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जलियाँवाला बाग में बसंत
यहाँ कोकिला नहीं, काग हैं, शोर मचाते,
काले काले कीट, भ्रमर का भ्रम उपजाते।
कलियाँ भी अधखिली, मिली हैं कंटक-कुल से,
वे पौधे, व पुष्प शुष्क हैं अथवा झुलसे।
परिमल-हीन पराग दाग़ सा बना पड़ा है,
हा! यह प्यारा बाग़ खून से सना पड़ा है।
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खिलौनेवाला
वह देखो माँ आज
खिलौनेवाला फिर से आया है।
कई तरह के सुंदर-सुंदर
नए खिलौने लाया है।
हरा-हरा तोता पिंजड़े में
गेंद एक पैसे वाली
छोटी सी मोटर गाड़ी है
सर-सर-सर चलने वाली।
सीटी भी है कई तरह की
कई तरह के सुंदर खेल
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सुभद्रा कुमारी चौहान की कहानियाँ
'खूब लड़ी मरदानी वह तो झांसी वाली रानी थी' जैसी अमर कविता की रचयिता सुभद्रा कुमारी चौहान जितनी बड़ी कवयित्री थीं, उतनी ही बड़ी कथाकार भी थीं।
कविताओं की भांति उनकी कहानियाँ भी हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि हैं और पाठकों की संवेदना पर नावक के तीर का-सा असर छोड़ती हैं। सुभद्रा जी की कहानियाँ एक ओर जहाँ रूढ़ियों पर प्रहार करती हैं, वहीं ऊपरी दिखावे का भी विरोध करती हैं। उनकी कहानियां पठनीय और संग्रहणीय हैं।
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राखी | कविता
भैया कृष्ण ! भेजती हूँ मैं
राखी अपनी, यह लो आज ।
कई बार जिसको भेजा है
सजा-सजाकर नूतन साज ।।
लो आओ, भुजदण्ड उठाओ
इस राखी में बँध जाओ ।
भरत - भूमि की रजभूमि को
एक बार फिर दिखलाओ ।।
वीर चरित्र राजपूतों का
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राखी की चुनौती | सुभद्रा कुमारी चौहान
बहिन आज फूली समाती न मन में ।
तड़ित आज फूली समाती न घन में ।।
घटा है न झूली समाती गगन में ।
लता आज फूली समाती न बन में ।।
कही राखियाँ है, चमक है कहीं पर,
कही बूँद है, पुष्प प्यारे खिले हैं ।
ये आयी है राखी, सुहाई है पूनो,
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मातृ-मन्दिर में
वीणा बज-सी उठी, खुल गये नेत्र
और कुछ आया ध्यान।
मुड़ने की थी देर, दिख पड़ा
उत्सव का प्यारा सामान॥
जिनको तुतला-तुतला करके
शुरू किया था पहली बार।
जिस प्यारी भाषा में हमको
प्राप्त हुआ है माँ का प्यार॥
उस हिन्दू जन की गरीबिनी
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झाँसी की रानी
सिंहासन हिल उठे, राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में भी आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी,
चमक उठी सन सत्तावन में
वह तलवार पुरानी थी।
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मुरझाया फूल | कविता
यह मुरझाया हुआ फूल है,
इसका हृदय दुखाना मत ।
स्वयं बिखरने वाली इसकी,
पंखुड़ियाँ बिखराना मत ॥
जीवन की अन्तिम घड़ियों में,
देखो, इसे रुलाना मत ॥
अगर हो सके तो ठण्डी -
बूँदें टपका देना, प्यारे ।
जल न जाए संतप्त हृदय,
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ठुकरा दो या प्यार करो | सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता
देव! तुम्हारे कई उपासक
कई ढंग से आते हैं ।
सेवा में बहुमूल्य भेंट वे
कई रंग की लाते हैं ॥
धूमधाम से साजबाज से
मंदिर में वे आते हैं ।
मुक्तामणि बहुमूल्य वस्तुएँ
लाकर तुम्हें चढ़ाते हैं ॥
मैं ही हूँ गरीबिनी ऐसी
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कोयल
देखो कोयल काली है, पर मीठी है इसकी बोली!
इसने ही तो कूक-कूक कर आमों में मिसरी घोली॥
यही आम जो अभी लगे थे, खट्टे-खट्टे, हरे-हरे।
कोयल कूकेगी तब होंगे, पीले और रस भरे-भरे॥
हमें देखकर टपक पड़ेंगे, हम खुश होकर खाएंगे।
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