कहीं मान मिला,अपमान मिला 
 सब  कुछ  सहते चले गए  ।
 सम्मान की भूख ब-दस्तूर है,
 सिस्टम से  लड़ते चले गए ।
 
 हर कोई रूठा, छूटा पीछे,
 भूखा  था जो  पैसों  का । 
 जख्म का मरहम पाने को,
 हम  दूर  होते  चले गए ।
 
 मन की ख्वाहिश दफन हुई
 कर्ज का बोझ बढ़ा इतना ।
 फर्ज़ पड़े हैं जस के  तस,
 हम अपनो से ही छले गए ।
 
 साँसो का हक किसको दूँ मैं,
 किसे बताऊँ किसका हूँ मैं ।
 अपने ही बिछाये जालों मे 
 खुद ही फँसते चले गए ।
 
 कौन  है अपना  कौन पराया 
 सब  पे  है  माया का साया ।
 किस-किस दलदल की बात करूँ 
 पत्थर  मे  धंसते  चले  गए ।
 
 श्याह  अंधेरा हर  कोने मे 
 कहाँ  दर्द है  अब  रोने मे ।
 रीते  दिल  चाह है  रीति,
 सब हँस कर देखो चले गए ।
 
 अपनी समझ बताऊँ किसको, 
 अपना दर्द सुनाऊँ  किसको। 
 मुझसे ज्यादा दुखी सभी हैं 
 यह  कहते सारे चले गए । 
 
 शब्द हुए गुमनाम हैं जब से,
 नज़्म  बनी  बेनाम  हैं तबसे ।
 जब से गमों मे गुमसुम हूँ मैं,
 गूंगे  भी  बककर  चले गए । 
 
 - जयशंकर प्रसाद द्विवेदी
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