जब से मनुष्य ने बोलना सीखा तभी से मनोरंजन, उपदेश, भक्ति, प्रेम, सौन्दर्य, दुःख, वेदना, पीड़ा, वीरता, उत्साह, को अभिव्यक्त करने के लिए कथा, लोककथा, लोकगीत, लोकनाट्य, लोकनृत्य, लोकगाथा आदि का जन्म हुआ । यह सबको विदित हैं कि लोक साहित्य किसी एक का नहीं होता वह तो परम्परागत रूप से एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी में मनोरजन, उपदेश, भक्ति, संकृति, संस्कार आदि के रूप में आगे बढ़ता रहता हैं । साथ ही पीढ़ी दर पीढ़ी उसमें कुछ न कुछ जुड़ते, छटते, परिमार्जित होते जाता हैं । लोकसाहित्य का माध्यम मौखिक होने के कारण आज वह अल्प रूप में लिखित हैं । समय के साथ जागरूक लोकसाहित्य प्रेमी उसे मुद्रित कर हमारे सम्मुख प्रस्तुत कर रहा हैं । आज सभा-सम्मेलन, राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों के माध्यम से लुप्त हो रहे लोक साहित्य को संजीवनी प्रदान की जा रही हैं । विश्व के प्रत्येक समूह, जाति, समाज, राष्ट्र का लोक साहित्य हैं । क्योंकि वर्तमान आधुनिक साहित्य लोकसाहित्य की ही देन हैं । उसे हम आधुनिक साहित्य की जन्मदात्री भी कह सकते हैं । जिस प्रकार से प्रत्येक आधुनिक साहित्य की विधा की अपनी एक स्वतंत्र संरचना होती हैं, उसी प्रकार लोक साहित्य का गौर से अध्ययन करने पर ज्ञात होगा कि लोकसाहित्य का भी अपना एक स्वतंत्र ढाँचा होता हैं ।
बंजारा लोक साहित्य अभी-भी पूरी तरह से लिखित-संकलित रूप में नहीं हैं । लोगों की जागरूकता एवं सभा-सम्मेलन,संगोष्ठियों के माध्यम से वह संकलित एवं लिखित रूप में हमारे सम्मुख आ रहा हैं । आज आवश्यकता हैं, लोक साहित्य को सम्पूर्ण रूप से लिखित -संकलित किये जाने की । और इस पर गहन चर्चा, गोष्ठी आदि का आयोजन हो, समीक्षा हो । क्योंकि लोकसाहित्य हमारा इतिहास हैं । साहित्य का इतिहास है । जो मौखिक रूप में आज भी जीवित हैं । लोकसाहित्य की उत्पति और विकास लोक में ही होता हैं । लोक में जन्म लेता है और लोक में ही विकसित होता जाता हैं । इसीलिए लोक साहित्य का कोई एक इन्सान लेखक नहीं होता । बल्कि उसका लेखक सम्पूर्ण लोक होता हैं । इसीलिए इस साहित्य को लोकसाहित्य कहा जाता हैं । आधुनिक साहित्य की भांति लोकसाहित्य की भी विधायें होती हैं । जिसमें लोककथा-गाथा-गीत-नृत्य-संगीत,नाट्य आदि विधाएं होती हैं । सम्पूर्ण विश्व में बंजारा जनजाति २० करोड़ से भी अधिक हैं । बंजारा लोक साहित्य में लोकगीत शीर्ष पर हैं । सर्वप्रिय हैं । लोकगीत वास्तव में एक जीवन पद्धति, संस्कार,संस्कृति, तत्वज्ञान हैं । लोकगीतों में जहाँ तीज-त्यौहार-पर्व, जन्म से लेकर मृत्यु तक के गीत, ख़ुशी के गीत-दुःख के गीत, परिश्रम-प्रकृति आदि से सम्बन्धित गीत दिखाई देते हैं; वहीं भक्ति से सम्बन्धित गीत-भजन-कीर्तन भी अपना एक अलग स्थान रखते हैं । उन्हीं भक्ति गीतों का समीक्षात्मक अध्ययन यहाँ प्रस्तुत हैं ।
1. ईश्वर का स्वरूप एवं भक्ति पद्धति
2. नामस्मरण
3. विश्वकल्याण की भावना
4. मानवतावाद
5. एकता,बंधुता,समता
6. प्रकृति चित्रण
7. भक्ति गीतों में संगीतात्मकता
8. संतो के उपदेश
1. ईश्वर का स्वरूप एवं भक्ति पद्धति :-
भक्ति के क्षेत्र में भक्त और ईश्वर का होना अनिवार्य होता हैं । बिना ईश्वर एवं बिना भक्त के भक्ति संभव नहीं होती । भक्त का ईश्वर तक पहुँचने का साधन भक्ति होती हैं । प्रत्येक भक्त का अपना एक अराध्य होता हैं, जिसके सम्मुख वह अपनी भक्ति प्रकट करता हैं । बंजारा लोकसाहित्य-लोकगीतों का अध्ययन करने पर ज्ञात होगा कि बंजारा जनजाति किसे अपना ईश्वर या अराध्य मानती हैं । और उसकी भक्ति पद्धति क्या हैं । बंजारा जनजाति यह प्रकृति पूजक हैं । वह सबसे पहले प्रकृति को अपना ईश्वर मानती हैं । वह चन्द्र-सूर्य,तारे,गाय-बैल, पेड़-पौधे, खेत-खलियान, पहाड़-नदी-अनाज आदि के प्रति समर्पित दिखाई देती हैं । वह अपने लोकगीतों एवं अरदास में प्रकृति की प्रशंसा करते हुए कहता हैं,
पहाड़ेम पहाड़ कुणसो पहाड़ पड़ोर कोळे तारण
पहाड़ेम पहाड़ हिमालय पहाड़ पड़ोर कोळे तारण
कोळ तारेण पोहो बांधेन देसा तेरी आरतीर है..हैं
कोहो बधादू जग मोतीयर कोळे तारण ......
अन्नेमा अन्न कुनसो अन्न पड़ोर कोळे तारण
अन्नेम अन्न कोतू अन्न पड़ोर कोळे तारण
कोळ तारेण पोहो बांधेन देसा तेरी आरतीर है..हैं
कोहो बधादू जग मोतीयर कोळे तारण ......
नदीम नदी कुणसी नदी पड़ीर कोळे तारण
नदीम नदी गँगा नदी पड़ीर कोळे तारण
कोळ तारेण पोहो बांधेन देसा तेरी आरतीर है..हैं
कोहो बधादू जग मोतीयर कोळे तारण ......
सांडेम सांड कुणसो सांड पड़ोर कोळे तारण
सांडेम सांड गराशा सांड पड़ोर कोळ तारण
साती देवीरी आरत उतरीर कोळे तारण
कोळ तारेण पोहो बांधेन देसा तेरी आरतीर है..हैं
कोहो बंधादू जग मोतीयर कोळे तारण ......
प्रकृति के बाद वह देवी की अराधना करती हैं । बंजारा लोकगीतों एवं भक्ति गीतों में स्त्री को प्रथम स्थान दिया गया हैं । यही कारण हैं कि बंजारा जनजाति यह देवी के विभिन्न रूपों की अराधना करता हैं ।
''जय तळजा भवानी,
अम्बा, जगदम्बा, मरयामा, कंकाळी
हिगळा, दुर्गा, आदिमाया शक्ति जगत जननी
याड़ी साहेबणी सेन साईं वेस ।''
देवीम देवी कुणसी मोठी वियर कोळे तारण
देवीम देवी तळजा देवी वियर कोळे तारण
कोळ तारेण पोहो बांधेन देसा तेरी आरतीर है..हैं
कोहो बधादू जग मोतीयर कोळे तारण ...
संत सेवालाल जी को बंजारा जनजाति भगवान मानती हैं । क्योंकि उनके क्रांति कारी कार्य द्वारा ही बंजारा जनजाति संगठित हुई थी । एवं उन्हें देवी प्रसन्न होने के कारण वे पूजनी बन गये । उन्हें ईश्वर का अवतार माना जाता हैं ।
'' सेवा भाया बेटोये सोनेरी पालकीमा
तीज बोईयो ओरी देवळेमा
डंडी याड़ी बेटिये सोनेरी पालकीमा
डाकळो माडियों ओरी देवळेमा
सेवा भाया बेटोये धोळे घोड़लेपर
भोग लागियो ओरी देवळेमा
डंडी याड़ी बेटिये सोनेरी पालकीमा ।
[बंजारा लोकगीत-डॉ.वी.रामकोटी पृ. १०२]
बंजारा देवी की भक्ति तांडो में अपने घर के सम्मुख या मंदिर तथा खेतों में करते हैं । इस सन्दर्भ में डॉ.वी.रामकोटी जी कहते हैं,'' बंजारा मुख्य रूप से देवी के उपासक हैं । विभिन्न प्रान्तों में बसे हुए बंजारे मेरामा याड़ी [देवी] की पूजा करते हैं । कुछ देवियाँ टांडे में पूजी जाती हैं और कुछ देवियाँ जंगलों में या खेत-खलियानों में पूजी जाते हैं । देवी [माउली ] को व्यक्तिगत रूप से भी पूजते है और सार्वजनिक रूप से भी यह देवियों का प्रथम प्रार्थना गीत हैं -
अंबा-अंबा भारत माता भवानी आनी
सत्य लोकेन छोड़न आनी
ग्वार भाइन ज्ञानम केनी
सेर मनेन एकज करनी
सेरो साई वेनी आनी
दुर्गुण से दूर करले माता
भन्दो गुलाम से तोन छ माता
भक्त बनाले सेन तू माता
भजन कराले तारोज माता ।
बंजारा लोकगीत-डॉ.वी.रामकोटी पृ.८४
कई सौ सालो से बंजारा जनजाति भारत माता को भी देवी के रूप में देखता और पूजता आया हैं । उक्त गीत में लोककवि भक्त देवी अंबा [भारत माता ] का आव्हान कर रहा हैं । उसे सत्य लोक छोड़ कर बंजारों को ज्ञान का मार्ग दिखाने, सबमे एकता की स्थापना करने, विश्व कल्याण के लिए प्रकट होने का आव्हान कर रहा हैं । माता यह शरीर आपका गुलाम हैं । इस भक्त के दुर्गुणों को नष्ट कर अपना भक्त बनाले माता । हम से भजन करवाले माता ..। भक्ति गीतों में भक्तो का समर्पण साफ-साफ दिखाई देता हैं । बंजारा भक्ति सम्बन्धी गीतों में अराध्य की प्रशंसा, अनुनय, विनय, समर्पण की भावना दिखाई देती हैं । बंजारा भक्त अपने अराध्य के सम्मुख अपने अहंकार को त्याग कर अपने-आप को सम्पूर्ण रूप से समर्पित कर देता हैं ।
2. नामस्मरण :-
भारतीय भक्ति साहित्य एवं लोकभक्ति साहित्य में नामस्मरण की महिमा को विशेष रूप में देखा जा सकता हैं । हिंदी, मराठी, तमिल, गुजराती आदि में लिखित एवं परम्परा से चली आरही मौखिक लोक साहित्य में अपने अराध्य, इश की वंदना के साथ नामस्मरण की महिमा का बखान हुआ हैं । मनुष्य को दुःख, निराशा, पीड़ा, क्रोध, इर्षा, द्वेष, ग्लानी, आधी-व्याधि आदि का सामना करना पड़ता हैं । मनुष्य का जीवन अनमोल एवं नश्वर होने के कारण अराध्य संत, ईश्वर आदि के नामस्मरण से भव को पार किया जा सकता हैं ।बंजारा लोकगीतों में भजन-कीर्तन आदि में नामस्मरण की महिमा गयी जाती हैं । बंजारा प्रकृति, देवी एवं संतों को भगवान मानता हैं । यही कारण हैं कि वह बंजारा गुरु-संत सेवालाल जी का नामस्मरण करता हैं । यदि क्रोध, काल आदि को पराजित करना हैं, तो तुम्हे सेवालाल जी का नामस्मरण करना होगा । लोकगीतों में अभिव्यक्त लोकभक्त कवि कहता हैं,
''उठो उठोर गोरो, भजन हरिरो करोर ।
सरे परिया काल भमरों, क्रोध घालरो फेरोर ।
सेवालाल रो नाम भजो, संसारे रो करज सरोर ।
सत धर्मेती करोर कमाई, नेकिती पेट भरोर ।"
[ हिंदी साहित्य :विविध आयाम-डॉ.सुनील जाधव पृ.46 ]
बंजारा भक्त गुरु-संत सेवालाल जी को ईश्वर मानता हैं । कबीर ने जहाँ गुरु को ईश्वर से श्रेष्ठ बताया-
''गुरु गोविन्द दोउ खड़े, काके लागू पाय ।
बलिहारी आपने जिन, गोविन्द दियो बताय ।।''
[कबीर ग्रन्थावली-श्याम सुन्दरदास]
वहीं पर बंजारा लोकगीतों में बंजारा लोकभक्त कवि संत सेवालाल जी को देवी का दर्शन करनेवाला बताया हैं । यदि संत सेवालाल प्रसन्न होंगे तो देवी अपने आप प्रसन्न हो जायेगी । संत सेवलाल की प्रशंसा करते हुए लोकभक्त कवि कहता हैं,
'' सेवा भाया बेटोये सोनेरी पालकीमा
तीज बोईयो ओरी देवळेमा
डंडी याड़ी बेटिये सोनेरी पालकीमा
डाकळो माडियों ओरी देवळेमा
सेवा भाया बेटोये धोळे घोड़लेपर
भोग लागियो ओरी देवळेमा
डंडी याड़ी बेटिये सोनेरी पालकीमा ।
बंजारा लोकगीत-डॉ.वी.रामकोटी पृ. 102
3. विश्वकल्याण की भावना :-
वैदिक साहित्य भी एक लोक साहित्य ही है । जो एक से दूसरे के पास मौखिक रूप में आगे बढ़ा और लिखा गया । वैदिक लोकसाहित्य में विश्व के मंगल की कामना की गई हैं ।
सर्वे भवन्तु सखिन: सर्वे सन्तु निरामया: ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिददुःखभागभवेत ।।
पृष्ठ : 1.4.14-बृहदाअरण्यका उपनिषद
बंजारा लोकगीतों में अभिव्यक्त भक्ति साहित्य लोकमंगल एवं विश्व मंगल की कामना करता हैं । प्रत्येक बंजारा भक्त प्रकृति, देवी, संत सेवालाल जी के प्रति अपने आपको समर्पित करता हुआ । जिव-जन्तु, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, गाय-बैल, खेत-खलियान, छोटे-बड़े, स्त्री-पुरुष आदि सम्पूर्ण मनुष्य जाति के '' सेन साईं वेस'' विश्व मंगल की कामना करता हैं ।
वह देवी के सम्मुख अरदास करता हैं-
''जय तळजा भवानी,
आदिमाया शक्ति जगत जननी
याड़ी साहेबणी सेन साईं वेस ।
काळे मातेर मनक्या छा चुक जांवाचा
चुक भूल माफ कर याडी
तारे गोर बंधान
नानक्या मोठेन साईवेस ।
नगरीन साईवेस
याडी ये धरती पर रेयेवाळ
जीवजंतु कीड़ा मुंगीन साईवेस याडी
कोर गोरेन साईवेस
बाळ-गोपाळेन साईवेस ।
जो भगत तार नाम स्मरीय
ओन साइवेस याड़ी ।
तारे गोर बंधान
अन्ने-धनेति भरपूर रकाड,
धंधे पानीम यश द याडी ।
जत संकट आय वत हजर वेजायेस
तारे भगतेन तारलेस याड़ी ।
जीव-जणगाणीर साइवेस याड़ी ।
वांजडीरो गोदो भर देस
तार गोरबंधा कस्ट करेवाळ छ
ओन भूको मत रकाडेस याड़ी
सत्ये काम फत्ते करेस
जिन्दगीर नैया पार लगायेस
'' अन'' ई ..
पूजा तारे देवळेम मंजूर करलेस याड़ी
सा...ई ..वेस , याड़ी साहेबणी ।''
-गुलाबसिंग जाधव जी के साक्षत्कार से प्राप्त भक्ति गीत [अरदास]
भक्तिकालीन साहित्य में तुलसी आदि का सहित्य भी लोकमंगल की कामना से परिपूर्ण दिखाई देता हैं । ''रामचरितमानस'' इसका उत्कृष्ट उदहारण हमे देखने को मिलता हैं । राम-लक्ष्मण-सीता-हनुमान जी के साथ आदर्श परिवार एवं समाज की स्थापना की गई हैं । यही कारण है कि आज भी तुलसी सम्मत संस्कार एवं रामराज्य की कल्पना की जाती हैं ।
4. मानवतावाद :
विश्व के प्रत्येक लोक साहित्य का अध्ययन करने पर ज्ञात होगा कि किसी ने भी मनुष्य-मनुष्य में भदे-भाव करना नहीं सिखाया । जितने भी महापुरुषों ने जन्म लिया । उन्होंने भी मानवता को सबसे उपर रखा । मानवतावाद मनुष्य को मनुष्य की नजर से देखना, समझना सिखाता हैं । आपस में मिल जुल कर रहना सिखाता हैं । भाई चारा बंधुत्व की भावना सिखाता है । लोकसाहित्य के लोकगीत [भक्ति] इस विधा में भी मानवता वाद का संदेश हमें देखने को मिलता हैं । बंजारा भक्ति गीत कबीर, तुलसी की भाँती समता, बन्धुता, एकता का संदेश देता हैं । कबीर ने ईश्वर भक्ति में जाति, धर्म से श्रेष्ठ मनुष्य को माना था ।
जाति न पूछो साधू की, पूछ लीजिये ज्ञान ।
मोल करों तलवार की पड़ा रहने दो म्यान ।।
जाति-पति पूछेन कोई, हरि को भजी सो हरि का होई ।''
बंजारा लोकगीतों में जाति-धर्म, सम्प्रदाय से उपर मानव को श्रेष्ठ माना हैं । वर्णित संत सेवालाल जी ने भी मानवता वाद का ही संदेश देते हुए कहा
'' कोर गोरेन साईवेस
बाळ-गोपाळेन साईवेस ।''
गुलाबसिंग जाधव जी के साक्षत्कार से प्राप्त भक्ति गीत [अरदास]
बंजारा ईतिहास लेखक तथा प्रथम घुमंतू विमर्श का पुरस्कार प्राप्त करनेवाले प्रा. मोतिराज राठोड जी मानवतावाद के संदर्भ में विस्तार से लिखा हैं । जिसमें से कुछ अंश यहाँ उद्धृत किया जा रहा हैं-
'' संत सेवालाल महाराज मनुष्य को सर्व श्रेष्ठ मानते है । मनुष्य से बढ़कर पृथ्वीपर कोई श्रेष्ठ नहीं । वहीं सृष्टि का करता-धरता है । मनुष्य और उसकी मनुष्यता ही ''सब जिव जनगानी साइवेस'' प्रसन्न सुख और शांतिमय जीवन निर्माण कर सकती है । सेवाभाया का किसी देवता किसी अवतारवाद पर विश्वास नहीं था, उनका विश्वास मनुष्य था । सर्व प्रथम मनुष्य और उसका अस्तित्व अस्मिता का महत्व समझाकर उन्होंने कहा- '' तम सोता तमारे जिवनेमा वजाळो कर सकोचो'' ''जेर पाल जेर जको ठोकलो ।'' मनुष्य स्वयं ही अपना स्वामी है, भला उसका स्वामी दूसरा कैसे हो सकता है । तुम्हारे जीवन में तुम्ह ही उजाला निर्माण कर सकते हो, कोई दूसरा आयेगा इस विश्वास पर मत रहो, अपना काम स्वयं करो'' 1.पृ.90 [बंजारा प्राचीन समाज रचना- मोतीराज राठोड ]
बंजारा लोकसाहित्य में स्त्री-पुरुष समानता दिखाई देती हैं । जिस स्त्री को कभी हमारे समाज ने मानव नहीं समझा उसे एक शोभा की वस्तु या जानवर से बदतर समझा । उसी स्त्री को बंजारा लोकसाहित्य मानव का दर्जा देता हैं ।
''बाई मनक्या, माटी मनक्या । ''
सच्ची मानवता सम्पूर्ण मानव जाति के साथ स्त्री को भी मानव समझने में हैं ।
5. एकता, बंधुता,समता :
बंजारा भक्ति गीतों में लोकभक्त कवि भाईचारे से रहने की बात करता हैं । वह अपने गीतों के माध्यम से एकता,बंधुता,समता की स्थापना करता हैं ।
''बंधु भावेरो नातो जुडाओ,
भारतेरी शान बढ़ाओ ।
आपसे रो वैर मिटाओ ।
ज्योतिती ज्योत लगाड़ोर
खरी खोटी छोड़न
तेरी एकी करन मळजाओ ।। ''
बंधु भावेरो नातो-बळी राठोड पृ. 302
जब प्रत्येक मनुष्य ने बंधु भाव का नाता जोड़गा तब ही हमारे भारत की शान बढ़ेगी । लोकभक्त कवि एक ओर देवी की भक्ति करता हैं तो दूसरी ओर उनकी देश भक्ति को भी देखा जा सकता हैं । उक्त गीत इनके प्रमाण हैं । आपसी बैर मिटा कर ज्ञान रूपी ज्योत से ज्योत जालाओ । झूठ बैमानी को छोड़ कर सब एक हो जाओ । हमारी एकता ही हमारी और देश की शान हैं ।
6. प्रकृति चित्रण:
मनुष्य का जन्म प्रकृति की गोद में हुआ । जब उसने पहली बार आँखें खोली तो उसने अपने आस-पास का परिसर देखा । प्रकृति का सौदंर्य देखा । और उससे अभिभूत हो गया । वह प्रकृति में जिया,पला-बढ़ा । प्रकृति ने उसे जल-अन्न और रहने के लिए असरा दिया । वह इसे कैसे भूल सकता था । यही कारण था कि उसने प्रकृति को ईश्वर माना । बंजारा जनजाति ने भी प्रकृति को ईश्वर माना । वे प्रकृति पूजक कहलाये । हजारो सालो से लेकर आजतक बंजारा जनजाति के लोकगीतों में प्रकृति का चित्रण हमे देखने को मिलता हैं । उनका प्रत्येक गीत मानो प्रकृति से जुड़े हुए हैं । या यूँ कहे कि प्रकृति के बिना अधूरा हैं । भक्ति गीतों में दीवाली, होली, तीज, दशहरा, भोग आदि तीज-त्योहारों के अवसर पर गायेजाने वाले भक्ति गीत अरदास में प्रकृति का चित्रण हमें समर्पित रूप में दिखाई देता है । दीवाली में गोधन तथा विभिन्न पुष्पों की पूजा-अर्चा की जाती हैं । तो तीज के समय गेहूं आदि की पूजा की जाती है । बंजारा प्रकृति में देवी का रूप एवं देवी में प्रकृति का रूप देखता है । बंजारा के प्रत्येक तीज-त्यौहार प्रकृति से जुड़ा हुआ हैं । दशहरे के समय गाये जाने वाले इस भक्ति गीत में लोक कवि प्रकृति के प्रति अपने आपको समर्पित करते हुए प्रकृति की ह्रदय से प्रशंसा करता हैं-
पहाड़ेम पहाड़ कुणसो पहाड़ पड़ोर कोळे तारण
पहाड़ेम पहाड़ हिमालय पहाड़ पड़ोर कोळे तारण
कोळ तारेण पोहो बांधेन देसा तेरी आरतीर है..हैं
कोहो बधादू जग मोतीयर कोळे तारण ......
अन्नेमा अन्न कुनसो अन्न पड़ोर कोळे तारण
अन्नेम अन्न कोतू अन्न पड़ोर कोळे तारण
कोळ तारेण पोहो बांधेन देसा तेरी आरतीर है..हैं
कोहो बधादू जग मोतीयर कोळे तारण ......
नदीम नदी कुणसी नदी पड़ीर कोळे तारण
नदीम नदी गँगा नदी पड़ीर कोळे तारण
कोळ तारेण पोहो बांधेन देसा तेरी आरतीर है..हैं
कोहो बधादू जग मोतीयर कोळे तारण ......
सांडेम सांड कुणसो सांड पड़ोर कोळे तारण
सांडेम सांड गराशा सांड पड़ोर कोळ तारण
साती देवीरी आरत उतरीर कोळे तारण
कोळ तारेण पोहो बांधेन देसा तेरी आरतीर है..हैं
कोहो बंधादू जग मोतीयर कोळे तारण .....
. -गुलाबसिंग जाधव जी के साक्षत्कार से प्राप्त भक्ति गीत [अरदास]
अधिकतर प्रकृति का चित्रण तुलनात्मक एवं आलम्बन रूप में देखा जा सकता हैं । तीज उत्सव बंजारा कुंवारी लडकियों का त्यौहार हैं । जो दस दिन मनाया जाता हैं । बाँस की टोकरी में काली मिट्टी डालकर गेहूं बोआ जाता हैं ।और दस दिनों तक कुँवारी लडकियाँ उसे पुरे भक्ति भाव से पानी से सींचती हैं । वास्तव में यह पूजा गन-गौर की पूजा होती हैं । जिसकी जितनी समृद्ध गेहूँ होगी । मानो प्रकृति ने उसे इच्छा पूर्ति का वरदान दिया हैं । तीज को जल अर्पित करते समय गाये जाने वाले भक्ति गीतों में लाम्डी [इक प्रकार का घास ] हरियाली आदि का वर्णन तुलनात्मक एवं आलम्बन रूप में देखा जा सकता हैं-
लांबी-लांबी ये लांबडी वेगेरिया
लांबी-लांबी ये लांबडी वेगेरिया
फांका फोड़ीये लांबडी वेगेरिया
गंटा मारिये लांबडी वेगेरिया
दळ रिये लांबडी वेगेरिया
लांबी-लांबी ये लांबडी वेगेरिया
लेरा लेरिये लांबडी वेगेरिया
लांबी-लांबी ये लांबडी वेगेरिया
पृष्ठ-१०३-बंजारा लोकगीत -संकलन-डॉ.वी.रामकोटी
बंजारा जनजाति परिश्रमी जनजाति हैं । वह अपने खून-पसीने से खेतों को सींचते हैं । किन्तु इसका सारा श्रेय देवी माता को देते हैं । इसका एक वैज्ञानिक कारण यह था कि माता का नाम लेने से कोई फसल को हानि नहीं पहुंचाएगा । बंजारा देवी और प्रकृति का भक्त होने के कारण स्वभाविक ही था कि वह फसल को हानि नहीं पहुंचाएगा ।
तुलजा याड़ी बोई ये गेहूँलारो खेतर
वाट चालू पंतिया खुन्दो मत खेतर
मारी हिंगला बोई ये बादरारो खेतर
वाट चालू भियाओं खुंदों मत खेतर ।
पृष्ठ-९२ -बंजारा लोकगीत -संकलन-डॉ.वी.रामकोटी
भक्ति गीतों में देवी के मानवीकरण-लीला का सौदर्य देखते ही बनता हैं । माता भवानी का यह गीत जिसमे माता तुलजा भवानी अपने सर पर टोकरी लेकर भांति-भांति के फूल बीनने के लिए जाती हैं । इस भक्ति गीत का सौन्दर्य लोककवि प्रस्तुत करते हुए कहता है,
मारी तोळजा जारिये फूलडो विणे न
फूलडोये विणतून वोल्ड़ीन भरतू
पगलाये पाड़तू वोत पडजाय मोजण रात
पिलो रंग फूलडा तोडले हेमाई
लालोरंग फूलडाओ समेटल हेमाई
मारी हिंगला चालिये फूलडो विणे न
फूलडोये विणतून वोल्ड़ीन भरतू
पगलाये पाड़तू वोत पडजाय मोजण रात
गोलाल रंग फूलेडा समेटले हेमाई ।
पृष्ठ-९३-बंजारा लोकगीत -संकलन-डॉ.वी.रामकोटी
बंजारा लोकगीतों में अभिव्यक्त भक्ति गीतों में बिम्ब,प्रतीक,अलंकार आदि का प्रयोग सहज एवं अनायास रूप में हुआ हैं । कई गीतों में अभिव्यक्त बिम्ब सुनने वाले या पाठक के सम्मुख एक चलचित्र-सा खड़ा कर देते हैं । ऐसा लगता हैं कि हम भी उस गीत का एक हिस्सा हैं ।
7. भक्ति गीतों में संगीतात्मकता:-
प्रत्येक लोकगीत की अपनी एक शैली होती हैं । उसका अपना एक संगीत होता हैं । लय-ताल सबकुछ निराला होता हैं । वह लोकगीत चलते ही व्यक्ति-समाज के हृदय में एक अलग सी हलचल पैदा करता हैं । क्योकि लोकगीत ह्रदय से निकलता और ह्रदय में बसता हैं । लोकगीत शास्त्रीय संगीत की भांति ही आनंद देती हैं । वह सहज रूप से उत्पन्न होता हैं । बंजारा भक्ति गीत भी सहज रूप से उत्पन्न हैं । जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी चला आ रहा हैं । जब लोककवि भक्ति गीत गाता हैं, तो एक अलग समा बनजाता हैं । जो ईश्वरीय आनंद प्रदान करता हैं ।
अन्नेमा अन्न कुनसो अन्न पड़ोर कोळे तारण
अन्नेम अन्न कोतू अन्न पड़ोर कोळे तारण
कोळ तारेण पोहो बांधेन देसा तेरी आरतीर है..हैं
कोहो बधादू जग मोतीयर कोळे तारण ......
नदीम नदी कुणसी नदी पड़ीर कोळे तारण
नदीम नदी गँगा नदी पड़ीर कोळे तारण
कोळ तारेण पोहो बांधेन देसा तेरी आरतीर है..हैं
कोहो बधादू जग मोतीयर कोळे तारण ......
-गुलाबसिंग जाधव जी के साक्षत्कार से प्राप्त भक्ति गीत [अरदास]
कोई भी गीत तब अति सुंदर होता है, जब उसके साथ वाद्य हो । बंजारा लोकगीतों में भक्ति गीतों को गाते समय नगारा, कासे की थाली, झाँझर, मृदंग, बाँसुरी आदि पारम्परिक वाद्यों का प्रयोग किया जाता । बंजारा भक्तिगीतों में एक विशेष लय-ताल होती हैं । जो अपनी एक अलग पहचान बनाती हैं ।सुनते ही सुनने वाला कहता हैं कि यह तो बंजारा भजन-भक्ति गीत हैं । भक्ति गीतों के लोकनिर्माता भक्ति के साथ समाजिक संदेश भी देते चलते हैं । अनिष्ठ-रुढि-परम्परा, झूठ-आडम्बर, पशुबली-व्यसन, पारिवारिक कलह-हिंसा का विरोध, भाईचारे का संदेश आदि ।
8. संतो के उपदेश :
समाज और युग को बदलने की क्षमता युग पुरुष में ही होती हैं । जब-जब समाज या राष्ट्र बिखरता हैं या उस पर कोई संकट आता है, तब-तब प्रत्येक युग में ऐसे युग पुरुष का जन्म होता है ; जो युग को ही बदल देता हैं । बंजारा जनजाति भी इसमें अपवाद नहीं हैं । प्राचीन काल में पिठागौर, मध्ययुग संत दाम गुरु उत्तर मध्ययुग में संत सेवालाल तथा आधुनिक युग में संत रामराव महाराज आदि के कार्य को देखा जा सकता हैं । बंजारा समाज पर यदि सबसे अधिक किसी संत के विचारों एवं कार्यो का प्रभाव पड़ा है तो वह है-युगपुरुष, क्रांतिकारी संत सेवलाल जी । संतसेवलाल जी के संबंध में गाये जानेवाले भक्ति गीतों में उनका वर्णन देखा जा सकता हैं ।
बोलजो मत लुची लबाडी,
भटक जाये लंबी झाड़ी ।
म तो तारे जीवे पर रिऊ
म खेलु कोणी पुजू कोणी ।
मत लो जीव
काडो मत कोई लोई ।
दारूगांजा मत पीओ
दारु मत पीओ कोई ।
करिये चोरी खायें कोरी
हाते माई हाथकड़ी
पगमाई बेडी
डोरी-डोरी हिंड़ीये ।
गोर गरीबेन दांढन खाये,
वोरी सात पीडी पर
दाग लग जाये
वंश पर दिवो कोनी रिये ।
पृष्ठ -९१, प्राचीन बंजारा समाज व्यवस्था- प्रा.मोतीराज राठोड
सच बोलना, किसी को ठगना मत, चोरी मत करना, स्त्री एवं गरीब को न सताना, शराब-गांजा आदि व्यसनों से दूर रहना, झूठ-पाखंड से दूर रहने का संदेश देते हुए 'परिश्रम ही ईश्वर है' का संदेश दिया ।
निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता हैं कि अन्य लोकसाहित्य की परंपरा नुसार बंजारा लोकसाहित्य लिखित रूप में तो नहीं किन्तु जब से बंजारा जनजाति ने शिक्षा ग्रहण की हैं, तब से कुछ जागरूक ज्ञानी, विद्वतजन, समाज सुधारक, साहित्यकार, प्राध्यापक, अध्यापकों द्वारा लोकसाहित्य की विभिन्न विधाओं को संकलित किया जा रहा हैं ।
मौखिक और संकलित पुस्तकों के आधार पर बंजारा लोकगीतों में भक्ति गीतों का समीक्षात्मक रूप से अध्ययन करने पर ज्ञात होता हैं कि बंजारा जनजाति जो भारत के साथ विश्व में लगभग अंदाजन ४० करोड़ से भी ज्यादा हैं; आज भी भक्ति परम्परा लोकगीत आदि के माध्यम से जीवित हैं । भक्ति गीतों में बंजारा जनजाति प्रकृति, देवी एवं संतों को ईश्वर मानकर अपने आप को समर्पित करती हैं । इन भक्ति गीतों में एक ओर मानवतावाद, विश्व कल्याण की भावना, एकता,बन्धुता,समता, प्रकृति चित्रण, नामस्मरण के तत्व दिखाई देते हैं, तो वहीँ पर जब भक्ति में संत बाह्याडम्बर, पाखण्ड, झूठ, बली आदि देखता हैं, तब ऐसी भक्ति से भला वह {परिश्रम} को मानते हैं ।
सन्दर्भ सूची :-
1. बंजारा लोकगीतों का सांस्कृतिक अध्ययन- डॉ.गनपत राठोड
2. हिंदी सहित्य विविध आयाम-डॉ.सुनील जाधव
3. बंजारा लोकगीत -डॉ.वी.रामकोटी
4. प्राचीन बनजारा समा