जो साहित्य केवल स्वप्नलोक की ओर ले जाये, वास्तविक जीवन को उपकृत करने में असमर्थ हो, वह नितांत महत्वहीन है। - (डॉ.) काशीप्रसाद जायसवाल।

वृन्द के नीति-दोहे

 (काव्य) 
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रचनाकार:

 वृन्द

स्वारथ के सब ही सगे, बिन स्वारथ कोउ नाहिं ।
जैसे पंछी सरस तरु, निरस भये उड़ि जाहिं ।। १ ।।

मान होत है गुनन तें, गुन बिन मान न होइ ।
सुक सारी राखै सबै, काग न राखै कोइ ।। २ ।।

मूरख गुन समझै नहीं, तौ न गुनी में चूक ।
कहा भयो दिन को बिभो, देखै जो न उलूक ।। ३ ।।

विद्या-धन उद्यम बिना, कही जु पावै कौन ।
बिना डुलाए ना मिलें, ज्यों पंखे की पौन ।। ४ ।।

भले बुरे सब एकसों, जौ लो बोलत नाहिं ।
जान परत है काक पिक, ऋतु बसन्त के माहिं ।। ५ ।।

मधुर बचन तें जात मिट,'उत्तम जन अभिमान ।
तनिक सीत जल सों मिटे, जैसे दूध उफान ।। ६ ।।

सरसुति के भंडार की, बड़ी अपूरब बात ।
ज्यों खरचै त्यों-त्यों बढ़ै, बिन खरचै घटि जात ।। ७ ।।

सबै सहाय की सबल के, को उन निबल सहाय ।
पवन जगावत आग को, दीपहि देत बुझाय ।। ८ ।।

                                        - वृन्द

 

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