प्रेमचंद! तुम छिपे, किन्तु यह नहीं समय था--
प्रेमसूर्य का अभी कहाँ हा! हुआ उदय था।
उपन्सयास औ’ कथा-जगत तमपूर्ण निरन्तर--
दीप्यमान था अभी तुम्हारा ही कर पाकर।
अस्त हुए तुम, त्वरित यहाँ छा गया अंधेरा;
दिया भ्रांति ने डाल तिमिर में आकर डेरा।
उपन्यास है सिमक रहा, रो रही कहानी;
देख रहे यह बदन मोड़ कैसे तुम मानी!
सोचो, उससे रूठ भागना कभी उचित है?
जिसमें आत्मा, प्राण, देह सर्वस्य निहित है!
क्या-क्या इसके हेतु नहीं तुमने हैं वारे!
गल्प तुम्हारा और गल्प के थे तुम प्यारे!
हिंदी-उर्दू बहन-बहन को गले मिलाया
आपस के चिर गैर-भाव को मार भगाया।
रोती हिंदी इधर, उधर उर्दू बिलखाती;
भला आज क्यों तुम्हें नहीं करुणा कुछ आती?
छोड़ सभी को क्षीण-दीन तुम स्वर्ग सिधारे;
रोक नहीं हा! सके तुम्हें शुचि प्रेम हमारे।
आज नहीं तुम, किंतु तुम्हारी लिखी कहानी--
सदा रहेगी जगत-बीच बन अमिट निशानी।
-डॉ गौरीशंकर मिश्र 'द्विजेन्द्र'
*डॉ गौरी शंकर मिश्र द्विजेंद्र भागलपुर विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर हिंदी-विभाग में रीडर थे। उनकी रचनाएँ हंस, विभारती जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं। हिंदी, संस्कृत और अंग्रेजी में एम.ए. थे और सूरदास की छंदोयोजना पर शोध-कार्य करके उन्होंने डी.लिट.की उपाधि प्राप्त की थी।