बहुआयाभी प्रतिमा के स्वाभी पंडित चन्द्रधर शर्मा गुलेरी के विषय में तीन बातें बहुत विलक्षण हैं । पहली तो ये कि उनकी एकमात्र कहानी 'उसने कहा था' आज से एक सदी पूर्व हिन्दी जगत में एक अभूतपूर्व घटना के रूप में प्रकट हुईं । दूसरी, संस्कृत के महापण्डित होने के साथ कई भाषाओं के ज्ञाता होते हुए भी एक विशुद्ध हिन्दी प्रेमी रहे । दर्शन शास्त्र ज्ञाता, भाषाविद, निबन्धकार, ललित निबन्धकार, कवि, कला समीक्षक, आलोचक, संस्मरण लेखक, पत्रकार और संपादक होते हुए वे हिन्दी को समर्पित रहे । और तीसरी यह कि 12 सितम्बर 1922 को केवल उनतालीस वर्ष, दो महीने और पांच दिन की अल्पायु में उनका देहावसान हो गया किंतु अपने अल्प जीवन में वे इतना अधिक हिन्दी साहित्य को दे गए जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती ।
उनकी प्रसिद्ध कहानी ''उसने कहा था'' का प्रकाशन सरस्वती में जून 1915 में हुआ । ''बुद्धू का कांटा'' का प्रकाशन काल अज्ञात है किंतु यह कहानी भी 1911 और 1915 के मध्य लिखी या छपी हुई मानी जाती है । अत: वर्ष 1915 ''उसने कहा था'' का शताब्दी वर्ष है । यहां बात उनकी कथा प्रतिभा पर की जाएगी । उनका कथा संसार आकार में जितना छोटा दिखता है, प्रकार में उतना ही विशाल, गुणवत्ता में उतना ही गहन और गम्भीर । उनकी मात्र एक कहानी ने आज से सौ वर्ष पहले समूचे कथा जगत में एक युगांतरकारी परिवर्तन कर दिया । कहानी के उस प्रारम्भिक युग में यह एक चमत्कारपूर्ण घटना थी ।
आज, एक सदी बीत जाने के बाद यह जान कर हैरानी होती है कि हिन्दी की प्रथम नई कहानी एक ऐसे -व्यक्ति ने लिखी जो संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डित थे । गुलेरीजी न केवल संस्कृत के पण्डित ही थे बल्कि ज्योतिष के ज्ञाता भी थे । 7 जुलाई 1883 को पुरानी बस्ती जयपुर में महाराजा रामसिंह के राजपण्डित शिवराम शर्मा के घर जन्मे गुलेरी का पालन पोषण संस्कारमय और संस्कृतमय कर्मकाण्डी वातावरण में हुआ । बाल्यकाल से ही अष्टाध्यायी और संस्कृत के श्लोक रटने वाला बालक और मनु वैववस्त, अश्वमेध, राजसूय जैसे निरसों का लेखक एक दिन हिन्दी कहानी का जन्मदाता कहलाएगा, यह सोचा भी नहीं जा सकता । कभी लगता है कि 'उसने कहा था' जैसी कहानी लिखने वाला व्यक्ति पण्डित चन्द्रधर शर्मा नहीं हो सकता ।
इस पर यह और भी आश्चर्यजनक है कि गुलेरीजी ने मात्र तीन कहानियां लिखीं । कहानी के क्षेत्र में उन्होंने उस समय के अपने पूर्ववर्ती तथा समकालीन कहानीकारों की भान्ति कोई लम्बी साधना नहीं की । ऐसा भी नही था कि लम्बे समय तक कहानियां लिखते हुए उन्होंने इस विधा में महारत हासिल की हो । गुलेरीजी की पहली कहानी "सुखमय जीवन" भारतमित्र कलकत्ता के किसी अंक में 1911 में छपी । दूसरी कहानी "बुद्धू का कांटा" के प्रकाशन का समय अज्ञात है तथापि इसे 1911 और 1915 के बीच पाटलिपुत्र में प्रकाशित माना जाता है । तीसरी और महत्वपूर्ण कहानी "उसने कहा था" को अधिकांश विद्वानों ने सरस्वती के जून 1915 अंक में छपा माना है ।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल, श्यामसुंदर दास, नंददुलारे वाजपेयी, डॉ नगेन्द्र, मुकुटधर पाण्डेय, डॉ लक्ष्मीनारायण लाल, डॉ हरदयाल आदि ने अपने समय में उनकी केवल तीन कहानियों का ही जिक्र किया है जिससे ये द्विवेदी युग के सशक्त कथाकार के रूप में स्थापित हुए ।
गुलेरीजी की इन तीन कहानियों को कई संपादकों ने पुस्तक रूप में प्रकाशित किया । सन् 2008 में नेशनल बुक ट्रस्ट, इण्डिया से पीयूष एवं प्रत्यूष गुलेरी द्वारा संपादित "चन्द्रधर शर्मा की चर्चित कहानिया" प्रकाशित हुई । सब से अद्यतन संस्करण सम्भवत पीयूष-प्रत्यूष गुलेरी द्वारा संपादित और साहित्य अकादेमी दिल्ली से 2010 में प्रकाशित "गुलेरी रचना संचयन" है जिसमें निबन्ध, संस्मरण, कविताओं के अलावा यही तीन कहानियां ली गई हैं ।
सभी संस्करणों में कहानी के पाठों में ज्यादा भिन्नता नहीं है । कहानीकार, कहानी की रचना के समय या उसके बाद भी अपने लिखे पाठ में परिवर्तन करता है । कुछ परिवर्तन या संशोधन संपादकों द्वारा किए जाते हैं । ऐसा गुलेरीजी की कहानियों के साथ भी हुआ होगा । किंतु संकलनों में यह बात खुल कर सामने नहीं आई जो आनी चाहिए थी । डॉ हरदयाल ने ''उसने कहा था'' कहानी में दिए एक गीत का उल्लेख किया है जिसे कुछ संपादकों ने अश्लील मान कर निकाल दिया । हालांकि आज के युग में अश्लीलता की परिभाषा बदल चुकी है और बोल्डनेस के नाम पर बहुत कुछ परोसा जा रहा है । ''उसने कहा था' के गीत में उल्लिखित 'नाडे दा सौदा' या ''बुद्धू का कांटा'' में 'लहगा पसारने' का प्रयोग आज के संदर्म में अश्लीलता की श्रेणी में कतई आता ही नहीं । तथापि उस युग के अनुसार हटाए गए प्रसंगों या वाक्यों के साथ कहानियों के मूल पाठ की अपेक्षा आज भी बनी हुई है । यदि कोई ऐसा संकलन निकाले जिस में हस्तलिखित या प्रामाणिक मूल पाठ के साथ विवेचना दी गई हो तो समीक्षा के धरातल पर कुछ नये तथ्य खोजे जा सकते हैं ।
इसके साथ ही इन कहानियों के रचनाकाल व प्रकाशन के बारे में भी कोई स्पष्ट खोज नहीं हो पाई । पहली कहानी ''सुखमय जीवन'' भारतमित्र के किस अंक में छपी या ''बुद्धू का कांटा'' का रचनाकाल व प्रकाशन क्या है, यह भी अज्ञात है । गुलेरी जी के सम्पूर्ण व्यक्तित्व व कृतित्व वह खोज खबर नहीं ली गई जो लेनी चाहिए थी । डॉ पीयूष गुलेरी के पीएच०डी० शोध ''श्री चन्द्रधर शर्मा गुलेरी: व्यक्तित्व और कृतित्व (दिग्दर्शन चरण जैन ऋषभचरण जैन एवम् संतति दरियागंज दिल्ली- तथा डॉ मनोहर लाल के ''गुलेरी साहित्यालोक'' (किताब घर गांधी नगर दिल्ली-31) के अलावा कोई ग्रन्थ सामने नहीं आया । ये दोनों ही ग्रन्थ 1983 में प्रकाशित हुए । दोनों ही ग्रन्थ अलग अलग दृष्टियों से महत्वपूर्ण हैं । पीयूष गुलेरीजी ने जहां गुलेरीजी के सम्बन्ध में अन्तरंग जानकारियां दी है वहां मनोहर लाल ने समीक्षात्मक नजरिए से महत्वपूर्ण सामग्री जुटाई है । पीयूषजी ने अंत में 'उसने कहा था' का हस्तलिखित पाठ दिया है, जो बहुत महत्वपूर्ण है । ऐसे ही इनकी सभी कहानियों के मूल पाठों की आज आवश्यकता है । इसके बाद जयन्ति आयोजनों पर छिटपुट लेख आते रहे अन्यथा खामोशी छाई रही । जबकि अभी गुलेरीजी पर कई दृष्टियों से शोध होने बाकी हैं । इनकी जन्मशती पर साहित्य जगत में कुछ आने की उम्मीद थी, जो पूरी नहीं हो पाई । गुलेरी जी पर जो खोज, जो अन्वेषण होना चाहिए था, वह नहीं हुआ ।
वास्तव में हिन्दी कथा साहित्य में स्त्री पुरूष सम्बन्ध, प्रेम, कर्त्तव्य व बलिदान का जो रूप प्रारम्भ से चलता आया है, वही गुलेरी की कहानियों में एक अलग ढंग से अभिव्यक्त हुआ है । जैनेन्द्र कुमार जैन ने स्त्री पुरूष प्रेम का चित्रण उस युग के अनुसार अपेक्षाकृत बोल्ड हो कर किया । प्रेमचंद का अनमेल विवाह जैनेन्द्र तक पहुंचते पहुंचते मनोवैज्ञानिक हो गया । जैनेन्द्र के महिला पात्रों में एक द्वंद और अविरोध दिखाई देता है । जो दाम्पत्य जीवन प्रेमचंद के समय में था, वह जैनेन्द्र के समय तिकोने प्रेम के रूप में सामने आया जो कई जगह बहुत संशलिष्ट और उलझावपूर्ण हो गया है । ऐसे ही प्रेम के अश्लीलता को छूते कुछ प्रसंग गुलेरीजी के बाद यशपाल में भी मिलते हैं हालांकि 'उसने कहा था' के शलील होते हुए लोकगीत अंश अश्लील मान निकाले गए । गुलेरी जी की तीनों कहानियां भी प्रेम, कर्त्तव्य और बलिदान को ले कर हैं । इस का क्रमिक विकास भी तीनों कहानियों में देखने को मिलता है । समय और स्पेस, दोनों ही दृष्टियों में कहानियों में विकास होता गया । यदि 'सुखमय जीवन' में ये तंतु अपरिपक्कव हैं तो 'बुद्धू का कांटा' में प्रेम की धारा गुप्त रूप से बहती है । तीसरी कहानी 'उसने कहा था' में कथाकार और मुखर हुआ है । पहली कहानी में केवल प्रथम दृष्टि परिणय आता है । दूसरी में कुछ कुछ साहचर्य और तीसरी में साहचर्यजनित अव्यक्त रूप के साथ एक विशाल वातावरण का निर्माण हुआ है जो कहानी के फलक को बहुत विस्तृत कर देता है । तीनों ही कहानियों में प्रेम प्रसंग का जो साफ सुथरा रूप सामने आया है, वह केवल व्यक्ति से ही न जुड कर पूरे समाज के साथ जुडा है, समाज की समस्याओं के साथ जुडा है ।
यहां यह भी उल्लेखनीय है कि सर्वप्रथम गुलेरीजी की एक ही कहानी ''उसने कहा था'' सामने आई, शेष दो कहानियों का पता बाद में चला । डा० ए नगेन्द्र ने लिखा है : ''अभी एक आध वर्ष पहले तक सबका यही ख्याल था कि गुलेरीजी केवल एक ही कहानी 'उसने कहा था' लिख कर अमर हो गए । विद्वानों ने इस बात को पूरे विश्वास के साथ लिखित रूप में भी स्वीकार कर लिया था । परंतु कुछ दिन हुए गुलेरी जी की दो और कहानियां सामने आईं ।'' सम्भवत: यह इसलिए भी हुआ होगा कि गुलेरीजी संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डित होने के साथ साथ एक सफल निबन्धकार, संपादक, समीक्षक, भाषाविद्, संस्मरण लेखक, कला समीक्षक और कवि भी थे । किसी ने यह सोचा भी नहीं होगा कि संस्कृत की पृष्ठभूमि का एक व्यक्ति कहानीकार भी सकता है।
''सुखमय जीवन'' का आरम्भ प्रेमचंद की कहानियों की तरह होता है । जैसे फिल्मी गायन में पहले सब के०एल० सहगल की तरह गाते रहे । मुकेश के प्रारम्मिक गानों को सुन कर लगता है, के० एल० सहगल गा रहे हैं । मुहम्मद रफी ने भी आरम्भ में उसी अंदाज में गाया । इसी तरह ' 'सुखमय जीवन' ' का आरम्भ प्रेमचंद की "बडे माई साहब" की तरह हुआ है । परीक्षा के पहले और बाद के दिनों का जिक्र कहानी के दो पहरों में किया गया है । वास्तविक कहानी तीसरे पहरे से आरम्भ होती है जब नायक हरे हरे खेतों के किनारे पहुंचता है । बाईसिकल के पंचर होने पर उसकी भेंट सुंदर आखों वाली कन्या से होती है जिसके बंगले के साथ बागीचे में मोतिए और रजनीगंधा की क्यारियां हैं । यह प्रथमदृष्टया प्रेम की कहानी है जिस में दूसरी ओर सुखमय जीवन के लेखक के भुक्तभोगी हो कर पुस्तक लिखने की बात कह गई है जो यथार्थपरक या भोगे हुए यथार्थ पर लेखनी न चला कर कल्पना से लिखने पर चोट की गई है । कहानी मूलत: नायिका को प्रथम दृष्टि में देखने पर ही मुग्ध हो जाने की है...... .पारसी चाल की एक गुलाबी साडी के नीचे चिकने काले बालों से घिरा हुआ मुखमण्डल और ऐसी आखें जो कलेजे को घोल कर पी गई । अंतत: कन्या से प्रणय निवेदन के बाद उसके चाचा से कन्या के लिए याचना ।
"बुद्धू का कांटा" कहानी का एक भाग इलाही का है जिसमें उसकी हज यात्रा का वर्णन है । इस में हिन्दू मुस्लिम एकता का पाठ भी है । इलाही को यात्रा पर जाने के लिए एक हिन्दू भाई टिकट देता है । जैसे पहली कहानी तीसरे पैरे से आरम्भ होती है वैसी ही यह कहानी तीसरे अनुच्छेद से आरम्भ होती है जहां गांव की महिलाएं कूएं पर पानी मरने के लिए नायक के समक्ष कई दशाओं में प्रस्तुत हैं । यहां आ कर इलाही बेकग्राउंड में चला जाता है और नाना बन कर चिलम पीता है । कूएं पर ही काले डेलों वाली, चौतरंग हँसी लिए ह्रष्ट पुष्ट चौदह पन्द्रह वर्ष की लडकी बोल ठोल होती है और वह इतना तक कह देती है कि... . वाह जी वाह, ऐसे बुद्धू, के आगे भी कोई लहंगा पसरेगी क्या! इस दूसरी कहानी में नायक रघुनाथ है जो अपनी माता को छोड़ और स्त्रियों के होने या न होने से अनभिज्ञ है । इस कहानी में प्रेम प्रथम दृष्टि में न हो कर कुछ टकराव के बाद होता है हालांकि वह कई बार सोचता है कि उधर नहीं देखेगा किंतु बार बार उधर ही देखता है । इस कहानी में भी आगामी कहानी की भान्ति नायिका भागवंती मामी के पास आई होती है । कथा नायक रघुनाथ माता को छोडकर अन्य स्त्रियों के होने या न होने से अनभिज्ञ है । अंतत: संयोगवश उसी कन्या से विवाह भी हो जाता है ।
तीसरी कहानी 'उसने कहा था', जिसने समूचे कथा जगत को चमकृत कर दिया, विस्तृत समय, स्पेस और फलक की कहानी है । हिन्दी कहानी के उस शैशवकाल में एकदम ऐसी परिपक्व कहानी का आ जाना वास्तव में एक चमत्कारी घटना थी । गुलेरीजी के कथाकार होने का प्रमाण एक यही कहानी है । सबसे पहले तो कहानी का शीर्षक ही अपने में बेमिसाल है जो कहानी के पूरे कथ्य और उसके सारतत्व का वहन करता है । उस युग में ऐसा शीर्षक देना एक नया प्रयोग ही कहा जाएगा । संस्कृत की पृष्ठभूमि के व्यक्ति द्वारा सहज सरल और आम बोलचाल की भाषा के संवाद प्रस्तुत करना, एक वातावरण तैयार करना और उसे सहज ही परिणति तक ले जाना आश्चर्यजनक है । पिछली दो कहानियों में जहां गुलेरीजी स्थान और परिवेश के प्रति कदाचित् उपेक्षित रहे, इस कहानी में एकाएक बहुत ही सजग और सचेत हो गए । पहली कहानी में जहां मैदान में भी 'केले के झाड़ों' के साथ 'देवदार के पत्तों की सौंधी बास' का जिक्र कर बैठे, वहां इस कहानी में अमृतसर की गलियों से ले कर बुलेल की खड्ड और गन के आम का जिक्र सायास और सतर्कता से किया गया है ।
कहानी का आरम्भ अमृतसर की गलियों में इक्के वालों की मरहम लगाने वाली मीठी बोली से होता है । रास्ते से न हटने वाली बुढिया को 'हट जा, जीणे जोगिए, हट जा करमा वालिए, हट जा पुतरां प्यारिए' जैसे बोल या 'हटो भाईजी, हटो बाछा' जैसे आग्रह अमृतसर की गलियों को सजीव कर देते हैं । ऐसे में ढीले सुथने और बालों वाले लड़के और आठ वर्ष की लड़की का मिलन, उनके संवाद एक और ही जीवन्त दृश्य सामने लाते हैं । 'बुद्धू का कांटा' की तरह यहां भी लड़की अपने मामा के घर आई है । दूसरे तीसरे दिन मिल जाने पर लड़का पूछता है : 'तेरी कुडमाई हो गई!' 'धत्' उत्तर के बाद जब अंत में लड़की रेशम का कढा हुआ सालू दिखाते हुए कहती, 'हां, हो गई ' तो लड़का जिस विचलित अवस्था में घर पहुंचता है, वह देखने योग्य है ।
पिछली दो कहानियों के प्रारम्भिक निरर्थक अनुच्छेदों के विपरित इस कहानी का यह प्रथम परिच्छेद पूरी कथा का आधार है । आरम्भ से अंत तक कथा जुड़ी रहती है और कोई भी परिच्छेद निरर्थक नहीं लगता बल्कि एक दूसरे का पूरक है । वर्षों बाद इनका मिलन और प्रेम के लिए बलिदान कथा को हृदयग्राही कर एक गहन इंटेंसिटी पैदा करता है । इसके बाद युद्ध का सटीक वर्णन, हड्डियों में जाड़ा धंसती खंदकों में जरमनों का इंतजार, नकली लपटन साब को पकड़ने के लिए जगाधरी में नीलगाय का शिकार, अब्दुला द्वारा मन्दिर में जल चढ़ाना, सिखों का सिगरेट पीना आदि के किस्से कथा को प्रभावपूर्ण ढंग से आगे बढ़ाते हैं । फ्लेश बैक के प्रयोग से कथा आगे बढ़ती है, पीछे हटती है, फिर आगे बढ़ती है । बचपन के पच्चीस बरस बाद सूबेदारी और लहनासिंह के बीच प्रेम और उत्सर्ग की भावना, बुलेल की खड्ड के किनारे, अपने हाथ के लगाए आम की छाया में मरने की इच्छा, भतीजे की उम्र के आम में हाड़ में फल आना आदि कुछ ऐसे मर्मस्पर्शी प्रसंग है जो कहानी को ऊंचाईयों की ओर ले जाते हैं ।
इस कहानी में गुलेरीजी के मूल स्थान कांगड़ा का परिवेश न सही कांगड़ा के संवाद खुल कर सामने आते हैं । हालांकि अमृतसर की गलियों, सिख पलटन के होने से पंजाब के गांव का चित्रण अधिक नजर आता है । नायक नायिका के घर मगरे और मांझे में बताए गए हैं।
पहली दो कहानियों में जहां मलाई बरफ और लंहगा, डेले जैसे एक दो शब्द ही आ पाए, परंतु इस कहानी में कांगड़ा बार बार याद आया है । नगरकोट का जलजला, खड्ड, आम के पेड का परिवेश, कुड़माई, लाड़ी, साफा, बेहड़ा, दियासलाई, मंजा, हाड़, ओबरी जैसे शब्द, कद्दू बणया वे मजेदार गोरिए जैसे लुच्चों के गीत कांगडा जनपद की याद दिलाते है ।
गुलेरीजी ने अपनी कहानियों में बहुत स्थानों पर सूक्त वाक्यों का भी प्रयोग किया है । 'वेश्या अपनी उम्र कम दिखाना चाहती है और साधु अपनी अवस्थ अधिक दिखाना चाहता है', 'स्त्री के सामने उसके नैहर की बड़ाई और लेखक के सामने उसके ग्रन्थ की', 'बिना फेरेघोड़ा बिगड़ता है और बिन लड़े सिपाही', 'बहस करके स्त्रियों को आज तक कोई नहीं जीता', 'कवियों को सोचने का समय पाखाने में मिलता है और युवाओं को स्वयं हजामत करने में', 'गांव की लड़कियां हड्डियों और गहनों का बंडल नहीं होतीं', 'कचहरियां गरीबों के लिए नहीं हैं, बाछा, वे तो सेटों के लिए हैं', 'मृत्यु से पहले स्मृति बहुत साफ हो जाती है' आदि ।
आलोचकों ने समय समय पर ये प्रश्न उठाए हैं कि हो न हो गुलेरी जी ने इन तीन कहानियों के अलावा भी कहानी लिखने के कुछ और प्रयास किए हों । डॉ नगेन्द्र ने लिखा है : "संभव है, उन्होंने कुछ और भी प्रयत्न किए हों जो आज उपलब्ध नहीं ।'' किंतु गुलेरीजी के निबन्धों को ही कहानियां कह देना भी उचित नहीं है जैसाकि कुछ समीक्षकों ने सायास किया है ।
सम्भवत इसी खोज के परिणामस्वरूप एक कहानी, या यूं कहें, कहानी का एक भाग "हीरे का हीरा" सामने आई है, जो 'उसने कहा था' कहानी का ही अगला अंश है । इस कहानी में लहनासिंह की वापसी दिखाई है । कहानी के इस अंश का उल्लेख स्व. मनोहर लाल ने किया है । इस कथा अंश को डॉ छोटाराम कुम्हार ने ढूंढा । डॉ मनोहर लाल ने 'उसने कहा था और अन्य कहानियां' में उल्लेख किया है कि डॉ छोटाराम कुम्हार ने अप्रैल 1981 के पत्र विशेषांक में दो पत्रों के साथ 'हीरे का हीरा' कहानी भी भेजी थी जो नहीं छपी । हालांकि इस अंश के गुलेरी द्वारा लिखे जाने पर सवाल भी खडे़ किए गए हैं । डॉ विद्याधर गुलेरी ने इस खण्डित कथा अंश पर सवाल तो उठाए हैं किंतु पूरी प्रति न मिल पाने के कारण इस के स्वतन्त्र कथा पर भी प्रश्नचिह्न लगाए हैं । तथापि यहां इसकी चर्चा करना तर्कसंगत रहेगा । यही स्थिति एक अन्य अनुपलब्ध कथा 'पनघट' की हैं जो 'बुद्धू का कांटा' का ही अंश हो सकती है । इसी तरह एक अन्य कहानी का मात्र नाम ही सामने आता है । गुलेरीजी के सुपुत्र शांतिधर ने दिसम्बर 1945 में इनके अग्रज योगेश्वर गुलेरी को लिखे एक पत्र में 'दही की हंडिया' कथा का जिक किया है किंतु यह कथा उपलब्ध नहीं है ।
"हीरे का हीरा" के बारे में यहां कुछ बातें कहनी आवश्यक हैं । इस कथा अंश का प्रकाशन डॉ० मनोहर लाल ने "उसने कहा था तथा अन्य कहानियां" में किया । 6 सितम्बर 1987 को स्व. मनोहर लाल ने ही इसका प्रकाशन 6 सितम्बर 1987 को जनसत्ता में कराया । इस कहानी को पूरा करने का साहस (या दुःसाहस) डॉ सुशीनकुमार फुल्ल ने किया और ये पूरी कहानी दैनिक ट्रिब्यून के 1 अप्रैल 1990 अंक में छपी । इसी कहानी का डॉ फुल्ल द्वारा किया गया दूसरा रूपांतर हिमप्रस्थ में प्रकाशित हुआ । यहां केवल कथा के उपलब्ध अंश की बात की जाएगी । इस अंश में कांगडा के सांस्कृतिक परिवेश का जितना सजीव वर्णन हुआ है, वह चौंकाने वाला है । मूल कहानी में पंजाब का वर्णन, पंजाब के ही लहजे में अधिक है । यहां लहनासिंह की कांगडा में अपने परिवार के बीच वापसी दिखाई गई है । 'उसने कहा कथा' अमृतसर की गलियों से प्रारम्भ हो कर युद्ध के वातारवण में समाप्त होती है । कहानी के पांचवें अनुच्छेद में 'मृत्यु के कुछ समय पहले स्मृति के बहुत साफ होने' का उल्लेख है । लहनासिंह की मृत्यु नहीं दिखाई गई । यद्यपि कहानी के अंत में कुछ दिनों बाद एक समाचार का हवाला है जिसमें फांस और बेलजियम युद्ध के मैदान में घावों से सिख राइफल के जमादार लहनासिंह के मरने की ' 'खबर' ' भर है ।
"हीरे का हीरा" में लहनासिंह अपने परिवार में लौटता है जो आश्चर्यजनक तो है ही पाठकों के लिए एक अप्रत्याशित घटना है । आंगन में आते ही लहनासिंह मां से उस चिट्ठी का जिक्र करता है जो उसने अम्बाला छावनी से लिखवाई थी । मां इस बात का उत्तर न देकर झटपट दिया जलाती है । लहनासिंह की वापसी की चमत्कारी घटना वास्तव में एक विचित्र संसार का निर्माण करती है जिसमें कांगडा के ठेठ गंवई जनजीवन के संस्कारों का चित्रण है । बाहर खेतों के पास लकड़ी की धमाधम, जैसे कोई लंगड़ा आदमी चला आ रहा है । आंगन को गोबर से लीपना, चावल के आटे से लकीरें बनाना, अक्षत, बिल्लवपत्र चढाना, दूब की नौ डालियों से कुलदेवी उकेरना, सात वर्ष के बालक हीरे का एकमात्र कुरता खार से धोना, सुखदेई का कलश ले कर दाहिनी द्वारसाख पर खड़े होना, लहनासिंह का भीतर प्रवेश पर देहरे के सामने सिर नवाना आदि संस्कारों का सजीव वर्णन है । तीन वर्ष से पति वियोग और दारिद्रय को ढोती सास बहु को 'दो जांघों वाले लहनासिंह की आदर्श मर्ति' देखने की लालसा में पीपल के नीचे नाग को पंच पकवान चढ़ाने की इच्छा का चित्रण अत्यन्त मार्मिक है । मां देखती है..... .और जिन टांगों ने बालकपन में माता की रजाई को पचास पचास दफा उघाड़ दिया था उनमें से एक की जगह चमड़े के तसमों से बंधा हुआ डंडा था । माता रूंधे गले से कुछ नहीं कह पाती और कुछ सोच समझ कर बाहर चली जाती है । उधर गुलाबदेई के सारे अंग में बिजली की धाराएं दौड़ जाती हैं । कहानी का अंत बहुत मार्मिक है जिससे लगता है कहानी अधूरी नहीं, पूर्णता से भी एक कदम आगे है ।
यह कथा अंश लहनासिंह और सूबेदारी के उस भावनात्मक और काल्पनिक प्रेम से हट कर यथार्थ की कंटीली जमीन से जुड़ा हुआ है जिस में उसकी मां और पत्नी कंगाली के जंगल में जीती हुईं इंतजार में लगातर दरवाजे की ओर देख रहीं हैं । इस तरह का सजीव और सटीक वर्णन उस क्षेत्र का वासी ही कर सकता है, कोई बाहरी व्यक्ति नहीं । यदि इस अंश को लिखने वाला कोई है तो वह गुलेरी से कमतर नहीं । मात्र तीन कहानियां लिख कर कथा जगत में एक जगह बना कर हिन्दी कहानी को एक दिशा देने का मादा उनमें था । गुलेरीजी ने मुकुटधर पाण्डेय को लिखे अपने एक पत्र में इस बात का उल्लेख किया है । उन्होंने लिखा था: ''दो चार कविता या लेख लिख कर भी आदमी अमर हो सकता है जबकि बहुत लिखने के बाद भी, सौ पचास वर्षों बाद किसी का नाम लोगों को याद नहीं रहता ।''
गुलेरीजी ने मात्र तीन कहानियां लिखीं । इन तीन में भी पहले केवल एक ''उसने कहा था'' ही सामने आई । इस एक कहानी को ही अंतर्राष्ट्रीय ख्याति मिली और इसे आज सौ वर्षों के बाद भी एक चमत्कारी और आधुनिक कहानी माना जाता है जिसने हिन्दी कहानी को एक नई दिशा प्रदान की । साहित्य जगत में ऐसा उदाहरण और कहीं नहीं मिलता ।
-सुदर्शन वशिष्ठ
मोबाइल: 94180-85595 ''अभिनंदन'' कृष्णनिवास लोअर पंथा घाटी शिमला-171009
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'पंडित चंद्रधर शर्मा गुलेरी' आवरण छायाचित्र: सुदर्शन वशिष्ठ |