[ प्रेमचंद जयंती विशेष ]
कहाँ हो प्रेमचंद,
जब शब्दों का अर्थ
अख़बार की सुर्ख़ियों की तरह
एक दिन में पुराना हो जाता है।
जब रचनाएँ
कागज़ पर नहीं,
डिजिटल स्क्रीन पर
कॉपी-पेस्ट की तरह उग आती हैं।
तुम्हारे गोदान का हल
अब किसान के कंधे पर नहीं,
बल्कि कर्ज़ की फाइलों में दबा है।
निर्मला की आँखों का
निर्दोष उजाला
अब बाज़ार की रोशनियों में
गुम हो गया है।
सोज़े वतन की धड़कन
अब विज्ञापन की धुन में
सुनाई ही नहीं देती।
आज साहित्य
आवरण बदल-बदलकर
बेचा जा रहा है
भावनाओं का मूल्य तय है,
विचारों की नीलामी होती है।
सम्मानों की भीड़ में
लेखक खोते हैं,
और पाठक
गिनती का हिस्सा भर बन जाते हैं।
कहाँ हो तुम,
जो शब्दों को
सत्य की मशाल बनाते थे?
आज तो मशालें
बिजली के बल्ब में बदल गई हैं,
जो जलती हैं
पर गर्माहट नहीं देतीं।
हर रोज़
लाखों कविताएँ, कहानियाँ, लेख
बिना आत्मा के जन्म लेते हैं
जैसे बारिश के बाद
सड़क किनारे उगी
पॉलिथीन की झिल्ली।
कहीं कोई किसान
अपने दर्द को लिखने वाला नहीं,
कहीं कोई स्त्री
अपना मौन बाँटने वाली नहीं।
बस साहित्यिक मठ हैं,
जहाँ शब्दों से अधिक
अहंकार बिकता है।
सम्मानों की रेलगाड़ी है,
पर उसमें सवार होने वाले
सिर्फ नाम के यात्री हैं।
सरोकारों की सीटें
खाली पड़ी हैं,
जिन्हें भरने कोई नहीं आता।
काश तुम होते,
तो यह दिखाते
कि साहित्य
सिर्फ छपने का साधन नहीं,
यह समाज की आत्मा का दर्पण है।
कि कहानी
सिर्फ मनोरंजन नहीं,
बल्कि जीवन का आईना है।
आज जब बच्चे
तुम्हारे पंच परमेश्वर को नहीं जानते,
जब गोदान का हल
उन्हें बोझ लगता है,
और निर्मला का त्याग
उन्हें अजीब-सा,
पुराना-सा प्रतीत होता है
तब लगता है,
अब सचमुच
कोई प्रेमचंद नहीं बचा।
पर भीतर कहीं
एक आशा अब भी जलती है
कि शब्दों की राख से
फिर जन्म लेगा
कोई,
जो समाज के दर्द को
अपनी कलम से
अमर कर देगा।
तब तक,
हम ढूँढते रहेंगे
तुम्हारी छाया
हर पुस्तक, हर पन्ने में,
क्योंकि प्रेमचंद,
साहित्य की आत्मा हो तुम
और आत्माएँ
कभी मरती नहींं।
-सुशील शर्मा