गाँव की गलियाँ अभी अंधेरे में डूबी थीं। हल्की ठंड थी, लेकिन सुमन को इसकी परवाह नहीं थी। वह हर सुबह सूरज उगने से पहले उठती, घर का झाड़ू-पोछा करती, माँ के साथ चूल्हे पर रोटियाँ सेंकती, फिर कॉलेज के लिए निकलती।
वह गया जिले के एक गाँव के दलित टोले में रहती थी। वहाँ सुविधाओं के नाम पर सिर्फ एक सरकारी स्कूल था, जहाँ पढ़ाई कम और छुट्टियाँ ज़्यादा होती थीं। उसकी माँ कहती थी, "लड़की जात के लिए ज़्यादा पढ़ाई-लिखाई ठीक नहीं। हमें तो बस इतना ही चाहिए कि तू ठीक से अपना नाम लिख सके।"
लेकिन सुमन ने हमेशा किताबों में अपना भविष्य देखा था। अपने आज तक के जीवन में उसने जो सबसे बड़ा अधिकारी देखा था वह दरोगा था, वह भी ऊँची जाति का, जो उनके टोले में घोड़े पर बैठकर आता और उनकी जाति पूछकर बात करता। मगर वह दरोगा नहीं बनना चाहती थी। वह उस प्रशासन का हिस्सा बनना चाहती थी, जहाँ से वह अपने जैसे हज़ारों लोगों की आवाज़ बन सके।
जब उसने सुना कि यूपीएससी (UPSC) की तैयारी करने के लिए दिल्ली जाना होगा, तो माँ-बाप पहले तो राज़ी नहीं हुए। "दिल्ली? इतनी दूर? अकेली लड़की? वहाँ कौन संभालेगा तुझे?" लेकिन जब उसने ज़िद पकड़ी, तो माँ ने थोड़ा-थोड़ा करके उसके लिए पैसे जोड़े।
गाँव से जब वह ट्रेन में बैठी, तो उसकी आँखों में दिल्ली की बड़ी-बड़ी इमारतें, लाल बत्ती वाली गाड़ियाँ और अफसरों की तस्वीरें घूम रही थीं। मन एक ओर तो उमंगों से भरा था तो दूसरी ओर आशंकाओं के बादल भी मन में उमड़-घुमड़ रहे थे । क्या होगा यदि वह अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो पाई? सोचकर ही उसे सिहरन-सी हो जा रही थी।
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उधर, नेहा के लिए भी दिल्ली के दिन की शुरुआत आसान नहीं होती थी। सुबह 7 बजे कॉलेज के लिए निकलना, पहले ऑटो पकड़ने के लिए दौड़ना, फिर भीड़भरी बस में सफर करना। बस में सीट मिलना तो दूर, सही से खड़े होने तक की जगह नहीं होती। हर दिन किसी न किसी का हाथ उसके शरीर पर अनचाही जगह टकराता। कुछ लोग जानबूझकर धक्का देते, कुछ नज़रें गड़ाए रखते। वह चाहकर भी चिल्ला नहीं सकती थी, क्योंकि उसे डर था कि कहीं लड़ाई में समय न बर्बाद हो जाए और उसकी क्लास छूट जाए।
घर में भी हालात बहुत अच्छे नहीं थे। उसकी माँ कहतीं, "बेटा, इतनी मेहनत क्यों कर रही हो? कोई ठीक-ठाक नौकरी कर लो, शादी कर लो, लड़कियों के लिए ये परीक्षाएँ आसान नहीं होतीं।" लेकिन नेहा को खुद के लिए कुछ बड़ा करना था।
जब उसने यूपीएससी की कोचिंग जॉइन करने का फैसला लिया, तो माँ चिंतित थीं—"फीस कहाँ से आएगी?" लेकिन नेहा ने ठान लिया था कि वह किसी भी तरह से अपनी राह बनाएगी।
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इलाहाबाद की शिखा की सुबह सबसे पहले उसकी बच्ची के रोने की आवाज़ से होती थी। रात भर जागने के बावजूद उसे सुबह 5 बजे उठकर घर के सारे काम करने होते थे। सासू माँ कहतीं, "बहू, घर की जिम्मेदारी पहले, नौकरी बाद में।"
प्राइवेट स्कूल की नौकरी थी, लेकिन वहाँ पढ़ाने के अलावा भी कामों की लंबी लिस्ट थी। स्कूल बस का पास बनाना, जिन बच्चों की फीस नहीं भरी, उनके गार्जियन को फोन करना, दो तरह के उपस्थिति रजिस्टर रखना—एक असली और एक सीबीएससी (CBSE) मानकों के लिए दिखाने वाला। ...और हद तो तब होती जब आरटीई (RTE) के तहत गरीब बच्चों के एडमिशन का झूठा रजिस्टर तैयार करना पड़ता।
शिखा हर दिन सोचती कि यह सब कब तक चलेगा? वह यह ज़िंदगी नहीं चाहती थी। उसने सुना था कि यूपीएससी से कुछ भी संभव है लेकिन दिल्ली जाने का मतलब था अपनी एक साल की बच्ची को ससुराल में छोड़कर जाना।
दिल्ली की ट्रेन पकड़ते समय बच्ची की मासूम आँखों ने उसे रोका लेकिन उसने खुद से कहा, "अगर आज मैं नहीं लड़ी, तो मेरी बेटी के लिए भी यही ज़िंदगी होगी।"
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दिल्ली के अभिषेक पांडे के घर में प्रशासनिक सेवाएँ चर्चा का मुख्य विषय होती। उसके पिता आईएएस थे, माँ आईपीएस। किसी को उसे बताने की जरूरत ही नहीं थी कि उसे बड़ा होकर क्या बनना है? बचपन से ही उसका सुबह का टोस्ट एक आईएएस के साथ होता था और रात्रि में वह एक आईपीएस अर्थात अपनी मम्मी के साथ सोता था।
उसके पास सबसे अच्छी किताबें थीं, महँगी कोचिंग थी, हर विषय पर विशेषज्ञों की सलाह थी। उसके दोस्त जब क्रिकेट खेलते थे, वह पिता के साथ प्रशासनिक बैठकों की बातें सुनता था। जब उसने यूपीएससी की कोचिंग जॉइन की, तो किसी को संदेह नहीं था कि वह सफल होगा।
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दिल्ली के मुखर्जी नगर में ठंडी सुबह थी। बत्रा सिनेमा हॉल के बाहर चाय की दुकान पर छात्रों की भीड़ लगी थी। कुछ अख़बार के पन्नों पर करंट अफेयर्स देख रहे थे, कुछ ग्रुप डिस्कशन में व्यस्त थे, तो कुछ चुपचाप चाय की चुस्कियों के बीच अपने संघर्षों में उलझे थे। इसी भीड़ में ये चार चेहरे भी थे—चार अलग-अलग पृष्ठभूमियों से आए, मगर एक ही मंज़िल की ओर बढ़ते हुए। चारों एक दूसरे से परिचित थे और एक ही कोचिंग में पढ़ते थे। चाय समाप्त कर वे क्लास करने चले गए।
कोचिंग की क्लास में चारों साथ बैठे थे, लेकिन उनके संघर्ष अलग थे।
सुमन को जातिगत तानों से जूझना पड़ता था। जब भी वह देर रात तक पढ़ती तो अगली सुबह पीजी में उसके साथ रहने वाली सहेलियाँ उस से कहतीं- "तुझे तो आरक्षण का फायदा मिलेगा, फिर इतनी मेहनत क्यों?" लेकिन कोई यह नहीं समझता था कि गाँव से शहर आने तक उसने कितनी लड़ाइयाँ लड़ी थीं।
नेहा अब भी पैसों और सफर की दिक्कतों से जूझ रही थी।
शिखा हर रात बच्ची की याद में रोती थी।
अभिषेक हर विषय में सबसे आगे था। टीचर भी मानते थे कि वह पक्का सफल होगा।
तीन साल की तैयारी के बाद परीक्षा हुई। फिर इंटरव्यू और अंत में परिणाम आया।
अभिषेक आईएएस बन गया। कोचिंग में जश्न मनाया जा रहा था। सभी कह रहे थे, "ये बचपन से ही होशियार था, ज़िम्मेदार था।" कोचिंग के टीचर बोले, "इसने बहुत मेहनत की थी, तभी सफल हुआ।"
सुमन असफल रही। उसकी जाति को लेकर लोगों ने कहा, "तुझे तो आरक्षण मिला था, फिर भी नहीं निकाल पाई?" मगर किसी ने नहीं पूछा कि क्या समान संसाधन मिले थे? क्या किसी ने जातीय भेदभाव, सामाजिक असुरक्षा और आर्थिक तंगी से जूझते हुए पढ़ाई करने की उसकी कोशिश को समझा?
शिखा भी असफल रही। बेटी को छोड़कर आई थी, अब वापस लौट रही थी। स्टेशन पर बैठी सोच रही थी—क्या एक शादीशुदा स्त्री का यूपीएससी सपना ही रहेगा? क्या समाज उसे केवल पत्नी और माँ के रूप में देख सकता है?
नेहा असफल रही लेकिन दिल्ली के एक्सपोज़र ने उसे एक कॉरपोरेट नौकरी दिला दी। अब भीड़भरी बसों की जगह ऑफिस कैब थी, जेब में गिने-चुने पैसे की जगह अब अच्छी सैलरी थी। उसने भले यूपीएससी नहीं निकाला, लेकिन वह संतुष्ट थी कि उसका संघर्ष उसे कहीं तो ले गया पर इस सफलता में कहीं न कहीं उसके शहर की भी भूमिका थी।
मुखर्जी नगर में जश्न मनाया जा रहा था। आईएएस बने अभिषेक को मिठाइयाँ खिलाई जा रही थीं। कोचिंग सेंटर में उसके पोस्टर लगे थे।
वहीं, सुमन और शिखा वापस लौट रही थीं। ट्रेन की खिड़की से बाहर देखते हुए सुमन सोच रही थी—"क्या यह सच में सबके लिए समान मैदान था?"
शिखा की आँखों में आँसू थे। वह जानती थी कि समाज अब कहेगा—"शादीशुदा औरतें इतनी बड़ी परीक्षाएँ नहीं निकाल सकतीं।"
दूसरी ओर, नेहा अपनी कॉरपोरेट मीटिंग में व्यस्त थी।
आईएएस के पद पर चयनित अभिषेक पांडे को कोचिंग वाले ने एक महंगी गाड़ी गिफ्ट में दी थी और आज अत्यंत भव्य तरीके से उसका स्वागत जुलूस निकाला जा रहा था ।
संघर्ष सबके थे,प्रतिभा भी सब में कामोबेश समान थी लेकिन सफलता सिर्फ़ उन्हीं को मिली, जिनका मैदान शुरू से समतल था। क्या दुनिया इसे देख पाएगी? क्या समाज इसे समझ पायेगा?
-डॉ अमित रंजन
सहायक प्राचार्य, जयप्रकाश विश्वविद्यालय
ई-मेल : amitranjanth1989@gmail.com
*लेखक जयप्रकाश विश्वविद्यालय में सहायक प्राचार्य हैं। इससे पहले वे बैंक में सहायक प्रबंधक,समीक्षा अधिकारी,कोल इंडिया लिमिटेड में सहायक प्रबंधक,बिहार सरकार में राजस्व सह अंचल अधिकारी (राजपत्रित पद,BPSC) जैसे पदों पर रह चुके हैं। भारतीय समाज राजनीति एवं हिंदी उपन्यास, स्त्री-प्रश्न और हिंदी उपन्यास(आलोचनात्मक ग्रन्थ), सुधर गया मोटू (बाल कहानी संग्रह) प्रकाशित। कर्म पथ के पथिक (स्वतंत्रता सेनानी एवं शिक्षक लक्ष्मी नारायण जी) अभिनंदन ग्रंथ का संपादन। इनकी कहानियाँ प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं व अखबारों में प्रकाशित हुई हैं।