अंग्रेज़ी को भारत में बनाए रखने के ये प्रबल समर्थक हैं। यद्यपि ये हिंदी समझ लेते हैं पर 'काम चलाऊ हिंदी' ही पर्याप्त समझते हैं। ये लोग अधिकांशतः सरकारी प्रशासक, बड़े व्यापारी, डॉक्टर, वकील, वैज्ञानिक, पत्रकार और विश्वविद्यालयों के वे प्रोफ़ेसर हैं जिनके विषय विज्ञान अथवा सामाजिक विज्ञान से संबंधित हैं। ये संभ्रांत अवश्य हैं किंतु भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व नहीं करते।

वर्ग 'ग' और 'घ' ही ऐसे हैं जो 'अंग्रेज़ीयत' से छुटकारा न पाने के कारण हिंदी के विदेशी छात्रों को (अंग्रेज़ी भाषी भी शामिल हैं) हतोत्साहित करते हैं। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अंग्रेजी को अपनी मातृभाषा मानते हैं--जैसा कि एंग्लो-इंडियन लोगों में पाया जाता है, जो सुशिक्षित भी नहीं, 'संभ्रांत' भी नहीं, केवल अंग्रेज़ी में सोचते और जीते हैं, वे निम्नस्तर के 'घ' हैं।

वर्ग 'ङ'.... यह अर्द्ध-शिक्षितों का वर्ग है। ये लोग सरकारी स्कूलों में हिंदी माध्यम से शिक्षा पाते हैं। ये न तो साहित्यिक हिंदी में प्रवीण होते हैं और न ही अंग्रेज़ी में। किंतु उल्लेखनीय बात यह है कि वर्ग 'घ' की अपेक्षा वर्ग 'ङ' के लोग ही विदेशी छात्रों के लिए हिंदी सीखने में अधिक सहायक हैं। एक व्यक्ति, जिसने प्राईमरी स्कूल के केवल तीन वर्षों तक पढ़ाई की थी--को 'दिनमान' पढ़ते हुए देखना, जिसे वर्ग 'घ' या तो पढ़ नहीं सकता या पढ़ना ही नहीं चाहेगा, मेरे लिए एक उत्तेजक अनुभव था।
वर्ग 'च'... यह वर्ग अशिक्षित समुदाय का है। ये हिंदी में भी अशिक्षित हैं। उनकी बोली में शिक्षितों अथवा अर्ध-शिक्षितों की बोली की अपेक्षा अधिक विविधता है। 

अंततः हमें वर्ग 'छ' को भी देखना होगा।

वर्ग 'छ'... यह तथाकथित उन प्रवासी लोगों का वर्ग है जिनकी मातृभाषा हिंदी से इतर है। भाषा की दृष्टि से अल्पसंख्यकों में से दिल्ली में सबसे बड़ा वर्ग पंजाबियों का है. परंतु केवल शिक्षित सिक्ख लोग ही पंजाबी भाषा में जुड़े हुए हैं। अन्य पंजाबियों ने स्वयं को हिंदी परिवेश के अनुकूल ढाल लिया है। जहाँ तक दिल्ली का प्रश्न है, पंजाबियों के बाद कश्मीरियों तथा सिंधियों ने हिंदी स्थिति के साथ पूर्ण मेल बना लिया है। दिल्ली में प्रायः सभी तमिल भाषी और बंगाली शिक्षित हैं। उनका भाषागत जीवन त्रिभुजीय है।

लेख के अंत में तोमियो मिजोकामी निष्कर्ष के रूप में कहते है कि हिंदी क्षेत्र की भाषा समस्या के लिए मुझे कुछ समाधान भी सुझाने चाहिए. वर्ग 'ग' और 'घ' को वर्ग 'का' की ओर बढ़ना चाहिए। उसके लिए उन्हें अपने अंग्रेजी ज्ञान को नहीं छोड़ना चाहिए अपितु उन्हें भारत के साथ अपनी पहचान स्थापित करने के लिए केवल साहित्यिक हिंदी का पर्याप्त ज्ञान अर्जित करना होगा। वर्ग 'ङ' तथा वर्ग 'च' के लिए शिक्षा तथा संस्कृति के मान में वृद्धि के अवसर प्रदान करने चाहिए। उनका वर्ग 'क' अथवा 'ख' में स्थानांतरण वांछनीय है।

यह पत्रिका हिंदी भाषा और साहित्य के ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में स्वीकार की जा सकती है। इसमें सम्मिलित अन्य लेखकों में नोरिहिको उचिदा, यूसुके ओहिरा, ताकाको सुगानुमा, शिगेओ अराकि, रेयोको कोजिमा, तामाकि मात्सुओका, आकिरा ताकाहाशि, मिकि कावामुरा, एदेरा कोदामा, यूइचिरो मिकि, महेंद्र साइजी माकिनो, माकातो फुजिवारा, चिहिरो तानाका, आकिओ ताकामुरा आदि के लेख काफी पठनीय है। योशियाकि सुजुकि ने अपने दम-ख़म पर इसे निकाला। पत्रिका के सभी जापानी लेखकों ने हिंदी और भारत के विषय में जो कुछ लिखा उससे आप यह जान सकते हैं कि ये लोग हिंदी भाषा और भारत से कितना लगाव रखते है। इसलिए इनकी नजरों से हमारा दिखावटी हिंदी भाषा प्रेम छुप नहीं पता। यह पत्रिका साहित्यिक पत्रकारिता का आदर्श भी मानी जा सकती है। जरूरी नहीं कि आप दस-बीस साल पत्रिका को प्रकाशित करते ही रहे। अपना बहुत कुछ सर्वोच्च या सर्वोत्तम देकर किसी एक विशिष्ट स्थान पर ठहर जाना भी बड़ी उपलब्धि है। भारत में साहित्यिक पत्रिकाओं की बाढ़-सी आई हुई है। हर दूसरा लेखक,कवि और प्रोफेसर पत्रिका का संपादक है। क्या पढ़े, किसे पढ़े, कब पढ़े और क्यों पढ़े कुछ समझ में नहीं आता। 

दिनांक : 05/09/2024
शिक्षक दिवस :  मैं आजतक यह नहीं समझ पाया कि शिक्षकों में से कुछ लोगों को चुनकर प्रतिवर्ष राज्य और केंद्र की ओर से आदर्श शिक्षक पुरस्कार क्यों दिए जाते हैं? इससे शिक्षा क्षेत्र को क्या फायदा होता है और कौनसा विशेष आदर्श स्थापित करने की कोशिश की जाती है? ज्यादातर ऐसे शिक्षकों को यह पुरस्कार मिलते हैं जिनकी शिक्षा को लेकर कोई मौलिक उपलब्धि नहीं है। ऐसे अधिकतर शिक्षक किसी न किसी प्रकार का जुगाड़ या राजनीतिक सिफारिश से यह पुरस्कार प्राप्त कर लेते हैं.कमाल के तलवेचाटू लोग होते हैं यह। मेरे नजर में जो कुछ आदर्श शिक्षक पुरस्कार प्राप्त शिक्षकों का वास्तविक चरित्र सामने आया तो मैं दंग रह गया और काफी दुख भी हुआ.अभी कुछ दिनों पूर्व मेरे क्षेत्र में जो शिक्षक निर्वाचन क्षेत्र के चुनाव संपन्न हुए उसमें एक उम्मीदवार की ओर से शिक्षकों को वोट देने के बदले में कुछ रकम और उपहार इन्हीं आदर्श शिक्षक महोदय के घर से वितरित किए गए. इस आदर्श शिक्षक महोदय ने अपने कई शिक्षक मित्रों को फोन कर उपहार और रकम ले जाने के लिए फोन कर प्रेरित किया। कुछ वर्षों पूर्व जब स्थानीय नगर परिषद के चुनाव थे तो यही शिक्षक मित्र एक उम्मीदवार के साथ मुझे कुछ रकम देने के लिए घर आए थे। स्थानीय शिक्षा संस्थान के संचालकों को बड़ी रकम घुस देकर अपनी पत्नी को लेक्चरर बनवाने में भी यह सफल हुए। 

यह जो शिक्षा जगत में आदर्श पुरस्कारों को रेवड़ी के जैसे बाँटने का चलन चल पड़ा है, उसमें अच्छे और उत्तम शिक्षकों की घोर उपेक्षा होती आयी है, इसमें कोई शंका नहीं। शिक्षा संस्थानों में व्याप्त भ्रष्टाचार में ऐसे शिक्षकों की विशेष भूमिका होती है। अच्छे और सृजनशील अध्यापकों को परेशान करने के मामले में ऐसे कलाकार अध्यापक कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते। इनकी बड़ी पहुँच होती है। शिक्षा क्षेत्र से संबंधित अनेक प्रकार की समितियों और विशेषकर पाठयक्रम निर्माण समितियों में भी ये तुरंत घुस जाते हैं। पढ़ने-लिखने या मौलिक चिंतन करने के मामले में यह लोग लगभग शून्य होते हैं पर दिखावा कुछ इस प्रकार से करते हैं कि सामान्य लोगों को लगता है कि यह कितने ज्ञानी शिक्षक है। मैंने तो यह भी सुना है कि ऐसे पुरस्कार प्राप्त होने से अध्यापकों को एक या दो वेतनवृद्धियाँ भी मिलती हैं। तो क्यों न ले वे आदर्श शिक्षक पुरस्कार? इस तरह के शिक्षक मूल रूप से फर्जी शिक्षक कहे जा सकते हैं। अच्छा जो लोग इन्हें पुरस्कृत करते हैं वें भी अपने क्षेत्र के फर्जी लोग ही होते हैं। ऐसे शिक्षकों में से कुछ लोग तो बाक़ायदा प्राइवेट ट्यूशन भी लेते हैं। राजनीतिक लोगों के तलवेचाटू होते हैं। वें पढना-लिखना छोड़कर ज्यादातर लोगों से संपर्क बनाने को अधिक महत्व देते हैं और इस मामले में काफी कुशल और सतर्क होते हैं। शिक्षक संगठनों में भी कार्य करते हैं और अपने परिवेश में अपनी धाक जमाने में सफल होते है। देखने में यह अत्यंत सरल, मिलनसार और विनयशील प्रतीत होते हैं पर इनका ज्यादातर फोकस प्रतिष्ठा और पैसा प्राप्त करने में होता है। यह लोग बहुत ही व्यावहारिक, अवसरवादी और महत्वाकांक्षी होते हैं। दिखावा यह करते है कि वे शिक्षा जगत की कितनी चिंता करते हैं पर छद्म रूप में धन और प्रतिष्ठा अर्जित करना ही इनका हेतु होता है। अनेक ऐसे शिक्षक अपनी पत्नी की सहायता से नेटवर्क मार्केटिंग एवं शेयर बाजार के व्यवहारों में सक्रिय होते हैं और समान्य जनों को ठगते हैं। अपना और अपनी उपलब्धियों का नित्य प्रचार करने में लगे रहते हैं। 

तो यह मैंने इस आदर्श शिक्षक नामक प्रजाति के कुछ लक्षणों से आपको परिचित कराया. आपके देखने में ऐसे कुछ आए हो तो जरूर बताए. मैं भी एक अध्यापक ही हूँ परंतु मैंने ऊपर जो कुछ लिखा हैं वह इन शिक्षकों से मुझे कुछ ईर्ष्या है इस कारण से नहीं लिखा. केवल मेरे निजी अनुभवों को और आकलनों को आधार बनाकर लिखा है. हो सकता है यह पुरस्कार कुछ अच्छे शिक्षकों भी मिला हो पर वह अपवाद स्वरुप है. पर यह भी सच है कि मेरे देखने में अभी तक ऐसा शिक्षक तो नहीं आया जो सच्चा और ईमानदार शिक्षक हो और जिसे शिक्षक पुरस्कार मिला हो. ज्यादातर पुरस्कारप्राप्त शिक्षक पाखंडी,स्वार्थी और दोगले चरित्र के ही हैं. ऐसे शिक्षकों को आदर्श कैसे कहा जा सकता हैं? पर दुर्भाग्य से यह आदर्श ही नहीं बल्कि शिक्षा क्षेत्र के नायकों के रूप में महिमामंडित हो रहे हैं और फल-फुल रहे हैं. क्या आपको नहीं लगता कि ऐसे चमकोगिरी,चमचागीरी और बेइमान शिक्षकों की निंदा नहीं होनी चाहिए? मैं तो निंदा करता हूँ. ऐसे शिक्षक समाज और शिक्षा क्षेत्र पर कलंक ही है ऐसा मैं मानता हूँ. 
       
दिनांक : 07/09/2024 
सबसे अच्छा और उत्तम शिक्षक किसे माना जाए? मुझे तो लगता है कि आजकल का सबसे अच्छा और उत्तम शिक्षक वह है जो प्रतियोगी परीक्षाओं में सफल होने के लिए मार्गदर्शन करता हो। NEET/JEE आदि परीक्षाओं में सर्वोच्च वरीयता श्रेणी में उत्तीर्ण होने में मदद करता हो यानी इसके कौशल सिखाता हो अर्थात अच्छी कोचिंग करता हो.फिर चाहे इसके लिए कितना भी शुल्क वह वसूले इससे हमें कोई फर्क़ नहीं पड़ता। बिना किसी कठिनाई के पीएच.डी. पूरी करवा देता हो और यदि हो सकें तो अपनी पहुँच से कॉलेजों या विश्वविद्यालयों में प्राध्यापक की नौकरी दिलवाने में भी काम आ सकें तो वही अच्छा और आदर्श शिक्षक है। उसका चरित्र क्या है,कैसा है? इससे हमें कोई मतलब नहीं, बस किसी भी तरह से हमारा काम करवा दे वही अच्छा शिक्षक है। किसी भी तरह से सफल होना ही आजकल की शिक्षा का लक्ष्य है। आप यदि सफल नहीं हुए तो आपकी प्राप्त शिक्षा व्यर्थ है। फिर भले ही आप कितने भी अच्छे, सुयोग्य और प्रामाणिक मनुष्य क्यों न बने हो। IIT,MBBS, IAS, IPS, IFS, IRS या कोई अच्छी और आराम की और प्रतिष्ठा युक्त सरकारी नौकरी आप प्राप्त नहीं कर सके तो आपकी शिक्षा और शिक्षण पर प्रश्नचिह्न लग जाता है। हमारे देश में उत्तम शिक्षा और शिक्षक की जो नयी अवधारणा विकसित हुई है वह चिंताजनक है।

दिनांक : 08/09/2024
कुछ दो/तीन वर्ष पूर्व की ही बात होगी। नगर के एक बड़े ज्वेलर्स की दुकान से शिक्षक दिवस के पूर्व मुझे फोन आया था। इस ज्वेलर्स की कई नगरों में शाखाएँ है। फोन एक भद्र महिला द्वारा किया गया था। उसने मुझे निवेदन किया कि वे शिक्षक दिवस के अवसर पर मेरा सम्मान करना चाहते हैं। मेरे साथ अन्य कई शिक्षकों का भी समारोहपूर्वक सम्मान किया जाएगा। मुझे याद नहीं कि मैंने उनसे क्या विस्तृत बात की पर मैंने सम्मान ग्रहण करना अस्वीकार किया और यह पूछा कि मेरे बारे में आप क्या जानते हैं? मैं कौनसा विषय पढ़ाता हूँ, आदि। उन्हें कुछ पता नहीं था। वास्तव में उनकी वाणी में सम्मान का कोई विशेष भाव नहीं था और न मेरा परिचय. मुझे लगा कि एक मार्केटिंग स्टंट के रूप में वे इस अवसर को भुनाना चाहते थे। यदि मैं कहता कि आपको मेरी यह किताबें खरीदनी होगी तो? लेकिन मुझे खुद इस तरह अपना मार्केटिंग करना ठीक नहीं लगा। उन्होंने काफी आग्रह किया और आश्चर्य भी व्यक्त किया कि मैं पहला ऐसा शिक्षक हूँ जो उनका यह सम्मान नहीं ग्रहण कर रहा है पर मैंने कहा कि नहीं।

आज एक स्थानीय अखबार में खबर पढ़ी कि उन्होंने नगर में कार्यरत कुछ निजी कोचिंग क्लासेस के संचालकों का कि जो बाक़ायदा शिक्षक भी होते हैं, शिक्षक दिवस के अवसर पर सम्मान किया। आजकल मैं इसतरह से शिक्षकों को पुरस्कृत करने का जो प्रचलन बढ़ता हुआ देखता हूँ तो समझ नहीं पाता हूँ कि यह किस तरह का सम्मान है। सम्मान दिखावे या प्रदर्शन की चीज़ तो नहीं है।

दिनांक : 14/09/2024
हिंदी भारतीय स्वाधीनता संग्राम के गर्भ से उत्पन्न भाषा है। वह लोक और लोकतंत्र की भाषा है.वह संघर्ष से उत्पन्न भाषा है। भारत की कोई भी भाषा इसतरह संघर्ष से उत्पन्न भाषा नहीं है। वह साधु-संतों, किसानों, मजदूरों, सिपाहियों और स्वतंत्रता सेनानियों की भाषा है। हिंदी कायरों की भाषा नहीं है इसलिए वह भारत का प्राण है और भारत का ब्रांड है। हिंदी को खतरा सिर्फ अँग्रेजी भाषा में पढ़े-लिखे अभिजात वर्ग के भारतीयों से है। ऐसे भारतीय जो भाषा के द्वारा धन और प्रतिष्ठा प्राप्त करना चाहते हैं और शानो-शौकत से जीना चाहते हैं। जब तक हिंदी लोक के कंठ-कंठ में बसी हुई है तब तक उसे कोई पराजित नहीं कर सकता। सरकार कोई भी हो, हिंदी के लिए विशेष कुछ नहीं कर सकती। हिंदी का दुर्भाग्य केवल इतना है कि महात्मा गांधी, मदन मोहन मालवीय, काका कालेलकर जैसे कर्मठ हिंदी प्रेमी आज दिखाई नहीं देते। 
     
दिनांक : 16/09/2024
अँग्रेजी, तूने हम सब को बिगाड़ा : आज प्रात: मेरे एक वरिष्ठ मित्र राजेंद्रसिंह गहलोत ने अपनी फेसबुक वाल पर एक पोस्ट लिखी जिसमें उन्होंने अपने बचपन में सुनी एक काव्यपंक्ति को उद्धृत किया जो इस प्रकार है--

"हिंदी  की  चिंदी, उर्दू  का  नगाड़ा, 
धत तेरी इंग्लिश, तूने सबको बिगाड़ा।"

यह पंक्तियाँ संभवतः स्वतंत्रतापूर्व कालखंड की है जो उस समय की हिंदी की दुर्गति, उर्दू के प्रति आग्रह और अँग्रेजी के बढ़ते वर्चस्व पर भाष्य करती है। आप कुछ भी कहे पर भारत देश में जिस तरह अँग्रेजी का व्यापक प्रचार-प्रसार हो चुका है और लगभग देश की प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्चशिक्षा तक का माध्यम अँग्रेजी बन चुकी है तब यह प्रश्न अनिवार्य रूप से उपस्थित होता है कि क्या अँग्रेजी भाषा ने हमारे भविष्य को अपने कब्जे में ले लिया है? क्या अँग्रेजी भाषा में शिक्षा ग्रहण करने के कारण हम सचमुच में सुधर चुके हैं और पर्याप्त प्रगति कर चुके हैं? यदि अँग्रेजी भाषा नहीं होती तो क्या हम अच्छे से पढ़-लिख नहीं पाते? अनपढ़ और मूर्ख ही रह जाते? क्या अँग्रेजी शिक्षा के बिना हमारी शिक्षाव्यवस्था अधूरी है? हम देश में अँग्रेजी के बिना पढ़ने-लिखने की कल्पना तक नहीं कर सकते। हमारे देश का दुर्भाग्य ही है कि संसार की उत्तम और वैज्ञानिक भाषाओं के होते हुए भी हम अँग्रेजी भाषा में लिखते-पढ़ते हैं और उसके बिना जैसे हमारा पढना-लिखना व्यर्थ है। देखिए, अँग्रेजी न हम अपने घर में बोलते हैं न आपस में बोलते हैं। फिर भी हम अँग्रेजी में पढ़ना अपने लिए गौरव का विषय क्यों समझते हैं? जिसे अँग्रेजी बोलना आती है ऐसे व्यक्ति को झट से हम अपने से श्रेष्ठ और ऊँचा समझने लगते हैं। क्या इससे स्पष्ट नहीं है कि हम बहुत ही बुरी तरह से अपनी भाषाओं के बारे में हीनभावना से ग्रस्त हैं। मेरे बच्चे जिस स्थानीय स्कूल में पढ़ते हैं वहाँ के अध्यापकों को अँग्रेजी में वार्तालाप करना अनिवार्य कर दिया गया। एक बार जब मैं बच्चों के स्कूल का शुल्क भरने गया था तो उस समय स्कूल के प्रिंसिपल कोई घोषणा अँग्रेजी में दे रहे थे जो सभी कक्षाओं में लाउडस्पीकर के द्वारा सुनायी दे रही थी। यदि कोई शिक्षक हिंदी का है तो भी उसके लिए प्रिंसिपल और अन्य शिक्षकों से अँग्रेजी में बातचीत करना अनिवार्य कर दिया गया हैं। यह कितनी शर्म और संताप की बात है। नहीं? हमें वास्तव में हमारे देश के प्राइवेट स्कूलों के अंदरूनी हालातों की जानकारी ही नहीं है। मुझे भी अपने बच्चों के कारण ही पता चलता है। मेरी बेटी को संस्कृत पढ़ानेवाली अध्यापिका अँग्रेजी में अनुवाद कर संस्कृत पढ़ाती हैं और वह मैथ की अध्यापिका है। मैं इस स्कूल को 'विद्यालय' क्यों नहीं कह रहा हूँ। इसके पीछे की भावना आप समझ सकते हैं। मेरे कुछ छात्र सी.बी.इस.ई. बोर्ड के प्राइवेट और निवासी स्कूलों में हिंदी पढ़ाते हैं और अँग्रेजी के ज्ञान की कमी को लेकर अपमानित होते रहते हैं। हिंदी के अध्यापक होने के नाते उन्हें अन्य अध्यापकों से कम वेतन दिया जाता हैं और अनेक स्तरों पर प्रताड़ित किया जाता हैं। केवल नाम के लिए स्कूलों में हिंदी दिवस मनाया जाता है। 

भारत में कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के भी यही हाल हैं. जेएनयू में अँग्रेजी वार्तालाप सर्वविदित है. मेरे महाविद्यालय में एक विज्ञान के प्राध्यापक है जिनसे मैंने कुछ दिनों पूर्व संबंध खत्म कर दिए हैं कमाल का जाहिल आदमी लगा वह मुझे. वह अँग्रेजी में बोलने को अपनी शान समझता था. यद्यपि उसकी अँग्रेजी मुझे काफी खराब लगी. एक बार मैंने तीन-चार प्राध्यापकों के समक्ष उसकी अँग्रेजी की खबर ली तो बहुत नाराज हो गए और हिंदी मे मराठी के शब्दों को मिलाकर बोलते हुए हिंदी का मजाक उड़ाने लगे.मैंने एक तरह से उनकी प्राप्त शिक्षा पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया और इस संबंध के टूटने का मुझे बिलकुल दुःख नहीं है. यह किस्सा मैंने इसलिए कहा कि पूरे भारत का ही ऐसा हाल हैं. अँग्रेजी ठीक से आती नहीं और बोलने की जरूरत भी नहीं तब भी लोग जानबूझकर अँग्रेजी बोलते हैं. क्यों बोलते हैं? अँग्रेजी के प्रति यह हमारा कट्टर प्रेम विश्व में भी आलोचना का विषय बना हैं.एक समय जे.बी. कृपलानी ने कहा था कि अँग्रेजी इंग्लैंड से खत्म हो सकती है लेकिन भारत से नहीं. 

स्वतंत्रता के बाद हिंदी ही नहीं बल्कि भारतीय भाषाओं के लिए भी विशेष कुछ काम नहीं हुआ बल्कि उनकी अधिक दुर्गति हुई है विशेषकर शिक्षा के क्षेत्र में। भारत में लगभग सभी स्तरों पर अँग्रेजी में दी और ली जानेवाली शिक्षा तो बहुत गंभीर समस्या हैं। लोगों को लगता हैं कि यदि वें अँग्रेजी में नहीं पढ़ेंगे तो पिछड जायेंगे। भारत की सामाजिक संरचना ही ऊँच-नीच के भेदभाव पर आधारित हैं। इसमें भाषा भी आग में तेल डालने का काम करती हैं। जन्म किस जाति में लिया से लेकर किस भाषा के हो और बोलते हो से लेकर यह मानसिकता कार्य करती हैं. अच्छे-अच्छे प्रतिभाशाली बालकों का अँग्रेजी के कारण भविष्य खतरे में पड जाता है। आजकल आप यदि निजी स्कूलों के नाम देखेंगे तो अधिकांश अँग्रेजी में ही मिलेंगे और वह भी इंटरनेशनल स्कूल। राष्ट्रीय विद्यालय या नैशनल स्कूल कहने में उन्हें किस बात की कमी महसूस होती है पता नहीं? दूकानों के नाम, अधिकांश विज्ञापन आपको अँग्रेजी में मिलेंगे। इधर मैं देखता हूँ कि लोग कचहरियों में मराठी में काम करते हैं, समाचारपत्र मराठी के पढ़ते हैं पर स्कूलों में अँग्रेजी में पढना चाहते हैं। भाषण मराठी में देते हैं, बाज़ारों में लेनदेन और बातचीत मराठी में करते हैं पर आपना नाम लिखना और हस्ताक्षर अँग्रेजी में करते हैं। आवेदन मराठी में होगा और हस्ताक्षर अँग्रेजी में। क्यों? भाषा के प्रयोग को लेकर कमाल के विरोधाभास इस देश में देखने को मिलते हैं. जरूरत हैं भारत के शिक्षा व्यवस्था में शीघ्र बदलाव और सुधार करने की। नयी शिक्षा नीति में भाषा को लेकर कुछ पहल तो हुई है पर मुझे नहीं लगता कि उससे कुछ विशेष हाथ लगेगा। उच्चशिक्षा में विषयों का वर्गीकरण पाश्चात्य शिक्षा पद्धतियों के आधार पर किया गया जैसे मेजर, माइनर, ओपन आदि। क्यों? क्या हम अपनी भारतीय प्रणाली के अनुसार नहीं कर सकते थे?

दिनांक : 18/09/2024 
जब भी गणेश चतुर्थी यानी गणेशोत्सव की तिथि निकट आ जाती है तो मैं अपने अंतर्जगत में ही बहुत दुःखी, अन्यमनस्क और व्यथित हो जाता हूँ। वह इसलिए कि जिन गणेश मूर्तियों की अब घर-घर स्थापना और पूजा-अर्चना होगी उनका ग्यारहवे दिन जिस प्रकार अंत होगा, वह मैं प्रभु कैसे देख सकूँगा? नदी, नालों, तालाबो के किनारों पर टूटी-फूटी और विद्रुप हुई उन सुंदर मूर्तियों को देखकर प्रभु मैं अपने घर कैसे लौट सकूँगा और कैसे भोजन कर सकूँगा? मुझसे भगवान गणेश की यह दुर्गति नहीं देखी जा सकेगी। मैं गणेश जी के लिए कुछ भी करने में असहाय और असमर्थ हूँ। क्या समस्त हिंदू इसप्रकार गणेश जी की हो रही अवहेलना और विडम्बना को बिलकुल महसूस नहीं करते? क्या हमें नहीं लगता कि हम बहुत कुछ गलत और अशोभनीय कृत्य कर रहे हैं? जिस प्रकार हमने गणेश का स्वागत किया और पवित्र भाव से उनकी अपने-अपने घर सेवा की क्या हम वही लोग है? हम गणेश जी को ज्ञान की देवता मानते हैं और लगभग हमारे सभी पूजा-अनुष्ठानों में गणेश जी की पूजा को प्रथम मान-सम्मान दिया जाता है और जिन्हें हम अपने लिए शुभ यानी सुख प्रदान करने वाले और दुःख का हरण करने वाले देवता मानते है तो क्या हम वास्तव में वही लोग है। ब़ड़ा अच्छा शब्द दिया गया है--'विसर्जन' यानी उनका सम्मानसहित त्याग करना यानी विदा देना। यह कैसे सम्मानसहित हो सकता है? मूर्ति के पानी में विलीन होने को ही सम्मानसहित विदाई माना जा सकता है पर मूर्ति तो विलीन हुई ही नहीं! मूर्ति जिस मिट्टी से बनी हुई थी वह मिट्टी गली ही नहीं। मूर्ति तो मिट्टी की बनी ही नहीं है। मूर्ति खंडित होकर यानी टुकडों-टुकडों में किनारों पर बिखरी पडी है। वह पानी में पिघलती ही नहीं है। किनारों पर गंदगी के बीच पड़े मूर्ति के अवशेष देखने पर ऐसे लगता हैं जैसे हम किसी दुर्घटनास्थल को देख रहे हैं, जहाँ भगवान गणेश के अंग-प्रत्यंग कटकर बिखरे पडे हैं और ऐसा दृष्य देखने में अत्यंत वीभत्स और असहनीय प्रतीत हो रहा है। जब मूर्ति पानी में विलीन ही नहीं हो सकती तो उसका विसर्जन हुआ कैसे? इन समस्त मूढ़ हिंदुओं की आँखें क्यों नहीं खुलती? उन्हें क्यों नहीं समझ में आता कि हम अपने आराध्य देवता का अपमान ही कर रहे हैं। उनकी दुर्गति कर रहे हैं और अन्य धर्मों के समक्ष निंदा का विषय बन रहे हैं। बुलडोजर से भगवान गणेश के अंग-उपांगो को इकट्ठा करते हुए देखना मुझे बहुत-बहुत ही बुरा लगा। क्या आपको नहीं लगता? जब घर का बर्तन भी कभी टूट जाता है तो हमें दुःख होता है। ठीक है कि हम उत्सव मना रहे हैं पर हमें यह भी तो होश नहीं रहा हैं कि हम जो कर रहे हैं वह हमारी आस्था और पूजा पद्धति का कभी हिस्सा नहीं रहा हैं। कभी विषय नहीं रहा हैं। नाच-गाना और हुड़दंग कहाँ से हमारी भक्तिभावना का अंग हो चुके हैं?

हिंदू धर्म को दिशा देनेवाला ही मुझे आज कोई दिखाई नहीं दे रहा हैं। जिसके मन में जैसा आ रहा है, वैसा वह कर रहा हैं। समाज के जागरुक व्यक्तित्व आज कहाँ लुप्त हो चुके हैं? कोई रोकने-टोकने वाला नहीं। ऐसे उत्सवों को लेकर हिंदुओं को शीघ्र जागने और सुव्यवस्थित दिशा में धर्म को दिशा देने की आवश्यकता है, ऐसा मैं समझता हूँ। पीओपी से बनी मूर्तियों पर उसी तरह प्रतिबंध लगा देना चाहिए जैसे गांजा, चरस और अन्य नशे की वस्तुओं पर लगाया जाता है। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी। वैसे हिंदू धर्म में अब भी बड़े नवजागरण की संभावना बरकरार है। 
                                                                                      

--डॉ कुबेर कुमावत
  महाराष्ट्र, भारत
  ई-मेल: kuberkumawat72@gmail.com  


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क्षमा कल्याण द्वारा व्यवहार दर्शन से मनोगत पवित्रता - डॉ अजय शुक्ल

“अन्तर्मन की पवित्रता को सुरक्षित एवं संरक्षित रखने हेतु मानवीय संवेदनशीलता सर्वाधिक प्रखर एवं मुखर रूप से प्रेरणादायी भूमिका निभाती है जिसमें मानवनिष्ठ सरोकार के माध्यम से भावनाओं की अभिव्यक्ति के साथ ही अन्तःकरण की पवित्र भावना का स्वरूप भाषायी शुचिता के द्वारा प्रतिबिम्बित होता है। जीवन में सुख. शाँति एवं आनंद के प्रकल्प की तलाश करते हुए व्यक्ति सैद्धान्तिक रूप से--'रहिमन मीठे वचन से सुख उपजत चहुँ ओर...' तक पहुँच जाता है, जहाँ उसे स्वयं की भावना पर कार्य करने का सुअवसर प्राप्त होते ही--"जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी...’ का व्यावहारिक एवं निष्पक्ष व्याख्या अनुगमन हेतु प्राप्त हो जाती है हृदय की निर्मलता से ही मस्तिष्क में उत्पन्न  होने वाले विचारों की स्पष्टता अर्थात् बोधगम्यता के संदर्भ एवं प्रसंग में विश्लेषण निर्धारित हो पाता है जिसे मर्यादित  आचरण द्वारा सम्प्रेषण को वृहद स्तर पर सामाजिक स्वीकारोक्ति के स्वरूप में मान्यता प्राप्त होती है।”

आत्मगत स्वरूप से क्षमा कल्याण
व्यवहार जगत में पवित्र अंतर्मन से स्वयं का अति सूक्ष्म मूल्यांकन क्षमा कल्याण की भावभूमि को स्वीकार करते हुए--क्षमा द्वारा आत्महित एवं परहित के संज्ञान से आत्मगत स्वरूप में उत्तम क्षमा कायथार्थवादी प्रयोग किया जाना जीवन की उच्चता का प्रमाण है। सर्व मानव आत्मा के लिए मंगलकारी परिवेश की व्यापकता हेतु  शुभ भावना एवं शुभ कामना जीवन की श्रेष्ठतम प्रार्थना के साथ-साथ व्यावहारिक दृष्टि से घटित और फलित के प्रति वृहद् कल्याणकारी प्रवृत्ति की शुभेच्छा का सात्विक परिणाम होता है। जीवन में निमित्त स्थिति की अनुभूति द्वारा सर्व जनहिताय कार्य करते हुए स्वयं को उन्मुक्त रखना ही निर्माण चित्त अवस्था की व्यावहारिकता है जो निर्मल हृदय के स्वरूप में निरन्तर प्रवाहित होती रहती है तथा क्षमा कल्याण की सद्भावना शक्ति से निर्वाण को भी प्राप्त हो जाती है। 

दया धर्म  के मूल सिद्धांत को आत्मसात करके जीवन में  व्यावहारिक रूप से अनुपालन करने पर जीव दया का संवेदनशीलता पक्ष, क्षमा के कल्याणकारी श्रेष्ठतम स्वरुप में परिलक्षित एवं प्रस्फुटित होकर वीरों का आभूषण बन जाता है। प्रकृति के पंच तत्वों का नैसर्गिक धर्म और व्यावहारिक कर्म सृष्टि के संपूर्ण प्राणी मात्र को दाता स्वरूप बनकर उन समस्त जीवात्मा के प्रति--दया, करुणा, प्रेम, वात्सल्य, सहयोग एवं सहानुभूति रूपी सद्गुणों के सानिध्य में जीवन पर्यन्त सूक्ष्म और स्थूल स्वरूप से  पालनहार की भूमिका में क्षमा कल्याण का भाव जगत भी सन्निहित रहता है।

मानवीय आचरण द्वारा व्यवहार दर्शन
जीवात्मा संपूर्ण जीवन काल में स्वयं को आत्मगत स्वभाव के आधारभूत पक्ष से नियम-संयम के प्रति संचेतना द्वारा सजगता हेतु मर्यादित शैली में चेतावनी प्रदान करती है क्योंकि उसके वृहद परिदृश्य में मानवीय आचरण की गरिमामयी स्थिति को बनाए रखना का मूलभूत उद्देश्य अर्न्तनीहित होता है। सामाजिक जीवन में मानवीय आचरण को अत्यधिक संवेदनशील स्वरूप में विश्लेषित किया जाता है जिसे अध्यात्म की आत्मिक ऊर्जा को आत्मसात करके ही स्वीकृत एवं सुनिश्चित किया जा सकता है जिसमें आत्मा की त्रिविध शक्तियाँ--मन, बुद्धि और संस्कार के श्रेष्ठतम सांमजस्य की कला समाहित रहती है। चेतना की पवित्रता से उपजने वाली उन्मुक्त अवस्था श्रेष्ठ व्यवहार को निभाने हुए मानवतावादी संबंध को विकसित करने में विश्वास रखती है जिसके परिणाम स्वरूप आत्मीय जुड़ाव के अंतर्गत निष्ठापूर्ण व्यावहारिकता की कुशलतम पृष्ठभूमि निर्मित हो जाती है। 

आध्यात्मिक चिंतन के परिवेश की विराटता द्वारा--मन, वचन, कर्म, समय, संकल्प ,सम्बन्ध एवं स्वप्न में भी पवित्रता का पुरुषार्थ करने में संलग्न साधक-आचरण के आचार्य स्वरुप में पारदर्शी जीवन से सदा सृजित रहकर व्यवहार दर्शन की उपयोगिता को प्रतिपादित कर देते हैं।जीवन में उच्चतम व्यवहार की दीर्घकालीन अपेक्षा का आरम्भिक परिवेश निज आत्मन से सर्व आत्मन बन्धुओं की ओर सम दृष्टि के सानिध्य में अग्रसर होता है जिसमें क्षमा भाव का कल्याणकारी दृष्टिकोण आत्मिक परिष्कार के हितार्थ सम्पूर्ण सक्रियता से क्रियाशील बना रहता है। 

आत्मिक उत्कर्ष में मनोगत पवित्रता 
मनोगत पवित्रता की अवधारणा जीवात्मा के कल्याणकारी स्वरूप का महत्वपूर्ण बिन्दु होता है जहाँ से मन की शुद्धता का आरम्भिक काल श्रेष्ठतम के प्रति श्रद्धा को अभिव्यक्त करते हुए-–शुभम करोति कल्याण’ में आस्था का बीजारोपण कर देता है जिससे व्यक्तिगत मान्यता पवित्र कर्म को क्रियान्वित करने के लिए अग्रसर हो जाती है। आत्म हित की दिशा में जब स्व-परिवर्तन को स्वीकार कर लिया जाता है तब अन्तर्मन में रूपान्तरण की क्रियाविधि आत्मानुभूति के लिए सम्पूर्ण रूप से तत्पर हो जाती है और चेतना स्वयं को परिमार्जित करने के साथ ही परिवर्धन अर्थात आत्मगत विकास को आत्मिक परिष्कार के सम्बन्ध में पूर्णतया स्वीकार कर लेती है। व्यावहारिक जगत में मनोगत पवित्रता से अन्तःकरण के परिवेश को शक्तिशाली बनाने का कार्य पुरुषार्थ के द्वारा गतिशील रहता है जिसमें बाह्य जगत से भी मदद प्राप्त करने हेतु क्षमा भाव के कल्याणकारी परिदृश्य को अनुकरण एवं अनुसरण करने की सदा अनिवार्यता बनी रहती है।

अनहद नाद का निरंतर अभ्यास आत्म तत्व एवं परमात्म सत्ता के पवित्रम सम्बन्धों का आधार बनता है जिसमें स्वयं से संवाद हेतु आत्म दर्शन की प्रक्रिया को आत्मसात करना होता है। इसके साथ ही परमात्म दर्शन से परमानंद स्वरूप की अनुभूति आत्मिक उत्कर्ष का कारण बन जाती है। जगत में--मन, वचन एवं कर्म से पवित्र आत्माओं को ही चरित्रवान और महान आत्मा की संज्ञा से निरूपित किया जाता है तथा उनके जीवन को मूल्यवान स्वरूप में स्वीकार करके सर्व मानव आत्माओं के कल्याण में सहयोगी बनने के कारण आभार युक्त भाव अभिव्यक्त किया जाता है।

भाव भासना का नैसर्गिक उपयोग
प्रकृति प्रदत्त सृजनात्मक विद्या के अंतर्गत--‘सृजन के लिए सृजन' की उत्पत्ति एवं उसका नैसर्गिक उपयोग चिन्तनशील स्वरूप में विद्यमान रहता है जिसमें मानवीय भावना और भासना अपनी सूक्ष्म तरंगों के माध्यम से जीवात्मा की उन्नति में सहायक सिद्ध होते हैं। आत्मीयता से युक्त भाव एवं भासना मनुष्य जीवन में मधुर सम्बन्धों महत्वपूर्ण आधार होते हैं जिसमें व्यक्ति के व्यक्तित्व को क्षमा के कल्याणकारी गुण के साथ जोड़ देने पर आत्मगत चिंतन का परिवेश ही परिष्कृत स्वरूप में परिवर्तित हो जाता है। भाव जगत की पवित्रता को बनाये रखने के लिए आध्यात्मिक क्षेत्र में तत्व चिंतन की ओर अभिमुखित होते हुए आत्मा और परमात्मा के गुणानुवाद से समर्पित चेतना को सम्पूर्णता एवं सम्पन्नता अर्थात आत्म वैभव की भासना से अभिसिंचित करने का पुरुषार्थ सहजता से किया जाना परम आवश्यक होता है। 

आन्तरिक और बाह्य जगत के वातावरण को सौहार्दपूर्ण बनाये रखने हेतु भाव एवं भासना का नैसर्गिक उपयोग क्षमा कल्याण के सद्‌गुण से सुसज्जित होकर अर्न्तमन को शक्तिशाली बनाने की क्रियाविधि में गहनता से संलग्न रहता है। मानवीय व्यवहार के केन्द्र में जीवन के मूल्यपरक गुणों एवं शक्तियों से युक्त विभिन्न प्रकार की आदर्श स्थितियां होती हैं जिनके अनुगमन हेतु अंत:करण की पवित्रता से युक्त मनोगत की उपस्थिति सदा ही उपयोगी होती है।

सुख शांति हेतु भावना भासना
आत्म जगत से सम्बंधित सम्पूर्ण स्वरुप का विश्लेषणात्मक अध्ययन करने पर यह ज्ञात हो जाता है कि आत्मा के स्वमान, स्वरूप एव स्वभाब में अर्न्तनीहित तत्व क्षमा के कल्याणकारी स्वरूप स प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से सम्बद्ध हैं जिसके द्वारा सर्व मानव आत्माओं को व्यवहार दर्शन से आत्म साक्षात्कार सुनिश्चित हो जाता है। अन्तर्मन की पवित्रता को सुरक्षित एवं संरक्षित रखने हेतु मानवीय संवेदनशीलता सर्वाधिक प्रखर एवं मुखर रूप से प्रेरणादायी भूमिका निभाती है जिसमें मानवनिष्ठ सरोकार के माध्यम से भावनाओं की अभिव्यक्ति के साथ ही अन्तःकरण की पवित्र भावना का स्वरूप भाषायी शुचिता के द्वारा प्रतिबिम्बित होता है। जीवन में सुख, शाँति एवं आनंद के प्रकल्प की तलाश करते हुए व्यक्ति सैद्धान्तिक रूप से--'रहिमन मीठे वचन से सुख उपजत चहुँ ओर...' तक पहुँच जाता है जहाँ उसे स्वयं की भावना पर कार्य करने का सुअवसर प्राप्त होते ही-- " जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी...’ का व्यावहारिक एवं निष्पक्ष व्याख्या अनुगमन हेतु प्राप्त हो जाती है। 

हृदय की निर्मलता से ही मस्तिष्क में उत्पन्न होने वाले विचारों की स्पष्टता अर्थात् बोधगम्यता के संदर्भ एवं प्रसंग में विश्लेषण निर्धारित हो पाता है जिसे मर्यादित  आचरण द्वारा सम्प्रेषण को वृहद स्तर पर सामाजिक स्वीकारोक्ति के स्वरूप में मान्यता प्राप्त होती है। आध्यात्मिक परिदृश्य के अन्तर्गत प्रविष्ठता से मुक्ति एवं जीवन मुक्ति की प्रासंगिकता को ढूंढ़ने का जतन मानवीय स्वभाव की प्रवृत्ति में समाविष्ट होता है जिसे क्षमा की पवित्र भावना एवं विचार द्वारा कल्याणकारी स्वरूप में प्राप्त करके आत्महित से शुद्ध उपयोग का श्रेष्ठतम परिवेश निर्मित किया जा सकता है ।

डॉ अजय शुक्ल ( व्यवहार वैज्ञानिक ) 
  ई-मेल: drajaybehaviourscientist@gmail.com


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सुशील सरना की दो कविताएँ  - सुशील सरना

अवशेष

गोली
बारूद ......

 
 
न हारा है इश्क़-- - ख़ुमार बाराबंकवी

न हारा है इश्क़ और न दुनिया थकी है
दिया जल रहा है हवा चल रही है

सुकूँ ही सुकूँ है ख़ुशी ही ख़ुशी है ......

 
 
दो बाल कविताएं  - डॉ वंदना शर्मा

चाँद

मम्मी देखो न
ये चाँद टुकुर-टुकुर तकता है ......

 
 
उदासियों का मौसम---  - शांती स्वरुप मिश्र

ज़रा उदासियों का मौसम, बदल के तो देखो
कुछ कदम तो मेरे साथ, तुम चल के तो देखो

उतर जायेगा बोझ सारा, तेरे दिल का अय यारा,......

 
 
है मुश्किलों का दौर - शांती स्वरुप मिश्र

है मुश्किलों का दौर, तो क्या हँसना हँसाना छोड़ दूँ?
क्या तन्हाइयों में बैठ कर, मिलना मिलाना छोड़ दूँ?

वक़्त का भी क्या पता कब दिखा दे अपने कारनामे,......

 
 
जाम होठों से फिसलते - शांती स्वरुप मिश्र

जाम होठों से फिसलते, देर नहीं लगती
किसी का वक़्त बिगड़ते, देर नहीं लगती

न समझो हर किसी को किस्मत अपनी......

 
 
हर लम्हा ज़िंदगी के-- - सूर्यभानु गुप्त

हर लम्हा ज़िंदगी के पसीने से तंग हूँ
मैं भी किसी क़मीज़ के कॉलर का रंग हूँ

मुहरा सियासतों का मिरा नाम आदमी ......

 
 
ग़ज़ल  - ए. डी राही

अपने अरमानों की महफ़िल में सजाले मुझको
बेज़ुबाँ  दीप  हूँ  कोई भी जला ले मुझको

नींद जलती हुई आँखों  से चुराने वाले!......

 
 
चाहता हूँ चुप रहे - विजय कुमार सिंह

चाहता हूँ, चुप रहे कुछ भी न बोले,
पर मेरा मन तब भी मुझसे बोलता है। ......

 
 
अभिशापित जीवन - डॉ॰ गोविन्द 'गजब'

साथ छोड़ दे साँस, न जाने कब थम जाए दिल की धड़कन।
बोझ उठाये कंधों पर, जीते कितना अभिशापित जीवन॥

हिन्दू हो यामुसलमान, है हर मजदूर की एक कहानी।......

 
 
अहम की ओढ़ कर चादर - अमिताभ त्रिपाठी 'अमित'

अहम की ओढ़ कर चादर
फिरा करते हैं हम अक्सर

अहम अहमों से टकराते......

 
 
आओ साथी जी लेते हैं - अमिताभ त्रिपाठी 'अमित'

आओ साथी जी लेते हैं
विष हो या अमृत हो जीवन......

 
 
मेरे बच्चे तुझे भेजा था  - अलका जैन

मेरे बच्चे तुझे भेजा था पढ़ने के लिए,
वैसे ये ज़िन्दगी काफी नहीं लड़ने के लिए। ......

 
 
बदलकर आंसुओं की धार | गीत - तुलसी

बदलकर आंसुओं की धार को मैं मुस्कुराती हूँ।
जगाती ओज की धारा बहुत सुख-चैन पाती हूँ॥......

 
 
हेलेन क्लार्क विश्‍व स्‍वास्‍थ्‍य संगठन के नए पद पर - भारत-दर्शन समाचार

न्यूजीलैंड की पूर्व प्रधान मंत्री, 'हेलेन क्लार्क' विश्‍व स्‍वास्‍थ्‍य संगठन के 'महामारी तैयारी और प्रतिक्रिया' दल की सह-अध्यक्ष नियुक्त
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वीडियो कॉन्फ्रेंस के माध्यम से सौंपा परिचय पत्र - भारत-दर्शन समाचार

9 जुलाई 2020 (न्यूजीलैंड) : भारत में न्यूजीलैंड के नए उच्चायुक्त, डेविड पाइन ने 8 जुलाई को वीडियो कॉन्फ्रेंस के माध्यम से राष्ट्रपति को अपना परिचय पत्र सौंप दिया है। वे भारत में न्यूज़ीलैंड के 21वें उच्चायुक्त हैं।

राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद ने न्यूजीलैंड के अतिरिक्त यूनाइटेड किंगडम और उज्बेकिस्तान के मिशन प्रमुखों से भी परिचय पत्र प्राप्त किए। कोविड-19 महामारी के चलते वीडियो कॉन्फ्रेंस के माध्यम से राष्ट्रपति भवन में दूसरी बार परिचय पत्र स्वीकार किए गए हैं।

इससे पहले 21 मई को सात देशों के उच्चायोग व दूतावास प्रमुखों ने अपने परिचय पत्र राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद को सौंपे थे।

[भारत-दर्शन समाचार]

 


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न्यूजीलैंड कोविड-19-मुक्त है, अंतिम सक्रिय व्यक्ति भी स्वस्थ - भारत-दर्शन समाचार

न्यूजीलैंड में आज रात 12 बजे के बाद से लेवल 1 आरंभ

8 जून 2020 (न्यूजीलैंड): न्यूजीलैंड में आज लगातार 17वां दिन है जब कोई भी नया कोरोना मामला नहीं आया और आज अंतिम कोरोना का सक्रिय व्यक्ति भी स्वस्थ हो गया है और पूरी तरह कोरोना मुक्त हो गया है। न्यूजीलैंड में आज रात 12 बजे के बाद से लेवल 1 आरंभ हो जाएगा। न्यूज़ीलैंड की प्रधानमंत्री सिंडा ऑर्डन ने आज मीडिया को संबोधित करते हुए यह घोषणा की। प्रधानमंत्री ने देश को संयम बरतने और कोरोना पर विजय प्राप्त करने पर आभार जताया।

[भारत-दर्शन समाचार]


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न्यूजीलैंड के लिए एयर इंडिया की ऐतिहासिक उड़ान  - भारत-दर्शन समाचार

5 जून 2020 (ऑकलैंड, न्यूज़ीलैंड): कोविद -19 महामारी के फैलने के बाद से भारत में फंसे लगभग 200 न्यूजीलैंड नागरिक व निवासी आज घर लौट आए।भारतीय उच्चायोग के द्वितीय सचिव परमजीत सिंह ने स्थानीय मीडिया को यह जानकारी दी।

भारत से यात्रियों को न्यूजीलैंड लेकर आने वाला यह एयर इंडिया का विमान आज दोपहर ऑकलैंड एयरपोर्ट पहुँच गया। एयर इंडिया के इस विमान ने 4 जून को ऑकलैंड के लिए नई दिल्ली से उड़ानभरी थी। यही विमान 7 जून को भारतीय नागरिकों को भारत लेकर जाएगा। जून मास में ऐसी 6 उड़ानों की व्यवस्था की गई है जो भारत में फंसे हुए न्यूजीलैंडर को यहाँ लाएगी और यहाँ फंसे भारतीयों को भारत लेकर जाएगी।

एयर इंडिया विमान का न्यूज़ीलैंड आना एक ऐतिहासिक घटना है चूँकि दशकों से एयर इंडिया न्यूज़ीलैंड के लिए उड़ाने नहीं भरता। हालाँकि न्यूज़ीलैंड-भारत के बीच इस तरह की उड़ानों की मांग पिछले कई वर्षों से निरंतर होती रही है। कुछ समय पूर्व न्यूजीलैंड में भारत के उच्चायुक्त मुक्तेश परदेशी ने न्यूज़ीलैंड व भारत के बीच पुनः उड़ान प्रारम्भ करवाने के प्रयास करने का आश्वासन दिया था।

न्यूजीलैंड के विदेश मंत्रालय और व्यापार मंत्रालय ( Ministry of Foreign Affairs & Trade) ने कहा कि न्यूजीलैंड सरकार ने अप्रैल से 700 से अधिक न्यूजीलैंडियों और उनके परिवारों को तीन चार्टर्ड उड़ानों पर भारत से स्वदेश लौटने में मदद की थी।

भारत सरकार ने भारतीय नागरिकों को घर लौटने के लिए छह उड़ानों की व्यवस्था की है। न्यूजीलैंड विदेश मंत्रालय और व्यापार मंत्रालय के अनुसार लगभग 1700 न्यूजीलैंड के नागरिक, स्थायी निवासी और वीजाधारक आने के लिए सीट चाहते थे लेकिन न्यूजीलैंड नागरिकों को प्राथमिकता दी गई है।

[भारत-दर्शन समाचार]


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रवीश कुमार होंगे फिनलैंड में भारत के नये राजदूत - भारत-दर्शन समाचार

3 जून 2020 (भारत): विदेश मंत्रालय में संयुक्त सचिव रवीश कुमार को फिनलैंड में भारत का नया राजदूत नियुक्त किया गया है। कुमार काफी समय तक विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता भी रहे हैं।

रवीश कुमार बिहार के भागलपुर जिले के नाथनगर के रहने वाले हैं। 1995 में संघ लोकसेवा आयोग की परीक्षा पास की और भारतीय विदेश सेवा में आये।

रवीश इससे पहले विदेश मंत्रालय के सबसे युवा प्रवक्ता हैं। विदेश मंत्रालय में अपनी सेवा देने से पहले वे जर्मनी में कार्यरत थे। रवीश कुमार की जगह पर अब 1999 बैच के भारतीय विदेश सेवा ( Indian Foreign Service ) के अधिकारी अनुराग श्रीवास्तव को विदेश मंत्रालय का अगला प्रवक्ता बनाया जा सकता है।

मंत्रालय के बयान के अनुसार, 1995 बैच के आईएफएस अधिकारी और मंत्रालय में संयुक्त सचिव रवीश कुमार को फिनलैंड में भारत का नया राजदूत नियुक्त किया गया। इसमें कहा गया है कि कुमार अपना दायित्व जल्द ही संभाल सकते हैं।

रवीश कुमार अगस्त 2017 से अप्रैल 2020 तक भारत के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता पद पर रहे हैं। रवीश इससे पहले विदेश मंत्रालय के सबसे युवा प्रवक्ता हैं। उनके करियर की शुरुआत इंडोनेशिया के जकार्ता में भारत मिशन के साथ हुई। इसके बाद उनकी नियुक्ति थिंपू और लंदन में भी रही। दिल्ली में रहते हुए उन्होंने पूर्वी एशिया मामलों की जिम्मेदारी संभाली।

[भारत-दर्शन समाचार]


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न्यूज़ीलैंड वंदे भारत मिशन | Vande Bharat Mission New Zealand - भारत-दर्शन समाचार

NZ to India

3 जून 2020 (ऑकलैंड, न्यूज़ीलैंड): भारतीय उच्चायोग, वेलिंगटन ने घोषणा की है कि 7 जून, 2020 को ऑकलैंड से नई दिल्ली के लिए प्रस्थान करने वाली वंदे भारत मिशन के अंतर्गत पहली उड़ान के लिए टिकटों की बुकिंग की प्रक्रिया अब शुरू हो गई है। विभिन्न वर्गों के लिए टिकट किराए निम्नलिखित हैं:

इकोनॉमी क्लास: NZ $2478
बिज़नेस क्लास: NZ $5416......

 
 
ख़ाक - अमर मंडल

था मैं भी पेड़,
अब हूँ धरा में पड़ा सा, ......

 
 
माँ मारेंगी !  - रघुवीर शरण

अगर हाथ देंगे नाली में, माँ मारेंगी ।
अगर साथ देंगे गाली में माँ मारेंगी ॥ ......

 
 
न्यूज़ीलैंड से भारत जाने के लिए विशेष फ्लाइट व शुल्क की जानकारी - भारत-दर्शन समाचार

NZ to India

न्यूज़ीलैंड से भारत जाने के लिए विशेष फ्लाइट का शुल्क इस प्रकार है: 

इकॉनामी क्लास $2478, बिज़नेस क्लास $5416 व फ़र्स्ट क्लास $7700 होगा। टिकट दुबारा इशू करवाने का शुल्क $1250 होगा। यह राशि न्यूज़ीलैंड डॉलर में है। 

[भारत-दर्शन समाचार ]


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राम की जल समाधि - भारत भूषण

पश्चिम में ढलका सूर्य उठा वंशज सरयू की रेती से,
हारा-हारा, रीता-रीता, निःशब्द धरा, निःशब्द व्योम,......

 
 
श्रीरंगम की कहानी - डॉ जमुना कृष्णराज

तमिलनाडु के तिरुच्ची जिले में एक वैष्णव रहते थे। उनकी सोलह संतानें थीं। श्रीरंगम मंदिर में जब भी प्रसाद बांटा जाता था, वे पहले आकर खड़े हो जाते थे। केवल अपने लिए नहीं, अपने संपूर्ण परिवार के लिए प्रसाद मांगते थे। 

भगवान की प्रतिदिन सेवा करने वाले अनेक सेवक जब एक कण प्रसाद पाने के लिए भी तरसते थे, तब इन महाशय द्वारा बिना सेवा किए ही अधिक से अधिक प्रसाद मांगने की बात, हर किसी को खटकती। मंदिर के पुजारी चिल्ला-चिल्लाकर इनको भगाने के लिए प्रतिदिन शोर मचाते  थे।  

एक दिन ये अपने सोलह बच्चों को भी अपने साथ ले आए और कतार में खड़े हो गए। मंदिर के सेवक जब इनको भगा रहे थे संत रामानुज ने देख लिया। 
उन्होंने उस वैष्णव को अपने पास बुलाया और कहा,‘‘यदि आप भी मंदिर में कुछ सेवा करके प्रसाद लें तो किसी को कोई आपत्ति नहीं हो सकती।’’

इस पर उस वैष्णव ने संत रामानुज से पूछा, ‘‘मैंने वेद पाठ की शिक्षा-दीक्षा नहीं ली, दिव्य प्रबंध भी मैं नहीं जानता, अतः पारायण करती गोष्ठी के संग मैं नहीं जुड़ सकता। मुझे विष्णु सहस्रनाम की चंद पंक्तियां ही याद हैं तो मैं अपने सोलह बच्चों का पेट कैसे पालूं?’’

इसपर संत रामानुज ने कहा,‘‘आपको विष्णु सहस्रनाम जितना याद है, उसका पाठ करें, मैं भी सुनूं।’’ उस वैष्णव ने शुरू किया,‘‘विश्वम् विष्णुर्वशट्कारो, भूतभृत्...... और आगे न कह पाकर भगवान के छटे नाम पर रुक गए। दो-तीन बार कोशिश करने पर भी जब उन्हें आगे का मंत्र याद नहीं आया तो वे क्षमा-याचना करते हुए रामानुज के चरणों में गिर पड़े। संत रामानुज को उस गरीब व्यक्ति पर दया आई और कहने लगे, ‘‘भूतभृत् तो आपको आता है, इसलिए आप केवल ‘भूतभृते नमः’ का जाप करते रहिए। आप देखेंगे कि भोजन आपके पास आ पहुंचेगा, आपको उसकी खोज में जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी।’’

अगले दिन से वे मंदिर नहीं गए। जब संत रामानुज ने उनके बारे में पूछताछ की तो मंदिर के सेवक बड़ी लापरवाही से कहने लगे कि अन्य कहीं अन्नदान हुआ होगा और वे वहीं गए होंगे। उस दिन से मंदिर में एक अनोखी ढंग की चोरी होने लगी। भगवान को समर्पित नैवेद्य का एक भाग प्रतिदिन गायब होता जा रहा था। इतने सेवकों की उपस्थिति के बावजूद वह चोर पकड़ा न जा सका। यह सूचना संत रामानुज के कानों तक पहुंची। उन्होंने पूछा,‘‘यह कब से हो रहा है?’’

सेवकों ने कहा,‘‘जब से आपने उस वैष्णव को मंदिर न आने की बात कही थी। शायद आपकी वह बात और उस वैष्णव में कोई संबंध हो!’’

‘‘वह वैष्णव कहाँ है, ढूंढो!’’ संत रामानुज ने आज्ञा दी। मंदिर के सेवक उसकी खोज में निकल पड़े। 

कुछ दिनों बाद कोळ्ळिड़म नामक नदी के उत्तरी तट पर जब संत रामानुज पहुंचे तो उन्होंने उस वैष्णव को अपनी सोलह संतानों सहित सकुशल एक पेड़ के नीचे बसे हुए पाया। 
संत रामानुज को देखते ही वह वैष्णव भागते हुए आए और उनके चरणों में गिरते हुए बोले,‘‘स्वामी! एक लड़का प्रतिदिन दो बार मुझे ढूंढता हुआ आता है और मुझे मंदिर का प्रसाद सौंप जाता है। मैं भी ‘भूतभृते नमः’ का जाप प्रतिदिन करता हूं।’’ 

‘‘कौन-सा लड़का?’’ संत रामानुज ने आश्चर्यचकित होकर पूछा। 

‘‘उसने अपना नाम रामानुजदास बताया था’।‘ उस गरीब व्यक्ति ने कहा।

‘‘मंदिर के समीप रहकर मैं किसी को कष्ट नहीं पहुंचाना चाहता था, इसलिए काफी दूर इस पेड़ की छांव में बस गया। आपकी पैनी दृष्टि यहां तक भी पहुंच गई। आपके आशीर्वाद से मुझे लगातार प्रसाद पहुंच रहा है।’’ उसने कृतिज्ञता जतायी। 

संत रामानुज समझ गए कि स्वयं भगवान रंगनाथ ही एक बालक के रूप में जाकर प्रसाद सौंपते हैं। उन्होंने कहा, ‘‘…पर मैंने किसी को नहीं भेजा। भगवान के ‘भूतभृत्’ नाम का अर्थ होता है सभी जीव-जंतुओं को खिलानेवाला। इस नाम के जाप के कारण ही भूतभृत् बने भगवान ने स्वयं आपको पौष्टिक भोजन प्रदानकर अच्छे स्वास्थ्य के साथ रखा हुआ है।’’ यह कहते हुए संत रामानुज भावविभोर हो गए और उनकी आँखों से आनंद के आँसू बह निकले।

इस कहानी से हम नाम की महिमा से अवगत होते हैं। दरिद्रता से मुक्ति पाने के लिए आइए हम भी इसका जाप करें! जय रंगनाथ! 

-डॉ जमुना कृष्णराज, चन्नई, भारत 
 दूरभाष: 9444400820


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हम और वनवासी - कुमार हर्ष

सुना है वनवासियों के चाँद से गहरे रिश्ते हैं।
उनकी ज़मीन और आसमान तो हमने छीन ही लिया......

 
 
हमारा वतन दिल से प्यारा वतन  - चकबस्त

ये हिन्दोस्तां है हमारा वतन
मुहब्बत की आँखों का तारा वतन......

 
 
भारत से न्यूज़ीलैंड आने वाले यात्री अतिरिक्त सावधानी बरतें - भारत-दर्शन समाचार

2 जून 2020 ( भारत): भारत में न्यूज़ीलैंड के उच्चायोग ने भारत में फंसे हुए न्यूज़ीलैंड नागरिकों और निवासियों को धोखाधड़ी से सावधान रहने को कहा है। लोगों को 'एयर इंडिया' के नाम से फर्जी ई-मेल भेजकर कुछ लोग 4 जून की 'इकॉनमी फ्लाइट' का झांसा देकर उनसे भुगतान की मांग कर रहे हैं।

उच्चायोग ने स्पष्ट कहा कि 4 जून की उड़ान में इकोनॉमी क्लास की सीटें उपलब्ध नहीं हैं। आपको इस उड़ान में इकोनॉमी क्लास के टिकट देने का दावा करने वाले किसी भी व्यक्ति को कोई भुगतान या विवरण नहीं देना चाहिए। कृपया एयर इंडिया होने का दावा करने वाले ई-मेल के किसी भी 'वैब लिंक' को अतिरिक्त सावधानी से परख लें।

भारत में फंसे हुए न्यूज़ीलैंड नागरिक और निवासी कृपया 'सेफट्रैवल' पर अपना विवरण दर्ज करें:
https://www.safetravel.govt.nz/register-your-travel

यदि आप उच्चायोग से संपर्क करना चाहें तो उनकी निम्नलिखित वैब साइट या ई-मेल से संपर्क करें:

वैब साइट: https://www.mfat.govt.nz/......

 
 
रमेशचन्द्र शाह के उपन्यास गोबरगणेश में प्रकृति और नियति की प्रासंगिकता - डॉ कृपा शंकर 

सारांश- मानव जीवन का संबंध प्रकृति और नियति की प्रासंगिकता से है। जो समय-समय पर मनुष्य को विभिन्न प्रकार की संवेदनाऐं देती है। मनुष्य इस संवेदनाओं के माध्यम से विभिन्न प्रकार के सृजन और रचना करता है जो उसकी जीवन की प्रकृति और नियति बन जाती है। 

पिछले कुछ वर्षों में बालक की जिन्दगी को आधार बनाकर कई विशिष्ट वयस्क उपन्यास हिन्दी में लिखे गये हैं। मन्नू भंडारी के आपका बंटी में बालक की मानसिकता के सहारे उसके माता-पिता के आपसी सम्बन्धों की प्रकृति और नियति को परिभाषित करने की कोशिश है। निर्मल वर्मा के लाल टीन की छत में बचपन की देहरी लाँघकर किशोर दुनिया में प्रवेश करती हुई एक बच्ची के अनुभव जगत का, उसकी निष्छलता, सहज जिज्ञासा और कुतूहल तथा आंतरिक छटपटाहट, यातना और अकेलेपन का अन्वेषण है। हाल ही में प्रकाशित रमेश चन्द्र शाह के गोबरगणेश के केन्द्र में भी एक बालक ही है।

इनसे भी पहले तीसी में अज्ञेय के शेखर एक जीवनी और पचासे में कृष्ण बलदेव वैद के उसका बचपन का भी जिक्र किया जा सकता है। इनमें भी जहां शेखर एक जीवनी का फलक बचपन से वयस्क कर्मशील जीवन को घेरता है, वहीं उसका बचपन में एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार के एक बच्चे की मानसिकता, उसके परिवेश और इन दोनों के बीच सम्बन्धों और तनावों की सूक्ष्म संवेदनशील पड़ताल है।

बीज शब्द- प्रासंगिकता, नियति, संवेदनाओं, माध्यम, प्रकृति, विशिष्ट, वयस्क, परिभाषित, सम्बन्धों, निष्छलता, मानसिकता, अभिव्यक्ति, अन्तर्निहित, सामंजस्य।

इन सभी उपन्यासों में बालक को केन्द्र में रखने का कारण उनमें प्रस्तुत विशिष्ट अनुभव की अपनी जरूरत के अलावा किसी भिन्न उपन्यास रूप की तलाश भी किसी हद तक जाहिर होती है जो कई प्रकार से समकालीन हिन्दी उपन्यास की बड़ी जरूरत रही है यह तलाश ऐसे दृष्टि बिन्दु के लिए हो सकती है जो उस अनुभव को देखने और आंकने में मददगार हो, जैसे आपका बंटी में या फिर दृश्य परिदृश्य यथार्थ में अन्तर्निहित जीवन सत्य की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति के लिए हो सकती है, जैसे उसका बचपन और लालटीन की छत में। इन सभी उपन्यासों में कथ्य और रूप में एक तरह का सामंजस्य है और अपने-अपने ढंग से उपन्यास-रूप के इस्तेमाल में नयी उपज के सबूत भी मिलते है। कुछ घटनाएँ, कुछ प्रतिक्रियाएँ, कुछ ऊहापोह, कुछ ऐसे अध्ययन-प्रसंग या चिंतन-प्रसंग जो चूंकि अपने लिए रोचक और सार्थक थे।  

आपका बंटी में बीच-बीच में बंटी की बजाय उसकी ममी का दृष्टि-बिन्दु फोकस में आ जाता है और इस प्रकार एक तरह का समक्षीकरण पैदा होता है जो उपन्यास के वक्तव्य को अधिक समग्र तीखा और बहुआयामी बना देता है बल्कि शायद बहुत थोड़ी देर प्रत्यक्ष रहने के बावजूद, मूल दृष्टि-बिन्दु बंटी की ममी का ही है। बंटी के दृष्टि-बिन्दु पर लगातार बल दिये जाने के कारण और भी तीव्रता और प्रबलता से उभर सका है। 

उसका बचपन और लालटीन की छत दोनों में दृष्टि-बिन्दु केवल बच्चे का ही है। पर उसका बचपन में प्रायः एक ही बालक बीरू की अपने चारों तरफ की जिन्दगी के बारे में प्रतिक्रियाओं को एक तरह की काव्यात्मक बुनावट और गतिलय के साथ रखकर निम्न मध्यवर्गीय परिवेश की आर्थिक, साँस्कृतिक विपन्नता और पारस्परिक सम्बन्धों की क्षुद्रता तथा ओछेपन को उजागर किया गया है। इससे भिन्न लाल टीन की छत में एक से अधिक बच्चे हैं- काया, वीरू, गिन्ना, लामा और यद्यपि मुख्य दृष्टि केन्द्र काया पर ही है, मगर दूसरे बच्चों की प्रतिक्रियाओं के स्तर से काया की अपनी असामान्य संवेदनशीलता रेखांकित होती है और बाल प्रतिक्रियाओं की कईएक सतहें जाहिर हो जाती हैं। अन्त में चरम बिन्दु पर काया की ही कुछेक वर्ष बाद की प्रतिक्रिया और परिणति पूरे उपन्यास के वक्तव्य को समन्वित और एकाग्र कर देती है। इन दोनों ही उपन्यासों में एक लंबी कविता की-सी लाक्षणिकता और सघनता है जिसे उनके रूप से विलग नहीं किया जा सकता। यह अकारण ही नहीं कि ये तीनों ही उपन्यास आकार में भी छोटे हैं।

मगर उपन्यास में बालक को लाने का एक और रूपगत उद्देश्य भी हो सकता है- बचपन से बुढ़ापे तक जीवन के फलक को महाकाव्यात्मक विस्तार देने का पश्चिमी साहित्य में इस रूप का अक्सर इस्तेमाल हुआ है, जिसका एक अन्यतम उदाहरण है- रोम्यां रोला का ज्यों क्रिस्तोफ हिन्दी में अज्ञेय के शेखर एक जीवनी में किसी हद तक इसका उपयोग मिलता है। उसका तीसरा खंड अभी तक प्रकाशित नहीं हो पाया, पर प्रकाशित दो खंडों में भी यद्यपि जीवन फलक का आंतरिक विस्तार ही अधिक है बाहरी विस्तार अपेक्षाकृत कम, फिर भी उसमें एक अपने ढंग की संगति मौजूद है और वह असंभव नहीं कि पूरा होने पर वह एक महाकाव्यात्मक आयाम हासिल कर लेता। 

रमेश चन्द्र शाह के गोबर गणेश का उपन्यास-रूप भी किसी हद तक इसी तरह का है। उसमें जीवन फलक बचपन का अतिक्रमण करके वयस्कता तक फैला हुआ है, और बचपन में ही मानसिकता के सूत्रों को पहचानने की कोशिश है जो एक व्यक्ति के वयस्क होने पर उसके जीवन और चरित्र के नियामक हो जाते हैं। उपन्यास के तीन खंड है पहला अन्नजल जो चरितनायक बालक विनायक के बचपन, उसकी प्रारंभिक शिक्षा तथा किशोर प्रतिक्रियाओं आकांक्षाओं को प्रस्तुत करता है। दूसरा, त्रिपार्ष्व और वर्णपट, विनायक के विश्वविद्यालय जीवन और प्रेम-प्रसंग से संबंधित है, और तीसरे, अपने हिस्से का आसमान, में वर्षों बाद उसके अध्यापकीय जीवन का हालचाल है। इस प्रकार बचपन से शुरू करके जवानी के उत्कर्ष तक की जीवन-यात्रा इस उपन्यास का फलक है। जाहिर है इतना बड़ा विस्तार प्रगीतात्मक संवेदन के सहारे नहीं किसी न किसी स्तर की महाकाव्यीय कल्पनाशीलता के बल पर ही निभाया जा सकता है। 
यह किसी पागल के प्रलाप जैसा लग सकता है, पर है नहीं। मुझ पर थोड़ा भरोसा रक्खें-मैं भरोसेमन्द आदमी हूँ, थोड़ा अक्लमन्द भी इतना अक़्लमन्द, कि मुझे अक्सर दूसरों के मन के भीतर चलनेवाली बातें भी साफ़ सुनायी देने लगती हैं-वे दूसरे चाहे मेरे अन्नदाता हों; चाहे दुश्मन। 

मगर ऐसा जान पड़ता है कि गोबरगणेश में संवेदना की प्रकृति और उपन्यास रूप के बीच सामंजस्य नही. सर्जनात्मक तनाव भी नहीं एक तरह का बुनियादी अंतर्विरोध है। गोबरगणेश के लेखक की मूल संवेदना और कल्पनाशीलता प्रतीक्षात्मक ही है जो फैले हुए फलक की जरूरतों के लिए नाकाफी है और कमजोर सिद्ध होती है।

पूरा उपन्यास पढ़ लेने पर यह बात कुछ परेशान करती है, क्योंकि पहले खंड में सचमुच ऐसी सर्जनशीलता से साक्षात्कार होता है जो निश्छल आत्मीयता और सूक्ष्म अंतर्दृष्टि से आकर्षित ओर मुग्ध करती है। दरअसल, गोबरगणेश का जीवंत अंश अन्नजल ही है जो सघन निजी अनुभव, गहरी आंतरिक प्रेरणा और कवि-सुलभ सौंदर्यबोध की उपज जान पड़ता है। यह कुमाऊँ के पहाड़ी प्रदेश में एक साधारण दुकानदार परिवार के संवेदनशील बालक विनायक के बचपन और किशोर जीवन की कथा है, जो मेघावी है और जिसमें शुरू से ही कविता लिखने का रूझान है। 

रमेशचन्द्र शाह ने बड़ी विश्वसनीय सूक्ष्मता से परिवेश के उन अनेक सूत्रों का अन्वेषण किया है जो विनायक के कवि स्वभाव की विभिन्न परतें पैदा करने में योग देते हैं- परिवार, स्कूल, आस पड़ोस से सभी साथी, सामाजिक. सम्बन्ध, रीति रिवाज आदि। पर इन सब में प्रमुख है परिवार उसमें अलग-अलग व्यक्तियों की स्थिति, उनके विशेष स्वभाव, रूचियां मान्यताएं, निजी और सामाजिक आचरण व्यवहार तथा उनके आपसी सम्बन्ध।

विनायक का परिवार बहुत छोटा ही है- माँ. बाबूजी, उसके दो काका मथुर और जगन, बड़ी बहन सरोज और बहुत बाद में काकी, मथुर काका की पत्नी। इनमें भी माँ की उपस्थिति लगभग मूक है। वह एक आम गृहिणी की तरह विन-रात मेहनत करें किसी उग्र प्रतिवाद या मुख असंतोष के बिना इस समय गरीबी से दबे इस परिवार को किसी तरह चलाये जाती है बाबूजी की भी प्रत्यक्ष उपस्थिति बहुत कम है।  
वह गाने-बजाने के शौकीन हैं और अब आजकल साधु सन्यासियों की संगति में वक्त बिताते है। घर-गृहस्थी की कोई जिम्मेदारी नहीं सम्हालते, और आर्थिक दृष्टि से वह और उनका सारा परिवार उनके छोटे भाई यानी मथुर काका की दुकान पर निर्भर है। अपने परिवार की जिम्मेदारी छोटे भाई पर डाल देने के कारण एक तरह की हीनता आत्मग्लानि और असहायता का अनुभव भी करते है विनायक ने अपनी कविता, संगीत में रूचि और एक प्रकार की निष्ठा मूलक आदर्शवादिता तो अपने पिता से पायी ही है. यह हीनता, आत्मग्लानि अपने ऊपर विष्वास की कमी और असहायता की भावना भी उसे शायद उन्हीं से मिली है।

मथुर काका व्यवाहारिक, दुनियादार और दबंग व्यक्ति है, जो परिवार के आर्थिक नियंता होने के कारण उसके सदस्यों के ऊपर कड़ा शासन रखते हैं। उन्हें इन बाप-बेटों की कला प्रियता और दार्शनिकता से और छोटे भाई जगन की आदर्शवादी क्रांतिकारिता से बहुत खीझ और चिढ़ है। बाबूजी की कला प्रियता और मथुर काका की व्यावहारिकता के दो छोरों के बीच घिसटता है विनायक और उसके बुनियादी अंतर्द्वद्व का स्रोत है। 

किसी भी सर्जक के व्यक्तित्व-विकास में उसके परिवेश का, जिसमें वह पला-बढ़ा और जिस तरह के संस्कारों की छाप उसके बाल मन पर पड़ी उनका बुनियादी महत्व होता है। मनोवैज्ञानिकों का मत भी है कि बाल्यकाल में मन पर पड़े संस्कार वयस्क मानव व्यक्तित्व के निर्माण को काफी दूर तक निर्धारित एवं प्रभावित करते हैं। 

स्वभाव और भीतरी संस्कार से वह पिता जैसा कला प्रेमी मनमौजी है, पर उसकी जिन्दगी चलती है मथुर काका की कमाई के बल पर उनके विचारों और मान्यताओं के अनुसार विनायक उनके हाथों पिटता भी है, उनके फैसले पर उसे स्कूल बदलने पड़ते हैं, आर्ट्स की बजाय साइंस पढ़नी पड़ती है- बीच-बीच में उनकी दुकान पर जाकर तो बैठना ही पड़ता है।

मगर परिवार में विनायक के साथ हमदर्दी रखने वाले दो व्यक्ति और है- जगन काका और सरोज या सरू। जगन काका देश भक्त और क्रांतिकारी हैं, विनायक जब छोटा था तभी वह आजादी की लड़ाई में जेल चले गये थे। वह एक तरह से सारे परिवार, बल्कि पूरे अल्मोड़ा शहर के हीरो हैं, विनायक के तो आदर्श पुरुष हैं ही। उपन्यास के लगभग शुरू में ही वह जेल से घर वापस आ जाते हैं और पहले खंड में, जो उनकी मृत्यु के समाचार से ही समाप्त होता है, जगन काका के साथ विनायक के सम्बन्ध में और लगाव में बड़ी दिलचस्प द्वन्द्वात्मकता है। 

वह सहज और अनिवार्य आकर्षण से उनकी तरफ खिंचता है, उनके जैसा बनना चाहता है. अपनी बालसुलभ इच्छाओं आकंक्षाओं के पूरा होने के लिए उनकी ओर देखता है और उनसे सहारा तथा समर्थन भी पाता है। पर साथ ही उन्हें ठीक से समझ नहीं पाता, और अंततः वह पूरी तरह उसकी पकड़ के बाहर चले जाते हैं- पहले नौकरी के लिए शहर छोड़कर और फिर क्षय रोग से ग्रस्त होकर मृत्यु के कारण। विनायक के लिए जगन काका जैसे एक स्वप्न है जिसे वह कभी यथार्थ नहीं बना पाता। उनकी राजनैतिक सक्रियता उनकी बौद्धिक सजगता और तीखा मानसिक आत्मसंघर्ष, उनकी सर्जनात्मक सफलता सभी कुछ उसके लिए सुदूर लक्ष्य जैसा ही बना रहता है, जहां तक वह पहुंच नहीं सकता।

साथ ही उसके बाल जीवन के कुछेक सब से मार्मिक क्षण जगन काका के साथ ही जुड़े हैं। गोल्ल देवता के मंदिर में युद्ध में बेटे की मृत्यु से शोक विक्षिप्त एक औरत की यंत्रणा, आस्था, असीम मानवीय करूणा और प्यार का हिला देने वाला वर्णन, विनायक और सरोज की उनके साथ कासार देवी की यात्रा और वहां उनकी बाग्दत्ता त्रिपुरसुंदरी जैसी लगने वाली भत्ती दीदी के साथ साक्षात्कार जगन काका की डायरी की अनोखी रहस्यमयी अबूझ दुनिया में विनायक का पहले चोरी-चोरी और फिर बाद में खुल्लमखुल्ला प्रवेश और पड़ाव, अरविंद भक्त जगन काका और कम्युनिस्ट भुवन के बीच तीखी उत्तेजक बहसों में उपस्थिति, होली के अवसर पर एक बैठक में जगन काका का गाना पहले पंत की कविता भारत माता ग्रामवासिनी और फिर पारंपरिक गीत, कोई तो बता दे जल-नीर सिया प्यासी है- ये सब प्रसंग ही उपन्यास के सब से सक्षम और अविस्मरणीय स्थल है। 

हर्ष और विषाद की पराकाष्ठाओं के बीच झूलते इस जीवन का अर्थ क्या है? आदमी अपनी जीवनी या आत्मकथा किस लिए और क्यों लिखना या लिखवाना चाहता है? क्यों वह जीतेजी न केवल अपना सारा हिसाब-किताब चुकता कर जाना चाहता है, बल्कि दुनिया के सामने अपनी एक ऐसी छवि भी आँक जाना चाहता है। 

इसीलिए टीबी से जगन काका की असामयिक मृत्यु विनायक के सपनों की दुनिया के एकदम अचानक वह जाने की सूचक है। अपने बाहरी और आंतरिक परिवेश से निकलने की उसकी सारी जानी अनजानी कोशिशें नाकामयाब हो जाती है। अब वह अपने भीतर एक अटल द्वन्द्व को आजीवन झेलने के लिए अभिशप्त है। जगन काका जैसे उसी के व्यक्तित्व का एक स्तर है जहां उसकी सारी मानसिक नैतिक बौद्धिक छटपटाहट जाहिर भी होती है और एक व्यर्थता के रेगिस्तान में खोती हुई भी दिखाई पड़ती है।

यह आकस्मिक नहीं कि जगन काका के माध्यम से ही उपन्यास या कि उपन्यास का भी? मुख्य बौद्धिक द्वन्द्व भी प्रस्तुत हुआ है। गांधी और मार्क्स, रामकृष्ण परमहंस और लेनिन का समक्षीकरण ही नहीं गांधी से अरविंद तक की बौद्धिक आध्यात्मिक यात्रा हिन्दी लेखकों में नई नहीं है- कई विख्यात कवियों में यह परिणति देखी जा चुकी है। कम्युनिस्ट भवन के साथ संशयग्रस्त, आतंकवादी गांधीवादी अरविन्दवादी जगन की बहसें या जगन काका की डायरी में योग, ध्यान और अतीन्द्रिय आध्यात्मिक अनुभव के यातनाभरे विवरण बालक विनायक के चेतना स्तर से परे होकर भी उसकी मानसिकता को बुनियादी रूप में प्रभावित करते हैं। और अंततः स्वयं जगन काका के भीतर बढ़ता मोह भंग और संशय का भाव विनायक का भी हो ही जाता है।

जगन काका के अलावा, बल्कि उनके साथ ही विनाय के परिवार में एक और महत्वपूर्ण व्यक्ति है, उसकी बड़ी बहन सरोज या सरू जगन काका कहते हैं- इस पर की अंतर आत्मा है, पर वह कुछ अजीब ढंग से शायद इस पूरी कथा की अंतरात्मा है क्योंकि कथा के केन्द्रीय महत्वपूर्ण प्रसंगों में तो वह मौजूद होती रही है। बाकी वक्त भी जैसे वह निरंतर मंडराती ही रहती है।

उपन्यास के पहले खंड में सरू की उम्र शायद तेरह से सत्रह साल के बीच है. यद्यपि यह पूरी तरह स्पष्ट नहीं है। पर उसके आचरण, व्यवहार और व्यक्तित्व में ऐसा आत्मसंयम और संतुलन, ऐसी प्रौढ़ता और समझदारी है जो उसकी उम्र से कहीं ज्यादह लगती है, और उसकी छवि एक वयस्क आत्मसजग युवती की ही है। साथ ही उसके स्वभाव में बड़ी सुखद मिठास और व्यक्तित्व में बड़ा सहज अनिवार आकर्षण भी है और जिसके कारण उसकी उपस्थिति, यहां तक की अनुपस्थिति भी पूरा ध्यान खींचती है।

एक प्रसिद्ध आधुनिक कवि का कहना है कि सारी कला अन्ततः एक पलायन ही है सत्य की असह्य ज्वाला से उसी के समकालीन एक दूसरे कवि की उक्ति भी याद आ रही है- ह्यूमनकाइण्ड कैन नॉट वियर बेरी मच रिएलिटी अर्थात आदमी की जात बहुत ज्यादा यथार्थ नहीं झेल सकती दोनों ही इस शताब्दी के दिग्गज कवियों में गिने जाते हैं और यह अकारण नहीं है कि असामान्य भाविक क्षमता वाले लोग ही मनुष्य और उसकी सीमाओं के बारे में इतने नम्र और निर्भ्रान्ति हो पाते हैं। 

जगन काका का सरोज के साथ सम्बन्ध। उसके प्रति उनका भाव एक भतीजी के लिए होने वाले स्नेह से कुछ भिन्न और ज्यादह लगता है। एक जगह यह जिक्र भी है कि वह पहले उन्हें भइया भइया ही कहती थी। वह स्वयं उसके बारे में विनायक से कहते है मेरी कविता तो ये है वह उनकी सबसे अधिक विश्वासपात्र है। उनकी डायरी और अन्य रचनाएं उसी के संरक्षण में हैं।  

उनकी किताबें और अन्य वस्तुएं भी वह उनके सभी रहस्यों की भी एक मात्र साझीदार लगती है- भत्ती के प्रति उनके मनोभाव और लगाव को पूरी तरह केवल वही जानती है, ऐसा महसूस होता है। सरोज भी जगन काका की सुविधा जरूरतों का पूरा ख्याल रखती है और उन्हें सबसे ज्यादह महत्व और प्राथमिकता देती है जगन काका के प्रति भक्ति विनायक की भी कम नहीं, पर सरोज के भाव में कहीं अधिक अनन्यता और गहरी आत्मीयता है जो उसे विशिष्ट बना देता है। बल्कि कई बार वह कुछ इस तरह असामान्य लगता है कि यह पड़ताल करने की जरूरत महसूस होने लगती है कि वह सचमुच विनायक की सगी बहन की है या कोई दूर के रिश्ते कीया मुंहबोली, जो किसी विशेष परिस्थितिवश इस परिवार में रहती है।

संभवतः ऐसा प्रभाव पड़ने का एक कारण यह भी है कि जगन काका, सरू और विनायक के पारस्परक रिश्तों को कुछ विशेष सघनता से रूपायित किया गया है। न केवल विनायक और सरू के बीच जगन काका को लेकर ईर्ष्या के संकेत दिए गये हैं, बल्कि विनायक के मन में सरू के प्रति जगन काका के भाव को लेकर भी खीझ होती है। लो अब जगन काका सरोज के पीछे लग जायेंगे।

ऐसे ही अटपटे ढंग के रिश्ते की ध्वनि विनायक के सपने में दीखने वाले बिम्ब से भी निकलती है। सुनते सुनते विनायक खुली आंखों एक सपना देखने लगा। वह सनकू है- सांकोपांजा और जगन काका डान क्विक्जोट हैं। वे हाथ में तलवार लिये घोड़े की पीठ घर बैठे सरपट भागे जा रहे हैं। पीछे-पीछे टट्टू सवार विनायक दौड़ रहा है। जगन काका का सांकोपांजा और दीदी ? दीदी क्या है? दीदी वह राजकुमारी है, जिनकी रक्षा के लिए 1 डान क्विक्जोट हाथ में तलवार लिये अदृश्य शत्रुओं का पीछा कर रहा है।

अस्पष्ट रूप में ही सही, यह चित्र सरोज और जगन काका के बीच सम्बन्ध सूत्र को कुछ रहस्यमय और असामान्य बना देता है, भले ही लेखक का इरादा वैसा न हो। उपन्यास के ऊपर अज्ञेय के उपन्यास शेखर एक जीवनी की जो कई छायाएं है, सरू का चरित्र भी उनमें से एक है।

विनायक के साथ सरू का सम्बन्ध अधिक सहज रूप में आत्मीय है। परिवार में वह सबसे निकट सरू के ही है जो उसकी एक तरह की अभिभावक भी है और मित्र भी। उसके साथ उसकी ईर्ष्या भी है, होड़ भी है। साथ ही केवल उसी से वह अपना सुख दुख कह सकता है, सच्ची हमदर्दी की उम्मीद कर सकता है। कालेज के दिनों से अपने उस अजीब से प्रेम प्रसंग में वह सरोज की ही सलाह लेता है और अपने निर्णय के लिए उसी पर पूरी तरह निर्भर करता है। जगन काका भी इलाहाबाद जाने के पहले उससेकह जाते है।

मुझसे वादा करो वीनू, कि तुम अब से कभी सरोज का दिल नहीं दुखाओगे। हमेशा उसका कहना मानोगे। और विनायक अंत तक यह वादा निभाता है। दरअसल, अगर विनायक का बौद्धिक जगत जगन काका के विचारों से बना और नियंत्रित है, तो उसकी भावनात्मक दुनिया सरोज के प्यार और अपनेपन से भरीपूरी हैं। अगर जगन काका उसके व्यक्तित्व के बौद्धिक स्तर के प्रतिरूप हैं तो सरू उसके रागात्मक आवेगमूलक स्तर की।

उपन्यास का यह अंश बालक और किशोर विनायक की बाहरी और आंतरिक दुनिया का ग्राफ होने के कारण उसमें विनायक के बहुत से दोस्तों की मौजूदगी भी बड़ी असरदार है। उनके साथ विनायक के खेल कूद, मेल मिलाप, लड़ाई झगड़े, सैर-सपाटे और दूसरे बौद्धिक, साहित्यिक और सामाजिक आयोजनों की बड़ी जीवंत, सधी हुई और विश्वसनीय तस्वीरें लेखक ने खींची है। विनायक के अनेक दोस्त उपन्यास में अपनी अलग पहचान तो बनाते ही है, साथ ही उनके माध्यम से एक उत्तर भारतीय कस्बे के सामाजिक जीवन के अनेक पर्त, अपने बुनियादी अंतर्विरोधों के साथ उद्घाटित हुए हैं जिनकी बहुआयामिता सचमुच प्रभावी है।

विनायक संवेदना के और बौद्धिक स्तर पर अपने को एक स्थानीय राजा के बेटे त्रिभुवन के जितना नजदीक पाता है, सामाजिक साँस्कृतिक स्तर पर उससे उतना ही दूर भी है, जिसके कारण उसका त्रिभुवन के साथ एक बड़ा दिलचस्प दोहरा रिश्ता बनता है। इसी तरह स्वयं उच्च सवर्ण हिन्दू परिवार का होकर भी उसके कुछ बड़े सहृदय, तेज और पक्के दोस्त डोम या मुसलमान हैं। ये सब सम्पर्क जहां विनायक के स्वभाव की स्वस्थ उदारता और मानवीयता को सूचित करते हैं, वहीं समाज के गहरे और बुनियादी अंतर्विरोधों को भी जाहिर करते हैं जिनके बीच से होकर ही हमारा व्यक्तित्व रूप लेता और बनता संवरता है। 

यानी जहां परिवार में, विशेष कर जगन काका और सरू के साथ विनायक के अंतरिक जीवन के रेशे जुड़े हैं, वहीं उसके अपने दोस्तों के साथ सामाजिक जीवन के। शायद अनजाने ही सहज आत्मीय और गहरे परिचय के कारण ही लेखक विनायक को एक जीवंत सक्रिय सामाजिक परिवेश में देख और दिखा सकता है, और उसका अंतर्जगत दैनंदिन जीवन से कट कर हाथी दांत की किसी निजी बन्द मीनार में नहीं गढ़ा गया है। यह आकस्मिक नहीं है कि उपन्यास में विनायक के अपने दोस्तों के साथ, और सरू-जगनकाका के साथ प्रसंग प्रायः बारी-बारी से लगातार गुंथे हुए हैं जिससे एक खास किस्म की लय और गति पूरी संरचना को मिलती है। संभवतः दोनों रेशों की यह सहज विश्वसनीय बुनावट ही इस उपन्यास की सबसे बड़ी खूबी है जो उसके पहले अंश को काव्यात्मक संवेदना वाली गद्य रचनाओं की कोटि में रखती है।

रमेश चन्द्र शाह ने गोबरगणेश उपन्यास के माध्यम से पूरे मानव समाज को चितन्य करने का प्रयास किया है। जिसमें जीवन की संवेदनशीलता एवं प्रासंगिकता को दर्शाया हैै। जीवन को प्रमाणिक मानने के लिए मनुश्य को अधिक संघर्ष करना चाहिए तभी उसे जीवन का लक्ष्य प्राप्त हो सकता है। गोबरगणेश नामक उपन्यास में जीवनपर्यन्त चेतना प्रभाव को बताया हैै। 

सन्दर्भ सूची
  - रमेशचन्द्र शाह, ‘कठिन समय में’, किताबघर प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2018, पृष्ठ-7
  - विजय कुमार देव, ‘सृजन यात्रा रमेशचन्द्र शाह’, मध्य प्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, भोपाल, 2005, पृष्ठ-125
  - विजय कुमार देव, ‘सृजन यात्रा रमेशचन्द्र शाह’, मध्य प्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, भोपाल, 2005, पृष्ठ-126
  - रमेशचन्द्र शाह, ‘असबाब-ए-वीरानी’, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2011, पृष्ठ-19
  - रमेशचन्द्र शाह, सृजन यात्रा, पृष्ठ-127
  - माया जोशी, ‘रमेश चन्द्र शाह और उनका रचना संसार’, आधारशीला प्रकाशन, दिल्ली, 2012, पृष्ठ-2
  - रमेश चन्द्र शाह, ‘कथा सनातन’, राजपाल प्रकाश दिल्ली, 2012, पृष्ठ-7
  - रमेश चन्द्र शाह, ‘सबद निरन्तर’, वाग्देवी प्रकाशन, बीमानेर, 1987, पृष्ठ-9
  - रमेशचन्द्र शाह, सृजन यात्रा, पृष्ठ-128


डॉ कृपा शंकर
मोबाइल नं. 8858603515
ई-मेल: ksp221184@gmail.com


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नए किस्से  - अनन्य दूबे

हर चेहरे को गौर से देखो
छुपी हैं अनसुनी कहानियां......

 
 
नानी कहती एक कहानी - नफे सिहं कादयान

मुन्नी की अब जिद्द है मानी,
नानी कहती एक कहानी।......

 
 
न्यूज़ीलैंड में फंसे भारतीय नागरिकों के लिए विशेष उड़ाने - भारत-दर्शन समाचार

Online Press Conference

1 जून 2020 (न्यूज़ीलैंड):भारतीय उच्चायोग, वेलिंगटन ने न्यूज़ीलैंड में फंसे भारतीय नागरिकों की घर वापसी के लिए वंदे भारत मिशन के अंतर्गत निम्नलिखित विशेष एयर इंडिया उड़ानों की घोषणा की है:

उड़ानें 7 जून, 17 जून, 20, 24 और 28 और 1 जुलाई को ऑकलैंड से प्रस्थान करेंगी। न्यूजीलैंड में फंसे हुए भारतीय यात्रियों को इन उड़ानों से दिल्ली, चंडीगढ़, अहमदाबाद, हैदराबाद, बंगलुरु, मुंबई, त्रिवेंद्रम और चेन्नई भजने का प्रबंध किया जा रहा है।

दिल्ली में उतरने के तुरंत बाद चंडीगढ़, अहमदाबाद, हैदराबाद, बैंगलोर, त्रिवेंद्रम और चेन्नई के लिए घरेलू उड़ानों का प्रबंध किया जा रहा है।

भारतीय उच्चायोग के कार्यालय द्वारा उनके फेसबुक पेज पर थोड़ी देर पहले घोषणा की गई थी।

भारतीय उच्चायुक्त मुक्तेश परदेशी ने कुछ समय पूर्व न्यूज़ीलैंड के भारतीय मीडिया को एक ऑनलाइन सम्बोधन में न्यूजीलैंड में फंसे भारतीय नागरिकों की घर वापसी की विस्तृत जानकारी दी थी। अधिक जानकारी के लिए आप न्यूजीलैंड में भारतीय उच्चायोग, वेलिंगटन के फेसबुक पृष्ठ से जुड़ सकते हैं या उन्हें संपर्क कर सकते हैं।

[भारत-दर्शन समाचार]


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बच्चों के सर्वांगीण विकास में शैक्षिक गतिविधियों की महत्वपूर्ण भूमिका - डॉ॰ पंडित विनय कुमार

हमें यह कहने में संकोच नहीं है कि आज बिहार में ही नहीं बल्कि भारत वर्ष में बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए जो कुछ प्रयास किया जाना चाहिए वह प्रयास पूरी तरह पर्याप्त नहीं है और उस प्रयास में और भी कुछ जोड़ा जाना चाहिए। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 बच्चों के सर्वांगीण विकास पर बल देती है । यद्यपि महत्वपूर्ण शिक्षा वह है जो बच्चों में चरित्र निर्माण में सहयोग प्रदान कर सके। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने ठीक ही कहा था कि असली शिक्षा वह है जो बच्चों में चरित्र निर्माण पर बल देती है और उसके साथ उसके रोजी रोजगार में सहायता पहुंचाती है। सच तो यह है कि बच्चों का संसार एक अलग और अंगूठा संसार होता है । बच्चों की दुनिया एक अलग तरह की दुनिया मानी जा सकती है जहां बच्चे अपने अनुभव से खेलते हैं छोटे-छोटे बच्चे जो मिट्टी में घरौंदे बनाते हैं वे छोटे-छोटे बच्चे जो जमीन पर रेखाएं खींचते हैं वे छोटे-छोटे बच्चे जो दीवारों पर मिट्टी के ढेले से कुछ न कुछ चित्रकारी कर रहे होते हैं और वह बच्चे जो अपने से बड़े भाई - बहनों की पुस्तक या उनकी कॉपी को लेकर उसमें आड़ी - तिरछी रेखाएं खींच रहे होते हैं । उनमें भी उनका अनुभव है। उनमें भी उनकी कोई ना कोई कहानी होती है कोई न कोई दुख - सुख है उसमें भी उनका घृणा और प्रेम बसा हुआ है । उन दीवारों पर अंकित  रेखाओं में भी उनके  मन के भाव इस रूप में गूँथे हुए हैं  कि हमें समझने की जरूरत है। आज समय बदल गया है और हमारी शिक्षा पद्धति बाल केंद्रित बन गई है । हम जो कुछ भी बच्चों को पढ़ाते हैं सिखाते हैं । उसमें पहली शर्त यही  है कि उस से बच्चों का मनोरंजन हो बच्चों को संबंधित विषय अथवा पाठ में दिलचस्पी रहे और वह अपनी कक्षा में पढ़ाये जाने वाले पाठ को एकाग्रतापूर्वक सुन सकें , सीख सकें और समझ सकें ।  यह इसलिए भी जरूरी है कि हमें बच्चों के मन के अनुसार उन्हें सही रास्ते पर लाना है चाहे हम बच्चों में भाषा संबंधी विकास की बात करें अथवा गणित संबंधी उनके ज्ञान की बात करें । प्रायः दोनों ही विषयों में बच्चों के मां का जुड़ाव उनकी भावना का जुड़ाव होना चाहिए ।आज समय आ गया है कि हम उन बातों को समझ सकें और अपनी शिक्षा में उसे जगह दे सकें ताकि आगे आने वाली पीढ़ी शिक्षा से भली भांति जुड़ सके । 

बच्चे प्रकृति के अनमोल रत्न और उनका चिंतन और विचार पूरी तरह  से मुक्त रहता है । सांसारिक भेदभाव से रहित और दुर्गुणों से भी पूर्णतः असम्पृक्त !

सच तो यह है कि छोटे-छोटे बच्चे नैतिक दृष्टि से और सांसारिक दृष्टि से विभिन्न प्रकार के कानूनी बंधनों से मुक्त रहते हैं उनके लिए ना तो कोई महान होता है ना कोई छोटा होता है ना कोई बड़ा होता है वह सभी को अपने मापदंड से ही नापते हैं । ( सरोजिनी पांडे बाल साहित्य समीक्षा के प्रतिमान और इतिहास लेखन  (पुस्तक )प्रकाशक :आशीष प्रकाशन कानपुर , प्रथम संस्करण .2011 , पृष्ठ संख्या - 27 )

एक विद्वान शिक्षक को बच्चों को पढ़ने - पढ़ाने के दौरान उनकी व्यक्तिगत प्रवृत्तियों रुचियों गुणों स्वभावों आदि का भी अध्ययन करना चाहिए । यदि आप कक्षा में जाने से पूर्व बच्चों की व्यक्तिगत विभिन्न व्यक्तित्व संबंधी विशेषताएं उनका सामाजिक पारिवारिक परिवेश और वातावरण तथा माता-पिता एवं अन्य सगे संबंधियों की शिक्षा तथा साक्षरता के स्तर को जान लेते हैं तो बच्चों के सर्वांगीण विकास में आपको आगे बढ़ाने में और उन्हें कक्षा में भली प्रकार पढ़ने -लिखने में मदद मिल सकती है । इसीलिए आज विभिन्न तरह की गतिविधियों तथा खेल-खेल में शिक्षा देने का प्रचलन आ गया है ।आज जो कौशल पूर्ण शिक्षा की बात की जा रही है । उसके मूल में यही बात है कि हम बच्चों में कला के माध्यम से , खेल के माध्यम से एवं अन्य रोचक तरीके से बच्चों को पढ़ने - लिखने में मदद कर सके । राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 इस बात पर जोर देती है कि बच्चों को उनको क्षेत्रीय भाषा में ही शिक्षा दी जानी चाहिए । चाहे बच्चे जिस क्षेत्र के हैं मगही , मैथिली ,भोजपुरी ,अंगिका, बज्जिका आदि क्षेत्र के  रहने वाले बच्चे हैं उन बच्चों को उनकी ही क्षेत्रीय भाषा में पढ़ने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए क्योंकि उनके द्वारा सुनना बोलना पढ़ना और लिखना यह चारों कौशलों के विकास के लिए उनके घरेलू और सामाजिक वातावरण का होना जरूरी है क्योंकि अपने घर या बाहर में बोले जानेवाले शब्दों को जब हम जवाब देने के लिए या कुछ कहने के लिए प्रेरित करते हैं तो उनमें भाषण क्षमता का विकास होता है । उनके भीतर जो झिझक है वह दूर होती है और वह अपने विषय के प्रति उत्सुक और जागृत हो जाते हैं ।

भारतवर्ष के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू बच्चों से बेहद प्यार करते थे । उन्होंने आजाद भारत में सबसे पहले बच्चों के सर्वांगीण विकास तथा उनके सुनहरे भविष्य के बारे में सोचते हुए कहा था कि मैं हैरत में पड़ जाता हूं कि किसी व्यक्ति या राष्ट्र का भविष्य जानने के लिए लोग तारों को देखते हैं । मैं ज्योतिष की गिनती में दिलचस्पी नहीं रखता मुझे जब हिंदुस्तान का भविष्य देखने की इच्छा होती है तो बच्चों की आंखों और चेहरे को देखने की कोशिश करता हूं । बच्चों के भाव मुझे भावी भारत की झलक दे जाते हैं । (अक्षर वार्ता , मासिक, अंतरराष्ट्रीय बियर रिव्यू एवं रिफ्रेड जनरल अक्टूबर 2024 पृष्ठ संख्या 68 वॉल्यूम 20 इशू नंबर 12 )

कहना नहीं होगा कि ऐसा उन्होंने इसीलिए कहा होगा कि एक शिक्षक ही नहीं बल्कि एक प्रत्येक जिम्मेदार नागरिक बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए उनकी समस्त शैक्षिक गतिविधियों को उनके क्रियाकलाप को उनकी विभिन्न गतिविधियों को सीखने की क्षमता को उनकी रुचि रुझान को तथा उनकी आदतों को गहराई के साथ देखने और महसूस करने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि यही कुछ ऐसे कारक हैं जिनके माध्यम से हम बच्चों का सर्वांगीण विकास कर सकते हैं।

किसी विद्वान ने ठीक ही कहा है कि बच्चे गीली मिट्टी के समान होते हैं उन्हें जो आकार में ढाला जाए उस जाकर में ही वे शीघ्र ढल जाते हैं ।  उनका मन मानस कोमल होता है । (अक्षर वार्ता पत्रिका उपर्युक्त पृष्ठ )

हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि छोटा बच्चा जब पहली पहली बार विद्यालय आता है तब वह अपने घरेलू वातावरण से गुजरते हुए यहां आता है वह अपने घर मे  अपने माता-पिता , दादा दादी  , नाना नानी , चाचा-चाची , भाई बहन आदि विभिन्न लोगों के साथ हंसता खेलता ठिठोलिया भरता हुआ आता है और अपरिचित लोगों से पहली बार मिलता है जिसमें उनके हम उम्र के साथी भी होते हैं ।शिक्षक और शिक्षिकाएं भी होते हैं जहां उसे पारिवारिक शैक्षिक माहौल देने की जरूरत होती है ।इसीलिए बच्चों को खेल-खेल में शिक्षा देने की बात कही जाती है । बच्चों को प्यार भरे माहौल देने की बात कही जाती है और बच्चों को पुस्तकों के बोझ से हटाने की कोशिश की जाती है कि उसे अन्य गतिविधियों के माध्यम से भाषा का ज्ञान कराया जा सके और गणित का ज्ञान कराया जा सके ।

आज बच्चों के मानसिक तथा बौद्धिक विकास के लिए कथा , कहानी  , गीत  ,संगीत ,  कविता , गायन और वादन आदि से जोड़कर सिखाए जाने के प्रयास किये जा रहे हैं ।खेल-खेल में शिक्षा कला के माध्यम से शिक्षा गायन और नृत्य के माध्यम से शिक्षा तथा आसपास के वातावरण को दिखलाकर तथा महसूस करवा कर शिक्षा देने तथा सीखने के लिए प्रेरित कराए जा रहे हैं ।हमारे लिए यह भी जरूरी है कि बच्चों में भी नैतिकता का गुज विकसित हो तथा वह मानवीय जीवन मूल्य से अवगत हो सके और बड़े होकर एक जिम्मेदार तथा कर्तव्य निष्ठ नागरिक बन सके।इसीलिए कहा गया है कि  "बाल साहित्य के माध्यम से भी बच्चों को सीखने की क्षमता विकसित  की जा सकती है क्योंकि बाल साहित्य शब्द प्रेरणा के लिए दीप स्तंभ का कार्य करता है । (अक्षर वार्ता वही पृष्ठ  ) क्योंकि साहित्य में जादुई शक्ति होती है ।साहित्य के शब्द चाहे वह कविता हो चाहे वह गीत हो चाहे वह कहानी हो बच्चे ही नहीं बल्कि बड़ों को भी प्रभावित करती है।इसी साहित्य के द्वारा विभिन्न परिस्थितियों के अनुरूप विभिन्न रसों और भावों की अनुभूति भी कराई जाती है ।  बच्चे प्रतिपादित समस्या के बारे में सोचते हैं विचार करते हैं चिंतन करते हैं तथा पुनः एक निश्चित धारणा बनाते हैं ....इसके माध्यम से उनमें कठिन परिस्थितियों पर विजय प्राप्त करने की शक्ति जागृत होती है । (अक्षर वार्ता वही पृष्ठ 69 )

बच्चों को सुनना बोलना पढ़ना और लिखना यह महत्वपूर्ण चार कौशल उनकी प्रारंभिक शिक्षा की आधारशिला है । वे यदि अपने घर से विद्यालय आते हैं तो वह घर में ही माता-पिता दादा दादी भाई-बहन और अन्य संबंधियों मित्रों से बहुत सारी बातें सीख कर आते हैं नए-नए शब्द सीख कर आते हैं । जिनमें नए-नए शब्द बोलने के हाव-भाव मन की विभिन्न मनोदशाएं और जिज्ञासाएं भी शामिल होती हैं। पहली बार विद्यालय आने वाले बच्चे ढेर सारे शब्दों को सीखकर आते हैं वे बाजार जाते है स्कूल आते जाते हैं अथवा वह जहां भी जाते हैं वे जो कुछ देखते हैं उन बातों का अनुकरण करते हैं और वह उनकी आदतों में शुमार हो जाती है ।वह जब भी दुकान जाते हैं या बाजार जाते हैं तो वह उन वस्तुओं को देखते हैं जो दुकानों में बिक रही होती है लोगों की बातों को ध्यान से सुनते हैं और आप यह महसूस कर सकते हैं कि वह नए-नए खिलौने जो आकार में बड़े तथा सुंदर तथा आकर्षक लगते हैं वह उन्हें एक ही नजर में पहचान लेते हैं और अगली बार जब  पुनः वे कभी उस दुकान की ओर जाते हैं तो उन खिलौने को लेने की जिद करने लगते हैं । इसी तरह ट्रॉफी एवं बिस्किट के जाकर उसकी सुंदरता उसके स्वाद तथा उसके वजन आदि से भी वह कहीं ना कहीं वाकिफ हो जाते हैं । उन  दुकान में रखे सामानों को देखकर पढ़ कर छूकर तथा दुकानदारों की बातचीत को भी सुनकर सीखते हैं तथा अनुभव प्राप्त करते हैं वह जब भी किसी से वार्तालाप होते देखते हैं अथवा दुकान में खरीदारी होते देखते हैं तथा उन्हें लोगों को हाथों में लिए हुए देखते हैं तो अपनी समझ विकसित करते रहते हैं क्योंकि बच्चों में जिज्ञासा का भाव प्रबल होता है । वह बहुत सारी बातें स्कूल से आते-जाते विभिन्न शैक्षिक गतिविधियों में हिस्सा लेते हुए सीखते रहते हैं ।इस तरह से उनके भीतर ज्ञान का निरंतर विकास होता रहता है तथा विचारों और भावों का भी आदान-प्रदान होता रहता है ।उन्हें शब्दों ,वाक्यों तथा कहानियों में आए विविध प्रसंगों के साथ-साथ पात्रों के प्रति आत्मीयता का भाव आने लगता है तथा वह उसी हिसाब से पात्रों के अनुरूप अपनी धारणा बना लेते हैं तथा अपनी पठन क्षमता भी विकसित कर रहे होते हैं । उनके सीखने का ढंग और सीखने की गति बहुत - कुछ इन सारी बातों पर निर्भर करता है और एक शिक्षक होने के नाते अथवा अभिभावक होने के नाते वह अपने बच्चों को गौर से यदि देख सकते हैं तो उन्हें महसूस होगा कि बच्चों में किस तरह के बदलाव आ रहे हैं और वह बदलाव में यदि शिक्षक की विभिन्न बेहतर गतिविधियां शामिल की जाए तो उसके बेहतर परिणाम सामने आ सकते हैं । इसी तरह बच्चों में सीखने की क्षमता के साथ-साथ लोगों से बातचीत करने मिलने - जुलने की प्रवृत्ति भी बढ़ती है । उनमें अपनापन का भाव भी पैदा हो जाता है और यह आत्मीयता का भाव उनके स्वभाव और विचार में शामिल हो जाता है तथा वह उसी हिसाब से पात्रों के अनुरूप अपनी धारणा बना लेते हैं तथा अपनी पठन क्षमता भी विकसित कर रहे होते हैं ।

"मनुष्य जीवन में मात्र अपने ज्ञान अनुभूतियां तथा विचारों से ही नहीं सकता है अपितु सीखने में वह अन्य लोगों के विचारों ज्ञान एवं अनुभवों से भी लाभान्वित होकर अपनी बौद्धिक व व्यावहारिक कुशलता में अभिवृद्धि करता है ।सीखने की सामाजिक प्रक्रिया नितांत मूल्यवती होती है क्योंकि सामाजिक प्रक्रिया का सक्रिय सहभागी बनकर सीखने में निरंतर रत व्यक्ति ही सामाजिक नागरिक बन सकता है । "  (डॉ आशुतोष दुबे  , प्राचार्य , राज्य शिक्षा संस्थान , उत्तर प्रदेश  ,प्रयागराज ) अधिगम शैक्षिक शोध पत्रिका अंक 15 जून 2020 संपादकीय पृष्ठ का अंश पृ० संख्या 3 )

वस्तुत: आज आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने बच्चों पर विशेष ध्यान दें । एक शिक्षक होने के नाते हमें इस ओर सोचना चाहिए । हमारी सरकार भी इस दिशा में बेहतर कार्य कर रही है । अतः आज आवश्यकता यह भी महसूस की जा रही है कि बच्चों में सहनशीलता आए , वे अपने जीवन के लक्ष्य को समझ सकें तथा देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने में मदद कर सकें ।इसके साथ-साथ यह भी आवश्यक है कि बच्चों को पाश्चात्य  संस्कृति के बजाय भारतीय संस्कृति के प्रति लगाव हो तथा उनका आदर सम्मान कर सकें ।आज इस बात की भी जरूरत महसूस की जा रही है कि हमारे बच्चे अपने चरित्र एवं नैतिक विकास के प्रति भी जागरूक और गंभीर रहें ।मानव जीवन का इतिहास बताता है कि हम निरंतर सभ्यता और विकास की ओर उन्मुख हुए हैं ।हमें विकास के बहुआयामी सोपान और मूलभूत पक्ष को भी देखना चाहिए । क्योंकि सही शिक्षा तभी मानी जाएगी जब एक ओर बच्चों में नैतिकता का विकास हो तो दूसरी ओर उनके चरित्र का भी विकास हो ।  साथ ही बच्चों में जिस चार कौशलों के विकास की बात की जाती है जिसमें सुनना , बोलना , पढ़ना और लिखना शामिल है उसके प्रति हर माता-पिता एवं शिक्षक को सचेत रहना चाहिए , सावधान रहना चाहिए , प्रयासरत रहना चाहिए ।

वस्तुत: हमारे जीवन का लक्ष्य तो यही है बच्चों का सर्वांगीण विकास हो । यदि किसी बच्चे का एकांगी विकास ही होगा तो उसका पूर्ण विकास नहीं कहा जाएगा ।पूर्ण विकास के लिए जरूरी है कि उसकी बुद्धि उसकी भावना उसकी विचारधारा और उसकी स्वभावगत नैतिकता आदि का भी विकास हो इसीलिए बच्चों के जब संपूर्ण विकास की बात की जाती है तब हमारा लक्ष्य उनके समग्र पहलू पर भी केंद्रित हो जाता है । हमारा चिंतन और विचार और मानसिक भावनाएं ऐसी होनी चाहिए कि एक बच्चा आगे चलकर एक सभ्य तथा सुसंस्कृत नागरिक बन सके तथा देश के विकास में अपनी सक्रिय भूमिका निभा सके ।

सवाल यह उठता है कि हम अपने बच्चों का विकास आखिर किस तौर तरीकों से करते हैं ।प्रायः हर एक माता-पिता की यही इच्छा होती है कि उनका बच्चा आगे चलकर ऊंचा पद प्राप्त करें तथा अच्छी तनख्वाह वाली नौकरी करे और इसके लिए प्रायः सभी माता-पिता एवं अभिभावक अपनी शक्ति और सामर्थ्य के अनुसार बच्चों को अच्छे से अच्छे स्कूलों में दाखिला करवाते हैं .जहां बेहतर से बेहतर शिक्षा मिल सके तथा सामाजिक विकास की दौड़ में वे साथ-साथ चल सके ।इसके लिए महंगे स्कूल , महंगे शैक्षिक सहायक  शिक्षक  संसाधन तथा  फीस  तथा रहन -सहन अपनाते हैं या विभिन्न अधुनातम शिक्षण पद्धति और मनः स्थिति उन्हें विकास के विभिन्न मोड़ो एवं पड़ावों को देखने ,परखने , सोचने तथा अपनाने के लिए नित्य निरंतर प्रेरित करता है । इसके लिए येन - केन - प्रकारेण विधि एवं रणनीति भी अपनाते हैं । 

वस्तुत आज समस्या आया है कि हम  बच्चों के सर्वांगीण विकास में शैक्षिक गतिविधियों की महत्वपूर्ण भूमिका

हमें यह कहने में संकोच नहीं है कि आज बिहार में ही नहीं बल्कि भारत वर्ष में बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए जो कुछ प्रयास किया जाना चाहिए वह प्रयास पूरी तरह पर्याप्त नहीं है और उस प्रयास में और भी कुछ जोड़ा जाना चाहिए । राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 बच्चों के सर्वांगीण विकास पर बल देती है । यद्यपि महत्वपूर्ण शिक्षा वह है जो बच्चों में चरित्र निर्माण में सहयोग प्रदान कर सके । राष्ट्रपिता  महात्मा गांधी ने ठीक ही कहा था कि असली शिक्षा वह है जो बच्चों में चरित्र निर्माण पर बल देती है और उसके साथ उसके रोजी रोजगार में सहायता पहुंचाती है । सच तो यह है कि बच्चों का संसार एक अलग और अंगूठा संसार होता है । बच्चों की दुनिया एक अलग तरह की दुनिया मानी जा सकती है जहां बच्चे अपने अनुभव से खेलते हैं छोटे-छोटे बच्चे जो मिट्टी में घरौंदे बनाते हैं वे छोटे-छोटे बच्चे जो जमीन पर रेखाएं खींचते हैं वे छोटे-छोटे बच्चे जो दीवारों पर मिट्टी के ढेले से कुछ न कुछ चित्रकारी कर रहे होते हैं और वह बच्चे जो अपने से बड़े भाई - बहनों की पुस्तक या उनकी कॉपी को लेकर उसमें आड़ी - तिरछी रेखाएं खींच रहे होते हैं । उनमें भी उनका अनुभव है । उनमें भी उनकी कोई ना कोई कहानी होती है कोई न कोई दुख - सुख है उसमें भी उनका घृणा और प्रेम बसा हुआ है । उन दीवारों पर अंकित  रेखाओं में भी उनके  मन के भाव इस रूप में गूँथे हुए हैं  कि हमें समझने की जरूरत है ।आज समय बदल गया है और हमारी शिक्षा पद्धति बाल केंद्रित बन गई है । हम जो कुछ भी बच्चों को पढ़ाते हैं सिखाते हैं । उसमें पहली शर्त यही  है कि उस से बच्चों का मनोरंजन हो बच्चों को संबंधित विषय अथवा पाठ में दिलचस्पी रहे और वह अपनी कक्षा में पढ़ाये जाने वाले पाठ को एकाग्रतापूर्वक सुन सकें , सीख सकें और समझ सकें ।  यह इसलिए भी जरूरी है कि हमें बच्चों के मन के अनुसार उन्हें सही रास्ते पर लाना है चाहे हम बच्चों में भाषा संबंधी विकास की बात करें अथवा गणित संबंधी उनके ज्ञान की बात करें । प्रायः दोनों ही विषयों में बच्चों के मां का जुड़ाव उनकी भावना का जुड़ाव होना चाहिए ।आज समय आ गया है कि हम उन बातों को समझ सकें और अपनी शिक्षा में उसे जगह दे सकें ताकि आगे आने वाली पीढ़ी शिक्षा से भली भांति जुड़ सके । 

बच्चे प्रकृति के अनमोल रत्न और उनका चिंतन और विचार पूरी तरह  से मुक्त रहता है । सांसारिक भेदभाव से रहित और दुर्गुणों से भी पूर्णतः असम्पृक्त !

सच तो यह है कि छोटे-छोटे बच्चे नैतिक दृष्टि से और सांसारिक दृष्टि से विभिन्न प्रकार के कानूनी बंधनों से मुक्त रहते हैं उनके लिए ना तो कोई महान होता है ना कोई छोटा होता है ना कोई बड़ा होता है वह सभी को अपने मापदंड से ही नापते हैं । ( सरोजिनी पांडे बाल साहित्य समीक्षा के प्रतिमान और इतिहास लेखन  (पुस्तक )प्रकाशक :आशीष प्रकाशन कानपुर , प्रथम संस्करण .2011 , पृष्ठ संख्या - 27 )

एक विद्वान शिक्षक को बच्चों को पढ़ने - पढ़ाने के दौरान उनकी व्यक्तिगत प्रवृत्तियों रुचियों गुणों स्वभावों आदि का भी अध्ययन करना चाहिए । यदि आप कक्षा में जाने से पूर्व बच्चों की व्यक्तिगत विभिन्न व्यक्तित्व संबंधी विशेषताएं उनका सामाजिक पारिवारिक परिवेश और वातावरण तथा माता-पिता एवं अन्य सगे संबंधियों की शिक्षा तथा साक्षरता के स्तर को जान लेते हैं तो बच्चों के सर्वांगीण विकास में आपको आगे बढ़ाने में और उन्हें कक्षा में भली प्रकार पढ़ने -लिखने में मदद मिल सकती है । इसीलिए आज विभिन्न तरह की गतिविधियों तथा खेल-खेल में शिक्षा देने का प्रचलन आ गया है ।आज जो कौशल पूर्ण शिक्षा की बात की जा रही है । उसके मूल में यही बात है कि हम बच्चों में कला के माध्यम से , खेल के माध्यम से एवं अन्य रोचक तरीके से बच्चों को पढ़ने - लिखने में मदद कर सके । राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 इस बात पर जोर देती है कि बच्चों को उनको क्षेत्रीय भाषा में ही शिक्षा दी जानी चाहिए । चाहे बच्चे जिस क्षेत्र के हैं मगही , मैथिली ,भोजपुरी ,अंगिका, बज्जिका आदि क्षेत्र के  रहने वाले बच्चे हैं उन बच्चों को उनकी ही क्षेत्रीय भाषा में पढ़ने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए क्योंकि उनके द्वारा सुनना बोलना पढ़ना और लिखना यह चारों कौशलों के विकास के लिए उनके घरेलू और सामाजिक वातावरण का होना जरूरी है क्योंकि अपने घर या बाहर में बोले जानेवाले शब्दों को जब हम जवाब देने के लिए या कुछ कहने के लिए प्रेरित करते हैं तो उनमें भाषण क्षमता का विकास होता है । उनके भीतर जो झिझक है वह दूर होती है और वह अपने विषय के प्रति उत्सुक और जागृत हो जाते हैं ।

भारतवर्ष के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू बच्चों से बेहद प्यार करते थे । उन्होंने आजाद भारत में सबसे पहले बच्चों के सर्वांगीण विकास तथा उनके सुनहरे भविष्य के बारे में सोचते हुए कहा था कि मैं हैरत में पड़ जाता हूं कि किसी व्यक्ति या राष्ट्र का भविष्य जानने के लिए लोग तारों को देखते हैं । मैं ज्योतिष की गिनती में दिलचस्पी नहीं रखता मुझे जब हिंदुस्तान का भविष्य देखने की इच्छा होती है तो बच्चों की आंखों और चेहरे को देखने की कोशिश करता हूं । बच्चों के भाव मुझे भावी भारत की झलक दे जाते हैं । (अक्षर वार्ता , मासिक, अंतरराष्ट्रीय बियर रिव्यू एवं रिफ्रेड जनरल अक्टूबर 2024 पृष्ठ संख्या 68 वॉल्यूम 20 इशू नंबर 12 )

कहना नहीं होगा कि ऐसा उन्होंने इसीलिए कहा होगा कि एक शिक्षक ही नहीं बल्कि एक प्रत्येक जिम्मेदार नागरिक बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए उनकी समस्त शैक्षिक गतिविधियों को उनके क्रियाकलाप को उनकी विभिन्न गतिविधियों को सीखने की क्षमता को उनकी रुचि रुझान को तथा उनकी आदतों को गहराई के साथ देखने और महसूस करने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि यही कुछ ऐसे कारक हैं जिनके माध्यम से हम बच्चों का सर्वांगीण विकास कर सकते हैं।

किसी विद्वान ने ठीक ही कहा है कि बच्चे गीली मिट्टी के समान होते हैं उन्हें जो आकार में ढाला जाए उस जाकर में ही वे शीघ्र ढल जाते हैं ।  उनका मन मानस कोमल होता है । (अक्षर वार्ता पत्रिका उपर्युक्त पृष्ठ )

हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि छोटा बच्चा जब पहली पहली बार विद्यालय आता है तब वह अपने घरेलू वातावरण से गुजरते हुए यहां आता है वह अपने घर मे  अपने माता-पिता , दादा दादी  , नाना नानी , चाचा-चाची , भाई बहन आदि विभिन्न लोगों के साथ हंसता खेलता ठिठोलिया भरता हुआ आता है और अपरिचित लोगों से पहली बार मिलता है जिसमें उनके हम उम्र के साथी भी होते हैं ।शिक्षक और शिक्षिकाएं भी होते हैं जहां उसे पारिवारिक शैक्षिक माहौल देने की जरूरत होती है ।इसीलिए बच्चों को खेल-खेल में शिक्षा देने की बात कही जाती है । बच्चों को प्यार भरे माहौल देने की बात कही जाती है और बच्चों को पुस्तकों के बोझ से हटाने की कोशिश की जाती है कि उसे अन्य गतिविधियों के माध्यम से भाषा का ज्ञान कराया जा सके और गणित का ज्ञान कराया जा सके ।

आज बच्चों के मानसिक तथा बौद्धिक विकास के लिए कथा , कहानी  , गीत  ,संगीत ,  कविता , गायन और वादन आदि से जोड़कर सिखाए जाने के प्रयास किये जा रहे हैं ।खेल-खेल में शिक्षा कला के माध्यम से शिक्षा गायन और नृत्य के माध्यम से शिक्षा तथा आसपास के वातावरण को दिखलाकर तथा महसूस करवा कर शिक्षा देने तथा सीखने के लिए प्रेरित कराए जा रहे हैं ।हमारे लिए यह भी जरूरी है कि बच्चों में भी नैतिकता का गुज विकसित हो तथा वह मानवीय जीवन मूल्य से अवगत हो सके और बड़े होकर एक जिम्मेदार तथा कर्तव्य निष्ठ नागरिक बन सके।इसीलिए कहा गया है कि  "बाल साहित्य के माध्यम से भी बच्चों को सीखने की क्षमता विकसित  की जा सकती है क्योंकि बाल साहित्य शब्द प्रेरणा के लिए दीप स्तंभ का कार्य करता है । (अक्षर वार्ता वही पृष्ठ  ) क्योंकि साहित्य में जादुई शक्ति होती है ।साहित्य के शब्द चाहे वह कविता हो चाहे वह गीत हो चाहे वह कहानी हो बच्चे ही नहीं बल्कि बड़ों को भी प्रभावित करती है।इसी साहित्य के द्वारा विभिन्न परिस्थितियों के अनुरूप विभिन्न रसों और भावों की अनुभूति भी कराई जाती है ।  बच्चे प्रतिपादित समस्या के बारे में सोचते हैं विचार करते हैं चिंतन करते हैं तथा पुनः एक निश्चित धारणा बनाते हैं ....इसके माध्यम से उनमें कठिन परिस्थितियों पर विजय प्राप्त करने की शक्ति जागृत होती है । (अक्षर वार्ता वही पृष्ठ 69 )

बच्चों को सुनना बोलना पढ़ना और लिखना यह महत्वपूर्ण चार कौशल उनकी प्रारंभिक शिक्षा की आधारशिला है । वे यदि अपने घर से विद्यालय आते हैं तो वह घर में ही माता-पिता दादा दादी भाई-बहन और अन्य संबंधियों मित्रों से बहुत सारी बातें सीख कर आते हैं नए-नए शब्द सीख कर आते हैं । जिनमें नए-नए शब्द बोलने के हाव-भाव मन की विभिन्न मनोदशाएं और जिज्ञासाएं भी शामिल होती हैं। पहली बार विद्यालय आने वाले बच्चे ढेर सारे शब्दों को सीखकर आते हैं वे बाजार जाते है स्कूल आते जाते हैं अथवा वह जहां भी जाते हैं वे जो कुछ देखते हैं उन बातों का अनुकरण करते हैं और वह उनकी आदतों में शुमार हो जाती है ।वह जब भी दुकान जाते हैं या बाजार जाते हैं तो वह उन वस्तुओं को देखते हैं जो दुकानों में बिक रही होती है लोगों की बातों को ध्यान से सुनते हैं और आप यह महसूस कर सकते हैं कि वह नए-नए खिलौने जो आकार में बड़े तथा सुंदर तथा आकर्षक लगते हैं वह उन्हें एक ही नजर में पहचान लेते हैं और अगली बार जब  पुनः वे कभी उस दुकान की ओर जाते हैं तो उन खिलौने को लेने की जिद करने लगते हैं । इसी तरह ट्रॉफी एवं बिस्किट के जाकर उसकी सुंदरता उसके स्वाद तथा उसके वजन आदि से भी वह कहीं ना कहीं वाकिफ हो जाते हैं । उन  दुकान में रखे सामानों को देखकर पढ़ कर छूकर तथा दुकानदारों की बातचीत को भी सुनकर सीखते हैं तथा अनुभव प्राप्त करते हैं वह जब भी किसी से वार्तालाप होते देखते हैं अथवा दुकान में खरीदारी होते देखते हैं तथा उन्हें लोगों को हाथों में लिए हुए देखते हैं तो अपनी समझ विकसित करते रहते हैं क्योंकि बच्चों में जिज्ञासा का भाव प्रबल होता है । वह बहुत सारी बातें स्कूल से आते-जाते विभिन्न शैक्षिक गतिविधियों में हिस्सा लेते हुए सीखते रहते हैं ।इस तरह से उनके भीतर ज्ञान का निरंतर विकास होता रहता है तथा विचारों और भावों का भी आदान-प्रदान होता रहता है ।उन्हें शब्दों ,वाक्यों तथा कहानियों में आए विविध प्रसंगों के साथ-साथ पात्रों के प्रति आत्मीयता का भाव आने लगता है तथा वह उसी हिसाब से पात्रों के अनुरूप अपनी धारणा बना लेते हैं तथा अपनी पठन क्षमता भी विकसित कर रहे होते हैं । उनके सीखने का ढंग और सीखने की गति बहुत - कुछ इन सारी बातों पर निर्भर करता है और एक शिक्षक होने के नाते अथवा अभिभावक होने के नाते वह अपने बच्चों को गौर से यदि देख सकते हैं तो उन्हें महसूस होगा कि बच्चों में किस तरह के बदलाव आ रहे हैं और वह बदलाव में यदि शिक्षक की विभिन्न बेहतर गतिविधियां शामिल की जाए तो उसके बेहतर परिणाम सामने आ सकते हैं । इसी तरह बच्चों में सीखने की क्षमता के साथ-साथ लोगों से बातचीत करने मिलने - जुलने की प्रवृत्ति भी बढ़ती है । उनमें अपनापन का भाव भी पैदा हो जाता है और यह आत्मीयता का भाव उनके स्वभाव और विचार में शामिल हो जाता है तथा वह उसी हिसाब से पात्रों के अनुरूप अपनी धारणा बना लेते हैं तथा अपनी पठन क्षमता भी विकसित कर रहे होते हैं ।

"मनुष्य जीवन में मात्र अपने ज्ञान अनुभूतियां तथा विचारों से ही नहीं सकता है अपितु सीखने में वह अन्य लोगों के विचारों ज्ञान एवं अनुभवों से भी लाभान्वित होकर अपनी बौद्धिक व व्यावहारिक कुशलता में अभिवृद्धि करता है ।सीखने की सामाजिक प्रक्रिया नितांत मूल्यवती होती है क्योंकि सामाजिक प्रक्रिया का सक्रिय सहभागी बनकर सीखने में निरंतर रत व्यक्ति ही सामाजिक नागरिक बन सकता है।"  (डॉ आशुतोष दुबे  , प्राचार्य , राज्य शिक्षा संस्थान, उत्तर प्रदेश  ,प्रयागराज ) अधिगम शैक्षिक शोध पत्रिका अंक 15 जून 2020 संपादकीय पृष्ठ का अंश पृ० संख्या 3 )

वस्तुत: आज आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने बच्चों पर विशेष ध्यान दें । एक शिक्षक होने के नाते हमें इस ओर सोचना चाहिए । हमारी सरकार भी इस दिशा में बेहतर कार्य कर रही है । अतः आज आवश्यकता यह भी महसूस की जा रही है कि बच्चों में सहनशीलता आए , वे अपने जीवन के लक्ष्य को समझ सकें तथा देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने में मदद कर सकें ।इसके साथ-साथ यह भी आवश्यक है कि बच्चों को पाश्चात्य  संस्कृति के बजाय भारतीय संस्कृति के प्रति लगाव हो तथा उनका आदर सम्मान कर सकें ।आज इस बात की भी जरूरत महसूस की जा रही है कि हमारे बच्चे अपने चरित्र एवं नैतिक विकास के प्रति भी जागरूक और गंभीर रहें ।मानव जीवन का इतिहास बताता है कि हम निरंतर सभ्यता और विकास की ओर उन्मुख हुए हैं ।हमें विकास के बहुआयामी सोपान और मूलभूत पक्ष को भी देखना चाहिए । क्योंकि सही शिक्षा तभी मानी जाएगी जब एक ओर बच्चों में नैतिकता का विकास हो तो दूसरी ओर उनके चरित्र का भी विकास हो ।  साथ ही बच्चों में जिस चार कौशलों के विकास की बात की जाती है जिसमें सुनना , बोलना , पढ़ना और लिखना शामिल है उसके प्रति हर माता-पिता एवं शिक्षक को सचेत रहना चाहिए , सावधान रहना चाहिए , प्रयासरत रहना चाहिए ।

वस्तुत: हमारे जीवन का लक्ष्य तो यही है बच्चों का सर्वांगीण विकास हो । यदि किसी बच्चे का एकांगी विकास ही होगा तो उसका पूर्ण विकास नहीं कहा जाएगा ।पूर्ण विकास के लिए जरूरी है कि उसकी बुद्धि उसकी भावना उसकी विचारधारा और उसकी स्वभावगत नैतिकता आदि का भी विकास हो इसीलिए बच्चों के जब संपूर्ण विकास की बात की जाती है तब हमारा लक्ष्य उनके समग्र पहलू पर भी केंद्रित हो जाता है । हमारा चिंतन और विचार और मानसिक भावनाएं ऐसी होनी चाहिए कि एक बच्चा आगे चलकर एक सभ्य तथा सुसंस्कृत नागरिक बन सके तथा देश के विकास में अपनी सक्रिय भूमिका निभा सके ।

सवाल यह उठता है कि हम अपने बच्चों का विकास आखिर किस तौर तरीकों से करते हैं ।प्रायः हर एक माता-पिता की यही इच्छा होती है कि उनका बच्चा आगे चलकर ऊंचा पद प्राप्त करें तथा अच्छी तनख्वाह वाली नौकरी करे और इसके लिए प्रायः सभी माता-पिता एवं अभिभावक अपनी शक्ति और सामर्थ्य के अनुसार बच्चों को अच्छे से अच्छे स्कूलों में दाखिला करवाते हैं .जहां बेहतर से बेहतर शिक्षा मिल सके तथा सामाजिक विकास की दौड़ में वे साथ-साथ चल सके ।इसके लिए महंगे स्कूल , महंगे शैक्षिक सहायक  शिक्षक  संसाधन तथा  फीस  तथा रहन -सहन अपनाते हैं या विभिन्न अधुनातम शिक्षण पद्धति और मनः स्थिति उन्हें विकास के विभिन्न मोड़ो एवं पड़ावों को देखने ,परखने , सोचने तथा अपनाने के लिए नित्य निरंतर प्रेरित करता है । इसके लिए येन - केन - प्रकारेण विधि एवं रणनीति भी अपनाते हैं । 

वस्तुत आज समस्या आया है कि हम बच्चों के सर्वांगीण विकास पर बोल दें औरदेश के सर्वांगीण विकास में अपनीमहत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सके ।प्रधानमंत्रीमाननीय नरेंद्र मोदी जी का यह कथन विशेष महत्व रखता है कि 2047 तक भारत को विकसित भारतके रूप में विश्व के पटल पर उभर कर आना चाहिए और हर एक क्षेत्र में विकास के विभिन्न रूपपरिलक्षित होना चाहिए जिसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण बच्चों की शिक्षा है उनके देखरेख हैक्योंकिकिसी भी देशकाबेहतर विकास वहां के शिक्षण व्यवस्था से ही संभव हो सकता है । के सर्वांगीण विकास पर बोल दें औरदेश के सर्वांगीण विकास में अपनीमहत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सके ।प्रधानमंत्रीमाननीय नरेंद्र मोदी जी का यह कथन विशेष महत्व रखता है कि 2047 तक भारत को विकसित भारतके रूप में विश्व के पटल पर उभर कर आना चाहिए और हर एक क्षेत्र में विकास के विभिन्न रूपपरिलक्षित होना चाहिए जिसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण बच्चों की शिक्षा है उनके देखरेख हैक्योंकिकिसी भी देशकाबेहतर विकास वहां के शिक्षण व्यवस्था से ही संभव हो सकता है । वह प्रयास पूरी तरह पर्याप्त नहीं है और उस प्रयास में और भी कुछ जोड़ा जाना चाहिए । राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 बच्चों के सर्वांगीण विकास पर बल देती है । यद्यपि महत्वपूर्ण शिक्षा वह है जो बच्चों में चरित्र निर्माण में सहयोग प्रदान कर सके । राष्ट्रपिता  महात्मा गांधी ने ठीक ही कहा था कि असली शिक्षा वह है जो बच्चों में चरित्र निर्माण पर बल देती है और उसके साथ उसके रोजी रोजगार में सहायता पहुंचाती है । सच तो यह है कि बच्चों का संसार एक अलग और अंगूठा संसार होता है । बच्चों की दुनिया एक अलग तरह की दुनिया मानी जा सकती है जहां बच्चे अपने अनुभव से खेलते हैं छोटे-छोटे बच्चे जो मिट्टी में घरौंदे बनाते हैं वे छोटे-छोटे बच्चे जो जमीन पर रेखाएं खींचते हैं वे छोटे-छोटे बच्चे जो दीवारों पर मिट्टी के ढेले से कुछ न कुछ चित्रकारी कर रहे होते हैं और वह बच्चे जो अपने से बड़े भाई - बहनों की पुस्तक या उनकी कॉपी को लेकर उसमें आड़ी - तिरछी रेखाएं खींच रहे होते हैं । उनमें भी उनका अनुभव है । उनमें भी उनकी कोई ना कोई कहानी होती है कोई न कोई दुख - सुख है उसमें भी उनका घृणा और प्रेम बसा हुआ है । उन दीवारों पर अंकित  रेखाओं में भी उनके  मन के भाव इस रूप में गूँथे हुए हैं  कि हमें समझने की जरूरत है ।आज समय बदल गया है और हमारी शिक्षा पद्धति बाल केंद्रित बन गई है । हम जो कुछ भी बच्चों को पढ़ाते हैं सिखाते हैं । उसमें पहली शर्त यही  है कि उस से बच्चों का मनोरंजन हो बच्चों को संबंधित विषय अथवा पाठ में दिलचस्पी रहे और वह अपनी कक्षा में पढ़ाये जाने वाले पाठ को एकाग्रतापूर्वक सुन सकें , सीख सकें और समझ सकें ।  यह इसलिए भी जरूरी है कि हमें बच्चों के मन के अनुसार उन्हें सही रास्ते पर लाना है चाहे हम बच्चों में भाषा संबंधी विकास की बात करें अथवा गणित संबंधी उनके ज्ञान की बात करें । प्रायः दोनों ही विषयों में बच्चों के मां का जुड़ाव उनकी भावना का जुड़ाव होना चाहिए ।आज समय आ गया है कि हम उन बातों को समझ सकें और अपनी शिक्षा में उसे जगह दे सकें ताकि आगे आने वाली पीढ़ी शिक्षा से भली भांति जुड़ सके । 

बच्चे प्रकृति के अनमोल रत्न और उनका चिंतन और विचार पूरी तरह  से मुक्त रहता है । सांसारिक भेदभाव से रहित और दुर्गुणों से भी पूर्णतः असम्पृक्त !

सच तो यह है कि छोटे-छोटे बच्चे नैतिक दृष्टि से और सांसारिक दृष्टि से विभिन्न प्रकार के कानूनी बंधनों से मुक्त रहते हैं उनके लिए ना तो कोई महान होता है ना कोई छोटा होता है ना कोई बड़ा होता है वह सभी को अपने मापदंड से ही नापते हैं । ( सरोजिनी पांडे बाल साहित्य समीक्षा के प्रतिमान और इतिहास लेखन  (पुस्तक )प्रकाशक :आशीष प्रकाशन कानपुर , प्रथम संस्करण .2011 , पृष्ठ संख्या - 27 )

एक विद्वान शिक्षक को बच्चों को पढ़ने - पढ़ाने के दौरान उनकी व्यक्तिगत प्रवृत्तियों रुचियों गुणों स्वभावों आदि का भी अध्ययन करना चाहिए । यदि आप कक्षा में जाने से पूर्व बच्चों की व्यक्तिगत विभिन्न व्यक्तित्व संबंधी विशेषताएं उनका सामाजिक पारिवारिक परिवेश और वातावरण तथा माता-पिता एवं अन्य सगे संबंधियों की शिक्षा तथा साक्षरता के स्तर को जान लेते हैं तो बच्चों के सर्वांगीण विकास में आपको आगे बढ़ाने में और उन्हें कक्षा में भली प्रकार पढ़ने -लिखने में मदद मिल सकती है । इसीलिए आज विभिन्न तरह की गतिविधियों तथा खेल-खेल में शिक्षा देने का प्रचलन आ गया है ।आज जो कौशल पूर्ण शिक्षा की बात की जा रही है । उसके मूल में यही बात है कि हम बच्चों में कला के माध्यम से , खेल के माध्यम से एवं अन्य रोचक तरीके से बच्चों को पढ़ने - लिखने में मदद कर सके । राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 इस बात पर जोर देती है कि बच्चों को उनको क्षेत्रीय भाषा में ही शिक्षा दी जानी चाहिए । चाहे बच्चे जिस क्षेत्र के हैं मगही , मैथिली ,भोजपुरी ,अंगिका, बज्जिका आदि क्षेत्र के  रहने वाले बच्चे हैं उन बच्चों को उनकी ही क्षेत्रीय भाषा में पढ़ने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए क्योंकि उनके द्वारा सुनना बोलना पढ़ना और लिखना यह चारों कौशलों के विकास के लिए उनके घरेलू और सामाजिक वातावरण का होना जरूरी है क्योंकि अपने घर या बाहर में बोले जानेवाले शब्दों को जब हम जवाब देने के लिए या कुछ कहने के लिए प्रेरित करते हैं तो उनमें भाषण क्षमता का विकास होता है । उनके भीतर जो झिझक है वह दूर होती है और वह अपने विषय के प्रति उत्सुक और जागृत हो जाते हैं ।

भारतवर्ष के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू बच्चों से बेहद प्यार करते थे । उन्होंने आजाद भारत में सबसे पहले बच्चों के सर्वांगीण विकास तथा उनके सुनहरे भविष्य के बारे में सोचते हुए कहा था कि मैं हैरत में पड़ जाता हूं कि किसी व्यक्ति या राष्ट्र का भविष्य जानने के लिए लोग तारों को देखते हैं । मैं ज्योतिष की गिनती में दिलचस्पी नहीं रखता मुझे जब हिंदुस्तान का भविष्य देखने की इच्छा होती है तो बच्चों की आंखों और चेहरे को देखने की कोशिश करता हूं । बच्चों के भाव मुझे भावी भारत की झलक दे जाते हैं । (अक्षर वार्ता , मासिक, अंतरराष्ट्रीय बियर रिव्यू एवं रिफ्रेड जनरल अक्टूबर 2024 पृष्ठ संख्या 68 वॉल्यूम 20 इशू नंबर 12 )

कहना नहीं होगा कि ऐसा उन्होंने इसीलिए कहा होगा कि एक शिक्षक ही नहीं बल्कि एक प्रत्येक जिम्मेदार नागरिक बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए उनकी समस्त शैक्षिक गतिविधियों को उनके क्रियाकलाप को उनकी विभिन्न गतिविधियों को सीखने की क्षमता को उनकी रुचि रुझान को तथा उनकी आदतों को गहराई के साथ देखने और महसूस करने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि यही कुछ ऐसे कारक हैं जिनके माध्यम से हम बच्चों का सर्वांगीण विकास कर सकते हैं।

किसी विद्वान ने ठीक ही कहा है कि बच्चे गीली मिट्टी के समान होते हैं उन्हें जो आकार में ढाला जाए उस जाकर में ही वे शीघ्र ढल जाते हैं ।  उनका मन मानस कोमल होता है । (अक्षर वार्ता पत्रिका उपर्युक्त पृष्ठ )

हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि छोटा बच्चा जब पहली पहली बार विद्यालय आता है तब वह अपने घरेलू वातावरण से गुजरते हुए यहां आता है वह अपने घर मे  अपने माता-पिता , दादा दादी  , नाना नानी , चाचा-चाची , भाई बहन आदि विभिन्न लोगों के साथ हंसता खेलता ठिठोलिया भरता हुआ आता है और अपरिचित लोगों से पहली बार मिलता है जिसमें उनके हम उम्र के साथी भी होते हैं ।शिक्षक और शिक्षिकाएं भी होते हैं जहां उसे पारिवारिक शैक्षिक माहौल देने की जरूरत होती है ।इसीलिए बच्चों को खेल-खेल में शिक्षा देने की बात कही जाती है । बच्चों को प्यार भरे माहौल देने की बात कही जाती है और बच्चों को पुस्तकों के बोझ से हटाने की कोशिश की जाती है कि उसे अन्य गतिविधियों के माध्यम से भाषा का ज्ञान कराया जा सके और गणित का ज्ञान कराया जा सके ।

आज बच्चों के मानसिक तथा बौद्धिक विकास के लिए कथा , कहानी  , गीत  ,संगीत ,  कविता , गायन और वादन आदि से जोड़कर सिखाए जाने के प्रयास किये जा रहे हैं ।खेल-खेल में शिक्षा कला के माध्यम से शिक्षा गायन और नृत्य के माध्यम से शिक्षा तथा आसपास के वातावरण को दिखलाकर तथा महसूस करवा कर शिक्षा देने तथा सीखने के लिए प्रेरित कराए जा रहे हैं ।हमारे लिए यह भी जरूरी है कि बच्चों में भी नैतिकता का गुज विकसित हो तथा वह मानवीय जीवन मूल्य से अवगत हो सके और बड़े होकर एक जिम्मेदार तथा कर्तव्य निष्ठ नागरिक बन सके।इसीलिए कहा गया है कि  "बाल साहित्य के माध्यम से भी बच्चों को सीखने की क्षमता विकसित  की जा सकती है क्योंकि बाल साहित्य शब्द प्रेरणा के लिए दीप स्तंभ का कार्य करता है । (अक्षर वार्ता वही पृष्ठ  ) क्योंकि साहित्य में जादुई शक्ति होती है ।साहित्य के शब्द चाहे वह कविता हो चाहे वह गीत हो चाहे वह कहानी हो बच्चे ही नहीं बल्कि बड़ों को भी प्रभावित करती है।इसी साहित्य के द्वारा विभिन्न परिस्थितियों के अनुरूप विभिन्न रसों और भावों की अनुभूति भी कराई जाती है ।  बच्चे प्रतिपादित समस्या के बारे में सोचते हैं विचार करते हैं चिंतन करते हैं तथा पुनः एक निश्चित धारणा बनाते हैं ....इसके माध्यम से उनमें कठिन परिस्थितियों पर विजय प्राप्त करने की शक्ति जागृत होती है । (अक्षर वार्ता वही पृष्ठ 69 )

बच्चों को सुनना बोलना पढ़ना और लिखना यह महत्वपूर्ण चार कौशल उनकी प्रारंभिक शिक्षा की आधारशिला है । वे यदि अपने घर से विद्यालय आते हैं तो वह घर में ही माता-पिता दादा दादी भाई-बहन और अन्य संबंधियों मित्रों से बहुत सारी बातें सीख कर आते हैं नए-नए शब्द सीख कर आते हैं । जिनमें नए-नए शब्द बोलने के हाव-भाव मन की विभिन्न मनोदशाएं और जिज्ञासाएं भी शामिल होती हैं। पहली बार विद्यालय आने वाले बच्चे ढेर सारे शब्दों को सीखकर आते हैं वे बाजार जाते है स्कूल आते जाते हैं अथवा वह जहां भी जाते हैं वे जो कुछ देखते हैं उन बातों का अनुकरण करते हैं और वह उनकी आदतों में शुमार हो जाती है ।वह जब भी दुकान जाते हैं या बाजार जाते हैं तो वह उन वस्तुओं को देखते हैं जो दुकानों में बिक रही होती है लोगों की बातों को ध्यान से सुनते हैं और आप यह महसूस कर सकते हैं कि वह नए-नए खिलौने जो आकार में बड़े तथा सुंदर तथा आकर्षक लगते हैं वह उन्हें एक ही नजर में पहचान लेते हैं और अगली बार जब  पुनः वे कभी उस दुकान की ओर जाते हैं तो उन खिलौने को लेने की जिद करने लगते हैं । इसी तरह ट्रॉफी एवं बिस्किट के जाकर उसकी सुंदरता उसके स्वाद तथा उसके वजन आदि से भी वह कहीं ना कहीं वाकिफ हो जाते हैं । उन  दुकान में रखे सामानों को देखकर पढ़ कर छूकर तथा दुकानदारों की बातचीत को भी सुनकर सीखते हैं तथा अनुभव प्राप्त करते हैं वह जब भी किसी से वार्तालाप होते देखते हैं अथवा दुकान में खरीदारी होते देखते हैं तथा उन्हें लोगों को हाथों में लिए हुए देखते हैं तो अपनी समझ विकसित करते रहते हैं क्योंकि बच्चों में जिज्ञासा का भाव प्रबल होता है । वह बहुत सारी बातें स्कूल से आते-जाते विभिन्न शैक्षिक गतिविधियों में हिस्सा लेते हुए सीखते रहते हैं ।इस तरह से उनके भीतर ज्ञान का निरंतर विकास होता रहता है तथा विचारों और भावों का भी आदान-प्रदान होता रहता है ।उन्हें शब्दों ,वाक्यों तथा कहानियों में आए विविध प्रसंगों के साथ-साथ पात्रों के प्रति आत्मीयता का भाव आने लगता है तथा वह उसी हिसाब से पात्रों के अनुरूप अपनी धारणा बना लेते हैं तथा अपनी पठन क्षमता भी विकसित कर रहे होते हैं । उनके सीखने का ढंग और सीखने की गति बहुत - कुछ इन सारी बातों पर निर्भर करता है और एक शिक्षक होने के नाते अथवा अभिभावक होने के नाते वह अपने बच्चों को गौर से यदि देख सकते हैं तो उन्हें महसूस होगा कि बच्चों में किस तरह के बदलाव आ रहे हैं और वह बदलाव में यदि शिक्षक की विभिन्न बेहतर गतिविधियां शामिल की जाए तो उसके बेहतर परिणाम सामने आ सकते हैं । इसी तरह बच्चों में सीखने की क्षमता के साथ-साथ लोगों से बातचीत करने मिलने - जुलने की प्रवृत्ति भी बढ़ती है । उनमें अपनापन का भाव भी पैदा हो जाता है और यह आत्मीयता का भाव उनके स्वभाव और विचार में शामिल हो जाता है तथा वह उसी हिसाब से पात्रों के अनुरूप अपनी धारणा बना लेते हैं तथा अपनी पठन क्षमता भी विकसित कर रहे होते हैं ।

"मनुष्य जीवन में मात्र अपने ज्ञान अनुभूतियां तथा विचारों से ही नहीं सकता है अपितु सीखने में वह अन्य लोगों के विचारों ज्ञान एवं अनुभवों से भी लाभान्वित होकर अपनी बौद्धिक व व्यावहारिक कुशलता में अभिवृद्धि करता है ।सीखने की सामाजिक प्रक्रिया नितांत मूल्यवती होती है क्योंकि सामाजिक प्रक्रिया का सक्रिय सहभागी बनकर सीखने में निरंतर रत व्यक्ति ही सामाजिक नागरिक बन सकता है । "  (डॉ आशुतोष दुबे  , प्राचार्य , राज्य शिक्षा संस्थान , उत्तर प्रदेश  ,प्रयागराज ) अधिगम शैक्षिक शोध पत्रिका अंक 15 जून 2020 संपादकीय पृष्ठ का अंश पृ० संख्या 3 )

वस्तुत: आज आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने बच्चों पर विशेष ध्यान दें । एक शिक्षक होने के नाते हमें इस ओर सोचना चाहिए । हमारी सरकार भी इस दिशा में बेहतर कार्य कर रही है । अतः आज आवश्यकता यह भी महसूस की जा रही है कि बच्चों में सहनशीलता आए , वे अपने जीवन के लक्ष्य को समझ सकें तथा देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने में मदद कर सकें ।इसके साथ-साथ यह भी आवश्यक है कि बच्चों को पाश्चात्य  संस्कृति के बजाय भारतीय संस्कृति के प्रति लगाव हो तथा उनका आदर सम्मान कर सकें ।आज इस बात की भी जरूरत महसूस की जा रही है कि हमारे बच्चे अपने चरित्र एवं नैतिक विकास के प्रति भी जागरूक और गंभीर रहें ।मानव जीवन का इतिहास बताता है कि हम निरंतर सभ्यता और विकास की ओर उन्मुख हुए हैं ।हमें विकास के बहुआयामी सोपान और मूलभूत पक्ष को भी देखना चाहिए । क्योंकि सही शिक्षा तभी मानी जाएगी जब एक ओर बच्चों में नैतिकता का विकास हो तो दूसरी ओर उनके चरित्र का भी विकास हो ।  साथ ही बच्चों में जिस चार कौशलों के विकास की बात की जाती है जिसमें सुनना , बोलना , पढ़ना और लिखना शामिल है उसके प्रति हर माता-पिता एवं शिक्षक को सचेत रहना चाहिए , सावधान रहना चाहिए , प्रयासरत रहना चाहिए ।

वस्तुत: हमारे जीवन का लक्ष्य तो यही है बच्चों का सर्वांगीण विकास हो । यदि किसी बच्चे का एकांगी विकास ही होगा तो उसका पूर्ण विकास नहीं कहा जाएगा ।पूर्ण विकास के लिए जरूरी है कि उसकी बुद्धि उसकी भावना उसकी विचारधारा और उसकी स्वभावगत नैतिकता आदि का भी विकास हो इसीलिए बच्चों के जब संपूर्ण विकास की बात की जाती है तब हमारा लक्ष्य उनके समग्र पहलू पर भी केंद्रित हो जाता है । हमारा चिंतन और विचार और मानसिक भावनाएं ऐसी होनी चाहिए कि एक बच्चा आगे चलकर एक सभ्य तथा सुसंस्कृत नागरिक बन सके तथा देश के विकास में अपनी सक्रिय भूमिका निभा सके ।

सवाल यह उठता है कि हम अपने बच्चों का विकास आखिर किस तौर तरीकों से करते हैं ।प्रायः हर एक माता-पिता की यही इच्छा होती है कि उनका बच्चा आगे चलकर ऊंचा पद प्राप्त करें तथा अच्छी तनख्वाह वाली नौकरी करे और इसके लिए प्रायः सभी माता-पिता एवं अभिभावक अपनी शक्ति और सामर्थ्य के अनुसार बच्चों को अच्छे से अच्छे स्कूलों में दाखिला करवाते हैं .जहां बेहतर से बेहतर शिक्षा मिल सके तथा सामाजिक विकास की दौड़ में वे साथ-साथ चल सके ।इसके लिए महंगे स्कूल , महंगे शैक्षिक सहायक  शिक्षक  संसाधन तथा  फीस  तथा रहन -सहन अपनाते हैं या विभिन्न अधुनातम शिक्षण पद्धति और मनः स्थिति उन्हें विकास के विभिन्न मोड़ो एवं पड़ावों को देखने ,परखने , सोचने तथा अपनाने के लिए नित्य निरंतर प्रेरित करता है । इसके लिए येन - केन - प्रकारेण विधि एवं रणनीति भी अपनाते हैं । 

वस्तुत: आज समस्या यह है कि हम बच्चों के सर्वांगीण विकास पर बल दें और देश के सर्वांगीण विकास में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकें ।प्रधानमंत्री माननीय नरेंद्र मोदी जी का यह कथन विशेष महत्व रखता है कि 2047 तक भारत को विकसित भारत के रूप में विश्व के पटल पर उभर कर आना चाहिए और हर एक क्षेत्र में विकास के विभिन्न रूप परिलक्षित होना चाहिए जिसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण लक्ष्य बच्चों की शिक्षा है उनका देखरेख है क्योंकि किसी भी देश का बेहतर विकास वहां के शिक्षण व्यवस्था से ही संभव हो सकता है । 

 

-डॉ॰ पंडित विनय कुमार
व्याख्याता  (हिन्दी)
शीतला नगर, रोड न . 3
गुलजार बाग, अगमकुआँ, पटना , बिहार
मो० -9334504100
ई-मेल :  pt.kumar960@gmail.com

 


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क्यों न  - मनीषा एन पाठक

क्यों न कुछ शब्द चुन लूँ,
कोई कविता या कहानी बुन लूँ,......

 
 
हमने वायरस को पराजित कर दिया - जैसिंडा ऑर्डन - भारत-दर्शन समाचार

Jacinda Ardern - न्यूज़ीलैंड की प्रधानमंत्री जैसिंडा ऑर्डन

11 मई 2020 (न्यूज़ीलैंड): न्यूज़ीलैंड में आज प्रधानमंत्री जैसिंडा ऑर्डन ने लेवल 2 की घोषणा घोषणा की है। न्यूज़ीलैंड में चरणबद्ध तरीके से 14 मई से लेवल 2 लागू होगा। अधिकतर व्यापार 14 मई से, स्कूल 18 मई से व अन्य 21 मई से खुलेंगे। अगले दस दिनों में अधिकांश व्यापार, काम-धंधे, व्यापारिक संगठन एवं संस्थाएं खुल जाएंगी।     


5 मिलियन की हमारी टीम ने मिलकर वायरस को पराजित कर दिया है - जैसिंडा ऑर्डन, न्यूज़ीलैंड की प्रधानमंत्री

[ न्यूज़ीलैंड की प्रधानमंत्री जैसिंडा ऑर्डन का सम्बोधन | 11 मई 2020 ]

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ध्वनि साधना : देवनागरी लिपि का दर्शन - रामा तक्षक

मेरे और मेरी पत्नी के बीच, भारतीय दर्शन पर बात चल रही थी। इसी बीच मेरी पत्नी ने बताया कि 1985 में जब मैंने एक शिक्षिका के तौर पर, नीदरलैंड के स्कूल में, काम करना शुरू किया तो उस समय मैं प्राथमिक शिक्षा के बच्चों को पढ़ाया करती थी। साथ ही साथ मैं उच्च शिक्षा के लिए भी अध्ययनरत थी।

हम उस समय प्राथमिक कक्षा के बच्चों को जीवन दर्शन की बातें भी बताया करते थे। यह सब पाठ्यक्रम का हिस्सा था। उन्हीं दिनों मेरी रुचि भारतीय दर्शन और विशेषतः बौद्ध दर्शन को जानने की हुई।

एक दिन, एक रेडियो पर आए हुए नादब्रह्म के दर्शन को मैंने टैप किया  था। उस टेप को चलाकर, मैंने कक्षा के बच्चों को सुनाया।

मेरी कक्षा में एक बच्चा बहुत उदंडी था। मैं यह देख रही थी कि इस टेप को वह उदंडी बालक बहुत ध्यान से सुन रहा था। शेष विषयों को पढ़ते समय, उसने कभी इतना ध्यान पूर्वक किसी बात को नहीं सुना था। ज्ञान की बात, नादब्रह्म की बात को उसने बहुत ध्यान से सुना था।

जब नादब्रह्म का टेप पूरा हुआ तब मैंने उस बच्चे से पूछा कि तुम जीवन में क्या बनना चाहते हो ? तुम्हारी क्या इच्छा है, क्या मनसा है ? उस बच्चे ने कहा "मैं नदी बनना चाहता हूँ।"

उसका यह उत्तर सुनकर मैं हतप्रभ रह गई थी। यह बात सुनकर कुछ बच्चों का मुँह भी खुला रह गया था।   यह उत्तर सुनकर मैंने उससे पूछा "नदी में आखिर ऐसा क्या है ? 

उसने कहा "मैं जीवन में नदी की तरह बहना चाहता हूँ।"

सामान्यतः हम माँ बाप बच्चे पर, डॉक्टर या इंजीनियर बनने का सपना थोंप देते हैं। बच्चे की संवेदनाओं को इस बनने, बनाने के अपने विचार व्यूह से कुचल देते हैं।

दर्शन की समझ जीवन में बहुत आवश्यक है। यदि जीवन में दर्शन शब्द को नहीं समझ गया तो हम दूसरे के बताए को अपने जीवन में उतारते चलते हैं। जहाँ हमारा मौलिक कुछ नहीं होता है। हम एक कॉर्बन कॉपी हो जाते हैं। जीवन में असंतुष्टि का भाव हमें घेर लेता है।

दर्शन एक ऐसा ज्ञान है जिसमें सभी कुछ समाहित है। दर्शन ज्ञान का ऐसा तल है जिसे जानने के बाद बहुत कुछ समझ आ जाता है। नचिकेता इसके सबसे सुंदर उदाहरण है। नचिकेता ने यम के के पास जाकर मृत्यु तक के बारे में जान लिया।
दर्शन अस्तित्व तर्क, ज्ञान, मान और भाषा का ऐसा अध्ययन है जो स्वयं से शुरू होता है और स्वयं पर ही खत्म होता है। यह स्वयं अस्तित्व का ही विस्तार है। यह एक ऐसा अकादमिक अन्वेषण है जिसका आधार आप स्वयं है। अस्तित्व की इकाई के रूप में आप स्वयं ही दर्शन का विषय हैं। यही अनुशासन अन्य विषयों पर भी लागू किया जा सकता है।

दर्शन को एक कोमल विज्ञान भी कहा जा सकता है। कोमल विज्ञान से केवल अभिप्राय इतना ही है कि जहाँ विज्ञान की सीमा समाप्त होती है वहां से दर्शन की सीमा शुरू होती है। विज्ञान पानी के गिलास का विश्लेषण H2O तक ही कर सकेगा। विज्ञान पानी के स्वाद को न बता सकेगा। आप भी पानी के स्वाद को शब्द न दे सकेंगे। आपको पानी का स्वाद जानने के लिए स्वयं पीना पड़ेगा। यानी यह गूंगे का गुड़ है।

दर्शन एक आलोचनात्मक सोच की धुरी है। यह स्वयं को समझने का सबसे सरल तंत्र है। दर्शन हमें अपनी आस्थाओं, धारणाओं और स्वंय के विश्वास पर प्रश्न करना भी सिखाता है।

मन के अंतर को समझना विज्ञान की क्षमता से बाहर है। जीवन में दर्शन अपरिमित, असीमित, अनंत के केवल पहलु भर का अध्ययन करता है। इस अनंत में मानव की समझ भी सीमित है।

आइये ! देवनागरी लिपि का दर्शन ध्वनि साधना की ओर बढ़ते हैं। नागरी लिपि के वर्णों का माध्यम, आप अपनी देह ऊर्जा या यूं कहूं जीवन ऊर्जा से आत्मसात होने का सबसे सुंदर मार्ग है। मंत्रों का सृजन, मंत्रोच्चारण यानि यह ध्वनि साधना ही देवनागरी लिपि का दर्शन है। एक एक आखर और एक एक शब्द फिल्म समान है। दर्शन ऐसा कुछ है जो देह में जीवन से बहुत वृहतर है। यही वृहतर व्योम या शून्य जीवन का स्रोत है।ऊर्जा और उसके प्रवाह का साक्षी भाव के साथ अनुभव ही दर्शन है। जिसे बुद्ध ने विपश्यना कहा है। विपश्य संस्कृत का एक शब्द है। विपश्य का अर्थ है जीवन को एक विशेष तरह से देखना। बुद्ध की विपश्यना ध्यान पद्धति भी इस विपश्य के अर्थ को चरितार्थ करती है। तैरना सीखना सा है देवनागरी लिपि का दार्शनिक पक्ष। तैरना सीखने के लिए आपको पानी के तालाब में उतरना पड़ेगा। केवल सोचने या विचार करने भर से तैरना न सीखा जा सकेगा।

आपने अपने घर में, अक्सर यह देखा होगा, सुना होगा कि जब भी कोई विशेष अवसर आता है तो हमारी मां, बहन, बेटी, पत्नी, विशेष अवसर के दो चार दिन पहले यह कहती है कि पंडित जी को तो बुलावा दे दो। घर में मंत्र उच्चारण हो जाएगा। घर में स्त्री की यह छोटी सी पहल आपको अपने जीवन की धुरी से जोड़ने की बात है। उनकी यह पहल समझने जैसी है। जीवन में दर्शन को समझने के लिए और नागरी लिपि के वर्णों के उच्चारण के समय, उसके दार्शनिक पक्ष को समझने के लिए हमें एक छोटे से उदाहरण का सहारा लेना होगा।

यह उदाहरण विपश्यना का ही एक तरीका है। विपश्य संस्कृत शब्द है। 'पश्य' धातु में 'वि' उपसर्ग लगा है। पश्य का अर्थ है देखना। विपश्य का अर्थ हुआ 'विशेष रूप से देखना'।

आपने साइकिल के पहिए को देखा होगा। कार के पहिए को देखा होगा। यह साइकिल का पहिया परिधि पर बहुत दौड़ता है। बहुत भाग दौड़ करता है। इस भागदौड़ को हम मानव की वैचारिक मानसिकता का सांकेतिक रूप मान सकते हैं। इस पहिए की परिधि की दौड़ की भाँति, बाहरी तौर पर आपके वैचारिक और शारीरिक जीवन में बहुत बदलाव आए होंगे। आपके शरीर का आयतन और लंबाई भी बढ़ी होगी। आपके चेहरे पर झुर्रियां पड़ी होंगी। आपके विचारों ने भी खूब कुलाचें खाई होंगी।

इस साइकिल के पहिए के बीच, पहिए की धुरी स्थित है। पहिए की धुरी अपनी जगह पर बनी रहती है। धुरी भाग दौड़ नहीं करती है। क्योंकि पहिए के जीवन को उसी ने थाम रखा है। साइकिल के पहिए की धुरी की भांति, मानव देह का भी अपना केंद्र है। एक तल है। यदि आप अपनी आयु से पीछे मुड़कर देखें तो आपको ज्ञात होगा। आप अनुभव करेंगे कि एक ऐसा केंद्र आपके जीवन में, आपकी देह में उपस्थित है जो बचपन में भी वैसा ही था युवावस्था में भी वैसा ही था यदि आप बुजुर्ग हो गए हो तो भी आपको लगता होगा कि आपके जीवन का केन्द्र ज्यों का त्यों है। उसमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। वही आपके जीवन की धुरी है।

दर्शन क्रिया को समझने के लिए आईए थोड़ा आगे बढ़ते हैं। जीवन दर्शन की दो टाँगे हैं। एक टाँग है स्वीकार भाव और दूसरी टाँग है साक्षी भाव। अब आप यह कहेंगे कि स्वीकार भाव क्या है और साक्षी भाव क्या है ? ये दोनों बातें बहुत समझने जैसी हैं। स्वीकार भाव और साक्षी भाव दोनों को ही मैं दो अलग-अलग उदाहरण देकर आपको समझाता हूँ।

स्वीकार भाव का उदाहरण
एक मनोवैज्ञानिक के मन में आत्मा और परमात्मा को समझना के बहुत सारे प्रश्न थे। उसने एक पहाड़ी पर रहने वाले संत के बारे में सुना था। एक दिन अपने सारे प्रश्नों को लेकर, वह उस संत से मिलने, ऊंची पहाड़ी पर जा पहुंचा। वह पहाड़ी की ऊंचाई तक पहुंचा तो वह हाँफ रहा था। वह बुड्ढा संत उस मनोवैज्ञानिक की शारीरिक और मानसिक दशा को देख रहा था।
हाँफते, हकलाते मनोवैज्ञानिक ने संत से कहा मेरे कुछ सवाल हैं। बहुत महत्वपूर्ण सवाल हैं। आत्मा और परमात्मा को लेकर सवाल हैं।

संत मनोवैज्ञानिक से बोला "तुम हाँफ रहे हो। बैठ जाओ। थोड़ा आराम कर लो। शांत हो जाओ। मैं तुम्हारे सवालों को भी सुनूंगा और जवाब भी दूँगा। पहले मैं तुम्हारे लिए चाय बनाकर लाता हूँ।"

मनोवैज्ञानिक का शरीर तो हाँफने से शांत होने जा रहा था। उसकी साँस सामान्य होने लगी थी। लेकिन उसके मस्तिष्क में बहुत सारे प्रश्न थे। उसका मस्तिष्क शांत नहीं हो रहा था। स्वीकार भाव, उस मनोवैज्ञानिक के मन से नदारद था। वह संत थोड़ी देर में चाय बना कर ले आया। संत मनोवैज्ञानिक की मन:स्थिति को भाँप रहा था।

संत ने खाली तस्तरी और कप दोनों मनोवैज्ञानिक के हाथ में दे दिए। उसके बाद संत कप में चाय उंडेलने लगा। कप भरने को हो आया। कप भर भी गया। वह चाय को उंडलता ही रहा। चाय कप से उझलने लगी। मनोवैज्ञानिक ने सोचा संत को यह दिखाई क्यों नहीं दे रहा है कि कप उझल पड़ा है। संत रुका नहीं वह धीरे धीरे चाय उंडेलता रहा। जब तस्तरी भी चाय से भर कर उझलने को हुई तो मनोवैज्ञानिक ने मन में सोचा यह बूढ़ा आत्मा और परमात्मा के बारे में क्या बतायेगा ! उसने झट से कहा आपको दिख नहीं रहा ? आप चाय उंडेले जा रहे हैं। चाय तस्तरी से भी उझलने को है।

संत ने कहा कि श्रीमन अपने स्वंय के मन की दशा देखो। आप आत्मा और परमात्मा के बारे में जानना चाह रहे हो। यदि आपकी खोपड़ी यूँ ही विचारों से भरी रही तो मैं जो भी आत्मा परमात्मा के बारे में आपको बताऊँगा तो वह सब उझल जायेगा।

हम अपने परिवेश जनित व्यवहार को स्वीकार नहीं करते अपितु अपने मनस में बैर भाव, शत्रु भाव को स्थान दे देते हैं। इसी भाव के आसपास बनती प्रतिक्रिया को अपना अंतरंग संवाद बना लेते हैं। इस तरह हम विचारों के अनवरत प्रवाह का हिस्सा बन जाते हैं। यह समझ हमारे अहम का भोजन और पोषण बन जाता है। इसी कारण दुनियादारी में बहुत संकट हैं।

साक्षी भाव का उदाहरण
आओ अब साक्षी भाव की बात करते हैं।

यह उदाहरण महात्मा बुद्ध का है। एक बार ध्यान के बाद महात्मा बुद्ध की आंखें खुली तो उन्होंने एक युवक को सामने खड़ा हुआ देखा। युवक के चेहरे पर प्रश्न झलक रहे थे। बुद्ध ने उस युवक से कहा "आओ। पहले बैठो। बताओ, तुम्हारे सवाल बताओ। इस युवक ने कहा कि आप कौन हैं?

"बुद्ध।" महात्मा बुद्ध एक ही शब्द बोले।

युवक संशय में पड़ गया और बोला कुछ समय पहले तक आप सिद्धार्थ थे। अब ये नाम बदलाव ! अब आप बुद्ध हो गए हैं। यह मेरी समझ से बाहर है। आप थोड़ा सा खुलासा करो।

बुद्ध ने कहा "निश्चित रूप से एक व्यक्ति के रूप में मेरा नाम सिद्धार्थ था। लेकिन जब मेरे जीवन में रूपांतरण घटा। मेरे जीवन में रूपांतरण हुआ तो मैंने अपने आपको बुद्ध होना पाया। उसे युवक ने कहा वह क्या है? रुपान्तरण क्या है ?
उन्होंने कहा कि बुद्ध ने कहा कि रुपान्तरण के स्वरूप को ऐसे समझो। जीवन में रुपान्तरण घटने के बाद अब जब भी मैं अपने आपको चलते हुए देखता हूँ। चलते हुए मेरा एक पैर धरती पर होता है और एक दूसरा पैर हवा में होता है। उस समय मुझे यह ज्ञात होता है कि मेरा कौन सा पैर हवा में है और कौन सा पैर धरती पर है। यह साक्षी भाव का सुंदरतम उदाहरण है।

जीवन दर्शन की स्वीकार भाव और साक्षी भाव रूपी इन दो टाँगों पर चलने से स्थितप्रज्ञ होने का पायदान खुल जाता है। स्थितप्रज्ञ का अर्थ है अपनी प्रज्ञा में स्थित हो जाना। अपनी समझ या चेतना में स्थित हो जाना। वहाँ जीवन का झँझावात नहीं है। झँझावात केवल परिधि पर घटते हैं।

स्थितप्रज्ञ के पायदान पर, इस आसन पर बैठे बुद्ध, इस आसन पर नग्न खड़े महावीर, इस आसन पर नृत्य करती मीरा, इस आसन पर कलम के धनी तुलसी, इस आसन पर बेधड़क कबीर सब हैं। ऐसे नामों व बेनामियों की कतार बहुत लम्बी है। इसमें आप भी शामिल हो सकते हैं। यह कतार आपकी भी प्रतीक्षा कर रही है।

बात देवनागरी लिपि पर चल रही है। इसी क्रम में विज्ञान और दर्शन यह बात भी समझने जैसी है कि जहाँ विज्ञान की सीमाएँ समाप्त होती हैं, दर्शन की सीमा वहाँ से शुरू होती है। विज्ञान दर्शन के जगत को जानने का प्रयास, प्रयोगों के माध्यम से अवश्य कर रहा है। विज्ञान यह बताने में सफल अभी तक सफल नहीं हुआ है कि प्रेम पूर्वक पकड़े गये हाथ की संवेदनशीलता क्या है, अनुभूति क्या है?

मानव देह में सात ऊर्जा चक्रों की बात भी आपने सुनी होगी। ये सात चक्र निम्न हैं - मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धि, आज्ञा चक्र और सहस्त्रार चक्र। इन चक्रों को समझने के लिए ऑनलाइन भी देख लें। थोड़ा गूगल दादा से पूछ लें। नागरी लिपि के दर्शन को समझने के लिए मनुज देह में इन ऊर्जा चक्रों के स्थान भर को ध्यान रखना आवश्यक है।
प्रत्येक नागरी के वर्ण के ऊपर एक रेखा है। जिसे शिरो रेखा कहा गया है। मेरे देखे, यह नागरी के अक्षर की जीवन रेखा है। ध्वनि, ध्वनि के उच्चारण और उस उच्चारण से उपजी ऊर्जा का कागज पर और कम्प्यूटर के बोर्ड पर यही आधार है। यही वर्ण की जीवन रेखा है। यही उसका जीवन स्रोत है।

देवनागरी लिपि धवन्यात्मक है। जिन विद्वानों और ऋषियों ने देवनागरी लिपि का निर्माण किया। उन्होंने देह के तल पर, ध्वनि, उच्चारण और उस उच्चारण से उपजी ऊर्जा पर बहुत प्रयोग किए होंगे। उच्चारण, उच्चारण से उपजी ध्वनि, ध्वनि से उपजी ऊर्जा और देह में उस ऊर्जा यात्रा का अध्ययन किया होगा। इस यात्रा में वर्ण हैं। शब्द हैं। शब्द युग्म हैं। इन वर्णों, शब्दों और शब्द युग्मों के बीच शून्य है। ऊर्जा प्रवाह के बीच-बीच में अंतराल भी है। यह अंतराल वर्ण और शब्द का गर्भ है। यही अंतराल शून्य है। यह शून्य चैतन्य है। अक्षर का जन्म चैतन्य में होता है। यानि अक्षर कभी क्षर नहीं होता है। इसीलिए अक्षर को ब्रह्म और अक्षर के चैतन्य में जन्म लेने के कारण लिपि को देवनागरी लिपि कहा गया है।

ऋषियों ने हमें स्वस्थ जीवन और आनंदित जीवनशैली के लिए सुबह उठने, सूर्य नमस्कार और योग करने, आयुर्वेद का ज्ञान, पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता (यानि कभी धरती से एक खुरपी से मिट्टी हटानी पड़े तो हमारा प्रयास हो कि उस मिट्टी को वापस उसी स्थान पर लगा दें), मंत्र यानि ध्वनि साधना और ध्वनि साधना का मूल देवनागरी लिपि सिखाई।

जैसा कि पहले बताया कि देवनागरी लिपि ध्वन्यात्मकत है। वर्ण व शब्द का उच्चारण, उच्चारण से उपजी ध्वनि, ध्वनि की ऊर्जा और इस प्रक्रिया में शब्दों के बीच आए अंतराल, शब्द में प्रयुक्त एक वर्ण से दूसरे वर्ण के बीच का अंतराल, यह सब व्यक्तिगत शोध का विषय है। देवनागरी लिपि के वर्ण व शब्द और शब्द युग्म के उच्चारण की ध्वनि से उपजी ऊर्जा यात्रा का अध्ययन ही स्वाध्याय है। यही सब ध्वनि साधना की कुञ्जी है। आप जितना गहराई में जाएंगे, आपके जीवन में रूपांतरण घटेगा। इस रूपांतरण से आपकी जीवन दृष्टि की नई दिशाएँ खुलेंगी।

इस रूपांतरण की बात को थोड़ा ठीक से समझें। इस राह को एक साधारण उदाहरण के माध्यम से समझें।

पानी के स्वाद के माध्यम से समझें।

यदि आप मुझसे पूछें की पानी का स्वाद कैसा है ? यदि मैं पानी का स्वाद बताने के लिए, अपने पूरे जीवन भर बोलता रहूँ तो कोई भी शब्द आपके सवाल का जवाब न दे सकेगा। यदि मैं आपसे कहूँ कि पानी को पी लो। आपको पानी के स्वाद का पता चल जायेगा। यह व्यक्तिगत स्तर पर घटेगा। ध्वनि साधना की राह भी बहुत व्यक्तिगत है। मंत्रोच्चारण के समय भी यही घटता है। समूह में साधना करना सदा सहयोगी बन जाता है। समूह की ऊर्जा आपको मंत्रोच्चारण के समय, ध्वनि साधना की यात्रा पर साथ ले लेती है। उस समय, आपका समूह के साथ समर्पण भाव, आपको ध्वनि साधना यात्रा पर साथ ले चलता है। होने को आप समूह में हैं लेकिन आप अकेले भी हैं। आप अपने जीवन की धुरी से जुड़े हैं। आपका वैचारिक तल परिधि पर छूट जाता है। आप खोपड़ी से एक पायदान नीचे उतर हृदय तल पर आ जाते हैं।

आपका हृदय तल सदा एक सा रहा है। आप अपनी जीवन अवस्था से पीछे मुड़कर देखेंगे तो पायेंगे कि आपके देह के तल पर बहुत बदलाव हुए हैं। वैचारिक तल पर बहुत यात्रा की है। इस सबके साथ आपका हृदय तल, आपके जीवन की धुरी सदा एक सी, निराली रही है।

हम देवनागरी लिपि को वैज्ञानिक कहते हैं। यह बात ठीक है। लेकिन देवनागरी का अस्तित्व उसके दार्शनिक पक्ष में है। यह कदम वैज्ञानिकता के बाद का पायदान है। हम देवनागरी लिपि को परिधि पर वैज्ञानिक कह इतिश्री कर लेते हैं। उसके आगे देवनागरी की धुरी की ओर नहीं बढ़ते हैं।

टी एस इलियट को रेखांकित करना भी समीचीन है। वे संस्कृत का विद्वान भी था। उन्हें 1949 साहित्य नोबेल पुरस्कार मिला था। इलियट ने पाश्चात्य दार्शनिकों को भारतीय दार्शनिकों के समक्ष प्राथमिक पाठशाला के छात्र कहा है।

इलियट ने अपनी लम्बी कविता 'द वेस्ट लैंड' के अंत में शांति: , शांति: , शांति: लिखा है। मेरे देखे इलियट ने शब्द समूह या शब्द युग्म के बीच चैतन्य रूपी अंतराल, शून्य की समझ को अपनी कविता में शांति:, शांति:, शांति: कहा है।

एक बात और कि देह के तल पर मौन, परिवेश के तल पर शांति तथा अस्तित्व के तल पर शून्य। कहने को मौन और शांति शून्य की ही इकाई हैं। शून्य ही हैं। मौन, शांति और शून्य चैतन्य का ही विस्तार है। केवल नाम अलग अलग हैं। इस चैतन्य के विस्तार की परिधि पर सब घटता है। उच्चारण और संवाद भी।

ध्वनि साधना की बात को इटालियन विद्वान फिलिपो सास्सेती ने अपने दसवें पत्र में, ब्राह्मणों को ध्वनियों का संकलन कर्ता कहा है। उसने प्लिनी का उल्लेख भी किया है।

Lettere Indians पुस्तक के पृष्ठ 49 पर, पत्र क्रम 10 में, फिल्लिपो सास्सेती लिखते हैं "प्लिनी (इतालवी दार्शनिक) ने भी ब्राह्मणों के बारे में उल्लेख किया है। वह इन पूर्वी लोगों के व्यवहार के बारे में विस्तार से लिखता है। प्लिनी कहते हैं: ब्राह्मण, शब्दावली और ध्वनि के संकलन कर्ता हैं। वे अपनी भाषा, संस्कृत में, बहुत निपुण हैं।"

इसी पत्र में अगले पृष्ठ 50 पर वे लिखते हैं "इनकी भाषा स्वयं में बहुत ही रमणीय और सुन्दर ध्वनि देने वाली है। इस भाषा में 53 वर्ण हैं। जिनमें से सभी बोले और वैसे ही लिखे जाते हैं। इन सभी वर्णों का जन्म मुंँह और जीभ की विभिन्न, ध्वनियों और गतिविधियों से होता है। ये हमारी सभी अवधारणाओं को आसानी से अपनी भाषा में अनुवादित करते हैं। ये लोग मानते हैं कि हमारी भाषा के वर्णों की संख्या, इनके वर्णों से आधी या उससे भी अधिक की कमी के कारण, हम अपनी ही भाषा में इनके जैसा उपयोग नहीं कर सकते।"

लॉर्ड मैकाले की सोच का भारतीय संस्कृति, साहित्य एंव देवनागरी लिपि की विरासत पर प्रहार, भारत के कौने कौने में दिखाई पड़ता है। हमें दूसरी भाषाएँ सीखनी चाहिए। अंग्रेजी भी सीखनी चाहिए लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि हम हिंदी भाषा की शब्दावली के स्थान पर अंग्रेजी शब्दावली का प्रवाह हिंदी में ले आएँ। आप स्वयं से पूछिए कि क्या आप हिंदी की शब्दावली को अंग्रेजी भाषा में भी ताबड़तोड़ तरीके से उपयोग कर सकते हैं ? वैसे भी रोमन का ए 'a' देवनागरी लिपि का 'अ' नहीं है। देवनागरी लिपि का 'ए' सातवाँ स्वर है।

बात देवनागरी पर ही केन्द्रित रख आगे बढ़ते हैं। मेरे देखे देवनागरी लिपि के स्वर - अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:, ये सब नाद ब्रह्म 'ओम' की ही कलाएँ हैं। ये सभी वर्ण शिरो रेखा से जुड़े हैं। अपनी जीवन रेखा से जुड़ा अक्षर, आपके उच्चारण पर, आपकी देह में ऊर्जा के माध्यम से उतरता है। साथ ही ध्वनि, समक्ष व्यक्ति से संवाद भी साधती है।

आप रीढ़ के बल बैठकर क, ख, ग, घ वर्णों का उच्चारण करें। क उच्चारण के बाद ख का उच्चारण और ख  का उच्चारण के बाद ग, बाद में घ का उच्चारण। इन वर्णों के उच्चारण की ऊर्जा, गहरे से गहन और गहनतम होती जाती है। 'ड़' वर्ण के उच्चारण से उपजी ऊर्जा, आपकी रीढ़ के बल, मूलाधार तक उतर चोट कर, आपके सहस्त्रार तक की भी यात्रा करती है। 'ड़', 'न', 'ण', 'ञ' के उच्चारण पर देह ऊर्जा का एक अंत: स्फोट घटता है। यह अंत: स्फोट, जिसे अंग्रेजी में इम्पलोजन कहते है, घटता है। अंत: स्फोट मातृशक्ति है। इसीलिए दर्शन के तल पर भाषा को मातृभाषा कहा गया है। अंत: स्फोट की क्रिया मातृत्व यानि माँ के रोम रोम से भी जुड़ी है।

उच्चारण करने पर वर्ण बोध, शब्द बोध, ऊर्जा बोध और ऊर्जा का यात्रा बोध, देह तल पर घटती यह पूरी क्रिया, अंत: स्फोट है। जैसा कि पहले बताया वर्ण और शब्द युग्म के बीच का अंतराल शून्य है। शून्य चैतन्य है। हमारे जीवन में इस चैतन्य का विस्तार चहुँओर है। हमारी देह और देह का अंतस भी इसी का विस्तार है। शब्द युग्म के बीच के अंतराल की बात समझने जैसी है। दर्शन में इसी को 'हिरण्यगर्भ' भी कहा गया है। यही चैतन्य रूपी अंतराल मौन घटने की राह है। यही मौन स्थितप्रज्ञ का पायदान है। इससे भी आगे बढ़कर यही मौन परमात्मा का आसन है।

मानव की समझ की सीमा है। मौन का तल अस्तित्व के विस्तार ही स्वरूप है।

आप जिस क्षण शब्दों के मध्य, चैतन्य रूपी अंतराल को साक्षी भाव से अनुभूत कर लेंगे, उस दिन से आप नागरी लिपि के दार्शनिक पक्ष और ध्वनि साधना को समझ सकेंगे। उस दिन से आप देवनागरी लिपि की वैज्ञानिकता से आगे बढ़, वैज्ञानिकता का पल्लू छोड़, नागरी लिपि के दार्शनिक पायदान का पता भी पा जायेंगे।

-रामा तक्षक


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खामोशियाँ - राधा

खामोशियों का दौर इस कदर बढ़ गया है
शब्द होंठों पर आए बिना ही इस मन में दब गया है......

 
 
यूनाइटेड वी फाइट : कोरोना गीत - भारत-दर्शन समाचार

13 मई 2020 (न्यूज़ीलैंड): भारत ने अँग्रेजी में एक प्रेरणादायक गीत "यूनाइटेड वी फाइट" (United We Fight) गीत की रचना की है। महामारी के विरुद्ध लड़ाई को समर्पित यह गीत भारतीय सांस्कृतिक सम्बंध परिषद (ICCR), दिल्ली ने प्रस्तुत किया है। इसमें अनेक प्रसिद्ध गायकों, कलाकारों और वादकों को दर्शाया गया है।

यह गीत जोहा अलवरेस द्वारा लिखित है। इसे संगीतबद्ध किया है उषा उत्थुप, सलीम मर्चेंट, शेफाली अल्वारेस रशीद, बेनी दयाल, सोनम कालरा, चंदन बाला कल्याण, जो अल्वारेस, सैलोम और समीरा ने। संगीत दिया है टब्बी, पंडित रवि चारी, पंडित राकेश चौरसिया और उस्ताद फैसल कुरैशी ने। अँग्रेजी गीत को भारतीय शास्त्रीय संगीत के नोट्स और बीट्स में गाया गाया है, जो वसुधा एव कुटुम्बकम् का सार है।

"कोविड-19 के खिलाफ भारत की लड़ाई को प्रेरित करने और इरादे मजबूत करने के हमारे संयुक्त प्रयासों में, आईसीसीआर "यूनाइटेड वी फाइट" नामक एक प्रेरक गीत पेश करता है। गीत लोगों को एकजुट रहने और लोगों के दिलों में आशा को प्रज्ज्वलित करने और उन्हें इन कठिन समय में सकारात्मक सोचने के लिए प्रोत्साहित करने में मदद करने के लिए है।"


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जयशंकर प्रसाद : स्व का बोध कराते हुए जगाई राष्ट्रीय चेतना - डॉ वंदना सेन

स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव की बेला में स्वतंत्रता के संग्राम में साहसिक योगदान देने वाले महानायकों का स्मरण हो रहा है। जो निश्चित ही वंदनीय और अभिनंदनीय कदम है, लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या इन महानायकों का स्मरण कोई कहे तब ही करना चाहिए? ऐसा करना निश्चित ही हमारे समाज को उस राष्ट्रीय अवधारणा से दूर करने का प्रयास करता है, जो पतन का बड़ा कारण है। आज हमारे समाज का बहुत बड़ा वर्ग इन महानायकों के चरित्र की कोई जानकारी नहीं रखता। इसलिए हमें यह भी नहीं पता कि आज हम खुली हवा में सांस ले रहे हैं, उसके पीछे कितना संघर्ष करना पड़ा है। इन महानायकों ने अंग्रेजों के साथ प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से लोहा लिया। ऐसे राष्ट्रनायकों में से कई तो ऐसे हैं, जो संघर्ष करते हुए बलिदान हो गए। सोचने का विषय यह है कि आखिर इन्होंने किसके लिए संघर्ष किया, क्या अपने लिए? नहीं... इस भारत देश के लिए किया। उन्होंने भारत के समाज के लिए किया।

भारत के साथ गहरा तादात्म्य और अनुराग रखने वाले जितने भी राष्ट्र भक्त थे, उनकी लेखनी जनजागरण करने वाली ही होती थी। देश में उस समय के साहित्यकारों का जो दायित्व था, उसको साहित्यकारों ने बखूबी निभाया। ऐसे ही एक महान साहित्यकार जयशंकर प्रसाद जी हैं। उन्होंने अपने साहित्य के माध्यम से राष्ट्रीय संस्कारों का जो प्रवाह पैदा किया, उसने भारत के नागरिकों के मन में राष्ट्रीयता की अलख जगाई। हालांकि उनका लेखन केवल स्वतंत्रता चाहने तक सीमित है, ऐसा नहीं माना जा सकता। प्रसाद जी का साहित्य भारत की परिधि में आने वाले हर उस बात को अपनाने पर जोर देती थी, जो एक मजबूत राष्ट्र के लिए आवश्यक होती हैं। जयशंकर प्रसाद के साहित्य में राष्ट्रीय समग्रता का दर्शन परिलक्षित होता था। जयशंकर प्रसाद मूलत: छायावादी साहित्यकार थे। उनके छायावादी साहित्य में भी राष्ट्र जागरण करने का अपरिमित सामथ्र्य था। जयशंकर प्रसाद ने अपने नाटकों के माध्यम से जनमानस में जिस राष्ट्रीय भावना का संचार किया था, वह अतुलनीय है। उनके ऐतिहासिक नाटकों ने जनसामान्य को नवजागरण के लिए प्रेरित किया, जिसमें उन्होंने अतीत के गौरव को जन सामान्य के समक्ष रखा। उन्होंने अपने साहित्य की रचना करके समाज के सामने यह बताने का सफल प्रयास किया कि हमारे पूर्वज किस प्रकार के गौरवशाली थे, हमारा इतिहास कितना गौरवशाली था। उनकी सभी रचनाएं भारत बोध कराने वाली प्रतिनिधि रचनाएं रहीं। जिसमें एक नवीन भारत, एक सुसंस्कृत भारत, एक गौरवशाली भारत का स्वरूप दृष्टव्य होता था।

जयशंकर प्रसाद अपने छायावादी काव्य के माध्यम से भारत के स्व को जगाने का कार्य करते दिखाई दिए। यह उनकी रचनाओं का वैशिष्टय है। जो भारत के सांस्कृतिक अभीष्ठ को अधिष्ठित करने का सामथ्र्य रखता था। उनके एक-एक शब्द में राष्ट्रीय ध्वनि गुंजित होती है। वे राष्ट्र के सांस्कृतिक स्वरूप को ध्यान में रखते हुए समाज को स्वतंत्रता की पुकार देते हैं।

जयशंकर प्रसाद जी की राष्ट्रीय चेतना का स्वर सुगठित है, सुकोमल है और प्रच्छन्न भी है। वे अपने काव्य के माध्यम से भारत के वैशिष्टय को ही प्रदर्शित करते हैं। यहां राष्ट्रीय जागरण ने सांस्कृतिक जागरण का रूप धारण कर लिया है। इस सांस्कृतिक जागरण की अभिव्यक्ति 'प्रथम प्रभात', 'अब जागो जीवन के प्रभात', 'बीती विभावरी जाग री' आदि रचनाओं के अध्ययन से स्पष्ट हो जाती है। प्रसाद जी की राष्ट्रीय चेतना की अभिव्यक्ति शैली अभिधात्मक नहीं है, बल्कि यह अप्रत्यक्ष है, व्यंजना पर आधारित है - यह स्वच्छन्दतावाद की मूल चेतना से अभिन्न है––

अब जागो जीवन के प्रभात,
वसुधा पर ओस बने बिखरे,
हिमकन आंसू जो क्षोभ भरे,
ऊषा बटोरती अरुण गात।

प्रसाद जी के साहित्य में संकुचित राष्ट्रीयता नहीं है। बहुत व्यापक है। यह विश्व के किसी भी देश की सीमा से बंधा हुआ नहीं है। बल्कि यह कहा जाए कि इसमें वसुधैव कुटुम्बकम की अवधारणा को आत्मसात करते हुए विश्व मंगल की कामना है।

'बीती विभावरी जाग री!
तू अब तक सोई है आली
आंखों में भरे विहाग री!

इन पंक्तियों द्वारा प्रसाद जी राष्ट्र को जागरण का संदेश देते हैं। साहित्यकार आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी का कहना है, 'बीती विभावरी जाग री' शीर्षक जागरण गीत प्रसाद जी के संपूर्ण काव्य प्रयास के साथ उनकी युग-चेतना का परिचायक प्रतिनिधि गीत कहा जा सकता है।' राष्ट्रीय चेतना का स्थूल रूप उनके नाटकों के गीतों, 'अरुण यह मधुमय देश हमारा' और 'हिमाद्रि तुंग श्रृंग से' में मिलता है। नाटकों के माध्यम से उन्होंने राष्ट्रीय चेतना का प्रसार किया। और जब वे कहते हैं––

इस पथ का उद्देश्य नहीं है श्रांत भवन में टिक रहना,
किंतु पहुंचना उस सीमा पर जिसके आगे राह नहीं।

इन पंक्तियों के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना के जागरण के साथ ही विश्व को सदैव चलते रहने का संदेश देते हैं। जयशंकर प्रसाद ने जहां एक ओर समाज की कमियों को उजागर किया है, वहीं समाज को इस प्रकार से झकझोरा है कि सोया हुआ व्यक्ति भी उठकर खड़ा हो जाए और अपने गंतव्य की ओर अग्रसर हो जाए। यही उनके साहित्य की विशेषता है। 'कामायनी' संकुचित राष्ट्रवाद से ऊपर उठकर विश्वमंगल वाली रचना है। वह संपूर्ण मानवजाति की समरूपता का सिद्धांत अपनाकर आनंद लोक की यात्रा का संदेश देती है––

समरस थे जड़ और चेतन, सुंदर आकार बना था
चेतना एक विलसती, आनंद अखंड घना था।
विश्व भर सौरभ से भर जाए, सुमन के खेलो सुंदर खेल।

'कामायनी' की मिथकीय सीमाओं में भी कर्म चेतना, संघर्ष चेतना, एकता जैसे तत्व हैं, जिनका महत्व राष्ट्रीय आंदोलन के लिए था।
'चित्राधार' में तो वे यहां तक कहने का साहस कर गए कि उस ब्रह्म को लेकर मैं क्या करूंगा जो साधारण जन की पीड़ा नहीं हरता। 'आंसू' में भी विश्वमंगल की भावना की अभिव्यक्त हुई है।

'सबका निचोड़ लेकर तुम, सुख से सूखे जीवन में
बरसो प्रभात हिमकन-सा, आंसू इस विश्व-सदन में।'

सारांशत: हम यह कह सकते हैं कि प्रसाद जी का काव्य राष्ट्रीय काव्य, सांस्कृतिक जागरण का काव्य है। ये स्वाधीन चेतना के बल पर नई मानव परिकल्पना में सक्षम हैं। वह नई संबंध भावना का संकेत हैं। यहां राष्ट्रीयता का भाव संकुचित नहीं है, बल्कि विश्वमंगल हेतु है।

'शक्तिशाली हो, विजयी बनो, विश्व में गूंज रहा यह गान।'

भारत के सांस्कृतिक भाव को अपने शब्दों के माध्यम से सकारात्मक दिशा देने वाले जयशंकर प्रसाद जी यह भली भांति जानते थे कि किसी व्यक्ति में जो संस्कार मातृशक्ति दे सकती है, वह कोई और नहीं दे सकता। शायद इसीलिए जयशंकर प्रसाद ने अपने अधिकतम नाटकों के प्रमुख पात्रों के लिए नारी का चयन किया। वह नारी के माध्यम से भारत में यह संदेश प्रसारित करना चाहते थे कि राष्ट्रीय चेतना का बोध अगर नारी को हो जाए तो भारत देश स्व स्फूर्त होकर उस दिशा की ओर अग्रसर हो जाएगा… जो राष्ट्रीय उत्थान की ओर ले जाने में समर्थ है। भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में नारियों की सहभागिता सुनिश्चित करने और राजनीतिक सक्रियता लाने हेतु महात्मा गांधी की भांति नाटककार जयशंकर प्रसाद ने यह स्पष्ट किया है कि नारियों को घर की चार दीवारी से बाहर लाना आवश्यक है। उन्होंने अपने नाटकों में आग से खेलने वाली राजनीतिक सूझबूझ से सम्पन्न अनेक नारियों का चित्रण किया है। चन्द्रगुप्त नाटक की 'अलका' वीर क्षत्राणी बनकर अपने स्वतंत्र नारी व्यक्तित्व का परिचय देती हैं। चन्द्रगुप्त और चाणक्य के साथ मिलकर देश की रक्षा के लिये वह नटी का रूप धारण करती है, पर्वतेश्वर के बंदीगृह में चाणक्य से संकेत पाकर वह पर्वतेश्वर की प्रणयिनी बनने की राजनीति खेलती है।

नाटककार प्रसाद के नाटकों का मूल उद्देश्य सांस्कृतिक चेतना जागृत करना, नारी अस्मिता को स्थापित करना और राष्ट्रीय भावनाओं को जन-जन तक पहुँचाना रहा है। उन्होंने ढर्रे पर न चलकर राष्ट्रीयता से ओतप्रोत सिद्धांतों को परिमार्जित करते हुए नाटकों के लिए नारी पात्रों का चयन किया है। जिसके माध्यम से उन्होंने राष्ट्रीय चेतना जगाई है। उनके सभी प्रमुख नाटकों में नारी के गौरवमय राष्ट्रीय स्वरूप के भव्य दर्शन होते हैं। 'चन्द्रगुप्त' नाटक की नारी पात्र 'अलका' सिल्यूकस के समक्ष अपने राष्ट्र प्रेम का परिचय देती हुई कहती है कि 'मेरा देश है, मेरे पहाड़ हैं, मेरी नदियाँ और जंगल हैं, इस भूमि के एक-एक परमाणु मेरे हैं और मेरे शरीर के एक-एक क्षुद्र अंश उन्हीं परमाणुओं से बने हैं।' 'स्कंदगुप्त' की जयमाला 'अजातशत्रु' की मल्लिका, 'चन्द्रगुप्त' की मालविका, 'स्कंदगुप्त' की रामा, देवसेना आदि में राष्ट्रीयता की भावना नस-नस में व्याप्त हैं। जातीय गौरव, राष्ट्रीय प्रेम और विश्व कल्याण की कामना को स्थापित करने में प्रसाद के नाटकों की नारियाँ उल्लेखनीय हैं। अत: कह सकते हैं कि प्रसाद के नाटकों में आदर्श और मर्यादा के साथ-साथ देश भक्ति की डोर पकड़कर गतिमान होने वाली गौण नारी पात्रों में भी आम जनमानस को प्रभावित करने की विशेष क्षमता है। अन्ततोगत्वा हम इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि प्रसादजी तथा उनके समकालीन नाटककारों ने जिस राष्ट्रीय चेतना को अपनी कृतियों में समाहित और प्रकाशित किया है। यही उनका स्वतंत्रता के लिए एक ऐसी पुकार है, जिसकी आवश्यकता उस समय तो थी ही, साथ आज भी महसूस की जा रही है। उन्होंने ऐसे साहित्य की रचना की, जिसको पढ़ते समय राष्ट्रीय गौरव का अनुभव होता है। वे कहते हैं कि––

वही है रक्त वही है देह वही साहस वैसा ही ज्ञान।
वही है शांति वही है शक्ति वही हम दिव्य आर्य संतान।।
जियें तो सदा उसी के लिए यही अभिमान रहे यह हर्ष।
निछावर कर दें हम सर्वस्व हमारा प्यारा भारतवर्ष।।

इसी प्रकार जयशंकर प्रसाद भारत की स्वर्णिम आभा को प्रकट करते हुए स्वतंत्रता की पुकार देते हैं। वे कहते हैं कि––

हिमाद्रि तुंग शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती,
स्वयं प्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती।
अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़-प्रतिज्ञ सोच लो,
प्रशस्त पुण्य पंथ है, बढ़े चलो, बढ़े चलो।
असंख्य कीर्ति-रश्मियाँ विकीर्ण दिव्य दाह-सी
सपूत मातृभूमि के- रुको न शूर साहसी।
अराति सैन्य सिंधु में, सुवाड़वाग्नि से जलो,
प्रवीर हो जयी बनो - बढ़े चलो, बढ़े चलो।

जयशंकर प्रसाद ने अपनी लेखनी के माध्यम से स्व का बोध कराया है। राष्ट्र के स्वर्णिम अतीत को संकेतों के माध्यम के प्रकट किया है। जयशंकर प्रसाद जी के साहित्य में देश को जगाने का भाव है तो वहीं स्वतंत्रता की रक्षा का बोध है। स्व का तात्पर्य उनके पूरे लेखन में प्रकट हुआ है। इसलिए स्वतंत्रता के इस अमृत महोत्सव पर जयशंकर प्रसाद जी का स्मरण करना अति आवश्यक भी है और यह देश की आवश्यकता भी है।

-डॉ वंदना सेन
 विभागाध्यक्ष, (हिंदी) आधार पाठ्यक्रम
 पीजीवी महाविद्यालय, जीवाजीगंज
 लश्कर ग्वालियर मध्यप्रदेश
 मोबाइल : 8103430932
 ई-मेल : vandanasen74@gmail.com


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तुमने कुछ नहीं कहा  - अशोक लव

तुम्हारे चले जाने से पूर्व
तुमसे कितनी-कितनी बातें करनी थीं......

 
 
चरणबद्ध तरीके से 14 मई से लेवल 2 लागू - भारत-दर्शन

11 मई 2020 (न्यूज़ीलैंड) न्यूज़ीलैंड में चरणबद्ध तरीके से 14 मई से लेवल 2 लागू। अधिकतर व्यापार 14 मई से, स्कूल 18 मई से व अन्य 21 मई से खुलेंगे। एक क्षेत्र से अन्य क्षेत्र में जा पाएंगे।


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भारी पड़ेगी प्रकृति को न समझने की भूल | आलेख  - डॉ वंदना सेन
जल के अभाव में वसुंधरा सूख रही है। पेड़ आत्महत्या कर रहे हैं। नदियां समाप्ति की ओर हैं। कुए, बाबड़ी रीत गए हैं। यह एक ऐसा भयानक संकट है, जिसको हम जानते हुए भी अनदेखा कर रहे हैं। अगर इसी प्रकार से चलता रहा तो आने वाला समय कितना त्रासद होगा, इसकी अभी मात्र कल्पना ही की जा सकती है, लेकिन जब यह समय सामने होगा तब हमारे हाथ में कुछ भी नहीं होगा। यह सभी जानते हैं कि प्रकृति ही जीवन है, प्रकृति के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते। जब हम प्रकृति कहते हैं तो स्वाभाविक रूप मानव यही सोचता है कि पेड़ पौधों की बात हो रही है, लेकिन इसका आशय इतना मात्र नहीं, बहुत व्यापक है। प्रकृति में जितने तत्व हैं, वे सभी तत्व हमारे जीवन का आवश्यक अंग हैं। चाहे वह श्वांस हो, जल हो, या फिर खाद्य पदार्थ ही हों। सब प्रकृति की ही देन हैं। विचार कीजिए जब यह सब नहीं मिलेगा, तब हमारा जीवन कैसा होगा?
 
अभी बारिश का मौसम आ चुका है। इस मौसम में देश के अनेक हिस्सों से कहीं बाढ़ तो कहीं सूखा पड़ने के समाचार मिलते हैं। इतना ही नहीं देश में अनेक संस्थाओं द्वारा पौधारोपण के कार्य भी किए जाते हैं। विसंगति यह है कि पौधारोपण करने के बाद उन पौधों का क्या होता है। यह सब देखने का समय हमारे पास नहीं है। पौधों के लिए जल ही जीवन है और पौधा भी एक जीवित वनस्पति है। अगर किसी पौधे का जीवन जन्म के समय ही समाप्ति होने की ओर अग्रसर होता है तो स्वाभाविक रूप से यही कहा जा सकता है कि ऐसा करके हम निश्चित ही एक जीवन की हत्या ही कर रहे हैं। भारतीय संस्कृति में हत्या के परिणाम क्या होते हैं, इसे बताने की आवश्यकता नहीं हैं, लेकिन यह सत्य है कि जिस पेड़ की असमय मौत होती है, उसकी आत्मा कराह रही होती है। हम अगर पेड़ या पौधे में जीवन का अध्ययन करें तो हमें स्वाभाविक रूप से यह ज्ञात हो जाता है कि जीवित वनस्पति जब मौत की ओर जाती है, तब उसकी क्या स्थिति होती होगी। अब जरा अपने शरीर का ही विचार कर लीजिए, उसे भोजन नहीं मिलेगा, तब शरीर का क्या हाल होगा।
 
वर्तमान में हम सब पर्यावरण प्रदूषण का शिकार हो रहे हैं। यह सब प्रकृति के साथ किए जा रहे खिलवाड़ का ही परिणाम है। हम सभी केवल इस चिंता में व्यस्त हैं कि पेड़ पौधों के नष्ट करने से प्रदूषण बढ़ रहा है, लेकिन क्या हमने कभी इस बात का चिंतन किया है कि हम प्रकृति संरक्षण के लिए क्या कर रहे हैं। क्या हम प्रकृति से जीवन रूपी सांस को ग्रहण नहीं करते? क्या हम शुद्ध वातावरण नहीं चाहते? तो फिर क्यों दूसरों की कमियां देखने में ही व्यस्त हैं। हम स्वयं पहल क्यों नहीं करते? आज प्रकृति कठोर चेतावनी दे रही है। बिगड़ते पर्यावरण के कारण हमारे समक्ष महामारियों की अधिकता होती जा रही हैं। अगर हम इस चेतावनी को समय रहते नहीं समझे तो आने वाला समय कितना विनाश कारी होगा, कल्पना कर सकते हैं।
 
वर्तमान में स्थिति यह है कि हम पर्यावरण को बचाने के लिए बातों से चिंता व्यक्त करते हैं। सवाल यह है कि इस प्रकार की चिंता करने समाज ने अपने जीवन काल में कितने पौधे लगाए और कितनों का संवर्धन किया। अगर यह नहीं किया तो यह बहुत ही चिंता का विषय इसलिए भी है कि जो व्यक्ति पर्यावरण के प्रभाव और दुष्प्रभावों से भली भांति परिचित है, वही निष्क्रिय है तो फिर सामान्य व्यक्ति के क्या कहने। ऐसे व्यक्ति यह भी अच्छी तरह से जानते हैं कि पर्यावरण और जीवन का अटूट संबंध है। यह संबंध आज टूटते दिखाई दे रहे हैं। प्राण वायु ऑक्सीजन भी दूषित होती जा रही है। वह तो भला हो कि ईश्वर के अंश के रूप में में भारत भूमि पर पैदा हुआ हमारे इस शरीर में ऐसा श्वसन तंत्र विद्यमान है, जो वातावरण से केवल शुद्ध ऑक्सीजन ग्रहण करता है, लेकिन सवाल यह है कि जिस प्रकार से देश में जनसंख्या बढ़ रही है, उसके अनुपात में पेड़ पौधों की संख्या बहुत कम है। इतना ही नहीं लगातार और कम होती जा रही है। जो भविष्य के लिए खतरे की घंटी है।
 
आज के समाज की मानसिकता का सबसे बड़ा दोष यही है कि अपनी जिम्मेदारियों को भूल गया है। अपने संस्कारों को भूल गया है। किसी भी प्रकार की विसंगति को दूर करने के लिए समाज की ओर से पहल नहीं की जाती। वह हर समस्या के लिए शासन और प्रशासन को ही जिम्मेदार ठहराता है। जबकि सच यह है कि शासन के बनाए नियमों का पालन करने की जिम्मेदारी हमारी है। शासन और प्रशासन में बैठे व्यक्ति भी समाज के हिस्सा ही है। इसलिए समाज के नाते पर्यावरण को सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी हम  सबकी है। पौधों को पेड़ बनाने की दिशा में हम भी सोच सकते हैं। प्लास्टिक प्रदूषण को रोकने के लिए हम कपड़े के थैले का उपयोग कर सकते हैं। अभी ज्यादा संकट नहीं आया है, इसलिए क्यों नहीं हम आज से ही एक अच्छे नागरिक होने का प्रमाण प्रस्तुत करें। क्योंकि दुनिया में कोई भी कार्य असंभव नहीं है।
 
पिछले एक साल से कोरोना संक्रमण के चलते हमारी जीवन चर्या में बहुत बड़ा परिवर्तन आया है। जिसमें हर व्यक्ति को अपने जीवन के लिए प्रकृति का महत्व भी समझ में आया, लेकिन सवाल यह है कि क्या इस परिवर्तन के अनुसार हम अपने जीवन को ढाल पाएं हैं? यकीनन नहीं। वर्तमान में हमारा स्वभाव बन चुका है कि हम अच्छी बातों को ग्रहण करने के लिए प्रवृत नहीं होते। जीवन की भी अपनी प्रकृति और प्रवृति होती है। इसी कारण कहा जा सकता है कि जो व्यक्ति प्रकृति के अनुसार जीवन यापन नहीं करता, उसका प्रकृति कभी साथ नहीं देती। हमें घटनाओं के माध्यम से जो संदेश मिलता है, उसे जीवन का अहम हिस्सा बनाना होगा, तभी हम कह सकते हैं कि हमारा जीवन प्राकृतिक है।
 
-डॉ वंदना सेन
सहायक प्राध्यापक, ग्वालियर मध्यप्रदेश
ई-मेल : vandanasen74@gmail.com
 
*लेखिका पीजीवी महाविद्यालय, जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर में हिंदी की सहायक प्राध्यापक हैं)

 


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विदेशों में फंसे भारतीयों को वापसी की अनुमति - भारत-दर्शन समाचार

Flights for Stranded Indians

5 मई 2020 ( भारत): भारत सरकार ने विदेशों में फंसे भारतीयों को चरणबद्ध तरीके से वापिस भारत लाने के लिए सुविधा प्रदान करने की अनुमति दी है। यात्रा की व्यवस्था हवाई जहाज़ व नौ-सेना के जहाज़ों द्वारा की जाएगी। इस संबंध में मानक संचालन प्रोटोकॉल (SOP) तैयार की गई है।

विदेश मंत्रालय के दूतावास और उच्चायोग ऐसे व्यथित भारतीय नागरिकों की सूची तैयार कर रहे हैं। इस सुविधा के लिए यात्रियों को भुगतान देना होगा। हवाई यात्रा के लिए गैर-अनुसूचित वाणिज्यिक उड़ानों का इंतज़ाम होगा। यह यात्राएँ 7 मई से चरण-बद्ध तरीके से प्रारम्भ होंगी। न्यूज़ीलैंड में फंसे भारतीय निम्न वेबसाइट के माध्यम से पंजीकरण करवा सकते हैं:

https://forms.gle/wZPGzKxXZX6t1ok48

उड़ान भरने से पहले यात्रियों की मेडिकल स्क्रीनिंग की जाएगी। केवल असिम्प्टोमैटिक यात्रियों को ही यात्रा की अनुमति होगी। यात्रा के दौरान इन सभी यात्रियों को स्वास्थ्य मंत्रालय और नागरिक उड्डयन मंत्रालय द्वारा जारी किये गए सभी प्रोटोकॉलों का पालन करना होगा।

गंतव्य पर पहुँच कर सभी को आरोग्य सेतु एप पर रजिस्टर करना होगा। सभी की मेडिकल जांच की जाएगी। जांच के पश्चात् सम्बंधित राज्य सरकार द्वारा उन्हें अस्पताल में या संस्थागत क्वारंटाइन में 14 दिन के लिए भुगतान के आधार पर रखा जाएगा। 14 दिन के बाद दोबारा COVID टेस्ट किया जाएगा और स्वास्थ्य प्रोटोकॉल के अनुसार अग्रिम कार्यवाही की जाएगी।

विदेश मंत्रालय और नागरिक उड्डयन मंत्रालय शीघ्र ही इसके बारे में विस्तृत जानकारी वेबसाइट द्वारा साझा करेंगे।

राज्य सरकारों को वापसी करने वाले भारतीयों के परीक्षण, क्वारंटाइन और अपने राज्यों में आवाजाही की व्यवस्था बनाने के लिए सलाह दी जा रही है।


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मूर्ख दिवस यानी 'अप्रैल फूल्स डे' | आलेख - भारत-दर्शन

हम में से लगभग हर कोई कभी न कभी 'अप्रैल फूल्स डे' के मज़ाक का शिकार हुआ होगा लेकिन यह  हर वर्ष 1 अप्रैल को क्यों होता है?

मूर्ख दिवस यानी 'अप्रैल फूल्स डे' कैसे आरंभ हुआ?  इस विषय पर कोई एक मान्य  राय नहीं है। इस बारे में अनेक मान्यताएं हैं।  सर्वाधिक प्रचलित मान्यता ब्रिटेन के लेखक जेफ्री चॉसर की पुस्तक 'द कैंटरबरी टेल्स' (1392) की एक कहानी पर आधारित है। चॉसर ने अपनी इस पुस्तक में 32 मार्च का उल्लेख किया है।  कहानी “32 मार्च” पर आधारित है, जो 1 अप्रैल को संदर्भित करने का एक मज़ेदार तरीका हो सकता है। इस प्रकार किसी को मूर्ख की तरह महसूस कराने के लिए एक दिन को चिह्नित किया गया।  कुछ विद्वानों का मानना ​​है कि '32 मार्च'  शायद ग़लत छपाई का परिणाम था, और जेफ्री चॉसर का मतलब केवल मार्च के अंत से रहा होगा।

अन्य प्रसंग 13वीं सदी में इंग्लैंड के राजा रिचर्ड सेकेंड और बोहेमिया की रानी एनी की सगाई की घोषणा है। सगाई  32 मार्च 1381 को आयोजित किए जाने की घोषणा की गई थी। कैंटरबरी के जन-साधारण इसे सही मान लेते हैं यद्यपि 32 मार्च तो होता ही नहीं। इसप्रकार इस तिथि को सही मानकर वहां के लोग मूर्ख बन जाते हैं, तभी से एक अप्रैल को मूर्ख दिवस अर्थात 'अप्रैल फूल्स डे' मनाया जाने लगा।

वैसे तो अप्रैल फूल्स डे पश्चिमी सभ्यता की देन है लेकिन यह विश्व के अधिकांश देशों सहित भारत में भी धूमधाम से मनाया जाता है।

कुछ इतिहासकारों का मानना ​​है कि यह 1500 के दशक के उत्तरार्ध से शुरू होता है जब फ्रांस ने जूलियन कैलेंडर की जगह नया कैलेंडर अपनाया  था। जूलियन कैलेंडर दुनिया के अधिकांश देशों द्वारा इस्तेमाल किया जाने वाला प्रमुख कैलेंडर था। 1564  से पहले यूरोप के अधिकांश देशों में जूलियन कैलेंडर प्रचलित था और इस  कैलेंडर में नया वर्ष पहली अप्रैल से आरंभ होता था। उन दिनों पहली अप्रैल के दिन को नववर्ष के रूप में मान्यता प्राप्त थी। इस दिन लोग एक-दूसरे को नववर्ष की शुभकामनाओं के अतिरिक्त उपहार भी देते थे। 

1564 में फ्रांस के राजा चार्ल्स नवम् (CHARLES IX) ने एक बेहतर कैलेंडर को अपनाने का आदेश दिया।  इस नए कैलेंडर में पहली जनवरी को वर्ष का प्रथम दिन माना गया था। लोगों ने राजाज्ञा से इस नए कैलेंडर को अपना लिया, लेकिन कुछ लोगों ने इस नए कैलेंडर को अपनाने से इनकार कर दिया। वे पहली जनवरी को वर्ष का नया दिन न मानकर पहली अप्रैल को ही वर्ष का पहला दिन मानते थे। इन लोगों को मूर्ख समझकर नया कैलेंडर अपनाने वालो ने पहली अप्रैल के दिन विचित्र प्रकार के उपहास करने आरंभ कर दिए। तभी से पहली अप्रैल को 'फूल्स डे' के रूप मे मनाने का प्रचलन हो गया। 

'अप्रैल फूल्स डे'  को पहले 'ऑल फूल्स डे'  कहा जाता था और यह कथित तौर पर उन लोगों का मज़ाक उड़ाने के लिए था जो कैलेंडर परिवर्तन को  अपनाने में हिचकिचा रहे थे।

अन्य मान्यताएं:

1582 में पोप ग्रेगोरी ने नया कैलेंडर (जिसमें पहली जनवरी को नया वर्ष आरंभ होता है) अपनाने को कहा और अधिकांश ने उनकी आज्ञा का पालन किया। इस कैलेंडर की अवज्ञा करने वाले लोगों को 'अप्रैल फूल्स' की संज्ञा दी गई। इस प्रकार 1 अप्रैल नया वर्ष होेने की जगह 'मूर्ख दिवस'  के रूप में प्रचलित हुआ।

भारतीय कलैंडर

यह भी कहा जाता है कि पहले विश्वभर में निर्विवाद रूप से सनातन कैलेंडर को मान्यता थी जिसमें नया वर्ष अप्रैल से आरंभ होता था। धीरे-धीरे भारतीय सनातन कैलंडर के स्थान पर भारत में भी पाश्चात्य कैलेंडर को मान्यता मिल गई परंतु भारत सहित विश्वभर में वित्तीय वर्ष अब भी अप्रैल से ही माना जाता है।

[भारत-दर्शन] 


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'लॉकडाउन निर्णय' शाम 4 बजे  - भारत-दर्शन समाचार

न्यूज़ीलैंड की सरकार आज शाम 4 बजे कोविड-19 की आगामी योजना से अवगत करवाएगी। आज शाम सरकार का 'लेवल 4' जारी रखने या इसे घटाकर लेवल-3 करने पर भी निर्णय होगा।

आज दोपहर 1 बजे 'मीडिया कॉन्फ्रेंस' नहीं होगी।

न्यूज़ीलैंड में कल सुबह तक 1431 मामले सामने आए थे, जिनमें 1098 पुष्ट और 333 संभावित मामले हैं। 18 व्यक्ति अस्पताल में हैं। न्यूज़ीलैंड में अभी तक 12 वृद्धों की कोरोनावायरस से मृत्यु हो चुकी है। पिछले कुछ समय से नए मामलों की दैनिक दर में कमी देखी गयी है।

[भारत-दर्शन समाचार]


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बरसाना की अनोखी लड्डूमार होली | रोचक - भारत-दर्शन

बरसाना की लड्डूमार होली

मथुरा-वृंदावन की होली पूरे देश में अपनी विशेष पहचान बनाए हुए है। यहां की होली केवल गुलाल और रंगों तक सीमित नहीं है, बल्कि इसे अनेक अनूठे अंदाज में मनाया जाता है। कृष्ण नगरी में फूलों की होली एवं लट्ठमार होली के अतिरिकत लड्डूमार होली भी प्रसिद्ध हैं। इन रंग-बिरंगे उत्सवों को देखने और इनमें भाग लेने के लिए हर वर्ष हजारों श्रद्धालु देश-विदेश से बरसाना पहुंचते हैं।

मथुरा की परंपरा के अनुसार, लड्डूमार होली के दिन बरसाना से राधा रानी की सखियां गुलाल लेकर नंदगांव जाती हैं और वहां कान्हा जी को होली खेलने का निमंत्रण देती हैं। जब नंदगांव में लट्ठमार होली का निमंत्रण स्वीकार किया जाता है, तभी बरसाना स्थित श्रीजी मंदिर में लड्डूमार होली का भव्य आयोजन किया जाता है। आइए जानें कि इस अनूठी परंपरा की शुरुआत कैसे हुई।

बरसाना की लड्डूमार होली का महत्व

बरसाना में लड्डूमार होली का विशेष महत्व है। इसे देखने और इसमें शामिल होने के लिए दूर-दूर से भक्तगण पहुंचते हैं। यह उत्सव श्री राधारानी मंदिर में मनाया जाता है, जहां भक्तों पर लड्डू बरसाए जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि जिस व्यक्ति को ये लड्डू लगते हैं, वह स्वयं को सौभाग्यशाली मानता है और इसे प्रसाद के रूप में ग्रहण करता है। कहा जाता है कि यदि किसी को साबुत लड्डू मिल जाए, तो उसके जीवन में सुख-समृद्धि बनी रहती है।

कैसे हुई लड्डूमार होली की शुरुआत?

इस अनूठी परंपरा की जड़ें द्वापर युग से जुड़ी हुई मानी जाती हैं। कहा जाता है कि राधा रानी के पिता ने नंद बाबा को होली खेलने के लिए आमंत्रित किया था। जब नंद बाबा ने इस निमंत्रण को स्वीकार किया, तो उनके पुरोहितों को होली खेलने के लिए बरसाना भेजा गया। वहां पहुंचने पर गोपियों ने उनका स्वागत गुलाल से किया और उन्हें लड्डू भेंट किए। लेकिन चूंकि पुरोहितों के पास रंग नहीं था, इसलिए उन्होंने गोपियों पर लड्डू फेंकने शुरू कर दिए। तभी से यह परंपरा शुरू हुई, जो आज भी हर साल उसी श्रद्धा और उल्लास के साथ निभाई जाती है।

भक्ति, प्रेम और सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक

लड्डूमार होली केवल मनोरंजन या हँसी-मजाक का अवसर नहीं, बल्कि यह राधा-कृष्ण की भक्ति और प्रेम का जीवंत प्रतीक भी है। इस त्योहार के माध्यम से भक्त स्वयं को राधा-कृष्ण की दिव्य ऊर्जा से जुड़ा हुआ महसूस करते हैं।

हर वर्ष बरसाना में होली का उत्सव कई दिनों पहले से आरंभ हो जाता है, जो श्री राधारानी मंदिर में लड्डूमार होली के साथ अपने चरम पर पहुंचता है। यह केवल एक त्योहार नहीं, बल्कि भारत की धार्मिक और सांस्कृतिक धरोहर का अमूल्य प्रतीक है, जिसे देखने के लिए दुनियाभर से श्रद्धालु यहां आते हैं। संक्षेप में, लड्डूमार होली भक्ति, आनंद और प्रेम का संगम है, जिसमें कृष्ण और राधा की दिव्य लीलाओं की झलक देखने को मिलती है। यह परंपरा हमें हमारी संस्कृति और आध्यात्मिक मूल्यों से जोड़ती है और हर वर्ष नए उल्लास के साथ मनाई जाती है।

[भारत-दर्शन]


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कोविड-19 संक्रमण फैलाने वाला व्यक्ति गिरफ़्तार - भारत-दर्शन समाचार

20 अप्रैल 2020 (न्यूज़ीलैंड): ऑकलैंड का एक व्यक्ति आज न्यायालय में प्रस्तुत किया जाएगा, जिसने तीन पुलिस अधिकारियों को कोरोनोवायरस से संक्रमित करने का प्रयास किया था।

न्यूजीलैंड में इस वैश्विक महामारी के दौरान "बीमारी से संक्रमित" करने का यह पहला मामला सामने आया है। न्यूज़ीलैंड के 'क्राइम एक्ट 1961' के अंतर्गत जानबूझ कर बीमारी फैलाने वाले के लिए 14 वर्ष तक के
कारावास का विधान है।

[भारत-दर्शन समाचार ]

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भारत में फंसे न्यूजीलैंडवासियों को वापस लाएगी सरकार - भारत-दर्शन समाचार

13 अप्रैल 2020 (न्यूजीलैंड): न्यूजीलैंड के विदेश मामलों के मंत्री 'विंस्टन पीटर्स' ने घोषणा की है कि सरकार न्यूजीलैंड के लोगों को भारत से घर लाएगी।

"भारत में न्यूजीलैंड के लोगों ने चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों का सामना किया है और पूर्ण लॉकडाउन के तहत एक देश से घर लौट पाना बहुत मुश्किल काम है," पीटर्स ने कहा।

उन्होंने कहा, "सरकार भारत में फंसे न्यूजीलैंडवासियों को घर लौटने में मदद करने के लिए एयरलाइंस और अंतरराष्ट्रीय भागीदारों के साथ चर्चा कर रही है। वर्तमान लॉकडाउन में न्यूजीलैंडवासियों  के बड़ी संख्या में भारत के विभिन्न स्थानों में होने के कारण यह एक गंभीर जटिल प्रयास है। हालांकि, हम अच्छी प्रगति कर रहे हैं," पीटर्स ने कहा।

"हम भारत में फंसे सभी न्यूजीलैंडर को घर लौटने के लिए सरकारी सहायता प्राप्त उड़ानों को गंभीरता से लेने पर विचार करने का अनुरोध कर रहे हैं। इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि अंतरराष्ट्रीय वाणिज्यिक उड़ानें (Commercial Flights ) कब दुबारा आरम्भ होंगी।न्यूजीलैंड के लोगों को अल्पावधि में ऐसा होने पर भरोसा नहीं करना चाहिए।"

भारत ने 22 मार्च को अंतरराष्ट्रीय उड़ानों पर प्रतिबंध लगाने की घोषणा की थी, और देश 25 मार्च से लॉकडाउन में है, जिससे  भारत में गए न्यूजीलैंडवासियों के पास कोई उड़ान विकल्प नहीं रह गया। फंसे हुए न्यूजीलैंड के लोगों को भारत से किसी भी सरकारी सुविधा वाली उड़ानों की लागत में योगदान करना होगा, और यह लागत पेरू जैसे अन्य स्थानों से हाल ही में सरकारी सहायता प्राप्त प्रस्थानों के सामान होगी।

"कोविड महामारी के चलते न्यूजीलैंड ने अब तक की सबसे बड़ी कांसुलर प्रतिक्रिया की है, और समाधान खोजने के लिए महत्वपूर्ण प्रयासों और सरकारी सहायता पर ध्यान केंद्रित किया हुआ है।"

"हम जानते हैं कि न्यूजीलैंड के कई स्थानों पर चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों का सामना करना पड़ रहा है। हम लगातार वैश्विक स्थिति पर नजर रखे हुए हैं और विदेश में जहाँ भी न्यूजीलैंडवासी इससे प्रभावित हैं, उनकी निगरानी कर रहे हैं, "श्री पीटर्स ने कहा।

[भारत-दर्शन समाचार ]


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न्यूज़ीलैंड कोरोना वायरस समाचार  - भारत-दर्शन समाचार

न्यूज़ीलैंड कोरोना (कोविड-19) आंकड़े, समाचार व इन्फोग्राफिक्स हिंदी में पढ़ें।

 

न्यूजीलैंड में 1106 कोरोना वायरस (COVID-19) पीड़ित

7 अप्रैल 2020 (न्यूज़ीलैंड):  सुबह 9 बजे तक, न्यूज़ीलैंड में कोरोना वायरस पीड़ितों की संख्या 1160 थी जिनमें 943 आधिकारिक पुष्टि सहित व 217 संभावित मामले सम्मिलित हैं। आज 54 नए मामले सामने आए हैं।

न्यूज़ीलैंड में कल तक यह संख्या 1106 थी जिनमें 911 आधिकारिक पुष्टि सहित व 195 संभावित मामले सम्मिलित थे। 6 अप्रैल 2020 तक 42,826  लोगों का वायरस परीक्षण हो चुका है। 

न्यूज़ीलैंड में 20 से 29 आयु वर्ग के लोग सर्वाधिक प्रभावित हुए हैं।  इनकी संख्या 7 अप्रैल (सुबह 9 बजे) तक 286 थी। इस आयु वर्ग के बाद दूसरे स्थान पर 50 से 59 आयु वर्ग व 60 से 69 आयु वर्ग तीसरा प्रभावित वर्ग है।  9 वर्ष से कम व 10 से 19 आयु वर्ग सबसे कम प्रभावित वर्ग हैं।  

न्यूज़ीलैंड में इस समय तक पुरुषों की अपेक्षा महिलाएं अधिक संक्रमित हुई हैं।  28 मार्च तक 551 पीड़ितों में लिंगानुपात 535 पुरुष व 617 महिलाएं हैं।  अन्य 8 पीड़ितों के बारे में जानकारी उपलब्ध नहीं है।  

इस समय तक 12 कोरोना वायरस पीड़ित अस्पताल में दाखिल हैं जिनमें 2 गंभीर रूप से पीड़ित हैं। इस समय तक 241 लोग इस वायरस से सुरक्षित होकर स्वास्थ्य लाभ ले रहें हैं। 

[भारत-दर्शन समाचार]

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न्यूजीलैंड में 1106 कोरोना वायरस (COVID-19) पीड़ित

6 अप्रैल 2020 (न्यूज़ीलैंड):  सुबह 9 बजे तक, न्यूज़ीलैंड में कोरोना वायरस पीड़ितों की संख्या 1106 थी जिनमें 911 आधिकारिक पुष्टि सहित व 195 संभावित मामले सम्मिलित हैं। आज 67 नए मामले सामने आए हैं।

न्यूज़ीलैंड में कल तक यह संख्या 1039 थी जिनमें 872 आधिकारिक पुष्टि सहित व 167 संभावित कोरोना वायरस पीड़ित मामले सम्मिलित थे। 5 अप्रैल 2020 तक 39,918  लोगों का वायरस परीक्षण हो चुका है। 

न्यूज़ीलैंड में 20 से 29 आयु वर्ग के लोग सर्वाधिक प्रभावित हुए हैं।  इनकी संख्या 6 अप्रैल (सुबह 9 बजे) तक 273 थी। इस आयु वर्ग के बाद दूसरे स्थान पर 50 से 59 आयु वर्ग व 60 से 69 आयु वर्ग तीसरा प्रभावित वर्ग है।  9 वर्ष से कम व 10 से 19 आयु वर्ग सबसे कम प्रभावित वर्ग हैं।  

न्यूज़ीलैंड में इस समय तक पुरुषों की अपेक्षा महिलाएं अधिक संक्रमित हुई हैं।  28 मार्च तक 551 पीड़ितों में लिंगानुपात 513 पुरुष व 584 महिलाएं हैं।  अन्य 9 पीड़ितों के बारे में जानकारी उपलब्ध नहीं है।  

इस समय तक 13 कोरोना वायरस पीड़ित अस्पताल में दाखिल हैं जिनमें 2 गंभीर रूप से पीड़ित हैं। इस समय तक 176 लोग इस वायरस से सुरक्षित होकर स्वास्थ्य लाभ ले रहें हैं। 

[भारत-दर्शन समाचार]

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न्यूजीलैंड में कोरोना वायरस (COVID-19) के 89 नए मामले : आंकड़े 1000 पार हुए 

5 अप्रैल 2020 (न्यूज़ीलैंड):  सुबह 9 बजे तक, न्यूज़ीलैंड में कोरोना वायरस पीड़ितों की संख्या 1039 थी जिनमें 872 आधिकारिक पुष्टि सहित व 167 संभावित मामले सम्मिलित हैं।  आज 89 नए मामले सामने आए हैं।

न्यूज़ीलैंड में कल तक यह संख्या 950 थी जिनमें 824 आधिकारिक पुष्टि सहित व 126 संभावित कोरोना वायरस पीड़ित मामले सम्मिलित थे। 4 अप्रैल 2020 तक 36209 लोगों का वायरस परीक्षण हो चुका है। 

न्यूज़ीलैंड में 20 से 29 आयु वर्ग के लोग सर्वाधिक प्रभावित हुए हैं।  इनकी संख्या 5 अप्रैल  (सुबह 9 बजे) तक 262 थी। इस आयु वर्ग के बाद दूसरे स्थान पर 50 से 59 आयु वर्ग व 60 से 69 आयु वर्ग तीसरा प्रभावित वर्ग है।  9 वर्ष से कम व 10 से 19 आयु वर्ग सबसे कम प्रभावित वर्ग हैं।  

न्यूज़ीलैंड में इस समय तक पुरुषों की अपेक्षा महिलाएं अधिक संक्रमित हुई हैं।  28 मार्च तक 551 पीड़ितों में लिंगानुपात 480 पुरुष व 508 महिलाएं हैं।  अन्य 8 पीड़ितों के बारे में जानकारी उपलब्ध नहीं है।  

इस समय तक 15 कोरोना वायरस पीड़ित अस्पताल में दाखिल हैं जिनमें 2 गंभीर रूप से पीड़ित हैं। इस समय तक 156 लोग इस वायरस से सुरक्षित होकर स्वास्थ्य लाभ ले रहें हैं। 29 मार्च को न्यूज़ीलैंड में कोरोना वायरस से एक महिला का निधन हो चुका है।  

[भारत-दर्शन समाचार]

 

न्यूजीलैंड में कोरोना वायरस (COVID-19) के 82 नए मामले

4 अप्रैल 2020 (न्यूज़ीलैंड):  सुबह 9 बजे तक, न्यूज़ीलैंड में कोरोना वायरस पीड़ितों की संख्या 950 थी जिनमें 824 आधिकारिक पुष्टि सहित व 126 संभावित मामले सम्मिलित हैं।  आज 82 नए मामले सामने आए हैं। न्यूज़ीलैंड में कल तक यह संख्या 868 थी जिनमें 772 आधिकारिक पुष्टि सहित व 96 संभावित कोरोना वायरस पीड़ित मामले सम्मिलित थे। 3 अप्रैल 2020 तक 33116 लोगों का वायरस परीक्षण हो चुका है। 

न्यूज़ीलैंड में 20 से 29 आयु वर्ग के लोग सर्वाधिक प्रभावित हुए हैं।  इनकी संख्या 4 अप्रैल  (सुबह 9 बजे) तक 242 थी। इस आयु वर्ग के बाद दूसरे स्थान पर 50 से 59 आयु वर्ग व 60 से 69 आयु वर्ग तीसरा प्रभावित वर्ग है।  9 वर्ष से कम व 10 से 19 आयु वर्ग सबसे कम प्रभावित वर्ग हैं।  

न्यूज़ीलैंड में इस समय तक पुरुषों की अपेक्षा महिलाएं अधिक संक्रमित हुई हैं।  28 मार्च तक 451 पीड़ितों में लिंगानुपात 432 पुरुष व 508 महिलाएं हैं।  अन्य 8 पीड़ितों के बारे में जानकारी उपलब्ध नहीं है।  

इस समय तक 10 कोरोना वायरस पीड़ित अस्पताल में दाखिल हैं, 127 इस वायरस से सुरक्षित होकर स्वास्थ्य लाभ ले रहें हैं। 29 मार्च को न्यूज़ीलैंड में कोरोना वायरस से एक महिला का निधन हो गया था। 

[भारत-दर्शन समाचार]

 

न्यूजीलैंड में कोरोना वायरस (COVID-19) के 83 नए मामले

3 अप्रैल 2020 (न्यूज़ीलैंड):  सुबह 9 बजे तक, न्यूज़ीलैंड में 868 वायरस पीड़ित हैं जिनमें 772 आधिकारिक पुष्टि सहित व 96 संभावित मामले सम्मिलित हैं।  न्यूज़ीलैंड में कल तक यह संख्या 797 थी जिनमें 723 आधिकारिक पुष्टि सहित व 74 संभावित कोरोना वायरस पीड़ित मामले सम्मिलित थे।  

न्यूज़ीलैंड में 20 से 29 आयु वर्ग के लोग सर्वाधिक प्रभावित हुए हैं।  इनकी संख्या 3 अप्रैल  (सुबह 9 बजे) तक 222 थी। इस आयु वर्ग के बाद दूसरे स्थान पर 50 से 59 आयु वर्ग व 60 से 69 आयु वर्ग तीसरा प्रभावित वर्ग है।  9 वर्ष से कम व 10 से 19 आयु वर्ग सबसे कम प्रभावित वर्ग हैं।  

न्यूज़ीलैंड में इस समय तक पुरुषों की अपेक्षा महिलाएं अधिक संक्रमित हुई हैं।  28 मार्च तक 451 पीड़ितों में लिंगानुपात 396 पुरुष व 464 महिलाएं हैं।  अन्य 8 पीड़ितों के बारे में जानकारी उपलब्ध नहीं है।  

[भारत-दर्शन समाचार]

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न्यूजीलैंड में कोरोना वायरस (COVID-19) के 83 नए मामले

28 मार्च 2020 (न्यूज़ीलैंड):  सुबह 9 बजे तक, न्यूज़ीलैंड में 451 कोरोना वायरस पीड़ित हैं जिनमें 416 आधिकारिक पुष्टि सहित व 35 संभावित मामले सम्मिलित हैं।  न्यूज़ीलैंड में कल तक यह संख्या 368 थी जिनमें 338 आधिकारिक पुष्टि सहित व 30 संभावित कोरोना वायरस पीड़ित मामले सम्मिलित थे।  

न्यूज़ीलैंड में 20 से 29 आयु वर्ग के लोग सर्वाधिक प्रभावित हुए हैं।  इनकी संख्या 28 मार्च  (सुबह 9 बजे) तक 107 थी। इस आयु वर्ग के बाद दूसरे स्थान पर 50 से 59 आयु वर्ग व 60 से 69 आयु वर्ग तीसरा प्रभावित वर्ग है।  9 वर्ष से कम व 10 से 19 आयु वर्ग सबसे कम प्रभावित वर्ग हैं।  

न्यूज़ीलैंड में इस समय तक पुरुषों की अपेक्षा महिलाएं अधिक संक्रमित हुई हैं।  28 मार्च तक 451 पीड़ितों में लिंगानुपात 218 पुरुष व 239 महिलाएं हैं।  अन्य 4 पीड़ितों के बारे में जानकारी उपलब्ध नहीं है।  

[भारत-दर्शन समाचार]

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27 मार्च 2020  (न्यूज़ीलैंड): सुबह 9 बजे तक [As at 9.00 am, 27 March 2020 ]

न्यूज़ीलैंड में 368 कोरोना वायरस पीड़ित जिनमें 338 आधिकारिक पुष्टि सहित व 30 संभावित मामले सम्मिलित

Information about confirmed and probable cases of COVID-19 in New Zealand

 

अन्य लिंक्स

न्यूज़ीलैंड कोरोना (कोविड-19) आंकड़े, समाचार व इन्फोग्राफिक्स हिंदी में 
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न्यूज़ीलैंड मीडिया पर कोविड-19 का कठोराघात - भारत-दर्शन समाचार

Bauer Media publications

2 अप्रैल 2020 (न्यूज़ीलैंड): कोविड-19: प्रमुख पत्रिका प्रकाशक बाउर मीडिया (Bauer Media) बंद हो गया है।  

न्यूज़ीलैंड वुमन्स वीकली, एनज़ेड लिसनर, वुमन्स डे, मेट्रो, नॉर्थ और साउथ, नेक्स्ट इत्यादि पत्रिकाओं का प्रकाशन करने वाली बाउर मीडिया ने न्यूजीलैंड में अपने प्रकाशन को बंद होने की घोषणा की है। बाउर मीडिया समूह ने न्यूज़ीलैंड में अपने प्रकाशन व्यवसाय को बंद कर दिया।

आज सुबह, बाउर मीडिया समूह ने घोषणा की कि वह आधिकारिक तौर पर न्यूजीलैंड के अपने प्रकाशन व्यवसाय को बंद कर देगा।

प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है कि न्यूज़ीलैंड के सभी बाउर कर्मचारियों को आज सुबह जानकारी दे दी गई है कि व्यवसाय अब व्यवहारिक नहीं है और इसे बंद करने का निर्णय लिया गया है।

'द न्यूज़ीलैंड वुमन्स वीकली' पहली बार 8 दिसंबर 1932 को प्रकाशित हुई थी।

न्यूज़ीलैंड की 'वुमन्स डे' का प्रकाशन 1932 में आरंभ हुआ था।

'एनज़ेड लिसनर' पत्रिका 1939 में न्यूज़ीलैंड सरकार द्वारा स्थापित की गयी थी। 1990 में इसका निजीकरण कर दिया गया।

'नॉर्थ एंड साउथ' पत्रिका 1986 में आरंभ हुई थी।

बाउर मीडिया दशकों से न्यूज़ीलैंड में अनेक पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन कर रहा था और इसके अंत से लगभग 300 कर्मचारी अपना रोजगार खो देंगे।

- रोहित कुमार, न्यूज़ीलैंड
  [भारत-दर्शन समाचार]

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प्रधानमंत्री मोदी ने भारतीय उच्‍चायोगों के प्रमुखों के साथ वीडियो कॉन्फ्रेंस की - भारत-दर्शन समाचार

30 मार्च 2020 (भारत) प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने दुनिया भर में भारत के दूतावासों और उच्चायोगों के प्रमुखों के साथ शाम 5 बजे एक वीडियो कॉन्फ्रेंस की। यह कॉन्‍फ्रेंस - दुनिया भर में भारतीय मिशनों के लिए इस तरह का पहला आयोजन था जिसे वैश्विक कोविड-19 महामारी की प्रतिक्रियाओं पर चर्चा करने के लिए आयोजित किया गया था।

प्रधानमंत्री ने कहा कि असाधारण समय के लिए असाधारण समाधान की आवश्यकता होती है, यही वजह है कि वैश्वीकरण के इस युग में भी, दुनिया के अधिकांश लोगों ने खुद को अलग कर लिया था। इस महामारी से लड़ने के लिए यह एक अपरिहार्य कदम था, लेकिन इसके बहुत अधिक परिणाम निकलने थे, क्योंकि वैश्विक प्रणाली के बंद होने का अंतर्राष्ट्रीय परिवहन प्रणाली, वित्तीय बाजारों और वैश्विक अर्थव्यवस्था पर व्यापक और दूरगामी प्रभाव पड़ा है।

प्रधानमंत्री ने कहा कि भारत ने इस महामारी पर अपनी प्रतिक्रिया व्‍यक्‍त करते हुए इस साल जनवरी के मध्य से अभूतपूर्व और शुरुआती कदम उठा लिए थे, ताकि संक्रमण के बाहर से आने के जोखिम को कम किया जा सके, और उसके बाद महामारी को फैलने से रोका जा सके। इसमें दुनिया का सबसे बड़ा क्‍वारंटीन और लॉक डाउन शामिल है, जिसे भारत ने लागू किया है।

प्रधानमंत्री ने कुछ संकटग्रस्‍त क्षेत्रों में विदेश में फंसे भारतीयों को निकालने के लिए किए गए प्रयासों के लिए मिशनों के प्रमुखों की सराहना की। उन्होंने पांच विशिष्ट बिन्दुओं पर कदम उठाने के लिए उन्हें प्रेरित किया:

i. अपना स्‍वास्‍थ्‍य और सुरक्षा सुनिश्चित करें, साथ ही अपनी टीम और परिवार की सुरक्षा का भी ध्‍यान रखें;

ii. अंतरराष्ट्रीय यात्रा प्रतिबंधों की अनिश्चितता को देखते हुए, विभिन्न देशों में फंसे भारतीयों पर ध्‍यान दिया जाए। उन्होंने भारतीय मिशनों के प्रमुखों का आह्वान किया कि वे विदेश में फंसे हमवतन लोगों के मनोबल को बढ़ाने में मदद करें, और विदेशों में उनके अनियोजित प्रवास से उत्पन्न मुद्दों के समाधान में मेजबान सरकारों के साथ मदद करें, और भारतीयों को विदेश में जिन अन्य समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है, उनका समाधान करें, जिसमें जहां आवश्यक और संभव हो; आश्रय की व्यवस्था करना शामिल है,

iii कोविड​​-19 के खिलाफ भारत की लड़ाई में सतर्क रहें और सर्वोत्तम प्रथाओं, नवाचारों, वैज्ञानिक सफलताओं और चिकित्सा उपकरणों की खरीद के स्रोतों को अपने देशों में स्‍वीकृति प्रदान करें। उन्होंने मिशन के प्रमुखों को विदेशों से चंदा जुटाने के लिए नव-स्थापित प्रधानमंत्री संरक्षण कोष को उपयुक्त तरीके से प्रचारित करने की सलाह दी।

iv. चूंकि यह संकट अर्थव्यवस्था पर भी प्रभाव डालता है, पीएम ने मिशन के प्रमुखों को सलाह दी कि वे विदेशी भागीदारों के साथ अपने समन्वय के माध्यम से आवश्यक आपूर्ति, रसद श्रृंखला, प्रेषण पर ध्यान केंद्रित करें;

v. अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक और आर्थिक स्थिति विकसित करने के लिए करीब से ध्यान देना जारी रखें, खासतौर से कोविड-19 महामारी के संदर्भ में।

जवाब में, बीजिंग, वाशिंगटन डीसी, तेहरान, रोम, बर्लिन, काठमांडू, अबू धाबी, काबुल, माले और सियोल स्थित उच्‍चायोगों के दस प्रमुखों ने प्रधानमंत्री और बाकी दर्शकों को अपने दृष्टिकोण की जानकारी दी। उन्होंने इस महामारी का मुकाबला करने के लिए भारत द्वारा उठाए गए दृढ़ उपायों को अपने देशों में स्‍वीकृति प्रदान करते हुए उसकी सराहना की।

मिशनों के प्रमुखों ने विदेश में फंसे भारतीयों, विशेष रूप से, छात्रों और श्रमिकों की मदद करने के अपने प्रयासों को रेखांकित किया। उन्होंने दवाओं, चिकित्सा उपकरणों, प्रौद्योगिकियों, अनुसंधान और अन्य उपायों को स्‍वीकृति देने के प्रयासों की भी जानकारी दी, जो इस महामारी से लड़ने के भारत के राष्ट्रीय प्रयासों में मदद कर सकते हैं। कोविड-19 के खिलाफ वैश्विक लड़ाई में मिशन के प्रमुखों ने अन्य देशों से सीखे गए सबक, और उनके सर्वोत्तम तरीकों की भी जानकारी दी। हमारे पड़ोस में, मिशन के प्रमुखों ने कोविड -19 का मुकाबला करने के लिए सार्क देशों के लिए भारत की पहल पर बनाई गई विशेष निधि का उपयोग करते हुए सहायता करने के उपायों को रेखांकित किया। मिशन के प्रमुखों ने उनके काम के लिए प्रधानमंत्री के मार्गदर्शन और प्रेरणा के लिए उनके प्रति आभार व्यक्त किया।

अंत में, प्रधानमंत्री ने जोर देकर कहा कि विदेश में भारत के उच्‍चायोग घर से बहुत दूर हो सकते हैं, लेकिन वे कोविड-19 के खिलाफ भारत की लड़ाई में पूर्ण भागीदार बने हुए हैं। उन्होंने जोर दिया कि सभी भारतीयों की एकता और सतर्कता राष्ट्र के भविष्य को सुरक्षित रखने में मदद करेगी।

[भारत-दर्शन समाचार]


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6 अप्रैल को ऑस्ट्रेलिया से भारत की कोई उड़ान नहीं  - भारत-दर्शन समाचार

Flights to India

ऑस्ट्रेलिया में भारतीय उच्चायोग ने एक विज्ञप्ति के माध्यम से सोशल मीडिया में प्रसारित की जा रही इस अफवाह का खंडन किया है कि 6 अप्रैल 2020 को 'स्वदेश लौटने' के लिए ऑस्ट्रेलिया से भारत के लिए एक उड़ान का प्रबंध किया गया है। विज्ञप्ति में कहा गया है, "उच्चायोग / वाणिज्य दूतावासों के संज्ञान में यह आया है कि 6 अप्रैल 2020 को ऑस्ट्रेलिया से भारत के लिए "प्रत्यावर्तन उड़ान" के संबंध में कुछ अफवाहें सोशल मीडिया में प्रसारित की जा रही हैं।

यह दोहराया जाता है कि ऐसी किसी उड़ान की योजना नहीं बनाई जा रही है। हम सभी संबंधित लोगों से अनुरोध करते हैं कि वे इस तरह की अफवाहों पर ध्यान न दें। कृपया अपडेट के लिए मिशन और हमारे कांसुलर पोस्ट (वेबसाइट / फेसबुक / ट्विटर) से जुड़े रहें।"

[भारत-दर्शन समाचार] 


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दो संस्थानों के नाम सुषमा स्वराज के नाम पर  - भारत-दर्शन समाचार

Institutes renamed after Sushma Swaraj

13 फरवरी 2020 (भारत): भारत की सरकार ने प्रवासी भारतीय केंद्र का नाम बदलकर सुषमा स्वराज भवन रखने का निर्णय लिया है। 

फॉरेन सर्विस इंस्टीट्यूट (विदेशी सेवा संस्थान ) का नाम भी बदलकर 'सुषमा स्वराज इंस्टीट्यूट ऑफ फॉरेन सर्विस' के रूप में बदलने का निर्णय लिया गया है।

भारत  के विदेश मंत्री डॉ एस.जयशंकर ने कहा,"मुझे खुशी है कि सरकार ने प्रवासी भारतीय केंद्र को सुषमा स्वराज भवन और फॉरेन सर्विस इंस्टीट्यूटका नाम सुषमा स्वराज इंस्टीट्यूट ऑफ फॉरेन सर्विस के रूप में बदलने का फैसला किया है।"

पूर्व विदेश मंत्री की सार्वजनिक सेवा और दशकों के अथक परिश्रम के सम्मान में उनकी जयंती की पूर्व संध्या पर उपरोक्त घोषणा की गयी है।  

विदेश मंत्रालय ने पूर्व विदेश मंत्री स्वर्गीय सुषमा स्वराज की स्मृति में उनकी जयंती पर उनके भारतीय कूटनीति में योगदान, भारतीय प्रवासियों के लिए किए हितैषी कार्यों और लोक सेवा में अमूल्य योगदान के लिए उन्हें श्रद्धांजलि दी है।  

सुषमा स्वराज का जन्म 14 फरवरी, 1952 को हुआ था। उन्होंने सनातन धर्म कॉलेज, अम्बाला  से अपनी पढ़ाई की। उनके पिताजी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्य थे। सुषमा स्वराज 13 मई, 2009 से 24 मई, 2019 के बीच लोकसभा सांसद रहीं। वे 13 अक्टूबर, 1998 से 3 दिसम्बर, 1998 के बीच दिल्ली की पांचवी मुख्यमंत्री भी रहीं। वे 30 सितम्बर, 2000 से 29 जनवरी, 2003 तक देश की सूचना व प्रसारण मंत्री रहीं। वे 29 जनवरी, 2003 से 22 मई, 2004 के बीच संसदीय मामलों की मंत्री रही। वे 26 मई, 2014 से 30 मई, 2019 तक विदेश मंत्री रहीं। 

[भारत-दर्शन समाचार]


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न्यूज़ीलैंड में हिंदी पत्रकारिता का इतिहास - भारत-दर्शन समाचार

न्यूज़ीलैंड (07 फरवरी 2020) : भारत-दर्शन के सम्पादक ने 'न्यूज़ीलैंड में हिंदी पत्रकारिता का इतिहास' पुस्तिका न्यूज़ीलैंड में भारत के मानद कौंसिल भाव ढिल्लो को भेंट करके ऑकलैंड में इसका विमोचन किया। इस पुस्तक में 1930 से अब तक का इतिहास उपलब्ध करवाया गया है। इसे भारत-दर्शन के संपादक रोहित कुमार हैप्पी ने लिखा है।

9 जनवरी को वैलिंग्टन में प्रवासी दिवस व विश्व हिंदी दिवस के उपलक्ष में आयोजित एक कार्यक्रम में भारत के उच्चायुक्त मुक्तेश परदेशी ने 'न्यूज़ीलैंड में हिंदी पत्रकारिता का इतिहास' पुस्तक का औपचारिक विमोचन किया था।  यह पुस्तक ई-बुक के रूप में भारत-दर्शन की वैब साइट पर उपलब्ध है।  

[भारत-दर्शन समाचार]


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फेसबुक की कहानी  - रोहित कुमार हैप्पी

फेसबुक

फेसबुक 4 फरवरी, 2004 को लोकार्पित की गई थी। फेसबुक दुनिया भर में सबसे बड़ा सामाजिक नेटवर्क है। 2019 के अंत में  इसके सक्रिय उपयोगकर्ता  की संख्या लगभग 2.5 बिलियन मासिक रही। 

फेसबुक 4 फरवरी, 2004 को फेसबुक 'TheFacebook' एक सामाजिक नेटवर्किंग सेवा के रूप में आरम्भ की गई थी।  इसकी स्थापना मार्क जुकरबर्ग (Mark Zuckerberg ) ने अपने कॉलेज में अपने साथ रहें वाले ( रूममेट्स) और हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के कुछ साथी-छात्रों एडुआर्डो सेवरिन (Eduardo Saverin ), एंड्रू मैककोलम (Andrew McCollum ), डस्टिन मोस्कोविट्ज़ (Dustin Moskovitz ) और क्रिस ह्यूजस (Chris Hughes ) के साथ मिलकर की थी।

आज फेसबुक के उत्तरी अमेरिका, लैटिन अमेरिका, यूरोप, मध्य पूर्व, अफ्रीका और एशिया प्रशांत सहित दुनिया भर के 70 शहरों में कार्यालय हैं।  विश्व स्तर पर इसके 15 डेटा सेंटर चल रहे हैं।  इसके 44,942 स्थायी  कर्मचारी हैं।  

2005 तक फेसबुक एक ऑनलाइन निर्देशिका (Directory ) थी, जो कॉलेजों में सामाजिक नेटवर्क के माध्यम से लोगों को जोड़ती थी। यह इस समय तक फेसबुक'द फेसबुक'  (www.thefacebook.com) नाम के डोमेन पर थी।  यह डोमेन आज भी 'फेसबुक' का ही है, और यदि आप इसपर जाते हैं तो आपको 'फेसबुक' पर रिडायरेक्ट कर दिया जाता है।  

जब फेसबुक की स्थापना हुई तो इसका उद्देश्य स्कूल/कॉलेज के विद्यार्थियों के बीच सम्पर्क स्थापित करना था।  2005 तक साइट पर लिखा था: 

- साइट बहुत सारे स्कूलों के लिए खुली है, लेकिन अभी तक हर जगह नहीं है। हम इस पर काम कर रहे हैं।

- और, 'हां' हमने साइट को फिर से डिजाइन किया। यदि आप परिवर्तनों के बारे में पढ़ना चाहते हैं, तो इस लिंक पर जाएं।

आप फेसबुक का उपयोग निम्नलिखित के लिए कर सकते हैं:

-अपने विद्यालय के लोगों को देखने हेतु।
-यह देखने के लिए  कि लोग एक-दूसरे को कैसे जानते हैं।......

 
 
नियुए को भारत से 1.2 मिलियन न्यूज़ीलैंड डॉलर की सहायता  - भारत-दर्शन समाचार

12 फरवरी 2020 (न्यूज़ीलैंड): भारत के उच्चायुक्त 'मुक्तेश परदेशी' ने नियुए (Niue) प्रतिनिधिमंडल के लिए एक भोज बैठक का आयोजन किया। भारत सरकार ने नियुए आइलैंड के 4G/LTE मोबाइल नेटवर्क स्थापित करने के लिए 1.2 मिलियन डॉलर की धनराशि की सहायता दी है।मोबाइल नेटवर्क स्थापित करने का एक चरण समाप्त हो चुका है। 

इस बैठक में दोनों पक्षों ने इस परियोजना के दूसरे चरण पर विचारों का आदान-प्रदान किया। 

इससे पहले भारत सामोआ आइलैंड को भी 250,000 अमरीकी डॉलर की आर्थिक सहायता दे चुका है।

[भारत-दर्शन समाचार]


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141 को पद्म पुरस्कार - भारत-दर्शन समाचार

इस बार कुल 141 को पद्म पुरस्कार दिए जा रहे हैं जिनमें 4 संयुक्त पद्म पुरस्कार भी सम्मिलित हैं। संयुक्त पुरस्कार जो दो व्यक्तियों को दिया जाता है, इसकी गणना एक की जाती है। अत: 141 पुरस्कार 145 व्यक्तियों को दिए जाएंगे। इस बार 7 को पद्म विभूषण, 16 को पद्म भूषण और 118 को पद्मश्री पुरस्कार दिए जाने की घोषणा की गई है।

पुरस्कार पाने वालों की सूची में 33 महिलाएं, 18 विदेशी/अनिवासी/भारतीय मूल के व्यक्ति भी सम्मिलित हैं। 12 व्यक्तियों को मरणोपरांत पद्म पुरस्कार दिए जाने की घोषणा की गई है जिनमें जॉर्ज फर्नांडिस (मरणोपरांत), अरुण जेटली (मरणोपरांत), सुषमा स्वराज (मरणोपरांत), पेजावरा मठ के महंत श्री विश्वेशातीर्थ (मरणोपरांत) सम्मिलित हैं।

पद्म पुरस्कार देश के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार हैं, जो तीन श्रेणियों में विभक्त हैं - पद्म विभूषण, पद्म भूषण और पद्म श्री। पुरस्कार विभिन्न विषयों / गतिविधियों के क्षेत्रों अर्थात कला, सामाजिक कार्य, सार्वजनिक मामलों, विज्ञान और इंजीनियरिंग, व्यापार और उद्योग, चिकित्सा, साहित्य और शिक्षा, खेल, नागरिक सेवा आदि के क्षेत्र के लिए दिए जाते हैं।

'पद्म विभूषण' असाधारण विशिष्ट सेवा के लिए, ‘पद्म भूषण' उच्च क्रम की विशिष्ट सेवा के लिए और 'पद्म श्री' किसी क्षेत्र में विशिष्ट सेवा के लिए दिया जाता है।

इन पुरस्कारों की घोषणा प्रत्येक वर्ष गणतंत्र दिवस के अवसर पर की जाती है। इन पुरस्कारों को भारत के राष्ट्रपति द्वारा औपचारिक समारोह में प्रदान किया जाता है, जो प्रत्येक वर्ष मार्च/अप्रैल के आसपास राष्ट्रपति भवन में आयोजित किया जाता है।

 

पद्म विभूषण सम्मान

पद्म विभूषण सम्मान से सम्मानित शख्सियतों में जार्ज फर्नाडीज (मरणोपरांत), अरुण जेटली (मरणोपरांत), मॉरीशस के पूर्व प्रधानमंत्री अनिरुद्ध जगन्नाथ, मेरी काम, छन्नू लाल मिश्रा, सुषमा स्वराज (मरणोपरांत)और श्री विश्वेशतीर्थ स्वामी जी श्री पेजावर अधोक्षजा मठ उडुपी (मरणोपरांत)सम्मिलित हैं।

पद्म भूषण

पद्म भूषण से सम्मानित हस्तियों में एम. मुमताज अली, मुअज्जम अली (मरणोपरांत), मुजफ्फर हुसैन बेग, अजय चक्रवर्ती, मनोज दास, बालकृष्ण दोशी, कृष्णअम्मल जगन्नाथ, नगालैंड के पूर्व मुख्यमंत्री एससी जमीर, उत्तराखंड के जाने-माने पर्यावरणविद और समाजसेवी डॉ. अनिल प्रकाश जोशी, शेरिंग लैंडल, प्रख्यात उद्योगपति आनंद महिंद्रा, नीलकंठ रामकृष्ण माधव मेनन (मरणोपरांत), पूर्व केंद्रीय मंत्री मनोहर पर्रीकर (मरणोपरांत), प्रो. जगदीश सेठ, ओलंपियन बैडमिंटन खिलाड़ी पीवी सिंधु और उद्योगपति वेणु श्रीनिवासन सम्मिलित हैं।


118 जिन्हें पद्मश्री मिलेगा:

1. गुरु शशधर आचार्य

2. डॉ. योगी एरोन

3. जय प्रकाश अग्रवाल

4. जगदीश लाल आहूजा

5. काजी मासूम अख्तर

6. ग्लोरिया एरीरा

7. खान जहीरखान बख्तियारखान

8. डॉ. पद्मावती बंदोपाध्याय

9. डॉ. सुषोवन बनर्जी

10. डॉ. दिगंबर बेहरा

11. डॉ. दमयंती बेसरा

12. पवार पोपटराव भागूजी

13. हिम्मता राम भांभू

14. संजीव बाखचंदानी

15. गफूरभाई एम. बिलाखिया

16. बॉब ब्लैकमैन

17. इंदिरा पी. पी. बोरा

18. मदन सिंह चौहान

19. उषा चूमर

20. लील बहादुर चेत्री

21. ललिता और सरोजा चिदंबरम (संयुक्त रूप से)

22. डॉ. वजिरा चित्रसेन

23. डॉ. पुरुषोत्तम दाधीच

24. उत्सव चरण दास

25. प्रो. इंद्र दासनायके (मरणोपरांत)

26. एच. एम. देसाई

27. मनोहर देवदास

28. ओइनम बेमबेम देवी

29. लिया डिस्किन

30. एम. पी. गणेश

31. डॉ. बैंगलोर गंगाधर

32. डॉ. रमन गंगाखेडकर

33. बैरी गार्डिनर

34. चेवांग मोटुप गोबा

35. भरत गोयनका

36. यदला गोपालराव

37. मित्राभानु गोटिया

38. तुलसी गौडा

39. सुजॉय के. गुहा

40. हरेकला हजबा

41. इनामुल हक

42. मधु मंसूरी हसमुख

43. अब्दुल जब्बार (मरणोपरांत)

44. बिमल कुमार जैन

45. मीनाक्षी जैन

46. ​​नेमनाथ जैन

47. शांति जैन

48. सुधीर जैन

49. बेनीचंद्र जमातिया

50. के. वी. संपत कुमार और सुश्री विदुषी जयलक्ष्मी के. एस. (संयुक्त रूप से)

51. करण जौहर

52. डॉ. लीला जोशी

53. सरिता जोशी

54. सी. कमलोवा

55. डॉ. रवि कन्नन आर.

56. एकता कपूर

57. यज्दी नौशीरवान करंजिया

58. नारायण जे. जोशी करयाल

59. डॉ. नरिंदर नाथ खन्ना

60. नवीन खन्ना

61. एस.पी. कोठारी

62. वी. के. मुनुसामी कृष्णपक्ष

63. एम. के. कुंजोल

64. मनमोहन महापात्रा (मरणोपरांत)

65. उस्ताद अनवर खान मंगनियार

66. कट्टंगल सुब्रमण्यम मणिलाल

67. मुन्ना मास्टर

68. अभिराज राजेंद्र मिश्रा

69. बिनापानी मोहंती

70. डॉ. अरुणोदय मोंडल

71. डॉ. पृथ्वींद्र मुखर्जी

72. सत्यनारायण मुनदूर

73. मणिलाल नाग

74. एन. चंद्रशेखरन नायर

75. डॉ. टेट्सु नाकामुरा (मरणोपरांत)

76. शिव दत्त निर्मोही

77. पु ललिबक्थंग पचुअउ

78. मुजिक्कल पंकजाक्षी

79. डॉ. प्रशांत कुमार पट्टनायक

80. जोगेंद्र नाथ फुकन

81. रहिबई सोमा पोपेरे

82. योगेश प्रवीण

83. जीतू राय

84. तरुणदीप राय

85. एस. रामकृष्णन

86. रानी रामपाल

87. कंगना रनौत

88. दलवई चलपति राव

89. शाहबुद्दीन राठौड़

90. कल्याण सिंह रावत

91. चिंताला वेंकट रेड्डी

92. डॉ. शांति रॉय

93. राधमोहन और साबरमती (संयुक्त रूप से)

94. बटाकृष्ण साहू

95. ट्रिनिटी साइओ

96. अदनान सामी

97. विजय संकेश्वर

98. डॉ. कुशाल कोंवर सरमा

99. सईद महबूब शाह कादरी उर्फ ​​सईदभाई

100. मोहम्मद शरीफ

101. श्याम सुंदर शर्मा

102. डॉ. गुरदीप सिंह

103. रामजी सिंह

104. वशिष्ठ नारायण सिंह (मरणोपरांत)

105. दया प्रकाश सिन्हा

106. डॉ. सैंड्रा देसा सूजा

107. विजयसारथी श्रीभाष्यम

108. काले शबी महबूब और शेख महबूब सुबानी (संयुक्त रूप से)

109. प्रदीप थलप्पिल

110. जावेद अहमद टाक

111. येशे दोरजी थोंग्ची

112. रॉबर्ट थुरमन

113. अगुस इंद्र उदयन

114. हरीश चंद्र वर्मा

115. सुंदरम वर्मा

116. डॉ. रोमेश टेकचंद वाधवानी

117. सुरेश वाडकर

118. प्रेम वत्स

[भारत-दर्शन समाचार]

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ऑकलैंड में भारत का गणतंत्र-दिवस सम्पन्न - भारत-दर्शन समाचार

न्यूज़ीलैंड (26 जनवरी 2020) : ऑकलैंड की विभिन्न संस्थाओं ने भारत के गणतंत्र-दिवस समारोह का आयोजन किया। 

26 जनवरी को भारत के मानद कौंसिल भाव ढिल्लो के निवास पर आयोजन हुआ जिसमें भारी संख्या में भारतीय समुदाय के गणमान्य उपस्थित थे। मानद कौंसिल ने भारत का ध्वजा रोहण किया। फिर भारत का राष्ट्र गान गया गया।  इस अवसर पर  मानद कौंसिल, 'भाव ढिल्लो'  ने उपस्थित अतिथियों को सम्बोधित करते हुए गणतंत्र-दिवस की पृष्ठभूमि व इसकी महत्ता पर प्रकाश डाला। 

महात्मा गाँधी सेंटर, भारतीय हिन्दू मंदिर व गाँधी सेंटर में भी भारत का गणतंत्र-दिवस मनाया गया।  

इससे पूर्व 25 जनवरी को भारतीय समाज द्वारा 'माँट रोस्किल वॉर मेमोरियल हॉल' में भारत का गणतंत्र-दिवस सम्पन्न हुआ था।

[भारत-दर्शन समाचार ]


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गणतंत्र दिवस की 70 वीं वर्षगांठ का आमंत्रण  - भारत-दर्शन समाचार

14 जनवरी 2020 (वैलिंगटन) भारतीय उच्चायोग सभी भारतीय नागरिकों, भारतीय मूल के व्यक्तियों और भारत के मित्रों को भारत के गणतंत्र दिवस की 70 वीं वर्षगांठ के अवसर पर रविवार, 26 जनवरी, 2020 सुबह 9:30 बजे इंडिया हाउस, 128 नाइट्स रोड, लोअर हट, वैलिंगटन आने के लिए आमंत्रित करता है।

इस अवसर पर भारत के उच्चायुक्त माननीय मुक्तेश के. परदेशी राष्ट्रीय ध्वज फहराएंगे। उच्चायोग सुबह 09:15 बजे तक कार्यक्रम स्थल पर पहुंचने का अनुरोध किया।

कार्यक्रम के बाद हल्के जलपान का प्रबंध किया गया है।

 

 

 

 


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उच्चायुक्त मुक्तेश परदेशी करेंगे पत्रकारिता के इतिहास का विमोचन  - भारत-दर्शन समाचार

8 जनवरी 2020 (ऑकलैंड): 9 जनवरी को वैलिंग्टन में प्रवासी दिवस व विश्व हिंदी दिवस के उपलक्ष में आयोजित एक कार्यक्रम में भारत के उच्चायुक्त मुक्तेश परदेशी 'न्यूज़ीलैंड में हिंदी पत्रकारिता का इतिहास' पुस्तक का विमोचन करेंगे। इस पुस्तक में 1930 से अब तक का इतिहास उपलब्ध करवाया गया है। इसे भारत-दर्शन के संपादक रोहित कुमार हैप्पी ने लिखा है।

उनके विमोचन करते ही पुस्तक पर दिया 'क्यूआर कोड स्कैन' किया जाएगा और 'डिजिटल पुस्तकालय' का लोकार्पण होगा। यह पुस्तकालय अपनी तरह का अनूठा डिजिटल पुस्तकालय है।

इस समारोह का आयोजन भारतीय उच्चायोग और व वैलिंग्टन हिंदी स्कूल कर रहे हैं।


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उच्चायुक्त परदेशी वेलिंग्टन में करेंगे बैठक - भारत-दर्शन समाचार

HCI, Pradeshi to Meet Indian Community in Wellington


6 दिसंबर 2019 (वेलिंग्टन): न्यूज़ीलैंड में भारत के उच्चायुक्त मुक्तेश कुमार परदेशी 'वेलिंग्टन' में भारतीय समुदाय को मिलने के लिए 12 दिसंबर की शाम को दो बैठकों का आयोजन कर रहे हैं। पहली बैठक न्यूज़ीलैंड बिज़नेस कौंसिल (INZBC) के साथ शाम 3.30 से 5 बजे तक होगी जिसमें अग्रणी भारतीय व्यवसायियों व उद्यमियों से वार्ता की जाएगी।

दूसरी बैठक शाम 5 से 6:30 बजे तक होगी। इसमें उच्चायुक्त परदेशी भारतीय समुदाय के नेताओं और सामाजिक-सांस्कृतिक संगठनों के प्रतिनिधियों से वार्ता करेंगे।

ये दोनों बैठकें भारतीय उच्चायोग कार्यालय (लेवल 13, रणछोड़ टॉवर, 102-112 लैम्बटन क्वे, वेलिंगटन, 6037) पर आयोजित की जा रही हैं।

यदि आप इसमें सम्मिलित होना चाहते हैं तो भारतीय उच्चायोग कार्यालय के ई-मेल पर सम्पर्क करें। उच्चायोग कार्यालय को यह भी सूचित करें कि आप दोनों बैठकों या केवल किसी एक में सम्मिलित होना चाहते हैं और यह भी बताएं कि आपके कितने सदस्य आना चाहते हैं। उच्चायोग कार्यालय को निम्नलिखित ई-मेल पर सम्पर्क करें:

events.hciwellington@gmail.com

सनद रहे कि अक्टूबर में उच्चायुक्त परदेशी इसी तरह की बैठकें ऑकलैंड में आयोजित कर चुके हैं, जो सफल रहीं थीं। इन बैठकों में भारतीय समुदाय के लोगों जिनमें भारतीय छात्र संगठन, सामुदायिक, सांस्कृतिक व शैक्षणिक संस्थाएं सम्मिलित थीं। इनका उद्देश्य न्यूज़ीलैंड-भारत संबंधों को और अधिक घनिष्ठ बनाना था।

छायाचित्र : भारतीय उच्चायोग, न्यूज़ीलैंड

[भारत-दर्शन समाचार]

 

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भारतीय मूल के अभिजीत बनर्जी को नोबल पुरस्कार - भारत-दर्शन समाचार

Abhijit Banerjee

अर्थशास्त्र के लिए नोबल पुरस्कारों की घोषणा कर दी गई है। भारतीय मूल के अभिजीत बनर्जी बनर्जी को (दो अन्य साथियों के साथ) इस वर्ष के अर्थशास्त्र के लिए नोबल पुरस्कार दिए जाने की घोषणा की गई है। मुंबई में जन्में अभिजीत बनर्जी ने दिल्ली के जेएनयू से अर्थशास्त्र की पढ़ाई की है।

अभिजीत बनर्जी के साथ उनकी पत्नी इस्थर डफ्लो व माइकल क्रेमर को भी अर्थशास्त्र के लिए नोबल पुरस्कार दिया गया है। इन तीनों को यह पुरस्कार निर्धनता उन्मूलन के लिए दिया जा रहा है।

[भारत-दर्शन समाचार] 


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मानद कौंसिल भाव ढिल्लो की हुई सराहना  - भारत-दर्शन समाचार

भाव ढिल्लो

12 अक्टूबर 2019 (ऑकलैंड): न्यूज़ीलैंड में भारत के उच्चायोग द्वारा भारत के उच्चायुक्त मुक्तेश कुमार परदेशी के लिए आयोजित 'प्रेस से मिलिए' कार्यक्रम में भारत के उच्चायुक्त मुक्तेश कुमार परदेशी और उच्चायोग के द्वितीय सचिव परमजीत सिंह ने मुक्त कंठ से मानद कौंसिल भाव ढिल्लो की प्रशंसा की। उच्चायुक्त ने कहा कि मानद कौंसिल भाव ढिल्लो के बिना इस तरह का कार्यक्रम सम्भव नहीं था।  उन्होंने 'ढिल्लो' के द्वारा किए जा रहे अनेक भारतीय कार्यक्रम और उनकी सक्रियता की भी सराहना की।  

भारतीय उच्चायोग के द्वितीय सचिव परमजीत सिंह ने भी मानद कौंसिल भाव ढिल्लो के काम की सराहना की और उन्हें धन्यवाद दिया।  

इस कार्यक्रम में लगभग 25 पत्रकार विभिन्न मीडिया से आए हुए थे जिनमें रेडियो, टीवी, पत्र-पत्रिकाओं के पत्रकार सम्मिलित थे। मंच पर उच्चायुक्त मुक्तेश कुमार परदेशी के अतिरिक्त उच्चयोग के द्वितीय सचिव परमजीत सिंह व भारत के मानद कौंसिल भाव ढिल्लो उपस्थित थे।  

[भारत-दर्शन समाचार]

 


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ऑकलैंड में भारतीय उच्चायुक्त का प्रेस से मिलिए कार्यक्रम - भारत-दर्शन समाचार

HCI Meets Indian Press

12 अक्टूबर 2019 (ऑकलैंड): न्यूज़ीलैंड में भारत के उच्चायोग ने आज भारत के उच्चायुक्त मुक्तेश कुमार परदेशी के लिए ओनिहंगा (Onehunga) स्थित भारतीय कांसुलावास (Consulate of India) में शाम 4 बजे एक 'प्रेस से मिलिए' कार्यक्रम का आयोजन किया। 

इस कार्यक्रम में लगभग 25 पत्रकार विभिन्न मीडिया से आए हुए थे जिनमें रेडियो, टीवी, पत्र और पत्रिकाओं के पत्रकार उपस्थित थे। मंच पर उच्चायुक्त मुक्तेश कुमार परदेशी के अतिरिक्त उच्चायोग के द्वितीय सचिव परमजीत सिंह व भारत के मानद कौंसिल भाव ढिल्लो उपस्थित थे।  

भारत के मानद कौंसिल भाव ढिल्लो ने उपस्थित मीडिया का अभिनंदन करते हुए उच्चायुक्त मुक्तेश कुमार परदेशी का परिचय दिया और फिर उन्हें संबोधन हेतु मंच पर आमंत्रित किया। 

न्यूज़ीलैंड में भारत के उच्चायुक्त मुक्तेश कुमार परदेशी ने आज ऑकलैंड के भारतीय मीडिया को संबोधित करते हुए पहले ऑकलैंड में आयोजित दीवाली समारोह की पृष्ठभूमि की जानकारी दी, उसके बाद न्यूज़ीलैंड-भारत के राजनैतिक संबंधों की चर्चा की।  उन्होंने भारत से न्यूज़ीलैंड आए आधिकारिक अतिथियों के चर्चा करते हुए  एडमिरल करमबीर सिंह न्यूज़ीलैंड के दौरे की भी जानकारी दी। 
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उच्चायुक्त परदेशी ऑकलैंड में करेंगे बैठक - भारत-दर्शन समाचार

HCI, Pradeshi to Meet Indian Community in Auckland

4 अक्टूबर 2019 (ऑकलैंड): न्यूज़ीलैंड में भारत के उच्चायुक्त मुक्तेश कुमार परदेशी ने सभी भारतीयों को मिलने के लिए 12 अक्टूबर शाम 5 बजे के बाद भारतीय कौंसल कार्यालय में एक खुली बैठक आयोजित कर रहे हैं।

इस बैठक में भारतीय  समुदाय के लोगों जिनमें भारतीय छात्र संगठन, सामुदायिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक संस्थाएं सम्मिलित हैं, को वार्तालाप के लिए आमंत्रित किया है। यह बैठक न्यूज़ीलैंड-भारत संबंधों को और अधिक घनिष्ठ बनाने के लिए होगी।

यदि आप इसमें सम्मिलित होना चाहते हैं तो ऑकलैंड में भारतीय कौंसल कार्यालय के कार्यालय में ई-मेल करें:

office@consulateofindia.in


छायाचित्र : भारतीय उच्चायोग, न्यूज़ीलैंड

[भारत-दर्शन समाचार]

 

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अनुमूला गीतेश सरमा ऑस्ट्रेलिया में भारत के नये उच्चायुक्त - भारत-दर्शन समाचार

A. GITESH SARMA - HCI Australia

7 अक्टूबर 2019 (न्यूज़ीलैंड): वरिष्ठ राजनयिक अनुमूला गीतेश सरमा (A. GITESH SARMA ) को ऑस्ट्रेलिया में भारत का नया उच्चायुक्त नियुक्त किया गया है। 1986 बैच के भारतीय विदेश सेवा के अधिकारी सरमा ए एम गोंडेन का स्थान लेंगे। इससे पहले सरमा विदेश मंत्रालय में अवर सचिव (यूरोप पूर्व) और निदेशक (मध्य एशिया) के रूप में कार्यरत रह चुके हैं।

सरमा के पूर्व राजनयिक कार्यों में रूस, यूक्रेन, हांगकांग, पाकिस्तान और यूनाइटेड किंगडम में भारतीय मिशन सम्मिलित हैं। आप उज्बेकिस्तान में भारत के राजदूत और फिजी में भारत के उच्चायुक्त रह चुके हैं।

इसके अतिरिक्त, उन्होंने भारत के आंध्र प्रदेश राज्य के सूचना प्रौद्योगिकी विभाग में विशेष कार्य अधिकारी(आईटी सक्षम सेवाएं) के रूप में कार्य किया। वह परमाणु ऊर्जा विभाग, भारत सरकार में संयुक्त सचिव (विदेश संबंध) भी थे।

आपने दिल्ली विश्वविद्यालय से बी.ए. (ऑनर्स) और राजनीति विज्ञान में एम.ए. किया है।

[भारत-दर्शन समाचार] 


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न्यूज़ीलैंड में गांधी जयंती सम्पन्न - भारत-दर्शन समाचार

Gandhi Jayanti Wellington - HCI

2 अक्टूबर 2019 (न्यूज़ीलैंड): न्यूज़ीलैंड के विभिन्न नगरों में ‘गांधी जयंती' का आयोजन किया गया।


वेलिंग्टन में गांधी जयंती

न्यूज़ीलैंड की राजधानी वेलिंग्टन में रेलवे स्टेशन के आगे वाले मैदान में गांधीजी की प्रतिमा के समीप ‘गांधी जयंती' का आयोजन किया गया। न्यूज़ीलैंड में भारत के उच्चायुक्त मुक्तेश कुमार परदेशी ने गांधीजी की प्रतिमा को फूलों की माला पहनाकर, उन्हें प्रणाम किया और सम्मान जताया। इस अवसर पर इंडियन एसोसिएशन के सदस्य, अनेक संस्थाओं के सदस्य, भारतीय समुदाय के सदस्य व न्यूज़ीलैंड के पूर्व गवर्नर जनरल उपस्थित थे। गांधीजी की यह प्रतिमा वेलिंगटन के रेलवे स्टेशन के आगे वाले मैदान में लगी हुई है। इस प्रतिमा का लोकार्पण 2 अक्टूबर 2007 को वेलिंग्टन के तत्कालीन मेयर द्वारा न्यूज़ीलैंड के तत्कालीन गवर्नर जनरल व भारत के उच्चायुक्त की उपस्थिति में हुआ था।

महात्मा गांधी के 150वीं जयंती के अवसर पर, भारतीय उच्चायोग के साथ एकता एनजेड ने वेलिंगटन नाइट शेल्टर (डब्ल्यू एन एस) को 150 नए कंबल, बेडशीट और तकिये भेंट किए।

Gandhi Jayanti Wellington Celebrations

इसके अतिरिक्त 1 अक्टूबर 2019 (न्यूज़ीलैंड ): गोपियो (GOPIO), वेलिंगटन इंटरफेथ काउंसिल (Wellington Interfaith Council), एकता एनजेड (Ekta NZ) और सोका गक्काई इंटरनेशनल एनजेड (Soka Gakkai International NZ) ने गांधी जयंती व संयुक्त राष्ट्र अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस हेतु 1 अक्टूबर को न्यूज़ीलैंड के संसदीय मैदान में, डिक सेडॉन की प्रतिमा के समीप मोमबत्तियाँ जलाकर अपने श्रद्धा सुमन अर्पित किए।

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वेलिंग्टन में गांधी जयंती समारोह  - भारत-दर्शन समाचार

Gandhi Jayanti Celebrations, Wellington

1 अक्टूबर 2019 (न्यूज़ीलैंड ): गोपियो (GOPIO), वेलिंगटन इंटरफेथ काउंसिल (Wellington Interfaith Council), एकता एनजेड (Ekta NZ) और सोका गक्काई इंटरनेशनल एनजेड (Soka Gakkai International NZ) ने गांधी जयंती व संयुक्त राष्ट्र अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस हेतु 1 अक्टूबर को न्यूज़ीलैंड के संसदीय मैदान में, डिक सेडॉन की प्रतिमा के समीप मोमबत्तियाँ जलाकर अपने श्रद्धा सुमन अर्पित किए।

रिचर्ड जॉन सेडॉन न्यूज़ीलैंड के सुप्रसिद्ध राजनेता थे जिन्होंने 15वें प्रधानमंत्री के रूप में लंबे समय तक देश का नेतृत्व किया। सेडॉन का उपनाम, 'किंग डिक' था।

वेलिंग्टन से डॉ पुष्पा भारद्वाज-वूड ने बताया, "हमने 150 मोमबत्तियां जलाकर प्रार्थना की।"

सभी सदस्यों ने समूहिक रूप से गांधी जी के प्रिय भजन, ‘रघुपति राघव राजा राम' का गायन किया। इस आयोजन का उद्देश्य गांधी जी के शांति और अहिंसा के संदेश' के प्रति जागरूकता पैदा करना था। सनद रहे कि इस वर्ष 2 अक्तूबर को गांधी जी की 150वीं जयंती है।

छायाचित्र : एवा कपरीने (Éva Kaprinay)

[भारत-दर्शन समाचार]


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अभिनेता विजू खोटे नहीं रहे  - भारत-दर्शन समाचार

'शोले' फिल्म का 'कालिया' याद है?

Viju Khote died on 30 Sept 2019

30 सितम्बर 2019 (भारत): अभिनेता विजू खोटे का मुंबई में निधन हो गया।  विजू खोटे का  वास्तविक नाम विट्ठल बापूराव खोटे था।  खोटे  ने हिंदी और मराठी  सिनेमा में 300 से अधिक फिल्मों में चरित्र अभिनेता के रूप में काम किया था।


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हिंदी कहानी प्रतियोगिता - भारत-दर्शन समाचार

विश्व हिंदी सचिवालय मॉरीशस एक अंतरराष्ट्रीय हिंदी कहानी प्रतियोगिता का आयोजन कर रहा है। यह आयोजन विश्व हिंदी दिवस 2020 के उपलक्ष्य में किया जा रहा है जिसके लिए प्रविष्टियाँ आमंत्रित हैं। प्रविष्टि भेजने की अंतिम तिथि 13 दिसंबर 2019 है। परिणामों की घोषणा विश्व हिंदी दिवस 2020 के समारोह में की जाएगी। 

इस प्रतियोगिता को पाँच भौगोलिक क्षेत्रों में बाँटा गया है जिनमें अफ्रीका व मध्य पूर्व, अमेरिका, एशिया व ऑस्ट्रेलिया (भारत के अतिरिक्त), यूरोप और भारत सम्मिलित हैं। इस प्रतियोगिता में प्रथम, द्वितीय और तृतीय स्थान पाने वालों को 300, 200 और 100 अमरीकन डालर की धनराशि व प्रमाण-पत्र से पुरस्कृत किया जाएगा। 

विश्व हिंदी सचिवालय पिछले कई वर्षों से विभिन्न विधाओं पर ऐसी प्रतियोगिताएँ आयोजित कर चुका है जिनमें लघुकथा, एकाँकी और यात्रा वृतांत सम्मिलित हैं। इसी शृंखला को आगे बढ़ाते हुए इस बार 'हिंदी कहानी प्रतियोगिता' का चयन किया गया है।

आप डाक अथवा ई-मेल द्वारा अपनी प्रविष्टि सचिवालय को भेज सकते हैं।


ई-मेल: whscompetitions@gmail.com......

 
 
न्यूज़ीलैंड में हिंदी पाँचवी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा  - भारत-दर्शन समाचार

23 सितंबर 2019(न्यूज़ीलैंड): 2018 की जनगणना के परिणाम दर्शाते हैं कि न्यूज़ीलैंड में हिंदी पाँचवी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है।

Hindi 5th Most Spoken Language in NZ

न्यूज़ीलैंड में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं में शीर्षस्थ पाँच भाषाएँ इस प्रकार है:

1) अँग्रेजी (English)
2) माओरी (te reo Maori)......

 
 
वायटाकरे हिंदी स्कूल का वार्षिकोत्सव - भारत-दर्शन समाचार

22 सितम्बर 2019 (न्यूज़ीलैंड): शनिवार (22 सितम्बर) को हेंडर्सन में वायटाकरे हिंदी स्कूल ने अपना वार्षिकोत्सव आयोजित किया। वायटाकरे हिंदी स्कूल के विद्यार्थियों ने अनेक सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किए जिनमें  सांस्कृतिक कार्यक्रम, नृत्य, वाद्य-वादन व गायन सम्मिलित थे।  अनेक गणमान्य इस कार्यक्रम में उपस्थित थे जिनमें स्थानीय सांसद और मंत्री के अतिरिक्त ऑकलैंड  में भारत के मानद कौंसिल भाव ढिल्लो भी सम्मिलित हैं।

छोटे-छोटे बच्चों ने जब नृत्य किया तो दर्शकों ने कई बार तालियों से उनकी सराहना की।  बच्चों की 'प्यासा कौआ' कहानी की संगीतमय प्रस्तुति सचमुच प्रभावी रही, जिसका संगीतमय काव्यात्मक मंचन किया गया था।  

कार्यक्रम के साथ ही रात के भोजन की भी व्यवस्था की गई थी।  

[भारत-दर्शन समाचार ]


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एडमिरल करमबीर सिंह न्यूज़ीलैंड के दौरे पर  - भारत-दर्शन समाचार

4 सितंबर 2019 (न्यूज़ीलैंड): नौसेना अध्‍यक्ष एडमिरल करमबीर सिंह (Admiral Karambir Singh) 05 और 06 सितम्‍बर को न्यूज़ीलैंड का दौरा कर रहे हैं।

Admiral Karambir Singh Visiting NZ

न्यूजीलैंड की यात्रा का उद्देश्य दोनों देशों के बीच रक्षा सहयोग को बढ़ाना है। न्यूजीलैंड के साथ भारत के रक्षा संबंध पहले विश्व युद्ध के समय से हैं। दोनों देशों के बीच नौसैनिक सहयोग की गतिविधियों में युद्धपोतों द्वारा मध्‍यवर्ती बंदरगाहों में ठहरना, मार्ग अभ्यास का संचालन और विभिन्न रक्षा संस्थानों में आयोजित पाठ्यक्रमों में भागीदारी सम्मिलित है। न्यूज़ीलैंड भारतीय नौसेना द्वारा संचालित मिलान गतिविधियों में नियमित भागीदार रहा है।

इस यात्रा से मौजूदा समुद्री सहयोग पहलों को सशक्त बनाने के साथ ही न्यूज़ीलैंड और ऑस्ट्रेलिया के साथ सहयोग की नयी संभावनाओं को तलाशा जाएगा। यात्रा के दौरान, एडमिरल करमबीर सिंह न्यूज़ीलैंड और ऑस्ट्रेलिया में देश के नौसेना अध्‍यक्षों के साथ-साथ अन्य वरिष्ठ रक्षा और सरकारी अधिकारियों के साथ भी बातचीत करेंगे।

नौसेना अध्‍यक्ष एडमिरल करमबीर सिंह 02 से 06 सितम्‍बर 2019 तक ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड की सरकारी यात्रा पर आए हुए हैं।

[भारत-दर्शन समाचार]


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भारत की उच्चायुक्त ने स्कूल का जायज़ा लिया  - भारत-दर्शन समाचार

HCI Fiji
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आचार्य बालकृष्ण एम्स में भर्ती - भारत-दर्शन समाचार

Acharya Balkrishan

23 अगस्त 2019 (भारत): पतंजलि योगपीठ के महामंत्री और योग गुरु बाबा रामदेव के सहयोगी आचार्य बालकृष्ण की तबीयत बिगड़ने पर उन्हें  शुक्रवार (23 अगस्त 2019) को हरिद्वार के पतंजलि योगपीठ स्थित ऑफिस से ऋषिकेश के एम्स अस्पताल में भर्ती कराया गया है।

भारत स्वाभिमान, ट्रस्ट के मुख्य केंद्रीय समन्वयक, 'डॉ जयदीप आर्य' ने ट्विटर पर कहा है, "जिन लोगों ने पूज्य आचार्य बालकृष्ण जी के स्वास्थ्य के लिए चिंता जताई, उसके लिए आभार।"
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न्यूजीलैंड में एचसीएल का पहला आपूर्ति केंद्र - रोहित कुमार 'हैप्पी'

NZ HCL Expends

21 अगस्त 2019 (न्यूजीलैंड ): भारतीय बहुराष्ट्रीय कंपनी एचसीएल टेक्नोलॉजीज लिमिटेड ने बुधवार (21 अगस्त 2019) को न्यूजीलैंड के हैमिल्टन नगर में अपने पहले आपूर्ति केंद्र (Dilevery Centre) का उद्घाटन किया। हैमिल्टन के मेयर, 'एंड्रयू किंग' ने न्यूजीलैंड में भारत के उच्चायुक्त 'मुक्तेश परदेशी',  'भाव ढिल्लों' (भारत के मानद कौंसल) 'नवीद शफीक' (एचसीएल टेक्नोलॉजीज), 'स्वप्न जौहरी' (एचसीएल टेक्नोलॉजीज), रवि कथूरिया (एचसीएल टेक्नोलॉजीज) , सुमित नारायण (एचसीएल टेक्नोलॉजीज) व अनेक  गणमान्य अतिथियों की उपस्थिति में इस केंद्र का 'रिबन काटकर उद्घाटन किया। 

एचसीएल टेक्नोलॉजीज ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के कार्यकारी उपाध्यक्ष और कंट्री मैनेजर माइकल हॉर्टन ने कहा, "हैमिल्टन में एचसीएल केंद्र की स्थापना कंपनी के लिए नवीन प्रौद्योगिकी समाधानों के माध्यम से वैश्विक ग्राहकों तक अपनी सेवाएं बढ़ाने का एक बड़ा अवसर प्रदान करेगी।"

न्यूजीलैंड में भारत के उच्चायुक्त मुक्तेश परदेशी ने कहा कि केंद्र न्यूजीलैंड और भारत के बीच व्यापार और निवेश संबंधों की प्रगति के लिए "स्वागत योग्य कदम" है। 

हैमिल्टन के मेयर 'एंड्रयू किंग' ने केंद्र का उद्घाटन करते हुए कहा कि यह केंद्र केवल इस नगर ही नहीं बल्कि न्यूजीलैंड के सभी निवासियों को नए अवसर प्रदान करेगा। 

हैमिल्टन का यह आपूर्ति/वितरण केंद्र वैश्विक ग्राहकों और भागीदारों की सहायता करेगा और नवीनतम आई.टी सेवाओं और डिजिटल व्यापार प्रौद्योगिकियों तक पहुंच प्रदान करेगा, जो डिजाइन, ब्लॉकचैन, साइबर स्पेस, क्लाउड और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के माध्यम से नवाचार और ग्राहक केंद्रितता का संचालन करेंगे।

यह केंद्र एचसीएल को हैमिल्टन क्षेत्र में कौशल विकास का समर्थन करने में सक्षम बनाएगा क्योंकि कंपनी स्थानीय विकास और व्यापार निकायों के साथ सहयोग करने की योजना बना रही है।

HCL Hamilton

न्यूजीलैंड में 1999 से परिचालित इस कंपनी के कर्मचारियों की संख्या न्यूजीलैंड और ऑस्ट्रेलिया में 1,600 से भी अधिक है।  न्यूजीलैंड और ऑस्ट्रेलिया के विभिन्न नगरों में इस कम्पनी के केंद्र हैं। 

न्यूजीलैंड में ऑकलैंड, वेलिंगटन और अब हैमिल्टन में इसके केंद्र व कार्यालय हैं। ऑस्ट्रेलिया के एडिलेड, कैनबरा, सिडनी, मेलबर्न, ब्रिस्बेन और पर्थ में एचसीएल टेक्नोलॉजीज लिमिटेड की उपस्थिति है।

-रोहित कुमार 'हैप्पी' 
 [भारत-दर्शन समाचार]

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प्रीता व्यास की दो बाल ग़ज़लें - प्रीता व्यास

चाँद | बाल ग़ज़ल

सोचो कितना अच्छा होता
उतर ज़मीं पे आता चाँद

हाथ मिलाता, बातें करता ......

 
 
न्यूज़ीलैंड का दिवाली मेला  - भारत-दर्शन समाचार

20 अगस्त 2019: इस वर्ष 20 अक्टूबर को 'दिवाली मेले' का आयोजन हेंडर्सन के 'ट्रस्ट एरीना' में वायटाकरे इंडियन एसोसिएशन द्वारा आयोजित किया जाएगा। वायटाकरे इंडियन एसोसिएशन पिछले की कई वर्षों से दिवाली का आयोजन कर रही है।

यह आयोजन सुबह 10 बजे आरम्भ होगा जिसमें संस्कृतिक कार्यक्रम, प्रदर्शनियां व भारतीय व्यंजनों के स्टॉल सम्मिलित हैं।

यदि आप इस आयोजन की और जानकारी चाहें तो एसोसिएशन की वेबसाइट पर देख सकते हैं। वेब साइट पर स्टॉल इत्यादि लगाने के लिए ऑनलाइन आवेदन की भी सुविधा उपलब्ध है।

न्यूज़ीलैंड में पहला दिवाली मेला 1998 में एक भारतीय और एक गैर-भारतीय न्यूज़ीलैंडर द्वारा ऑकलैंड के महात्मा गांधी सेंटर में आयोजित किया गया था।

 

दिवाली से संबंधित अन्य सामग्री पढ़ें:
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न्यूजीलैंड में अभिभावकीय अवकाश बढ़ा  - भारत-दर्शन समाचार

NZ extends paid parental leave

Image: Labour Party NZ

न्यूजीलैंड में अभिभावकीय अवकाश (Parental Leave) 18 सप्ताह से बढ़ाकर 22 सप्ताह कर दिया गया था। यह अवकाश 2020 तक 26 सप्ताह कर दिया जाएगा। 
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तिरंगे की रोशनी में जगमगाएगा ऑकलैंड म्यूजियम - रोहित कुमार 'हैप्पी'

ऑकलैंड म्यूजियम

14 अगस्त 2019: स्वतंत्रता-दिवस की शाम को 5 बजे के बाद से ऑकलैंड म्यूजियम तिरंगे की रोशनी में जगमगा उठेगा। ऑकलैंड म्यूजियम में केवल विशेष अवसरों पर इस प्रकार की रोशनी का प्रदर्शन होता है।

भारत के उच्चायुक्त और ऑकलैंड में स्थित मानद कौंसल ने सोशल मीडिया के माध्यम से भारतवंशियों को इस अवसर पर ऑकलैंड म्यूजियम पर पहुँच कर
स्वतंत्रता-दिवस को सफल बनाने का आग्रह किया है। इस अवसर पर सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होंगे और भारतीय व्यंजनों क आन्नद भी लिया जा सकेगा।

भारत के मानद कौंसल सहित कई भारतीय मूल के सांसद और ऑकलैंड के मेयर इस अवसर पर उपस्थित रहेंगे।

- रोहित कुमार 'हैप्पी'

 

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महात्मा गांधी सेंटर में स्वतन्त्रता दिवस समारोह सम्पन्न - रोहित कुमार 'हैप्पी'

Indian High Commissioner Addressing at MGC Auckland

10 अगस्त 2019 (न्यूज़ीलैंड): ऑकलैंड के महात्मा गांधी सेंटर में 10 अगस्त को स्वतन्त्रता दिवस समारोह का आयोजन किया गया। इस अवसर पर भारत के उच्चायुक्त मुक्तेश परदेशी ने ध्वजारोहण किया। इस अवसर पर अनेक गणमान्य जिनमें भारत के मानद कौंसल भाव ढिल्लो, भारतीय मूल के सांसद कंवलजीत बख्शी, परमजीत परमार, प्रियंका राधाकृष्णन, लेबर पार्टी के सदस्य व इनके अतिरिक्त इंडियन एसोसिएशन के अनेक सदस्य उपस्थित थे।

भारत के उच्चायुक्त परदेशी ने अपने संबोधन में भारत और न्यूज़ीलैंड के संबंधों को और सुदृढ़ बनाने, न्यूज़ीलैंड में बसे भारतीयों को और अधिक एकजुट होकर काम करने पर बल दिया। उन्होंने कहा,"भारत और न्यूज़ीलैंड के बीच दूरी है लेकिन आज के जमाने में इस दूरी को कम करने के भी बहुत से तरीके हैं।"

बहुत समय से न्यूज़ीलैंड में बसे भारतीय यहाँ से भारत के लिए सीधी उड़ान की मांग करते रहे हैं। इस विषय पर उन्होंने कहा,"सबका एक सपना है कि कभी न कभी भारत और न्यूज़ीलैंड के बीच एक सीधी वायु सेवा हो।"

उच्चायुक्त ने सीधी उड़ान के विषय में उचित कदम उठाने का आश्वासन दिया।

उच्चायुक्त के रूप में भारत आने से पहले भी वे 2002-2004 के बीच तीन बार न्यूज़ीलैंड आ चुके हैं। उस समय वे विदेश मंत्रालय में डिप्टी डायरेक्टर थे। जनसमुदाय को संबोधित करते हुए उन्होंने पाँच बिन्दुओं पर सशक्त रूप से काम किए जाने की आवश्यकता पर बल दिया, वे हैं:
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शाहरुख खान को ला ट्रोब यूनिवर्सिटी से मानद डॉक्टरेट  - रोहित कुमार 'हैप्पी'

Shah Rukh Khan Receives Honorary Doctorate

09 अगस्त  2019 (ऑस्ट्रेलिया ):मेलबर्न (ऑस्ट्रेलिया) की 'ला ट्रोब यूनिवर्सिटी' (La Trobe University) ने उन्हें मानवता के लिए किए गए प्रयासों के लिए  डॉक्टरेट की मानद उपाधि से सम्मानित किया है। शाहरुख को यह सम्मान हजारों प्रशंसकों की उपस्थिति में दिया गया।

बॉलीवुड अभिनेता शाहरुख खान भारत में ही नहीं बल्कि विश्व भर में प्रसिद्ध हैं। देश-विदेश की कई संस्थाओं द्वारा उन्हें न केवल अभिनय बल्कि उनके मानवीय कार्यों के लिए भी सम्मानित किया जा चुका है।

शाहरुख इस बार 10वें मेलबर्न इंडियन फिल्म फेस्टिवल (Indian Film Festival Of Melbourne) में मुख्य अतिथि के तौर पर सम्मिलित हुए हैं।  

सम्मान पाने पर शाहरुख ने कहा, "ला ट्रोब जैसी प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी से यह सम्मान मिलने के बाद मैं खुद को काफी गौरवान्वित महसूस कर रहा हूँ। इस यूनिवर्सिटी का भारतीय संस्कृति के साथ लंबा संबंध है और यह महिलाओं को समान अधिकार दिलाने के लिए आवाज उठा चुकी है।"

'ला ट्रोब' ऑस्ट्रेलिया की पहली यूनिवर्सिटी है जिसने शाहरुख खान को इस मानद डॉक्टरेट की उपाधि 'डॉक्टर ऑव लेटर्स' से सम्मानित किया है। फिल्म फेस्टिवल में शाहरुख को 'एक्सिलेंस इन सिनेमा' अवॉर्ड से भी सम्मानित किया गया। अवॉर्ड लेते समय शाहरुख ने 'अपना टाइम आएगा' पर बच्चों के साथ डांस भी किया।

शाहरुख ने अपनी फिल्मों के बारे में भी चर्चा की, साथ ही वहां उपस्थित अपने प्रशंसकों के लिए 'छैंया छैंया' गाने पर ठुमके लगाकर नृत्य किया। 

शाहरुख को इससे पहले भी चार बार डॉक्टरेट की उपाधि दी जा चुकी है।

- सबसे पहले उन्हें 2009 में ब्रिटिश यूनिवर्सिटी ऑव बेडफोर्डशायर ने सम्मानित किया था।

- इसके बाद उन्हें 2015 में एडिनबर्ग यूनिवर्सिटी की तरफ से ऑनरेरी डॉक्टरेट की उपाधि दी गई।

- तीसरी बार उन्हें 2016 में हैदराबाद की मौलाना आजाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी के जरिए डॉक्टरेट की मानद उपाधि दी गई।

- वहीं चौथी बार उन्हें अप्रैल 2019 में लंदन विश्वविद्यालय से 'डॉक्टरेट' से सम्मानित किया गया था।

प्रस्तुति: रोहित कुमार 'हैप्पी'


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सर आनंद सत्यानंद वायकाटो यूनिवर्सिटी चांसलर नियुक्त - भारत-दर्शन समाचार

Sir Anand Satyanand

7 अगस्त 2019 (न्यूज़ीलैंड): न्यूज़ीलैंड के भूतपूर्व गवर्नर-जनरल सर आनंद सत्यानंद को वायकाटो यूनिवर्सिटी का चांसलर नियुक्त किया गया है। यह नियुक्ति अगले चार वर्ष तक की अवधि के लिए है।
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न्यूज़ीलैंड के उप-प्रधानमंत्री विंस्टन पीटर्स और भारत के विदेश मंत्री डॉ. एस. जयशंकर की भेंट  - भारत-दर्शन समाचार

WINSTON PETERS MEET INDIAN FOREIGN MINISTER JAISHANKAR AT ASEAN SUMMIT

2 अगस्त 2019: थाईलैंड में चल रहे दक्षिण-पूर्व एशियाई राष्ट्र संघ 'आसियान' शिखर सम्मेलन में न्यूज़ीलैंड के उप-प्रधानमंत्री, 'विंस्टन पीटर्स' ने भारत के विदेश मंत्री, 'डॉ. एस. जयशंकर' से भेंट की। दोनों देशों के बीच हुई बैठक में व्यापार पर सहयोग के माध्यम से संबंध सुधारने की प्रतिबद्धता पर चर्चा हुई। 'विंस्टन पीटर्स' न्यूज़ीलैंड के उप-प्रधानमंत्री हैं लेकिन विदेश विभाग भी इन्हीं के ही पास है। 

दक्षिण पूर्वी एशियाई राष्ट्रों के संगठन 'आसियान' (ASEAN अर्थात एसोसिएशन ऑफ साउथ ईस्ट एशियन नेशंस) शिखर सम्मेलन में न्यूज़ीलैंड के उप-प्रधानमंत्री विंस्टन पीटर्स  ने भारत के विदेश मंत्री डॉ. एस. जयशंकर से भेंट की। दोनों देशों के बीच हुई बैठक में व्यापार पर सहयोग के माध्यम से संबंध सुधारने की प्रतिबद्धता पर चर्चा हुई।

भारत के विदेश मंत्री, जयशंकर ने कहा, "हम एक मजबूत, एकीकृत और समृद्ध 'आसियान' देखना चाहते हैं जो हिंद-प्रशांत क्षेत्र में केंद्रीय भूमिका निभाए क्योंकि यह भारत  की समृद्धि और सुरक्षा में भी योगदान देता है।" वहीं आसियान क्षेत्रीय मंच (एआरएफ) की बैठक को संबोधित करते हुए भारत ने सामरिक रूप से महत्वपूर्ण हिंद प्रशांत क्षेत्र  को सुरक्षित रखने के लिए सामूहिक कार्रवाई की आवश्यकता बताई।

दक्षिण पूर्वी एशियाई राष्ट्रों के संगठन को 'आसियान' (ASEAN) कहा जाता है। आसियान (ASEAN) अर्थात एसोसिएशन ऑव साउथ ईस्ट एशियन नेशंस।

[भारत-दर्शन समाचार] 


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गांधी दर्शन को पहुंचे नए उच्चायुक्त - भरत-दर्शन समाचार

1 अगस्त 2019: न्यूज़ीलैंड में भारत के नए उच्चायुक्त मुक्तेश कुमार परदेशी ने गांधीजी की प्रतिमा पर जाकर उन्हें प्रणाम किया और सम्मान जताया।

High Commissioner of India, Muktesh Pardeshi Pays Homage to Bapu

गांधीजी की यह प्रतिमा वेलिंगटन के रेलवे स्टेशन के आगे वाले मैदान में लगी हुई है। इस प्रतिमा का लोकार्पण 2 अक्टूबर 2007 को वेलिंग्टन के तत्कालीन मेयर द्वारा न्यूज़ीलैंड के तत्कालीन गवर्नर जनरल व भारत के उच्चायुक्त की उपस्थिति में हुआ था।  

नए उच्चायुक्त, श्री मुक्तेश परदेशी (आईएफएस: 1991), मैक्सिको में भारत के राजदूत थे और उन्हें भारत सरकार ने इस वर्ष फरवरी में न्यूजीलैंड का नया उच्चायुक्त नियुक्त किया था।

 

 


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न्यूज़ीलैंड में भारत के नए उच्चायुक्त ने पदभार सँभाला - भारत-दर्शन समाचार

भारत के नए उच्चायुक्त मुक्तेश कुमार परदेशी और न्यूज़ीलैंड की गवर्नर जनरल को

31 जुलाई 2019: न्यूज़ीलैंड में भारत के नए उच्चायुक्त के रूप में  मुक्तेश कुमार परदेशी ने अपना पदभार सँभाल लिया है। उन्होने न्यूज़ीलैंड की गवर्नर जनरल (Rt. Hon. Dame Patsy Reddy) से मुलाक़ात करके उन्हें अपना परिचय-पत्र सौंपा।

श्री मुक्तेश कुमार परदेशी (आईएफएस: 1991), मैक्सिको में भारत के राजदूत थे और उन्हें भारत सरकार ने इस वर्ष फरवरी में न्यूजीलैंड का नया उच्चायुक्त नियुक्त किया था ।

न्यूज़ीलैंड में भारत के नए उच्चायुक्त श्री मुक्तेश कुमार परदेशी

वे विदेश मंत्रालय में संयुक्त सचिव के रूप में काम कर चुके हैं। आपने भारत सरकार के लिए मुख्य पासपोर्ट अधिकारी के रूप में भी उत्कृष्ट कार्य किया था।

 


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नवयुग के प्रणेता - कोमल मेहंदीरत्ता

आज के बच्चे हम
नवयुवक के प्रणेता बनेंगे......

 
 
न्यूज़ीलैंड ने श्रीलंका को दस विकेट से पराजित किया - भारत-दर्शन समाचार

1 जून 2019: मैट हेनरी और लॉकी फर्गुसन की घातक गेंदबाजी तथा सलामी जोड़ी की शानदार बल्लेबाजी से न्यूज़ीलैंड ने आईसीसी विश्व कप 2019 के अपने पहले मैच में शनिवार को पूर्व चैंपियन श्रीलंका को 203 गेंद शेष रहते हुए दस विकेट से पराजित कर दिया।

अभ्यास मैच में भारत को हराने वाले न्यूज़ीलैंड ने केवल 16.1 ओवर में बिना किसी हानि के 137 रन बनाकर अपने अभियान का सशक्त प्रदर्शन किया। मार्टिन गुप्टिल (51 गेंदों पर नाबाद 73) और कोलिन मुनरो (47 गेंदों पर नाबाद 58) ने कीवी टीम को आसानी से लक्ष्य तक पहुंचाया। न्यूज़ीलैंड ने विश्व कप में रिकार्ड तीसरी बार दस विकेट से जीत दर्ज की।

 


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चार बाल गीत  - प्रभुद‌याल‌ श्रीवास्त‌व‌

यात्रा करो टिकिट लेकर
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न्यूजीलैंड की दो मस्जिदों में अंधाधुंध गोलाबारी पर प्रधान मंत्री का वक्तव्य - भारत-दर्शन समाचार

प्रधान मंत्री जसिंदा ऑर्डन ने वर्तमान में क्राइस्टचर्च में हुई घटनाओं पर गंभीर चिंता व्यक्त की गई है।

यह एक चरम हिंसा का कृत्य था। न्यूजीलैंड में इसका कोई स्थान नहीं है।

यह न्यूजीलैंड के सबसे अंधकारमय दिनों में से एक है।

चरम हिंसा के इस कृत्य से प्रभावित लोगों में से कई हमारे शरणार्थी और प्रवासी समुदायों से होंगे।

न्यूजीलैंड उनका घर है। पीड़ित लोग हमारे ही लोग हैं।

जिन्होंने इस चरम हिंसा की इस हरकत को अंजाम दिया है, वे हमारा हिस्सा नहीं।

उनके लिए हमारे घर में कोई जगह नहीं है।

मेरी और सभी न्यूजीलैंड वासियों की संवेदनाएँ क्राइस्टचर्च के पीड़ित लोगों के साथ हैं।

जो लोग इस हिंसक घटना के कारण लॉकडाउन हैं और अपने परिवारों से अलग हैं, वे सुरक्षित रहें और अंदर रहें, दिए जा रहे निर्देशों का पालन करें और आश्वस्त रहें कि पुलिस स्थिति का प्रबंधन कर रही है।"

15-03-2019

 


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अभिनंदन के भारत लौटने पर न्यूज़ीलैंड में राहत  - रोहित कुमार हैप्पी

1 मार्च 2019 (न्यूज़ीलैंड):  विंग कमांडर अभिनंदन वर्तमान (Wg Cdr V Abhinandan) के भारत लौटने का न्यूज़ीलैंड में बसे  भारतीय व पाकिस्तानी दोनों समुदायों ने स्वागत किया है।   

विंग कमांडर अभिनंदन वर्तमान (Wg Cdr V Abhinandan)

विंग कमांडर अभिनंदन वर्तमान (Wg Cdr V Abhinandan) को उनके लड़ाकू विमान के क्षतिग्रस्त होने पर 27 फरवरी 2019 को पाकिस्तानी सेना ने अपनी हिरासत में ले लिया था। दो दिनों से अधिक पाकिस्तानी हिरासत में रखने के बाद ‘पाकिस्तान' ने ‘जिनेवा संधि' (Geneva Convention) के अंतर्गत विंग कमांडर अभिनंदन वर्तमान को 1 मार्च 2019 को छोड़ दिया गया।

अभिनंदन के भारत लौटने पर न्यूज़ीलैंड पर भारतीय व पाकिस्तानी दोनों समुदाय ने राहत की साँस ली।  न्यूज़ीलैंड में बसे भारतीय व पाकिस्तानी समुदायों ने आपसी सौहार्द बनाए रखने की अपील की है।

- रोहित कुमार हैप्पी   

 

 


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मोहन राणा - ब्रिटेन के हिंदी कवि - भारत-दर्शन संकलन

कवि-आलोचक नंदकिशोर आचार्य के अनुसार - हिंदी कविता की नई पीढ़ी में मोहन राणा की कविता अपने उल्लेखनीय वैशिष्टय के कारण अलग से पहचानी जाती रही है, क्योंकि उसे किसी खाते में खतियाना संभव नहीं लगता। यह कविता यदि किसी विचारात्मक खाँचे में नहीं अँटती तो इसका यह अर्थ नहीं लिया जाना चाहिए कि मोहन राणा की कविता विचार से परहेज करती है - बल्कि वह यह जानती है कि कविता में विचार करने और कविता के विचार करने में क्या फर्क है। मोहन राणा के लिए काव्य रचना की प्रक्रिया अपने में एक स्वायत्त विचार प्रक्रिया भी है।

मोहन राणा का जन्म 1964 में दिल्ली में हुआ। पिछले डेढ़ दशक से ब्रिटेन के बाथ शहर के निवासी हैं।

आपके सात कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं:

'जगह' (1994), जयश्री प्रकाशन

'जैसे जनम कोई दरवाजा' (1997), सारांश प्रकाशन

'सुबह की डाक' (2002), वाणी प्रकाशन

'इस छोर पर' (2003), वाणी प्रकाशन

'पत्थर हो जाएगी नदी' (2007), सूर्यास्त्र

'धूप के अँधेरे में' (2008), सूर्यास्त्र

'रेत का पुल' (2012), अंतिका प्रकाशन


दो संग्रह अंग्रेजी में अनुवादों के साथ प्रकाशित हुए हैं:

'With Eyes Closed' (द्विभाषी संग्रह, अनुवादक - लूसी रोजेंश्ताइन) 2008

'Poems' (द्विभाषी संग्रह, अनुवादक - बनार्ड ओ डोनह्यू और लूसी रोज़ेंश्ताइन) 2011.

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मुक्तेश कुमार परदेशी न्यूजीलैंड के अगले उच्चायुक्त नियुक्त - भारत-दर्शन समाचार

27 फरवरी 2019: श्री मुक्तेश कुमार परदेशी (आईएफएस: 1991), जोकि वर्तमान में मैक्सिको में भारत के राजदूत हैं,  को न्यूजीलैंड में भारत के अगले उच्चायुक्त के रूप में नियुक्त किया गया है।

Shri MUKTESH K. PARDESHI

वह शीघ्र ही कार्यभार संभालेंगे।

 


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डेनमार्क सबसे कम भ्रष्ट देश  - रोहित कुमार 'हैप्पी'

30 जनवरी 2019: करप्शन परसेप्शन इंडेक्स (Corruption Perceptions Index) 2018 के अनुसार 180 देशों की सूची में डेनमार्क सबसे कम भ्रष्ट देश है। इस सूची में डेनमार्क ने 100 में से सर्वाधिक 88 अंक लेकर पहला स्थान पाया है। डेनमार्क इस सूची में पिछले कई वर्षों से लगातार शीर्ष पर है। सबसे कम भ्रष्ट देशों की सूची में डेनमार्क (88) के बाद न्यूजीलैंड 87 अंक लेकर द्वितीय और फिनलैंड, सिंगापुर, स्वीडन व स्विट्ज़रलैंड 85 अंक लेकर तीसरे स्थान पर हैं।

न्यूजीलैंड का पड़ोसी देश ऑस्ट्रेलिया 77 अंकों के साथ 13वें स्थान पर है।

भारत थाईलैंड, ब्राजील, ट्यूनीशिया, जांबिया और बुर्किनाफासो के साथ 76वें स्थान पर है। भारत ने 100 में से 38 अंक अर्जित किए हैं।

भारत इस सूची में 41 अंकों के साथ 78 वें स्थान पर है। पिछली बार भारत 81वें स्थान पर था। इस बार उसका 78वां स्थान पाने से स्थिति नि:संदेह सुधरी है लेकिन इसे बहुत बड़ी उपलब्धि नहीं कहा जा सकता।

भारत के पड़ोसी देशों में भूटान 68 अंकों के साथ 25वें स्थान पर है और भारत से आगे है। वहीं चीन 39 अंकों के साथ 87वें और श्रीलंका 38 अंकों के साथ 89वें, पाकिस्तान 33 अंकों के साथ 117वें, नेपाल 31 अंको के साथ 124वें और बांग्लादेश 26 अंक लेकर 149वें स्थान पर है।

भारतीय जनसंख्या वाले मॉरीशस 51 अंकों के साथ 56वें व त्रिनिदाद-टोबेगो 41 अंकों के साथ 78वें स्थान पर हैं। फ़ीजी इस सूची में सम्मिलित नहीं है।

सोमालिया दस अंको के साथ सबसे निचले पायदान पर है यानी सर्वाधिक भ्रष्ट देश गिना गया है।

ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के अनुसार इस बार का सर्वेक्षण 180 देशों पर आधारित है।

ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के वैश्विक भ्रष्टाचार सूचकांक पहली बार 1995 में जारी किए गए थे जब ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के गठन को अभी दो वर्ष हुए थे।

- रोहित कुमार 'हैप्पी'

 


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83 वर्ष का सफल दांपत्य-जीवन - रोहित कुमार हैप्पी

14 फरवरी 2018 (न्यूजीलैंड): ऑकलैंड के 102 वर्षीय दंपति जेराम और गंगा रवजी शायद विश्व में सबसे लंबा दांपत्य जीवन व्यतीत करने वाला जोड़ा हों। वे अपनी शादी की 83वीं वर्षगांठ मना रहे हैं। गंगा रवजी अपने सफल दांपत्य-जीवन का रहस्य बताते हुए कहती हैं, "जीवन में उतार-चढ़ाव आते हैं लेकिन आपको इसके जीना होता है और इसे सफल बनाना होता है।" और इसके माध्यम से काम करना होगा।"

उन्होंने कहा कि उसके माता-पिता ने उन्हें शादी का महत्व समझाया था, उन्हें चिंता जताई कि युवा जोड़े बलिदान करने में असमर्थ हैं।

रवजी के छह बच्चे, 15 पोते-पोतियां और 26 पड़पोते-पड़पोतियां हैं।

न्यूजीलैंड में रवजी दंपति के बाद दूसरा सबसे लंबा विवाहित जोड़ा 99 वर्षीय एरिक और लिलियन ब्रिंड्सन हैं, जिन्होंने जनवरी में अपनी शादी की 80वीं वर्षगांठ मनाई थी।

 


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मोटा लाला - नमित कालरा

मोटा लाला, मोटा लाला
आ गए अपना पेट फुला कर......

 
 
अपने कार्यकाल में शिशु को जन्म देने वाली पहली प्रधानमंत्री नहीं हैं 'जसिंदा ऑर्डन' - रोहित कुमार

जसिंदा ऑर्डन अपने कार्यकाल में शिशु को जन्म देने वाली विश्व की पहली प्रधानमंत्री न होकर, दूसरी ऐसी प्रधानमंत्री हैं। न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री जसिंदा ऑर्डन जून में अपने पहले बच्चे को जन्म देने वाली हैं।

जसिंदा ऑर्डन से पूर्व पाकिस्तान की प्रधानमंत्री बेनज़ीर भुट्टो ने 27 वर्ष पहले अपने कार्यकाल में शिशु को जन्म दिया था। यह उनकी दूसरी संतान थी।

जसिंदा ऑर्डन न्यूजीलैंड की तीसरी महिला प्रधानमंत्री हैं। उनसे पहले 'जेनी शिप्ली' ( 1997 - 1999) व 'हेलन क्लार्क' (1999 - 2008) न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री रह चुकी हैं।

[रोहित कुमार, भारत-दर्शन समाचार]

 


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हाथी चल्लम-चल्लम - श्रीप्रसाद

हल्लम हल्लम हौदा, हाथी चल्लम चल्लम
हम बैठे हाथी पर, हाथी हल्लम हल्लम

लंबी लंबी सूँड़ फटाफट फट्टर फट्टर......

 
 
मंत्रीत्व व मातृत्व एकसाथ  - रोहित कुमार

19 जनवरी 2018 (न्यूजीलैंड): न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री जसिंडा ऑर्डन जून में अपने पहले बच्चे को जन्म देने वाली हैं।

इस समाचार की जानकारी देते हुए प्रधानमंत्री ने कहा, "हम दोनों वास्तव में खुश हैं। हम एक परिवार चाहते थे लेकिन यह कब होगा, इससे हम अनभिज्ञ थे। यह समाचार अनपेक्षित लेकिन रोमांचक है।"

प्रधानमंत्री के 'पार्टनर' शिशु की देखभाल हेतु प्राथमिक अभिभावक रहेंगे।

प्रधानमंत्री शिशु को जन्म देने के पश्चात 6 सप्ताह की छुट्टी पर रहेंगी व इस बारे में उन्होंने अपने उप-प्रधानमंत्री से बातचीत कर चुकी हैं। उप-प्रधानमंत्री 'विंस्टन पीटर्स' इस दौरान कार्यकारी प्रधानमंत्री रहेंगे।

आज समूचे विश्व में महिलाओं की भागीदारी व अधिकारों की चर्चा है। क्या आप जानते हैं कि महिलाओं को मतदान का अधिकार सबसे पहले किस देश ने दिया था?

28 नवंबर 1893 को न्यूजीलैंड में राष्ट्रीय चुनाव में पहली बार महिलाओं ने मतदान किया था। न्यूज़ीलैंड वयस्क महिलाओं को मतदान का अधिकार देने वाला विश्व में पहला देश था।

[रोहित कुमार, भारत-दर्शन समाचार]


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हमको फिर छुट्टी - तोनिया मुकर्जी

सोम, सोम, सोम
हमारी टीचर गई रोम ......

 
 
तितली  - दयाशंकर शर्मा

देखो देखो तितली आई,
सबके दिल को हरने आई। ......

 
 
मिठाईवाली बात  - अब्दुलरहमान ‘रहमान'

मेरे दादा जी हे भाई,
ले देते हैं नहीं मिठाई। ......

 
 
चाँद की सैर  - डॉ सुशील शर्मा

डब्बू ने इक सपना देखा
चाँद सैर पर जाने का। ......

 
 
न्यूज़ीलैंड में हिंदी की स्थिति  - भारत-दर्शन समाचार

दिसंबर, 2017 (न्यूज़ीलैंड): अँग्रेज़ी, माओरी व सामोअन के बाद हिंदी सर्वाधिक बोले/समझे जाने वाली भाषा है। अँग्रेज़ी और माओरी न्यूज़ीलैंड की आधिकारिक भाषाएं है। सामान्यतः अँग्रेज़ी का उपयोग किया जाता है। 2013 की जनगणना के अनुसार 66,309 लोग हिंदी का उपयोग करते हैं। 2013 की जनगणना के अनुसार हिंदी न्यूज़ीलैंड में सर्वाधिक बोले जाने वाली भाषाओं में चौथे नम्बर पर है।


न्यूज़ीलैंड की लगभग 45 लाख की जनसंख्या में फीजी भारतीयों सहित भारतीयों की कुल संख्या डेढ लाख से अधिक है जोकि कुल जनसँख्या का 3.9 प्रतिशत है। भारतीय समुदाय की जनसँख्या इस समय लगभग 1 लाख 85 हज़ार बताई जा रही है।

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भारतीय छात्र की डूबने से मृत्यु  - भारत-दर्शन समाचार

दिसंबर, 2017 (न्यूज़ीलैंड) वेस्ट ऑकलैंड में एक भारतीय युवक की समुद्र में डूब जाने से मृत्यु हो गई।


'अखिल तांगरी' अपने मित्रों के साथ मुरवाई बीच के पास 'माओरी बे' पर गया हुआ था। वहीं समुद्री लहरों में फंसकर उसकी मृत्यु हो गई।

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न्यूजीलैंड में फोन धोखाधड़ी - भारत-दर्शन समाचार

दिसंबर, 2017 (न्यूजीलैंड) भारतीय समुदाय विशेषत: नए प्रवासी भारतीय को एक फोन स्कैमर गिरोह द्वारा निशाना बनाया जा रहा है।


यह गिरोह विभिन्न सरकारी विभागों का नाम लेकर लोगों से उनकी निजी जानकारी लेकर उन्हें ठगता है। इस गिरोह में भारतीय भी सम्मिलित हैं, वे हिंदी भी बोलते हैं।

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गर्मी की छुट्टियाँ - अमृता गोस्वामी

गर्मी की लो आ गईं छुट्टियाँ
करो खूब सब मिलकर मस्तियाँ।

जी भरकर सुनो कहानियाँ......

 
 
प्रधानमंत्री जॉन की भारत यात्रा  - भारत-दर्शन समाचार

नयी दिल्ली 25 अक्टूबर: प्रधानमंत्री जॉन की 25 अक्टूबर से तीन दिन की भारत यात्रा पर हैं।


वे भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ विभिन्न विषयों पर द्विपक्षीय बातचीत करेंगे।

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राजदुलारे सो जा | लोरी  - पं० सोहनलाल साहिर

सो जा मेरे प्यारे सो जा,
मेरे राजदुलारे सो जा!

नींद की परियाँ आओ आओ; मीठी मीठी लोरियाँ गाओ। ......

 
 
फिल गॉफ अॉकलैंड के नये मेयर - भारत-दर्शन समाचार

8 अक्टूबर 2016 ( ऑकलैंड ): मतगणना के पश्चात फिल गॉफ अॉकलैंड के नये मेयर घोषित कर दिए गये हैं।


22 जून 1953 को ऑकलैंड में जन्में फिल गॉफ न्यूज़ीलैंड के संसद सदस्य हैं। आप कई महत्वपूर्ण पदों पर रह चुके हैं जिनमें न्यूज़ीलैंड के रक्षामंत्री, विदेशमंत्री, विपक्ष-नेता व लेबर पार्टी नेता के पद सम्मिलित हैं।

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न्‍यूजीलैंड के प्रधानमंत्री ने राष्‍ट्रपति प्रणब मुखर्जी से भेंट की  - भारत-दर्शन समाचार

न्‍यूजीलैंड के प्रधानमंत्री जॉन की ने 26 अक्‍टूबर, 2016 को राष्‍ट्रपति भवन, देहली में भारत के राष्‍ट्रपति प्रणब मुखर्जी से भेंट की।

न्‍यूजीलैंड के प्रधानमंत्री और भारत में उनके प्रतिनिधिमंडल का स्‍वागत करते हुए राष्‍ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने कहा कि भारत न्‍यूजीलैंड के साथ अपने रिश्‍तों को विशेष अहमियत देता है। उच्‍च स्‍तर पर संपर्क कायम करने के सतत प्रयास भारत और न्‍यूजीलैंड के बीच द्विपक्षीय सहभागिता की बढ़ती अहमियत की पुष्टि करते हैं।

राष्‍ट्रपति ने कहा कि भारत और न्‍यूजीलैंड एक अनोखे संबंध को साझा करते हैं, जो साझा मूल्‍यों एवं तालमेल पर आधारित हैं। दोनों ही देशों में बहुसांस्कृतिक एवं जीवंत लोकतंत्र है, जो कानून के शासन में विश्‍वास करते हैं और उसका सम्‍मान करते हैं। भारत जिस खाद्य सुरक्षा की तलाश में जुटा हुआ है, उसमें न्‍यूजीलैंड अहम भागीदार साबित हो सकता है। पिछले आठ वर्षों में दोनों देशों के बीच वस्‍तुओं एवं सेवाओं का द्विपक्षीय व्‍यापार लगभग दोगुना हो गया है। वर्ष 2015 में वस्‍तुओं एवं सेवाओं का कुल व्‍यापार 1.45 अरब अमेरिकी डॉलर का रहा। भारत एवं न्‍यूजीलैंड संबंधित क्षेत्र और इससे परे क्षेत्रों में सुरक्षा, स्थिरता और समृद्धि को बढ़ावा देने में भागीदार बन सकते हैं।

न्‍यूजीलैंड के प्रधानमंत्री ने राष्‍ट्रपति प्रणब मुखर्जी की भावनाओं से सहमति जताते हुए कहा कि उनकी सरकार द्विपक्षीय संबंधों को और ज्‍यादा मजबूत करने की इच्‍छुक है। उन्‍होंने इस वर्ष के आरंभ में न्‍यूजीलैंड की यात्रा करने के लिए राष्‍ट्रपति प्रणब मुखर्जी का धन्‍यवाद किया और कहा कि भारत के आर्थिक विकास से अनेकानेक अवसर उपलब्‍ध हो रहे हैं। न्‍यूजीलैंड में रहने वाले भारतीयों की संख्‍या तेजी से बढ़ रही है। उन्‍होंने कहा कि दोनों देशों के बीच उच्‍चस्‍तरीय संपर्कों से एक दूसरे की अवधारणा को बेहतर ढंग से समझने में मदद मिल रही है।

 


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यदि चूहे दहाड़ सकते - रस्किन बॉण्ड

यदि चूहे दहाड़ सकते,
हाथी भर सकते उड़ान......

 
 
न्यूज़ीलैंडर ने दूसरी बार अंतरराष्ट्रीय हिंदी प्रतियोगिता जीती - भारत-दर्शन समाचार

19 जनवरी 2015 (मॉरीशस): विश्व हिंदी सचिवालय, मॉरीशस द्वारा आयोजित अंतरराष्ट्रीय हिंदी निबंध प्रतियोगिता 2015 के परिणाम घोषित किए गए।
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काला कौआ - जी० आर०

काला कौआ आओ! आओ!!
दूध कटोरी का पी जाओ!

काला कौआ आओ! आओ!! ......

 
 
न्‍यूजीलैंड में भारत के अगले उच्‍चायुक्‍त - भारत-दर्शन समाचार

1988 बैच के आईएफएस अधिकारी, श्री संजीव कोहली जो भारतीय मंत्रालय में संयुक्‍त सचिव थे, को न्‍यूजीलैंड में भारत के अगले उच्‍चायुक्‍त के रूप में नियुक्‍त किया गया है।


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करें सियार, हुआ हुआ - सोम्या

सूरज की गर्मी से तपकर 
पानी उड़कर भाप बना 
फुदक-फुदक चिड़िया रानी ने 
लिया, घोंसला एक बना।

भाप, हवा के कंधों चढ़कर 
चिड़िया के, संग खूब उड़ी 
और, ऊँचाई पर ठंडी हो 
बन गई, बूँदें बड़ी-बड़ी।

पानी की बौछार पड़ी तो 
चना फूल कर डुम्म हुआ 
नन्हें पौधे के स्वागत में 
करें सियार हुआ-हुआ।

-सोम्या


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कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती का वास्तविक रचनाकार - भारत-दर्शन समाचार

कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती' कविता के वास्तविक रचनाकार का नाम पता चल गया है। अभी तक इस कविता को हरिवंशराय बच्चन की रचना माना जाता था, लेकिन भारत-दर्शन के प्रयासों से अब यह तथ्य सामने आया है कि यह कविता सोहनलाल द्विवेदी ने लिखी थी। खुद अमिताभ बच्चन ने ट्विटर पर इसकी पुष्टि की है। यह सब न्यूजीलैंड के ऑनलाइन हिंदी पत्रिका के संपादक के प्रयासों से संभव हो पाया है।

संदर्भ :

https://twitter.com/srbachchan/status/19327863853

http://www.twitlonger.com/show/n_1snvpi8
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कल के सपने - सरस्वती कुमार दीपक

बच्चे धरती के प्यारे हैं, 
ये कल के सपने न्यारे हैं।
जीवन की चंचल नदिया के, 
बच्चे अनमोल किनारे हैं।

जो हाथ पालते हैं इनको, 
उनके ये सरस सहारे हैं।
आशाओं की फूलवारी के, 
ये फूल सभी को प्यारे हैं। 

कल के, परसों के, बरसों तक, 
ये बालक पालनहारे हैं ।
ये बालक ही ऐसे सैनिक, 
जो नहीं किसी से हारे हैं।

-सरस्वती कुमार 'दीपक'


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पंछी से  - सरस्वती कुमार 'दीपक'

उड़ना मुझे सिखा दे, पंछी, 
दुनिया मुझे दिखा दे, पंछी! 

कैसे पर फैला कर उड़ता, 
इसकी रीत बता दे, पंछी! 

अपने पंखों पर बिठला कर, 
चंदा तक पहुंचा दे, पंछी! 

जहां ये मेघा तैर रहे हैं, 
वहां की सैर करा दे पंछी! 

मीठी बोली बोल बोल कर, 
आ जा, मन बहला दे, पंछी! 

कहां रात की रानी रहती, 
इतना मुझे बता दे, पंछी! 

चंदा मामा की नगरी की, 
डगरी तू दिखला दें, पंछी!

-सरस्वती कुमार 'दीपक'
 [नन्ही-मुन्नी ग़ज़लें]


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सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी की सुलभता  - रोहित कुमार 'हैप्पी'

सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी की सुलभता में न्यूज़ीलैंड 16वें स्थान पर

वाशिंगटन। न्यूज़ीलैंड सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी की सुलभता संबंधी वैश्विक सूची में 16वें स्थान पर है ।  न्यूज़ीलैंड 2010 में 19वें स्थान पर थायानी 3 अंकों की बढ़त हुई है। इस सूची में कुल 167 देशों का सर्वेक्षण किया गया था। इस सूची में कोरिया शीर्ष पर है।

'भारत' सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी की सुलभता संबंधी वैश्विक सूची में 131वें स्थान पर है जबकि देश में पिछले पांच साल में घरों-परिवारों में इंटरनेट और कम्प्यूटर बढ़ा है। 2010 में भारत 125वें स्थान पर था यानी 6 अंकों की गिरावट आई है। इस सूची में कुल 167 देशों का सर्वेक्षण किया गया था।

संयुक्त राष्ट्र अंतरराष्ट्रीय दूरसंचार यूनियन (ITU) की वार्षिक रिपोर्ट में कहा गया कि वैश्विक स्तर पर 3.2 अरब लोग ऑनलाइन हैं जो वैश्विक आबादी का 43.4 प्रतिशत है जबकि मोबाइल सेल्यूलर के ग्राहक 7.1 अरब हैं जोकि विश्व की कुल जनसंख्या के 95 प्रतिशत हैं।

इस सूची के अनुसार 2010 से 2015 के बीच विश्व भर में औसतन सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी अधिक सुलभ हुई है तथा स्थिति में सुधार हुआ है।

 

 


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मुलायम लचीला की-बोर्ड - भारत-दर्शन समाचार

कीवी वैज्ञानिकों ने कम्प्युटर के लिए रबड़ से बने 'मुलायम व लचीले की-बोर्ड' का निर्माण किया है। यह की-बोर्ड लचीला है और गिर जाने पर गेंद की भांति उछलता है।
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मुन्ने के साथी  - नफे सिंह कादयान

चिडि़या ची ची करती है,
तोते ताली बजाते हैं,
सब मुन्ने के साथी हैं,
मिलकर उसे हँसाते हैं।
बाल संवारे बंदर नाई,
गीत सुनाने कोयल आई,
दूध मलाई बिल्ली लाई,
आप परोसे, आपे खाई,
बिल्ली मारे पंजा,
मुन्ना हो गया गंजा,
गंज पटिल्ला टोल्ला,
मारा सर पर ठोल्ला,
ठोल्ला झूठ-मूठ,
मुन्ना फैंके बूट,
खिलौना गया टूट,
मुन्ना गया रूठ,
नया खिलौना लाएंगे,
मुन्ना को मनाएंगे।

--नफे सिंह कादयान


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न्यूजीलैंड में हेलीकाप्टर दुर्घटनाग्रस्त  - भारत-दर्शन समाचार

21 नवंबर 2015 : न्यूजीलैंड फॉक्स ग्लेशियर के समीप एक हेलीकाप्टर दुर्घटना में सात लोगों की मृत्यु हो गई। इनमें छह पर्यटक व एक स्थानीय पायलट सम्मिलित है।पर्यटकों में दो आस्ट्रेलियन व चार ब्रिटेन से थे।

आज (शनिवार) मृतकों के शरीर खोजने का काम खराब मौसम के कारण रोकना पड़ा।

बचाव-कार्य के लिये चार हेलीकाप्टर सहित बचाव दलों को घटनास्थल के लिये रवाना किया गया था। अब यह खोज अब रविवार को जारी रहेगी। उन्होंने बताया कि बचावकार्य के लिये चार हेलीकाप्टर सहित बचाव दलों को घटनास्थल के लिये रवाना किया गया है।

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न्यूज़ीलैंड रग्बी दिग्गज जोना लोमू नहीं रहे  - भारत-दर्शन संकलन

18 नवंबर 2015: न्यूज़ीलैंड के दिग्गज रग्बी खिलाड़ी 'जोना लोमू' (Jonah Lomu) का न्यूज़ीलैंड में आकस्मिक निधन हो गया। वे 40 वर्ष के थे। वे नेफ्रोटिक सिंड्रोम (nephrotic syndrome) के रूप में जानी जाने वाली गुर्दे की असामान्य बीमारी से पीड़ित थे। लोमू का 2004 में गुर्दा प्रत्यारोपण किया गया था जिसने साढ़े सात वर्षों तक उन्हें जीवनदान दिये रखा । 2011 में शरीर में प्रत्यारोपित गुर्दे ने पुन: सुचारू रूप से काम करना बंद कर दिया, तब से वे डायलसिस पर थे।

जोना लोमू नहीं रहे

1994 में 19 वर्ष की आयु में रग्बी टेस्ट खेलने वाले वे सबसे कम आयु के 'ऑल ब्लैक' खिलाड़ी थे। 1995 के 'रग्बी विश्व कप' में उनके प्रदर्शन ने सभी को आश्चर्यचकित कर दिया था और उसके बाद से वे 'रग्बी दिग्गज' के रूप में जाने जाते थे।

वे हाल ही में अपने परिवार के साथ इंग्लैंड गए थे और रग्बी विश्व कप के दौरान हेनेकेन (Heineken) के प्रवक्ता थे।

न्यूज़ीलैंड के प्रधानमंत्री जॉन की ने ट्वीटर पर कहा है, "आज सुबह जोना लोमू के अप्रत्याशित निधन का समाचार पाकर गहरा आघात पहु़ँचा है। इस समय पूरा देश लोमू के परिवार के साथ है।"

जोना लोमू के 5 व 6 वर्षीय दो बेटे हैं। उन्होंने अपने साक्षात्कारों में कई बार यह दोहराया कि उनकी इच्छा है कि वे अपने बच्चों को युवा होते हुए देखें, "यदि मैं उनकी 21वीं वर्षगाँठ देख पाऊं तो मैं सौभाग्यशाली हूंगा।"

- रोहित कुमार......

 
 
ऑकलैंड में शाम-ए-ग़ज़ल - रोहित कुमार 'हैप्पी'

14 नवंबर को मैथोडिस्ट चर्च हॉल, पापाटोएटोए, ऑकलैंड में ‘शाम-ए-गज़ल' का आयोजन किया गया। इस समारोह का आयोजन ‘कला कौशल समिति ने किया था। स्थानीय कलाकारों में फीजी, भारत, पाकिस्तान व अफगानिस्तान से संबंध रखने वाले कलाकारों ने ग़ज़ल गायन किया।

इस समारोह में हरीश कथनौर, अज़ीम अनवर, वीरेन्द प्रकाश, रजनेश प्रसाद, प्रवीण रवि, किरणजीत सिंह, फरीद, सतीशेश्वर नन्द, निलेष महाराज व चन्द्र कुमार ने गज़ल गायन किया तो शिवन पदयाची व नवलीन प्रसाद ने संगीत वाद्य से समां बाध दिया।

ऑकलैंड निवासी हरीश कथनौर गज़ल गायन में सुपरिचित नाम हैं। उन्होंने कई ग़जल गाई जिनमें:

"कौन कहता है मुहब्बत की ज़ुबां होती है
ये हक़ीकत तो निगाहोँ से बयां होती है"

और उन्होंने ‘दीवारों से मिलकर रोना अच्छा लगता है', गाई जो खू़ब सराही गईं।

पाकिस्तान से तालुल्क रखने वाले ऑकलैंड के स्थानीय गायक अज़ीम अनवर ने ‘क़तील शिफाई' की ग़ज़ल से......

 
 
किसान  - सत्यनारायण लाल

नहीं हुआ है अभी सवेरा
पूरब की लाली पहचान......

 
 
ट्रेडमी विज्ञापन विवाद  - रोहित कुमार 'हैप्पी'

पिछले दिनों न्यूजीलैंड के सबसे बड़े ऑनलाइन पोर्टल ‘ट्रेडमी' में प्रकाशित 'फ्लैटमेट चाहिए'  का एक विज्ञापन विवादों में घिर गया। इसमें कहा गया था कि भारतीय या एशियाई फ्लैटमेट स्वीकार्य नहीं। इसको लेकर यहां के भारतीय समुदाय में काफी आक्रोश पैदा हो गया।
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सिद्धार्थ मल्होत्रा न्यूजीलैंड पर्यटन के भारतीय दूत  - रोहित कुमार 'हैप्पी'

11 अक्टूबर 2015 ( न्यूज़ीलैंड )

बॉलीवुड के नवोदित अभिनेता सिद्धार्थ मल्होत्रा को 'न्यूजीलैंड पर्यटन' (Tourism New Zealand) का भारतीय दूत नियुक्त किया गया है। वर्ष 2012 में प्रदर्शित फिल्म ‘स्टूडेंट ऑफ द ईयर' से बॉलीवुड में अपने अभिनय-जीवन की शुरूआत करने वाले ‘ब्रदर्स' के 30 वर्षीय अभिनेता सिद्धार्थ मल्होत्रा ‘टूरिज्म न्यूजीलैंड' के पहले भारतीय दूत हैं।

11 अक्टूबर को न्यूज़ीलैंड में पहुंचे बॉलीवुड के सुपर स्टार और 'ब्रदर्स' के अभिनेता 'सिद्धार्थ मल्होत्रा' अगले दस दिनों तक भारत में न्यूज़ीलैंड के पर्यटन राजदूत के रूप में यहाँ यात्रा करेंगे।

अपनी यात्रा के दौरान सिद्धार्थ न्यूजीलैंड के उत्तरी और दक्षिणी दोनों द्वीपों के ऑकलैंड, वेलिंगटन, क्वीन्सटाउन और नॉर्थलैंड नगरों में जाएंगे।

सिद्धार्थ भारत में बहुत लोकप्रिय हैं जहाँ सोशल मीडिया में उनके ४.३ मिलियन से भी अधिक प्रशंसक हैं। उनकी नई फिल्म, 'ब्रदर' अभी पिछले महीने निकली है और वे इस समय दो और फिल्मों पर काम कर रहे हैं।

पर्यटन दूत के तौर पर सिद्धार्थ न्यूजीलैंड की संस्कृति को जानने, समझने और यहाँ के अनुभव के लिए दस दिनों की यात्रा पर हैं।

आइए, आपको उनकी यात्रा का साझीदार बनाएं! देखें सिद्धार्थ क्या कर रहे हैं न्यूज़ीलैंड में!

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कमला प्रसाद मिश्र | फीजी के कवि - भारत-दर्शन संकलन

इस श्रृंखला में हम फीजी के कवियों की रचनाएं प्रकाशित कर रहे हैं। हमें विश्वास है कि सुदूर देश में बसे इन भारतवंशियों की रचनाएं आपको पसंद आएंगी।

कमला प्रसाद मिश्र का जन्म 1913 में फीजी के 'वाई रूकू' गांव में हुआ जो 'रॉकी रॉकी' जिला के अंतर्गत आता है। मिश्रजी के पिता जी गिरमिट मजदूर के रूप में भारत से फीजी आए थे।

1926 में 13 वर्ष की आयु में मिश्रजी अध्ययन हेतु वृंदावन गुरुकुल, भारत आ गए। लगभग ग्यारह वर्षों तक भारत में अध्ययन करने व 'आयुर्वेद शिरोमणी' की उपाधि पाने के पश्चात् आप फीजी लौट आए।

आपने संस्कृत, अँग्रेज़ी और हिंदी का गहन अध्ययन किया।

आपकी रचनाएं भारत की तत्कालीन श्रेष्ठ पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई जिनमें सरस्वती, माधुरी, विशाल भारत इत्यादि सम्मिलित थीं।

 


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सबसे ख़तरनाक - अवतार सिंह संधू 'पाश'

मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती......

 
 
अंतरराष्ट्रीय हिंदी व्यंग्य प्रतियोगिता 2020 के परिणाम - भारत-दर्शन समाचार

World Hindi Secretariat, Mauritius

12 जनवरी 2021 :  मॉरीशस में विश्व हिंदी सचिवालय ने 11 जनवरी 2021 को विश्व हिंदी दिवस समारोह का आयोजन किया और इस अवसर पर 'अंतरराष्ट्रीय हिंदी व्यंग्य प्रतियोगिता' के परिणामों की घोषणा की।

विश्व हिंदी दिवस 2021 के उपलक्ष्य में सचिवालय ने 2020 में 'अंतरराष्ट्रीय हिंदी व्यंग्य प्रतियोगिता' का आयोजन किया था। प्रतियोगिता को 5 भौगोलिक क्षेत्रों में बाँटा गया था:

1. अफ़्रीका व मध्य पूर्व
2. अमेरिका......

 
 
करवा-चौथ  - भारत-दर्शन संकलन

'करवा चौथ' के व्रत से तो हर भारतीय स्त्री अच्छी तरह से परिचित है! यह व्रत महिलाओं के लिए 'चूड़ियों का त्योहार' नाम से भी प्रसिद्ध है।

कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को रखा जाने वाला यह करवा चौथ का व्रत, अन्य सभी व्रतों से कठिन माना जा सकता है। सुहागिन स्त्रियाँ पति पत्नी के सौहार्दपूर्ण मधुर संबंधों के साथ-साथ अपने पति की दीर्घायु की कामना के उद्देश्य से यह व्रत रखती है। इस व्रत में सुहागिन महिलाएं करवा रूपी वस्तु या कुल्हड़ अपने सास-ससुर या अन्य स्त्रियों से बदलती हैं।

विवाहित महिलाएं पति की सुख-समपन्नता की कामना हेतु गणेश, शिव-पार्वती की पूजा-अर्चना करती हैं। सूर्योदय से पूर्व तड़के 'सरघी' खाकर सारा दिन निर्जल व्रत किया जाता है।

पौराणिक कथाओं के अनुसार व्रत का फल तभी है जब यह व्रत करने वाली महिला भूलवश भी झूठ, कपट, निंदा एवँ अभिमान न करे। सुहागन महिलाओं को चाहिए कि इस दिन सुहाग-जोड़ा पहनें, शिव द्वारा पार्वती को सुनाई गई कथा पढ़े या सुनें तथा रात्रि में चाँद निकलने पर चन्द्रमा को देखकर अर्घ्य दें, दोपरांत भोजन करें।

 


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हिंडोला - अजय गुप्ता

हिंडोले सा ये जीवन,
घूम रहा है, घुमा रहा है......

 
 
करवा-चौथ की महत्ता व कथा - क़ैश जौनपुरी

करवा चौथ भारत में मुख्यत: उत्तर प्रदेश, पंजाब, राजस्थान और गुजरात में मनाया जाता है। इस पर्व पर विवाहित औरतें अपने पति की लम्बी उम्र के लिये पूरे दिन का व्रत रखती हैं और शाम को चांद देखकर पति के हाथ से जल पीकर व्रत समाप्त करती हैं। इस दिन भगवान शिव, पार्वती जी, गणेश जी, कार्तिकेय जी और चांद की पूजा की जाती हैं।

शुरूआत और महत्व: इस पर्व की शुरूआत एक बहुत ही अच्छे विचार पर आधारित थी। मगर समय के साथ इस पर्व का मूल विचार कहीं खो गया और आज इसका पूरा परिदृश्य ही बदल चुका है।

पुराने जमाने में लड़कियों की शादी बहुत जल्दी कर दी जाती थी और उन्हें किसी दूसरे गांव में अपने ससुराल वालों के साथ रहना पड़ता था। अगर उसे अपने पति या ससुराल वालों से कोई परेशानी होती थी तो उसके पास कोई ऐसा नहीं होता था जिससे वो अपनी बात कह सके या मदद मांग सके। उसके अपने परिवार वाले और रिश्तेदार उसकी पहुंच से काफी दूर हुआ करते थे। उस जमाने में ना तो टेलीफोन होता था, ना बस और ना ही ट्रेन।

इस तरह एक रिवाज की शुरुआत हुई कि शादी के समय जब दुल्हन अपने ससुराल पहुंचेगी तो उसे वहां एक दूसरी औरत को दोस्त बनाना होगा जो उम्र भर उसकी बहन या दोस्त की तरह रहेगी। ये धर्म-सखी या धर्म-बहन के जैसा होगा। उनकी मित्रता एक छोटे से हिन्दू पूजन समारोह द्वारा शादी के समय ही प्रमाणित की जायेगी। एक बार दुल्हन और इस औरत के धर्म-सखी या धर्म-बहन बन जाने के बाद जिन्दगी भर इस रिश्ते को निभायेंगी। वे आपस में सगी बहनों जैसा बर्ताव करेंगी।

बाद में किसी तरह की परेशानी होने पर, चाहे वो पति या ससुराल वालों की तरफ से हो, ये दोनों औरतें आपस में बात कर सकती हैं या एक दूसरे की मदद कर सकती हैं। एक दुल्हन और उसकी धर्म-सखी (धर्म-बहन) के बीच इस मित्रता (सम्बन्ध) को एक पर्व के रूप में मनाया जाने लगा।

इस तरह करवा चौथ की शुरुआत हुई। पति की भलाई के लिए पूजा और व्रत इसके बहुत बाद में शुरु हुआ। ऐसी आशा है कि इस पर्व की महत्ता को और बढ़ाने के लिए इसे पुरानी कथाओं के साथ जोड़ दिया गया।

मूलत: करवा चौथ इस धर्म-सखी (धर्म-बहन) के रिश्ते को फिर से नवीन रूप देने और मनाने का सालाना पर्व है। ये उस समय की एक सर्वश्रेष्ठ सामाजिक और सांस्कृतिक महानता थी जब दुनिया में बातचीत के तरीकों की कमी थी और आना-जाना इतना आसान नहीं था।

परम्परागत कथा (वीरवती की कहानी): बहुत समय पहले वीरवती नाम की एक सुन्दर लड़की थी। वो अपने सात भाईयों की इकलौती बहन थी। उसकी शादी एक राजा से हो गई। शादी के बाद पहले करवा चौथ के मौके पर वो अपने मायके आ गई। उसने भी करवा चौथ का व्रत रखा लेकिन पहला करवा चौथ होने की वजह से वो भूख और प्यास बर्दाश्त नहीं कर पा रही थी। वह बेताबी से चांद के उगने का इन्तजार करने लगी। उसके सातों भाई उसकी ये हालत देखकर परेशान हो गये। वे अपनी बहन से बहुत ज्यादा प्यार करते थे। उन्होंने वीरवती का व्रत समाप्त करने की योजना बनाई और पीपल के पत्तों के पीछे से आईने में नकली चांद की छाया दिखा दी। वीरवती ने इसे असली चांद समझ लिया और अपना व्रत समाप्त कर खाना खा लिया। रानी ने जैसे ही खाना खाया वैसे ही समाचार मिला कि उसके पति की तबियत बहुत खराब हो गई है।

रानी तुरंत अपने राजा के पास भागी। रास्ते में उसे भगवान शंकर पार्वती देवी के साथ मिले। पार्वती देवी ने रानी को बताया कि उसके पति की मृत्यु हो गई है क्योंकि उसने नकली चांद देखकर अपना व्रत तोड़ दिया था। रानी ने तुरंत क्षमा मांगी। पार्वती देवी ने कहा, ''तुम्हारा पति फिर से जिन्दा हो जायेगा लेकिन इसके लिये तुम्हें करवा चौथ का व्रत कठोरता से संपन्न करना होगा। तभी तुम्हारा पति फिर से जीवित होगा।'' उसके बाद रानी वीरवती ने करवा चौथ का व्रत पूरी विधि से संपन्न किया और अपने पति को दुबारा प्राप्त किया।

इस पर्व से संबंधित अनेक कथाएं प्रसिध्द हैं जिनमें सत्यवान और सावित्री की कहानी भी बहुत प्रसिध्द है।

- क़ैश जौनपुरी, भारत

 


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पानी का रंग - सुखबीर सिंह

पानी के रंग जैसी हैं ये जिंदगी,
इसे जैसे बनाओगे वैसे ही बन जाएगी।

अगर इरादे मजबूत हों तो......

 
 
कोमल मैंदीरत्ता की दो कविताएं - कोमल मैंदीरत्ता

बारहवीं के बच्चे

लो फिर आ गया है
मार्च का महीना ......

 
 
रंग गयी ज़मीं फिर से - निशा मोहन

रंग गयी ज़मीं फिर से लाल रंग में
मिट्टी की महक और ख़ुशबू बढ़ी लहू के संग में। ......

 
 
सैनिक  - विश्वनाथ प्रसाद तिवारी

जीविका के लिए निकले थे
हम अपने-अपने घरों से

उन्होंने हमारे हाथों में......

 
 
सैनिक अनुपस्थिति में छावनी - वीरेन डंगवाल

लाम पर गई है पलटन
बैरकें सूनी पड़ी हैं......

 
 
मृत्यु-जीवन - हरिशंकर शर्मा

फूल फबीला झूम-झूमकर डाली पर इतराता था,
सौरभ-सुधा लुटा वसुधा पर फूला नहीं समाता था, ......

 
 
कैसा समय - नासिर अहमद सिकन्दर

कैसा समय आया भाई!
किस दुश्मन को नजर लगी ......

 
 
हिम्मत वाले पर - डॉ दीपिका

(एक लड़की जो पढ़ना चाहती है पर माँ के साथ बर्तन सफाई के काम करने पर मजबूर है)

Vo Padhna Chahati Hai

चाह हैं पढ़ने की पर पढ़ नहीं पाती हूँ।
जब भी पढ़ना चाहती हूँ काम में फँस जाती हूँ। ......

 
 
कुछ छोटी कवितायें  - प्रीता व्यास

मिठास
तुम्हारी मुस्कराहट ......

 
 
वो तुम नहीं हो - शिल्पा वशिष्ठ

सुनो जाना मेरी बातों में जिस का ज़िक्र होता है
वह तुम-सा है, मगर वो तुम नहीं हो......

 
 
अनमोल सीख - कोमल मेहंदीरत्ता

घने-काले बादल
झूमती-गाती मतवाली हवा......

 
 
माँ! तुम्हारी याद  - कोमल मेहंदीरत्ता

अचानक पीछे से जाकर
माँ! तुम्हें गले से लगाकर ......

 
 
बूढ़ा चेहरा  - कोमल मैंदीरत्ता

सालों से देखा
झुर्रियों के ताने-बाने में,......

 
 
भारत वंदना  - व्यग्र पाण्डे

वंदनीय भारत ।
अभिनंदनीय भारत ।।

उत्तर में हिमालय ......

 
 
अपना ग़म लेके | ग़ज़ल - निदा फ़ाज़ली

अपना ग़म लेके कहीं और न जाया जाये
घर में बिखरी हुई चीज़ों को सजाया जाये ......

 
 
न्यूज़ीलैंड में ऑनलाइन हिंदी उत्सव  - भारत-दर्शन समाचार

Hindi Utsav 2020

12 सितंबर 2020 (ऑकलैंड) : न्यूज़ीलैंड से प्रकाशित भारत-दर्शन ऑनलाइन हिंदी पत्रिका ने हिंदी दिवस के उपलक्ष में एक ऑनलाइन हिंदी उत्सव का आयोजन किया। न्यूज़ीलैंड में यह अपनी तरह का पहला ऑनलाइन आयोजन था जिसकी अध्यक्षता न्यूज़ीलैंड में भारत के उच्चायुक्त, मुक्तेश परदेशी ने की।

इस अवसर पर पद्मश्री डॉ भारती बंधु मुख्य अतिथि थे। इसके अतिरिक्त विश्व हिंदी सचिवालय, मॉरीशस के महासचिव 'प्रो विनोद मिश्र', केन्द्रीय हिन्दी शिक्षण मण्डल के उपाध्यक्ष, 'श्री अनिल शर्मा', भारत के मानद कौंसल 'श्री भाव ढिल्लो' इस अवसर पर विशिष्ट अतिथि थे। उच्चायोग के द्वितीय सचिव, 'श्री परमजीत सिंह' भी इस अवसर पर उपस्थित रहे।

इस ऑनलाइन हिंदी उत्सव में कई वैबसाइट्स व हिंदी सॉफ्टवेयर को लोकार्पित किया गया। सर्वप्रथम उच्चायुक्त, मुक्तेश परदेशी ने दो वैब साइट्स का लोकार्पण किया जिनमें कबीरदास की वैब साइट 'कहत कबीर' व 'वाणी से टंकण' जिसमें आप बोलकर हिंदी टाइप कर सकते हैं, सम्मिलित हैं। उन्होंने बोलकर टाइप किया और फिर अपने लैपटॉप को कैमरे की ओर करते हुए सब ऑनलाइन जुड़े हुए अतिथियों और भारत-दर्शन के पाठकों को वैब साइट दिखाई। उच्चायुक्त महोदय ने इसे हिंदी के लिए बहुत उपयोगी बताया। उन्होंने इसका उपयोग करते हुए कहा, 'अरे, यह तो बहुत उपयोगी है। इसके लिए सबसे पहले तो मैं आपका बहुत-बहुत धन्यवाद औरशुभकामनाएं देना चाहूंगा कि आपने ऐसा वाणी से टंकण शुरू किया है।

विश्व हिंदी सचिवालय, मॉरीशस के महासचिव 'प्रो विनोद मिश्र' ने ऑनलाइन उत्सव में भारत-दर्शन पत्रिका का प्रशांत अध्याय लोकार्पित किया। 'प्रशांत के हिंदी साहित्यकार और उनकी रचनाएं' नामक वैब पृष्ठ में न्यूज़ीलैंड, ऑस्ट्रेलिया और फीजी के साहित्यकारों के जीवन परिचय और रचनाएँ संकलित की गयी हैं। उन्होंने अपने ऑनलाइन सम्बोधन में कहा, "मैं यह देखकर प्रसन्नचित हूँ कि जो काम विश्व हिंदी सचिवालय को करना चाहिए, वह काम आप लोग कर रहे हैं। मुझे इस बात की भी प्रसन्नता है कि हमारे बीच उच्चायुक्त, 'परदेशी' जी भी हैं। मैं विश्व हिंदी सचिवालय की ओर से उनका व सभी कलाकारों का जो यहां इकट्ठे हुए हैं, सभी का स्वागत करता हूँ। इस तकनीकी युग में हम यह जानते हैं कि ज्ञान पर उसी भाषा का अधिकार होता है जिसके हाथ में सत्ता होती है। सूचना और प्रौद्योगिकी के युग में हिंदी में बोलकर विराम चिन्हों सहित टाइप होना अद्भुत है।' उन्होंने कहा कि 'भारत-दर्शन' का कार्य सराहनीय और अनुकरणीय है। उन्होंने कहा कि 'रोहित जी' अकेले ही कई संस्थाओं से अधिक हिंदी का कार्य कर रहे हैं और हमें इन्हें हर संभव सहायता उपलब्ध करवानी चाहिए।उच्चायुक्त परदेशी जी द्वारा लोकार्पित 'वाणी से टंकण' की सराहना करते हुए उन्होंने कहा कि इसमें विराम चिन्हों का काम करना इसे अत्यंत उपयोगी और अद्भुत बनाता है।

केन्द्रीय हिन्दी शिक्षण मण्डल के उपाध्यक्ष, 'अनिल शर्मा' ने डिजिटल पुस्तकालय का लोकार्पण करते हुए शुभकामनायें दीं।

उन्होंने अपने सम्बोधन में रोहित कुमार हैप्पी को हिंदी का स्तम्भ बताया। उन्होंने कहा, 'रोहित जी तो हमारे स्तम्भ हैं हिंदी के। उन्होंने कहा वे केवल न्यूज़ीलैंड में ही नहीं बल्कि पूरे प्रशांत में सक्रिय हैं। वे ज्यों-ज्यों प्रौढ़ हो रहे हैं, उनकी पत्रिका युवा होती जा रही है। भारत-दर्शन की 24 वर्ष की यात्रा हम सब के लिए वास्तव में बहुत प्रेरणादायक है।' उन्होंने भारत-दर्शन के सम्पादक रोहित कुमार हैप्पी को बधाई देते हुए पत्रिका के 24 वर्षीय इतिहास को भी रेखांकित किया और बताया कि हिंदी के प्रति उनका लगाव एक जुनून की हद तक है। उन्होंने कहा कि केन्द्रीय हिंदी संस्थान और वैश्विक की ओर से वे हर संभव अपेक्षित सहायता उपलब्ध करने का भरसक प्रयत्न करेंगे।'

भारत के मानद कौंसल भाव ढिल्लो ने अपने सम्बोधन में हिंदी उत्सव के अध्यक्ष उच्चायुक्त परदेशी, मुख्य अतिथि पद्मश्री डॉ भारती बंधु, विश्व हिंदी सचिवालय, मॉरीशस के महासचिव 'प्रो विनोद मिश्र', केन्द्रीय हिन्दी शिक्षण मण्डल के उपाध्यक्ष, 'श्री अनिल शर्मा' व ऑनलाइन जुड़ने वाले सभी अतिथियों और आगंतुकों का आभार जताया। उन्होंने कहा, "मैं आप सबका आभारी हूँ कि आप सब ने एकत्रित होकर हमारा मान बढ़ाया है।" उन्होंने भारत-दर्शन के सम्पादक की सराहना करते हुए कहा, "हमें इस बात का गर्व है कि हमारे शहर में एक ऐसा हीरा है जो पूरे विश्व में अपने हिंदी के काम के लिए जाना जाता है। अपनी निस्वार्थ सेवा के लिए जाना जाता है। रोहित जी, इस देश के हिंदी के राजदूत है और आप सबने इनके बारे में जो कहा, मैं उसका साक्षी हूँ। धन्यवाद।"

पद्मश्री डॉ भारती बंधु ने मुख्य अतिथि के रूप में सम्बोधित करते हुए 'भारत-दर्शन' की सराहना की और शुभकामनाएं देने के बाद अपनी 'कबीर गायन' की प्रस्तुति दी। पद्मश्री डॉ भारती बंधु ने लगभग एक घंटे कबीर गायन किया। सभी अतिथि और श्रोता उनके गायन को भावविभोर हो सुनते रहे। उन्होंने अपने अद्वितीय गायन से सबको मंत्रमुग्ध कर दिया।

अंत में हिंदी उत्सव के अध्यक्ष उच्चायुक्त, मुक्तेश परदेशी ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में इस ऑनलाइन उत्सव के लिए पत्रिका के सम्पादक रोहित कुमार 'हैप्पी' की सराहना की। उन्होंने कहा, ' मैं क्या कहूं? अति सुन्दर! बहुत खूब! मैं डॉक्टर भारतोई बंधु और उनके साथियों को बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनायें देना चाहूंगा। मैं सोच रहा था कि आज की गोष्ठी की व्याख्या मैं किस प्रकार करूँ। आज की यह गोष्ठी जो लगभग डेढ़ घंटा चली है इसकी पांच सतहें हैं। सबसे पहली सतह 'भाषा' की, आज हम हिंदी दिवस मना रहे हैं तो भाषा के नाम पर हम जुड़ें। भाषा के जरिये हम दूसरी सतह हिंदी साहित्य तक गए। कबीर भक्ति काल के सबसे बड़े कवियों में से हैं। तीसरा पक्ष रहा 'संस्कृति' - कबीर भारतीय संस्कृति को उजागर कर रहे हैं। आज हमने कबीर और उनका संगीतमय रूपांतरण सुना। चौथा पहलु 'भक्ति' था। और पांचवा जो बहुत महत्वपूर्ण है, इसका डिजिटल मंच से प्रस्तुतिकरण। अधिकतर लोग जो हिंदी की बात करते हैं उनका डिजिटल संसार से कोई नाता नहीं है, इसलिए वे हिंदी को आधुनिकता से जोड़ नहीं पाते। हम मानकर चलते हैं कि जो आधुनिक है, वह अंग्रेज़ी है। जो पुराना है, पीछे है वह हमारी भाषाएँ हैं। आज रोहित जी ने जो आयोजन किया उससे यह दिखाया कि हिंदी से जुड़े हुए लोग किसी तरह भी से पीछे नहीं हैं। वे आधुनिक है। तकनीक को भाषा कैसे समाहित करती है, ये आज के कार्यक्रम में दिखाई देता है। आज जो कार्यक्रम हुआ, उसमें पांच सतहें थी और इससे बढ़िया हिंदी दिवस नहीं हो सकता। मैं कार्यक्रम के आयोजकों को बहुत-बहुत धन्यवाद देना चाहूंगा।"

उन्होंने आगे कहा,"हिंदी भारत को एकता के सूत्र में पिरोती है। हिंदी और भारत की अन्य भाषाओं में कोई मतभेद नहीं है।जबभी हम भाषा की बात करते हैं तो दूसरी भारतीय भाषाओं की भी बात आती है। हमारा अन्य भारतीय भाषाओं से भी उतना ही नाता है जितना हिंदी से। हिंदी विश्व भाषा के रूप में उभरी है। अगले वर्ष फीजी में विश्व हिंदी सम्मेलन होगा तो प्रशांत में हिंदी की परिस्थितियां केंद्र में होंगीं। प्रशांत के देशों में हिंदी पर अधिक चर्चा होगी। मैं चाहूंगा की न्यूज़ीलैंड में हिंदी से जुड़े हुए लोग उसकी अभी से तैयारी करें। "

इसके बाद डॉ पुष्पा भरद्वाज-वुड ने भारत-दर्शन की ओर से मुख्य अतिधि, अध्यक्ष महोदय, विशिष्ट अतिथियों व ऑनलाइन जुड़े हुए भारत-दर्शन के मित्रों को धन्यवाद ज्ञापित किया। सम्पादक रोहित कुमार ने अपने सन्देश में देश-विदेश से जुड़े हुए सभी भारत-दर्शन के मित्रों, पाठको व सहयोगियों का हार्दिक आभार जताया। भारत-दर्शन 24 वर्ष का हो गया है, इसके लिए भी सब सहयोगियों को आभार जताया। भारती बंधु के समापन गायन के साथ कार्यक्रम समाप्त हुआ।


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निःशुल्क ऑनलाइन संस्कृत अध्ययन का अवसर - भारत-दर्शन समाचार

20 जुलाई 2020 (भारत): संस्कृत भारती देहली प्रान्त के महाविद्यालय गण द्वारा इस लॉकडाउन के समय में ऑनलाइन संस्कृत के अध्ययन का अवसर प्रदान किया है। अभी तक हजारों अध्येता इस लॉकडाउन को अवसर में बदलकर ऑनलाइन संस्कृत का अध्ययन कर रहे हैं। यदि आप भी संस्कृत अध्ययन करना चाहते हैं तो पंजीकरण करें। ये कक्षाएँ 01 अगस्त से प्रारम्भ होगी। विभिन्न समय वर्ग के अनुसार आप अपना समय चुन सकते हैं। ये कक्षाएँ पूर्णतः निःशुल्क रहेंगी।

संयोजक
श्री सुशीलकुमार ......

 
 
गूगल ने की भारत में दस अरब डॉलर के निवेश की घोषणा - भारत-दर्शन समाचार

13 जुलाई 2020 (भारत) : गूगल ने भारत में दस अरब डॉलर यानि 75 हज़ार करोड़ रूपये से अधिक के निवेश की घोषणा की है। गूगल के अनुसार, इससे प्रधानमंत्री मोदी की ‘डिज़िटल इंडिया' योजना को बढ़ावा मिलेगा।

यह घोषणा प्रधानमंत्री मोदी और गूगल के मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) सुंदर पिचाई के बीच वार्तालाप के पश्चात हुई है। इस बातचीत के बारे में प्रधानमंत्री मोदी ने ट्वीट कर जानकारी दी है। उन्होंने ट्विटर पर लिखा, ‘आज सुबह सुंदर पिचाई के साथ बातचीत हुई। हमने भारत के किसानों, युवाओं और उद्यमियों के जीवन को बदलने के लिए प्रौद्योगिकी के प्रभावी उपयोग सहित कई मुद्दों पर चर्चा की।'

सुंदर पिचाई ने भी इस घोषणा के बारे में अपने ट्वीट में लिखा, "आज हमने भारत में डिजिटलीकरण की प्रगति में सहायता हेतु दस अरब डॉलर के निवेश की घोषणा की है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की डिजिटल इंडिया परिकल्पना में सहायता करते हुए हम गौरवान्वित हैं।

[भारत-दर्शन समाचार]

 


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‘द डायरी ऑव मनु गांधी’ का विमोचन - भारत-दर्शन समाचार

The Diary of Manu Gandhi - Book launched in New Delhi

22 अगस्त 2019 (भारत): केंद्रीय संस्कृति एवं पर्यटन राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) प्रहलाद सिंह पटेल ने  नेहरू स्‍मारक संग्रहालय एवं पुस्‍तकालय के सभागार में आयोजित एक समारोह में 'द डायरी ऑव मनु गांधी' (1943-44) पुस्तक का विमोचन किया। यह पुस्‍तक महात्मा गांधी की 150वीं जयंती के अवसर पर भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार द्वारा ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस के सहयोग से प्रकाशित की गई है।

इस अवसर पर अपने संबोधन में प्रह्लाद सिंह पटेल ने कहा कि डायरी लेखन की कला किसी व्यक्ति के स्वत: अनुशासन की सर्वोच्च सीमा होती है और डायरी लेखन की प्रवृत्ति एक साधारण व्यक्ति को विशेष व्यक्ति में परिवर्तित करती है। उन्होंने डायरी ऑव मनु गांधी के अंग्रेजी में अनुवाद के लिए राष्ट्रीय अभिलेखागार, डॉ. त्रिदीप सुह्रद और ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस के प्रयासो की सराहना की। उन्होंने कहा कि इस अनुवाद से संपूर्ण विश्व को 'डायरी ऑव मनु गांधी' के द्वारा महात्मा गांधी के जीवन को जानने में सहायता मिलेगी। उन्होंने राष्ट्रीय अभिलेखागार से 'डायरी ऑव मनु गांधी' का अन्य भारतीय भाषाओ में अनुवाद करने का अनुरोध भी किया, जिससे इस पुस्तक की ख्याति पूरे भारत में फैल सके।

'द डायरी ऑफ मनु गांधी' मूल रूप से गुजराती में संपादित की गई है और इसका अनुवाद जाने-माने विद्वान डॉ. त्रिदीप सुह्रद ने किया है। पहला खंड 1943-1944 की अवधि को कवर करता है। मनु गांधी (मृदुला) महात्‍मा गांधी के भतीजे जयसुखलाल अमृतलाल गांधी की बेटी थीं, जो गांधी जी की हत्या होने तक उनके साथ रहीं। वह 1943 में आगा खान पैलेस में कारावास के दौरान कस्तूरबा गांधी की सहयोगी थीं।

यह पुस्‍तक गांधीवादी अध्ययन और आधुनिक भारत के इतिहास में रुचि रखने वाले विद्वानों के लिए बहुत लाभदायक होगी।

[भारत-दर्शन समाचार ]


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जयपुर के जगद्गुरु रामानन्दाचार्य राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालयमें प्रथम महिला कुलपति नियुक्त  - रोहित कुमार 'हैप्पी'

Sanskrit University Jaipur

डॉ अनुला मौर्य को जगद्गुरु रामानन्दाचार्य राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर का कुलपति नियुक्त किया गया है। वे इस विश्वविद्यालय की प्रथम महिला कुलपति होंगी। 

डॉ मौर्य देहली के कालिंदी कॉलेज की प्राचार्या हैं। कालिंदी कॉलेज देहली विश्वविद्यालय के अंतर्गत आता है। डॉ मौर्य शीघ्र ही संस्कृत विश्वविद्यालय जयपुर में अपना नया पदभार संभालेंगी।

Dr Anula Maurya

डॉ मौर्य चौधरी चरणसिंह विश्वविद्यालय, मेरठ से पी एचडी हैं। इसके अतिरिक्त आपने एल.एल.बी की हुई है। आपने देहली विश्विद्यालय से संस्कृत आनर्स के साथ बी.ए की हुई है और आप संस्कृत में एम.ए हैं।
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बीबीसी हिंदी पूर्व प्रमुख कैलाश बुधवार नहीं रहे - भारत-दर्शन समाचार

11 जुलाई 2020: भारतीय मूल के प्रख्यात पत्रकार एवं बीबीसी वर्ल्ड सर्विस की हिंदी सेवा के पूर्व प्रमुख कैलाश बुधवार का लंदन में निधन हो गया। कैलाश बुधवार काफी लम्बे समय से अस्वस्थ थे। वह 88 वर्ष के थे।

'बुधवार' ने लंदन में भारतीय उच्चायोग में मीडिया सलाहकार के रूप में भी काम किया था और वह रेडियो एवं टेलीविजन पर नियमित टिप्पणीकार थे।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय के स्नातक कैलाश बुधवार बीबीसी वर्ल्ड सर्विस में हिंदी और तमिल अनुष्ठानों के एकमात्र ऐसे भारतीय संचालक रहे हैं, जिन्होंने 1970 से 1992 तक विश्व प्रसारण के सभी उत्तरदायित्व सँभाले। उन्होंने आकाशवाणी एवं नेशनल रेडियो नेटवर्क ऑफ इंडिया में भी काम किया था। 1969 में बीबीसी से जुड़ने से पहले वे करनाल के सैनिक स्कूल और राँची के विकास विद्यालय में अध्यापक भी रह चुके थे।

[भारत-दर्शन समाचार]

 


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11वें विश्व हिंदी सम्मेलन में 36 हिंदी सेवी तथा 5 संस्थाएँ सम्मानित - भारत-दर्शन समाचार

विश्व हिंदी सम्मान 2018 -  देश विदेश के हिंदी विद्वान सम्मानित


20 अगस्त 2018 (मॉरीशस) 18-20 अगस्त 2018 तक मॉरीशस में आयोजित 11वें विश्व हिंदी सम्मेलन  के समापन समारोह के अवसर पर 36 हिंदी सेवियों को  विश्व हिंदी सम्मान से सम्मानित किया गया। सम्मानित हिंदी सेवियों में 18 भारतीय तथा 18 विदेशी हिंदी विद्वान सम्मिलित थे। इसके अतिरिक्त 2 भारतीय तथा 3 विदेशी संस्थाओं को भी विश्व हिंदी सम्मान प्रदान किया गया। मॉरीशस के दो विशेष हिंदी सेवियों स्व. अभिमन्यु अनत तथा स्व. बृजलाल धनपत को विशिष्ट हिंदी सम्मान से सम्मानित किया गया।

‘विश्व हिंदी सम्मान’ - भारत

डॉ. जोरम आनिया ताना......

 
 
प्रेमचंद और कबीर सर्वाधिक लोकप्रिय  - रोहित कुमार 'हैप्पी'

13 अगस्त 2019: जून-जुलाई में भारत-दर्शन के 2 मिलियन से अधिक पृष्ठ पढ़े गए। आंकड़े बताते हैं कि हिंदी साहित्य पर आज भी कबीर और मुंशी प्रेमचंद का साम्राज्य है।

इस प्यारे से देश 'न्यूज़ीलैंड' ने विश्व को इंटरनेट का पहला हिन्दी प्रकाशन दिया - 'भारत-दर्शन'। इस समय 'भारत-दर्शन' विश्व की सर्वाधिक पढ़े जाने वाली हिन्दी साहित्यिक पत्रिका है।

- रोहित कुमार 'हैप्पी' 

Bharat-Darshan Readership June-July 2019

हिंदी साहित्य पर कबीर और मुंशी प्रेमचंद का साम्राज्य है - आंकड़े 


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66वें राष्‍ट्रीय फिल्‍म पुरस्‍कार 2018 - भारत-दर्शन समाचार

9 अगस्त 2019 (भारत): फीचर फिल्‍म श्रेणी के चेयरपर्सन श्री राहुल रवैल, गैर फीचर फिल्‍म श्रेणी के चेयरपर्सन श्री ए. एस. कनाल और सिनेमा पर सर्वश्रेष्‍ठ लेखन श्रेणी के चेयरपर्सन श्री उत्‍पल बोरपुजारी ने 9 अगस्त को एक संवाददाता सम्‍मेलन में 66वें राष्‍ट्रीय फिल्‍म पुरस्‍कारों की घोषणा की। चेयरपर्सन और अन्‍य ज्‍यूरी सदस्‍यों ने आज 66वें राष्‍ट्रीय फिल्‍म पुरस्‍कार पर एक रिपोर्ट केन्‍द्रीय मंत्री श्री प्रकाश जावड़ेकर को सौंपी गई है।

राष्‍ट्रीय फिल्‍म पुरस्‍कार विजेताओं की सूची इस प्रकार है:

गुजराती फिल्‍म ‘हेलारो' को सर्वश्रेष्‍ठ फीचर फिल्‍म पुरस्‍कार

स्‍वस्‍थ मनोरंजन देने के लिए ‘बधाई हो' फिल्‍म को सर्वश्रेष्‍ठ लोकप्रिय फिल्‍म पुरस्‍कार

हिन्‍दी फिल्‍म ‘पैडमैन' को सामाजिक विषयों पर सर्वश्रेष्‍ठ फिल्‍म का पुरस्‍कार

आदित्‍य धर को ‘उरी: द सर्जिकल स्‍ट्राइक' फिल्‍म के लिए सर्वश्रेष्‍ठ निर्देशक का पुरस्‍कार

आयुष्‍मान खुराना को ‘अंधाधुन' तथा विक्की कौशल को ‘उरी: द सर्जिकल स्‍ट्राइक' फिल्‍म के लिए संयुक्‍त रूप से सर्वश्रेष्‍ठ अभिनेता पुरस्‍कार

तेलुगू फिल्‍म ‘महंती' में अपने अभिनय के लिए कीर्ति सुरेश को सर्वश्रेष्‍ठ अभिनेत्री का पुरस्‍कार

मराठी फिल्‍म ‘पानी' को पर्यावरण संरक्षण पर सर्वश्रेष्‍ठ फिल्‍म का पुरस्‍कार

कन्‍नड़ फिल्‍म ‘ऑनडाला इराडाला' को राष्‍ट्रीय एकता पर सर्वश्रेष्‍ठ फीचर फिल्‍म का नरगिस दत्‍त पुरस्‍कार

उत्‍तराखंड को सिनेमा - अनुकूल सर्वश्रेष्‍ठ राज्‍य घोषित किया गया

[भारत-दर्शन समाचार]

 


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सुषमा स्वराज नहीं रहीं  - भारत-दर्शन समाचार

Sushma Swaraj

6 अगस्त 2019 (भारत): भारत की पूर्व विदेश मंत्री सुषमा स्वराज (Sushma Swaraj) का 6 अगस्त की रात दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (AIIMS) में निधन हो गया। उन्हें हृदय आघात (हार्ट अटैक) होने पर एम्स लाया गया था और वे रात 10 बजे एम्स में भर्ती की गईं थी।

सुषमाजी को एक विदेश मंत्री के रूप में उनकी प्रतिबद्धता और सक्रियता के कारण सदैव जाना जाएगा। हिंदी से उनका अनुराग जगत प्रसिद्ध है। पिछले दो 'विश्व हिंदी स्म्मेलनों' में उनकी सक्रियता सराहनीय रही है।

निधन से कुछ घंटे पूर्व सुषमा ने एक ट्वीट में कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाए जाने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बधाई दी थी। इसमें उन्होंने लिखा था- "जीवन में इसी दिन की प्रतीक्षा कर रही थी।"

Last Twitter from Sushma Swaraj

सुषमा स्वराज का जन्म 14 फरवरी 1952 को हरियाणा के अंबाला में हुआ था। उनका परिवार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ा था।

सुषमा ने सबसे पहला चुनाव 1977 में लड़ा। तब वे 25 वर्ष की थीं। वे हरियाणा की अंबाला सीट से चुनाव जीतकर देश की सबसे युवा विधायक बनीं। आप हरियाणा की देवीलाल सरकार में मंत्री भी रहीं। आप किसी राज्य में मंत्री के पद पर रहने वाली सबसे युवा मंत्री थीं।

1998 में दिल्ली की पहली महिला मुख्यमंत्री बनीं।


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विहाग वैभव को भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार  - भारत-दर्शन समाचार

4 अगस्त 2019 (भारत): भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार इस वर्ष युवा कवि विहाग वैभव को उनकी कविता, ‘चाय पर शत्रु-सैनिक’ के लिए दिया जाएगा। यह पुरस्कार हर वर्ष 35 वर्ष से कम उम्र के युवा कवि को दिया जाता है। पुरस्कार उस वर्ष की प्रकाशित सर्वश्रेष्ठ कविता के लिए दिया जाता है। तार सप्तक के प्रसिद्ध हिंदी कवि भारत भूषण अग्रवाल की स्मृति में यह पुरस्कार उनकी स्वर्गीय पत्नी बिंदू अग्रवाल ने आरम्भ किया था। पुरस्कार का उद्देश्य युवा लेखन को बढ़ावा देना था।

यह पुरस्कार पांच सदस्यीय मंडल द्वारा दिया जाता है जिसमें से हर वर्ष एक व्यक्ति पुरस्कार के लिए चयन करता है। जूरी स्थायी है। निर्णायक मंडल में अशोक वाजपेयी, अरुण कमल, उदय प्रकाश, अनामिका और पुरुषोत्तम अग्रवाल हैं। बारी-बारी से हर वर्ष एक निर्णायक पुरस्कार के लिए कविता का चुनाव करता है। इस वर्ष अरुण कमल निर्णायक थे।

विहाग बनारस में शोध छात्र हैं और उनकी यह कविता पिछले वर्ष ‘तद्भव' पत्रिका के अक्टूबर 2018 के अंक में प्रकाशित हुई थी।

विहाग को यह पुरस्कार 11 अक्टूबर 2019 को रज़ा फाउंडेशन द्वारा आयोजित वार्षिक समारोह ‘युवा-2019' के अवसर पर प्रदान किया जाएगा।

[भारत-दर्शन समाचार ]

 

 


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गूगल डूडल पर अमरीश पुरी - रोहित कुमार हैप्पी

Google Doodle On Amrish Puri, 22 June 2019 22 जून 2019: गूगल ने हिंदी अभिनेता अमरीश पुरी की 87वीं जयंती पर डूडल बनाकर उन्हें सम्मान दिया। अमरीश पुरी का जन्म 22 जून 1932 को हुआ था। वे कार भाई और एक बहन थे। उनके दो बड़े भाई मदन पुरी और चमन पुरी भी अभिनेता थे।

पुरी ने 39 वर्ष की आयु में पहली भूमिका निभाई और कुछ सबसे यादगार खलनायकों को पर्दे पर चित्रित किया। अमरीश ने 1954 में एक ऑडिशन दिया था लेकिन उनका चयन नहीं हुआ था। इसके बाद वे कई वर्षों तक थिएटर और वॉयसओवर करते रहे। उन्होंने 1971 की रेशमा और शेरा में पहली बार हिंदी फिल्मों में अपनी उपस्थिति दर्ज की।आपने हॉलीवुड की ऑस्कर विजेता, 'गांधी' फिल्म में भी में 'खान' के रूप में एक सहायक भूमिका अभिनीत की।

अमरीश पुरी ने 1984 मे बनी स्टीवेन स्पीलबर्ग की फ़िल्म "इंडियाना जोन्स एंड द टेम्पल ऑफ़ डूम" (Indiana Jones and the Temple of Doom) में मोलाराम की भूमिका निभाई थी, जो बहुत चर्चित रही थी। इस अभिनय के बाद उन्होंने हमेशा अपना सिर मुँडवाकर रखने का निर्णय लिया था।

फ़िल्म मिस्टर इंडिया का उनका खलनायक वाला एक संवाद "मोगैम्बो खुश हुआ" बहुत प्रसिद्ध हुआ था। फ़िल्म 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' का उनका संवाद "जा सिमरन जा! जी ले अपनी ज़िन्दगी।" बहुत प्रभावी रहा था।

अमरीश पुरी पर बनाए गए इस गूगल डूडल के कलाकार हैं पुणे निवासी देबांगशु मुलिक (Debangshu Moulik), देबांगशु एक विज़ुअल आर्टिस्ट हैं। देबांगशु स्वयं बचपन से अमरीश पुरी की अनेक फिल्में देखीं हैं और वे उनके प्रशंसक हैं।

Pune-based guest artist Debangshu Moulik who did Google Doodle on Amrish Puri


गूगल डूडल पर अपने अनुभव साझा करते हुए देबांगशु कहते हैं, "मैंने बचपन से, कई फिल्मों में अमरीश पुरी के अभिनय को देखा है। उन्हें अलग-अलग किरदार निभाते हुए देखता हुआ, बड़ा हुआ हूँ। इसलिए, उनकी जयंती के लिए गूगल डूडल बनाने के लिए आमंत्रित किया जाना वास्तव में बहुत ही सुखद अनुभव था।"

 

देबांगशु को इस डूडल के लिए बहुत परिश्रम करना पड़ा। इस डूडल में पारंपरिक और डिजिटल दोनों प्रकार की चित्रकारी की गई है। देबांगशु का मानना है कि उनकी इस कलाकृति से लोग अमरीश पूरी के बारे में और अधिक जानने के लिए उत्साहित होंगे।

- रोहित कुमार 'हैप्पी'

 चित्र और छाया चित्र: ......

 
 
सुप्रसिद्ध मराठी कवि प्रफुल्ल शिलेदार का कविता पाठ - भारत-दर्शन समाचार

भारत (31 मई 2019) साहित्‍य अकादेमी मंगलवार, 4 जून 2019 को मुबई में सुप्रसिद्ध मराठी कवि प्रफुल्ल शिलेदार का कविता पाठ आयोजित कर रही है।

यह कविता पाठ कविसंधि कार्यक्रम के अंतर्गत आयोजित किया गया है। कार्यक्रम सायं 6.00 बजे साहित्‍य अकादेमी सभागार, 172, मुंबई मराठी ग्रंथ संग्रहालय मार्ग, दादर (पूर्व), मुबई में होगा।

सभी साहित्य प्रेमी आप सादर आमंत्रित हैं। अधिक जानकारी के लिए आप निम्नलिकित ई-मेल पर संपर्क कर सकते हैं:

rs.rom@sahitya-akademi.gov.in

[भारत-दर्शन समाचार]


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अनिल शर्मा केंद्रीय हिंदी शिक्षण मंडल के नए उपाध्यक्ष  - रोहित कुमार हैप्पी

अनिल शर्मा

27 जून 2020 (भारत): मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार ने अनिल कुमार शर्मा को केंद्रीय हिंदी शिक्षण मंडल का उपाध्यक्ष नियुक्त किया है।

अनिल शर्मा साहित्य जगत में अनिल जोशी के नाम से जाने जाते हैं। आपने नौ वर्षों तक ब्रिटेन और फीजी में राजनयिक के रूप में कार्य करते हुए हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार का महत्वपूर्ण कार्य किया है। फीजी उच्चायोग में द्वितीय सचिव के पद पर रहते हुए अनिल शर्मा के कार्य सराहनीय रहे हैं। हिंदी संस्थान के निदेशक प्रो. नन्दकिशोर पांडेय ने अपनी शुभकामनाएं देते हुए आशा व्यक्त की है कि अनिल शर्मा के नेतृत्व में संस्थान विकास के नए सोपान चढ़ेगा।

अनिल शर्मा से पहले डॉ॰ कमल किशोर गोयनका केंद्रीय हिंदी शिक्षण मंडल के उपाध्यक्ष थे। दिल्ली के ज़ाकिर हुसैन कॉलेज से अवकाशप्राप्त डॉ. गोयनका प्रेमचन्द साहित्य के विद्वान एवं प्रामाणिक शोधकर्ता माने जाते हैं। मुंशी प्रेमचन्द पर उनकी अनेक पुस्तकें व लेख प्रकाशित हो चुके हैं। डॉ. कमल किशोर गोयनका ने वैश्विक हिंदी परिवार के माध्यम से अनिल शर्मा को शुभकामनाएँ दी हैं। उन्होंने अपने सदेश में कहा, "अनिल जोशी को बधाई। एक हिंदी सेवी सर्वथा उचित पद पर पहुंचा है। हिंदी सेवा के लिए देश-विदेश में पर्याप्त अवसर होंगे और नया करने की भी स्वतंत्रता होगी। एक सही व्यक्ति को सही जगह मिली है। डॉ. रमेश पोखरियाल, मंत्री जी को इस नियुक्ति के लिए धन्यवाद और अनिल जी को बधाई।"

डॉ कमल किशोर गोयनका के अतिरिक्त अशोक चक्रधर और ब्रजकिशोर शर्मा केंद्रीय हिंदी शिक्षण मंडल के उपाध्यक्ष रह चुके हैं। केंद्र सरकार द्वारा 1960 में केंद्रीय हिंदी शिक्षण मंडल का गठन किया था। मंडल का प्रमुख उद्देश्य भारत के संविधान की धारा 351 की मूल भावना के अनुरूप अखिल भारतीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिंदी के शिक्षण-प्रशिक्षण, शैक्षणिक अनुसंधान, बहुआयामी विकास और प्रचार प्रसार से जुड़े कार्यों का संचालन करना है।

                                                              -रोहित कुमार हैप्पी

                                                             [भारत-दर्शन समाचार]


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प्रेम जनमेजय और लालित्य ललित को चेतना इंडिया सम्मान - भारत-दर्शन समाचार

नई दिल्ली, भारत (30 मई 2019): सामाजिक, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक संस्था 'चेतना इंडिया' व्यंग्यकार प्रेम जनमेजय और व्यंग्यकार डॉ लालित्य ललित को 'चेतना इंडिया सम्मान' से सम्मानित करेगी। संस्था ने अपनी कार्यकारिणी की बैठक में सर्वसम्मति से यह निर्णया लिया है। दोनों साहित्यकारों को यह सम्मान हिमाचल प्रदेश के कुल्लू में 2 जून 2019 को आयोजित 'कुल्लू व्यंग्य महोत्सव' में प्रदान किया जाएगा।

प्रेम जनमेजय व्यंग्य विधा को पूरी तरह समर्पित सशक्त साहित्यकार हैं। प्रेम जनमेजय 'व्यंग्य यात्रा' नामक पत्रिका निकालते हैं। आप परंपरागत विषयों से हटकर लिखते हैं।

लालित्य ललित वर्तमान में व्यंग्य लेखन में काफी चर्चित नाम हैं।

[भारत-दर्शन समाचार ]


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अलविदा गूगल + - भारत-दर्शन समाचार

2 अप्रैल 2019 से गूगल + की सेवाएँ बंद हो रही हैं। भारत-दर्शन अपने 1,39,131 अनुसरणकर्ताओं को उनके असीम स्नेह के लिए अपना आभार व्यक्त करता है। कई चीजों पर आपका नियंत्रण नहीं होता - हमें खेद है कि इतनी उत्तम सेवा अब विराम ले रही है।

हमारा अपने गूगल + अनुसरणकर्ताओं से अनुरोध है कि कृपया twitter या facebook के माध्यम से संपर्क बनाए रखें:

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https://www.facebook.com/bharatdarshanhindi/

आप हमारी साइट के माध्यम से भी हमसे संपर्क कर सकते हैं:

https://www.bharatdarshan.co.nz

एक बार फिर, आप सभी का आभार।

 


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हिंदी और अंग्रेजी सीखने के लिए गूगल का 'बोलो' एप - भारत-दर्शन समाचार

7 मार्च 2019 (भारत): गूगल भारत के बच्चों को हिंदी और अंग्रेजी सिखाने का काम करेगी। गूगल ने 6 मार्च 2019 को नया एप ‘बोलो' लॉन्च किया है। यह एप प्राथमिक कक्षा के बच्चों को हिंदी और अंग्रेजी सीखने में सहायता करेगा। अभी यह एप केवल भारत में ही इंस्टॉल किया जा सकता है।

Google Bolo App

कंपनी ने कहा है कि यह एप वॉइस रिकॉग्निशन तथा टेक्स्ट-टू-स्पीच तकनीक पर आधारित है। इसे सबसे पहले भारत में प्रस्तुत किया गया है। कंपनी के अनुसार इसमें एक एनिमेटेड पात्र है जो बच्चों को कहानियां पढ़ने के लिये प्रोत्साहित करेगा और किसी शब्द का उच्चारण करने में दिक्कत आने पर बच्चों की मदद करेगा। यह कहानी पूरा करने पर बच्चों का मनोबल भी बढ़ाती है।

इस एप को इस तरह डिजाइन किया गया है कि यह ऑफलाइन भी काम कर सके। इस एप को इंस्टॉल करने के लिए केवल 50 एमबी स्पेस चाहिए।। इसमें हिंदी और अंग्रेजी की लगभग 100 कहानियां हैं।

यह एप गूगल प्ले स्टोर पर नि:शुल्क उपलब्ध है। यह एंड्रायड 4.4 (किटकैट) तथा इसके बाद के संस्करण वाले सारे डिवाइस पर चल सकता है। कश्यप ने कहा कि गूगल ने इस एप का उत्तर प्रदेश के करीब 200 गांवों में परीक्षण किया है। एप में बंगाली जैसी अन्य भारतीय भाषाओं को भी सम्मिलित करने पर विचार किया जा रहा है।

[ भारत-दर्शन समाचार ]


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नामवर सिंह नहीं रहे  - भारत-दर्शन समाचार

19 फरवरी 2019 (भारत): हिंदी के प्रतिष्ठित आलोचक नामवर सिंह नहीं रहे। नामवर सिंह का 19 फरवरी की मध्य रात्रि को दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में निधन हो गया।

Namvar Singh No more

आपने अधिकतर आलोचना, साक्षात्कार इत्यादि विधाओं में सृजन किया है। आपको साहित्य अकादमी सम्मान प्राप्त है। आपका जन्म 28 जुलाई 1927 को जीयनपुर, वाराणसी (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। आपके परिवार में एक पुत्र और एक पुत्री है। आपकी पत्नी का निधन कई वर्ष पहले हो चुका है।

आपने बीएचयू से हिंदी साहित्य में एम.ए और पीएच.डी की थी और बीएचयू, सागर एवं जोधपुर विश्वविद्यालय और जेएनयू में अध्यापन किया था।

नामवर सिंह ने हिंदी साहित्य में आलोचना को एक नया आयाम दिया।

'कहानी नयी कहानी, 'छायावाद', 'इतिहास और आलोचना', 'कविता के नये प्रतिमान', 'दूसरी परम्परा की खोज' और 'वाद विवाद संवाद' आपकी प्रमुख रचनाएं हैं। आपने हिंदी की दो पत्रिकाओं 'जनयुग और 'आलोचना का संपादन भी किया।

[भारत-दर्शन समाचार]


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अबू धाबी के न्यायालयों में हिंदी होगी तीसरी अधिकृत भाषा | Hindi in Abu Dhabi - भारत-दर्शन समाचार

अबू धाबी (9 फरवरी 2019): अबू धाबी ने ऐतिहासिक निर्णय लेते हुए अरबी और अंग्रेजी के पश्चात हिंदी को अपने न्यायालयों में तृतीय आधिकारिक भाषा के रूप में सम्मिलित कर लिया है। न्याय तक पहुंच बढ़ाने के उद्देश्य से यह कदम उठाया गया है।

Hindi in Abu Dhabi

अबू धाबी न्याय विभाग (एडीजेडी) ने 9 फरवरी 2019 को कहा कि उसने श्रम मामलों में अरबी और अंग्रेजी के साथ हिंदी भाषा को सम्मिलित करके न्यायलयों की प्रक्रिया के लिए भाषा के माध्यम का विस्तार किया है। इस निर्णय से हिंदी भाषी लोगों को मुकदमे की प्रक्रिया, अपने अधिकारों और कर्तव्यों के बारे में जानने में सहायता मिलेगी।

आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, संयुक्त अरब अमीरात की जनसंख्या में लगभग दो तिहाई विदेशों के प्रवासी लोग हैं। संयुक्त अरब अमीरात में भारतीय लोगों की संख्या 26 लाख है, जो देश की कुल आबादी का 30 प्रतिशत है। भारतीय समुदाय संयुक्त अरब अमीरात का सबसे बड़ा प्रवासी समुदाय है।

सरकार का मानना है कि इस निर्णय से न्यायिक सेवाओं को बढ़ावा मिलेगा और मुकद्दमों की प्रक्रिया में पारदर्शिता को भी बढ़ावा मिलेगा ।

[भारत-दर्शन समाचार]


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कवि जैमिनी हरियाणवी नहीं रहे - भारत-दर्शन समाचार

6 फरवरी 2019 (भारत): सुप्रसिद्ध हास्य कवि जैमिनी हरियाणवी का 6 फरवरी 2019 को निधन हो गया।

जैमिनी हरियाणवी का हिंदी मंच पर हरियाणवी भाषा को स्थापित करने में बहुत योगदान रहा है। उनकी बहुचर्चित रचना 'टी०वी० और बीवी' ने उनको एक नई पहचान दी थी।

हास्य कवि जैमिनी हरियाणवी का जन्म हरियाणा में झज्जर ज़िले के बादली गांव में 5 सितंबर 1931 को हुआ था। आपका वास्तविक नाम देवकी नंदन जैमिनी था। प्रसिद्ध हास्य कवि अरुण जैमिनी हास्य कवि जैमिनी हरियाणवी के पुत्र हैं।

 


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बॉलीवुड गीतकार अनवर सागर का निधन - भारत-दर्शन समाचार

3 जून 2020 (भारत): गीतकार अनवर सागर का बुधवार को मुंबई में निधन हो गया। वह लगभग 70 वर्ष के थे। बुधवार दोपहर कोकिलाबेन धीरूभाई अंबानी अस्पताल लाए जाने से पहले ही उनका निधन हो चुका था। अनवर को अक्षय कुमार अभिनीत फिल्म ''खिलाड़ी'' के लोकप्रिय गीत ''वादा रहा सनम''के लिये याद किया जाता है।

अनवर सागर हृदय संबंधी बीमारियों से जूझ रहे थे और दिल का दौरा पड़ने से उनकी मृत्यु हो गई।

अनवर ने 80 और 90 के दशक की कई फिल्मों के गीत लिखे, जिनमें डेविड धवन की ''याराना'', जैकी श्रॉफ की ''सपने साजन के'', ''खिलाड़ी'', ''मैं खिलाड़ी तू अनाड़ी'', अजय देवगन की ''विजयपथ''समेत कई फिल्में सम्मिलित हैं।

अनवर सागर ने 90 के दशक के करीब सभी बड़े संगीतकारों के साथ काम किया। इनमें नदीम- श्रवण, राजेश रोशन, जतिन- ललित और अनु मलिक जैसे संगीतकार मुख्य हैं।

बॉलीवुड ने पिछले एक महीने में कई बड़े नामों को खो दिया। 29 अप्रैल को अभिनेता इरफान खान का निधन हुआ था। अगले ही दिन 30 अप्रैल को ऋषि कपूर ने दुनिया को अलविदा कह दिया। दिग्गज गीतकार योगेश गौर का 29 मई को और बीते एक जून को संगीतकार वाजिद खान का निधन हुआ। 

[भारत-दर्शन समाचार]


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23 मार्च 1931 को हँसते-हँसते फाँसी पर झूल गई यह देशभक्त तिकड़ी  - भारत-दर्शन संकलन

अमर शहीद भगतसिंह का जन्म- 27 सितंबर, 1907 को बंगा, लायलपुर, पंजाब (अब पाकिस्तान में) हुआ था व 23 मार्च, 1931 को इन्हें दो अन्य साथियों सुखदेव व राजगुरू के साथ फांसी दे दी गई। भगतसिंह का नाम भारत के सवतंत्रता संग्राम में अविस्मरणीय है। भगतसिंह देश के लिये जीये और देश ही के लिए शहीद भी हो गए।


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तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा - सुभाष चंद्र बोस - भारत-दर्शन संकलन

जब भारत स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत था और नेताजी आज़ाद हिंद फ़ौज के लिए सक्रिय थे तब आज़ाद हिंद फ़ौज में भरती होने आए सभी युवक-युवतियों को संबोधित करते हुए नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने कहा, "तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा।"
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रामधारी सिंह दिवाकर को 2018 का श्रीलाल शुक्‍ल सम्‍मान - भारत-दर्शन समाचार

भारत (31 जनवरी 2019) इफको द्वारा 2018 का 'श्रीलाल शुक्‍ल स्‍मृति इफको साहित्‍य सम्‍मान' वरिष्‍ठ कथाकार रामधारी सिंह दिवाकर को प्रदान किया गया है। उन्‍हें यह सम्‍मान गुरुवार (31 जनवरी) को नई दिल्‍ली के एनसीयूआई ऑडिटोरियम में आयोजित एक समारोह में सुविख्‍यात साहित्‍यकार मृदुला गर्ग ने प्रदान किया। विशिष्‍ट अतिथि के तौर पर जिलियन राइट ( कथाकार श्रीलाल शुक्ल की पुस्‍तक राग दरबारी का अंग्रेजी में अनुवाद करने वाली लेखिका ) की उपस्थिति में पुरस्‍कार स्‍वरूप रामधारी सिंह दिवाकर को एक प्रतीक चिह्न, प्रशस्ति पत्र और 11 लाख रुपए की राशि प्रादन की गई है।

समारोह के दौरान वरिष्‍ठ कथाकार रामधारी सिंह दिवाकर ने ग्रामीण क्षेत्रों की बदहाली का उल्लेख करते हुए कहा, 'मैं 70 फीसदी वाले उस गांव का लेखक हूं, जहां तकरीबन 20 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे रहते है। मैं उस गांव का लेखक हूं, जहां कृषि कर्म पर निर्भर, अपने भाग्‍य को कोसते, कर्ज में डूबे, खेती से भी लागत खर्च न निकाल पाने वाले किसान रहते हैं।'

उन्‍होंने आगे कहा, 'लाखों-लाख की संख्‍या में जहां के मजदूर रोजी-रोटी की तलाश में पलायन करते हैं, जहां की आबादी से देश-प्रदेश की शासन सत्‍ता बनती बदलती है, जहां हाथों में मोबाइल फोन लिए नौकरी-रोजगार की तलाश में नौजवानों की विशाल आबादी आश्‍वासनों के सपने संजोए भौंचक सी खड़ी है, गांव के उसी दिशाहीन चौराहे पर खड़ा मै एक हिंदी का लेखक हूं।'

इस अवसर पर महमूद फारूखी और दारैन शाहिदी द्वारा श्रीलाल शुक्‍ल के उपन्‍यास 'राग दरबारी' पर आधारित दास्‍तानगोई की संगीतमय प्रस्‍तुति भी की गई।

इफको ने वरिष्ठ कथाकर रामधारी सिंह दिवाकर को वर्ष 2018 का 'श्रीलाल शुक्ल स्मृति इफको साहित्य सम्मान' देने की घोषणा पिछले वर्ष अक्टूबर में की थी।


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लेखिका कृष्णा सोबती का निधन  - भारत-दर्शन समाचार

25 जनवरी 2019 (भारत) हिन्दी लेखिका कृष्णा सोबती का आज सुबह एक निजी अस्पताल में निधन हो गया। वह 93 वर्ष की थी। उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त था।

कृष्णा सोबती भारत की सवतंत्रता के पश्चात् हिन्दी के श्रेष्ठ एवं लोकप्रिय साहित्यकारों में से एक थी।

अस्वस्थ होने कइ कारण उन्हें 30 नवम्बर को अस्पताल में भर्ती करवाया गया था जहाँ आज (25 जनवरी 2019) सुबह साढ़े आठ बजे उनका निधन हो गया। वह उन्होंने हिन्दी गद्य को एक नई शैली दी थी।

सोबती का अंतिम संस्कार निगम बोध घाट के विद्युत शवदाह गृह में आज शाम चार बजे किया जायेगा।

कृष्णा जी को 1980 में ‘जिन्दगीनामा' उपन्यास पर साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था।

18 फरवरी 1925 को पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त के गुजरात में जन्मी श्रीमती सोबती देश विभाजन के बाद दिल्ली आईं और यहीं बस गयीं। ‘बादलों के घेरे' कहानी से 50 के दशक के नई कहानी आन्दोलन में प्रकाश में आयीं सोबती के उपन्यास ‘मित्रों मरजानी' ने उन्हें साहित्य में स्थापित कर दिया। इस कृति पर गत चार दशक में अनेक मंचन भी हुए। यारों के यार तीन पहाड़, सूरजमुखी अँधेरे के, जिंदगीनामा समय-सरगम, हम हशमत और ऐ लड़की उनकी चर्चित कृतियाँ हैं।

 

 


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डॉ. भीम राव अंबेडकर का जीवन परिचय  - भारत-दर्शन संकलन

भारत को संविधान देने वाले महान नेता डा. भीम राव अंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 को मध्य प्रदेश के एक छोटे से गांव में हुआ था। डा. भीमराव अंबेडकर के पिता का नाम रामजी मालोजी सकपाल और माता का भीमाबाई था। अपने माता-पिता की चौदहवीं संतान के रूप में जन्में डॉ. भीमराव अम्बेडकर जन्मजात प्रतिभा संपन्न थे।

भीमराव अंबेडकर का जन्म महार जाति में हुआ था जिसे लोग अछूत और बेहद निचला वर्ग मानते थे। बचपन में भीमराव अंबेडकर (Dr.B R Ambedkar) के परिवार के साथ सामाजिक और आर्थिक रूप से गहरा भेदभाव किया जाता था। भीमराव अंबेडकर के बचपन का नाम रामजी सकपाल था. अंबेडकर के पूर्वज लंबे समय तक ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में कार्य करते थे और उनके पिता ब्रिटिश भारतीय सेना की मऊ छावनी में सेवा में थे. भीमराव के पिता हमेशा ही अपने बच्चों की शिक्षा पर जोर देते थे।

1894 में भीमराव अंबेडकर जी के पिता सेवानिवृत्त हो गए और इसके दो साल बाद, अंबेडकर की मां की मृत्यु हो गई. बच्चों की देखभाल उनकी चाची ने कठिन परिस्थितियों में रहते हुये की। रामजी सकपाल के केवल तीन बेटे, बलराम, आनंदराव और भीमराव और दो बेटियाँ मंजुला और तुलासा ही इन कठिन हालातों मे जीवित बच पाए। अपने भाइयों और बहनों मे केवल अंबेडकर ही स्कूल की परीक्षा में सफल हुए और इसके बाद बड़े स्कूल में जाने में सफल हुये। अपने एक देशस्त ब्राह्मण शिक्षक महादेव अंबेडकर जो उनसे विशेष स्नेह रखते थे के कहने पर अंबेडकर ने अपने नाम से सकपाल हटाकर अंबेडकर जोड़ लिया जो उनके गांव के नाम "अंबावडे" पर आधारित था।

8 अगस्त, 1930 को एक शोषित वर्ग के सम्मेलन के दौरान अंबेडकर ने अपनी राजनीतिक दृष्टि को दुनिया के सामने रखा, जिसके अनुसार शोषित वर्ग की सुरक्षा उसकी सरकार और कांग्रेस दोनों से स्वतंत्र होने में है।

अपने विवादास्पद विचारों, और गांधी और कांग्रेस की कटु आलोचना के बावजूद अंबेडकर की प्रतिष्ठा एक अद्वितीय विद्वान और विधिवेत्ता की थी जिसके कारण जब, 15 अगस्त, 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद, कांग्रेस के नेतृत्व वाली नई सरकार अस्तित्व में आई तो उसने अंबेडकर को देश का पहले कानून मंत्री के रूप में सेवा करने के लिए आमंत्रित किया, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। 29 अगस्त 1947 को अंबेडकर को स्वतंत्र भारत के नए संविधान की रचना के लिए बनी संविधान मसौदा समिति के अध्यक्ष पद पर नियुक्त किया गया। 26 नवंबर, 1949 को संविधान सभा ने संविधान को अपना लिया।

14 अक्टूबर, 1956 को नागपुर में अंबेडकर ने खुद और उनके समर्थकों के लिए एक औपचारिक सार्वजनिक समारोह का आयोजन किया। अंबेडकर ने एक बौद्ध भिक्षु से पारंपरिक तरीके से तीन रत्न ग्रहण और पंचशील को अपनाते हुये बौद्ध धर्म ग्रहण किया। 1948 से अंबेडकर मधुमेह से पीड़ित थे. जून से अक्टूबर 1954 तक वो बहुत बीमार रहे इस दौरान वो नैदानिक अवसाद और कमजोर होती दृष्टि से ग्रस्त थे। 6 दिसंबर 1956 को अंबेडकर जी की मृत्यु हो गई।

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बाबा साहब पर अन्य सामग्री निम्नलिखित पृष्ठों पर पढ़ें:

बाबा साहब कविता
बाबा साहब का चमत्कार

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डा. भीमराव अम्बेड़कर के राज्य समाजवाद का कोई पूछनहार नहीं | जन्म-दिवस पर विशेष - राजीव आनंद

डा. अम्बेड़कर ने महात्मा फूले की शिक्षा संबंधी सोच को परिवर्तन की राजनीति के केन्द्र में रखकर संघर्ष किया और आने वाले नस्लों को जाति के विनाश का एक ऐसा मूलमंत्र दिया जो सही अर्थों में सामाजिक परिवर्तन का बाहक बन सके।

डा. अम्बेड़कर ने महात्मा फूले द्वारा ब्राहमणवाद के खिलाफ शुरू किए गए अभियान को विश्वव्यापी बनाया। परंतु डा. अम्बेड़कर के बाद उनकी राज्य समाजवाद के अवधारणा को कोई पूछने वाला ही नहीं है।  डा. अम्बेड़कर के जीवनकाल में किसी ने यह नहीं सोचा था कि 'अम्बेड़कर के सिद्धांत' को आधार बना सत्ता भी हासिल की जा सकती है लेकिन काशीराम और मायावती ने सत्ता तो हासिल की परंतु सत्ता का सुख भोगने वाली मायावती सरकार ने डा. अम्बेड़कर के मुख्य सिद्धांत 'जाति का विनाश' को क्या अग्रसारित किया या उन्होंने जाति प्रथा को और सुदृढ़ किया, यह अलग से पड़ताल का विषय है।  

'जाति का विनाश' पुस्तक के रूप में छपवाने की भी एक ऐतिहासिक कहानी है। दरअसल लाहौर के जातपात तोड़क मंड़ल नामक संस्था ने डा. अम्बेड़कर को जाति प्रथा पर भाषण देने का आमंत्रण दिया था। डा. अम्बेड़कर ने अपने भाषण को लिखकर भिजवा दिया था परंतु जातपात तोड़क मंड़ल के ब्राहणवादी कर्ताधर्ता ने भाषण का विरोध करते हुए उसे संपादित कर पढ़ने की बात डा. अम्बेड़कर से कही जो डा. अम्बेड़कर को मंजूर न था। डा. अम्बेड़कर ने अपने भाषण सामग्री को पुस्तक रूप में छपवा दिया जो 'दी आनहिलेशन ऑफ कास्ट' के नाम से आज भारतीय इतिहास की धरोहर है।

भारतीय समाज के दलित वर्ग में जन्म लेने के कारण जाति प्रथा के कटु अनुभव बाबा साहब भीमराव अम्बेड़कर को हुआ था और यही वजह है कि उनके सिद्धांत और दर्शन में दलित, अछूत, शोषित और गरीब ने जगह पायी। बाबा साहब एक अछूत और मजदूर का जीवन जी कर देख चुके थे, वे कुली का भी काम किए तथा कुलियों के साथ रहे भी थे। उन्होंने गांव को वर्णव्यवस्था का प्रयोगशाला कहा तथा शेडयूल्ड़ कास्ट फेडरेशन की ओर से संविधान सभा को दिए गए अपने ज्ञापन में भारत में तीव्र औद्योगीकरण की मांग करते हुए कृषि को राज्य उद्योग घोषित करने की मांग की थी। डा. अम्बेड़कर का यह ज्ञापन 'स्टेटस ऑफ माइनारिटीज' नाम से उनकी रचनाओं में संकलित है। कृषि को उद्योग का दर्जा देने की मांग के अतिरिक्त पृथक निर्वाचन मंड़ल, पृथक आबादी, राज्य समाजवाद, भूमि का राष्द्रीयकरण की सामाजिक अवधारणाओं को संविधान का अंग बनाना चाहते थे परंतु मसौदा समिति के चेयरमैन होने के बावजूद वे यथास्थितिवादियों के विरोध के कारण संविधान में पूरी तरह शामिल नहीं करवा पाए थे। 

डा. अम्बेड़कर कहा करते थे कि हर व्यक्ति जो जॉन स्टुअर्ट मिल के इस सिद्धांत को दुहराता है कि एक देश दूसरे देश पर शासन नहीं कर सकता, उसे यह भी स्वीकार करना चाहिए कि एक वर्ग दूसरे वर्ग पर शासन नहीं कर सकता। प्रसिद्ध समाजवादी विचारक मधु लिमये ने एक लेख में डा. अम्बेड़कर लिखित पुस्तक 'जाति का विनाश' को कार्ल मार्क्स लिखित 'कम्युनिस्ट मैनीफैस्टो' के बराबर महत्व देते हुए लिखा था कि डा. अम्बेड़कर जाति का विनाश चाहते थे जिसके बिना न वर्ग का निर्माण हो सकता है और न ही वर्ग संघर्ष। डा. रामविलास शर्मा ने ठीक लिखा था कि 'एक मजदूर नेता के रूप में डा. अम्बेड़कर में जाति के भेद पीछे छूट गए थे।' डा. अम्बेड़कर के राज्य समाजवाद की अवधारणा कृषि और उद्योग पर राज्य के स्वामित्व पर आधारित था जिसे हम मार्क्सवादी अवधारणा से तुलना कर सकते है। डा.अम्बेड़कर और मार्क्स की अवधारणाओं में अंतर सिर्फ समय सीमा का है। डा. अम्बेड़कर राज्य समाजवाद की अवधारणा को सिर्फ संविधान लागू होने के समय से अगामी एक दशक के लिए चाहते थे जबकि मार्क्स के राज्य समाजवाद में ऐसी कोई समय सीमा नहीं पायी जाती है।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि गरीबी हटाओ के लोकलुभावने नारे के बावजूद गरीबी तो खैर क्या हटेगी! हाँ, दलित-आदिवासी गरीब को ही बहुत हद तक हटा दिया जाता है। परंतु डा. अम्बेड़कर ने अपने एक निबंध 'स्माल  होल्डिंस इन इंड़िया एंड देयर रेमिडीज' में भारत में गरीबी के कारण और निवारण पर स्पष्ट विचार प्रस्तुत किए है।  उनका कहना है कि भारत में जमीन पर जनसंख्या का बहुत अधिक दबाव है जिसके कारण जमीन का लगातार विभाजन होता रहा है और बड़ी जोतें छोटी जोतों में बदलती रही है जिसके परिणामस्वरूप अधिक लोगों को खेत में कार्य नहीं मिल पाता है और बहुत बड़ी श्रम शक्ति बेकार हो जाती है और यह बेकार पड़ी श्रम शक्ति बचत को खाकर अपना जीवनयापन करते है। भारत में यह बेकार श्रम शक्ति एक नासूर की तरह है जो राष्द्रीय लाभांश में बृद्धि करने की जगह उसे नष्ट कर देता है। डा. अम्बेड़कर ने इसका हल बतलाया कि कृषि को उद्योग का दर्जा देने से यह समस्या हल हो सकती है। उन्होंने कहा कि औद्योगीकरण से ही जमीन पर दबाव कम होगा और कृषि जो अभी छोटे-छोटे जोतों का शिकार है, औद्योगीकरण से पूंजी और पूंजीगत सामान बढ़ने से जोतों का आकार खुद-ब-खुद बढ़ जाएगा इसलिए डा. अम्बेड़कर ने शेडूल्ड कास्ट फेडरेशन की ओर से संविधान सभा को दिए गए अपने ज्ञापन में भारत के तीव्र  औद्योगीकरण की मांग करते हुए कृषि को राज्य उद्योग घोषित करने की मांग की थी।

बुद्धि के विकास को मानव अस्तित्व का अंतिम लक्ष्य मानने वाले डा. अम्बेड़कर का कहना था कि वो ऐसे धर्म को मानते है जो स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा सिखाए और यदि हम एक संयुक्त एकीकृत आधुनिक भारत चाहते है तो सभी धर्मों के शास्त्रों की संप्रभुता का अंत होना चाहिए। उन्होंने कहा कि हिन्दू धर्म में विवेक, तर्क और स्वतंत्र सोच के विकास के लिए कोई गुंजाइश नहीं है। आज भारतीय दो अलग-अलग विचारधाराओं द्वारा शासित हो रहे है। उनके राजनीतिक आदर्श जो संविधान की प्रस्तावना में इंगित है वे स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे को स्थापित करते है और उनके धर्म में समाहित सामाजिक आदर्श इससे इंकार करते है।

डा. अम्बेड़कर के बाद दलित राजनीति और दलित आंदोलनों में डा. अम्बेड़कर के सामाजिक विचारधारा की अवहेलना इस कदर की गयी है कि आज दलित आंदोलन पथभ्रष्ट हो चुका है। आज मजदूर वर्ग के नेतृत्व की डा. अम्बेड़कर की अवधारणा महज बौद्धिक विमर्श का विषय बन कर रह गया है। दलित और वामपंथी विचारक मजदूर वर्ग के नेतृत्व के प्रश्न पर चुप्पी साधे हुए है।  डा. अम्बेड़कर शायद इसलिए पहले ही कह गए कि मनुष्य नश्वर है, उसी तरह विचार भी नश्वर है। प्रत्येक विचार को प्रचार-प्रसार की जरूरत होती है जैसे किसी पौधे को पानी की, नहीं तो दोनों मुरझा कर मर जाते है।  
                                                                          - राजीव आनंद

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बाबा साहब -  राज नारायण तिवारी

संवारा है विधि ने वह छण इस तरह से,
दिया जब जगत को है उपहार ऐसा ।

सुहाना महीना बसंती पवन थी,......

 
 
बाबा साहब का चमत्कार - भारत दर्शन संकलन

1956 में भारत में एक महान् चमत्कार देखने को मिला। दलित और पीड़ित जनता के हदय-सम्राट डा. बाबा साहब अंबेडकर ने 14 अक्टूबर 1956 को अशोक विजयादशमी के दिन नागपुर में अपने पाँच लाख साथियों के साथ बौद्धधर्म की दीक्षा ली ।

 

यह दिन भारत के इतिहास में ही नहीं, बौद्ध-संसार के इतिहास में भी सुवर्णाक्षरों में लिखा गया। आज बाबा साहब हमारे बीच नहीं हैं पर उनका बतलाया हुआ सच्चा और सीधा मार्ग हमारे सामने है। बाबा साहब की अभिलाषा पूरी करने की जिम्मेदारी आज समस्त भारत की है।

 

 


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अम्बिका प्रसाद दिव्य पुरस्कारों हेतु पुस्तकें आमंत्रित - भारत-दर्शन समाचार

भारत (10 सितंबर, 2018 ) भोपाल, साहित्य सदन भोपाल द्वारा विगत बीस वर्षो से दिए जाने वाले इक्कीसवें अम्बिका प्रसाद दिव्य स्मृति प्रतिष्ठा पुरस्कारों हेतु रचनाकारों से पुस्तकें आमंत्रित की जाती हैं।

दिव्य पुरस्कारों हेतु लेखको एवं कवियों से कहानी, उपन्यास, कविता, गजल, नवगीत साहित्य व्यंग्य, समालोचना एवं बाल साहित्य विषयो पर मौलिक कृतियां आमंत्रित की जाती हैं।

प्रत्येक विधा में इक्कीस सौ रुपये राशि के अम्बिका प्रसाद दिव्य स्मृति पुरस्कार प्रदान किए जाएंगे।

गुणवत्ता के क्रम में द्वितीय स्थान पर आने वाली पुस्तकों को दिव्य प्रशस्ति पत्र प्रदान किये जाएंगे। प्रत्येक प्रविष्टि के साथ रुपए 200/- ( दो सौ ) प्रवेश शुल्क भेजना होगा।

हिन्दी में प्रकाशित पुस्तकों की मुद्रण अवधि 1 जनवरी 2016 से 31 दिसम्बर 2018 के मध्य होना चाहिए। अन्य जानकारी हेतु मोबाइल नंबर 09977782777 या ई-मेल jagdishkinjalk@gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है।

पता है - श्रीमती राजो किंजल्क, साहित्य सदन, 145 -ए, सांईनाथ नगर, सी सेक्टर, कोलार रोड, भोपाल - 462042 ( म.प्र )।


पुस्तकें भेजने की अंतिम तिथि 30 दिसम्बर 2018 है।

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गीतकार गोपालदास 'नीरज' नहीं रहे  - भारत-दर्शन समाचार

19 जुलाई (भारत) गीतकार व कवि गोपालदास 'नीरज' का 19 जुलाई की सांय दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में देहांत हो गया। 'नीरज' 93 वर्ष के थे।

उनके पुत्र शशांक प्रभाकर ने भारतीय मीडिया को बताया कि आगरा में प्रारंभिक उपचार के बाद उन्हें दिल्ली के एम्स में भर्ती कराया गया था लेकिन डॉक्टरों के अथक प्रयासों के बाद भी उन्हें बचाया नहीं जा सका।

उनका पार्थिव शरीर पहले आगरा में लोगों के अंतिम दर्शनार्थ रखा जाएगा और उसके पश्चात पार्थिव शरीर को अलीगढ़ ले जाया जाएगा जहां उनका अंतिम संस्कार किया जाएगा। 

 

 


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पत्र-लेखन प्रतियोगिता - भारत-दर्शन समाचार

भारत (16 जून 2018 ): इंटरनेट के दौर में जहां हस्तलिपि में लिखना लगभग लुप्तप्राय हो गया है, उस समय में 'हस्तलिपि' को प्रोत्साहित करने के लिए 'भारतीय डाक ( संचार मंत्रालय) ने राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर 'ढाई आखर' नामक 'पत्र-लेखन प्रतियोगिता' का आयोजन किया है। इस प्रतियोगिता का विषय है - 'मेरे देश के नाम खत'।  इस प्रतियोगिता का अंतरराष्ट्रीय संस्करण भारतीय मूल व अनिवासी भारतीयों के लिए आयोजित किया गया है।

यह प्रतियोगिता रवींद्रनाथ ठाकुर द्वारा रचित ‘आमार देशेर माटी' (ও আমার দেশের মাটি) से प्रेरित है। यह प्रतियोगिता दो श्रेणियों में आयोजित की गई है - अतर्देशीय पत्र श्रेणी जिसकी शब्द सीमा 500 शब्द है व लिफाफा श्रेणी जिसकी शब्द सीमा एक हजार शब्द है।

श्रेणियों को 18 वर्ष तक के आयु वर्ग व 18 वर्ष से अधिक आयु वर्ग में विभाजित किया गया है।

इस प्रतियोगिता के विजेताओं को नकद पुरस्कार दिया जाएगा। राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर के विजेताओं को क्रमश: 50,000, 25,000 व 10,000 रूपये का पुरस्स्कार दिया जाएगा।

सहायक डाक अधीक्षक आरके बिनवाल के अनुसार, "डाक सेवाओं की ओर लोगों का रुझान बढ़ाने के लिए विभाग ने राष्ट्रीय और प्रांतीय स्तर पर जूनियर और सीनियर वर्ग में पत्र लेखन प्रतियोगिता आयोजित की है।"

15 जून से शुरू हुई यह प्रतियोगिता 30 सितंबर 2018 तक होगी। प्रतियोगिता के अंतर्गत 'मेरे देश के नाम खत' लिखकर अंतर्देशीय-पत्र/अंतरराष्ट्रीय-पत्र या लिफाफे में डाक विभाग के चीफ पोस्ट मास्टर जनरल के नाम डाक से भेजा जाना आवश्यक है।

प्रतियोगिता के तहत आने वाले पत्रों के लिए पोस्ट आफिस में स्पेशल लेटर बाक्स लगाए जा रहे हैं। पत्र प्रधान डाकघर में भी स्वीकार किए जाएंगे।

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वरिष्ठ शायर सर्वेश चंदौसवी नहीं रहे - भारत-दर्शन समाचार

25 मई 2020 (भारत):वरिष्ठ शायर सर्वेश चंदौसवी जी का आज आकस्मिक निधन हो गया। वे 71 वर्ष के थे। उन्होंने सौ से अधिक पुस्तकें लिखी हैं।

उनकी 2014 में 14, 2015 में 15 और 2016 में 16 किताबें प्रकाशित हुई थी। उनका नाम गिनिस बुक और लिम्का बुक में भी दर्ज है।

आपके ही शब्दों में--
"अपनी सांसों का भरम वार गया है कोई ......

 
 
बुझ गया हिंदी का एक और दीपक  - भारत-दर्शन समाचार

डॉ दिनेश श्रीवास्तव नहीं रहे

14 जून 2018 (न्यूज़ीलैंड ): ऑस्ट्रेलिया में 2004 से हिंदी मासिक 'हिंदी पुष्प' का प्रकाशन व संपादन करने वाले डॉ दिनेश श्रीवास्तव का 13 जून 2018 की रात्रि को मेलबॉर्न (ऑस्ट्रेलिया) में निधन हो गया।

डॉ दीपक श्रीवास्तव ऑस्ट्रेलिया

डॉ श्रीवास्तव ने लखनऊ विश्वविद्यालय (भारत), मोनाश विश्वविद्यालय (ऑस्ट्रेलिया) तथा विस्कांसिन विश्वविद्यालय-मैडिसन (अमेरिका) में अध्ययन किया व हिंदी विश्वविद्यालय प्रयाग से विशारद की थी। आपने हिंदी में वैज्ञानिक विषयों पर लेखन किया व पुस्तकें लिखीं।

ऑस्ट्रेलियाई सरकार द्वारा हाई स्कूल तथा अनुवादक व दुभाषिया परीक्षाओं में हिंदी को मान्यता दिलवाने में आपकी विशेष भूमिका रही है। आपने रेडियो पर हिंदी कार्यक्रम आरंभ किया तथा ‘देवनागरी' नामक पत्रिका निकाली।

'हिंदी पुष्प' की मृदुला कक्कड़ ने जानकारी दी है कि 17 जून की सुबह डॉ श्रीवास्तव के पार्थिव शरीर के अंतिम दर्शन किए जा सकते हैं व इसके पश्चात सुबह 11 बजे उनका अंतिम संस्कार किया जाएगा।

 


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मॉरीशस के साहित्यकार अभिमन्यु अनत नहीं रहे - भारत-दर्शन समाचार

4 जून 2018: साहित्यकार अभिमन्यु अनत का निधन हो गया। वे लम्बे समय से अस्वस्थ थे।

9 अगस्त, 1937 को त्रिओले, मॉरीशस में जन्मे अभिमन्यु अनत ने हिंदी शिक्षण, रंगमंच, हिंदी प्रकाशन आदि अनेक क्षेत्रों में कार्य किए हैं । लाल पसीना, लहरों की बेटी, एक बीघा प्यार, गांधीजी बोले थे इत्यादि उपन्यास, केक्टस के दाँत, गुलमोहर खोल उठा इत्यादि कविता संग्रह तथा अपने सम्पादकीय व अन्य आलेखों के माध्यम से गत 50 वर्षो से हिंदी साहित्य को एक वैश्विक पहचान देने के लिए प्रयासरत रहे हैं ।

आप अनेक वर्षों तक महात्मा गांधी संस्थान की हिंदी पत्रिका 'वसंत' के संपादक एवं सर्जनात्मक लेखन एवं प्रकाशन विभाग के अध्यक्ष रहे । आप 'वसंत' एवं बाल-पत्रिका 'रिमझिम' के संस्थापक थे । दो वर्षों तक महात्मा गांधी संस्थान में हिंदी अध्यक्ष रहे व तीन वर्ष तक युवा मंत्रालय में नाट्य कला विभाग में नाट्य प्रशिक्षक के पद पर रहने के अतिरिक्त अठारह वर्ष तक हिंदी अध्यापन कार्य किया ।

अभिमन्यु अनत का साहित्य अनेक विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में सम्मिलित है तथा उनपर अनेक शोधकार्य किए जा चुके हैं। आपकी की रचनाओं का अनुवाद अंग्रेज़ी, फ्रेंच सहित अनेक भाषाओं में किया गया है।

अभिमन्यु अनत को उनके लेखन के लिए अनेक सम्मान प्रदान किए जा चुके हैं जिनमें सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, यशपाल पुरस्कार, जनसंस्कृति सम्मान, उ.प्र. हिंदी संस्थान पुरस्कार सम्मिलित हैं। भारत की साहित्य अकादमी द्वारा आपको मानद महत्तर सदस्यता (ऑनरेरी फेलोशिप) का सर्वोच्च सम्मान प्रदान किया जा चुका है ।

 


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वरिष्ठ पत्रकार राजकिशोर का निधन - भारत-दर्शन समाचार

4 जून 2018 (भारत) : वरिष्ठ पत्रकार राजकिशोर का आज दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में निधन हो गया। वे 71 साल के थे। निमोनिया से पीड़ित राजकिशोर का एम्स में उपचार हो रहा था।

वे पिछले तीन सप्ताह से एम्स के गहन चिकित्सा कक्ष (आईसीयू) में भर्ती थे। फेफड़ों के संक्रमण के कारण उन्हें सांस लेने में समस्या आ रही थी।

राजकिशोर का जन्म 2 जनवरी 1947 को कोलकाता, पश्चिम बंगाल में हुआ था । वे सदैव परिवर्तन के पक्षधर रहे और समाज को परिवर्तित होते हुए देखने के इच्छुक थे।

आपने पत्रकारिता के अतिरिक्त साहित्य-सृजन भी किया। वैचारिक लेखन में आपकी कई पुस्तकें प्रकाशित हुईं जिनमें 'पत्रकारिता के परिप्रेक्ष्य', 'धर्म', 'सांप्रदायिकता और राजनीति', 'एक अहिंदू का घोषणापत्र', 'जाति कौन तोड़ेगा', 'रोशनी इधर है', 'सोचो तो संभव है', 'स्त्री-पुरुष : कुछ पुनर्विचार', 'स्त्रीत्व का उत्सव', 'गांधी मेरे भीतर', 'गांधी की भूमि से' जैसी पुस्तकें विशेष तौर पर चर्चित रहीं। 'अँधेरे में हँसी', 'राजा का बाजा' पुस्तकों में उनका व्यंग्य लेखन देखा जा सकता है। आपने 'दूसरा शनिवार', 'आज के प्रश्न' पुस्तक श्रृंखला, 'समकालीन पत्रकारिता : मूल्यांकन और मुद्दे' का संपादन किया। आपने 'तुम्हारा सुख', 'सुनंदा की डायरी' उपन्यास लिखे व 'पाप के दिन' आपकाा चर्चित कविता संग्रह है।

आपको लोहिया पुरस्कार, साहित्यकार सम्मान (हिंदी एकादमी, दिल्ली), राजेंद्र माथुर पत्रकारिता पुरस्कार (बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना) इत्यादि सम्मान प्रदान किए जा चुके हैं।

 


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भारतीय लेखकों पर वृत्‍तचित्र उत्‍सव - भारत-दर्शन समाचार

1 जून 2018 (भारत): साहित्‍य अकादेमी द्वारा 11-15 जून 2018 को सायं 4:30 बजे से ‘वृत्‍तचित्र उत्‍सव' आयोजित किया जाएगा जिसमें प्रख्‍यात भारतीय लेखकों पर वृत्‍तचित्र प्रदर्शित किए जाएँगे। इस उत्सव में सत्यव्रत शास्त्री, रामदशरथ मिश्र, नामवर सिंह, शीन काफ़ निज़ाम, पद्मा सचदेव, महेश अलकुँचवार, गोपीचंद नारंग, गोविन्द मिश्र, नवनीता देव सेन व केकी एन. दारूवाला पर वृतचित्र सम्मिलित हैं । यह आयोजन 35 फ़ीरोज़शाह मार्ग, नई दिल्‍ली के रवींद्र भवन के साहित्‍य अकादेमी सभागार के प्रथम तल में होगा। प्रवेश निशुल्क है ।

अधिक जानकारी के लिए आप अकादेमी सचिव से सम्पर्क करें:
secretary@sahitya-akademi.gov.in

 

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11वां विश्व हिन्दी सम्मेलन अगस्त में - भारत-दर्शन समाचार

11वां विश्व हिंदी सम्मेलन विदेश मंत्रालय द्वारा मॉरीशस सरकार के सहयोग से 18-20 अगस्त 2018 तक मॉरीशस में आयोजित किया जा रहा है।

11वें विश्व हिंदी सम्मेलन को मॉरीशस में आयोजित करने का निर्णय सितंबर 2015 में भारत के भोपाल शहर में आयोजित 10वें विश्व हिंदी सम्मेलन में लिया गया था।सम्मेलन का मुख्य विषय "हिंदी विश्‍व और भारतीय संस्‍कृति" है।

सम्मेलन का आयोजन स्थल "स्वामी विवेकानंद अंतर्राष्ट्रीय सभा केंद्र" पाई, मॉरीशस है।

सम्मेलन स्थल पर हिंदी भाषा के विकास से संबंधित कई प्रदर्शनियां लगाई जाएंगी। सम्मेलन के दौरान शाम को भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद, नई दिल्ली द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रम और कवि सम्मेलन का आयोजन किया जाएगा।

[ भारत-दर्शन समाचार ]


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हिंदी आलोचक डॉ नंदकिशोर नवल का निधन - भारत-दर्शन समाचार

हिंदी के प्रसिद्ध आलोचक डॉ नंदकिशोर नवल का 13 मई की रात निधन हो गया। वह कुछ दिनों से अस्वस्थ थे। 83 वर्षीय डॉ नवल पटना विवि में हिंदी के प्राध्यापक रह चुके हैं। उनकी दर्जनों पुस्तकों में कविता की मुक्ति, हिंदी आलोचना का विकास, शताब्दी की कविताएं, समकालीन काव्य यात्रा, कविता के आर-पार इत्यादि सम्मिलित हैं।

आपने निराला रचनावली और दिनकर रचनावली का संपादन किया था।

डॉ नंदकिशोर नवल का जन्म 2 सितंबर, 1937 को वैशाली जिले के चांदपुरा में हुआ था।

 


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प्रसिद्ध कथाकार दूधनाथ सिंह नहीं रहे  - भारत-दर्शन समाचार

12 जनवरी 2018 (भारत): प्रसिद्ध कथाकार दूधनाथ सिंह का गुरुवार देर रात Doodhnath Singh निधन हो गया। पिछले कई दिनों से वह इलाहाबाद के फीनिक्स हॉस्पिटल में भर्ती थे। प्रोस्टेट कैंसर से पीड़ित दूधनाथ सिंह को बुधवार रात हार्टअटैक हुआ था। गुरुवार सुबह से वे वेंटिलेटर पर थे जहां उन्होंने रात लगभग 12 बजे अंतिम सांस ली।

पिछले वर्ष अक्तूबर में दूधनाथ सिंह को अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, दिल्ली में दिखाया गया था। जांच में प्रोस्टेट कैंसर की पुष्टि होने पर वहीं उनका इलाज चला। 26 दिसम्बर को वे इलाहाबाद लाए गए। दो-तीन दिन के उपरांत फिर फीनिक्स अस्पताल में भर्ती कराया गया तब से उनका वहीं इलाज चल रहा था।

 


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तेजेन्द्र शर्मा को 'विश्व नागरी रत्न' सम्मान - भारत-दर्शन समाचार

जनवरी 2018 (भारत): नागरी प्रचारिणी सभा ने हिंदी कथाकार 'तेजेन्द्र शर्मा' को 10 जनवरी ( विश्व हिंदी दिवस) के अवसर पर 'विश्व नागरी रत्न' सम्मान दिया है। 'तेजेन्द्र शर्मा' नागरी प्रचारिणी सभा के इस समारोह में कुछ कारणों से व्यक्तिगत रूप से नहीं पहुंच पाए। उनकी अनुपस्थिति में उनके लिए यह सम्मान सभा के अन्य सदस्य ने ग्रहण किया।

नागरी प्रचारिणी सभा 14 सितम्बर को 'हिंदी दिवस' के अवसर पर राष्ट्रीय स्तर के हिंदी प्रचारकों तथा साहित्यकारों को 'नागरी रत्न', 'नागरी भूषण' तथा 'नागरी श्री' सम्मान प्रदान करती है व उसी प्रकार 10 जनवरी को 'विश्व हिंदी दिवस' पर प्रवासी भारतीय अथवा भारतीय मूल के हिंदी विद्वानों को 'विश्व नागरी रत्न' सम्मान प्रदान किया जाता है।

 


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एक दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी - क्षितिज ब्यूरो

महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी मुंबई द्वारा हिंदी आंदोलन परिवार, पुणे के सहयोग से 6 जनवरी को पुणे में एक दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में संपन्न हुई। संगोष्ठी का विषय ‘हिंदी साहित्य का आम आदमी पर प्रभाव' था। इसकी अध्यक्षता मूर्धन्य भाषाविद डॉ. रामजी तिवारी ने की। प्रसिद्ध कथाकार डॉ. सूर्यबाला मुख्य अतिथि थीं।

अध्यक्षीय वक्तव्य में डॉ. तिवारी ने कहा कि ‘जो धारण करने योग्य है, वही धर्म है। यही कारण है कि काल और परिस्थिति अनुसार धार्मिक कथाओं और आख्यानों के संदर्भ बदलते जाते हैं। वाल्मीकि रामायण से लेकर तुलसीदाDr Ramji Tiwariस रचित रामचरितमानस तक पहुँचते हुए अनेक घटनाओं के संदर्भ बदल चुके थे। अत: धार्मिक साहित्य को युगानुकूल चेतना से सकारात्मक भाव से ग्रहण करना चाहिए।' डॉ. सूर्यबाला ने लोकसाहित्य के महत्व की विशद व्याख्या की। उन्होंने कहा कि लोकसाहित्य, लोकजीवन की सूक्ष्मतम अनुभूतियों को प्रकट करता है। लोकसाहित्य के लुप्त होने की आशंका जताते हुए उन्होंने आह्वान किया कि अकादमी भविष्य की पीढ़ी के लिए लोकसाहित्य का संकलन तैयार करे। अकादमी के सदस्य अभिमन्यु शितोले ने इस प्रस्ताव पर सहमति जताते हुए इस दिशा में काम करने का आश्वासन दिया।

संगोष्ठी के संयोजक और अकादमी के सदस्य संजय भारद्वाज ने अपनी प्रस्तावना में कहा कि साहित्य अर्थात ‘स' हित। यह ‘स' समाज की इकाई याने आम आदमी है। साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है। जो कुछ समाज में घटता है, दिखता है, साहित्यकार उसे ही रचता और लिखता है। भारतीय भाषाओं के विशेषकर हिंदी केसूर्यबाला जी का सम्मानित करते हुए संजय भारद्वाज साहित्यकारों ने साहित्य को जन सामान्य से जोड़ने और समाज का दर्पण बनाने में महति भूमिका निभाई है। संभवत: यह पहला आयोजन है जिसमें श्रोताओं से सीधे संवाद कर साहित्य के आम आदमी पर प्रभाव की पड़ताल साहित्यकारों की उपस्थिति में की जा रही है।

इस संगोष्ठी को आशातीत सफलता मिली। विद्वजनो के सारगर्भित वक्तव्यों ने श्रोताओं पर गहरा प्रभाव डाला। श्रोताओं सहभागिता ने आयोजन को अनुसंधानपरक और सर्वसमावेशक स्वरूप दिया।

ज्ञानपीठ विजेता रचनाकारों की रचनाओं पर आधारित सांस्कृतिक कार्यक्रम ‘सहितस्य भाव: साहित्यम्‘ ने दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया। इसका लेखन-निर्देशन संजय भारद्वाज का था। उनके साथ ॠता सिंह, आशीष त्रिपाठी और अमृतराज ने वाचन में भाग लिया।

उल्लेखनीय संख्या में साहित्यकारों, भाषाविदों और हिंदी प्रेमियों की उपस्थिति तथा अनुशासित प्रबंधन ने आयोजन को विशेष गरिमा प्रदान की।

संचालन सुधा भारद्वाज ने किया।

[ क्षितिज ब्यूरो की रपट ]

 


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निबंध प्रतियोगिता 2020 (केवल फीजी निवासियों हेतु ) - भारत-दर्शन समाचार

USP Fiji Logo

फीजी (23 फरवरी 2020): यूनिवर्सिटी ऑव साउथ पैसिफ़िक (यूपीएस) अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस निबंध प्रतियोगिता 2020 (फीजी) का आयोजन कर रही है।  

यदि आप फीजी के निवासी हैं तो इस प्रतियोगिता में भाग ले सकते हैं। यह प्रतियोगिता 11-15 और 16-19 आयु वर्ग के लिए आयोजित की गई है। प्रतियोगिता राष्ट्रीय एकता पर केंद्रित है और निबंध के विषय हैं:

1) "एक दूसरे की मातृभाषा सीखना आनंदपूर्वक साथ रहने में किस प्रकार सहायक हो सकता है।" (11-15 आयु वर्ग)
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सिंगापुर से हिंदी पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ - भारत-दर्शन समाचार

जनवरी, 2018:   सिंगापुर से पहली हिंदी पत्रिका 'सिंगापुर संगम' का प्रकाशन जनवरी-मार्च अंक से आरम्भ हुआ है । इस त्रैमासिक पत्रिका का संपादन डॉ संध्या सिंह कर रही हैं ।
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प्रवासी भारतीय दिवस पर गूगल डूडल  - रोहित कुमार हैप्पी

इस बार प्रवासी भारतीय दिवस पर गूगल ने भी अपना डूडल 'प्रवासी भारतीय वैज्ञानिक'  स्व० डॉ. हरगोबिन्द खुराना को समर्पित किया है।


गूगल डूडल

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शायर अनवर जलालपुरी नहीं रहे - भारत-दर्शन समाचार

2 जनवरी 2018 (भारत): प्रसिद्ध शायर अनवर जलालपुरी का 2 जनवरी 2018 को निधन हो गया। वे 70 वर्ष के थे। उन्होंने उत्तर प्रदेश के लखनऊ में केजीएमयू मेडिकल कॉलेज में अंतिम सांस ली। अनवर जलालपुरी को 28 दिसंबर को केजीएमयू में इलाज के लिए भर्ती कराया गया था।

मुशायरों की जान माने जाने वाले 'अनवर जलालपुरी' ने गीतांजलि तथा भगवद्गीता के उर्दू अनुवाद लिखे जिन्हें बेहद सराहा गया था। उन्होंने 'अकबर द ग्रेट' धारावाहिक के संवाद भी लिखे थे।

"मैं जा रहा हूँ मेरा इन्तेज़ार मत करना
मेरे लिये कभी भी दिल सोगवार मत करना"

 

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साहित्य अकादमी 2017 वार्षिक पुरस्कार - भारत-दर्शन समाचार

21 दिसंबर 2017 (भारत ): साहित्य अकादमी ने 2017 के वार्षिक पुरस्कारों की घोषणा करते हुए इस बार ये पुरस्कार 24 भारतीय भाषाओं में 24 साहित्यकारों को दिए हैं। सात उपन्यास, पांच कविता-संग्रह, पांच संग्रह, पांच समालोचना, एक नाटक और एक निबंध को इस बार पुरस्कृत किया गया है। रचनाकारों को 12 फरवरी 2018 को आयोजित होने वाले समारोह में सम्मानित किया जाएगा।

कविता-संग्रह

उदय नारायण सिंह 'नचिकेता' (मैथिली), श्रीकांत देशमुख (मराठी), भुजंग टुडु (संताली), (स्व०) इंक़लाब (तमिल) और देवीप्रिया (तेलुगू)।

कहानी-संग्रह

पांच लेखकों को उनके कहानी-संग्रहों के लिए सम्मानित किया गया। इनके नाम हैं- शिव मेहता (डोगरी), औतार कृष्ण रहबर (कश्मीरी), गजानन जोग (कोंकणी), गायत्री सराफ (ओड़िया) और बेग एहसास (उर्दू)।

उपन्यास

जयंत माधव बरा को (असमिया), आफसर आमेद (बांग्ला), रीता बर (बोडो) ममंग दई (अंग्रेजी), केपी रामनुन्नी को (मलयाळम्), निरंजन मिश्र (संस्कृत) और नछत्तर (पंजाबी) को उनके उपन्यास हेतु सम्मान दिया गया है।

साहित्यिक समालोचना, नाटक व निबंध

उर्मि घनश्याम देसाई (गुजराती), रमेश कुंतल मेघ (हिंदी), टीपी अशोक (कन्नड़), वीणा हंगखिम (नेपाली) और नीरज दइया (राजस्थानी) को समालोचना के लिए पुरस्कृत किया गया है।

वहीं, राजेन तोइजाम्बा (मणिपुरी) को उनके नाटक व जगदीश लछाणी (सिंधी) को उनके निबंध के लिए पुरस्कृत किया गया है।

यह सम्मान 1 जनवरी 2011 और 31 दिसंबर 2015 के बीच पहली बार प्रकाशित पुस्तकों पर दिया गया है। साहित्य अकादमी पुरस्कार के रूप में एक उत्कीर्ण ताम्रफल, शाल और एक लाख रुपये की राशि प्रदान की जाएगी।

 


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वैश्विक भाषा है तेलुगू : काेविंद - भारत-दर्शन समाचार

19 दिसम्बर (भारत) भारत के राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद ने तेलुगू भाषा को एक वैश्विक भाषा बताते हुए कहा कि इसे अब दूसरे देशों में भी सुना और पढ़ा जा सकता है।

श्री कोविंद ने लाल बहादुर स्टेडियम में आयोजित पांच दिवसीय विश्व तेलुगू सम्मेलन के समापन समारोह को संबोधित करते हुए कहा कि तेलुगू उद्यम और प्रौद्योगिकी की भाषा होने के साथ-साथ इस समुदाय के कई लोगों की भाषा रही है जिन्होंने अपनी मेहनत से अपना और अपने देश का नाम रोशन किया है।

 


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हिन्द पाकेट बुक्स के संस्थापक नहीं रहे - भारत-दर्शन समाचार

13 दिसंबर, 2017 (भारत): हिन्द पाकेट बुक्स के संस्थापक 94 वर्षीय 'दीनानाथ मल्होत्रा' का 13 दिसंबर, 2017 को नई दिल्ली में देहांत हो गया। वे कुछ समय से अस्वस्थ थे। देहांत से कुछ घंटे पहले भाजपा के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी उनका स्वास्थ्य जानने उनके घर पहुंचे थे।

22 फरवरी, 1923 को लाहौर, पकिस्तान (अविभाजित भारत) में जन्मे दीनानाथ ने भारतीय कापी राइट एक्ट का प्रारूप तैयार किया था। पद्मश्री से सम्मानित मल्होत्रा को यूनेस्को ने भी सम्मानित किया था। उन्होंने अपने जीवनकाल में हिन्द पाकेट बुक्स के माध्यम से 6500 लेखकों की किताबों का प्रकाशन करके हिंदी साहित्य की अपूर्व सेवा की। वे अमर शहीद महाशय राजपाल के सुपुत्र थे।

दीनानाथ मल्होत्रा ने 1958 में हिन्द पाकेट बुक्स की स्थापना की थी व 60 से अधिक वर्षों तक प्रकाशन क्षेत्र से जुड़े रहे. आपने अपने जीवन संस्मरणों पर आधारित पुस्तक "डेयर टू पब्लिश" यानी छापने का जोखिम भरा साहस लिखी है।

 


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गिरिराज किशोर नहीं रहे - भारत-दर्शन समाचार

9 फरवरी 2020 (भारत): पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित साहित्यकार गिरिराज किशोर का रविवार सुबह उनके निवास पर निधन हो गया। वे 83 वर्ष के थे।

गिरिराज किशोर हिंदी के प्रसिद्ध उपन्यासकार होने के साथ-साथ एक सशक्त कथाकार, नाटककार और आलोचक थे।

इनका उपन्यास 'ढाई घर' अत्यन्त लोकप्रिय हुआ था। 1991 में प्रकाशित इस कृति को 1992 में ही साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। उन्हें 2007 में पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।

गिरिराज किशोर द्वारा लिखा गया 'पहला गिरमिटिया' नामक उपन्यास महात्मा गांधी के अफ्रीका प्रवास पर आधारित था, जिसने इन्हें विशेष पहचान दिलाई। गिरिराज किशोर ने कस्तूरबा गांधी पर भी एक उपन्यास 'बा' लिखा था। इसमें उन्होंने गांधी जैसे व्यक्तित्व की पत्नी के रूप में एक स्त्री का स्वयं और साथ ही देश के स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े दोहरे संघर्ष के बारे में लिखा था। वह साहित्यकार होने के साथ-साथ आईआईटी कानपुर के कुलसचिव भी रह चुके हैं।

साहित्यकार व आईआईटी कानपुर में कुलसचिव रहे पद्मश्री गिरिराज किशोर का जन्म 8 जुलाई 1937 को मुजफ्फरनगर में हुआ था।

[भारत-दर्शन समाचार]


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2017 का नोबेल काजुओ इशिगुरो को - भरता-दर्शन समाचार

अक्टूबर, 2017: वर्ष 2017 के साहित्य का नोबेल पुरस्कार ब्रिटिश लेखक काजुओ इशिगुरो को देने की घोषणा की गई है।

"द रिमेंस ऑफ द डे" से मशहूर हुए उपन्यासकार काजुओ इशिगिरो का जन्म जापान में हुआ था लेकिन उनका परिवार ब्रिटेन में  बस गया था। इशिगिरो उस समय केवल 5 वर्ष के थे। वह तभी से ब्रिटेन में रहते हैं और अंग्रेजी में लिखते हैं।

नोबेल कमेटी ने पुरस्कार का एलान करते हुए अपने बयान में कहा है कि काजुओ इशिगुरो ने "अपने बेहद भावुक उपन्यासों से दुनिया के साथ संपर्क के हमारी मायावी समझ की गहराई पर से पर्दा उठाया," उन्हें इस साल का नोबेल पुरस्कार दिया जायेगा।

इशिगुरो को चार बार मैन बुकर पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया और 1989 में उन्हें  'द रिमेंस ऑफ द डे' के लिये बुकर पुरस्कार मिला। आपने केंट यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन किया था।

 

 


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वरिष्ठ कवि कुंवर नारायण नहीं रहे - भारत-दर्शन समाचार

नवंबर, 2017 (भारत): ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित 90 वर्षीय हिन्दी के वरिष्ठ कवि कुंवर नारायण का 15 नवंबर की सुबह निधन हो गया। वे चार जुलाई से मस्तिष्काघात के पश्चात कोमा में चले गए थे।  उनका निधन उनके चितरंजन पार्क स्थित घर पर हुआ। उनका अंतिम संस्कार दिल्ली के लोधी शव दाहगृह में किया गया।

मूलत: विज्ञान विषय के छात्र रहे कुंवर नारायण ने अंग्रेजी साहित्य से एम. ए. करने के बाद अंग्रेजी में काव्य लेखन आरंभ किया व शीघ्र ही हिन्दी कविता की तरफ आकर्षित हो गए। कविता के अतिरिक्त वे अपनी कहानियों और आलोचनात्मक लेखन के लिए भी जाने जाते हैं। उनके काव्य- संग्रहों में चक्रव्यूह, परिवेश : हम तुम, आत्मजयी, अपने सामने, कोई दूसरा नहीं, इन दिनों, वाजश्रवा के बहाने, हाशिये का गवाह इत्यादि प्रमुख हैं।

 


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मारीशस के रामदेव धुरंधर को श्रीलाल शुक्ल सम्मान - भारत-दर्शन समाचार

15 दिसंबर, 2017 (भारत): मारीशस के वरिष्ठ कथाकार रामदेव धुरंधर को वर्ष 2017 का श्रीलाल शुक्ल स्मृति इफको सम्मान प्रदान किया जायेगा। यह सम्मान उर्वरक क्षेत्र की प्रमुख सहकारी संस्था इंडियन फारमर्स फर्टिलाइजर कोआपरेटिव लिमिटेड (इफको) प्रति वर्ष प्रदान करती है। इसके अंतर्गत सम्मानित साहित्यकार को प्रतीक चिह्न, प्रशस्ति पत्र तथा 11 लाख रुपये की राशि का चेक प्रदान किया जाता है। श्री रामदेव धुरंधर को यह सम्मान अगले वर्ष 31 जनवरी को एक समारोह में दिया जाएगा।

धुरंधर का चर्चित उपन्यास ‘पथरीला सोना' 6 खंडों में प्रकाशित हुआ है। इस महाकाव्यात्मक उपन्यास में उन्होंने किसानों-मजदूरों के रूप में भारत से मारीशस आए अपने पूर्वजों की संघर्षमय जीवन-यात्रा का कारुणिक चित्रण किया है। उन्होंने ‘छोटी मछली-बड़ी मछली',‘चेहरों का आदमी',‘बनते-बिगड़ते रिश्ते', ‘पूछो इस माटी से' जैसे अन्य उपन्यास भी लिखे हैं। "विष-मंथन" तथा "जन्म की एक भूल" उनके दो कहानी संग्रह हैं। इनके अतिरिक्त उनके अनेक व्यंग्य संग्रह और लघु-कथा संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं।

मूर्धन्य कथाशिल्पी श्रीलाल शुक्ल की स्मृति में यह सम्मान 2011 में शुरू किया गया था। यह सम्मान प्रति वर्ष ऐसे हिन्दी लेखक को दिया जाता है जिसकी रचनाओं में ग्रामीण और कृषि जीवन से जुड़ी समस्याओं, आकांक्षाओं और संघर्षों को मुखरित किया गया हो। अब तक यह सम्मान श्री विद्यासागर नौटियाल, श्री शेखर जोशी, श्री संजीव, श्री मिथिलेश्वर, श्री अष्टभुजा शुक्ल एवं श्री कमलाकांत त्रिपाठी को प्रदान किया जा चुका है।

इफको के प्रबंध निदेशक डॉ. उदय शंकर अवस्थी ने कहा,"मारीशस के हिन्दी लेखक के चयन से इस सम्मान को अंतरराष्ट्रीय पहचान मिलेगी। भारतवंशियों की संघर्ष गाथा को मुखरित करने वाले श्री रामदेव धुरंधर का सम्मान भारतीय परंपरा और संस्कृति का भी सम्मान है।"

 


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वयोवृद्ध कवयित्री स्नेहमयी चौधरी नहीं रही - भारत-दर्शन समाचार

भारत (30 जुलाई): हिन्दी की वयोवृद्ध कवयित्री स्नेहमयी चौधरी का कल रात दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया। स्नेहमयी जी 82 वर्ष की थीं।

Snehmayi Chaudhary

आपका जन्म 9 मई 1935 को मौरावाँ, उन्नाव, उत्तर प्रदेश में हुआ था। आप जानकीदेवी महाविद्यालय, देहली में रीडर के पद पर रही हैं।

श्रीमती चौधरी हिन्दी के वयोवृद्ध लेखक व हरिवंश राय बच्चन के सहयोगी अजित कुमार की पत्नी थी जिनका इसी 18 जुलाई को निधन हो गया था। सेवानिवृत होने के पश्चात आप स्वतंत्र लेखन कर रही थी।

आपकी साहित्यिक कृतियों में ‘पूरा गलत पाठ', ‘चौतरफा लड़ाई' और ‘हड़कंप' प्रमुख संग्रह हैं।   ‘पहचान', ‘कैद' ‘अपनी ही', ‘औरत', ‘एक इन्टरव्यू', ‘घर' , ‘मेरा अपना कोना', ‘लड़की' आपकी प्रमुख कविताएं है।


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प्रसिद्ध कवि अजित कुमार नहीं रहे - भारत-दर्शन समाचार

जुलाई 19: प्रसिद्ध कवि अजित कुमार का 18 जुलाई को ह्रदय गति रुकने से निधन हो गया. वे 86 वर्ष के थे. स्वास्थ्य समस्याओं के चलते वे कुछ दिनों से अस्पताल में भर्ती थे.

अजित कुमार का जन्म उत्तर प्रदेश के उन्नाव में एक जमींदार परिवार में हुआ था. उनकी मां सुमित्रा कुमारी सिन्हा, बहन कीर्ति चौधरी थीं. आपकी पत्नी स्नेहमयी चौधरी भी प्रसिद्ध कवयित्री हैं.

साहित्य और काव्य-प्रेम अजित जी को विरासत में मिला था. काव्य प्रतिभा और सुलझे विचारों की बदौलत उन्होंने हिंदी साहित्य जगत में अपना ऊंचा मुकाम हासिल किया. उन्होंने कुछ समय कानपुर के किसी कॉलेज में पढ़ाया और फिर लंबे समय तक दिल्ली के किरोड़ीमल कॉलेज में अध्यापन कार्य करते सेवानिवृत्त हुए.

उनके कई कविता-संग्रह प्रकाशित हुए- 'अकेले कंठ की पुकार', 'अंकित होने दो', 'ये फूल नहीं', 'घरौंदा' इत्यादि. स्वभाव से मधुर और लोकप्रिय व्यक्तित्व अजित कुमार का हरिवंश राय बच्चन से निकट संबंध रहा. बच्चन जी के विदेश मंत्रालय में नियुक्त रहने के दौरान दोनों ने साथ में कई परियोजनाओं पर काम किया था. राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित 'बच्चन रचनावली' के संपादक रहे अजित ने अभी हाल ही में उस रचनावली में दसवें और ग्यारहवें खंडों का विस्तार किया. साहित्य के क्षेत्र में यह उनका अंतिम बड़ा योगदान है.

कवि का पार्थिव शरीर उनके उनके निवास स्थान, दिल्ली के प्रीतमपुरा स्थित मकान 166, वैशाली पर अंतिम दर्शनों के लिए रखा गया. कवि की अंतिम इच्छा के अनुसार उनका पार्थिव शरीर अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के सुपुर्द किया जाएगा.

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आया कुछ पल - सोम नाथ गुप्ता

आया कुछ पल बिता के चला गया
बादल छींटे बरसा के चला गया

सिमट गई घड़ियाँ यादों के पिंजरे में ......

 
 
कला की कसौटी - शिवसिंह सरोज

Krantikari Kalam

आज न जिसने कलम गड़ाई पशुवत् अत्याचारों में।
उस कायर कवि की गिनती है, नवयुग के हत्यारों में।।

जिसके मन के भाव, घाव मानवता के भर नहीं सके। ......

 
 
हिंदी साहित्यकार कृष्ण बलदेव वैद नहीं रहे - भारत-दर्शन समाचार

Krishna Baldev Vaid

06 फरवरी (भारत): हिंदी के प्रख्यात लेखक, नाटककार एवं उपन्यासकार कृष्ण बलदेव वैद का गुरुवार को अमेरिका के न्यूयार्क में देहांत हो गया। वे 92 वर्ष के थे। वे इन दिनों अपनी बेटियों के साथ अमेरिका में रह रहे थे।

कृष्ण बलदेव वैद का जन्म 27 जुलाई 1927 को पंजाब में हुआ था।आप निर्मल वर्मा के समकालीन थे। आपने हाॅवर्ड विश्विद्यालय से अंग्रेजी में पीएचडी करने के बाद न्यूयार्क स्टेट यूनिवर्सिटी में अध्यापन किया और वहीं बस गए। बाद में आप भारत लौट आये और दिल्ली में रहे। कृष्ण बलदेव वैद ने 'उसका बचपन', 'बिमल उर्फ़ जायें तो जायें कहां', 'तसरीन', 'दूसरा न कोई', 'दर्द ला दवा', 'गुज़रा हुआ ज़माना', 'काला कोलाज', 'नर नारी', 'माया लोक', 'एक नौकरानी की डायरी' जैसे उपन्यासों से हिंदी साहित्य को समृद्ध किया।

आपके कहानी-संग्रहों में - 'बीच का दरवाज़ा', 'मेरा दुश्मन', 'दूसरे किनारे से', 'लापता', 'उसके बयान', 'मेरी प्रिय कहानियां', 'वह और मैं', 'ख़ामोशी', 'अलाप', 'प्रतिनिधि कहानियां', 'लीला', 'चर्चित कहानियां', 'पिता की परछाइयां', 'दस प्रतिनिधि कहानियां', 'बोधिसत्त्व की बीवी', 'बदचलन बीवियों का द्वीप', 'संपूर्ण कहानियां', 'मेरा दुश्मन', 'रात की सैर' इत्यादि सम्मिलित हैं।

'वैद' कथा साहित्य में नए प्रयोग के लिए जाने जाते थे। 2007 में कृष्ण बलदेव वैद के 80 वर्षीय होने पर अशोक वाजपेयी और उदयन वाजपेयी ने उनकी प्रतिनिधि रचनाओं का एक संचयन प्रकाशित किया था। इसमें ऐसी सामग्री संकलित की गई जिसमें कृष्ण बलदेव वैद की दृष्टि, शैलियों और कथ्यों की बहुलता के वितान से परिचय होता है।

आपका पहला और छोटा उपन्यास, 'उसका बचपन' उत्कृष्ट श्रेणी में आता है। आपका नाटक, 'भूख की आग' भी बहुत चर्चित रहा है।

हिंदी साहित्य के हस्ताक्षर कृष्ण बलदेव वैद हिंदी के आधुनिक गद्य-साहित्य में सब से महत्वपूर्ण लेखकों में से एक गिने जाते हैं।

[भारत-दर्शन समाचार] 


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मोबाइल में गुम बचपन  - डॉ दीपिका

Kids Playing on Mobile

सच ही तो है,
मोबाइल ने गुमाया बचपन। ......

 
 
आत्मा की फांक  - चरण सिंह अमी

"जो नहीं हैं मेरी बात से सहमत,
वे हाथ उठाकर ......

 
 
चाय पर शत्रु-सैनिक - विहाग वैभव

उस शाम हमारे बीच किसी युद्ध का रिश्ता नहीं था
मैंने उसे पुकार दिया --......

 
 
फीजी के लेखक जोगिन्द्र सिंह कंवल नहीं रहे - भारत दर्शन समाचार

18 जुलाई (भारत): फीजी के लेखक जोगिन्द्र सिंह कंवल का लम्बी बीमारी के बाद 17 जुलाई को निधन हो गया।  वे 90 वर्ष के थे।

जोगिन्द्र सिंह कंवल का जन्म व शिक्षण पंजाब में हुआ। वे फीजी में आ बसे। आपके पिताजी 1928 में फीजी आए थे। आपने 1950 में फीज़ी के 'डी ए वी' कॉलेज में शिक्षक के रूप में पदभार संभाला व बाद में 1960 में आपने खालसा कॉलेज में अध्यापन किया व वहाँ के प्रधानाचार्य रहे। आप 28 वर्षों तक खालसा कालेज से जुड़े रहे।

जोगिन्द्र सिंह कंवल की साहित्यिक यात्रा, 'मेरा देश मेरे लोग' से प्रारंभ हुई थी।

कंवल फीजी एक सर्वाधिक लब्धप्रतिष्ठ लेखक हैं। उनके चिंतन में गहराई है।

जोगिन्द्र सिंह ने सदैव अपनी रचनाओं के माध्यम से फीजी के जन-जीवन को चित्रित करने का प्रयास किया है।आपकी साहित्य-कृतियों में 'मेरा देश मेरे लोग' (फीज़ी के जनजीवन पर), 'सवेरा' (उपन्यास, 1976), 'धरती मेरी माता' (उपन्यास, 1978)', 'करवट', 'सात समुद्र पार'(उपन्यास, 1983), 'हम लोग' (कहानी संग्रह, 1992) 'यादों की खुश्बू' (काव्य संग्रह), 'कुछ पत्ते कुछ पंखुड़ियाँ', 'दर्द अपने अपने', 'फीज़ी का हिंदी काव्य साहित्य' सम्मिलित हैं।

हिंदी के अतिरिक्त आपने अँग्रेज़ी में भी साहित्य सृजन किया है जिनमें 'The Morning', 'The New Migrants', 'A Love Story: 1920 (Novels)', 'A Hundred Years of Hindi in Fiji', 'Walking', 'An Anthology of Hindi Short Stories From Fiji' सम्मिलित हैं।

कंवलजी विभिन्न सम्मानों से अलंकृत किए जा चुके हैं जिनमें फीजी के राष्ट्रपति द्वारा, 'मेम्बर ऑव ऑर्डर ऑव फीज़ी' (1995), प्रवासी भारतीय परिषद सम्मान (1981), उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान (1978), फीज़ी हिंदी साहित्य समिति सम्मान (2001), विश्व हिंदी सम्मान (2007) सम्मिलित हैं।

 

 


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भारतीय मूल के ब्रिटिश हिंदी लेखक तेजेन्द्र शर्मा को अंतर्राष्ट्रीय सम्मान - भारत दर्शन समाचार

भारतीय मूल के ब्रिटिश हिंदी लेखक तेजेन्द्र शर्मा को ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ द्वितीय ने 'मेंबर ऑफ़ द ऑर्डर ऑफ़ द ब्रिटिश एम्पायर' सम्मान के लिए चुना है ।

ब्रिटिश सरकार द्वारा जारी अधिकारिक दस्तावेज़ 'लंदन ग़ज़ट' में तेजेन्द्र शर्मा के नाम की घोषणा की गई।

तेजेन्द्र शर्मा यह सम्मान पानेवाले पहले भारतीय है जिन्हें हिंदी लेखन, हिंदी साहित्य की सेवा और सामुदायिक एकजुटता की गतिविधियों के लिए यह सम्मान मिला है।

तेजेन्द्र शर्मा ने अपने पिता श्री नन्द गोपाल मोहला और दिवंगत पत्नी इंदु को अपने लेखन का श्रेय देते हुए कहा कि ब्रिटेन की महारानी द्वारा किसी हिन्दी लेखक को उसके साहित्यिक अवदान के लिये सम्मानित किया जाना एक ऐतिहासिक घटना है।

तेजेन्द्र शर्मा का जन्म पंजाब के जगराँव में 21 अक्टूबर 1952 को एक साधारण परिवार में हुआ था। आपकी दो दर्जन से भी अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। तेजेन्द्र शर्मा लंबे समय तक एयर इंडिया में काम करने के पश्चात 1998 में ब्रिटेन में बस गए।

 


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मॉरीशस के पूर्व प्रधानमंत्री, 'सर अनिरुद्ध जुगनाथ' को पद्म विभूषण - भारत-दर्शन समाचार

Sir Anerood Jugnauth


भारत सरकार की ओर से 'सर अनिरुद्ध जुगनाथ' को पद्म विभूषण दिए जाने की घोषणा की गई है। सर अनिरुद्ध जुगनाथ मॉरीशस के पूर्व प्रधानमंत्री रह चुके हैं।

सर अनिरुद्ध जुगनाथ प्रसिद्ध बैरिस्टर रहे हैं और मॉरीशस के दूसरे प्रधानमंत्री रहे हैं। इनका परिवार उत्तर प्रदेश में बलिया जिले से संबंध रखता है। जुगनाथ के पिता जब मात्र पांच वर्ष के थे तो वे अपने 16 वर्षीय बड़े भाई के साथ कोलकाता गए और वहाँ से मॉरीशस चले गए। इसके पश्चात वह वहीं बस गए।

[भारत-दर्शन समाचार]

 

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राष्ट्रपति ने उपराष्ट्रपति की पुस्तक का विमोचन किया - भारत-दर्शन समाचार

राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी ने 23 सितंबर, 2016 को राष्ट्रपति भवन में आयोजित एक समारोह में प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी की उपस्थिति में उपराष्ट्रपति श्री मोहम्मद हामिद अंसारी द्वारा लिखित पुस्तक ‘सिटिजन एंड सोसायटी' का विमोचन किया।

इस अवसर पर राष्ट्रपति ने श्री मोहम्मद हामिद अंसारी को पुस्तक के लेखन पर बधाई दी। इस पुस्तक में विभिन्न विषयों पर श्री अंसारी के भाषणों का संकलन है। उन्होंने कहा कि आमतौर पर वे पुस्तकों को प्राप्त करते हैं लेकिन यह मामला अपवादस्वरूप है क्योंकि वे कई वर्षों से श्री अंसारी को न केवल देश के उपराष्ट्रपति के रूप में जानते हैं, बल्कि इस महान देश के एक विद्वान, राजनयिक और जागरूक नागरिक के तौर पर भी जानते हैं।

राष्ट्रपति महोदय ने कहा जब श्री अंसारी ने देश के उपराष्ट्रपति के रूप में शपथ ली थी तो मीडिया ने प्रश्न किया था कि क्या वे ‘गैर-राजनीतिज्ञ' हैं। उनका उत्तर था कि "कोई भी गैर-राजनीतिज्ञ नहीं होता और एक नागरिक के तौर पर उसे राजनीतिक मामलों में दिलचस्पी लेनी पड़ती है।" राष्ट्रपति महोदय ने कहा कि यही इस पुस्तक की विषयवस्तु है। यह पुस्तक हमें एक नागरिक के रूप में अपनी जिम्मारियों की याद दिलाती है। लोकतंत्र में आवाजें उठना अवश्यंभावी होता है और दूसरे लोकतंत्रों की अपेक्षाकृत भारत में अधिक आवाजें उठती हैं, लेकिन मुद्दों के साथ तारतम्य के कारण नागरिकों को बहुत लाभ होता है। श्री अंसारी ने पूरी साफगोई और विद्वता से इस तथ्य की तरफ ध्यान आकर्षित किया है। राष्ट्रपति महोदय ने कहा कि भारतीय लोकतंत्र चामत्कारिक है और हर नागरिक को इसे लगातार पोषित करते रहना चाहिये।

इस अवसर पर प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने पुस्तक के लिये श्री अंसारी को बधाई दी। उन्होंने कहा कि दुनिया बदल रही है और प्रौद्योगिकी ने ‘सीटीजन' को ‘नेटीजन' में तब्दील कर दिया है। मौजूदा संदर्भ में हमें अपनी परंपरा और पारिवारिक मूल्यों को संरक्षित करना चाहिये क्योंकि यही हमारी शक्ति हैं।

अपनी पुस्तक के विषय में उपराष्ट्रपति श्री हामिद अंसारी ने कहा कि राजनीति-तंत्र, सुरक्षा और सशक्तिकरण जैसी वैविध्यपूर्ण विषयवस्तु पर उनके द्वारा दिये गये भाषणों का संकलन इस पुस्तक में मौजूद है। उन्होंने कहा कि पुस्तक में उन्होंने भारत के सामने मौजूद विभिन्न चुनौतियों की पड़ताल करने का प्रयास किया है।

इस अवसर पर पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह, कपड़ा मंत्री श्रीमती स्मृति जुबीन इरानी, युवा मामले एवं खेल राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार) श्री विजय गोयल और संसद सदस्य भी उपस्थित थे।

 


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नाटककार रेवती शरण शर्मा का निधन  - भारत-दर्शन समाचार

भारत, 23 सितम्बर 2016: आल इंडिया रेडियो और दूरदर्शन के लिए  अनेक लोकप्रिय नाटक एवं धारावाहिक लिखने वाले हिन्दी और उर्दू के प्रसिद्ध नाटककार रेवती शरण शर्मा का निधन हो गया। वे 92 वर्ष के थे।

एक अक्टूबर 1924 को जन्मे श्री शर्मा ने आल इंडिया रेडियो के लिए करीब 150 नाटक लिखे थे और दूरदर्शन के लिए 'फिर वही तलाश', 'अधिकार', 'और भी गम हैं ज़माने में ' तथा 'ग्रेट मराठा' जैसे लोकप्रिय धारावाहिक भी लिखे थे।

उनके परिवार में दो बेटे हैं। श्री शर्मा की मशहूर लेखक कृष्णचंदर की बहन से शादी हुई थी।

 


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प्रधानमंत्री मोदी का जन्म-दिवस - भारत-दर्शन समाचार

भारत: (सितंबर, 17): प्रधानमंत्री मोदी को राष्ट्रपति सहित विभिन्न मंत्रियों व गणमान्यों ने जन्म-दिवस की शुभ-कामनायें दीं।  राहुल गांधी ने भी प्रधानमंत्री को शुभ-कामनायें दीं और प्रधानमंत्री ने भी ट्वीटर के माध्यम से उन्हें धन्यवाद दिया। 

प्रधानमंत्री का जन्म-दिवस

प्रधानमंत्री ने अपने जन्म-दिवस पर अपनी माँ का आशीर्वाद लिया और कहा, "माँ की ममता, माँ का आशीर्वाद जीवन जीने की जड़ी-बूटी होता है।"

आज ट्वीटर पर प्रधानमंत्री को अनेक संदेश प्राप्त हुए।  यह बात उल्लेखनीय है कि प्राप्त संदेशों को उसी भाषा में उत्तर दिया गया जिस भाषा में मूल शुभ-कामना संदेश भेजा गया था। प्रधानमंत्री ने अंग्रेजी संदेशों का उत्तर अंग्रेज़ी व हिंदी का हिंदी में दिया।
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हिन्दी के प्रसिद्ध आलोचक डाॅ. प्रभाकर श्रोत्रिय नहीं रहे - भारत-दर्शन समाचार

भारत, 16 सितंबर : हिन्दी के प्रसिद्ध आलोचक डाॅ. प्रभाकर श्रोत्रिय का कल रात एक निजी अस्पताल में निधन हो गया।


डाॅ. प्रभाकर श्रोत्रिय 78 वर्ष के थे। डाॅ० श्रोत्रिय के परिवार में उनकी पत्नी के अतिरिक्त एक पुत्र और एक पुत्री हैं।

डाॅ. श्रोत्रिय कुछ समय से बीमार थे। उन्हें के गंगा राम आस्पताल में भर्ती कराया गया था जहां उन्होंने कल रात आठ बजे अंतिम सांस ली।

डाॅ. श्रौत्रिय की अंतिम इच्छा थी कि उनका अंतिम संस्कार हरिद्वार में हो, इसलिए उनकेे पार्थिव शरीर को हरिद्वार ले जाया गया है।

19 दिसंबर 1938 को मध्य प्रदेश के जावड़ा में जन्मे डाॅ० श्रोत्रिय ने उज्जैन में उच्च शिक्षा प्राप्त की और हिंदी में पी.एचडी तथा डी.लिट करने के बाद वे भोपाल के हमीदिया कालेज में शिक्षक नियुक्त हुए थे।

आप 'मध्य प्रदेश साहित्य परिषद' की चर्चित पत्रिका साक्षात्कार के संपादक थे। आपने भोपाल से ही निकलने वाली पत्रिका अक्षरा का भी संपादन किया था। आप कोलकाता से भारतीय भाषा परिषद की पत्रिका वागर्थ के भी संपादक रहे। आपने नया ज्ञानोदय का भी संपादन किया। पिछले कुछ वर्षों में साहित्य अकादमी की पत्रिका 'समकालीन भारतीय साहित्य' का भी संपादन किया। आप सेवानिवृत्त होने के पश्चात स्वतंत्र लेखन कर रहे थे।

साहित्य के क्षेत्र में डॉ. श्रोत्रिय ने लगभग सभी विधाओं में सफलतापूर्वक सृजन किया। आलोचना, निबंध और नाटक के क्षेत्र में आपका योगदान उल्लेखनीय है।

 

 

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विभिन्न भाषाओं के विद्वानों को सम्मान - भारत-दर्शन समाचार

महामहिम राष्ट्रपति संस्कृत, फारसी, अरबी, पाली तथा प्राकृत भाषाओं के निम्नलिखित विद्वानों को सहर्ष सम्मान-प्रमाणपत्र प्रदान करते हैं-

संस्कृत

1. श्री आर. वेंकटरमन

2. श्री विष्वनाथ गोपालकृष्ण

3. श्री जियालाल कम्बोज

5. डॉ. भवेन्द्र झा

6. प्रो. प्रियतमचन्द्र शास्त्री

7. प्रो. गुरूपाद के हेगडे

8. प्रो. एस.टी नगराज

9. श्री सनातन मिश्र

10. श्री एस.एल.पि.आज्जनेयषर्मा

11. प्रो. (श्रीमती) लक्ष्मी शर्मा

12. प्रो. विष्वनाथ भट्टाचार्य

13. प्रो. रामानारायण दास

14. डॉ. रामशङ्कर अवस्थी

15. श्री हृदय रंजन शर्मा

16. प्रो. (डॅा.) जानकी प्रसाद द्विवेदी

 

संस्कृत (अंतर्राष्ट्रीय)

1. श्री फरनांडो तोला

 

अरबी

1. श्री अबदुल मुसाब्बीर भुइया

2. श्री सय्यद असद रज़ा हुसैनी

3. श्री बदर-ए-जमाल इस्लाही

 

फारसी

1. हकीम सय्यद गुलाम मेहदी राज़

2. चौधरी वहहाज अहमद अषरफ

3. मौलवी एच. रहमान काबली

 

पाली

1. डॅा. बेला भट्टाचार्य

 

प्राकृत

1. डॅा. दमोदर शास्त्री

 

इसके अतिरिक्त महामहिम राष्ट्रपति संस्कृत, फारसी, अरबी, पाली तथा प्राकृत भाषाओं के निम्नलिखित युवा विद्वानों को महर्षि बादरायन व्यास सम्मान भी प्रदान करती हैः-

 

संस्कृत

1. डॉ. महानन्द झा

2. डॉ. सुन्दर नारायण झा

3. डॉ. जि.एस.वि. दत्तात्रेयमूर्ति

4. डॉ. विष्वनाथ धिताल

5. डॉ. शंकर राजारमन

 

अरबी

1. डॉ. मो. कुतबुद्दीन

 

फारसी

1. डॉ. हसीनुज़्ज़माँ

 

पाली

1. डॉ. उज्जवल कुमार

 

प्राकृत

1. डॉ. योगेष कुमार जैन

 

यह सम्मान प्रत्येक वर्ष संस्कृत, फारसी, अरबी, पाली तथा प्राकृत के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान हेतु स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर दिया जाता है।

 


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राजेंद्र यादव रचनावली का लोकार्पण - भारत-दर्शन समाचार

नई दिल्ली 13 अगस्त 2016: राजकमल प्रकाशन समूह द्वारा 13 अगस्त 2016 को 'राजेंद्र यादव रचनावली' का लोकापर्ण एवम् पुस्तक परिचर्चा आयोजित की गई। यह आयोजन वीमेन प्रेस कोर्प्स, विंडसर प्लेस, अशोक रोड में किया गया था । अर्चना वर्मा और बलवंत कौर के संपादन में राजेंद्र यादव रचनावली 15 खंडो में राधाकृष्णा प्रकाशन से प्रकाशित की गयी है । इस अवसर पर वरिष्ठ आलोचक निर्मला जैन, कथाकार विश्वनाथ त्रिपाठी, कथाकार आलोचक अर्चना वर्मा, संयोजक के रूप बलवंत कौर एवं राजकमल प्रकाशन समूह के प्रबंध निदेशक अशोक माहेश्वरी भी परिचर्चा में उपस्थित रहे।

Rajendra Yadav Rachnavali
रचना यादव, अर्चना वर्मा, निर्मला जैन, विश्वनाथ त्रिपाठी, बलवंत कौर व अशोक माहेश्वरी

राजेंद्र यादव समाज के वंचित तबके और स्त्री-पुरुष संबंधों के विषय पर लेखन के लिए विशेष तौर पर जाने जाते हैं।

बलवंत कौर ने इस रचनावाली व आयोजन के बारे में बताया, "आज के लोकापर्ण में राजेन्द्र यादव जो की एक लेखक और संपादक रहे हैं, उन्हें हम एक रचनाकार के रूप में याद कर रहे है। इस रचनवाली की विशेषता यह है कि पहली बार उनके अप्रकाशित उपन्यास और कविताये 11 व 12 खंड में सामने आएंगी।"

रचना यादव ने अपने पिता की रचनावली पर प्रसन्नता दर्शायी, "मुझे बहुत गर्व का अहसास हो रहा है। मुझे तो यह देख कर अचरज हो रहा है कि उन्होंने इतना लिखा है कि उसे 15 खंडो में भी रखना मुश्किल हो रहा है।"

विश्वनाथ त्रिपाठी ने कहा, "जब उन्होंने हंस पत्रिका निकली तो लोगो को संदेह था कि वो प्रेमचंद्र की परम्परा का पालन कर पाएंगे कि नही, लेकिन उन्होंने दिखा दिया कि वो उनके उत्तराअधिकारी हैं । आज उनकी रचनवाली प्रकाशित हो रही है इसपर मुझे ख़ुशी के साथ ईर्ष्या भी हो रही है।"

निर्मला जैन का कहना था, "संपादकीयों के द्वारा तमाम विवादों को जीवित रखा, हिंदी में खासकर महिला और दलित यह इनका बड़ा योगदान है । राजेंद्र यादव रचनावली के खंड 1 से 5 तक में संकलित उपन्यास इसकी गवाही देते हैं!"

'राजेंद्र जी ने अपने लेखन का प्रारंभ कविताओं से किया परन्तु बाद में 1945-46 की इन आरंभिक कविताओं को महत्त्वहीन मान कर नष्ट कर दिया! बाद में लिखी उनकी कविताएँ ‘आवाज तेरी है' नाम से 1960 में ज्ञानपीठ प्रकाशन से प्रकाशित हुई। इनके अतिरिक्त राजेंद्र यादव की कुछ कविताएँ अभी तक अप्रकाशित हैं! रचनावली का पहला खंड उनके इसी आरंभिक लेखन को समर्पित है, जिसमे एक तरफ उनकी प्रकाशित-अप्रकाशित कविताएँ हैं और दूसरी तरफ ‘प्रेत बोलते हैं' और ‘एक था शैलेन्द्र' जैसे प्रारंभिक उपन्यास ! दूसरे खंड में ‘उखड़े हुए लोग' तथा ‘कुलटा', तीसरे खंड में ‘सारा आकाश', ‘शह और मात, ‘अनदेखे अनजान पुल' और चौथे खंड में ‘एक इंच मुस्कान' तथा ‘मंत्रविद्ध' जैसे उपन्यास शामिल है ! रचनावली का पांचवां खंड राजेंद्र जी के अधूरे-अप्रकाशित उपन्यासों को एक साथ प्रस्तुत करता है ! अधूरे होने के कारण इन सब को एक ही खंड में शामिल किया गया है!'

 

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पं. गिरिजा कुमार पांडेय स्मृति सम्मान – 2016 के लिए प्रविष्टियां आमंत्रित - भारत-दर्शन समाचार

सृजनगाथा डॉट कॉम

रायपुर, 12 जुलाई 2016: साहित्य, संस्कृति एवं भाषा की वेब पत्रिका सृजनगाथा डॉट कॉम के संयोजन में ख्यात छायावादी कवि पद्मश्री डॉ. मुकुटधर पांडेय के प्रपौत्र, सुपरिचित लेखक, संस्कृतिकर्मी स्व. श्री गिरिजा कुमार पांडेय (रायगढ़, छत्तीसगढ़) की स्मृति में रचनात्मक लेखन को प्रोत्साहित करने हेतु उनके परिवार की ओर से प्रारंभ ‘गिरिजा कुमार पांडेय स्मृति सम्मान-2016 हेतु भारतीय/प्रवासी भारतीय रचनाकारों से प्रविष्टियाँ आमंत्रित हैं । गठित 5 सदस्यीय चयन समिति द्वारा अंतिम रूप से चयनित रचनाकार को सम्मान स्वरूप 51 हजार की राशि, सम्मान पत्र, प्रतीक चिन्ह आदि से अलंकृत किया जायेगा ।
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फीजी में क्षेत्रीय हिंदी सम्मेलन सम्पन्न - भारत-दर्शन समाचार

25 जनवरी 2020 : फीजी में 25 जनवरी को फिजी के 'शिक्षा मंत्रालय' व कला एवं धरोहर मंत्रालय (आर्ट एंड हैरिटेज मंत्रालय) के सहयोग से भारतीय उच्चायोग ने पहली बार एक क्षेत्रीय हिंदी सम्मेलन का आयोजन किया।

भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद के महानिदेशक अखिलेश मिश्रा ने उद्धघाटन भाषण दिया।

इस सम्मेलन में न्यूज़ीलैंड ने भी अपनी सहभागिता की है। वैलिंगटन हिंदी विद्यालय की सुनीता नारायण इस सम्मेलन में सम्मिलित हुई हैं। भारत-दर्शन के सम्पादक, 'रोहित कुमार हैप्पी' कुछ अपरिहार्य कारणों से इस सम्मेलन में सम्मिलित नहीं हो सके। भारत-दर्शन की ओर से 'न्यूज़ीलैंड में हिंदी' विषय पर सामग्री उच्चायोग को भेज दी गई थी। उन्हें 'न्यूज़ीलैंड में हिंदी पत्रकारिता का इतिहास' पुस्तिका के अतिरिक्त रोहित कुमार 'हैप्पी' और डॉ पुष्पा भारद्वाज-वुड का शोध 'न्यूज़ीलैंड की हिंदी यात्रा' की विवरणिका भी दी गई है।

फीजी में भारत की उच्चायुक्त श्रीमती पद्मजा ने सम्मेलन में अप्रत्याशित प्रतिभागिता के लिए सभी को हार्दिक धन्यवाद दिया है।
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संस्कृति संवाद श्रृंखला का उद्घाटन - भारत-दर्शन समाचार

भारत, 28 जुलाई 2016: इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र में हिंदी आलोचक, 'नामवर सिंह' के 90 वर्ष पूरे होने के अवसर पर आयोजित संस्कृति संवाद श्रृंखला का उद्घाटन किया गया।

Namvar Singh – Safar 90 Sal Ka Book Relesed

समारोह में भारत के गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने मंत्रोच्चार एवं श्लोक पाठ के बीच नामवर सिंह को अंगवस्त्र ओढ़ाकर एवं वागदेवी का एक प्रतीक चिन्ह भेंटकर सम्मानित किया। इस अवसर पर महात्मा गांधी हिंदी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय की पत्रिका 'बहुवचन' व एक अन्य पुस्तक, 'नामवर सिंह - सफ़र 90 साल का' का लोकार्पण भी किया गया।

[ भारत-दर्शन समाचार]

 


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चार युवा लेखकों को नवलेखन पुरस्कार प्रदान - भारत-दर्शन समाचार

भारत, 28 जुलाई 2016: चार युवा लेखकों को वर्ष 2015 के लिए भारतीय ज्ञानपीठ का 11वां नवलेखन पुरस्कार प्रदान किया गया है।

Navlekhan Awards 2015

अमलेन्दु तिवारी और बलराम कावंट को उनके उपन्यास ‘परित्यक्त' और ‘सारा मोरिला' के लिए सम्मानित किया गया।

ओम नागर और तसनीम खान को क्रमश: ‘निब के चीरे से' और ‘ये मेरे रहनुमा' कृतियों के लिए सम्मानित किया गया।

पुरस्कार पाने वालों का चयन वरिष्ठ लेखक एवं पत्रकार मधुसूदन आनंद के नेतृत्व वाली समिति ने किया है। इस समिति में विष्णु नागर, गोविंद प्रसाद और ओम निश्चल जैसी साहित्यकार सम्मिलित थे।

[ भारत-दर्शन ]


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साहित्यकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता महाश्वेता देवी नहीं रहीं - भारत-दर्शन समाचार

कोलकाता, 28 जुलाई: अपनी लेखन से पिछड़ों और वंचित लोगों के लिए लड़ाई लड़ने वाली साहित्यकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता महाश्वेता देवी का 28 जुलाई को निधन हो गया, वह 90 वर्ष की थीं और पिछले दो महीने से बीमार थीं।

उनका स्थानीय बेलेव्यू अस्पताल में इलाज चल रहा था और हालत गंभीर होने पर उन्हें कुछ दिनों से वेंटीलेटर पर रखा गया था।

उन्हें 23 जुलाई को दिल का दौरा पड़ा था।

 


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डॉ. नामवर सिंह का 90वां जन्म-दिवस समारोह - भारत-दर्शन समाचार

Namvar Singh

नयी दिल्ली 27 जुलाई:  हिन्दी साहित्य के प्रख्यात आलोचक डॉ. नामवर सिंह के 90वें जन्मदिवस पर इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र में 28 जुलाई को आयोजित समारोह का उद्घाटन केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह करेंगे तथा केंद्रीय संस्कृति राज्य मंत्री महेश शर्मा मुख्य अतिथि होंगे। नामवर सिंह हिंदी के प्रतिष्ठित आलोचक हैं। आपका जन्म 28 जुलाई 1927 को जीयनपुर, वाराणसी (उत्तर प्रदेश) में हुआ था।
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स्वतंत्रता दिवस पर भारत पर्व का आयोजन - भारत-दर्शन समाचार

भारत, 27 जुलाई: स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर भारत सरकार एक भव्य समारोह का  आयोजन कर रही है। 12 अगस्त से एक सांस्कृतिक प्रदर्शनी का आयोजन होगा।
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ऑस्ट्रेलिया में भारत समागम उत्सव - भारत-दर्शन समाचार

27 जुलाई, 2016 भारत के साथ सांस्कृतिक साझेदारी बढ़ाने के लिए ऑस्ट्रेलिया ने ‘भारत समागम उत्सव' के लिए 2.5 लाख ऑस्ट्रेलियन डालर का अनुदान देने की घोषणा की है। यह देश में हो रहा अपनी तरह का पहला उत्सव होगा।

इस वर्ष अगस्त से आरंभ होने वाले इस 10 सप्ताह के उत्सव का आयोजन ऑस्ट्रेलिया के सात नगरों जिनमें मेलबर्न, सिडनी, पर्थ, कैनबरा, एलिस स्प्रिंग्स, एडिलेड और ब्रिस्बेन सम्मिलित हैं, में होगा।

उत्सव के दौरान शास्त्रीय से लेकर समकालीन तथा दृश्य-कला तक भारत की कला और सँस्कृति का प्रदर्शन किया जाएगा।

उत्सव में कई तरह की सामुदायिक गतिविधियां भी सम्मिलित होंगी और स्थानीय कलाकार भी हिस्सा लेंगे।

[भारत-दर्शन समाचार]

 


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साहित्‍य अकादमी द्वारा भारतीय भाषाओं में लिखने हेतु आवेदन आमंत्रित  - भारत-दर्शन समाचार

भारत, 24 जुलाई 2016: साहित्‍य अकादमी ने भारतीय भाषाओं में लिखने के लिए युवा लेखकों को प्रोत्‍साहित करने के लिए युवा पुरस्‍कार हेतु आवेदन आमंत्रित किए हैं।

संस्‍कृति मंत्रालय के अंतर्गत साहित्‍य अकादमी ने भारतीय भाषाओं में लिखने के लिए युवा लेखकों, जो 35 वर्ष से कम आयु के हैं, को प्रोत्‍साहित करने के लिए वर्ष 2011 में ‘युवा पुरस्‍कार' प्रारंभ किया था। तब से अकादमी द्वारा मान्‍यता प्राप्‍त भारतीय भाषाओं जैसे असमी, बंग्‍ला, बोडो, डोगरी, अंग्रेजी, गुजराती, हिंदी, कन्‍नड़, कश्‍मीरी, कोंकणी, मैथिली, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, उडि़या, पंजाबी, राजस्‍थानी, संथाली, संस्‍कृत, तमिल, तेलुगू, सिंधी एवं उर्दू में युवा भारतीय लेखकों द्वारा लिखी गई सर्वश्रेष्‍ठ पुस्‍तकों को कुल 106 पुरस्‍कार दिए जा चुके हैं। ये पुरस्‍कार एक सम्‍मानित समारोह में प्रदान किए जाते हैं और इनमें 50 हजार रुपये की यह राशि, एक फलक एवं एक प्रशंसात्‍मक उल्‍लेख शामिल होता है।

साहित्‍य अकादमी युवा पुरस्‍कार 2017 के लिए अकादमी द्वारा मान्‍यता प्राप्‍त सभी 24 भाषाओं में 35 वर्ष या उससे कम आयु के युवा भारतीय लेखकों तथा प्रकाशकों से पुस्‍तकें आमंत्रित कर रहा है। आवेदक लेखक की उम्र पहली जनवरी 2017 को 35 वर्ष या उससे कम होनी चाहिए। प्रतिवेदन की अंतिम तिथि 30 सितंबर 2016 है।  पुस्‍तकें जन्‍म तिथि प्रमाण पत्र की एक प्रमाणित प्रति के साथ भेजी जानी चाहिए।

प्रतिवेदन के बारे में और जानकारी साहित्य अकादमी की वेब पृष्ठ पर उपलब्ध है।

प्रविष्टियां साहित्य अकादमी के निम्‍न पृष्ठ पर भी भेजी जा सकती हैं:
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कवि-पत्रकार नीलाभ अश्क नहीं रहे - भारत-दर्शन समाचार

Hindi writer Neelabh Asaq Died on July 23rd 2016

भारत, 23 जुलाई 2016:  हिंदी के वरिष्ठ कवि एवं बीबीसी के पूर्व पत्रकार नीलाभ अश्क का आज सुबह दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया। वे 72 वर्ष के थे।

श्री नीलाभ अश्क हिंदी लेखक उपेन्द्रनाथ अश्क के बेटे थे। वे पिछले कई वर्षों से दिल्ली में स्वतंत्र लेखन कर रहे थे।  इन दिनों वे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (NSD) की पत्रिका रंग-प्रसंग का संपादन भी करते थे।

 


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महाश्वेता देवी की हालत अब भी गंभीर - भारत-दर्शन समाचार

कोलकाता, 20 जुलाई  2016: प्रसिद्ध साहित्यकार और सामाजिक कार्यकर्ता महाश्वेता देवी की हालत अब भी गंभीर है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी कल सांय अस्पताल में उन्हें मिलने गयीं थीं।

बेल व्यू क्लीनिक हॉस्पिटल के डॉक्टरों के अनुसार उनके शरीर के बाकी अंगों में सुधार हुआ है लेकिन गुर्दों की हालत में सुधार का कोई संकेत नहीं दिख रहा।

‘‘उनकी हालत अब भी नाजुक है और वह वेंटिलेटर पर हैं। उनके सांस लेने में सुधार हुआ है।''

90 वर्षीय लेखिका-कार्यकर्ता को देश के विभिन्न क्षेत्रों में आदिवासियों के कल्याण के लिए जाना जाता है। वह गुर्दे और फेफड़े की बीमारियों और साथ ही खून एवं मूत्र मार्ग में संक्रमण से ग्रस्त हैं।

 

 

 


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डेनमार्क सबसे कम भ्रष्ट देश  - रोहित कुमार 'हैप्पी'

27 जनवरी 2016: करप्शन परसेप्शन इंडेक्स (Corruption Perceptions Index) 2015 के अनुसार 168 देशों की सूची में डेनमार्क सबसे कम भ्रष्ट देश है। इस सूची में डेनमार्क ने 100 में से सर्वाधिक 91 अंक लेकर पहला स्थान पाया है। डेनमार्क इस सूची में लगातार दूसरे वर्ष शीर्ष पर है।सबसे कम भ्रष्ट देशों की सूची में डेनमार्क (91) के बाद फिनलैंड 90 अंक लेकर द्वितीय, स्वीडन 89 अंक लेकर तृतीय, न्यूजीलैंड 88 अंक के साथ चौथे व नीदरलैंड्स 87 अंक लेकर पाँचवे स्थान पर हैं।

Corruption Perceptions Index 2015

भारत थाईलैंड, ब्राजील, ट्यूनीशिया, जांबिया और बुर्किनाफासो के साथ 76वें स्थान पर है। भारत ने 100 में से 38 अंक अर्जित किए हैं।

भारत पिछले वर्ष (2014) में 85 वें स्थान पर था। इस बार उसका 76 वां स्थान पाने से स्थिति नि:संदेह सुधरी है लेकिन जहाँ तक अंकों की बात है वे यथावत हैं - पिछले वर्ष भी भारत के 38 अंक थे।

भारत के पड़ोसी देशों में भूटान 65 अंकों के साथ 27वें स्थान पर है और भारत से आगे है। वहीं चीन और श्रीलंका 37 अंकों के साथ 83वें, पाकिस्तान 30 अंकों के साथ 117वें, नेपाल 30 अंको के साथ 130वें और बांग्लादेश 25 अंक लेकर 139वें स्थान पर है।

भारतीय जनसंख्या वाले मॉरीशस 53 अंकों के साथ 45वें, त्रिनिदाद-टोबेगो 39 अंकों के साथ 72वें व सूरीनाम 36 अंकों के साथ 88वें स्थान पर हैं। फ़ीजी इस सूची में सम्मिलित नहीं है।

उत्तर कोरिया और सोमालिया आठ अंको के साथ सबसे निचले पायदान पर है यानी सबसे भ्रष्ट देशों में गिने गये हैं।

ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के अनुसार इस बार का सर्वेक्षण 168 देशों पर आधारित है।
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पद्म पुरस्कार 2016 में एनआरआई व पीआईओ भी - भारत-दर्शन समाचार
 
पद्म पुरस्कार- देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान  पद्म विभूषण , पद्म भूषण और पद्मश्री श्रेणियों में दिए जाते हैं।  यह पुरस्कार , कला, सामाजिक कार्य , जन हित के मामलों , विज्ञान एवं इंजीनियरिंग , व्यापार एवं उद्योग , मेडिसिन , साहित्य  तथा शिक्षा , खेल-कूद तथा नागरिक सेवाओं के लिए दिए जाते हैं।  पद्म विभूषण असाधारण और उत्कृष्ट सेवाओं के लिए दिया जाता है । पद्म भूषण उच्च श्रेणी की  उत्कृष्ठ सेवाओं तथा पद्मश्री किसी क्षेत्र में उत्कृष्ट सेवाओं के लिए प्रदान किया जाता है । इन पुरस्कारों की घोषणा प्रत्येक वर्ष गणतंत्र दिवस के अवसर पर की जाती है ।

पद्म पुरस्कार राष्ट्रपति द्वारा मार्च/अप्रैल में राष्ट्रपति भवन में आयोजित किए जाने वाले समारोह में प्रदान किए जाते हैं।  इस वर्ष राष्ट्रपति ने 112 व्यक्तियों को पद्म पुरस्कारों की स्वीकृति दी है । इसकी सूची नीचे है। सूची में 10 पद्म विभूषण , 19 पद्म भूषण तथा 83 पद्मश्री पुरस्तार प्राप्त करने वालों के नाम संलग्न हैं। इनमें 19 महिलाएं तथा 10 व्यक्ति विदेशी, एनआरआई, पीआईओ हैं। 

        पद्म विभूषण

 

क्रम संख्या

 

नाम

क्षेत्र

राज्य

1.                  

सुश्री यामिनी कृष्णमूर्ति

कला- शास्त्रीय नृत्य  

दिल्ली

2.                  

श्री रजनीकांत

कला- सिनेमा

तमिलनाडु

3.                  

श्रीमती गिरिजा देवी

कला- शास्त्रीय गायन

पश्चिम बंगाल

4.                  

श्री रामोजी राव

साहित्य एवं शिक्षा- पत्रकारिता

आंध्र प्रदेश

5.                  

डॉ विश्वनाथन शांता

मेडिसिन- ऑनकोलॉजी

तमिलनाडु

6.                  

श्री श्री रविशंकर

अन्य- अध्यात्म

कर्नाटक

7.                  

श्री जगमोहन

लोक मामले

दिल्ली

8.                  

डॉ वासुदेव कलकुंते आत्रे

विज्ञान इंजीनियरिंग

कर्नाटक

9.                  

श्री अविनाश दीक्षित (विदेशी)

साहित्य एवं शिक्षा

अमेरिका

10.              

स्वर्गीय श्री धीरू भाई अंबानी(मरणोपरांत)

व्यापार तथा उद्योग

महाराष्ट्र

 

पद्म भूषण

 

क्रम संख्या

नाम

क्षेत्र

राज्य

11.              

श्री अनुपम खेर

कला-सिनेमा

महाराष्ट्र

12.              

श्री उदित नारायण झा

कला-पार्श्व गायन

महाराष्ट्र

13.              

श्री राम वी सुतार

कला- मूर्तिकला

उत्तर प्रदेश

14.              

श्री हिसनाम कन्हाईलाल

कला- थियेटर

मणिपुर

15.              

श्री विनोद राय

सिविल सेवा

केरल

16.              

डॉ यार्लगद्द लक्ष्मी प्रसाद

साहित्य तथा शिक्षा

आंध्र प्रदेश

17.              

प्रोफेसर एन एस रामानुज ततआचार्य

साहित्य तथा शिक्षा

महाराष्ट्र

18.              

डॉ बरजिंदर सिंह हमदर्द

साहित्य तथा शिक्षा-पत्रकारिता

पंजाब

19.              

प्रोफेसर डी नागेश्वर रेड्डी

मेडिसिन- गैस्ट्रोइंट्रोलाजी

तेंलगाना

20.              

स्वामी तेजोमायानंद

अन्य -अध्यात्म

महाराष्ट्र

21.              

श्री हाफिज कंट्रैक्टर

अन्य-कृषि

महाराष्ट्र

22.              

श्री रवीन्द्र चंद्र भार्गव

लोक मामले

उत्तर प्रदेश

23.              

डॉ वेंकट रामाराव अल्ला

विज्ञान तथा इंजीनियरिंग

आंध्र प्रदेश

24.              

सुश्री साइना नेहवाल

खेल-बैडमिंटन

तेंलगाना

25.              

सुश्री सानिया मिर्जा

खेल-टेनिस

तेंलगाना

26.              

सुश्री इंदु जैन

व्यापार तथा उद्योग

दिल्ली

27.              

स्वर्गीय स्वामी दयानंद सरस्वती(मरणोपरांत)

अन्य- अध्यात्म

उत्तराखंड

28.              

श्री राबर्ट ब्लैकविल (विदेशी)

लोक मामले

अमेरिका

29.              

श्री पलोनजी शपूरजी मिस्त्री(एनआरआई /more...

 
 
26 जनवरी पर भारत व ऑस्ट्रेलिया पर गूगल डूडल - भारत-दर्शन संकलन

26 जनवरी 2016: आज गूगल ने अपना डूडल भारत व आस्ट्रेलिया को समर्पित किया है। भारत का आज गणतंत्र-दिवस है व ऑस्ट्रेलिया का राष्ट्रीय-दिवस है।

Indian Republic Day 2016 - Google Doodle

भारत का डूडल गणतंत्र दिवस समारोह को समर्पित किया गया है। इसमें सीमा सुरक्षा बल के सिपाहियों को ऊंट पर मार्च करते दिखाया गया है। गूगल ने इस डूडल के माध्यम से भारत के 67वें गणतंत्र दिवस पर सम्मान दिया है।

डूडल में पगड़ी पहने सुसज्जित बैंडवालों को मार्शल संगीत बजाते एक पंक्ति में छह रंग बिरंगे ऊंटों की सवारी करते हुए दिखाया है। प्रत्येक ऊंट पर ‘गूगल' का एक अक्षर अंकित है। बीएसएफ देश का एक अकेला ऐसा बल है जिसे परिचालन और औपचारिक कर्तव्यों के लिए ऊंट दस्ता मिला हुए हैं। बीएसएफ द्वारा राजस्थान में भारत-पाक सीमा से सटे थार रेगिस्तान में गश्त करने के लिए इनका इस्तेमाल किया जाता है।
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ऑस्ट्रेलिया में रचनाएं आमंत्रित  - भारत-दर्शन समाचार

हिन्दी समाज ऑव ऑस्ट्रेलिया अपनी वार्षिक पत्रिका, 'भारत भारती' हेतु रचनाएं आमंत्रित कर रहा है।

Hindi Samaj of Western Australia

आप प्रकाश्नार्थ साहित्यिक सामग्री 30 मार्च 2016 तक भेज सकते हैं। आप लेख, कहानियाँ, चुटकले इत्यादि भेज सकते हैं।

पत्रिका का संभावित प्रकाशन जून 2016 में होगा।

रचनाएं चार पंक्तियों से 2 पृष्ठ तक के आकार की स्वीकार्य होंगी। इससे लंबी रचनाएं केवल गुणवत्ता के आधार पर संपादक द्वारा स्वीकार्य हो सकती हैं।

कृपया रचनाएं भेजते समय ध्यान रखें कि वे किसी कॉपीराइट व बौद्धिक अधिकारों का उल्लंघन न करती हों।

हिन्दी समाज ऑव ऑस्ट्रेलिया किसी प्रकार के कॉपीराइट के हर्जाने के लिए उत्तरदायी नहीं होगा।

आप अपनी रचनाएं, अपने छायाचित्र सहित निम्नलिखित ई-मेल पर 30 मार्च 2016 से पहले भेजें :

cm_rk@hindisamajwa.org

 


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66 फुट लंबा, 99 फुट चौड़ा झंडा फहराया - भारत-दर्शन समाचार

रांची, 23 जनवरी 2016 (भारत): रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने आज रांची में पहाड़ी मंदिर के पास सबसे उंचे खंभे पर देश के सबसे विशाल तिरंगे झंडे को फहराया।

पर्रिकर ने रांची में कहा, "नेताजी सुभाष चंद्र बोस की 119वीं जयंती पर देश के सबसे लंबे, सबसे बड़े और सबसे खूबसूरत तिरंगे झंडे का ध्वजारोहण करके मैं गर्वित महसूस कर रहा हूं।" झंडा 66 फुट लंबा, 99 फुट चौड़ा है जिसे 293 फुट उंचे खंभे पर फहराया गया।

कल तक फरीदाबाद में 250 फुट उंचे खंभे पर लहरा रहा 96 फुट गुणा 64 फुट परिमाप वाला झंडा देश का सबसे विशाल और लंबा तिरंगा झंडा था। इसे पिछले वर्ष फहराया गया था।

पहाड़ी मंदिर से करीब एक किलोमीटर की दूरी पर झंडा फहराने के बाद बिरसा मुंडा स्टेडियम में छात्रों के एक समूह को संबोधित करते हुए पर्रिकर ने झारखंड और राज्य के मुख्यमंत्री रघुबर दास को उन्हें यह शानदार अवसर देने के लिए आभार जताया।

इस अवसर पर झारखंड की राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू, मुख्यमंत्री, उनके कैबिनेट के सदस्य और अन्य गणमान्य व्यक्ति उपस्थित थे।

 


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नेताजी से जुडी गोपनीय फाइलें सार्वजनिक - भारत-दर्शन समाचार

23 जनवरी 2016 (भारत):  भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने नेताजी सुभाष चन्द्र बोस से जुड़ी गोपनीय 100 फाइलों को आज उनकी 119वीं जयन्ती पर आम जनता के लिए सार्वजनिक कर दिया जिसके बाद उनकी मृत्यु के रहस्य पर से पर्दा उठने की संभावनाएं बढ़ गई हैं ।

PM Modi paying his respect to Netaji

श्री मोदी ने राष्ट्रीय अभिलेखागार में नेताजी के परिजनों की उपस्थिति में एक समारोह में इन फाइलों की डिजिटल प्रतियों को जारी किया।

इस अवसर पर संस्कृति मंत्री महेश शर्मा एवं शहरी विकास राज्य मंत्री बाबुल सुप्रियो भी उपस्थित थे।

 


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पद्मभूषण से सम्मानित प्रसिद्ध नृत्यांगना मृणालिनी साराभाई नहीं रहीं - भारत-दर्शन समाचार

अहमदाबाद (भारत) 21 जनवरी 2016: सुप्रसिद्ध नृत्यांगना और पद्मभूषण से सम्मानित मृणालिनी साराभाई का अहमदाबाद के एक अस्पताल में निधन हाे गया। वे 97 वर्ष की थीं। उन्हें बीमारी के कारण बुधवार (20 जनवरी) को शहर के एक अस्पताल में दाखिल कराया गया था।
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राष्ट्रीयता वीरता पुरस्कार 2015 - भारत-दर्शन समाचार

19 जनवरी 2015 (भारत) राष्ट्रीयता वीरता पुरस्कार 2015 के विजेताओं में इस बार 3 बालिकाएं व 22 बालक सम्मिलित हैं। दो पुरस्कार मरणोपरांत दिए जा रहे हैं।

National Bravery Awards: 25 young bravehearts to be honoured
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विश्व हिंदी सचिवालय निबंध प्रतियोगिता परिणाम - रोहित कुमार 'हैप्पी'

19 जनवरी 2015 (मॉरीशस): विश्व हिंदी सचिवालय, मॉरीशस द्वारा आयोजित अंतरराष्ट्रीय हिंदी निबंध प्रतियोगिता 2015 के परिणाम घोषित किए गए। प्रतियोगिता को पाँच भौगोलिक क्षेत्रों में बांटा गया था जिनमें अफ्रीका व मध्य पूर्व, अमेरिका, एशिया व ऑस्ट्रेलिया (भारत के अतिरिक्त), यूरोप व भारत सम्मिलित हैं।

विश्व हिंदी सचिवालय निबंध प्रतियोगिता परिणाम 2015

प्रत्येक भौगोलिक क्षेत्र के विजेताओं को प्रमाण पत्र व नकद पुरस्कार प्रदान किए जाएंगे। नकद पुरस्कारों में प्रथम पुरस्कार 300 अमरीकी डालर, द्वितीय 200 अमरीकी डालर व तृतीय पुरस्कार 100 अमरीकी डालर होगा।

विजेताओं की सूची इस प्रकार है:

भौगोलिक क्षेत्र 1 : अफ्रीका व मध्य पूर्व

प्रथम पुरस्कार
श्री सोमदत्त काशीनाथ (मॉरीशस),

द्वितीय पुरस्कार......

 
 
नेताजी सुभाषचंद्र बोस के निधन को लेकर नयी जानकारी - भारत-दर्शन संकलन

16 जनवरी 2016: जनवरी के महीने में ज्यों ही नेताजी सुभाषचंद्र बोस की जयंती आने वाली होती है तो अचानक नेताजी के लापता होने की घटना पुन: प्रकाश में आ जाती है। 1945 से नेताजी के लापता होने के बाद से यही क्रम चल रहा है। यह वर्ष भी अपवाद नहीं है।

भारत की स्वतंत्रता के लिए आजाद हिंद फौज का नेतृत्व करने वाले सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु आज भी एक रहस्य बनी हुई है।

 

Netaji Subhash Bose

नेता जी के लापता होने को लेकर दो मत हैं -

1) वे मारे गए - मारे जाने को लेकर भी कई प्रकार के मत है जैसे - लाल किले में, विमान दुर्घटना, देहरादून में, शिवपुराकलां में या फैजाबाद में।

2) अन्य वे अज्ञातवास में चले गए।

1950 में यह सामान्य मत था कि नेताजी जीवित हैं और वे साधु बन गए हैं।

वर्तमान में सुभाषचंद्र बोस को लेकर विभिन्न वेबसाइट हैं जिनमें समय-समय पर उनके बारे में जानकारी दी जाती है। हाल ही में एक नई साइट प्रकाश में आई है। ब्रिटेन से संचालित यह साइट पिछले कुछ समय से 'सुभाषचंद्र बोस' के अंतिम दिनों को एक वृतांत के रूप में प्रकाशित कर रही है।

ब्रिटेन की यह वेब साइट जिसका प्रकाशन/संचालन स्वतंत्र पत्रकार व नेताजी के भाई के पोते (आशीष रे) करते हैं, ने दावा किया है कि नेताजी का 18 अगस्त 1945 को विमान दुर्घटना के बाद देहांत हो गया था। इस साइट ने आज (16 जनवरी 2016) को उस डॉक्टर का ब्यान व छायाचित्र जारी किया है, जिसने अंतिम समय में 'नेताजी' की देखभाल की थी व बाद में उन्हें मृत घोषित किया था।

Dr Taneyoshi Yoshimi who seen Netaji Subhash Bose before he was declared dead on Aug 18th 1945

छायाचित्र: बोस फाइल्ज़ - सफ़ेद कपड़ो में डॉ तमेयोशी योशिमी (दाएं से दूसरे), उन्होंने 1945 में ताइपे में एक अस्पताल में कई घंटे के लिए सुभाष चंद्र बोस का इलाज किया था जब वे तथाकथित रूप से एक विमान दुर्घटना में बुरी तरह घायल हो गए थे। यही बाद में इसी डॉक्टर ने नेताजी को मृत घोषित किया था। आशीष रे (नेताजी के भाई के पोते- दाएं से तृतीय) ने 1995 में डॉ तमेयोशी योशिमी से मुलाकात की थी। 


उधर सुभाषचंद्र बोस की जानकारी रखने वाले अन्य विशेषज्ञ इस नई जानकारी से असहमत हैं।

सुभाष चंद्र बोस ऑर्ग ने बोस फाइल्ज़ वेबसाइट व 'आशीष रे'  की नई जानकारी से असहमति जताते हुए इसे आशीष द्वारा पिछली सरकार की गैर-जिम्मेदाराना कार्यवाही पर लिपापोती करना बतलाया है।

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्ज़ी ने पिछले वर्ष सितंबर 2015 में नेताजी से संबंधित 64 फाइलें सार्वजनिक की थीं और कहा था कि उनकी सरकार द्वारा नेताजी सुभाष चंद्र बोस से जुड़ी जिन फाइलों को सार्वजनिक किया गया है, उनमें मौजूद पत्रों से संकेत मिलता है कि वह 1945 के बाद भी जीवित थे और उनके परिवार की जासूसी की जा रही थी।


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सूरीनाम में प्रवासी दिवस व विश्व हिंदी-दिवस - कविता मालवीय

सूरीनाम: भारतीय सांस्कृतिक केंद्र और भारतीय राजदूतावास पारामारिबो द्वारा प्रवासी भारतीय दिवस और विश्व हिंदी दिवस 8 जनवरी 2016 को मनाया गया।  विचार गोष्ठी कार्यक्रम के विषय, 'सूरीनाम के हिन्दुस्तानियों में हिंदी भाषा की भूमिका' पर सूरीनाम के प्रतिष्ठित हिंदी वक्ताओं के द्वारा दिए गए भाषणों व 'आई सी सी' के हिंदी विद्यार्थियों द्वारा हिंदी की विभिन्न विधाओं पर संगीत और नृत्य की प्रस्तुतियों ने कार्यक्रम की शोभा में चार चांद लगा दिए।
सूरीनाम में विश्व हिंदी दिवस - जनवरी २०१६......

 
 
रवीन्द्र कालिया नहीं रहे - भारत-दर्शन समाचार
Ravinda Kalia, Hindi author died on Jan 9th, 2016
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हिंदी सेवी सम्मान समारोह स्थगित  - भारत-दर्शन समाचार

7 जनवरी 2016 को होने वाला हिंदी सेवी सम्मान समारोह नहीं हो पाया।

भारत के राष्ट्रपति, श्री प्रणब मुखर्जी कल (07 जनवरी, 2016) को राष्ट्रपति भवन में आयोजित एक समारोह में वर्ष 2012, 2013 और 2014 का हिंदी सेवा सम्मान प्रदान करने वाले थे लेकिन जम्मू और कश्मीर के मुख्यमंत्री मुफ्ती मुहम्मद सईद के निधन के कारण राष्ट्रपति भवन में होने वाले हिन्दी सेवी सम्मान समारोह को अंतिम समय में स्थगित कर दिया गया।

राष्ट्रपति भवन के दरबार हाल में आयोजित इस समारोह में हिस्सा लेने के लिये करीब बारह बजे के आसपास सम्मान पाने वाले लेखक, पत्रकार और हिन्दी सेवी पहुंच चुके थे और वे दरबार हाल में बैठ भी गये थे। राष्ट्रपति भवन की ओर से उन्हें सूचित किया गया कि सईद के सम्मान में राष्ट्रीय शोक घोषित होने के कारण यह समारोह स्थगित कर दिया गया है।

केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा द्वारा आयोजित इस समारोह में राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी देश-विदेश के जाने माने 42 लेखकों, विद्वानों तथा पत्रकारों को हिन्दी सेवी सम्मान से विभूषित करने वाले थे। यह पुरस्कार वर्ष 2012 , 2013 और 2014 के लिये दिया जाना था।

केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा ने 1989 में हिंदी सेवी सम्मान आरंभ किया था। प्रत्येक वर्ष सात विभिन्न वर्गों में हिंदी भाषा और साहित्य के क्षेत्र में योगदान के लिए 14 विद्वान यह पुरस्कार प्राप्त करते हैं। पुरस्कार में एक लाख रुपये और एक प्रमाण पत्र सम्मिलित है।

 


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2015 अकादमी विजेताओं की पूर्ण सूची - भारत-दर्शन समाचार

2015 अकादमी विजेताओं की पूर्ण सूची

भाषा            शीर्षक एवं विधा                                           रचनाकार

असमिया     आकाशर छबि आरु अन्यान्य गल्प ( कहानी)     कुल सेइकिया
बोडो          बायदि देंखो बायदि गाब ( कविता)                    ब्रजेन्द्र कुमार ब्रह्म......

 
 
तू भी है राणा का वंशज  - वाहिद अली 'वाहिद'

कब तक बोझ सम्भाला जाये
युद्ध कहाँ तक टाला जाये ।......

 
 
दोस्ती - राकेश एल रॉबर्ट

दोस्ती इम्तिहान होती है
जो पास कर जाए,......

 
 
गोरख पांडे की दो कविताएं  - गोरख पांडे

तंत्र

राजा बोला रात है,
रानी बोली रात है,......

 
 
आशा का गीत - गोरख पांडे

आएँगे, अच्छे दिन आएँगे
गर्दिश के दिन ये कट जाएँगे......

 
 
मोह  - शैलेन्द्र कुमार शर्मा

पेड़ अगर जो मोह लगाते
फल डालियों पर सड़ जाते,......

 
 
कच्चे-पक्के मकान - सोमनाथ गुप्ता 'दीवाना रायकोटी'

कच्चे मकान थे सच्चे इंसान थे
दिलों में मोहब्बत, एक दूसरे की जान थे ......

 
 
दो छोटी कविताएँ - दिनेश भारद्वाज

दुनिया 

सभी मुझे समझाने लगे
ज़रा ठोकर क्या लगी......

 
 
पुष्पा भारद्वाज-वुड की दो कविताएँ - डा॰ पुष्पा भारद्वाज-वुड

ज़िम्मेदारी

सामाजिक असंगति
और ......

 
 
प्रीता व्यास की दो कविताएँ - प्रीता व्यास

यह नहीं बताया

माँ कहती थी
बहादुर ......

 
 
खोया हुआ सा बचपन - माधुरी शर्मा ' मधु'

बच्चे तो हैं, पर बचपन कहाँ हैं?
वो मासूमियत, वो रौनक कहाँ हैं?......

 
 
बेटी - अंकिता वर्मा

बेटी हूँ मैं भूल नहीं
किसी के पैरों की धूल नहीं, ......

 
 
गुर्रमकोंडा नीरजा की कविताएं  - गुर्रमकोंडा नीरजा

तीन शब्द

तीन शब्द----
हाँ! तीन ही शब्द

नफरत!......

 
 
कवि और कविता  - मौसम कुमरावत

ज़रूरी नहीं,
पुस्तक थामे......

 
 
दो ग़ज़लें  - कृष्ण सुकुमार | Krishna Sukumar

झील, समुंदर, दरिया, झरने उसके हैं
मेरे  तश्नालब  पर  पहरे  उसके  हैं......

 
 
मनुष्य बनाये रखना - विजय कुमार सिंह

हम खड़े होंगे कभी भीड़ में कभी हम अकेले
कभी हम मरुथल में होंगे कभी फूलों से सजे मेले।

हमें कभी कोई धक्का देगा और कोई धिक्कारेगा......

 
 
दिनेश भारद्वाज की दो रचनाएँ  - दिनेश भारद्वाज

एक विचार

मैं भी माटी, तू भी माटी, छोड़ ये झगड़ा माटी का
कल भी यहीं था, यहीं रहेगा, जमीन का टुकड़ा माटी का......

 
 
आह्वान  - अशफ़ाक उल्ला खाँ

कस ली है कमर अब तो, कुछ करके दिखाएँगे,
आज़ाद ही हो लेंगे, या सर ही कटा देंगे।

हटने के नहीं पीछे, डर कर कभी ज़ुल्मों से,......

 
 
काग़ज़ फाड़ दिए - दीपक शर्मा

सींचे थे खून पसीनों से,
लिख पढ़ के साल महीनों से......

 
 
बोलो फिर कैसे मुस्काएं - विजय कनौजिया

जब पलकें हों गीली-गीली
फिर मन को कुछ भी न भाए......

 
 
मेरे देश की आवाज़  - ज्योति स्वामी "रोशनी"

आज दिल की अपने बात कहने दे
तू मुझे सफेद रहने दे

ना रंग धर्म का दे, ना जात का......

 
 
मेरा दिल मोम सा - सुनीता शर्मा

खिड़की दरवाजे लोहे के बना
बोल्ट कर लिए हैं मैंने......

 
 
तुम्हारे लिये | कुछ मुक्तक  - अनूप भार्गव

प्रणय की प्रेरणा तुम हो
विरह की वेदना तुम हो......

 
 
मुस्कुराहट  - डॉ दीपिका

मुस्कुराहट सदैव बनाये रखना,
जब कभी ज़िन्दगी भार लगे,......

 
 
परमात्मा रोया होगा - संतोष सिंह क्षात्र

कुछ पढ़े-लिखे मूर्खों के कारण
कितनों ने अपनों को खोया होगा।......

 
 
साहित्य अकादमी 2015 पुरस्कारों की घोषणा - भारत-दर्शन संकलन

साहित्य अकादमी


नयी दिल्ली, 17 दिसंबर 2015: हिंदी के वरिष्ठ लेखक रामदरश मिश्र सहित 23 भारतीय भाषाओं के लेखकों को इस बार साहित्य अकादमी पुरस्कार दिए जाने की घोषणा की गयी है। वरिष्ठ हिंदी लेखक रामदरश मिश्र को यह पुरस्कार उनके कविता-संग्रह 'आग की हँसी पर' दिया जा रहा है।

छह कविता- संग्रह, छह कहानी-संग्रह, चार उपन्यास, दो निबंध-संग्रह, दो नाटक, दो समालोचना और एक संस्मरण के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कारों की घोषणा की गई है। बांग्ला का पुरस्कार बाद में घोषित किया जाएगा ।

कविता-संग्रहों के लिए पुरस्कृत 6 कवि हैं - ब्रजेन्द्र कुमार ब्रह्म (बड़ो), ध्यान सिंह (डोगरी), रामदरश मिश्र (हिन्दी), के. वी. तिरुमलेश ( कन्नड), क्षेत्री राजन (मणिपुरी) और राम शंकर अवस्थी संस्कृत ।

कहानी-संग्रहों के लिए पुररकृत 6 कहानीकार हैं - कुल सेइकिया ( असमिया), मनमोहनझा (मैथिली), गुप्त प्रधान (नेपाली), विभूति पट्टनायक (ओड़िया), माया राही सिन्धी) और वोल्गा (तेलुगु) ।

साइरस मिस्त्री (अंग्रेज़ी), के. आर. मीरा ( मलयाळम्), जसविन्दर सिंह (पंजाबी) और मधु आचार्य 'आशावादी' (राजस्थानी) को उनके उपन्यास हेतु पुरस्कृत किया गया ।

रसिक शाह (गुजराती) और ए. माधवन (तमिल) को उनके निबंध के लिए और उदय भेंब्रे (कोंकणी), रबिलाल टुडू (संताली) को नाटक के लिए तथा बशीर भद्रवाही (कश्मीरी), शमीम तारिक (उर्दू) को समालोचना के लिए और अरुण खोपकर ( मराठी) को संस्मरण के लिए पुरस्कृत किया गया ।

पुरस्कारों की अनुशंसा 23 भारतीय भाषाओं की निर्णायक समितियों द्वारा की गई तथा साहित्य अकादेमी के अध्यक्ष श्री विश्वनाथ प्रसाद तिवारी की अध्यक्षता में आयोजित अकादमी के कार्यकारी मंडल की बैठक में इन्हें अनुमोदित किया गया ।

इन पुस्तकों को त्रि-सदस्यीय निर्णायक मंडल ने निर्धारित चयन प्रक्रिया का पालन करते हुए पुरस्कार के लिए चयनित किया है । नियमानुसार कार्यकारी मंडल ने निर्णायकों के बहुमत के आधार पर अथवा सर्वसम्मति के आधार पर चयनित पुस्तकों के लिए पुरस्कारों की घोषणा की। पुरस्कार 1 जनवरी 2009 से 31 दिसम्बर 2013 के दौरान पहली बार प्रकाशित पुस्तकों पर दिया गया है।

साहित्य अकादमी पुरस्कार के रूप में एक ताम्रफलक, शॉल और एक लाख रुपये की राशि प्रदान करेगी । घोषित पुरस्कार 16 फरवरी 2०16 को नई दिल्ली में आयोजित एक विशेष समारोह में दिए जाएँगे ।

[भारत-दर्शन समाचार]

 

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हैदराबाद में खुलेगा गूगल का नया परिसर  - भारत-दर्शन संकलन

17 दिसंबर 2015 (भारत): गूगल के मुख्य कार्यकारी अधिकारी सुंदर पिचई ने कहा है कि गूगल हैदराबाद में एक नया परिसर खोलेगी और वह देश में इंटरनेट उपयोग के दायरे में अधिकाधिक लोगों को लाने के लिए काम करेगी। पिचई ने एक कार्यक्रम के दौरान कहा कि हमने रेलटेल के साथ 400 रेलवे स्टेशनों पर वाई-फाई देने का फैसला किया है। 2016 के अंत तक 100 स्टेशन इंटरनेट से जुड़ जाएंगे।

मुंबई सेंट्रल स्टेशन जनवरी तक ऑनलाइन हो जाएगा। यह गूगल द्वारा भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ कैलिफोर्निया मुख्यालय में किए गए वादों का हिस्सा है। देश में निवेश योजना पर उन्होंने कहा कि हम बेंगलूरु और हैदराबाद परिसरों में इंजीनियरिंग में निवेश बढ़ाएंगे। उन्होंने कहा कि हम हैदराबाद में एक विशाल परिसर भी बनाएंगे। उन्होंने हालांकि यह स्पष्ट नही किया कि इस पर कितना निवेश होगा। इस समय भारत में गूगल के 1,500 कर्मचारी काम करते हैं।

 


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कवि रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ नहीं रहे - भारत-दर्शन संकलन

8 दिसंबर 2015 (भारत):  जन-कवि रमाशंकर यादव ‘विद्रोही' के चले जाने से सबसे अधिक धक्का जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रों को लगा है। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में पिछले दो दशकों में आने वाले हजारों छात्र उनकी कविता सुनकर संघर्ष का पाठ सीखे हैं। 'विद्रोही' ऑक्युपाई यूजीसी के मार्च में भी सम्मिलित होने आए थे, उसी समय उनकी तबीयत बिगड़ गई और तत्काल उनका निधन हो गया।
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हिंदी कविता के वास्तविक रचनाकार का नाम की पुष्टि हुई - भारत-दर्शन समाचार

कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती' कविता के वास्तविक रचनाकार का नाम पता चल गया है। अभी तक इस कविता को हरिवंशराय बच्चन की रचना माना जाता था, लेकिन भारत-दर्शन के प्रयासों से अब यह तथ्य सामने आया है कि यह कविता सोहनलाल द्विवेदी ने लिखी थी। स्वयं अमिताभ बच्चन ने ट्विटर पर इसकी पुष्टि की है। यह सब न्यूजीलैंड के ऑनलाइन हिंदी पत्रिका के संपादक के प्रयासों से संभव हो पाया है।

संदर्भ :

https://twitter.com/srbachchan/status/19327863853

http://www.twitlonger.com/show/n_1snvpi8
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संविधान दिवस - भारत-दर्शन संकलन

26 नवंबर 2015 (भारत): प्रधानमंत्री ने लोकसभा में संविधान दिवस पर डॉ. अंबेडकर के योगदान को रेखांकित किया।

प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने आज कहा कि भारत के संविधान ने भारतीयों की लिए गरिमा और देश की एकता को सुनिश्चत कर दिया है। वह संविधान दिवस समारोह के लिए आयोजित विशेष बैठक और संविधान निर्माता डॉ. बी.आर. अंबेडकर की 125वीं जयंती पर बोल रहे थे।

प्रधानमंत्री ने कहा कि भारत जैसे विविधता भरे देश में हमें संविधान को सक्रिय रूप से लोगों के पास ले जाने की जरूरत है। सरकार की ओर से 26नवंबर को संविधान दिवस के तौर पर मनाना यह दिखाता है कि केंद्र सरकार इसी आलोक में सोच रही है। उन्होंने कहा यह अवधारणा धीरे-धीरे विकसित हो जाएगी।

प्रधानमंत्री ने कहा कि देश के संविधान का निर्माण करने वालों की कितनी भी प्रशंसा की जाए कम है। उन्होंने कहा कि डॉ. अंबेडकर के योगदान से इनकार नहीं किया जा सकता। डॉ. बी.आर. अंबेडकर के विचार और उनकी शिक्षा प्रामाणिक और सच्ची है और सभी पीढ़ियों पर लागू होती है।

उन्होंने कहा कि सहमति और समझौतों से लोकतंत्र और मजबूत होता है। जबकि बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक की अवधारणा हमेशा आखिरी रास्ता होता है।

प्रधानमंत्री ने कहा कि सभी नागरिकों को अपने अधिकारों और कर्तव्यों पर समान ध्यान देना चाहिए। प्रधानमंत्री ने कहा कि ‘सत्यमेव जयते' और ‘सर्व पंथ संभव' ही ‘भारत का विचार' है।

 


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कथाकार डॉ० महीप सिंह नहीं रहे - भारत-दर्शन समाचार

24 नवंबर 2015 (भारत): सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ महीप सिंह का 24 नवंबर को दोपहर दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया। महीप सिंह गुड़गांव की पालम विहार कॉलोनी में अपने बेटे संदीप सिंह के साथ रहते थे। 85 वर्षीय महीप सिंह गत् सप्ताह से मेट्रो अस्पताल में भर्ती थे।
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भारत में 260 अरब का पुस्तक बाज़ार - भारत-दर्शन समाचार

भारत में पुस्तक का बाजार 260 अरब रुपए का हो गया है जो फिल्म के बाजार से भी दो गुना है।

विश्व प्रसिद्ध मार्केटिंग रिसर्च कम्पनी नेल्सन इंडिया के निदेशक (पुस्तक) विक्रांत माथुर ने हाल ही में फिक्की (FICCI) के पुस्तक प्रकाशन पर आयोजित सेमीनार में यह जानकारी दी। विक्रांत माथुर का कहना है कि पुस्तक बाज़ार फिल्म बाजार से लगभग दोगुना है। भारत में फिल्म बाजार 125.3 अरब का है। पुस्तक बाजार की तुलना यदि संगीत, रेड़ियो व गेमिंग बाज़ार से करें तो यह उनसे छह गुना है। भारत विश्व में पुस्तक प्रकाशन में छटे स्थान पर आता है और अँग्रेज़ी पुस्तकों के प्रकाशन में भारत दूसरे स्थान पर है।
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चंदामामा के पूर्व संपादक बालशौरि रेड्डी नहीं रहे  - भारत-दर्शन संकलन

15 सितंबर (भारत):  तेलुगु एवं हिंदी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार तथा बच्चों की प्रिय पत्रिका 'चंदामामा' के पूर्व संपादक बालशौरि रेड्डी का निधन हो गया। वे 87 वर्ष के थे।  प्रख्यात लेखक का आकस्मिक निधन हो गया। उन्होंने तबीयत खराब होने की शिकायत की थी लेकिन डॉक्टर के पास जाने से पहले ही उनका निधन हो गया।

वे तेलगु के अतिरिक्त हिंदी के लिए समर्पित थे। वे तेलगु व हिंदी दोनों को अपनी मातृभाषा बताया करते थे। वे दक्षिण भारत व उत्तर भारत के बीच एक साहित्यिक सेतु थे।

बालशौरि रेड्डी का जन्म एक जुलाई 1928 को आंध्र प्रदेश के गोल्लल गूडूर में हुआ था। ये 23 वर्ष तक चंदामामा के संपादक रहे और इस दौरान उन्होंने इस पत्रिका को नई दिशा दी। उन्होंने 100 से अधिक पुस्तकें लिखी हैं जिनमें 14 मौलिक उपन्यास, आलोचनात्मक कृतियां, अनूदित रचनाएं इत्यादि सम्मिलित हैं। डॉ० रेड्डी ने बालसाहित्य के अतिरिक्त उपन्यास, कहानी, निबंध, समालोचना व नाटक विधाओं में साहित्य सृजन किया।


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अगला विश्व हिन्दी सम्मेलन अब मॉरीशस में - 

13 सितंबर 2015:  दसवें विश्व हिन्दी सम्मेलन के समापन के अवसर पर घोषणा की गई कि अगला विश्व हिन्दी सम्मेलन मॉरीशस में होगा।

विदेश राज्यमंत्री वी के सिंह ने समापन समारोह में यह घोषणा की।


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विश्व हिंदी सम्मान 2015 | 10वाँ विश्व हिंदी सम्मेलन, भोपाल  - भारत-दर्शन संकलन

दसवें विश्व हिंदी सम्मेलन में  देश विदेश के हिंदी विद्वानों को विश्व हिंदी सम्मान  से अलंकृत किया गया। भारत में विश्व हिंदी सम्मेलनों में विद्वानों को सम्मानित करने की परम्परा रही है। नौवें सम्मेलन के अंत में यह निर्णय लिया गया कि दसवें सम्मेलन से इसे 'विश्व हिंदी सम्मान' के नाम से जाना जाएगा। यह सम्मान विदेश में रहने वाले विद्वानों को भी दिया जाता है। सम्मान में अंगवस्त्र, शॉल, प्रशस्ति-पत्र और प्रतीक चिन्ह सम्मिलित हैं। सर्वप्रथम विदेश से आए विद्वानों को आमंत्रित किया गया। विद्वानों को भारत के गृह मंत्री राजनाथसिंह ने सम्मानित किया।

विदेश से आए विद्वानों में निम्नलिखित को 'विश्व हिंदी सम्मान' से विभूषित किया गया:

1 श्री अनूप भार्गव, संयुक्त राज्य अमरीका
2 श्रीमती स्नेह ठाकुर, कनाडा ......

 
 
महावीर प्रसाद द्विवेदी अभिनंदन ग्रंथ का लोकार्पण - अरविंद कुमार सिंह

20 सितंबर, देहली: राजधानी के प्रवासी भवन में ऐतिहासिक द्विवेदी अभिनंदन ग्रंथ के लोकार्पण के मौके पर साहित्यिक हस्तियों और पत्रकारों के साथ राजधानी में साहित्यप्रेमियों का समागम हुआ। आधुनिक हिंदी भाषा और साहित्य के निर्माता आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के सम्मान में 1933 में प्रकाशित हिंदी का पहला अभिनंदन ग्रंथ दुर्लभ दशा को प्राप्त था। 83 सालों के बाद इस ग्रंथ को हूबहू पुनर्प्रकाशित करने का काम नेशनल बुक ट्स्ट, इंडिया ने किया है। आज के संदर्भ में इस ग्रंथ की उपयोगिता पर मैनेजर पांडेय का एक सारगर्भित लेख भी है।

ग्रंथ के लोकार्पण और विमर्श के मौके पर साहित्य अकादमी के अध्यक्ष और विख्यात लेखक डॉ.विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने कहा कि आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी युग निर्माता और युग-प्रेरक थे। उन्होंने प्रेमचंद, मैथिलीशरण गुप्त जैसे लेखकों की रचनाओं में संशोधन किए। उन्होंने विभिन्न बोली-भाषा में विभाजित हो चुकी हिंदी को एक मानक रूप में ढालने का भी काम किया। वे केवल कहानी-कविता ही नहीं, बल्कि बाल साहित्य, विज्ञान और किसानों के लिए भी लिखते थे। हिंदी में प्रगतिशील चेतना की धारा का प्रारंभ द्विवेदी जी से ही हुआ।'' अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में प्रो. मैनेजर पांडे ने इस ग्रंथ की महत्ता को रेखांकित करते हुए कहा कि, "यह भारतीय साहित्य का विश्वकोश है।" उन्होंने आचार्य जी की अर्थशास्त्र में रूचि व‘‘संपत्ति शास्त्र'' के लेखन, उनकी महिला विमर्श और किसानों की समस्या पर लेखन की विस्तृत चर्चा की। इस ग्रंथ में उपयोग की गयीं दुर्लभ चित्रों को अपनी चर्चा का विषय बनाते हुए गांधीवादी चिंतक अनुपम मिश्र ने इन चित्रों में निहित सामाजिक पक्ष पर प्रकाश डाला। उन्होंने नंदलाल बोस की कृति ‘‘रूधिर'' और अप्पा साहब की कृति ‘‘मोलभाव'' पर विशेष ध्यान दिलाते हुए उनकी प्रासंगिकता को रेखांकित किया और कहा कि सकारात्मक कार्य करने वाले जो भी केन्द्र हैं उनका विकेन्द्रीकरण जरूरी है।

‘नीदरलैड से पधारीं प्रो. पुष्पिता अवस्थी ने कहा कि हिंदी सही मायने में उन घरों में ताकतवर है जहाँ पर भारतीय संस्कृति बसती है। नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया की निदेशक व असमिया में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित लेखिका डॉ. रीटा चौधरी ने कहा कि, यह अवसर न्यास के लिए बेहद गौरवपूर्ण व महत्वपूर्ण है कि हम इस अनूठे ग्रंथ के पुनर्प्रकाशन के कार्य से जुड़ पाए। ऐसी पुस्तकों का अनुवाद अन्य भारतीय भाषाओं में भी होना चाहिए। डॉ. चौधरी ने इस ग्रंथ की महत्ता को रेखांकित करते हुए कहा कि यह ग्रंथ हिंदी का ही नहीं बल्कि भारतीयता का ग्रंथ है और उस काल का भारत-दर्शन है। चर्चा को आगे बढ़ाते हुए प्रख्यात पत्रकार रामबहादुर राय ने इन दिनों मुद्रित होने वाले नामी गिरामी लोगों के अभिनंदन ग्रंथों की चर्चा करते हुए कहा कि, "ऐसे ग्रंथों को लोग घर में रखने से परहेज करते हैं, लेकिन आचार्य द्विवेदी की स्मृति में प्रकाशित यह ग्रंथ हिंदी साहित्य,समाज, भाषा व ज्ञान का विमर्ष है न कि आचार्य द्विवेदी का प्रशंसा-ग्रंथ।" इस ग्रंथ की प्रासंगिकता व इसकी साहित्यिक महत्व को उल्लेखित करते हुए श्री राय ने यहां तक कहा कि, "यह ग्रंथ अपने आप में एक विश्व हिन्दी सम्मेलन है।"
कार्यक्रम के प्रारंभ में पत्रकार गौरव अवस्थी ने महावीर प्रसाद द्विवेदी से जुड़ी स्मृतियों को पावर प्वाइंट के माध्यम से प्रस्तुत किया। इस प्रेजेंटेशन यह बात उभर कर सामने आयी कि किस तरह से रायबरेली का आम आदमी, मजूदर व किसान भी आचार्य द्विवेदी जी के प्रति स्नेह-भाव रखते हैं।

वरिष्ठ पत्रकार और राइटर्स एंड जर्नलिस्ट एसोसिएशन के अध्यक्ष अरविंद कुमार सिंह ने इस ग्रंथ के प्रकाशन के लिए नेशनल बुक ट्रस्ट और रायबरेली की जनता को धन्यवाद किया। उन्होंने कहा कि द्विवेदी जी के संपादकीय और रेल जीवन पर भी काम करने की जरूरत है।

राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी राष्ट्रीय स्मारक समिति, रायबरेली और राइटर्स एंड जर्नलिस्ट एसोसिएशन, दिल्ली के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित इस कार्यक्रम का संचालन वरिष्ठ पत्रकार और लेखक पंकज चतुर्वेदी ने किया।

सन् 1933 में काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा आचार्य द्विवेदी के सम्मान में प्रकाशित इस ग्रंथ में महात्मा गांधी के पत्र के साथ भारत रत्न भगवान दास, ग्रियर्सन, प्रेमंचद, सुमित्रानंदन पंत, काशीप्रसाद जायसवाल,सुभद्रा कुमारी चौहान से लेकर उस दौर की तमाम दिग्गज हस्तियों की रचनाएं और लेख है। वैसे तो इस ग्रंथ का नाम अभिनंदन ग्रंथ है और आचार्यजी के सम्मान में प्रकाशित हुआ लेकिन आज कल जैसी परिकल्पना से परे इसमें आचार्य जी का व्यक्तित्व-कृतित्व ही नहीं साहित्य की तमाम विधाओं पर गहन मंथन है।

इस समारोह में विख्यात लेखक रंजन जैदी, अर्चना राजहंस, योजना के संपादक ऋतेश, राइटर्स एंड जर्नलिस्ट एसोसिएशन के महासचिव शिवेंद्र द्विवेदी, वरिष्ठ पत्रकार अरुण खरे, जय प्रकाश पांडेय, राकेश पांडेय, संपादक प्रदीप जैन, भाषा सहोदरी के संयोजक जयकांत मिश्रा, विख्यात कवि जय सिंह आर्य,देवेंद्र सिंह राजपूत,शाह आलम, विनय द्विवेदी, गणेश शंकर श्रीवास्तव, बरखा वर्षा, तरुण दवे समेत तमाम प्रमुख लोग मौजूद थे।

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प्रधानमंत्री ने श्री नेकचंद के निधन पर शोक व्‍यक्‍त किया  - भारत-दर्शन संकलन

चंडीगढ़, जून, 12: प्रधानमंत्री श्री नरेन्‍द्र मोदी ने चंडीगढ़ के प्रसिद्ध रॉक गार्डन के निर्माता श्री नेकचंद के निधन पर शोक व्‍यक्‍त किया है।

प्रधानमंत्री ने अपने शोक संदेश में कहा, 'श्री नेकचंद जी रॉक गार्डन की अपनी प्रतिभावान कलाकारी और शानदार सृजनात्‍मकता के लिए हमेशा याद किए जाएंगे जिसे बहुत लोगों ने देखा है।'

'ईश्‍वर उनकी आत्‍मा को शांति दे।'

चंडीगढ़ के विश्व प्रसिद्ध रॉक गार्डन के निर्माता पद्मश्री नेकचंद का कल देर रात  पीजीआई अस्पताल में निधन हो गया। नेकचंद को उनके पुत्र अनुज सैनी कल शाम लगभग साढ़े चार बजे तबीयत बिगडऩे और छाती में दर्द होने पर पीजीआई ले गए थे। वे 90 वर्ष के थे।


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ऑस्ट्रेलिया में कुंवर बेचैन काव्य संध्या - रेखा राजवंशी

ऑस्ट्रेलिया। इंडियन लिटरेरी एंड आर्ट सोसाइटी ऑफ़ ऑस्ट्रेलिया ने सिडनी में डा० कुंवर बेचैन के सम्मान में छह जून को एक कवि सम्मलेन का आयोजन किया। डा० बेचैन भारत के सुप्रसिद्ध कवि हैं जिनकी 32 से भी अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।

Kunwar Bechain in Australiaकार्यक्रम का आरम्भ संस्था की संस्थापिका रेखा राजवंशी ने किया। उन्होंने बेचैन जी का स्वागत करते हुए कहा, "हमें अपनी भाषाओँ और साहित्य को ऑस्ट्रेलिया में बढ़ावा देने का प्रयास करना चाहिए"

सांस्कृतिक परंपरानुसार दीप प्रज्ज्वलित करके समारोह का शुभारंभ हुआ। तत्पश्चात ऋचा श्रीवास्तव ने बेचैन जी का लोकप्रिय गीत 'बदरी बाबुल के देस जइयो, जइयो बरसियो कहियो, हम हैं बाबुल तेरी बिटिया की अँखियाँ' के गायन से सबका मन मोह लिया।

कार्यक्रम में सिडनी के शायरों ने भी भाग लिया जिनमें सिडनी के वरिष्ठ उर्दू शायर आरिफ सादिक और शायरा फरहत इकबाल मुख्य थे। हिंदी कवियों में भावना कुंवर, रेखा राजवंशी, राजीव कपूर और युवा कवि गौरव कपूर ने अपनी रचनाएं प्रस्तुत की। डा० बेचैन के लोकप्रिय ग़ज़ल और गीत सुनकर श्रोता मंत्रमुग्ध हो गए।

'सबकी बात न मन कर', 'किसी भी काम को करने की चाहें पहले आती हैं', 'अगर बच्चे को गोदी लो तो बहन पहले आती हैं।'

डा० बेचैन ने 'जीवन में पाजिटिविटी' की बात की और अपनी संघर्षपूर्ण जीवन के बारे में भी बताया।

सिडनी के शास्त्रीय ग़ज़ल गायकों मुरली वेंकटरमन, अपर्णा नगश्यायन, सुमति कृष्णन और अरुण नंदा ने ग़ज़ल गायन करके श्रोताओं का मन मोह लिया। वस्तुतः यह शाम हिंदी ग़ज़ल और शायरी को समर्पित थी।

काव्य पाठ के अंत में श्रोताओं ने तालियों की गड़गड़ाहट से डा० कुंवर बेचैन का सम्मान किया। सिडनी काव्य प्रेमियों के लिए शायरी की यह शाम एक यादगार शाम बन गई।

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समारोह के अन्य छायाचित्रों के लिए यहाँ चित्र-दीर्घा देखें


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योगाभ्यास करने वाले समुदाय का सूर्यास्त नहीं होगा : प्रधानमंत्री - भारत-दर्शन संकलन

जून 21: प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने विश्व में मनाए जा रहे पहले अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के अवसर पर नए योग-युग के शुरुआत की घोषणा की। नई दिल्ली में राजपथ पर सामूहिक योग प्रदर्शन का नेतृत्व करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि यह दिवस विश्व के विभिन्न हिस्सों में मनाया जा रहा है इसलिए योगाभ्यास करने वाले समुदाय का सूर्य अस्त नहीं होगा।

प्रधानमंत्री ने कहा कि आज पहला अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस ही नहीं है बल्कि यह एक नए युग की शुरुआत है जो शांति और सद्भाव के लिए मानवता को प्रेरणा देगा। प्रधानमंत्री ने उन प्राचीन संतों, योग गुरुओं और योगाभ्यास करने वालों के योगदान का स्मरण किया, जो आज योग को जो स्थान हासिल हुआ है उसे इस मुकाम तक पहुंचाने के लिए सदियों से कार्य कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि विकास और तकनीकी के विभिन्न क्षेत्रों में जैसे मानवता आगे बढ़ी है वैसे ही मानव जाति को भी प्रगति करनी चाहिए और इसके लिए योग एक मार्ग है। उन्होंने कहा कि योग केवल कसरत ही नहीं है बल्कि मन और शरीर के बीच संतुलन स्थापित करता है तथा व्यक्ति की आंतरिक शक्ति को बढ़ाने में भी मदद करता है।

प्रधानमंत्री ने विश्व के उन सभी देशों का आभार प्रकट किया, जिन्होंने आज अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाया। उन्होंने उन 177 देशों का भी धन्यवाद किया जिन्होंने 21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के रूप में मनाने के लिए संयुक्त राष्ट्र में उनके प्रस्तांव का समर्थन किया था।

बाद में प्रधानमंत्री ने राजपथ पर सामूहिक योग प्रदर्शन में हिस्सा लिया।

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भारतीय उच्चायुक्त ने आरोप निराधार बताए - भारतीय उच्चायुक्त ने आरोप निराधार बताए

न्यूजीलैंड 27 जून: न्यूजीलैंड में भारत के उच्चायुक्त रवि थापर ने इस बात से इनकार किया है कि वे अपनी पत्नी पर लगे आरोपों के कारण न्यूज़ीलैंड छोड़ रहे हैं। उनकी पत्नी पर रसोइये के साथ मारपीट का आरोप है।
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प्रेम उत्सव - भारत-दर्शन समाचार

मुंशी प्रेमचंद की 135वीं जयंती पर आइडियल ड्रामा एंड एंटरटेनमेंट एकेडमी (आइडिया) 30 जुलाई से 8 अगस्त तक मुंबई में 'प्रेम उत्सव' का आयोजन कर रहा है। इसके अंतर्गत प्रेमचंद की 135 कहानियों का मंचन किया जाएगा। इसके अतिरिक्त 'आइडिया' के डायरेक्टर रंगकर्मी मुजीब खान प्रेमचंद की कहानियों के मंचन को 'गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स' में दर्ज कराने की तैयारी भी कर रहे हैं। उन्होंने बताया कि वह निकट भविष्य में प्रेमचंद की 315 कहानियों का मंचन निरंतर 240 घंटे, यानी 10 दिन तक करेंगे।  'आइडिया' पिछले 10 साल से नाट्य प्रदर्शन की सीरिज़ 'आदाब, मैं प्रेमचंद हूं' चला रही है। यह सिलसिला प्रेमचंद की 125वीं जयंती पर 2005 में आरम्भ हुआ था।


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डॉ कलाम के निधन पर प्रधानमंत्री ने शोक व्यक्त किया - भारत-दर्शन समाचार

27, जुलाई, 2015: प्रधानमंत्री श्री नरेन्‍द्र मोदी ने पूर्व राष्‍ट्रपति डॉ.ए.पी.जे अब्‍दुल कलाम के निधन पर शोक व्‍यक्‍त किया है।

अपने शोक संदेश ने प्रधानमंत्री ने कहा- 'एक महान वैज्ञानिक, उत्‍तम राष्‍ट्रपति और इन सबसे ऊपर एक प्रेरणादायक व्‍यक्ति के निधन से देश शोकाकुल है।'

डॉ. कलाम. . . के साथ हुई मेरी मुलाकातों की कई बातें याद आ गई। वे हमेशा अपनी बुद्धिमत्‍ता से आश्‍चर्यचकित कर देते थे। उनसे कई सारी बातें सीखीं।

डॉ. कलाम लोगों के साथ रहना पसंद करते थे; लोग और युवा भी उनका सम्‍मान करते थे। वे छात्रों से प्रेम करते थे और उन्‍होंने अपने अंतिम क्षण भी उन्‍हीं के साथ बिताए।'

 


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अटलजी को भारत-रत्न - भारत-दर्शन समाचार

देहली (27 मार्च 2015): भारत के राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी ने भारत के पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी को 27 मार्च, 2015 को नई दिल्ली में अटलजी के आवास पर  "भारत रत्न" प्रदान किया।  देश का सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार, 'भारत-रत्न', मानव प्रयत्न के किसी भी क्षेत्र में की गई सर्वोच्च स्तर की असाधारण सेवाकार्य/निष्पादन के सम्मान के फलस्वरूप प्रदान किया जाता है।

The President, Shri Pranab Mukherjee conferring the Bharat Ratna on the former Prime Minister, Shri Atal Bihari Vajpayee, at his residence, in New Delhi on March 27, 2015. अटलजी अपने विचारों की सुस्पष्टता, अपनी सूझ-बूझ और वाक्पटुता के लिए विख्यात भारतीय राजनेता हैं।

कार्यक्रम में राष्ट्रपति के अतिरिक्त, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री मोदी, पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, वित्त मंत्री अरुण जेटली, गृहमंत्री राजनाथ सिंह, भाजपा नेता मुरली मनोहर जोशी व विपक्ष के नेता और कुछ अन्य गणमान्य उपस्थित थे।

अटलजी को 'भारत-रत्न' दिए जाने के उपरांत प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी भावनाएं इस प्रकार व्यक्त कीं, "भारत भक्ति में जिन्होंने अपना जीवन समर्पित किआ, ऐसे माँ भारती के लाडले, अटल बिहारी वाजपेयी जी को आज भारत रत्न से सम्मानित करने का सौभाग्य हमें मिला है। मैं राष्ट्रपतिजी का बहुत आभार व्यक्त करता हूँ कि वे स्वयं यहाँ आए, और अटलजी को रू-ब-रू में उन्होंने भारत रत्न से सम्मानित किया। अटलजी का जीवन राष्ट्र को समर्पित रहा। वे पल-पल राष्ट्र के लिए जीए, राष्ट्र के लिए सोचते रहे। और हिंदुस्तान में मेरे जैसे करोड़ों ऐसे कार्यकर्ता हैं, जिनके जीवन में वाजपेयी जी एक प्रेरणा हैं। आने वाली पीढीयों को भी उनकी प्रेरणा मिलती रहेगी। मैं इस भारत रत्न सम्मान पाने वाले वाजपेयी जी के जीवन हमें सदा-सर्वदा प्रेरणा देता रहे, मार्गदर्शन देता रहे – यही प्रभु से प्रार्थना करता रहूँगा।"

90 वर्षीय वाजपेयी कई वर्षों से अल्जाइमर डिमेंशिया नामक बीमारी से पीड़ित हैं। अल्जाइमर डिमेंशिया भूलने की बीमारी है। 60 वर्ष की आयु के आसापास होने वाली इस बीमारी का कोई स्थायी उपचार अभी संभव नहीं है यद्यपि यदि इस बीमारी के आरंभ होते ही इसकी नियमित जांच और उपचार किया जाए तो इस पर नियंत्रण हो सकता है।


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हैंडरसन (ऑकलैंड) में मंदिर - भारत-दर्शन संकलन

हैंडरसन (ऑकलैंड) में 6 जून को श्री राम मंदिर का उद्घाटन किया जाएगा।  इस अवसर पर में मंदिर में साप्ताहिक धार्मिक कार्यक्रम का आयोजन किया गया है।  न्यूजीलैंड में पहले भी कई मंदिर हैं लेकिन 5 मिलियन की लागत से निर्मित यह मंदिर अपने आप में अनूठा है। 

श्री राम मंदिर चैरीटेबल ट्रस्ट ने इस मंदिर की आधारशिला 2011 में  रखी थी तथा विभिन्न औपचारिकताएं पूर्ण करने के उपरांत इस मंदिर का निर्माण कार्य आरम्भ कर दिया गया था। इस मंदिर परिसर का निर्माण कार्य अब पूर्ण हो चुका है। इस भव्य मंदिर परिसर में 3 काम्पलैक्स निर्मित किए गए है। यहां एक साथ 1000 से अधिक लोगों के बैठने की व्यवस्था है।

मंदिर में जहां रोजाना धार्मिक कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे वहीं पर अन्य कई तरह की सांस्कृतिक गतिविधियां भी आयोजित की जाएंगी। यूनिवर्सल सोसायटी ऑफ हिंदूज्म के अध्यक्ष राजन जैद के अनुसार मंदिर के शुभारंभ के अवसर पर हवन-यज्ञ का आयोजन किया जाएगा। इससे पहले कलश यात्रा एवं अन्य कई तरह के धार्मिक प्रोग्राम आयोजित किए जाएंगे। हिंदू कम्युनिटी के लिए यह बड़े ही सम्मान व प्रसन्नता की बात है कि न्यूजीलैंड में इस तरह के मंदिर का शुभारंभ होने जा रहा है। उन्होंने बताया कि मंदिर के निर्माण के लिए भूमि पूजन 21 जुलाई 2012 को किया गया था जिसके उपरांत मंदिर परिसर के निर्माण का कार्य आरम्भ किया गया था जोकि अब पूर्ण हो चुका है। उन्होंने बताया कि इस मंदिर के निर्माण में प्रवीण कुमार जोकि एक उद्यमी होने के साथ-साथ कम्युनिटी कार्यकर्ता व ट्रस्ट के अध्यक्ष भी हैं, के  अतिरिक्त कोषाध्यक्ष शैलेंद्र कुमार, ज्ञानेंद्र प्रसाद एवं श्री चरण के विशेष सहयोग से मंदिर निर्माण संभव हो पाया है।


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दसवां विश्व हिंदी सम्मेलन भोपाल (म.प्र.) में - भारत-दर्शन समाचार

मार्च, 2015: दसवां विश्व हिंदी सम्मेलन 10 से 12 सितंबर 2015 तक भोपाल (म.प्र.) में होगा। भोपाल के कथाकार डॉ. राजेश श्रीवास्तव ने इसकी पुष्टि की है।

उल्लेखनीय है कि नौवां विश्व हिंदी सम्मेलन वर्ष 2012 में जोहांसबर्ग (दक्षिण अफ्रीका) में हुआ था । जोहांसबर्ग में हुए सम्मेलन में ही निर्णय लिया गया था कि अगला विश्व हिन्दी सम्मेलन भारत में होगा।

विश्व में हिन्दी प्रचारित- प्रसारित करने के उद्देश्य से विश्व हिन्दी सम्मेलन का आयोजन आरंभ किया गया था। प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन 10 जनवरी, 1975 को नागपुर में आयोजित हुआ था।

 


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अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन, अमरीका का सम्मेलन  - भारत-दर्शन समाचार

अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन, अमरीका 3 से 5 अप्रैल  2015 को रटगर्स विश्वविद्यालय, न्यू जर्सी में अपना द्वितीय अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन का आयोजन कर रहा है।  इंडियन अमेरिकन कम्युनिटी के अतिरिक्त इस सम्मेलन के आयोजन में भारतीय कांसुलेट जनरल ( न्यू यॉर्क), हिंदी संगम फाउंडेशन, भारतीय विद्या भवन व रटगर्स विश्वविद्यालय का सहयोग रहेगा।

संगोष्ठी का विषय हिगा - हिंदी का बढ़ता संसार : संभावनाएं और चुनौतिया।

 


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प्रो.सूरज भान सिंह नहीं रहे - भारत-दर्शन समाचार

20 मार्च 2015: प्रसिद्ध भाषा चिंतक और शिक्षाविद प्रो.सूरज भान सिंह का लंबी बीमारी के बाद 19 मार्च की रात  देहरादून  में निधन हो गया। प्रो सिंह भाषाविज्ञान के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य करने के लिए अनेक राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित थे। प्रो. सूरजभान सिंह का जन्म 1936 में देहरादून में हुआ था।


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दिल्ली पत्रकार संघ की नयी कार्यकारिणी - भारत-दर्शन समाचार

नयी दिल्ली, 14 मार्च: नेशनल यूनियन आफ जर्नलिस्ट्स (एनयूजे) से संबंधित 'दिल्ली पत्रकार संघ' की नयी कार्यकारिणी का चुनाव परिणामों में - श्री अनिल पाण्डेय अध्यक्ष, श्री आनंद राणा महासचिव और श्री राजेन्द्र स्वामी कोषाध्यक्ष निर्वाचित हुए हैं।


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वरिष्ठ पत्रकार विनोद मेहता नहीं रहे - भारत-दर्शन समाचार

मार्च 8, 2015: वरिष्ठ पत्रकार विनोद मेहता का निधन हो गया है।

वे आउटलुक मैगजीन के संस्थापक मुख्य संपादक थे। 73 वर्षीय विनोद मेहता ने एम्स में अंतिम सांस ली।

इंडिया टुडे के अलावा विनोद मेहता ने आउटलुक, संडे ऑब्जर्वर, द पायनियर जैसे पत्र-पत्रिकाओं का भी संपादन किया था। वे पत्रकारों की संस्था एडिटर्स गिल्ड के भी अध्यक्ष रहे थे।

मेहता का जन्म 1942 में रावलपिंडी में हुआ था जो अब पाकिस्तान में है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी उनके निधन पर शोक जताया है। पीएम ने ट्विटर पर लिखा, "स्पष्ट और सीधे विचारों वाले विनोद मेहता एक शानदार पत्रकार और लेखक के रूप में याद किए जाएंगे। उनके निधन पर उनके परिवार के प्रति संवेदना।"

 


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अंतरराष्ट्रीय हिंदी लघु-कथा प्रतियोगिता 2014 के परिणाम - भारत-दर्शन समाचार

विश्व हिंदी सचिवालय, मॉरीशस द्वारा आयोजित अंतरराष्ट्रीय हिंदी लघु-कथा प्रतियोगिता 2014 के परिणाम विश्व हिंदी दिवस 2015 (10 जनवरी) को घोषित किए गए। प्रतियोगिता को पाँच भौगोलिक क्षेत्रों में बांटा गया था जिनमें अफ्रीका व मध्य पूर्व, अमेरिका, एशिया व ऑस्ट्रेलिया (भारत के अतिरिक्त), यूरोप व भारत सम्मिलित हैं।

प्रत्येक भौगोलिक क्षेत्र के विजेताओं को प्रमाण पत्र व नकद पुरस्कार प्रदान किए जाएंगे। नकद पुरस्कारों में प्रथम पुरस्कार 300 अमरीकी डालर, द्वितीय 200 अमरीकी डालर व तृतीय पुरस्कार 100 अमरीकी डालर होगा।
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प्रतीक चिन्ह बनाइए और जीतिए पचास हजार रुपए - भारत-दर्शन समाचार

1 मार्च, 2015:  10वां विश्व हिंदी सम्मेलन 10, 11 और 12 सितंबर 2015, भोपाल, मध्य प्रदेश में आयोजित किया जा रहा है। भारत सरकार ने सम्मेलन के प्रतीक चिन्ह (Logo) डिजाइन करने के लिए एक खुला निमंत्रण दिया है। विजेता को 50 हजार रूपए का पुरस्कार दिया जाएगा। प्रतीक चिन्ह भेजने की अंतिम तिथि 20 मार्च 2015 है।

अधिक जानकारी के लिए निम्न पृष्ठ देखें:

https://mygov.in/task/design-logo-10th-world-hindi-conference/

 

 


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प्रवासी भारतीयों की पारंपरिक भाषाओं पर सम्मेलन - भारत-दर्शन समाचार

29-31 अक्तूबर, 2015 को कैरिबियन फ़्रैंच द्वीप ग्वाडालूप में प्रवासी भारतीयों की पारंपरिक भाषाओं के पीढ़ी-दर-पीढ़ी संरक्षण और प्रसारण विषय पर संसार के विभिन्न भागों से आए विद्वज्जन एक सम्मेलन के अंतर्गत अपने आलेख प्रस्तुत करेंगे और तद्विषयक गहन चर्चा में भाग लेंगे।

इस सम्मेलन में  यूनिवर्सिटी ऑफ़ पेन्सिल्वेनिया के डा सुरेन्द्र गंभीर 'विभिन्न देशों में हिन्दी की स्थिति पर आधारित एक आलेख प्रस्तुत करेंगे। डा सुरेन्द्र गंभीर के आलेख का विषय एक ऐसा प्रतिमान है जिसके आधार पर कृशकाय भाषाओं में पुनः प्राणप्रतिष्ठा की जा सकती है। उनका कहना है कि प्रौद्योगिकी और भूमण्डलीकरण के कारण आज परिस्थितियां बहुत अलग हैं और द्विभाषिकता के लाभों की ओर शिक्षित समाज आकर्षित हो रहा है। अमेरिका और कैनाडा में द्विभाषिकता सरकारी तंत्र की नीतियों का हिस्सा बन चुकी है और सरकारी नीतियों से समर्थित होकर द्विभाषिकता को अगली पीढ़ियों के लिए विद्यालयों से विश्वविद्यालयों तक के पाठ्यक्रमों का भाग बनाने की प्रक्रिया आरंभ हो चुकी है। अमेरिका में विश्व की कुछ महत्वपूर्ण भाषाओं का इस नीति के लिए चयन किया गया है और हिन्दी उन चयनित भाषाओं की सूची में सम्मिलित है।

भारत के संदर्भ में भी निर्बल होती भारतीय भाषाओं को सबल बनाने की आवश्यकता है। वहां काफ़ी सीमा तक तो पानी सर के ऊपर से निकल चुका है परंतु अभी भी स्थिति को संभाला जा सकता है। परंतु उसके लिए सरकारी स्तर से लेकर व्यक्तिगत स्तर तक की कटिबद्धता अनिवार्य है। अन्यथा भारतीय भाषाओं की उपेक्षा भारत की प्रगति में बाधक बनेगी और भारत एक मध्यम-स्तरीय देश बनकर रह जाएगा।

आशा है कि हिन्दी के वैश्विक मंचों पर भारत के बाहर और भारत में जन-जीवन के साथ सांस्कृतिक और संप्रेषणात्मक संबंध रखने वाली पारंपरिक भाषाओं को सबल और संपुष्ट करने के विषय पर सार्थक चर्चा हो सकेगी।


 

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प्रधानमंत्री ने संक्रांति मिलन में भाग लिया और लोगों को बधाई दी  - भारत-दर्शन समाचार

प्रधानमंत्री श्री नरेन्‍द्र मोदी ने आज शहरी विकास मंत्री श्री एम. वेंकैया नायडु के आवास पर आयोजित 'संक्रांति मिलन' में भाग लिया और मकर संक्रांति के अवसर पर लोगों को बधाई और शुभकामनाएं दी। उन्‍होंने कहा कि यह पवित्र त्‍यौहार प्रकृति और सूर्य की गति से जुड़ा है और देश के विभिन्‍न हिस्‍से में अनेक प्रकार से मनाया जाता है। उन्‍होंने कहा कि यह त्‍यौहार लोगों को प्रगति की दिशा में प्रेरित करता है।

प्रधानमंत्री ने आंध्र प्रदेश के नेल्‍लोर से आयी सुश्री शेख नादिया द्वारा भरत नाट्यम की प्रस्‍तुति‍ भी देखी और विभिन्‍न प्रकार के लोक नृत्‍यों और शास्‍त्रीय नृत्‍यों को प्रस्‍तुत करने वाले युवा कलाकारों को पूरा आशीर्वाद दिया।

इस अवसर पर श्री एम. वेंकैया नायडु ने कहा कि भारत अनेक समृद्ध सांस्‍कृतिक परंपराओं का एक केन्‍द्र है, जिसके पोषण और संरक्षण की आवश्‍यकता है। उन्‍होंने संक्रांति के अवसर पर लोगों को शुभकामनाएं दी।

श्री वेंकैया नायडु द्वारा आयोजित संक्रांति मिलन में लगभग 25 केन्‍द्रीय मंत्रियों, दिल्‍ली के उपराज्‍यपाल श्री नजीब जंग, उपाध्‍यक्ष श्री थम्‍बी दूरई, श्री एल. के. आडवाणी, श्री अमित शाह, विभिन्‍न राजनीतिक दल के नेताओं और दिल्‍ली के कई अन्‍य गणमान्‍य लोगों ने भाग लिया।

दिल्‍ली में रहने वाले आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल राज्‍यों के लगभग 300 लोगों ने संक्रांति मिलन में भाग लिया।

संक्रांति मिलन में भाग लेने वाले मंत्रियों में श्रीमती सुषमा स्‍वराज, श्री अरुण जेटली, श्री सुरेश प्रभु, डा. हर्ष वर्धन, श्री अनंत कुमार, श्री रामविलास पासवान, डा. नजमा हेप्‍तुल्‍ला, सुश्री उमा भारती, श्री जे.पी. नड्डा, श्री राधामोहन सिंह, श्री कलराज मिश्र, श्री अशोक गजपति राजू, श्री बंडारु दत्‍तात्रेय, श्री थावरचंद गहलोत, श्री राजीव प्रताप रूडी, श्रीमती हरसिमरन कौर, श्री पीयूष गोयल, श्री प्रकाश जावडेकर, श्री धर्मेन्‍द्र प्रधान, श्री महेश शर्मा, श्री नरेन्‍द्र सिंह तोमर, श्री हंसराज अ‍हीर, श्री संजीव बलियान, डा. जितेन्‍द्र सिंह और श्री निहाल चन्‍द शामिल हैं।

श्री ज्‍योतिरादित्‍य सिंधिया, श्री राजीव शुक्‍ल और श्री प्रफुल्‍ल पटेल इस आयोजन में भाग लेने वाले अन्‍य दलों के नेताओं में शामिल थे।

मुख्‍य निर्वाचन आयुक्‍त श्री संपत, लोकसभा के महासचिव श्री अनूप मिश्र, प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव श्री नृपेन्‍द्र मिश्र, राष्‍ट्रीय सुरक्षा सलाहकार श्री अजित डोभाल, नीति आयोग के सदस्‍य डा. सारस्‍वत और केन्‍द्र सरकार के वरिष्‍ठ अधिकारियों ने भी मिलन में हिस्‍सा लिया।

कई प्रकार के सांस्‍कृतिक कार्यक्रमों ने उपस्थित गनमान्‍य लोगों का मन मोह लिया। इनमें नदावरम, गोबिलापटा, तमिल कुम्‍मी, संक्रांति जनपद नृत्‍यम, मोहिनी अट्टम, केरल जनजातीय नृत्‍य, यखा गनम, कर्नाटक लोक नृत्‍य और सुश्री शेख नादिया द्वारा भरत नाट्यम शामिल हैं।

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15 विशिष्‍ट लोगों को 'प्रवासी भारतीय सम्‍मान पुरस्‍कार- 2015' - भारत-दर्शन संकलन

गांधीनगर, भारत (जनवरी,9,2015) उप-राष्‍ट्रपति ने गांधीनगर में प्रवासी भारतीय दिवस पर 15 विशिष्‍ट लोगों को 'प्रवासी भारतीय सम्‍मान पुरस्‍कार- 2015' प्रदान किए

उपराष्‍ट्र‍पति श्री एम हामिद अंसारी ने आज गुजरात के गांधीनगर में आयोजित 'प्रवासी भारतीय दिवस' के समापन सत्र में 15 विशिष्‍ट लोगों को 'प्रवासी भारतीय सम्‍मान पुरस्‍कार-2015' प्रदान किए। इस अवसर पर अपने संबोधन में श्री अंसारी ने कहा कि प्रवासी भारतीयों की संख्‍या लगभग 2.50 करोड़ होने का अनुमान है। वे हर एक देश में और विश्‍व के हर एक क्षेत्र में मौजूद हैं। वे व्‍यावसायिक तौर पर किसी भी प्रकार के कौशलों के संदर्भ में किसी से भी पीछे नहीं हैं। उनमें ऐसे पुरूष एवं महिलाओं की कमी नहीं है जो वैज्ञानिक, चिकित्‍सक, अभियंता, सूचना-प्रौद्योगिकी व्‍यवसायी, व्‍यापारी, उद्यमी और निवेशक के रूप में विख्‍यात हैं। उनका भी भारत देश और इसकी सांस्‍कृतिक विरासत के साथ भावनात्‍मक लगाव है। प्रवासी भारतीय दिवस एक ऐसी संस्‍था का नाम है जो हमारे बंधनों को मजबूत करने का अवसर प्रदान करता है।

उप राष्‍ट्रपति महोदय ने कहा है कि भारत आज एक बदलाव की प्रक्रिया से गुजर रहा है, जो इसकी विशाल आबादी के बेहतर जीवन की उम्‍मीदों को मूर्त रूप देने की एक प्रक्रिया है। इसमें केंद्र और राज्‍य सरकारों के साथ-साथ इसकी जनसंख्‍या के सभी हिस्‍से, विशेषकर प्रवासी भारतीयों की सकारात्‍मक भूमिका आवश्‍यक है। उन्‍होंने कहा कि हम प्रवासी भारतीयों के अनुभव और उनके ज्ञान के बल पर सफल हो सकते हैं।

 


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न्यूजीलैंड के सांसद कंवलजीत बक्‍शी प्रवासी भारतीय दिवस पर सम्मानित - भारत-दर्शन संकलन

ऑकलैंड, जनवरी, 10, 2015: न्यूजीलैंड के सांसद कंवलजीत बक्‍शी प्रवासी भारतीय दिवस पर सम्मानित होने वाले 15 प्रवासी भारतीयों में से एक होंगे। वे  न्यूजीलैंड की संसद में भारतीय मूल के प्रथम सदस्य हैं व न्यूजीलैंड की संसद के पहले सिख सदस्य भी हैं। वे मूलत: नई दिल्ली से संबंध रखते हैं, न्यूजीलैंड में आने से पहले वे नई दिल्ली में अपना व्यापार करते थे।


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भारतीय प्रवासी दिवस पर 15 प्रवासी भारतीय सम्मानित  - भारत-दर्शन संकलन

राष्‍ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी ने इस वर्ष के लिए 15 प्रवासी भारतीयों को सम्‍मान देने की घोषणा के बारे में अधिसूचना जारी की है। इनके अतिरिक्त पिछले वर्ष के पुरस्‍कार से सम्‍मानित ऑस्‍ट्रेलिया से सांसद लीजा सिंह को भी इस वर्ष सम्‍मानित किया जाएगा। वे पिछले वर्ष सम्‍मान ग्रहण नहीं कर पाई थीं और इस वर्ष इस सम्‍मान को लेने के लिए वे गांधी नगर में हैं। इस प्रकार इस वर्ष 16 व्‍यक्तियों को सम्‍मानित किया जाएगा। सम्‍मान पाने वाले व्‍यक्तियों के नाम और देश निम्‍नलिखित हैं-
1. ऑस्‍ट्रेलिया से सुश्री माला मेहता......

 
 
अब हिंदी में गूगल एडसेंस उपलब्ध - भारत-दर्शन संकलन

गूगल ने अपने एडसेंस (Google AdSense) का द्वार हिंदी भाषा के लिए खोल दिया है। गूगल एडसेंस कमाई करने का सरल साधन है।  कई वर्षों से गूगल एडसेंस में हिंदी साइटस समर्थित नहीं थी। 

अपनी हिंदी साइट या ब्लॉग पर गूगल एडसेंस का विज्ञापन लगाकर आप अपनी साइट से कमाई कर सकते हैं।  गूगल एडसेंस का विज्ञापन टेक्स्ट, इमेज और वीडियो के रूप में होता है। इसके कोड को साइट या ब्लॉग पर डालने के पश्चात गूगल एडसेंस का विज्ञापन आपकी साइट पर दिखने लगता है और  जब भी आपका कोई पाठक आपकी साइट पर प्रदर्शित विज्ञापन पर क्लिक करता है तो उस क्लिक के बदले आपको गूगल पैसा देता है। गूगल एडसेंस के नियमानुसार आपको ध्यान रखना होगा कि आपके अपने  कंप्यूटर से विज्ञापन क्लिक ना किए जाएं, ऐसा करने पर आपका एडसेंस खाता प्रतिबंधित हो सकता है।

गूगल लगातार हिंदी में नए-नए प्रयोग कर रहा है और हिंदी में एडसेंस की उपलब्द्धता गूगल का सराहनीय कदम है। आप गूगल एडसेंस (https://www.google.com/adsense)की साइट पर जाकर अपना खाता खोल सकते हैं।

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मोदी ने फीजी की संसद को संबोधित किया - भारत-दर्शन समाचार

प्रधानमंत्री मोदी ने फीजी की संसद में अपने संबोधन के अंतर्गत डिजीटल फीजी के लिए सहायता,  फीजी के लिए ऑन अराइवल सुविधा, छात्रों के लिए छात्रवृति में बढ़ोतरी और फीजी को आर्थिक सहायता का ऐलान किया है।
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प्रधानमंत्री मोदी फीजी आएंगे - भारत-दर्शन संकलन
भारत के प्रधानमंत्री मोदी 19 नवंबर 2014 को फीजी की यात्रा पर आएंगे, जहां प्रधानमंत्री रियर एडमिरल (सेनि) फ्रैंक बेनीमारामा उनका स्वागत करेंगे।

33 वर्षों पश्चात फीजी की यात्रा करने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दूसरे भारतीय प्रधानमंत्री हैं जो फीजी आए हैं ।

फीजी में बसे भारतीय मूल के लोग इस यात्रा से सशक्त होंगे। उच्चायुक्त ने जौली को भी फीजी यात्रा का निमंत्रण दिया है। ......

 
 
केदारनाथ सिंह को ज्ञानपीठ पुरस्कार - भारत-दर्शन संकलन

नई दिल्ली, भारत ( नवंबर, 11, 2014):  सुप्रसिद्ध हिंदी कवि केदारनाथ सिंह को 49वें ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। 80 वर्षीय, केदारनाथ सिंह की गिनती हिंदी की आधुनिक पीढ़ी के रचनाकारों में होती है। ज्ञानपीठ पुरस्कार भारत का शीर्ष साहित्य सम्मान है।

संसद भवन के बालयोगी ऑडिटोरियम में सोमवार को आयोजित समारोह में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने केदारनाथ सिंह को इस पुरस्कार से अलंकृत किया।

7 जुलाई, 1934 को उत्तर प्रदेश के बलिया में जन्मे केदारनाथ सिंह को इससे पूर्व साहित्य अकादमी पुरस्कार भी दिया जा चुका है ।

 

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बैंक ऑफ़ बड़ौदा न्यूज़ीलैंड ने आयोजित किया विश्व हिंदी-दिवस - भारत-दर्शन समाचार

जनवरी 9, 2015 (ऑकलैंड):  बैंक ऑफ़ बड़ौदा न्यूज़ीलैंड, न्यूज़ीलैंड ने अपनी मुख्य शाखा में विश्व हिंदी-दिवस का आयोजन किया।

इस अवसर पर भारत-दर्शन के संपादक रोहित कुमार 'हैप्पी' मुख्य अतिथि थे। कार्यक्रम का संचालन बैंक ऑफ़ बड़ौदा, न्यूज़ीलैंड के श्री रजनीश अरोड़ा ने किया। उन्होंने विश्व-हिंदी सम्मेलन की पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालते हुए सभी उपस्थित लोगों को 'विश्व हिंदी-दिवस' व इसकी महत्ता से अवगत करवाया। 

बैंक ऑफ़ बड़ौदा, न्यूज़ीलैंड के प्रबंध निदेशक श्री प्रह्लाद दास गुप्ता ने पुष्प-गुच्छ प्रदान करके मुख्य अतिथि का स्वागत किया व तदोपरांत 'विश्व हिंदी-दिवस' पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का संदेश मनोज तिवारी ने पढ़कर सुनाया। बैंक ऑफ़ बड़ौदा के विभिन्न कर्मचारियों ने हिंदी कविताएं पढ़ी। बैंक के प्रबंध-निदेशक, प्रह्लाद दास गुप्ता ने 'रामधारीसिंह दिनकर' की सुप्रसिद्ध कविता, 'कृष्ण की चेतावनी' पढ़ी:

"वर्षों तक वन में घूम-घूम,......

 
 
दूधनाथ को भारत-भारती सम्मान - भारत-दर्शन संकलन

भारत (1  नवंबर 2014 ): उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का वर्ष 2013 का शीर्ष सम्मान भारत भारती वरिष्ठ साहित्यकार दूधनाथ सिंह को दिया जाएगा। यह सम्मान पांच लाख रुपये का है।

चार लाख का लोहिया सम्मान ममता कालिया को देने की घोषणा संस्थान के कार्यकारी अध्यक्ष उदय प्रताप सिंह ने की। पुरस्कार दिसंबर में वितरित किए जाएंगे।

इसके साथ चार लाख के अन्य पुरस्कारों में डा. सुरेश गौतम को हिंदी गौरव सम्मान, चन्द्रकांता को महात्मा गांधी साहित्य सम्मान, डा. कन्हैया सिंह को पं. दीनदयाल उपाध्याय साहित्य सम्मान, लाखन सिंह भदौरिया 'सौमित्र' को अवन्तीबाई साहित्य सम्मान और असम राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, गोवाहाटी को राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन सम्मान देने की घोषणा की गई।

दो लाख रुपये का साहित्य भूषण सम्मान बैजनाथ प्रसाद शुक्ल, डा. राम सिंह यादव, डॉ. देवेन्द्र दीपक, पुन्नी सिंह, डॉ. महावीर सरन जैन, डॉ. कुसुम खेमानी, डॉ. शंभु नाथ, नुसरत नाहिद, जमुना प्रसाद उपाध्याय और विभूति नारायण राय को दिया जाएगा।

इसके अतिरिक्त दो लाख रुपये का लोक भूषण सम्मान जगदीश पीयूष, कला भूषण सम्मान सरोजनी श्रीवास्तव, विद्या भूषण सम्मान डॉ. अशोक कुमार अग्रवाल, पत्रकारिता भूषण सम्मान प्रो. राममोहन पाठक, प्रवासी भारतीय हिंदी भूषण सम्मान मॉरिशस के प्रह्लाद रामशरण, बाल साहित्य भारती सम्मान डॉ. दिविक रमेश को दिया जाएगा।

दो लाख का सौहार्द सम्मान पंजाबी भाषा के साहित्यकार डॉ. गुरुशरण कौर जग्गी, मराठी के डॉ. रमेश यादव, मणिपुरी के डॉ. अरिबम ब्रजकुमार शर्मा और उड़िया के डॉ. अजय कुमार पटनायक, तमिल के डॉ. राम गोविंदराजन, कन्नड़ के डॉ. डी एन श्रीनाथ, कश्मीरी के डॉ. बीना बुदकी और उर्दू के शकील सिद्दीकी, बांग्ला के साधना सान्याल, तेलगु की मुनुकुट्ल पद्माराव, मलयालम के डॉ. एच परमेश्वरन, मैथिली में डॉ. देवशंकर नवीन और संस्कृत में डॉ. भागीरथ प्रसाद त्रिपाठी 'वागीश शास्त्री' को दिया जाएगा।

एक लाख रुपये का हिंदी विदेशी प्रसार सम्मान यू एस ए की डॉ. सुधा ओम ढींगरा और यूके की डॉ. कविता वाचक्नवी को देने की घोषणा की गई।

50 हजार रुपये के विश्वविद्यालयस्तरीय सम्मान डॉ. महेश आलोक और डॉ. सूर्यकांत को दिया जाएगा।

दो लाख रुपये का मधुलिमये साहित्य सम्मान योगीन्द्र द्विवेदी को,  पं. श्रीनारायण चतुर्वेदी साहित्य सम्मान प्रेम जन्मेजय  को और विधि भूषण सम्मान डॉ. सुरेन्द्र सहाय श्रीवास्तव को मिलेगा।


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हुल्लड़ मुरादाबादी नहीं रहे  - भारत-दर्शन संकलन

मुरादाबाद, 13, जुलाई, 2014। हास्य कवि हुल्लड़ मुरादाबादी का शनिवार को दोपहर बाद मुंबई में दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया। 72 वर्षीय हुल्लड़ लंबे समय से अस्वस्थ थे।

आपने 'क्या करेगी चांदनी', 'जिगर से बीड़ी जला ले', 'मैं भी सोचूं, तू भी सोच' 'इतनी ऊंची मत छोड़ो', 'अच्छा है पर कभी कभी', 'यह अंदर की बात है', 'तथाकथित भगवानों के नाम', 'दमदार और दुमदार दोहे', 'हुल्लड़ हजारा', 'हुल्लड़ का हुल्लड़', 'हज्जाम की हजामत' इत्यादि हास्य पुस्तके लिखी।

हुल्लड़  मुरादाबादी ने दो फिल्मों, 'संतोष' व 'बंधनबाहों' में अभिनय भी किया।

हुल्लड़  मुरादाबादी विभिन्न सम्मानों से अलंकृत थे जिनमें हास्य रत्‍‌न अवार्ड, काका हाथरसी पुरस्कार और महाकवि निराला सम्मान,कलाश्री अवार्ड, ठिठोली अवार्ड, टीओवाईपी अवार्ड, अट्टहास शिखर सम्मान सम्मिलित हैं।

हुल्लड़ मुरादाबादी का जन्म जन्म 29 मई 1942 को पाकिस्तान के शहर गुजरांवाला में हुआ था। आपका वास्तविक नाम सुशील कुमार चड्डा था। विभाजन  के समय आपके परिजन भारत आकर मुरादाबाद में बस गए थे। राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय कवि-सम्मेलनों में सुप्रसिद्ध हुल्लड़ मुरादाबादी को तत्कालीन राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने भी सम्मानित किया था।

हुल्लड़ 1977 में परिवार के साथ मुंबई चले गए लेकिन मुरादाबाद से उनका स्नेह बना रहा। 2000 में मुरादाबाद छोड़कर वह पूरी तरह मुंबई में बस गए। हुल्लड़ 6 वर्षों से मधुमेह व थायराइड से पीड़ित थे।

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प्रो. जगदम्बा प्रसाद दीक्षित नहीं रहे - भारत-दर्शन संकलन

22, मई, 2014: मात्र एक उपन्यास से हिंदी साहित्यकार के रूप में प्रतिष्ठित हुए प्रो. जगदम्बा प्रसाद दीक्षित नहीं रहे। जर्मनी के शहर बर्लिन में उनका देहांत हो गया।

श्री दीक्षित का जन्म 1935 में बालाघा‌ट (म. प्र) में हुआ था। स्व. दीक्षित मुंबई के सैंट जेवियर्स कॉलेज में हिंदी के प्रोफ़ेसर रहे हैं।

मुरदा-घर, कटा हुआ आसमान व इतिवृत्त उपन्यासों के अतिरिक्त एक कहानी-संग्रह, 'शुरुआत और अन्य कहानियाँ' आपकी मुख्य कृतियां थी।

मुरदा-घर में सामाजिक विसंगतियों और विषमताओं का यथार्थपूर्ण चित्रणकिया गया था। इसमें वर्तमान राज्य-तन्त्र के आमानवीय रूप को भी उकेरा गया।

 


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संगीतकार गुलजार को दादा साहेब फालके पुरस्कार  - भारत दर्शन संकलन

प्रसिद्ध गीतकार, निर्देशक, पटकथा लेखक, निर्माता और कवि गुलजार को वर्ष 2013 के लिए दादा साहेब फालके पुरस्कार दिया गया है।
भारत में फिल्मी हस्तियों को दिया जाने वाला यह सर्वोच्च सम्मान है।

गुलजार, 'तुझसे नाराज नहीं जिंदगी' और 'तेरे बिना जिंदगी से कोई शिकवा नहीं' जैसे प्रसिद्ध गीतों के रचनाकार हैं। यह पुरस्कार भारत सरकार भारतीय सिनेमा की वृद्धि और विकास में असाधारण योगदान के लिए देती है। पुरस्कार में स्वर्ण कमल, 10 लाख रुपये नकद और शॉल प्रदान किया जाता है। सरकार की ओर से गठित जाने-माने लोगों की समिति की सिफारिश पर पुरस्कार के लिए चयन किया जाता है। गहन विचार-विमर्श के बाद सर्वसम्मति से इस प्रतिष्ठित पुरस्कार के लिए गुलजार की सिफारिश की गई थी।

गुलजार को साहित्य में योगदान के लिए 2002 में साहित्य अकादमी पुरस्कार प्रदान किया जा चुका है व 2004 में पद्म भूषण, 2009 में फिल्म स्लमडॉग मिलियनेयर के गीत 'जय हो' के लिए सर्वश्रेष्ठ मौलिक गीत का ऑस्कर और वर्ष 2010 में ग्रैमी पुरस्कार भी प्राप्त कर चुके हैं। अनेक राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों के सहित 20 फिल्म फेयर पुरस्कार भी आपके नाम हैं।

गुलजार ने 1956 से अपना फिल्मी जीवन आरम्भ किया। गीतकार के रूप में उन्हें सबसे पहले बिमल राय की फिल्म बंदिनी में काम मिला।  आपने सचिन देव बर्मन, सलिल चौधरी, शंकर जयकिशन, हेमंत कुमार, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, मदन मोहन, राजेश रौशन, अनु मलिक और शंकर अहसान लॉय सहित अग्रणी संगीतकारों के साथ काम किया है। राहुल देव बर्मन, ए आर रहमान और विशाल भारद्वाज के साथ आपकी खूब जमी। गुलजार ने अनेक फिल्मों में पटकथा लेखक, लेखक और संवाद लेखक का भी काम किया। मेरे अपने, कोशिश, आंधी, किनारा, खुशबू, अंगूर, लिबास, मीरा, लेकिन और माचिस जैसी अनेक फिल्मों में उन्हें खूब सराहना मिली।

 

विभाजन पूर्व पंजाब प्रांत (अब पाकिस्तान में) में 1934 में जन्मे गुलजार का नाम संपूर्ण सिंह कालरा है। उनका परिवार विभाजन की त्रासदी के बाद अमृतसर आ गया लेकिन गुलजार मुंबई आ गए। एक गैराज में मैकेनिक के तौर पर काम करने लगे। खाली वक्त में वह कविताएं लिखते थे। आपके तीन कविता संग्रह 'चांद पुखराज का', 'रात पश्मीने की' , 'पंद्रह पांच पचहत्तर' और दो लघु कथाएं 'रावी पार' और 'धुंआ' प्रकाशित हो चुकी हैं।

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गीतकार राजगोपाल सिंह नहीं रहे - भारत-दर्शन समाचार

हिंदी के गीतकार राजगोपाल सिंह (Rajgopal Singh) का 6 अप्रैल 2014 को निधन हो गया। 

राजगोपाल सिंह का जन्म 1 जुलाई 1947 को उत्तर प्रदेश के बिजनौर ज़िले में हुआ था। आपकी रचनाओं में परिवारिक संबंधों की संवेदना और प्रकृति प्रेम विशेषत: देखने को मिलते हैं।

आपके तरन्नुम भरे दोहे और गीत श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देते हैं।

 


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जावेद अख्‍तर, मृदुला गर्ग सहित 24 साहित्यकार सम्मानित - भारत-दर्शन समाचार

साहित्य अकादमी ने जावेद अख्तर, सुबोध सरकार और मृदुला गर्ग सहित 24 साहित्यकारों को अपने वाषिर्क उत्सव में सम्मानित किया।
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एलिस मुनरों को लघु-कथाओं के लिए नोबेल पुरस्कार - भारत-दर्शन समाचार

नाडा की लेखिका एलिस मुनरो को लघु कहानियों के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। एलिस मुनरो का जन्म 10 जुलाई 1931 को कनाडा में हुआ था। मुनरो को 2009 में बुकर प्राइज़ से भी सम्मानित किया जा चुका है और वे तीन बार कनाडा के गवर्नर जनरल पुरस्कार की विजेता रही हैं। एलिस मुनरों लंबे समय से लघु कहानी के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचानी जाती हैं।

किसी कनेडियन को साहित्य के लिए दिया गया यह शायद पहला नोबेल पुरस्कार कहा जा सकता है। इससे पहले भी 'कनाडा' के सोल बेलो को 1976 में नोबेल पुरस्कार दिया गया था लेकिन वे बचपन में कनाडा से अमरीका स्थानांतरित हो गए थे और वे अमरीका के निवासी थे। उन्हें सदैव एक अमरीकी के रूप में ही पहचाना गया। ......

 
 
अभिमन्यु अनत को सर्वोच्च साहित्य सम्मान - भारत-दर्शन समाचार
अभिमन्यु अनत को साहित्य अकादमी मानद महत्तर सदस्यता

9 अक्टूबर:  अभिमन्यु अनत को साहित्य अकादमी ने मानद महत्तर सदस्यता (ऑनरेरी फेलोशिप) का सर्वोच्च सम्मान प्रदान किया है।
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अंतरराष्ट्रीय हिंदी कविता प्रतियोगिता - भारत-दर्शन समाचार
अंतरराष्ट्रीय हिंदी कविता प्रतियोगिता
विश्व हिंदी दिवस 2014 के उपलक्ष्य में विश्व हिंदी सचिवालय (मॉरीशस) एक 'अंतरराष्ट्रीय हिंदी कविता प्रतियोगिताका आयोजन कर रहा है। ......
 
 
प्रकाशनार्थ सम्मानार्थ प्रविष्टियाँ आमंत्रित - भारत-दर्शन समाचार
प्रकाशनार्थ सम्मानार्थ प्रविष्टियाँ आमंत्रित

विश्व हिंदी साहित्य सेवा संस्थान द्वारा 2003 से लगातार साहित्यिकारों/पत्रकारों/समाजसेवियों/कलाकारों को सम्मानित  किया रहा है. इस वर्ष निम्नांकित सम्मान प्रस्तावित है-
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‘अंजना: एक विचार मंच’ की सार्थक पहल - रिपोर्ट – राहुल पांडे

कथाकार संजीव को अंजना सहजवाला साहित्य सम्मान
रिपोर्ट – राहुल पांडे

सुविख्यात कथाकार व उपन्यासकार संजीव को उनके बहुचर्चित उपन्यास 'रह गईं दिशाएं इसी पार' के लिए दिल्ली के गाँधी शांति प्रतिष्ठान में 21 सितंबर 2013 को पहला  'अंजना सहजवाला साहित्य सम्मान' दिया गया। ......

 
 
हिंदी प्रेमी रोनाल्ड स्टुअर्ट मेक्ग्रेगॉर नहीं रहे - भारत-दर्शन समाचार

अगस्त, 2013: रोनाल्ड स्टुअर्ट मेक्ग्रेगॉर जिन्हें अधिकतर आर एस मेक्ग्रेगॉर के नाम से जाना जाता है, का 19 अगस्त को 84 वर्ष की आयु में निधन हो गया। आप एक सच्चे हिंदी प्रेमी थे। मेक्ग्रेगॉर ने पश्चिमी को हिंदी से परिचित करवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

न्यूजीलैंड में जन्मे व स्कॉटिश माता-पिता की सन्तान प्रो. मेक्ग्रेगॉर को बचपन में फ़िजी से प्रकाशित हिन्दी के एक व्याकरण की पुस्तक किसी ने दी थी, जिसके फलस्वरूप उनका हिंदी की ओर रूझान हो गया। सर्वप्रथम 1959-60 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिन्दी की पढ़ाई करने वे भारत आए थे।

मेक्ग्रेगॉर ने 1959-60 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिंदी की शिक्षा ली।

1964 से लेकर 1997 तक वे कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में हिंदी का अध्यापन करते रहे। वे एक उच्च स्तरीय भाषा विज्ञानी, व्याकरण के विद्वान, अनुवादक और हिंदी साहित्य के इतिहासकार थे।

1972 में हिंदी व्याकरण पर 'एन आउटलाइन ऑफ हिंदी ग्रामर' नाम की महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी। मेक्ग्रेगॉर का 'हिंदी-अंग्रेजी शब्दकोश' काफी प्रसिद्ध रहा है। हिंदी को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित व स्थापित करने में आपकी महती भूमिका रही है।

 


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राष्ट्रपति ने हिंदी दिवस पर राजभाषा पुरस्कार प्रदान किए - भारत दर्शन समाचार

भारत के राष्ट्रपति, श्री प्रणब मुखर्जी ने 14 सितंबर 2013 ( हिंदी दिवस) को विज्ञान भवन में, हिंदी के प्रयोग में विशिष्ट उपलब्धियों के लिए, विभिन्न मंत्रालयों/विभागों/सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों/राष्ट्रीयकृत बैंकों को पुरस्कार प्रदान किए।

इस अवसर पर राष्ट्रपति ने आशा व्यक्त की कि राजभाषा पुरस्कार हिंदी के यथा-संभव अधिक से अधिक प्रयोग के लिए प्रोत्साहन प्रदान करेंगे| उन्होंने कहा कि आम आदमी की भाषा के रूप में, हिंदी राष्ट्र को एक सूत्र में बांधने का कार्य कर रही है। सरकार की विभिन्न योजनाओं का लाभ आम आदमी तक पहुँचने में हिंदी को विशेष योगदान देना है। अतः हमें हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं को प्रोत्साहन देना चाहिए। तकनीकी विषयों पर पुस्तकें हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में उपलब्ध होनी चाहिए।

उन्होंने कहा कि हमें इंटरनेट पर भी हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के प्रयोग को प्रोत्साहन देने के लिए मिल-जुलकर प्रयास करनें होंगे।


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साहित्य जगत समाचार  - भारत-दर्शन समाचार

कविता वाचक्नवी को आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी यू.के. हिंदी पत्रकारिता सम्मान

भारतीय उच्चायुक्त लंदन स्थित इंडिया हाउस में कविता वाचक्नवी को 19 मार्च, 2013 को इंटरनैट और वेब पत्रिकाओं के माध्यम से यू.के. में हिंदी के प्रसार- प्रसार में योगदान हेतु आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी यू.के. हिंदी पत्रकारिता सम्मान प्रदान करेंगे।

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हिंदी का कोई प्रतिस्पर्धा नहीं
6 वां अं. हिंदी सम्मेलन अमीरात में संपन्न

दुबई । हिंदी की सामर्थ्य को लेकर किसी फ्रिक की आवश्यकता नहीं है । हिंदी ने हर भाषा के शब्दों को अंगीकार कर उसे नई ताकत दी है । सच्चे मायनों में हिंदी की किसी भाषा के साथ कोई प्रतिस्पर्धा भी नहीं है। छठवें अंतरराष्ट्रीय हिदी सम्मेलन में सम्मिलित सभी विद्वान वक्ताओं का यही अभिमत था । अंतरराष्ट्रीय स्तर हिंदी की प्रतिष्ठा के लिए सक्रिय वेब पत्रिका सृजनगाथा डॉट कॉम द्वारा आयोजित समारोह के उद्घाटन सत्र के मुख्य अतिथि प्रतिष्ठित रचनाकार डॉ. हरीश नवल ने कहा कि हिंदी को संस्कृत या हिंगलिश बनाना घातक होगा, बल्कि उचित होगा कि विदेशज शब्दों को उसी रूप में अंगीकार किया जाये । ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के उपन्यासों के मूर्धन्य लेखक और अध्यक्ष डॉ. शरद पगारे का कहना था कि यदि पात्रों के चरित्र में उतर कर लिखना हो तो हिंदी से ज्यादा कोई दूसरी समर्थ भाषा है ही नहीं। स्वागत भाषण दिया सृजन-सम्मान के वरिष्ठ उपाध्यक्ष एच. एस. ठाकुर ने ।

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मीठी लोरी  - डाक्टर सईद अहमद साहब 'सईद' बरेलवी

लाडले बापके, अम्मा के दुलारे सो जा,
ऐ मेरी आँख के तारे, मेरे प्यारे सो जा। ......

 
 
सीख - हितेष पाल

अपने अपने दायरे रहना सीख लो
ज़रा सा क़ायदे में रहना सीख लो। ......

 
 
सीख लिया - प्रभा मिश्रा

अब उलझनों में अटकना छूट गया।
क्योंकि मैंने अब संभलना सीख लिया।......

 
 
काश !  - साकिब उल इस्लाम

काश कि कोई ऐसा दिन हो जाए
ज़माने के सारे सितम खो जाएं।

ज़ुल्मी जब-जब ज़ुल्म करना चाहे ......

 
 
थोड़ा इंतजार - राहुल सूर्यवंशी

नियमों से नहीं, तो निवेदन से रुक
डंडे से नहीं, तो ठंडे से रुक......

 
 
चले तुम कहाँ - नरेश कुमारी

ओढ़कर सोज़-ए-घूंघट
चले तुम कहाँ?

सोच लो तुम जरा-- ......

 
 
औरत फूल की मानिंद है  - रश्मि विभा त्रिपाठी

फूल
किस कदर......

 
 
स्वीकार करो  - रूपा सचदेव

मैं जैसी हूँ
वैसी ही मुझे स्वीकार करो।

इस पार रहो या उस पार रहो ......

 
 
पिछली प्रीत - जाँ निसार अख्तर

हवा जब मुँह-अँधेरे प्रीत की बंसी बजाती है,
कोई राधा किसी पनघट के ऊपर गुनगुनाती है,......

 
 
होली | बाल कविता - गुलशन मदान

रंगों का त्योहार है होली
खुशियों की बौछार है होली

लाल गुलाबी पीले देखो......

 
 
मौत की रेल - डॉ॰ चित्रा राठौड़

ज़िन्दगी की पटरियों पर से मौत की रेल गुज़र गई
‌भूख और मजबूरी कुछ और बदनसीबों को निगल गई।......

 
 
आत्मचिंतन - डॉ॰ कामना जैन

चिंतित हो गया है किंचित,
आज मानव,......

 
 
भगतसिंह के खेल - भारत-दर्शन संकलन

कहते हैं ‘पूत के पांव पालने में ही दिखाई पड़ जाते हैं’।

पांच वर्ष की बाल अवस्था में ही भगतसिंह के खेल भी  अनोखे थे। वह अपने साथियों को दो टोलियों में बांट देता था और वे परस्पर एक-दूसरे पर आक्रमण करके युद्ध का अभ्यास किया करते। भगतसिंह के हर कार्य में उसके वीर, धीर और निर्भीक होने का आभास मिलता था।
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भगतसिंह का बचपन - भारत-दर्शन संकलन

कहते हैं ‘पूत के पांव पालने में ही दिखाई पड़ जाते हैं’।

पांच वर्ष की बाल अवस्था में ही भगतसिंह के खेल भी  अनोखे थे। वह अपने साथियोंको दो टोलियों में बांट देता था और वे परस्पर एक-दूसरे पर आक्रमण करके युद्ध का अभ्यास किया करते। भगतसिंह के हर कार्य में उसके वीर, धीर और निर्भीक होने का आभास मिलता था।
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काव्य मंच पर होली - बृजेन्द्र उत्कर्ष

काव्य मंच पर चढ़ी जो होली, कवि सारे हुरियाय गये,
एक मात्र जो कवयित्री थी, उसे देख बौराय गये,

एक कवि जो टुन्न था थोडा, ज्यादा ही बौराया था,......

 
 
होली आई - होली आई - हर्ष कुमार

बहुत नाज़ था उसको खुद पर, नहीं आंच उसको आयेगी
नहीं जोर कुछ चला था उसका, जली होलिका होली आई

होली आई - होली आई, धूम मचाओ होली आई

नाचो-गाओ होली आई, होली आई - होली आई......

 
 
कब तक लड़ोगे - बेबी मिश्रा

मत लड़ो सब जो चले गए उनसे डरो सब
क्या पता कल क्या हो......

 
 
मुक्तक - ताराचंद पाल 'बेकल'

समय देख कर आदमी यदि संभलता,
नया युग धरा पर ज़हर क्यों उगलता!......

 
 
मत बाँटो इंसान को | बाल कविता - विनय महाजन

मंदिर-मस्जिद-गिरजाघर ने
बाँट लिया भगवान को।......

 
 
प्रक्रिया - श्रीकांत वर्मा

मैं क्या कर रहा था
जब......

 
 
प्रदूषण का नाम प्लास्टिक - कुमार जितेन्द्र "जीत"

धरा पर ढेर लग रहे हैं, प्लास्टिक से
कृत्रिम पहाड़ बन रहे हैं , प्लास्टिक से

जहरीले तत्व फैल रहे हैं, प्लास्टिक से ......

 
 
कोमल मैंदीरत्ता की दो कवितायें  - कोमल मैंदीरत्ता

मेरी अपनी किताबों की दुनिया

नहीं भूलता मुझे वो दिन
जब माँ लाई थी मेरे लिए......

 
 
तितली | बाल कविता - नर्मदाप्रसाद खरे

रंग-बिरंगे पंख तुम्हारे, सबके मन को भाते हैं।
कलियाँ देख तुम्हें खुश होतीं फूल देख मुसकाते हैं।।

रंग-बिरंगे पंख तुम्हारे, सबका मन ललचाते हैं।......

 
 
चिट्ठी | बाल कविता - प्रकाश मनु

चिट्ठी में है मन का प्यार
चिट्ठी  है घर का अखबार......

 
 
आर्शीवाद - देवेन्द्र सत्यार्थी

एक क्षण ऐसा भी आता है, जब अतीत और वर्तमान एकाकार हो जाते हैं, बल्कि इसमें भविष्य की शुभ कामना का भी समावेश हो जाता है।
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कविगुरू रबीन्द्रनाथ ठाकुर  - नरेन्द्र देव

कविगुरु रबीन्द्रनाथ ठाकुर ने साहित्य के क्षेत्र में अपनी जन्मभूमि बंगाल में शुरूआती सफलता प्राप्त की। वह साहित्य की सभी विधाओं में सफल रहे किन्तु सर्वप्रथम वह एक महान कवि थे। अपनी कुछ कविताओं के अनुवादों के साथ वह पश्चिमी देशों में  भी प्रसिध्द हो गए। कविताओं की अपनी पचास और अत्यधिक लोकप्रिय पुस्तकों में से मानसी (1890), (द आइडियल वन), सोनार तरी (1894), (द गोल्डेन बोट) और गीतांजलि (1910) जिस पुस्तक के लिये उन्हें वर्ष 1913 में साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

एक महान साहित्यकार होने के साथ-साथ वैसे लोगों को भी भारत के इस महान सपूत के मानव सभ्यता से जुड़े शीर्ष व्यक्तित्व की महानता के बारे में कोई शंका नहीं होगी, जिन्हें इनके जीवन और कार्यों के बारे में थोड़ी सी जानकारी है । वह देश और देशवासियों से प्यार करते थे । वह हमेशा घटनाक्रमों से जुड़ी व्यापक विचारधारा रखते थे और साम्राज्यवादी शासन के अधीन होने पर भी देश का विकास चाहते थे ।

उनकी सर्वोत्तम काव्य कृतियां - व्हेयर दि माइंड इज विदाउट फीयर, दैट फ्रीडम ऑफ हैवन और नैरो डोमेस्टिक वाल उन्हें विश्व बंधुत्व के सच्चे पुरोधा के रूप में स्थापित करती हैं जिन्हें समझने की जरूरत है। उसी प्रकार इनटू दैट फ्रीडम ऑफ हैवन लेट माई कंट्री अवेक में लिखी उनकी अमर वाणी भी समान रूप से महत्त्वपूर्ण है ।

कविगुरु जहां एक ओर एक राष्ट्रवादी और महात्मा गांधी के सच्चे मित्र और दार्शनिक मार्गदर्शक थे  वहीं दूसरी ओर वह राष्ट्रीयता पर अत्यधिक जोर देने तथा संकीर्ण राष्ट्रवाद के विरूध्द थे। इसे इस संदर्भ में देखा जा सकता है कि उन्होंने महानगरीय मानवतावाद को साकार करने के महत्त्व पर जोर दिया। बढ भेंग़े दाव (सभी बाधाओं को तोड़ो) जैसी लोकोक्तियों को हमें उन अर्थों में समझना चाहिए। यह उस व्यक्ति की सीमारहित विलक्षणता ही है कि भारत और बंगलादेश दोनों देशों के राष्ट्रगान उनके द्वारा ही लिखे गए थे।

जहां भारत ने जनगणमन को राष्ट्रगान के रूप में स्वीकार किया, वहीं बांगलादेश ने भी सत्तर के दशक में अपने राष्ट्रगान के रूप में आमार शोनार बांगला (माई गोल्डेन बंगाल) को चुना।

युद्द और साम्राज्यवाद की अपनी अवधारणाओं में रबीन्द्रनाथ ने साम्राज्यवादी उग्रता और नस्लवादी तथा राष्ट्रीयतावादी भावनाओं के बर्वर प्रदर्शन की निंदा की। उनका कहना है कि युद्द, उग्र राष्ट्रवाद, हथियारों की होड़, शक्ति के महिमामंडन और अन्य ऐसे राष्ट्रीय मिथ्याभियान का परिणाम होता है जिसका कोई अच्छा कारण नहीं होता। आज का विश्व कई हिस्सों में बंटा है और विश्व के एक कोने से दूसरे कोने तक लोगों के बीच विनाशकारी नाभिकीय युद्द का भय निरंतर क़ायम है, ऐसे में इसे एक वैश्विक गांव के रूप में परिणीत करने की जरूरत सचमुच महसूस होती है। किसी भी अन्य लेखों की तुलना में व्यापक बंधुत्व पर कविगुरु के लेखों को समझना बेहतर होगा ।

द डाकघर जैसे उनके कार्य में उनकी मानवतावादी सोच की झोंकिया मिलती हैं। उसी प्रकार उनकी प्रशंसित लघु कथा, 'द चाइल्ड्स रिटर्न'  उनके पात्रों के शरीर और आत्मा को खोज निकालने की उनकी क्षमता को दर्शाती है। रबीन्द्रनाथ ने अपने समर्थकों के भौतिक शरीर को तलाशने में सफलता प्राप्त की और उन्हें हृदय तथा आत्मा दी। अनुवादक मैरी एम लागो ने बाद में नष्टानीर (द ब्रोकन नेस्ट) को ठाकुर का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास बताया जिसमें कथानक अपने समय के काफी पहले पैदा हुई एक गृहिणी के जीवन और समय के इर्द-गिर्द केन्द्रित है। फिल्मजगत के उस्ताद सत्यजीत राय ने बाद में चलकर 1964 में चारूलता नामक बहु प्रशंसित फिल्म तैयार की ।

देशवासियों के लिए उनका अथाह प्यार ही था जिसके कारण उन्होंने वर्ष 1901 में शांति निकेतन में विश्व भारती विश्वविद्यालय की स्थापना की।

वर्ष 1905 में बंगाल के बँटवारे ने उन्हें बेचैन किया था और राष्ट्रीय हितों से जुड़े मुद्दे के शीर्ष पर स्थापित किया था। इस वाक़ये ने उन्हें स्वतंत्रता सेनानियों के करीब पहुँचा दिया और उन्होंने हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच साम्प्रदायिक सद्भाव सुनिश्चित करने में व्यापक योगदान किया। ख़ासकर उन्होंने राखी जैसे सांस्कृतिक त्यौहारों का इस्तेमाल किया और सभी धर्मों के लोगों से यह माँग की कि वे बंधुत्व के एक प्रतीक के रूप में एक दूसरे क? राखी बाँधे।

मानवता और समाज के लिए उनका प्यार किसी अन्य अवसर की तुलना में अधिक उभर कर सामने तब  आया जब उन्होंने विधवा पुनर्विवाह का मुद्दा उठाया। जो कुछ उन्होंने लिखा उसे व्यवहार में भी उतारा और वर्ष 1910 में तदनुकूल उदाहरण के तौर पर अपने पुत्र की शादी एक युवा विधवा प्रतिमा देवी से करायी। उसी वर्ष उनका संग्रह गीतांजलि बंगला में लिखा गया और बाद में 1912 में उसका अँग्रेज़ी अनुवाद प्रकाशित हुआ। वर्ष 1919 में उदाहरण देकर सिद्ध किया और कुख्यात जलियाँवाला बाग के बर्बरतापूर्ण नरसंहार की जोरदार निंदा करते हुए नाइट उपाधि का परित्याग कर दिया।

रबीन्द्रनाथ अपराध से घृणा करने में विश्वास करते थे न कि अपराधी से। स्वदेशी समाज के संदर्भ में उन्होंने अपने लोगों से केवल अँग्रेज़ों से ही स्वतंत्रता पाने के लिए नहीं कहा था बल्कि उदासीनता, महत्वहीनता और परस्पर वैमनस्यता से भी। स्वदेशी सोच का सृजन और इस कारण उनकी कविता और उनके गीत हमेशा आत्मा पर जोर देते थे। इसलिए यह ठीक ही कहा गया है कि कविगुरु की स्वतंत्रता संबंधी विधि एक बौध्दिक क्रांति थी । उनका लक्ष्य केवल साम्राज्यवादी अँग्रेज़ों को ही भगाना नहीं था बल्कि अँग्रेज़ों से भावनात्मक स्वतंत्रता के कारण आर्थिक संरचना में आई खामियों को भी दूर करके आर्थिक और राजनीतिक सुधार क़ायम करना था।

विद्वानों का कहना है कि महात्मा गांधी और रबीन्द्रनाथ ठाकुर भारत को स्वतंत्र करने के तरीक़े पर अपनी भिन्न सोच रखते थे किंतु दोनों  के बीच काफी निकटताएं भी थीं। गांधीजी ठाकुर को अपना गुरूदेव पुकारते थे और ठाकुर ने गांधीजी को महात्मा  की उपाधि दी । भारत को आज़ाद करने के तरीके के बारे में विचारों की भिन्नता के बावजूद भी इस मुद्दे पर गांधीजी ने ठाकुर से यह कहकर परामर्श किया कि उन्हें मालूम है कि उनका सर्वश्रेष्ठ मित्र अध्यात्म से प्रेरित है और उन्होंने मुझे जीवन में स्थिरता क़ायम करने की शक्ति दी है।

- नरेन्द्र देव

[लेखक स्टेट्समैन, नई दिल्ली में विशेष प्रतिनिधि रहे हैं।]
साभार- पसूका

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एक भारत मुझमें बसता है - आराधना झा श्रीवास्तव

देश त्याग परदेस बसे
ये कह मुझ पर जो हँसता है......

 
 
अनमोल वचन - रबीन्द्रनाथ टैगोर

 

  • प्रसन्न रहना बहुत सरल है, लेकिन सरल होना बहुत कठिन है।
  • तथ्य कई हैं, लेकिन सच एक ही है।
  • प्रत्येक शिशु यह संदेश लेकर आता है कि ईश्वर अभी मनुष्यों से निराश नहीं हुआ है।
  • विश्वास वह पक्षी है जो प्रभात के पूर्व अंधकार में ही प्रकाश का अनुभव करता है और गाने लगता है।
  • फूल एकत्रित करने के लिए ठहर मत जाओ। आगे बढ़े चलो, तुम्हारे पथ में फूल निरंतर खिलते रहेंगे।
  • चंद्रमा अपना प्रकाश संपूर्ण आकाश में फैलाता है परंतु अपना कलंक अपने ही पास रखता है।
  • कलाकार प्रकृति का प्रेमी है अत: वह उसका दास भी है और स्वामी भी।
  • केवल खड़े रहकर पानी देखते रहने से आप सागर पार नहीं कर सकते।
  • हम यह प्रार्थना न करें कि हमारे ऊपर खतरे न आएं, बल्कि यह प्रार्थना करें कि हम उनका निडरता से सामना कर सकें।

 

     - रबीन्द्रनाथ टैगोर

       [भारत-दर्शन संकलन]

 


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मिट्टी की खुशबू - डॉ अनीता शर्मा

कोई पूछता है, कौन सा इत्र है?
खुशबू गज़ब की आती है!......

 
 
कर्म योगी रबीन्द्रनाथ ठाकुर  - नरेन्द्र देव


गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर दिन में कभी विश्राम नहीं करते थे। एक बार वे बीमार पड़ गए। डॉक्टरों ने परामर्श दिया कि वे दिन में खाना खाने के बाद थोड़ी देर विश्राम करें। टैगोर ने उनका परामर्श अनसुना कर दिया और पहले की तरह काम करते रहे। स्वास्थ्य और बिगड़ने लगा। शांति निकेतन के अध्यापकों और मित्रों ने उन्हें समझाया, लेकिन उन पर इसका कोई प्रभाव न पड़ा।......

 
 
प्रदूषण - बासुदेव अग्रवाल नमन

बढ़ा प्रदूषण जोर।
इसका कहीं न छोर।।......

 
 
सिर्फ़ बातें नहीं अब वह बात चाहिए  - ममता मिश्रा, नीदरलैंड

करें कल्याण हिंदी का
ऐसे कुछ हाथ चाहिए।......

 
 
महान संत गुरूदेव टैगोर और महान आत्‍मा महात्‍मा गांधी | विशेष लेख - निखिल भट्टाचार्य

19वीं शताब्‍दी के अंत और 20वीं शताब्‍दी के शुरू में दो महान भारतीयों रवींद्रनाथ टैगोर और मोहनदास कर्मचंद गांधी के बीच एक संबंध और गहरा तादात्‍म्‍य स्‍थापित हो गया। वे दोनों भारतीयता, मानवता और प्रबंधन से मुक्ति के समर्थक थे। उनके बारे में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने 1941 में अपनी जेल डायरी में लिखा- ''गांधी और टैगोर, जो पूरी तरह एक-दूसरे से अलग प्रकार के थे और दोनों भारत के विशिष्‍ट व्‍यक्ति थे, की गणना भारत के महान पुरूषों में होती है।.... मैंने बहुत लंबे समय से यह महसूस किया है कि वे आज विश्‍व के असाधारण व्‍यक्ति है। निसंदेह, ऐसे अनेक व्‍यक्ति हैं, जो उनसे अधिक योग्‍य और अपने-अपने क्षेत्रों में उनसे महान प्रतिभाशाली व्‍यक्ति हैं। वे किसी एक गुण के कारण नहीं, बल्कि उनके सामूहिक प्रभाव के कारण मैंने महसूस किया कि गांधी और टैगोर आज विश्‍व के महान व्‍यक्तियों में मानव के रूप में सर्वोत्‍तम व्‍यक्ति थे। यह मेरा सौभाग्‍य था कि मैं उनके निकट संपर्क में आया।

टैगोर पहले व्‍यक्ति थे, जिन्‍होंने गांधी को महात्‍मा या महान आत्‍मा के नाम से पुकारा। उन्‍होंने कहा कि गांधी जी के आह्वान पर भारत नई महानताओं को उसी प्रकार छूने लगा जैसे पहले के समय में बुद्ध ने सच्‍चाई और प्राणियों के बीच भाईचारा और सद्भाव की घोषणा की थी। ''गांधी जी ने उन्‍हें महान संत या 'गुरूदेव' के नाम से पुकारा।

बाहरी विश्‍व के सामने टैगोर ने महात्‍मा गांधी को भारत की आध्‍यात्मिक आत्‍मा के रूप में प्रस्‍तुत करने में कभी हिचकिचाहट महसूस नहीं की। उन्‍होंने 1938 में चीन के मार्शल चेन काई सेक यह कहते हुए लिखा कि नैतिक गड़बड़ी के इस निराशाजनक अवसर पर हम लोगों के लिए यह आशा करना स्‍वाभाविक है कि इस महाद्वीप को जिसने दो महान व्‍यक्तियों बुद्ध और ईसा मसीह को पैदा किया, मानवता की दुर्बुद्धि की वैज्ञानिक धृष्‍टता के समक्ष नैतिकता की पवित्र अभिव्‍यक्ति को बनाये रखने के अपने दायित्‍व को अब भी पूरा करना चाहिए। क्‍या वह अभिलाषा गांधी के व्‍यक्तित्‍व में पूर्ति की पहली चमचमाती किरण के रूप में दिखाई नहीं देती। चेन काई सेक ने पत्र का उत्‍तर देते हुए टैगोर को ''रेस्‍पेक्‍टेड गुरूदेव टैगोर'' के नाम से संबोधित किया था।

दक्षिण अफ्रीका में काम कर रहे एक बंगाली कवि और एक गुजराती बैरिस्‍टर के बीच संबंध कैसे विकसित हुए। इस बारे में टैगोर की जीविनी लिखने वाले प्रभात कुमार मुखर्जी ने बताया है कि 1912-13 में एक गुजराती बैरिस्‍टर मोहनदास कर्मचंद गांधी प्रवासी भारतीयों पर अत्‍याचार के प्रति प्रतिरोध प्रकट करने के लिए दक्षिणी अफ्रीका में सत्‍याग्रह आयोजित करने में व्‍यस्‍त थे। गांधी और टैगोर के साझा मित्र एक ब्रिटिश पादरी और कवि सी एफ एन्‍ड्रयूज इस आंदोलन पर नजर रखने के लिए जा रहे थे। टैगोर ने एन्‍ड्रयूज को लिखा आप अफ्रीका में महात्‍मा गांधी और अन्‍यों के साथ हमारे हितों के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

कवि और कर्मयोगी की 6 मार्च 1915 को पहली बार भेंट हुई। गांधी जी शांतिनिकेतन व्‍यवस्‍था से पूरी तरह संतुष्‍ट नहीं थे। गांधी चाहते थे कि छात्र अध्‍ययन के साथ-साथ अपना काम स्‍वयं करें। उन्‍होंने महसूस किया कि नौकरों, बावर्चियों, झाड़ू लगाने वालों या पानी लाने वालों की कोई जरूरत नहीं। जब गांधी जी की इच्‍छा टैगोर को बताई गई तो वे बिना हिचकिचाहट के उस पर राज़ी हो गए। उन्‍होंने घोषणा की, ''सब काजे हाथ लगाई मोरा।'' नई व्‍यवस्‍था 10 मार्च 1915 को शुरू हुई, जिसे टैगोर ने टैगोर आश्रम में ''गांधी दिवस'' के रूप में घोषित किया। इस बीच गांधीजी स्‍वाधीनता आंदोलन में कूद पड़े। इसके लिए उन्‍होंने अहिंसा और असहयोग आंदोलन को अपनाया। इस प्रकार उन्‍होंने कांग्रेस के पहले 30 वर्षों के याचिका और संविधानपरकता के आंदोलन को बदल कर उसे कार्यवाई आंदोलन का रूप दे दिया। 1921 में टैगोर का, 'प्रयोग में लाये जाने वाले आंदोलन के स्‍वरूपों के बारे में' गांधी जी के साथ विवाद हो गया।

उन्‍होंने स्‍कूल-कॉलेजों का बहिष्‍कार करने और यहां तक कि विदेशी कपड़ों को जलाने का विरोध किया। सी एफ एन्‍ड्रयूज को लिखे एक पत्र में उन्‍होंने कहा ''युवा छात्रों का एक दल मुझ से मिलने आया था। उन्‍होंने कहा कि यदि वे उन्‍हें स्‍कूल छोड़ने का आदेश दें तो वे उसका पालन करेंगे। मैंने उसे जोरदार तरीके से अस्‍वीकार कर दिया। वे क्रुध होकर चले गए। उन्‍हें मातृ भूमि के लिए मेरे प्रेम की सच्‍चाई पर संदेह हो गया। मेरे अस्‍वीकार करने का कारण था ''रिक्‍तता की अराजकता मुझे कभी प्रलोभित नहीं कर पाई। मतभेदों के बावजूद टैगोर गांधीजी की भावना और उनके द्वारा भारतीयों के जीवन में लाए गए अत्‍याधिक परिवर्तन को नमस्‍कार करते हैं, परंतु उनके पद चिन्‍हों का अनुसरण नहीं करना चाहते थे। तथापि रवींद्रनाथ, गांधी जी के प्रति अपनी श्रद्धा व्‍यक्‍त करने में नहीं हिचकते थे। उन्‍होंने कहा ''गांधी जी अपने जैसे हजारों वंचितों की दहलीज पर रूके। वे उनकी अपनी भाषा में बोले। अन्‍तत: यह जीता जागता सत्‍य था, न कि किसी पुस्‍तक से उद्धृत। इसके लिए उन्‍हें भारत के लोगों ने महात्‍मा नाम दिया, जो कि उनका वास्‍तविक नाम है।

रवींद्रनाथ ने एक बार गांधी जी के उस आह्वान की चर्चा की कि प्रतिदिन आधा घंटा चरखा चलाना चाहिए। टैगोर ने कहा कि यदि इससे देश को स्‍वाधीनता या स्‍वराज्‍य प्राप्‍त करने में सहायता मिलती है तो साढ़े आठ घंटे क्‍यों न चलाया जाए। दोनों में इस पर सहमति न हो सकी।

20 मई, 1932 को महात्‍मा ने पिछड़ी जाति के हिंदुओं के लिए चुनावों में अलग प्रतिनिधित्‍व के विरोध में यरवदा जेल में भूख हड़ताल की। टैगोर ने गांधीजी को तार भेजकर कहा ''भारत की एकता और उसकी सामाजिक अखंडता की ख़ातिर अमूल्‍य जीवन का बलिदान करना सही है, हालांकि इसका शासकों पर क्‍या असर पड़ सकता है। इसका अनुमान हम नहीं लगा सकते हैं। हमारे लोगों के लिए यह कितना महत्‍वपूर्ण है, हो सकता है वे इसे न समझ पायें। हमें विश्‍वास है कि हमारे अपने देशवासियों को की गई यह महान अपील व्‍यर्थ नहीं जाएगी। मुझे पूरी आशा है कि हम इस प्रकार की राष्‍ट्रीय दुर्घटना को अपनी चरम सीमा पर नहीं पहुंचने देंगे। हमारे दुःखी मन आप की उच्‍च तपस्‍या का सम्‍मान और प्रेम के साथ अनुसरण करेंगे। गांधीजी ने टैगोर के तार की चर्चा करते हुए उत्‍तर दिया कि मैंने सदा भगवान की अनुकम्‍पा को महसूस किया है। आज बहुत सवेरे मैंने आप का आर्शीवाद प्राप्‍त करने के लिए पत्र लिखा है। अभी-अभी आपका जो संदेश प्राप्‍त हुआ है, उसमें आपका आर्शीवाद प्रचुर मात्रा में दिखाई दे रहा है।

गांधीजी ने उसी दिन गुरूदेव रवींद्रनाथ को यह कहते हुए पत्र लिखा कि इस समय मंगलवार को प्रात: के तीन बजे हैं। मैं आज दोपहर को अनशन करने जा रहा हूं। इसमें मुझे आपका आर्शीवाद चाहिए। आप मेरे सच्‍चे मित्र रहे हैं, क्‍योंकि आप स्‍पष्‍टवादी मित्र हैं। अवसर अपने विचार जोर से बोलते हैं। मुझे आपसे परिपक्‍व राय की आशा रही है, परंतु आपने आलोचना करना अस्‍वीकार कर दिया है हालांकि अब यह मेरे अनशन के दौरान हो सकती है। तथापि मैं अभी भी आप की आलोचना को महत्‍व दूंगा, यदि आप का हृदय मेरे कार्य की आलोचना करे। मैं अपनी गलती को स्‍वीकार करके कोई बड़ा काम नहीं कर रहा हूं, फिर चाहे मुझे अपनी गलती स्‍वीकार करने की कोई भी कीमत चुकानी पड़े, आप हृदय से मेरे कार्य या कदम का अनुमोदन करेंगे तो मैं इसे आपका आर्शीवाद समझूंगा। यह मुझे बनाए रखेगा। मैं आशा करता हूं कि मैंने अपने आपको स्‍पष्‍ट कर दिया है।

मेरे प्रिय, ''गांधी जी ने इस पत्र के साथ एक नोट भी संलग्‍न किया।'' मैं जैसे ही यह पत्र अधीक्षक को सौंप रहा था, मुझे आपका सप्रेम और शानदार तार प्राप्‍त हुआ। यह मेरे अनशन के दौरान मेरा मनोबल बनाये रखेगा, जो मैं शुरू करने वाला हूं। (स्रोत: रवींद्र रचनावली, खंड 14)

अनुसूचित जातियों के लिए चुनावों में अलग से प्रतिनिधित्‍व गठित करने के लिए ब्रिटिश प्रस्‍ताव के विरूद्ध यरवदा जेल में अनशन कर रहे महात्‍मा गांधी के स्‍वास्‍थ्‍य के बारे में चिंतित रवींद्रनाथ टैगोर उन्‍हें स्‍वयं मिलने के लिए पुणे पहुंचे। महात्‍मा जी ने अपने बेटे को टैगोर को अंदर लाने के लिए भेजा। उस समय तक ब्रिटिश सरकार ने महात्‍मा गांधी की मांग को स्‍वीकार कर लिया था और अनशन कर रहे नेता ने उस दिन दोपहर तक मौन रखा और वे अनशन तोड़ने पर सहमत हो गए। कमला नेहरू ने जूस तैयार किया और कस्‍तूरबा गांधी ने गांधी जी को उसे पिलाया। महात्‍मा जी ने टैगोर से स्‍व रचित एक गीत गाने का अनुरोध किया। उन्‍होंने गाया -

"जीवन जखां सुखईकरूणाघराई ऐसो"

टैगोर ने उस दिन के अपने अनुभव को महात्‍मा गांधी पर लिखित अपनी पुस्‍तक में शामिल किया।

पुणे में गांधी के जन्‍म दिवस पर टैगोर ने शिवाजी मंदिर में एक बैठक में भाग लिया। बैठक की अध्‍यक्षता मदन मोहन मालवीय ने की, जहां उन्‍होंने अपना लिखित भाषण पढ़ा और महात्‍मा जी के छुआछूत उन्‍मूलन आंदोलन को पुरजोर समर्थन दिया।

महात्‍मा गांधी शांति निकेतन में टैगोर के स्‍कूल और विश्‍वविद्यालय में चार बार गए। दो बार कस्‍तूरबा गांधी के साथ और दो बार अकेले गए। 1936 में रवींद्रनाथ अपनी नृत्‍य नाटक मंडली के साथ दिल्‍ली पहुंचे। इसके पहले वे इलाहबाद और लखनऊ गए थे। उनका उद्देश्‍य विश्‍व भारती के लिए धन एकत्र करना था। विश्‍व भारती उन दिनों आर्थिक संकट के दौर से गुजर रही थी। महात्‍मा गांधी को यह देखकर निराशा हुई कि उनके गुरूदेव को इस वृद्धावस्‍था में धन एकत्र करने के लिए इधर-उधर जाना पड़ रहा है। गांधी जी उनसे मिले और धन की व्‍यवस्‍था कर दी। टैगोर की मृत्‍यु से एक वर्ष पहले 1940 में गांधी जी कस्‍तूरबा गांधीजी के साथ बीमार कवि को मिलने के लिए गए, जहां टैगोर ने उन्‍हें अपनी अनुपस्थिति के बाद विश्‍व भारती का कार्यभार अपने हाथ में लेने का अनुरोध किया। स्‍वाधीनता के बाद 1951 में विश्‍व भारती को केंद्रीय विश्‍वविद्यालय के रूप में भारत सरकार ने अपने अधिकार में ले लिया।

रवींद्रनाथ ने कोलकाता में कांग्रेस के कई अधिवेशनों में भाग लिया, जहां उन्‍होंने गीतों की रचना की और उन्‍हें गाया भी। 1911 में कांग्रेस के अधिवेशन के दूसरे दिन 'जन गण मन' सर्वप्रथम गाया गया।

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साभार- पसूका फीचर

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टैगोर - कवि, गीतकार, दार्शनि‍क, कलाकार और शि‍क्षा वि‍शारद - तड़ि‍त मुखर्जी

'प्रसन्‍न रहना तो बहुत सहज है, परन्‍तु सहज रहना बहुत कठि‍न' ‑ रवीन्‍द्रनाथ टैगोर

रवीन्‍द्रनाथ टैगोर (1861 - 1941) ब्रह्म समाज के नेता देबेन्‍द्रनाथ टैगोर के सबसे छोटे पुत्र थे। वे कलकत्‍ता के एक धनी व प्रसि‍द्ध परि‍वार में पैदा हुए थे। उनके दादा ने एक वि‍शाल वि‍त्‍तीय साम्राज्‍य खड़ा कि‍या था। टैगोर ने आरंभि‍क शि‍क्षा पहले घर में शि‍क्षकों से प्राप्‍त की और उसके बाद वि‍भि‍न्‍न स्‍कूलों में। इनमें बंगाल अकादमी शामि‍ल है जहां उन्‍होंने इति‍हास और संस्‍कृति की शि‍क्षा प्राप्‍त की। उसके बाद वे कानून की पढ़ाई के लि‍ए यूनीवर्सि‍टी कॉलेज, लंदन गए, लेकि‍न मौसम रास न आने की वजह से एक साल बाद ही वापस आ गए।

जब वे बड़े हो गए तो उन्‍होंने अपनी साहि‍त्‍यि‍क गति‍वि‍धि‍यों के साथ‑साथ खानदानी जायदाद की भी देखभाल की, जि‍सके कारण लोगों से उनका नजदीकी संपर्क हुआ और सामाजि‍क सुधार के प्रति‍ उनकी रुचि‍ बढ़ी। उन्‍होंने शांति‍नि‍केतन में एक प्रायोगि‍क स्‍कूल भी शुरू कि‍या जहां उन्‍होंने अपने औपनि‍षदि‍क आदर्शों पर आधारि‍त शि‍क्षा आरंभ की।

टैगोर को अपने गृहराज्‍य बंगाल में जल्‍द ही सफलता मि‍ल गई थी। अपनी कवि‍ताओं के अनुवाद के कारण वे जल्‍द ही पश्‍चि‍मी देशों में जाने जाने लगे। वास्‍तव में उनकी प्रसि‍द्धि‍ प्रकाश की तरह हर तरफ फैल गई और वे व्‍याख्‍यान दौरों व दोस्‍ताना दौरों पर वि‍देशों में जाने लगे। पूरी दुनि‍या के लि‍ए वे भारत की आध्‍यात्‍मि‍क वि‍रासत के प्रतीक थे, और भारत के लि‍ए व खासतौर से बंगाल के लि‍ए वे महान जीती जागती संस्‍था के रूप में हो गए थे।

यद्यपि टैगोर ने साहि‍त्‍य की हर वि‍धा में कामयाबी के साथ लेखन कि‍या है लेकि‍न वे कवि‍ पहले थे, और कुछ बाद में। उनके पचास के आसपास काव्‍यसंग्रह हैं जि‍नमें मानसी (1890), शोनार तारी (1894), गीतांजलि (1910), गीतमाल्‍या (1914) और बालका (1916) हैं। उनकी जि‍न कवि‍ताओं का अनुवाद हुआ, उनमें दी गार्डनर (1913), फ्रूट‑गैडरिंग (1916), दी फ्यूजीटि‍व (1921), गीतांजलि‍:सॉंग ऑफरिंग्‍स (1912) को बहुत लोकप्रि‍यता मि‍ली। गीतांजलि‍:सॉंग ऑफरिंग्‍स जब प्रकाशि‍त हुई तो उनकी प्रसि‍द्धि अमेरि‍का और इंग्‍लैंड में फैल गई। इस कवि‍ता में अलौकि‍कता और मानवीय प्रेम की गाथा है। कवि ने स्‍वयं अपनी कवि‍ताओं का अंग्रेजी में अनुवाद कि‍या था।

टैगोर के प्रमुख नाटकों में राजा (1910), डाकघर (1912), अचलयातन (1912), मुक्‍तधारा (1922), रक्‍तकरावी (1926) शामि‍ल हैं। उनकी कहानि‍यों के कई संग्रह हैं और उपन्‍यासों की संख्‍या भी बहुत है। इनमें गोरा (1910), घरे‑बाइरे (1916), योगायोग (1929) शामि‍ल हैं। इन सबके अलावा उन्‍होंने संगीतमय नाटक, नृत्‍य नाटि‍काएं, सभी प्रकार के नि‍बंध, यात्रा डायरि‍यां और दो आत्‍मकथाएं लि‍खी हैं। इन दो आत्‍मकथाओं में से पहली उनकी प्रौढ़ावस्‍था और दूसरी 1941 में उनके देहावसान के कुछ पहले के वर्षों से संबंधि‍त हैं। टैगोर ने तमाम पेंटिंग्‍स और रेखाचि‍त्र भी बनाए हैं। उन्‍होंने गीत लि‍खे और उनकी धुनें भी तैयार कीं।

'जब बूझ ले कोई तुझे, तब कोई अजाना नहीं, बंद कोई दरवाजा नहीं। हे, पूरी कर प्रार्थना मेरी कि‍ दुनि‍या के मेले में कभी न भूलूं मैं सि‍मरन तेरा।'

(गीतांजलि से)

टैगोर एक समर्पि‍त शि‍क्षावि‍शारद थे और उन्‍होंने अपनी रि‍यासत शांति‍नि‍केतन में पूर्वी और पश्‍चि‍मी दर्शनों की मि‍लीजुली शि‍क्षा देने के लि‍ए 1901 में एक स्‍कूल स्‍थापि‍त कि‍या था। सन् 1921 में उनके स्‍कूल का वि‍श्‍व भारती के रूप में अंतर्राष्‍ट्रीय वि‍स्‍तार हुआ। उन्‍होंने पूरी दुनि‍या की यात्रा की और व्‍याख्‍यान दि‍ए। वि‍श्‍व भारती पश्‍चि‍मी और भारतीय दर्शन व शि‍क्षा का महत्‍वपूर्ण केंद्र था और 1921 में वह वि‍श्‍ववि‍द्यालय बन गया।

1890 में टैगोर पूर्वी बंगाल (वर्तमान में बांग्‍लादेश) चले गए, जहां उन्‍होंने कि‍म्‍वदंति‍यों और लोक कथाओं का संकलन कि‍या। उन्‍होंने 1893 और 1900 के मध्‍य कवि‍ताओं के सात खंड लि‍खे जि‍नमें शोनार तारी (1894), खनि‍का (1900) और नश्‍तानीर (1901) शामि‍ल हैं जो पहले धारावाहि‍क रूप में प्रकाशि‍त हुईं। यह समय टैगोर का अत्‍यंत सृजनशील समय था और उन्‍हें 'बंगाल का शैली' के रूप में जाना जाने लगा था जो एक भ्रामक संज्ञा थी।

टैगोर आधुनि‍क भारतीय साहि‍त्‍य के महानतम लेखक, बंगाल के कवि‍, उपन्‍यासकार और भारत की आजादी के आरंभि‍क समर्थक थे। उन्‍हें 1913 में अपने काव्‍य गीतांजलि के लि‍ए साहि‍त्‍य का नोबेल पुरस्‍कार प्रदान कि‍या गया। इसके दो वर्षों बाद उन्‍हें 'सर' की उपाधि प्रदान की गई जि‍से उन्‍होंने 1919 में अमृतसर के जालि‍यॉंवाला बाग नरसंहार के वि‍रोध में वापस कर दि‍या था। गांधी और आधुनि‍क भारत के संस्‍थापकों के ऊपर टैगोर का बहुत प्रभाव था लेकि‍न पश्‍चि‍म में उनकी छवि‍ रहस्‍यवादी आध्‍यात्‍मि‍क व्‍यक्‍ति‍ की थी जि‍सके कारण पश्‍चि‍मी देशों के पाठक शायद उनकी उपनि‍वेशवाद के आलोचक और सुधारक की भूमि‍का को नहीं देख पाते।

70 वर्ष की आयु में टैगोर ने पेंटिंग करना शुरू कि‍या। वे संगीतकार भी थे और उन्‍होंने सैकड़ों कवि‍ताओं का संगीत तैयार कि‍या। उनकी कई कवि‍ताएं वास्‍तव में गीत हैं और संगीत से इन गीतों का रि‍श्‍ता अटूट है। टैगोर का गीत 'आमार शोनार बांग्‍ला' बंग्‍लादेश का राष्‍ट्रगान है। जो कुछ भी उन्‍होंने लि‍खा है, उसे अब तक पूरी तरह संकलि‍त नहीं कि‍या जा सका है। बहरहाल, ये लगभग 30 खंडों के बराबर हैं। टैगोर 1920 के दशक तक पश्‍चि‍म में प्रख्‍यात और लोकप्रि‍य लेखक के रूप में जाने जाते रहे हैं।

भारतीय साहि‍त्‍य पर टैगोर की कहानि‍यों का बहुत प्रभाव पड़ा है। उनकी कहानी 'दण्‍ड' गांव की पृष्‍ठभूमि पर आधारि‍त है और इसे हर तरह के कहानी संकलनों में सम्‍मि‍लि‍त कि‍या जाता रहा है। इसमें कमजोर जाति‍ के रुई खानदान की त्रासदी के जरि‍ए औरतों के उत्‍पीड़न को पेश कि‍या गया है। टैगोर की प्रमुख वि‍षयवस्‍तु मानव द्वारा ईश्‍वर और सत्‍य की खोज से संबंधि‍त है।

1916 और 1941 के बीच टैगोर के गीतों और कवि‍ताओं के 21 संकलन प्रकाशि‍त हुए। इसके साथ ही उन्‍होंने यूरोप, अमेरि‍का, चीन, जापान और इंडोनेशि‍या के व्‍याख्‍यान दौरे कि‍ए। सन् 1924 में उन्‍होंने देश के सांस्‍कृति‍क केंद्र वि‍श्‍व भारती वि‍श्‍ववि‍द्यालय का शांति‍नि‍केतन में उद्घाटन कि‍या।

टैगोर ब्रि‍टि‍श राज के अधीन भारत की सामाजि‍क‑राजनैति‍क स्‍थि‍ति से गहराई से परि‍चि‍त थे। उन्‍होंने स्‍वदेशी आंदोलन का समर्थन कि‍या और वे 19वीं शताब्‍दी के भारत के धार्मि‍क पुनर्रुत्‍थान से बहुत गहरे प्रभावि‍त थे। दुर्भाग्‍य से 1902 और 1907 के बीच टैगोर ने अपनी पत्‍नी, बेटे और बेटी को खो दि‍या। इस दुख से उनकी कुछ अत्‍यंत संवेदनशील कवि‍ताएं पैदा हुईं। मि‍साल के तौर पर गीतांजलि जो 1910 में प्रकाशि‍त हुई थी। टैगोर वास्‍तव में एक देशभक्‍त थे जि‍न्‍होंने राष्‍ट्रीय आंदोलन का समर्थन कि‍या था। उन्‍होंने 'जन गण मन' की रचना की जो आज भारत का राष्ट्रगान है।

टैगोर की कृति‍यॉं उत्‍कृष्‍ट साहि‍त्‍य की कोटि में आती हैं। वे अपनी लयात्‍मक सुंदरता और आध्‍यात्‍मि‍क मार्मि‍कता के लि‍ए प्रसि‍द्ध हैं। टैगोर अपनी साहि‍त्‍यि‍क मेधा के लि‍ए याद कि‍ए जाते हैं और शांति‍नि‍केतन आज प्रगति के मार्ग पर बढ़ता जा रहा है। टैगोर के अपने शब्‍दों में, 'वि‍श्‍व मुझसे रंगों में प्रश्‍न करता है और मेरा आत्‍मा संगीत में उत्‍तर देता है।' आजाद जलधारा के रूप में बहने वाली उनकी कवि‍ताओं की गहरी प्रतीकात्‍मकता एक ऐसे सुंदर ब्रह्माण्‍ड का सृजन करती है जहां ईश्‍वर का असीम प्रेम और सभी सुंदर चीजों के प्रति मानवता की गहरी संवेदना व्‍यक्‍त होती है।

कवि रवीन्‍द्रनाथ टैगोर को 'गुरुदेव' के रूप में जाना जाता है। उन्‍होंने भारत की आध्‍यात्‍मि‍क धरोहर को आत्‍मसात कि‍या था, और इसे उन्‍होंने अपनी अनुपम भाषा में व्‍यक्‍त कि‍या। वे हमारे महान देशभक्‍तों में से थे और उन्‍होंने शैक्षणि‍क, आर्थि‍क और राजनैति‍क रूप से सदैव अपने देशवासि‍यों के कल्‍याण को प्रोत्‍साहन दि‍या। वे ऐसे महापुरुष थे जि‍सने चि‍त्रकला, संगीत, नृत्‍य और नाटक के वि‍कास में शानदार योगदान कि‍या। उन्‍होंने संसार के कई देशों का कामयाब दौरा कि‍या और हर जगह उभरते हुए भारत का संदेश पहुंचाया।

-तड़ि‍त मुखर्जी

 

 


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फीजी - राजकुमार अवस्थी

प्रकृति-सुंदरी का अंत:पुर
फीजी नंदन-वन लगता है।

सागर की उत्ताल तरंगें ......

 
 
दिवाली वर्णन  - सोमनाथ

सरस दरस की दिवाली मान आजम खाँ,
राजत मनोज की निकाई निदरत हैं। ......

 
 
लौट रहा हूँ गांव - अमलेन्दु अस्थाना

चलो ये शहर तुम्हारे नाम करता हूँ,
यहां के लोग मेरे हुए,......

 
 
सड़कें खाली हैं - डॉ साकेत सहाय

 

सड़कें खाली हैं
सूनी हैं......

 
 
रोटी की कीमत  - महेन्द्र देवांगन 'माटी'

रोजी रोटी पाने खातिर, भटके सारे लोग ।
कोई बंदा भूखा सोता, कोई छप्पन भोग।।

दिन रात मेहनत करते हैं, पाते हैं तब चैन ।......

 
 
सात कविताएँ - डॉ. वंदना मुकेश

परिचय

परिचय के
कई पन्ने पढ़ लिये,......

 
 
नव वर्ष 2021 - राजीव कुमार गुप्ता

नव उमंग नव कलरव ध्वनि से
नए साल का हो सत्कार......

 
 
मीठी यादें बचपन की  - मोनिका वर्मा

बचपन के वो दिन बड़े याद आते है..
उन यादों में हम अक्सर खो जाते है......

 
 
पीपल की छांव में  - उत्तरा गुरदयाल

पीपल की छांव में
अपने गाँव में ......

 
 
यादें - सुएता दत्त चौधरी

तुमसे जुदा हो कर
कम हुई है मेरी मुस्कान ......

 
 
जै-जै कार करो - अजातशत्रु

ये भी अच्छे वो भी अच्छे
जै-जै कार करो ......

 
 
मॉरीशस के चार कवियों की कविताएँ - भारत-दर्शन संकलन

बापू के संदेश

हे बापू!
देते है रोज़, ......

 
 
अभिलाषा - राजकुमारी गोगिया

दीप की लौ सा लुटा कर प्यार अपना
पा नहीं पायी हूँ अब तक प्यार सपना,......

 
 
भला क्या कर लोगे? - डॉ. शैलेश शुक्ला

है हर ओर भ्रष्टाचार, भला क्या कर लोगे
तुम कुछ ईमानदार, भला क्या कर लोगे ?

दूध में मिला है पानी या पानी में मिला दूध......

 
 
स्काइप की डोर  - गुलशन सुखलाल

जिस दिन नेटवर्क नहीं मिलता
उस दिन का खाना ......

 
 
कविता सतत अधूरापन  - कविता वाचक्नवी

कविता........!
सतत अधूरापन है......

 
 
इस महामारी में - डॉ. मनीष कुमार मिश्रा

इस महामारी में
घर की चार दिवारी में कैद होकर......

 
 
चाह  - श्रीमन्नारायण अग्रवाल

चाह नहीं मुझको सुनने की,
मोहन की बंसी की तान,......

 
 
नारी - अमिता शर्मा

नारी तुम बाध्य नहीं हो,
हाँ, नहीं हो तुम बाध्य--......

 
 
जड़ें - ममता मिश्रा 

जड़ों में गढ़ के पड़े रहने से 
नवांकुर नहीं फूटते ......

 
 
इस महामारी में  - डॉ मनीष कुमार मिश्रा

इस महामारी में
घर की चार दिवारी में कैद होकर......

 
 
बकरी  - हलीम आईना

आदर्शों के 
मेमनों की......

 
 
हे कविता - मनीषा खटाटे

हे कविता!
हर रात सोते समय,......

 
 
ओ मेरी साँसों के दीप ! - अशोक दीप

विश्व सदन की जोती बनकर
जले सदा तू तारों बीच ।......

 
 
प्रेम की चार कवितायें - डॉ मनीष कुमार मिश्रा

जो भूलती ही नहीं

प्याज़ी आखोंवाली
वह साँवली लड़की......

 
 
तुलसी के प्रति  - रामप्रसाद मिश्र 
ओ महाकवे ! क्‍या कहें तुम्हें, 
ऋषि? स्रष्टा? द्रष्ठा? महाप्राण? ......
 
 
मेरे हिस्से का आसमान - प्रो॰ बीना शर्मा

मेरे हिस्से का आसमान
कुछ ज्यादा ही ऊँचा हो गया है,......

 
 
मैं लड़ूँगा - डॉ. सुशील शर्मा

मैं लड़ूँगा यह युद्ध
भले ही तुम कुचल दो......

 
 
मदन डागा की दो कविताएँ - मदन डागा

कुर्सी

कुर्सी
पहले कुर्सी थी......

 
 
पैसा - डॉ. परमजीत ओबराय

पैसे के पीछे -
मनुष्य भाग रहा ऐसे,......

 
 
गोरख पांडेय की दो कविताएं - गोरख पांडेय

आँखें देखकर

ये आँखें हैं तुम्हारी
तकलीफ़ का उमड़ता हुआ समुन्दर......

 
 
कैसी लाचारी - अश्वघोष

हाँ! यह कैसी लाचारी
भेड़ है जनता बेचारी ......

 
 
तेरा रूप | षट्पद - गुरुराम भक्त

देखा है प्रत्यंग तुम्हारा, जो कहते थे;
जो सेवक-से साथ सर्वदा ही रहते थे; ......

 
 
इन्द्र-धनुष - मंगलप्रसाद विश्वकर्मा

घुमड़-घुमड़ नभ में घन घोर,
छा जाते हैं चारों ओर......

 
 
प्रणम्य काशी - डॉ॰ सुशील शर्मा

(काशी पर कविता)

मृत्युञ्जय का घोष
परम् शिव की सत्ता से आप्लावित......

 
 
बिटिया रानी - विनोद कुमार दूबे

मेरे घर लौटने पर,
जब तुम दौड़कर मेरे गले लग जाती हो,......

 
 
गणतंत्र-दिवस - ज्ञानेंद्रपति

यह इनका गणतंत्र-दिवस है
तुम दूर से उन्हें देख कहोगे......

 
 
रौद्रनाद - गिरेन्द्रसिंह भदौरिया "प्राण"

हे पाखण्ड खण्डिनी कविते ! तापिक राग जगा दे तू।
सारा कलुष सोख ले सूरज, ऐसी आग लगा दे तू।।......

 
 
सबके बस की बात नहीं है - गिरेन्द्रसिंह भदौरिया

प्यार भरी सौगात नहीं यह, कुदरत का अतिपात हुआ है ।
ओले बनकर धनहीनों के, ऊपर उल्कापात हुआ है।। ......

 
 
दिल्ली पर दो कविताएं  - वेणु गोपाल और विष्णु नागर

कवि दिल्ली में है
(विष्णु नागर की कविता के प्रति आभार सहित )

कवि......

 
 
रह जाएगा बाकी... - नमिता गुप्ता 'मनसी'

एक न एक दिन खत्म हो जाएंगे ये रास्ते भी
रह जायेगा बाकी..'मिलना' किसी का ही !

यूं तो कह ही दिया था 'सब कुछ'.. बहुत कुछ......

 
 
मेरा सफ़र - संजय कुमार सिंह

जाह्नवी उसे मत रोको
जाने दो मेरी यादों के पार......

 
 
पारित प्रस्ताव - पद्मेश गुप्त

चर्चों पर चर्चे भी बहुत हो गये
पर्चों पर पर्चे भी बहुत हो गये ......

 
 
दैवीय रूप नारी - गिरेन्द्र सिंह भदौरिया 'प्राण'

जो प्रेमशक्ति की मायावी ,
जाया बनकर उतरी जग में।......

 
 
यह कैसा दौर है - सोम नाथ गुप्ता

वो मिट्ठा ज़बान का
मैं कड़वा करेला......

 
 
मँजी - मधु खन्ना

आज बरसो बाद मुझ को लगा
मैं अपनी दादी के संग सोई ......

 
 
तीन कविताएं  - डॉ सुशील शर्मा

क्या होती है स्त्रियाँ?

घर की नींव में दफ़न
सिसकियाँ और आहें हैं स्त्रियाँ।......

 
 
ग़ज़लें ही ग़ज़लें - भारत-दर्शन संकलन

ग़ज़लों का संकलन।


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बाल-कविता संकलन - भारत-दर्शन संकलन

बाल-कविताओं का संग्रह [Poetry for Kids]

इस संकलन में ऐसी बाल कविताएँ सम्मिलित हैं जो पूरी तरह से बाल मनोविज्ञान के अनुरूप हैं। यहाँ लोकप्रिय कवियों द्वारा बच्चों के लिए लिखी गई प्रसिद्ध बाल कविताएं प्रकाशित की गई हैं। हमारा प्रयास है कि बच्चों के लिए यहाँ ऐसी सामग्री प्रकाशित की जाएं जो बच्चों के लिए रूचिकर व सरल हों।

यहाँ कबीर, सूर, रैदास, रहीम, रबीन्द्रनाथ, संत तुकड़ोजी, श्रीधर पाठक, मैथिलीशरण गुप्त, अयोध्यासिंह उपाध्याय, निरंकारदेव, दिनकर, सुभद्राकुमारी, भगवतीचरण वर्मा, हरिवंशराय, सोहनलाल द्विवेदी, चिरंजीत, शरतचंद्र, पुरुषोत्तम तिवारी, जयप्रकाश भारती, प्रकाश मनु,  क्षेत्रपाल, आनन्द विश्वास इत्यादि का बाल काव्य (Hindi poetry for kids) प्रकाशित किया गया है।

बाल कथाएंबाल कहानियाँ पढ़ने के लिए बाल-कहानी पृष्ठ देखें।

यदि आप बाल साहित्य का सृजन करते हैं तो अपनी रचनाएं अवश्य हमें भेजें।


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बाल कथा-कहानी संकलन - भारत-दर्शन संकलन

बाल कथा-कहानी संकलन 

हिन्दी साहित्य में बाल साहित्य की परम्परा बहुत समृद्ध है। पंचतंत्र की कथाएँ बाल साहित्य का एक महत्वपूर्ण स्रोत हैं।

Baal Shitya

बाल कथा-कहानी संकलन में मुंशी प्रेमचंद, रबीन्द्रनाथ ठाकुर, सुदर्शन, निराला, महादेवी वर्मा, जयशंकर प्रसाद, भगवतीप्रसाद वाजपेयी, हरिवंश राय बच्चन, सुभद्राकुमारी चौहान, विष्णु प्रभाकर की बाल कहानियों के अतिरिक्त कई अन्य रोचक बाल-कहानियाँ संकलित की गई हैं। आप पाएंगे की यहाँ प्रकाशित अधिकतर सामग्री केवल 'भारत-दर्शन' के प्रयास से इंटरनेट पर अपनी उपस्थिति दर्ज कर रही है।

बाल कविताएं पढ़ने के लिए बाल-काव्य पृष्ठ देखें।

पंचतंत्र की कहानियाँ भी देखें।

अकबर-बीरबल पढ़िए।

शेखचिल्ली के कारनामें पढ़िए।

लोक कथाएँ पढ़ें।

यदि आप बाल साहित्य का सृजन करते हैं तो अपनी रचनाएं अवश्य हमें भेजें।


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संत अलवार की झोपड़ी - आचार्य विनोबा

संत अलवार की झोपड़ी में उसके सोनेभर की ही जगह थी। बारिश हो रही थी। किसी ने दरवाजे को खटखटाते हुए पूछा, "क्या अंदर जगह है?"

उसने जवाब दिया, "हां, यहां पर एक सो सकता है, पर दो बैठ सकते हैं। जरुर अंदर आइये।"

उसने उस भाई को अंदर ले लिया और दोनों बैठे रहे। इतने में तीसरा व्यक्ति आया और पूछने लगा, "क्या अंदर जगह है?"

संत अलवार ने जवाब दिया, "हो, यहां, पर दो तो बैठ सकते हैं, पर तीन खड़े हो सकते हैं। आप भी आइये।"

उसने उस भाई को भी अंदर बुला लिया और तीनों रातभर कोठरी में खड़े रहे।

उसने अगर यह कहा होता कि, "समाजवाद तो तब होता, जब मेरा मकान बड़ा होता और तभी आपको जगह दी जाती," तो क्या उसे यह शोभा देता? या अगर वह यह कहता कि, "मेरी कोठरी छोटी है, मेरे अकेले के ही सोने लायक है, इस हालत में मैं इसे कैसे बांट सकता हूं, अत: अन्य किसी के पास जाइये।" तो वह ‘संत अलवार' नहीं बनता। वह एक सामान्य नीच मनुष्य ही होता, जिसे मनुष्य कहना भी मुश्किल है।

 

- आचार्य विनोबा भावे

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लिखना ज़रूरी है... - डॉ॰ साकेत सहाय

मैं बहुत कम कविताएँ लिखता हूँ, आज एक उपहार लिफाफ़े पर इस सुंदर हस्तलेखनी को देखा तो मन में कुछ भाव आए।
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स्वर किसका? - डॉ प्रेम नारायण टंडन

ईश्वर की खोज करते-करते हारकर जीव ने कहा - बड़ी मूर्खता की मैंने जो उस निराकार को पाने की आशा से अब तक भटकता फिरा ।

तभी उसे सुनाई दिया - पगले, तेरे खोज में लगने के पूर्व से ही मैं तेरे साथ हूं । तुझे फुर्सत भी तो मिले मुझे देखने की !

और जीव ईश्वर को सुनता तो है, पर पहचानता नहीं । वह आज भी चकित होकर सोचता है यह स्वर किसका है!

- डॉ प्रेम नारायण टंडन

 


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सांईं की कुण्डलिया - सांईं

सांईं बेटा बाप के बिगरे भयो अकाज। 
हरिनाकस्यप कंस को गयउ दुहुन को राज॥ 
गयउ दुहुन को राज बाप बेटा में बिगरी। 
दुश्मन दावागीर हँसे महिमण्डल नगरी॥ 
कह गिरधर कविराय युगन याही चलि आई। 
पिता पुत्र के बैर नफ़ा कहु कौने पाईं॥

सांईं बैर न कीजिये गुरु पण्डित कवि यार।
बेटा बनिता पौरिया यज्ञ करावन हार॥ 
यज्ञ करावन हार राजमन्त्री जो होई। 
विप्र परोसी वैद्य आप को तपै रसोई॥ 
कह गिरधर कविराय युगन से यह चलि आई। 
इन तेरह सों तरह दिये बनि आवे सांईं॥

सांईं ऐसे पुत्र ते बाँझ रहे बरु नारि। 
बिगरी बेटे बाप से जाइ रहे ससुरारि॥
जाइ रहे ससुरारि नारि के हाथ बिकाने। 
कुल के धर्म नसाय और परिवार नसाने॥  
कह गिरधर कविराय मातु झंखे वहि ठाईं। 
असि पुत्रिन नहिं होय बांझ रहतिउँ बस सांईं।

सांईं तहाँ न जाइए जहाँ न आपु सुहाय। 
वरन विषै जाने नहीं, गदहा दाखै खाय॥ 
गदहा दाखै खाय गऊ पर दृष्टि लगावै। 
सभा बैठि मुसकाय यही सब नृप को भावै॥
कह गिरधर कविराय सुनो रे मेरे भाई। 
तहाँ न करिये बास तुरत उठि अइये सांईं॥

-सांईं


विशेष: सांईं गिरिधर कविराय की स्त्री थीं। गिरिधर जी के नाम से मशहूर कुण्डलियाँ दो प्रकार की हैं-- एक वे जिनमें सांई शब्द है और दूसरी जिनमें साँई शब्द नहीं है। अनुमान है कि सांईं शब्द वाली कुण्डलियाँ कविराज गिरिधर की नहीं बल्कि उनकी पत्नी सांईं की हैं। उन्हीं की कुछ कुण्डलियाँ यहाँ उद्धृत की गई हैं।


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बड़प्पन    - क्षेत्रपाल शर्मा

उनके बड़प्पन को मैं हमेशा कोसता रहा,
पता ही न लगा कि वे कितने बड़े थे,
ऊपर से, या नीचे से,
आगे से या पीछे से,
पेट तो उनका महा भक्षणी,
सिर उनका सड़ा हुआ था,
वे पूरे सरोवर को गंदा किए हुए,
एक कालिया नाग।

आपके बल का बैरोमीटर ये है
कि आपने निर्बल को
नोचा,लूटा खसोटा या
उसे लोमड़ी, बाज, गीदड़ और
गिद्धों से बचाया॥

- क्षेत्रपाल शर्मा, भारत
  ई-मेल: kpsharma05@gmail.com


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विदा होता है वह - विदा होता है वह | कविता

मेरी हथेली पर छोड़ कर
अपने गर्म होंठों के अहसास
मेरे साथ खुद को भी बहलाता है
तब विदा होता है वह
मैं अन्यमनस्क सी
देखती हूँ अपनी हथेली
वक्त के रुकने की दुआ करती सी
वक्त और तेज़ी से भागने लगता है
और फिर
धीरे से मेरा हाथ मेरी गोद में रखकर,
हौले से पीठ थपथपाता है
फिर विदा होता है वह।

बढ़ता, गहराता, इठलाता, खूबसूरत प्रेम
जो मेरे बदन से लिपटी
रेशमी साड़ी सा ‘मुलायम,
घर में बिछे क़ालीन सा शालीन,
भारी-भरकम वेलवेट के गद्दों सा गुदगुदा एहसास
और
मेरी हथेली पर नमी
ये सब बिखरा कर जाता है
जब विदा होता है वह।

इमली के पेड़ पर उड़ती चिड़िया,
आवारा ख्वाब बुनती दो जोड़ी आँखें
मूक गीत गुनगुनाता है
यूं विदा होता है वह
कहीं नहीं जा पाता
पर विदा होता है वह।

-सुनीता शानू, भारत 

 


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अनुपमा श्रीवास्तव 'अनुश्री' की दो कविताएं - अनुपमा श्रीवास्तव 'अनुश्री'

मेह मधुराग

यूँ तो कई गीत
गुनगुनाता है 
गाता है मौसम
बारिश  में सबसे 
मधुरम गीत 
सुनाता है मौसम।

कि  इन बूँदों में
चैतन्य हो रहा
प्रभु का नर्तन 
धुले-धुले पल्लव 
खिले खिले प्रसून
जैसे  हैं श्री चरणों
में अर्पण। 

भीगी रुत में रमा 
मन ख़ुद को ही
पुकार उठता है 
अवार्चीन भावों से
शृंगार कर
निखर जाता है 
बूँद-बूँद जैसे
दस्तक़ देती
है मन पर
और हिलोरे लेती
हैं तन पर।

इन आत्मीय के
आतिथ्य को
पलक-पांवड़े 
बिछाए रहते हैं नयन
साँसों में बजते हैं मृदंग
मनमयूर नृत्य को बेचैन
झर-झर अंजोर बूँदें
जैसे चमकता साज़
बिखर अवनि पर
छेड़ जाती हैं मधुराग।
 
अवनि से अंबर के
जुड़ाव  की  ये
सम्मोहक डोर 
मनहर पावस का 
पावन उत्सव हर ओर।

 

सोलह कला

जितनी भी हैं, जहाँ भी हैं
कलाओं से ही ज़िंदगी है।
विस्तार है उस अनंत का
कलाओं के रूप में
कितनी बेरौनक निस्तेज
ज़िंदगी है कलाओं के बिना।

कला के प्रणेता से अनुग्रहीत 
इन पलों को साँसें मिलती हैं 
तमन्नाओं की चंद कलियाँ खिलती हैं 
कलाओं में रच-बस जाती है
सृजनशीलता की मधुर खुशबू
निखर-निखर, बिखर जाती है 
उसी तरह उन्मुक्त मासूम
झरने सी निर्दोष हँसी भी
किसी कला से कम नहीं
जिंदगी को रोशन कर
देती है झिलमिला के।

-अनुपमा श्रीवास्तव  'अनुश्री'
  ई-मेल -ashri0910@gmail.com


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कह मुकरियाँ - स्मिता श्रीवास्तव

बगिया में है एकछत्र राज
इत्र की दुनिया का सरताज
गुलदस्ते में अलग रुआब
क्या सखि साजन न सखि गुलाब

नदिया में वह सैर कराये
वर्षा हो तो खूब इतराये 
जिधर का रुख हो उधर बहाव
क्या सखि साजन न सखि  नाव 

प्राणी जगत ताप से व्याकुल
हर पल गर्मी करती आकुल
तपते तन मन का रखे ख्याल
क्या सखि साजन न सखि तरणताल 

-स्मिता श्रीवास्तव
 भारत


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अंबर दीप जलाता है - डॉ कुमारी स्मिता

दिन भर चलते-चलते थककर
सूरज जब छुप जाता है 
रात की काली चादर पर 
अंबर दीप जलाता है। 

जगमग करते असंख्य तारे
हाथ पकड़कर आते हैं
आंखमिचौली करते छत पर
कभी दिखते, कभी छुप जाते हैं।

राह कोई भी चलें हम
पथ-प्रदर्शन  करते हैं,
नैसर्गिक सौंदर्य लिए
आसमान पर खिलते हैं। 

-डॉ कुमारी स्मिता
 भारत


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न संज्ञा, न सर्वनाम - शंभू ठाकुर

मैं हूँ-- 
न संज्ञा, न सर्वनाम,
वर्णाक्षरों के भीड़ में,
शायद कोई 
मात्रा गुमनाम!

मैं हूँ-- 
न उद्भव, न पराभव
शायद अबोध निस्पंदन, 
त्वरित संग्राम!

मैं हूँ--
न स्वर, न व्यंजन
स्फुरित संकल्पों के मध्य, 
कुलबुलाता अल्पविराम!

मैं हूँ-- 
न जय, न पराजय
उत्सव के छणों को निहारता, 
अव्यक्त स्वर संधान!

-शंभू ठाकुर
ई-मेल: ester_thakur@yahoo.co.in


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नून-तेल की खोज में - नेतलाल यादव

सफ़र की पिछली रात
हरिया को नींद नहीं आई,
उठ गया, अहले सुबह
भर लिया, सारा कपड़ा
अपनी पुरानी थैली में,
खा लिया, भात और चटनी। 

माँ ने डाल दिया, बोतल में पानी
पत्नी ने बना दी रोटियाँ,
जाना है, सफ़र में आज
लगा लिया, दही का टीका,
छू लिया, बाबू जी का पैर
चल पड़ा, सफ़र की ओर। 

माँ, पत्नी, बहन सड़क तक आईं 
संग में आया, बेटा भी,
गाड़ी में चढ़ने से पहले
चूमा बेटा के गाल को, कई बार
पता नहीं, कितने महीने बाद
लौटेगा वह, घर-द्वार। 
उधर ड्राइवर बजा रहा था
अपनी गाड़ी का हॉर्न,
जैसे ट्रेन चलने से पहले
बजाती है, जोरों से सिटी। 

उदासी को छिपाता हुआ, चढ़ा बस में
एक हाथ में टिकट है,
दूसरे में गठरी है
कन्धे पर जिम्मेदारी का बोझ। 

मन में भरी हैं उम्मीदें
उम्मीदों में, बच्चों की पढ़ाई
बुजुर्गों की दवाई
लेकर चला है, घर से दूर
कल पहुँचते ही, पहले की तरह
लग जाना है, उसी चौराहे पर
नून-तेल की खोज में।   

-नेतलाल यादव
 ई-मेल: netlaly@gmail.com    


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मुकरियाँ  - गौतम कुमार “सागर”

चिपटा रहता है दिन भर वो
बिन उसके भी चैन नहीं तो
ऊंचा नीचा रहता टोन
ए सखि साजन? ना सखि फोन!

इसे जलाकर मैं भी जलती
रोटी भात इसी से मिलती
ये बैरी मिट्टी का दूल्हा
ए सखि साजन? ना सखि चूल्हा!

डार-डार औ' पात-पात की
खबरें रखे हजार बात की
मानों कोई जिन्न की बोतल
ए सखि साजन? ना सखि गूगल!

उसके बिन है जीवन मुश्किल
चलो बचाएं उसको हम मिल
जीवन की रसमय वो निशानी
ए सखि साजन? ना सखि पानी। 

-गौतम कुमार “सागर”
 ई-मेल: gsagar6@gmail.com


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माँ के बाद पिता - विनोद दूबे

माँ मर गयी तो पिता यूँ हो गए, 
जैसे दो में से एक नहीं, सिर्फ शून्य शेष रह गया,
माँ, पिता और बच्चों के संबाद का पुल थी,  
अब पिता अकसर ख़ामोश रहते हैं,
माँ के साथ उनका वो पुल भी बह गया। 

माँ थी, तो पिता नज़र आते थे,
माँ के साथ बेतुके बहस करते, 
मुस्कराते हुए माँ के ताने सुनते,
अपने पुराने टेप रिकॉर्डर पर, 
हेमंत कुमार के गाने सुनते,
कभी-कभार पीली साड़ी पहने, 
माँ पिता के सामने आ जाती थी,
तो पिता उसे ग़ौर से देखते, 
वो उनके गाँव के 
सरसों की याद दिलाती थी। 

सिर्फ माँ को पता होता था, 
पिता के चाय का बख़त,
सिर्फ वही जान पाती थी, 
उनका स्वादानुसार नमक, 
माँ अपने सांथ उड़ा ले गयी है, 
पिता के किरदार के सारे रंग,
यूँ जी रहे है जिंदगी आजकल, 
जैसे हो चला हो इससे मोहभंग। 

जिन दोस्तों के लिए माँ ताने देती थी,  
आज-कल उनसे भी मिलने नहीं जाते हैं,
हेमंत कुमार के गाने कब से नहीं बजे,  
सिर्फ भजन कीर्तन में वक्त बिताते है,
किसी पुरानी वीडियो रिकॉर्डिंग में, 
जब माँ चलते फिरते दिखती है,
तो पिता की आँखें स्थिर हो जाती हैं, 
उनसे कुछ कहा नहीं जाता, 
सिर्फ उनकी नाराज़ आँखें 
सवाल कर पाती हैं--

तुमने मुझे क्यूँ धोखा दिया? 
मैंने तो तुमसे किया हर वादा निभाया था,
मुझे यूँ अकेले छोड़कर चली गयी, 
क्या इसी के लिए मैं तुम्हे ब्याहकर लाया था,
कभी चाय मिलने में देर होती है, 
तो माँ की तस्वीर की तरफ़ 
देखकर यूँ बुदबुदाते हैं, 
लगता है जैसे माँ यहीं कहीं है,
माँ के बाद पिता होकर भी,
हमारे साथ नहीं, नहीं हैं। 

- विनोद दूबे, सिंगापुर


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बचपन बीत रहा है - योगेन्द्र प्रताप मौर्य

नचा रही मजबूरी यहाँ
अँगुलियों पर,
ध्यान किसी का जाता नहीं
सिसकियों पर।

इतनी कच्ची वय में कितने
काम कराती है,
दुनिया जालिम हाथों में
औजार थमाती है,
खिल पायेंगे कैसे फूल
टहनियों पर?

पेट पालने खातिर रामू
कष्ट उठाता है,
सर पर इतना बोझ रखा है
हँस कब पाता है,
लगी हुई पाबंदी इसकी
खुशियों पर?

दीवारों पर श्रम-निषेध के
पोस्टर चिपके हैं,
किंतु दुर्दशा ऐसी,इनके
चिथड़े लटके हैं,
बचपन बीत रहा है रोज
चिमनियों पर।

--योगेन्द्र प्रताप मौर्य
  ग्राम व पोस्ट-बरसठी, जनपद-जौनपुर, उ० प्र०- 222162, भारत
  ई-मेल: yogendramaurya198384@gmail.com


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निःशब्द कविता - डॉ अनीता शर्मा

उधर गगन में 
सूरज की बिंदी 
नीले नभ में 
तैरते बादल
बादलों के बीच 
उड़ते परिंदे।  
इधर झील में
खिले कमल 
मंद पवन 
निश्चल बन 
निहारती 
केवल मौनता 
कोई रच गया 
निःशब्द कविता। 

-डॉ अनीता शर्मा, चीन  


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नारी - रति चौबे

कहते मुझे नारी
लता सी कोमल
जहां मिला ठोस आधार
लता सी विश्वास कर
लिपटती जाऊं
जड़े मेरी परिपक्व
छोड़ूं ना वो स्थल
पर--
निशब्द
मूक
अशक्त
नहीं मैं
अद्भुत ईश्वरीय कृति हूँ--
महारानी बन शासन
करूं मै--
बनूं कोमलाग्नि लावण्या
पुरुषों को करूं मौन
विधोत्तमा बन रचूं मैं--
पुस्तकें
रहूं घूंघट की ओट में
मांथे पे लागा बिंदी
गृहिणी सी लजाती
माँ, भार्या, भगिनी, पुत्री
प्रेमिका बनी
पर रही बस नारी
मुझे रच विधाता
चकरा गया
जो ना कटे आरि से
ऐसी बनी मैं नारी
बस, नारी

-रति चौबे, भारत


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डॉ दिविक रमेश की पाँच कविताएं  - दिविक रमेश 

दो बच्चे


दो बच्चे 

  
एक बच्चा खेल रहा है 
दूसरा 
खिला रहा है। 

एक 
ले रहा है मजा, 
दूसरा 
घर चला रहा है।


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नहीं आया 

   
अब जो नहीं भाया तो नहीं भाया।
मतलब औरों की गिराकर अपनी लगाना
सीढ़ी।
अब जो नहीं आया तो नही आया।

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ईंट और ईंट 

उसने ईंट को 
ईंट कहा 
और बुनियाद में चिन दिया।

उसने ईंट को 
हथियार कहा 
और 
किसी के सिर पर 
जड़ दिया।

#


ऐसी-तैसी 

कसम खाने से ही अगर
आना है यकींन 
तो ऐसी-तैसी ऐसे यकींन की। 

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लपक ही लेता
     
आकर्षक तो बहुत हैं फल
कि लपक लूं सारे।

लपक ही लेता
अगर नहीं पढ़ी होती
दैत्यों की कहानियां, किस्से चुडैलों के
बावजूद इस शक के
कि होते भी हैं कि नहीं वे।

--दिविक रमेश 
[ बुरी खबर के बावजूद ]


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मेरी मधुशाला | कविता  - टीकम चन्दर ढोडरिया 

अनुभव की भट्टी में तपकर,
बनी आज मेरी हाला।
खट्टा-मीठा कड़ा-कसैला,
रस इसमें मैंने डाला।
      मुस्कायेगी कभी अधर पर,
      आँसू कभी बहायेगी।
मन अधीर हो जब भी प्रियवर,
आ जाना तुम मधुशाला।।

भावों का आसव निकला है,
तपकर अनुभव की ज्वाला।
शब्दों के प्याले में भरकर,
लाया हूँ मैं मतवाला।  
          समय मिले मन हो पढ़ने का,
          मान इसे भी दे देना।
आप सभी को अर्पित मेरी,
छन्दों की यह मधुशाला।।

जीवन के उस काल-खण्ड में,
चला राह मैं मतवाला।
नीरव वन था पथ था दुर्गम,
प्रखर भानु की थी ज्वाला।
           थकित देह थी मन भी व्याकुल,
           थी मंजिल भी दूर बहुत।
तुम ही तो आयी थी बनकर,
प्रियतम मेरी मधुशाला।।

घिर-घिर आयी मधुर यामिनी,
धरे रूप वह मधुबाला।
उडुगण की चूनर को ओढ़े,
लिये हाथ में विधु-प्याला।
             छलकी धवला अमिय कौमुदी,
             वसुंधरा के आँचल पर।
झूम उठे लतिका तरूवर सब,
सजी सुभग नव मधुशाला।।

बचपन से पीता आया हूँ,
पीड़ाओं की मैं हाला।
और पिला दे और पिला दे,
घबरा मत साकी बाला।
         सुख की चाह नहीं मुझको अब,
          नहीं स्नेह का अभिलाषी।
आह कराह अश्रु से सिंचित,
मेरी जीवन मधुशाला।।

दिनकर डूबा संध्या उतरी,
लेकर कर में मधु प्याला।
झील किनारे लगी विचरने,
सिन्दूरी वह सुर बाला।
                      रसिक रिन्द की बातें छोड़ो,
                     कभी नहीं पीने वालों।
यदा-कदा ही पीकर देखो,
आकर तुम भी मधुशाला।।

जाति-धर्म से ऊपर उठकर,
चले राह जो मतवाला।
दीप ज्ञान का जला चुकी हो,
जिसके विवेक की ज्वाला।
           श्रम-सीकर से शोभित तन ले,
           आये कोई रिन्द यहाँ।
आगे बढ़ करती है स्वागत,
उसका मेरी मधुशाला।।

धीरे-धीरे छम-छम करती,
आयी थी तुम सुर-बाला।
दृग-मूंदे कंपित अंधेरों से,
मुझे पिलाने मधु-प्याला।
                 दिवस मास वर्षों बीते पर,
                 प्रीति अहा! कब मन्द हुयी।
बनी रहो चिर-नूतन प्रियतम,
चिर-नूतन हो मधुशाला।।

नदिया बहती निर्मल पावन,
वन सुभग सघन हरियाला।
भ्रमर हठीले चुन-चुन कलियाँ,
पीते मकरन्दी हाला।
                 शीत-पवन करता आह्लादित,
                  हर्षित था जीवन सारा।
उमंग भरी रसवन्ती प्रिये,
 कहाँ गयी वह मधुशाला।।

नेह-भाव से जिनको भर-भर,
रहा पिलाता मैं हाला।
पात्र नहीं थे उसके वे सब,
समझा अब भोला-भाला।
          मैंने अपना कर्म किया बस,
         उनकी तो वे ही जानें।
सबको गले लगाती आयी,
मेरी जीवन मधुशाला।।

जाति-धर्म का भेद न होगा,
हो कोई पीने वाला।
श्रम अनुसार भरेगी साकी,
सबके हाथों का प्याला।
            मार्ग सभी होंगे निष्कंटक,
           अवसर सब ही पायेंगे।
वर्ग- हीन संरचना वाली,
होगी मेरी मधुशाला।।

बालक भूखे तड़प रहे हैं,
खाने को नहीं निवाला।
फटी कमीजें टूटी चप्पल,
बनता फिरता मतवाला।
           जर्जर  काया रोग-ग्रस्त है,
           काम नहीं कुछ कर पाता।
लकड़ी टेके फिर भी क्यों तू,
आ जाता है मधुशाला।।

कम्पित अधेरों से जब प्रिय ने,
अधरों पर चुम्बन डाला।
नहीं होश आया पीकर फिर,
प्रथम मिलन की वह हाला।
         उसकी ही चाहों में खोया,
        उलझा उसकी  बाँहों में,
वो ही है रसवन्ती साकी,
वो ही मेरी मधुशाला।।

न्यायालय में आये कोई,
कभी साक्ष्य देने वाला।
साकी की सौगंध खिलाना,
और पिलाना तुम हाला।
             जागृत होगा पौरुष उसमें,
             चेतन होगी मानवता।
झूठ बुलाये ग्रन्थ भले सब,
सत्य बुलाती मधुशाला।।

याचक बनकर ही जाता है,
देवालय जाने वाला।
हाथ जोड़ता शीश झुकाता,
हो कैसा भी बल वाला।
              सीना ताने  जाते हैं सब,
               सभी लुटा कर आते हैं।
स्वाभिमान की रक्षा करती,
एक यही तो मधुशाला।।

अखिल सृष्टि इक मदिरालय हो,
और जलधि का हो प्याला।
ताप हरे तीनों पल-भर में,
हो ऐसी उसमें हाला।
            त्रिविध-हवा करती हो स्वागत,
            साकी बन अमराई में,
निर्मल मन हो जिसका पीने,
आये वो ही मधुशाला।।

संस्कारों में पला बढ़ा हूँ,
व्यसन नहीं कोई पाला।
चखने की तो बात दूर की,
छुई नहीं अब तक हाला।
            पूर्व जन्म का शायद मद्यप,
           नशा उसी का हो बाकी।
उसी खुमारी में रच डाली,
मैंने भी यह मधुशाला।।

अक्षर-अक्षर जोड़ बनाया,
मैंने शब्दों का प्याला।
और उँडेली अपने कर से,
उसमें भावों की हाला।
        जितनी बार पिओगे इसको,
      नशा नया देगी तुमको।
मन चाहे जब पीने आना,
तुम छन्दों की मधुशाला।।

-टीकम चन्दर ढोडरिया
 अधिवक्ता, राजस्थान 
 मोबाइल : 9413826979
 ई-मेल : teekamchanddhodria@gmail.com

 

 

 


                
             

         

             


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हर बार ऐसा हुआ है | कविता - रश्मि विभा त्रिपाठी

हर बार ऐसा हुआ है
जब तुम याद आई हो
कुछ और कहने की कोशिश में
कुछ और कह गई हूँ मैं,
बोलते- बोलते हो गई ख़ामोश
या कुछ का कुछ लिख गई
अचानक खो बैठी होश
सबने सोचा— मैं नशे में हूँ
तुम ये क्यों करती हो?
तुम रखकर
मेरे होठों पर अपनी उँगली
मेरा हाथ थामकर क्या ये चाहती हो
कि मेरी रुसवाई हो?

हर बार ऐसा हुआ है
कि जब तुम याद आई हो
तो जो भी मिला मुझसे
उस शख़्स के आगे
तुम्हारी हर बात
दुहराई शिद्दत से
इस बात से बेख़बर
कि कौन समझेगा उस बात को
मेरे- तुम्हारे जज़्बात को
क्या कुछ न कहा मेरे बारे में
दुनिया वालों ने
यहाँ तक कह दिया मुझसे
कि तुम पगलाई हो

हर बार ऐसा हुआ है
जब तुम याद आई हो
कुछ खाया न गया ज़रा- सा
मर गई भूख
आँखों से बही नदी
मन रहा प्यासा
जैसे दो निवाले खाके जल्दी में
मैं दौड़ती थी स्कूल के लिए
और तुम पीछे आती थी
खाने की प्लेट,
पानी का गिलास लिए
फिर अचानक
अपने हाथ में
मेरे बस्ते में रखने के लिए
तुम टिफिन
और पानी की बोतल लाई हो

कई बार नींद खुली है
कई बार रात भर जागी हूँ
कई बार दिखा है साया तुम्हारा
जिसे पकड़ने को
तेज रफ़्तार से भागी हूँ
फिर थककर
जब लेटी हूँ बिस्तर पर
तो महसूस हुआ माथे पर
तुम्हारा हाथ
और आने लगी झपकी
जैसे बचपन में तुम मुझे सुलाती थी
तुमने दी हो वही थपकी
लगा, तुमने लोरी गाई हो

कई बार ऐसा हुआ
जब तुम याद आई हो
दिन के उजाले में भी
चलते- चलते किसी चीज से
टकरा गई हूँ
ठोकर खाकर औंधे मुँह गिरी हूँ
कई बार घुटने छिले
हमदर्दी या दिलासे के बजाय
ताने मिले-
जवानी के जोश में अंधी हूँ
तो कोई बोला—
देखकर नहीं चलती, सिरफिरी हूँ
हर मोड़ पर मैं
मुसीबतों में घिरी हूँ
कुछ भी नहीं दिखता तुम्हारे सिवा
मेरी आँखों के आगे
तुम धुंध बनकर छाई हो

हर बार ऐसा हुआ है
जब तुम याद आई हो
कि तुम्हारे जाने का जो घाव
दिल में है
उससे ख़ूब रिसा मवाद
ख़ूब उठी टीस
फिर लगा
धीरे से आकर
तुमने छू लिया मुझको
वो घाव भर गया
बगैर मरहम- पट्टी के
दर्द मिट गया
जैसे तुम दवाई हो

हर बार ऐसा हुआ है
जब तुम याद आई हो
जब मैंने तुम्हें
अपने बहुत क़रीब पाया है
तुम्हारा बोसा लिया
तुम्हें गले लगाया है
जबकि मेरे तुम्हारे बीच
अब सात समंदर की नहीं
धरती से आसमान तलक की दूरी है
लोग चौंके बहुत ये कहते हुए
क्या ज़िन्दगी में
फिर उससे मिलना मुमकिन है
जिससे ताउम्र की जुदाई हो

मैं नहीं दे पाती जवाब
किसी भी बात का
किसी को क्या पता
किस्सा मेरे हालात का
तुम थी मेरी ज़िन्दगी
जो ख़त्म हो चुकी हो
लेकिन मैं फिर भी जी रही हूँ
क्योंकि तुम
मेरे सीने की धुकधुकी हो
उससे पूछे कौन जिए जाने का आलम
और वो क्या बतलाए?
-जो जी तो रहा हो
पर जिसने अपनी जान गँवाई हो

पर मैं तुमसे पूछना चाहती हूँ
बताओ ना?
कि ये क्या जादू है तुम्हारा
(कहाँ से सीखा, कब सीखा,
मैंने तो तुम्हें बाहर जाते कभी नहीं देखा)
तुम थीं
तो तुम्हारा वज़ूद
सिमटा हुआ था
कमरे से
घर की दहलीज़ तक,
तुम
नहीं हो
तो आज क्यूँ
तुम हर शय में समाई हो??

रश्मि विभा त्रिपाठी
     ई-मेल : trashmivibha@gmail.com


......
 
 
मेरी माँ - आर सी यादव

अमिट प्रेम की पीयूष निर्झर
क्षमा दया की सरिता हो।
गीत ग़ज़ल चौपाई तुम हो
मेरे मन की कविता हो॥

ऋद्धि-सिद्धि तुम आदिशक्ति हो
ज्ञानदायिनी माँ सरस्वती हो।
रणचंडी तुम समर क्षेत्र में 
रिपुंजय माँ काली हो॥

कृष्ण बांसुरी की तुम धुन हो
नारद की वीणा का स्वर हो।
चक्र सुदर्शन श्री विष्णु के
शिवजी का त्रिशूल प्रखर हो॥

गीता के तुम श्लोक छंद हो
मानस की दोहे चौपाई।
वीणा की तुम झंकृत स्वर हो 
सात सुरों की तुम शहनाई॥

गंगा-यमुना का संगम हो 
सुरसुरी की निर्मल धारा हो।
हिमगिरि का उत्तुंग शिखर हो 
सागर की पावन धारा हो॥

सीता सावित्री अनुसुइया
माँ पार्वती कल्याणी हो।
श्री लक्ष्मी तुम दिव्य रुप हो 
माँ स्वरुप अवतरिणी हो॥

जन्मदायिनी -  ज्ञानदायिनी
शिक्षा संस्कार की देवी।
रुप अलौकिक चंद्र किरण सा 
पालक पोषक जग की सेवी॥

विमल रुप व्याप्त विश्व में
धरा गगन आरती उतारें।
मातृशक्ति तुम देवमणि हो 
जनमानस नित पांव पखारे॥

उर्वर धरती की तुम शोभा 
नील गगन सा शीश‌ छत्र हो।
चार दिशाओं की ज्वाला हो 
जनजीवन का कर्मक्षेत्र हो॥

सदा सत्य का दर्पण तुम हो
पावन पुण्य समर्पण तुम हो।
पूजनीय हैं चरण तुम्हारे 
पावन पूजन अर्चन तुम हो॥

होली और दिवाली तुम हो
ईदगाह की रौनक तुम हो।
ईस्टर की प्रार्थना तुम्हीं हो
प्रकाश पर्व का गौरव तुम हो॥

पुण्य धरा की नारी तुम हो
हे माँ! जन कल्याणी तुम हो।
नेह स्नेह की बलिबेदी हो 
मेरे मन की वाणी तुम हो॥

-आर सी यादव
 दिल्ली, भारत
 संपर्क सूत्र : 09818488852 
 ई-मेल : rchandradps@gmail.com


......
 
 
कवि कौन?  - कवि राजेश पुरोहित

कोरे कागज को रंगीन कर दे।
ये सिर्फ कवि का काम होता है॥
लफ़्ज़ों से महफ़िल सजाना हो।
ये सब के वश में कहाँ होता है॥
कल्पनाओं का अथाह खजाना।
केवल कवि के ही पास होता है॥
सजीव चित्रण करता है कवि।
उसे प्रकृति से भी प्रेम  होता है॥
विसंगतियों से रूबरू करवाना।
कवि का असली काम होता है॥
बातों ही बातों में हास्य खोजना।
इस कला में माहिर कवि होता है॥
घण्टों साधना करता है कवि देखो।
तभी उसे छन्द का ज्ञान होता है॥
तुलसी रसखान मीरा सा साहसी।
कवि के अलावा यहाँ कौन होता है॥

-कवि राजेश पुरोहित
 भवानीमंडी
 ई-मेल : 123rkpurohit@gmail.com


......
 
 
कविताएँ रहेंगी | कविता - अनुपमा श्रीवास्तव 'अनुश्री'

हृदय को संवेदना की
कसौटी पर कसेंगी
कुछ रहे न रहे
      कविताएँ रहेंगी।
 
मेरी-तेरी, इसकी-उसकी, 
मुलाकातें, जग की बातें,
जगकर्ता के क़िस्से कहेंगी
कुछ  रहे न रहे
        कविताएँ रहेंगी। 
 
भागते हुए
वक़्त की चरितावली
संघर्ष की व्यथा-कथा
विकास की विरुदावली
कभी शांति की
संहिता रचेंगी
कुछ  रहे न रहे
      कविताएँ रहेंगी।
 
- अनुपमा श्रीवास्तव 'अनुश्री'
  ई-मेल : ashri0910@gmail.com 


......
 
 
तुम भी लौटोगी | कविता - संजय कुमार सिंह

मैं नहीं जानता कि कोई आएगा कि नहीं
पर मैंने इस जीवन-जगत से
धरती  नदी, पहाड़ से
चिड़िया, तितली, फूल,  
बादल से और तुमसे प्रेम किया है
इसलिए तुम्हारा इन्तजार कर रहा हूँ।
घूमने के लिए पूरी दुनिया है
और लोग घूम भी रहे हैं मीना बाजार से लेकर
आइकाँन टॉवर तक
ताज महल से ताज होटल,
लालकिला, इण्डिया गेट
अजन्ता, एलोरा की गुफाओं तक 
और न जाने कहाँ-कहाँ
सबसे बड़े रॉक, सब से अनोखे फॉल
और सबसे सुंदर फूलों से लदी धरती की वह तलहटी...
पर वह संभव नहीं है, न समय और न गाँठ में पैसे
इसलिए सरसों के उसी पीले खेत में
धूल-माटी वाले अपने घर में
तुम्हारी यादों को संजोए मैं तुम्हारा इन्तजार कर रहा हूँ
और सोच रहा हूँ कि जब चीजें एक न एक दिन लौटती हैं
तो तुम भी लौटोगी 
बेगानेपन से उदास होकर
और कहोगी
कि यह मेरा गाँव
यह मेरा बचपन
और यह मेरा छूटा हुआ कोई अंश
दुनिया की हर चीज से सुंदर, अलभ्य, अनमोल!
ढेर सारी खुशियों और प्यार से अह्लादित मैं हसूँगा
अपने जर्जर फेफड़े में हवा खींचकर
गहरे अविश्वास और विस्मय से
और कहूँगा यह वही पेड़ है
जो तुम्हारे लौटने के इन्तजार में बड़ा हुआ
इसकी एक तस्वीर उतारो और साथ में रख लो
यह मंदिर, यह स्कूल, यह सड़क, घर-आँगन  देहरी, और तुलसी-चौड़ा...सब में  तुम्हारी गंध बसी हुई है
अब जब तुम फिर लौटोगी या नहीं
इन चीजों का तुम्हारे साथ होना
अनंत दुनिया में एक जीवंत दुनिया की उपस्थिति
तुम्हें खींच कर लाएगी
और तुम कह सकोगी
कि यह...
हाँ प्रिये! जब  वास्तव में कुछ नहीं बचे
तो उसे स्मृति में बचाना भी एक उपाय है
ताकि तुम कहीं भी लौटो!
 
 -संजय कुमार सिंह
  ई-मेल : sksnayanagar9413@gmail.com


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आधी रात को | कविता - नेतलाल यादव

बचपन में एक दिन
सोया था, दादा के साथ
अचानक आधी रात को
कुत्ते भौंक रहे थे,
कुत्तों की आवाज़ से
मैं जग गया था
उस वक्त दादा ने बताया था—
जब कोई अशुभ घटना घटती हैं
कुत्ते रात को रोते हैं 
कुकुर का रोना ठीक नहीं है। 
तब लगा था कि— 
दादा की बातों में 
अंधविश्वास की गंध है,
मगर अब जाना
बड़े-बुजुर्गों की बातों में
बहुत सत्यता होती है।
प्राकृतिक आपदाओं के
संकेतक होते हैं, पशु-पक्षी
घ्राण शक्तियों से
समझते हैं, वे सारी बातें। 
                     
- नेतलाल यादव 
  ई-मेल : netlaly@gmail.com


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साहित्यिक समाचार | हिंदी जगत - भारत-दर्शन संकलन

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न्यूज़ीलैंड समाचार - भारत-दर्शन संकलन

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माना, गले से सबको - प्राण शर्मा

माना गले से सबको लगाता है आदमी
दिल में किसी-किसी को बिठाता है आदमी

कैसा सुनहरा स्वांग रचाता है आदमी......

 
 
मुल्ला नसरुद्दीन के क़िस्से - भारत-दर्शन

प्राचीन समय से कथा-कहानी एवं क़िस्से सुनने-सुनाने की परंपरा रही है। यह परंपरा मौखिक तौर पर लोकप्रिय रही है। अकबर-बीरबल, शेखचिली के अतिरिक्त मुल्ला नसरूद्दीन के क़िस्से भी लोकप्रिय हैं। यूं तो मुल्ला नसरुद्दीन तुर्की से ताल्लुक रखते थे लेकिन इनके किस्से दुनिया भर में सुनने को मिलते हैं। यहाँ मुल्ला नसरुद्दीन के क़िस्से संकलित किए जा रहे हैं।
......

 
 
मिलती हैं आजकल  - गुलशन मदान की गज़ल

मिलती हैं आजकल उन्हें ऊँचाइयां मियां
जिनसे बहुत ही दूर हैं अच्छाइयां मियां......

 
 
कुमार नयन की दो ग़ज़लें  - कुमार नयन

खौलते पानी में 

खौलते पानी में डाला जायेगा
यूँ हमें धोया-खंगाला जायेगा

लूटने में लड़ पड़ें आपस में हम......

 
 
ग़रीबों, बेसहारों को - सर्वेश चंदौसवी

ग़रीबों, बेसहारों को महामारी से लड़ना है
मगर इससे भी पहले इनको बेकारी से लड़ना है।

पहनकर मास्क घर में बैठ जाओ बस इसी से क्या ?......

 
 
काम बनता हुआ भी बिगड़े सब | ग़ज़ल - अंकुर शुक्ल 'अनंत'

काम बनता हुआ भी बिगड़े सब
अक़्ल पर पड़ गए हों पत्थर जब

आदमी हो तो वो नज़र आओ......

 
 
ये दुनिया तुम को रास आए तो कहना | ग़ज़ल - जावेद अख्तर

ये दुनिया तुम को रास आए तो कहना
न सर पत्थर से टकराए तो कहना

ये गुल काग़ज़ हैं ये ज़ेवर हैं पीतल ......

 
 
ख़ुदा पर है यक़ीं जिसको | ग़ज़ल - निज़ाम फतेहपुरी

ख़ुदा पर है यक़ीं जिसको कभी दुख मे नहीं रोता
वही बढ़ता है आगे जो जवानी भर नहीं सोता

नहाए कितना भी गीदड़ वो गीदड़ ही रहेगा बस......

 
 
गठरी में ज़रूरत का ही सामान रखियेगा | ग़ज़ल  - ज़फ़रुद्दीन "ज़फ़र"

गठरी में ज़रूरत का ही सामान रखियेगा,
तुम सफ़र ज़िन्दगी का आसान रखियेगा।

सब लोग तुम्हें याद करें मरने के बाद भी,......

 
 
बात सच्ची कहो | ग़ज़ल - निज़ाम फतेहपुरी

बात सच्ची कहो पर अधूरी नहीं
लोग माने न माने ज़रूरी नहीं

आज जो है जहाँ कल रहेगा वहाँ......

 
 
जिनसे हम छूट गये - राही मासूम रजा

जिनसे हम छूट गये अब वो जहाँ कैसे हैं
शाखे गुल कैसे हैं खुश्‍बू के मकाँ कैसे हैं

ऐ सबा तू तो उधर से ही गुज़रती होगी......

 
 
ये दुनिया हमें रास आई नहीं | ग़ज़ल - सलिल सरोज

ये दुनिया हमें रास आई नहीं, चलो आसमाँ में चले
जहाँ झूठ, फरेब, मक्करी न हो, उसी जहाँ में चले

न ताज़ी हवा आती है, न खुली धूप इमारतों में......

 
 
नया साल मुबारक | ग़ज़ल - शिव मोहन सिंह 'शुभ्र'

हर दिन हो त्योहार नया साल मुबारक
हो यार का दीदार नया साल मुबारक

मेहनत ओ मशक्कत से आई ये घड़ी है......

 
 
दीवाली के दीप जले - ‘फ़िराक़’ गोरखपुरी

नई हुई फिर रस्म पुरानी दीवाली के दीप जले
शाम सुहानी रात सुहानी दीवाली के दीप जले

धरती का रस डोल रहा है दूर-दूर तक खेतों के......

 
 
जो पाया नहीं है | ग़ज़ल - ज़फ़रुद्दीन ज़फ़र

जो पाया नहीं है उसकी भरपाई करनी है,
अपनी सारी हसरतों की तुरपाई करनी है।

बहुत जी लिया ख़ामोशी से ज़िन्दगी मगर,......

 
 
दो ग़ज़लें - राजीव कुमार सिंह

लोग सच जान के---

लोग सच जान के झूठों पे फिसलते क्यूँ हैं।
है ज़ुबाँ पास तो अल्फ़ाज निगलते क्यूँ हैं।

जिनकी चाहत ही नहीं कल को सँवारा जाए ......

 
 
खड़ी आँगन में अगर | ग़ज़ल - शांती स्वरुप मिश्र

खड़ी आँगन में अगर, दीवार न होती !
यूं दिलों के बीच यारा, तक़रार न होती !

महकती इधर भी रिश्तों की खुशबुएँ,......

 
 
कहाँ तक बचाऊँ ये-- | ग़ज़ल - ममता मिश्रा

कहाँ तक बचाऊँ ये हिम्मत कहो तुम
रही ना किसी में वो ताक़त कहो तुम

अंधेरी गली में भटकता दिया भी ......

 
 
शायर बहुत हुए हैं--|  - निज़ाम-फतेहपुरी

शायर बहुत हुए हैं जो अख़बार में नहीं।
ऐसी ग़ज़ल कहो जो हो बाज़ार में नहीं।।

दिल से मिटा के नफ़रतें मिलकर रहो सदा।......

 
 
दिल के मचल रहे मेरे - निज़ाम-फतेहपुरी

दिल के मचल रहे मेरे  अरमान क्या करें
हम ख़ुद से हो गए  हैं  परेशान क्या करें

कश्ती हमारी टूटी  है  दरिया है बाढ़ पर......

 
 
वो बचा रहा है गिरा के जो - निज़ाम-फतेहपुरी

वो बचा रहा है गिरा के जो, वो अज़ीज़ है या रक़ीब है
न समझ सका उसे आज तक, कि वो कौन है जो अजीब है

मेरी ज़िंदगी का जो हाल है, वो कमाल मेरा अमाल है......

 
 
शहरों में बस्तियां - ज़फ़रुद्दीन ज़फ़र

शहरों में बस्तियां आबाद कितनी हैं
गांव जैसी चौड़ी बुनियाद कितनी है

अच्छी मां दुनिया में बहुत हैं लेकिन......

 
 
शेर होकर भी--- - ज़फ़रुद्दीन ज़फ़र

शेर होकर भी भेड़िए के हवाले हुए हैं

वो ज़िन्दगी मुश्किल से संभाले हुए हैं,
शेर होकर भी भेड़िए के हवाले हुए हैं।

वो जब भी मुस्कुराएंगे फुफकार भरेंगे,......

 
 
ज़हन में गर्द जमी है--- - ज़फ़रुद्दीन ज़फ़र

तुम बहुत सो चुके हो जगिए भी तो सही,
ज़िंदा हो अगर ज़िंदा लगिए भी तो सही।

बस पानी उड़ेलने को नहाना नहीं कहते,......

 
 
भला करके बुरा बनते रहे हम - डॉ राजीव कुमार सिंह

भला करके बुरा बनते रहे हम
मगर इस राह पर चलते रहे हम

मेरे अपने मुझे इल्जाम देकर ......

 
 
हिसाबे-इश्क़ है साहिब | ग़ज़ल - अरविन्द कुमार सिंहानिया

हिसाबे-इश्क़ है साहिब ज़रा भी कम न निकलेगा,
कि कुछ आँसू बहाने से, ये दर्दो-ग़म न निकलेगा !

इन आँखों मे समन्दर है मिरि दर्द-ए-मुहब्बत का,......

 
 
जिंदगी इक सफ़र है | ग़ज़ल - निज़ाम-फतेहपुरी

जिंदगी इक सफ़र है नहीं और कुछ
मौत के डर से डर है नहीं और कुछ

तेरी दौलत महल तेरा धोका है सब......

 
 
लोग टूट जाते हैं | ग़ज़ल - बशीर बद्र

लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में
तुम तरस नहीं खाते बस्तियाँ जलाने में

और जाम टूटेंगे इस शराब-ख़ाने में ......

 
 
बयानों से वो बरगलाने लगे हैं - डॉ राजीव सिंह

बयानों से वो बरगलाने लगे हैं
चुनावों के दिन पास आने लगे हैं

निशानी गुलामी की है रेलगाड़ी......

 
 
ज़िन्दगी को औरों की - ज़फ़रुद्दीन ज़फ़र

ज़िन्दगी को औरों की ख़ातिर बना दिया
घर की ज़रूरतों ने मुसाफ़िर बना दिया

वो आंधियों से डरकर बैठा नहीं खामोश......

 
 
यूँ कहने को बहकता जा रहा हूँ - नरेश शांडिल्य

यूँ कहने को बहकता जा रहा हूँ
मगर सच में सँभलता जा रहा हूँ

उलझता जा रहा हूँ तुझमें जितना......

 
 
लोग उस बस्ती के यारो | ग़ज़ल - सुरेन्द्र चतुर्वेदी

लोग उस बस्ती के यारो, इस कदर मोहताज थे
थी ज़ुबां ख़ुद की मगर, मांगे हुए अल्फ़ाज़ थे

काँच को ओढ़े खड़ी थी उस शहर की रोशनी ......

 
 
संध्या नायर की दो ग़ज़लें  - संध्या नायर

कलम इतनी घिसो
......

 
 
ज़ख्म को भरने का दस्तूर होना चाहिए - ज़फ़रुद्दीन ज़फ़र

इंसानियत को बांटना दूर होना चाहिए
वसुधैव-कुटुंबकम् मशहूर होना चाहिए

फैली हुई बुराई तो मिट जाएगी लेकिन......

 
 
छन-छन के हुस्न उनका | ग़ज़ल - निज़ाम-फतेहपुरी

छन-छन के हुस्न उनका यूँ निकले नक़ाब से।
जैसे निकल रही हो किरण माहताब से।।

पानी में पाँव रखते ही ऐसा धुआँ उठा।......

 
 
टूट कर बिखरे हुए... - ज़फ़रुद्दीन ज़फ़र

टूट कर बिखरे हुए इंसान कहां जाएंगे
दूर तक सन्नाटा है नादान कहां जाएंगे

रिश्ते जो ख़ाक़ हुए नफ़रत की आग में......

 
 
क्यों निस दिन... | हिंदी ग़ज़ल - अलताफ़ मशहदी

क्यों निस दिन आँख बरसती है,
नागिन सी मन को डसती है !

मन हौले हौले रोता है, ......

 
 
रूख़ सफ़र का... | ग़ज़ल - अनन्य राय पराशर

रूख़ सफ़र का सुकूं को मोड़ा जाए
ख्वाहिशों को यहीं पे छोड़ा जाए

जिस मुहब्बत का हुस्न तोड़ा गया......

 
 
मेरी आरज़ू रही आरज़ू | ग़ज़ल - निज़ाम-फतेहपुरी

मेरी आरज़ू रही आरज़ू, युँ ही उम्र सारी गुज़र गई
मैं कहाँ-कहाँ न गया मगर, मेरी हर दुआभी सिफ़र गई

की तमाम कोशिशें उम्र भर, न बदल सका मैं नसीब को......

 
 
विनीता तिवारी की दो ग़ज़लें - विनीता तिवारी

भरा ख़ुशियों से है आँगन कि होली आई रे आई।
भिगोया इश्क़ ने तन-मन कि होली आई रे आई।

उठा लेते हैं वो आकाश सर पे रंग डालो तो,......

 
 
शक के मुंह में | ग़ज़ल - अजहर हाशमी

शक के मुंह में विषदंत होता है, 
शक से रिश्तों का अंत होता है।......

 
 
आने वाले वक़्त के - कंवल हरियाणवी

आने वाले वक़्त के आसार देख
आँख है तो वक़्त के उस पार देख।

बेवफा लोगों का यह बांका चलन......

 
 
अपने घर में बना मेहमान... - डॉ. कुँवर वीरेन्द्र विक्रम सिंह गौतम

अपने घर में बना मेहमान जो बाशिन्दा है, 
मुक्त आकाश का वो परकटा परिन्दा है।

अब तो जंगल की राह लो सुना है बस्ती में, 
भेड़ की खाल में रहने लगा दरिन्दा है।

भीड़ जलसे में जुटाई गई है यह कह कर, 
जो बात आज कही जाएगी चुनिन्दा है।

ये राह उसकी नहीं है उसे आगाह करो, 
पगों में चुभ रहे कांटों से जो शर्मिन्दा है।

निकल पड़े हैं खुली धूप में तो याद रहे
घनेरे पेड़ों का साया हसीन फंदा है।

लगा के ले गए जिसको वो अपनी अचकन में, 
जेहन में माली के अब तक वो फूल ज़िंदा है।

-डॉ. कुँवर वीरेन्द्र विक्रम सिंह गौतम 


......
 
 
लोगों का मशवरा है कि… - ज़फ़रुद्दीन ज़फ़र 

लोगों का मशवरा है कि मैं घर खरीद लूं,
उन्हें मालूम नहीं पहले मुक़द्दर खरीद लूं।

दो चार मैं भी खुशियों के मंज़र खरीद लूं,
मुझे प्यास इतनी है कि समंदर  खरीद लूं।

कांच के महलों के तंज़, सहे  जाते  नहीं,
मैं सोचता हूं  थोड़े  से  पत्थर  ख़रीद  लूं।

मैं क़ानून जानता हूं, अलग बात है मगर, 
ये हालात कह रहे हैं कि खंज़र खरीद लूं।

दस्तार के अलावा भी, कई और काम हैं,
ज़्यादा ख़ास ये है कि एक सर  ख़रीद लूं।

तुम शर्त लगा लेना, उड़ने के  ख़्याल पर,
जो टूटे हैं हसरतों के कुछ  पर  खरीद लूं।

मेरे शहर में मिलावट का दस्तूर है ज़फ़र,
सोचता हूं फिर भी कुछ बेहतर खरीद लूं।

-ज़फ़रुद्दीन ज़फ़र
 F-413, Karkardooma court 
 Delhi -32, INDIA
 zzafar08@gmail.com


......
 
 
आज कहना है हमारा - रमादेवी 

आज कहना है हमारा उन अमीरों के लिए। 
हाथ लोहे के बने क्या दिल टटोला आपने॥ 

दिल भी पत्थर का बना हिलता नहीं डुलता नहीं। 
मुँह से उगले आग के जलते लुकारे आपने॥ 

चाल चल करके खनाखन से भरी हैं कोठियाँ। 
देश की क्या कम किया इतनी भलाई आपने॥ 

बेगुनाहों का गला घोंटा तरक्की पा गये। 
जड़ दिये तारीफ़ पै सलमें सितारे आपने॥ 

दर्द सर होता है सुन करके गरीबों की पुकार। 
शान का जौहर नहीं कब है दिखाया आपने॥ 

देखकर आँखों में आँसू लुत्फ आता है तुम्हें। 
मुँह चले कब दिलजलों पर तर्स खाया आपने॥ 

पंगुलों की भीख पर तुम को हसद होता रहे। 
ख़्वाब में खैरात का आँसू बहाया आपने॥ 

ऐश में देखा कभी कुछ कुढ़ गये लड़ भी गये। 
नेकनीयत बन कभी करतब निभाया आपने॥ 

तंग गलियों में कभी भी आप जाते हैं नहीं। 
मेंबरी के वक्त तो चक्कर लगाया आपने॥ 

चाल चलते कौंसिलों में आप जाने के लिए। 
सर हिलाने के सिवा क्या कर दिखाया आपने॥ 

देश के हित के लिए एक दो कदम चलते नहीं। 
घिस न जायें पांव ख़ुद पै रहम खाया आपने॥ 

बंद बहुएँ मर गईं पर साँस नहिं लेने दिया। 
ख़ुदबख़ुद को शर्म का शानी जनाया आपने॥ 

जुल्म कितने हो गये इस देस में देखा 'रमा'। 
किंतु बस लाली लहू को गुल है समझा आपने॥

-रमादेवी 

* रमादेवी का जन्म प्रयाग में १९४० सं० में हुआ था। इनके पिता ने घर पर ही एक अँग्रेज़ महिला द्वारा इन्हें शिक्षा दिलायी थी। 'अबला पुकार' और 'रमा विनोद' नामक इनकी दो पुस्तकें प्रकाशित हैं। ये अपने समय  की  प्रतिष्ठित कवयित्रि रही हैं। 


......
 
 
फ़िराक़ गोरखपुरी - भारत-दर्शन

फ़िराक़ गोरखपुरी का जीवन परिचय

उर्दू के मशहूर शायर फ़िराक़ गोरखपुरी का जन्म 1896 में गोरखपुर (उ. प्र.) में हुआ था। फ़िराक़ का पूरा नाम रघुपति सहाय था। शायरी में अपना उपनाम 'फ़िराक' लिखते थे। पेशे से वकील पिता मुंशी गोरख प्रसाद भी शायर थे। शायरी फ़िराक़ को विरासत में मिली थी। उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त की और उनकी नियुक्ति डिप्टी कलेक्टर के पद पर हो गई। इसी बीच गांधी जी ने असहयोग आंदोलन छेड़ा तो फ़िराक़ उसमें सम्मिलित हो गए। नौकरी गई और जेल की सज़ा मिली। कुछ दिनों तक वे आनंद भवन. इलाहाबाद में पंडित नेहरू के सहायक के रूप में कांग्रेस का काम भी देखते रहे। बाद में उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के शिक्षक के रूप में काम किया।

फ़िराक़ गोरखपुरी ने बड़ी मात्रा में रचनाएं कीं। उनकी शायरी बड़ी उच्चकोटि की मानी जाती है। वे बड़े निर्भीक शायर थे। उनके कविता-संग्रह 'गुलेनग्मा' पर 1960 में उन्हें साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला और इसी रचना पर वे 1970 में भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किए गए थे।

निधन : 1982 में फ़िराक़ साहब का देहांत हो गया।

 


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ज़िंदगी तुझ को जिया है | ग़ज़ल - सुदर्शन फ़ाकिर

ज़िंदगी तुझ को जिया है कोई अफ़्सोस नहीं 
ज़हर ख़ुद मैं ने पिया है कोई अफ़्सोस नहीं 

मैं ने मुजरिम को भी मुजरिम न कहा दुनिया में 
बस यही जुर्म किया है कोई अफ़्सोस नहीं 

मेरी क़िस्मत में लिखे थे ये उन्हीं के आँसू 
दिल के ज़ख़्मों को सिया है कोई अफ़्सोस नहीं 

अब गिरे संग कि शीशों की हो बारिश 'फ़ाकिर' 
अब कफ़न ओढ़ लिया है कोई अफ़्सोस नहीं 

-सुदर्शन फ़ाकिर


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दीवारों-दर थे... | ग़ज़ल - देवी नागरानी

दीवारों-दर थे, छत थी वो अच्छा मकान था 
दो-चार तीलियों पर कितना गुमान था 

जब तक कि दिल में तेरी यादें जवान थी 
छोटे से एक घर में सारा जहान था 

शब्दों के तीर छोड़े गए मुझ पे इस तरह 
हर ज़ख्म का हमारे दिल पर निशान था 

तन्हा नहीं है तू ही यहाँ और हैं बहुत 
तेरे न मेरे सर पर कोई सायबान था 

कोई नहीं था 'देवी' गर्दिश में मेरे साथ 
बस मैं मेरा मुक़द्दर और आस्मान था

-देवी नागरानी


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सूर्य की अब... - कुमार शिव 

सूर्य की अब किसी को ज़रूरत नहीं, जुगनुओं को अँधेरे में पाला गया 
फ़्यूज़ बल्बों के अद्भुत समारोह में, रोशनी को शहर से निकाला गया 

बुर्ज पर तम के झंडे फहरने लगे, साँझ बनकर भिखारिन भटकती रही 
होके लज्जित सरेआम बाज़ार में, सिर झुकाए-झुकाए उजाला गया 

नाम बदले खजूरों ने अपने यहाँ, बन गए कल्पवृक्षों के समकक्ष वे 
फल उसी को मिला जो सभा-कक्ष में साथ अपने लिए फूलमाला गया 

उसका अपमान होता रहा हर तरफ़, सत्य का जिसने पहना दुपट्टा यहाँ 
उसका पूजन हुआ, उसका अर्चन हुआ, ओढ़कर झूठ का जो दुशाला गया 

फिर अँधेरे के युवराज के सामने, चाँदनी नर्तकी बन थिरकने लगी 
राजप्रासाद की रंगशाला खुली, चाँद के पात्र में जाम ढाला गया 

जाने किस शाप से लोग पत्थर हुए, एक भी मुँह में आवाज़ बाक़ी नहीं 
बाँधकर कौन आँखों पे पट्टी गया, डालकर कौन होंठों पे ताला गया 

वृक्ष जितने हरे थे तिरस्कृत हुए, ठूंठ थे जो यहाँ पर पुरस्कृत हुए 
दंडवत लेटकर जो चरण छू गया, नाम उसका हवा में उछाला गया

-कुमार शिव 


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रखकर अपनी आंख में... - गुलशन मदान

रखकर अपनी आंख में कुछ अर्जियां, तुम देखना 
बस मिलेंगी कागजी हमदर्दियां, तुम देखना 

हादसों के खौफ से लब पे हैं जो फैली हुई 
एक दिन टूटेंगी सब खामोशियां, तुम देखना 

स्याह काले हाशियों के बीच होगा फिर लहू 
सुबह के अखबार की कल सुर्खियाँ तुम देखना 

राज़ सब दीवारो-दर के खुद-ब-खुद खुल जाएंगे 
बस जरा सा गौर से वो खिड़कियाँ तुम देखना 

हाथ जो फैले हुए हैं अपने हक के वास्ते 
एक दिन बन जाएंगे सब मुट्ठियां तुम देखना 

आस्मां तक ले के जाएंगी तुम्हें ये खूबियां 
शर्त है 'गुलशन' कि अपनी खामियां तुम देखना।

-गुलशन मदान, भारत


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एक दरी, कंबल, मफलर  - अशोक वर्मा

एक दरी, कंबल, मफलर, मोज़े, दस्ताने रख देना 
कुछ ग़ज़लों के कैसेट, कुछ सहगल के गाने रख देना 

छत पर नए परिंदों से जब खुलकर बातें करनी हों, 
एक कटोरे में पानी, दूजे में दाने रख देना 

प्यार से तुम बच्चों को रखना, और अगर वे रूठें तो, 
नन्ही परियों के कुछ किस्से नए-पुराने रख देना 

घर में आए मेहमानों को घर-सा ही आराम मिले, 
उनकी ख़ातिर सब चीज़ों को ठौर-ठिकाने रख देना 

हर पल खुशबू से चहकेगा, करते रहना इतना बस 
परेशान चेहरों के लब पर कुछ मुस्कानें रख देना

-अशोक वर्मा


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ख़्वाब छीने, याद भी...  - कमलेश भट्ट 'कमल' 

ख़्वाब छीने, याद भी सारी पुरानी छीन ली 
वक़्त ने हमसे हमारी हर कहानी छीन ली। 

पर्वतों से आ गई यूँ तो नदी मैदान में 
पर उसी मैदान ने सारी रवानी छीन ली। 

दौलतों ने आदमी से रूह उसकी छीनकर 
आदमी से आदमी की ही निशानी छीन ली। 

देखते ही देखते बेरोज़गारी ने यहाँ 
नौजवानों से समूची नौजवानी छीन ली। 

इस तरह से दोस्ती सबसे निभाई उम्र ने 
पहले तो बचपन चुराया फिर जवानी छीन ली।

-कमलेश भट्ट 'कमल' 


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वही फिर मुझे याद... - ख़ुमार बाराबंकवी

वही फिर मुझे याद आने लगे हैं
जिन्हें भूलने में ज़माने लगे हैं

वो हैं पास और याद आने लगे हैं
मोहब्बत के होश अब ठिकाने लगे हैं

सुना है हमें वो भुलाने लगे हैं
तो क्या हम उन्हें याद आने लगे हैं

हटाए थे जो राह से दोस्तों की
वो पत्थर मिरे घर में आने लगे हैं

ये कहना था उन से मोहब्बत है मुझ को
ये कहने में मुझ को ज़माने लगे हैं

हवाएँ चलीं और न मौजें ही उट्ठीं
अब ऐसे भी तूफ़ान आने लगे हैं

क़यामत यक़ीनन क़रीब आ गई है
'ख़ुमार' अब तो मस्जिद में जाने लगे हैं

--ख़ुमार बाराबंकवी


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गँवाई ज़िंदगी जाकर... - मुहम्मद आसिफ अली

गँवाई ज़िंदगी जाकर बचानी चाहिए थी
बुढ़ापे के लिए मुझको जवानी चाहिए थी

समंदर भी यहाँ तूफ़ान से डरता नहीं अब
फ़ज़ाओं में सताने को रवानी चाहिए थी

नज़ाकत से नज़ाकत को हरा सकते नहीं हैं
दिखावट भी दिखावे से दिखानी चाहिए थी

बचाना था अगर ख़ुद को ज़माने की जज़ा से
ख़ला में ज़िंदगी तुझको बितानी चाहिए थी

लगा दो आग हाकिम को जला डालो ज़बाँ से
यही आवाज़ पहले ही उठानी चाहिए थी

हुकूमत चार दिन की है, अना किस काम की फिर
तुझे 'आसिफ़' सख़ावत भी दिखानी चाहिए थी

--मुहम्मद आसिफ अली
  ई-मेल: youtreexauthors@gmail.com


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दुनिया के दिखावे में | ग़ज़ल - ज़फ़रुद्दीन 'ज़फ़र' 

दुनिया के दिखावे में तमाशे में नहीं जाऊं,
आंधियों से दीयों को बचाने में नहीं जाऊं।

मुलाक़ात अगर हो तो कभी रु-ब-रु बोलूं,
क़ैद हो के कहीं भी लिफ़ाफ़े में नहीं जाऊं।

या तो होना है  या  होना  ही  नहीं  उसका,
मैं दो चार क़दम भी दिलासे में नहीं जाऊं।

मैं पूरी ना कर सकूं, जो बच्चों की ज़रूरतें,
इतना भी ऐ ख़ुदा, ख़िसारे  में  नहीं  जाऊं।

जब  अहसास  ही  नहीं  है, मेरे  वजूद का,
किसी का कोई छप्पर उठाने में नहीं जाऊं।

जब हाल ही  नहीं पूछा, बीमार  शख्स का,
मैं सोचता हूं, उसके  जनाज़े में  नहीं जाऊं।

वो खुद ही गिर गया अलग बात है 'ज़फ़र',
कुल्हाड़ी से कोई पेड़ कटाने में नहीं जाऊं।

 -ज़फ़रुद्दीन 'ज़फ़र' 
  दिल्ली -110032
  ई-मेल : zzafar08@gmail.com 


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आग कितनी है... | ग़ज़ल - गिरेन्द्रसिंह भदौरिया 'प्राण'

आग कितनी है बता अंगार में
जान आयेगी तभी दो चार में

नेक नामी के सिवा कुछ भी नहीं
सोच लो फिर क्या बचा संसार में

तुम खड़े ही रह गए पैसे लिए
बिक गई सरकार जिस बाजार में

यह सियासत है बुरा लग जायेगा
बात मत छेड़ो यहाँ बेकार में

अन्त में उनकी भी जय होती ही है
जो लगे रहते हैं जय जयकार में

क्या परिन्दा था उड़ा तो उड़ गया
रंग का कच्चा था आखिरकार में

ज़िन्दगी को प्राण समझा फिर जिया
जी रहा हर दिन इसी विस्तार में

-गिरेन्द्रसिंह भदौरिया 'प्राण'
ई-मेल :
prankavi@gmail.com


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दुख अपना हर... | ग़ज़ल - शमशेरबहादुर सिंह 
दुख अपना हर किसी को बताने से फ़ायदा 
इस बेकसी को अपना बनाने से फ़ायदा ! 
 
बातें हज़ार उठती हैं एक-एक बात से, 
लेकिन हज़ार बातों में जाने से फ़ायदा ! 
 
उठ और झटक के फेंक दे यह सारे आस्तीं, 
ग़म को जिगर का खून पिलाने से फ़ायदा ! 
 
अपने सिवा तो कोई भी अपना नहीं तेरा, 
'शमशेर' मुफ्त जान खपाने से फ़ायदा !

-शमशेरबहादुर सिंह 
(आकाशवाणी इलाहाबाद से प्रसारित)


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किस्से नहीं हैं ये किसी | ग़ज़ल - ज़हीर कुरेशी
किस्से नहीं हैं ये किसी 'राँझे' की 'हीर' के 
ये शेर हैं--अँधेरों से लड़ते 'ज़हीर' के
 
मैं आम आदमी हूँ--तुम्हारा ही आदमी 
तुम काश, देख पाते मेरे दिल को चीर के
 
सब जानते हैं जिसको 'सियासत' के नाम से 
हम भी कहीं निशाने हैं उस खास तीर के
 
चिंतन ने कोई गीत लिखा या ग़ज़ल कही 
जन्में हैं अपने आप ही दोहे 'कबीर' के
 
हम आत्मा से मिलने को व्याकुल रहे 
मगर बाधा बने हुए हैं ये रिश्ते शरीर के
 
- ज़हीर कुरेशी

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जोगिन्द्र सिंह कंवल | फीजी के कवि - भारत-दर्शन संकलन

जोगिन्द्र सिंह कंवल की साहित्यिक यात्रा, 'मेरा देश मेरे लोग' से प्रारंभ हुई थी।

कंवल फीजी के एक सर्वाधिक लब्धप्रतिष्ठ लेखक हैं। उनके चिंतन में गहराई है।

जोगिन्द्र जी ने सदैव अपनी रचनाओं के माध्यम फीजी के जन-जीवन को चित्रित करने का प्रयास किया है।

फीजी में हुए विभिन्न राजनैतिक तख्ता-पलटों (कू) ने इस छोटे से देश, विशेषत: भारतीय समाज को अत्याधिक प्रभावित किया है। फीजी में बसे भारतीय मूल के लोगों ने अनगिनित कष्टों का सामना किया है। जोगिन्द्र सिंह कंवल की रचनाएं इन्हीं दर्दों को चित्रित करती हैं।

 


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कही अल्लाह कही राम लिख देंगे - यतीन्द्र श्रीवास्तव

कही अल्लाह कही राम लिख देंगे !
इंक़लाब का तूफ़ान लिख देंगे !!......

 
 
दीप जगमगा उठे - शैल चंद्रा

बिरजू थका हारा अपनी झोंपड़ी में लौटा । उसका उतरा हुआ मुख देखकर उसकी पत्नी ने पूछा आज भी आपको काम नही मिला? उसने कुछ नहीं कहा। झोंपड़ी में अंधियारा छाया था।

बिरजू की पत्नी ने दीपक जलाते हुए कहा' "बहुत जरा सा तेल है, पता नहीं यह दीपक भी कितनी देर जलेगा?"

गरीब बिरजू के दुर्दिन चल रहे थे। एक फैक्टरी में काम करते उसने अपना एक हाथ खो दिया था। अपाहिज बिरजू को अब काम के लाले पड़ गये थे। पत्नी भी उपेक्षा करने लगी थी। तभी पत्नी ने उसे थाली परोसी। दो सूखी रोटियां थाली में उसका मुँह चिढ़ा रही थी। उसने झिझकते हुए पूछा, "बच्चों ने खाना खा लिया?"

पत्नी ने कहा, "हाँ, एक-एक रोटी उन्हें भी दी थी पर छोटू दूध और सब्जी के लिये रोता रहा। रोते-रोते वह सो गया है। कल के खाने के लिए तो कुछ भी नहीं है। उसका मन हुआ कि इस अभाव भरी जिंदगी से अच्छा है कि वह सपरिवार मौत को गले लगा ले। उसके नेत्र भर आये। चुपचाप वह सूखी रोटियाँ निगलने लगा। तभी उसने देखा दीपक की लौ तेज जल रही है । वह उठा और दीपक में तेल देखने लगा। दीपक में तेल नाममात्र को था पर दीपक तेज लौ में जल रहा था। उसने देखा कि दीपक की लौ तेज होती जा रही थी और अचानक दीपक जोरों से भभका और बुझ गया। झोपड़ी में अंधेरा छा गया ।

उसने सोचा कि जब छोटा सा दीपक अपने अस्तित्व के लिये इतना तीव्र संघर्ष कर सकता है। तेल न होने पर भी वह अपनी जलने की गति तीव्र कर देता है और अंत तक संघर्षरत होता है तो वह हार क्यों माने? अब वह संघर्ष करेगा। मरने की बात सोचना कायरता है। बिरजू के मन में आशा और आत्मविश्वास के सैकड़ों दीप जगमगा उठे।

-शैल चंद्रा

 


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धन्यवाद ! गलियो, चौराहो - भारत भूषण

धन्यवाद !
गलियो, चौराहो। ......

 
 
नया वर्ष हो मंगलकारी - डॉ. राजीव कुमार सिंह

नया वर्ष हो सबकी खातिर मंगलकारी,
इसका प्रतिक्षण साबित हो संकट संहारी,......

 
 
मैं सबको आशीष कहूँगा - नरेन्द्र दीपक

मेरे पथ में शूल बिछाकर दूर खड़े मुस्कानेवाले
दाता ने सम्बन्धी पूछे पहला नाम तुम्हारा लूँगा।

आँसू आहे और कराहें ......

 
 
बटोही, आज चले किस ओर? - भगवद्दत्त ‘शिशु'

नहीं क्या इसका तुमको ज्ञान,
कि है पथ यह कितना अनजान? ......

 
 
दो पल को ही गा लेने दो - शिवशंकर वशिष्ठ

दो पल को ही गा लेने दो।
गाकर मन बहला लेने दो ! ......

 
 
परिवर्तन | गीत - ताराचन्द पाल 'बेकल'

भूख, निराशा, बेकारी का कटता जाए हर बन्धन।
गायक ऐसा गीत सुनाओ जग में आप परिवर्तन॥

सुख की सरिता का स्वर कंपित, ......

 
 
सोचो - राजीव कुमार सिंह

लाचारी का लाभ उठाने को लालायित रहते हैं।
सोचो यदि हम मानव हैं तो दानव किसको कहते हैं।

हम बेचें ईमान स्वयं का, दोष कहें सरकारों का।......

 
 
मुस्कुराकर चल मुसाफिर - गोपाल दास 'नीरज'

पंथ पर चलना तुझे तो मुस्कुराकर चल मुसाफिर।
वह मुसाफिर क्या जिसे कुछ शूल ही पथ के थका दें?......

 
 
आगे बढ़ेंगे  - अली सरदार जाफ़री

वो बिजली-सी चमकी, वो टूटा सितारा,
वो शोला-सा लपका, वो तड़पा शरारा,......

 
 
नया साल : नया गीत - विनिता तिवारी

नये साल में गीत लिखें
कुछ नये भाव के  ऐसे......

 
 
जिंदगी | गीत - प्रभजीत सिंह

एक शाम जिंदगी तमाम हो गई
लेने को पहुंचे जो फरिश्ते......

 
 
जीत जाएंगे - प्रिंस सक्सेना 
बंदिशों में ज़िन्दगी है,
हर तरफ मुश्किल बड़ी है,......
 
 
चाहा कितनी बार कहूँ मैं - राकेश खंडेलवाल

चाहा कितनी बार कहूँ मैं, कितना प्यार तुम्हें करता हूँ
पर अधरो तक आते आते अक्सर शब्द लड़खड़ा जाते

मन के भाव कहो कब किसके शब्दों में बंधने पाए हैं......

 
 
प्रिय तुम्हारी याद में  - शारदा कृष्ण

प्रिय तुम्हारी याद में यह दर्द का अभिसार कैसा,
आँसुओं के हार से ही प्रीत का सम्मान कैसा! ......

 
 
धीरे-धीरे प्यार बन गई - नर्मदा प्रसाद खरे

जाने कब की देखा-देखी, धीरे-धीरे प्यार बन गई
लहर-लहर में चाँद हँसा तो लहर-लहर गलहार बन गई......

 
 
उठ बाँध कमर - मौलाना ज़फ़र अली ख़ाँ

अल्लाह का जो दम भरता है, वो गिरने पर भी उभरता है। 
जब आदमी हिम्मत करता है, हर बिगड़ा काम संवरता है। ......

 
 
झूठी प्रीत - एहसान दानिश

जग की झूठी प्रीत है लोगो, जग की झूठी प्रीत!
पापिन नगरी, काली नगरी, ......

 
 
मैं परदेशी... | गीत - चंद्रप्रकाश वर्मा 'चंद्र'

ममता में सुकुमार हृदय को कस डाला था,
कुछ को सभी बना स्नेह उनसे पाला था, ......

 
 
मन के धब्बे | गीत - गोकुलचंद्र शर्मा

छुटा दे धब्बे दूँगी मोल।

धोबी ! अपनी चुंदरी लेकर आई तेरे घाट,
देख कहीं लौटा मत देना मेरा मैला पाट। ......

 
 
बंदी पंछी | गीत - सैयद मुतलवी फ़रीदाबादी


कब यह खुलेगी काली खिड़की, कब पछी उड़ जाएंगे ......

 
 
जोगी का गीत - पंडित इंद्रजीत शर्मा

बाबा, भर दे मेरा प्याला !
परदेसी हूँ दुख का मारा, फिरता हू मैं मारा-मारा, ......

 
 
बीता पचपन | गीत - क्षेत्रपाल शर्मा

बीता पचपन, ऐसा मेल।
गुड्डा गुड्डी का जस खेल॥......

 
 
टूटी माला बिखरे मनके | गीत - मनोहरलाल ‘रत्नम

टूटी माला बिखरे मनके, झुलस गये सब सपने।
रिश्ते नाते हुए पराये, जो कल तक थे अपने ॥

अंगुली पकड़ कर पांव चलाया, घर के अंगनारे में, ......

 
 
जीत में यकीन कर - शंकर शैलेन्द्र

तू ज़िन्दा है तो ज़िन्दगी की जीत में यकीन कर
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर!

ये ग़म के और चार दिन, सितम के और चार दिन......

 
 
होली (फाल्गुन पूर्णिमा) - आचार्य मायाराम पतंग

हवन करें पापों तापों को, देशप्रेम ज्वाला में।
कपट, ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, भूले स्नेहिल हाला में॥

शीतजनित आलस्य त्यागकर, सब समाज उठ जाए। ......

 
 
जब यार देखा नैन भर - अमीर ख़ुसरो

जब यार देखा नैन भर, दिल की गई चिंता उतर, 
ऐसा नहीं कोई अजब राखे उसे समझाय कर। 

जब आँख से ओझल भया, तड़पन लगा मेरा जिया, 
हक़्क़ा इलाही क्या किया, आँसू चले भर लाय कर। 

तूँ तो हमारा यार है, तुझ पर हमारा प्यार है, 
तुझ दोस्ती बिसियार है, एक शब मिलो तुम आय कर। 

जाना तलब तेरी करूँ, दीगर तलब किसकी करूँ, 
तेरी जो चिंता दिल धरूँ, एक दिन मिलो तुम आय कर। 

मेरो जो मन तुम ने लिया, तुम उठा ग़म को दिया, 
तुमने मुझे ऐसा किया, जैसा पतंगा आग पर। 

ख़ुसरो कहै बातों ग़ज़ब, दिल में न लावे कुछ अजब, 
क़ुदरत ख़ुदा की है अजब, जब जिव दिया गुल लाय कर। 

-अमीर ख़ुसरो


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याद तुम्हारी आई - रमानाथ अवस्थी | गीत

सो न सका कल याद तुम्हारी आई सारी रात 
और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात 

मेरे बहुत चाहने पर भी नींद न मुझ तक आई 
ज़हर भरी जादूगरनी-सी मुझको लगी जुन्हाई 
मेरा मस्तक सहला कर बोली मुझसे पुरवाई 

दूर कहीं दो आँखें भर-भर आईं सारी रात 
और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात 

गगन बीच रुक तनिक चंद्रमा लगा मुझे समझाने 
मनचाहा मन पा जाना है खेल नहीं दीवाने 
और उसी क्षण टूटा नभ से एक नखत अनजाने 

देख जिसे मेरी तबियत घबराई सारी रात 
और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात 

रात लगी कहने सो जाओ देखो कोई सपना 
जग ने देखा है बहुतों का रोना और तड़पना 
यहाँ तुम्हारा क्या, कोई भी नहीं किसी का अपना 

समझ अकेला मौत मुझे ललचाई सारी रात 
और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात 

मुझे सुलाने की कोशिश में जाने अनगिन तारे 
लेकिन बाज़ी जीत गया मैं वे सबके सब हारे 
जाते-जाते चाँद कह गया मुझसे बड़े सकारे 

एक कली मुरझाने को मुस्काई सारी रात 
और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात 

-रमानाथ अवस्थी


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सच के लिए लड़ो मत साथी | गीत - कुमार विश्वास

सच के लिए लड़ो मत साथी, 
भारी पड़ता है! 

जीवन भर जो लड़ा अकेला 
बाहर-अंदर का दु:ख झेला 
पग-पग पर कर्तव्य-समर में 
जो प्राणों की बाज़ी खेला 
ऐसे सनकी कोतवाल को 
चोर डपटता है! 

सच के लिए लड़ो मत साथी, 
भारी पड़ता है! 

किरणों को दाग़ी बतलाना 
या दर्पण से आँख चुराना 
कीचड़ में धँस कर औरों को 
गंगा जी की राह बताना 
इस सबसे ही अंधकार का 
सूरज चढ़ता है! 

सच के लिए लड़ो मत साथी 
भारी पड़ता है! 

-कुमार विश्वास


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ओ देस से आने वाले - अख़्तर शीरानी

ओ देस से आने वाले बता
किस हाल में है याराने-वतन? 
क्‍या अब भी वहाँ के बाग़ों में मस्‍ताना हवायें आती हैं?
क्‍या अब भी वहाँ के परबत पर घनघोर घटायें छाती हैं?
क्‍या अब भी वहाँ की बरखायें वैसे ही दिलों को भाती हैं?
ओ देस से आने वाले बता!

क्‍या अब भी वतन के वैसे ही सरमस्‍त नज़ारे होते हैं?
क्‍या अब भी सुहानी रातों को वो चाँद-सितारे होते हैं?
हम खेल जो खेला करते थे अब भी वो सारे होते हैं?
ओ देस से आने वाले बता!

क्‍या शाम पड़े सड़कों पै वही दिलचस्‍प अन्धेरा होता है?
औ' गलियों की धुन्धली श‍मओं पर सायों का बसेरा होता है?
या जागी हुई आँखों को ख़ुमार और ख़्वाब ने घेरा होता है?
ओ देस से आने वाले बता!

क्‍या अब भी महकते मन्दिर से नाक़ूस की आवाज़ आती है?
क्‍या अब भी मुक़द्दस मस्जिद पर मस्‍ताना अज़ाँ थर्राती है?
औ' शाम के रंगीं सायों पर अ़ज़मात-सी छा जाती है?
ओ देस से आने वाले बता!

क्‍या अब भी वहाँ के पनघट पर पनहारियाँ पानी भरती हैं?
अँगड़ाई का नक़शा बन-बनकर सब माथे पै गागर धरती हैं?
और अपने घरों को जाते हुए हँसती हुई चुहलें करती है?
ओ देस से आने वाले बता!

बरसात के मौसम अब भी वहाँ वैसे ही सुहाने होते हैं? 
क्या अब भी वहाँ के बाग़ों में झूले औ' गाने होते हैं? 
क्या अब भी कहीं कुछ देखते ही नौ-उम्र दिवाने होते हैं? 
ओ देस से आनेवाले बता! 

क्या अब भी वहाँ बरसात के दिन बाग़ों में बहारें आती है? 
मासूमो-हसीं दोशीजायें बरखा के तराने गाती हैं? 
औ' तीतरियों की तरह से रंगी झूलों पर लहराती हैं? 
ओ देस से आनेवाले बता! 

क्या गाँव में अब भी वैसी ही मस्ती भरी रातें आती हैं? 
देहात की कमसिन माहवशीं तालाब की जानिब जाती हैं? 
औ' चाँद की सादह रोशनी में रंगीन तराने गाती हैं? 
ओ देस से आनेवाले बता!

क्या अब भी किसी के सीने में बाक़ी है हमारी चाह बता? 
क्या याद हमें भी करता है, अब यारों में कोई आह, बता? 
ओ देस से आनेवाले बता, लिल्लाह बता, लिल्लाह बता! 
ओ देस से आनेवाले बता!

-अख़्तर शीरानी


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हिन्दी गीत  - डॉ माणिक मृगेश 

हिन्दी भाषा देशज भाषा, 
निज भाषा अपनाएँ।
खुद ऊँचा उठें, राष्ट्र को भी--  
ऊँचा ले जाएँ॥ 

निज भाषा में हो अभिव्यक्ति, सच्ची और अनूठी। 
निज भाषा में गुरुजन देते, हैं विद्या की बूटी॥ 
निज भाषा में बाल बालिका, 
जल्दी शिक्षा पाएँ॥ 

निज भाषा में मनन करें और निज भाषा में चिंतन। 
प्रगति के पथ पर उतनी ही, चढ़ें सीढ़ियाँ निश दिन॥ 
निज भाषा से मिले प्रतिष्ठा--
ऋषि जन यही बताएँ॥ 

हिन्दी है वह भाषा जिसने, आजादी दिलवाई। 
पूरब-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण, समरसता बरसाई॥ 
सरल सहज और प्रेम की भाषा-- 
जनगण मंगल गाएँ॥ 

बहुत बड़े भाग की भाषा, बहुत बड़ा परिवार। 
इसके अपनाने से पहुँचे, चहुँदिशि में व्यापार॥ 
देश-विदेशी मल्टीनेशनल, 
सब इसको अपनाएँ॥ 
हिन्दी भाषा देशज भाषा, 
निज भाषा अपनाएँ॥

-डॉ माणिक मृगेश 


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पगले दर्पण देख  - नसीर परवाज़

कितना धुंधला कितना उजला तेरा जीवन देख 
पगले दर्पण देख 

दूजे के मुख पर क्या अंकित पढ़ने से क्या लाभ? 
कथा अर्थहीन शब्दों की गढ़ने से क्या लाभ? 
झोंक न मूरख बनकर घर घर अपना आँगन देख 
पगले दर्पण देख

सच कहने की सच सुनने की कुछ तो आदत डाल 
जिसमें तेरा स्वार्थ निहित है वह है माया जाल 
जग तुझको झूठा लगता है किसके कारण देख 
पगले दर्पण देख 

तूने सब के दोष गिनाए अपना दिल भी खोल 
दुनिया के बाजार में आखिर क्या है तेरा मोल 
पूजा की थाली में खुद को करके अर्पण देख 
पगले दर्पण देख 

मान कसौटी अपने मन को और अपना कद नाप 
निर्णय और निष्कर्ष का यह विष पी ले अपने आप 
तन्हाई में क्या कहता है तुझ से यह मन देख 
पगले दर्पण देख

मैं तो जग में बहुत बुरा हूँ मेरी बातें छोड़ 
आँसू की इक बूंद हूँ मुझको पत्थर से मत तोड़ 
कितने दाग़ लगे हैं इसमें अपना दामन देख 
पगले दंर्पण देख

-नसीर परवाज़


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सपनों को संदेसे भेजो - बृज राज किशोर 'राहगीर'

सपनों को संदेसे भेजो,
ख़ुशियों को चिट्ठी लिखवाओ।
उनकी आवभगत करनी है,
मुस्कानों को घर बुलवाओ॥

बचपन के मासूम दिनों को,
दोबारा जी करके देखो।
जो उस समय नहीं कर पाए,
आज उसे भी करके देखो।
उन्हीं क्षणों का सुख पाने को,
कभी-कभी बच्चे बन जाओ॥

इन शहरों में एक मशीनी
जीवन जीना सीख गए तुम।
एक छलकते घट जैसे थे,
जाने कैसे रीत गए तुम।
अहसासों के पनघट पर जा,
फिर अपनी गागर भर लाओ॥

सम्बन्धों के वीराने में,
सिमटे-सिमटे क्यों रहना है?
जीवन तो बहती नदिया है,
सब विद्वानों का कहना है।
रिश्तों के मुरझाते वन में,
इस जल की धारा पहुँचाओ॥

-बृज राज किशोर “राहगीर”
 ईशा अपार्टमेंट, रुड़की रोड, मेरठ (उ.प्र.)-2
 ई-मेल : brkishore@icloud.com


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भाग्य विधाता - मोहित नेगी मुंतज़िर 

कितनी ही मेहनत करके दो जून रोटियां पाते हैं,
भाग्य विधाता लोकतंत्र के सड़कों पर रात बिताते हैं।

अफ़सोस नहीं हो रहा उन्हें जो कद्दावर बन बैठे
इन्हीं के पोषित देश भूमि के जो सत्ताधर बन बैठे
इन मक्कारों के खेल में हिंदुस्तानी ऐसे ही रह जाते हैं।
भाग्य विधाता..............।

अट्टहास आकाश कर रहा, धरती धारण दुख करती
यह पवन छूकर ज़ख्मों को और अधिक पीड़ा भरती
इस दुख से दो मुक्ति हमें हे देव! तुम्हें बुलाते हैं।
भाग्य विधाता...................।

महिमा मंडित मत करो तुम अपने कामों के नाम को
दिग्भ्रमित मत करो तुम, सीधी-सादी आवाम को
अपनी भूमि अपना राजा हाय फिर भी दुख पाते हैं
भाग्य विधाता................।

दुष्टों की चीखों से जब गूंजा धरती आसमान
धारण किया था तब तुमने ही रणचंडी का रूप महान
आज देश के क्रांतिवीरों तुम्हें शक्ति याद दिलाते हैं
भाग्य विधाता..................।

--मोहित नेगी मुंतज़िर 
  ई-मेल: mohitnegimuntazir@gmail.com


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सहज गीत गाना होता तो | गीत - शंकरलाल द्विवेदी

सहज गीत गाना होता तो, पीड़ा का यह ज्वार न होता।
लय की भाँवर स्वर से पड़तीं, गीत कभी बेज़ार न रोता॥

सुधियों की देहरी पर पहरा,
निठुर उदासी की गद्दी का।
जो भी कागद लिया हाथ में,
निकला वह केवल रद्दी का।
निठुर लेखनी के नयनों से,
टपकीं अश्रु रूप में मसि क्या?
बेदर्दिन तड़पाती देखी,
इतनी कभी लौह की असि क्या?
सागर आसानी से तिरता,  तो फिर यह मँझधार न होता।
दुःखी न मरते सिसक-सिसक कर, तो शायद यह क्षार न होता॥

विवश भावना,  दुलहिन बैठी,
मन के सूने से आँगन में।
कैसे मधुर कण्ठ से गाए,
श्यामा  अनचाहे  सावन  में।
सुनीं न सुमधुर, बिना गीत के-
पायल की धुन, रुनझुन-रुनझुन।
लौट चले बेचारे दर्शक,
पथ पर नीरस, अनमन-अनमन।
आह अगर होती न कदाचित् यौवन का कुछ सार न होता।
होता अगर समर्थ आज मैं, कल को कभी उधार न होता॥

दुर्दिन में मन के कोने में,
माना,  पीर गीत की जननी।
उठतीं अमित उमंग-मीन हैं,
पर अपनी कुछ ऐसी करनी।
एक पीर का अन्त न होता,
और पीर उठ-उठ आतीं हैं।
पहली लिखी पंक्तियाँ फिर-फिर,
साथ-साथ मिटती जाती हैं।
पीर लिए,  सब कवि बन जाते, कवि का अर्थ प्रचार न होता।
सभी गीत बन कर रह जाते,  सपनों का संसार न होता॥

मेरे इस शीतल अन्तस् में,
इतने तप्त भाव सोते हैं।
बाहर आते कण्ठ-जिह्वा पर,
बस अगणित छाले होते हैं।
पीड़ा के कारण भावों को-
अन्तस् में लौटा देता हूँ।
कभी अधिक पीड़ा के कारण,
आँसू दो ढुलका देता हूँ।
उर के भाव व्यक्त होते तो, इतना कभी उदार न होता।
अपने व्यवहारों में सचमुच, इतना कभी सुधार न होता॥

-शंकरलाल द्विवेदी


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कबीरा खैर मनाए - नसीर परवाज़

अंगारों पर आँसू बोयें इस बस्ती के लोग 
कबीरा खैर मनाए।  
जग के सारे रिश्ते नाते दो अंकों का योग 
कबीरा खैर मनाए।  

पत्थर पूजें, गंगा पूजें, पूजें चाँद सितारे 
मस्जिद, मंदिर, गुरूद्वारों में भटकें भाग्य के मारे 
तिलक लगाएँ, माला फेरें, अंग लगाएँ भोग 
कबीरा खैर मनाए। 

झूठी छाया, झूठी काया, झूठी चाँदी-सोना 
रैन-बसेरा पल दो पल का साँस सिर्फ़ खिलौना 
आशा, अभिलाषा, उम्मीदें सब जीवन के रोग 
कबीरा खैर मनाए। 

माटी ओढ़ी, माटी पहनी, माटी रूप संवारा 
बिलख रहीं आवारा गलियाँ दिल जोगी बंजारा 
बहुरूपी विश्वास जगत का धुंधला जोग वियोग 
कबीरा खैर मनाए। 

आती जाती साँस बाँधती जीने की आशाएँ 
तपती रेत, उजागर सूरज सहमी अभिलाषाएँ 
वचन, कर्म का पुण्य लगाए पापों पर अभियोग 
कबीरा खैर मनाए।  

कौन लिखे बहती धारा पर लाज अमर वाणी की 
पाषाणों का मौन पी गई मर्यादा पानी की 
मिलना और बिछड़ना टूटी साँसों का संयोग 
कबीरा खैर मनाए। 

-नसीर परवाज़
[गीत थकी साँसों के ] 


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याद बहुत आती है | गीत - विष्णु कुमार त्रिपाठी राकेश
याद बहुत आती है
 
एकाकी प्रहरों में याद बहुत आती है। 
बेकली बढ़ाती है।
 
समझा कर हार गया किन्तु नहीं माना मन, 
रूप किरन पाने को मचल मचल जाता मन; 
नींद निगोड़ी मेरे पास नहीं आती है। 
पल-पल तरसाती है। 
याद बहुत आती है ।।
 
नयनों के द्वार खड़े सपने सकुचाते हैं 
पलकों तक आ-आकर लौट-लौट जाते हैं 
आँसू के सरगम पर पीड़ा खुद गाती है 
लोरियाँ सुनाती है।
याद बहुत आती है॥
 
- विष्णु कुमार त्रिपाठी राकेश

 


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मुझसे मेरी व्यथा न पूछो | गीत - गणेश शंकर शुक्ल 'बंधु'

जो कुछ मुझपर बीत रही है कह न सकूंगा है मजबूरी। 
पूरब पश्चिम एक कर दिए मिट न सकी फिर भी
वह दूरी।

जिसको मैंने व्यथा सुनायी उसने ही उपहास किया है—
अब जग से मुझको भय लगता मेरी जीवन कथा न पछो ।
मुझसे मेरी व्यथा न पूछो ।

ज्योंही बढ़ा एक पग आगे खींचा गया दूसरा पीछे। 
नजरों पर चढ़ गया रहा यदि दो पल पलक के नीचे । 
हित भी तो अनहित हो जाता नेकी करो बदी मिलती है—
यहां व्याप्त शंका कण कण में तुम इस जग की प्रथा 
न पूछो ।।

सोच रहा था सब अपने हैं, अपनों से फिर कैसा अंतर । 
पर अपने बन गए पराए कांप उठा आकुल अभ्यांतर ।
माप सको दुख की गहराई, यदि तुममें इतना है साहस—
दो क्षण तुम मेरे संग रह लो डर पीड़ा अन्यथा न पूछो ।
मुझसे मेरी व्यथा न पूछो ।।

-गणेश शंकर शुक्ल 'बंधु'


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अपने लिए मुझे | गीत  - शकुंतला अग्रवाल शकुन 
चाहे जो इल्जाम लगाए, दुनिया मुझ पर आज।
अपने लिए मुझे जीना है, हो कोई नाराज॥ 
 
बहुत यहाँ  कर्तव्य निभाए, चाहूँ अब अधिकार
छिप-छिप कर अब भरना आहें, नहीं मुझे स्वीकार।
करे उपेक्षा कोई मेरी, बन जाऊँ तलवार
हाथ लगाए जो दामन को,कर दूँ  टुकड़े  चार।
मनमानी अब करना छोड़े,पुरुष प्रधान समाज॥
अपने लिए मुझे.....
 
पंख लगा कर, उम्मीदों के, नाप रही आकाश
भिड़ जाती हूँ विपदा से मैं,होती नहीं निराश।
नेह-भरे मैं दीप जलाऊँ, अपने आँगन द्वार
पथ के रोड़े डिगा न पाए, प्रभु तेरा आभार।
रख बुलंद हौसले जीत के,पहनूँगी मैं ताज॥ 
अपने लिए मुझे.....
 
तोड़ बेडियाँ सारी मैंने, देखो भरी उड़ान
शक्ति-स्वरूपा बन कर मैंने,पाया है सम्मान।
स्वर्ग बनाया निज जीवन को, मन में रख विश्वास
तोड़ पुरानी परम्पराएँ, रचा नया इतिहास।
अगर ठान लो तो होता कब, मुश्किल कोई काज?
अपने लिए मुझे.....
 
-शकुंतला अग्रवाल शकुन 
 भीलवाड़ा राजस्थान
ई-मेल : shakuntalaagrwal3@gmail.com

 


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भाई दूज की कथा | Bhai Dooj - भारत-दर्शन संकलन

भाई दूज का त्योहार भाई बहन के स्नेह को सुदृढ़ करता है। यह त्योहार दीवाली के दो दिन बाद मनाया जाता है।

हिन्दू धर्म में भाई-बहन के स्नेह-प्रतीक दो त्योहार मनाये जाते हैं - एक रक्षाबंधन जो श्रावण मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। इसमें भाई बहन की रक्षा करने की प्रतिज्ञा करता है। दूसरा त्योहार, 'भाई दूज' का होता है। इसमें बहनें भाई की लम्बी आयु की प्रार्थना करती हैं। भाई दूज का त्योहार कार्तिक मास की द्वितीया को मनाया जाता है।

भैया दूज को भ्रातृ द्वितीया भी कहते हैं। इस पर्व का प्रमुख लक्ष्य भाई तथा बहन के पावन संबंध व प्रेमभाव की स्थापना करना है। इस दिन बहनें बेरी पूजन भी करती हैं। इस दिन बहनें भाइयों के स्वस्थ तथा दीर्घायु होने की मंगल कामना करके तिलक लगाती हैं। इस दिन बहनें भाइयों को तेल मलकर गंगा यमुना में स्नान भी कराती हैं। यदि गंगा यमुना में नहीं नहाया जा सके तो भाई को बहन के घर नहाना चाहिए।

यदि बहन अपने हाथ से भाई को जीमाए तो भाई की उम्र बढ़ती है और जीवन के कष्ट दूर होते हैं। इस दिन चाहिए कि बहनें भाइयों को चावल खिलाएं। इस दिन बहन के घर भोजन करने का विशेष महत्व है। बहन चचेरी अथवा ममेरी कोई भी हो सकती है। यदि कोई बहन न हो तो गाय, नदी आदि स्त्रीत्व पदार्थ का ध्यान करके अथवा उसके समीप बैठ कर भोजन कर लेना भी शुभ माना जाता है।

इस दिन गोधन कूटने की प्रथा भी है। गोबर की मानव मूर्ति बना कर छाती पर ईंट रखकर स्त्रियां उसे मूसलों से तोड़ती हैं। स्त्रियां घर-घर जाकर चना, गूम तथा भटकैया चराव कर जिव्हा को भटकैया के कांटे से दागती भी हैं। दोपहर पर्यन्त यह सब करके बहन भाई पूजा विधान से इस पर्व को प्रसन्नता से मनाते हैं। इस दिन यमराज तथा यमुना जी के पूजन का विशेष महत्व है।


भैया दूज की पौराणिक कथा

भगवान सूर्य नारायण की पत्नी का नाम छाया था। उनकी कोख से यमराज तथा यमुना का जन्म हुआ था। यमुना यमराज से बड़ा स्नेह करती थी। वह उससे बराबर निवेदन करती कि इष्ट मित्रों सहित उसके घर आकर भोजन करो। अपने कार्य में व्यस्त यमराज बात को टालता रहा। कार्तिक शुक्ला का दिन आया। यमुना ने उस दिन फिर यमराज को भोजन के लिए निमंत्रण देकर, उसे अपने घर आने के लिए वचनबद्ध कर लिया।

यमराज ने सोचा कि मैं तो प्राणों को हरने वाला हूं। मुझे कोई भी अपने घर नहीं बुलाना चाहता। बहन जिस सद्भावना से मुझे बुला रही है, उसका पालन करना मेरा धर्म है। बहन के घर आते समय यमराज ने नरक निवास करने वाले जीवों को मुक्त कर दिया। यमराज को अपने घर आया देखकर यमुना की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उसने स्नान कर पूजन करके व्यंजन परोसकर भोजन कराया। यमुना द्वारा किए गए आतिथ्य से यमराज ने प्रसन्न होकर बहन को वर मांगने का आदेश दिया।

यमुना ने कहा कि भद्र! आप प्रति वर्ष इसी दिन मेरे घर आया करो। मेरी तरह जो बहन इस दिन अपने भाई को आदर सत्कार करके टीका करे, उसे तुम्हारा भय न रहे। यमराज ने तथास्तु कहकर यमुना को अमूल्य वस्त्राभूषण देकर यमलोक की राह की। इसी दिन से पर्व की परम्परा बनी। ऐसी मान्यता है कि जो आतिथ्य स्वीकार करते हैं, उन्हें यम का भय नहीं रहता। इसीलिए भैयादूज को यमराज तथा यमुना का पूजन किया जाता है।......

 
 
गोवर्धन पूजन | अन्नकूट महोत्सव | Gowardhan Poojan Puranik Katha - भारत-दर्शन संकलन

प्राचीन काल से ही ब्रज क्षेत्र में देवाधिदेव इन्द्र की पूजा की जाती थी। लोगों की मान्यता थी कि देवराज इन्द्र समस्त मानव जाति, प्राणियों, जीव-जंतुओं को जीवन दान देते हैं और उन्हें तृप्त करने के लिए वर्षा भी करते हैं। लोग साल में एक दिन इंद्र देव की बड़े श्रद्धा भाव से पूजा करते थे। वे विभिन्न प्रकार के व्यंजनों एवं पकवानों से उनकी पूजा करना अपना कत्र्तव्य समझते थे।  उनका विश्वास था कि यदि कोई इन्द्र देव की पूजा नहीं करेगा तो उसका कल्याण नहीं होगा। यह भय उन्हें पूजा के प्रति श्रद्धा और भक्ति से बांधे रखता था। एक बार देवराज इन्द्र को इस बात का बहुत अभिमान हो गया कि लोग उनसे बहुत अधिक डरते हैं। त्रिकालदर्शी भगवान को अभिमान पसंद नहीं है।
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आइए, 'तम' से जूझ जाएं  - रोहित कुमार 'हैप्पी'

संपादकीय

दीपमाला कह रही है, दीप सा युग-युग जलो।
घोरतम को पार कर, आलोक बन कर तुम जलो।।......

 
 
दीवाली किसे कहते हैं? - रोहित कुमार 'हैप्पी'

"बापू परसों दीवाली है, ना? बापू, दीवाली किसे कहते हैं?" सड़क के किनारे फुटपाथ पर दीये बेच रहे एक कुम्हार के फटेहाल नन्हे से बच्चे ने अपने बाप से सवाल किया।

"जिस दिन लोगों को ढेर से दीयों की जरूरत पड़ती है और अपने ढेर से दीये बिकते हैं, उसी को दीवाली कहते हैं, बेटा!'

"बापू, आज लोग नए-नए कपड़े और मिठाई भी खरीदते हैं!" बच्चे ने बाप से फिर प्रश्न करते हुए, मिठाई और नए कपड़े पाने की चाहत में अपनी आँखे पिता पर गड़ा दी।

"हाँ, बेटा! आज मैं तुम्हारे लिए भी मिठाई और कपड़े खरीदूंगा।" कहकर, सोचने लगा, 'क्या उसकी बिक्री इतनी होगी?' उसने अपने बेटे की ओर देखा - बच्चे की आँखों में लाखों दीये जगमग-जगमग कर रहे थे। 'आज बापू शायद उसके लिए भी कपड़े और मिठाई खरीदने वाला था।'

बाप की आँखों से आँसू छलक कर नीचे पड़े दीये में जा पड़ा।

-रोहित कुमार 'हैप्पी'
  न्यूज़ीलैंड।

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रोहित कुमार हैप्पी की ग़ज़लें - भारत दर्शन

रोहित कुमार 'हैप्पी' ने अपना हिंदी लेखन अपने विद्यालय से प्रकाशित होने वाली वार्षिक पत्रिका 'कपिस्थली' से आरंभ किया। पहली रचना लिखी जब वे शायद 7वी या 8वीं के छात्र थे। फिर उसके बाद महाविद्यालय की वार्षिक पत्रिका में लिखते रहे व साथ ही स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं के संपादन में सहयोग देने लगे।

आपकी रचनाएं दैनिक ट्रिब्यून, पंजाब-केसरी, दैनिक वीर प्रताप, वेब दुनिया, नई दुनिया, पाञ्चजन्य, हरि-गंधा, विश्वमानव, ऑउटलुक, शांति-दूत (फीजी), स्कूप न्यूज, संडे स्टार, वायकॉटो टाइम्स इंडियन टाइम्स, (न्यूज़ीलैंड) जैसे प्रिंट मीडिया में प्रकाशित इत्यादि में प्रकाशित होती रही। इसके अतिरिक्त जी-न्यूज, कम्युनिटी रेडियो, स्थानीय रेडियों, टीवी, डॉयचे वेले (जर्मन), वॉयस ऑव अमेरिका के प्रसारण में योगदान।

1996 में इंटनेट पर विश्व की पहली साहित्यिक पत्रिका, 'भारत-दर्शन' का प्रकाशन आरम्भ किया और इसके साथ ही नियमित रूप से 'लघु-कथा' का प्रकाशन होने लगा।

आइए, रोहित कुमार 'हैप्पी' ग़ज़ल-संग्रह का आनन्द लें।

 


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गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्रपति का राष्ट्र के नाम संबोधन - भारत-दर्शन संकलन

भारत की राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मु का 74वें गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्र के नाम संबोधन
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रोहित कुमार हैप्पी की लघुकथाएं  - भारत दर्शन

रोहित कुमार 'हैप्पी' ने अपना हिंदी लेखन अपने विद्यालय से प्रकाशित होने वाली वार्षिक पत्रिका 'कपिस्थली' से आरंभ किया। पहली रचना लिखी जब वे शायद 7वीं या 8वीं के छात्र थे। फिर उसके बाद महाविद्यालय की वार्षिक पत्रिका में लिखते रहे व साथ ही स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं के संपादन में सहयोग देने लगे।

आपकी पहली लघु-कथा दैनिक वीर प्रताप में प्रकाशित हुई थी। तत्पश्चात आपकी लघु-कथाएं व रचनाएं दैनिक ट्रिब्यून, पंजाब-केसरी, वेब दुनिया, नई दुनिया, पाञ्चजन्य, हरि-गंधा, वीर-प्रताप, विश्वमानव, ऑउटलुक, शांति-दूत (फीजी), स्कूप न्यूज, संडे स्टार, वायकॉटो टाइम्स इंडियन टाइम्स, (न्यूज़ीलैंड) इत्यादि जैसे प्रिंट मीडिया में प्रकाशित होती रही। इसके अतिरिक्त जी-न्यूज, कम्युनिटी रेडियो, स्थानीय रेडियों, टीवी, डॉयचे वेले (जर्मन), वॉयस ऑव अमेरिका के प्रसारण में योगदान।

1996 में इंटनेट पर विश्व की पहली साहित्यिक पत्रिका, 'भारत-दर्शन' का प्रकाशन आरम्भ किया और इसके साथ ही नियमित रूप से 'लघु-कथा' का प्रकाशन होने लगा।

आइए, रोहित कुमार 'हैप्पी' की कुछ लघु-कथाओं का आनन्द लें।

 


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राखी - भारत-दर्शन संकलन

रक्षा बंधन का त्यौहार श्रावण मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। उत्तरी भारत में यह त्यौहार भाई-बहन के अटूट प्रेम को समर्पित है और इस त्यौहार का प्रचलन सदियों पुराना बताया गया है। इस दिन बहने अपने भाई की कलाई पर राखी बाँधती हैं और भाई अपनी बहनों की रक्षा का संकल्प लेते हुए अपना स्नेहाभाव दर्शाते हैं।

रक्षा बंधन का उल्लेख हमारी पौराणिक कथाओं व महाभारत में मिलता है और इसके अतिरिक्त इसकी ऐतिहासिक व साहित्यिक महत्ता भी उल्लेखनीय है।

आइए, रक्षा-बंधन के सभी पक्षों पर विचार करें।

 

 

रक्षाबंधन पर भारत के उप-राष्ट्रपति का बधाई संदेश पढ़ें

 


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गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्रपति का राष्ट्र के नाम संबोधन - भारत-दर्शन समाचार

भारत की राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मु का 74वें गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्र के नाम संबोधन
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