अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।
संवाद | लघु-कथा (कथा-कहानी)  Click to print this content  
Author:रोहित कुमार 'हैप्पी'

पिंजरे में बंद दो सफ़ेद कबूतरों को जब भारी भरकम लोगों की भीड़ के बीच लाया गया तो वे पिंज़रे की सलाखों में सहम कर दुबकते जा रहे थे। फिर, दो हाथों ने एक कबूतर को जोर से पकड़ कर पिंज़रे से बाहर निकालते हुए दूसरे हाथों को सौंप दिया। मारे दहशत के कबूतर ने अपनी दोनों आँखे भींच ली थी। समारोह के मुख्य अतिथि ने बारी-बारी से दोनों कबूतर उड़ाकर समारोह की शुरूआत की। तालियों की गड़गड़ाहट ज़ोरों पर थी।

एक झटका सा लगा फिर उस कबूतर को अहसास हुआ कि उसे तो पुन उन्मुक्त गगन में उड़ने का अवसर मिल रहा है। वह गिरते-गिरते संभल कर जैसे-तैसे उड़ चला। उसकी खुशी का ठिकाना न रहा जब बगल में देखा कि दूसरा साथी कबूतर भी उड़कर उसके साथ आ मिला था। दोनों कबूतर अभी तक सहमें हुए थे। उनकी उड़ान सामान्य नहीं थी।

थोड़ी देर में सामान्य होने पर उड़ान लेते-लेते एक ने दूसरे से कहा, "आदमी को समझना बहुत मुश्किल है। पहले हमें पकड़ा, फिर छोड़ दिया! यदि हमें उड़ने को छोड़ना ही था तो पकड़ कर इतनी यातना क्यों दी? मैं तो मारे डर के बस मर ही चला था।"

"चुप, बच गए ना आदमी से! बस उड़ चल!"

- रोहित कुमार 'हैप्पी'

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