बच्चे की कसम - कहानी

ढाबा मेन रोड पर ही था मगर सड़क और ढाबे के बीच करीब बीस फीट की दूरी भी थी। इस दूरी के बीच एक बड़ा सा पेड़ था आम का, जो काफी पुराना और जर्जर था लेकिन ढाबे वाले ने पोस्टर चिपका कर पेड़ के तने की बदसूरती छिपा दी थी। हरिकेश ने जायजा लिया कि यह ढाबा थोड़ा सस्ता है तो यहीं पर कुछ खा-पी ले। चूंकि धूप काफी तेज थी सो उसने सोचा कुछ खा-पीकर सुस्ता लिया जाए और फिर खरीदारी की जाए।

उसने अपनी मोटरसाइकिल उसी पेड़ के नीचे धूप की तुर्शी बचाते हुए पार्क कर दी। पास लगे नल से उसने हाथ-मुंह धोया। पेड़ की छाया में ही पड़ी कुछ-कुछ पुरानी बेंच और कुर्सियों में उसने पनाह ली। घर पहुंचने की जल्दी में उसने सुबह का नाश्ता भी ठीक से नहीं किया था। उसने मेस से चलते-चलते नाश्ते का पैकेट ले लिया था कि रास्ते में कहीं खा लेगा। मगर रास्ते में उसे याद ही नहीं पड़ा कुछ। मोटरसाइकिल रोकी तो उसने देखा कि नाश्ते वाला पैकेट वैसे ही बंद पड़ा है। उसके होंठों पर मुस्कुराहट खेल गई। वह बुदबुदाया, “घर पहुंचने की जल्दी में मुझे भूख-प्यास का कुछ होश ही नहीं रहा, गजब ही है।” उसने सोचा, ये बचा हुआ नाश्ता भी कर लेता हूँ और इसी के साथ कुछ खाने-पीने का ऑर्डर कर लेता हूँ। नाश्ते के पैकेट का भी सदुपयोग हो जाएगा और फुल-प्लेट खाने के पैसे भी नहीं लगेंगे। हाफ-प्लेट के ऑर्डर से ही काम चल जाएगा। दीवार पर खाने-पीने का रेट कार्ड उसने देखना शुरू किया। उसने पाया कि ढाबा तो ये सड़क किनारे वाला है मगर रेट इसके रेस्टोरेंट वाले हैं।

“बाबू जी, कुछ खिला दीजिये। कल रात से कुछ भी नहीं खाया है।” पीछे से एक आवाज आई।

उसने घूमकर देखा तो एक अधेड़ उम्र का मैला-कुचैला इनसान बड़ी दीन-हीन हालत में खड़ा था। उसके एक हाथ नहीं था और पीठ पर बड़ा-सा कूबड़ था।

वह कुछ सोच-बोल पाता तब तक ढाबे के मालिक ने उसके पास आकर कहा, “क्या खाएंगे, बाबूजी?”

उसने दीवार पर लिखे रेट कार्ड का जायजा लिया, फिर कुछ सोचकर बोला “एक थाली ले आइए।”

ढाबे वाले ने भिखारी की तरफ देखा, उसे गंदी-सी कोई गाली दी जिससे सहम कर भिखारी पेड़ के नीचे छिप गया। ढाबे वाला चला तो गया मगर वह भिखारी पेड़ के नीचे बैठ गया। 

थोड़ी देर में गर्मागर्म थाल में स्वादिष्ट भोजन हरिकेश के सामने था। उसने थाल के साथ नाश्ते का पैकेट भी खोल लिया। 
अचानक उसने सामने देखा तो पेड़ के पीछे से दो जोड़ी सहमी आंखें कातर एवं उम्मीद भरी नजरों से उसे देख रही थीं।

उसने कुछ सोचा और खाने को देखकर अंदाज लगाया कि उसका पेट तो थाली से ही भर जाएगा तो नाश्ते का पैकेट अतिरिक्त ही बचा रहेगा। कुछ सोच-विचारकर उसने पेड़ के पीछे से देख रहे भिखारी को इशारे से बुलाया। वह आदमी दौड़ता हुआ आया। उसकी आंखें उम्मीद से चमक रही थीं।

हरिकेश ने उसे नाश्ते वाला पैकेट दे दिया।

तब तक ढाबे वाले ने पीछे से भिखारी को गंदी-सी गाली दी। हरिकेश ने पलटकर देखा तो ढाबे वाले ने काउंटर पर बैठे -बैठे ही कहा–“इन सबको यहाँ मुंह न लगाइए साहब। कोई बात बिगड़ गई तो मैं जिम्मेदार नहीं होऊंगा। खामखां मेरे ढाबे पर तमाशा खड़ा हो जाएगा। बाद में मुझे मत कुछ कहिएगा।”

हरिकेश को ढाबेवाले की बात कुछ अजीब लगी। उसके दिमाग में कई ख्याल आए-गए। उसने इशारे से भिखारी को वहां से जाने को कहा। भिखारी तुरंत नाश्ते वाला पैकेट लेकर वहाँ से चला गया। खाने की खुश्बू और भूख की तीव्रता से हरिकेश ने अपने मन के सवालों को झटका और खाने पर टूट पड़ा।

खाने के बाद उसने भुगतान किया। उसने टाइम और मौसम का जायजा लिया। धूप अभी बहुत तेज थी और उसे थकान भी लग रही थी। उसने सुस्ताने की सोची और वहीं ढाबे की चारपाई पर आराम करने लगा।

शोर से उनकी तन्द्रा टूटी तो उसने देखा कि आठ-दस लोग मैले-कुचैले कपड़ो वाले एक व्यक्ति को पकड़े हुए थे और चीख-चिल्ला रहे थे। वह चौंक कर उठा और ध्यान से देखा कि जमीन पर जो व्यक्ति छटपटा रहा है वह तो वही भिखारी था जिसे उसने खाना दिया था।

भीड़ बढ़ती जा रही थी और तनाव,चीखना-चिल्लाना बढ़ता ही जा रहा था।

ढाबे वाला हरिकेश के पास आकर बोला, “साहब, क्या दे दिया आपने उसे खाने में। खाना शायद खराब हो गया था। ये लोग तो कह रहे हैं कि जहर था, शायद खाने में। कहीं मर-मरा गया तो थाना-पुलिस हो जाएगा। मैं भी फंस जाऊंगा साहब। मैंने तो आपको मना भी किया था कि इन लोगों से दूर रहो पर आप नहीं माने। बहुत बुरी तरह से फंस गए आप। किसी तरह से सेटल कीजिये साहब नहीं तो अनर्थ हो जाएगा।”

हरिकेश हैरान-परेशान और चिंतित हो उठा। उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे? उसके दिमाग में घर -परिवार, अबोध बच्चा, पत्नी, अम्मा-बाबूजी,छोटी बहन,जेल-पुलिस,कोर्ट जैसे कई विचार आए-गए।
उसने ढाबे वाले से कातर स्वर में कहा–“हाँ भाई, तुम्हारी बात न मानकर मैंने गलती की पर अब तो मैं फंस गया हूँ। किसी तरह उबारिये मुझको। मैं फैमिली वाला आदमी हूँ। इन सबमें पड़ गया तो मेरा परिवार तबाह हो जाएगा। किसी तरह उबारो आप मुझे इस सब से।”

“देखता हूँ साहब क्या हो सकता है मुझसे? कहीं कुछ ऊंच-नीच हो गयी उस आदमी के साथ तो आपकी वजह से कहीं मैं भी न फंस जाऊं। आप अंदर जाकर बैठिए। मुझे तो डर है कहीं इन भिखारियों का झुंड आप पर हमला न कर दे।”

पहले से डरा हुआ हरिकेश यह सुनकर और भी डर गया। वह काउंटर के पीछे जाकर फ्रिज और अन्य सामग्री के बीच छिपकर इस प्रकार बैठ गया कि भिखारियों का झुंड उसे देख न सके।

उससे बात करके ढाबे वाला भिखारियों के पास चला गया। उसके पीछे हरिकेश अपने साथ होने वाली अनिष्ट एवं अनहोनी को सोचकर डरता रहा।

काफी देर तक चीखने-चिल्लाने,रोने-धोने की आवाजें आती रहीं। हरिकेश इस दरम्यान अपने देवता-पित्तर को सुमिरता रहा।

ढाबे वाला जब लौटा तो उसने परेशान स्वर में कहा–“साहब ये लोग किसी भी तरह मान नहीं रहे हैं। मैंने हर जतन करके देख लिया। दवा कराने को भी कहा पर नहीं माने। इन लोगों की भी यूनियन होती है। कुछ लोग उन्हें बुलाने गए हैं। थोड़ी देर में और भी इनके लोग आ जाएंगे। थाना-पुलिस तो होगा ही मगर उससे पहले मार-पीट भी हो सकती है। मैंने इस सबसे बचने की बात की तो बीस हजार रुपये मांगे हैं। अब आप ही बताएं साहब क्या किया जाए। आपसे तो सिर्फ इतने पैसे ही मांगे हैं। मेरा तो न जाने क्या हो अभी। ढाबा बंद करवाने की भी धमकी दे रहे हैं। मेरा तो जो होगा सो होगा पर आपको पहले बचाऊंगा। आप किसी तरह से ये मामला दस-पंद्रह हजार के बीच सेटल करके यहां से बच के निकलो।”

हरिकेश को कुछ सूझ ही नहीं रहा था कि क्या करे? उसने घर-परिवार के बारे में सोचा। फिर अचानक अपनी सोच को झटकते हुए उसने निर्णय किया। उसने अपनी सभी जेबों को जमा तलाशी लेने के बाद सारे पैसे गिने। कुल आठ हजार आठ सौ सत्तर रुपये निकले। 

उसने ढाबे वाले को सारे पैसे देते हुए कहा–“अब एक फूटी कौड़ी नहीं है मेरे पास। चाहे मेरे बच्चों की कसम ले लो मुझसे। यही सब कुछ था।”

ढाबे वाले ने उससे सारे पैसे ले लिये और धीरे से बोला–“साहब, वैसे तो ये पैसे पूरे नहीं हैं लेकिन जब आप अपने बच्चे की कसम खा रहे हैं तो फिर जाइये। अब जो कुछ भी होगा मैं मैनेज कर लूंगा। चाहे मुझे जो भी करना पड़े। अपनी मोटरसाइकिल की चाबी मुझे दीजिये और ढाबे के पीछे खड़े हो जाएं। वहीं दूसरी तरफ की सड़क से निकल जाएं। इधर बहुत बवाल है।”

हरिकेश ने ढाबे वालो को चाबी दी और ढाबे के पीछे चला गया। 

थोड़ी देर बाद ढाबे वाला मोटरसाइकिल ढाबे के पीछे ले आया। हरिकेश ने बिना कुछ कहे मोटरसाइकिल स्टार्ट की और पांच-छह कदम चलने के बाद मोटरसाइकिल रोक कर घूम कर ढाबे वाले को निर्विकार भाव को देखते हुए कहा–
“मैंने उस भिखारी को जो खाना खाने को दिया था उसमें कुछ भी गड़बड़ी नहीं थी। मुझे मेरे बच्चे की कसम है, मगर फिर भी फंस गया मैं।” ये कहकर वह ढाबे वाले की बात का जवाब लिए बिना मोटरसाइकिल लेकर तेजी से आगे बढ़ गया।

ढाबे वाला हरिकेश को जाते हुए तब तक देखता रहा जब तक वह नजरों से ओझल नहीं हो गया।

ढाबे वाला धीरे से बुदबुदाया, “मैं जानता हूँ साहब कि आपने भिखारी को जो खाना दिया था उसमें कुछ गड़बड़ नहीं था।आज आपका दिया हुआ खाना नहीं बल्कि आपका नसीब गड़बड़ था जो फंस गए। बच्चे की कसम...”  ये कहते हुए ढाबेवाला कुटिलता से हँसा।

-दिलीप कुमार 
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