तुम हो अपने शत्रु किन्तु मैं मीत तुम्हारी
तुम जीवन को हार किन्तु मैं जीत तुम्हारी

प्रबल झकोरों में झंझा के बह जाते हो
मन के तूफानों में नहीं ठहर पाते हो
गहन विचार सिन्धु में डूबे उतराते हो
भाव शिखर पर चढ़ते पर उलटे आते हो

विफल रुदन के बीच बनी मैं गीत तुम्हारी
तुम जीवन की हार किन्तु मैं जीत तुम्हारी

माया की मोहिनी फंसाती तुम फंस जाते
तृष्णा हँसती कहां हरिण से तुम हँस पाते ?
गहन पंक में मद के तुम गहरे धंस जाते
ममता बंधन कसते, नहीं तनिक खस पाते

भाती है अनरीति तुम्हें, मैं रीत तुम्हारी
तुम हो अपने शत्रु किन्तु मैं मीत तुम्हारी

भरता है अविवेक कुलांचे रीते मन में
ईष्र्या दहक रही है, आग लगे ज्यों वन में
ठोकर खाते पा जाते धोखा क्षण-क्षण में
जग में सार न रस दिखता तुमको जीवन में

शंकित तुम हो, मैं हूं किन्तु प्रतीत तुम्हारी
तुम जीवन की हार किन्तु मैं जीत तुम्हारी

-विश्वप्रकाश दीक्षित ‘बटुक'
[धर्मयुग, फरवरी, 1951]