बहिन आज फूली समाती न मन में । तड़ित आज फूली समाती न घन में ।। घटा है न झूली समाती गगन में । लता आज फूली समाती न बन में ।।
कही राखियाँ है, चमक है कहीं पर, कही बूँद है, पुष्प प्यारे खिले हैं । ये आयी है राखी, सुहाई है पूनो, बधाई उन्हें जिनको भाई मिले हैं ।।
मैं हूँ बहिन किन्तु भाई नहीं है । है राखी सजी पर कलाई नहीं है ।। है भादो घटा किन्तु छाई नहीं है । नहीं है खुशी पर रुलाई नहीं है ।।
मेरा बंधु माँ की पुकारो को सुनकर- के तैयार हो जेलखाने गया है । छिनी है जो स्वाधीनता माँ की उसको वह जालिम के घर में से लाने गया है ।।
मुझे गर्व है किन्तु राखी है सूनी । वह होता, खुशी तो क्या होती न दूनी ? हम मंगल मनावे, वह तपता है धूनी । है घायल हृदय, दर्द उठता है खूनी ।।
है आती मुझे याद चित्तौर गढ की, धधकती है दिल में वह जौहर की ज्वाला । है माता-बहिन रो के उसको बुझाती, कहो भाई, तुमको भी है कुछ कसाला ? ।।
है, तो बढ़े हाथ, राखी पड़ी है । रेशम-सी कोमल नहीं यह कड़ी है । । अजी देखो लोहे की यह हथकड़ी है । इसी प्रण को लेकर बहिन यह खड़ी है ।।
आते हो भाई ? पुन पूछती हूँ-- कि माता के बन्धन की है लाज तुमको? -तो बन्दी बनो, देखो बन्धन है कैसा, चुनौती यह राखी की है आज तुमको । ।
-सुभद्रा कुमारी चौहान साभार - मुकुल तथा अन्य कविताएँ
[यह कविता अभी तक (1.8.2014) इंटरनेट पर प्रकाशित नहीं थी। यदि आप इसे यहाँ पढ़ने के पश्चात इसका प्रकाशन करना चाहें तो अवश्य करें किंतु 'भारत-दर्शन' का उल्लेख अवश्य करें । ]
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